Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनासूचे स्यात् नो क्रियते, प्राणातिपातपिरतस्य खलु भदन्त ! जीवस्य अप्रत्याख्यानप्रत्यया क्रिया क्रियते ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, मिथ्यादर्शनप्रत्ययायाः पृच्छा, गौतम ! नायमर्थः समर्थः, एवम् प्राणातिपातपिरतस्य मनुष्यस्यापि, एवं यावद् मायामृषाविरतस्य जीवस्य मनुष्यस्य च, मिथ्यादर्शनशल्यविरतस्य खलु भदन्त ! जीवस्य किम्आरम्भिकी क्रिया क्रियते, यावद्मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया क्रियते ? गौतम ! मिथ्यादर्शनशल्यविरतस्य जीवस्य आरम्भिकी क्रिया स्यात् क्रियते, स्यान्नो क्रियते,एवं यावद् अप्रत्याख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया न क्रियते, मिथ्यादर्शनशल्यविरतस्य
(पाणाइवायविरयस्स णं भंते! जीवस्स अपचक्खाणवत्तिया किरिया कज्जइ) प्राणातिपात से विरत जीवको अप्रत्याख्यान क्रिया होती है ? (गोयमा! णो इणटे समडे) हे गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं।
(मिच्छादसणवत्तियाए पुच्छा)मिथ्यादर्शनप्रत्यया संबंधी पृच्छा?(गोयमा ! णो इणढे सम?) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । (एवं पाणाइवायविरयम्स मणसस्स वि) इसी प्रकार प्राणातिपात से विरत मनुष्य को भी (एवं जाव माया मोसविरयस्स जीवस्स मासस्स य) इसी प्रकार यावत् मायामृषा से विरत जीव और मनुष्यको ।
(मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते! जीवस्स) हे भगवन्! मिथ्यादर्शन शल्यसे विरत जीव को (किं आरंभिया किरिया कन्जइ ?) क्या आरंभिकी क्रिया होती हैं ? (जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ ?) यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है ?
(गोयमा! मिच्छादसणसल्ल विस्यस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कन्जइ, सिय नो वज्जइ) हे गौतम! मिथ्यादानशल्य से विरत जीव को आरंभिकी क्रिया कदाचित् होती है,कदाचित् नहीं होती (एवं जाव अपच्चक्खाणकिरिया) इसी प्रकार अप्रत्या
(पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपच्चक्खाणवत्तिया फिरिया कज्जइ) प्रातिपातथी विरत ने मप्रत्याभ्यान लिया थाय ? (गोयमा ! णो इणट्टे समझे) हे गौतम, मा म સમર્થ નથી
(मिच्छादसणवतियाए युच्छा ) भियानप्रत्यया समधी २७ (गोयमा ! णो इणहे समहे) गौतम ! मा अर्थ समय नथी ( एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्स वि) से प्रहार प्रातिपातथीविरत मनुष्यने ५५ (पवंजाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य ) से प्रारे થાવત માયા મૃષાથી વિરત જીવને પણ સમજવી અને મનુષ્યને પણ સમજવી.
(मिच्छादसणसल्लविरयस्स ण भंते ! जीवस्स ) ई समपन्! मिथ्याशन शस्यथा पिरत सपने (किं आभिया किरिया कज्जइ ?) शुमार
लिया थाय छ ? (जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ ?) यावत् भियाशनप्रत्यया या थाय छ ?
(गोयमा ! मिच्छादसणसल्लविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कन्जइ, सिय नो कज्जइ ) હિ તમ મિથ્યાદશનશલ્યક્રિયાથી વિરત જીવને આરંભિકી ક્રિયા કદાચિત થાય છે, અને थित नथी यती (एवं जाव अपच्चक्खाण किरिया ) ० २ अप्रत्याभ्यान या (मिच्छा.
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