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ग्यारह
लिए उपयोगी है अर्थात् बोलचाल की भाषा का प्राचीन अल्पपठित प्राकृत भाषा के माध्यम से व्यक्त किया है । इस प्राकृत का युवाचार्यश्री ने आदि से अन्त तक निर्वहन किया है । यही इस व्याकरण का महत्त्व है। इस दृष्टि से विचार करने पर इस व्याकरण को मैं प्राकृत भाषा बोलने एवं समझने के लिए उपयोगी मानता हूं । साधारणतः प्राकृत भाषा के व्याकरण में आजकल बहुत कम प्राकृत व्याकरण सूत्रों का उल्लेख रहता है किन्तु प्रस्तुत पुस्तक में शब्दसिद्धि को संक्षेप में बताने के बाद उदाहरण देकर उसकी गठन पद्धति को समझाया है। जिस प्रकार प्रारम्भ में सरलता से लिखा है----क्त्वा, तुम् एवं तव्य प्रत्यय के लिए ग्रह धातु के स्थान पर घेत आदेश होता है । इसके साथ ही 'क्त्वा' तुम् तव्येषु घेत् (४।२१०) हेमचंद्र के सूत्र का उल्लेख किया है। इसी प्रकार वच् धातु के स्थान पर जो वोत् आदेश होता है-'वचोवोत् (४।२११) । यद्यपि उन्होंने व्याकरण के अनुसार ११०० से भी ज्यादा सूत्र उल्लेख पूर्वक नियम बनाएं हैं तथापि इन नियमों के द्वारा व्याकरण में कोई क्लिष्टता नहीं आई है। इनके ग्रन्थ में उल्लेखनीय बात समास एवं कारक के संबंध में आलोचना है । सामान्यतः प्राकृत व्याकरण में समास एवं कारक के संबंध में पृथक् आलोचना नहीं होती, कारण संस्कृत के समास और कारक की नियमावली ही मुख्यत: प्राकृत में प्रयुक्त होती है। इसलिए नवीन विधि एवं विशेष नियम की जरूरत नहीं है। किन्तु मुनि श्री ने हेमचंद्र व्याकरण के कारक संबंधी दो-चार नियम यथा चतुर्थ्याः षष्ठी [३।१३१) तादर्थ्ये डे० र्वा [३।१३२] क्वचिद् द्वितीयादेः [३३१३४] प्रभृति नियम उल्लेखपूर्वक कारक प्रकरण अध्याय के संबंध में विशेष दृष्टि दी है । समास के विषय में भी यही बात है। यद्यपि हेमचन्द्र ने कारक की तरह समास के संबंध में उस प्रकार का कोई सूत्र नहीं दिया है तथापि हेमचन्द्र के कुछ सूत्र जो समास के क्षेत्र में प्रयोज्य है प्रसंगतः समास के प्रकरण में उसका उल्लेख किया है, जैसे-दीर्घह्रस्वौ मिथो वृत्तौ [१।४] । इस ग्रंथ में अवययी भाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि व द्वन्द्वसमास का वर्णन किया गया है। यद्यपि ये संस्कृत व्याकरण पर प्रतिष्ठित हैं तथापि युवाचार्य श्री की व्याख्या में नवीन पद्धति का परिचय है। अधिक उदाहरण देने की जरूरत नहीं समझता है।
' उपर्युक्त विषय को छोडकर इसमें प्राकृत की उपभाषा का विवरण है । ये भाषायें-शौरसेनी, मागधी, चूलिका, पैशाची एवं अपभ्रंश । धात्वादेश के चतुर्थ अध्याय पर प्रतिष्ठित होने पर भी इसका क्रम निर्धारण बहुत ही सुचिन्तित एवं प्रशंसा के योग्य है।
संक्षेप में कहना हो तो मुझे कहना पडेगा कि यह व्याकरण प्रत्येक प्राकृत शिक्षार्थी के लिए अवश्य पाठ्यग्रन्थ होना उचित है। जहां-तहां प्राकृत का पठन-पाठन होता है वहां-वहां इस ग्रन्थ का प्रचार काम्य है । केवल
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