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प्राकृत वाक्यरचना बोध
युवाचार्य महाप्रज्ञ
संपादक: मुनि श्रीचन्द्र 'कमल'
in Education international
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
युवाचार्य महाप्रज्ञ
जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट
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(डीम्ड युनिवसिटी) तुलसीग्राम, लाडनू-३४१३०६ (जि० नागौर, राजस्थान)
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सम्पादक : मुनि श्रीचन्द 'कमल'
I.S. B. No.81-7195-0256
© जैन विश्व भारती
लाडनूं [राज.]
पहला संस्करण : दिसम्बर, १९९१
मूल्य : सौ रुपये/प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं, नागौर [राजस्थान]/ मुद्रक : मित्र परिषद्, कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं-३४१३०६ । PARKRIT VAKYARACHANA BODH
Yuvacharya Mahaprajaa
Rs. 100.00
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प्रस्तुति
ज्ञान की परंपरा अथवा ज्ञान के प्रवाह का माध्यम है भाषा । यदि भाषा नहीं होती तो ज्ञान वैयक्तिक होता, वह सामुदायिक नहीं बनता। श्रुतज्ञान होता है--एक ज्ञान दूसरे में संक्रांत होता है। उसका हेतु भाषा ही है। विश्व में अनेक भाषाएं हैं । वे सब अपना दायित्व निभा रही हैं । भारतीय भाषाओं में तमिल, प्राकृत, संस्कृत-ये प्राचीन भाषाएं हैं। श्रमणपरंपरा में प्राकृत और पालि संस्कृत की अपेक्षा अधिक प्रचलित रही। वैदिकपरंपरा में संस्कृत का ही प्रयोग होता था । वैदिक संस्कृत और प्राकृत में कुछ समानताएं भी हैं। पाणिनिकालीन संस्कृत ने प्राकृत से भिन्न रूप ले लिया।
प्राकृत का साहित्य बहुत विशाल है । उसे पढने के लिए प्राकृत का अध्ययन आवश्यक है। प्राकृत का परिवार विशाल है। उसमें मागधी, पैशाची, शौरसेनी, चूलिकापिशाची, अपभ्रंश--ये सब प्राकृत से संबद्ध और विकास क्रम की रेखाएं हैं। प्रादेशिक भाषाएं और बोलियां भी प्राकृत से अनुप्राणित और प्रभावित हैं। भारतीय संस्कृति, सभ्यता, तत्त्वविद्या, दर्शन और शिल्प का अध्ययन करने के लिए प्राकृत को पढना अनिवार्य है।
___ आश्चर्य है---अनेक भाषाओं के उद्भव में हेतु बनने वाली प्राकृत भाषा का अध्ययन-अध्यापन बहुत सीमित है । संस्कृत की अपेक्षा वह अधिक उपेक्षितसी प्रतीत हो रही है । इस स्थिति में परिवर्तन लाना आवश्यक है। वर्तमान के साथ अतीत का संपर्क स्थापित करने के लिए यह और अधिक आवश्यक
प्राकृत के अनेक व्याकरण ग्रन्थ हैं। प्राचीन ग्रन्थों में आचार्य हेमचंद्र का प्राकृत व्याकरण बहुत समृद्ध है । आधुनिक ग्रन्थों में डॉ० आर. पिशल का 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' व्याकरण और भाषाविज्ञान-दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । वे प्राकृत का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी के लिए सहन सुगम नहीं बनते। इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर प्रवेशिकाओं की परंपरा का सूत्रपात हुआ। प्राकृत मार्गोपदेशिका, प्राकृत प्रवेशिका, प्राकृत प्रबोध आदि-आदि ग्रंथ लिखे गए ।
प्रस्तुत ग्रंथ उसी श्रृंखला की एक कडी है। जो उत्तरवर्ती हो, उसे अधिक विकसित होना चाहिए, इस नियम का इसमें निर्वाह हुआ है । मैंने पचास वर्ष पूर्व सन् १९४१ में हेमचंद्र के व्याकरण के आधार पर तुलसीमंजरी
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चार
नाम की प्रक्रिया लिखी थी । बहुत पहले ही चिंतन था - - उसकी सहायक सामग्री के रूप में कोई प्रवेश ग्रंथ तैयार किया जाए। अब उसकी संपूति हुई है । इसकी संपन्नता में मुनि श्रीचंद्र 'कमल' ने बहुत श्रम किया है । इसे सजाने-संवारने में उनकी धृति और मति -- दोनों का योग है ।
आचार्य श्री तुलसी के शासन काल में साहित्य की बहुमुखी प्रवृत्तियां चली हैं । फलस्वरूप संस्कृत और प्राकृत - दोनों हमारे संघ में आज भी जीवित भाषा हैं । वे बोली जाती हैं, उनमें गद्य और पद्य साहित्य रचा जाता है और विधिवत् उनका अध्ययन-अध्यापन चलता है। जैन विश्वभारती इंस्टीट्यूट 'मान्य विश्वविद्यालय' में प्राकृत का एक स्वतंत्र विभाग है । प्राकृत पढने वालों के लिए इस ग्रन्थ की उपयोगिता स्वतः सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है ।
१ दिसम्बर ६१ जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.)
युवाचार्य महाप्रज्ञ
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संपादकीय
तुलसीमंजरी युवाचार्यं श्री महाप्रज्ञ की कृति है । इसका रचना काल विक्रम संवत् १९६८ ( सन् १९४९) है । इसका प्रणयन कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य विरचित प्राकृत व्याकरण के आधर पर बृहत् प्रक्रिया के रूप में हुआ है ।
० प्राकृत वाक्यरचना बोध तुलसीमंजरी का ही विकसित रूप है । नवीन पद्धति से इसका संपादन किया गया है ।
• प्राकृत वाक्यरचना बोध में
११८ पाठ हैं ।
• इसमें प्राकृत व्याकरण के १११४ सूत्र नियम के नाम से दिए गए हैं । नियम मूलसूत्र, हिन्दी अनुवाद तथा उदाहरण सहित हैं ।
कहीं-कहीं टिप्पण देकर सूत्र के उदाहरणों को स्पष्ट किया गया है ।
• नियम के अन्तर्गत उदाहरणों की संस्कृत छाया दी है, जिससे अर्थ बोध सरलता से हो जाता है ।
० शब्द संग्रह में शब्द दिए गए हैं। सातवें पाठ से लेकर निन्नानवें पाठ तक शब्दों को वर्ग के रूप में दिया गया है। उससे आगे उन्नीस पाठों में अनुवाद हेतु आवश्यक शब्दों को अर्थ रूप में दिया गया है । • एक पाठ में एक ही वर्ग के शब्द दिए गए हैं, जिससे विद्यार्थियों को शब्दों को खोजने में सुविधा होगी । एक वर्ग में अधिक शब्द होने के कारण कहीं-कहीं उन्हें दो, तीन, चार और पांच पाठों तक भी दिए गए हैं । ५४ वर्ग के शब्द ८१ पाठों में हैं ।
o
o
० बीच-बीच में स्फुट शब्दों का संकलन है |
वर्ग के शब्दों के अतिरिक्त वाक्य बनाने में आवश्यक शब्दों को वर्ग के नीचे विभाजित कर दिया गया है ।
• कुछ शब्द प्राकृत शब्दकोश ( पाइअसदम हण्णव ) में नहीं है । अनुभव होती है, उनको संस्कृत के
व्यवहार में उनकी आवश्यकता शब्दकोश से लिया गया है।
०
• वृक्ष, फल, औषधि, शाक, धान्य, लता, सुगंधित पौधे आदि वर्ग निघंटु से लिए गए हैं ।
• जो शब्द संस्कृत शब्द कोश से लिए हैं, उन शब्दों के आगे कोष्ठक में ( सं ) उल्लिखित है ।
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छह
० यंत्र संबंधी आधुनिक शब्द जो संस्कृत में जोडे गए हैं, उनका प्राकृती
करण किया गया है। ० परिशिष्ट पांच में प्रत्येक वर्ग के शब्दों तथा स्फुट शब्दों को हिन्दी
के अकारादि क्रम से दिया गया है। ० शब्दों को प्रथमा विभक्ति के एक वचन के रूप में सूचित किया गया
है, जिससे अकारान्त शब्दों के लिंग का ज्ञान प्रथम दर्शन मात्र से हो जाता है । अनुस्वार अंत वाले नपुंसकलिंगी, ओकार अंत वाले पुंलिंगी
और आकार अंत वाले स्त्रीलिंगी होते हैं। ० इकारान्त, उकारान्त आदि शब्दों के लिंग की पहचान उनके आगे दिए गए लिंग के प्रथम अक्षर से हो जाती है-(न) नपुंसक, (पुं)
पुंलिंग, (स्त्री) स्त्रीलिंग का सूचक है। ० देशीय शब्दों के लिए (दे०), त्रिलिंगी शब्दों के लिए (त्रि.) और
विशेषणवाची शब्दों के लिए (वि) शब्द संकेत है। • विशेषणवाची शब्द विशेष्य के अनुसार तीनों लिंगों में व्यवहृत
होता है। ० एक पाठ में एक वर्ग के कम से कम दस शब्द हैं, कहीं कुछ अधिक भी
० प्रयोगवाक्य शीर्षक के अन्तर्गत वर्ग के शब्दों से वाक्य बनाकर दिखाया गया है और शब्दों का प्रयोग करो-इस शीर्षक के अन्तर्गत
उन्हीं वर्ग के शब्दों से प्राकृत में वाक्य बनाए गए हैं। • धातुसंग्रह में एक पाठ में प्रायः दस धातुएं दी गई हैं, प्रारंभ के पाठों
में कुछ कम भी हैं। • धातुसंग्रह पाठ ६ से प्रारंभ किया है, जो निन्नानवे पाठ तक चलता
है। उससे आगे नियमों के अन्तर्गत जो धातुएं हैं उनकी आदेशधातुएं
दी हैं। ० धातु प्रयोग शीर्षक के अन्तर्गत पाठ की धातुओं से वाक्य बनाकर दिखाए गए हैं । धातुओं का प्रयोग करो---शीर्षक के अन्तर्गत विद्यार्थियों से प्राकृत में वाक्य बनवाए गए हैं। ० पाठ ६ से अव्यय संग्रह चलता है, जो पाठ इकतीस तक पूरा होता है । अव्ययों से भी वाक्य बनाकर दिखाए गए हैं और उनके वाक्य
बनवाए गए हैं। ० समास, तद्धित के प्रत्यय, धातुओं के कालरूप, प्रेरक तथा भाव कर्म के रूपों और कृदन्त के प्रत्ययों से भी वाक्य बनाए गए हैं तथा विद्यार्थियों
से बनवाए गए हैं। • एक पाठ में बीस से अधिक वाक्य बनाकर दिखाये गए हैं और उतने
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सात
ही विद्यार्थियों से प्राकृत में वाक्य बनवाए गए हैं, जिससे उनका
अभ्यास पुष्ट होता चला जाए। • प्रश्न शीर्षक के अन्तर्गत पाठ में आए सारे शब्दों व धातुओं आदि के
अर्थ पूछे गए हैं। नियमों संबंधी अनेक जिज्ञासाएं की गई हैं। कहींकहीं उनका अपने वाक्य में प्रयोग करवाया गया है। इस प्रक्रिया से विद्यार्थी को न केवल शब्दों, धातुओं, अध्ययों तथा नियमों का ज्ञान बढता है अपितु वाक्यरचना का बोध भी सुगम हो
जाता है, प्राकृत में वाक्य बनाना भी सरल हो जाता है। ० प्राकृत के अतिरिक्त उसकी उपभाषा शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका
पैशाची और अपभ्रंश के नियम तथा वाक्य प्रयोग भी दिए गए हैं। ० वाक्य रचना के साथ-साथ प्राकृत व्याकरण का भी ज्ञान हो, इस दृष्टि
से हेमचंद्राचार्य की प्राकृत व्याकरण के सूत्रों को हिन्दी के अर्थ सहित
प्रस्तुत किया गया है। ० प्राकृत व्याकरण में (दीर्घह्रस्वी मिथो वृत्तौ ११४) के अतिरिक्त
समास के लिए कोई सूत्र नहीं है। प्राकृत साहित्य में समासित पद मिलते हैं, उनको समझने के लिए (शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् ४१४४८) सूत्र के अनुसार संस्कृत व्याकरण का आधार लेकर समास प्रकरण को विस्तार दिया गया है। • संधि और तद्धित के प्रत्ययों में भी संस्कृत व्याकरण के सूत्रों का
उपयोग किया गया है। • पहले परिशिष्ट में प्राकृत की शब्द रूपावली है। ० दूसरे परिशिष्ट में प्राकृत की धातु रूपावली है। ० तीसरे परिशिष्ट में अपभ्रंश की शब्द रूपावली है। • चौथे परिशिष्ट में अपभ्रंश की धातु रूपावली है। ० पांचवे परिशिष्ट में वर्गों के शब्द अर्थ सहित हिन्दी के अकारादि क्रम
• छठे परिशिष्ट में धातुएं हिन्दी के अर्थ सहित हिन्दी के अकारादि ।
क्रम से हैं। ० सातवें परिशिष्ट में प्राकृत भाषा की समकालीन वैदिक संस्कृत के
साथ समानता दिखाई गई है। ० ऐसा विश्वास है इस पुस्तक के माध्यम से विद्यार्थी प्राकृतभाषा में
सरलता से प्रवेश कर सकेंगे। • दो वर्ष पूर्व युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ विरचित वाक्यरचना (भाग १.२.३.)
को नवीन विधा से संपादन किया था, जो संस्कृत वाक्यरचना बोध नाम से प्रकाशित हुई थी । उसके फलस्वरूप युवाचार्य श्री ने
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आठ
प्राकृत वाक्यरचना बोध के संपादन का आदेश दिया। यह पुस्तक उस
आदेश की ही क्रियान्विति है। ० युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ की प्रेरणा से ही मैंने इसमें प्रवेश किया है । आचार्य का अनुग्रह ही शिष्य को ज्ञान की ओर प्रेरित करता है। मैं इन महापुरुषों को श्रद्धा से वंदना
करता हुआ आशीर्वाद मांगता हूं कि मुझे बोधि, मार्ग और गति दें। ० मैं अपना सौभाग्य मानता हूं, युवाचार्य महाप्रज्ञ (मुनि श्री नथमलजी)
की ५० वर्ष पूर्व की भावना को साकार करने का मुझे अवसर मिला। • मुनिश्री दुलह राजजी का हृदय से आभारी हूं, जिन्होंने आदि से अंत
तक प्रूफों को देखा और आवश्यक सुझाव भी दिए। ० मुनि ऋषभकुमारजी ने पाली चतुर्मास में मेरे सारे कामों का भार
अपने ऊपर ओढकर मुझे समय उपलब्ध कराया । परिशिष्ट बनाने में भी उनका सहयोग रहा है। ० मुनि विमल कुमारजी ने आदि से अंत तक पाण्डुलिपि को देखकर ___ अनेक संशोधन सुझाए। • मुनि दिनेश कुमारजी और जै. वि. भा. मा. वि. के प्राकृत लेक्चरार
जगतराम भट्टाचार्य ने परिशिष्टों को तैयार करने में बहुत श्रम दिया
० मुनि प्रशांत कुमारजी का भी सहयोग रहा है। ० समणी और पा. शि. सं. की मुमुक्षु बहनों ने पाण्डुलिपि की सुन्दर ___ अक्षरों में शुद्ध प्रतिलिपि तैयार की। ० पुस्तक को संवारने में मुनि धनंजय कुमारजी का विशेष सहयोग
रहा है। ० अंत में उन सबका योगदान भी स्मरणीय है, जिनकी पुस्तकों का
मैंने उपयोग किया है तथा जो प्रत्यक्ष व परोक्ष में मेरे सहयोगी रहे हैं। ० सभी के सहयोग की परिणति रूप यह प्राकृत वाक्यरचना बोध ___ आपके हाथों में है। • इसकी उपयोगिता विद्यार्थियों व पाठकों पर निर्भर है, वे कितने
लाभान्वित होते हैं। • दृष्टि दोष और प्रेस दोष से जो अशुद्धियां रह गई हैं, उनके लिए अंत
में शुद्धि पत्र है। ० एक निवेदन-शुद्धिपत्र से अशुद्धियों को पहले शुद्ध कर पढना प्रारंभ
करें। आपके अमूल्य सुझाव व अभिमत भी हमें दें, जिससे भविष्य में
परिष्कत रूप में आपके हाथों में आ सके । ११ दिसम्बर, ६१
मुनि श्रीचन्द 'कमल' जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.)
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अभिमत
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ प्रणीत एवं मुनिश्री श्रीचंद कमल द्वारा संपादित 'प्राकृत वाक्य-रचना बोध' प्राकृत भाषा के लिए एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसकी लेखन शैली बहुत नवीन है। यह प्राकृत के छात्र-छात्राओं के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। वे इस ग्रंथ के माध्यम से प्राकृत भाषा की अच्छी जानकारी कर सकेंगे। इस पुस्तक में ११८ अध्याय हैं । साथ ही इसमें सात परिशिष्ट हैं--१. प्राकृत शब्द रूपावली, २. प्राकृत धातु रूपावली, ३. अपभ्रंश शब्द रूपावली, ४. अपभ्रंश धातु रूपावली, ५. हिन्दी के अकारादि क्रम से शब्द, ६. हिन्दी के अकारादि क्रम से एक अर्थ में होने वाली धातुएं, ७. वैदिक संस्कृत और प्राकृत की तुलना । लेखक ने कितनी दृष्टियों से विषय का प्रतिपादन किया है यह इसे देखने से स्पष्टतः ज्ञात होता है । यह अपने आप में एक प्रशंसनीय कार्य है।
भाषा सीखने के मुख्य चार उद्देश्य बताए गये हैं१. बोलना [to speak] २. समझना [to understand] ३. पढना [to read] ४. लिखना [to write]
साधारणतः इन्हें बोलने-समझने एवं पढने-लिखने रूप दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। अधिकांशतः जो लोग भाषा सीखते हैं । उनका विशेष ध्यान भाषा बोलने और समझने की ओर रहता है। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो पढने और लिखने की दृष्टि से भाषा सीखते हैं। उनका मूल उद्देश्य है-उस भाषा-विशेष की पुस्तक पढना और लिखने की चेष्टा करना। ये लोग भाषा बोल एवं समझ नहीं सकते, ऐसा नहीं है, किन्तु वे लोग जो भाषा साधारणतः सीखते हैं, वह लिखित ग्रन्थ की भाषा होती है । जो लोग मात्र भाषा बोलना एवं समझना चाहते हैं, वे उस भाषा के लेखन एवं पढने की ओर दृष्टि कम देते हैं । उनका उद्देश्य सिर्फ लोगों के साथ बात करना एवं उनकी भाषा समझना होता है। आजकल भाषाशिक्षण की दृष्टि से जो व्याकरण लिखते हैं, वे बोलने एवं समझने की ओर विशेष ध्यान रखते हैं अर्थात् उनके व्याकरण लिखने का मूल उद्देश्य है भाषा का वर्णन करना । जिस प्रकार जनसामान्य बोलते हैं, वे उसी प्रकार व्याकरण में लिपिबद्ध
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दस
करते हैं। इस प्रकार की भाषाशिक्षणपद्धति वर्णनात्मक भाषा विज्ञान के अन्तर्गत आती है । जो भाषा पढने एवं लिखने के प्रति दृष्टि रखकर व्याकरण लिखते हैं, उनकी व्याकरण भी वर्णनात्मक होती है किन्तु उस वर्णनात्मक व्याकरण में ऐतिहासिक विज्ञान की पद्धति की छाप रहती है। भाषा की व्याकरण इन दो पद्धतियों से लिखना प्रचलित है। इन दो पद्धतियों के अतिरिक्त अन्य दो धाराओं से भी व्याकरण की चर्चा होती है। वे दो धाराएं हैं-तुलनात्मक भाषातत्त्व एवं दर्शनमूलक भाषातत्त्व । इन दो धाराओं से व्याकरण तभी पढना संभव है जब वर्णनात्मक एवं ऐतिहासिक धारा के अनुसार भाषा का शिक्षण होता है।
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ रचित प्राकृत वाक्यरचनाबोध व्याकरण की ऐसी रचना है, जिसमें वर्णनात्मक एवं ऐतिहासिक भाषा तत्त्व का समन्वय हुआ है । दो धाराओं को एक धारा में परिणत करना अत्यन्त कठिन है। व्याकरणशास्त्र में पांडित्य होने पर ही यह संभव है । इस पुस्तक का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार की सुतीक्ष्ण दृष्टि इस ग्रन्थ में सर्वत्र प्रतिफलित हुई है। उन्होंने प्रत्येक अध्याय में जिस विषय पर दृष्टि रखी है उस विषय के गहन में प्रवेश किया है। साथ ही विषय को किसी भी स्थिति में नीरस नहीं होने दिया है। किस प्रकार उन्होंने वर्णनात्मक एवं ऐतिहासिक व्याकरण का समन्वय किया है, उसके एक-दो उदाहरण प्रस्तुत करने पर समझा जा सकेगा। जैसे 'तुम् प्रत्यय' अध्याय में उन्होंने प्रथम में कुछ शब्द चयनित किए हैं और साथ-साथ में उस अध्याय में तुम् प्रत्ययान्त कुछ धातुएं भी दी हैं । यथा-काउं (कर्तुम्) घेत्तु (ग्रहीतुम्], जोद्धं (योद्धम् ) इत्यादि । एवं इनका प्रयोग भी प्राकृत भाषा के माध्यम से दर्शाया है जैसे-इमं कज्जं तुए विणा को अण्णो काउं सक्कइ, सो सुमिणस्स अट्ठे घेत्तु सुविणसत्थपाढयस्स घरं गओ । ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
__ वास्तव में भाषा सीखने की यही सही पद्धति है। जिस प्रकार का व्याकरण का विषय साधारणत: वर्णन किया जाता है, यदि उसी प्रकार की वाक्य-रचना दी जाये तब भाषा सीखने में बहुत सुविधा होती है। ठीक इसी प्रकार कुछ अंश हिन्दी से प्राकृत अनुवाद हेतु दिए गए हैं। इससे जहां भाषा का प्रयोग सीखा जाता है ठीक उसी प्रकार भाषा में प्रयोग भी किया जाता है। सबसे प्रशंसनीय यह है कि बहुत छोटे-छोटे प्राकृत के वाक्यों का प्रयोग किया गया है। लेखक ने स्वयं इन वाक्यों की रचना कर प्रयोग बताया है। इसके परिणामस्वरूप भाषा सीखने वालों को विशेष सुविधा होगी, ऐसा मैं समझता हूं। एक और विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इन वाक्यों की विषयवस्तु पूर्णतः सर्वसाधारण के कथोपकथन के
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ग्यारह
लिए उपयोगी है अर्थात् बोलचाल की भाषा का प्राचीन अल्पपठित प्राकृत भाषा के माध्यम से व्यक्त किया है । इस प्राकृत का युवाचार्यश्री ने आदि से अन्त तक निर्वहन किया है । यही इस व्याकरण का महत्त्व है। इस दृष्टि से विचार करने पर इस व्याकरण को मैं प्राकृत भाषा बोलने एवं समझने के लिए उपयोगी मानता हूं । साधारणतः प्राकृत भाषा के व्याकरण में आजकल बहुत कम प्राकृत व्याकरण सूत्रों का उल्लेख रहता है किन्तु प्रस्तुत पुस्तक में शब्दसिद्धि को संक्षेप में बताने के बाद उदाहरण देकर उसकी गठन पद्धति को समझाया है। जिस प्रकार प्रारम्भ में सरलता से लिखा है----क्त्वा, तुम् एवं तव्य प्रत्यय के लिए ग्रह धातु के स्थान पर घेत आदेश होता है । इसके साथ ही 'क्त्वा' तुम् तव्येषु घेत् (४।२१०) हेमचंद्र के सूत्र का उल्लेख किया है। इसी प्रकार वच् धातु के स्थान पर जो वोत् आदेश होता है-'वचोवोत् (४।२११) । यद्यपि उन्होंने व्याकरण के अनुसार ११०० से भी ज्यादा सूत्र उल्लेख पूर्वक नियम बनाएं हैं तथापि इन नियमों के द्वारा व्याकरण में कोई क्लिष्टता नहीं आई है। इनके ग्रन्थ में उल्लेखनीय बात समास एवं कारक के संबंध में आलोचना है । सामान्यतः प्राकृत व्याकरण में समास एवं कारक के संबंध में पृथक् आलोचना नहीं होती, कारण संस्कृत के समास और कारक की नियमावली ही मुख्यत: प्राकृत में प्रयुक्त होती है। इसलिए नवीन विधि एवं विशेष नियम की जरूरत नहीं है। किन्तु मुनि श्री ने हेमचंद्र व्याकरण के कारक संबंधी दो-चार नियम यथा चतुर्थ्याः षष्ठी [३।१३१) तादर्थ्ये डे० र्वा [३।१३२] क्वचिद् द्वितीयादेः [३३१३४] प्रभृति नियम उल्लेखपूर्वक कारक प्रकरण अध्याय के संबंध में विशेष दृष्टि दी है । समास के विषय में भी यही बात है। यद्यपि हेमचन्द्र ने कारक की तरह समास के संबंध में उस प्रकार का कोई सूत्र नहीं दिया है तथापि हेमचन्द्र के कुछ सूत्र जो समास के क्षेत्र में प्रयोज्य है प्रसंगतः समास के प्रकरण में उसका उल्लेख किया है, जैसे-दीर्घह्रस्वौ मिथो वृत्तौ [१।४] । इस ग्रंथ में अवययी भाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि व द्वन्द्वसमास का वर्णन किया गया है। यद्यपि ये संस्कृत व्याकरण पर प्रतिष्ठित हैं तथापि युवाचार्य श्री की व्याख्या में नवीन पद्धति का परिचय है। अधिक उदाहरण देने की जरूरत नहीं समझता है।
' उपर्युक्त विषय को छोडकर इसमें प्राकृत की उपभाषा का विवरण है । ये भाषायें-शौरसेनी, मागधी, चूलिका, पैशाची एवं अपभ्रंश । धात्वादेश के चतुर्थ अध्याय पर प्रतिष्ठित होने पर भी इसका क्रम निर्धारण बहुत ही सुचिन्तित एवं प्रशंसा के योग्य है।
संक्षेप में कहना हो तो मुझे कहना पडेगा कि यह व्याकरण प्रत्येक प्राकृत शिक्षार्थी के लिए अवश्य पाठ्यग्रन्थ होना उचित है। जहां-तहां प्राकृत का पठन-पाठन होता है वहां-वहां इस ग्रन्थ का प्रचार काम्य है । केवल
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बारह
शिक्षार्थी ही नहीं, अध्यापक भी इस व्याकरण को पढकर ज्ञानलाभ कर सकेंगे ऐसी मेरी धारणा है।
___ अन्त में मेरा वक्तव्य यह है कि प्राकृत व्याकरण रचना बोध में उन्होंने बहुत ही महत्त्व का परिचय दिया है । अत्यन्त नीरस व स्वल्प पठित प्राकृत व्याकरण को सुखपाठ्य एवं सरस बनाने के लिए ग्रन्थ संपादक मुनि श्री चंद 'कमल' भी धन्यवाद के पात्र हैं। इस प्रसंग में एक श्लोक उद्धृत करके युवाचार्य श्री एवं उनकी व्याकरण के महत्त्व को व्यक्त करना चाहता हूं। दरापखां ने अपने गंगास्तोत्र में गंगा का महत्त्व कहां निहित है, उसके प्रसंग में कहा था
सुरधुनि मुनिकन्ये तारयेः पुण्यवन्तम्, स तरति निजपुण्यस्तत्र किं ते महत्त्वम् । यदि तु गतिविहीनं तारयेः पापिनं मां ।
तदिह तव महत्त्वं तन्महत्त्वं महत्त्वं ॥
मैं भी कहता हूं दुरूह और कठिन प्राकृत भाषा को सहज व सरल करने में संपादक मुनि श्रीचंद्र 'कमल का महत्त्व प्रकट हुआ है।।
सत्यरंजन बनर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय
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अनुक्रमणिका
शब्द वर्ग
१
worl
महापुरुष परिवार वर्ग (१)
.
20
२
G
०
WW
w
-
K
पाठ १. वर्ण बोध २. संयुक्त व्यंजन ३. वाक्य ४. विभक्ति बोध ५, प्रथम पुरुष ६. मध्यम पुरुष ७. उत्तम पुरुष ८. कर्म ६. साधन १०. दान पात्र ११. अपादान १२. संबंध १३. आधार १४. देश्यशब्द १५. स्वरसंधि १६. उद्वत्त स्वरसंधि १७. प्रकृतिभाव संधि १८. अव्यय संधि १६. व्यंजन संधि २०. अव्यय २१. हेत्वथं कृदन्त २२. संबंधभूत कृदन्त २३. स्वरपरिवर्तन २४. स्वरादेश (अकार को आदेश) ७६ २५. अकार को आदेश २६. आकार को आदेश २७. इकार को आदेश
६२ २८. ईकार को आदेश २६. उकार को आदेश ३०. ऊकार को आदेश १०३
ok
।
गोरस वर्ग देश्य रसोई-मसाला रसोई उपकरण गृह सामग्री (१) गृह सामग्री (२) न्यायालय वर्ग
४७
८
19.
स्फुट पत्रालय वर्ग गुड, चीनी वर्ग रोटी आदि वर्ग मिठाई वर्ग पात्र वर्ग जैन पारिभाषिक (१) जैन पारिभाषिक (२) खाद्य वर्ग गृह-अवयव
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चौदह
३१. ऋकार को आदेस
३२. ऋकार को आदेश
३३. लृ, ए, ऐ को आदेश
३४. ओ, ओ को आदेश
३५. प्रारंभिक सरल व्यंजन परिवर्तन
३६. मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन ( १ )
३७. मध्यवर्ती सरल व्यंजन
परिवर्तन ( २ )
३८. मध्यवर्ती सरल व्यंजन
४५.
४६.
21
परिवर्तन ( ३ ) ३६. मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन ( ४ )
१४२
१४६
४०. अंतिम व्यंजन परिवर्तन ४१. संख्या
१५०
५२. संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (१) १५४
४३.
(२) १५८
४४.
(३) १६३
13
11
ار
५४. व्यत्यय
५५. उपसर्ग
$1
37
(४) १६७
(५) १७१ (६) १७५
१७६
१८३
१८८
५१. द्वित्व
१९३
५२. स्वरसहित व्यंजनों का लोप १९७
५३. सस्वर व्यंजन आदेश
२००
२०४
२०७
२१०
२१४
२१७
२२०
२२३
५८. "
५६.
६०. "
५६. शब्द रूप (१)
५७.
(२)
(३)
"}
४७.
23
"
"1
४८. पूर्ण व्यंजन परिवर्तन
11
13
13
४६. संयुक्त वर्णों का लोप ५०. स्वरभक्ति
"
17
"
17
33
"
(४)
(५)
"7
17
१०७
१११
११५
११६
१२३
१२८
१३३
१३७
शरीर-विकार
प्रसाधन सामग्री
व्यापार वर्ग
विद्यालय वर्ग
जलाशय वर्ग
वस्त्रवर्ग ( १ )
वस्त्रवर्ग ( २ )
आभूषण वर्ग
स्फुट
स्फुट
X
शाक वर्ग (१)
(२)
"
"
औषधि वर्ग ( १ )
(२)
"
"
धान्य वर्ग (१)
(२)
"7
27
फल वर्ग ( १ )
फल वर्ग (२)
वृक्ष वर्ग
स्फुट
कालवर्ग ( १ ) कालवर्ग (२)
पक्षी वर्ग ( १ )
X
पक्षी वर्ग (२)
(३)
"}
33
पशु वर्ग (१)
(२)
(३)
}}
33
33 "
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पन्द्रह
२३२
स्फुट स्फुट रत्न और मणि स्फुट
सालावर्ग शरीर के अंग-उपांग
वृत्तिजीवी वर्ग (१)
KIOS
६१. , , (६)
२२६ ६२. , , (७)
२२६ ६३. , , (८) ६४. , , (६)
२३५ ६५. ॥ ॥ (१०) २४० ६६. वर्तमानकालिक प्रत्यय २४३ ६७. विघ्यर्थ प्रत्यय
२४८ ६८. आज्ञार्थक प्रत्यय ६६. भूतकालिक प्रत्यय २५६ ७०. भविष्यत्कालिक प्रत्यय (१) ७१. , , , (२) ७२. क्रियातिपत्ति ७३. लिंग बोध
२७१ ७४. स्त्री प्रत्यय
२७५ ७५. कारक
२७६ ७६. समास
२८२ ७७. तत्पुरुष समास
२८६ ७८. कर्मधारय और द्विगुसमास २६० ७६ बहुव्रीहि समास ८०. द्वन्द्वसमास ८१. तद्धित
२६६ ८२. मत्वर्थ
३०२ ८३. भव अर्थ
३०५ ८४. शीलादि प्रत्यय
३०७ ८५. भाव
३१० ८६. विभक्त्यर्थ प्रत्यय
३१३ ८७. इव, कृत्वस् प्रत्यय ८८. परिमाणार्थ प्रत्यय ३२० ८६. स्वार्थिक प्रत्यय ६०. स्फुट प्रत्यय ६१. तरतम प्रत्यय
३३० ६२. प्रेरणार्थक प्रत्यय (१)
स्त्री वर्ग (१)
२६३
२६६
m
m
m
m
,,, (४) राजनीति वर्ग धातु-उपधातु वर्ग स्पर्श वर्ग रोगवर्ग (१) रोगवर्ग (२) रोगीवर्ग वाद्य वर्ग कीडा आदि क्षुद्र जन्तु रेंगने वाले, आदि प्राणी शस्त्र वर्ग (१) शस्त्रवर्ग (२) सुगंधित पत्र पुष्प वाले पौधे व लता सुगंधित द्रव्य वस्ति और मार्ग वर्ग
m
३२३ ३२७
اللمس
لل
६३. ६४.
, ,
, (२) , (३)
३३७ ३४१
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सोलह
३४५ ३४६ ३५३ ३५७
६५. भाव कर्म (१) ६६. , , (२) ६७. कृत्य प्रत्यय १८. क्त प्रत्यय ६६. शत-शान प्रत्यय १००. धात्वादेश (१) १०१. , १०२. , (३)
मास वर्ग ग्रह-नक्षत्र वर्ग यंत्र वर्ग स्फुट यान वर्ग
mm
mr
m
CM
०
०
०
०
३७८ ३८२ ३८७ ३६२ ३६७ ४०२ ४०५
०
०
०
०
४०८
४१३
س
ا
س
४१८ ४२३ ४२८ ४३२ ४३६
ل
م
४४०
१०६. , (७) १०७. , (८) १०८. धातु वर्णादेश (१) १०६. धातु वर्णादेश (२) ११०. शौरसेनी १११. मागधी ११२. पैशाची-चूलिकापैशाची ११३. अपभ्रंश (१) ११४. , (२) ११५. , (३) ११६. , (४) ११७. , (५) ११८. , (६) परिशिष्ट १ प्राकृत शब्दरूपावली परिशिष्ट २ प्राकृत धातुरूपावली परिशिष्ट ३ अपभ्रंश शब्दरूपावली परिशिष्ट ४ अपभ्रंश धातुरूपावली परिशिष्ट ५ अकार आदि क्रम से वर्ग
व शब्द संग्रह परिशिष्ट ६ एकार्थ धातुएं परिशिष्ट ७ वैदिक संस्कृत और प्राकृत
भाषा सहायक ग्रंथ सूचि शुद्धि पत्र
४४४
४५१
४७७
५२६
५४१
५८७ ५६८
६००
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वर्णबोध
वर्ण-प्रत्येक पूर्ण ध्वनि को वर्ण कहते हैं। प्राकृत में वर्ण के दो भेद हैं--(१) स्वर (२) व्यञ्जन ।
__ स्वर के दो भेद हैं--हस्वस्वर और दीर्षस्वर । ह्रस्वस्वर की एक मात्रा होती है । दीर्घ स्वर की दो मात्राएं होती हैं । संस्कृत में प्लुतस्बर होता है, जिसकी तीन मात्राएं होती हैं।
० प्राकृत में प्लुत स्वर नहीं होता। ० प्राकृत में ऋ, ऋ, लु, ल स्वरों का प्रयोग नहीं होता। हस्वस्वर-अ, इ, उ, ए, ओ। दीर्घस्वर--आ, ई, ऊ, ए, ओ।
ए और ओ दीर्घस्वर हैं, परन्तु प्राकृत में ए और ओ से परे संयुक्त व्यञ्जन होने पर ए और ओ को ह्रस्वस्वर माना गया है। जैसे---एक्केक्कं (एकैकम् ), जोव्वणं (यौवनम् ), आरोग्गं (आरोग्यम्) । प्राकृत में ऐ और औ का प्रयोग नहीं होता। केवल (सू. १३१६६) से अयि को ऐ आदेश होता है ।
नियम १ (अथ प्राकृतम् ॥१) प्राकृत में ऋ, ऋ, लु, ल, ऐ, ओ, ङ, ब, श, ष, विसर्ग, प्लुत---ये नहीं होते। ङ और अपने वर्ग के व्यंजनों के साथ होते हैं।
प्राकृत में व्यंजन २६ हैं -- क, ख, ग, घ
त, थ, द, ध, न च, छ, ज, झ
प, फ, ब, भ, म ट, ठ, ड, ढ, ण .
यर, ल, व, स, ह ० प्राकृत में श, ष और विसर्ग नहीं होते। • स्वर रहित इ तथा द्वित्व ङ्ङ प्रयुक्त नहीं होता। . .
० प्राकृत में हु और ज का प्रयोग अपने वर्ग के व्यंजनों के साथ मिलता है, स्वतंत्र नहीं..
पङ को, पङ खो, खङ्गो, जङधा वञ्च, वाञ्छा, पजो, विझो ० स्वर रहित व्यंजन अंत में नहीं होते हैं। ० कोई भी व्यंजन स्वर के बिना क्, च्, ट्, त्, प् रूप में अकेला ... प्रयुक्त नहीं होता। . . . . . . .
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
वर्गीय व्यंजन-व्यंजन के पांच वर्ग हैं--(१) क, ख, ग, घ, ङ (२) च, छ, ज, झ, ञ (३) ट, ठ, ड, ढ, ण (४) त, थ, द, ध, न (५) प, फ, ब, भ, म ।
य, र, ल, व-ये अन्तस्थ हैं । स, हये ऊन्म हैं ।
नियम २ (बहुलम् ११२) प्राकृत में नियमों का बहुल सब जगह होता है। बहुल का अर्थ है--कहीं पर प्रवृत्ति होती है, कहीं पर प्रवृत्ति नहीं होती, कहीं पर विकल्प से होती है और कहीं पर दूसरे अर्थ में। आवश्यकताके अनुसार बहुल का प्रयोग आगे के नियमों में किया गया है।
अनुनासिक-ङ, ञ, ण, न, म, इनकी अनुनासिक संज्ञा है।
अधोव---प्रत्येक वर्ग के प्रथम और द्वितीय अक्षर (क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ) और स (श, ष, स) तथा विसर्ग को अघोष या परुष व्यंजन कहते हैं।
घोप-प्रत्येक वर्ग के तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम वर्ण (ग, घ, ङ, ज, झ, अ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म) तथा य, र, ल, व, ह को घोष या मृदु व्यंजन कहते हैं।
- महाप्राण-जिन वर्गों में ह की ध्वनि का प्राण मिलता है, वे महाप्राण कहलाते हैं। जैसे क+ह==ख । च+ह-छ। इस प्रकार के व्यंजन महाप्राण कहलाते हैं। ये १० हैं-ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ ।
ऊष्मवर्ण स (श, ष, स,) और ह भी महाप्राण हैं ।
अल्पप्राण-जिन वर्णों में ह की ध्वनि का प्राण नहीं मिलता वे सब अल्पप्राण कहे जाते हैं। वे ये हैं---क, ग, ङ, च, ज, ब, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब, म, य, र, ल, व ।
प्रश्न १ प्राकृत में कौन-कौन से वर्ण होते हैं ? २ कौन से ऐसे वर्ण हैं जो संस्कृत में होते हैं परन्तु प्राकृत में नहीं होते ? ३ ह्रस्वस्वर और दीर्घस्वर कौन-कौन से हैं ? ४ कौन-सा दीर्घस्वर कहां ह्रस्वस्वर बन जाता है ? ५ प्लुत संज्ञा कितनी मात्रा की होती है, प्राकृत में उसका क्या स्थान है ? ६ अन्तस्थ और ऊष्मव्यंजन कौन-कौन से हैं ? ७ अल्पप्रान और महाप्राण कौन-कौन से व्यंजन हैं। उन्हें याद रखने
का सरल तरीका क्या है ? ८ अघोष वर्गों को बताओ। ... ऐसे कौन से वर्ण हैं जिनका प्राकृत में प्रयोग होता ही नहीं और कोन
से वर्ष हैं जिनका प्रयोग कहीं-कहीं होता है, उदाहरण देकर बताओ।
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संयुक्त व्यंजन
संयुक्त व्यंजन -- जिन दो या दो से अधिक व्यंजनों के बीच में स्वर न हो तो उसे संयुक्त व्यंजन कहते हैं ।
प्राकृत में शब्द के प्रारंभ में संयुक्त व्यंजन नहीं पाए जाते । संस्कृत में पाये जाते हैं उसके एक व्यंजन का लोप हो जाता है और अवशिष्ट व्यंजन द्वित्व नहीं होता । अपवाद के रूप में ण्ह, म्ह, ल्ह, द्र और यह मिलते हैं । ण्ह-ण्हाणं । म्हो । ल्ह-ल्हसं । द्रहो । गुरहं ( गुह्यः), सय्हो ( सह्यः) ।
प्राकृत में भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग नहीं मिलता । समानवर्गीय व्यंजनों के मेल से बने हुए संयुक्त व्यंजन ही मिलते हैं । भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यंजनों को समानवर्गीय व्यंजन के रूप में बदल दिया जाता है । उसके एक व्यंजन का लोप कर दूसरे को द्वित्व कर दिया जाता है । यदि द्वित्व व्यंजन हकारयुक्त ( वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण) हो तो उसको द्वित्व कर उसके हकार को हटा दिया जाता है, वर्ग का पहला और तीसरा वर्ण कर दिया जाता है । जैसे
संस्कृत
दुग्ध
मूर्च्छा----
मूर्ख ---
भुक्त-
उत्पल
भुत्त
उपल--- उप्पल
संयुक्त व्यंजनों में एक व्यंजन य, र, ल, अनुस्वार या अनुनासिक हो तो उसे स्वरभक्ति के द्वारा अ, इ, ई और उ में से किसी स्वर के द्वारा सरल व्यंजन बना दिया जाता है ।
-- रतनं -- रयणं ।
विभक्त कर (आगम कर )
रत्नं-रत् + अ +
नं
=
गर्हा -- गर + इ + हा स्नेह स् + अ + नेह
प्राकृत
दुध--- दुध्ध --- दुद्ध ।
मुछा मुछ्छा मुच्छा ।
मुख मुख्ख मुक्ख
भुत,
गरिहा । सनेह-सणेह |
समस्त (समास ) पदों में दूसरे पद का आदि स्वर विकल्प से
विकल्प से पाए जाते
द्वित्व होता है, इसलिए समस्त पदों में संयुक्त व्यंजन हैं। जैसे - नइग्गामी नइगामी । देवत्थुई, देवथुई ।
संयुक्त व्यंजनों में जी निर्बल व्यंजन होता है उसका लोप हो जाता
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४
है । बल की दृष्टि से व्यंजनों का क्रम इस प्रकार है
(१) वर्ग के प्रथम चार वर्ण सर्वाधिक बलशाली होते हैं । (२) ङ, ञ, ण, न, म -- वे पांच वर्ण उनसे कम बलशाली हैं । (३) ल, स, व, य, र-ये पांच वर्ण सबसे निर्बल हैं । मे भी आपस में क्रमश: एक दूसरे से निर्बल हैं ।
क, ग, च, छ आदि व्यंजन स्वर सहित होते हैं, तब इन्हें सरल व्यंजन कहते । द्वित्व होने पर ये संयुक्त व्यंजन हैं । भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यंजन क के साथ ये बनते हैं— तक, क्त, क्य, क्र, र्क, ल्क, क्व आदि । प्राकृत में इन सब के स्थान पर शब्द के अंदर 'क्क' का तथा आदि में 'क' का ही प्रयोग होता है जैसे-
संस्कृत
उत्कण्ठा
वाक्य
तर्क
विक्लव
क्वचित्
प्राकृत
उक्कण्ठा
ग्रास
वर्ग
वक्क
तक्क
विक्कव
कचि
प्राकृत वाक्य रचना बोध
मुग्ग
जुग्ग
गास
इसी प्रकार ग के साथ भिन्नवर्गीय संयोग ये बनते हैं—ङ्ग, ग्ण, द्ग, ग्न, ग्य, ग्र, र्ग, ल्ग । इनका समानवर्गीय संयुक्त रूप बनता है-ग्ग । आदि
में होने से संयुक्त नहीं बनता केवल ग बनता है । जैसे---
संस्कृत प्राकृत संस्कृत
खड्ग
खग्ग
रुग्ण
मुद्ग
योग्य
युग्म
अग्र
ग्रसते
संस्कृत
मुक्त
चक्र
उल्का
पक्व
क्वणति
प्राकृत
रुग्ग, लुग्ग
जुग्ग
अग्ग
गते
प्राकृत
मुक्क
चक्क
उक्का
पक्क
कणति
वग्ग
वल्गा
वग्गा
इसी तरह सभी वर्णों के भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यंजनों का समानवर्गीय संयुक्त व्यंजन बनाया जाता है । समानवर्गीय संयुक्त व्यंजन ये हैं- क्क, क्ख,
ग.
ग्ध, च, च्छ, ज्ञ, ज्झ, ट्ट, टु, डु, ड्ढ, ण्ण, त्त, त्थ, द, ध, न्न, प्प, प्फ, ब्ब, बुभ, म्म, ल्ल, ब्व, स्स ।
प्रश्न
१. संयुक्त व्यंजन किसे कहते हैं ?
२. संयुक्त व्यंजन कहां होते हैं और कहां नहीं होते ? स्पष्ट करो ।
३. संयुक्त व्यंजन में एक व्यंजन का लोप होने के बाद कौन-सा व्यंजन face होता है और उसका अन्तिम रूप क्या रहता है ?
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संयुक्त व्यंजन
४. संयुक्त व्यंजन को सरलब्यंजन बनाने का साधन क्या है ? ५. वर्णों में अधिक बलशाली कौन-कौन से
व्यंजन हैं तथा उनका निर्बल
और निर्बलतर होने का क्या क्रम है ?
६. भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यंजन क के साथ क्या-क्या बनते हैं ? ७. स्वरभक्ति का प्रयोग कहां किया जाता है ?
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-20.
वाच्य
वाच्य-जो हम कहना चाहते हैं उसे वाच्य कहा जाता है।
उसके तीन प्रकार हैं-(१) कर्तवाच्य (२) कर्मवाच्य (३) भाव'वाच्य।
कर्तवाच्य में कर्ता प्रधान होता है, कर्म गौण रहता है। कर्मवाच्य में कर्म प्रधान होता है, कर्ता गौण रहता है। भाववाच्य में क्रिया प्रधान होती है, कर्ता और कर्म गौण रहते हैं।
अपने भावों को कहने के लिए इन तीन वाच्यों में से एक वाच्य का माध्यम लेना होता है । किस वाच्य को हम महत्त्व दें यह हमारी विवक्षा या भावना पर निर्भर है । इस पाठ में कर्तृवाच्य पर विचार करते हैं। कर्मवाच्य और भाववाच्य पर आगे के पाठों में विचार करेंगे।
____अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए हमें शब्दों का सहारा लेना होता है। शब्दों के समूह को वाक्य कहते हैं। वाक्य में कम से कम एक कर्ता और एक क्रिया होती है। केवल कर्ता से वाक्य नहीं बनता और केवल क्रिया से वाक्य नहीं बनता। कभी-कभी बातचीत के प्रसंग में केवल एक कर्ता या केवल एक क्रिया का प्रयोग भी होता है। जैसे--रमेश ने सुरेश से कहा--कौन पढता है ? उसने उत्तर दिया-मैं। यहां केवल कर्ता का प्रयोग है, क्रिया का नहीं । पूरा वाक्य था--मैं पढता हूं।
संक्षेप में कहने से क्रिया का प्रयोग नहीं होता। कर्ता के साथ क्रिया का निश्चित सम्बन्ध होने के कारण 'मैं' कर्ता के साथ उत्तम पुरुष की क्रिया स्वयं आ जाती है। इसी प्रकार केवल क्रिया का भी बातचीत में व्यवहार होता है। विमल और रवीन्द्र दुकान पर जाने के लिए बातचीत कर रहे थे। विमल ने पूछा-गया नहीं। रवीन्द्र ने उत्तर दिया--जाता हूं। यहां प्रश्न और उत्तर दोनों में कर्ता नहीं है। पूरा वाक्य था-कोई गया नहीं। उत्तर था-मैं जाता हूं। यहां कोई और मैं का प्रयोग नहीं किया गया है। यहां कर्ता का अध्याहार किया जाएगा। सामान्यतया वाक्य में एक कर्ता और एक क्रिया होती है। विस्तार करें तो वाक्य में कर्ता के साथ कर्म, साधन, संप्रदान, अपादान, सम्बन्ध और आधार इनका भी प्रयोग किया जा सकता है। कर्ता आदि के विशेषणों का भी प्रयोग किया जा सकता है । और अधिक स्पष्टता के लिए निम्नलिखित वाक्य पढें ।
१. राम जाता है। राम कर्ता है, जाता है क्रिया। २. मनीषा पुस्तक
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बास्य
पढती है। पढती है क्रिया, मनीषा कर्ता और पुस्तक कर्म । ३. गोपाल पेन से लिखता है--लिखता है क्रिया, गोपाल कर्ता और पेन से साधन । ४. सुमन साधु को भिक्षा देती है-देती है क्रिया, सुमन कर्ता, भिक्षा कर्म और साधु को सम्प्रदान । ५. वह घोडे से गिरता है--गिरता है क्रिया, वह कर्ता और घोड़े से- अपादान । ६. मेरा सफेद घोडा तेज दौडता है—दौडता है क्रिया, तेज क्रिया का विशेषण, घोड़ा कर्ता, सफेद कर्ता का विशेषण, मेरा सम्बन्ध । ७. तुम्हारे घर में बालक पुस्तक पढते हैं। पढते हैं क्रिया, बालक कर्ता, पुस्तक कर्म, घर में आधार, तुम्हारे सम्बन्ध ।
_वाक्य में एक क्रिया के साथ अर्धक्रिया भी आ सकती है। क्त्वा और तुम प्रत्यय के रूप अर्धक्रिया के द्योतक हैं। क्रिया के आगे कर या करके तथा 'के लिए' लगाने पर अर्धक्रिया बनती है। खाने के लिए, पीने के लिए, बोलने के लिए, करने के लिए ये रूप 'तुम्' प्रत्यय के अर्धक्रिया के हैं। खाकर, पीकर, बोलकर आदि क्त्वा प्रत्यय के रूप अर्धक्रिया के हैं।
(१) वह पाठ पढ़ने के लिए विद्यालय जाता है-~जाता है क्रिया, वह कर्ता, विद्यालय कर्म, पढने के लिए अर्धक्रिया, पाठ अर्धक्रिया का कर्म । (२) सुशील खाना खाकर बाजार जाता है। यहां जाता है क्रिया, सुशील कर्ता, बाजार कर्म, खाकर अर्धक्रिया, खाना अर्धक्रिया का कर्म ।
प्रश्न १. नीचे लिखे वाक्यों में कर्ता आदि छांटो। विमलेश किसका पुत्र है ? घर में कौन बैठा है ? धर्मेश अध्ययन करता है। सरला ज्योतिष पढती है। वह चाकू से क्या काटता है ? रमा आचार से भ्रष्ट है। सफेद गाय पीली गाय की अपेक्षा गाढा और अधिक दूध देती है। काले कुत्ते को मत मारो । सूक्ष्म लेखनी से सुन्दर अक्षर कौन लिखता है ? तुम्हारे भाग्य में क्या लिखा है ? अपने भाग्य का निर्माता मैं स्वयं हूं। विकास का मार्ग सबके लिए खुला है। नेताओं के आश्वासनों पर अधिक विश्वास मत करो। दिन में खाना खाकर सोना क्या स्वास्थ्य के लिए अच्छा है ? वह वाणी का संयम न कर बात को बिगाडता है। अनुशासन के लिए गुरु की आज्ञा का पालन करो। भागते हुए घोडे से शंकर गिर गया। मेरी पुस्तक पीले रंग की थी। समय का मूल्यांकन कौन करता है ? धन से अधिक मूल्यवान धर्म है। गिरकर भी जो उठता है वह बुद्धिमान है। पूर्वभव के संस्कारों को जानने के लिए उसने भगवान से पूछा । इस जन्म के बाद मेरे कितने भव अवशेष हैं ? सदा सत्य बोलो । जीवन को नियमित बनाओ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध ।
२. वाच्य कितने होते हैं ? उनकी पहचान क्या है ? ३. वाच्य में कम से कम क्या होता है और अधिक में क्या ? ४. अर्धक्रिया और क्रिया में अन्तर क्या है ? ५. अधंक्रिया किन प्रत्ययों के योग से बनती है ? ६. हिन्दी में पांच वाक्य ऐसे बनाओ जिनमें अर्धक्रिया के प्रयोग हों ? ७. हिन्दी में छह वाक्य ऐसे बनाओ जिनमें कर्ता, कर्म और साधन
साथ में हों।
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विभक्तिबोध
जो नाम या क्रियाएं हमारे व्यवहार में आती हैं उन सब के अंत में विभक्ति लगी हुई होती है । विभक्तिरहित कोई शब्द या क्रिया हमारे व्यवहार में नहीं आती। कहीं-कहीं पर विभक्ति के प्रत्यय आते हैं पर उनका लोप हो जाता है, शब्द ज्यों का त्यों रहता है, वह शब्द विभक्त्यन्त कहलाता है। विभक्ति का अर्थ है--विभाजन करने वाला प्रत्यय । जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध होता है उसे विभक्ति कहते हैं। विभक्तियां नाम और क्रिया की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को तथा भिन्न-भिन्न काल को सूचित करती हैं। संज्ञा या नाम के अंत में सात विभक्तियां होती हैं।
सि प्रत्यय आदि में होने के कारण उनकी संज्ञा स्यादि विभक्तियां है। कर्ता आदि छह कारक और संबंध में इन सात विभक्तियों का उपयोग होता है। सामान्यतया कर्ता आदि कारक उसके चिह्न और विभक्ति को इस रूप में याद कर सकते हैं। कारक
चिह्न
विभक्ति कर्ता
है, ने
प्रथमा कर्म
को, (को रहित) द्वितीया साधन
से, द्वारा
तृतीया संप्रदान
के लिए
चतुर्थी अपासन
पंचमी संबंध
का, के, की षष्ठी अधिकरण
में, पर
सप्तमी प्रथमा विभक्ति
१. कर्तवाच्य में संज्ञाएं जब कर्ता के रूप में व्यवहृत होती हैं सब उनमें प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे
मर्ष रुक्खो
पर्वत आसो अश्व
शुक्ल गुणो गुण पीअं
पीला कंबलो कंबल सिरी
लक्ष्मी, शोभा २. संबोधन में प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे-हे सुरेस !
अर्थ
वृक्ष
पव्वयो
सुक्क
M
amin-rmire
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प्राकृत वाक्यरचना बोष
३. कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। द्वितीया आदि विभक्तियां आगे के पाठों में पढ़ें।
प्रश्न १. नीचे लिखे वाक्यों में कौनसी विभक्ति किसमें है ?
समुद्र के पास भव्य मंदिर को देखने के लिए जनता उमड पडी। बादलों की सघनता को देखकर किसानों ने सोचा, आज मेघ बरसने वाला है। मेरा तुम्हारे पर विश्वास है, इसीलिए मैंने तुमको अपनी गुप्त बात कही है। तुम्हारी विनयशीलता मेरे मानस को प्रभावित करती है। दूसरों की शिकायत करने वाला पहले स्वयं को देखे । वह कुल्हाड़ी से वृक्ष को काटता है। काष्ठ पर खडा होकर वह बिजली को छूता है। रमेश पिता से डरता है, पर माता की अवमानना करता है। धर्म से सुख मिलता है और धन से वस्तु मिलती है । वह पेन से अक्षरों को लिखता है । मेज पर किताबें हैं।
उनकी संख्या कितनी है ? २. विभक्ति की उपयोगिता क्या है ? ३. विभक्तियां कितनी हैं ? प्रत्येक की पहचान क्या है ? ४. प्रथमा विभक्ति कहां-कहां होती है ?
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प्रथम पुरुष
कर्ता को तीन भागों में विभाजित किया जाता है
(१) प्रथम पुरुष (२) मध्यम पुरुष (३) उत्तम पुरुष एकवचनवहत बहुवचन वे वे दोनों तुम तुम दोनों हम हम दोनों
प्रथम पुरुष को अन्य पुरुष भी कहते हैं। हाथी, घोडा, लक्ष्मी, पृथ्वी, वृक्ष आदि जितनी भी संज्ञाएं कर्ता होती हैं वे सब प्रथम पुरुष के कर्ता हैं। इसके साथ प्रथम पुरुष की क्रिया आती है। कर्तृवाच्य में इनकी कर्ता संज्ञा है। सर्वनाम
संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते हैं। संज्ञा का प्रयोग होने के बाद ही संज्ञा के स्थान पर सर्वनाम का प्रयोग होता है। संज्ञा में जो लिङ्ग और वचन होते हैं उसके स्थान पर आने वाले सर्वनाम में वही लिङ्ग और वचन होता है। सर्वनाम त्रिलिङ्गी होते हैं। इनके रूप परिशिष्ट १ में देखें । सर्वनाम ये हैं.--- प्राकृत
संस्कृत हिन्दी सम्व वीस विश्व
सब उभय
उभय इक्क, एक्क, एग
एक एक्कतर एकतर
कोई एक अण्ण
अन्य इतर
कोई अन्य कयर
कतर कयम कतम
उनमें कौनसा
जो त, ण .. तद् - एअ, एय एतद्
यह . किम् ।
कौनपुम्ब
सर्व
सब
एक
इयर
कौनसा -
यद
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प्राकृत वाक्यरचना बोष
दूसरा
स्व .
वह
पर दाहिण, दक्षिण दक्षिण
दक्षिण, दक्षिण का उत्तर उत्तर
उत्तर, उत्तर का अवर अपर
अन्य, दूसरा अहर अधर
नीचा स, सुव
अपना इदम् अमु
अदस् तुम्ह
युस्मद् अम्ह
अस्मद् भव भवत्
आप तू, तुम, मैं और हम बोधक शब्दों के अतिरिक्त शेष सभी शब्द प्रथम पुरुष में प्रयुक्त होते हैं।
__ पास की वस्तु या व्यक्ति के लिए इम (इदम् ), अधिक पास की वस्तु या व्यक्ति के लिए एअ (एतद्), सामने के दूरवर्ती पदार्थ या व्यक्ति के लिए अमु (अदस्), परोक्ष (जो वक्ता के सामने न हो) पदार्थ या व्यक्ति के लिए स (तद्) शब्द का प्रयोग किया जाता है।
रमेश पढने में होशियार है परन्तु उसका भाई धनेश मंद बुद्धि वाला है। रमेश का इस अर्थ में 'उसका' शब्द का प्रयोग हुआ है। कई बार सर्वनामशब्द संज्ञा के विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं । यह लडका सुन्दर है । यह पुस्तक पाठनीय है । जिस प्रकार संज्ञा में सब विभक्तियां आती हैं, वैसे ही सर्वनाम में भी सब विभक्तियां आती हैं-उसने, उसको, उससे, उसके लिए, उससे, उसका, उसमें या उस पर आदि ।
प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष---ये तीनों पुरुष सर्वनाम के ही रूप हैं।
मो-वह
ते-वे/वे दोनों ता-वह (स्त्री)
ता-वे/वे दोनों (स्त्री) धातु प्रत्यय (वर्तमान काल)
न्ति, न्ते, इरे हस्-हसइ, हसए
हसन्ति, हसन्ते, हसिरे हस् धातु की तरह अन्य व्यंजनान्त (म विकरण बाली) धातुजों के रूप बनते हैं।
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प्रथम पुरुष
प्रयोग वाक्य
वह नमन करता है । ते नमंति- वे दोनों / वे
सो नमइ सो पढाइ सो लिइ वह लिखता है ।
- वह पढता है ।
दोनों / वे सब पढते हैं ।
ते पढन्ति- वे ते लिहंति -- वे ते भांति - वे
सो भइ - वह पढता है । सो हसइ --- वह हंसता है । प्राकृत में अनुवाद करो
सब / वे दोनों लिखते हैं । सब / वे दोनों पढते । ते हसंति - वे सब / वे दोनों हंसते हैं ।
यह नमता है । वह पढता है। वह हंसता है । वह लिखता है । वह पढती है । वह नमती है । वह हंसती है । वह लिखती है । वे नमते हैं । वे पढते हैं । वे हंसते हैं । वे लिखते हैं । वे दोनों नमते हैं । वे दोनों पढते हैं । वे दोनों हंसते हैं । वे दोनों लिखते हैं । वे नमती हैं । वे हंसती हैं । वे पढ़ती हैं । वे लिखती हैं । वे दोनों नमती हैं । वे दोनों पढ़ती हैं । वे दोनों हंसती हैं । वे दोनों लिखती हैं ।
प्रश्न
१. पुरुष कितने प्रकार के होते हैं ? उनके कर्त्ता कौन हैं ? सर्वनाम किसे कहते हैं ?
३. सर्वनाम कौन-कौन से शब्द हैं ?
१३
सब नमन करते हैं ।
४. प्रथम पुरुष के वर्तमान काल के क्या-क्या प्रत्यय हैं ?
५. सर्वनाम में कौनसी विभक्ति होती है ? उदाहरण से स्पष्ट करो | सर्वनाम में कौनसा लिंग व वचन होता है ?
६.
७. प्रथम पुरुष में कौन से सर्वनाम माने जाते हैं ?
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मध्यम पुरुष
धातु संग्रह सेव----सेवा करना
पास-देखना गच्छ-जाना
धाव-दौडना सुण--सुनना
भम-घूमना भुंज-खाना
पिव-पीना इच्छ-इच्छा करना
जाण-जानना
अव्यय संग्रह कल्ल (कल्यं)-कल
अत्थ (अत्र)--यहां सइ, सया (सदा)-सदा तत्थ (तत्र)—वहां सइ (सकृत्)---एक बार ण, न (न)--नहीं मुहु---बार-बार
झत्ति (झटिति) ----शीघ्र सणिों (शनैः)-धीरे
अज्ज (अद्य)--आज ऊपर बताए गए अव्यय इसी रूप में प्रयोग में आते हैं । न इसमें कुछ जुडता है और न कुछ कम होता है ।
मध्यम पुरुष एक वचन
बहुवचन तुमंतू
तुम्हे-तुम तुम दोनों धातु प्रत्यय (वर्तमान काल) ..... सि, से
इत्था , ह सि, से और ह प्रत्यय धातु के आगे जुड़ जाते हैं । इत्था प्रत्यय धातु के अ का लोप होने के बाद जुडता है । प्रयोग वाक्य
तुमं गच्छसि-तू जाता है/जाती है। तूमं सेवसि-तू सेवा करता है करती है। तुमं सुणसि-तू सुनता है/सुनती है । तुम भुंजसि-तू खाता है|खाती है। तुमं पाससि-तू देखता है/देखती है। तुमं धावसि-तू दौडता है|दौडती है । तुमं भमसि-तू घूमता है/घ मती है। तुमं पिवसि-तू पीता है/पीती है । तुम इच्छसि-तू इच्छा करता है/करती है।
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मध्यम पुरुष
तुम जाणसि-तू जानता है |जानती है। तुम अज्ज गच्छसि-तू आज जाता है|जाती है। तुम सइ भुंजसि-तू एक बार खाता है|खाती है। तुमं सणिअं भमसि--तू धीरे घूमता है/घूमती है। तुम मुहु लिहसि--तू बार-बार लिखता है/लिखती है । तुम सया सेवसि---तू सदा सेवा करता है करती है । तुम्हे गच्छित्था--तुम तुम दोनों जाते हो जाती हो। तुम्हे से वित्था--तुम तुम दोनों सेवा करते हो करती हो । तुम्हे सुणह-तुम तुम दोनों सुनते हो/सुनती हो । तुम्हे भुंजह-तुम तुम दोनों खाते हो/खाती हो। तुम्हे पासह-तुम तुम दोनों देखते हो/देखती हो । तुम्हे धावित्था---तुम तुम दोनों दौडते हो/दौडती हो । तुम्हे इच्छह---तुम/तुम दोनों इच्छा करते हो/करती हो । तुम्हे भमित्था-तुम तुम दोनों घूमते हो/घूमती हो । तुम्हे जाणह-~-तुम/तुम दोनों जानते हो/जानती हो ।
तुम्हे पिवह--तुम तुम दोनों पीते हो/पीती हो। प्राकृत में अनुवाद करो
तू बार-बार पढता है। तू आज दौडता है। तू सेवा करती है। तू घूमती है । तू धीरे सुनती है । तू बार-बार देखती है । तू सदा वहां जाती है। तू दोडती है। तू जानती है । तू इच्छा करता है। तू यहां खाता है। तू धीरे पीता है । तू शीघ्र जाता है । तू वहां बार-बार जाता है । तू आज नहीं लिखता है। तू नहीं हंसता है। तुम दोनों सेवा करते हो। तुम वहां खाते हो। तुम यहां घूमते हो । तुम नहीं देखती हो। तुम दोनों बार-बार खाती हो । तुम दोनों जल्दी जाते हो । तुम दौडते हो। तुम सदा इच्छा करते हो । तुम दोनों सुनती हो । तुम नहीं सुनते हो । तू खाता है। तुम दोनों नहीं खाते हो । तू पढता है । तुम सदा घूमते हो ।
प्रश्न
१. मध्यमपुरुष के कर्ता कौन-कौन हैं ? २. नीचे लिखी धातुओं के अर्थ बताओ-- __ भम, भुंज, धाव, सेव, पास, पिव, जाण, गच्छ, सुण, इच्छ । ३. नीचे लिखे अव्ययों के अर्थ बताओ
झत्ति, सइ, अज्ज, तत्थ, सणि, कल्लं, अत्थ, सया ४. इत्था और ह प्रत्यय किस अर्थ में लगते हैं और इनको धातु के
आगे लगाने की विधि क्या है ? :
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उत्तम पुरुष
शब्द संग्रह (महापुरुष) अरहंत--अरहंतो
सिद्ध--सिद्धो पार्श्वनाथ-पासणाहो धर्मगुरु-आयरियो महावीर--महावीरो
साधु---साधू महादेव, शिव-हरो
बुद्ध-बुद्धो जिन-जिणो
उपाध्याय---उवज्झायो
धातु संग्रह पड-गिरना
बीहडरना मुंच-छोडना
रूस-क्रोधित होना दह---जलना
पविस–प्रवेश करना जंप-बोलना
घाय--मारना तव-तपना
___ अव्यय संग्रह प्राकृत संस्कृत हिन्दी प्राकृत संस्कृत हिन्दी इयाणि, दाणि (इदानीं) इस समय धुवं (ध्रुवम्) निश्चय
(किं) क्या एगया (एगदा) एक बार केरिसो (कीदृशः) कैसा खिप्पं (क्षिप्र) शीघ्र
(पुनः) फिर से अवस्सं (अवश्यं), अवश्य . • पुल्लिग अकारान्त देव शब्द के रूप याद करो। देखो परिशिष्ट १ संख्या १
उत्तम पुरुष एक बचन
बहु वचन अहं-मैं
अम्हे-हम हम दोनों धातु प्रत्यय (वर्तमान काल)
मो, मू, म अकारान्त धातु के अ को आ हो जाता है उसके आगे ये प्रत्यय जुड जाते हैं।
अहं पिवामि--..मैं पीता हूं/पीती हूं।
पुणो
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उत्तम पुरुष
अहं हसामि---मैं हंसता हूं/हंसती हूं। अहं लिहामि---मैं लिखता हूं लिखती हूं। अहं भंजामि-मैं खाता ह/खाती हूं। अहं सेवामि---मैं सेवा करता हूं/करती हूं । अहं जाणामि--मैं जानता हं जानती हैं। अहं भणामि-मैं पढ़ता हूं पढ़ती हूं। अहं इच्छामि--मैं इच्छा करता हूं/करती हूं। अहं गच्छामि----मैं जाता हूं जाती हूं। अहं जंपामि----मैं बोलता हूं बोलती हूं। अहं दाणि भमामि---मैं इस समय घ मता हूं/घ मती हूं। अहं पविसामि—-मैं प्रवेश करता हूं/करती हूं। अम्हे पिवामो---हम हम दोनों पीते हैं/पीती हैं । अम्हे लिहामु-हम हम दोनों लिखते हैं लिखती हैं । अम्हे भुंजाम-हम हम दोनों खाते हैं/खाती हैं । अम्हे सेवामो-हम हम दोनों सेवा करते हैं/करती हैं। अम्हे जाणामु-हम हम दोनों जानते हैं जानती हैं । अम्हे इच्छाम---हम हम दोनों इच्छा करते हैं करती हैं। अम्हे हमामो-हम हम दोनों हंसते हैं/हंसती हैं । अम्हे जंपाम-हम/हम दोनों बोलते हैं/बोलती हैं । अम्हे पामामो-हम हम दोनों देखते हैं देखती हैं । अम्हे गच्छामु--हम हम दोनों जाते हैं/जाती हैं । अम्हे भणाम----हम हम दोनों पढते हैं/पढती हैं । अम्हे तवामो--हम/हम दोनों तपते हैं तपती हैं । अम्हे बीहमु-हम हम दोनों डरते हैं/डरती हैं। अम्हे रूसाम----हम/हम दोनों क्रोधित होते हैं/होती हैं ।
अव्यय प्रयोग---दाणि आयासत्तो जलबिंदुणो पडंति । रामो खिप्पं पढइ । सुरेसो केरिसो पुरिसो अत्थि ? हं अवस्सं लिहामि । एगया महावीरो अत्थ आगओ । सो पाढं पुणो पढइ । प्राकृत में अनुवाद करो
मैं शीघ्र लिखता है। मैं धीरे लिखता हूं। मैं सेवा करता हूं। मैं बार-बार जाती हूं। मैं एक बार देखता हूं। मैं पीता हूं। मैं सदा हंसता हूं। मैं नहीं खाता हूं। मैं वहां नहीं जाती हूं। मैं आज पढ़ती हूं। मैं वहां खाती हूं। मैं अवश्य लिखता हूं । मैं अवश्य सेवा करता हूं। मैं आज पढता हूं । मैं इस समय वहां जाता हूं। मैं फिर से लिखता हूं। मैं कैसा हूं ? मैं नहीं
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१८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हंसता हूं । हम आज पढते हैं। हम दोनों लिखते हैं । हम नहीं हंसते हैं । हम फिर से देखते हैं । हम आज सेवा करते हैं। हम दोनों धीरे बोलते हैं । हम वहां अवश्य जाती हैं। हम दोनों क्रोधित होते हैं । हम दोनों इच्छा करते हैं । हम दोनों जानते हैं। हम दोनों एक बार खाती हैं । हम दोनों सदा पढती हैं । हम दोनों वहां खाती हैं। हम दोनों इच्छा करती हैं । हम वहां लिखते हैं । हम दोनों यहां खाते हैं। हम एक बार वहां अवश्य जाते हैं। हम दोनों इस समय वहां निश्चय जाती हैं। हम शीघ्र दौडती हैं। हम दोनों घ मते हैं । हम एक बार खाते हैं । हम एक बार हंसती हैं। हम पीते हैं। हम दोनों नहीं पढते हैं । हम दोनों जानते हैं । हम दोनों नहीं लिखती हैं। हम सदा हंसती हैं । वह जल्दी पढता है । तुम कैसे आदमी हो? मैं अवश्य पढता हूं। वह फिर से पढता है । एक बार तुम यहां आए थे।
प्रश्न १. उत्तमपुरुष के बहुवचन के प्रत्यय कौन-कौन से हैं और उनके रूप
बनाने का सरल उपाय क्या है ? २. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द क्या हैं?
अरहंत, आचार्य, सिद्ध, पार्श्वनाथ, जिन, साधु, बुद्ध, महादेव,
उपाध्याय । ३. नीचे लिखे अर्थों में कौन-कौनसी धातु प्रयोग में आती है ? बोलना, प्रवेश करना, क्रोध करना, छोडना, तपना, डरना, मारना,
जलना, गिरना। ४. नीचे लिखे अर्थों में किन अव्ययों का प्रयोग करना चाहिए ?
अवश्य, एक बार, फिर से, कैसा, निश्चय, इस समय ।
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कर्म
शब्द संग्रह (परिवार वर्ग १) पिता-जणओ, बप्पो, पिऊ
माता--माआ, जणणी, अम्मो दादा--अज्जयो, पिआमहो
दादी-पिआमही, अज्जिआ परदादा--पपिआमहो, पज्जओ परदादी--पज्जिआ नाना--माआमहो
नानी-माउम्मही परनाना-पमायामहो
परनानी--पमाआमही मामा-माउलो
मामी-मामी, मल्लाणी (दे०) मामे का बेटा-माउलपुत्तो
आसिसा---आशीषः भिखारी, भीख मांगने वाला-भिक्खारी
धातु संग्रह जिंघ---सूघना अरिह-पूजा करना, अर्चना करना सुमर-स्मरण करना कह-कहना
दा-देना पीस-पीसना
पतार----ठगना
अव्यय संग्रह कह-कैसे
किमवि--कुछ भी अइ (अति) अतिशय
अईव (अतीव) विशेष • पुलिंग आकारान्त गोपा शम्ब, इकारान्त मुणि और उकारान्त साह शब्द को याद करो । देखो-परिशिष्ट १, संख्या २,३,५।
कर्म-कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जो वस्तु निष्पन्न करता है या जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पडता है उसे कर्म कहते हैं। कर्म की यह विस्तृत परिभाषा है। संक्षेप में कर्ता जो कुछ करता है वह कर्म है । कर्म के तीन भेद हैं----
१. निर्वयं-- इसका अर्थ है उत्पाद्य । उत्पाद्य वस्तुएं दो श्रेणी की होती हैं। (क) जो जन्म से उत्पन्न हो। जैसे-माता पुत्र को पैदा करती है। (ख) जो अविद्यमान हो और उसका निर्माण किया जाए। जैसे-मिस्त्री मकान बनाता है।
२. विकार्य---वर्तमान वस्तु को अवस्थान्तरित करने से जो विकार
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२०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
होता है उसको विकार्य कहते हैं । जैसे— स्वर्णकार सोने का कुण्डल बनाता है । ३. प्राप्य - जिसमें क्रिया से कुछ भी विशेषता न होती हो उसे प्राप्य कहते हैं । जैसे—मैं चन्द्रमा को देखता हूं। इसमें न तो कुछ भी उत्पन्न होता है और न विकृत ही ।
I
कर्तृवाच्य में कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । कर्म-वाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है और क्रिया में लिंग और वचन कर्म के अनुसार होते हैं
प्रयोग वाक्य
पज्जओ महावीरं गच्छइ । बप्पो सीयं जलं पिब । मायामही बहु बीes | पिआमही सव्वं जाणइ । माउलो सच्चं जंपित्था । मायामहो कि जिंघई ? पिआमही जिणं सुमरइ । मल्लाणी पासणाहं अरिहेइ । अज्जिआ कह कहइ ? अज्जओ सह भुंजइ । पज्जिआ जणणि आसिस ( आशीष ) देइ । माआ कि इच्छइ ? पिऊ उज्जाणम्मि अइ । मामी भिक्वारिं किमविण देइ । जयमाला कुसुमं पतारइ । तस्स भज्जा चुण्णं (आटा) पीसह । माउलो अमरं जंप | अहं किमवि न इच्छामि । तुमं कहं हससि ? तुज्झ अक्खराणि अईव सुंदरं संति । माउलपुत्तो किमवि न कहइ ।
प्राकृत में अनुवाद करो
दादा ने पिता का पालन किया। दादी कहानी कहती है । परदादा मामा को देखता है । परदादी एक बार खाती है । नानी सदा डरती है । मामी महावीर की पूजा करती है। माता क्या सूंघती है ? मामा क्या चाहता है ? दादा कथा सुनता है । नाना सब जानता है। दादी सदा ठंडा पानी पीती है । नानी बार-बार नहीं खाती। पिता सत्य बोलता है । वह कुछ नहीं चाहता । तुम कैसे पढते हो ? राम अतीव सुन्दर बोलता है। माया का पुत्र कथा कहता है ।
प्रश्न
१. कर्म कितने प्रकार के होते हैं ? प्राप्यकर्म किसे कहते हैं ?
२. कर्म में कौनसी विभक्ति होती है ?
३. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ-
परदादा, मामी, पिता, नाना, मामा, मां, परदादी, नानी ।
४. नीचे लिखी धातुओं के अर्थ बताओ
अरिह, सुमर, जिंघ, पीस, पतार, दा, कह ।
५. देव शब्द के सारे रूप लिखो ।
६. नीचे लिखे अव्यय किस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं ? अग्गे, विणा, अवि, अग्गओ, अईव ।
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ह
साधन
शब्द संग्रह (परिवार वर्ग २ )
चाचा --- पिइज्जो, चुल्ल पिऊ भाई - भायरो, भाऊ, भाई (पुं) फुफेराभाई -- पिउसियाणेयो मौसेरा भाई -- माउसिआणेयो चचेरा भाई पिइज्जपुत्तो बड़ा भाई-- अग्गओ
बड़ी बहन का पति -- भाओ (दे० )
प्रतिदिन --पइदिणं
पूर्ण, पुण्य-पुण सहायता ---साहज्जे
चाची- पिइज्जजाया, चुल्लपिउजाया बहन - बहिणी, भगिणी, ससा फुफेरी बहन - पिउसिआणिज्जा मौसेरी बहन - माउसिआ णिज्जा चचेरी बहन - पिइज्जसुआ छोटाभाई-- अणुओ
अपना घर 1 - णियहिं शत्रु – सत्तू (पु० )
जव -- जाप करना ओग्गह -- ग्रहण करना
जुज्झ --- लड़ाई करना, युद्ध करना
वड्ढ --- बढना
पडिभा -- मालुम होना
O
धातु संग्रह
विणा-- बिना अग्गे (अग्र) आगे
हस धातु के कर्तृवाच्य के सब संख्या १) हसान्त धातुओं के रूप इस ग्रामणी और खलपू शब्द के संख्या ४,६ ) ग्रामणी के रूप मुणि की तरह चलते हैं ।
अव्यय संग्रह
ओणम् -- नीचे नमना जिण - जीतना
घी, णे- ले जाना, पहुंचाना
लह— प्राप्त करना
सक्क - सकना
O
अवि, पि-भी
अग्गओ ( अग्रतस् ) आगे से रूप याद करो (बेलो- परिशिष्ट २ धातु की तरह चलते हैं ।
रूप याद करो (देखो -- परिशिष्ट १ तरह और खलपू के रूप साधु की
साधन - जिसके द्वारा कार्य किया जाता है उसे साधन या करण कहते हैं । एक कार्य करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनेक वस्तुएं सहायक होती
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२२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हैं। कार्य की सिद्धि में जितने सहायक होते हैं, वे साधन नहीं कहला सकते । साधन तो वही है जो साधकतम हो यानि क्रिया की सिद्धि में सबसे अधिक निकट संपर्क रखता हो । जैसे- - वह पेन से लिखता है । अध्यापक रमेश को डंडे से मारता है । इन दो वाक्यों में पेन और डंडा साधन है । कहीं-कहीं पर विवक्षा से साधन को कर्ता भी बनाया जाता है। जैसे, सुरेश तलवार से काटता है । यहां तलवार से साधन है । तलवार काटती है— इस वाक्य में तलवार जो साधन थी उसे कर्ता बना दिया गया है, यहां तलवार में प्रथमा विभक्ति होगी । संप्रदान को भी साधन बनाया जा सकता है । जैसे -- श्रावक साधु के लिए भिक्षा देता है। यहां साधु के लिए सम्प्रदान है । इस वाक्य को साधन में इस प्रकार बदल सकते हैं - श्रावक भिक्षा से साधु का सत्कार करता है । साधन केवल वस्तु ही नहीं बनती, मन, वचन और शरीर भी साधन बनते हैं। साधन में तृतीया विभक्ति होती है । तृतीया विभक्ति
I
१. सह, साअं, समं और सद्ध के योग में तृतीया विभक्ति होती है । २. पिहं, बिना और नाना शब्दों के योग में तृतीया या द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है ।
३. जिस विकृत अंग के द्वारा अंगी का विकार मालूम हो उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है ।
४. जो जिस विशेष लक्षण से जाना जाए उसके लक्षण में तृतीया विभक्ति होती है ।
५. आर्ष प्रयोगों में सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति होती है । ६. जिस कारण या प्रयोजन से कोई कार्य किया जाता है या होता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है ।
प्रयोग वाक्य
पिइज्जो जलं पिवइ । पिइज्जजाया पासणाहं जवइ । बप्पो सिद्ध सुमरइ | भाअरो कि जिंघई ! ससा सइ मालाए महावीर जवइ । पिउसियाणेयो सत्तुं जिइ । चुल्लपिउजाया पिउसियाणिज्जं णियगेहं णेइ । माउसियाणेयो सया सच्चं ओग्गहः । माउसिआणिज्जा माउलं सेवइ । पिज्जपुत्तो पइदिणं पिआमहीए सह भुंजइ । पिइज्जसुआए सरीरं वड्ढइ । अग्गओ किं जुज्झइ ? अणुओ कहं सुमरइ ? अणुओ खित्वं गच्छइ । भाओ अज्ज धणं लहर । घरिणी साहज्जे इच्छइ ।
तृतीया विभक्ति के प्रयोग वाक्य
१. अग्गएण सह अणुओ गच्छइ । पिउसिआणिज्जाए समं पिउसिआणेयो भुंजइ । माउसिआणिज्जा भगिनीइ सद्ध जवइ । बहिणीए साअं अणुओ
मुहु मुहु जुज्झइ ।
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साधन
२. जलेण पिहं कमलं चिट्ठिउन सक्कइ । जलेण विणा जीवणं नत्थि । ३. स नेत्तेण काणो अस्थि । माउलो पाएण खंजो अत्थि । ४. रयहरणेण मुणी पडिभाइ । सो मुहेण सुरेसं अणुहरइ । ५. तेणं कालेणं तेण समएणं ।
६. पुण्णेण गुरु दिट्ठो । घणवालो अज्झयणेण अत्थ वसइ । प्राकृत में अनुवाद करो
१. चाचा माला से जाप करता है। बहिन लडाई क्यों करती है ? फफेरा भाई सदा सत्य बोलता है। मौसेराभाई नहीं डरता है । फुफेरी बहिन क्या चाहती है ? मौसेरी बहिन ने भाई की सेवा की। छोटा भाई क्या सूंघता है ? वह मां से क्या चाहता है ? पिता पानी के साथ क्या पीता है ? छोटा भाई बहन के साथ क्यों लडता है ? बड़ा भाई छोटे भाई के साथ दौडता है । भाई बहन के साथ खाता है । बड़ी बहन का पति पार्श्वनाथ का जाप करता है । चचेरा भाई चाची को धन देता है। तृतीया विभक्ति का प्रयोग करो
२. मोहन के बिना उसका रहना सम्भव नहीं है । जल से पृथक् कमल नहीं रह सकता।
३. सीता पग से लंगडी है। रमा आंख से काणी है । मोहन कान से बहरा है।
___४. मुंह से धर्मचंद श्रीचंद के समान है । वह रजोहरण से मुनि मालूम होता है । जटा से तापस जाना जाता है ।
____५. परीक्षा के प्रयोजन से वह यहां रहता है । पुण्य से भगवान के दर्शन होते हैं।
प्रश्न १. साधन किसे कहते हैं और उसमें कौनसी विभक्ति होती है ? २. प्रस्तुत पाठ के अनुसार तृतीया विभक्ति कहां-कहां होती है ? ३. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ---- चाचा, चाची, मौसेराभाई, फुफेराभाई, भाई, बहन, छोटाभाई, बडाभाई,
मौसेरीबहन, चचेराभाई, फुफेरीबहन । ४. नीचे लिखी धातुओं के अर्थ बताओ---- ___ ओग्गह, जुज्झ, जिण, ओणम, जव, वड्ढ़ । ५. एक वाक्य ऐसा बनाओ जिसमें इस पाठ में आए हुए दो शब्द, एक
धातु, एक अव्यय और विभक्ति के छह नियमों में से एक नियम हो। ६. मुणि और साहु शब्द के रूप लिखो। ७. नीचे लिखे अर्थों में कौन से अव्यय प्रयोग में आते हैं ? आगे से, बिना,
आगे।
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दानपात्र
शब्दसंग्रह (परिवार वर्ग ३) पति-भत्ता, सामी, पई (पुं) पत्नी-भज्जा, भारिया, दारा देवर-दिअरो, देअरो, अण्णओ (दे.) साली-साली देवरानी--अण्णी (दे.) अण्णिआ (दे.) दुलहिन----अणरहू (स्त्री दे०) णवा ससुर-ससुरो
सास-सस्सू, सासू, अत्ता (दे.) साला-सालो
बड़ीसाली---कुली बड़ासाला-अवलो (सं)
प्रेयसी--पीअसी, पेअसी सासरा-ससुरालयो
घूघट-अंगुट्ठी, विरगी (दे.) अवउठणं, अवगुंठणं ।
धातु संग्रह णिवेअ----निवेदन करना हो-होना पणम-प्रणाम करना
सिक्ख-शिक्षा देना आरोहण--ऊपर चढना संकुच--संकोच करना
अव्यय संग्रह अण्णोण्णं, अण्णमणं (अन्योन्यं) परस्पर, आपस में अणंतर (अन्तर) पश्चात्, इसके बाद अन्तो (अन्तर) भीतर अण्णहा (अन्यथा) नहीं तो
स्त्रीलिङ्ग आकारान्त माला शब्द के रूप याद करो (देखो परिशिष्ट १ संक्या २२)। दानपात्र
कर्म के द्वारा अथवा क्रिया के द्वारा श्रद्धा, उपकार या कीति की इच्छा से जिसको कोई वस्तु दी जाए अथवा जिसके लिए कोई कार्य किया जाए, उसे दानपात्र कहते हैं । दानपात्र में चतुर्थी विभक्ति होती है । श्रमण के लिए भिक्षा देता है---इस वाक्य में श्रमण को श्रद्धा से भिक्षा दी जाती है। गुरु को कार्य निवेदन करता है----यहां निवेदन श्रद्धा से किया जाता है, इस लिए गुरु की दानपात्र संज्ञा है। धोबी को वस्त्र देता है, राजा को कर देता
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. दानपात्र ...
.
२५
है—इन दो वाक्यों में देने की क्रिया अवश्य है, पर श्रद्धा, उपकार या कीर्ति की भावना से नहीं है। पहले वाक्य से रुपयों के विनिमय से कार्य कराया जाता है । दूसरे वाक्य में व्यवस्था की दृष्टि से देता है । मन न होने पर भी देना होता है । इसलिए ऊपर के दोनों वाक्यों की दानपात्र संज्ञा नहीं है। चतुर्थी विभक्ति १. रोय (रुच) अर्थ वाली धातुओं के योग में जिस व्यक्ति को जो
पदार्थ रुचता हो, उस व्यक्ति में चतुर्थी विभक्ति होती है। २. कुज्झ (क्रुध ) दोह (द्रुह), ईस (ईष्) तथा असूअ (असूय) धातुओं के योग में जिनके ऊपर क्रोधादि किया जाता हो उसमें
चतुर्थी विभक्ति होती है। ३. मिह (स्पृह ) धातु के योग में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है। ४. समत्थ (समर्थ) अर्थ वाले शब्द (अलं, खमो, पभू), नमो, सुत्थि,
(स्वस्ति) सुहा, सुआहा आदि शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। ५. हिअ (हित) और सुह (सुख) शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति
होती है। ६. जिस वस्तु से किसी वस्तु का निर्माण किया जाता हो उस निर्मित ___ वस्तु में चतुर्थी होती है, उपादान वस्तु का साथ में प्रयोग हो तो। ७. कर्ज लेना धातु के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। ८. सलाह (श्लाघ) हुण, (हनु) चिट्ट (स्था) सव (शप्) धातुओं के
योग में चतुर्थी विभक्ति होती है । प्रयोग वाक्य
पई धम्म न करेइ । भज्जा पइणा सह पइदिणं उज्जाणो परिअडइ । अवलो णियभगिणि किं कहइ ? कुली अज्ज गिहे नत्थि । अणरहं ससुरालयं गक्छइ । देअरो महुवयणं जंपइ । अण्णिआ दिणे सइ भुजइ । अवलो ससुरं पणमइ । सालो जामा सक्कारेइ । सासू अणरहुं कि पुच्छइ ? साली अण्णअं हंसइ । णवा ससुरालये अपरिचिआ होइ । पीअसी पइणा समं भमइ । तणयो जणअस्स सव्वं निवेअइ । मुणी संथारस्स गिरि आरोहइ । चतों विभक्ति का प्रयोग
१. मज्झ मोअगा रोअन्ते । तुज्झवियारो मम रोयइ । २. रमेसो रामाय कुज्झइ, दोहइ, ईसइ, असूअइ वा । ३. विमला पुप्फाण पुप्फाणि वा सिहइ। लोभी धणस्स धणं वा सिहइ । ४. दारा सासूए कहणं सहणस्स पभू । अहं जंपणाय समत्थो मि । मल्लो
मल्लस्स अलं ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
५. बालअस्स हिअं सुहं वा लहुभोयणं ।
६. सो कुंडलाय हिरण्णं णेइ । रामो घटाय मत्तिआ इच्छइ । ७. नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं । भत्ताणं सुत्थि । पिअराणं सुहा । ८. विमलो मोहणाय सयं धरई ।
६. विजयाय सलाहइ, विणयाय हुणइ, विमलाय चिट्ठइ, सुरेसाय सवइ । प्राकृत में अनुबाद करो
पति घर में नहीं है । पत्नी अपने देवर को भिक्षा देती है । देवरानी सासू की सेवा करती है। साली साले को प्रतिदिन प्रणाम करती है । ससुर सास से क्या कहता है ? साला ससुर को नमस्कार करता है । पत्नी प्रेयसी से गुस्सा करती है । सासरे में दुलहन संकोच करती है । पत्नी पति के साथ कहां जाती है ? बडासाला अपनी बहन को शिक्षा देता है । बडीसाली सास को प्रतिदिन प्रणाम करती है । विभक्ति का प्रयोग करो
१. तुम्हें दूध प्रिय है । राम को ठण्डा पानी प्रिय है ।
२. सुशीला लता से ईर्ष्या करती है । सुलोचना रमा से क्रोध करती है । राम मोहन से द्रोह करता है । ललिता से पद्मावती असूया करती है । ३. राजेन्द्र फूलों को चाहता है । सीता गर्म दूध चाहती है ।
४. मैं धन देने में समर्थ हूं । गुरु को नमस्कार है । प्रजा ( प ) का कल्याण हो ( सुत्थि ) । पितरों को समर्पित है ( सुहा) ।
५. ग्राम के लिए स्कूल हितकर है। दूध तुम्हारे लिए सुखकर है ।
६. मकान के लिए यह काष्ठ है । सोना कुंडल के लिए है । ७. श्याम रामू से सौ रुपये कर्ज लेता है ।
८.
अग्रगामी अनुगामी की श्लाघा करता है ।
प्रश्न
१. दानपात्र किसे कहते हैं ? उसमें कौनसी विभक्ति होती है ?
२. देना और दानपात्र का भेद बताओ ।
३. चतुर्थी विभक्ति कहां-कहां होती है ? इस पाठ के अनुसार एक-एक उदाहरण दो ।
४. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ -
सासू, दुलहिन, पत्नी, प्रयसी, साली, सासरा, देवरानी, जंवाई (दामाद), देवर, बड़ी साली और बड़ा साला ।
५. नीचे लिखी धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
रूस, पणाम, सिक्ख, णिवेअ, संकुच ।
६. हस धातु के कर्तृवाच्य के सारे रूप लिखो ।
७. अण्णमण्णं, अनंतर, अंतो-इन अव्ययों के अर्थ बताओ ।
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अपादान
शब्द संग्रह (परिवार वर्ग ४) दोहिता--पडिपोत्तयो
बेटी-पुत्ती, तणया, दुहिआ, धूया बेटा---पुत्तो, तणयो, सुनू भानजी-भाइणेज्जा, भाइणेया भानजा--भाइणेज्जो, भाइणेयो भतीजी---भाइसुआ भतीजा----भाइसुओ
पोती-नत्तुणिया पोता-नत्तुणियो, पोत्तो प्रपोती--पपोती प्रपोता---पपोतो, पडिपुत्तो अविवाहित-अकंडतलिम (दे०)
सखी, सहेली--अत्थयारिआ (दे०) मालिक-सामी घर-घरो (दे०)
पाप-पावं पत्थर-पाहणो, पत्थरो आधाकर्मदोष से युक्त----आहाकड (वि)
धातु संग्रह अस—होना
आगच्छ-आना पवह-निकलना
अहिजाअ-उत्पन्न होना पराजय-हारना
दुगुञ्छ- णा करना पमाय----प्रमाद करना
विरम --विराम लेना - अव्यय संग्रह पगे (प्रगे)-प्रातःकाल
अहुणा-(अधुना) अभी य, अ, च-और
अत्थ--(अत्र) यहां अपरज्जु (अपराध)----दूसरे दिन अहा (यथा)-जिस प्रकार
हो धातु के कर्तृवाच्य के सब रूप याद करो : (देखो परिशिष्ट २ संख्या २) आकारान्त, इकरान्त आदि सभी स्वरान्त पातुमों के रूप हो पातु की तरह चलते हैं। अपादान
अपाय का अर्थ है-विश्लेष यानी अलग होना। एक का दूसरे से अलग होना अपाय कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है (१) शरीर से और (२) बुद्धि से । सुरेश घोडे से गिरता है । पहले सुरेश घोडे के साथ चिपका हुआ था, गिरने से वह घोडे से अलग हो गया। अलग होने की जो अवधि है उसमें पंचमी विभक्ति होती है । बुद्धिपूर्वक विभाग में शरीर से अलग होने की
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प्राकृत वाक्यरचना बोष
कोई आवश्यकता नहीं होती, केवल बुद्धि से ही अलगाव होता है । जैसे-राम शत्रुओं से डरता है । मोहन धर्म से प्रमाद करता है। इन दो वाक्यों में शत्रुओं और धर्म से विभाग होता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। पूर्व के पाठों में कारकों के चिह्न बतलाए गए हैं, उनमें साधन और अपादान का एक ही चिह्न है--से । फिर भी दोनों का अन्तर स्पष्ट ज्ञात होता है । पंचमी विभक्ति
१. दुगुञ्छा, विराम और पमाय तथा इनके समानार्थक शब्दों के योग में पंचमी विभक्ति होती है।
२. जिससे डरता हो उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
३. परा पूर्वक जय (जि) धातु के योग में जिससे हारता है उसकी अपादान संज्ञा होती है और उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
४. जिससे उत्पन्न होता है या निकलता है उसमें पंचमी विभक्ति होत है। प्रयोग वाक्य
पुत्तो पिउं पणमइ पगे। भाइणेज्जो दुद्ध पिवइ । नत्तुणिया घरे खेलइ। माउलो भाइणेयेण सह किं चिंतइ ? बप्पो गिहस्स सामी अस्थि । अज्जओ अहुणा संसारे नत्थि । पज्जओ पूअणीओ अत्थि सव्वाणं गिहवासिणं । पई णिसाए न भुजइ । नत्तुणियो विणेयो सुसीलो य अस्थि । भाइणेज्जा लेहं लिहइ । पपोत्ती गिहागंणे खेलइ। धूया अहुणा अकंडतलिमा अत्थि । भाइणेया अत्थयारिआए समीवत्तो पोत्थयं नेति । रामो पिउणो धणं गेण्हइ । सो कुसुमत्तो धणं मग्गइ । तुम गिरिणो पडित्था । सो पव्वयत्तो पाइणा नेति । विभक्ति का प्रयोग
१. सो सज्झायत्तो पमायइ । सोहणो भासणत्तो विरमइ । साहू पावत्तो दुगुञ्छ।।
२. कमला कलहत्तो बीहइ । गुणसिरी सप्पाओ बीहइ । गिहे सप्पा ओ भयं णत्थि ।
३. लोअणाहो अज्झयणत्तो पराजयइ ।।
४. कामत्तो कोहो अहिजाअइ। संकप्पत्तो कामो अहिजायइ । हिमवत्तो गंगा पवहइ। मव्यय का प्रयोग
- अहं पगे आयरियं पणमामि । अहुणा अत्थ को वि साहू नत्थि । सो अपरज्जु न आगमिहिइ । आहाकडां भिक्खां साहू न गेण्हइ ।
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अपादान
प्राकृत में अनुवाद करो
भतीजा दादा के साथ घूमता है। भानजा लडाई नहीं करता है। पोता दादा के साथ खाना खाता है। भानजी मौसी के साथ यहां कब आई है ? पोती पाप से डरती है । प्रपोता सुंदर है। बेटा बाप को प्रणाम करता है। बेटी ससुराल जाती है । भतीजी अभी तक अविवाहित है । भानजी सहेली के साथ खेलती है। बेटी दादी की सेवा करती है । नानी पाप नहीं करती
विभक्ति का प्रयोग करो
१. हम मनुष्य से दुगुञ्छा करते हैं। वे लिखने से विराम लेते हैं । लालचन्द धर्म करने में प्रमाद करता है।
२. वह गाय से भी डरता है। ३. श्याम श्रम से हारता है । धर्मचन्द अध्ययन से हारता है।
४. परिग्रह से भय उत्पन्न होता है। भय से हिंसा उत्पन्न होती है । क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। अव्यय का प्रयोग करो
प्रातःकाल मैं जाप करता हैं। अभी यहां कोई भी आदमी नहीं है। मैं दूसरे दिन यहां आऊंगा । जिस प्रकार सुख हो, वैसा करो।
१. अपादान किसे कहते हैं ? उसमें कौन-सी विभक्ति होती है ? २. अपादान कितने प्रकार का है ? उदाहरण से स्पष्ट करो। ३. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ-.
भानजा, भानजी, भतीजा, पोता, प्रपोती, बेटी, प्रपोता, पोती, भतीजी,
बेटा। ४. नीचे लिखे धातुओं का प्रयोग करो---
पवह, अहिजाअ, दुगुञ्छ, पमाय, विरम ५. पंचमी विभक्ति किस-किस के योग में होती है ? ६. माला शब्द के रूप लिखो। ७. नीचे लिखे अर्थों में कौन-सा अव्यय प्रयोग में जाता है ?
दूसरे दिन, प्रातःकाल, अभी, जिस प्रकार
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संबंध
शब्द संग्रह (परिवार वर्ग ५) साढू----सालीधवो (सं) बूआ-पिडस्सिआ, पिउच्चा पिउच्छा जमाई-~-जामाया मौसी--माउसिआ, ताउसी, माउलिया (दे०) मौसा · माउसिआपई भौजाई.-भाउजाया, भाउज्जा, भाउज्जाइया पौत्र की पत्नी-नत्तुइणी ननंद-नणंदा पत्नी--पत्ती सिरीमई, घरिणी पुत्रवधू-गोहा, पुत्तबहू, सुण्हा दहेज-अण्णाणं (दे०) समर्पण-समप्पणं नाम-अभिहाणं वार्ता--वत्ता
धातु संग्रह सिव्व-सीना
याच--मांगना वर --सगाइ करना विवह-विवाह करना चुंब -चुम्बन लेना अल्लव-बोलना
अव्यय संग्रह संपइ (सम्प्रति) इसी समय किर, किल (फिल) निश्चय, संशय पइ-~-प्रति,
ईसिं (ईषत्) थोड़ा ... अवरि, अरिं, उरि (उपरि) ऊपर एगहा (एकधा) एक प्रकार
स्त्रीलिङ्ग इकारान्त मह, ईकारान्त वाणी, उकारान्त घेणु और अकारान्त वधु शब्दों को याद करो। देखो-परिशिष्ट १ संख्या २३,२४,२५,२६ । इनके रूप मशग्द की तरह ही चलते हैं। संबंध
सम्बन्ध अनेक प्रकार का होता है-- (क) स्वस्वामि संबंध.---घोड़े का मालिक (ख) जन्यजनक संबंध-त्रिशला का पुत्र (ग) अवयव-अवयवी संबंध-पशु का पैर (घ) आधार-आधेय संबंध-वृक्ष की शाखा (ड) प्रकृतिविकारभाव संबंध-दूध का विकार दही (च) समूहसमूहिभाव संबंध--गायों का समूह (छ) समीपसमीपिभाव संबंध-घडे का स्वामी
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संबंध
(ज) पाल्य-पालक भाव संबंध----पृथ्वी का स्वामी
संबंध में पष्ठी विभक्ति होती है। षष्ठी विभक्ति
१. तुल्य अर्थ वाले शब्दों (तुल्य, सम, मरिस) के योग में तृतीया और षष्ठी विभक्ति होती है।
२. कृत्य प्रत्यय (तव्य, अनीय, य, क्यप और ध्यण) के योग में कर्ता में षष्ठी और तृतीया विभक्ति होती है।
३. विभाग किए बिना निर्धारण करने के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है।
४. स्मृति अर्थ की धातु के योग में षष्ठी विभक्ति विकल्प से होती है । प्रयोग वाक्य
सालीधवो अज्ज अत्थ आगमिस्सइ। माउसिआ वत्थं सिव्वइ । पिउस्सिआए ससुरालयो सग्गो (स्वर्ग) विज्जइ । घरणी घरम्मि किं करेइ ? माउस्सिआपई अण्णाणस्स चिंताए किसो जाओ। भाउजाया नणंदाए वत्तं करेइ । सृण्हा केणं सह भंजइ ? सिरीमईइ पई पइ कह समप्पणं न विज्जइ ? पोहा नत्तुइणीए सह सम्वेसि परिचओ कारवेइ। पिउच्चा पुत्तं चुंबइ । अण्णिआ नत्तुणियं वरइ । पिउसिआणेयो रमेसं विवहइ। साह सव्वाइं वत्थूई याचइ । सालीधवो सणियं अल्लवइ । अव्यय प्रयोग
संपइ अहं पाठसालं गच्छामि । पारसो तत्थ किल गमिहिड । पोत्थए ईसि भारो अस्थि । रुक्खस्स अरि कि अत्थि ? विभक्ति का प्रयोग
(क) रण्णो पहाणो णिउणो अत्थि । (ख) दीवाए पुत्तो महापुरिसो आसि । (ग) आयरिअतुलसीए नयणाई दीहाई संति । (घ) कलंबस्स साहा के रिसी होइ ? (ड) नवणीओ दहिणो विआरो हुवइ । (च) आसाणं समूहो अज्ज अत्थ आगमिस्सइ । (छ) अस्स घडस्स सामी को अस्थि ? (ज) रायगिहस्स राइणो कि अभिहाणं आसि ? १. जिणस्स तुल्लो कालुरामायरिओ आसि । २. तस्स कि कसं? मह किमवि ण कहिअं। ३. मणुआणं खत्तिओ सूरो। धेणूणं कसिणा बहुखीरा। ४. सो माआए सुमरइ ।
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३२
प्राकृत में
अनुवाद करो
साढू का नाम क्या है ? बुआ भतीजी से बात करती है । मौसी अभी तक अविवाहित है। भौजाई ननंद के दहेज से डरती है। मौसा आज हमारे यहां आएंगे । पुत्रवधू बहुत सुशील है । पत्नी क्रोध बहुत करती है । पोते की पत्नी में समर्पण की भावना कम है । जमाई धन मांगता है । सासू दामाद से बात करती है । माता पुत्री की सगाई करती है। पिता पुत्र का विवाह करता है । सीता अपने पुत्र का चुंबन लेती है । वह कुछ नहीं मांगता है । विभक्ति का प्रयोग करो
(क) गाय का मालिक धनराज है ।
(ख) सुशीला का लड़का नहीं पढता है । (ग) गाय की आंख में पीडा है ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(घ) वृक्ष के फूल सुंदर हैं ।
(ड़) तू बहुत थोडा खाता है ।
(च) इसी समय वहां आओ । निश्चय ही वह तुम्हारे साथ जाएगा । धर्म के प्रति आस्था रखो। भैंस के दूध का दही अच्छा होता है ।
(छ) गायों का समूह रात में यहां बैठता है ।
(ज) चंदेरी का राजा कौन था ?
१. गौतमस्वामी महावीर के समान हो गए ।
२. उसने क्या पढ़ा ? राज ने भाषण में क्या कहा ? कुलदीप ने बहुत अच्छा लिखा है |
३. पढने वालों में विभा प्रवीण है । अध्यापकों में रामविलास प्रवीण है । ४. वह पिता का स्मरण करता है ।
प्रश्न
१. सम्बन्ध कितने प्रकार का होता है ? उसमें कौन-सी विभक्ति होती है ?
२. षष्ठी विभक्ति कहां-कहां होती है ?
३. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ
साढू, भौजाई, मौसी, बुआ, पुत्रवधू, ननंद, पौत्र की पत्नी, पत्नी ।
४. इन धातुओं के अर्थ बताते हुए वाक्य में प्रयोग करो --- सिव्व, याच, चुंब, अल्लव, विवह ।
५. हो धातु के कर्तृवाच्य के सब रूप लिखो ।
६. नीचे लिखे अर्थों में कौन से अव्यय प्रयोग में आते हैं ? थोडा, इस समय, प्रति निश्चय ।
दहेज,
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१
आधार
शब्द संग्रह (गोरस वर्ग) दूध -खीरं, पयो, दुद्ध, अलिआरं (दे०) दही-दहिं (न) घी-घयं, सप्पि, अज्जं
नवनीत–णवणीयं, दहिउफ (दे०) खीर-पायसो
मट्ठा-घोलं (दे०) मावा, खोआ--किलाडो, कृचिआ । छाछ-तक्कं दही की मलाई-दहित्थारो (दे०) दूध की मलाई--करघायलो(३०) कढी-कढिआ (दे०) तीमणं
खट्ठीराब-अंबेली (दे०) रायता-दाहिसं (सं)
श्रीखंड-छिहंडओ (दे०) संभव-संहवं
आजकल-अज्जत्ता
धातु संग्रह पज्जल-जलाना
णिवस--निवास करना, रहना उवदंस--दिखाना, पास जाकर बताना कील-क्रीडा करना, खेलना खास-खांसना
अहिलस-इच्छा करना
अव्यय संग्रह एत्थ (अत्र) यहाँ
कओ (कुतः) कहों से अहवा, अहव (अथवा) या, अथवा असई (असकृत्) अनेक बार कहिआ कहिं कहि (क्व, कुत्र) कहां, किस स्थान में । अहे (अधस्) नीचे
नपुंसक लिंग अकारान्त वण शब्द को याद करो। देखो-परिशिष्ट १ संख्या ३०।
आधारजिसमें क्रिया हो रही है उसे आधार कहते हैं। वह छह प्रकार का है
(१) औपश्लेषिक-जिस आधार से संलग्न पदार्थ का बोध हो उस आधार को औपश्लेषिक कहते हैं। जैसे—वह चटाइ पर सोता है। धर्मेन्द्र वृक्ष पर बैठता है। सोने वाला चटाई से और बैठने वाला वृक्ष से संलग्न है।
(२) सामीप्यक-जिससे समीपता का बोध हो, उसे सामीप्य आधार कहते हैं । जैसे—गायें बरगद के नीचे खडी हैं। अशोक वृक्ष के नीचे सीता बैठी है।
(३) अभिव्यापक-व्याप्य का बोध कराने वाले शब्द को अभिव्याप्य
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३४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आधार कहते है । जैसे—दूध में घी है। तिलों में तेल है । (४) वैषयिक --- जिससे विषय ( निवास करने के उसे वैषयिक आधार कहते हैं । अरण्य में सिंह गर्जता है । तप करता है ।
(५) नैमित्तिक -- जिस शब्द से होने वाले कार्य के निमित्त की सूचना मिलती है उसे नैमित्तिक आधार कहते हैं । जैसे - वह युद्ध के लिए तैयार होता है।
क्षेत्र) का बोध हो तपोवन में तपस्वी
(६) औपचारिक — उपचार यानि संकेत को मानकर जो कहा जाता है उसे औपचारिक आधार कहते हैं । जैसे - वृक्ष पर बिजली चमक रही है । अंगुली की नोक पर चन्द्रमा है ।
आधार में सप्तमी विभक्ति होती है ।
(क) एक प्रसिद्ध क्रिया से दूसरी अप्रसिद्ध क्रिया का काल जाना जाए तो पहली क्रिया में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे—सूर्यास्त के समय वह घर
आया ।
( ख ) अनादर भाव से किसी की उपेक्षा कर क्रिया करने पर अनादर भाव वाले में सप्तमी विभक्त होती है । जैसे- रोती हुई माता को छोड पुत्र दीक्षित हो गया ।
(ग) सामी, ईसर, अहिवइ, दायाद, साखी, पडिहू और पसूअ --- इन शब्दों के योग में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति विकल्प से होती है ।
(घ) निर्धारण - समुदाय में से एक की किसी विशेषण के द्वारा विशिष्टता दिखाई जाए तो समुदायवाची शब्द में सप्तमी विभक्ति विकल्प से होती है ।
प्रयोग वाक्य
जो संसारे आसत्तोऽत्थि सो मूढो । संसारम्मि रागा दोसा य अादिकालाओ संति । मेहा सव्वत्थ परिओ वरिसंति । रामस्स गिहं आवणे ( बाजार में ) अत्थि । ते गिरिम्मि कत्थ णिवसंति । सरस्सईए गिहे अग्गी पज्जलइ | वाउम्मि गमणं संहवं नत्थि । छिहंडओ सुमेरस्स रोअइ । अहं पइदिणं दुद्ध' पिबामि । रिसहो धयं वा अज्जं वा न अहिलसइ । नवणीयं अलिआरेण जाअइ । तक्कं भोयणेण सद्धि हिमअरं हवइ । मज्भण्हस्स पच्छा दह न भोक्तव्वं किं अ कफकारअं होइ । घोलं सीअलं भवइ । जो दहि खाअइ सो खासइ । मज्झ करघायलो रोयइ । मए अज्ज दहित्थारो भुत्तो । अहं संभा भोणे कढि भुंजामि । मेवाडदेसे जणा अंबेल्लि खाअंति । सुद्धो अणरिक्को दुल्हो अत्थि । fearsो गिरिट्ठो भवइ । दाहिअं रुइकरं भवइ ।
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आधार
सप्तमी विभक्ति
१. पक्खिणो रुक्खे चिट्ठति । २. असोगरुक्खम्मि सीया उवविसइ । ३. तिलेसुं तेल्लं विज्जइ।। ४. समेअसिहरे तवस्सिणो तवंति । ५. जुज्झाय सज्जेंति । ६. अंगुलीए अग्गे चंदिमा दिस्सइ ।
(क) अत्थंगयम्मि सो गिह आगो । (ख) रोअन्तीए माउए चइत्ता पुत्तो दीक्खिओ जाओ।
(ग) गवाणं गोसु वा सामी, आसाणं आसेसु वा इसरो अहिवई वा गआणं गउएसु वा पसूओ ।
(घ) गवाणं गवासु वा कसिणा बहुक्खीरा । साहूणं साहूसु वा हेमरायो पडू । कईसु वा बलभद्दो सेट्ठो। प्राकृत में अनुवाद करो
गाय का दूध मीठा होता है। कल्याणश्री प्रतिदिन दही खाती है। घी सब लोगों को सुलभ नहीं है । छाछ स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है । आजकल शुद्ध नवनीत का दर्शन दुर्लभ है ।हर घर में खोआ नहीं मिलता है। मैंने दूध की मलाई बहुत खाई है। दही की मलाई रोटी के समान मोटी है। कढी कौन नहीं खाता ? गरम खट्टी राब' मुझे बहुत प्रिय है । गोरस हमारे घर में नहीं है । रमेश के लिए प्रतिदिन राइता खाना संभव नहीं है। माता अग्नि जलाती है। जंयती पालनपुर में निवास करता है। आज श्रीखंड खाने की किसकी इच्छा है ? बच्चा अपना प्रमाणपत्र पिता को दिखाता है। लडके घर में ही खेलते है। हमारे घर के नीचे तुम रहते हो। तुमने पुस्तक कहां रखी है ? दिन में अनेक बार वहां जाना अच्छा नहीं है। राम अथवा गोपाल उसके पास जाए । जीव कहां से आया है ? यहां पर वह कितने दिन ठहरेगा ? विभक्ति का प्रयोग करो
१. वह प्रतिदिन जमीन पर सोता है । २. अशोकवृक्ष के नीचे बालक पढते हैं । ३. मिट्टी में सोना है। अरणिलक डी में आग है। ४. जनविश्वभारती में पारमार्थिक शिक्षण संस्था है। ५. गुरु दर्शन के लिए वह तैयार होकर जाता है। ६. उस पर्वत पर चंद्रमा है। अंगुली के सामने राम का घर है।
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३६
गोधूलि के समय वह यहां से गया था ।
ब्याख्यान के समय टमकोर का संघ गुरुदर्शन के लिए आया था । (ख) बच्चे को रोते हुए छोडकर माता साधु को भिक्षा देने लगी । (ग) इस पुस्तक का मालिक कौन है ? जोधपुर का अंतिम अधिपति कौन था ?
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(घ) संस्कृत में कालिदास श्रेष्ठ विद्वान् हुआ है। सुषमा अपनी कक्षा में सबसे अधिक सुशील है । प्रभा अपनी कक्षा में याद करने में सबसे आगे है ।
प्रश्न
१. मइ और वधू शब्द के सारे रूप लिखो ।
२. आधार कितने प्रकार का होता है ? एक-एक उदाहरण देकर स्पष्ट
करो ।
३. आधार में कौनसी विभिक्त होती है ?
४. नीचे लिखे शब्दों के योग में कौनसी विभक्त होती है ?
दायाद, पसूअ, अहिवइ ।
५. विभक्ति का दो उदाहरण प्राकृत में दो ।
६. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ
दूध की मलाई, छाछ, राइता, संभव, मावा, आजकल, खट्टीराब,
दही की मलाई, खीर, नवनीत, कढी, दही
७. नीचे लिखी धातुओं के अर्थ बताओउवदंस, णिवस, पज्जल, कील, खास, अहिलस | ८. किन्हीं दो अव्ययों का वाक्य में प्रयोग करो ।
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देश्य शब्द
शब्द संग्रह (देश्य) दवरिया-छोटी रस्सी
दाढिया-दाढी दारद्धंता-पेटी, संदूक
दालिअं-नेत्र दसु (पुं)-शोक, दिलगिरी
दिअलिओ-मूर्ख दिअहुत्तं--दुपहरका भोजन
पडिच्छदो--मुख पडिखद्धो (वि)-मारा हुआ
पडिभेयो-उपालंभ, निंदा पडलगं-टोकरी
पडाली-घर के ऊपर की कच्ची छत, चटाई आदि से छाया हुआ स्थान
धातु संग्रह (वेश्य) अंगोहल-स्नान करना
अच्छुर-बिछाना अल्ल-चिल्लाना
__ अल्लव-समर्पण करना अक्कोस---आक्रोश करना
अप्फोड--ताली बजाना मपुंसक लिंग के इकारान्त दहि और उकारान्त मधु शब्द को याद करो। देखो-परिशिष्ट १ संख्या ३१,३२ वेश्य
प्राकृत भाषा में शब्द दो प्रकार के होते हैं-संस्कृतसम और देश्य । जो शब्द संस्कृत के शब्दों से पूर्ण अथवा कुछ समानता रखते हैं उन्हें संस्कृतसम कहते हैं। जो शब्द अति प्राचीन होने के कारण व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृत भाषा और प्राकृत भाषा से सिद्ध नहीं होते, उन्हें देश्य शब्द कहते हैं । प्राकृत भाषा में जो धातुओं के आदेश हैं वे देश्य नहीं है।
वेद आदि प्राचीन शास्त्रों में तथा संस्कृत भाषा के साहित्य में और कोषों में देश्य शब्दों का प्रयोग बहुलता से प्राप्त होता है। देश्य शब्दों में द्राविड भाषा के भी शब्द है । हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषा से मिलते-जुलते अनेक शब्द मिलते हैं । देश्य शब्दों की तरह देश्य धातुएं (क्रियापद) भी होती हैं।
नियम ३ (गौणावयः २११७४)-गौण आदि शब्द निपात हैं। प्रकृति (मूलशब्द) प्रत्यय, लोप, आगम, वर्ण विकार आदि जिनमें नहीं होते उन्हें निपात कहते हैं । गोणो (गौः) ल । गावी (गावः) गया । बइल्लो (बलिवर्दः) बैल ।
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३८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
काम
दाह
दाह
मोह
आऊ (आपः) पानी। पञ्चावण्णा (पञ्चपञ्चाशत्) पचपन । तेवण्णा (त्रिचत्वारिंशत) तयालीस । विउसग्गो (व्यूत्सर्गः) परित्याग । वोसिरणं (व्युत्सर्जनम्) परित्याग । बहिद्धा (बहिमथुनं वा) बाहर और मैथुन । णामुक्कसि (कार्यम् ) कार्य । कत्थइ (क्चचित्) कहीं । वम्हलो (अपस्मारः) केसर । कंदुट्ट (उत्पलम्) नील कमल । छिछि, छिद्धि (धिधिक) अनेकधिक्कार । धिरत्थु (धिगस्तु) धिक्कार हो । पडिसिद्धी, (प्रतिस्पर्धा) प्रतिस्पर्धा । चच्चिक्कं (स्थासकः) चंदन आदि सुगन्धित वस्तु को शरीर पर मसलना । ऐसे अनेक शब्द हैं।
संस्कृतसम शब्द संस्कृत प्राकृत
संस्कृत संसार संसार दावानल
दावानल नीर नीर
काम সল
जल मोह नाग
नाग गाढ गाढ धूलि
धूलि संस्कृत के कुछ समान शब्द प्राकृत संस्कृत प्राकृत
संस्कृत तडाय
तडाग कणग कनक
रंभा धड
सण्ढ
षष्ढ झज्झर झर्भर पडिमा
प्रतिमा नयर नगर बंधव
बान्धव महुर मधुर धम्म
धर्म नाह
नाथ
संस्कृत के समान क्रिया पद संस्कृत प्राकृत
संस्कृत
प्राकृत भवति भवति
मरते धाति
धाति हति हनति
संस्कृत के कुछ समान क्रियापद प्राकृत संस्कृत সার संस्कृत जुज्झते
नच्चति पुच्छति पृच्छति
कृणोति वन्दित्ता वन्दित्वा
सुवण्णा
सुवर्ण
रम्भा
घट
1114 14 4 ११ व ३ ३ ३ ॐ
मरते
युध्यते
नृत्यति
कुणति
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देश्य शब्द
३६
कटार
घडो
बोर
राजस्थानी भाषा के समान प्राकृत शब्द राजस्थानी
प्राकृत
राजस्थानी घर घर
गोर
गोर खड्डा खड्डा
गडवड
गडवड-गोलमाल काहार
कहार कटार
पत्थर
पत्थर वेरूण वेरूण
कलस
कलस घडो
सिंघ
सिंघ बोर
उच्छह
उच्छाह प्रयोग वाक्य .
दसू न कायव्यो। सीयलणाहस्स दाढियाए लोमाइं न संति । तुमे दवरियाए किं कज्ज कीरइ । कस्स दालिअम्मि पीडा विज्जइ ? तुज्झ गामे को दिअलिओ अत्थि ? तस्स पडिच्छंदम्मि दुगंध आआइ । थेरेण तस्स पडिभेयो कओ। राओ पडालीइ अम्हे सयामो। दारद्धताए मम वत्थाई संति । तुमे अज्ज दिअहुत्तं महगिहे कायव्वं । पडलगम्मि केवलाई फलाइं संति । तेणं पडिखद्धो अयं पुरिसो अत्थि । सो संथारयं अच्छुरइ । कुसुमो जलेणं अंगोहलइ । बालो मुहा अल्लइ। तुम कहं न अक्कोसेसि ? साहुणो आयरियं अल्लवइ । जणा सहाए अप्फोडंति ।
प्राकृत में अनुवाद करो तुम छोटी रस्सी से क्या बांधते हो ? स्त्री के भी दाढी में लोम हैं। संदूक में किसके वस्त्र हैं ? आचार्य तुलसी के नेत्र आकर्षक हैं। तुम शोक क्यों करते हो ? हमारे गांव में कोई मूर्ख नहीं है। दोपहर का भोजन आज मैं नहीं करूंगा। मुख से मीठे वचन बोलो। टोकरी में पत्ते किसने रखे हैं ? घर के ऊपर चटाई से छायी हुई छत पर मत सोओ। यह पशु सिंह का मारा हुआ है । गुरु शिष्य को उपालंभ देते हैं ।
प्रश्न १. प्राकृत में शब्द कितने प्रकार के होते हैं ? २. देश्य शब्द किसे कहते हैं ? ३. वण शब्द के रूप लिखो। ४. नीचे लिखे शब्दों के अर्थ बताओ.-- . दवरिआ, दारद्धता, पिअहुत्तं, पडिखद्धो, पडलगं, दिअलिओ, पडिभेयो, ..पडाली। ५. इन धातुओं के अर्थ क्या है--अंगोहल, अच्छु र, अप्फोड, अल्ल । ६. पांच शब्द ऐसे बताओ जो प्राकृत और संस्कृत में समान रूप हैं। ७. सात शब्द ऐसे बताओ जो प्राकृत और राजस्थानी भाषा में समानरूप हों।
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स्वर संधि
शब्द संग्रह (रसोई मसाला) मसाला-वेसवारो
हींग-हिंगू जीरा-जीरयो
लवण-लोणं हल्दी-हलिद्दा, हलद्दी
मीर्च-मिरिसं धनिया-धाणा
राई--राइगा तेजपता-तेजपत्तं
धातु संग्रह चुण्ण--चूर्ण करना
लूह-पोंछना ताव-तपाना
झाम-जलाना, दग्ध करना किण-खरीदना
आढा-आदर करना, मानना पन्नव--प्रज्ञापित करना, बताना धर---पकडना
अव्यय संग्रह आहच्च (दे)----कदाचित्, शीघ्र इह (इह)-यहीं उच्चअ (उचैः)-ऊंचे
एवमेव (एवमेव)---इस तरह कालओ (कालतः)-समय से काहे (कदा)-कब
पुल्लिग ज (यत्) त (तत्) क कि शब्द याद करो।
देखो-परिशिष्ट १ संख्या ४४ क, ४५ क, ४६ क स्वर संधि
संधि का अर्थ है परस्पर मिल जाना । प्राकृत में जो संधि की व्यवस्था है वह विकल्प से होती है। निम्नलिखित संधि के लिए प्राकृत में कोई सूत्र नहीं है । संस्कृत व्याकरण के आधार पर संधि की जाती है । प्राकृत में प्रयोग आता है इसलिए दी जा रही है।
प्रथम पद के अंतिम स्वर और आगे के पद के आदि स्वर के मिलने से जो संधि होती है उसे स्वर संधि कहते हैं । प्राकृत भाषा में वर्ण का लोप होने के बाद शेष स्वर रहने से एक शब्द में अनेक स्वर हो जाते हैं । उनमें संधि करने से अर्थ-भ्रम होना संभव है, इसलिए एक पद में संधि नहीं होती।
पई (पति), नई (नदी), वच्छाओ (वत्सात्), महइ (महति) । कहींकहीं एक पद में भी संधि विकल्प से होती है। जैसे---काहिइ, काही
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स्वर संधि (करिष्यति), बिइओ, बीओ (द्वितीयः) थइरो, थेरो (स्थविरः), कुम्भ+ मारो=कुम्भारो कुम्भआरो (कुम्भकारः), चक्क+आओ चक्काओ, चक्कआओ (चक्रवाकः)।
नियम ४ (पवयोः संधिळ ११५)-संस्कृत में दो पदों की जो संधि होती है वह प्राकृत में विकल्प से होती है। विसम+आयवो-विसमायवो, विसम-आयवो । दहीसरो, दहि-ईसरो।
सवर्ण स्वर (पिशल प्राकृत व्याकरण पैरा १४८ के अनुसार) १. अवर्ण+अवर्ण =आ
(अ-|-अ-आ, अ+आ आ, आ+अ=आ, आ-+आ-आ) देवाधिपाः-देव+अहिवा-देवाहिवा जीवाजीव-जीव+अजीवो जीवाजीवो विषमातप:-विषम+आयवो=विसमायवो यमुनाधिपतिः---जउणा+अहिवईजउणाहिवई
गंगातप:-गंगा+आयवो-गंगायवो २. इवर्ण+इवर्ण-ई
(इ.+इ=ई, इ+ई =ई, ई+इ=ई, ई+ईई) मुनीतरः-मुणि+इअरो=मुणीअरो दहीश्वर:-दहि+ईसरो=दहीसरो पृथ्वी ऋषि:-पुहवी+ इसी=पुहवीसी रजनीश:--रयणी+ईसोरयणीसो ३. उवर्ण+उवर्ण
(उ+उऊ, उ+ऊऊ, ऊ+उ=ऊ, ऊ+ऊ=ऊ) स्वादूदकम्-साउ+उअयं साऊअयं । भानूपाध्यायः-भाणु --उवज्झायो- भाणू वज्झायो बधूदकम्--बहू+ उअयं-बहूअयं बहुच्छ्वासः-बहू+ऊसासोबहूसासो
असवर्ण स्वर (पिशल प्राकृत व्याकरण परा १४६) अवर्ण+इवर्ण (असंयुक्त व्यंजन के पूर्व) ए . व्यासपिः-वास+इसी=वासेसी । दिनेश:-दिण+ईसो दिणेसो चन्दनेतर:-चंदणा+ इअरो=चंदणेअरो रमेश:-रमा+ईसो= रमेसो
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प्राकृत वाक्यरचना बोष
(पिशल प्राकृत परा १५०) अवर्ण । इवर्ण (संयुक्त व्यंजन के पूर्व) इ (संयोग परे होने से ह्रस्व) देवेन्द्रः-देव । इंदो-देविंदो नरेन्द्रः-पर-इंदो-रिंदो अवर्ण-उवर्ण (असंयुक्त व्यंजन के पूर्व) =ओ गूढोदरम्----गूढ+उअरंगूढोअरं एकोनं-एग+ऊणं-एगोणं गंगोपरि-----गंगा+उवरि-गंगोवरि अवर्ण+उवर्ण (संयुक्त से पूर्व) उ (ओ होने के बाद संयुक्त परे होने से उ होता है) कर्णोत्पलम्-कण्ण+उप्पलं-कण्णुप्पलं रत्लोज्ज्वलम्-रयण+उज्जलं रयणुज्जलं
(पिशल प्राकृत० परा १५३) अवर्ण+एए गाम+एणी-गामेणी (देशीशब्दः) तथैव-तहा---एअ-तहेअ अवर्ण+ ओ ओ गुणौद्य:-गुण+ओहो-गुणोहो मृत्तिकावलिप्तम्-मट्टिआ+ओलित्तं मट्टिओलित्तं
संस्कृत के आधार पर पूर्वपद के अन्त में स्वर हो और दूसरे पद के आदि में स्वर हो ता वहां कहीं-कहीं अगले पद के पहले स्वर का लोप हो जाता है। फासे+अहियासए फासे हियासए बालो- अवरज्झइ बालो वरज्झइ एस्संति+अणंतसो-एस्संति णंतसो
नियम ५ (लुक् १११०)-स्वर से परे स्वर होने पर पूर्व स्वर का प्रायः लोप हो जाता है।
तिदस--ईसो- तिदस् ।- ईसो तिदसीसो, तिदसेसो (त्रिदशेशः) नीसास+ ऊसासो-नीसास्+ ऊसासो- नीसासूसासो (निश्वासोच्छवासः) नर+ईसरो नर+ईसरोनरीसरो, नरेसरो (नरेश्वरः) गच्छामि+अहं-- गच्छम् + अहं गच्छामहं (गच्छाम्यहम्) तम्मि+अंसहरो-तम्मंसहरो
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स्वर संधि
४३
ण + एवण्---एव--णेव (नैव)
देविद+अभिवंदिम-देविंदभिवंदिअ प्रयोग वाक्य
वेसवारस्स महत्तं को न जाणइ ? जीरयम्मि लोहांसो अहियो होइ । पडणपीडाए घएण सह हलद्दीए पओगो कीरइ। हिंग वाउणासणो अत्थि । लोणेण विणा तीमणस्स साओ न हवइ । आउव्वेयसत्थे गुणेणं मिरिअं उन्हअरं भवइ । महिला दालीए तेजपत्तं देइ । राइगाए संपुण्णा कढिआ महं बहु रोयइ। पिउसिआ थालि लू हइ । ससा घयं तावइ । अरिहंतो धम्म पन्नवइ। णोहा सुक्कं कटें झामइ । घरणी गोहूमं चुण्णइ । णवा सासु आढाइ । प्राकृत में अनुवाद करो
जीरा और नमक दोनों का योग उपयोगी है। लालमीर्च अधिक नहीं खानी चाहिए। हींग की गंध दूर तक जाती है। हल्दी का रंग हल्का होता है। राई बहुत छोटी होती है । तेजपत्ता दाल के स्वाद को बढाता है। गुण से बहू ससुर का आदर करती है । मौसी वस्त्र से बर्तन पोंछती है । सुशीला चावलों का चूर्ण करती है। माता लकडी जलाती है पर उसमें धुंआ निकलता है। आचार्य तत्त्व को प्रज्ञापित करते हैं । बुआ धनिया खरीदती है।
प्रश्न १. दहि और मधु शब्द के रूप लिखो। २. मसाला, धनिया, राई, मीर्च, हल्दी, जीरा, तेजपत्ता, हींग और लवण
शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ। ३ लूह, ताव, चुण्ण, झाम, किण, धर, पन्नव और आढा धातुओं के अर्थ
बताओ। ४ आहच्च, उच्चअ, काहे अव्ययों को वाक्य में प्रयोग करो। ५. संधि करो-कंखा-+-अभावो, इंदिय-- उवओगो, धम्म--- इंदो,
धण-+ ईसरो, सीया+ईसो, पीला-- ओहो, बालो+अहियासए । . ६. संधिविच्छेद करो---जीवाजीवा, भाणू अयं, निसेसो, गइंदो, • मट्टिओलित्तं, जलोहो, गुणुज्जलं, रयणोवायो, सीओदगं ।
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१६
तवा - काहिल्लिआ (दे०) तमेली-सुफणी (दे०) चिमटा -- संदसो (सं) चमची - कडुच्छयो (दे०) डोयो, काष्ठ का हाथा — डोओ कुछ दव्वी
हांडी इंडिआ, कंदू
चुल्हा -- चुल्ली
ढकना — पिहाणं
छाज - चिल्लं (दे० )
०
शब्द संग्रह (रसोई उपकरण )
णीसारय - निकालना वट्ट - परोसना
मुण जानना
सयं (स्वयं) - स्वयं जत्थ ( यत्र ) -- जहां
उद्वृत्त स्वर संधि
परोसना - परीसणं, परिवेसणं अंगारा - इंगारी, अंगारो
०
संडासी - संडासं, संडासो कडाही - कडाहो, कवल्लो कठौती- चुण्णमद्दणी (सं) प्याला, कटोरा -- कट्टोरगो (दे). थाली- थालि, थाली, थालं रसोईघर -- महाणसं
रसोइया - पाचओ, सूदो चुल्हे का पिछला भाग — अवचुल्लो प्लेट - सरावो (सं)
०
जा, जाव ( यावत् ) – जब तक पुलिंग एअ ( एतत् ), इम देसो- परिशिष्ट १ संख्या ४८,
धातु संग्रह
तरकारी -- तीमणं
कलेवा - कल्लवत्तो, पायरासो
विसमर - भूलना
o
उट्ठउठना
पिसुण - चुगली करना
अव्यय
जहेव ( यथेव ) - जिस कार से ता, ताव ( तावत् ) तब तक जइ ( यदि ) - जो
( इबं), अमु ( अदस्) शब्द याद करो । ४७क, ४६ क ।
उवृत स्वर
नियम ६ [ स्वरस्योत्ते ११८] स्वरसंयुक्त व्यंजन में व्यंजन का लोप होने पर जो स्वर शेष रहता है उसे उद्वृत्त स्वर कहते हैं । स्वर से आगे उद्वृत्त स्वर हो तो संधि नहीं होती ।
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उद्वत्त स्वर संधि
निशाकरः निसा+अरो=निसाअरो निशाचरः निसा+अरो-निसाअरो रजनीकरः रयणी+अरोरयणीअरो गंधपुटी गंध+उडी+गंधउडी रजनीचर: रयणी+अरो=रयणीअरो वराकाः वरा+आवराआ कृतोपकारः क- ओव+आरो+कओवआरो
(पिशम प्राकृत० पैरा १५७, १५६ के अनुसार) अपवादअवर्ण+ अवर्ण (उवृत्त स्वर) =आ कुम्भकार:----कुम्भ+आरो=कुंभारो उद्धावति:-उद्धा+अइउद्धाइ शातवाहन:-साल+आहणो सालाहणो चक्रवाक:-चक्क+आओ=चक्काओ इवर्ण-+इवर्ण (उदवृत स्वर) =ई द्वितीय:-बि+इओबीओ शिविका-सि-+ इया=सीया उवर्ण ---उवर्ण (उद्वत्त स्वर) ऊ उदुम्बरः-उ+ उम्बरो-उम्बरो (संयोग परे होने से उ ह्रस्व हो गया) अवर्ण+इवर्ण (उद्वृत्त स्वर) =ए स्थविरः-थ+इरो थेरो मतिधर:--म-इहरो-मेहरो अवर्ण+ उवर्ण (उद्वत्त स्वर) =ओ मयूर:-म+ऊरो मोरो चतुर्दशी-च-उद्दसी चोदसी अवर्ण (प्रथम पद का अंतिम उद्वत्त स्वर)+असवर्ण स्वर
(द्वितीय पद का पहला उद्वत्त स्वर)=प्रथम पद के अंतिम उद्वत्त स्वर का लोप
राजकुलम्-राअ+उलं-राउलं प्रयोग वाक्य
__पाचओ अन्नं पाचइ । महाणसे सीयं नत्थि । विमला सुफणीए दुद्ध उण्हं करेइ । मोहणो थालिआइ भोयणं भुंजइ । उवचुल्ले किं रक्खियं अस्थि । चुल्लीअ उण्हं जलं किणा रक्खि ? दव्वीए सुफणीअ तीमणं वट्टइ । कडुच्छअस्स बहु उवओगो अत्थि परं कडाहस्स पइदिणं न । अहं कट्टोरगम्मि
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प्राकृत वाक्यरचना वोध खीरं पिवामि । सो दढहत्थेहि संडासेणं सुफणि धरइ । पउमा सीयकाले चुल्लीए नीरं उण्हं करेइ । अहं गयवरिसस्स विवायं विसमरीअ । काहिल्लिआ उण्हा अत्थि । चुण्णमद्दणीए चुण्णं कहं नत्थि ? डोऔ सयं किमवि न खाअइ । हंडिआइ कस्स तीमणं अत्थि ? मीणक्खी संदंसेण इंगारं गिण्हइ । अज्जत्ता पुरिसा णयरे कल्लवत्तं सरावम्मि करेंति । सा चिल्लेण गोहमं सोहइ । प्राकृत में अनुवाद करो
__रसोइया किस ग्राम का है ? रसोइघर में बैठकर कौन खाता है ? चूल्हे में लकडी किसने दी? पिछले चूल्हे में रखा हुआ दूध ठंडा नहीं होता। तमेली में आज क्या पकाया है ? चमचियां कितनी हैं ? हांडी का मूल्य क्या है ? कटोरे में दही है। वह थाली में खाना नहीं खाता । कुर्ची स्वयं नहीं खाती। तमेली को ढकना मत भूलो। चिमटे से तवे को पकडो । हांडी पर कुर्ची क्यों रखी है ? तरकारी कितनी शेष रही है ? कटोरे में दही रखा हुआ है। तवा गरम हो गया है। वह उपकार को भूल जाता है । बहन तरकारी परोसती है। बहू कुर्ची से दाल परोसती है। सुरेश चुगली करता है । मैं सुबह जल्दी उठता हूं। तुम्हें स्वयं उठना चाहिए। जिस प्रकार से तुम कहते हो वह ठीक नहीं है। जब तक तुम स्वयं नहीं आओगे तब तक मैं तुम्हारे घर नहीं जाऊंगा । कठौती में पानी अधिक है । पहले डोया खाता है । हंडिया मिट्टी (मट्टिआ) की है । संडासी अच्छी तरह (सुठ्ठ) पकडती है । प्लेट में सीता कलेवा नहीं करती है । विमला छाज से धान्य को साफ करती है ।
प्रश्न १ संधि विच्छेद करो और बताओ कि किस नियम से यह रूप बना---
लोहारो, कलालो (कलवारः), तइओ, कुंभआरो, सिरोविअणा, आउज्जं (आतोद्यं) वइआलिओ (वैतालिक:) चइत्तो (चैत्रः) दरिअ (दप्तः) रिऊ (ऋतुः) पिउवणं, मयंको (मृगाङ कः) गरुओ। २ रसोईघर, कठौती, संडासी चूल्हा, तमेली, चमची, कटोरा, कुर्ची, हांडी,
प्लेट, डोया, थाली, छाज, चिमटा और साग-इनके प्राकृत शब्द बताओ। ३ भूलना, परोसना, निकालना, चुगली करना, उठना-इन अर्थों में
कौनसी धातु प्रयुक्त हुई है लिखो ? ४ जहेव, ताव, सयं, जत्थ-इन अव्ययों को प्रयोग करो । प्रत्येक के दो-दो
वाक्य बनाओ। ५ उद्वत्तस्वर किसे कहते हैं ? उसके लिए संधि का क्या विधान है ? ६ उद्वत्तस्वर के साथ संधि के नियम का अपवाद नियम क्या है ? __ प्रत्येक के दो-दो उदाहरण दो। ७. पुल्लिंग के ज, त और क शब्द के रूप लिखो।
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प्रकृतिभाव संधि
शब्द संग्रह (गृहसामग्री) मूसल-मूसलं, कडतं ऊंखली--उऊहलं, अवअण्णो लोढा--लोढो
शिला--सिला स्टोव.-उद्घमाणं (सं) चलनी-चालणी - छाज---सुप्पो
पुराना छाज आदि-कडंतरं (दे.) वर्तन----पत्तं, भायण मशहरी-मसहरी बोरा---पसेवो
रस्सी-रज्जू (स्त्री) लालटेन-कायदीविया (सं) दीया--दीवओ, दीवगो बत्ती-~-वत्तिआ,वत्ती दियासलाई-दीवसलागा खरल-खल्लं (सं) छींका-सिक्कगो, सिक्कगं टब--दोणी (सं) चक्की–णीसा (दे०) घरट्टो (दे०) झाडू-बोहारी, संमज्जणी, वद्धणिआ।
पातु संग्रह कुट्ट-कूटना
संमज्ज–बुहारना घरस--रगडना
मेलव-मिलाना रोसाण-मार्जन करना, शुद्धकरना पेस---भेजना उवजूंज-उपयोग में लेना
अग्घ—अच्छे मूल्य में बेचना छाय, छाअ---ढांकना
सास-हुकम करना
अव्यय संग्रह इहरा (इतरथा)-~~-अन्यथा नहीं तो दर (दे.)--आधा, थोड़ा तए (तदा)--तब
णवर (दे.)-केवल तहिं (तत्र)--वहां
तहा, तह (तथा)--उस तरह अम्ह (अस्मद) सब याद करो। देखो-परिशिष्ट १ संख्या ५० । प्रकृतिभाव संषि
___ जहां दो पद मिलकर एक पद बन जाते हैं और वे यथावस्थित अवस्था में रह जाते हैं उन्हें प्रकृतिभाव संधि कहते हैं।
नियम ७ (न युवर्णस्यास्ये ११६) इवर्ण और उवर्ण से आगे कोई विजातीय स्वर हो तो संधि नहीं होती।
इवर्ण+स्वर (इवर्ण को छोड़कर)-प्रकृतिभाव
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४८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
जाइ+ अंधो जाइअंधो (जात्यन्धः) पुढवी+आउ पुढविआउ (पृथ्वी आप:) जइ+एवं=जइएवं = (यद्येवं) को वि-+-अवयासोको वि अवयासो (कोप्यवकाशः) __उवर्ण+स्वर (उवर्ण को छोड़कर)= प्रकृतिभाव बहु+अट्ठिओ-बहुअट्ठिओ (बह वस्थिकः) सु+अलंकियंसुअलंकियं (स्वलङ कृतम्) वहु+अवअवऊढो (वध्वपगूढः)
नियम , (एबोतोः स्वरे १७) ए और ओ के आगे स्वर हो तो संधि नहीं होती।
ए-+स्वर=प्रकृतिभाव एगे+आया एगेआया (एक-आत्मा) गामे+अडइगामेअडइ (ग्रामे उटति) नईए-+अत्थ नईएअत्थ (नद्याः अत्र) एगे+एवंएगे एवं (एकः एवम् )
ओ+स्वर-प्रकृतिभाव गोयमो+आघवइ.+गोयमो आघवइ (गौतमः आख्याति) अहो+अच्छरिअहो अच्छरिअं (अहो आश्चर्यम्) रामो+आगच्छइ रामो आगच्छइ (रामः आगच्छति) एओ+अत्थ एओअत्थ (एकोऽत्र)
नियम ६ (त्यादेः १९) क्रियापद के अंतिम स्वर के बाद स्वर आए तो उनमें संधि नहीं होती।
क्रियापद स्वर+स्वर प्रकृतिभाव होइ+इह होइ इह (भवतीह) हसइ+एत्थ-हसइएत्थ (हसत्यत्र)
आलक्खिमो+एण्हिं= आलक्सिमो एण्हिं (आलक्षयामहे इदानीम्) प्रयोग वाक्य
मसलो कस्स अस्थि । उऊहलम्मि सिरं दिण्णं अहणा मुसलस्स को भयो ? सुसीला लोढेण अवलेहं (चटनी) पीसइ । तुमए तुज्झ सिला कस्स दिण्णा ? चालणीए नीरं न ठाअइ। मीणा णीसाइ अन्नं पीसइ । माआ सूप्पेण गोहमा (गेहं) रोसाणइ । रत्तीए मसहरि अन्तरेण सो कहं सुवइ । कडंतरस्य को मुल्लो अत्थि ? सा पगे णियघरं संमज्जइ । पसेवे किं वत्थु अत्थि? भायणं रित्तं केण कयं? दीवगस्सा वि महत्तं ( महत्व) अत्थि घोरंधयारे । तुज्झा गिहे केत्तिलाओ कायदीवियाओ संति ? दीवसलागं विणा
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प्रकृतिभात्र संधि
दीवअस्स को उवओगो ? दीवगम्मि वत्ती कहं नत्थि ? तुम खल्ले कि पीससि ? उद्धमाणे दुद्ध खिप्पं उण्हं भवइ । कि सा दोणीए पइदिणं व्हाइ ?
पातु प्रयोग सा मूसलेण किं कुट्टइ ? माआ किमटै संठी (संठ) घरसइ ? मोहणो णियपुत्ताण अंबा (आम) पेसइ । सो घडं छाअइ। साहू णियट्ठाणं सयं संमज्जइ । कि तुमं कंबलं उवजुजसि ? सोहणो दुद्धम्मि नीरं मेलवइ । सासू वहुं सासइ-दुद्ध उण्ह कर। अव्यय प्रयोग
तुम तहिं गच्छ इहरा अहं गच्छामि । जया तुम तहिं गमिहिसि तए अहमवि गमिस्सामि । झाणे तस्स दर उग्घाडियाई नयणाई अत्थि । णवरं अहं गच्छामि प्राकृत में अनुवाद करो .
__गांवों में बहिनें आजकल भी मूसल से बाजरी (बज्जरी) कूटती है । खाली ऊंखली क्या काम आती है ? कुछ वर्ष पहले घर-घर में चक्की चलती थी। हीरा लोढी से मीर्च पीसती है। घर में सिला कहां है ? चालनी में पानी क्यों नहीं ठहरता है ? झाड़ के बिना घर की सफाई नहीं होती। वह छाज से चावल साफ करती है । अपना पुराना छाज किसके पास है ? मशहरी के बिना भी मैं सुख से सोता हूं। बोरा में गेहूं कितने हैं ? रस्सी का उपयोग घर में कितना है ? खरल में औषधि (ओसहि) कौन पीसता है ? लालटेन सब के घर में नहीं है । दीपावली में दीए घर-घर में जलते हैं । बत्ती के बिना दीया दीया नहीं है । वर्तन में गर्म पानी है । छींका पर क्या वस्तु है ? आजकल घर-घर में स्टोव है। गांव में टब किसके पास है। धातु का प्रयोग करो
रमिला प्रतिदिन क्या कटती है ? वह सिला पर क्या रगडती है ? सुसीला घर में हर वस्तु को शुद्ध करती है। तुम गर्म पानी को क्यों नहीं ढांकते हो? तुम्हारे घर को कौन बुहारता है ? वह पुराने छाज को भी काम में लेता है । वह अपने सोने (सुवण्णं) को अच्छे मूल्य में बेचता है । आजकल छोटा आदमी बडों को हुक्म देता है । अव्यय का योग कर प्र
तुम स्कूल जाओ नहीं तो अध्ययन नहीं होगा । मैं खाना खा रहा था तब तुम कहां थे? मैं वहां कभी नहीं जाऊंगा। कमल थोडा खिला हुआ है। वह केवल पानी पीता है । जैसा गुरु कहे उस तरह (वैसा) करो।
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५०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
. प्रश्न १. प्रकृतिभाव संधि किसे कहते हैं ? २. किन-किन स्वरों से परे कौन-कौन से स्वर होने पर संधि नहीं होती।
नियम का उल्लेख करो। ३. दो उदाहरण दो जहां संधि नहीं हुई है। ४. मूसल, ऊंखली, लोढा, शिला, चक्की, चलनी, छाज, झाडू, मशहरी, बोरा, रस्सी, लालटेन, दीया, बत्ती, दियासलाई, खरल, छींका, बर्तन, स्टोव
और टब के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. कुट्ट, घरस, रोसाण, उवजुंज, छाय, संमज्ज, मेलव, पेस, अग्ध, सास---इन
धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ६. इहरा, तए, तहिं, णवर, तहा, दर-इन अव्ययों को वाक्य में प्रयुक्त
करो। ७. लिंग में एम, इम और अमु शब्द के रूप लिखो।
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अव्यय संधि
शब्द संग्रह (गृहसामग्री) चारपाई---पलियंको पीढा-पीढं चौकी-चउपाइया, आसणं सोफा-सुहोववेसिया (सं) बेंच-कट्टासणं
कुर्सी---वेत्तासणं, आसंदी (सं) मेज-पायफलगं (सं) काष्ठ का तख्ता-फलगो काठशय्या-कट्ठसेज्जा टूथपाउडर-दंतचुण्णं (सं) एनक--उवनेत्तं (सं) दांत का ब्रुश-दंतधावणं (सं) झूला-ढोला
टूथ पेष्ट-दंतपिट्ट (सं) ईट-इट्टा
सीमेंट-पत्थर चुण्णं साजी---सज्जिआ साबुन-सव्वक्खारो (सं) फिटकरी-सोरट्ठिया मोम-सीअं (दे.) गोंद-णिय्यासो पंखा--विजणं
धातु संग्रह आभोय--ध्यानपूर्वक देखना परिणिव्वा-शांत होना मल-धारण करना
आरोव-आरोपित करना आराह-आराधना करना उप्फिड-उछलना साव-शपथखाना, सुनाना अइवत्त-उल्लंघन करना णिव्विस-वहन करना सीअखेद करना
अव्यय संग्रह पच्छा (पश्चात्)-बाद में चिअ, चेअ (चैव)-ही जओ (यतः)--क्योंकि झत्ति (झटिति)--शीघ्र तंजहा (तद्यथा)-जैसे तप्पभिइ (तत्प्रभृति)-इसको आदि करना पुन्ह (युष्म) शब्द याद करो। बेखो-परिशिष्ट १ संख्या ५१)
अग्पयसंधि स्वरान्त या अनुस्वारान्त पद से परे अव्यय हो तो उस संधि को अव्यय संधि कहते हैं । अनुस्वार से परे व्यंजन द्वित्व नहीं होता है ।
नियम १. (पदारपेा ११४१) पद से परे अपि अव्यय के आदि अ का लोप विकल्प से होता है ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
केण+अपि केणवि, केणावि (केन+अपि) जणा+अपि जणावि (जना: अपि) किं+अपि-कि पि, किमवि (किमपि) कह+अपि= कहंपि कहमवि (कथमपि)
नियम ११ (इतेः स्वरात् तश्च दिः १२४२) पद से परे इति अव्यय के आदि इ का लुक होता है । स्वर से परे त द्वित्व हो जाता है, अनुस्वार से परे हो तो त द्वित्व नहीं होता।
तहा+ इति तहत्ति (तथा+ इति) पुरिसो+ इति=पुरिसोत्ति (पुरुषः+ इति) पिओ+इति=पिओत्ति (प्रियः+ इति) किं--इति=किति (किमिति) दिट्ठ+इति-दिट्ठति= दृष्टमिति
नियम १२ (त्यदायव्ययात् तत्स्वरस्य सुक् ११४०) सर्वनाम संबंधी स्वर या अव्यय के स्वर से परे सर्वनाम और अव्यय का स्वर हो तो आगे वाले पद के आदि स्वर का लुक् हो जाता है ।
अम्हे+एत्थ अम्हेत्थ (वयमत्र) जे इमेजेमे (ये इमे) जइ+अहंजइहं (यद्यहम् ) जइ+ इमा=जइमा (यदीयम्) जे+एत्थ=जेत्थ (ये अत्र) तुज्झे+इत्थ=तुभित्थ (यूयमत्र)
(पिशल प्राकृत० पैरा ६२, १३५ के अनुसार)-स्वर से परे इव अव्यय हो तो इव का व्व हो जाता है। अनुस्वार से परे इव हो तो वही होता है, द्वित्व व (व्व) नहीं ।
स्वर+इव-स्वर- व्व चंदो+इव चंदोव्व (चन्द्र इव) धम्मो+इव =धम्मोव्व (धर्म इव) अनुस्वार+इव=अनुस्वार व गेहं+इव= गेहं व । धणं- इव=धणं व
. पुतं+ इव=पुत्तं व । रिणं+इव=रिणं व ।
संस्कृत के अनुसार--उपसर्ग का अंतिम स्वर इवर्ण या उवर्ण हो आगे स्वर हो तो संधि हो जाती है । उसके बाद संयुक्त व्यंजन का नियमानुसार परिवर्तन हो जाता है।
इवर्ण+असवर्ण स्वर=य्+असवर्ण स्वर अति +अन्तं-अत्यन्तं-अच्चन्तं अभि+आगओ=अभ्यागओ=अब्भागओ (अभ्यागतः) उवर्ण+असवर्ण स्वर व+असवर्ण स्वर अणु+एसइअण्वेसइ-अण्णे सइ (अन्वेषति)
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मव्यय संधि
प्रयोग वाक्य
.सो वरिसपेरंतं पलियंकम्मि न सुविहिइ । किं तुमं आसणम्मि ठिओ भासणं करेसि ? बंभयारिणा सया कट्ठसेज्जाए सोअव्वं । मज्झ गिहे पीढो नत्थि । निग्गंथाण संथारगो कप्पइ सोइउं । मुणी सावगाण गिहत्तो फलगं आणेइ । गुरु आसंदीइ आसइ । छत्ता कट्ठासणम्मि ठिआ पढंति । मुणी वरिसावासम्मि फलगे सुवंति । पायफलगं कस्स कटुस्स अत्थि ? अज्जत्ता घरम्मि पाओ सुहोववेसिआ उवलभइ । मज्झ पासे उवनेत्तं अस्थि । इट्टाहिं पत्थरचुण्णे हिं य भवणस्स णिम्माणं भवइ । सोरट्टियाइ नीरं सच्छं (स्वच्छ) भवइ । सा सव्वक्खारेण वत्थाई सच्छाई करेइ। विमला ढोलाइ ठिआ अस्थि । सज्जिआए पप्पडा (पापड) भवंति । अत्थ विजणं कहं नत्थि ? सा दंत पिट्टएण सह दंतधावणेण दंता सोहइ । गुरुणो पासे तुम किं सावसि ? | धातुप्रयोग
___ सो किमट्ठ रामं आभोयइ ? महावीरो भारहवासे परिणिन्वाइंसु । सेहो पइदिणं दस सिलोगा मलइ । सामाइअ चरित्तस्स पच्छा छओवट्ठावणचरित्तं आरोवइ । विमलो सुयणाणं आराहइ । मुणी सावगेहिं सद्धि कंतारं अइवत्तइ । आयरिअस्स सुवगामम्मि आगमणं सुणिऊण सावगा उप्फिडंति । सो पायच्छित्तरूवेण तवं णिव्विसइ । तुज्झ पसंसं सुणिऊण सो कहं सीअइ ? अव्यय प्रयोग
- भोयणस्स पच्छा सो सोअइ । ते च्चिय धण्णा जे रागरहिया । सो अत्थ झत्ति आगओ। अहं तस्स पासे न गमिस्सामि जओ सो झाणेण पढइ । अज्जपभिइ दसदिणपेरंतं पारसो अणसणतवं करिस्सइ । प्राकृत में अनुवाद करो
_मेरी मौसी चारपाई पर बैठी है और उसने आने वाली बुआ को पीढे पर बैठाया । बडा साधु चौकी पर बैठकर भाषण देता है। काठ की शय्या कोमल नहीं होती है । काठ के तख्ते पर वह बैठना नहीं चाहता है। एक बेंच पर कितने छात्र बैठते हैं ? मेज पर पुस्तक किसकी है ? सौफा पर बैठकर वह नींद लेता है। कुर्सी कौन नहीं चाहता? वह एनक से साफ देखता है। मैं साजी खाना नहीं चाहता । इंटे कहां से आती हैं। फिटकरी का उपयोग अनेक कामों में होता है। गोंद से वस्त्र साफ होते हैं । सीमेंट घर में नहीं है । मेरी साबुन किसके पास है ? उसके घर में झूला नहीं है । पंखे से हवा आती है । दांत के ब्रुश के बिना वह टूथपाउडर से दांत साफ करता है । वह बार-बार शपथ क्यों खाता है ? धातु प्रयोग करो
लडका उसकी ओर ध्यान से देख रहा है । तुझे प्रतिदिन पांच नए
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५४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
श्लोक धारण करना चाहिए । जंबूस्वामी का कब निर्वाण हुआ ? जो धर्म की आराधना करता है उसका वह समय मूल्यवान । दूसरों का सुख देखकर वह मन में क्यों दुख पाता है ? वह बात-बात में क्यों उछलता है ? हम लोग कल उस गांव का उल्लंघन करेंगे। जगदीश अपने घर का भार अकेला बहन करता है । वे खेद क्यों करते हैं ?
अव्यय का प्रयोग करो
उसके बाद गीतिका गानी है । वह तुम्हारे पास आएगा क्योंकि वह कुछ पूछना चाहता है । इस घटना के तुम ही एक मात्र दर्शक हो । जल्दी पानी लाओ। तुम शीघ्र इस पाठ को याद करो । कषाय चार प्रकार के होते हैं, जैसे- क्रोध, मान, माया और लोभ
न
१. अम्ह शब्द के रूप लिखो ।
२. अव्यय संधि किसे कहते हैं ?
३. पद से परे अपि और इति अव्यय हो तो कौन-सा नियम क्या विधान करता है ? दो-दो उदाहरण देकर स्पष्ट करो ।
४. सर्वनाम और अव्यय के स्वर से परे सर्वनाम या अव्यय का स्वर हो तो क्या कार्य होता है ? दो उदाहरण दो ।
५. चारपाई, चौकी, बेंच, मेज, काठशय्या, पीढा, सौफा, झूला, कुर्सी, ईंट, साजी, गोंद, काष्ठ का तख्ता, एनक, फिटकरी, साबुन, पंखा, टूथपेष्ट, दांत का ब्रश, टूथपाउडर शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ ।
६. आभोय, परिणिव्वा, मल, आरोव, आराह, उप्फिड, साव, णिव्विस, सीअ और अइवत्त धातु के अर्थ लिखो ।
७. पच्छा, जओ, तंजहा, चिअ, झत्ति और तप्पभिइ अभ्ययों का वाक्य में प्रयोग करो ।
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व्यंजन संधि (अनुस्वार)
कचहरी नायालयो
जज ---
नायगरो
वादी - वाई (वि)
साक्षी, गवाह सक्खि (वि) जामिनदार - पडिभू (वि) पाहुओ (वि)
सजा ---
शब्द संग्रह ( न्यायालय वर्ग )
अर्जी -- आवेयणपत्तं
- दण्डो
बयान -- उवसत्ती (सं)
अनुवाद - अणुवायो न्याय- -नायो
अपील ---- पुणरावेयणं
इकरारनामा --पइण्णापत्तं ( सं )
निवज्ज-बैठना
निवज्ज- - लेट जाना, सोना
उक्कुद्द — कूदना, उछलना निवेस - बैठना
वकील - वायकीलो ( वाक्कील: ) दफ्तर -- अक्ख पडलो (सं) प्रतिवादी - पडिवाई (वि) गवाही --सक्ख, सक्खिज्जं -णासो घूस - उक्कोडा (दे.) - उक्कोया मुकदमा --- अभिओगो (सं) जिस पर दावा किया गया हो
जमानत ---
घूस लेकर कार्य करने वाला-
फैसला णिष्णयो
धातु संग्रह
पsिaक्खियो
उक्कोडिय (वि)
निवज्ज - नीपजना, निष्पन्न होना अवसीय - - दुःखपाना छिंद-छेदना किलिस्स-क्लेशपाना
अव्यय संग्रह
दिवारतं ( दिवारात्र) - दिनरात पडिरूवं ( प्रतिरूपं ) - समान परंमुह ( पराङ्मुखं ) – विमुख पायो, पाओ, ( प्रायः ) -- प्रायः पुरत्या ( पुरस्तात् ) -- आगे, सम्मुख पुहं, पिहं (पृथक् ) —अलग स्त्रीलिंग के जा, सा, का, असु, इमा, एआ शब्द याद करो । देखो - परिशिष्ट
१ संख्या ४४ व ४५ ख, ४६ ख, ४६ ख, ४७ ख ४८ ख,
व्यंजन संधि--पद के अंत में होने वाले व्यंजन अथवा मध्यवर्ती व्यंजन में होने वाले परिवर्तन को व्यंजन संधि कहते हैं ।
नियम १३ ( मोनुस्वारः ११२३ ) अंत में होने वाले मकार को अनुस्वार हो जाता है ।
पद का अंतिम म् 7 अनुस्वार जलम् -- जलं, फलम् - फलं, वच्छम् वच्छं
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
पह
कहीं पर अंत में मकार न हो उसको भी अनुस्वार हो जाता हैवणम्मि-वर्णमि । मुणिम्मि-मुणिमि ।
नियम १४ (वा स्वरे मश्च ११२४] अंत में होने वाले मकार से परे स्वर हो तो अनुस्वार विकल्प से होता है । पक्ष में लुक न होकर मकार को मकार हो जाता है।
वन्दे उसभं अजिअं वन्दे उसभमजिअं नयरं आगच्छइ =नयर मागच्छइ।
(बहुलाधिकारात् अन्य शब्दों के अंतिम व्यंजन का भी अनुस्वार हो
जाता है। अंतिम व्यंजन 7 अनुस्वार साक्षात्-- सक्खं पृथक्-पिहं
यत्--- (जं) तत्-तं विष्वक्-वीसु
सम्यक् --सम्म ऋधक्-इहं ऋधका.----इहयं १ नोट-शब्द-सिद्धि की दृष्टि से ऋधक शब्द का इहं बना है। जिसका अर्थ
है—अलग । इहयं-इहं शन्द से स्वार्थ में क प्रत्यय हुआ है। पिशल पैरा ५६८ के अनुसार जैन महाराष्ट्री और अर्धमागधी में इह का ही इह रूप मिलता है। इहमेगेसि नो सण्णा भवइ (आयारो १११।१)---आयारो में अनेक स्थानों पर इहं रूप मिलता है। जाइं इमाइं इहं माणुस्सलोए हवेति (जीवाभिगम ३।११६) । महाराष्ट्री में अज्ज अव्यय का रूप अन्जं मिलता है ।
नियम १५ [उ आ ण नो व्यञ्जने ११२५] ङ, ञ, ण और न के बाद व्यंजन हो तो इनको अनुस्वार हो जाता है। पङक्ति-पंती
षण्मुख:-छंमुहो पराङ मुख:-परंमुहो. उत्कण्ठा-उक्कंठा कञ्चुक:--कंचुओ सन्ध्या-संझा लाञ्छनम्---लंछणं विन्ध्यः-विझो
नियम १९ [विंशत्यावे लुक १।२८] विंशति आदि शब्दों में होने बाले अनुस्वार का लुक हो जाता है। अनुस्वार 7 लुक् विशति:-वीसा त्रिंशत्- तीसा
___ संस्कृतम्-सक्कयं संस्कार:--सक्कारो वियम १७ [मांसादेर्वा २२६] मांस आदि शब्दों में होने वाला भनुस्वार का लुक् विकल्प से होता है । अनुस्वार / लुक मांसम् ---मांसं, मंसं, मांसलम्--मांसलं, मंसलं
कांस्यम्-कांसं, कंसं पांसुः--पासू, पंसू कथम् ---कह, कहं . एवम् ---एव, एवं .
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संधि (५)
नूनम्-नूण, नूणं इदानीम्-इआणि, दाणि, दाणि किम्--कि, कि संमुखः---समुहो, संमुहो किंशुक:-- -केसुओ, किंसुओ सिंहः-सीहो, सिंहो
नियम १८ [वर्गेन्त्यो वा १३०] अनुस्वार के बाद वर्ग का कोई व्यंजन परे हो तो उसी वर्ग का पांचवां व्यंजन विकल्प से हो जाता है।
पंक:- पङ को, पंको कंडम् --- कण्डं, कंडं शंख :--सङखो, संखो षंढ:-- सण्डो, संढो अंगनम् -- अङ गणं, अंगणं अन्तरम्--अन्तरं, अंतरं लंघनम् ---लङघणं, लंघणं पन्थ:----पन्थो, पंथो कञ्चुकः--कञ्चुओ, कंचुओ । चंदो-चन्दो, चंदो लंछनम् --लञ्छणं, लंछणं बंधवः ---बन्धवो, बंधवो अंजनम् - अञ्जणं, अंजणं कंपति-~कम्पइ, कंपइ संझा-सञ्झा, संझा वंफति-- वम्फड, वंफइ कंटक:--कण्टओ, कंटओ कलंब:--- कलम्बो, कलंबो कंठः- कण्ठो, कंठो
आरंभः—आरम्भो, आरंभो। नियम १९ [वकादावन्तः ११२६] वक्र आदि शब्दों में कहीं पहले स्वर के बाद, कहीं दूसरे स्वर के बाद, कहीं तीसरे स्वर के बाद अनुस्वार का आगम होता है। वक्र-वंकं । व्यत्रं-तंसं । अश्रु-अंसु । श्मश्रु:-....मंसू । पुच्छं--पुंछं। गुच्छं----गुंछं। मूर्द्धन्---मुंढा । पशु :--... पंसू । बुध्न ----बुधं । कर्कोट: ---- कंकोडो , कुड्मलं-- कुंपलं । दर्शनं-दसणं । वृश्चिक:----विछिओ । गृष्टि:----गिंठी । मार्जार:--मंजारो। इनमें पहले स्वर
के बाद आगम हुमा है। वयस्यः-वयंसो । मनस्विन्—मणंसी। मनस्विनी-- • मणंसिणी । मनःशिला--- मणंसिला । प्रतिश्रुत्--पडंसुआ। इनमें दूसरे स्वर के
बाव आगम हुआ है। उवरि---अवरि । अतिमुक्तक:-अइमुंतयं, अणिउतयं--- इनमें तीसरे स्वर के बाद आगम हुआ है।
नियम २० [अतो विसर्गस्य ११३७] अकार से परे विसर्ग को डो (ओ) आदेश होता है। सर्वतः-सव्वओ। पुरत:--पुरओ। अग्रत:---.. अग्गओ। भवतः- भवओ। भवन्तः- भवन्तो । सन्तः---संतो।
नियम २१ [वीपस्यात्स्यावे:स्ये स्परे मोवा ३३१] वीप्सार्थक पद से परे स्यादि प्रत्यय के स्थान पर स्वरादि वीप्सार्थक पद परे रहने पर म् विकल्प से होता है । एकैकम्---एक्कमेक्कं । अङ्गेअङ्गे--अङ्ग मङ्गम्मि ।
कुछ शब्दों में दो पदों के बीच 'म' का आगम हो जाता है। चित्त--आणंदियं -चित्तमाणंदियं । जहा+इसि-जहामिसि इह+आगओ= इहमागओ। हतुट्ठ+अलंकिअं हतुट्ठमलंकिवं
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
अणेगच्छंदा+ इह- अणगछंदामिह
आगम की टीकाओं में ऐसे म् को लाक्षणिक माना है। प्रयोग वाक्य
__ सो नायालयम्मि किम गओ ? नायगरो गंगारामो पक्खवाइल्लो (पक्षपाती) नत्थि । तुम दंडासणे पइमास आगच्छसि । वाई रामलालो सच्चं जंपइ । पडिवाई धणवालो सच्चं न वयइ । तुज्झ सक्खी को अत्यि ? सक्खं अंतरेण सच्चो वि असच्चो भवइ । तस्स पडिभू अमुम्मि गामम्मि को वि नत्यि । णासेण सो काराए (जेल) सइ मुत्तो भवइ । तुज्झ आवेयणपत्तं को लिहिस्सइ ? अभिओगम्मि किमवि सारं नत्थि । अक्कोयाए कज्ज सुलहं खिप्पं य भवइ । तस्स उवसत्ती मज्झ पडिकूला अत्थि । पडिवक्खियो वि पडू अत्थि । मए अणुभूयं नायगरो उक्कोडियो अत्थि । पुनरावेयणं कया भविस्सइ ? सो णिण्णयेण संतुट्ठो अत्थि । धातु प्रयोग
सो रत्तीए वि न णिवज्जइ। तुम मज्झ पासे कहं णिवज्जसि ? अमुम्मि गामे कि अण्णं निवज्जइ ? रामो पइदिवहं दसखणा किमटै उक्कुद्दइ? तस्स पासे तुमए न निवेसिअव्वो। तस्स कहणं (पत्थणं) मए न अंगीकयं अओ सो किलिस्सइ । सासूए उवालभं सुणिऊणं पुत्तबहू मणेसु अवसीयइ । अम्ह कहणं तुज्झ कहणं छिदइ । अव्यय प्रयोग
साह दिवारत्तं झाअइ । तुज्झ भाअरो मइत्तो परंमुहो किमट्ठ अत्थि ? पीई पाओ पइदिणं पयो पिवइ। इमे साहूणो अम्हाहितो पिहं नत्थि । तुज्झ पुरत्था मह पोत्थाई संति । मज्झ भइणीए मुहं चंदपडिरूवं विज्जइ । प्राकृत में अनुवाद करो
___ न्याय के लिए लोग कचहरी में जाते हैं। क्या न्यायधीश घूस लेना चाहता है ? वादी अपनी बात वकील को सुनाता है। वकील अपनी बुद्धि से प्रतिवादी की रक्षा करता है । रुपयों से झूठे गवाह भी मिलते हैं। घटना को आंखों से देखकर भी जज गवाही के अभाव में अपराधी को दंड नहीं दे सकता । तुम्हारा जामिनदार कौन होगा ? उसका भाई जमानत से छूट गया। मुकदमे में सच्चा व्यक्ति भी हार जाता है। न्यायालय में भी घूस से न्याय बिकता है । तुम्हारे पक्ष में झूठे बयान कौन देगा? उसकी अर्जी स्वीकृत नहीं हुई। जिस पर दावा किया गया है, उसके पास रुपयों का बल है । घूस लेकर कार्य करने वाला एक जगह घूस लेता है और उसे अनेक जगह घूस देनी पडती है। दफ्तर में कौन बैठा है ? फैसला सुनने कितने लोग आए हैं ? मनुष्य को मारने वाला भी वकील की बुद्धि से बच जाता है। उसको जीवन
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संधि (५) भर कैद में रहने की सजा मिली है। उसने कल अपने मुकदमे की अपील की है । इकरारनामा पढकर मन प्रसन्न हुआ। अदालत में जाने से समय और धन की हानि होती है । न्यायालय का फैसला किसके पक्ष में हुआ ? धातु का प्रयोग करो
वह यहां बैठना नहीं चाहता है । जो अधिक सोता है वह समय को खोता है। वर्षा अधिक होने से इस वर्ष अधिक नीपजेगा। यह लडका वृक्ष से कूदता है । दूसरों का सुख देखकर बह मन में क्यों दु:ख पाता है ? वह आकाश को भी छेदता है। बिना विचारे काम करने वाला अंत में क्लेश पाता है । वह परीक्षा में कहां बैठेगा ? अव्यय का प्रयोग करो
__सोहन दिन रात परिश्रम करता है। गुरु से विमुख नहीं होना चाहिए। यहां से आगे एक कुंआ है । आपका चेहरा मेरे भाई के समान है। वह प्राय: दिन में सोता है। इसका विद्यालय मेरे विद्यालय से भिन्न है ।
प्रश्न १. व्यंजन संधि किसे कहते हैं ? २. अंतिम व्यंजन को अनुस्वार करने वाला कौन-सा नियम है ? उसके तीन
उदाहरण दो। ३. पद के अंत में म् को अनुस्वार करने वाला कौन-सा नियम है ? आगे
स्वर हो तो उसका क्या रूप बनता है ? दो-दो उदाहरण दो। ४. न, ङ, य और ण इनके आगे व्यंजन हो तो इन को क्या आदेश होता है ? ५. नीचे लिखे शब्दों का प्राकृत रूप बताओ-.. __ संस्कारः, किंशुकः, त्रिशत्, संस्कृतं, विष्वक्, कांस्यम्, । ६. किस नियम से अनुस्वार का आगम होता है ? और किस स्वर के बाद
होता है ? उदाहरण देकर स्पष्ट करो। ७. वह कौन-सा नियम है जिसके कारण अनुस्वार का व्यंजन हो जाता है ___ और बताओ कहां कौन-सा व्यंजन होता है ? ८. नीचे लिखे शब्दों के प्राकृत शब्द लिखो-. कचहरी, जज, वकील, दफ्तर, वादी, प्रतिवादी, गवाही, अपील, जामिनदार, जमानत, अर्जी, मुकदमा, घुस, सजा, बयान, अदालत, इकरारनामा,
अनुवाद, जिस पर दावा किया गया हो, घूस लेकर कार्य करने वाला। ६. निबज्ज, अवसीय, उक्कुद्द, छिद, निवेस और किलिस्स, धातु के अर्थ
बताओ।
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... अव्यय
जिस शब्द के रूप में कुछ भी व्यय न होता हो उसे अव्यय कहते हैं । अव्यय का प्रयोग उसी रूप में होता है जैसा वह शब्द है। उसमें न कुछ घटता है और न कुछ बढता है। अव्यय में किसी भी विभक्ति और किसी भी वचन का प्रभाव नहीं रहता। वह सब स्थिति में एकरूप रहता है । स्फुट अव्यय पूर्व के पाठों में दिये गए हैं और आगे भी। फिर भी नियमपूर्वक कुछ अव्यय यहां दिए जा रहे हैं ।
नियम २२ (तं वास्योपन्यासे २।१७६) तं अव्यय वाक्य के उपन्यास के अर्थ में । तं तिअसवन्दिमोक्खं (तं त्रिदशबन्दिमोक्षं)।।
नियम २३ [आम अभ्युपगमे २.१७७] आम अव्यय स्वीकार करने के अर्थ में । आम वहला वणोली (सत्यं बहला वनोली)।
नियम २४ [गवि वैपरीत्ये २११७८ ] णवि अव्यय वैपरीत्य ( . . . . . . ) के अर्थ में । णवि हा वणे (न हा बने) ।
नियम २५ [पुनरुत्तं कृतकरणे २।१७८] पुनरुत्तं अव्यय बारम्बार या, फिर-फिर के अर्थ में। अइ सुप्पइ पंसुलि णीसहेहिं अंगेहि पुणरुत्तं (अयि स्वपिति पांसुली निस्सहैः अङ गैः पुनरुक्तम् )
नियम २६ [हन्दि विषाद विकल्प पश्चात्ताप निश्चय सत्ये २११८०] हन्दि अव्यय विषाद, (खेद) विकल्प, पश्चात्ताप, निश्चय, सत्य----इन अर्थों में ।
___हन्दि चलणे णओ सो (हन्दि चरणे नतः सः) । ण माणिओ हंदि हुज्ज एताहे (न मानितः हन्दि भवेत् इदानीम् ) । हन्दि न होही भणिरी (हन्दि न भविष्यति भणिका) । सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्जे (सा खिद्यति हन्दि तव कार्ये) ।
__ नियम २७ [हन्द च गृहणार्थे २॥१८१] हन्द अव्यय, लो या 'ग्रहण करो' के अर्थ में । हन्द पलोएसु इमं (हन्द प्रलोकस्व इमाम् ) ।
नियम २८ [मिव पिव विव ब्य व विअ इवार्थे वा २११५२] इव अर्थ में प्राकृत में मिव, पिव, विव, व्व, व, विअ और इव अव्यय हैं।
कुमुअं मिव (कुमुदं इव), हंसो विव (हंसो इव), चंदणं पिव (चन्दन इव), सायरो व्व (सागरो इव), खीरोओ व (क्षीरोदो इव), कमलं विअ (कमलं इव) ।
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अव्यय
नियम २६ [बेण तेण लक्षणे २॥१८३] जेण और तेण ये दो अव्यय मक्षण (अवस्था) अर्थ में। भमर रुअं जेण कमलवणं (भ्रमररुतं येन कमलवनम् ), भमर रुअं तेण कमलवणं (भ्रमररुतं तेन कमलवनम्)।
नियम ३० [गइ चेअ चिअ च अवधारणे २०१८४] निश्चय अर्थ में णइ, चेअ, चिअ और च्च अव्यय हैं । गइए णइ (गत्या एव), जं चेअ मउलणं लोअणाणं (यत् एव मुकुलनं लोचनानाम्), अणुवद्धां तं चिअ कामिणी (अनुबद्धां तदेव कामिनीनाम् ), ते च्चिअ धन्ना (ते एव धन्याः), ते च्चेअ सप्पुरिसा (ते एव सत्पुरुषाः), स च्चेअ सीलेण (स: एव शीलेन) ।
नियम ३१ [बले निर्धारण निश्च ययोः २११८५] बले अव्यय निर्धारण और निश्चय अर्थ में ।
निर्धारण---बले पुरिसो धणंजओ खत्तिआणं (क्षत्रियाणां मध्ये धनञ्जय एव पुरुषः)
निश्चय---बले सीहो (सिंह एव)
नियम ३२ [किरेर हिर किलार्थे वा २११८६] किर, इर, हिर, किल ये चार अव्यय किल अर्थ में । कल्लं किर खरहिअओ (कल्यं किल खरहृदयः), तस्स इर (तस्य किल), पिअ-वयसो हिर (प्रियवयस्य किल), एवं किल तेण सिविणए भणिआ (एवं किल तेन स्वप्नके भणिता)।
नियम ३३ [णवर केवले २११८७] णवर अव्यय केवल सिर्फ अर्थ में। णवर पिआई चिअ णिव्वडन्ति (केवलं प्रियाणि एव निष्पतन्ति) ।
नियम ३४ [आनन्तर्ये णवरि २११८८] णवरि अव्यय अनन्तर (बाद में) अर्थ में । णवरि अ से रहुवइणा (पश्चात् च तस्य रघुपतिना) ।
नियम ३५ [अलाहि निवारणे २।१८६] अलाहि अव्यय प्रतिषेध, (वस) अर्थ में । अलाहि किं वाइएण लेहेण (अलं किं वाचितेन लेखेन) ।
नियम ३६ [अण णाई नगर्थे २।१६०) अण और णाई निषेधार्थक (नहीं, मत) अर्थ में । अण चिन्तिअ ममुणन्ती (अचिन्तितं अजानतो), णाई करेमि रोसं (न करोमि रोषम्)।
नियम ३७ [माई मार्थे २।१९१] माइं अव्यय निषेध (मत) अर्थ में । माइं काहीअ रोसं (मा कार्षिद् रोषम् )
नियम ३८ [हली गिदे २०१८२] हद्धी अव्यय खेद, अनुताप अर्थ में । हद्धी इद्धी । (हाधिक् ऋद्धिः) । ___नियम ३६ [वश्वे भयवारणविषादे २०१८३] वेव्वे अव्यय भय वारण और विषाद अर्थ में।
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६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ४० [बेव च आमन्त्रणे २११९४] वेव्व और वेव्वे अव्यय आमंत्रण अर्थ में । वेव गोले (हे गोल ! ), वेल्वे मुरन्द ले वहसि पाणि (हे मुरन्दले (त्वं) वहसि पानीयम्) ।
नियम ४१ [मामि हलाहले सख्यावा २०१६] मामि, हला, हले, सहि-ये चार अव्यय सखि के आमंत्रण अर्थ में। मामि सरिसक्खाणं वि (सखि ! सदृशाक्षराणामपि), पणवह माणस्स हला (प्रणमत मानस्य सखि !)। हले हयासस्स (सखि ! हताशास्य) सहि एरिसिच्चिय गइ (हेसखि ! ईदृशी एव गति:) ।
नियम ४२ [वे संमुखी करणे च २०१६६] दे अव्यय सम्मुखीकरण और सखि के आमन्त्रण अर्थ में। दे पसिअ ताव सुन्दरि (हे सुन्दरि ! प्रसीद तावत्), दे आपसिय निअत्तसु (हे सखि ! आप्रसद्य निवर्तस्व) ।
नियम ४३ [हुं दानपच्छानिवारणे २०१९७] हुं अव्यय दान, पृच्छा और निवारण अर्थ में । हुं गेण्ह अप्पणो च्चिअ (हुं गृहाण आत्मन एव)
पृच्छा-हुं साहसु सम्भावं (हुं कथय सद्भावम्) । निवारणे-हुं निल्लज्ज समोसर (हुं निर्लज्ज समपसर) ।
नियम ४४ [हु खु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये २०१९८] हु और खु अव्यय निश्चय, विर्तक, संभावन तथा विस्मय अर्थ में। निश्चय-तं पिहु अच्छिन्नसिरी (त्वमपि हु अच्छिन्नश्रीः), तं खु सिरीए रहस्सं (तत् खु श्रिया रहस्यम्)।
बितर्क-न हु णवरं संगहिआ (न हु णवरं संगृहीता), एवं खु हसइ (सम्भावयामि एतां हसति)।
संशय-जलहरो खु धूमवडलो खु (जलधरो वा धूमपटले वा)। संभावन--तरीणह णवर इमं (केवल मिमं तरीतुं न संभावयामि)। विस्मय–को खु एसो सहस्ससिरो (आश्चर्य, क एषः सहस्र शिराः) ।
नियम ४५ [क गरेक्षेप विस्मय-सूचने २११९६] ऊ अव्यय गर्दा, आक्षेप, विस्मय और सूचन अर्थ में।
गर्हा-ऊ णिल्लज्ज (ऊ निर्लज्ज)। आक्षेप-- किं मए भणिों (ऊ किं मया भणितम्) । विस्मय:-ऊ कह मुणिआ अहयं (ऊ कथं ज्ञाता अहं) । सूचन-ऊ केण न विण्णायं (ऊ केन न विज्ञातम्) ।
नियम ४६ [थ कुत्सायाम् २१२००] थू अव्यय कुत्सा के अर्थ में। थू निल्लज्जो लोओ (५ निर्लज्ज: लोकः)।
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अव्यय
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नियम ४७ [रे अरे संभाषण-रतिकलहे २१२०१] रे अव्यय संभाषण और अरे अव्यय रतिकलह अर्थ में। रे हिअय मडह सरिआ (हे हृदय, लघ्वी सरिता) अरे म समं मा करेसु उवहासं (अरे ! मया सम मा कुरु उपहासं)
नियम ४८ [हरे क्षेपे च २२०२] हरे अव्यय क्षेप, संभाषण और रतिकलह के अर्थ में।
क्षेप-हरे णिल्लज्ज (अरे निर्लज्जः) । संभाषण-हरे पुरिसा (अरे पुरुणः) । रतिकलह- हरे वहुवल्लह (अरे बहुवल्लभ) ।
नियम ४६ [ओ सूचना पश्चात्तापे २।२०३] ओ अव्यय सूचना और पश्चात्ताप अर्थ में।
सूचना---ओ अविणय-तत्तिल्ले (ओ अविनयपरायणे) । पश्चात्ताप-ओ न मए छाया इत्तिआए (ओ न मम छाया एतावत्याः) ।
नियम ५० [अव्वो सूचना दुःख संभाषणा पराप विस्मयानन्दादर भय खेद विषाद पश्चात्तापे २।२०४] अव्वो अव्यय सूचना आदि अर्थों में ।
सूचना----अव्वो दुक्करकारय' (अन्वो दुष्करकारकः) । दुःखे----अन्वो दलंति हिययं (अव्वो दलन्ति हृदयम्) । संभाषणे-----अब्बो किमिणं किमिणं (अन्वो किमिदं किमिदं)।
खेद-अव्वो न जामि छेत्तं (अन्वो न यामि क्षेत्रम्) । अपराध--अव्वो हरन्ति हिअयं तह वि न वेसा-हवन्ति जुवईण
(अव्वो हरन्ति हृदयं तथापि न द्वेष्याः भवन्ति युवतीनाम् विस्मय--अध्वो किंपि रहस्सं मुणन्ति धुत्ता-जणब्भहिआ
(अन्वो किमपि रहस्य जानन्ति धूर्ताः जनाभ्यधिका:) आनंद--- अव्वो सुपहायमिणं (अव्वो सुप्रभातमिदम्) आदर---अव्वो अज्ज म्ह सप्फलं जी (अद्य अस्माकं सत्फलं जीवितम् ) भय-अव्वो अइअम्मि तुमे नवरं जइ सा न जूरिहिड
(अव्वो अतीते त्वयि नवरं यदि सा नजरिष्यते)। विषाद---अन्वो नासेन्ति दिहिं (अन्वो नाशयन्ति धृतिम्) पश्चात्ताप-एण्हि तस्सेअगुणा ते च्चिय अन्वो कह णु एअं
__(इदानीं तस्येति गुणा: ते एव अव्वो कथं नु एतत्) नियम ५१ [अइ संभावने २२०५] अइ अव्यय संभावन अर्थ में । अइ दिअर किं न पेच्छसि (अयि देवर ! किन प्रेक्षसे)।
नियम ५२ [वणे निश्चय विकल्पानुकाप्ये च २२२०६] वणे अव्यय निश्चय, विकल्प, अनुकम्प्य और संभावन अर्थ में।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
निश्चय--वणे देमि (निश्चयं ददामि) । विकल्प-होइ वणे न होइ (भवति वा न भवति)। अनुकम्प्य----दासो वणे न मुच्चइ (दासोनुकम्प्यो न त्यज्यते)।
संभावन-नत्थि वणे जं न देइ विहिपरिणामो (यद् नास्ति वणे यद् न दाति विधिपरिणामः) ।
नियम ५३ [मणे विमर्श २१२०७] मणे अव्यय विमर्श अर्थ में । मणे सूरो (मन्ये सूर्यः) ।
नियम ५४ [अम्मो आश्चर्ये २०२०८] अम्मो अव्यय आश्चर्य अर्थ में । अम्मो कह पारिज्जइ (अम्मो कथं पार्यते) ।
नियम ५५ [स्वयमोथै अप्पणो न वा २०२०६] अप्पणो अव्यय स्वयं अर्थ में विकल्प से । विसयं विअसंति अप्पणो कमलसरा (विशदं विकसन्ति स्वयमेव कमलसरांसि) पक्षे-सयं चेअ मुणसि करणिज्ज (स्वयमेव जानासि करणीयम्) ।
नियम ५६ [प्रत्येकमः पारिक्कं पारिएक्कं २०२१.] प्रत्येक अर्थ में पाडिक्कं, पाडिएक्कं और पत्तेयं अव्यय है ।
नियम ५७ (उअ पश्य २।२११) उअ अव्यय पश्येत् (देखो) अर्थ में विकल्प से । उअ लोआ गच्छंति (पश्य लोका: गच्छंति)।
नियम ५८ [इहरा इतरथा २२२१२] इहरा अव्यय इतरथा अन्यथा के अर्थ में । इहरा नीसामन्नेहिं (इतरथा निःसामान्यै)।
नियम ५६ [कसरि झगिति संप्रति २०२१३] झगिति (शीध्र) संप्रति (अभी) इन दो अर्थों में एक्कसरिअं अव्यय ।।
नियम ६० [मोरउल्ला मुधा २१२१४] मोरउल्ला अव्यय मुधा (व्यर्थ) अर्थ में । मोरउल्ला जंपसि (मुधा जल्पसि)।
नियम ६१ [दरार्धाल्पे २१२१५] दर अव्यय अर्ध और अल्प अर्थ में । दर विअसि (अर्धेन विकसितं, ईषत् विकसितं)।
नियम ६२ [किणो प्रश्ने २१२११] किणो अव्यय प्रश्न अर्थ में । किणो धुवसि (किं धुवसि)।
नियम ६३ [इजेराः पादपूरणे ॥२१७] इ, जे, र ये तीन अव्यय पाद पूरण में। न उणा इ अच्छीइं (न पुनः अक्षीणि), अणुकूलं वोत्तुं जे (अनुकूलं वक्तुम्), गेण्हइ र कमल गोवी (गृह्णाति रे कमलगोपी) ।
नियम ६४ [प्यावयः २।२१८] पि वि, अपि समुच्चय अर्थ में । सायरो वि (सागरो अपि) जम्मो पि (जन्म अपि) ।
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अव्यय
प्रश्न
१. अव्यय किसे कहते हैं ? उसका प्रयोग कैसे होता है ?
