________________
अपभ्रंश (६)
व्यत्यय होता है । मागधीं में ( तिष्ठश्चिष्ठः ४२६८ ) से तिष्ठ को चिष्ठ होता है । उसी प्रकार प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी में भी होता है । क्रियाओं में भी व्यत्यय होता है । वर्तमान काल की क्रिया भूतकाल के अर्थ में आती है । जैसे - अह पेच्छइ रहुतणओ । ( अथ प्रेक्षाञ्चक्रे इत्यर्थः) । आभासइ रयणीअरे ( आ बभाषे रजनीचरान् इत्यर्थः) । भूतकाल की क्रिया वर्तमान काल में प्रयुक्त होती है— सोहीअ एस वण्ठो ( शृणोति एष वण्ठ इत्यर्थः) ।
नियम १११४ ( शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् ४४४४८ ) प्राकृत भाषा आदि में जो नियम नहीं कहे गए हैं वे संस्कृत व्याकरण के अनुस्वार चलते हैं । हेडिअ सूर निवारणाय - यहां चतुर्थी का आदेश प्राकृत में नहीं कहा गया है, वह संस्कृत से ही समझें । कहीं-कहीं पर नियम कहा भी गया है तो भी संस्कृत के समान होता है, जैसे- प्राकृत में उरस् शब्द का सप्तमी का एक वचन का उरे, उरम्म बनता है, तो भी कहीं उरसि भी होता है । इसी प्रकार सिरे, सिरम्मि के साथ शिरसि । सरे, सरम्मि के साथ सरसि । इत्यादि ।
वर्तमान कृदन्त ( शत- शान )
हंसता हुआ, खाता हुआ, उठता हुआ आदि अर्थों में वर्तमान कृदन्त आता है। वर्तमान कृदन्त के रूप विशेषण होते हैं । विशेष्य के अनुसार इनमें लिंग और वचन होते हैं । अपभ्रंश में वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय न्त और माण ये दो हैं । पुंलिंग में इनके रूप जिण शब्द की तरह, स्त्रीलिंग में माला शब्द की तरह और नपुंसक लिंग में कमल शब्द की तरह चलते हैं ।
एकवचन पुंलिंग - हसन्तु / हसन्तो / हसंत / हसंता
हसमाणु / हसमाणो / हसमाण /
हसमाणा
स्त्रीलिंग - हसंता / हसंत
हसमाण / समाणा
नपुंसकलिंग -- विअसंतु / विअसंत /
विअसंता / विअसमाणु / विअसमाण / विअसमाणा
प्रयोग वाक्य ( शतृ-शान प्रत्यय )
बहुवचन
हसन्त / हसन्ता
हसमाण / हसमाणा
Jain Education International
४४७
हसंता / हसंत / हताउ / हसंतउ हसंताओ / हसंतओ
हसाणा / समाण / हसमाणाउ / हसमा उ / हसमाणाओ / समाणओ
विअसंत / विअसंता / विअसंतई / विअसंताई / विअसमाण / विअसमाणा / विअसमाणई / विअसमाणाई
(१) सु/ सो / लिहन्तु / लिहन्तो / लिहन्त / लिहन्ता मुंजइ ( वह लिखता
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org