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प्राकृत वाक्यरचना - बोध
नियम ७४१ (क्षे णिज्झरो वा ४१२०) क्षयति को णिज्झर आदेश विकल्प से होता है । क्षयति ( णिज्झरइ, झिज्जइ) क्षीण होता है । धातु
प्रयोग वाक्य
सोतुं किं वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणइ, संघइ, बोल्लइ, चवइ, जम्पइ, सीसइ, साहइ, कहइ वा ? विरही कि णिव्वरिहिइ ? पुरिसो पुरिसेण कहं झुण, दुगुञ्छइ, दुगुच्छइ, जुगुच्छइ वा ? कि तुमं महुरं वत्थु णीरवसि ? रायाणं को वोज्जइ ? अहं पव्वयस्स मुहाए झामि । सरोजा पुत्तं मुहु मुहु कहं णिज्झाइ ? दिणेसो तुब्भाओ सुट्ठ गाअइ । कि तुमं ममं न जाणसि, मुणसि वा ? राओ को उद्धुमाइ ? अहं जइणसासणं सद्दहामि । कि तुमं मइरं पिज्जसि, डल्लसि, पट्टसि, घोट्टसि, पिअसि वा ? किणा चिताए तस्स सरीरं ओरुम्माइ, वसुआइ, उव्वाइ वा ? सो रत्तीए विन ओहीरइ, उङ घइ, निद्दाइ वा । तुमं पुप्फसारं आइग्धसि । सो गंगानईए पइदिणं अब्भुत्तइ, हाइ वा । सीयेण णवणीयं संखाइ । देसदोही तुज्झघरे कहं ठाइ, ores, ras, चिट्ठइ, निरप्पइ वा ? भक्खरस्स उइअस्स पच्छा सो संथाराओ उट्ठइ, उकुक्कुरइ वा । नीरं अंतरेण पुप्फाई वांति, पव्वायंति, मिलांति वा । विमलो कव्वं निम्माणइ, निम्मवइ वा । रागेण दोसेण वा मोहणीयकम्मं न णिज्झरइ, झिज्जइ वा ।
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ते विरला सप्पुरिसा जे अभणेन्ता, घडेन्ति कज्जालावे ?
अच्चि ते विदुमा जे अमुणिअ कुसुमणिग्गमा देति फलं ॥१॥ जो लंघिज्जइ रविणो जो अ खविज्जइ खयाणलेण वि बहुसो । कह सो उअपरिहवो दुत्तारो त्ति पवआण भण्णइ उअही || २ || प्राकृत में धात्वादेश का प्रयोग करो
वह हमेशा सत्य कहता है । तुम किसके सामने अपना दुःख कहते हो ? किसी भी मनुष्य के साथ घृणा मत करो। सिंह हिरण को खाना चाहता है। नौकर सेठ को हवा करता है । पर्वत की गुफा में कौन ध्यान करता है ? राजा सबको एक समान देखता है । विमला कितना मधुर गाती है ? जो एक वस्तु के अस्तित्व को पूर्ण रूप से जानता है, वह सब वस्तुओं को जानता है । लुहार प्रतिदिन जोर से धमनी चलाता है । मैं धर्म पर श्रद्धा करता हूं । वह बर्फ का पानी क्यों पीता है ? गर्मी में आर्द्र वस्त्र जल्दी सूखता है । तुम गहरी नींद लेते हो। कुत्ता स्थान को क्यों सूंघता है ? माता गंगास्नान करती है । किस कारण से दहि जमता है ? गर्मी में मनुष्य छाया में ठहरता है । वह बहुत जल्दी उठता है । तुम्हारी प्रगति से वह म्लान होता है ।
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