२. नीचे लिखे अव्ययों के अर्थ बताओ और अपने वाक्य में प्रयोग करो
आम, हन्द, णइ, च्च, बले, णवरि णाई, माई, मामि, वेव्व, दे, हरे, औ, वणे, मणे, अम्मो, उअ, एक्कसरिअं दर, मोरउल्ला और किणो । ३. पसेवो, कायदीविया, सीअं, फलिहा, ढोला, उक्कोडा णाओ - इन शब्दों hi हिन्दी अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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२१
हेत्वर्थ कृदन्त (तुम् प्रत्यय)
शब्द संग्रह परस्पर---परोप्परं स्पष्ट----पट्ट कल्याण-कल्लाणं स्वप्न ----सुविणो शास्त्र--सत्थं
शक्ति-सत्ती पाठक-पाढयो
सभा-सहा कार्य --- कज्ज
श्रेयांस-सिज्जंसो प्रयत्न--पयण्णो
धातु संग्रह गमित्तए-जाने के लिए अणुणेउ-अनुनय करने के लिए रोविउ ----रोने के लिए बिहरित्तए, विहरेत्तए---विहार के लिए विवदित्तए----विवाद करने के लिए घेत्तु-लेने के लिए पयासिउ--प्रकट करने के लिए पासित्तए, पासेत्तए-देखने के लिए खादि खाने के लिए जग्गि-जागने के लिए गाउ गाने के लिए, काउ, कटुं-करने के लिए लद्ध पाने के लिए
रोद्ध--रोकने के लिए जोद्ध-युद्ध करने के लिए
अव्यय संग्रह मग्गतो (मार्गतः)-पीछे से सज्ज (सद्य:)---शीघ्र सिय (स्यात् )--कथंचित् पेच्च (प्रेत्य)-परलोक मणा, मणयं (मनाङ)-थोडा मोरउल्ला--व्यर्थ मुहूं, मुहु-बार-बार
सर्व शब्द तीनों लिंगों में याद करो । देखो---परिशिष्ट १ संख्या ४३ क, ४६ ख, ४३ ग । तुम् प्रत्यय
धातु में तुं और तए प्रत्यय लगाने पर हेत्वर्थ कृदन्त (तुम् प्रत्यय) के रूप बनते हैं । त्तए प्रत्यय के रूप जैन आगमों में विशेष रूप मिलते हैं। तुं (उ) और तए प्रत्यय का अर्थ होता है-के लिए।
नियम ६५ [एज्चाक्त्वा तुम् तव्यभविष्यस्सु ३३१५७] क्त्वा, तुम्,
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हेत्वथं कृदन्त
तव्य प्रत्यय एवं भविष्यत्कालीन प्रत्यय परे होने पर पूर्व धातु में होने वाले अ को इ तथा ए हो जाता है। व्यंजनान्त धातु के अंत में अ नित्य आता है तथा स्वरान्त धातुओं के अंत में अ विकल्प से होता है। तए-हस् + अ हसित्तए, हसेत्तए (हसितुं) हंसने के लिए
हो--अ-होइत्तए, होएत्तए, होत्तए (भवितुं) होने के लिए तुं (5)-~हस् । अ-हसितुं, हसेतुं, हसिउ, हसेउ।
हो- अ - होइतुं, होएतुं, होतुं । होइउ, होएउ, होउ।
नियम ६६ [क्त्वा-तुम्-तव्येषु घेत् ४१२१०] क्त्वा, तुम् और तथ्य प्रत्यय परे होने पर ग्रह धातु को घेत् आदेश होता है । घेत्तुं (ग्रहीतुं) ग्रहण करने के लिए।
___ नियम ६७ [वचो वोत् ४।२११] क्त्वा, तुम और तव्य प्रत्यय परे होने पर वच् धातु को वोत् आदेश होता है । वोत्तुं (वक्तुं) बोलने के लिए।
नियम ६८ [रुदभुजमुचां तोन्यस्य ४॥२१२] क्त्वा, तुम् और तव्य प्रत्यय परे होने पर रुद्, भुज् तथा मुच् धातुओं के अन्त्य को त आदेश होता
रुद्... रोत्तु (रोने के लिए) । भुज् ---भोत्तु (खाने के लिए) मुच्--मोत्तुं (छोडने के लिए)
नियम ६६ [दशस्तेन 8ः ४१२१३] दश धातु के अन्त्य को तु के तकार सहित 8 आदेश होता है । दृश्—दटुं (देखने के लिए)
नियम ७० [आ कृगो भूत भविष्यतोश्च ४१२१४] कृ धातु के अंत को आ आदेश होता है, भूत और भविष्य काल में तथा क्त्वा, तुम् और तव्य प्रत्यय परे हो तो। काउ (करने के लिए)
प्रेरक [जिन्नन्त] हेत्वर्थ कृदन्त के रूप बनाने का नियम-जिन्नन्त की धातु के जो रूप बनते हैं (देखो-पाठ ६२, ६३, ६४) । उनके आगे तुं (उ) या तए प्रत्यय लगाने से हेत्वर्थ कृदन्त के रूप बनते हैं ।
भणावितुं, भणाविउ, भणावित्तए-पढाने के लिए। प्रयोग वाक्य
परोप्परं पेम्मेण ठाअव्वं । सव्वेसि जणाण कल्लाणं होउ । सत्थचक्खु अन्तरेण मणुओ अंधो अत्थि । सो जोइसिअस्स पासे पण्हं पुच्छिउ गच्छइ । तुज्झ कज्जं अज्ज को काउ इच्छइ ? जो पट्ट जंपइ सो जीवणववहारे पियो न लग्गइ । तुमए एगते भासणाय पयण्णो कायव्वो। अहं सुविणम्मि एगं सिंघं पासिसु । सव्वेहिं णियसत्तीए कज्जे कायव्वं । सिज्जसेण एगवरिसपेरंतो एगंतरोववासो कओ। धम्मसहाए सव्वजाइजणा आगच्छति ।)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
धातु प्रयोग
तुम्हाणं गिहे खादि अन्नमवि नत्थि । एगं पदमवि गमित्तए नत्थि मे सत्ती । मंगलकाले को रोविउंलग्गो। इमो कालो जग्गिउ अस्थि । नायं समयो परोप्परं विवदित्तए । अहुणा तुम कि काउ इच्छसि त्ति पटू कह ? मुणिणा जणाणं कल्लाणं काउंपयण्णो कयो। साहू आयरियं अणुणे उगओ। सो सुमिणस्स अट्ठ घेत्तुं सुविणसत्थपाढयस्स घरं गओ । अवसरो अस्थि अप्पाणं पयासिउ । सो अवमाणं अवलोइउन सक्कइ । इमं कज्ज तुए विणा को अण्णो काउ सक्कइ । अव्यय प्रयोग
सो मग्गतो कहं गच्छइ ? सा सज्जं जंपइ । अप्पा पेच्च गच्छड । सो सिय महरो सिय रुक्खो य अत्थि । मणयं भोयणं न हाणिअरं भवइ । सो अत्थ मुहु कहं आगच्छइ ? तुज्झ तत्थ गमणं मोरउल्ला अस्थि । प्राकृत में अनुवाद करो
. यह समय विवाद करने के लिए नहीं है । आचार्य तुलसी ने महिलाओं को जगाने के लिए प्रयत्न किया। मंगलसेन की एक शब्द भी बोलने की शक्ति नहीं है। यह समय काम करने के लिए है । इस समय आप क्या खाना चाहते हैं ? श्रेयांस गुरु को प्रार्थना करने के लिए गया है। प्रभा प्रथम आने के लिए पढने का प्रयत्न करती है । उनको लेकर श्रेयांस गाने के लिए सभा में गया। दूसरे गांव जाने के समय रोना उचित नहीं है। अरुणा ने जगाने के लिए प्रयास किया। शास्त्र को जानने वाला कल्याण का कार्य करता है । तुम्हारे बिना लिखने का कार्य कोई दूसरा नहीं कर सकता । कुसुम अपमान को सह नहीं सकता । वह विवाद के लिए दूसरे गांव जाता है । परस्पर प्रेम पूर्वक रहना चाहिए । तुम्हारा कल्याण हो । हमारे धर्मशास्त्र जिनप्रणीत हैं। इस प्रश्न का उत्तर जैन विद्या जानने वालों से मांगो । अपना कार्य स्वयं करो। राष्ट्र भाषा किसको प्रिय नहीं लगती है । उसको बोध देने के लिए तुझे प्रयत्न करना चाहिए। उसे स्वप्न में बुरे विचार आते हैं। सबके पास स्मरण शक्ति है । प्रेमलता स्पष्ट बोलती है। उसकी सभा में पांच सौ तियासी आदमी थे। अव्यय का प्रयोग करो
थोडा पढ़ा लिखा भयंकर होता है । व्यर्थ में किसी के साथ विवाद मत करो। पीछे से वह तुम्हारी निंदा करता है । परलोक में जीव कर्म सहित जाता है । उसको पढने के लिए बार-बार मत कहो । कथंचित् आत्मा नित्य है। प्रश्न का उत्तर शीघ्र दो । अवधान में प्रश्न का उत्तर शीघ्र कौन देता
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हेत्वथं कृदन्त
प्रश्न १. स्त्रीलिंग में जा, सा, अमु, इमा, और एआ शब्द के रूप लिखो। २. तुम् प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में कौन से प्रत्यय आते हैं ? ३. तुम् प्रत्यय के रूप बनाने के लिए किस नियम का ध्यान रखना
चाहिए ? ४. तुम् प्रत्यय किस अर्थ में प्रयोग होता है ? ५. तुम् प्रत्यय परे होने पर किन धातुओं को क्या-क्या आदेश होता है ? ६. प्रेरक (बिन्नन्त) धातुओं के तुम् प्रत्यय के रूप कैसे बनाए जाते हैं ?
किन्हीं चार धातुओं के रूप बनाओ। ७. नीचे लिखे शब्दों के अर्थ लिखो-परोप्पर, कल्लाणं, सत्ती, पयण्णो,
पट्ट, सत्थं, पाढयो, सुविणो । ८. पीछे से, कथंचित्, थोडा, व्यर्थ, शीघ्र, बार बार और परलोक में--इन
अर्थों में कौन से अव्यय हैं ?
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२२
सम्बन्धभूत कृदन्त
(क्त्वा प्रत्यय)
शब्द संग्रह (पत्रालय वर्ग) पत्र--पत्तं
मनीआर्डर----धणाएसो (सं) पत्रपेटी, लेटरबक्स--पत्ताही (पु) (सं) पार्शल-पासलो (सं) पोस्टआफिस-पत्तालयो (सं) रजिष्ट्री-पंजिआ (सं) प्रमुख डाकघर----पमुहपत्तालयो (सं) पोस्टमास्टर-पत्तालयाहिअक्खो (सं) तार-तुरिअसूअओ (सं) जनरलपोस्टमास्टर--पत्तालयाहीसो (सं) तारघर-तुरिअसूअणालयो (सं) डाकिया---पत्तवाहओ
लिफाफा--आवेट्टणं (सं)
धातु संग्रह पासिऊण- देखकर
गच्छिऊण-जाकर इच्छिऊण- इच्छाकर सुणिऊण-सुनकर पुच्छिऊण—पूछकर
भुंजिऊण-भोजनकर झाऊण-ध्यानकर
सयिऊण----सोकर जाणिऊण जानकर सेविऊण-सेवाकर हसिऊण-हंसकर
ठाऊण-ठहरकर दाऊण--देकर
गिहिऊण-ग्रहणकर णमिऊण-नमनकर
कहिऊण--कहकर पाऊण---पाकर
लिहिऊण—लिखकर
अव्यय संग्रह वीसु (विष्वक् )--सब ओर से णिचं, निच्चं (नित्यं )---नित्य तहा, तह (तथा)--वैसे, उस प्रकार से णोचेअ (नो एव)---नहीं तो अत्थं (अस्तं)--अस्त होना, छिपना अत्थु (अस्तु) हो
ज, त, क, एअ, इम, अमु शब्द नपुंसक लिंग में याद करो । देखोपरिशिष्ट १ संख्या ४४ ग, ४५ ग, ४६ ग, ४८ ग, ४७ ग, ४६ ग) क्त्वा प्रत्यय
__ जब' कर्ता एक कार्य पूर्ण करके दूसरा कार्य करता है तो पहले किए गए कार्य के लिए संबंधभूत कृदन्त (क्त्वा प्रत्यय) का प्रयोग किया जाता
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सम्बन्धभूत कृदन्त
७१
है। क्त्वा प्रत्यय प्रत्येक धातु से होता है। यह पूर्वकालिक अर्ध क्रिया है । इसके साथ दूसरी क्रिया का होना आवश्यक है । वाक्य में क्रिया के साथ कर्म आता है वैसे ही इस अर्धक्रिया का भी कर्म आता है।
नियम ७१ (क्त्वस्तुम तूण तुआणाः २११४६) संस्कृत के क्त्वा प्रत्यय और क्त्वा के स्थान पर यप् (ल्यप् ) प्रत्यय को प्राकृत में तुं, अत् (अ), तूण और तुआण ये चार प्रत्यय होते हैं। पूर्ववर्ती नियम के अनुसार तुं, तूण, और तुआण प्रत्ययों के योग में पूर्ववर्ती अ को ए तथा इ विकल्प से होता है । इत्ता, इत्ताण, आय तथा आए-ये चार प्रत्यय क्त्वा के स्थान पर अर्धमागधी में और मिलते हैं । तुआण प्रत्यय भी अर्धमागधी में मिलता है ।
नियम ७२ (क्त्वा स्यादेणं स्वोर्वा ११२७) तूण, तुआण और इत्ताण प्रत्ययों के 'ण' शब्द के ऊपर अनुस्वार विकल्प से होता है। तुं [७] प्रत्यय-हस्-हसितुं, हसेतु, हसिउ, हसेउ (हसित्वा) हंसकर
हो-होतुं, होइत, होएतं, होउ, होइउ, होएउ (भूत्वा) होकर तूण [ऊण]प्रत्यय-हस्- हसितूण, हसेतूण । हसिऊण हसेऊण । हसितूणं हसेतूणं । हसिऊणं, हसेऊणं ।। हो--होइतूण, होइतूणं । होएतूण, होएतूणं । होतूण, होतूणं । होइऊण,
होइऊणं । होएऊण, होएऊणं । होऊण, होऊणं । तुआण [आण] प्रत्यय-हसितुआण, हसितुआणं । हसेतुआण, हसे
तुआणं । हसिउआण, हसिउआणं । हसेउआण, हसेउआणं । हो -- होतुआण, होतुआणं । होउआण, होउआणं । होइतुआण, होइतुआणं । होइउआण, होइउआणं । होएतुआण, होएतुआणं । होएउआण,
होएउआण। अप्रत्यय-हसिअ, हसेउ। हो-होइअ, होएअ, हो । इत्ता प्रत्यय--हसित्ता, हसेत्ता। कृ---करित्ता, करेत्ता, (कृत्वा) करकर। इत्ताण प्रत्यय-हसित्ताण, हसेत्ताण, हसित्ताणं, हसेत्ताणं । करित्ताण,
करेत्ताण, करित्ताणं, करेत्ताणं, (कृत्वा) करकर । आय प्रत्यय---गह-गहाय (गृहीत्वा) ग्रहणकर । आए प्रत्यय-आया---आयाए (आदाय) लेकरके । संपेहाए (संप्रेक्ष्य)
___ अच्छी तरह देखकर।
ऊपर हस् धातु और हो धातु के क्त्वा प्रत्यय के रूप दिए गए हैं। व्यंजनान्त धातुओं के हस् धातु की तरह और स्वरान्त धातुओं के हो धातु की तरह रूप चलते हैं।
पिछले पाठ में तुम् प्रत्यय के लिए जो नियम दिए गए हैं, वे क्त्वा प्रत्यय के लिए भी हैं, इसलिए उनके नियमों को न बुहराकर कुछेक धातुओं
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७२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
के केवल रूप दिए जा रहे हैं।
काउं, कातूण, काऊण, कातूणं, काऊणं, कातुआण, काउआण, कातुआणं, काउआणं, कट्ठ (कृत्वा) करके। घेत्तुं, घेत्तूण, घेत्तूणं, घेत्तुआण, घेत्तु आणं (गृहीत्वा) ग्रहणकर । दछु, दलूं, दळूण, दळूणं, दळुआण, द[आणं, (दृष्ट्वा) देखकर । भोत्तुं, भोत्तूण, भोत्तूणं, भोत्तुआण, भोत्तुआणं, (भुक्त्वा) खाकर । मोत्त, मोत्तूण, मोत्तूणं, मोत आण, मोत्तुआणं, (मुक्त्वा) छोडकर । रोत्तं, रोत्तूण, रोत्तणं, रोत्तुआण, रोत्तुआणं (रुदित्वा) रोकर । वोत्तुं, वोत्तूण, वोत्तूणं, वोत्तुआण, वोत्तुआणं (उक्त्वा) बोलकर ।
संस्कृत रूपों के आधार पर प्राकृत में उपलब्ध क्त्वा प्रत्यय के रूपआयाय (आदाय) ग्रहण करके । गच्चा, गत्ता (गत्वा) जा किच्चा, किच्चाण (कृत्वा) करके।
करके। नच्चा, नच्चाण (ज्ञात्वा) जानकर, नत्ता (नत्वा) नमकर। बुज्झा (बुद्ध वा) जानकर,
भोच्चा (भुक्त्वा) खाकर । मत्ता, मच्चा (मत्वा) मानकर,
वंदित्ता (वन्दित्वा) वंदनकर । विप्पजहाय (विप्रजहाय) त्यागकर, सोच्चा (श्रुत्वा) सुनकर । सुत्ता (सुप्त्वा) सोकर
आहच्च (आहत्य) आघातकर । साहट्ट (संहृत्य) संहारकर । हंता (हत्वा) मारकर आहट्ट (आहृत्य) आहारकर परिण्णाय (परिज्ञाय) जानकर चिच्चा, चेच्चा, चइत्ता (त्यक्त्वा) छोडकर निहाय (निधाय) स्थापितकर पिहाय (पिधाय) ढांककर
परिच्चज्ज (परित्यज्य) परित्याग
कर अभिभूय (अभिभूय) अभिभवकर, पडिबुज्झ (प्रतिबुध्य) प्रतिबोध
कर प्रेरक [जिन्नत] धातु के क्त्वा प्रत्यय के रूप बनाने का नियम धातु के आगे प्रेरक प्रत्यय जोडने के बाद क्त्वा को आदेश होने वाले प्रत्यय जोडे जाते हैं। जैसे
हस्+आवि+तुं (उ)=हसाविउ, हसावेउ। हस् + आवि+ अहसाविअ, हसावे । हस्+आवि+तूण (ऊण) =हसाविऊण, हसावेऊण । हस्-+- आवि+तुआण (उआण) हसाविउआण, हसाविउआणं हसावेउआण, हसावेउआणं ।
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सम्बन्धभूत कृदन्त
प्रेरक धातु
से प्रत्यय
हास + अ = हासिअ हासेअ । हास + तूण ( ऊण) = हासिऊण, हासिऊणं । हास + तुआण = हासिउआण, हासिउआणं । हास + इत्ता हासित्ता, हासेत्ता हास + तुं (उ ं) == हासिउ, हासेउ ।
प्रयोग वाक्य
मज्झ भाअरस्स पत्तं अज्ज आगमिस्सइ । पत्तालयं गच्छऊण पास मज्झत्तं अत्थन वा । पमुहपत्तालयं जाऊणं पत्तालयाहीसं कह मज्झ पासलो कत्थ लुत्तो (खोगया) । पत्तवाहओ पत्ताई दाउ गामे गामे गच्छइ । पत्तालयाferral पाओ पत्तालयम्मि समय चिअ आगच्छइ । आवेदृणे किं लिहिअमत्थि को वि न जाणइ ? तस्स माआए पासे पइमासं धणाएसेण रोवगा ( रुपया) आ यान्ति । तुमं पासले किं पेसिस्ससि ? पंजिआइ चे रोवगा पेसेज्ज तया वरं । तुरिअसूअओ कओ आगओ ? तुमं तुरिअसूअणालयं गच्छिऊण सव्वत्थ तुरिअसूअणं देहि जं आयरिएण अम्हाणं णयरे चउमासो कहिओ । धातु प्रयोग
७३
अहं तु पासिऊण अइपसन्नोमि । तुमं पुराणपाढं सुमरिऊण अग्गं पाढं पढसु । सो उवएसं दाऊण विरमीअ । तुलसीसाहणासिहरं ठाऊण अम्हे बहुसुंदर दिस्सं पेच्छामो । ते बारवई दट्ठूण महाविज्जालयं उवागया । लाडनूं गच्छिकण, सुहम्माए सहाए साहुणो आयरियं वदिऊणं णियतठाणेसु उवविसंति । तुमं पत्तं लिहिऊण कं दास्ससि ? पण्हं पुच्छिऊण सो संतुट्ठो जाओ। तुमं मज्झ गिहे भोयणं भुंजिऊण सगामं गच्छसु ।
अव्यय प्रयोग
सोवीसुं दुही अत्थि । किं तुमं णिच्च पाढं पढसि ? जहा सुहं तहा कर । तुमं गच्छ णो चेअ सो गमिस्सइ । आइच्चो णिच्चं अत्थं भवइ । तुज्झ कल्लाणं अत्थु ।
प्राकृत में अनुवाद करो
तुम्हारा पत्र बहुत समय से नहीं आया है । पारमार्थिक शिक्षण संस्था में लेटर वक्स नहीं है । मेरा भाई प्रतिदिन पत्र लाने पोस्ट आफिस जाता है । पोस्ट मास्टर आज कहां गया है ? डाकघर में पत्र आते हैं । महानगरों में ast sthaर भी होता है । सुधांशु बडे डाकघर में काम करता है । डाकिया घर-घर में जाकर उनका पत्र आदि देता है । आज रमेश का मनीआर्डर कहां से आया है ? पार्सल से आंख की दवा सीता को भेज दो । रजिष्ट्री से वस्तु भेजने पर उसकी सुरक्षा का भार भेजने वाले पर नहीं रहता । तार देकर मोहन को बुलाओ कि तुम्हारी माता बीमार है । तारघर में इतने आदमी
क्यों आए हैं ?
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७८
धातु का प्रयोग करो
भाई को देखकर वह घर में भाग गया । वह पुस्तक देकर अपने गांव चला गया । घर जाकर वह भोजन करेगा । वह ओं शब्द कहकर भाषण प्रारंभ करता है । वह हंसकर बोलता है । गुरु को नमन कर वह घर जाता है । शिक्षा ग्रहण कर वह जीवन में आचरण करता है। क्या तुम ध्यान कर सो जाते हो ? बहू सासू की सेवा कर सोने जाती । वह आम खाने की इच्छा करके भी नहीं खाता है । वह दिन में सोकर आलस्य ( आलस्सं ) बढाता है । तुम्हारा परिचय ( परिययो) जानकर मैं खुश हूं । पिता का नाम पूछकर वह यहां से चला गया। लेख लिखकर उसने किसको दिया ? पत्र लिखकर फिर तुमको कथा कहकर ही मैं यहां से बाहर जाऊंगा। साधु सेवा कर निर्जरा का लाभ लेता है। ध्यान कर और स्तुति गाकर तुम कहां गए थे ?
प्राकृतवाक्यरचना वोध
अव्यय का प्रयोग करो
किसको सब ओर से भय है ? वह हमेशा खाना नहीं खाता है । जैसा तुम चाहते हो वैसा अपना कार्य करो। तुम नहीं दोगे तो वह देगा । आज सूर्य कब अस्त होगा ? सब का कल्याण हो ।
प्रश्न
कितने प्रत्यय आदेश होते हैं ? अर्धमागधी में
१. क्त्वा प्रत्यय को प्राकृत में कितने प्रत्यय मिलते हैं ?
२. क्रिया और अर्धक्रिया में क्या अंतर है ? कर्म किसके साथ आता है ? ३. नीचे लिखे रूपों को वाक्य में प्रयोग करो
साहट्टु, चेच्चा, परिच्चज्ज, विप्पजहाय, किच्चा, मत्ता ।
४. नीचे लिखे रूपों का हिन्दी में अर्थ बताओ
परिण्णाय, आहच्च, पडिबुज्झ, बुज्झा, हंता, निहाय ।
५. लेटर वक्स ( पत्रपेटी), पोस्टऑफिस, डाकघर, पोस्ट मास्टर, जनरल पोस्ट मास्टर, डाकिया, मनीआर्डर, पार्शल, रजिष्ट्री, तार और तारघर के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
६. वीसुं, णोचेअ, अत्यं, तह – इन अव्ययों का अर्थ बताते हुए वाक्य में प्रयोग करो ।
७. सर्व शब्द के तीनों लिंगों के रूप लिखो ।
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स्वर परिवर्तन
__ शब्द संग्रह (गुड-चीनी वर्ग) चीनी. --सिता, सिया
गुड----गुडो, गुलो खांड---खण्डा
शक्कर---मच्छंडी आर्द्रगुड-फाणिसं, फाणिओ
शरबत-सक्करोदयं गुड से पहले की अवस्था---कक्कवो चासनी -सियालेहो बतासा----वातासो (सं)
सालम मिसरी-छु हामूली (सं)
स्वास्थ्य, स्वस्थता---सत्थं । रोगी---लुक्को
बजे-बायणसमयो (सं)
धातु संग्रह नीहर-निकलना
पक्खाल-प्रक्षालन करना पटव-प्रस्थान करना
विण्णव-विनती करना सार--ठीक करना
कत्त-कतरना सूअ---सूचना करना
सुस्सूस-सेवा करना
अध्यय संग्रह अन्तरेण-बिना
अओ, अतो (अतः)---इसलिए अद्धा--समय
अण, णाई (नञ्)-निषेध, विपरीत अदुवा, अदुव-~-अथवा
अप्पेव (अप्येव)-संशय अभितो-चारों ओर अलं---बस, पर्याप्त
अम्मो—आश्चर्य चे (चेत्) यदि
अहत्ता (अधस्तात्)-नीचे • पितृ और भत शब्द याद करो । देखो-परिशिष्ट १ संख्या ८,१० स्वर परिवर्तन
प्राकृत में सामान्य रूप से स्वर परिवर्तन की व्यवस्था इस प्रकार है(१) ह्रस्व स्वरों का दीर्धीकरण (२) दीर्घ स्वरों का ह्रस्वीकरण (३) स्वरों को स्वर का आदेश (४) अव्यय के स्वरों का लोप
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७६
प्राकृत वाक्यरचना बोष
ह्रस्व स्वरों का दीर्धीकरण
नियम ७३ लुप्त य र व श ष सां श ष सां दीर्घः ११४३)
शकार, षकार और सकार के पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती संयुक्त वर्ण य, र, व, श, ष और स हो तो इनका लोप हो जाता है, लोप होने के बाद शकार, षकार और सकार के आदि (पूर्ववर्ती) स्वर दीर्घ हो जाता है।
श के साथ य लोप-पश्यति--पासइ । कश्यप:---कासवो । आवश्यक -आवासयं ।
श के साथ र लोप--विश्रम्यति-वीसमइ । विश्रामः-वीसामो। मिथ-मीसं । संस्पर्श:-संफासो ।
श के साथ व लोप-अश्वः-आसो। विश्वसिति ---वीससइ । विश्वासः-वीसासो।
श के साथ श का लोप-दुशासन:---दूसासणो मनःशिला मणासिला।
ष के साथ य लोप--शिष्य:--सीसो । पुष्यः--पूसो। मनुष्यःमणूसो
ष के साथ र लोप---कर्षक:--कासओ। वर्षा ----वासा। वर्ष:वासो।
ष के साथ व लोप--विष्वाण: (वीसाणो) विष्वक्-वीसं ष के साथ ष लोप-निष्षिक्त:-नीसित्तो। स के साथ य लोप-सस्यम्--सासं । कस्यचित्-कासइ । स के साथ र लोप-उस्र:-ऊसो। विस्रम्भ:-वीसम्भो। स के साथ व लोप-विकस्वर:-विकासरो। निःस्व:-नीसो । स के साथ स लोप-निस्सहः-नीसहो ।
नोट-दीर्घ स्वर का विधान करने से 'न वीर्घानुस्वारात्' नियम से दीर्घ स्वर से परे "अनादोशेषादेशयो द्वित्वं" से होने वाला शेषवर्ण हित्व नहीं हुआ है। दीर्घ स्वरों का ह्रस्वीकरण ___ नियम ७४ (हस्वः संयोगे १८४) दीर्घ स्वर से परे यदि संयुक्त अक्षर हो तो दीर्घस्वर ह्रस्व हो जाता है। आ-आम्रम्-अम्बं । ताम्रम्--तम्बं । विहराग्नि:-विरहग्गी।
आस्यम्-अस्सं । ई-मुनीन्द्रः---मुणिन्दो । तीर्थम्-तित्थं । ऊ-गुरूल्लाप:---गुरुल्लावा । चूर्णः-चण्णो । ए-नरेन्द्रः- नरिन्दो । म्लेच्छ:-मिलिच्छो ।
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स्वर परिवतन
ओ -- अधरोष्ठ : -- अहरुट्टं । नीलोत्पलम् - नीलुप्पलं । • स्वरों को स्वर का आदेश आगे के पाठों में देखो ।
प्रयोग वाक्य
सितं अन्तरेण दुद्ध पायव्वं । गुडम्मि मच्छिआओ ( मक्खियां ) आयान्ति । पायसे अप्पा सिया अत्थि । मज्झ खण्डा रोअइ । तुमे सियाले हो किमट्ठे कओ ? गिम्हकाले सक्करोदयस्स पओगो पउरो भवइ । महुस्स अहियो पओगो ण कायव्वो । गुलस्स पओगो सत्थाय लाहअरो भवइ । जत्ताए अग हुत्त (अकबर) अम्हे फाणिअं खादीअ । तुमं अज्ज घयमच्छंडिअसं पुन्नं महंत रोट्टगं लभिहिसि । सो वातासम्म ओसहि गिण्हइ । नीरेण सह छहामूली सत्यस्स हिअं भवइ । धातु प्रयोग
७७
मणुआ जं भुजंति तं चे न नोहरेज्ज तया लुक्को भविस्सइ । जे स्थाई सयं पवखालंति तेसि सारीरियो परिस्समो भवइ । सुसीला नव्वाइ वत्थाई' कहं कत्तई ? रायहाणीए सावगा आयरियं विष्णवेंति तत्थ आगमणाय । पालिपुत्तं गत्ता तुमं क्या मज्झ पोत्थयाई पट्ठवहिसि ? सा केसा सारइ । तुमं मुह मुहु किं सुअसि ? सा पुत्तवहू घरे रोगिणो सुस्सूसइ ।
अव्यय प्रयोग
तं अन्तरेण अहं तत्थ न गमिस्सामि । तुमए सव्वद्धा न भोक्तव्वं । तिणा दोसो कओ अओ सो पायच्छित्तस्स भागी अत्थि । अहं णाई दोसं करेमि । अणअहंकार को जंपर ? गामं अभितो पव्वया संति । सो सीसो अप्पेव अत्थि । तुज्झ जंपणेण अलं । अम्मी तुमए सव्वं दुद्ध पीअं । रुक्खस्स अहत्ता तुम कहं सुत्तं ? तुमं चे अत्थ आगमिस्ससि अहं तुं पोत्थयं दास्सामि ( देहामि) ।
प्राकृत में अनुवाद करो
प्राकृतिचिकित्सक (पागइयचिइच्छओ) चीनी को सफेद जहर मानते हैं । मधु का प्रयोग दवा में होता है । गुड-घी सहित रोटी लोग शीतकाल में खाते हैं। आयुर्वेद में खांड को उपयोगी माना है। क्या तुम चासनी से मिठाई बनाना चाहते हो ? लोग गर्मी में शरबत पीते हैं । आर्द्रगुड भी लोग खाते हैं । देवालय में रमेश बतासा बांटता (विअर ) है । सालममिश्री यहां कहां मिलती है ?
धातु का प्रयोग करो
गुरु के पैरों को कौन प्रक्षालन करता है ? जो आहार करता है वह नीहार भी करता है । स्वास्थ्य के लिए क्या नहीं खाना आवश्यक है ? भक्त
.
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
भगवान से प्रार्थना करता है कि मेरे अवगुण पर ध्यान न दें। पिता पुत्र को प्रदेश प्रस्थान कराता है। वह अपने वस्त्रों को ठीक करता है। रमा पुराने वस्त्रों को कतरती है । वह तुम्हारी तन मन से सेवा करता है । मुनिसुव्रत रात को जगने के लिए जोर से बोलकर ४ बजे की सूचना देता है । अव्यय का प्रयोग करो
१. गुरु के बिना ज्ञान अपूर्ण है । तुम यहां आए हो इसलिए मैं तुम्हें यह पुस्तक देता हूं। सब समय सजग रहो । बिना विचारे मत बोलो। तुम हंसते हो अथवा बोलते हो । क्या वह मूर्ख है ? शहर के चारों ओर खेत हैं। आश्चर्य ! आप यह कार्य न कर सके । मकान के नीचे मकान है । यदि तुम मुझे ज्ञान दोगे तो मैं तुम्हारा उपकार मान गा । तुम्हारी परीक्षा हो गई।
प्रश्न १. ज, त, क, ए, अ, इम और अमु शब्द के नपुंसक लिंग के रूप
बताओ ? २. संफासो, आरुग्गं, तीसो, सुत्तागमो, पक्खिरं, पासुपाणी, पमज्जणी,
पच्चक्खामि, मित्ती, वासं, सज्झाओ, हासो, वीसामो, अप्पाणं-किस नियम से इनको ह्रस्व या दीर्घ हुआ है। ३. चीनी, खांड, गुड, शक्कर, चासनी, शरबत, आर्द्रगुड, साल मिश्री के
लिए प्राकृत शब्द बताओ? ४. अम्मो, अहत्ता, णाई, अण, अभितो, चे, अलं-इन अव्ययों का अर्थ
बताते हुए वाक्य में प्रयोग करो। ५. विनती करना, प्रक्षालन करना, भेजना, निकालना---इन अर्थ में
कौनसी धातु इस पाठ में आई है।
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स्वरादेश १ अकार को मा, ई, उ, आवेश
शब्द संग्रह (रोटी आदि वर्ग) रोटी--रुट्रिआ (दे)
चने का आटा-वेसणं रोट-रोट्टगो (दे०)
गेहूं का आटा (मैदा)-समिआ वाटी -अंगारपरिपाचिआ (सं) आटा-चुण्णं, अट्टगं (दे०) चपाती, फुलका----छप्पत्तिआ (दे०) गूदा हुआ वासी आटा---- पूरी-पोलिआ
अवसामिआ (दे०) मोठ की रोटी--मकुट्ट रुट्टिा (सं) चने की रोटी-चणरुट्टिआ(सं) मक्की की रोटी-मकाय रुट्टिआ (सं) उड़द की रोटी--मासरुट्टिआ बाजरी की रोटी-बज्जरी रुट्टिआ परोठा-घयचोरी (सं)
डबलरोटी--अन्भूसो (सं) बिस्कुट----पिट्ठगो (सं)
जो की रोटी-जवरुट्टिआ
प्रकृति--.-पगई (स्त्री)
सत्तू-सत्तू (पुं) खट्टा--खट्ट
व्यवहार-~-ववहारो
धातु संग्रह चिण--चुनना
फुड--फोडना, फटना निमील----बंद होना
अट्ट--घूमना कुप्प---क्रोध करना
संपज्ज-सम्पन्न होना उम्मिल्ल-.-खुलना
अहिलस-अभिलाषा करना
अध्यय संग्रह इओ, इतो (इतः)---इस तरफ, इधर से गाणा (नाना)-नाना प्रकार एगंततो (एकान्ततः)-एकान्त रूप से बहिद्धा (दे०)---बाहर केवच्चिरं (कियच्चिरं)--कितने लम्बे काल तक
तहिं (तत्र)-वहां आम (आम)--हां
जहिं (यत्र)-जहां • आत्मन शब्द के रूप याद करो। देशो-परिशिष्ट १ संख्या १५
नियम ७५ (अतः समृत्यादौ वा १०४४) समृद्धि आदि शब्दों के
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
आदि अकार को आकार विकल्प से होता है। अकार ? आ सामिद्धी, समिद्धी । समृद्धिः) सारिच्छो, सरिच्छो (सदृक्षः)
पासिद्धी, पसिद्धी (प्रसिद्धिः), माणंसी, मणंसी (मनस्विन्) पायडं, पयर्ड (प्रकटम् ) ... माणंसिणी, मणंसिणी (मनस्विनी) पाडिवआ, पडिवआ (प्रतिपत्) आहिआई, अहिआइ (अभियाति) पासुत्तो, पसुत्तो (प्रसुप्तः) पारोहो, परोहो (प्ररोहः) - पाडिसिद्धी, पडिसिद्धी (प्रतिसिद्धिः) पावासू पवासू (प्रवासिन्) पाडिप्फद्धी, पडिप्फद्धी (प्रतिस्पद्धिन्)
नियम ४६ (दक्षिणे हे ११४५) दक्षिण शब्द के आदि अ को आ हो जाता है ह परे हो तो।
अकार 7 आ दाहिणी (दक्षिणः) ।
नियम ७७ (इ: स्वप्नादौ १:४६) स्वप्न आदि शब्दों के आदि अ को इ होता है। अकार 7 इ सिविणो सिमिणो (स्वप्नः) मुइङ्गो (मृदङ्गः) ईसि (ईषत्)
किविणो (कृपणः) वेडिसो (वेतसः)
उत्तिमो (उत्तमः) विलिअं (व्यलीक)
मिरिअं (मरिचम्) विअणं (व्यजनम्)
दिण्णं (दत्तम्) नियम ७८ (पक्वाङ गार ललाटे वा २४७) पक्व, अंगार और ललाट शब्दों के आदि अ को इ विकल्प से होता है । पिक्कं, पक्कं (पक्वम्) । इङ्गालो, अंगारो (अङ्गारः) । णिडालं णडालं (ललाटम्)।
नियम १६ (मध्यम कतमे द्वितीयस्य ११४८) मध्यम और कतम शब्द के दूसरे अ को इ होता है । अकार 7 इ मज्झिमो (मध्यमः) कइमो (कतमः)
नियम ८० (सप्तपणे वा २४६) सप्तपर्ण शब्द के दूसरे अ को इ विकल्प से होता है । छत्तिवण्णो, छत्तवण्णो (सप्तपर्णः)।
नियम ८१ (मयट्याइ ११५०) मयट् प्रत्यय के आदि अ के स्थान पर अइ आदेश विकल्प से होता है ।। अकार 7 इ विसमइओ, विसमओ (विषमयः)
नियम ८२ (हिरेवा ११५१) हर शब्द के आदि अ को ई विकल्प से होता है।
अकार 7ई हीरो, हरो (हरः)
नियम ८३ (ध्वनि विष्वचो हः १२५२) ध्वनि और विष्वम् शब्दों के आदि अ को उ होता है।
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स्वरादेश १
अकार 7 उझुणी ( ध्वनि: ) वसुं ( विष्वग् ) ।
नियम ८४ (वन्द्र खण्डिते णा वा १।५३ ) वन्द्र और खण्डित शब्द के आदि अकोण सहित उ विकल्प से होता है ।
अकार / उ वुद्रं, वन्द्रं (वन्द्रः ) खुडिओ, खण्डिओ, ( खण्डितः )
नियम ८५ ( गवये वः १०५४ ) गवय शब्द में व के अ को उ होता है । गउओ ( गवयः ) गउआ (स्त्री) ।
प्रयोग वाक्य
८१
freerefore अज्ज मए घयपुण्णो रोट्टगो पत्तो । मेवाडदेसस्स अंगारपरिपाचिआ पसिद्धा अत्थि । चुण्णं अट्टगं वा अन्तरेण रुट्टिआ न भवइ । हरियाणावासिणी घयचोरिं पउरं खाअंति । सामिआ सत्थस्स हियाय नत्थि । द्विणा सत्तू एव भुंजंति । अस्स गिहे अवसामिआ कहं अस्थि ? सो सागरहियं केवलं छप्पत्तिअं चव्वइ । पव्वदिणे घरे-घरे पोलिआओ भवंति । इमम्मि देसे वेसणस कढिआ करेंति जणा ।
अहं भोयणे मकुट्टरुट्टि अहिलसामि । घयपुण्णा मकायरुट्टिआ कस्स न अइ । वेसणरुट्टिआ दहिणा सह रुइअरा भवइ । अमुम्मि गामम्मि मासरुट्टिआ कास घरे लहिस्सइ । णयरे लोआ दुद्ध ेण सह पिट्ठगा अब्भूसा वा खाअंति । धातु प्रयोग
सा पुप्फाई चिड़ । पज्जिआए सव्वंगसंधीओ फुडंति । णिद्दाए as निमीलति । कित्ती णयरस्स पसिद्ध उज्जाणे रविवारे अट्टइ । सो महं मोरउल्ला कुप्पइ । रायकुमारी सकज्जं सोमवारे संपज्जिहिइ । तस्स चक्खू इ कहं न उम्मिल्लति ।
अव्यय प्रयोग
कि इओ साहुणी गआ ? णाणा दव्वाई सो भुंजइ भोयणे । किं आउ सो गामाओ बहिद्धा गओ ? किमवि वत्थु एगंततो न निच्चं न अणिच्चं अत्थि । तुमं अत्थ केवच्चिरं ठाहिसि ? साहू अत्थि ? तुमं तहिं विहर जहिं जिणसासणस्स पभावणा भवेज्ज कज्जं कि तुमए कथं ? आम, कअं ।
प्राकृत
तहिं को । एअं
में अनुवाद करो
साग के साथ रोटी खाने से अन्न का स्वाद नहीं आता है । रोटी को दह के साथ मैंने अनेक बार खाया है। घी से पूर्ण वाटी हर व्यक्ति नहीं पचा सकता | गंदा हुआ वासी आटा भी समय पर काम आता है। घी और चीनी
युक्त सत्तू मिठाई बन जाता है। पांच आदमियों के लिए यह आटा पर्याप्त नहीं है । परोठा सदा नहीं खाना चाहिए। वह आज
फुलका क्यों नहीं
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८२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
खाएगा ? घी रहित फूल का जल्दी पचता है । यात्रा में लोग पूरी अधिकांशतया खाते हैं। मोठ की रोटी गुण से शीतल होती है। मक्की की रोटी मेवाडवासी अधिक खाते हैं। चने की रोटी पंजाब में बहुत लोग खाते हैं। उड़द की रोटी आजकल कम लोग खाते हैं। आजकल बिस्कुट घर-घर में मिलता है । डबल रोटी समय के बाद खट्टी भी हो जाती है। धातु का प्रयोग करो
अच्छे आदमी दूसरों का अवगुण नहीं चुनते । वह कभी आंखें खोलता है, कभी बंद करता है। तुम्हारा सिर क्यों फटता है? मुझे तुम्हारे व्यवहार पर क्रोध आता है। दोनों मित्र प्रात: प्रतिदिन घूमते हैं। क्या कारण है आपका समारोह अच्छी तरह संपन्न होता है ? अव्यय का प्रयोग करो
आप अपने घर में कितने समय तक ठहरेंगे? आदमियों की प्रकृति नाना प्रकार की होती है । जहां तुम रहते हो वहां और कौन रहता है ? तुम्हारा कथन सत्य है यह एकांत रूप से मैं नहीं कह सकता। उसकी गाय गांव के बाहर गई है। क्या तुम्हारा भाई इधर से नहीं जाएगा? हां, मैं वहां गया था।
प्रश्न १. अकार को इस पाठ में क्या-क्या आदेश हुआ है ? प्रत्येक आदेश के
एक-एक उदाहरण दो। २. मिरिअं, विसमइओ, उत्तिमो, हीरो, छत्तिवण्णो, मज्झिमो-इन शब्दों
में किस नियम से क्या आदेश हुआ है ? ३. रोटी, रोट, वाटी, फुलका, पूरी, मोठ की रोटी, मक्की की रोटी परोठा , विस्कुट, चने की रोटी, उडद की रोटी, डबल रोटी, मैदा, चने का आटा, सत्तू, गूदा हुआ वासी आटा----इन शब्दों के लिए प्राकृत
शब्द बताओ। ४. पितृ और भर्तु शब्द के रूप लिखो। ५. चिण, निमील, कुप्प, उम्मिल्ल, फुड, अट्ट, संपज्ज, अहिलस धातु के __ अर्थ लिखो। ६. केवच्चिरं, बहिद्धा, एगंततो, आम---इन अव्ययों का वाक्य में प्रयोग
करो। ७. पठें, आवेढणं, पंजिआ, धणाएसो, छुहामूली, मच्छंडी कक्कवो
इन शब्दों का हिन्दी में अर्थ बताओ और प्राकृत में वाक्य बनाओ।
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स्वरादेश (२) अकार को आवेश
शब्द संग्रह (मिठाई वर्ग) इमरती (अमिया) (सं) पेडा-पिण्डो वर्फी-हेमी (सं)
रबडी-कुच्चिया (सं) गुलाबजामुन-दुद्धपूअलिया (सं) कलाकंद-कलाकंदो (सं) रसगुल्ला-रसगोलो (सं) घेवर-घयपुन्नो, घेउरो गजक---गजओ (सं) पपडी-पप्पडी खाजा-महुसीसो (सं) , मोहनभोग-मोहणभोगो (सं) लड्डू-लड्डूओ, मोदओ (सं) जलेबी-कुंडलिणी (सं) मालपुआ-अपूयो
कसार-कसारो गुज्झिया-संयावो, गोझिया बालूशाही-महुमंठो शक्करपारा--सक्करावालो पेठे की मिठाई-कोहंडी
हलवाई--कन्दवियो मिठाई—मिट्ठन्नं होटल----पण्णभोयणालयो (सं)
धातु संग्रह विहर---विहार करना, घूमना डस (दंस)–डसना पगब्भ-शेखी मारना.
अमराय-अपने को अमर समझना कत्थ-कहना
फुट्ट-स्फुट होना विचित--चिंतन करना विध-बींधना, छेद करना अइवाअ--अतिपात करना, विसीअ-खेद करना, खिन्न होना हिंसा करना
अव्यय संग्रह केवलं (केवलं)-सिर्फ, केवल, सव्वत्थ (सर्वत्र)-सब स्थानों से मझे (मध्य)-बीच में
सक्खं (साक्षात्)-प्रत्यक्ष । सययं (सततं)-निरन्तर
चिरं (चिरं)-चिरकाल तक कत्थइ (कुत्रचिद्)-कहीं, किसी जगह
राजन् शब्द के रूप याद करो देखो-परिशिष्ट १ संख्या १४
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८४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
अकार को उ, ए, ओ, आ, आइ, लुक् आदेश
नियम ८६ (प्रथमे पथो ; १५५) प्रथम शब्द में प और थ के अकार को एक साथ और क्रम से उकार विकल्प से होता है। अ7 उ-पुढुमं, पुढमं, पढुमं, पढमं (प्रथमम्)
नियम ८७ (जो गत्वेभिज्ञादौ ११५६) अभिज्ञ आदि शब्दों के ज्ञ को ण करने पर ज्ञ के अ को उ होता है। अ73-अहिण्णू (अभिज्ञः) कयण्णू (कृतज्ञः) सव्वण्णू (सर्वज्ञः)
आगमण्णू (आगमज्ञः) जहां ज्ञ का ण्ण रूप देखें उन्हें अभिज्ञ आदि शब्द समझें ।
नियम ८८ [एच्छय्यादौ १।५७] शय्या आदि शब्दों के आदि अ को ए होता है। अ7ए--सेज्जा (शय्या) सुन्देरं (सौन्दर्यम् ) गेन्दुओं (कन्दुकम्) एत्थ (अत्र)
नियम ८६ [ब्रह्मचर्ये चः १२५६] ब्रह्मचर्य शब्द में च के अ को ए होता है। अ7ए-बम्हचेरं (ब्रह्मचर्यम्) ।
नियम ६० [तोन्तरि १६०] अन्तर शब्द के त के अ को ए होता है। अ7ए–अन्ते उरं (अन्तःपुरम्) अन्तेआरी (अन्तश्चारी)
नियम ६१ [वल्ल्युत्कर---पर्यन्ताश्चर्य वा ११५८] वल्ली, उत्कर, पर्यन्त और आश्चर्य शब्दों के आदि अ को ए विकल्प से होता है। अ7ए--वेल्ली, वल्ली (वल्ली) पेरंतो, पज्जन्तो (पर्यन्तः) उक्के रो, उक्करो (उत्करः) अच्छेरं, अच्छरिअं, अच्छअरं
अच्छरिज्जं, अच्छरीअं (आश्चर्यम् ) नियम ६२(ओत्पद्म १६१) पद्मशब्द के आदि अ को ओ होता है। अ7 ओ---पोम्म (पद्मम्) ।
नियम ९३ (नमस्कार-परस्परे द्वितीयस्य २६२) नमस्कार और ___ परस्पर शब्दों के दूसरे अ को ओ होता है। अ7 ओ.---नमोक्कारो (नमस्कारः) परोप्परं (परस्परम् )
नियम ९४ (वापौ १२६३) अर्पयति धातु के इस रूप के आदि अ को
ओ विकल्प से होता है। अ7ओ--ओप्पेइ, अप्पेइ (अर्पयति)
नियम ९५ (स्वपावुच्च ११६४) स्वपिति धातु के इस रूप के आदि
अ को ओ और उ आदेश होता है। 47 ओ, उ-सोवइ, सुवइ (स्वपिति)।
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स्वरादेश (२)
नियम ६६ (नात् पुन र्यादा ई वा ११६५) न शब्द से परे पुन: शब्द
के आदि अ को आ और आइ आदेश विकल्प से होता है । अ/ आ, आइ-न उणा, न उणाइ न उण, (न पुनः)
नियम ९७ (वालाम्वरण्ये लुक १०६६) अलाबु और अरण्य शब्द के __ आदि अ का लुक विकल्प से होता है। 47लुक-लाउ, अलाउं लाऊ, अलाऊ (अलाबुम्) । रण्णं, अरण्णं
(अरण्यम्) प्रयोग वाक्य
कुंडलिणी पायसेणं सह रत्तवड्ढआ हवइ । अमिया कुंडलिणी इव भवइ । हेमी जेपुरणयरस्स पसिद्धा अत्थि । अपूयो सया न भोत्तव्यो । मोदगो मज्झ अहियो रोय। दुद्धपूअलिया उवरि रत्ता अंतराले सिया भवइ । रसगोलो अज्जत्ता अमुम्मि पएसम्मि वि मिलइ । धयपूरो जेपुरणयरस्स लच्छीपण्णाभोयणालयस्स पसिद्धो अस्थि । गजओ वावरणयरस्स आवणे मिलइ । महुसीसो दीवालीए पव्वम्मि घरे घरे मिलइ । सक्करावालो सुद्धमिट्ठन्नं अत्थि । संयावो कत्थ मिलिस्सइ ? दुद्धेण पिण्डा भवंति । कुच्चिआ साऊ भवइ । मए जेपुरे कलाकंदो बहु भक्खिओ । पप्पडी कस्स कांदवियस्स पासे मिलिस्सइ । महुमंठो जोधपुरस्स णयरस्स पसिद्धो अत्थि । अज्ज मए मोहणभोओ भुत्तो । एगया कसारस्स ववहारो अहियो आसि परं संपइ अप्पो। धातु प्रयोग
__ साहुणो चउमासाइरित्तं सेसकाले गामाणुग्गामं विहरति । सप्पो एगं नरं डसीअ । सुरेसो पगब्भइ एअं किमवि कज्ज नत्थि जं अहं काउं न समत्थो। गंभीरविसये सव्वे चितआ संमीलिय विचितंति । अमुम्मि संसारम्मि को अमरायइ ? मूढो अण्णाणेण पाणा अइवाअई। सूरिय विआसिल्लपउमं पगे आडच्चं पासिऊण फुट्टइ । अप्पपरिस्समेण एव विमला विसीअइ । मालाआरो रत्तपुप्फाइं विधइ । महावीरो जहा धणवन्तं कत्थइ तहा णिद्धणं कत्थइ । अव्यय प्रयोग
__'अम्हाणं मज्झे को विउसो अत्थि ? राइभोयणं साहूण कए सव्वत्थ णिसिद्धं भवइ । मए सक्खं दिट्ठ तुमए एअं कज्ज कयं । सययं अब्भासेण कज्जस्स सिद्धी भवइ । पाणाइवायो धम्मो एअं वण्णणं सत्थेसु कत्थइ नत्थि । भवन्तो जेणधम्मस्स पभावणं चिरं करेंतु । प्राकृत में अनुवाद करो
लोग प्रातःकाल नाशता में जलेबी खाते हैं। शुद्ध घी का लड्डू पुराना होने पर भी दवा के काम आता है । आज हमारे यहां मालपुआ और
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
खीर का भोजन है । स्कूल में अध्यापक ने १० लडकों को पांच घेवर दिए। कसार को खाना कौन पसंद करता है ? गुज्झिआ इस प्रदेश में कहां बनता है ? इमरती से जलेबी अच्छी लगती है। बर्फी हर शहर में नहीं मिलती है। आज किसके घर में गुलाबजामुन बनेगा ? रसगुलों को खाने के विवाद में मैं हार गया। गजक प्रकृति से वायु का नाश करती है। तु खाजा को जल्दी खा जा। सुलोचना गुज्झिआ बनाना नहीं जानती है । शक्करपारा बहुत दिनों से मैंने खाया है। पेडा में दूध का भाग अधिक है। रबडी को देखकर उसके मुंह में पानी आ गया। क्या तुम्हारी कलाकंद खाने की इच्छा होती है ? उसके विवाह में पपडी किसी ने नहीं खाई। मोहनभोग आजकल विवाह की प्रमुख' (पमुह) मिठाई है। लोकेश बालुशाही को खाना पसंद करता है। पेठे की मिठाई फल की मिठाई है। धातु का प्रयोग करो
साधु सूर्योदय के बाद शीतकाल में भी विहार करते हैं। रमेश शेखी मारता है कि मैं पांच घंटा भाषण दे सकता हूं। लोगों को मरते देखकर भी वह अपने को अमर मानता है। वह मुझे सांप की तरह डसता है । वह जानकर अतिपात करता है इसलिए उसके कर्मबंधन सघन होते हैं। उपालंभ मिलने पर वह खिन्न हो जाता है। काम करने से पहले वह चिंतन करता है। साधु सब लोगों के लिए धर्म कहते हैं। अव्यय का प्रयोग करो
वह लकडी में छेद करता है । साधु की पूजा सर्वत्र होती है । आत्मा साक्षात् नहीं है। आप चिरकाल तक जीवित रहें । ग्राम के बीच में साधुओं का स्थान है । निरंतर अप्रमाद रहना चाहिए । सब पढते हैं केवल तुम नहीं पढते हो । किसी जगह भी मूर्ख का सम्मान नहीं होता है।
. प्रश्न १. इस पाठ में अकार को क्या आदेश हुए हैं ? एक-एक उदाहरण दो । २. परोप्पर, सव्वण्णू, पेरंतो, सोवइ, अन्तेआरी, लाउ-इन शब्दों में अ को __ क्या-क्या आदेश हुए हैं, नियम सहित बताओ। ३. इमरती, वर्फी, गुलाबजामुन, रसगुल्ला, गजक, खाजा, लड्डू, मालपुआ,
गुज्झिया, शक्करपारा, पेडा, रबडी, कलाकंद, घेवर, पपडी, मोहनभोग, जलेबी, कसार, बालुशाही, पेठे की मिठाई-इन शब्दों के लिए प्राकृत के
शब्द बताओ। ४. विंध, पगब्भ, कत्थ, अइवाअ, डस, फुट्ट और अमराय धातु के अर्थ
लिखो। ५. सक्खं, कत्थइ, चिरं, मज्झे, केवलं-इन अव्ययों को वाक्य में प्रयोग करो। ६. आत्मन् शब्द के रूप बताओ।
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२६
स्वरादेश (३) आ को आदेश
शब्द संग्रह (पात्रवर्ग) घडा-घडो
तांबे का घडा-कलसो मटका-कयलं (दे०) तुम्बीपात्र, तुंबो-कुउआ (दे०) लोटा--करगो
गिलास, सुराही--कंसो झारी--भिंगो
दही रखने का मिट्टीपात्र-गग्गरी कुंडी--करंडी
कुलडी-कुल्लडं सकोरा-कोडिअं (दे०) । काच की गिलास-कायकंसो पानी भरने का मशक-चिरिक्का (दे०)
धातु संग्रह उक्कुद्द-ऊंचा कूदना
भज्ज-भांगना, तोडना अवसीअ-अवसाद पाना, खिन्न होना लिप्प--लेप करना । संजम-संयम करना
पडिकूल-विपरीत होना सर-स्मरण करना
पमुच्च-प्रमुक्त होना हिंस--हिंसा करना
उवे—पास जाना
_ अव्यय संग्रह तेण (तेन)-उस तरफ से जेण (येन)-जिस तरफ से एव (एवं)-इस प्रकार सुठ्ठ (सुष्ठु)-अच्छा । इहेव (इहैव)--यहीं, यहीं पर नमो, णमो (नमः)-नमस्कार
विस्स, उभय, अन्न, कयर, अवर आदि शब्दों को याद करो। इनके रूप सर्व शब्द की तरह चलते हैं । आ को अ, इ, उ, ऊ, ए आवेश
नियम ९८ (वाव्ययोत्खातादावदातः ११६७) अव्यय और उत्खात आदि शब्दों में पहले आकार को अकार विकल्प से होता है। आ7 अ अव्यय-जह, जहा । तह तहा। अहव, अहवा । व वा । ह हा।। शब्द-उक्खयं, उक्खायं (उत्खातम्) कलओ, कालओ (कालकः)
चमरो, चामरो (चामरः) ठविओ, ठाविओ (स्थापितः) परिट्ठविओ, परिट्ठाविओ (परिस्थापितः)
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८८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
संठविओ, संठाविओ (संस्थापितः) नराओ, नाराओ (नाराच:) पययं, पाययं (प्राकृतम्) बलया, बलाया (बलाका) तलवेण्ट, तालवेण्ट,
कुमरो, कुमारो (कुमार:) तलवोण्टं तालवोण्टं (
i i ) खइरं, खाइरं (खादिरम्) हलिओ, हालिओ (हालिकः) नियम ६६ (घन वृद्धर्वा १६८) घन् प्रत्यय से वृद्धि होकर आकार बना है उसके पहले आ को अ विकल्प से होता है। आ74-पवहो, पवाहो (प्रवाहः)। पयरो, पयारो (प्रकारः, प्रचारः)
पहरो, पहारो (प्रहारः) पत्थवो, पत्थावो (प्रस्ताव:)
नियम १०० (मांसादिष्वनुस्वारे ११७०) मांस आदि शब्दों के आदि आ को अ हो जाता है। आ7अ-मंसं (मांसम्)
कंसिओ (कांसिक:) पंसू (पांसुः)
वंसिओ (वांशिकः) पंसणो (पांसनः) पंडवो (पाण्डव:) कंसं (कांस्यम्)
संसिद्धिओ (सांसिद्धिकः) संजत्तिओ (सांयन्त्रिकः)
नियम १०१ (महाराष्ट्र ११६६) महाराष्ट्र शब्द में आदि आ को अ होता है। आ7 अ-मरहट्ठ, मरहट्ठो।
नियम १०२ (श्यामाके मः ११७१) श्यामाक शब्द में मा के आ को अ होता है। आ7 अ—सामओ।
नियम १०३ (इ. सदादी वा ११७२) सदा आदि शब्दों के आ को इकार विकल्प से होता है। आ7इ-सइ, सया (सदा) निसिअरो, निसाअरो (निशाचरः) कुप्पिसो,
कुप्पासो (कूर्पासः)
नियम १०४ (आचार्येचोच्च ११७३) आचार्य शब्द में चा के आ को इ और अ होता है। आ75, अ-आइरिओ, आयरिओ (आचार्यः)
नियम १०५ (ई: सत्यान-खल्वाटे ११७४) स्त्यान और खल्वाट शब्दों के आ को इ हो जाता है। आ7इ-ठीणं, थीणं, थिण्णं (स्त्यानम् ) खल्लीडो (खल्वाट:)।
नियम १०६ (उः सास्ना-स्तावके १७५) सास्ना और स्तावक शब्दों के आदि आ को उ हो जाता है।
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स्वरादेश (३) आ7उ-सुण्हा (सास्ना) थुवओ (स्तावक:)
नियम १०७ (कव्वासारे ११७६) आसार शब्द के आदि आ को ऊ विकल्प से होता है । ऊसारो, आसारो (आसारः)
नियम १०८ [आर्यायां यः श्वश्वाम् ११७७] आर्या शब्द श्वश्रु के अर्थ में हो तो यर्या के आ को ऊ होता है। आ73----अज्जू (आर्या) सास
नियम १०६ [एद् प्राह्य १७८] ग्राह्य शब्द के आ को ए होता है । आ7ए-गेज्झं (ग्राह्यम्)
नियम ११० [द्वारे वा ११७६] द्वार शब्द के आ को ए विकल्प से होता है। आ7ए-देरं । पक्षे दुआरं, दारं, वारं । .नियम १११ [पारापते रो वा १८०] पारापत शब्द के रा के आ को एकार विकल्प से होता है। मा7ए--पारेवओ, पारावओ (पारापतः)
(मात्रटि वा १२८१) मात्रट प्रत्यय के आ को ए विकल्प से होता आ7ए-एत्तिअमेत्तं, एत्तिअमत्तं (इयन्मात्रम् )
नियम ११२ [उवोदवाने १२८२] आर्द्र शब्द के आ को उ और ओ विकल्प से होता है। आ7 उ, ओ-उल्लं, ओल्लं, अल्लं, अ (आर्द्रम्)।
नियम ११३ [ओवाल्यां पङ कती ११८३] आली शब्द पंक्ति अर्थ में हो तो उसके आ को ओ होता है।। आ7 ओ- ओलो (आली) पंक्ति । प्रयोग वाक्य
मट्रिआए घडो सव्वदेसम्मि मिलइ । तुज्झ गिहे कयलाई संति न वा ? सा करगेण नीरं पिबइ, भिंगम्मि वारि सीयलं ठाअइ । सुवण्णआरो (स्वर्णकार) वि करंडीए सलिलं पासे रक्खाइ। जणा विवाहे कोडिआण पओगं करेंति । सीयकाले पुरिसा कलसस्स वारि पिबं ति । साहूण पासे कुउआ संति । कसे दुद्ध अत्थि । किं गग्गरीए ठिअं दहि खट्टे (खट्टा) न भवइ । जयंती कुल्लडेण घडस्स नीरं निक्कसइ (निकालती है)। सो कायकसं नीरेण बले (एव) सोहइ (शुद्धि करता है) । अहं चिरिक्काए पाणि न इच्छामि । . धातु प्रयोग
उत्तिण्णं सुणिऊण ललिया उक्कुदइ। अविणीयो सीसो गुरुकज्जकरणकाले अवसीअइ। अहं भोयणे संजमामि। तुमं किं निसाए
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
पंचसयसिलोगा सरसि ? अणिलो अणेगहुत्तं पत्तं भज्जइ । साहुणी पत्ताइ सम्म लिप्पइ । सा कहं आयरियं पडिक लइ ? मज्झ पासे सो पढिउपइदिणं उवेइ । तित्थअरस्स जम्मदिवसे सव्वे पाणा पमुच्चिहिति । कोलसोअरियो पइदिणं पंचसयमहिसा हिंसइ। अव्यय प्रयोग
__ नमो सिद्धाणं । सुसमाहियिंदियाणं इहेव मोक्खो। तेणं कालेणं तुज्झ जंपगं सुठ्ठ आसि । तुमए एअं कज्ज न काअव्वं । पक्खिणो उड्डिति तेण तत्थ तडागं अत्थि । तडागं जेण पक्खिणो उड्डुिति । भमररुअं जेण कमलवणं । कमलवणं तेण भमररुअं। प्राकृत में अनुवाद करो ... घडे का ठंडा पानी ग्रीष्म ऋतु में गर्मी मिटाता है। वह लोटा लेकर शौच के लिए गांव के बाहर जाता है। गिलास पानी पीने के लिए होती है। साधु तुम्बीपात्र में पानी लाते हैं। कुलडी में किसका साग है ? मटके में कितना पानी है ? झारी सोहन के पास नहीं है। कुंडी का पानी पक्षी पीते हैं । तुम्हारे पास सकोरे कितने हैं ? काच की गिलास में पानी किसने रखा है ? दही रखने का मिट्टी का पात्र तुम भी लाओ। तांबे का घडा किसके पास से लाए हो ? आजकल मशक का पानी लोग पीना नहीं चाहते । धातु का प्रयोग करो
भारत की विजय सुन वह उछलने लगा। गर्मी में पदयात्रा से वह खिन्न हो जाता है । साधु प्रत्येक कार्य संयम से करता है । मैं प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करता हूं। अर्जुनमाली प्रतिदिन सात व्यक्तियों को मारता था । शैक्ष साधु ने अपने पात्र को तोड दिया। वह सरकार से प्रतिकूल आचरण करता है । आज दस कैदी मुक्त हुए। वह प्रतिदिन पात्र के लेप करता है । संभव है कुछ दिनों में उत्तीर्ण हो जाए । बच्चा अपनी माता के पास जाता है। अव्यय का प्रयोग करो
__लोक के सब साधुओं को नमस्कार है । उसके प्रश्न के लिए तुम्हारा उत्तर ठीक था । तुम आज यहीं ठहरो क्योंकि तुम्हारा भाई आने वाला है। इस प्रकार का व्यवहार तुम्हें शोभा नहीं देता। भ्रमर की आवाज है इसलिए कमल वन है । कमलवन है इसलिए भ्रमर की आवाज है।
प्रश्न १. अ को इस पाठ में क्या आदेश हुए हैं। दोनों पाठों में अ को क्या
क्या आदेश हुए हैं। प्रत्येक आदेश के एक-एक शब्द बताओ?
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स्वरादेश (३) २. हलिओ, पयरो, मंसं, मरहट्ठ', निसिअरो, थीणं देरं, पारेवओ, ओली--
इन शब्दों में किस नियम से क्या आदेश हुआ है ? ३. घडा, लोटा, गिलास, तुम्बीपात्र, मटका, सकोरा, मशक, कुलडी, झारी,
दही रखने का मिट्टी का पात्र, तांबे का घडा-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द क्या-क्या हैं। ४. उक्कुद्द, भज्ज, अवसीअ, लिप्प, संजम, पमुच्च पडि कूल और सर
धातुओं के अर्थ बताओ? ५. इहेव, सुठ्ठ, नमो, एव, तेण, जेण-इन अव्ययों का अर्थ बताते हुए
अपने वाक्य में प्रयोग करो ? ६. राजन् शब्द के रूप बताआ?
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२७
स्वरादेश (४) इ को आदेश
शब्द संग्रह (जैनपारिभाषिक १) सर्वज्ञ---सव्वण्णू वीतराग-वीयराओ, वीयरागो, साधु,श्रमण-समणो, साहू साध्वी-समणी, आचार्य---आयरिओ श्रावक- सावगो, समणोवासगो श्राविका-साविया कर्म---कम्म राग-रागो
द्वेष-दोसो मृत्यु-मच्चु
आत्मा--अप्पा चतुर्मास---चाउमासो संथारा-अणसणं धातु संग्रह
उवास-उपासना करना जुज----जोडना, संयुक्त करना सोह--शुद्ध करना, सोधना हण---.मारना मन्न-मानना, स्वीकारना पवस---प्रवास करना ओप्प-पालिश करना, चमक देना उचिट्ठ-सेवा में उपस्थित रहना विक्के-बेचना, विक्रय करना पील, पीड---पीडना, पीलना अव्यय संग्रह
मा (मा) नहीं, मत, तओ, तत्तो (ततः) उससे, उसके बाद मुआ, मुसं, मूसा, मोसा (मृषा) मिथ्या, झूठ, असत्य हु, खु, खो (ख'लु) निश्चय मुहा-व्यर्थ
अस धातु के रूप याद करो । देखो-परिशिष्ट २ संख्या ३, स्वरादेश
इ को ए, अ, ई, उ, ओ आदेश
नियम ११४ [इत एव् वा १०८५] इकार से परे संयोग हो तो इकार को एकार विकल्प से होता है। इ/ए----पेण्ड, पिण्डं (पिण्डम्) धम्मेल्लं, धम्मिल्लं (धम्मिल्लम्)
बेल्लं, बिल्लं (विल्वम्) सेन्दूरं, सिन्दूरं (सिन्दूरम्) वेण्हू, विण्हू (विष्णुः) पेटु, पिट्ठ (पिष्टम्) नियम ११५ [किंशुके वा १८६] किंशुक शब्द के इकार को एकार
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स्वरादेश (४)
विकल्प से होता है । सुअं, किसुअं ( किंशुकम् )
नियम ११६ [ मिरायाम् ११५७] मिरा शब्द के इकार को एकार
होता है ।
इ7 ए - मेरा (मिरा )
६३
नियम ११७ [पथि पृथिवी प्रतिक्षुन्मूषिक हरिद्राबिभीतकेष्वत् १२८८ ] पथिन्, पृथिवी, प्रतिश्रुत्, मूषिक, हरिद्रा और बिभीतक--- इन शब्दों के आदि इकार को अकार होता है
।
7 अ --- पहो ( पन्थाः ), पुहई, पुढवी ( पृथिवी ), पडंसुआ ( प्रतिश्रुत्) मूसओ ( मूषिकः ) हलद्दा ( हरिद्रा ), बहेडओ ( बिभीतक : )
नियम ११८ [ शिथिलेङ्ग, देवा ११८६ ] शिथिल और इङ्ग ुद शब्द के आदि इकार को अकार विकल्प से होता है ।
इ / असढिलं सिढिलं (शिथिलम् ) । अङ्गुअं, इङ्गुअं (इङ्गुदम्)
नियम ११९ [ तित्तिरौ रः १६०] तित्तिरि शब्द में रि के इकार को अकार होता है ।
इ 7 अ -- तित्तिरो ( तित्तिरिः )
नियम १२० [ इतौ तो वाक्यादौ २२६१] वाक्य के आदि में इति शब्द के ति के इकार को अकार हो जाता है । इअ जम्पिआवसाणे
नियम १२१ (ई जिह्वा सिंह त्रिंशद् विंशतो त्या ११६२] जिह्वा और सिंह शब्द के इकार तथा त्रिशद् और विशति के ति को ईकार होता है । जीहो ( जिह्वा) सीहो ( सिंहः ) तीसा (त्रिंशत् ) । वीसा ( विंशतिः )
नियम १२२ [र्लुकि निरः २०६३ ] निर् उपसर्ग के र् का लोप होने के बाद नि के इकार को ईकार हो जाता है ।
इ 7 ई - नीसरइ (निःसरति ) नीसासो ( निःश्वासः )
नियम १२३ ( द्विन्योरत् १६४ ] द्विशब्द और नि उपसर्ग के इकार को उकार होता है ।
इ 7 उदुविहो ( द्विविध: ) णुमज्जइ (निमज्जति)
नियम १२४ [ प्रवासीक्षो १।६५ ] प्रवासिन् और इक्षु शब्द के इकार को उकार होता है । पावासुओ ( प्रवासी) उच्छू (इक्षुः )
नियम १२५ [ युधिष्ठिरे वा १२६६ ] युधिष्ठर शब्द के इकार को उकार विकल्प से होता है ।
इ 73 – जहुट्टिलो, जहिट्ठिलो ( युधिष्ठर: )
नियम १२६ [ ओच्च द्विधा कृगः १६७ ] द्विधा शब्द के साथ कृन् धातु का प्रयोग हो तो द्विधा के इकार को ओकार और उकार हो जाता है ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
इ 7 ओ, उ-दोहा कि ज्जइ, दुहा किज्जइ (द्विधा क्रियते) । दोहा करं, दुहा
कअं (द्विधा कृतम्) । नियम १२७ [वा निझरे ना १९८] निर्झर शब्द में नि को ओ विकल्प से हो जाता है। नि7 ओ-ओज्झरो, निज्झरो, (निझरः) प्रयोग वाक्य
अमुम्मि समये सव्वण्ण को अत्थि ? वीयराओ पावं ण करेइ । सावगो समणं उवासइ । साविया समाहिमच्चु अहिलसइ । दोसस्स चयो कढिणो परं रागस्स य अइकढिणो विज्जइ । रागो सुवण्णस्स संखला अस्थि । कम्मस्स बंधणं अफलं न भवइ । समणस्स महावीरस्स सासणे समणीण मुक्खा चंदणबाला आसि । आणंदो पढमो सावगो दस मुक्खसावगेसु अहेसि । अणासत्त भावेण कम्मस्स बंधणं सिढिलं भवइ। आयरियं अन्तरेण संपइ गणस्स आणाणिद्देसअरो को वि नस्थि । वीयरागो अम्हाणं आयंसो विज्जइ । अस्स वरिसस्स तुज्झ चाउमासो कत्थ अत्थि ? वट्टमाणकाले अम्हाण गामे अणसणं चलइ। धातु प्रयोग
___ तवस्सी तवेण अप्पाणं सोहइ । अज्ज मए पुण्णदिवहो उवासिओ, किं भवंतो मन्नइ जं अप्पा परभवं न गच्छइ । गोकुलो भायराणं हिययं जूंजइ । सो मूढो मुहा मच्छिअं हणइ । मज्झ पिआ पंचवरिसपेरंतो तत्य पवसिहिइ । चम्मआरो कमणियं (जूता) ओप्पइ । मोहणो पइदिणं साहुणो उवचिट्ठइ । कसणो पोत्थाई विक्केइ । किसाणो खेत्ते इक्खं पीलइ। अव्यय प्रयोग
जो मुसावायं जंपइ तस्स वीसासो न हवइ । तस्स गिहे तेण सद्धि मा गच्छ । सो आयरियं वंदइ तओ सामाइयं करेइ । सो तत्थ मुहा गच्छइ । . प्राकृत में अनुवाद करो
सर्वज्ञ शब्द का अर्थ है सबको जानने वाला । वीतराग किसी के प्रति राग नहीं करते। इस गांव में साधुओं का चतुर्मास है । साध्वियां धर्म के प्रचार के लिए दूर तक जाती हैं । तेरापंथ में एक आचार्य होते हैं। श्रावक प्रतिदिन सामायिक करता है। श्राविका चतुर्मास में तपस्या अधिक करती है। कर्म का फल मिलता है, कोई भी कर्म निष्फल नहीं जाता । द्वेष करना किसी की दृष्टि में अच्छा नहीं है । राग के कारण संसार में ममत्व बढता है। मृत्यु को देखकर मनुष्य में धर्म भावना बढती है। जैन लोग संथारा-युक्त मृत्यु चाहते हैं।
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स्वरादेश (४) धातु का प्रयोग करो
हम लोग गुरु की उपासना करते हैं। सुनार सोने को शुद्ध करता है । मैं मानता हूं आप होशियार हैं। सरोज लकडी पर पालिश करती है। मुलतान कपडा बेचता है । विमला पात्रों को जोडती है। वह दिन में मक्खी मारता है । तुम कितने समय से यहां प्रवास करते हो ? धनंजय गुरु की सेवा में उपस्थित रहता है । लोकेश चलाकर किसी को पीडा नहीं देता है । अव्यय का प्रयोग करो
तुम यहां मत रहो । झूठ का फल अंततः बुरा होता है । व्यर्थ में किसी के साथ विवाद मत करो। उसने पुस्तक पढी, उसके बाद कभी गलती नहीं की। वह व्यर्थ ही दूसरों की निंदा करता है।
प्रश्न १. विस्स, उभय, अण्ण, कयर, अवर, इयर आदि शब्दों के रूप बताओ। २. इ को क्या-क्या आदेश होता है ? प्रत्येक आदेश के एक-एक उदाहरण
बताओ। ३. पुहई, मूसओ, वीसा, दुविहो, सढिलं, पावासुओ, जहुट्ठिलो शब्दों में किस
नियम से क्या हुआ है ? ४. द्वेष, सर्वज्ञ, श्रावक, मृत्यु, संथारा, श्राविका और आत्मा के लिए प्राकृत
के शब्द बताओ। ५. जुंज, उवास, ओप्प, विक्के, पवस, सोह और पील धातु के अर्थ बताओ
और वाक्य में प्रयोग करो। ६. तत्तो, मुहा, मुसा, अव्ययों को वाक्य में प्रयोग करो। ७. अवसामिआ, पिट्ठगो, अब्भूसो, कुच्चिआ, महुसीसो, हेमी, भिंगो, कुल्लडं, चिरिक्का शब्दों का हिन्दी में अर्थ बताओ और प्राकृत में वाक्य में प्रयोग करो।
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२८
स्वरादेश (५) ईकार को अ आ, इ, उ, ऊ, ए,
शब्द संग्रह (जैनपारिभाषिकर) पुण्य-पुण्णं
पाप-पावो, अणो प्रमाद-पमायो, पमत्तो आसक्ति --आसत्ती ध्यान--झाणं
समाधि-समाही (पुं) तप--तवो, तवं ।
स्वाध्याय-सज्झायो अपध्यान-अवज्झाणं
मन-मणं, मणो
धातु संग्रह करिस-खींचना
फल-फलना चिंत-चिन्ता करना वीसर-विस्मरण करना, भूलना संहर--संहार करना
खण-खोदना पाव---प्राप्त करना
वक्खाण-व्याख्यान करना
अव्यय संग्रह इइ, इअ, त्ति (इति) समाप्ति सूचक कत्तो, कुत्तो, कुओ, कओ (कुतः) क्यों, कहां से, किस और से सव्वत्तो, सव्वतो, सव्वओ (सर्वत:) सब प्रकार से, चारों ओर से
गो और नौ शब्द के रूप याद करो देखो-परिशिष्ट १ संख्या २८, २९ ई को अ, आ, इ, उ, ऊ, ए आदेश
नियम १२८ [हरीतक्यामोतोत् ११६६] हरीतकी शब्द के आदि ई को अ होता है। ई? अ-हरडई (हरीतकी)
नियम १२६ [आत्कश्मीरे ११००] कश्मीर शब्द में ई को आ होता है। ई 7 आ-~-कम्हारो (कश्मीरः)
नियम १३० [पानीयादिष्वित् ११०१] पानीय आदि शब्दों के ईकार को इ होता है। ई75---पाणिों (पानीयम्) गहिरं (गभीरम्)
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स्वरादेश (५)
अलिअं (अलीकम् ) जिअ ( जीवति )
जिअउ ( जीवतु ) विलिअं (व्रीडितम् ) करिसो (करीषः )
सिरिसो ( शिरीष :)
दुइअं (द्वितीयम् )
तइअं (तृतीयम्)
उवणिअं ( उपनीतम्) आणिअं (आनीतम्)
पलिविअं ( प्रदीपितम् ) ओसिअन्तं ( अवसीदत् )
पसिअ ( प्रसीद )
गहिअं (गृहीतम्) वम्मिओ (वल्मीकः ) तयाणि ( तदानीम् )
नियम १३१ ( उज्जीर्णे १।१०२ ) जीर्ण शब्द के ई को उ होता है । ई 7 उ-जुण्णं (जीर्णम् ) । कहीं पर नहीं होता - जिणं ( जीर्णम् ) ।
६७
नियम १३२ [ कहनविहीने वा १।१०३] हीन और विहीन शब्दों के ई को उ विकल्प से होता है ।
ई 7 उ-- हूणो, हीणो ( हीनः ) विहूणो, विहीणी ( विहीनः )
नियम १३३ (तीर्थे हे १।१०४) तीर्थ शब्द के ईकार को उकार होता है, ईकार से परे ह हो तो ।
ई 7 उतू हं (तीर्थम् ) अन्यत्र तित्थं ।
नियम १३४ ( एल्पीयूषापीड बिभीतक कीदृशे दृशे १।१०५) पीयूष, आपीड, बिभीतक, कीदृश, ईदृश शब्दों के ईकार को एकार होता है । ई 7 ए - पेऊस (पीयूषम् ) आमेलो (आपीड: ) बहेडओ ( बिभीतक : ) केरिस (कीदृशः) एरिसो ( ईदृशः )
नियम १३५ ( नीड पीठे वा १११०६) नीड और पीठ शब्द के ईकार को एकार विकल्प से होता है ।
ई 7 ए - नेडं, नीडं ( नीडम् ) पेढं पीढं (पीठम् )
वाक्य प्रयोग
आत्तीए कम्मस्स बंधणं सघणं होइ । समाहीअ को उवाओ ? आसत्तो पत्ते यकज्जम्मि आसत्तिजुत्तो भवइ । पइक्खणं अप्पमायो भविअव्वो । पमायो पात्रं करिसइ । सुहजोगेण सह पुण्णं हवइ । पुण्णस्स फलं लोगा अहिलसंति । मणुसा पावं करेंति परं तस्स फलं नेच्छति । पमायो सव्वतो महो अणो अत्थि | झाणेण अहियो कम्मक्खयो भवइ । सरीरसत्तीए अणुसारेण तवं काअव्वं । सज्झायो साहूणं आभूसणं अस्थि । मणं पवणवेगाओ अहियं गइमंतं अथ । अवज्झाणेण जम्ममरणं वड्ढइ । अहं समाहिमच्चुं अहिलसामि । धातु प्रयोग
अयं रुक्खी गिम्हकाले फलइ । तुमए सह जं किमवि जाअं तं वीसर ।
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६८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
कज्जकरणस्स पुवं जो चिंतइ सो अवसाणे न विसीअइ । सा पुहवि खणइ । आओ धम्मसहाए पइदिणं वक्खाणइ । जो धम्मं करेइ सो फलं पावेइ । आयंकबाई मोरउल्ला नरा संहरइ ।
अव्यय प्रयोग
किं तुमं जाणसि ? अप्पा कुओ आगओ ? पमत्तस्स सव्वओ भय अत्थि । अहं कओ आगओ त्ति हं न जाणामि ।
प्राकृत में अनुवाद करो
पाप
धन से न धर्म होता है और न पुण्य होता है । किसी को दुःख देना । भोजन और वस्त्रों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । प्रेक्षाध्यान ध्यान की आज तक की अंतिम पद्धति है । समाधि पूर्वक जीवन जीना चाहिए । स्वाध्याय तप का ही एक भेद है । जैन धर्म में तप की परंपरा आज तक चलती है । मन घोड़ा है । यह पवन वेग से भी तेज दौडता है । अपध्यान से कर्म का बंधन होता है ।
धातु का प्रयोग करो
विनय से विद्या फल देती है । जो अधिक चिंतन करता है वह कार्य कम करता है । अपने द्वारा किए गए उपकार को भूल जाओ। तुम्हारा स्नेह मुखींचता है। क्या शिव सृष्टि का संहार करता है ? वह कठोर श्रम से पर्वत को खोदता है । जो सेवा करता है वह फल पाता है । जो व्याख्यान देता है वह भूखा नहीं रहता ।
अव्यय का प्रयोग करो
तुम आज कहां से आए हो ? जो परिग्रह रखता है उसे चारों ओर से भय है ।
प्रश्न
१. अस धातु के सारे रूप लिखो ।
२. ईकार को क्या-क्या आदेश होता है ? एक-एक उदाहरण लिखो ।
३. पेढ, केरिसो, हूणो, आणिअं विलिअं, गहिरं -- ये शब्द किस नियम से बने हैं, सिद्ध करो ।
४. आसक्ति, प्रमाद, स्वाध्याय, ध्यान, पाप, मन, समाधि, अपध्यान और पुण्य - इन शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ ।
५. खोदना, संहार करना, खींचना, फलना, प्राप्त करना, चिंता करना, विस्मरण करना और व्याख्यान देना - इन अर्थों के लिए इस पाठ में कौन-कौन सी धातुएं हैं ?
६. सव्वत्तो, इअ और कओ ---इन अव्ययों का वाक्य में प्रयोग करो ।
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२६
स्वरादेश (६) उकार को अ, इ, ई, ऊ, मो आदेश
. . शब्द संग्रह (खाद्यवर्ग) बडा--बडगं
चाट-अवदंसो (सं) पकोडी--पक्कवडिया (सं) चाय-चविया, चायं (सं) कचोरी-पिट्टिया (सं) . कॉफी---कफग्धी (सं) समोसा--समोसो (सं) अचार-संहाणं बड़ी-वडी (दे०) मुरब्बा-मिट्ठपागो कुलफी- कूलपी (सं)
धातु संग्रह रक्ख ----- रक्षा करना, संभालना उड्डी-~-उडना निमंत-निमंत्रण देना
जागर---जागना ताल-पीटना, ताडन करना विचर-विचरना, घूमना चय----त्यागना, छोडना
पूअ, पूज-पूजा करना विराअ-विराजमान होना तक्ख-छिलना
अव्यय संग्रह सह (सह)----साथ
सद्धि (सार्धम् )—साथ जहासत्ति (यथाशक्ति)-यथाशक्ति । तहवि (तथापि)--तो भी अलं (अलं)--पूर्ण, पर्याप्त केणइ (केनचित्)-कोई
एग, दि, ति आदि शब्दों के रूप याद करो। देखो--परिशिष्ट १ संख्या ५२, ५३, ५४ ।
नियम १३६ (उतो मुकुलादिष्वत् १११०७) मुकुल आदि शब्दों के आदि उकार को अकार होता है। उ7 अ.---मउलं (मुकुलम् )
गरुई (गुर्वी) . मउलो (मुकुल)
जहुट्ठिलो (युधिष्ठिरः) मउरं (मुकुरम्)
सउमल्लं (सौकुमार्यम्) मउडं (मुकुटम्)
गलोई (गुडूची) अगरुं (अगुरुम् )
नियम १३७ (वोपरी १।१०८) उपरि शब्द के उ को अ विकल्प होता है।
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१००
प्राकृत वाक्यरचना बोध
उ7 अ-अरिं, उवरिं (उपरि)।
नियम १३८ (गुरौं के वा १११०६) गुरुशब्द से स्वार्थ में क करने पर आदि उ को अ विकल्प से होता है । उ74–गरुओ, गुरुओ (गुरुकः)
नियम १३६ (ई भ्रुकुटौ ११११०) भ्रुकुटिशब्द के आदि उ को इ होता है । भिउडी (भृकुटि)
नियम १४० (पुरुष रोः १११११) पुरुष शब्द के रु के उ को इ होता
उ7इ--पुरिसो (पुरुषः)
___नियम १४१ (ईः क्षुते ११११२) क्षुतशब्द के उकार को ईकार होता है। उ7इ-छीअं (क्षुतम्)
नियम १४२ (अनुत्साहोत्सन्ने सच्छे १२११४) उत्साह और उत्सन्न को छोडकर जिस शब्द में त्स और च्छ हों उसके आदि उ को ऊ होता है । उ7ऊ-ऊसुओ (उत्सुकः)
ऊसवो (उत्सवः) ऊसित्तो (उत्सिक्तः) ऊसरइ (उत्सरति) ऊसुओ (उत्सुकः) ऊससइ (उच्छ्वसिति)
नियम १४३ (ऊत्सुभगमुसले वा ११११३) सुभग और मुसल शब्द के उकार को ऊकार विकल्प से होता है। उ73-सूहवो, सुहओ (सुभगः) मूसलं, मुसलं (मुसलम्)
नियम १४४ (लुकि दुरो वा ११११५) दुर् उपसर्ग के र का लोप होने पर उकार को ऊकार विकल्प से होता है। उ7ऊ-दूसहो, दुसहो (दुःसहः) दूहवो, दुहवो (दुर्भगः)
नियम १४५ (ओत्संयोगे ११११६) संयोग आगे होने पर पूर्व के उकार को ओकार हो जाता है । उ7 ओ-तोण्डं (तुण्डम्) पोत्थओ (पुस्तक:)
मोण्डं (मुण्डम्) लोद्धओ (लुब्धकः) पोक्खरं (पुष्करम्) मोत्था (मुस्ता) कोट्टिमं (कुट्टिमम्) मोग्गरो (मुद्गरः) कोण्ढो (कुण्ठः)
पोग्गलं (पुद्गलम्) कोन्तो (कुन्तः) वोक्कन्तं (व्युत्क्रान्तम् )
नियम १४६ (कुतूहले वा ह्रस्वश्च ११११७) कुतूहल शब्द के उकार को ओकार विकल्प से होता है । उसके योग में ह्रस्व विकल्प से होगा।
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१०१
स्वरादेश (६) ओ उ-कोऊहलं, कुऊहलं, कोउल्लं (कुतूहलम्) प्रयोग वाक्य
___वडगं दहिणा सह साउ भवइ । पक्कवडिया उण्हा चेअ रुइअरा भवइ । चिंचाए (इमली) सह पिट्टियाए सायो विसिट्ठो होइ । अहं समोसं न खाआमि किं य तस्स अंतराले उण्हावेसवारा (गर्ममसाला) संति । वडि को भुंजइ ? कूलपी भक्खणे सीयला परिणामे उण्हअरा हवइ। अवदंसम्मि चिंचाए पहाणत्तं (प्रधानता) विज्जइ । अज्जत्ता चायेण दुद्धस्स हाणं गहिरं । जणा कग्घि दक्खिणभारहे अहियं पिबंति । समये समये संहाणस्स उवओगो भवइ । महिलाउ घरे मिट्ठपागो रक्खइ । धातु प्रयोग
__ सेणा देसं रक्खइ । जो आयरियभिक्खुस्स नाम समरइ तं देवो रक्खाइ । जो साहुं निमंतेइ तस्स गिहे साहू भिक्खट्टन गच्छइ । गुरू सीसं तालेइ । पक्खिणो आयासं उड्डींति । हं पगे पुव्वं जागरामि । आयरिओ अयम्मि वरिसम्मि इअम्मि पदेसे चिअ विचारहिइ। तित्थयरो भारहवासे न विराअइ । विउसो सव्वत्थ पूअइ । जो अबंभचेरं चयइ सो महाचाई भवइ। अव्यय का प्रयोग
तेण सह सो गओ। तुमए सद्धि को विज्जालये गमिहिइ ? जहासत्ति तुमं दाणं देहि । सो तत्थ गओ तहपि तुमं गच्छ। प्राकृत में अनुवाद करो
___ अति परिश्रम से बडा बनता है। मिठाई के साथ पकौडी भी रुचिकर लगती है । जगमोहन भोजन में चार कचोरियां खा सकता है। क्या तुम समोसे का आकार जानते हो ? वडी बनाना कठिन नहीं है। लोकेश कुलफी खाना बहुत पसन्द करता है । चाट खाना जीभ का स्वाद है । चाय हर जाति के लोग पीते हैं। कॉफी का स्वाद चाय से भिन्न होता है। अचार साग के स्थान पर काम आता है । मुरब्बा औषधि में भी काम आता है। धातु का प्रयोग करो
माता पुत्र की रक्षा करती है । पक्षी दिन में उडते हैं । केवलचंद भोजन के लिए अपने घर उसे निमंत्रण देता है। वह सुबह जल्दी क्यों नहीं जागता है ? माता क्रोध से अपने पुत्र को ताडती है। वह आज से अपना सारा धन छोडता है । धनपाल प्रतिदिन भगवान की पूजा करता है। अव्यय का प्रयोग करो
वह सम्मान के साथ धन भी मांगता है। पिता के साथ पुत्र भी यहां
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
आएगा। यथाशक्ति परिश्रम करना चाहिए। वह प्रतिदिन ध्यान करता है तो भी क्रोध अधिक करता है । तुम्हारे बोलने से क्या ? .
प्रश्न १. गो और नौ शब्द के रूप बताओ। २. उकार को इस पाठ में क्या-क्या आदेश हुआ है ? प्रत्येक का एक-एक । उदाहरण दो। ३. उकार को अकार और ऊकार आदेश के तीन-तीन उदाहरण दो
और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो। ४. रक्ख, तक्ख, उड्डी, निमंत, ताल, चय, जागर और विराअ धातुओं के
अर्थ बताओ और उन्हे वाक्य में प्रयोग करो । . ५. आसक्त, त्यागी, तपस्वी और महर्षि के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ६. वडगं, पक्कवडिया, पिट्ठिया, समोसो, वडी, कुलपी, अवदंसो, चायं,
कफग्घी, संहाणं, मिट्टपागो-इन शब्दों के हिन्दी अर्थ वताओ और इन्हें वाक्य में प्रयुक्त करो।
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३०
स्वरादेश ऊ कार को अ, इ, उ, ओ आदेश
शब्द संग्रह (गृह अवयव) घर का भीतरी आंगन-~-अंतोवगडा (दे) किंवाड-कवाडं छत-छायणं
दहलीज-देहली, अंबेसी (पुं) (दे०) खिडकी-खडक्की, वायायणं दरवाजा--दारं बरामदा---वरंडिया (दे०) खूटी-णागदतो घर का पिछला आंगन-पडोहरं छोटा दरवाजा-मूसा (दे०) ओसारा-उवसालं
अट्टारी--अट्टं
. तीखी खूटी-अलीपट्ट (दे०) घर के बाहर की कोठरी-धरकुडी दीवाल-भित्ति
धातु संग्रह जाय--याचना करना
पवय-वाद विवाद करना अक्खा--बोलना, कहना अवमन्न-अपमान करना भास-भाषण करना
पमय-प्रमाद करना, आलस्य करना जूर-झुरना
तिप्प-देना, रोना पिट्ट-पीटना, मारना परितप्प-परिताप करना, दुःखी होना
अव्यय
अन्नहि (अन्यत्र)-अन्यत्र, दूसरे में तारिस (तादृश)--उसके समान बाहिं, बाहिर (बहिः)-~बाहर अभिक्खणं (अभीक्ष्णं)-बार-बार न उणा (न पुनः)---फिर नहीं कए, कएण (कृते)-लिए, निमित्त
नियम १४७ (अदूतः सूक्ष्मे वा ११११८) सूक्ष्म शब्द के ऊकार को अकार विकल्प से होता है। ऊ 7 अ—सणहं, सुण्डं (सूक्ष्मम् )
नियम १४८ (दुकले वा लश्च द्विः ११११६) दुकूल शब्द के ऊकार को अकार विकल्प से होता है। उसके संयोग में लकार द्वित्व होता है। ऊ7 अदुअल्लं, दुऊलं (दुकूलम्) ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम १४६ ( ई र्वोद्व्यूढ १1१२० ) उद्व्यूढ शब्द के ऊकार को ईकार विकल्प से होता है ।
ऊ 7 ई -- उब्वीढं, उब्वूढं ( उद्व्यूढम् ) ।
नियम १५० ( उ
और वातूल शब्दों के ऊकार को उकार होता है । क 7 उ — भुमया (भ्रूः ) । हणुमंतो
वाउलो ( वातूल: ) ।
नियम १५१ ( मधूके वा १।१२२) मधूक शब्द के ऊकार को उकार विकल्प से होता है ।
7- महुअं, महूअं ( मधूकम् ) ।
१०४
हनुमत्कण्डूय-वातूले १।१२१) भ्रू, हनूमत्, कण्डूय
( हनूमत् ) । कण्डुअइ ( कण्डूयति ) ।
नियम १५२ ( इवेतौ नूपुरे वा १।१२३) नूपुर शब्द के ऊंकार को इकार और एकार विकल्प से होता है ।
ऊ / इ, ए – निउरं, नेउरं नूअरं ( नूपुरम् ) ।
नियम १५३ (ओत्कूष्माण्डी- तूणीर-कूर्पर-स्थूल- ताम्बूल-गुडूची मूल्ये १११२४) कूष्माण्डी, तूणीर, कूर्पर, स्थूल, ताम्बूल, गुडूची और मूल्य शब्दों के ऊकार को ओकार होता है ।
ऊ 7 ओ – कोहण्डी, कोहली ( कूष्माण्डी ) । तोणीरं ( तूणीरम् ) । कोप्परं ( कूर्परम् ) थोरं ( स्थूलम् ) । तम्बोलं ( ताम्बूलम् ) । गलोई ( गुडूची) | मोल्लं ( मूल्यम् ) ।
नियम १५४ ( स्थूणा तूणे वा १११२५) स्थूण और तूण शब्द के ऊकार को भो विकल्प से होता है ।
ऊ 7 ओ - थोणा, थूणा (स्थूणा ) तोणं, तूणं ( तूणम् )
प्रयोग वाक्य
antarasty थी गtयं गाअन्ति । दारस्स कवाडं उग्घाडियं अत्थि । सो निसाए छायणे सुवइ । देहलीइ उववेसणं सुहं नत्थि । खडक्कीअ सीयलो वातो आयाइ । घरस्स केत्तिलाई दाराई संति । वरंडियाए बालो खेलइ । नागदंते भाउज्जाई साडी अत्थि । भित्तीए अक्खराणि मा लिहह । मूसाए सारमेयो आयाइ । गिम्हकाले अम्हे पडोहरम्मि सुवामु । सीयकाले उवसालम्मि पंचजणा सोअंति । अट्टम्मि कवोओ चिट्ठइ । अलीपट्टम्मि कस्स वत्थाई संति ? घरकुडी पिआमहो वेसइ ।
धातु प्रयोग
साहुणो सव्वाइं वत्थाइं जायंति । ते मोरउल्ला पवयंति । उवज्झायो पिवणं अक्खाइ । सो अप्पसन्नो भूय पए पए तं अवमन्तइ । किं तुमं
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स्वरादेश (७)
१०५
रविवारे भासिस्ससि ? जो पमायइ सो पावकम्मं बंधइ। पइविओगेण तस्स भारिया जूरइ । पई पत्ति कहं पिट्टइ ? तुमए पुठवं अकअं करं संपइ कहं परितप्पइ ? सो कहं तिप्पइ ? अव्यय प्रयोग
तुमए अत्थ न ठाअव्वं अन्तहि ठाणं दट्ठव्वं । गामओ बाहिं विज्जालयं अस्थि । तस्स कए एअं न सोहइ । इह काले अमुम्मि भूमीए तारिसो विउसो को अत्थि ? सो एग थिं अभिक्खणं दसइ, तं पइ राओ अत्थि इअ जाणिज्जइ । जं हं पुव्वमकासी पमाएण तं न उणा करिहामि इअ मे संकप्पो । प्राकृत में अनुवाद करो
घर के भीतर आंगन में बच्चे खेल रहे हैं । किंवाड को बंद मत करो। वह छत पर बैठकर पुस्तक क्यों पढता है ? दहलीज पर खडा मोहन किसको देख रहा है ? खिडकी से समुद्र की चंचलता का दृश्य देखो। चिंतन का दरवाजा सदा खुला रहता है । बरामदे में धूप में कौन बैठा है ? खूटी पर अधिक वस्त्र मत रखो। छोटे दरवाजे से कुत्ता भीतर आता है । घर के पिछले आंगन में वह क्या कर रहा है ? शीतकाल में हम ओसारा में सोते हैं। घर के बाहर की कोठरी में तुम किसका स्वागत करते हो? तुम तीखी खूटी कहां से लाए हो ? दीवाल पर अक्षर कौन लिखता है ? अट्टारी पर कौन चढता है ? धातु का प्रयोग करो
वह पीने के लिए पानी की याचना करता है। असत्य बात के लिए वह वाद विवाद क्यों करता है ? मैं जैसा बोलता हूं वैसा करता हूं। जो दूसरे का अपमान करता है उसका फल अच्छा नहीं होता । तुम भाषण करते हो उसमें सत्य कितना है ? एक क्षण भी प्रमाद मत करो। जो झुरता है वह कर्म का बंधन करता है । वह देवता को पितृदान देता है। दुःख आने पर तुम क्यों रोते हो? क्रोध में माता बच्चे को पीटती है। उसने भयंकर गलती की फिर भी परिताप नहीं करता । अव्यय का प्रयोग करो
__माता बच्चे को कहती है घर के बाहर मत जाओ। तुम्हें सेवा के लिए वहां जाना है। तुमने जो गलती की है वैसी पुनः नहीं करनी चाहिए। बार-बार खाना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है । यह पुस्तक मैं तुम्हारे लिए लाया हूं । तुम्हारे जैसा तपस्वी मैंने नहीं देखा । निर्जरा को छोडकर यश और कीर्ति के लिए तप नहीं करना चाहिए ।
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१०६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रश्न १. एग, दु, ति आदि शब्दों के सभी रूप बताओ। २. अकार को इस पाठ में क्या-क्या आदेश हुआ है ? ३. भुमया, सण्हं, दुअल्लं, महुअं, निउरं, थोरं, तोणं गलोई, मोल्लं-इन .. शब्दों में किस नियम से क्या आदेश हुआ है ? ४. बरामदा, देहली, घर का भीतरी आंगन, खूटी, खिडकी, छत, कवाड,
छोटा दरवाजा, ओसारा, अट्टारी, घर का पिछला आंगन, घर के बाहर
की कोठरी-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. देना, वाद विवाद करना, जूरना, याचना करना, परिताप करना
प्रमाद करना, अपमान करना, भाषण करना--इन अर्थों में इस पाठ
में कौनसी धातुएं आई हैं ? ६. अन्यत्र, बाहर, बारम्बार, उसके समान, लिए और फिर नहीं-इन
अर्थों में कौन से अव्यय होते हैं ? ७. दोसो, अणसणं, समाही, आसत्ती, पक्कव डिया, कफग्घी अवदंसो-इन
शब्दों का वाक्य में प्रयोग करो और हिन्दी में अर्थ बताओ।
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३१
स्वरादेश (८)
शब्द संग्रह (शरीर विकार) छींक-छी
दांत का मैल-पिप्पिया (दे०) जंभाई-जिभा, जिभिआ । आंख का मैल दूसिआ खुजली-खज्जू (स्त्री)
शरीर का मैल-जल्लं (दे०) पसीना-सेओ, घम्मो
डकार-आझमाणं, उड्डुओ चक्कर--भमली
हिचकी-हिक्का, मुट्ठिक्का उच्छ्वास--ऊससि
थूक-थुक्को मल-गृहं, मलं
खांसी-खासिअं, कासितं आंसू-अंसुं (न)
अधोवायु (पादना)-वायणिसग्गो नाक का मैल-सिंघाणं
निःश्वास--नीससि कान का मैल-किट्टं
मूत्र-मुत्तं जीभ का मैल-कुलुअं (सं) श्लेष्म-खेलो
धातु संग्रह समायर-आचरण करना
कप्प-उचित होना वज्ज-वर्जन करना
चर-चबाना संजल-जलना, आक्रोश करना अणुतप्प-अनुताप करना पयय-प्रयत्न करना
तच्छ-छीलना, पतला करना परिहर---छोडना
अभिनिक्खम-संन्यास लेना,
सदा के लिए घर से निकलना
अव्यय संग्रह सुवे (श्वस्) आगामी काल , परसुवे (परश्वः) परसों
व्हो (ह्यस्) बीता हुआ कल उत्तरसुवे (उत्तरश्वः) परसों ऋकार को अ, आ, इ, उ आदेश ह, नियम १५५ (ऋतोत् १११२६) आदि (पहले) ऋकार को अकार होता है। ऋ7 अ-धयं (घृतम्) कयं (कृतम् ) मओ (मृगः)
तणं (तृणम्) वसहो (वृषभः) घट्ठो (घृष्टः) ।
नियम १५६ (आत् कृशा-मृदुक-मृदुत्वे १।१।१२७) कृशा, मृदुक और मृदुत्व के ऋ को आ विकल्प से होता है।
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१०८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ऋ7आ-कासा, किसा (कृशा) माउक्कं, मउअं (मृदुकम्) माउक्कं,
___ मउत्तणं (मृदुत्वम्)
नियम १५७ (इत्कृपावौ १।१२८) कृपा आदि शब्दों के ऋ को इ होता है। ऋ71-किवा (कृपा) हिययं (हृदयम् ) रस अर्थ में मिट्ठ (मष्टम् )
दिट्ठं (दृष्टम् ) दिट्ठी (दृष्टिः) सिढें (सृष्टम् ) सिट्ठी (सृष्टि:) गिण्ठी (गृष्टि:) पिच्छी (पृथ्वी) भिऊ (भृगुः) भिंगो (भृङ गः) भिङ्गारो (भृङ गारः) सिङ्गारो (शृङ्गारः) सिआलो (शृगालः) घिणा (घणा) घुसिणं (घुसृणम्) विद्धकई (वृद्धकविः) समिद्धी (समृद्धिः) इद्धी (ऋद्धिः) गिद्धी (गृद्धिः) किसो (कृशः) किसाणू (कृशानुः) किसरा (कृसरा) किच्छं (कृच्छम् ) तिप्पं (तप्तम् ) किसिओ (कृषितः) निवो (नृपः) किच्चा (कृत्या) किई (कृतिः) धिई (धृतिः) किवो (कृपः) किविणो (कृपणः) किवाणं (कृपाणम् ) । विञ्चुओ (वृश्चिक:) वित्तं (वृत्तम् ) वित्ती (वृत्तिः) हिअं (हृतम्) वाहित्तं (व्याहृतम्) बिहिओ (बंहितः) विसी (वृषी) इसी (ऋषिः) विइण्हो (वितृष्णः) छिहा (स्पृहा) सइ (सकृत्) उक्किट्ठ (उत्कृष्टम्) निसंसो (नृशंसः) १. नोट-कगटडतदपशषस कपामूलुक् २७७ का अपवाद है।
नियम १५८ (पृष्ठे वानुत्तरपवे १३१२६) पृष्ठ शब्द उत्तर पद में न हो तो उसके ऋ को इ विकल्प से होता है ।
ऋ7 अ.-पिट्ठी, पट्टी (पृष्ठम् ) । पिट्ठिपरिट्ठविरं
नियम १५६ (मसृण-मगाङ क-मत्यु-शृङ ग-धष्टे वा १११३०) मसृण, मृगाङ्क, मृत्यु, शृङ्ग और धृष्ट शब्दों के ऋकार को इकार विकल्प से होता है । ऋ7इ-मसिणं, मसणं (मसणम्) मिअङ्को, मयङ्को (मगाङ कः) मिच्चु,
मच्चु (मृत्युः) सिंगं, संगं (शृङ गम्) धिट्ठो, धट्ठो (धृष्टः)
नियम १६० (उदृत्वादौ १११३१) ऋतु आदि शब्दों के आदि ऋ को उ होता है। 7उ--उऊ (ऋतुः) परामुट्ठो (परामृष्टः) पुट्ठो (स्पृष्टः)
पउट्ठो (प्रवृष्ट:) पुहई (पृथिवी) पउत्ती (प्रवृत्तिः) पाउसो (प्रावृट) पाउओ (प्रावृतः) भुई (भृतिः ) । पहुडि (प्रभृतिः) पाहुडं (प्राभृतम्) परहुओ (परभृतः)
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स्वरादेश (८)
१०६
निहुअं (निभृतम्) निउभं (निवृतम्) विउअं (विवृतम्) संवुअं (संवृतम्) वुत्तन्तो (वृत्तान्तः) । निव्वुअं (निर्वृतम्) निव्वुई (निर्वृतिः) वुन्दं (वृन्दम्) वुन्दावणो (वृन्दावनः) वुड्ढो (वृद्धः) वुड्ढी (वृद्धिः) उसहो (ऋषभः) मुणालं (मृणालम्) उज्जू (ऋजुः) जामाउओ (जामातृकः) माउओ (मातृक:) माउआ (मातृका) भाउओ (भ्रातृक:)
पिउओ (पितृकः) पुहुवी (पृथ्वी) प्रयोग वाक्य
एगं छीअं सुहं न हवइ । परियासियथुक्कस्स ओसहिरूवेण पओगो होइ । उड्डुओ भोयणस्स पुण्णस्स सूअगो (सूचकः) अत्थि । जिभिआ णिद्दाए पुव्वं आयाइ । सेओ गिम्हकाले बहुं आयाइ । को वि में समरइ अस्स सूअआ हिक्का अत्थि । सो खज्जु करेइ । खेलो अपक्कवीरियरूवो अस्थि । वायणिसग्गस्स झुणि (ध्वनि) सुणिऊण बाला हसति । उससिएण सुद्धवाऊ अंतो पविसइ । नीससिएण असुद्धवाऊ बाहिं णिक्कसेइ । अप्पसत्तीए भमली आयाइ । मुत्तावरोहो भयंकरो भवइ । तस्स सरीरे जल्लं नत्थि । चिइच्छओ गृहं परिक्खिऊण रोगस्स नाणं करेइ । तस्स अंसूई कहं पडंति ? वेज्जो कुलुअं पासिऊण कहइ तुम लुक्को सि । गरिमा अंगुलीए णासाइ सिंघाणं णिक्कसइ । तुमं दंतपिट्टएण पिप्पियं णासइ । कयाइ किट्टस्सावि आवस्सगनणं विज्जइ । नेत्तोसहीए दूसिआ दूरं गच्छइ । धातु प्रयोग
सावगो पइदिणं सामाइयं समायरइ । नो कप्पइ निग्गंथाण गिहिभायणम्मि भोयणं भुंजित्तए । सो पुण्णं दिवहं चरइ । अहं न जाणामि जं तुम कहं अणुतप्पसि ? पिआ पययइ जं तस्स पुत्तो परिक्खाए पढमो भवे । नलिणो कल्लं अभिनिक्खमिहिइ । अज्ज सो सव्वं खाइमं परिहरइ । सो कोहेण संजलइ। आयरिओ सीसं वज्ज इ जं अज्ज तुमए तत्थ न गंतत्वं । तक्खो कठें तच्छइ । बालो रोट्टगं चरइ। अव्यय प्रयोग ___ अहं सुवे तुमए सह नयरं गमिहिमि ।
तेण किं कहिअं रहो ? सव्वे सावगा परसुवे उत्तरसुवे वा उववासं करिहिंति । प्राकृत में अनुवाद करो
तुम्हें छींक क्यों आती है ? अजीर्ण में खट्टी (खट्ट) डकार आती है। उसके सोने का समय आ गया है, क्योंकि वह जंभाई लेता है। तुम्हें हिचकी
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११०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आती है, कौन याद कर रहा है ? खुजली में खट्टे पदार्थ मत खाओ। वह यहां क्यों थूकता है ? शीतकाल में कफ अधिक आता है। उसने दही खाया है, इसलिए खांसता है । पसीने के द्वारा शरीर का विकार बाहर निकलता है । अधोवायु निकलने से मन शांत होता है। तीर्थकरों के उच्छ्वास में सुगंध आती है। कल उसको उच्छ्वास आया पर निःश्वास नहीं आया। प्रतिदिन जीभ का मैल हाथ से साफ करो। तुम बार-बार नाक का मैल निकालते हो । कान का मैल समय पर नहीं मिलता है। आंख का मैल सफेद रंग (सित) का होता है। दांत का मैल उपवास से बढ़ता है। पानी से शरीर का मैल उतरता है । मल का बाहर आना स्वास्थ्य का लक्षण है । वह पानी कम पीता है, इसलिए मूत्र पूरा नहीं आता । दुःख की बात में उसके आंसु पडने लगे। धातु का प्रयोग करो
गाय घास को चबाती है। जिस समय मनुष्य धर्म का आचरण करता है वह समय उसका मूल्यवान् है। साधु को कच्चे फल लेना कल्पता (उचित) नहीं है। आचार्य शिष्य को कच्चे फल के स्पर्श का निषेध (वर्जन) करते हैं। जो बिना विचारे काम करता है, वह पीछे अनुताप करता है । बिना प्रयोजन वह क्यों जलता है ? वह धनवान बनने के लिए प्रयत्न करता है। प्रचुर धन को छोडकर नीलेश संन्यास लेता है । तुम अविवेकी गुरु को क्यों नहीं छोडते हो ? जो कर्म को पतला करता है वह बंधन से मुक्त होता है। . अव्यय का प्रयोग करो
कल मेरा भाई यहां आएगा। परसों तुम्हारा भाग्योदय होने वाला है । आचार्य ने कल क्या घोषणा की थी ?
प्रश्न १. ऋकार को क्या-क्या आदेश हुए हैं ? एक-एक उदाहरण दो। २. गिण्ठी, पिच्छी, माउक्कं, तिप्पं, विञ्चुओ, पिट्ठी, सिंगं, निव्वुअं,
पहुडि, घट्ठो, छिहा---इन शब्दों को नियम का उल्लेखपूर्वक्र सिद्ध करो। ३. छींक, डकार, जंभाई, हिचकी, खुजली, थूक, कफ, पसीना, शरीर का मैल, आंसू, खांसी, अधोवायु, चक्कर, उच्छ्वास, निःश्वास, जीभ का मैल, नाक का मैल, कान का मैल, आंख का मैल और दांत का मैल--
इन शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ। ४. समायर, कप्प, संजल, वज्ज, अणुतप्प, पयय, अभिनिक्खम, वच्छ,
परिहर और चर धातु को एक-एक वाक्य में प्रयोग करो। ५. आजकल (बीता हुआ) कल (आगामी) और परसों के अर्थ में कौन
कौन अव्यय हैं ? एक-एक वाक्य में प्रयोग करो।
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__स्वरादेश (8)
शब्द संग्रह (प्रसाधन सामग्री) लिपष्टिक----ओट्ठरंजणं (सं) नेलपालिश–णहरंजणं (सं) स्नो--हैमं (सं)
क्रीम-सरो (सं) इत्र-पुष्फसारो
तेल-तेल्लं, तेल मेंहदी--मेंहदी
अंजन---अंजणो चोटी, चूडा-छेडो (दे०) पुष्पमाला-आमेलिओ पान-तंबोलं
कंघी---फणिहो (दे०), कंकसी (दे०) दर्पण--दप्पणो, आयसो सिंदूर-सिंदूरो केशों का जूडा--आमेलो पाउडर --चुण्णअं (सं) रूज-कवोलरंजणं
०
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स्वेद, पसीना-सेअं
चिकना-चिक्कण (वि) चिन्ह-चिंधं
उत्सवमहो, महं
धातु संग्रह अभिपत्थ-प्रार्थना करना परिच्चय--परित्याग करना रम-खेलना
पमत्थ-मंथन करना दह, डह---दग्ध होना
णम, नम-नमस्कार करना परिअट्ट----घूमना
सह---सहना, सहन करना अभिजाण-पहचानना आइक्ख-~-कहना स्वरादेश ऋकार को उ, इ, ऊ, ओ, ए, रि, ढि आदेश---
नियम १६१ (निवृत्त-वन्दारके वा १११३२) निवृत्त, वृन्दारक शब्दों के ऋ को उ विकल्प से होता है। ऋ7 उ--निवृत्तं, निअत्तं (निवृत्तम् ) वुन्दरया, वन्दारया (वृन्दारकाः)
नियम १६२ (वृषभे वा वा १११३३) वृषभ शब्द के वृ को उ विकल्प से होता है। वृ7 उ-उसहो, वसहो (वृषभः)
नियम १६३ (गौणान्त्यस्य १११३४) गौण शब्द (समस्त पदों में पूर्व पद) के अंत में होने वाले ऋकार को उकार होता है
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११२
प्राकृत वाक्यरचना बांध
ऋ7 उ-माउमण्डलं (मातृमण्डलम् ) माउहरं (मातृगृहम् )
पिहरं (पितृगृहम् ) माउसिआ (मातृष्वसा) पिउसिआ (पितृष्वसा) पिउवणं (पितृवनम्)
पिउवई (पितृपतिः)
नियम १६४ (मातुरिद् वा १११३५) मातृ शब्द (गौण हो) तो उसके ऋकार को इकार विकल्प से होता है। ऋ7 इ----माइहरं, माउहरं (मातृगृहम् )
नियम १६५ (उदूदोन्मृषि १११३६) मृषा शब्द के ऋ को उ, ऊ और ओ होता है। ऋ7उ, ऊ, ओ-मुसा, मूसा, मोसा (मृषा) मुसावाओ, मूसावाओ, मोसा
वाओ (मृषावादः) नियम १६६ (इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथड-मृदङ्ग-नप्तृके ११३७) वृष्ट, वृष्टि, पृथक्, मृदङग और नप्तृक शब्दों के ऋकार को इकार और उकार होता है। ऋ7इ, उ-विट्ठो, बुट्ठो (वृष्ट:) । विट्ठी, वुट्ठी (वृष्टिः) पिहं, पुहं
(पृथक्) मिइंगो, मुइंगो (मृदङ्गः) । नत्तिओ, नत्तुओ (नप्तृकः) । नियम १६७ (वा बृहस्पती १११३८) बृहस्पति शब्द के ऋ को इ और उ विकल्प से होता है। ऋ7इ, उ-बिहप्फई, बुहप्फई, बहप्फई (बृहस्पति:)
नियम १६८ (इदेदोवृन्ते १११३६) वृन्त शब्द के ऋकार को इकार, एकार और ओकार होता है । ऋ7इ, ए, ओ-विण्टं, वेण्टं, वोण्ट (वृन्तम् )
नियम १६६ (रिः केवलस्य १३१४०) व्यंजन रहित केवल ऋ को रि होता है। ऋ7रि-रिद्धी (ऋद्धिः) । रिच्छो (ऋक्षः)
नियम १७० (ऋणर्वृषभत्र्वृषौ वा १।१४१) ऋण, ऋजु, ऋषभ, ऋतु और ऋषि शब्दो के ऋ को रि विकल्प से होता है। ऋ7रि-रिणं, अणं (ऋणम्) रिज्जु, उज्जु (ऋजुः) रिसहो, उसहो
(ऋषभः) रिऊ, उऊ (ऋतुः) रिसी, इसी (ऋषिः) ।
नियम १७१ (दृशः क्विप-टक्सकः १११४२) विप्, टक् और सक् प्रत्ययान्त दृश् धातु के ऋ को रि आदेश होता है। ऋ7रि---सरिवण्णो (सदृक्वर्णः) सरिरूवो (सदृक्पः ) सरिसो (सदृशः)
एआरिसो (एतादृशः) जारिसो (यादृशः) सरिच्छो (सदृक्षः)
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स्वरादेश ( ६ )
११३
नियम १७२ ( आवृते ढिः १११४३) आदृत शब्द के ऋ को दि आदेश होता हैं ।
ॠ / ठि-आढिओ (आदृतः )
नियम १७३ ( अरिर्वृप्ते १।१४४) दृप्त शब्द के ॠ को रि आदेश
होता है ।
ऋ / रि-दरिओ ( दृप्तः )
प्रयोग वाक्य
विमला ओट्ठरंजणेण ओट्ठा रंजइ । हैमं सितवण्णं भवइ सीयलं य देइ । पुप्फसारेण संपुरणं ठाणं सुगंधमयं जाअं । मेंहदी थीण पिआ अत्थि । छेंडेण थी सिरी भवइ । मोहणी दिवहे पंच तंबोलाई चरइ । दप्पणे (आयंसम्मि) farari फुडं दिसइ । जयमाला आमेलम्मि आमेलिअं लगावेइ । किं कवोल - रंजणं अग्घं ( मूल्यवान् ) अस्थि ? पाओ ( प्रायः ) कुमारीओ णहरंजणं करेंति । जणा चम्मस्स लुक्खयाए ( रूक्षता ) सरस्स पओगं करेंति । तेलम्म सुगंधो Hars rafi अभिहाणं अस्थि ? पूरणो नयणेसुं अंजणं देइ । सुलोअणा फणिण केसा सारइ ( संवारना ) । सिंदूरी सधवाए चिधं अस्थि । चुण्णअं सेअं संधइ |
धातु प्रयोग
araगा सावियाओ य टमकोरम्मि ग्रामम्मि आगमणस्स आयरिअं अभिपत्थंति । जो धम्मं परिच्चयइ सो दुही होइ । अहं सव्वं जाणामि तहवि तुं न जाणामि । बाला गिहे रमई । पुरिसा पगे परिअवंति उज्जाणे । अहं तुमं सव्वं अभिजाणामि । देवा असुरा य समुद्दं पमत्थीअ । सीसो गुरुं नमइ । जो सहइ परा सो सुही भवइ । अणिच्चवाई एवं आइक्खइ संसारे सव्वं अणिच्चं । प्राकृत में अनुवाद करो
होठों पर लिपस्टिक लगाना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है । स्नो से चिकना नहीं होता है । सरला इत्र का प्रयोग कभी-कभी करती है । सुमन आज मेंहदी क्यों नहीं लगाएगी ? जूडा से स्त्री को प्रसन्नता होती है । रमेश भोजन के बाद प्रतिदिन पान खाता है। छोटे दर्पण में भी चेहरा साफ दिखता है । किस प्रदेश में स्त्रियां केशों का जूडा बनाती हैं ? तुम रूज को किस प्रदेश से लाए हो ? नेलपालिश से नखों को लाल करना व्यर्थ है । क्रीम शीतकाल में विशेष बिकता है । तेल से केश चिकने होते हैं। अंजन से आंखें ठीक रहती हैं । आज तुम पुष्पमाला किसलिए लाए हो ? माता कंघी से लडकी के केश संवारती है । विधवा की ललाट में सिंदूर क्यों है ? पाउडर प्रत्येक आदमी को नहीं मिलता है ।
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११४
अव्यय का प्रयोग करो
वह सूत्र पढने के लिए गुरु से प्रार्थना करता है । क्या तुम हेमचंद्राचार्य को जानते हो ? बच्चे रात को क्यों खेलते हैं ? क्या अग्नि से सर्व वस्तु जल जाती है ? वह अपने पति के साथ घूमने जाती है । क्या तुम मुझे पहचानते हो ? एक बार खाने के बाद उसने उस वस्तु का परित्याग कर दिया । लीला सुबह दही का मन्थन करती है । मैं गौतम स्वामी ( गोयमसामि) को नमस्कार करता हूं । जो जितना (जेत्तिओ) बडा होता है उसे उतना ( तेत्तिओ) अधिक सहन करना होता है । गुरु शिष्य को धर्म का रहस्य कहते हैं ।
प्रश्न
१. ऋकार को इस पाठ में क्या-क्या आदेश हुआ है ?
२. किस शब्द के ऋकार को उ, ऊ और ओ होता है तथा किस शब्द के ऋकार को इकार, एकार और ओकार हुआ है तथा किस नियम से ? ३. पिउसिआ, सरिरूवो, रिच्छो, उसहो, पिउहरं, सरिच्छो, दरिओ - - इन शब्दों की सिद्धि करो ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
५. लिपस्टिक, स्नो, इत्र, मेंहदी, चूडा, पान, दर्पण, केशों का जूडा, रूज, नेलपॉलिश, क्रीम, तेल, अंजन, पुष्पमाला, कंघी, सिंदूर, पाउडर, शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
६. अभिपत्थ, अभिजाण, खण, परिच्चय, पमत्थ, डह, परिअट्ट धातु का क्या अर्थ है ? वाक्य में प्रयोग करो ।
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स्वरादेश (१०)
शब्द संग्रह (व्यापार वर्ग) बाजार-विवणि (पु. स्त्री) वणिअमग्गो ग्राहक–गाहगो दुकान—आवणो, हट्टो, अट्टयो
खरीदना—कयो व्यापार–ववहारो, वावारो, वाणिज्ज बेचना-विक्कओ व्यापारी-वावारी (पुं)
नगद-टंको लेनदेन-परियाणं
बेचनेवाला—विक्कइ (वि) खर्चा-परिव्वयो
धन-धणं आयात-आअअ (वि)
निर्यात-णिज्जायो ऋण-उल्लं
वस्तु-वत्थु कारखाना-कम्मसाला
रुपया-रूवगो, रूवगं व्याज-कलंतरं
आफिस-कज्जालयो
धातु संग्रह खिज्ज-खिन्न होना
तर—तैरना वरिस--वरसना
रुव-रोना सर-सरकना
अइ---उल्लंघन करना मर-मरना
पाउण-प्राप्त करना अज्ज-अर्जन करना स्वरादेश
ल को इलि आदेश । ए को इ, ऊ आदेश । ऐ को ए, इ, अइ, अअ, ई आदेश
नियम १७४ (लत इलिः क्लुप्त-पलन्ने १।१४५) क्लृप्त, क्लुन्न शब्दों के लु को इलि आदेश होता है। ल 7 इलि-किलित्त (क्लृप्तः) किलिन्न (क्लन्नः)
नियम १७५ (एत इद् वा वेदना-चपेटा-देवर-केसरे १३१४६) वेदना, चपे टा, देवर और केसर शब्दों के ए को इ विकल्प से होता है। ए78-विअणा, वेअणा (वेदना) चविडा, चवेडा (चपेटा) दिअरो, देवरो (देवरः) किसरं, केसरं (केसरम्)
नियम १७६ ( स्तेने वा १११४७) स्तेन शब्द के ए को ऊ विकल्प से होता है।
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११६
प्राकृत वाक्यरचना बोध ए7ऊ-थूणो, थेगो (स्तेनः)
नियम १७७ (ऐत एत् १११४८) आदि के ऐकार को एकार होता है। ऐ7 ए-सेला (शैलाः) तेलोक्कं (त्रैलोक्यम् ) एरावणो (ऐरावतः) केलासो (कैलासः) वेज्जो (वैद्यः) केढवो (कैटभः) वेहव्वं (वैधव्यम्)
नियम १७८ (इसैन्धव-शनैश्चरे १२१४६) सैन्धव और शनैश्चर शब्दों के ऐ को इकार होता है। ऐ7 इ-सिन्धवं (सैन्धवम् ) सणिच्छरो (शनैश्चरः)
नियम १७९ (सन्ये वा १११५०) सैन्य शब्द के ऐ को इ विकल्प से होता है। ऐ7 इ-सिन्नं, सेन्नं (सैन्यम्)
नियम १८० (अइ दैत्यादौ च १३१५१) सैन्य शब्द और दैत्य आदि शब्दों के ऐ को अइ आदेश होता है। ऐ7 अइ-सइन्नं (सैन्यम्) दइच्चो (दैत्यः) दइन्नं (दैन्यम्) अइसरिअं
(ऐश्वर्यम् ) भइरवो (भैरवः) वइजवणो (वैजवनः) दइवअं (दैवतम्) वइआलिअं (वैतालीयः) वइएसो (वैदेशः) वइएहो (वैदेहः) वइदब्भो (वैदर्भः) वइस्साणरो (वैश्वानरः) कइअवं (कैतवम्) वइसाहो (वैशाखः) वइसालो (वैशालः) सइरं (स्वरम् ) चइत्तं (चैत्यम्) । विश्लेषे अइ न भवति चेइअं (चैत्यम्) नियम १८१ [वैरादो वा १११५२] वैर आदि शब्दों के ऐ को अइ
आदेश विकल्प से होता है। ऐ7 अइ ---वइरं, वेरं (वैरम्) । कइलासो केलासो (कैलासः) कइरवं
केरवं (कैरवम्) वइसवणो, वेसवणो (वैश्रवण:) वइसम्पायणो वेसम्पायणो (वैशम्पायनः) वइआलिओ, वेआलियो (वैतालिकः) वइसि, वेसि (वैशिकम्) चइत्तो, चेत्तो (चैत्र:)। नियम १८२ [एच्च दैवे १२१५३] दैव शब्द के ऐ को ए और अइ
आदेश विकल्प से होता है। ऐ7ए, अइ—देव्वं, दइव्वं, दइवं (देवम्) ।
नियम १८३ [उच्चचिस्यमः १।१५४] उच्च और नीचे शब्दों के ऐ
को अअ आदेश होता है। ऐ-अअ-उच्चअं (उच्चैः) नीचरं (नीचैः)
नियम १८४ [ईद् धर्ये १११५५] धैर्य शब्द के ऐ को ईकार होता है। ऐ-ई-धीरं (धैर्यम्) प्रयोग वाक्य .
विवणिम्मि अणेगे आवणा संति । सो हट्टत्तो निसाए विलंबेण आयाइ ।
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स्वरादोष (१०)
११७ धणंजयो वावारकुसलो अत्थि । वावारी वाणिज्जेण धणं अज्जइ । जस्स वावारिणो परियाणं सुद्धं भवे सो कित्ती धणं य लभइ । अज्जत्ता जणा परिव्वयं अहियं करेंति । विजयो वत्थूई कयट्ट दक्खो (दक्ष) अत्थि । रामगोवालो आसा विक्कयट्ठणयरं गओ । कम्मसालाइ केत्तिआ जणा कज्जं कुणंति । वत्थवावारिणो अल्लं देति । कलंतरे तुज्झ केत्तिला रुवगा संति । भारहे सुवण्णस्स आअओ भवइ । सो वाणिज्यो निउणो (निपुण) जो गाहगा रित्तहत्था न पेसइ (भेजता है) । अमुम्मि अट्ट यम्मि टंकण परियाणं भवइ । सागविक्कई अमुम्मि गामम्मि को अत्थि ? भारहवासत्तो केसिं वत्थूण णिज्जायो भवइ । धातु प्रयोग
. तुज्झवयणं सुणिऊणं सो खिज्जइ । अज्ज कि मेहो वरसइ ? वीयराओ संसारसायरं तरिहिइ । एसो सप्पो कि जीवइ ? संसारी पाणी पइक्खणं (प्रतिक्षण) मरइ। पंचवरिसो केलासो कहं रुवइ ? सप्पो सणि सरइ । सो साहू णियमं जाणिऊण कहं अइइ ? सो रत्तिदिवहं धणं अज्जइ । किं सुरेसो धणेण पइ8 (प्रतिष्ठा) पाउणइ ? प्राकृत में प्रयोग करो
इस शहर के मुख्य बाजार में सब प्रकार की वस्तुएं मिलती हैं। व्यापार से धन बढता है । मेरा भाई कपडा खरीदने शहर में गया है। तुम कपडा बेचने यहां से कब जाओगे ? उसके तीन दुकाने हैं । बनिया लोग प्रायः व्यापार करते थे। सब जाति के लोग व्यापारी हो सकते हैं। उसके पास खर्च करने का धन नहीं है । तुम सौ रुपये का कितना ब्याज लेते हो ? भारत बंदरों का (वाणरा) निर्यात करता है। व्यापारी सोने का आयात करते हैं। तुम आज कर्ज से मुक्त (मुत्त) हो जाओगे। जो दूसरों से ऋण लेता है उसे व्याज देना होता है । मेरे पास नगद रुपया नहीं है। क्या तुम कारखाने में काम करना चाहते हो ? आज घी बेचने वाला कहां गया है ? धातु का प्रयोग करो
वह वाद-विवाद से खिन्न हो जाता है। आज दूध की वर्षा हुई है। वह अपने विचारों से थोडा भी नहीं सरकता है । जो मरता है वह वापस नहीं आता है। जो तैरता है वह पार जाता है। माता पुत्र की मृत्यु पर रोती है। जो प्रामाणिक होता है वह नियम का उल्लंघन नहीं करता। वह यश कमाता है । नीलम पुत्र को प्राप्त करती है।
प्रश्न
१. ल, ए और ऐ को क्या-क्या स्वर नित्य आदेश होते हैं ? एक-एक
उदाहरण दो।
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११८
प्राकृत वाक्यरचना बोध २. ए और ऐ को कौन से स्वर विकल्प से आदेश होते हैं ? उनके भी एक
एक उदाहरण दो। ३. "अइ दैत्यादौ च"--यह नियम क्या कहता है ? कोई पांच उदाहरण दो। ४. बाजार, दुकान, कारखाना, व्यापार, व्यापारी, लेनदेन, खरीदना, बेचना,
बेचने वाला, ऋण, नकद, आयात, निर्यात, ग्राहक, खर्च, रुपया और
कारखाना-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ? । ५. खिज्ज, वरिस, सर, तर, मर, रुव, अइ और पाउण-...इन धातुओं के अर्थ
बताओ और उनका वाक्य में प्रयोग करो। ६. उवसालं, छायणं, मूसा, किट्ट, दूसिआ, भमली, आमेलो, सरो-इन शब्दों
का वाक्य में प्रयोग करो और हिन्दी में अर्थ बताओ।
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३४
विद्याविज्जा कालेज ---महाविज्जालयो
कक्षा-कक्खा कालांश - समय विभागो
प्रिंसिपल -- -- पहाणसिक्खवओ कुलपति कुलवई (पुं)
स्नातक-- हाओ
उत्तीर्ण- उत्तिष्णं
स्वरादेश (११) शब्द संग्रह (विद्यालय )
प्रश्नपत्र --- पण्हपत्तं कलम - लेहणी स्याही - मसी (स्त्री) गुरु, अध्यापक — उवज्झायो
सिक्खवओ
उत्तर-- उत्तर देना
अग कर --- नकल करना
मुस—- चुराना
अइगच्छ — गमन करना
विद्यालय - विज्जालय (पु. न. ) पाढसाला विश्वविद्यालय --- विस्सविज्जालयो ( सं ) -छत्तो, विज्जट्ठि (पुं) वस्ता-वेणं (सं)
छात्र
विभागाध्यक्ष - विभागाज्झक्खो (सं)
पुस्तक-पोत्थयं
वेतन-वेयणं
प्रश्न - पण्हो, पहा छुट्टीपत्र —– अवगासपत्तं परीक्षा-परिक्खा
बोर्ड फलगं
इन्सपेक्टर - णिरिक्खओ (सं)
उत्तर पत्र - उत्तरपत्तं
धातु संग्रह
निक्कस — बाहर निकलना पहुच्च — पहुंचना अइक्कम - अतिक्रमण करना अंगीकर — स्वीकार करना अक्कम --- आक्रमण करना
अंच, अच्च ---- पूजा करना ओ को अ, ऊ, अउ, आअ आदेश
औ को ओ, उ, आ, अउ, आव आदेश
नियम १९८५ ( ओतोद् वान्योन्य - प्रकोष्ठातोद्य-शिरोवेदना-मनोहरसरोरुहे क्तोश्च वः १।१५६ ) अन्योन्य, प्रकोष्ठ, आतोद्य, शिरोवेदना, मनोहर, सरोरुह - इन शब्दों के ओकार को अ विकल्प से होता है ।
ओ 7 अ -- अन्नन्नं, अन्नुन्नं (अन्योन्यं) पवट्ठो, पउट्ठो ( प्रकोष्ठः) आवज्जं आउज्जं (आतोद्यं) सिरविअणा, सिरोविअणा ( शिरोवेदना ) मणहरं मोहरं ( मनोहरं ) सररुहं, सरोरुहं ( सरोरुहं )
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१२०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम १८६ ( ऊत्सोच्छ्वासे १।१५७) सोच्छ्वास के ओ को ऊ होता
है ।
ओ / ऊ - सूसासो ( सोच्छ्वासः )
नियम १८७ ( गव्य आभः १।१५८ ) गो शब्द के ओ को अउ और आअ आदेश होता है ।
ओ 7 अउ, आअ -- गउओ, गाओ (गौः) स्त्रीलिंग में गउआ
नियम १८८ ( औत ओत् १।१५६ ) शब्द के पहले (आदि) ओकार को ओकार हो जाता है ।
औ 7 ओ --- कोमुई ( कौमुदी) जोव्वणं ( यौवनं ) कोत्थु हो ( कौस्तुभः) कोसंबी ( कौशाम्बी) कोञ्चो ( क्रौञ्चः ) कोसिओ ( कौशिकः )
नियम १८६ ( उत्सौन्दर्यादौ १११६०) सौन्दर्य आदि शब्दों के ओ को उ होता है ।
ओ 7 उ — सुंदेरं, सुन्दरिअं
( सौन्दर्यं ) मुञ्जायणो (मौञ्जायनः) सुण्ढो ( शौण्ड ) सुद्धोअणी (शौद्धोदनी) दुवारिओ ( दौवारिकः) सुगंध - तणं (सौगन्ध्यं ) पुलोमी ( पौलोमी ) सुवण्णिओ ( सौवर्णिकः ) नियम १६० (कौक्षेयक वा १।१६१) कौक्षेयक शब्द के औ को उद् विकल्प से होता है । औ/उ—कुच्छेअयं, कोच्छेअयं ( कौक्षेयकम् )
नियम १०१ ( अउ : पौरादौ च १।१६२) कौक्षेयक और पौर आदि शब्दों के औ को अउ आदेश होता है ।
- उच्छेअयं ( कौक्षेयकं ) पउरो (पौरः) कउरवो ( कौरवः ) कउसलं (कौशलम् ) परिसं [पौरुषम् ] गउडो [गौड: ] मडली [ मौलिः ] मउणं [ मौनम् ] सउहं [ सोधम् ] सउरा [ सौराः ] कला [ कौला: ]
नियम १६२ ( आच्च गौरवे १११६३) गौरव शब्द के औ को आ और अउ आदेश होते है ।
औ 7 आ-- गारवं, गउरखं [गौरवम् ]
औ 7 अउ ---
नियम १९३ ( नाव्यावः १।१६४ ) नौ शब्द के औ को आव आदेश
होता है ।
औ / आव - नावा [नौ: ]
प्रयोग वाक्य
सो विज्जं पढिउ णिच्चं विज्जालयं गच्छइ । अभयो कया महाविज्जलयं पविस्सइ ? किं विभा कक्खाए पढमा भविस्सर ? एगम्मि दिणे खाइ केत्ति समयविभागा भवंति । विमला जेणविस्सभारइए विस्सविज्जालयस्स छत्ता अत्थि । संपइ अस्स विस्सविज्जालयस्स महाकुलवई सिरीसिरीचंदो
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स्वरादेश (११)
१२१ रामउरिआ अत्थि । तुज्झ महाविज्जालयस्स पहाणसिक्खवओ को अत्थि ? ण्हायअछत्तो विजयो अइविचक्खणो अस्थि । पण्हपत्ताई कया पुण्णाइं भविहिति ? उत्तरपत्ताइ को को निरिक्खिस्संति ? गुरु विज्जट्टिणो अणुसासइ । आणंदो लेहणीए धणी अस्थि । आवणे अणेगेसु रंगेसु मसी लभइ। अज्जत्ता सत्तवरिसस्स बालअस्स पासे वेटुगे पोत्थयाण भारो बहू भवइ। कल्लं पाढसालाए णिरिक्खओ आगमिहिइ । अमुम्मि महाविज्जालयम्मि वागरणस्स विभागाज्झक्खो को अत्थि ? परिक्खाए भूओ छत्ताण सिरे णच्चइ । तुम अवगासपत्तं लिह । उवज्झायेण फलगे किं लिहिलं ? अस्थि पण्हो विज्जालये छत्ताण अणुसासणस्स सव्वेसिं समक्खे । धातु का प्रयोग
णोहा सासूए एगमवि वक्कं न सहइ तक्खणं उत्तरइ। रमेसो बालो अत्थि तहवि पाढसालाए पोत्थयं लेहणि वा अवस्सं मुसइ । असोगो मोहणं धारइ । धणवालो पइदिणं अइगच्छइ । सुसीला गुरुं अंचइ अच्चइ वा। अग्गित्तो फुल्लिगा निक्कसंति । तुमं कल्लं वाराणसिं पहुच्चिहिसि । तुज्झ सव्वं आणं हं अंगीकरेमि । भारहो कस्स देसस्स अवरि न अक्कमइ । गुरुणो आएसं अहं न अइक्कमामि । छत्ता परिक्खाए अणुकरेंति । प्राकृत में अनुवाद करो
_हमारा विद्यालय गांव के बाहर है। कक्षा में आज अध्यापक नहीं है। विद्या के बिना सम्मान नहीं मिलता ! पुस्तक को अच्छी तरह पढो। कालेज के छात्र आज कहां गए हैं ? आज किसी ने छुट्टीपत्र नहीं दिया। वह कलम से पत्र लिखता है । इस वेतन से घर का खर्च भी नहीं चलता। परीक्षा में उत्तीर्ण होना सरल नहीं है। मेरा भाई कॉलेज में पढता है । कक्षा में बुद्धिमान (बुद्धिमंत) लडका कौन है ? अध्यापक विद्यार्थियों को क्यों मारता है ? प्रिंसिपल का अनुशासन लडके मानते हैं। तुम कौन से कालांश में पढाते हो। मैं स्नातक की परीक्षा में उत्तीर्ण हूं। हमारे प्रश्नपत्र स्कूल से बाहर के अध्यापकों ने बनाये हैं। हमारे उत्तरपत्रों को मैं नहीं देखूगा। विश्वविद्यालय का महत्त्व [महत्तणं] तुम नहीं जानते हो। मेरे वस्ते में तुम्हारी पुस्तकें कहां से आई ? इन्सपेक्टर ने मुझे एक प्रश्न पूछा। विभागाध्यक्ष होना सरल कार्य नहीं है । एक दिन तुम भी कुलपति बनोगे । छुट्टीपत्र के बिना स्कूल में न जाना अच्छा नहीं है । अध्यापक बोर्ड पर लिखकर अपने विषय को सरलता से समझाता है। धातु का प्रयोग करो
तुम्हारे प्रश्न का मैं उत्तर नहीं दूंगा। घडे से पानी निकलता है। वह परसों यहां पहुंचेगा । दिनेश आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। बच्चे
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१२२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
पुस्तक क्यों चुराते हैं ? तुम परीक्षा में नकल क्यों करते हो ? ऋषभ गुरु की पूजा करता है । तुम अपने घर कल कब जाओगे ? पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था । पति पत्नी की सब बात स्वीकार करता है ।
प्रश्न
१. इस पाठ में अउ और आउ आदेश किस स्वर को हुआ है ?
२. ओकार और औकार स्वर को आदेश होने वाले स्वरों में कहां समानता है और कहां भिन्नता है ? उदाहरण दो ।
३. गउडो, मउली, पुलोमी, सुद्धोअणी, सउहं शब्द किस स्वर के आदेश बने हैं ।
४. विद्या, विद्यालय, कालेज, विश्वविद्यालय, कालांश, प्रिंसिपल, कुलपति, स्नातक उत्तीर्ण, प्रश्नपत्र, उत्तरपत्र, छात्र, वस्ता, इन्स्पेक्टर, विभागाध्यक्ष, पुस्तक, छुट्टीपत्र, छात्र, बोर्ड, प्रश्न और परीक्षा- इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
५. उत्तर, निक्कस, मुस, अइगच्छ, अक्कम, पहुच्च और अइक्कम इन धातुओं के अर्थ बताओ ।
६. एक विषय से सम्बन्धित पांच वाक्य अपनी इच्छानुसार बनाओ ।
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३५ प्रारम्भिक सरल व्यंजन परिवर्तन
शब्द संग्रह (जलाशय वर्ग) समुद्र--- समुद्दो, सायरो
नदी-नई तालाब-तडाओ, तलायो, सरं कुंआ-कूवो, अगडो, अवडो नहर-कुल्ला
छोटा कुंआ----कूविया निर्झर---अवज्झरो, ओझरो
छोटा प्रवाह-ओग्गलो प्याऊ-पवा
पुष्करणी-पोक्खरिणी वावडी-वावी
टंकी-जलसंगहालयो (सं)
बांध-बंधो (सं) नल-णलं
धातु संग्रह वह-बहना
पमज्ज-साफ सुथरा करना अक्कोस----गाली देना
पमा---सत्य-सत्य ज्ञान करना अक्खिव-फेंकना
पत्थ-प्रार्थना करना आलिह-चित्र बनाना
थक्क---थकना अच्चीकर-प्रशंसा करना खुशामद करना अणुकंप-दया करना प्रारंभिक सरल व्यंजन परिवर्तन
___ असंयुक्त व्यंजन या स्वर सहित व्यंजन को सरल व्यंजन कहते हैं । शब्द के आदि में होने वाले व्यंजनों में सामान्य रूप से न, य श और ष व्यंजनों में परिवर्तन होता है । कहीं-कहीं क और प व्यंजन में भी परिवर्तन मिलता है। विशेष व्यंजन (शब्द विशेष) में क को ग और च, ज को झ, त को च और ह, द को ड, ल को ण, व को भ, य को ल और त, श को छ परिवर्तन होता है।
नियम १९४ (वादौ ११२२६) शब्द के आदि में होने वाले न को ण विकल्प से होता है। न7 ण -- णरो, नरो (नरः) णई, नई (नदी) णिसण्णो, निसण्णो (निषण्णः)
णुमण्णो, नुमण्णो (निमग्नः) ।
नियम १९५ (भावेर्यो नः १२४५) शब्द के आदि में होने वाले य को ज हो जाता है। य>ज-जसो (यशस्) जई (यतिः) जमो (यमः) जाई (जातिः)
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१२४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(बहुलाधिकारात् सोपसर्गस्यानादेरपि १२२४५ वृत्ति)
उपसर्ग सहित पद के अनादि य को कहीं प्रारंभिक और कहीं मध्यवर्ती माना जाता है । जैसे--संजमो (संयमो) अवजसो (अपयशः) ।
नियम १९६ (शषोः सः ११२६०) श और ष को स हो जाता है । श7 ष-सद्दो (शब्दः) सामा (श्यामा) सुद्धं (शुद्धम् ) सोहइ (शोभते) 47 स-सण्ढो (षण्ढः) सण्डो (षण्ड:) सज्जो (षड्जः)
नियम १९७ (कुब्न-कर्पर-कोले कः खोपुष्पे १२१८१) कुब्ज, कर्पर और कील के क को ख होता है । कुब्ज शब्द पुष्प के अर्थ में न हो तो। क7 ख--खुज्जो (कुब्जः) खप्परं (कर्परम्) खीलओ (कोलकः)
नियम १९८ (पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः ११२३२) पाटि (पट धातु मिन्नन्त) परुष, परिघ, परिखा, पनस, पारिभद्र शब्दों के प को फ हो जाता है। 47फ-फरुसो (परुषः) फलिहो (परिघः) फलिहा (परिखा) फणसो
(पनसः) फालिहद्दो (पारिभद्रः)।
नियम १९६ (मरकत-मवकले गः कन्दुके स्वावेः १११८२) मरकत मदकल और कन्दुक के पहले क को ग होता है। क7 ग----मरगयं (मरकतं) मयगलो (मदकलः) गेन्दुअं (कन्दुकम्)।
नियम २०० किराते च (१११८३) किरात शब्द के क को च होता
क7च-चिलाओ (किरातः)
नियम २०१ (जटिले जो झो वा १११९४) जटिल शब्द के ज को झ विकल्प से होता है। ज7झ-झडिलो, जडिलो (जटिलः)
नियम २०२ (तुच्छे तरच-छौ वा ११२०४) तुच्छ शब्द के त को च और छ विकल्प से होता है। ताच, छ-चुच्छं, छुच्छं (तुच्छम् )
नियम २०३ (तगर-सर-तूबरे वा १२२०५) तगर, तसर और तूवर के त को ट होता है। त73-टगरो (तगरः) टसरो (त्रसरः) टूवरो (तूवरः)
नियम २०४ (दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-बाह-दम्भ-वर्भ-कवन-दोहदे दो वा डः ११२१७) इन शब्दों के द को ड विकल्प से होता है। द73-डसणं, दसणं (दशनम् ) डट्ठो, दट्टो (दष्टः) डड्ढो, दड्ढो (दग्धः)
डोला, दोला (दोला) डण्डो, दण्डो (दण्ड:) डरो, दरो (दरः) डाहो, दाहो (दाहः) डम्भो, दम्भो (दम्भः) डब्भो, दम्भो (दर्भः) डोहलो, दोहलो (दोहदः)।
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प्रारंभिक सरल व्यञ्जन परिवर्तन
१२५ नियम २०५ (वंश-दहोः ११२१८) दंश और दह धातु के द को ड होता है। द73-डसइ (दशति) डहाइ (दहति)
नियम २०६ (निम्ब-नापिते ल-ग्हं वा १२३०) निम्ब के न को ल और नापित के न को ण्ह आदेश विकल्प से होता है। न7ल, पह-लिम्बो, निम्बो (निम्बः) ण्हाविओ, नाविओ (नापितः) ।
नियम २०७ (बिसिन्यां भः ११२३८) बिसिनी के ब' को भ होता है। ब74--भिसिणी (बिसिनी)
नियम २०८ (प्रभूते वः ११२३३) प्रभूत शब्द के प को व होता है । 474-वहुत्तं (प्रभूतम्) ।
नियम २०६ (मन्मथे वः ११२४२) मन्मथ शब्द के आदि म को व होता है। म.74-वम्महो (मन्मथः)
नियम २१० (यष्ट्यां लः १२४७) यष्टि शब्द के य को ल होता है । य7ल-लट्ठी (यष्टिः)।
नियम २११ (युष्मद्यर्थपरे तः १।२४६) युष्मद् शब्द युष्मद् अर्थ में हो तो य को त हो जाता है । य7 त-तुम्हारिसो (युष्मादृशः) तुम्हकेरो (युष्मदीयः) ।
नियम २१२ (लाहल-लाल-लाङ्गले वादेणः ११२५६) लाहल, लाङ्गल, लाङ गूल शब्दों के आदि ल को ण विकल्प से होता है।। ल7ण---णाहलो, लाहलो (लाहलः) णङ्गलं, लङ्गलं (लाङ्गलम् ) णङ गूलं,
लङ गूलं (लाङ्गूलम्)
नियम २१३ (ललाटे च १२२५७) ललाट शब्द के आदि ल को ण आदेश होता है। ल7ण-णडालं, णिडालं (ललाटम्)।
दियम २१४ (षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपणेष्वावश्छः ११२६५) इन शब्दों के आदि वर्ण ष, श और स को छ आदेश होता है। श, ष, स70-छट्टो (षष्ठः) छप्पओ (षट्पदः) छम्मुहो (षण्मुखः) छमी
(शमी) छावो (शावः) छुहा (क्षुधा) छत्तिवण्णो (सप्तपर्णः)।
नियम २१५ (शिरायां वा ॥२६६) शिरा शब्द के आदि श को छ विकल्प से होता है। श7छ-छिरा, सिरा (शिरा)। वाक्य प्रयोग
समुदस्स नीरं महुरं नस्थि । अस्स गामस्स बाहिं नई वहइ । मेहं विणा
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१२६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
तलायो सुक्को जाओ । कूवस्स अस्स सलिलं अइमहुरं अस्थि । इंदिराकुल्ला इमम्मि गामम्मि कया आगमिस्सर ? मरुभूमिवासिणो किंचिव रिसपुष्वं तडाअस्स नीरं पिर्विसु । गिम्हकाले ठाणे-ठाणे पवा भवइ । अवज्झरं दट्ठ मज्झ मणो उच्छुओ अस्थि । इमम्मि णयरे पुव्वं फलिहा आसि । मज्झ गिहे कूविया नत्थि । णेण वाउलिया पूरिया । गामस्स बाहि ओग्गलो वहइ । कुंडस्स जलं परिमिअं भवइ | मरुभूमीए णलस्स उवओगो अहियो होइ । गामे गामे जलसंग्रहालयो विज्जइ । बंधस्स उवओगो वि अस्थि, परं कयाइ तेणं हाणी वि भवइ । धातु प्रयोग
1
कंती विमलं अक्कोसइ । सो मज्झ पोत्थयं अक्खिवइ । मोहणी सेट्ठि अच्चीकरेइ । जयंती संमज्जणीए गिहं पमज्जइ । लोआ बालमणि पत्थंति आयरियस सेव । अप्पेण परिस्समेण महेसो थक्कइ । साहू पाणेसुं अणुकंपइ । अहं पमामि तुमं तथा अत्थ आसि । अम्हे आयरियं अच्चीकरेमु । सो महावीरं आलिहइ ।
प्राकृत में अनुवाद करो
समुद्र अपनी सीमा (सीमा) में रहता है इसलिए लोग उस पर विश्वास करते हैं । नदी सब के हित के लिए बहती है । इस गांव में एक छोटा तालाब है । गांव के बाहर जो कुंआ है उसका पानी पीने योग्य है । हमारे शहर के चारों ओर न तो नदी है और न नहर है । तुम्हारे छोटे कुंए का पानी जल्दी सूख जाता है । हमारे क्षेत्र में अब वापी की आवश्यकता नहीं है । पुष्करिणी यहां से कितनी दूर है । प्याऊ की उपयोगिता मरूभूमि में होती है । निर्झर को देखने कौन-कौन जाएंगे ? खाई को लांघना सरल कार्य नहीं है । छोटी खाई में कितना पानी है ? वर्षा के अभाव में मरुभूमि के लोग कुंड का पानी पीते हैं । नल का पानी सीधा जमीन से आता है। बांध टूटने से गांव के गांव (अणेगे गामा ) डूब जाते हैं । टंकी का पानी स्वच्छ किया हुआ होता है ।
I
धातु का प्रयोग करो
पर पत्थर फेंका । जो
तुमने उसको गाली दी इसलिए वह तुम्हारे पास नहीं आता है । राजस्थान में कितनी नदियां बहती है ? बालक ने वृक्ष खुशामद करता है वह अपना कार्य बना लेता है । उसने ज्ञान किया। क्या तुम पदयात्रा से थकते हो ? गुरु शिष्य साधु अपने स्थान का प्रमार्जन करता है । तुम किसका चित्र बनाते हो ?
वस्तुस्थिति का सही
पर दया करता है ।
प्रश्न
१. सरल व्यंजनों का प्रारम्भ में क्या परिवर्तन होता है ?
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प्रारंभिक सरल व्यञ्जन परिवर्तन
१२७ . २. उपसर्ग सहित सरल व्यंजन को प्रारम्भिक मानते हैं या नहीं ?
उदाहरण सहित इसे स्पष्ट करो। ३. खुज्जो, चिलाओ, सामा, गेन्दुअं, टसरो, झडिलो, डब्भो, बहुत्तं,
वम्महो, तुम्हकेरो-इन शब्दों को सिद्ध करो और बताओ किस नियम से किस शब्द को क्या आदेश हुआ है। ४. नहर, प्याऊ, निर्झर, समुद्र, नदी, तालाब, छोटा कुंआ, छोटी खाई, कुंड, कुंआ, खाई, बांध, नल, टंकी--इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द
बताओ? ५. अक्कोस, अक्खिव, अच्चीकर, पमज्ज, पमा, थक्क, आलिह और पत्थ धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयुक्त करो।
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३६ मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन ( १ )
वस्त्र — वत्थं, वसणं ऊनी वस्त्र - रोमजं, ओण्णेयं
मोटा वस्त्र - पत्थीणं धोया वस्त्र - धोअवत्थं जोड़े हुए वस्त्र --- - डंडी पेटीकोट - अंतरिज्जं
ओढनी -- ओयड्ढी (दे.) लहंगा-चलणी, चंडातकं सलवार- सूअवरो (सं)
o
जनता • जणया
मूल्य - मुल्लो
अणुकड्ढ — खींचना
अणुग्ग - कृपा करना अच्छ— बैठना
शब्द संग्रह (वस्त्रवर्ग १ )
परिहा—पहरना बुक्क - भूकना ( कुत्ते का )
मध्यवर्ती व्यंजन
सूती वस्त्र - कप्पासं रेशमी वस्त्र — कोसेयं बूटेदार कौसुंभ वस्त्र — घट्टंसुओ बारीक वस्त्र --- - पम्हयो
कोरा वस्त्र -- अणाय वत्थं
साडी - साडी
घाघरा - घग्घरं चोली, ब्लाउज - -कंचुलिया अण्डरवीयर, चड्डी - अद्धोरुगो अड्ढोरुगो
सेवा-परिचरणा
धातु संग्रह
अणु गिल - भक्षण करना अणुचर - सेवा करना
बंध - बांधना बिह-पोषण करना
शब्द के मध्य में होने वाले यानी दो स्वरों के बीच में होने वाले सरल व्यंजनों का परिवर्तन मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन कहलाता है । उनके नियम इस प्रकार हैं
नियम २१६ (क-ग-च-ज-त-द-पय-वां प्रायो लुक् १।१७७ ) स्वर से परे अनादिभूत तथा असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य, व — इन व्यंजनों का प्राय लोप हो जाता है ।
क 7 लोप -- लोओ (लोक: ) तित्थयरो ( तीर्थकर : ) सयढो ( शकट : ) ।
ग 7 लोप -- नयरं ( नगरम् ) भइणी ( भगिनी) नओ (नगः ) ।
च 7 लोप -- कयग्गहो ( कचग्रहः ) वयणं ( वचनम् ) कायमणी ( काचमणिः ) |
०
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AA
मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (१)
१२६ जालोप–रययं (रजतम्) पयावई (प्रजापतिः) गओ (गजः)। . त >लोप-लया (लता) विआणं (वितानम्) रसायलं (रसातलम्) । द7 लोप-गया (गदा) मयणो (मदनः) जइ (यदि) । 47 लोप-रिऊ (रिपुः) सुउरिसो (सुपुरुषः) । य 7 लोप-विओओ (वियोग:) वाउणा (वायुना) । 47 लोप-लायण्णं (लावण्यम्) विउहो (विबुधः) ।
नियम २१७ (अवर्णों य श्रुतिः १११८०) अ तथा आ से परे व्यंजन के लोप होने के बाद शेष अ या आ रहे तो उसे अ के स्थान पर य और आ के स्थान पर या हो जाता है। उसे यति कहते हैं। अ7य-तित्थयरो, नयरं, कायमणी, रययं, पयावई, रसायलं, मयणो, गया,
दयालू, लायण्णं ।
नियम २१८ (नावात पः १३१७९) अवर्ण से परे अनादि प का लोप नहीं होता है।
नियम २१६ (पो वः ११२३१) स्वर से परे असंयुक्त और अनादि प को व होता है। प74-सवहो (शपथः) सावो (श्रापः)। उवसग्गो (उपसर्ग:) पईवो
(प्रदीपः) पावं (पापम्) उवमा (उपमा)।
नियम २२० (ख-घ-थ-ध-माम् ॥१८७) स्वर से परे असंयुक्त और अनादि ख, घ, थ, ध और भ को ह हो जाता है। खगह-साहा (शाखा) मुह (मुखम् ) मेहला (मेखला)। घ7ह-मेहो (मेघः) जहणं (जघनम्) माहो (माघः) । थाह-नाहो (नाथः) आवसहो (आवसथः) मिहुणं (मिथुनम्)। ध7ह–साहू (साधुः) बहिरो (बधिरः) इन्दहणू (इन्द्रधनुः) । भाह-सहा (सभा) सहावो (स्वभाव:) नहं (नभः)।
नियम २२१ (टो डः १११६५) स्वर से परे असंयुक्त अनादि ट को ड होता है। 27T-नडो (नटः) भडो (भट:) घडो (घट:) घडइ (घटते) ।
नियम २२२ (ठो : ११६६) स्वर से परे असंयुक्त अनादि ठ को ढ होता है। 876-मढो (मठः) सढो (शठः) पढइ (पठति) कमढो (कमठः) ।
नियम २२३ (डोलः १२२०२) स्वर से परे असंयुक्त अनादि ड को ल होता है। 17ल-तलायं-- (तडागम्) गरुलो (गरुडो)।
नियम २२४ (नो णः ११२२८) स्वर से परे असंयुक्त अनादि न को
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
ण होता है। नगण-मयणो (मदनः) वयणं (वदनम्) नयणं (नयनम् ) वणं (वनम्)।
नियम २२५ (फो भ-हो १२३६) स्वर से परे असंयुक्त अनादि फ को भ और ह हो जाता है। फ7 भ, ह--रेभो (रेफः) सिभा (शिफा), मुत्ताहलं (मुक्ताफलम् ) सभलं,
सहलं (सफलम्)।
नियम २२६ (बो वः श२३७) स्वर से परे असंयुक्त अनादि ब को व होता है। अलावू (अलाबू) सवलो (शबलः), कवरी (कबरी) सिविया (शिविका)।
नियम २२७ (यमुना-चामुण्डा-कामुकातिमुक्तके-मोनुनासिकश्च १।१७८) यमुना, चामुण्डा, कामुक और अतिमुक्तक के म का लुक् होता है और म के स्थान पर अनुनासिक होता है। म7 अनुनासिक-जउणा (यमुना) चाउण्डा (चामुण्डा) का उओ (कामुकः)
अणिउतयं (अतिमुक्तकं)। कहीं पर नहीं भी होता-अइमुंतयं, अइमुत्तयं ।
(शषो स: १२६०) नियम १९६ के अनुसार--- श7 स-निसंसो (नृशंसः) कुसो (कुशः) वंसो (वंशः) दस (दशन् ) देसो (देशः)। ष 7 स-निहसो (निकषः) कसाओ (कषायः) ।
कभी-कभी अव्ययों के प्रारंभिक व्यंजनों के साथ मध्यवर्ती व्यंजनों की तरह व्यवहार किया जाता है।
अवि अ (अपि च) सो अ (स च) स उण (स पुनः) ।
समस्त पद में द्वितीय पद के आदि व्यंजन को आदि एवं मध्यवर्ती दोनों माना जाता है
सुहयरो, सुहकरो (सुखकरः) जलयरो, जलचरो (जलचरः) । प्रयोग वाक्य
संसारे को वत्थाइं न परिहाइ ? ओण्णेयं संपइ मलिणं जाअं तं तुम कया पक्खालि हिसि ? कोसेयं हिंसाजण्णं भवइ अओ अस्स उवओगो अहिंसगस्स न सोहइ। अहं पत्थीणं परिहाउ अहिलसामि । किं तुमं पइदिणं धोअवत्थं परिहासि ? डंडीए वत्थाण वयो वड्ढइ। सुसीला पत्थीणं चंडातकं परिहाइ । विमला गिहे सूअवरो वि परिहाइ। कप्पासवत्थं गिम्हकाले सत्थस्स हिअं भवइ । संपइ साहुणो घटुंसुअं न परिहांति । गिम्हकाले पम्हयं अहिलसंति जणा । अणाहय वत्थं नव्वमवि मलिणं व्व भाइ। अंतरिज्जं अंतरेण साडी न सोहइ । महिलाओ घग्घरस्स उवरि ओयड्ढि धरइ । थीणं कंचुलिया आवस्सग वत्थं अस्थि । विमलो अद्धोरुगं परिहाइ ।
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मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (१) धातु प्रयोग
____बालो जणणीए हत्थं अणुकड्ढइ । आयरिओ सीसं अणुग्गइ जं अक्खरबोहं देइ । साहू लुक्कसाहुं अणुचरइ । लुक्का साहुणी परिचरण→ आयरियाण निवेअइ । सो पगे दुद्धं अणु गिलइ । बहिणीआ पण्डं पुच्छिउ गुरूण समीवं अच्छंति । तित्थअरस्स भासणं जणयं बंधइ । कुक्कुरो अपरिचियं जणं दळूण बुक्कइ । प्राकृत में अनुवाद करो
शुद्ध वस्त्र को किसने मलिन किया ? कोरे वस्त्र का रंग कैसे बदलता है (परिअट्टइ) ? धोया वस्त्र रमेश को प्रिय लगता है । सूती वस्त्र शीतकाल में गर्म रहता है। साधु और साध्वी ऊनी वस्त्र रखते हैं। रेशमी वस्त्र सब लोगों के लिए सुलभ नहीं है। गांधीजी मोटा कपडा पहनते थे। स्त्रियां डंडी वस्त्र को रुचि से पहनती हैं । बंटेदार कौसुंभ वस्त्र कौन पहनना चाहता है ? बारीक वस्त्र से शरीर स्पष्ट दीखता है। धोया हुआ वस्त्र पहनने से आदमी का रूप अच्छा लगता है। मैं कोरा वस्त्र पहनना नहीं चाहता । तुम्हारी माता ने धोती (अहोवत्थं) में डंडी देकर पहनने योग्य बना दिया । तुम्हारी साडी कितने रुपयों की है ? माता घाघरा ही पहनना चाहती है। तुम्हारी चाची की चोली किसने धोयी है ? भाभी की ओढनी का रंग क्या है ? तुम्हारी बहन अण्डरवीयर पहनती है। लहंगे का मूल्य कितने रुपए हैं ? तुम यह पेटीकोट किसके लिए लाए हो ? धातु का प्रयोग करो
__ ललिता कुंए से पानी खींचती है। वह द्रव पदार्थ को खाता है। गुरु ने शिष्य पर कृपा की और उसे निकट वंदना करने की आज्ञा दी। जो सेवा करता है वह बहुत बडा लाभ कमाता है (अर्जन करता है)। माता बच्चे का पोषण करती है । प्रतिक्रमण में वह बैठता है और उठता है । जो अशुभ कर्म बांधता है वह भोगकाल में परिताप करता है। सुशील छुट्टीपत्र लिखकर अध्यापक से प्रार्थना करता है कि मेरी छुट्टी स्वीकार करें। कुत्ता कुत्ते को देखकर भुंकता है।
प्रश्न १. स्वर से परे मध्यवर्ती शब्द क, ग, त, द, प आदि व्यंजन हो तो किस स्थिति में उनका लोप होता है और किस स्थिति में नहीं ? तीन
उदाहरण दो। २. प का लोप कहां होता है ? और कहां उसको व आदेश होता है ? ३. किस शब्द के अनादि वर्ण ख को ह होता है ? उदाहरण दो। ४. मध्यवर्ती व्यंजन असंयुक्त हो तो किस वर्ण को क्या आदेश होता है ?
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
इस पाठ से एक-एक उदाहरण दो। ५. वस्त्र, ऊनी वस्त्र, सूती वस्त्र, रेशमी वस्त्र, बूंटेदार कौसुंभ वस्त्र,
मोटा वस्त्र, बारीक वस्त्र, धोया वस्त्र, कोरा वस्त्र, साडी, लहंगा, पेटीकोट, घाघरा, ओढनी, चोली, सलवार, अण्डरवीयर--इन शब्दों
के लिए प्राकृत शब्द क्या है ? ६. अणुकड्ढ, अणुग्ग, अच्छ, परिहा, बुक्क, अणुगिल, अणुचर, बंध, बिह
धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ७. परिव्वयो, रूवगं, परियाणं, फलगं, पहाओ, कुल्ला, ओग्गलो जलसंगहालयो-इन शब्दों का वाक्य में प्रयोग करो और हिन्दी में अर्थ बताओ।
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३७ मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (२)
शब्द संग्रह (वस्त्र वर्ग २) टोपी-सिरक्कं
टोप-सिरत्ताणं दुपट्टा-उत्तरीयं, उत्तरिज्ज चादर-पच्छयो पैट-अप्पईणं (सं)
पतलून-पतलूणो (सं) वासकट-~-वासकडी (सं) शेरवानी--पावारओ रजाई-नीसारो (सं)
तकिया-उवहाणं पगडी-उण्हीसं
धोती-अहोवत्यं, कडिवस्थं पायजामा-पायजामो
कुर्ता-कंचुओ रूमाल-पडपुत्तिया
तोलिया, अंगोछा-अंगपुच्छणं कौपीन-अवअच्छं (दे.) ओवरकोट-बुहइया (सं) रात्रिपौशाक-नत्तवेसो (सं)
रक्षा-ताणं
चिकना–सण्ह (वि) घर्षण-घसणं, घसणं
धातु का प्रयोग बाह-पीडा करना
पोस-पुष्ट होना फेल्लुस-फिसलना
पिंज-रुई धुनना फरिस--छूना
पाल-पालन करना फट्ट-फटना, फूटना
आरंभ-आरम्भ करना पागड-प्रकट करना क7 ग-एगो (एक:) अमुगो (अमुक:) असुगो (असुकः) सावगो
(श्रावकः) आगारो (आकारः) तित्थगरो (तीर्थकरः) आगरिसो (आकर्षः) एगत्तं (एकत्वं)। इत्यादिषु व्यत्ययश्च (४.४४७) इत्येव कस्य गत्वम् (१११७७ को वृत्ति)
नियम २२६ (शीकरे भही वा १।१८४) शीकर शब्द के क को भ और ह विकल्प से होता है ।। काभ, ह-सीभरो, सीहरो, सीअरो (शीकरः)
नियम २२६ (चन्द्रिकायां मः ॥१८५) चन्द्रिका शब्द के क को म होता है।
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१३४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
काम-चन्दिमा (चन्द्रिका)
नियम २३० (निकष-स्फटिक-चिकुरे हः १११८६) निकष, स्फटिक और चिकुर शब्दों के क को ह होता है। काह-निहसो (निकष:) फलिहो (स्फटिक:) चिहुरो (चिकुरः) !
नियम २३१ (शृङखले खः कः १११८६) शृङखल शब्द के ख को क होता है। ख7 क-सङ कलं (शृङखलम् )
नियम २३२ (पुन्नाग-भागिन्योर्गों मः १।१६०) पुन्नाग और भागिनी शब्दों के ग को म होता है । ग/म-पुन्नामाइँ (पुन्नागानि) भामिणी (भागिनी)
नियम २३३ (छागे लः १११६१) छाग शब्द के ग को ल होता है । ग7ल--छालो (छागः) छाली (छागी) स्त्री।
नियम २३४ (ऊत्वे दुर्भग-सुभगे वः १।१६२) दुर्भग और सुभग शब्दों में ऊ होने पर ग को व होता है। ग7व-दूहवो (दुर्भगः) सूहवो (सुभगः) ।
(क्वचिच्चस्य जः १११७७ की वृत्ति) कहीं च को ज होता है। च7 ज-पिसाजी (पिशाची)
(आर्षे अन्यदपि दृश्यते १११७७ को वृत्ति) आउण्टणं (आकुञ्चनम् ) यहां च को ट हुआ है।
नियम २३५ (खचित-पिशाचयोश्च स-ल्लो वा १११९३) खचित के च को स और पिशाच के च को ल्ल आदेश विकल्प से होता है । च 7ल्ल, स-खसिओ खइओ (खचितः) पिसल्लो, पिसाओ (पिशाच:)
नियम २३६ (सटा-शकट-कैटभे ढः १११६६) सटा, शकट, कैटभ शब्दों के ट को ढ होता है। 278-सढा (सटा) सयढो (शकट:) केढवो (कैटभः) ।
नियम २३७ (स्फटिके लः १११६७) स्फटिक शब्द के य को ल होता
27 ल-फलिहो (स्फटिक:) ।
नियम २३८ (चपेटा-पाटौ वा १११९८) चपेटा शब्द और पट् धातु (जिन्नन्त) के ट को ल विकल्प से होता है। 27 ल-चविला, चविडा (चपेटा) फालेइ, फाडेइ (पाटयति)।
__ नियम २३६ (अङ कोठे ल्लः ११२००) अंकोठ शब्द के ठ को ल्ल आदेश होता है। 87ल्ल-अङ कोल्लो (अङकोठः) ।
नियम २४० (पिठरे हो वा रश्च डः ११२०१) पिठर शब्द के ठ
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मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (२)
१३५ को ह विकल्प से होता है, उसके योग में र को ड होता है । 67ह-पिहडो, पिढरो (पिठरः) ।
नियम २४१ (वेणौ णो वा ११२०३) वेणु शब्द के ण को ल विकल्प से होता है। णाल–वेलू, वेणू (वेणुः) ।
नियम २४२ (प्रत्यादी डः १२०६) प्रति आदि शब्दों के त को ड होता है। त ? ड-पडिवन्न (प्रतिपन्नम् ) पडिहासो (प्रतिहासः) पडिहारो (प्रतिहारः)
पाडिप्फद्धी (प्रतिस्पर्धा), पडिसारो (प्रतिसारः) पडिनिअत्तं (प्रतिनिवृत्तम्) पडिमा (प्रतिमा) पडिवया (प्रतिपत्) पडंसुआ (प्रतिश्रुत्) पडिकरइ (प्रतिक रोति) पहुडि (प्रभृतिः) पाहुडं (प्राभृतम्) वावडो (व्यापृतः) पडाया (पताका) बहेडओ (बिभीतक:) हरडइ (हरीतकी) मडयं (मृतकम् ) । दुक्कडं (दुष्कृतम्) सुकर्ड (सुकृतम्)
आहडं (आहृतम्) अवहडं (अवहृतम्) । प्रयोग वाक्य
धणवालो सिरक्कं न परिहाइ । उत्तरिज्जेण अणु मिज्जइ अयं विउसो अत्थि । अप्पईणस्स मुल्लो दाउ अहं न समत्थो मि। तुज्झ वासकडी सुद्धकप्पासेण णिम्मिआ अस्थि । सिसिरे निसाए नीसारेणावि सीयं संतावेइ । किं तुज्झ पिआमहो उण्हीसं इच्छइ ? पत्तआरो रायिंदो सितं पायजामं कंचुअं य पउजइ। किं तुज्झ पासे पडपुत्तिया नत्थि । बंभचारिणो पइसमयं अवअच्छे रक्खंति । सो नत्तवेसम्मि सुअइ । णयरे सिरत्ताणस्स आवस्सगया भवइ । सामाइयम्मि सावगा पच्छ्यं धरइ। पुरिसाण सरीरे अज्जत्ता पावरओ न दिस्सइ । अहं उवहाणं अंतरेणावि सुहेण सुआमि । बाला अहोवत्थमवि न परिहांति । तुज्झ पिअस्स पासे केत्तिलाओ बुहइयाओ संति । सो ण्हाणस्स पच्छा अंगपुंछणेण सरीरं सुस्सावेइ (सुखाता है ।) धातु प्रयोग
तुज्झ कहणमिमं बाहइ। धणेण लोआ धम्माओ फेल्लुसंति । पुरिसा साहणीओ न करिस्संति । अज्ज तुज्झ सिरं कहं फट्टइ ? सामी सुणयं पोसइ । तुमं परिसाए सभावा पागडहि । अज्ज को कप्पासं पिंजिहिइ ? माअरा अजोग्गमवि पुत्तं पालइ । सुवे अहं अज्झयणं आरंभिहिमि । प्राकृत में अनुवाद करो
तुम धोती क्यों नहीं पहनते हो ? कुरता शरीर के लिए लाभक र है । तुम्हारी कमीज का रंग क्या है ? आजकल पगडी बहुत कम लोग रखते हैं । टोपी धूप से सुरक्षा करती है । टोप सिर की सुरक्षा करता है। मेरा तोलिया
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
तुम्हारे पास है । एक महिने में तीन रुमाल गिर जाते हैं । तुमने पायजामा कब पहना था ? पंडित लोग दुपट्टा रखते थे । क्या तुम पेंट को सीना जानते हो ? यह वासकट तुम अपने भाई को दे दो । रजाई ठंड से सुरक्षा करती है । रजाई में रूई (कप्पास ) कितनी है ? क्या वह कौपीन पहनना चाहता है ? वह रूमाल से मुंह पूंछता है । मेरे पास रात की पौशाक दो है । टोप किस शहर में मिलता है ? मैं चादर अपने साथ ही रखता हूं। पतलून सीने वाला कहां गया है ? मेरी शेरवानी कहां रखी हुई है ? तकिया के बिना उसको नींद नहीं आती है । तुम्हारी धोती धूप में सूख रही है। कुर्ता का रंग कैसा था ? वह तोलिया पहनकर स्नान करता है। ओवरकोट पहनने के बाद ठंड नहीं लगती है ।
धातु का प्रयोग करो
तुम्हारे शरीर का भार मुझे पीडा नहीं देता लेकिन तुम्हारा धातु का अशुद्ध प्रयोग पीडा देता है। चिकने आंगन में उसका पैर फिसल गया । क्या बादल आकाश को छूते हैं ? कोई-कोई फल पकने पर फट जाता है | दूध से शरीर पुष्ट होता है । वह रूई धुनता है इसलिए सुख से रोटी खाता है । जो अपने आश्रित का पालन नहीं करता वह कर्तव्य से दूर हो जाता है । तुम उसके पास पढना प्रारम्भ करो। तुम्हें अपने विचार प्रकट करना चाहिए ।
प्रश्न
१. नीचे लिखे शब्दों में किस व्यंजन को क्या आदेश हुआ है ? नियम सहित स्पष्ट करो --
चंदिमा, आगरिसो, पिसाजी, एगत्तं चिहुरो, भामिणी, पिसल्लो, खसिओ, सयढो, पिहडो, फलिहो, चविडा, पिढरो, वेणु, हरडइ । २. टोपी, टोप, दुपट्टा, पेंट, वासकट, रजाई, पगडी, पायजामा, रूमाल, कौपीन, चादर, पतलून, शेरवानी, तकिया, धोती, कुर्ता, तोलिया, ओवरकोट, रात्रिपौशाक के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
३. बाह, फेल्लुस, फट्ट, पिंज, पागड और पोस धातुओं के अर्थ बताओ । ४. "प्रत्यादी ड: " - इस नियम के तीन उदाहरण दो ।
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मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (३)
मोती की माला- - हारो, पलम्बं कान की बाली - कुंडलं, कण्णाआसं
A
(दे० )
टिकुली -- णडालाभूसणं कंठा - कंठमुरयो, कंठमुही
नथ – णासाभरणं
शब्द संग्रह (आभूषण वर्ग)
मंगलसूत्र – कंठसुत्तं
हाथ का कडा - कडगो (सं) हंसुलीगविज्जं
मुकुट, सिरपंच-मउडो
पलाय - भागना
थु - स्तुति करना
परिआल - लपेटना
थिम - गीला करना
*
होने पर ।
त 7 ड - वेडिसो ( वेतस: ) ।
मणियों से ग्रथित हार —एगावली रत्नों का हार — रयणावली भुजबंद, बाजूबंद — केउरं लच्छा -- पायाभरणं घुंघुरु - घंटिया
अंगूठी - अंगुलीयं, अंगुलिज्जगं बंगडी कंकणं, कंकणी
चूडी - वलयं, चूडो (दे० ) कंदोरो—कडिसुतं
धातु संग्रह
नियम २४३ ( इत्वे वेतसे १२०७ ) वेतस के त कोड होता है, इ
पमिलाय - मुरझाना
पम्हअ - भूल जाना
पत्थर -- बिछाना
पsिहण --- प्रतिघात करना
नियम २४४ (गर्भितातिमुक्तके णः ११२०८ ) गर्भित और अतिमुक्तक शब्द के त कोण होता है ।
त7 –गब्भिणो (गर्भितः ) अणिउ तयं ( अतिमुक्तकम्) ।
नियम २४५ (सप्ततौ रः १।२१०) सप्तति शब्द के त को र होता
है ।
तर - सत्तरी ( सप्ततिः) ।
नियम २४६ ( अतसी - सातवाहने लः १।२११) अतसी और सातवाहन शब्द के त को ल होता है ।
त 7 ल - अलसी ( अतसी) सालवाहणो ( सातवाहनः ) ।
नियम २४७ (पलिते वा ११२१२ ) पलित शब्द के त को ल विकल्प
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से होता है ।
त 7 ल -- पलिलं, पलिअं ( पलितम् ) ।
नियम २४८ ( पीते वो ले वा १।२१३) पीत शब्द के त को व विकल्प से होता है, स्वार्थ में होने वाला ल प्रत्यय परे हो तो ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
7 व पीवलं पीअलं (पीतलम् ) ।
नियम २४६ वितस्ति- वसति भरत - कातर-मातुलिंगे हः ११२१४ ) वितस्ति, वसति, भरत, कातर, मातुलिंग - इन शब्दों के त को ह होता है । त 7 ह -- विहत्थी ( वितस्ति:) वसही ( वसतिः ) भरहो ( भरतः ) काहलो ( कातरः ) माहुलिंगं ( मातुलिंगम् ) ।
नियम २५० ( मेथि - शिथिर - शिथिल प्रथमे थस्य : १।२१५ ) मेथि, शिथिर, शिथिल, प्रथम इन शब्दों के थ को ढ होता है ।
थ> ढ – मेढी (मेथिः) सिढिलो (शिथिर: ) सिढिलो (शिथिलः) पढमो ( प्रथम : ) । नियम २५१ ( निशीथ - पृथिव्योर्वा १/२१६) निशीथ और पृथिवी
शब्दों के थ को ढ विकल्प से होता है ।
थ> 8 - निसीढो, निसीहो ( निशीथः) पुढवी, पुहवी ( पृथिवी ) । नियम २५२ ( पृथक धो वा १।१८८ ) पृथक् शब्द के थ को ध विकल्प से होता है ।
> - पिधं, पुधं पिहं, पुहं ( पृथक् ) ।
नियम २५३ ( रुदिते दिना ण्णः १।२०६) रुदित शब्द के दित को ण्ण आदेश होता है ।
दितण-रुणं ( रुदितम् ) ।
नियम २५४ ( संख्या - गद्गदे रः १।२१६ ) संख्यावाची शब्द और गद्गद शब्द के द को र होता है ।
द>र
र―― एआरह ( एकादश ) बारह ( द्वादश ) तेरह ( त्रयोदश ) गग्गरं ( गद्गदम् ) ।
नियम २५५ ( कदल्यामद्रुमे १।२२० ) कदली शब्द के द को र होता है यदि द्रुमवाची न हो तो ।
दर - करली ( कदली) केला ।
नियम २५६ ( प्रदीपि - वोह वे लः १०२२१) प्रपूर्वक दीप धातु और दोहद के द को ल होता है ।
> ल - पलीव (प्रदीप्यते) दोहलो ( दोहद : ) ।
नियम २५७ ( कदम्बे वा १।२२२ ) कदम्ब शब्द के द को ल विकल्प से होता है ।
कलम्बो, कम्बो ( कदम्ब : ) ।
नियम २५८ ( दीपो धो वा ११२२३) दीप् धातु के द को ध विकल्प
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मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (३)
से होता है। a>ध-धिप्पड, दिप्पइ (दीप्यते)।
नियम २५६ (कथिते यः ११२२४) कथित शब्द के द को व होता
द>व-कवट्टिओ (कथितः) ।
नियम २६० (ककुदे हः २२२५) ककुद् शब्द के द को ह होता
द>ह-कउहं (ककुदम्) ।
नियम २६१ (निषधे धो ढः ११२२६) निषध शब्द के ध को ढ होता है। घ>तु-निसढो (निषधः)।
नियम २६२ (वोषधे १२२७) औषध के ध को ढ होता है विकल्प से । ध7 ढ-ओसढं, ओसहं (औषधम्) ।
नियम २६३ (नीपापोडे मो वा १२३४) नीप और आपीड शब्द के प को म विकल्प से होता है। प>म-नीमो, नीवो (नीपः) आमेलो, आमेडो (आपीडः)।
नियम २६४ (पापों रः ११२३५) पापद्धि शब्द के प को र होता है। प>र-पारद्धी (पापद्धिः) ।
नियम २६५ (कबन्धे म-यो १।२३६) कबन्ध शब्द के ब को म और य होता है। ब>म-कमन्धो, कयन्धो (कबन्धः) ।
नियम २६६ (शबरे बो मः १०२५८) शबर शब्द के ब को म होता
ब>म-समरो (शबरः) ।
नियम २६७ (कैटमे भो वः ११२४०) कैटभ शब्द के भ को व होता है। भ>व-केढवो (कैटभः) । प्रयोग वाक्य
सरलाए पासे पलंबं अस्थि । रामस्स कण्णेसु कुंडलाई सोहंति । सरोजा गडालाभूसणं कहं न धारइ ? विमलाए कंठम्मि कंठमुरयो विभाइ। सुमणाए पासे तिण्णि णासाभरणाई संति । महिंदस्स कंठसुत्तं माआ कं दास्सइ ? पुरिसो वि कडगं धारइ। पभाए गेविज्जं दटुं सुलोअणा तस्स घरे गआ। सुरिंदस्स
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
मउडो पारकेरं अस्थि । एगावलि बंधिउ कास मणो उक्कंठेइ (उत्सुक है ? अज्जत्ता रयणावलिं पासिउ को वि न गच्छइ । रामस्स भुआए केउरं आसि । चंदणबाला अवि पायाभरणं इच्छइ । घंटियाए सद्दो कण्णपिओ भवइ । पत्ती पइणामांकियं अंगुलीयं अंगुलीए धारइ । रायिंदस्स पत्तीइ पासे चत्तारि कंकणाई संति। अरुणा सुवण्णचूडा कहं न धारइ ? कुसुमस्स माआ णियं कडिसुत्तं दंसइ (दिखलाती है)। धातु प्रयोग
विरत्तो संसाराओ पलायइ । पुप्फाई राओ कहं पमिलायंति । अहं तुज्झ अभिहाणं पम्हअहीअ । सीसो आयरियस्स संथारं पत्थरइ। सव्वे साहुणो जिणं थन्ति । न जाणामि रामो अज्ज कहं ओणियं थिमइ ? रिसभो पोत्थयस्स उरि पत्तं परिआलइ । रमेसो धणं पडिहणइ । प्राकृत में अनुवाद करो
मेरी दादी के घर में मोतियों की कई मालाएं हैं। पुरुष भी कान की बाली पहनते हैं । प्रभा ने विवाह में टिकुली पहनी थी। संपतराज ने अपने चारों पुत्रों को चार कंठे दिए। विमला नथ पहनना क्यों नहीं चाहती है ? माता ने अपनी पुत्री को मंगलसूत्र दिया। हाथ का कडा किसके पास है ? गले में हंसुली शोभा देती है। मुकुट पहनने के बाद वह राजा जैसा लगता है। मणियों का हार जयपुर में मिलता है । रत्नों का हार कौन पहनेगा? हडमान का भुजाबंध किसके पास है ? लच्छा को देखने उसके घर कौन-कौन गए? तुम्हारे घुघुरू का शब्द आकाश में फैल गया। अंगुठी पर तुम्हारा नाम है या पति का? बंगडी पहनने वाली आजकल कौन है ? चूडी सुहाग का चिह्न है। मेरी भाभी कंदोरे को बहुत चाहती है। धातु का प्रयोग करो
जो संयम में कमजोर होते हैं, वे ही साधुत्व से पलायन करते हैं। उपालंभ सुनकर उसका मुखकमल मुरझा गया। मैं आपकी सारी गलतियों को भूलता हूं। मेरे लिए बिछौना कौन बिछाएगा? वह भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति करता है । तुम बार-बार आंखों को क्यों गीला करते हो ? वह कंबल पर सूती वस्त्र लपेटता है। गांव के लोगों ने उग्रवादियों पर प्रतिघात किया।
प्रश्न
१. त व्यंजन का परिवर्तन किन-किन व्यजनों में होता है ? एक-एक __ उदाहरण सहित नियम का उल्लेख करो। २. द को र, ल, ध, व, ह करने वाले कौन-से नियम हैं ? ३. प और ब का किन-किन व्यंजनों में परिवर्तन होता है ?
