Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નમો અરિહંતાણે નમો સિદ્ધાણં, નમો આયરિયાણં નમો ઉવજઝાયાણં નમો લોએ સવ્વ સાહૂણં એસો પંચ નમુકકારો સવ્વ પાવપ્પણાસણો મંગલાણં ચ સવ્વસિં પઢમં હવઈ મંગલ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનાગમ પ્રકાશન યોજના પ. પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાંસીલાલજી મહારાજ સાહેબ કૃત વ્યાખ્યા સહિત DVD No. 1 (Full Edition) :: યોજનાના આયોજક :: શ્રી ચંદ્ર પી. દોશી – પીએચ.ડી. website : www.jainagam.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ΜΑ ΚΑΤΑ ATADHAR "THS ANG SUTRA PART: 03 el aldlalu Selial 2421 : 4101-03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ φφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφα gooddooddddoodhoodoos जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया अनगारधर्मामृतवपिण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम्। SHREE GNATADHARMA KATHANGA SOOTRAM (तृतीयो भागः ) नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः 'मद्रासनिवासो-श्रीमान्-शेठ-ताराचंदजी-साहेब गेलडा' तत्प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः वीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४८९ २०२० ooooooooooooooooooooooooooooope १९६३ मूल्यम्-रू. २५-०-० Οφφφφφφφφφφφφφφφφφφς Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું श्री म. . ३. स्थानवासी मेन सोद्धार समिति, है. सध्या या २३, श्रीन Air पासे, सोट (सौराष्ट्र). Published by : Shri Akhil Bharat s. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India. ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् पति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥ हरिगीतच्छन्दः 卐 करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा। है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ भूख्यः ३. २५300 પ્રથમ આવૃત્તિ: પ્રત ૧૨૦૦ वीर संवत : २४८६ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૧૯ ઇસવીસન્ ૧૯૬૩ મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, धी ४in 13, अमहापा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारत में जैन समाज के प्रखर नेता दानवीरशेठ स्व० श्रीमान ताराचंदजी साहेब गेलडाकी जीवनझलक दक्षिण भारत के प्रवास पर आये हुए किसी भी व्यक्ति के दिलमें, मद्रास जैसे शहर के जैन समाज की शिक्षण और वैद्यकीय संस्थाओं का सुव्यवस्थित क्रम और प्रबंध देखकर आनंद हुए विना नहीं रह सकता । और स्वतः ही जैन समाज की दान - दिशा को इस ओर ले जाने वाले व्यक्तिके रूपमें दानवीर शेठ स्व० श्रीमान् ताराचंदजी साहेब गेलड़ाका नाम व व्यक्तित्व नजर में आये विना नहीं रहता । । मध्यम कदका इकहटा बदन, खादीकी धोती, खादीका कुरता और खादी की टोपी, पैर में केन्वास के पादत्राण हाथमें छोटीसी लकडी-चमकती तेज आंखे और ७० वर्ष की अवस्था में भी जवानों की तेजी ये आप के अभिन्न गुणों के सूचक थे । उनके यह सादगी अंत समय तक भी कायम रही थी । सन १९३७ में आप राजकोट पधारे थे वहां अनेक शिक्षण संस्थाओंको देखकर आपने अपने मनमें तय किया कि मैं मद्रास जाकर शिक्षाकी ऐसीही संस्थाएँ बनाउंगा। उनके विचारों की पुष्टि के रूपमें श्रीमान् विरदीचंदजी सा. मलेचाने ५०००० रूपया दान दिया और यहांकी श्री एस. एस. जैन एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना हुई । इस सोसायटी के विकास के लिये आपने अपने व्यापार से भी - निवृत्ति ले ली और - क्रमशः इसका विकास करते रहे । इस सोसायटी के तत्वावधान में क्रमशः प्रायमरी स्कूल, बोर्डिंग होम; हाईस्कूल एवं कॉलेज भी - स्थापित हुए और आज भी सुचारु रूपसे चल रहे हैं । जब तक ये संस्थाएँ पूर्णरूप से आत्म-निर्भर नहीं हुई तबतक आप सोसायटी के प्रारंभ कालसे मंत्री बने रहे। इतनाही नहीं प्रत्येक संस्था के लिये आपने दान दिया थाही - किन्तु ताराचंद गेलडा जैन विद्यालय के लिये ३१००० रु. का भव्य दान दिया । इसके उपरांत भी २२००० रू. का और दान आपका होनेसे आप શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोसायटी के पेइन ( संरक्षक ) बने । सन १९५६ में अन्यों को भी कार्य संचालन का अनुभव हो एतर्थ आप निवृत्त हुए, किन्तु अंत समय तक सोसायटी के प्रत्येक कार्य के लिये आप सलाह देते रहे और वह समाज का गौरव था कि आप जैसे कुशल एवं विचक्षण सलाहकार मिले। दानके प्रवाह को शुभ मार्गमें बहाने का आप का प्रयास अत्यंत अनुकरणीय रहा । और मद्रास के जैन समाजने वैदकीय राहत क्षेत्रमें "जैन मेडिकल रिलीफ सोसायटी" स्थापित की-जिसके तत्वावधानमें कई डीसपेंसरियां और एक प्रमूतिगृह चल रहा है। आप उसकी कार्य कारिणी के पदाधिकारी व सदस्य रहे। इतनाही नहीं आपने अपने व्यापार क्षेत्रको नहीं भूला और सैदापेट (भूदान) में शुद्ध आयुर्वेदिक औषधलय-जिनेश्वर औषधालय खोला जिसके साथ आगे जा कर अपनी पत्नीके नामपर रामसुरजवाई गेलडा प्रसूतिगृह भी खोला । एतदर्थ आपने अपने द्वितीय पुत्र स्व. नेमीचंदजी की इच्छाके अनुसार अलग टूस्ट बना दिया है। ____ आपने अपनी जन्मभूमि कुचेरा के लिये भी कुछ करने के विचार से वहां पर भी छात्रालय शुरू १९४२ में करवाया और उसके पारम्भकाल से आपकी ओर से २५० मासिक सहायता उसे दी जा रही है-जो अब भी चालू है । तदुपरांत ताराचंद गेलडा ट्रस्ट भी आपने कायम किया जिससे कई उदीयमान जैन समाज के विद्यार्थिओं की आशाओं को प्रोत्साहन दिया गया और दिया जा रहा है। उनके अदम्य उत्साह और जोश के साथ उनके दृढ मनोबल का परिचय न दिया जावे तो उनका व्यक्तित्व अधूरा रहेगा। वे अपने आप आगे बढ़ने वाले थे । बहुत ही छोटी उम्र में उन्हों ने व्यापार किया और ताराचंद गेलडा एन्ड सन्स, टी. बी. ज्वेलरीज एवं महेन्द्र स्टोर्स आदि व्यापारिक फर्म चले । सामान्य पूंजीसे लेकर वे लाखोपति बने । सामान्य शिक्षा ज्ञान के बाद भी चार भाषा की जानकारी और प्रबल व्यापारिक ज्ञान आपकी विशेषता थी। ___ आजीवन खादीव्रत, हाथघंटी का पीसा हुआ धान और गायका दूध-घी कठिन व्रत वे आजीवन निभाते रहे। समाज-सुधारणा भी आपने कई प्रकारसे की। श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ वर्ष की आयुमें आपका पंडित-मरण हुआ जो आपके यशस्वी जीवन की यशकलगी के समान था । अर्थात् यशस्वी पुरुषों के शिरोमणि थे। आपके सुपुत्र श्रीमान् भागचंदजी सा. गेलडा भी कर्मठ कार्यकर्ता हैं । जैन एन्ड नेशनल सोसायटी के आप सदस्य एवं पदाधिकारी रह चुके हैं-वर्तमानमें आप सोसायटीके सभापति हैं । गोसेवा और पांजरापोल के कार्य के लिये आप घर २ जाकर चंदा करने में संकोच महसूस नहीं करते और विगत आठेक वर्षों से आप मद्रास पांजरापोलके मंत्री हैं और उसका बहुत ही विकास किया है। द्वितीय पुत्र श्री नेमचंदजी स्वर्गवासी हुए हैं किन्तु आप भी औषधालय निमित्त ट्रस्ट करके गये हैं। तृतीय पुत्र श्री खुशालचंदजी व्यापार-कुशल हैं और कार्यभार सम्हाले हुए हैं। इस आगम प्रकाशन के लिये जब आपके पास डेप्यूटेशन पहुंचा तब इन सुपुत्रोंने उदारता से ५००१) रू. दिये हैं एतदर्थ धन्यवाद है। अन्य सज्जन भी उनका अनुकरण करें यही अभ्यर्थना है । सेक्रेट्री शास्त्रोद्धार समिति श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વાધ્યાય માટે ખાસ સૂચના આ સૂત્રના મૂલપાઠનો સ્વાધ્યાય દિવસ અને રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરે તથા ચોથા પ્રહરે કરાય છે. (૨) પ્રાત:ઉષાકાળ, સન્યાકાળ, મધ્યાહ્ન, અને મધ્યરાત્રિમાં બે-બે ઘડી (૪૮ મિનિટ) વંચાય નહીં, સૂર્યોદયથી પહેલાં ૨૪ મિનિટ અને સૂર્યોદયથી પછી ૨૪ મિનિટ એમ બે ઘડી સર્વત્ર સમજવું. માસિક ધર્મવાળાં સ્ત્રીથી વંચાય નહીં તેમજ તેની સામે પણ વંચાય નહીં. જ્યાં આ સ્ત્રીઓ ન હોય તે ઓરડામાં બેસીને વાંચી શકાય. (૪) નીચે લખેલા ૩૨ અસ્વાધ્યાય પ્રસંગે વંચાય નહીં. (૧) આકાશ સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય કાલ. (૧) ઉલ્કાપાત–મોટા તારા ખરે ત્યારે ૧ પ્રહર (ત્રણ કલાક સ્વાધ્યાય ન થાય.) (૨) દિગ્દાહ–કોઈ દિશામાં અતિશય લાલવર્ણ હોય અથવા કોઈ દિશામાં મોટી આગ લગી હોય તો સ્વાધ્યાય ન થાય. ગર્જારવ –વાદળાંનો ભયંકર ગર્જારવ સંભળાય. ગાજવીજ ઘણી જણાય તો ૨ પ્રહર (છ કલાક) સ્વાધ્યાય ન થાય. નિર્ધાત–આકાશમાં કોઈ વ્યંતરાદિ દેવકૃત ઘોરગર્જના થઈ હોય, અથવા વાદળો સાથે વીજળીના કડાકા બોલે ત્યારે આઠ પ્રહર સુધી સ્વાધ્યાય ના થાય. (૫) વિદ્યુત—વિજળી ચમકવા પર એક પ્રહર સ્વાધ્યાય ન થા. (૬) ચૂપક–શુક્લપક્ષની એકમ, બીજ અને ત્રીજના દિવસે સંધ્યાની પ્રભા અને ચંદ્રપ્રભા મળે તો તેને ચૂપક કહેવાય. આ પ્રમાણે ચૂપક હોય ત્યારે રાત્રિમાં પ્રથમ ૧ પ્રહર સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૭) યક્ષાદીત-કોઈ દિશામાં વીજળી ચમકવા જેવો જે પ્રકાશ થાય તેને યક્ષાદીપ્ત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૮) ઘુમિક કૃષ્ણ-કારતકથી મહા માસ સુધી ધૂમાડાના રંગની જે સૂક્ષ્મ જલ જેવી ધૂમ્મસ પડે છે તેને ધૂમિકાકૃષ્ણ કહેવાય છે. તેવી ધૂમ્મસ હોય ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૯) મહિકાશ્વેત–શીતકાળમાં શ્વેતવર્ણવાળી સૂક્ષ્મ જલરૂપી જે ધુમ્મસ પડે છે. તે મહિકાશ્વેત છે ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૦) રજઉદ્દઘાત–ચારે દિશામાં પવનથી બહુ ધૂળ ઉડે. અને સૂર્ય ઢંકાઈ જાય. તે રજઉદ્દાત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨) ઔદારિક શરીર સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય (૧૧-૧૨-૧૩) હાડકાં-માંસ અને રૂધિર આ ત્રણ વસ્તુ અગ્નિથી સર્વથા બળી ન જાય, પાણીથી ધોવાઈ ન જાય અને સામે દેખાય તો ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. ફૂટેલું ઇંડુ હોય તો અસ્વાધ્યાય. (૧૪) મળ-મૂત્ર—સામે દેખાય, તેની દુર્ગન્ધ આવે ત્યાં સુધી અસ્વાધ્યાય. (૧૫) સ્મશાન—આ ભૂમિની ચારે બાજુ ૧૦૦/૧૦૦ હાથ અસ્વાધ્યાય. (૧૬) ચંદ્રગ્રહણ—જ્યારે ચંદ્રગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૮ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૨ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૭) સૂર્યગ્રહણ—જ્યારે સૂર્યગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૧૨ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૬ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૮) રાજવ્યુદ્ગત—નજીકની ભૂમિમાં રાજાઓની પરસ્પર લડાઈ થતી હોય ત્યારે, તથા લડાઈ શાન્ત થયા પછી ૧ દિવસ-રાત સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૯) પતન—કોઈ મોટા રાજાનું અથવા રાષ્ટ્રપુરુષનું મૃત્યુ થાય તો તેનો અગ્નિસંસ્કાર ન થાય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય કરવો નહીં તથા નવાની નિમણુંક ન થાય ત્યાં સુધી ઊંચા અવાજે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૦) ઔદારિક શરીર—ઉપાશ્રયની અંદર અથવા ૧૦૦-૧૦૦ હાથ સુધી ભૂમિ ઉપર બહાર પંચેન્દ્રિયજીવનું મૃતશરીર પડ્યું હોય તો તે નિર્જીવ શરીર હોય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૧થી ૨૮) ચારે મહોત્સવ અને ચાર પ્રતિપદા—આષાઢ પૂર્ણિમા, (ભૂતમહોત્સવ), આસો પૂર્ણિમા (ઇન્દ્ર મહોત્સવ), કાર્તિક પૂર્ણિમા (સ્કંધ મહોત્સવ), ચૈત્ર પૂર્ણિમા (યક્ષમહોત્સવ, આ ચાર મહોત્સવની પૂર્ણિમાઓ તથા તે ચાર પછીની કૃષ્ણપક્ષની ચાર પ્રતિપદા (એકમ) એમ આઠ દિવસ સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૯થી ૩૦) પ્રાતઃકાલે અને સન્ધ્યાકાળે દિશાઓ લાલકલરની રહે ત્યાં સુધી અર્થાત્ સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તની પૂર્વે અને પછી એક-એક ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૩૧થી ૩૨) મધ્ય દિવસ અને મધ્ય રાત્રિએ આગળ-પાછળ એક-એક ઘડી એમ બે ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. ઉપરોક્ત અસ્વાધ્યાય માટેના નિયમો મૂલપાઠના અસ્વાધ્યાય માટે છે. ગુજરાતી આદિ ભાષાંતર માટે આ નિયમો નથી. વિનય એ જ ધર્મનું મૂલ છે. તેથી આવા આવા વિકટ પ્રસંગોમાં ગુરુની અથવા વડીલની ઇચ્છાને આજ્ઞાને જ વધારે અનુસરવાનો ભાવ રાખવો. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) (२) (३) (8) स्वाध्याय के प्रमुख नियम इस सूत्र के मूल पाठ का स्वाध्याय दिन और रात्री के प्रथम प्रहर तथा चौथे प्रहर में किया जाता है I प्रातः ऊषा-काल, सन्ध्याकाल, मध्याह्न और मध्य रात्री में दो-दो घडी ( ४८ मिनिट) स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, सूर्योदय से पहले २४ मिनिट और सूर्योदय के बाद २४ मिनिट, इस प्रकार दो घड़ी सभी जगह समझना चाहिए । मासिक धर्मवाली स्त्रियों को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, इसी प्रकार उनके सामने बैठकर भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, जहाँ ये स्त्रियाँ न हों उस स्थान या कक्ष में बैठकर स्वाध्याय किया जा सकता है । नीचे लिखे हुए ३२ अस्वाध्याय - प्रसंगो में वाँचना नहीं चाहिए— (१) आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्यायकाल (१) (२) (३) (8) (५) (६) (७) (८) उल्कापात—बड़ा तारा टूटे उस समय १ प्रहर (तीन घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । दिग्दाह — किसी दिशा में अधिक लाल रंग हो अथवा किसी दिशा में आग लगी हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । गर्जारव—बादलों की भयंकर गडगडाहट की आवाज सुनाई देती हो, बिजली अधिक होती हो तो २ प्रहर (छ घण्टे ) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । निर्घात – आकाश में कोई व्यन्तरादि देवकृत घोर गर्जना हुई हो अथवा बादलों के साथ बिजली के कडाके की आवाज हो तब आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । विद्युत - बिजली चमकने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए I यूपक — शुक्ल पक्ष की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया के दिनो में सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा का मिलान हो तो उसे यूपक कहा जाता है। इस प्रकार यूपक हो उस समय रात्री में प्रथमा १ प्रहर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए I यक्षादीप्त— यदि किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा प्रकाश हो तो उसे यक्षादीप्त कहते हैं, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । धूमिका कृष्ण - कार्तिक से माघ मास तक घूँए के रंग की तरह सूक्ष्म जल के जैसी धूमस (कोहरा) पड़ता है उसे धूमिका कृष्ण कहा जाता है इस प्रकार की धूमस हो उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) महिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्णवाली सूक्ष्म जलरूपी जो धूमस पड़ती है वह महिकाश्वेत कहलाती है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (१०) रजोद्घात–चारों दिशाओं में तेज हवा के साथ बहुत धूल उडती हो और सूर्य ढंक गया हो तो रजोद्घात कहलाता है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (२) ऐतिहासिक शरीर सम्बन्धी १० अस्वाध्याय— (११,१२,१३) हाड-मांस और रुधिर ये तीन वस्तुएँ जब-तक अग्नि से सर्वथा जल न जाएँ, पानी से धुल न जाएँ और यदि सामने दिखाई दें तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । फूटा हुआ अण्डा भी हो तो भी अस्वाध्याय होता है। (१४) मल-मूत्र—सामने दिखाई हेता हो, उसकी दुर्गन्ध आती हो तब-तक अस्वाध्याय होता है। श्मशान—इस भूमि के चारों तरफ १००-१०० हाथ तक अस्वाध्याय होता (१६) चन्द्रग्रहण-जब चन्द्रग्रहण होता है तब जघन्य से ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १२ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१७) सूर्यग्रहण-जब सूर्यग्रहण हो तब जघन्य से १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १६ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१८) राजव्युद्गत-नजदीक की भूमि पर राजाओं की परस्पर लड़ाई चलती हो, उस समय तथा लड़ाई शान्त होने के बाद एक दिन-रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। पतन-कोई बड़े राजा का अथवा राष्ट्रपुरुष का देहान्त हुआ हो तो अग्निसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा उसके स्थान पर जब तक दूसरे व्यक्ति की नई नियुक्ति न हो तब तक ऊंची आवाज में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२०) औदारिक शरीर-उपाश्रय के अन्दर अथवा १००-१०० हाथ तक भूमि पर उपाश्रय के बाहर भी पञ्चेन्द्रिय जीव का मृत शरीर पड़ा हो तो जब तक वह निर्जीव शरी वहाँ पड़ा रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२१ से २८) चार महोत्सव और चार प्रतिपदा-आषाढ़ी पूर्णिमा (भूत महोत्सव), आसो पूर्णिमा (इन्द्रिय महोत्सव), कार्तिक पूर्णिमा (स्कन्ध महोत्सव), चैत्र पूर्णिमा (यक्ष महोत्सव) इन चार महोत्सवों की पूर्णिमाओं तथा उससे पीछे की चार, कृष्ण पक्ष की चार प्रतिपदा (ऐकम) इस प्रकार आठ दिनों तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९ से ३०) प्रातःकाल और सन्ध्याकाल में दिशाएँ लाल रंग की दिखाई दें तब तक अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के पहले और बाद में एक-एक घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (३१ से ३२) मध्य दिवस और मध्य रात्री के आगे-पीछे एक-एक घड़ी इस प्रकार दो घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त अस्वाध्याय सम्बन्धी नियम मूल पाठ के अस्वाध्याय हेतु हैं, गुजराती आदि भाषान्तर हेतु ये नियम नहीं है । विनय ही धर्म का मूल है तथा ऐसे विकट प्रसंगों में गुरू की अथवा बड़ों की इच्छा एवं आज्ञाओं का अधिक पालन करने का भाव रखना चाहिए । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र तृतीय भा. की विषयानुकमणिका क्रमाङ्क पेज चौदहवां अध्ययन १ तेतलीपुत्र प्रधानके चारित्रका वर्णन १-१८ पंद्रहवां अध्ययन २ नंदिफलके स्वरूपका निरूपण ९८-१३१ सोलहवां अध्ययन ३ धर्मरुचि अनगारके चरित्र निरूपण १३२-१८२ ४ सुकुमारिका के चरित्रका वर्णन १८३-२५१ ५ द्रौपदी के चरित्रका निरूपण २५२-२९६ ६ द्रौपदी पूजा चर्चा २९७-४२६ ७ द्रौपदी के चरित्रका वर्णन ४२७-५८५ सत्रहवां अध्ययन ८ नावसे व्यापार करने वाले वणिजोंका वर्णन ५८६-५९० ९ नावके निर्यामक का दिङ्मूढ होनेका कथन ५९१-५९५ १० कालिक द्वीपमें सुवर्ण आदिका वर्णन ५९६-५९६ ११ कालिक द्वीपमें हिरण्य आदिसे पोतकाभरना ५९७-६०० १२ कालिक द्वीपमें रहे आकीर्णाश्वों का वर्णन ६०१-६१९ १३ आकीर्णाश्चोंके द्रष्टांतको दार्टान्तिक के साथ योजना ६२०-६३७ अठारहवां अध्ययन १४ सुसमा दारिका के चारित्रका वर्णन ६३८-७०७ उन्नीसवां अध्ययन १५ पुंडरीक-कंडरीक मुनिके चरित्रका वर्णन ७०८-७५२ द्वितीय श्रुतस्कंध १६ द्वितीय श्रुतस्कंध का मङ्गलाचरण ७५३-७६० શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ द्वितीय श्रुतस्कंधका उपक्रम प्रथम वर्ग - पहला अध्ययन १८ कालीदेवीका वर्णन १९ रात्री देवीका वर्णन २० रजनी दारिका के चरित्रका निरूपण दूसरा अध्ययन तीसरा अध्ययन दूसरा वर्ग २१ शुंभनिशुंभादि देवीयोंके चरित्रका वर्णन तीसरा वर्ग २२ अादि देवियोंके चरित्रका वर्णन चौथा वर्ग २३ रूपादि देवियों के चरित्रका वर्णन सातवां वर्ग २६ सुरमभादि देवियों के चारित्रका वर्णन आठवां वर्ग २७ चन्द्रमभादि देवियों के चरित्रका वर्णन नववा वर्ग २८ पद्मादिदेवियों के चरित्रका वर्णन दशवां वर्ग ७६१ २९ कृष्णादि देवियोंके चरित्रका वर्णन ३० शास्त्र प्रशस्ति શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ ७६१-८०५ ८०६-८१० ८११-८१४ पांचवा वर्ग २४ कमलादि देवियों के चरित्रका वर्णन छट्ठा वर्ग २५ उत्तरदिशा के इन्द्र महाकाल आदिकोंकी अग्रमहिषियों का वर्णन ८३४-८३५ ८१५-८१९ ८२० - ८२५ ८२६-८२८ _८२९-८३३ ८३६-८३८ ८३९-८४२ ८४३-८४५ ८४६-८५१ ८५२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामा ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरक्तिया अनगार धर्मामृतवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समलकृतं श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् तृतीयो भागः ___ अथ चतुर्दशाध्ययनं प्रारभ्यते अस्य व्यख्यायमानचतुर्दशाध्ययनस्य व्याख्यातेन त्रयोदशेनाध्ययनेन सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् अध्ययने सतां गुणानां गुणाभिवर्द्धकसद्गुरूपदेशरूपसामय्यभावे हानिरुक्ता, इहतु-तथाविधसामग्रीसद्भावे गुणसंपदुपजायते, इत्यभिधीयते, इत्येवं पूर्वेण सहाभिसंबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्-'जइणं भंते 'इत्यादि । मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्त णायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते, चोदसमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते? एवं खलु जंबू! तेणं चौदहवां अध्ययन प्रारंभःइस चौदहवें अध्ययन का तेरहवें अध्ययन के साथ इस प्रकार का संबन्ध है-तेरहवें अध्यन में जो यह बात कही गई है कि आत्मा में सम्यग्दर्शन आदि प्रकट भी हो गये, हों परन्तु यदि उन को बढाने वाली सद्गुरु आदि की उपदेश रूप सामग्री का अभाव रहे तो उन गुणों की हानि हो जाति है। इस अध्ययन में अब सूत्रकार यह स्पष्ट करेंगे कि यदि जीव को तथाविध सामग्री प्राप्त होती रहती है तो गुण संपत्ति भी बढती रहती है:-'जइणं भंते' इत्यादि । शीभु मध्ययन प्रारम-- ચૌદમા અધ્યયનનો તેરમા અધ્યયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે તેરમા અધ્યયનમાં જે આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે કે આત્મામાં સમ્યગ્દર્શન વગેરે પ્રગટ પણ થઈ ગયાં હોય છતાં જે સદ્દગુરૂ વગેરેની ઉપદેશ રૂપ તેમનું વર્ધન કરનાર સામગ્રી હાય નહિ તે તે ગુણની હાનિ થઈ જાય છે. આ અધ્યયનમાં સૂત્રકાર હવે એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જીવને જે તથાવિધ સામગ્રી મળતી રહે છે તે ગુણ સંપત્તિ પણ વધતી રહે છે. ' जइणं भंते ' इत्यादि-- શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गो कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उजाणे कणगरहे राया । तस्स णं कणगरहस्स पउमावई देवी। तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे सामदंडदक्खे। तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूए । तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तस्स णं कलायस्म मूसियारदारयस्स धूया, भदाए अत्तया पोटिला नामं दारिया होत्था रूवेण य जोव्वणेण य लावपणेण य उकिट्रा उकिट्टसरीरा । तएणं पोटिला दारिया अन्नया कयाइ व्हाया सव्वालंकारविभूसिया चेडियाचकवालपरिवुडा उप्पि पासायवरगया आगाप्ततलगंसि कणगमएणं तिंदूसएणं कीलमाणीर विहरइ ॥ सू० १ ॥ टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन त्रयोदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः चतुर्दशस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्सम्पाप्तेन कोऽर्थः टीकार्थ-जंबू स्वामी पूछते हैं कि ( भंते-जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं) हे भदंत! यदि श्रमण भगवान महावीरने कि जिन्होंने सिद्धिगति नाम का स्थान प्राप्त कर लिया है (तेरसमस णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते चोदसमस्स णं भंते! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरे णं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते) तेरहवें ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रज्ञप्स किया है-तो हे भदंत ! चौदहवें ज्ञाताध्ययन का उन्हीं श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ निरूपित किया __ -स्वामी पूछे छे ? ( भंते ! जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं) ३ मत ! श्रम लगवान महावीरे-रे। सिद ગતિ સ્થાનને મેળવી ચૂક્યા છે. ( तेरसमस णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, चोदसमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते) તેરમા જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદંત ! તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે જ આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનને શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् मज्ञतः । सुधर्मा स्वामी कथयति - एवं खलु जम्बू ! । तस्मिन् काले तस्मिन् समये लिपुरं नाम नगरम् आसीत् । तत्र प्रमदवनं नाम उद्यानमासीत् । तस्य नगरस्य कनकरथो नाम राजाऽसीत् । तस्य खलु कनकरथस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी । तस्य खलु कनकरथस्य राज्ञः तेतलिपुत्रो नाम अमात्यः सामदंडदक्खे ' सामदण्डदक्षः = अत्र सामदण्डग्रहणाद् दानभेदयोरपि ग्रहणं तेन सामदानभेददण्डात्मकचतुर्विधोपायनिपुण इत्यर्थः आसीत् । 6 ! तत्र स्खलु तेतलिपुरे कलादो नाम 'मूसियारदारए ' मूषीकारदारकः= सुवर्णकारदारकः, ' मूषी ' इति भूषापर्यांयः, गौरादित्वाद्ङीष यत्र सुवर्णादि है ? ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उज्जाणे कणगरहे राया । तस्स णं कणगरहस्स पउमाबाई देवी) श्री सुधर्मा स्वामी अब श्री जंबू स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देने के अभिप्राय से कहते हैं- जंबू सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से है - उस काल और उस समय में तेतलिपुर नाम का नगर था। उस में प्रमदवन नाम का उद्यान था। उस नगर के राजा का नाम कनक रथ था । इस कनकरथ राजा की रानी का नाम पद्मावती देवी था । (तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे सामदंडदक्खे | तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मुसियारदारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूए) उस कनक रथ राजा का अमात्य था जिस का नाम तेतलि पुत्र था । यह साम, दान, भेद और दंड इन चार प्रकार की राजनीति में विशेष पटु निपुण था। उसी तेतलिपुर में कलाद नाम का ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उज्जा कणगरहे राया । तस्स णं कणगरहस्स पउमाबाई देवी) શ્રી સુધર્માસ્વામી હવે શ્રી જખૂ સ્વામીને આ પ્રશ્નોના જવાબ આપવાની ઈચ્છાથી કહે છે કે હે જમ્મૂ ! સાંભળે તમારા પ્રશ્નના જવાખ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે તેતલિપુર નામે નગર હતુ. તેમાં પ્રમદવન નામે ઉદ્યાન હતું. તે નગરના રાજાનું નામ કનકરથ હતુ. તે કનકરથ રાજાની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. ( तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे सामदंडदक्खे । तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूर) તે કનકરથ રાજાના એક અમાત્ય ( મત્રી ) હતા જેનું નામ તેતિલપુત્ર હતુ. તે સામ, દાન, ભેદ અને દંડ એ ચારે પ્રકારની નીતિમાં સવિશેષ નિપુણ-કુશળ હતા. તે તૈતલિપુરમાં કલાદ નામે સૂક્ષીકાર હારક ( સાનીના પુત્ર) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे गाल्यते सा तां करोति=साधनसामग्रीत्वेन निष्पादयति, इतिव्युत्पत्या मृषीकारइति सुवर्णकारे योगारूढोऽयं शब्दः । ' होत्था ' आसीत् । यो हि आढयो यावदपरिभूतः । तस्य खलु कलादस्य मूषिकारदारकस्य दुहिता भद्राया आत्मजा पोहिला नाम दारिका आसीत्, याहि रूपेण च = आकृत्या, यौवनेन च = तारुण्येन च लावण्येन च शरीरोत्कृष्टकान्ति विशेषेण उत्कृष्टा अतएव उत्कृष्टशरीराऽसीत् । ततः खलु पोहिला दारिका अन्यदा कदाचित् स्नाता सर्वालङ्कारविभूषिता ४ मूषीकार दारक- सुवर्णकार का पुत्र रहता था। मूषी शब्द का अर्थ सांचा है । इस में सुवर्णादि द्रव्य पिघलाये जाते है । इस सांचे को जो बनाता है उसका नाम मूषीकार है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द सुवर्णकार (सोनार) में योगारूढ हुआ है । यह सूषीकार दारक आढ्य यावत् अपरिभूत था । ( तस्स णं भद्दा नामं भारिया, तस्स णं कलायस मूसियारदारयस्स धूया, भद्दाए अन्तया पोहिला नामं दारिया होत्या, रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठ सरीरा ) इस मूषिकार दारक कलाद-सौनी की अत्यन्त प्रिय पोहिला नाम की लड़की थी जो इस की पत्नी भद्रा की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी । यह आकृति से, यौवन से एवं लावण्य से शारीरिक उत्कृष्ट कांति से बहुत ही अधिक मनोहर थी अतः इस का शरीर बहुत अधिक उत्तम था । (तएणं पोहिला दारिया अन्नया कयाई व्हाया सव्वालंकार रहेतेो हतो. 