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विभक्तिबोध
जो नाम या क्रियाएं हमारे व्यवहार में आती हैं उन सब के अंत में विभक्ति लगी हुई होती है । विभक्तिरहित कोई शब्द या क्रिया हमारे व्यवहार में नहीं आती। कहीं-कहीं पर विभक्ति के प्रत्यय आते हैं पर उनका लोप हो जाता है, शब्द ज्यों का त्यों रहता है, वह शब्द विभक्त्यन्त कहलाता है। विभक्ति का अर्थ है--विभाजन करने वाला प्रत्यय । जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध होता है उसे विभक्ति कहते हैं। विभक्तियां नाम और क्रिया की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को तथा भिन्न-भिन्न काल को सूचित करती हैं। संज्ञा या नाम के अंत में सात विभक्तियां होती हैं।
सि प्रत्यय आदि में होने के कारण उनकी संज्ञा स्यादि विभक्तियां है। कर्ता आदि छह कारक और संबंध में इन सात विभक्तियों का उपयोग होता है। सामान्यतया कर्ता आदि कारक उसके चिह्न और विभक्ति को इस रूप में याद कर सकते हैं। कारक
चिह्न
विभक्ति कर्ता
है, ने
प्रथमा कर्म
को, (को रहित) द्वितीया साधन
से, द्वारा
तृतीया संप्रदान
के लिए
चतुर्थी अपासन
पंचमी संबंध
का, के, की षष्ठी अधिकरण
में, पर
सप्तमी प्रथमा विभक्ति
१. कर्तवाच्य में संज्ञाएं जब कर्ता के रूप में व्यवहृत होती हैं सब उनमें प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे
मर्ष रुक्खो
पर्वत आसो अश्व
शुक्ल गुणो गुण पीअं
पीला कंबलो कंबल सिरी
लक्ष्मी, शोभा २. संबोधन में प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे-हे सुरेस !
अर्थ
वृक्ष
पव्वयो
सुक्क
M
amin-rmire
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