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मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (३)
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४. सिढिलो, पुढवी, पिधं, मेढी-इन शब्दों में किस व्यंजन का परिवर्तन
होकर क्या बना है ? ५. मोती की माला, कान की बाली, टिकुली, मुकुट, मणियों से ग्रथित हार, भुजबंद, कंठा, नथ, मंगलसूत्र, हाथ का कडा, बंगडी, चूडी, कंदोरा, अंगूठी, हंसुली, लच्छा, धुंघरू—इन शब्दों के लिए प्राकृत
शब्द बताओ। ६. पलाय, थु, परिआल, थिम, पमिलाय, पम्हअ, पत्थर और पडिहण
धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयुक्त करो।
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३६ मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (४)
उद्यम-उज्जमो स्वभाव-सहावो पथ्य-पच्छ (वि) मर्यादा-मज्जाया संगति-संगो
शब्द संग्रह (स्फुट)
मनोरथ-मणोरहो स्वागत-सागयं राख-भस्सं क्षेत्र-खेत्तं, छेत्तं श्रवण-सवणं
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शिकारी---लुद्धगो
शासक-सासओ।
धातु संग्रह दरिस-दिखलाना, बतलाना ताड-ताडना करना दिक्ख - देखना
संफुस-स्पर्श करना दम-निग्रह करना
वच्च-जाना तस-त्रास पाना, डरना
ताव-गर्म करना | नियम २६८ (विषमे मो ढो वा ११२४१) विषम शब्द के म को ढ विकल्प से होता है। म>ढ----विसढो, विसमो (विषमः) ।
नियम २६६ (वाभिमन्यौ १२४३) अभिमन्यु शब्द के म को व विकल्प से होता है। म>व-अहिवन्नू, अहिमन्नू (अभिमन्युः) ।
नियम २७० (भ्रमरे सो वा २२४४) भ्रमर शब्द के म को स विकल्प से होता है। म>स-भसलो, भमरो (भ्रमरः) ।
नियम २७१ (डाह-वौ कतिपये १२५०) कतिपय शब्द के य को हाह (आह) और व क्रमशः होता है। य>डाह-कइवाहं, कइअवं (कतिपयम्) ।
नियम २७२ (वोत्तरीयानीय-तीय-कृछज्जः १०२४८) उत्तरीय शब्द और अनीय, तीय तथा कृदन्त के य प्रत्यय का य हो उसको ज्ज विकल्प से होता है। यज्ज-उत्तरिज्ज, उत्तरीअं (उत्तरीयम् ) करणिज्ज, करणीअं (करणीयम् )
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मध्यवर्ती सरल व्यंजन परिवर्तन (४)
१४३ जवणिज्जं, जवणीअं (यवनीयम्) बिइज्जो, बीओ (द्वितीयः) पेज्जा,
पेआ (पेया)। य>र-हारु (स्नायुः) ठाणांग, पण्हावागरण, विवाहपण्णत्ति आदि आगमों में
मिलता है।
नियम २७३ (छायायां होऽकान्तौ वा २२४६) छाया शब्द अकान्ति अर्थ में हो तो छाया के य को ह विकल्प से होता है। य>ह-छाही (छाया) धूप का अभाव । सच्छाहं, सच्छायं ।।
नियम २७४ (किरि-मेरे रो डः १।२५१) किरि और भेर शब्द के र को ड होता है। र >ड-किडी (किरिः) भेडो (भेरः) पिहडो (पिठरः)----(पिठरे हो वा
रश्च' ड:) नियम २४० सेठ को ह होने पर र को ड हुआ है।
नियम २७५ (पर्याणे डा वा श२५२) पर्याण शब्द के र को डा विकल्प से होता है। र>डा-पडायाणं, पल्लाणं (पर्याणम् )।
नियम २७६ (करवीरे णः १०२५३) करवीर शब्द के प्रथम र को ण होता है। र>ण-कणवीरो (करवीरः)।
नियम २७७ (हरिद्रादौ लः ११२५४) हरिद्रा आदि शब्दों में असंयुक्त र को ल होता है। र>ल-हलिद्दी (हरिद्रा) दलिद्दाइ (दरिद्राति) दलिद्दो (दरिद्रः) दालिदं
(दारिद्र्यम्) हलिद्दो (हरिद्रः) जहुट्ठिलो (युधिष्ठिरः) सिढिलो (शिथिरः) मुहलो (मुखरः) चलणो (चरणः) वलुणो (वरुणः) कलुणो (करुणः) इङ्गालो (अङ्गारः) सक्कालो (सत्कारः) सोमालो (सुकुमारः) चिलाओ (किरात:) फलिहा (परिखा) फलिहो (परिघः) फालिहद्दो (पारिभद्रः) काहलो (कातरः) लुक्को (रुग्णः) अवद्दालो (अपद्वारः) भसलो (भ्रमरः) जढलो (जठरः) बढलो (बठरः) निठुलो (निष्ठुरः) ।
नियम २७८ (स्थले लो : १०२५५) स्थल शब्द के ल को र होता है। ल>र-थोरं (स्थूलम् ।
नियम २७६ (स्वप्न-नीव्यो १२५६) स्वप्न और नीवी शब्द के व को म विकल्प से होता है। a>म-सिमिणो, सिविणो (स्वप्नः) नीमी, नीवी (नीवी)।
नियम २८० (दश-पाषाणो हः २२६२) दशन् और पाषाण शब्द के श और ष को ह विकल्प से होता है।
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१४४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
श>ह-दह, दस (दश) दहबलो, दसबलो (दश बलः)। ष>ह-पाहाणो, पासाणो (पाषाणः)
नियम २८१ (स्नुषायां हो न वा १२२६१) स्नुषा शब्द के ष को ण्ह आदेश विकल्प से होता है। ष>ण्ह-सुण्हा, सुसा (स्नुषा)।
नियम २८२ (दिवसे सः १।२६३) दिवस शब्द के स को ह विकल्प से होता है। स>ह-दिवहो, दिवसो (दिवसः)।
नियम २८३ (हो घोनुस्वारात् ११२६४) अनुस्वार से परे ह को घ विकल्प से होता है। ह>घ-सिंघो, सीहो (सिंहः) संघारो, संहारो (संहारः) दाघो (दाहः) ।
नियम २८४ (वोत्साहे थो हश्च रः २०४८) उत्साह शब्द के संयुक्त को थ विकल्प से आदेश होता है । उसके योग में ह को र होता है। ह>र-उत्थारो, उच्छाहो (उत्साहः)। प्रयोग वाक्य
उज्जमेण सव्वाई कज्जाइं सिझंति । झाणेण सहावस्स परिवट्टणं जायइ । पच्छेण विणा ओसहीए को लाहो । तुज्झ मणोरहो सहलीभविस्सइ । खणमवि साहुसंगो कोडिपावणासणो भवइ। मज्जायाइ सुण्णं जीवणं जीवणं नत्थि । आयरियवराणं सागयं कया भविहिइ ? साहणं केसलुचणं भस्सेण सरलीभवइ। इअं खेत्तं सद्धालूणं अत्थि । जो सदो सवणे पडइ तं चिअ हं जाणामि । धातु प्रयोग
आयरिओ सीसं धम्मस्स मग्गं दरिसइ । अहं तुह उत्तरपत्ताई दिक्खामि । साहू इंदियाणि दमइ। कामभोगा णरं तावंति। पिआ पुत्तं ताडइ । सो मज्झ सरीरं संफुसइ । तुमं गिहं कहं वच्चसि ? कूरसासएण लोआ तसंति । प्राकृत में अनुवाद करो
___ कार्य की सिद्धि में उद्यम सबल साधन है। श्रावक के तीन मनोरथ होते हैं। अग्नि का स्वभाव जलाना है। साधु का स्वागत व्यक्ति का नहीं त्याग का होता है। औषधि के साथ पथ्य ज्यादा फल देता है। मनुष्य का शरीर जलने के बाद राख हो जाता है । मर्यादा हमारा प्राण है। इस क्षेत्र में धनी लोग बहुत हैं। संगति का फल अवश्य मिलता है। उसके श्रवण बहुत पटु हैं।
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१४५
मध्यवर्ती सरल व्यञ्जन परिवर्तन (४) धातु का प्रयोग करो
विमल कलागृह देखता है । वह सूर्य की रश्मि में सात रंग देखता है । साधक स्वयं अपना निग्रह करता है। सास बहू को ताडती है । जल से भीगे शरीर का साधु संस्पर्श न करे। वह अपने नए घर में जाता है। वह घी को गर्म करती है। पक्षी शिकारी (लुद्धगो) से त्रास पाते हैं।
प्रश्न १. म व्यंजन को कौन-कौन सा व्यंजन आदेश होता है ? २. नीचे लिखे शब्दों में बताओ इस पाठ के अनुसार किस व्यंजन को
क्या आदेश हुआ है ? बिइज्जो, कणवीरो, उत्तरिज्ज, सच्छाह, पिहडो, भेडो, वलुणो। ३. उद्यम, राख, स्वागत, मर्यादा, मनोरथ, स्वभाव, संगति, पथ्य, क्षेत्र,
श्रवण-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ४. दरिस, दम, ताव, ताड, वच्च, संफुस, दिक्ख धातुओं के अर्थ बताओ
और उनका अपने वाक्यों में प्रयोग करो। ५. डंडी, अंतरिज्ज, अद्धोरुगो, वासकडी, पडपुत्तिया, कंचुओ, गेविज्जं, घंटिया, कडिसुत्तं-इनका वाक्य में प्रयोग करो और हिन्दी में अर्थ बताओ।
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४०
सरल व्यंजन परिवर्तन ( ३ )
अन्तिम व्यंजन परिवर्तन
सहयोग – साउज्जं, साहज्जं, साहिज्जं
श्मसान - मसाणं
बातचीत -वत्ता, परिकहा
चुम्बन - गुलं (दे० ) तरंग तरंगो
शब्दसंग्रह (स्फुट)
धातु संग्रह
वेद-वेष्टित करना, लपेटना
नव- नमना
ओमील -- मुद्रित होना, बंद होना ओयत्त --- उलटाना, खाली करने के लिए नमाना
गोष्ठी गोट्ठी प्रीति — पीई (स्त्री)
कांति -कंती (स्त्री) आकृति -- आकिई, आगिई
पिअरंज - भांगना, तोडना कण--- आवाज करना कम — उल्लंघन करना उम्मंच --- परित्याग करना पिंड - एकत्रित करना
अन्तिम व्यंजन
प्राकृत में व्यञ्जनान्त शब्द नहीं होते हैं । संस्कृत में जो शब्द व्यंजन अन्त वाले होते हैं उनका या तो लोप हो जाता है या उन्हे स्वर में तथा स्वर सहित व्यंजन में परिवर्तित कर दिया जाता है । कहीं अन्तिम व्यंजन को अनुस्वार में बदल दिया जाता है । इनमें कुछ नियम अन्यत्र भी आए हैं फिर भी अन्तिम व्यंजन से संबंधित होने के कारण यहां दिए गए हैं ।
नियम २८५ ( अन्त्य व्यंजनस्य १|११ ) शब्दों के अन्त में जो व्यंजन होता है उसका लोप हो जाता है ।
अन्तिम व्यंजन > लोप - जाव ( यावत्) ताव ( तावत् ) जसो ( यशस् ) तमो (तमस् ) जम्मो ( जन्मन्) पुण (पुनर् )
( बहुलाधिकारात् अन्यस्थापि व्यंजनस्य मकारः १।२४ की वृत्ति) अन्तिम व्यंजन को म आदेश होता है । रुक्खं ( साक्षात् ) जं (यत्) तं (तत्) वसुं (विष्वक्) पिहं ( पृथक् ) सम्मं ( सम्यक् )
( समासे तु वाक्यविभक्त्यपेक्षायां अन्त्यत्वं अनन्त्यत्वं च तेनोभयमपि भवति) समस्त पदों में सब पद मिलकर एक शब्द बन जाता है । इस दृष्टि से अन्तिम पद को छोड़कर पूर्व के पदों की एक अपेक्षा से पद
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सरल व्यंजन परिवर्तन (५)
१४७ संज्ञा है भी और एक अपेक्षा से नहीं भी है। प्रत्येक पद में विभक्ति आई हुई है, इसलिए पदसंज्ञा है। समास होने से विभक्ति का लुक हो जाता है, इसलिए पदसंज्ञा नहीं है। प्रत्येक पद के अंतिम शब्द को अन्त्य कह सकते हैं और समस्त पद एक शब्द बन जाता है इस दृष्टि से पूर्व के पद के अन्तिम शब्द को अन्त्य नहीं भी कह सकते । इसलिए समास में अन्त्यत्व और न अन्त्यत्व दोनों होते हैं। अन्त्य मानने पर लोप हो जाता है । अन्त्य न मानने पर लोप नहीं होता। सभिक्खू (सद्भिक्षुः) सज्जणो (सज्जनः) एअगुणा (एतद्गुणाः) तग्गुणा (तद्गुणाः)
नियय २८६ (शरदादेरत् ११८) शरद्, आदि शब्दों के अन्तिम व्यंजन को अ आदेश हो जाता है। >अ--सरओ (शरद्) भिसओ (भिषक् )
नियम २८७ (दिक्-प्रावृषोः सः १११६) दिश् और प्रावृष् शब्दों के अन्तिम व्यंजन को स आदेश होता है। >स-दिसा (दिश्) पाउसो (प्रावृट्)
नियम २८८ (आयुरप्सरसो वा ११२०) आयुष और अप्सरस् शब्दों के अंतिम व्यंजन' को विकल्प से स आदेश होता है। 7 स-दीहाउसो, दीहाऊ (दीर्घायुः) अच्छरसा, अच्छरा (अप्सराः) ..नियम २८६ (ककुभो हः १।२१) ककुभ् शब्द के अन्त्य व्यंजन को ह आदेश होता है। 7ह-कउहा (ककुभ्)
नियम २६० (धनुषो वा १।२२) धनुष् शब्द के अन्तिम व्यंजन को विकल्प से ह आदेश होता है । पक्ष में लोप हो जाता है । 7ह, लोप-धणुहं, धणू (धनु:)
नियम २६१ (रो रा १।१६) अन्त्य व्यंजन र यदि स्त्रीलिंग में हो तो उसे रा आदेश हो जाता है । 7 रा-गिरा (गिर्) धुरा (धुर्) पुरा (पुर्) ।
नियम २६२ (क्षुधो हा १११७) क्षुध शब्द के अन्त्य व्यंजन को हा आदेश होता है। 7हा-छुहा (क्षुध्)
नियम २९३ (न श्रवुदोः १११२) श्रद् और उद् के अन्त्य व्यंजन का लुक नहीं होता। सद्धा (श्रद्धा) उग्गयं (उद्गतम्) उन्नयं (उन्नतम्)
नियम २६४ (निर्युरो वर्ष १११३) निर् और दुर् के अन्त्य व्यंजन का लुक् विकल्प से होता है।
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१४८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
7 लुक् – निस्सहं, नीसहं ( नि: सहम् ) दुस्सहो, दूसहो ( दु:सहः ) दुक्खिओ, दुहिओ ( दुःखितः )
नियम २६५ (स्वरेत्तरश्च १०१४) अन्तर्, निर् और दुर् के अन्त्य व्यंजन का लुक नहीं होता स्वर परे हो तो । अन्तरप्पा (अन्तरात्मा ) निरवसेसं ( निरवशेषम् ) निरन्तरं ( निरन्तरम् ) दुरवगाहं ( दुरवगाहम् ) दुरुत्तरं ( दुरुत्तरम् ) ।
नियम २९६ ( स्त्रियामादविद्युत : १।१५) विद्युत् शब्द को छोडकर अन्त्य व्यंजन यदि स्त्रीलिंग में हो तो उसे आ आदेश होता है, लुक् नहीं । 7 आ - सरिआ (सरित्) पाडिवआ ( प्रतिपद् ) संपआ ( संपद् ) वाक्य प्रयोग
सो अमुम्मि कज्जमि भवंताण साउज्जं अवेक्खइ । सो मसाणे साहणं करेइ । वत्ताए तेणं अहं कहिओ जं साहुत्तं गहिहामि । पुत्तस्स गुले माअरा आनंद अनुभवइ । समुहस्स तरंगा गगणे उच्छलंति । साहूणं गोट्टीए का वत्ता णिच्छिया ? महावीरं पर गोयमस्स पीई आसि । तुज्झ मुहस्स कंती कहं मलिना जाओ । अमुम्मि विसये मज्झ को वि पण्हो नत्थि । तुज्झ आकिई मं अणुहरइ ।
धातु प्रयोग
सो रयणं कोसेयम्मि वेढइ | पिउस्स पायम्मि विणीया पुत्ता पगे नवंति । कमलविआसि पुष्पं निसाए ओमीलइ । सो घडम्मि जलपत्तं ओयत्तइ । जो नियमं पिअरंजइ सो पावस्स भागी भवइ । तीसे नेउरं कणइ । सो मणेणावि साहुणियमा न क्कमइ । पट्ठाणकाले मुणिणो आयरिअस्स समीवं उम्मुंचति । मुणिणो आयरिअस्स समीवे भिक्खं पिंडंति ।
प्राकृत में अनुवाद करो
आपके सहयोग से मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊंगा । श्मसान में कौन साधना करता है ? बातचीत कैसे भंग हुई ? चुम्बन लेना स्नेह या ममता का रूप है । मन की तरंगें प्रतिक्षण उठती हैं । उसने गोष्ठी का निर्णय स्वीकार नहीं किया । प्रीति से कार्य सरलता से बन जाता है । ब्रह्मचर्य से मुख की कांति बढती है । गौतम के प्रश्नों का उत्तर भगवान महावीर ने दिया था । तुम्हारी आकृति आकर्षक है ।
धातु का प्रयोग करो
इस पुस्तक पर वस्त्र किसने लपेटा है ? वह अपने से बड़ों के प्रति नमन करता है । तुम कभी आंखें बंद करते हो कभी खोलते हो । वह घडे में घी का वर्तन उलटाता है । तुम गुस्से में कलम को तोडते हो । हार कभी भी
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सरल व्यंजन परिवर्तन (५)
१४६ आवाज नहीं करता । रमेश नदी को उल्लंघन करता है। वह चतुर्दशी को रात को भोजन करने का परित्याग करता है । सीता कमरे में कचरा एकत्रित करती है।
মন १. प्राकृत में व्यंजनांत शब्द होते हैं या नहीं ? २. शब्द के अंतिम व्यंजन का प्राकृत में क्या होता है ? प्रत्येक विधि का
दो-दो उदाहरण दो। ३. अन्तिम व्यंजन स्त्रीलिंग में हो तो उसको क्या आदेश होता है ? दो
उदाहरण से स्पष्ट करो। ४. सहयोग, आकृति, चुम्बन, श्मसान, बातचीत, तरंग, प्रीति, प्रश्न और
गोष्ठी के लिए प्राकृत में क्या शब्द हैं ? ५. ओयत्त, ओमील, वेढ, पिअरंज, पिंड, कण और उम्मुंच धातुओं के अर्थ
बताओ तथा वाक्य में प्रयोग करो।
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संख्या
जिन शब्दों के द्वारा संख्या का बोध होता है, वे संख्यावाची शब्द कहलाते हैं। संख्यावाची शब्द विशेषण होते हैं । विशेष्य के अनुसार लिंग होने के कारण ये तीनों लिंगों में चलते हैं। एग और पंच से लेकर अट्ठारस तक शब्द अकारान्त हैं। एगूणवीसा से लेकर अट्ठावन्ना तक शब्द आकारान्त हैं। ति और एगूणसट्टि से लेकर णवणवइ तक शब्द इकारान्त हैं। दु और चउ शब्द उकारान्त हैं। सय, सहस्स, अयुत, लक्ख, पउअ आदि शब्द अकारान्त हैं। कोडि, कोडाकोडि शब्द इकारान्त हैं । संख्यावाची शब्द ये हैं
एग, एअ, एक्क, इक्क (एक) एक । दु (द्वि) दो। ति (त्रि) तीन । चउ (चतुर) चार। पंच (पञ्चन्) पांच। छ (षट् ) छ। सत्त (सप्तन्) सात । अट्ठ (अष्टन्) आठ। नव (नवन्) नौ। दह, दस (दशन्) दस । एआरह, एगारह, एआरस (एकादशन्) ग्यारह । दुवालस, बारस, बारह (द्वादशन्) बारह । तेरस, तेरह (त्रयोदशन् ) तेरह । चोइस, चोदह, चउद्दस, चउद्दह (चतुर्दशन्) चौदह । पण्णरस, पण्णरह (पञ्चदशन्) पन्द्रह । सोलस, सोलह (षोडश) सोलह । सत्तरस, सत्तरह (सप्तदशन्) सत्रह । अट्ठारस, अठारह (अष्टादशन्) अठारह । एगणवीसा (एकोनविंशति) उन्नीस । वीसा (विंशति) बीस । एगवीसा इक्कवीसा, एक्कवीसा (एकविंशति) इक्कीस । बावीसा (द्वाविंशति) बाईस । तेवीसा (त्रयोविंशति) तेईस । चउवीसा, चोवीसा (चतुर्विंशति) चौबीस । पणवीसा (पञ्चविंशति) पच्चीस । छव्वीसा (षड्विंशति) छब्बीस । सत्तावीसा (सप्तविंशति) सत्ताईस । अठावीसा, अठ्ठवीसा, अडवीसा (अष्टविंशति) अट्ठाईस । एगूणतीसा (एकोनत्रिंशत्) उनतीस । तीसा (त्रिंशत्) तीस । एक्कतीसा एगतीसा, इक्कतीसा (एकत्रिंशत्) इकतीस । बत्तीसा (द्वात्रिंशत्) बत्तीस । तेतीसा, तित्तीसा (त्रयस्त्रिशत्) तेतीस । चउत्तीसा, चोत्तीसा (चतुस्त्रिशत् ) चौतीस । पणतीसा (पञ्चत्रिंशत्) पैंतीस । छत्तीसा (ट्त्रिंशत् ) छत्तीस । सत्ततीसा (सप्तत्रिशत्) सैंतीस । अठतीसा, अडतीसा (अष्टत्रिंशत् ) अडतीस । एगूणचत्तालिस (एकोनचत्वारिंशत् ) उनचालीस । चत्तालिसा, चत्ताला (चत्वारिंशत्) चालीस । एगचत्तालिसा, इक्कचत्तालिसा, एक्कचत्तालिसा, इगयाला (एक चत्वारिंशत्) इकतालीस । बेआलिसा, बेआला दुचत्तालिसा (द्विचत्वारिंशत्) बेयालीस । तिचत्तालिसा, तेआलिसा, तेआला (त्रिचत्वारिंशत् ) तैंतालीस । चउचत्तालिसा,
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संख्या
१५१
चोलिसा, चोआला, चउआला ( चतुश्चत्वारिंशत् ) चौवालीस | पणचत्तालिसा, पणयाला (पञ्चचत्वारिंशत् ) पैंतालीस । छच्चत्तालिसा, छायाला ( षट्चत्वारिंशत् ) छियालीस । सत्तचत्तालिसा, सगयाला ( सप्तचत्वारिंशत् ) सैंतालीस । अट्ठचत्तालिसा, अडयाला ( अष्टचत्वारिंशत् ) अडतालीस | एगूणपण्णासा ( एकोनपञ्चाशत् ) उनपचास । पण्णासा ( पञ्चाशत् ) पचास । एगपण्णासा इक्कपण्णासा एक्कपण्णासा . एगावण्णा ( एकपञ्चाशत् ) एक्यावन । बाघण्णा, दुषण्णासा (द्विपञ्चाशत् ) बावन । तेवण्णा, तिपण्णासा (त्रिपञ्चाशत् ) त्रेपन | चोवण्णा, चउपण्णासा ( चतुष्पञ्चाशत् ) चौपन । पणपण्णा, पणपण्णासा, पञ्चावण्णा (पञ्चपञ्चाशत् ) पचपन । छप्पण्णा, छप्पण्णासा (षट्पञ्चाशत् ) छप्पन । सत्तावण्णा, सत्तपण्णासा (सप्तपञ्चाशत्) सत्तावन । अट्ठावन्ना, अट्ठपण्णासा (अष्टपञ्चाशत् ) अट्ठावन । एगूणसट्ठि ( एकोनषष्टि) उनसठ । सट्ठि ( षष्टि) साठ । एगसट्ठि ( एकषष्टि) इकसठ । वासट्ठि, बिसट्ठि (द्विषष्टि) बासठ । तेसट्ठि (त्रिषष्टि ) त्रेसठ । चउसट्ठि चोसट्ठि ( चतुष्षष्टि) चौसठ । पणसट्ठि (पञ्चषष्टि) पैंसठ | छासट्ठि ( षट्षष्टि) छिआसठ । सत्तसट्ठि ( सप्तषष्टि) सडसठ | अडसट्ठि, अट्ठसट्ठि (अष्टषष्टि) अडसठ । एगूणसत्तरि ( एकोनसप्तति ) उनहत्तर । सतरि ( सप्तति ) सत्तर । इक्कसत्तरि इक्कहत्तर ( एकसप्तति ) इकहत्तर । बासत्तरि, बिसत्तरि, बाहर्त्तारि, बिहत्तरि, बावन्तरि ( द्विसप्तति ) बहत्तर | तिसत्तार (त्रिसप्तति ) तिहत्तर । चोसतरि, चउसत्तरि ( चतुस्सप्तति ) चोहत्तर । पण्णत्तरि, पणसत्तरि (पञ्चसप्तति) पचहत्तर । छसत्तरि ( षट्सप्तति) छिहत्तर | सत्तसत्तरि (सप्तसप्तति ) सतहत्तर । अट्ठसत्तरि, अडहत्तरि ( अष्टसप्तति ) अठहत्तर । एगूणासीइ ( एकोनाशीति) उन्नासी । असीइ ( अशीति) अस्सी । एगासीइ ( एकाशीति) इक्यासी । बासीइ ( द्व्यशीति ) बयासी । तेसोइ, तेरासीइ ( त्र्यशीति) तिरासी । चउरासीद, चोरासीइ ( चतुरशीति) चौरासी । पणसीइ, पञ्चासीद ( पञ्चाशीति) पचासी । छासीइ ( षडशीति) छियासी । सत्तासीइ ( सप्ताशीति) सत्तासी । अट्ठासीइ (अष्टाशीति) अट्ठासी । नवासीद्द, एगूणणवइ ( नवाशीति) नवासी । णवद, नवद ( नवति) नब्बे । एगणवs, इगणवs ( एकनवति) इक्यानवे । बाणवइ ( द्विनवति) बानवे । तेणवइ ( त्रिनवति) तिरानवे । चउणव, चोणवद ( चतुर्नवति) चौरानवे । पंचणवइ, पण्णणवइ ( पञ्चनवति) पंचानवे । ras ( षण्णवति) छियानवे । सत्तणवइ, सत्ताणवइ (सप्तनवति ) सित्तानवे । अट्ठणवइ, अडणवइ ( अष्टनवति) अट्ठानवे । एगूणसय, णवणवइ, नवणवह ( नवनवति ) निन्यानवे । सय (शत ) सौ । दुसय ( द्विशत ) दौ सौ । तिसय (त्रिशत) तीन सौ । बेसयाई (द्वेशते) दो सौ । तिष्णिसयाई ( त्रीणिशतानि ) तीन सौ । सहस्स (सहस्र ) हजार । बेसहस्साई (द्वेसहस्र ) दो हजार । दस
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
सहस्साई (दश सहस्राणि) दस हजार । अउअ, अयुअ, अयुत (अयुत) दस हजार । लक्खो, लक्खं (लक्ष) लाख । दसलक्ख, दहलक्ख, पउअ, पउत, पयुअ (प्रयुत) दस लाख । कोटि (कोटि) करोड । कोडाकोडि (कोटिकोटि) करोड से करोड गुणा करने पर जो संख्या आए वह । असंख, असंखिज्ज (वि) (असंख्येय) असंख्येय । अणंत (अनन्त) अनन्त ।
सामान्यत: संख्यावाची शब्द एकवचन में प्रयुक्त होते हैं । जैसे, वीसा मणुस्सा । इसको दूसरे प्रकार से भी प्रयुक्त कर सकते हैं---मणुस्साणं वीसा । मनुष्यों की बीस संख्या है । संख्यावाचक शब्द जब अपनी-अपनी संख्या सूचित करते हैं तब वे एक वचन में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-बीस, तीस, चालीस । जब वे बहुत बीस, बहुत तीस आदि बहुतता बताते हैं तब वे बहुवचन में आते
जा सहस
वाक्य प्रयोग
एगोहं नत्थि मे कोवि । चत्तारि कसाया दुक्खाई देंति। तीसे तिण्णि पुत्ता छ बाला य संति । रमेसस्स गिहे अठारह घेणुओ पणवीसा महिसा पणपण्णा उट्टा आसि । अमुम्मि गामे असीई गेहा संति । धणस्स कोडीए वि संतोसो न होइ । तस्स आवणे वत्थाण सत्तरी दीसइ । तास परिवारे सट्ठी लोआ संति । सो अउअंधारेइ । अमुम्मि नयरे वीसा महापहा सत्तरी वीहिओ य संति। कम्मि णयरे कोडिपुरिसा संति ?
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जये जये।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ। प्राकृत में अनुवाद करो
एक वर्ष में बारह महीने होते हैं। एक मास में तीस दिन होते हैं। आचार्य तुलसी की आज्ञा में सात सौ से अधिक साधु-साध्वियां हैं। प्राचीन-. काल में पुरुष ७२ कलाएं और स्त्री चौसठ कलाएं सीखती थीं। तुमने गुरु से तेतीस प्रश्न पूछे थे। पाली चतुर्मास में ३१ साधु और ३० साध्वियां थीं। इस शहर में १ लाख १० हजार आदमी रहते हैं। कलकत्ता की जनसंख्या प्रायः एक करोड है । इस सरकार में ३५ मंत्री हैं। इस परिवार में ४० सदस्य हैं। नक्षत्र २७ होते हैं। राशियों की संख्या १२ है। सात वार सात ग्रहों पर आधारित हैं। मैं दिन में एक वार शौच जाता हूं। तेरापंथ का प्रारंभ दी सौ तीस वर्ष पहले हुआ था। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर हैं। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे । चौवालीस वर्ष पूर्व मेरी दीक्षा हुई थी।
प्रश्न १. संख्यावाची शब्द किसे कहते हैं ? २. संख्यावाची शब्दों का प्रयोग किस लिंग में होता है ?
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संख्या
१५३ ३. संख्यावाची शब्दों में कौन से अकारान्त हैं और कौन से आकारान्त, __ इकारान्त और उकारान्त हैं ? ४. संख्यावाची शब्द कहां एकवचन में प्रयुक्त होते हैं और कहां बहुवचन
में? ५. नीचे लिखी संख्याओं के प्राकृत में संख्यावाची शब्द बताएंतीन, चार, पन्द्रह, बीस, पैंतीस, उनचालीस, चौतालीस, एक्यावन, पचपन, बासठ, इकहत्तर, उन्नासी निन्यानवे, दस हजार, तीन सौ, असंख्येय ।
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४२
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन ( १ )
शब्द संग्रह (शाक वर्ग १ )
करेला — कारेल्लयं, कारिल्ली (दे.) परवल -- पडोलो, पडोला
बेंगन - वितागी, वायंगणं (दे.) खीरा, काकडी — कक्कडी मूली - मूलगं
आलु - आलू (पुं, न )
पपीते का शाक-महुकक्कडीसागो
चने का शाक
-चणगसागो
मक्का - मकाय सागो, महाकाय सागो (सं)
आ (या) --- जाना
आउछ — खींचना, जोतना
आअक्ख- - कहना
आअर (आदृ) आइ (आ दा ) लेना
पालक-पालक्का
अदरख -- सिंगबेरं प्याज - लंडू (पुं)
लहसुन – लसुणं वत्थुआ - वत्थुलो लौकी— अलाउ
-आदर करना
केले का शाक केली ग्वारफली - गोराणी, दढ बीया,
आइंच -- सींचना, छिडकना आयंव-कांपना, हिलना
आयम - आचमन करना आयर- -आचरण करना
आयल्ल - लटकना
संयुक्त व्यंजन-संयुक्त व्यंजनों को होने वाले आदेश क, ख आदि क्रम से दिए जा रहे हैं । आदेश के बाद व्यंजन द्वित्व हो जाते हैं । क, ख, ग, घ, च आदेश
वाया (बाकुचिया )
टमाटर - रत्तंगो (सं)
धातु संग्रह
नियम २६७ ( शक्त- मुक्त-वष्ट-रुग्ण मृदुत्वे को वा २१२ ) शक्त, मुक्त दष्ट, रुग्ण और मृदुत्व शब्द के संयुक्त को क आदेश विकल्प से होता है । क्त 7 क -- शक्तः (सक्को, सत्तो ) । मुक्त: ( मुक्को, मुत्तो ) ।
ग्ण 7 क --- - रुग्ण: ( लुक्को, लुग्गो) ।
स्व / क - मृदुत्वं (माउक्क, माउत्तणं ) ।
ष्ट 7 क — दष्ट: ( डक्को, दट्ठो) ।
नोट १ – सक्को और मुक्को ये दो शब्द नियम २१६ क -ग-च-ज-त-दप-य-वां प्रायो लुक् १।१७७ ) के अपवाद रूप हैं ।
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संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (१)
१५५
नियम २६८ (क्षः खः क्वचित्तु छ- भौ २१३) क्ष को ख होता है । कहीं-कहीं पर छ और झ होता है ।
क्ष 7 ख-क्षय: (खओ) क्षमा ( खमा) क्षीणं ( खीणं) क्षीरं (खीरं ) इक्षुः ( इक्खू ) ऋक्ष: ( रिक्खो ) मक्षिका ( मक्खिआ ) लक्षणं ( लक्खणं ) । नियम २६६ (ष्क-स्कयो र्नाम्नि २।४) एक और स्क को ख आदेश होता है संज्ञा अर्थ में ।
ठक 7 ख- पुष्करं ( पोक्खरं ) पुष्करिणी (पोक्खरिणी) निष्कं (निक्खं) । स्क 7 ख — अवस्कन्दो (अवक्खरो ) अवस्करः (अवक्खरो )
उपस्कर:
(उवक्खरो) उपस्कृतं ( उवक्खडं ) स्कन्धः (खंधो) स्कन्धावारः ( खंधावारो) ।
क्षण 7 ख - तीक्ष्णं ( तिक्खं ) ( नियम ३६६ से ) ।
नियम ३०० ( शुष्क - स्कन्दे वा २१५) शुष्क और स्कन्ध शब्द के संयुक्त को ख विकल्प से होता है ।
।
ठक 7 ख -- शुष्कं ( सुक्खं, सुक्कं ) स्क 7 ख- - स्कन्दः ( खन्दो, कन्दो ) |
नियम ३०१ ( स्तम्मे स्तो वा २८) स्तम्भ शब्द के स्त को ख विकल्प से होता है ।
स्त 7 ख- स्तम्भो (खम्भो, थम्भो ) ।
नियम ३०२ ( स्थाणावहरे २१७) स्थाणु शब्द के स्थ को ख आदेश होता है, वह महादेव का वाचक न हो तो ।
स्थ 7 ख- स्थाणु: ( खाणू) ठूठा वृक्ष ।
नियम ३०३ ( क्ष्वेटकादौ २।६) क्ष्वेटक आदि शब्दों के संयुक्त को ख होता है ।
क्ष्व 7 ख — क्ष्वेटकः (खेडओ ) विष | वोटक : ( खोडओ ) ।
I
स्फ 7 ख~स्फोटकः (खोडओ ) । स्फेटकः ( खेडओ ) । स्फेटिक : ( खेडिओ) | नियम ३०४ ( रक्ते गो वा २ १०) रक्त शब्द के संयुक्त को ग विकल्प से होता है ।
क्त 7 ग -- रक्तः ( रग्गो, रत्तो ) ।
नियम ३०५ ( शुल्के ङ्गो वा २।११) शुल्क शब्द के ल्क को ङ्ग आदेश विकल्प से होता है ।
हक 7 ङ्ग - शुल्कं (सुङ, गं, सुक्कं ) ।
नियम ३०६ ( त्यो चैत्ये २।१३ ) चैत्य शब्द को छोडकर त्य को च
प्रत्ययः ( पच्चओ)
त्यागी (चाई) त्यजति
होता है ।
स्य / च --- सत्यं ( सच्चं )
( चयइ ) ।
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१५६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ३०७ ( प्रत्यूषे षश्च हो वा २।१४ ) प्रत्यूष शब्द के त्य को च
होता है ।
स्य 7 च -- प्रत्यूष : ( पच्चूहो, पच्चूओ ) ।
नियम ३०८ ( कृत्ति चत्वरे च : २।१२) कृत्ति और चत्वर के संयुक्त कोच होता है ।
त 7 च - कृत्ति: ( किच्ची ) ।
17 च - चत्वरं (चच्चरं) ।
नियम ३०६ ( त्व-ध्व- द्व-ध्वां च छ ज झाः क्वचित् २।१५ ) त्व को च, थ्व को छ, द्व को ज, ध्व को झ होता है । त्व 7 च - भुक्त्वा (भोच्चा) ज्ञात्वा श्रुत्वा ( सोच्चा) दत्वा ( दच्चा ) |
( णच्चा)
कृत्वा ( किच्चा)
प्रयोग वाक्य सक्करारोगे कारेल्लयं उवओगि अत्थि । सागेसु पडोलो मुल्लवं (मूल्यवान् ) भवइ । जइणा वायंगणं न खाअंति । कक्कडी गुणेण सीयला अस्थि । मूलयं वाउणासणं होइ । आलू बारहमासम्मि चेअ आवणे लभइ । पालक्का सत्थाय लाहअरा अस्थि । दालीए सिंगबेरं केण दिण्णं ? गिम्हकाले पलंडुस्स पओओ अहियो भवइ । लसुणस्स अवलेहो भवइ, सागो वि भवइ । वत्थुलो कत्थ उप्पज्जइ ? अलाउ महुरं हवइ । केलीए सागं अहं रुइणा भक्खामि । पुरिसा तंडुलेण सह चणगसागं भुंजंति । मेवाडदेसवासिणो मकायसागं पण खाअंति । गोराणीए सागो बज्जरीरुट्टिआइ सह पाओ रुइअरो लग्गइ | रत्तंगस्स सागो वि रत्तं वड्ढइ । धातु प्रयोग
बालो पढि विज्जलयं आइ । किसीवलो. (किसान) खेत्तं आउंछइ । सोहणी वित्तं आअक्खर । सुगिहिणो अतिहि आअरइ । सो तुवाणं सिक्ख आइइ । सेट्ठी णियं उज्जाणं आइंचइ । वरिसाए अद्दीभूयो तस्स कायो आयंवइ । तुमं साहुणियमा सम्मं (अच्छी तरह) आयरसि । तिस्स केसकलावो धम्म आयल्लइ | मोहणी हडमाणदेवालये आयमइ ।
प्राकृत में अनुवाद करो
कल मैंने करेला का शाक खाया था । परवल का शाक मेरे पिताजी खाते थे । मेरी बहन ने बैंगन का शाक कभी नहीं खाया। मूली मोसी के गांव में पैदा होती है । आलू जमीन के भीतर फलता है। शाम को नहीं खाती है । तुम्हारी भाभी प्रतिदिन अदरख प्याज और दही मेरे दादा बहुत खाते थे । मेरा मामा खाएगा । मामी ने लहसुन का शाक किसके लिए बनाया है ? वत्थुए का शाक
प्याज कभी नहीं
बुआ पालक काशाक खाती है। गर्मी में
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संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (१)
१५७
उसकी भतीजी नहीं खाती है । लौकी पेट के लिए हितकर है। चने का शाक प्रशांत भी खाता है। मक्की का शाक मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल है। ग्वारफली का शाक तेल में बनाया जाता है । टमाटर में बीज बहुत होते हैं इसलिए कुछ लोग नहीं खाते हैं । केले का शाक कौन नहीं खाना चाहता है ? क्या तुम्हारे लिए लौकी का शाक बनेगा ? धातु का प्रयोग करो
___ मैं कल कालेज नहीं जाऊंगा। वर्षा होने पर भी किसान खेत को क्यों नहीं जोतता है ? प्रिंसिपल अध्यापक से क्या कहता है ? कुलपति का सदा आदर करना चाहिए। शिक्षक विद्यार्थी से धन लेता है। नाना अपने बाग को सींचता है। सभा में भाषण देने वाला मोहन आज बोलते समय क्यों कांपता है ? वह पांच महाव्रतों का आचरण करता है। वृक्ष पर क्या लटकता है ? शिष्य गुरु के पाद प्रक्षालन का आचमन करता है।
प्रश्न १. ख आदेश किन संयुक्त वर्णों को होता है ? उदाहरण दो। २. मुक्तः का मुक्को रूप शुद्ध है या मुत्तो ? और किस नियम से ? ३. नीचे लिखे शब्दों को इस पाठ के नियमों से सिद्ध करो---किच्ची,
चाई, सुक्कं, पच्चओ, उवक्खडं, रग्गो, खंदो, लुक्को । ४. करेला, परवल, बैंगन, खीरा (काकडी) मूली, आलु, पालक, अदरख, प्याज, लहसुन, वत्थुआ, लौकी, केले का शाक, ग्वारफली, टमाटर
इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. आ, आअंछ, आअक्ख, आअर, आइ, आइंच, आयंव, आयम, आयर
और आयल्ल धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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४३
पोदिना - पुदिणो, रुइस्सो ( सं ) चौलाई -- तंदुलेज्जगो गोभी - गोजीहा (सं) तोरई - घोसाडइ, घोसालइ ( सं ) कोहला - कुम्हडी
शकरकंदी - रत्तालु (सं) मकोय --- कागमाई (सं)
फली- सिंबा
सांगरी - समीफलं
01
चटनी - अवलेहो घाव - वणो
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन ( २ )
शब्द संग्रह (शाक वर्ग २ )
धनिया – कुत्थंभरी भिंडी - भिण्डा (सं) टिंडा - डिडिसी (सं) गाजर - गाजरं, गिंजणं ( सं ) हल्दी - हलद्दा, हलद्दी मटर – कलायो
चोपतिया साग-सोत्थिओ
सूरनकंद---सूरणं केर—करीरफलं
शाक
- सागो
अपक्व — आमो
धातु संग्रह
आयास- - तकलीफ देना, खिन्न करना
आरज्झ-आराधना करना आरड -- चिल्लाना, बूम मारना आरस - चिल्लाना, बूम मारना आयाव - आतापना लेना, सूर्य के ताप में शरीर को थोडा तपाना
लेना
आया-- आना आया ( आ + दा) ग्रहण करना, आयाम -- शौच करना, शुद्धि करना आयाम -- देना, दान करना आयार ( आ + कारय् ) – बुलाना आह्वान करना
छ, ज, झ, ञ आदेश
नियम ३१० ( छोक्ष्यादौ २।१७ ) अक्षि आदि शब्दों के संयुक्त को छ आदेश होता है ।
दक्ष: (दच्छो)
> छ - अक्षि (अच्छिं) इक्षुः (उच्छू) लक्ष्मी ( लच्छी ) कक्ष: ( कच्छो) क्षुतं (छीअं) क्षीरं (छोरं) सदृक्ष : ( सरिच्छो) वृक्ष: ( वच्छो) मक्षिका ( मच्छिआ ) क्षेत्रं (छेत्तं) क्षुध् ( छुहा) कुक्षि: ( कुच्छी) वक्षस् ( वच्छं ) क्षुण्ण: ( छुण्णो क्षार : ( छारो) कौक्षेयकं ( कुच्छेअयं ) क्षुरः (छुरो) क्षतं (छ) सादृश्यं ( सारिच्छं) ।
)
कक्षा ( कच्छा ) उक्षा (उच्छा )
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संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन (२)
१५६ नियम ३११ (क्षमायां कौ २३१८) क्षमा शब्द पृथिवीवाचक हो तो उसके क्ष को छ आदेश होता है। क्ष>छ-क्षमा (छमा) पृथिवी ।क्ष्मा (छमा) ।
__नियम ३१२ (क्षण उत्सवे २।२०) क्षण शब्द उत्सववाचक हो तो क्ष को छ आदेश होता है। क्ष>छ-क्षणः (छणो) उत्सव ।
नियम ३१३ (रुक्षे वा २०१९) रुक्ष शब्द के क्ष को छ आदेश विकल्प से होता है। क्ष>छ---रुक्षं (रिच्छं) रिक्खं (नियम २९८ से)। स्व>छ-पृथ्वी (पिच्छी) । (नियम ३०६ से)।
नियम ३१४ (स्पहायाम् २।२३) स्पृहा शब्द के स्प को छ आदेश होता है। स्प>छ-स्पृहा (छिहा)।
नियम ३१५ (हस्वात् ध्य-च-त्स-प्सामनिश्चले १२१) ह्रस्व स्वर से परे थ्य, श्च, त्स, प्स को छ आदेश होता है । थ्य >छ-पथ्यं (पच्छं) पथ्या (पच्छा) मिथ्या (मिच्छा)। श्च>E--पश्चिमं (पच्छिम) आश्चर्य (अच्छेरं) पश्चात् (पच्छा) वृश्चिक:
(विछिओ)। रस>छ-उत्साहः (उच्छाहो) उत्सन्नः (उच्छन्नो) चिकित्सति (चिइच्छइ)
मत्सरः (मच्छरो) मत्सरः (मच्छलो) संवत्सरः (संवच्छरो)
संवत्सरः (संवच्छलो)। प्स>छ–लिप्सति (लिच्छइ) जुगुत्सति (जुगुच्छइ) । अप्सरा (अच्छरा)।
नियम ३१६ (सामर्थ्योत्सुकोत्सवे वा २।२२) सामर्थ्य, उत्सुक, उत्सव -इन शब्दों के संयुक्त को छ आदेश विकल्प से होता है । ध्य >छ–सामर्थ्यम् (सामच्छं, सामत्थं)। त्स>छ-उत्सुकः (उच्छुओ, उसुओ) । उत्सवः (उच्छवो, ऊसवो) ।
. नियम ३१७ (च-य्य-याँ जः २।२४) द्य, य्य और र्य को ज आदेश होता है। घ>ज-मद्यम् (मज्ज) अवद्यम् (अवज्ज) वेद्यो (वेज्जो) द्युतिः (जुई)
द्योत: (जोओ) अद्य (अज्ज)। ग्य >ज--जय्यो (जज्जः) शय्या (सेज्जा)। र्य>ज-भार्या (भज्जा) कार्यम् (कज्जं) वय॑म् (वज्ज) आर्यः (अज्जो)
पर्यायः (पज्जाओ) पर्याप्तम् (पज्जत्तं) मर्यादा (मज्जाया) आर्यपुत्रः (अज्जपुत्तो)।
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१६०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ३१८ ( अभिमन्यो जञ्जो वा २।२५) अभिमन्यु शब्द के न्य कोज और ञ्ज आदेश विकल्प से होता है ।
न्य > ज ज – अभिमन्युः (अहिमज्जू, अहिमञ्जू ) >ज - विद्वान् (विज्जं ) | ( नियम ३०९ से ) श>ज - ज्ञानं जाणं, (नियम ३६८ से ) ।
नियम ३१६ ( साध्वसध्य-हयां झः २।२६ ) साध्वस शब्द के ध्व
तथा ध्य और ह्यय को झ आदेश होता है ।
ध्व>झ - साध्वसम् (सज्भसं ) । ध्य > -- बध्यते ( बज्झए ) ध्यानं ( झाणं ) ( सज्झाओ ) साध्यं (सज्झ )
( उवज्झाओ ) । - सह्य: (सज्झो) (णज्झइ ) ।
ह्य झ
ध्यायति ( झायइ) स्वाध्यायः विन्ध्यः (विञ्झो) उपाध्यायः
मह्यम् (मज्झ ) गुह्यम् (गुज्झ ) नह्यति
(नियम २९८ क्वचित् छी) से ।
क्ष - क्षीणं (झीणं) क्षीयते ( झिज्जइ ) प्रक्षीणं (पज्झीणं ) । बुद्ध्वा ( बुज्झा) (नियम ३०६ से ) ।
>
नियम ३२० ( ध्वजे वा २।२७) ध्वज शब्द के ध्व को झ विकल्प से
होता है ।
ध्व>झ – ध्वजः ( झओ, धओ ) ।
नियम ३२१ ( इन्धौ भा २२८) इन्धि धातु के न्ध को झा आदेश
होता है ।
न्ष>झ—इन्धे (इज्झाइ) समिन्धे ( समिज्झाइ ) विइन्धे (विज्झाइ ) ।
नियम ३२२ ( वृश्चिके इचे अ र्धा २०१६) वृश्चिक शब्द के श्चि को ञ्चु आदेश होता है ।
श्चि
वृश्चिकः ( विञ्चुओ ) ।
प्रयोग वाक्य
पुदिणस्स अवलेहं भक्खि इच्छामि । तंदुलेज्जगसागो केण कओ तम्मि लोणं नत्थि ? गोजीहाए कयाइ जीवा भवंति । मज्झगिहे घोसाडई विज्जइ । तुमं कुम्हड कत्थ पाउणिस्ससि ? अंगारपक्करत्तालू अहियो साऊ भवइ । कागमईसागो अंतरवणे उवओगी भवइ । कलायसिंबाए वि सागो भवइ । समीफलसागो मलावरोहं भंजइ । कुत्थंभरीए अवलेहं को न इच्छइ ? आमभिडासागो मज्झं रोयइ । डिडिसो मरुभूमीए भवइ । गाजरसागो णियवण्णस्स सरिक्खं भुंजमाणस्स सरीरं करेइ । हलद्दाए सागो मए सइ ( एक बार ) भुत्तो ।
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संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन (२)
१६१ कलायम्मि रत्तमिरिअं अहियं अत्थि । सोवत्थिअसागो भगवया महावीरेणावि भुत्तो । सूरणो रुक्खो भवइ । गिम्हकाले जणा खट्ट करीरफलाण सागं रुइए (रुचि से) भक्खंति । धातु प्रयोग
____तुम अत्थ कया आयाहिसि ? तुज्झ पोत्थयं अहं आयाहिमि । पच्चूहे सव्वे जणा आयामति । दाणवीरो सोहणो धणं आयामइ । गुरू केण कारणेण सीसा आयारइ ? मुणी सुहलालो गिम्हकाले सिलापट्टम्मि आयाविंसु । सासू धणलोभत्तो पुत्तवहूं आयासइ । सो णाणं आरज्झइ । पिउस्स मच्चुम्मि पुत्तो आरडइ आरसइ वा। प्राकृत में अनुवाद करो
पुदिना की चटनी किसने बनाई है ? वह दाल में धनिए की चटनी मिलाकर खाता है । चौलाई के शाक से कब्ज मिटती है। गोभी के पत्तों का शाक मैं खा सकता हूं। बाजार में आज तोरई का शाक अधिक है। कोहला तुम किस स्थान से लाए हो ? शकरकंदी के शाक में उतनी मधुरता नहीं है। मकोय शाक त्रिदोष को नाश करता है। आज मैं मटर की फली का शाक नहीं खाऊंगा। सांगरी का शाक स्वास्थ्य के लिए हितकर है। कच्ची भिंडी का शाक पेट की शुद्धि करता है। टिंडा के भीतर लाल मीर्च देकर बना हुआ शाक कौन नहीं खाता है ? गाजर रक्त को बढाती है। हल्दी का शाक वायु को नाश करता है। मटर का शाक आजकल सब जगह मिलता है । चोपतिया साग को बंगाल के लोग अधिक खाते हैं। सूरनकंद तुम कल कहां से लाओगे ? केर का शाक बहुत लाभकारी होता है। धातु का प्रयोग करो
वह अपने घर से आता है। तुम मुझे शिक्षा दो मैं सम्यक् ग्रहण करूंगा। प्रतिदिन मैं समय पर शौच जाता हैं। जो दूसरों को देता है वह अधिक पाता है । भगवान महावीर ने अपने शिष्यों को आह्वान किया । भिक्षु' स्वामी ने नदी में आतापना ली। किसी को तकलीफ मत दो। मैं अपने आराध्य की आराधना करता हूं। वह अपनी माता की मृत्यु सुनकर खूब रोया।
प्रश्न १ नीचे लिखे शब्दों में बताओ इस पाठ के किस नियम से क्या आदेश हुआ है ? अहिमज्जू, सज्झसं, कुच्छी, छणो, रिच्छं, विछिओ, सामच्छं, सावज्जो, जुई, मझं, झओ, इज्झाइ, अज्जा ।
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१६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
२. पोदीना, चौलाई, गोभी, तोरई, कोहला, शकरकंदी, मकोय, फली का
शाक, सांगरी, धनिया, भिंडी, टिंडा, गाजर, हल्दी, मटर, चोपातिया, सूरनकंद, केर-इन शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ। ३. आया, आया, आयाम, आयाम, आयर, आयास, आरज्झ, आरड,
आरस, आयाव धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वावय में प्रयोग करो। ४. पच्छं, भस्सं, सहावो, गुलं, साउज्ज, कंती, सिंगबेरं, गोराणी, पडोल
शब्द को वाक्य में प्रयोग करो और हिन्दी में अर्थ बताओ।
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४४
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (३)
o
पीपर पिप्पली
लौंग - लवंगो, पउमा पीपरामूल – पिप्पलीमूलं
अश्वगंध-- अस्सगंधा वंशलोचन - वंसरोअणा अडूसा -- वासओ
चूना चुणं
शब्द संग्रह ( औषधि वर्ग १ )
०
जुकाम - पडिसायो
स्मृति---सई (स्त्री) स्वच्छ- -अच्छं
काली मिर्च - कह मिरिअं सोंठ सुंठी
गिलोय - गलोई, वच्छादणी गोखरु—–गोक्खुरो
फिटकडी- सोरट्टिया जमालगोटा - सारओ खदिरसार ( कथा ) -- सिखइरो ( सं )
०
उदर-- उअरं
कृमि — किमी चामर - सीतं
धातु संग्रह
आराह-- भक्ति करना
आलिंग - गले लगाना आलिंगन करना आरूस - क्रोध करना, रोष करना आलिपपोतना, लेप करना आलंब - --आश्रय लेना, सहार लेना आलक्ख - चिह्न से पहचानना आलव -- बातचीत करना
आली - आसक्त होना
वीअ - हवा डालना उज्जाल - जलाना
---
०
ट, ठ, ड, ढ आदेश
नियम ३२३ ( वृत्त प्रवृत्त मृत्तिका पत्तन कदर्थते टः २२६ ) इन शब्दों के संयुक्त को ट आदेश होता है ।
त 7 ट - वृत्त: ( वट्टो) प्रवृत्तः ( पयट्टो ) मृत्तिका ( मट्टिआ ) पत्तनं ( पट्टणं ) थं 7 ट— कदर्थितः (कवट्टिओ)
नियम ३२४ ( तस्याधूर्त्तादौ २।३० ) र्त को ट आदेश होता है । धूर्त्त आदि शब्दों को छोडकर |
र्त 7 ट कैवर्त (केवट्टी) वर्ती ( वट्टी ) नर्तकी (नदृद) वर्तुल (बट्टुलो) जत: ( जट्टो) वर्तुलं ( वट्टुलं) राजवर्तकं ( रायवट्टयं ) |
नियम ३२५ ( पर्यस्ते थ-टो २२४७) पर्यस्त शब्द के स्त को क्रमशः थ और ट आदेश होता है ।
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१६४
स्त 7 ट पर्यस्त: ( पल्लट्टो )
नियम ३२६ ( थावस्पन्दे २६) स्तम्भ के स्त को थ और ठ आदेश होता है, स्पन्द का अभाव ( गतिहीन ) अर्थ हो तो ।
स्त 7ठ--स्तम्भ : ( ठम्भो ) स्तम्भ्यते ( ठम्भिज्जइ )
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ३२७ ( ठोस्थि विसंस्थले २१३२) अस्थि और विसंस्थुल शब्दों के स्थ को ठ आदेश होता है ।
स्थ>ठ — अस्थि (अट्ठी), विसंस्थलं (विसठुलं )
नियम ३२८ (स्त्यान चतुर्थार्थे वा २०३३ ) स्त्यान, चतुर्थ और अर्थ शब्द के संयुक्त को ठ आदेश विकल्प से होता है ।
त्य7ठ - स्त्यानं ( ठीणं, थीणं)
थं 75 – चतुर्थः (चउट्ठो, चउत्थो) अर्थ: (अट्ठी) प्रयोजन
नियम ३२६ ( ष्टस्यानुष्ट्रेष्टा - संदष्टे २१३४) उष्ट्र आदि शब्दों को छोडकर ष्ट को ठ आदेश होता है ।
ट 75- यष्टिः (लट्ठी) मुष्टि: (मुट्ठी) दृष्टि: ( दिट्ठी) सृष्टि (सिट्ठी) पुष्टः (पुट्ठो) कष्टं (कट्ठ) सुराष्ट्रा (सुरट्ठा) इष्ट: ( इट्ठो) अनिष्टं ( अणिट्ठ ) ।
ष का लोप शेष वर्ण द्वित्व
ठ 7 ठ–कोष्ठागारः ( कोट्ठागारो ) सुष्ठु (सुट्ठ) इष्टा ( इट्टा ) । उष्ट्र: ( उट्टो ) । संदष्ट: ( संदट्टो ) ।
नियम ३३० (स्तब्ध ठ-ढौ २।३६ ) स्तब्ध के स्त को ठ और ब्ध को आदेश होता है ।
स्त / ठ – स्तब्ध: ( ठड्ढो)
नियम ३३१ ( गर्ते ड: २०३५) गर्त शब्द के र्त को ड आदेश होता है । 173 – गर्तः (गड्डो ) ( ट का अपवाद )
नियम ३३२ ( संमर्व-विर्ताद-विच्छ च्छादकपदं मदिते स्य २०३६) इन शब्दों के संयुक्त र्द को ड आदेश होता है ।
बं 7 ड - संमर्द : ( संमड्डो) विर्ताद : (विअड्डी) विच्छर्दः (1
( कबड्डो )
(छड्डी) कपर्द ( संमड्डियो) ।
नियम ३३३ ( गर्वमे वा २।३७) गर्दभ शब्द के र्द को ड आदेश विकल्प से होता है |
र्ब 7 ड–गर्दभ: ( गड्डहो, गद्दहो)
( विच्छ्डो) छर्दिः
संमदित:
मर्दित: ( मड्डिओ)
नियम ३३४ ( दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः २।४०) दग्ध, विदग्ध, वृद्धि, वृद्ध शब्दों के संयुक्त को ढ आदेश होता है ।
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संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन ( ३ )
रघ> ढ - दग्धः (दड्ढो) विदग्ध: ( विअड्ढो ) 78 – वृद्धि: ( वुड्ढी) वृद्ध: ( वुड्ढो) ब्ध 7 ढ - स्तब्धः ( ठड्ढो)
(नियम ३३० के अनुसार )
नियम ३३५ ( श्रद्धाद्धि-मूर्धोन्ते वा २०४१) श्रद्धा, ऋद्धि, मूर्धन् और अर्ध शब्दों के अंतिम संयुक्त र्ध को ढ आदेश विकल्प से होता है ।
( इड्ढी, रिद्धी) मूर्ध (मुण्ढा,
र्ष 7 ढ – श्रद्धा (सड्ढा, सद्धा ) ऋद्धि: मुद्धा ) । अर्ध ( अड्ढं, अद्धं )
प्रयोग वाक्य
पिप्पलीए सह दुद्धं पाअव्वं । बारहमुहुत्तपेरन्तं पाणिअम्मि दिने लवंगं ठाऊण सलिलेण सह पाअव्वं । अस्सगंधा भक्खणेण अस्ससमो बलो भवइ । पिप्पलीमूलं सइवड्ढयं हवइ । बालो वंसरोअणं खाअइ । कण्हमिरिअं घयेण सह भोयणे बहुलाभअरं भवइ । सुंठीए पओगो अणेगहा होइ । वच्छादणीइ उअरस्स सुद्धी भवइ । गोक्खु रेण अच्छं मुत्तं आयाइ । वासओ कफणासओ भवइ । सोरट्टियाए उवओगो अणेगेसु कज्जेसु भवइ । वणे चुण्णस्स उवओगो होइ । सिअबइरेण दंता दढा भवंति । सारएण उभरस्स किमिणो णस्संति ।
१६५
धातु प्रयोग
किं तुमं पासणाहं आराहसि ? पिआ पुत्तं आरूसइ । सो रुक्खं आरोह | संघ आलंबिऊणं मुणी साहणं करेइ । तुमं परुप्परं किं आलवसि ? fun पुत्ति आलिंगइ । रामो भरहं आलिंगइ । उच्छवे दक्खिणपएसवासिणो हिं आलिपति । तुमं कहं रूवम्मि आलीसि ? अहं तुमं आलक्खामि । मुणी सीतेण न सयं वीअइ । सीया अगणि उज्जालइ ।
प्राकृत में अनुवाद करो
पीपल मंदाग्नि को दूर कर भूख बढाती है । फुनसी पर लौंग लगाने से पीडा कम होती है । अश्वगंध बल देनेवाली औषधि है । पीपरामूल दिमाग की शून्यता को मिटाती है । वंशलोचन हृदय को दृढ करता है। कालीमिर्च भूख को जगाती है । सूंठ अनेक रोगों में उपयोगी है। गिलोय पेट की शुद्धि करता है और वातरोग को दूर करता है । गोखरु से मूत्र का अवरोध मिटता है । अडूसा कफनाशक है और श्वास रोग में काम आता है। फिटकडी से जुकाम ( पडिसायो ) मिटता है । चूना हड्डी को मजबूत ( दढ ) बनाता है । जमालगोटा से मल पतला होकर अनेक वार निकलता है । कत्था गुण से गरम होता है । धातु का प्रयोग करो
वह प्रतिदिन शिव की आराधना करता है । मन के प्रतिकूल बात
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१६६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
सुनकर वह शीघ्र रोष करता है । जो ऊपर चढता है वही नीचे गिरता है। महापुरुष का आलम्बन लेकर छोटा व्यक्ति भी ऊपर चढ जाता है। आपकी आवाज सुनकर मैंने आपको पहचान लिया। उसके साथ बातचीत मत करो। माता बच्चे को गले लगाती है। निर्धन व्यक्ति अपने घर को बार-बार पोतता है । वह भींत पर गौतम स्वामी का चित्र बनाता है। राम अपने पिता को हवा डालता है। विमला अग्नि क्यों नहीं जलाती है ?
प्रश्न १. इस पाठ में किन-किन संयुक्त वर्णों को ट आदेश होता है ? २. नीचे लिखे शब्दों को इस पाठ के नियमों से सिद्ध करोविसंठुलं, ठीणं, इट्टो, सुरट्ठा, ठड्ढो, गड्डो, चउट्ठो, मड्डिओ, विअड्ढो
वुड्ढो । ३. पीपर, लौंग, पीपरामूल, अश्वगंध, वंशलोचन, अडूसा, चूना, काली मीर्च, सोंठ, गिलोय, गोखरु, फिटकडी, जमालगोटा, कत्था—इन शब्दों
के लिए प्राकृत शब्द बताओ? ४. आराह, आरूस, आलंब, आलक्ख, आलव, आलिंग, आलिंप, वीअ,
उज्जाल और आली धातुओं के अर्थ बताओ तथा उन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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४५
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (४)
शब्द संग्रह (औषधि वर्ग २) आमला--धत्ती
हर-हरडई, अभया बहेडा-बहेडओ
त्रिफला-तिफला मेथी-मेथी (सं)
अजवायन-अजम (वि) दे. . ईसबगोल-ईसिगोलो (सं)। ईसबगोलभुसी-ईसिगोलवुसं (सं)
णिद्धवीयं (सं) दालचीनी-चोअं (दे.) चोचं (सं) जायफल-जाइफलं
इलायची--एला, थूलेला, तिपुडा (सं) जावित्री-जाइवत्तिआ
सौंफ -सयपुप्फा छोटी इलायची-सुहुमेला गोरोचन-गोर्लोअणो (सं) नागकेसर-णागकेसरो
भुना हुआ-भज्जिअ (वि)
धातु संग्रह कंख-चाहना, बांछना
कत्थ-श्लाघा करना, प्रशंसा करना कंप-कांपना
कप्प (कृप)--काम में आना, कल्पना कज्जलाव-डूबना
कयत्थ-हैरान करना कडक्ख-कटाक्ष करना
कर-करना कढ (क्वथ्)-उबालना, क्वाथ कराल-फाडना, छेद करना
करना स,य,ष,न आवेश
नियम ३३६ (म्न-ज्ञोर्णः १०४१) म्न और ज्ञ को ण आदेश होता है। म्न>ण-निम्नं (निण्णं) । प्रद्युम्नः (पज्जुण्णो) ज्ञ7ण-आज्ञा (आणा)। ज्ञानं (णाणं) । संज्ञा (सण्णा) . विज्ञानं (विण्णाणं) । प्रज्ञा (पण्णा)
नियम ३३७ (पञ्चाशत्-पञ्चदश-वत्ते स४३) पञ्चाशत्, पञ्चदश और दत्त शब्द के संयुक्त को ण आदेश विकल्प से होता है। च>ण-पञ्चाशत् (पण्णासा) पञ्चदश. (पण्णरह) ताण-दत्तं (दिण्णं)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ३३८ (वन्ते ण्टः २।३१) वृन्त शब्द के न्त को ण्ट आदेश होता है। न्त>ष्ट-वृन्तं (वेण्टं) तालवृन्तं (तालवेण्ट)
नियम ३३६ (कन्दरिका-भिन्दिपाले : २३८) कन्दरिका और भिन्दिपाल के न्द को ण्ड आदेश होता है। न्द>ण्ड-कन्दरिका (कण्डलिआ) । भिन्दिपाल: (भिण्डिवालो)।
नियम ३४० (सूक्ष्म-श्न-उण-स्न-ह न-हण-क्षणां व्हः २७५) सूक्ष्म शब्द तथा श्न, ष्ण, स्न, ह ल और क्ष्ण को ण्ह आदेश होता है। श्न>ह-प्रश्नः (पण्हो) । शिश्नः (सिण्हो) bण 70ह-विष्णुः (विण्हू)। जिष्णुः (जिण्हू)। कृष्णः (कण्हू)। उष्णीषं
(उण्हीसं) स्न7ह-ज्योत्स्ना (जोण्हा) स्नातः (हाओ) प्रस्तुतः (पण्हुओ) ह>ह-वह्निः (वण्ही) जह नुः (जण्हू) 0>ह-पूर्वाह्नः (पुवाहो) अपराह्नः (अवरण्हो) क्षण>ण्ह-तीक्ष्णं (तिण्ह) श्लक्ष्णं (सण्ह) माह-सूक्ष्म (सण्ह)
नियम ३४१ (पात्र्याम् २।८१) धात्री शब्द में र का लुक् विकल्प से होता है। त्रात-धात्री (धत्ती)। ह.स्व करने से पहले र का लोप करने से धाई
बनेगा।
नियम ३४२ (स्तस्य यो समस्त-स्तम्बे २।४५) समस्त और स्तम्ब को छोडकर स्त को थ आदेश होता है। स्त74-हस्त: (हत्थो) स्तुतिः (थुई) स्तोत्रं (थोत्तं) स्तोकं (थो)
प्रस्तरः (पत्थरो) प्रशस्त: (पसत्थो) अस्ति (अत्यि) स्वस्तिः
(सत्थि ) स्त 72-स्तम्भः (थंभो)। (नियम ३२६ से)
नियम ३४३ (स्तवे वा २०४६) स्तव शब्द के स्त को थ आदेश विकल्प से होता है। स्त7थ-स्तवः (थओ, तवो) . स्तथपर्यस्तः (पल्लत्थो) (नियम ३२५ से) साथ-उत्साहः (उत्थारो, उच्छाहो) (नियम २८४ से)
. नियम ३४४ (माश्लिष्टे ल-धो २१४६) आश्लिष्ट शब्द के पल को ल तथा ष्ट को ध आदेश होता है। ष्ट 74-आश्लिष्टः (आलद्धो)
नियम ३४५ (मन्यो न्तो वा २०४४) मन्यु शब्द के न्य को न्त आदेश
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संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (४)
विकल्प से होता है। न्य 7न्त-मन्युः (मन्तू, मन्नू)
नियम ३४६ (चिन्हे न्धो वा २०५०) चिन्ह शब्द के न्ह को न्ध आदेश विकल्प से होता है। न्ह 7-ध-चिन्हं (चिन्धं, इन्धं, चिण्हं)
नियम ३४७ (मध्याह्न हः २।८४) मध्याह्न शब्द के ह का लुक् विकल्प से होता है। ह7 न-मध्याह्नः (मज्झन्नो, मज्झण्हो) प्रयोग वाक्य
दंतेहिं चन्विऊण (चबाकर) हरडईए भक्खणे उअराग्गी वड्ढइ । जं जाइफलं णिद्धं, गुरुं, सह य करेइ तं उत्तमं भवइ । जाइवत्तिआ जाइफलस्स तया (त्वचा) चिअ भवइ । अजमो अरसं (बवासीर) णासइ। ईसिगोलवुसं नीरेण सह भुंजिअव्वं, सीयलं भवइ। चोरं सुगंधमयं सुसाउ य भवइ । ईसिगोलो महुरो मलरोहगो य भवइ। एला रत्तपित्तणासिया भवइ । सुहुमेला सीयला होइ । धत्ती केसेसु नेतसु य हियअरा अस्थि । बहेडओ अरसपडिसायाइरोगेसु उवओगी होइ । मेथीबीयाण उवओगो चम्मस्स मिउत्तण→ (मृदुता) भवइ । सुहुमेला सीयला भवइ । गोलोअणो अवमारं (पागलपन) नस्सइ । सयपुप्फा भक्खणे सुक्ककासे (सूखी खांसी में) लाभअरा भवइ । तिफलाए नीरेण नेत्तजोई वड्ढइ । णागकेसरो कोढं णासइ । धातु प्रयोग
अहं किमवि न कंखामि । तस्स नाममत्तेण सो कंपइ। तुम नईइ कहं कज्जलावीअ । पत्ती पई कडक्खइ । मामा के कढइ ? सो अप्पाणं कत्थइ । इणं वत्थु मं कप्पइ । तुम मित्तं कहं कयत्थसि ? सो कळं करालेइ। प्राकृत में अनुवाद करो
____ आमला के खट्टेपन (खट्टत्तणेण) से वायु का नाश होता है। बहेडा मस्तिष्क के लिए हितकारी है । मेथी शोथ (सूणिओ) को दूर करती है। ईसबगोल मल को बांधता है । जायफल तृषा (तण्हा) और शूल (सूलो) को दूर करती है । जावित्री खांसी और जडता को दूर करती है। छोटी इलायची केलों के भारीपन को मिटाती है। भुनी हुई हरी त्रिदोष का नाश करती है। त्रिफला कफ, पित्त को नाश करने वाली तथा प्रमेह (महुमेहणी) को दूर करनेवाली है। अजवायन वमन (वमण) को दूर करती है । ईसबगोल की भुसी शीतल होती है। दालचीनी शरीर को सुंदर करनेवाली है । इलायची पथरी (अस्सरी) को दूर करती है। सौंफ को पीसकर पीने से पेशाब की जलन मिटती है । गोरोचन उन्माद (उम्मायो) को दूर करता है। नागकेशर
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१७०
रुधिररोग (रक्तरोगो) में काम आता है । धातु का प्रयोग करो
तुम मुझसे क्या सहयोग चाहते हो ? आवेग आने पर मनुष्य कांपता है । जो तैरता है वही डूबता है । यह लडकी किसकी ओर कटाक्ष करती है ? वह औषधियों का क्वाथ करता है पर जानता नहीं। अपनी प्रशंसा मत करो । आपको क्या कल्पता है कृपाकर हमें बताओ । जो दूसरों को हैरान करता है वह स्वयं दुख पाता है । आकाश में किस कारण से छेद होता है ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रश्न
१. ज्ञ कोण करनेवाला कौनसा नियम है ? उदाहरण देकर स्पष्ट करो । २. ह आदेश किन संयुक्त वर्णों को होता है ? नियम बताओ । ३. न्द, न्त, स्त, त्र और न्य संयुक्तवर्णों को क्या-क्या आदेश होता है ? ४. नीचे लिखे शब्दों में इस पाठ के नियमों से क्या आदेश हुआ है ?
चिन्धं, मज्झन्नो, आलद्धो, पल्लत्थो, व्हाओ, धत्ती, वेण्ट, भिण्डिवालो । ५. आमला, हर्र, बहेडा, त्रिफला, मेथी, अजवायन, ईसबगोल, जायफल, जावित्री, दालचीनी, ईसबगोलभुसी, इलायची, सौंफ, गोरोचन, छोटी इलायची - इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
६. कंख, कंप, कज्जलाव, कडक्ख, कढ, कत्थ, कप्प, कयत्थ और कराल धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो ।
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४६
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (५)
शब्द संग्रह (धान्य वर्ग १)
मूंग----मुग्गो उडद-~-मासो जो-जवो मोठ-वणमुग्गो, मकुट्ठो (सं) मक्का--मकायो, महाकायो (सं) मटर-कलायो खेसारी-तिपुडो (सं)
चना-चणओ, चणो बाजरा---बज्जरी (सं) कुलथी-कुलत्थो, कुलमासो साठीधान-साली चवला-आलिसंदो सावां-सामयो (सं) शरबीज-चारुगो (सं)
पापड--पप्पडो
पोला-पोलं (दे०)
पदार्थ - पयत्थो
धातु संग्रह कल--संख्या करना, गिनना किड्ड (क्रीड्) खेलना, क्रीडा करना कव (कु) आवाज करना
किर–फेंकना, बिखेरना कह (क्वथ्) उबालना
किलिस-थक जाना कास-कासना, खांसी की आवाज करना कीण-खरीदना कुच्छ-धिक्कारना, निंदा करना प, फ, ब, भ, म आदेश
नियम ३४८ (इम-क्मो २।५२) ड्म और क्म को प आदेश होता है। ड्म>प-कुड्मलं (कुम्पलं) म>प-रुक्मिणी (रुप्पिणी) । रुक्मी (रुप्पी) । सम>प-(क्वचित् मोपि) रुक्मी (रुच्मी, रुप्पी)
नियम ३४६ (भस्मात्मनोः पो वा २१५१) भस्मन् और आत्मन् शब्दों के संयुक्त को प आदेश विकल्प से होता है । स्म>प-भस्म (भप्पो, भस्सो) । त्म>प-आत्मा (अप्पा, अत्ता)
(क्वचिन्न भवति) प>प-निष्प्रभः (निप्पहो) । निष्पुंसनं (निप्पुंसणं) स्प>प-परस्परं (परोप्पर)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध . (बहुलाषिकारात् पचिव विकल्पः) स्प>प-बृहस्पतिः (बुहप्पई, बिहप्पई)
(बहुलाधिकारात् क्वचिदन्यवपि) स्व><-निस्पृहः (निप्पिहो)।
नियम ३५० (रुपस्पयोः फ: २३५३) ष्प और स्प को फ आदेश होता
प>फ-पुष्पं (पुप्फ) । शष्पम् (सप्फ) । निष्पेषः (निप्फेसो) । निष्पावः
(निप्फावो)। स्प>फ-स्पन्दनम् (फन्दणं)। प्रतिस्पर्धी (पाडिप्फद्धी, पडिप्फद्धी)
प्रतिस्पर्धा (पडिप्फद्धा) । स्पन्दते (फंदए) । वनस्पतिः (वणप्फई) स्पर्धते (फदए)। बृहस्पतिः (बुहप्फइ, बिहप्फई)।
नियम ३५१ (भीष्मे हमः २३५४) भीष्म शब्द के हम को फ आदेश होता है। म>फ-भीष्मः (भिप्फो)
नियम ३५२ (श्लेष्मणि वा २।५५) श्लेष्म शब्द के ज्म को फ आदेश विकल्प से होता है। हम>फ-श्लेष्मा (सेफो, सिलिम्हो)
नियम ३५३ (ह्रो भो वा २१५७) ब को भ आदेश विकल्प से होता है। ब7 भ-जिह्वा (जिब्भा, जीहा)
नियम ३५४ (वा विहले वो वश्च २१५८) विह्वल शब्द के ह्र को भ भादेश विकल्प से होता है। उसके योग में वि शब्द के व को भ आदेश विकल्प से होता है। ह74, भ-विह्वलः (भिब्भलो, विन्भलो, विहलो)
नियम ३५५ (बोर्वे २५९) ऊर्ध्व शब्द के ध्व को भ आदेश विकल्प से होता है। ध्व74-ऊध्वं (उभं, उद्धं)
नियम ३५६ (ग्मो वा २१६२) ग्म को म आदेश विकल्प से होता है। ग्म/म-युग्मं (जुम्म, जुग्गं) । तिग्मं (तिम्म, तिग्गं) . नियम ३५७ (न्मो मः २१६१) न्म को म आदेश होता है। (अधः म के लोप का अपवाद है) न्म 7 म-जन्म (जम्मो) । मन्मथः (वम्महो) । मन्मनं (मम्मणं)
नियम ३५८ (ताम्राने म्ब: २१५६) ताम्र और आम्र के म्र को म्ब आदेश होता है। 97म्ब-तानं (तम्बं) आनं (अम्बं)
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संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (५)
१७३ नियम ३५६ (कश्मीरे म्भो वा २।६०) कश्मीर शब्द के श्म को म्भ आदेश विकल्प से होता है । श्म 7म्भ-कश्मीरा (कम्भारा, कम्हारा)
नियम ३६० (पक्ष्म श्म-5म-स्म-हमा-म्हः २०७४) श्म, ष्म, स्म, ह्म तथा पक्ष्म शब्द के क्ष्म को म्ह आदेश होता है। श्मा म्ह--कुश्मानः (कुम्हाणो) । कश्मीरा: (कम्हारा) म 7 म्ह-ग्रीष्मः (गिम्हो) । ऊष्मा (उम्हा) स्म 7 म्ह---अस्मादृशः (अम्हारिसो) । विस्मयः (विम्हओ)
7म्ह-ब्रह्मा (बम्हा) । सुराः (सुम्हा) । ब्राह्मणः (बम्हणो) म 7 म्ह-पक्ष्म (पम्हाइं)
(क्वचित् म्भो पि) 7म्म---ब्राह्मणः (बम्भणो) । ब्रह्मचर्य (बम्भचेरं) म7म्भ-श्लेष्मा (सिम्भो) प्रयोग वाक्य
मुग्गस्स पप्पडो भवइ । मासस्स दालीए वडगाई पोल्लाई भवंति । चणस्स रुट्टिअं दहिणा सह भुंजंति पुरिसा। घयसक्करासंजुत्तं बजरि को न अहिलसइ सीयकाले ? जवस्स तिण्णि भेया संति । मकुट्ठो मलरोहगो भवइ । कलायो मलावरोहगं णस्सइ। कुलत्थो भारहवासे पाओ सव्वत्थ मिलइ । बंगदेसे दक्खिणदेसे य साली पहाणं भोयणं भवइ । आलिसंदस्स संयावो अज्ज मए भुत्तो । सामयधण्णं निद्धणा चिअ खाअंति। तिपुडबीयेसु विसपयत्यो भवइ । चारुगो महुरो सीयलो य भवइ । धातु संग्रह
__ अहं पायवा कलामि । गिहे को कवइ ? माआ अज्ज निंबपत्ताई कहिस्सइ । जो दहिं भुंजइ सो अहियं कासइ। जो नरा मारइ तं सब्वे कुच्छंति । अत्थ बाला सया किड्डंति । पयजत्तं विणा सो कहं किलिसिसु । उवालंभं सुणिऊणं वि सो न किलेसइ । तुमं कस्स उट्ट कीणसि ? लवणरहियसागस्स एग कवलं भक्खिऊण सो कोवेण थालं किरिसु । प्राकृत में अनुवाद करो
मंग की दाल रोगी के लिए लाभदायक होती है। मेवाडवासी वाटी के साथ उडद की दाल खाते हैं। हम लोग प्रायः चने के आटे (वेसण) की कढी (कढिआ) खाते हैं । बाजरा मरुभूमि का प्रमुख भोजन है। मक्का की रोटी घी सहित खाने से गर्मी दूर होती है। साठी धान्य धनवान् खाते हैं । हैं । मैंने कभी चवला की रोटी नहीं खाई। मोठ शीतल, कृमिजनक (किमीजणयो) और ज्वर नाशक होता है। कुलथी धान्य का प्रयोग समय-समय पर
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१७४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
होता है। सावो धान्य वर्षा के प्रारंभ में बोते (वपइ) हैं। जौ रूखा, शीतल और मलरोधक होता है । खेसारी की दाल खाने से लकवा (पक्खाघायो) जैसा रोग होता है । शरबीज रक्त पित्त और कफ को नाश करता हैं । धातु का प्रयोग करो
वह बालकों को गिनता है। घर के बाहर कौन आवाज करता है ? तुम जो कुछ कहते हो वह सत्य है। मेरा दादा खांसता है । राजा ने चोर को बहुत धिक्कारा । बच्चे घर के आंगन में खेलते हैं। बच्चे ने क्रोध में मिठाई को बिखेर दिया । आज वह पदयात्रा में थक गया। तुम व्यर्थ में क्लेश क्यों पाते हो? तुम बाजार में वस्त्र खरीदते थे।
प्रश्न १. ड्म, न्म, ग्म, ह्व, स्प- इन संयुक्तवर्णों को किस नियम से क्या आदेश
होता है ? उदाहरण सहित बताओ। २. नीचे लिखे शब्दों में किस संयुक्त वर्ण को क्या आदेश हुआ है ? विम्हओ,
सुम्हा, सिम्भो, वम्महो, जिब्भा भिष्फो, सफ, भप्पो। ३. श्म, स्म और ष्म-~-इन संयुक्तवर्णों को किस नियम से सामान्य रूप में __ क्या आदेश होता है और शब्द विशेष में क्या आदेश होता है ? . ४. मूंग, उडद, जौ, मोठ, मक्का, मटर, चना, बाजरा, कुलथी, साठीधान,
चवला, सावां, खेसरी, शरबीज धान्य के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. कल, कव, कह, कास, कुच्छ, किड, किर, किलिस, किलेस और कीण
धातुओं के अर्थ लिखो और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो। ६. रत्तालु, गिंजणं, सोथिओ, वासओ, सुंठी, पउमा, अजमो, अभया और सयपुप्फा-इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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४७
चावल - - तण्डुलो अरहर — आढकी
ज्वार — जुआरी (दे.) सरसों- सस्सपो
O
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन (६)
कोदो कुद्दवो
राई — राई (स्त्री) राइगा बांस के बीज - वंसज वो (सं)
चर्वी- मेओ
शब्द संग्रह (धान्य वर्ग २ )
गेहूं-- गोहूमो
मसूर — मसूरो
तीसी - अलसी
कांगन --- कंगू (स्त्री)
उप्फाले -- उठाना, उखाड़ना उफिड
मेढक की तरह कूदना उप्फुस - सींचना, छिडकना किलेस -- हैरान होना कूण संकुचित होना
कुसुंभ-लट्टा तीनी--णीवारो
गरहेडुआ--- गवेधुआ (सं)
अस्थि - अस्थि (न)
धातु का प्रयोग
कुल्ल - कूदना खअ -- - नष्ट होना
कूड-झूठा ठहरना, अन्यथा करना खउर - डर से विह्वल होना खअर-संपत्ति युक्त होना
र, ल, स, ह आदेश -----
नियम ३६१ ( ब्रह्मचर्य - तूर्य-सौन्दर्य - शौण्डीर्ये यो रः २/६३) ब्रह्मचर्य,
तूर्य, सौन्दर्य और शौण्डीर्य शब्दों के र्य को र आदेश होता है ।
7- बम्हरं ( ब्रह्मचर्यम् ) तूरं ( तूर्यम् ) सुंदेरं ( सौन्दर्यम्) सोण्डीरं
( शौण्डीर्यम्) ।
नियम ३६२ (धर्ये वा २।६४) धैर्य शब्द के र्य को र विकल्प से होता
- धीरं ( धैर्यम् ) धिज्जं ।
नियम ३६३ ( एतः पर्यन्ते २६५ ) पर्यन्त शब्द के एकार से परे ये कोर होता है ।
र्य र - पेरतो ( पर्यन्तः ) ।
नियम ३६४ ( आश्चर्ये २/६६ ) आश्चर्य शब्द के एकार से परे र्य को र होता है ।
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시시시시.
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प्राकृत वाक्यरचना बोध 4>र-अच्छेरं (आश्चर्यम् )। a>र--धारी (धात्री) नियम ३४१ से) ह>र--उत्थारो (उत्साहः) (नियम २८४ से) हं>र-दसारो (दशाहः) (नियम ४०१ से)
(नियम ३७० २१७३) की वृत्ति- इत्यस्य तु वा लो भवति । >ल-कोहली (कूष्माण्डी)।
नियम ३६५ (पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये ल्लः २०६८) पर्यस्त पर्याण, सौकुमार्य शब्दों के र्य को ल्ल होता है। पं>ल्ल-पल्लढें, पल्लत्थं (पर्यस्तम्) । पल्लाणं (पर्याणाम्) । सोअमल्लं
(सौकुमार्यम्)।
नियम ३६६ (दोघे वा २१६१) दीर्घ शब्द के शेष घ को ग विकल्प से होता है। घं>ग--दिग्धो, दीहो (दीर्घः)।
नियम ३६७ (लो ल्हः २१७६) ल के स्थान पर ल्ह होता है । ह>ल्ह-कल्हारं (कह्लारम्) पल्हाओ (प्रह्लादः) ।
नियम ३६८ (बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा २०६६) बृहस्पति और वनस्पति शब्दों के स्व को स विकल्प होता है। स्प>स-बहस्सई (बृहस्पतिः) वणस्सई (वनस्पतिः)।
नियम ३६६ दुःख-वक्षिण-तीर्थे वा २१७२) दुःख, दक्षिण और तीर्थ शब्द के संयुक्त को ह होता है। क्ष>ह-दाहिणो (दक्षिण:) दक्खिणो । स>ह-दुहं (दुःखम्) दुक्खं । >ह-तूहं (तीर्थम्) तित्थम् ।
नियम ३७० (वाष्पे होऽणि २१७०) वाष्प शब्द के रुप को ह होता है अश्रुवाची हो तो। प>ह-बाहो (वाष्प:) नेत्रजल ।
नियम ३७१ (कूष्माण्ड्यां मो लस्तु ण्डो वा २०७३) कूष्माण्डी शब्द के ष्मा को ह होता है । ण्ड को ल विकल्प से होता है। ष्मा>ह-कोहली, कोहण्डी (कूष्माण्डी)।
नियम ३७२ (कार्षापणे २१७१) कार्षापण शब्द के र्ष को ह होता है।
>ह-काहावणो (कार्षापणः)। प्रयोग वाक्य व आढकीदालीहिं सह तण्डुला सव्वे लोआ खाअंति । तंडुला सिग्धं पयंति (पचता है)। अमुम्मि वरिसम्मि सस्सपा अहिया भविहिति । कुद्दवं
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संयुक्त व्यंजन परिवर्तन ( ६ )
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काइ चेअ जणा भुंजंति । अज्जत्ता गोहूमो किं सव्वसुलहो अत्थि ? मसूराण दाली भवइ । लट्टाधण्णं कत्थ उप्पज्जइ ? अलसीए तेल्लं जाअइ । कंगू तुडियत्थीण जुंजिउ समत्था अस्थि । राई वि धण्णाणं एगो भयो अत्थि । णीवारधणं णिद्धणा चिअ खाअंति । वंसजवो रुक्खो सीयलो य होइ । गवेधुआ रुट्टिआओ भक्खणेण मेओ चर्वी) अप्पो भवइ । अलसीए तेल्लं जाअइ । लट्टाए पत्ताण सागो पडिसाये रोगे लाभअरो होइ । धातु प्रयोग
(
सो अक्कमूलं उप्फालेइ । तस्स पुत्तो उफिडतो गच्छइ । मालागारी उज्जाणं उप्फुसइ । तस्स कज्जं किमवि न सिज्झिसु । केवलं नयरे भमणेण सो किलेस | तुमं सयणत्तो तलायम्मि कुल्लीअ । अहं धम्मज्भाणेण कम्माई
आमि । काओ कारणाओ तुमं कूडेसि ? पुत्तबहू ससुरं पासिऊण कूणइ । आयरिअस्स उवालंभेण सो खउरइ । अमुम्मि वरिसम्म अन्नस्स परेण सो
खअरइ ।
प्राकृत में अनुवाद करो
चावल बंगाल में अधिक पैदा होता है। चावल सफेद रंग का धान है उसके साथ अरहर की दाल का मेल करने से वायु कम बनती है । ६० वर्ष पहले मरुस्थल में गेहूं का फुलका केवल पुरुषों के लिए बनता था। मसूर बहुत कम लोग खाते हैं। सरसों का तेल निकाला जाता है । कुसुंभ के बीजों में तैल पाया जाता है । ज्वार शीतल, रूक्ष और पित्त को नष्ट करता है । कांगन ( कंगुनी ) बारह ही मासों में सब जगह मिलता है । कोंदो तृण जाति
धन्य है । तीन तालाब या जलीय भूमि पर फैला हुआ मिलता है । बांस का बीज वातपित्तकारक, कफनाशक और मूत्ररोधक होता है । गरहेडुवा बंगाल में चावल के खेतों में होता है । बहिनें कढी में राई का संस्कार देती हैं । धातु का प्रयोग करो
गाय घास को जड से नहीं उखाडती है । स्कूल के बच्चे मेंढक की तरह क्यों कूदते हैं ? राष्ट्रपति ( रट्ठवई) अपने बाग को प्रतिदिन स्वयं सींचता है । वह पैदल चलने से हैरान हो गया। जो अपनी प्रशंसा सुनकर संकुचित होता है वह महान् है । वह वृक्ष से कूदता है। उसने गलत बात कही इसलिए वह झूठा हो गया । वीतरागी के चार घनघाती कर्म नष्ट हो जाते हैं । पिशाच ( पिसायो ) का नाम सुनकर वह डर से विह्वल हो गया । इस वर्ष लोह के व्यापार ने व्यापारियों को धन से समृद्ध बना दिया ।
प्रश्न
१. र्य को क्या आदेश होता है । प्रत्येक नियम का एक-एक उदाहरण
दो ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
२. ह आदेश किन-किन संयुक्त वर्णों को होता है। उदाहरण सहित
बताओ। ३. इस पाठ में किस शब्द से किस वर्ण का लुक हुधा है ? ४. चावल, गेहूं, अरहर, मसूर, सरसों, तीसी, ज्वार, कुसुंभ बीज, कोदो,
कांगन (कंगुनी), राई, तीनी, बांस के बीज, गरहेडुवा-इन धान्यों के
प्राकृत शब्द बताओ। ५. उप्फाले, उप्फिड, उप्फुस, किलेस, कूण, कुल्ल, कूड, खअ, खउर,
खअर धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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४८
पूर्ण व्यंजन परिवर्तन
शब्द संग्रह (फल वर्ग १) आम-अंबं, सहआरफलं
बेल-वेलयो अमरूद-पेरुओ (सं)
तरबूज-कालिंगो केला--कयलो
खरबूजा--खब्बूयं, दसंगुलं (सं) नारंगी-~णारंगो
कटहल-पणसो कमरख-कम्मरंगो (सं)
अनार--दाडिम कपित्थ-कविट्ठो
सेव-सेवं (सं) सहतूत-तूओ, तूलो (सं)
अनानास-अणंणासं पीलु-पीलु(पुं)
जामुन-जंबूओ, जंबूगो, जंबू (स्त्री) बडहर-लउचो, एरावयो
नाशपती-अमियफलं (सं)
पुष्टिवाला-पुट्रिम (वि०)
खट्टा-खटुं (दे०) कब्ज-मलावरोहो
तंत्र-तंतं
पुराना-पुराअणं
धातु संग्रह खच-पवित्र होना
खुब्भ-क्षुब्ध होना खर-झरना, टपकना
खिस-निंदा करना खरड-लीपना, पोतना
खुम्म-भूख लगना खल-पडना, भूलना, रुकना गल-गलना, सडना
नियम ३७३ (स्तोकस्य थोषक-थोव-येवाः २॥१२५) स्तोक शब्द को थोक्क, थोव, थेव-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। स्तोकं (थोक्कं, थोवं, थेवं, थोअं)।
नियम ३७४ (दुहित-भगिन्यो —आ-बहिण्यो २।१२६) दुहित को धूआ और भगिनी को बहिणी आदेश विकल्प से होता है । दुहित (धूआ, दुहिआ) । भगिनी (बहिणी, भइणी)।
नियम ३७५ (वक्ष-क्षिप्तयो रुक्ख-छुढो २।१२७) वृक्ष और क्षिप्त शब्द को क्रमशः रुक्ख और छूढ आदेश विकल्प से होता है। वृक्षः (रुक्खो, वच्छो) । क्षिप्तं (छूढं, खित्तं)।
नियम ३७६ (वनिताया विलया २११२८) वनिता शब्द को विलया
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आदेश विकल्प से होता है । वनिता ( विलया, वणिआ )
नियम ३७७ ( गौणस्येषत कूरः २।१२६) ईषत् शब्द गौण हो तो कूर आदेश विकल्प से होता है । चिंच व्व कूर पिवका (चिंचा इव ईषत् पक्वा ) । पक्ष में ईसि ।
।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ३७८ ( स्त्रिया इत्थी २।१३०) स्त्री शब्द को इत्थी आदेश विकल्प से होता है । स्त्री ( इत्थी, थी ) ।
नियम ३७६ ( धूते दिहिः २।१३१) धृति शब्द को दिहि आदेश विकल्प से होता है । धृतिः ( दिही, धिई) 1
नियम ३५० ( मार्जारस्य मञ्जर वञ्जरी २।१३२) मार्जार शब्द को मञ्जर और वञ्जर आदेश विकल्प से होता है । मार्जार: (मञ्जरो, वञ्जरो, मज्जारो ) ।
नियम ३८१ ( वैडूर्यस्य वेरुलिअं २०१३३) वैडूर्य शब्द को वेरुलिअ आदेश विकल्प से होता है । वैडूयं ( वेरुलिअं, वेडुज्जं ) ।
नियम ३८२ ( एहि एत्ताहे- इदानीमः २०१३४ ) इदानीम् शब्द को एत्ता और एहि आदेश विकल्प से होता है । इदानीम् (एहि, एत्ताहे आणि) ।
नियम ३८३ ( पूर्वस्य पुरिमाः २।१३५ ) पूर्व शब्द के स्थान पर पुरिम आदेश विकल्प से होता है । पूर्वं ( पुरिमं पुव्वं ) ।
नियम ३८४ ( त्रस्तस्य हित्य - तुट्ठौ २।१३६ ) त्रस्त शब्द को हित्थ और तुट्ठ आदेश विकल्प से होता है । त्रस्तं (हित्यं, तट्ठ, तत्थं ) ।
नियम ३८५ ( बृहस्पतौ बहो भयः २।१३७ ) बृहस्पति शब्द के बह शब्द को भय आदेश विकल्प से होता है । बृहस्पति: ( भयस्सई, भयप्फई, भयप्पई, बहस्सई, बहप्फई, बहप्पई) । ( वा वृहस्पती १।१३८ ) नियम १६७ से इकार और उकार होता है । बिहस्सई, बिहफई, बिहप्पई । बुहस्सई, बुह, बुहप |
नियम ३८६ ( मलिनोभय-शुक्ति-छुप्तारब्ध- पदाते मंडलावह - सिप्पि - छक्काढत्त पाइक्कं २।१३८ ) मलिन को मइल, उभय को अवह, शुक्ति को सिप्पी, छुप्त को छिक्क, आरब्ध को आढत्त और पदाति को पाइक्क आदेश विकल्प से होता है । मलिनं ( मइल, मलिणं ) । उभयं ( अवहं ) । कई उवहं भी मानते हैं । आर्ष में उभयो भी मिलता है, उभयो कालं । शुक्तिः ( सिप्पी, सुत्ती । छुप्तः (छिक्को, छुत्तो ) । आरब्ध: ( आढत्तो, आरद्धो ) । पदातिः (पाइको, पयाई ) ।
नियम ३८७ ( दंष्ट्राया दाढा २।१३६) दंष्ट्रा शब्द को दाढा आदेश होता है । दंष्ट्रा (दाढा ) |
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पूर्ण व्यंजन परिवर्तन
१८१ नियम ३८८ (बहिसो बाहि-बाहिरौ २०१४०) बहिस् शब्द को बाहिं और बाहिर आदेश होता है । बहिः (बाहिं, बाहिरं)।
नियम ३८६ (अषसो हेळं २।१४१) अधस् शब्द को हेट्ठ आदेश होता है । अधः (हेट्ठ)।
नियम ३६० (मात-पितुः स्वसुः सिआ-छौ २११४२) मातृ और पितृ शब्द के आगे स्वस शब्द को सिआ और छा आदेश होता है। मातृस्वसा (माउसिआ, माउच्छा) । पितृस्वसा (पिउसिआ, पिउच्छा)।
नियम ३६१ (तिर्यचस्तिरिच्छिः २११४३) तिर्यच् शब्द को तिरिच्छि आदेश होता है । तिर्यक् (तिरिच्छि)। तिरिच्छि पेक्खइ। आर्ष में तिरिआ भी होती है।
नियम ३६२ (गृहस्य घरोपतौ २११४४) गृह शब्द को घर आदेश होता है, यदि पति शब्द परे न हो तो। गृहः (घरो) । घरसामी (गृहस्वामी) रायहरं (राजगृहम् )।
नियम ३६३ (अतो रिआर-रिज्ज-रीअं २०६७) आश्चर्य शब्द में अकार से परे र्य को रिअ, अर, रिज्ज और रीअ ये चार आदेश होते हैं। आश्चर्यम् (अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिज्जं, अच्छरीअं)। प्रयोग वाक्य
फलेसु अंबो निवो भवइ । पेरुओ मलावरोहस्स णासणाय पढमं ओसहं विज्जइ। कयलो महुरो पुट्ठिमो भवइ । नारंगस्स रसो गरिठ्ठो भवइ । कम्मरंगस्स रुक्खो अइसुंदरो होइ । कविट्ठफलं खट्टं हुवइ । तूअस्स कलं सिंब (फली) व्व भवइ । मए अणेगहा पीलू भुत्तो। लउचस्स रुक्खा उड्ढगामिणो भवंति । वेलस्स पत्तरसस्स पओगो सुवण्णणिम्माणे होइ। कालिंगी किण्हबीया भवइ। खब्बूयं गुणेण सीयलं मलसुद्धिकारयं होइ । पणसो गरिदो विज्जइ। दाडिमस्स तिणि भेया संति । सेवं पुराअणं नत्थि । अणंणासं पुरा भारहवासे नासि । जंबूए पत्ताणि अंब सरिक्खाणि भवंति। अमियफलं खट्टं रुइयरं य भवइ । धातु प्रयोग
सो दंडं गहिऊण अप्पाणं खचइ। तस्स णासाहितो नीरं खरइ । सुवेणयणा घरंगणं खरडिहिइ । जो आसं आरुहइ सो खलइ। समुद्दम्मि पत्थर खेवणेण नीरं खुब्भइ । जो दहि भुंजइ सो खासइ । जो अप्पाणं खिसइ सो अण्णे न खिसइ । अज्ज अहं खुम्मीअ । रायसंगहालये अण्णं गलइ । प्राकृत में अनुवाद करो
आम हमारे देश से बाहर भी जाता है । अमरूद कच्चा भी मीठा होता है। पक्का केला प्रकृति के घर का हलुआ है । नारंगी नागपुर की प्रसिद्ध है।
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१८२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
कमरख के फल पर चार या पांच धार (रेखा) होती हैं। कपित्थ के फल बेल से छोटे होते हैं । सहतूत खाने में बहुत मीठा होता है। पीलु हमारे गांव में बहुत होता है। बडहर के वृक्ष प्रायः बागों में देखे जाते हैं । बेल के पत्ते शिव मंदिर में शिव को चढाते हैं। तरबूज भीतर से लाल रंग का होता है। कटहल बंगाल और दक्षिण प्रदेशों में बहुत मिलती है। अनार का फल वायुनाशक होता है । सेव कश्मीर का बहुत मीठा होता है। अनानास के फल को काटकर खाना भी एक कला है। जामुन का रस दवा में काम आता है। नाशपाती के वृक्ष इस प्रदेश में कहां होते हैं ? धातु का प्रयोग करो
पाप का प्रायश्चित्त करने वाला पवित्र होता है । छत से वर्षा का पानी टपकता है। पर्व के दिनों में दक्षिण प्रदेशों में घर के आंगन को पोतते हैं । अभ्यास करने वाला गिरता भी है। उसके एक शब्द ने सारे घर को क्षुब्ध कर दिया। सज्जन पुरुष किसी की निंदा नहीं करते हैं। बुढापे में आदमी अधिक खांसता है । शारीरिक श्रम से भूख अधिक लगती है। कई दिनों तक फल खुले रहने से सडने लगते हैं ।
प्रश्न १. नीचे लिखे शब्दों को किस नियम से क्या आदेश होता है ? _स्तोकं, त्रस्तं, बृहस्पति:, छुप्तः, स्त्री और मार्जारः । २. नीचे लिखे शब्दों में किस नियम से क्या आदेश हुआ है ? धूआ, कूर, दिहि, बहिणी, वेरुलिअं, पुरिमं, बाहिं, हेट्ट, माउच्छा, अवहं, सिप्पी, तिरिच्छि। ३. आम, नाशपाती, अमरूद, केला, नारंगी, कमरख, कपित्थ, सहतूत, पीलु, बडहर, बेल, तरबूज, खरबूजा, कटहल, अनार, सेव, अनानास,
जामुन---इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ४. खच, खण, खर, खरड, खल, क्षुब्भ, खिस, खास, खुम्म और गल धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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सयुक्तवर्णों का लोप
शब्द संग्रह (फल वर्ग २) पतीता-महुकक्कडी (सं)
बेर-बोरं इमली-चिंचा, कुट्ठा
आलुबुखारा--आरुयं (सं) खजूर-खज्जूरो
बदाम--वायायो नेत्तोवमफलं अंगूर-दक्खा
नारियल-~णारिएलो बिजोरा-माहुलिंगो
नींब का फल-णिबोलिया फालसा-अप्पट्टि (सं)
मौसंबी (मौसंबी)मौसंबी सुपारी-पोप्फलं
अजीर-काउंबरी खुमानी-खुमाणी (सं)
काजू-काजू अगो (सं) सिंघाडा-सिंघाडयो, सिंघाडगं पिस्ता-णिकायगो (सं) अखरोट---अक्खोडबीयं
तालमखाना-कोइलक्खी (त्रि.) मुनक्का-गोत्थणी (सं)
किसमिस-अबीया, ईसिबीया (सं)
ग्रास--गासो
गलना---गलणं व्याकरण-वागरणं
स्वाद-साओ
धातु संग्रह विअक्क-विमर्श करना
गिज्झ-आसक्त होना विअक्ख-देखना
गुंठ-धूसरित होना, धूलि के रंग गस-खाना, निगलना
__ का होना गाअ-गाना
गुण-गुनना, याद करना गाल---छानना
गुड-हाथी के कवच आदि से सजाना गुड-नियंत्रण करना
गुड-नियंत्रण करना , संयुक्तवर्णों का लोप
संयुक्त व्यंजनों में पहले वर्ण को ऊर्ध्व और दूसरे को अधो कहते हैं । दूसरे शब्दों में पहले वर्ण को पूर्ववर्ती और दूसरे को उत्तरवर्ती भी कह सकते
नियम ३६४ (क-ग-ट-उ-त-द-प-श-प-सकपा मूवं लु २७७) संयुक्त वर्गों में क, ग, ट, ड आदि ऊर्ध्व हों तो उनका लुक होता है। क- भुक्तं (भुत्तं) । मुक्तं (मुत्तं) । सिक्थं (सित्थं) ।
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१८४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ग
दुग्धं-दुधं-दुध्धं-दुद्धं । मुग्धं-मुधं--मुध्धं-मुद्धं । ट- कट्फलं-कफलं-कफ्फलं--कप्फ्लं ।
खड्गः-खगो-~-खग्गो । षड्जः-सजो---सज्जो ।
उत्पलं-उपलं-उप्पलं । उत्पाद:--उपादो-उप्पाओ। द.- मद्गुः--मगू----मग्गू । मुद्गरः- मुगरो-मोग्गरो।
गुप्त -गुतो-गुत्तो। सुप्त:-सुतो-सुत्तो। निश्चल:---निचलो-निच्चलो। श्लण्हं—लण्हं । निष्ठुरः-निठुरो। निठुरो-निठुरो।
गोष्ठी-गोठी-गोठ्ठी-गोट्ठी । षष्ठः-छठो-छछो-छट्ठो। स- निष्पृहः-निपहो-निप्पहो । स्नेहः-नेहो । स्खलित:-खलिओ।
नियम ३६५ (अधो म-न-याम् २।७८) संयुक्त व्यंजनों में म, न और य अधो हों तो इनका लोप हो जाता है। म- युग्म-जुग्गं । स्मरः-सरो । रश्मिः-रस्सी । न- नग्न:-नग्गो । लग्नः-लग्गो । य- कुड्यं-कुटुं । व्याधः--वाहो । श्यामा-सामा ।
नियम ३६६ (सर्वत्र ल-ब-रा मवन्द्र २७६) ल, ब (व) और र का लोप हो जाता है, चाहे ये ऊर्ध्व हों या अधो हों, वन्द्र शब्द को छोडकर । शेष रहा व्यंजन आदि में न हो तो वह द्वित्व हो जाता है। ऊर्ध्व ल- उल्का-उका-उक्का । वल्कलम्-वकलं-वक्कलं । अधो ल- विक्लव:--विकवो-विक्कवो । श्लक्ष्णं-सण्हं । ऊर्ध्व ब- अब्दः-अदो-अहो । शब्द:-सदो-सहो ।
लुब्धक:-लुधको---लुध्धको-लुद्धको। अधोव- ध्वस्त:-- धत्थो । पक्कं --- पक्कं । ध्वजो-धजो-धओ। ऊर्ध्व र- अर्क:- अको-अक्को । वर्ग:-वगो-वग्गो ।
वार्ता-वाता-वत्ता। अधोर-क्रिया-किया । चक्रं-चक्कं । ग्रहः हो । रात्रि:---रत्ती।
जहां ऊर्ध्व और अधो दोनों व्यंजनों का एक साथ लोप करने का प्रसंग आए वहां प्रचलित प्रयोगों को ध्यान में रखकर ही लोप करना चाहिए। उद्विग्नः, द्विगुणः, द्वितीयः इत्यादि शब्दों में द्व संयोग में द् ऊर्ध्व है और व अधो है। इसलिए द का लोप करना चाहिए व का नहीं। उद्विग्न शब्द में न का लोप करने पर 'उद्विग्' फिर उद्विग्गा रूप बनता है। उद्विग्ग का उन्विग्ग और उद्दिग्ग ये दो रूप बन सकते हैं । उव्विग्ग रूप आता है, उद्दिग्न नहीं इसलिए व का लोप न कर द का ही लोप करना संगत लगता है। कहीं पर ऊर्ध्व और अधो दोनों वर्गों का लोप क्रमशः होता है। जैसे- उद्विग्न में कज़ का लोप करने पर उविण्ण और अधो का लोप करने पर उन्विग्ग,
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संयुक्त वर्णों का लोप
द्वार का वार और दार दोनों रूप मिलते हैं।
नियम ३९७ (रो न वा २८०) द्र शब्द के र का लुक् विकल्प से होता है। =>द-चन्द्रः (चन्दो, चन्द्रो)। समुद्रः (समुद्दो, समुद्रो)। रुद्रः (रुद्दो,
रुद्रो। भद्रः (भहो, भद्रो)।
नियम ३६८ (शो शः २।८३) ज्ञ शब्द में न का लुक विकल्प से होता है। ज्ञ शब्द ज और ब के संयोग से बना है। अ का लोप होने के बाद ज शेष रहता है। 17ज-ज्ञानं (जाणं, णाणं)। सर्वज्ञः (सव्वज्जो, सम्वण्णो)। अल्पज्ञः
(अप्पज्जो, अप्पण्णू)। दैवज्ञः (दइवज्जो, दइवण्ण) । इंगितज्ञः (इङ्गिअज्जो, इङ्गिअण्णू) । मनोज्ञः (मणोज्ज, मणोण्णं) । अभिज्ञः (अहिज्जो, अहिण्णू )। प्रज्ञा (पज्जा, पण्णा) । आज्ञा (अज्जा, आणा)। संज्ञा (संज्जा, सण्णा)।
(नोणः ११२२८ और बादौ ११२२६) से न का ण हुआ है। 47 त--(नियम ३४१ से) धात्री-धत्ती (र का लुक विकल्प से)
नियम ३६६ (तीक्ष्णे णः २०८२) तीक्ष्ण शब्द में ण का लुक् विकल्प से होता है। क्षण 7 ख—तीक्ष्णं (तिक्खं, तिह) ।
(नियम ३४७ से ह का लुक् विकल्प से) मध्याह्नः (मज्झण्णो, मज्झण्हो)।
नियम ४०० (रात्री वा २०१८) रात्रि शब्द में संयुक्त का लुक् विकल्प से होता है। त्रि7 इ-रात्रिः (राई, रत्ती)।
नियम ४०१ (दशाह २।८५) दशाह शब्द में ह का लुक् होता है। हं 7र-दशाह : (दसारो)।
नियम ४०२ (इचो हरिश्चन्द्रे २२८७) हरिश्चन्द्र शब्द में श्च का लुक होता है। श्च7लुक्-हरिश्चन्द्रः (हरिअन्दो)।
नियम ४०३ (आदेः श्मश्रु-श्मसाने २२८६) श्मश्रु और श्मसान शब्दों के आदि श् का लुक होता है। श्म>म-एमश्रुः (मासू, मंसु, मस्सु) । श्मसानं (मसाणं)। प्रयोग वाक्य
महंकक्कडी मेवाडदेसम्मि वि भवइ । अज्ज मए चिंचाए पाणि पीअं । खज्जूरो अइमहुरो भवइ। ओरंगावायस्स दक्खा रत्ता सुसाऊ य
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प्राकृत वाक्यरचना बोध भवंति । माहुलिंगस्स रुक्खा सया हरिअपुण्णा (हरे भरे) चिट्ठति । अप्पट्ठिणो साओ खट्टो महुरो य भवइ । आयरियतुलसीहिं पोप्फलस्स साओ न चक्खिओ। मज्झ खुमाणी रोअइ। अक्खोडबीयं केइ लोआ कहं न खाअंति । दक्खिणपएसवासिणो अबीया बहु भुंजंति । रोगे गोत्थणी बहु लाभअरा भवइ । णिकायगस्स वण्णो हरियचणव्व हरिओ भवइ । काजू अगा साअम्मि महुरा एव भवंति । काउंबरीए बहुबीयाणि भवंति । सिंघाडया तलायम्मि भवंति । धणिपरिवारे विवाहम्मि वायायाण मिट्ठान्नं भवइ । बालत्तम्मि बोरं मए बहु भुत्तं । नारिएलस्स नीरं ओसहरूवेण पिज्जइ। णिबोलिया फग्गुणमासे चित्तमासे य हवइ । धणंजयस्स आरुयं रोयइ । मद्दास (मद्रास) णयरस्स मोसंबी पीअवण्णा महुरा य भवइ । विहारपएसवासिणो कोइलक्खि बहु खाअंति । धातु प्रयोग
___ वट्टमाणकाले साहुणो पयजत्तं विअक्कंति । तुम अत्थ किं विअक्खसि ? भगवंतस्स महावीरस्म णिव्वाणदिवसे साहुणीओ गोइयं गाति । गिहत्थस्स घरे सलिलं गिण्हंता नीरं गालंति । सो रूवे गिज्झइ। मरुम्मि बालो धलिम्मि खेलंतो गुंठइ । सो आसं गुडेइ । तुम इंदियाई गुडेसि । सो वागरणं गुणइ । सो वसंतस्स हत्थत्तो एग गासं गसइ। प्राकृत में अनुवाद करो
__ पपीता अतिमात्रा में खाने से मूत्र का अवरोध होता है। रात भर भीगी इमली और गुड का पानी पीने से रक्त शुद्धि होती है। खज्जूर पर मक्खियां क्यों बैठती हैं ? दौलताबाद के अंगूर विदेश भेजे जाते हैं । किसमिस अंगूर का सूखा फल है। खांसी और पेशाब की जलन में मुनक्का का उपयोग करते हैं। अखरोट गुण में बादाम के सदृश होता है। काजू विदेशों में बहुत जाता है। पिस्ता सब लोग नहीं खा सकते । अंजीर से पेट की शुद्धि होती है, इसमें अनेक बीज होते हैं। बादाम खाने से बुद्धि बढती है। बिजौरा के छिलके (छोओ) में सुगंधित तेल होता है जिसे सिट्रोन तेल कहते हैं। फालसा हुलासी बहन को बहुत प्रिय है। तुम दिन भर सुपारी क्यों खाते हो ? हम सब खमानी खाना चाहते हैं । सिंघाडा बाजार में अभी नहीं है। बेर के तीन प्रकार हैं । आलुबुखारा हमारे गांव में नहीं मिलता है। किस प्रसन्नता में तुम नारियल बांट रहे हो ? अच्छा बादाम बहुत महंगा है। नींब का फल हर कोई नहीं खा सकता । मैं मौसंबी का रस दोपहर में प्रतिदिन पीता हूं। मेरे भाई ने मेरे लिए तालमखाना भेजे हैं । धातु का प्रयोग करो
बडा काम करने से पहले बडों से विमर्श करना चाहिए। भगवान सबको देखता है । पुरुष ३२ ग्रास खाता है । उसने मधुर गीत गाया । अहिंसक
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संयुक्त वर्णों का लोप
१८७
गलने से पानी छानकर काम में लेता है । क्या तुम दूध में आसक्त हो ? तुम्हारा लडका धूसरित क्यों होता है ? कवच आदि से सजे हुए हाथी पर राजा आरूढ हुआ । वह घोडे को नियंत्रित करता है । वह कौन सा पाठ याद करता है ?
प्रश्न
१. किन वर्णों का ऊर्ध्व होने से लोप होता हैं ? उदाहरण दो ?
२. किन वर्णों का अधो होने पर लोप होता है
?
३. जहां दो व्यंजनों का एक साथ लोप करने का प्रसंग आए वहां क्या करना चाहिए ।
४. किस संयुक्त शब्द में किस वर्ण का लोप हुआ है । उदाहरण सहित बताओ ?
५. पपीता, इमली, खज्जूर, अंगूर, बिजौरा, फालसा, सुपारी, सिंघाडा, बेर, नारियल, आलुबुखारा, मोसंबी, तालमखाना, अंजीर, बादाम, काजू, पिस्ता, किसमिस, मुनक्का, अखरोट, खुमानी — इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
६. विअक्क, विअक्ख, गस, गाअ, गाल, गिज्झ, गुंठ, गुण, गुड इनके अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
७. अलिसंदो, वणमुग्गो, कलायो, गोधूमो, जुआरी, आढकी, पणसो, णारंगी, पेरुओ शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ ।
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५०
पीपल · - अस्सत्थो वरगद - वडो
अशोक - असोयो
बबूल - बब्बूलो मौलसिरी - बउलो
-O
टहनी डाली वंशलोचन - वंसरोयणा
स्वरभक्ति (स्वरागम)
शब्द संग्रह ( वृक्ष वर्ग )
गुमगुम- मधुर अव्यक्त ध्वनि करना ।
गुभ — गूंथना
गोव-- छिपाना
धत्त -- ग्रहण करना
घुरुक्क - घुडकना, गरजना
स्वरभक्ति-
चंदन - चंदणो नीमणिबो
पीलु -- पीलू (पुं)
वांस
वंसो चिरौंजी-पिआलो
अपराधी - अवराहिल्लो
धातु संग्रह
घस - रगडना, घिसना विअंभ - जंभाई खाना
विअड - प्रकट होना विअप्प — संशय करना
संयुक्त व्यंजन में एक व्यंजन य, र, ल, व और ह हो या अनुनासिक हो उन्हें अ, इ, ई और उ में से किसी एक स्वर का आगम कर संयुक्त व्यंजन को सरल बना दिया जाता है, उसे स्वरभक्ति, विप्रकर्ष, विश्लेष या स्वरविक्षेप कहते हैं ।
अ का आगम----
नियम ४०४ ( स्नेहाग्न्यो र्वा २।१०२ ) स्नेह और अग्नि शब्द में अन्त्य व्यंजन से पूर्व अकार का आगम विकल्प से होता है ।
स्न > सण -- स्नेहः (सणेहो, नेहो ) ।
ग्न > गण -- अग्नि: ( अग्गी ) ।
नियम ४०५ ( शाङ्गात् पूर्वोत् २।१००) शाङ्ग शब्द में ङ से पूर्व अकार का आगम होता है ।
क्र 7 रङग - शाङ्ग : ( सारङ्गी ) ।
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स्वरभक्ति (स्वरागम )
नियम ४०६ ( क्ष्मा - श्लाघा - रत्नेन्त्यव्यञ्जनात् श्लाघा और रत्न इन तीन शब्दों में अन्त्य व्यंजन से पूर्व होता है ।
क्ष्म 7 छम -- क्ष्मा ( छमा ) ।
श्ला > सला -- श्लाघा ( सलाहा ) ।
न> तन -- रत्नं ( रयणं ) ।
नियम ४०७ ( प्लक्षे लात् २।१०३ ) प्लक्ष शब्द में अन्त्य व्यंजन से
१८६
२।१०१ ) क्ष्मा अकार का आगम
पूर्व अकार का आगम होता है ।
प्ल 7 पल - प्लक्ष: ( पलक्खो ) ।
अ और इ का आगम
नियम ४०८ ( स्निग्धे वादितौ २।१०६) स्निग्ध शब्द में नकार से पहले अकार और इकार का आगम विकल्प से होता है ।
स्न > सणि, सिणि स्निग्धं (सणिद्धं, सिणिद्धं, निद्धं ) ।
नियम ४०६ ( कृष्णवर्णे वा २।११०) कृष्ण शब्द वर्ण अर्थ में हो तो न से पहले अकार और इकार का आगम विकल्प से होता है । ष्ण 7 सण, सिण - कृष्ण: ( कसणो, कसिणो, कहो ) ।
नियम ४१० ( उच्चार्हति २।१११ ) अर्हत् शब्द में संयुक्त के अन्त्य व्यंजन से पहले अकार, इकार और उकार का आगम विकल्प से होता है । है / रह, रिह, रुह - अर्हत् (अरहो, अरिहो, अरुहो) ।
इकार का आगम
नियम ४११ ( हं श्री - ही कृत्स्न-क्रिया दिष्या स्वित् २।१०४ ) इन शब्दों में संयुक्त व्यंजन के अन्त्य व्यंजन से पूर्व इकार का आगम होता है । 7 रिह - अर्हति ( अरिहइ ) । अर्हा ( अरिहा) । गर्हा ( गरिहा ) । बर्हः( बरिहो ) ।
> सिर - श्री : ( सिरी) 1
ह 7 हिर- ह्रीः (हिरी ) । ह्रीतः (हिरिओ ) । अह्नीकः (अहिरिओ ) । स्न 7 सिण—कृत्स्न: ( कसिणो ) ।
ऋ 7 फिर - क्रिया (किरिआ ) ।
नियम ४१२ (लात् २।१०६ ) संयुक्त शब्द में अन्त्य व्यंजन ल से पहले इ का आगम होता है । क्लिन्नं (किलिन्नं) क्लिष्टं ( कि लिट्ठे ) श्लिष्टं (सिलिट्ठ) प्लुष्टं ( पिलुट्ठ) प्लोष: ( पिलोसो) श्लेष्मा ( सिलिम्हो ) श्लेष : ( सिलेसो) शुक्लं (सुक्किलं) श्लोकः ( सिलोओ) क्लेश: ( किलेसो) अम्लं ( अम्बिलं ) ग्लानं (गिलाण ) म्लानं ( मिलाणं) क्लान्तं ( किलन्तं ) ।
नियम ४१३ ( स्याद् भव्य चैत्य - चौर्य समेषु यात् २।१०७) भव्य,
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
चत्य और चौर्य के समान र्यं वाले शब्दों में य से पहले इकार का आगम होता है
यं / रिय- चौयं (चोरिअं ) । स्थैर्यं (थेरिअं ) । भार्या (भारिआ ) । गाम्भीर्यम् ( गम्भीरिअं ) । गाम्भीर्यम् (गहीरिअं ) । आचार्यः (आयरिओ) | ( सोरिअं ) । वीर्यं ( वीरिअं ) । वर्यं ( धीरिअं ) । ब्रह्मचयं ( बम्हचरिअं ) ।
सौन्दर्यं ( सुन्दरिअं ) । शौर्यं वरिअं । सूर्य: ( सूरिओ) । धैयं
स्या 7 सिआ - स्याद् (सिआ )
ब्य 7 विभ - भव्यः (भविओ) |
स्य 7 इअ - चैत्यं (चेइअं ) ।
नियम ४१४ ( शं षं तप्त-वज्र वा २।१०५) र्श और र्ष संयोग वाले शब्दों तथा तप्त और वज्र शब्दों में संयोग के अन्त्य व्यंजन से पहले इकार का आगम विकल्प से होता है ।
शं 7 रिस - आदर्श: ( आयरिसो, आयंसो) । सुदर्शन: ( सुदरिसणो, सुदंसणो ) । दर्शनं ( दरिसणं, दंसणं ) ।
घं 7 रिस - वर्षं ( वरिसं, वासं ) । वर्षा ( वरिसा, वासा ) |
प्त / विभतप्तः ( तविओ, तत्तो ) ।
7 इर-- वज्र ( वरं वज्जं ) ।
निम्नलिखित शब्दों को नित्य इकार आगम
परामर्शः - परामरिसो । हर्षः (हरिसो) । अमर्ष: ( अमरिसो) । नियम ४१५ ( स्वप्ने नात् २।१०८) स्वप्न शब्द में न से पहले इकार का आगम होता है ।
स्व > सिवि --- स्वप्नः (सिविणो, सिमिणो, सुमिणो ) ।
ईकार का आगम
नियम ४१६ ( ज्यायामीत् २।११५ ) ज्या शब्द में य से पहले ईकार आगम होता है | ज्या (जीआ)
उकार का आगम-
नियम ४१७ (पद्म-छ- मूर्ख द्वारे वा २।११२ )
पद्म, छद्म, मूर्ख और द्वार शब्दों में संयोग के अन्त्य व्यंजन से पूर्व उकार का आगम विकल्प से होता है ।
7 उम - पद्मं ( पउमं, पोम्मं ) । छद्मं (छउमं, छम्मं ) ।
> रुख - मूर्ख : (मुरुक्खो, मुक्खो ) ।
द्व > बुब-द्वारं (दुवारं वारं, देरं दारं ) ।
नियम ४१८ ( तन्वी - तुल्येषु २।११३) उकारान्त शब्द स्त्रीलिंग में ईप प्रत्यय आने से तन्वी जैसे शब्द बन जाए उनसे उकार का आगम होता है । तन्वी ( तणुवी ) । लघ्वी ( लहुवी ) । गुर्वी (गरुवी ) । बह्वी (बहुवी ) ।
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स्वरभक्ति (स्वरागम )
११
पृथ्वी (पुहुवी ) । मृद्वी ( मउवी ) । स्रघ्नं (सुरुग्धं ) । सूक्ष्मं (सुहुमं ) । नियम ४१६ ( एक स्वरे श्वः स्वे २।११४) एक पद में श्व और स्व शब्द हो तो उनसे उकार का आगम होता है । श्वः ( सुवे ) । स्व ( सुव ) | ( वक्रादावन्त: १।२६ ) नियम १६ से वक्र आदि शब्दों में कहीं पहले स्वर के बाद, कहीं दूसरे स्वर के बाद, कहीं तीसरे स्वर के बाद अनुस्वार का आगम होता है ।
प्रयोग वाक्य
अस्सत्थो अजाण (आर्य ) पूयणीओ रुक्खो अस्थि । जत्थ कत्थइ चंदणी अस्थि सव्वं इक्कं ( राजा का ) धणं अस्थि । पीलू सघणो भवइ । असोयस्स छायं ठिच्चा जणा संति अणुभवंति । बब्बूलस्स डाली दंतधावणाय होइ । वडस्स साहाए अणेगवडा उप्पज्जइ । णिबस्स डाली दंतधावणस्स मिट्ठा मणिज्जइ । वंसेसु पाओ अग्गी उप्पज्जइ । अमुम्मि पएसे बउलो न मिलइ ।
धातु प्रयोग
पणझुणीहि वाउमंडलं गुमगुमीअ । सा केसे गुभइ । एगदेसम्मि दंडरूवेण विअंगइ | जो खलणं करेइ सो सम्माणभयेण गोवइ । अहं भवयाण सिक्खं घत्तिस्सं । सूंठ घसिऊणं सो पायेसु लिपइ । पास, वक्खाणे को विअंभई । एगो साहू आयरिअस्स समीवे णियभावा विअडइ । वाणरा केवलं घुरुक्कंति । जिणवणे मा विअप्पर । प्राकृत में 'अनुवाद करो
श्रद्धालु लोग पीपल की पूजा करते हैं। चंदन का सेवन उष्णता को शांत करता है । मरुवासी पीलू का फल शौक से खाते | अशोक वृक्ष ध्यान साधना में सहायक होता है । बबूल के पेड तुम्हारे गांव में कितने हैं ? बरगद का दूध कामोत्तेजक होता है। नीम की छाया स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है । वंशलोचन दवा में काम आता है । मौलसिरी वृक्ष कितने प्रकार के होते हैं ?
धातु का प्रयोग करो
भ्रमर मधुर ध्वनि करता है । माली माला को गूंथता है । राजा ने अपराधी (अवरा हिल्ल) के हाथ-पांव आदि कटवाए । गुप्त बात को छिपाना चाहिए। अपने दोष को छिपाना नहीं चाहिए। तुम जो दोगे मैं उसे ग्रहण करूंगा । वह लोंग को घिसकर लगाता है । दो बादाम को घिस कर दूध के साथ पीना चाहिए। रात के 8 बजे के बाद वह जंभाई लेने लगा । एक पत्र में उसने अपने विचार प्रकट किए। बंदर घुडकते हैं, उनसे डरना नहीं चाहिए। वह बात-बात में संशय करता है ।
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१६२
प्रश्न
प्राकृत वाक्यरचना बोध
१. स्वरभक्ति किसे कहते हैं ?
२. अकार और इकार के आगम के कितने नियम हैं ? प्रत्येक नियम का
एक-एक उदाहरण दो ।
३. अनुस्वार का आगम किस स्वर के बाद होता है ?
४. नीचे लिखे शब्दों में किस स्वर का आगम हुआ है ? आयरिसो, वरिसा, जीआ, छउमं, सुवे, गरुवी, विछिओ ।
५. पीपल, चंदन, पीलु, अशोक, बबूल, वरगद, नीम, वांस और मौलसिरी के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
६. गुमगुम, गुभ, गोव, घत्त, घस, घुरुक्क, विअंभ, विअड और विअप्प धातुओं के अर्थ बताओ और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो ।
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५१
तमाचा, थप्पड - चविडा कटाक्ष -- काच्छि (स्त्री)
मदिरा -- महरा, सुरा कीमती — महग्घ (वि) दुर्लभ, महंगा - महग्घविभ स्वच्छंदी - सच्छंदो (वि) अणोहयो (बि)
घोट-पीना
चक्ख - चखना, स्वाद लेना
शब्द संग्रह (स्फुट )
जेल -
तूस - संतुष्ट होना
धुव्व — कंपना, हिलाना चंकम -- वार-बार चलना
इधर उधर घूमना
द्वित्व
—कारा
जुआखाना — टेंटा चिता -- चियगा प्रशंसनीय - - - सग्घ जूठा, उच्छिष्ट —- णवोद्धरणं (दे० ) व्यक्ति — वत्ति (स्त्री)
(वि)
धातु संग्रह
चंप (दे० ) दबाना, चांपना चंप — चर्चा करना
चंप - चढना
जम्म- खाना
जेम - जीमना चिण - इकट्ठा करना
द्वित्व
संयुक्त वर्णों को होने वाला आदेश या शेष रहा वर्ण द्वित्व होता है । द्वित्व होने वाला वर्ण वर्ग का दूसरा वर्ण हो तो पहला और चौथा वर्ण हो तो तीसरा हो जाता है । असंयुक्त वर्ण का शेष रहा वर्ण द्वित्व नहीं होता, उसकी यश्रुति हो जाती हैं ।
नियम ४२० ( अनादी शेषादेशयोद्वित्वम् २२८६) लोप होने के बाद शेष रहा वर्ण और आदेश किया हुआ वर्ण पद के आदि में न हो तो वह द्वित्व हो जाता है।
शेष—- कल्पतरु: (कप्पतरू ) । भुक्तं ( भुत्तं ) । दुग्धम् (दुद्धं ) । नग्नः ( नग्गो) । उल्का ( उक्का) । मूर्ख : ( मुक्खो ) ।
आवेश – दष्टः (डक्को) । यक्षः ( जक्खो ) । रक्तः ( रग्गो) । कृत्तिः ( किच्ची ) ।
रुक्मी ( रुप्पी )
शेषवर्ण आदि में होने के कारण द्वित्व नहीं
स्खलितम् (खलिअं) । स्थविर: (थेरो ) । स्तम्भः (खम्भो ) 1
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१६४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ४२१ (तलादौ वा २०६८) तेल आदि शब्दों में अनादि यथादर्शन (जैसा देखा जाता है) अन्त्य और अनन्त्य व्यंजन द्वित्व हो जाता है। अन्त्यवर्ण- तैलं (तेल्लं) । मण्डूकः (मण्डुक्को) । विचकिल: (वेइल्लं)।
ऋजुः (उज्जू) । व्रीडा (विड्डा)। प्रभूतं (वहुत्तं)। अनन्त्यवर्ण-स्रोतस् (सोत्तं) । प्रेमन् (पेम्म) । यौवनं (जुव्वणं)
आर्ष में प्रतिस्रोतस् (पडिसोओ) । विस्रोतसिका (विस्सोअसिआ)।
नियम ४२२ (द्वितीय-तुर्ययोरुपरिपूर्वः २।६०) द्वित्व होने वालो वर्ण वर्ग का दूसरा वर्ण हो तो पहला और चौथा वर्ण हो तो तीसरा वर्ण हो जाता है। शेष-व्याख्यानं (वक्खाणं) । व्याघ्रः (वग्घो)। मूर्छा (मुच्छा)। निर्झरः
(निज्झरो) । काष्ठं (कट्ठ) । तीर्थं (तित्थं) । निर्धनः (णिद्धणो)।
निर्भरः (निब्भरो) । गुल्फ (गुप्फ)। आदेश-यक्षः (जक्खो) । अक्षि (अच्छी)। मध्यं (मझं) पृष्ठम् (पट्टी) ।
वृद्धः (वुड्ढो)। हस्तः (हत्थो) । आश्लिष्ट: (आलिद्धो)। पुष्पम् (पुप्फ) । विह्वलः (भिब्भलो) ।
(दीर्धेवा २२९१) नियम ३७१ से दीर्घ शब्द में शेष घ को ग विकल्प से होता है। दीर्घः (दिग्घो, दीहो) ।।
नियम ४२३ (समासे वा २९७) शेष और आदेश वर्ण समास में द्वित्व विकल्प से होते हैं। नदीग्रामः (नइग्गामो, नइगामो) । देवस्तुतिः (देवत्थुई, देवथुई)। बहुलाधिकार से शेष और आदेश के बिना भी होता है--- सपिपासः (सपिवासो, सप्पिवासो)। प्रतिकूलं (पडिक्कूलं, पडिकलं)। अदर्शनम् (अइंसणं, अदंसणं)।
नियम ४२४ (सेवादी वा २VEE) सेवा आदि शब्दों में अनादियथादर्शन अन्त्य और अनन्त्य वर्ण द्वित्व विकल्प से होता है। अन्त्यस्य-सेवा (सेन्वा, सेवा) । नीडम् (नेड्डं, नीडं) । नखाः (नक्खा,
नहा) । निहित: (निहित्तो, निहिओ)। व्याहृतः (वाहित्तो, वाहिओ) । मृदुकं (माउक्कं, माउअं)। एकः (एक्को, एओ) । कुतूहलं (कोउहल्लं, कोउहलं)। व्याकुलः (वाउल्लो, वाउलो)। स्थूल: (थुल्लो , थोरो) । हूतं, भूतं (हुत्तं, हूअं) । दैवम् (दइव्वं, दइवं) । तूष्णीकः (तुण्हिक्को, तुण्हिओ) । मूकः (मुक्को, मूओ) ।
स्थाणुः (खण्णू, खाणु) । स्त्यानं (थिण्णं, थीणं)। अनन्त्यस्य-अस्मदीयम् (अम्हक्केरं, अम्हकेरं)। चेअ (तं च्चेअ, तं चेअ)
चिअ (सो च्चिअ, सो चिम)।
नियम ४२५ (न दीर्घानुस्वारात् २०६२) लाक्षणिक (कृत) अलाक्षणिक (अकृत) दीर्घस्वर और अनुस्वार से परे शेष और आदेश वर्ण द्वित्व
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द्वित्व
नहीं होता। कृत दीर्घ-निःश्वासः (नीसासो) । स्पर्शः (फासो) । अकृत वीर्घ--पार्श्वम् (पास) । शीर्षम् (सीस) । ईश्वरः (ईसरो) । द्वेष्यः
(वेसो)। कृत अनुस्वार-यस्रम् (सं)। अकृत अनुस्वार--सन्ध्या (संझा) । विन्ध्यः (विंझो) ।
नियम ४२६ (र-होः २।६३) रकार और हकार द्वित्व नहीं होते । रकार शेष नहीं रहता। आदेश र-सौन्दर्यम् (सुन्देरं) । ब्रह्मचर्यम् (बम्हचेरं) । शेष-ह-विह्वलः (विहलो) आदेश ह-कार्षापणः (कहावणो)।
नियम ४२७ (धृष्टद्युम्ने णः २२६४) धृष्टद्युम्न शब्द में आदेश ण को द्वित्व नहीं होता । धृष्टद्युम्नः (धट्ठज्जुणो)
नियम ४२८ (कणिकारे वा २९५) कणिकार शब्द में शेष ण द्वित्व विकल्प से होता है । कणिकारः (कणिआरो, कण्णिआरो)।
नियम ४२६ (दृप्ते २।९६) दृप्त शब्द में शेष वर्ण द्वित्व नहीं होता । दृप्तः (दरिओ) । दरिम सीहेण (दृप्तसिंहेन) प्रयोग वाक्य
माअरा पुत्तस्स चविडं देइ । सो काणच्छीअ इतिथ पासइ । जो मइरं (सुरं) पिवइ तस्स पडणं धुवं । साहुण सागयं चरित्तस्स भवइ न उ वत्तीए (व्यक्ति)। एअं कोसेयं महग्धं अत्थि । माणुसजम्मो आगमे महग्धविओ कहिओ । काराए को गच्छइ ? कितवो टेंटाए जूअं खेलइ। राजीवेण इंदिराचियगाए अग्गी दिण्णो । तुज्झ कज्ज सग्छ अस्थि । भोयणस्स पच्छा णवोद्धरणं न मोत्तव्वं । जो सच्छंदो (अणहट्टयो) होइ सो अणुसासणस्स महत्तं न जाणइ।. धातु प्रयोग
सेहो साहू संतसुहारसं घोट्टइ। चंकमतस्स महावीरस्स देसणह्र जणा आगआ । जो सइ सुरं चक्खइ सो तस्स वसीभूओ भवइ। महावीरस्स दंसणं करित्ताण सो तूसइ । तवेण तवस्सी कम्मरयाई धुव्वइ। सेवओ सामि पइदिवसं चंपइ । अमुणा सद्धि को चंपइ ? साहू खवअसेणि चंपइ । सा साविया दिणे सइ जेमइ । माली पुप्फाई चिणइ । सो निसाए न जम्मइ ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्राकृत में अनुवाद करो
वाद-विवाद में एक लडके ने दूसरे को थप्पड मारा। सीता ने कटाक्ष दृष्टि से अपने पति को देखा। मदिरा के कारण उसका घर नष्ट हो गया। नगरवासी आपका स्वागत करते हैं। संसार में बहुमूल्य वस्तु क्या है ? धर्मग्रन्थों में दुर्लभ वस्तु किसको कहा है ? जुआखाने में वह कौन जा रहा है ? जेल भर गया है, उसमें अब स्थान नहीं है। उसकी चिता में किसने आग लगाई ? प्रेक्षाध्यान का कार्य देशभर में प्रशंसनीय है। भोजन को जूठा कभी मत छोडो । यह लडका बचपन से ही स्वच्छंद रहा है। धातु प्रयोग करो
विनोद अध्यात्मोपनिषद् को पीना चाहता है। भगवान महावीर राजगृह के पास के गांवों में घूम रहे हैं। वह इक्षुरस का स्वाद लेना चाहता है। भगवान की वाणी सुनकर सब संतुष्ट हो गए। तुम्हारी प्रचंड ध्वनि ने वायुमंडल को कंपित कर दिया। सुदर्शन पैर दबाना नहीं चाहता है। राजकरण चर्चा करने के लिए हर समय तैयार रहता है। वह पहाड पर चढता है । आज कौन नहीं जीमेगा ? हीरालाल सूत्रों के प्रमाण इकट्ठा कर रहा है । सरला रात को नहीं जीमती है।
प्रश्न १. शेष और आदेश किसे कहते हैं ? प्रत्येक के दो-दो उदाहरण दो। २. कौनसा वर्ण द्वित्व होता है ? नियम सहित बताओ। ३. कौन से नियम विकल्प से द्वित्व करते हैं और कौन से निषेध करते हैं ?
प्रत्येक नियम का एक-एक उदाहरण दो। ४. समास में वर्ण द्वित्व होता है या नहीं ? होता है तो कौनसा पद ? ५. तमाचा, कटाक्ष, मदिरा, स्वागत, बहुमूल्य, दुर्लभ, जेल, चिता, जठा,
स्वच्छंदी और प्रशंसनीय अर्थ के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ६. घोट्ट, चक्ख, धुव्व, चंप, चिण, चंकम और जम्म धातुओं के अर्थ बताओ
और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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५२
स्वर सहित व्यंजनों का लोप
शब्द संग्रह (काल वर्ग १) मुहूर्त -मुहुत्तं
काल का सूक्ष्म भाग-समयो दिन-दिवसो, दिवहो रात्रि-रत्ती, राई, निसा मास-मासो
पक्ष-पक्खो प्रातःकाल-पगे, उसावेला मध्यदिन-----मज्झण्हो संध्या-संझा
पूर्व दिन-पुटवण्हो घटी-घडी
ऋतु-उउ (त्रि)
रूपया---रूवगं, रूवगो।
धातु संग्रह धरिस-क्षुब्ध करना, विचलित करना कुह-सडना विज्ज-विद्यमान होना
बाह-बाधा करना, रोकना सिज्ज-स्वेद का आना, पसीजना सव----शाप देना, गाली देना विज्झ-बींधना
मज्ज-मद्य करना,
अभिमान करना नियम ४३० (व्याकरण-प्राकारागते कगोः ११२६८) व्याकरण और प्राकार शब्दों में क का और आगत शब्द में ग का लुक विकल्प से होता है। फ>लोप-व्याकरणम् (वारणं, वायरणं) का 7 लोप----प्राकारः (पारो, पायारो) ग 7 लोप----आगतः (आओ, आगओ)
नियम ४३१ (लुग भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य न वा २२६७) भाजन, दनुज, राजकुल शब्दों के स्वर सहित ज का लोप विकल्प से होता है । ज7 लोप भाजनम् (भाणं, भायणं) । दनुजः (दणु, दणुअ)। राजकुलम्
(राउलं, रायउलं)।
नियम ४३२ (दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पादपीठन्तर्दः ११२७०) दुर्गादेवी, उदुम्बर, पादपतन और पादपीठ शब्दों के मध्य में होने वाले सस्वर द का लुक् विकल्प से होता है। द/ लोप-पादपतनम् (पावडणं, पायवडणं) 47 लोप-पादपीठम् (पावीढं, पायवीरें)
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१६८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
दु7 लोप-उदुम्बरः (उम्बरो, उउम्बरो) दे 7 लोप-दुर्गादेवी (दुग्गा-वी, दुग्गाएवी)
नियम ४३३ (किसलय-कालायस-हृदये यः १।२६९) किसलय कालायस और हृदय शब्दों के सस्वर यकार का लुक विकल्प से होता है। य 7 लोप-किसलयम् (किसलं, किसलयं) कालायसम् (कालासं, कालायसं)
हृदयम् (हिअं, हिअयं)
नियय ४३४ (यावत्तावज्जीवितावर्तमानावट-प्रावारक देवकूलवमेवे वः १२२७१) यावत् आदि शब्दों में सस्वर वकार का लुक विकल्प से होता है। 47 लोप---अवटः (अडो, अवडो) आवर्तमान: (अत्तमाणो, आवत्तमाणो)
___ एवमेव (एमेव, एवमेव) तावत् (ता, ताव) देवकुलम् (देउलं,
देवउल) प्रावारकः (पारओ, पावरओ) यावत् (जा, जाव) वि 7 लोप-जीवितम् (जीअं, जीविअं) प्रयोग वाक्य .
___ सामाइयस्स समयो एगो मुहुत्तो भवइ । समयो कालस्स सुहुमो भागो अत्थि, तस्स विभागो न भवइ । आयरिआ अत्थ पंचदिवसा ठास्संति । अज्ज दिवहस्स अवेक्खा रत्ती पलंबा अस्थि । णक्खत्तमासे सत्तवीसा णक्खत्ता होति । मज्झ जम्मो सुक्कपक्खे जाओ। उसावेलाइ न सोअणिज्जं । मज्झण्हे सुत्तस्स सज्झायं भवइ । संझा पडिक्कमणं काअव्वं । कि सोमवारे तुमं पुव्वण्हे मोणं भजसि ?
धातु प्रयोग
दमिइंदियाण रागसत्तू चित्तं न धरिसेइ । तुज्झ पासे मइनाणं विज्जइ । गिम्हउउम्मि मुणी विहारसमये सिज्जइ । सूई सरीरं विज्झइ । घरे फलाई को वि न खाअइ अओ ठिआई फलाई कुहेति । तुज्झ असुद्धं उच्चारणं ममं बाधइ । संजमी साहू कयाइ न सवइ । सो सुवरूवे मज्जइ । प्राकृत में अनुवाद करो
वह एक मुहूर्त के लिए सामायिक करता है। एक शब्द बोलने में काल का सूक्ष्म भाग कितना लगता है ? वह दिन में नहीं सोता है । क्या तुम रात्रि में प्रतिदिन स्वाध्याय करते हो ? चैत्र का महिना सबसे अच्छा लगता है। कृष्ण पक्ष में भी चंद्रमा का प्रकाश रहता है। प्रात:काल वह गुरुदर्शन को जाता है। क्या तुम मध्याह्न में भोजन करते हो? संध्या के समय स्वाध्याय करनी चाहिए । दिन के पूर्वभाग में वह भोजन करता है। धातु का प्रयोग करो
राग से हर आदमी विचलित हो जाता है। रूपयों के प्रलोभन से
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स्वर सहित व्यंजनों का लोप
१६६ बड़े-बड़े विचलित हो जाते हैं । इस गांव में तीन सौ आदमी रहते हैं । जिसके शरीर में बल होता है उसको पसीना बहुत आता है। तुम्हारा कटु व्यवहार हृदय को बींधता है। सरकार के संग्रहालय (संगहालयं) में पडा अनाज सड रहा है । तुम्हारे कथन में मुझे कोई बाधा नहीं है। असाधु शाप देता है वह फलित नहीं होता। धन और रूप पर अभिमान नहीं करना चाहिए।
प्रश्न १. किन-किन व्यंजनों का स्वर सहित लोप होता है ? २. नीचे लिखे शब्दों में बताओ किस व्यंजन का स्वर सहित लोप होकर
क्या रूप बनता है और किस नियम से ? व्याकरणं, राजकुलं, दुर्गादेवी, पादपीठं, हृदयं, कालायसं, जीवितं,
प्रावारकः । ३. मुहूर्त, दिवस, मध्यदिन, संध्या, घटी, रात्रि, पूर्व दिन, ऋतु और प्रातःकाल
के लिए प्राकृत के शब्द बताओ। ४. धरिस, सिज्ज, विज्झ, कुह, बाह, सव और मज्ज धातुओं के अर्थ बताओ
और उन्हें वाक्य में प्रयोग करो। ५. पोप्फलं, णारिएलो, णिकायगो, पिआलो, णिबो, बब्बूलो, टेंटा, काणच्छि, सच्छंदो शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ ।
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सस्वर व्यंजन आदेश
शब्द संग्रह (काल वर्ग २) वर्तमानकाल–पडिपुन्न
अतीतकाल-अईओ भविष्यकाल-अणागयं
युग-~-जुगो वर्ष-वरिसो, संवच्छरो
वसंत-वसंतो ग्रीष्म-गिम्हो
वर्षा-वरिसा शरद्-सरयो
हेमंत-हेमंतो शिशिर-सिसिरो
कल्पना-कप्पणा
लहर-उम्मि (स्त्री)
धातु संग्रह णिज्झ स्नेह करना
तणुअ-पतला होना तडप्फड-तडफडाना
तज्ज--डांटना ताड-ताडना, पीटना
तण-विस्तार करना तुड-टूटना, अलग होना
तोल-तोलना पकर-कार्य का प्रारंभ करना
तक्क-तर्क करना स्वर+सस्वरव्यंजन आदेश
स्वर- व्यंजन युक्त स्वर स्वर और उससे आगे स्वर सहित व्यंजन । इन तीनों को जो एक आदेश होता है उसे स्वर और सस्वर व्यंजन आदेश कहते हैं।
नियम ४३५ (एत्त्रयोदशादी स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन १११६५) त्रयोदश इस प्रकार के संख्या शब्दों में आदि स्वर और उसके आगे व्यंजन सहित स्वर को एकार आदेश होता है। त्रयोदश (तेरह) त्रिविंशतिः (तेवीसा) त्रित्रिंशत् (तेत्तीसा)।
नियम ४३६ (स्थविर-विचकिलायस्कारे १११६६) स्थविर, विचकिल और अयस्कार शब्दों के आदि स्वर और उसके आगे स्वर सहित व्यंजन को एकार आदेश होता है । स्थविरः (थेरो) विचकिलम् (वेइल्लं) अयस्कारः (एक्कारो)।
नियम ४३७ (वा कदले १११६७) कदल शब्द के आदि स्वर और
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सस्वर व्यंजन आदेश
२०१
उसके आगे स्वर सहित व्यञ्जन को एकार विकल्प से होता है। कदलम् (केलं, कयलं) । कदली (केली, कयली)।
नियम ४३८ (वेतः कणिकारे १।१६८) कणिकार शब्द में आदि स्वर और उससे आगे स्वर सहित व्यञ्जन को ए विकल्प से होता है। कर्णिकार: (कण्णेरो, कण्णिआरो)।
नियम ४३६ (अयौ वैत् १११६६) अयि शब्द के आदि स्वर और उससे आगे के स्वर सहित व्यंजन को ए आदेश होता है । अयि (ए)।
नियम ४४० (ओत्यूतर-बदर-नवमालिका-नवफालिका-पूगफले ११७०) पूतर, बदर, नवमालिका, नवफालिका और पूगफल शब्दों के आदि स्वर और उससे आगे के स्वर सहित व्यंजन को ओ आदेश होता है। पूतरः (पोरो) बदरम् (बोर) बदरी (बोरी) नवमालिका (नोमालिआ) नवफालिका (नोहलिआ) पूगफलम् (पोप्फलं)।
- नियम ४४१ (न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्वश-चतुर्वारसुकुमार-कुतूहलोदूखलोलुखले १।१७१) मयूख, लवण, चतुर्गुण, चतुर्थ, चतुर्दश, चतुर्वार, सुकुमार, कुतूहल, उदूखल और उलूखल शब्दों के आदि स्वर और उसके आगे सस्वर व्यञ्जन को ओकार आदेश विकल्प से होता है। मयूखः (मोहो, मऊहो) लवणम् (लोणं) चतुर्गुणः (चोग्गुणो चउग्गुणो) चतुर्थः (चोत्थो, चउत्थो) चतुर्दश (चोद्दह, चउद्दह) चतुर्दशी (चोदसी, चउद्दसी)। चतुर्वारः (चोव्वारो, चउव्वारो) सुकुमारः (सोमालो, सुकुमालो) कुतूहलम् (कोहलं, कोउहल्लं) उदूखल: (ओहलो, उऊहलो) उलूखलम् (ओक्खलं, उलूहलं)।
नियम ४४२ (अवापोते १११७२) अव और अप उपसर्ग तथा विकल्प अर्थ में निपात उत शब्द के आदि स्वर और उससे आगे स्वर सहित व्यञ्जन को ओ विकल्प से होता है। अव--अवतरति (ओअरइ, अवयरइ)। अवकाशः (ओआसो, अवयासो)। अप----अपसरति (ओसरइ, अवसरइ)। उत-उत वनम् (ओ वणं, उअवणं)। उत घनः (ओ घणो, उअ घणो)। ..
नियम ४४३ (कच्चोपे १११७३) उप शब्द के आदि स्वर तथा उससे आगे सस्वर व्यंजन को ऊ और ओ आदेश विकल्प से होता है। उपहसितम् (ऊहसि, ओहसिअं, उवहसिअं) उपाध्यायः (ऊज्झाओ, ओझाओ, उवज्झाओ) उपवास: (ऊआसो, ओआसो, उववासो) ।
नियम ४४४ (उमो-निषण्णे १११७४) निषण्ण शब्द के आदि स्वर तथा उससे आगे स्वर सहित व्यञ्जन को उम आदेश विकल्प से होता है । निषण्णः (णुमण्णो, णिसण्णो)। .... नियम ४४५ (प्रावरणे अङ ग्वाऊ १३१७५) प्रावरण शब्द के आदि
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२०२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
स्वर तथा उससे आगे सस्वर व्यञ्जन को अङ्ग, और आज विकल्प से आदेश होते हैं । प्रावरणम् (पङ्ग, रणं, पाउरणं, पावरणं ) ।
प्रयोग वाक्य
पुन्नं अहं अप्पाणं संवरेमि । सो अईयस्स समरणं न करेइ । झाणे अणागयस्स कप्पणा न काअव्वा । पंचवरिसेहिं एगो जुगो भवइ । वसंतम्मि रुक्खस्स नव्यपत्ताइं पुप्फाई य णिक्कसंति । अहं गिम्हकाले आयवं अहियं अणुभवामि । अत्थ पएसे वरिसस्स फलं वरिसाए अवरिं निब्भरं अस्थि । सरयम्मि आयवस्स सीयस्स य संगमो भवइ | हेमंतम्मि जणा ओणियाइं वत्थाई परिहांति । सिसिरे सीउम्मीआ सरीरो धुणइ । सो वक्खाणस्स अभासं
पकरइ ।
धातु प्रयोग
पिआ पोत्तं णिज्झइ । सम्मज्जओ सूअरं तडफडइ । गुरू सीसं ताडेइ । कडुवणेण संबंधी तुडइ । उवसमेण कोहो तणुअइ । सासू पुत्तवहुं तज्जइ । निवो सुवरज्जं तणिउ इच्छइ । सोवणिओ सुवण्णं तोलइ । जो परिवारे ववहारे तक्कइ तस्स संबंधो खिप्पं तुडइ |
प्राकृत में अनुवाद करो
वर्तमान काल को सफल करो । केवल अतीत के गुण मत गाओ । भविष्य के लिए विकास की योजना बनाओ । युग परिवर्तनशील होता है । इस वर्ष में तुम्हें कितना लाभ हुआ ? वसंत ऋतु मन को प्रिय लगती है । ग्रीष्म में प्यास अधिक लगती है । वर्षा ऋतु में साधु एक स्थान पर रहते हैं । शरद पूर्णिमा की रात्रि में हम सूक्ष्म अक्षर पढते हैं । हेमंत ऋतु में मरुभूमि की पदयात्रा कष्टप्रद होती है । का कार्य कब प्रारम्भ करेगा ?
वह अपने विभाग
धातु का प्रयोग करो
तुम किससे स्नेह करते हो ? है । राजपुरुष चोर को पीटते हैं । कम खाने से शरीर पतला होता है । विस्तार करना चाहिए। वह अपने करते हो ।
प्रश्न
१. स्वर और सस्वर व्यंजन किसे कहते हैं और उसको क्या आदेश होता
है ?
किन-किन नियमों से स्वर और सस्वर व्यञ्जनों को एकार आदेश
२.
किसी प्राणी को तडफडाना बहुत बुरा वृक्ष की डाली हवा से टूट गई । अधिक सेठ नौकर को डांटता है। धर्म का तोलता है। तुम बात-बात में तर्क
को
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सस्वर व्यंजन आदेश
२०३ होता है ? ३. ओकार, उकार और उम आदेश किन नियम से होता है ? ४. नीचे लिखे शब्द किस आदेश से बने हैं ? वेइल्लं, एक्कारो, पोप्फलं,
पोरो, ओहलो, उअवणं, उज्झाओ, णुमण्णो, पाउरणं । ५. ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, शिशिर, वसंत, हेमंत, वर्ष, युग, वर्तमानकाल,
अतीतकाल और भविष्यकाल के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ६. णिज्झ, तडप्फड, तणुअ, तज्ज, ताड, तुड, तण और तोल धातुओं के
अर्थ बताओ और उन्हें अपने वाक्य में प्रयोग करो।
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५४
कौआ काओ, वायसो चील - चिल्ला
कबूतर - कवोओ
सुआ - सुओ, कीरो
चकोर - चकोरो
आडी - आडी (स्त्री)
o
चोंच - चंचू (स्त्री)
व्यत्यय
शब्द संग्रह (पक्षी वर्ग १ )
तलहट्ट -- सींचना
तुर -- जल्दी करना
थंग — उन्नत करना, ऊंचा करना थंभ -- स्थिर होना, रुकना विकिर- फेंकना, विखेरना
कोयल- कोइलो, परहुतो कोइला गोध- -गिद्धो
बगुला -- बयो, बगो बगुली - बगी
मैना सारिआ
पिंजडा - पंजरं, पिंजरं
धातु संग्रह
थक्कव -- रखना, स्थापना करना थण-गर्जना
थब्भ - अहंकार करना
थय-- आच्छादन करना
थरथर --- थरथर कांपना
वर्ण परिवर्तन ( व्यत्यय )
शब्द में एक वर्ण का परस्पर स्थान परिवर्तन होता है उसे विपर्यास
या व्यत्यय कहते हैं ।
नियम ४४६ ( करेणु - वाराणस्योः र णो व्यंत्यय: २ ११६ ) स्त्रीलिंगी करेणु और वाराणसी शब्दों में र और ण का परस्पर व्यत्यय हो जाता है । करेणु --- कणेरू । वाराणसी - वाणारसी ।
नियम ४४७ (अचलपुरे च-लोः २।११८ ) अचलपुर शब्द में च और ल का व्यत्यय होता है । अचलपुरं (अलचपुरं )
नियम ४४८ ( हवे हृदो : २।१२० ) हद शब्द के हकार और दकार का व्यत्यय होता है । हृदः (द्रहो ) | आर्षे -- हरए | धम्मे हरए ।
नियम ४४६ ( हरिताले रलोर्न वा २।१२१) हरिताल शब्द में र और ल का व्यत्यय विकल्प से होता है । हरिताल: (हलिआरो, हरिआलो ) । नियम ४५० ( लघुके ल-होः २।१२२) लघुक शब्द में घ को ह करने के बाद ल और ह का व्यत्यय विकल्प से होता है । लघुकम् (हलुअं,
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व्यत्यय
२०५
लहुअं)।
नियम ४५१ (ो ह्योः २।१२४) ह्य शब्द में ह और य का व्यत्यय विकल्प से होता है । सद्यः (सय्हो, सज्झो)।
नियम ४५२ (आलाने लनोः २११७) आलान शब्द में ल और न का व्यत्यय होता है। आलानः (आणालो)।
नियम ४५३ (महाराष्ट्रे ह-रो. २०११६) महाराष्ट्र शब्द में ह और र का व्यत्यय होता है । महाराष्ट्रम् (मरहट्ठ)।
नियम ४५४ (ललाटे ल-डोः २।१२३) ललाट शब्द में ल और ड का व्यत्यय होता है । ललाटम् (णडालं, णलाडं)। प्रयोग वाक्य
पक्खीसु वायसो धुत्तो अत्थि । चिल्ला आयासम्मि उड्डेइ । कवोओ उज्ज़ पक्खी अत्थि। कीरो हरिअकायो रत्तचंचू य भवइ । कोइलाए सद्दो महरो कण्णपिओ लग्गइ। गिद्धस्स दिदी दूरगामिणी भवइ । बगाणं झाणं पसिद्ध अस्थि । अमुम्मि गामम्मि सारिआ नत्थि । चकोरो जोण्हापिओ भवई । आडी रत्तिदिवा जले वसइ । धातु प्रयोग
___पंजरम्मि पक्खी सच्छंदो न भवइ। रट्टपई सुवउज्जाणं सहत्थेहि पइदिवहं तलहट्टइ। अत्थंगयस्स सूरियस्स पुवं गामे गमिउ मुणी तुरड । चंडालं थंगिउको चेट्टइ ? मंतपओगेण सो तस्स गई थंभइ । रामो अवक्खरं बाहिं विकिरइ । जयायरिओ सरुवससिमृणि अत्थ थक्कविऊण विहारं अरिंसु । अज्ज मेहो गगणे थणइ कि वरिसा होस्सइ ? तस्स पासे धणं नत्थि तहवि थब्भइ। सो वरिसाए अद्दकायो थरथरइ । तुमं वत्थेण ठाणं थयसि । प्राकृत में अनुवाद करो
कौआ वृक्ष पर बैठा हुआ है। चील रोटी को लेकर आकाश में उड गई। कबूतर रात को यहां बैठते हैं। सुआ क्या खाता है ? कोयल और कौए का भेद उसकी बोली (वाणी) से लगता है। गीध पशु के कलेवर (सवं) को खाने दूर से उडकर आया है। बगुला और बगुली दोनों साथ-साथ उड गए । मैना क्या खाती है, क्या तुम जानते हो ? चांदनी में चकोर प्रसन्न होता है। आडी राजसमंद झील में बहुत हैं। पिंजडा आखिर पिंजडा है चाहे वह सोने का क्यों न हो ? धातु का प्रयोग करो
उसने अपना बगीचा कल क्यों नहीं सींचा ? आग लगने पर लोग घर
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२०६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
से निकलने की जल्दी करते हैं। आचार्य तुलसी ने नारी समाज को ऊंचा उठाया है। वह चलते-चलते स्तंभित हो गया, न जाने किसने क्या कर दिया ? समाज में परिवर्तन लाने वाले को पहले अपने क्रांतिकारी (कंतिगरो) विचार सभा या भाषण में बिखेर देना चाहिए। उसने अपने घर में भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की। जो मेघ गर्जता है वह बरसता नहीं। अपने भाषण या गीत पर अहंकार नहीं करना चाहिए। वह सभा के लिए स्थान को आच्छादित करता है। आचार्य श्री की उपस्थिति में प्रवचन सभा में भाषण देने वाला मुनि थरथर कांपता है।
प्रश्न
१ व्यत्यय किसे कहते हैं ? २. नीचे लिखे शब्दों में बताओ किस नियम से किस शब्द में किस वर्ण
का व्यत्यय हुआ है ? कणेरु, वाणारसी, अचलपुरं, हलिआरो, हलुअं,
सय्हो, आणालो, मरहट्ठें, णडालं । ३. कौआ, चील, कोयल, गीध, कबूतर, सुआ, बगुला, मैना, चकोर, आडी
और चोंच के लिए प्राकृत के शब्द बताओ। ४. तलहट्ट, तुर, थंग, थंभ, विकिर, थक्कव, थण, थब्भ, थय और थरथर धातुओं के अर्थ बताओ तथा उन्हें अपने वाक्य में प्रयोग करो।
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उवसग्ग (उपसर्ग)
प (प्र) आदि अव्यय २२ हैं । जब ये धातु के रूप के साथ प्रयुक्त होते हैं तब इनकी संज्ञा उपसर्ग होती है। दो उपसर्गों की या धातु के रूप के साथ उपसर्ग की संधि होती है । धातु से पहले उपसर्ग लगाने से कहीं पर धातु का अर्थ बदल जाता है, कहीं पर विपरीत अर्थ हो जाता है और कहीं पर धातु के अर्थ में ही विशेषता लाता है । प (प्र) आदि उपसर्ग सभी धातुओं के साथ नहीं लगते । एक धातु के साथ एक, दो उपसर्ग लगते हैं तो किसी के साथ दो से अधिक भी लगते हैं । एक धातु के साथ एक, दो, तीन और चार उपसर्ग एक साथ देखने को मिलते हैं।
५ (प्र)-पजाइ (आगे जाता है)। पजोतते (विशेष प्रकाशित होता है) । पहरइ (प्रहार करता है)।
परा (परा)-पराजिणइ (पराजय करता है)।
ओ, अव, अप (अप)-ओसरइ, अवसरइ, अपसरइ (सरकता है, दूर हटता है)।
सं (सम्) --संगच्छइ (साथ जाता है) । संचिणइ (संचय करता है, इकट्ठा करता है)।
अणु (अनु)---अणुजाइ (पीछे जाता है) । अणुकरइ (अनुकरण करता
है
ओ (अव)---ओतरइ (अवतार लेता है)। अव (अव)---अवतरइ (नीचे जाता है, उतरता है)। निर् (निर्)-निरिक्खइ (निरीक्षण करता है, देखता है ।) नि (निर्) --निज्झरइ (झरता है) । नी (निर्)-नीसरइ (निकलता है)। बुर् (दुर्)---दुग्गच्छइ (दुर्गति में जाता है)। दू-दुहवइ (दुःखी करता है)। अभि (अभि)--अभिगच्छइ (सामने जाता है)। अहि (अभि)-अहिलसइ (इच्छा करता है)।
वि-विजाणइ (विशेष जानता है)। विजुंजइ (अलग करता है)। विकृन्वड (विकृत करता है)।
अधि (अधि)-अधिगइ (जानता है, प्राप्त करता है) ।
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अहि (अधि ) - अहिगमो ( अधिगम, ज्ञान ) । सु (सु) - सुभास ( अच्छा बोलता है ) । सू (सु) – सुहवो ( भाग्यवान् ) ।
उ ( उत् ) – उग्गच्छते (ऊंचा जाता है, उगता है ) ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
अह (अति) - अइसेइ ( अतिशय करता है, अति प्रशंसा करता है ) । अति (अति) - अतिगच्छइ (सीमा से बाहर जाता है ) ।
णि (नि) णिपss ( निरंतर गिरता है, नीचे गिरता है ) ।
पडि ( प्रति ) - पडिभासए ( सामने बोलता है ) ।
पति ( प्रति ) - पतिठाइ ( प्रतिष्ठित होता है ) ।
परि ( प्रति ) - परिट्ठा ( प्रतिष्ठा) । पडिमा (प्रतिमा) | पडिकूलं ( प्रतिकूल ) ।
परि (परि) – परिवुडो (परिवृत, चारों ओर से घिरा हुआ ) । पलि (परि) – पलिघो ( परिघ, घन ) ।
उव (उप) उवागच्छइ ( पास जाता है ) । ओ (उप) ओज्झायो ( उपाध्याय ) । उब (उप) ---- उवज्झायो ( उपाध्याय) | - ऊज्झायो ( उपाध्याय ) ।
ऊ (उप) आ ( आ ) - आवसइ ( मर्यादा में रहता है ) । आगच्छइ ( आता है ) । नियम ४५५ (निष्प्रती ओत्वरी माल्यस्थो व ११३८ ) निर् से परे माल्य शब्द हो तो निर् को ओत् और प्रति से परे स्था धातु हो तो प्रति को परि आदेश विकल्प से होता है ।
ओमाल, निम्मलं (निर्माल्यं ) । परिट्ठा, पट्टा ( प्रतिष्ठा) । परिट्ठिअं, पइट्ठिअं ( प्रतिष्ठितं ) ।
प्राकृत में अनुवाद करो
सूर्य पूर्व दिशा में उगता है। दो मुनि विहार कर आने वाले मुनि के सामने जाते हैं । क्या भगवान पुनः संसार में अवतार लेता है ? बच्चा दूसरों का अनुसरण करता है । जो दूसरों को अधिक सताता है वह दुर्गति में जाता है । रमेश धर्मेश पर प्रहार करता है। एक आदमी दूसरे को पराजित करता है । लडका पिता के सामने बोलता है । यह गांव पहाड से चारों ओर से घिरा हुआ है । वह तुम्हारे पास आता है। तुम पानी के वर्तन को ढांकते हो । वृक्ष से पत्ते नीचे गिरते हैं । अध्यापक विद्यार्थियों का निरीक्षण करता है । ash व्यर्थ में परस्पर लड़ते हैं । धनपाल प्रतिदिन धन का संचय करता है ।
प्रश्न
१. अव्यय और उपसर्ग में क्या अन्तर है ?
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उवसग्ग (उपसर्ग )
२. उपसर्ग कितने हैं और उनके नाम बताओ ?
३. एक धातु के साथ कम से कम कितने उपसर्ग लगते हैं और अधिक से अधिक कितने लगते हैं ?
४. धातु के पहले उपसर्ग लगने से उसके अर्थ में परिवर्तन आता है या नहीं ? आता है तो कैसा ?
५. नीचे लिखे संस्कृत के उपसर्गों का प्राकृत में क्या-क्या रूप बनता है ? उप, परि, अभि, अधि, निर्, अप
६. चार उदाहरण ऐसे दो जहां उपसर्ग के योग से धातु के अर्थ में परिवर्तन आता हो ?
७. संझा, मज्झण्हो, घडी, वरिसा, सरयो, सिसिरो, चिल्ला, कोइला, वायस - शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ ।
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५६
शब्दरूप (१) (पुंलिंग अकारान्त शब्द)
शब्द संग्रह (पक्षी वर्ग २) तीतर-तित्तिरो
खंजन---खंजणो वटेर-लावओ, लावगो पपीहा--चायवो, चायगो सारस--सारसो
चकवा-चक्कवाओ, चक्कआओ गरुड-गरुडो, गरुलो
मोर-मोर, अल्लल्लो (दे०) हंस-हंसो
कुरर--कुररो कंक-कंको
घोंसला—णीडं, गेहूं
शाखा—-डाली
धातु संग्रह थव-स्तुति करना
थुण-स्तुति करना थिप-तृप्त होना
थेप्प-तृप्त होना, संतुष्ट होना थुअ-स्तुति करना
दस-दांत से काटना थुक्क थूकना
दंसाव--दिखलाना थुक्कार-तिरस्कार करना दक्ख-देखना, अवलोकन करना
शब्दों के विषय में० किसी भी लोक व्यापक भाषा में द्विवचन सूचक प्रत्यय अलग उपलब्ध
नहीं होते। इसी प्रकार लोक व्यापक भाषा प्राकृत में भी द्विवचन दर्शक अलग प्रत्यय नहीं है। द्विवचन का अर्थ सूचित करने के लिए शब्द के पीछे दो शब्द जोडकर बहुवचन के प्राकृत रूपों का प्रयोग करना होता है। ० चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
नमो देवाय--नमो देवस्स । ० अधिकांशतया लिंग का निर्णय शब्द के अंतिम वर्ण के आधार पर किया जाता है।
नियम ४२८ (द्विवचनस्य बहुवचनम् ३।१३०) स्यादि तथा त्यादि की सब विभक्तियों के द्विवचन को बहुवचन होता है।
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शब्दरूप (१)
२११
सि
जस्
tha FEX
विभक्ति प्रत्यय विभक्ति एकवचन
बहुवचन संस्कृत प्राकृत
संस्कृत प्राकृत प्रथमा
लोप द्वितीया अम्
शस् लोप तृतीया
भिस् हि, हिं, हिँ चतुर्थी x पंचमी सि त्तो, दो (ओ) दु(उ) भ्यस् तो, दो (ओ)दु (उ) हि, हितो, लुक्
हि, हितो, सुंतो षष्ठी उस्
स्स
आम् ण, णं सप्तमी डि डे (ए) म्मि सुप् सु, सुं संबोधन सि ओ, लोप
जस्
लोप नियम ४५६ (अतः से?: ३१२) अकारान्त नाम से परे स्यादि के सि को डो होता है । वच्छो ।
नियम ४५७ (जस्-शस्-सि-तो-दो-द्वामि दीर्घः ३।१२) जस्, शस् और ङसि इन प्रत्ययों के परे होने पर अकार दीर्घ होता है । वच्छा।
नियम ४५८ (जस्-शसो लुंक ३.४) अकारान्त शब्द से परे जस् एवं शस् का लोप हो जाता है । वच्छा, वच्छे ।
नियम ४५६ (अमोस्य ३३५) अकार से परे अम् के अकार का लोप हो जाता है । वच्छं।
मियम ४६० (टा आमोण: ३।६) अकारान्त शब्द से परे टा तथा षष्ठी के बहुवचन आम् को ण होता है ।
नियम ४६१ (टाण शस्येत् ३३१४) टा के आदेश ण तथा शस् प्रत्यय परे हो तो अकार को एकार होता है।
(क्त्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्वा ११२७) नियम ७२ से क्त्वा और स्यादि प्रत्ययों के ण तथा सु के आगे अनुस्वार का आगम विकल्प से होता है । वच्छेणं, वच्छेण । वच्छेसु, वच्छेसु ।
नियम ४६२ (भिसो हि हि हि ३१७) अकार से परे भिस् के स्थान पर हि, हिँ (सानुनासिक) और हिं (सानुस्वार) आदेश होता है।
नियम ४६३ (भिस्भ्यस्सुपि ३।१५) भिस्, भ्यस् और सुप् परे हो तो अ को ए हो जाता है। वच्छेहि, वच्छेहि, वच्छेहिं । वच्छेहि, वच्छेहितो, वच्छेसंतो। वच्छेसु, वच्छेसुं।
नियम ४६४ (सेस् त्तो-दो-दु-हि-हितो-लुक ३८) अकार से परे ङसि को तो, दो (ओ) दु (उ), हि, हितो, लोप-ये छह आदेश होते हैं । वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि । वच्छाहितो, वच्छा। दो और दु में
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२१२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
दकार भाषान्तर (शौरसेनी, मागधी) के उपयोग के लिए किया गया है।
नियम ४६५ (भ्यसस् त्तो-दो-दु-हि-हिं तो-सुतो ३६) अकार से परे भ्यस् को तो, दो, दु. हि, हिंतो और सुतो आदेश होता है ।
नियम ४६६ (भ्यसि वा ३।१३) भ्यस् को होने वाले आदेश परे होने पर अ को दीर्घ विकल्प से होता है। वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छेहि, वच्छाहितो वच्छेहितो, वच्छासुंतो, वच्छेसुंतो।
नियम ४६७ (उसः स्सः ३।१०) अकार से परे ङस् को स्स होता है। वच्छस्स ।
नियम ४६८ (3 म्मि हु: ३।११) अकार से परे ङि को डे तथा म्मि होता है । वच्छे, वच्छम्मि ।
नियम ४६६ (डो दी? वा ३।३८) अकारान्त शब्दों से आमंत्रण अर्थ को होने वाला डो प्रत्यय तथा इकारान्त और उकारान्त शब्दों को होनेवाला दीर्घ विकल्प से होता है । हे वच्छ, हे वच्छो। प्रयोग वाक्य
जणा तित्तिरा पालेति । लावगाण मंसं यवना खाअंति । सारसाण चंचू पलंबा भवइ । हंसो खीरणीराइं विवेचिउ समत्थो अत्थि । खंजणो कस्सि पएसम्मि भवइ ? चायगो मुहं उग्घाडिऊण मेहं पेक्खइ। मोरो भारहवासस्स रटुपक्खी अत्थि । कंको दीहपाओ भवइ। कुररो मच्छणासणं करेइ । गरुडो परिखणो राया होइ। धातु प्रयोग
सेवगो सामि थवइ । सो आयरिअमुहेण जिणवयणं सुणिऊण थिंपइ । ते पासणाहं थुअंति । सो मुहु मुहु कहं थुक्कइ ? तिणा तुमं थुक्कारिओ। सावगा जिणे थुणंति । सो मिट्ठान्नं भुंजिऊण थेप्पइ । सप्पो सव्वे दंसइ। रमेसो सुवसंगहालयं दंसावेइ । बालो ससिं दक्खइ । प्राकृत में अनुवाद करो
तीतर यहां से कब उड गया ? यह वटेर कहां से आ रहा है ? सारस का रंग सफेद होता है । हंस में दूध और पानी को अलग-अलग करने की जो शक्ति है वह दूसरों में नहीं है । खंजन पक्षी के विषय में तुम क्या जानते हो ? पपीहा तालाब का पानी नहीं पीता है। चकवा के प्रेम का उदाहरण लगता है। मोर राजस्थान में अधिक पाए जाते हैं। कंक की पृष्ठ लोह के समान होती है । कुरर मच्छलियों को मारता है । गरुड सबसे ऊंचा उडता है। धातु का प्रयोग करो
तुम भगवान महावीर की स्तुति करते हो। शांत-सुधारस का पान कर वह तृप्त हो गया। गुणवान् व्यक्तियों की स्तुति करने से अपना लाभ होता
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शब्दरूप ( १ )
२१३
है । यहां दीवार पर थूकना निषेध है । किसी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए | वह पार्श्वनाथ की स्तुति किस प्रयोजन से करता है ? तुम्हारे दर्शन मात्र से मैं संतुष्ट हो गया । मार्ग में चलने वाला सांप बिना सताए किसी को नहीं काटता है । उसने अपनी विद्यापीठ विनयकुमार को दिखलाई । जो अपना अवगुण देखता है वह साधक है ।
प्रश्न
१. प्राकृत में द्विवचन का क्या स्थान है ? उसको बताने के लिए क्या प्रयोग करना चाहिए ?
२. लिंग का निर्धारण करने के लिए प्राकृत में सामान्य नियम क्या
है ?
३. प्राकृत में कितनी विभक्तियां होती हैं ?
४. सभी विभक्तियों के एकवचन और बहुवचन के प्रत्यय बताओ
५. पुंलिंग के अकारान्त शब्द के लिए टा, सुप, आम्, और भ्यस् प्रत्ययों के लिए क्या-क्या नियम हैं ? बताओ ?
६. तीतर, वटेर, खंजन, पपीहा, सारस, चकवा, हंस, मोर, कंक, कुरर, घोंसला और डाली के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
७. थव, थिंप, थुक्क थुक्कार, थुण, थेप्प, दंस, दंसाव और दक्ख धातु के अर्थ बताओ और अपने वाक्य में प्रयोग करो ।
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शब्दरूप (२)
चमगादड-जउआ बत्तक--बत्तओ भंग-भिंगो मुर्गा-कुक्कुडो चाष-चासो
शब्द संग्रह (पक्षी वर्ग ३)
उल्लू-उलूओ, उलूगो बाज-सेणो गौरैया-चडयो क्रौञ्च-कोचो टिटिहिरी-टिट्टिभो
आकाश-आयासं
धातु संग्रह दम-दमन करना, निग्रह करना दव-गति करना दय--कृपा करना, चाहना
अइंच--- अभिषेक करना दलय-देना
दार-विदारना, चूर्ण करना, तोडना दलाव-दिलाना
दाव-दान करवाना, दिलाना दवाव दिलाना
पुंलिंग अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त शब्द नियम ४७० (अपलीबे सौ ३१६) नपुंसक को छोडकर सि परे रहने पर इकार और उकार दीर्घ हो जाता है । मुणी, साहू।।
नियम ४७१ (पुंसि जसो डउ डओ वा ३।२०) पुंलिंग में इकार और उकार से परे जस् को डउ (अउ) और डओ (अओ) आदेश होते हैं । मुणउ, मुणओ । साहउ, साहओ।
नियम ४७२ (जस्-शसो ो वा ३३२२) पुंलिंग में इकार और उकार से परे जस् तथा शस् को णो आदेण विकल्प से होता है। मुणिणो, मुणी। साहुणो, साहू।
नियम ४७३ (लुप्ते शसि ३.१८) शस् का लोप होने पर इकार और उकार दीर्घ हो जाता है। मुणी, बुद्धी, तरू, धेणू ।।
नियम ४७४ (इदुतो दीर्घः ३।१६) भिस्, भ्यस्, सुप् परे रहने पर इकार और उकार दीर्घ हो जाता है। मुणीहिं, बुद्धीहिं, दहीहिं । साहहिं, घेणूहिं, महिं । मुणीओ, बुद्धीओ, दहीओ। साहूओ, धेणूओ, महूओ । मुणीसु, बुद्धीसु, दहीसु । साहूसु, धेणू सु, महूसु ।
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शब्दरूप (२)
२१५
नियम ४७५ (टो णा ३१२४) पुंलिंग तथा नपुंसक लिंग में इका र और उकार से परे टा को णा होता है। मुणिगा, गामणिणा । साहुणा, खलपुणा । दहिणा, महुणा ।।
नियम ४७६ (सि-तोः-पुं-क्लीवे वा ३।२३) पुंलिंग तथा नपुंसक लिंग में वर्तमान इकार और उकार से परे ङसि तथा ङस् को विकल्प से णो होता है। मुणिणो, साहुणो । दहिणो, महुणो। मुणीओ, मुणीउ, मुणीहितो । साहूओ, साहूउ, साहूहितो । मुणिस्स, साहुस्स।
नियम ४७७ (ईदूतो ह्रस्वः ३४२) संबोधन में ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द को ह्रस्व होता है । हे गामणि, हे वहु । हे खलपु ।
नियम ४७८ (वो तो डवो ३।२१) पुंलिंग में उकार से परे जस् को डवो (अवो) आदेश विकल्प से होता है । साहवो, साहओ, साहउ।
__ नियम ४७६ (क्विपः ३।४३) क्विप् प्रत्यान्त ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द हों तो वे ह्रस्व हो जाते हैं। गामणिणा, खलपुणा। गामणिणो, खलपुणो। प्रयोग वाक्य
जउआ निसाए उड्डेइ । बत्तओ पाओ जले वसइ । उलओ दिणे पासिउ न सक्कइ । सेणो पक्खिणो हणइ । चडयो नीडं णिम्माइ। कुक्कुडो सूरियोदयस्स पुत्वमेव णियतसमये जंपइ। टिट्टिभस्स जपणं को जाणइ ? चासो पक्खी कम्मि पएसे वसइ ? कोंचस्स विसये किं तुम जाणसि ? भिगो एगस्स पक्खिणो अभिहाणं विज्जइ । धातु प्रयोग
साहगो इंदियाइं दमेइ । साहू सावगं दयइ । धणी णिद्धणाय वत्थं दलयइ । रमेसो सोहणत्तो धणं दलावेइ, दवावेइ वा । मुणी गामाणुगामं दवइ । निवो नियपुत्तं अइंचइ। साह जणा णाणं देइ । तुज्झ कडुवयणं मझ हिययं दारइ । तावसो धणि दावइ। प्राकृत में अनुवाद करो
बत्तख जल में अधिक रहती है । उल्लू की आंखें मोटी होती हैं। बाज से पक्षी डरते हैं । गौरैया उछल-उछल कर चलती है। मुर्गे का शब्द सुनकर लोग समय का अनुमान लगाते हैं । क्रौंच पति पत्नी साथ रहते हैं। टिटिहिरी क्या बोलती है ? चाष क्या खाना पसंद करता है ? भंग उड़ने वाला एक पक्षी है। चमगादड आकाश में उडते समय अपने पंखों को अधिक हिलाता
बातु का प्रयोग करो
सासू के उपालंभ देने पर बहू अपने मन का दमन करती है। श्रावक
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२१६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
साधु से प्रार्थना की कि मेरे घर पधारने की कृपा करो । साधु निस्वार्थ उपदेश देते हैं । आचार्य शिष्य को उसकी त्रुटि पर ध्यान दिलाते हैं । जो गति करता है वह अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच जाता है ( पहुच्चइ ) । आज कौन राजा का अभिषेक करेगा ? जीवन का दान देना बहुत तुम्हारा व्यवहार मेरे हृदय को तोडता है । अध्यापक सेठ से पुस्तकें दिलाता है ।
कठिन कार्य है । गरीब लडके को
प्रश्न
१. पुंलिंग इकारान्त शब्द से परे ङसि और ङस् को क्या आदेश किस नियम से होता है ? उसका क्या रूप बनता है ? लिखो ।
२. शस्, भिस्, भ्यस् और सुप् प्रत्यय परे होने पर अकारान्त पुंलिंग शब्द के उकार को दीर्घ किस-किस नियम से होता है ? उसके रूप. भी लिखो ।
३. सि प्रत्यय परे होने पर इकारान्त शब्द के इकार को दीर्घ करने वाला कौन सा नियम है ?
४. पुंलिंग उकारान्त शब्द से परे जस् और शस् प्रत्यय को किस नियम से क्या-क्या होता है ? उसका रूप भी लिखो ।
५. चमगादड, उल्लू, बत्तक, बाज, गौरैया, मुर्गा, क्रौंच, टिटिहिरी, भृंग और चाष पक्षियों के लिए प्राकृत के शब्द लिखो ।
६. दम, दय, दव, दार दाव, अइंच, दलय, दवाव और दलाव धातुओं के अर्थं बताओ तथा उन्हें वाक्य में प्रयोग करो ।
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५८
शतक
शब्दरूप (३)
F
शब्द संग्रह (पशु वर्ग १) सिंह-सीहो, सिंघो, केसरी
चीता-चित्तो बाघ–सादुलो, वग्यो
भालू, रीछ-भल्लू, रिच्छो हाथी-हत्थी, करी, गयो
घोडा----घोडओ, आसो भंसा-महिसो
गेंडा---गंडयो खग्गी (पुं) खच्चर-वेसरो
चितकबरा-चित्तो
सींग-विसाणं
पूंछ-पुच्छं घोडे के मुख को बांधने का शोभा-सोहा वस्त्र-कडाली
धातु संग्रह दिक्ख ---दीक्षा देना
दिस-कहना दिप्प-चमकना
दुक्ख-दर्द होना दिप्प-तृप्त होना
दुम्मण--उद्विग्न होना, उदास होना दियाव-देना
दुरुह-आरूढ होना, चढना तिरोहा-अन्तहित होना, दुस्स-द्वेष करना
___ अदृश्य होना, लोप करना दिव---क्रीडा करना ऋकारान्त पित शब्द
ऋकारान्त शब्द दो तरह के माने जाते हैं—(१) संबंधसूचक विशेष्य और (२) संबंध सूचक विशेषण । जो शब्द मूलतः ऋकारान्त हैं वे संबंधसूचक विशेष्य हैं। जैसे-जामातृ, पितृ, मातृ, भ्रातृ आदि। जो शब्द तच या तृन् प्रत्ययान्त हैं वे संबंधसूचक विशेषण हैं। जैसे--कर्तृ, दातृ, भर्तृ आदि । प्रथमा तथा द्वितीया के एक वचन को छोडकर शब्द के अंतिम ऋकार को विकल्प से उ हो जाता है। तब वह उकारान्त शब्द बन जाता है। उसके रूप साहु की तरह चलते हैं । विकल्प के दूसरे पक्ष में शब्द के अंतिम ऋकार को अर तथा आर हो जाता है। शब्द अकारान्त होने से उसके रूप वच्छ की तरह चलते हैं । संस्कृत का पितृ शब्द प्राकृत में पितु, पिउ, पितर और पिअर के रूप में प्रयोग में आता है। पितु का रूप पिउ और पितर का रूप पिअर
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२१८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
की तरह चलता है । पिआ और पिअर आदि रूपों के स्थान पर पिया और पियर रूप भी उपलब्ध होता है ।
भाउ, भायर ( भ्रातृ) भाई
जामाउ, जामायर ( जामातृ) जमाई दाउ, दायर ( दातृ) दाता
कत्तु, कत्तार ( कर्तृ) कर्त्ता
भत्तु, भत्तार ( भर्तृ) भरण पोषण करने वाला ।
इस प्रकार पुंलिंग ऋकारान्त शब्द के रूप पितृ की तरह चलते हैं ।
नियम ४८० ( ऋतामुदस्यमौसु वा ३।४४ ) सि, अम्, औ को छोड़कर स्यादि प्रत्यय परे हों तो ऋकारान्त शब्दों को विकल्प से उकार हो जाता है । जस्— भत्तू, भत्तुणो, भत्तउ, भत्तओ । टा - भत्तुणा । नियम ४८१ ( आरः स्यादौ ३।४५) सि आदि परे रहने पर ऋकार को आर आदेश होता है । भत्तारो, भत्तारा, भत्तारं भत्तारे, भत्तारेण । नियम ४८२ ( नान्यर: ३।४७ ) संज्ञावाची ऋदन्त शब्दों के ऋ कोस आदि परे रहने पर अर आदेश होता है । पिअरा, पिअरं, पिअरे, पिअरेण, पिअरेहिं । भायरा, भायरं, भायरे, भायरेण, भायरेहिं ।
नियम ४८३ ( आ सौ न वा ३।४८ ) ऋदन्त शब्द को सि परे रहने पर आ विकल्प से होता है । पिआ, जामाया, भाया ।
नियम ४८४ ( ऋतोद् वा ३।३६ ) संबोधन में सि परे रहने पर ऋकारान्त शब्द के अंतिम स्वर को अ विकल्प से होता है । हे पिअ । हे भाय |
नियम ४८५ ( नान्यरं वा ३।४० ) संज्ञावाचक ऋकारान्त शब्द से परे संबोधन का सि परे हो तो ऋकार को अर आदेश विकल्प से होता है । हे पिअरं, हे पिअ ( हे पितः ) । जहां संज्ञा न हो वहां हे कत्तार ( हे कर्त: ) । प्रयोग वाक्य
सहस सिरे केसो भवइ । वग्घो धुत्तो होइ सो रुक्खम्मि तिरोधाऊणं पहारइ | चित्तस्स सरीरो चित्तो भवइ । भल्लू पायवम्मि आरोहइ । राया हत्थिसि आरोहिंसु । सुरेसस्स गिहे अज्जावि आसो अस्थि । महिसो बहुभारं वहइ । जणा खग्गिस्स चम्मस्स फलगं ( ढाल ) करेइ । कडालीइ घोडअस्स सोहा भवइ । वेसरो गद्दभत्तो आसत्तो य भिन्नो भवइ । पसूणं विसाणाई परा मारिउं गियरक्खणट्ठ य सत्थं भवइ ।
धातु प्रयोग
आय रिएण दसविरत्ताप्पाणी दिक्खि । भवयाणं मुहो अइ दिप्पइ । तुझ गीइयं सुणिऊणं अहं दिप्पामि । देवा देवीओ यावि दिवंति । महावीरेण
,
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शब्दरूप (३)
२१६
जणहियस्स उवएसो दिसिओ । उवालंभं सुणिऊणं सो दुक्खइ । तुमं केणं कारणेणं दुम्मणसि ? रमेसो आसं दुरुहइ । केणावि सह न दुस्सिअव्वं । चंदो जलदेसु तिरोहाइ। प्राकृत में अनुवाद करो
___ सिंह वन का राजा होता है । बाघ हिंसक प्राणी है। चीता आक्रामक (अक्कामओ) होता है। भालू काले रंग को होता है और वृक्ष पर उल्टा चढता है । हाथी का शरीर स्थूल होता है फिर भी वह अंकुश से वश में होता है। घोडा तेज क्यों दौडता है ? भैंसे में प्रतिशोध (पडिसोह) की भावना होती है । गेंडे के सींग का क्या उपयोग होता है ? खच्चर भारवाही पशु होता है। जिसके सींग और पूंछ होता है वह पशु होता है। धातु का प्रयोग करो
तुम किसके पास और कब दीक्षा लोगे ? आकाश में तारे चमकते हैं । वस्तु के मिलने और न मिलने पर भी वह तृप्त रहता है। बच्चे आंगण में क्रीडा करते हैं। उसने सत्य कहा है। वह किसलिए दुःखित होता है। कौनसा कार्य तुम्हारा न होने से तुम उदास हो गए ? जो चढता है वही गिरता है। किसी के प्रति द्वेष करना सज्जन व्यक्ति का कार्य नहीं है। कभीकभी सूर्य भी अदृश्य होता है।
१. ऋकारान्त शब्द कितने प्रकार के होते हैं ? प्रत्येक प्रकार के उदाहरण
देकर समझाओ। २. संस्कृत का ऋकारान्त शब्द प्राकृत में किस रूप में बदल जाता है ?