'भूषी ' शहना अर्थ सांथा ( श्रीयु ) छे. तेमां सोनुं वगेरे દ્રવ્યા આગાળવામાં આવે છે. આ સાંચાને બનાવનારનું નામ સૂષીકાર છે. આ વ્યુત્પત્તિને લઈને આ શબ્દ સુવર્ણ કાર ( સેાની ) માટે ચેાગારૂઢ થઈ ગયા છે. તે મૂષિકારદારક આઢય ( ધનવાન ) યાવત્ અપરિભૂત હતા. ( तस्स णं भद्दा नामं भारिया तस्स णं कलायस्स मूसियारदार यस्स धूया भद्दा अत्तया पोट्टिला नामं दारिया होत्था, रूवेण य जोन्त्रणेण य लावण्णेणं य उक्कट्टा उक्कडसरीरा ) તે મૂષિકારતારક કલાદ સેાનીની ખૂમ જ વહાલી પેટ્ટિલા નામે પુત્રી હતી જે તેની પત્ની ભદ્રાના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થઈ હતી, તે આકૃતિથી, યૌવનથી, લાવણ્યથી–શરીરની ઉજવલ-કાંતિથી બહુ જ મનહર હતી, એથી તેનું શરીર ખૂબ જ ઉત્તમ હતું. ( तरणं पोहिलादारिया अन्नया कयाई व्हाया सन्चलंकारविभूसिया चेडियाचक्कवालसं परिवुडा उपि पासायवरगया आगासतलगंसि कणगमरणं विंदुसएणं कीलमाणी २ विहरह ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५ 'चेडियाचकवालसंपरिखुडा' चेटिकाचक्रवालसंपरिवृता-चेटिकाः दास्यस्तासां यच्चक्रवाल मण्डलं तेन संपरिसृता-सहिता दासीसमूहपरिवेष्टितेत्यर्थः, उपरिमासादवरगता प्रासादोपरिस्थिता-आकाशतले अनावृतप्रदेशे 'छत्त ' इति प्रसिद्ध कनकमयेन स्वर्णनिर्मितेन 'तिंदूसएणं' तिन्दूसकेन-कन्दुकेन क्रीडन्ती २ विहरति ॥ मू० १॥ मूलम्-इमं च णं तेयलिपुत्ते अमच्चे पहाए आसखंधवरगए महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते आसवाहणियाए णिजायमाणे कलायस्स मुसियारदारगस्त गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयइ। तएणं से तेयलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे२पोटिलंदारियं उप्पिं पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी पासइ, पासित्ता पोटिलाए दारियाए रूवे य जाव अज्झोववन्ने कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी - एसा णं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया? किं नामधेजा ?। तएणं कोडंवियपुरिसा तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एसा णं सामी ! कलायस्स मूसियारदारगस्स धूया, भद्दाए अत्तयापोटिला नामं दारिया रूवेण यजाव उकिट. सरीरा।तएणं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिनियत्ते समाणे विभूसिया चेडियाचक्कवालसंपरिबुडा उप्पि पासायवरगया आगास तलगंसि कणगमएणं तिदूसएणं कीलमाणी २ विहरइ ) एक दिन की बात है कि यह स्नान कर के तथा समस्त आभरणों से विभूषित हो करके अपनी दासियों के साथ प्रासाद के ऊपर छत पर सुवर्ण निर्मित कन्दुक (गेंद ) से क्रीडा कर रही थी। सूत्र ॥१॥ એક દિવસે તે સ્નાન કર્યા બાદ પિતાના બધા અંગેને ઘરેણાંઓથી શણગારીને પિતાની દાસીઓની સાથે મહેલની ઉપરની અગાશીમાં સેનાથી मनापामा मावली थी भी रही ती. ॥ सूत्र ॥१ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे अभितरहाणिजे पुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता, एवं वयासीगच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! कलादस्स मूसियारदारयस्स धूयं भद्दाए अत्तयं पोटिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह । तएणं ते अभंतरट्टाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हहतुट्ठा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह तहत्ति किच्चा जेणेव कलायस्स मूसियारस्स गिहे तेणेव उवागया । तएणं से कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टे आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुद्वित्ता सत्तट्रपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता, आसणेज उवणिमंतेइ उवणिमंतित्ता, आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासीसंदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं ? तएणं ते अभितरट्ठाणिज्जा पुरिसा कलायं मूसियदारयं एवं वयासीअम्हे णं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भदाए अत्तयं पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए वरेमो, तं जइ जं जाणसि देवाणु. प्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज वा सरिसो संजोगो ता दिजउणं पोटिला दारिया तेयलिपुत्तस्स, तो भण देवाणुप्पिय! किंदलामो सुकं ? तएणं कलाए मूसियारदारए ते अभितस्टाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी-एस चेव णं देवाणुप्पिया! मम सुक्के, जन्नं तेलिपुत्ते मम दारिया निमित्तेणं अणुग्गहं करेइ । ते अभितरठाणिजे पुरिसे विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुप्फवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सकारेइ, सम्माणेइ, सका. रिता सम्माणित्ता पडिविसजेई । तएणं ते कलायस्स मूसिया श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ७ रदारयस्त गिहाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमहं निवेदेति ॥ सू० २॥ टीका-'इमं च णं' इत्यादि । अस्मिंश्च खलु समये तेतलिपुत्रोऽमात्यः स्नातः 'आसखंधवरगए अश्वस्कन्धवरगतः अश्वारूढः 'महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते' महाभटचटकरहन्द परिक्षिप्तः महान्तो भटचटकरा: भटसमूहाः तेषां वृन्दैः समूहैः परिक्षिप्तः परिवृतः सन् 'आसवाहणियाए ' अश्ववाहनिकायै अश्ववाहनेन क्रीडनार्थ · णिज्जायमाणे निर्यान्-निर्गच्छन् कलादस्य मूषीकारदारकस्य गृहस्य अदूरसामन्तेन पार्श्वभागेन 'वीइवयइ 'व्यतित्रजति गच्छति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो मूषीकारदारकस्य गृहस्य अदूरसामन्तेन व्यतिबनन् पोट्टिला दारिकाम् 'इमं च णं तेथलि पुत्ते अमच्चे' इत्यादि । टीकार्थ-'इमं च णं) इसी समय (तेयलिपुत्ते अमच्चे हाए आसखं धबरगए महया भटचडगरवंदपरिक्खित्ते आसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदरसामंतेणं बीइवयइ) तेतलि पुत्र अमात्य स्नान से निबट कर घोड़े पर चढा हुआ बड़े २ भष्ट समूहों के वृन्दों से घिरा होकर अश्वक्रीडा के लिये मूषीकारदारक कलादके (सोनार) मकानके पास से निकला । (तएणं से तेयलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे २ पोहिलं दारियं उपि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी पासइ) मूषोकार दारक कलाद के मकान के पास से होकर जाते हुए इमं च णं तेयलिपु अमच्चे' इत्यादि 1- ( इमं च णं ) ते मते (तेयलिपुत्ते अमच्चे हाए आसखंधवरगए महया भटचडगरवंदपरिक्खित्ते आसबाहाणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदरसामतेणं वीइवयइ) તેતલિપુત્ર અમાત્ય સ્થાનથી પરવારીને ઘડા ઉપર સવાર થયા અને ત્યારપછી વિશાળ ભટે (દ્ધાઓ) ના સમૂહથી વીંટળાઈને અશ્વક્રીડા માટે મૂષકારદારક કલાદના ઘરની પાસે થઈને નીકળ્યા. (तएणं से तेयलिपुत्ते मूसियादारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइत्रयमाणे२ पोटिलं दारियं उप्पि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदसएणं कीलमाणी पासइ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्त्रे उपरि प्रासादचरगतामाकाशतले कनकतिन्दूसकेन क्रीडन्ती पश्यति, दृष्ट्वा, पोट्टिलाया दारिकाया रूपे च यौवने च लावण्ये च 'जाव अज्झोववन्ने ' यावत्-मूच्छितः, गृद्धः, ग्रथितः, अध्युपपन्नः = अत्यन्तसक्ताइत्यर्थः कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयिला, एवमवदत्-एषा खलु देवानुप्रियाः ! कस्य दारिका किं नामधेया ? । ततः खलु कौटुम्बिकपुरुषाः तेतलिपुत्रम् एवमवदन् एषा खलु स्वामिन् ! कलादस्य मूषीकारदारकस्य दुहिता, भद्राया आत्मजा पोटिला नाम दारिका रूपेण च उस तेतलिपुत्र अमात्य ने प्रासाद के ऊपर छत पर सुवर्ण की कन्दुक (गेंद ) से क्रीडा करती हुइ उस पोट्टिला दारिका को देखा । (पासित्ता पोहिलाए दारियाए रूवे य जाव अझोववन्ने कोड बियपुरिसे सदावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-एसा गं देवाणुप्पिया कस्स दारिया ? किं नाम घेज्जा?) देख कर वह उस पोटिला दारिका के रूप, यौवन एवं लावण्य में मूर्छित, गृद्ध, नथित बनकर उस पर अत्यन्त आसक्ति से युक्त हो गया। उसी समय उस ने कौटुम्बिकपुरुषों को बुलाया-बुलाकर उन से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! कहो यह कन्या किसकी है और इसका नाम क्या है ? ( तएणं कोडुंबियपुरिसा तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एसा णं सामी! कलायस्स मूसियारदारगस्त धूया भदाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया रूवेण य जाव उक्किट्ठसरीरा) उन कौटुम्बिक पुरुषों ने तेतली पुत्र से ऐसा कहा-हे स्वामिन् ! यह मूषीकार दारक कलाद की पुत्री है जो भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न हुई है। મૂષિકારધારક કલાદના ઘરની પાસે થઈને જતા તે તેતલિપત્ર અમાન્ય મહેલના ઉપરની અગાશી ઉપર સોનાની દડીથી રમતી તે પદિલા દારિકાને જોઈ (पासित्ता पोट्टिलाए दारिआए रूवे य जाव अज्झोववन्ने कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी एसा णं देवाणुप्पिया कस्स दारिया ? किं नामधेज्जा ?) તે પિદિલા દારિકાને જોઈને તે તેના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યમાં મૂચ્છિત ગૃદ્ધ, ગ્રથિત બનીને અત્યંત આસક્ત થઈ ગયો. તરત જ તેણે કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેણે તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવા નુપ્રિયે ! બેલે, આ કન્યા કોની છે અને એનું શું નામ છે? (तएणं कोडुबियपुरिसा तेयलिपुत्त एवं वयासी-एसा णं सामी । कलायस्स मूसियारदारगस्स धूया, भद्दाए अत्तया पोटिला नाम दारिया रूवेण य जाव उक्किट सरीरा) તે કૌટુંબિક પુરૂષોએ તેતલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન ! તે મૂષિકારદારક કલાદની પુત્રી છે અને ભદ્રાભાર્યાના ગર્ભથી તેને જન્મ થયે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ९ यावत्-उत्कृष्टशरीरा अस्ति । ततः खलु स तेतलिपुत्र अश्ववाहनिकायाः मतिनिवृतः प्रत्यागतः सन् — अभितरटाणिज्जे' अभ्यन्तरस्थानीयान अन्तरङ्गप्रेष्यपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः! कलादस्य मूषीकारदारकस्य दुहितरं भद्राया आत्मजां पोहिला दारिकां मम भार्यात्वेन वृणुत । हे देवानुप्रियाः यूयं तथा प्रयतव्यम् , यथा स मूषीकारदारकः स्वदुहितरं मम भार्यात्वेन मह्यं दद्यादितिभावः । ततः खलु ते आभ्यन्तरस्थानीयाः पुरुषास्तेतलिना एवमुक्ताः सन्तो हृष्ट तुष्टाः करतलपरिगृहीतं शिर आवत्तं मस्तकेऽञ्जलि कृत्वा, 'तहत्ति' तथेति तथा करिष्यामीति 'किचा' कृत्वा-स्वीकृत्य यौव कला. इस का नाम पोटिला है। रूप आदि से यह बहुत ही उत्कृष्ट शरीर वाली है। (तएणं से तेयलिपुत्ते आसवाहणिएओ पडिनियत्ते समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सदायित्ता एवं क्यासी, गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कलादस्स मूसियारदारयस्स धूय भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह) इस के बाद वह तेतलि पुत्र अमात्य, अश्ववाहनिका से पीछे जब लौटा तो लौटते ही उसने अपने अन्तरंग प्रेष्य पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहाहे देवानुप्रियों ? तुम लोग जाओ-और मूषीकार दारक कलाद की पुत्री जिसका नाम पोटिला है, जो भद्रा की कुक्षि से उत्पन्न हुई है उसे मेरी भार्यारूप से वरआओ। तात्पर्य इस का यह है कि तुमलोग वहां जाकर ऐसा प्रयत्न करो कि जिस से वह मूषीकारदारक कलाद अपनी पुत्री को पत्नी के रूप में मुझे दे देवें। (तएणं ते अभंतरठाणिजा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ट तुट्टो करयल परिरहियं सिरसा છે. તેનું નામ પિદિલા છે. તે રૂપ વગેરેથી ખૂબ જ ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે. __ (तएणं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिनियने समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कलादस्स मृसियारदारयस्स धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह ) ત્યારપછી તે તેતલિપુત્ર અમાત્ય અશ્વવાહનિકાથી ઘેર પાછો આવ્યો ત્યારે આવતાંની સાથે જ તેણે પિતાના-અન્તર ગ પ્રેષ્ય પુરૂષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જાઓ અને મૂષીકારદારક કલાદની પુત્રી છે-કે જેનું નામ પિક્રિયા છે, અને જે ભદ્રાના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થઈ છે તેને ભાર્યા રૂપમાં મને આપ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે તમે લેકે ત્યાં જઈને એવી કોશિશ કરે કે જેથી તે મૂષીકારદારક કલાદ પિતાની પુત્રીને પત્ની રૂપમાં મને આપી દે, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दस्य मूषीकारदारकस्य गृहं तत्रैव उपागताः। ततः खलु स कलादो मूषीकारदारकः तान् अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषानेजमानान् पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टोऽतिशयममुदितः आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय तान् सम्मानयितुं तेषामभिमुखं सप्ताष्टपदानि वत्तं मत्थए अंजलिं कटु तहत्ति किच्चा जेणेव कलायस्स मूसियारस्स गिहे तेणेव उवागया ) इस प्रकार तेतलि पुत्र के द्वारा कहे गये वे अन्तरंग प्रेष्य पुरुष हृष्ट तुष्ट होते हुए वहां से निकल कर मूषीकार कलाद का जहां घर था वहां आये। आते समय उन्होंने तेतलि पुत्र को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रख कर नमः स्कार किया और हम आपने जैसा कहा है वैसा ही करेंगे इस बात को उसे आश्वासन देकर स्वीकार किया था। (तएणं से कलाए मूसिधारदारए ते पुरिसे एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्ट तुढे आसणाओ अन्भुटूठेइ, अन्भुद्वित्ता सत्तटुपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता आसणे. णं उवणिमंतेइ, उवणिमंतित्ता आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी संदिसतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं-तएणं ते अ. भितरठाणिज्जा पुरिसा कलायं मूसियदारयं एवं वयासी) जब उस मूषीकार दारककलादने उन पुरुषों को आपने घर की ओर आते हुए देखा तो वह देखकर हष्ट तुष्ट हो अपने आसन पर से उठ बैठा-उठ (तएणं ते अन्मंतरठाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्टतृट्ठा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कडु तहति किच्चा जेणेव कलायस्स मृसियारस्स गिहे तेणेव उवागया) આ રીતે તેતલિપુત્રે જેઓને આદેશ આપે છે એવા તે અંતરંગ પ્રેષ્ય પુરૂષ હૃષ્ટ તુષ્ટ થતાં ત્યાંથી રવાના થઈને મૂષીકાર કલાદનું જ્યાં ઘર હતું ત્યાં પહોંચ્યા. તેતલિપુત્રની પાસેથી પાછાં ફરતાં તેઓએ બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને અમે આપે જેમ હુકમ કર્યો છે તેને યથાવત પાલન કરીશું. આ રીતે તેમની આજ્ઞા તેઓએ સ્વીકારી. (तएणं से कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हद्वतुढे आसणाओ अब्भुटेइ, अन्भुट्टित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ, उपणिमंतित्ता आसत्थे मुहासगवरगए एवं वयासी संदिसतु णं देवाणुपिया ! किमागमणपओयणं-तएणं ते अभितरठाणिज्जा पुरिसा कलायं मृसियदारयं एवं वयासी) મૂષીકારદારક કલાદે જ્યારે તે પુરૂષોને પિતાના ઘર તરફ આવતા જોયા ત્યારે તે જોઈને હષ્ટ તુષ્ટ થઈને પિતાના આસન ઉપરથી ઊભા થઈ ગયે અને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ११ गत्वा तानग्रे कृत्वा स्त्रयम् 'अणुगच्छइ' अनुगच्छति, तेषां पृष्ठवर्ती भूत्वा गच्छति, अनुगम्य, आसनेन उपनिमन्त्रयति = आसनदानेन तान् पुरुषानुपवेशयति, उपनिमन्त्र्य, आस्वस्थः, विस्वस्थः एतेषाममात्यपुरुषाणां सत्कारो यथावज्जात इति हेतोः स्वस्थमनाः भूत्वा सुखासनवर गतः - स्वयमपि स्वकीयासने सुखोपविष्टः सन् एवमवदत् - संदिशन्तु खलु हे देवानुप्रियाः । भवतां किमागमनप्रयोजनम् १ ततः खलु ते आभ्यन्तरस्थानीयाः पुरुषाः कलादं मूषीकारदारकम् एवमबदन - वयं खलु देवानुप्रिय ! तव दुहितरं भद्राया आत्मजां पोट्टिलां दारिकां तेतलिपुत्रस्य भार्यात्वेन वृणुमः, तद् यदि खलु त्वं ' जाणसि ' जानासि = मन्यसे, हे देवानुप्रिय ! यद् अस्माकमेतत्त्वत्कन्याविषयकं याचनं' जुत्तं वा ' युक्तं वा = उचितम् ' पत्तं वा ' प्राप्तं वा मनसिसंलग्नं वा ' सलाहणिज्जं वा ' श्लाघनीयं वा = प्रशंसनीयं वा अपि च 'सरिसो वा संजोगो' सदृशो वा संयोगः तेतलिपुत्रेण सह तब कन्याया वैवाहिकः कर फिर वह सात आठ डग प्रमाण आगे उन का सत्कार करने के लिये गया। वहां से उन्हें आगेकर के वह स्वयं उनके पीछे २ आया । आकर के फिर उसने उन्हें आसनों पर बैठाया-बैठा कर आश्वस्त विश्वस्त होकर बाद में वह स्वयं दूसरे अपने आसन पर शान्ति पूर्वक बैठ गया। बैठ जाने के बाद फिर उसने इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियो ! कहिये किस कारण से आप यहां पधारे हैं आपलोगों के आने का क्या प्रयोजन है - इस प्रकार उसके पूछने पर उन अभ्यन्तर स्थानीय पुरुषों ने उस सुवर्णकार के पुत्र कलाद से इस प्रकार कहा ( अम्हे णं देवाणुपिया । तव धूयं भद्दाए अन्तयं पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए वरेमो, तं जइणं जाणसि देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो ता दिज्ज उणं पोट्टिला दारिया तेयलि ઊભેા થઈને તેમના સ્વાગત માટે સાત આઠ પગલાં સામે ગયા. ત્યાંથી તેણે આવનારાઓને આગળ કરીને એટલે કે પાતે તેઓની પાછળ પાછળ ચાલતા ત્યાં આવ્યા અને આવીને તેણે તેએને આસના ઉપર બેસાડયા. ત્યારપછી આશ્વસ્ત વિશ્વસ્ત થઈ ને તે પેાતે ખીજા આસન ઉપર શાંતિપૂર્વક એસી ગયેા. એસીને તેણે તેઓએ વિનય પૂર્ણાંક કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા ! બેલા, તમે શા કારણથી અહીં આવ્યા છે ? તમે શા પ્રયાજનથી આવ્યા છે ? આ રીતે કલાદ ( સુવણુંકાર ) ની વાત સાંભળીને તે આભ્યંતર સ્થાનીય પુરૂષોએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે ( अम्हेण देवाणुपिया ! तब धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं तेयलि पुत्तस्स मारिया वरेमो, तं जणं जाणसि देवाणुप्पिय ! जुत्तं वा पतं वा सलाहणिज्जं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सम्बन्धो योग्यो भवतीति, यदि जानासि तदा दीयतां खलु पोट्टिला दारिका तेतलिपुत्राय 'तो' तर्हि भण= ब्रूहि, हे देवानुप्रिय ! किं दद्मः शुल्कम् सम्मानपुरस्कारं भवते किं समर्थयामः । ततः खलु कलादो मूषीकदारकः अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् एवमवदत् - एतदेव खलु देवानुप्रियाः ! मम शुल्कम्, यत्खलु तेतलिपुत्रो मम दारिकानिमित्तेन अनुग्रहं दयां करोति । इत्युक्त्वाऽसौ तान् अभ्यन्तरस्थानीपुस्तस्स तो भण देवाणुप्पिया ! किं दलामो सुक्कं ? तरणं कलाए मूसिधारदार ते अभितरठाणिज्जे पुरिसं एवं क्यासी) हे देवानुप्रिय हम लोग तुम्हारी पुत्री पोहिला दारिका को कि जो भद्राकी कुक्षि से उत्पन्न हुई है तेतली पुत्र अमात्य की वह भार्या बने इस रूप से वरण करने के लिये आये हुए हैं तो यदि तुम हे देवानुप्रिय ! हमारी इस याचना को उचित, प्राप्त, और इलाघनीय-प्रशंसनीय मानते हो और यह समझते हो कि यह तेतलिपुत्र के साथ तुम्हारी कन्या का वैवाहिक संबंध योग्य है तो पोट्टिला दारिका तेतलि पुत्र के लिये प्रदान कर दो-और साथ में यह भी कह दो कि हम आपके लिये इस निमित्त क्यो सम्मान पुरस्कार देवें । इस प्रकार उन सब की ऐसी बाते सुनकर उस सुवर्ण कार पुत्र कलादने उन आये हुए अभ्यंतर स्थानीय पुरुषों से इस प्रकार कहा - ( एस चे णं देवाणुपिया ! मम सुक्के जन्नं तेयलिपुते - मम दारिया निमित्तणं अणुग्गहं करेइ, ते अभितर हाणिज्जे पुरिसे वासरसो वा संजोयो ता दिज्जउणं पोहिला दारिया तेयलिपुत्तस्स तो भण देवापिया ! किंदलामो सुक्कं तरणं कलाए मूसियारदारए ते अमितरठाणिज्जे पुरिसं एवं वयासी) હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમારી ભદ્રા ભાર્યોના ગર્ભથી જન્મ પામેલી તમારી પાટ્ટિલા દારિકા અમાત્ય તેતલીપુત્રની ભાર્યાં થાય આ જાતની માંગણી કરવા અમે તમારી પાસે આવ્યા છીએ. હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તેતલિપુત્રની માંગણી ઉચિત, શ્લાઘનીય અને પ્રશંસનીય માનતા હોય તેમજ એમ પણ તમને થતુ હાય કે અમાત્ય તેલિપુત્રની સાથેને આ લગ્ન સંબંધ ચાગ્ય છે તે તમે અમાત્ય તેતલિપુત્રને પેટ્ટિલાદારિકા આપી દે અને એની સાથે તમે અમને એમ પણ જણાવી દો કે તમને અમે એના ખદલ સન્માન પુરસ્કારના રૂપમાં શુ આપીએ ? આ રીતે તેએ બધાની વાત સાંભળીને તે સુવર્ણકારના પુત્ર કલાદે આભ્ય તર સ્થાનીય પુરૂષાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે— ( एस चेव णं देवाणुपिया ! मम सुक्के जन्न तेयलिपुत्ते मम दारिया શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १३ यान् पुरुषान् विपुलेन अशनपानखाद्यस्यायेन पुष्यस्वगन्धमाल्यालंकारेण च सत्क. रोति, सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य, प्रतिविसर्जयति । तत- खलु ते आभ्यन्तर स्थानीयाः पुरुषाः कलादस्य मूषीकारदारकस्य गृहात प्रतिनिष्क्राम्यन्ति,प्रतिष्क्रिम्य यत्रैव तेतलिपुत्रोऽमात्यस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तेतलिपुत्राय अमात्याय 'एयमटुं' एतमर्थम् विवाहस्य स्वीकृतिरूपमर्थ निवेदयन्ति ।। सू०२ ॥ विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुष्फवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता पडि विसज्जेइ । तएणं ते कलायस्स मूसियारदारयस्स गिहाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमढे निवेदेति) हे देवानुप्रियो । मेरा सन्मान पुरस्कार यही है कि जो तेतलि पुत्र दारिका के निमित्त से मेरे ऊपर ऐसी दया कर रहे हैं-अर्थात् मेरी पुत्री को जो वे अपनी पत्नी बनाने की चाहना कर रहैं यही सब से बड़ा उन की ओर से मेरे लिये सन्मान पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है । इस प्रकार कह कर उस कलाद ने उन अभ्यंतरस्थानीय पुरुषों का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से एवं पुष्प, वस्त्र, गंध माला एवं अलंकारों से खूब सत्कार किया-सन्मान किया । सत्कार एवं सन्मान करने के बाद फिर उसने उन्हें विसर्जित कर दिया। वहां से विसर्जित होकर वे अभ्यंतर स्थानीय निमित्तेणं अणुग्गहं करेइ, ते अभितरवाणिज्जे पुरिसे विउलेण असणपाणखाइमसाइमेणं पुष्फवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ । तएणं ते कलायस्स मूसियारदारयस्स गिहाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे, तेणेव उवागच्छति, उबाग-च्छित्ता तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमह निवेदंति ) હે દેવાનુપ્રિયે ! અમાત્ય તેતલિપુત્ર મારી દારિકાને સ્વીકારવા રૂપ જે મારા ઉપર દયા બતાવી રહ્યા છે તે જ ખરેખર મારા માટે સન્માન અને પુરસ્કારની જ વસ્તુ છે. એટલે કે તેઓ મારી પુત્રીને પોતાની પત્ની પત્ની તરીકે ઈચ્છી રહ્યા છે, એજ તેમના તરફથી મારા માટે સમાન અને પુરસ્કાર રૂપ છે. આ રીતે કહીને તે કલાદે આવ્યંતર સ્થાનીય પુરૂષેનો વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યથી અને પુષ્પ, વસ્ત્ર, ગંધ, માળા અને અલંકારોથી ખૂબ જ સરસ રીતે સત્કાર કર્યો અને તેમનું સન્માન કર્યું. સત્કાર અને સન્માન કર્યા પછી તેણે તેમને વિદાય આપી. ત્યારપછી તે આત્યંતર સ્થાનીય પુરૂષે તે સુવાણ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे मूलम् - तरणं कलाए मूसियारदारए अन्नया कयाईं सोहणंसि तिहिनक्खत्तमुहुत्तंसि पाहिलं दारयं पहायं सव्वालंकारभूसियं सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तणाइसंपीरबुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सव्बिड्डीए तेयलीपुरं मज्झं मज्झेणं जेणेव तेयलिस्तगिहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ । तएणं तेयलिपुत्तं पोहिलं दारियं भारियन्ताए उवणीयं पास, पासित्ता पोहिलाए सद्धिं पट्टयं दूरूहइ, दूरूहित्ता सेयपीएहिं कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं करावे, करावित्ता पाणिग्गहणं करेइ, करिता पोहिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजणं विउलेणं असणपाणखाइम साइमेणं पुप्फ जाव पडिविसज्जेइ । तएणं से तेयलिपुत्ते पोट्टि - लाए भारियाए अणुरते अविरत्ते उरालाई जाव विहरेइ ॥ सू०३ ॥ टीका- 'तरणं' इत्यादि, ततः खलु कलादो मृषीकारदारकः अन्यदा कदाचित् 'सोहणं सि' शोभने - शुभावहे विवाहयोग्ये ' तिहिनक्खत्तमुहुर्तासि ' तिथिनक्षत्रमुहूर्ते १४ पुरुष उस सुवर्णकार पुत्र कलाद के घर से निकले और निकल कर जहां तेतलि पुत्र अमात्य था वहां आये वहां आकर उन्हों ने तेतलि पुत्र अमोत्य को विवाह स्वीकृति रूप अर्थ की खबर दी । सूत्र ॥ २ ॥ " तरणं कलाए मूसियारदारए " इत्यादि । टीकार्थ - (तए) इस के बाद ( मूसियारदारए) मूषीकार दारक ने ( अन्नया कयाई ) किसी एक समय (सोहणंसि तिहिनक्खत्तमुत्तसि કાર પુત્ર કલાદના ઘરથી નીકળ્યા અને ત્યાંથી જ્યાં અમાત્ય તેલિપુત્ર હતા ત્યાં પહોંચ્યા. અમાત્ય તૈલિપુત્રની પાસે જઇને તેએએ રકતસ`બંધ સ્વીકારવા રૂપ ખબર આપી. ।। સૂત્ર 66 2" 11 तणं कलाए मूसियारदारए ' इत्यादि - अर्थ - (तरणं ) त्यारपछी ( मूसियारदारए ) भूषी४२ द्वार है ( अन्नया कयाइं ) अर्धो वमते શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम १५ पोट्टिलां दारिकां स्नतां सर्वालङ्कारभूषितां 'सीयं शिविका द्रोहयति आरोहयति, दूरोह्य आरोह्य मित्तणाइ संपरिखुडे' मित्रज्ञाति संपरितृतः मित्रज्ञाति स्वजनसंबन्धिप. रिवेष्टितः, सर्वान् वैवाहिकान् संभारान्-विवाहसंस्कारोचित सामग्रीन गृहीत्वा स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य 'सन्धिड्डीए' सर्वद्धथा सर्वप्रकारिकया ऋद्धया सह 'तेयलिपुरं' तेतलीपुरस्य मध्यमध्येन निर्गच्छन् यत्रैव तेतले हं तत्रैव उपा. गच्छति, उपागत्य पोटिला दारिकां तेतलिपुत्राय स्वयमेव भार्यात्वेन ददाति । ततः खलु तेतलिपुत्रोऽमात्यः पोटिला दारिकां स्वभार्यात्त्वेन ' उवणीयं ' उपनीपोटिलं दारियं ण्हायं सव्वालंकारविभूसियं सीयं दुरूहइ ) शुभ तिथि नक्षत्र, मुहूर्त में पोटिला दारिका को स्नान करा कर समस्त अलंकारों से विभूषित किया और विभूषित कर के फिर उसे शिविका पर बैठा दिया-( दुरूहित्ता मित्तणाइ संपरिबुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सव्विड्डीए तेयली पुरं मज्झं मज्झे णं जेणेव तेयलिस्त गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोटिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ ) बैठा कर फिर वह मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबन्धी परिजनों से परिवेष्टित होकर एवं वैवाहिक समस्त सामग्री को लेकर अपने घर से निकला । निकल कर सर्व प्रकार की अपनी ऋद्धि के साथ २ तेतलि पुर के बीच से होता हुआ जहां तेतलि का घर था वहां पहुंचा। वहां पहुँच कर उसने अपनी पुत्री पोटिला दारिका को तेतलि पुत्र को अपने आप से भार्या रूप से प्रदान कर दी । (तएण (सोहणंसि तिहिनक्खत्तमुहुत्त सि पोट्टिलं दारियं व्हायं सव्वालंकार, भूसियं सीयं दुरूहइ) શુભ તિથિ નક્ષત્ર, મુહુર્તામાં પિટ્ટિલા દારિકાને સ્નાન કરાવીને બધી જાતના અલંકારોથી શણગારીને તેને પાલખીમાં બેસાડી દીધી. ( दुरुहित्ता मित्तणाइसंपरिबुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख. मित्ता सव्विड्डीए तेयलीपुरं मज्झ मज्झेणं जेणेव तेयलिस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागन्छित्ता पोट्टिल दारियं तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ ) બેસાડીને તે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સંબંધી અને પરિજનોની સાથે લગ્નની બધી સાધન સામગ્રી લઈને ઘેરથી નીકળે. નીકળીને તે સર્વ પ્રકારની પિતાની ઋદ્ધિની સાથે તેતલિપુરની વચ્ચે થઈને જ્યાં તેતલિકાનું ઘર હતું ત્યાં પહોંચે ત્યાં પહોંચીને તેણે પિતાની પુત્રી પિફ્રિલા દારિકાને તેટલી પુત્રને તેની ભાર્યાના રૂપમાં આપી દીધી. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ताम् उपनयनीकृतां पश्पति, दृष्ट्वा पोटिलया सार्द्ध पट्टकं दूरोहति, दुरुह्य — सेय पीएहिं ' श्वेतपीते := रजतसुवर्णनिर्मितैः : कलसेहिं ' कलशैः घटैः आत्मानं 'मज्जावेइ ' मज्जतिरनपयति, मज्जयित्वा अग्निसाक्षिको विवाह इति हेतोः 'अग्गिहोम करावेइ ' अग्निहोमं कारयति, कारयित्वा 'पाणिग्गहणं' पाणिग्रहणंविवाई करोति, कृत्वा पोटिलाया भार्यायाः ‘मित्तणाइ जाव परिजणं' मित्र ज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनम् विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन चतुर्विधाहारेण तेयलिपुत्ते पोटिलं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासइ, पासित्तो पोटिलाए सहि पट्टयं दुरूहइ) तेतलिपुत्र अमात्य ने पोटिला दारिका को अपनी भार्या रूप से अपने लिये प्रदान की हुई देखा तो देख कर वह उस पोटिला दारिका के साथ पटक पर बैठ गया। (दुरुहिता सेयपीएहिं कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेइ, मज्जाविता अग्गिहोमं करावेइ, करावित्ता पाणिगाहणं करेइ करिता पोटिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजणं विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमेणं पुप्फ जाव पडिविसज्जेइ। तएणं से तेयलिपुत्ते पोहिलाए भारियाए अगुरत्ते अविरत्त उरालाई जाव विहरेह ) बैठ कर फिर उसने रजत एवं सुवर्ण से निर्मित कलशों द्वारा अपना अभिषेक करवाया। अभिषेक करवा कर " अग्नि साक्षिक विवाह होता है " इस ख्याल से फिर उसने अग्नि में होम करवाया। करवा कर बाद में उसने उस पोटिला दारिका का पाणि ग्रहण कर लिया। विवाह हो चुकने के अनन्तर फिर उस तेतलि पुत्र अमात्य ने (तएणं तेयलिपुत्ते पोटिल दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासइ, पासित्ता पोहिलाए सद्धिं पट्टयं दुरूहइ) તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિફ્રિલા દારિકાને તેની ભાર્યા રૂપમાં આપેલી જોઈને તે પોલ્ફિલા દારિકાની સાથે પટ્ટક ઉપર બેસી ગયે. (दुरुहित्ता सेयपीएहिं कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेइ, मज्जावित्ता- अग्गिहोम करावेइ, करावित्ता पोटिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजणं विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमेण पुप्फ जाव पडिविसज्जेइ । तएणं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाई जाव विहरेइ) બેસીને તેણે ચાંદી અને સેનાના કળશે વડે પિતાને અભિષેક કરાવડાવ્યું. અભિષેક કરાવડાવીને તેણે “અગ્નિ સાક્ષિક લગ્ન થાય છે” આમ વિચારીને તેણે અગ્નિમાં હવન કરાવડાવ્યો. ત્યારપછી તેણે પોટ્ટિલા દારિકાનું પાણિ ગ્રહણ કર્યું. લગ્નની વિધિ પૂરી થયા બાદ તેતલિપુત્ર અમાત્યે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेललिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् सत्कार्य 'पडिविसज्जे 3 पुप्फजाव' पुष्पयावत् = पुष्पवसादिना यावन्मात्यालङ्कारादिना सत्कारयति, प्रति विसर्जयति । ततः खलु स तेतलिपुत्रोऽमात्यः पोहिलायां भार्यायाम् अणुरते ' अनुरक्तः = आसक्तः ' अविरते ' अविरक्तः= अत्यन्तानुरक्त इत्यर्थ, 'उरालाई जाव ' उदारान् यावत्-उदारान् भोगभोगान् = विषयभोगान् भुआनो विहरति ॥ सू०३ ।। " f १७ , मूलम् - तएणं से कणगरहे राया रज्जे य रट्टे य बले य बाहय कोसे य कोट्ठागारे य अंतेउरे य मुच्छिए४ जाए पुत्ते वियंगे अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुए छिंदइ, एवं पायंगुलियाओ पायगुडएवि, कन्न सक्कली एवि, नासापुडाई फालेइ, अंगभंगाई वियंगेइ । तणं तीसे पउमावईए देवीए अन्नया पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूबे अज्झत्थिए ५ समुप्पज्जित्था - एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगेइ, जाव अंगमंगाई वियंगेइ । तं जइ अहं दारयं पयायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्त रहस्सियं चैव सारक्खेमाणीए संगोपोहिला भार्या के मित्र, जाति, स्वजन संबन्धि परिजनों का अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार से तथा पुष्प, वस्त्र यावत् माल्य अलंकार आदि से सत्कार करवाया, सत्कार करवाने के बाद फिर उन सब को वहाँ से बिदा कर दिया। इसके पश्चात् पोहिला भार्या में आसक्त एवं अनुरक्त बने हुए उस तेतलि पुत्र अमात्य ने उसके साथ पंचेन्द्रिय संबन्धी सुखों का अनुभव करने लगा | सूत्र ॥ ३ ॥ પોટ્ટિલા ભાર્યાના મિત્ર જ્ઞાતિ, સ્વજન સંબ ંધી અને પરજનાને અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારથી તેમજ પુષ્પ, વસ્ર યાવતુ માલ્ય અલ'કાર વગેરેથી સત્કાર કરાવડાવ્યેા અને સત્કાર કરાવડાવ્યા પછી તેણે બધાને પેાતાના ઘેરથી વિદાય આપી. ત્યારપછી પોટ્ટિલા ભાર્યોમાં આસક્ત અને અનુ રક્ત થયેલા તે અમાત્ય તેતલિપુત્ર તેની સાથે પંચેન્દ્રિય સખ'ધી સુખાને उपलोग ४२वा लाग्यो । सूत्र " ३" ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाजसत्रे वेमाणीए विहरित्तए तिकट्ठ एवं संपेहेइ, संहिता तेयलिपुत्तं अमचं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रजे य जाब वियंगेइ, तं जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं पयायामि । तएणं तुमं देवाणुप्पिया! कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुवेणं सारक्खेमाणे संगोवेमाणे संवड्डेहि । तएणं से दारए उम्मुक्कवालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते तव य मम य भिक्खाभायणं भविस्तइ । तएणं से तेयलिपुत्ते पउमावईए एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता पडिगए ॥ सू० ४ ॥ टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु स कनकरथो राजा राज्ये च-राष्ट्र च-देशे बले सैन्ये च, वाहने अश्वादिषु च कोशे=भाण्डारे च धान्यादीनां कोष्ठागारे च अन्तः पुरे च, 'मुच्छिए ' मूञ्छिता मोहं प्राप्तः, गृद्धः आसक्तः अथितः विशेषेणासक्तः, अध्युपपन्ना सर्वथा तत्परायणः, जाए २-जातान २= उत्पन्नान् २ पुत्रान् ‘वियंगेइ ' व्यङ्गयति-विगतानि अङ्गानि येषां तान् व्यङ्गान् तएणं से कणगरहे राया' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कणगरहे राया रज्जे य रहे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य अंतेउरे य मुच्छिए ४) वह कनकरथ राजा राज्य में राष्ट्र में सैन्य में अश्वादि बाहन में, धान्यादिकों के कोष्टागार में एवं अन्तः पुर में मूछित, गृह अत्यंत अनुरक्त एवं अध्युपपन्न-सर्वथा तत्परायण बन गया । सो (जाए पुत्त वियंगेइ ) तएणं से कणगरहे राया इत्यादि(तएणं ) त्यामा elstथ-( से कणगरहे राया रज्जेय रहे य बले य वाहणे य कोडागारे य अंतेउरे य मुच्छिए ४) તે કનકરથ રાજા રાજ્ય રાજ્યમાં, રાષ્ટ્રમાં, સિન્યમાં, અશ્વ વગેરે વાહ. નેમાં, ધાન્ય વગેરેની બાબતમાં, કોષાગારમાં અને રણવાસમાં મૂછિત, વૃદ્ધ, धो मासात अने अध्युपपन्न संपूर्णपणे तत्५२ थई गयी. मेथी ( जाए पुत्तं वियंगेइ) ते मा पोताना पुत्राने मगहीन नापी तो हतो. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १९ करोतीति व्यङ्गयति-अङ्गहीनान् करोति । 'विइंतेइ ' इति पाठे विकर्तयति छिनत्ति इत्यर्थोयोध्यः । तत्पकारमाह-अप्येकेषां केषांचिदुत्पन्नानां पुत्राणां हस्ताङ्गुलीछिनत्ति, अप्येकेषां केषांचित् बालानां हस्ताङ्गुष्ठान छिनत्ति । एवं पादाजुलिकाः पादाङ्गुष्ठान अपि, एवं 'कण्णसकुलीए वि' कर्णशष्कुलीरपि-कर्णानपि तथा नासापुटानि च 'फालेइ ' पाटयति-छिनत्ति, इत्यर्थः । अनेन प्रकारेण एप कनकरथो राजा बालानाम् 'अंगमंगाई' अङ्गानि अंगानि सर्वाण्यङ्गानि व्यङ्ग्यति-छिनत्ति । ततः खलु अनेन प्रकारेण समुत्पन्नानां पुत्राणां विनाशानन्तरम् — तीसे ' तस्याः कनकरथस्य राज्याः पद्मावत्याः देव्या अन्यदा 'पुनरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमयेराः पश्चिमे भागे अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः आत्मगतो उत्पन्न हुए अपने पुत्रों को अंगहीन कर देता। ( अप्पेगइयाण हत्थं गुलियाओ छिदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए, छिंदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुठए वि कन्नसक्कुलीए वि, नासापुडाइं फालेइ, अंगमंगाई वियंगेइ ) कितनेक बालकों के वह हाथों की अंगुलियों को छेद देता था, कितनेक बालकों के हाथों के अंगूठों कोकाट देता था, इसी तरह वह पैरों की अंगुलियों को पैरों के अंगुष्ठों को, कानों को नासा पुटों को छेद देता था। इस तरह यह कनक रथ राजा बालकों के अंगों का भंगकर देता था। (तएणं तीसे पाउमावईए देवीए अन्नया पुचरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयाख्वे अज्झथिए ५ समुपजित्था) इस प्रकार समुत्पन्न पुत्रों के विनाश के बाद उस कनकरथ राजा की रानी पद्मावती देवी के किसी एक समय रात्रि के पश्चिम भाग में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न ( अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ अप्पेगइयाणं हत्थंगुठए छिदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्ठए वि कन्नसक्कुलिए वि, नासा पुडाई फालेइ, अंगमंगाइवियंगेइ) કેટલાક બાળકોની તે હાથની આંગળીઓ કપાવી નંખાવતે હતું, કેટલાક બાળકના હાથના અંગૂઠાઓ કપાવી નંખાવતે હતો, આ રીતે તે પગની આંગળીઓને, પગના અંગૂઠાઓને, કાન, નાકને કપાવી નંખાવતે હતું. આમ તે કનકરથ રાજા બાળકોના અંગેનું તે છેદન કરાવી નખાવતે હતે. (तएणं तीसे पाउमावईए देवीए अनया पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि अयमेवारूवे अज्जथिए ५ समुपज्जित्था ) આ પ્રમાણે જન્મેલા પુત્રના વિનાશ પછી તે કનકરથ રાજાની રાણી પદ્માવતી દેવીને કે એક સમયે રાત્રિના કેટલા પહોરમાં આ જાતને આપ્યા ત્મિક યાવત્ મને ગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે – શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विचारो यावत् मनोगतः संकल्पः, 'समुप्पज्जित्था ' समुदपद्यत । संकल्पप्रकारमाह-एवं खलु' इत्यादि-एवं खलु कनकरथो राजा राज्ये च यावत् व्यङ्गयति। यावत् अङ्गानि अङ्गानि व्यङ्गयति अनेन प्रकारेण कुत्सितमारेण मारयति । तद्यदि खलु अहं दारकं 'पयायामि ' प्रजनयामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए विहरित्तए' श्रेयः खलु मम तं दारक कनकरथस्य — रहस्सियं चेव' रहस्यिकमेव गुप्तमेव आपदः संरक्षन्त्या ' संरक्खमाणीए' संरक्षन्त्याः भूपदृष्टयादेः, 'संगोवेमाणीए' संगोपायन्त्या भूपकृतोपद्रवात् विहर्तुम् , 'त्तिक?' इति कृत्वा इति मनसि कृत्वा एवं संप्रेक्षते-एवं विचारयति संप्रेक्ष्य-विचार्य तेतलिपुत्रममात्यं प्रधानं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-एवं खलु देवानुप्रिय ! कनकरथो राजा ' रज्जेय जाब वियंगेइ' राज्ये च यावद् व्यङ्गयति राज्यादिषु च मूच्छितो जातान् पुत्रान् विकृताङ्गान् करोति एवं तेषामङ्गोपाङ्गानि खण्डयति । अनया रोत्याःपुत्रान्मारयति, तद्यदि खलु अहं देवानुप्रिय ! दारकं प्रजनयामि । ततः खलु त्वं कनकरथस्य रहस्यिकमेव हुआ-(एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगेइ, जाव अङ्ग मंगाई वियंगेइ ) यह कनकरथ राजा राज्य आदिमें मूर्छित गृद्ध, अत्यन्त अनुरक्त एवं अध्युपपन्न अत्यन्त तत्पर बनकर पुत्रों को काट देता हैं-बुरी तरह से उन्हें मार डालता है ( तं जइ अहं दारयं पायायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव सारक्खेमाणीए संगोवेभाणीए विहरित्तए त्ति कटूटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता, तेयलिपुत्तं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कण. गरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ तं जइणं अहं देवाणुपिया ! दारगंपयोयोमि, तएणं तुमं देवाणुप्पिया! कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुब्वे ( एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगेइ, जाव अंग मंगाई वियंगेइ) કનકરથ રાજા રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં મૂછિત વૃદ્ધ, ખૂબજ આસક્ત અને અષ્ણુપપન્ન-અત્યન્ત તત્પર થઈને-પુત્રને અંગહીન કરાવી નાખે છે યાવત્ તેમના અંગોને કપાવી નખાવે છે અને ખરાબ હાલતમાં તેઓને મરાવી નંખાવે છે. (तं जइ अहं दारयं पायायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव सारक्खेमाणी ए संगोवेमाणीए विहरित्तए तिकटु एवं संपेहेइ, संपेहिता तेयलिपुत्तं अमच्चं सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे, राया रज्जे य जाव वियंगेई तं जइणं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं पयायामि, तएणं तुम देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रहस्तियं चेव अणुपुग्वेणं सारक्खे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् २१ 6 'अणुपुब्वेण ' आनुपूर्व्येण यथाक्रमम् संरक्षन् भूपदृट्ट्यादितः संगोपायन भूपकृतो पद्रवात् तं दारकं ' संबढेइ ' संवर्द्धय, तस्य बालस्य वृद्धिमुपनय । ततः खलु स दारकः उम्मुकबालभावे' उन्मुक्तवालभावः = उन्मुक्तः परित्यक्तो बालभावो बालत्वं येन सः, ' जोव्वणगमणुपपत्ते ' यौवनकमनुप्राप्तः = प्राप्ततारुण्यः तव मम च णं सारक्खेमाणे संगोवेमाणे संबद्धेहिं । तएणं से दारए उम्मुक्कबाल भावे जोन्वणगमणुपपत्ते तव य मम य भिक्खाभाषणं भविस्सह तएर्ण से तेयलिपुत्ते परमावइए एयम पडिसुणेड़, पडिणित्ता पडिगए) तो यदि मेरे यहां पुत्र उत्पन्न होता है - मैं पुत्र को उत्पन्न करती हूँतो मुझे यही योग्य है कि मैं राजा कनकरथ को खबर न पडे इस रूप से उसकी रक्षा करूँ - उनकी दृष्टि से उसे बचाकर रखूं - ऐसा उसने मन से विचार किया । विचार कर फिर उसने अमात्य तेतलिपुत्र को बुलाया - बुलाकर उस से ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूर्छित गृद्ध-अत्यंत अनुरक्त एवं अध्युपपन्न बना हुआ है जो वह उत्पन्न हुए बालकों को अंग हीन कर देता है- उनके हाथों की अंगुलियों आदि अङ्गों को काट देता है। तो हे देवा नुप्रिय । यदि मैं पुत्र को उत्पन्न करती हूँ तो देवानुप्रिय तुम उसे राजा को खबर न पडे इस रूप से रक्षित करते हुए और उनकी दृष्टि से बचाते हुए क्रमशः वृद्धिंगत करो। जब वह बालक - क्रमशः संवर्द्धित होता हुआ बाल्यावस्था से रहित होकर यौवनावस्था वाला बन जायगा माणे संगोवेमाणे संबद्धेहिं । तरणं से दारए उम्मुक्क बालभावे जोव्वणगमणुपत्ते तव य मम य भिक्खाभायणं भविस्सइ तरणं से तेयलिपुत्ते परमावइए एयमहं पडिसुणेइ पडिसुनिता पडिगए) હવે મને પુત્ર ઉત્પન્ન થવાના જ છે, તે મને એજ ચેાગ્ય લાગે છે કે કનકરથ રાજાને ખખર પડે નહિ તે રીતે બાળકની રક્ષા કરૂં. તેમની કુદૃષ્ટિથી તેને ખચાવું. આ પ્રમાણે તેણે મનમાં વિચાર કર્યાં વિચાર કરીને તેણે અમાત્ય તેતલિપુત્રને ખેલાવ્યે અને ખેલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય'! રાજા કનકરથ રાજ્ય વગેરેના કામમાં આટલા બધા સૂચ્છિત, બૃદ્ધ-ખૂબજ આસક્ત અને અધ્યુપપન્ન થઈ પડયા છે કે તે જન્મેલા ખાળકના અંગે કપાવી નાખે છે. તેમના હાથેાની આંગળીઓ વગેરે અંગેાને કપાવી નાખે છે. જો હું દેવાનુપ્રિય ! હું પુત્રને જન્મ આપું તેા દેવાનુપ્રિય તમે રાજાને ખબર પડે નહીં તેમ તેમની કુદૃષ્ટિથી ખાળકની રક્ષા કરતા તેનું ભરણ-પોષણ કરો, જો તે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'भिक्खामायणं' भिक्षाभाजनम्-भिक्षाया आधारभूतो भविष्यति । ततः खलु स तेतलिपुत्रः पद्मावत्याः एकमर्थ प्रतिशृणोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य पद्मावत्याः समीपात् प्रतिगतः स्वगृहे गतवान् ।।०४।। मूलम्-तएणं पउमावई य देवी पोटिला य अमच्ची सय. मेव गभं गिण्हइ, सयमेव परिवहइ । तएणं सा पउमावई नवण्हं मासाणं जाव पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया, जं रयर्णि च णं पउमावई दारयं पयाया तं रयणिं च णं पोटिला वि अमच्ची नवण्हं मासाणं विणिहायमावन्नं दारियं पयाया। तएणं सा पउमावई देवी अम्मधाइं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमे अम्मो! तेतलिगिहे तेतलिपुत्तं अमच्चं रहस्सियं चेव सदावेह । तएणं सा अम्मधाई तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवद्दारेणं णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता, जेणेव तेतलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पउमावई देवी सदावेइ । तएणं तेतलिपुत्तं अम्मधाईए अंतिए एयम सोच्चा हट्टतुटे अम्मधाईए सद्धिं साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं रहस्सियं चेव अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव तो हमारे तुम्हारे दोनों के लिये भिक्षा पात्र-भिक्षा का आधार भूतबन जायगा इस प्रकार पद्मावती के इस कथन रूप अर्थ को उस तेत. लिपुत्र अमात्यने स्वीकार कर लिया। और स्वीकार करके फिर वह पद्मावती देवी के पास से अपने घर पर चला आया। सू०४॥ બાળક આખરે માટે થઈ જશે અને બચપણ વટાવીને જુવાન થઈ જશે તે મારા અને તમારા બનેને માટે ભિક્ષાપાત્ર ભિક્ષાને આધારભૂત થઈ જશે. આ રીતે પદ્માવતીના આ કથન રૂપ અર્થને તે તેતલિપુત્ર અમાત્ય સ્વીકાર કરીને તે પદ્માવતી દેવીની પાસેથી વિદાય લઈને પિતાને ઘેર આવી ગયુંસ. ૪. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधान चरितवर्णनम् २३ उवागए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी-संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए कायठवं ? तएणं पउमावई तेतलिपुत्तं एवं वयासी-एवं खल्लु कणगरहे राया जाव वियंगेइ, अहं च णं देवाणुप्पिया ! दारगं पयाया तं तुमं णं देवाणुप्पिया ! एयं दारगं गेण्हाहि जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइ त्तिक? तेतलिपुत्तं दलयइ । तएणं तेतलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारगं गेण्हइ गिण्हत्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ,पिहिता अंतेउरस्त रहस्सियं अवदारेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता, जेणेव सये गिहे जेणेव पोहिला भारिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोटिलं एवं वयासी-एवं खलु देवागुप्पिया! कणगरहे राया रजे य जाव वियंगेइ, अयं च णं दारए कणगरहस्सपुत्ते पउमावईए अत्तए, तं गं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुटवेणं सारक्खाहि य संगोवाहि य संबड्डेहि य । तएणं एस दारए उमुक्कबालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्तइ त्ति कटु पोट्टि. लाए पासे णिक्खिवइ, णिक्खिवित्ता, पोहिलाओ पासाओ विनिहायमावन्नियं दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिजेणं पिहेइ, पिहिता अंतेउरस्स अवदारेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउ. मावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जाव पडिणिग्गए । तएणं तीसे पउमावईए अंगपरियारियाओ पउमावइं देविं विणिहायमावन्नं च श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गमत्रे दारियं पासति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मस्थए अंजलिं कटु एवं वयासी एवं खलु सामी! पउमावई देवी मइल्लियं दारियं पयाया। तएणं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेइ, बहणि लोइयाइं मयकिच्चाई करेइ.करित्ता कालेणं विगयसोए जाए । तएणं से तेतलिपुत्ते कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता, एवं वयासी-खिप्पामेव चारगसोहणं जाव ठिइवडियं, जम्हाणं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रजे जाए, तं होउ णं दारए, नामेणं कणगज्झए जाव भोगसमत्थे जाए ॥ सू० ५॥ ___टीका-तएणं' इत्यादि । ततः खलु पद्मावती च देवी पोटिला च अमात्यी सममेव गर्भ गृह्णाति, सममेवगर्भ परिवहति-धारयति । ततः खलु सा पद्मावती 'नवण्डं मासाणं जाव ' नवानां मासानां नवसु मासेसु व्यतीतेषु यावत् सत्सु 'पियदंसगं' मियदर्शनम् प्रियं चेतोहरं दर्शनमवलोकनं यस्य तं = दर्शकजनचेतोहादजनकं मुरूपं दारकं ‘पयाया' प्रजाता-जनितवती । यस्यां रजन्यां च 'तएणं पउमावई य देवी' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद ( पउमावई य देवी पोटिलाय अमच्ची सयमेव गन्भं गिण्हइ) पद्मावती देवी और पोटिला अमात्यी ने साथ ही गर्भ धारण किया। (तएणं सा पउमावई नवण्हं मासाणं जाव पियद सणं सुरूवं दारगं पयाया) पद्मावती देवी ने जब नौ मास अच्छी तरह गर्भ के समाप्त हो चुके तब दर्शकजन चित्ताह्लाद जनक अच्छे रूप शाली पुत्र को जन्म दिया। (जं रयणिं च ण पउमोबई दारयं पयाया 'तएण पउमावइ य देवी' इस्यादि टी -'तएण) त्या२५छ। (पउमावइ य देवी पोद्विला य अमची मयमेव गमं गिण्हइ ) ५मावती देवी मने पोट्टिमा अमात्यीय साथे साथे २४ मधा२६ ध्या. (तएणं सा पउमावई नावण्हं मासाणं जाव पियदंसणं सुरुवं दारगं पयाया) જ્યારે નવ માસ સારી રીતે પસાર થઈ ગયા ત્યારે પદ્માવતી દેવીએ જેનારાઓ જોઈને પ્રસન્ન થઈ જાય એવા રૂપાળા પુત્રને જન્મ આપે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् २५ खलु पद्मवती दारकं प्रजाता तस्यां रजन्यां च खलु पोटिलापि अमात्यी 'नवण्हंमासाणं' नवानां मासानाम् नवसु मासेषु व्यतीतेषु 'विणिहायमावन्नं ' विनिघातमापन्नाम्-मृताम् दारिका प्रजाता-जनितवती । ' तएणं ' ततः खलु पुत्रजन्मा. नन्तरं सा पद्मावती देवी अम्वधात्रीं शब्द यति, शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छत खलु यूयमम्ब ! तेतलिगिहे ' तेतलिगृहे तेतलेरमात्यस्य गृहे तेतलिपुत्रममात्य रहस्थिकम् अन्यैरपरिज्ञातमेव शब्दयत=आह्वयत । ततः खलु सा अम्बधात्री तथेति पतिश्रृणोति, अङ्गीकरोति, प्रतिश्रुत्य अन्तः पुरस्य ' अवदारेणं ' अपद्वारेण-पृष्ठद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य, यव तेतले हम् , यौव तेतलिपुत्रस्तौव उपा. गच्छति, उपागत्य करतल यावद् अञ्जलिपुटं कृत्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे तं रयणिं च पोटिलावि अमची नवण्हं मोसाण विणिहायमावन्नं दारियं पयाया) जिस रात्रि में पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया था उसी रात्रि में पोटिला अमात्यी ने भी नौ मास व्यतीत हो जाने पर एक मरी हुइ कन्या को जन्म दिया (तएणं सा पउमावई अम्मघायं सहावेइ, सदावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमे अम्मो ! तेतलिगिहे तेतलीपुत्तं अमच्चं रहस्सियं चेव सद्दावेह) इस के बाद उस पद्मावती ने अम्बधात्री को बुलवाया और बुलवाकर उससे ऐसा कहा हे अम्म ! तुम तेतलि अमात्य के घर पर जाओ। और किसी को पत्ता न पड़े इस रूप से तुम तेतलि पुत्र अमात्य को बुला लाओ। (तएणं सा अ. म्मधाई तहत्ति पडिसुणेइ. पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवद्दारेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव तेतलिस्सगिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवा. गच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया (जं रयणिं च णं पउमावई दारयं पयाया तं रयणिं च णं पोहिला वि अमची नवण्हं मासाणं विणिहायमावन्न यारियं पयाया) । જે રાત્રિએ પદ્માવતી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે તે જ રાત્રિએ પોટ્ટિલા અમાત્યીએ પણ નવ માસ પૂરા થવાથી એક મરેલી કન્યાને જન્મ આપે (तएणं सा पउमावई अम्मधायं सदावेइ, सदायित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमे अम्मो ! तेतलिगिहे तेतलिपुत्त अमञ्च रहस्सिय चेव सदावेह ) ત્યારપછી તે પદ્માવતીએ અંધાત્રીને બોલાવી અને બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે અ ! તમે તેતલિ અમાત્યને ઘેર જાઓ અને કોઈને ખબર પડે નહિ તેમ તેતલિપુત્ર અમાત્યને તમે અહીં બોલાવી લાવે. (तएणं सा अम्मधाई तहत्ति पडिसुणेर, पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं णिग्गच्छइ जिग्गच्छित्ता जेणेब ततलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवा. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAA - -- -- - -- ज्ञाताधर्मकथासूत्रे देवानुथिय ! पद्मावती देवी भवन्तं शब्दयति । ततः खलु तेतलिपुत्र: 'अंबधाईएअंतिए ' अम्बधाच्या अन्तिके अम्बधान्याः सकाशात् एतमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्टोऽम्बधान्याः सार्द्ध स्वकाद् गृहाद निर्गच्छति, निर्गत्य अन्तपुरस्य अपद्वारेण रहस्यिकमेव-प्रच्छन्नमेव अनुपविशति, अनुपविश्य, यत्रैव पद्मावती देवी तत्रैव 'उवागए' उपागतः संप्राप्तः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावते मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवदत् -' संदिसतु ' संदिशतु-आज्ञापयतु खलु हे देवानुप्रिये ! पउमावई देवी सद्दावेइ । तएण तेतलिपुत्ते अम्मधाईए अंतिए एघमट्ट सोच्चा हट्ट तुढे अम्मधाईए सद्धिं साओ गिहाओ णिग्गच्छइ ) पद्मावती देवी के इस प्रकार वचन सुनकर उस अम्बधात्री ने तथेति कह कर उसकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर के फिर वह अंतः पुर के अपवार से-पीछे के दरवाजे से बाहिर निकली-निकल कर जहां तेतलि का घर और उसमें भी जहां तेतलिपुत्र था वहां गई। वहां जाकर पहिले उसने तेतलिपुत्र अमात्य को दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया-बाद में बोली-हे देवानुप्रिय ! आपको पद्मावती देवी बुला रही हैं। अम्बधात्री के मुख से इस प्रकार वचन सुन कर व तेतलि पुत्र हर्षित एवं तुष्ट होता हुआ अम्बाधात्री के साथ ही अपने घर से निकला। (णिग्गच्छित्ता अंते उरस्स अवदारेणं रहस्सि यं चेव अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं क्यागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पउमावई देवी सदावेइ । तएणं तेतलिपुत्ते अम्मधाईए अंतिए एयमढे सोचा हट्ठतुट्टे अम्म. धाईए सद्धि साओ गिहाओ णिगच्छइ ) આ રીતે પદ્માવતી દેવીની વાત સાંભળીને અંધાત્રીએ “ તથતિ” (સારું) આમ કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. સ્વીકારીને તે રણવાસના પાછલા બારણેથી બહાર નીકળી અને નીકળીને જ્યાં તેતલિપુત્રનું ઘર અને તેમાં પણ જ્યાં તેતલિપુત્ર અમાત્ય હતા ત્યાં પહોંચી. ત્યાં પહોંચીને તેણે સૌ પહેલાં અને હાથ જોડીને તેતલિપુત્રને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી તેણે કહ્યું કે હે દેવાનપ્રિય ! તમને પદ્માવતી દેવી બોલાવે છે. અંબધાત્રીના મુખથી આ જાતની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્ર હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થતો અંબેધાત્રીની સાથે સાથે જ તે પિતાના ઘેરથી રણવાસ તરફ રવાના થયો. (णिगच्छित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं रहस्सियं चेव अणुप्पविसइ, अणुण्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागए, करयलपरिग्गहियं दसणहं सिर श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १७ 'जं मए कायव्वं ' यन्मया कर्तव्यम् , ततः खलु पद्मावती देवी तेतलिपुत्रमेवमवदत् ' एवं खलु कणगरहे राया वियंगेइ ' एवं खलु कनकरयो राजा व्यगर्यात हे देवाणुप्रिय ! मया पूर्वमेवकथितं-यत्कनकरथ उत्पन्नान्पुत्रान् विकृताऽजान कृत्वा मारयति । अहं च खलु देवानुप्रिय ! दारकं प्रजाता-जनितक्ती, 'तं' तस्मात् कारणात् त्वं खलु देवानुप्रिय ! एतं दारकं गृहाण यावत् तव च मम च सी संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जमए कायव्वं ? तएणं पउमावई तेतलि पुत्तं एवं वयासी-एवं खलु कणगरहे राया जाव चियंगेइ, अहं च णं देवाणुप्पिया दारगं पयाया तं तुमं णं देवाणुप्पिया ! एयं दारगं गेहाहि) चलकर वह अंतः पुर के पृष्ठ भाग के द्वार से किसी को आने का पता न लगे इस रूप से वहां प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहाँ पद्मावती देवी थी वहां गया। वहां जाकर उसने दोनों हाथ जिसमें जुडे हुए हैं और दशोनख जिसमें हैं ऐसी अंजलिको दक्षिण तरफ से घुमाकर बायें तरफ लेजाकर और मस्तकपर अंजलि को रखकर कहा-अर्थात् नमः स्कार कर पूछा हे देवानुप्रिये ! जो मुझे करने योग्य कार्य है उस के करने की आप आज्ञा दीजिये। इस के बाद पद्मावती देवी ने तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! मैंने तुमसे पहिले ही कह रक्खा है कि कनकरथ उत्पन्न हुए पुत्रों को विकृत अंग बनाकर मार डालता है। और मैंने हे देवानुप्रिय ! पुत्र को उत्पन्न किया है । इसलिये तुम हे देवासावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-सं दिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जंमए करणिज्जं तएणं परमावीइ देवी क्यासी-एवं खलु कणगरहे राया जार वियंगेइ अहं चणं देवानुप्रिया ! दारगं पयाया तं तुमं गंदेवाणुप्पिया ! एवं दारगं गेण्हाहि ) ત્યાં પહોંચીને રણવાસના પાછલા બારણેથી કેઈને ખબર પડે નહિ તેમ રણવાસમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયે. પ્રવિષ્ટ થઈને તે જ્યાં પદ્માવતી દેવી હતી ત્યાં પહોંચે. ત્યાં પહોંચીને તેણે દશે નખે જેમાં છે એવા બંને હાથ જોડીને અંજલિ બનાવીને તેને જમણી બાજુથી ફેરવીને ડાબી બાજુ તરફ લઈ જઈને મસ્તક ઉપર અંજલિ મૂકીને આ પ્રમાણે કહ્યું-એટલે નમસ્કાર કરીને પૂછયું કે દેવાનપ્રિયે ! મારે લાયક જે કંઈ પણ કામ હોય તે મને કહો. ત્યાર પછી પદ્માવતી દેવીએ તેતલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમને મેં પહેલેથી કહી રાખ્યું છે કે રાજા કનકરથ ઉત્પન્ન થયેલા પુત્રને અંગહીન કરી નાખે છે. અને હે દેવાનુપ્રિય ! મારે પુત્ર થયું છે. હે દેવાનપ્રિય! એ બાળકને તમે લઈ જાઓ. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूचे भिक्षाभाजनमिव भिक्षाभाजनं, यथा भिक्षाभाजनं जीवन निर्वाहयति तथाऽयमपि जीवननिर्वाहको भविष्यति 'त्तिकटु' इति कृत्वाः इत्युक्त्वा · तेतलिपुत्तं ' तेतलिपुत्राय प्राकृतत्वादत्र द्वितीया ददातितेतलिपुत्रस्य हस्ते दारकमर्पयति । ततः खलु तेतलिपुत्रः पद्मावत्या हस्ताभ्यां दारकं गृह्णाति, गृहीत्वा उत्तरीयेण-उत्तरीयवस्त्रेण तं 'पिहेइ' पिदधाति-आच्छादयत्ति, 'पिहित्ता' पिधाय अन्तः-पुरस्य 'रहस्सियं' रहस्यिक-प्रच्छन्नं यथा स्यात्तथा अपद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य यौव स्वकं गृहं यत्रैव पोटिला भार्या तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पोटिलामेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रिये ! कनकरथो राजा राज्ये च यावद् व्यङ्गयति स्वपुत्रान् मारयति अयं च खलु मम हस्तस्थितो दारकः कनकरथस्य पुत्रः पद्मावत्या आत्मजो मयाऽत्रानीतः, 'तं' तस्मात् कारणात् खलु हे देवानुप्रिये ! इमं दारकं 'कणगरहस्सनुप्रिय ! इस बालक को लेलो (जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइत्ति कटूटु तेतलिपुत्तं दलयइ ) यावत् यह हमारे तुम्हारे लिये भिक्षा का भाजन हो जायगा जिस प्रकार भिक्षा भाजन जीवन निर्वाहक होता है-उसी तरह यह भी जीवन निर्वाहक होवेगा इस प्रकार कहकर उसने तेतलिपुत्र के हाथमें आपने पुत्र को दे दिया। (तएणं तेतलिपुत्ते पउमाचईए हत्थाओ दारगं गेहई ) तेतलिपुत्र ने भी पद्मावती देवीके हाथसे बालक को ले लिया। (गिण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ, पिहित्ता अते उरस्सरहस्तियं अवद्दारेणं णिग्गच्छइ,णिग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोटिला भोरिया-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता-पोटिलं एवं वयासी एवं खलु देवोणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ, अयं (जाव तब मम य भिक्खाभायणे भविस्सइत्तिकटु तेतलिपुत्तं दलयइ) એ મારા અને તમારા માટે “ભિક્ષાભાજન” થશે એટલે કે જેમ ભિક્ષાનું પાત્ર જીવનને ટકાવનાર હોય છે તેમજ આ બાળક પણ જીવન નિર્વાહક થશે. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેતલિપુત્રના હાથમાં પિતાના નવ જાત પુત્રને સેંપી દીધે. (तएणं तेतलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारगं गेण्हइ) તેતલિપુત્રે પણ પદ્માવતી દેવીના હાથમાંથી બાળક લઈ લીધું. (गिण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ पिहिता अंतेउरस्स रहस्सियं अवदारेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोट्टिला भारिया-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पोटिलं एवं वयासी, एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ, अयं च णं दारए कणगरहस्सपुत्ते पउमावईए अत्तए श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् २९ रहस्सियं चेव ' कनकरथस्य रहस्यिकमेव-कनकरथो यथा न जानीयात्तथैव ' अणुपुव्वेणं' आनुपूपेण-अनुक्रमेण तस्कृतोपद्रवतश्च 'सारक्वाहि य' संरक्ष्य कनकरथनपदृष्टितः संगोपाय च तत्कृतोपद्रवतः, तथा संवड्देहिय' संवर्धय च-स्तन्यपानादि. नाऽस्य बालस्य वृद्धिमुपनय ! ततः खलु एष दारकः उन्मुक्तबालभावः तव च मम च पद्मावत्याश्च 'आहारे' आधारः आधारस्वरूपो भविष्यति · तिकडे ' इतिकृत्वा च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए अत्तए, तं णं तुमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुव्वेणं सारक्खाहिं य संगोवाहि य सं. वड्देहि य ) लेकर फिर उसे अपने दुपट्टे से ढक लिया और ढककर प्रच्छन्न गुप्तरूप से अंतः पुर के पीछे के दरवाजे से बाहर निकल गया। निकल कर जहां अपना घर और पोट्टिला भार्या थी वहां गया। वहां जाकर उसने पोटिला भार्या से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! कनक रथ राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूच्छित हो रहा है कि वह उत्पन हुए अपने बालकों को अङ्ग विच्छेद कर मार डालता है। यह जो पुत्र मेरे हाथ में है वह कनक रथ राजा का पुत्र है यह पद्मावती देवी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ है। इसलिये हे देवाणुप्रिये! तुम इस पुत्र को कनक रथ को खबर न पडे इस तरह प्रच्छन्न रूप से क्रमशः रक्षित करती रहो-पालती रहो उसकी दृष्टि से बचाती रहो और स्तन्य पान आदि से बढाती रहो। (तएणं एस दारए उम्मुक्कबालभावे तव य तं णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं दारगं कणगरहस्स रहस्तियं चेव अणुपुत्वेणं सार. क्खाहिं य संगोवाहि य संवड्देहिय ) લઈને તેણે ખેસમાં ઢાંકી દીધું, અને ઢાંકીને છુપી રીતે રણવાસના પાછલા બારણેથી બહાર નીકળી ગયે. બહારનીકળીને જ્યાં પિતાનું ઘર અને પિટિલા ભાર્યા હતી ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે પિફિલા ભાર્યાને એમ કહ્યું કે-હે દેવાનુપ્રિયે ! રાજા કનકરથ રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં એટલે બધે આસક્ત થઈ ગર્યો છે કે તે જન્મ પામેલા પિતાના બાળકોને અંગોને કપાવીને મારી નાખે છે. મારા હાથમાં જે બાળક છે તે પણ કનકરથ રાજાને જ પુત્ર છે. પદ્માવતી દેવીના ગર્ભમાંથી આને જન્મ થયે છે. એથી હે દેવાનુપ્રિય! કનકરથ રાજાને જાણ થાય નહિ તે પ્રમાણે તમે છુપી રીતે આ પુત્રનું રક્ષણ કરતા રહો, પિષણ કરતાં રહે, રાજાની કુદષ્ટિથી એને દૂર રાખતા રહો અને સ્તન્ય પાન એટલે કે દૂધ વગેરે પીવડાવીને એને મોટો કરો. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ___ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे इत्युक्त्वा पोटिलायाः पार्थे 'णिक्खिवइ ' निक्षिपति-स्थापयति, तथा पोटिलायाः पार्थात् तां 'विणिहायमावणं' विनिघातमापनां-मृतां दारिकां गृह्णाति, गहीत्वा उत्तरीयेण पिदधाति, पिधाय अन्तः पुरस्य अपद्वारेण अनुमविशति, अनु. त्रविश्य यत्रैव पद्मावती देवी तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पद्मवत्याः देव्याः पार्षे स्थापयति, स्थापयित्वा तावत् 'पडिणिग्गए ' प्रतिनिर्गतः प्रतिनिवर्त्य स्वगृह सम य पउमावईए य आहारे भविस्सइत्ति कट्टु पोटिलाए पासे णिक्खिवइ, णिक्खिवित्ता पोहिलाओ पासाओ विनिहायमावत्रियं दारियं गेहइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ पिहित्ता, अंतेउरस्त अवदारेणं अणुप्पविसइ) इस तरह क्रमशः वृद्धिंगत होता हुआ यह बालक जब वाल्यावस्था से रहित हो जावेगा तो हमारा तुम्हारा और पद्मावती देवी का आधार होगा, ऐसा कहकर उस तेतलिपुत्र अमात्य ने उस पुत्र को पोहिला के पास रख दिया। और पोहिला के पास से मरी हुई कन्या को उठा लिया-उठाकर उसे अपने उत्तरियवस्त्र से ढंक लिया, ढंक कर फिर अंतःपुर के पिछले दरवाजे से वहां आया (अणुप्पविसित्ता जेणेच पउमाबई देवी तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता पउमावईए देवीए पासे गवेइ, ठावित्ता जाव पडिनिग्गए ) वहां आकर जहां पद्मावती देवी थी वहां पहुंचा, वहां पहुँच कर उसने उस मृत कन्या को पद्मावती देवी के (तएणं एस दारए उम्सुक्कबालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्सइ ति कटु पोट्टिलाए, पासे णिविखवइ, णिविखवित्ता पोट्टिलाओ पासाओ विनिहायमावन्नियं दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ, पिहिता, अंतेउरस्स अवदारेणं अणुप्पविसइ) અને આ રીતે અનુક્રમે મોટે થતા આ બાળક જ્યારે બચપણ વટાવીને જુવાન થઈ જશે ત્યારે આ મા, તમારો અને પદ્માવતી દેવીને આધાર થશે. આ પ્રમાણે કહીને તે તેતલિપુત્ર અમાત્યે તે બાળકને પિફ્રિલાની પાસે મકી દીધો અને પોલિાની પાસેથી મરી ગયેલી બાળકીને ઉપાડી લીધી. ઉપાડીને તેને પિતાના ખેસથી ઢાંકી દીધી અને ત્યારપછી તે રણવાસના પાછલા બારણેથી પદ્માવતી દેવીના મહેલમાં ગયે. ( अणुप्पमिसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जाव पडिनिग्गए ) ત્યાં જઈને જ્યાં પદ્માવતી દેવી હતી ત્યાં ગયે અને ત્યાં પહોંચીને તેણે તે મરી ગયેલી બાળકીને પદ્માવતી દેવીના પડખામાં મૂકી દીધી. અને ત્યાં મહીને તે ત્યાંથી પાછા ફર્યો અને ત્યારપછી તે પિતાને ઘેર આવી ગયો. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् ३१ , 6 गतवान् । ' तरणं ' ततः खलु तस्याः पद्मावत्याः 'अंगपडियारिपाओ' अङ्गपति चारिकाः = दास्यः पद्मावती देवीं विनिघातमापनां प्राणरहितां दारिकां च पश्यन्ति, दृष्ट्वा यत्रैव कनकरथो राजा, तत्रैव उपागच्छंति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं दशa fre Had Heasafe कृत्वा ' एवं ' = वक्ष्यमाणरीत्या अवदत् - हे नखं शिर आवर्त्त मस्तकेऽञ्जलिं स्वामिन् ! पद्मावतीदेवी ' मइल्लियां ' मृतां दारिकां ' पयाया' प्रजाता=प्रजनितवती । ' तरणं' इति, ततः खलु दासीमुखान्मृतबालिका जन्मश्रवणानन्तरं कनकरथो राजा तस्या 'मइल्लियाए ' मृतायाः दारिकाया ' नोहरणं' निर्हरणं ' =निष्काशनं 'करेइ' करोति, कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति, कृत्वा 'कालेणं' पास रख दिया । और रखकर फिर वह वहां से चल दिया चलकर अपने घर आ गया । (तएणं तीसे परमावईए अंगपरियारियाओ पउमा देवि विनिहाय मावन्न दारियं पासंति, पासिता जेणेव कणगरहे राया तेणेव जवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिगहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटूड एवं वयासी एवं खलु सामी पत्रमावई देवी इल्लियं दारियं पयाया ) इसके बाद पद्मावती देवी की अंगपरिचारिकाओंने पद्मावती देवी को और मरी हुई उस कन्या को देखा देख कर वे सब जहां कनक रथ राजा थे वहाँ गई वहां जाकर उन्होंने दो नों हाथों की अंजलि बना कर और उसे मस्तक पर घुमाकर - अर्थात् नमस्कार कर इस प्रकार कहा हे स्वामिन् ! पद्मावती देवी ने मृत कन्या को जन्म दिया है । (तएणं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीह रण करेइ, बहूणि लोइयाइं मयकिच्चाई करेइ करिता काळेण विगयसोए जाए) इस प्रकार उन के मुख से सुनकर कनक रथ राजाने उस मृत ( तरणं ती से पउमावईए अंगपरियारियाओ पउमावई देविं विनिहाय मावन्तं दारियं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उनागच्छित्ता करयपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी- एवं खलु सामी पउमावईदेवी महल्लियं दारियं पयाया ) ત્યારબાદ પદ્માવતી દેવીની અંગ-પરિચારિકાએએ પદ્માવતી દેવી તેમજ તે મરેલી કન્યાને જોઈ, જોઇને તે બધી જ્યાં કનકરથ રાજા હતા ત્યાં ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે અને હાથેાથી અંજિલ બનાવીને અને તેને મસ્તક ઉપર ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી ! દેવી પદ્માવતીએ મરેલી કન્યાને જન્મ આપ્યા છે. (तरणं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेइ, बहूणि लोइया मयकिच्चाई करेइ करिता कालेणं विगयसोए जाए ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कालेन समय व्यतीते ' विगयसोए ' विगतशोकः-शोकरहितो जातः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-'खिप्पामेव' विपमेव 'चारगसोहणं' चारकशोधनं-बन्दीजनमोक्षणं यावन्मानोन्मानबर्द्धनम् पुत्रजन्मोत्सवनिमित्तकं राजकर्मचारिणां वेतनवृद्धयादिना सत्कारसम्मानवर्द्धनं कुरुत इत्येवंरूपामाज्ञां दत्त्वा स्वयं ' ठिइवडियं ' स्थितिपतितां कुलमर्यादान्तर्गतां पुत्रजन्मनिदशदिवससाध्यमहोत्सवरूप प्रक्रियां करोति । पुनश्चाशनादिना मित्रज्ञातिप्रमुखान् सत्कृत्य सम्मान्य तत्पुरत एवं कथयति- जम्हाणं ' यस्मात्खलु कन्या का निर्हरण-इमशान में ले जाना-किया। निर्हरण कर के फिर अनेक लौकिक मृतकृत्य किये। मृत कृत्य कर चुकने के बाद धीरे २ वे विगत शोक हो गये। (तएणंसे तेतलिपुत्ते कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव चारगसोहणं जाव ठिइडियं जम्हाणं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होउणं दारए नामेणं कणगज्झए जाव भोगसमत्थे जाए) इस के बाद तेतलिपुत्र अमात्यने कोटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-शीघ्र ही तुम लोग चारक शोधन करो-बन्दीजनों को मुक्त करो यावत् मानोन्मन का वर्द्धन, और पुत्र जन्मोत्सव के निमित्त को लेकर राज कर्म चारिय के वेतन की वृद्धि आदि करके उनके सम्मान का वर्द्धन करोइस प्रकार आज्ञा देकर स्वयं उस तेतलिपुत्र अमात्यने अपनी कुल मर्यादा के अनुसार पुत्र का जन्म होने के कारण दश दिवस तक बड़ा આ રીતે તેમનાં મુખથી આ વાત સાંભળીને કનકરથ રાજાએ તે મરેલી કન્યાને શમશાનમાં પહોંચાડી અને ત્યારબાદ તેણે મરણ પછીની ઘણી ક્રિયાઓ પૂરી કરી. મરણ ક્રિયાઓને પતાવ્યા પછી રાજા કનકરથ ધીમે ધીમે શેક રહિત થઈ ગયા. (तएणं से तेतलिपुत्ते कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासीविप्पामेव चारगसोहणं जाव ठिइवडियं,जम्हाणं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होउणं दारए नामेणं कणगज्झाए जाव भोगसमत्थे जाए) ત્યારબાદ તેતલી પુત્ર અમાત્યે પિતાના કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-તમે લકે સત્વરે ચારક શેધન કરે–એટલે કે જેલખાનામાંથી કેદીઓને છેડી મૂકો યાવતુ માનેન્માનનું વન, તેમજ પુત્ર જન્મોત્સવ બદલ રાજકર્મચારીઓના પગાર વગેરેની વૃદ્ધિ કરીને તેમના સન્માનનું વર્લૅન કરો આ રીતે કૌટુંબિક પુરુષને આજ્ઞા આપીને તેતલિપુત્રે જાતે પિતાની કુલ મર્યાદા મુજબ પુત્ર જન્મ લેવા બદલ દશ દિવસ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधान चरितवर्णनम ३३ अस्माकमेष दारकः कनकरथस्य राज्ये जातः, ' तं ' तस्मात् भवतु खलु दारको नाम्ना ' कनकध्वज: ' इति । अनन्तरमसौ दारकः क्रमेण दृद्धिं गच्छन् यावद् भोगस मत्थे जाए ' भोगसमर्थौ जातः = तारुण्यं प्राप्त इत्यर्थः ॥ ०५ ॥ 6 मूलम् - तणं सा पोट्टिला अन्नया कयाई तेतलिपुत्तस्स अणिट्टा ५ जाया यावि होत्था, णेच्छइ य तेतलिपुत्ते पोहिलाए नाम गोत्तमवि सवणयाए, किंपुणदरिसणं वा परि भोगं वा ? । तरणं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाई पुव्वरताव रत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुपज्जि - स्था - एवं खलु अहं तेतलिस्स पुव्वि इट्ठा ५ आसिं इयाणि अणिट्ठा ५ जाया, नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाव परिभोगं वा ओहयमणसंकप्पं जाव झियायइ । तएणं तेतलिपुत्ते पोहिलं ओहयमणसंकष्पं जाव झियायमाणि पासइ, पासिता एवं वयासी - माणं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि । तुमं च णं मम महाणसंसि विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेहि, उवक्खडावित्ता बहूणं है-इस भारी उत्सव किया । तथा भोजन आदि द्वारा मित्र ज्ञाति द्वारा प्रमुख जनों का सत्कार सन्मान करके फिर उसने उनके समक्ष इस प्रकार कहा- यह हमारा पुत्र कनक रथ राजा के राज्य में उत्पन्न हुआ लिये यह " कनकध्वज इस नाम से प्रसिद्ध होवे । इस के बाद यह पुत्र कमशः वृद्धिंगत हुआ यावत्-भोग समर्थ हो गया-अर्थात् जवान युवा - बन गया ॥ ०५ ॥ 19 સુધી ભારે ઊત્સવ ઉજજ્યે તેમજ ભેાજન વગેરેથી મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પ્રમુખ લેાકેાના સત્કાર અને સન્માન કરીને તેણે તેએની સમક્ષ આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ અમારે પુત્ર રાજા કનકરથના રાજ્યમાં ઉપન્ન થયા છે એથી એકનકવજ” નામે પ્રસિદ્ધ થાય. ત્યાર પછી તે કનકધ્વજ સમય પસાર થતાં ધીમે ધીમે માટી થતાં ચાવત ભાગ સમથ થઈ ગયા એટલે કે જુવાન થઇ ગયા. । સૂ॰ ૫ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे समणमाहण जाव वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि।तएणं सा पोटिला तेतलिपुत्तेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ठतुट्ठा तेयलिपुत्तस्स एयमट्ट पडिसुणित्ता, कल्लाकल्लि महाणसंसि विपूलं असणं जाव दवावेमाणी विहरइ ॥सू०६॥ टीका-'तएणं' इत्यादि । ततः खलु स पोटिला अन्यदा कदाचित केनापि कारणेन तेतलिपुत्रस्य अनिष्टा, अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता चाप्यऽभवत् । नेच्छिति च तेतलिपुत्रः पाहिलाया नाम गोत्रमपि 'सवणयाए' श्रवणतायै श्रूयतेऽनेनेति श्रवणं कर्मः, तस्य कर्म श्रवणता तस्यै, श्रवण विषयीकर्तुम् इत्यर्थः किं पुनः तस्या ' दरिसणं वा' दर्शनं वा तया सहपरिभोगं वा, वाग्छेत् , अपितु न । ततः खलु तस्याः पोटिलाया अन्यदा कदाचित पुव्यरत्तावर तएणं सो पोटिला इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा पोटिला) वह प्रधानकी स्त्री पोहिला (अन्नया कयाइं) किसी समय-कोई निमित्त को लेकर-किसी भी कारण से-(तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा जाया यावि होत्था) तेतलिपुत्र के लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनोम बन गई । (णे. च्छइ तेतलिपुत्ते पोहिलाए नाम गोत्तमकि सवणयाए किं पुणदरिसणं वा परिभोगं वा) इस प्रकार वह तेतलिपुत्र उस पोहिला के नाम गोत्र तक को भी सुनना पसंद नहीं करता तो फिर उसके देखने और परिमोग पास जाने की तो बात ही क्या है । (तएणं तीसे पोहिलाए अत्रतएणं सा पोट्टिला इत्यादि ॥ थ-(तएणं) त्या२ ५छी (सा पाहिला) ते ममात्यनी पत्नी पाहिली (अ. नया कयाई) 5 मते मेते ॥२णे ( तेतलिपुत्तस्स अणिवा ५ जाया यावि होत्था) तेतति पुत्रने माटे अनिष्ट, २ilन्त, प्रिय, अमनोज्ञ भने અમનેમ થઈ પડી. (णेच्छइ तेतलिपुत्ते पोट्टिलाए नाम गोत्तमवि सवणयाए कि पुणदरिसणं वा परिभोगं वा ) એથી તેતલિપુત્ર અમાત્યને તેનું નામ શૈત્ર સુદ્ધાં સાંભળવું પણ પસંદ પડતું ન હતું ત્યારે તેને જોવાની અને તેની પાસે જવાની તે વાત જ શી? (तएणं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाई पुव्यावरत्तकालसमयंसि इमेयास्वे श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् ३५ ( , तकालसमए ' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये = रागेः पश्विमे भागे ' इमेयारूवे ' अयमैतद्रूपः = त्रक्ष्यमाणप्रकार: ' अज्झत्थिए जाव' आध्यात्मिको यावत् मनोगतः संकल्प: ' समुपज्जित्था ' समुदपद्यत, संकल्पप्रकारमाह एवं खलु अहं ' तेतलिस्स ' तेतले : =तेत लिपुत्रस्यामात्यस्य पूर्वम् इष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोऽमा आसि '=आसम्, परन्तु ' इयाणि ' इदानीम् अनिष्टा यावद्-अमनोऽमा जाता । नेच्छति च तेतलिपुत्रः मम नाम यावत् परिभोगं वा=मम नाम गोत्रमपि श्रोतुं नेच्छति किंपुन र्मम दर्शनं मया सह परिभोगं वा । इत्थमेषा पोहिला 'ओहयगणसंकप्पा' अपहृतमनः संकल्पा= अपहतो = दुःखावेगवशाद् रुद्धो, मनः संकल्पो= मानसिको विचरो यस्याः सा ' जावशिवाय ' यावद् ध्यायति = यावदार्त्तध्यानं करोति । ततः खलु तेतलिपुत्रः पोट्टिला मपहतमनः संकल्पां ' जाव झियायमाणि ' या कयाई पुव्वावरन्तकालसमयंसि इमेघारूवे अज्जत्थिए जाव समुप्यजित्था ) जब पोहिला ने अपनी तरफ तेतलि पुत्र अमात्य की इतनी अधिक उपेक्षा - अनादरता देखी तो एक दिन किसी समय उसे रात्रि के मध्यभाग में इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - ( एवं खलु अहं तेतलिस्स पुवि इट्ठा ५ आसिं, इयाणि अणिट्टा ५ जाया नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाच परिभोगं वा ओहमण संकष्पा जाव झियायइ ) मैं तेतलि पुत्र अमात्य के लिये पहिले इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी, परन्तु इस समय मैं - उन्हे अनिष्ट यावत् अमनोम बन रही हूँ । वे तेतलि पुत्र अमात्य देखने और परिभोग करने की तो बात कौन कहे मेरे नामगोत्र तक को भी सुनमा पसंद नहीं करते हैं । इस तरह वह अपहृतमनसंकल्प होकर यावत् अझ थिए जाव समुप्यजित्था ) બો જ્યારે અમાત્ય તેતલિપુત્રને પાટિલા એ પેાતાના પ્રત્યે આટલી બધી ઉપેક્ષા અને અનાદરતા જોઈ ત્યારે કાઈ વખતે એક દિવસ રાત્રિના મધ્યભાગમાં તેના મનમાં આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ અનેાગત સ’કલ્પ ઉત્પન્ન સેમો કે ( एवं खलु अहं daलिस पुवि इट्ठा ५ आसिं इयाणिं अणिट्ठा ५ जाया नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाव झियाय ) પહેલાં હું તેતલિપુત્ર અમાત્યને માટે ઈષ્ટ, કાંત, પ્રિય, મનેાજ્ઞ અને મનામ હતી. પણ હમણાં હું તેમના માટેઅનિષ્ટ યાવત અમનામ થઈ પડી છુ, તેતલિ પુત્ર અમાત્ય જ્યારે મારું નામ ગોત્ર સુદ્ધાં સાંભળવું ઇચ્છતા નથી ત્યારે મારી સામે જોવાની અને મારી સાથે પરિભાગની તા વાત જ શી કરવી ? આ રીતે તે પેટ્રિટલા અપહત મન સકલ્પ થઈને યાવત આ ધ્યાન કરતી બેઠી હતી. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूचे यावद् ध्यायन्तीम् यावदार्तध्यानं कुर्वन्ती पश्यति, दृष्ट्वा एवमवदत्-मा खलु त्वं हे देवानुपिये ! अपहतमनः संकल्पा 'जाव झियाहिं ' यावद्ध्याय यावदार्तध्यानं माकुरु । हे देवि । त्वं च खलु मम ' महाणसंसि' महानसे भोजनशालायाम् विपुलम् ' असण जाव' अशन यावत् अशनपान खादिम स्वादिमं चतुर्विधमाहारम् ' उवक्खडावेहि ' उपस्कारय, ' उवक्खडावित्ता' उपस्कार्य 'बहूर्ण समण माहण जाव वणीमगाणं ' बहुभ्यः श्रमणब्राह्मण यावद् वनीपकेभ्यः याचकेभ्यः, स्वयं देयमाणी ' ददती च, अन्यैः ' दवावेमाणी' दापन्ती च विहर । ततः खलुं सा आर्तध्यान कर रही थी-(तएणं तेतलिपुत्ते पोटिल ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी माणं तुमं देवाणुपिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि, तुमं च णं ममं महाणसंसि विउलं असणपाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेहिं, उवक्खडावित्ता बहूणं समण माहण जाव वणीपगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि, तएणं सा पोट्टिला तेतलीपुत्तेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ तुट्टा तेयलिपुत्तस्स एयमढें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कल्लाकल्लि महाणसंसि विपुलं असण जाव दवावेमाणी विहरइ ) इतने में तेतलिपुत्र ने उस अपहतमनः संकल्प होकर आर्तध्यान करती हुइ पोटिला को देखा तो देखकर उसने उससे कहा-हे देवानुप्रिये तुम अपहतमनः संकल्प होकर आर्तध्यान मत करो-तुम तो मेरी भोजनशाला में विपुलमात्रा में अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम इस तरह चतुर्विध अहार बनवाओ बनवाकर उसे अनेक श्रमण ब्राह्मण यावत् याचकजनों के लिये स्वयं दो और दूसरों (तएणं तेतलिपुत्ते पोट्रिटलं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणि पासइ पासित्ता एवं वयावी माणं तुमे देवाणुपिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियादि, तुम चणं ममं महाणसंसि विउलं असणपाणं खाइमं साइमं उवक्रवडावेहिं, उवक्खडावित्ता बहूणं समणमाहण जाव वणीपगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि तएणं सा पोटिला तेतलिपुत्तेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्टा तेयतिपुत्तस्स एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कल्लाकाल्लि महाणसंसि विपुलं असण जाव दवावेमाणी विहरइ) આટલામાં અપહતમન સંકલ્પ થઈને આર્તધ્યાન કરતી તે પિફ્રિલાને અમાત્ય તેતલિપુત્રે જોઈ અને જોઈને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અપહતમનસંકલ્પ થઈને આર્તધ્યાન કરે નહિ-તમે મારી ભજન શાળામાં જઈને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ આમ ચાર જાતના આહારે બનાવડા અને બનાવડાવીને તેને ઘણુ શ્રમણ બ્રાહ્મણ श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ३७ पोट्टिला तेतलिपुत्रेण ' एवं ' पूर्वोक्तमकारेण उक्ता सती हृष्टतुष्टा तेतलिपुत्रस्य 'एयम?' एतमर्थम् अन्नदानरूपमभिमाय पडिसुसइ' प्रतिशृणोति-स्वीकरोति, पडिसृणित्ता' प्रतिश्रुत्य-स्वोकृत्य, 'करलाकलिं' कल्याल्यिम्मतिदिनम् , महानसे विपुलम् ' असण जाव' अशन यावत् अशनपानरवाद्यस्वाद्य चतुर्विधमाहार. मुपस्कार्य ददती च ' दवावेमाणी' दापयन्ती च विहरति ॥ ६ ॥ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अजाओ इरियासमियाओजाव गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओपुव्वाणुपुट्वि०चरमाणागामाणुगामं दुइजमाणाजेणामेव तेतलिपुरे गयरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिण्हंति, उग्गिण्हित्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणिओ विहरति । तएणंतासि सुव्वयाणं अजाणं एगेसंघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव अडमाणे तेतलिस्त गिहं अणुपविटे। तएणसापोट्टिलाताओअज्जाओ एजमाणीओ पासइ,पासित्ता, हट्टतुट्टा आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्रित्ता, वंदह, णमसइ,वंदित्ता णमंसित्ता,विउलं असण जाव पडिलाभेइ, पडि. लाभित्ता,एवं वयासी-एवं खलु अहं अजाओ तेतलिपुत्तस्स पुत्वं से दिलवाओ । इस तरह तेतलिपुत्र अमात्यने जब उस पोडिला से कहा-तो वह बहुत अधिक प्रसन्न एवं संतुष्ट हुई । और उमने तेतलिपुत्रकी इस घातको मान लिया। मान करके वह प्रतिदिन भोजन शाला में चारों प्रकार का आहार बनवा कर उसे श्रमण, माहण आदि जनोंके लिये स्वयं देने लगी और दूसरों से दिलवाने लगी । सू० ६ ॥ થાવત્ યાચકને પોતે આપે અને બીજાઓને હુકમ કરીને અપાવે. તેતલિ પુત્ર અમાત્યે જ્યારે આ પ્રમાણે પિફ્રિલાને કહ્યું ત્યારે તે ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ સંતુષ્ટ થઈ ગઈ અને તેણે તેતલિપત્રની આ વાત સ્વીકારી લીધી. અને તે દરરોજ ભેજન શાળામાં ચારે જાતના આહારે બનાવડાવીને શ્રમણ બ્રાહ્મણ વગેરે ને પિતે આહાર આપવાલાગી અને બીજાઓ દ્વારા અપાવવા લાગી સ૬ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे इट्ठा ५ आसि, इयाणि अणिट्टाए जाव दंसणं वा परिभोगं वा, तं तुम्भेणं अजाओ सिक्खियाओ बहुनायाओ बहुपडियाओ बहूणि गामागर जाव आहिंडह बहूणं राईसर जाव गिहाई अणुपविसह, तं अस्थि आई भे अजाओ ! केइ कहिंचि चुन्नजोए वा मतजोए वा कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा काउडवणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूकम्मे वा मूले कंदे छल्ली वल्ली, सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसजे वा उवलद्वपुब्वे वा जेणाहं तेतलिपुत्तस्स पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि । तएणंताओ अज्जाओ पोहिलाए एवं ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने ठवेंति ठवित्ता, पोहिलं एवं वयासी - अम्हे णं देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गंथिओ जाव गुत्तबं भयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कन्नेहिवि णिसामेत्तए, किमंग पुण उवदिसित्तए वा आयरितए वा ? अम्हेणं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलि - पन्नत्तं धम्मं पडिकहिज्जाम । तएणं सा पोटिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी - इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्हं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामेत्तए, तरणं ताओ अजाओ पोहिलाए विचित्तं धम्मं परिकर्हेति । तणं सा पोहिला धम्मं सोच्चा निसम्म हटुतुट्ठा एवं वयासी - सदहामि णं अज्जाओ ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहियं तुब्भे वयह, इच्छामि णं अहं तुब्भं अंतिए पंचाणुव्वयं जाव गिहिधम्मं पडिवज्जित्तए, अहासुहं, तरणं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माणि टी०म० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ३९ सा पोहिला तासि अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्मं पडिवज्जइ, ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ । तएणं सा पोहिला समणोवासिया जाया जाव पडिलाभेमाणी विहरइ ॥ सू० ७ ॥ टीका-' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सुव्रतानाम आर्या ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यो बहुश्रुता बहुपरिवारा: ' पुव्वाणुवि ' पूर्वानुपूर्व्या = तीर्थङ्करपरम्परया विचरन्त्यः ' जेणामेव ' यत्रैव तेतलिपुरं नगरं तत्रैवोपागच्छंति, उपागत्य ' अहापडिरूवं ' यथामतिरूपम् = यथाकल्पम् ' उगाहं ' अवग्रहम् = वसत्यर्थमाज्ञाम् ' उग्गिण्डंति अवगृह्णन्ति = याचन्ते, अवगृह्य 'संजमेण ' संयमेन सप्तदशविधेन, तवसा तपसा द्वादशविधेन आत्मानं भावयन्त्यो 1 " ܕ ' तेणं काले तेणं समपुर्ण ' इत्यादि । टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समयमें ( सुब्वयाओ नामं अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्याओ वहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुच्वि० जेणामेव तेयलिपुरे णयरे तेणेव उवागच्छइ ) सुव्रता नामकी आर्या तीर्थंकर परंपरा के अनुसार विहार करती हुइ उस तेतलिपुर नगर में आई। ये ईर्यासमिति आदि पांच समितियों की पालक थी- गुप्त ब्रह्मचारिणी थीं। बहुश्रुत थी । अनेक परिवार से युक्त थीं। ( उवागच्छिता अहा पडिरूवं उग्गहं उग्गिव्हंति, उग्गविहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति तपर्ण तेणं कालेणं तेणं समरण इत्यादि ॥ टीडअर्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समणं ) ते आहे याने ते सभये ( सुन्वयाओ नाम अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुया बहुपरिवारा yoवाणुपुब्वि० जेणामेव तेतलिपुरे जयरे तेणेव उवागच्छा) સુત્રતા નામની આર્યો તી કર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતી તેતલિપુર નગરમાં આવી તે ઈએસમિતિ વગેરે ૫ (પાંચ) સમિતિનું પાલનકરનારી હતી તેમજ ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી હતી. તે બહુશ્રુત તેમજ ઘણા પરિવારો થી વીટળાયેલી હતી. ( उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्डति, उग्गण्हित्ता संजमेणं तवसा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे विहरन्ति । ततः खलु तासां सुत्रतानामार्याणामेकः संघाटकः प्रथमायां पौरुष्याम् स्वाध्याय-सूत्र मूलपठनरूपं करोति, 'जाव अडमाणे ' यावदटन्त्याः, यावच्छब्दात् 'द्वितीयस्यां पौरुष्यां सूत्रार्थचिन्तनरूपं ध्यानं करोति, तृतीयस्यां पौरुष्यां सुत्रतामार्यामापृच्छय उच्चनीचमध्यमकुलेषु गृहसामुदानिकभिक्षार्थमटन् इत्यर्थों बोध्यः, तले हमनुप्रविष्टः । ततः खलु सा पोहिला ताः संघटकस्था आर्या एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा, हृष्टतुष्टा आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय वन्दते ४० तासि सुव्वायाणं अज्जाणं एगे संघाइए पढमाए पोरिसीए सज्झायंकरेइ, जाव अमाणे तेतलिस गिहं अणुपविट्ठे) वहां आ कर उन्होंने यथाकल्प ठहरने की आज्ञा मांगी-मांगकर फिर वे १७ सतरह प्रकारके संयम और १२ बारह प्रकार के तपसे अपने आपको वासित करती हुई ठहर गईं। इन सुव्रता आर्या का एक संघाटक था जो प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करता - द्वितीय पौरुषी में सूत्रार्थका चिन्तनरूप ध्यान करता और तृतीय पौरुषी में सुव्रता आर्या की आज्ञासे ऊँच नीच एवं मध्यम कुलोंमें भिक्षा के लिये अटन करता । इस तरह वह संघाटक (संघाडा) तृतीय पौरुषीमें इन उच्चादि घरों में भिक्षार्थ अटन करता हुआ तेतलिपुत्र अमात्य के घर पर आया (तपूर्ण सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्ञमाणीओ पासह ) इतने में उस पोहिलाने उन संघाटकस्थ आर्याओं को ज्यों ही अपने घर पर आया हुआ देखा तो (पासित्ता हट्टतुट्टा आसणाओ अअपर्ण भावेमाणीओ विहरति तरणं तासि सुव्वायाणं अज्जाणं एगेसंघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव अडमाणे तेतलिस्स हिं अणुपविट्ठे ) ત્યાં આવીને તેમણે યથાકલ્પ (સાધુકલ્પ પ્રમાણે) રહેવાની આજ્ઞા માંગી અને ત્યારપછી તે ૧૭ જાતના સયમ અને ૧૨ જાતના તપ વડે પેાતાની જાતને વાસિત કરતાં તે ત્યાં રોકાઇ. સુત્રતા આર્યને એક સઘાટક હતા જે પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાધ્યાય કરતે હતા, દ્વિતીય પૌષીમાં સૂત્રાનું ચિંતન રૂપ ધ્યાન કરતા અને તૃતીય પૌરૂષીમાં સુત્રતા આર્યાની આજ્ઞા મેળવીને ઊંચા, નીચા અને મધ્યમ કુળામાં ગોચરી માટે જતા હતા. આ પ્રમાણે તે સ`ઘાટક તૃતીય પૌરૂષીમાં ઉપરોક્ત ઊંચા વગેરે કુળના ઘરમાં ગેચરી માટે ફરતાં ફરતાં तेतसिपुत्र अमात्यने त्यां खाव्या. (तपणं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ) पोट्टिसा न्यारे संघाटस्थ आर्याने पोताने घेर मावेसी हत्यारे ते ( पाखित्ता हट्ठ तुट्ठा आसणाओ अब्भुट्ठे ) लेने ते પ્રસન્ન થઈ અને પેાતાના આસનથી ઊભી થઈ. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० ४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णगम् ४१ नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, विपुलमशनपानखाद्यस्वायरूपं चतुर्विधमाहारं 'पडिलाभेइ ' प्रतिलम्भयतिब्ददाति, प्रतिलम्म्य, एवमवदत्-एवं खलु अहं हे आर्याः ! तेतलिपुत्रस्य पूर्वमिष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोऽमा, आसम् , परन्तु 'इयाणि' इदानीम् ' अणिट्ठा५ जाव दंसणं परिभोगं वा' अनिष्टा५ यावत् दर्शनं परिभोगं वा-साम्प्रतं तेतलिपुत्रस्याऽहमनिष्टाअकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता, तस्मादेष तेतलिपुत्रो मम नामगोत्रमपि श्रोतुं नेच्छति, किं पुनर्हे आर्याः ! स मम दर्शनं मया सह परिभोगं या कथं वाञ्छेत् ? । ' तं तुम्भेणं भुट्टेइ ) देखकर वह बहुत अधिक प्रसन्न हुई, और अपने स्थान से उठी (अन्भुट्टित्ता चंदइ णमंसद, बंदित्ता, णमंसित्ता विउलं असण जाव पडिलाभित्ता एवं वयासी) उठकर उसने उसको वंदना की-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके फिर उसने उन्हें विपुल मात्रा में अशन पान आदि चतुर्विध आहार दिया और दे कर वह इस प्रकार कहने लगी-( एवं खलु अहं अज्जाओ! तेतलिपुत्तरस पुव्व इट्ठा ५ आसि, इयाणिं अणिहा ५ जाव दंसर्ण वा परिभोगं वा-तं तुम्मेणं अज्जाओ सिक्खियाओ बहुनायाओ बद्रुपढियाओ बहूणि गामागार जाव अहिंडइ, बहणं राईसर जाप गिहाई अणुपविसइ ) हे आर्याओ! पहिले मैं तेलिपुत्र अमात्य के लिये बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी परन्तु अब इस समय में उनके लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनोम बन रही हूँ। वे मेरा नाम गोत्र तक भी सुनना पसंद नहीं करते हैं तो फिर मेरे साथ परिभोग करने की (अब्भुट्टित्ता वंदइ णमंसइ. वंदित्ता, णमंसित्ता विउलं असण जाव पडिलाभेइ पडिलाभित्ता एवं वयासी) ઊભી થઈને તેણે તેમને નમન કર્યા. વંદન અને નમન કરીને તેણે તેમને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન વગેરે ચાર જાતના આહાર આપ્યા અને આપીને તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે_(एवं खलु अहं अज्जाओ । तेतलिपुत्तस्स पुव्वं इहा ५ आसि, इयाणि ५ दंसणं वा परिभोगं वा तं तुब्भेणं अज्जाओ सिक्खियाओ बहुनायाओ बहपढियाभो बहूणि गामागर जाव अहिंडइ, बहूणं राईसर जाव गिहाई अणुपविसइ) હે આર્માઓ ! હું પહેલા તેતલિપુત્ર અમાત્યના માટે ખૂબ જ ઈષ્ટ, કાંત, પ્રિય, મનેઝ અને મનેમ હતી પણ હવે હું તેમના માટે અનિષ્ટ, અકાંત, અપ્રિય, અમને અને અમનેમ થઈ પડી છું. તેઓ મારાં નામ ગોત્ર સુદ્ધાં સાંભળવા ઈચ્છતા નથી ત્યારે મારી સામે પરિભેગ કરવાની અને મને જોવાની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्र अज्जाओ' इति, तत-तस्मात् कारणात् यूयं खलु हे आर्याः ! सिविखयाओ' शिक्षिता शिक्षा प्रासाः, बहुणायाओ ' बहुज्ञाता: अनेकशास्त्रज्ञाननिपुणा: 'बहुपढियाओ' बहुपठिता: नानाविधविद्याकुशलाः स्थः पुनः 'बहूणि गामागर जाव अहिंडह' बहूनि ग्रामाकर यावत् आहिण्डथ-बहुषु ग्रामाकरनगरादिषु परिभ्रमणं कुरुथ । तथा च ' बहुणं राईसर जाव गिहाई अणुपविसइ ' बहूनां राजेश्वर यावद् गृहाणि अनुमविशथ हे आर्याः ! यूयं बहूनां राजेश्वर तलवरश्रेष्ठि सेनापत्यादीनां गृहे प्रवेशं कुरुथ, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् 'अत्थि अई भे अज्जाओ!' अस्ति आई युष्माकमार्याः ! 'आई' इति वाक्यालङ्कारे देशी शब्दः। हे आर्याः ! अस्ति केइ कहि चि' कोऽपि कुत्रचित्-युष्माकं ज्ञानविषये 'चुनजोए गा' चूर्णयोगो वा-चूर्णानो द्रव्यचूर्णानां योगः, स्तम्भनादिकर्मकारी, 'मंतजोए वा' मन्त्रयोगो वा मन्त्राणां योगो व्यापारो वा वशीकरणादि मन्त्रयोगः 'कम्मणजोए और देखने की उनकी बात ही क्या कहूँ इस लिये हे आर्याओ! आप सब तो शिक्षित हैं, बहुज्ञाता हैं-अनेक शास्त्रों के ज्ञानसे निपुण हैंबहुपठित हैं-नाना प्रकार की विद्याओं में कुशल हैं-अनेक ग्राम, आकर आदि स्थानों में विहार करती रहती है, अनेक राजेश्वर आदिकों के घरों में आती जाती रहती हैं (तं अस्थिआईभे अजाओ) तो हे आर्याओ ! (केइ कहिं चि चुन्नज्जोएवा) कहीं कोई चूर्ण योग - द्रव्य चूों का स्तम्भनादि कर्मकारी योग (मंतजोए वो कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा बसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा मूले कंदे छल्ली, बल्ली, सिलिया, वा, गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा, उवलद्धपुवे वा जेणाहं तेतलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि ) मंत्र योग-वशीकरण आदि मंत्रों का તે વાત જ કયાં રહી? એથી હે આર્યોએ તમે સૌ શિક્ષિતા છે, બહેડ઼ાતા છો-એટલે કે ઘણા શાસ્ત્રોના જ્ઞાનથી નિપુણ છે, બહુપંડિતા છે-અનેક જાતની વિદ્યાઓમાં કુશળ છે, ઘણાં ગામ, આકર સ્થાનમાં વિહાર કરતાં રહે છે, मन पररारेश्व२ पोरेन महम आ40 ४२त २ छो. ( तं अत्थिआई में अज्जाओ) तो मायाम!! (केइ कहि चिचुन्नज्जोएवा) यां ગમે તે ચૂર્ણ ગ-દ્રવ્ય ચૂણેને સ્તંભન વગેરેનો યોગ, (मंतजोएवा कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा, काउड्डावणे चा अभि ओगिए वा वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा मूले कंदे छल्ली बल्ली सिलिया, वा गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा उक्लद्धपुव्वे वा जेणाहं तेतलि. पुनस्स पुणरवि इट्ठा ५ मवेज्जामि) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी री० अ० ४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ४३ वा' कार्मणयोगो वा-उच्चाटनादिकर्मयोगो वा, हिय उड्डावणे वा' हृदयोडायनं वा-चित्ताकर्षकवस्तुविशेषो वा 'काउड्डायने वा' कायोड्डायनं वा-शरीराकर्षकवस्तुविशेषो वा 'आभिओगिए वा' आभियोगिको वा, पराभवकरणयोगो वा, वसाकरणे वा' वशीकरणं वा-वशीकरणयोगो वा, कोउयकम्मे वा' कौतुककर्म वा सौभाग्यवर्द्धकस्नानादि वा 'भूइकम्मे वा' भूतिकर्म वा-मन्त्राभिमन्त्रितभस्मप्रक्षेपणं वा तथा-औषधीनां 'मूले' मूलम् ' कंदे' कन्दः 'छल्ली ' त्वर 'बल्ली ' लता सिलिया वा' शिलिका-तृणविशेषः, 'गुलिया' गुलिकागुटिका 'ओसहे वा भेसज्जे वा' औषधं वा भैषज्यं वा, इत्यादिकं वस्तुजातं युष्माभिः ‘उवलद्धपुवे' उपलब्धपूर्वम् प्राप्तपूर्वम् , हे आर्याः ! भवत्य एषु किमपि उपलब्धपूर्वा अवश्यं भवेयुः, तत्कृपया मह्यमर्पय, 'जेणाई' येनाहम् , यत्सेवनाद तेतलिपुत्रत्य पुनरपि इष्टा कान्ता प्रियामनोज्ञामनोऽमा भवेयम् । ततः खलु ता आर्याः पोट्टिलाया एवमुक्ताः सत्यो द्वावपि हस्तौ कर्णे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा योग कामण योग-उच्चाटन आदि भत्रो का योग हृदयोड्डीयनचित्ताकर्षक वन्तु विशेष का योग, कायोडायन-शरीराकर्षक वस्तु विशेषका योग, आभियोगिक पराभव करने का योग, वशीकरणवशीकरण योग, कौतुक कर्म-सौभाग्यवर्द्धक स्नान आदि का योग, भूति कर्म-मंत्रादि से अभिमंत्रित भस्म के प्रक्षेपण करने रूप योग तथा ओषधियों के मूल, कंद त्वक-छाल तथा लता, शिलिका-तृण विशेष गोलो, ओषध-भषज्य इत्यादि वस्तुओं का योग आपके देखने में अवश्य आया होगा-इस लिये कृपाकर इनमें से कोई न कोई योग आप हमें अवश्य-अवश्य प्रदान करें कि जिससे मैं-जिस के सेवन से मैं-तेतलिपुत्र का पुनरपि इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम बन जाऊँ (तएणं ताआ अज्जाओ पाहिलाए एवं वुत्ताओ समाणाओदावि हत्थेकन्ने ठवेंति, મંત્રયોગ-વશીકરણ વગેરે મંત્રોને યોગ-કામણગ, ઉચ્ચારણ વગેરે મને રોગ, હૃદયાહાયન-ચિત્તાકર્ષક વસ્તુ વિશેષને વેગ, આભિગિકપરાભવ કરવાના ગ, વશીકરણું-વશીકરણ યોગ, કૌતુકકમ–સૌભાગ્યવર્ધક સ્નાન વગેરેને ગ, ભૂતિકર્મ-મંત્ર વગેરેથી અભિમંત્રિત કરીને ભસ્મ (रामेडी) नु प्रक्षे५५५ ३५ या तमा मौषधीयाना भूण, ४४, १3 (छ) તેમજ લતા, શિલિકા-તૃણ વિશેષ ગેળી, ઔષધ, ભૈષજ્ય વગેરે વસ્તુઓને પગ તમારા જવામાં ચોક્કસ આવ્યા જ હશે. એટલા માટે તમે કૃપા કરીને એમાંથી ગમે તે યોગ મને ચેસ આપે કે જેના સેવનથી હું ફરી તેતલિ. પુત્રના ઈષ્ટ, કાત, બિય, મનેણ અને મનેમ થઈ જાઊ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे पोट्टिलाम् एवमवदन्-वयं खलु हे देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निम्रन्थ्यः, बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिताः, यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पतेऽस्माकम् 'एयप्पयारं ' एतस्मकारं कौँरपि 'णिसामेत्तर' निशामयितुं श्रोतुं न कल्पत इति पूर्वेण सम्बन्धः । ' अङ्ग इति सम्बोधने ' हे पोटिले ! किं-कथं पुनः ' उवदिसित्तए वा ' उपदेष्टुम् वा, स्वयम् ' आयरित्तए वा' आचरितुं वा कल्पते । न कल्पतइत्यर्थः, वयं खलु तव हे देवानुप्रिये ! विचित्र केवलिप्रज्ञातं धर्म परिकथयामः । ततः खलु सा पोट्टिला ठावित्ता पोट्टिलं एवं वयासी-अम्हेणं देवाणुप्पिया ! समणीओनिग्गंथीओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु कप्पई अम्हं एयप्पयारकन्नेहि वि निसामित्तए किमंग उवदिसित्तए वा, आयरित्तए वा। अम्हं णं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहिज्जामो) इस प्रकार उस पोट्टिला के द्वारा कहीं गई उन आर्याओं ने अपने दोनों कानोंपर हाथ रख लिये-और रख कर पोहिला से इस प्रकार कहने लगीं-हे देवानुप्रिये ! हम तो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, नव कोटि से पूर्ण ब्रह्मचर्यको हम पोलती हैं। हमें तुम्हारी ऐसी बातें कानों से सुनना भी कल्पित नहीं हैं तो फिर हे पुत्रि ! हम इनका उपदेश तुम्हें कैसे दे सकते हैं और स्वयं भी इनका आचरण कैसे कर सकता हैं । अर्थात् इन बातों का उपदेश देना और स्वयं इनको अपने आचरण में लाना यह सब हमारे कल्प के अनुसार निषिद्ध है । हम तो हे देवानुप्रिये ! तेरे हितके ___ (तएणं ताओ अज्जाओ पोडिलाए एवंवुत्ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने ठवेंति, ठावित्ता पोट्टिलं एवं वयासी अम्हेणं देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गंथीओ जाव गुत्तभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारकन्नेहि वि निसामित्तए किमंग उवदिसित्तए वा, आयरित्तए वा ! अम्हं णं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहिज्जामो) આ પ્રમાણે પિફ્રિલાની વાત સાંભળીને તે આર્યાઓએ પોતાના બને કાને ઉપર હાથ મૂકી દીધા અને મૂકીને એમ કહેવા લાગી હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે નિગ્રંથ શ્રમણીએ છીએ નવાવાડ સહિત બ્રહ્મચર્યનું અમે પાલન કરીએ છીએ. હે પુત્રિ! તમારી એવી વાતે અમારા માટે કાનથી સાંભળવી પણ ગ્ય લેખાય નહિ ત્યારે તેના વિશે ઉપદેશની વાત તે સાવ અયોગ્ય જ છે. અમે આ વિશે તમને કઈ પણ જાતને ઉપદેશ પણ આપી શકીએ નહીં તે પછી જાતે આનું આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? એટલે કે આ બાબતને ઉપદેશ આપ તેમજ પોતે આનું આચરણ કરવું તે બધું અમારે કલ્પ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ०८ तेतलिपुत्रप्रधामचरितवर्णनम् ४५ ता आर्याः एवमवादीत्-इच्छामि खलु हे आर्याः ! युष्माकमन्तिके केवलिप्रज्ञप्तं धर्म निशामयितुम् श्रोतुम् । ततः खलु सा पोट्टिला धर्मं श्रुत्वा — निसम्म' निशम्य हृदयेनाधार्य हृष्टतुष्टा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु हे आर्याः ! नैन्थ्य प्रवचनं यावत् ' से ' तत् तथैव यथैतद् यूयं वदथ । हे आर्याः ! 'इच्छामिणं' इच्छामि खलु अहं युष्माकमन्तिके 'पंचाणुब्वइयं जाव गिहिधम्म' पञ्चाणुव्रतिकं यावत् गृहिधर्म पडिवज्जित्तए' प्रतिपत्तुं स्वीकर्तुम् । अनन्तरंता आर्या एवमवालिये विचित्र केवलि प्रज्ञप्त धर्मका उपदेश कहते हैं ( सो तू सुन)(तएणं सा पोटिला ताओ अज्जाओ एवं बयासी इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्हं अंतिए केलिपन्नत्ते धम्मं निसामेत्तए-तएणं ताओ अज्जाओ पोटिलाए विचित्धम्म परिकहेंति ) उनकी इस प्रकार बात सुन कर उस पोटिलाने उनसे कहा-हे आर्याओ ! मैं आप लोगों के मुख से केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहती हूं। पोहिला की ऐसी प्रार्थना सुन कर उन आर्याओं ने उस पोहिला के लिये विचित्र केलि प्रज्ञप्त धर्म सुनाया (तएणं सा पोटिला धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टा एव वयासी ) उन के मुखसे केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुन कर और उसे अपने हृदयमें अवकृत कर अत्यन्त हर्षित एवं संतुष्ट हूई उस पोटिलाने उनसे ऐसा कहा (सदहामि णं अज्जाओ। णिग्गथं पावयणं जाव से जहियं तुन्भे वयह, इच्छामि गं अहं तुम्भं अंतिए पंचाणुध्वइयं जाव गिहिधम्म पडिवजि. त्तए-अहासुहं, तएणं सा पोहिला तासिं अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं મુજબ અયોગ્ય ગણાય છે. હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તો તારા હિત માટે વિચિત્ર કેવળિયજ્ઞમ ધર્મને ઉપદેશ આપીએ છીએ તેને તે સાંભળ. _(तएणं सा पोहिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्हें अंतिए केवलिपन्नत्ते धम्म निसामेत्तए-त्तएणं ताओ अज्जाओ पोहिलाए विचित्तं धम्म परिकहेति) તેમની આ જાતની વાત સાંભળીને તે પિફિલાએ તેમને એમ કહ્યું કે હે આયઓ! તમારા મુખથી હું કેવળી પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મને સાંભળવા ઈચ્છું છું. પિફ્રિલાની એવી વિનંતી સાંભળીને તે આર્યાએાએ તેને વિચિત્ર કેવળિ-પ્રજ્ઞમ धर्मना 6५३माया. (तएणं सा पोट्टिला धम्म सोच्चा निसम्म हद-तुद्धा एवं वयासी) तमना भुमची जी प्रज्ञा पर्नु प्रशन तेन इयमा ધારણ કરીને ખૂબ જ હર્ષિત અને સંતુષ્ટ થતી તે પિકિલાએ તેમને એમ કહ્યું કે (सदहामिणं अज्जाओ ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहियं तुन्भे वयह, इच्छामि गं अहं तुम्भं अंतिए पंचायुवइयं जाव गिहिवम्म पडिवज्जित्तए-अहा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासू दिपुः - अहासुह ' यथा सुखं हे देवानुप्रिये । । तत खलु सा पोट्टिला तासामार्याणामन्तिके पश्चाणुव्रतिकं यावद् गृहिधर्मं प्रतिपद्यते, पुनस्ता आर्या वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रतिविसर्जयति । ततः सा पोहिलाश्रमणोपासिका जाता, ' जाव पडिला भेमाणि ' यावत् प्रतिलम्भयन्ती = निर्ग्रन्येभ्यः श्रमणेभ्यः श्रमणीभ्यश्च चतुर्विधमाहारं ददती विहरति ॥ सु० ७ ॥ जाव गिहिधम्मं पडिवज्जेइ, ताओ अज्जाओ वंदह, णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ ) हे आर्याओ ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं यावत् ऐसा मानती हूं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन जैसा आप कहती है वैसा ही है । अतः हे आर्याओ ! अब मैं आपके पास पंचाणु व्रत सात शिक्षावत आदि रूप १२ बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म को धारण करना चाहती हूं। इस तरह पोडिला की भावना जान कर उन आर्याभों ने उससे कहा- यथा सुखं देवानुप्रिये ! तुझे जिस तरह सुख हो वैसा तूं कर- श्रयस्कर कार्य में विलम्ब करना योग्य नहीं हैं-इस प्रकार उन आर्याजनोंकी आज्ञा प्राप्त कर उस पोटिलाने उन्हीं आर्याओं के पास से श्रावकधर्म पंव अणुवत एवं सात शिक्षाव्रतोंको धारणा कर लिया। इस प्रकार श्रमणोपासिका बनी हुई उस पोहिला ने उन आर्याओं को वन्दना एवं नमस्कार की बन्दना नमस्कार करके फिर उन्हें विसजित कर दिया । (तपणं सा पोहिला समणोबासिया जाया जाव पडि - सुहं. तरणं सा पोहिला तासं अज्जाणं अंतिए पंवाणुश्वश्यं जाव गिहिधम्मं पडिबज्जे ताओ अज्जाओ व दह, णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ ) હું આર્યએ ! આ નિશ્ર્ચય પ્રવચન ઉપર હું શ્રદ્ધા કરૂં છું. ચાવત આ નિગ્રં શ્ પ્રવચન જેવું તમે કહા છે તેવું જ છે. એથી હું આર્યાએ ! હવે હું તમારી પાસેથી પાંચ અણુવ્રત વગેરેને ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કરવા ઇચ્છું છું. આ રીતે પેટ્ટિલાના વિચારા જાણીને તે આર્યાએ તેને કહ્યું કે 'यथासुखम् ' भेटले ! हे हेवानुप्रिये । तने भेमां सुख प्राप्त थाय ते तु ४२ સારા કામમાં વિલખ કરવા જોઇએ નહિ. આ પ્રમાણે તે આર્યોએની આજ્ઞા મેળવીને તે પાટ્ટિલાએ તે આર્યાની પાસેથી શ્રાવક-ધર્મ-પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાત્રતાને ધારણ કરી લીધો. આ રીતે શ્રમણે પાસિકા થઈ ગયેલી તે પોફ્રિલાએ તે આર્યને વંદન તેમજ નમન કર્યાં અને વદન તથા नमन ने तेभने विहाय खायी ( वरण सा पोहिठा समणोवासिया जाया जान पडिलामार्थी विहरइ ) मा रीते श्रमशोपासिा था। गयेसी ते पोट्ठिया શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधामृतवषिणी टीका० अ० ४ तेतलिपुत्रप्रधानचम्तिवर्णनम् ४७ मूलम्-ताणं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाई पुत्वरत्तावरतकालसमयंति कुडंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारुवे अज्झस्थिए जाव समुप्पन्ने । एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुटिव इहा ५ आसि, इयाणिं अणिहा ५ जाव परिभोगं वा, तं संयं खल्लु मम सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए, एवं सपेहेरे, संहिता, कल्लं जाव पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कद्दु एवं वयासी - एवं खल्लु देवाणुप्पिया ! मए सुब्बयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अब्भणुन्नाया पव्वइत्तए । तएणं तेयलिपुत्ते पोटिलं एवं वयासी-एवं खल्लु तुमं देवाणुप्पिए ! मुंडा पवइया समाणी कालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उवव. जिहिसि, तं जइ णं तुमं दवाणुप्पिए ! मम ताओ देवलो. याओ आगम्म केवलि पन्नत्ते धम्मे वोहेहि, तोहं विसज्जेमि, अह णं तुमं मम ण संबोहेसि, तो ते ण विसज्जमि । तएणं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमढें पडिसुणेइ । ततः खलु तेत. लिपुत्ते विपुलं असणं४ उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता, मित्तणाइ जाव आमतेइ, आमंतित्ता, जाव सम्माणेइ, सम्माणित्ता, पोटिलं पहायं जाव पुरिससहस्सवाहिणि सोयं दुरुहइ, दुरूहित्ता. लाभेमाणी विहरइ ) इस प्रकार श्रमणोपासिका बनी हुई क्ह पोहिला निर्ग्रन्थ श्रमणजनोंकोएवं निर्यन्थ श्रमणियों को दान-चारों प्रकार का आहार देती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी । सू० ७ । નિગ્રંથ શ્રમણે અને નિગ્રંથ શ્રમણને દાન-ચારે જાતના આહારે-આપતી पोताना मत ५सा२ ४२१! माजी. ॥ सूत्र “७" ॥ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे मित्तणाइ जाव संपरिखुडे सव्विट्टिए जाव रवेणं तेयलिपुरस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छ । पोटिला सीयाओ पच्चोरुहइ । तेतलिपुत्ते पोटिलं पुरओ कड्डु जेणेव सुव्वया अजाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम पोटिला भारिया इट्ठा ४, एसणं संसारभउव्विगा जाव पव्वइत्तए, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्मिणीभिक्खं अहासुहं मा पडिबंधं करेहि । तएणं सा पोट्टिला सुव्वयाहिं अज्जाहि एवंवुत्ता समाणा हट्टतुट्टा उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकमइ, अवकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुदत्ता, सयमेव पंचमुटियं लोयं करेइ, करित्ता, जेणेव सुव्वयाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता. एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव एकारसअंगाइं हिज्जइ,बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववण्णा ॥सू०८॥ टीका-'तएणं तीसे' इत्यादि । ततः खलु तस्याः पोट्टिलायाः 'पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमयेरात्रे पश्चिमे भागे ' कुडुंब जाग तएणं-'तीसे पोटिलाए' इत्यादि । टीकार्थ -(तएणं) इसके बाद ( तीसे पोटिलाए ) उस पोट्टिला के जब कि वह ( अन्नया कमाई ) किमी एक दिन ( पुब्बावरत्तकालसम. 'तएण -तीसे पोट्टिलालाए' इत्यादि ।। टी -(तएण) त्या२ ५७ ( तीसे पाहिलाए) ते पाहताना न्यारे ते ( अन्नया कयाई) ७ मे हिवसे (पुत्वावरत्तकालसमयसि) राजिना श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तैतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ४९ रियं जागरमाणीए ' कुटुम्बजागरिको जाग्रत्या अयमेतद्रूप 'अज्झथिए जाव' आध्यात्मिको यावत् आध्यात्मिकः-आत्मगतो यावन्मनोगतः संकल्पः समुत्पनः । संकल्पप्रकारमाह-एवं स्खलु अहं तेतलिपुत्रस्य पूर्वम् इष्टा कान्ता मिया मनोज्ञा मनोऽमा आसम् , इदानीमनिष्टा, अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा यावत् परिभोगं वा । अस्याभिमाय:-अहो मनुष्याणां मनोवृत्तेरस्थिरतो । पूर्व यस्याहम् इष्टा कान्ता प्रियाऽदिकाऽसम् , सैवाहमस्यानिष्टाऽकान्ताऽभियादिका जाताऽस्मि । अयं तेतलिपुत्रो मम नाम गोत्रश्रवणमपि नेच्छति किं पुनर्ममदर्शनं मया सह परिभोगं वान्छेत् अपितु नेत्यर्थः । 'तं' तत्-तस्मात्कारणात् ' सेयं' यंसि ) रात्रि के पिछले भागमें (कुडुंबजागरियं-जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पन्ने ) कुटुंब की चिन्ता से जाग रही थी इस प्रकार का आध्यात्मिक यावन्मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-(एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुचि इट्टी ५ आसि इथाणि अणिट्ठा ५ जाव परिभोगं वा, तं सेयं खलु मम सुव्ययाणं अजाणं अंतिए पवइत्तए) मैं पहिले तेतलिपुत्र को बहुत ही अधिक इष्ट, कान्त प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी-परन्तु अब मैं ऐसी नहीं रही हूं-अनिष्ट आदि बन गई हूँ। और बातों की बात ही क्या है-वे तो अब मेरा मुख तक नहीं देखना चाहते हैं-देखो मनुष्यों की मनोवृत्ति कितनी अस्थिर है-पूर्व मैं जिसे इष्ट, कान्त, प्रिय, आदि रूप थी-अब वही मैं उसके लिये अ. निष्ट अप्रिय आदि बन गई हूं। यह तेतलिपुत्र तो मेरो नाम गोत्र तक भी सुनना नहीं चाहता है तो फिर मेरे साथ रहने की तो चाहना ही આધ્યાત્મિક યાવત મને ગત સંકલ્પ ઉદ્દભવ્યું કે ___ (एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुब्बि इट्ठा ५ आसि इयाणिं अणिट्ठा ५ जाव परिभोगं वा तं सेयं खलु मम सुब्बयाणं अजाणं अंतिए पव्वइत्तए ) પહેલાં હું તેતલિપુત્રને ખૂબજ ઈણકાંત, પ્રિય, મને અને મનેમ હતી પણ હવે હું તેમના માટે તેવી રહી નથી અનીષ્ટ વગેરે થઈ પડી છું. મારી સાથે વાતચીતની વાત તો દૂર રહી પણ તેઓ મારૂં મેં પણ જોવા માગતા નથી.ખરેખર પુરુષોની મનોવૃત્તિ કેટલી બધી ચંચળ હોય છે ? જેને પહેલાં જે હું ઈષ્ટ, કાત, પ્રિય, વગેરેના રૂપમાં હતી, હવે તેને તેજ હું અનિષ્ટ અપ્રિય વગેરે થઈ પડી છું આ તેતલિપુત્ર મારા નામગોત્ર સુદ્ધાં સાંભળવા માગતા નથી ત્યારે મને જોવાની અને મારી સાથે રહેવાની તે તેમને पासा पारमा ( कुडुबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्ज्ञथिए जाव समुपन्ने) घ२-हस्थीनी विया२४२ती. मी २डी हती त्यारे-मानतनो શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसचे श्रेयः उचितं खलु मम सुव्रतानामार्याणामन्ति के प्रत्रजितुम्, एवं संप्रक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य-विचार्य 'कल्लं जाव पाउप्पभायाए ' कल्यं यावत् प्रादुष्पमाला. थाम् पातः सूर्योदयसमये यत्रैव तेतलिपुत्रस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य • करयलपरि ' करतलपरीगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवदत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय! भया सुव्रतानामार्याणामन्ति केधर्मः ‘णिसंते' निशान्तः श्रुतः, 'जाव अब्भणु उसे कैसे हो सकती है । इस लिये मुझे अब यही उचित है कि मैं सुव्रता आर्यिका के पास प्रवजित हो जाऊँ । ( एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छह) इस प्रकार जब वह विचार कर चुकी तो विचार करके फिर जब प्रातःकाल हुआ और सूर्य का उदय हो चुका तब जहाँ तेतलिपुत्र था वहां पहुंची (उधागच्छित्ता करयल० एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया | मए सुब्बयाणं अजाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अन्मणुनाया पव्वइत्तए, तएणं तेयलिपुत्ते पोहिलं एवं वयासी-एव खलु-तुमं देवाणुप्पिए ! मुंडा पन्चझ्या समाणी कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जिहिसि, तं जइ णंतुमं देवाणुप्पिए! ममं ताओ देवलो. याओ आगम्म, केवलिपनत्ते धम्मे बोहेहि तो हं विसज्जेमि ) वहां जा कर उसने दोनों हाथ जोड कर उस को नमस्कार किया-बाद में वह इस प्रकार उससे कहने लगी हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि मैंने દરકાર જ શી હોય ? એથી મને હવે એજ યોગ્ય લાગે છે કે હું સુત્રતા આર્થિકાઓની પાસે પ્રજિત થઈ જાઉ. ( एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ) આ રીતે જ્યારે તેણે ચેકસ વિચાર કરી લીધું ત્યારે તે સવારે સૂર્યોદય થતાં જ્યાં તેતલિપુત્ર અમાત્ય હતું. ત્યાં પહોંચી ( उवागच्छित्ता करयल० एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुन्वयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अब्भणुन्नाया पव्वइत्तए, तएणं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी-एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मुंडा पव्वइया समाणीकालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु देवलोएम देवत्ताए उववज्निहिसि तं जाणं तुम देवाणुप्पिए ! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म, केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहेहि तो हं विसज्जेमि) ત્યાં જઈને તેણે તેમને બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે હે દેવાનુપ્રિય! મેં સુવતા આર્યાની પાસેથી શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५१ णाया पब्यइत्तए ' यावदभ्यनुज्ञाता मजितुम्=स धर्मों मम मनसि रुचितः तस्माद् भवताऽभ्यनुज्ञातासती प्रबजितुमिच्छामीतिभावः । ततः खलु तेतलिपुत्रः पोटिलामेवमवदत्-एवं खलु त्वं देवानुप्रिये ! मुण्डा प्रबजिता सती कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्स्यते । 'तं' तदा यदि खलु त्वं देवानु. प्रिये ! मां ततो देवलोकादागत्य केवलिप्रज्ञप्तं धर्म बोधयेः, 'तोहं ' तदाऽहं त्वां 'विसज्जेमि' प्रबजितुमाज्ञापयामि ! 'अह णं' अथ खलु यदि खलु त्वं मां 'णं संबोहेसि न संबोधयसि-केवलिप्ररूपितं धर्म बोधयितुं प्रतिज्ञां न करोषि 'तो' तदा 'ते' त्वां न विसृजामि-प्रवजितुं नाज्ञापयामि । 