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________________ उवसग्ग (उपसर्ग) प (प्र) आदि अव्यय २२ हैं । जब ये धातु के रूप के साथ प्रयुक्त होते हैं तब इनकी संज्ञा उपसर्ग होती है। दो उपसर्गों की या धातु के रूप के साथ उपसर्ग की संधि होती है । धातु से पहले उपसर्ग लगाने से कहीं पर धातु का अर्थ बदल जाता है, कहीं पर विपरीत अर्थ हो जाता है और कहीं पर धातु के अर्थ में ही विशेषता लाता है । प (प्र) आदि उपसर्ग सभी धातुओं के साथ नहीं लगते । एक धातु के साथ एक, दो उपसर्ग लगते हैं तो किसी के साथ दो से अधिक भी लगते हैं । एक धातु के साथ एक, दो, तीन और चार उपसर्ग एक साथ देखने को मिलते हैं। ५ (प्र)-पजाइ (आगे जाता है)। पजोतते (विशेष प्रकाशित होता है) । पहरइ (प्रहार करता है)। परा (परा)-पराजिणइ (पराजय करता है)। ओ, अव, अप (अप)-ओसरइ, अवसरइ, अपसरइ (सरकता है, दूर हटता है)। सं (सम्) --संगच्छइ (साथ जाता है) । संचिणइ (संचय करता है, इकट्ठा करता है)। अणु (अनु)---अणुजाइ (पीछे जाता है) । अणुकरइ (अनुकरण करता है ओ (अव)---ओतरइ (अवतार लेता है)। अव (अव)---अवतरइ (नीचे जाता है, उतरता है)। निर् (निर्)-निरिक्खइ (निरीक्षण करता है, देखता है ।) नि (निर्) --निज्झरइ (झरता है) । नी (निर्)-नीसरइ (निकलता है)। बुर् (दुर्)---दुग्गच्छइ (दुर्गति में जाता है)। दू-दुहवइ (दुःखी करता है)। अभि (अभि)--अभिगच्छइ (सामने जाता है)। अहि (अभि)-अहिलसइ (इच्छा करता है)। वि-विजाणइ (विशेष जानता है)। विजुंजइ (अलग करता है)। विकृन्वड (विकृत करता है)। अधि (अधि)-अधिगइ (जानता है, प्राप्त करता है) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002024
Book TitlePrakrit Vakyarachna Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages622
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Literature
File Size20 MB
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