और उसके रूप किस शब्द की तरह चलते हैं ? ३. ऋकारान्त शब्द को उकार और आर आदेश किस स्थिति में होता है _और किस नियम से ? ४. सि प्रत्यय परे रहने पर ऋकारान्त शब्द को किस नियम से क्या
आदेश होता है ? ५. सिंह, चीता, बाघ, रीछ, हाथी, घोडा, भैसा, गेंडा और खच्चर के
लिए प्राकृत के शब्द बताओ? ६. दिक्ख, दिप्प, दिव, तिरोहा, दिस, दुक्ख, दुम्मण, दुरुह और दुस्स
धातुओं के अर्थ बताओ तथा उन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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५६
शब्दरूप (४)
शब्द संग्रह (पशु वर्ग २) सूअर--सूअरो, वराहो
दुष्ट बैल-अलमलो गीदड-सियारो
हरिण-हरिणो नीलगाय-गवयो
भेड-भेसो ऊंट-कमेलयो
गधा-गद्दभो, रासहो बैल-वसहो, बइल्लो, बच्छाणो
धातु संग्रह दुह-दुहना
दूराय--दूरवर्ती मालूम होना दुह-द्रोह करना
अइया--जाना, गुजरना दू-उपताप करना, काटना
देव-चाहना, आज्ञा करना, दूइज्ज-गमन करना, जाना
जीतने की इच्छा करना दूभ---दु:खित होना
देह-देखना दोह-द्रोह करना नकारान्त राजन और आत्मन् शब्द
नियम ४८६ (राजः ३४६) राजन् शब्द के न् का लोप होने पर अंतिम वर्ण को विकल्प से आ होता है। राया।
नियम ४८७ (जसशस्ङसि, ङसां णो ३.५०) राजन् शब्द से परे, जस्, शस्, ङसि और ङस् प्रत्ययों को विकल्प से णो आदेश होता है। रायाणो, राया । रायाणो, राया । राइणो, रणे । राइणो, रण्णो (राया)।
नियम ४८८ (इर्जस्य णो णा डौ ३१५२) राजन् शब्द से संबंधित जकार के स्थान पर णो, णा और डि परे रहने पर इकार विकल्प से होता है। राइणो, राइणा, राइम्मि । पक्षे रायाणो, रणो। रायणा, राएण । रायम्मि ।
नियम ४८६ (इणममामा ३।५३) राजन् शब्द से संबंधित जकार को अम् और आम् के सहित इण आदेश विकल्प से होता है। राइणं । पक्षे रायं, राईणं।
नियम ४६० (टा णा ३।५१) राजन् शब्द से परे टा को णा आदेश होता है । राइणा, रण्णा । पक्षे राएण ।
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शब्दरूप (४)
२२१ नियम ४६१ (ईभिस्भ्यसाम्सुपि ३३५४) राजन् शब्द से संबंधित जकार को भिस्, भ्यस्, आम् और सुप् परे रहने पर विकल्प से इकार होता है। भिस--राईहि । भ्यस्-राईहि । आम् - राईणं । सुप्--राईसु।
नियम ४६२ (आजस्य-टा-सि-डस्सु सणाणोष्वण ३२५५) राजन् शब्द से संबंधित आज को विकल्प से अण आदेश होता है, टा, सि, इस को आदेश होने वाले णा तथा णो परे हो तो। रण्णा, राइणो। रणो राइणो । रणो राइणो । पक्षे राएण, रायाओ, रायस्स।
नियम ४६३ (पुंस्थ न आणो राजवच्च ३१५६) पुंलिंग अन्नन्त शब्द के अन् को विकल्प से आण आदेश होता है। पक्ष में यथादर्शन राजन शब्द की तरह रूप चलते हैं। अप्पाणो, अप्पाणा । अप्पाणं, अप्पाणे । अप्पाणेण, अप्पाणे हि । अप्पाणाओ, अप्पाणासुंतो। अप्पाणस्स, अप्पाणाण । अप्पाणम्मि, अप्पाणेसु । पक्षे राजन्वत् ।
नियम ४६४ (आत्मनष्टो णिआ जइआ ३१५७) आत्मन् शब्द से परे टा को विकल्प से णिआ तथा णइआ आदेश होते हैं। अप्पणिआ, अप्पणइआ। अप्पाणेण । ० आत्मन् शब्द अत्त, अप्प, अप्पाण शब्दों में परिवर्तित हो जाता है।
अप्पाण शब्द के रूप देव शब्द की तरह चलते हैं। अत्त और अप्प के लिए देखें परिशिष्ट १ संख्या १५ । ० राजन् शब्द के सारे रूप परिशिष्ट १ संख्या १४ में देखें। प्रयोग वाक्य
सूअरो पुरीसं चिअ भक्खइ। सियारो माणुससिसुमवि खाअइ । छाउरनयरस्स बाहिं वणे किण्हो हरिणो वि अत्थि । लाडणुणयरस्स सुआणगढणयरस्स य अंतरा मए गवयो दिट्ठो। मेसस्स दुद्धं पिवंति केइ जणा। कमेलयो मरुभुमीए जाणं अस्थि । कमेल यो उरम्मि नीराणं संगहो करेइ । गद्दभो रच्छाए भमइ । बइल्लो भारं वहइ । अलमलो सरलवसहा कुबुद्धि देइ ।। धातु प्रयोग
___ तस्स माआ धेणुओ दुहइ। सुशीला सीयाइ दुहइ (द्रोह करती है) कज्ज काऊणं सो कहं दूअइ ? गामाणुगामं दूइज्जमाणा मुणिणो अत्थ कया आगमिस्संति ? तस्स पुत्तो पहसियो व्व (उपहास किए हुए की तरह) दूभइ । पेम्माभावे पुत्तो वि दूरायइ। तिणा पिटु, कि हरिणो अइयाइंसु ? सो इंदियाई देवइ । कि कोइ सूरियं देहइ ? तुम मज्झ कहं दोहसि ? प्राकृत में अनुवाद करो
सूअर गांवों में अधिक मिलते हैं। गीदड जंगल में रहते हैं और छल से आक्रमण करते हैं। हरिण छलांग लगाकर बहुत तेज दौडता है। भेड
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२२२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
मरुस्थल में अधिक पाए जाते हैं। नील गाय कम देखने को मिलती है। ऊंट मरुभूमि में सबसे तेज और लम्बी दूरी तक चलने वाला पशु है। गधा आजकल मूल्यवान बन गया है । सिवानंची देश के बैल प्रसिद्ध होते हैं। दुष्ट बैल अपनी धूर्तता से मार खाता है। धातु का प्रयोग करो
मेरी छोटी बहन गाय को दुहती है। पिता पुत्र के साथ क्यों द्रोह करता है ? तुम व्यर्थ ही उपताप करते हो। संत लोग गांव-गांव में जाते हैं । दृष्टि दोष से पास की वस्तु भी दूर मालूम पडती है। साधुओं का संघ अभी यहां से गुजरा (गया) है। क्या तुम मन को जीतने की इच्छा नहीं करते ? वह अपने दोषों को देखता है । वह समाज के साथ द्रोह करता है।
प्रश्न १. राया, राइणं, राईसु, अप्पाणो, राइणो, अप्पणिआ-इन शब्द रूपों
को सिद्ध करो और बताओ किस-किस नियम से क्या हुआ है ? २. आत्मन् शब्द प्राकृत में किस शब्द के रूप में परिवर्तित हो जाता है
और उनके रूप कैसे चलते हैं ? ३. सूअर, गीदड, हरिण, नीलगाय, भेड, ऊंट, गधा, बैल, दुष्ट बैल-इन
शब्दों के लिए प्राकृत में क्या-क्या शब्द हैं ? ४. दुह, दुह, दू, दूइज्ज, दूम, दूराय, अइया, देव, देह और दोह धातुओं
के अर्थ बताओ और अपने वाक्य में प्रयोग करो। ५. चक्कवाओ, लावगो, तित्तिरो, चडयो, बत्तओ, रिच्छो, वग्यो, गंडयो
शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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शब्दरूप (५)
शब्द संग्रह (पशु वर्ग ३) भेडिया--विओ, कोओ
बंदर--वाणरो लंगूर-गोलांगूलो (सं)
कुत्ता-कुक्कुरो, सारमेयो बिल्ली-मज्जारो, बिडालो
उदविडाल-उदविडालो चूहा-मूसियो
खरगोश-ससो बकरा-अजो
सांड-गोपती (पुं)
धातु संग्रह पत्तिअ-विश्वास करना
पबंध-विस्तार से कहना पत्था-प्रस्थान करना
पम्हुस-चोरी करना पदूस-द्वेष करना
पम्हुस-भूलना पप्फुर---फरकना
पय-पकाना पप्फुल्ल-विकसना
पया--प्रयाण करना स्त्रीलिंग आकारान्त, इवान्त, उवर्णान्त, ऋकारान्त शब्द
नियम ४६५ (स्त्रियामुदोतो वा ३।२७) स्त्रीलिंग में वर्तमान संज्ञा शब्दों से परे जस् एवं शस् प्रत्यय के स्थान पर विकल्प से उ, ओ तथा पूर्व स्वर को दीर्घ हो जाता है । जस्-मालाओ, मालाउ, माला। शस्-मालाओ, मालाउ, माला । जस्-मईओ, मईउ, मई। शस्-मईओ, मईउ, मई । वाणीओ, वाणीउ, वाणी। वाणीओ, वाणीउ, वाणी। धेणुओ, धेणउ, धेणू । घेणुओ, धेणुउ, धेणू । वहूओ, वहूउ, वहू । वहूओ, वहूउ, वहू।
नियम ४६६ (ह्रस्वोमि ३।३६) स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द के अंतिम स्वर को ह्रस्व हो जाता है, अम् प्रत्यय परे होने पर। मालं । वाणिं । वहुं।
नियम ४६७ (टा-इस-ङरदादिदेवा तु उसेः ३।२६) स्त्रीलिंग शब्द से परे टा, ङस् और डि के स्थान पर अ, आ, इ तथा ए होते हैं। सि को ये आदेश होने के साथ पूर्वस्वर दीर्घ विकल्प से होता है। मईअ, मईआ, मईइ, मईए । वाणीअ, वाणीआ, वाणीइ, वाणीए । धेणूअ, धेणूआ, घेणूइ, धेणूए । वहूअ वहूआ, वहूइ, वहुए।
नियम ४९८ (नात आत् ३।३०) स्त्रीलिंग में वर्तमान आकारान्त शब्द से परे टा, डस्, ङि और सि को पूर्वनियम के अनुसार होने वाला
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२२४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आकार नहीं होता । मालाअ, मालाइ, मालाए।
नियम ४६६ (वाप ए ३।४१) स्त्रीलिंग में संबोधन में सि परे होने पर आप को ए विकल्प से होता है । हे माले, हे माला ।
नियम ५०० (ईतः सेश्चा वा ३।२८) स्त्रीलिंग ईकारान्त शब्द से परे सि, जस् और शस् को विकल्प से आ आदेश होता है । इत्थीआ, गौरीआ, हसन्तीआ ।
नियम ५०१ (आ अरा मातुः ३१४६) मातृ शब्द के ऋकार को आ और अरा आदेश होता है, सि आदि परे हो तो। माआ, माअरा, माआउ । माआओ, माअराउ, माअराओ, माअं, माअरं । प्रयोग वाक्य
विओ पसू मारइ। मज्जारो मूसिया हंति । ससस्स केसा कोमला भवइ। कुक्कुरो माणावमाणेसु समो भवइ। वाणरो माणुसा भाएइ। उदविडालो बिडालत्तो भिण्णो भवइ। माउस्सिया मूसिअत्तो बहु भीअइ । अमरअजो गामम्मि अणहट्टयो भमइ । गोपती सच्छंदो खेत्ते गामे य अडई। धातु प्रयोग
अहं तुमे पत्तिआमि । जो सरं (स्वर) चलेज्ज तस्स भागस्स पयं पुव्वं ठविऊण पत्थाअव्वं । केणावि सह न पदूसियव्वं । तुज्झ वामणेत्तं पप्फुरइ अओ सुहं नत्थि । सूरमुहि पुप्फ सूरिअं पासिऊणं पप्फुल्लइ । तुम णियपबंधम्मि कं विसयं पबंधीअ । एसो णिद्धणो तहवि न पम्हुसइ। मित्तेण सहकयोवयारो पम्हसियव्वो। सीया अज्ज दालिं पयो । आयरियभिक्खू सुहरीगामत्तो (सुधरीग्राम) पयाइंसु।। प्राकृत में अनुवाद करो
भेडिया गांव में आकर पशुओं को ले जाता है। बिल्ली चोरी से दूध की मलाई खाती है । खरगोश रात को घूमता है। कुत्ता मार्ग के बीच में सोता है। बंदर एक स्थान से दूसरे स्थान पर कूदकर जाता है। उदबिलाव जंगल में रहता है । चूहा गणेश का वाहन (वाहणं) है । बकरा सरल पशु होता है। इस गांव का सांड कमजोर है। गोशाला में दो सांड हैं। धातु का प्रयोग करो _ मैं जैन धर्म में विश्वास करता हूं। वह अपने घर से कल प्रस्थान करेगा। शत्रु से भी द्वेष नहीं करना चाहिए। आज मेरी दाहिनी आंख फुरकती है । वसंत में वृक्ष विकसित होते हैं। वह अपने विषय को विस्तार से कहता है। तुम चोरी क्यों करते हो? तुमने जो वचन दिए थे उसे
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शब्दरूप (५)
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क्यों भूलते हो ? वह खीर पकाता है। तुम आत्म साधना के लिए प्रयाण करते हो।
प्रश्न १. स्त्रीलिंग में शब्द से परे जस् और शस् के स्थान पर क्या आदेश होता
२. स्त्रीलिंग में टा, सि और ङि के स्थान पर क्या आदेश होता है ?
और कहां नहीं होता। ३. स्त्रीलिंग में आकारान्त, इवर्णान्त और उवर्णान्त शब्दों की सिद्धि में
क्या समानता है ? और कहां अंतर है ? ४. भेडिया, बिल्ली, लंगूर, खरगोश, कुत्ता, चूहा, बंदर, सांड, उदविडाल,
बकरा-इन शब्दों के प्राकृत में क्या शब्द है ? ५. पत्तिअ, पत्था, पदूस, पप्फुर, पप्फुल्ल, पबंध, पम्हुस, पय और पया
धातुओं के अर्थ बताओ तथा उनको अपने वाक्यों में प्रयोग करो।
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शब्दरूप (६)
शब्द संग्रह (पशु वर्ग ४) हथिनी-करेणुआ, करिणी, हत्थिणी बकरी-छाली लोमडी-खिखिरो
गाय-धेणू, गो खच्चरी-वेसरी
ऊंटनी (सांड)-उट्टी कुत्ती -सुणई, सुणिआ
सियाली--सिआली सोनचीडी-सउणचडया
बछिया, पाडी--पड्डिया गौरेयी, चीडिया-चडया
बहुत दूध देने वाली—पडत्थी
अंकुर-अंकुरो
धातु संग्रह फंफ----उछलना
फुस-पोंछना फंस-छूना
फुर-फरकना, हिलना फाड-फाडना
फेणाय-झाग निकलना फिट्ट-टूटना
फुम-फूंक मारना फुट—विकसना, फूटना, फटना विलिह-विलेखन करना, रेखा करना नपुंसक शब्द
नियम ५०२ (क्लीबे स्वरान्म से: ३।२५) नपुंसक स्वरान्त शब्द से परे सि को म् होता है । वणं । दहिं । महुं।
नियम ५०३ (जस्-शस् इ ईणयः सप्राग्दीर्घाः ३।२६) नपुंसक शब्द से परे जस् तथा शस् को इँ, इं तथा णि आदेश होते हैं तथा उससे पूर्व में स्थित स्वर को दीर्घ होता है । वणा', वणाई, वणाणि । दही, दहीइं, दहीणि । महूइँ, महूई, महणि ।
नियम ५०४ (नामन्च्यात सौ मः ३३७) नपुंसक में सम्बोधन अर्थ में सि को म् नहीं होता । हे वण । हे दहि । हे महु । आदि । सर्व शब्द
नियम ५०५ (अतः सर्वादे जसः ३१५८) अकारान्त सर्व आदि शब्द से परे जस् को डे (ए) आदेश होता है। सव्वे, अन्ने, जे, ते, के, एक्के, कयरे, एए।
नियम ५०६ (आमो डेसि ३।६१) सर्व आदि अकारान्त शब्दों से
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शब्दरूप (६)
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परे आम को विकल्प से डेसि (एसिं) आदेश होता है। सव्वेसिं, अन्नेसि, जेसि, तेसिं, केसि, इमेसि ।
नियम ५०७ (ङ स्सि म्मि स्थाः ३१५६) सर्व आदि अकारान्त शब्दों से परे ङि को स्सि, म्मि और त्थ आदेश होते हैं। सवस्सि, सव्वम्मि, सव्वत्थ । अन्नसिं, अन्नम्मि, अन्नत्थ ।
नियम ५०८ (न वानिदमेतदो हि ३३६०) इदम् (इम) और एतद् (एअ) को छोडकर शेष अकारान्त सर्व आदि शब्दों से परे ङि को विकल्प से हिं आदेश होता है । सवहि, अन्नहि, कहि, जहि, तहिं । प्रयोग वाक्य
हस्थिणि दटुंजणा संगहिआ । पाडी बहुरम्मा लग्गइ। छालीइ दुद्धं खिप्पं पयइ । सउणचडया दाहिणपासे ठिआ सुहा भवइ। वेसरि दटुं सो कत्थ गओ ? सियाली गामम्मि न वसइ । गावीए पयं महुरं भवइ । पडत्थीइ मुल्लो बहु भवइ । सुणई जुगवं पंच वा छ वा जणइ । चडया बहु जंपइ । इमी उट्टी बहुवेगेण धावइ । सुसीला हत्थेण भित्ति विलिहइ । धातु प्रयोग
फलस्स बीयो कहं फंफइ ? सो पंच महन्वयाई फासइ । सो कट्ट फाडइ । उसिणेण पाणिएण तण्हा वि न फिट्टइ । तुम णियसरीरं फुसइ । मज्झ दाहिणभुआ फुरइ। सीयकाले कमेलयस्स मुहम्मि फेणायइ। भिक्खू तालियंटेण अप्पणो कायं न फुमेज्जा । पुव्वं बीयं फुटइ पच्छा पत्ताई। धातु का प्रयोग करो
इस गांव में हाथी नहीं हथिनी है। जो सोता है उसके पाडी पैदा नहीं होती। बकरी गांव के बाहर चरने के लिए गई है। चिडिया तिनके लाकर क्या बनाती है ? सोनचिडी हरे वृक्ष पर बैठी है। खच्चरी का क्या मूल्य है ? मैंने कल रात सियाली की आवाज सुनी। बहुत दूध देने वाली भैंस को वह खरीदना चाहता है। गायों में काली गाय सबसे उत्तम होती है । मेरी सांड (ऊंटनी) आज टमकोर जाएगी। तुम कागज पर हाथ से किस चित्र की रेखा करते हो? धातु का प्रयोग करो
वह बात-बात में उछलता है। साधु स्त्रियों का स्पर्श नहीं करते। वह कपडे को फाडता है। तेरे व्यवहार से मेरा मन फट गया। गर्मी में वह बार-बार पसीने को पोंछता है। यदि पुरुष का दाहिना अंग फरकता है तो वह शुभ है । दूध के झाग बहुत रुचिकर लगते हैं। सुशीला अग्नि को जलाने के लिए फूंक मारती है । पुष्प से पहले अंकुर (अंकुरे) फूटते हैं ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रश्न १. नपुंसक शब्द से परे जस् और शस् प्रत्यय परे हो तो क्या आदेश
होता है ? २. सर्व आदि शब्दों की सिद्धि के लिए इस पाठ में कितने नियम हैं और
वे क्या कार्य करते हैं ? ३. हथिनी, बकरी, पाडी, चिडिया, खच्चरी, सोनचिडी, सियाली, कुत्ती
और बहुत दूध देने वाली के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ४. फंफ, फंस, फाड, फिट्ट, फुस, फुर, फेणाय, फुम और फुट धातु के अर्थ
बताओ और अपने वाक्य में प्रयोग करो।
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पडिल्ली - परदा, यवनिका पडवेसिओ-पडौसी सुण्णं - खाली, रिक्त पण --शर्त, होड पयारणं — ठगाई तुमुलो — शोरगुल
पात्र – पत्तं
बंध
बांधना
बाह - विरोध करना बिह— डरना
शब्दरूप (७)
शब्द संग्रह (स्फुट )
बुब्बुअ --- बकरे का बोलना
बोध - समझना, ज्ञान करना
पत्थयणं - पाथेय पमइलो (वि) – अतिमलिन
परिवेसणं - परोसना
डिजायणा - प्रतिबिंब, परछाई परिजुसियं - वासी अट्टणं - व्यायाम
धातु संग्रह
बुव—बोलना
बहू -- पुष्ट करना वेस- -बैठना
बू -- बोलना
आमुस - आमर्श करना, एक बार स्पर्श करना, छूना
इम, एअ, क, त, ज, शब्द
नियम ५०६ ( इदमेतत् किं यत्तदभ्यष्टो डिणा ३३६६ ) अकारान्त ( इम, एअ, क, त, ज ) शब्दों से परे टा को डिणा ( इणा) आदेश विकल्प से होता है । इमिणा, इमेण । एदिणा, एदेण । किणा, केण । जिणा, जेण । तिणा, तेण ।
नियम ५१० ( किं यत्तद्द्भ्यो ङसः ३०६३ ) क, त, ज शब्दों से परे ङस् को डास (आस) आदेश विकल्प से होता है । कास, कस्स । जास, जस्स ।
तास, तस्स ।
नियम ५११ (ङ हि डाला हुआ काले ३०६५) काल अर्थ में वर्तमान क, त, ज शब्दों से परे ङि को डाहे ( आहे ) डाला ( आला ) तथा इआ आदेश विकल्प से होता है । काहे, काला, कड़आ ( किस समय में ) । जाहे, जाला, इआ ( जिस समय में ) । ताहे, ताला, तइआ ( उस समय में ) ।
नियम ५१२ ( इसे
३।६६ ) किं, यत् और तत् शब्दों से परे
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२३०
प्राकृत वाक्यरचना बोध ङस् के स्थान पर म्हा आदेश विकल्प से होता है। कम्हा, काओ (किससे)। जम्हा, जाओ (जिससे)। तम्हा, ताओ (उससे)।
नियम ५१३ (ईद्भ्यः स्सा से ३१६४) ईकारान्त की (किम्), जी (यत्), ती (तत्) आदि शब्दों से परे ङस् को स्सा तथा से आदेश विकल्प से होता है । किस्सा, कीसे, कीअ, कीआ, कीइ, कीए । (किसका) जिस्सा, जीसे, जीअ, जीआ, जीइ, जीए । (जिसका) तिस्सा, तीसे, तीअ, तीआ, तीई, तीए । (उसका)।
__नियम ५१४ (तदश्च तः सोक्लीबे ३।८६) तद् और एतद् के तकार को सि (नपुंसक छोडकर) परे होने पर स हो जाता है।
नियम ५१५ (वैतत्तदः ३१३) एतद् और तद् शब्द के अकार से परे सि को डो विकल्प से होता है। एसो, एस (एषः) सो णरो, स णरो (स नरः)।
नियम ५१६ (तदो णः स्यादौ क्वचित् ३७०) तद शब्द को कहींकहीं ण आदेश होता है स्यादि विभक्ति परे हो तो । णं पेच्छ (तं पश्येत् स्त्रीलिंग में भी हत्थुन्नामिअ-मुही णं तिअडा (हस्तोन्नामितमुखी तां त्रिजटा)।
नियम ५१७ (तदो डोः ३६७) तद् शब्द से परे ङसि को डो (ओ) आदेश विकल्प से होता है । तो, तम्हा (तस्मात्) ।
नियम ५१८ (वेदं तदेतदो डसाम्भ्यां से-सिमो ३।८१) इदम्, तद् तथा एतद् शब्द से परे ङस् और आम् हो तो शब्द सहित ङस् को से और आम् को सिं आदेश विकल्प से होता है। इदं+ ङस् =से, तद्+ङस् =से, एतद् + ङस् -से, इदं-आम् = सि, तद्+आम् =सिं, एतद्+आम्=सिं।।
नियम ५१६ (कितभ्यां डासः ३१६२) किं तथा तद् शब्दों से परे आम को डास (आस) आदेश विकल्प से होता है । कास, केसि । तास, तेसि ।
नियम ५२० (किमः कस्त्र-तसोश्च ३७१) कि शब्द को क होता है, सि आदि विभक्ति, त्र और तस् प्रत्यय परे हो तो। को, के, कं, केण । त्रकत्थ । तस्--कओ, कत्तो, कदो ।
नियम ५२१ (किमो डिणो-डीसौ ३१६८) किं शब्द से परे ङसि को डिणो (इणो)तथा डीस (ईस) आदेश विकल्प से होता है। किणो, कीस, कम्हा (कस्मात्) ।
. नियम ५२२ (किमः किं ३८०) नपुंसक लिंग में किं शब्द से परे सि और अम् प्रत्यय हो तो विभक्ति प्रत्यय सहित शब्द को कि आदेश होता है। किं, किं। प्रयोग वाक्य
तस्स दारम्मि पडिल्ली किमट्ठ अत्थि ? मज्झ पडिवेसिओ मए सह सव्ववहारं करेइ । सुण्णगिहम्मि भूओ भमइ । तुझ पणो देसस्स हियाय नत्थि ।
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शब्दरूप (७)
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तस्स पयारणजालम्मि तुम कहं आगओ? पत्थयणं विणा जत्ताए आणंदो नत्थि । पमइलं वत्थं पासिऊण सो खिण्णो जाओ। तस्स परिवेसणे भेदभावी अत्थि । बालो पत्तसलिलं णियपडिजायणं पासइ। परिजुसियं अण्णं न भुंजेयव्वं । धातु प्रयोग
मुणी तुडियाणि पत्ताणि बंधइ । तस्स पतेयवत्तं तुम बाहसि । सो मूसिअत्तो वि बिहइ । अपरिचियं माणुसं पेहिऊणं कुक्कुरो बुक्कइ । अजासिसू माअरं पासिऊण बुब्बुअइ । जो सया सच्चं बुवइ तस्स विस्सासो (वीसासो) भवइ । पयो सरीरं बूहइ। तुमं अत्थ कहं बेसइ ? गुरू सीसं धम्म बोहइ । साहू विहारे थक्किओ अओ मग्गम्मि बेसइ । प्राकृत में अनुवाद करो
. द्वार पर यवनिका देखकर वह भीतर नहीं गया । तुम्हारा पडौसी कौन है ? इस कमरे में खाली स्थान नहीं है। युद्ध समाप्त करने के लिए उसकी शर्त क्या है ? वह ठगाई करना नहीं जानता। परभव का पाथेय क्या है ? भावना की दृष्टि से वह अति मलिन है। विवाह में परोसना भी एक कला है । दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। साग बासी हो सकता है पर मिष्टान्न नहीं। धातु का प्रयोग करो
वह अपना विस्तर बांधता है। मेरे कथन का वह विरोध क्यों करता है ? बालक पिता से डरता है । बकरी किस कारण से बोलती है ? तुम क्या बोलते हो? शोरगुल के कारण मैं सुन नहीं पाता हूं। वह पिता के सामने झूठ क्यों बोला ? क्या तुम व्यायाम से शरीर को पुष्ट करते हो? तुम थक गए हो तो बैठ जाओ। उसको श्रम का महत्व समझना चाहिए।
प्रश्न १. प्राकृत के क (किं) ज (यत्) और त (तत्) शब्द से परे ङस्
और ङि प्रत्यय को किस नियम से क्या आदेश होता है ? उनके रूप बताओ। २. तद, एतद् और कि शब्दों के सारे रूप सिद्ध करो। ३. परदा, पडौसी, खाली, शर्त, ठगाई, पाथेय, अतिमलिन, परोसना,
प्रतिबिम्ब, वासी, शोरगुल और व्यायाम के लिए प्राकृत शब्द बताओ और अपने वाक्य में प्रयोग करो। ४. बंध, बाह, बिह, बुब्बुअ, बुव, बू, बूह, वेस और बोध धातु का अर्थ - बताओ। ५. कमेलयो, अलमलो, रासहो, गोपती, गोलांगुलो, विओ, उट्टी, वेसरी, ___ खिखिरो शब्द को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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शब्दरूप (5)
शब्द संग्रह (स्फुट) परस्पर-परोप्पर, परुप्परं
झूला-डोला खेत, क्षेत्र-खेत्तं, पल्लवायं (दे.) सेवा-णिवेसणा खेत में सोने वाला पुरुष-परिवासो छावनी-छायणिआ वाचाल-मुहरो
छिलका-छोइया अधिक चर्बी वाला--पमेइलो दुर्दशा-दुद्दसा
धातु संग्रह भंज--भांगना, तोडना
भद-सुख करना, कल्याण करना भंड-भाण्डना, भर्त्सना करना भम--भ्रमण करना भंस -नीचे गिरना, नष्ट होना भय---सेवा करना भक्ख-खाना
भर----धारण करना, पोषण करना भज्ज-भुनना
भव--होना इवं, अदस् और एतद्
नियम ५२३ (इदम इमः ३७२) इदं शब्द को इम आदेश होता है। सि आदि विभक्ति परे हो तो। इमो, इमे । इम, इमे । इमेण ।
नियम ५२४ (पंस्त्रियो न वायमिमिआ सौ ३१७३) इदं शब्द को सि परे होने पर पुंलिंग में अयं तथा स्त्रीलिंग में इमिआ आदेश विकल्प से होता है। अयं, इमो । इमिआ, इमा।
नियम ५२५ (णोम् शस्टा भिसि ३७७) अम्, शस्, टा तथा भिस् परे हो तो इदं शब्द को ण आदेश विकल्प से होता है। णं, इमं । णे, इमे । णेण इमेण । णेहि, इमेहि ।
नियम ५२६ (अमेणम् ३।७८) इदं शब्द को अम् विभक्ति सहित इणं आदेश विकल्प से होता है । इणं, इमं ।
नियम ५२७ (स्सि-स्सयोरत् ३.७४) स्सि तथा स्स परे रहने पर इदं शब्द को 'अ' आदेश विकल्प से होता है। अस्सि, अस्स । इमस्सि, इमस्स ।
नियम ५२८ (को मन हः ३७५) इदं शब्द को म आदेश होने पर ङि परे हो तो म सहित डि को ह आदेश विकल्प से होता है । इह, इमस्सि,
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शब्दरूप ( ८ )
इमम्मि |
नियम ५२६ ( न त्थ: ३।७६ ) इदं शब्द को ङ े प्रत्यय से होने वाले आदेश स्सि, म्मि और त्थ में से त्थ आदेश नहीं होता । इमस्सि, इमम्सि ( इह ) 1
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नियम ५३० ( क्लोबे स्यमेदमिणमो च ३।७६) नपुंसक लिंग में वर्तमान इदं शब्द को सि और अम् सहित इदं, इणमो और इण आदेश नित्य होते हैं । सि - इदं, इणमो, इणं । अम् -- इदं, इणमो, इणं ।
नियम ५३१ (मुः स्यादौ ३३८८ ) अदस् शब्द के द को मु आदेश होता है, सि आदि विभक्ति परे हो तो । अमू पुरिसो । अमूणो पुरिसा । अमुं वर्ण । अमूई वणाई । अमू माला । अमूउ, अमूओ, मालाओ ।
नियम ५३२ ( वादसो दस्य होनोदाम् ३२८७) अदस् शब्द के दकार को सि परे रहने पर ह आदेश विकल्प से होता है । अहं ।
नियम ५३३ ( म्मावयेऔ वा ३८६) अदस् शब्द के अंतिम व्यंजन लुप्त होने पर दकारान्त शब्द को म्मि परे रहने पर अय तथा इअ आदेश विकल्प से होता है । अयम्म, इअम्म, अम्मि ।
नियम ५३४ ( वैसेणमिणमो सिना ३२८५) एतद् शब्द से परे सि होने पर विभक्ति सहित एस, इणं और इणमो आदेश विकल्प से होता है। एस, इणं, इणमो, एअं ।
नियम ५३५ (तदो ङसेस्तो साहे ३१८२) एतद् शब्द से परे ङसि को तो और ताहे आदेश विकल्प से होता है । एत्तो, एत्ताहे, पक्षे एआओ, एआउ, एहि, एआहितो, एआ ।
नियम ५३६ ( त्थे च तस्य लुक् ३१८३ ) त्थ, तो, एवं ताहे परे रहने पर एतद् शब्द के तकार का लोप होता है । एत्थ, एत्तो, एत्ताहे । नियम ५३७ (एरदीतौ स्मौ था ३८४ ) एतद् के एकार को म्मि परे रहने पर अ एवं ई आदेश विकल्प से होता है । अयम्मि, ईयम्मि, एअम्मि ।
प्रयोग वाक्य
परुप्परं विवाओ न कायव्वो । पल्लवायम्मि कि अन्नं होहिइ ? परिवास कि जाणइ निसाए नथरम्मि कि जाअं ? मुहरस्स सुसीलस्स कत्थ वि सम्माणो न भवइ । तुमं पमेइलो कया जाओ ? अहं मसाणम्मि साहणं करेमि । मज्झ गिम्मि वि डोला विज्जइ । णिवेसणाए मणुओ पिओ भवइ । भारहवासस्स छायणिआओ कत्थ- कत्थ संति ? छोइया फलस्स सुरक्खं करेइ तं विणा फलस्स दुद्दसा होइ ।
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धातु प्रयोग
तिणा मज्झपत्तं भंजिअं । गुरुणा अविणीयसीसो भंडिओ । जो साहुणियमा न पाइ सो भंसइ । धेणू तणाई भक्खर । चणा को भज्जइ ? तुमं कत्थ भमसि ? भदंतो विणोदो अजत्ता कत्थ विहरइ ? किं तुमं सुहं भयसि ? मोहणी णियगिहेण सह भागिणिमवि भरइ । कि तुमं जाणसि, कल्लं किं भविस्सइ ?
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्राकृत में अनुवाद करो
समाज का आधार परस्पर सहयोग है । इस खेत में एक कुआं है । खेत में सोने वाला पुरुष खेत की सुरक्षा करता है । वाचाल आदमी का विश्वास नहीं होता । अधिक चर्बी वाला आदमी भीतर में कमजोर होता है । श्मशान की राख का तंत्र में प्रयोग होता है। श्रावण ( सावण ) मास में मेरी बहन झूला ढूंढ रही है । सेवा का फल बहुत मधुर होता है। छावनी शहर से कितनी दूर है ? फल के साथ छिलके का भी मूल्य है । धातु का प्रयोग करो
उसने अपने व्रतों को तोड दिया । समाज में बुरे आदमी की भर्त्सना करनी चाहिए । मनुष्य अपने आचरण से ही नीचे गिरता है । जो दिन में खाना खाता है उसको स्वास्थ्य लाभ मिलता है । वह गर्म रेत से चना भुनता है । साधु सबका कल्याण करते हैं । तुम रात में क्यों भ्रमण करते हो ? वह धर्म की सेवा करता है । तुम किसका पोषण करते हो ? जो धर्म करता है वह सुखी होता है ।
प्रश्न
१. इदं शब्द के लिए इस पाठ में कितने नियम हैं और वे क्या कार्य करते हैं ?
२. अदस् शब्द को अय तथा इअ आदेश कहां होता है ?
२. अदस् शब्द के द को ह करने वाला कौनसा नियम है ?
४. एतद् शब्द के तकार का लोप कहां होता है ?
५. परस्पर, खेत, वाचाल, अधिक चर्बी वाला, श्मशान, झूला, सेवा, छावनी, छिलका के लिए प्राकृत शब्द बताओ ?
६. भंज, भंड, भंस, भक्ख, भज्ज, भद, भम, भय और भर धातु के अर्थ बताओ तथा अपने वाक्य में प्रयोग करो ।
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६४
शब्दरूप (8) युष्मद् अस्मद् शब्द
शब्द संग्रह (रत्न और मणि) मूंगा-पवालो, पवालं गोमेद-गोमेयो गोमेयं पन्ना-मरगयो, मरगयं, मरअदो नीलम-इंदनीलो, नीलमणि (पु. स्त्री) पुखराज-पुप्फ रागो, पुप्फरायो लहसुनिया- वेडुरिओ, वेरुलियं, वेडुज्जो हीरा---वइरो, वइरं
चंद्रकान्तमणि-चंदकतो सूर्यकान्तमणि-सूरकतो सर्पमणि-सप्पमणि (पु. स्त्री) स्फटिकमणि-फलिहो मोती-मुत्ता माणिक-माणिक्कं
गीला, आर्द्र---अद्द (वि)
ज्वर-जरो श्वासरोग--सासो
आयुर्वेद-आउव्वेयो
धातु संग्रह संवेल्ल-लपेटना
संवर-रोकना संवस-साथ में रहना
संविद-जानना संविभाव-...पर्यालोचन करना संमिल्ल—संकोच करना संमुज्झ---मुग्ध होना
संलव-बातचीत करना आवील-पीडना, आपीडन करना पवील-प्रपीडन करना
नियम ५३८ (युष्मवस्तं तुं तुवं तुह तुमं सिना ३६०) युष्मद् शब्द को सि सहित तं आदि पाच आदेश होते हैं। तं, तुं, तुवं, तुह, तुमं (त्वम्)
नियम ५३६ (मे तुम्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उय्हे जसा ३।६१) युष्मद् शब्द को जस् सहित भे आदि छ आदेश होते हैं। भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उय्हे (यूयम्)
नियम ५४० (भो म्ह ज्झो वा ३।१०४) युष्मद शब्द को आदेश भ को म्ह और ज्झ आदेश विकल्प से होते हैं । तुम्हे, तुझे।
नियम ५४१ (तं तुं तुमं तुवं तुह तुमे तुए अमा ३९२) युष्मद् शब्द को अम् सहित तं आदि सात आदेश होते हैं। तं, तुं, तुमं, तुवं, तुह, तुमे, तुए (त्वाम्)
नियम ५४२ (वो तुज्झ तुम्मे तुम्हे उम्हे मे शसा ३।६३) युष्मद्
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२३६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
शब्द को शस् सहित वो आदि छ आदेश होते हैं । वो, तुज्झ, तुब्भ, तुम्हे, उरहे, भे ( युष्मान् ) नियम ५४३ ( मे दि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ टा ३।६४) युष्मद् शब्द को टा सहित भे आदि ग्यारह आदेश होते । भेदि, दे, ते, तइ, तए, तुमं, तुमइ, तुमए, तुमे, तुमाइ ( त्वया )
नियम ५४४ ( मे तुम्मेहि उज्झेहि उम्हेंहि तुम्हे हि उम्हेहि भिसा ३।१३) युष्मद् शब्द को भिस् सहित छ आदेश होते हैं । भे, तुम्भेहि, उज्झेहि, उम्हेहि, तुम्हेहि, उम्हेहिं ( युष्माभिः )
नियम ५४५ ( तइ तुव तुम तुह तुम्भा ङसौ ३।६६ ) युष्मद् शब्द को ङसि ( पंचमी के एक वचन) सहित पांच आदेश होते हैं । ङसि प्रत्यय को होने वाले तो, दो, दु, हि, हिन्तो, लुक् भी होते हैं । तइत्तो, तुवत्तो, तुमत्तो, तुहत्तो तुम्भत्तो । जहां जहां भ रूप आए वहां सू. ५४० से म्ह और ज्भ भी होगा । तुम्हत्तो, तुज्झत्तो । त्तो की तरह दो, दु, हि, हिन्तो और लुक् के भी रूप बनते हैं ।
नियम ५४६ ( तुय्ह, तुम्भ तहिन्तो ङसिना ३।६७) युष्मद् शब्द को ङसि सहित तीन आदेश होते हैं । तुम्ह, तुब्भ, तहिन्तो ( त्वद् ) सूत्र ५४० से तुम्ह और तुझ रूप और बनते हैं । नियय ५४७ ( तुम्भ तुम्होरहोम्हा भ्यसि ३।६८ ) युष्मद् शब्द को भ्यस् परे हो तो तुब्भ, तुम्ह आदि चार आदेश होते हैं । तुब्भत्तो, तुम्हत्तो, उय्हत्तो, उम्हत्तो, तुम्हत्तो, तुज्झत्तो ( युष्मद) । इसी प्रकार त्तो की तरह दो, दु, हि, हिन्तो, सुन्तो के भी रूप बनते हैं ।
नियम ५४८ ( तइ तु ते तुम्हं तुह तुहं तुब तुम तुमे तुमो तुमाइ दि दे इ ए तुम्मोन्भोय्हाङसा ३०६६) युष्मद् शब्द को ङस् (षष्ठी के एक वचन ) सहित तइ आदि अठारह आदेश होते हैं । तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ दि, दे, इ, ए, तुब्भ, उब्भ, उय्ह, तुम्ह, तुज्झ, उम्ह, उज्झ ( तव ) नियम ५४६ ( तु वो मे तुब्भ तुब्भं तुम्भाण, तुवाण तुमाण तुहान उम्हाण आमा ३।१००) युष्मद् शब्द को आम् सहित दस आदेश होते हैं । तु, वो, भे, तुब्भ, तुब्भं, तुब्भाण, तुवाण, तुमाण, तुहाण, उम्हाण ( युष्माकम् ) नियम ५५० (तुमे तुमए तुमाइ तह तए ङिना ३|१०१ ) युष्मद् शब्द को ङि (सप्तमी एक वचन ) सहित पांच आदेश होते हैं । तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तए ( त्वयि )
नियम ५५१ ( तु तुव तुम तुह तुम्भा ङौं ३|१०२) युष्मद् शब्द को ङि परे हो तो पांच आदेश होते हैं । ङि प्रत्यय को होने वाले आदेश भी होते हैं । तुम्म, तुवम्मि, तुमम्मि, तुहम्मि, तुब्भम्मि, तुम्हम्मि, तुज्झमि ।
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शब्दरूप (६)
२३७
नियम ५५२ (सुपि ३।१०३) युष्मद् शब्द को सुप् प्रत्यय परे हो तो तु, तुव, तुम, तुह, तुभ ये पांच आदेश होते हैं। तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु, तुब्भेसु । सू ५४ ० से तुम्हेसु, तुज्झेसु भी बनते हैं । (युष्मासु)
नियम ५५३ (अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना ३॥१०५) अस्मद् शब्द को सि सहित छ आदेश होते हैं। म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अहं, अयं (अहं)
नियम ५५४ (अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं मे जसा ३३१०६) अस्मद् शब्द को जस् सहित छ आदेश होते हैं । अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं, भे (वयम्)
नियम ५५५ (णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा ३।१०७) अस्मद् शब्द को अम् (द्वितीया का एक वचन) सहित दश आदेश होते हैं। णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, ममं, मिमं, अहं (माम्)
नियम ५५६ (अम्हे अम्हो अम्ह णे शसा ३३१०८) अस्मद् शब्द को शस् सहित चार आदेश होते हैं । अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे (अस्मान्)
नियम ५५७ (मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा ३।१०६) अस्मद् शब्द को टा सहित नव आदेश होते हैं । मि, मे, ममं, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ. णे (मया)
नियम ५५८ (अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा ३।११०) अस्मद् शब्द को भिस् सहित पांच आदेश होते हैं। अम्हेहि अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे (अस्माभिः)
नियम ५५६ (मइ मम मह मज्झा सो ३।१११) अस्मद् शब्द को ङसि परे हो तो चार आदेश होते हैं। सि को आदेश तो आदि होते हैं । मइत्तो, ममत्तो, महत्तो, मज्झत्तो। त्तो की तरह दो दु, हि, हिन्तो और लुक भी जोडकर रूप बनाए जाते हैं। (मद्)
नियम ५६० (ममाम्ही भ्यसि ३।११२) अस्मद् शब्द से परे भ्यस् हो तो मम और अम्ह आदेश होते हैं। भ्यस् को आदेश तो आदि होते हैं। ममत्तो, अम्हत्तो (अस्मद्) । इसी प्रकार हिन्तो, सुन्तो के भी रूप बनते हैं।
नियम ५६१ (मे मइ मम मह महं मझ मज्झ अम्ह अम्हें इसा ३।११३) अस्मद् शब्द को ङस् सहित नव आदेश होते हैं। मे, मइ, मम, मह, महं, मज्झ, मज्झं, अम्ह, अम्हं (माम्)
नियम ५६२ (णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण आमा ३३११४) अस्मद् शब्द को आम सहित ग्यारह आदेश होते हैं । णे, णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण, 'मज्झाण (अस्माकम्)
नियम ५६३ (मि मइ ममाइ मए में डिना (३।११५) अस्मद् शब्द को ङि सहित पांच आदेश होते हैं । मि, मइ, ममाइ, मए, मे (मयि)
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२३८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ५६४ ( अम्ह मम मह मज्झा ङौ ३।११६ ) अस्मद शब्द को ङि परे हो तो चार आदेश होते हैं । ङि का आदेश म्मि होता है । अम्हम्मि ममम्मि, महम्मि, मज्झम्मि ( मयि )
नियम ५६५ ( सुपि ३।११७ ) अस्मद् शब्द को सुप् परे हो तो अम्ह, मम, मह और मज्झ चार आदेश होते हैं । अम्हेसु, ममेसु, महेस, मज्झेसु । (अस्मासु )
प्रयोग वाक्य
पवालो आउव्वेयस्स दिट्ठीए अइसत्तिसंपण्णो रयणो अत्थि । मरगयो हरियवण्णो खणिजो य विज्जइ । पुप्फरायो अणेगेसु वण्णेसु मिलइ । वइरो सुक्क हस्स पियरयणो अत्थि । नीलमणी सणिवारे गहिअव्वो । गोमेयो आउव्वेस्स दिट्ठीए अइलाभदी अस्थि । वेडुरिओ मज्जारस्स णयणाई पिव विभाइ । अमुम्मि जयरे सुरकंतो कस्स पासे अस्थि ? फलिहो पारदंसी भवइ । चंदकंतो सोमवारे अंगुलीए गहिअव्वो । सप्पमणी सुलहा नत्थि । जेउर (जयपुर) णयरे माणिक्कस्स वावारो अस्थि न वा ? मुत्तावलि दठ्ठे अहं अत्थ आगओ । धातु प्रयोग
सो अंगुली अद्दवत्थखंडं कहं संवेल्लइ ? तुमए सह अहं न संवसामि । अहं अवररत्तीए संविभावेमि । किं तुमं तम्मि संमुज्झसि ? संवरो कम्माई संवरइ । सानवतत्ताइं संविदइ । सो मुहु मुहु कहं नेत्ताइं संमिल्लइ ? गोयरग्गगओ मुणि न संलवे ।
प्राकृत में अनुवाद करो
मूंगा मूल्यवान् होता है । पन्ने में गर्मी सहने की शक्ति अधिक है । पुखराज विश्व विख्यात रत्न है । हीरा अनेक देशों में प्राप्त होता है पर भारत का हीरा प्रसिद्ध है । नीलम श्वासरोग और ज्वर में लाभदायक है । गोमेद के प्रभाव को ज्योतिषी और तांत्रिक दोनों स्वीकार करते हैं । लहसुनिया केतु ग्रह के दुष्प्रभाव को दूर करता है । सूर्यकांतमणि रविवार को पहनना चाहिए | चंद्रकान्तमणि का क्या मूल्य है ? माणिक नवरत्नों में एक है । मोती सफेद और चमकदार होता है ।
धातु का प्रयोग करो
वह बात को लपेट कर कहता है । जो तुम्हारे साथ में रहता है वह तुम्हें जानता है । क्या तुम एकान्त में पर्यालोचन करते हो ? वह अन्य पुरुष पर मुग्ध नहीं होती है । तुम त्याग से अपने पापों को रोकते हो। मैं तुम्हारा ज्ञान जानता हूं । जो संकोच करता है, वह कौन है ? तुम किसके साथ बातचीत करते हो ?
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शब्दरूप ( 2 )
प्रश्न
१. युष्मद् शब्द के ङसि प्रत्यय के क्या-क्या रूप बनते हैं ? २. अस्मद शब्द के ङि प्रत्यय के क्या-क्या रूप बनते हैं ? ३. मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, सूर्यकान्तमणि, स्फटिकमणि, गोमेद, नीलम, लहसुनिया, चंद्रकान्तमणि, सर्पमणि, माणिक और मोती के प्राकृत शब्द बताओ ।
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४. संवेल्ल, संवस, संविभाव, संमुज्झ, संवर, संविद, संमिल्ल, आबील, पवील और संलव धातुओं के अर्थ बताओ ।
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६५
शब्दरूप (१०)
शब्द संग्रह (स्फुट) पानी की तरंग-उल्लोलो
भक्ति-भत्ती आग्रह–अभिणिवेसो
लावण्य---लावण्णं कपट-कइअवं
अग्नि-हव्ववाहो कठोर--क कसो
सैन्यरचना--हं मनोरथ--मणोरहो
ईर्ष्या-इस्सा
धातु संग्रह भाव-चिंतन करना
भुक्क-भूकना भिंद-भेदना, तोडना
मंत-मंत्रणा करना भिक्ख---भीख मांगना
मक्ख-चुपडना, (घी, तेल भिड---भिडना, मुठभेड करना
आदि से) भुंज-भोजन करना
मज्ज---स्नान करना मद्द-मालिश करना संख्या शब्द
एक शब्द को छोडकर सभी संख्यावाची शब्द प्राकृत में तीनों लिंगों में एक समान चलते हैं।
नियम ५६६ (दुवे दोणि वेणि च जस्-शसा ३।१२०) जस् तथा शस् सहित द्वि शब्द को दुवे, दोण्णि, वेण्णि, तथा दो ये चार आदेश होते हैं। दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो ठिआ पेच्छ वा ।
नियम ५६७ (वर्दो वे ३११६) तृतीया आदि विभक्तियों में द्वि शब्द को दो और वे ये दो आदेश होते हैं । दोहि, वेहि । दोण्हं, वेण्हं । दोसु, वेसु ।
नियम ५६८ (स्तिण्णिः ३।१२१) जस् तथा शस् सहित त्रि शब्द को तिण्णि आदेश होता है । तिण्णि ।
नियम ५६६ (स्ती तृतीयादौ ३३११८) तृतीया आदि विभक्तियों में त्रि शब्द को ती आदेश होता है । तीहिं ।
नियम ५७० (चतुर श्चत्तारो चउरो चत्तारि ३।१२२) जस् तथा शस् के सहित चतुर् शब्द को चत्तारो, चउरो और चत्तारि आदेश होते हैं । चत्तारो, चउरो, चत्तारि चिट्ठति पेच्छ वा
नियम ५७१ (चतुरो वा ३३१७) उकारान्त चउ शब्द को भिस,
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शब्दरूप (१०)
२४१ भ्यस् और सुप् परे होने पर दीर्घ विकल्प से होता है। चऊहि, चउहि । चऊओ, चउओ । चऊसु, चउसु ।।
नियम ५७२ (संख्याया आमो ह हं ३३१२३) संख्या शब्दों से परे आम् को ण्ह तथा ण्हं आदेश होते हैं। दोण्ह, दोण्हं । तिण्ह, तिण्हं । चउण्ह, चउण्हं । इसी प्रकार पंच, छ, सत्त, अट्ट, णव और दस शब्दों के रूप बनते हैं।
नियम ५७३ (शेषेदन्तवत् ३३१२४) शब्द सिद्धि के लिए ऊपर नियम बताए गए हैं। आकार आदि शब्दों के लिए जो नियम नहीं बताए गए हैं उनके लिए आकार आदि सारे शब्द अदन्तवत् हो जाते हैं यानि अकारान्त शब्द के नियम ही उन शब्दों में लगते हैं। जैसे (जस् शसो लुक् ३१४) यह नियम अकारान्त शब्द के लिए कार्य करता है। अदन्तवत् होने के कारण आकार आदि शब्दों में भी यह नियम कार्य करेगा। माला, गिरी, गुरू, सही, वहू रेहंति पेच्छ वा । इसी प्रकार अन्य स्यादि प्रत्ययों के लिए है।
• आकारादि शब्दों के लिए अवन्तवत् प्राप्त नियमों में निषेध
नियम ५७४ (न दी? णो ३३१२५) जस्, शस् और ङि प्रत्यय को आदेश णो प्रत्यय परे हो तो इदन्त और उदन्त शब्द दीर्घ नहीं होता है । अग्गिणो, वाउणो।
नियम ५७५ (से लक ३३१२६) आकारान्त आदि शब्द अदन्तवत् होने पर प्राप्त ङसि का लुक नहीं होता है। मालत्तो, मालाओ, मालाउ, मालाहिंतो एवं अग्गीओ, वाऊओ इत्यादि ।
नियम ५७६ (भ्यसश्च हिः ३३१२७) आकारान्त आदि शब्द अदन्तवत् होने पर प्राप्त भ्यस् और ङस् को हि नहीं होता है। मालाहितो, मालासुंतो। एवं अग्गीहितो इत्यादि ।
नियम ५७७ ( ३३१२८) आकारान्त आदि शब्द अदन्तवत् होने पर प्राप्त ङि को डे नहीं होता है । अग्गिम्मि, वाउम्मि ।
नियम ५७८ (एत् ३३१२६) आकारान्त आदि शब्द अदन्तवत् होने पर टा, शस्, भिस् और सुप् प्रत्यय परे होने पर एकार नहीं होता है। प्रयोग वाक्य
'समुदृस्स उल्लोला कत्थ गमिस्संति ? अभिणिवेसेण सच्चं दूरं गच्छइ । कइअवजुत्तववहारो केसिमवि पिओ न लग्गइ। कक्कसवयणं परस्स हिअयं भंजइ। सावगाणं तिण्णि मणोरहा पसिद्धा संति । उज्जमेण पक्खिणो वि णियउअरं भरंति। पेक्खाझाणेण सहावो परियट्टइ। भत्तीए भगवंतो वि पसीयइ। थीणं लावण्णं आभूसणं विव भाइ। हव्ववाहो सब्वाणि वत्थूणि भस्सीकुणइ ।
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२४२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
धातु प्रयोग
सुहभावणं भावेज्ज । तुमं कहं भित्ति भिदसि ? सो सरीरबलेण समत्थो अत्थि तहवि भिक्खड़ । मोणो सोहणेण सह भिडि । सुणयो परसुणयं पासिऊणं चिचअ भुक्कइ । सो तुमाइ सह कस्सि पण्हे मंतइ । भगिणी रुट्टिआओ घयेण मक्खइ । अज्जत्त बहिणीओ दिणे बले (एव) सइ मज्जति । रामो विसामि मद्दइ ।
प्राकृत में अनुवाद करो
पानी की तरंगों की तरह मनुष्य का जीवन अस्थिर है । उसके आग्रह कारण संधि नहीं हो सकी । कपट से स्त्री की योनि मिलती है । किसी के साथ कठोर व्यवहार मत करो। क्या किसी भी व्यक्ति के सब मनोरथ फलित हुए हैं ? संयम में उद्यम करना चाहिए । यदि स्वभाव-परिवर्तन नहीं होता हो तो साधना का क्या प्रयोजन है ? भक्तिरस का प्रमुख ( पमुह ) कवि कौन है ? तुम्हारा लावण्य ईर्ष्या का कारण बनता है । अग्नि सबके साथ समान व्यवहार करती है ।
धातु का प्रयोग करो
वह अनित्य भावना का चिंतन करता है । उसकी सैन्य रचना को तोडना चाहिए । जो भीख मांगता है वह कौन है ? तुम्हारी प्रकृति कैसी है, सबके साथ भिड जाते हो ? सदा गरिष्ठ ( गरिट्ठ ) भोजन नहीं करना चाहिए । कुत्ता रात में भौंकता है और दिन में भी। छह कानों से मंत्रणा नहीं करनी चाहिए । पुत्रवधू फुलका चुपडती है । वह शीतकाल में भी ठंडे पानी से नहाता है । नौकर ( भिच्चो ) वेतन लेकर मालिश करता है ।
प्रश्न
१. संख्यावाची शब्दों से परे आम् को क्या आदेश होता है ? २. पंचमी विभक्ति में द्वि शब्द को क्या आदेश होता है ?
३. चत्तारि आदेश कहां होता है ?
४. पानी की तरंग, आग्रह, कपट, कठोर, मनोरथ, ईर्ष्या, उद्यम, स्वभाव, भक्ति, लावण्य, अग्नि, सैन्यरचना आदि शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
५. भाव, भिद, भिक्ख, भिड, भुंज, भुक्क, मंत, मक्ख, मज्ज और मद्दइन धातुओं के अर्थ बताओ तथा वाक्य में प्रयोग करो ।
६. पत्थयणं, पणो, अट्टणं, णिवेसणा, छायणिआ, परिवासो, वरं गोमेयं, वेरुलियं शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ ।
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६६
-पडवा
तंबूकुशल – कुसलो युद्ध—- जुज्झं
वर्तमानकालिक प्रत्यय
जीर्ण-जुन्नं, जुण्णं फोटुपडिच्छाया
नास्तिक - णत्थिओ (वि)
धर---धारण करना
धरिस - प्रगल्भता, ढीठाइ करना
धीरव सान्त्वना देना
धस - धसना, नीचे जाना
धा--धारण करना
धा — ध्यान करना, चिंतन करना
धातु रूप
शब्द संग्रह लक्षण - -लक्खणं
विघटन - विहडणं
खंडन — विसारणं
पवित्र, निर्दोष -- अणहो पाप - अणो
पडोसी - पाडोसिओ
धातु संग्रह
धंस - नष्ट होना
धिप्प — चमकना
घुण - कंपाना
ध्रुव-धोना धा- -दौडना
१. शब्दों की तरह धातु के रूपों में भी द्विवचन नहीं होता ।
२. प्राकृत में आत्मनेपद और परस्मैपद का भेद नहीं होता । आत्मनेपद और परस्मैपद के प्रत्यय प्राकृत में प्रत्येक धातु के साथ जुडते हैं ।
३. भाव कर्म में भी आत्मनेपद नहीं होता है ।
४. प्राकृत में व्यंजनान्त धातुएं नहीं होती हैं । संस्कृत की व्यंजनान्त धातु में 'अ' विकरण जोडकर उसे अकारान्त बनाया जाता है । हस् + अ = हस । भण्+अ=भण | लिहू + अ = लिह ।
५. अंकारान्त को छोड शेष स्वरान्त धातुओं में अ विकरण विकल्प से जुडता है । होइ, होअइ । ठाइ, ठाअइ ।
1
६. प्राकृत में धातु द्वित्व नहीं होती । जैसे संस्कृत में णबादि, सन्नन्त, यङन्त और यङ्लुगन्त आदि में होती है ।
७. प्राकृत में १० लकार नहीं होते ।
८. धातु के उपसर्ग जुडने से वह धातु का अंग बन जाता है । जैसे -- -- इक्ख पेक्ख । उव + इक्ख
उवेक्ख ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
६. प्राकृत में धातुओं का एक ही गण होता है । संस्कृत की तरह दस गण नहीं होते हैं । अन्य गणों की धातुएं भ्वादि गण की तरह ही चलती हैं। गणों के रूपों से सीधा प्राकृत करने से कहीं-कही भी हैं । जैसे - शृणोति - सुणोइ ।
पर रूप मिलते
वर्तमान काल के धातु के प्रत्यय
२४४
प्रथमपुरुष
मध्यमपुरुष
उत्तमपुरुष
एकवचन
इ, ए
सि, से
मि,
इत्था, ह
मो, मु, म
उत्तमपुरुष के ए प्रत्यय का प्रयोग बहुत कम मिलता है, केवल आर्ष प्राकृत में होता है । प्रत्ययों से होने वाले धातु के रूप नीचे नियमों में स्पष्ट हैं इसलिए अलग से नहीं दिए जा रहे हैं ।
नियम ५७६ ( व्यञ्जनाददन्ते ४।२३६) व्यञ्जनान्त धातु के अंत में अकार का आगम होता है । वसइ, पढाइ, भमइ ।
नियम ५८० (स्वरादनतो वा ४।२४० ) अकारान्त धातु को छोड शेष स्वरान्त धातुओं के अंत में अकार का आगम विकल्प से होता है । पाइ, पाअइ । होइ, होअइ ।
बहुवचन न्ति, न्ते. इरे
ए
नियम ५८१ (त्यादीनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेची ३।१३६ ) परस्मैपद और आत्मनेपद के त्यादि विभक्तियों के प्रथमपुरुष के एकवचन ( तिप्, ते) प्रत्ययों को इच् (इ) और एच् (ए) आदेश होते हैं। हसइ, हसए ( हसति ) वह हसता है ।
नियम ५५२ ( बहुष्वाद्यस्य न्ति न्ते इरे ३ । १४२ ) प्रथमपुरुष के बहुवचन (अन्ति, अन्ते) प्रत्ययों को न्ति, न्ते, इरे आदेश होते हैं । हसंति, हसंते, हसिरे ( हसत:, हसंति ) वे दोनों या वे हंसते हैं ।
नियम ५८३ ( द्वितीयस्य सि से ३ | १४० ) मध्यमपुरुष के एकवचन ( सिप, से) प्रत्ययों को सि ओर से आदेश होते हैं । हससि, हससे ( हससि ) तू हंसता है ।
नियम ५८४ ( अत एवंच से ३ | १४५ ) त्यादि प्रत्ययों के प्रथमपुरुष के एकवचन में ए और से प्रत्यय कहा है वह अकारान्त धातुओं से ही होता है, अन्य स्वरान्त धातुओं से नहीं । हसए, इससे । करए, करसे ।
नियम ५८५ ( मध्यम स्येत्था हचौ ३ | १४३ ) मध्यमपुरुष के बहुवचन (थ, ध्वे ) प्रत्ययों को इत्था और हच् (ह) आदेश होते हैं । हसित्था, हसह ( हसथ:, हसथ ) तुम दोनों या तुम हंसते हो ।
नियम ५८६ ( तृतीयस्य मिः ३।१४१ ) उत्तमपुरुष के एकवचन
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वर्तमानकालिक प्रत्यय
२४५ (मिप, ए) प्रत्ययों को मि आदेश होता है।
नियम ५८७ (मो वा ३।१५४) अदन्त धातु के अ को आ विकल्प से हो जाता है मि परे होने पर । हसमि, हसामि (हसामि) मैं हंसता हूं।
नियम ५८८ (तृतीयस्य मो मुमा: ३११४४) उत्तम पुरुष के बहुवचन (मस्, महे) प्रत्ययों को मो, मु और म आदेश होते हैं। हसमो, हसमु, हसम (हसावः, हसामः) हम दोनों या हम हंसते हैं।
नियम ५८६ (इच्च मो मु मे वा ३॥१५५) अदन्त धातु के अ को इ और आ हो जाता है, मो, मु और म प्रत्यय परे हो तो। हसिमो, हसामो। हसिमु, हसामु । हसिम, हसाम (हसामः) । हम हंसते हैं।
नियम ५६० (वर्तमाना पञ्चमी शतृष वा ३१५८) वर्तमानकाल, पंचमीविभक्ति तथा शतृप्रत्यय परे रहने पर अ को ए विकल्प से होता है। हसइ, हसेइ । हससि, हसेसि । हसमो, हसमो। हसमु, हसेमु । हसम, हसेम।
नियम ५६१ (वर्तमाना भविष्यन्त्योश्च जज ज्जा वा ३.१७७) वर्तमान, भविष्यत् तथा विधि आदि धातु प्रत्ययों के स्थान पर ज्ज और ज्जा आदेश विकल्प से होते हैं। वर्तमान-हसेज्ज, हसेज्जा, हसइ (हसति)। भविष्यत्-हसेज्ज, हसेज्जा, हसिहिइ (हसिष्यति) विधि-हसेज्ज, हसेज्जा, हसउ (हसतु, हसे द् वा)।
नियम ५६२ (मध्ये च स्वरान्ताद् वा ३३१७८) स्वरान्त धातु से वर्तमान, भविष्यत् तथा विधि आदि प्रत्ययों के स्थान पर तथा धातु और प्रत्यय के बीच में ज्ज और ज्जा विकल्प से हो जाते हैं। होज्जइ, होज्जाइ, होज्ज, होज्जा, होइ (भवति) । होज्जहिइ, होज्जाहिइ, होज्ज, होज्जा होहिइ (भविष्यति)। होज्जउ, होज्जाउ, होज्ज, होज्जा, होउ । (भवतु, भवेद् वा) एवं होज्जसि, होज्जासि, होज्ज, होज्जा, होसि (भवसि )।
नियम ५६३ (ज्जात् सप्तम्या इर्वा ३.१६५) ज्ज से परे इ का प्रयोग विकल्प से होता है । होज्ज, होज्जइ (भवेत्) ।
नियम ५९४ (ज्जा ग्जे ३।१५६) प्रत्ययों के स्थान पर आदेश होने वाले ज्ज और ज्जा परे हों तो धातु के अकार को एकार हो जाता है । हसेज्ज,
हसेज्जा ।
नियम ५६५ (अस्थि स्त्याविना ३३१४८) त्यादि प्रत्ययों के साथ अस् धातु को अत्थि आदेश होता है । अस्थि (अस्ति , संति , असि , स्थ, अस्मि, स्मः)।
नियम ५६६ (सिना स्ते सिः ३३१४६) सि प्रत्यय के साथ अस् धातु को सि आदेश होता है। सि (असि)। पूर्व नियम से अत्थि भी।
नियम ५६७ (मि मो में म्हि म्हो म्हा वा ३३१४७) मि, मो और म
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रत्यय के साथ अस् धातु को क्रमशः म्हि, म्हो और म्ह आदेश विकल्प से होता है । म्हि, (अस्मि) म्हो, म्ह (स्मः) । प्रयोग वाक्य
पडवाए केत्तिला जणा उवविसंति ? ववहारकुसलो सव्वत्थ (सब जगह) सम्माणं लभइ । देसाणं जुज्झं जया भवइ तया बहुनरसंहारो होइ । कालप्पभावेण पत्तेयं वत्थु जुन्नं हुवइ । किं तुज्झ पासे आयरिअभिक्खुणो पडिच्छाया विज्जइ ? जीवस्स किं लक्खणं अत्थि ? जो संघस्स विहडणं कुणइ सो कूरकम्माइं बंधइ । अस्थिवायस्स को विसारणं करेइ ? अज्जत्ता अणहो सरलो नरो दंडं लहइ । जणा अणं कुणंति परं फलं न इच्छंति । मज्झ पाडोसिओ भद्दो सुसीलो य अस्थि । धातु प्रयोग
किं तुमं धरसि ? कालप्पभावेण पव्वयो धंसइ। मोहणेण कहिअं अत्थ न आगंतव्वं तहवि सोहणो धरिसइ । आयासे तारा धिप्पंति । गिहे कस्सइ मच्चुस्स पच्छा सावगा गुरुं पासंति तया आयरिया ता धीरवंति। तवो कम्माई धुणइ । भूकंपे भूमी धसइ । जोगी एगे पोग्गले धाइ। विजयो वत्थाई धाइ। तुमेसुं को वेगेण धाइ ? तुमं पइदिणं वत्थाई कहं धुवसि ? प्राकृत में अनुवाद करो
भीषण गर्मी में तंबू की छाया में लोग बैठना चाहते हैं। वह कुशल कलाकार है । युद्ध में जीत हमारी होगी। जीर्ण वस्त्र शीघ्र फटता है। प्रधानमंत्री (पहाणमंती) के साथ वह अपनी फोटु चाहता है। अजीव का लक्षण क्या है ? जिसका योग (जोग) होता है उसका विघटन होता है। नास्तिक लोग आत्मा का खंडन करते हैं। वह अपने आपको निर्दोष कहता है। पापी से घृणा मत करो, पाप से करो। पडौसी के साथ अच्छा व्यवहार करो। धातु का प्रयोग करो ..
वह तप को धारण करता है । इस गांव का पर्वत कब नष्ट हो गया ? जो ढीठाइ करता है उसकी संगत मत करो । उसका भाग्य चमकता है। मुनि ने दुःखी परिवार को सान्त्वना दी। उसका मकान जमीन में धंस गया। मंगलवार को तुम नया सफेद वस्त्र क्यों धारण करते हो ? मुनि शुभकरण साधना शिखर पर ध्यान करते हैं। ऊंट मरुभूमि में सबसे तेज दौडता है। तपस्या से अपनी आत्मा को धोओ।
प्रश्न १. प्राकृत में आत्मनेपद कहां होता है ?
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वर्तमानकालिक प्रत्यय
२४७
२. धातुओं के रूप बनाने के लिए प्राकृत में कहां कौनसा विकरण जोडा ___ जाता है ? ३. प्राकृत में धातुओं के कितने गण होते हैं ? ४. संस्कृत के समान प्राकृत में धातु कहां द्वित्व होती है ? ५. क्या संस्कृत की तरह प्राकृत में भी दस लकार होते हैं ? कौन-कौन से
होते हैं ? ६. वर्तमानकाल में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय कौन-कौन से हैं ? ७. अदन्त धातु के अ को क्या-क्या आदेश होता है और किस ___ नियम से ? ८. पथ्य, कुशल, युद्ध, जीर्ण, राख, नास्तिक, लक्षण, विघटन, खण्डन, पाप
और निर्दोष शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ? ६. धर, धंस, धरिस, धिप्प, धीरव, धुण, धस, धा, धा, धा और ध्रुव धातुओं के अर्थ बताओ तथा वाक्य में प्रयोग करो।
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विध्यर्थ प्रत्यय
शब्द संग्रह (साला वर्ग) अट्टणसाला-व्यायामशाला उदगसाला-उदकगृह उसाला-रसाला
उवट्ठाणसाला-सभास्थान करणसाला-न्यायमंदिर कूडागारसाला-षड्यंत्रवाला घर गंधव्वसाला-संगीतगृह
गद्दभसाला---गधा रखने का स्थान गोणसाला-गोशाला ।
घोडसाला-धुडसाल, अस्तबल कम्मसाला-कारखाना फरुससाला-कुंभारगृह गंधिअसाला-दारु आदि गंध घंघसाला--अनाथमंडप, भिक्षुओं का वाली चीज बेचने की दूकान
आश्रय स्थान
चापलूस-चाडुयारो (वि)
धातु संग्रह पइहा-परित्याग करना
पइसार-प्रवेश करना पउंज-जोडना, युक्त करना
पओस-प्रद्वेष करना पकत्थ-श्लाघा करना
पकप्प-काम में आना, उपयोग पइट्टव-मूर्ति आदि की विधिपूर्वक
में आना स्थापना करना
पकुण-करने का प्रारंभ करना पंस-मलिन करना
पकुप्प-क्रोध करना विध्यर्थ
विध्यर्थ का प्रयोग कर्तव्य का उपदेश, क्रिया की प्रेरणा और संभावना के अर्थ में होता है।
विध्यर्थक प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्रथमपुरुष ज्जए, ए, एय, ज्ज, ज्जा ज्ज, ज्जा मध्यमपुरुष ज्जसि, ज्जासि
ज्जाह उत्तमपुरुष ज्जामि
ज्जामो हस धातु के रूप एकवचन
बहुवचन प्रथमपुरुष हसिज्जए, हसे, हसेय हसिज्ज, हसेज्ज
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विध्यर्थ-प्रत्यय -.
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हसिज्ज, हसेज्ज, हसिज्जा, हसेज्जा हसिज्जा, हसेज्जा
हसिज्जइ, हसेज्ज इ मध्यमपुरुष हसिज्जासि , हसेज्जासि हसिज्जाह, हसेज्जाह
हसिज्जसि, हसेज्जसि उत्तमपुरुष हसिज्जामि, हसेज्जामि हसिज्जामो, हसेज्जामो
हो पातु के रूप प्रथमपुरुष होज्जए, होए, होएय . होज्ज, होज्जा
होज्ज, होज्जा मध्यमपुरुष होज्जसि, होज्जासि... होज्जाह उत्तमपुरुष होज्जामि
होज्जामो (विकरण वाली हो धातु के रूप हस धातु की तरह चलते हैं) - प्रथमपुरुप होइज्जए, होए, होएय होइज्ज, होएज्ज
होइज्ज, होएज्ज होइज्जा, होएज्जा
होइज्जा, होएज्जा मध्यमपुरुष होइज्जासि, होएज्जासि होइज्जाह, होएज्जाह
होइज्जसि, होएज्जसि उत्तमपुरुष होइज्जामि, होएज्जामि होइज्जामो, होएज्जामो .
(१) यदि क्रियापद के साथ उअ और अवि अव्ययों का संबंध हो तो इस
पाठ में बताए गए विध्यर्थ प्रत्ययों का प्रयोग हो सकता है। उम कुज्जा (चाहता हूं वह करे) अवि भुंजिज्ज (खाए भी)। श्रद्धा अथवा संभावना अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग के साथ इन प्रत्ययों का प्रयोग हो सकता है। सदहामि लोएसो लेहं लेहिज्ज । श्रद्धा (विश्वास) करता हूं लोकेश लेख लिखे । संभावेमि तुम न
जुज्झिज्जसि (संभावना करता हूं तुम नहीं लडो)। (३) जं के साथ कालवाचक कोई भी शब्द हो तो वहां विध्यर्थ प्रत्ययों का
प्रयोग होता है। कालो जं भणिज्जामि (समय है मैं पढू) । वेला जं
गाएज्जासि (समय है तू गा)। (४) जहां एक क्रिया दूसरी क्रिया का निमित्त बने वहां विध्यर्थ प्रत्ययों का
प्रयोग किया जाता है। जइ हं गुरुं उवासेय सत्यन्तं गच्छेय (यदि गुरु की उपासना करे तो शास्त्र का अंत पावे)। आर्ष प्राकृत में उपलब्ध कुछ अन्य रूपकुज्जा (कुर्यात)
अभिभासे (अभिभाषेत) सो निहे (निदध्यात्)
सिया, सिआ (स्यात्).
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२५०
अभितावे ( अभितापयेत् ) हणिया ( हन्यात्) लहे (लभेत )
प्राकृत वाक्यरचना बोष
अच्छे (आच्छिन्द्यात् ) अब्भे (आभिन्द्यात्)
प्रयोग वाक्य :
उagाणसालाइ कस्सि विसये उबट्ठाणं भविस्सइ ? करणसालाए चे नायो न मिलेज्ज तथा कत्थ मिलिहिइ ? कूडागारसालाए कित्तिआ जणा संति ? अहं अट्टणसालं पइदिणं गच्छामि । गामस्स बाहि गोणसाला विज्जइ । रमेसस्स भाया घोडगसालाए कज्जं करे । अत्थ गद्दभसाला नत्थि । उदगसालाइ नीरं को पिवावेज्ज ? अट्टणसालाअ सामी अज्ज अत्थ आगमिस्सइ ? गंधव्वसालाए णट्टई विट्टिस्सइ । गंधिअसालाअ को गओ ?
धातु प्रयोग
अमुम्मि नयरे अज्ज पासणाहस्स पडिमं पइट्ठविस्सइ । परिवारं धणं य पहाऊण पभा साहुणी भविस्सइ । पइणो बहूए य मणो अरुणाइ पउ जिओ । विज्जालये कल्लं विज्जट्टिणो पइसारर्हिति । बालो धूलीए किड्डुइ वत्थाई पंसइ य। अजइणा अवि आयरिअभिक्खुं पकत्थइ । आहम्मियभोयणं साहूणं न पकप्पइ । सो सिलोगाणं अब्भासं पकुणइ । तुमं मोरउल्ला कज्जं पकुणसि । विध्यर्थक प्रत्यय प्रयोग
जिणेसो पाढं पढेज्जा । तुमं कम्मसत्तुणा सह जुज्झिज्जसि । दिणेसो पइदिवहं सज्झायं करेज्जइ । सो पासणाहस्स देवालयस्स पडिमं पइट्ठवेज्जा । रिसभ अवि लेहं लेहिज्ज । धम्मेसो कज्जं उअ कुज्जा । पत्तियामि पसंतो कहं लिहेज्ज | संभावेमि वयं वइसाहमासे जेणविस्सभारहिं गच्छेज्जामो । अणुब्वयवरिसो जं तुमं पयरेज्जासि । कालो जं हं गोयर गच्छिज्जामि । जइ वागरणं पढेय णाणं लहेय । जइ अणुसासणं चिट्ठे सच्छंदो भवेय । प्राकृत में अनुवाद करो
सभा स्थान में आज किसका भाषण हुआ ? न्याय पाने के लिए अंतिम स्थान न्याय मंदिर है। मंदिर में मूर्ति की स्थापना कब होगी ? उस शहर में षड्यंत्र घर नहीं है । व्यायामशाला में पन्द्रह आदमी प्रतिदिन आते हैं । कविता गोशाला का शुद्ध दूध पीए । घुडसाल में सबसे अच्छा घोड़ा कौनसा है ? गर्दभशाला में एक भी गधा नहीं है । उदकगृह में कितने घडे ठंडे पानी के हैं ? रसाला को देखने के लिए तुम कब गए थे ? संगीतगृह में किसने संगीत गाया ? दारु की दुकान पर कौन-कौन बैठे थे ? धातु का प्रयोग करो
मंदिर में मूर्ति की स्थापना विधिवत् कब होगी ? परित्याग करके
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विध्यर्थ प्रत्यय
२५१ वापस उसे ग्रहण मत करो। वस्त्रों को जोडना सरल है, मनों को जोडना दुष्कर (दुक्कर) है। वह अपने पुत्रों को आज अच्छी स्कूल में प्रवेश कराएगा। जो प्रद्वेष करता है उसका मानस कलुष होता है। कुशलता के अभाव में तुम अपने वस्त्रों को मलिन करते हो। जो अधिक श्लाघा करता है वह चापलस (चाडुयार) होता है। यह वस्त्र मेरे काम में आता है। उसने शांतसुधारस पढना प्रारंभ कर दिया है। माता बच्चे पर बार-बार क्रोध करती है। विध्यर्थक प्रत्ययों का प्रयोग करो
____ मैं चाहता हूं वह नमस्कार मंत्र (णमुक्कार मंतं) का जप करे। वह तप भी करे । मैं विश्वास करता हूं वह ध्यान से पढे । संभावना करता हूं तुम विद्वान् बनो । समय है मैं ध्यान करूं। समय है स्वाध्याय करूं। चतुर्मास है मैं सूत्र पढू । यदि वह ध्यान से पढे तो पास हो जाए। यदि वर्षा हो तो अन्न अधिक हो जाए। यदि आपकी उपासना मिले तो व्याकरण का ज्ञान हो जाए। यदि वेतन मिल जाए तो घर में वस्त्र ले आऊं।
प्रश्न १. एकवचन और बहुवचन के विध्यर्थक प्रत्यय प्राकृत में कौन-कौन
से हैं ? २. इस पाठ में विध्यर्थक प्रत्ययों के अतिरिक्त आर्ष प्राकृत के रूप कौन
कौन से हैं ? ३. विध्यर्थक प्रत्ययों का प्रयोग कहां-कहां किया जाता है ? ४. दो वाक्य ऐसे बनाओ जहां एक क्रिया दूसरी क्रिया का निमित्त बनती
हो और वहां विध्यर्थ प्रत्ययों का प्रयोग होता हो? ५. सभास्थान, न्यायमंदिर, षड्यंत्रवाला घर, व्यायामशाला, गोशाला,
घुडसाला, गदहा रखने का स्थान, उदकगृह और रसाला के लिए
प्राकृत शब्द बताओ। ६. पइट्ठव, पइहा, पज, पइसार, पओस, पंस, पकत्थ, पकप्प, पकुण
और पकुप्प धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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आज्ञार्थक प्रत्यय
शब्द संग्रह (शरीर के अंग उपांग १) सिर--मत्थओ, सिरं
केस--केसो, बालो, कयो मस्तकहीन शरीर, धड़-कमंधो कपाल-कवाली, भालो, कप्परो खोपडी--पणिआ
भांपण-झंपणी, पम्हाई भौं-भुमया, भमुहा
आंख की पुतली-अक्खरा आंख--णयणं, नेत्तं, चक्खु
नाक----णासिआ, णासा कान-कण्णो, सोत्तं, सवणो मूंछ-आसरोमो दाढी-दाढिआ
दाढी मूंछ-समस्सू
कचरा–कयवरो
व्यायाम-वायामो पानी से गीला-उदओल्लं
धातु संग्रह पकूष्य-करना
पक्खिव-फेंक देना, त्यागना पक्कम-चला जाना, प्रयत्न होना पक्खोड (प्र+छादय)-ढकना, आच्छादन पक्किर-फेंकना
करना पक्खर-अश्व को कवच से . पक्खुब्भ-क्षोभ पाना, बढना, सज्जित करना, सन्नद्ध करना
वृद्ध होना पक्खल-पडना, गिरना पक्खोभ ----क्षोभ उत्पन्न कर हिला पक्खोड (प्र+स्फोटय)-बार-बार
देना झाडना आज्ञार्थक-.
____ इसका प्रयोग किसी को आशीर्वाद देने, विधि और सम्भावना अर्थ में होता है। जानने योग्य
० प्रत्यय लगाने से पूर्व अ विकरणवाली (हसान्त) धातु के अन्त्य अ को ___ए विकल्प से होता है । हसउ, हसेउ । • प्रथम पुरुष के एकवचन उ अथवा तु प्रत्यय लगाने से पूर्व अविकरण
वाली धातु के अन्त्य अ का आ भी उपलब्ध होता है। सुणाउ, सुणउ, सुणेउ ।
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माज्ञार्थक प्रत्यय
२५३
• उत्तम पुरुष के प्रत्यय लगाने से पूर्व अ विकरण वाली धातु के
अन्त्य अ को आ तथा इ विकल्प से होता है। हसामु, हसिमु, हसमु।
नियम ५९८ (दुसु मु विध्यादिष्वेकस्मिस्त्रयाणाम् ३३१७३) विधि आदि अर्थ में तीनों पुरुषों के एकवचन के प्रत्ययों को क्रमश: दु, सु और मु आदेश होते हैं । हमउ (हसतु), हससु (हस), हसमु (हसानि)।
नियम ५६६ (बहुषु न्तु ह मो ३॥१७६) विधि आदि अर्थ में तीनों पुरुषों के बहुवचन के प्रत्ययों को क्रमशः न्तु, ह और मो आदेश होता है। हसन्तु (हसन्तु), हसह (हसत), हसमो (हसाम)।
नियम ६०० (अत इज्जस्विज्जहीज्जे लुको वा ३३१७५) अ से परे 'सु' को इज्जसु, इज्जहि, इज्जे तथा लुक ये चार आदेश विकल्प से होते हैंहसेज्जसु, हसेज्जहि, हसेज्जे, हस, हससु। अन्य स्वरान्त धातुओं (आकारान्त, इवर्णान्त, उवर्णान्त, एकारान्त और ओकारान्त को ये आदेश नहीं होते हैं।
नियम ६०१ (सो हि वा ३३१७४) पूर्व सूत्र विहित (दु, सु, मु) में सु प्रत्यय को हि विकल्प से होता है । हससु, हसहि । देहि, देसु ।
आज्ञार्थक प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्रथमपुरुष उ, तु मध्यमपुरुष सु, हि, इज्जसु, इज्जहि,
इज्जे, लुक उत्तमपुरुष
मो हस धातु के आसार्थक रूप प्रथमपुरुष हसउ, हसेउ, हसतु, हसेतु हसन्तु, हसिंतु, हसेतु मध्यमपुरुष हससु, हसेसु, हसेज्जसु . हसह, हसेह
हसेज्जहि, हसेज्जे, हस
हसहि, हसाहि उत्तमपुरुष हसमु, हसामु, हसिमु, हसेमु हसमो, हसामो, हसिमो,
हसेमो (सर्व पुरुष सर्व वचन में-हसेज्ज, हसेज्जा और होते हैं)
हो पातु के आगार्थक रूप एकवचन
बहुवचन प्रथमपुरुष होउ, होअउ, होएउ
होन्तु, होइन्तु, होएन्तु होज्जउ, होज्जाउ, होतु, होएतु होज्जन्तु, होज्जान्तु
होज्जतु, होज्जातु मध्यमपुरुष होसु, होअसु, होएसु होअह, होएह, होह
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२५४
प्राकृत वाक्यरचना बोष होअहि, होआहि,
होज्जह, होज्जाह होएज्जाहि, होएज्जे होम, होहि, होजहि, होज्जाहि
होज्जसु, होज्जासु उत्सम पुरुष होमु, होअमु, होआमु होमो, होअमो, होआमो होइमु, होएम
होइमो, होएमो,
होज्जमो, होज्जामो (तीनों पुरुष और दोनों वचनों में होज्ज, होज्जा और होते हैं) प्रयोग वाक्य
अहं गुरुं मत्थएण वंदामि । आयवेण मज्झ सिरं तवइ। सो पणिआए किं पयइ ? सिया केसा किं जराए लक्खणं भवइ ? तस्स भालम्मि पंचरेहा (रेखा) संति । भुमया मज्झे एग्गचित्तझाणेण तइयनेत्तं उग्घाडियं भवइ । तुम झंपणीओ खिप्पं कहं निमीलंति ? णयणाइं अन्तरेण संसारं तमोमयं लग्गइ । अक्खराओ किण्हा चिअ सोहंति । कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं पेम्म नाभिनिवेसए । णासिआओ सासोसासस्स मग्गा संति । एसो नरो समस्सुरहियो कहं अत्थि ? आसरोमो पुरिसस्स लक्खणं अत्थि । धातु प्रयोग
___ सो पच्चूसे झाणं पकुव्वइ । जायपक्खा हंसा पक्कमति दिसोदिसि । सा कयवरं गिहस्स बाहिं पक्किरइ। किं तुमं जुज्झाय आसं पक्ख रसि ? सो घडं कट्ठण पक्खोडइ । मुणी हिमेण उदओल्लं कायं न पक्खोडेज्जा। को मुक्खो (मूर्ख) खारं धूलि य मग्गे गच्छंतस्स गच्छमाणस्स वा उरि पक्किरइ ? एगवरिसो बालो चलंतो मुहु मुहु पक्खलइ। सुसीलो पमाएण पत्थरं पक्खिविऊण तलायसलिलं पक्खोभइ । मुणिस्स उवएसं सुणिऊण सो सुरं (सुरा को) पक्खिवइ । प्रत्यय प्रयोग
सो गुरुं पण्हं पुच्छउ । तुमं पोत्थयं अत्थ आणेसु। तुमं तं गिहं णेसु । रमेसो तं चविडं मारउ । णिद्धणा पेम्म कुणउ । सया सच्चं जंपउ । धम्म आयरउ । गुरुं उवासउ । णाणं आराहउ। सव्वेहिं सह सव्ववहारं कुणउ । अंधयारे मा पढउ। प्राकृत में अनुवाद करो
- शिर शरीर का उत्तम अंग है। वह केशों में तेल डाले। कपाल (ज्योतिकेंद्र) पर सफेद रंग का ध्यान करो। मनुष्य की खोपडी तंत्र में काम आती है। क्या बुढापे में भौं भी सफेद हो जाती है। वह कौन है जो भांपण
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आज्ञाथक प्रत्यय
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को स्थिर रखता है ? व्यायाम से आंख की ज्योति बढ़ती है। देखने की शक्ति आंख की पुतली में है। अपने कान में स्वयं स्पंदन करना कठिन है। नासा के अग्रभाग पर ध्यान का अभ्यास करो। दादी और मूंछ होना पुरुषत्व का लक्षण है। बहादूर सिंह मूंछ पर नींबू रख सकता है। धातु का प्रयोग करो
__ जो पाप करता है वही उसका फल भोगता है। पक्षी सबेरे भोजन की खोज में पूर्व दिशा में चला गया। वह धलि को बाहर फेंकता है। तुम घोडे को किसलिए सज्जित करते हो? जो चढने का अभ्यास करता है वही गिरता है। सीता अपने घर से गंदे (मलिण) पानी को बाहर फेंकती है। तुम्हारे व्यवहार से मैं क्षुब्ध होता हूं। गर्म दूध के वर्तन को तत्काल ढको। वस्त्र को बार-बार मत झाडो । किसी की आस्था को हिला देना अच्छा कार्य नहीं है। आज्ञार्थक प्रत्ययों का प्रयोग करो
तुम गांव के बाहर मत जाओ। हम लोग स्वाध्याय करें। चतुर्मास में सभी भाई बहन यथाशक्ति तप करे। तुम व्याख्यान दो, लोग आएंगे। तुम लाग घर जाओ, किसी की प्रतीक्षा मत करो। वे सब नदी में क्यों उतरे ? सबेरे जल्दी उठो और जल्दी सोओ। सब लोग अपना-अपना काम करो। तुम व्यर्थ ही उसकी चिंता मत करो। तुम पढ़ने में ध्यान दो। किसी को शिक्षा मत दो। दिन में शरीर का श्रम भी करो। दूसरों की बात मत करो। प्रतिदिन नमस्कार महामन्त्र का जाप अवश्य करो। बुरे व्यक्तियों की संगत मत करो। -
प्रश्न १. आज्ञार्थक प्रथम और उत्तम पुरुष के एकवचन और बहुवचन के
प्रत्ययों को क्या आदेश होता है ? २. आज्ञार्थक मध्यमपुरुष के एकवचन को सु प्रत्यय को क्या-क्या आदेश
होता है ? ३. हस धातु के आज्ञार्थक प्रत्ययों के रूप लिखो। ४. सिर, खोपडी, कपाल, केश, भौं, भांपण, आंख, आंख की पुतली, कान,
नाक और दाढीमूंछ के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. पकुव्व, पक्कम, पक्किर, पक्खर, पक्खल, पक्खिव, पक्खुब्भ, पक्खोड,
और पक्खोभ धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ६. हन्यवाहो, अभिणिवेसो, इस्सा, अणहो, विहडणं, फरुससाला, घंघसाला, उवट्ठाणसाला शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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६९ ...
भूतकालिक प्रत्यय
शब्द संग्रह (शरीर के अंग-उपांग २) ... मुंह-वयणं, मुहं
जीभ-जीहा, रसणा दांत-~दसणो, दंतो
ओठ- अहरो, ओट्ठो ठोडी-चिबुकं
कंठ---कंठो कंठमणि----अवडू, किआडिआ गाल-कवोलो, गल्लो कंधा-अंसो
कांख-कक्खो, भुअमूलं
दतवन --दंतसोहणं
केंद्र-किदियं फुनसी---फुडिया
तिल-तिलो जूं-जूआ
स्वर-सरो गले का—गलिच्च (वि)
धातु संग्रह पगड्ढ-खींचना
पघंस-फिर-फिर घसना पगल-झरना, टपकना
पघोल-मिलना, संगत करना पगिण्ह----ग्रहण करना
पचाल-खूब चलाना पच्चक्खीकर-~साक्षात् करना
पच्चक्ख-त्याग करना पगिज्झ -- आसक्ति का प्रारंभ करना ईर---गमन करना भूतकाल ....... प्राकृत में भूतकाल का कोई भेद नहीं है। अनद्यतन, भूतमात्र और परोक्ष इन तीनों भूतकालिक अर्थों में एक समान प्रत्यय होते हैं ।
नियम ६०२ (सी ही ही भूतार्थस्य ३३१६२) स्वरान्त धातुओं से भूतार्थ में विहित प्रत्ययों को सी, ही और हीअ आदेश होते हैं।
भूतकालिक प्रत्यय 4 एकवचन, बहुवचन . प्रथम पुरुष सी, ही, होम ) होसी, होअसी मध्यम पुरुष. सी, ही, हीअ. होही, होअही .- (अभवत्, अभूत, उत्तम पुरुष सी, ही, हीअ ) होहीअ, होअहीअ बभूव
नियम ६०३ (व्यंजनादीमः ३३१६३) व्यंजनांत (अविकरण वाली) धातुओं से भूतार्थ में विहित प्रत्ययों को ईअ आदेश होता है।
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भूतकालिक प्रत्यय
२५७
एकवचन, बहुवचन प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष
हसीअ (अहसत्, अहासीत्, जहास) उत्तम पुरुष ईअ
नियम ६०४ (तेनास्तेरास्यहेसि ३।१६४) अस् धातु को भूतार्थ प्रत्ययों के साथ आसि और अहेसि आदेश होता है। सब पुरुष और सबवचनों में रूप बनेंगे-आसि, अहेसि।
आर्ष प्राकृत में भूतकाल के उपलब्ध रूपकर- अकरिस्सं (अकार्षम् ) उत्तम पुरुष एकवचन __अकासी (अकार्षीत्) प्रथम पुरुष एकवचन बू-अब्बवी (अब्रवीत्) प्रथम पुरुष एक वचन वच-अवोच (अवोचत्) प्रथम पुरुष एकवचन बू-आह (आह) प्रथम पुरुष एकवचन बू-आहु (आहुः) प्रथम पुरुष बहु वचन दूश्-अदक्खू (अद्राक्षुः) प्रथम पुरुष एकवचन
आर्ष प्राकृत में उत्तम पुरुष अस् धातु के लिए आसिमो और आसिमु (आस्मः) रूप मिलते हैं । वद धातु का वदीअ रूप होना चाहिए पर वदासी और वयासी रूप मिलते हैं। सी प्रत्यय स्वरान्त धातुओं के लगता है परन्तु आर्ष प्राकृत में प्रायः प्रथम पुरुष के एकवचन के लिए स्था, इत्था और इत्थ प्रत्यय तथा बहुवचन के लिए इत्थ, इंसु और अंसु प्रत्यय भी मिलते हैं। था-हो--होत्था। इत्था-री-रीइत्था। भुंज- जित्था। पहार-पहारित्था, पहारेत्था ।
विहर-विहरित्था । सेव-सेवित्था । इंसु-गच्छ-गच्छिसु । कर-करिंसु । नच्च-नच्चिसु । अंसु–आह-आहंसु।
कर धातु भूतकाल में (नियम ७० से) का के रूप में बदल जाने से रूप बनते हैं-कासी, काही, काहीअ । प्रयोग वाक्य
___मुहेण मिउवयणं वदेज्जा । जीहा रसस्स गहणं करेइ । सो दंतसोहणेण दसणा सोहइ । ओट्ठम्मि फुडिआ जाआ। माया पुत्तस्स कवोलं चुंबइ । सुमेरो महुरकंठेण गीअं गाअइ । विसुद्धकिंदियस्स ठाणे अवडू अत्थि । पुरिसस्स चिबुअस्स दक्खिणभागे तिलस्स वरं फलं भवइ । आयरिअस्स कंधे जिणसासणस्स भारो अस्थि । अस्स कक्खे जूआओ कहं उप्पज्जति ? .. धातु प्रयोग
केवली समुग्घाएण कम्माइं पगड्ढईअ । भवणस्स छईअ नीरं कहं
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२५८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
पगलइ ? केत्तिआ जणा सम्मत्तदिक्खं पगिण्हीअ। को अप्पाणं पच्चक्खी करिस्सइ ? सो रूवं गिज्झइ । सोवण्णिओ (सुनार) सुवण्णं पघंसइ । सरम्मि सरो पघोलेज्ज । थलीदेसे जणा उट्टा पचालंति । अहं पच्चक्खामि कल्लं न ण्हास्सामि । साहुणो विहिपुव्वयं ईरंति । भूतकाल के प्रत्यय प्रयोग
सो निसाए चंदं पासीअ । हिमवपव्वयं को आरोहीअ ? सो विज्जालयं कहं न गच्छीअ ? तुम पोत्थयं कं दासी? अहं सुमिणे गुरुं दिक्खी। सो णियमित्तेण सह विवादीअ । तुज्झ मुहदसणं पावं त्ति को कहीअ ? साहू के सवीअ? मुणी जणहियाय उवदिसीअ (उपदेश दिया)। आइच्चो रहो अहियं तवीअ । वरिसा कया होअहीअ ? सो सिग्धं तत्थ कहं जाही? तुमं असच्चं कहं जंपीअ ? सो मज्झ साउज्जं (सहयोग) कासी। तुं पासिऊण सो कहं हसीअ ? सो किणा सुत्तेण तकारं लोवीअ (लोप किया) ? समणोवासगा गुरुं विण्णवीस साहूणं चउमासळं। रयणी दहिं पम्मत्थी । धणंजयो वि अज्ज विहारे थक्कीअ। प्राकृत में अनुवाद करो
तुम्हारा मुंह देखने के लिए मैं बहुत दूर से आया हूं। जीभ में हड्डी (अट्टि) नहीं होती इसीलिए तुम अपने विचारों में स्थिर नहीं हो। बन्दर किसको दांत दिखलाता है ? ओठ, दांत और जीभ के लिए कपाट है। तुम्हारे गाल लाल कैसे हो गए ? कंठ की मधुरता सबको अपनी ओर खींचती है। कंठमणि को दबाने से आदमी तत्काल मर जाता है । तुम्हारे भाई की ठोडी लंबी है या वर्तुलाकार ? कंधे में भार को सहने की क्षमता होती है । काख के केशों को मत काटो। धातु का प्रयोग करो
प्रत्येक पदार्थ एक दूसरे को खींचता है। पहाड से पानी झरता है। वह पुरस्कार (पुरक्कार) को ग्रहण करता है। मैं उससे साक्षात् करूंगा। उसकी धन के प्रति आसक्ति बढ रही है। मजदूर मकान की छत (छई) को बार-बार घिसता है । जिसका स्वर मिले वह गाना गाए। वह घोडे को दिनरात चलाता है। उसने तीस दिन तक भोजन का त्याग किया। तुम आज गांव से बाहर क्यों गए? भूतकालिक प्रत्ययों का प्रयोग करो
..तुम्हारा भाग्य किसने लिखा ? परीक्षा में प्रथम कौन आया ? तुमने संकल्प कब किया था ? तुम्हारा मंत्र-जाप सफल हुआ। अध्यापक ने तुमको पढाना कब छोडा ? वह अमेरिका कब' गया ? विदेश में जाकर किस साधु ने धन बटोरा ? राजेन्द्र ने इस शहर को छोड दिया। उसने विवाह कब किया ?
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भूतकालिक प्रत्यय
२५६
वृक्ष से मधुर फल आम गिरा। उसने तीस वर्ष तक संयम की साधना की। तुम्हारा मन साधुत्व से विचलित क्यों हुआ? गाय ने उसको सींग (सिंगं) से मारा । आकाश से तारा कब टूटा ? तुम्हारे भाई ने उसके घर से चोरी क्यों की? उसकी प्रगति को देखकर चेतना ने विमला पर झूठा आरोप लगाया।
प्रश्न १. प्राकृत में भूतकाल के कितने भेद हैं ? उनके प्रत्ययों में क्या अन्तर
२. प्राकृत में भूतकाल के प्रत्ययों को किस नियम से क्या आदेश होता
है ? एकवचन और बहुवचन के आदेश में क्या अंतर है ? ३. आर्ष प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में नियमों के अतिरिक्त कौन-कौन से · रूप और प्रत्यय मिलते हैं ? ४. इत्था, इंसु और अंसु प्रत्यय के रूप बताओ। ५. मुह, जीभ, दांत, ओठ, ठोडी, गाल, कंठ, कंठमणि, कंधा और कांख
के लिए प्राकृत शब्द बताओ? ६. पगड्ढ, पगल, पगिण्ह, पच्चक्खीकर, पगिज्झ, पघंस, पघोल, पचाल,
पच्चक्ख और ईर धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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७०
भविष्यत्कालिक प्रत्यय (१)
शब्द संग्रह (शरीर के अंग-उपांग ३) भुजा-भुआ, बाहू
स्तन-थणो कोहनी-कुहुणी
नाखून--नहो हाथ-करो, पाणी, हत्थो नाखून के नीचे का भाग-पडिसेण उंगली---अंगुली
मुट्ठी-मुट्ठिआ, मुट्ठी हथेली-करयलं
छाती=उरो, वच्छं अंगूठा-अंगुट्ठो
पेट-उयरं, कुच्छि (पुं, स्त्री) मसूडा-दंतवेट्टो (सं)
पतला-पत्तल (वि)
धातु संग्रह पच्चणुभव-अनुभव करना । पच्चापडलौटकर आ पडना पच्चभिजाण-पहचानना पच्चाय--प्रतीति करना पच्चाचक्ख-परित्याग करना पच्चाया-उत्पन्न होना पच्चप्पिण-वापस देना, पच्चाहर---उपदेश देना
सौंप हुए कार्य को करके पच्चुण्णम-थोडा ऊंचा होना निवेदन करना
पच्चाणी-वापस ले आना भविष्यत्कालिक प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्रथमपुरुष हिइ, हितिः, हिए, हिते। हिन्ति, हिन्ते हिइरे
स्सइ, स्सति, (स्यति) स्संति, (स्यन्ति)
स्सए, स्सते (स्यते) स्संते (स्यन्ते) मध्यमपुरुष हिसि, हिसे
हित्था, हिह स्ससि (ष्यसि) स्सह, स्सथ (ष्यथ)
स्ससे (ष्यसे) उत्तमपुरुष हिमि, हामि
स्सामो (ष्यामः) स्सामु, स्साम स्सामि (ष्यामि) हामो, हामु, हाम, हिमो, हिमु, हिम स्सं
हिस्सा, हित्था (कोष्ठक में दिए गए प्रत्यय नहीं हैं । संस्कृत के रूप के साथ समानता
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भविष्यत्कालिक प्रत्यय ( १ )
दिखाई गई है ।
नियम ६०५ ( भविष्यति हिरादिः ३।१६६ ) भविष्यत् अर्थ में विहित प्रत्ययों के पूर्व 'हि' का प्रयोग होता है । होहिइ, होहिन्ति, होहिइरे, होहिसि होहित्था ।
नियम ६०६ (मेः स्सं ३।१६६ ) भविष्यत्काल में धातु से परे मि प्रत्यय के स्थान पर 'स्सं' का प्रयोग विकल्प से होता है । होस्सं ( भविष्यामि) नियम ६०७ (मि मो मु मे स्सा हा न वा ३ । १६७ ) भविष्यत् अर्थ में मि, मो, मु, म परे रहने पर उनके पूर्व स्सा और हा विकल्प से प्रयोग होता है । होस्सामि, होहामि, होहिमि । होस्सामो, होहामी । होस्सामु, होहामु । होस्साम, होहाम । कहीं हा नहीं होता । हसिस्सामो, हसिहिमो ।
नियम ६०८ (मो-मु-मानां हिस्सा हित्था ३।१६८ ) भविष्यत् अर्थ में धातु से परे मो, मु और म प्रत्ययों के स्थान पर हिस्सा और हित्था आदेश विकल्प से होता है । होहिस्सा, होहित्था । पक्ष में होहिमो, होहिमु होहिम । (एच्चक्रवातुम्तव्य भविष्यत्सु ३।१५७ )
नियम ६५ से क्त्वा, तुम्, तव्य भविष्यत्काल में विहित प्रत्यय परे रहने पर अ को इ तथा ए होते हैं। हसेहिइ, हसिहि ।
हस् धातु के रूप
प्रथमपुरुष
एक वचन
उत्तमपुरुष
हfees, हसेस्सs
हसिस्सति, हसेस्सति
हस्सिए, हसेस्सए
हसिस्सते, हसेस्सते
सिeिs, हसे es हसि हिति, हसेहिति सिहिए, हसे हि
हसिहिते हसे हिते
मध्यमपुरुष हसिस्ससि, हसेल्ससि
हसिस्ससे, हसेस्ससे
हसि हिसि, हसे हिसि हसिहिसे हसे हिसि हसिस्सामि, हसेस्सामि
हंसिहामि, हसेहामि हसि हिमि, हसेहिमि हसिस्स, हसेस्सं
बहुवचन हसिस्संति, हसेस्संति हरिस्ते, हसेस्ते
हसिहिति हहिति
हि
हस हिरे, हसे हिरे
हसिस्सह, हसेस्सह् हसिस्सथ, हसेस्सथ हसि हित्था, हसेहित्या सिहि, हसे हि
हसिस्सामो, हसेस्सामो
हसिस्सामु, हसेस्सामु
हसिस्साम, हसेस्साम हiिहामो, हसेहामो
२६१
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२६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
सर्वपुरुष सर्ववचन में हसिहामु, हसेहामु हसिज्ज, हसिज्जा
हसिहाम, हसेहाम हसेज्ज, हसेज्जा
हसिहिमो, हसे हिमो हसिहिमु, हसेहिमु
हसिहिम, हसेहिम प्रयोग वाक्य
तस्स बाहुए सोरियं विज्जइ । सेणिगो अब्भास काले कुहिणीइ बलेण चलइ । नरस्स करेसु लच्छी विज्जइ। तस्स लद्धिजोगेण अंगुली फासमत्तेण रोगीण रोगो नस्सइ । मज्झ कहणं करयलआमलकं इव फुडं अस्थि । बालो भाआए थणाई पिवइ । नहा पलम्बा कहं कया ? आमनहकत्तणेण पडिसेगम्मि पीडा जाया। तेण अहंकारेण कहियं मझ मुट्ठीए सव्वा सत्ती अस्थि । तस्स वच्छं वइरं विव दढं अस्थि । तुज्झ उअरस्स किरिआ सुद्धा नत्थि । धातु प्रयोग
____राया अप्पाणं पच्चणुभवइ । पोत्थयं पढिऊणं सो पच्चप्पिणइ । सत्तदिवसे सुत्तं लिहिऊण सीसो गुरुं पच्चप्पिणइ । अहं तुम पच्चभिजाणामि । सो एगमुहुत्तपेरंतं सावज्जं जोगं पच्चाचक्ख इ । तवस्सिणा भत्तस्स भोयणं न गिहिरं। सो पच्चाणीअइ (पच्चाणे इ) । बालेण रुक्खम्मि पत्थरं खितं सो पच्चापडइ । वयं पच्चाएमो तं कज्जं पूरयिस्सामो। सूरियो पुवि पच्चायाइ । आयरिआ अत्थ पच्चाहरइ परं तस्स सरो गामत्तो बाहिं गच्छइ । पिअरं पणमिऊण पुत्तो जया पच्चुण्णमइ तया देवदंसणं जाअं । भविष्यत् प्रयोग
तुमं किं कज्जं करिहिसे ? तस्स पुत्तो कत्थ गमिस्सइ ? सीसो गुरूणं समीवे उत्तरज्ययणं सुत्तं पढिहिइ । वसंते अमुम्मि रुक्खम्मि नब्वाइं पत्ताई निक्कसिस्संति । वरिसा कया होहिइ ? तुज्झ परिक्खाए परिणामो कया बाहिं आगमिहिइ ? अहं सद्दा संचिणिस्सामि । साहुणो सव्वा भदिस्संति । पक्खिणो आगासे निसाए न उड्डीसति । अम्हे का वि न अवमन्निस्साम । सुसीला घयं ताविस्सइ। प्राकृत में अनुवाद करो
उसकी भुजा पतली है। वह ऐक हाथ की कोहनी को दूसरे हाथ की हथेली पर रखकर क्यों बैठा है ? मैं अपने हाथ से अपना भाग्य लिखूगा। वह अंगुली से मधुर वीणा बजाएगा। हथेली की रेखाएं क्या बोलती हैं ? स्तन में दूध कम है । नाखून का निचला भाग फट जाता है। तुम मुट्ठी से युद्ध करते हो । उसकी छाती चौडी है। पेट में चूहे कूदते हैं।
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भविष्यत्कालिक प्रत्यय (१)
२६३
धातु का प्रयोग करो
मैं आत्मा को शरीर से भिन्न अनुभव करता हूं। विद्यार्थी स्कूल में दिया हुआ घर का कार्य करके अध्यापक को निवेदन करता है। मैंने तुमको पहचान लिया हम दोनों पूर्वभव में भाई-भाई थे। उसने अपनी स्त्री का परित्याग कर दिया । वह अपने पुत्र को स्कूल से वापस ले आया। जो आकाश में पत्थर फेंकता है वह उसी पर पड़ता है। उसने अपने कार्य से प्रतीति कराई। क्या नक्षत्र पूर्व दिशा में पैदा होते (उगते) हैं ? वह मनोयोग से उपदेश देता है। पौधा थोडा ऊंचा हुआ है। भविष्यत् प्रत्यय का प्रयोग करो
वह आज वृक्षों को नहीं सींचेगा । मैं तुम्हारे घर आज के बाद कभी नहीं आऊगा । तुम्हारा भविष्य कौन बताएगा ? देश में किसकी सरकार बनेगी ? आज तुम क्या खाओगे ? तुम्हारी सेवा कौन करेगा ? शुक्र का तारा आकाश में कब उदित होगा ? रमेश कल स्कूल नहीं जाएगा। साधुओं की उपासना कल कौन करेगा? हमारी कक्षा का गणित का प्रश्नपत्र कौन बनाएगा ? तुम्हारे साथ परीक्षा देने कौन जाएगा ? सूर्य कब अस्त होगा ? पत्रिका में लेख कौन लिखेगा? मैं तुम्हारे साथ खाना नहीं खाऊंगा।
प्रश्न १. भविष्य के अर्थ में होने वाले प्रत्ययों से पहले किस का प्रयोग होता है __ और किस नियम से ? २. भविष्य काल के विहित प्रत्यय से परे अ को किस नियम से क्या
आदेश होता है ? ३. भविष्य अर्थ में मि प्रत्यय के स्थान पर किसका प्रयोग होता है और
किस नियम से ? ४. मध्यम पुरुष के एकवचन में कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? ६. भुजा, कोहनी, हाथ, उंगली, हथेली, स्तन, नाखून, मुट्ठी, छाती, पेट
और नाखून के नीचे का भाग, इनके लिए प्राकृत शब्द बताओ। ७. पच्चणुभव, पच्चप्पिण, पच्च भिजाण, पच्चाचक्ख, पच्चाणी, पच्चापड, , पच्चाया, पच्चाहर, पच्चाय और पच्चुण्णम धातुओं के अर्थ बताओ।
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७१
भविष्यत्कालिक प्रत्यय
पीठ-पिट्ठ " पसली — पासो
कलेजा - हिययं
नाभि - नाही
नितंब नियंबो, ढेल्लिका लिंग -- सिन्हो, सिहं
शब्द संग्रह (शरीर के अंग- उपांग ४)
कमर -- कडी
जांघ - जंघा, टंका
(२)
सोच्छं ( श्रोष्यामि) रोच्छं (रोदिष्यामि) दच्छं ( द्रक्ष्यामि) वोच्छं ( वक्ष्यामि) भेच्छं (भेत्स्यामि )
घुटना - जाणु (न), जण्हुआ टांग - टंगो
पैर चरणो, पाओ ऐडी -पहिया
धातु संग्रह
पच्चुत्तर - नीचे आना पच्चुवगच्छ— सामने जाना
पच्चुवेक्ख – निरीक्षण करना
पच्चो गिल - स्वाद लेना
पच्चीणिवय - उछलकर नीचे गिरना भविष्यत्काल
( आ कृगो भूत-भविष्यतोश्च ४१२१४ ) नियम ७० से कृ धातु के अंतिम वर्ण को आ आदेश होता है, भूतकाल, भविष्यत्काल, क्त्वा, तुम्, और तव्य प्रत्यय परे हो तो । काहिइ ( करिष्यति, कर्ता वा )
नियम ६०६ ( कृ दो हं ३ | १७० ) करोति और ददाति धातु से परे भविष्यत्काल के प्रत्यय के स्थान पर 'हं' आदेश विकल्प से होता है । काहं, काहिमि ( करिष्यामि) दाहं, दाहिमि ( दास्यामि )
पच्चीरुह-पीछे उतरना पच्चीसक्क पीछे हटना पच्छ - प्रार्थना करना
नियम ६१० (भु गमि रुदि विदि दृशि मुचि वचि छिदि भिदि भुजां सोच्छं गच्छं रोच्छं बेच्छं दच्छं मोच्छं वोच्छं छेच्छं मेच्छं भोच्छं ३ | १७१) श्रु आदि १० धातुओं के भविष्यत् अर्थ में होने वाला मि प्रत्यय के स्थान पर सोच्छं आदि रूप निपात हैं ।
पच्छाअ ढकना पजप -- बोलना
गच्छं ( गमिष्यामि) वेच्छं (वेदिस्यामि )
मोच्छं (मोक्ष्यामि) छेच्छ (छेत्स्यामि) भोच्छं (भोक्ष्ये)
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भविष्यत्कालिक प्रत्यय ( २ )
२६५
नियम ६११ ( सोच्छादय इजादिषु हि लुक् च वर ३१७२) भविष्य अर्थ में होने वाले इच् आदि (इ, ए, न्ति, न्ते, इरे, सि, से, इत्था, ह, ए) प्रत्यय परे होने पर पूर्व नियम ६१० से होने वाले सोच्छं आदि रूप में अंतिम स्वर और अगला अवयव (अं) का वर्जन होता है और पूर्व नियम से होने वाला हि का लुक् विकल्प से होता है ।
सोच्छ + हिमि == सोच्छिमि, सोच्छेमि, सोच्छिहिमि, सोच्छेहिमि आदि ।
- एकवचन
प्रथमपुरुष -- सोच्छिइ, सोच्छेइ, सोच्छिहिइ, सोच्छे हिड सोच्छिए, सोच्छेए, सोच्छिहिए, सोच्छेहिए ।
,
मध्यमपुरुष -- सोच्छिसि सोच्छेसि सोच्छिहिसि, सोच्छे हिसि सोच्छिसे, सोच्छे से, सोच्छिहिसे, सोच्छेहिसे
उत्तमपुरुष — सोच्छं, सोच्छिमि, सोच्छिस्सामि, सोच्छिस्सं, सोच्छेस्सं, सोच्छेमि सोच्छे सामि, सोच्छिहिमि, सोच्छेहिमि, सोच्छिस्सामि, सोच्छेसामि, सोच्छिहामि, सोच्छेहामि ।
आर्ष प्राकृत में प्राप्त कुछ अन्य रूप
मोमो (मोक्ष्यामः)
करिस ( करिष्यति ) भविस्सामि ( भविष्यामि )
प्रयोग वाक्य
पिउणो पिट्ठम्मि पुत्तो आरुहइ । सीहस्स कडी पत्तली भवइ । तस्स टंका थूला अस्थि । जराए पाओ जाणुम्मि पीला भवइ । चाइणो पाएसु सव्वे नमति । णाही सरीरस्स मज्झभागे अस्थि । सत्यकिदियस्स ( स्वास्थ्य केंद्र ) ठाणं नियंबो विज्जइ । पासम्म केवलाई अत्थीइं संति । सिहं मुत्तस्स दारं अस्थि । हिययं विणा मणुअस्स किं महत्तणं ? पहियाए कंटगो लग्गिओ । धातु प्रयोग
भविस्सर ( भविष्यति ) रिस (चरिष्यति ) होक्खामि ( भविष्यामि)
राया पासायत्तो पच्चुत्तरइ । सीसा आयरिअस्स पच्चुवगच्छति । विज्जालयस्स निरिक्खिओ सत्तदिवसे सइं विज्जाल पच्चुवेक्खइ । अण्णाणी वत्थूइं पच्चोगिलिऊण खाअइ । सयणत्तो पच्चोणियवंतं बालं पासिऊण सव्वे रक्ख यत्तति । सो आसत्तो पच्चोंरुहइ । अहं कहिऊण न कया वि पच्चोसक्कामि । अहं पच्छामि भयंतं । सो णियंट्ठाणं पच्छाअइ । अज्ज पेरंत सो बालो कहं न पपइ ?
भविष्यत्कालिक प्रत्यय प्रयोग
रुक्खो कस्सि मासे फलिस्सइ ? सो गीइयं गाइहिइ । मज्भण्हे सूरिओ
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२६६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
तविस्सइ अहुणा समयो सीओ अओ सिग्धं चल । तुज्झ साउज्जं को करिस्सइ ? अमुम्मि वरिसम्मि तुमं कि अण्णं वविस्ससि ? अहं सोमवारे लुंचिहिमि । सो तुं णियघरं दरिसिस्सइ । अहं तुमए सह न आलविस्सामि । सुरेसो सुवे दिक्खिहिइ । सा धेणुं न दुहिस्सइ । अम्हे कम्मसत्तुं जिणिस्साम । प्राकृत में अनुवाद करो
उसकी पसली साफ दिखाई देती है । मेरा कलेजा चुराकर कौन ले गया ? मूत्र न आने से उसके लिंग में पीडा है। उसने तुझे एडी से मारा। इस शहर में एक विद्यापीठ है । नीचे का वस्त्र कमर के आधार पर टिकता है । जंघा मोटी नहीं होनी चाहिए क्योंकि उससे चलने में कठिनाई होती है । भगवान के चरणों में देवता भी नमस्कार करते हैं । घुटने का व्यायाम करना चाहिए। उसकी नाभि का आकार सुंदर नहीं है। नितंब को बढाना नहीं चाहिए । धातु का प्रयोग करो
वह पर्वत से नीचे आता है। गांव के लोग अतिथि नेता के सामने जाते हैं । प्रतिदिन अपनी गलतियों का निरीक्षण करना चाहिए। वह भोजन को स्वाद लेकर खाता है । पहाड से उतरती हुई गाडी से वह उछल नीचे गिर गया। नीचे उतरना कोई नहीं चाहता । वीर योद्धा युद्ध से पीछे नहीं हटता है। तुम्हें मेरे लिए प्रार्थना करनी चाहिए। खुले स्थान को मत ढको । वह पूछने पर भी बहुत कम बोलता है । भविष्यत्कालिक प्रत्ययों का प्रयोग करो
मेरे स्थान पर कौन आएगा? हमारे साथ तीर्थयात्रा में कौन जाएगा। भारत का प्रधान मंत्री कौन बनेगा ? उसका विवाह कब होगा? उसकी बीमारी की चिकित्सा कौन करेगा । वह विदेश कब जाएग? प्रेक्षाध्यान की कक्षा कौन लेगा? क्या उसके पुत्र होगा ? तुम्हारे भाग्य का उदय कब होगा? वह गरीब क्या कभी धनवान बनेगा ? तुम सभा को कब उद्बोधन करोगे ? क्या वह आज कथा कहेगा?
प्रश्न १. धातु के अन्त्य को आ आदेश कहां होता है ? २. काहं और दाहं रूप किस नियम से और किस प्रत्यय के स्थान पर __बना है ? ३. भविष्यत् अर्थ में होने वाले मि प्रत्यय के स्थान पर किन धातुओं को
क्या आदेश होता है ? ४. पीठ, कमर, जांघ, घुटना, पैर, नाभि, नितंब, लिंग, टांग, पसली
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भविष्यत्कालिक प्रत्यय (२)
कलेजा, एडी शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. पच्चुत्तर, पच्चुवगच्छ, पच्चुवेक्ख, पच्चोगिल, पच्चोणिवय, पच्चोरुह, पच्चोसक्क, पच्छ, पच्छाअ और पजप धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ६. आसरोमो, पम्हाइं, भुमया, अवडू, कवोलो, अंसो, वच्छं, करयलं,
कुहुणी शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
www.jairtelibrary.org
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क्रियातिपत्ति
शब्द संग्रह (शरीर के अंग-उपांग ५) मांस-मंसं
चर्वी-मेदो, मेदं, वसा मज्जा-मज्जा . खून-रत्तं, अहिरं पीव-किलेओ, पूर्व नस-सिरा तिल्ली, प्लीहा-पिलिहा। झिल्ली--झिल्लिा फेफडा-फुप्फुसं (दे.) आंत-अंतं मसामसो
हड्डी-अत्थि (न) वीर्य (शुक्र)--वीरिओ तिल-तिलो।
उपासना-उवासणं अभाव-अहावो, अभावो तो-ता
गड्ढा-खड्डं पाचन-पायणं
धातु संग्रह पजल-विशेष जलना पज्जुवट्ठा-~-उपस्थित होना पजह-त्याग करना पज्जुवास-सेवा करना, भक्ति करना पज्ज-पिलाना, पान करना पज्जोय--प्रकाशित करना पज्जाल-जलाना, सुलगाना पज्जोसव-वास करना, रहना आयण्ण-सुनना
पज्झंझ-शब्द करना
क्रियातिपत्ति क्रिया की अतिपत्ति (असंभवता) । जहां एक काम के न होने में भविष्य में होने वाले दूसरे कार्य का अभाव दिखाना हो वहां क्रियातिपत्ति का प्रयोग किया जाता है।
क्रियातिपत्ति का अर्थ है---एक क्रिया के हए बिना दूसरी क्रिया का न होना । जैसे ---यदि अच्छी वर्षा होती तो सुकाल होता। यदि तुम पढते तो उत्तीर्ण हो जाते । यदि तुम मुनि दुलहराज के पास रहते तो पढ जाते ।
नियम ६१३ (क्रियातिपत्तेः ३।१७६) क्रियातिपत्ति में प्रत्ययों को ज्ज और ज्जा आदेश होता है।
नियम ६१२ (न्त-माणो ३।१८०)क्रियातिपत्ति में प्रत्ययों को न्त और माण आदेश होता है।
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क्रियातिपत्ति
२६६
हस धातु क कप सभी पुरुष सभी वचनों में-हसेज्ज, हसेज्जा, हसंतो, हसमाणो।
हो धातु के रूप सभी पुरुष सभी वचनों में-होएज्ज, होएज्जा, होज्ज, होज्जा । होतो, होमाणो, होतो, होअमाणो। प्रयोग वाक्य
__ तस्स अत्थि सुदढं अत्थि । राइभोयणं मंसेण समं विज्जइ । अस्स मेदेण थूल्लत्तं अओ बलाभावो दिस्सइ । तस्स रत्तं कण्हं कहं जाअं? किलेएण सह को मोहो ? धम्मस्स रंगेण मज्झ मज्जा रंगिआ अस्थि । सिराए रत्तस्स पवाहो चलइ । भोयणं पुरा कस्सि अंतम्मि गच्छइ ? तुज्झ फुप्फुसं सुद्धं नत्थि अओ सासग्गहणे पीडा भवइ । रत्ततिलो सुहो भवइ । वीरियस्स पडणं मच्चुसमं भवइ । बालस्स उत्पत्तिकाले तस्स सरीरस्स उवरि झिल्लिआ भवइ । सुद्धं पिलिहं अंतरेण पायणकिरिया सम्मं न भवइ । धातु प्रयोग
इंधणस्स अहावेण (अभाव) अग्गी केच्चिरं पजलिस्सइ ? अग्गी धूम पजहइ । धाई सिसु दुद्धं पज्जेइ । तुज्झ सव्वं वत्तं अहं आयण्णामि । मुणी अग्गि न पज्जालेज्जा । अहं गुरुणो उवासणम्मि पज्जुवदामि । सावगा साहुणो पज्जवासंति । चंदो निसाए पज्जोयइ । अमुम्मि णयरे केत्तिआ जणा पज्जोसवंति । तुब्भे परुप्परं न पज्झंझेज्जा। क्रियातिपत्ति प्रत्यय प्रयोग
जेइ तुमं मज्झ मणस्स अवत्थं मुणेज्जा ता कयावि मज्झ उवहासं ण कुणेज्जा। जइ हं एगं छणं पुत्वं आगच्छेज्जा ता वप्फजाणस्स (रेलगाडी) उरि आसीणो होज्जा । जइ तुमं रहस्सं जाणेज्जा ता सच्चमगगस्स कयावि विचलियं ण होज्जा। जइ रायमग्गम्मि पयासो होज्जा ता अम्हे खड्डे न पडेज्जा । जइ इणं पोत्थयं हं तस्स देज्जा ता सो पसण्णो होज्जा। जइ तुज्झ पिआ अत्थ णिवसेज्जा ता तुज्झं सो बहुधणं देज्जा । तुमं एगग्गचित्तण पढेज्जा अण्णहा अणुत्तीण्णो होज्जा। प्राकृत में अनुवाद करो
- मनुष्य का शरीर जल जाता है, हड्डियां शेष रहती हैं। शाकाहारी मांस नहीं खाते हैं । शरीर में चर्बी बढाना किसको अच्छा लगता है? खून की अल्पता से स्मरण शक्ति कमजोर पडती है । पीव की तत्काल शुद्धि करो, उससे होने वाले दर्द से मत डरो। शरीर की सात धातुओं में मज्जा का कौन-सा स्थान है ? आंतों में मल भी रहता है। दीर्घ श्वास से फेफडे की शुद्धि होती है। पुरुष के दाहिने भाग में तिल का होना क्या शुभ होता है ? उसके नस
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२७०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नस में वीरत्व भरा है । वीर्य की सुरक्षा परम आवश्यक है। झिल्ली से शरीर की सुरक्षा होती है । उनकी तिल्ली ठीक प्रकार से काम नहीं करती है । धातु का प्रयोग करो
हमारी बातों को कौन ध्यान से सुनता है ? धूआं बहुत उठता है, देखो आग कहां जलती है ? जो त्याग करता है वह पाता है। घर में जो भी आता है उसे वह ठंडा पानी पिलाता है। शीतकाल में लोग स्थान-स्थान पर अग्नि जलाते हैं। स्कूल में आज सब लडके उपस्थित हैं ? बडे जनों की सेवा करनी चाहिए । नक्षत्र रात में ही प्रकाशित होते हैं । इस शहर में अब हमें नहीं रहना चाहिए। वे परस्पर क्यों शब्द करते हैं ? क्रियातिपत्ति प्रत्ययों का प्रयोग करो
___ मेरे पास पर्याप्त धन होता तो मैं विदेश अवश्य जाता । यदि वैद्य समय पर न पहुंचता तो रोगी मर जाता । यदि पास में जलाशय न होता तो सारा गांव जल जाता। यदि उसे भूखा रहना पडता तो वह स्वस्थ हो जाता। यदि वह भगवान के पास जाता तो उसके दुःख दूर हो जाते । यदि वह मेरे पास पढता तो पास हो जाता। यदि यहां आचार्यश्री का चतुर्मास होता तो धर्म की जागरणा होती। यदि वह प्रेक्षाध्यान करता तो रोग से मुक्त हो जाता।
प्रश्न १. क्रियातिपत्ति किसे कहते हैं ? २. क्रियातिपत्ति में किस नियम से क्या-क्या आदेश होता है ? ३. हो धातु के प्रथमपुरुष, मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष के एकवचन तथा ___ बहुवचन के रूप बताओ। ४. मांस, मज्जा, पीव, चर्बी, खून, नस, आंत, फेफडा, तिल, मसा, हड्डी,
वीर्य, तिल्ली, झिल्ली शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. पजल, पजह, पज्ज, पज्जाल, पज्जुवट्ठा, पज्जुवास, पज्जोय, पज्जोसव,
आयण्ण, पज्झंझ धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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लिंगबोध
शब्द संग्रह (वृत्तिजीवी वर्ग १) धोबी-रजओ
सुनार-सोवण्णिओ, सुवण्णयारो नाई–णाविओ, पहाविओ लुहार-लोहारो, लोहयारो तेली-घंचियो, तेल्लिओ जुलाहा–कोलिओ, पडयारो कुंभार-कुलालो, कुंभआरो कंदोई-कंदवियो माली मालिओ, आरंभिओ मोची-मोचिओ, चम्मयारो दर्जी--सूइयारो
तंबोली-तंबोलिओ भडभूजा--भट्ठयारो
ठठेरा-तंबकुट्टओ
जूता-उवाणहा
कर्तव्य-कायव्वं हजामत-उवासणा
चमडे की धौंकनी-भत्थी
धातु संग्रह पडह-जलाना, दग्ध करना पडिआइय-फिर से ग्रहण करना पडिअग्ग---संभालना
पडिइ --पीछे लौटना, वापस आना पडिअर-बीमार की सेवा करना पडिउज्जम–संपूर्ण प्रयत्न करना पडिअर-बदला चुकाना । पडिउच्चार-उच्चारण करना पडिआइय-फिर से पान करना पडिउस्सस-पुनर्जीवित होना लिंगबोध
लिंग तीन प्रकार के होते हैं—पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग। जिस प्रकार विभक्ति और वचन के बिना नाम या संज्ञा का प्रयोग नहीं होता उसी प्रकार लिंग के बिना भी उसका प्रयोग नहीं होता। इसलिए लिंग का ज्ञान भी आवश्यक है। प्राकृत में लिंग व्यवस्था संस्कृत से कुछ भिन्न है । वह इस प्रकार है--
नियम ६१४ (प्रावट-शरत-तरणयः पुंसि १११३) प्रावृट्, शरत् और तरणि—ये तीनों शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंगी हैं परन्तु प्राकृत में ये पुंलिंगी होते हैं । प्रावृष्–पाउसो । शरद्-सरओ । तरणि:-तरणी।
नियम ६१५ (स्नमदाम-शिरो-नमः ११३२) दामन्, शिरस् और नभस् शब्दों को छोडकर शेष सकारान्त और नकारान्त शब्द संस्कृत में नपुंसकलिंगी हैं परन्तु प्राकृत में पुंलिंगी हैं ।
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. २७२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
तेजस्
धामो
संस्कृत (न) प्राकृत (पुं) संस्कृत (न) प्राकृत (पं) यशस् जसो
तेओ पयस् पओ उरस्
उरो तमस् तमो जन्मन्
जम्मो नर्मन् नम्मो वर्मन्
वम्मो मर्मन् मम्मो
धामन् नीचे लिखे तीन शब्द प्राकृत में भी नपुंसकलिंगी हैं--- दामन्-दामं । सिरस-सिरं । नभस्-नहं । बहुलाधिकार से नीचे लिखे शब्द नपुंसक लिंग में हैंश्रेयस्--सेयं । वयस्-वयं । सुमणस्-सुमणं शर्मन्-सम्मं । चर्मन्--चम्म
नियम ६१६ (वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः ११३३) अक्षि के पर्यायवाची और वचन आदि शब्द विकल्प से पुंलिंग होते हैं । संस्कृत प्राकृत (पं) प्राकृत (न) संस्कृत प्राकृत (पुं) प्राकृत (न) अक्षि अक्खो अक्खि नयनं नयणो नयणं
अच्छी अच्छि लोचनं लोयणो लोयणं चक्षु चक्खू चक्खं वचन वयणो वयणं कुलम् कुलो कुलं
छन्द माहात्म्यं माहप्पो माहप्पं दुःखं दुक्खो दुक्खं भाजनं भायणो भायणं विद्युत् विज्जुणा विज्जूए
(स्त्री) नियम ६१७ (गुणाद्याः क्लीबे वा १३३४) गुण आदि शब्द विकल्प से नपुंसक लिंग में प्रयुक्त होते हैं । संस्कृत प्राकृत (न) प्राकृत (j) संस्कृत प्राकृत (न) प्राकृत (j) गुणः गुणं गुणो देवः देवं देवो बिन्दुः बिदूं बिंदू. मण्डलान: मंडलग्गं मंडलग्गो कररुहः कररुहं कररहो वृक्षः रुक्खं रुक्खो
नियम ६१८ (वेमाजल्याचाः स्त्रियाम् ११३५) भाववाची इमन् प्रत्ययान्त शब्द और अञ्जलि आदि शब्दों का प्रयोग स्त्रीलिंग में विकल्प से होता है। संस्कृत प्राकृत (स्त्री)
प्राकृत (पुं या नपुं) गरिमन् एसा गरिमा
एस गरिमा (पु) महिमन् एसा महिमा
एस महिमा (पुं) धूर्तत्व एसा धुत्तिमा
एस धुत्तिमा (पुं)
छंदं
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लिंगबोध
२७३
शब्द
पृष्ठम्
TETVITETE
कुच्छी
ग्रन्थिः
अञ्जलिः (पुं) अंजली
अंजलि (पुं) पिट्ठी
पिट्ठ (न) अक्षि (न) अच्छी
अच्छि (न) प्रश्नः पण्हा
पण्हो (पु) चौर्य चोरिआ
चोरिअं (न) कुक्षिः
कुच्छी (पुं) बलिः बली
बली (पं) निधिः निही
निहो (पुं) रश्मिः रस्सी
रस्सी (पुं) विधिः विही
विही (पुं) गंठी
गंठी (पुं) प्रयोग वाक्य
___ रजओ वत्थाई सच्छाइं धावइ । णाविओ तस्स उवासणं मंगलवारे न करिस्सइ । तेल्लिओ तेल्लं विक्किणइ। कुंभआरो घडाई घडइ। सूइआरो सूइणा वत्थाइं सिव्वइ । मालिओ पुप्फेहिं मालं गुभइ । सोवण्णिओ कुंडलं णिम्माइ । लोहआरो भत्थीए लोहस्स संडासं करेइ। कोलिओ तंतुहिं वत्थाई णिम्माइ। किं तंबोलिओ तंबोलाणि सयं खाअइ ? कंदवियो घेउरं करेइ । मोचिओ कस्स उवाणहं न करेइ ? अस्स गामस्स भट्ठयारस्स कि अभिहाणं अस्थि ? तंबकुट्टओ तंबस्स अणेगाणि वत्थूणि णिम्माइ।। धातु प्रयोग
दावाणलो वणं पडहइ । मणिमोत्तियाइयं सारदव्वं पडिअग्ग । साहुणीओ बिदासरणयरे लुक्कसाहुणीए पडिअरंति। जो चत्तभोगा इच्छइ सो वंतं पडिआइयइ। जो दिण्णधण्णं पडिआइयइ सो कायव्वत्तो भट्ठो। मुणिणो मणो सिया संजमत्तो बाहिं गच्छेज्ज तया पडिक्कमणे पडिइइ। संजमे पडिउज्जमेज्जा । सेहो सम्म न पडिउच्चारइ । मुच्छिओ लक्खमणो (लक्ष्मण) ओसहिणा पडिउस्ससिओ। प्राकृत में अनुवाद करो
___ धोबी के पास कपडे मत धुलाओ। मनुष्यों में नाई चालाक होता है । तेली के घर से सरसों का तेल लाओ । चंदन कुम्हार गधे को घोडा क्यों कहता है ? माली के पास किन फूलों की माला है ? दर्जी कपडे सीने के लिए हमारे घर कब आएगा? भडभुजा चनों को रेत में भुनता है (सेकता है) । सुनार सोने की चोरी करता है । लुहार कितने दिनों से यहां आया हुआ है ? जुलाहा मोटा वस्त्र बुनता है। कंदोई लड्डू और पेडा बनाता है। मोची के पास
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२७४
प्राकृत वाक्यरचना बोष
कितने प्रकार के जूते हैं ? तंबोली के पान मीठे नहीं है । ठठेरा तांबे से घडा बनाता है। धातु का प्रयोग करो
अग्नि ने गांव का एक भाग जला दिया। धनी लोग रत्नों को संभालकर रखते हैं । जो साधु बीमार साधु की सेवा करता है वह निर्जरा का लाभ कमाता है। किए हुए उपकार का बदला चुकाना चाहिए। वमन किए हुए पदार्थ को फिर से खाने वाला कौन है ? दिए हुए दान को कोई भी वापस ग्रहण करना नहीं चाहता। युद्ध में सेना कभी-कभी पीछे भी लौटती है । याद करने के लिए बाल साधु को पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। प्रतिक्रमण करते समय शुद्ध उच्चारण करना चाहिए। उसने इस बीमारी के बाद पुनः जीवन धारण किया है।
प्रश्न १. लिंग कितने प्रकार के होते हैं ? लिंग का ज्ञान आवश्यक क्यों है ? । २. तीन ऐसे शब्द बताओ जो संस्कृत में स्त्रीलिंग हैं और प्राकृत में
पुंलिंगी है ? ३. अक्षिवाची और वचन आदि शब्दों का प्राकृत में कौन-सा लिंग
होता है ? ४. कौन-से शब्द संस्कृत में नपुंसकलिंगी हैं और प्राकृत में पुंलिंगी हैं ? ५. भाववाची इमन् प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग किस लिंग में होता है ? ६. धोबी, नाई, तेली, कुंभार, माली, दर्जी, सुनार, लुहार, भडभूजा,
जुलाहा, कंदोई, मोची, तंबोली, ठठेरा-इन शब्दों के लिए प्राकृत
शब्द बताओ। ७. पडिह, पडिअग्ग, पडिअर, पडिअर, पडिआइय, पडिआइय, पडिइ,
पडिउज्जम, पडिउच्चार, पडिउस्सस धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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७४
स्त्री प्रत्यय
शब्द संग्रह (वृत्ति जीवी वर्ग २) चिकित्सक-चिइच्छओ
प्रतिमा बनाने वाला-पडिमायारो वैद्य-वेज्जो
गवैया--गायओ, गाओ चित्रकार-चित्तयारो (सं)
बजाने वाला-वायगो कारीगर-सिप्पी, कारु
नाचने वाला-णच्चओ मिस्त्री-जंतिओ
चटाई बनाने वाला-वरुडो ज्योतिषी-खणदो (सं) जोइसिओ बनिया-वणिओ, वावारि (वि) कंबल बेचने वाला-कांबलिओ जिल्दसाज-पोत्थारो ड्राइक्लीनर-णिण्णेजओ (सं) रसोइया-पाचओ
प्रतिमा-पडिमा
विवाह-विआहो छुट्टी-अवगासो
भाग्य-भग्गं
धातु संग्रह पडिकप्प-सजावट करना
पडिखिज्ज --खिन्न होना पडिकोस-आक्रोश करना
पडिजागर-सेवाशुश्रूषा करना, शाप देना, गाली देना
निभाना, निर्वाह करना पडिक्ख-प्रतीक्षा करना
पडिगाह-ग्रहण करना पडिक्खल---गिरना, हटना
पडिच्छ-ग्रहण करना पडिक्कम-निवृत्त होना, पीछे हटना पडिणिक्खम-बाहर निकलना स्त्री प्रत्यय
लिंग शब्दों को स्त्रीलिंगी शब्द बनाने के लिए प्राकृत में आ, ई (ङी) और उ प्रत्यय लगते हैं। आ और ई संस्कृत के आप तथा ईप के प्रतिरूपक हैं।
(नियम २९६ स्त्रियामादविद्युतः १११५ से) विद्युत् शब्द को छोडकर स्त्रीलिंग में होने वाले शब्दों के अन्त्य व्यंजन को आ हो जाता है। अन्त्य व्यंजन 7 आ-सरित् (सरिआ) प्रतिपत् (पाडिवआ) संपद् (संपआ)
___ बाहुलकात् य श्रुति भी होती है-सरिया, पाडिवया, संपयो।।
नियम ६१६ (स्वनादेडा ३३५) स्वसृ आदि शब्दों को स्त्रीलिंग में डा प्रत्यय होता है। स्वसृ (ससा) बहन । ननान्दृ (नणंदा) ननंद । दुहित
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२७६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(हिआ) दौहित्री । गवयः (गऊआ) गाय ।
नियम ६२० (छाया-हरिद्रयोः ३॥३४) छाया और हरिद्रा शब्दों से स्त्रीलिंग में ङी (ई) प्रत्यय विकल्प से होता है। छाया (छाया, छाही) छाया। हरिद्रा (हलिद्दी, हलिद्दा) हल्दी ।
__नियम ६२१ (अजाते पुंसः ३१३२) अजातिवाची पुंलिंग शब्दों से स्त्रीलिंग में ङी प्रत्यय विकल्प से होता है। नीलः (नीली, नीला) नीली। काल: (काली, काला) काली। हसमान: (हसमाणी, हसमाणा) हंसती हुई । शूर्पणखी (सुप्पणही, सुप्पणहा)। अनया (इमीए, इमाए) एतयो (इईए, एआए) अजातेरितिकिम् ? जाति अर्थ में जातिवाची अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग में ई प्रत्यय जोडा जाता है । हरिणी, सिंही, करिणी इत्यादि । कहीं आ प्रत्यय भी जोडते हैं-एलया, अया।
नियम ६२२ (कि यत् तदोस्यमामि ३१३३) किं, यद्, तद् - इन तीन शब्दों से सि, अम् और आम् प्रत्ययों को छोडकर शेष स्यादि प्रत्ययों में स्त्रीलिंग में ङी (ई) प्रत्यय विकल्प से होता है। कीओ, काओ। कीए, काए। कीसु, कासु । जीओ, जाओ। जीए, जाए। जीसु, जासु । तीओ, ताओ । तीए, ताए । तीसु, तासु ।।
(नियम २६१ रो रा १११६ से) स्त्रीलिंग मेंअन्त्य र को रा आदेश होता है । गिर् (गिरा) वाणी । पुर् (पुरा) प्राचीन । धुर् (धुरा) धुरी।
नियम ६२३ (बाहोरात् ११३६) स्त्रीलिंग में बाहु शब्द के अंतिम उ को आ आदेश होता है । बाहा (बाहुः) भुजा।।
नियम ६२४ (प्रत्यये की न वा ३।३१) अण् आदि प्रत्ययों को संस्कृत में स्त्रीलिंग में डी (ईप्) प्रत्यय कहा गया है। प्राकृत में उनसे डी प्रत्यय विकल्प से होता है । पक्ष में आप् (आ) प्रत्यय भी होता है। साहणी, साहणा । कुरुचरी, कुरुचरा। प्रयोग वाक्य
चिइच्छओ गुणसायरो कि तुज्झ चिइच्छं करेइ ? वेज्जो सामसुंदरो अस्स गामस्स पमुहो वेज्जो अस्थि । चित्तयारो पासणाहस्स चित्तं चित्तेइ। सिप्पी णियसिप्पं जणा दंसेइ । जंतिएण अज्ज अवगासो कहं गहिओ? जोइसिओ गहाणं पभावेण जणाणं भग्गं कहेइ। कांबलिअस्स पासे केत्तिलाणि कंबलाणि संति ? णिण्णेजओ नीरं विणा वत्थाई धावइ। पडिबियारेण पासणाहस्स पडिमा भव्वा कया। गायओ सुमेरो मंदसरेण महुरं गाअइ। वायगो वि गायएण सह अत्थ आगमिहिइ । विआहे वरस्स भाआ चे णच्चओ भवेज्ज तं न सोहणं । वरुडो पइदिणं कज्जं कहं न करेइ ? वणिओ वावारम्मि पडू भवइ । पोत्थारो अत्थ कया आगमिस्सइ? पाचओ बहु सम्म पयइ (पकाता
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स्त्री प्रत्यय
२७७ धातु प्रयोग
खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कुणियस्स रण्णो भिभिसारस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि। सो तुवं कहं पडिकोसेइ ? साहू मुहु-मुहु असंजमं पडिक्कमइ । तुम कं पडिक्खसि ? गगणत्तो पाणिबिंदूइं पडिक्खंति । तुम अप्पे परिस्समे किं पडिखिज्जसि ? साहू भिक्खं पडिगाहेइ पडिच्छइ वा। सोहणो संपुण्णं परिवार पडिजागरइ। सो जिणसासणे गिहवासत्तो पडिणिक्खमइ। प्राकृत में अनुवाद करो
चिकित्सक आज घर पर नहीं है। वद्य नया शोध कार्य नहीं करता है। चित्रकार क्या चित्र बनाना सिखाता है ? कारीगर अपनी कला में बहुत प्रसिद्ध है। मिस्त्री के साथ कितने आदमी और हैं। ज्योतिषी तीनों काल को जानता है। कंबल बेचने वाला कहां से आया है ? ड्राइक्लीनर अपने कार्य में कुशल है। प्रतिमा बनाने वाला कब तक प्रतिमा बनाकर देगा? क्या तुम गवैया बनना चाहते हो ? वाद्य बजाने वाला कितना रुपया मांगता है ? नाचने वाला केवल मूक नृत्य करता है। चटाई बनाने वाले के पास जाकर कहो वह जल्दी अपना काम पूरा करके दे। बनिये की बुद्धि सबके पास नहीं होती है। जिल्दसाज जैन विश्व भारती में एक मास में दो बार आता है। रसोइया क्या विवाह में मीठाई बना देगा ? धातु का प्रयोग करो
__ आज दीपावली है, घर की सजावट दीपकों से करो। लडाई में भाई भाई को गाली देता है। दो वर्ष के बाद वह व्यापार से निवृत्त हो जाएगा। उसने तुम्हारी प्रतीक्षा क्यों नहीं की? वह संयम से क्यों गिर गया ? तुम्हें देखते ही वह खिन्न क्यों होता है ? उसने मेरे द्वारा दिए गए वस्त्र ग्रहण क्यों नहीं किए ? आज के युग में जो परिवार का निर्वाह करता है, वही जानता है। दीक्षा के लिए उसने किस गांव से निष्क्रमण किया था ?
प्रन १. पुंलिंग शब्दों को स्त्रीलिंगी बनाने के लिए कौन-कौन से प्रत्यय लगते
२. स्त्रीलिंग में ङा और ङी प्रत्यय किस नियम से किन-किन शब्दों को __ होता है ? ३. स्त्रीलिंग में अन्त्य व्यंजन में किस नियम से क्या आदेश होता है ?
उदाहरण सहित बताओ। ४. चिकित्सक, वैद्य, चित्रकार, कारीगर, मिस्त्री, ज्योतिषी, कंबल बेचने वाला, ड्राइक्लीनर, प्रतिमा बनाने वाला, गवैया, बजाने वाला,
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२७८
प्राकृत वाक्यरचना बोध नाचने वाला, चटाई बनाने वाला, बनिया, जिल्दसाज-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ? ५. पडिकप्प, पडिकोस, पडिक्कम, पडिक्ख, पडिक्खल, पडिखिज्ज, पडिगाह, पडिच्छ, पडिजागर और पडिणिक्खम-इन धातुओं के अर्थ
बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ६. जण्हुआ, पासो, टंगो, किलेओ, मसो, अंतं, घंचिओ, कोलिओ,
हाविओ-इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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७५
कारक
शब्द संग्रह (वृत्ति जोवी वर्ग ३) किसान—किसीवलो
सपेरा-आहितुंडिओ अहीर---अहिरो, गोवालो
भंगी-संमज्जओ गडरिया-अयाजीवो, अयापालो नौकर-सेवओ, भिच्चो घसियारा--तणहारो
बढई-रहयारो, तक्खो, वड्ढई मजदूर-भारहरो
मूल्य लेकर धान काटने वालापसारी--गंधिओ
अत्थारिओ चौकीदार-पहरी, दारवालो चपरासी-पेसो चुराई वस्तु को खोजकर लाने वाला--कूवियो
जूठा-णवोद्धरणं (दे०)
दुर्लभ-दुलहो ब्राह्मण-बंभणं
धूम्रपान-धूमपाणं
धातु संग्रह पडिचर-परिभ्रमण करना। पडिणिग्गच्छ-बाहर निकलना पडिणिज्जाय-अर्पण करना पडिन्नव-प्रतिज्ञा कराना, नियम पडिदा-दान का बदला देना
दिलाना पडितप्प-भोजनादि से तृप्त करना पडिपाअ-प्रतिपादन करना पडिदंस-दिखलाना
पडिपुच्छ---पूछना, पृच्छा करना पडिपेहा-ढकना, आच्छादन करना
कारक-प्राकृत में कारक संबंधी विधान संस्कृत के समान है । कुछ विशेष नियम ये हैं
नियम ६२५ (चतुर्थ्याः पष्ठी ३३१३१) चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है। मुनये मुनिभ्यो वा ददाति (मुणिस्स मुणीणं वा देहि) नमो देवाय देवेभ्यो वा (नमो देवस्स देवाणं वा)।
नियम ६२६ (तादर्घ्य ; ३३१३२) तादर्थ्य में होने वाली चतुर्थी विभक्ति के एकवचन को षष्ठी विभक्ति विकल्प से होती है । देवार्थम् (देवाय, देवस्स वा)।
नियम ६२७ (वधाडाइश्च ३३१३३) वध शब्द से चतुर्थी विभक्ति को डाइ (आइ) और षष्ठी विभक्ति विकल्प से होती है । वधार्थम् (वहाई,
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२८०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
वहस्स, वहाय )।
नियम ६२८ (क्वचिद् द्वितीयादेः ३॥१३४) द्वितीया आदि (द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी) विभक्तियों के स्थान पर कहीं-कहीं षष्ठी विभक्ति होती है । सीमाधरं वन्दे (सीमाधरस्स वंदे) धनेन लुब्धः (धणस्स लुद्धो) तैरेतदनाचीर्णम् (तेसिमेअमणाइन्नं) चिरेण मुक्ताः (चिरस्स मुक्का) सहितेभ्यः इतराणि (सहिआण इअराई) चौराद् बिभेति (चोरस्स बीहइ) पृष्ठे केशभारः (पिट्टीए केसभारो)।
नियम ६२६ (द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ३३१३५) द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान पर कहीं-कहीं सप्तमी विभक्ति होती है। नगरं न यामि (नयरे न जामि) ताभिः तै: वा अलंकृता पृथिवी (तिसु तेसु अलंकिया पुहवी)।
नियम ६३० (पञ्चम्या स्तृतीया ३३१३६) पंचमी विभक्ति के स्थान पर कहीं-कहीं तृतीया और सप्तमी विभक्ति होती है। चौराद् बिभेति (चोरेण बीहइ) अन्तःपुराद् रन्त्वा आगतो राजा (अंतेउरे रमिउमागओ राया)।
नियम ६३१ (सप्तम्या द्वितीया ३।१३७) सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कहीं-कहीं द्वितीया विभक्ति होती है । विद्युद् द्योतकं स्मरति रात्री (विज्जुज्जोयं भरइ रत्ति) तस्मिन् काले तस्मिन् समये (तेणं कालेणं तेणं समएणं)।
नियम ६३२ (द्विवचनस्य बहुवचनम् ३।१३०) स्यादि और तिबादि की सभी विभक्तियों के द्विवचन के स्थान पर बहुवचन होता है । प्रयोग वाक्य
किसीवलो पच्चूसे णइ खेत्ते गच्छइ। सुद्धं दुद्धं अहिरस्स चेअ गिहे मिलिस्सइ । भारहरो भारं चिअ वहइ । अथारिओ पइ दिणं वेयणस्स तीस रूवगा गिण्हइ । गंधिओ अणेगाणि वत्थूणि विक्किणइ। अजावालो अयाओ खेत्ते नेइ । तणहारो वणाओ तणाई आणेइ । पहरी निसाए वि जागरइ । आहितुंडिओ अहीणं णच्चं दंसावेइ । संमज्जओ कस्सावि णवोद्धरणं न खाअइ । गामे सेवओ दुलहो अत्थि । रहयारो कट्ठाई तक्खइ । कूवियो कहं न चेट्टइ ? पेसो केत्तिला रूवगा याचइ ।
धातु प्रयोग
मुणी देसे पएसे य पडिचरइ । हे भंते। तुब्भकेरं वत्थु तुब्भ पडिणिज्जायामि । सो पच्चूसे पइदिवहं गिहत्तो पडिणिग्गच्छइ । सामो दिवहे एगं बंभणं (ब्राह्मण) पडितप्पइ । आयरिएण वीसजणा धूमपाणस्स पडिन्नविआ। कवी धणस्स थुईए पडिदेइ। तुमए जेणधम्मो पडिपाअणीओ। मुणी जत्ताए किसीवलं मग्गं पडिपुच्छइ। सीया उण्हपाणिअभायणं पडिपेहाइ। गुरू धम्ममग्गं पडिदसेइ।
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कारक
२८१
प्राकृत में अनुवाद करो
किसान खेत में बीज बोता है। अहीर गायों का पालन करता है। घसियारा घास काटकर बेचता है । चौकीदार सजगता से अपना कार्य करता है । मजदूर दिन भर भार ढोता है फिर भी उसकी भूख नहीं मिटती। तुम्हारे खेत में वेतन लेकर धान काटने वाले कितने हैं ? गडरिया चार सौ भेड; बकरियों को चराता है । पसारी की दुकान पर कितने आदमी बैठे हैं ? सपेरा सांप को पकड़ने के लिए वन में गया है । भंगी घर की सफाई क्यों नहीं करता है ? बढई एक दिन में एक किवाड भी नहीं बनाता है। चपरासी आज कार्य पर क्यों नहीं आया है ? राजा का हार गुम हो गया है, खोज करने वाले को कहो, वह खोज कर लाए। वेतन लेकर घास को काटने कितने व्यक्ति आए हैं ? धातु का प्रयोग करो
संपूर्ण भारत का परिभ्रमण किसने किया है ? वह भगवान को जलांजलि अर्पण करता है । उसको देश से बाहर निकाल दिया। वह साधर्मिकों को भोजन से तृप्त करता है । रमेश घर में आने वालों को अपना घर दिखाता है । मुनि भिक्षा लेते हैं और उन्हें जीवन का मार्ग बताते हैं । साधु ग्रामवासियों को मद्यमांस छोड़ने का नियम दिलवाते हैं। उसने तर्क सहित सत्य का प्रतिपादन किया। मैं आपसे आपके जीवन के संस्मरण पूछता हं। स्त्रियां अपने मुंह को ढांकती है।
प्रश्न १. प्राकृत में चतुर्थी के स्थान पर कौन-सी विभक्ति किस नियम से होती है ?
तादर्थ्य चतुर्थी विभक्ति के एकवचन को क्या आदेश होता है ? और किस नियम से ? तीन उदाहरण दो। २. द्वितीया, तृतीया, पंचमी और सप्तमी के स्थान पर कौन-कौन सी
विभक्ति किस नियम से आदेश होती है ? दो-दो उदाहरण दो। ३. षष्ठी विभक्ति किन विभक्तियों के स्थान पर होती है ? उदाहरण दो। ४. किसान, अहीर, गडरिया, घसियारा, मजदूर, पसारी, चौकीदार, __ सपेरा, भंगी, नोकर, बढई, चपरासी, चुराई वस्तु को खोजकर लाने • वाला-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ६. पडिचर, पडिणिज्जाय, पडिदा, पडितप्प, पडिदंस, पडिणिग्गच्छ
पडिन्नव, पडिपाअ, पडिपुच्छ, पडिपेहा धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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७६
समास
शब्द संग्रह (वृत्ति जीवी वर्ग ४) जासूस-चरो
जादूगर-इंदजालिओ जुआरी-कितवो
चोर-तक्करो, चोरो रंडीबाज-खिंगो
डाकू-दस्सू ठग - वंचगो, पतारगो
जारपुरुष-अणडो (दे०) पाकिटमार--गंडभेओ, गंठिछेओ सुराविक्रेता---सुंडिओ हिंजडा-चिंधपुरिसो
मच्छीमार-केवट्टो, धीवरो कसाई-सोणिओ
शिकारी-लुद्धो
मछली-मच्छो
व्यापार-वावारं जूआखाना-टेंटा (दे०) जुआ-जूअं मछली पकडने का जाल-पवंपुलो शान्ति-संति (स्त्री)
धातु संग्रह पडिबंध-रोकना, अटकाना पडिभम-घूमना, पर्यटन करना पडिबंध-वेष्टन करना
पडिभास-मालूम होना पडिबुज्झ-बोधपाना
पडिमंत-उत्तर देना पडिभंज-भांगना, टूटना पडिमुंच-छोडना पडिभंस-भ्रष्ट करना
पडियाइक्ख-त्याग करना समास
समास और विग्रह दो शब्द हैं। परस्पर अपेक्षा रखने वाले दो या दो से अधिक शब्दों के संयोग को समास कहते हैं। समासित पदों को अलग करने को विग्रह कहते हैं। प्राकृत में समास करने के लिए कोई सूत्र या विधान नहीं है । साहित्य में समासित पद मिलते हैं। उन्हें समझने के लिए संस्कृत का आधार लेना होता है । संस्कृत में जो समास का विधान है वही प्राकृत में लागू होता है। समास के प्रमुख रूप से चार भेद हैं-अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि और द्वन्द्व । कर्मधारय और द्विगु तत्पुरुष के अन्तर्गत हैं। कोई इन्हें स्वतंत्र मानकर समास के ६ भेद मानते हैं।
नियम ६३३ (दीर्घ-हस्वी मिथो वृत्तौ ११४) समास में प्रथम शब्द का अन्तिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व
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समास
२८३
अव्यय
हो जाता है । अन्तर्वेदिः (अन्तावेई) । सप्तविंशतिः (सत्तावीसा)।
कहीं पर विकल्प से होते हैं
भुजयंत्रम् (भुआयतं, भुअयंत) पतिगृहम् (पईहरं, पइहरं) वेणुवनं (वेलूवणं) वारिमतिः (वारीमई, वारिमई) ।
दीर्घ को ह्रस्व विकल्प से
नदी स्रोतस् (नइसोत्तं, नईसोत्तं) गौरीगृहम् (गोरिहरं, गोरीहरं) यमुनातटम् (जंउणयडं, जंउणायडं), बधूमुखम् (वहुमुहं, वहूमुहं)। अव्ययीभाव समास
समास में दो पद होते हैं--पूर्वपद और उत्तरपद । पूर्व (पहले) होने वाले पद को पूर्वपद और आगे होने वाले पद को उत्तरपद कहते हैं। उत्तरपद के कुछ अर्थों के लिए अव्यय प्रयोग में आते हैं। अव्ययीभाव समास में उन अव्ययों का प्राग् निपात हो जाता है यानि वह अव्यय उत्तरपद से पूर्वपद में आ जाता है। उत्तरपद का शब्द नपुंसकलिंगी हो जाता है। दीर्घ शब्द हो तो वह ह्रस्व हो जाता है। कुछेक अर्थों के लिए निम्नलिखित अव्यय निश्चित हैं। अर्थ
अर्थ
अव्यय समीप अर्थ में उव सप्तमी विभक्ति अहि
के अर्थ में योग्य अर्थ में
अनतिक्रमण जहा
के अर्थ में विनाश अर्थ में
वस्तु के अभाव में निर नि-+
अगला वर्ण द्वित्व) पश्चाद् अर्थ में
वीप्सा अर्थ में साथ के अर्थ में
समृद्धि अर्थ में एकसाथ अर्थ में उदाहरण गुरुणो समीपं-उवगुरु
आयरियस्स पच्छा--अणुआयरियं अप्पंसि-अज्झप्पं
पुरं पुरं पइ-पइपुरं रूवस्स जोग्गं-अणुरूवं
चक्केण सह-सचक्कं सत्ति अणइक्कमिऊण-जहासत्ति भदाणं समिद्धी-सुभई हिमस्स अच्चओ-अइहिम
चक्केण जुगवं-सचक्कं बलस्स अहाओ-णिब्बलं प्रयोग वाक्य
पत्तेयदेसस्स अण्णदेसम्मि चरा भवंति । कितबो टेंटाए जूअं खेलइ ।
पइ
44
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२८४
प्राकृत वाक्यरचना बोध खिंगस्स मणम्मि (मणंसि) संती नत्थि । पतारगो वायेण लोएहिन्तो धणं गिण्हइ । जणसमूहे पाओ (प्रायः) गंठिछेओ मिलइ । चिधपुरिसो थीणं वत्थाणि परिहाइ। परस्स किमवि वत्थु आणं विणा जो गिण्हइ सो चोरो भवइ । दस्सू दिणे चेअ लुंटइ। रमेसो अणडं मारिउ अहिलसइ। अत्थ सुंडिअस्स वावारं न चलिस्सइ । केवट्टो पपुलेण मच्छा गिण्हइ भक्खइ य । तुमं सोणिसं णासिऊण किं उवदिससि ? लुद्धो पुच्छइ जं किं इओ हरिणो गओ ? . धातु प्रयोग
तुज्झ कज्जम्मि को वि न पडिबंधइ। किं तुम संकप्पेण पुव्वगहिअं संकप्पं पडिबंधसि ? करकंडू सयं पडिबुज्झइ। मज्झ पत्तं कहं पडिभंजिअं ? गणबाहिसाहू अण्णं साहुं गणाओ पडिभंसइ। सीयकाले पयजत्ताए को पडिभमइ ? झाणम्मि तं भविस्सं पडिभास इ । सेट्टिणा भिच्चं पडिमुंचिउ बहु पयत्तईअ । अहं पडियाइक्खामि तिणा सह विवादं न करिहिमि । सो रायाणं पडिमतेइ । अव्ययप्रयोग वाक्य
___ अहं उवगुरुं उवविसामि । अणुआयरियं संघस्स विआसो को करिस्सइ ? अज्झप्पं रमणं साहुस्स सेयं । अणुरूवं सम्माणं मिलइ । पइमुणिं सो सुहपुच्छ पुच्छइ । णिद्धणाण साउज्ज (सहयोग) को करिहिइ ? णिब्बलाणं को मित्तं ? जहासत्ति तवो करणीओ। जगा सुजेणं असूअंति । हिमवम्मि पव्वये अइहिमं कया जाअं? सो सचक्कं सगडिआ कीणइ । प्राकृत में अनुवाद करो
जासूस ने क्या नई सूचना दी है ? राज्य कर्मचारी ने जुआरी को जुवाखाने में जुआ खेलते हुए पकडा । ठग की किसी के साथ मित्रता नहीं है। . पाकिटमार भी प्रशिक्षण लेता है। भारत का सुप्रसिद्ध जादूगर आजकल विदेश गया हुआ है। समाज ही व्यक्ति को डाकू बनाता है। हिंजडों का भी एक समाज होता है। चोर किसके मकान में घुसा है ? जार पुरुष की दुर्गति होती है। सुरा विक्रेता सुरा का प्रचार करता है। मच्छीमार रात में भी समुद्र में जाकर मछलियों को पकडते हैं। धातु का प्रयोग करो
साधु बनने में उसके लिए कोई अवरोध नहीं है। संकल्प को दोहरा कर वह संकल्प को संकल्प से वेष्टित करता है। कुछ महापुरुष स्वयं प्रतिबोध पाते हैं। उनकी मित्रता कैसे टूटी ? धर्मपथ से किसी को भ्रष्ट मत करो। वह प्रतिवर्ष कई तीर्थस्थानों का पर्यटन करता है। उसकी आत्मा निर्मल है इसीलिए उसे भविष्य की घटना प्रतिभासित होती है। उसने
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समास
२८५
कोई उत्तर नहीं दिया वह पिंजडे से पक्षी को छोडता है। वह स्त्री का त्याग करता है। प्राकृत में अनुवाद करो (अव्यय का प्रयोग)
तेरे घर के पास किसका घर है ? भगवान महावीर के बाद कौन हुए ? घर में कौन रहेगा ? प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्य करो। समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। यह स्थान मनुष्यों रहित क्यों है ? यह स्थान मक्षिका रहित है । यथाशक्ति गुरु की सेवा करनी चाहिए । जैनों की समृद्धि ईर्ष्या का कारण बनती है। शिमला में बर्फ का विनाश कब हुआ ? उसने कुए सहित खेत को खरीद लिया । कसाई को हिंसा न करने का उपदेश दो। शिकारी हरिण को मारना चाहता है।
प्रश्न १. प्राकृत में समास के लिए क्या विधान है ? २. नीचे लिखे शब्दों में बताओ किस नियम से किस शब्द को ह्रस्व
या दीर्घ हुआ है ? अन्तावेई भुआयंतं, पईहरं, नईसोत्तं, सत्तावीसा, बहुमुहं। ३. नीचे लिखे अव्यय किस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं ? उव, पइ, अणु, जहा,
अइ, सु, अहि, सह । ४. अव्ययीभाव समास में पूर्वपद कौनसा शब्द होता है ? और उत्तरपद
किन-कन लिंगों में प्रयुक्त होता है ? ५. जासूस, जुआरी, ठग, पाकिटमार, हिंजडा, जादूगर, चोर, डाक,
जारपुरुष, सुराविक्रेता, मच्छीमार, कसाई, शिकारी-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ६. पडिबंध, पडिबंध, पडिबुज्झ, पडिभंज, पडिभंस, पडिभम, पडिभास,
पडिमंत, पडिमंच और पडियाइक्ख धातुओं के अर्थ बताओ तथा वाक्य में प्रयोग करो।
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७७
तत्पुरुष समास
शब्द संग्रह (स्त्री वर्ग १) नायिका–णायिआ
सेठानी-सेट्टिणी धाई-धाई, धारी
क्षत्रियाणी-खत्तिआणी नर्तकी--णट्टई
ब्राह्मणी-बंभणी लुहारिन-लोहारी
सूत बनाने वाली स्त्री-सुत्तगारी सुनारिन-सुवण्णआरी
वृत्ति लिखने वाली स्त्री-बुत्तिगारी जादूगरी-किच्चा
गाने वाली-मेहरिआ, मेहरी कपास—कप्पासो, ववणं (दे०)
धातु संग्रह पडिरु-प्रतिध्वनि करना
पडिवज्ज-स्वीकार करना पडिलभ, पडिलंभ--प्राप्त करना पडिवय-ऊंचे जाकर गिरना पडिलाभ-साधु आदि को दान देना पडिवस-निवास करना पडिलेह-निरीक्षण करना
पडिवह---वहन करना पडिवक्क-उत्तर देना
पडिवाय -प्रतिपादन करना तत्पुरुष-जिस समास में उत्तर पद के अर्थ की प्रधानता होती है उसे तत्पुरुष समास कहते हैं । उत्तर पद में जो लिंग होता है, समास के बाद भी वही लिंग रहता है। पूर्वपद में सातों विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है। पूर्व पद में जिस विभक्ति का लोप होता है उसे उस नाम का तत्पुरुष कहते हैं । द्वितीया विभक्ति का लोप हो उसे द्वितीया तत्पुरुष, तृतीया विभक्ति का लोप हो उसे तृतीया तत्पुरुष, इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति का लोप हो उसे सप्तमी तत्पुरुष कहते हैं । समास होने के बाद एक शब्द बन जाता है । द्वितीया- संसारं अतीतो--संसारातीतो। दिवं गतो--दिवंगतो। दिवं
अव्यय है इसलिए मूल रूप में है। जिणं अस्सिओ-जिणस्सिओ।
खणं सुहा-खणसुहा। तृतीया- अहिणा दट्ठो–अहिदट्ठो। गुणेहिं संपन्नो-गुणसंपन्नो। लज्जाए
जुत्तो-लज्जाजुत्तो। विज्जाए पुण्णो-विज्जापुण्णो। चतुर्थी— नेउराय हिरणं-नेउरहिरण्णं । गामस्स हिअं-गामहि । थंभाय
दारु--थंमदारु । णयरस्स सुहं- णयरसुहं ।। पंचमी- चरित्ताओ भट्ठो-चरित्तभट्ठो। घराओ णिग्गओ-घरणिग्गओ
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२८७
चोरतो भयं - चोरभयं । पावाओ भीओ - पावभीओ । कम्माओ मुत्तो--- कम्ममुत्तो । आसत्तो पडिओ - आसपडिओ |
षष्ठी -- पासस्स मंदिरं — पासमंदिरं । विज्जाए मंदिरं - विज्जामंदिरं । समाहिणो द्वाणं -- समाहिद्वाणं । लोगस्स उज्जोयगरी — लोगोज्जोयगरो । धम्मस्स आलयो - धम्मालयो । गामस्स सामी - गामसामी । रट्ठस्सप - रट्ठपई ।
सप्तमी - ववहारे कुसलो —- ववहारकुसलो । पुरिसेसु उत्तमो -- पुरिसोत्तमो गयरे सेट्टो —णयरसेट्ठी । पुरिसेसु सीहो - पुरिससीहो । लोगेसु उत्तमी -- लोगुत्तमी । लेहणे दक्खो - लेहणदक्खो ।
तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास का दूसरा रूप भी मिलता है । पहले पद में प, अइ अणु आदि अव्यय होते हैं और दूसरे पद में प्रथमा आदि छह विभक्तियां । इसका प्रयोग दो पदों के अन्य अर्थ में होता है, इसलिए इसे बहुव्रीहि रूपक तत्पुरुष कहते हैं । बहुव्रीहिसमास और बहुव्रीहिरूपकतत्पुरुष की पहचान विग्रह से होती है । दोनों के विग्रह में अन्तर है । बहुव्रीहिरूपकतत्पुरुष समास के विग्रह में अव्यय का अर्थ साथ में रहता है, बहुव्रीहिसमास में नहीं रहता । बहुव्रीहिसमास में उत्तरपद का लिंग नहीं रहता, वह विशेषण बन जाता है और विशेष्य के अनुसार चलता है । प्रथमा -- पपगओ आयरिओ-पायरिओ द्वितीया - अइ- अइक्कतो गंगं - अइगंग तृतीया -अणु - अणुगयं अत्थे -- अन्वत्थं चतुर्थी - अलं - अलं कुमारीए - अलंकुमारी पंचमी - उत् -उक्कंतो मग्गाओ - उम्मग्गो
प्रयोग वाक्य
अस्स जयरस्स णायिआए कि अभिहाणं अस्थि ? धाई सिसुं खेलावेइ । ट्टई सहाए णट्टइ । लोहआरी लोहआरस्स ठाणे कज्जं करेइ । सुवण्णआरी पईए सरला अत्थि । सेट्टिणी सेट्ठि सिक्खइ । खत्तिआणी वीरा पुत्ता जणेइ । भणी जावं जवइ । सुत्तगारी कप्पासहि सुत्तं करेइ । वृत्तगारी पोत्थयं लिहइ । किच्चा इंदजालिअत्तो अहिया पडू अत्थि ।
धातु प्रयोग
कूबो पsिes | कज्जकत्ता पइघरं धणं पडिलंभइ पडिलभइ वा । सावो साहुं पडिलाइ । मुणी वत्थाई पत्ताइं य पडिलेहइ । तुमं पत्तेयं पहं मा पडिवक्क । सो चरितं पडिवज्जइ । ओज्झरो पश्वयाओ पडिवमइ । अहं असुम्मि नयरे पंचवरिसाओ पडिवसामि । आयरिओ गणस्स भारं पडिवह । तिणा विसयो सम्मं पडिवायिओ ।
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२८८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्राकृत में अनुवाद करो
नायिका बहुत धन कमाती है। धाई बच्चे को अपना नहीं मानती है। नर्तकी को अपनी सभा में कौन बुलाता है ? लुहारिन घर-घर में जाकर लोहे की वस्तुएं बेचती है । सुनारिन सुनार को सोने की चोरी न करने की शिक्षा देती है । सेठानी का पेट बहुत बड़ा है । क्षत्रियाणी में भी वीरता है । ब्राह्मणी पूजा पाठ कुछ नहीं जानती। सूत्र बनाने वाली स्त्री दिन भर श्रम करती है। वृत्ति लिखने वाली स्त्री के अक्षर बहुत सुंदर हैं । जादूगरी कल इस शहर में खेल दिखाएगी। धातु का प्रयोग करो
ध्वनि के एक क्षण के बाद प्रतिध्वनि सुनाई देती है। जो साधु को शुद्ध दान देता है वह निर्जरा का लाभ कमाता है (प्राप्त करता है)। साधु को दिन में अपना प्रत्येक वस्त्र निरीक्षण (पडिलेहण) करना चाहिए। प्रभा हर प्रश्न का उत्तर देती है। दिनेश ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता है। जो महानगरों में निवास करते हैं, उन्हें शुद्ध हवा बहुत ही कम मिलती है । साधु उपधानतप को वहन करता है । अरुणा अपनी मान्यता (बात) का अच्छी तरह प्रतिपादन करती है । फल वृक्ष से गिर गया।
प्रश्न १. तत्पुरुष समास किसे कहते हैं ? २. तत्पुरुष समास करने के बाद शब्द का लिंग कौन-सा होता है ? ३. तत्पुरुष समास में कौन-कौन सी विभक्तियों का लोप किया जाता है
और उन्हें किस नाम से पुकारा जाता है ? ४. तत्पुरुष समास में क्या अव्ययों का भी प्रयोग होता है ? दूसरे पद में
कितनी विभक्तियां होती हैं ? उदाहरण सहित समझाओ। ५. बहुव्रीहिसमास और बहुव्रीहिरूपकतत्पुरुष समास में क्या अन्तर
है ? उदाहरण देते हुए स्पष्ट करो। ६. नायिका, धाई, नर्तकी, लुहारिन, सुनारिन, सेठानी, क्षत्रियाणी, ब्राह्मणी, वृत्ति लिखने वाली स्त्री, सूत बनाने वाली स्त्री और जादू
गरी-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ७. पडिरु, पडिलंभ, पडिलभ, पडिलाभ, पडिलेह, पडिवक्क, पडिवज्ज, पडिवय, पडिवस, पडिवह और पडिवाय धातुओं के अर्थ बताओ और
अपने वाक्य में प्रयोग करो। ८. नीचे लिखे वाक्यों का समास करो और बताओ कौनसा तत्पुरुष
किसणं सिओ। थेणाओ भीओ। जिणेण सरिसो । सीलेण निउणो ।
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तत्पुरुष समास
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पलंबाय सुवणं । भूयाण बली । कलासुं कुसलो । साहुसु सेट्ठो । जलेण मिस्सं । उत्तरं गामस्स । सुहं पत्तो । देवस्स आलयो। नराण पुज्जो। ६. समासित वाक्यों का विग्रह करो-इंदियातीतो । दयाजुत्तो। लोयहि । ___ संसारभीओ। जिणोत्तमो। देवालयो। उदगभवणं । दंसणभट्ठो।
विज्जालयो । रायपुरिसो । सग्गगओ। खत्तिअहियं ।। १०. पोत्थारो, णच्चओ, जंतिओ, तणहारो, किसीवलो भारहरो,
इंदजालिओ, खिगो, चरो-इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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७८
कर्मधारय और द्विगु समास
शब्द संग्रह (स्त्री वर्ग २) पटरानी-महिसी
कामीस्त्री-कामुआ अप्सरा-किंनरी
कुलटा-कुलडा सुंदरी-सुंदरी
उपपत्नी--अहिविण्णा राक्षसी-पिसल्ली, रक्खसी वन्ध्या -अवियाउरी (दे०) वेश्या-पणसुंदरी
चंचलस्त्री-चवला चंडालिनी-आइंखिणिया
स्वरूप-सरू वं
वेदना-वेयणा काच--कायो
साक्षात् --सक्खं भंडार-कोट्ठागारो
कोप-कोवो
घातु संग्रह पडिसव-शाप के बदले शाप देना पडिसम-विरत होना पडिसव–प्रतिज्ञा करना पडिसंहर-निवृत्त करना पडिसाड-सडाना
पडिसंवेय-अनुभव करना पडिसंजल-उद्दीपित करना पडिसंचिक्ख-~-विचार करना पडिसंध-फिर से साधना पडिसंधा-आदर करना, स्वीकार करना
कर्मधारय विशेष्य और विशेषण के अथवा उपमा और उपमेय के रूप में जहां दो शब्दों का मेल होता है, उसे कर्मधारय समास कहते हैं । अथवा जिस समास के विग्रह में दोनों पदों के साथ एक ही विभक्ति और एक ही लिंग आता है उसे कर्मधारय समास कहते हैं। कर्म का अर्थ है क्रिया। धारय का अर्थ धारण करने वाला। इस समास में सब पद एक ही क्रिया से अन्वित होते हैं। इसके छ भेद हैं
(१) विशेषण पूर्वपद-जिसमें पूर्वपद विशेषण हो। कण्हो य सो सप्पो=कण्हसप्पो।
(२) विशेषणोत्तरपद-जिसमें उत्तरपद विशेषण हो। आयरियो य य सो पवरो आयरियपवरो।
(३) विशेषणोभयपद-जिसमें दोनों पद विशेषण हो। सीयं य तं
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कर्मधारय और द्विगु समास
२६१ उण्हं जलंसीउण्हं जलं । रत्तं य पीअं वत्थं रत्तपीअं वत्थं ।
(४) उपमान पूर्वपद-जिसमें पहला पद उपमान वाची हो। घणो इव सामो=घणसामो (घनश्यामः) । वज्ज इव देहो= वज्जदेहो (वज्रदेहः)
(५) उपमेय उत्तरपद--जिसमें उत्तरपद उपमेयवाची हो । पुरिसो सोहो इव-पुरिससीहो । मुहं चंदो इव=मुहचंदो।
(६) अवधारण बोधक-जिसका पहला पद किसी भी अर्थ में हो और वह दूसरे पद से जोडा जाए उसे अवधारण बोधक कहते हैं। विज्जा एव धणं विज्जाधणं । संजमो चिअ धणं संजमधणं । णाणं चेअ गंगा=णाणगंगा
द्विगु समास कर्मधारय का प्रथमपद यदि संख्या परक हो तो उसको द्विगु समास कहते हैं। द्विगुसमास प्रायः समुदाय बोधक होता है । णवण्हं तत्ताणं समाहारो =णवतत्तं । तिणि लोया तिलोयं । चउण्हं कसायाणं समूहो चउक्कसायं ।
नञ्तत्पुरुष अभाव या निषेधार्थक अ अथवा अण के साथ संज्ञा शब्दों के समास को नञ्तत्पुरुष समास कहते हैं। उत्तरपद में व्यंजन आदि वाला संज्ञा शब्द हो तो अ के साथ तथा स्वर आदि वाला हो तो अण के साथ समास होता है। न हिंसा (अहिंसा)
न आयारो (अणायारो) न सच्चं (असच्चं)
न इलैं (अणिट्ठ) न धम्मो (अधम्मो)
न इड्ढी (अणिड्ढी) प्रयोग वाक्य
चेलणा सेणिअरण्णो महिसी आसि । किनरिं पासिऊण जो विचलिरो न भवइ सो एव बंभयारी । सुंदरि णिभालिऊणं मणो चंचलो भवइ । रक्खसी जणा भयभेरवा करेइ । पणसुंदरी णयरवासिणो पत्ती भवइ। कुलडा परपुरिसाओ पेम्मं करेइ । धम्मेसस्स पत्ती कामुआ नत्थि । रमेसस्स एगा अहिविण्णा गिहस्स पासे चेअ वसइ । चवलाए चवलत्तं थीणं दोसो होइ। अवियाउरीए पुत्तस्स अहिलासा बहुभवइ । धातु प्रयोग
पडिसवमाणो सोहणो सहलो (सफल) न भवइ । सो कल्लं जावज्जीवं असच्चजंपणस्स पडिसविस्सइ । रज्जाहिगारी कोडागारे संगहियस्स अन्नं किमळं पडिसाडइ ? मोहणो रमेसस्स कोवं पडिसंजलइ । तुडियकायो (काच) न पडिसंधइ । अहं कल्लं पावाओ पडिसमिस्सामि । सावगो सामाइयम्मि सावज्जजोगाओ अप्पाणं पडिसंहरइ । सो सक्खं वेयणं पडिसंवेयइ । मुणी संसारस्स सरूवं पडिसंविक्खइ । सरलो णियतुडिं पडिसंधाइ ।
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२६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्राकृत में अनुवाद करो
राजा के एक पटरानी होती थी। कई स्त्रियां अप्सरा के समान रूपवती होती हैं। इस वर्ष की भारतसुंदरी कौन है ? स्त्री को राक्षसी क्यों कहा गया है ? वेश्या किसी की भी पत्नी नहीं होती है। कुलटा का समाज में सम्मान नहीं होता है। कामी स्त्री जगह-जगह पुरुष को खोजती है। कामी पुरुष उपपत्नी को पत्नी से अधिक चाहता है । चंचल स्त्री का मन स्थिर नहीं रहता है । वन्ध्या को माता बनने की प्रवल इच्छा होती है । धातु का प्रयोग करो
किसी को शाप के बदले शाप मत दो। प्रतिदिन एक प्रतिज्ञा अवश्य करो। फल नहीं खाते हो इसीलिए घर में पडे हुए फल सड रहे हैं। क्या तुम अग्नि को उद्दीपित करते हो ? साधु अपने पात्र को फिर से सांधते हैं । क्या तुम सांसारिक कार्यों से विरत हो गए ? उसने अपनी इंद्रियों को विषय से निवृत्त किया। मुनि प्रतिक्षण सुख का अनुभव करता है। पारस मुनि ने तपस्या पर विचार किया। वह चित्त समाधि को स्वीकार करता है। अपने व्यवहार से तुमने टूटी हुई मित्रता को फिर से सांध लिया।
प्रश्न १. कर्मधारय समास किसे कहते हैं ? उसके कितने भेद होते हैं ? २. विशेषण पूर्वपद, विशेषण उत्तरपद और विशेषण उभयपद किसे कहते
हैं ? प्रत्येक के दो-दो उदाहरण दो। ३. उपमान पूर्वपद और उपमेय उत्तरपद में क्या अंतर है ? दो-दो
उदाहरण दो । ४. द्विगु समास के तीन उदाहरण दो। ५. नञ् तत्पुरुष समास के चार उदाहरण दो। ६. नीचे लिखे शब्दों का समास विग्रह करो और बताओ ये किस भेद के
अन्तर्गत हैं। पीअवत्थं, कण्हसाडी, सीउण्हो वातो (वायु) । पुरिसगंधहत्थी, गुरुवरो, सेअपीअं मुहं, आसवरो, लोहदेहो, तवधणं, छदव्वं, अपरिग्गहो, पंचमहव्वयं, अपुण्णं, अणुत्तरं ७. पटरानी, अप्सरा, सुंदरी, राक्षसी, वेश्या, कुलटा, कामीस्त्री, उपपत्नी,
वंध्या, चंचलस्त्री-इनके लिए प्राकृत शब्द बताओ। ८. पडिसव, पडिसव, पडिसाड, पडिसंजल, पडिसंध, पडिसम, पडिसंहर, पडिसंवेय, पडिसंचिक्ख, पडिसंघ-इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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७६
बहुग्रीहि समास
शब्द संग्रह (स्त्रीवर्ग ४) ऊंचे नाक वाली-तुंगणासिआ युवती-जुवई बडे पेट वाली--दीहोअरी पुत्रवती-पुत्तवई अच्छे केश वाली-सुएसी चतुरस्त्री-णिउणा शीघ्र प्रसववाली--अणु सूआ गृहपत्नी--गिहिणी मोटी स्त्री-पीवरी
परतंत्रस्त्री---आविउज्झा (दे०)
वार्ता-वत्ता वैक्रिय शरीर से संबंधित--विउविअ (वि) घटना-घडणा स्वतंत्र--सतंत (वि)
लब्धि-लद्धि (स्त्री)
धातु संग्रह पडिसखा-व्यवहार करना पडिहर--फिर से पूर्ण करना पडिसंखेव-समेटना
पडिहा--मालूम होना, लगना पडिसंचिक्ख चिंतन करना पडिहास-मालूम होना, लगना पडिसाह-उत्तर देना
पडिसुण-प्रतिज्ञा करना, स्वीकार पडिसेव-निषिद्ध वस्तु का
करना सेवन करना
पडिसाहर-निवृत्त करना बहुव्रीहि
बहुव्रीहि समास में पूर्वपद और उत्तरपद की प्रधानता नहीं होती है, तीसरे पद की प्रधानता होती है, इसलिए उसे अन्यपदप्रधान समास भी कहते हैं। बहुव्रीहिसमास करने के बाद वह समासित पद किसी शब्द का विशेषण ही बनता है, विशेष्य नहीं होता। विशेष्य के अनुसार उसमें लिंग
और वचन होते हैं । बहुव्रीहिसमास दो प्रकार का होता है--समानाधिकरण और व्यधिकरण । जिस विग्रह में दोनों पदों में समान अधिकरण (विभक्ति) होती है उसे समानाधिकरण कहते हैं। जहां दोनों पदों में भिन्न-भिन्न विभक्ति होती है उसे व्यधिकरण कहते हैं। विग्रह में ज (यत्) शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह विशेष्य से संबंध रखता है। ज शब्द में द्वितीया से लेकर सप्तमी विभक्ति तक का प्रयोग किया जाता है। बहुव्रीहिसमास में जिन शब्दों में समास होता है, वे शब्द त (तत्) के द्वारा सूचित अर्थ के विशेषण बनते हैं ।
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२६४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
समानाधिकरण बहुव्रीहि के उदाहरण
___ आरूढो वाणरो जं रुक्खं सो आरूढवाणरोरुक्खो (वृक्षः) । जिआणि इंदियाणि जेण सो जिइंदियो मुणी। जिआ परीसहा जेण सो जिअपरीसहो महावीरो। णट्ठो मोहो जस्स सो णट्ठमोहो वीयराओ। सेयं अंबरं जेसिं ते सेयंबरा। वीरा णरा जम्मि गामे सो वीरणरो गामो। जिओ कामो जेण सो जिअकामो महादेवो। पीअं अंबरं जस्स सो पीआंबरो। आसा (दिशा) अंबरं जेसिं ते आसंबरा। एगो दंतो जस्स सो एगदंतो गणेसो । सुत्तो सीहो जाए सा सुत्तसीहा गुहा । व्यधिकरण के उदाहरण
चक्कं पाणिम्मि जस्स सो चक्कपाणी विण्हू (विष्णुः) । गंडीवं करे जस्स सो गंडीवकरो अज्जुणो। उपमान पूर्वपद वाला बहुव्रीहि
मिगनयणाइं इव णयणाणि जाए सा मिगनयणा। चंदस्स मुहं इव मुहं जाए सा चंदमुही। प्रयोग वाक्य
___ सुसीला तुंगणासिआ अत्थि। दक्षिणपएसवासिणीओ इत्थीओ दीहउरीओ कहं भवंति ? मज्झ बहिणी सुएसी अत्थि । किं तस्स भगिणी अणुसूआ अत्थि ? पीवरी दंसणे वि सोहणा न लग्गइ। जुवई पइणा सह उज्जाणम्मि परिअडइ । णिउणा गिहस्स कज्जं कुसलत्तण करेइ । गिहिणी पइणा सह चिंतणं करेइ । पुत्तवई एगं कण्णं अहिलसइ । आविउज्झा सतंता भविउं इच्छइ । धातु प्रयोग
सो सम्म पडिसंखाइ। सो णियवत्तं पडिसंखेवइ । भोगे धम्मं, जो एवं पडिसंचिक्खे सो असच्चं जंपइ । सरोजा सच्चं पडिसाहइ । मुणी वेउव्विअलद्धि पडिसाहरइ । मए लसुणभक्खणं पडिसुणि। पडिसेवी मुणी अणायारं पडिसेवइ । आयरियो जोइसगंथं पडिहरइ। केण कारणेणं तुमं भविस्सं पडिहासि ? सो झाणजोगी अत्थट्ठिओ अमेरिआए घडणं सक्खं पडिहासइ । प्राकृत में अनुवाद करो
ऊंचे नाकवाली स्त्री अपने पति से झगडा करती है। बडे पेटवाली स्त्री को चलने में कठिनाई अनुभव होती है। अच्छे केशवाली स्त्री हमारे घर में कुसुम ही है। शीघ्र प्रसववाली स्त्री के दस बच्चे हैं । युवती श्रम करने में नहीं थ कती है । चतुर स्त्री बातचीत में अपनी चतुराई दिखाती है । पुत्रवती अपने भाग्य की सराहना करती है। गृहपत्नी ही वास्तव में घर है । परतंत्र
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बहुव्रीहि समास
२६५ स्त्री मन में दुःख पाती है। धातु का प्रयोग करो
वह सबके साथ अच्छा व्यवहार करता है। वह अपने भाषण को क्यों नहीं समेटता है ? परस्पर के व्यवहार पर चिंतन करना चाहिए। उसने अपने आरोपों का उत्तर दिया। तुमने अपनी इंद्रियों को विषयों से निवृत्त किया। प्रतिदिन साधुओं के एक बार दर्शन करने की मैंने प्रतिज्ञा ली है। असत्य बोलने का त्याग लेकर भी वह असत्य बोला। उसने उत्तराध्ययन सूत्र फिर से पूर्ण किया । आचार्य भिक्षु ने किस ज्ञान से जाना कि साधु विहार कर आ रहे हैं, तुम सामने जाओ। एक महिला ने बताया कि इस वर्ष भारत का शासक बदलेगा।
प्रश्न
१. बहुव्रीहिसमास का दूसरा नाम क्या है ? उसके नामकरण के पीछे कारण
क्या है ? २. बहुव्रीहि समास करने के बाद उसमें लिंग और वचन कौन से होते हैं ?