'तएणं' ततः खलु-तेतलिपुत्रस्य एतद्वचनश्रवणानन्तम् , सा पोहिला तेतलिपुत्रस्य 'एयमह' एतमर्थ-धर्म प्रति बोधनरूपमर्थ 'पडिसुणेइ' प्रतिशृणोति-स्वीकरोति । ततः खलु तेतलिपुत्रो विपुलमशनपानखाद्यस्वाद्य चतुर्विधमाहारम् , ' उवक्खडावेइ' उपस्कारयतिनिष्पादयति, ' उवक्खडावित्ता' उपस्कार्य ' मित्तणाइ जाव आमंतेइ ' मित्रज्ञाति सुव्रता आर्यिका के पास धर्म का उपदेश सुना है वह धर्म मुझे बहुत ही अधिक रुचिकर प्रतीत हुआ है । इस लिये मैं आपसे आज्ञा लेकर दीक्षित होना चाहती हूँ। पोट्टिला की ऐसी बात सुन कर तेतलिपुत्रने उससे कहा-देवानुप्रिये ! बात ऐसी है कि तुम दीक्षित हो कर जब काल अवसर काल करोगी ( यह निश्चित है) अन्यतर देवलोक में देवता की पर्याय से उत्पन्न होओगी-तब यदि देवानुप्रिय ! मुझे वहां से आ कर तुम केवलिप्रज्ञप्त धर्म समझाओ-तो मैं तुम्हें प्रवजित होने के लिये आज्ञा दे सकता हूँ (अहं गं तुमं ममं णं संबोहेसिं तो ते ण विस. ज्जेमि तएणं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमढे पडिसुणेइ, ततः खलु तेयलिपुत्ते विपुलं असणं ४ उचक्डावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ जाव ધર્મને ઉપદેશ સાંભળે છે અને તે મને ગમી ગયું છે, એટલા માટે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું. પિફ્રિલાની આ જાતની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્રે તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દીક્ષિત થઈને જ્યારે કાળના સમયે કાળ કરશે અને અન્યતર દેવલેકમાં દેવતાના પર્યાયથી જન્મ પામશો ત્યારે જે તમે હે દેવાનુપ્રિયે ! ત્યાંથી આવીને મને કેવળિ પ્રજ્ઞસ ધર્મ સમજાવે તો હું તમને અત્યારે ખુશીથી પ્રવજીત થવાની આજ્ઞા આપી तेभ छु. (अहं णं तुमं ममं णं संबोहेसिं तो ते ण विसज्जेमि तएणं सा पोटिला तेयलि. पुत्तस्स एयमढे पडिसुणेइ, ततः खलु तेतलिपुत्ते विपुलं असणं ४ उपक्खडावे, उबक्खडावित्ता, मित्तणाइ जाव आमतेइ, आमंतित्ता, मित्तणाइ सम्माणित्ता पोहिलं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म ज्ञाताधर्मकथासूत्रे यावदामन्त्रयति, मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनान् आमन्त्रयति, 'आमंतित्ता' आमन्त्र्य 'जाव संमाणेइ ' यावत्-संमानयति अशनपानादि चतुर्विधाहारेण संमान्य, पोट्टिलं हायं जाव पुरिससहस्सवाहिणि सीअं' पोटिलां स्नातां यावत् पुरुषसहस्रवाहिनी शिबिकाम् , 'दूरोहेइ' दूरोहयति-आरोहयति, ' दूरुहित्ता' आमंतेइ आमंतित्ता जाव सम्माणेइ, सम्माणित्ता पोटिलं पहायं जाव पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तणाइ जाव संपडिबुडे सव्विड्डीए जाव रवेणं तेर्यालपुरस्स मज्झं मझेणं जेणेव सुव्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ ) यदि तुम मुझे संबोधित नहीं करोगी अर्थात् केवलि प्रज्ञप्त धर्म को मुझे समझाने की प्रतिज्ञा नहीं करोगी तो मैं तुम्हें दीक्षित होने की आज्ञा नहीं दूंगा-इस प्रकार के तेतलिपुत्रके इस कथनको उस पोटिलाने स्वीकार कर लिया । अर्थात् में देवलोक में जाऊँगा तो वहां से आ कर आप को प्रतिबोध दूंगी इस प्रकार जब पोहिला ने स्वीकार कर लिया। इस के बाद तेतलिपुत्र ने विपुल मात्रा अनशनादि रूप चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करवाया-करवा करके फिर उसने अपने मित्र, ज्ञाति, आदि जनो को आमंत्रित किया । मित्र, ज्ञाति, स्वजन संबन्धी परिजनोंको आमंत्रित करके यावत् अशन पाना. दिरूप इस चतुर्विध आहार से उनका सन्मान करके उसने पोहिलाको स्नान करवा कर यावत् उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर बैठाया, हायं जाव पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहइ दुरूहित्ता मित्तणाइ जाव संपडिबुडे सविडोए जाव रवेणं तेयलिपुरस्स मज्झं मझेणं जेणेव सुव्बयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ) જે તમે મને સંબોધશે નહિ એટલે કે જે તમે મને કેવળિ પ્રજ્ઞસ ધર્મને સમજાવવાની પ્રતિજ્ઞા કરશે નહિ તે તમને હું કઈ પણ સંજોગોમાં પણ દીક્ષા સ્વીકારવાની આજ્ઞા આપીશ નહિ. આ રીતે કહેવાથી પિહિલાએ તેતલિપુત્રના કથનને સ્વીકારી લીધું એટલે કે પિટ્રિલાએ તેમને આ પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞાબદ્ધ થઈને કહ્યું કે હું દેવલોકમાં જઈશ અને ત્યાંથી આવીને તમને ધર્મને બંધ આપીશ. આમ જ્યારે પિદિલાએ સ્વીકારી લીધું ત્યારપછી તેતલિપુત્રે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરેના રૂપમાં ચાર જાતના આહારો બનાવડાવ્યા અને ત્યારબાદ તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, વગેરે સ્વજનોને આમંત્રણ આપ્યું. મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન સંબંધી પરિજનેને આમંત્રણ આપીને યાવત અશનપાન વગેરે ચાર જાતના આહારથી તેમનું સન્માન કરીને તેણે પિફ્રિલાને સ્નાન કરાવડાવ્યું અને યાવત તેને પુરુષ સહસવાહિની પાલખીમાં બેસાડી. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी डी० भ०१४ तेतलिपुत्रवधानचरितवर्णनम् ५३ दूरो = आरोह्य मित्तणाइ जाव संपवुिडे ' मित्रज्ञाति यावत् संपरिवृतः = मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनादिभिर्युक्तः ' सव्विड्डीए' सर्वदर्था ' जाव रवेणं ' यावद्रवेण = भेर्यादिनिनादेन सह तेतलिपुरस्य मध्यमध्येन यचैव सुव्रतानामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति । सा पोहिला शिविकातः 'पश्च्चोरुहइ ' प्रत्यवरोहति अवतरति । ततः स तेतलिपुत्रः पोहिलां पुरतः कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्या तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत् - एवं खलु हे देवानुप्रियाः मम पोट्टिलाभार्या इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोऽमा, वर्तते, बैठा कर मित्र, ज्ञाति स्वजन संबन्धी परिजनों से युक्त होकर अपनी समस्त विभूति के अनुसार गाजे बाजे के साथ तेतलिपुर नगर के बीचोंबीच चल कर वह जहाँ सुव्रता आर्यिका का उपाश्रय था वहां पहुँचा । ( पोहिला सीधाओ पच्चोरूहइ, तेतलिपुत्ते पोहिलं पुरओ कट्टु जेणेव सुव्वया अज्जाओ तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता, वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी, एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पोट्टिला भारिया हट्ठा ५ एसणं संसारभब्बिग्गा जाव पव्वतए पडिच्छंतु णं देवाणुपिया ! सिसिणीभिक्खं अहासुहं मा पडिबंधं करेहि ) पोहिला शिबिका से उतरी - तेतलिपुत्र पोहिलाको आगे करके जहाँ सुव्रता आर्यिका थीं वहां गया । जा कर उसने उनको वंदनाकी नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिये ! यह मेरी पोहिला नाम की पत्नी है । यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम है । इसने 6 પાલખીમાં બેસાડીને મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન સંબધી પિરજનોને સાથે લઇને તે પેાતાની સમસ્ત વિભૂતિ મુજબ ગાજાવાજાની સાથે નેતલપુર નગરની વચ્ચેવચ્ચે થઈને જ્યાં તે સુત્રતા આયિકાને ઉપાશ્રય હતા ત્યાં પહોંચ્યુંા. (पोडिला सीयाओ पश्चोरूह, तेतलिपुते पोट्टिलं पुरओ कट्टु जेणेव सुब्वया अज्जाओ तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता, बंदर, नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं व्यासी एवं खलु देवाणुपिया ! मम पोट्टिला भारिया हट्टा ५ एसणं संसारभउन्ग्गिा जाव पव्वत्तए परिच्छंतु णं देवाणुपिया ! सिस्सिणीभिक्खं अहा सुहं मा पडिबंधं करेहि ) પાફ્રિલા પાલખીમાંથી નીચે ઉતરી પડી, તેતલિપુત્ર અમાત્ય પાટ્ટિલાને આગળ રાખીને જ્યાં સુલતા આયિંકા હતી ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેણે તેમને વંદના તેમજ નમસ્કાર કર્યાં, વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! આ પોટ્ટિલા નામે મારી પત્ની છે. મને એ ઈષ્ટકાંત, પ્રિય, મનેાજ્ઞ અને મનાય છે. એણે તમારી પાસેથી ધમનું શ્રવણુ કર્યું છે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे एषा खलु भवतीनां समीपे धर्म श्रुन्या, धर्मश्रवणजनितवैराग्यवशात् संसारभयोद्विग्ना 'जाव पव्वइत्तए ' यावत् प्रत्रजितुम् भोता जन्म मरणेभ्यो भवतोनामन्निके प्रव्रज्यां ग्रहीतुमिच्छति, तस्मात् 'पडिच्छंतु ' प्रतीच्छन्तु-स्वीकुर्वन्तु खलु देवानु. पियाः ! इमां शिष्याभिक्षाम् , सुव्रतार्या प्राह-यथासुखम् मा प्रतिबन्धं कुरुष्व । ततः खलु सा पोट्टिला सुव्रताभिरार्याभिरेवमुक्ता सती हृष्टतुष्टा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ईशानकोणम् अवक्राम्यति-गच्छति, अवक्रम्य स्वयमेव आभरणमाल्यालंकारमवमुञ्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा यत्रैव मुव्रता आर्यास्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवदत्-'आलित्तेणं भंते ! लोए ' आदीतः खलु भदन्त ! लोकः-हे आर्ये ! एष लोको जन्मजरामरणादिभिदुःखैः प्रज्वलितः, 'एवं ' अनेन प्रकारेण 'जहा देवाणंदा' यथा देवानन्दा-देवानन्देव एषाऽपि सुव्रतानामन्ति के प्रत्रजिता, यावत्-एकादश अङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्वा आपके पास धर्म सुना है सो उसके प्रभाव से यह संसार भय से उद्विग्न हो कर जन्म मरण से भीत, त्रस्त हो कर आपके पास दीक्षित होना चाहती है। इसलिये हे देवानुप्रिये ! आप मेरे द्वारा दी गई इस शिष्य भिक्षाको अंगीकार कीजिये । तब सुव्रता आर्यिका ने कहायथा सुखं मा प्रतिबंधं कुरुष्व-(तएणं सा पोटिला-सुव्वयाहिं अजाहिं एवं धुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा उत्तरपुरस्थिमं दिसोभार्ग अवकमइ, अवकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयह, ओमुइत्ता सयमेव, पंचमद्वियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुब्वयाओ तेणेव उवागच्छइ, उवा. गच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-अलित्ते णं भंते । लोए एवं जहा देवाणंदा जाव एक्कारसअंगाई अहिजइ, बहूणि તેનો પ્રભાવથી એ સંસારભયથી વ્યાકુળ થઈને જન્મ-મરણથી ભીત અને વ્યસ્ત થઈને તમારી પાસેથી દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છે છે. એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! મારા વડે અપાતી આ શિષ્યા રૂપી ભિક્ષાને સ્વીકાર કરે. ત્યારે rami सुनता मावि तेने छु,' यथासुखं मा प्रतिबंध कुरुष्व' (तएणं सा पोटिला मुव्बयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणा हतुवा उत्तरपुरथिमं दिसी भागं अवक्कमइ, अपक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकार ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव, पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुब्धयाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंदइ नमसइ, बंदित्ता, णमंसित्ता एवं वयासोभलितेणं भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव एक्कारसभंगाई अहिज्जइ, बहूणि श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतव चिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् संलेखनया आत्मानं जुड्वा पष्ठि भक्तानि अनशनेन छिच्चा, 'आलोइयपडिकंता' आलोचित प्रतिक्रान्ता 'समाहिपत्ता ' समाधिप्राप्ता कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपन्ना | सू०८ ॥ ५५ वासाणि सामन्नपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सर्द्विभत्ताई अणसणाए छेदिप्ता आलोइयपडिकना समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु - देवलोएस देवत्ताए उबवण्णा) इस प्रकार सुव्रता आर्थिका के द्वारा कही गई वह पोहिला बहुत अधिक हृष्टष्ट हुई। बाद में वह ईशान कोण में गई। वहां जाकर उसने अपने हाथों से शरीर पर रहे हुए आभरण, माल्य एवं अलंकारों को उतार दिया । उतार कर अपने आप पंचमुष्टिक केशों का लुंचन किया- लुंचन कर फिर वह जहां सुव्रता आर्या थीं वहां आई । आते ही उसने उन्हें वन्दना एवं नमस्कार करके फिर वह इस प्रकार बोली - हे भदन्त ! यह लोक जरा मरण आदि दुःखों से प्रज्वलित हो रहा है, इस प्रकार से देवानंदा की तरह यह सुव्रता आर्या के पास दीक्षित हो गई। यावत् उसने ११ अंगों का अध्ययन भी कर लिया । बहुत वर्षो तक श्रामण्य पर्याय को पालन किया । प्रीतिपूर्वक अन्त में एक मास की संलेखना धारण कर ६०, भक्तों का अनशन द्वारा छेद वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सद्वि भत्ता असणार छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता, कालमा से कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएस देवत्ताए उबवण्णा ) આ રીતે સુત્રતા આર્થિકા વડે આજ્ઞા અપાયેલી પેટ્ટિલા ખૂબ જ હ્રષ્ટતુષ્ટ થઈ ગઈ ત્યારપછી તે ઇશાન કાણુ તરફ ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે પેાતાના હાથથી જ શરીર ઉપરના આભરણેા, માળાએ અને અલંકારેશ ને ઉતાર્યાં અને ઉતારીને પેાતાની મેળે જ પાંચ મુઠી કેશેાનું લુંયન કર્યું. લંચન કર્યાં પછી તે જ્યાં સુત્રતા આર્યો હતી ત્યાં આવતી રહી. ત્યાં આવીને તેણે તેમને વ ંદન અને નમસ્કાર કર્યાં, વંદના અને નમસ્કાર કરીને તે આ પ્રમાણે વિન'તી કરવા લાગી કે હે ભદન્ત ! આ સૌંસાર જરા ( ઘડપણું ) મરજી વગેરે દુઃખી સળગી રહ્યો છે. આ રીતે પેટ્ટિલા દેવાનંદાની જેમ જીવતા આર્માની પાસે દીક્ષિત થઈ ગઈ અને અનુક્રમે તેણે અગિયાર અગેનું અધ્યયન પણ કરી લીધું. તેણે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય પર્યોમનું પાલન કર્યુ છેવટે પ્રીતિપૂર્વક એક માસની સલેખના ધારણ કરીને અનશન વડે સાઠે ભક્તોનું છેદન કર્યુ. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकाङ्गो मूलम्-तएणं से कणगरहे रायाअन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था । तएणं राईसर जाव णीहरणं करेंति, करित्ता, अन्नमन्नं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगित्था, अम्हेणं देवाणुप्पिया! रायाहीणा रायाहिडिया रायाहीणकज्जा अयं च णं तेतली अमच्चे कणगरहस्स रन्नो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपचए दिन्नवियारे सव्वकज्जवडावए यावि होत्था, तं सेयं खल्लु अम्हं तेतलिपुत्तं अमच्चं कुमारं जाइत्तएत्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता, तेतलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य रहे य जाव वियंगेइ । अम्हे यणं रायाहीणा जाव रायाहीणकज्जा, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु जाव रज्जधुराचिंतए, तं जइणं देवाणुप्पिया! अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसेयारिहे, तण्णं तुमं अम्हं दलाहि । जाणं अम्हे महया२ रायाभिसेएणं अभिसिंचामो । तएणं तेतलिपुत्ते तेसि ईसर० एयमद्रं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, कणगज्झयं कुमारं व्हायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करित्ता तेसिं ईसर दिया। छेद कर आलोचित प्रतिक्रान्त बनी हुई यह समाधि प्राप्त हो गई और काल अवसर काल कर अन्यतर देवलोकमें देवता की पर्याप से उत्पन्न हो गई । सू० ८ ॥ છેદન કરીને આલોચિત પ્રતિક્રાંત બનેલી તે સમાધિ પ્રાપ્ત થઈ ગઈ અને કાળ અવસરે કાળ કરીને અન્યતર દેવલોકમાં દેવતાના પર્યાયથી જન્મ પામી. સૂ. “૮” श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १७ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५७ जाव उवणेइ, उवणित्ता, एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया! कणगरहस्स रपणो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगञ्झए नामं कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने मए कणगरहस्स रनो रहस्सियं संवड़िए, एयं णं तुब्भे महयार रायाभिसेएणं अभिसिंचह । सव्वं च से उटाणपरियावणियं परिकहेइ। तएणं ते ईसर० कणगज्झयं कुमारं महयार रायाभिसेएणं अभिसिंचंति। तएणं से कणगज्झए कुमारे राया जाए, महया हिमवंत मलय. वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ। तएणं सा पउमा. वई देवी कणगज्झयं रायं सदावेइ, सहावित्ता, एवं वयासीएस णं पुत्ता ! तव रज्जे य जाव अंतेउरे य० तुमं च तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स पहावेण, तं तुमं णं तेयलिपुत्तं अमच्चं आढाहि परिजाणाहि सकारेहि सम्माणेहि इंतं अब्भुट्रेहि, ठियं पज्जुवासाहि, वयंतं पडिसंसाहेहि, अद्धासणेणं उवणिमंतेहि भोगं च से अणुवदेहि । तएणं से कणगज्झए राया पउमावईए देवीए तहत्ति पडिसुणेइ जाव भोगं च से अणुवड्डइ ॥सू० ९॥ टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कनकरथो राजा अन्यदा कदाचित् । 'कालधम्मुणा स जुते' कालधर्मेण स युक्तः= मृतश्चाप्यभवत् । ततः 'तएणं से कणगरहे राया' इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद ( से कणगरहे राया अन्नया कयाई) वह कनकरथ राजा किसी एक दिन काल कवलित हो गया (तएणं 'तएणं से कणगरहे राया ' इत्यादि Nx-( तएणं ) त्या२पछी (से कणगरहे राया अन्नया कयाई) ते 31४२५ રાજા કોઈ દિવસે કાલાવલિત થઈ ગયે એટલે કે મૃત્યુ પામ્યો. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे खलु ' राईसर० जाव 'राजेश्वर० यावद = राजेश्वर तलवरमा डम्बिककौटुम्बिकादिसार्थवाहप्रभृतयः सार्थवाह प्रभृतयः तस्य 'णीहरणं ' निहरणं = मृतककृत्यं कुर्वन्ति कृत्वा अन्यो ऽन्यमेवमवदन- एवं खलु हे देवानुमियाः ! कनकरथो राजा 'रज्जे य जाव पुत्ते ' राज्ये च यावत् पुत्रान् = राज्यादिषु मूच्छित उत्पन्नान् पुत्रान् 'वियंगिस्था अव्यङ्ग्यत्= विकृताङ्गान् कृतवान् मारितवानित्यर्थः । ' अम्हेणं ' वयं खलु देवानुप्रियाः ! ' रायाहीणा ' राजाधीना:= राजवशवर्तिनः, ' रायाहिट्टिया ' राजाऽभिष्टिता - राजाश्रिता इत्यर्थः, 'रायाहीणकज्जा ' राजाधीनकार्याः, राज्ञामधीनं कार्य राईसर जाव णीहरणं करें नि, करिता अन्नमन्नं एवं वयासी एवं खलु देवाप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुते वियंगिस्था ) राजेश्वर, तलवर, माम्बिक, कौटुम्बिक, सार्थवाह आदि व्यक्तियों ने मिल कर उसका दाह संस्कार कियो । दाह संस्काररूप मृतक कृत्य करने के बाद फिर उन लोगों ने परस्पर में इस प्रकार का विचार किया । हे देवानुप्रियो ! देखो कनकरथ राजाने तो राज्य आदि में मूच्छित हो कर उत्पन्न हुए समस्त पुत्रों को विकृत अंग करके मार डाला है (अम्हे देवापिया राया हीणा रायाहिडिया रायाहीणकज्जा अयं च णं तेतलीअमचे कणगरहस्स रनो सव्वाणेसु-सम्बभूमियासु लपच्चए, दिन्नवियारे - सन्वकज्जवडावए याचि होत्था ) अब इस समय कोई राजा है नहीं अतः हमलोगों का क्या होगा क्यों कि हम लोग तो हे देवानुप्रियों ! राजा वशवर्ती है, राजा के आश्रित ही रहते आये हैं, हमारा (तएण राईसर जाव णीहरणं करेंति, कारिता अन्नमन्न एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगिस्था ) રાજેશ્વર, તલવર, માંડબિક કૌટુબિક, સાÖવાહ વગેરે લેાકેાએ મળીને તેને અગ્નિ-સંસ્કાર કર્યાં. અગ્નિ-સસ્કાર આદિ મૃત્યુ વિધિ પતાવીને તે લેકાએ પરસ્પર મળીને આ પ્રમાણે વિચાર કર્યાં કે હે દેવાનુપ્રિયે ! જુએ, રાજા કનકરથે તા રાજ્ય વગેરેની ખાખતમાં લાલુપ તેમજ મેાહિત થઈને ઉત્પન્ન થયેલા પેાતાના બધા પુત્રાના અંગે। કાપીને મારી નાખ્યા છે. ( अम्हेणं देवाणुप्पिया ! राया हीणा रायाहिद्विया रायाहीगकज्जा, अयं च णं तेतलीअमच्चे कणगरहस्त रम्नो सव्चट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए, दिनविचारे सव्वकज्जबडावर यावि होत्था ) હવે અત્યારે કાઈ રાજા છે જ નહિ તે અમારી શી દશા થશે ? હું દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે રાજાના વશવી છીએ, રાજાને અધીન રહેવામાં જ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १५ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५९ येषां ते तथा, सर्वमस्माकं कृत्यं राजाधीनं वर्तते इति भावः । अयं च खलु तेतलिरमात्यः कनकरथस्य राज्ञः ' सव्वट्ठाणेसु' सर्वस्थानेषु-संधिविग्रहादिषु सर्वेषु कार्येषु, ' सव्वभूमियासु ' सर्वभूमिकासु = स्वाम्यमात्यराष्ट्रदुर्गकोषवलसुहृत्पौरश्रेणिरूपाष्टविधासु ' लद्धपच्चए 'लब्धप्रत्ययः-लब्धःप्राप्तः प्रत्ययो विश्वासो यस्य सः, सकलजनविश्वासपात्रमित्यर्थः, 'दिनवियारे' दत्तविचारः, दत्तः राज्ञे वितीर्णः, विचार-शोभनो विचारो येन सः, लोकोपकारि विचारदायक इतिभावः, 'सबकज्जवडावए ' सर्वकार्यचर्दकः राज्ये समस्तकार्यसम्पादकश्चापि ' होत्या' अस्ति । ' तं' तत्-तस्मात् कारणात् ' सेयं श्रेयः-उचितं खलु अस्माकं तेतलिपुत्रममात्यं कुमारं 'जाइत्तए' याचितुम् , अयमभिमायः-यदयममात्यो राज्ञः सकलकार्यनिर्वाहकः, अतस्तत्समीपे गत्वा 'कोऽपि राजलक्षणसंपन्नः कुमारो राजपदे स्थापनीयः' इति वार्तालापमुपक्रम्य, समागते प्रसङ्गे, तत्पुत्रो राजपदे स्थापयितुं याचनीयः, 'त्तिक?' इति कृत्वा इति मनसि कृत्वा अन्योऽन्यस्य एतमर्थ 'पडिसुति' प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति, 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रृत्य, यौव तेतलिपुत्रोऽमात्यस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, एवमवदन्-एवं खलु जितना भी कार्य होता है वह सब राजाधीन ही होता आया है। इस लिये तेतलिपुत्र जो अमात्य है चलो उनके पास चलें क्यों कि वे ही कनकरथ राजाके लिये संधिविग्रह आदि समस्त कार्यों में एवं स्वामी, अमात्य, राष्ट्, दुर्ग कोश, बल, सुहृत् और पौरश्रेणीरूप आठ भूमियों में विश्वसनीय थे । राजा के लिये ये ही लोकोपकारी कार्यों में सलाह दिया करते थे और ये ही राज्यमें समस्त कार्यों के संपादक हैं (तं सेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमच्चं कुमारंजाइत्तए त्तिकटूटु अन्नमन्नस्स एय. मटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्तं अमच्च एवं वयासी-एवं खलु देवाणुટેવાઈ ગયેલા છીએ. અમારા બધા કામે રજાધીન જ હોય છે એથી ચાલે આપણે સૌ મળીને અમાત્ય તેતલિપુત્રની પાસે જઈએ, કેમકે તેઓ જ રાજા કાકરથના સંધિવિગ્રહ વગેરે બધા કામમાં અને સ્વામી, અમાત્ય, રાષ્ટ્ર, દગ, કેશબળ, સુહત અને પૌર શ્રેણિરૂપ આઠ ભૂમિમાં તે વિશ્વસનીય છે. લોકોના હિત માટે તેતલિપુત્ર અમાત્ય જ સલાહ આપતા રહેતા હતા તેમજ રાજ્યના બધા કામને પાર પાડનારા પણ તેઓ જ છે. (सेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमच्चं कुमारंजाइत्तए ति कटूटु अनमन्नस्स एयभट्ट पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे श्री शतधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे हे देवानुप्रिय ! कनकरथो राजा राज्ये च राष्ट्रे च यावत् व्यङ्गयति, वयं च खलु हे देवानुप्रिय ! राजाधीना यावद् राजाधीनकार्याः, स्वं च खलु हे देवानुप्रिय ! प्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य रहे य जाव वियंगेइ, अम्हे य णं राया हीणा जाव रायहीणकजा, तुमं च णं देवाणुपिया। कणगरहस्स रणो सम्वट्ठाणेसु जाव रजधुरा चिंतए-तं जहणं देवाणुप्पिया । अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसे यारिहे, तएणं तुमं अम्हं दलाहि) इसलिये हमको उचित है कि हम तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करें। तात्पर्य इस का यह है कि ये तेतलिपुत्र अमात्य राजा के सकल कार्य निर्वाहक हैं-इसलिये उनके पास चलकर "कोई राज लक्षण संपन्न कुमार राजपद में स्थोपनीय है " इस बात की हम चर्चा करें। इस चर्चा के प्रसंग में उनसे यह भी निवेदन करेंगे कि आप अपने पुत्र की ही राज पद में स्थापित कर दीजिये। इस प्रकार का विचार उन्होंने किया। जब विचार स्थिर होचुका-तब सबने इस बात को एक मत से स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर के फिर वे सबके सब जहां अमात्य तेतलिपुत्र थे वहां गये। वहां जाकर उन्होंने ऐसा कहाहे देवानुप्रिय ! कनक रथ राजाने राज्य और राष्ट्र आदि में विशेष मू. च्छित बनकर उत्पन्न हुए अपने समस्त पुत्रों को अंगभंग कर मारडाला राया रज्जे य रटे य जाव वियंगेइ, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रणो सम्वट्ठाणेसु जाव रजधुराचिंतए-तं जइणं देवाणुप्पिया ! अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसे यारिहे, तण्णं तुम अम्हं दलाहिं ) એથી અમને એ ઉચિત લાગે છે કે અમે તેતલિપુત્ર અમાત્યની પાસે જઈને રાજકુમારની યાચના કરીએ. કારણ કે તેતલિપુત્ર અમાત્ય રાજાના બધા કામને સારી રીતે પાર પાડનારા છે, એટલા માટે તેમની પાસે જઈને રાજા થવા ગ્ય રાજ–લક્ષણ યુક્ત કેઈ કુમાર મળી શકે તેમ છે કે કેમ ? તે વિશે ચર્ચા કરીએ. આ જાતની વિચારણા કરતાં કરતાં અમે બધા તેમને એવી વિનંતી પણ કરીશું કે તમે પોતાના પુત્રને જ રાજગાદીએ બેસાડી દે. આમ તે લોકેએ મળીને વિચાર કર્યો. આમ વિચાર પાક થઈ ગયે ત્યારે સૌએ એકમત થઈને તેને સ્વીકારી લીધે. સ્વીકાર કરીને તેઓ બધા ત્યાંથી જ્યાં અમાત્ય તેતલિપુત્ર હતું ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે તેતલિપુત્રને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! કનકરથ રાજાએ રાજ્ય અને રાષ્ટ્ર વગેરેમાં સવિશેષ મૂર્ણિત એટલે કે મોહવશ થઈને જન્મ પામેલા પિતાના બધા જ પુત્રના અંગે કાપીને તેઓને મારી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १ कनकरथस्य राज्ञः सर्वस्थानेषु यावत् ‘रज्जधुराचिंतए' राज्यस्य धूः राज्यधुरा, तस्याश्चिन्तकः, राज्यभारनिर्वाहकश्वासि, तद् यदि खलु देवानुप्रिय! अस्ति कोऽपि कुमारो राजलक्षणसंपन्नः ‘अभिसेयारिहे' अभिषेकाों राज्याभिषेकयोग्यः, 'तं णं' तं खलु त्वमस्मभ्यं 'दलाहि' देहि 'जो' यस्मात् 'णं ' तं ' अम्हे' वयं महता २ ‘रायाभिसेएण' राज्याभिषेकेण राजयोग्येनाभिषेकेण अभिपिश्चामः राज्ये स्थापयाम इत्यर्थः। ततः खलु तेतलिपुत्रः तेषाम् 'ईसर० ईश्वर = ईश्वरतलबरमाडम्बिकादि सार्थवहप्रभृतीनाम् एतमध 'पडिसुणेइ' परिश्रृणोति स्वीकरोति, प्रतिश्रृत्य-स्वाकृत्य, कनकध्वजं कुमारं 'हायं सस्सिरीयं ' स्नातं यावत् सश्रीकं, स्नातं कृतस्नानम् , यावत् मश्रीकम्-सलिङ्कारविभूपितं शोभा. समन्वितं च करोति, कृत्वा तेषाम् ' ईसर जाव' ईश्वर यावत् ईश्वरादीनां सम्मुखे ‘उवणेइ ' उपनयति, उपनीय एवमवादी-एष खलु हे देवानुपियाः! है। अब इस समय राज पद में कोई नहीं है । हमलोग तो हे देवानुप्रिय ! राजाधीन यावत् राजाधीन कार्य वाले हैं। और देवानुप्रिय ! कनक रथ राजा के लिये संधि विग्रह आदि समस्त स्थानों में एवं स्वामी अमा. त्य आदि आठ भूमियों में विश्वसनीय रहें हैं। राजो के लिये लोकोपकारी कार्यो में आप सलाह देते रहे हैं । और आप ही राज्य भार के निर्वाहक है। इसलिये हमारी आपसे यह प्रार्थना है कि हे देवानुप्रिय! यदि राज्यलक्षण संपन कोई कुमार राज्य पद में अभिषेक करने के योग्य होवे तो उसे आप हमें देवें । (जो णं अम्हे महया२ रायाभिसे एणं अभिसिंचामो। तएणं तेतलिपुत्ते तेसि ईसरएयमé पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करित्ता तेसि ईसर जाव उवणेह, उवणित्ता एवं वयासी) कि जिससे हम उसे નાખ્યા છે. હવે અત્યારે રાજપદ માટે કઈ રહ્યું નથી. હે દેવાનપ્રિય ! અમે લેકે તે રાજાધીન રહીને જ રહેતા આવ્યા છીએ અને હે દેવા નુપ્રિય ! તમે રાજા કનકરથના સંધિવિગ્રહ વગેરે બધા કામોમાં એટલે કે સ્વામી અમાત્ય, વિગ્રહ વિગેરે તમામ કામમાં હંમેશા વિશ્વાસપાત્ર રહ્યા છે. લેકહિતની બાબતમાં તમે રાજાને સલાહ આપતા રહ્યા છે, અને તમેજ રાજ્યના બધા કામને પાર પાડતા આવ્યા છે. એથી અમે તમને એવી વિનંતિ કરીયે છીએ કે હે દેવાનુપ્રિય ! રાજ–લક્ષણોવાળે અને અભિષિત થઈને રાજગાદીએ બેસવા ગ્ય કેઈ કુમાર હોય તે તેને તમે અમને ઍપિ. (जे णं अम्हे महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचामो । तएणं तेतलिपुत्री तेसि ईसर एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेता कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीये करेइ, करिता तेसि ईसर जाव उवणेइ, उवणित्ता एवं क्यासी) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कनकस्थस्य राज्ञः पुत्रः पद्मावत्या देव्या आत्मजः कनकध्वजो नाम कुमारः अभिषेका) राजलक्षण सम्पन्नो मया कनकरथस्य राज्ञो 'रहस्सियं 'रहस्पिक-प्रच्छन्न यथा स्यात्तथा संवद्धितः, एतं खलु यूयं महता २ राजाभिषेकेण अभिषिश्चत । पुनः सः सर्व च ‘से ' तस्य 'उहाणपरियावणियं' उत्थानपरियापनिकम् = राज योग्य अभिषेक द्वारा अभिषिक्त कर राज्य में स्थापित करें। इस तरह के उन ईश्वर, तलवर, माडम्बिक आदि सार्थवाह वगैरह के इस कथन रूप अर्थ को उस तेतलिपुत्र अमात्य ने स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके कनकध्वज कुमार को उसने नहा धुवाकर सर्वालंकारों से विभूषित किया। विभूषिक करके फिर वह उसे उन ईश्वर तलवर आदिकों के समक्ष ले आया । लाकर के उनसे उसने ऐसा कहा-(एस ण देवानुप्पिया ! कणगरहस्स रण्णो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए णामं कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने मए कणगरहरस रण्णो रहस्सियं संवडिए एयं णं तुम्भे महया महया रायाभिसे एणं अभिसिंचह) हे देवोनुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र है जो पद्मावती की कुक्षि से जन्मा है। इसका नाम कनकवज कुमार है। अभिषेक के योग्य है और राजलक्षण संपन्न है । मैंने इसको कनकरथ राजा से छिपा कर पालापाषा है और वृद्धिंगत किया है। इसे आपलोग बडे भारी राजयोग्य अभिषेक के साथ राज्य में स्थापित कीजिये। (सव्वं च से કે જેથી અમે તેને રાજ્યાસને અભિષેક કરી શકીએ. આ રીતે અમાત્ય તેતલિપુત્રે તે ઈશ્વર, તલવર, માંડબિક, સાર્થવાહ વગેરેના કથનને સ્વીકાર્યું અને સ્વીકારીને તેણે કનકધ્વજ કુમારને સ્નાન કરાવ્યું અને ત્યારપછી બધા અલંકારોથી તેને શણગાર્યો. ત્યારબાદ અમાત્ય તેતલિપુત્રે સુસજજ થયેલા કુમારને ઇશ્વર, તલવર વગેરેની સામે લાવ્યા અને તેઓને કહ્યું કે ( एसणं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रण्यो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए णामं कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने मए कणगरहस्स रणो रहस्सियं संवड़िए एयं णं तुम्भे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचह) “ હે દેવાનુપ્રિયે ! આ કનકરથ રાજાને પુત્ર છે અને પદ્માવતી દેવીના ગર્ભથી આને જન્મ થયે છે. કનધ્વજ કુમાર આનું નામ છે. આ કુમાર રાજ્યાસને બેસાડવા ગ્ય તેમજ રાજલક્ષણોથી યુક્ત છે. રાજા કનકરથને આ બાબતની જાણ નથી, મેં આનું પાલન તેમજ રક્ષણ છુપી રીતે કર્યું છે. તમે ભારે મહોત્સવની સાથે આ કુમારને રાજગાદીએ બેસાડે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . अनगारधर्मामुतवर्षिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ६३ उत्थान-जन्म, परियापनिका जन्मानन्तरमद्यावधिका संवर्द्धनादिपरिस्थितिः, उत्थानं च परियापनिका -उत्थानपरियापनिकम्-जीवनचरितं परिकथयति । ततः खलु 'ईसर० ' ईसरतलवरमाडम्बिकादयः कनकध्वजं कुमार महता.