Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका पद २३ सू० १२ एकेन्द्रियकर्मप्रकृतिस्थितिपरिमाणनिरूपणम् संख्येयभागोनः उत्कृष्टेन स चैव परिपूर्णः, वैक्रियशरीरनाम्नः पृच्छा, गौतम ! जघन्येन सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ पश्योपमस्यासंख्येयभागोनों, उत्कृष्टेन द्वौ परिपूर्णौ बध्नन्ति, सम्यक्त्त्रसम्यग्मिथ्यात्वाहारकशरीरनाम्नः तीर्थकर नाम्नो न किञ्चिद्बध्नन्ति, अवशिष्टं यथा द्वीन्द्रियाणाम्, नवरं यस्य यावन्तो भागास्तस्य ते सागरोपमसहस्रेण सह भणितव्याः, सर्वेषाम् आनुपूर्या यावद् अन्तरायस्य, संज्ञिनः खलु भदन्त ! जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञानावरअसंख्यातवां भाग से कम है (उक्कोसेणं तं चैव पडिपुण्णं) उत्कृष्ट वही परिपूर्ण
(वे उब्विय सरीरनामाए पुच्छा ? ) वैक्रियशरीर नामकर्म संबंधी पृच्छा ! (गोवमा ! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्त भागे) हे गौतम ! जघन्य सहस्र सागरोपम के भाग (पलिओनमस्सा संखेज्जइभागेणं ऊणे) पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम (उक्कोसेणं दो पडिपुण्णे बंधंति) उत्कृष्ट परिपूर्ण दो बांधते हैं (सम्मत्त सम्मामिच्छत आहारगसरीरनामाए) सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्या. त्वप्रकृति, आहारकशरीर नामकर्म ( तिथगरनामाए) तीर्थकर नामकर्म (ण किंचि
ति) कुछ नहीं बांधते हैं अर्थात् इनका बन्ध करते ही नहीं है । (अवसि जहा बेदियाणं) शेष दीन्द्रियों के समान (णवरं जस्म जत्तिया भागा) विशेष जिस के जितने भाग ( तस्स सा सागरोवमसहस्सेण सह भाणिधन्या) उसके वे भाग सहस्र सागरोपम के साथ कहने चाहिए (सव्वेसिं) सबका ( आणु. पुच्चिए) अनुक्रम से (जाब अंतराइयस्स) यावत् अन्तराय का |
( सण्णी णं भंते ! जीवा पंचिंदिया) हे भगवन् ! संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ( उक्कोसेणं तं चैव पsिपुण्णं) उत्कृष्४थी ते प्रभाशु परिपूर्ण समन्यु अशुभ मोछु नहि रवानु (वेत्रिय सरीरनामा पुच्छा ?) - वैडिय शरीर नाम संबंधी प्रश्न रु ४.
(गोयमा ! जहणेणं सागरोषमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिओ मस्सा संखेज्जई भागेण ऊणे ) - हे ગૌતમ, જઘન્યથી, પલ્યેાપમના અસ`ખ્યાતમા ભાગ ઓછા એવા હજાર સાગરોપમના ૐ मे सप्तमांश लाग प्रभाए छे. ( उक्कोसेणं दो पडिपुण्णे बधति) - ष्टथी परिपूर्ण मे मधे छे. (समत्त, सम्मामिच्छत्त, आहारगसरीरनामाए तित्थगरनामाए ण किंचि बंधति) - સમ્યકત્વ પ્રકૃતિ, સમ્યગ્ મિથ્યાત્વ પ્રકૃતિ, અહારકશરીરનામકમ અને તીર્થંકર નામ
ક્રમ કાઈ બંધ આંધતા નથી.
(अवसिहं जहा बइंदियाणं) - शेष द्वीन्द्रियांनी सभान सभवु (नवरं ) - विशेषभां (जस्स जतिया भागा तर सा सागरोवमसहस्सेण सह भाणियव्वा) - ना भेटलो लाग, तेना ते ભાગ હજાર સાગરાપમની સાથે કહેવા જાઈએ.
(सव्वेसि आणुपुव्विए जाव अंतराय ईयस्स) - सर्वनेो मानुपूर्वी थी यावत् अंतराय सुषीनु એ પ્રમાણે સમજવુ'
( सण्णीणं भंते! जीवा पंचिन्दिया णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स किं बंध ति) - हे लगवन्,
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