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नाम की प्रक्रिया लिखी थी । बहुत पहले ही चिंतन था - - उसकी सहायक सामग्री के रूप में कोई प्रवेश ग्रंथ तैयार किया जाए। अब उसकी संपूति हुई है । इसकी संपन्नता में मुनि श्रीचंद्र 'कमल' ने बहुत श्रम किया है । इसे सजाने-संवारने में उनकी धृति और मति -- दोनों का योग है ।
आचार्य श्री तुलसी के शासन काल में साहित्य की बहुमुखी प्रवृत्तियां चली हैं । फलस्वरूप संस्कृत और प्राकृत - दोनों हमारे संघ में आज भी जीवित भाषा हैं । वे बोली जाती हैं, उनमें गद्य और पद्य साहित्य रचा जाता है और विधिवत् उनका अध्ययन-अध्यापन चलता है। जैन विश्वभारती इंस्टीट्यूट 'मान्य विश्वविद्यालय' में प्राकृत का एक स्वतंत्र विभाग है । प्राकृत पढने वालों के लिए इस ग्रन्थ की उपयोगिता स्वतः सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है ।
१ दिसम्बर ६१ जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.)
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युवाचार्य महाप्रज्ञ
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