२ राजाभिषेकेण अभिषिञ्चन्ति । ततः खलु स कनकध्वजः कुमारो राजा जातः, स च कनकध्वजो राजा ' महया हिमवंत.' महाहिमवद्-महाहिमवन्महामलय मन्दरमहेन्द्रसारः =महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्राणां सार इव सारो यस्य सः, उहाणपरियावणिय परिकहेइ, तएणं ते ईसर० कणगज्झयं कुमारं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचति । तएणं से कणगज्झए कुमारे राया जाए, महया हिमवंत मलय० वष्णओ जाव रज पसासेमाणे विहरह, तएणं सा पउमावई देवी कणगझयं रायं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं' वपासी ) ऐसा कहकर फिर उन तेतलिपुत्र अमात्य ने उस कनकध्वज कुमार का उत्थान-जन्म और परियापनी का जन्म से लेकर अभी तक की समस्त पालन पोषण संवर्द्धन आदि परिस्थिति रूप-जीवन चरित्र उन्हें कह सुनाया-इस के बाद उन ईश्वर, तलवर, माडविक एवं कौटुं. म्बिक आदिकोंने कनकध्वज कुमार का बड़े जोर शोर के साथ राज्या. भिषेक किया। राज्य में अभिषिक्त होने के बाद वे कनकध्वज कुमार अब राजा बन गये। इसका सार-बल लोकमर्यादा कारी होने के कारण महा हिमवत् जैसा, यश और कीर्ति के फैलाव के कारण महामलय (सव्वं च से उट्ठाणपरियावणियं परिकहेइ, तएणं ते ईसर०कणगज्झयं कुमार महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचंति । तएणं से कणगज्ज्ञए कुमारे राया जाए, महया हिमवंता मलय० वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ, तएणं सा पउमावई देवी कणगज्झयं रायं सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी ) આ પ્રમાણે કહીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તે કનકધવજ કુમારનું ઉત્થાનજન્મ અને પરિયા પનિકા એટલે કે જન્મથી માંડીને અત્યાર સુધીની પિષણ સંવર્ધ્વન વગેરેની જીવન ચરિત્ર સંબંધી બધી વિગત અથથી ઇતિ સુધી કહી સંભળાવી. ત્યારબાદ તે ઈશ્વર, તલવર, માંડબિક અને કૌટુંબિક વગેરે લોકોએ કનકqજ કુમારને બહુ જ મોટા પાયા ઉપર ઉત્સવ ઉજવીને રાજ્યાભિષેક કર્યો. અભિષિકત થવા બાદ કનકધ્વજ રાજા થઈ ગયા હતા. તેમનું બળ લેક મર્યાદાને રક્ષનાર હોવા બદલ મહાહિમવંત જેવું હતું. તેમના યશ અને કીતિ ચોમેર પ્રસરેલા હતા તેથી તે મહમલય જેવા હતા તેમજ તેઓ દૃઢ પ્રતિ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे लोकमर्यादाकारित्वेन महाहिमवत्सदृशः, प्रसृतयशः कीर्तित्वेन महामलयतुल्यः, हदप्रतिज्ञत्वेन कर्तव्यदिग्दर्शकत्वेन च मन्दरमहेन्द्रतुल्यः, 'वष्णभो' वर्णकः विशेष. रूपेण अन्यतोऽवसेयः, 'जाव रज्ज पसासेमाणे' यावद्राज्यं प्रशासद् विहरति राज्यं कुर्वन्नास्ते । ततः खलु सा पत्रावतीदेवी कनकध्वज राजानं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-एतत् खलु हे पुत्र ! तव ' रज्जे य जाव अंतेउरे य०' राज्यं च यावदन्तः पुरं च एतत्सर्वं तेतलिपुत्रस्य प्रभावेन वर्त्तने 'तं' तत्-कारणात् त्व खलु तेतलिपुत्रममात्यं ' आढाहि' आद्रियस्व-आदरं कुरुष्व परिजाणाहि , परिजानाहि-अवेक्षस्व तदनुमत्या सर्व कार्य सम्पादयेत्यर्थः सत्कारय वस्त्रादिना, सम्मानय माल्यादिना, ' इंतं' यन्तम् आगच्छन्तमेतं तेतलिपुत्रम् 'अन्भुटेहि' अभ्युत्तिष्ठ अभ्युत्थानादिना विनयं प्रदर्शयेत्यर्थः 'ठियं पज्जुवासाहि' स्थित पर्युपास्व-सेवस्व, 'वयं ' बनन्तं-गच्छन्तम् 'पडिसंसाहेहि ' प्रतिसंसाधय-अनुगमनादिना प्रसादय, तथा 'अद्धासणेणं उवणिमंतेहि ' अर्धासनेन उपनिमन्त्रय स्वस्यासने तमुमवेषय, भोग-सुखसामग्रीरूपं च ' से' तस्य अनुवर्द्धय । ततः स कनकध्वजः ‘पउमावईए देवीए' पद्मावत्या देव्याः वचनं तहत्ति' के जैमा, दृढप्रतिज्ञा वाले एवं कर्तव्य का दिग्दर्शन कराने वाले हाँने के कारण मन्दर महेन्द्र-मेरू के जैसा था। और भी इन राजा के विषय का विशेष वर्णन दूसरों शास्त्रों से जान लेना चाहिये। यावत् इस तरह ये कनकध्वज कुमार अपने राज्य के शासन करने में तत्पर बन गये। इसके बाद उस राजमाना पत्रावतीदेवो ने उन कनकध्वज राजाको अपने पास बुलाया-और बुलाकर फिर उनसे उसने इस प्रकार कहा-(तएणं पुत्ता ! तव रज्जे य जाव अंतेउरेय. तुमंच तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स पहा वेणं, तं तुमंणं तेतलिपुत्त अमच्चं आढाहि,परिजाणाहि,सकारेहि,सम्मा णेहि, इंतं अन्भुटेहि ठियं पज्जुवासाहि, वयं पडिसंसाहेहि, अद्धासणेणं જ્ઞાવાળા અને કર્તવ્યને બતાવનાર હોવા બદલ મન્દર મહેન્દ્ર-મેરુ જેવા હતા. રાજા કનકધ્વજ વિશે સવિશેષ વર્ણન બીજા શાસ્ત્રોમાં વર્ણવ્યું છે, જીજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે તે કનકધ્વજ કુમાર પિતાના રાજ્યના વહીવટને સંભાળવા માટે સાવધ થઈ ગયા. ત્યારપછી રાજમાતા પદ્માવતીદેવીએ કનકધ્વજ રાજાને પોતાની પાસે લાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (तएणं पुत्ता ! तव रज्जे य जाव अंतेउरेय तुमं च तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स पहावेणं, तं तुमं णं तेतलिपुत्तं अमच्चं आढाहि, परिजाणाहि, सक्कारेहि, सम्मा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १५ तषेति='तथास्तु' इतिकृत्वा प्रतिभृणोति-स्वीकरोति मतिश्रुत्य तथैव कुर्वाण यावद् भोगं च तस्य अनुबर्द्धयति ॥ ९ ॥ उवणिमंतेहि, भोगच से अणुवड्वेहि । तएणं से कणराज्झए राया पउमावईए देवीए तहत्तिपडिसुणेइ,जाव भोगचसे अणुवड्डे) हे पुत्र ! यह तुम्हारा राज्य और अंतः पुर तथा तुम स्वयं यह जो कुछ है वह सब तेतलिपुत्र अमात्य के प्रभाव से ही है इसलिये तुम तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करते रहो, उनकी अनुमति से काम किया करो उनका वस्त्रादि द्वारा समय २ पर सत्कार करते रहो, अभ्युत्थानादि सन्मान करते रहो और जय तेतलिपुत्र तुम्हें आते हुए दिखलाई दे तो तुम उठकर इनके प्रति अपना विनय प्रदर्शित किया करो। जब ये जावे-तब तुम बैठ कर इनकी सेवावृत्ति किया करो, जब ये चलने लगे तो तुम इनके पीछे २ थोड़ी दूर तक अपने महलों में पहुँचाने जाया करो, अपने बैठने के आसन पर इन्हें अर्धभाग में बैठाया करो और जो भी सुख साधनकी सामग्री है बह इनकी बढ़ा दो। इस प्रकार राजमाता पद्मावती देवी के वचनों को “तथास्तु" कहकर कनकध्वज राजाने स्वीकार कर लिया। णेहि इत अब्भुट्टेहि ठियं पज्जुवासाहि वयं तं पडिसंसाहेहि, अदासणेणं उवणिमं तेहि, भोगं च से अणुवड़ेहि । तएणं से कणगज्झए राया पउमावईए देवीए तहत्ति पडिसुणेइ, जाव भोगं च से अणुवडेइ ) હે પુત્ર? આ તમારું રાજ્ય રણવાસ તેમજ તમે પોતે આ બધું જે કંઈ છે, તે સર્વે તેતલિપુત્ર અમાત્યના પ્રભાવથી જ છે. એથી તમે તેતલિપુત્ર અમાત્યને સદા આદર કરતા રહે, દરેક કામ તેમની આજ્ઞાથી કરતા રહે, વસ્ત્રો વગેરે આપીને યથા સમય તેમને સત્કાર કરતા રહો, તેમનું સન્માન કરતા રહો અને અમાત્ય તેતલિપુત્ર તમને આવતા દેખાય ત્યારે તમે ઉભા થઈને તેમના પ્રતિ વિનય યુક્ત થઈને વ્યવહાર કરો જ્યારે તેઓ જવા તૈયાર થાય ત્યારે તમે બેસીને તેમની સેવા કરતા રહે. અને જ્યારે તેઓ ચાલવા માંડે ત્યારે તમે તેમની પાછળ પાછળ થોડે દૂર સુધી પિતાના મહેલ માંજ વિદાય આપવા માટે તેમનું અનુસરણ કરતાં જાઓ. તમે તેમને પિતાના આસનના અર્ધાભાગ ઉપર બેસાડે અને તેમની બધી સુખસગવડની સામગ્રી માં વધારે કરી આપે. આ રીતે રાજમાતા પદ્માવતી દેવીની આજ્ઞાને કનક વજ રાજાએ તથાસ્તુ' કહીને સ્વીકારી લીધી, સ્વીકાર્યા પછી તેઓએ તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम् तएणं से पोट्टिले देवे तेतलिपुत्तं अभिक्खणं २ केवलिपन्नत्ते धम्मे संघोहेइ, नो चेव णं से तेतलिपुत्ते संबज्झइ। तएणं तस्स पोटिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए५ एवं खल्लु कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं अढाइ जाव भोगं च से बड़ेइ तएणं से तेतलीपुत्ते अभिक्खणंर संबोहिजमाणे वि धम्मे नो संबुज्झइ, तं सेयं खलु मम कणगज्झयं रायं तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामेत्तए तिकडु एवं संपेहेइ, संपेहिता, कणगज्झयं तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामेइ । तएणं तेतलिपुत्ते कल्लं पहाए जाव पायच्छित्ते आसखंधवरगए बहूहिं पुरिसेहिं संपरिवुडे साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थए गमणाए । तएणं० तेतलिपुत्तं अमञ्चं जे जहा बहवे राईसरतलवर जाव पभियाओ पासंति, ते तहेव आढायंति, परिजाणंति, अब्भुटुंति, आढाइत्ता, परिजाणित्ता, अब्भुट्टित्ता, अंजलिपरिग्गहं करेंति, इटाहिं कंताहि जाव वग्गूहि आलवेमाणा य संलवेमाणा य पिट्टओ य पासओ य मग्गओ य समणुगच्छंति तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए राया तेणेव उवागच्छइ । तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं एजमाणं पासइ, पासित्ता, नो अढाइ, नो परियाणाइ, नो स्वीकार करके फिर उन्होंने वैसा ही सब कुछ करते हुए तेतलिपुत्र अमात्य की यावत् सुख साधन सामग्री बढा दी ॥ सू० ९॥ પ્રમાણે જ બધું કરતાં તેતલિપુત્ર અમાત્યની સુખસગવડ વગેરેની સામગ્રીમાં વધારે કરી આપે. . સૂ૦ ૯ / श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारवामृतषिणो टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितनिरूपणम् ६७ अब्भुट्रेइ, अणाढायमाणे, अपरियाणमाणे, अणब्भुट्ठायमाणे, परम्मुहे संचिट्ठइ । तएणं तेतलिपुते कगगज्झ यस्ल अंजलिं करेइ । तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिठ्ठइ । तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए जाव संजायभए एवं वयासी-रुटेणं मग कणगज्झए राया हीणे णं ममं कणगज्झए राया, अवज्झाए णं ममं कणगज्झए, राया तं ण नजइ णं ममं केणइ कुमारेण मारेहिइ त्ति कटु भीए तत्थे५ जाव सणियं२ पच्चोसकइ, पच्चोसकित्ता, तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुरूहित्ता, तेतलिपुरं मज्झंमज्झेणे जेणेव सए गिहे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तएर्ण तेतलिपुत्तं जे जहा ईसर जाव पासंति, ते तहा नो आढायंति नो परियाणंति नो अब्भुट्टेति नो अंजलिपरिग्गहं करेंति, इछाहिं जाव णो संलवंति नो पुरओ य पिटुओ य पासओ य मग्गओ य समणुगच्छति । तएणं तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता जावि य से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा-दासेइ वा पेसेइ वा भाइल्लएइ वा सावि य पां नो आढाइ नो परियाणाइ नो अब्भुढेइ,जाविय से अभितरिया परिसा भवइ, तं जहा - पियाइ वा मायाइ वा जाव सुण्हाइ वा सावि य शं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुट्टेइ । तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सयणिज्जांसि णिसो. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভানাগাজর यइ, णिसीइत्ता, एवं वयासी एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, तं चेव जाव अभितरिया, पुरिसा नो आढाइ नो परिजाणाइ, नो अब्भुठेइ, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जी. वीयाओ ववरोवित्तएत्तिकद्द, एवं संपेहेइ, संपहित्ता तालउडं विसं आसगंसि पक्खिवइ, से य विसे णो संकमइ । तएणं तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असि खंधसि ओहरइ, तत्थ वि य से धारा ओपल्ला । तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासगं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना । तएणं से तेतलिपुत्ते महइ महालयं सिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अस्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से थाहे जाए । तएणं से तेतलिपुत्ते सुक्कंसितणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवइ, पक्खि. वित्ता मुयइ, तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए । तएणं से तेतलोपुत्ते एवं वयासी-सद्धेयं खलु भो समणा वयंति, सद्धेयं खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणामाहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि, एवं खलु अहं सहपुत्तेहिं अपुत्ते को मेयं सदहिस्सेइ ? सहमित्तेहिं अमित्ते, को मेयं सदहिस्सइ, एवं अत्थेणं दारेणं दासेहिं परिजणेणं एवं खलु तेतलिपुत्तेणं अमच्चे कणगज्झएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तेतलिपुत्तेणं तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते, से वि य णो कमइ को मेयं सदहिस्सइ ? तेतलिपुत्तेणं नीलुप्पल जाव खंसि, ओह. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ६९ रिए, तत्थ वि से धारा ओपल्ला को मेयं सदहिस्सइ । तेतलिपुत्तेणं पासगं गीवाए बंधेत्ता जाव रज्जू छिन्ना को मेयं सदहिस्सइ? तेतलिपुत्तेणं महइमहालयं जाव बंधित्ता अस्थाहे जाव उदगंसि, अप्पामुक्के, तत्थ वि य णं थाहे जाए को मेयं सह. हिस्सइ ? तेतलिपुत्तेणं, सुकसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पामुक्को तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए, को मेयं सद्दहिस्सइ ? ओहयमणसंकप्पे जाव झियाइ ॥ सू० १०॥ ___टीका-'तएणं से पोटिले' इत्यादि । ततः खलु स पोट्टिलोदेवस्तेतलिपुत्रम् 'अभिक्खणं २' अभीक्ष्णम् २=पुनः पुनः केवलिप्रज्ञप्ते धर्मे संबोधयति । परन्तु नो चैव खलु स तेतलिपुत्रः 'संबुज्झइ' सम्बुध्यते-पतिबोधं प्राप्नोति । ततः खलु तस्य पोटिलदेवस्य ‘इमेयारूवे' अयमेतद्रूपा=पुरउच्यमानः 'अन्झथिए ' ५ आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत । संकल्पप्रकारमाह-' एवं खलु' इत्यादि । एवं खलु कनकध्वजो राजा तेतलिपुत्रं आद्रिय ते यावत् भोगं च संवर्द्धयति, ततः खलु स तेतलिपुत्रोऽभीक्ष्णं २ मया 'तएणं से पोटिले ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से पोटिले देवे) वह पोहिलाका जीव देव (तेतलिपुत्त अभिक्खणं २ केवलिपन्नत्ते धम्मे संबोहेइ, नो चेव णं से तेतलिपुत्ते संबुज्झइ) तेतलिपुत्र अमात्यको बार बार केवलिप्रज्ञप्त धर्ममें प्रतिबोधित करने लगा परन्तु तेतलिपुत्र प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हुआ (तएणं तस्स पहिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए ५-एवं खलु कणज्झए राया तेतलिपुत्तं अढाइ, जाव भोगं च संवड़े, तएणं से तेतलिपुत्ते अ तएणं से पोष्टिले इत्यादि ॥ साथ-(तएण) त्या२ ५७ (से पोट्टिले देवे) ते पाहताना १ ३१ ( तेतलिपुत्तं अभिक्खणं २ केवलिपबत्ते धम्मे संबोहेइ नो चेव णं से तेतलि पुत्ते संबुज्झइ) તેતલિપુત્ર અમાત્યને વારંવાર કેવળ પ્રજ્ઞસધર્મમાં પ્રતિબંધિત કરવા લાગે પણ તેતલિપુત્રને પ્રતિબંધ પ્રાપ્ત થયે નહિ. (तएणं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारुवे अज्जस्थिए ५-एवं खलु कणगज्झए राया तेतलिपुतं आढाइ, जाव भोगं च संवड़ेइ, तएणं से नेतलिपुत्ते अभिस्वर्ण श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे 6 'संबोहिज्जम णेवि ' संबोध्यमानोऽपि धर्मो नो संबुध्यते=प्रतिवोधं न प्राप्नोति । तं तत्तस्मात् कारणात् श्रेयः खलु मम कनकध्वजं राजानं तेतलिपुत्राद् विपरि णमयितुम् = तेतलिपुत्रविषये कनकध्वजस्य मानसिको भावो यथा विपरिणतो भवेतथा कर्तुमुचितम् इतिकृत्वा = इति मनसि विचार्य एवं संप्रेक्षते - विचारयति सप्रेक्ष्य कनकध्वज तेतलिपुत्राद् विपरिणमयति- विपरीतं करोति । ततः खलु तेतलिपुत्र : 'कलं ' कल्ये द्वितीयस्मिन् दिने प्रायः ' पहाए जाव पाय च्छित्ते ' स्नातो यावत् प्रायश्चित्तः = स्नातः = कृतस्नानः यावत् पदेन कृतबलिकम = काकादि निमितं कृताभाभागः कृतकौतकमांगल्पप्रायश्चित्तः = कतानि कौतुकानि दुःस्वप्नादिदोपनिवारणार्थ मषीपुण्ड्रादीनि माङ्गल्यादीनि = मङ्गलकारकाणि दुर्वाक्षतादी नि =प्रायश्चित्तवदवश्यं कर्त्तव्यानि येन सः, 'आसक्खंधवरगए ' अश्वस्कन्धवरगतः=अश्वारूढः बहुभिः पुरुषैः संपरिवृतः स्वस्माद् गृहाद् निर्गच्छति, निर्गत्य भिक्खणं २ संबोहिजमाणे वि धम्मे नो सबुज्झइ, तं सेयं खलु मम कणगज्झयं राधे तेतलिपुत्ताओ विष्परिणमेत्तर ति कट्टु एवं संपेहेइ ) तब उस पोट्टिल देवको ऐसा आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र अमात्यका आदर करते हैं यावत् वे उनके सुख साधन की सामग्री बढा दिया है - इसलिये मेरे द्वारा बार बार प्रतिबोधित करने पर भी वे धर्म में प्रतिबुद्ध नही बन रहे हैं- प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हो रहे हैं। इसलिये मुझे अब ऐसा करना चाहिये कि जिससे तेतलिपुत्र के विषय में कनकध्वज राजा का मानसिक विचार बदल जावे। इस प्रकार का विवार उस देवके मनमें जगा (सपेहित्ता कणगज्झयं तेतलिपुत्ताओ विपरिणामेइ, तरणं तेतलिपुत्ते कल्लं पहाए ७० सबोहिज्जमाणे विधम्मे नो संबुज्झर, तं सेयं खलु मम कणगज्ज्ञयं रावं तेतलिपुत्ताओ विष्परिणामेत्तर तिकट्टु एवं संपेहेइ ) ત્યારે તે દેવરૂપ પેાટ્ટિલાના જીવ દેવને એવા આધ્યાત્મિક યાવત્ મને ગત સંકલ્પ ઉદભવ્યે કે રાજા કનકધ્વજ અમાત્ય તેતલિપુત્રને આદર કરે છે ચાવત્ તેઓએ તેમની બધી જાતની સુખસગવડની સામગ્રીમાં વધારો પણ કરી આપ્યા છે, એથી મારાવડે વારંવાર પ્રતિષ્ઠાધિત કરવા છતાંએ તેઓ ધર્મમાં પ્રતિબુદ્ધ થઈ જતા નથી એટલે કે તેમને વારવાર પ્રેરણા આપવા છતાં પ્રતિષેધ થયા નથી. એટલા માટે હું હવે એ પ્રમાણે કઈક કરૂ' કે જેથી રાજા કનકધ્વજના માનસિક વિચારા અમાત્ય તેતલિપુત્રને માટે પ્રતિકૂળ થઈ જાય તે ધ્રુવે મનમાં આ જાતને વિચાર કર્યાં, ( संपेहिता कणगज्झयं तेतलिपुत्ताओं विपरिणामेह तपणं तेतलिपुत्ते कल्लं हा जाब पायच्छित्ते आसखधवरगए, बहूर्हि पुरिसेहि संपरिबुडे, साओ गिहाओ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर मृतवर्षिणी टी० ज० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ७१ यत्रैव कनकध्वजो राजा तत्रैव 'पहारेस्थ गमणाए ' प्राधारयद् गमनाय - प्रस्थितबान् । ततः खलु तेतलिपुत्र ममात्यं 'जेजहा ' ये यथा येन प्रकारेण बहवो 'राईसर तलवरजावपभियओ 'राजेश्वर तलवर यावत्प्रभृतयः, राजेश्वर तलवरादयः पश्यन्ति, ते तथैव तममात्यगाद्रियन्ते नमस्कारादिना परिजानन्ति = शुभागमनमित्यनुमोदयन्ति, अभ्युत्तिष्ठन्ति = अभ्युत्थानं कुर्वन्ति, आहत्य परिज्ञाय, अभ्युत्थाय अञ्जलिपरिग्रहं कुर्वन्ति तथा इष्टाभिः कान्ताभिः यावत्-मियाभिर्मनोज्ञाभिर्मनोऽमाभिः ' जाब पायच्छते आसखधवरगए, बहूहिं पुरिसेहिं संपरिवुडे, साओ गिहाओ, णिग्गच्छर, क्रिग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तरणं० तेतलिपुत्तं अमच्चं जे जहा बहवे राईसरतलवर जाव पभियाओ पासंति ते तहेव आढायंति परियाणंति, अम्भुहैति ) इस विचार के आते ही उस देवने कनकध्वज राजा को तेतलि पुत्र अमात्य के प्रति विपरीत परिणमादिया । जब द्वितीय दिन प्रातः काल स्नान कर बलिकर्म कर- काकादि निमित्त अन्न का विभाग कर, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त कर- दुःस्वप्न आदि दोषों को निवारण करने के लिये मषी पुण्ड्रादि और मंगल कारक दुर्वाक्षतादि तथा प्रायश्चित्तकी तरह आवश्यक कृत्य समाप्त कर वह तेतलिपुत्र अमात्य घोडे पर बैठ कर जब अनेक पुरुषों के साथ साथ अपने घर से निकला तब निकल कर वह ऊस ओर गया जहां कनकध्वज राजा थे । तेतलिपुत्र अमात्य को ज्यों ही राजेश्वर आदि को ने आता हुआ देखा तो उन्होंने पहिले की तरह ही उसका आदर किया, उसके आगमन की सराहना की णिगच्छि णिग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्य गमणाए, तएण ० तेतलिपुत्तं अमच्चं जे जहा बहवे राईसर तलवर जाब पभियाओ पासति ते तव आढायति पमियाणंति, अभुर्डेति ) આ જાતના વિચાર ઉત્પન્ન થતાંજ તે ધ્રુવે અમાત્ય તૈતલિપુત્ર ને માટે રાજા કનકધ્વજને પ્રતિકૂળ બનાવીદીધા બીજા દિવસે સવાર થતાં સ્નાન, બાલિउर्भ, (अगडा वगेरे पक्षीमा भाटे अन्नलाग अर्थवु ) हौतुङ, भांगण, आयશ્ચિત્ત-એટલે કે દુ:સ્વપ્સ વગેરેની દાષાના ઉપશમન માટે મી પુણ્ડ વગેરે તેમજ મંગળ કારક દુર્વા અક્ષત ( ચાખા) વગેરેથી પ્રાયશ્ચિત્ત ની આવશ્યક વિધિ પતાવીને ઘણા પુરુષાર્થી વીંટળઇને અમાત્ય તેલિપુત્ર ઘેાડા ઉપર સવાર થઇને જ્યાં કનકૂવજ રાજા હતા ત્યાં ગયે. અમાત્ય તેતલિપુત્રને આ વતાં જોતાની સાથે જ રાજેશ્વર વગેરે લેાકેાએ પહેલાંની જેમ જ તેમને આદર કર્યાં, તેમના અગમનની સરાહના કરી અને બધાએ ઉભાથઇને તેમનેવધાવી લીધા و શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAR ७२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वाग्भिः आलपन्तः संलपन्त-ओला-संभाषणं, सला-परस्परसंभाषण कुर्वन्तश्च पुरतः =अग्रव पृष्टतः पश्चाद्भागतश्च, पार्थता पार्श्वभागतश्च, मार्गत यस्मान्मार्गात् तेतलिपुत्रो निर्गच्छति, तन्मार्गतश्च 'समणुगच्छति' समनुगच्छन्ति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो यत्रैव कनकध्वजस्तकव उपागच्छति । ततः खलु स कनकध्वजो राजा तेतलिपुत्रमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति । अनन्तरं 'आणाढायमाणे ' अनाद्रियमागः-स्मादरंसबने उठकर उसे लिया-(आदाइत्ता, परिजाणिता अब्भुद्वित्ता अजलि परिग्गहं करेंति, इटाहि कंताहिं जाव वग्गूहिं आलवेमाणा य संलवे माणा य पुरओ य पिटुओ य पासओ य मग्गओ य समणुग छति तएण से तेतलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए राया तेणेव उयागच्छइ, तरण से कणगज्झए गया तेतलिपुत्त एज्जमोण पासइ, पासित्ता नो आढाइ नो परियाणाइ, नो अब्भुइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे अणन्भु डायमाणे परम्मुहे संचिट्ठइ ) आदर देकर शुभागमन की अनुमोदनाकर तथा उठकर उन सबने फिर दोनों हाथो की अंजलि जोडकर उसे नमस्कार किया। बाद में इष्ट, कांत यावत् प्रिय-मनोज्ञ-मनोम वाणियों से आलाप - संभाषण, संलाप परस्पर संभाषण-करते हुए वे सबभागे, पीछे आजू बाजू होकर जिस मार्ग से वह आरहा था उसी मार्ग से उसके साथ साथ चले आये । चलते २ तेतलिपुत्र अमात्य जहां कनकध्वज राजा बैठे थे वहीं आया। कनकध्वज राजा ने उन्हें आता हुआ देखा-तौभी पहिले की तरह देखकर न (अढाइत्ता, परिजाणिता अभुद्वित्ता अंजलि परिग्गरं करेंति इटाहि, कताहिं जाव वग्गूर्हि आलवेमाणा य सलवेमाणा य पुरओ य, पिटुओ य, पासओ य, मग्गो य, समणुगच्छंति तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव कणगझए राया तेणेव उवागच्छइ, तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुतं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुट्टेइ, अणाढयमाणे अपरियाणमाणे अणभु डायमाणे परम्मुहे संचिटुइ) તેમને આદર આપીને, શુભાગમનને અનુદિત કરીને તેઓ બધા ઉભા થયા અને ત્યાર પછી બંને હાથની અ જળિ બનાવીને તેમને નમસ્કાર કર્યા. ત્યાર બાદ ઈષ્ટ, કાંત, યાવત્ પ્રિય, મનેજ્ઞ અને મનેમ વાતથી આલાપસંભાષણ, સંલાપ-પરસ્પર સંભાષણ કરતાં તેઓ સર્વે આગળ, પાછળ અને તેમની બંને બાજુએ થઈને જે માર્ગથી તેઓ આવતા હતા તે માર્ગથી જ તેની સાથે સાથે ચાલવા લાગ્યા તેતલિપુત્ર અમાત્ય ચાલતાં ચાલતાં જ્યાં રાજા કનકદેવજ બેઠા હતા ત્યાં આવ્યા પણ કનકદેવજ રાજાએ તે તેમને જોયા છતાં પણતેમને श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ७३ माब्रुवन् 'अपरिजाणमाणे ' अपरिजानन् , तदागमनमननुमोदयन् अनभ्युत्तिष्टन अभ्युत्थानाधकुर्वन् 'परम्मुहे ' पराङ्मुखः-विमुखः सन् संतिष्ठते । ततः खलु तेतलिपुत्रः कनकध्वजस्य राज्ञः संमुखे अञ्जलिं करोति । 'तएणं' ततः खलु= तेतलिपुत्रेण अञ्जलिकरणानन्तरमपि स कनकध्वजो राजा अनाद्रियमाणः, अपरिजानन् , अनन्युत्तिष्ठन् तूष्णीकः पराङ्मुखः संतिष्ठते । ततः खलु तेतलिपुनः कनकध्वजं विपरिणतं-विपरीतं ज्ञात्वा ' भीए जाव संजायभए ' भीतो यावत् संजातभयः, एवमवदत्-मनस्यकथयत्-रुष्टः खलु मममम विषये कनवजो राजा, उसका कोई आदर किया-न उसके आनेकी कोई सराहना की और न उठकर उसे लिया ही। इस तरह अनादर अननुमोदन एवं अनभ्यु. त्थान करते हुए वे राजा प्रत्युत उस ओरसे अपना मुँह फेर कर बैठ गये। (तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयस्स अंजलिं करेइ) तेतलिपुत्र ने आते ही राजा कनकध्वज को नमस्कार किया-(तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिट्ठइ) तो भी उन कनकध्वज राजा ने उस अंजलि करने का भी कोई आदर नहीं किया केवल चुप चाप ही विमुख बना हुआ बैठा रहा-(तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए संजायभए एवं वयासी ) तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को विपरीत जानकर भीत ( भय पाया हुओ) यावत् संजात भय होकर मनमें ऐसा विचार किया-(रुटे णं ममं कणगज्झए राया ) कनकध्वज राजा मेरे ऊपर रुष्ट हो गये हैं। (हीणे णं ममं कणઆદર ન કર્યો, તેમના આવવાની સરાહના ન કરી અને ઉભા થઈને તેમને સત્કાર્યા પણ નહિ આ રીતે અનાદર, અનનુમોદન અનબ્યુત્થાન કરતા તે રાજા तभना त२५ थी मे ३२वीन भी गया. (तएण तेतलिपुत्ते कणगज्झयम्स अंजलिं करेइ ) ततलिपुत्र मातांनी साथे ४ २ion ४.४६ने नमः॥२ ४ा. (तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिट्ठइ) છતાંએ રાજા કનકધવજે તેમના નમસ્કારને પણ ઉચિત સત્કાર કર્યો નહિ ફક્ત તેઓ ચુપચાપ મેંફેરવીને બેસી જ રહ્યા. (तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए जाव संजायभए एवं वयासी) ત્યારે તેતલિપુત્ર અમાત્યે રાજા કનકબજને પ્રતિકૂળલથઈ ગયેલા (નારાજ થયેલા) જાણીને ભયભીત યાવત્ સંજાતભય વાળા થતાં મનમાં વિચાર ४ों (रुट्रेण ममं कण गज्झए रोया ) ४४४ २ मा ५२ नारा श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MADA-- ७४ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे ' होणे ' हीनः खलु प्रीतिहीनः खलु ममोपरि कनकध्वजो राजा ' अवज्झाए' अपध्यातः दुर्भावसम्पन्नो जातः खलु मम विषये कनकध्वजो राजा 'त' तत्तस्मात् 'न नज्जइ' न ज्ञायते खलु एष मां केन कीदृशेन कुमारेण:-कुत्सितेन मारेण 'मारेहिइ' मारयिष्यति 'त्तिकटु' इति कृत्वा इति विचिन्त्य भीतस्रस्तः यावत्त्रसितः, उद्विग्नः, सञ्जातभयः सन् 'सणियं२' शनैः२ 'पच्चोसक्केई' प्रत्यवस्वष्कते =पत्यवसर्पति-पश्चाद्गच्छति प्रत्यवस्वष्क्य, तमेव 'आसखंधं 'अश्वस्कन्धं दूरोहति, दुरूह्य ' तेतलिपुरं ' अत्र षष्ठ्यर्थे द्वितीया, तेतलिपुरस्येत्यर्थः, मध्यमध्येन यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय । ततः खलु तं तेतलिपुत्र जेजहा' गज्झए राया) कनकध्वज राजा मेरे ऊपर प्रीति से रहित हो गये हैं। (अवज्झाए णं मम कणगज्झए राया ) कनकध्वज राजा मेरे विषय में सद्भाव रहित बन गये हैं। (तं ण नजइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारेहि त्ति कटु भीए तत्थे पूजावसणियं २ पच्चोसका ) तो न मालूम यह मुझे किस कुत्सित मरण से मरवा डाले, ऐसा विचार कर वह भीत (भययुक्त) हो गया त्रस्त यावत् संजात भयवाला बन गया। और धीरे २ वहां से पीछाहट कर चला आया-(पच्चोसक्कित्ता तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुहिता तेतलिपुरं मझं मज्झेणं जेणेव सएगिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए) आकर के वह अपने उसी घोडे पर बैठकर तेतलिपुर के बीच से होता हुआ अपने घर की तरफ चल दिया (तएणं तेतलिपुत्त जे जहां ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति, नो परियाथछ या छ. ( होणेण ममं कण गज्झए राया ) ४४५०४ २०ने। वे भा२॥ 