Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1156
________________ १९४३ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३६ सू० १७ सयोगावस्थायां सिद्धयाद्यभावनिरूपणम् मणावद्धं कालं चिट्टेति त्ति-निच्छिणसन्दुक्खा जाइजरामरणवंधण - विमुक्का सासयमव्यवाहं चिति सुही सुपत्ता ||१|| || सू० १७॥ इति पण्णवाए भगवईए समुग्धायपयं छत्तीसइमं पयं समत्तं ॥ ३६ ॥ ; छाया - स खलु भदन्त ! तथा सयोगी सिध्यति यावद् अन्तं करोति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, तस्य खलु पूर्वमेव संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियपर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः अधस्ताद् गुणपरिहीनं प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, ततोऽनन्तरं द्वन्द्रियपर्याप्तस्य जघन्ययोगिशब्दार्थ - ( से णं तहा सजोगी सिज्झइ जाव अंत करेइ) यह उस प्रकार के सयोगी सिद्ध होते हैं यावत् अन्त करते हैं ? (गोधमा ! नो इणडे समहे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ( से णं) वह (पुवामेव ) पहले ही (मणिस्स) संज्ञी (पंचिदियपज्जत्तयस्स) पंचेन्द्रिय पर्याप्त (जहण्णजोगिस्स) जधन्ययोग वाले का (हेट्टा) नीचे (असंखेज्जगुणपरिहीणं) असंख्यातगुण हीन ( पढमं ) पहले (मणजोगं) मनोयोग को (निरंभ) रोकते हैं (तओ अनंतरं) उसके बाद (बेई. दियपजस्स) दीन्द्रिय पर्याप्त के ( जहण्णजोगिस्स) जघन्य योगधाले के (हेट्ठा) नीचे (असंखिज्जगुणपरिहीणं) असंख्यात गुण हीन (दोच्चं) दूसरे (वहजोग) वचनयोग का (निरंभइ) निरोध करता है (तओ अनंतरं) तदनन्तर (च णं) और (सुहुमस्त पणगजीवस्स) सूक्ष्म पनक जीव के ( अपजत्तपस्स) अपर्याप्त के ( जण जोगिस्स) जघन्ध योग वाले के (हेट्ठा) नीचे (असंखेज्जगुणपरिहीणं) असंख्यातगुण हीन ( तच्चं कायजोगं निरंभइ) तीसरे काययोग का निरोध करते हैं ( से जं) वह केवली (एएण उवारणं) इस उपाय से ( पढमं मणजोरां शब्दार्थ :- (सेण तहा सजोगी सिज्झइ जाव अंत करेइ) ते ते प्रहार सयोगी सिद्ध होय छे यावत् छे ? (गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे) हे गौतम! या अर्थ સમર્થ નથી. ( से ण) ते (पुव्यामेव ) पहेली ४ (सणिस्स) संज्ञी (पंचिदियपज्जत्तयरस ) पंचेन्द्रिय पर्यात ( जहण्ण जोगिस् ) ० धन्य योगवाणानां (हेट्ठा (असंखेज्जइगुणपरिहीण ) असंख्यात गुहीन (पदम) व (मणजोग) मनोयोगले (निरुभइ) रोडे छे. (तओ अनंतर ) ते पछी (बे इंदियपज्जत्तयस्स) द्विन्द्रीय पर्याप्तना ( जहण्णजोगिस्स ) धन्य योगवाणान (हेट्टा ) नाथे (असंखिज्जगुणपरिहीण ) असण्यात गुणुहीन (दोच्चं ) जीन' ( वइजोग) पथनयोगना (निरुभइ) निशेष रे . ४. (तओ अनंतर) ते पछी (चणं) अने (सुहुमस्स पणगजीवस्स) सूक्ष्म पन लवना (अपज्जत्तयस्स) पर्यासना (जहण्ण जोगिस्स ) धन्य योगवाणाना (हेट्ठा) नाथ (असंखेज्ज गुणपरिहीण) असं यात गुणहीन ( तच्च कायजोगं निरुभइ) त्रीन अययोगनो निशेष ३२. (सेणं एएण उपाएण) ते ठेवली मा उपायथी (पढमं मणजोग निरंभइ) प्रथम શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫

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