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प्राकृत वाक्यरचना बोध
ण होता है। नगण-मयणो (मदनः) वयणं (वदनम्) नयणं (नयनम् ) वणं (वनम्)।
नियम २२५ (फो भ-हो १२३६) स्वर से परे असंयुक्त अनादि फ को भ और ह हो जाता है। फ7 भ, ह--रेभो (रेफः) सिभा (शिफा), मुत्ताहलं (मुक्ताफलम् ) सभलं,
सहलं (सफलम्)।
नियम २२६ (बो वः श२३७) स्वर से परे असंयुक्त अनादि ब को व होता है। अलावू (अलाबू) सवलो (शबलः), कवरी (कबरी) सिविया (शिविका)।
नियम २२७ (यमुना-चामुण्डा-कामुकातिमुक्तके-मोनुनासिकश्च १।१७८) यमुना, चामुण्डा, कामुक और अतिमुक्तक के म का लुक् होता है और म के स्थान पर अनुनासिक होता है। म7 अनुनासिक-जउणा (यमुना) चाउण्डा (चामुण्डा) का उओ (कामुकः)
अणिउतयं (अतिमुक्तकं)। कहीं पर नहीं भी होता-अइमुंतयं, अइमुत्तयं ।
(शषो स: १२६०) नियम १९६ के अनुसार--- श7 स-निसंसो (नृशंसः) कुसो (कुशः) वंसो (वंशः) दस (दशन् ) देसो (देशः)। ष 7 स-निहसो (निकषः) कसाओ (कषायः) ।
कभी-कभी अव्ययों के प्रारंभिक व्यंजनों के साथ मध्यवर्ती व्यंजनों की तरह व्यवहार किया जाता है।
अवि अ (अपि च) सो अ (स च) स उण (स पुनः) ।
समस्त पद में द्वितीय पद के आदि व्यंजन को आदि एवं मध्यवर्ती दोनों माना जाता है
सुहयरो, सुहकरो (सुखकरः) जलयरो, जलचरो (जलचरः) । प्रयोग वाक्य
संसारे को वत्थाइं न परिहाइ ? ओण्णेयं संपइ मलिणं जाअं तं तुम कया पक्खालि हिसि ? कोसेयं हिंसाजण्णं भवइ अओ अस्स उवओगो अहिंसगस्स न सोहइ। अहं पत्थीणं परिहाउ अहिलसामि । किं तुमं पइदिणं धोअवत्थं परिहासि ? डंडीए वत्थाण वयो वड्ढइ। सुसीला पत्थीणं चंडातकं परिहाइ । विमला गिहे सूअवरो वि परिहाइ। कप्पासवत्थं गिम्हकाले सत्थस्स हिअं भवइ । संपइ साहुणो घटुंसुअं न परिहांति । गिम्हकाले पम्हयं अहिलसंति जणा । अणाहय वत्थं नव्वमवि मलिणं व्व भाइ। अंतरिज्जं अंतरेण साडी न सोहइ । महिलाओ घग्घरस्स उवरि ओयड्ढि धरइ । थीणं कंचुलिया आवस्सग वत्थं अस्थि । विमलो अद्धोरुगं परिहाइ ।
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