तथा क्यों ? ३. समानाधिकरण और व्यधिकरण किसे कहते हैं ? ४. बहुव्रीहि समास के विग्रह में किस शब्द का प्रयोग आवश्यक होता है
और उसमें कौन सी विभक्ति होती है ? ५. नीचे लिखे शब्दों का समास विग्रह करोपीअंबरो, नट्ठमोहो, महाबाहू, अपुत्तो, अणुज्जमो पुरिसो। चरणधणा
साहवो । विहवा, अवरूवो, जिअकामो, जराजज्जरियदेहे। ६. नीचे लिखे समास किए हुए शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो
भट्ठो आयारो जाओ सो-भट्ठायरो। धुओ सव्वो किलेसो जस्स सो--- धुअसव्वकिलेसो। णिग्गया लज्जा जस्स सो-णिलज्जो। अइक्कतो
मग्गो जेण सो-अइमग्गो रहो । ७. ऊंचे नाक वाली, बडे पेट वाली, अच्छे केशवाली, शीघ्र प्रसववाली, मोटी
स्त्री, युवती, पुत्रवती, चतुरस्त्री, गृहपत्नी, परतंत्रस्त्री-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ८. पडिसंखा, पडिसंखेव, पडिसंचिक्ख, पडिसाह, पडिसाहर, पडिहर, पडिहा,
पडिहास, पडिसुण, पडिसेव-इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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८०
द्वन्द्व समास
शब्द संग्रह (स्त्री वर्ग ४) पनिहारी—पाणिअहारी
नटी-नडी गंधद्रव्य चुनने वाली-गंधिआ दूती-~-अंतीहारी फूल चुनने वाली-अंबोच्ची
दासी–दासी ज्योतिषी की स्त्री-गणई
धीवर की स्त्री-धीवरी नौकरानी-दुल्लसिआ (दे०) धनी की स्त्री-धणपत्ती, धणमंती पान बेचने वाली-डोंगिली (दे०) अध्यापिका-उवज्झायणी बच्चों को खेलकूद कराने वाली--किड्डाविया
विशाल (उदार)-उराल (वि) जन्मपत्रिका-जम्मपत्तिया भक्ति-भत्ति (स्त्री)
कृपापात्र-किवापत्तं
धातु संग्रह पणच्च-नत्य करना
पणिवय-नमन करना, वंदन पणय-स्नेह करना
करना पणाम-नमाना
पणिहा-ध्यान करना, एकाग्र पणाम-उपस्थित करना
चिंतन करना पणास-नाश करना
पणोल्ल-प्रेरणा करना पण्णा-प्रकर्ष से जानना
पण्हअ--झरना, टपकना
जिसमें सब पद प्रधान हों तथा जिसके विग्रह में च, अ या य शब्द का प्रयोग होता हो उसे द्वन्द्वसमास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) इतरेतर (२) समाहार।
(१) इतरेतर-जिसमें पृथक्-पृथक प्रत्येक शब्द का समान महत्त्व होता है उसे इतरेतर द्वंद्व कहते हैं। इसमें प्राकृत में बहुवचन ही आता है। लिंग अंतिम शब्द के अनुसार होता है।
नेत्तं अ नेत्तं य त्ति - नेत्ताई माआ च पिआ य इत्ति - पिअरा सासू य ससुरो य इत्ति= ससुरा
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द्वन्द्व समास
२६७
देवा य देवीओ य = देवदेवीओ
(२) समाहार--जिसमें पृथक-पृथक् शब्दों का महत्त्व न होकर केवल समूह का महत्त्व होता है उसे समाहारद्वन्द्व कहते हैं। इसमें एकवचन और नपुंसकलिंग होते हैं।
घडो य संख य पडो य घडसंखपडं तवो य संजमो य एएसिं समाहारो तवसंजमं पुण्णं य पावं य -- पुण्णपावं णाणं य दंसणं य चरित्तं य -- णाणदंसणचरितं
असणं य पाणं य असणपाणं एकशेष द्वंद्व
जिसमें दो शब्दों या अनेक शब्दों में से एक शेष रहकर दोनों या सब का बोध कराए उसे एकशेषद्वन्द्व कहते हैं।
जिणो य जिणो य जिणो य त्ति -- जिणा माआ अ पिआ य त्ति - पिअरा
सासू य ससूरो अत्ति ससुरा प्रयोग वाक्य
पाणिअहारी जुगवं दो घडाइं तलायत्तो आणेइ। किड्डाविया सिसुणो कीडावेइ । धीवरी मच्छा पयावेइ। नडी आपणम्मि' खेलं पदंसइ। धणपत्ती उरालचित्तेण धणं वितरइ । दुल्लसिआ गिहस्स सव्वाइं कज्जाइं करेइ । दासीपरंपरा अज्जत्ता न चलइ । गणई वि जम्मपत्तियं करेइ । अंबोच्ची मालमवि गुंफइ। अंतीहारी अंतेउरीए किवापत्तं भवइ । उवज्झायणी सिसू पढावेइ । डोंगिली दिवहम्मि एव तंबोलाई विक्कीणइ । समये समये गंधिआ वि हट्टे उवविसइ। धातु प्रयोग
पट्टई किमट्ठपणच्चइ। सुसीला विमलेण सह पणयइ । आयरिएण भिक्खुणा रायणयरवासीणं (राजनगरवासी) सावगा पणामिआ । नायमंदिरे तेण तुमं पणामिओ। माली कहं उज्जाणं पणासइ ? सावगा भत्तिपुण्णेण गुरुं पणिवयंति । मुणी सुहो (शुभ) एगते पणिहाइ। थेरो सेहं पढि पणोल्लइ। प्राकृत में अनुवाद करो
बच्चों को खेल कूद कराने वाली के मन में ममत्व नहीं है । नौकरानी सेठानी के कटु वचनों को सहन नहीं करती है । नटी का खेल देखने कल कौनकौन जाएंगे ? धीवर की स्त्री ने कभी भी आम नहीं खाया। पनीहारी आज हमारे घर में क्यों नहीं आई ? वस्तुओं की तरह स्त्री का भी विक्रय होता था,
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२६८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
वह दासी कहलाती थी। क्या ज्योतिषी की स्त्री ज्योतिष के विषय में कुछ नहीं जानती ? गंधद्रव्य बेचने वाली स्त्री का नाम क्या आप जानते हैं ? फूल चुनने वाली स्त्री दिन में ३० माला बनाती है। दूती बहुत चालाक होती है। अध्यापिका बच्चों को स्नेह से पढाती है । पान बेचने वाली दिन में १०० रु० कमाती है । धनी की स्त्री भावना से उदार नहीं है। धातु का प्रयोग करो
सुशीला क्या तुम कल स्कूल में नाचोगी ? जो जितना जल्दी स्नेह करता है वह उतना ही जल्दी तोडता भी है। मुनि ने अहंकारी को भी नमाया । कल मैं आपको न्यायाधीश के सामने उपस्थित करूंगा। उसने अपनी कुल परंपरा का नाश कर दिया। मैं भगवान पार्श्वनाथ को वंदन करता हूं। क्या तुम प्रतिदिन घर में ध्यान करते हो? उसने मुझे तुम्हारे पास आने की प्रेरणा दी। ध्यानयोगी ने अपनी प्रज्ञा से तत्त्वों को प्रकर्ष से जाना । तुम्हारी स्कूल की छत से वर्षा में पानी टपकता है।
प्रश्न १. द्वन्द्व समास किसे कहते हैं ? २. द्वन्द्व समास के कितने भेद हैं ? प्रत्येक भेद को समझाते हुए दो-दो
उदाहरण दो। ३. द्वन्द्व समास के पांच उदाहरण दो और उन्हें दूसरे भेदों में परिवर्तन
करो। ४. समास विग्रह करो-पिअरा, ससुरा, असणपाणं, तवसंजमं, पइपुत्ता, वाणरमोरहंसा, सुहदुक्खाई, सुहदुक्खं, जिणा, देवदाणवगंधव्वा,
उसहवीरा, अजियसंतिणो, पुण्णपावाइं, पइदेअरपुत्तं । ५. नीचे लिखे समासितपदों में बताओ कौनसा पद शुद्ध या अशुद्ध है और
क्यों? पुण्णपावं, पुण्णपावाइं। सुहदुक्खाइं, सुहदुक्खं । तवसंजमा, तवसंजमं । णाणदंसणचरित्ताई, णाणदंसणचरित्तं । ६. पनिहारी, बच्चों को खेलकूद कराने वाली, गंधद्रव्य बेचने वाली, फूल
चुनने वाली, ज्योतिष की स्त्री, नौकरानी, पान बेचने वाली, नटी, दूती, दासी, धीवर की स्त्री, धनी की स्त्री, अध्यापिका-इन शब्दों
के लिए प्राकृत शब्द वताओ। ७. पणच्च, पणय, पणाम, पणाम, पणास , पणिहा, पणिवय, पणोल्ल, पण्णा, __ पण्हअ-----इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्यों में प्रयोग करो। ८. पट्टई, बंभणी, किच्चा, कामुआ, पणसुंदरी, चवला, पीवरी, णिउणा, सुएसी-इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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८१
राष्ट्रपति -- रटुबई (पुं)
मंत्री - मंती (पु) नेता -- अग्गणी
राज्यपाल - रज्जवालो दूत-यो
छावनी -- छायणिया
संसद-संसया
विधानसभा - विहाणसहा उपराष्ट्रपति–उबरदुवई (पुं) विधायक -- विहाअगो (सं)
०
तमाखू -- तंबूकूडो
शब्द संग्रह ( राजनीति वर्ग )
तद्धित
०
प्रधान मंत्री -- पहाणमंती मुख्य मंत्री - मुहमंती सरपंच -- गामणी
कलेक्टर — जिलाही सो
सेनापति - सेणावई
वोट— मयं
सदस्य – सन्भ (वि) प्रतिनिधि - पणिही (पु)
- पत्थावो
प्रस्ताव -
निर्वाचन — णिव्वायणं ( सं )
०
समर्थन - समत्थणं
धातु संग्रह
ममा-ममता करना
मरह —— क्षमा करना मरिस - सहन करना मह - मथना, विलोडन करना मिस्स - मिश्रण करना, मिलाना
तस्येदं
संस्कृत में 'तस्येदं' का अर्थ है-उसका यह । प्राकृत में इस अर्थ में केर आदि प्रत्यय होते हैं ।
नियम ६३४ ( इदमर्थस्य केरः २०१४७ ) इदं अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को प्राकृत में केर प्रत्यय होता है । युष्मदीय: ( तुम्ह केरो) तुम्हारा । अस्मदीयः (अम्हकेरो) हमारा |
नियम ६३५ ( पर - राजभ्यां क्क डिक्की च ३।१४८) 'उसका यह अर्थ में पर शब्द से क्क और केर प्रत्यय तथा राजन् शब्द से डिक्क और केर प्रत्यय होते हैं । परकीयम् (पारक्कं, परक्कं, परकेरं) पराया, दूसरे का ।
मा-माप करना
माण - सम्मान करना मिल-मिलना
गिला - म्लान होना
अक्खोड - आस्फोटन करना, एक बार
झडकाना
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३००
प्राकृत वाक्यरचना बोध
राजकीयम् (राइक्कं, रायकेरं) राजा का।
(नियम ७५ अतः समृद्ध्यादौ वा ११४४) से परक्कं के आदि अ को आ हुआ है।
नियम ६३६ (युष्मदस्मदोज एच्चयः २११४६) तुम्ह और अम्ह शब्द से 'उसका यह' अर्थ में संस्कृत के अञ् प्रत्यय को एच्चय प्रत्यय होता है। यौष्माकम् (तुम्हेच्चयं) तुम्हारा । आस्माकम् (अम्हेच्चयं) हमारा।। संस्कृत शब्दों से बने प्राप्त प्राकृत शब्द--
मईयो (मदीयः) मेरा । आरिसो (आर्षः) ऋषियों का। उपरितन (उवरिल्लं) ऊपर का। प्रयोग वाक्य
सतंतभारहस्स पढमो रट्ठवई सिरीरायिंदपसायो आसि । राहाकिण्हो कया उवरटुवई आसि ? पहाणमंती चेअ खिप्पं परिअट्टइ तया देसस्स विआसो कहं भवे ? मुहमंती केवलं भासणं देइ। सिक्खामंती अमुम्मि नयरे कया आगमिहिइ ? अज्जत्ता अग्गणिणो परिभासा भिण्णा अस्थि । गामणी गामस्स विआसस्स विसये चितइ । रटुवइसासणे चेअ रज्जवालस्स पभावो वड्ढइ । दूयो तम्मि देसे सदेसस्स पइणिहित्तं करेइ । सेणावई देसस्स रक्खणटुं पइसमयं जागरूओ भवइ । छायणियाए सेणा वसंति । मयं गहि तुम अत्थ कहं आगो ? संसयाए सब्भो भविउ को न अहिलसइ ? विहाणसहाए अज्झक्खो कोऽत्थि ? जिलाहीसो अहिआरपुण्णो भवइ । किं मज्झ पत्थावे तुज्झ समत्थणं अत्थि ? विहाणसहाए केत्तिला जणा संति ? धातु प्रयोग
सो परिवारं ममाइ । जीवो पइक्खणं मरइ। बहू सासु मरिसइ । मरहंतु णं देवाणुप्पिया। महिंदो दहिं महइ । वावरी आवणम्मि वत्थाई माइ । किं तुमं पिउन माणसि ? तिवरिसस्स पच्छा दक्खिणदेसे साहुणो साहूहिन्तो मिलिस्संति । पाणिअस्स अहावे पुप्फाइं मिलांति । मुक्खो तंबूकूडम्मि घयं मिस्सइ। प्रत्यय प्रयोग
राइक्को पुरिसो अहिआरेण संपण्णो भवइ । पारक्कं धणं धूलिव्व होइ। तुम्हेच्चयो भाया अज्ज कत्थ गमिस्सइ ? अम्हेच्चयं कज्जं किं तुम करिस्ससि ? तुम्हकेरं गाणं तुज्झ पासे' एव विज्जइ । अम्हकेरे गिहे आयरिओ अज्ज कि आगमिस्सइ ? प्राकृत में अनुवाद करो
राष्ट्रपति देश का पहला नागरिक होता है। प्रधानमंत्री बार-बार राष्ट्रपति के पास जाता है। उपराष्ट्रपति विद्वान व्यक्ति है। मंत्री काम करने
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तद्धित
३०१ का आश्वासन देते हैं पर करते नहीं। मुख्य मंत्री हमारे गांव में कभी नहीं आए । नेता को जनता का सही मार्गदर्शन करना चाहिए । सरपंच रुपये लेकर काम करा देता है। कलेक्टर अवस्था में छोटा है पर बुद्धिमान है। राज्यपाल जब सत्ता में नहीं होते तब शांति का जीवन जीते हैं। दूत अपने देश का प्रतिनिधित्व अपनी पटुता से करता है। सेनापति की कुशलता ही देश को विजय दिलाती है। अपने क्षेत्र में संसद सदस्य का महत्त्व होता है। रमेश इस क्षेत्र से विधान सभा में जाएगा। छावनी ही सेना का घर होता है। कार्यकर्ता वोटों के लिए प्रचार करते हैं। ग्रामवासियों ने मंत्री के सामने क्या कहा ? कौन सा प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण है ? धात का प्रयोग करो - वीतराग किसी पर ममत्व नहीं करते । आज गांव में कौन मर गया ? आप मुझे क्षमा कर दें। जो सहता है, वह परिवार के साथ चल सकता है। देवों ने और असुरों ने समुद्र का मंथन किया। उस साधु ने अपना वस्त्र क्यों नहीं मापा ? जो दूसरों का सम्मान करता है, वह सम्मान पाता है। भाई बहन से मिलने के लिए उसके गांव गया । उसका मुख म्लान क्यों हो गया ? धर्म में किसी का मिश्रण नहीं होता है। प्रत्यय का प्रयोग करो
तुम्हारी माता सुशील है। दूसरे की स्त्री माता के समान होती है। तुम्हारा भाषण कल बहुत अच्छा था। हमारी दुकान में सब चीजें मिलती हैं। राजा की सेना हमारे गांव में आ गई। तुम्हारी स्कूल में कितने लडके पढते
प्रश्न १. प्राकृत में इदं अर्थ में क्या-क्या प्रत्यय होते हैं ? दो उदाहरण दो। २. पर और राजन् शब्द से इदं अर्थ में क्या प्रत्यय होता है ? ३. तुम्हेच्चयं और अम्हेच्चयं इन रूपों में किस नियम से किस अर्थ में क्या
प्रत्यय हुआ है ? ४. नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, सरपंच, प्रधानमंत्री, दूत, सेनापति, छावनी,
राज्यपाल, जिलाधीश, संसद, विधान सभा, विधायक, कलेक्टर, वोट, सदस्य, प्रस्ताव, निर्वाचन, आदेश, न्याय और प्रतिनिधित्व-इन शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ। ५. ममा, मरह, मरिस, मह, मा, माण, मिल, गिला अक्खोड और मिस्स धातुओं के अर्थ बताओ और इन्हें वाक्य में प्रयोग करो।
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८२
मत्वर्थ
__ शब्द संग्रह (धातु-उपधातु वर्ग) सोना-सुवण्णं, कणगं
चांदी-रययं, जायरूवं तांबा-तंबो
सीसा-त लोह-लोहं
जस्ता-जसदो रांगा-रंगं (दे०)
कांस्य-कंसं कालालोह-कालायसं
पीतल-पित्तलं अभ्रक-अब्भपडलं (दे०)
तूतिया-तुत्थं (सं) कलइ-सरययरंगचुण्णं (सं)
खिचडी-किसरा
संस्कार–सक्कारो
धातु संग्रह मीस-मिलाना, मिश्रण करना पक्खोड-प्रस्फोटन करना, बारमुअ-छोडना
बार झाडना मुच्छ-~-मूच्छित होना
रंग-रंगना रंज-खुशी करना
रंध-रांधना, पकाना उक्किर-खोदना, शस्त्र से पत्थर रज्ज-अनुराग करना आदि पर अक्षर आदि लिखना रम-संभोग करना
मत्वर्थ वह इसका है या इसमें है—इस अर्थ में संस्कृत में जो प्रत्यय होते हैं उसे मत्वर्थ प्रत्यय कहते हैं । मत्वर्थ हिन्दी में 'वाला' अर्थ को प्रकट करता है। जैसे-धनवाला, रसवाला बुद्धिवाला आदि । प्राकृत में इस अर्थ में आल, आलु आदि ६ प्रत्यय होते हैं।
नियम ६३७ (आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तर-मणा मतोः २१५६) मतु प्रत्यय के स्थान में आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर, मण ये ६ प्रत्यय आदेश होते हैं। आलु-स्नेहवान् (नेहालू) स्नेहवाला । दयालु: (दयालू) दयावाला । ईर्ष्यालुः
(ईसालू) ईर्यावाला। इल्ल-शोभावान् (सोहिल्लो) शोभावाला। छायावान् (छाइल्लो) . छायावाला।
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मत्वर्थ
३०३
उल्ल-विचारवान् (विआरुल्लो) विचार वाला। श्मश्रुवान् (मंसुल्लो)
दाढीवाला। आल-शब्दवान् (सद्दालो) शब्दवाला। ज्योत्स्नावान् (जोण्हालो) ज्योत्स्ना
वाला। वन्त----धनवान् (धणवंतो) धनवाला । भक्तिमान् (भत्तिवंतो) भक्तिवाला। मन्त-श्रीमान् (सिरिमंतो) लक्ष्मीवाला । धीमान् (धीमंतो) बुद्धिवाला। इत्त-काव्यवान् (कव्वइत्तो) काव्य वाला । मानवान् (माणइत्तो) मानवाला। इर--गर्ववान् (गविरो) गर्ववाला । रेखावान् (रेहिरो) रेखावाला। मण-धनवान् (धणमणो) धनवाला। शोभावान् (सोहामणो) शोभावाला । भयवान् (बीहामणो) भयवाला।
संस्कृत शब्दों से बने शब्द धनिन् (धणि) धनवाला । तपस्विन् (तवस्सि) तपस्वी। मनस्विन् (मणंसि) बुद्धिमान् । प्रयोग वाक्य
सुवण्णस्स अंगुलीयो मज्झ करांगुलीए विज्जइ । रययस्स नेउरं तुज्झ भगिणीए पासे नत्थि । रापचंदो कंसस्स थालम्मि भोयणं करेइ । लोहस्स दीहकडाहो मज्झ गिहे अत्थि । पित्तलस्स सुफणीए सागो अत्थि । कालायसस्स खणी दक्खिणपएसे अत्थि । जसदी सासं (श्वासरोग) नस्सइ। तउ गुणेसुं रंगसमाणं विज्जइ। चुण्णजोगेण तंबस्स सुवण्णं भवइ । रंगस्स भस्सं बंग कहिज्जइ । अब्भपडलस्स खणी कस्सिं पएसे विज्जइ ? तुत्थं कंडु (खाज) कुट्ठ (कोढ) य नस्सइ । रंगस्स चुण्णं रययस्स मिस्सेण 'कल इ' भवइ । धातु प्रयोग
मुग्गदालीए तुवरी दाली न मीसउ । सो धम्मं न कयावि मुंचिहिइ । लट्ठिपहारेण सो मुच्छिओ। धणवंतो णियसदणं रंगइ। सो परचित्तरंजणे कुसलो अत्थि । भगिणी किसरं रंधइ। किं तुमं धम्म रज्जसि ? मोहणो न रमाइ । सो महावीरस्स जीवणं उक्किरइ । प्रत्यय प्रयोग
दयालुस्स हिअए करुणा विज्जइ । छाइल्लम्मि रुक्खम्मि लोआ गिम्हकाले वीसमंति । विआरुल्लो णरो पत्तेयम्मि विसये चितेड । धणवंतो धणेण सत्ति पदंसइ । धीमंतो धणंजयो सुंदरं लेहं लिहइ । माणइत्तो मोहणो कत्थ वि न नमइ । गव्विरो णरो मोरउल्ला अथिरे रूवे गव्वं करेइ । प्राकृत में अनुवाद करो
कारीगर पत्थर पर अक्षर उत्कीर्ण कर उसमें सीसा भरता है।
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३०४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
सोने का कुंडल तुम्हारे पास है । चांदी की तरह मन को उज्ज्वल रखो । कां की गिलास में वह पानी पीता है । काला लोह कहां मिलता है ? लोहे की संडासी हर घर में मिलती है । वह पीतल के बर्तन बेचता है ? जस्ता नेत्रों के लिए हितकर है। सीसा प्रमेहनाशक होता है । सोना बनाने में शुद्ध तांबा काम में आता है । अभ्रक चांदी के समान चमकती है । रांगे की भस्म औषधि में काम आती है । कलइ तांबे और पीतल के वर्तनों पर किया जाता है । धातु का प्रयोग करो
लोभी मनुष्य अनेक वस्तुओं में मिश्रण करता है । उसने तुमको क्यों छोड दिया ? लक्ष्मण युद्ध में मूच्छित हो गया । उसने अपनी बहन को खुश कर दिया । धार्मिक संस्कारों से उसका मन रंग दो । उसका धर्म के प्रति अनुराग क्यों नहीं है ? सभाभवन में भिक्षु स्वामी का जीवन कौन उत्कीर्ण करेगा ?
प्रत्यय का प्रयोग करो
स्नेही व्यक्ति का हृदय स्नेह से पूर्ण होता है । दाढ़ी-मूंछ वाला मनुष्य अपनी दाढी और बढाता है । आज शब्द वाली हवा चलती है । इस मनुष्य में भक्ति बहुत है । लक्ष्मीवान् भी लक्ष्मी की पूजा करता है । रेखा वाला पत्र मेरे पास लाओ । भय वाला आदमी रात में अंधेरे से भी डरता है ।
प्रश्न
१. मत्वर्थ किसे कहते हैं ?
२. मतु प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में कौन से प्रत्यय आदेश होते हैं ? ३. आलु, इल्ल, आल, उल्ल, वन्त, मन्त, इर, मण, इत्त इन प्रत्ययों के दो-दो उदाहरण दो ।
४. सोना, चांदी, तांबा, लोहा, कांस्य, सीसा, रांगा, काला लोह, अभ्रक, कलइ, जस्ता, पीतल, तूतिया — इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
५. मोस, मुअ, मंच, मुच्छ, रंज, रंग, रंध, रज्ज, रम, उक्किर - इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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भव अर्थ
__ शब्द संग्रह (स्पर्श वर्ग) गरम-उसिण (वि) हल्का-लहुय (वि) ठंडा-सीय (वि)
भारी, बडा-गरुय (वि) कठोर-कक्कस (वि) कोमल-मउय (वि) रूखा-लुक्ख (वि)
चिकना-णिद्धं न भारी न हल्का-अगरुलहु (वि) शीतोष्ण, ठंडा तथा गरम-सीउण्हं
बर्फ-हिम
गूंद-णिज्जासो
धातु संग्रह रय-बनाना, निर्माण करना रिझरीझना, खुशी होना रव-बोलना
री-जाना, चलना रस-चिल्लाना, आवाज करना रुअ--रोना रा-शब्द करना,
रुंध--रोकना, अटकाना रा-चिपकना, श्लेष करना रुच (दे)-पीसना भव अर्थ
__ संस्कृत के तत्रभवं (उसमें होने वाला) अर्थ के लिए प्राकृत में इल्ल और उल्ल प्रत्यय होता है।
नियम ६३८ (डिल्ल-जुल्लो भवे २११६३) भव अर्थ में नाम से डिल्ल (इल्ल) और डुल्ल (उल्ल) प्रत्यय होते हैं।
गाम+इल्ल == गामिल्लं (ग्रामे भवं) ग्राम में होने वाला हेट्ठ+इल्ल--हेट्ठिल्लं (अधस्तनं) नीचे होने वाला घर--इल्ल-घरिल्लं (गहे भवं) घर में होने वाला अप्प+ उल्ल= अप्पुल्लं (आत्मनि भवं) आत्मा में होने वाला
नयर-उल्ल-नयाल्लं (नगरे भवं) नगर में होने वाला प्रयोग वाक्य
सो उसिणं दुद्धं पिवइ । गिम्हकाले सीयं जलं रोअइ । कक्कसा भासा न जंपणीआ । तुमं ववहारम्मि लुक्खो सि । कप्पासो लहुयो भवइ । सो कम्मणा गरुयो अस्थि । तस्स हिअयं मयं अस्थि । णिद्धम्मि वत्थुम्मि रयो खिप्पं लग्गइ। अहं सीउण्हेहिं सलिलेहिं हामि । आआसो अगरलहू अस्थि ।
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३०६
धातु प्रयोग
सो सिलोगा रयइ । पक्खिणो पच्चू से रवंति । सो अरण्णेव्व गिहे रसइ । संपइ को राइ ? सिसू माअरं राइ । जया राया रिज्झइ तया किमवि अवस्सं देइ । साहू भूमि अवलोइऊण रीइ । बालो केण कारणेण रुअइ । सासू वरस्स ( दुलहा ) मग्गं केण कारणेण रुंधइ ? दासी अण्णं रुचइ ।
प्रत्यय प्रयोग
अज्जत्ता गामिल्ला जणा णयरे वसंति । सीयकाले हेट्ठिल्लं जलं उसणं भवइ । अप्पुल्लं सुहं केण लद्धं ? नयरुल्ला ववत्था गामम्मि न भवइ । घरिल्लं गावीए घयं सरीरस्स उसिणत्तं समइ ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्राकृत में अनुवाद करो
अति गरम दूध नहीं पीना चाहिए। बर्फ का ठंडा पानी स्वास्थ्य के लिए अहितकर है । ब्रह्मचारी की शय्या कठोर होनी चाहिए । रूखा आदमी स्नेह का व्यवहार नहीं करता । साधु को उपकरणों से हल्का रहना चाहिए । भारी वस्तु अच्छी नहीं होती । कोमल शब्दों का व्यवहार करो। चिकना पदार्थ अधिक नहीं खाना चाहिए । दूध शीतोष्ण पीना चाहिए। ऐसा पदार्थ कौन-सा है जो न भारी है और न लघु । धातु का प्रयोग करो
वह ग्रन्थ की रचना करता है। अधिक नहीं बोलना चाहिए। बच्चा किसके लिए चिल्लाता है ? बाहर देखो, कौन शब्द करता है ? वह गूंद से पत्र चिपकाता है । तुम्हारे कार्य ने उसे रिझा लिया । मनुष्य अपनी गति से चलता है । जो काम में जाते समय रोता है वह क्या समाचार लाएगा ? वह तुम्हारे मार्ग को रोकता है। आज उसने क्या पीसा ?
प्रत्ययों का प्रयोग करो
ग्राम में होने वाली स्कूल में लडकियां सुविधा से पढ सकती 1 ध्यानगृह घर के नीचे है । यह नवनीत घर का है । क्रोध आदि आत्मा में होने वाले दोष हैं । नगर में होने वाले स्वागत का महत्त्व होता है ।
प्रश्न
१. तत्रभवं शब्द का हिन्दी अर्थ क्या है ?
२. भव अर्थ में प्राकृत में कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? दो-दो उदाहरण दो । ३. गरम, ठंडा, कठोर, कोमल, रूखा, चिकना, हल्का, भारी शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ ।
४. रय, रस, रव, रा, रिज्झ, री, रुअ, संध और रुच धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
५. अंतीहारी, गणई, दुल्लसिआ, रज्जवालो, जिलाहीमो, पहाणमंती, जसदो, सुवणं, रययं शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ ।
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४
शीलादि प्रत्यय
__ शब्द संग्रह (रोग वर्ग १) ग्रीवाफूलन-गंडमाला कंपनवात-वेवयो कोढ-कोढो
हाथीपगा-सिलिवइ (वि) पागलपन-अवमारो राजयक्ष्मा (टी. बी) रायंसि (पुं) काणापन-काणियं उदररोग-उदरं कूबडापन-खुज्जियं . हस्तविकलता-कुणियो . गूंगापन-मूयं ...... पंगुता-पीढसप्पि (पुं) . .. भस्मकरोग-गिलासिणी आंधासीसी-अवहेडगो शोथ---सूणिओ
बवासीर-अरसो जलंधर--जलोयरं केशझडना (गंजापन)-केसघायो (सं) ब्याऊ-पायफोडो पीठ में गांठ-पिट्टिगंठि (पुं० स्त्री) फुनसी--फुडिआ स्मृति-सई (स्त्री)
प्रस्थान-पत्थाणं
धातु संग्रह रोअ.-निर्णय करना।
लक्ख-जानना, पहचानना रोह-उत्पन्न होना
लग्ग-लगना, संग करना लंघ-लांघना
लज्ज-शरमाना संछ-कलंकित करना
लल-विलास करना, मौज करना लभ, लंभ-प्राप्त करना लय-ग्रहण करना, लेना शील आदि प्रत्यय
शील आदि के तीन अर्थ हैं-शील (स्वभाव), धर्म (कुल आदि आचार), साधु (अच्छा)। संस्कृत में तृन्, इष्णु आदि प्रत्यय शील अर्थ में कर्ता से होते हैं । प्राकृत में इस अर्थ में इर प्रत्यय होता है।
नियम ६३६ (शोलाखर्थस्पेरः २२१४५) शील, धर्म और साधु अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को इर आदेश होता है। हसनशीलः (हसिरो)
रोदनशीलः (रोविरो) लज्जावान् (लज्जिरों) " जल्पनशीलः (जम्पिरो) वेपनशील: (वैविरो) . भ्रमणशीलः (भमिरो) उच्छ्वसनशीलः (ऊससिरो)
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३०८
प्रयोग वाक्य
मोहणी गंडमालाए पीडिओ अत्थि । अणेगेसुं जणेसु अज्जत्ता कोढो दिसइ | सुसीला अवमारेण पीडिया आसि परं मंतजवेण रोगरहिया जाओ । सउणदिट्ठीए काणियं असुहं अस्थि । मूयस्स सई अहिया भवइ । समये -समये अणेगे जणा सूणिअस्स परिणामं अणुभवंति । मुणी संगीओ तीसवरिसपुव्वं गिलासणीए वसीभूओ आसि । वेवयस्स तिष्णि कारणाणि संति । दक्खिणदेसस्स एगभागे सिलिवइपीडिआ अणेगे जणा संति । जत्थ अजाओ राओ सति तत्थ रायसिस रोगी चिट्ठइ, सयइ वा । उदरं जया भवइ तथा रोगिस्स अवत्था दंसणी भवइ । जुज्झे सो कुणिओ जाओ । अरसो वायजणिओ य भवइ । पीढसप्पिणी रोगी अज्जत्ता साहणपओएण चलइ धावइ य । अवहेडगे सीसस्स अद्धभागो दुक्खइ । रायचंदस्स पुब्वं पिट्टिगंठी आसि । सीयकाले साहृणो, साहुणीओ य पायफोडेण पीडं अणुभवंति । रमेसस्स बालत्तम्मि सघायो आसि । कालुगणिस्स एगा फुडिआ वि पाणघाया जाओ । जलोयरं कस्स मुणिस्स अस्थि ? धातु प्रयोग
प्राकृत वाक्यरचना बोध
विहारकाले मग्गस्स संका भवेज्ज तया पुच्छित्ता रोअए । जत्थ अक्कं aas तत्थ अंब न रोहइ । तुमं गहणार्डावि कया लंघिस्ससि ? सो तुमं कहं लंछइ ? जइ तुमं अज्ज पएसे पत्थाणं करिहिसि तया पउरं धणं लंभिहिसि भिहिसि वा । अहं तुं सम्मं लक्खामि । साहुसंगेण धम्मस्स रंगो लग्गइ । सा अत्य आगमिउ लज्जइ । सा विज्जं लभिहिइ । तुज्झ किवाए अहं ललामि । उत्तम सिक्खा जत्थ कत्थावि मिलेज्ज लयणिज्जा ।
प्राकृत में अनुवाद करो
हमारे गांव में किसी के ग्रीवाफूलन रोग नहीं है । एक व्यक्ति ने साधारण दवा से अपना कोढ मिटाया । सीता पागल कैसे हो गई ? काणा व्यक्ति हृदय से स्वच्छ नहीं होता है । बुढापे में कूबडापन होना आवश्यक नहीं है । गूंगापन किस कर्म के उदय से होता है ? शोथ से व्यक्ति मोटा दिखाई देता है । भस्मरोग में मनुष्य जितना भी खाता है सब भस्म हो जाता है । क्रोध से अथवा मैथुन से अथवा बीमारी से शरीर में कंपनवाय होता है । मरुभूमि में हाथीपगा देखने को कम लोग मिलते हैं । राजयक्ष्मा (टी. वी. ) रोग संक्रामक होता है ( संकामइ ) । उदररोग भयंकर होता है । हाथ कटा हुआ मनुष्य परवश हो जाता है । आजकल बवासीर की चिकित्सा बहुत सरल है । उसके किस कारण से लंगडापन हुआ ? आंधासीसी रोग की चिकित्सा मैं जानता हूं । उदरग्रन्थि रोग की क्या चिकित्सा है ? जिसके पैर में ब्याऊ नहीं फटती, वह दूसरों की पीडा क्या जानता है ? गंजापन से चेहरे की सुंदरता
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शीलादि प्रत्यय
३०६
कम होती है । छोटी फुन्सी भी असावधानी से बहुत दुख देती है । एक साध्वी ने जलंधर रोग के कारण प्राण त्याग दिया ।
धातु का प्रयोग करो
जहां शंका हो वहां अपनी बुद्धि से निर्णय करना चाहिए। आम का वृक्ष यहां पैदा नहीं होता है। क्या तुम इस पानी के प्रवाह को लांघ सकते हो ? धन का लोभी धन के लिए दूसरों को कलंकित करता है । वह तुम से ज्ञान प्राप्त करता है । क्या तुम मुझे नहीं पहचानते ? तुम्हें देखकर वह क्यों शरमाती है ? विनय से विद्या प्राप्त होती है। जो विलास करता है वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ में खोता है। वह विद्यालय से सम्मान ग्रहण करता है ।
प्रश्न
१. शीलादि के तीन अर्थ कौन से हैं ?
२. शील अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को क्या प्रत्यय आदेश होता है । कोई पांच उदाहरण दो ।
३. ग्रीवाफूलन, कोढ, पागलपन, काणापन, कूबडापन, जलंधर, गूंगापन, गंजापन, भष्मकरोग, शोथ, पीठ में गांठ, कंपनवात, हाथीपगा, राजयक्ष्मा, उदररोग, हस्तविकलता, पंगुता, आंधासीसी, बवासीर, ब्याऊ, फुनसी आदि शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ?
४. रोअ, रोह, लंघ, लंछ, लंभ, लक्ख, लग्ग, लज्ज, लल, लभ, लय --- इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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भाव
शब्द संग्रह (रोग वर्ग २) बुखार-जरो
पेट की गांठ-उदरगंठि (पुं, स्त्री) भगंदर--भगंदरो
नासुर-नाडीवणो (सं) 'प्रमेह पहो
व मनवमण जुखाम-पडिस्सायो दस्तों का रोग-गहणी (सं) स्त्री कब्ज, मलमूत्रावरोधजन्यरोग हिचकी-हिक्का - -गुदगहो (सं) पथरी—मुत्तकिच्छं (सं)।
अंडकोशवृद्धि-अंडवड्ढणं अस्थि में भयंकर सौजन--विद्दहि (सं).
खाज-कंडू (स्त्री) छींकरोग-छिक्का (दे०) - खांसी रोग-कासो
कफरोग-कफो" व्रण-फोडो
- वायुरोग–वाउ (पं) पित्तरोग-- पित्तो, पित्तं ..
व्यक्ति--विअत्ति
पातु संग्रह लस- श्लेष करना, चमकना लालप्प-खूब बकना लहुअ-लघुकरना
लास-नाचना लाय-काटना, छेदना लाह-प्रशंसा करना लाल---स्नेहपूर्वक पालन करना लिच्छ-प्राप्त करने की इच्छा
लाय-लगाना, जोडना लिप-लेप करना, लीपना भाव
जिस गुण के होने से द्रव्य में शब्द का सन्निवेश (संबंध) होता है उस गुण को भाव कहते हैं । साधुता गुण के कारण ही साधु शब्द अपना अर्थ बोध देता है। संस्कृत में सब शब्दों से भाव में त्व और तल् प्रत्यय होता है। इनके अतिरिक्त कुछ शब्दों से इमन् और ट्यण आदि प्रत्यय भी होते हैं। प्राकृत में भाव अर्थ में इमा, त्तण और त प्रत्यय होते हैं।
नियम ६४० (त्वस्य डिमा-तणो वा २॥१५४) भावसूचक त्व प्रत्यय को डिमा (इमा) और तण प्रत्यय विकल्प से होता है। पक्ष में त्व को त प्रत्यय होता है।
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भाव
इमा-पीनिमा, पीनत्वं (पीणिमा) मोटापन । पुष्पत्वं (पुल्फिमा) पुष्पपना। तण-पीनत्वम् (पीणत्तणं) मोटापन । पुष्पत्वं (पुष्फत्तणं) पुष्पपना त-देवत्वम् (देवत्तं) देवपना । साधुत्वम् (साहुत्तं) साधुपना।
संस्कृत परक पीनता शब्द का प्राकृत में पीणया भी होता है । इसी प्रकार अन्य शब्दों के भी रूप बनते हैं। . प्रयोग वाक्य
तुमं मुहु-मुहु जरपीडिओ कहं जाओ ? अत्थ भगंदरस्स चिइच्छा वरा न भवइ । पमेहेण सरीरो सिढलो भवइ । केन कारणेण तुमं पडिस्साएण पौडिओ जाओ। रमेसस्स गुदगहं पासिऊण तस्स पिआ चितापुण्णो जाओ। मरुभूमीए वि कस्सइ अंडवड्ढणं भवइ । कस्स विद्दही विज्जइ ? दहि-भक्खणेण कासो वड्ढइ । केन कारणेण तस्स फोडो न भरइ । महुरवत्थुणा पित्तो उक्सामइ । तस्स उदरगंठी कहं चड्ढइ ? माडीवणो वि भयंकरो भवइ । कि कारणमत्थि, सेहो साहू जं किमवि खाअइ तस्स धमणं भवह ? गहणीए सरीरो सिढिलो होइ । हिक्का वि दोहकाला बलइ । मुस्तकिच्छे पाणि बहियं पाअव्वं । भूविंदो मुणी सइ जुगवं सत्त छिक्काओ करेइ। केन कारणेण कफो विवड्ढइ । वाउरोगिस्स अवत्था अदंसणीआ भवइ । ..... . धातु प्रयोग
सहम्मि वत्थुम्मि रयाई खिप्पं लसंति । मुक्खेण सद्धि विकायों नरं लहअइ । सो तुम्ह संबंधं लायइ । माआ पुत्तं लालइ । विरोही मिसेण सह लालप्पइ । सा अज्ज न लासिस्सइ । गुरुणा अज्ज तुम लाहिओ । मुणी पत्तीए खंडाइं लायइ । अहं किमविन लिच्छामि । सो परिसम्मि सइ गिहं लिपड़ । प्रत्यय प्रयोग
पीणिमा मह किचि वि न रोअइ। आयारेण साहुत्तं सोहइ । संजमदिट्ठीए देवत्ताओ मणुअस्स बहुमहत्तं अत्थि । पुप्फत्तणेण पायत्रो सोहइ । प्राकृत में अनुवाद करो
. मुझे इस वर्ष पांच बार बुखार आया। किस कर्म के उदय से भगंदर होता है ? प्रमेह में मूत्र साफ नहीं आता । जुखाम भी कभी-कभी लंबे समय तक चलती है । मलावरोध (कब्ज) से मनुष्य कष्ट पाता है। अंडकोशवृद्धि दक्षिण के लोगों में अधिक मिलती है । अस्थि के सूजन की चिकित्सा सरल नहीं है। खांसी से नींद कम आती है। चीनी की बीमारी वाले का व्रण जल्दी नहीं भरता है। पित्त का लक्षण क्या है ? उसकी पेट की गांठ प्रतिदिन बढ रही है। एक साधु के नासूर का रोग मैंने देखा था । वमन होने के बाद मन में प्रसन्नता होती है। इस वर्ष किसको दस्तों का रोग हुआ था? क्या हिचकी वायु से
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३१२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आती है ? पथरी का रोग क्यों होता है ? खाज रोगी को खाज करना मीठा लगता है। जुखाम में छींक अधिक आती है। श्वेत वस्तु के प्रयोग से कफ बढता है। वायु रोग कितने प्रकार का होता है ? धातु का प्रयोग करो .......
गूंद दो पन्नों का श्लेष करता है। स्त्री के साथ विवाद करने से मनुष्य की लघुता होती है। वह खेत को नहीं काटेगा। उसकी बहन ने भाई का स्नेहपूर्वक पालन किया। जो वस्त्रों को जोडता है, क्या वह मन को नहीं जोड सकता ? सुशील उसके घर पर जाकर बहुत बका। विमला घर में ही नाचती है। जो दूसरों की प्रशंसा करता है, वह उसका प्रिय बनता है । तुम क्या प्राप्त करना चाहते हो ? वह अपनी दुकान को लीप रहा है ।
प्रत्यय प्रयोग करो . मोटापन किसको प्रिय लगता है ? साधुत्व पूजनीय होता है, व्यक्ति नहीं। देव होकर भी यदि दूसरों को सताता है तो उसमें देवत्व नहीं है। मनुष्यत्व ही मनुष्य को आगे बढाता है।
प्रश्न १. भाव किसे कहते हैं ? २. प्राकृत में भाव अर्थ में कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? ३. भाव में होने वाले प्रत्ययों का लिंग क्या है ? ४. बुखार, भगंदर, प्रमेह, जुखाम, मलावरोध (कब्ज), अंडकोशवृद्धि, अस्थि में सूजन, खांसी, व्रण, पित्त, कफ, वायु, पेट की गांठ, नासुर, वमन, दस्तों का रोग, हिचकी, पथरी, खाज, छींक रोग-इन शब्दों के लिए प्राकृत
शब्द बताओ। ५. लस, लहुअ, लाय, लाल, लाय, लालप्प, लास, लाह, लिच्छ, लिप-इन धातुओं का अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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८६
विभक्त्यर्थ प्रत्यय
शब्द संग्रह (रोगी वर्ग) अंधा-अंधो
काणा-काणो बहरा-बहिरो
लूला (हस्तरहित) कुंटो बेहोशीवाला---मुच्छिर (वि) गूगो-मूयो । प्रलंब अंड वाला-पलंबंडो (सं) वामन-वडभो खाज का रोगी--कच्छुल्लो बुखारवाला--जरि (वि) लंगडा--पंगू (पुं)
पित्त का रोगी-पित्तिओ दस्त का रोगी-अइसारिओ मोटे पेट वाला-तुंदिलो दाद का रोगी–ददुलो कोढी--कोढिओ वायु का रोगी-वाइओ कफ का रोगी-सिलिम्हिओ कूबडो-खुज्जो
चित्तकबरा-सबलो खांसी का रोगी-कासिल्लो ।
धातु संग्रह लिह-चाटना
लुढ--लुढकना लुअ-छेदना, काटना . लुभ-लोभ करना हुँच-बाल उखाडना, लुंचन करना लूड-लूटना लुंप-लोपकरना, विनाश करना लोअ-देखना लुक्क-छिपना
- उज--सींचना, उत्सेचन करना , अस्, त्र और वा प्रत्यय
. संस्कृत में पंचमी विभक्ति के अर्थ में तस् प्रत्यय होता है। प्राकृत में पंचमी विभक्ति के अर्थ में तो और दो प्रत्ययों का प्रयोग होता है।
० सप्तमी विभक्ति के अर्थ में संस्कृत में त्रस् प्रत्यय होता है प्राकृत में • त्र के स्थान पर हि, ह और त्थ प्रत्यय आदेश होता है।
० कालसूचक सप्तमी विभक्ति के अर्थ में संस्कृत के दा प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में सि, सिमं और इआ प्रत्यय विकल्प से होता है। .
नियम ६४१ (त्तो दो तसो वा २॥१६०) तस् प्रत्यय के स्थान पर त्तो और दो प्रत्यय विकल्प से आदेश होते हैं।
. सर्वतः (सव्वत्तो, सव्वदो, सव्वओ) सब प्रकार से । एकतः (एगत्तो, एगदो, एगओ) एक प्रकार से । अन्यतः (अन्नत्तो, अन्नदो, अन्नओ) अन्य
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प्राकृत वाक्यरचना बोध प्रकार से। कुतः (कत्तो, कदो, कओ) कहां से, किससे । यतः (जत्तो, जदो, जओ) जहां से, जिससे । ततः (तत्तो, तदो, तओ) वहां से, उससे । इतः (इत्तो, इदो, इओ) यहां से, इससे ।
नियम ६४२ (प्रपो हि-ह-स्थाः २११६१) त्र प्रत्यय को हि, ह और त्थ ये प्रत्यय आदेश होते हैं ।
हि-ज+हि= जहि (यत्र) यहां । त+हितहि (तत्र) वहां । ह-ज+ह-जह (यत्र) यहां। त+ह-तह (तत्र ) वहां । स्थ-क+त्थकत्थ (कुत्र) कहां । अन्न+त्थ == अन्नत्थ (अन्यत्र)
दूसरे में। नियम ६४३ (वैकादः सि-सि-इआ २११६२) एक शब्द से परे दा प्रत्यय को सि, सि और इआ ये आदेश विकल्प से होते हैं। एक्कसि, एक्कसिअं, एक्कइआ, एगया (एकदा) एक समय में।
(डाह डाला इमा काले ३१६५) नियम ५११ से किं यत् और तत् शब्दों से कालवाची सप्तमी को डाह, डाल और इआ ये तीन प्रत्यय विकल्प से आदेश होते हैं।
___ कदा (काहे, काला, कइआ) कब । यदा (जाहे, जाला, जइआ) जब । तदा (ताहे, ताला, तइआ) तब ।
संस्कृत शब्दों से बने दा प्रत्यय के रूप
यदा (जया) जब । सर्वदा (सव्वया) हमेशा । कदा (कया) कब । अन्यदा (अण्णया) अन्य समय में । तदा (तया) तब । प्रयोग वाक्य
अंधो वि अण्णस्स साउज्जं अंतरेण सपण्णाए पहे चलइ । बहिरो किमवि न सुणइ । मूयो न जंपइ न सुणइ । काणेण लोआ भीअंति। कुंटो किं लिहिस्सइ ? सा खुज्जा कहं जाआ? सो कोढिअस्स पासे आसित्तए न इच्छा । एगया लक्खमणो (लक्ष्मण) वि मुच्छिरो जाओ । णिद्धणो पलंबंडो वुड्ढो चिइच्छं इच्छइ । कच्छुल्लो अणेगहुत्तो णियसरीरं कण्डूअइ। पंगू केण साहज्जेण (सहयोग) अत्थ आगओ ? एगया अहमवि अइसारिओ जाओ । बंगदेसे अणेगे जणा ददुला भवंति । वाइओ बहु किच्छं अणुभवइ । लोआ वडभं भगवंतस्स अवतारं मण्णंति । जरी संतचित्तेण मोगेण वा सव्वं सहइ । पित्तिओ किं खादि इच्छइ ? तुंदिलो पइक्खणं दुक्खं अणुभबइ । सासु को सिलिम्हिओ अस्थि ? सबलो सुंदरो न लम्गइ । कासिल्लो निसाए न निदाइ सुहेण । धातु प्रयोग
। सो ओसहिं लिहइ । अहं कल्लं लुचिस्सामि । साहू भविऊण चे धणं रक्खेज्न सो साहुत्त लुपइ । खेलम्मि बालो अण्णं बालं पासिऊण लुक्कइ ।
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विभक्त्यर्थ प्रत्यय
निदाए सो लुढईअ । कयावि न लुभियव्वं । सो लुडिउ अमुम्मि गामे आगओ। किं तुमं सूरं चक्खुहिं लोअसि ? प्रत्यय प्रयोग
____ एसो नरो को आगओ ? तुम जो आगो तत्थ चेअ गच्छ । नयरं इओ अइदूरं नस्थि । तुम तओ गाणं लह। जहि केत्तिला मुक्खा संति ? तेण सद्धि तुमं तहि गच्छ। कल्लं सो कत्थ गमिस्सइ ? एक्कसि अहं अत्थ आगओ। प्राकृत में अनुवाद करो
अंधे व्यक्ति के लिए संसार का रूप कुछ नहीं है । बहिरा व्यक्ति गूंगा भी होता है। गंगा जानकर भी वस्तु का स्वाद नहीं बता सकता । इस गांव के वामन व्यक्ति का नाम क्या है ? काणा कुबुद्धि चलाता है। लूला परवश होकर जीता है। कूबडे की दशा को देखकर जवानी में सावधान रहे । कोढी होने पर सुंदर रूप कुरूपता में बदल जाता है। लंगडा अंधे के सहयोग से मार्ग को पार कर जाता है । बेहोशीवाला कुछ समय के लिए मृत्यु के समान है। प्रलंब अंडवाला किस भोजन से या वायुमंडल से होता है ? खाज के रोगी को खाज प्रिय लगती है । दस्त रोगी दस मिनट भी शांति की नींद नहीं लेता है। आर्द्र प्रदेश की आर्द्रता से दाद के रोगी अधिक होते हैं। वायु के रोगी को क्या नहीं खाना चाहिए ? मोटे पेट वाला उठने और बैठने में कष्ट की अनुभूति करता है। बुखार वाले को आज अन्न मत खिलाओ । क्या पित्त का रोगी मीठा भोजन खाएगा? कफ का रोगी कोई भी बनना नहीं चाहता। रमेश चित्तकबरा कब हुआ ? खांसी वाला दही क्यों खाता है ? धातु का प्रयोग करो
तुमने आज मधु के साथ कौन सी दवा चाटी ? तुम काटना जानते हो, जोडना नहीं । साधु एक साल में कम से कम एक बार लुंचन करते हैं। सुरक्षा के अभाव में पशुओं की कई जातियां लुप्त हो जाएंगी। अविनयी गुरु से छिपना चाहता है । आयुष्य पूर्ण होने पर वह खाना खाते-खाते लुढक गया । तुम किसके लिए क्षोभ करते हो ? वे दिन में ही सबको लूटते हैं । मुंह धोने के बाद वह नहीं पोंछता है । वह सुंदर रूप को देखता है। प्रत्यय प्रयोग करो
प्रमादी को सब प्रकार से भय है । तुमने यह पुस्तक किससे ली है ? वह वहां से घर जाएगा। तुम्हारे भाई के विवाह में यहां से कोई नहीं आएगा। गुरु दर्शन करने वहां कौन जाएगा ? तुम यहां मत आओ। ये लोग कहां रहते हैं ? एक समय यह इस देश का राजा था । तुम ध्यान कब करोगे ? जब भारत स्वतंत्र होगा तब मैं अपने देश में वापस आऊंगा।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रश्न १. संस्कृत की पंचमी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति के अर्थ में प्राकृत में
कौन-कौन से प्रत्यय होते हैं ? तीन-तीन उदाहरण दो। २. डाह, डाल और इआ—ये तीन प्रत्यय किस अर्थ में होते हैं ? ३. इस पाठ में नियमों के अतिरिक्त कौन से शब्द हैं जो संस्कृत शब्दों से
बने हैं ? ४. अंधा, बहरा, बेहोशीवाला, प्रलंब अंड वाला, खाज का रोगी, लंगडा,
दस्त का रोगी, दाद का रोगी, वायु का रोगी, कबडा, काणा, लला, गंगा, वामन, बुखार वाला, पित्त का रोगी, कफ का रोगी, मोटे पेट वाला
और कोढी-इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ५. लिह, लुअ, लुंच, लुंप, लुक्क, लुढ, लुभ, लूड, लोअ-इन धातुओं के अर्थ
बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ६. लुक्खं, मउयं, णिद्धं, खुज्जियं, सिलिवइ, पायफोडो नाडीवणो, जरो, कासो-इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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८७
इव, कृत्वस् प्रत्यय
शब्द संग्रह (वाद्य वर्ग) झालर-झल्लरी
तूर्य---तुरिअं वीणा-तंती
घंटा-घंटो ताल-तालो
मृदंग-मुइंगो शंख-संखो
डुगडुगी-डिडिम छोटी घंटी-घंटिया
नगारा, ढोल-ढोल्लं (दे.) डमरु-डमरुगो
वाद्य-वाइअं
बजाना-वायणं भक्त-भत्तो
धातु संग्रह लोट्ट-लेटना
वंच-ठगना लोल-विलोडन करना वंज-व्यक्त करना लोव-लोपकरना,
वक्कम-उत्पन्न होना बअल--पसरना, फैलना वक्खा--विवरण करना, कहना वईवय-जाना
वंद-प्रणाम करना त्व और इत्त प्रत्यय
____ संस्कृत में इव (उसके जैसा) अर्थ में वत् प्रत्यय होता है । उस वत् प्रत्यय को प्राकृत में 'व्व' प्रत्यय आदेश होता है ।
नियम ६४४ (वते वः ॥१५०) वत् प्रत्यय को 'व्व' प्रत्यय होता
- मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादा: (महुरव्व पाडलिपुत्ते पासाया) मथुरा के जैसे पाटलिपुत्र में प्रासाद हैं। क्षत्रियवत् शूराः (खत्तियव्व सूरा) क्षत्रिय के समान शूर हैं। साधुवत् त्यागी (साहुव्व चाई) साधु जैसा त्यागी है । पर्वतवत् ऊर्ध्वम् (पव्वयव्व उड्ढं) पर्वत जैसा ऊंचा है। सुशीलवत् धर्मिष्ठा (सुसीलव्व धम्मिट्ठा) सुशील के जैसे धार्मिक हैं।
हुत्त प्रत्यय
___बार के अर्थ को बताने के लिए संस्कृत में कृत्वस् प्रत्यय आता है। प्राकृत में उस अर्थ के लिए हुत्त प्रत्यय का प्रयोग होता है । जैनागमों में हुत्त
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रत्यय का प्रयोग कम और खुत्तो प्रत्यय का प्रयोग अधिक हुआ है।
नियम ६४५ (कृत्वसो हुतं २३१५८) कृत्वस् प्रत्यय को हुत्त आदेश होता है।
____ शतकृत्वस् (सयहुत्तं) सौ बार । एककृत्वस् (एगहुत्तं) एक बार । त्रिकृत्वस् (तिहुत्तं) तीन बार । त्रिकृत्वस् (तिक्खुत्तो) तीनबार (आगम प्रयोग) प्रयोग वाक्य
देवालये झल्लरी निनायो होइ । तति को वाएइ ? तालवायओ संपइ अत्थ न आगओ। तुरियाणं णिणायो गगणं फुसे । भत्ता पूयाकाले देवालये घंट वाएइ । विज्जालये समय-सूअण8 घंटियाए पओगो भवइ । जुज्झस्स संखणिणायो जाओ । सो डिडिमं वाइऊण जणा संगहिऊणं य वाणरस्स खेलं पदंसइ । जीअस्स ढोल्लं को वाएइ ? मुइंगवायणं को जाणइ ? धातु प्रयोग
अत्थ गद्दभो कहं लोट्टइ ? कि दहीइं सरला लोलिहिइ ? वागरणे इसण्णा (इत् संज्ञा) लोवइ । सलिलं वअलइ । साहू गामाणुग्गामं वईवयइ । सुसीलो जणा वंचइ । महेसो णियविआरा वंजइ । अत्थ किं वक्कमइ ? मुणी महावीरस्स जीवणं वक्खाइ । अहं पइदिणं आयरिअं वंदामि । प्रत्यय प्रयोग
___ तुज्झ मणो सायरब्व गहिरो । कुसुमव्व मिऊ तस्स हिययं । वायव्व सया गइमंतो ठायव्वं । अहं दसहुत्तो अमुम्मि गामे आगओ । मए सयहुत्तं लुचणं कयं। प्राकृत में अनुवाद करो
. आज शाम को मंदिर में झालर देर से क्यों बजी ? वीणा का स्वर मधुर होता है । ताल का प्रयोग कौन करता है ? ग्रामों में मंदिर में पूजा के बाद शंख बजता है । तूर्य की ध्वनि दूर तक जाती है । घंटा दुर्ग में बजता है। डुगडुगी बजाने से लडके और पुरुष इकट्ठे हो जाते हैं। कई विवाहों में ढोल बजाया जाता है । साधना केंद्र में भी छोटी घंटी बजाकर समय की सूचना देते हैं । मदंग को सीखाने वाला कौन है ? युद्ध में नगारा बजाने से सैनिकों को जोश आता था। धातु का प्रयोग करो
घोडा थकान मिटाने के लिए लेटता है । देवताओं और दानवों ने समुद्र का विलोडन किया। सूर्य के प्रकाश में चंद्रमा का लोप हो जाता है। बात बहुत जल्दी फैलती है। आयुष्य पल-पल जा रहा है । क्या तुम मुझे ठगना चाहते हो ? वह शब्दों के माध्यम से अपनी बात व्यक्त करना चाहता है । तुम
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इव, कृत्वस् प्रत्यय
अपने जीवन की घटना का विवरण करते हो। मैं सब साधुओं को प्रणाम करता हूं। जो पैदा होता है उसका नाश होता है । प्रत्यय का प्रयोग करो
तुम्हारी तरह वह भी प्रमाद करता है । मैं उसकी तरह तपस्या करना चाहता हूं। क्या अमेरीका की तरह भारत भी शक्तिशाली बनेगा? मैंने तुमको अनेक बार कहा फिर भी तुम ध्यान नहीं देते हो । वह दिन में तीन बार खाना खाता है। मैं तुम्हारी दुकान पर अनेक बार आया हूं।
प्रश्न १. इव (उसके जैसा) अर्थ में प्राकृत में कौन सा प्रत्यय होता है ? उसके
तीन उदाहरण दो। २. बार अर्थ में क्या प्रत्यय होता है ? पांच उदाहरण बताओ। ३. झालर, वीणा, ताल, शंख, घंटा, डमरु, तूर्य, घंटा, मृदंग, डुगडुगी,
नगारा (ढोल) शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ? ४. लोट्ट, लोल, लोव, वअल, वईवय, बंच, वंज, वक्कम, वक्खा, वंद-इन
धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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परिमाणार्थ प्रत्यय
. शब्द संग्रह (कीडा आदि क्षुद्र जन्तु) मधुमक्खी-~-महुमक्खिा शलभ (पतंग)—सलहो भौंरा-भसलो
मकोडा-कीडो, पिवीलिओ मक्खी--मक्खिआ, मच्छिा कीडी-कीडी, कीडिया खटमल-मक्कुणो
लीख-लिक्खा मच्छर-मसओ
जू---जूआ दीमक-उवदेही
डांस-डंसो जुगुन-खज्जोओ
तिलचटा, झींगुर-झिगिरो (दे०) कानखजूरो-कण्णजलूया वीरबहूटी-इंदगोवो, इंदगोवगो जौंक-जलूया, जलूगा
धातु संग्रह वग्ग-कूदना, जाना
वण्ण--वर्णन करना वच्च-जाना
वद्धाव-बधाई देना वज्जाव-बजाना
वम-वमन करना वग्ग-वर्ग करना, किसी अंक णिव्वाव-बुझाना
को समान अंक से गुणा वट्ट-वरतना करना
वय-बोलना परिमाणार्थ प्रत्यय
परिमाण अर्थ में प्राकृत में इत्तिअ आदि प्रत्यय होते हैं।
नियम ६४६ (यत्तदेतदोतोरित्तिभ एतल्लुक च २।१५६) यत् (ज) तत् (त) और एतत् (एअ) शब्द परिमाण अर्थ में हों तो डावतु प्रत्यय को इत्तिअ आदेश होता है तथा एतत् शब्द का लुक हो जाता है। यावत् (जित्तिअं) जितना । तावत् (तित्तिअं) उतना । एतावत् (इत्तिअं) इतना ।
नियम ६४७ . (इदं किमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल-डेदहाः २११५७) इदं (इम) किं (क) यत् (ज) तत् (त) एतत् (एअ) शब्द से परिमाण अर्थ में अतु और डावतु प्रत्यय को प्राकृत में डेत्ति (एत्तिम) डेत्तिल (एत्तिल) डेदह (एदह)-ये तीन आदेश होते हैं ।
इयत् (एत्तिअं, एत्तिलं, एदह) इतना कियत् (केत्तिसं, केत्तिलं, केद्दहं) कितना
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परिमाणार्थ पत्यय
३२१ यावत् (जेत्तिसं, जेत्तिलं, जेद्दह) जितना तावत् (तेत्तिअं, तेत्तिलं, तेद्दह) उतना एतावत् (एत्तिअं, एत्तिलं, एद्दह) इतना
नियम ६४८ (मात्रटि वा ११८१) मात्र प्रत्यय के आकार को एकार विकल्प से होता है । इयन्मात्रम् (एत्तिअमेत्तं, एत्तिअमत्तं)। प्रयोग वाक्य
महुमक्खिआ जणा कया पीडइ ? भसलो रूवेण कण्हो भवइ । भद्दवये मासे मच्छिआओ बहुलाओ भवंति । मक्कुणो राओ वत्थम्मि पविसित्ता जणा पीडइ । सलहो पगासे पडइ जीवणं य नासइ । पिवीलिआ पुण्णदिवहं परिस्समइ । लिक्खा कत्थ वसइ ? जलूया मणुअस्स सरीरस्स रत्तं आगसइ । कीडो वेगेणं चलइ । तुम जूआओ कहं मारसि ? डंसा कत्थ उप्पज्जति ? वरिसाए इंदगोवा पासिऊणं बाला हत्थे गिण्हंति । झिगिरस्स वण्णो केरिसो भवइ ? अहं कण्णजल्याए भीएमि । उवदेही कट्ठमवि खाअइ। खज्जओ निसाए जहासत्ति पगासइ । तुमए केत्तिलामो लिक्खाओ मारिआओ? धातु प्रयोग
___रमेसो वग्गिउं न इच्छइ। सो पंचसंखं वग्गइ । तुमं सुए किं सहाए भासिवच्चिहिसि ? अहं संखं वज्जाविस्सामि । तुज्झ पासे किं वट्टइ ? अहं तस्स पयारं वण्णामि । सो तुं बद्धावेइ जं तुमं पढमो जाओ परिक्खाए। जो अहियं खाअइ सो वमइ । अहं अमुम्मि विसये किमवि न वयामि । प्रत्यय प्रयोग
तुमं केत्तिआ अंबा चूसिइच्छसि ? जेत्तिसं पाणि पिविउ तुम इच्छसि तेत्ति पिव । एत्तिअंकज्ज अवस्सं कर । एत्तिअमेत्तं मज्झ देहि । प्राकृत में अनुवाद करो
___इतनी मधुमक्खियां आकाश में क्यों उडती हैं ? वर्षा ऋतु में भौंरा मिट्टी से घर बनाकर किसको भीतर प्रवेश कराता है ? मक्खियां बहुत सताती हैं । खट्मल कहां ज्यादा होते हैं ? पानी की प्रचुरता से यहां मच्छर अधिक हो गए। पतंग में कितनी आसक्ति होती है ? कमरे में मकोडे घूमते हैं। चीटियों का श्रम सबके लिए अनुकरणीय है। लीख पैदा होने का कारण क्या है ? उसके सिर में कितनी जूएं हैं ? जौंक रक्त को क्यों पीती है ? दीमक किस भूमि में अधिक होते हैं ? जुगुनू के प्रकाश में तुम क्या करना चाहते हो ? कानखजूरा कान में कैसे घुस गया ? झींगुर की आवाज क्या तुमने सुनी है ? वीरबहूटी का रंग लाल होता है । डांस बहुत तेज काटता है । तिलचटा यहां बहुत कम है।
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३२२
धातु का प्रयोग करो
वह मकान से तालाब में कूदता है । ८५ की संख्या का मौखिक वर्ग करना सरल नहीं है । वह आज आपके यहां से जाना चाहता है । तुम वाद्य बजाकर क्या कमाना चाहते हो ? क्या तुम हिमालय का वर्णन कर सकते हो ? वह सुशील को बधाई देता है कि तुम्हारे पुत्र हुआ है । आज उसने वमन क्यों किया ? तुम क्या बोलते हो ? मुझे सुनाई नहीं देता ।
प्रत्यय प्रयोग करो
मनुष्य जितना जानता है उतना कह नहीं सकता । कितने लोग यहां बाहर से आए हैं । इतने जोर से मत बोलो जिससे दूसरों को ..बाधा हो ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्रश्न
१. प्रमाण अर्थ में प्राकृत में कौन से प्रत्यय होते हैं ?
२. परिमाण अर्थ में होने वाले संस्कृत के अतु और डावतु प्रत्यय को प्राकृत में किन शब्दों से क्या प्रत्यय होता है ?
३. मधुमक्खी, भौंरा, मक्खी, खट्मल, मच्छर, पतंग, मकोडा, कीडी, जूं, लीख, डांस, जौंक, दीमक, जुगुनू, कानखजूरो, तिलचटा, वीरबहूटी, झींगुर - इन शब्दों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ ।
४. वग्ग, वग्ग, वच्च, वज्जाव, वट्ट, वण्ण, वद्धाव, वम, वय — इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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८६
स्वार्थिक प्रत्यय
___ शब्द संग्रह (रंगने वाले, आदि प्राणी) सांप-सप्पो, भुयंगो
छिपकली-घरोलिया, घरोली विच्छु-विच्छिओ
अजगर-अयगरो, अजगरो गिरगिट-सरडो
नेवला-णउलो गिलहरी-तिल्लहडी (दे०) मछली-मच्छो
___ खाडहिला(दे०) गोह-गोधा छछंदर-छच्छंदरं, छच्छंदरो (दे०)
धातु संग्रह वरिस-वरसना
वह-ढोना, पहुंचाना वव-बोना
वह-पीडा करना ववस-चेष्टा करना, प्रयत्न करना वाए-बजाना ववहर-व्यापार करना
वाए-पढाना वस-वसना, वास करना
वागर-प्रतिपादन करना स्वार्थ
__ स्वार्थ का अर्थ है-शब्द का अपना अर्थ। शब्द से प्रत्यय लगने के बाद भी शब्द का वही अर्थ रहता है। ऐसे अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को स्वार्थिक प्रत्यय कहते हैं। प्राकृत में स्वार्थ में क, इल्ल और उल्ल प्रत्यय का प्रयोग होता है । संस्कृत में भी स्वार्थ में कप् (क) प्रत्यय होता है।
नियम ६४६ (स्वार्थे कश्च वा २६१६४) स्वार्थ में क, डिल्ल (इल्ल) डुल्ल (उल्ल) प्रत्यय विकल्प से होते हैं । क-चन्द्रकः (चंदओ) चन्द्रमा। गगनकः (गगणयं) गगन । इहकः, इह
(इहयं) यहां । आलेष्टुकं, आलेष्टुं (आलेठ्ठअं) इल्ल-पल्लवकः, पल्लवः (पल्लविल्लो) पत्र । पुरा, पुरो वा (पुरिल्लो) पहले उल्ल-मुखकः (मुहुल्लं) मुंह । हस्तकः (हत्थुल्लो) हाथ
नियम ६५० (ल्लो नवैकाद् वा २०१६५) नव और एक शब्द से स्वार्थ में ल्लो प्रत्यय विकल्प से होता है। नवः (नवल्लो, नवो) नया, नवीन । एकः (एकल्लो, एक्कल्लो, एक्को, एओ) एक, अकेला।
नियम ६५१ (उपरेः संव्याने २॥१६६) संव्यान (प्रावरण) अर्थ में उपरि शब्द से स्वार्थ में ल्ल प्रत्यय होता है। उपरितनः (अवरिल्लो)
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३२४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ऊपर का।
नियम ६५२ (भ्रुवो मया-डमया वा २११६७) भू शब्द से स्वार्थ में मया, डमया-ये दो प्रत्यय होते हैं । भ्रूः (भुमया, भमया) भौंह ।।
नियम ६५३ (शनसो डिअम २।१६८) शनै: शब्द से स्वार्थ में डिअं (इअं) प्रत्यय होता है । सण + इ = सणिसं (शनैः) धीरे-धीरे। .
नियम ६५४ (मनको न वा डयं च २।१६६) मनाक शब्द से स्वार्थ में डय (अय) और डिअं (इअं) प्रत्यय विकल्प से होते हैं । मणा-+ डयं मणायं (मनाक्) थोडा । मणा+ डिअंमणियं (मनाक्) थोडा। पक्ष में मणा (मनाक्) थोडा।
नियम ६५५ (मिश्राड्डालि २११७०) मिश्र शब्द से स्वार्थ में डालिअ प्रत्यय विकल्प से होता है। मिश्रम् (मीसालिअं, मीसं) मिला हुआ।
नियम ६५६ (रो दीर्घात् २॥१७१) दीर्घ शब्द से स्वार्थ में र प्रत्यय विकल्प से होता है । दीर्घम् (दीहरं, दीहं) दीर्घ, लम्बा।
नियम ६५७ (त्वावेः सः २०१७२) संस्कृत में भाव में त्व, तल् आदि प्रत्यय होते हैं। उन प्रत्ययान्त शब्दों से स्वार्थ में त्व, तल आदि विकल्प से होते हैं । मृदुकत्वम् (मउअत्तया) मृदुता।
नियम ६५८ (विधुत्पत्रपीतान्धाल्लः २।१७३) विद्युत्, पत्र, पीत और अन्ध शब्द से स्वार्थ में ल प्रत्यय विकल्प से होता है। विद्युत् (विज्जुला, विज्जू) बिजली । पत्रम् (पत्तलं, पत्तं) पत्र, पत्ता। पीतम् (पीअलं, पीअं) पीला । अन्धः (अन्धलो, अंधो) अंधा। प्रयोग वाक्य
दो कण्हा सप्पा अत्थ केत्तिलत्तो समयत्तो वसंति ? अमुम्मि गामे के दहा विच्छिा संति ? सरडव्व रूवो न परिवद्रियव्वो । समुहस्स पासे वासियो पुरिसा मच्छा खाति । सो खाडहिलाए भीअइ । घरोलिया निसाए भोयणट्ठ भमइ । अयगरी दूरत्तो जीवा आकड्ढइ । णउलस्स सप्पस्स य जुज्झं भवइ । गोधाए डंसिओ नरो खिप्पमेव मरई। छच्छंदरस्स अवरनाम अत्थि गंधमूसिओ। धातु प्रयोग
जो अक्कं ववइ सो अंबं कहं पाविस्सइ ? सो तुज्झ कज्जं पूरिइत्तए ववसइ । सो मए सह सम्मं न ववहरइ । तुम मज्झ हिययम्मि वससि । गद्दभोणवरं चंदणस्स भार वहइ । विच्छिओ जणा कहं वहइ ? संझाकाले देवालये को संखं वाएस्सइ ? अम्हे सिरी भिक्खुसद्दाणुसासणं को वाएहिइ ? आयरिओ महावीरस्स सिद्धतं वागरइ ।
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स्वार्थिक प्रत्यय
प्रत्यय प्रयोग
चंदओ गगणयम्मि पगासइ । असोय पल्ल विल्लं पासिऊण संदेहो जाओ । कि तुज्झ मुहुल्लम्मि पूगीफलं अस्थि ? मज्झ हत्थे सव्वा सत्ती अत्थि । अहं एक्कल्लो न मि, संपुण्णसंघो मए सद्धि अस्थि । तुज्झ अवरिल्लो ववहारो सोहणी नत्थ | तुमं भमयाइ झाणं करेहि । सा सणिअं-सणिअं कहं चलइ ? मणियं फलरसं बालस्स वि देहि । मीसालिअं ओसहं न फलइ । अंधल्लो अत्थ कह आगओ ?
।
प्राकृत में अनुवाद करो
सांप क्या खाता है ? बिच्छु क्यों पैदा होते हैं ? गिरगिट अपने रूपों को क्यों बदलता है ? आठ मंगलों में युगल मछली भी एक मंगल है । गिलहरी वक्ष पर चढती है । छछंदर कहां रहते हैं ? छिपकली रात में ही क्यों घूमती है ? अजगर सांप की तरह जीवों को डसता नहीं है, निगलता है । नेवले की शक्ति सांप से अधिक होती है । गोह का जहर बहुत प्रबल होता है ।
धातु का प्रयोग करो
बच्चों में धर्म के संस्कार (सक्कालो ) बोने चाहिए। वह विवाद को मिटाने के लिए प्रयत्न करता है । वह परस्त्री को माता के समान मानता है । क्या देश की सीमा पर सैनिक वसते हैं ? वह केवल ज्ञान का भार ढोता है । तुम्हारा व्यवहार मेरे मन को पीडा करता है । वीणा कौन बजाएगा ? न्याय का ग्रंथ हमें कौन पढाएगा ? वह अपने विचारों का अच्छी तरह प्रतिपादन करता है |
प्रत्यय प्रयोग करो
गगन में चंद्रमा कब उदय हुआ ? पहले पत्र पर लिखते थे। हाथ और मुंह को पानी से धो लो । उसे नया जीवन मिला है । वह अकेला ही साधना करता है । ऊपर का मकान खाली है। भौंह पर किस रंग का ध्यान करना चाहिए ? धीरे-धीरे उसने घर पर अधिकार कर लिया। थोडा खाना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है । मिश्रित और पीसी हुई दवा में वस्तु का ज्ञान हरेक को नहीं होता । उसका दीर्घजीवन कुछ लोगों के लिए हितकर रहा । मृदुता दूसरे के मन को जीतती है। बिजली आकाश में चमकती है । पीला पत्ता अपने जीवन की कहानी कहता है । अंधा मनुष्य आवाज से पहचान करता है ।
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प्रश्न
१. 'स्वार्थेश्च वा' इस नियम के अनुसार स्वार्थ में कितने प्रत्यय होते हैं । प्रत्येक के दो-दो उदाहरण दो ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
२. एक्कल्लो, अवरित्ओ, नवल्लो, भमया, सणिअं, मीसालिअं, दीहरं, पीअलं, मउअत्तया, विज्जुला - इन शब्दों में किस नियम से क्या प्रत्यय हुआ है ? अपने वाक्य में इन्हें प्रयोग करो ।
३. सांप, विच्छु, गिरगिट, मछली, छछंदर, छिपकली, अजगर, नेवला, गोह और गिलहरी -- इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
४. वव, ववस, ववहर, वस, वह, वह, वाए, वारिस, वाए और वागर - इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो । ५. कच्छुल्लो, वडभो, मूयो, डिडिमं, तंती, घंटिया, मसओ, लिक्खा - इन शब्दों का वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ ।
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स्फुट प्रत्यय
- शब्द संग्रह (शस्त्र वर्ग १) हथियार--अत्थं, आउहं बंब-फोडत्थं (सं) तलवार--असी (पुं) खग्गो तोप --सयग्घी (दे० स्त्री) ढाल-फलगो
राइफल-कुच्छिभरियत्थं (सं) भाला-कुंतो
टेक-सत्थावरुहं (सं) बंदूक-भुसुंढि (दे० स्त्री) कटार-करवालिआ दांती-लवित्तं
लाठी-लगुडो, डंडो, दंडो गुप्ती-करवालिआ
केंची-कत्तिया हयोडा-घणो (दे०) सुई-सुई (स्त्री) वी-सल्लं
धान्य-सस्सं
अभिषेक-अभिसेओ, अभिसेगो वेतन लेकर काम करने वास्तव-जहत्थं वाला-वेयणियो
पातु संग्रह वाय-पढना, पढाना
वावाअ-मार डालना वायाम-कसरत करना वास-संस्कार डालना वार-रोकना
वाह-वहन कराना वा-गति करना
वाहर-बोलना वा-बुनना
वाल-मोडना मयट् प्रत्यय
नियम ६५९ (सर्वानादीनस्येकः २११५१) सर्वाङ्ग शब्द से व्याप्नोति (व्याप्त) अर्थ में होने वाले (इन) प्रत्यय को इक आदेश होता है। सर्वाङ्गीणम् (सव्वंगीओ) सब अंगों में व्याप्त ।
नियम ६६० (पथोणस्थेकट् २०१५२) पथ शब्द से नित्य जाने के अर्थ में होने वाले ण प्रत्यय को इकट् (इअ) आदेश होता है। पह+इ== पहिओ (पथिकः) पथिक ।
. नियम ६६१ (ईयस्यात्मनो णयः २।१५३) आत्मन् शब्द से शेष अर्थ में होने वाले ईय प्रत्यय को प्राकृत में णय आदेश होता है। अप्प+णय :
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३२८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
अप्पणयं (आत्मीयम्) अपना ।
नियम ६६२ (अनऊ कोठातलस्य डेल्लः २०१५५) अंकोठ शब्द को छोडकर 'उसका तेल' इस अर्थ में डेल्ल (एल्ल) प्रत्यय होता है । कटुतैलम् (कडुएल्लं) कटु का तैल ।
(मयट्य इर्वा ११५०) नियम ८१ के अनुसार-संस्कृत के मयट् प्रत्यय में म के अ को अइ आदेश विकल्प से होता है। विषमयः (विसमइओ, विसमओ) जिसका अधिकांश भाग विषयुक्त हो । प्रयोग वाक्य
अत्थस्स परंपराए अवसाणो न भवइ । खत्तिओ खग्गेण सत्तुं (शत्रु) मारइ। फलगस्स पओगो सुरक्खाए (सुरक्षा) कज्जइ । गामवासिणो जुज्झकाले परुप्परं सल्लस्स पओगं करेंति। महारायपयावस्स (महाराणा प्रताप) कुंतं किं को वि हत्थे गिहि समत्थो? तुज्झ भाउणा भुसुंढीए पंच जणा मारिआ। किसीवलो लवित्तेण सस्साइं लुअइ। आणं विणा णियघरे को फोडत्थाई णिम्माइ ? गोपालेण करवालिआए मुल्लं दिण्णं । विमलेण दंडस्स पोगो कहं कओ? सुसीला कत्तिआए वत्थाणि कत्तइ। लोहारेण घणेण पहारो दिण्णो। रायाभिसेआवसरे सयग्घीए पओगो केण कओ? सत्थावरुहस्स पहारो पलंबो भवइ। सुसीला सूईए वत्थाई सिव्वइ । धातु प्रयोग
उवज्झायो सुत्तं वायइ । अहं पच्चूसे वायामामि । माआ सिसु बाहिं गमिवारेइ । वाऊ मंदं वाइ । तंतुवायो वत्थाई वाइ। सो मुक्खो मच्छिओ वावाअइ । आयरिओ सावगा वासइ। सासू पुत्तवहूए सह मिउवाहरइ । कि तुम लोहं वालि समत्थो ? प्रत्यय प्रयोग
तुझ लेहो सव्वंगीओ वरो अत्थि । पहिओ मग्गे पिवासिओ जाओ। संसारे अप्पणयं कि अत्थि? अयसी एल्लं आवणे किं सुलहमत्थि ? घयमइअं भोयणं भक्खि को-को इच्छइ ? प्राकृत में अनुवाद करो.
हथियार मात्र साधन है। एक समय तलवार का अधिक महत्त्व था। ढाल किसके पास है ? वी अनेक घरों में उपलब्ध होती है। भाले का प्रयोग शक्तिशाली व्यक्ति ही कर सकता है। उसने बंदूक से हरिण को मारा। हरगोपाल की दुकान में बम कैसे फूटा ? तुम तोप का प्रयोग कब करोगे? राइफल किसके पास थी ? उसने टैंक से अनेक लोगों को मारा। विवाह में दुलहा कटार रखता है । वह खेत में दांती से घास (तणं) काटता है। क्या
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स्फुट प्रत्यय
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तुम लाठी चलाना सीखते हो ? कैंची से ही कोट, पतलून आदि बनते हैं । हथौडा किसके पास मिलेगा सूई का काम करो, कैंची का नहीं । धातु का प्रयोग करो
दूसरों को पढाना सरल नहीं है । स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन व्यायाम करना चाहिए | तुम मुझे उसके पास जाने के लिए क्यों रोकते हो ? आज हवा नहीं चलती है। गांव-गांव में कपडे बुनना चाहिए । सिंह पशुओं को ओर मनुष्य को मार डालता है। माता अपने बच्चों में संस्कार डालना चाहती है । तप को वहन कराना आचार्य का कार्य है । ध्यान के समय कौन बोलता है ? जो अपने विचारों को सत्य की ओर मोडता है, वही वास्तव में सत्य का शोधक है ।
प्रत्यय का प्रयोग करो
हमारा सर्वांगीण विकास होना चाहिए । पथिक का काम है मार्ग में चलते रहना । अपने देश का गौरव किसको नहीं होता ? सरसों का तेल कहां मिलेगा ? आज दहिमय साग खाने की इच्छा है ।
प्रश्न
९. मयट् प्रत्यय को क्या आदेश होता है ? तीन शब्द बताओ ।
२. उसका तेल अर्थ में क्या प्रत्यय होता है ?
३. इस पाठ में इक, इकट् और णय प्रत्यय किस शब्द से किस अर्थ में
किस प्रत्यय को हुआ है ?
४. तलवार, भाला, बंदूक, दांती, वर्धी, तोप, बंब, हथौडो, लाठी, कैची, ढाल, गुप्ती, सूई- --इन शब्द बताओ ।
५. वाय, वायाम, वार, वा, वा, वावाअ, वास, वाह, वाहर, वाल— इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
राइफल, टैंक, कटार,
शब्दों के लिए प्राकृत
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धनुष - धणू मुद्गर - मोगरो
कुल्हाडी —- कुहाडी, फरसू आरा - करकयो
चक्र — चक्को
अंकुश - अंकुसो चाबुक कसो
छुरी-छुरिया
०
म्यान – खग्गपिहाणयं
हक्क - हांकना, खदेडना
छीनना
हर-हरण करना, हरिस- खुश होना हव—होना हो --होना
खुद्द खुद्दअर
पडु
तरतम प्रत्यय
शब्द संग्रह ( शस्त्र वर्ग २ ) पिस्तौल - गुलिअत्थं (सं) मशीनगन-गुलिआजंतं (सं)
वाण- सरो
गदा गया
त्रिशूल - तिसूलं
सरीता - संकुला
पत्थर फेंकने का अस्त्र - गुंफणं
वज्र-
- वज्जो
पटुअर, पडीयस
तरतम प्रत्यय
प्राकृत में एक की अपेक्षा से अच्छा के अर्थ में प्रत्यय तथा सबसे अच्छा के अर्थ में का प्रयोग संस्कृत के समान होता है । होते हैं । जैसे पिओ पुत्तो । पिआ धूया । पिअं पोत्ययं ।
शब्द अर (तर)
अम (तम )
गुरु गरीयस
पिअ पिअअर
उच्च उच्चअर
o
तूणीर तूणी, तूणा
धातु संग्रह
हस - हीन होना, कम होना त्यागना
हा हिंड-भ्रमण करना, जाना हिरि - लज्जित होना हील -अवज्ञा करना
अर (तर) और ईयस अम ( तम) और इट्ठ ( इष्ठ) प्रत्ययों विशेष्य के अनुसार इसमें तीनों लिंग
गरिट्ठ
पिअअम
उच्चअम
खुद्दअम पडुअम, पडिट्ठ
शब्द अर (तर)
तिक्ख
तिक्खअर
जेट्ठ
जेटुअर
भूयस
कणीअस
बहु
अप्प
अम (तम ) तिक्खतम
जे अम
भूयिट्ठ
कणिट्ठ
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तरतम प्रत्यय
प्रयोग वाक्य
रामो धणुणा बाल मारीअ । वावामे अहं मोग्गरं चलावेमि । सो कुहाडी कट्टा कट्टर । सो करकयेण रुक्खं कट्टइ । चक्को णरं मारिउ समत्यो । दीहकायो नागो अंकुसेण वसीभवइ । आसवरो कसं न इच्छइ । सुसीला छुरियाए सागं कट्टइ । रामस्स सरो बालीइ हिअये पविसीअ । भीमस्स गया सिद्धा अस्थि । सिवस्स तिसूलस्स उवओगो कि आसि ? देविंदो वज्जेण देवं मारइ | विजएण गुलिअत्थेण तिष्णि जणा मारिआ । सुसीला संकुलाई पोग्गफलाई कट्टइ । अमुम्मि गयरे अज्ज गुलिआजंतस्स पओगो कह जाओ ? किसीवलो गुंफणेण चडआओ मारइ । देविंदो कस्स उवरि वज्जं अक्विइ । धातु प्रयोग
गोवालो धेणूओ हक्कइ । चोरो सुणिऊण अहं हरिसामि । झाणेण कोहो हाइ । तुमं कत्थ हिंडसि ? अणायारं हीलइ ?
३३१
प्रत्यय प्रयोग
संपइ अत्थ मुणी जयचंदो साहुसु जेट्ठयरो अस्थि । कणिट्ठो साहू गिरीसो कि पढइ ? गरिट्ठ भोयणं साहूणं न हियअरं अस्थि । तेरापंथधम्मसंघे उच्चअमं पयं आयरियस्स अस्थि । अणुव्वयस्स पयारे भूयिट्ठो पयासो (प्रयास) केण कओ ?
धातु का प्रयोग करो
सेट्ठित्तो धणं हरइ । तुज्झ विआसं कमसो हसइ । सो जावज्जीवं सुरं सेवित्ता सो हिरिंसु । सो तुं कहं
प्राकृत में अनुवाद करो
राम के युग में धनुष का विशेष महत्त्व था । किसान ने कब कुल्हाडी से इस वृक्ष की शाखा को काटा ? आरा (करोत) विशाल वृक्षों को भी काट देती है । अंकुश बहुत छोटा होता है, पर शक्तिशाली होता है । तुम घोडे को चाबुक क्यों मारते हो ? आपकी छुरी किस पर चलेगी ? हनुमान की गदा से सब भयभीत हो जाते थे । उसका हृदय वज्र के समान कठोर है । त्रिशूल किन संन्यासियों की पहचान है ? मेरा मुद्गर किसके पास है ? सुदर्शन चक्र बडा शक्तिशाली है। तुम सरीता किस दुकान से लाए हो ? वीरेन्द्रसिंह के पास पिस्तौल है। मशीनगन कितनी दूर तक मार करता है ? उसने म्यान से तलवार निकाली । राम का तूणीर तुम ले जाओ । वज्र केवल देवों के इन्द्र काही शस्त्र है ।
किसान का लडका पशुओं को हांकता है । कसाई ( सोणिओ) बकरों
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३३२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
को मारता है। रावण ने सीता का हरण किया। आचार्य को अपने गांव में पाकर गांव के लोग बहुत प्रसन्न हैं। तुम्हारा प्रभाव कम क्यों हुआ? साधु बनने वाला परिवार के मोह को त्यागता है। हमने अनेक प्रान्तों का भ्रमण किया। किसी को हिंसा नहीं करनी चाहिए । अनुत्तीर्ण में अपना नाम सुनकर वह लज्जित हुआ। तुम उसकी अवज्ञा क्यों करते हो ? प्रत्यय का प्रयोग करो।
वह सबसे छोटा है । तुम मेरे से बड़े हो। तुम मुझे सबसे प्रिय हो । राम भाइयों में सबसे बडा था। क्या वह तुमसे बडा है ? सुशील अपने परिवार में सबसे छोटा है। इसकी धार उससे तीक्ष्ण है। इस गांव में सबसे ऊंचा मकान किसका है ? गरीष्ठ भोजन मत करो। विनय सबसे अधिक पटु है । सोहन मोहन से क्षुद्र है । तुम्हारे में उससे अधिक गुण है ।
प्रश्न १. तरतम प्रत्ययों के स्थान पर कौन से प्रत्यय होते हैं ? दोनों में क्या
अंतर है ? २. अर और अम प्रत्ययान्त शब्द किस लिंग में व्यवहृत होते हैं ? ३. पांच वाक्य अम प्रत्यय लगाकर बनाओ। ४. धनुष, मुद्गर, कुल्हाडी, आरा, चक्र, अंकुश, चाबुक, सरौता, छुरी,
बाण, गदा, त्रिशूल, वन, मशीनगन, पिस्तौल, फत्थर फेंकने का अस्त्र,
म्यान और तूणीर के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. हक्क, हर, हरिस, हस, हा, हिंड, हिरि और हील धातुओं के अर्थ
बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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६२
प्रेरणार्थक प्रत्यय (१) णिजन्त (जिन्नन्त)
शब्द संग्रह (सुगंधित पत्र-पुष्प वाले पौधे) कमल-पोम्म
चमेली-जाई, मालई गुलाब-पाडलो
जूही-जूही, जूहिआ चंपा-चंपा, चंपयो
अडहुल-जासुमणो मौलसिरी-बउलो
तिलक-तिलगो, तिलयो मरुआ-मरुअगो, मरुअओ दोना--दमणगो, दमणगं
मरुवयो अगस्तिया-अगत्थियो सिन्दुरिया--सिन्दुरो केवडा-केअगो
कूजा-कुज्जयो वासंती-णवमालिया तुलसी—तुलसी मोगरा, वेला-मल्लिआ। गेंदा-झंडु (सं)
धातु संग्रह सिंच-सींचना, छिडकना सिणिज्झ-स्नेह करना सिंज-अस्फुट आवाज करना सिर—बनाना, निर्माण करना सिक्ख-सीखना, पढना
सिलाह-प्रशंसा करना सिज्झ-सीझना, निष्पन्न होना सिलेस--आलिंगन करना सिणा-स्नान करना
सिव्व-सीना, सांधना
प्रेरणार्थक प्रत्यय जहां एक कर्ता को दूसरा कर्ता कार्य करने को प्रेरित करता हो वहां संस्कृत में णि प्रत्यय आता है। भिक्षु शब्दानुशासन में णि के स्थान पर बिन् प्रत्यय आता है । इसलिए णिजन्त को बिन्नन्त कहते हैं।
नियम ६६३ (णेरदेदावावे ३१४६)णि के स्थान पर अत्, एत्, आव और अवे-ये चार आदेश होते हैं ।
नियम ६६४ (अदेल्लुक्यादेरत आः ३३१५३) णि को अत् या ऐत् आदेश होने पर या णि का लुक् होने पर धातु के आदेश अ को आ हो जाता है । अत्-हासइ । एत्-हासेइ । आव-हसावइ । आवे-हसावेइ । कारइ, कारेइ, करावइ, करावेइ । उवसामइ, उवसामेइ, उवसमावइ उवसमावेइ ।
नियम ६६५ (गुविरविर्वा ३१५०) उपधा में गुरु या दीर्घस्वर
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
वाली धातु हो तो अवि प्रत्यय विकल्प से होता है । अत्, एत, आव और आवे प्रत्यय भी होते हैं । चूस-चूसइ, चूसेइ, चूसावइ, चूसावेइ, चूसविइ ।
नियम ६६६ (भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाडौ ४.३०) णि प्रत्ययान्त भ्रम धातु को तालिअण्ट और तमाड विकल्प से आदेश होते हैं । भ्रमयति (तालिअण्टइ, तमाडइ) पक्ष में
नियम ६६७ (भ्रमेराडो वा ३३१५१) भ्रम धातु से परे णि को आड आदेश विकल्प से होता है। भमाडइ, भमाडेइ । पक्ष में भामइ, भामेइ, भमावइ, भमावेइ (भ्रमयति) घूमता है।
नियम ६६८ (देणेणुमनूमसन्नुम-तुक्कौम्बाल-पव्वालाः ४।२१) णि प्रत्ययान्त छद धातु को णुम, नूम, सन्नुम, ढक्क, ओम्वाल और पव्वाल आदेश विकल्प से होते हैं। छादयति (णुमइ, नूमइ, सन्नुमइ, ढक्कइ, ओम्वालइ, पव्वालइ, छायइ) ढंकवाता है।
नियम ६६६ (निविपत्योणिहोडः ४।२२) नि उपसर्गपूर्वक वृन् धातु और पत् धातु णि प्रत्ययान्त हो तो उसे णिहोड आदेश विकल्प से होता है। निवारयति (णिहोडइ, निवारेइ) निवारण करवाता है। पातयति (णिहोडइ, पाडेइ) गिराता है।
नियम ६७० (दूडो दूमः ४।२३) णि प्रत्यान्त दूङ धातु को दूम आदेश होता है । दावयति (दूमेइ) दुःखित करवाता है।
नियम ६७१ (धवले दुमः ४।२४) णि प्रत्ययान्त (धवलयति) रूप को दुम आदेश विकल्प से होता है । धवलयति (दुमइ, धवलइ) सफेद करना, चूना आदि से पोतना। प्रयोग वाक्य
जाईए पुप्फाई सुन्दराई भवंति । जुहिआ देसस्स सव्वभागे उप्पज्जइ । पोम्मं पंके उप्पज्जइ परं उवरि चिट्ठइ । पाडलस्स पुप्फाइं पसिद्धाइं संति । चंपयस्स पुप्फाणि अत्थ न संति । कयंबो गुणेण सीयलो भवइ । बउलस्स बीएसु एगविहं तेल्लं भवइ । कुज्जयो पाडलस्स चेअ जाई (जाति) अस्थि । मल्लिआए अणेगे भेया संति । केअगो कर्फ नासइ । तिलगस्स पुष्पं तिलसमं भवइ । जासुमणो अणेगवण्णो भवइ। सिन्दुरस्स रुक्खो सुंदरो होइ। अगस्थियो दक्खिणदेसे बंगदेसे य पउरेण भवइ । तुलसीए पत्ताणि ओसहीए उवओगीइं भवंति। दमणगो सयं उप्पज्जइ । मरुवयो देसस्स सम्वभागे मिलइ । झंडू जरणासगो भवइ। धातु प्रयोग
रटुवई गिहुज्जाणं पइदिणं सिंचइ । बालो किं सिंजइ ? अहं तुहाओ सिक्खि अहिलसामि । घरे अन्नं सिज्झइ । तुमं दिणे कइहुत्तो सिणासि । सो
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प्रेरणार्थक प्रत्यय (१)
३३५
कमवि न सिणिज्जइ । तुम के सिलाहसि ? रामो लहुभारं सिलेसइ । सरोया वत्थाई सिव्वइ । तुज्झ पसंसं सुणिऊण सो कहं तुमं सिणिज्झइ ? अहं कव्वं सिरामि । प्रेरणार्थक प्रत्यय प्रयोग
असोगो तुं कहं हसावेइ ? सो तुम कज्जं कराइ। माआ बालं अंबं चूसावेइ । कम्माइं णरं संसारे भमाति । गिहसामी भिच्चेण सयणं ओम्बालइ। सो रुक्खत्तो फलाई णिहाडेइ । साहू जणाणं दुक्खं णिहोडइ । तस्स हिययं को दूमेइ ? रमेसो भी इं दुमेइ। प्राकृत में अनुवाद करो
नेहरुजी गुलाब का फूल अपने पास रखते थे। इस गांव में भी कमल पैदा होता है । हमारे बाग में चमेली के फूल बहुत हैं। क्या इस उद्यान में जूही नहीं है ? चंपा का वृक्ष १२ मास हरा रहता है। कदंब कफकारक और वायुजनक होता है। मौलसिरी कुष्ठ के रोग को दूर करता है। कूजा की लता बहुत फैलती है। वेला के पुष्प मेरे भाई को बहुत प्रिय है। केवडा दो प्रकार का होता है । तिलक दांत संबंधी रोगों को दूर करनेवाला है। जवाकुसुम (अडहुल) का तेल महंगा मिलता है । सिन्दुरिया के फूल प्रसिद्ध हैं। अगस्तिया प्रतिश्याय, ज्वर और कास में लाभकारी है। लोग तुलसी को पवित्र मानते हैं । दौना बालकों के उदर संबंधी बीमारी में बहुत उपयोगी है। मरुआ की सुगंध मीठी होती है । गेंदा के फूलों का रस रक्त बवासीर में लाभप्रद है। धातु का प्रयोग करो
तपस्वी साधु-साध्वियों ने अपनी तपस्या से संघ को सींचा है। अस्फुट आवाज करनेवाला शिशु इस घर में कोई नहीं है । मैं प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ से सीखता हूं। खीचडी अभी सीझी नहीं है। तुम स्नान क्यों करते हो ? उसने तुमसे स्नेह कब किया ? मनुष्य का निर्माण कौन करेगा? वे सब विमल की प्रशंसा करते हैं । पिता ने पुत्री का आलिंगन किया। टूटे दिल को सीने का प्रयास करो। जिन्नन्त धातु का प्रयोग करो
• तुम उसको क्यों हंसाते हो? वह तुमसे अप्रामाणिक कार्य क्यों करवाता है ? पिता पुत्र को क्यों चूमता है ? मंत्री राजा को राज्य में घुमाता है । वह तुम्हारी प्रतिष्ठा को क्यों गिराता है ? वैद्य से वह रोग का निवारण करवाता है।
प्रश्न
१.णि के स्थान पर क्या आदेश होते हैं ? २. अवि प्रत्यय विकल्प से कहां होता है और किस नियम से ?
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३३६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
३. तालिअण्ट और तमाड आदेश किसको होता है ? ४. निपूर्वक वृन् धातु से णि प्रत्यय को क्या आदेश होता है ? ५. धवलयति और दावयति को किस नियम से क्या आदेश होता है ? ६. कमल, गुलाब, चंपा, गेंदा, मौलसिरी, खस, वेला, चमेली, जूही
औडहुल और केवडा के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ७. सिंच, सिंच, सिक्ख, सिज्झ, सिणा, सिणि ज्झ, सिर, सिलाह, सिलेस,
सिव्व और सी धातुओं का अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो। ८. णउलो, सरडो, खाडहिला, कुंतो, कारवलिआ, फलगो, कसो सरो,
छरिया-इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अनुवाद करो।
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६३
प्रेरणार्थक प्रत्यय (२)
शब्द संग्रह [सुगंधित द्रव्य केसर-कुंकुमं
कस्तूरी- कत्थूरी, कत्थूरिआ इत्र-पुप्फसारो
गुलाबजल-पाडलजलं केवडाजल-केअइजलं गूगल-गुग्गुलो अगर—अगरो
कर्पूर--कप्परो तगर-तगरो, टगरो
कुंदरु-कुंदुरुक्को खस-उसीरं
सुगंधबाला-हिरिबेरो मुलहठी-लट्ठिमहु (सं) नख-नखं (सं) चंदन-चंदणो
कंकोलकंकोलो शिलारस-सिल्हगं
लोहबान-लोवाणो (सं)
मुसलमान-जवणो
यंत्र-जंतं धुआं---धुम्मो
धातु संग्रह सील-अभ्यासकरना सुप-मार्जनकरना सुअ-सुनना
सुप्प-सोना सुंघ-सूंघना.
सुव–सोना सुज्झ---शुद्धहोना
सुसमाहर-अच्छी तरह ग्रहण करना सुत्त-बुनना
सुस्स-सूखना नियम ६७२ (तुलेरोहामः ४॥२५) णि प्रत्ययान्त तुल् धातु को ओहाम आदेश विकल्प से होता है
तुलयति (ओहामइ, तुलइ) तौलता है, तुलना करता है। __ नियम ६७३ (विरिचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः ४।२६) वि पूर्वक रेचयति को ओलुण्ड, उल्लुण्ड और पल्हत्थ----ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं । विरेचयति (ओलुण्डइ, उल्लुण्डइ, पल्हत्थइ, विरेअइ) विरेचन करवाता है।
नियम ६७४ (तडेराहोड-विहोडौ ४।२७) णि प्रत्ययान्त तड् धातु को आहोड, और विहोड़ आदेश विकल्प से होता है। ताडयति (आहोडइ, विहोडइ, ताडइ) पिटवाता है।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ६७५ (मिधे सालमेलवो ४।२८) णि प्रत्ययान्त मिथ् धातु को वीसाल और मेलव-ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। मिश्रयति (वीसालइ, मेलवइ मिस्सइ) मिलाता है ।
नियम ६७६ (उर्दूले गुण्ठः ४।२६) उद्धृलयति को गुण्ठ आदेश विकल्प से होता है।
उद्ध्लयति (गुण्ठइ, उद्ध्लेइ) धूसरित करता है।
नियम ६७७ (नशे विउडनासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः ४१३१) णि प्रत्ययान्त नश् धातु को विउड, नासव, हारव, विप्पगाल, पलाव-ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं । नाशयति (विउडइ, नासवइ, हारवइ, विप्पगालइ, पलावइ, नासइ) नाश करवाता है ।
नियम ६७८ (दृशे दव-वंस-दक्खवाः ४१३२) णि प्रत्ययान्त दृश् धातु को दाव, दंस और दक्खव-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं।
दर्शयति (दावइ, दंसइ, दक्खवइ, दरिसइ) दिखाता है।
नियम ६७६ (घटेः परिवाडः ४।५०) णि प्रत्ययान्त घट् धातु को है परिवाड आदेश विकल्प से होता है। घटयति (परिवाडइ, घडेइ) घटाता है, संगत करता है।
__ नियम ६८० (उद्घटे रुग्गः ४।३३) णि प्रत्ययान्त उद्पूर्वक घट धातु को उग्ग आदेश विकल्प से होता है। उद्घाटयति (उपगइ, उम्घाडइ) खोलता है।
नियम ६८१ (वेष्टेः परिमालः ४१५१) णि प्रत्ययान्त वेष्ट धातु को परिआल आदेश विकल्प से होता है। वेष्टयति (परिआले, वेढेइ) वेष्टन करता है, लपेटता है।
___ नियम ६८२ (स्पृहः सिहः ४॥३४) णि प्रत्ययान्त स्पृह, धातु को सिह आदेश होता है । स्पृहयति (सहइ) चाहता है।
नियम ६५३ (संभावेरासंघः ४।३५) संभावयति को आसंघ आदेश विकल्प से होता है । संभावयति (आसंघइ, संभावइ) संभावना करता है। प्रयोग वाक्य
तेण कंकममीसियपयो कहं पिज्जइ ? पारसो गिम्हकाले पाडलपुष्फसारस्स पओगं करेइ । से जंतलेहणे पाडलजलं मग्गइ । सा केअइजलं नेत्तपीलाए नेत्तेसु पाडेइ । अमुम्मि गामम्मि केसि पासे महग्घा कत्थरी अत्थि ? सो कप्पूरेलाकंकोलं तंबोलं खाअइ। कप्पूरो सेयवण्णो होइ। तगरस्स अवरनामं सुगंधबाला अत्थि । कुंदुरुक्को सल्लईए (सल्लकी वृक्ष) णिय्यासो भवइ । नखं नक्खसरिसं होइ अओ नखं कहिज्जइ । अंगारे ठविएण लोवाणे सेयवण्णस्स धुम्मों (धूआं) णिस्सरइ । चंदणो सीयलदो भवइ । कंकोलो मुहस्स दुमंधत्तं
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प्रेरणार्थक प्रत्यय (२)
३३६ दूरीकरेइ । लट्ठिमधुम्मि सेयवण्णा महुरपय त्थो भवइ । हिरिबेरम्मि कत्थूरीसमो सुगंधो भवइ । उसीरं तणस्स मूलं अस्थि । सिल्हगम्मि णिय्याससमो सुगंधो होइ । पुराणरुक्खस्स कट्ठम्मि अगरो कत्थइ मिलइ । धातु प्रयोग
सो मासम्मि चत्तारि सामाइयाणि सीलइ । सो सव्वा सुणइ, परं करेइ णियमईए । अहं पुष्फाई न सुंघामि । सो पायच्छित्तेण सुज्झइ। सिरीभिक्खुसद्दाणु सासणस्स सुत्ताइं केण सुत्तीअ ? सा भायणाणि सुपइ । साहू रोगं अन्तरेण दिणे कहं सुप्पइ ? अहं रत्तीए सिग्धं सुवामि । तुज्झ सरीरं कहं सुस्सइ ? तुमं सिक्खं सुसमाहरसि। जिन्नन्त धातु का प्रयोग
सो तुमं केण सह ओहामइ, तुलइ वा । वेज्जो रोगि विरेअइ, ओलुण्डइ, पल्हत्थइ वा। रमेसो सत्तुं अण्णेण पुरिसेण विहोडइ, आहोडइ, ताडइ वा । पिआ पुत्तेण सुद्धघयम्मि वणस्सइघयं वीसालइ, मेलवइ, मिस्सइ वा । को वत्थाई गुण्ठइ, उद्धृलेइ वा ? सो तुम्हे पोत्थयं दाऊण कहं विउडइ, नासवइ, हारवइ, विप्पगालइ, पलावइ, नासइ वा । तुम णियनव्वभवणं कं दावइ दंसइ, दक्खवइ, दरिसवइ वा ? को घडं परिवाडइ, घडेइ वा ? मंती सहाभवणं उग्गइ, उग्घाडइ वा। हत्थलिहियपोत्थयं को परिआलेइ, वेढेइ वा ? साहू तवस्सिं भत्तपाणपच्चक्खाणं सिहइ । किं तुमं न संभावसि मग्गे अवरोहं आगमिस्ससि ? प्राकृत में अनुवाद करो
वह मिठाई में केसर मिलाता है । इत्र की सुगंध से सारा कमरा भर गया । केवडे का जल ठंडा होता है । कस्तूरी मृग के नाभि में होती है। गुलाब जल बाजार में किसके पास मिलेगा ? पान में कर्पूर कौन खाता है ? लोग गर्मी में ठंडी हवा के लिए खस को काम में लेते हैं । तगर का मूल्य क्या है ? कुंदुरु कहां पैदा होता है ? लोबान का प्रयोग मुसलमान अधिक करते हैं । औषधि में सुगंधबाला के मूल का व्यवहार होता है । मुलहठी चीनी से ५० गुणा अधिक मीठी होती है । नख समुद्री जीव के मुख के ऊपर का आवरण है। क्या तुम्हारे पास शिलारस है ? कंकोल अंधापन को दूर करती है । हमारे घर में अगर है। धातु का प्रयोग करो
निद्रा कम करने का अभ्यास करना चाहिए। तुम मौन रहकर किस की बात सुनते हो ? कुत्ता चोर को पकडने के लिए क्या सूंघता है ? वह स्नान कर शरीर को शुद्ध करता है । वह रुई से कौन-सा वस्त्र बुनना चाहता
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३४०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
है ? सीता अपने सम्पूर्ण घर का मार्जन करती है । तुम दिन में बार-बार क्यों सोते हो ? वह रात में भी नहीं सोता है । तुम्हारी बात को वह अच्छी तरह ग्रहण करता है । किस चिता से उसका शरीर सूख रहा है ? जिन्नन्त धातुओं का प्रयोग करो
वह वायु की गति से मन की तुलना करता है । उसका शरीर स्वस्थ है फिर भी वैद्य विरेचन क्यों करवाता है ? मोहन अध्यापक से सोहन को पिटवाता है । तुम अपनी पत्नी से दूध में पानी क्यों मिलवाते हो ? वह मिठाई को बाजार में खुली छोडकर धूल से धूसरित क्यों करवाता है ? तुम उसको पर्वत पर स्थित भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर दिखाते हो। वह पर्वत पर देवालय करवाता है । तुम पुस्तकालय का उद्घाटन किससे करवाते हो ? वह अपने विस्तर को वेष्टित करवाता है । अहिंसा की यात्रा में साथ चलने के लिए वह तुम्हारी इच्छा करवाता है । क्या वह संभावना नहीं करता कि इससे वह उसका शत्रु बनेगा
प्रश्न
१. शिन् (णि) प्रत्ययान्त तुल, तड, मिश्र, रेचय और वश धातुओं को क्या-क्या आदेश किस नियम से होता है ?
२. गुण्ठ, परिवाड, दाव, उग्ग, परिआल और आसंघ ये आदेश किस-किस धातु से हुए हैं ?
३. केसर, कस्तूरी, इत्र, गुलाबजल, केवडा जल, गूगल, अगर, तगर, कर्पूर, कुंदरु, खस, सुगंधबाला, मुलहठी, नख, चंदन, कंकोल, लोबान, शिलारस शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
४. सील, सुअ, संघ, सुज्भ, सुत्त, सुप, सुप्प, सुव, सुसमाहर, सुस्स इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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प्रेरणार्थक प्रत्यय(३)
- शब्द संग्रह विस्ती और मार्ग वर्ग] ग्राम-गामो
महानगर--महाणयरं बडा कस्वा-दोणमुहं
राजधानी-रायहाणी नगर-णयरं
व्यापारीनगर-पट्टणं उपनगर- उवणयरं
सड़क--महापहो, रायमग्गो छोटीवस्ती (गांव)-पल्ली (स्त्री) मार्ग-मग्गो मुहल्ला---गोमद्दा (दे.) रच्छा । गली-वीहि (स्त्री) हवेली-हम्मिओ (दे.)
गुफा---गुहा, कफाडो (दे०) झोपडी--झंपडा (दे.)
पगडंडी-पद्धइ कुटिया-इरिया (दे.)
प्रासाद-पासायो,
०
समस्या-समस्सा
धातु संग्रह से, सेअ-सोना
सोह-शोभना, चमकाना सेह-सिखाना
साइज्ज-स्वाद लेना सोअ-सोना, शोक करना सार-ठीक करना। सोभ-शोभायुक्त करना सार-याद दिलाना सोह-शुद्धिकरना
सारक्ख-- अच्छी तरह रक्षण करना नियम ६८४ (उन्नमेरुत्थंधोल्लालगुलुगुञ्छोप्पेलाः ४॥३६) : णि प्रत्ययान्त उद्पूर्वक नम् धातु को उत्थंघ, उल्लाल गुलुगुञ्छ, उप्पेल-ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। उन्नमयति (उत्थंघइ, उल्लालइ, गुलुगुञ्छइ, उप्पेलइ, उन्नामइ) ऊंचा करता है, उन्नत करता है।
नियम ६८५ (प्रस्थापेः पठ्ठव-पेण्डवी ४।३७) प्रस्थापयति को पट्टव और पेण्डव आदेश विकल्प से होते हैं । प्रस्थापयति (पट्टवइ, पेण्डवइ, पट्ठावइ) प्रस्थान करवाता है, भेजता है।...
नियम ६८६ (विज्ञपेर्वोक्काबुक्की ४.३८) विज्ञापयति को वोक्क और अवुक्क आदेश विकल्प से होते हैं । विज्ञापयति (वोक्कइ, अवुक्कइ, विण्णवई) विज्ञप्ति करता है।
नियम ६८७ (अर्परल्लिव-चच्चप्प-पणामाः ४॥३६) अर्पयति को
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
अल्लिव, चच्चुप्प और पणाम आदेश विकल्प से होता है । अर्पयति (अल्लिवइ, चच्चुप्पइ, पणामइ) पक्ष में।
(वापा ११६३) नियम १४ से अर्पयत्ति के आदि अ को ओ विकल्प से होता है । अर्पयति (ओप्पेइ, अप्पइ) अर्पण करता है ।
नियम ६८८ (यापेर्जवः ४१४०) णि प्रत्ययान्त या धातु (यापयति) को जव आदेश विकल्प से होता है। यापयति (जवइ, जावेइ) कालयापन करता है।
नियम ६८६ (प्लावेरोम्वाल-पवालो ४१४१) प्लावयति को ओम्बाल और पव्वाल आदेश विकल्प से होते हैं। प्लावयति (ओम्वालइ, पव्वालइ, पावेइ) खूब भिजाता है।
नियम ६६० (विकोशेः पक्खोड: ४।४२) नाम धातु विकोशयति को पक्खोड आदेश विकल्प से होता है। विकोशयति (पक्खोडइ, विकोसइ) खोलता है, फैलाता है।
नियम ६९१ (रोमन्थेरोम्माल-वग्गोलौ ४४३) नाम धातु रोमन्थयति को ओग्गाल और वग्गोल—ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। रोमन्थयति (ओग्गालइ, वग्गोलइ, रोमन्थइ) चबाई वस्तु को पुनः चबाता है ।
नियम ६९२ (प्रकाशेणुव्वः ४१४५) प्रकाशयति को गुव्व आदेश विकल्प से होता है। प्रकाशयति (णुब्वइ, पयासेइ) प्रकाशित करता है, चमकाता है।
नियम ६९३ (कम्पेविच्छोल: ४।४६) कम्पयति को विच्छोल आदेश विकल्प से होता है । कम्पयति (विच्छोलइ, कम्पेइ) कंपाता है ।
नियम ६६४ (आरोहेर्वलः ४४७) आरोहयति को वल आदेश विकल्प से होता है। आरोहयति (बलइ, आरोवेइ, आरोहेइ) ऊपर चढाता है।
नियम ६६५ (रजे राधः ४।४६) णि प्रत्ययान्त र धातु को राव आदेश विकल्प से होता है । रञ्जयति (रावेइ, रजेइ) खुशी करता है।
नियम ६६६ (कमेणियः ४।४४) कम् धातु स्वार्थ में णि प्रत्ययान्त हो तो णिहुव आदेश विकल्प से होता है । कामयते (णिहुवइ, कामेइ)।
नियम ६९७ (दोले रङ खोलः ४.४८) दुल् धातु स्वार्थ में णि प्रत्ययान्त हो तो रङ खोल आदेश विकल्प से होता है। दोलायते (रङ खोलइ, दोलइ) झूलता है। प्रयोग वाक्य
गामवासिणो समक्खे का समस्सा अत्थि ? सुसीलो कम्मि दोगमुहे
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प्रेरणार्थक प्रत्यय (३)
वसइ ? णयरवासिणो गामम्मि वसिउं न इच्छंति । रायहाणीए लोआ पइवरिसं वड्दति । भारहे केत्तिलाई महाणयराइं संति ? चोरपल्लीइ चोरा चेअ वसंति । वरिसाए साहुणो झुपडाइ ठाअंति । किं तुज्झभवणं रायमग्गे अत्थि ? वीहीए सूअरा भमंति । गोमदाए केत्तिला जणा निवसंति ? रायहाणीए महरोलीए उवणयरे मज्झ भाआ वसइ । कुडुल्लीए साहू अत्थि न वा । अहं पट्टणे गमिउ इच्छामि । एगो साहू गुहाए झाणं झाएइ । पासायम्मि राया कहं नत्थि ? अजत्ता रायिंदो णियणव्वम्मि हम्मिम्मि वसइ । धातु प्रयोग
तुम रत्तिदिवहं कहं सोअसि ? तुज्झ मित्तं तुं कि सेहइ ? तुम किम अज्ज सोअसि ? परिवारेण सह चंदो राईए सोहइ । तुज्झ लेहं पसंतो सोहइ । गगणे राओ चंदो सोहइ । साहू वत्थूइं न साइज्जइ । सो असुद्धं सिलोगं सारइ । रमेसो सारइ जं तुमए तं कज्ज कयं न वा ? खत्तियो सरणागयं सारक्खइ। प्रत्यय प्रयोग
आयरिअतुलसीए तेरापंथधम्मसंघे नारीजाई उत्थंधीअ, उल्लालीअ, गुलुमुछीअ, उप्पेलीअ वा । पिमा णियपुत्तं रायहाणि पट्टवइ, पट्टावइ, पेण्डक्इ वा । गुरु सीसा धम्मं वोक्कई, अवुक्कइ, विण्णवइ वा । सो जीवणं धम्मपयारटुं अल्लिवइ, चुच्चुप्पइ, पणामई, ओप्पेइ बा । सो धम्म अंतरेण केवलं जीवणं जावेइ, जवेइ वा । तुमं रत्तीइ लवंगा कहं ओम्वालइ, पव्वालइ, पावेइ वा ? ठाणं लभिऊणं सो आसणाई पक्खोडइ, विकोसइ वा । पसुणो सइ (एकबार) भोयणं संमिहंति राओय ओग्गालइ, वग्गोलइ, रोमन्थइ वा । आयरिअतुलसी जेणधम्म णुब्वइ, पयासेइ वा । अहिणिवेसिणो सासगस्स भयं जणा विच्छोलइ, कम्पेइ वा । भिच्चो भारं पव्वयम्मि वलइ, आरोवेइ, आरोहेइ वा । पई पत्तिं आभूसणं दाऊण रावेइ, रजेइ वा। विरत्तो न णिहुक्ई कामेइ वा । सीला दोलाए रङ खोलइ, दोलई वा। प्राकृत में अनुवाद करो
__आजकल शहरों में समस्याएं बहुत हैं। गांव में सडक क्यों नहीं है ? चोरपल्ली में कोई जाना नहीं चाहता। गर्मी में झोंपडी ठंडी रहती है । राजधानी में कई देशों के दूतावास होते हैं। उसका घर गली में ही है । सडक पर चलने का सबको अधिकार है। बड़े शहरों में शुद्ध वायु कम मिलती है। इस मार्ग से दूसरा मार्ग भी निकलता है। राजा का महल गांव में सबसे ऊचा है । सेठ की हवेली में कौन रहता है ? धातु का प्रयोग करो
बच्चा सुख से सोता है । उसे व्यावहारिक ज्ञान सिखाना चाहिए।
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प्राकृत वाक्यरचना बोष
किस प्रदेश के लोग अधिक शोक करते हैं ? बच्चों से घर शोभायमान लगता है। वह पानी से उसके भोजन के स्थान को शुद्ध करता है । गण में साधुओं के बीच आचार्य शोभायमान होते हैं। बच्चा बर्फ का स्वाद लेता है। उसे उच्चारण ठीक करना चाहिए। उसने पुनर्जन्म के संबंध को याद दिलाया। राजा शरण में आए हुए का अच्छी तरह संरक्षण करता है । अिन्नन्त धातओं का प्रयोग करो
प्रधानमंत्री ने अपने भाई की उन्नति की । जैनधर्म के प्रचार के लिए वह समणियों को विदेश प्रस्थान करवाता है । मैं आपकी पुस्तक को आपके हाथों में अर्पण करता हूं। वह संयम से काल यापन करता है । तुम सूठ को पानी में अधिक भिजोते हो । क्या तुम आर्द्रवस्त्र को धूप में फैलाते हो ? ऊंट खाई वस्तु को रात में फिर चबाता है। आचार्य युवाचार्य को प्रकाश में लाते हैं । शीतकाल में ठंडी हवा मनुष्यों को कंपाती है । मंत्री अपने परिवार वालों को ऊंचा उठाता है। पिता बच्चों को मिठाई देकर खुशी करता है । सावन में कौन झूले में नहीं झूलती है।
प्रश्न १. नीचे लिखे आदेश किस नियम से और किस धातु को हुए हैं-उत्थंघ, . पेण्डव, चच्चुप्प, जव, पक्खोड, विच्छोल, राव । २. उन्नमयति, विज्ञापयति, प्रस्थापयति, अर्पयति, प्लावयति और रोमन्थयति . को क्या-क्या आदेश होता है ? ३. स्वार्थ में णि प्रत्यय किन धातुओं को होता है ? ४. ग्राम, बडा कस्वा, शहर, महानगर, राजधानी, व्यापारी नगर, उपनगर,
मुहल्ला, सडक, मार्ग, गली, गुफा, कुटिया, झोपडी-इन शब्दों के लिए - प्राकृत शब्द बताओ। ५. से, सेअ, सेह, सोअ, सोभ, सोह, साइज्ज, सार, सार, सारक्ख-इन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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भावकर्म
शब्द संग्रह (मास वर्ग) श्रावण-सावणं
भाद्रव-भद्दवयं आसोज---आसोओ
कार्तिक-कत्तिओ मृगसर--मग्गसिरो
पोष-पोसो माह-माहो
फाल्गुन-फग्गुणो चैत्र-चइत्तो... .. वैशाख-वइसाहो जेठ-जेट्ठो
आषाढ----आसाढो
धातु संग्रह संक--संशय-करना.. संखा-गिनती करना .. संकम-गति करना, जाना संगच्छ-स्वीकार करना संकल-जोडना, संकलन करना संघट्ट---स्पर्श करना संकेअ-संकेत करना । संघस-संघर्ष करना संकोअ--संकुचित करना संचाय-समर्थ होना भावकर्म
भाव का अर्थ है क्रिया। जहां प्रत्यय केवल क्रिया अर्थ में ही होता है उसे भाववाच्य कहते हैं। जहां धातु से प्रत्यय कर्म में होता है उसे कर्मवाच्य कहते हैं। भाव में कर्म नहीं होता। जहां कर्म होता है उसे भाव नहीं कह सकते । दोनों में से एक रहता है, दोनों साथ नहीं रह सकते।
* भाव का प्रयोग अकर्मक धातु से होता है। रोना, पैदा होना, सोना, लज्जित होना आदि उनके अर्थ वाली धातुएं अकर्मक होती हैं । खाना, पीना, देखना, करना आदि अर्थों में सकर्मक धातु का प्रयोग होता है। इन सकर्मक धातुओं में विवक्षा से कर्म का प्रयोग न करने से अकर्मक रह जाती हैं । प्राकृत में भाव-कर्म में दो प्रत्यय आते हैं—ईअ (ईय) और इज्ज। इन प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय धातु के लगाने से भावकर्म की धातु के रूप बन जाते हैं। इन प्रत्ययों का प्रयोग वर्तमानकाल, विध्यर्थ, आज्ञा और हस्तन भूतकाल में ही होता है। भविष्यत्काल और क्रियातिपत्ति में भावकर्म के प्रत्ययों के रूप कर्तृवाच्य की तरह ही चलते हैं।
नियम ६६८ (ईअ-इज्जो क्यस्य ३३१६०) संस्कृत में भावकर्म में क्य प्रत्यय होता है। प्राकृत में क्य प्रत्यय को ईअ और इज्ज ये दो आदेश होते
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
हैं । हस् + अ = हसीअइ । हस | इज्ज - हसिज्जइ । हो + ईअ होईअइ । हो + इज्ज होइज्जइ । पढ + ईअपढीअइ । पढ + इज्ज पढिज्जइ ।
नियम ६६६ (वृशि-वचे डस- च्वं ३.१६१) दृश् और वच् धातु से क्य प्रत्यय को क्रमश: डीस और डुच्च प्रत्यय होते हैं । दृश् + डीस दीसइ ( दृश्यते), वच् + डुच्च बुच्चइ (उच्यते ) ।
नियम ७०० (म्मश्चे: ४।२४३ ) भाव कर्म में चि धातु के अन्त में म्म विकल्प से होता है, उसके योग में क्य का लुक् हो जाता है । चिम्मइ (चीयते) पक्ष में ।
नियम ७०१ ( न वा कर्मभावे ब्वः क्यस्य च लुक् ४।२४२) चि, जि, श्रु, हु, स्तु, लू, पू और धून् - इन आठ धातुओं के अंत में भाव कर्म में व्य का आगम विकल्प से होता है । उसके योग में क्य का लुक् हो जाता है । चीयते ( चिव्वइ, चिणिज्जइ ) । जीयते ( जिव्वइ, जिणिज्जइ ) । श्रूयते ( सुव्वाइ, सुणिज्जइ ) । भूयते (हुव्व इ, हुणिज्नइ ) । स्तूयते ( धुव्वाइ, थुणिज्जइ ) लूयते ( लुव्वइ, लुमिज्जइ ) । पूयते ( पुव्वइ, पुणिज्जइ) । धूयते ( धुव्वाइ, धुणिज्जइ ) ।
नियम ७०२ ( हन्खनन्त्यस्य ४० २४४ ) हन् और खन् धातु के अंत को भाव कर्म में म्म प्रत्यय विकल्प से होता है । उसके योग में क्य प्रत्यय का लुक् होता है । हन्यते (हम्मइ, हणिज्जइ ) । खन्यते ( खम्मइ, खणिज्जइ ) । नियम ७०३ ( भो दुह-लिह-वह-रुधामुच्चातः ४/२४५) दुह, लिह,, वह और रु धातु को 'भ' प्रत्यय विकल्प से होता है और क्या प्रत्यय का लुक् होता है । दूह्यते ( दुब्भइ, दुहिज्जइ) । लिह्यते (लिब्भइ, लिहिज्जइ ) । (वुब्भ, बहिज्जइ ) । रुध्यते ( रुब्भह, रुन्धिनइ ) ।
उ
नियम ७०४ ( समनूपादुषः ४ । २४८ ) सं, अनु, उप उपसर्ग पूर्वक रुध् धातु को भाव कर्म में ज्झ विकल्प से होता है और क्य प्रत्यय का लुक् होता है । संरुध्यते ( संरुज्झाइ, संरुन्धिज्जइ ) । अनुरुध्यते (अगुरुज्झइ, अणुरुन्धिज्जइ ) । उपरुध्यते ( उवरुज्झइ, उवरुन्धिज्जइ ) ।
नियम ७०५ (दहो ज्झः ४१२४६ ) दह धातु को भाव कर्म में ज्झ प्रत्यय विकल्प से होता है । उसके योग में क्य प्रत्यय का लुक होता है । दह यले (डज्झइ, डहिज्जइ) 1
नियम ७०६ ( लुगावी क्त भावकर्मसु ३११५२) भावकर्मविहित क्त प्रत्यय परे हो तो णि ( त्रिन्नन्त) के स्थान पर लुक और आवि ये दो आदेश होते हैं । कारिअं कराविअं । हासिअं हसाविअं ।
प्रयोग वाक्य
जइणधमाणुसारेण पुच्वं वरिसस्स आरंभी साबण सुक्का पडिवय़ाए
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भावकर्म
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होहीअ । भद्दवये जेणाण संवच्छरी महापव्वं भवइ। आसोयम्मि दसहरापव्वं होइ। दीवावली कत्तिअम्मि भवइ । मग्गसिरम्मि सीअं वड्ढइ। पोसो मलमासो कहिज्जइ। तेरापंथधम्मसंघस्स पमुहपव्वं मेरामहोच्छवं माहम्मि हवइ । भारहे पाओ सव्वत्थ सव्वे जणा फग्गुणम्मि होलि खेलति । चइत्तम्मि सरीरस्स' रत्तं परिअट्टणं भवइ । अक्खयतइया वइसाहमासे भवइ । जे? आइच्चस्स आयवो जणा तावइ । आसाढो वरिसस्स अवसाणमासो अस्थि । धातु प्रयोग
___ जो संकेइ सो विणस्सइ । मुणी संकमेण न संकमेज्ज । असीई पंच सट्ठी य संकलेहि । रमेसो तं किं संकेइ ? तुम तं पण्हेण कहं संकोअइ ? तुम घराइं संखासि । तुज्झ कहणं हं संगच्छामि । पुरिसा साहुणि न संघटृति । सो अग्गिणो अट्ट कट्टाई संघसइ । अहं तं कज्जं करिउ संचाएमि । प्रत्यय प्रयोग
तुमए कहं हसिज्जइ, हसीअइ वा। सुसीलाए पत्ताइं पढिज्जइ । कि तुमए उज्जाणं दीसइ ? तिणा किं वुच्चइ ? तुमए उज्जाणे किं चिम्मइ, चिव्वइ, चिणिज्जइ वा । मुणिणा इंदियाई जिव्वंति, जिणिज्जंति वा। किं तुमए सम्म न सुणिज्जइ ? मए चंदपर्धी थुव्वइ, थुणिज्जइ। जणेहिं साहू सव्वत्थ पुव्वइ, पुणिज्जइ वा । विमलाए कि हुविहिइ, हुणिज्जिस्सइ वा ? तिणा रुक्खाणि कहं लुब्वंति, लुणिज्जंति वा। साहुहिं कम्माइं धुव्वंति, धुणिज्जंति वा । संजमिणा के वि जीवा न हम्मंति, हणिज्जति वा ? अज्ज तुमए भूमी कहं खम्मइ, खणिज्जइ वा। मए गावी दुब्भइ, दुहिज्जइ वा। मए भारो न बुखिभहिइ, वहिज्जिहिइ वा । तस्स मग्गो तुमए कहं रुभइ, रुन्धिज्जइ वा ? इरिसाए हिअयं डज्झइ, डहिज्जइ वा । प्राकृत में अनुवाद करो
श्रावण में वर्षा होती है। भाद्रव में जैन साधु केशलुंचन करते हैं। साधक आसोज की नवरात्रि में जाप करते हैं। कार्तिक में बहिनें गंगा स्नान करती हैं। चतुर्मास के बाद मृगसर में साधु विहार करते हैं। पोष में ठंड अधिक पडती है। माघ में विवाह अधिक होते हैं। फाल्गुन में हवाएं तेज चलती हैं । कुछ प्रदेशों में चैत्र मास में वर्ष का प्रारंभ होता है। वैशाख और जेठ मास में सूर्य का ताप असह्य होता है । आषाढ की पूर्णिमा के दिन तेरापंथ धर्म संघ की स्थापना हुई थी। धातु का प्रयोग करो
धर्म में श्रद्धा करो, संशय मत करो। वह उससे बात करने के लिए राजधानी जाता है । इस गांव के साधार्मिक भाइयों की गिनती करो। वह
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
मौन में संकेत करता है। मुनि अपनी इंद्रियों को संकुचित करता है । वह पुत्री के विवाह के लिए धन को जोडता है । सीमा अपने पति की बात को स्वीकार नहीं करती है । साधु सचित्त का स्पर्श नहीं करते हैं। शांति चाहने वालों को किसी से संघर्ष नहीं करना चाहिए। क्या तुम इस कार्य को करने के लिए समर्थ हो ?
प्रत्यय का प्रयोग करो
सरोज सबकी बात
आजकल धन की
वह क्यों हंसता है ? तुम कौन-सी पुस्तक पढते हो ? वह विद्वान् बनेगा । वह पांच मिनट तक आकाश को देखता है । तुम किसको कहते हो ? वह अवगुणों को चुनता है । विमला मन को जीतती है । सुनती है। तुम किस तीर्थंकर की स्तुति करते हो ? पूजा होती है । क्या भगवान का साक्षात्कार होता है ? वह वृक्ष को क्यों काटता है ? वह सांप को मारता है । वे दस दिनों से खान को खोदते हैं । मेरी बहन भैंस को दुहती है । तुम किसका भार उठाते हो ? हमारी प्रगति को कौन रोकता है ?
प्रश्न
१. भाव कर्म एक है या दो ? विस्तार से समझाओ ?
२. भाव कर्म के रूप बनाने के लिए किन प्रत्ययों का प्रयोग करना
होता है ?
३. नीचे लिखे रूप किन - किन
धातुओं के हैं—दीसइ, वुच्चइ, चिम्मद,
जिव्वइ, लुव्वइ, वुब्भइ, दुब्भइ, पुव्वइ, थुब्वइ ।
४. श्रावण, भाद्रव, आसोज, कार्तिक, मृगसर, पोष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, जेठ और आषाढ-- - इन मासों के लिए प्राकृत के शब्द बताओ ?
५. संक, संकम, संकल, संकेअ, संकोअ, संखा, संगच्छ, संघट्ट, संघस और संचाय धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
६. के अगो, पाडली, मालई, टगरो, लट्ठमहु, कप्पूरो, उवणयरं, कुडुल्ली, कफाडो - इन शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में वाक्य बनाओ ।
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भावकर्म (२)
शब्द संग्रह [ग्रह-नक्षत्र वर्ग] सूर्य--आइच्चो, दिणअरो चंद्रमा-~चंदो, हिमयरो मंगल-अंगारयो
बुध-बुहो बृहस्पति-बहस्सई (पुं) शुक्र--सुक्को शनि--सणी (पुं)
राहु--राहू (पुं) केतु---केऊ (पुं)
नक्षत्र---णखत्तं तारा--तारा
ग्रह-गहो
धातु संग्रह संचिण----संग्रह करना, इकट्ठा करना संझाअ-ध्यान करना, चिंतन करना संचुण्ण-खण्ड-खण्ड करना,
संणज्झ-कवच धारण करना चूर-चूर करना संतर-तैरना संजम-निवृत्त होना
संताव-हैरान करना, तपाना संजय-सम्यक् प्रयत्न करना संथर-बिछोना करना संजोअ-संबद्ध करना, संयुक्त करना
नियम ७०७ (बन्धो न्धः ४।२४७) बन्ध् धातु के न्ध को भावकर्म में ज्झ विकल्प से आदेश होता है, उसके योग में क्य प्रत्यय का लुक् होता है। बध्यते (बज्झइ, बन्धिज्जइ)।
निवय ७०८ (गमादीनां द्वित्वम् ४।२४६) गम्, हस् भण्, छुप्, लम्, कथ् और भुज् धातुओं के अन्त्यवर्ण को भावकर्म में द्वित्व विकल्प से होता है । उसके योग में क्य प्रत्यय का लुक् होता है।
गम्यते (गम्मइ, गमिज्जइ)। हस्यते (हस्सइ, हसिज्जइ) । भण्यते (भण्णइ, भणिज्जइ) । छुप्यते (छुप्पइ, शुविज्जइ) । रुद्यते (रुव्वइ, रुविज्जइ) । लभ्यते (लब्भइ, लहिज्जइ) । कथ्यते (कत्थइ, कहिज्जइ) । भुज्यते (भुज्जइ, भुज्जिज्जइ)
नियम ७०६ (ह-क-त-वामीरः ४।२५०) ह, कृ, त और ज धातुओं के अन्त्य को ईर आदेश विकल्प से होता है, क्य का लुक होता है।
ह्रियते (हीरइ हरिज्जइ) । क्रियते (कीरइ, करिज्जइ)। तीर्यते (तीरइ, तरिज्जइ) । जीर्यते (जीरइ, जरिज्जइ) ।
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३५०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ७१० (अर्जे विढप्पः ४।२५१) अर्ज धातु को विढप्प आदेश विकल्प से होता है, क्य का लुक् होता है । अयंते (विढविज्जइ, अज्जिज्जइ)
नियम ७११ (ज्ञो पव्व-गज्जो ४।२५२) जानाति को कर्मभाव में णव्य और गज्ज-ये दो विकल्प से आदेश होते हैं । उसके योग में क्य का लुक होता है। ज्ञायते (णध्वइ, णज्जइ, जाणिज्जइ, मुणिज्जइ)
नियम ७१२ (व्याहगे हिप्पः ४।२५३) व्याहरति को भावकर्म में वाहिप्प आदेश विकल्प से होता है। उसके योग में क्य का लुक् होता है। व्याह्रियते (वाहिप्पइ, वाहरिज्जइ )
नियम ७१३ (आरमे राउप्पः ४।२५४) आरभते को भावकर्म में आढप्प आदेश विकल्प से होता है, उसके योग में क्य का लुक होता है। आरभ्यते (आढप्पइ, आढवीअइ)
नियम ७१४ (स्निह-सिचोः सिप्पः ४।२५५) स्निह और सिच् धातु को भावकर्म में सिप्प आदेश होता है। उसके योग में क्य का लुक् होता है। स्निह्यते (सिप्पइ) प्रीति करना। सिच्यते (सिप्पइ)
नियम ७१५ (ग्रहे चैप्पः ४।२५६) ग्रह, धातु को भावकर्म में घेप्प आदेश विकल्प से होता है। उसके योग में क्य का लुक होता है। गृह्यते (घेप्पइ, गिण्हिज्जइ)
नियम ७१६ (स्पृशेरिछप्प: ४।२५७) स्पृश् धातु को भावकर्म में छिप्प आदेश विकल्प से होता है। उसके योग में क्य का लुक होता है । स्पृश्यते (छिप्पइ, छिविज्जइ)
नियम ७१७ (क्यको र्य लुक ३।१३८) नाम धातु से होने वाले क्यङ क्यज्, क्यङष् प्रत्ययों के य का लुक् होता है। गरुआइ, गरुआअइ (अगुरुगुरुर्भवति, गुरुरिवाचरति वा इत्यर्थः) । दमदमशब्दंकरोति (दमदमाइ, दमदमाअइ) प्रयोग वाक्य
__ सोहव्व सत्तिमंतो सूरगहो अस्थि । चंदं चइऊण सव्वे गहा दिणअरस्स चोद्दहअंसाओ अंतरो अत्थंगया भवंति । मंगलगहस्स उवसमणट्ठ पवालं परिहियव्वं । बुधगहो वावरं कारवेइ । बहस्सइस्स रंगो पीओ भवइ । सुक्कस्स रंगो सुक्को होइ । सणी सणिसं चलइ। राहू चंदं गसइ। केऊ कूरगहो अत्थि । पुस्सणक्खत्तं सव्वेसु कज्जेसु सुहं भवइ । पत्तेयणक्खत्तस्स भिण्णाओ ताराओ संति । धातु प्रयोग
विमलाए जराइ धणं संचिणइ । महिंदो मोअगं संचुण्णइ । संजमी सावज्जजोगाओ संजमइ । सामाइयम्मि सावगो संजयइ । सो समासे पयाई
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भावकर्म (२)
३५१ संजोअइ । सुहमुणी अहियसमयं संझाअइ । खत्तियो जुज्झे संणज्झइ। गंगानई को संतरिस्सइ ? सेट्ठी भिक्खारिं कहं संतावइ ? राओ पढमपहरस्स पच्छा अहं संथरामि । प्रत्यय प्रयोग
अट्ठदससु पावसु कम्मेहिं बज्झइ, बन्धिज्जइ वा। तुमए कत्थ गम्मइ, गम्मिज्जइ वा ? तुम्हेहि किं भण्णइ, भणिज्जइ वा ? तस्स माआइ को रुव्वइ, रुविज्जइ वा ? सुमणाइ सच्चं कत्थइ, कहिज्जइ वा। सुवण्णवावारे तेण कि लब्भइ, लहिज्जइ वा ? आवणे तुमए किं भुज्जइ, भुज्जिज्जइ वा ? तुज्झ सरीरं तिणा कहं छुप्पइ, छुविज्जइ वा ? तेणं सिसुहत्थाओ पत्थरं हीरइ, हरिज्जइ वा । सुरेसेण नई तीरइ, तरिज्जइ वा । सव्वेहि वत्थूहिं जीरइ, जरिज्जइ वा । मए किमवि न कीरइ, करिज्जइ वा । तेणं दिवहे किं विढविज्जइ अज्जिज्जइ, वा ? तुमए अहं णव्वामि, गज्जामि, जाणिज्जामि, मुणिज्जामि वा । रमेसेण गारुडो वाहिप्पड़, वाहरिज्जइ वा । अज्ज तुमए कि कज्ज आढप्पइ, आढवीअइ वा ? तेण तुमं सिप्पइ । गिहसामिणा णिय उज्जाणं सिप्पइ । तस्स गिहाओ तुमए कि घेप्पइ, गिण्हिज्जइ वा ? तेण तुज्य सरीरं किमटुंछिप्पइ, छिविज्जइ वा ? प्राकृत में अनुवाद करो
सूर्य ग्रह का दोष मिटाने के लिए मंत्र का जाप करो। चांदी की अंगूठी पहनने से चंद्रग्रह का दोष कम होता है। चन्द्रमा का संबंध मन से है। मंगल का संबन्ध शरीर के रक्त से है। बुध ग्रह के कारण मनुष्य ज्योतिष सीखता है। बृहस्पति ग्रह अध्यात्म की ओर प्रवृत्त करता है । गोचर (गोअर) ग्रहों में शुक्र अस्त हो तब दीक्षा देनी चाहिए । शनि मनुष्य को घर से सडक पर खडा कर देता है। राहु की गति धीमी होती है। बारहवें घर में बैठा केतु अच्छा फल देता है। वह स्वातिनक्षत्र में गांव में प्रवेश करता हैं। दिन में तारा कोन दिखाता है ? चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र में ८४ ग्रहों के नाम हैं। धातु का प्रयोग करो
वह किसके अवगुणों को संग्रह करता है ? महेश ने घडे के टुकडेटुकड़े कर दिए। क्या तुम भोजन से निवृत्त होते हो ? वह ईर्यासमिति (इरियासमिइ) में सम्यक् प्रयत्न करता है। तुम अपने विवाद में मुझे क्यों संबद्ध करते हो ? वह ध्यान क्यों नहीं करता है ? आज तुम कवच धारण क्यों करते हो ? यमुना नदी को वह भुजाओं से तैरेगा। पढ़ाने के लिए तुम विद्यार्थियों को क्यों हैरान करते हो ? वह किसके लिए दिन में बिछौना करता
प्रत्यय प्रयोग करो
वह तुमको प्रेम की रज्जु से बांधता है। क्या तुम आज अपने देश को
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
जा रहे हो । वह कौन सा आगम पढता है ? देखो, रात को कौन और क्यों रोता है ? माता बच्चों को कहानी कहती है । मुझे तुम्हारा स्नेह प्राप्त होता है । मैं मिठाई नहीं खाता हूं। साधु अग्नि को नहीं छूते हैं। उसकी निंदा करने से तुम क्या प्राप्त करते हो? जो हिंसा करता है वह जीवों के प्राण छीनता है। वह भवसागर को तैरता है । अब तुम क्या करते हो ? समय के साथ वस्त्र जीर्ण होते हैं । धर्म के साथ तुम पुण्य का भी अर्जन करते हो । मैं तुमको नहीं जानता । वह तुम्हारे से क्यों नहीं बोलता है ? मैं आज से साधना प्रारंभ करता हूं। पहले सोचकर जो प्रीति करता है वह दुःख नहीं पाता । वह अपने खेत को क्यों नहीं सींचता है ? वह प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करता है। क्या वह आकाश को छूता है ?
. प्रश्न १. सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु, ग्रह, नक्षत्र
और तारा के लिए प्राकृत शब्द बताओ। २. संचिण, संचुण्ण, संजम, संजय, संजोअ, संझाअ, संणज्झ, संतर, संताव
और संथरइन धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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कृत्यप्रत्यय
शब्द संग्रह (यंत्र वर्ग) घडी यंत्र (घडीजंतं)
रेडिया-झुणिखेवअजंतं टाइपराइटर-लेहणजंतं
लाउडस्पीकर-सुइजंतं टेलीफोन-वत्ताजंतं
दूरवीक्षण-दूरविक्खणजंतं थर्मामीटर-तावभाव
बिजली का पंखा-संपावीजणं प्रेस-मुद्दणालयो
साउण्ड वॉक्स-झुणिमंजूसा
धातु संग्रह आलूप-हरण करना
आवआस-आलिंगन करना आलोअ-देखना
आवज्ज-प्राप्त करना आलोअ-आलोचना करना,
आवट्ट-चक्र की तरह घूमना, गुरु को अपना अपराध कहना आवड-आना, आगमन करना आलोड-हिलोरना, मंथन करना आवत्त-आना आव (आ+या)-आना |
आवर-ढांकना
कृत्यप्रत्यय जहां अंत में चाहिए का प्रयोग आए अथवा यह करने योग्य है, खाने योग्य है या करना है, खाना है, जाना है—इत्यादि स्थानों पर कृत्य प्रत्ययों का प्रयोग होता है। इन्हें विध्यर्थ कृदन्त कहते हैं। संस्कृत में कृत्य प्रत्यय पांच हैं ---तव्य, अनीय, य, क्यप, घ्यण् । प्राकृत में धातु से तव्व, अणीअ और अणिज्ज प्रत्यय लगाने से विध्यर्थ कृदन्त के रूप बनते हैं। य, क्यप् और ध्यण् प्रत्ययों में य शेष रहता है । संस्कृत के य प्रत्यय को प्राकृत में 'ज्ज' हो जाता है। पूर्व नियम (६५) के अनुसार तव्व प्रत्यय के पूर्ववर्ती अ को इ और ए आदेश होता है । तव्व प्रत्ययहस-हसितव्यम् (हसितव्वं, हसेतन्वं, हसिअव्वं, हसेअव्वं) हंसना चाहिए हो-भवितव्यम् (होइतव्वं, होएतव्वं, होइअव्वं, होएअव्वं) होना चाहिए अणीअ प्रत्ययहस-हसनीयम् (हसणीअं) हंसना चाहिए कर-करणीअं (करणीयम्) करना चाहिए
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३५४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
गम-गमनीयम् (गमणीअं) जाना चाहिए अणिज्ज प्रत्ययहस-हसनीयम् (हसणिज्जं) कर---करणीयम् (करणिज्ज) गम-गमनीयम् (गमणिज्जं) प्रेरक (जिन्नन्त) विध्यर्थ कृदन्त प्रत्ययहस-हसावितव्यम् (हसावितव्वं, हसाविअन्वं, हसावियठबं) हंसाना चाहिए
हसनीयम् (हसावणीअं, हसावाणिज्ज) हंसाना चाहिए विध्यर्थ कृदन्त के कुछ उपलब्ध रूप
(धय्यांज: २१२४) नियम ३१७ से वय॑म् (वज्ज) वर्जनेयोग्य । कार्यम् (कज्जं) करने योग्य ।
अवज्ज (अवयं) नहीं बोलने योग्य, नहीं बोलना चाहिए, पाप । भार्या (भज्जा) स्त्री।
(रुदभुजमुचांतोन्त्यस्य ४।२१२) नियम ६८ से भोक्तव्यम् (भोत्तव्वं) भोजन करने योग्य, भोजन करना चाहिए।
रुदितव्यम् (रोत्तव्वं) रोने योग्य, रोना चाहिए। मोक्तव्यम् (मोत्तव्वं) छोडने योग्य, छोडना चाहिए।
(वचोवोत् ४।२११) नियम ६७ से वक्तव्यम् (वोत्तव्वं) कहने योग्य, कहना चाहिए।
(क्त्वा तुम् तव्येषु घेत् ४१२१०) नियम ६६ से ग्रहीतव्यम् (घेत्तव्वं) ग्रहण करने योग्य, ग्रहण करना चाहिए।
(आ कृगो मूत-भविष्यतोश्च ४२१४) नियम ७० से कर्तव्यम् (कायन्वं) करने योग्य ।
(साध्वस ध्य-ह्यां झः २२२६) नियम १६ से गुह्यम् (गुज्झं) छिपाने योग्य, छिपाना चाहिए।
(गोणावयः २।१७४) नियम ३ से वाक्यम् (वच्चं) कहने योग्य ।
कृत्यम् (किच्चं) करने योग्य । ग्राह्यम् (गेझं) ग्रहण करने योग्य । वाच्यम् (वच्चं) बोलने योग्य । जन्यम् (जन्न) पैदा होने योग्य । पाच्यम् (पच्चं) पचने योग्य । भव्यम् (भव्वं) होने योग्य । आर्यः (अज्जो) आर्य । अर्यः (अज्जो) वैश्य, स्वामी । भृत्यः (भिच्चो) भृत्य, नौकर । प्रयोग वाक्य
मझ पासे घडीजंतं नत्थि । लेहणजतेण कमलेसो विपत्ति णिक्कसइ। वत्ताजंतेण तेण सूअणा दिण्णा। तावभावएण सो जरं (ज्वरं) पासइ । झुणिखेवअजंतं देसविदेसाणं वत्तं सावेइ । अहं सुइजतं न फासेमि ।
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कृत्य प्रत्यय
३५५ दूरविक्खणजंतं कस्स पासे अत्थि ? सो संपावीजणं अंतरेण अत्थ ठाउ न समत्थो अस्थि । जइणविस्सभारईए अंगणे एगो मुद्दणालयो अस्थि । झुणिमंजूसं अंतरेण सुइतस्स किं उवओगित्तं ? धातु प्रयोग
पुढविजीवाणं पाणा को लुंपइ ? सो अट्ट तत्थ गंतव्वं जत्थ कोवि न आलोएइ । आयरियाणं पासे सुइभावेण आलोएयव्वं । जेणसुत्ताणि के के साहुणो आलोडंति ? अत्थ अज्ज को आविस्ससि ? भाआ भाअरं आवआसइ । विवादेण तुमं किं आवज्जिस्ससि ? णमोक्कारमहामंतस्स सो अणेगहुत्तो आवट्टइ। तुम कया अमुम्मि णयरे आवडिहिसि, आवत्तिहिसि वा? सो णियखलणं कहं आवरइ ? प्रत्यय प्रयोग
केण सद्धि कयावि अइ न हसिअव्वं, हसेअव्वं वा । तुमए विणीओ होइतव्वो, होएतव्वो वा । तस्स गिहे न गमणिज्जं । पइदिणं सज्झायं करणिज्ज। तुमए मोरउला कोवि न हसावणीओ, हसावणिज्जो वा। मत्ताए अहियं न भोत्तव्वं । सया सच्चं वोत्तव्वं । परवत्थु आणं अन्तरेण न घेत्तव्वं । गुत्तवत्ता सया गुज्झा । प्राकृत में अनुवाद करो
भारत का कौन सा घडी यंत्र प्रसिद्ध है ? टाइपराइटर का मूल्य क्या है ? टेलीफोन पर मैं तुमसे बात करूंगा। क्या थर्मामीटर सही ज्वर बताता है ? रेडियो सुनने के लिए यहां कितने लोग आए हैं ? लाउडस्पीकर से दूर बैठे लोग वक्ता का भाषण सुनते हैं। वह दूरवीक्षण से चंद्रमा को देखता है। ग्रीष्म में बिजली का पंखा गर्म हवा देता है । इस प्रेस का मालिक कौन है ? साउण्डवॉक्स किसके पास है ? धातु का प्रयोग करो
किसी के अधिकार को हरण नहीं करना चाहिए। वह केवल तुम्हारे दोष ही देखता है। साधु आचार्य के पास प्रतिदिन आलोचना करते हैं। हमारे घर में माता प्रातः दधि का मंथन करती है। तुम्हारी इच्छा के बिना तुम्हारे घर कोई भी नहीं आएगा । बडे साधु छोटे साधु का आलिंगन करते हैं । वह गुरु के सान्निध्य में बैठकर शिक्षा प्राप्त करता है । तपस्विनी साध्वी कनकावली तप की कौनसी आवृत्ति करती है ? आचार्य तुम्हारे गुणों को क्यों ढांकते हैं ? तुम्हारे व्यवहार के कारण तुम्हारे साथ कोई भी नहीं आएगा। प्रत्यय का प्रयोग करो
तुम्हें सदा पांच मिनट हंसना चाहिए। उसे बडों के साथ नम्र होना
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
चाहिए। गलत काम कभी नहीं करना चाहिए। तुम्हें उसके साथ जाना चाहिए। यह काम तुम्हें नहीं करना चाहिए । रात में नहीं खाना चाहिए । उसे अपने भाग्य पर रोना नहीं चाहिए । तुम्हें धूम्रपान छोड देना चाहिए। उसे कुछ न कुछ नियम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। साधक को अपनी उपलब्धि छिपानी चाहिए, किसी को कहनी नहीं चाहिए। किसी के अवगुण उसे ही कहना चाहिए दूसरों को नहीं।।
प्रश्न १. संस्कृत में कृत्य प्रत्यय कितने होते हैं। प्राकृत में उसके लिए कितने
प्रत्यय हैं । शेष प्रत्ययों के लिए क्या नियम काम में लिया जाता है ?
उदाहरण सहित समझाओ। २. कृत्य प्रत्ययों का प्रयोग किस अर्थ में होता है ? ३. घडीयंत्र, टाइपराइटर, टेलीफोन, थर्मामीटर, रेडिया, लाउडस्पीकर, प्रेस, दूरवीक्षण और बिजली का पंखा-इन शब्दों के लिए प्राकृत
शब्द बताओ। ४. आलंप, आलोअ, आलोअ, आलोड, आव, आवास, आवज्ज, आवट्ट,
आवड, आवत्त और आवर धातुओं के अर्थ बताओ।
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क्त प्रत्यय
शब्द संग्रह (स्फुट)। विरह-अवहायो
पुराना मंदिर---अहिहरं (दे०) असमर्थ-असंथड (वि)
आश्चर्य-अब्भुयं तिरस्कार-अवहेरी
चमकदार, प्रकाशित-अब्भुत्तिअ (वि) दुभिक्ष-दुभिक्खं
दोष का झूठा आरोप-अलग्गं (दे०) मथुन-अबहिट्ठ (दे०)
अनवसर---अवरिक्क (वि) निरर्थक-अट्टमट्ट (वि) (दे०)
धातु संग्रह आवास-वास करना, रहना ___ आवीड-पीडना आवा-पीना
आवेस-भूताविष्ट करना आविअ--पीना
आस-बैठना आविध-बींधना
आसंघ-संभावना करना आधिहव-प्रगट होना
आसाअ-स्वाद लेना, चखना क्त प्रत्यय
क्त प्रत्यय का प्रयोग भूतकाल के अर्थ में होता है। यह कार्य की समाप्ति बताता है। किया, गया, खाया, पीया आदि । क्त प्रत्यय सब धातुओं से होता है। सकर्मक धातु से कर्म में और अकर्मक धातु से भाव तथा कर्ता में होता है। भाव में प्रत्यय होने से धातु के रूपों में नपुंसक लिंग और एक वचन होता है। कर्म में प्रत्यय होने से कर्म के अनुसार धातु (क्रिया) के रूप तीनों लिंगों में होते हैं। कर्ता में प्रत्यय होने से कर्ता के अनुसार धातु के रूप तीनों लिंगों में होते हैं। क्त प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में त और अप्रत्यय होता है। .
नियम ७१८ (क्ते ३।१५६) क्त प्रत्यय परे होने पर पूर्ववर्ती अ को इ हो जाता है। गम्-गतः (गमिओ) गया। हस्-हसितः (हसिओ) हंसा । चल्-चलितः (चलिओ) चला। पठ्-पठितः (पढिओ) पढा । .
प्रेरक (जिन्नन्त) में क्त प्रत्ययकर-कारितः (कारिओ कराविओ) करवाया हुआ। : हस्-हासितः (हासिओ, हसाविओ) हंसाया हुआ। भाव में क्त प्रत्यय के रूप
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
गतम् (गामिअं, गमितं) गया हुआ। हसितं (हसिअं, हसितं) हंसा हुआ। कर्म में क्त प्रत्यय के रूप--- पढिआ विज्जा (पठिता विद्या) गमिओ गामो (गत: ग्राम:) भणियं नाणं (भणितं ज्ञानं) संस्कृत शब्दों से बने प्राकृत के क्त प्रत्यय के रूप
गयं (गतम्) गया हुआ । तप्तम् (तत्तं)तपा हुआ। मतम् (मयं) माना हुआ। दृष्टम् (द8, दिट्ठ) देखा हुआ । कुतम् (कडं) किया हुआ । कृतम् (कयं) किया हुआ। हृतम् (हडं) हरण किया हुआ । मृष्टम् (मट्ठ) शुद्ध किया हुआ । मृतम् (मडं) मरा हुआ। म्लानम् (मिलाणं) कुम्हलाया हुआ। जितम् (जिअं) जीता हुआ। आख्यातम् (अक्खायं) कहा हुआ । निहितम् (निहियं) स्थापित किया हुआ । संस्कृतम् (सक्कयं) संस्कृत । आज्ञप्तम् (आणत्तं) आज्ञा किया हुआ। विनष्टम् (विनट्ठ) विनष्ट । संस्कृतम् (संखयं) संस्कृत किया हुआ। हतम् (हयं) मरा हुआ। आकृष्टम् (आकुट्ठ) आक्रोश किया हुआ। जातम् (जायं) पैदा हुआ। प्रणष्टम् (पणट्ठ) नाश । ग्लानम् (गिलाणं) ग्लान हुआ। प्ररूपितम् (परूविअं) प्ररूपित किया हुआ। स्थितं (ठियं) स्थित । पिहितम् (पिहिअं) ढका हुआ। प्रज्ञप्तम् (पण्णत्तं) कहा हुआ। प्रज्ञपितम् (पण्णविअं) प्रज्ञापित किया हुआ। क्लिष्टम् (किलिट्ठ) क्लेशयुक्त । स्मृतम् (सुअं) स्मरण किया हुआ। श्रुतम् (सुर्य) सुना हुआ । संसृष्टम् (संसट्ठ) संसर्ग युक्त । घृष्टम् (घ४) घिसा हुआ।
नियम ६१६ (क्तेनाप्फुण्णादयः ४।२५८) क्त प्रत्यय सहित आक्रम आदि धातुओं के स्थान में अप्फुण्ण आदि शब्द निपात हैं । आक्रान्तः (अप्फुण्णो)। उत्कृष्टम् (उक्कोस) । स्पष्टम् (फुडं) । अतिक्रान्तः (वोलीणो)। विकसितः (वोसट्ठो)। निपतितः (निसुट्टो)। रुग्ण: (लुग्गो)। नष्ट: (ल्हिक्को)। प्रमृष्टः, प्रमुषितोवा (पम्हुट्ठो) । अर्जितम् (विढत्तं) । स्पष्टम् (छित्तं) । स्थापितम् (निमिअं)। आस्वादितम् (चक्खिअं)। लूनम् (लुअं) । त्यक्तम् (जढं) । क्षिप्तम् (झोसिअं)। उद्वृत्तम् (निच्छूढं) । पर्यस्तम् (पल्हत्थं, पलोढें)। हेषितम् (हीसमणं)। प्रयोग वाक्य
सो तुज्झ विरहं सहिउ' असंथडो अत्थि । केसि वि अवहेरी न कायव्वा । दुब्भिक्खम्मि अन्नं दुलहं (दुर्लभ) भवइ । साहगो अवहिट्ठ न इच्छइ । अट्टमट्टाए वत्ताए समयो न पूरिअव्वो। गामम्मि अहिहरं केण णिम्मियं अस्थि ? संसारे केत्तिलाइं अब्भुयाई संति ? अब्भुत्ति वत्थं मज्झ न रोएइ । तस्स अवरि किं अलग्गं अत्थि ? महापुरिसेण सह अवरिक्कणिवेअणं न कायव्वं ।
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क्त प्रत्यय
धातु प्रयोग
अहं रायहाणीए आवासामि । घरसामी रत्तीए दुद्धं आवाइ । भसलो काण रसं आविइ । रामस्स सराई लक्खं आबिधइ । साहणाए णिम्मलभावेण किं नाणं आविहवइ ? खेत्तसामी खेत्ते उक्खुं आवीडइ । तस्स भज्जाए भूओ (भूत) आवेसइ । गिम्हकाले रुक्खछायाए अहं आसामि । अहं आसंघामि तुमं साहुतं अंगीकरिस्ससि । सो पत्तेयं वत्थु आसाएइ ।
प्रत्यय प्रयोग
को मुणी विएसे गओ ? लोएसेण आयारसुत्तं पढिअं । सावगेण साहुट्ठाणं गयं । मए जोइसविज्जा पढिआ । रिसभेण दसवेआलियं सुत्तं भणियं । तुमए तस्स माला कहं हडा ? केण पुण्णरूवेण मणो जिओ । महिंदेण न कोवि आकुट्ठो । तुम कत्थ जाअं ? भगवया महावीरेण किं अक्खायं अत्थि अमुम्म विसये । विमलो मट्ठ जलं न पिवइ । कि एअं नीरं तत्तं ? अत्थ मग्गे केण दुद्धपत्तं निहियं ? किं तुमए चंदलोअं दिट्ठ ? सीहेण मिग्गो अप्फुण्णो । तस्स गाणं फुडं अत्थि । अज्ज भोयणस्स सव्वं वत्थु केण जढं । चक्खि ।
तेण महु जीवणे न
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प्राकृत में अनुवाद करो
विरह को सहन करने वाला साधक होता है । वह आगम के शोध का कार्य करने में असमर्थ है। उसने तुम्हारा तिरस्कार कब किया था ? दुर्भिक्ष में मनुष्य धैर्यं (धिज्जं ) खो देते हैं । उसे मैथुन से विरति हो गई है । वह निरर्थक कार्यों में धन देता है । वह पुराने मंदिर को नया बनाता है । तुम्हारा यहां आना मुझे आश्चर्य लगता है । सूर्य के प्रकाश से प्रत्येक वस्तु प्रकाशित हो जाती है । उसने तुम्हारे पर आरोप क्यों लगाया ? जो अनवसर में बात करता है, वह सफल नहीं होता ।
धातु का प्रयोग करो
।
पक्षी रात में वृक्षों पर वास करते हैं प्यासे पशु तालाब में पानी पीते हैं। पपीहा वर्षा की बूंदों को पीता है। जंगल में शिकारी (लुद्धो) ने हरिण को बींधा । किस साधु को अवधिज्ञान प्रगट हुआ है ? तेली पत्नी को पीडता है । सुशीला के ही शरीर में भूताविष्ट क्यों हुआ ? कुत्ता रात को गली में बैठता है । मैं संभावना करता हूं तुम इस वर्ष एकान्त साधना करोगे । वह मदिरा को क्यों चखता है ?
प्रत्यय प्रयोग
साधुत्व को छोडकर वह घर में क्यों गया ? उसने तुम्हारा काव्य ध्यान से पढ़ा है । यह कार्य तुमने स्वयं नहीं किया है, अपितु तुमसे कराया
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३६०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
गया है। क्या यह सांप मर गया ? वह खेल में जीत गया। तुमने उस पर क्यों आक्रोश किया ? तुम कब पैदा हुए थे ? इस वर्ष जेठ मास में सूर्य बहुत अधिक तपा। यह बगीचा क्यों कुम्हलाया ? तुमने उस साधु को कब देखा ? यह भोजन साधु को नहीं कल्पता है, क्योंकि उसके लिए स्थापित है। स्वाध्याय के लिए भगवान ने आज्ञा दी है। यह मकान नष्ट क्यों हुआ? विहार करना सिद्धांत के द्वारा माना हुआ है।
प्रश्न १. क्त प्रत्यय का प्रयोग किस काल के अर्थ में होता हैं ? २. कर्ता, कर्म और भाव में प्रत्यय होने से कौनसा लिंग और वचन होता
३. प्राकृत में क्त प्रत्यय के स्थान पर कौनसा प्रत्यय होता है ? ४. विरह, असमर्थ, तिरस्कार, दुभिक्ष, मैथुन, निरर्थक, पुराना मंदिर,
आश्चर्य, आरोप, चमकदार (प्रकाशित) और अनवसर के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ५. आवास, आवा, आविअ, आविंध, आविहव, आवीड, आवेस, आस,
आसंघ और आसय धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्यों में प्रयोग करो। ६. फग्गुणो, कत्तिओ, मग्गसिरो, सणी, बुहो, अंगारयो, वत्ताजंत्तं, तावभावअं शब्दों को वाक्य में प्रयोग करो तथा हिन्दी में अर्थ बताओ।
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शतृ और शान प्रत्यय
शब्द संग्रह (यान वर्ग) वायुयान-वाउजाणं (सं)
रेलगाडी-बप्फगं (सं) मोटर-तेलजाणं (सं)
मुसाफिरगाडी—पारिजाणिओ (सं) वस -- परिवहणं (सं)
ट्रक-भारवाहजाणं (सं) साइकल-पायजाणं (सं)
अगनवोट-अग्गिवोओ (सं) रथ-रहो
बैलगाडी-बलीवद्दजाणं भंसागाडी-महिसजाणं
घोडागाडी-आसजाणं ऊंटगाडी-उट्टजाणं
गधागाडी-गद्दभजाणं नौका--णावा
जलजहाज-जलजाणं
.
लाइसेंस-आणावणं (सं)
टिकट- वहणदलं (सं) पेट्रोल-भूतेलसारो (सं)
रेल की लाइन-लोहसरणि (पुं)
धातु संग्रह आहा-कहना
आसास-आशा करना आहर-छीनना, खींच लेना
आहर-लाना आहार-खाना
आहल्ल—हिलना आहिंड-घूमना
आहव-बुलाना आसास-आश्वासन देना,
आहम्म--आना सान्त्वना देना शत-शान प्रत्यय
हिन्दी भाषा में जाता हुआ, खाता हुआ, पीता हुआ आदि अर्थों में शतृ और शान प्रत्यय आते हैं। ये दोनों वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय हैं। ये प्रत्येक धातु से वर्तमान अर्थ में होते हैं। जहां ये भविष्यत् अर्थ में होते हैं वहां 'स्स' प्रत्यय और जुड जाता है। इनके रूप तीनों लिंगों में व्यवहृत होते हैं । संस्कृत भाषा में शतृ प्रत्यय परस्मैपदी धातुओं से और शान प्रत्यय आत्मनेपदी धातुओं से होता है। प्राकृत भाषा में यह भेद नहीं है। शतृ प्रत्यय को जो आदेश होता है वहीं शान प्रत्यय को आदेश होता है, इसलिए दोनों प्रत्ययों के रूपों में भेद नहीं होता। हेमचंद्राचार्य ने जिसे आनश् प्रत्यय की संज्ञा दी है, भिक्षुशब्दानुशासन में उसकी शान प्रत्यय संज्ञा है ।
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३६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध नियम ७२० (शत्रानशः ३॥१८१) शतृ प्रत्यय को न्त और माण आदेश होता है । शान प्रत्यय को भी न्त और माण आदेश होता है। हस्---- हसन् (हंसतो, हसमाणो) हंसता हुआ। हो----भवन् (होअंती, होमाणो) होता हुआ। दा- ददन्, ददान: (दित, देंत, ददंत, देयमाण) देता हुआ।
नियम ७२१ (ईच स्त्रियाम् ३३१८२) स्त्रीलिंग में शतृ और शान दोनों प्रत्ययों को ई, न्त और माण-ये तीन आदेश होते हैं । न्त और माण के आगे आप (आ) या ईप (ई) और जुड़ जाता है। हसन्ती ।हसई, हसन्ती, हंसता, हसमाणी, हसमाणा) हंसती हुई ।
(वर्तमाना-पंचमी शतृष वा ३३१५८) नियम ५६२ से वर्तमान काल, पंचमी विभक्ति और शतृ प्रत्यय परे हो तो अ को ए विकल्प से होता है। (१) अंत आदेश के रूपहस्-(लिंग)--- हसंतो, हसितो, हसेतो (हसन् ) हंसता हुआ। (स्त्रीलिंग)-हसंती, हसिंती, हसेंती (हसन्ती) हंसती हुई।
__ हसंता, हसिता, हसेंता (हसन्ती) हंसती हुई। (नपुंसकलिंग)-हसंतं, हसितं, हसेंतं (हसत्) हंसता हुआ। हो--(पुंलिंग)--होअंतो, होइंतो, होएंतो, होतो, हुतो (भवन) होता हुआ। (स्त्रीलिंग)- होअंती, होइंती, होएंती, होती, हुती (भवन्ती) होती हुई ।
. होअंता, होइंता, होएंता, होता, हुंता , , , (नपुंसकलिंग)-होअंतं, होइतं, होएतं, होतं, हुंतं (भवत्) होता हुआ।
माण आदेश के रूप-- हस-(लिग)---हसमाणो, हसेमाणो (हसन् ) हंसता हुआ।
(स्त्रीलिंग)-हसमाणी, हसेमाणी, हसमाणा, हसेमाणा (हसन्ती) हंसती
(नपुंसकलिंग)-- हसमाणं, हसेमाणं (हसत्) हंसता हुआ। हो--(पुलिंग)-होअमाणो, होएमाणो, होमाणो (भवन्) होता हुआ। . (स्त्रीलिंग)-होअमाणी, होएमाणी, होमाणी, होअमाणा, होएमाणा,
होमाणा (भवन्ती) होती हुई। (नपुंसकलिंग)-होअमाणं, होएमाणं, होमाणं (भवत्) होता हुआ । . ई आदेश के रूपहस- (स्त्रीलिंग)----हसई, हसेई (हसन्ती) हंसती हुई। हो-( )-होअई, होएई, होई (भवन्ती) होती हुई ।
णिजंत (जिन्नन्त) में शतृ शान रूप--- हासंतो, हासेंतो । हसावंतो, हसावेतो। हासमाणो, हासेमाणो, हसाव
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शतृ और शान प्रत्यय
माणो, हसावेमाणो (हसयन्) हंसाता हुआ। (२) भाव में शतृ-शान के रूपहस-हस् + इज्ज -न्त हसिज्जतं
हस् ---इज्ज+माण हसिज्जमाणं । (हास्यमानं) हंसा जाता हुआ, हस्+ ईअ+न्त हसीअंतं । हंसने में आने वाला . हस् --ईअ.+माण हसीअमाणं
ख-भविष्यत् शतृ-शान के रूप
भविष्यत् काल में शतृ शान प्रत्ययों के स्थान पर धातु से स्सन्त, स्समाण, स्सई प्रत्यय होते हैं। हसिस्संतो, हसिस्समाणो, हसिस्सई (हसिष्यन्ती)। (३) कर्मवाच्य में शतृ-शान के रूप पुंलिंग-भणीअंतो, भणिज्जतो गंथो (भण्यमानो ग्रन्थः) पढा जाता हुआ.
ग्रंथ। भणीअमाणो, भणिज्जमाणो सिलोगो (भण्यमानः श्लोकः) पढा जाता
हुआ श्लोक। स्त्रीलिंग-भणीज्जती, भणीअंती गाहा (भण्यमाना गाथा) पढी जाती हुई
गाथा ।
भणिज्जमाणी, भणीअमाणी भणिज्जई, भणीअई पंती (भण्यमाना
पङिक्तः) पढी जाती हुई पंक्ति । नपुंसकलिंग-भणीअंतं, भणीअमाणं, भणिज्जतं, भणिज्जमाणं पगरणं (भण्यमानं
प्रकरणं) पढा जाता हुआ प्रकरण । ख-कर्मवाच्य में प्रेरणार्थक शतृ शान रूप
भणाविज्जतो, भणाविज्जमाणो, भणावीअंतो, भणावीअमाणो मुणी (भण्यमानो मुनिः) पढाया जाता हुआ मुनि । भणाविज्जती, भणाविज्जमाणा, भणावीअंती, भणावीअमाणा, भणाविज्जई, भणावीअई साहुणी (भण्यमाना साध्वी) पढाई जाती हुई साध्वी । प्रयोग वाक्य
सो वाउजाणेण विएसं गमिस्सइ । मज्झ गामे बप्फजाणं न आजाइ । संतिपसायस्स सेट्रिणो पासे केत्तिलाई तेलजाणाई संति ? अज्जत्ता पायजाणं घरे घरे अत्थि । भारवाहजाणेण दूरढाणत्तो अणेगाणि वत्थूणि आजाअंति, जाति य । पुव्वकाले रहस्स पओगो हुत्था। तुम्हे बलीवद्दजाणम्मि अहियं भारं न देह । गामे जणा महिसजाणेण खेत्तस्स अन्नं घरे आणेति । अहं आसजाणम्मि न आसामि । आसजाणं पिव गद्दभजाणं वि णयरे चलइ। मरुभूमीए उट्टजाणं मरुणो वाउजाणं कहिज्जइ। मए अग्निपोएण गंगाजत्ता कया। णावाहिं जलजत्ता केण न कया ? अम्हेहिं बंबईमहामयरे विसाल
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३६४
जलजाणं दिट्ठ । धातु प्रयोग
सो तं आसासइ तुज्झ जीवणभारो हं वहिहिमि । पत्तेयजीवो पोग्गलाई आहरइ । अहं पइदिणं अन्नं आहारेमि । तुमं किमट्ठ वणे हिंडसि ? सा तलायत्तो नीरं आहरइ ! मज्झ दंतपंती ( अंतिमदांत ) कहं आहिल्लइ | आयरिओ साहुणो आहवेइ । किं साहुणो अज्ज अम्हाण गामे आगमिस्संति ?
प्राकृत वाक्यरचना बाध
प्रत्यय प्रयोग
सो हसंतो कहं जंपइ ? विमला हसई कहं आगच्छइ ? सो धणं देयमाणो णयरत्तो बाहि गओ । लोएसो हसावमाणो कि जंपइ ? हसिज्जमाणस्स धणंजय यणाहितो अंसूई (आंसू ) पंडति । तेण भणिज्जमाणो गंथो गंभीरो अस्थि । तुम भणाविज्जई साहुणी संघपमुहा होहि । प्राकृत
में अनुवाद करो
ट्रक के द्वारा कल
बैलगाडी में लोग
वायुयान तेज गति से चलता है। रेलगाडी यहां नहीं ठहरेगी। मोटर सडक पर चलती है । साइकल की यात्रा सस्ती होती है। कश्मीर से सेवें आएंगी। रथ में बैठने वाला कोई नहीं है । क्यों बैठते हैं ? किस जाति के लोगों के पास भैंसागाडी अधिक हैं ? क्या तुम घोडा गाडी पर चढना चाहते हो ? गधागाडी भार अधिक ढोती है। गांव के लोग ऊंटगाडी पर चढ कर यात्रा करते हैं । अगनवोट की यात्रा सुख से होती है । नौकायात्रा में तूफान का भय रहता है । विशाल जहाज में आवश्यक सामग्री उपलब्ध होती है ।
धातु का प्रयोग करो
. रमेश ने उसको सान्त्वना दी । तुमने सत्य कभी नहीं कहा। माता ने बच्चे के हाथ से छुरी छीन ली। मनुष्य क्या नहीं खाता है ? तुम गली में इधर-उधर क्यों घूमते हो ? माता आशा करती है कि मेरा पुत्र मेरी सेवा करेगा । तुम शहर से क्या लाए हो ? तुम्हारा दांत क्यों हिलता है ? तुम उसको यहां बुलाओ । उसका इस गांव में आना सफल हुआ । प्रत्यय का प्रयोग करो
हंसता हुआ जो आदमी बोलता है उसे कहो वह न हंसे। उसने रोटी देती हुई बहन को देखा। हंसा जाता हुआ मनुष्य क्यों रोने लगा । हंसाता हुआ रमेश स्वयं नहीं हंसता है । पढी जाती हुई गाथा को शुद्ध करो । पढाया जाता हुआ मुनि क्या कहना चाहता है ?
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शतृ और शान प्रत्यय
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प्रश्न १. आनश् और शान प्रत्यय एक है या दो? शान संज्ञा कौन मानता है ? २. शतृ और शान प्रत्यय किस अर्थ में आता है ? ३. शतृ और शान प्रत्यय के रूप किस लिंग में व्यवहृत होते हैं। ४. शत और शान प्रत्ययों को प्राकृत में क्या आदेश होता है ? ५. शतृ और शान प्रत्यय वर्तमानकाल में होता है या भविष्यकाल में भी।
दोनों के रूपों में क्या अंतर है? ६. वायुयान, रेलगाडी, मोटर, साइकल, ट्रक, रथ, बैलगाडी, भैंसागाडी,
घोडागाडी, गधागाडी और ऊंटगाडी के लिए प्राकृत शब्द बताओ। ७. आसास, आहा, आहर, आहार, आहिंड, आसास, आहर, आहल्ल,
आहव और आहम्म धातुओं के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो।
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धात्वादेश (१)
गुहा--गुफा
गहिरो-गहरा उइअ (वि)---उदित
दोहि (वि)-द्रोही थोओ -थोडा
कज्जालाव-(कार्यालाप) कार्यों अमुणिअ-अज्ञात
दुमो-वृक्ष खयाणलो-दावानल
पवओ---- बंदर उअहि (पुं)उदधि
नियम ७२२ (इदितो वा ४११) सूत्र में 'इ' इत जाने वाली धातुओं के आदेश विकल्प से होते हैं ।
नियम ७२३ (कथे वंज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्पसीस-साहाः ४।२) कथि धातु को वज्जर, पज्जर, उप्पाल, पिसुण, संघ, बोल्ल चव, जम्प, सीस और साह—ये आदेश होते हैं । कथयति (वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणइ, संघइ, बोल्लइ, चवइ, जम्पइ, सीसइ, साहाइ, कहइ) कहता है। कथितः (वज्जरिओ) कथनम् (वज्जरणं) कथयित्वा (वज्जरिऊण) कथयन् (वज्जरन्तो) कथयितव्यं (वज्जरिअव्वं) । इसी प्रकार अन्य धातुओं आदेश के रूप बना सकते हैं।
नियम ७२४ (दु:खे णिव्वरः ४१३) दुःख विषययुक्त कथ् धातु को णिव्वर आदेश विकल्प से होता है। दुःखं कथयति (णिव्वरइ) दु:ख कहता है।
नियम ७२५ (जुगुप्ते झुण-दुगुच्छ-दुगुञ्छाः ४१४) जुगुप्सि धातु को झुण, दुगुच्छ और दुगुञ्छ-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। जुगुप्सति (झुणइ, दुगुच्छइ, दुगुञ्छइ जुगुच्छइ) घृणा करता है।
नियम ७२६ (ब्रुभुक्षि वीज्योीरव-वोज्जी ४॥५) बुभुक्षि धातु को णीरव और वीजि धातु को वोज्ज आदेश विकल्प से होता है। बुभुक्षति (णीरवइ) खाना चाहता है । वीजयति (वोज्जड) हवा करता है।
नियम ७२७ (घ्या-गोर्भा-गो ४६) ध्या धातु को भा और गा धातु को गा आदेश विकल्प से होता है। ध्यायति (झाइ, झाअइ) । णिज्झाइ, णिज्झाभइ (निध्यायति) देखता है । गाइ, गाअइ (गाति) गाता है।
नियम ४२८ (जो जाण-मुणौ ४।७) जानाति को जाण और मुण आदेश होता है । जानाति (जाणइ, मुणइ) जानता है। बहुलाधिकारात् कहीं
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धात्वादेश
विकल्प से होता है। जाणिअं, णायं (ज्ञातम्) जाणिऊण, णाऊण (ज्ञात्वा) जाणणं, णाणं (ज्ञानं)। मणइ रूप तो मन्यति का बनता है।
नियम ७२६ (उदो ध्मो धुमा ४१८) उद् पूर्वक ध्मा धातु हो तो ध्मा को धुमा आदेश होता है । उद्ध्माति (उद्धमाइ) जोर से धमनी चलाता
नियम ७३० (श्रदो धो दहः ४१६) श्रद् से परे धा (दधाति) धातु को दह आदेश होता है। श्रद्दधाति (सदहइ) श्रद्धा करता है। .
नियम ७३१ (पिबे: पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोट्टा: ४।१०) पिबति को पिज्ज, डल्ल, पट्ट और घोट्ट-ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। पिबति (पिज्जइ, डल्लइ, पट्टइ, घोट्टइ, पिअइ) पीता है।
नियम ७३२ (उदातेरोरुम्मा वसुआ ४.११) उत्पूर्वक वाति को ओरुम्मा और वसुआ आदेश विकल्प से होता है। उद्वाति (ओरुम्माइ, वसुआइ, उव्वाइ) सूखाता है।
नियम ७३३ (निवातेरोहीरो घौ ४११२) निपूर्वक द्राति को ओहीर और उङ्घ आदेश विकल्प से होता है। निद्राति (ओहीरइ, उङ्घइ, निद्दाइ) नींद लेता है।
नियम ७३४ (आघ्रराइग्घः ४।१३) आजिघ्रति को आइग्घ आदेश विकल्प से होता है । आजिघ्रति (आइग्घड) सूंघता है।
नियम ७३५ (स्नाते रब्भुत्तः ४।१४) स्नाति को अब्भुत्त आदेश विकल्प से होता है । स्नाति (अन्भुत्तइ, व्हाइ) स्नान करता है। .
नियम ७३६ (समः स्स्यः खाः ४।१५) सं पूर्वक स्त्यायति को खा आदेश होता है। संस्त्यायति (संखाइ) सान्द्र होता है, जमता है।
नियम ७३७ (स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः ४११६) स्था धातु को ठा, थक्क, चिट्ठ और निरप्प आदेश होता है। तिष्ठति (ठाइ, ठाअइ थक्कइ, चिट्ठइ, निरप्पइ) ठहरता है। स्थानं (ठाणं) प्रस्थितः (पट्टिओ) प्रस्थापितः (पट्ठाविओ) बहुलाधिकारात् कहीं पर नहीं भी होता है--थिअं, थाणं, पत्थिओ, उत्थिओ।
नियम ७३८ (उदष्ठ-कुक्कुरो ४।१७) उत् से परे तिष्ठति को ठ और कुक्कुर आदेश होता है । उत्तिष्ठति (उट्टइ, उकुक्कुरइ) उठता है ।
नियम ७३६ (म्ले -पव्वायो ४॥१८) म्लायति को वा और पवाय आदेश विकल्प से होता है । म्लायति (वाइ, पन्चायइ मिलाइ)म्लान होता है, निस्तेज होता है।
नियम ७४० (निर्मो निम्माण-निम्मवौ ४११६) निमिमीति को निम्माण और निम्मव आदेश होता है। निमिमीति (निम्माणइ, निम्मवइ) बनाता है, रचना करता है।
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प्राकृत वाक्यरचना - बोध
नियम ७४१ (क्षे णिज्झरो वा ४१२०) क्षयति को णिज्झर आदेश विकल्प से होता है । क्षयति ( णिज्झरइ, झिज्जइ) क्षीण होता है । धातु
प्रयोग वाक्य
सोतुं किं वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणइ, संघइ, बोल्लइ, चवइ, जम्पइ, सीसइ, साहइ, कहइ वा ? विरही कि णिव्वरिहिइ ? पुरिसो पुरिसेण कहं झुण, दुगुञ्छइ, दुगुच्छइ, जुगुच्छइ वा ? कि तुमं महुरं वत्थु णीरवसि ? रायाणं को वोज्जइ ? अहं पव्वयस्स मुहाए झामि । सरोजा पुत्तं मुहु मुहु कहं णिज्झाइ ? दिणेसो तुब्भाओ सुट्ठ गाअइ । कि तुमं ममं न जाणसि, मुणसि वा ? राओ को उद्धुमाइ ? अहं जइणसासणं सद्दहामि । कि तुमं मइरं पिज्जसि, डल्लसि, पट्टसि, घोट्टसि, पिअसि वा ? किणा चिताए तस्स सरीरं ओरुम्माइ, वसुआइ, उव्वाइ वा ? सो रत्तीए विन ओहीरइ, उङ घइ, निद्दाइ वा । तुमं पुप्फसारं आइग्धसि । सो गंगानईए पइदिणं अब्भुत्तइ, हाइ वा । सीयेण णवणीयं संखाइ । देसदोही तुज्झघरे कहं ठाइ, ores, ras, चिट्ठइ, निरप्पइ वा ? भक्खरस्स उइअस्स पच्छा सो संथाराओ उट्ठइ, उकुक्कुरइ वा । नीरं अंतरेण पुप्फाई वांति, पव्वायंति, मिलांति वा । विमलो कव्वं निम्माणइ, निम्मवइ वा । रागेण दोसेण वा मोहणीयकम्मं न णिज्झरइ, झिज्जइ वा ।
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हिन्दी में अनुवाद करो
ते विरला सप्पुरिसा जे अभणेन्ता, घडेन्ति कज्जालावे ?
अच्चि ते विदुमा जे अमुणिअ कुसुमणिग्गमा देति फलं ॥१॥ जो लंघिज्जइ रविणो जो अ खविज्जइ खयाणलेण वि बहुसो । कह सो उअपरिहवो दुत्तारो त्ति पवआण भण्णइ उअही || २ || प्राकृत में धात्वादेश का प्रयोग करो
वह हमेशा सत्य कहता है । तुम किसके सामने अपना दुःख कहते हो ? किसी भी मनुष्य के साथ घृणा मत करो। सिंह हिरण को खाना चाहता है। नौकर सेठ को हवा करता है । पर्वत की गुफा में कौन ध्यान करता है ? राजा सबको एक समान देखता है । विमला कितना मधुर गाती है ? जो एक वस्तु के अस्तित्व को पूर्ण रूप से जानता है, वह सब वस्तुओं को जानता है । लुहार प्रतिदिन जोर से धमनी चलाता है । मैं धर्म पर श्रद्धा करता हूं । वह बर्फ का पानी क्यों पीता है ? गर्मी में आर्द्र वस्त्र जल्दी सूखता है । तुम गहरी नींद लेते हो। कुत्ता स्थान को क्यों सूंघता है ? माता गंगास्नान करती है । किस कारण से दहि जमता है ? गर्मी में मनुष्य छाया में ठहरता है । वह बहुत जल्दी उठता है । तुम्हारी प्रगति से वह म्लान होता है ।
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धात्वादेश (१)
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वह अपना नया घर बनाता है । उसका पुण्य क्षीण होता है। प्राकृत में अनुवाद करो
एक बार एक राजा अपना कारावास देखने गया। उसने वहां के सभी कैदियों को देखना चाहा। कारावास का अधिकारी सभी कैदियों को एक-एक करके राजा के सामने लाया। राजा ने सभी से अपने दोष को कहने के लिए कहा, जिसके कारण उन्हें कारावास का दंड मिला था। सभी ने कहा हम निर्दोष थे। राजा ने पुनः उन लोगों को कारावास में भेज दिया। अंत में एक योग्य मनुष्य आया और राजा के सामने खडा हो गया। राजा ने वही प्रश्न उससे भी किया। उसने उत्तर दिया-मैंने अपने गांव में एक धनी की कीमती अंगूठी चुराई थी। इसलिए मैं इस दण्ड के योग्य हूं। राजा उसकी दोष-स्वीकृति पर प्रसन्न हो गया और मुक्ति के लिए आज्ञा देते हुए कहाइसने चोरी की है इसलिए यह दण्डित हुआ। अब यह सत्य बोलता है इसलिए यह पुरस्कार के योग्य है।
प्रश्न
१. गुहा, दोहि, उअहि, थोअ, खयाणल, गहिर, कज्जलाव, पवअ, अमुणिअ
और उइअ शब्दों के अर्थ बताओ। २. नीचे लिखी धातुएं किन-किन धातुओं के आदेश हैं ? झा, मुण, जाण,
वसुआ, आइग्घ, पिज्ज, णिव्वर, गीरव, पव्वाय, णिज्झर, अब्भुत्त, चिट्ठ, थक्क, उङघ, ओहीर, बोल्ल, जंप, साह ।
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धारवादेश ( २ )
शब्द संग्रह तट- - तडो
विशाल -विसाल (वि)
दया- दया
वर्षा वरिसा घास-तणं
आवाज – झुणि (पुं) धातुओं को आवेश
नियम ७४२ (क्रिय: किणो वेस्तु क्के च ४५२) आदेश होता है । वि से परे हो तो विकण हो जाता है । खरीदता है | विक्रीणाति (विक्किणइ ) बेचता है |
आराम --- सुहं अल्प - अप्पं (वि) जोर वेगो, वेओ
नियम ७४३ (भियो मा-बीही ४१५३) बिभेति को भा और बीह आदेश होता है । बिभेति ( भाइ, बोहइ ) डरता है । भीतं ( भाइअं बीहिअं) डरा हुआ । बहुलाधिकारात् भीओ ।
क्रीणाति को किण क्रीणाति ( किणइ )
नियम ७४४ ( आलीङोल्ली ४१५४) आलीयति को अल्ली आदेश होता है | आलीयति (अल्लीअइ) लीन होता है । आलीनो (अल्लीणो ) ।
नियम ७४५ ( निलीङ णिलीअ - णिलुक्क - णिरिग्ध-लुक्क लिक्क हिक्का: ४१५५) निलीङ को छ आदेश विकल्प से होते हैं । निलीयते ( णिलीअइ, णिलुक्कइ, णिरिग्धइ, लुक्कइ, लिक्कड़, ल्हिक्कइ, निलिज्जइ) छिपता है ।
नियम ७४६ (विलीङविरा ४।५६ ) विलीङ को विरा आदेश विकल्प से होता है । विलीयते ( विराइ, विलिज्जइ) पिघलता है, नष्ट होता है ।
नियम ७४७ (रुते रुञ्ज-रुण्टी ४१५७) रौति को रुञ्ज और रुण्टये दो आदेश विकल्प से होते हैं । रौति ( रुञ्जइ, रुण्टइ, रवइ) आवाज करता
है ।
नियम ७४८ ( टेर्हणः ४।५८ ) शृणोति को हण आदेश विकल्प से होता है । शृणोति ( हणइ, सुणइ ) सुनता है ।
नियम ७४९ ( धुगेर्बुवः ४५५६ ) धुनाति को ध्रुव आदेश विकल्प से होता है । घुनाति (घुवइ, घुणइ ) हिलाता है, कंपाता है ।
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धात्वादेश (२)
३७१ नियम ७५० (भुवे हो-हुव-हवा: ४।६०) भू धातु को हो, हुव और हव-ये आदेश विकल्प से होते हैं। भवति (होइ, हुवइ, हवइ, भवइ) होता है।
नियम ७५१ (अविति हुः ४१६१) वित् प्रत्यय (भिक्षुशब्दानुशासन में पित् प्रत्यय ) छोडकर भू धातु को हु आदेश विकल्प से होता है। भवंति (हुति) । पित् प्रत्यय होने से हु आदेश नहीं हुआ। भवति (होइ)।
- नियम ७५२ (पृथक्-स्पष्टे णिव्वड: ४१६२) पृथक्भूत और स्पष्ट अर्थ में भू धातु को णिव्वड आदेश होता है । पृथक् भवति (णिव्वइ) पृथक् होता है । स्पष्टो भवति (णिव्वडइ ) स्पष्ट होता है।
नियम ७५३ (प्रभो हुप्पो वा ४।६३) प्रभु कर्तृक (प्र पूर्वक भू धातु) को पहुप्प आदेश होता है। प्रभवति (पहुप्पइ , पभवेइ) समर्थ होता है, पहुंचता है।
नियम ७५४ (क्ते हः ४१६४) भू धातु को हू आदेश होता है क्त प्रत्यय परे हो तो । भूतं (हूअं) हुआ । अनुभूतं (अणुहूअं) । प्रभूतं (पहू)।
नियम ७५५ (कृगेः कुणः ४।६५) कृ धातु को कुण आदेश विकल्प से होता है। करोति (कुणइ, करइ) करता है ।
नियम ७५६ (काणक्षिते णिआर: ४।६६) काना देखना विषय में कृ धातु को णिआर आदेश विकल्प से होता है। काणेक्षितं करोति (णिआरइ) कानी नजर से देखता है।
नियम ७५७ (निष्टम्भावष्टमे पिठ्ठह-संदाणं ४।६७) निष्टम्भ अर्थ में और अवष्टम्भ अर्थ में कृ धातु को क्रमश: णिठ्ठह और संदाण आदेश विकल्प से होता है । निष्टम्भं करोति (णिठ्ठहइ) स्तब्ध करता है। अवष्टम्भं करोति (संदाणइ) सहारा लेता है, अवलम्बन लेता है।
नियम ७५८ (श्रमे वावम्फः ४।६८) श्रम विषय में कृ धातु को वावम्फ आदेश विकल्प से होता है। श्रमं करोति (वावम्फइ ) श्रम करता है।
नियम ७५६ (मन्युनौष्ठमालिन्ये णिवोलः ४१६६) क्रोध से ओष्ठ को मलिन करने के अर्थ में कृ धातु को णिव्वोल आदेश विकल्प से होता है। मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति (णिव्वोलइ) क्रोध से होठ मलिन करता है।
नियम (७६० शथिल्य-लम्बने पयल्लः ४७०) शैथिल्य और लम्बन विषय में कृ धातु को पयल्ल आदेश विकल्प से होता है। शिथली भवति (पयल्लइ) शिथिल करता है । ढीला करता है।
नियम ७६१ (निष्पाताच्छोटे गीलुञ्छः ४७१) निष्पतन और आच्छोटन विषय में कृ धातु को पीलुञ्छ आदेश विकल्प से होता है। निष्पतति (णीलुञ्छइ) निष्पतन करता है। आच्छोटयति (णीलुञ्छइ)
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३७२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आच्छोटन करता है । झाडता है। प्रयोग वाक्य
___ गामवासिणो णयरे घयं विक्किणति सुरं किणति। सीहो वणे काहितो न भाइ, बीहइ वा । आइच्चो पइदिणं कहं णिलीअइ, णिलुक्कइ, णिरिग्घइ, लुक्कइ, लिक्कइ, ल्हिक्कइ, निलिज्जइ वा ? पलोभेण किं तुज्झमणो न विराइ, विलिज्जइ वा । पभायम्मि पक्खिणो रुजंति, रुण्टंति, रवंति वा। सो अप्पं हणइ, सुणइ वा । हिंसा अहिंसअस्स हिययं धुवइ, धुणइ वा । कयाइ दिवहो होइ, कयाइ रत्ती हुवइ, हवइ, भवइ वा। भाया भाऊओ णिव्वडइ । गुरूणं समक्खे सो णिव्वडइ। अहं पव्वयम्मि आरोहिउ पहुप्पामि, पभवेमि वा । तत्थ किं हूअं? मुणी साहणं कुणइ, करइ वा। गामवासिसु को णिआरइ ? सो मंतजवेण तस्स गई णिठ्ठहइ। वुड्ढो मग्गे लट्ठि संदाणइ । महिंदो घरे वावम्फइ । मुणी भविऊणं सो कहं णिवोलइ ? सो किमट्ठ णियम न पयल्लइ ? वाणरो रुक्खस्स डालि पयल्लइ । सो वत्थाई पीलुञ्छइ। हिन्दी में अनुवाद करो
___ अदिज्जमाणा वि अन्ने सि, अपरिभुज्जमाणा वि अत्तणा, गोविज्जमाणा वि पच्छन्ने, रक्खिज्जमाणा वि पयत्तेण, असंसयं नस्सइ एसा । किं वा दाणभोगरहियाए अवित्तिकम्मयरमेत्ताए संपयाए ति वा बीयं वि लक्खं देहि । कुबेरेण वुत्तं-जं देवो आणवेइ। अहो उदारया कुमारस्स त्ति विम्हिया कुसल निउणा । चित्तवट्टियं पुणो पुणो पिच्छंतेण पढियं कुमारेण
मयणधरिणी नूणं, दासीदसं वि न पावए ति-णयण-पिया पत्ता लोए तणं व लहुत्तणं ॥१॥ सलिलनिहिणो धूया धूलीसमा वि न सोहए
अमर महिला होलाठाणं इमीए पुरो भवे ॥२॥ प्राकृत में अनुवाद करो
एक नदी के तट पर एक विशाल वट वृक्ष था। उसकी डालियों पर पक्षी अपना-अपना घोंसला बनाकर आराम से रहते थे। एक बार वर्षा ऋतु में एक बंदरों का समूह आया और वृक्ष के नीचे ठहरा । वर्षा जोर से हुई। शीत के मारे बंदर कांप रहे थे। वृक्ष पर रहने वाले पक्षियों में से एक ने दया प्रकट करते हुए कहा-भाइयो! मैं अपने घोसले में आराम से रहता हूं। तुम्हारे पास भी मनुष्यों की तरह हाथ-पैर हैं। तुम अपने लिए हमारे से अच्छा घर बना सकते हो । घर के बिना तुम कष्ट क्यों उठा रहे हो ? उस पक्षी के विचार सुन कर बंदर क्रुद्ध हो गए । वृक्ष पर चढकर बंदरों ने पक्षियों के घोंसलों को नष्ट कर डाला।
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धात्वादेश ( २ )
धातुओं का प्रयोग करो
वह घास खरीदता है । तुम घी बेचते हो। वह किसी से नहीं डरता है । विद्यार्थी अध्यापक से क्यों छिपता है ? अग्नि से नवनीत पिघलता है । पक्षी आवाज करते हैं । मेरी बात कौन सुनता है ? तुम तालाब के पानी को क्यों कंपाते हो ? जो होना होता है वही होता है । फूल वृक्ष से पृथक् होता है । साधु संघ से पृथक् क्यों होता है ? वह तुम्हारे सामने स्पष्ट होता है । तुम वर्षा में घर पहुंचते हो। क्या तुम उसका हित करते हो ? गांव की स्त्रियां नव वधू के वर को कानी नजर से देखती हैं । तुम्हारी गति को किसने स्तब्ध किया ? वह वृक्ष की डाली का आलम्बन लेता है । मैं प्रतिदिन शरीर का श्रम करता हूं । उसकी इच्छा के प्रतिकूल होने से उसने क्रोध से होठ को मलिन किया । वह अपने अधोवस्त्र को ढीला करता है । वृक्ष पर क्या लटकता है ? तुम व्यर्थ में पानी का निष्पतन करते हो । वह आच्छोटन क्यों करता है ?
पन
१. घोंसला, विशाल, दया, बर्फ, घास, तट, आराम, अल्प, जोर और आवाज - इन शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ ।
२. किण, भा, बीह, अल्ली, णिलुक्क, विलिज्ज, लुक्क, हण, णिव्वड, णिआर, संदाण, णिल्वोल, पयल्ल आदेश किन धातुओं को किस अर्थ में आदेश होता है ?
३७३
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१०२
धात्वादेश (३)
शब्द संग्रह महल-पासायो
गाडी-सगडं दाना-कणो
वृत्ति-वित्ति (स्त्री) धान्यागार-धण्णागारं सफाई-पमज्जणं सुरक्षित–सुरक्खिअ (वि) लापरवाही-अजागरुअया रहस्य-रहस्स (वि) रसोई बनाने वाली-महाणसिणी भंडार-भंडारो
नियम ७६२ (क्षुरे कम्मः ४७२) क्षुर विषय में कृ धातु को कम्म आदेश विकल्प से होता है । क्षुरं करोति (कम्मइ) हजामत करता है।
नियम ७६३ (चाटौ गुललः ४।७३) चाटु विषय में कृ धातु को गुलल आदेश विकल्प से होता है। चाटु करोति (गुललइ) खुशामद करता
नियम ७६४ (स्मरे झर-झूर-भर-भल-लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः ४१७४) स्मर धातु को झर, झूर, भर, भल, लढ, विम्हर, सुमर, पथर और पम्हह-ये नव आदेश विकल्प से होते हैं। स्मरति (झरइ, झूरइ, भरइ, भलइ, लढइ, विम्हरइ, सुमरइ, पयरइ, पम्हुहइ) स्मरण करता है, याद करता है।
नियम ७६५ (विस्मुः पम्हुस-विम्हर-बीसराः ४।७५) विस्मरति को पम्हस, विम्हर और वीसर आदेश होते हैं। विस्मरति (पम्हुसइ, विम्हरइ, वीसरइ) भूलता है।
नियम ७६६ (व्याहगेः कोक्क-पोक्को ४७६) व्याहरति को कोक्क और पोक्क आदेश विकल्प से होता है। व्याहरति (कोक्कइ, कुक्कइ । पोक्कइ, वाहरइ) बुलाता है।
नियम ७६७ (प्रसरेः पयल्लोवेल्लो ४७७) प्रसरति को पयल्ल और उवेल्ल आदेश विकल्प से होता है। प्रसरति (पयल्लइ, उवेल्लइ, पसरइ) फैलता है।
नियम ७६८ (महमहो गन्धे ४७८) गंध का फैलना अर्थ में महमह आदेश होता है। गंधो प्रसरति (महमहइ) गंध फैलती है।
नियम ७६६ (निस्सरे गहिर-नील-बाड-वरहाडाः ४७९) निस्सरति
I Use Only
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धात्वादेश (३)
३७५
को णीहर, नील, धाड और वरहाड – ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । निस्सरति (णीहरइ, नीलइ, धाडइ, वरहाडइ, नीसरइ) बाहर निकलता है । नियम ७७० ( जान ज्र्जन्ग: ४।८० ) जागर्ति को जग्ग आदेश विकल्प से होता है । जागत (जग्गई, जागरइ) जागता है । नियम ७७१ ( व्याप्रेराअड्डः ४१८१) विकल्प से होता है । व्यापिपत्ति (आअड्डेइ, व्यापृत होता है ।
व्यापिपत्ति को आअड्ड आदेश वावरेइ) काम में लगता है,
नियम ७७२ (संवृगे: साहर-साहट्टी ४१८२) संवृणोति को साहर और साहट्ट आदेश विकल्प से होता है । संवृणोति ( साहरइ, साहट्टइ, संवरइ ) समेटता है, संवरण करता है ।
नियम ७७३ (आवृङ : सन्नामः ४१८३ ) आद्रियते को सन्नाम आदेश विकल्प से होता है । आद्रियते ( सन्नामइ ) आदर करता है ।
नियम ७७४ ( प्रहृगे: सारः ४८४) प्रहरति को सार आदेश विकल्प से होता है । प्रहरति ( सारइ) प्रहार करता है ।
नियम ७७५ ( अवतरेरोह - ओरसौ ४।८५) अवतरति को ओह और ओरस आदेश विकल्प से होता है । अवतरति ( ओहइ, ओरसइ) नीचे उतरता है ।
नियम ७७६ ( शकेश्चय तर तीर पारा ४१८६ ) शक् धातु को चय, तर, तीर और पार ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । शक्नोति ( चयइ, तरइ, तीरइ, पारइ, सक्कइ ) सकता है । त्यजति को चयइ, तरति को तरइ, तीरयति को तीरइ, पारयति को पारेइ आदेश भी होते हैं ।
नियम ७७७ (फक्कस्थक्कः ४१८७ ) फक्कति को थक्क आदेश होता है । कक्कति ( थक्कइ ) नीचे आता है ।
नियम ७७८ ( श्लाघः सलहः ४।८८ ) श्लाघते को सलह आदेश होता है | श्लाघते ( सलहइ ) प्रशंसा करता है ।
नियम ७७६ (खचेर्वेअड: ४१८६) खच् धातु को वेअड विकल्प से आदेश होता है । खचते ( वेअडइ, खचइ) पावन करता है ।
नियम ७८० (पचे: सोल्ल-पउल्लो ४।१० ' ० ) पचति को सोल्ल और पउल आदेश विकल्प से होता है । पचति ( सोल्लइ, पउलइ, पचइ) पकाता है । नियम ७५१ ( मुचेश्छड्डावहेड- मेलोस्सिकक-रेअव-जिल्लुञ्छधंसाडा: ४१) मुञ्चति को छड्डु, अवहेड, मेल्ल, उस्सिक्क, रेअव, णिल्लुञ्छ, धंसाड
- ये सात आदेश विकल्प से होते हैं । मुञ्चति (छड्डुइ, अवहेडइ, मेल्लइ, उस्सिक्es, ras, पिल्लुञ्छइ, धंसाडइ, मुअइ ) छोडता है ।
नियम ७८२ (दुःखेणिव्वलः ४/१२) दुख विषयक मंच धातु को णिव्वल आदेश विकल्प से होता है । दुःखं मुञ्चति (मिब्बलेइ ) दुख को
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३७६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
छोडता है।
नियम ७८३ (वञ्चे बेहव-वेलव-जूरवोमच्छाः ४६३) वञ्चति को वेहव, वेलव, जूरव, उमच्छ---ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । वञ्चति (वेहवइ, वेलवइ, जूरवइ, उमच्छइ, वञ्चइ) ठगता है। प्रयोग वाक्य - रायिंदो सयं कम्मइ । सो गुललइ, संभवामि, कज्जसिद्धीए एरिसं करेइ । सेहो साहू दिवहे वीसगाहाओ झरइ, झूरइ, भरइ, भलइ, लढइ, विम्हरइ, सुमरइ, पयरइ, पम्हुहइ वा । तुम एगमासस्स पुन्वं जं सिक्खियं तं कहं पम्हुसिसि, विम्हरसि, वीसरसि वा ? गुरु विज्जटिणो कहं कोक्कइ, कुक्कइ, पोक्कइ, वाहरइ वा ? पेक्खज्झाणं विएसे वि पयल्लइ, उवेल्लइ, पसरइ वा । वाउणा पुप्फाण गंधो महमहइ । सूरियो अब्भेहितो णीहरइ, नीलइ, धाडइ, वरहाडइ नीसरइ वा । अज्ज राओ को जग्गिहिइ, जागरिस्सइ वा ? पुत्तवहू पच्चूसे घरकज्जम्मि न आअड्डेइ, वावरेइ वा । साहगो मणं साहरइ, साहट्टइ, संवरइ वा । अहं तुं सन्नामामि । सो के सारइ ? अहं पव्वयत्तो ओरसामि, ओहामि वा । तुम एअंकज्जं करित्तए चयसि, तरसि, तीरसि, पारसि, सक्कसि वा। नीराइं पव्वयत्तो थक्कंति । लोएसो धणंजयं सलहइ । गुरुणो चरणाई ठाणं वेअडंति, खचंति वा। विमला ओयणं सोल्लइ, पउलइ, पचइ वा । अहं घयं छड्डामि, अवहेडामि, मेल्लामि, उस्सिक्कामि, रेअवामि, जिल्लुञ्छामि, धंसाडामि वा । तुम कहं न णिव्वलसि ? धणेसो रमेसं वेहवइ, वेलवइ, जूरवइ, उमच्छइ, वञ्चइ वा। हिन्दी में अनुवाद करो
कस्सइ कुलपुत्तयस्स भाया वेरिएण वावाइओ। सो जणणीए भन्नइपुत्त । पुत्तघायगं घायसु त्ति । तओ सो तेण नियपोरुसाओ जीवग्गाहं गिहिऊण जणणीसमीवमुवणीओ, भणिओ य भाइघायग ! कहिं आहणामि ? त्ति । तेण वि खग्ग मुग्गामियं दळूण भयभीएण भणियं-जहिं सरणागया आहम्मति । इमं च सोऊण तेण जणणीमुहमवलोइयं । तीए महासत्तत्तणमवलंबंतीए उप्पन्नकरुणाए भणियं-न पुत्त सरणागया आहम्मति । जओ-सरणागयाण विस्संभियाण, पणयाण वसणपत्ताणं ।
रोगिय अजंगमाणं, सप्पुरिसा नेव पहरंति ॥१॥ तेण भणियं-कहं रोसं सफलं करेमि ? तीए भन्नइ-न पुत्त ! सव्वत्थ रोसो सफलो करेयव्वो । पच्छा सो तेण विसज्जिओ चलणेसु निवडिऊण खामेऊण य गओ। धातु का प्रयोग करो मंगलवार को कौन हजामत करता है ? वह उसकी खुशामद क्यों करता है ?
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घात्वादेश (३)
३७७ क्या तुम मुझे याद करते थे ? क्या वह मुझे भूल गया ? विनय को वहां कौन बुलाता है ? तेल की बूंद पानी पर फैलती है । तुम्हारा यश चारों ओर फैलता है। इत्र की गंध फैलती है। उसके घर से वर्षा का पानी बाहर क्यों नही निकलता ? तुम किस समय जागते हो ? कल से वह अपने काम में लगेगा। वह अपने भाषण को पांच मिनट में समेटता है। विनीत शिष्य अध्यापक का आदर करता है। उसने तुम्हारे पर प्रहार क्यों किया ? क्या भगवान स्वर्ग से नीचे उतरता है ? मैं तुम्हारा सब काम कर सकता हूं। क्या वह कभी महल से नीचे आता है ? वह स्वार्थवश ही तुम्हारी प्रशंसा करता है। वह भोजन को स्वयं पकाता है। तुम अपने अवगुणों को क्यों नहीं छोडते ? जो दुःख को सहता है वह साधक होना चाहिए। उसने तुमको क्यों ठगा? प्राकृत में अनुवाद करो
एक सेठ के चार पुत्रवधुएं थीं। उनकी परीक्षा के लिए सेठ ने चारों को चावल के पांच-पांच दानें दिए और सुरक्षित रखने के लिए कहा । पहली पुत्रवधू ने लापरवाही से फेंक दिए और सोचा मांगेंगे तब धान्यागार से लाकर दे दूंगी। दूसरी ने उनको खा लिया। तीसरी ने उनको आभूषण की छोटी पेटी में सुरक्षित रख दिया। सोचा---ससुर ने दिए हैं तो कोई रहस्य होना चाहिए । चौथी पुत्रवधू ने खेत में उनकी बुवाई कराई। अच्छी फसल हुई। पांच वर्षों में विशाल भंडार हो गया । सेठ पांच वर्ष बाद घर आया। सब बहुओं से दाने मांगे। तीनों ने लाकर दे दिए। चौथी ने कहा-दाने मंगाने हों तो गाडी भेजो। सेठ ने चारों को पूछा, क्या-क्या किया ? सब ने अपनीअपनी क्रिया बताई। चारों का कार्य सुन सेठ ने चारों को घर का एक-एक कार्य सौंप दिया। दानों को फेंकने वाली वहू को सफाई का, खाने वाली को रसोई का, सुरक्षित रखने वाली को भंडार का कार्य सौंप दिया। चौथी को घर की स्वामिनी का भार दिया।
प्रश्न १. महल, दाना, धान्यागार, सुरक्षित, रहस्य, भंडार, गाडी, वृत्ति, सफाई, __लापरवाही, रसोई बनाने वाली शब्दों के प्राकृत शब्द बताओ। २. कम्म, गुलल, सुमर, विम्हर, भल, वीसर, पम्हुस, पोक्क पयल्ल, महमह,
उवेल्ल, धाड, णीहर, जग्ग, आअड्ड, सन्नाम, ओरस, तीर, पार, थक्क, सोल्ल, धंसाड, णिव्वल आदेश किन किन धातुओं को होता है ?
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१०३
धात्वादेश (४)
शब्द संग्रह पद्य-पज्ज
अनुयायी-अणुगमिर (वि) व्यक्तित्व-वत्तित्तणं
अपशकुन-अवसउणं उपहार--उवहारो
पति-दइयो सज्जन-सुअणो
स्वप्न-सिविणं जो दीखता न हो-अईसन्तो चुगली-पिट्ठिमंसं स्वाधीन-साहीण (वि) यात्री--जत्तिओ
नियम ७८४ (रचेरुग्गहावह-विडविड्डाः ४६४) रच् धातु को उग्गह, अवह और विडविड्ड-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। रचयति (उग्गहइ, अवहइ, विडविड्डइ, रयइ) बनाता है ।
नियम ७८५ (समारचेरवहत्थ-सारव-समार-केलायाः ४६५) समारच धातु को उवहत्य, सारव, समार और केलाय-ये आदेश विकल्प से होते हैं। समारचयति (उवहत्थइ, सारवइ, समारइ और केलायइ, समारयइ) बनाता है।
नियम ७८६ (सिचेः सिञ्च-सिम्पो ४।६६) सिञ्चति (सिच्) को सिञ्च और सिम्प आदेश विकल्प से होते हैं । सिञ्चति (सिञ्चइ, सिम्पइ, सेअइ) सींचता है, छिडकता है।
नियम ७८७ (प्रच्छः पुच्छः ४६७) प्रच्छ धातु को पुच्छ आदेश होता है । पृच्छति (पुच्छइ) पूछता है ।
नियम ७८८ (गर्जे बुक्कः ४।६८) गर्जति को बुक्क आदेश विकल्प से होता है । गर्जति (बुक्कइ, गज्जइ) गरजता है।
__ नियम ७८६ (वृषे टिक्कः ४।६६) वृष कर्ता हो तो गर्भ धातु को ढिक्क आदेश विकल्प से होता है । वृषभो गर्जति (ढिक्कइ) सांड गरजता है । . नियम ७९० (राजेरग्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहाः ४११००) राज धातु को अग्घ, छज्ज, सह, रीर और रेह-ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं। राजति, राजते (अग्घइ, छज्जइ, सहइ, रीरइ, रेहइ, रायइ) शोभता है, चमकता है।
नियम ७६१ (मस्जेराउड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः ४११०१) मज्जति को आउड्ड, णिउड्ड, बुड्ड और खुप्प-ये चार आदेश विकल्प से होते हैं ।
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धात्वादेश (४)
३७६ मज्जति (आउड्डइ, णिउड्डइ, बुड्डइ, खुप्पइ, मज्जइ) डूबता है ।
नियम ७९२ (पुजेरारोल-धमालो ४।१०२) पुञ्ज धातु को आरोल और वमाल ये आदेश विकल्प से होते हैं। पुञ्जति (आरोलइ, वमालइ, पुञ्जइ) इकट्ठा करता है।
नियम ७६३ (लस्जे हः ४११०३) लज्जति को जीह आदेश विकल्प से होता है । लज्जति (जीहइ, लज्जइ) लज्जा करता है।।
नियम ७६४ (तिजेरोसुक्कः ४।१०४) तिज् धातु को ओसुक्क आदेश विकल्प से होता है । तेजते (ओसुक्कइ) तीक्ष्ण करता है।
नियम ७६५ (मृजेरुग्घुस-लुञ्छ-पुञ्छ-पंस-फुप-पुस-लुह-हुल-रोसाणाः ४११०५) मृज् धातु को उग्घुस, लुञ्छ, पुञ्छ, पुंस, फुस, पुस, लुह, हुल और रोसाण—ये आदेश विकल्प से होते हैं। मार्जति (उग्घुसइ, लुञ्छइ, पुञ्छइ, पुंसइ, फुसइ, पुसइ, लुहइ, हुलइ, रोसाणइ, मज्जइ) साफ करता है।
नियम ७९६ (भजेर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूट-विर-पविरज-करजनीरजाः ४।१०६) भञ्ज् धातु को वेमय, मुसुमूर, मूर, सूर, सूड, विर, पविरञ्ज, करज, नीरज--ये आदेश विकल्प से होते हैं। भनक्ति (वेमयइ, मुसुमूरइ, मूरइ, सूरइ, सूडइ, विरइ, पविरजइ करजइ, नीरजइ, भञ्जइ) तोडता है, भांगता है।
नियम ७९७ (अनुवजेः पडिअग्गः ४।१०७) अनुव्रजति को पडिअम्ग आदेश विकल्प से होता है । अनुव्रजति (पडिअग्गइ, अणुवच्चइ) अनुसरण करता है।
नियम ७९८ (अर्जेविंढवः ४।१०८) अर्ज धातु को विढव आदेश विकल्प से होता है । अर्जति (विढवइ, अज्जइ) पैदा करता है, उपार्जन करता है।
नियम ७६६ (युजो जुञ्ज-जुज्ज-जुप्पाः ४११०६) युज् धातु को जुञ्ज, जुज्ज, जुप्प-ये आदेश होते हैं। युनक्ति (जुञ्जइ, जुज्जइ, जुप्पइ) जोडता है।
नियम ८०० (भुजो भुज-जिम-जेम-कम्माण्ह-चमढ-समाण-घड्डाः ४।११०) भुज, धातु को भुञ्ज, जिम, जेम, कम्म, अण्ह, चमढ, समाण और चड्ड-ये आदेश होते हैं। भुङ्कते (भुजइ, जिमइ, जेमइ, कम्मइ, अण्हइ, चमढइ, समाणइ, चड्डइ) भोजन करता है।
नियम ५०१ (वोपेन कम्मवः ४।१११) उप सहित भुज् धातु को कम्मव आदेश विकल्प से होता है। उपभुज्यते (कम्मवइ, उवहुञ्जइ) भोजन करता है।
नियम ८०२ (घटे गंढः ४११२) घटते को गढ आदेश विकल्प से होता है । घटते (गढइ, घडइ) बनाता है, चेष्टा करता है ।
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३८०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ८०३ ( समो गलः ४|११३) संघटते को गल आदेश विकल्प से होता है | संघटते (गलइ, संघडइ) प्रयत्न करता है ।
नियम ८०४ ( हासेन स्फुटे र्मूर: ४११०४) हास के कारण जो स्फुटित होता है उसको मूर आदेश विकल्प से होता है । हासेन स्फुटति ( मूरइ ) हंसी फूट पडती है ।
धातु
प्रयोग वाक्य
कि तुम सिलोगा उग्गहसि, अवहसि विडविड्डुसि, रयसि वा ? सो आउव्वे गंथं उवहत्थइ, सारवइ, समारइ, केलायइ समारयइ वा । सो रुक्खाई सिंचइ, सिंपइ, सेअइ वा । तुमं मिमं किं पुच्छसि ? मेहो सावणे बुक्कइ, गज्जइ वा । किं रायणयरम्मि उसहो ढिक्कइ ? साहूणं मज्झे आयरिओ अग्घर, छज्जइ, सहइ, रीरइ, रेहइ, रायइ वा । पक्खिणो जलासये न आउड्डुंति, णिउडुंति, बुडुंति, खुप्पंति, मज्जंति वा । सो किमट्ठ जणा आरोलइ, वमालइ पुंजइ वा ? णवोढा सासूओ जीहइ, लज्जइ वा । सो किमट्ठ छुरिआ ओसुक्कइ ? सीया भायणाई उग्घुसइ, लुञ्छइ पुग्छइ, पुंसइ, फुसइ, पुसइ, लुंहइ, हुलइ, रोसाणइ, मज्जइ वा । सो सइ लट्ठि वेमयइ, मुसूमुरइ, मूरइ, सूरइ, सूडइ, विरइ, पविरजइ, करजई, नीरन्जइ, भव्जइ वा । बालो पुरिसा पडिअग्गड, अणुवच्चइ वा । सो धणेहिं धणं विढवइ अज्जइ वा । किं तुमं कट्टखण्डाई जुञ्जसि, जुज्जसि, जुप्पसि वा । सुदंसणो पइदिणं मिट्ठान्तं भुंजइ, जिमइ, जेमइ, कम्मइ, अण्हइ, चमढइ, समाणइ, चड्डुइ वा । सो मज्झण्हे किमवि न कम्मवइ, उवहुज्जइ वा । किं राया दुग्गं गढइ, घडइ वा ? तुमं किम एवं गलसि, संघडसि वा ?
हिन्दी में अनुवाद करो
ना पुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं असच्चं कुब्विज्जा धारेज्जा पियमप्पियं ॥१॥ जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ । जाविदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ||२|| तामज्झिमोव्विअ वरं, दुज्जणसुअणेहिं दोहिं विन कज्जं । जह दिट्ठो तवई खलो, तहेअ सुअणो अइसन्तो ||३|| aण्णा ता महिलाओ जा दइअं सिविणाए वि पेच्छन्ति । णि व्विअ तेण विणा ण एइ, का पेच्छए सिविणं ॥४॥ बहुं सुणे कण्णेहि, बहुं अच्छीहि पेच्छइ । न यदिट्ठ सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहई ||५|| अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥ ६ ॥
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धात्वादेश ( ४ )
जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्टिकुम्बई । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥७॥ धातु का प्रयोग करो
क्या वह पद्य में काव्य बना सकता है ? वह भगवान महावीर के जीवन को संस्कृत में पद्यरूप में बनाता है । वह वृक्षों के मूल की अपेक्षा पत्रों को सींचता है । तुमने ज्योतिषी से क्या प्रश्न पूछा ? आज बादल नहीं गरजे । यदि दाहिने पार्श्व में सांड गरजता है तो यात्री शुभ फल पाता है । क्या चंद्रमा दिन में भी आकाश में चमकता है ? नदी में पशु नहीं डूबते फिर आदमी क्यों डूबता है ? कीडी अपने स्वभाव से इकट्ठा करती रहती है । आजकल बहूएं ससुराल में भी लज्जा नहीं करती । तुम्हारा भाई शस्त्र को तेज किसलिए करता है ? तुम वस्त्रों को कब साफ करोगे ? शैक्ष साधु पात्रों को अधिक क्यों तोडता है ? अनुयायी साधुओं का अनुसरण करते हैं। तुम एक मास में कितने रुपए उपार्जन करते हो ? वह दोनों के मन को जोडने के लिए प्रयत्न करता है । साधु टूटे हुए पात्र को कुशलता से जोडता है । तुम सायंकाल भोजन में क्या खाते हो ? वह व्यक्तित्व बनाने के लिए प्रयत्न करता है । प्राकृत में अनुवाद करो
३८१
एक राजा ने एक बार स्वप्न देखा कि मेरे सभी दांत गिर गए हैं । इसे अपशकुन जानकर उसने स्वप्नज्ञाता को बुलाया और अपने स्वप्न का फल पूछा । स्वप्नज्ञाता ने उत्तर दिया इसका फल बहुत बुरा है । आपके परिवार के सभी सदस्य आपके सामने ही मर जाऐंगे। यह सुनकर राजा कुपित हो गया और उसे कैद में बंद करा दिया। राजा ने दूसरे स्वप्नज्ञाता को बुलाया और स्वप्न का फल पूछा । वह होशियार था । उसने उत्तर दिया राजन् ! स्वप्न बहुत अच्छा है । इसका फल होगा, आप अपने परिवार में दीर्घजीवी होंगे । राजा उसके उत्तर से प्रसन्न हुआ और उसे बहुमूल्य उपहार दिया । दोनों स्वप्नज्ञाताओं का फलित एक था, पर वाणी की कला भिन्न-भिन्न थी ।
प्रश्न
१. आयुर्वेद, पद्य, व्यक्तित्व, उपहार, जो दीखता न हो, स्वाधीन, अनुयायी, अपशकुन, पति, और चुगली के लिए प्राकृत शब्द बताओ ?
२.
२. उग्गह, अवह, सारव समार, केलाय, सिम्प, बुक्क, ढिक्क, रीर, छज्ज, सह, बुड्डु, खुप्प, आरोल, वमाल, जीह, ओसुक्क, पुस, मूर, विर, पडिअग्ग, विढव, जुज्ज, जेम, चमढ, समाण, कम्मव, गढ, गल, मूर आदेश किन-किन धातुओं को होता है ?
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धात्वादेश (५)
शब्द संग्रह दीवार, भीत-भित्ति (स्त्री) पर-चलणो पोला-पोल्ल (वि)
स्तूप--थूभो क्रम-कमो
मायका-माउघरो, माउघरं आज्ञाकारी-आणाइत्त (वि) उदित-उइयं उपार्जित-उवज्जिय (वि) भरपूर-णिब्भरो मांसरहित-णिम्मंसं
प्रतिज्ञा, नियम-अभिग्गहो प्रसंग-वइअरो
उतरकर-ओयरिऊण चक्र-चक्को
नियम ८०५ (मण्डेश्चिञ्च-चिञ्चअ-चिञ्चिल्ल-रीड-टिविडिक्काः ४।११५) मण्डि धातु को चिञ्च, चिञ्चअ, चिञ्चिल्ल, रीड, टिविडिक्क-ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं । मण्डयति (चिञ्चइ, चिञ्चिअइ, चिञ्चिल्लइ, रीडइ, टिविडिक्कइ, मण्डइ) भूषित करता है, सजाता है ।
नियम ८०६ (तुडेस्तोड-तुट्ट-खट्ट-खुडोक्खुडोल्लुक्क-णिलुक्कलुक्कोल्लूराः ४।११६) तुड् धातु को तोड, तुट्ट, खुट्ट, खुड, उक्खुड, उल्लुक्क, णिलुक्क, लुक्क, उल्लूर-ये आदेश विकल्प से होते हैं । तुडति (तोडइ, तुट्टइ, खुट्टइ, खुडइ, उक्खुडइ, उल्लुक्कइ, णिलुक्कइ, लुक्कइ, उल्लूरइ, तुडइ) तोडता है, भेदन करता है।
नियम ८०७ (चूर्णो घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः ४११७)घूर्ण धातु को घुल, घोल, घुम्म और पहल्ल-ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । घूर्णति (घुलइ, घोलइ, घुम्मइ, पहल्लइ) घूमता है, चक्राकार घूमता है।
नियम ८०८ (विवृतेवंसः ४१११८) विवृत् धातु को दस आदेश विकल्प से होता है । विवर्तते (दंसइ, विवट्टइ) धंसता है, गिर पडता है।
नियम ८०६ (क्वथेरट्टः ४।११६) क्वथ् धातु को अट्ट आदेश विकल्प से होता है । क्वथति (अट्टइ, कढइ) क्वाथ करता है।
नियम ८१० (ग्रंथो गण्ठः ४१२०) ग्रन्थ् धातु को गण्ठ आदेश विकल्प से होता है। प्रथ्नाति (गण्ठइ) गूंथता है।।
नियम ८११ (मन्थे घुसल-विरोलो ४।१२१) मन्थ् धातु को घुसल और विरोल आदेश विकल्प से होते हैं । मथ्नाति (घुसलइ विरोलइ) मथता
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धात्वादेश (१)
है, विलोडन करता है ।
नियम ८१२ (लादेरवअच्छः ४।१२२) विन्नन्त और अभिन्नन्त ह, लाद् धातु को अवअच्छ आदेश होता है । ह्लादते ( अवअच्छइ ) खुश होता है । हलादयति ( अवअच्छइ ) खुश करता है ।
नियम ८१३ (नेः सदो मज्जः ४११२३) निपूर्वक सद् धातु को मज्ज आदेश होता है । निषीदति ( णुमज्जइ ) बैठता है । अत्ता एत्थ णुमज्जइ ( आत्मा यहां बैठती है) ।
नियम ८१४ ( छिवे हाव- णिच्छल्ल - णिज्भोड- णिव्वर - णिल्लूर-लूराः ४१२४) छिद् धातु को दुहाव, णिच्छल्ल, णिज्झोड, णिव्वर, पिल्लूर और णूर ———ये आदेश विकल्प से होते हैं । छिदति ( दुहावइ, णिच्छल्लइ, णिज्झोडइ, णिव्वरइ, पिल्लूरइ, लूरइ, छिंदइ) छेदता है, खंडित करता है ।
नियम ८१५ (आङा ओअन्दोद्दालों ४।१२५) आ युक्त छिद् धातु को ओअन्द और उद्दाल आदेश विकल्प से होते हैं । आछिदति ( ओअन्दर, उद्दार, आच्छिन्दइ) हाथ से छीनता है । नियम ८१६ ( मुदो मल-मढ परिहट्ट खड्ड- चड्ड-मड्ड-पन्नाडा: ४१२६) मृद्नाति को मल, मढ, परिहट्ट, खड्डु, चड्डु, मड्डु और पन्नाड - - ये सात आदेश होते हैं । मृद्नाति ( मलइ, मढइ, परिहट्टइ, खड्डइ, चडुइ, मड्डुइ, पन्नाss ) मर्दन करता है ।
नियम ८१७ ( स्पन्देश्चुलुचुलः ४।१२७ ) स्पन्द् धातु को चुलुचुल आदेश विकल्प से होता है । स्पन्दते ( चुलुचुलइ, फन्दइ) फडकता है, थोडा हिलता है ।
नियम ८१८ ( निरः पर्वलः ४। १२८ ) निर् प्रर्वक पद् आदेश विकल्प से होता है । निष्पद्यते ( निव्वलइ, निप्पज्जइ ) है, सिद्ध होता है ।
नियम ८१६ ( विसंवदेविअट्ट - विलोट्ट-फंसाः ४ । १२६) वि और सं पूर्वकवद् धातु को विअट्ट, विलोट्ट और फंस - ये आदेश विकल्प से होते हैं । विसंवदते (विअट्ट, विलोट्टइ, फंसइ, विसंवयइ) अप्रमाणित होता है ।
नियम ८२० (शदो झड-पक्खोडी ४|१३०) शीयते को झड और पक्खोड आदेश होते हैं । शीयते ( झडइ, पक्खोडइ) झडता है, पके फल
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गिरता है ।
नियम ८२१ ( आक्रन्दे र्णीहरः ४११३१) आक्रन्दति को णीहर आदेश होता है । आक्रन्दति (णीहरइ ) चिल्लाता है ।
नियम ८२२ ( खिबेर्जूर - विसरो ४।१३२) खिद् धातु को जूर और विसूर आदेश विकल्प से होता है । खिद्यते (जूरइ, विसूरइ, खिज्जइ ) खेद करता है, अफसोस करता है ।
धातु को वल निष्पन्न होता
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३८४
प्राकृत वाक्यरचना बोध नियम ८२३ (रुपेरुत्थाघः ४।१३३) रुध् धातु को उत्थङ्घ आदेश विकल्प से होता है । रुणद्धि, रुग्धे (उत्थङ घइ, रुन्धइ) रोकता है।
नियम ८२४ (निषेधेहपकः ४।१३४) निषेधति को हक्क आदेश विकल्प से होता है । निषेधति (हक्कइ, निसेहइ) निषेध करता है।
नियम ८२५ (अधर्जूरः ४।१३५) क्रुध् धातु को जूर आदेश विकल्प से होता है । क्रुध्यति (जूरइ, कुज्झइ) क्रोध करता है।
. नियम ८२६ (जनो जा-जम्मो ४।१३६) जायते को जा और जम्म आदेश होता है । जायते (जाअइ, जम्मइ) उत्पन्न होता है। धातु प्रयोग वाक्य
घणसामो कण्हपडिमं चिञ्चइ, चिञ्चअइ, चिञ्चिल्लइ, रीडइ, टिविडिक्कइ, मण्डइ वा। तुम कवाडं कहं तोडसि, तुट्टसि, खुट्टसि, खुडसि, उक्खुडसि, उल्लुक्कसि, पिल्लुक्कसि, लुक्कसि, उल्लरसि, तुडसि वा ? सो गामस्स बाहिं उज्जाणम्मि घुलइ, घोलइ, घुम्मइ, पहल्लइ वा । भूकंपेण भूमी ढंसइ, विवट्टइ वा । विज्जो आउव्वेयस्स ओसहीणं अट्टइ, कढइ वा। तुमं नीरं कहं घुसलसि, विरोलसि वा ? विमला णियकेसा गंठइ । तुमं पुरक्कारं पाऊणं अवअच्छइ । सो णिद्धणा मोअगं दाऊण अवअच्छइ। अमुम्मि विज्जालये विज्जट्टिणो कत्थ णुमज्जति ? सो णावं दुहावइ, णिच्छल्लइ, णिज्झोडइ, णिव्वरइ, गिल्लूरइ, लूरइ, छिदइ वा । धणंजयो जोगक्खेमस्स हत्थत्तो पत्तं ओअन्दइ, उद्दालइ, अच्छिन्दइ वा । विजयो सरीरे तेल्लं मलइ, मढइ, परिहट्टइ, खड्डइ, चड्डइ, मड्डइ, पन्नाडइ वा। संपइ मज्झ दाहिणभुआ चुलुचुलइ, फंदइ वा। मंतजवेण तस्स कज्जं निव्वलइ, निप्पज्जइ वा। तुज्झ कहणं विअट्टइ, विलोट्टइ, फंसइ, विसंवयइ वा। रुक्खत्तो पुप्फाई झडंति, पक्खोडंति वा । जो णीहरइ सो कम्माई बंधति । तुज्झ घरे साहू गोय? आगओ तया तुमं किमट्ठ जूरसि, विसूरसि खिज्जसि वा ? भीइए आरुहियं बालं सो उत्थङ घइ, रुन्धइ वा। आयरिओ साहुं तस्स घरं गमिउ कहं हक्कइ, निसेहइ वा ? सो अम्हं जूरइ, कुज्झइ वा । एगदिवहे केत्तिला बाला जाअंति, जम्मति वा ? हिन्दी में अनुवाद करो
वासुदेवस्स पुत्तो ढंढो पत्तजोव्वणो सुणिऊण चउमहन्वयाइं समणधम्म परिच्चइय उदारे कामभोगे संसारविरतो अरिटुनेमिस्स सगासे निक्खंतो । ता गहिय दुविहसिक्खो विहरए भगवया समं । अन्नया उइयं तं पुवोवज्जियमंतराइयं कम्मं समिद्धेसु गामणगरेसु हिंडतो न लहइ कहिंचि भिक्खं । जया वि लहइ तया वि जंवा तं वा। तेण सामी पुच्छिओ। पच्छा तेण अभिग्गहो गहिओ-जहा परस्स लाभो न मए गिहियव्वो। वासुदेवो भयवं वंदणत्यं बारवइं गओ। तित्थयरं पुच्छह-एयासि अट्ठारसण्हं समणसाहस्सीणं को
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धात्वादेश ( ५ )
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दुक्करकओ ? भयवया भणिअं - जहा ढंढणअणगारो । सो कहि ? सामी भणइ, नयर पविसंत पेच्छिहिसि । दिट्ठो य सुक्को निम्मंससरीरो पसंतप्पा ढंढणो अणगारी णयरिं पविसंतेणं । तओ भत्तिनिन्भरमणेण ओयरिऊण करिवराओ, वंदिओ सविणयं, पमज्जिया सहत्थेण चलणा, पुच्छिओ य पंजलिउडेण सुहविहारं । एक्केण इन्भसेट्टिणा दिट्ठो चितियं च- -जहा महप्पा एस कोइ तवस, जो वासुदेवेण वि एवं सम्माणिज्जइ । सो ( ढंढणो ) य भवियव्वयावसेण तस्सेव घरं पविट्टो । तेण परमाए सद्धाए मोयगेहि पडिलाभिओ । आगओ सामिस्स दाइ, पुच्छइ य - जहा मम लाभंतराइयं खीणं ? सामिणा भण्णइ न खीणं, एस वासुदेवस्स लाभो ति । कहिओ सेट्टिभत्तिकरणवइयरो तओ "न परलाभं उवजीवामि न वा अन्नस्स देमि' त्ति अमुच्छियस्स परिट्ठवंतस्स अस्खलित परिणामस्स तस्स केवलनाणं समुत्पन्नं ।
प्राकृत में धातु प्रयोग करो
वह अपने शरीर को विभूषित करता है । तुम दीवार को क्यों तोडते हो ? स्तूप के ऊपर चक्र घूमता है पोली जमीन जल्दी धंसती है । तुम किन औषधियों का क्वाथ करते हो ? देवताओं और असुरों ने समुद्र का मंथन किया था । गणधरों ने भगवान् महावीर की वाणी को गूंथा जो आगम
।
खिलाकर उन्हें खुश करता है । क्या वह जमीन कारण से तुम मकान को खंडित करते हो ? ली । वह प्रतिदिन मर्दन क्यों करता है ? स्थान फडकता है । गुरु के आशीर्वाद से कार्य कौन चिल्लाता है ? भोजन में तुम्हारे न आने से मार्ग को कौन रोकता है ? तुमको वहां जाने से क्रोध करता है, उसका शरीर पतला हो जाता है एक दिन मरेगा ।
कहलाए | आपके आगमन से मैं बहुत खुश हूं । धर्मेश भूखों को भोजन पर नहीं बैठता है ? किस उसने मेरे हाथ से पुस्तक छीन दर्शन केन्द्र पर ध्यान करने से वह निष्पन्न होता है । जंगल में वह खेद करता है । तुम्हारे कौन निषेध करता है ? जो । जो उत्पन्न होता है वह
धातु का प्रयोग करो
एक परिवार में तीन भाई थे। तीनों ही विवाहित थे। सबसे छोटा भाई अधिक बुद्धिमान था । उसकी पत्नी तीनों में सबसे छोटी थी । इसलिए उसे काम भी अधिक करना पडता था । जिस दिन बडी बहू के खाना बनाने का क्रम आता उस दिन भी वह सहयोग करती । और जिस दिन दूसरे नम्बर की बहू का क्रम आता उस दिन भी वह सहयोग करती । यह नई बहू थी फिर भी दोनों बडी बहुओं से अधिक काम करती । काम करना उसके लिए भारी नहीं था । दुःख तो इस बात का था कि काम करने पर भी वह सासू की कृपापात्र नहीं थी । खाने को शेष रहा हुआ मिलता था । पति भी
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प्राकृत वाक्यरचना बोष
माता का आज्ञाकारी पुत्र था। इसलिए वह अपनी पत्नी की बात पर ध्यान नहीं देता था। बह के मन की बात सुनने वाला ससुर-पक्ष में कोई नहीं था । मायके में अपनी माता के पास आकर वह सारी घटना सुनाती थी। सुनाने से उसका दिल हल्का होता था।।
प्रश्न १. दीवार, पोला, क्रम, आज्ञाकारी, उपार्जित, मांसरहित, प्रसंग, स्तूप, - मायका, चक्र, भरपूर, नियम आदि शब्दों के लिए प्राकृत शब्द बताओ। २. रीड, चिञ्च, खुड, लुक्क, खुट्ट, घोल, पहल्ल, दंस, अट्ट, वुसल, गंठ, अवअच्छ, मज्ज, दुहाव, लूर, ओअन्द, मल, मढ, चुलुचुल, वल, झड, णीहर, जूर, विसूर, उत्थंघ, जम्म-ये आदेश किन-किन धातुओं को होता
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धात्वादेश ( ६ )
खत्तं (दे.) – सेंध चेड (दे.) - दास, नौकर उद्दवेउ — मारने के लिए धाहा (दे.) – पुकार, चिल्लाहट
-
मुक्खत्तणं मूर्खता
लोभो — लालच
शब्द संग्रह
अण्डं - अण्डा
कुक्कुटी — मुर्गी
संतुट्ठो संतुष्ट
सुवण (वि) - सोने का असंतोसो - असंतोष
नियम ८२७ ( तनेस्तड तड्ड-तड्डव- विरल्लाः ४ । १३७ ) तन् धातु को तड, तड्डु, तड्डव, विरल्ल - ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । तनोति (तडइ, तड्डुइ, तडवइ, विरल्लइ, तणइ ) फैलाता है ।
नियम ८२८ ( तृपस्थिप्प: ४।१३८) तृप्यति को थिप्प आदेश होता है । तृप्यति (थिप्पर) तृप्त होता है, संतुष्ट होता है ।
नियम ८२ ( उपसर्पेरल्लिअः ४।१३६) उपपूर्वक सर्पति को अल्लिअ आदेश विकल्प से होता है । उपसर्पति (अल्लिअइ, उवसप्पइ ) |
नियम ८३० (संतपे झंङखः ४ । १४० ) संपूर्वक तप् धातु को झङ ख आदेश विकल्प से होता है । संतपति ( झङ खइ, संतप्पइ ) संतप्त होता है ।
नियम ८३१ ( व्यापेरोअग्गः ४ । १४१ ) व्याप्नोति को ओअग्ग आदेश विकल्प से होता है । व्याप्नोति ( ओअग्गर, वावेइ) व्याप्त करता है ।
नियम ८३२ ( समापेः समाणः ४।१४२) समाप्नोति को समाण आदेश विकल्प से होता है । समाप्नोति ( समाणइ, समावेइ ) पूरा करता है । समास
है।
नियम ८३३
(क्षिपेर्गलत्याड्डक्ख-सोल्ल - पेल्ल-गोल्ल- छुह-हुल-परीधत्ता: ४। १४३ ) क्षिप् धातु को गलत्थ, अड्डक्ख, सोल्ल, पेल्ल, गोल्ल, ( ह्रस्वे गुल्ल) छुह, हुल, परी, घत्त - ये आदेश विकल्प से होते हैं । क्षिपति ( गलत्थइ, अड्डुक्खड़, सोल्लई, पेल्लइ, गोल्लइ, (गुल्लइ ), छुहइ, हुलइ, परीइ, घत्तइ, विइ) फेंकता है ।
नियम ८३४ ( उत्क्षिपे गुलगुञ्छोत्थं घाल्लयोब्भुत्तोस्सिक्क हवखुवाः ४। १४४) उत् पूर्वक क्षिप् धातु को गुलगुंछ, उत्थङ्घ, अल्लत्थ, उब्भुत्त, उसिक्क, हक्खुव ये आदेश होते हैं । उत्क्षिपति ( उक्खिवइ गुलगुछइ,
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३८८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
उत्थङ, घइ, अल्लत्थइ, उन्भुत्तइ, उस्सिक्कर, हक्खुवइ ) ऊंचा करता है, उठाता है ।
नियम ८३५ ( आक्षिपे गौरव: ४। १४५) आ पूर्वक क्षिप् धातु को नीरव आदेश विकल्प से होता है । आक्षिपति (णीरवर, अक्विइ) आक्षेप करता है ।
नियम ८३६ (स्वपे: कमवस- लिस-लोट्टा: ४।१४६) स्वप् धातु को कमवस, लिस और लोट्ट— ये आदेश विकल्प से होते हैं । स्वपिति ( कमवसर, लिसइ, लोट्टइ, सुअइ) सोता है, लेटता है ।
नियम ८३७ (वेपेरायम्बायज्भो ४।१४७) वेप् धातु को आयम्ब और आयज्भ आदेश विकल्प से होते हैं । वेपते (आयम्बइ, आयज्झइ, बेवइ) कांपता है, हिलता है । नियम ८३८ ( विलपेङ ख- वडवडी ४।१४८) वि पूर्वक लप् धातु को झङख और वडवड आदेश विकल्प से होते हैं । विलपति ( झंखइ, वडवडs, विलas) विलाप करता है, चिल्लाता है !
नियम ८३६ ( लिपो लिम्पः ४ । १४६ ) लिम्पति को लिम्प आदेश होता है । लिम्पइ (लिम्पते) लीपता है ।
नियम ८४० ( गुप्ये विर-णडौ ४।१५० ) गुप्यति को विर और गड आदेश विकल्प से होता है । गुप्पइ (विरइ, गडइ, गुप्यति) व्याकुल होता है । नियम ८४१ ( ऋपोवहोणि: ४। १५१) ऋप् धातु को भिन्नन्त अवह आदेश होता है | कृपां करोति ( अवहावेइ) कृपा करता है ।
नियम ८४२ (प्रदीपेस्ते अव-सन्दुम- सन्धुक्कान्भुत्ताः ४।१५२) प्रदीप्यति को तेअव, सन्दुम, सन्धुक्क, अब्भुत्त- ये चार आदेश होते हैं । प्रदीप्यति ( तेअवइ, सन्दुमइ, सन्धुक्कइ, अभुत्तइ, पलीवइ ) जलता है ।
नियम ८४३ ( लुभेः संभाव: ४।१५३) लुभ्यति को संभाव आदेश विकल्प से होता है | लुभ्यति (संभावइ, लुब्भइ) लोभ करता है ।
नियम ८४४ (क्षुमे: खउर- पड्डुही ४।१५४) क्षुभ धातु को खउर और पड्डुह आदेश विकल्प से होते हैं । क्षुभ्यति (खउरइ, पड्डुहइ, खुब्भइ) क्षुब्ध होता है । नियम ८४५ ( आङो रमे रम्भ- हवी ४।१५५) आपूर्वक रम् धातु को रम्भ और ढव आदेश विकल्प से होते हैं । आरभते ( आरम्भइ, आढवई, आरभइ) आरंभ करता है ।
नियम ८४६ ( उपालम्भे भंङ ख- पच्चार- वेलवाः ४।१५६ ) उपालंभते को झङ्ख, पच्चार और वेलव- ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं । उपालंभते (झङं खइ, पच्चारइ, वेलवइ उवालंभइ ) उपालंभ देता है ।
नियम ८४७ (अवे जृम्भो - जम्मा ४११५७ ) जृम्भति को जम्भा आदेश
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धात्वादेश (६)
३८६ होता है। वि सहित नहीं होता है। जृम्भति (जम्भाइ) जंभाइ लेता है। केलिपसरो विअम्भइ (केले के वृक्ष का फैलाव विकसित होता है)।
नियम ८४८ (भाराकान्ते नमेणिसुढः ४।१५८) भाराक्रान्त कर्ता हो तो नम् धातु को णिसुढ आदेश विकल्प से होता है। भाराकान्तो नमति (णिसुढइ, णवइ)।
नियम ८४६ (विश्रणव्वा ४११५६) विश्राम्यति को णिव्वा आदेश विकल्प से होता है । विश्राम्यति (णिव्वाइ, वीसमइ) विश्राम करता
नियम ८५० (आक्रमे रोहावोत्थारच्छन्दाः ४।१६०) आक्रमति को ओहाव, उत्थार और छुन्द-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। आक्रमति (ओहावइ, उत्थारइ, छुन्दइ, अक्कमइ) आक्रमण करता है।
नियम ८५१ (भ्रमेष्टिरिटिल्ल-ढण्दुल्ल-ढण्ढल्ल-चक्कम्म-भम्मड-भमड भमाड-तलअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-ढम-दुस-परी-परा: ४।१६१) भ्रम् धातु को टिरिटिल्ल आदि अठारह आदेश विकल्प से होते हैं। भ्रमति (टिरिटिल्लइ, ढुण्ढुल्लइ, ढण्ढल्लइ, चक्कम्मइ, भम्मडइ, भमडइ, भमाडइ, तलअण्टइ, झण्टइ, झम्पइ, भुमइ, गुमइ, फुमइ, फुसइ, दुमइ, दुसइ, परीइ, परइ, भमइ) घूमता है। धातु प्रयोग वाक्य
वातो गंधं तडइ, तड्डइ, तड्डवइ, विरल्लइ, तणइ वा। तुज्झ महुरं वयणं सुणिऊण अहं थिप्पामि । मुणी आयरियं अल्लिअइ, उवसप्पइ वा । केण कारणेण, तुमं झंङ खसि, संतप्पसि वा ? सोहणो घयेण घडं ओअग्गइ, वावेइ वा। आयरिओ कल्लं सिग्धं वक्खाणं समाणिस्सइ, समाविस्सइ वा। रमेसो रुक्खस्स अवरि पत्थराणि कहं गलत्थइ, अड्डक्खइ, सोल्लइ, पेल्लइ, णोल्लइ, छुहइ, हुलइ, परीइ, घत्तइ, खिवइ वा ? सुसीला तणस्स भारं गुलगुंछइ, उत्थंघइ, अल्लत्थइ, अब्भुत्तइ, उस्सिक्कइ, हक्खुवइ, उक्खिवाइ वा। तुमं महेसं कह णीरवसि, अक्खिवसि वा ? किं सो गिम्हकाले वि दिवहे न कमवसइ, लिसइ, लोट्टइ, सुअइ वा ? अप्पेणावि वातेण पाणियं आयम्बइ, आयज्झइ, वेवइ वा। किं तुज्झ भगिणी झङ्खइ, वडवडइ, विलवइ वा । विमला भीइं लिम्पइ। मुणी गिम्हकाले विहारम्मि विरइ, णडइ, गुप्पइ वा ? गुरु सीसं अवहावेइ । दीवो सयं तेअइ, सन्दुमइ, सन्धुक्कइ, अब्भुत्तइ, पलीवइ वा । तुम णवरं धणं संभावइ, लुब्भइ वा। तुज्झ पत्थरखेअणपमाएण पाणि खउरइ, पड्डुहइ, खुब्भइ वा । धम्मेसो अज्ज वागरणस्स अज्झयणं आरम्भइ, आढवइ, आरभइ वा। सासू पुत्तवहुं झङ खइ, पच्चारइ , वेलवइ, उवालम्भइ वा । अज्जाहं जम्भामि । रुक्खो णिसुढई, णवइ वा। सक्षम्मि पहिओ णिव्वाइ,
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
वीसमई वा। सीहो पसुं ओहावइ, उत्थारइ, छंदइ, अवक्कमड वा। सो गामे कहं टिरिटिल्लइ, ढुण्ढुल्लइ, ढण्ढल्लइ, चक्कम्मइ, भम्मडइ, भमडइ, भमाडइ, तलअण्टइ, झण्टइ, झम्पइ, भुमइ, गुमइ, फुमइ, फुसइ, ढुमइ, ढुसइ, परीइ, परइ, भमइ वा। हिन्दी में अनुवाद करो
___ एगम्मि नयरे एगो चोरो। सो रत्ति विभवसंपन्नेसु घरेसु खत्तं खणिउं सुबहुं दव्वजायं घेत्तुं अप्पणो घरेगदेसे कूवं सयमेव खणित्ता तत्थ दव्वजायं पक्खिवइ । जहिच्छ्यिं सुवन्नं दाऊण कन्नगं विवाहेउ पसूयं संर्ति उद्दवेत्ता तत्थेवागडे पक्खिवइ 'मा मे भज्जा चेडरूवाणि य परूढपणयाणि होऊण रयणाणि परस्स पगासिस्संति ।" एवं कालो वच्चइ । अन्नया तेणेगा कन्नगा विवाहिया अईवरूविणी। सा पसूया संती तेण न मारिया। दारगो य से अट्ठवरिसो जाओ। तेण चितियं-अइचिरं धारिया एयं पुव्वं उद्दवे पच्छा दारयं उद्दविस्सामि । तेण सा उद्दवेउं अगडे पक्खित्ता। तेण य दारगेण गिहाओ निग्गच्छिऊण धाहा कया। लोगो मिलिओ। तेण भन्नइ एएण मम माया मारिय त्ति । रायपुरिसेहिं सुयं । ते हिं गहिओ। दिट्ठो कूवो दव्वभरिओ अट्ठियाणि सुबहूणि । सो बंधेऊण रायसभं समुवगीओ जायणा पगारेहिं । सव्वं दव्वं दवावेऊण कुमारेण मारिओ। धातु का प्रयोग करो
गुणग्राही दूसरों के गुणों को फैलाता है। गुरु के दर्शन से श्रावक तप्त होता है । भाई बहन के पास जाता है। मरुभूमि की गर्मी से लोग संतप्त होते हैं । गुणों से वह अपने को व्याप्त करता है। मैं अपने काम को पूर्ण करता हूं। वह तुम्हारे पर शब्दों का बाण फेंकता है। वह तुम्हारे हाथ को ऊंचा उठाता है। वे परस्पर एक-दूसरे पर आक्षेप करते हैं। वह प्रतिदिन दिन में लेटता है। राजा के भय से जनता कांपती है। इस घर में बहनें क्यों विलाप करती हैं ? विमला घर के आंगन को चतुराई से लीपती है । कौन किस पर कृपा करता है ? आज दीपक क्यों नहीं जलता है ? जो लोभ करता है, क्या वह अधिक कमाता है ? कभी-कभी प्रकृति भी क्षुब्ध होती है । मैं अपने ग्रंथ निर्माण का कार्य कल आरंभ करूंगा। तुम उसको क्यों उपालंभ देते हो? वह बारबार क्यों जंभाई लेता है ? पेड फलों के भार से झुकते हैं, (नमते हैं।) जो जलता है, वह विश्राम करता है। कौन देश किस देश पर आक्रमण करता है ? समय की सूई प्रतिक्षण घूमती है । प्राकृत में अनुवाद करो
___ एक किसान के पास एक मुर्गी थी, जो प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देती थी। वह लालची मनुष्य इससे संतुष्ट नहीं था। एक दिन उसने सोचा
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धात्वादेश (६) यह मुर्गी मुझे प्रतिदिन एक ही अण्डा देती है। इसके पेट में सोने के ऐसे बहुत से अण्डे होंगे। यदि मैं इन सभी को एक ही समय में पाऊँ तो मैं धनी हो सकता हूं। अतएव उसने मुर्गी को मारकर उसके पेट को छुरी से काट दिया। लेकिन उसके पेट में एक अण्डा भी नहीं मिला। इस प्रकार जो वह सोने का अण्डा प्रतिदिन पाता था, समाप्त हो गया। साथ ही वह मुर्गी भी समाप्त हो गई। किसान ने अपनी मूर्खता पर खेद प्रकट किया और पश्चात्ताप में डूब गया। वस्तुत: असंतोष और लालच सब दुःखों की जड है।
प्रश्न १. सेंध, दास, पुकार मूर्खता, अंडा, मुर्गी, संतुष्ट, असंतोष के लिए प्राकृत
शब्द बताओ। २. विरल्ल, थिप्प, अल्लिअ, झङ ख, ओअग्ग, समाण, पेल्ल, उत्थंघ,
सोल्ल, णीरव, कमवस, आयम्ब, झङ्ख, तडवड, लिम्प, णड, अवह, सन्दुम, संभाव, खउर, आढव, झङख, पच्चार, जम्भ, णिसुढ, उत्थार, झण्ट, झम्प आदेश किन-किन धातुओं को होता है ?
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धात्वादेश (७)
शब्द संग्रह ऋद्धिसंपन्न–खद्धादाणिम (वि) अनार्य देश-पच्चंतो पहनना-आविध (धातु) छिपाना-गोव (धातु) दूरकरना--अवणी (धातु) वापस लौट गया-अवक्कत (वि)
नियम ८५२ (गमेरई अइच्छाणुवज्जावज्जसोक्कुसाबकुस-पच्चड्डपच्छन्द-णिम्मह-णी-णीण-णोलुषक-पदअ-रम्भ-परिअल्ल-वोल-परिअल-णिरिणासणिवहावसेहावहरा: ४.१६२) गम् धातु को अई आदि इक्कीस आदेश विकल्प से होते हैं। गच्छति (अईइ, अइच्छइ, अणुवज्जइ, अवज्जसइ, उक्कुसइ, अक्कुसइ, पच्चड्डइ, पच्छंदइ, णिम्महइ, णीइ, णीणइ, णीलुक्क इ, पदअइ, रम्भइ, परिअल्लइ, वोलइ, परिअलइ, णिरिणासइ, णिवहइ, अवसेहइ, अवहरइ, गच्छइ, हम्मइ) जाता है । णिहम्मइ, णीहम्मइ, आहम्मइ, पहम्मइ -ये हम्म धातु से बनते हैं।
नियम ८५३ (आङा अहिपच्चुअः ४११६३) आ सहित गम् धातु को अहिपच्चुअ आदेश विकल्प से होता है । आगच्छति (अहिपच्चुअइ, आगच्छइ) आता है।
नियम ८५४ (समा अभिडः ॥१६४) संपूर्वक गम् धातु को अभिड आदेश विकल्प से होता है । संगच्छते (अभिडइ, संगच्छइ) मिलता है, संगति करता है।
नियम ८५५ (अभ्यडोम्मत्थः ४।१६५) अभि और आ सहित गम् धातु को उम्मत्थ आदेश विकल्प से होता है । अभ्यागच्छति (उम्मत्थइ, अब्भागच्छइ) सामने आता है।
नियम ८५६ (प्रत्याङा पलोट्टः ४११६६) प्रति और आ सहित गम् धातु को पलोट्ट आदेश विकल्प से होता है। प्रत्यागच्छति (पलोट्टइ, पच्चागच्छइ) वापस आता है ।
नियम ८५७ (शमेः पडिसा-परिसामौ ४।१६७) शम् धातु को पडिसा और परिसाम आदेश विकल्प से होता है। शाम्यति (पडिसाइ, परिसामइ, समई) शांत होता है।
नियम ८५८ (रमेः संखुड्ड-खेड्डोम्भाव-किलिकिञ्च-कोट्टम-मोट्टाय णीसर-वेल्लाः ४११६८) रम् धातु को संखुड्डु, खेड्ड, उब्भाव, किलिकिञ्च,
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धारवादेश ( ७ )
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कोट्टुम, मोट्टाय, णीसर, वेल्ल—– ये आदेश विकल्प से होते हैं । म (संखुडुइ, खेड्डूइ, उब्भाव, किलिकिञ्चइ, कोट्टुमइ, मोट्टायइ, णीसरइ, वेल्लई, रमइ) क्रीडा करता है ।
नियम ८५६ ( पूरेरग्धाडाग्घवोद्धुमाङ माहिरेमा: ४। १६९) पूर् धातु को अग्घाड, अग्घव, उद्धुम, अङगुम, अहिरेम — ये आदेश विकल्प से होते हैं। पूरयति ( अग्घाइ, अग्घवइ, उद्घमाइ, अङगुमाइ, अहिरेमइ, पूरइ ) पूरा करता है, पूर्ति करता है ।
नियम ८६० (त्वरस्तुवर-जअडी ४।१७० ) त्वरति को तुवर और जअड आदेश विकल्प से होता है । त्वरति ( तुवरइ, जअडइ) शीघ्र होता है, तेज होता है ।
नियम ८६१ ( त्यादिशत्रोस्तूर: ४।१७१ ) त्वरति को ति ( तिप् ) आदि और शतृ प्रत्यय परे हो तो तूर आदेश होता है । त्वरति ( तूरइ ) त्वरन् ( तुरन्तो) शीघ्र होता हुआ ।
नियम ८६२ (तुरोत्यादौ ४११७२ ) अत्यादि ( तिप् आदि छोड ) प्रत्यय परे हो तो त्वर् धातु को तुर आदेश होता है । त्वरन् (तुरिओ, तुरन्तो ) । नियम ८६३ (क्षर: खिर-भर-पज्झर-पच्चड णिच्चल-णिट्टुआः ४१७३) क्षर् धातु को खिर, झर, पज्झर, पच्चड, णिच्चल, णिट्टुअ - ये छह आदेश होते हैं । क्षरति ( खिरइ, झरइ, पज्झरइ, पच्चडई, णिच्चलई, णिट्टुअs) टपकता है, गिरता है ।
नियम ८६४ ( उच्छल्ल उत्थल्लः ४५१७४) उच्छलति को उत्थल्ल आदेश होता है । उच्छलति (उत्थल्लई) उछलता है ।
नियम ८६५ ( विगले स्थिप्प - णिट्टही ४।१७५ ) विगलति को थिप्प और णिट्टह आदेश विकल्प से होते हैं । विगलति ( णिट्टहई, विगलइ ) गल जाता है, नष्ट हो जाता है ।
नियम ८६६ ( दलि-वल्यो विसट्ट-वम्फी ४।१७६ ) दल धातु को विसट्ट भौर व धातु को वम्फ आदेश विकल्प से होता है । दलयति (विसट्टइ, दलइ ) विकसता है, फटता है । वलते ( वम्फइ, वलइ ) लोटता है, वापस आता है ।
नियम ८६७ (भ्रंशेः फिड-फिट्ट-फुड-फुट्ट - चुक्क भुल्लाः ४ । १७७ ) भ्रंश् धातु को फिड, फिट्ट, फुड, फुट्ट, चुक्क और भुल्ल - ये छह आदेश विकल्प से होते हैं । भ्रंश्यति (फिडइ, फिट्टइ, फुडइ, फुट्टइ, चुक्कइ, भुल्लइ, भंसइ) च्युत होता है, गिरता है ।
नियम ८६८
(नशेणिरणास - विहायसेह-पडिसा सेहा बहरा ४। १७८) नश् धातु को णिरणास, णिवह, अवसेह, पडिसा, सेह, अवरेह — ये आदेश विकल्प से होते हैं । नश्यति ( णिरणासइ, णिवहर, अवसे हइ, पंडिसाइ
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सेहइ, अवरेहइ, नस्सइ) भागता है, पलायन करता है ।
नियम ८६ ( अवात् काशी वासः ४ १७६) अव से परे काश् धातु को वास आदेश होता है । अवकाशते ( ओवासइ) अवकाश पाता है ।
नियम ८७० (संदिशेरप्याहः ४११८० ) संदिशति को अप्पाह आदेश विकल्प से होता है । संदिशति (अप्पाहइ, संदिसइ) संदेश देता है ।
नियम ८७१ (दुशोनिअच्छपेच्छावयच्छावयज्झ वज्ज-सव्वब-वेक्खौ realatara अक्ख- पुलोअ - पुलअ-निआवआस - पासा : ४।१८१ ) दृश् धातु को निअच्छ आदि पन्द्रह आदेश होते हैं। पश्यति (निअच्छइ, पेच्छइ, अवयच्छइ, अवयज्झइ, वज्जइ, सव्ववइ, देक्खइ, ओअक्खर, अवक्खइ, अवअक्खइ, पुलोएइ, पुलएइ, निअइ, अवआसइ, पासइ) देखता है ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
धातु प्रयोग वाक्य
किं समणीओ विएस अईंति, अइच्छंति, अणुवज्जंति, अवज्जसंति, उक्कुसंति, अक्कुसंति, पच्चडुंति, पच्छंदंति, णिम्महंति, णींति, णीणंति, णीलुक्कंति, पदअंति, रम्भंति, परिअल्लंति, वोलंति, परिअलंति, णिरिणासंति, विहंति, अवसेहंति, अवहरति, गच्छंति वा । मनीसा विएसाओ अहिपच्चुअंति, आगच्छंति वा । सावगो साहुणो अब्भिहडइ, संगच्छइ वा । सो तुमं उम्मत्थइ, अब्भागच्छइ । बालो विज्जालयाओ पल्लोट्टई, पच्चागच्छ वा । उवज्झायं पासिऊण विज्जद्विणो पडिसांति, परिसामंति, समंति वा । बाला उज्जाणे संखडुंति, खेडुंति, उब्भावंति, किलिकिञ चंति, कोट्टुमंति, मोट्टायंति, णीसरंति, वेल्लंति वा । तुज्झ गंथं अहं अग्घाडामि अग्धवामि, उद्घमामि, अङगुमामि, अहिरेमामि, पूरामि वा । पहिओ वरिसं पासिऊण तुवरइ, जअडइ वा । तुरन्तो पहिओ पडइ । तुज्झ सिरकेसाओ पाणियबिंदूइं खिरंति, भरंति, पज्झरंति, पच्चडंति, णिच्चलंति, णिट्टुअंति वा । विवादे ईसरो उत्थल्लइ । कालपभावाओ नव्वाइं वत्थाइं वि णिट्टुति, विगलंति वा । रुक्खस्स पुप्फाई विसट्टंति, दति वा । मंती णियदेसं वम्फइ, वलइ वा । समयं पूरिता देवा देवलोगाओ फिड्डुति, फिट्टंति, फुडंति, फुट्ट ति, चुक्कंति भुल्लंति वा । साहूणं परीसेहितो पराभूओ सो णिरणासs, णिवहर, अवसेहइ, पडिसाइ, सेहइ, अवरेहइ, नस्सइ वा । कि तुमं दिणे न ओवाससि ? आयरियो जणा अप्पाहइ, संदिसइ वा । सो णियावगुणा निअच्छइ, पेच्छइ, अवयच्छइ, अवयज्झइ, वज्जइ, सव्ववs, देक्खइ, ओअक्खइ, अवक्खइ, अवअक्खइ, पुलोएइ, पुलएइ, निrs, अवआसइ, पासइ वा ।
हिन्दी में अनुवाद करो
एगो मरुओ परदेसं गंतूण साहापाराओ होऊण सविसयमागओ । तस्सऽन्नेण मरुएण 'खद्धादाणिअ' त्तिकाउ दारिगा दिन्ना । सो य लोए
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धात्वादेश (७)
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दक्खिणाओ लहइ । परे विभवे वट्टइ। तेण तीसे भारियाए सुबहु अलंकारजायं दिन्नं । सा निच्चमंडिया अच्छइ । तेण भन्नइ-~-एस पच्चंतगामो तो तुमं एयाणि आभरणणाणि तिहिपव्वणीसु आविधाहि, कहिं चि चोरा आगच्छेज्जा तो सुहं गोविज्जति । सा भणइ---अहं ताए वेलाए सिग्घमेवावणिस्सामि । अन्नया तत्थ चोरा पडिया । ते तमेव निच्चमंडिया गिहमणुपविट्ठा । सा तेहिं सालंकारा गहिया। सा य पणीयभोयणत्ताओ मंसोवचियपाणिपाया न सक्कइ कडाईणि अवणेउ। तओ चोरेहिं तीसे हत्थे पाए छेत्तूण अवणीयाणि गिहिउंच अवक्कंता। धातु का प्रयोग करो
वह अपने काम पर जाता है। जो जाता है वह कहां आता है ? वह अच्छे व्यक्तियों की संगति करता है। श्रावक स्वागत के लिए साधुओं के सामने आते हैं । जो जाता है वह यहां वापस नहीं आता। उसके ध्यान से क्रोध शांत होता है। क्या बालक सारे दिन क्रीडा करेगा ? तुम्हारा अपूर्ण वाक्य मैं पूरा करता हूं। वह युद्ध की गति को तेज करता है । मकान की छत से वर्षा की बूंदें टपकती हैं। भडभुजे का चना गर्म रेत से उछलता है। वर्फ गलती है। अंकुर फूटता है। पांच वर्षों के बाद वह अपने देश वापस आता है। जो धर्म से च्युत होता है उसके लिए स्थान कौन-सा है ? किस दु:ख के कारण तुम घर से पलायन करते हो? प्रधानमंत्री देश को संदेश देता है। ईर्ष्या स्त्री जाति का जातिगत स्वभाव है । पुरुष का हृदय कठोर होता है। स्त्री का हृदय कोमल होता है । मनुष्य दूसरे की प्रगति को सहन नहीं करता है। किसी पर संदेह से आरोप मत लगाओ। अपनी संकल्पशक्ति बढाओ। संकल्प से असंभव कार्य भी संभव हो जाता है। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में बहुत समय से वर्षा में खडा हूं। प्राकृत में अनुवाद करो
___एक वृद्ध आदमी के छ पुत्र थे। वे हमेशा एक दूसरे से लडते थे। बूढे आदमी ने हर प्रकार से उनके बीच पारस्परिक स्नेह उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। लेकिन उसके सारे प्रयास व्यर्थ हुए । अन्ततः एक दिन उसने सभी को अपने समक्ष बुलवाया। उसने उन्हें छड़ियों का एक वंडल दिया और वारीवारी से उसे तोडने का आदेश दिया । क्रमानुसार प्रत्येक ने पूरे बल के साथ प्रयत्न किया लेकिन कार्य सिद्ध न हुआ। उसके बाद पिता ने वंडल को खोल देने की आज्ञा दी। उसमें से प्रत्येक को एक-एक छडी देकर उसे दो भागों में तोडने का आदेश दिया। बिना किसी प्रयास के प्रत्येक ने छडी. तोड दी। पिता ने पुत्रों को कहा-एकता की शक्ति देखो। यदि तुम मित्रता के बंधन में बंधे रहोगे तो तुम्हें कोई भी हानि पहुंचाने में समर्थ न होगा। यदि
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प्राकृत वाक्यरचना बोध तुम एक दूसरे से घृणा करोगे और आपस में कलह करोगे तो तुम लोग आसानी से शत्रुओं के शिकार हो जाओगे ।
प्रश्न
१. बर्फ, ऋद्धिसंपन्न, अंकुर, अनार्यदेश, वापस लौटना---इनके लिए प्राकृत
शब्द बताओ। २. खद्धादाणिअ और आविंध, अवणी तथा गोव धातु का अपने वाक्य में
प्रयोग करो। ३. णिम्मह, णीण, अहिपच्चुअ, अभिड, उम्मत्थ, पलोट्ट, पडिसा, परिसाम,
उब्भाव, मोट्टाय, उधुम, अहिराग, तुवर, खिर, पज्झर, उत्थल्ल, णिट्टह, विसट्ट, वम्फ, फिड, चुक्क, णिवह, ओवास, अप्पाह, अवयच्छ, पुलोअ आदेश किन-किन धातुओं को होता है ?
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दीक्षित - पव्वइयो विश्राम -- विस्सामं
धात्वादेश ( ८ )
प्रद्वेष-पओसो
हांकना - खेड (धातु) गवाले की लडकी ——गोवदारया देखता हुआ - पलोइंतो उत्पथ - उप्पहो
शब्द संग्रह
बहुश्रुत, शास्त्रज्ञ - बहुस्सुओ पास जाता हुआ — उवसप्पंत अणालोइय - प्रायश्चित्त के लिए अपने दोष को गुरु को न बताना
व्याकुल - अक्खित्त (वि) पास - अब्भास (वि)
नियम ८७२ ( स्पृश: फास - फंस-फरिस छिव - छिहालुङ खालिहाः ४११८२) स्पृशति को फास, फंस, फरिस, छिव, छिह, आलुङ्ख और आलिह - ये सात आदेश होते हैं । स्पृशति ( फासइ, फंसइ, फरिसइ, छिवइ, छिहइ, आलुङ्ङ्खइ, आलिहइ) छूता है ।
नियम ८७३ ( प्रविशेरिअ: ४।१८३ ) प्रविशति को रिअ आदेश विकल्प से होता है । प्रविशति (रिअइ, पविसइ) प्रवेश करता है ।
नियम ८७४ ( प्रान्मुश- मुषोम्सः ४।१८४) प्र पूर्वक मृशति और मुष्णाति को म्हुस आदेश होता है । प्रमृशति (पम्हुसइ) स्पर्श करता है । प्रमुष्णाति ( पम्हुसइ) चोरी करता है ।
नियम ८७५ (पिषे निवह- णिरिणास- णिरिणज्ज-रोञ्च चड्डाः ४१८५) पिष् धातु को णिवह, णिरिणास, णिरिणज्ज, रोञ्च, चडु-ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं । पिनष्टि ( णिवहइ, णिरिणासइ, णिरिणज्जइ, रोञ्चइ, चहुइ, पीसइ) पीसता है ।
नियम ८७६ ( भषेर्भुक्कः ४११८६ ) भष् धातु को भुक्क आदेश विकल्प होता है | भषति (भुक्कइ, भसइ) भौंकता है ।
नियम ८७७ ( कृषेः कड्ढ -साअड्ढाञ्चाणच्छाय ञ्छाइञ्छा: ४।१८७ ) कृष् धातु को कड्ढ, साअड्ढ, अञ्च, अणच्छ, अयञ्छ, आइञ्छ -- ये छ आदेश विकल्प से होते हैं । कर्षति (कड्ढइ, साअड्ढई, अञ्चइ, अणच्छइ, अयञ्छ, आइञ्छइ, करिसइ) खींचता है |
नियम ८७८ ( असायक्लोड: ४११८८) असि विषय में कृष् धातु को अक्खोड आदेश होता है । असि कोशात् कर्ष ति ( अक्खोडइ) ।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ८७६ (गवेषेर्द्वग्दुल्ल-ठण्ढोल-गमेस-वत्ताः ४।१८६) गवेष् धातु को ढण्ढुल्ल, ढण्ढोल, गमेस, छत्त-ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। गवेषयति (ढण्ढुल्लइ, ढण्ढोलइ, गमेसइ, घत्तइ, गवेसइ) ढूंढता है, खोजता है।
नियम ८८० (श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः ४।१९०) श्लिष्यति को सामग्ग, अवयास, परिअन्त-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। श्लिष्यति (सामग्गइ, अवयासइ, परिअन्तइ, सिलेसइ) आलिंगन करता है।
नियम ८८१ (म्रक्षेश्चोप्पडः ४।१६१) म्रक्ष धातु को चोप्पड आदेश विकल्प से होता है । म्रक्षति (चोप्पडइ, मक्खइ ) चोपडता है।
नियम ८८२ (काङ क्षेराहाहिलङ ग्घाहिलङ ख-वच्च-वम्फ-मह-सिहविलुम्पाः ४।१९२) काङ क्षति को आह, अहिलंघ, अहिलङ्ख, वच्च, वम्फ, मह, सिह, विलुम्प-ये आठ आदेश विकल्प से होते हैं। काङ्क्षति (आहइ, अहिलङ्घइ, अहिलङ्खइ, वच्चइ, वम्फइ, महइ, सिहइ, विलुम्पइ, कवइ) चाहता है।
नियम ८५३ (प्रतीक्षेः सामय-विहीर-विरमाला: ४११९३) प्रतीक्षते को सामय, विहीर, विरमाल-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। प्रतीक्षते (सामयइ, विहीरइ, विरमालइ, पडिक्खइ) प्रतीक्षा करता है।
नियम ८८४ (तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फा: ४।१९४) तक्ष् धातु को तच्छ, चच्छ, रम्प, रम्फ~-ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। तक्ष्णोति (तच्छइ, चच्छइ, रम्पइ , रम्फइ, तक्खइ) पतला करता है, छोलता है।
नियम ८८५(विकसे: कोआस-वोसट्टो ४।१९५) विकसति को कोआस, वोसट्ट-ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। विकसति (कोआसइ, वोसट्टइ, विअसइ)-विकास करता है।
नियम ८८६ (हसेर्गुञ्ज: ४११६६) हसति को गुञ्ज आदेश विकल्प से होता है । हसति (गुञ्जइ, हसइ हंसता है।
नियम ८८७ (स्र सेहंस-डिम्भी ४११६७) स्रस् धातु को ल्हस, डिम्भ -~-ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। नसते (ल्हसइ, डिम्भइ, संसइ) खिसकता है, नीचे गिरता है।
नियम ८८८ (त्रसेर्डर-बोज्ज-वज्जाः ४११९८) त्रस् धातु को डर, बोज्ज और वज्ज-ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। त्रस्यति , त्रसति (डरइ, बोज्जइ, वज्जइ, तसइ) डरता है।
नियम ८८९ (न्यसो णिमणुमौ ४।१९९) न्यस्यति को णिम और णुम आदेश होते हैं । न्यस्यति (णिमइ , णुमइ)स्थापना करता है।
नियम ८६० (पर्यसः पलोट्ट-पल्लट्ट-पल्हत्था: ४।२००) पर्यस्यति को पलोट्ट, पल्लट्ट, पल्हत्थ—ये तीन आदेश होते हैं । पर्यस्यति (पलोट्टइ, पल्लट्टइ, पल्हत्थइ) फेंकता है।
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धात्वादेश (८)
३६६ नियम ८६१ (निःश्वसेझङ खः ४१२०१) निःश्वसिति को झङ्ख आदेश विकल्प से होता है । निःश्वसिति (झङ्खइ, नीससइ)नीसास लेता है।
नियम ८६२ (उल्लसेरूसलोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुजोल्लारोआ: ४।२०२) उल्लसति को ऊसल, ऊसुम्भ, णिल्लस, पुलआअ, गुजोल्ल, आरोअ -ये छ आदेश विकल्प से होते हैं। उल्लसति (ऊसलइ, ऊसुम्भइ, णिल्लसइ, पुलआअइ, गुजोल्लइ ह्रस्वे गुज़ुल्लइ आरोअइ, उल्लसइ) उल्लास पाता है।
नियम ८६३ (मासेभिसः ४१२०३) भास् धातु को भिस आदेश विकल्प से होता है। भासते (भिसइ, भासइ) शोभता है, चमकता है।
नियम ८९४ (प्रसेधिसः ४।२०४) ग्रसति को घिस आदेश विकल्प से होता है । असति (घिसइ , गसइ) निगलता है।।
नियम ८६५ (अवादगाहेर्वाहः .४।२०५) अव से परे गाह, को वाह आदेश विकल्प से होता है। अवगाहते (ओवाहइ, ओगाहइ) अवगाहन करता है।
नियम ८९६ (आरुहेश्चड-बलग्गी ४।२०६) आरोहति को चड और वलग्ग आदेश विकल्प से होते हैं । आरोहति (चडइ, वलग्गइ, आरुहइ) चढता है।
नियम ८६७ (मुहे गुम्म-गुम्मडो ४।२०७) मुह, धातु को गुम्म और गुम्मड आदेश विकल्प से होता है । मुह्यति (गुम्मइ, गुम्मडइ, मुज्झइ) मुग्ध होता है।
नियम ८६८ (बहेरहिऊलालुङ्को ४।२०८) दहति को अहिऊल और आलुङ्ख आदेश विकल्प से होता है । दहति (अहिऊलइ, आलुङ्खइ) जलाता है।
नियम ८६६ (ग्रहो-चल-गेण्ह-हर-पङ्ग-निरुवारहिपच्चुआ: ४।२०६) ग्रह, धातु को बल, गेह, हर, पङ्ग, निरुवार और अहिपच्चुअ-ये आदेश विकल्प से होते हैं। गृह्णाति (वलइ, गेण्हइ, हरइ, पङ्गइ, निरुवारइ, अहिपच्चुअइ) ग्रहण करता है। धातु प्रयोग
पुत्तो पिअरस्स चरणा फासइ, फंसइ, फरिसइ, छिवइ, छिहइ , आलुङ्खइ, आलिहइ वा । मुणी 'चाउम्मासस्स पवेसाय णयरं रिअड, पविसइ वा। सो तुज्झ सरीरं कहं पम्हुसइ ? चोरो कस्स गिहं पम्हुसइ ? मनीसा गोहूमं णिवहइ, णिरिणासइ, शिरिणज्जइ, रोञ्चइ, चड्डइ, पीसइ वा । कुक्कुरो भुक्कइ, भसइ वा । किसीवलो हलं कड्ढइ, साअड्ढइ, अञ्चइ, अणच्छइ, अयञ्छइ, आइञ्छइ । सेट्ठिणी पलंबं ढुण्ढुल्लइ, ढण्ढोलइ, गमेसइ, धत्तइ,
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४००
प्राकृत वाक्यरचना बोध
गवेसइ वा । माआ पुत्ति सामग्गइ, अवयासइ, परिअन्तइ, सिलेसइ वा । भगिणी रुट्टि चोप्पडइ, मक्खइ वा। तुम कि अहिलंघसि, अहिलंखसि, वच्चसि, वम्फसि, महसि, सिहसि विलुपसि वा ? सो के सामयइ, विहीरइ, विरमालइ, पडिक्खइ वा । मोहणो लोभं तच्छइ, चच्छइ, रम्पइ, रम्फइ, तक्खइ वा ? रामो पइदिणं कोआसइ, वोसट्टइ, विअसइ वा । तुमं कहं गुञ्जसि, हससि वा ? सण्हांगणे पाया ल्हसंति, डिम्भंति, संसंति वा । भगिणी णिसाए भूआओ डरइ, बोज्जइ, वज्जइ, तसइ वा । सो गिहे पडिमं णिमइ, णुमइ वा । रामो सरं पलोट्टइ, पल्लट्टइ, पल्हत्थइ वा। पत्तेयजीवो पइक्खणं झङ्खइ, नीससइ वा । पुत्तस्स पगई पासिऊण माआ ऊसलइ, ऊसुम्भइ, णिल्लसइ, पुलआअइ, गुञ्जो, ल्लइ, आरोअइ, उल्लसइ वा । तुज्झ कंठे हारो भिसइ, भासइ वा । धेणू तणाई घिसइ, गसइ वा । मुणी अंगसुत्ताणि ओवाहइ, ओगाहइ वा। मुणी झाणसेणि चडइ, वलग्गइ, आरुहइ वा । तुमं तस्स रूवस्स उवरिं कहं गुम्मइ, गुम्मडइ, मूज्झइ वा ? तुज्झ ववहारो मज्झ हिअयं अहिऊलइ, आलुंखइ वा । सो तुज्झ पाणि वलइ, गेण्हइ , हरइ , पङ्गइ, निरुवारइ, अहिपच्चुअइ वा । हिन्दी में अनुवाद करो
दो भायरो पव्वइया । तत्थेगो बहुस्सुओ, एगो अप्पसुओ। जो बहुस्सुओ सो आयरिओ। सो सीसेहिं सुत्तत्थाणं निमित्तमुवसप्पंतेहिं दिवसओ विस्सामं न लभइ । रत्ति पि परिपुच्छणाईहिं सुविन लहइ। जो सो अप्पसुओ सो दिवसओ रत्तीए य सेच्छाए (स्वेच्छा) अच्छइ । अन्नया सो आयरिओ चितेइमे भाया पुन्नवंतो जो सुहं जेमेऊण सुहेण सुयइ। अम्हं पुण मंदपुन्नाणं रत्ति पि निद्दा नत्थि । एवं च नाणपओसओ तेण नाणावरणिज्जं कम्मं बद्धं । सो तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कतो कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववन्नो। तओ चुओ इहेव भारहे वासे आहीरघरे दारओ जाओ। कमेण वडिढओ जोवणत्थो जाओ विवाहिओ य। दारिया जाया अतीवरूववई । सा य भद्दकन्नया। कयाणि ताणि पियापुत्ताणि अन्नेहिं आभीरेहि समं सगडं घयस्स भरेऊणं नगरं विक्किणणट्ठ पट्ठियाणि । सा य कन्नया सारहित्तं सगडस्स करेइ । ततो ते गोवदारया तीए रूवेणऽक्खित्ता तीसे सगडस्स अब्भासगयाइं सगडाइं उप्पहेण खेडंति तं पलोइंता । ताइं सव्वाइं सगडाइं उप्पहेणं भग्गाई। तओ तीए नामकं कयं 'असगड' त्ति इयरस्स 'असगडपिय' त्ति । तस्स तं चेव वेरग्गं जायं । तं दारियं परिणावेउ सव्वं च घरसारं दाऊण पव्वइओ। धातु का प्रयोग करो।
श्रावक साध्वियों को नहीं छूते हैं । वह अपने नए घर में शुभ वेला में प्रवेश करता है। उसका छोटा पुत्र अभी चोरी क्यों करता है ? अधिकारी ने कहा-समय आने पर मैं उसको पीस दूंगा। कुत्ता रात में कब भौंकता है ?
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धात्वादेश (८)
४०१
वह मुश्किल से अपने परिवार का भार खींचता है। क्षत्रिय म्यान से तलवार को किसलिए खींचता है ? साधु घर-घर में जाकर शुद्ध आहार को खोजता है। शीत से बचाने के लिए माता बच्चे का आलिंगन करती है। रोगी तेल से अपने शरीर को चोपडता है। तुम मुझ से क्या चाहते हो ? प्रतिदिन में तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूं। साधु अपने पात्र को पतला करता है। प्रति वर्ष वह विकास करता है । बात कहने से पूर्व वह क्यों हंसता है ? पहाड से बर्फ नीचे गिरती है। कठोर अनुशासन से सब डरते हैं। कौन वस्तु तुम मेरे लिए स्थापना करते हो ? बालक' क्रोध से पुस्तक को फेंकता है। उसने उच्छ्वास लिया पर निःश्वास नहीं लिया। शिष्य गुरु के पास रहकर उल्लास पाता है । उसके शरीर पर धुले हुए श्वेत वस्त्र अधिक शोभते हैं। सांप चूहे को निगल जाता है। उसने २५ वर्षों तक सूत्रों का अवगाहन किया। वह क्रमशः ऊपर चढता है । तुम किस रूप पर मुग्ध हुए हो ? प्राकृत में अनुवाद करो
एक वृद्ध मनुष्य अपने उद्यान में आम्र वृक्षों के रोपने में अत्यन्त परिश्रम कर रहा था। एक युवक मनुष्य ने उन्हें देखकर हंसी उडाई और कहा-आपके ये प्रयत्न अत्यन्त निरर्थक हैं। आप अत्यन्त वृद्ध हैं और इन वृक्षों के फलों का स्वाद लेने के लिए आप जीवित नहीं रहेंगे। वृद्ध मनुष्य ने शांतिपूर्वक अपनी आंखें उठायीं और युवक पुरुष की ओर देखते हुए कहाप्यारे बच्चे ! तुमने अच्छा प्रश्न किया है। मेरे जन्म लेने के पूर्व ही किसी ने इन विशाल वृक्षों को उद्यान में रोपा था और मैं उनके मधुर फलों को खा रहा हूं। अब मैं इन वृक्षों को रोपता हूं ताकि तुम्हारे जैसे नवयुवक लोग मेरी मृत्यु के बाद फल खा सकें । यह उत्तर सुनकर वह लडका लज्जित हुआ और उसने वृद्ध मनुष्य के अच्छे विचारों की प्रशंसा की।
प्रश्न
१. पव्वइयो, विस्सामंपओसो, बहुस्सुओ, उवसप्पंत, अणालोइय, अक्खित्त, __ पलोइंत, अब्भास--इन शब्दों का अर्थ बताओ। २. फास, फंस, रिअ, पम्हुस, पम्हुस, णिरिणास, चड्ड, भुक्क, साअड्ढ, 'अणच्छ, घत्त, ढुण्ढुल्ल, अवयास, चोप्पड, अहिलङ्ख, मह, सामय, रम्प, गुञ्ज, ल्हस, डर, बोज्ज, णुम, पलोट्ट, झङ्ख, ऊसल, पुलआअ, भिस, घिस, ओवाह, गुम्म-ये आदेश किन-किन धातुओं को होता है?
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१०८
धातुवर्णादेश (१)
शब्द संग्रह असिवं-मारी रोग
उवद्दवं-उपद्रव भूयवाइय- भूतवादिक
निहालेयव्वं-देखना चाहिए अलाहि-अलं, वस
चिप्पिड-चिपटे नाक वाला आमय-रोग
नायरया-नगर जन पिवासा-- प्यास
नियम ९०० (गमिष्यमासां छः ४१२१५) गम्, इष्, यम् और आस् धातुओं के अंत को छ होता है। गच्छइ, इच्छइ, जच्छइ, अच्छइ ।
नियम ९०१ (छिदि-भिवो न्यः ४।२१६) छिद् और भिद् के अन्त्य को न्द आदेश होता है। 7न्द-छिद्=छिन्द । भिद्=भिन्द ।
__ नियम ६०२ (युध-बुध-गृध-क्रुध-सिध-मुहां ज्झः ४।२१७) युध्, बुध्, गध, क्रुध, सिध् और मुह धातुओं के अन्त को ज्झ होता है। 57 झ-युध =जुज्झ । बुध-बुज्झ । गृध् = गिज्झ । क्रुध्=कुज्झ । सिध्=
सिज्झ । ह.>भ-मुह = मुज्झ ।
नियम १०३ (रुषो न्ष म्भौ च ४।२१८) रुध् के अन्त्य वर्ण को न्ध, म्भ और ज्झ होता है। 7न्ध, मम-रुध्रु न्धइ, रुम्भइ, रुज्झइ।
नियम ६०४ (सद-पतोर्ड: ४।२१९) सद् और पत् धातु के अन्त्य को ड होता है। द, त्73-सद्=सडइ । पत्=पडइ ।
नियम ६०५ (क्वथ-वर्षा ढः ४१२२०) क्वथ् और वर्ध धातु के अन्त्य को ढ होता है। थ, 475 - क्वथ्=कढइ । वर्ध =वड्ढइ ।
नियम ६०६ (वेष्ट: ४।२२१) वेष्ट वेष्टने धातु के (नियम ३६४ क ग ट ड २१७७) से ष् का लोप होने के बाद अन्त्य ट को ढ होता है। > -वेष्ट्=वेढइ।
नियम ६०७ (समो ल्लः ४।२२२) सं पूर्वक वेष्ट धातु को ल्ल
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४०३
धातुवर्णादेश (१) होता है। हल्ल -संवेष्ट =संवेल्लइ।
नियम ६०८ (वोदः ४।२२३) उद् से परे वेष्ट् के अन्त्य को ल्ल विकल्प से होता है।
>ल्ल-उद्वेष्ट्= उव्वेल्लइ, उव्वेढइ । . नियम ६०६ (स्विदां जः ४।२२४) स्विद् जैसी दकारान्त धातुओं के अन्त्य को ज्ज होता है। >ज्ज--स्विद् सिज्ज इ । संपद्=संपज्जइ । खिद् खिज्जइ ।
नियम ६१० व्रज-नृत-मदां च्च: ४।२२५) व्रज, नृत् और मद् धातुओं के अन्त्य वर्ण को च्च होता है। ज,त,द 7च्च-व्रज्व च्चइ । नृत्=नच्चइ । मद्=मच्चइ ।
नियम ६११(रुद-नमो वः ४१२२६) रुद् और नम् धातु के अन्त्य वर्ण को व होता है। द, म्> -रुद्रू वइ । नम्-नवइ ।
नियम ६१२ (उद्विजः ४।२२७) उद् पूर्वक विज् धातु के अन्त्य वर्ण को व होता है। ज74-उद्वि-उव्विवइ ।
नियम ६१३ (खाद-धायो ल ४१२२८) खाद् और धाव् धातु के अन्त्य वर्ण का लुक् होता है। 7लुक-खाद्=खाइ, खाअइ । खाहिइ, खाउ । 7 लुक्-धावधाइ , धाहिइ, धाउ । बहुलाधिकारात् वर्तमान, भविष्य
और विध्यर्थ के एकवचन में ही लुक होता है। बहुवचन होने से यहां नहीं हुआ है-खादन्ति, धावन्ति । कहीं पर नहीं भी होता
धावइ पुरओ (आगे दौडता है ।) हिन्दी में अनुवाद करो
असिवोवद्दवे नयरे आदन्नस्स स पुरजणवयस्स राइणो समीवं तिन्नि भूयवाइया आगया। भण्णंति-अम्हे असिवं उवसमावेमो त्ति । राइणा भणियं-सुणेमो केणुवाएणं ? त्ति । तत्थेगो भणइ -अत्थि मम मंतसिद्धमेगं भूयं अलंकियविभूसियं तं सव्वजणमणहरं रूवं विउव्विऊण गोपुररत्थासु लीलायंतं परियडइ, तं न निहालेयव्वं, तं निहालियं रूसइ । जो पुण तं निहालेइ सो विणस्सइ । जो पुण तं पेच्छिऊण अहोमुहो ठाइ सो रोगाओ मुच्चइ। राया भण इ-अलाहि मे एएण अइरूसणेण ।।
बीयो भणइ-महव्वयं भूयं महइ महालयं रूवं विउव्वइ लंबीयरं चिप्पिटं विउअच्छि पंचसिरं एगपायं विसिहं विभत्सरूवं अट्टहासं मुयंत
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
गायंतं पणच्चमाणं तं च विकयरूवं परिभंमंतं दट्ठूण जो पओसइ उवहसइ पर्वचेइ वा तस्स सत्तहा सिरं फुट्टइ । जो पुण तं सुहाहि वायाहि अहिनंदइ धूवपुप्फाइएहिं पूएइ सो सव्वामयाणं मुच्चइ । राया भणइ –– अलाहि एएणं वि । इओ भगइ - ममावि एवं विहं चेव नाइवेसकरं भूयमत्थि, पियापियकारिं दंसणाओ एव रोगेहितो मोयइ । एवं होउ त्ति । तेण तहा कए असिवं उवसंतं । तुट्टो राया । आनंदिया नायरया । पूइओ सो भूयवाई सव्वेहि पि । प्राकृत में अनुवाद करो
४०४
ग्रीष्म ऋतु में एक दिन एक यात्री जंगल से होकर जा रहा था। जब अपराह्न काल हुआ तब उसे प्यास लग गई। सभी जलाशय और नदियां सूख गई थीं । उसे अपनी प्यास बुझाने के लिए कहीं भी पानी नहीं मिला । अंत में वह नारियल के वृक्ष के नीचे आया । वृक्ष पर कोमल नारियल लगे थे । वृक्ष लम्बे होने के कारण वह नारियल के फल तक नहीं जा सकता था । वृक्ष पर अनेक बंदरों को बैठा हुआ देखकर उस चतुर यात्री ने एक उपाय सोचा । उसने भूमि पर से कुछ पत्थरों को लेकर लगातार बंदरों पर फेंका। बंदर भी नारियल फल को तोडकर यात्री को मारने लगे । उसने उन नारियलों को बडे आनंद से संगृहीत कर लिया। उनके मधुर जल से अपनी प्यास बुझा कर वह अपने पथ पर चल दिया । सहजबुद्धि मनुष्य का परम साथी है ।
प्रश्न
११. नीचे लिखे रूपों में बताओ धातु के किस वर्ण को किस नियम से क्या आदेश हुआ है ? जच्छ, गिज्झ, सिज्झ, रुम्भ, रुज्झ, सड, पड, वेढ, संवेल्ल, उब्वेल्ल, खिज्ज, वच्च मच्च, उब्विव ।
3
२. असिव, अलाहि, चिप्पिड, जत्ती, नायरया - इन शब्दों के अर्थ बताओ और वाक्य में प्रयोग करो ।
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१०६
धातुवर्णादेश (२)
शब्द संग्रह पट्ठिओ-प्रस्थान किया पच्छओ-पीछे से खुड्डओ-छोटा साधु समावडिया-सामने आई तिसा-प्यास
नित्थर-पार करना (धातु) खंतओ (दे०)-बाप पडिच्छइ-ग्रहण करना सत्तसारय-जीवों को याद विडस (वि)--विद्वान्
करने वाला मलिण-मैला
फट्रिअंवत्थं-फटे वस्त्र पारेवय-कबूतर
आसा-आशा, अभिलाषा नियम ६१४ (सृजोरः ४।२२६) सृज्, धातु के अन्त्य को र होता है। ज>र सृज-निसिरइ, वोसिरइ । वोसिरामि ।
नियम ६१५ (शकादीनां द्वित्वम् ४१२३०) शक् आदि धातुओं का अन्त्य वर्ण द्वित्व हो जाता है । शक्-सक्कइ । जिम्-जिम्मइ । लगलग्गइ । मग-मग्गइ । कुप्-कुप्पइ । नश्-नस्सइ । अट्-अट्टइ । परिअट्टइ। लुट-पलोट्टइ। तुट-तुट्टइ । नट-नट्टइ । सिव्-सिव्वइ । इत्यादि।
नियम ६१६ (स्फुटि चलेः ४।२३१) स्फुट और चल धातु के अन्त्य को द्वित्व विकल्प से होता है । स्फुट-फुट्टइ, फुडइ । चल-चल्लइ, चलइ ।
नियम ६१७ (प्रादे मौलेः ४१२३२) प्र आदि से परे मील धातु के अन्त्य वर्ण को द्वित्व विकल्प से होता है। पमील-पमिल्लइ, पमीलइ । निमिल्लइ, निमीलइ । संमिल्लइ, संमीलइ । उम्मिलइ, उम्मीलइ । प्र आदि न होने से द्वित्व नहीं होता है---मीलइ ।
__ नियम ६१८ (उवर्णस्यावः ४१२३३) धातु के अन्त्य उवर्ण को अव आदेश होता है। उवर्ण 7 अव न्हुङ-निण्हवइ । हु--निहवइ । च्युङ-चवइ । रु-रवइ ।
कु-कवइ । सू-सवइ, पसवइ । नियम ६१९ (ऋवर्णस्यारः ४१२३४) धातु के अन्त्य ऋवर्ण को अर ___ आदेश होता है। सुवर्ण 7 अर कृ-करइ। धू-धरइ । मृ-मरइ। -वरइ । सृ-सरह
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४०६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ह-हरइ । त-तरइ । ज-जरइ । नियम ६२० (वृषादीनामरिः ४।२३५) वृष जैसी धातुओं के ऋवर्ण
को अरि आदेश होता है। ऋवर्ण 7 अरि वृष्-वरिसइ । कृष्–करिसइ । मृष्-मरिसइ। हृष्
हरिसइ । जिन धातुओं के अरि आदेश दिखाई दें उन्हें इस नियम के अन्तर्गत समझें। नियम ६२१ (रुषादीनां दीर्घः ४।२३६) रुस् जैसी धातुओं का स्वर
दीर्घ हो जाता है। उ73 रुस्-रूसइ । तुष्-तूसइ । शुष्-सूसइ। दुष्-दूसइ। पुष्
पूसइ । शिष्-सीसइ। नियम ६२२ (युवर्णस्य गुणः ४।२३७) धातु के इवर्ण और उवर्ण को
गुण हो जाता है, क्ङिति प्रत्यय परे हो तो। इवर्ण, उवर्ण 7 गुण जि-जेऊण । णी-नेऊण, नेइ, नेति । डी-उड्डेइ,
उड्डति । मुच्-मोत्तूण । श्रु-सोऊण। नियम ६२३ [स्वराणां स्वराः ४१२३८] धातुओं के स्वरों के स्थान
पर स्वर विकल्प से होते हैं। स्वर 7 स्वर हवइ-हिवइ । चिणइ, चुणइ । सद्दहणं, सहहाणं । धावइ,
धुवइ । रुवइ, रोवइ । कहीं-कहीं पर नित्य होता है। दा-देइ । ली-लेइ । हा-विहेइ । नस्-नासइ ।
नियम ६२४ (चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगांणो हस्वश्च ४।२४१) चि, जि, श्रु, हु, स्तु, लू, और पू धातु के अंत में णकार का आगम होता है और इनका स्वर ह्रस्व हो जाता है। चिणइ, जिणइ, सुणइ, हुणइ, थुणइ, लुणइ, पुणइ । बहुलाधिकार से कहीं ण विकल्प से होता है। उच्चिणइ, उच्चेइ । जेऊण, जिणिऊण । जयइ, जिणइ । सोऊण, सुणिऊण ।
नियम ९२५ (धातवोर्थान्तरेपि ४१२५६) धातुओं के अर्थ बताए गए हैं उनसे भिन्न अर्थ में भी धातुएं प्रयुक्त होती हैं । जैसे—बलिः प्राणने खादने पि । वलइ खादति, प्राणनं करोति वा। कलिः संख्याने संज्ञानेपि । कलइ जानाति, संख्यानं करोति वा । रिगिर्गतौ प्रवेशेपि । रिगइ गच्छति, प्रविशति वा । कांक्षते र्वम्फ आदेशः प्राकृते । वम्फइ इच्छति, खादति वा। फक्कतेस्थक्क आदेशः । थक्कइ नीचांगतिकरोति, विलम्बयति वा । विलुप्युपालम्भ्योझङ ख आदेशः । झङ्खइ, विलपति, उपालभते, भाषते वा । पडिवालेइ प्रतीक्षते, रक्षति वा। हिन्दी में अनुवाद करो
उज्जेणी णयरी। तत्थ धणमित्तो नाम वाणियओ। तस्सपुत्तो धणसम्मो नाम । सो धणमित्तो पुत्तेण सह पव्वइओ । अन्नया य ते साहू विहरंता मज्झण्ह
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४०७
धातुवर्णादेश (२) समए एलगच्छपुरपहे पट्टिया । सो वि खुडओ तिसाए अभिभूओ सणियं सणियमेइ । सो वि से खंतओ सिणेहाणुरागेण पच्छओ एइ । साहुणो वि पुरओ वच्चंति । अंतरा य नई समावडिया। खंतएण भणियं-एहि पुत्त ! पियसु पाणियं । नित्थरेसु आवइं, पच्छा आलोएज्जासि । सो न इच्छइ । खंतो नई उत्तिन्नो, चितइ य ओसरामि मणागं जावेस खुडओ पाणियं पियइ । मा मम आसंकाए न पाहित्ति एगते पडिच्छइ जाव खुड्डो पत्तो नई । दढव्वयाए सत्तसारयाए ण पीयं । अन्ने भण्णंति-अईववाहिओ हं तं पिबामि पाणियं । पच्छा गुरुमूले पायच्छित्तं पडिवज्जिस्सामि त्ति उक्खित्तो जलंजली। अह से चिंता जाया। कहमेए हलाहलए जीवे पिवामि । जओ एगम्मि उदबिंदुम्मि, जे जीवा जिणवरेहिं पन्नत्ता।
ते पारेवयमेत्ता, जंबूद्दीवे ण माएज्जा ॥१॥
सो अइसंविग्गेण न पीयं, उत्तिन्नो नई। आसाए छिन्नाए नमोक्कारं झायंतो सुहपरिणामो कालगओ देवेसु उववन्नो। प्राकृत में अनुवाद करो
एक समय एक बहुत बडा विद्वान् जो गरीब था, राजा के घर खाना खाने के लिए गया। फटे वस्त्रों से सज्जित होने के कारण राजा ने एक भी शब्द स्वागत में नहीं कहा। पंडित ने शीघ्र ही इसे समझ लिया। इस प्रकार के व्यवहार का कारण मेरे ये वस्त्र हैं। दूसरे दिन वह अच्छे वस्त्रों से भूषित होकर उसी सज्जन के घर गया । राजा ने उसका स्वागत किया और आदर दिया। वह उन्हें भोजनगृह में ले गया। भोजन करने के पहले ही अतिथि ने अपने ऊपर के वस्त्रों को पृथ्वी पर फैला दिया और तीन मुट्ठी भात उन पर फेंक दिया। जब ब्राह्मण से पूछा गया कि आपने ऐसा क्यों किया? तब उसने उत्तर दिया-कल मैं आपके पास गंदे वस्त्रों में आया था। आपने मुझे कुछ शब्दों के योग्य भी न समझा। लेकिन आज इन वस्त्रों के कारण ही आपने मुझे आदर दिया है।
प्रश्न १. सृज, शक्, स्फुट, चल, पमील-इन धातुओं के अन्त्य वर्ण को क्या ___ आदेश होता है ? उदाहरण सहित बताओ। २. धातु के अन्त्य उवर्ण और ऋवर्ण को क्या आदेश होता है। ३. रुस् आदि और वृष् आदि धातुओं को क्या आदेश होता है ? सोदाहरण
बताओ। ४. किन धातुओं के अंत में णकार का आगम होता है और दीर्घस्वर ह्रस्व
हो जाता है ? ५. नीचे लिखी धातुएं किन-किन अर्थों में प्रयुक्त होती हैं ? बलि, कलि, रिग, कांक्षति, फक्क, पडिवाल ।
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शौरसेनी
० शौरसेनी में जो नियम बताए गए हैं उनके अतिरिक्त सारे नियम
प्राकृत के ही लगते हैं। ० शौरसेनी में उपसर्ग प्राकृत के ही समान हैं। उनमें अक्षर-परिवर्तन
आगे के नियमानुसार कर लेना चाहिए। अति-अदि (नियम ६२६ त को द)। • अकारान्त पुंलिंग शब्द के रूप प्राकृत के तरह ही चलते हैं किन्तु पंचमी विभक्ति के एकवचन का रूप आदो और आदु प्रत्यय जोडने से बनता
है। जिणादो, जिणादु । वीरादो, वीरादु । ० शब्द परिवर्तन-वात का वाद, अज्ज का अय्य बनता है और शब्दों
के परिवर्तन के लिए देखो (नियम ६२६,६३०)। • आज्ञार्थक प्रत्ययों में तु के स्थान पर दु का प्रयोग होता है। जीवदु
(जीवतु, जीवउ) मरदु (मरतु, मरउ)।
वर्तमानकाल देक्ख धातु के एकवचन के रूपप्र०पु०-देक्खदि/देवखेदि/देक्खदे/देवखेदे म०पु०-देक्खसि/देक्खेसि/देक्खसे/देखेसे उ०पु०-देक्खमि/देक्लेमि । भविष्यकाल के देवख धातु के रूपएकवचन
बहुवचन प्र.पु०-देक्खिस्सिदि, देक्खिस्सिदे देक्खिस्सिंति, देक्खिस्सिते,
देक्खिस्सिइरे म०पु०-देक्खिस्सिसि , देक्खिस्सिसे देक्खिस्सिह, देक्खिस्सिध
देक्खिस्सिइत्था उ०पु०-दैक्खिस्स, देक्खिस्सिमि देक्खिस्सिमो, देखिस्सिमु,
देक्खिस्सिम देक्ख धातु की तरह अन्य धातुओं के रूप चलते हैं। वर्णादेश
नियम ९२६ (तो दोनादी शौरसेन्यामसंयुक्तस्य ४१२६०) शौरसेनो में अनादि और असंयुक्त त को द हो जाता है। त>द-ततः मारुतिना (तदो मारुदिना) । एतस्मात् (एदाहि, एदाहो) ।
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शौरसेनी
४०६ नियम ६२७ (अधः क्वचित् ४१२६१) शौरसेनी में वर्णान्तर के पश्चाद् कहीं-कहीं अधःस्थित त को द होता है। त 7द-निश्चिन्तः (निच्चिन्दो)। शकुन्तला (सउन्दला)। अन्तःपुरम्
(अन्देउरं)।
नियम ६२८ (वादे स्तावति ४१२६२) शौरसेनी में तावत् शब्द के आदि त को द विकल्प से होता है। त7द-तावत् (दाव, ताव)।
नियम ६२६ (थो धः ४।२६७) शौरसेनी में पद के अनादि में होने वाले थ को ध विकल्प से होता है। थ' ध–नाथः (णाधो, णाहो) । कथम् (कध, कह) । राजपथः (राजपधी)।
. नियम ६३० (न वा यो ग्यः ४।२६६) शौरसेनी में ये के स्थान में य्य विकल्प से होता है।
7 स्यआर्यपुत्रः (अय्यउत्तो)। पर्याकुल: (पय्याकुलो) पक्षे पज्जाकुलो (चग्य योजः २।२४ नियम ३१७ से ज हुआ है।)
नियम ९३१ (पूर्वस्य पुरवः ४।२७०) शौरसेनी में पूर्व शब्द को पुरव आदेश विकल्प से होता है। अपूर्व (अपुरवं) पक्षे अपुव्वं । (सर्वत्र लवरी २१७९ नियम ३९६ से र लोप, अनादी शेषादेशयोः २।८९ नियम ४२० से द्वित्व)।
नियम ६३२ (मोन्त्याण्णो वेदेतोः ४।२७६) शोरसेनी में अन्त्य मकार से परे इकार और एकार को णकार का आगम विकल्प से होता है। युक्तमिदम् (जुत्तंणिम, जुत्त मिणं), किमेतत् (किं णेदें, किमेदं) एवमेतत् (एवं णेदं, एवमेदं) । सदृशं इदं (सरिसं णिमं, सरिसमिणं) । शब्दसिद्धि
नियम ६३३ (अतो इसे दो-डादू ४।२७६) शौरसेनी में अकार से परे सि को डादो और डादु आदेश विकल्प से होता है। सि 7 डावो, डावु-जिनात् (जिणादो, जिणादु), वीरात् (वीरादो, वीरादु)।
नियम ६३४ (तस्मात् ताः ४१२७८) शौरसेनी में तस्माद् को ता आदेश होता है। तस्माद् 7 ता-तस्माद् (ता)। तस्मात् यावत् प्रविशामि (ता जाव पविसामि) 1 तस्मात् अलं एतेन मानेन (ता अलं एदिणा माणेण)।
नियम ९३५ (भवद्-भगवतो: ४।२६५) शौरसेनी में भवत् और भगवत् शब्द से परे सि प्रत्यय हो तो न् को म् हो जाता है। न 7म-भवान् (भवं) भगवान् (भगवं) । कहीं पर अन्य शब्दों को भी
म् हो जाता है । मघवान् (मघवं), संपादितवान् (संपाइअवं) कृतवान्
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
(कयवं)।
नियम ६३६ (मा आमन्त्रये सौ वेनो नः ४।२६३) शौरसेनी में इन के नकार को आ विकल्प से होता है, आमन्त्रण अर्थ में होने वाला सि प्रत्यय परे हो तो। हे सुखिन् (सुहिआ, सुहि ।)
नियम ९३७ (मो वा ४।२६४) शौरसेनी में आमन्त्रण सि परे हो तो नकार को म विकल्प से होता है। 7म्-हे भगवन् (भयवं, भयव)।
नियम ९३८ (इह-हयो हंस्य ४१२६८) शौरसेनी में (मध्यमस्ये स्थाहचौ ३।१४३) से इह शब्द के होने वाले हच (ह) को ध विकल्प से होता है। ह74-इह (इध, इह)। भव (होध, होह)। परित्रायध्वम् (परित्तायध,
परित्तायह)।
नियम ६३६ (इदानीमो दाणि ४१२७७) शौरसेनी में इदानीं के स्थान पर दाणि आदेश होता है। इदानीं>दाणि--इदानीम् (दाणि)। अन्याम् इदानीं बोधिम् (अण्णं दाणि
बोहिं)।
अव्यय
नियम ९४० (एवार्थे य्येव ४१२८०) शौरसेनी में एव अर्थ में य्येव निपात है । सः एव एषः (सो य्येव एसो) ।
नियम ९४१ (हजे चेट्याहाने ४।२८१) दासी को बुलाने में हजे निपात है । हे चतुरिके (हजे चदुरिके)।
नियम ९४२ (हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे ४।२८२) विस्मय और निर्वेद अर्थ में हीमाणहे निपात है। विस्मये-आश्चयं यत् जीवत्वत्सा मे जननी (हीमाणहे जीवन्तवच्छा मे जननी) । निर्वेदे--दुखं, यत् परिश्रान्ता वयं एतेन निजविधेः दुर्व्यसितेन (हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण नियविधिणो दुव्ववसिदेण) ।
नियम ९४३ (णं नन्वर्थे ४।२८३) ननु अर्थ में णं निपात है। ननु भवान् मम अग्रतः चलति (णं भवं मे अग्गदो चलदि) आर्ष में वाक्यालंकार में भी-नमोत्थु णं, जया णं, तया णं ।
नियम ९४४ (अम्महे हर्षे ४।२८४) हर्ष अर्थ में अम्महे निपात है। हर्षः, यत् एतस्यां सूर्मिलया सुपरिगृद्धः भवान् (अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं)।
नियम ९४५ (हीहीविदूषकस्य ४१२८५) शौरसेनी में विदूषकों के हर्ष में हीही निपात है। हर्ष : यत् संपन्नाः मनोरथाः प्रियवयस्यस्य (हीही
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शौरसेनी
४११
भो संपन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स ) । धातु रूप
नियम ९४६ (भुवो भः ४।२६६) शौरसेनी में भुव (भू) के ह को भ विकल्प से होता है। ह>भ-भवति (भोदि, होदि)।
नियम १४७ (दिरिचेचोः ४।२७३) इच् (इ) एच् (ए) के स्थान पर दि होता है । भवति (भोदि, होदि)।
नियम ९४८ (अतो वेश्च ४।२७४) अकार से परे इ और ए के स्थान पर दे और दि होता है। भवति (भुवदे, भुवदि, हुवदे, हुवदि) । गच्छति (गच्छदे, गच्छदि)। रमते (रमदे, रमदि)।
नियम ९४६ (भविष्यति स्सिः ४।२७५) शौरसेनी में भविष्य अर्थ में विहित प्रत्यय (हि, हा, स्सा) को स्सि होता है। भविष्यति (भविहिदि, भचिस्सिदि)। गमिष्यति (गमिहिदि, गमिस्सिदि)। कृदन्त
नियम ९५० (क्त्व इय-दूणो ४।२७१) शौरसेनी में क्त्वा प्रत्यय को इय, दण आदेश विकल्प से होते हैं। भूत्वा (भविय, भोदूण)। रन्त्वा (रमिय, रन्दूण) पक्ष में भोत्ता, रन्ता।
. नियम ६५१ (कृ-गमो डडुमः ४।२७२) कृ और गम् से परे क्त्वा प्रत्यय को डडुअ आदेश विकल्प से होता है । कृत्वा (कडुअ, करिय, करिदूण) । गत्वा (गडुअ, गच्छिय, गच्छिदूण) ।
नियम ६५२ शेषं प्राकृतवत् ४।२८६) शौरसेनी में बताए गए नियमों के अतिरिक्त शेष नियम प्राकृत के ही लगते हैं। प्रयोग वाक्य
(१) भयवं मज्झ भावं जाणदि (भगवान् मेरे भाव को जानते हैं)। (२) पादेसु पणामिअ णिव्वत्तेहि णं (चरणों में प्रणाम कर लोट आओ)। (३) इध राअउले तं दे भोदु (इस राजकुल में वह तुम्हारे लिए हो) । (४) भवं कधं गच्छदि तस्स पासे (आप उसके पास कैसे जाते हैं) ? (५) णाधस्स का परिभाषा भोदि (नाथ की क्या परिभाषा होती है) ? (६) दाणि अय्याए कय्य को करिस्सदि (इस समय आर्या का कार्य कौन करेगा) ? (७) अम्हाणं पुरदो को गच्छदि (हमारे आगे कौन जाता है) ? (८) ईदिसं भयवं दूरे वन्दीअदि (ऐसे भगवान को दूर से नमस्कार किया जाता है)। (६) सो कय्यं करिदूण निश्चिन्दो रादीए सुवइ (वह कार्य करके रात में निश्चिन्त हो सोता है)। (१०) अण्णं अण्णं णिमन्तेदु दाव भवं (तब तक आप दूसरे-दूसरे को निमंत्रित करें) । (११) एसो
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४१२
प्राकृत वाक्यरचना बोध वााए पच्चाचक्खिदो (वह वाणी से प्रत्याख्यात (अस्वीकृत) करें। (१२) हिमएण अणुबन्धीअमाणो गच्छीअदि (हृदय से अनुसरण किया जा रहा है)। (१३) दक्खिणाए रूवगा भविस्संदि (दक्षिणा में रुपए होंगे)। (१३) सो एव्य दाणिं गच्छदि (वही इस समय जाता है)। (१४) भवं अप्पेणावि तुस्सदि (आप थोडे से ही संतुष्ट हो जाते हैं)। (१६) ता अहं इदो य्येव आअच्छदि (मैं यहां ही आ रहा हूं)। (१५) कव्वं जेव दे कइत्तणं पिसुणेदि (काव्य ही तुम्हारे कवित्व को बता रहा है)। (१६) आवेअक्खलिदाए गईए पब्भट्ठ मे हत्थादो पुप्फभायणं (आवेग से स्खलित गति के कारण मेरे हाथ से पुष्पों का वर्तन गिर गया)। शौरसेनी में अनुवाद करो
इस घर में मेरा कौन है ? इस समय आर्य पुत्र कहां मिलेंगे ?भगवान के पास क्या मांगते हो ? भगवान सबको देखते हैं। आप क्या करेंगे, मेरे भगवान आप ही हैं । मेतार्य क्या कहेगा? आप यहां कैसे आएंगे? आपने मेरा कार्य किया (कयवं)। राजपथ पर सब चलते हैं। वह रात्रि में निश्चित हो सुख की नींद सोता है। वह गुरु के आगे क्यों चलता है ? क्या आप संतुष्ट हैं ? अनाथ कौन नहीं है ? शकुन्तला ब्रह्मचर्य का सेवन करती है। लता विकथा नहीं करती है। प्रभा प्रभात में प्रभु के प्रवचन को पढ़ती है। तुम्हें सत्य कथा कहनी चाहिए (भणिदव्वं)। अच्छा (होदु) इन (एदाणं) लोगों का कार्य कौन करेगा ? वहां जाकर मैं बात पूछूगा । पुस्तक पढकर मैं उत्तर दूंगा । वीर से कौन नहीं डरता है ?
प्रश्न १. शौरसेनी में त और थ को किस नियम से क्या आदेश कहां
होता है ? २. र्य को ज्ज होता है या और कुछ आदेश होता है, किस नियम से ? ३. शौरसेनी में मकार को णकार कहां होता है ? ४. अकारान्त शब्द से सि प्रत्यय परे होने पर क्या रूप बनता है ? ५. शौरसेनी में इदानीं, एव, विस्मय और ननु अर्थ में क्या अव्यय हैं ? ६. हीही, अम्महे अव्यय किस अर्थ में प्रयोग में आते हैं ? एक-एक वाक्य . बनाओ।
७. क्त्वा प्रत्यय को क्या-क्या आदेश होता है ? ... ८. भविष्य अर्थ में क्या प्रत्यय होता है ?
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मागधी भाषा
० प्राकृत में जो उपसर्ग हैं वे ही मागधी में हैं। मागधी के नियमों के
अनुसार अक्षर परिवर्तन कर लेना चाहिए। नियम ६५४ के अनुसार र को ल और स को श होता है। परि=पलि, परा=पला, सं-शं
आदि । • नियम ६५३ से ज को य और नियम ९५५ से छ को श्च होता है। इन नियमों के अनुसार शब्द परिवर्तन इस प्रकार होता हैअरिहंत अलिहंत । जिण=यिण । पुच्छ पुश्च । पिच्छ-पिश्च । सर्वशव्व । वीरवोल । महावीर-महावील आदि । मागधी में अकारान्त पुंलिंग शब्द के रूप प्राकृत की तरह चलते हैं किन्तु मागधी में कुछ विशेष परिवर्तन होता है। प्रथमा के एकवचन में वीरो का वीले बनता है, वीलो नहीं । पंचमी के एकवचन का वीर
शब्द का वीलादो और वीलादु बनता है । ० षष्ठी के एक वचन का वीलाह, वीलश्श (वीरस्य) बनता है। ० षष्ठी के बहुवचन का वीलाहं, वीलाणं (वीराणाम्) बनता है। ० मागधी में क्त्वा प्रत्यय को दाणि होता है। कृत्वा--करिदाणि, ___ सोढ्वा-शहिदाणि। • मागधी में क्त प्रत्ययान्त शब्द के प्रथमा के एकवचन (सि) प्रत्यय
को उ होता है । हसिदु, हसिदे (हसितः) पढिदु (पठितः) • मागधी में धातु रूप में भी शाब्दिक परिवर्तन होता है। क्रियातिपत्ति में हो धातु के रूप-होन्दो (पुं) होन्दी (स्त्री) होन्दं (नपुं) इसी प्रकार अन्य धातुओं के बनते हैं ।
भण् धातु के भविष्यकाल के रूप . एकवचन
बहुवचन प्र० पु० भणिश्शदि, भणिश्शदे भणिश्शिंति, भणिश्शिंते, भणिश्शिइरे म० पु० भणिशिशि, भणिश्शिशे भणिश्शिह, भणिश्शिध, भणिस्सिइत्था उ० पु० भणिशं, भणिश्शिमि भणिश्शिमो, भणिश्शिमु, भणिश्शिम सरल (असंयुक्त) व्यंजन
नियम ६५३ (ज-ध-यां यः ४।२६२) मागधी में ज, द्य और य को य आदेश होता है।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
जन: ( यणे ) । जनपद: ( यणवदे ) । अर्जुन: ( दुय्यणे ) । गर्जति ( गय्यदि) । गुणवर्जितः
४१४
जय - जानति (याणदि ) । ( अय्युणे ) । दुर्जन: ( गुणवय्यिदे) ।
यानपात्रम्
य 7 य-यदा (यधा ) । याति (यादि) । यदि ( यदि ) | ( याणवत्तं ) । यस्य यत्वविधानं (आदे यजः । २४५ ) बाधनार्थम् । ( रसोल - शौ ४।२८८) मागधी में र को ल ओर स को श
१
नियम ६५४
होता है । र> ल―नरः (नले ) । धीवर : ( धीवले ) । कर: ( कले) 1 पुरुष: ( पुलिशे ) । स 7श - हंसः (हंशे ) 1 स: (शे) । सारस: ( शालशे ) । नासा
( नाशा ) ।
माशे ( माषः) ।
शश - शलणे ( शरणः) शत्तू ( शत्रुः ) पिशल पारा २२१ के अनुसार श कोश |
संयुक्त व्यंजन परिवर्तन
द्य 7 - मय्यं (मद्यम्) । अय्य ( अद्य ) । विय्याहले ( विद्याधर: ) । नियम ६५३ से ।
नियम ६५५ ( छस्यश्चोनादौ ४।२६५) मागधी में अनादि छ को श्च होता है ।
छ 7 श्च – गश्च (गच्छ) । पृच्छति ( पुश्चदि) । उच्छलति ( उश्चलदि) । पिच्छिलः (पिश्चिले ) ।
नियम ९५६ ( दृ-ष्ठयोस्ट: ४।२६०) मागधी में ट्ट और ष्ठ को स्ट होता है ।
ट्ट 7 स्ट-- पट्टः (पस्टे) । भट्टारिका ( भस्टालिका) । भट्टिनी ( भस्टिणी) । ष्ठ > स्ट— कोष्ठः (कोस्टे ) । सुष्ठुः ( शुस्टु) । कोष्ठागारं ( कोस्टागालं) । नियम ९५७ (न्य ण्य-ज्ञ-ञ्जां ञः ४।२६३) मागधी में न्य, ण्य, और ञ्ज को ञ्ञ होता है ।
ज्ञ
न्य > ञ्ञ - - मन्युः (मञ्जू) । अभिमन्युः (अहिम सामान्यः (शाम) । कन्यका (कञ्चका ) ।
ण्य > ञ्ञ - पुण्यवान् ( पुञ्ञवन्ते ) । अब्रह्मण्यम् ( पुञ्ञाहं ) | पुण्यम् (पु) ।
ञ्ज 7 ञ -
ज्ञ 7 ञ्ञ --- प्रज्ञा ( पञ्ञा ) । अवज्ञा ( अवञ्ञा ) । सर्वज्ञः ( शव्वञे) । - अञ्जली ( अञ्जली ) । धनञ्जय: ( धणञ्जए ) । प्राञ्जलः ( पञ्जले) । नियम ६५८ ( स षोः संयोगे सोग्रीष्मे ४१२८६ ) मागधी में संयोग में सकार और षकार हो तो उसे स हो जाता है ग्रीष्म शब्द को छोडकर |
) । अन्य: ( अ ) ।
( अबम्हनं ) । पुण्याहं
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मागधी भाषा
४१५
यह नियम ऊर्ध्वलोपादि का अपवाद है। प्रस्खलति (प्रस्खलदि) । हस्तिन् (हस्ती) । वृहस्पतिः (बुहस्पदी) । मस्करी (मस्कली) । विस्मयः (विस्मये)। शुष्क (शुस्क) । कष्टम् (कस्ट) । विष्णुम् (विस्नु) । निष्फलं (निस्फलं)।
नियम ६५६ (स्थ-र्थयोः स्तः ४।२६१) मागधी में स्थ और र्थ को स्त होता है। स्थ7स्त-उपस्थितः (उवस्तिदे) । सुस्थितः (शुस्तिदे)। र्थ>स्त-अर्थः (अस्ते) । सार्थवाहः (शस्तवाहे)।
नियम ६६० (क्षस्य-कः ४।२६६) मागधी में अनादि में होने वाले क्ष को क होता है। क्ष>-क-यक्षः (य के) । राक्षसः (ल-कशे) । शब्द रूप
नियम ६६१ (अत एत्सौ पुसि मागभ्याम् ४।२८७) मागधी में अकार को एकार होता है पुंलिंग की सि परे हो तो। अ7ए-नरः (नले) । कतरः (कयरे)। एषः (एशे)। मेषः (मेशे) ।
पुरुषः (पुलिशे)।
नियम ६६२ (अवर्णाद् वा सो डाहः ४।२६६) मागधी में अवर्ण से परे ङस् को डाह आदेश विकल्प से होता है। हुस् / डाह-जिनस्य (यिणाह) । पक्षे यिणस्स । कर्मणः (कम्माह) । इदृशस्य
(एलिशाह) । शोणितस्य (शोणिदाह)।
नियम ६६३ (आमो डाहं वा ४।३००) भागधी में अवर्ण से परे आम् को डाह आदेश विकल्प से होता है। जिनानाम् (यिणाह, यिणाणं)।
___व्यत्ययात् प्राकृतेपि-कर्मणाम् (कम्माहँ) तेषां (ताह) युष्माकम् (तुम्हाह) सरिताम् (सरिआहे) अस्माकम् (अम्हाह) आवेश
नियम ६६४ (अहं-वयमोहगे ४।३०१) अहं और वयं को हगे आदेश होता है । अहं (हगे) । वयं (हगे)
[अस्मदः सौ हके हगे अहके ११९] वररुचि के अनुसार मागधी में अहं को हके, हगे और अहके—ये तीन आदेश होते हैं । अहं भणामि (हके, हगे अहके भणामि)
[शृगालशब्दस्य शिआला शिआलका ११७ बररचि] शृगाल को शिआल और शिआलक आदेश होते हैं। शृगालः आगच्छति (शिआले, शिआलके आगच्छदि)
[हृदयस्य हडक्कः ११३६ वररुचि] हृदय शब्द को हडक्क आदेश होता हैं । हृदये आदरो मम (हडक्के आदले मम )
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
धातु रूप
नियम ६६५ (वजो जः ४।२६४) मागधी में व्रज् के ज् को ब होता है । व्रजति (वअदि)।
नियम ६६६ (तिष्ठ श्चिष्ठः ४।२९८) मागधी में स्था धातु के तिष्ठ को चिष्ठ आदेश होता है । तिष्ठति (चिष्ठदि)।
नियम ६६७ (स्कः प्रेक्षाचक्षोः ४।२६७) मागधी में प्रेक्षा और आचक्ष के क्ष को स्क होता है । प्रेक्षते (पेस्कदि)। आचक्षते (आचस्कदि)। कृदन्त प्रत्यय
[क्त्वोदाणिः ११।१६ वररुचि क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर दाणि आदेश होता है । सोढ्वा गतः (शहिदाणि गडे) । कृत्वा आगतः (करिदाणि आअडे)।
[तान्तादुश्च ११११ वररुचि] क्त प्रत्ययान्त शब्द से परे सि को उ होता है । हसितः (हशिदु, हशिदे) ।
[कृञ् मृङ् गमां क्तस्य डः ११११५ वररुचि] डुकृन् करणे, मृ और गम् धातु से परे क्त को ड होता है। कृतः (कडे) । मृतः (मडे) । गतः (गडे) ।
नियम ६६८ (शेषं शौरसेनी वत् ४।३०२) शेष नियम प्राकृत शौरसेनी के समान हैं। प्रयोग वाक्य
(१) अ कहिं गश्चदि (यह कहां जाता है) ? (२) हगे कुटुम्बभलणं कलेमि (मैं कुटुम्ब का भरण करता हूं)। (३) यणे सव्वं न याणदि (मनुष्य सब नहीं जानता है)। (४) शे भोयणं करिदाणि गश्चदि (वह भोजन करके जाता है)। (५) अज्जा धम्मशञ्चों कलेध (अज्ञो! धर्म का संचय करो)। (६) शञ्जम्मध णिअपोटं (अपने पेट को नियंत्रण में रखो)। (७) इंदियचोला हलन्ति चिलशञ्चिदं धम्म (इंद्रिय रूपी चोर चिरसंचित धर्म को हरण करते हैं)। (८) णिच्चं जग्गेध झाणपडहेण (ध्यान रूपी नगारे से हमेशा जागृत रहो) । (६) एकश्शिं दिअशे शे गुणवय्यिदे कहं गय्यिदे (एक दिन वह गुण वर्जित होने पर भी कैसे गरजा) ? (१०) पुलिशे! अस्तश्श पभावं पेक्खिश्शं (पुरुष ! अर्थ का प्रभाव देखूगा)। (११) अणिच्चदाए पेक्खिअ णवल दाव धम्माण शलणं म्हि (अनित्यता से (संसार) को देखकर मैं अब केवल धर्म की शरण में आ गया हूं)। (१२) हडक्के आदले मम (मेरे हृदय में आदर है)। (१३) हगे केलिशे अस्तशञ्चमं कलेमि, मए सह न गमिश्शं (मैं कैसा अर्थ संचय करता हूं, मेरे साथ नहीं जाएगा)। (१४) तश्श दालिदं पणट्ठ (उसका दारिद्रय नष्ट हो गया)। (१५) हगे पुजवन्ते, गुलुशलणे आअडे (मैं पुण्यवान हूं,
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मागधी भाषा
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गुरु की शरण में आ गया हूं)। (१६) अय्य तुए सुस्टु कडे (आज तुमने अच्छा किया)। (१७) कस्टे आअडे वि शे शत्तुशलणं न गश्च दि (कष्ट आने पर भी वह शत्रु की शरण में नहीं जाता है) । (१८) शे कोस्टागालं पेस्कदि (वह कोष्ठागार को देखता है)। (१६) यधा शे तत्थ गमिश्शं तधा हगे आगमिश्शं (जब वह वहां जाएगा तब मैं आऊंगा)। (२०) तुए कधं हसिदु (तुम कैसे हंसे) ? (२१) शे णलं शग्गं गाहदि (वह मनुष्य स्वर्ग जाता है) । (२२) हगे गामान्तलवाशी म्हि (मैं गाम में रहने वाला हूं)। मागधी में अनुवाद करो
__ यह नर क्या पूछता है ? पुरुष क्या चाहता है ? कष्ट सहन कर वह स्वर्ग में जाएगा । आज वह उसके घर आएगा। तुम क्या जानते हो? वह मनुष्य कहां जाएगा? (वञिश्शं) ? दुर्जनों का कार्य मैं नहीं करूंगा (करिश्शं)। वह अभी (शम्पदं) मद्य नहीं पीएगा। वह केवल (णवल) घरवासी है । मैं धर्म की शरण में जाता हूं । उसकी अवज्ञा कौन करेगा ? धनंजय पुण्यवान् है । हंस पूर्व कर्मों का फल पूछता है। कौन उछलता है ? तुमने अच्छा किया। क्या अन्य मनुष्य भी ऐसा करेंगे? सामान्य मनुष्य भी आचार्य को जानता है ? क्या उसका पुण्य निष्फल होगा ? जब जब वह हंसता है तब तब मैं उसकी अवज्ञा करता हूं। मैं उसकी जाति (यादि) नहीं पूछंगा। तुम्हारे कर्मों का फल किसके पास जाएगा?
.
प्रश्न
१. मागधी में द्य, ज और य को क्या आदेश होता है ? २. र, स और श को मागधी में होने वाले आदेशों के एक-एक उदाहरण
दो। ३. मागधी में क्त्वा प्रत्यय को कौन सा प्रत्यय आदेश होता है ? दो __उदाहरण दो। ४. क्त प्रत्ययान्त शब्दों को सि प्रत्यय परे होने पर क्या आदेश बनता है ? ५. आम् प्रत्यय को क्या आदेश होता है ? ६. मागधी में हृदय के लिए क्या शब्द प्रयोग में आता है ? ७. व्रज्, तिष्ठ, प्रेक्षा और चश् धातुओं को मागधी में क्या आदेश होता
८. ट्र, ष्ठ, न्य, ण्य, ज्ञ और ज शब्दों को किस नियम से क्या आदेश
होता है ? एक-एक उदाहरण दो।
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पैशाची: चूलिका पैशाची
सरल व्यंजन परिवर्तन
नियम ६६६ (टोस्तुर्वा ४।३११) पैशाची में टु को तु विकल्प से होता है। >तु-कटुकम् (कतुक, कटुक) । कुटुम्बकम् (कुतुम्बुकं, कुटुम्बकम्) ।
नियम ९७० (णो नः १३०६) पैशाची में ण को न होता है। कान-गुणः (गुनो)।
नियम ९७१ (लोळ ४३०८) पैशाची में ल को ळ होता है। ल7ळ-जलम् (जळं)। सलिलम् (सळिळं)। कमलम् (कमळं)। शीलं
(सीळं)। नियम ६७२ (श-वोः सः ४।३०९) पैशाची में श और ष को स होता
a>सशक्र: (सक्को)। शशी (ससी) । शोभते (सोभति)। शोभनं
(सोभनं)। ष>स-विषमः (विसमो)।
नियम ६७३ (हृदये यस्य पः ४।३६०) पैशाची में हृदय शब्द के य को प होता है। य>प-हृदयकम् (हितपक)।
नियम ९७४ (तदोस्त: ४१३६०) पैशाची में त और द को त होता
है । भगवती (भगवती)। सदनं (सतनं)। संयुक्त व्यंजन परिवर्तन
नियम ६७५ (सोनः पैशाच्याम् ४१३०३) पैशाची में ज्ञ को च होता है। ज्ञ7ञ-सर्वज्ञः (सव्ववो) । संज्ञा (सञ्जा) । प्रज्ञा (पञ्चा) । विज्ञानम्
(विज्ञानं)।
नियम ६७६ (राजो वा चिम् ४१३०४) पैशाची में राजन् शब्द के ज्ञ को चिन् आदेश विकल्प से होता है। >चिम्-राज्ञा (राचिना, रा)।
नियम ९७७ (न्य-ण्योमः ४।३०५) पैशाची में न्य और ण्य को न होता है।
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पैशाची : चूलिका पैशाची न्य>-कन्यका (कञका)। अभिमन्युः (अभिमञ्जू)। ण्य7ञ-पुण्याहं (पुजाहं)।
नियम १७८ (यं-सन-ष्ठां रिय-सिन-सटा: क्वचित् १३१४) पैशाची में र्य, स्न और ष्ट के स्थान पर क्रमशः रिय, सिन और सट आदेश कहीं-कहीं होते है। 47 रिय-भार्या (भारिया)। स्न>सिन-स्नातं (सिनातं)। ष्ट 7ड-कष्टं (कसट)। शब्दरूप
नियम ६७६ (अतो उसेडर्डातो डातू ४१३२१) पैशाची में अकार से परे ङसि को डातो (आतो) और डातु (आतु) आदेश होते हैं। त्वद् (तुमातो, तुमातु) । मद् (ममातो, ममातु) ।
नियम ६८० (तदिवमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए ४॥३२२) पैशाची में तद् और इदं को टा प्रत्यय सहित नेन आदेश होता है। स्त्रीलिंग में नाए आदेश होता है । तेन, अनेन, एनेन (नेन) । तया, अनया (नाए)।
नियम ९८१ (यावृशादेई स्तिः ४।३१७) पैशाची में यादृश जैसे शब्दों के दृ को ति आदेश होता है। यादृशः (यातिसो) । तादृशः (तातिसो) । अन्यादृशः (अज्ञातिसो) । धातु रूप
नियम ६८२ (इचेचः ४॥३१८) पैशाची में इच् (इ) एच् (ए) को ति आदेश होता है । भवति (भोति) । नयति (नेति)।
नियम ९८३ (आत्तश्च ४।३१९) पैशाची में अकार से परे इ और ए को ते तथा चकार से ति आदेश होता है। रमति (रमति, रमते)। लपति (लपति, लपते)। आस्ते (अच्छति, अच्छते)। गच्छति (गच्छति, गच्छते) ।
नियम ९८४ (भविष्यत्येय्य एव ४।३२०) पैशाची में भविष्यकाल की इ और ए परे हो तो उनको एथ्य ही होता है। स्सि नहीं । भविष्यति (हुवेय्य)। कृदन्त प्रत्यय
नियम ६८५ (क्त्वस्तूनः ४१३१२) पैशाची में क्त्वा प्रत्यय को तून आदेश होता है। स्वा7 तून-गत्वा (गन्तून)। हसित्वा (हसितून)। पठित्वा (पठितून)। कथित्वा
(कधितून)।
नियम ६८६ (दू न-स्थूनी ष्ट्वः ४१३१३) पैशाची में ष्ट्वा रूप को खून और त्थून होते हैं। दृष्ट्वा (तद्धन, तत्थून)। नष्ट्वा (नद्धन, तत्थून)।
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम ९८७ (क्यस्येय्य : ४।३१५) पैशाची में क्य प्रत्यय को इय्य आदेश होता है । दीयते (दिय्यते) । रम्यते (रमिय्यते) । पठ्यते (पठिय्यते)।
.. नियम ९८८ (कृगो डोर: ४।३१६) पैशाची में कृ धातु से परे क्य को डीर आदेश होता है । क्रियते (कीरते)।.
नियम ६८६ (न कना-च-जादि षट्-शाम्यन्त-सूत्रोक्तम् ४१३२४) पैशाची में (कगचजतद पयवां प्रायो लुक् १।१७७) से लेकर (षट् शमी साव सुधा सप्तपणे वादे श्छः २२६५) तक के सूत्र जो कार्य करते हैं वह पैशाची में नहीं होता है।
नियम ६६० (शेषं शौरसेनीवत् ४।३२३) पैशाची में शेष नियमों का कार्य शौरसेनी के समान है। चूलिका पैशाची
नियम ६६१ (चलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययो राख-द्वितीययो ४१३२५) चूलिकापशाची में वर्ग के तृतीय और चतुर्थ वर्ण को क्रमशः पहला और दूसरा वर्ण हो जाता है । नगरं (नकरं) । मेघः (मेखो) । राजा (राचा)। निर्झरः (निच्छरो) । डमरुकः (टमरुको)। गाढम् (काठं)। मदनः (मतनो) । मधुरम् (मथुरं) । बालकः (पालको)। रभसः (रफसो)।
.. नियम ६६२ (नादि-युज्योरन्येषाम् ४।३२७) चूलिकापैशाची में अन्य आचार्यों के मत से वर्ण का तीसरा और चतुर्थवर्ण आदि में हो तो उसे प्रथम और द्वितीय वर्ण नहीं होते हैं। तथा युज धातु को आदेश नहीं होता है। गतिः (गती) । धर्मः (धम्मो) । जीमूतः (जीमूतो) । झज्झरः (झच्छरो)। डमरुक: (डमरुको)। ढक्का (ढक्का)। दामोदरः (दामोतरो)। बालकः (बालको)। भगवती (भकवती)। नियोजितम् (नियोजितं)।
.. नियम ६६३ (रस्य लो वा ४।३२६) चूलिका पैशाची में र को ल विकल्प से होता है। हरम् (हलं, हरं)। ... नियम ६६४ (शेष प्रागवत् ४:३२८) चूलिका पैशाची में शेष नियम पैशाची के समान चलते हैं। नकरं, मक्कनो-इनके न को ण नहीं होता। ण का न तो हो जाता है। प्रयोग वाक्य - तत्तो तुम सयगुनो बुद्धिमतो सि। तुझ हितपके केत्तिलो हो अत्थि ? मतनं मारिउ को समत्थो अत्थि ? किं तस्स पुनं पबलं विज्जति ? यातिसो अहं मि तातिसो तुम्हाणं समक्खं मि। पलं अंतरेण तस्स को मुल्लो अत्थि? तुम्ह कुतुम्बकस्स पालणं को करेय्य ? सो सव्वयं महावीरं कि पुच्छइ ? कचाए पण्हो को अत्थि ? घरं गन्तून सा किं पढेय्य ? सो पोत्थयं तळून उत्तरं लिहति। सो केणावि सह न गच्छेय्य । किं सा तुज्झ साउज्ज
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पैशाची : चूलिका पैशाची
४२१ करेय्य ? नरो यातिसं करेति तातिसं फलं लभति। सा पठितून किं करेय्य । रायपहे को याचति ? अय्यस्स कि अभिहाणं अत्थि ? सो घरे गन्तून रमेय्य । नाए कि कीरते । ससी निसाए गगने सोभति । तुज्झ सतने (सदने) सता (सदा) सुद्धी कधं न भवति ? तुं पासिउ अहं सता जागरूओ मि । तुज्झ मुहमंडलं तत्थून, नाममंतं जवितून य अहं आनंदं अनुभवामि । नेन किं दिय्यते ? सिसुना घरांगने रमिय्यते अज्जत्ता तुज्झदसणं देवयाए अहियं दुल्लहं अस्थि । तुज्झ भग्गस्स णिम्माणं तुज्झ हत्थेसु विज्जति। तुमं ममातो कि इच्छसि ?. हितपके सता गुणाणं पइटुं करेहि सो पढितून विएसं गच्छेय्य । कल्लं सो किं जपेय्य । समयं नद्ध न सो किं पाएय्य ?. चूलिका पैशाची
___ संपइ नकरस्स पिआ को अत्थि? मेखो आकाशे सोभइ । निच्छरो सययं वहइ । कूरकम्मेहिं काठं बंधणं बंधइ । अहं मथुरं फळं भुंजिउ अभिलसामि । पालको विज्जालये पढइ । हळस्स देवालये संखं को वायइ ? नती (नदी) रफसेण वहई। भकवतीए सरस्वईए देवीए आराहणं पालको करेइ। अस्स पएसस्स को राचा अत्थि ? पैशाची में अनुवाद करो
(पैशाची के नियमों में आए हुए शब्दों का प्रयोग करो। जो शब्द उसमें न मिले उन्हें शौरसेनी में खोजो। वहां भी न मिले तो प्राकृत के शब्दों का प्रयोग करो।)
तुम्हारे कूटम्ब में कितने आदमी हैं ? दूध में क्या गुण है ? क्या तुम जानते हो ? शक्र ने कब दर्शन दिए थे ? शशी तारों के साथ आकाश में अच्छा लगता है। मेरे हृदय की बात क्या तुम जान सकते हो ? आज हमारे सदन में कौन आएगा ? मदन (कामदेव) बहुत बलवान् होता है। सदा सत्य बोलना चाहिए । सर्वज्ञ को पूर्णरूप से कौन जान सकता है ? प्रज्ञा का महत्त्व तुम नहीं जानते । आहार संज्ञा के कारण मनुष्य क्या करता है ? विज्ञान का कार्य है सत्य को प्राप्त करना। कन्या का अध्ययन लडके से कई गुना अधिक है। अभिमन्यु ने कब क्या सीखा था? जैसा तुम व्यवहार करोगे वैसा फल पाओगे । उसने कथा कब कही थी? कथा कहकर वह कब उठेगा ? वह पढेगा या घर जाएगा ? सूर्य को आंखों से कौन देखेगा? चंद्रमा को देखकर उसने क्या कहा था ? विवाद में समय नष्ट कर वह हानि में रहेगा। क्या वह खेलकर अपनी शक्ति को बढाता है। परीक्षा का परिणाम देखकर वह हंसेगा या रोएगा ? जो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता है, वह अगले वर्ष में दुगुणे परिश्रम से पढता है । तुम्हें देखकर उसकी याद आती है । तुम्हारा हृदय क्या पत्थर से भी अधिक कठोर है। तुम पढते हो तो बिना मन से पढते हो।
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४२२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
तुम्हारा मन स्थिर नहीं है। मन में संकल्प करो इस वर्ष में परीक्षा में प्रथम आऊंगा। मन का संकल्प बलवान् होता है। जब तक तुम्हारा पुण्य बलवान् है, तुम्हारा नुकसान नहीं होगा। हृदय में भगवान का स्मरण करो। कुटुम्ब में कौन ब्रह्मचारी है ? जैसी शक्ति हो वैसी तपस्या करो। चूलिका पैशाची में अनुवाद करो
नगर के बाहर उद्यान है । इस नगर में तुम कितने वर्षों से रहते हो? मेघ को देखकर मन प्रसन्न होता है । मेघ का रंग कैसा है ? निर्झर किस गांव के पास है ? निर्झर का पानी मीठा है। किस क्रिया से कर्मों का गाढ बंधन बंधता है। मधुर फल कौन-कौन से हैं ? मधुर व्यवहार से मनुष्य दूसरे के दिल को जीत लेता है। बालक कहां रोता है ? बालक की माता कहां गई है ? महादेव की पूजा मंदिर में होती है। महादेव का मंदिर यहां से कितनी दूर है ? भगवती चण्डी देवी की आराधना कौन करता है ? पानी वेग से बहता है।
प्रश्न १. पैशाची में टु, ण और ल को क्या आदेश होता है ? २. य को प कहां होता है? ३. ज्ञ, न्य और ण्य को किस नियम से क्या आदेश होता है ? उदाहरण _देते हुए स्पष्ट करो। ४. भारिया, सिनातं, कसट में किस शब्द को क्या आदेश हुआ है ? ५. टा प्रत्यय को नेन और नाए आदेश कहां और किन शब्दों को
होता है ? ६. भविष्यकाल के इ और ए प्रत्यय को क्या आदेश होता है ? पांच
उदाहरण दो। ७. क्त्वा प्रत्यय को क्या आदेश होता है ? द्धन और त्थून रूप किस
प्रत्यय को किस धातु के योग से होता है ? ८. चूलिका पैशाची में वर्ग के तृतीय और चतुर्थ वर्ण को क्या-क्या आदेश
होता है ? प्रत्येक के एक-एक उदाहरण दो।
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११३
अपभ्रंश (१)
शब्द संग्रह
अम्हे, अम्हइं-- हम दोनों/हम सब तुहुं-तू, तुम
तुम्हे, तुम्हई-तुम दोनों/तुम सब सो-वह
ते-वे दोनों/वे सब सा-वह (स्त्री)
ता-वे दोनों/वे सब (स्त्री) ज-जो (पुं)
क(पुं, नपुं)-कोन जा-जो (स्त्री)
का (स्त्री)-कौन कवणा (स्त्री)-कौन . कवण (पुं, नं) कौन
धातु संग्रह वइट्ट-बैठना
रूस-रूसना सय-सोना
णच्च-नाचना जग्ग-जागना
पहा.--स्नान करना लुक्क-छिपना
हरिस-प्रसन्न होना जीव-जीना
हस---हसना • जिण और मुणि शब्द याद करो। वेखो-परिशिष्ट ३ संख्या १,२ गामणी, साहु और सयंभू शब्द के रूप मुणि शब्द की तरह चलते हैं ।
देखो-परिशिष्ट ३ संख्या ३,४,५।। ० हस पातु और हो धातु के वर्तमान काल के रूप याद करो। देखो
परिशिष्ट ४ संख्या १,२। अपभ्रंश - १. अपभ्रंश में चार प्रकार के ही शब्द मिलते हैं--(१) अकारान्त (२)
आकारान्त (३) इकारान्त (४) उकारान्त । २. अपभ्रंश में चार प्रकार के कालवर्णित हैं- (१) वर्तमानकाल (२)
विधि एवं आज्ञा (३) भूतकाल (४) भविष्यकाल । सरल व्यंजन परिवर्तन
नियम ६६५ (अनादौ स्वरावसंयुक्तानां क-ख-त-य-प-फां ग-ध-द-धब-मा: ४।३६६) अपभ्रंश में पद की अनादि में क, ख, त, थ, प, फ हों तो उनको क्रमशः म, घ, द, ध, ब और भ आदेश होते हैं। क को ग-करं
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४२४
प्राकृत वाक्य रचना बोध
(गरु) । ख को घ-सुखेन (सुधि)। त और थ को द और ध-कथितं (कधिदु)। प को ब-शपथं (सबधु)। फ को भ-सफलं (सभलउं)। ये शब्द श्लोकों के अन्तर्गत हैं, इसलिए आदि में नहीं है।
नियम ६६६ (मोनुनासिको वो वा ४।३६७) अपभ्रंश में अनादि असंयुक्त वर्तमान म को अनुनासिक व (व) विकल्प से होता है। कमलं (केवलु, कमलु)। संयुक्त वर्णपरिवर्तन
नियम ९९७ (वाधो रो लुक ४१३६८) अपभ्रंश में संयुक्त वर्ण में र अधः (दूसरा) हो तो उसका लोप विकल्प से होता है। प्रियः (पिउ, प्रिय)।
नियम ९६८ (म्हो म्भो वा ४।४१२) अपभ्रंश में म्ह को म्भ विकल्प से होता है। ग्रीष्मः (गिम्भो) । म्ह शब्द संस्कृत में नहीं है। प्राकृत में (पक्षम-श्म-ज्म-स्म-ह्मां म्हः २०७४) से म्ह आदेश होता है। उसी का यहां ग्रहण है।
नियम EEE (आपद्-विपत्-संपदां द इः ४।४००) अपभ्रंश में आपद्, विपद् और संपद् के द् को इ होता है। आपद् (आवइ) । विपद् (विवइ) । संपद् (संपइ)। आगम
नियम १००० (अभूतोपि क्वचित् ४।३६६) अपभ्रंश में कहीं पर न होने पर भी र हो जाता है । व्यासो महर्षिः (वासु महारिसी)।
नियम १००१ (परस्परस्यादि रः ४।४०६) अपभ्रंश में परस्पर शब्द के आदि में अकार हो जाता है । परस्परम् (अवरोप्पर)। आदेश
नियम १००२ (स्वाराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे ४१३२६) अपभ्रंश में स्वरों के स्थान पर प्रायः स्वर होते हैं । क्वचित् (कच्चु, काच्च)। वीणा (वेण, वीण)। बाहु (बाह, बाहा, बाहु) । पृष्ठम् (पट्टि, पिट्टि, पुट्ठि) । तृणः तणु, तिणु, तुणु) । प्रायः शब्द का अर्थ है-अपभ्रंश के नियमों से कहे जाते हैं उनका भी कहीं प्राकृत की तरह और कहीं शौरसेनी की तरह कार्य होता है।
___ नियम १००३ (अन्यादशोऽन्नाइसावराइसौ ४१४१३) अपभ्रंश में अन्यादृश शब्द को अन्नाइस और अवराइस दो आदेश होते हैं। अन्यादृशः (अन्नाइसो, अवराइसो)। १ नियम १००४ (प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्ब-पग्गिम्वाः ४।४१४) अपभ्रंश में प्रायस् शब्द को प्राउ, प्राइव, प्राइम्व, पंग्गिम्ब-ये चार आदेश
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अपभ्रंश (१)...
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होते हैं। प्रायस् (प्राउ, प्राइव, पाइम्व, पग्गिम्व) ।
नियम १००५ (वान्य थोनुः ४१४१५) अपभ्रंश में अन्यथा शब्द को अनु आदेश विकल्प से होता है । अन्यथा (अनु, अन्नह)।
नियम १००६ (कुतसः कउ-कहन्ति हु ४१४१६) अपभ्रंश में कुतस् शब्द को कउ और कहन्तिहु ये दो आदेश होते हैं। कुतः (कउ, कहन्तिहु)।
नियम १००७ (ततस्तदो स्तोः ४।४१७) अपभ्रंश में ततः (तस्मात् ) और तदा शब्दों को तो आदेश होता है। तत: (तो) । तदा । (तो)।
नियम १००८ (एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक-एम्व पर समाणु ध्रुव मं मणा ४१४१८) अपभ्रंश में एवं, परं, सम, ध्रुवं, मा और मनाक् शब्दों को क्रमश: एम्व, पर, समाणु ध्रुवु, मं और मणाउं आदेश होते हैं । एवं (एम्व)। परं (पर)। समं (समाणु) । ध्रुवं (ध्रुवु)। मा (मं)। मनाक् (मणाउं)।
नियम १००६ (किलाथवा-दिव-सह-नहेः किराहवइ दिवे सहं नाहि ४१४१६) अपभ्रंश में किल आदि शब्दों को क्रमश: किर आदि आदेश होते हैं। किल (किर) । अथवा (अहवइ) । दिवा (दिवं)। सह (सहुं)। नहि (नाहि)।
नियम १०१० (पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ-एम्वइ-जि-एम्वहिं पच्चलिउ-एत्तेह ४।४२०) अपभ्रंश में पश्चात् आदि शब्दों को पच्छइ आदि आदेश होते हैं । पश्चाद् (पच्छइ)। एवमेव (एम्वइ) । एव (जि) । इदानीम् (एम्वहिं) । प्रत्युत (पच्चलिउ)। इतः (एत्तहे)।
नियम १०११ (विषण्णोक्त-वमनो वन्न-वृत्त-विच्चं ४।४२१) अपभ्रंश में विषण्ण आदि को वुन्न आदि आदेश होते हैं। विषण्णः (वुन्नउ) । उक्तः (वुत्तउ)। वर्त्म (विच्चउ)।
नियम १०१२ (शीघ्रादीनां बहिल्लादयः ४।४२२) शीघ्र आदि शब्दों को बहिल्ल आदि आदेश होते हैं । शीघ्रम् (वहिल्लउ)। झकट: (घंधलु) । अस्पृश्य संसर्गः (विट्टालु)। भयः (द्रवक्कउ)। आत्मीय: (अप्पणउ)। नव (नवखु)। दृष्टिः (द्रहि)। गाढ: (निच्च१) । साधारणः (सड्ढलु) । कौतुक: (कोड्डु) । क्रीडा (खेड्डु) । रम्यः (रवण्णु) । अद्भुतम् (ढक्करि)। हे सखि (हेल्लि) । पृथक पृथक् (जुअंजुअ) । मूढः (नालिउ) । मूढः (वढउ)। अवस्कन्दः (दडवडउ)। यदि (छुड्डु)। सम्बन्धी (केरउ) । सम्बन्धी (तणु) । माभैषीः (मब्भीसडी)। यद् यद् दृष्टम् (जाइट्ठिआ)।
नियम १०१३ (इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणव: ४।४४४) इव के अर्थ में नं आदि छ आदेश होते हैं। इव (नं, नउ, नाइ, नावइ, जणि,
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
जणु)। अव्यय
नियम १०१४ (घइमादयोनर्थकाः ४१४२४) अपभ्रंश में घई आदि अनर्थक अव्यय हैं । घई । आदि शब्द से खाई । अनर्थक (घाई, खाइं)।
नियम १०१५ (हहरु घुग्घादयः शब्द-चेष्टानुकरणयोः १४२३) अपभ्रंश में हुहुरु आदि शब्द के अनुकरण में और घुग्घ आदि चेष्टा के अनुकरण अर्थ में निपात हैं। हुहरु (हुहरु) आदि शब्द से घुण्ट (धुण्ट) एक बार पीने योग्य पानी। घुग्घ (बन्दर की चेष्टा) आदि शब्द से उट्ठबइस (उत्थोपवेश) ऊठ बैठ।
नियम १०१६ (तादर्थे कहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः ४।४२५) अपभ्रंश में तादर्थ्य द्योत्य अर्थ में ये पांच शब्द निपात हैं। केहि, तेहिं, रेसि, रेसिं, तणेण (वास्ते, लिए) । तउकेहि (त्रपु के लिए) इसी प्रकार पांचों अव्यय प्रयुक्त होते हैं। प्रयोग वाक्य (वर्तमानकाल)
सो हसइ/हसेइ/हसए :- वह हंसता है। इसके तीन वाक्य बन सकते हैं । सो हसइ/सो हसेइ/सो हसए। इसी प्रकार अन्य वाक्य समझें। सा णच्चइ णच्चेइ/णच्चए --- वह नाचती है। हउं/हा उं/ हामि ... मैं स्नान करता हूं। अम्हे/अम्हई सयहुं/सयमो/सयमु/सयम :- हम दोनों/हम सब सोते हैं/सोती हैं। हम दोनों और हम सब संक्षेप में हैं, वैसे ही सब सोते हैं और सोती हैं संक्षेप में हैं। इसके चार वाक्य बनते हैं (१) हम दोनों सोते हैं (२) हम सब सोते हैं। (३) हम दोनों सोती हैं (४) हम सब सोती हैं। इसी प्रकार कर्ता और क्रिया के विकल्प समझे। तुम्हें तुम्हइं रूसहु/रूसह/रूसित्था तुम दोनों/तुम सब रूसते हो/रूसती हो । ते वइट्टहिं/वइट्ठति/वइट्ठन्ते । वइटिरे वे दोनों/वे सब बैठते हैं/बैठती हैं। तुहं लुक्कहि/लुक्कसि/लुक्कसे/लुक्केसि (तुम छिपते हो/ छिपती हो ।) हउ सयउं/सयामि (मैं सोता हूं1) सो जग्गइ/जग्गेइ/जग्गए (वह जागता है।) सा रूसइ/रूसेइ/रूसए (वह रूसती है।) तुहं णच्चहि णच्चसि/णच्चसे/णच्चेसि (तुम नाचते हो/नाचती हो) । सो जीवइ/जीवेइ/ जीवए (वह जीता है ।) तुहूं हरिसहि/हरिससि/हरिससे/हरिसेसि (तुम प्रसन्न होते हो/प्रसन्न होती है।) हउं जीवउं/जीवामि/जीवमि/जीवेमि (मैं जीता हूं/जीती हूं)। सा हसइ/हसेइ हसए (वह हंसती है ।) तुम्हे/तुम्हई जग्गहु/जग्गह/जग्गित्था (तुम दोनों/तुम सब जागते हो/जागती हो)। अपभ्रंश में अनुवाद करो (क्रिया के सब रूप लिखो)
मैं छिपता हूं। वह जागता है । तुम रूसते हो । वे दोनों बैठते हैं । हम सब जागते हैं। वे दोनों हंसती हैं। वह नाचती है। मैं जागता हूं। वे सब
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अपभ्रंश (१)
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सोती हैं । तुम दोनों बैठती हो। हम सब जीते हैं। मैं रूसता हूं। वे सब छिपते हैं । वे दोनों सोते हैं । वे सब नाचती हैं। मैं हंसता हूं। तुम जागते हो। हम सब हंसती हैं । तुम दोनों प्रसन्न होते हो। तुम जीते हो। मैं बैठता हूं। हम दोनों सोते हैं । मैं स्नान करता हूं। तुम स्नान करते हो। तुम दोनों स्नान करते हो । वे सब स्नान करती हैं । हम दोनों स्नान करते हैं । वह छिपता है। हम दोनों हंसते हैं । वे दोनों जीते हैं । वाक्यों को शुद्ध करो (किया बदलो)
____सो हसउ । हरूसहि । अम्हे सयहु । सा हरिसेमि । अम्हई हसिस्था । तुम्हे सयमो। तुहुं गच्चह । ते जीवमि । तुम्हई सयन्ति । सा रूसहु । हउँ जग्गन्ते । तुहं लुक्कह । सा जीवसि । हउ रूसए। अम्हे जीव। अम्हई हसए। सो जीवेमि । तुम्हे वइट्ठसि । हउसयहु । तुम्हई जीवहि। अम्हे हसित्था। हरूससे । सा वइट्ठाइ। वाक्य को शुद्ध करो (सर्वनाम बदलो)
हउवइट्ठमो। तुहुँ सयउ। अम्हे जग्गेह । तुम्हइं णच्चामो। तुम्हे लुक्केमो । ते लुक्कउ । सो हरिसह । ता सयह । अम्हे वइट्ठन्तु । सो व्हाऊं। तुम्हइं जीव । अम्हे णच्चसु । ते रूसह । हउवइट्ठइ । तुम्हे हसन्ति । तुहुं जीवेइ। अम्हई जग्ग।
प्रश्न १. अपभ्रंश में कितने प्रकार के काल वर्णित हैं ? २. अपभ्रंश में कितने प्रकार के शब्द मिलते हैं ? ३. पद की अनादि में क,ख,त,थ,प, फ को क्या आदेश होता हैं ? ४. संयुक्त वर्ण में किन वर्णों को क्या आदेश होता है ? ५. अपभ्रंश में कहां किन वर्गों का आगम होता है ? ६. अन्यादृश, प्रायस्, अन्यथा, कुतस्, तदा, समं, मनाक्, नहि, सह, प्रत्युत,
इदानीम्, इतः, इव को अपभ्रंश में क्या-क्या आदेश होता है ? ७. नियम १०१२ के आदेश होने वाले चार शब्द बताओ।
माओ।
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अप अपभ्रंश (२)
शब्द संग्रह (पुंलिंग) गंथ--पुस्तक
रयण-रत्न जणेर--बाप
बालअ-बालक कियंत-मृत्यु
गाम-गांव करह-ऊंट
मित्त-मित्र नरिंद-राजा
सलिल-पानी पड-वस्त्र
मेह-मेघ सप्प-सांप
घर-मकान गव्व-गर्व
दुक्ख-दुःख सायर-समुद्र
धातु संग्रह गल-गलना
कोक-बुलाना गज्ज-गर्जना
कुट्ट-कूटना घाल-डालना
छोल्ल-छीलना चोप्पड-स्निग्ध करना, चोपडना छोड-छोडना धो-धोना
उपकर-उपकार करना फाड-फाडना
रोक्क-रोकना लज्ज-शरमाना
उच्छल-उछलना डर-डरना
घूम-घूमना अव्यय आम-जब तक ... ताम-तब तक जेम-जिस प्रकार तेम-उस प्रकार जहा—जिस प्रकार तहा- उस प्रकार • माला शब्द याद करो। देखो परिशिष्ट ३ संख्या ६ । मइ, वाणी,
घेणु और वहू शब्द के रूप माला की तरह चलते हैं । देखो-परिशिष्ट
३, संख्या ७,८,९,१०)। • हस और हो धातु के विधि एवं आज्ञा के रूप याद करो। देखो
परिशिष्ट ४, संख्या १,२ ।
नियम १०१७ (सौ पुंस्योद् वा ४।३३२) अपभ्रंश में पुंलिंग में अकारान्त नाम परे सि हो तो अकार को ओकार विकल्प से होता है ।
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अपभ्रंश (२)
४२६
नियम १०१८ (स्यम् जस्-शसा लुक् ४१३४४) अपभ्रंश में सि, अम्, जस् और शस् का लुक् हो जाता है । जिणो। पक्ष में।
नियम १०१६ (स्यमोरस्योत् ४।३३१) अपभ्रंश में अकार को उकार हो जाता है सि और अम (द्वितीया का एकवचन)परे हो तो । जिणु ।
नियम १०२० (स्यादी दीर्घ हस्थी ४१३३०) अपभ्रंश में पुलिंग में नाम का अन्त्य अक्षर ह्रस्व हो तो दीर्घ और दीर्घ हो तो ह्रस्व विकल्प से होता है, स्यादि विभक्ति परे हो तो । जिणा, जिण। जिणु । जिणा, जिण ।.. - नियम १०२१ (पट्टि ४१३३३) अपभ्रंश में अकार को एकार होता है, टा प्रत्यय परे हो तो।
नियम १०२२ (आट्टो णानुस्वारी ४॥३४२) अपभ्रंश में अकार से परे टा प्रत्यय को ण और अनुस्वार ये दो आदेश होते हैं। जिणेण, जिणें। .
नियम १०२३ (भिस्येद् वा ४१३३५) अपभ्रंश में अकार को एकार विकल्प से होता है भिस् (तृतीया का बहुवचन) परे हो तो।
नियम १०२४ (भिस् सुपोहि ४१३४७) अपभ्रंश में भिस् और सुप् (सप्तमी का बहुवचन) को हि आदेश होता है । जिणे हिं । पक्ष में जिणहिं ।
नियम १०२५ (से है-हू ४१३३६) अपभ्रंश में अकार से परे ङसि को हे और हु ये दो आदेश होते हैं। जिणहे, जिणहु ।।
नियम १०२६ (भ्यसो हुं ४।३३७) अपभ्रंश में अकार से परे भ्यस् (चतुर्थी का बहुवचन)को हुं आदेश होता है। जिणहुं ।
नियम १०२७ (उसः सु-हो स्सवः ४१३३८) अपभ्रंश में अकार से परे ङस् (षष्ठी का एकवचन) को सु, हा, स्स ये तीन आदेश होते हैं। जिणस्, जिणहो, जिणस्सु।
नियम १०२८ (आमोहं ४।३३६) अपभ्रंश में अकार से परे आम् (षष्ठी का बहुवचन) को हं आदेश होता है । जिनानाम् (जिणहं)।
नियम १०२६ (षष्ठ्याः ४१३४५) अपभ्रंश में षष्ठी विभक्ति का प्रायः लुक् हो जाता है । जिनस्य, जिनानाम् (जिण)।
नियम १०३० (डि नेच्च ४१३३४) अपभ्रंश में अकार से परे ङि (सप्तमी का एकवचन) प्रत्यय हो तो प्रत्यय सहित अकार को इकार और एकार होता है । जिणि, जिणे । जिणे हिं, जिहिं हे जिणो, हे जिण।
नियम १०३१ (आमन्त्र्ये जसो होः ४॥३४६) अपभ्रंश में आमंत्रण अर्थ में नाम से परे जस् को हो आदेश होता है। जिणहो।
नियम १०३२ (सर्वस्य साहो वा ४१३६६) अपभ्रंश में सर्व शब्द को साह आदेश विकल्प से होता है । सर्व (साहु, सव्वु)।
नियम १०३३ (सर्वा देई से.हाँ ४।३५५) अपभ्रंश में सर्वादि शब्दों के अकार से परे ङसि (पंचमी का एकवचन) को हा आदेश होता है। सर्व
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४३०
स्मात् (सत्वहां ) ।
नियम १०३४ ( हि ४१३५७ ) अपभ्रंश में सर्वादि शब्दों के अकार से परे ङि को हि आदेश होता है । सर्वस्मिन् (सव्वहिं ) । शेष रूप जिन के समान चलते हैं ।
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नियम १०३५ ( यत्तदः स्यमो धुं त्र ४ । ३६० ) अपभ्रंश में यत् और तत् शब्द के स्थान पर क्रमशः धुं, त्रं आदेश विकल्प से होता है, सि और अम् परे हो तो । तत् ( ) । तत् (धुं ) ।
नियम १०३६ ( यत्तत् किभ्यो ङसो डासु र्न वा ४।३५८ ) अपभ्रंश में यत्, तत् और कि शब्द के अकार से परे ङस् को डासु आदेश विकल्प से होता है । तस्य ( तासु ) । यस्य ( जासु ) । प्रयोग वाक्य ( विधि एवं आज्ञा )
सो हसउ, हसेउ ( वह हंसे ) । अम्हे, अम्हई हसमो, हसामो, हसेमो ( हम हंसे ) । हउ हसमु ( मैं हसूं ) । ते हसन्तु, हसेन्तु ( वे दोनों / वे सब हंसें ) । तुम्हे हसह, हसेह (तुम दोनों / तुम सब हंसे ) । अम्हे हामी । तुम्हे रूसेह । उठा । ते जग्गेन्तु । रामु रूसउ । हउ डरमु सो फुल्लउ । तुम्हई भिडेह | हर घूमेमु । सा लज्जउ । ते थक्कंतु । तुम्हे डरह | सूरिओ उगउ । देविंदो उच्छलउ । जणेरु घूमउ । कइ (कवि ) गंथ पढउ । करहो उच्छलउ । कियंतो लुक्कउ | इंदधणु उगए। सामी हाउ । बालआ जग्गन्तु । तुहुं हसु । ह लुक्केमु । सो सयेउ । सा होउ । अम्हे लुक्कामो । तुहुं उच्छल । हउ भिडेमु । अम्हे घूमेमो । तुहुं णच्च हि । हउ जीवमु । सो लुढउ । तुहुं थक्के । तुम्हे थक्कह । अम्हई थक्कमो । तुहुं थक्कि । तुम्हईं थक्कह । हउ थक्कमु सुसीला पढउ । नरिंदो उपकरउ । सा दुक्ख छोडउ । सीया धोउ । तुहुं छोडे । अम्हे छोल्मो । ता डालंतु । विमला चोप्पडउ । तुम्हे कोकह । मेहो गज्जउ । तुहुं केहि | साकुट्ट । तुहुं पड फाडि । सायरु गज्जउ । कियंतो रोक्कउ । तुम्हे दुक्ख छोडह । मित्तो कोकउ ।
I
अपभ्रंश में अनुवाद करो
1
तुम दोनों घूमो। वह शरमाए । वे दोनों भिडें । हम कूटें । तुम धोओ । वह छोले । हम सब छोडें । तुम फाडो । हम दोनों रोकें । तुम सब सोओ । वे दोनों छिपे । हम बुलाएं। वे धोएं। हम दोनों नाचें । वे सब स्नान करें । हम सब बैठें। तुम सोओ। मैं जागूं । तुम दोनों जागो । मैं जीऊं । तुम छिपो । तुम दोनों हंसो । वे नाचें । हम सब नाचें । वे सोएं। मैं सोऊ । वे उपकार करें । वे दोनों डालें । मैं नाचूं । तुम सब बैठो। वे दोनों जीव । वे सब जागें । हम सब डरें । तुम गर्यो । वे रोकें । तुम छीलो । हम धोएं । वे सब धोएं | वह नाचे । सोता कूटे ।
I
हम रोकें । मैं रोकूं ।
वह उछले ।
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४३१
अपभ्रंश (२) हम दोनों उछलें। वे दोनों शरमाएं। तुम उछलो। मैं उछलूं। मैं उपकार करूं । तुम उपकार करो। वाक्य शुद्ध करो (क्रिया बदलो)
___ तुम्हे ण्हामु । अम्हे लुक्कह । तुहुं व्हाउ। सा णच्चे । हउ भिडु । ते कोकहि । सो रूसेमो । हउ डरि । सा भिडह । तुहं कुट्टेमु । हउ हरिस । ते ण्हामु । अम्हइं घूम । हउ घालह । तुम्हे लज्जामो। सा ण्हासु । तुहुं चोप्पडउ । तुम्हई चोप्पडंतु । हां हाह । अम्ह सयह।
प्रश्न
१. जणेर, कियंत, करह, गंथ, सलिल, रयण, मित्त, पड, मेह, दुक्ख और
सायर शब्द का अर्थ बताओ। २. गर्जना, डालना, स्निग्ध करना (चोपडना) धोना, फाडना, कूटना,
छीलना, बुलाना, रोकना, उछालना, उपकार करना, छोडना, कूटना
के अर्थ में धातु बताओ। ३. पुंलिंग में अकार से परे, टा, भिस्, भ्यस्, आम् और ङि प्रत्यय परे
हो तो क्या-क्या आदेश होता है। ४. सु, हा, ल्स, हो, रहा, हिं, त्रं, डासु–ये आदेश किस शब्द को कौन-सा
प्रत्यय परे होने पर होता है ?
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११५
अपभश (३)
शब्द संग्रह (नपुंसकलिंग) भायण-वर्तन वत्थ-वस्त्र
जोव्वण-यौवन मण-मन पत्त-कागज
घय-घी भोयण-भोजन . णायर–नागरिक जीवण-जीवन रज्ज-राज्य खीर-दूध
कट्ठ-काठ सुह-सुख
लक्कुड-लकडी णाण-ज्ञान वेरग्ग-वैराग्य सच्च-सत्य . धण्ण-धान मरण-मरण
- धातु संग्रह फुल्ल-कूदना
- पीस-पीसना उग्घाड-उघाडना, खोलना थक्क- थकना लिह-लिखना
णिज्झर-झरना कट्ट-काटना
लुढ--लुढकना वखाण-व्याख्यान करना
पिव--पीना सुक्क--सूखना अव्यय अज्जु-आज
म-मत
जेत्थु-जहां केत्थु-कहां
ण-नहीं तेत्थु-वहां ० नपुंसकलिंग में कमल, वारि, महु शब्द को याद करो। देखो
परिशिष्ट ३ संख्या ११,१२,१३ । • हस और हो धातु के भविष्यकाल के रूप याद करो। देखो
परिशिष्ट ४ ।
नियम १०३७ (अदस ओइ ४१३६४) अपभ्रंश में अदस् के स्थान पर ओइ आदेश होता है, जस् और शस् परे हो तो । अमी, अमून् (ओइ)।
नियम १०३८ (इदम आयः ४१३६५) अपभ्रंश में इदं शब्द को आय आदेश होता है, स्यादि विभक्ति परे हो तो। अयं (आयउ)।
नियम १०३६ (एतदः स्त्री-पंक्लीबे एह-एहो-एह ४।३६२) अपभ्रंश में एतत् शब्द को स्त्रीलिंग में एह, पुलिंग में एहो और नपुंसकलिंग में एहु आदेश होता है, सि और अम् परे हो तो। एह कुमारी। एहो नरु। एहु
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अपभ्रंश (३)
४३३ मणोरह-ठाणु।
नियम १०४० (एइर्जस्-शसोः ४१३६३) अपभ्रंश में एतत् शब्द को एइ आदेश होता है, जस् और शम् परे हो तो। एते चोटका: (एइ घोडा) एतान् पश्य (एइ पेच्छ)।
नियम १०४१ (किम काई-कवणी वा ४।३६७) अपभ्रंश में कि शब्द को काई और कवण आदेश विकल्प से होता है । किम् (काई, कवणु, किं)।
नियम १०४२ (किमो डिहे वा ४१३५६) अपभ्रंश में किं शब्द के अकारान्त से परे ङसि को डाहे आदेश विकल्प से होता है । कस्मात् (किहे)। मुनिः (मुणी)।
नियम १०४३ (एं चेदुतः ४॥३४३) अपभ्रंश में इकार और उकार से परे टा को एं, ण और अनुस्वार होता है। मुनिना (मुणिएं, मुणिण, मुणि) । मुनिभिः (मुणिहिं)।
नियम १०४४ (सि-भ्यस्-डीनां हे-हं-हयः ४१३४१) अपभ्रंश में इकार और उकार से परे ङसि, भ्यस् और ङि को क्रमशः हे, हुं और हि-ये तीन आदेश होते हैं। मुनेः (मुणिहे) । मुनिभ्यः (मुणिहुं) । मुनौ (मुणिहि) मुनेः (मणि) षष्ठी में विभक्ति का लुक हुआ है।
नियम १०४५ (हुंचेदुभ्याम् ४।३४०) अपभ्रंश में इकार और उकार से परे आम् को हुं, हं आदेश होते हैं। मुनीनाम् (मुणिहुं, मुणिहं) इसी प्रकार उकारान्त शब्द के भी रूप बनते हैं। प्रायो अधिकार से कहीं पर सुप् प्रत्यय को भी हुं आदेश होता है । द्वयोः (दुई)। स्त्रीलिंग
नियम १०४६ (स्त्रियां जस्-शसोरवोत् ४।३४८) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में नाम से परे जस् और शस् हो तो प्रत्येक को उ और ओ आदेश होते हैं। मालाः (मालाउ, मालाओ)। माला: (मालाउ, मालाओ)।
नियम १०४७ (ट ए ४१३४६) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में नाम से परे टा को ए आदेश होता है । मालया (मालाए) । मालाभिः (मालाहिं)।
नियम १०४८ (ङस्-इस्यो है ४।३५०) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान नाम से परे ङस् और ङसि हो तो उनको हे आदेश होता है । मालायाः, मालायाः (मालाहे)।
नियम १०४६ (भ्यसामोईः ४१३५१) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान नाम से परे भ्यस् और आम् प्रत्यय हो तो प्रत्ययों को हु आदेश होता है। मालाभ्यः, मालानाम् (मालाह)।
नियम १०५० (केहि ४१३५२) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान
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४३४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हे
नाम से परे ङि को हि आदेश होता है । मालायाम् ( मालाहि ) । हे माला, मालाहो ।
नियम १०५१ (स्त्रियां उहे ४।३५६ ) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान यत्, तत् और किं शब्द से परे ङस् को डहे आदेश विकल्प से होता है । तस्याः (तहे)। यस्या: ( जहे)। कस्याः (कहे ) ।
नपुंसकलिंग
आदेश होता है । पुंल्लिंग के समान
नियम १०५२ ( क्लोबे जस्-शसो रि ४१३५३ ) अपभ्रंश में नपुंसक लिंग में वर्तमान नाम से परे जस् और शस् को इं कमलानि ( कमल) । कमलानि ( कमलई) । शेष रूप चलते हैं । नियम १०५३ ( कान्तस्यात उं स्यमोः ४१३५४) अपभ्रंश में नपुंसक लिंग में वर्तमान ककारान्त नाम में जो अकार हो उससे परे सि और अम् को उ आदेश होता है । तुच्छकम्, तुच्छकम् (तुच्छउं ) ।
नियम १०५४ ( इदमः इभुः क्लीबे ४१३६१ ) अपभ्रंश में नपुंसक लिंग में वर्तमान इदम् शब्द से परे सि और अम् को शब्द सहित इमु आदेश होता है । इदं ( इमु ) इदं ( इमु ) । इदं कुलं ( इमुकुलु) । इदं कुलं पश्य ( इमुकुलु देक्खु ) ।
प्रयोग वाक्य ( भविष्यकाल )
साणच्चे सइ / णच्चेस ए / ण चिचहि / णच्चिहिए ( वह नाचेगी ) । ता णच्चेसह /णच्चेसंति/णच्चिहिहि / चिचहिति (वे नाचेंगी ) । हउ हासउ / हासामि / हा हिउ / हा हिमि ( मैं नहाऊंगा ) । अम्हे हासहुं / हासमो / पहासमु / हासम / हा हिहुं / हा हिमो / हा हिमु / हाहिम ( हम सब / हम दोनों नहाएंगे ) । तुहं णच्चे सहि/मच्चेससि णच्चेससे/ णच्चिहिहि / णच्चि हिसि (तुम नाचोगे ) । तुम्हे णच्चेसह / णच्चे सह / णच्चेसइत्था / णच्चि हिहु / णच्चि हिह / चिहित्था (तुम दोनों / तुम सब नाचोगे ) । हउ णच्चे सउ / णच्चेसमि/ णच्चि हिउं / णच्चिहिमि ( मैं नाचूंगा) । अम्हे णच्चेसहं / णच्चेसमो / णच्चेसमु / णच्चेसम / णच्चिहिं / णच्चिहिमो / णच्चिहिमु / णच्चि हिम ( हम नाचेंगे ) । सुसीला पीसेसइ । सा पड कट्टेहिइ । अम्मे अज्जु वखाणेसहुं । मई ( मुझको) को कोकिहिइ ? सो पई ( तुमको ) रोक्किहिए । तुहुं भार्याणि घय घालिसहि । सीया वत्थ फाडिहिहि । हर सच्च उग्धाडि हिउ । माया चोप्पडिहिइ । सा पत्त लिहिहिए। तुहुं कट्ठ छोलेससि । तुम्हे उपकरिहिहु । अम्हे बोल्लिसहुं । बालअ सलिल पिविहिइ । सो लक्कुडाई कट्टेसइ । सा पत्तु लिहिसए । तुहुं कट्ठई न कट्टि हिहि । सा aणा पोसिहि । तुहुं सच्च कोकिहिसे । हउं खीरहं पिवेसउ |
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अपभ्रंश (३)
४३५ अपशभ्रमें अनुवाद करो
वह शरमाएगी। हम सब कदेंगे। वे दोनों बैठेंगे। वह उछलेगा। हम नहीं थकेंगे। मैं नहीं मरूंगा। तुम दोनों कहां धूमोगे ? वे सब नहीं सोएंगे । मैं नहीं डरूंगा । तुम सत्य नहीं बोलोगे । वह वस्त्र नहीं काटेगी। वह चुपडेगी। तुम कहां व्याख्यान करोगे? तुम्हें कौन रोकेगा ? मुझे कोन बुलाएगा? मैं काष्ठ नहीं छीलूंगा। वह घी नहीं डालेगी। तुम आज कहां बैठोगे ? मैं आज बोलंगा। वे दोनों नहीं पीसेंगी। वह वस्त्र फाडेगा। मैं उपकार करूंगा। तुम पत्र नहीं लिखोगे। वह स्नान नहीं करेगी। तुम कहां छिपोगे ? मैं नहीं नाचूंगा । आज वे पत्र लिखेंगे। तुमको कौन बुलाएगा ? मैं सत्य उघाडूंगा। तुम कहां कूदोगे ? वे कहां बैठेगे ? वह आज दूध पीएगा। वह वस्त्र सुखाएगी। मैं नहीं थकूँगा । हम कहां घूमेंगे ? मैं व्याख्यान करूंगा। हम सब कूदेंगे। रिक्तस्थान की पूर्ति करो
(१)..... 'लज्जेसइत्था ।(२)... . 'हसेसहुं । (३) ....' बोल्लिाहमु । (४) ....." उग्घाडेस। (५).....'कट्टे सहु। (६)..... उपकरिहिसे । (७) ..... 'चोप्पडेसमु। (८)...... फाडिहिहिं । (६)..... 'वक्खाणिहिसि । (१०)..... रोक्किहिमि । (११)... . घालिसउ । (१२) ..... पीसेसन्ति । (१३) ... बोल्लेसह । (१४)..... लिहिहिए। (१५)... ' फाडिहिह । (१६)..... करेसामि । (१७)....' 'हाहिमु। (१८)... कोकित्था । (१६)... . . बोल्ल। (२०) .....उपकरेमु । (२१)....फाडसि । (२२) .... लिहउ । (२३) ... वइट्ठह । (२४) .....रोक्कमु। (२५)...... घालहुं । (२६) ..... पीसंतु । (२७).... फाडसु । (२८) .... 'उग्घाडए। (२६)... ''छोल्ल । (३०) ..... "कट्टह।।
प्रश्न १. स्त्रीलिंग में ओ, ए, हे, हु, डहे आदेश किन-कन प्रत्ययों को होता है ? २. नपुंसक लिंग में जस् और शस् प्रत्यय को क्या आदेश होता है। ३. नपुंसक में उ आदेश किस प्रत्यय को होता है ? ४. पुंलिंग में ओइ, काई, कवण, एइ, हे आदेश किस को किस प्रत्यय परे
होने पर होता है। ५. लकडी, वस्त्र, नागरिक, यौवन, भोजन, वैराग्य, घी, पत्र, जीवन,
ज्ञान, मरण, सुख-इन शब्द के लिए अपभ्रंश शब्द बताओ। ६. फुल्ल, थक्क, णिज्झर, लुढ, पिव, पीस, उग्घाड, लिह, कट्ट, वक्खाण,
सुक्क धातु के अर्थ बताओ।
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११६
अपनश (४)
शब्द संग्रह (आकारान्त शब्द) जणेरी-माता
वाया-वाणी कमला-लक्ष्मी
संझा-संध्या सुया-पुत्री
सोहा-शोभा जरा-बुढापा
पसंसा-प्रशंसा महिला-स्त्री
झुपडा-झोपडी मेहा-बुद्धि
तिसा-तृषा निसा-रात्रि
धातु संग्रह वड्ढबढना
उवविस-बैठना खुम्म-भूख लगना
खास-खांसना उवसम-शांत होना
लग्ग-लगना उस्सस–सांस लेना
छिज्ज-छीजना विअस-खिलना
लोट्ट-लोटना चिट्ठ-ठहरना, बैठना
चुक्क-भूल करना, चूकना कुद्द-कूदना
छुट्ट-छूटना ओढ-ओढना अव्यय जइ-यदि
तो-तो
इय--इस प्रकार जह-जैसे
तह-वैसे
तम्हा--इसलिए जम्हा-चूंकि
वि-भी
णवि-नहीं ० सव्व, त, ज, क एत, इम शब्द याद करो। देखो-परिशिष्ट ३ संख्या
१४,१५,१६,१७,१८,१९ । युष्मदस्मत् और स्त्री प्रत्यय
नियम १०५५ (युष्मदः सौ तुहुं ४१३६८) अपभ्रंश में युष्मद् शब्द से परे सि हो तो तुडं आदेश होता है । त्वम् (तुहुं)।
नियम १०५६ (जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हई ४।३६६) अपभ्रंश में युष्मद् शब्द को जस् और शस् प्रत्यय सहित तुम्हे और तुम्हई आदेश होते हैं। यूयम् (तुम्हे, तुम्हइं)। युष्मान् (तुम्हे, तुम्हइं)।
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अपभ्रंश (४)
नियम १०५७ (टा-यमा पई तई ४।३७०) अपभ्रंश में युष्मद् शब्द को टा, ङि और अम् प्रत्यय सहित पई और तई आदेश होते हैं । त्वया (पई, तइं)। त्वयि (पइं, तइं)। त्वाम् (पई, तइं)।
नियम १०५८ (भिसा तुम्हेहिं ४।३७१) अपभ्रंश में भिस् प्रत्यय सहित युष्मद् शब्द को तुम्हेहिं आदेश होता है । युष्माभिः (तुम्हेहिं)।
नियम १०५६ (सि-सभ्यां तउ-सुज्झ-तुध्र ४।३७२) अपभ्रंश में ङसि और ङस् प्रत्यय सहित युष्मद् शब्द को तउ, तुज्झ और तुध्र आदेश होते हैं । त्वत् (तउ, तुज्झ, तुध्र)। तव (तउ, तुज्झ, तुध्र)।
__ नियम १०६० (म्यसाम्भ्यां तुम्हहं ४१३७३) अपभ्रंश में भ्यस् और आम् प्रत्यय सहित युष्पद् शब्द को तुम्हह आदेश होता है । युष्मभ्यम् (तुम्हहं)। युष्माकम् (तुम्हहं)।
नियम १०६१ (तुम्हासु सुपा ४१३७४) अपभ्रंश में सुप् प्रत्यय सहित युष्मद् शब्द को तुम्हासु आदेश होता है । युष्मासु (तुम्हासु)।
नियम १०६२ (सावस्मदो हउं ४।३७५) अपभ्रंश में सि प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को हउ आदेश होता है । अहम् (ह)।
नियम १०६३ (जस्-शसो रम्हे अम्हई ४।३७६) अपभ्रंश में जस् और शस् प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को अम्हे और अम्हइं आदेश होते हैं । वयम् (अम्हे, अम्हइं)। अस्मान् (अम्हे, अम्हइं)।
नियम १०६४ (टा-ज्यमा मई ४।३७७) अपभ्रंश में टा, डि और अम् प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को मई आदेश होता है । मया (मई)। मयि (मई) । माम् (मई)।
नियम १०६५ (अम्हेहि भिसा ४॥३७८) अपभ्रंश में भिस् प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को अम्हेहिं आदेश होता है । अस्माभिः (अम्हेहिं) ।
नियम १०६६ (महु मज्झ कसि-उस भ्याम् ४१३७६) अपभ्रंश में उति और ङस् प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को महु और मज्झु आदेश होते हैं। मत् (महु, मज्झु)। मम (महु, मज्झु)।
नियम १०६७ (अम्हहं भ्यसाम्भ्याम् ४१३८०) अपभ्रंश में भ्यस् और आम् प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को अम्हहं आदेश होता है। अस्मभ्यम् (अम्हहं)। अस्माकम् (अम्हहं)।
नियम १०६८ (सुपा अम्हासु ४३३८१) अपभ्रंश में सुप् प्रत्यय सहित अस्मद् शब्द को अम्हासु आदेश होता है । अस्मासु (अम्हासु)। स्त्री प्रत्यय
नियम १०६६ (स्त्रियां तदन्ताड्डी ४।४३१) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान प्राक्तन सूत्रद्वय (अ-डड-डुल्ला: स्वार्थिक-क-लुक् च ४।४२६ और
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४३८
प्राकृत वाक्यरचना बोष
योगजाश्चषाम् ४।४३०) के प्रत्यय अ, डड, डुल्ल, डडअ अन्त वाले प्रत्ययान्त शब्दों से डी प्रत्यय होता है । गौरी (गोरडी)। कुटी (कुडुल्ली)।
नियम १०७० (आन्तान्ताड्डा ४।४३२) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान आन्त (डड प्रत्यय आदि अ प्रत्ययान्त) उन आन्त प्रत्ययान्त शब्दों से डा प्रत्यय होता है। धूलिः (धूल डिआ)।
नियम १०७१ (अस्ये ४।४३३) अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में वर्तमान अकार को इकार हो जाता है, आ प्रत्यय परे हो तो । धूलिः (धूलडिआ)। भूतकाल
अपभ्रंश में भूतकाल के अर्थ को व्यक्त करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का ही प्रयोग किया जाता है। धातु में अ और य प्रत्यय लगाकर भूतकालिक कृदन्त का रूप बनाया जाता है। धातु के अंतिम अकार को इकार हो जाता है और प्रत्यय जुड जाता है । य प्रत्यय अ में बदला जा सकता है। भूतकालिक कृदन्त कर्तृवाच्य में कर्ता के अनुसार चलता है। कर्ता पुंलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग तीनों हो सकते हैं। स्त्रीलिंग में प्रयोग करने से पूर्व प्रत्यय के आगे आ प्रत्यय और जुड जाता है । पुंलिंग में भूतकालिक कृदन्त के रूप जिण शब्द की तरह, स्त्रीलिंग में माला शब्द की तरह और नपुंसक लिंग में कमल शब्द की तरह रूप चलते हैं । व्यंजनांत (अकारान्त) और स्वरान्त धातु के रूप इस प्रकार बनते हैं। एकवचन
बहुवचन पुंलिंग-हसिअ/हसिआ/हसिओ/हसिउ हसिअ/हसिआ होअ/होआ/होउ/होओ
होअ/होआ स्त्रीलिंग-हसिआ/हसि
हसिआ/हसिअ हसिआउ/हसिअउ
हसिआओ/हसिअओ ठाआ/ठाम
ठाआ/ठाअ/ठाआउ/ठाउ/ ठाआओ/
ठाओ नपुंसकलिंग-हसिअ/हसिउ/हसिआ हसिअ/हसिआ/हसिअर्ड होम/होआ/होउ
हसआई/होम/होआ/होअइं/
होआई प्रयोग वाक्य (भूतकाल)
हउं हसिअ/हसिआ/हसिउ/हसिओ (मैं हंसा)। अम्हे हसिम/हसिआ (हम हंसे)। सा हसिआ/हसिअ (वह हंसी)। ता हसिआ/हसिअ/हसिआउ/ हसिअउ/हसिआओ/हसिअओ (वे हंसी)। तुहुं हसिअ/हसिआ/हसिओ/हसिउं (तुम हंसा)। तुम्हे हसिअहसिआ (तुम सब हंसे/तुम दोनों हंसे) । सो हसिअ/
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अपभ्रंश (४)
४३६ हसिआ/हसिउ/हसिओ (वह हंसा)। ते हसिअ/हसिआ (वे दोनों हंसे/वे सब हंसे) । रज्ज/रज्जा/रज्जु वढिअ/वड्ढआ/वढिउ (राज्य बढा)। कमल/ कमला/कमलइं/कमलाई विउसिअ/विउसिआ/विउसिअइं/विउसिआई (सब कमल खिले । नरिंदु बोल्लिओ। महुइं इंजिआई । सा लज्जिआ। ता उद्विअउ । साहू जग्गिउ । तुई लुक्किओ। ता वइट्ठिअओ। महेलीओ डरिअओ। जणेरी बोल्लिअ । कमला उस्सासिअ । कोवु उपसमिओ। तिसा लग्गिअ । जणेरी खासिआ। पसंसा वढिअ । जणेरु उवविसउ । सुसीला चुक्किआ। जणेरी पड धोआ । कमल विअसिउ । वेराग्ग वढिअ । लक्कुड कट्टिआ। अपञ्चश में अनुवाद करो (बहुवचन के सारे रूपों का उपयोग करो
प्रत्येक वाक्य में) स्वामी डरा। माता जागी। महिलाएं बैठीं। वस्तुएं बढ़ीं। राजा सोया। महिलाएं छिपी । शक्ति जागी। सुशीला शरमाइ । राज्य बढा। साधु आज नहीं सोया । कमल खिला । वह उठा । तुम ठहरे। तुम सब कहां बैठे ? सीता नहीं डरी। माता ने वस्त्र ओढा। उन्हें प्यास लगी। महिलाएं शांत हुईं। राजा को भूख लगी। उसकी प्रशंसा हुई। बालक बैठा। पुत्री ने सांस लिया । बुद्धि बढी। पिता बैठा । महिलाएं ठहरी । पुत्री जगी। वह छिपी। वे चुके । पुत्रियां थकी। महिलाएं घूमी। सीता ने धान्य पीसा । यौवन लुढक गया। सत्य खोला। लकडियां काटीं। सुख बढा । माता भूली। दूध पीया। यौवन बढा।
प्रश्न १. पई, तई, मई, तउ, तुध्र, तुम्हहं, महु, अम्हासु-ये रूप किस शब्द के
किस विभक्ति और वचन के हैं ? २. स्त्रीलिंग में डी और डा प्रत्यय कहां होता है ? ३. भूतकाल के रूप बनाने का क्या तरीका है ? ४. जणेरी, कमला, सुया, जरा, महिला, मेहा, वाया, संझा, सोहा,
पसंसा, झुपडा और तिसा-इन शब्दों को अपने वाक्य में प्रयोग करो। ५. तम्हा, इय और जह-इन अव्ययों का वाक्य में प्रयोग करो। ६. वड्ढ, खुम्म, उवसम, उस्सस, विअस , चिट्ठ, कुद्द, ओढ, उवविस,
खास, लग्ग, छिज्ज, लोट्ट, चुक्क और छुट्ट धातु के अर्थ बताओ।
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११७
अपनश (५)
शब्द संग्रह कइ()--कवि दहि (न)-दही वत्थु (न)-पदार्थ साहु (पुं)-साधु आंखि (स्त्री)--आंख भत्ति (स्त्री)-भक्ति गुरु (पुं)-गुरु गव्व (पुं)- गर्व माया (स्त्री)-माता बिन्दु (पुं)-बूंद पुत्ती (स्त्री)-पुत्री सामि (पुं)-स्वामी जंतु (पुं)-प्राणी दिवायर (पुं)-सूर्य
धातु संग्रह दा-देना सुण-सुनना
भुल-भूलना मग्ग-मांगना गवेस-खोज करना वण्ण-- वर्णन करना सेव-सेवा करना गरह-निंदा करना कह-कहना कर-करना मार-मारना
सुमर-स्मरण करना जेम-जीमना चोर-चुराना
गच्छ-जाना थुण-स्तुति करना सीख-सीखना
• अम्ह और तुम्ह शब्द तथा संख्यावाची शब्दों को याद करो। देखो
परिशिष्ट ३ संख्या २३,२४,२६ से ३५। तद्धित
नियम १०७२ (पुनविनः स्वार्थे डुः ४१४२६) अपभ्रंश में पुनर् और बिना को स्वार्थ में डु प्रत्यय होता है । पुनः (पुणु)। बिना (विणु)।
नियम १०७३ (अवश्यमो डें-डो ४।४२७) अपभ्रंश में अवश्यम् को स्वार्थ में डें और ड-ये प्रत्यय होते हैं । अवश्यम् (अवसें, अवस)।
नियम १०७४ (एकशसो डि: ४।४२८) अपभ्रंश में एकशस् शब्द से स्वार्थ में डि प्रत्यय होता है। एकशः (एक्कसि)।
नियम १०७५ (अ-डड-डुल्लाः स्वाथिक-क-लुक् च ४।४२६) अपभ्रंश में नाम से परे स्वार्थ में अ, डड, डुल्ल-ये तीन प्रत्यय होते हैं, इनके योग में स्वार्थ में हुए क प्रत्यय का लोप हो जाता है। अग्निष्ठः (अग्गिढउ) । दोषा (दोसडा)। कुटी (कुडुल्ली)।
नियम १०७६ (योगजाश्चषाम् ४१४३०) अपभ्रंश में अ, डड, डुल्ल और इनके योग से बनाने वाले डडअ आदि प्रत्यय प्रायः स्वार्थ में होते हैं । हृदयम् (हिअड)। चूटकः (चुडुल्लउ) । बलम् (बलुल्लडा)। बलम्
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अपभ्रंश ( ५ )
( बलुल्लडउ ) ।
नियम १०७७ ( युष्मदादेरीयस्य डार: ४१४३४ ) अपभ्रंश में युष्मद् आदि शब्दों से परे ईय प्रत्यय को डार आदेश होता है । युष्मदीयम् ( तुहारउ ) अस्मादीयम् (अम्हारउ ) ।
नियम १०७८ ( अतो तुलः ४१४३५ ) अपभ्रंश में इदं कि, यत्, तत् एतद् शब्दों से परे अतु प्रत्यय को डेत्तुल आदेश होता है । इयत् ( एतुलो ) । कियत् ( केतुलो ) । यावत् ( जेत्तुलो ) । तावत् (तेत्तुलो ) । एतावत् ( एतुलो) ।
नियम १०७६ ( त्रस्य डेत हे ४/४३६ ) अपभ्रंश में सर्व आदि शब्द सप्तम्यन्त हो, उस अर्थ में होने वाले त्र प्रत्यय को डेत्तहे आदेश होता है । अत्र ( एत्तहे ) । तत्र ( तेत्त हे ) ।
नियम १०८० ( त्वतलो: प्यणः ४१४३७ ) अपभ्रंश में त्व और तल् प्रत्यय को पण आदेश होता है । बहुत्वं, बहुता ( बहुप्पणु) । वृद्धत्वं वृद्धता ( वडुप्पणु) ।
नियम १०८१ ( कथं यथा तथां थादेरेमे मेहेधा डितः ४/४० १ ) अपभ्रंश में कथं, यथा, तथा शब्द के थ से अगले वर्ण तक डेम, डिम, डिह और fisa आदेश होता है । कथं (केवं, किवं, किह, किध, केम, किम) । यथा ( जेवं, जिवं, जेम, जिम, जिह, जिध) । तथा ( तेवं, तिवं, तेम, तिम, तिह, तिध ) । नियम ६६६ से म को (वं) विकल्प से हुआ है ।
नियम १०८२ ( यादृक्-तावृक् कीदृशीदृशां
दावेर्डेहः
अपभ्रंश में यादृक्, तादृक् कीदृक् और ईदृक् शब्दों के दृ से डेह आदेश होता है । यादृक् ( जेहु) । तादृक् (तेहु) ईदृक् (हु) ।
।
४४१
नियम १०८३ ( अतां इसः ४१४०३ ) अपभ्रंश में यादृक् तादृक्, कीदृक्, ईदृक्--- इन अदन्त शब्दों के द से आगे के वर्णों को डइस आदेश होता है । यादृश: ( जइसो) । तादृश: ( तइसो) । कीदृश: ( कइसो) । ईदृश: ( अइसो) ।
नियम १०८४ ( यत्र-तत्रयोस्त्रस्य द्विदेस्थ्यतु
४४०४) अपभ्रंश में यत्र और तत्र शब्द के त्र को डेत्थु और डत्तु आदेश होते हैं । यत्र (जेत्थु, जत्तु ) । तत्र (तेत्थु तत्तु ) ।
नियम १०८५ ( एत्थु कुत्रात्रे ४/४०५) अपभ्रंश में कुत्र और अत्र के त्रको डेत्थ आदेश होता है । कुत्र ( केत्थु ) । अत्र ( एत्थु ) ।
नियम १०८६ ( यावत् तावतोर्वावेमं उं महि ४।४०६ ) अपभ्रंश में तावत् के वत् को म, उ और महि आदेश होता है । यावत् (जाम, जाउ, जामहिं ) । तावत् (ताम, ताउ, ताम ह्) ।
यावत् और
४१४०२) आगे के वर्णों को
कीदृक् (केहु) 1
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४४२
प्राकृत वाक्यरचना बोध नियम १०८७ (वा यत्तदोऽतोवंडः ४४०७) अपभ्रंश में यत् और तत् शब्द अतु प्रत्ययान्त (यावत्, तावत्) के वत् अवयव को डेवड आदेश विकल्प से होता है । यावत् (जेवडु, जेत्तुलो)। तावत् (तेवडु, तेत्तुलो)।
नियम १०८८ (वेदं किमोदिः ४।४०८) अपभ्रंश में इदं और किं शब्द अनुप्रत्ययान्त (इयत्, कियत्) के यत् अवयव को डेवड आदेश विकल्प से होता है । इयत् (एवडु, एत्तुलो)। कियत् (केवडु, केत्तुलो)। संबंधभूत कृदन्त (क्त्वा प्रत्यय) पूर्वकालिक क्रिया
धातु के साथ पूर्वकालिक क्रिया (क्त्वा प्रत्यय) जोडने से संबंधभूत कृदन्त के रूप बनते हैं। क्त्वा प्रत्यय का अर्थ है करके । क्त्वा प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होता है। यह अर्धक्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है। इसके आगे पूर्वकालिक क्रिया होती है, वह किसी भी काल की हो सकती है। अपभ्रंश में क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर आठ प्रत्यय होते हैं--इ, इउ, इवि, अवि, एप्पि, एप्पिणु, एवि और एविणु । हस् धातु के इन आठ प्रत्ययों के रूप क्रमशः ये बनते हैं-हसि, हसिउ, हसिवि, हसवि, हसेप्पि, हसेप्पिणु, हसेवि, हसेविणु (हंसकर)। इसी प्रकार अन्य धातु के रूप बनते हैं। हेत्वर्थ कृदन्त (तुम् प्रत्यय)
तुम् प्रत्यय का अर्थ होता है--के लिए। अपभ्रंश में तुम् प्रत्ययान्त शब्द भी अव्यय होते हैं। तुम् प्रत्यय को अपभ्रंश में प्रत्यय आदेश होते हैंएवं, अण, अणहं, अणहिं, एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु । हस् धातु के तुम् प्रत्ययान्त रूप ये हैं-हसेवं, हसण, हसणहं, हसणहिं, हसेप्पि, हसेप्पिणु, हसेवि, हसेविणु। इसी प्रकार अन्य धातुओं के रूप बनाए जा सकते हैं । शेष चार प्रत्यय क्त्वा और तुम् प्रत्यय के समान हैं, प्रसंग से अर्थ निकाला जाता है। प्रयोग वाक्य (संबंधभूत कृदन्त)
हउहसि जीव (मैं हंसकर जीता हूं) । हउ हसिवि जीवेस (मैं हंसकर जीऊंगा । हउहसिउ जीवमु (मैं हंसकर जीऊं) । हउ हसवि बोल्लिम (मैं हंसकर बोला)। सो हसे प्पि बोल्लइ (वह हंसकर बोलता है)। सो हसेप्पिणु बोल्लउ (वह हंसकर बोले)। सो हसेवि बोल्लेसइ) । (वह हंसकर बोलेगा) । सो हसेविणु बोल्लिआ (वह हंसकर बोला)। तुहुं बोल्लि वइट्टहि । तुहुँ बोल्लिउ इट्टसु । तुहुं बोल्लिवि वइट्ठ सहि । तुहुं बोल्लवि वइट्ठिम । सा भुंजेप्पि सयइ । सा भुंजेप्पिणु सयउ । सा भुंजेवि सयिहिइ । सा मुंजेविणु सयिआ। सो घूमि उवविसइ । तुहुं लिहिउ सयिहिहि । तुहं पढिवि वखाणसु । ते थक्किवि वइति । तुम्हे सयवि जग्गिहित्था बालअ खीर पिवेवि सयई। अम्हे सुणिवि कहइ । तुहं दाइ मग्गइ ।
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४४३
अपभ्रंश (५) प्रयोग वाक्य (तुम् प्रत्यय)
हर जग्गेवं सयां (मैं जागने के लिए सोता हूं)। हर जग्गण सयेस। (मैं जागने के लिए सोऊंगा)। हउ जग्गणहिं सयिअ (मैं जागने के लिए सोया। हर जग्गणहं सयमु (मैं जागने के लिए सोऊं)। सो जग्गेप्पि सयइ (वह जागने के लिए सोता है। सो जग्गेप्पिणु सयउ (वह जागने के लिए सोए) । सो जग्गेवि सयेहिइ (वह जागने के लिए सोएगा) । सो जग्गेविणु सयिअ (वह जागने के लिए सोया) । तुहुं णच्चेवं उदहि । तुहं कोकण उट्ठसु । तुहं णच्चणहं उठेसहि। हां बोल्लणहि उट्टिउ। सा लुक्केवि उ?सइ । सा णच्चेविणु उद्विआओ । सो णच्चिण उवविसइ । तुहुं खासणहं दहि भुंजहि । हउ जीवेप्पि खीर पिवउ । अम्हे लिहेव पढहुं । ते लक्कुड कट्टेवं घूमसि । अपच श में अनुवाद करो (क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग करो)
वह वस्त्र धोकर सोता है । तुम घी डालकर कहां जाते हो ? वह पुत्री को मारकर भागता है। तुम कहकर भूलते हो। वह छूकर वस्तु को जानता है। वे स्तुति कर मांगेगे । तुम पुस्तक चुराकर पढते हो। मैं सेवा कर सीखता हूं। वे पढकर वर्णन करेंगे । वह तुमको कहकर नाचेगा। वे स्तुति कर निंदा करते हैं। सीता धान्य कूटकर पीसती है। तुम यादकर भूलते हो। साधु गवेषणा कर खाता है। वह खाकर पीता है । तुम पीकर खाते हो। वह रुष्ट होकर सोता है। अपभ्रश में अनुवाद करो (तुम् प्रत्यय का प्रयोग करो)
वह मांगने के लिए जाता है। वह ज्ञान सीखने के लिए सेवा करता है । तुम याद करने के लिए सुनते हो। वे मारने के लिए भागते हैं। तुम देने के लिए मांगते हो। वे खाने के लिए जाते हैं। वह कूदने के लिए दौडता है। वह जीने के लिए सांस लेती है। उसे खाने के लिए भूख लगती है। वह थकने के लिए दौडता है । तुम लिखने के लिए सुनते हो। वह वस्त्र धोने के लिए मांगता है । मैं स्तुति करने से डरता हूं। बालक नहाने के लिए छिपता है। यह नाचने के लिए जागती है । तुम जागने के लिए सोते हो।
प्रश्न १. स्वार्थ में किस शब्द से क्या प्रत्यय होता है ? २. ईय, अतु, त्र और त्व प्रत्ययों को अपभ्रंश में क्या आदेश होते हैं ? ३. जेत्तुलो, तेत्तुलो, तामहिं, जइसो, जेहु-इन शब्दों का वाक्य में प्रयोग
करो। ४. कवि, साधु, गुरु, बंद, प्राणी, सूर्य, स्वामी, दही, पदार्थ, आंख, भक्ति, - गर्व, माता, स्त्री-इन शब्दों के लिए अपभ्रंश के शब्द बताओ। ५. दा, मग्ग, सेव, कर, जेम, थुण, सीख, गरह, सुण, भुल, कह, मार,
सुमर, चोर, गच्छ, वण्ण धातु के अर्थ बताओ।
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११८
अपनश (६)
शब्द संग्रह घर(पुं).-मकान
ससा (स्त्री)-बहिन पिआमह (पुं)-दादा
कहा (स्त्री)-कथा मारूअ(पुं)-पवन
सद्धा (स्त्री)-श्रद्धा बप्प (पुं)-पिता
सासू (स्त्री)--सासू सरिआ (स्त्री)-नदी
बहू (स्त्री)-बहू भुक्खा (स्त्री)-भूख
आगि (स्त्री)-आग णिहा (स्त्री)-नींद
णारी (स्त्री)-नारी तण्हा (स्त्री)-तृष्णा
लच्छी (स्त्री)-लक्ष्मी
धातु संग्रह उट्ठ-उठना
नस्स-नष्ट होना पड-गिरना
पसर-फैलना रुव-रोना
जल-जलना खेल-खेलना
खुम्म-भूख लगना बिह-डरना
उतर-उतरना, नीचे आना पणम--प्रणाम करना
पाल-पालना खा-खाना
चर-चरना ० आय, अवस्, कवण शब्दों को याद करो। देखो परिशिष्ट ३ संख्या
२०,२१,२२। उच्चारणलाघव
नियम १०८६ (कादि-स्थेदोतोरुच्चार-लाघवम् ४१४१०) अपभ्रंश में क आदि वर्गों में ए और ओ का प्रायः उच्चारण-लाधव होता है । सुखेन चिन्त्यते मानः, (सुं चितिज्जइ माणु) तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य (तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहों)।
नियम १०६० (पदान्ते उ-हुं-हि-हंकाराणाम् ४।४११) अपभ्रंश में पदान्त में उ, हुं, हिं, हं का उच्चारणलाघव होता है। तिबन्त
नियम १०६१ (त्यादेराबत्रयस्य संबंधिनो बहुत्वे हि न वा ४॥३८२) भपभ्रंश में त्यादि के पहले त्रिक के बहुवचन को हिं आदेश विकल्प से होता है।
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अपभ्रंश (६)
कुर्वन्ति ( करहिं करन्ति ) ।
नियम १०२ ( मध्य त्रयस्याद्यस्य हि : ४।३८३ ) अपभ्रंश में त्यादि के मध्यत्रिक के एकवचन को हि आदेश विकल्प से होता है । करोषि ( करहि करसि ) ।
नियम १०९३ ( बहुत्वे हु: ४ | ३८४ ) अपभ्रंश में त्यादि के मध्यत्रय के बहुवचन को हु आदेश विकल्प से होता है । कुरुथ ( करहु, करहे ) ।
नियम १०६४ ( अन्त्यत्रयस्याद्यस्य उं ४१३८५ ) अपभ्रंश में त्यादि के अन्त्यत्रय के एकवचन को उ आदेश विकल्प से होता है । करउ । पक्षे करोमि (करेमि ) |
नियम १०६५ ( बहुत्वे हुं ४ | ३८६ ) अपभ्रंश में त्यादि के अन्त्य त्रय के बहुवचन को हुं आदेश विकल्प से होता है । कुर्मः ( करहुं ) । पक्षे करिमु ।
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नियम १०६६ ( हि स्वयोरिवेत् ४ १३८७) अपभ्रंश में तुबादि के हि और स्व को इ, उ और ए- ये तीन आदेश होते हैं । कुरु (करि, करु, करे ) । पक्षे करहि ।
नियम १०६७ ( वत्स्यति स्वस्य सः अर्थविषयक त्यादि के स्य को स विकल्प से पक्षे काहि ।
नियम १०९८ ( कियेः कीस ४।३८६ ) अपभ्रंश में क्रिये इस क्रियापद को कीसु आदेश विकल्प से होता है । क्रिये (कीसु) । पक्ष में ( किज्जउ ) । क्रिये यह संस्कृत का सिद्ध रूप है ।
नियम १०९६ ( भुवः पर्याप्तो, हुच्चः ४ ३६० ) अपभ्रंश में भू धातु पर्याप्त अर्थ में हो तो उसे हुच्च आदेश होता है । प्रभवति ( पहुच्चइ ) समर्थ है।
नियम ११०१ ( व्रजे
वुन आदेश होता है । व्रजति
४ | ३८८ ) अपभ्रंश में भविष्य होता है । करिष्यति ( कासइ) ।
नियम ११०० (ब्रूगो ब्रुवो वा ४ | ३६१ ) अपभ्रंश में ब्रू धातु को ब्रुव आदेश विकल्प से होता है । ब्रवीति ( ब्रुवइ ) । पक्षे ब्रोइ । : ४ । ३६२ ) अपभ्रंश में व्रजति के व्रज् को ( वुबइ ) | नियम ११०२ ( दृशे: प्रस्सः ४।३६३ ) अपभ्रंश में दृश् धातु को प्रस्स आदेश होता है । पश्यति ( प्रस्सदि ) |
नियम ११०३ ( हे गृहः ४ ३९४ ) अपभ्रंश में ग्रह, धातु को गृह आदेश होता है । गृह्णाति (गृहइ ) ।
नियम ११०४ ( तक्ष्यादीनां छोल्लादयः ४ ३६५ ) अपभ्रंश में तक्ष आदि धातुओं को छोल्ल आदि आदेश होते हैं । तक्षति ( छोलिज्जइ ) । आदि शब्द से देशी धातु के जो क्रियापद मिलते हैं उनके उदाहरण - दहइ
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४४६
प्राकृत वाक्यरचना बोध (झलक्किअइ) अनुगच्छति (अब्भडइ)। शल्यायते (खुडुक्कइ) । गर्जति (घुडुक्कइ) । तिष्ठति (थति)। आक्रम्यते (चम्पिज्जइ)। शब्दायते (धुठ्ठअइ)। कृदन्त प्रत्यय
नियम ११०५ (तव्यस्य इएव्वउं एव्वउं एवा ४१४३८) अपभ्रंश में तव्य प्रत्यय को इएव्वउ, एव्वउ, एवा-ये तीन आदेश होते हैं। कर्तव्यम् (करिएव्वउ)। सोढव्यम् (सहेव्वउं) । स्वपितव्यम् (सोएवा)।
नियम ११०६ (क्त्व-इ-इउ-इवि-अवयः ४१४३६) अपभ्रंश में क्त्वा प्रत्यय को इ, इउ, इवि, अवि-ये चार आदेश होते हैं। मारयित्वा (मारि, मारिउ, मारिवि, मारवि)।
नियम ११०७ (एप्प्येप्पिग्वेव्यविणवः ४।४४०) अपभ्रंश में क्त्वा प्रत्यय को एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु-ये चार आदेश होते हैं। पूर्व सूत्र से इस सूत्र को अलग करने का कारण है, इन चार प्रत्ययों को अगले सूत्र में भी लेना है । जित्वा (जेप्पि, जेप्पिणु, जेवि, जेविणु)।
नियम ११०८ (तुम एवमणाणहमहिं च ४१४४१) अपभ्रंश में तुम् प्रत्यय को एवं, अण, अणहं, अणहि-ये चार आदेश होते है। च शब्द से एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु-ये चार और आदेश होते हैं। दातुम् (देवं)। कर्तुम् (करण, करह, करणहिं) । जेतुम् (जेप्पि) । त्यक्तुम् (चएप्पिणु) । लातुम् (लेविणु)। पालयितुम् (पालेवि)।
नियम ११०६ (गमेरेप्पिण्वेप्प्योरेलुंग वा ४।४४२) अपभ्रंश में गम् धातु से परे एप्पिण, एप्पि हो तो इनके एकार का लुक विकल्प से होता है। गत्वा (गम्प्पिणु, गम्पि) । पक्ष में-गमेप्पिणु, गमेप्पि ।
नियम १११० (तृनोऽणअः ४१४४३) अपभ्रंश में तृन् प्रत्यय को अणअ आदेश होता है । कथयिता (बोलणउ)।
नियम ११११ (लिंगमतन्त्रम् ४१४४५) अपभ्रंश में लिंग का नियम निश्चित नहीं है।
(१) गय कुम्भई दारन्तु । (२) अब्भा लग्गा डुङ्गरिहिं ।
(३) पाइ विलग्गी अन्त्रडी। (४) डालई मोडन्ति । (१) कुम्भ शब्द पुंलिंग है, परन्तु यहां नपुंसकलिंग में हैं। (२) अब्भ शब्द नपुंसकलिंग है, यहां पुंलिंग में है। (३) अंत शब्द नपुंसक है, यहां स्त्रीलिंग में है।
(४) डाली शब्द स्त्रीलिंग है, यहां नपुंसकलिंग में है।
नियम १११२ (शेषं शौरसेनी वत् ४।४४६) अपभ्रंश में प्रायः शौरसेनी के समान कार्य होता है। इति अपभ्रंश ।।
नियम १११३ (व्यत्ययश्च ४१४४७) प्राकृत आदि भाषाओं में
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अपभ्रंश (६)
व्यत्यय होता है । मागधीं में ( तिष्ठश्चिष्ठः ४२६८ ) से तिष्ठ को चिष्ठ होता है । उसी प्रकार प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी में भी होता है । क्रियाओं में भी व्यत्यय होता है । वर्तमान काल की क्रिया भूतकाल के अर्थ में आती है । जैसे - अह पेच्छइ रहुतणओ । ( अथ प्रेक्षाञ्चक्रे इत्यर्थः) । आभासइ रयणीअरे ( आ बभाषे रजनीचरान् इत्यर्थः) । भूतकाल की क्रिया वर्तमान काल में प्रयुक्त होती है— सोहीअ एस वण्ठो ( शृणोति एष वण्ठ इत्यर्थः) ।
नियम १११४ ( शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् ४४४४८ ) प्राकृत भाषा आदि में जो नियम नहीं कहे गए हैं वे संस्कृत व्याकरण के अनुस्वार चलते हैं । हेडिअ सूर निवारणाय - यहां चतुर्थी का आदेश प्राकृत में नहीं कहा गया है, वह संस्कृत से ही समझें । कहीं-कहीं पर नियम कहा भी गया है तो भी संस्कृत के समान होता है, जैसे- प्राकृत में उरस् शब्द का सप्तमी का एक वचन का उरे, उरम्म बनता है, तो भी कहीं उरसि भी होता है । इसी प्रकार सिरे, सिरम्मि के साथ शिरसि । सरे, सरम्मि के साथ सरसि । इत्यादि ।
वर्तमान कृदन्त ( शत- शान )
हंसता हुआ, खाता हुआ, उठता हुआ आदि अर्थों में वर्तमान कृदन्त आता है। वर्तमान कृदन्त के रूप विशेषण होते हैं । विशेष्य के अनुसार इनमें लिंग और वचन होते हैं । अपभ्रंश में वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय न्त और माण ये दो हैं । पुंलिंग में इनके रूप जिण शब्द की तरह, स्त्रीलिंग में माला शब्द की तरह और नपुंसक लिंग में कमल शब्द की तरह चलते हैं ।
एकवचन पुंलिंग - हसन्तु / हसन्तो / हसंत / हसंता
हसमाणु / हसमाणो / हसमाण /
हसमाणा
स्त्रीलिंग - हसंता / हसंत
हसमाण / समाणा
नपुंसकलिंग -- विअसंतु / विअसंत /
विअसंता / विअसमाणु / विअसमाण / विअसमाणा
प्रयोग वाक्य ( शतृ-शान प्रत्यय )
बहुवचन
हसन्त / हसन्ता
हसमाण / हसमाणा
४४७
हसंता / हसंत / हताउ / हसंतउ हसंताओ / हसंतओ
हसाणा / समाण / हसमाणाउ / हसमा उ / हसमाणाओ / समाणओ
विअसंत / विअसंता / विअसंतई / विअसंताई / विअसमाण / विअसमाणा / विअसमाणई / विअसमाणाई
(१) सु/ सो / लिहन्तु / लिहन्तो / लिहन्त / लिहन्ता मुंजइ ( वह लिखता
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४४८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हुआ खाता है) । (२) स/सु/लिहमाणु/लिहमाणो/लिहमाण/लिहमाणा भुंजउ (वह लिखता हुआ खाए)। (३) ते लिहन्त/लिहन्ता भुंजेसहिं (वे लिखते हुए खाएंगे) । (४) ते लिहमाण/लिहमाणा उद्विआ (वे लिखते हुए उठे)। (५) सा भुंजन्ता/भुंजन्त पढइ (वह खाती हुई पढती है)। (६) ता भुंजंता/ जंत/ भुंजताउ/भुंतउ/भुंजंताओ/भुजंतओ पढंति । (७) कमलु विअसंतु/विअसंत/ विअसंता/विअसमाणु विअसमाण/विअसमाणा हसइ । (८) कमलइं विअसंत विअसंता/विअसंतई/विअसंताई/विअसमाण/ विअसमाणा/विअसमाणई / विअसमाणाई हसंति (कमल खिलते हुए हंसते हैं)।
बालओ उद्वन्तु पडइ । सो आंखिउ चोरन्तो लुक्कइ। बिन्दू पडमाणा नस्संति । जंतू उस्ससंता मरंति । साहु जेमन्तो भोयण न मग्गइ। तुहं खेलन्तो उवविससि । मेहा सुमरन्ता वड्ढइ । महिलाउ णच्चन्ताउ थक्कंति । सा घुमन्त पडइ। अपनश में अनुवाद करो (शतृ-शान का प्रयोग करो)
तुम वर्णन करते हुए भूल गए। तुम पढते हुए हंसते हो। वे देते हुए मांगने लगे। तुम जीमते हुए उठे । मैं स्मरण करता हुआ भूल गया। मैं हंसता हुआ जीता हूं। पानी फैलता हुआ सूखता है। श्रद्धा बढती हुई शोभती है। महिलाएं हंसती हुई घूमती हैं। पुत्री जागती हुई उठी। वह नाचती हुई गिरी । मेघ गरजते हुए गए। वह हंसता हुआ बोला। माता कथा कहती हुई सोई। पुत्री सेवा करती हुई उठी । बालक दौडता हुआ खाता है। बहिन खेलती हुई रोने लगी। आग जलती हुई नष्ट हो गई। आग जलती हुई फैलने लगी । दादा मकान में गिरता हुआ उठा । पुत्री स्तुति करती हुई निंदा करने लगी। बुढापा बढता हुआ रुक गया।
प्रश्न १. उच्चारण-लाघव किन स्वरों का होता है ? २. अपभ्रंश में दृश् और ग्रह, धातु को क्या आदेश होता है ? ३. अनुगच्छति, तिष्ठति, आक्रम्यते, दहइ-इन रूपों का अपभ्रंश में क्या
क्या रूप बनता है ? ४. क्त्वा और तुम् प्रत्यय को कौन-कौन से प्रत्यय आदेश होते हैं ? प्रत्येक
के एक-एक उदाहरण दो। ५. अणअ आदेश किस प्रत्यय को होता है ? ६. तव्य प्रत्यय को कितने आदेश होते हैं। प्रत्येक के एक-एक उदाहरण
दो। ७. इस पाठ में आई हुई किन्हीं सात धातुओं और सात शब्दों का अपने
वाक्य में प्रयोग करो।
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परिशिष्ट
to
१. प्राकृत शब्द रूपातली २. प्राकृत धातु रूपावली 3. अपक्षश शस्ट रूपावली ४. अपनश धातु रूपावली ५. अकार आदि कम से वर्ग शट संग्रह ६. एकार्य घातुएं ७. वैदिक संस्कृत और प्राकृत भाषा सहायक वथ सूचि शुद्धि-पत्र
५.२६ ५४१
५३८
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परिशिष्ट १
पंलिगाः शब्दाः
अकारान्त जिण (जिन)शब्द
एकवचन
बहुवचन प्र० जिणो (जिणे)
जिणा द्वि० जिणं
जिणा, जिणे तृ० जिणेण, जिणेणं
जिणेहि, जिणेहिं, जिणे हिं पं० जिणत्तो, जिणाओ, जिणाउ जिणत्तो, जिणाओ, जिणाउ जिणाहि, जिणाहितो, जिणा जिणाहि, जिणेहि, जिणाहितो, जिणेहितो,
जिणासुंतो, जिणेसुंतो च०, १० जिणस्स
जिणाण, जिणाणं स० जिणे (जिणंसि ) जिणम्मि जिणेसु, जिणेसुं सं० हे जिण, हे जिणो, हे जिणा हे जिणा
वीर, वच्छ, राम, देव, सावग आदि सभी अकारान्त पुंलिंग शब्दों के रूप जिण शब्द की तरह चलते हैं।
(कोष्ठक में दिए गए रूप आर्ष रूप हैं)।
आकारान्त गोवा (गोपा) शब्द
एकवचन प्र० गोवो द्वि० गोवा तृ० गोवाण, गोवाणं पं० गोवत्तो, गोवाओ, गोवाउ,
गोवाहितो च०, ष० गोवस्स स० गोवम्मि सं० हे गोवो, हे गोवा
बहुवचन गोवा गोवा गोवाहि, गोवाहि, गोवाहिँ गोवत्तो, गोवाओ, गोवाउ, गोवाहितो, गोवासुतो गोवाण, गोवाणं गोवासु, गोवासु हे गोवा
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४५२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
इकारान्त मुणि (मुनि) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० मुणी
मुणिणो, मुणी, मुणउ, मुणओ द्वि० मुर्णि
मुणिणो, मुणी तृ० मुणिणा
मुणीहि, मुणीहिं, मुणीहि पं० मुणिणो, मुणित्तो, मुणीओ मुणित्तो, मुणीओ, मुणीउ ___मुणीउ, मुणीहितो मुणीहितो, मुणीसुतो च०, १० मुणिणो, मुणिस्स मुणीण, मुणीणं स० मुणिम्मि (मुणिसि)
मुणीसु, मुणीसुं सं० हे मुणि, हे मुणी
हे मुणिणो, हे मुणी, हे मुणउ, हे मुणओ कवि, रिसि, पाणि, हरि, अग्गि, परवइ, बोहि, समाहि आदि शब्दों के रूप मुणी शब्द की तरह चलते हैं।
ईकारान्त गामणी (ग्रामणी) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० गामणी
गामणिणो, गामणी, गामणउ, गामणओ द्वि० गामणि
गामणिणो, गामणी तृ० गामणिणा
गामणीहि, गामणीहिं, गामणीहिँ पं० गामणिणो, गामणित्तो गामणित्तो, गामणीओ, गामणीउ
गामणीओ, गामणीउ गामणीहितो, गामणीसुतो
गामणीहितो च०, ष० गामणिणो, गामणिस्स गामणीण, गामणीणं स० गामणिम्मि (गामणिसि) गामणीसु, गामणीसुं सं० हे गामणि, हे गामणी हे गामणिणो, हे गामणी, हे गामणउ,
हे गामणओ पही (प्रधी) के रूप गामणी शब्द की तरह चलते हैं।
उकारान्त साहु (साधु) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० साहू, साहु
साहुणो, साहू, साहओ, साहउ, साहवो
(साहवे) द्वि० साहुं
साहुणो, साह तृ० साहुणा
साहूहि, साहूहिं, साहूहिँ १. अवे प्रत्यय का रूप (साहवे आदि) आर्ष प्राकृत में पर्याप्त रूप से मिलता
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परिशिष्ट १
पं० साहुणो, साहुत्तो, साहूओ साहू, साहित
च०, ष० साहुणो, साहुस्स स० साहुम्मि (साहंसि ) हे साहू, हे साहु
०
गुरु, गउ, भिक्खु, धणु, मेरु, शब्दों के रूप साहु शब्द की तरह चलते हैं ।
६
प्र० खलपू
द्वि० खलपुं
तृ० खलपुणा
पं० खलपुणो, खलपुत्तो, खलपूओ, खलपूर, खलपूर्हितो
प्र० सयंभू
एकवचन
च०, ष० खलपुणो, खलपुस्स ० खलपुम्मि, (खल पुंसि ) सं० हे खलपू, हे खलपु
हैं ।
८
एकवचन
एकवचन
प्र० पिआ, पिअरो
साहुत्तो, साहूओ, साहूउ साहूहितो, साहूसुंतो
साहूण, साहूणं
साहूसु, साहू
हे साहुणी, हे साहू, हे साहउ साओ, हे साहव इंदु, मच्चु, सेउ, सव्वण्णु
ऊकारान्त खलपू ( खलपू ) शब्द
बहुवचन
खलपुणो, खलपू, खलपउ, खलपओ, खलपवो
द्वि० पिअरं
तृ० पिउणा, पिअरेण पिअरेणं
पं० पिउणो, पिउत्तो, पिऊओ
आदि उकारान्त
खलपुणो, खलपू
खलपूहि, खलपूर्हि, खलपूहिँ खलपुत्तो, खलपूओ, खलपूर खलपूहिन्तो, खलपूसुन्तो खलपूण, खलपूणं
खलपूसु, खलपूसुं
हे खलपुणो, हे खलपू, हे खलपउ हे खलपओ, हे खलपवो
शेष रूप खलपू शब्द के समान चलते हैं ।
गोतभू, सरभू, अभिभू अदि शब्दों के रूप सयंभू शब्द की तरह चलते
ऊकारान्त सयंभू (स्वयंभू) शब्द
बहुवचन
सयंभुणो, सयंभू, सयंभओ, सयंभउ
४५३
ऋकारान्त पिउ, पितु, पिअर, पितर ( पितृ) शब्द
बहुवचन पिअवो, पिअओ
पिउ, पिऊ, पिअरा
पिऊ, पिउणो, पिअरे, पिअरा पिहि, पिऊहिं, पिऊहिँ, पिअरेहि, पिअरेहि, पिअरे हँ
पिउत्तो, पिऊओ, पिऊउ, पिऊहितो
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४५४
पिऊउ, पिऊहितो, पिअरतो, पिअराओ, पिअराउ, पिअराहि, पिअराहितो, पिअरा
च०, ष० पिउणो, पिउस्स, पिअरस्स स० पिउम्मि (पिउसि ) पिअरम्मि (पिअरंसि ) पिअरे
सं० हे पिअ, हे पिअरं, हे पिअरो पिअरा, हेपिअर
हे पिउणो, हे पिऊ, हे पिअवो, हे पिओ, हे पिअर, हे पिअरा
( पिउ के रूप साहु और पिअर के रूप जिण की तरह चलते हैं ) ।
पितु के रूप पिउ के समान और पितर के रूप पिअर के समान
चलते हैं । पिआ के स्थान पिया तथा पिअ के स्थान पर पिय रूप भी मिलता
है ।
प्र० कत्ता, द्वि० कत्तारं
एकवचन कत्तारो
तृ० कत्तारेण, कत्तुणा पं० कत्तुणो, कत्तुत्तो, कतूओ, कत्तूर, कत्तू हिन्तो, कत्तारतो,
कत्ताराओ, कत्ताराउ, कत्ताराहि, कत्ताराहितो,
ऋकारान्त कत्तु, कत्तार ( कर्तृ ) शब्द
बहुवचन कत्तारा, कत्तओ, कत्तुणो कत्तारा, कत्तुणो
कत्तारेहि, कत्तारेहिं, कत्तारेहिँ कत्तुत्तो, कत्तूओ, कत्तूउ, कत्तू हिन्तो कत्तू सुन्तो, कत्तारत्तो, कत्ताराओ, कत्ताराउ, कत्ताराहितो, कत्तारासुंतो
१०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
पिऊसुन्तो, पिअरत्तो, पिअराओ, पिअराउ पिअराहि, पिअरेहि, पिअराहिन्तो पिअरे हिन्तो, पिअरासुंतो, पिअरेसुंतो
कत्तारा
च०, ष० कत्तुणों, कत्तुस्स, कत्तारस्स कत्तूण, कत्तूर्ण, कत्ताराण, कत्ताराणं
स० कत्तारम्मि, कत्तुम्मि, कत्तारे सं० हे कत्त, हे कत्तारो
कत्तुसु, कत्तुसुं, कत्तारेसु, कत्तारेसुं हे कत्तू, हे कत्तुणो, हे कत्तउ
हे कत्तओ, हे कत्तवो, हे कत्तारा
पिऊण, पिऊणं, पिअराण, पिअराणं पिऊसु, पिऊसुं, पिअरेसु, पिअरेसुं
इसी प्रकार अन्य ऋकारान्त शब्दों के रूप चलते हैं ।
भ्रातृ-भायर, भाउ
दातृ-दायार, दाउ
जामातृ - जामायर, जामाउ
प्र० भत्ता, भत्तारो
एकवचन
वक्तृवत्तार, वत्तु
ज्ञातृ -- णायार, गाउ
ऋकारान्त भत्तु, भत्तार ( भर्तृ ) शब्द
बहुवचन भत्तुणो, भत्तू, भत्तउ, भत्तओ, भत्तारा, भत्तवो
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परिशिष्ट १
सुरेआ
द्वि० भत्तारं
भत्तुणो, भत्तू, भत्तारे, भत्तारा। तृ० भत्तुणा, भत्तारेण, भत्तारेणं भत्तुहि, भत्तु हिं, भत्तुहिँ, भत्तारेहि,
__भत्तारेहिं भत्तारेहिं । पं० भत्तुणो, भत्तुत्तो, भत्तूओ भत्तुत्तो, भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहिन्तो
भत्तूउ, भत्तूहिन्तो, भत्तारत्तो, भत्तूसुन्तो भत्ताराओ, भत्ताराउ भत्तारत्तो, भत्ताराओ, भत्ताराउ, .. भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो, भत्ताराहि, भत्तारेहि, भत्ताराहितो, भत्तारा
__ भत्तारेहितो, भत्तारासुन्तो, भत्तारेसुन्तो च०, ष० भत्तुणो, भत्तुस्स, भत्तारस्स भत्तूण, भत्तूणं, भत्ताराण, भत्ताराणं स० भत्तुम्मि, भत्तारम्मि, भत्तारे भतूसु, भत्तूमुं, भत्तारेसु, भत्तारेसुं सं० हे भत्त, हे भत्तारो
हे भत्तू, हे भत्तुणो, हे भत्तउ,
हे भत्तओ, हे भत्तवो, हे भत्तारा उकारान्त भत्तु शब्द के रूप साहु की तरह और अकारान्त भत्तार शब्द के रूप जिण की तरह चलते हैं।
ऐकारान्त सुरेअ (सुरै) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० सुरेअ द्वि० सुरेअं
सुरेआ, सुरेए तृ० सुरेण
सुरेएहि, सुरेएहि, सुरेएहिँ पं० सुरेअत्तो, सुरेआओ सुरेअत्तो, सुरेआओ, सुरेआउ, सुरेआउ, सुरेआहि,
सुरेआहि, सुरेएहि, सुरेआहितो सुरेआहितो, सुरेआ सुरेएहितो, सुरेआसुतो, सुरेएसुतो च०, १० सुरेअस्स, सुरेअंसि, सुरेआण, सुरेआणं, सुरेएसु, सुरेएसुं
सुरेअम्मि __ संस्कृत के ऐकारान्त शब्द प्राकृत में अकारान्त हो जाते हैं। १२ औकारान्त गिलाअ (ग्लौ) शब्द
गिलोअ शब्द के रूप पुंलिंग अकारान्त जिण शब्द की तरह चलते हैं। १३ तवस्सि (तपस्विन्) शब्द
(इसके रूप इकारान्त पुंलिंग मुणि शब्द की तरह चलते हैं। दण्डिन् (दण्डि) करिन् (करि) प्राणिन् (पाणि) आदि इन्नन्त पुंलिंग शब्द तवस्सि की तरह यानि मुणि की तरह चलते हैं)। १४ नकारान्त राय (राजन) शब्द . .. एकवचन
बहुवचन प्र. राया, रायो, रायाणो रायाणो. राइणो, राया. रायाणो...
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४५६
प्राकृत वाक्यरचना बोध द्वि० राइणं, रायं, रायाणं राइणो, रायाणो, रण्णो, राए, राया,
रायाणा तृ० राइणा, रण्णा, राएण, राएणं राईहि, राईहिं, राईहिं, राएहि, राएहिं,
रायाणेण, रायणेणं, रायणा राएहिँ, रायाणेहि, रायाणेहिं, रायाणेहि पं० राइणो, रण्णो, रायत्तो, राइत्तो, राईओ, राईउ, राईहिन्तो,
रायाओ, रायाउ, रायाहि, राईसुन्तो, रायत्तो, रायाओ, रायाउ, रायाहिंतो
रायाहि, राएहि, रायाहिन्तो, राएहिन्तो रायासुन्तो, राएसुन्तो, रायाणत्तो,
रायाणाओ, रायाणाउ च०, १० राइणो, रण्णो, रायस्स राईण, राईणं, राइणं, रायाण, रायाणं, रायाणस्स, रायणो
रायाणाण, रायाणाणं स० (राइंसि) राइम्मि (रायाणंसि) राईसु, राईसु, राएसु, राएसुं, रायाणेसु
रायम्मि, राये, रायाणे, रायाणेसुं
रायाणम्मि सं० हे राया, हे राय, हे रायो, हे राइणो, हे रायाणो, हे राया, हे रायाण, हे रायाणो हे रायाणा
प्राकृत में व्यंजनान्त शब्द नहीं होते हैं। या तो उनके अंतिम व्यंजन का लोप हो जाता है या वे अकारान्त के रूप में बदल जाते हैं। संस्कृत की अपेक्षा वे व्यंजनान्त होते हैं।
१५ नकारान्त अप्पाण, अत्ताण, अप्प और अत्त (आत्मन) शब्द
एकवचन
बहुवचन प्र० अप्पा, अत्ता, अप्पाणो, अप्पो अप्पाणो, अत्ताणो, अप्पाणा, अप्पा द्वि० अप्पिणं, अत्ताणं, अप्पाणं, अप्पाणो, अत्ताणो, अप्पाणे, अप्पे
अप्पं तृ० अप्पणिआ, अप्पणइआ अप्पेहि, अप्पेहिं, अप्पेहिँ
अप्पणा, अत्ताणा, अप्पेण अप्पाणेहि, अप्पाणेहि, अप्पाणेहि
अप्पेणं, अप्पाणेण, अप्पाणेणं पं० अप्पाणो, अप्पाणत्तो, अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ
अप्पाणाओ, अप्पाणाउ, अप्पाणाउ, अप्पाणाहि, अप्पाणेहि अप्पाणाहि, अप्पाणाहिन्तो अप्पाणाहिन्तो, अप्पाणेहिन्तो अप्पाणा, अप्पणो, अप्पत्तो, अप्पाणासुन्तो, अप्पाणेसुन्तो, अप्पत्तो, अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, ____ अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पेहि,
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४५७
परिशिष्ट १ अप्पाहिन्तो, अप्पा
अप्पाहिन्तो, अप्पेहिन्तो, अप्पासुन्तो,
अप्पेसुन्तो च०, १० अप्पाणस्स, अप्पस्स, अप्पाणाण, अप्पाणाणं, अप्पाण अप्पणो, अत्तणो
अप्पाणं, अप्पिण, अत्ताणाण, अत्ताणाणं स० अप्पाणम्मि, अप्पाणे, अप्पम्मि अप्पाणेसु, अप्पाणेसुं, अप्पेसु
अप्पे, अत्ताणम्मि (अप्पंसि) अप्पेसु, अत्ताणेसु, अत्ताणेसुं
(अप्पाणंसि) सं० हे अप्पाणो, हे अप्पो, हे अप्प हे अप्पाणो, हे अप्पाण, हे अप्पा
(अप्प शब्द के रूप राजन् की तरह और अप्पाण शब्द के रूप जिण शब्द की तरह चलते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मन् (बम्ह, बम्हाण) युवन् (जुव, जुवाण) ग्रावन् (गाव, गावाण) उक्षन् (उच्छ, उच्छाण) शब्दों के रूप चलते
हैं ।)
१६ नकारान्त महव, महवाण (मघवन्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० महवा
महवा द्वि० महवं
महवा तृ० महवेण, महवेणं
महवेहि, महवेहि, महवे हिँ ५० महवत्तो महवाओ महवाउ महवत्तो, महवाओ, महवाउ, महवाहि,
महवाहि, महवाहितो, महोणो महवेहि, महवाहितो, महवासंतो च०, १० महवस्स,
महवाण, महवाणं स० महवे, महविम्मि
महवेसु, महवेसुं ___ अकारान्त महवाण शब्द के रूप जिण शब्द की तरह चलते हैं।
१७
नकारान्त मुद्ध, मुद्धाण (मुग्धन्) शब्द
मुद्धा
एकवचन
बहुवचन प्र० मुद्धा
मुद्धा द्वि० मुद्धं तृ० मुद्धेणे, मुद्धेणं
मुद्धेहि, मुद्धेहि, मुद्धेहिँ पं० मुद्धत्तो, मुद्धाओ, मुद्धाउ, मुद्धत्तो, मुद्धाओ, मुद्धाउ, मुद्धाहि
मुद्धाहि, मुद्धाहितो मुद्धेहि मुद्धाहितो, मुद्धासुन्तो च०, १० मुद्धणो, मुद्धस्स मुद्धाण, मुद्धाणं स० मुद्धम्मि, मुद्धे
मुद्धेसु, मुद्धेसुं (मुद्धाण शब्द के रूप जिण शब्द की तरह चलते हैं)
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४५८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नकारान्त जन्मन् (जम्म) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० जम्मो
जम्मा द्वि० जम्म
जम्मे, जम्मा से० जम्मेण, जम्मेणं
जम्मेहि, जम्मेहिं, जम्मेहिँ पं० जम्मत्तो, जम्माओ, जम्माउ, जम्मत्तो, जम्माओ जम्माउ, जम्माहि, जम्माहि, जम्माहितो जम्मेहि, जम्माहितो, जम्मेहिन्तो,
जम्मासुंतो, जम्मसुतो च०, १० जम्मस्स
जम्माण, जम्माणं स० जम्मे, जम्मम्मि
जम्मेसु, जम्मेसुं
सकारान्त चन्दम (चन्द्रमस्) शब्द एकवचन
__बहुवचन प्र० चन्दमो
चन्दमा द्वि० चन्दम
चन्दमा, चन्दमे तृ० चन्दमेण, चंदमेणं
चन्दमेहि, चन्दमेहि, चन्दमे हिँ पं० चन्दमत्तो, चन्दमाओ चन्दमाउ, चन्दमत्तो, चन्दमाओ, चन्दमाउ, चन्दमाहि,
चन्दमाहि, चन्दमाहितो चन्दमेहि, चन्दमाहितो, चन्दमासुन्तो च०, १० चन्दमस्स
चन्दमाण, चन्दमाणं स० चन्दमे, चन्दमम्मि चन्दमेसु, चन्दमेसुं २० शतृ प्रत्यय हसन्त, हसमाण (हसत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० हसन्तो, हसमाणो
हसन्ता, हसमाणा द्वि० हसन्तं, हसमाणं
हसन्ते, हसमाणे तृ० हसन्तेण, हसमाणेण हसन्तेहि, हसन्तेहिं, हसन्तेहिँ, हसमाणेहि,
हसन्तेणं, हसमाणेणं हसमाणेहिं हसमाणेहिँ पं० हसन्तत्तो, हसमाणत्तो हसन्तत्तो, हसन्ताओ, हसन्ताउ, हसन्ताहि,
हसंताओ, हसंताउ, हसंताहि, हसन्तेहि, हसन्ताहिन्तो, हसन्तेहितो, हसंताहिंतो, हसमाणाओ, हसन्तासुंतो, हसेन्तेसुंतो, हसमाणत्तो, हसमाणाउ, हसमाणाहि, हसमाणाओ, हसमाणाउ, हसमाणाहि, हसमाणाहितो
हसमाणेहि, हसमाणाहितो, हसमाणेहिन्तो,
हसमाणासुतो, हसमाणेसुंतो च०, १० हसन्तस्स, हसमाणस्स हसन्ताण, हसन्ताणं, हसमाणाण, हसमाणाणं स० हसन्तम्मि, हसमाणम्मि हसन्तेसु, हसन्तेसुं, हसमाणेसु, हसमाणेसुं
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________________
परिशिष्ट १
४५६
२१
तकारान्त भगवन्त (भगवत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० भगवन्तो
भगवन्ता द्वि० भगवन्तं
भगवन्ते, भगवंता तृ० भगवन्तेण, भगवत्तेणं भगवन्तेहि, भगवन्तेहिं, भगवन्तेहिँ पं० भगवन्तत्तो, भगवन्ताओ भगवन्तत्तो, भगवन्ताओ, भगवन्ताउ,
भगवन्ताउ, भगवन्ताहि, भगवन्ताहि, भगवन्तेहि भगवन्ताहितो
भगवन्ताहितो, भगवन्तासुन्तो च०, १० भगवन्तस्स
भगवन्ताण, भगवन्ताणं स० भगवन्तम्मि
भगवन्तेसु, भगवन्तेसु
स्त्रीलिगाः शब्दाः
२२
आकारान्त माला (माला) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० माला
मालाओ, मालाउ, माला द्वि० मालं
मालाओ, मालाउ, माला तृ० मालाअ, मालाइ, मालाए __ मालाहि, मालाहिं, मालाहिँ पं० मालाअ, मालाइ, मालाए मालत्तो, मालत्तो, मालाओ, मालाउ, मालाहिंतो.
मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो मालासुन्तो । च०, १० मालाअ, मालाइ, मालाए मालाण, मालाणं स० मालाअ, मालाइ, मालाए मालासु, मालासुं सं० हे माले, हे माला
हे मालाओ, हेमालाउ, हेमाला इसी प्रकार रमा, कण्णा, कहा, आणा, पण्णा, स्पृहा (छिहा) लता (लदा) ससा (स्वसृ) छुहा (क्षुध्) हलिद्दा, मट्टिआ आदि शब्द चलते हैं । २३
इकारान्त स्त्रीलिंग मइ शब्द एकवचन
बहवचन प्र० मई, मईआ
मईओ, मईउ, मई द्वि० मई
मईओ, मईउ, मई तृ० मईअ, मईआ, मईइ, मईए मईहि, मईहिं, मईहिँ पं० मईअ, मईआ, मईइ, मईए मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो __मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो मईसुन्तो च०, १० मईअ, मईआ, मइइ, मईए मईण, मईणं स० मईअ, मईआ, मईइ, मईए मईसु, मईसु
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________________
४६०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
सं० हे मइ, हे मई
हे मई, हे मईउ, हे मईओ ___इसी प्रकार मुत्ति, राइ, थुइ, इड्ढि, धिइ (धृति) वसहि (वसति) आदि शब्द चलते हैं।
(स्त्रीलिंग सभी इकरान्त शब्द मइ की तरह ही चलते हैं ।) २४ ईकारान्त स्त्रीलिंग वाणी (वाणी) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० वाणी, वाणीआ
वाणी, वाणीआ, वाणीउ, वाणीओ द्वि० वाणि
वाणी, वाणीआ, वाणीउ, वाणीओ तृ० वाणीअ, वाणीआ, वाणीइ, वाणीए वाणीहि, वाणीहिं, वाणीहिँ पं० वाणीअ, वाणीआ, वाणीइ, वाणीए, वाणित्तो, वाणीओ, वाणीउ,
वाणित्तो, वाणीओ, वाणीउ वाणीहिन्तो, वाणीसुन्तो च०,ष० वाणीअ, वाणीआ, वाणीइ, वाणीण, वाणीणं
वाणीए स० वाणीअ, वाणीआ, वाणीइ, वाणीए वाणीसु, वाणीसु सं० हे वाणि
हे वाणीआ, हे वाणीउ, हे वाणीओ,
हे वाणी इसी प्रकार नदी, इत्थी, पुढवी, वहिणी, सई (सती) लच्छी (लक्ष्मी) रुप्पिणी (रुक्मणी) आदि शब्दों के रूप चलते हैं ।
उकारान्त स्त्रीलिंग धेणु (धेनु) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० धेण
धेणू उ, धेणूओ, धेणू द्वि० धेणु
धेणूउ, धेणूओ, धेणू तृ० धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ, धेणूए धेण हि धेहि, धेणूहिँ, पं० धेणूअ, धेणू आ, धेणू इ, धेणू ए, धेणुत्तो, धेणूओ, धेउ
धेणुत्तो, धेणूओ, धेणू उ, धेणू हिन्तो धेहिन्तो, धेण सुन्तो च०, प० धेअ, धेणुआ, धेणूइ, धेगूए धेणूण, धेणूणं स० धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ, धेणूए धेणूसु, धेणूसुं हे धेणु
__ हे धेणुउ, हे धेणुओ, हे धेणु __ इसी प्रकार तणु (तनु) रज्जु आदि शब्द चलते हैं । २६ ऊकारान्त स्त्रीलिंग वधू [वहू] शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० वहू
वहूउ, वहूओ, वहू द्वि० वहुं
वहूउ, वहूओ, वहू
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________________
परिशिष्ट १
तृ० बहूअ, वहूआ, वहूइ, वहूए पं० वहूअ, वहूआ, वहूइ, वहूए वहुत्तो, वहूओ, वहुउ, वहूहिन्लो च०, ष० वहूअ, बहूआ, वहूइ, वहूए स० वहुअ. वहूआ वहूइ, वहूए
वहूहि, वहूहिं, वहूहिँ वहुत्तो, वहूओ, वहुउ वहूहिन्तो वसुन्तो वहूण, वहूणं
वसु, वसुं
हे वहु
हे बहूओ, हे बहूउ, हे वहू
इसी प्रकार सासू ( श्वश्रु) चमू ( चमू) आदि शब्द चलते हैं । रूपों की समानता
स्त्रीलिंग के आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारांत शब्दों के सभी रूप समान हैं, केवल दीर्घ ईकारान्त शब्दों के प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में आ प्रत्यय का रूप विशेष होता है !
आकारान्त को छोड, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त शब्दों के तृतीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति तक एक वचन में आकारान्त से आ प्रत्यय अधिक लगता है । द्वितीया के एकवचन और पंचमी के तो प्रत्यय
परे रहने पर शब्द
शेष स्थानों पर शब्द का
का अन्तिम दीर्घस्वर ह्रस्व हो जाता है । अंतिम स्वर दीर्घ हो जाता है । ईकारान्त और ऊकारान्त के संबोधन के एकवचन में ह्रस्व होता है तथा इकारान्त और उकारान्त के सम्बोधन के एकवचन में विकल्प से ह्रस्व होता है ।
२७ ऋकारान्त स्त्रीलिंग माआ, माअरा, माउ (मातृ) शब्द एकवचन
बहुवचन
प्र० माओ, माअरा
माअरा, माअराउ, माअराओ, माआ, माआउ, माआओ, माऊ, माऊउ, माऊओ माअरा, माअराउ, माअराओ, माआ, माआउ, माआओ, माऊ, माऊउ, माऊओ माअराहि, माअराहि, माअराहिं माहि, माहि, माआहिं
द्वि० माअं, माअरं
तृ० माअराअ, माअराइ, माअराए
माआअ माआइ, माआए
माऊअ, माऊआ, माऊ, माऊए माऊहि, माऊहिं, माऊहिँ
पं०
• माअराअ, माअराइ, माअराए माअरतो, माअराओ माअराउ माअराहिन्तो, माआअ माआइ, माआए माअत्तो, माआओ
माअरत्तो, माअराओ, माअराउ, माअराहिन्तो, माअरासुन्तो माअत्तो, माआओ, माआउ माहिन्तो, माआसुन्तो,
४६१
Page #479
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________________
४६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
माआउ, माआहिन्तो, माऊअ, माउत्तो,माऊओ माऊउ, माऊहिन्तो, माऊआ, माऊइ, माऊए माउत्तो, माऊसुन्तो
माऊओ, माऊउ, माऊहिन्तो च०, १० माअराअ, माअराइ, माअराए माअराण, माअराणं, माआण, माआणं
माआअ, माआइ, माआए माऊण, माऊणं, माईण, माईणं
माऊअ, माऊआ, माऊइ, माऊए स० माअराअ, माअराइ, माअराए माअरासु, माअरासु, माआसु, माआसु,
माआअ, माआइ, माआए माऊसु, माऊK
माऊअ माऊआ, माऊइ, माऊए सं० हे माआ
हे माआओ, हे माआउ, हे माआ __इसी प्रकार दुहित (दुहिआ) ननान्द (नणंदा) पितृस्वसृ (पिउसिया, पिउच्छा) मातृस्वसृ (माउसिया, माउच्छा) आदि शब्दों के रूप मातृ शब्द की तरह चलते हैं।
__ ओकारान्त गो (गो)शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० गावी, गावीआ
गावीआ, गावीउ, गावीओ, गावी द्वि० गावि
गावीआ, गावीउ, गावीओ, गावी तृ० गावीअ, गावीआ, गावीइ, गावीहि, गावीहि, गावीहिं
गावीए पं० गावीअ, गावीआ, गावीइ, गावित्तो, गावीओ, गावीउ, गाविहिन्तो,
गावीए, गावित्तो, गावीओ, गावीसुन्तो
गावीउ, गावीहिन्तो च०, ५० गावीअ, गावीआ, गावीइ, गावीण, गावीणं
२८
गावीए
स० गावीअ, गावीआ, गावीइ, गावीसु, गावी
गावीए सं० हे गावि
हे गावीआ, हे गावीउ, हे गावीओ,
हे गावी गावी शब्द के रूप वाणी की तरह चलते हैं । २६
औकारान्त नावा (नौ) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० नावा
नावाओ, नावाउ, नावा द्वि० नावं
नावाओ, नावाउ, नावा
.
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________________
परिशिष्ट १
तृ० नावाअ, नावाइ, नावाए पं० नावाअ, नावाइ, नावाए
नावत्तो, नावाओ, नावाउ, नावाहिन्तो
च०, ष० नावाअ, नावाइ, नावाए स० नावाअ, नावाइ, नावाए सं० हे नावा
३०
नावा के रूप माला की तरह चलते हैं ।
एकवचन
प्र० वणं
द्वि० वणं तृ० वणेण
पं० वणत्तो, वणाओ, वणाउ,
वाहि, वणाहिन्तो, वणा
च०, प० वणस्स
स० वणे, वर्णम्मि
सं० हे वण
३१
प्र० महुं
एकवचन
प्र० दहिं द्वि० दहि तृ० दहिणा
पं० दहिणो, दहित्तो, दहीओ दहीउ, दहीहिन्तो
च०, प० दहिणो, दहिस्स
स० [दहिम्मि
सं० देहि
तरह चलते हैं ।)
३२
नावाहि, नावाहिं, नावाहिँ नावत्तो, नावाओ, नावाउ, नावासुन्तो
एकवचन
नपुंसकलिगा: शब्दा: अकारान्त नपुंसक वण (वन) शब्द
नावाण, नावाणं
नावासु, नावासुं
हे नावाओ, हे नावाउ, हे नावा
बहुवचन वाइँ, वणाई, वाणि
वणाई, वणाई, वाणि
वणेहि, वणेहिं, वणेहिं वणत्तो, वणाओ, वणाउ, वणाहि वणाहिन्तो वणासुन्तो वणाण, वणा वणे, वसुं
हे वणाइँ, हे वणाई, हे वणाणि
इकारान्त ( दधि ) दहि शब्द
बहुवचन दही, दही, दहीण
दही, दही, दहीणि
दही, दहीहि, दही हिँ
दहित्तो, दहीओ, दहीउ, दहीहिन्तो
दही सुन्तो
दहीण, दहीणं
दहीसु, दहीसुं
हे दही, हे दही, हे दहीणि
(प्रथमा, द्वितीया और संबोधन को छोड़कर शेष रूप मइ शब्द की
नावा हिन्तो
उकारान्त महु ( मधु ) शब्द
बहुवचन महूइँ, महूई, महूणि
४६३
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________________
४६४
द्वि०
० महं
महूइँ, महूई, महूणि
महूहि महूहिं, महूहिँ, महत्तो, महूओ, महूउ, महूहिन्तो महूसुन्तो
महूण, महूणं
महूसु, महूसुं
हे महू, हे महूई, हे महूणि
(प्रथमा, द्वितीया और संबोधन को छोड़कर शेष रूप साहु शब्द की तरह चलते हैं ।
तृ० महुणा
पं० महुणो, महत्तो, महूओ महूर, महूहिन्तो
० महुणो, महुस्स
च०,
स० महम्मि
सं० हे मह
व्यंजनान्त शब्द नपुंसकलिंग
नपुंसकलिंग में व्यंजनान्त शब्द के अंतिम वर्ण का लोप हो जाता है । शेष शब्द अकारान्त, इकारान्त, और उकारान्त रहते हैं । और महु की तरह चलते हैं । सुविधा की दृष्टि से कुछेक दिए जा रहे हैं ।
उनके रूप वण, दहि शब्दों के रूप नीचे
३३
प्र० अंसुं
द्वि० अंसुं
३४
प्र ० दामं
एकवचन
बहुवचन
अंसू, अंसू, अंसूणि अंसूइँ, अंसू, अंसूणि
(शेष रूप महु शब्द (३२) की तरह चलते हैं ) ।
प्र० नामं
द्वि० नामं
द्वि० दामं
तृ० दामेण
पं० दामत्तो, दामाओ, दाभाउ दामाहि, दामाहिंतो
च०, ष० दामस्स स० दामम्मि
सं० हे दाम
३५
अश्रु (अंसु ) शब्द
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नकारात्मक दाम ( दामन् ) नपुंसकलिंग शब्द
दामाइँ, दामाई, दामाणि
एकवचन
दामाण, दामाणं
दामेसु, दामेसुं
हे दमाईं, हे दामाई, हे दामाइ
नकारान्त नाम ( नामन् ) नपुंसकलिंग शब्द
दामाइँ, दामाई, दामाणि
दामेहिं, दामेहिं, दामेहिँ
दामत्तो, दामाओ, दामाउ, दामाहि दामा हिन्तो, दामासुन्तो
(शेष रूप दामन् शब्द की तरह चलते हैं ।)
बहुवचन नामाईं, नामाई, नामाणि नामाइँ, नामाई, नामाणि
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट १
४६५
नकारान्त पेम्म (प्रेमन) नपुंसकलिंग शब्द प्र० पेम्म
पेम्माई, पेम्माइं, पेम्माणि द्वि० पेम्म
पेम्माइँ, पेम्माइं, पेम्माणि (शेष रूप दामन् शब्द की तरह चलते हैं)
३७ नकारान्त अह (अहन्) नपुंसकलिंग शब्द प्र० अहं
__अहाइँ, अहाई, अहाणि द्वि० अहं
अहाइँ, अहाई, अहाणि (शेष रूप दामन् शब्द की तरह चलते हैं) ___३८ सकारान्त सेय (श्रेयस) नपुंसकलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० सेयं
सेयाइँ, सेयाई, सेयाणि द्वि० सेयं
सेया', सेयाई, सेयाणि (शेष रूप वण शब्द की तरह चलते हैं)
सकारान्त वय (वयस) नपुंसकलिंग शब्द प्र० वयं
वयाइँ, वयाई, वयाणि द्वि० वयं
वयाइँ, वयाई, वयाणि (शेष रूप वण शब्द की तरह चलते हैं) ४० शतृ प्रत्ययान्त हसंत, हसमाण (हसत्) नपुंसकलिंग शब्द प्र० हसन्तं
हसन्ताइँ, हसन्ताई, हसन्ताणि द्वि० हसन्तं
हसन्ताइँ, हसन्ताई, हसन्ताणि (शेष रूप वण शब्द की तरह चलते हैं) प्र० हसमाणं
__ हसमाणाई, हसमाणाई, हसमाणाणि द्वि० हसमाणं
हसमाणाइँ, हसमाणाई, हसमाणाणि (शेष रूप वण शब्द की तरह चलते हैं) ४१ वत् प्रत्ययान्त भगवन्त (भगवत्) शब्द प्र० भगवन्तं
भगवन्ता', भगवन्ताइं, भगवन्ताणि द्वि० भगवन्तं
भगवन्ताइँ, भगवन्ताई, भगवन्ताणि (शेष रूप वण शब्द की तरह चलते हैं) . ४२ सकारान्त आउ, आउस (आयुष्) शब्द प्र० आउ
आऊइँ, आऊइं, आऊणि द्वि० आउ
आऊइँ, आऊइं, आऊणि (शेष रूप महु शब्द की तरह चलते हैं)
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________________
४६६
४३ क
एकवचन
प्र० सव्वो ( सव्वे ) द्वि० सव्वं
तृ० सव्वेण सव्वेणं
पं० सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ
सव्वाहि सव्वाहिन्तो, सव्वा
प्र० सव्वा द्वि० सव्वं
,
च०, ष० सव्वस्स
सo सव्वस्ति, सव्वम्मि, सव्वत्थ, साहि
सं० हे सव्व, हे सव्वो, हे सव्वा,
(हे सव्वे )
४३ ख
एकवचन
मिलिगा: शब्दा:
पुंलिंग अकारान्त सव्व (सर्व) शब्द
बहुवचन
तृ० सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए पं० सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
प्राकृत वाक्यरचना बोध
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहितो
सव्वे
सव्वे, सव्वा
सव्वेहि, सव्वेहि, सव्वेहिँ
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहि सव्वेहि, सम्वाहितो, सब्बेहितो, सव्यासुंतो
स्त्रीलिंग सव्वा ( सर्वा) शब्द
बहुवचन
सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा
सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा
सव्वाहि सव्वाहि सव्वाहिँ सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहितो सव्वा सुन्तो
सव्वेसुंतो
सव्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं
सव्वेसु, सव्वेसुं
हे स
च०, ष० सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
सव्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं सव्वासु, सव्वासुं
स० सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए सं० हे सव्वा
हे सव्वाओ, हे सव्वाउ, हे सव्वा
( सव्वा शब्द के रूप माला की तरह चलते हैं । चतुर्थी और षष्ठी के बहुवचन में सव्वेसिं रूप विशेष बनता है ।)
सर्व आदि शब्दों को स्त्रीलिंग में ये आदेश होते हैं
सर्व सव्वी, सव्वा । यद् = जी, जा । तद् ती, ता । किंकी, का । इदम् = इमी, इमा । एतद् = एई, एआ। अदस्=अमु । आकारान्त के रूप माला, ईकारान्त के रूप वाणी और उकारान्त के रूप हैं । कुछेक रूप विशेष बनते हैं, इसलिए इन शब्दों के
रहे हैं ।
धेणु की तरह चलते सब रूप दिए जा
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________________
परिशिष्ट १
૪૬૭
प्र० सव्वं
४३ ग अकारान्त नपुंसक सव्व (सर्व) शब्द एकवचन
बहुवचन
सव्वाइँ, सव्वाइं, सव्वाणि द्वि० सव्वं
सव्वाई, सव्वाइं, सव्वाणि (शेष रूप पुंलिंग सर्व शब्द के समान चलते हैं ।)
विश्व (विस्स) उभय (उभय) कतर (कयर) अपर (अवर) इतर (इयर) आदि सर्वादि अकारान्त शब्द सर्व (सब्व) शब्द की तरह ही चलते हैं । ४४ क
ज (यद्) पुंलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० जो, (जे) द्वि० जं
जे, जा तृ० जेण, जेणं, जिणा
जेहि, जेहिं, जेहिं पं० जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जेहि,
__ जाहिन्तो, जा, जम्हा जाहिन्तो, जेहिन्तो, जासुन्तो, जेसुन्तो च०, १० जस्स
जेसि, जाण, जाणं स० (जंसि) जस्सि, जम्मि, जेसु, जेसुं
जत्थ, जहिं, जाहे, जाला,
जइया
४४ ख जा, जी (यद्) स्त्रीलिंग शब्द प्र० जा
जीओ, जीउ, जीआ, जी, जाओ, जाउ, जा द्वि० जं
जीओ, जीउ, जीआ, जी, जाओ, जाउ, जा त० जीअ, जीआ, जीइ, जीए, जीहि, जीहिं, जीहि, जाहि, जाहिं, जाहिं
जाअ, जाइ, जाए पं० जीअ, जीआ, जीइ, जीए, जित्तो, जीओ, जीउ, जीहिन्तो, जीसुन्तो
जित्तो, जीओ, जीउ, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिन्तो, जासुन्तो जीहिन्तो, जाम, जाइ, जाए, जम्हा, जत्तो, जाओ,
जाउ, जाहिन्तो च०, प० जिस्सा, जीसे, जीअ, जीआ, जेसिं, जाण, जाणं
जीइ, जीए, जाअ, जाइ,
जाए स० जाअ, जाइ, जाए, जी, जीसु, जीसु, जासु, जासुं
जीआ, जीइ, जीए
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________________
४६८
ते, णे
प्राकृत वाक्यरचना बोध ४४ ग
यत् (ज) नपुंसकलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० जं
जाइँ, जाई, जाणि द्वि० जं
जा', जाई, जाणि (शेष रूप पुंलिंग के समान चलते हैं ।) ४५ क
त, ण (तद्) पुंलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० स, सो, ण (से) द्वि० तं, णं
ते, ता, णे, णा तृ० तेण, तेणं, तिणा
तेहि, तेहिं, तेहिँ, णेहि, णेहिं, णेहि पं० तो, तत्तो, ताओ, ताउ, तम्हा तत्तो, ताओ, ताउ, ताहि, तेहि, ताहिन्तो,
ताहि, ताहिन्तो, ता, णत्तो तेहिन्तो, तासुन्तो, तेसुन्तो, णत्तो, णाओ, णाओ, णाउ णम्हा, णाहि, गाउ, णाहि, णेहि, णाहिन्तो, णेहिन्तो, णाहिन्तो, णा
णासुन्तो, सुन्तो च०, १० तस्स, तास
सिं, तास, तेसिं, ताण, ताणं स० (तसि) तस्सि, तहि, तत्थ तेसु, तेसं, णेसु, णेसं ताहे, ताला, तइआ, (णंसि)
स्सि, हिं, णम्मि, णत्थ णाहे, णाला, "इआ
४५ ख ता ती, णा, णी (तद्) स्त्रीलिंग शब्द प्र० सा, ता, णा
तीआ, तीउ, तीओ, ती, ताउ, ताओ, ता द्वि० तं, णं
तीआ, तीउ, तीओ, ती, ताउ, ताओ, ता तृ० ती, तीआ, तीइ, तीए तीहि, तीहिं, तीहि, णाहि, णाहिं, णाहिं ताअ, ताइ, ताए
ताहि, ताहिं, ताहिँ पं० तीअ, तीआ. तीइ, तीए तित्तो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो, तीसुन्तो
तित्तो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, तासुन्तो ताअ, ताइ, ताए, तो, तम्हा
तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो च०, प० तिस्सा, तीसे तीअ, तीआ ताण, ताणं, तास
तीइ, तीए, तास, से, ताअ
ताइ, नाए, स० तीअ, तीआ, तीइ, तीए तीसु, तीसुं, तासु, तासु ताअ, तइ, ताए
(तद् के आदेश णी और णा के रूप प्रथमा के एकवचन को छोडकर
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परिशिष्ट १
तो और ता की तरह चलते हैं ।) ४५ ग
प्र०, द्वि० तं णं
४६ क
(शेष रूप पुंलिंग की तरह चलते हैं ।)
एकवचन
प्र० को (के) द्वि० कं
० केण, केणं, किणा
पं० कत्तो, काओ, काउ, काहि
त, ण (तद् ) नपुंसकलिंग शब्द
काहिन्तो, कम्हा, किणो, कीस
च०, ष० कस्स, कास ० कस्स, कम्मि, कत्थ, काहे (कंसि ) काला, कइआ
कहि
४६ ख
काइ, काए
स० कीअ, कीआ, कीइ
प्र० का द्वि० कं
तृ० कीअ, कीआ, कीइ, कीए काअ, काइ, काए
पं० कीअ, कीआ, कीइ, कीए कित्तो, कीओ, कीउ, की हिन्तो
कीए, काअ, काइ, काए
४६ ग
प्र०, द्वि० किं
क (किं) पुंलिंग शब्द
बहुवचन
ताई, ताई, ताणि, णाई, णाई, णाणि
काअ, काइ, काए, कम्हा कत्तो, काओ, काउ, काहिन्तो
च०, प० कास, किस्सा, कीसे, कीअ केसि, काण, काणं
की, की, की, काअ
के
के, का
केहि केहि केहि
कत्तो, काओ, काउ, काहि, केहि, काहिन्तो के हिन्तो, कासुन्तो, केसुन्तो काण, काणं, केसि, कास
सु,
की, का ( कि) स्त्रीलिंग शब्द
की, की, कीओ, की, काउ, काओ, का की, की, कीओ, की, काउ, काओ, का कीहि, कीहिं, कीहिँ, काहि, काहि, काहिँ
४६६
कित्तो, कीओ, कीउ, कीहिन्तो, कीसुन्तो कत्तो, काओ, काउ, काहिन्तो, कासुन्तो
कीसु, कीसुं, कासु, कासुं
क ( कि) नपुंसकलिंग शब्द
काइँ, काई, काणि
(शेष रूप पुंलिंग की तरह चलते हैं ।)
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४७०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
४७ क इम (इदं) पुलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० अयं, इमो (इमे)
इमे द्वि० इम, इणं, णं
इमे, इमा, णे, णा तृ० इमेण, इमेणं, इमिणा इमेहि, इमेहि, इमेहि, णेहि, रोहिं, णेहि णेण, णेणं
एहि, एहिं, एहिं पं० इमत्तो, इमाओ, इमाउ इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहि, इमेहि इमाहि, इमाहिन्तो, इमा इमाहिन्तो, इमेहिन्तो, इमासुन्तो,
इमेसुन्तो च०, १० इमस्स, अस्स, से इमाण, इमाण, सिं, इमेसि स० अस्सि, इमस्सि, इमम्मि इमेसु, इमेसुं
इह (इमंसि)
४७ ख इमी, इमा (इदं) स्त्रीलिंग शब्द प्र० इमा, इमी, इमिआ इमीआ, इमीउ, इमीओ, इमी, इमाओ
इमाउ, इमा द्वि० इमि, इम, इणं, णं इमीआ, इमीउ, इमीओ, इमी, इमाओ
इमाउ, इमा, णाओ, णाउ, णा तृ० इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमीहि, इमीहि, इमीहि, इमाहि, इमाहिं
इमाअ, इमाइ, इमाए, णाअ इमाहिँ, णाहि, णाहिं, णाहिं
णाइ, णाए पं० इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमित्तो, इमीओ, इमीउ, इमीहितो
इमित्तो, इमीओ, इमीउ, इमीसुन्तो, इमत्तो, इमाओ, इमाउ इमीहिन्तो, इमाअ, इमाइ इमाहिन्तो, इमासुन्तो इमाए, इमत्तो, इमाओ इमाउ
इमाहिन्तो घ०, ष० इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमीण, इमीणं, इमाण, इमाणं, सि
इमाअ, इमाइ, इमाए, से स० मीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए इमीसु, इमीसुं, इमासु, इमासु
इमाअ, इमाइ, इमाए
४७ ग
इम (इदं) नपुंसकलिंग शब्द
प्र०, द्वि० इदं, इणं, इणमो. इमाइँ, इमाइं, इमाणि
(शेष रूप वण (वन) शब्द की तरह चलते हैं।)
Page #488
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________________
परिशिष्ट १
४८ क
एकवचन
प्र० एसो, एस, इणं, इणमो ( एसे ) एए
द्वि० एअं
तृ० एएण, एएणं, एइणा पं० एअत्तो, एआओ, एआउ एहि, एआहिन्तो, एआ एत्तो, एत्ताहे
च०, ष० एअस्स, से
स० एअस्सि, एअम्मि, अयम्म, यम, एत्थ ( एस )
४८ ख
प्र० एसा, एस, इणं, इणमो
एई, एइआ द्वि० एई, एअं
एआआ, एआइ, एआए, से
स० एईअ, एईआ, एईई, एईए
एआअ, एआइ, एआए ४८ ग
प्र० एअं, एस, इणं, इणामो
द्वि० एअं
एअ ( एतद् ) पुंलिंग शब्द
बहुवचन
४६-क
एकवचन
प्र. अह, अमू
एई, एआ ( एतद् ) स्त्रीलिंग शब्द
एए, एआ
एहि, एएहि, एए हिँ
एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहि, एएहि एआहिन्तो, एएहिन्तो, एआसुन्तो, एएसुन्तो
एएसि, एआण, एआणं, सिं एएस, एएस
तृ० एईअ, एईआ, एईई, एईए एआआ, एआइ, एआए पं० एईअ, एईआ, एईई, एईए इतो, एईओ, एईउ, एहिन्तो, एअत्तो, एआआ एआइ, एआए, एत्तो, एआओ
आउ, आहित
च०, ष० एईअ, एईआ, एईई, एईए एईण, एईणं, एआण, एआणं, सिं, एएसि
एई, एई, एआसु, एआसुं
एअ, एत ( एतद् ) नपुंसकलिंग शब्द एआई, एआई, एआणि एआई, एआई, एआणि
(शेष रूप पुंलिंग की तरह चलते हैं ।)
एईओ, एईउ, एईआ, एई, एयाओ, एयाउ
४७१
एआ
एईओ, एउ, एईआ, एई, एआओ, एआउ एआ
एहि, एहि, एई, एआहि, एआहि आहिँ
इत्तो, एईओ, एई एई हिन्तो एईसुन्तो एत्तो, एआओ, एआउ, एआहिन्तो
एआसुन्तो,
अमु (अदस्) पुंलिंग शब्द
बहुवचन
अमुणो, अमओ, अमवो, अमउ, अमू
Page #489
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________________
४७२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
द्वि० अमुं
अमुणो, अमू तृ० अमुणा
अमूहि, अमूहि, अमूहिँ पं० अमुणो, अमुत्तो, अमूओ अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो अमूउ, अमूहिन्तो
अमूसुन्तो च०, १० अमुणो, अमुस्स अमूण, अमूणं स० अमुम्मि, अयम्मि, इअम्मि अमूसु, अमूसं
(अमुंसि ) ४६-ख अमु (अदस्) स्त्रीलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० अह, अमू
अमूओ, अमूउ, अमू द्वि० अमुं
अमूओ, अमूउ, अमू तृ० अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए अमूहि, अमूहि, अमूहिँ पं० अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो अमुत्तो, अमूओ, अमूउ
अमूसुन्तो अमूहिन्तो ष० अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए अमूण, अमूणं स० अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए अमूसु, अमूसुं
अयम्मि, इअम्मि ४६-ग अमु (अदस्) नपुंसकलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० अह, अमुं
अमूई, अमूई, अमूणि ढि० अमुं
अमूइँ, अमूई, अमूणि (शेष रूप पुंलिंग की तरह चलते हैं) ५० अम्ह (अस्मद् ) शब्द (तीनों लिंगों में) एकवचन
बहुवचन प्र० हं, अहं, अहयं, म्मि, अम्हि मो, अम्ह, अम्हे, अम्हो, वयं, मे
अम्मि द्वि० मं, ममं, मिमं, अहं, णे, णं अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे
मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह। तृ० मि, मे, ममं, ममए, ममाइ अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे
मइ, मए, मयाए, णे पं० मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि
ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि ममाहिन्तो, ममासुन्तो, ममेहि, ममेहिन्तो ममाहिन्तो, ममा, महत्तो ममेसुन्तो, अम्हत्तो, अम्हाओ, अम्हाउ
Page #490
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________________
परिशिष्ट १
४७३
महाओ, महाउ, महाहि अम्हाहि, अम्हाहिन्तो, अम्हासुन्तो महाहिन्तो, महा, मज्झत्तो अम्हेहि, अम्हे िहन्तो, अम्हेसुन्तो मज्झाओ, मज्झाउ, मज्झाहि
मज्झाहिन्तो, मज्झा च०, १० मे, मइ, मम, मह, महं णे, णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अमे मज्झ, मज्झं, अम्ह, अम्हं अम्हाण, अम्हाणं, ममाण, ममाणं, महाण
महाणं, मज्झाण, मज्झाणं स० मि, मइ, ममाइ, मए, मे __ अम्हसु, अम्हसुं, अम्हेसु, अम्हेमुं, ममसु
अम्हस्सि, अम्हम्मि (अम्हंसि) ममसुं, ममेसु, ममेसुं, महसु, महसुं, महेसु, ममस्सि, ममम्मि (ममंसि) महेसुं, मज्झसु, मज्झसुं, मज्झेसु, मज्झेखें महस्सि, महम्मि (महंसि) अम्हासु, अम्हासुं मज्झं सि, मज्झम्मि (मज्झंसि) अम्हे, ममे, महे, मज्झे (मम्हि) ५१ तुम्ह (युष्मद्) शब्द (तीनों लिंगों में) एकवचन
बहुवचन प्र० तं, तुं, तुवं, तुह, तुमं , तुब्भे, तुम्हे, तुज्झे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे
उय्हे, द्वि० तं, तुं, तुवं, तुमं, तुह, तुमे वो, तुज्झ, तुब्भे, तुम्हे, तुझे, तुम्हे तुए
उय्हे, भे तृ० भे, दि, दे, ते, तइ, तए, तुमं भे, तुब्भेहिं, तुम्हेहिं, तुझेहि, उज्झेहिं
तुमइ, तुमए, तुमे, तुमाइ उम्हेहिं, तुम्हेहिं, उव्हेहि पं० तइत्तो, तईओ, तईउ, तईहि तुब्भत्तो, तुब्भाओ, तुब्भाउ, तुम्भाहि
तईहिन्तो, तई, तुवत्तो, तुवाओ तुब्भाहिन्तो, तुब्भासुंतो, तुब्भेहि, तुवाउ, तुवाहि, तुवाहिन्तो तुब्भेहिन्तो, तुब्भासुंतो, तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुवा, तुमत्तो, तुमाओ, तुमाहि तुम्हाउ, तुम्हाहि, तुम्हाहिन्तो, तुम्हासुन्तो, तुमाहिन्तो, तुमा, तुहत्तो तुम्हेहि, तुम्हेहिन्तो, तुम्हेसुन्तो, तुज्झत्तो, तुहाओ, तुहाउ, तुहाहि तुज्झाओ तुज्झाउ, तुज्झाहि, तुज्झाहिन्तो तुहाहिन्तो, तुहा, तुब्भत्तो तुज्झासुन्तो, तुझे हि, तुज्झहिन्ता तुब्भाओ, तुब्भाउ, तुब्भाहि तुझेसुन्तो, तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुम्हाउ तुब्भाहिन्तो, तुब्भा, तुम्हाओ तुम्हाहि, तुम्हाहिन्तो, तुम्हासुन्तो, तुम्हेहि तुम्हाउ, तुम्हाहि, तुम्हाहिन्तो तुम्हे हिन्तो, तुम्हेसुन्तो, उय्हत्तो, उय्हाओ तुम्हा, तुज्झत्तो, तुज्झाओ उय्हाउ, उय्हाहि, उय्हाहिन्तो, उय्हासुन्तो तुज्झाउ, तुज्झाहि, तुज्झाहिन्तो उय्हेहि, उय्हेहिन्तो, उय्हेसुन्तो, उम्हत्तो तुम्ह, तुब्भ, तुम्ह
उम्हाओ, उम्हाड, उम्हाहि, उम्हाहिन
Page #491
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________________
४७४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
तुज्झ, तहिन्तो
उम्हासुन्तो, उम्हेहि, उम्हेहिन्तो
उम्हेसुन्तो च०, १० तइ, तु, ते, तुम्ह, तुह तु, वो, भे, तुब्भ, तुम्भं तुम्ह, तुज्झ, तुम्हं,
तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो तुझं, तुब्भाण, तुम्भाणं, तुवाण, तुवाणं तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुब्भ तुम्हाण, तुम्हाणं, तुमाण, तुमाणं, तुज्झाण तुम्ह, तुज्झ, उन्भ, उम्ह तुज्झाणं, तुहाण, तुहाणं, उम्हाण, उम्हाण
उज्झ, उव्ह स० तुमे, तुमाइ, तुमए, तए, तइ तुसु, तुसुं, तुवसु, तुवसुं, तुवेसु, तुवेसुं
तुम्मि, तुवम्मि, तुवस्सि तुमसु, तुमसुं, तुमेसु, तुमेसुं, तुहसु, तुहसुं (तुवंसि)तुमम्मि, तुमस्सि तुहेसु, तुहेसु, तुब्भसु, तुब्भसु, तुब्भेसु (तुमंसि) तुहम्मि, तुहस्सि तुब्भेसू, तुम्हसु, तुम्हसुं, तुम्हेसु, तुम्हेसु (तुहंसि) तुब्भम्मि, तुब्भस्सि तुज्झसु, तुज्झसुं, तुज्झेसु, तुज्झेस, तुब्भासु (तुब्भंसि) तुम्हम्मि, तुम्हस्सि तुब्भासुं, तुम्हासु, तुम्हासु, तुज्झासु (तुम्हंसि) तुज्झम्मि, तुज्झस्सि तुज्झासुं (तुझंसि)
संख्यावाची शब्दाः ५२-क
एग (एक) पुंलिंग कब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एगो, गगे द्वि० एगं
एगे, एगा च०, ष० एगस्स
एगण्ह, एगण्हं, एगेसिं (शेष सव्वा ४३-क शब्द की तरह चलते हैं) ५२-ख
एगा (एक) स्त्रीलिंग शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एगा
एगाओ, एगाउ, एगा द्वि० एगं
एगाओ, एगाउ, एगा च०, १० एगस्स
एगासिं, एगेसि, एगण्ह, एगण्हं (शेष रूप सव्वा ४३-ख की तरह चलते हैं) ५२-ग एग (एक) नपुंसकलिंग शब्द - एकवचन
बहुवचन प्र०, द्वि० एगं
__एगाई, एगाई, एगाणि (शेष रूप सव्व ४३-क की तरह चलते हैं)
संख्यावाची शब्द एग को छोडकर शेष शब्द बहुवचन में और तीनों लिंगों में एक समान चलते हैं।
एगे
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________________
परिशिष्ट १
४७५, दो, वे शब्द (द्वि) (तीनों लिंगों में) (दो से लेकर दस शब्द तक के रूप बहुवचन में चलते हैं।) प्र० दुवे, दोण्णि, दुणि, वेण्णि, विण्णि, दो, वे द्वि० दुवे, दोषिण, दुषिण, वेणि, विण्णि, दो, वे तृ० दोहि, दोहिं, दोहिँ, वेहि, वेहि, वेहि । पं० दुत्तो, दोओ, दोउ, दोहिन्तो, दोसुन्तो, वेओ, वेउ, वेहिन्तो, वेसुन्तो च०, ष० दोण्ह, दोण्हं, दुण्ह, दुण्हं, वेण्ह, वेण्हं, विण्ह, विण्हं स० दोसु, दोसुं, वेसु, वेसुं ५४ ति (त्रि) शब्द
५५ चउ (चतुर) शब्द प्र. तिण्णि
प्र० चत्तारो, चउरो, चत्तारि द्वि० तिण्णि
द्वि० चत्तारो, चउरो, चत्तारि तृ तीहि, तीहि, तीहिँ
तृ० चऊहि, चऊहिं, चऊहिँ पं० तित्तो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो, पं० चउत्तो, चऊओ, चऊउ | तीसुन्तो
चऊहिन्तो, चऊसुन्तो, चउओ च०, ष० तिण्ह, तिण्हं
चउउ, चउहिन्तो, चउसुन्तो स० तीसु, तीसुं
च०, १० चउण्ह, चउण्हं
स० चऊसु, चउसु, चउसु, चउसुं ५६ पञ्च (पञ्चन्) शब्द
५६ छ (षष्ठ) शब्द प्र० पंच
प्र० छ द्वि० पंच
द्वि० छ तृ० पंचहि, पंचहि, पंचहिँ
तृ० छहि, छहिं, छहिँ पं० पंचत्तो, पंचाओ, पंचाउ, पंचाहिन्तो पं० छत्तो, छाओ, छाउ, छाहिन्तो पंचासुन्तो
सुन्तो च०, ष० पंचण्ह, पंचण्डं
च०, १० छण्ह, छण्हं स० पंचसु, पंचसुं
स० छसु, छK ५७ सत्त(सप्तन्)शब्द ५८ अट्ठ (अष्टन )शब्द ५६ नव (नवन्)शब्द प्र० सत्त द्वि० सत्त
अट्ठ
नव तृ० सत्तहि, सत्तहिं, सत्तहिँ अट्ठहि, अट्ठहिं, अट्ठहिँ नवहि, नवहिं, नवहिँ पं० सत्तत्तो, सत्ताओ, सत्ताउ अट्ठत्तो, अट्ठाओ, अट्ठाउ नवत्तो, नवाओ, नवाउ
सत्ताहिन्तो, सत्तासुन्तो अट्ठाहिन्तो, अट्ठासुन्तो नवाहिन्तो, नवासुन्तो च०/५० सतह, सतण्हं अट्ठण्ह, अट्ठण्हं नवण्ह, नवण्हं. स० सतसु, सतसुं
अट्ठसु, अट्ठसुं नवसु, नवसं .
नव
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________________
४७६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
६० दस, दह (दशन् )शब्द ६१ वीसा (विशति) स्त्रीलिंग शब्द
एकवचन
बहुवचन प्र० दह, दस
वीसा
वीसाओ, वीसाउ, वीसा द्वि० दह, दस
वीसं
वोसाओ, वीसउ, वीसा तृ० दहहि, दहहिं, दहहिँ वीसअ, वीसाइ वीसाहि, वीसाहिं दसहि, दसहिं, दसहिँ वीसाए
वीसाहिँ पं० दहत्तो, दहाओ, दहाउ (शेष रूप माला शब्द की तरह)
दहाहिन्तो, दहासुन्तो इसी प्रकार एगूणवीसा, एगवीसा, एगूणतीसा, दसतो, दसाओ, दसाउ तीसा, एगतीसा, एगृणचत्तालीसा, चत्तालीसा,
दसाहिन्तो, दसासुन्तो पण्णासा, अट्ठावणा आदि शब्द' चलते हैं। च०/ष० दसण्ह, दसण्ह स० दहसु, दहसुं, दससु, दससु इसी प्रकार एगारहअट्ठारह शब्दों के रूप चलते हैं । ६२ सट्ठि (षष्टि) शब्द स्त्रीलिंग एकवचन
बहुवचन प्र० सट्ठी
सट्ठीउ, सट्ठीओ, सट्ठी द्वि० सद्धि
सट्ठीउ, सट्ठीओ, सट्ठी तृ० सट्ठीअ, सट्ठीआ, सट्ठीइ, सट्टीए सट्ठीहि, सट्ठीहिं, सट्ठीहिँ पं० सट्ठीअ, सट्ठीआ, सट्ठीइ, सट्ठीए सद्वित्तो सट्ठीओ, सट्ठीउ, सट्ठीहिन्तो
सट्टित्तो, सट्ठीओ, सट्ठीउ, सट्ठीसुन्तो
सट्ठीहिन्तो च०/५० सट्ठीअ, सट्ठीआ, सट्ठीइ सट्ठीण, सट्ठीणं
सट्ठीए स० सट्ठीअ, सट्ठीआ, सट्ठीइ, सट्ठीए सट्ठीसु, सट्ठीसुं
___ इसी प्रकार एगूणसट्टि, एगसटि, एगूणसत्तरि, एगसत्तरि, एगूणसीइ, एगासीइ, एगूणनवइ, नवइ, एगनवइ, नवनवइ आदि शब्द चलते हैं । ६३ सय (शत) नपुंसक शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० सयं
सया, सयाई, सयाणि द्वि० सयं
सयाई, सयाई, सयाणि तृ० सएण, सएणं
सएहि, सएहिं, सएहिँ (शेष रूप वण (३०) की तरह चलते हैं ।)
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________________
परिशिष्ट २ प्राकृत धातु रूपावली हस् (हस्) धातु के कर्तृवाच्य के रूप
धातोवर्तमानकालस्य रूपाणि एक वचन
बहुवचन प्र० पु० हसई, हसेइ, हसए हसन्ति, हसन्ते, हसिरे, हसेन्ति, हसेन्ते,
हसेइरे, हसिन्ति, हसिन्ते, हसइरे म० पु० हससि, हसेसि, हससे हसित्था, हसह, हसेत्था, हसेह, हसइत्था,
हसेइत्था उ० पु. हसमि, हसा मि , हसेमि हसमो, हसमु, हसम, हसामो, हसामु,
हसाम, हसिमो, हसिमु, हसिम, हसेमो,
हसेमु, हसेम सर्ववचन, सर्वपुरुष-हसिज्ज, हसेज्ज, हसिज्जा, हसेज्जा
विधिआज्ञार्थयो रूपाणि
एकवचन
बहुवचन प्र. पु० हसउ, [हसए, हसे] हसन्तु, हसिन्तु, हसेन्तु म० पु० हसहि, हसेहि, हससु, हसेसु, हसह, हसेह
हसिज्जसु, हसेज्जसु, हसिज्जहि, हसेज्जहि, हसिज्जे, हसेज्जे, हस, हसे * [हसिज्जसि, हसेज्जसि, [हसिज्जाह, हसेज्जाह] हसिज्जासि, हसेज्जासि, हसिज्जाहि,
हसेज्जाहि, हसाहि] इस [ ] कोष्ठक में जो रूप हैं वे आर्ष में मिलते हैं।
सर्वपुरुष, सर्ववचन--हसित्था, हसिसु उ० पु० हसमु, हसामु, हसिमु, हसेमु हसमो, हसामो, हसिमो, हसेमो सर्वपुरुष, सर्ववचन-हसिज्ज, हसेज्ज हसिज्जा, हसेज्जा
'हस्' (हस्) धातोर्भूतकालस्य रूपाणि सर्वपुरुष, सर्ववचन-हसी
.
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________________
४७८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
'हस्' (हस्) धातोभविष्यत्कालस्य रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र. पु० हसिहिइ, हसिहिए, हसेहिइ, हसिहिन्ति, होसहिन्ते, हसिहिरे,
हसेहिए, [हसिस्सइ, हसिस्सए हसेहिन्ति, हसेहिन्ते, हसेहिरे, हसेस्सइ, हसेस्सए]
[हसिस्सन्ति, हसिस्सन्ते, हसेस्सन्ति,
हसेस्सन्ते म० पु० हसिहिसि, हसि हिसे, हसेहिसि, हसिहित्था, हसिहिह, हसेहित्था,
हसे हिसे, [हसिस्ससि, हसेहिह, [हसिस्सह, हसेस्सह]
हसिस्ससे, हसेस्ससि , हसेस्ससे] उ० पु० हसिस्सं, हसिस्सामि, हसेस्सं, हसिस्सामो, हसिस्सामु, हसिस्साम,
हसेस्सामि, हसिहामि, हसेस्सामो, हसेस्सामु, हसेस्साम, हसेहामि, हसिहिमि, हसे हिमि हसिहामो, हसिहामु, हसिहाम, हसेहामो,
हसेहामु, हसेहाम, हसिहिमो, हसिहिमु, हसेहिम, हसे हिमो, हसेहिमु, हसेहिम, हसिहिस्सा, हसिहित्था, हसे हिस्सा,
हसेहित्था सर्व पुरुष, सर्ववचन- हसेज्ज, हसेज्जा, हसिज्ज, हसिज्जा
'हस्' (हस्) धातोः क्रियातिपत्त्यर्थस्य रूपाणि सर्ववचन, सर्वपुरुष-- हसिज्ज, हसिज्जा, हसेज्ज, हसेज्जा एकवचन
बहुवचन पुल्लिग हसन्तो, हसेन्तो, हसिन्तो, हसन्ता, हसेन्ता, हसिन्ता, हसमाणा,
हसमाणो, हसेमाणो, (हसन्ते, हसेमाणा
हसेन्ते, हसिन्ते, हसमाणे, हसेमाणे) स्त्रीलिंग हसन्ती, हसेन्ती, हसिन्ती, हसन्तीओ, हसेन्तीओ, हसिन्तीओ,
हसमाणी, हसेमाणी, हसन्ता, हसमाणीओ, हसेमाणीओ, हसन्ताओ, हसेन्ता, हसिन्ता, हसमाणा, हसेन्ताओ, हसिन्ताओ, हसमाणाओ, हसेमाणा, हसन्तं, हसेन्तं हसेमाणाओ, हसन्ताई हसेन्ताई, हसिन्तं, हसमाणं, हसेमाणं हसिन्ताई, हसमाणाई, हसेमाणाई
इसी प्रकार कह, (कथ्) गच्छ् (गम्) जाण् (ज्ञा) देक्ख (दृश्) नम् (नम्) बीह, (भी) बोल्ल् (कथ्) रुव (रुद्) आदि हसान्त धातुओं के रूप चलते हैं। 'हो' (भू) धातोर्वर्तमानकालस्य रूपाणि
बहुवचन प्र० पु० होइ
होन्ति, होन्ते, होइरे, हुन्ति, हुन्ते
एकवचन
Page #496
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परिशिष्ट २
४७९
बहवचन
म० पु० होसि
होइत्था, होह उ० पु० होमि
होमो, होमु, होम . 'होअ' (भू) अंगस्य वर्तमानकालरूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र० तु. होअइ, होअए, होएइ होअन्ति, होअन्ते, होइरे, होएन्ति,
होएन्ते, होएइरे, होइन्ति,
होइन्ते, होअइरे म० पु० होअसि, होअसे, होएसि होइत्था, होअह, होएत्था, होएह,
होअइत्था होएइत्था उ० पु० होअमि, होआमि, होएमि होअमो, होअमु, होअम, होआमो,
होआमु होआम, होइमो, होइमु, होड़
होएमो, होएमु, होएम 'होज्ज-होज्जा' (भू) अंगस्य वर्तमानकालरूपाणि
एकवचन प्र० पु० होज्जइ, होज्जाइ, होज्जेइ, होज्जन्ति, होज्जन्ते, होज्जइरे, होज्जए, होज्ज, होज्जा होज्जान्ति, होज्जान्ते, होज्जाइरे,
होज्जेन्ति, होज्जेन्ते, होज्जेइरे, होज्जिन्ति, होज्जिन्ते, होज्जिरे,
होज्ज, होज्जा म० पु० होज्जसि, होज्जासि, होज्जेसि, होज्जित्था, होज्जह, होज्जेत्था, होज्जसे, होज्ज, होज्जा होज्जइत्था, होज्जाह, होज्जेइत्था,
होज्जेह, होज्जाइत्था, होज्ज, होज्जा उ० पु० होज्जमि, होज्जामि, होज्जेमि, होज्जमो, होज्जमु, होज्जम, होज्जामो, होज्ज, होज्जा
होज्जामु, होज्जाम, होज्जिमो, होज्जिमु, होज्जिम, होज्जेमो, होज्जेमु, होज्जेम,
होज्ज, होज्जा 'होएज्ज-होएज्जा' (भू) अंगस्य वर्तमानकालरूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होएज्जइ, होएज्जाइ, होएज्जन्ति, होएज्जन्ते, होएज्जइरे,
होएज्जेइ, होएज्जए, होएज्ज, होएज्जान्ति, होएज्जान्ते, होएज्जाइरे, होएज्जा
होएज्जेन्ति, होएज्जेन्ते, होएज्जेइरे, होएज्जिन्ति, होएज्जिन्ते, होएज्जिरे,
होएज्ज, होज्जा म० पु० होएज्जसि, होएज्जासि, . होएज्जित्था, होएज्जह, होएज्जेत्था,
होएज्जेसि, होएज्जसे, होएज्जाह, होएज्जइत्था, होएज्जेह,
Page #497
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________________
४८०
होएज्ज, होएज्जा
उ०पु० होएज्जमि, होएज्जामि, होएज्जेमि, होएज्ज, होएज्जा
*
प्र०पु० होउ
म०पु० होहि होसु (होइज्जसि, होइज्जासि, होइज्जा हि )
उ०पु० होमु
हज्ज - होज्जा - होज्ज - होएज्जा - इत्यादि ज्ज-ज्जा - अङ्गस्य रूपाणि भूतकाले क्रियातिपत्त्यर्थे च न भवन्ति ।
'हो' (भू) धातोविधि- आज्ञार्थयो रूपाणि
एकवचन
हाएज्जेइत्था, होएज्जाइत्था, होएज्ज, होएज्जा
होएज्जमो, होएज्जमु, होएज्जम होएज्जामो, होएज्जामु, होएज्जाम होएज्जिमो, होएज्जिमु, होएज्जिम होएज्जेमो, होएज्जेमु, होएज्जेम होज्ज, होज्जा
"
प्र०पु० होज्जउ, होज्जाउ, होज्जेउ
( होज्जे) (होज्जए) होज्ज होज्जा
म०पु० होज्जहि, होज्जेहि, होज्जाहि होज्जसु होज्जेसु, होज्जासु हो ज्जिज्जसु, होज्जेज्जसु हो ज्जिज्जहि होज्जेज्जहि
प्राकृत वाक्यरचना बौध
बहुवचन
होन्तु, हुतु
होह ( होज्जाह )
होमो
'होअ' (भू) अंगस्य रूपाणि
एकवचन प्र०पु० होअउ, होएउ ( होअए)
म०पु० होअहि, होएहि, होअसु, होएसु होइज्जसु होएज्जसु होइज्जहि होएज्जहि, होइज्जे, होएज्जे हो, होए, ( होइज्जसि होएज्जसि होइज्जासि, होएज्जासि
जाहि होज्जा हि, होआहि )
उ०पु० होअमु, होआमु, होइमु, होएमु होअमो, होआमो, होइमो, होएमो होज्ज, होज्जा, (भू) अंगस्य आज्ञार्थयो रूपाणि
एकवचन
बहुवचन होअन्तु, होएन्तु, होइन्तु
होअह, होएह ( होइज्जाह, होएज्जाह )
बहुवचन
होज्जन्तु, होज्जान्तु, होज्जेन्तु होज्जिन्तु, होज्ज, होज्जा
होज्जह, होज्जेह, होज्जाह, होज्ज होज्जा (हो ज्जिज्जाह, होज्जेज्जाह )
Page #498
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परिशिष्ट २
४८१
होज्जिज्जे, होज्जेज्जे, होज्ज होज्जा (होज्जिज्जसि, होज्जेज्जसि होज्जिज्जासि, होज्जेज्जासि होज्जिज्जाहि, होज्जेज्जाहि
होज्जाहि) उ०पु० होज्जमु, होज्जामु, होज्जिमु होज्जमो, होज्जामो, होजिमो
होज्जेमु, होज्ज, होज्जा होज्जेमो, होज्ज, होज्जा होएज्जा, होएज्जा (भू) अंगस्य विधि-आज्ञार्थयो रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र.पु. होएज्जउ, होएज्जाउ, होएज्जेउ होएज्जन्तु, होएज्जान्तु, होएज्जेन्तु
(होएज्जए) होएज्ज, होएज्जा होएज्जिन्तु, होएज्ज, होएज्जा म०पु० होएज्जहि, होएज्जाहि, होएज्जेहि होएज्जह, होएज्जाह, होएज्जेह
होएज्जसु, होएज्जासु, होएज्जेसु होएज्ज, होएज्जा (होएज्जिज्जाह होएज्जिज्जसु, होएज्जेज्जसु होएज्जेज्जाह) होएज्जिज्जहि, होएज्जेज्जहि होएज्जिज्जे, होएज्जेज्जे, होएज्ज होएज्जा (होएज्जिज्जसि, होएज्जेज्जसि, होएज्जिज्जासि होएज्जेज्जासि, होएज्जिज्जाहि
होएज्जेज्जाहि, होएज्जाहि) उ०पु० होएज्जमु, होएज्जामु, होएज्जिमु होएज्जमो, होएज्जामो, होएज्जिमो होएज्जेमु, होएज्ज, होएज्जा होएज्जेमो, होएज्ज, होएज्जा
___'हो' (भू) धातोर्भूतकालस्य रूपाणि सर्वपुरुष, सर्ववचन-होसी, होही, होहीअ
'हो' अंगस्य रूपाणि सर्वपुरुष, सर्ववचन-होअसी, होअही, होअहीअ
आर्षरूपाणि सर्वपुरुष, सर्ववचन-हीत्था, होंसु, होइत्था, होइंसु
'हो' (भू) धातोर्भविष्यत्कालस्य रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र.पु. होहिइ, होहिए, (होस्सइ होहिन्ति, होहिन्ते, होहिरे होस्सए)
(होस्सन्ति, होस्सन्ते)
Page #499
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________________
४८२
म०पु० होहिसि, होहिसे ( होस्सासि, होस्ससे)
उ०पु० ( होस्सं, होस्सामि ) हो हामि होहिमि
होएहिए ( होइस्सइ, होइस्सए होएस्सइ, होएस्सए)
म०पु० होइहिसि, होइहिसे, होए हिसि होएहिसे ( होइस्सस, होइस्ससे होएस्ससि, होएस्ससे)
उ०पु० ( होइस्सं, होइस्सामि, होएस्सं, होएस्सामि ) होइहामि, होएहामि हो हो हिम
'होअ' (भू) अंगस्य भविष्यत्कालस्य रूपाणि
एकवचन
प्र०पु० होइहिड, होइहिए, होएहिइ
एकवचन प्र०पु० होज्जहिइ, होज्जहिए, होज्जाहिर होज्जहिए होज्ज, होज्जा
म०पु० होज्जहिसि, होज्जहिसे,
प्राकृत वाक्यरचना बोध
होज्जा हिसि, होज्जा हिसे, होज्ज होज्जा
उ०पु० होज्जस्सं, होज्जस्सामि, होज्जास्सं होज्जास्सामि, होज्जहामि होज्जाहामि, होज्जहिमि होज्जाहिमि, होज्ज, होज्जा
होहित्था होहिह ( होस्सह)
( होस्सामो, होस्सामु, होस्साम ) होहामो, होहामु, होहाम, होहिमो होहिमु, होहिम हो हिस्सा, होहित्या
'होज्ज - होज्जा' (भू) अंगस्य भविष्यत्कालरूपाणि
बहुवचन होइहिन्ति, होइहिन्ते होइहिरे होएहिन्ति, होएहिन्ते, होएहिरे ( होइस्सन्ति, होइस्सन्ते, ( होएस्सन्ति होएस्सन्ते)
होइहित्था, होइहिह, होएहित्था होए हिह ( होइस्सह, होएस्सह)
( होइस्सामो, होइस्सामु, होइस्साम होएस्सामो, होएस्सामु, होएस्साम ) होइहामो, होsहामु, होइहाम, होएहामो, होएहामु, होएहाम, होइहिमो, होइहिमु, होइहिम, होएहिमो, होएहिमु, होएहिम, होइहिस्सा होइहित्था, होएहिस्सा, होएहित्था
बहुवचन
होज्जहिन्ति, होज्जहिन्ते, होज्जहिरे, होज्जाहिन्ति होज्जा हिन्ते, होज्जा हिरे, होज्ज, होज्जा होज्जहित्था, होज्जहिह, होज्जाहित्था, होज्जाहिह, होज्ज, होज्जा
होज्जस्सामो, होज्जसामु, होज्जसाम, होज्जासामो-मुम, होज्जहामो-मु-म होज्जाहामो-मुम, होज्जहिमो-मु-म होज्जा हिमो-मु-म होज्जहिस्सा
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परिशिष्ट २
होज्जहित्था, होज्जा हिस्सा होज्जा हित्था, होज्ज, होज्जा
'होएज्ज - होएज्जा' (भू) अंगस्य भविष्यत्कालरूपाणि
एकवचन
प्र०पु० होएज्जहिर, होएज्जहिए
होएज्जाहिर होएज्जाहिए होएज्ज, होएज्जा
म०पु० होएज्जहिसि, होएज्जहिसे होएज्जाहिसि, होएज्जाहिसे होएज्ज, होएज्जा
उ०पु० होएज्जस्सं, होएज्जसामि
होएज्जास्सं, होएज्जास्सामि होज्जहामि, होएज्जाहामि होएज्जहिमि, होएज्जाहिमि होएज्ज, होज्जा
'हो - होअ' (भू) धातोः क्रियातिपत्यर्थस्य रूपाणि
हो - होज्ज, होज्जा, हुज्ज, हुज्जा
सर्वपुरुष सर्ववचन ) होअ - होएज्ज, होएज्जा
एकवचन
पुलिंग — होन्तो, हुन्तो, होमाणी ( होन्ते हुन्, होमाणे ) होअन्तो, होएन्तो होइन्तो, होअमाणो, होएमाणो (होअन्ते, होएन्ते, होइन्ते होअमाणे, होएमाणे ) स्त्रीलिंग -— होन्ती, हुन्ती, होमाणी होमाणा, होअन्ती, होएन्ती होइन्ती, होअमाणी, होएमाणी हो माणा, होएमाणा
नपु० - होतं, हुतं, होमाणं होअन्तं होतं, होइन्तं होअमाणं, होएमाणं
बहुवचन होएज्जहिन्ति, होएज्जहिन्ते
होएज्जहिरे, होएज्जाहिन्ति होएज्जाहिन्ते, होएज्जाहिरे, होएज्ज
होज्जा
होएज्जहित्था, होएज्जहिह
होएज्जाहित्था, होएज्जाहिह होएज्ज, होएज्जा होज्जसामो-मु-म
होएज्जास्सामो-मु-म होएज्जहामो-मु-म
होएज्जाहामो-मु-म, होएज्जहिमो-मु-म होएज्जहिस्सा होएज्ज हित्था होएज्जा हिस्सा, होएज्जाहित्था होएज्ज, होएज्जा
बहुवचन होन्ता हुन्ता, होमाणा, होअन्ता होएन्ता, होइन्ता, होअमाणा हो एमाणा
४८३
होन्तीओ, हुन्तीओ, होमाणीओ होमाणाओ, होअन्तीओ, होएन्तीओ होइन्तीओ, होअमाणीओ, होएमाणीओ हो माणाओ, होमाणाओ होन्ताई, हुन्ताई, होमाणाई होअन्ताई, होएन्ताई, होइन्ताई हो माणा, होएमाणाइं
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________________
४८४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
इसी प्रकार नी (ने), डी (डे), जि (जे), स्ना (हा), ध्यै (झा), स्था (ठा), पा (पा), या (जा), आदिस्वरान्त-धातुओं के रूप चलते हैं ।
अस् (अस्) धातु
वर्तमानकाल एकवचन
बहुवचन प्र.पु० अस्थि
अस्थि म०पु० सि, अस्थि
अस्थि उ०पु० अत्थि, म्मि
अत्थि, म्हो, म्ह
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र०पु० आसि, अहेसि
आसि, अहेसि म०पु० आसि, अहेसि
आसि, अहेसि उ०पु० आसि, अहेसि
आसि, अहेसि आगम में उपलब्ध रूप
(वर्तमाने) प्र०पु० अत्थि
सन्ति म०पु० सि अंसि, उ०पु० मि
(विध्यर्थे) प्र०पु० सिया
सिया म०पु० सिया
सिया उ०पु० सिया
सिया
(आज्ञायाम्) प्र.पु० अत्थु म.पु० ० उ०पु० ०
(भूतकाले) प्र०पु० आसि, आसी म०पु० ० उ०पु० ०
आसिमी इति कर्तरिरूपाणि
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________________
परिशिष्ट २
भावे कर्मणि च रूपाणि
हसीअ, हसिज्ज ( हस्-हस्य) अंगस्य भावे कर्मणि च वर्तमानकालस्य रूपाणि
एकवचन
प्र०पु० हसीअर, हसीअए, हसीएइ
म०पु० हसीअसि, हसीअसे, हसीएसि हसिज्जसि, हसिज्जसे, हसिज्जेसि
हसन्ति, हसीइन्ते, हसीअइरे
हसिज्ज, हसिजए, हसिज्जेइ हसिज्जन्ति, हसिज्जन्ते, हसिज्जइरे
उ०पु० हसीअमि, हसीआमि, हसीएम हसिज्जमि, हसिज्जामि हसिज्जेमि
एकवचन प्र०पु० हसीअर, हसीएउ,
हसिज्जउ, हसिज्जेउ
सर्वपुरुष, सर्ववचन - हसीएज्ज, हसीएज्जा, हसिज्जेज्ज, हसिज्जेज्जा हसीअ, हसिज्ज (हस् - हस्य) अंगस्य भावे कर्मणि च
विधि - आज्ञार्थयो रूपाणि
म०पु० हसीअहि, हसिएहि, हसीअसु
बहुवचन
हसीअन्ति, हसीअन्ते, हसीइरे हसीएन्ति, हसीएन्ते, हसीएइरे
हसीएसु, हसीइज्जसु, हसीएज्जसु हसीइज्जहि, हसीएज्जहि हसीइज्जे, हसीएज्जे, हसीअ हसिज्जहि, हसिज्जेहि, हसिज्जसु हसिज्जेसु, हसिज्जिज्जसु
૪૬૧
हसिज्जेन्ति, हसिज्जेन्ते, हसिज्जेइरे हसिज्जिन्ति, हसिज्जिन्ते, हसिज्जिइरे हसी इत्था, हसीअह, हसीएइत्था हसीएह, हसीअइत्या, हसिज्जित्था हसिज्जह, हसिज्जेइत्था, हसिज्जेह हसिज्जइत्था
हसीअमो, हसअभु, हसीअम हसी आमो, हसीआ, हसीआम हसीइमो, हसीदमु, हसीइम हसीएम, हसीएम, हसएम हरिज्जमो, हसिज्ज, हसिज्जम हसिज्जामो, हसिज्जामु, हसिज्जाम हसिज्जिमो, हसिज्जिमु, हसिज्जिम हसिज्जेमो, हसिज्जेमु, हसिज्जेम
बहुवचन
हसीअन्तु, हसीएन्तु, हसीइन्तु हसिज्जन्तु, हसिज्जेन्तु, हसि ज्जन्तु हसी अह, हसीएह, हसिज्जह हसिज्जेह, ( हसीइज्जाह, हसी एज्जाह, हसिज्जिज्जाह ह सिज्जेज्जाह )
Page #503
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________________
४८६
हसिज्जेज्जसु, हसिज्जिज्जहि ह सिज्जेज्ज हि, हसिज्जिज्जे हसिज्जेज्जे, हसिज्ज (हसीइज्जसि
हसी एज्जसि, हसीइज्जासि हसी एज्जासि, हसीइज्जाहि हसीएज्जा हि, हसीआहि ) (ह सिज्जिज्जसि, हसिज्जेज्जसि हसिज्जिज्जासि, हसिज्जेज्जासि हसिज्जिज्जाहि हसिज्जेजाहि हसिज्जा हि )
उ०पु० हसीअ, हसीआमु, हसीइमु
हसमु, हसिज्ज, हसिज्जामु हसिज्जिम, हसिज्जेमु
सर्व पुरुष सर्ववचन - हसीएज्ज, हसीएज्जा, हसीएज्जइ, हसीएज्जाइ हसिज्जेज्ज, हसिज्जेज्जा, हसिज्जेज्जइ, हसिज्जेज्जाइ
हसीअ - हसिज्ज ( हस्- हस्य) अंगस्य भावे कर्मणि च भूतकालस्य रूपाणि
सर्व पुरुष सर्व वचन - हसीअईअ हसिज्जईअ
एकवचन
प्र०पु० हसिहि, हसिहिए, हसे हिइ
हसे हिए, हसिस्सइ, हसिस्सए हसेस, हसेस्सए
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हसीअमो, हसीआमो, हसीइमो हसीएमो, हसिजमो, हसिज्जामो हसिज्जिमो, हसिज्जेमो
[ हसीइत्था, हसिज्जित्था, हसीइंसु, हसिज्जिसु ] ( हसीअ, हसित्था, हसिसु, इत्यादि रूपाणि कर्तरिवद् ज्ञेयानि ) भविष्यत्काले कर्मणि कर्तृवद् रूपाणि भवन्ति
म०पु० हसि हिसि हसिहिसे, हसे हिसि हसे हिसे, हसिस्ससि, हसिस्ससे हसेस सि, हमे से उ०पु० हसिस्सं, हसेस्सं, हसिस्सामि हसेस्सामि, हसिहामि, हसेहामि हसि हिमि, हसेहि मि
बहुवचन हसि हिन्ति, हसि हिन्ते, हसिहिरे
हसे हिन्ति, हसे हिन्ते, हसेहिरे हरिस्सन्ति, हसिस्सन्ते, हसेस्सन्ति हस हरिहित्था, हसिहि, हसेहित्था हसे हिह हसिस्सह, हसेस्सह
हसि सामो, हसिस्सामु, हसिस्साम, हसिहामो, हसिहामु, हसिहाम, हसेस्सामी, हसेस्सामु, हसेस्साम हसे हिमो, हसेहिमु, हसे हिम, हसिहामो, हसिहामु, हसिहाम
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परिशिष्ट २
४८७
हसेहामो, हसेहामु, हसेहाम हसिहिस्सा, हसे हिस्सा, हसिहित्था
हसेहित्था सर्वपुरुष, सर्ववचन---हसेज्ज, हसेज्जा, हसिज्ज, हसिज्जा
क्रियातिपत्त्यर्थे (कर्मणि) कर्तवद रूपाणि भवन्ति सर्वपुरुष, सर्ववचन---हसेज्ज, हसेज्जा, हसिज्ज, हसिज्जा एकवचन
बहुवचन पुंलिंग हसन्तो, हसिन्तो, हसेन्तो हसन्ता, हसिन्ता, हसेन्ता, हसमाणा
हसमाणो हसेमाणो (हसन्ते हसेमाणा हसेन्ते, हसिन्ते, हसमाणे
हसेमाणे) स्त्रीलिंग हसन्ती, हसेन्ती, हसिन्ती हसन्तीओ, हसेन्तीओ, हसिन्तीओ
हसमाणी, हसेमाणी, हसन्ता हसमाणीओ, हसेमाणीओ, हसन्ताओ हसेन्ता, हसिन्ता, हसमाणा । हसेन्ताओ, हसिन्ताओ, हसमाणाओ हसेमाणा
हसेमाणाओ नपु० हसन्तं, हसेन्तं, हसिन्तं हसन्ताई, हसेन्ताई, हसिन्ताई हसमाणं, हसेमाणं
हसमाणाई, हसेमाणाई होईअ-होइज्ज (भू-भूय) अंगस्य भावे कर्मणि च
वर्तमानकालस्य रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र०पु० होईअइ, होईअए, होईएइ होईअन्ति, होईअन्ते, होईअइरे होइज्जइ, होइज्जए, होइज्जेइ होईइरे, होईएन्ति, होईएन्ते, होईएइरे
होईइन्ति, होईइन्ते, होइज्जन्ति होइज्जन्ते, होइज्जइरे, होइज्जिरे होइज्जेन्ति, होइज्जेन्ते, होइज्जेइरे
होइज्जिन्ति, होइज्जिन्ते म०पु० होईअसि, होईअसे, होईएसि । होईअइत्था, होईइत्था, होईएइत्था
होइज्जसि, होइज्जसे होईअह, होईएह, होइज्ज इत्था. होइज्जेसि
होइज्जह, होइज्जित्था, होइज्जेइत्था
होइज्जेह उ०पु० होईअमि, होईआमि, होईएमि होईअमो, होईअमु, होईअम, होईआमो
होइज्जमि, होइज्जामि होईआमु, होईआम, होईइमो, होईइमु होइज्जेमि
होईइम, होईएमो, होईएमु, होईएम होइज्जमो, होइन्जमु, होइज्जम
Page #505
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४८८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
होइज्जामो, होइज्जामु, होइज्जाम होइज्जिमो, होइज्जिमु, होइज्जिम
होइज्जेमो, होइज्जेमु, होइज्जेम सर्वपुरुष, सर्ववचन-होईएज्ज, होईएज्जा, होइज्जेज्ज, होइज्जेज्जा होईअ-होइज्ज (भू-भूय) अंगस्य भावे कर्मणि च
विधि-आज्ञार्थयो रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र०पु० होईअउ, होईएउ (होईअए) होईअन्तु, होईएन्तु, होईइन्तु, होइज्जन्तु
होइज्जउ, होइज्जेउ होइज्जेन्तु, होइज्जिन्तु, होईअह, होईएह
(होइज्जए) म०पु० होईअहि, होईएहि, होईअसु होईअह, होईएह (होईइज्जाह
होईएसु, होईइज्जसु होईएज्जाह) होइज्जह, होइज्जेह होएइज्जसु, होईइज्जहि (होइज्जिज्जाह, होइज्जेज्जाह) होईएज्जहि, होईइज्जे, होईएज्जे होईअ, (होईइज्जसि, होईएज्जसि होईइज्जासि, होईएज्जासि होईइज्जाहि, होईएज्जाहि होईआहि) होइज्जहि, होइज्जेहि होइज्जसु, होइज्जेसु, होइज्जिज्जसु होइज्जिज्जहि, होइज्जेज्जहि होइज्जिज्जे, होइज्जेज्जे, होइज्ज (होइज्जिज्जसि, होइज्जेज्जसि होइज्जिज्जासि, होइज्जेज्जासि होइज्जिज्जाहि, होइज्जेज्जाहि
होइज्जाहि उ०पु० होईअमो, होईआमु, होईइमु होईअमो, होईआमो, होईइमो
होईएमु, होइज्जमु, होइज्जामु होईएमो, होइज्जमो, होइज्जामो
होइज्जिम, होइज्जेज होइज्जिमो, होइज्जेमो सर्वपुरुष, सर्ववचन-होईएज्ज, होईएज्जा, होईएज्जइ, होईएज्जाइ, होइज्जेज्ज,
होइज्जेज्जा, होइज्जेज्जइ, होइज्जेज्जाइ होईअ, होइज्ज (भू-भूय) अंगस्य भावे कर्मणि च
भूतकालस्य रूपाणि सर्वपुरुष, सर्ववचन-होईअसी, होईअही, होईअहीअ होइज्जसी, होइज्जही,
होइज्जहीअ । होसी, होही, होहीअ (कर्तृवत्) [होईइत्था, होईइंसु, होइज्जित्था, होइज्जिसु । होत्था हविंसु] (कर्तृवत्)
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परिशिष्ट २
एकवचन प्र०पु० हो हिइ, होईए
भविष्यत्काले कर्तरिवद् रूपाणि
( शेषं कर्तविद् ज्ञेयानि )
क्रियातिपत्त्यर्थे कतृ वद् रूपाणि
सर्वपुरुष, सर्ववचन - होज्ज, होज्जा, हुज्ज, हुज्जा
एकवचन पु० होतो, हुन्तो, होमाणो स्त्री० होती, हुन्ती न० होतं हुतं
एकवचन प्र०पु० हात -हासइ, हासए, हासेइ
हासे --- हासे
बहुवचन होहिन्ति, हो हिन्ते, होहिरे
प्रेरके कर्तृ रूपाणि
हास -हासे - हसाव - हसावे (हस् -हासय) अंगस्य प्रेरके वर्तमान कालरूपाणि
( शेषं कर्तविद् ज्ञेयानि )
हा हा
हसाव - हसावसि, हसावसे
हासि
बहुवचन होन्ता हुन्ता होन्तीओ, हुन्तीओ होताई, हुताई
हसावे - हसावेस
उ०पु० हास -हास मि, हासामि
हासेमि
हासेन्ति, हासेन्ते, हासेइरे, हासिन्ति हासिन्
हसाव - हसावइ, हसावए हसावे
हंसावन्ति, हसावन्ते, हसाविरे हसावेन्ति, हसावेन्ते, हसावेइरे हसाविन्ति, हसा विन्ते, हसावइरे हसावेन्ति, हसावेन्ते, हसावेइरे हसा विन्ति, हसा विन्ते
हसावे - हसावेइ
म०पु० हास – हससि, हससे, हासेसि हासित्था, हासह, हासेइत्था हासे ह
हास इत्था, हासेत्या हासेइत्था, हासेह
सावित्था, सावह, हसावेइत्था हसावेह, हसावइत्या, हसावेत्था हसावेइत्था, हसावेह हासमो, हासमु, हासम, हासामो हासामु, हासाम, हासिमो, हासिमु हासिम
૪૬૯
बहुवचन
हासन्ति, हासन्ते, हासि रे, हासेन्ति हासेन्ते, हासेइरे, हासिन्ति, हासिन्ते हास इरे
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४६०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हासे-हासेमि
हासेमो, हासेमु, हासेम हसाव-हसावमि, हसावामि हसावमो, हसावमु, हसावम हसावेमि
हसावामो, हसावामु, हसावाम हसाविमो, हसाविमु, हसाविम
हसावेमो, हसावेमु, हसावेम हसावे-हसावेमि
हसावेमो, हसावेमु, हसावेम ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
(सर्ववचन--सर्वपुरुष) हास-हासेज्ज, हासेज्ज, हासिज्ज, हासिज्जा हासे-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, हासिज्जा हसावे-हसावेज्ज हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा हसावे-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा हास-हासे-हासाव-हसावे (हस्-हासय) अंगस्य
विधि-आज्ञार्थयो रूपाणि एकवचन
। बहुवचन प्र.पु० हास-हासउ, हासेउ हासन्तु, हासेन्तु, हासिन्तु हासे-हासेउ
हासेन्तु, हासिन्तु हसाव-हसावउ, हसावेउ हसावन्तु, हसावेन्तु, हसाविन्तु
हसावे--हसावेउ हसावेन्तु, हसाविन्तु म०पु० हास-हासहि हासेहि हासह, हासेह (हासिज्जाह, हासेज्जाह)
हाससु, हासेसु हासिज्जसु, हासेज्जसु हासिज्जहि, हासेज्जहि हासिज्जे, हासेज्जे, हास (हासिज्जसि, हासेज्जसि हासिज्जासि, हासेज्जासि हासिज्जाहि, हासेज्जाहि
हासाहि) । हासे-हासेहि (हासेइज्जसि हासेसु, हासेह (हासेज्जाह)
हासेइज्जासि
हासेइज्जाहि) हसाव-हसावहि, हसावेहि हसावह, हसावेह (हसाविज्जाह
हसावसु, हसावेसु हसावेज्जाह)
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परिशिष्ट २
हसाविज्जसु, हसावेज्जसु हसाविज्जहि, हसावेज्जहि हसाविज्जे, हसावेज्जे, हसाव (हसाविज्जसि, हसावेज्जसि हसाविज्जासि, हसावेज्जासि हसाविज्जाहि, हसावेज्जाहि
हसावाहि) हसावे-हसावेहि, हसावेसु हसावेह (हसावेज्जाह)
(हसावेइज्जसि, हसावेइज्जासि
हसावेइज्जाहि) उ०पू० हास -हासमु, हासामु, हासिमु हासमो, हासामो, हासिमो, हासेमो
हासेमु हासे-हासेमु
हासेमो हसाव-हसावमु, हसावामु हसावमो, हसावामो, हसाविमो हसाविमु, हसावेमु
हसावेमो हसावे--हसावेमु
हसावेमो ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
(सर्वपुरुष-सर्ववचन) हास-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, हासिज्जा हासे-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, . हासिज्जा हसाव-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, . हसाविज्जा हसावे-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा हास-हासे-हसाव-सावे (हस्-हासय) अंगस्य
भूतकालस्य रूपाणि सर्वपुरुष, सर्ववचन-हासीअ, हासेईअ, हसवीअ, हसावेई
आर्ष रूपाणि
(सर्वपुरुष-सर्ववचन) हास-हासित्था, हासिंसु हासे-हासेत्था, हासेंसु हसाव-हसावित्था, हसाविंसु हसावे--हसावेत्था, हसावेंसु
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४६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हास-हासे-हसाव-हसावे (हस्-हासय) अंगस्य
भविष्यत्कालरूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र.पु० हास-हासिहिइ, हासिहिए हासिहिन्ति, हासिहिन्ते, हासिहिरे
हासेहिइ, हासेहिए हासेहिन्ति, हासेहिन्ते, हासेहिरे (हासिस्सइ, हासिस्सए (हासिस्सन्ति, हासिस्संते, हासेस्सन्ति
हासेस्सइ, हासेस्सए) हासेस्सन्ते) हासे–हासेहिइ, हासेहिए हासेहिन्ति, हासेहिन्ते, हासेहिरे
(हासेस्सइ, हासेहिए) (हासेस्सन्ति, हासेस्सन्ते) हसाव हसाविहिइ, हसाविहिए हसाविहिन्ति, हसाविहिन्ते, हसाविहिरे
हसावेहिइ, हसावेहिए हसावेहिन्ति, हसावेहिन्ते, हसावे हिरे (हसाविस्सइ, हसाविस्सए (हसाविस्सन्ति, हसाविस्सन्ते
हसावेस्सइ, हसावेस्सए) हसावेस्सन्ति, हसावेस्सन्ते) हसावे-हसावेहिइ, हसावेहिए हसावेहिन्ति, हसावेहिते,
हसावेहिरे (हसावेस्स इ, हसावेस्सए) (हसावेस्सन्ति, हसावेस्सन्ते) म०पु० हास-हासि हिसि, हासिहिसे हासिहित्था, हासि हिह, हासेहित्था
हासेहिसि, हासेहिसे हासेहिह (हासिस्सह, हासेस्सह) (हासिस्ससि, हासिस्ससे
हासेस्ससि, हासेस्ससे) हासे-हासेहिसि, हासेहिसे हासेहित्था, हासेहिह
[हासेस्ससि, हासेस्ससे] (हासेस्सह) हसाव-हसाविहिसि, हसाविहिसे हसाविहित्था, हसाविहिह
हसावेहिसि, हसावेहिसे हसावेहित्था, हसावेहिह (हसाविस्सह (हसाविस्ससि, हसाविस्ससे हसावेस्सह)
हसावेस्ससि, हसावेस्ससे) हसावे-हसावेहिसि, हसावेहिसे हसावित्था, हसावेहिह
(हसावेस्ससि,हसावेस्ससे) (हसावेस्स ह) एकवचन
बहुवचन उ०पु० हास-हासिस्सं, हासेस्सं हासिस्सामो, हासिस्सामु, हासिस्साम
हासिस्सामि, हासेस्सामि हासेस्सामो, हासेस्सामु हासेस्साम हासिहामि, हासेहामि हासिहामो, हासिहामु, हासिहाम
हासेहामो, हासेहामु, हासेहाम हासिहिमो, हासिहिमु, हासिहिम
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परिशिष्ट १
४६३
हासिहिमि, हासे हिमि हासि हिस्सा, हासिहित्था
हासेहिस्सा, हासेहित्था हासे-हासेस्सं, हासेस्सामि हासेस्सामो, हासेस्सामु, हासेस्साम हासेहामि, हासेहिमि हासेहामो, हासेहामु, हासेहाम
हासेहिमो, हासेहिमु, हासेहिम
हासेहिस्सा, हासेहित्था हसाव-~-हसाविस्सं, हसावेस्सं हसाविस्साम, हसाविस्सामु, हसाविस्साम
हसाविस्सामि, हसावेस्सामि हसावेस्सामो, हसावेस्सामु, हसावेस्साम हसाविहामि, हसावेहामि हसाविहामो, हसाविहामु, हसाविहाम
हसाविहामो, हसावेहामु, हसावेहाम हसावेहामो, हसाविहिमु, हसाविहिम
हसाविहिमो, हसावेहिमु, हसावेहिम हसाविहिमि, हसावेहिमि हमाविहिस्सा, हसाविहित्था
हसावेहिस्सा, हसावेहित्था हसावे-हसायेस्स, हसावेस्सामि हसावेस्सामो, हसावेस्सामु, हसावेस्साय हसावेहामि, हसावेहिमि हसावेहामो, हसावेहामु, हसावेहाम
हसावेहिमो, हसावेहिमु, हसावेहिम
हसावेहिस्सा, हसावेहित्था (सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन)
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि हास-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, हासिज्जा हासे-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, हासिज्जा हसाव-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा हसावे-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा हास-हासे-हसाव-हसावे (हस्-हासय) अंगस्य
प्रेरके क्रियातिपत्त्यर्थरूपाणि (सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन)
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि हास-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, हासिज्जा हासे-हासेज्ज, हासेज्जा, हासिज्ज, हासिज्जा हसाव-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा हसावे-हसावेज्ज, हसावेज्जा, हसाविज्ज, हसाविज्जा
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४ε४
एकवचन
हास -- हासतो, हासेन्तो, हासिन्तो हासमाणो, हासेमाणो
हासे -- हासेन्तो, हासेमाणो हसाव - हसावन्तो, हसावेन्तो, हसावन्तो, हसावमाणो, हसा माण
पुंलिंगे
एकवचन
हास - हासन्ती, हासेन्ती
हसावे - हसावेन्तो, हसाविन्तो हसावेन्ता, हसाविन्ता, हसावेमाणा हसावे माणो
आर्षे एकवचनरूपाणि
हास – हासन्ते, हासेन्ते, हासिन्ते, हासमाणे, हासेमाणे हासे --- हासेन्ते, हासिन्ते, हासेमाणे
हासिन्ती, हासमाणी हामाणी
प्राकृत वाक्यरचना बोध
बहुवचन
हासन्ता, हासेन्ता, हासिन्ता हासमाणा, हासेमाणा
हासेन्ता, हासेमाणा
हसाव - हसावन्ते, हसावेन्ते, हसाविन्ते, हसावमाणे, हसावेमाणे हसावे -- हसावेन्ते, हसाविन्ते, हसावेमाणे
स्त्रीलिगं
हासे - हासेन्ती, हासेमाणी हसाव - हसावन्ती, हसावेन्ती हसावन्ती, हसावमाणी हसा माणी
हसावन्ता, हसावेंता, हसावितां हसावमाणा, हसावेमाणा
बहुवचन हासन्तीओ, हासेन्तीओ, हासिन्तीओ हास माणीओ, हासेमाणीओ
हासेन्तीओ, हासेमाणीओ हसावन्तीओ, हसावेन्तीओ, हसाविन्तीओ हसावमाणीओ, हसावेमाणीओ
हसावे - हसावेन्ती, हसाविन्ती हसावेन्तीओ, हसाविन्तीओ
हसावेमाणी
हसावेमाणीओ
नपुंसकलि
एकवचन
बहुवचन
हास माणं, हा माणं हासे - हासेन्तं, हासिन्तं, हासेमाणं हसाव - हसावन्तं, हसावेन्तं
हास -- हासन्तं, हासेन्तं, हासिन्तं हासन्ताई, हासेन्ताई, हासिन्ताई हासमा णाई, हासेमाणाई हासेन्ताई, हासिन्ताई, हासेमाणाइं हसावन्ताई, हसावेन्ताई, हसाविन्ताई हसावमाणाइं, हसावेमाणाइं
हसावन्तं हसावमाणं हसावेमाणं
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४६५
परिशिष्ट २ हसावे-हसावेन्तं, हसाविन्तं हसावेन्ताई, हसाविन्ताई, हसावेमाणाई
हसावेमाणं
इमानिरूपाणि जातिमनुसृत्य त्रिषु लिङ्गेषु प्रयुज्यन्ते । होम-होए-होआव-होआवे (भू-भावय) अंगस्य प्रेरके
वर्तमानकालस्य रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र.पु. होअ—होअइ, होअए, होएइ होअन्ति, होअन्ते, होइरे, होएन्ति
होएन्ते, होएइरे, होइन्ति, होइन्ते
होअइरे होए होएइ
होएन्ति, होएन्ते, होएइरे होआव-होआवइ, होआवेइ होआवन्ति, होआवन्ते, होआविरे होआवए
होआवेन्ति होआवेन्ते, होआवेइरे
होआविन्ति, होआविन्ते, होआवइरे होआवे-होआवेइ होआवेन्ति, होआवेन्ते, होआवेइरे
होआविन्ति, होआविन्ते म०पु० होअ—होअसि, होअसे, होएसि होइत्था, होएइत्था, होअह, होएह
होअइत्था होए होएसि
होएइत्था, होएह होआव होआवसि, होआवेसि होआवेइत्था, होआवेह, होआवह, होआवसे
होआवित्था, होआवइत्था होआवे-होआवेसि
होआवेइत्या, होआवेह उ०पु० होअ--होमि, होआमि होअमो, होअमु, होअम, होआमो होएमि
होआमु, होआम, होइमो, होइमु
होइम, होएमो, होएमु होएम होए होएमि
होएमो, होएमु, होएम होआव-होआवमि, होआवामि होआवमो, होआवमु, होआवम होआवेमि
होआवामो, होआवामु, होआवाम होआविमो, होआविमु, होआविम
होआवेमो, होआवेमु, होआवेम होआवे-होआवेमि होआवेमो, होआवेमु, होआवेम
(सर्वपुरुष-सर्ववचन)
जजा-ज्जा प्रत्यये रूपाणि __ होअ—होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
होए होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा होआव-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा होआवे-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा
प्रेरके विधि-आज्ञार्थयो रूपाणि __ एकवचन
बहुवचन प्र.पु० होअ-होअउ, होएउ होअन्तु, होएन्तु, होइन्तु होए होएउ
होएन्तु, होइन्तु होआव-होआवउ, होआवेउ होआवन्तु, होआवेन्तु, होआविन्तु होआवे-होआवेउ
होआवेन्तु, होआविन्तु म०पु० होम-होअहि, होएहि, होअसु होअह, होएह (होइज्जाह, होएज्जाह)
होएसु, होइज्जसु होएज्जसु, होइज्जहि होएज्जहि, होइज्जे होएज्जे, होम (होइज्जसि होएज्जसि, होइज्जासि होएज्जासि, होइज्जाहि
होएज्जाहि, होआहि) होए होएहि, होए होएह (होएज्जाह।
(होएइज्जसि, होएइज्जासि
होएइज्जाहि) होआव—होआवहि, होआवेहि होआवह, होआवेह (होआविज्जाह
होआवसु, होआवेसु होआवेज्जाह) होआविज्जसु, होआवेज्जसु होआविज्जहि, होआवेज्जहि होआविज्जे, होआवेज्जे होआव (होआविज्जसि होआवेज्जसि, होआविज्जासि होआवेज्जासि, होआविज्जहि
होआवेज्जाहि, होआवाहि) होआवे--होआवेहि, होआवेसु होआवेह (होआवेज्जाह)
(होआवेइज्जसि
होआवेइज्जासि) उ०पु० होअ-होअमु, होआमु, होइमु होअमो, होआमो, होइमो, होएमो
होएमु
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४६७
परिशिष्ट २ होए होएमु
होएमो होआव-होआवमु, होआवामु होआवमो, होआवामो, होआविमो
होआविमु, होआवेमु होआवेमो होआवे-होआवेमु
होआवेमो
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होअ- होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा होए- होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा होआव-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा होआवे-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा
प्रेरके भूतकालस्य रूपाणि
सर्वपुरुषे--सर्ववचन होअ- होअसी, होअही, होअहीअ होए- होएसी, होएही, होएहीअ होआव होआवसी होआवही होआवहीअ होआवे-होआवेसी होआवेही होआवेहीअ
अर्षरूपाणि होअ- होइत्था,
होइंसु होए होएइत्था,
होएइंसु होआव-होआवित्था,
होआविसु होआवे--होआवेत्था
होआवेंसु प्रेरके भविष्यत्काल रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र.पु० होअ-होइहिइ, होइहिए, होएहिइ होइहिन्ति, होइहिन्ते, होइहिरे,
होएहिए, (होइस्सइ होएहिन्ति, होएहिन्ते, होएहिरे, होइस्सए, होएस्सइ, होएस्सए होइस्सन्ति, होइस्सन्ते होए होएहिइ, होएहिए होएहिन्ति, होएहिन्ते, होएहिरे
(होएस्सइ, होएस्सए) (होएस्सन्ति होएस्सन्ते) होआव-होआविहिइ, होआविहिए होआविहिन्ति, होआविहिन्ते,
__ होआविहिरे होआवेहिइ, होआवेहिए होआवेहिन्ति, होआवेहिन्ते, होआवेहिरे (होआविस्सइ, होआविस्सए (होआविस्सन्ति, होआविस्सन्ते
होआवेस्सइ, होआवेस्सए) होआवेस्सन्ति, होआवेस्सन्ते) होआवे-हो आवेहिइ होआवेहिए होआवेहिन्ति, होआवेहिन्ते, होआवेहिरे
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४६८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
. (होआवेस्सइ, होआवेस्सए) (होआविस्सन्ति, होआविस्सन्ते,
होआवेस्सन्ति, होआवेस्सन्ते) म०पु० होअ-होइहिसि, होइहिसे होइहित्था, होइहिह, होएहित्था
होएहिसि, होएहिसे होएहिह (होइस्सह, होएस्सह) (होइस्ससि, होइस्ससे
होएस्ससि, होएस्ससे) होए--होएहिसि, होएहिसे होएहित्था, होएहिह (होएस्सह)
(होएस्ससि, होएस्ससे) होआव-होआविहिसि, होआविहिसे होआविहित्था, होआविहिह
होआवेहिसि, होआवेहिसे होआवेइत्था, होआवेहिह (होआविस्ससि, होआविस्ससे (होआविस्सह, होआवेस्सह)
होआवेस्ससि, होआवेस्ससे) होआवे-होआवेहिसि (होआवेस्ससि) होआवेहिह (होआवेस्सह)
होआवेहिसे (होआवेस्ससे) उ०पु० होअ-होइस्सं, होएस्सं, होइस्सामि होइस्सामो, होइस्सामु, होइस्साम
होएस्सामि, होइहामि होएस्सामो, होएस्सामु, होएस्साम होएहामि, होइहिमि होइहामो, होइहामु, होइहाम होएहिमि
होएहामो, होएहामु, होएहाम होइहिमो, होइहिमु, होइहिम होएहिमो, होएहिमु, होएहिम होइहिस्सा, होइहित्था, होएहिस्सा
होएहित्था होए होएस्सं, होएस्सामि होएस्सामो, होएस्सामु, होएस्साम होएहामि, होएहिमि होएहामो, होएहामु, होएहाम
होएहिमो, होएहिमु, होएहिम
होएहिस्सा, होएहित्था होआव-होआविस्सं, होआवेस्सं होआविस्सामो, होआविस्सामु होआविस्सामि
होआविस्साम, होआवेस्सामो होआवेस्सामि
होआवेस्सामु, होआवेस्साम, होआविहामि
होआविहामो, होआविहामु, होआवेहामि, होआविहिमि होआविहाम, होआवेहामो होआवेहिमि
होआविहामु, होआविहाम होआवेहिस्सा, होआवेहित्था होआविहिमो, होआविहिमु होआविहिम, होआवेहिमो
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परिशिष्ट २
४६६
होआवेहिमु, होआवेहिम
होआविहित्था होआवे-होआवेस्सं, होआवेस्सामि होआवेस्सामो, होआवेस्सामु होआवेहामि, होआवेहिमि होआवेस्साम, होआवेहामो
होआवेहामु, होआवेहाम होआवेहिमो, होआवेहिमु होआवे हिम, होआवेहिस्सा
होआवेहित्था
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होअ-होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा होए होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा होआव-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा होआवे-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा
प्रेरके क्रियातिपत्त्यर्थरूपाणि
__ सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होअ---होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होएज्जा होए होएज्ज, होएज्जा, होइज्ज, होइज्जा होआव-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा होआवे-होआवेज्ज, होआवेज्जा, होआविज्ज, होआविज्जा
पुंलिग एकवचन
बहुवचन होअ-होअन्तो, होएन्तो होअन्ता, होएन्ता, होइन्ता
होइन्तो, होअमाणो होअमाणा, होएमाणा
होएमाणो होए होएन्तो, होइन्तो, होएमाणो होएन्ता, होइन्ता, होएमाणा होआव-होआवन्तो, होआवेन्तो होआवन्ता, होआवेन्ता, होआविन्ता
होआविन्तो, होआवमाणो होआवमाणा, होआवेमाणा . होआवेमाणो होआवे-होआवेन्तो, होआविन्तो होआवेन्ता, होआविन्ता होआवेमाणो
होआवेमाणा। आर्षे होअन्ते, होएन्ते होआवन्ते, होआवेन्ते (इत्यादीनि रूपाणि पूर्ववत्)
स्त्रीलिग एकवचन
बहुवचन होअ-होअन्ती, होएन्ती, होइन्ती होअन्तीओ, होएन्तीओ, होइन्तीओ
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________________
५००
होमाणी, होमाणी होए - होएन्ती, होइन्ती होमाणी
होआव -- होआवन्ती, होआवेन्ती आविन्ती, होआवमाणी होआवेमाणी
होआवे - होआवेन्ती, होआविन्ती होआवेमाणी
एकवचन
होअ - होअन्तं, होएन्तं, होइन्तं होअमागं होएमाणं
होए होएन्तं, होइन्तं, होएमाणं होआव —- होआवन्तं, होआवेन्तं होआविन्तं होआव माणं होआवेमाणं
होआवे - होआवेन्तं, होआविन्तं
आमा
1
नपुंसकलिंग
एकवचन
प्र०पु० हसावीअ -- हसावीअइ, हसाबीअए हसrates
हसा विज्ज - हसाविज्जइ, हसाविज्जए हसा विज्जेइ
हासीअ - हासीअइ, हासीअए
प्राकृत वाक्यरचना बोध
होमाणीओ, होमाणीओ होएन्तीओ, होइन्तीओ होमाणीओ
होआवन्तीओ, होआवेन्तीओ होआविन्तीओ, होआवमाणीओ
माओ
होआवेन्तीओ, होआविन्तीओ होमीओ
प्रेरकस्य भावे कर्मणि रूपाणि
हसावीअ - हसाविज्ज- हासोअ-हासिज्ज (हस्- हास्य) अंगस्य भावे कर्मणि च वर्तमानकालस्य रूपाणि
बहुवचन
हो अन्ताई, होएन्ताई, होइन्ताई होअमाणाई, होएमाणाई होएन्ताई, होइन्ताई, होएमाणाई
आवन्ताई, होआवेन्ताई होआविन्ताई, होआवमाणाइं होआवेमाणाइं
होआवेन्ताई, होआविन्ताई होआवेमाणाई
बहुवचन
हसाव अन्ति, हसावीअन्ते, हसावीएन्ति, हसावीएन्ते,
हसावीएइरे, हसावीइन्ति, हसवीइन्ते, हसावीइरे
हावी अ हसाविज्जन्ति, हसाविज्जन्ते हसाविज्जिरे, हसाविज्जेन्ति
हसाविज्जेन्ते, हसाविज्जेइरे हसाविज्जिन्ति, हसाविज्जिन्ते हसा विज्जइरे
हासी अन्ति, हासीअन्ते, हासीइरे
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________________
परिशिष्ट २
५०१
हासीएइ
हासीएन्ति, हासीएन्ते, हासीएइरे
हासीइन्ति, हासीइन्ते, हासीअइरे हासिज्ज- हासिज्जइ, हा सिज्जए हासिज्जन्ति, हासिज्जन्ते हासिज्जेइ
हासिज्जिरे, हासिज्जेन्ति हासिज्जेिन्ते, हासिज्जेइरे हासिज्जिन्ति, हासिज्जिन्ते,
हासिज्जइरे म०पु० हसावीअ-हसावीअसि, हसावीअसे हसावीइत्था, हसावीएइत्था हसावीएसि
हसावीअह, हसावीएह हसाविज्ज--हसाविज्जसि, हसाविज्जसे हसाविज्जित्था, हसाविज्जेइत्था हसाविज्जेसि
हसाविज्जह, हसाविज्जेह हासीअ-- हासीअसि , हासीअसे हासीइत्था, हासीएइत्था हासीएसि
हासीअह, हासीएह हासिज्ज- हासिज्जसि , हासिज्जसे हासि ज्जित्था, हासिज्जेइत्था हासिज्जेसि
हासिज्जह, हासिज्जेह उ०पु० हसावीअ-हसावीअमि हसावीअमो, हसावीअमु, हसावीअम हसावीआमि, हसावीएमि हसावीआमो, हसावीआमु,
हसावीअम, हसावीइमो, हसावीइमु, हसावीइम, हसावीएमो, हसावीएम,
हसावीएम हसाविज्ज-हसाविज्जमि
हसाविज्जमो, हसाविज्जमु हसाविज्जामि, हसाविज्जेमि हसाविज्जम, हसाविज्जामो
हसाविज्जामु, हसाविज्जाम हसाविज्जिमो, हसाविज्जिमु हसाविज्जिम, हसाविज्जेमो,
हसाविज्जेमु, हसाविज्जेम हासीअ-. हासीअमि, हसीआमि हासीअमो, हासीअमु, हासीअम हासीएमि
हासीआमो, हासीआमु, हासीआम हासिइमो, हासीइमु, हासीइम
हासीएमो, हासीएमु, हासीएम हासिज्ज- हासिज्जमि, हासिज्जामि हासिज्जमो, हासिज्जमु, हासिज्जम हासिज्जेमि
हासिज्जामो, हासिज्जामु, हासिज्जाम, हासिज्जिमो, हासिज्जिमु, हासिज्जिम हासिज्जेमो, हासिज्जेमु, हासिज्जेम
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________________
५०२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि सर्वपुरुष । हसावीएज्ज, हसावीएज्जा, हासिज्जेज्ज, हासिज्जेज्जा सर्ववचन हासीएज्ज, हासीएज्जा, हासिज्जेज्ज, हासिज्जेज्जा
(प्रेरके) भावे कर्मणि च विधि-आज्ञार्थयो रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसावीअ-हसावीअउ, हसावीएउ हसावीअन्तु, हसावीएन्तु
हसावीइन्तु हसाविज्ज-हसाविज्जउ, हसाविज्जेउ हसाविज्जन्तु, हसाविज्जेन्तु
हसाविज्जिन्तु हासीअ- हासीअउ, हासिएउ हासीअन्तु, हासीएन्तु, हासीइन्तु हासिज्ज- हासिज्जउ, हासिज्जेउ हासिज्जन्तु, हासिज्जन्तु
हासिज्जिन्तु म०पु० हसावीअ-हसावीअहि, हसावीएहि हसावीअह, हसावीएह
हसावीअसु, हसावीएसु (हसावीइज्जाह, हसावीएज्जाह) हसावीइज्जसु, हसावीएज्जसु हसावीइज्जहि, हसावीएज्जहि हसावीइज्जे, हसावीएज्जे हसावीअ, हसावीए (हसावीइज्जसि, हसावीएज्जसि हसावीइज्जासि, हसावीएज्जासि हसावीइज्जाहि, हसावीएज्जाहि
हसावीआहि) हसाविज्ज- हसाविज्जहि, हसाविज्जेहि हसाविज्जह, हसाविज्जेष्ह
हसाविज्जसु, हसाविज्जेसु (हसाविज्जिज्जाह, हसाविज्जिज्जसु, हसाविज्जेज्जसु हसाविज्जेज्जाह) हसाविज्जिज्जहि, हसाविज्जेज्जहि हसाविज्जिज्जे, हसाविज्जेज्जे हसाविज्ज (हसाविज्जिज्जसि हसाविज्जेज्जसि, हसाविज्जिज्जासि हसाविज्जेज्जासि, हसाविज्जिज्जाहि
हसाविज्जेज्जाहि, हसाविज्जाहि) हासीअ- हासीअहि, हासीएहि, हासीअसु हासीअह, हासीएह
हासीएसु, हासीइज्जसु (हासीइज्जाह, हासीएज्जाह) हासीएज्जसु, हासीइज्जहि
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________________
परिशिष्ट २
हासीएज्जहि, हासीइज्जे हासीएज्जे, हासीअ
( हासीइज्जसि, हासीएज्जसि
हासी इज्जासि, हासीएज्जासि हासीइज्जाहि, हासीएज्जाहि हासी आहि )
हासिज्ज - हासिज्जहि, हासिज्जेहि हासिज्जसु, हासिज्जेसु हासिज्जिज्जसु, हासिज्जेज्जसु हासिज्जिज्जहि, हासिज्जेज्जहि हासिज्जिज्जे, हासिज्जेज्जे हासिज्ज ( हासिज्जिज्जसि हासिज्जेज्जसि, हासिज्जिज्जासि हासिज्जेज्जासि, हासिज्जाहि ) उ०पु० हसावीअ - हसावीअमु, हसावी आमु हसावी, हसावीएमु हसा विज्ज - हसाविज्जमु, हसाविज्जामु हसा विज्जिमु हसाविज्जेमु
हासीअ - हासीअमु, हासी आमु हासी हासी मु हासिज्ज - हासिज्ज मु, हासिज्जामु हासिज्जिम, हासिज्जेमु
हसा वीएज्ज,
हसा विज्जेज्ज, हासीएज्ज,
हासिज्जेज्ज,
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
सर्वपुरुष, सर्ववचन
हसावीअ - हसावीअईअ हसाविज्ज - हसाविज्जईभ
हासिज्जह, हासिज्जेह ( हासिज्जिज्जाह हासिज्जेज्जाह )
हासीअ -- हासीअईअ हासिज्ज - हासिज्ज ईअ
(प्रेरके) भावे कर्मणि च भूतकालस्य रूपाणि
सर्व पुरुष, सर्ववचन
हसावीअमो, हसावी आमो हसावीइमो, हसावीएमो हसा विज्जमो, हसाविज्जामो हसाविज्जिमो, हसाविज्जेमो हासीअमो, हासी आमो हासीइमो, हासीएमो हासिज्जमो, हासिज्जामो हा सिज्जिमो, हासिज्जेमो
हसावी एज्जा हसाविज्जेज्जा
हासीएज्जा
हासिज्जेज्जा
५०३
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________________
५०४
हास
प्राकृत वाक्यरचना बोध आर्षरूपाणि हसावीअ-- हसावीइत्था, हसावीइंसु हसाविज्ज-हसाविज्जित्था, हसाविज्जिसु हासीअ- हासीइत्था, हासीइंसु हासिज्ज- हासिज्जित्था हासिज्जिसु हसावि-हास (हस्-हास्य) प्रेरकाङ्गस्य भावे कर्मणि च
भविष्यत्कालरूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसावि-हसाविहिइ, हसाविहिए हसाविहिन्ति, हसाविहिन्ते
हसाविहिरे (हसाविस्सइ, हसाविस्सए) (हसाविस्सन्ति-हसाविस्संते) हासिहिइ, हासिहिए हासिहिन्ति, हासिहिन्ते, हासिहिरे हासे हिइ, हासेहिए हासेहिन्ति, हासेहिन्ते, हासे हिरे (हासिस्सइ, हासिस्सए) (हासिस्सन्ति, हासिस्ते)
हासेस्सइ, हासेस्सए हासेस्सन्ति, हासेस्सन्ते) म०पु० हसावि-हसाविहिसि, हसाविहिसे हसाविहित्था, हसाविहिह
(हसाविस्ससि हसा विस्ससे) (हसाविस्सह) हास- हासिहिसि, हासिहिसे हासिहित्था, हासिहिह
हासेहिसि, हासेहिसे हासेहित्था, हासेहिह (हासिस्ससि, हासिस्ससे, हासिस्सह
हासेस्ससि, हासेस्सस) (हासेस्सह) उ०पु० हसावि-हसाविस्सं, हसाविस्सामि हसाविस्सामो-मु-म हसाविहामि, हसाविहिमि हसाविहामो-मु-म
हसाविहिमो-मु-म
हसाविहिस्सा, हसाविहित्था हास -हासिस्सं, हासेस्सं हासिस्सामो-मु-म, हासेस्सामो-मु-म
हासिस्सामि, हासेस्सामि हासिहामो-मु-म, हासेहामो-मु-म हासिहामि, हासेहामि हासि हिमो-मु-म, हासेहिमो-मु-म हासिहिमि, हासेहिमि हासिहिस्सा, हासिहित्था
हासे हिस्सा, हासेहित्था ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
सर्वपुरुषे-सर्ववचन हसावि-हसाविज्ज, हसाविज्जा हास- हासेज्ज, हासेज्जा
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________________
परिशिष्ट २
हसावि-हास (हस्-हास्य) प्रेरकाङ्गस्य भावे कर्मणि च
क्रियातिपत्त्यर्थ रूपाणि
पुंलिग एकवचन
बहुवचन हसावि-हसाविन्तो, हसाविमाणो हसाविन्ता, हसाविमाणा हास --- हासन्तो, हाासेन्तो हासन्ता, हासेन्ता, हासिन्ता हासिन्तो
स्त्रीलिग एकवचन
बहवचन हसावि- हसाविन्ती, हसाविमाणी हसाविन्तीओ, हसाविमाणीओ हास --- हासन्ती, हासेन्ती, हासिन्ती हासन्तीओ, हासेन्तीओ हासमाणी, हासेमाणी हासिन्तीओ, हासमाणीओ
हासेमाणीओ
नपुंसकलिग हसावि-हसाविन्तं, हसाविमाणं हसाविन्ताई, हसाविमाणाई हास --हासन्तं, हासेन्तं, हासिन्तं हासन्ताई, हासेन्ताई, हासिन्ताई हासमाणं, हासेमाणं हासमाणाइं, हासेमाणाई
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन हसावि-हसाविज्ज, हसाविज्जा हास --- हासेज्ज, हासेज्जा होआवीअ-होआविज्ज-होईअ-होइज्ज (भू-भाव्य) अंगस्य
भावे कर्मणि च वर्तमानकाल रूपाणि एकवचन
बहुवचन प्र.पु. होआवीअ--होआवीअइ होआवीअन्ति-न्ते, होआवीइरे
होआवीएइ होआवीएन्ति-न्ते, होआवीएइरे होआवीअए
होआवीइन्ति-न्ते, होआवीअइरे होआविज्ज-होआविज्जइ होआविज्जन्ति-न्ते, होआविज्जिरे
होआविज्जेइ होआविज्जेन्ति-न्ते, होआविज्जेइरे
होआविज्जए होआविज्जिन्ति-न्ते, होआविज्जइरे होईअ-- हो ईअइ, होईएइ होईअन्ति-न्ते, होईइरे होईअए
होइएन्ति-न्ते, होईएइरे होईइन्ति-न्ते, होईअइरे
Page #523
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________________
५०६
होइज्ज - होइज्जइ, होइज्जेइ होइज्जए
होइज्जन्तिन्ते, होइज्जिरे होइज्जेन्तिन्ते, होइज्जेइरे होइज्जन्तिन्ते, होइज्जइरे होआव इत्था, होआवीअह
म०पु० होआवीअ - हो आवीअसि
होआवीएस, होआवी असे होआवीएइत्था, होआवीएह होआविज्ज - होआविज्जसि होआविज्जेसि विज्जसे
होआविज्जित्था, होआविज्जहं होआविज्जेइत्था होआविज्जेह
होईअ - होईअसि, होईएसि होई होइज्ज— होइज्जसि, होइज्जेसि होइज्जसे
उ०पु० होआवीअ - होआवीअमि
होआव आमि होआवीएम
होआविज्ज - होआविज्जमि हो विज्जामि होआविज्जेमि
होईअ -- होईअमि, होईआमि होईएम होइज्ज - होइज्जमि, होइज्जाभि होइज्जेमि
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हत्था, होईअह, होईएइत्था होई एह होइज्जित्था, होइज्जह, होइज्जेइत्था होइज्जेह
होआव अमो-मु-म, होआवीआमो-मु-म होआवीइमो मु-म होआवीएमो-मु-म
होआविज्जमो मु-म होआविज्जामो-मु-म होआविज्जिमो-मु-म आविज्जेमो--म
होईअमो-मुम, होईआमो-मु-म होमो - मु-म होईएमो - मु-म होइज्जमो-मु-म, होइज्जामो-मु-म होइज्जमो मुम, होइज्जेमो-मु-म ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
सर्व पुरुषेषु सर्ववचन
होmar - होआवीएज्ज, होआवीएज्जा होआविज्ज - होआविज्जेज्ज, होआविज्जेज्जा होईअ - होईएज्ज, होईएज्जा
होइज्ज -
होइज्जेज्ज, होइज्जेज्जा
(प्रेरके) भावे कर्म च विधिआज्ञार्थयो रूपाणि
एकवचन
प्र०पु० होआवीअ - - होआवीअउ
होआव एउ होआविज्ज - होआविज्जउ होआविज्जेउ
बहुवचन होआवन्तु, होआवीएन्तु
होआवीइन्तु
होआविज्जन्तु, होआविज्जेन्तु हो आविज्जिन्तु
Page #524
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परिशिष्ट २
होईअ-- होईअउ, होईएउ होइज्ज - होइज्जउ, होइज्जेउ म०पु० होआवीअ - होआवीअहि
होआव एहि, होआव असु होआवीएसु, होआवीइज्जसु होआवीएज्जसु, होआवीइज्जहि होआव एज्जहि होआवीइज्जे होआवीएज्जे, होआवीअ ( होआवीइज्जसि, होआवीएज्जसि होआव इज्जासि, होआवीएज्जासि होवइज्जाहि होआवीएज्जाहि होआव आहि ) होआविज्ज - होआविज्जहि, होआविज्जेहि होआविज्जसु होआविज्जेसु होआविज्जिज्जसु होआविज्जेज्जसु हो आविज्जिज्जहि होआविज्जेज्जहि होआविज्जिज्जे, होआविज्जेज्जे होआविज्ज ( होआविज्जिज्जसि होआविज्जेज्जसि, होआविज्जिज्जासि हो आविज्जेज्जासि, होआविज्जिज्जाहि हो आविज्जेज्जाहि होआविज्जाहि)
होईन - होईअहि, होईएहि, होईअसु हो ईएस, होईइज्जसु होईएज्जसु होईइज्जहि होईएज्जहि होईइज्जे, होईएज्जे, होईअ (होईइज्जसि, होइएज्जसि
होईइज्जासि, होइएज्जासि होईज्जाहि होईएज्जाहि
हो अन्तु, होईन्तु, होईइन्तु होइज्जन्तु, होइज्जेन्तु, होइज्जिन्तु होआवीअह, होआवीएह (होआवीइज्जाह, होआवीएज्जाह )
होई आहि )
होइज्ज - होइज्जहि होइज्जेहि, होइज्जसु
होइज्जेसु, होइज्जिज्जसु होइज्जेज्जसु होइज्जिज्जहि होइज्जेज्जहि होइज्जिज्जे होइज्जेज्जे, होइज्ज
( होइज्जिज्जसि, ज्सजेजो जहिइ
५०७
होआविज्जह, होआविज्जेह (होआविज्जिज्जाह होआविज्जेज्जाह )
हो, होई (होईइज्जाह होईएज्जाह)
होइज्जह, होइज्जेह ( होइज्जिज्जाह होइज्जेज्जाह )
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________________
५०८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
होइज्जिजासि, होइज्जेज्जासि होइज्जिज्जाहि, होइज्जेज्जाहि
होइज्जाहि) उ०पु० होआवीअ-होआवीअमु, होआवीआमु होआवीअमो, होआवीआमो
होआवीइमु, होआवीएमु होआवीइमो, होआवीएमो होआविज्ज---होआविज्जमु, होआविज्जामु होआविज्जमो, होआविज्जामो
होआविज्जिमु, होआविज्जेमु होआविज्जिमो, होआविज्जेमो होईअ- होईअमु, होईआमु, होईइमु होईअमो, होईआमो, होईइमो होईएमु
होईएमो होइज्ज--- होइज्जमु, होइज्जामु होइज्जमो, होइज्जामो होइज्जिमु, होइज्जेमु होइज्जिमो, होइज्जेमो
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
सर्वपुरुषेषु सर्ववचन | होआवीअ-होआवीएज्ज, होआवीएज्जा होआविज्ज-होआविज्जेज्ज, होआविज्जेज्जा होईअ- होईएज्ज, होईएज्जा होइज्ज-- होइज्जेज्ज, होइज्जेज्जा (प्रेरके) भावे कर्मणि च भूतकालस्य रूपाणि
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होआवीअ-होआवीअसी, होआवीअही, होआवीअहीअ होआविज्ज होआविज्जसी, होआवीअही, होआवीअहीअ होईअ- होईअसी, होईअही, होईअहीअ हो इज्ज - होइज्जसी, होइज्जही, होइज्जहीअ
__ आर्षरूपाणि
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होआवीअ-होआवीइत्था, होआवीइंसु होआविज्ज-होआविज्जित्था होआविज्जिसु होईअ-होईइत्था, होईइंसु होइज्ज-होइज्जित्था, होइज्जिसु प्रेरके होआवि-हो (भू-भाव्य) अंगस्यभावेकर्मणि च
भविष्यत्काल रूपाणि एकवचन
___ बहुवचन प्र०पु० होआवि-होआविहिइ होआविहिन्ति, होआविहिन्ते होआविहिए
होआविहिरे
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परिशिष्ट २
५०६
(होआविस्सइ (होआविस्सन्ति-न्ते)
होआविस्सए) हो- होहिइ, होहिए होहिन्ति, होहिन्ते, होहिरे
(होस्सइ, होस्सए) (होस्सन्ति, होस्सन्ते) म०पु० होआवि-होआविहिसि होआविहित्था, होआविहिह
होआविहिसे (होआविस्ससि (होआविस्सह)
होआविस्ससे) हो- होहिसि, होहिसे होहित्था, होहिह
(होस्ससि, होस्ससे) (होस्सह) उ०पु० होआवि-होआविस्सं
होआविस्सामो-मु-म होआविस्सामि होआविहामो-मु-म होआविहामि, होआविहिमि होआविहिमो-मु-म, होआविहिस्सा
होआविहित्था हो- होस्सं, होस्सामि होस्सामो-मु-म, होहामो-मु-म होहामि, होहिमि होहिमो-मु-म, होहिस्सा, होहित्था
ज्ज-ज्जा प्रत्यये रूपाणि
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होआवि-होआविज्ज, होआविज्जाज्जा
हो- होज्ज, होज्जा (प्रेरके) भावे कर्मणि च क्रियातिपत्त्यर्थरूपाणि
सर्वपुरुषेषु-सर्ववचन होआवि--होआविज्ज, होआविज्जा हो- होज्ज-होज्जा
__ पुंलिग एकवचन होआवि-होआविन्तो, होआविमाणो होआविन्ता, होआविमाणा हो- होन्तो, हुन्तो, होमाणो होन्ता, हुन्ता, होमाणा
स्त्रीलिग होआवि-होआविन्ती, होआविमाणी होआविन्तीओ, होआविमाणीओ हो- होन्ती, हुन्ती, होमाणी होन्तीओ, हुन्तीओ, होमाणीओ
नपुंसकलिग होआवि-होआविन्तं, होआविमाणं होआविन्ताई, होआविमाणाई हो- होन्तं, हुन्तं, होमाणं होन्ताई, हुन्ताई, होमाणाई
बहुवचन
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परिशिष्ट ३ अपभ्रंश शब्द रूपावलि
० शब्द का अन्त्य स्वर दीर्घ हो तो ह्रस्व और ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है। उन रूपों में कोई विभक्ति नहीं लगती, जैसा शब्द होता है उसी रूप में रहता है । १ अकारान्त पुंलिंग जिण (जिन) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० जिण, जिणा, जिणु, जिणो जिण, जिणा द्वि० जिण, जिणा, जिणु
जिण, जिणा तृ० जिणेण, जिणेणं, जिणे
जिण हिं, जिणाहिं, जिणेहि पं० जिणहे, जिणाहे, जिणहु, जिणाहु जिणहुं, जिणाहं च०/५० जिण, जिणा, जिणसु जिण, जिणा, जिणहं, जिणाहं
जिणासु, जिणहो, जिणाहो, जिणस्सु स० जिणि, जिणे
जिणहिं, जिणाहिं सं० जिण, जिणा, जिणु, जिणो जिण, जिणा, जिणहो, जिणाहो २ इकारान्त पुंलिंग मुणि (मुनि) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० मुणि, मुणी
मुणि, मुणी द्वि० मुणि, मुणी
मुणि, मुणी तृ० मुणिएं, मुणीएं, मुणि, मुणीं मुणिहिं, मुणीहिं
मुणिण, मुणीण, मुणिणं, मुणीणं पं० मुणिहे, मुणीहे
मुणिहुं, मुणीहुं च०/५० मुणि, मुणी
मुणि, मुणी, मुणिहं, मुणीहं
मुणिहुँ, मुणीहुं स० मुणिहि, मुणीहि
मुणिहिं, मुणीहिं, मुणिहुं, मुणीहुं सं० मुणि, मुणी
मुणि, मुणी, मुणिहो, मुणीहो ३ ईकारान्त पुंलिंग गामणी (ग्रामणी) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० गामणी, गामणि
गामणी, गामणि द्वि० गामणी, गामणि
गामणी, गामणि
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट २
५११
४
साहुहुं, साहूहूं
तृ० गामणीएं, गामणिएं, गामणी गामणीहि, गामणिहिं
गामणि, गामणीण, गामणिण
गामणीणं, गामणिणं पं० गामणीहे, गामणिहे
गामणीहुं, गामणिहुं च०/५० गामणी, गामणि
गामणी, गामणि, गामणीहं
गामणिहं, गामणीहुं, गामणिहुं स० गामणी है, गामणिहि
गामणीहिं, गामणिहिं, गामणीहुं
गामणिहुं सं० गामणी, गामणि
गामणी, गामणि, गामणीहो
गामणिहो उकारान्त पुंलिंग साहु (साधु) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० साहु, साहू
साहु, साहू द्वि० साहु, साहू
साहु, साहू तृ० साहुएं, साहूएं, साहुं, साहूं, साहुण साहुहि, साबूहिं
साहूण, साहुणं, साहूणं पं० साहुहे, साहूहे च०/ष० साहु, साहू
साहु, साहू, साहुहं, साहूहं स० साहुहि, साहूहि
साहुहिं, साहूहिं, साहुहुँ, साहूहूं सं० साह, साहू
साहु, साहू , साहुहो, साहूहो ५ ऊकारान्त पुंलिंग सयंभू (स्वयंभू) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० सयंभू, सयंभु
सयंभू, सयंभु द्वि० सयंभू, सयंभु
सयंभू, सयंभु तृ० सयंभूएं, सयंभुएं, सयंभू, सयंभु सयंभूहिं, सयंभुहिं
सयंभूण, सयंभुण, सयंभूणं, सयंभुणं पं० सयंभूहे, सयंभुहे
सयंभूहुं, सयंभुहुं च०/५० सयंभू, सयंभु
सयंभू, सयंभु, सयंभूहुं, सयंभुहुँ
सयंभूह, सयंभुहं स० सयंभूहि, सयंभुहि
सयंभूहि, सयंभुहिं सं० सयंभू, सयंभु
सयंभू, सयंभु, सयंभूहो, सयंभुहो आकारान्त स्त्रीलिंग माला (माला) शब्द प्र० माला, माल
माला, माल, मालाउ, मालउ मालाओ, मालओ
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________________
५१२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
द्वि० माला, माल
माला, माल, मालाउ, माल उ
मालाओ, मालओ तृ० मालाए, मालए
मालाहि, मालहिं पं० मालाहे, मालहे
मालाहु, मालहु च०/ष० माला, माल, मालाहे, मालहे। माला, माल, मालाहु, मालहु स० मालाहिं, मालहिं
मालाहिं, मालहिं सं० माला, माल
माला, माल, मालाउ, मालउ मालाओ, मालओ, मालाहो, मालहो
७ इकारान्त स्त्रीलिंग मइ (मति) शब्द एकवचन
बहवचन प्र० मइ, मई
मइ, मई, मइउ, मईउ, मइओ
मईओ द्वि० मइ, मई
मइ, मई, मइउ, मईउ, मइओ
मईओ तृ० मइए, मईए
मइहिं, मईहिं पं० मइहे, मईहे
मइहु, मईहू च०/५० मइ, मई, मइहे, मईहे मइ, मई, मइहु, मईहु स० मइहिं, मईहिं
मइहिं, मईहिं, सं० मइ, मई
मइ, मई, मइउ, मईउ, मइओ
मईओ, मइहो, मईहो ८ ईकारान्त स्त्रीलिंग वाणी (वाणी) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० वाणी, वाणि
वाणी, वाणि, वाणीउ, वाणिउ
वाणीओ, वाणिओ द्वि० वाणी, वाणि
वाणी, वाणि, वाणीउ, वाणिउ
वाणीओ, वाणीउ तृ० वाणीए, वाणिए
वाणीहिं, वाणिहिं पं० वाणीहे, वाणिहे
वाणीहु, वाणिहु च०/१० वाणी, वाणि, वाणीहे वाणी, वाणि, वाणीहु, वाणिहु
वाणिहे स० वाणीहिं, वाणिहिं
वाणीहि, वाणिहिं सं० वाणी, वाणि
वाणी, वाणि, वाणीउ, वाणिउ वाणीओ, वाणिओ, वाणीहो, वाणिहो
Page #530
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________________
परिशिष्ट ३
___५१३
६ उकारान्त स्त्रीलिंग घेणु (धेनु) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० घेणु, धेधू
घेणु, धेणू, धेणुउ, घेणूउ, घेणुओ
धेओ द्वि० धेणु, धेणू
घेणु, धेणू, धेणुउ, धेणूउ, घेणुओ
धेओ तृ० धेणुए, धेणूए
धेणुहिं, धेणूहिं पं० धेणुहे, धेणू हे
धेणुहु, धेणूहु च०/५० धेणु, धेणू, धेणुहे, धेणू हे धेणु, धेणू, धेणुहु, धेणू हु स० धेणुहि, धेहि
धेणुहिं, धेणू हिं सं० धेणु, धेणू
धेणु, धेणू, धेणुउ, धेणूउ, धेणुओ
धेणूओ, धेणु हो, धेणूहो १० ऊकारान्त स्त्रीलिंग वधू [बहू] शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० बहु, बहू
बहु, बहू, बहुउ, बहूउ, बहुओ, बहुओ द्वि० बहु, बहू
बहु, बहू, बहुउ, बहू उ, बहुओ, बहूओ तृ० बहुए, बहूए
बहुहिं, बहूहिं पं० बहुहे, बहूए
बहुहु, बहूहु च०/५० बहु, बहू, बहुहे, बहूहे बहु, बहू, बहुहु, बहूहु स० बहुर्हि, बहूहिं
बहुर्हि, बहूहिं सं० बहु, बहू
बहु, बहू, बहुउ, बहूउ, बहुओ, बहूओ
बहुहो, बहूहो ११ अकारान्त नपुंसकलिंग कमल (कमल) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० कमल, कमला, कमलु
कमल, कमला, कमलई, कमलाई ___कमलक-कमल' द्वि० कमल, कमला, कमलु
कमल, कमला, कमलई, कमलाई कमलक-कमल तृ० कमलेण, कमलेणं, कमलें कमलहिं, कमलाहिं, कमलेहिं
नोट--१. अकारान्त नपुंसकलिंग शब्द के स्वार्थ में क प्रत्यय होने पर उसका
अन्त्य अक्षर अ होता है तब उसके प्रथमा व द्वितीया के एकवचन में उ प्रत्यय में अनुस्वार होता है । जैसे-कमलक शब्द का (नपुंसक प्रथमा व द्वितीया का एकवचन--कमल)।
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________________
प्राकृत वाक्यरचना बोध
पं० कमलहे, कमलाहे, कमलहु कमलहुँ, कमलाहुं
कमलाहु च०/ष० कमल, कमला, कमलसु कमल, कमला, कमलह, कमला
कमलासु, कमलहो, कमलाहो
कमलस्सु स० कमलि, कमले
कमलहि, कमलाहिं सं० कमल, कमला, कमलु
कमल, कमला, कमलई, कमलाई कमलक -- कमल
कमलहो, कमलाहो १२ इकारान्त नपुंसकलिंग वारि (वारि) शब्द ___ एकवचन
बहुवचन प्र० वारि, वारी
वारि, वारी, वारीइं, वीराई द्वि० वारि, वारी
वारि, वारी, वारिइं, वारीइं तृ० वारि, वारी, वारिएं, वारीएं वारिहिं, वारीहिं
वारिण, वारीण, वारिणं, वारीणं पं० वारिहे, वारीहे
वारिहुं, वारीहुं च०/ष० वारि, वारी
वारि, वारी, वारिहुं, वारीहुं, वारिहं
वारीहं स० वारिहि, वारीहि
वारिहिं, वारीहिं, वारिहुं, वारीहुं सं० वारि, वारी
वारि, वारी, वारिई, वारीइं, वारिहो
वारीहो १३ उकारान्त नपुंसकलिंग महु (मधु) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० महु, महू
महु, महू, महुई, महूई द्वि० महु, महू
महु, महू, महुई, महूई तृ० महुं, महूं, महुएं, महूएं, महुण महुहिं, महूहिं
महूण, महुणं, महूणं पं० महुए, महूए
महुहु, महूहु च०/ष० महु, महू
महु, महू, महुहुँ, महूहूं, महुहं, महूहं स० महुहि, महूहि
महुहि, महूहि, महुहुं, महूहूं। सं० महु, महू
महु, महू, महुई, महूई, महुहो, महूहो १४ क
लिंग सव्व (सर्व) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० सव्व, सव्वा, सव्वु, सव्वो सव्व, सव्वा द्वि० सव्व, सव्वा, सव्वु
सव्व, सव्वा
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________________
परिशिष्ट ३
तृ० सव्वें, सव्वेण, सव्वेणं सव्वहिं, सव्वाहिं, सव्वेहिं पं० सव्वहां, सव्वाहां
सव्वहुं, सव्वाहुं च०/ष० सव्व, सव्वा, सव्वसु सव्व, सव्वा
सव्वासु, सव्वहो, सव्वाहो सव्वहं, सव्वाह
सव्वस्सु स० सव्वहिं, सव्वाहिं
सवहि, सव्वाहिं १४ ख स्त्रीलिंग सव्वा (सर्वा) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० सव्वा, सव्व
सव्वा, सव्व, सव्वाउ, सव्वउ, सव्वाओ
सव्वओ द्वि० सव्वा, सव्व
सव्वा, सव्व, सव्वाउ, सव्वउ, सव्वाओ
सव्वओ तृ० सव्वाए, सव्वए
सव्वाहिं, सव्वहिं पं० सव्वाहे, सव्वहे
सव्वाहु, सव्वहु च०/१० सव्वा, सव्व, सव्वाहे सव्वा, सव्व, सव्वाहु, सव्वहु
सव्वहे स० सव्वाहिं, सव्वहिं
सव्वाहिं, सव्वहिं १४ ग नपंसकलिंग सव्व (सर्व) शब्द (सब) ___ एकवचन
बहुवचन प्र० सव्व, सव्वा, सन्बु
सव्व, सव्वा, सव्व, सवाई द्वि० सव्व, सव्वा, सव्वु
सव्व, सव्वा, सव्वई, सव्वाई तृ० सवें, सव्वेण, सव्वेणं सवहिं, सव्वाहिं, सव्वेहिं पं० सव्वहां, सव्वाहां
सव्वहुं, सव्वाई च०/० सव्व, सव्वा, सव्वसु सव्व, सव्वा, सव्वहं, सव्वाहं
सव्वासु, सव्वहो, सव्वाहो
सव्वस्सु स० सव्वहिं, सव्वाहिं
सवहिं, सव्वाहि
पुंलिंग त (तत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० स, सा, सु, सो, त्रं, तं त, ता द्वि० त्रं, तं
त, ता तृ० तें, तेण, तेणं
तहिं, ताहिं, तेहिं पं० तहां, ताहां
तहुं, ताहुं च०/५० त, ता, तसु, तासु, तहो त, ता, तहं, ताहं
ताहो, तस्सु, तासु
Page #533
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________________
एकवचन
५१६
प्राकृत वाक्यरचना बोध स० तहिं, ताहिं
तहिं, ताहिं १५ ख स्त्रीलिंग ता (तत्) शब्द
बहुवचन प्र० त्रं, तं, सा, स
ता, त, ताउ, तउ, ताओ, तओ द्वि० त्रं, तं
ता, त, ताउ, तउ, ताओ, तओ तृ० ताए, तए
ताहिं, तहिं पं० ताहे, तहे
ताहु, तहु च०/ष० ता, त, ताहे, तहे ता, त, ताहु, तहु स० ताहिं, तहिं
ताहिं, तहिं १५ ग नपुंसक त (तत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० , तं
त, ता, तई, ताई द्वि० त्रं, तं
त, ता, तइं, ताई तृ० तें, तेण, तेणं
तहिं, ताहिं, तेहिं पं० तहां, ताहां
तहुं, ताहुं च०/ष० त, ता, तसु, तासु, तहो त, ता, तहं, वाहं
ताहो, तस्सु, तासु स० तहिं, ताहिं
तहिं, ताहिं पुंलिंग ज (यत्) शब्द
बहुवचन प्र० ध्रु, जु, ज, जा, जो
ज, जा द्वि० ध्रु, जु, ज, जा
ज, जा तृ० जे, जेण, जेण
जहिं, जाहिं, जेहिं , पं० जहं, जाहां
जहुं, जाहुं च०/ष० ज, जा, जसु, जासु ज, जा, जहं, जाहं
जहो, जाहो, जस्सु, जासु स० जहिं, जाहिं
जहिं, जाहिं १६ ख स्त्रीलिंग जा (यत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० ध्रु, जु
जा, ज, जाउ, जउ, जाओ, जओ द्वि० ध्रु, जु
जा, ज, जाउ, जउ, जाओ, जओ तृ० जाए, जए
जाहिं, जाहिं पं० जाहे, जहे
जाहु, जहु च०/ष० जा, ज, जाहे, जहे जा, ज, जाहु, जहु स० जाहिं, जहिं
जाहिं, जहिं
१६ क
Page #534
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________________
परिशिष्ट ३
५१७
नपुंसकलिंग ज (यत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० ध्रु, जु
ज, जा, जई, जाई द्वि० ध्रु, जु
ज, जा, जई, जाई तृ० जे, जेण, जेणं
जहि, जाहिं पं० जहां, जाहां
जहुं, जाहुं च०/५० ज, जा, जसु, जासु ज, जा, जहं, जाहं
जहो, जाहो, जस्सु, जासु स० जहि, जाहिं
जहि, जाहिं १७क पुलिंग क (किम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० क, का, कु, को
क, का द्वि० क, का, कु
क, का तृ० के, केण, केणं
कहिं, काहिं, केहि पं० कहां, काहां, किहे कहुं, काहुं च०/ष० क, का, कसु, कासु क, का, कहं, काहं कहो, काहो, कस्सु, कासु
कहिं, काहिं १५ ख स्त्रीलिंग का (किम) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० का, क
का, क, काउ, कउ, काओ, कओ द्वि० का, क
का, क, काउ, कउ, काओ, कओ तृ० काए, कए
काहिं, कहिं पं० काहे, कहे
काहु, कहु च०/ष० का, क, काहे, कहे, कहे का, क, काहु, कहु स० काहिं, कहिं
काहिं, कहिं १७ ग नपुंसकलिंग क (किम् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० क, का, कु
क, का, कई, काई द्वि० क, का, कु
क, का, कई, काई तृ० के, केण, केणं
कहिं, काहिं, केहि पं० कहां, काहां, किहे
कहुं, काहुं च०/० क, का, कसु, कासु क, का, कह, काहं
कहो, काहो, कस्सु, कासु स० कहिं, काहि
कहिं, काहिं
स० कहिं, काहिं
Page #535
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________________
५१८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
१८ क पुंलिंग एत (एतत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एहो द्वि० एहो
एइ तृ० एतें, एतेण, एतेणं
एताह, एताहिं, एतेहि पं० एतहां, एताहां
एतहुं, एताहुं च०/५० एत, एता, एतसु, एतासु एत, एता, एतह, एताहं
एतहो, एताहो, एतस्सु स० एतहिं, एताहिं
एतहि, एताहिं १८ख स्त्रीलिंग एता (एतत्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एह द्वि० एह
एइ तृ० एताएं, एतए
एताहिं, एतहिं पं० एताहे, एतहे
एताहु, एतहु च०/ष० एता, एत, एताहे, एतहे एता, एत, एताहु, एतहु स० एताहिं, एतहिं
एताहिं, एतहिं १८ग नपुंसकलिंग एत् (एतत् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एहु द्वि० एहु तृ० एतें, एतेण, एतेणं एतहि, एताहिं, एतेहिं पं० एतहां, एताहां
एतहुं, एताहुं च०/ष० एत, एता, एतसु, एतासु एत, एता, एतह, एताहं
एतहो, एताहो, एतस्सु स० एतहिं, एताहिं
एतहिं, एताहिं १९ क
पुंलिंग इम (इदम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० इम, इमा, इमु, इमो
इम, इमा द्वि० इम, इमा, इमु
इम, इमा तृ० इमें, इमेण, इमेणं
इमहिं, इमाहिं, इमेहि पं० इमहां, इमाहां
इमहं, इमाहुं च०/५० इम, इमा, इमसु, इमासु इम, इमा, इमहं, इमाहं
इमहो, इमाहो, इमस्सु स० इमहिं, इमाहिं
इमहि, इमाहिं
एइ
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ३
५१६
१६ ख स्त्रीलिंग इमा (इदम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० इमा, इम
इमा, इम, इमाउ, इमउ, इमाओ
इमओ द्वि० इमा, इम
इमा, इम, इमाउ, इमउ, इमाओ
इमओ तृ० इमाए, इमए
इमाहि, इमहिं पं० इमाहे, इमहे
इमाहु, इमहु च०/५० इमा, इम, इमाहे, इमहे इमा, इम, इमाहु, इमह स० इमाहि, इमहि
इमाहिं, इमहिं - १६ ग नपुंसकलिंग इम (इदम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० इमु
इम, इमा, इमई, इमाई द्वि० इमु
इम, इमा, इमई, इमाई तृ० इमें, इमेण, इमेणं
इमहि, इमाहिं, इमेहि पं० इमहां, इमाहां
इमहुं, इमाहुँ च०/१० इम, इमा, इमसु, इमासु इम, इमा, इमहं, इमाई
इमहो, इमाहो, इमस्सु स० इमहिं, इमाहि
इमहिं, इमाहिं २० क पुंलिंग आय (इदम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० आय, आया, आयु, आयो
आय, आया द्वि० आय, आया, आयु
आय, आया तृ० आयें, आयेण, आयेणं
आयहिं, आयाहिं, आयेहि पं० आयहां, आयाहां
आयहुं, आयाई च०/१० आय, आया, आयसु, आयासु आय, आया, आयह, आया
आयहो, आयाहो, आयस्सु स० आयहिं, आयाहिं
आयहि, आयाहिं २०ख स्त्रीलिंग आया (इदम) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० आया, आय
आया, आय, आयाउ, आयउ
आयाओ, आयओ द्वि० आय, आय
आया, आय, आयाउ, बायउ
आयाओ, आयओ तृ० आयाए, आयए
आयाहिं, आयहिं
Page #537
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________________
५२०
पं० आया, आहे
च० / ष० आया, आय, आयाहे, आहे आया, आयहि
२० ग
स०
एकवचन
प्र० आय, आया, आयु द्वि०
० आय, आया, आयु
तृ० आयें, आयेण, आयेणं
पं० आयहां आयाहां
च०
/ ब ० आय, आया, आयसु आयासु आयहो, आयाहो, आयस्सु
० आर्याह, आयाहि
२१ क
एकवचन
प्र० अमु, अम्
द्वि०
पं० अमुहे, अमूहे
च०/० अमु, अमू
० अमु, अमू
तृ० अमुएं, अमूएं, अमुं, अमूं, अमुण
अमूण, अमुणं, अमूणं
स० अमुर्हि, अमूहि २१ ख
एकवचन
प्र० अमु, अम द्वि० अमु, अमू
तृ० अमुए, अमूए पं० अमुहे, अमूहे
नपुंसक आय (इदम्)
बहुवचन
एकवचन
प्र० अमु, अम्
द्वि० अमु, अम्
To / ष० अमु, अमू, अमुहे, अमूहे
O
स० अमुर्हि, अमूहि
२१- ग
आयाहु, आयहुं
आया, आय, आयाहु, आयहु आयाहिं, आयहि
पुंलिंग अमु ( अदस्) शब्द
आय, आया, आयई, आयाई आय, आया, आयई, आयाइं आयहि, आयाहि, आयेहि आयहुं, आयाहुं
आय, आया, आयहं, आयाहं
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आयहि, आयाहि
बहुवचन
ओइ
ओइ
अहि, अमूहि
अमुहु, अमूहं
अमु, अमू, अमुहं, अमूहं, अमुहं अमूहुं
स्त्रीलिंग अमु ( अदस् ) शब्द
बहुवचन
अमुर्हि, अमूर्हि, अमुहुं, अमूहुं
ओइ
ओइ
अहि, अमूहि
अमुहु, अमूहु
अमु, अमू, अमुहु, अमूहु अहि, अमूहि
नपुंसकलिंग अमु (अदस्) शब्द
बहुवचन
ओइ
ओइ
Page #538
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________________
परिशिष्ड ३
५२१
तृ० अमुएं, अमूएं, अमुं, अमूं
अमुहि, अमूहि पं० अमुहे, अमूहे
अमुहूं, अमूहुं च०/ष० अमु, अमू
अमु, अमू, अमुहूं, अमूहुं, अमुहं
अमूह स० अमुहि, अमूहि
अमुहिं, अमूहि, अमुहं, अमूहुं __ २२ क लिंग कवण (किम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० कवण, कवणा, कवणु, कवणो कवण, कवणा द्वि० कवण, कवणा, कवणु
कवण, कवणा तृ० कवणे, कवणेण, कवणेणं कवणहिं, कवणाहिं, कवणेहिं पं० कवणहां, कवणाहां
कवणहुं, कवणाहुँ च०/ष० कवण, कवणा, कवणसु कवण, कवणा, कवणह, कवणाहं
कवणासु, कवणहो, कवणाहो
कवणस्सु स० कवणहिं, कवणाहिं
कवणहिं, कवणाहिं २२ ख स्त्रीलिंग कवणा (कम) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० कवणा, कवण
कवणा, कवण, कवणाउ, कवणउ
कवणाओ, कवणओ द्वि० कवणा, कवण
कवणा, कवण कवणाउ, कवणउ
कवणाओ, कवणओ तृ० कवणाए, कवणए
कवणाहिं, कवहिं पं० कवणाहे, कवणहे
कवणाहु, कवणहु च०/ष० कवणा, कवण, कवणाहे कवणा, कवण, कवणाहु, कवणहु
कवणहे स० कवणाहिं, कवणहिं
कवणाहिं, कवणहिं २२ ग नपुंसकलिंग कवण (किम्) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० कवण, कवणा, कवणु
कवण, कवणा, कवणई, कवणाई द्वि० कवण, कवणा
कवण, कवणा, कवणई, कवणाई तृ० कवणे, कवणेण, कवणेणं कवहिं, कवणाहि, कवणेहि पं० कवणहां, कवणाहां
कवणहुं, कवणाहुं च०/ष० कवण, कवणा, कवणसु कवण, कवणा, कवणहं, कवणाहं
कवणासु, कवणहो, कवणाहो कवणस्सु
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५२२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
स० कवहिं, कवणाहिं
कवहिं, कवणाहिं २३ (तीनों लिंगों में) अम्ह (अस्मद्) शब्द
बहुवचन प्र० ह
अम्हे, अम्हई द्वि० मई
अम्हे, अम्हई तृ० मई
अम्हेहि पं० महु, मज्झु
अम्हहं घ०/ष० महु, मज्झु
अम्हहं स० मई
अम्हासु २४ (तीनों लिंगों में) तुम्ह (युष्मद् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० तुहुं
तुम्हे, तुम्हई द्वि० पई, तई
तुम्हे, तुम्हई तृ० पई, तई
तुम्हेहिं पं० तउ, तुज्झ, तुध्र
तुम्हहं च०/५० तउ, तुज्झ, तुध्र
तुम्हहं स० पइं, तई
तुम्हासु २५ (तीनों लिंगों में) काइं (किम) शब्द __ सभी वचनों और सभी विभक्तियों में काई ।
संख्यावाची शब्द २६-क पुलिंग एग, एअ, एक्क (एक) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एग, एगा, एगु, एगो
एग, एगा, एअ, एआ, एक्क, एक्का एअ, एआ, एउ, एओ
एक्क, एक्का, एक्कु, एक्को द्वि० एग, एगा, एगु, एअ, एआ, एउ एग, एगा, एल, एआ, एक्क, एक्का
एक्क, एक्का, एक्कु तृ० एगें, एगेण, एगेणं, एएं, एएण एगहि, एगाहिं, एगेहिं, एअहिं ___ एएणं, एक्के, एक्केण, एक्केणं । एआहिं, एएहिं, एक्कहिं, एक्काहिं
एक्केहि पं० एगहां, एगाहां, एअहां, एआहां एगहुं, एगाहुं, एअहुं, एआहुं, एक्कहुं एक्क हां, एक्काहां
एक्काहुं च०/५० एग, एगा, एगसु, एगासु एग, एगा, एगह, एगाहं, एअ, एआ
एगहो, एगाहो, एगस्सु, एअ एअहं, एआहे, एक्क, एक्का, एक्कहं एआ, एअसु, एआसु, एअहो एक्काहं
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परिशिष्ट ३
५२३
एआहो, एअस्सु, एक्क, एक्का एक्कसु, एक्कासु, एक्कहो
एक्काहो, एक्कसु स० एगहि, एगाहिं, एअहिं, एआहिं एगहिं, एगाहिं, एअहिं, एआहिं, एक्कहि एक्कहिं, एक्काहिं
एक्काहिं २६ख स्त्रीलिंग एगा, एआ, एक्का (एक) शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एगा, एग, एआ, एअ, एक्का एगा, एग, एगाउ, एगउ, एगाओ एक्क
एगओ, एआ, एअ, एआउ, एअउ एआओ, एअओ, एक्का, एक्क, एक्काउ
एक्कउ, एक्काओ, एक्कओ द्वि० एगा, एग, एआ, एअ, एक्का एगा, एग, एगाउ, एगउ, एगाओ एक्क
एगओ, एआ, एअ, एआउ, एअउ एआओ, एअओ, एक्का, एक्क, एक्काउ
एक्कउ, एक्काओ, एक्कओ तृ० एगाए, एगए, एआए, एअए । एगाहिं, एगहिं, एआहिं, एअहिं, एक्काहिं
एक्कहिं पं० एगाहे, एगहे, एआहे, एअहे एगाहु, एगहु, एआहु, एअहु, एक्काहु एक्काहे, एक्कहे
एक्कहु च०/ष० एगा, एग, एगाहे, एगहे एगा, एग, एगाहु, एगहु, एआ, एअ
एआ, एअ, एआहे, एअहे एआहु, एअहु, एक्का, एक्क, एक्काहु
एक्का, एक्क, एक्काहे, एक्कहे एक्कहु स० एगाहिं, एगहिं, एआहिं, एअहिं एगाहिं, एगहिं, एआहिं, एअहिं एक्काहिं, एक्कहिं
एक्काहिं, एक्कहिं २६ ग नपुंसकलिंग एग, एअ, एक्क (एक)शब्द एकवचन
बहुवचन प्र० एग, एगा, एगु, एअ, एआ एउ एग, एगा, एगई, एगाई, एअ, एआ एक्क, एक्का, एक्कु
एअई, एआई, एक्क, एक्का, एक्कइं
एक्काई द्वि० एग, एगा, एगु, एअ, एआ एग, एगा, एगई, एगाई, एअ, एआ एउ, एक्क, एक्का, एक्कु एअई, एआई, एक्क, एक्का, एक्कई
एक्काई तृ० एगें, एगेण, एगेणं, एएं, एएण एगहि, एगाहिं, एगेहिं, एअहिं, एआहिं
एएणं, एक्कें, एक्केण, एक्केणं एएहिं, एक्कहिं, एक्काहिं, एक्केहि
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५२४
पं० एगहां, एगाहां, एअहां, एआहां एक्कहां, एक्काह
च० / ष० एग, एगा, एगसु, एगासु एगहो, एगाहो, एगस्सु, एअ एआ, एअसु, एआसु, एअहो आहो, एअस्सु, एक्क, एक्का एक्कसु, एक्कासु, एक्कहो एक्काहो, एक्कस्सु
स० एहि, एगाहिं, एअहि, एआहिं एक्aहिं, एक्काि
२७
प्र० तिण्णि
द्वि० तिष्णि
तृ० तोहि, तीहि तीहिँ
पं० तित्तो, तीआ, तीउ, तीहिन्तो तीसुन्तो
बहुवचन प्र० दुवे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विष्णि, दो, वे द्वि० दुवे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विष्णि, दो, वे
तृ० दोहि, दोहिं, दोहिँ, वेहि, वेहि, वेहिँ
पं० दुत्तो, दुओ, दोउ, दोहिन्तो, दोसुन्तो, वित्तो, वेओ, वेड, वेहितो
च० / ष० दोह, दोन्हं, दुण्ह, दुण्हं, वेण्ह, वेण्हं, विरह, विहं
o
स० दोसु, दोसुं, वेसु, वेसुं
२८ तिष्ण (त्रि) शब्द ( तीनों लिंगों में) बहुवचन
च० / ष० तीह, तीहं स० तीसु, तीसुं
३० पंच (पञ्च) शब्द (तीनों लिंगों में)
बहुवचन
प्र० पंच
द्वि० पंच
(तीनों लिंगों में) दु, दो, बे (द्वि) शब्द
प्राकृत वाक्यरचना बोध
एगहु, एगहुँ, एअहं, एआहुं, एक्कहुं एक्का हुँ
एग, एगा, एगहं, एगाहं, एअ, एआ एअहं, एआहं, एक्क, एक्का, एक्कहं एक्काह
एहि, गाहिं, अहिं, एआहिं, एक्क एक्काि
२६ चउ ( चतुर ) शब्द (तीनों लिंगों में)
बहुवचन चत्तारो, चउरो, चत्तारि चत्तारो, चउरो, चत्तारि चउहि चउहिं, चउहिँ
चउत्तो, चऊओ, चऊउ चऊहिन्तो, चऊसुन्तो, चउओ चहिन्तो, चउसुन्तो
च उण्ह, चउन्हं
चऊसु, चऊसुं, चउसु, चउसुं
३.१ छ ( षष्) शब्द (तीनों लिंगों में)
बहुवचन
छ
ତ
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परिशिष्ट ३
५२५ तृ० पंचहि, पंचहि, पंचहिँ
छहि, छहि, छहिँ पं० पंचत्तो, पंचाओ, पंचाउ, पंचाहि छाओ, छाउ, छाहिन्तो, छासुन्तो __ पंचाहिन्तो, पंचासुन्तो, च०/ष० पंचण्ह, पंचण्ह
छण्ह, छह स० पंचसु, पंचसुं
छसु, छK ३२ सात (सप्तन्) शब्द
३३ अट्ठ (अष्टन्) शब्द (तीनों लिंगों में)
(तीनों लिंगों में) बहुवचन
बहुवचन प्र० सत्त
अट्ठ द्वि० सत्त
अट्ठ तृ० सत्तहि, सत्तहिं, सत्तहिं
अट्ठहि, अट्ठहिं, अट्ठहिँ पं० सत्ताओ, सत्ताउ, सत्ताहिन्तो अट्ठाओ, अट्ठाउ, अट्ठाहिन्तो सत्तासुन्तो
अट्ठासुन्तो च०/१० सत्तण्ह, सत्तण्हं
अट्ठण्ह, अट्ठण्हं स० सत्तसु, सत्तसुं
अट्ठसु, अट्ठसुं ३४ णव, नव (नवन्)शब्द (तीनों लिंगों में)
बहुवचन प्र० णव द्वि० णव तृ० णवहि, णवहि, णवहिं पं० णवाओ, णवाउ, णवाहिन्तो, णवासुन्तो च०/५० णवण्ह, णवण्हं स० णवसु, णवसुं ३५ दह, दस (दशन) शब्द (तीनों लिंगों में)
बहुवचन प्र० दह, दस द्वि० दह, दस तृ० दहहि, दहहिं, दहहिं, दसहि, दसहिं, दसहिँ पं० दहाओ, दहाउ, दहाहिन्तो, दहासुन्तो, दसाओ, दसाउ, दसाहिन्तो
दसासुन्तो च०/५० दहण्ह, दहण्हं, दसण्ह, दसण्हं स० दहसु, दहसु, दससु, दससुं
(अपभ्रंश रचना सौरभ के आधार पर)
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परिशिष्ट ४ अपनश धातु रूपावली
कतवाच्य हस् (हस्) वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसदि, हसदे, हसइ, हसए हसहि, हसेहि, हसंति, हसिंति, हसेंति
हसन्ते, हसिंते, हसइरे, हसिरे, हसेइरे
हसेज्ज, हसिज्ज, हसेज्जा, हसिज्जा म०पु० हसहि, हससि, हससे हसहु, हसेहु, हसह, हसेह, हसध
हसेध, हसइत्था, हसित्था, हसेत्या
हसेज्ज, हसिज्ज, हसेज्जा, हसिज्जा उ०पु० हसउ, हसमि
हसहं, हसेहुं, हसमो, हसामी, हसिमो हसेमो, हसमु, हसामु, हसिमु, हसेमु हसम, हसाम, हसिम, हसेम, हसेज्ज
हसिज्ज, हसेज्जा, हसिज्जा हस् (हस्) विधि एवं आज्ञा के रूप प्र० पु० हसदु, हसदे, हसउ, हसेउ हसन्तु, हसेन्तु, हसिंतु म०पु० हसि, हसे, हसु, हस, हसहि हसह, हसहे, हसध, हसधे
हसाहि, हसेहि, हससु, हसेसु हसिज्जसु, हसेज्जसु, हसिज्जे
हसेज्जे, हसिज्जहि, हसेज्जहि उ०पु० हसमु, हसामु, हसेमु हसमो, हसामो, हसेमो
हस् (हस्) भविष्यत्काल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु० हसिसदि, हसेसदि, हसिसदे हसिसहि. हसेसहि, हसिसंदि, हसेसंदि
हसेसदे, हसिस्सदि, हसेस्सदि हसिसंदे, हसेसंदे, हसिसइरे, हसेसइरे हसिस्सदे, हसेस्सदे, हसिसइ हसिस्सिहिं, हसेस्सिहि, हसिस्संदि हसेसइ, हसिसए, हसेसए हसेस्संदि, हसिस्सिदे, हसेस्सिदे हसिस्सिइ, हसेस्सिइ हसिस्सिइरे, हसेस्सिइरे
हसिस्सिए, हसेस्सिए म०पु० हसिसहि, हसेसहि, हसिस्सिहि हसिसहु, हसेसहु, हसिस्सिहु, हसेस्सिहु
हसेस्सिहि, हसिससि, हसेससि हसिसधु, हसेसधु, हसिसिधु, हसेसिधु
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परिशिष्ट ४
५२७
हसिस्सिसि, हसेस्सिसि हसिसह, हसेसह, हसिस्सिह, हसेस्सिह हसिससे, हसेससे, हसिस्सिसे हसिसध, हसेसध, हसिस्सिध, हसेस्सिध हसेस्सिसे
हसिसइत्था, हसेसइत्था, हसिस्सिइत्था
हसेस्सिइत्था उ०पु० हसिस, हसेस, हसिस्सिउ हसिसहं, हसेसहं, हसिस्सिहं, हसेस्सिहुं
हसेस्सिउ, हसिसमि, हसेसमि हसिसमो, हसेसमो, हसिस्सिमो हसिस्सि मि, हसेस्सि मि हसेस्सिमो, हसिसमु, हसेसमु, हसिस्सिमु
हसेस्सिमु, हसिसम, हसेसम, हसिस्सिम
हसेस्सिम
भूतकाल अपभ्रंश में भूतकाल को व्यक्त करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग होता है। भूतकालिक कृदन्त अकारान्त होता है। स्त्रीलिंग बनाने के लिए उसमें आ प्रत्यय जोडा जाता है। इनके रूप पुंलिंग में देव शब्द, स्त्रीलिंग में माला शब्द और नपुंसकलिंग में कमल शब्द की तरह चलते हैं।
हस् (हस्) भूतकाल के रूप एकवचन
बहुवचन पुंलिंग हसिद, हसिदा, हसिदो, हसिदु हसिद, हसिदा, हसिअ, हसिआ
हसिअ, हसिआ, हसिओ, हसिउ स्त्रीलिंग हसिदा, हसिद, हसिआ हसिदा, हसिद, हसिदाउ, हसिदउ हसि
हसिदाओ, हसिदओ, हसिआ, हसिअ हसिआउ, हसिअउ, हसिआओ
हसिअओ नपुंसकलिंग हसिदु, हसिद, हसिदा हसिद, हसिदा, हसिदई, हसिदाई
हसिउ, हसिअ, हसिआ हसिअ, हसिआ, हसिअइं, हसिआई
हस् (हस्) क्रियातिपत्ति के रूप अपभ्रंश में क्रियातिपत्ति के रूप प्राकृत के समान होते हैं।
ठाअ (ष्ठा)धातु वर्तमानकाल के रूप - एकवचन
बहुवचन प्र०पु० ठाअइ, ठाअए
ठाअहिं, ठाअन्ति, ठाअन्ते, ठाइरे म०पु० ठाअहि, ठाअसि , ठाअसे ठाअहु, ठाअह, ठाइत्था उ०पु० ठाउँ, ठाअमि, ठाआमि ठाअहुं, ठाअम, ठाआम, ठाइम ठाएमि
ठाएम, ठाअमो, ठाआमो, ठाइमो ठाएमो, ठाअमु, ठाआमु, ठाइमु ठाएमु
Page #545
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५२८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ठाव (ष्ठा) अंग के वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० ठावइ, ठावए
ठावहि, ठावन्ति, ठावन्ते, ठावइरे म०पु० ठावहि, ठावसि , ठावसे ठावहु, ठावह, ठावइत्था । उ०पु० ठावउ, ठावमि, ठावामि
ठावहुं, ठावम, ठावाम, ठाविम ठावेमि
ठावेम, ठावमो, ठावामो, ठाविमो ठावेमो, ठावमु, ठावामु, ठाविमु
ठावेमु
ठाअ (ष्ठा) विधि एवं आज्ञा के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० ठाअउ, ठाएउ
ठाअन्तु, ठाएन्तु म०पु० ठाइ, ठाए, ठाउ, ठाअ, ठाअहि ठाअह, ठाएह
ठाएहि, ठाअसु, ठाएसु उ०पु० ठाअमु, ठाएमु
ठाअमो, ठाआमो, ठाएमो ठाव अंग (ष्ठा) विधि एवं आज्ञा के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु० ठावउ, ठावेउ
ठावन्तु, ठावेन्तु म०पु० ठावि, ठावे, ठावु, ठाव, ठावहि ठावह, ठावेह
ठावेहि, ठावसु, ठावेसु उ०पु० ठावमु, ठावेमु
ठावमो, ठावामो, ठावेमो ठाअ (ष्ठा) भविष्यत्काल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० ठाएसइ, ठाएसए, ठाइहिइ ठाएसहिं, ठाएसन्ति, ठाइहिहिं ठाइहिए
ठाइहिन्ति म०पु० ठाएसहि, ठाएससि , ठाइहिहि ठाएसहु, ठाएसह, ठाएसइत्था ठाइहिसि
ठाइहिहु, ठाइहिह, ठाइहित्था उ०पु० ठाएसउ, ठाएसमि, ठाइहिउ ठाएसहुँ, ठाएसमो, ठाएसमु, ठाएसम ठाइहिमि
ठाव अंग (ष्ठा) भविष्यत्काल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु० ठावेसइ, ठावेसए, ठाविहिइ ठावेसहि, ठावेसन्ति, ठाविहिहिं ठाविहिए
ठाविहिन्ति म०पु० ठावेसहि, ठावेससि , ठाविहिहि ठावेसहु, ठावेसह, ठावेसइत्था ठाविहिसि
ठाविहिहु, ठाविहिह, ठाविहित्था
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परिशिष्ट ४
उ०पु० ठावस उ, ठावेसमि, ठाविहिउ ठावेसहं, ठावेसमो, ठावेसमु, ठावेसम ठाविहिमि
ठाअ (ष्ठा) भूतकाल के रूप एकवचन
बहुवचन पुं० ठाइअ, ठाइआ, ठाइओ ठाइअ, ठाइआ
ठाविउ स्त्री० ठाइआ, ठाइअ
ठाइआ, ठाइअ, ठाइआउ, ठाइअउ
ठाइआओ, ठाइअओ नपुं० ठाइउ, ठाइअ, ठाइआ ठाइअ, ठाइआ, ठाइअई, ठाइआइं
___ठाव (ष्ठा) अंग-- भूतकाल के रूप एकवचन
बहुवचन पुं० ठाविअ, ठाविआ, ठाविओ ठाविअ, ठाविआ स्त्री० ठाविआ, ठाविअ
ठाविआ, ठाविअ, ठाविआउ, ठाविअउ
ठाविआओ, ठाविअओ नपुं० ठाविउ, ठाविअ, ठाविआ ठाविअ, ठाविआ, ठाविअई, ठाविआई ३. हो (भू) वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु. होइ
होहिं, होन्ति, होन्ते, होइरे म.पु० होहि, होसि
होहु, होह, होइत्था उ०पु० होउ, होमि
होहुं, होमो, होमु, होम नोट- आ, ई, ऊ दीर्घस्वर से परे संयुक्त अक्षर हो तो दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाता है । जैसे----ठान्ति--ठन्ति, हान्ति-हन्ति ।
हो (भू) विधि एवं आज्ञा के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु. होउ
होन्तु म०पु० होइ, होए, होउ, होहि | होह
होसु उ०पु० होमु हो (भू) भविष्यकाल के रूप
बहुवचन प्र०पु० होसइ, होहिइ
होसहिं, होसन्ति, होहिहि, होहिन्ति म०पु० होस हि, होससि, होहिहि । होसहु, होसह, होहिह, होहिहु __ होहिसि
होसइत्था, होहित्था उ०पु० होस, होसमि, होहिउं होसहुं, होसमो, होसमु, होसम, होहिहुं होहिमि
होहिमो, होहिमु, होहिम
होमो
एकवचन
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५३०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हो (भू) भूतकाल के रूप एकवचन
बहुवचन पुं० होद, होदा, होदु, होदो होद, होदा, होअ, होआ
होअ, होआ, होउ, होओ स्त्री० होदा, होद, होआ, होअ होदा, होद,होदाउ, होदउ, होदाओ
होदओ, होआ, होअ, होआउ, होअज
होआओ, होअओ नपुं० होद, होदा, होदु, होद, होदा, होदई, होदाई, होअ, होआ, होउ
होअ, होआ, होअइं, होआई
क्रियातिपत्ति क्रियातिपत्ति के रूप प्राकृत के समान ही होते हैं।
प्रेरक (जिन्नन्त) धातु के रूप प्रेरणा अर्थ में मूल धातु से अ और आव प्रत्यय जुडते हैं। धातु के आदि व्यंजन में अ, इ, उ स्वर हो तो अ को आ, इ को ए और उ को ओ हो जाता है। आ, ई और ऊ स्वर हो तो धातु का रूप वैसा ही रहता है । संयुक्त अक्षर आगे हो तो अ को आ नहीं होता, अ ही रहता है। धातु में प्रेरणार्थ प्रत्यय अ और आव जोड़ने से प्रेरणार्थक धातु बन जाती है । जैसेअ
आव हस-+ अ - हास
हस -- आव हसाव (हंसना) भिड-- अ... भेड
भिड+आव भिडाव (भिडाना) लुक्क+अ--- लोक्क
लुक्क+आव-लुक्काव (छिपाना) ठा+अठाअ
ठा--- आवठाव (ठहराना) जीव+अजीव
जीव--- आव =जीवाव (जिलाना) रूस -अरूस
रूस + आव= रूसाव (रूसना) णच्च+अ=णच्च
णच्च+आव=णच्चाव (नचाना) प्रेरक धातु +-वर्तमान प्रत्यय प्रेरणार्थक वर्तमानकाल के रूप ४. हास (हासय) अंग के वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु० हासइ, हासए
हासहि, हासन्ति, हासन्ते म०पु० हासहि, हाससि, हाससे हासहु, हासह, हासइत्था उ०पु० हासउ, हासमि, हासामि हासहुँ, हासमो, हासामो, हासिमो, हासेमि
हासेमो, हासमु, हासामु, हासिम, हासेमु, हासम, हासाम, हासिम, हासेम
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परिशिष्ट ४
५३१
हसाव (हासय) अंग के वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसावइ, हसावए
हसावहिं, हसावन्ति, हसावन्ते .. म०पु० हसावहि, हसावसि, हसावसे हसावहू, हसावह, हसाइत्था उ०पु० हसावउ, हसावमि, हसावामि, । हसावहुं, हसावमो, हसावामो, हसावेमि
हसाविमो, हसावेमो, हसावमु, हसावामु, हसाविमु, हसावेमो, हसावम, हसावाम, हसाविम
हसावेम हास (हासय) विधि एवं आज्ञा के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु० हासउ, हासेउ
हासन्तु, हासेन्तु म०पु० हासि , हासे, हासु, हास हासह, हासेह
हासहि, हासेहि, हाससु
हासेसु उ०पु० हासमु, हासेमु
हासमो, हासामो, हासेमो हसाव (हासय) अंग के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पू० हसाव उ, हसावेउ
हसावन्तु, हसावेन्तु म०पू० हसावसि , हसावसे, हसावसु हसावह, हसावेह
हसाव, हसावहि, हसावेहि
हसावसु, हसावेसु उ०पु० हसावमु, हसावेमु
हसावमो, हसावामो, हसावेमो हास (हासय) अंग के भविष्यत्काल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हासेसइ, हासेसए, हासिहिइ हासेसहि, हासेसन्ति, हासे हिहिं हासिहिए
हासेहिन्ति म०पु० हासेसहि, हासेस सि हासेसहु, हासेसह, हासेसइत्था
हासि हिहिं, हासि हिसि हासिहिहु, हासिहिह, हासिहित्था उ०पु० हासेस उ, हासेसमि
हासेसहुं, हासेस मो, हासेसमु, हासेसम हासि हिउ, हासि हिमि
हसाव (हासय) अंग के भविष्यत्काल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु. हसावेसइ, हसावेसए हसावेसहि, हसावेसन्ति, हसाविहिहिं.
