Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनासूत्रे तुभिः स्थानीयॊपगुहितैः एवं खलु जीवो ज्ञानावरणीय कर्म बनाति, एवं नैरयिकोयावद् वैमानिकः, जीवाः खलु भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म कतिभिः स्थान बनन्ति ? गौतम ! द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् , एवञ्चैव, एवं नैरयिका यावद् वैमानिकाः, एवं दर्शनावरणीयं यावद् अन्तरायम् . एवमेते एकत्वपृथक्त्वकाः षोडश दण्डकाः॥सू.३।।। ___टीका--अथ कतिभिः स्थानै कर्मप्रकृती बनातीति तृतीयं द्वरं प्ररूपयितुमाह'जीवेणं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं कइहिं ठाणेहिं बधइ ?' हे भदन्त ! जीवः खलु ज्ञानावरणीयं कर्म कतिभिः स्थान बनाति ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'दोहिं ठाणेहि' द्वाभ्यां स्थानाभ्यां जीवों ज्ञानावरणीय कर्म बधाति, तदेव स्थानद्वयठाणेहिं) इन चार स्थानों से (विरितोवग्गहिएहिं) जीव के वोर्य से उपार्जित (एवं खलु जीवे) इस प्रकार निश्चय से जीव ( णाणावरणिज्ज कम्म बंधइ ) ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है (एवं नेरइए जाव वेमाणिए) इसी प्रकार नारक यावत् वैमानिक ।
(जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्म कइहिं ठाणेहिं बंधति ?) हे भगवन् ! जीय ज्ञानावरणीय कर्म को कितने कारणों से बांधता है ?) (गोयमा! दोहिं ठाणेहिं) हेगौतम ! दो कारणों से (एवं चेब) इसी प्रकार (एवं नेरइया जाव वेमाणिया) इसी प्रकार नारक यावत् वैमानिक (एवं दसणावरणिज जाव अंतराइयं) इसी प्रकार दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय कर्म को (एवं एए एगत्त पोहत्तिया सोलस दंडगा) इस प्रकार ये एकत्व एवं बहुत्व की विवक्षा से सोलह दंडक होते हैं) ___टीकार्थ- कितने कारणों से कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इस तीसरे द्वार की प्ररूपणा की जाती है
श्री गौतमस्वामी- हे भगवन् ! जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता हैं ? __श्री भगवान्-हे गौतम! दो कारणों से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता है।
हा छ (त जहा) ते सा रे (कोहेय माणेय) ओघ अन भान (इच्चेतेहि चउहि ठाणेहि) माया२ स्थानाथी (विरतावग्गहिएहिं) अपना पायथी पाति (एव खलु जीवे) से प्रारं निश्चयथी ०५ (णाणावरणिज कम्म बंधइ) ज्ञानावरणीय भने मांधे छ (एवं नेरइए जाव वेमाणिए) मे रे ना२४ तेमन वैमानि (जीवाण भते णाणावरणिज्ज कम्म कइविहौं ठाणेहिं बधंति ?) हे भगवन् ! ०१ ज्ञानावरणीय भन । रणथी मांधे छ ? (गोयमा ! दोहि ठाणेहि) गौतम ! मे ४थी (वं चेव) मे २ (एवं नेरइया जाव वेमाणिया) मे ॥२ ना तमा वैमानि (एवंदसणावरणिज्ज जाव अंतराइय) मे रे शनाय२९वीय यावत् सन्ताय भने (एवं एए पगत्तपोहत्तिया सोलस दंडगा) से प्रारे सामधा सत्यमत्वनी विपक्षाथी सोयाय. ટીકાથ-કેટલા કારણથી કર્મ પ્રકૃતિનો બન્ધ થાય છે આત્રીજા દ્વારની પ્રરૂપણાકરાય છે.
શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન! જીવ કેટલા કારણેથી જ્ઞાનાવરણીય કર્મ બન્ધ કરે છે?
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