SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० प्राकृत वाक्यरचना बोध वीसमई वा। सीहो पसुं ओहावइ, उत्थारइ, छंदइ, अवक्कमड वा। सो गामे कहं टिरिटिल्लइ, ढुण्ढुल्लइ, ढण्ढल्लइ, चक्कम्मइ, भम्मडइ, भमडइ, भमाडइ, तलअण्टइ, झण्टइ, झम्पइ, भुमइ, गुमइ, फुमइ, फुसइ, ढुमइ, ढुसइ, परीइ, परइ, भमइ वा। हिन्दी में अनुवाद करो ___ एगम्मि नयरे एगो चोरो। सो रत्ति विभवसंपन्नेसु घरेसु खत्तं खणिउं सुबहुं दव्वजायं घेत्तुं अप्पणो घरेगदेसे कूवं सयमेव खणित्ता तत्थ दव्वजायं पक्खिवइ । जहिच्छ्यिं सुवन्नं दाऊण कन्नगं विवाहेउ पसूयं संर्ति उद्दवेत्ता तत्थेवागडे पक्खिवइ 'मा मे भज्जा चेडरूवाणि य परूढपणयाणि होऊण रयणाणि परस्स पगासिस्संति ।" एवं कालो वच्चइ । अन्नया तेणेगा कन्नगा विवाहिया अईवरूविणी। सा पसूया संती तेण न मारिया। दारगो य से अट्ठवरिसो जाओ। तेण चितियं-अइचिरं धारिया एयं पुव्वं उद्दवे पच्छा दारयं उद्दविस्सामि । तेण सा उद्दवेउं अगडे पक्खित्ता। तेण य दारगेण गिहाओ निग्गच्छिऊण धाहा कया। लोगो मिलिओ। तेण भन्नइ एएण मम माया मारिय त्ति । रायपुरिसेहिं सुयं । ते हिं गहिओ। दिट्ठो कूवो दव्वभरिओ अट्ठियाणि सुबहूणि । सो बंधेऊण रायसभं समुवगीओ जायणा पगारेहिं । सव्वं दव्वं दवावेऊण कुमारेण मारिओ। धातु का प्रयोग करो गुणग्राही दूसरों के गुणों को फैलाता है। गुरु के दर्शन से श्रावक तप्त होता है । भाई बहन के पास जाता है। मरुभूमि की गर्मी से लोग संतप्त होते हैं । गुणों से वह अपने को व्याप्त करता है। मैं अपने काम को पूर्ण करता हूं। वह तुम्हारे पर शब्दों का बाण फेंकता है। वह तुम्हारे हाथ को ऊंचा उठाता है। वे परस्पर एक-दूसरे पर आक्षेप करते हैं। वह प्रतिदिन दिन में लेटता है। राजा के भय से जनता कांपती है। इस घर में बहनें क्यों विलाप करती हैं ? विमला घर के आंगन को चतुराई से लीपती है । कौन किस पर कृपा करता है ? आज दीपक क्यों नहीं जलता है ? जो लोभ करता है, क्या वह अधिक कमाता है ? कभी-कभी प्रकृति भी क्षुब्ध होती है । मैं अपने ग्रंथ निर्माण का कार्य कल आरंभ करूंगा। तुम उसको क्यों उपालंभ देते हो? वह बारबार क्यों जंभाई लेता है ? पेड फलों के भार से झुकते हैं, (नमते हैं।) जो जलता है, वह विश्राम करता है। कौन देश किस देश पर आक्रमण करता है ? समय की सूई प्रतिक्षण घूमती है । प्राकृत में अनुवाद करो ___ एक किसान के पास एक मुर्गी थी, जो प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देती थी। वह लालची मनुष्य इससे संतुष्ट नहीं था। एक दिन उसने सोचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002024
Book TitlePrakrit Vakyarachna Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages622
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy