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प्राकृत वाक्यरचना बोध
ग
दुग्धं-दुधं-दुध्धं-दुद्धं । मुग्धं-मुधं--मुध्धं-मुद्धं । ट- कट्फलं-कफलं-कफ्फलं--कप्फ्लं ।
खड्गः-खगो-~-खग्गो । षड्जः-सजो---सज्जो ।
उत्पलं-उपलं-उप्पलं । उत्पाद:--उपादो-उप्पाओ। द.- मद्गुः--मगू----मग्गू । मुद्गरः- मुगरो-मोग्गरो।
गुप्त -गुतो-गुत्तो। सुप्त:-सुतो-सुत्तो। निश्चल:---निचलो-निच्चलो। श्लण्हं—लण्हं । निष्ठुरः-निठुरो। निठुरो-निठुरो।
गोष्ठी-गोठी-गोठ्ठी-गोट्ठी । षष्ठः-छठो-छछो-छट्ठो। स- निष्पृहः-निपहो-निप्पहो । स्नेहः-नेहो । स्खलित:-खलिओ।
नियम ३६५ (अधो म-न-याम् २।७८) संयुक्त व्यंजनों में म, न और य अधो हों तो इनका लोप हो जाता है। म- युग्म-जुग्गं । स्मरः-सरो । रश्मिः-रस्सी । न- नग्न:-नग्गो । लग्नः-लग्गो । य- कुड्यं-कुटुं । व्याधः--वाहो । श्यामा-सामा ।
नियम ३६६ (सर्वत्र ल-ब-रा मवन्द्र २७६) ल, ब (व) और र का लोप हो जाता है, चाहे ये ऊर्ध्व हों या अधो हों, वन्द्र शब्द को छोडकर । शेष रहा व्यंजन आदि में न हो तो वह द्वित्व हो जाता है। ऊर्ध्व ल- उल्का-उका-उक्का । वल्कलम्-वकलं-वक्कलं । अधो ल- विक्लव:--विकवो-विक्कवो । श्लक्ष्णं-सण्हं । ऊर्ध्व ब- अब्दः-अदो-अहो । शब्द:-सदो-सहो ।
लुब्धक:-लुधको---लुध्धको-लुद्धको। अधोव- ध्वस्त:-- धत्थो । पक्कं --- पक्कं । ध्वजो-धजो-धओ। ऊर्ध्व र- अर्क:- अको-अक्को । वर्ग:-वगो-वग्गो ।
वार्ता-वाता-वत्ता। अधोर-क्रिया-किया । चक्रं-चक्कं । ग्रहः हो । रात्रि:---रत्ती।
जहां ऊर्ध्व और अधो दोनों व्यंजनों का एक साथ लोप करने का प्रसंग आए वहां प्रचलित प्रयोगों को ध्यान में रखकर ही लोप करना चाहिए। उद्विग्नः, द्विगुणः, द्वितीयः इत्यादि शब्दों में द्व संयोग में द् ऊर्ध्व है और व अधो है। इसलिए द का लोप करना चाहिए व का नहीं। उद्विग्न शब्द में न का लोप करने पर 'उद्विग्' फिर उद्विग्गा रूप बनता है। उद्विग्ग का उन्विग्ग और उद्दिग्ग ये दो रूप बन सकते हैं । उव्विग्ग रूप आता है, उद्दिग्न नहीं इसलिए व का लोप न कर द का ही लोप करना संगत लगता है। कहीं पर ऊर्ध्व और अधो दोनों वर्गों का लोप क्रमशः होता है। जैसे- उद्विग्न में कज़ का लोप करने पर उविण्ण और अधो का लोप करने पर उन्विग्ग,
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