Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 40 ] [ प्रज्ञापनासूत्र ___ इनके अतिरिक्त जो अन्य भी तथाप्रकार के (वैसे) (पद्मराग आदि मणिभेद हैं, वे भी खर बादरपृथ्वीकायिक समझने चाहिए / ) 25. [1] ते समासतो दुविहा पन्नता / तं जहा---पज्जत्तमा य अपज्जत्तगाय। [25-1] वे (पूर्वोक्त सामान्य बादरपृथ्वीकायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / [2] तस्थ णं जे ते अपज्जतगा ते णं असंपत्ता। [25-2] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे (स्वयोग्य पर्याप्तियों को) असम्प्राप्त होते हैं / [3] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसि णं वग्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सगासो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिप्पमुहसतसहस्साई। पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा बक्कमति-जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा। से तं खरबादरपुढविकाइया। से तं बादरपुढविकाइया। से तं पुढविकाइया। [25-3] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, इनके वर्णादेश (वर्ण की अपेक्षा) से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों (सहस्रशः) भेद (विधान) हैं / (उनके) संख्यात लाख योनिप्रमुख (योनिद्वार) हैं। पर्याप्तकों के निश्राय (आश्रय) में, अपर्याप्तक (पाकर) उत्पन्न होते हैं / जहाँ एक (पर्याप्तक) होता है, वहाँ (उसके पाश्रय से) नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते हैं।):यह हुआ वह (पूर्वोक्त) खर बादरपृथ्वीकायिकों का निरूपण / (उसके साथ ही) बादरपृथ्वीकायिकों का वर्णन पूर्ण हुआ। (इसके पूर्ण होते हो) पृथ्वीकायिकों की प्ररूपणा समाप्त हुई। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों को प्रज्ञापना-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 20 से 25 तक) में पृथ्वीकायिक जीवों के मुख्य दो भेदों तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक की व्याख्या-जिन जीवों को सूक्ष्मनामकर्म का उदय हो, वे सूक्ष्म कहलाते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिक जीव सूक्ष्मपृथ्वोकायिक हैं / जिनको बादरनामकर्म का उदय हो, उन्हें बादर कहते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिक बादरपृथ्वीकायिक कहलाते हैं 1 बेर और आंवले में जैसी सापेक्ष सूक्ष्मता और बादरता है, वैसी सूक्ष्मता और बादरता यहाँ नहीं समझनी चाहिए / यहाँ तो (नाम-) कर्मोदय के निमित्त से ही सूक्ष्म और बादर समझना चाहिए। मूल में 'च' शब्द सूक्ष्म और बादर के अनेक अवान्तरभेदों, जैसे--पर्याप्त और अपर्याप्त आदि भेदों तथा शर्करा, बालुका आदि उपभेदों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है। 'सूक्ष्म सर्वलोक में हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की इस उक्ति के अनुसार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समग्र लोक में ऐसे ठसाठस भरे हुए हैं, जैसे किसी पेटी में सुगन्धित पदार्थ डाल देने पर उसकी महक उसमें सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। बादरपृथ्वीकायिक नियत-नियत स्थानों पर लोकाकाश में होते हैं। यह द्वितीयपद में बताया जाएगा।' 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय० वृत्ति, पत्रांक 24-25 (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३६-~'सुहुमा सव्वलोमंमि / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org