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________________ ४४२ सर्वदर्शनसंग्रहे याग से भावना किसकी करें ? दर्शपूर्णमास के विधि वाक्य में भी स्वर्ग की भावना कैसे करें, यह आकांक्षा होती ही है । स्मरणीय है कि इसी आकांक्षा को प्रकरण- प्रमाण कहते हैं । 'यस्थाः पर्णमयी जुहुर्भवति न स पापं श्लोकं शृणोति' इस वाक्य में पर्णता और जुहू ( अर्धचन्द्राकार एक पात्रविशेष ) का एक साथ उच्चारण हुआ है, अतः इसी से जुहू (प्रधान) का अङ्ग पर्ण ( पलाश ) है, यह मालूम होता है । जुहू के द्वारा जिस अपूर्व ( कर्मफल, पुण्य ) की भावना अर्थात् उत्पादन करते हैं, उसके लिए पर्ण की अनिवार्य आवश्यकता है । बिना पर्ण के अपूर्व की सिद्धि नहीं होती । ( ४ ) प्रकरण - जहाँ पर उपकारी की ( किसकी भावना करें, इसकी ) तथा उपकारक की ( कैसे भावना करें, इसकी ) आकांक्षा हो उसे प्रकरण कहते हैं । उदाहरण ऊपर दे चुके हैं । ' समिधो यजति' । जहाँ मुख्य भावना से सम्बद्ध प्रकरण हो उसे महाप्रकरण कहते हैं, जहाँ अङ्ग को भावना से सम्बद्ध प्रकरण हो उसे अवान्तर प्रकरण कहते हैं । महाप्रकरण के कारण ही प्रयाज आदि कर्मों को दर्शपूर्णमास का अङ्ग मानते हैं । अवान्तर प्रकरण के कारण अभिक्रमण ( घूमना ) आदि प्रयाज के अङ्ग होते हैं । स्थान आदि की अपेक्षा प्रकरण बलवान होता है, यही कारण है कि 'अक्षेर्दीव्यति' 'राजन्यो जिनाति' इत्यादि वाक्यों में, जहाँ क्रीड़ा, विजय आदि का उल्लेख है, सन्देह होता है कि यह राजसूय का अंग है कि सोमयाग का ? समान देश में पाठ होने से तो इसे ( स्थान - प्रमाण से ) सोमयाग का अंश समझना चाहिए किन्तु राजसूय में उपकारक ही आकांक्षा होने के कारण देवन ( दीव्यति ) आदि का विधान है, अतः प्रकरण - प्रमाण से वह राजसूय का ही अंग हो जायगा । (५) स्थान - एक हो देश स्थान को क्रम भी कहते हैं । 'ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेद' ( तै० सं० २।२।११), 'वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत्' ( तै० सं० २।२१५ ) इस क्रम से इष्टियों का विधान किया गया है। अतः 'इन्द्राग्नी रोचना दिवः' ( तै० सं० ४।२।११ ) इत्यादि जो याज्यानुवाक्य ( 'यज' विधि के बाद ब्रह्मा के द्वारा उच्चरित ) मन्त्रों का विनियोग क्रम से होगा - पहले मन्त्र का पहले, दूसरे मन्त्र का बाद में आदि । इस प्रकार पाठ के विशेष क्रम के कारण दोनों की अकांक्षा ( प्रकरण ) का अनुमान होता है । प्रकरण के द्वारा वाक्य का, वाक्य से लिंग का और श्रुति का श्रुति के द्वारा विनियोग का अनुमान होता । ( ६ ) समाख्या - यौगिक शब्दों को समाख्या कहते हैं । जैसे-होत्रम्, ओद्गात्रम् । होतृ के द्वारा किये जानेवाले कर्मों को होत्र कहते हैं अतः 'होत्र' नाम से जिसका विधान हो उसे होतृ के द्वारा किये जाने योग्य कर्म समझें । । इस प्रकार विनियोग विधि के लिए ये छह प्रमाण होते हैं जो विधान होता है उससे अधिक प्रबल पाठ का क्रम होता है, : यौगिक शब्दों के अर्थ से क्योंकि उससे शीघ्र ही
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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