हसाविहिइ, हसाविहिए हसा विहिन्ति
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५३२
म०पु० हसावेसहि, हसावेससि हसा विहिहि हसावि हिसि उ०पु० हसावेस उ, हसावेस मि
हसा विहिर हसाविहिमि
एकवचन
पु०
हासिअ हासिआ, हासिओ
हासिउ
स्त्री० हासिआ हासिअ
नपुं० हासिउ, हासिअ हासिआ
एकवचन
हसाविअ, हसाविआ हसाविओ, हसावि स्त्री० हसाविआ, हसाविअ
हास (हास्य) अंग के भूतकाल के रूप
बहुवचन हासि हासि
५.
६.
प्राकृत बाक्यरचना बोध
हसावेस, हसावेसह, हसावेस इत्था हसा विहि, हसाविहि, हसाविइत्या हसावेस, हसावेसमो, हसावेसमु हसावेसम
हसाव ( हासय) अंग के
हासिआ, हासिअ हासिआउ हासिअर, हासिआओ, हासिअओ हासिअ हासिआ, हासिअई
हासआई
हसाविआ, हसाविअ, हसाविआउ हसाविउ, हसाविआओ, हसाविअओ
नपुं० हसाविउ, हसविअ, हसाविआ हसाविअ, हसाविआ, हसाविअहं हसाविआई
एकवचन प्र०पु० हसिज्जइ, हसिज्जए म०पु० हसिज्जहि, हसिज्जसि हसज्ज उ०पु० हसिज्ज, हसिज्जमि
भूतकाल
होअ, होआटो ( भावय) अंग के रूप
प्रेरक में वर्तमानकाल विधि एवं आज्ञा, भविष्यकाल और भूतकाल के रूप हास और हसाव के समान होते हैं ।
भावकर्म
कर्तृवाच्य धातु + भाव प्रत्यय = भाव कमं धातु हस + इज्ज, इय हसिज्ज, हसिय
के रूप
बहुबचन
हसाविअ, हसाविआ
हसिज्ज (हस्य) वर्तमानकाल के रूप
बहुवचन हसिज्जहिं, हसिज्जन्ति, हसिज्जन्ते हसिज्जहु, हसिज्जह, हसिजित्था
हसिज्जहुँ, हसिज्जम, हसिज्जाम
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परिशिष्ट ४
५३३
हसिज्जामि, हसिज्जेमि हसिज्जिम, हसिज्जेम, हसिज्जमु
हसिज्जाम, हसिज्जिमु, हसिज्जेमु हसिज्जमो, हसिज्जामो, हसिज्जिमो
हसिज्जेमो हसिय (हस्य) अंग वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसियइ, हसियए
हसियहिं हसियन्ति, हसियन्ते म०पु० हसियहि, हसियसि, हसियसे हसियह, हसियह, हसियित्था उ०पु० हसियां, हसियमि, हसियामि हसियहुं, हसियम, हसियाम, हसियिम हसियेमि
हसियेम, हसियभु, हसियामु, हसियिमु हसियेमु, हसियमो, हसियामो, हसियिमो
हसियेमो हसिज्ज (हस्य) अंग के विधि एवं आज्ञा के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हसिज्ज उ, हसिज्जेउ हसिज्जन्तु, हसिज्जेन्तु म०पु० हसिज्जि, हसिज्जे, हसिज्जु हसिज्जह, हसिज्जेह
हसिज्ज, हसिज्ज हि हसिज्जेहि, हसिज्जसु
हसिज्जेसु उ०पु० हसिज्जमु, हसिज्जेमु हसिज्जमो, हसिज्जामो, हसिज्जेमो
हसिय (हस्य) अंग के विधि एवं आज्ञा के रूप एकवचन
बहुवचन प्र.पु० हसियउ, हसियेउ हसियन्तु, हसियेन्तु, म०पु० हसियि, हसिये, हसियु हसियह, हसियेह
हसिय, हसियहि, हसियेहि
हसियसु हसियेसु उ०पु० हसियमु, हसियेमु हसियमो, हसियामो, हसियेमो
हसिज्ज (हस्य) अंग के भविष्यकाल के रूप एकवचन
बहुवचन (भावकर्म के भविष्यकाल के रूप कर्तृवाच्य के भविष्यकाल के समान चलते हैं ।) प्र०पु० हसिज्जिसदि, हसिज्जेसदि हसिज्जिसहि, हसिज्जेसहि, हसिज्जिसंदि
हसिज्जिसदे, हसिज्जेसदे हसिज्जेसंदि, हसिज्जिसंदे, हसिज्जेसंदे हसिज्जिस्सिदि हसिज्जेस्सिदि हसिज्जिसइरे, हसिज्जेसइरे हसिज्जिस्सिदे, हसिज्जेस्सिदे हसिज्जिस्सिहिं, हसिज्जेस्सिहिं
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५३४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हसिज्जिसइ, हसिज्जेसइ हसिज्जिस्संदि, हसिज्जेस्संदि . हसिज्जिस्सिइ, हसिज्जेस्सिइ हसिज्जिस्सिदे, हसिज्जेस्सिदे। हसिज्जिसए, हसिज्जेसए हसिज्जिस्सिइरे, हसिज्जेस्सिइरे
हसिज्जिस्सिए, हसिज्जेस्सिए म०पु० हसिज्जिसहि, हसिज्जेसहि हसिज्जिसहु, हसिज्जेसहु, हसिज्जिस्सिहु
हसिज्जिस्सिहि, हसिज्जेस्सि हि हसिज्जेस्सि हु, हसिज्जिसधु, हसिज्जेसधु हसिज्जिस सि, हसिज्जेससि हसिज्जिस्सिधु, हसिज्जेस्सिधु, हसिज्जिसह हसिज्जिस्सिसि, हसिज्जेस्सिसि हसिज्जेसह, हसिज्जिस्सिह, हसिज्जेस्सिह हसिज्जिससे, हसिज्जेससे हसिज्जिसध, हसिज्जेसध, हसिज्जिस्सिध हसिज्जिस्सिसे, हसिज्जेस्सिसे हसिज्जेस्सिध, हसिज्जिसइत्था
हसिज्जेसइत्था, हसिज्जिस्सिइत्था
हसिज्जेस्सिइत्था उं० पु० हसिज्जिसउं, हसिज्जेस हसिज्जिसहुं, हसिज्जेस हुं, हसिज्जिस्सिहुं
हसिज्जिस्सिउ, हसिज्जेस्सिङ हसिज्जेस्सिहं, हसिज्जिसमो, हसिज्जेसमो हसिज्जिसामि, हसिज्जेसामि हसिज्जिस्सिमो, हसिज्जेस्सिमो हसिज्जिस्पिमि, हसिज्जेस्सिमि हसिज्जिसम, हसिज्जेसम्
हसिज्जिस्सिमू, हसिजेस्सिम हसिज्जिसम, हसिज्जेसम
हसि ज्जिस्सिम, हसिज्जेस्सिम हसिय (हस्य) अंग के भविष्यकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र०पु० हासयिसदि, हसियेसदि हसियिसहि, हसियेसहि, हसि यिसंदि
हसियसदे, हसियेसदे हसियेसंदि, हसियिसंदे, हसियेसंदे हसियिस्सिदि, हसियेस्सिदि हसियिसइरे, हसियेसइरे, हसियिस्सिहिं हसियिस्सिदे, हसियेस्सिदे हमियेस्सिहिं, हसिपिस्सिदि, हसियेस्सिदि हसियिसई, हसियेसइ हसियिस्सिदे, हसियिस्मिदे, हसियिस्सिइरे हसियिस्सिइ, हसियेस्सिइ हसियेस्सिइरे हसियिसए, हसियेसए
हसियिस्सिए, हसियेस्सिए म०पु० हसियिसहि, हसियेसहि हसियिसहु, हसियेसहु, हसियिस्सिहु
हसियिस्सिहि, हसियेस्सिहि हसियेस्सिहु, हसियिसधु, हसियेसधु हसियिससि, हसियेससि हसियिसिधु, हसियेसिधु, हसियिसह हसियि स्सिसि, हसियेस्सिसि हसियेसह, हसियिस्सिह, हसियेस्सिह
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परिशिष्ट ४
हसिसिसे, हसिये ससे हसिस्सिसे, हसियेस्सिसे
उ०पु० हसिसिउ, हरियेस हसिथिस्सि हसियेस्सिड
हसिसिमि, हसिये समि हसिसिमि, हसिये सिमि
1
एकवचन पुंलिंग हसिज्जिद, हसिज्जिदा हसिज्जिदो, हसिज्जिदु
हसिज्जिअ, हसिज्जि हसिज्जिओ, हसिज्जिउ
स्त्रीलिंग हसिज्जिदा, हसिज्जिद हसिज्जिआ, हसिज्जिअ
हसिज्ज (हस्य) अंग के भूतकाल के रूप
बहुवचन
नपुं० हसिज्जिदु, हसिज्जिद हसिज्जिदा, हसिज्जिउ हसिज्जिअ, हसिज्जिआ
एकवचन पुंलिंग हसियिद, हसियिदा सिदिो, हसिदि हसिविअ, हसियआ हसि थिओ, हसियिउ स्त्रीलिंग हसियिदा, हसियिद हसिथि, हसियिअ
नपुं० हसियिदु, हसियिद
हमिधि, हसियेसध, हसियिस्तिध हसिये स्धि, हसिसिइत्था हरिये इत्था हसिथिस्सिइत्था हरियेस्सिइत्था
हसिसि हसियेस, हसिथिसिस हूं हसियेस्सिहं, हसियिसमो हसियेसमो हमिस्सिमो, हसियेस्सिमो, हसियिसमु हसियेसमु, हसियिस्तिमु, हसियेस्सिमु हसिसिम, हसियेसम, हसिथिस्सिम हरियेस्सिम
५३५
हसिय (हस्य ) अंग के भूतकाल के रूप
हसिज्जिद, हसिज्जिदा, हसिज्जिअ हसिज्जिआ
हसिज्जिदा, हसिज्जिद, हसिज्जिदाउ हसिज्जिदउ, हसिज्जिदाओ हसिज्जिदओ, हसिज्जिआ, हसिज्जिअ हसिज्जिआउ, हसिज्जिअउ हसिज्जिआओ, हसिज्जिअओ हसिज्जिद, हसिज्जिदा, हसिज्जिदई हसिज्जिदाई, हसिज्जिअ, हसिज्जिआ हसिज्जिअ, हसिज्जिआई
बहुवचन
हसि यद, हसियिदा, हसियिअ, हसियिआ
हसि यिदा, हसियिद, हसिथिदाउ हसिदिउ, हसियिदाओ, हसियिदओ हसिरिआ, हसियिअ, हसियिआउ हसियिअउ हसियिआओ, हसियिअओ हसि यिद, हसि विदा, हसियिद, हसिविदाई
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५३६
प्राकृत वाक्यरचना बोध
हसियिदा, हसियिउ हसियिअ, हसियिआ, हसि यिअई, हसि यिआई
हसियिअ, हसियिआ ७. स्वरान्त दा (दा) के भाव कर्म के रूप
दा-- इज्ज - दाइज्ज । दा-+-इय=दाइय। दाइज्ज और दाइय के सब कालों के रूप होसज्ज और हसिय के समान होते हैं। स्वरान्त सभी धातुओं के रूप भावकर्म में हसिज्ज और हसिप के समान चलते हैं। ८. प्रेरक धातु (भिन्नत) से भावकर्म के रूप ० प्रेरक धातु+भावकर्म के प्रत्यय - काल बोधक प्रत्यय =प्रेरक
(जिन्नन्त) से भाव कर्म के रूप । ० कर, करावि+इज्ज, इय (भावकर्म प्रत्यय)+इ आदि (वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष एकवचन के प्रत्यय)=कराविज्जइ, करावियइ। कराविज्ज (कार्य) अंग के वर्तमानकाल के रूप एकदचन
__ बहुवचन प्र०पु० कराविज्जइ, कराविज्जए कराविजहिं, कराविज्जिन्ति
कराविज्जन्ते म०पु० कराविज्जहि, कराविज्जसि कराविज्जहु, कराविज्जह कराविज्जसे
कराविज्जित्था उ०पु० कराविज्ज कराविज्जमि कराविज्जहुं, कराविज्जम कराविज्जामि, कराविज्जेमि कराविज्जाम, कराविज्जिम
कराविज्जेम, कराविज्जमु कराविज्जामु, कराविज्जिमु कराविज्जेमु, कराविज्जमो कराविज्जामो, कराविज्जिमो
कराविज्जेमो कराविय (कार्य) अंग के वर्तमानकाल के रूप एकवचन
बहुवचन प्र० पु० करावियइ, करावियए करावियहि, करावियन्ति, करावियन्ते म०पु० करावियहि, करावियसि करावियहु, करावियह, करावियित्था उ०पु० कराविय, करावियमि करावियहुं, करावियम, करावियाम करावियामि, करावियेमि करावियिम, करावियेम, करावियमु .
करावियामु, करावियिमु, करावियेमु करावियमो, करावियामो, करावियिमो करावियेमो
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परिशिष्ट ४
कराविज्ज ( कार्य ) अंग के विधि एवं आज्ञा के रूप
एकवचन
प्र०पु० कराविज्जिज्जउ
कराविज्जिज्जेउ
म०पु० कराविज्जिज्ज, कराविज्जिज्जे कराविज्जिज्जह, कराविज्जिज्जेह कराविज्जिज्जु, कराविज्जिज्ज
एकवचन
प्र०पु० करावियिज्जउ, करावियिज्जेउ म०पु० करावियिज्जि, करावियिज्जे करावियिज्जु, करावियिज्ज कवियिज्जहि, करावियिज्जे हि कवियिज्ज, करावियिज्जेसु उ०पु० करावियिज्जम, करावियिज्जेमु
कराविज्जिज्जहि कराविज्जिज्जेहि
कराविज्जिज्जसु कराविज्जिज्जेसु
उ०पु० कराविज्जिज्जमु, कराविज्जिज्जेमु कराविज्जिज्जमो, कराविज्जिज्जामो
कराविज्जिज्जेमो
कराविय ( कार्य ) अंग के विधि एवं आज्ञा के रूप
एकवचन
प्र०पु० कराविज्जिसदि, कराविज्जेस दि
कराविज्जिसदे, कराविज्जेसदे
कराविज्ज ( कार्य ) अंग के भविष्यकाल के रूप
५३७
बहुवचन कराविज्जिज्जन्तु, कराविज्जज्जेन्तु
म०पु० कराविज्जिसहि, कराविज्जेसहि
कराविज्जिस्सिहि
बहुवचन कराविज्जिसहि, कराविज्जेसहि कराविज्जिसंदि, कराविज्जेसंदि
कराविज्जिस्सदि कराविज्जेस्सदि कराविज्जिसंदे, कराविज्जेसंदे
कराविज्जिस्सदे, कराविज्जेस्सदे कराविज्जिसइरे, कराविज्जेस इरे
कराविज्जेस्सिहि
करांविज्जिससि, कराविज्जेससि कराविज्जिस्सिसि कराविज्जेस्सिसि
बहुवचन करावियिज्जन्तु, करावियिज्जेन्तु कवियिज्जह, करावियिज्जेह
कवियिज्जमो, करावियिज्जामो कवियिज्जेमो
कराविज्जिसइ, कराविज्जेसइ
कराविज्जिस्सिहि, कराविज्जेस्सि हिं
कराविज्जिस्संदि, कराविज्जेस्संदि
कराविज्जिसए, कराविज्जेसए कराविज्जिस्सिs, कराविज्जेस्सिइ कराविज्जिस्सिदे, कराविज्जेस्सिदे
कराविज्जिस्सिए, कराविज्जेस्सिए कराविज्जिस्सिइरे, कराविज्जेस्सिइरे कराविज्जिसहु, कराविज्जेसहु कराविज्जिस्सि कराविज्जेस्सि हु कराविज्जिसधु, कराविज्जेसघु कराविज्जिसिधु, कराविज्जे सिधु कराविज्जिसह, कराविज्जेसह कराविज्जिसिह, कराविज्जेस्सिह
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५३८
कराविज्जिससे, कराविज्जेससे कराविज्जिससे कराविज्जे से
उ० पु० कराविज्जसउ, कराविज्जेसउ कराविज्जिस्सिउ '
कराविज्जेस्सिउ', कराविज्जिसमि करा विज्जे समि
कराविज्जि सिमि
कराविज्जे सिमि
एकवचन
प्र०पु० कराविसिदि, करावियेसदि
कवियिसदे, करावियेस दे कवियिस्सदि करावियेस्सदि
कराविस्सिदे, करावियेस्सदे
प्राकृत वाक्यरचना बोध
कराविज्जिसध, कराविज्जेसध कराविज्जिस्सिध, कराविज्जेस्सिध कराविज्जिसइत्था कराविज्जेसइत्था कराविज्जिस्सिइत्था
कराविज्जेस्सिइत्था
कराविय ( कार्य ) अंग के भविष्यकाल के रूप
कराविज्जिसहुं, कराविज्जेस हुं कराविज्जिसिहं, कराविज्जेस्सिहुं कराविज्जिसमो, कराविज्जेसमो कराविज्जिस्सिमो, कराविज्जेस्सिमो कराविज्जिसमु, कराविज्जेसमु कराविज्जिस्सिम, कराविज्जेस्सिमु
कराविज्जिसम, कराविज्जेसम
कराविसिसे, करावियेसमे करावियिस्सिसे, करावियेस्सिसे
कराविज्जिस्सिम, कराविज्जेस्सिम
कराविसिइ, करावियेसइ
कराविसिए, करावियेसए कराविrिस्सिs, करावियेस्सिइ करावियिस्सिदे, करावियेस्सिदे
कवियिस्सिए, करावियेस्सिए करावियिस्सिइरे, करावियेस्सिइरे
उ०पु० करावियिसउ, करावियेस उ करावियिस्सिङ, करावियेस्सिउ
म०पु० कराविसिहि, करावियेसह कराविसिहु, करावियेसहु
बहुवचन कराविसिहि, करावियेस हिं कवियिसंदि, करावियेसंदि करावियिसंदे, करावियेसंदे करावियिसइरे, करावियेसइरे
कवियिस्सिहि, करावियेस्सिहिं
कवियिस्संदि, करावियेस्संदि
करा विविसिहि, करावियेस्सिहि करावियिस्सिहु, करावियेस्सि करावियिससि, करावियेससि कराविसिधु करावियेसधु कवियिस्सिसि, करावियेस्सिसि करावियिस्सिधु, करावियेस्सिधु कवियिसह, कराविये सह करावियिस्सिह, करावियेस्सिह कराविधि, करावियेसध कवियिसिध, करावियेस्सिध
कराविसिइत्था करावियेसइत्था कवियिस्सिइत्था करावियेस्सिइत्था करावियिसहुं, करावियेसहुं करावियिसिहुं, करा वियेस्सितुं
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परिशिष्ट ४
कवियिसमि, करावियेस मि कवियिस्सिमि, करावियेस्सिमि
एकवचन
पुंलिंग कराविज्जिद, कराविज्जिदा
विज्जिदो, कराविज्जिदु कराविज्जिअ, करा विज्जिआ कराविज्जिओ, कराविज्जिउ
स्त्रीलिंग कराविज्जिदा, कराविज्जिद कराविज्जिआ, कराविज्जिअ
कराविज्ज ( कार्य ) अंग के भूतकाल के रूप
बहुवचन कराविज्जिद, कराविज्जिदा कराविज्जिअ, कराविज्जिआ
नपुं० कराविज्जिद, कराविज्जिद करा विज्जिदा, कराविज्जिउ कराविज्जिअ, कराविज्जिआ
एकवचन
पुंलिंग करावियिद, करावियिदा
कवियिदो, करावियिदु कवियि, करावियिआ कराओ, कवियिउ
कराविय ( कार्य ) अंग के
स्त्रीलिंग करावियिदा, करावियिद कवियि, करा वियिअ
कराविसिमो, करावियेसमो करावियिस्सिमो, करावियेस्सिमो कवियिसमु, करावियेसमु कराविविस्सिमु, करावियेस्सिमु कराविसिम, करावियेसम
कवियिस्सिम, करावियेस्सिम
कराविज्जिदा, कराविज्जिद करावि ज्जिदाउ, कराविज्जिदउ कराविज्जिदाओ, कराविज्जिदओ कराविज्जिआ, कराविज्जिअ कराविज्जिआउ, कराविज्जिअउ कराविज्जिआओ, कराविज्जिअओ कराविज्जिद, कराविज्जिदा कराविज्जिदई, कराविज्जिदाइं कराविज्जिअ, कराविज्जिआ कराविज्जिअ, कराविज्जिआई भूतकाल के रूप
५३६
बहुवचन कवियिद, करावियिदा, करावियित्र कराविि
कवियिदा, करावियिद, कराविविदाउ कराविदिउ, करावियिदाओ कराविदिओ, करावियिआ
कवियि, करावियिआउ
कवियिअउ करावियिआओ कवियिओ
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
नपुं० करावियिदु, करावियिद करावियिद, करावियिदा, करावियिदई
करावियिदा, करावियिउ करावियिदाई, करावियित्र, करावियि करावियिअ, करावियिआ करावियिअइं, करावियिआई (प्राकृतमार्गोपदेशिका और अपभ्रंश रचना सौरभ के आधार पर)
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परिशिष्ट ५ अकार आदि क्रम से वर्ग
व शब्दसंग्रह
वर्ग पाठ आभूषण वर्ग (३८) औषधिवर्ग (४४,४५) काल वर्ग (५२,५३) कोडा आदि क्षुद्र जंतु (८८) खाद्य वर्ग (२६) गुडचीनी वर्ग (२३) गृह अवयव (३०) गृह सामग्री वर्ग(१७,१८) गृह " (आसन आदि) (१८) गोरस वर्ग (१३) ग्रहनक्षत्र वर्ग (६६) जलाशय वर्ग(३५) जैन पारिभाषिक १ (२७)
" " २ (२८) धातु उपधातु वर्ग(८२) धान्य वर्ग (४६,४७) न्यायालय वर्ग(१६) पक्षी वर्ग (५४,५६,५७) पत्रालय वर्ग (२२) परिवार वर्ग(८ से १२) पशु वर्ग(५८ से ६१) पात्र वर्ग (२६) प्रसाधन सामग्री (३२) बारह मास वर्ग(६५) फल वर्ग(४८,४६) महापुरुष वर्ग (७)
वर्ग पाठ मास वर्ग (६५) मिठाई वर्ग (२५) यंत्र वर्ग (६७) यान वर्ग (85) रत्न और मणि (६४) रसोई उपकरण (१६) रसोई मसाला(१५) राजनीति वर्ग (८१) रेंगने वाले आदि प्राणी (८६) रोग वर्ग(८४,८५) रोगी वर्ग (८६) रोटी आदि वर्ग (२४) वस्ती और मार्ग वर्ग(६४) वस्त्र वर्ग (३६,३७) वाद्य वर्ग(८७) वृक्ष (५०) वृत्तिजीवी (७३ से ७६) व्यापार वर्ग (३३) शरीर के अंग-उपांग (६८ से ७२) शरीर विकार (३१) शस्त्र वर्ग (६०,६१) शाक वर्ग (४२,४३) शिक्षा वर्ग (३४) साला(६७) सुगंधित द्रव्य (९३)
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५४२
सुगंधित पत्र पुष्प वाले पौधे
व लता
(१२)
स्त्री वर्ग ( ७७ से ८० ) स्पर्श वर्ग (८३)
स्फुट
आभूषण वर्ग पाठ (३८)
अंगूठी - अंगुलीयं, अंगुलिज्जं कंठा -- कंठमुरयो, कंठमुही
कंदोरो --- कडिसुतं करधनी - रसणा, मेहला
कान की बाली -- कुंडलं, कण्णाआसं
(दे० ) घंटिया
घुंघरु
चूडी -- वलयं, चूडो टिकुली - णडालाभुसणं
नथ -- णासाभरणं
पहुँची - कडओ
पांव का कडा --- हंसओ
बंगडी - कंकणं, कंकणी
बिछिया--णूउरं, णेउरं भुजबंद —केऊरं
मंगलसूत्र --- कंठसुत्तं
मणियों से ग्रंथितहार - एगावली
मुकुट - मउडो मोतियों की माला — हारो, पलंब
रत्नों का हार -- रयणावली
लच्छा — पायाभरणं हंसुली - गेविज्जं
हाथ का कडा — कडगो
औषधि वर्ग ( पाठ ४४, ४५ )
अजवायन- - अज्जम (वि) दे० अडूसा — वासओ अश्वगंध - अस्सगंधा
प्राकृत वाक्यरचना बोध
आमला-- -धत्ती इलायची (छोटी) - सुहुमेला
इलायची (बडी ) -- थूलेला, एला
ईसबगोल – ईसिगोलो (सं) द्धिबीयं (सं)
ईसबगोलभुसी ईसिगोल वुसं ( सं ) कत्था - सिअखइरो
कालीमिर्च - कण्ह मिरिअं
गिलोय - गिलोई, वच्छादणी गोखरु~-गोक्खुरो
गोरोचन - गोलोअणो (सं)
चूना - चुण
जमालगोटा - सारओ
जायफल ------ जाइफलं
जावित्री -- जाइवत्तिआ
त्रिफला - तिफला
दालचीनी --- चोअं (दे० ) चोचं
नागकेसर - नागकेसरो
पीपर - पिप्पली पीपरामूल- पिप्पलीमूलं
बेहडा — बहेडओ
मेथी - मेथी (सं)
लौंग - लवंगो, पउमा वंशलोचन – वंसरोअणा
सौंफ — सयपुप्फा हर्र - हरडई, अभया
काल वर्ग ( पाठ ५२, ५३ ) अतीतकाल -- अईओ ऋतु — उउ (ति)
काल का सूक्ष्म भाग — समयो ग्रीष्म- गिम्हो
घटी घडी
दिन -- दिवसो, दिवहो
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परिशिष्ट ५
- पक्खो
पल-खणो
पक्ष-
पूर्वदिन व्हो
प्रातःकाल --पगे, उसावेला
भविष्यकाल -- अणागयं
मासमासो
मध्यदिन --- मज्भण्हो
मुहूर्त - मुहुत्तं युग-जुगो
रात्रि -- रत्ती, राई, निसा
वर्तमानकाल --- पडिपुन्नं वर्ष - वरिसो, संवच्छरो
वर्षा रिसा
वसंत - वसंतो
शरद् — सरयो
शिशिर - सिसिरो
संध्या संझा
हेमंत - हेमंतो
कोडा आदि क्षुद्र जन्तु (पाठ ८८ )
कान खजूरो- कण्णजलूया कीडी कोडी, कीडिया
खटमल - मक्कुणो
जुगनू - खज्जोओ
जूं --- जूआ
जोंक --- जलूया, जलूंगा
झींगुर ( तिलचटा ) -- झिगिरी (दे.)
डांस डंसो
दीमक -- उवदेही
भौंरा - भसलो
मकोडा - कीडो,
पिवीलिओ
मक्खी - मक्खिआ, मच्छिआ मच्छर – मसओ
मधुमक्खी - महुमक्खिआ लीख - - लिक्खा वीरबहूटी - इंदगोवगो
शलभ ( पतंग ) – सलहो
खाद्यवर्ग (पाठ २६)
अचार --- संहाणं
कचोरी - पिट्टिया (सं)
कॉफी--कफग्घी (सं)
कुलफी --- कूलपी (सं)
चाट --- अवदंसो (सं)
चाय - चविया, चायं (सं) पकोडी पक्कवडिया (सं)
बडा बडगं
बडी-बडी (दे.)
मुरब्बा --मिट्ठपागो समोसा-समोसो (सं)
गुडचीनी वर्ग (पाठ २३ ) आर्द्रगुड -- फाणिअं, फाणिओ गुड -- गुडो, गुलो.
गुड से पहली अवस्था -- कक्कबो (दे० ) खांड-खंडा
चासनी - सियाले हो
चीनी - सिता, सिया
बतासा ---वातासो (सं) -मच्छंडी
शक्कर --
शहद - - महु (न)
शरबत - सक्करोदयं (सं) सालममिसरी --- छुहामूली (सं)
गृह अवयव ( पाठ ३० )
अट्टारी—अहं
ओसारा – उवसालं
किंवाड --- कवाडं
५४३
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५४४
प्राकृत वाक्यरचना बोध खिडकी-खडक्की (दे०) वायायणं फिटकरी-फलिहा खूटी–णागदंतो
बत्ती-वत्ती, वत्तिआ घर का छोटा दरवाजा-मूसा (दे.) वर्तन-पतं, भायणं घर का पिछला आंगन-पडोहरं बोरा-पसेवो घर का भीतरी भाग--अंतोवगडा मशहरी-मसहरी
मूसल-मूसलं, कडतं चौखट (दहलीज)- देहली, अंबेसी
मोम--सीअं(दे०) छत्त-छायणं
रस्सी-रज्जू (स्त्री) दरवाजा-दारं
लालटेन----कायदीविया (सं)
लोढा-लोढो दीवार-भित्ति (स्त्री) बरामदा-वरंडिया (दे०)
शिला-सिला विच्छ के डंक के आकार वाली
साजी-सज्जिआ
साबुन-सव्वक्खारी (सं) तीखी खूटी-अलीपट्ट (दे०)
सीमेंट-पत्थरचुण्णं गृहसामग्री (पाठ १७,१८)
स्टोब-उद्धमाणं (सं) इंट-इट्टा एनक--उवनेत्तं (सं)
गृहसामग्री (आसन आदि) (पाठ १८) ओखली-उऊखलं, अवअण्णो (दे०)
काठ का तख्ता-फलगो खरल-खल्लं (सं)
काठशय्या-कट्ठसेज्जा गोंद-णिय्यासो ।
कुर्सी-वेत्तासणं, आसंदी (सं) चक्की–णीसा (दे०) घरट्टो (दे०)
चारपाई-पलियंको चलनी-चालणी
चौकी-चउपाइया, आसणं छींका-सिक्कगो
पीढा-पीढं झाडू-बोहारी, वद्धणिआ, संमज्जणी बेंच-कट्ठासणं झूला-~-ढोला
मेज-पायफलगं (सं) टब-दोणी (सं)
सोफा–सुहोववेसिया (सं) टूथपाउडर-दंत चुण्णं
गोरस वर्ग (पाठ १३) टूथपेष्ट-दंतपिट्टअं(सं) कढी—कढिआ (दे०) तीमणं दांत का ब्रुश-दंतधावणं (सं) खट्टी राब-अंबेली (दे०) दियासलाई-दीवसलागा
खीर-पायसो दीया-दीवओ, दीवगो
घी-घयं, सप्पि, अज्जं पंखा-विजणं, विअणं
छाछ-तकं पुराना छाज आदि-कडंतरं दही-दहिं (न)
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परिशिष्ट ५
५४५
दही की मलाई-दहित्यारो (दै०) दूध-खीरं, पयो, दुद्धं, अलिआरं ।
पुण्य-पुण्णं प्रमाद--पमायो, पमत्तो मन-मणं, मणो राग--रागो वीतराग-वीयराओ श्रावक-सावगो, समणोवासगो श्राविका-साविया, साहुणी,
समणो, वासिया, उवासिया संथारा-अणसणं समाधि-समाही (पुं) सर्वज्ञ-सव्वण्णू साधु-समणो, साहू साध्वी-समणी, स्वाध्याय-सज्झायो
जलाशय वर्ग (पाठ ३५) कुंआ-कूवो, अगडो, अवडो
दूध की मलाई--करघायलो नवनीत-णवणीयं, दहिउप्फ (दे०) मट्ठा-घोलं (दे०) मावा-किलाडो, कूचिआ रायता-दाहि (सं) श्रीखंड-हिंडओ (दे०) _ ग्रह नक्षत्र वर्ग (पाठ ६६) केतु-केऊ (पुं) ग्रह-गहो चंद्रमा-चंदो, हिमयरो तारा--तारा नक्षत्र–णक्खत्तं बुध-बुहो बृहस्पति-बहस्सई (पुं०) मंगल-अंगारयो राहु-राहू (पुं) शनि-सणी (j) शुक्र-सुक्को सूर्य--आइच्चो, दिणअरो
जैन पारिभाषिक (पाठ २७,२८) आचार्य-आयरिओ आत्मा--अप्पा आसक्ति-आसत्ती (स्त्री) कर्म-कम्म चतुर्मास-चाउमासो तप-तवो, तवं द्वेष--दोसो ध्यान--झाणं पाप-पावो
छोटा कुंआ-कूविया छोटा प्रवाह--ओग्गलो टंकी---जलसंगहालयो (सं) तालाब-तडाओ, तलायो, सरं नदी-नई नल-णलं नहर-कुल्ला निर्झर-अवज्झरो, ओझरो पुष्करिणी-पोक्खरिणी प्याऊ-पवा बांध-बंधो (सं) बावडी--वावी समुद्र-समुद्दो, सायरो ___ धातु उपधातु वर्ग (पाठ ८२) अभ्रक-अब्भपडलं (दे०) कलइ–सरययरंगचुण्णं (सं)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
कांस्य-कंसं कालालोह-कालायसं चांदी-रययं, जायरूवं जस्ता-जसदो तांबा-तंबो तूतिया-तुत्थं (सं) पीतल-पित्तलं रांगा-रंगं (दे०) लोह-लोहं पारा--पारयो सीसा-त सोना-सुवण्णं, कणगं स्टील-टीलं
धान्यवर्ग (पाठ ४६,४७) अरहर-आढकी उडद-मासो कांगन-कंगू (स्त्री) कुलथी-कुलत्थो, कुलमासो कुसुंभ-लट्टा (दे०) कोंदो-कुद्दवो खेसारी-तिपुडो गरहेडुवा-गवेधुआ गेहूं--गोहुमो चना-चणओ, चणो चवला-आलिसंदगो चावल-तण्डुलो जौ--जवो ज्वार-जुआरी तिनी..-णीवारो तीसी-अलसी बाजरा-बज्जरी मक्का--मकायो, महाकायो
मटर–कलायो . मसूर-मसूरो मूंग- मुग्गो मोठ-वणमुग्गो, मकुट्ठो, तिउडगो राई-राइ, राइगा वांस के बीज-वंसजवो शरबीज-चारुगो सरसों--सस्सवो साठीधान--साली सावां-सामयो ___ न्यायालय वर्ग (पाठ १६) अदालत-दंडासणं, धम्मासणं अनुवाद. -अणुवायो अपील-पुनरावेयणं अर्जी--आवेयणपत्तं इकरारनामा-पइण्णापत्तं (सं) कचहरी–नायालयो गवाह-सक्खि (वि) गवाही---सक्खं सक्खिज्ज बूंस-उक्कोडा (दे०) उक्कोया घूस लेकर कार्य करने
वाला--उक्कोडिय (वि) जज-नायगरो जमानत--णासो जामिनदार--पडिभू (वि) पाडुहुओ जिस पर दावा किया
गया हो- पडिवक्खियो दफ्तर---अक्खपडलो (सं) न्याय-नायो प्रतिवादी-पडिवाई (वि) फैसला--णिण्णयो बयान---उवसत्ती मुकदमा-अभिओगो
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परिशिष्ट ५
वटेर-लावओ, लावगो सारस--सारसो सुआ---सुओ, कीरो हंस-हंसो
पत्रालय वर्ग (पाठ २२) डाकिया---पत्तवाहओ तार----तुरिअसूअओ (सं) तारघर--तुरिअसूअणालयो (सं) पत्र--पत्तं पत्रपेटी (लेटरबक्स)-~~-पत्ताही (पुं)
पार्शल-पासलो (सं) डाकघर --- पत्तालयो डाकघर (प्रमुख)-पमुहपत्तालयो पोस्टमास्टर--पत्तालयाहिअक्खो
वकील-वायकीलो (सं) वादी-वाई __पक्षी वर्ग (पाठ ५४,५६,५७) आडी-आडी (स्त्री) उल्लू-~-उलूओ, उलूगो कंक-कंको कबूतर--कवोओ कुरर-कुररो कोयल-कोइलो, कोइला, परहतो कौआकाओ, पायसो क्रौंच -कोंचो खंजन--खंजणो गरुड-गरुडो, गरुलो गीध-गिद्धो गौरैया-चडयो चकवा --- चक्कवाओ, चक्कआओ चकोर-चकोरो चमगादड-~-जउआ चाष---चासो चील-चिल्ला टिटिहरी---टिट्टिभो तीतर-तित्तिरो पपीहा--चायवो, चायगो बगुला-वयो, वगो बगुली-वग्गी बत्तक-बत्तओ बाज-सेणो भंग-भिंगो मुर्गा----कुक्कुडो मुर्गी-कुक्कुडी मैना–सारिआ मोर--मोरो, अल्लल्ल (दे०)
मनीआर्डर--धणाएसो (सं) रजिस्ट्री-पंजिआ (सं) लिफाफा--आवेटणं (सं) __ परिवारवर्ग (पाठ ८ से १२) चाचा--पिइज्जो, चुल्लपिऊ चाची-पिइज्जजाया, चुल्ल पिउजाया चचेराभाई-पिइज्जपुत्तो, चचेरी बहन-पिइज्जसुआ जमाइ--जामाया दंपति (पति-पत्नी)-दंपई (पुं) दादा-पिआमहो, अज्जयो दादी--पिआमही, अज्जिआ दुलहिन-अणरहू, णवा देवर-दिअरो, देअरो, अण्णओ देवरानी-अण्णी (दे.) अण्णिआ (दे.) दोहिता-पडिपोत्तयो
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५४८
प्राकृत वाक्यरचना बोव
ननंद-नणंदा
भौजाई ---भाउज्जाया, भाउज्जा, नाना-माआमहो
___ भाउज्जाइया नानी-माउम्मही
माता--माआ, अम्मो, जणणी पति- भत्ता, सामी, पई (पुं) मामा-माउलो पत्नी-भज्जा, भारिया, दारा, पत्ती, मामी-मामी, मल्लाणी __ घरिल्ला, घरणी, सिरीमई मामे का बेटा-माउलपुत्तो परदादा-पज्जओ, पपिआमहो मौसा-माउसिआपई परदादी-पज्जिआ, पपिआमही मौसी-माउसिआ, माउसी, माउलिया परनाना---पमाआमहो परनानी-पमाआ मही
मौसेरा भाई-माउसिआणेयो पिता-जणओ, बप्पो, पिऊ (पुं) मौसेरी बहन-माउसिआणिज्जा पुत्तवधू-णोहा, पुत्तबहू, सुण्हा
ससुर-ससुरो पोताणत्तुणियो, पोत्तो
साढू-सालीधवो (सं) पोती-नत्तुणिया
साला--सालो पौत्र की बह--णत्तुइणी
साला बडा-अवलो (सं) प्रपोता-पपोतो, पडिपुत्तो
साली-साली प्रपोती-पपोती
साली बडी-कुली प्रेयसी-पीअसी, पेअसी
सास-सस्सू, सासू, अत्ता फुफेरा भाई–पिउसिआणेयो
पशु (पाठ ५८ से ६१) फुफेरी बहन-पिउसिआणिज्जा ऊंट-कमेलयो, उट्टो बड़ी बहन का पति-भाओ (दे.) ऊंटनी (सांड)-उट्टी बहन--बहिणी, भगिणी, ससा उदबिडाल-उदविडालो बूआ-पिउस्सिआ, पिउच्चा, पिउच्छा उन्मत्तबैल-अलमलवसहो बेटा-पुत्तो, तणयो, सुनू, सुओ कुत्ता–कुक्कुरो, सारमेयो बेटी--पुत्ती, तणया, धूया, दुहिआ कुत्ती-सुणई, सुणिआ भतीजा-भाइसुओ
खच्चर--वेसरो भतीजी-भाइसुआ
खच्चरी-वेसरी भाई-भाअरो, भायरो, भाऊ, भाई खरगोश-ससो
गधा-गद्दभो, रासहो भाई (छोटा)--अणुओ
गाय-धेणु, गो (पुं) भाई (बडा)--अग्गओ
गीदड-सियारो भानजा- भाइणिज्जो, भाइयो गेंडा-गंडयो, खग्गी भानजी-भाइणिज्जा, भाइणेया घोडा-घोडओ, आसों
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परिशिष्ट ५
चिडिया-चडया
झारी-भिंगो चीता-चित्तो
तांबे का घडा-कलसो चूहा-मूसिओ
तुम्बा (तुंबीपात्र)-कुउआ दुष्ट बैल-अलमलो
दही रखने का मिट्टी का पात्रनीलगाय--गवयो
गग्गरी, छोटा घडा पाडी छोटी-पड्डिया
मटका-कयलं (दे.) बंदर ---वाणरो
मशक-चिरिक्का (दे.) बकरा-अयो
लोटा-करगो बकरी--अया, छाली
सकोरा-कोडिअं बाघ–सदूलो, वग्यो
प्रसाधन सामग्री (पाठ ३२) बिल्ली-मज्जारो, बिंडालो
अंजन-अंजणो बैल-वसहो, बइल्लो
इत्र---पुप्फसारो भालू-भल्लू, रिच्छो
कंघी-फणिहो, कंकसी (दे.) भेड- मेसो
केशों का मूडा-आमेलो. भेडिया--विओ, कोओ
क्रीम--सरो भंसा-महिसो
चोटी-छेडो (दे.). लंगूर-गोलांगुलो (सं)
तेल-तेलं, तेल्लं लोमडी-खि खिरो
दर्पण-दप्पणो, आयसो सांड-गोपती
नेलपालिश-णहरंजणं (सं) सिंह-सीहो, सिंघो, केसरी
पाउडर--चुण्ण (सं) सियाली-सिआली
पान-तंबोलं सूअर-सूअरो, वराहो
पुष्पमाला-आमेलओ सोनचीडी-स उणचडया
मेंहदी-मेहदी हत्थिनी--करेणुआ, करिणी, हथिणी रूज-कवोलरंजणं हरिण-हरिणो
लिपष्टिक-ओट्ठरंजणं हाथी-हत्थी (पुं) करी (पुं) गयो सिंदुर-सेंदुरो पात्र वर्ग (पाठ २६)
स्नो-हैमं (सं) काच की गिलाम---कायकंसो
___ फलवर्ग (पाठ ४८, ४६ कुंडी-करंडी
अंगूर-दक्खा कुलडीकुल्लडं
अंजीर-काउंबरी गिलास-कंसं, लहुपत्तं
अखरोट-अक्खोडबीयं घडा-घडो
अनन्नास-अपंणासं
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५५०
अनार -- दाडिमो
अमरूद - पेरुओ
आम - अंब,
सहआरफलं
आलुबुखारा – आरुयं (सं) इमली-- चिंचा, कुट्टा कटहल - पणसो
कपित्थ - कविट्ठो
खज्जूर--खज्जू रो
खरबूजा -- खब्बूयं, दसंगुलं (सं)
खुमानी - खुमाणी (सं) जामुन - जंबू ओ, जंबू तरबूज -- कालिंगो
तालमखाना -- कोइलक्खी ( त्रि. )
नारंगी -- नारंग
कमरख --- कम्मरंगो (सं)
काजू - काजू अगो (सं)
ू
किसमिस --अबीया, ईसिबीया (सं) बुद्ध बुद्धो
केला — कयलो
नारियल - णारिएलो
नाशपाती - अमियफलं
नीम का फल --- णिबोलिया
पपीता - महुकक्कडी पिस्ता - णिकायगो ( सं ) पीलू - पीलू (सं)
फालसा -- अपट्टि (सं) बडहर – लउचो, एरावयो बादाम - वायायो, नेत्तोवमफलं
बिजौरा --माहुलिगो
बेल -- वेलो
बोर बोरं
मुनक्का - गोत्थणी (सं.) मौसंबी - मोसंबी
तहतून - तुओ, तूलो (सं)
सिंघाडा - सिंघाडयो, सिंघाडगं सुपारी --- पोप्फलं
सेव सेवं (सं)
महापुरुष ( प ठ ७ ) अरहंत-अरहंतो
आचार्य - आयरियो
प्राकृत वाक्यरचना वोध
-उवज्झायो
उपाध्याय ---
जिन -- जिणो
पार्श्वनाथ- पासणाहो
महावीर - महावीरो
शिव —हरो
साधु - साहू (पुं) सिद्ध-सिद्धो, अदेही (पुं)
मासवर्ग (पाठ ८:५)
आषाढ --- आसाढो
आसोज -- आसोओ
कार्तिक — कत्तिओ
चैत्र - चइत्तो
जेठ -- जेट्ठो पोष-पोसो
भाद्रव-भद्दवयं
माह - माहो
मृगसर — मग्गसिरो वैशाख --- वइसाहो
श्रावण---
--सावणं
फाल्गुन — फग्गुणो
मिठाईवर्ग ( पाठ २५ )
इमरती --- अमिया, अमया ( सं )
कलाकंद — कलाकंदो (सं)
कसार -- कसारो खाजा-महुसीसो
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परिशिष्ट ५ गजक-गजओ (स) गुज्झिया--संयावो, गोझिया गुलाब जामुन-दुद्धपूअलिया (सं) घेवर-घेउरो, घयपुण्णो जलेबी-कुंडलिणी पपडी-पप्पडी पेठे की मिठाई--कोहंडी पेडा--पिंडो (सं) बालूशाही–महुमंठो मालपुआ-अपूयो मिठाई-मिट्ठन्नं मोहनभोग-मोहणभोओ रबडी-कुच्चिया (सं) रसगुल्ला-रसगोलो (सं) लड्डु-लड्डूओ, मोदओ लापसी-लप्प सिया (दे०) वर्फी--हेमी शक्कर पारा--सक्करावालो
(यंत्र पाठ ६७) घडीयंत्र-घडीजंतं टाइपराइटर-लेहणजतं जीरोक्स-विज्जुछायाचित्तं टेलीफोन--वत्ताजतं थर्मामीटरः–तावमावों दूरवीक्षण-दरविक्खणं ध्वनिमंजूषा-झुणिमंजूसा बिजली का पंखा-संपावीजणं रेडिया रिकार्ड-झुणिखेवअजंतं .. लाउडस्पीकर--सुइजतं जेनरेटर-जणित्तं
यान (पाठ ६६) अगनवोट--अग्गिपोओ
ऊंटगाडी---उट्टजाणं गदहा गाडी-गद्दभजाणं घोडा गाडी--आसजाणं जल जहाज---जलजाणं नौका--- णावा टक-भारवाहजाणं बैल गाडी-बलीवद्दजाणं भंसा गाडी---महिसजाणं मुसाफिर गाडी-परिजाणिओ मोटर-तेलरहो, तेलजाणं रथ ---रहो रेलगाडी-वफगं (सं) वस-परिवहणं (सं) वायुयान-वाउजाणं (सं) साइकल-पायजाणं ... स्कूटर---लहुतेलजाणं
रत्न और मणि (पाठ ६४) गोमेद-गोमेयो, गोमेयं चंद्रकान्तमणि-चंदकंतो नीलम-इंदनीलो, नीलमणी (पुं) पन्ना-मरगयो, मरअदो, मरगयं पुखराज-पुप्फरायो, पुप्फरागो माणिक-माणिक्कं ... मूंगा-पवालो, पवालं . मोती-मुत्ता. ..' लहसुनिया-वेडुरिओ, वेरुलियं सर्पमणि-सप्पमणी (पु) सूर्यकांतमणि-सूरकतो स्फटिकमणि-फलिहो हीरा-वइरो, वइरं .
रसोई उपकरण (पाठ १६) कटोरा-कट्टोरगो....
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५५२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
कडाही--कडाहा, कवल्लो कठौती--चुण्णमद्दणी (सं) कुर्ची-दव्त्री चमची-कडुच्छयो (दे०) चिमटा-संदंसो चुल्हा-चुल्ली चुल्हे का पिछला भाग-अवचुल्लो छाज-चिल्लं (दे.) डोयो-डोओ ढकना-पिहाणं तमेली--सुफणी (दे.) तवा-काहिल्लिआ (दे.) थाली थालिया, थाली, थालं प्लेट-सरावो (सं) संडासी-संडासं, संडासो हांडी-हंडिआ, कंदु ___ रसोई मसाला (पाठ १५) जीरा-जीरयो तेजपत्ता-तेजपत्तं धनिया-धाणा मसाला-बेसवारो मीर्च-मिरि राई-राइगा लवण-लोणं हल्दी-हलि द्दा, हलद्दी हींग-हिंगू
राजनीतिवर्ग (पाठ ८१) उपराष्ट्रपति–उवरटुवई (पुं) कलेक्टर-जिलाहीसो छावनी--छाणिया दूल-दूयो निर्वाचन--णिव्वागणं
नेता--अग्गणी प्रतिनिधि--पडिणिही (पु) प्रधानमंत्री--पहाणमंती (पु) प्रस्ताव पत्यावो मंत्री--मंती (पु) मुख्यमंत्री--- मुहमंती (पुं) राज्यपाल--- रज्जवालो राष्ट्रपति-रटुवई () विधानसभा--विहाणसहा विधायक-विहाअगो (सं) वोट-मयं संसद-संसया सदस्य---सब्भ (वि) सरपंच---गामाणी सेनापति-सेणावई (पु)
रेंगने वाले आदि प्राणी (८६) अजगर---अयगरो, अजगरो गिरगिट-सरडो गिलहरी-तिल्लहडी (दे०)
खाडहिला (दे०) गोह-गोधा छिपकली--घरोलिया, घरोली छुछंदर-छच्छंदरं, छच्छंदरो (दे०) नेवला-उलो मछली-मच्छो विच्छ-विच्छिओ सांप-सप्पो, भुयंगो
रोग (पाठ ८४, ८५) अंडकोश की वृद्धि-अंडवडढणं अस्थि में सोजन-विद्दही (पुं) (सं) आंधाशीशी--अवहेडगो आफरो ---गुदगुहो (सं) उदररोग-उदरं
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परिशिष्ट ५
कंपनवात- वेक्यो कफ- -कफो
काणापन काणियं
कूबडापन --- खुज्जियं कोढ कोढो
खांसी - कासो
खाज - कंडू (स्त्री)
-
गंजापन -- के सघायो (सं)
गूंगापन -- मूयं ग्रीवाफलन - गंडमाला
छींक -छक्का (दे.)
जलंधर - जलीयरं
जुखाम -- प डिस्सायो
दस्तों का रोग - गहणी (स्त्री) नासुर -- नाडीवणो
पंगुता - पीढसप्पि (पुं)
पथरी-मुत्तकिच्छं
पागलपन- - अवमारो
पित्त-पित्तो,
पित्तं
पीठ में गांठ-पिट्ठिगंठि पेट की गांठ-उदरगंठि
प्रमेह - मेहो
फुनसी - - फुडिआ
बवासीर ( मस्सा ) --अरसो
बुखार - जरो
ब्याऊ - पायफोडो
भगंदर भगंदरो
भस्मकरोग - गिलासिणी
राजयक्ष्मा - रायंसि (पुं)
वमन वमणं
वायु-वाऊ
व्रण
- फोडो
शोध-सूओ
हस्तबिकलता कुणियो हाथीपगा-सिलिवइ (बि) हिचकी --- हिक्का
रोगीवर्ग (पाठ ८६)
--
अंधा
-अंधो
कफ का रोगी - सिलिम्हिओ
काणा काणो
-
कूबडा — खुज्जो कोढी - कोढिओ
खांसी रोग वाला - कासिल्लो (वि)
खाज का रोगी - कच्छुल्लो गूंगो - मूयो
चितकबरा – सबलो
दस्त का रोगी - अइसारिओ
दाद का रोगी - दलो पित्त का रोगी- पित्तिओ प्रलंब अंड वाला - - पलं बंडो बहरा - बहिरो
बुखार वाला - जरि (पुं) बेहोशी वाला --- मुच्छिर (वि) मोटे पेट वाला - तुंदिलो
लंगडा - पंगू (पुं)
लूला- कुंटो
वामन — वडभो
वायु का रोगी --- वाइओ
आटा-
५५३
रोटी आदि वर्ग (पाठ २४ )
- चुण्णं, अट्टगं (दे० )
उडद की रोटी - मासरुट्टिआ
गंदा हुआ वासी आटा - अवसामिआ
(दे० )
गेहूं का आटा--- मोहमवृष्णं चने का आटा- - वेसणं
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५५४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
चने की रोटी-चणग रुट्टिआ जो की रोटी-जवरुट्टिआ. डबल रोटी--अब्भूसो (सं) . परोठा-घयचोरी पूरी-पोलिआ फुलका-छप्पत्तिा बाजरे की रोटी-बज्ज रीरुट्टिआ बिस्कुट-पिट्ठगो (सं) मक्की की रोटी-मकायरुट्टिआ मोठ की रोटी---- मकुट्ठरुट्टिा मैदा- समिआ रोट-रोडगो रोटी--रुट्टिआ (दे०) बाटी-अंगार परिपाचिआ (सं)
वस्ती और मार्ग वर्ग (पाठ ६४) उपनगर--उवणयरं कुटिया-इरिया (दे०) गली-वीहि (स्त्री) गांव---गामो गुफा--गुहा, कफाडो (दे०) छोटी वस्ती-पल्ली (स्त्री) झोंपडी---झुपडा (दे०) प्रासाद-पासायो, बडा कस्वा-दोणमुहं व्यापारी नगर---पट्टणं पगडंडी--पद्धइ (स्त्री) मार्ग-मग्गो मुहल्ला-गोमुद्दा (दे०) राजधानी-रायहाणी शहर-णयरं बडेशहर-महाणयर सडक-रायमग्गो
हवेली-हम्मिओ (दे०)
वस्त्रवर्ग (पाठ ३६, ३७) अंगोछा---अंगपुंछणं ओवरकोट-बुहइया (सं) ऊनीवस्त्र---रोमजं, ओण्णेयं
ओढनी-- ओयड्ढी (दे०) कंचली (ब्लाउज)---कंचुलिआ कुर्ता-कंचुओ कोट-पावारो कोरावस्त्र-अणायवत्थं कौपीन---अवअच्छं (दे०) घाघरा-घग्घरं चड्डी-अद्धोरुगो, अड्ढोरुगो चादर-पच्छयो जोडे हुए वस्त्र-डंडी टोप-सिरताणं टोपी--सिरक्कं तकिया-उवहाणं दुपट्टा-उत्तरीयं, उत्तरिज्जं धोती---अहोवत्थं, कडिवत्थं धोयावस्त्र-धोअवत्थं पगडी--उण्हीसं पतलून--पतलूणो (स) पायजामा-पायजामो पेटीकोट---अंतरिज्जं पैट-अप्पईणं (सं) बूटेदार कौसंभवस्त्र-घट्टंसुओ मलय देश का सूक्ष्म वस्त्र-मलीरं मोटा वस्त्र---पत्थीणं रजाई---नीसारो (सं): ... रात्रिपौशाक-नत्तवेसो : रूमाल-~-पडपुत्तिया
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परिशिष्ट ५ .
छात्र (विद्यार्थी)--छत्तो, विज्जट्ठी
छुट्टी पत्र---अवगासपत्तं दवात.मसीपत्तं परीक्षा---परिक्खा पुस्तक---पोत्थयं पेन --लेहणी पेन्सिल---पंसिलो फुट --मावअं प्रश्न-पण्हो, पण्हा प्रश्नपत्र---पण्हपत्तं प्रिंसिपल (प्राचार्य)--पहाण सिक्ख
वओ
रेशमीवस्त्र-कोसेयं लहंगा-चलणी, चडातक बारीकवस्त्र-पम्हयो वासकट-~-वासकडि (सं) शेरवानी-पावारओ (सं) सलवार--सूअवरो साडी-साडी सूतीवस्त्र ---कप्पासं
वाद्य (पाठ ८७) घंटा-~-घंटी छोटी घंटी--घंटिया झालर----झल्लरी डमरु---.डमरुगो डुण्डुगी-डिडिम ताल-तालो तूर्य--तूरिअं नगारा (ढोल)-~ढोल्लं मृदंग-मुइंगो वीणा- तंती शंख-संखो
विद्यालय (पाठ ३४) अनुत्तीर्ण-अणुत्तिण्णो इन्सपेक्टर-णिरिक्खओ (सं) उत्तर पत्र-उत्तरपत्तं उत्तीर्ण-उत्तिण्णो उपकुलपति-उवकुलपई कक्षा-कक्खा कलम-लेहणी.. कालांश-समयविभागो कॉलेज-महाविज्जालयं कुलपति–कुलपई .
यूनिवर्सिटी--विस्स विज्जालयो विद्यालय----विद्यालयो विभागाध्यक्ष-विभागज्झक्खो वस्ता-वेढणं वेतन ---वेयणं वोर्ड ---फलगं शिक्षा--सिक्खा स्नातकण्हाओ स्याही--मसी
वृक्षवर्ग (पाठ ५०) अशोक-असोयो चंदन--चंदणो चिरौंजी---पिआलो नीम-णिबो . पीपल-अस्सत्थो पीलू-पीलू (पुं) बबूल-बब्बूलो मौलसिरी-बउलो वरगद----वडो
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
वांस-वंसो
तली--तेल्लिओ, घंचिओ वृत्तिजीवीवर्ग (पाठ ७३ ७ ७६)
दर्जी--सूइयारो, सोचिओ
धोबी-रजओ अहीर-अहिरो, गोवालो
नाई--णाविओ, पहाविओ कंबल बेचने वाला-कंबलिओ
नाचनेवाला-णच्चओ कसाई-सोणिओ
नौकर-सेवगो, भिच्चो कारीगर-सिप्पी, कारु
पसारी-गंधिओ किसान-किसीवालो
पाकिट मार—छेओ कुंभार----कुंभआरो, कुलालो
प्रतिमा बनाने वाला-पडिमायारो गडरिया- अयाजीवो,
अयापालो,
बजाने वाला- वायगो मेसवालो
बढई-रहयारो, वड्ढई, तक्खो गवैया-गायओ, गाओ
बनिया-वणिओ, वावारि () घसियारा--तणहारो चपरासी-पेसो
भंगी-संमज्जओ चटाई बनाने वाला----वरुडो
भडभुंजा--भट्ठयारो चिकित्सक-चिइच्छओ।
मच्छीमार-केवट्टो, धीवरो चित्रकार-चित्रयारो
मजदूर (कुली)-~-भारहरो चुराई वस्तु को खोजकर लाने वाला
माली--मालिओ, मालायारो, --कवियो
आरंभिओ
मिस्त्री-जंतिओ चोर-चोरो, तक्करो चौकीदार-पहरी, दारवालो
मूल्य लेकर धान काटने वालाजादूगर-इंदजालियो
अत्यारिओ जारपुरुष-अणडो (दे०) मोची-चम्मयारो, मोचिओ जासूस--चरो
शिकारी-लुद्धो जिल्दसाज-पोत्थारो
रंडीबाज-खिगो जुलाहा--कोलिओ, पडयारो रसोइया-पाचओ, सूदो जुवारी-कितवो
लुहार-लोहारो, लोहयारो ज्योतिषी-~-जोइसिओ, खणदो (सं)
वैद्य-वेज्जो ठग-वंचओ, पतारगो
संपेरा--आहिडिओ ठठेरा-तंबकुट्टओ
सुनार--सुवण्णयारो, सोवण्णिओ डाकू-दस्सू (पुं)
सुराविक्रेता--- सुंडिओ, सोंडिओ साइक्लीनर-णिण्णेजओ (सं) हलवाई-कांदविभो तंबोली-तंबोलिओ
हिंजडा-चिंधपुरिसो
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पिरशिष्ट ५
व्यापारवर्ग (पाठ ३३) कपाल-कवालो, भालो, कप्परो आफिस-कज्जालयो
कमर.-फडी आयात-आआओ (वि)
कलेजा-हिययं ऋण--उल्लं
कांख-कक्खो, भुअमूलं कारखाना-कम्मसाला
कान-कण्णो, सोत्तं, सवणो खरीदना-कयो
केश-केसो, बालो, कयो खर्चा करने का धन -परिव्वयो कोहनी-कुहुणी ग्राहक-गाहगो
खून --रत्तं, रुधिरं दुकान-आवणो, हट्टो, अट्टयो खोपडी-पणिआ धन-धणं
गाल--कवोलो, गल्लो नगद---टंको
घुटना-जाणु (न) जण्हुआ निर्यात-णिज्जायो
चर्वी - मेदो, मेदं, वसा बनिया--वणिओ
छाती-उरो, वच्छं बाजार---विवणि () वणिअमग्गो जांघ-जंघा, टंका बेचना--विक्कयो
जीभ--जीहा, रसणा बेचनेवाला--विक्कइ (वि)
झिल्ली-झिल्लिा रुपया--- रूवगो, रूवगं .
टांग-टंगो लेन देन---परियाणं
ठोडी-चिबुअं वस्तु-वत्थु
तिल-तिलो ब्याज-कलंतरं
दांत-दसणो, दंतो व्यापार-बवहारो, वाणिज्ज, वावारो दाढी-दाढिआ व्यापारी-वावारि (पुं) वाणिअयो दाढी मछ-समस्स शरीर के अंगउपांग (पाठ ६७ से ७२) धड (सिर सहित शरीर)-कमंधो अंगूठा-अंगुट्ठो
नस--सिरा आंख-णयणं, नेत्तं, चक्खं (न) नाक-णासिया, णासा आंख की पुतली-अक्खरा
नाखून-नहो आंतः-अंतं
नाखून के नीचे का भाग-पडिसेमो उंगली-~-अंगुली
नाभि--णाही (पु) एडी--पण्डिया
नितंब-नियंबो ओठ-अहरो, ओट्टो
पसली-पासो कंठ-कंठो
पीठ----पिट्ठ कंठमणि-अवडू, किआडिआ पैर-चरणो, पाओ कंधा-अंसो
प्लीहा-पिलिहा
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५५८
प्राकृत वाक्यरचना बोध
भांपण-झंपणी, पम्हाई फेफडा-फुप्फुसं (दे०) भूजा-भुआ, बाहू भौं-भुमया, भमुहा मज्जा-मज्जा मसा~-मसो मसडा---दंतवेट्ठो मांस--मंसं मुंह-वयणं, मुहं मुट्ठी-~-मुट्ठिआ, मुट्ठी मूंछ--आसरोमो लिंग---सिण्हो, सिण्हं वीर्य-वीरिओ, सुक्को सिर—मत्थओ, सिरं स्तन-थणो हड्डी---अत्थी (पुं) हथेली-करयलं हाथ-करो, पाणी, (पुं) हत्थो
शरीर विकार (पाठ ३१) अधोवायु (पादना)-वायनिसग्गो आंख का मैल-दूसिआ आंस-अंसं उच्छ्वास-ऊससि कान का मैल--किट्ट खांसी-खासिअं, कासितं खुजली--खज्जू (स्त्री) चक्कर-भमली छींक-छीअं जंभाई-जिभा, जिभिआ जीभ का मैल-कुलुअं. डकार-उड्डुओ (दे०) वांत का मेल-पिप्पिया (दे०). थूक-थुक्को
नाक का मैल-सिंघाणं नि श्वास-नीससि पसीना--सेओ, घम्मो मल----गृहं, मलं मूत्र-मुत्तं शरीर का मैल-जल्लं (दे०) श्लेष्म-खेलो हिचक्की-हिक्का, मुट्ठिक्का (दे०)
___ शस्त्रवर्ग (पाठ ६०, ६१) अंकुश-अंकुसो आरा-करकयो कटार-करवालिआ कुल्हाडी-कुहाडी, फरसू केची-कत्तिया गदा गया गुप्ति-करवालिआ चक्र---चक्को चाबुक-कसो छुरी-छुरिया टैंक-सत्थावरुहं (सं) ढाल-फलगो तलवार-असी () खग्गो तोप-सयग्घी (दे० स्त्री) घरट्टी त्रिशूल-तिसूलं दांती-लवित्तं धनुष-धणू पत्थर फेंकने का अस्त्र-गुंफणं पिस्तौल---गुलिअत्थं (सं). बंदूक-मुसुंढि (दे० स्त्री) बंब-फोडत्थं (सं) बाण-सरो भाला-कुतो मशीनगन--गुलिआजतं (सं)
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परिशिष्ट ५
५५४
मुद्गर-मोग्गरो राइफल-कुच्छिभरियत्थं (सं) लाठी-लगुडो वी-सल्लं वज्र-वज्जो सरोता-संकुला सूई-सूई हथोडा---घणो हयोडी--हत्थोडी ___ शाकवर्ग (पाठ ४२, ४३) अदरख -~-सिंगवेरं आलु---आलू करेला--कारिल्ली, कारेल्लयं काकडी, खीरा-कक्कडी केर-करीरफलं केले का साग-- केली कोहला-कुम्हडी गवार फली---गोराणी, दढबीआ,
वाउइया गाजर-गाजरं, गिजणं (सं) गोभी-- गोजीहा (सं) चने का साग-वणगसागं चोपातियासाग--सोत्थीओ चौलाई-- तंदुलेज्जगो टमाटर--रत्तंगो (सं) टिंडा -- डिडिसो (सं) तोरं-घोसाडइ, घोसालइ (सं) धनिया-कुत्थंभरी परवल--पडोलो, पडोला पालक-- पालक्का पोदीना-पुदिणो, रुइस्सो प्याज-पलंडू फली--सिंबा
बैंगन-वायंगणं (दे०) बिताणी भिडी--भिडा मक्का-मकायसागं,महाकायसागं मकोय-कागमाई मटरशाक-कलायसागं मुली-मूलगं लहसुन---लसुणं लौकी----अलाउं वत्थुआ-वत्थुलो शकरकंदी-रत्तालु (सं) मांगरी-समीफलं मूरणकंद-सूरणं हल्दी-हलद्दा, हलद्दी
सालावर्ग (पाठ ६७) अट्टणसाला---व्यायामशाला उट्टसाला--रसाला उदगसाला--उदकगृह उवट्ठाणसाला--सभास्थान कम्मसाला... कारखाना करणसाला--न्यायमंदिर कूडागारसाला---षड्यंत्र वाला गृह गंधवसाला--संगीतगृह - गंधियसाला----दारु आदि गंव वाली
चीज बेचने की दुकान । गद्दभसाला-गधा रखने का स्थान गोणसाला--गोशाला घंघसाला-अनाथमंडप घोडगसाला---घुडसाल फरुससाला-कुंभारगृह
सुगंधित द्रव्य (पाठ ६३) अगर---अगरो इत्र-पुप्फसारो
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प्राकृत वाक्य रचना बोध
कंकोल-कंकोलो
मौलसिरी---बउलो कपूर-कप्पूरो
वासंती- णवमालिआ कस्तूरी----कत्थूरी, कत्थूरिआ सिन्दूर-सिन्दूरं कुंदरु-कुंदुरुक्को
स्त्रीवर्ग (पाठ ७७ से ८०) केवडाजल-केअइजलं केसर--कुंकुमं
अच्छे केश वाली-एसी
अध्यापिका-उवज्झायणी खस-उसीरं
अप्सरा-किंनरी गुलाबजल-पाडलजलं गूगल-गुग्गुलो
उपपत्नी-अहिविण्णा चंदन-चंदणो
ऊंचे नाक वाली-तुंगणासिआ तगर-तगरो, टगरो
कामी स्त्री-कामुआ नख---नखं (सं)
कुलटा--कुलडा, अज्झा मुलहठी- लट्ठिमहु (सं)
क्षत्रियाणी-खत्तिआणी लोहबान-लोवाणो (सं)
गंध द्रव्य बेचने वाली-गंधिआ शिलारस-सिल्हगं
गाने वाली-मेहरिआ, मेहरी सुगंधबाला--हिरिबेरो
गृहपत्नी- गिहिणी
चंचला स्त्री-चवला सुगंधित पत्र पुष्प वाले पौधे व लता
चंडालिनी-आइंखिणिया (पाठ ६२)
चतुरस्त्री-णिउणा अगस्ति-अगत्थियो
जादूगरी-किच्चा अडहुल-जासुमणो
ज्योतिषीस्त्री-- गणई कमल---पोम्म
दासी–दासी कूजा--कुज्जयो
दूती-अंतीहरी केवडा-केअगो
धनी की स्त्री----धणपत्ती, धणमंती गुलाब-पाडलो
धाई-- धाई, धारी चंपा-चंपा, चंपयो
धीवर की स्त्री-धीवरी चमेली - जाई, मालई
नटी-नडी जही-जुही, जूहिआ
नर्तकी--णट्टई तिलक-तिलगो, तिलयो
नायिका-णाविआ तुलसी--तुलसी
नौकरानी--दुल्ल सिआ दौना-दमणगो, दमणगं
पटरानी-महिसी मरुआ---मरुअगो, मरुवयो, मरुअओ पनिहारी--पाणिअहारी मोगरा-मल्लिआ
परतंत्रस्त्री-आविउज्झा (दे०)
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परिशिष्ट ५
पान बेचने वाली — डोंगिली (दे० ) पुत्रवती - पुत्तवई फूल बिनने वाली - अंबोच्ची बच्चों को खेल कूद कराने वालीकिडुविया
बडे पेट वाली - दीहोअरी
ब्राह्मणी-बंभणी
मनुष्य की स्त्री - माणुसी मोटी स्त्री-पीवरी
युवती -- जुबई
राक्षसी -- रक्खसी, पिसल्ली लुहारिनी- लोहआरी वन्ध्या - अवियाउरी
वृत्ति लिखने वाली - वृत्तिगारी वेश्या – पणसुंदरी
शीघ्र प्रसव वाली -- अणुसूआ सुन्दरी - सुन्दरी
सुनारिन - सुवण्णआरी 'सूत्र बनाने वाली -- सुत्तगारी सेठानी — सेट्टिणी
स्पर्शवर्ग ( पाठ ८३)
कठोर - कक्कस (वि.)
कोमल. - मउय (वि) गरम -- उसिण (वि)
चिकना -- णि
ठंडा--सीय (वि)
न भारी न हल्का - अगरुलहु (वि)
भारी- - गरुय (वि)
रूखा - लुक्ख (वि) शीतोष्ण-सीउण्हं
हल्का -- लहुय (वि)
स्फुट अंकुर - अंकुरो (६१)
अंगारा --- इंगारी, अंगारो (१६) अज्ञात - अमुणिअ (१००) अंडा - अण्ड (१०५) अधिक चर्बी वाला - पमेइलो (६३) अनवसर — अवरिक्क (१८) अनार्य देश -- पच्चतो (१०६) अनुयायी - अणुममिर (वि) (१०३) अपक्व - आमो (४३)
अपना घर—–णियहिं (९) अपराधी - अवराहिल्लो ( ५० ) अपशकुन --- अवसरणं ( १०३ ) अभाव - अहावो, अभावो ( ७२ ) अभिषेक - अभिसे, अभिसेगो (६०) अलं-- अलाहि (१०८) अल्प-- अप्पं (१०१) असंतोष असंतोसो (१०५) असमर्थ --- असंथड (वि) (६८) अस्थि - अत्थि (न) (४७) आकाश--- आयासं, (५७) आकृति --- आकिई, आगई (४०) आज्ञाकारी - आणाइत्त (वि) (१०४ )
- अजत्ता (१३)
आजकल ---
आधा कर्म दोष से युक्त आहाकड (वि) ( ११ )
आरोप - अलग्गं (६.८ )
आर्द्र-अहं (६४)
--
आराम -- सुहं ( १०१ ) आवाज -- झुणि (पुं) (१०१)
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आशा - (आसा ) ( १०६) आश्चर्य - - अब्भुयं ( ह८) आयुर्वेद - आउव्वेयोः (६४) आशीष - आसिसा (८)
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५६२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
उतरकर--ओयरिऊण (१०४) क्रम-कमो (१०४) उत्पथ--उप्पह (१०७)
क्षेत्र-खेत्तं, छेत्तं (३६) उत्सव-महो, महं (३२)
क्षेत्र---पल्लवायं (६३) उदधि-उअहि (पुं) (१००) खंडन-विसारणं (६६) उदर--(उअरं) (४४)
खट्टा-खट्ट (२४) उदित-उइय (वि) (१००) खाई-फलिहा (३५) उदित--इयं (१०४)
खिचडी-किसरा (८२) उद्यम--उज्जमो (३६)
खेत में सोने वाला पुरुष-परिवासो उपद्रव-उवद्दवं (१०८) उपहार--उवहारो (१०३) गड्डा-खड्ड (७२) उपार्जित--उवज्जिय (वि) (१०४) गलना-गलणं (४६) उपासना-उवासणं (७२) ........: गले का गलिच्च (६६) ऋद्धि संपन्न-खद्धादाणिअ (वि) गवाले की लड़की-गोवदारया
(१०७) कचरा--कयवरो (६८)
गहरा-गहिरो (१००)
गाडी---सगडं (१०२) कटाक्ष---काणच्छि (स्त्री) (५१)
गीला (आर्द्र)---अद्द (६४) कपास--- कपासो, ववणं (न, स्त्री)
गुफा---गुहा (१००) (७७)
गंद--णिज्जासो (८३) कबूतर---पारेवयो (१०६)
गोष्ठी-~~-गोट्ठी (४०) कब्ज-मलावरोहो (४८) ग्रास---गासो (४६) कर्तव्य-कायव्वं (७३)
घटना-घडणा (७८) कलेवा-- कल्लवत्तो, पायरासो (१६) घडी--- (घडी) (५२) कल्पना---कप्पणा (५३)
घर---घरो (११) काच-कायो (७८)
घर्षण-घसणं, घसणं (३७) कांति-कति (स्त्री) (४०) घाव-वणो (४३) कार्यसमूह-कज्जालावो (१००) घास- तणं (१०१) कीमती-महग्धं (५१)
चूंघट--अंगुट्ठी (दे०) विरंगी (दे०) . कुशल-कुसलो (६६)
___अवउठणं, अवगुंठणं (१०) कृपापात्र---किवापत्तं (८०) घोडे के मुख को बांधने कृमि -किमी (४४)
का वस्त्र--कडाली (५८) केन्द्र–किंदियं (६९)
घोंसला—णोडं, गेड्ड (५६) कोप–कोवो (७८)
चक्र-चक्को (१०४)
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५६३
परिशिष्ट ५ चटनी-अवलेहो (४३) चमकदार-अब्भुत्तं (६८) चमडे की धौंकनी-भत्थी (७३) चर्वी-मेओ (४७) चापलूस-चाडुयारो (६७) चिकना-सण्ह (वि) (३७) चामर--सीतं (४४) चिकना-चिक्कणं (वि) (३२) चितकबरा चित्तो (५३) चिता-चियगा (५१) चिह्न--चिंधं (३२) चिल्लाहट-धाहा (स्त्री) दे०
(१०५) चुगली-पिट्ठिमंसं (१०३) चुम्बन-गुलं (दे०) (४०) चोंच-चंचू (स्त्री) (५४) छावनी-छायणिया (६३) छिलका--छोइया (६३) छुट्टी-अवगासो (७४) छोटा साधु-खुड्डुओ (१०६) छोटी खाई-वाउलिया (३५) जनता-जणया (३६) जन्मपत्रिका-जम्मपत्तिआ (८०) जीर्ण-जुन्न, जुण्णं (६६) जुकाम-पडीसायो (४४) जुआ-जूअं (७६) जुआखाना-टेंटा (७६) जूं-जूओ (६६) जूठा --- णवोद्धरणं (५१, ७५) जूता-उवाणहा (७३) जेल-कारा (५१) जो दीखता न हो-अईसंतो (वि)
(१०३)
जोर-वेगो, वेयो (१०१) ज्वर-जरो (६४) झूला-डोला (६३) टहनी-डाली (५०) टिकट--वहणं, दलं (सं) (६६) ठगाई-पयारणं (६२) तंत्र-तंतं (४८) तंबू - पडवा (६६) तट-तडो (१०१) तमाखू-तंबकूडो (८१) तमाचा-चविडा (५१) तरंग-तरंगो (४०) तरकारी-तीमणं (१६) तिरस्कार-अवहेरी (६८) तिल-तिलो (६६) तूणीर-तूणी, तूणा (६१) तो-ता (७२) थोडा-थोओ (वि) (१००) दतवन-दंतसोहणं (६६) दया ... दया (१०१) दहेज-अण्णाणं (दे०) (१२) दाना-कणो (१०२) दावानल-खआणल (१००) दास-चेड (दे०) (१०५) दीक्षित-पब्वइयो (१०७) दीवार-भित्ति (स्त्री) (१०४) दुर्दशा-दुद्दसा (६३) दुभिक्ष-दुब्भिक्खं (६८) दुर्लभ--- दुलहो, दुल्लहो (७४) दुर्लभ (महंगा)-महग्यविओ (५१) देखता हुआ-पलोइंत (१०७) देखना चाहिए-निहालेयव्वं (१०८)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
द्रोही-दोही (१००) धंसा हुआ नाक-चिप्पड (वि)
(१०८) धान्य-सस्सं (६०) धान्यागार-धण्णागारं (१०२) धुंआ-धुम्मो (६३) धूम्रपान-धूमपाणं (७५) नगर जन-नायरया (१०८) न भारी न हल्का-अगरुलहु (वि)
नाम-अभिहाणं (१२) नास्तिक-णत्थिओ (वि) (६६) नियम-अभिग्गहो (१०४) निरर्थक—अट्ट मट्ट (वि) (दे०)
(६८) निर्दोष-अणहो (६६) नौकर-चेड (दे०) (१०५) पडौसी, पडोसी-पाडोसिओ (६६) पतला-पत्तल (वि) (७०) पति-दइओ (१०३) पत्थर-पाहणो, पत्थरो (११) पथ्य-पच्छ (३६) पदार्थ-पयत्थो (४६) पद्य-पज्ज (१०३) परस्पर-परोप्परं,परुप्परं (२१,६३) परोसना-परीसणं, परिवेसणं (१६) पवित्र, निर्दोष---अणहो (६६) पसीना-सेअं (३२) पाचन-पायणं (७२) पात्र—पत्तं (६२) पानी से गीला-उदओल्लं (६८) पाप-पावं (११) पाप-अणो (६६)
पापड--पप्पडो (४६) पास-अब्भास (वि) (१०७) पास जाता हुआ—उवसप्पंत (१०७) पिंजडा-पंजरं, पिंजरं (५४) पीछे से--पच्छओ (१०६) पुकार-धाहा (दे०) (१०५) पुण्य-(पुण्णं) (६) पुराना-पुराअणं (४८) पुराना मंदिर--अहिहरं (दे०)
(६८) पुष्टि वाला–पुट्ठिय (वि) (४८) पूंछ-पुच्छं (५८) पूर्ण-पुण्णं (६) पेट्रोल-भूतेलसारो (६६) पैर-चलणो (१०४) पोला—पोलं (दे०) (४६)
. पोल्लं (वि) (१०४) प्यास-पिवासा (१०८) तिसा
(१०६) प्रकृति-पगई (स्त्री) (२४) प्रतिज्ञा-अभिग्गहो (१०४) प्रतिदिन-पइदिणं (९) प्रतिमा-पडिमा (७४) प्रद्वेष-पओसो (दे०) (१०७) प्रशंसनीय-सग्घ (वि) (५१) प्रसंग-वइअरो (१०४) प्रस्थान-पत्थाणं (८४) प्रायश्चित्त के लिए अपने दोष का गुरु को न बताना-अणालोइय (वि)
(१०७)
प्रीति--पीई (४०) फटा हुआ—फट्टि (१०६)
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परिशिष्ट ५
फुनसी - फुडिया (६९) फोटु-पडिच्छाया (६६) बंदर -- पवओ ( १०० )
बजाना --- वायणं (८७)
बजे - वायणसमय (सं) (२३)
बर्फ - हिमं (८३, १०६ )
बस – अलाहि (१०८ ) बहुश्रुत- बहुस्सुओ (१०७)
बातचीत -- वत्ता, परिकहा ( ४० ) बाप - खंतओ (१०६ ) ब्राह्मण - बंभणं (७५) भंडार - कोट्ठागारो (७८)
भंडार – भंडारी (१०२) भक्त-भत्तो (८७) भक्ति - भक्ति (स्त्री) (50) भरपूर --- णिब्भर (वि) (१०४)
भाग्य - भग्गं (७४)
भिखारी - भिक्खारी (८)
भीत - भीइ (१०४) भुना हुआ -- भुज्जिअ (वि) (४५) भूतवादिक - भूयवाइयो (१०८)
मछली-मच्छा (७६)
मछली पकड़ने का जाल - पवपुलो (७६) मदिरा - महरा, सुरा (५१) मनोरथ - मणोरहो (३९) मर्यादा - मज्जा या ( ३६ ) महल -- पासायो (१०२) मांसरहित - निम्मंसं (१०४) मायका - माउघरो, माउघरं ( १०४ ) मारने के लिए — उद्दवेउ ( १०५ ) मारी रोग - असिवं (१०८) मालिक - सामी ( ११ )
मिठाई - मिट्ठन्नं (२५) मुसलमान - जवणी (६३) मुर्गी कुक्कुडी ( १०५ ) मूर्खता - मुक्खत्तणं (१०५) मूल्य - मुल्लो (३६)
मैथुन - अवहट्ठ (दे०) (१८) मैला - मलिणं ( १०८ )
म्यान – खग्गपाणयं ( १ )
यंत्र - जंतं (१३)
यात्री - जत्ती (१०३)
युद्ध—जुज्झं (६६)
रक्षा - ताणं (३७)
रसोई बनाने वाली - महाणसिणी (१०२)
रहस्य - रहस्स (वि) (१०२) राख—भस्सं (३९) रुपया-- रूवगं, रूवगो (५२) रेल की लाइन - लोहसरणी (पुं. स्त्री ) ( ee)
रोग - आमयो ( १०८ ) रोगी लुक्को (२३)
-लक्खणं (६६)
५६५
लक्षण -
लब्धि – लद्धी (स्त्री) (७९) लहर - उम्मी (स्त्री) (५३) लाइसेंस - आणावणं ( ६ ) लापरवाही- - अजागरुअया (१०२) लालच - लोभो (१०५ ) वंशलोचन - वंसरोयणा (५०) वर्षा – वरिसा (१०१) वाचाल - मुहरो (६३) वाद्य-वाइअं (८७)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
(११)
वापस लौट गया-अवक्कंत (वि) शास्त्रज्ञ-बहुस्सुयो (१० )
शिकारी-लुद्धगो (३६) वार्ता-वत्ता (१२, ७६)
शीतोष्ण-सीउण्हं (६३) वास्तव-जहत्थं (६०)
शोभा-सोहा (५८) विघटन-विहडणं (६६)
श्मसान-मसाणं (४०) । विद्वान्-विउस (वि) (१०६) श्रवण-सवणं (३६) विरह- अवहायो (९८)
श्वास का रोग-सासो (६४) विवाह-विआहो (७४)
संगति-संगो (३६) विशाल (उदार)-उराल (वि) संतुष्ट-संतुट्ठो (१०५) (८०)
संभव-संहवं (१३) विशाल-विसाल (वि) (१०१)
संस्कार-सक्कारो (८२) विश्राम–विस्साम (१०७)
सखी सहेली—अत्थयारिआ (दे०) वृक्ष- दुमो (१००) वृत्ति-वित्ती (स्त्री) (१०२)
सज्जन-सुअणो (१०३) वेतन लेकर काम करने वाला
समर्थन-समत्थणं (८१) ___ वेयणियो (६०)
सफाई-पमज्जणं (१०२) वेदना-वेयणा (७८)
सत्तू–सत्तू (२४) वैक्रिय शरीर से संबंधित विउव्विल
समर्पण-समप्पणं (१२) (वि) (७८)
समस्या-समस्सा (६४) ध्यक्ति-वत्ति (५१)
सहयोग-साउज, साहज्जं, साहिज्जं व्यक्ति-विअत्ति (८५)
(४०) व्यक्तित्व-वत्तित्तणं (१०३) सहायता-- साहज्ज (६) व्यवहार-ववहारो (२४) साक्षात्-सक्खं (७८) व्याकरण-वागरणं (४६) सींग~-विसाणं (५८) व्याकुल-अक्खित्तं (१०७) सुरक्षित-सुरक्खिओ (१०२) व्यापार-वावारं (७६) सेंध-खत्तं (दे०) (१०५) व्यायाम-वायामो (६८) सेवा-णिवेसणा (६३) शत्रु-सत्तू (६)
सेवा-परिचारणा (३६) शांति-संति (स्त्री) (७६) सोने का-सुवणिम (वि) (१०५) शाक-सागो (४३)
स्तूप--थूभो (१०४) शाखा--डाली (५६)
स्मृति-सई (स्त्री) (४४) शासक-सासओ (३८)
स्वच्छ-अच्छं (४४)
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५६७
परिशिष्ट ५ स्वच्छंदी-सच्छंदो, अणोहट्टयो (दे.) स्वागत-सागयं (३६) (५१)
स्वाद-साओ (४६) स्वतंत्र-सतंत (वि) (७६) स्वाधीन-अहीण (वि) (१०३) स्वप्न-सिविणं (१०३) स्वेद (पसीना)-सेअं (३२) स्वभाव-सहाओ (३६) हजामत-उवासणा (७३) स्वर-सरो (६६)
हलवाई-कंदविओ (२५) स्वरूप-सरूवं (७८)
होटल-पण्णभोयणालयो (२५) स्वस्थता, स्वास्थ्य-सत्थं (२३)
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परिशिष्ट ६ : एकार्थक धातुएं . धातुओं का अर्थ हिन्दी के अकारादि कम से
(कोष्ठक में संख्या पाठ की सूचक है)
अ
अवगाहन करना-ओवाह, ओगाह अटकाना--पडिबंध (७६) रुंध (८३) (१०७) अतिक्रमण करना-अइक्कम (३४) अवज्ञा करना हील (६१) अतिपात करना-अइवाअ (२५) अवलोकन करना-देखो देखना अदृश्य होना-तिरोहा (५८) अवसाद पाना-अवसीअ (१०१) अनुताप करना-अणुतप्प (३१) अश्व को कवच से अनुभव करना-पच्चणुभव (७०) सज्जित करना-पक्खर (६८) पडिसंवेय (७६)
अस्फुट आवाज करना-सिज (६२) अनुराग करना--रज्ज (८२) अहंकार करना-थब्भ (५४) अनुसरण करना--पडिअग्गा, अणुवच्च
आ (१०३)
आक्षेप करना-णीरव, अक्खिव अन्तर्हित करना-तिरोहा (५८)
(१०५) अन्यथा करना-कूड (४७) अपने को अमर समझना-अमराय
आक्रमण करना अक्कम (३४) (२५)
ओहाव, उत्थार, छन्द (१०५) अपमान करना-अवमन्न (३०)
आक्रोश करना-अक्कोस (१४) संजल अभिमान करना- मज्ज (५२)
(३१)पडिकोस (७४) अभिलाषा करना-अहिलस (२४)
आचमन करना-आयम (४२) अभिषेक करना-अइंच (५७)
आचरण करना-समायर (३१) अभ्यास करना—सील (६३)
आयर (४२) अर्चा करना (अर्चना करना)-अरिह आच्छादन करना--थय (५४) पक्खोड (८)
(६७)पडिपेहा (७५) अर्जन करना-अज्ज (३३) आच्छोटन करना-देखो झाडना अर्पण करना-पडिणिज्जाय (७५) आज्ञा करना-देव (५६) अलग होना-देखो टूटना
आतापना लेना-आयाव (४३) अवकाश पाना--ओवास (१०१) आदत डालना-देखो अभ्यास करना
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परिशिष्ट ६
आदर करना-आढा(१५)आअर
(४२)पडिसंध (७८) सन्नाम
(१०२) आना-आगच्छ (११) आया (४३)
आव, आवड, आवत्त (६७) आहम्म (६६) अहिपच्चुअ
इकट्ठा करना-चिण (५१) संचिण
(६६) आरोल, वमाल, पुज
(१०३) इच्छा करना-इच्छ (६)अहिलस
(१३) इधर-उधर घूमना-चकंप (५१)
आपीडन करना-आवील (६४) आमर्श करना-आमुस (६२) आरंभ करना-आरंभ (३७) आढव,
आरभ (१०५) आराधना करना-आराह (१८) ___ आरज्झ (४३) आरूढ होना--दुरुह (५८) आरोपित करना-आरोव (१८) आलस्य करना-पमय (३०) आलिंगन करना--आलिंग (४४) सिलेस (६२)आवआस (६७) सामग्ग, अवयास, परिस
उखाडना-उप्फाल (४७) उचित होना-कप्प (३१) उच्चारण करना-पडिउच्चार(७३) उछल कर नीचे गिरना-पच्चोणिवय
(७१) उछलना-उप्फिड (१८) उक्कुद्द
(१६) फंफ (६१) उत्थल्ल
आलोचना करना-आलोअ (६७) आवागमन करना-आवड (६७) आवाज करना-कव (४६) देखो
शब्द करना आशा करना-आसास (६६) आश्रय करना-आलंब (४४) आश्वासन देना-आसास(८१) आसक्त होना---आली (४४) गिज्झ
उठना-उट्ठ १६) उकुक्कुर (१००) उठाना-उप्फाल (४७) अल्लत्थ,
अब्भुत्त, उस्सिक, हक्खुव,
उक्खिव (१०५) उडना-उड्डी (२६) उत्कीर्ण करना-उक्किर (८२) उत्तर देना--उत्तर (३४) पडिमंत
(७६) पडिवक्क (७७)पडिसाह
(४६)
आसक्ति का प्रारंभ करना-पगिज्झ
उत्पन्न होना-अहिजाअ(११)
पच्चाया (७०) रोह (८४)वक्कम
(८७) उदास होना-दुम्मण (५८) उद्दीपित करना-पडिसंजल (७८) उद्विग्न हीना--दुम्मण (५८) उन्नत करना---थंग (५४)
आस्फोटन करना-अक्खोड (८१) आह्वान करना-आयार (४३)
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५७०
प्राकृत वाक्यरचना बोध
उपताप करना-दू(५६)
कटाक्ष करना-कडक्ख (४५) उपदेश देना-पच्चाहर (७०) कतरना-कत्त (२३) उपयोग में आना-पकप्प (६७) कम होना–हस (ह्रस्व) (६१) उपयोग में लेना--उवजूंज (१७) कमाना-अज्ज (३३) विढव उपस्थित करना-पणाम (८०) उपस्थित होना-पज्जुवट्ठा (७२) करना-पकुव्व (६७) कर (४५) उपालंभ देना-झङ्ख, पच्चार, वेलव, कण (१०१) उवालम्भ (१०५)
करने का प्रारंभ करना-पकर (५३) उपासना करना-उवास (२७)
पकुण (६७) उबालना-कढ (४५) कह (क्वथ्)
कलंकित करना--लंछा(८३) (४६) अट्ट (१०४)
कल्पना करना-कप्प (४५) उलटाना-ओयत्त (४०)
कल्याण करना-भद (६३) उल्लंघन करना-अइवत्त (१६)
कवच धारण करना-संणज्झ (६६) अइइ (३३) कम (४०)
कसरत करना-वायाम (६०) उल्लास पाना-ऊसल, ऊसम्म,
कहना (बोलना)-कह (८) वज्जर पिल्लस, पुलआअ, गुजोल,
(१६) कथ (२५) अक्खा (३०) आरोअ, उल्लस (१०७)
दिस (५८) आइक्ख (३२)
आअक्ख (४२) वक्खा (८७) ऊंचा करना-थंग (५४)
वय (८८) आहा (६६)पज्जर, ऊंचा कूदना---उक्कुद्द (२६)
उप्पाल, पिसुण, संघ, बोल्ल, ऊंचा जाकर गिरना--पडिवय
चव, जप, सीस. साह (१००) (७७)
देखो, बोलना ऊपर चढना-आरो (१०) देखो
कांपना-आयंव (४२) कंप (४५) चढना
कांसना-कान (४६) ए
काटना-दू (५६) तक्ख (७३) लाय एकत्रित करना—पिंड (४०)
(८५) लुअ(८६) एक बार स्पर्श करना-आमुस कानी नजर से देखना-णिआर (६२)
(१०१) एकाग्र चिंतन करना-पणिहा (८०) काम में आना-कप्प (४५) पकप्प
कंपाना-धुव्व (५१)धुण (६५) ध्रुव
(१०१)
काम में लगना-आअड्ड, वावर
(१०२)
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परिशिष्ट ६
किसी अंक को समान अंक से गुणा करना- वग्ग (८८) क्रीडा करना --- कील (१३) किड्डु (४६) रम (३२) दिव (५८) संखुड्डु, खेड्डु, उब्भाव, किलिकिंच, कोट्टुम, मोट्टाय, णीसर, वेल्ल (१०६)
कुत्ते का भौंकना — बुक्क ( ३६ ) भुक्क (६५) भस (१०७)
कूटना - कुट्ट ( १७ )
कूदना - उकुद्द (१९) कुल्ल
अवहाव (१०५ )
क्रोध करना - कुप्प (२४) आरूस
(४४) पकुप्प (६७) जूर, कुज्झ (१०४)
खाना चाहना -- नीरव (१०० खाली करने के लिए नमाना -
उलटाना खिन्न करना-
(४७) वग्ग (८७)
- आयास (४३)
कृपा करना -- अणुग्गह (३६) दय (५७) खिन्न होना - विसीअ (२५) अवसीअ (२६) खिज्ज (३३) पडिखिज्ज (७४)
खींचना - करिस ( २८ ) अणुकड्ढ (३६) आअंछ (४२) पगड्ढ (६९) कड्ढ, साअड्ढ, अञ्च, अणच्छ, अयञ्छ, अइञ्छ, करिस (१०७)
खींच लेना - आहर ( ६६ ) खुलना ( आंख का ).
(२४)
क्रोधित होना -- रूस (७)
क्लेश पाना - किलिस्स (१६) किलेस (४६)
क्वाथ करना-- - देखो उबालना
क्षमा करना --
- मरह (८१)
क्षीण होना - णिज्झर, झिज्ज
(१००)
क्षुब्ध करना - धरिस (५२) क्षुब्ध होना - खुब्भ (४८) खउर,
पहुह (१००)
क्षोभ उत्पन्न
कर हिला देना
( क्षोभ पाना ) - पक्खुभ (६८)
ख
खंडखंड करना -- संचुण्ण (६६) खंडित करना (छेदना ) – दुहाव,
णिच्छल्ल, णिज्भोड, णिव्वर, पिल्लूर, लूर, छिंद (१०४) खदेडना - हक्क (१) खरीदना -- किण (१५) कीण (४६) खांसना — खास (१३ ) कास (४६) खाना-- - भुंज ( ६ ) गस (४९) जम्म (५१) भक्ख (६३) आहार (e)
५७१
०० )
- देखो
- उम्मिल्ल
खुश होना - हरिस ( १ ) रिज्झ (८३) अवअच्छ ( १०४ ) खुशामद करना – अच्चीकर (३५) गुलल (१०२)
खुशी करना - रंज (८२ ) अव अच्छ (१०४)
खूब चलाना -- पचाल (६६) खूब बकना - लालप्प (८५) खेद करना - सीअ (१८) विसीअ
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५७२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(२५)जूर, विसूर, खिज्ज
खेलना-देखो क्रीडा करना खोजना-देखो ढूंढना खोदना-खण (२८) खोदना (पत्थर आदि पर
अक्षर आदि लिखना)-उक्किर (८२)
कहना--आलोअ (६७) गूंथना---गुभ (५०) गण्ठ (१०४) ग्रहण करना-ओग्गह (९)
आइ (४२) आया(४३)पत्त (५०)पगिह (६६)पडिगाह (७४)पडिच्छ (७४) लय (८४) वल, गेह, हर, पङ्ग,
निरुवार, अहिपच्चुअ (१०७) ग्रहण करना (अच्छी तरह)-सुसमा
हर (७३) सारक्ख (६४)
ग
गति करना-दव (५७) वा (६०) गमन करना-दूइज्ज (५६) देखो
जाना गरजना-घुरुक्क (५०) थण (५४)
गज्ज (१०४) गरजना सांड का-ढिक्क (१०३) गर्म करना-ताव (३६) गलना-गल (४८) णिटुह, विगल
घिसना (रगडना)-घस्स (५०) घुडकना–धुरुक्क (५०) घूमना-गम (६) अट्ट (२४) विहर
(२५) विचर (२६)परिअट्ट (३२) पडिभम (७६) आहिंड (६६) घुल, घोल, घुम्म, पहल्ल
(१०४) घृणा करना----दुगुञ्छ (११)झुण,
दुगुच्छ, जुगुच्छ (१००)
गले लगाना-आलिंग (४४) गाना-गा(४६) गा (१००) गाली देना-अक्कोस (३५) सव
(५२)पडिकोस (७४) गिनती करना—कल (४६) संखा
गिरना-पड (७) पक्खल (६८)
पडिक्खल (७४) फिड, फिट्ट, फुड, फुट्ट, चुक्क, भुल्ल, भंस
चक्र की तरह घूमना-आवट्ट (६७) चखना-चक्ख (५१) आसाअ
(६८) चढना-चंप (५१) दुरुह (५८) चउ,
वलग्ग, आरुह (१०७) चबाना-चर (३१) चमक देना-ओप्प (२७) चमकना-दिप्प (५८) धिप्प (६६)
अग्घ, छज्ज, सह, रीर, रेह,
राय (१०३) चमकाना-लस (८५) सोह (९४)
गीला करना-थिम (३८) गुजरना-अइया (५६) गुनना-गुण (४६) गुरु को अपना अपराध
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परिशिष्ट ६
५७३
चर्चा करना-चंप (५१) चलना-री (८३)चर
छानना-गाल (४६) चला जाना—पक्कम (६८) छिडकना-आइंच (४२) उप्फुस चांपना-चंप (५१)
(४७) सिंच (६२) चाटना-लिह (८६)
छिन्न-भिन्न करना-छिंद (१६) चाहना-कंख (४५)दय (५७) देव छिपना-लुक्क (८६) णिलीअ,
(५६) अहिलंघ, अहिलंख, णिलुक्क, णिरिग्ध, लिक्क, वच्च, वम्फ, मह, सिह, विलुप ल्हिक्क, निलिज्ज (१०१) (१०७)
छिपाना-गोव (५०) चिंतन करना-विचित (२५)भाव छीनना-हर (६१)आहर (६६)
(६५)धा (६६)पडिसंचिक्ख छीनना हाथ से-ओअन्द, उद्दाल, (७६) संझाम (६६)
__ अच्छिन्द (१०४) चिंता करना--चित (२८) छीलना (छिलना)-तक्ख (२६) चित्र बनाना -चित्त (x) आलिह तच्छ (३१) चच्छ, रम्प, रम्फ
(१०७) चिह्न से पहचानना-आलक्ख । ४४) छूना-फरिस (३७) फंस (६१) चिपकना-रा(८३)
आमुस (६२) फास, छिव, छिह,
आलुङ्ख, आलिह, पम्हुस (१०७) चिल्लाना-अल्ल (१४) आरड
छेद करना (छेदना)-छिद(१६) (४३) आरस (४३) रस (८३)
विध (२५) कराल (४५)लाय णीहर (१०४)
(८५)लुअ(८६) चुंबन लेना-चुंब (१२)
छोडना-मुंच (७) चय (२६) परिहर चुगली करना--पिसुण (१६)
(३१)पक्खिव (६८)पडिमुंच चुनना-चिण (२४)
(७६) मुअ (८२) हाह (६१) चुपडना (घी, तेल आदि से)-चोप्पड छड, अवहेड, मेल्ल, उस्सिक्क चुराना-मुस (३४)
रेअव, जिल्लुञ्छ, धंसाड (१०२) चूर्ण करना-चुण्ण (१५) दार (५७)
जंभाइ लेना-विअंभ (५०)
जम्भा (१०५) चूर-चूर करना-संचुण्ण (३५)
जमना-संखा (१००) चेष्टा करना—ववस (८६).
जलना-डह, दह (७) संजल (३१) चोपडना मालिश करना-मक्ख (६५) तेअव, सन्दुम, सन्धुक्क, अब्भुत्त, चोरी करना---पम्हुस (६०)
पलीव (१०५)
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
जलाना--पज्जल (१३) झाम (१५)
उज्जाल (४४)पज्जाल (७२) झडना (नीचे गिरना)-झड, पक्खोड पडह (७३)अहिऊल, आलुंख (१०४) (१०७)
झरना-खर (४८) पगल (६६) पण्हा जल्दी करना--तुर (५४)तुवर, जअड (८०) खिर, झर, पज्झर, . (१०६)
पच्चड, णिच्चल, णिहुआ जागना-जागर (२६)जग्ग (१०२) जानना-जाण (६) मुण (१६) संविद झाग निकलना-फेणाय (६१) (६४) लक्ख (८४)
झाडना--आच्छोटन (४८) अक्खोड जाना-गच्छ (६)जा (३१) अइगच्छ
(८१)पक्खोड(८२) (३४)आ (४२) वच्च (३६)
झुरना-जूर(३०) अइया (५६)दूइज्ज (५६)
झूठा ठहरना-कूड (४७) ईर (६६)री (८३) वइवय (८७)वच्च, वग्ग (८८)हिंड टपकना-देखो झरना (६१) संकम (६५) अई, अइच्छ, टूटना-फट्ट (३७) तड (५३) फिट्ट अणुवज्ज, अवज्जस, उक्कुस, (६१) पडिभंस (७६) णिव्वड अक्कुस, पच्चड्ड, पच्छंद, णिम्मह, (१०१) णी, णीण, णीलुक्क, पदअ, रम्भ, परिअल्ल, बोल, परिअल, णिरिणास, णिवह, अवसेह,
ठगना-पतार(८)वंच (८७)वेहव
वेलव, जूरव, उमच्छ (१०२) अवहर, हम्म (१०६)
ठहरना-ठा, थक्क, चिट्ठ, निरप्प जाप करना--जव (६)
(१००) जीतना-जिण (६)
ठीक करना--सार (२३, ६४) जीतने की इच्छा करना-देव (५६) जीमना-जेम (५१)देखो, खाना -
डरना-बीह (७)तस (३६) विह जूरना-जूर (३०)
(६२)भा, डर, बोज्ज, वज्ज, जोडना-जुंज (२७)पउंज (६८)लाय तस(१०७)
(८५)संकल (६६) जुप्प, जुज्ज डर से विह्वल होना-खउर (४७) (१०३)
डसना-उस (२५) जोतना-आउंछ (४२)
डांटना-तज्ज (५३) ज्ञान करना-बोध (६२)
डूबना-कज्जलाव (४५) आउनु,
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परिशिष्ट ६
णिउड्ड, बुड्ड, खुप्प, मज्ज त्याग करना, त्यागना-पच्चक्ख (६६)
पजह (७२)पडियाइक्ख (७६)
हा (६१) देखो, छोडना ढकना (ढांकना)-छाअ (१७)
त्रास पाना-तस (३६) पक्खोड (६८) पच्छअ (७१)
पडिपेहा (७५) आवर (९७) थक जाना(थकना)-थक्क (३५) ढीठाई करना-धरिस (६६)
किलिस (४६) ढीला करना-पयल्ल (१०१) थर-थर कांपना-थरथर (५४) ढूंढना (खोजना) ढुण्डल्ल, ढण्ढोल, थूकना-थुक्क (५६)
गमेस, धत्त, गवेस (१०७) थोडा ऊंचा होना-पच्चुण्णम (७०) ढोना-वह (८६)
द
दग्ध करना-देखो, जलाना तकलीफ देना-आयास (४३) दग्ध होना-दह, डह (३२) तडफडाना-तडप्फड (५३) दबाना--चंप (५१) तपना-तन (७)
दमन करना-दम (५७) तपाना-ताव (१५) संताव (६६) दया करना-अणुकंप (३५) तर्क करना-तक्क (५३)
दर्द होना (दुःख होना)-दुक्ख ताडना-ताल (२९) ताड
(५८) (३६,५३)
दांत से काटना-दंस (५६) ताली बजाना-अप्फोड (१४) दान करना-आयाम (४३) देखो, तिरस्कार करना-थुक्कार (५६)
देना तीक्ष्ण करना (तेज करना)-ओसुक्क दान करवाना-दाव (५७)
दान का बदला देना–पडिदा (७५) तृप्त होना-थिप, थेप (५६) दिप्प दिखलाना (दिखाना)--उवदंस
(१३)दरिस (३६) दंसाव (५६) तैरना-तर(३३) संतर(६५)
पडिदंस (७५) तोडना-भज्ज (२६) पिअरंज (४०) दिलाना-दलाव, दवाव
दार (५७) भंज (६३)भिद (६५) तोड, तुट्ट, खुट्ट, खुड, उक्खुड, दीक्षा देना-दिक्ख (५८) उल्लुक्क, णिलुक्क, लुक्क, दु:ख कहना--णिव्वर (१००) उल्लूर, तुड (१०४)
दुःख को छोडना-णिव्वल (१०२) तोलना-तोल (५३)
दुःख पाना-अवसीअ (१६)
.
.
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५७६
दुःखित होना - दूभ (५६) दुःखी होना - परितप्प (३०)
दुहना --- दुह ( ५६ )
दूरवर्ती मालूम होना - दुराय (५६)
देखना - पास (६) दिक्ख (३६)
विअक्ख (४९) दक्ख (५६) देह (५६) लोम ( ८६ ) आलोअ ( १७ ) णिज्झा (१००) णिअच्छ, पेच्छ, अवयच्छ, अवयज्झ, वज्ज, सव्वव, देक्ख, ओअक्ख, अवक्ख, अवअक्ख, पुलोअ, पुलअ, निअ, अवआस (१०६ ) देना - दा ( ८ ) तिप्प (३०) आयाम (४३) दय (५७) दियाव (५८)
दौडना - घाव ( ६ ) धा (६६) द्वेष करना - दुस्स (५८) पदूस (६०)
द्रोह करना - दुह, दोह ( ५६ )
धारण करना--- मल (१८), भर
(६३) धर, धा (६६ ) धिक्कारना— कुच्छ (४६) धूसरित होना - गुंठ (४६) धोना - ध्रुव (६६)
ध्यान करना - धा (६६) पणिहा (८०) संभाअ (६६) झाभ (१००)
प्राकृत वाक्यरचना बोध
ध्यान पूर्वक देखना - आभोय (१८)
नमस्कार करना--- - णम, नम (३२) नमाना - पणाम ( 50 ) नष्ट होना — खअ (४७) भंस (६३) घंस (६५)
नाचना - पणच्च ( 50 ) लास (८५)
नाश करना -पणास (८०) निकलना - पवह ( ११ ) नीहर
( २३ ) निक्कस (३४) निकालना - णीसारय (१६) निगलना - गस ( ४९ ) घिस (१०७) निग्रह करना - दम ( ३९ )
थ
धमनी चलाना (जोर से ) — उद्घमा निन्दा करना - कुच्छ ( ४६ ) खिस
(१००)
(४८)
धसना - धस (६६) ढंस, विवट्ट (१०४)
निपजना --- निवज्ज ( ११ ) निभाना – पडिजागर (७४) निमंत्रण देना - निमंत ( २१ )
여
नकल करना - अणुकर (३४)
नमन करना - नव (४०) पणिवय ( 50 )
नमना ( भार से ) — णिसुढ, णव (१०५)
नियंत्रण करना - गुड (४६) निरीक्षण करना - पच्चुवेक्ख ( ७१ )
पडिलेह (७७)
निर्णय करना - रोअ ( ८४) निर्माण करना -
(१२)
-रय (८३) सिर
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परिशिष्ट ६
५७७
निर्वाह करना-पडिजागर (७४) पडना (नीचे गिरना)-खल (४८) निवास करना-णिवस (१३
पक्खल (६८) ___पडिवस (७७)
पढना-वाय (६०) सिक्ख (६२) निवृत्त करना-पडिसंहर (७८) पढाना-वाए (८६) वाय (६०) पडिसाहर (७६)
पतला करना --देखो, छीलना निवृत्त होना-पडिक्कम (७४) पतला होना--तणुअ (५३) ___ संजम (६६)
पत्थर पर शस्त्र आदि से अक्षर निवेदन करना-णिवेअ (१०) लिखना----उक्किर (८२) निषिध वस्तु का सेवन करना- परिताप करना-परितप्प (३०) पडिसेव (७६)
परित्याग करना-परिच्चय (३२) निषेध करना-हक्क, निसेह
उम्मच (४०) पइहा (६७) (१०४)
पच्चाचक्ख (७०) निष्पन्न होना (नीपजना) - निवज्ज परिभ्रमण करना-पडिचर (७५)
(१६) सिज्झ (६२) निव्वल देखो, भ्रमण करना निप्पज्ज (१०४)
परिवृत्त करना-परिआल (२३) नींद लेना-ओहीर, उङ घ, गिद्दा । परोसना-बट्ट (१६) (१००)
पर्यटन करना--पडिभम (७६) नीचे आना-पच्चुत्तर (७१) पर्यालोचन करना–संविभाव नीचे उतरना-पच्चोरुह (७१)
ओह, ओरस (१०२) पवित्र होना-खच (४८) नीचे गिरना--भंस (६३) ल्हस,
पसरना----वअल (८७) डिम्भ (१०७)
पसीजना-सिज्ज (५२) नीचे जाना-धस (६५) थक्कर
पहचानना-अभिजाण (३१) (१०२)
पच्चभिजाण (७०) लक्ख नीचे नमना-ओणम (६)
(८४) नीसास लेना-झङ ख, नीसस
पहनना-परिहा (३६) (१०७) .
पहुंचना-पहुच्च (३४ पहुप्प (१०१)
पहुंचाना-णी, णे (२) नृत्य करना-पणच्च (८०)
पान कराना-पज्ज (७२)
पालन करना--पाल (३७) पकडना-धर (१५)
पावन करना-वेअड, खच (१०२) पकाना-पय (६०) रंघ (८२) पालिश करना-ओप्प (२७)
सोल्ल पउल, पच (१०२) पास जाकर बताना-उवदंस (१३)
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प्राकृत वाक्यरचना बोष पास जाना-उवे (२६) पोतना-आलिप (४४) खरड पिघलना-विरा, विलिज्ज (१०१) (४८) पिलाना-देखो, पान कराना पोषण करना-बिह (३६) भर पीछे लौटना–पडिइ (७३) पीछे हटना-पच्चोसक्क (७०)
प्रकट करना-पागड (३७) __पडिक्कम (७४)
प्रकर्ष से जानना-पण्णा (८०) पीटना-ताल (२६) पिट्ट (३०) । प्रकाशित करना-पज्जोय (७३) ___ ताड (५३)
प्रक्षालन करना--पक्खाल (२३) पीडना-पील, पीड (२७) आवील प्रगट होना-आविहव (३८) विअड (६४) आवीड (६८)
(५०) पीडा करना-बाह (३७) वह (८६) प्रगल्भता करना-धरिस (६६) पीना-पिव (६) घोट्ट (५१) आवा प्रज्ञापित करना-पन्नव (१५) आविअ (६८)
प्रणाम करना—पणम (१०) वंद पिज्ज, डल, पट्ट, पिअ (१००) (८७) पीलना-देखा पीडना
प्रतिघात करना--पडिहण (३८) पीसना-पीस (८) रुच (दे०) प्रतिज्ञा करना-पडिन्नव (७५)
(८३) णिवह, णिरिणास, पडिसव (७८) पडिसुण (७६) णिरिणज्ज रोञ्च, चड्ड प्रतिध्वनि करना--पडिरू (७७) - (१०६)
प्रतिपादन करना—पडिवाअ (७५) पुनर्जीवित होना-पडिउस्सस (७३) पडिवाय (७६) वागर (८६) पुष्ट होना-पोस (३७) बूंह प्रतीक्षा करना—पडिक्ख (७४) (६२)
सामय, विहीर, विरमाल पूछना--पडिपुच्छ (७५) पुच्छ (१०७) (१०३)
प्रतीति कराना-पच्चाय (७०) पूजना (पूजा करना)-अरिह (८) प्रद्वेष करना--पओस (६७)
पूज, पूअ (२६) अंच, अच्च प्रपीडन करना-पवील (६४) (३४)
प्रमाद करना-पमाय (११) पूरा करना-समाण, समाव (१०५) प्रमुक्त होना--पमुच्च (२६)
अग्घाड, अग्घव, उधुम, अङगुम प्रयत्न करना-पयय (३१) ववस अहिरेम, पूर (१०६)
(८६) मल, संघड (१०३) पैदा करना-जा, जम्म (१०४) प्रयत्न होना-पक्कम (६८) पोंछना-लूह (१५) फुस (६१) प्रयाण करना-पया (६०)
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परिशिष्ट ६
५७६
प्रवास करना-पवस (२७) फिर से पान करना-पडिआइय प्रवेश करना-पविस (७) रिअ (१०७)
फिर से ग्रहण करना-पडिआइय प्रवेश कराना-पइसार (६७) प्रशंसा करना-अच्चीकर (३५)
फिर से पूर्ण करना-पडिहर कत्थ (४५) लाह (८५)
(७६)
फिर से सांधना-पडिसंध (७८) सिलाह (१२) सलह (१०२)
फिसलना-फेल्लुस (३७) प्रस्थान करना-पट्ठव (२३) पत्था
फूटना-फट्ट (३७) फुट (६२)
फूंक मारना-फुम (६१) प्रस्फोटन करना ---पक्खोड (८२) फेंक देना (फेंकना)-अक्खिव (३५) प्रहार करना--सार (१०२)
किर (४६) विकिर (५४) प्राप्त करना-लह (६) पाव (२८) पक्खिव (६७) पक्किर (६८)
पाउण (३३) पडिलंभ, पडिलभ गलत्थ, अड्डक्ख, सोल्ल, पेल्ल, (७७) लभ (७४) आवज्ज णोल्ल, छुह, हुल, परी, पत्त, (६७) लंभ (८४)
खिव (१०५) प्राप्त करने की इच्छा करना-लिच्छ फैलना-वउल (८७) पयल्ल, उवेल्ल
पसर (१०२) प्रार्थना करना—विण्णव (२३) फैलना (गंध का)-महमह (१०२)
अभिपत्थ (३२) पत्थ (३५) फैलाना-तड, नड्डु, तड्डव विरल्ल, पच्छ (७१)
तण (१०५) प्रेरणा करना-पणोल्ल (८०) फोडना-फुड (२४)
(८५)
फटना-फुड (२४ फट्ट (३७) फुट
(६१) विसट्ट, दल (१०६) फडकना (फरकना) -- फुर (३६) ।
पप्फुर (६०) फुर (६१)
चुलचुल, फंद (१०४) फलना-फल (२८) फाडना-कराल (४५) फाड
बंद होना--निमील (२४) ओमील
(४०) बकरे का बोलना-बुब्बुअ (६३) बजाना-वायइ (७६) वज्जाव
(८७) वाए (८६) बढचढ कर बात करना-पगब्भ
(२५) बढना--वड्ढ (९) पक्खुम्भ (६८) बतलाना-पन्नव (१५) दरिस
(३६)
फिरफिर घिसना-पघंस (६६)
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५८०
बदला चुकाना - पडिअर (७३) बधाई देना --- वद्भाव ( 55 ) बनाना - रय (८३) सिर (६२)
८
सुत्त (६३) उग्गह, अवह, विsविडु, रय, गढ, घड (१०३ ) उवहत्थ, सारव, समार, केलाय, समारय (१०३)
बहना -- वह (३५)
बाञ्छना - कंख (४५)
बांधना - बंध (३६) (६२) बातचीत करना -- - आलव (४४)
संलाव (६४)
बाधा करना ---- - वाह (५३) बार बार चलना -- चंकम (५१) बार बार झाडना---पक्खोड (६८) बाल उखाडना -- लुंच (८६) बाहर निकलना - पडिणिक्खम (७४) पडिणिग्गच्छ (७५) णीहर, नील, धाड, वरहाड, नीसर, (१०२)
बिखेरना - किर (४६) विकिर
(५४) बिछाना - अच्छुर (१४) पत्थर (३८)
बिछौना करना -- संथर (९६) बींधना - वध (२५) विज्झ (५२) आविध (६८)
बीमार की सेवा करना -- पडिअर (७३) बुझाना - णिव्वाव ( 55 ) बुनना – वा (१०) सुत्त (१३) बुलाना - आयार (४३) आहव
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(१६) कोक्क, पोक्क, वाहर (१०२)
बुहारना - संमज्ज ( १७ )
बूम मारना—आरड, आरस (४३) देखो, चिल्लाना
बेचना - विक्क (२७) विक्किण (१०१) बेचना ( अच्छे मूल्य में ) (१७)
अग्घ
बैठना — निवेस, निवज्ज ( ११ ) अच्छ ( ३६ ) वेस (६२) आस (६८) णुमज्ज (१०४) बोध पाना - पडिबुज्झ (७६) बोना - वब ( ८ ) बोलना - जंप (७) अल्लव ( १२ )
अक्खा (३०) ब्बू (६२) पंजप (७१) रव (५३) वय ( ८८ ) वाहर (१०) देखो, कहना
भ
भक्षण करना- - अणुगिल ( ३६ ) भक्ति करना- - आराह (४४)
-
पज्जुवास (७२) भर्त्सना करना - भंड (६३) भांगना – भज्ज (२६) पिअरंज (४०) भंज (६३) पडिभंज (७६) वेमय, मुसुमूर, मूर, सूर, सूड, विर, पविरञ्ज करञ्ज, नीरञ्ज (१०३) भांडना—भंड (६३)
भागना - पलाय (३८) णिरिणास, णिवह, अवसेह, पडिसा, सेह, अवरेह्, नस्स (१०६) भाषण करना—भास (३०)
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परिशिष्ट ६
५८१
भिडना-भिड (६५)
मरना-मर (३३) भीख मांगना-भिक्ख (६५) मर्दन करना~मल, मढ, परिहट्ट, भूकना-बुक्क (३६) भुक्क (६५) ___खड्ड, चड्ड, मड्ड, पन्नाड (१०४) भूख लगना-खुम्म (४८) मलिन करना-पंस (६७) भूताविष्ट करना-आवेस (३८) मांगना-याच (१२) भूनना-भज्ज (६३)
मानना-आढा (१५) मन्न (२७) भूल जाना (भूलना) विसमर (१६) माप करना-मा (८१)
वीसर (२८) पम्हल (३८) मार डालना (मारना)-घाय (७) खल (४८) पम्हुस (६०) __ हण (२७) ताड, ताल (२६) विम्हर (१०२)
पिट्ट (३०) वावास (६०) भेजना-पेस (१७) पट्ठव (२३) मार्जन करना-रोसाणे (१७) सुप भेदना-भिंद (६५)
(६३)
। भोजन आदि से तृप्त करना- मालिश करना-म६ (६५) पडितप्प (७५)
मालूम होना-पडिमा (६) पडिभास भोजन करना-भुंज (६५) जिम, (७६) पडिहा, पडिहास (७९)
जेम, कम्म, अण्ह, चमढ, समाण, मिलना--पघोल (६६) मिल (८१)
चड्डु, कम्मव, उवहुज्ज (१०३) मिलाना-मेलव (१७) मिस्स (८१) भ्रमण करना--भम (६३) हिंड मीस (८२)
(६१) टिरिटिल्ल, ढुण्ढुल्ल, मुग्ध होना-संमुज्झ (६४) गुम्म, ढण्ढल्ल, चक्कम्म, भम्भड, भमड, गुम्मड, मुज्झ (१०७) भमाड, तलअण्ट, झण्ट, झम्प,
मुठभेड करना-भिड (६५) भुम, गुम, फुम, फुस, ढुम ढुस, मद्रित होना-ओमिल (४०) परी, पर (१०५)
मुरझाना-पमिलाय (३८) भ्रष्ट करना-पडिभंस (८६)
मूच्छित होना-मुच्छ (८२)
मूर्ति आदि की विधि पूर्वक स्थापना मंत्रणा करना-मंत (६५)
करना-पइट्ठव (६७) मंथन करना-पमत्य (३२) मह (८१) आलोड (६६) घुसल,
मेंढक की तरह कूदना-उप्फिड विरोल (१०४)
(४७) मद्य करना-मज्ज (५२) मोडना-वाल (६०) . . मधुर अव्यक्त ध्वनि करना-गुमगुम मौज करना-लल (८४)
म्लान होना-मिला (८१) वा, ममता करना-ममा (८१)
पव्वाय (१००)
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५८२
प्राकृत वाक्यरचना बोध
लगाना (मालूम होना)-पडिहा, याचना करना—जाय (३०)
पडिहास (७६) याद करना-गुण (४६) लगाना (जोडना)-लाय (८५) याद दिलाना-सार (६४) झर, लघु करना-लहुअ (८५)
झूर, भर, भल, लढ, विम्हर, लज्जा करना-जीह, लज्ज (१०३) - सुमर,पयर, पम्हुह (१०२) लज्जित होना-हिरि (६१) युक्त करना-पउंज (६७) लटकना--आयल्ल (४२) पयल्ल युद्ध करना-जुज्झ (8)
(१०१) योग्य होना- अच्च (३५)
लडाई करना-जुज्झ (६) लपेटना- परिआल (३८) वेढ (४०)
संवेल्ल (६४) रंगना-रंग (८)
लांघना-लंघ (८४) रक्षण करना (अच्छी तरह)- लाना--आहर (६६) सारक्ख (६४)
लिप्सा करना-लिच्छ (८५) रक्षा करना-रक्ख (२९) लीन होना-अल्लीअ (१०१) रखना (स्थापन करना)-थक्कव (५४) लीपना-खरड (४८) लिप (८५) रगडना--घरस (१७) घस (५०) लुंचन करना-लुंच (८६) रमना-रम (३२)
लुढकना-लुढ (८६) रहना-णिवस (१३) पज्जोसव लूटना-लूड (८६)
(७१) आवास (६८) ले जाना—णी, णे (६) रांधना-रंध (८२)
लेट जाना (लेटना) निवज्ज (१६) रीझना-रिज्झ (२३)
____लोट्ट (८७) रुई धुनना-पिंज (३७) लेना-देखो ग्रहण करना रुकना-खल (४८) थम्भ (५४) लेप करना-लिप्प (२६) आलिंप रूसना-आरूस (४४)
(४४) लिप (८५) देखो, रेखा करना-विलिह (६१)
लीपना रोकना-संवर (६४) वाह (५२) लोप करना-तिरोह (५८) लुंप
पडिबंध (७६) रुंध (८३) वार (८६) लोव (८७)
(६०) उत्थङघ (१०४) लोभ करना-लुभ (८६) संभाव, रोना--तिप्प (३०) रुव (३३) लुब्भ (१०५) __ आरस (४३) आरड (४६) रुम लौटकर आ पडना-पच्चापड (७०) (८३)
वंदन करना-पणिवय (८०) लगना-लग्ग (८४)
वमन करना-वम (८८)
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परिशिष्ट ६
वरतना-वट्ट (८८)
विराम लेना-विरम (११) वरसना-वरिस (३३)
विरोध करना-बाह (६२) वर्गकरना-वग्ग (८८)
विलाप करना-झंख, वडवड, विलव वर्जन करना-वज्ज (३१) वर्णन करना-वण्ण (८८) विलास करना--लल (८४) वसना--वस (८६)
विलेखन करना-विलिह (६१) वहन करना-णिविस्स (१६) विलोडन करना-मह (८१) लोल
पडिवह (७७) वाह (६०) (८७) देखो मंथन करना वाद विवाद करना-पवय (३०) विवरण करना-वक्खा (८७) वापस आना-पडिइ (७३) पलोट्ट, विवाह करना-विवह (१२) पच्चागच्छ (१०६)
विशेष जलना-पजल (७१) वापस देना-पच्चप्पिण (७०) विश्राम करना-णिव्वा, वीसम वम्फ, वल (१०६)
(१०५) वास करना-पज्जोसव (७२) वस विश्वास करना-पत्ति (६०)
(८६) आवास (६८) विसंवाद करना-विअट्ट, विलोट्ट, फंस, विकसना-पप्फुल (६०) फुट
विसंवय (१०४)
विस्तार करना-तण (५३) विकास करना--कोआस, वोसट्ट,
विस्तार से कहना-पबंध (६०) विअस (१०७)
विस्मरण करना-वीसर (२८) विक्रय करना-विक्क (२७) देखो
विहार करना-विहर (२५) बेचना
वृद्ध होना-पक्खुम्भ (६८) विचरना-विचर (२६)
वेष्टन (वेष्टित) करना-वेढ (४०) विचलित करना-धरिस (५२)
पडिबंध (७६) विचार करना-पडिसंविक्ख (७८)
व्यक्त करना-वंज (८७) विदारना-दार (५७)
व्यवहार करना-पडिसंखा (७६) विद्यमान होना-विज्ज (५२) विनती करना-विण्णव (२३)
व्याकुल होना-विर, गड, गुप्प विनाश करना-लुंप (८६)
(१०५)
व्याख्यान करना-वक्खाण (२८) विपरीत होना--पडिकूल (२६)
व्यापार करना–ववहर (८६) विमर्श करना--विअक्क (४९)
व्याप्त होना----ओअग्ग, वाव (१०५) वियोग से दुःखित होना-जूर (३०) विरत होना-पडिसम (७८) . विराजमान होना-विराम (२६) शब्द करना-कण (४०) कवं
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प्राकृत वाक्यरचना बोध
(४६) पज्झंश (७२) रा. संकोच करना-संकुच (१०) (८३) रुञ्ज, रुण्ट, रव
. संमिल्ल (६४)
संकोच पाना--देखो, संकुचित होना शपथ खाना-साव (१८)
संख्या करना-कल (४६) शरमाना-लज्ज (८४) देखो लज्जा संग करना-लग्ग (८४) करना
संगत करना-पघोल (६६) शांत होना-परिणब्वा (१८) पडिसा, अभिड, संगच्छ (१०६) परिसाम, सम (१०६)
संगत होना-संगच्छ (६५) शाप के बदले शाप देना-पडिसव
संग्रह करना-संचिण (६६)
संघर्ष करना-संघस (६५) शाप देना-सव (५२) पडिकोस
संतप्त होना-झंख, संतप्प (१०५)
संतुष्ट होना-तूस (५१) थेप्प शिक्षा देना-सिक्ख (१०)
(५६) थिप्प (१०५) शुद्ध करना-सोह (१७)
संदेश देना-अप्पाह, संदिस (१०६) शुद्ध होना-सुन्झ (६३) .
संन्यास लेना-अभिनिक्खम (३१) शुद्धि करना-आयाम (४३) सोह।
संपत्ति युक्त करना-खउर (४७) (६४) .
संपन्न होना---संपज्ज (२४) शेखी मारना-पगब्भ (२५)
संपूर्ण प्रयत्न करना--पडिअज्जम शोक करना-सोअ (६४) शोभना-सोह (६४) भास |
संबद्ध करना-संजोअ (६६) (१०७)
संभालना-रक्ख (२६) पडिअग्ग शोभाना-सोभ (६४) सोह (६४) शौच करना -आयाम (४३)
संभावना करना-आसंघ (६८) श्रद्धा करना—सद्दह (१००)
संभोग करना-रम (८२) श्रम करना-वावंफ (१०१) श्लाघा करना-कत्थ (४५) पकत्थ ।
संयम करना-संजम (२६)
संयुक्त करना-जुंज (२७) संजोस श्लेष करना-रा (८३) लस (८५) (६६)
संशय करना-विअप्प (५०) संक संकलना करना-संकल (२४) (६५) संकुचित करना—संकोअ (६४) संस्कार डालना-वास (६०) संकुचित होना-कूण (४७) संस्पर्श करना-संफुस (३६) संकेत करना-संकेअ (६५) संहार करना-संहर (२८)
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परिशिष्ट ६
५८५
सकना-सक्क (8) चय, तर, तीर, सान्त्वना देना-धीरव (६६) पार (१०२)
आसास (६६) सगाई करना-वर (१२) . साफ करना-पमज्ज (३५) सजाना--पडिकप्प (७४) चिञ्च, अग्घुस, लुञ्छ, पुञ्छ, पुंस, फुस चिञ्चअ, चिञ्चिल्ल, रीड,
पुस, लुह, हुल, रोसाण, मज्ज टिविडिक्क, मण्ड (१०४) सजावट करना-पडिकप्प (७४) सामने आना-~ उम्मत्थ, अब्भागच्छ सडना-गल (४८) कुह (५२) (१०६) सडाना-पडिसाड (७८) सामने जाना-पच्चुवगच्छ (७१) सत्य-सत्य ज्ञान करना--पमा (३५) सिखाना-सेह (६४) सदा के लिए घर से निकल नाना- सींचना-आइंच (४२) उप्फुस अभिनिक्खम (३१)
(४७) तलहट्ट (५४) सिंच सन्नद्ध करना-पक्खर (६८)
(६२) सिम्प, सेअ (१०३) समझना-बोध (६२)
__ उंज (८६) समर्थ होना-संचाय (६५) पहुप्प, सीखना-सिक्ख (६२) पभव (१०१)
सीझना–सिज्म (६२) समर्पण करना-अल्लव (१४) सीना-सिव (१२) समेटना (संवरण करना)- सुख करना-भद (६३)
पडिसंखेव (७८) साहर, साहट्ट, सुनना-सुण (६) आयण्ण (७२) संवर (१०२)
सुअ (६३) हण (१०१) सम्मान करना-माण (८१) ।
सुनाना-साव (१८,६४) सम्यक् प्रयत्न करना-संजय (६६)
सुलगाना-पज्जाल (७२) सरकना-सर (३३)
सूंघना--जिंघ (८) सुंघ (६३) सहन करना-सह (३२) मरिस आइग्घ (१००) (८१)
सूखना-सुस्स (६३) ओरुम्म, सहारा लेना-आलंब (४४) संदाण
__वसुआ, उव्वा (१००) (१०१)
सूचना करना-सूअ (२३) सांधना-सिव्व (६२)
सूर्य के ताप में शरीर को थोडा साक्षात् करना-पच्चक्खीकर (६६) तपाना--आयाव (४३) साथ में रहना-संवस (६४) सेवा करना-सेव (६) सुस्सूस साधु आदि को दान देना--पडिलाभ (२३) अणुचर (३६) भय (७७)
(६३) पज्जुवास (७२)
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५८६
सेवा में उपस्थित रहना — उवचिट्ठ (२७)
सेवा शुश्रुषा करना - पडिआगर (७४)
सोधना -- सोह (२७)
सोना - निवज्ज (१९) सुव, सुप्प (६३) से, सेम, सोअ (१४), कमवस, लिस, लोट्ट, सुअ
(१०५)
सौं
हुए कार्य को करके निवेदन करना - - पच्चप्पिण ( ७० ) स्तब्ध करना - णिट्ठह (१०१ ) स्तुति करना - पत्थ (३६) थु (७८) थव, थुण, थुअ (५६)
स्थापना करना —— थक्कव (५४) मि, णुम (१०७ ) स्पष्ट होना- - णिव्वड ( १०१ ) स्थिर होना -- थम्भ (५४) स्नान करना-- - अंगोहल (१४)
मज्ज (६५) सिणा (६२) अब्भुत, हा (१००) स्नेह करना - णिज्झ (५३) पणय (50) ferforer (ER) स्नेह पूर्वक पालन करना - लाल (८५) स्पर्श करना - आमुस (६२) संघट्ट (१५) संफुस ( ३६ ) देखो छूना स्फुट होना - फुट्ट (२५)
स्मरण करना - सुमर ( ८ ) सर (२६) स्वाद लेना - चक्ख पच्चोगिल (७१) साइज्ज (१४) आसाअ (१८)
(५१)
प्राकृत वाक्यरचना बोध
स्वीकार करना — मन्न ( २७ ) अंगीकर (३४) पडिवज्ज (७७) पडसंधा (७८) पडिसुण (७९) संगच्छ (६५)
स्वेद का आना — सिज्ज (५२ ) ह
हंसी फूट पडना - मूर (१०३) गुंज, हस ( १०७ )
हजामत करना -- कम्म (१०२) हटना - पक्खिल (७४) हरण करना - हर (ε१) आलुंप (७)
हवा करना - वीअ (४४) वोज्ज (१०१) हांकना - हक्क ( १ )
हाथ आदि का काटना - विअंग ( ५० ) हाथी को कवच आदि से सजानागुड (४६)
हारना – पराजय (११) हिंसा करना -- अइवाअ (२५) हिंस (२६)
हिलना - आयंब (४२) फुर (६१) आहल्ल (६६) आयज्झ, वेव (१०५) देखो, कांपना हिलाना - धुव (५१) हिलोरना - आलोड (६७) हीन होना - हस (६१) : हुकम करना—सास (१७) हैरान करना — कयत्थ (४५) संताव (१६)
हैरान होना - किलेस (४७)
होना -- अस ( ११ ) भव (६३) हव, हो (११) हुव ( १०१ )
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परिशिष्ट ७ वैदिक संस्कृत और प्राकृत भाषा
वैदिक संस्कृत और प्राकृत भाषा में समानता अधिक है । कुछेक समानता यहां प्रस्तुत है ।
(१) वैदिक संस्कृत की धातुओं में किसी प्रकार का गणभेद नहीं है । प्राकृत भाषा में भी धातुओं में गणभेद नहीं है ।
पाणिनीय धातु
वैदिक धातु
हनति
शयते
भेदति
मरते
हन्ति
शेते भिनत्ति
म्रियते
मरए
( वैदिक प्रक्रिया सू० २/४/७३, ३/४/८५, २।४।७६, ३/४ । ११७, ऋग्वेद पृ० ४७४ महाराष्ट्र संशोधन मंडल ) 1
(२) वैदिक संस्कृत में आत्मनेपद तथा परस्मैपद का भेद नहीं है । प्राकृत भाषा में भी आत्मनेपद और परस्मैपद का भेद नहीं है ।
वैदिक संस्कृत इच्छति, इच्छते युध्यति, युध्यते
( वैदिक प्रक्रिया ३|१| ८५ )
पाणिनीय धातु
इच्छति
युध्यते
प्राकृत भाषा
हनति, हणति सयते,
सयए
भेदति, भेदइ मरते,
(३) वैदिक संस्कृत में प्रथम पुरुष के एकवचन के ए प्रत्यय के रूप में
समानता है ।
पाणिनी ए प्रत्यय
शेते
इष्टे
वैदिक
शेये
ईशे
( वैदिक प्रक्रिया सू० ७।१।१ ऋग्वेद पृ. ४६८ ) (४) वर्तमान और भूतकाल आदि कालों में वैदिक संस्कृत में में कोई नियमता नहीं है । वैदिक क्रियापद में वर्तमान परोक्ष भी होता है । म्रियते के स्थान पर ममार ( वैदिक प्रक्रिया ३ | ४ | ६ )
प्राकृत भाषा में परोक्ष के स्थान पर वर्तमान का प्रयोग भी होता है ।
प्राकृत भाषा
इच्छति, इच्छ जुज्झति, जुज्झते
प्राकृत
सए
ईसे, ईस
तथा प्राकृत
के स्थान पर
प्रयोग हुआ है ।
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५०५
प्राकृत वाक्यरचना बोध
परोक्ष
प्राकृत वर्तमान प्रेक्षांचके
पेच्छा आबभाषे
आभास वर्तमान शृणोति
सोहीम
(हेम० प्रा० व्या० ८।४।४४७) (५) विभक्तियों का व्यत्यय(क) वेदों में और प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति
का प्रयोग विहित है।
(देखें वैदिक प्रक्रिया सू० २।३।६२ तथा हेम०प्रा० व्या० ८।३।१३१) (ख) तृतीया विभक्ति के स्थान में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।
(वैदिक प्रक्रिया २।३।६३ तथा हेम०प्रा०व्या० ८।३।१३१) (६) बहुलं का प्रयोग
वैदिक व्याकरण में सब प्रकार के विधानों में बहुलं का व्यवहार होता है । प्राकृत भाषा के व्याकरण में भी सर्वत्र बहुलं का व्यवहार होता
(देखें, बहुलं छंदसि २।४।३९,७३ हेम० प्रा० व्या० ८।१।२,३) (७) अन्तिम व्यंजन का लोप
वैदिक संस्कृत में अंतिम व्यंजन का लोप होता है। इसी प्रकार प्राकृत भाषा में अंतिम व्यंजन का लोप व्यापक है
वैदिक रूप पश्चात्-पश्चा पश्चार्ध (वै. प्र. ५॥३॥३३) उच्चात् उच्चा
(तैत्ति० सं. २।३।१४) नीचात्-नीचा
(तैत्ति० सं. १।२।१४) विद्युत्-विद्यु
(अन्त्य लोपः छांदसः ऋग्वेद पृ. ४६६) युष्मान्-युष्मा
(वाज० सं. १।१३।१, शत० ब्रा० ११२।६) स्य:-स्य
(वै०प्र० ६।१।१३३)
प्राकृत रूप तावत्-ताव । यावत्-जाव । तमस्-तम । चेतस्--चेत । यशस् -जस । नामन्-नाम। (८) स्प को प आदेश
वैदिक भाषा में स्प को प हो जाता है। प्राकृत में भी स्प को प
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परिशिष्ट ७
वैदिक
आदेश हो जाता है।
प्राकृत स्पृशन्य--पृशन्य
स्पृहा-पिहा । निस्पृह-निप्पह (ऋग्वेद पृ. ४६६)
(हेम. प्रा. व्या. २७७) (६) र कालोपवैदिक
प्राकृत अप्रगल्भ-अपगल्भ
क्रिया-किया, प्रज्ञा–पज्जा (ते. सं. ४।५।६।१)
प्रिय-पिय
(हेम. प्रा. व्या. २१७६) (१०) य का लोपवैदिक
प्राकृत ज्युच:-तृचः
श्याम–साम । व्याध-वाह (4.प्र. ६।१।३४) (प्रा. २१७८) (११) ह को धवैदिक
प्राकृत सह-सध सहस्थ-सधस्थ / वे. प्र. ६।३।६६ इह-इध
गाह-गाध }
निरुक्त पृ. १०१
परित्तायह-परित्तायध (हेम. प्रा. व्या. ४।२६८)
वहू-वधू शृणुहि-शृणुधि
(वै. प्र. ६।४।१०२) (१२) थ को ध तथा ध को थ
वैदिक माधव---माथव (शतपथ ब्राह्मण १।३।३।१०) ११,१७
प्राकृत नाथ-नाध कथं-कचं राजपथ-राजपध (हेम. प्रा. व्या. ४।२६७)
(१३) द्य को ज
वैदिक द्योतिस्-ज्योतिस् (अथर्व सं. ४॥३७॥१०)
प्राकृत युति--जुति, जुइ उद्योत-उज्जोत
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૨૦
( हे० प्रा० व्या० २।२४ )
द्योतते ज्योतते निरुक्त पृ. १७०, १६ अवद्योतयति---अवज्योतयति ( शत. ब्रा. १.२.३.१६ )
(१४) ह की घ तथा भ
वैदिक
आहृणि— आघृणि निरुक्त पृ. ३८२,३६ विदेह विदेघ
( शत. ब्रा. १।३।३ ) मेह - मेघ
( निरुक्त पृ. १०१,१ ) गृहीत -गृभीत
गृहाण - गृभाण्य
जहार -- जभार
(१५) ड को ल तथा ड को ळ
वैदिक
ईडे--- ईळे
अहेडमान : --- अहेळमान:
दृढदृळह
सोढा-साळहा
( वै. प्र० ६ | ३ | ११३ )
(१६) अनादिस्थ य तथा व का लोप
वैदिक
प्रयुग - पउग
( वा०सं० १५ - १ )
सिव् धातु का - - सीमहि ( ऋग्वेद पृ० १३५, ३)
पृथुजव: - पृथुज्ञयः निरुक्त पृ. ३८३, ४०
(१७) अभूतपूर्व र का आगम
वैदिक अधिगु-अधिगु
प्राकृत वाक्यरचना बोध
प्राकृत
सीह - - सिंघ ( प्राकृत में ये दोनों दाह--- दाध रूप प्रचलित हैं ( प्रा० १।२६४ )
संहार — संघार
विह्वल - बिब्भल ( प्रा० २।५८ ) जिह्वा - जिब्भा
( प्रा. २।५७ )
प्राकृत
ईडे, ईले, ईळ अहेळमानो
दळह
सोळहा
( प्रा. ११२०२, ३।३०८ )
प्राकृत
प्रयुग - - पउग
लावण्य - लायण्ण । इस प्रयोग में व कालोप, शेष अ को य श्रुति हुई है।
( प्रा० १११७७)
प्राकृत
अपभ्रंश प्राकृत में व्यास का व्रास
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परिशिष्ट ७
( निरुक्त पृ. ३८७,४३) पृथुजव:- पृथुज्रयः इन रूपों में अभूतपूर्व र का
आगम हुआ है ।
(१८) क तथा च का लोप
वैदिक
याचामि यामि
निरुक्त पृ. १००, २४१ अन्तिक अन्ति
ऋग्वेद पृ. ४६६
(१६) आन्तर अक्षर का लोप
वैदिक
शतक्रतवः- - शतक्रत्व पशवे - पश्वे
( वै. प्र० ७ ३६७) निविविशिरे - निविविश्रे
(ऋ.सं. ८१०१।१८ )
तन्वम् —— तनुवम्
( तै. आ. ७।२२।१)
स्वर्गः–सुवर्गः (Â. AT. YIRIE) विभ्वम् - विभुवम्
सुध्यो- सुधियो
रात्र्या - - रात्रिया
सहस्य :-- सहस्रिय: (यजुर्वेद )
(२१) ऋ को र तथा उ
वैदिक
ऋजिष्ठम् -- रजिष्ठम्
आगत: ---- - आता:
( निरुक्त पृ. १४२ )
(२०) संयुक्त व्यंजनों के मध्य में स्वरों का आगम
वैदिक
प्राकृत
तथा चैत्य का चैत्र जैसे रूपों में
र का आगम हुआ है । ( प्रा. ४ | ३६६ )
प्राकृत
कचग्रह-- कयग्गह
शची - सई लोक—लोअ
( प्रा. १११७७ )
प्राकृत
राजकुल-- राउल
प्राकार -- पार
व्याकरण-वारण } दुर्गादेवी - दुग्गावी
आगत-आय
एवमेव - - एमेव
अर्हन्—अरुहंत लघ्वी - लघुवी
तन्वी - तणुवी
पद्मं --- उमं
मुक्खो - मुरुक्खो क्रिया - किरिया
ह्री-हिरी
गर्हा गरिहा
श्री -- सिरी
प्राकृत ऋद्धि-रिद्धि
(११२६७ ) (११२६८)
५६१
(११२७० ) (१।२६८)
(१।२७१)
(२१११)
(२/११३)
""
(२११२)
(२।१०४)
"
"1
11
(81880)
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५६२
वै. प्र. ६ । ४ । १६२
वृन्द-वृन्द
(निरुक्त पृ. ४३२ अं० १२८ )
तु ततुरि:
ग - जगुरि:
वै. प्र. ७।१।१०३
(२२) द को ड
वैदिक
दुर्दभ—दूडभ (वा. सं. ३,३६) पुरोदाश - पुरोडाश
(वै. प्र. ३२७१)
(२३) अव को ओ तथा अय को ए
वैदिक
श्रवणा --- श्रोणा
ते. ब्रा० १, ५ - १,४; ५.२,६ अन्तरयति--अन्तरेति
शत. ब्रा. १,२-३, १८; ४,२०; ३.१.१६
(२४) संयुक्त के पूर्व का हस्व
वैदिक
रोदसीप्रा-रोदसिप्रा
( ऋग्वेद संस्कृत १०६८।१०
अमात्र - अमत्र
ऋग्वेद संस्कृत २.३६.४
(२५) क्ष को छ वैदिक
अक्ष--अच्छ
( अथ. सं. ३ | ४ | ३ )
ऋणं रिणं
वृन्द वुन्द
वृतान्त -- वुत्तन्त
वृद्ध वुड्ढ
ऋषभ-उसभ
प्राकृत वाक्यरचना बोध
(१४१४१ ) (१११३१)
ऋतु—उतु
ऋजु – उज्जु
प्राकृत
दण्ड —— डंड
दंभ डंभ
दर — डर
दंसण - डंसण
दोला -- डोला
प्राकृत
अवयरइ — ओअरइ
अवयास - ओआस अवसरति - ओसरइ
कयल — केल
अयस्कार— एक्कार
प्राकृत
आम्रं - अम्बं मुनीन्द्र मुणिन्द
आस्य -- अस्स
तीर्थ — तित्थ
(ST. 8158)
प्राकृत
अक्षि - अच्छि
अक्ष-अच्छ
17
"}
"
"1
(१।२१७)
"1
37
77
(१।१७३)
"
"
(१।१६७) (१११६६)
( ११३३ )
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परिशिष्ट ७
५६३
(२३)
क्षीणं-छीणं (२६) अनुस्वार के पूर्व के दीर्घ का ह्रस्ववैदिक
प्राकृत युवाम्-युवम्
मांस-मंस (प्रा- ११७०) (ऋ. सं. १११५-६) पांसु-पंसू
कांस्य-कंस
मालाम्-मालं (२७) विसर्ग का ओवैदिक
प्राकृत सः चित्-सो चित्
देवः अस्ति-देवो अस्थि (ऋ. वे. पृ. १११२)
सर्वतः-सव्वओ संवत्सरः अजायत-संवत्सरो पुरत:-पुरओ
अजायत मागतः-मग्गओ (ऋ. सं. १-१६१-१०-११) (प्रा० ११३७) आपः अस्मान्-आपो अस्मान् पुनः एति--पुणो एति
(वै. प्र. ६।१।११७) (२८) ह्रस्व को दीर्घ तथा दीर्घ को ह्रस्व
प्राकृत एव-एवा
अहवा-अहवा (अथवा) अच्छ-अच्छा
एक-एवा (एव) (4. प्र. ६।३।१३६) जह-जहा (यथा) ध--धा
तह-तहा (तथा) मक्षु-मक्ष
(११६७)
चतुरन्त-चाउरंत अत्र---अत्रा
परकीय--पारक्क यत्र-यत्रा
विश्वास-वीसास पुरुष--पूरुष
मनुष्य-मणूस दुर्दभ-दूदभ
मिश्र-मीस दुर्लभ-दूलभ
पश्य-पास (ऋ. संस्कृत ४६८)
(१।४३) (२६) अक्षरों का व्यत्ययवैदिक
प्राकृत निसृकर्त्य-निष्टयं
आलान-आणाल
वैदिक
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________________
५६४
( वै. प्र. ३ | १ | १२३ ) नमसा-मनसा
ऋ. पू. ४८.६
कर्तुः तर्कः ( निरुक्त पृ. १०१ - १३ )
(३०) हेत्वर्थ कृदन्त के प्रत्यय में समानता
वैदिक
कर्तुम्—कर्तवे
( वैदिक प्रक्रिया ३ | ४१६ ) वैदिक प्रक्रिया सूत्र में 'से', 'सेन' और अ से प्रत्ययों का विधान तुम् के स्थान में किया गया है । इस नियम से इ धातु का 'एसे' (एतुम्) रूप होगा
(३१) क - क्रियापद के प्रत्ययों में समानता
वैदिक
प्रथम पुरुष, बहुवचन दुह, + रे दुह्र
( वैदिक प्रक्रिया ७१ १८ )
ख -- आज्ञार्थक सूचक इ प्रत्यय
वैदिक
बोध् + इ—बोधि
प्राकृत वाक्यरचना बोध
अचलपुरं - अलचपुरं ( २।११८ ) वाराणसी-वाणारसी
(२।११६)
महाराष्ट्र – मरहट्ठ (२।११९ )
प्राकृत
कत्तवे, कातवे, कस्तिए गणे, दक्खिताये नेतवे, निधातवे
प्राकृत
प्रथम पुरुष के बहुवचन में रे और इरे प्रत्यय का भी व्यवहार होता है । गच्छ— गच्छरे, गच्छिरे
(हे. प्रा. व्या. ३।१४२ )
प्राकृत
बोध् + इ -- बोधि, बोहि सुमर् + इ = सुमरि ( हेम. प्रा. व्या. ४१३७ )
(३२) संज्ञा शब्दों के रूपों में प्रत्ययों की समानता
वैदिक
देवेभिः (वं. प्र. ७|१|१० ) पतिना ( वै. प्र. १/४ | )
प्राकृत
देवेभि - देवे हि पतिना
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________________
परिशिष्ट ७
५६५
गोनाम् (वै. प्र. ७१।५७) गोनं, गुन्नं युष्मे अस्मे १ (वै. प्र. ७।१।३६) तुम्हे
अम्हे त्रीणाम् (वै. प्र. ७११५३) तिन्नं, तिण्हं नावया (वै. प्र. ७।१।३९) नावाय, नावाए इतरम् (वै. प्र. ७।१।२६) इतरं वाह+अन--वाहनः
वाहणओ, वोल्लण्णआ. (कर्तासूचक अनप्रत्यय
इत्यादि (वै. प्र. ३।२।६५,६६) (३३) अनुस्वार लोपवैदिक
प्राकृत मांस-मास
मांस-मास, मंस (११२८,२९) . (वैदिक ग्रामर कंडिका ८३-१) किं-कि, किं
. ननं-नूण, नूणं
- अनुस्वार का लोप विकल्प से हुआ है। (३४) भूतकाल में आदि अका अभाव
प्राकृत अमथ्नात्-मथीत्
मथी अरुजन्-रुजन्
रुजीअ अभूत्-भूत्
भवी (ऋ. वे. पृ. ४६४,४६५) (३५) इकारान्त शब्द के प्रथमा विभक्ति का बहुवचन--
प्राकृत अत्रिणः
हरिणो (तृजन्तस्य अत्तृ शब्दस्य (प्रथमा बहुवचन)जस- छान्दसः इनुड् आगमः (ऋ. वे. पृ. ११३-५ सूत्र
मेक्स०) (३६) कृ का तथा जि धातु का रूपवैदिक
प्राकृत
. ..... . कृणोति
कुणति (हे. प्रा. व्या. ४१६५) जेन्यः
जिणइ (हे. प्रा. व्या. ४।२४१)
वैदिक
वैदिक
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प्राकृत बाक्यरचना बोध
(ऋग्वेद पृ. २२६, २२७ तथा
पृ. ४६५) (३७) क-अकारान्त शब्द में लगने वाला प्रत्यय ईकारान्त में भी लगता
या
वैदिक
प्राकृत नद्यैः
नदीहि (हे. प्रा. व्या. ३।१२४) (वै. प्र.७।१।१० पाणिनीय प्राकृत में अकारान्त में लगने वाले काशिका) इस रूप में अकारान्त प्रत्यय ईकारान्त में भी लगते हैं। में लगने वाला प्रत्यय ईकारान्त में भी लगा है। ख-द्विवचन का रूप बहुवचन के समानवैदिक
प्राकृत देवा
प्राकृत भाषा में द्विवचन होता ही उमा
नहीं है। द्विवचन के सब रूप बहुवचन वेनन्ता
के समान होते हैं-द्विवचनस्य (ऋग्वेद पृ. १३६-६) बहुवचनम् (हेम. प्रा. व्या. ३११३०) मित्रावरुणा
हत्था
पाया दिविस्पृशा
थणया अश्विना
नयणा (वै. प्र. ७।१३६) (३८) विभक्ति रहित प्रयोग
प्राकृत
प्राकृत भाषा में भी अनेक प्रयोग लोहिते चर्मन्
(अप्रयोग परमे व्योमन् )
गय--षष्ठी का बहुवचन वै. प्र. ७.५।३६
बहुशत-षष्ठी का बहुवचन वीणळु ) द्वितीया का . २६
इत्यादि दळहा अभिज्ञ अप्रयोग
(ऋ. पृ. ४६४ तथा ४७२) (३६) समान अर्थयुक्त अव्ययवैदिक
प्राकृत कुह (कुत्र)
कुह (कुत्र)
वैदिक आद्रे चर्मन्
सप्तमी कारहित ही पाए जाते हैं ।
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परिशिष्ट ७
५६७
न (उपमासूचक)
गं (उपमासूचक) (ऋ. पृ. ७३३) निरुक्त पृ. २२० दिवेदिवे
दिविदिवि
(हे. प्रा. व्या. ४।३६६) (४०) संघि का विकल्पवैदिक
प्राकृत ईषा+अक्षो
पदयो सन्धिर्वा ज्या+इयम्
(हे. प्रा. व्या. ११५) पूषा+ अविष्ट (वै. प्र. ६।१।१२६)
(प्राकृत मार्गोपदेशिका से उद्धृत)
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सहायक ग्रन्थ सूचि
१. अथर्ववेद
२. अपभ्रंश रचना सौरभ-डा० कमलचंद सौगाणी
( जैन विद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी०
राजस्थान )
३. अभिधान चिंतामणी कोश ( कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ) संपादक - विजयकस्तूरसूरि
४. ऋग्वेद ( महाराष्ट्र संशोधन मंडल )
५. तैत्तिरीय ब्राह्मण
६. निरुक्त
७. पण्णवण सुत्तं -- भगवान महावीर
( जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रकाशन)
८. पाइअसद्दमहण्णवो — पं० हरगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ)
( प्राकृत ग्रन्थ परिषद वाराणसी)
६. प्राकृत प्रवेशिका — डा० कोमलचंद जैन
( तारा पब्लिकेशन, वाराणसी)
१०. प्राकृत प्रबोध - डा० नेमिचंद्र शास्त्री
( चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी १ )
११. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण - डा० आर. पिशल अनुवादक- - डा० हेमचंद्र जोशी डी. लिट्
( विहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना )
१२. प्राकृतमार्गोपदेशिका - पं. बेचरदास जीवराज दोशी ( मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली)
१३. प्राकृत व्याकरण - श्री हेमचंद्राचार्य
संपादक -- पी. एल. वैद्य
भांडारकर ओरियेन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूणा - १६८०
१४. प्राकृत व्याकरण - श्री हेमचंद्राचार्य
सं. मुनिवज्रसेन विजय
श्री जैन आत्मानंद सभा, खारगेइट, भावनगर )
१५. प्राकृत स्वयं शिक्षक - डा० प्रेमसुमन जैन
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सहायक ग्रन्ध सूचि
( अध्यक्ष जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर)
१६. बृहत् हिन्दी कोश - सं. कालिका प्रसाद, राजवल्लभ
सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव ज्ञानमण्डल लिमिटेड वाराणसी
१७. भावप्रकाश निघंटु — श्रीभावा मिश्र
चौखंबा भारती अकादमी बनारस, सातवां संस्करण १६८६
१८. वाजसनेई संहिता
१६. वैदिक प्रक्रिया
२०. शतपथ ब्राह्मण
२१. शालिग्राम निघंटु भूषणम -- शालीग्राम वैश्य खेमराज श्री कृष्णदास, बम्बई सन् १९८१
५६६
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शुद्धि पत्र
पृ.
पंक्ति
.
WW००० 6 M4
अशुद्ध गर कर्तवाच्य तुम आशीषः सुंदरं ओणम् घी मालुम
Yo VW W
कर्तृवाच्य तुम् आशीष सुंदराणि ओणम णी मालूम
ل
ل
ل
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M M WW
ل
आरोह होती है कोई विभक्ति ईसरो विभक्ति
ل
ACKM
لسن
आरोहण होत है कोइ विभक्त इसरो विभक्त धड ऊंखली सूप्प योग करो प्र णिय्यासो विज्झो न्यायधीश
س
४८ ४६
ओखली सुप्प प्रयोगकरो णिज्जासो विझो न्यायाधीश
५
PM
ओ
५
८५ ८६ ८६
१२ १७ २०
कक्कुवो धयपुरो उदोद्वारे पङ कतो बता
कक्कुबो (दे०) घयपुरो उदोवाई
पङ क्तो
बताओ
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________________
शुद्धि पत्र
६०१
'
जहुट्टिलो जैन पारिभाषिकर भय कफग्धी सणहं ईर्वोव्यूढ मृदुत्वे गंतत्वं
१०३
२४
जहुट्ठिलो जैन पारिभाषिक २ भयं कफग्घी सण्हं ईर्योद्व्यूढे मृदुत्वे वा गंतव्वं हेमं
१०४
१०७ १०६
२५
हम
तेलं
१११ ११४ ११५ ११७ ११६ ११६ १२१ १२४ १२४
Gmar Gymnan
१२८ १३७ १५४
तेल प्रार्थना अइ वाणिज्यो विभागाज्झक्खो व्हाओ विभागाज्झक्खो कीले क: कील तूवरे वा अणुग्ग पोषण केउरं वत्थुआ अवस्कंदो (अवक्खरो) पडिसायो पडिसायो ह स्व उवराग्गी खअर होना अनानास पक्कं-पक्क संज्जा पीठन्तर्दः महिना नवफालिका
प्रार्थना अइइ वाणिज्जो विभागझक्खो व्हायो विभागज्झक्खो कीलके क: कीलक तुवरेट: अणुग्गह पोषण केऊरं बथुआ अवस्कंदो (अवक्खंदो) पडीसायो पडीसायो ह्रस्व उवरग्गी खउर' करना अनन्नास पक्कं-पक्व संजा पीठेन्तर्दः महीना नवफलिका
१५५
१६३ १६५
०
०
१०
१६६ १७५ १७६
१८४
१८५ १६७
१४ २५ २६
१६८
२०१
.
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________________
६०२
२०१
२०१
२०६
२२४
२२६
२२६
१२
२३५
२४
२३६ २०
२३८
१
२३८
२४१
२४३
२५३
२५५
२६०
२६२
२६४
२६६
२८६
२८७
२६०
२६०
२६३
२६४
३०३
३१३
३१६
३२१
३२४
३२४
३२४
३२५
३४४
३५१
३६२
no no no
१३
१२
५
८
२०
३३
११
१३
१५
१२
२३
८
१
२६
२०
१६
१७
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Y
१५
५
५
३०
1
१०
११
१३
२६
द
नव फालिका
नवफालिका
अचलपुरं
गौरीआ
चीडिया
बहु
युष्मद
युष्मद
अस्मद
मुणि
सब्वाणि
ढीठाइ
सोहिवा
लाग
प्रतीति करना
उत्तरज्ययणं
ऐडी
धातु क
थंमदारु
अन्वत्थं
पडिसंचिक्ख
साधना
स्त्रीवर्ग ४
पीआंबरो
करांगुलीए
गूंगो
अमेरीका
होते हैं
डमया वा
मनको
मिश्राड्डालिअं
वक्ष
खुशी
ra
हंसता
प्राकृत वाक्यरचना बोध
नवफलिका
नवफलिका
अलचपुरं
गोरीआ
चिडिया
बूह
युष्मद्
युष्मद्
अस्मद्
मुणी
सव्वाणि
ढीठाई
सोहि
लोग
प्रतीति कराना
उत्तरज्झयणं
एडी
धातु के थंभदारु
अण्णत्थं
पडसंविक्ख
सांधना
स्त्रीवर्ग ३
पीअंबरो
करंगुलीए
गूंगा
अमेरिका
होती हैं
डमया
मनाको
मिश्राड्डालिअ:
वृक्ष
खुश
अवगुणों का हसंता
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________________
शुद्धि, पत्र
३६३
११,
३६७
३८३
२२
mr mr mmm
अग्निपोएण पंडति उद्धाते पुत्रवधूएं प्रर्वक प्रके अस्खलित जलता आभरणणाणि
r
३८० ३६५ ३६८ ४०५ ४३०
yo..
अग्गिपोएण पडंति उद्वाते पुत्रवधुएं पूर्वक पका अक्खलितः चलता आभरणाणि घत्त विउस सव्वहां अपभ्रंश जीवें अपभ्रंश अपभ्रंश गोवं कत्तूसु, कत्तूसुं भत्तूहि, धतूहिं, भत्तूहि
+ राईहिँ हे धेणूउ, हे धेणूओ
४३०
३२
४३२
४३५
४५१
४५४ ४५५ ४५५
३४
४५६
४६०
विडस सत्वहां अपभ्रंश जीव अपभ्रंश अपंशभ्र गोवां कत्तुसु, कत्तुसुं भतुहि, भत्तुहि, भत्तुहिं रायाणो राईहिं हे घेणुउ, हे धेणुओ हे धेणु बहहिन्लो गाविहिन्तो दामेहि मी अमे तुज्झेहिन्ता उम्हाहिन गगे चउसुं कर्तरिवद् कर्तरिवद् कतवद
हे धेणू
२०
४७० ४७३
مه له و سه له سه
बहुहिन्तो गावीहिन्तो दामेहि इमीअ अम्हो तुझे हिन्तो उम्हाहिन्तो
४७३
१०
४७५
४८६
४८६ ४८६
चऊसुं कर्तृवद् कर्तृवद् कर्तृवद्
*
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६०४
प्राकृत वाक्यरचना बोध
कर्तृवद्
४८६ ४६०
कतरिवद् हसेज्ज
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हसेज्जा हसाव
हसावे
०
or
४६१
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हसावे
४ 0 W
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हसावेहामो हसाविहिस्सा आर्षरूपाणि
m
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कहे
8
५१७ ५१६
m
x
५२५
५३० ५३२ ५४४ ५४५
आया, आय पचण्हं क्रियातिपत्ति हसिज्जित्था णिज्जासो
५४५
५४८ ५४६ ५४६
२३ सावे १०. हसाविहामो
हमाविहिस्सा
अर्षरूपाणि २५ . . कहे, कहे
आय, आय पचण्ह
क्रियात्तिपत्ति ३० हसिजित्था
णिय्यासो ७ . साहुणी
समणो, वासिया १२ पुत्तवधू २४ हत्थिनी २७ हैमं
गूगो ण्हाओ हिचक्की वत्थुआ
कान २६ पक्खुभ २३ थक्कर
देखा पीडना
निकल नाना ३ शुश्रुषा
का काटना
५५८
IS
समणोवासिया पुत्रवधू हथनी हेमं गूंगा ण्हायओ हिचकी बथुआ कास पक्खुब्भ थक्क देखो पीडना निकल जाना शुश्रूषा को काटना
S
५७० ५७१ ५७७ ५७८ ५८५ ५८६ ५८६
X
W
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