Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० ८ सलेश्यादि जीवानामाहारकत्वादिनिरूपणम् वनस्पतिकायिकानां पङ्गाः, शेषाणां जीवादिकत्रिकभङ्गो येषामस्ति तेजोलेश्या, पद्मलेश्यायां शुक्लेश्यायाञ्च जीवादिकस्त्रिकमङ्गः, अलेश्या जीवा मनुष्याः सिद्धाश्र एकत्वे - नापि पृथक्त्वेनापि नो आहारका अनाहारकाः, द्वारम् ४, सम्यगृदृष्टयः खलु भदन्त ! जीवाः किम् आहारकाः, अनाहारका : ? गौतम ! स्यात् आहारकाः स्यात् अनाहारकाः, द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाचतुरिन्द्रियाः षड्रमङ्गाः सिद्धा अनाहारकाः अवशेषाणां त्रिकभङ्गः, मिध्यादृष्टिषु जीवै केन्द्रियवर्जस्त्रिकभङ्गः, सम्यग्र मिथ्यादृष्टिः खलु भदन्त ! किम् आहारक: ? भी (काउलेसा वि) कापोतलेइया वाले भी (जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो) जीव और एकेन्द्रिय को छोडकर तीन भंग (तेउलेसाए) तेजोलेश्या में (पुढची आउवणस्सइकाइयाणं) पृथ्वी कायिकों अप्रकायिकों और वनस्पतिकायिकों के (छभंगा) छह भंग (सेसाणं ) औरों के (जीवादिओ) जीव से लेकर (तियभंगो) तीन भंग (जेसिं अस्थि तेउलेसा) जिनमें तेजो लेश्या होती है (पम्हलेसाए सुक्कलेसाए य जीवादिभो तियभंगो) पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में जीव से लेकर तीन भंग (अलेसा जीवा मनुस्सा सिद्धा घ) लेश्या रहित जीव और मनुष्य तथा सिद्ध ( एगतेण वि पुहुत्तेण वि नो अहारगा) एकत्व की अपेक्षा से भी और पृथक्त्व की अपेक्षा से भी आहारक नहीं है (अणाहारगा) अनाहारक हैं
(सम्मद्दिट्ठी णं भंते ! जीवा कि आहारगा, अणाहारगा ?) हे भगवन् ! सम्यदृष्टि जीव क्या आहारक हैं या अनाहारक ? (गोयमा ! सिय आहारगा, सिय अणाहारग) हे गौतम! कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक हैं (बेई दिया) द्वीन्द्रिय (इंदिया) त्रीन्द्रिय (चउरिंदिया) चतुरिन्द्रियके (छन्भंगा) छह भंग (सिद्धा अणाहारणा) सिद्ध अनाहारक होते हैं (अबसेसाणं तियभंगो) शेषों के
(जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो) व मने मेरेन्द्रिय सिवाय त्रयु लौंग (तेउलेसाए) तेलेबेश्यामां (पुढवि आउ वणस्सइकाइयाणं) पृथ्वी अयि मयि भने वनस्पतिठायिना (छभंगा) छल (सेसाणं) मीना (जीवादिओ) अवधी वर्धने ( तिय भंगो) त्रशुल (जेसि अत्थि तेउलेसा) मनामा तेलेवेश्या हाय छे (पम्हलेसाए सुक्कलेसाए य जीवादिओ तिय भंगो) पहूभसेश्या भने शुभ्ससेश्यामां कथी सर्धने मंग (अलेस्सा जीवा मणुसा सिद्धा य ) बेश्या रहित व याने मनुष्य तथासिद्ध ( एगत्तेण वि पुहुत्तेण वि नो आहारगा) अपेक्षाथी पशु भने पृथकत्वनी अपेक्षाथी पशु आहार नथी ( अणाहारगा) अनाहार
नी
( सम्मदिट्टीणं भंते! जीवा कि आहारगा, अणाहारगा ?) - हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि ब शु आहार छे ! मनाहा २४ ? (गोयमा ! सिय आहारगा, सिय अणाहारगा) - हे गौतम! उधायित आहार भने उहायित नाहार९ छे (बेइंदिया) द्वीन्द्रिय (तेइंदिया) त्रीन्द्रिय (चउरिंदिया ) यतुरिन्द्रिय ( छन्भंगा) छमंग (सिद्धा अणाहारगा) सिद्धमनाहा २४ ( अवसे साणं तिय भंगो) मीना ना
मंग
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