Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० १ सचित्ताहारादिनिरूपणम्
५३५ यावद् रूक्षाणि, यनि स्पर्शतः कर्कशानि आहारयन्ति तानि किम् एकगुणकर्कशानि आहारयन्ति, यावद् अनन्तगुणकर्कशानि आहारयन्ति ? गौतम ! एकगुणकर्कशन्यपि आहारयन्ति यावत्-अनन्तगुणकर्कशान्यपि आहारयन्ति, एवम् अष्टावपि स्पर्शा भणितव्याः, यावत्अनन्तगुणरूक्षाण्पपि आहारयन्ति, यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि आहारयन्ति तानि कि स्पृष्टानि आहारयन्ति, अस्पृष्टानि आहारयन्ति ? गौतम ! स्पृष्टानि आहारयन्ति नो अस्पृ. ष्टानि आहारयन्ति, यथा माषोदेशके यावद् नियमात् पइदिक्षु आहारयन्ति, अयसन्न कारणं की विवक्षा से (कक्खडाई पि आहारेंति जाव लुक्खाई) कर्कश पुद्गलों का भी यावत् रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं।
(जाइं फासओ कक्खडाई आहारेति जाय अणंत गुणकक्खडाइं आहारैति) स्पर्श से जिन कर्कश पुदगलों का आहार करते हैं (ताई कि एगगुणकक्खडाई आहारेति ?) क्या एक गुण कर्कश उन पुद्गलों का आहार करते हैं ? यावत् अनन्त गुण कर्कश का आहार करते हैं ? (गोयमा! एगगुणकक्खडाई घि आहारैति) हे गौतम ! एक गुण कर्कशों का भी आहार करते हैं (जाच अणंत. गुणकक्खडाइंपि आहारेंति) यावत् अनन्तगुण कर्कशों का भी आहार करते हैं (एवं अट्ट वि फासा भाणियच्या) इसी प्रकार आठों स्पर्श कहने चाहिए (जाव अणंत गुणलक्खाइंपि आहारैति) यावत् अनन्त गुण रूक्षों का भी आहार करते हैं
(जाइं भंते । अणंतगुणलक्खाइं आहारेति) हे भगवन् ! जिन अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं (ताई किं पुट्ठाई आहारेंति, अपुट्ठाई आहारेंति ?) क्या स्पृष्ट उन पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट का आहार करते हैं ? (गोयमा ! पट्टाई आहारैति, नो अपुट्ठाई आहारेति) हे गौतम ! स्पृष्ट का आहार भ नी विपक्षाथी (कक्खडाई पि आहारे ति जाव लुक्खाइ) ५४५ पुगताना ५९५ યાવતુ રૂક્ષ પુદ્ગલેને પણ આહાર કરે છે.
__(जाई फासओ कक्खडाई आहारे ति) १५Nथा ४० पुगसोनी मा२ ४३ छे. (ताई कि एगगुणकक्खडाई आहारेति जाव अणंतगुणकक्खडाई आहारे ति) शुमे गुण ४ पुनसानी माहा२ रे छ यावत् अनन्त गुण ४४शनी माह।२ ४२ छ ? (गोयमा ! एकगुणकक्खडाई वि आहारे ति) गोतम ! मे गुए) ४ शानो ५५ माइ।२ ३२ छ (जाय अणतगुणकक्खडाई वि आहारे ति) यात मनन् गुए४४शनी ५] साहार २ छ (एवं अवि फासा भाणियव्या) से ५ मा २५० ४ नये (जाव अणंतगुणलुक्खाई वि आहारे ति) यावत् २नन्तगुए) ३क्षाने। ५९ मा २ छ.
(जाइ भंते ! अणंतगुणलुक्खाई आहारे ति,) है ससन् ! रे मनन्तशु ३६ पुगटोन। माइ२ ४२ छ (ताई किं पुट्टाई आहारेति, अपुढाई आहारेति ?) शु ष्ट ते पुगतानो माहा२ ४२ छे अ२ अस्पृष्टन मा.२ ४२ छ ? (गोयमा ! पुढाई आह रे ति
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