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________________ स्वर संधि शब्द संग्रह (रसोई मसाला) मसाला-वेसवारो हींग-हिंगू जीरा-जीरयो लवण-लोणं हल्दी-हलिद्दा, हलद्दी मीर्च-मिरिसं धनिया-धाणा राई--राइगा तेजपता-तेजपत्तं धातु संग्रह चुण्ण--चूर्ण करना लूह-पोंछना ताव-तपाना झाम-जलाना, दग्ध करना किण-खरीदना आढा-आदर करना, मानना पन्नव--प्रज्ञापित करना, बताना धर---पकडना अव्यय संग्रह आहच्च (दे)----कदाचित्, शीघ्र इह (इह)-यहीं उच्चअ (उचैः)-ऊंचे एवमेव (एवमेव)---इस तरह कालओ (कालतः)-समय से काहे (कदा)-कब पुल्लिग ज (यत्) त (तत्) क कि शब्द याद करो। देखो-परिशिष्ट १ संख्या ४४ क, ४५ क, ४६ क स्वर संधि संधि का अर्थ है परस्पर मिल जाना । प्राकृत में जो संधि की व्यवस्था है वह विकल्प से होती है। निम्नलिखित संधि के लिए प्राकृत में कोई सूत्र नहीं है । संस्कृत व्याकरण के आधार पर संधि की जाती है । प्राकृत में प्रयोग आता है इसलिए दी जा रही है। प्रथम पद के अंतिम स्वर और आगे के पद के आदि स्वर के मिलने से जो संधि होती है उसे स्वर संधि कहते हैं । प्राकृत भाषा में वर्ण का लोप होने के बाद शेष स्वर रहने से एक शब्द में अनेक स्वर हो जाते हैं । उनमें संधि करने से अर्थ-भ्रम होना संभव है, इसलिए एक पद में संधि नहीं होती। पई (पति), नई (नदी), वच्छाओ (वत्सात्), महइ (महति) । कहींकहीं एक पद में भी संधि विकल्प से होती है। जैसे---काहिइ, काही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002024
Book TitlePrakrit Vakyarachna Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages622
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Literature
File Size20 MB
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