6५२ प्रेम रह्यो नथी. ( अवज्झाए णं ममं कणगज्झए राया ) ४४४४ सन्त મારા પ્રત્યે સદૂભવના રહિત થઈ ગયા છે. __(तं ण नज्जइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारेहिइ त्ति कटु भीए तत्थे जाव सणिय २ पच्चोसक्कइ) તે કોણ જાણે ક્યારે તેઓ મને કમેતે મરાવી નંખાવે આ રીતે વિચાર કરીને તે ભયભીત થઈ ગયો, તે ત્રસ્ત યાવત સંજાત ભયવાળો થઈ ગયે અને ધીમે ધીમે ત્યાંથી પાછા ફરીને આવતો રહ્યો. (पच्चोसक्कित्ता तमेव आसखधं दुरूहेइ, दुरूहित्ता तेतलिपुरं मझं मन्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) ત્યાંથી આવીને તે પિતાના ઘડા ઉપર સવાર થઈને તેતલિપુરની વચ્ચે થઈને પિતાના ઘર તરફ રવાના થયે. तएणं तेतलिपुत्तं जे जहा ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति, नो श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ७५ ये यथा ये यथास्थिताः 'ईसरजाव ' ईश्वर यावत् ईश्वरतलबरमाडम्बिकादयः पश्यन्ति, 'ते तहेव ' ते तथा स्थिता एव सन्तो नो आद्रियन्ते, नो परिजानन्ति, नो अभ्युत्तिष्ठन्ति, नो अञ्जलिपरिग्रहं कुर्वन्ति, इष्टाभिर्यावद्वाग्भिों संलपन्ति, नो पुरतश्च पृष्ठतश्च पार्श्वतश्च मार्गतश्च समनुगच्छन्ति । ततः खलु तेतलिपुत्रो यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैव उपागच्छति । यापि च ' से' तस्य ' तत्थ ' तत्र भवने बाह्या परिषद् भवति, तद् यथा-' दासाइ वा ' दासाइति वा, गंति, नो अब्भुटुंति ) मार्ग में तेतलिपुत्र को आते हुए जिन ईश्वर तलवर, माडम्बिक आदिको ने देखा तो उन्होंने अब पहिले की तरह न उसका आदर किया न उसके आगमन की अनुमोदना की और न उसे देखकर वे उठे ही ( नो अंजलिपरिग्गहं करेंति, इटाहिं जाव णो संलवंति नो पुरओ य पिट्ठओय पोसओय मग्गओय समणुग० ) और न उसे हाथ जोड़ कर नमस्कार ही किया। न इष्ट प्रिय वाणियों से उससे आलाप, संलाप किया, और न आजू बाजू से होकर वे उसके साथ मार्ग में ही चले । (तएणं तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ ) इस तरह चलता हुआ वह तेततिपुत्र अमात्य अपने घर पर आ गया। उवागच्छित्ता जावि से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहां दोसेइ वा पेसेह वा भाइल्लएइ वा सा वि य णं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुटेइ) वहां पर भी जो दास घर के काम काज करने परियाणंति, नो अब्भुटेंति ) માર્ગમાં જતાં તેતલિપુત્રને ઈશ્વર તલવર માડંબિક વગેરે લોકોએ જે પણ કોઈએ પહેલાંની જેમ તેનો આદર ન કર્યો, તેના આગમનની અનમેદના ન કરી અને તેને જોઈને તેઓ ઊભા ન થયા. ___ (नो अंजलि परिग्गडं करेंति, इटाहिं जाव णो संलवति नो पुरओ य पिट्ठो य पासओ य मग्गओ य समणुग० ) અને તેઓએ હાથ જોડીને તેને નમસ્કાર પણ ન કર્યા. ઈષ્ટ, પ્રિય. વચનોથી તેઓએ તેની સાથે આલાપ ન કર્યો, સંલાપ ન કર્યો અને બંને मासे थने तेसो भागमा तनी साथे साथे यादया पण नहि. ( तएणं तेतलिपुत्ते जेणेव सरगिहे तेणेव उवागच्छइ ) प्रमाणे यासतो यासत તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિતાને ઘેર આવી ગયે. ___ (उवागच्छित्ता जावि से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा दासेइ वा पासेइ वा भाइल्लएइ वा, सा वि य शं नो आढाइ नो परियाणाइ, न अब्भुइ) ત્યાં પણ જે દાસ-ઘરમાં કામ કરનારા નોકરે, પ્રિખ્યા-ઘરના કામ માટે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दासाः गृहकार्यकारिणोभृत्याः, पेसाइया' प्रेष्याइति वा, प्रैष्याः गृहकार्य कर्तुमन्यत्र प्रेषणीया भृत्याः, ‘भाइल्लएति वा' भाइलाइति वा, 'भाईल्ल' इति देशीशब्दः,हालिका भागिनश्चेति तदर्थः हालिकाः भूमिकर्षणार्थ नियुक्ता भृत्याः, भागिनः, स्वव्ययेनाऽ न्यस्य क्षेत्रे कृषि कृत्वा उपजातानस्यार्धभाग ग्राहिणः, एतद्रूपा या परिषत् साऽपि च एतं नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठते । याऽपि च तस्य आभ्यन्तरिको परिषद् भवति, 'तं जहा' तद् यथा 'पियाइ वा' पिताइति वा, 'मायाइ वा' माता इति वा, 'जाव मुण्हाइ वा' यावत् स्नुषाइति वा, स्नुषा:-पुत्रवध्वः, तदूवापि च परिषद् एनं नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो यत्रैव वासगृहं यत्रैच स्वकं शयनीयं तत्रैव उपागच्छति,उपागत्य, वाले नौकर प्रैष्य, घर के काम के लिये जिन्हें बाहर भेजा जाता है ऐसे भृत्य, तथा भाईल्ल-हालिक-भूमि कर्षणार्थ नियुक्त भृत्य, अथवा भागीदार-अपने व्यय से अन्य के खेत में कृषिकरके उत्पन्न अन्न के अर्धभोग को लेने वाले वटियाजन इनरूप जो बाह्य परिषत् थी उमने भी उसका आदर नहीं किया, उसके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उसके आने पर अपने अधिष्टित स्थान से उठे। (जाविय से अभितरिया परिसा भवइ-तंजहा-पियाइ वा मायाइ वा जाव सुण्हाइ वा साघि य णं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेइ) इसी तरह जो उसकी अन्तरंग परिषद थी जैसे पिता माता यावत् स्नुषा-पुत्रवधू आदि जन इन्होंने भी उसका आदर नहीं किया, आगमन का अ. नुमोदन नहीं किया और न ये कोई भी उसके आने पर अपने स्थानसे જેઓને બહાર મોકલવામાં આવે છે તે ભ, તથા ભાઈલ્લ-હાળકે એટલે કે ખેડવા માટે નિયુક્ત કરાયેલા ભયે અથવા તે ભાગીદારે-કે જે પોતાના ખચે જ બીજાના ખેતરોમાં અનાજ વાવે છે અને વળતરમાં ખેતરના માલિક પાસેથી અર્ધભાગ મેળવે છે–એવા જે બાહ્ય પરિષત સંબંધી લોકો હતા તેઓ એ પણ તેને આદર કર્યો નહિ, તેના આગમનને અનુમોદન આપ્યું નહિ અને ન તેના આવવા બદલ પિતાના સ્થાનેથી સત્કાર માટે તેઓ ઊભા થયા. (जा वि य से अभितरिया परिसा भवइ-तं जहा-पियाई वा मायाइ वा जाव मुण्डाइ वा सा वि य णं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेइ) અને આ પ્રમાણે જ તેની અંતરંગ પરિષદના લોકો જેમ કે પિતા માતા યાવતુ તુષા–બેટા વહ-વગેરે લેકે એ પણ તેને આદર કર્યો નહિ, તેના આગમનને અનુમોદન આપ્યું નહિ અને તેમાંથી કોઈ પણ તેના આવવા બદલ પોતાના સ્થાનથી ઊભા થયા નહિ. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणो टोका अ० १४ तेतलिपुत्रधप्रानचरितवर्णनम् ७७ शयनीये निषीदति, निषद्य, एवमवदत्-मनस्यकथयत्-एवं खलु-यथा अध तथैवान्यस्मिन्नपि दिवसे, अहं स्वकाद् गृहात् निर्गच्छामि, 'तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाइ, नो परियाणाइ नो अब्भुट्टेइ ' तदेव यावत् आभ्यन्तरिकी परिषद् नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति, अस्यायमभिप्राय:पूर्वस्मिन् दिवसे राज्ञि प्रसन्ने मां दृष्ट्वा राजेश्वरादयः सर्वे आद्रियन्ते स्म,परिजाना. न्ति स्म अभ्युत्तिष्ठन्मि स्म,अयाऽपि गृहनिर्गतं मा ते तथैव सत्कारयन्तिस्म । परन्तु राज्ञि अकस्मात् अप्रसन्ने राजेश्वरतलवरमाडम्बिककौटुम्बिकमभृतयः तथा मदीय ब्राह्याभ्यन्तरा च परिषदपि सर्वेऽपि च मां नाद्रियन्ते, नो परिजानन्ति, नो उठे ! (तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ) इस तरह घर पर आकर वह तेतलिपुत्र अमात्य जहां अपना वासगृह और उसमें भी जहां अपनी शय्या थी वहां गया ( उवागच्छित्ता सयणिजंसि निसीयइ, णिसीइत्ता एवं क्यासी) वहां जाकर वह उस पर बैठ गया और मनही मन विचार करने लगा-(पवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, तं चेव जोव अभितरिया पुरिसा नो आढाइ, नो परिजाणाह नो अब्भुटेइ-तं सेयं खलु मम अ. प्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तएत्ति कटु एवं संपेहेह) पहिले के दिनों में जब मैं अपने घर से निकलतो था तो लोग-राजेश्वर आदि समस्त जन मुझ पर राजा की प्रसन्नता होने के कारण आता जाता हुआ देखकर मेरा आदर करते थे-मेरे आगमन आदि की अनुमोदन करते थे उठ. कर अपने विनय प्रदर्शित करते थे-तथा आज भी जब मैं घरसे निकल ( तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ) આ રીતે ઘેર આવીને તેતલિપુત્ર અમાત્ય જ્યાં તેની રહેવાની ઓરડી अन तमा ५ ज्यां पातानी पारी ती त्यां गया. (उवागच्छित्ता सयणिज्जसि निसीयह, णिसीइत्ता एवं वयासी) त्यांछन ते तेना 6५२ मेसी गया અને મનમાં જ વિચાર કરવા લાગ્યા કે ( एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाइ, नो परिजागाइ, नो अब्भुटेइ-तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ) પહેલાં જ્યારે હું ઘેરથી બહાર નીકળતું હતું ત્યારે લોકો–રાજેશ્વર વગેરે બધા લેકે–રાજા મારા ઉપર ખુશ હતા એટલે–આવતાં જતાં જોઈને મારો આદર કરતા હતા, મારા આગમનનું અનુમંદન કરતા હતા તેમજ ઉભા થઈને વિનય પ્રદર્શિત કરતા હતા અને આજે પણ હું જ્યારે ઘેરથી નીકળાને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अभ्युत्तिष्ठन्ति । ' तं' तत्-तस्मात् कारणात् , श्रेयः खलु मम आत्मानं जीविनाद व्यपरोपयितुम् , इति कृत्वा, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य तालपुटं विषम् ' आसगंसि' आस्ये-मुखे प्रक्षिपति, विष नो संक्राम्यति-विषत्वेन नो परिणमति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो · नीलुप्पल जाव असिं ' नीलोत्पल यावदसिं-नीलोत्पल गवलगुलिकसमप्रभ नीलोत्पलं नीलकमलम् गवलं-माहिषं शृङ्गम् , 'गुलिकं' नीलरङ्गविशेषः, तैः समा प्रभातेतलि कान्तिर्यस्य स तं तादृशं यावदसि तीक्ष्णखड्गं - खंधे' स्कन्धे कण्ठमूले 'ओहरइ' अवहरति-निपातयति । तत्राऽपि च कर राजा के पास गया-तब भी इन सबलोगों ने पूर्ववत् मेरा आदर आदि सब कुछ किया-परन्तु अकस्मात राजा के रुष्ट होने पर जब मैं वहां से लौटकर वापिस अपने स्थान पर आने लगा-तो किमी ने भी मेरा आदर आदि कुछ भी सत्कार नहीं किया। यहां तक कि जो मेरी बाह्य और आभ्यन्तर परिषद है-भीतर बाहरके नौकर चाकर एवं माता पिता आदि जन हैं-उसने भी आज इस समय आने पर मुझे कुछ नहीं समझा-अतः मुझे अब ऐसी स्थिति से मरना ही उत्तम है । इस प्रकार का उसने अपने मन में विचार किया-(संपेहित्ता ताल उडं विसं आसगंसि पक्खिवइ, सेय विसे णो संकमह, तएणं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असिं खंधसि ओहरह, तत्थ विय से धारा ओपल्ला, तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उ०) विचार करके उसने तालपुटविष को अपने मुख में डाला-परन्तु उसने अपना कुछ भी प्रभाव રાજાની પાસે ગયે ત્યારે પણ એ બધાંએ પહેલાની જેમજ મારો આદર વગેરે બધું કર્યું હતું પણ એચિંતા રાજાને નારાજ થઈ જવા બદલ જ્યારે હું ત્યાંથી પાછા ફરીને પિતાને ઘેર આવવા લાગ્યા ત્યારે કેઈએ પણ મારે આદર કે સત્કાર કર્યો નહિ મારી બાહ્ય અને આત્યંતર પરિષદ એટલે કે બહારના નોકર-ચાકર અને માતા પિતા વગેરે-છે તેઓએ પણ આજે અત્યારે મારા આવવા બદલ કંઈ પણ કિંમત કરી નહિ. એથી એવી પરિસ્થિતિમાં મારૂં મરણ જ ઉત્તમ ઉપાય છે. (संपेहिता तालउडं विसं आसगंसि पक्खिवइ, सेय विसे णो संकमइ, तएणं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असिं खंधसि ओहरइ, तत्थवि य से धारा ओपल्ला, तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेवउ० ) આ જાતને વિચાર કરીને તેણે તાલપુટ વિષ (ઝેર) ને પિતાના श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ७९ 'से' तस्य खगस्य धारा ‘ओपल्ला' कुण्ठिता, 'ओपल्लं' इति देशी शब्दः तलपुटेन विषेण, कण्ठे निपातितेनासिनाऽपि च तदभिलपितं मरणं न जातम् । ततः खलु तदनन्तरं स तेतलिपुत्रो यत्रैव अशोकवनिका=अशोकवाटिका तत्रैव उपागच्छति,उपागत्य पाशकं ग्रीवायां बध्नाति, बद्धवा 'रुक्खं वृक्षं 'दुरुहइ, दुरो हति-आरोहति, दूरुह्य, पाशं वृक्षे बध्नाति, बद्ध्वा आत्मानं 'मुयइ' मुश्चति अधः पातयति । 'तत्थवि' तत्राऽपि एतस्मिन्मरणोपाये कृतेऽपि च 'से' तस्य रज्जुश्छिन्ना मध्यत एव पाशसुटिनः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः 'महइमहालयं ' महातिमहतीम् अति विशालां शिलां ग्रीवायां बध्नाति, बद्धवा 'अत्थाहमतारमपोसियंसि' अस्ताघातागपौरुषेये-नास्ति स्ताघः यस्य तत् अस्ताघम्= नहीं दिखलाया-अर्थात् वह विष रूप से परिणत नहीं हुआ। इसके बाद उस तेतलिपुत्रने नीलोत्पल गवल, गुलिक की प्रभो जैसी प्रभावाली अत्यन्त नीलवर्ण वाली-ऐसी तलवार को कि जिसकी धार बहुत तीक्ष्ण थी-अपनी गर्दन पर रखा-अर्थात् उसे गर्दन पर चलाई-परन्तु उसने भी अपना काम नहीं किया-वह भी-कुंठित हो गई-इस तरह जब इन दोनों वस्तुओ से अपना अभिलषित मरण साध्य नहीं हुआ-अब वह तेतलिपुत्र जहां अशोकवनिका-अशोक वाटिका-थी वहां गया (उवागच्छित्ता पासगगीवाए बंधइ) वहां जाकर उसने अपनी ग्रीवामें फंदा डाला-बांधा (बंधित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से रज्जू छिन्ना ) बान्ध कर फिर वह वृक्ष पर चढ़ गया और वहां से अपने आपको नीचे लटका दिया परन्तु यहां पर भी उसकी रज्जू बीच में से टूट गई (तएणं से तेतलिपुत्ते મુખમાં નાખ્યું. પણ તેણે કંઈ અસર બતાવી નહિ એટલે કે તે વિષ રૂપમાં પરિણમ્યું નહિ. ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્ર, નીલેમ્પલ ગવલ, ગુલિકના જેવી પ્રભાવાળી તેમજ તીક્ષણ ધારવાળી તલવારને પિતાની ડેક ઉપર મૂકી એટલે કે તેના વડે તેણે પિતાની ડેક ઉપર ઘા કર્યો પણ તેનાથી પણ કંઈ કામ થયું નહિ એટલે કે તરવાર પણ બૂઠી થઈ ગઈ હતી. “એપલ ” આ કુંઠિત _( બૂઠી) અર્થ માટે વપરાયેલે દેશી શબ્દ છે. જયારે આ રીતે તે બંને વસ્તુઓથી તેની ઈચ્છા પૂરી થઈ નહિ એટલે કે તેનું મરણ થઈ શકયું નહિ त्यारे ते या अशी पनि-म। पारिता त्यां गयो. ( वागच्छित्ता पासगं गीवाए बंधइ ) त्यांन तो पोतानी से रवाने माध्य। (बधित्ता अप्पाण मुयइ तत्थ वि से रज्जू छिन्ना ) मांधात ते वृक्ष ५२ ચઢી ગયો અને ત્યાંથી પોતાની મેળે જ તે લટકી ગયો પરંતુ અહીં પણ ફાંસાનું દેરડું વચ્ચેથી તૂટી ગયું હતુ. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गमत्र अतलस्पर्शि, अतारम् अतरणीयम् , अपौरुषेयम्-पुरुपः प्रमाणं यस्य तत् पौरुषेयम्न पौरुषेयम्=अपौरुषेयम्=पुरुषप्रमाणरहितम् , एतेषां कर्मधारयः, तस्मिन् अतिगम्भीरे इत्यर्थः, उदके आत्मानं मुश्चति । तत्राऽपि तस्मिन्नुदकेऽपि च 'से' तस्य-तेतलिपुत्रस्य ' थाहे ' स्ताघो जातः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः शुष्के तृणकूटेतृणपुले 'अगणिकायं' अग्निकार्य प्रक्षिप्य, तत्र आत्मानं मुञ्चति । तत्रापि शुप्के तृणेऽपि सो ऽग्निकायो 'विज्झाए ' विध्यातः उपशान्तः । 'तएणं' ततः खलु-एतस्य सर्वस्य असम्भाव्यस्य सम्भावनानन्तरम् स तेतलिपुत्र एरमवामहइमहालयं सीलं गीवाए-बंधइ बंधित्ता अत्थाह मतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से थाहे जाए ) इसके बाद उस तेत लिपुत्र ने एक बहुत विशालकाय शिला को अपने गले में बांधा-और बांध कर अपने आपको अथाह-अतार एवं अपुरुष प्रमाण जल में छोड़ दिया-परन्तु वह जल भी उसके लिए स्ताध थाह युक्त-बन गया-(तएणं से तेतलिपुत्ते सुक्कंसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवइ पक्खिवित्ता मुयह, तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए-तएणं से तेतलिपुत्ते एवंवयासी-सद्धेयं खलु भो समणा वयंति सद्धेयं-खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणमाहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि एवं खलु अहं सह पुत्तहिं अपुत्ते को मेयं सद्दहिस्मइ १ सहमित्ते हिं अमित्ते को मेयं सद्दहिस्मइ ) इसके बाद तेतलिपुत्रने शुष्क घास के ढेर में अग्नि लगाई-और उसमें अपने आपको डाल दिया-परन्तु वह भी ( तएणं से तेतलिपुत्ते महइ महालयं सिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से थाहे जाए) - ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્રે એક બહુ મોટી ભારે શિલા ( પથરો ) ને પિતાની જાતને અથાહ-અતાર અને અપુરુષ પ્રમાણે પાણીમાં નાખી દીધી પરંતુ તે ઊંડુ પાણું પણ તેના માટે થાહ વાળું એટલે કે છીછરું થઈ ગયું. (तएणं से तेतलिपुत्त सुक्कंसितणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवइ, पक्खिवित्ता मय, तत्थवि से अगणिकाए विज्झाए-तएणं से तेतलिपुत्ते एवं बयासी सद्धेयं खलु भो समणा वयंति सद्धेयं-खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणमाहणा वयंति , अहं एगो असदधेयं वयामि एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते को मेयं सद्दहिस्सइ ? सह मित्तेहिं अमित्ते को मेयं सदहिस्सइ) - ત્યાર પછી તેતલિપુત્રે સૂકા ઘાસના ઢગલામાં અગ્નિ પ્રગટાવ્યું અને પિતાની જાતને તેમાં નાખી દીધી પરંતુ તે પણ વચ્ચેથી જ ઓલવાઈ ગઈ શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानवरितवर्णनम् दी-चित्तं संबोध्य मनस्येवमकथयत्-भो चित्त ! श्रमणा यद् वदन्ति तस्वलु श्रद्धेयं श्रद्धा योग्य, श्रद्धेयं खलु भोः ब्राह्मणा वदन्ति, श्रद्धेयं खलु भोः ! श्रमण ब्राह्मणा वदन्ति । अयं भार-आत्मपरलोकाद्यर्थ प्रतिबोधकं श्रमणादीनां वचनं श्रद्धेय भवति, अतीन्द्रियस्याप्यात्मपरलोकादिस्वरूपस्यानुमानादि प्रमाणविषयतया श्रद्धाविषयत्वात् । परन्तु अहमेको असहायः अश्रद्धेयम् अविश्वसनीय बदामि । यद्यपि मदीयं वचनं सर्वथा सत्यम् , तथापि असम्भाव्यतया जनः प्रत्येतुमशक्यम् । तदेवाह-' एवं खलु' इत्यादिना ' एवं खलु' मयि अश्रद्धेय. बीच ही में वुझ गई। इस तरह इन समस्त असंभवनों की संभवना के बाद तेतलिपुत्रने अपने आपको संबोधित करते हुए मन में विचार किया-हे चित्त ! श्रमणजन जो कहते हैं वह श्रद्धेय हैं। ब्राह्मणजन जो कहते हैं वह श्रद्धेय है इसी प्रकार श्रमणमाहणजन जो कहते हैं वह श्रद्धेय है। इसका भाव यह है कि आत्मा, परलोक आदि पदार्थ जो कि अतीन्द्रिय हैं वे अनुमान आदि प्रमाण कि विषयभूत हो जाते है-इसलिये ये श्रद्धांत विषय बन जाते हैं-अतः इन अतीन्द्रिय आत्म, परलोक आदि पदार्थों को प्रतिपादित करने वाले श्रमण माहण आदिकों के वचन भी श्रद्धेय हो जाते हैं, परन्तु में जो कह रहा हूँ वह अश्रद्धेय कह रहा हूँ एक असहाय हूँ-इसलिये-मुझे इस विषय में किसी को भी सहायता मिलने बाली नहीं है। उन श्रमण माहण आदिजनों के वचनों के सहायक तो अनुमान आदि प्रमाण है-परन्तु मेरा सहायक कोई प्रमाण ही नहीं होता है, यद्यपि मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ परन्तु वह मेरा वचन असं. भवित असहाय-होने की वजह से मनुष्यों के लिये श्रद्धेय नहीं बन આ રીતે આ બધા અસંભવનની સંભાવના બાદતે તલિપુત્રે પિતાની જાતનેજ સંબોધિત કરતાં મનમાં વિચાર કર્યો કે હે ચિત્ત ! શ્રમણને જે કંઈ કહે છે તે શ્રદ્ધેય છે, બ્રાહ્મણો જે કંઈ કહે છે તે શ્રધેય છે આ પ્રમાણે શ્રમણ માહણજને જે કંઈ કહે છે તે શ્રદ્ધય છે. આને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે આત્મા પરલોક વગેરે પદાર્થો જેઓ કે અતીન્દ્રિય છે તેઓ અનુમાન વગેરે પ્રમાણને વિષયભૂત થઈ જાય છે. એટલા માટે તે પદાર્થો શ્રદ્ધાના વિષય બની જાય છે. એથી આ બધા અતીન્દ્રિય આત્મ, પરલેક વગેરે પદાર્થોનું પ્રતિપાન કરનાર શ્રમણ માહણ વગેરેના વચને પણ શ્રેય થઈ જાય છે, પણ હું જે કંઈ કહી રહ્યો છે તે અશ્રદ્ધેય કહી રહ્યો છું. એક અસહાય છું એથી મને આ બાબતમાં કોઈની મદદ પણ મળી શકે તેમ નથી. તે શ્રમણ માહણ વગેરેના વચનના સહાયક તે અનુમાન વગેરે પ્રમાણે છે. પણ મારા કથનનું સહાયભૂત થાય તેવું કઈ પ્રમાણુ જ નથી. જે કે હું જે કંઈ પણ કહી રહ્યો છું તે સંપૂર્ણ રીત યથાર્થ સત્ય-કહી રહ્યો છું. પણ મારાં તે વચને અસંભવિત અસહાય હોવા બદલ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર ज्ञाताधर्मकथासूत्रे " वचने सतौ यदि अहमेवं = एवंभूतं सत्यमपि वदामि यत् अहं 'सहपुत्तेहिं अपुत्त सहपुत्रैरपि अपुत्रः=पुत्रेषु विद्यमानेष्वपि अहं पुत्ररहित एवास्मि तैरनाहतत्वात् कः ' मेयं ममेदं इदं मदीयं वचनं 'सदहिस्सह ' श्रद्धास्यति प्रत्येध्यति, न कोऽपि, तथा अहं ' सहमितेर्द्दिअभित्ते ' सहमित्रैरमित्रः = मित्रेषु विद्यमानेष्वपि ' मित्ररहितोऽहं ' को ' मेदं ' ममेदं वचनं श्रद्धास्यति १ एवम् अनेन प्रकारेणैव अर्थेन दारैः दासैः परिजनेन च सहितोऽपि तै रहितोऽस्मि, इदं मदीयं वचनं कः श्रद्धास्यति, अपितु न कोऽपि । ' एवं ' अमुना प्रकारेण ख यद्यहं त्रवीमि यत् ' तेतलिपुत्रे ' तेतलिपुत्र नामधेये ख मयि अमात्ये कनकध्वजेन राज्ञा ' अवझाए समाएणं ' अपध्यातेन = दुश्चिन्तकेन सता अर्थात् कनकध्वजो राजा सकता है जैसा मैं यह सत्य भी कहूँ कि मैं पुत्रों के विद्यमान होने पर भी अपुत्र पुत्र रहित - हूँ, तो कौव मेरी इस बात को श्रद्धा से देखेगाइसी तरह में यह कहूँ कि मैं मित्रों के विद्यमान होने पर भी मित्र रहित हैं - तो कौन मेरे इन वचनों पर विश्वास करेगा - ( एवं अत्थे णं दारेणं दासेहिं परिजणेणं एवं खलु तेतलिपुत्तणं अमच्चे कणगज्झएणं रनाअवज्झाएणं समाणेणं तेतलिपुत्तणं तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खिते से वि यणो कमइ को मेयं सद्दहिस्सइ ? तेनलिपुत्तेणं नीलुप्पल जाव खंधेसि ओहरिए तत्थ वि से धारा ओपला को मेयं सद्दहिस्सइ ) इस तरह अर्थ, दारा, दास, परिजन, इन से युक्त होने पर भी मैं इन से रहित हूँ, कौन मेरे इस वचन को मानेगा ? अर्थात् कोई नहीं मानेगा इसी तरह यदि मैं ऐसा कहूँ कि मुझे तेतलिपुत्र अमात्य के ऊपर कनक માણસા માટે શ્રદ્ધેય થઈ શકે તેમ નથી. જેમ કે હું અત્યારે આ જાતની સાચી વાત પણ કહુ` કે પુત્ર હાવા છતાંએ હુ પુત્ર વગરના છું તે કાણુ મારી આ વાતને શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિએ જોશે ? આ પ્રમાણે જ હું કહું કે મિત્રા હાવા છતાંએ હું મિત્ર વગરના છું તે કેણુ મારી આ વાત ઉપર શ્રદ્ધા ધરાવશે ( एवं अस्थेणं दारेणं दासेहिं परिजणेणं एवं खलु तेतलिपुत्तणं अमच्चे कणगज्झएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तेतलिपुत्त्रेण तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते से वि यणो कमइ, को मेयं सदस्सिर ? तेतलिपुत्त्रेणं नीलुप्पल जाव खंसि ओहरिए तत्थ वि से धारा ओपला को मेयं सद हिस्सइ) या रीते अर्थ (धन ), द्वारा ( पत्नी ) हास, परिजन से मधा होवा છતાં પણ હુ એમના વગર છુ. મારી આ વાત ઉપર કાણુ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે ? એટલે કે કોઈ પશુ વિશ્વાસ કરશે જ નહિ. આ રીતે જ જો હું આમ કહુ` કે મારા ઉપર રાજા ફનક જ નારાજ થઈ ગયા હતા એટલા માટે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् " , तेतलिपुत्रे दृश्विन्तको जातः इतिहेतोः, तेतलिपुत्रेण तालपुटकं विषम् 'आसगंसि ' आस्ये = मुखे प्रक्षिप्तम् ' से विय' तदपि च विषं नो 'कमइ' न क्राम्यति=विषवेन न परिणमति को जनः ' मेदं ' ममेदं सत्यमपि वचनं श्रद्धास्यति न कोऽपि, तथा ' तेतलिपुचेणं' नीलुप्पल जाव खंबंसि ओहरिए ' तेतलिपुत्रेण नीलोत्पल यावत् स्कन्धे अपहृतः = तेतलिपुत्रेण नीलोत्पलगवलगुलिक पमप्रभाऽसिः ' स्कन्धे कण्ठमूले ' अवहृतः ' प्रहृतः ' तत्थवि ' तत्रापि तस्मिन् मरणोपाये कृतेऽपि च ' तस्य = असे : धारा ओपल्ला - कुण्ठीभूता को ' मेदं ' ममेदं श्रद्वास्यति । एवमेव यद्यहं ब्रूयाम् यन्मया 'तेत लिपुत्तेणं पापगं गीवाए बंधेत्ता जाब रज्जूछिना को मेयं सद्दहिस्स' तेतलिपुत्रेण पाशकं ग्रीवापां बद्ध्वा यावत् रज्जुश्छिन्ना, को ममेदं श्रद्धास्यति ? तेतलिपुत्रेण अतिविशालां शिलां यावद् बद्ध्वा अस्ताधयावध्वज राजा दुश्चितक बन गये इसलिये मैंने तालपुट विष मुख में डाल दिया परन्तु वह विषरूप से परिणमित नहीं हुआ । मैंने विष खाया - पर मैं मरा नहीं - कौन मनुष्य मेरी इस सत्य बात को श्रद्धा की दृष्टी से देखेगा । तथा मैंने नीलोत्पल, गवल एवं गुलिका की प्रभा जैसी प्रभाव बाली तीक्ष्ण तलवार अपनी गर्दन पर मरने के लिये चलाई परन्तु वह भोटी घारवाली बन गई कुण्ठित हो गई उससे मेरी गर्दन नही कटीकौन मेरी इस बात को मानने के लिये तैयार हो सकेगा ( तेतलिपुत्तेणं पास इत्यदि ) इसी तरह यदि मैं यह कहूँ कि मुझ तेतलिपुत्रने अपने गले में पाशक डाला और वृक्षपर चढकर वहां से नीचे मैं लटक पड़ा और फंदा बीच में से टूट गया तो कौन इन वचनों पर विश्वास करेगा । ( तेतलिपुत्तेणं महइमहालयं जाव बंधित्ता अत्थाह जाव उद्गसि अप्पा --- મે' તાલપુવૅષ ( ઝેર ) ખાધું હતું પણ તે વિષના રૂપમાં પરિણત થયું નથી એટલે કે વિષ ભક્ષણ કરવા છતાંએ હું મરણ પામ્યા નહિ. આ વાત ઉપર કા માણસ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે ? તેમજ નીલેત્પલ, ગવલ અને ગુલિકાના જેવી પ્રભાવાળી તીક્ષ્ણ ધારવાળી તરવારના મે' મરવા માટે મારી ડાક ઉપર ઘા કર્યો પણ તે તરવાર જ મૂઠ્ઠી ધારવાળી થઈ ગઇ-કુંઠિત થઈ ગઈ તેનાથી મારી ડાક કપાઈ નિહ. મારી આ વાત ઉપર કાણુ વિશ્વાસ કરવા તૈયાર થશે ? ( तेतलिपुत्तेणं पासगं इत्यादि ) आ ते ४ हु आम उडु में तेतनिपुत्रे પેાતાના ગળામાં કાંસા નાંખ્યા અને વૃક્ષ ઉપર ચઢયો. વૃક્ષ ઉપર ચઢીને ત્યાંથી નીચે લટકી પડયો પણ ફ્રાંસે વચ્ચેથી જ તૂટી ગયે. તેા કાણુ મારી આ વાત ઉપર વિશ્વાસ મૂકશે ? ( तेतलिपुत्तणं महइमहालयं जाव बंधित्ता अत्याह जाव उदगंसि अप्पा मुव के, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दुदके आत्मा मुक्तः, तत्रापि च खलु स्ताघो जातः, को ममेदं श्रद्धास्यति-मया स्वकण्डे महाशिलां बद्ध्वा अगाधे उदके आत्मा मुक्तः, परन्तु तस्मिन्नुदकेऽपि मम तलस्पर्शो जातः, इति मम वचनं कः श्रद्धास्यति ? पुनश्च-तेतलिपुत्रेण मया शुष्के तृणकूटे-तृणपुजेऽग्निकार्य प्रक्षिप्य प्रज्वलिते तस्मिन् आत्मा मुक्तः, परन्तु सोऽग्निकायः · विजाए ' विध्यातः=उपशान्त, इत्येवंरूपमपि मदीयं वचनं कः श्रद्धास्यति ? न कोऽपि, इत्येवं स तेतलिपुत्रः 'ओहयमणसंकप्पे' अपहतमनः संकल्पः भग्नोत्साहः सन् यावद् ध्यायति आर्तध्यानं करोति ॥मू० १०॥ मुक्को,तत्थ विणं थाहे जाए को मेयं सदहिस्सइ ? तेतलिपुत्तण सुक्कसि तणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पा मुको तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए को मेयं सद्दहिस्सइ ? ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ) मुझ तेतलिपुत्रने एक बहुत बड़ी शिला का गलेमें बांधी और बाद मैं अथाह अतार अपुरुष प्रमाण जल में कूद पड़ा परन्तु वह जल कूदते ही थाह बाला बन गया अथाह नहीं रहा मेरी इस सत्य बात पर भी कौन श्रद्धा करेगा। इसी तरह मुझ तेतलिपुत्रने एक बडे भारी शुष्क घास के ढेर में अग्नि लगाई और उस में अपने आप को प्रक्षिप्त कर दियापरन्तु वह अग्नि बुझ गई उसने मुझे भस्म नहीं किया मेरी इसबात को कौन श्रद्धा रूप से स्वीकार करेगा। इस प्रकार अपहत मनः संकल्प वाला बन कर-उत्साह रहित होकर वह तेतलिपुत्र अमात्य आर्तध्यान में पड़ गया । सू० १० ॥ तत्थ वि णं थाहे जाए को मेयं सदहिस्सइ ? तेतलिपुत्तेणं सुक्कंसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पा मुक्को तत्थवि से अगणिकाए विज्झाए को मेयं सहहिस्सइ ? ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय) | તેતલિપુત્રે એક બહુ ભારે મોટી શિલા ( પથરે ) ગળામાં બાંધી અને ત્યાર પછી હું અથાહ (ઊંડા) અતાર અપુરુષ પ્રમાણ જેટલા પાણીમાં કુદી ગયો પણ કૂદતાંની સાથે જ પાણી થાહવાળું (છીછરું) થઈ ગયું, અથાહ (ડ) રહ્યું નહિ મારી આ વાત ઉપર પણ કેણ વિશ્વાસ મૂકશે? આ પ્રમાણે જ મેં તેતલિપુત્રે એક બહુ મોટા ભારે સૂકા ઘાસના ઢગલામાં અગ્નિ પ્રગટાવ્યો અને તેમાં મેં પિતાની જાતને ઝંપલાવી દીધી. પણ તે અગ્નિ ઓલવાઈ ગયો. તેણે મને ભસ્મ કર્યો નહિ મારી આ વાતને કેણ શ્રદ્ધેય માનીને સ્વીકારવા તૈયાર થશે ? આ રીતે તે અપહતમનઃ સંકઃપવાળા (હતાશ) થઈને निReatी मानी गयो भने मात ध्यानमा भी भयो. ॥ " सूत्र १०" ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ८५ मूलम्-तएणं से पोट्टिले देवे पोटिलारूवं विउव्वइ, विउवित्ता, तेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी-हं भो ! तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवाए पिट्टओ हथिभयं, दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि परिसंति, गामे पलित्ते रत्ने झियाइ, रन्ने पलिते गामे झियाइ । आउसो तेतलिपुत्ता ! कओ वयामो ?, तएणं से तेतलिपुत्ते पोटिलं एवं वयासीभीयस्स खलु भो ! पवजा सरणं, उकंठियस्स सदेसगमणं छुहियस्स अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्त भेसजं, माइयस्स रहस्सं अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणकिच्चं, परं अभिउंजिउ कामस्स सहायकिच्चं खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्त एत्तो एगमवि णंभवइ । तएणं से पोहिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-सुटु णं तुमं तेयलिपुत्ता! एयम आयाणाहि त्तिक? दोच्चपि तच्चपि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव दिसं पडिगए ॥ सू० ११ ॥ टीका-'तएणं से' इत्यादि । ' तएणं' ततः खलु तेतलिपुले आर्तध्यान. रते सति स पोटिलोदेवः 'पोट्टिलारूवं' पोटिलारूपं विकुर्वति वैक्रियशतया. _ 'तएणं से पोहिले देवे' इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (से पोटिले देवे ) उस पोटिल देवने (पाहिला रूवं विउव्वइ) पोहिला के रूप की विकुर्वणा की-अर्थात वैक्रिय शक्ति के प्रभाव से उसने पोट्टिला का रूप धारण किया (विउव्वित्ता 'तएणं से पोट्टिले देवे' इत्यादि Extथ-(तएण') त्या२ ५४ा (से पोट्टिले देवे) ते पहिरवे (पोट्टिला रूवं विउठबइ ) पहिशाना ३५नी वि ४२री मेट पैयि तिन प्रमाथी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्भकथासूत्रे धारयति, विकुर्वित्वा तेतलिपुत्रस्य अदूरसामन्ते नातिदूरे नातिनिकटे स्थित्वा एवमवादीत-हंभो तेतलिपुत्र ! ' हंभो' इत्यामन्त्रणे, हे तेतलिपुत्र ! 'पुरओ' पुरतः अग्रतः 'पवाए ' प्रपातः गतः, अतो निर्गमनमसम्भवि, पृष्ठतः हस्तिभयम् , अतो प्रत्यावर्तनं चासंभवि, 'दुहो । उभयता-उभयत =उभयोः पार्श्वयोः ' अबक्खुफासे' अचक्षुस्पर्शः अन्धकारः, 'मज्ज्ञे' मध्ये यत्र वयमास्महे तत्र ' सराणि' शराः वाणाः, ' वरिसंति ' वर्षन्ति-निपतन्ति । 'गामे पलिते' ग्रामे प्रदीप्ते प्रज्वलिते सति रण्णे' अरण्य धनं 'झियाइ' ध्यायति-गन्तुं चिन्तयति, अरण्ये प्रदीप्ते ग्रामं ध्यायति-गन्तुं चिन्तयति, 'आउसो तेतलिपुत्ता' हे आयुष्मन् तेतलिपुत्र ! 'उभओपलिते' उभयतः प्रदीप्ते-उभयस्मिन् प्रज्वलिते वयं 'कओ वयामो' कुतो बजामा-कगच्छामः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः पोटिलातेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठीच्चा एवं वयासी) धारण कर के वह तेतलिपुत्र के समीप गयी। वहाँ जाकर उसने उससे इस प्रकार कहा-(हं भो तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवाए पिट्ठो हथिभयं ) अरे ओ तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात खड्डा है और पीछे हाथी का भय है । ( दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि वरिसंति ) दोनों ओर अन्धेरा है और जहां हमलोग ठहरे हुए हैं वहां वाणों की वृष्टि हो रही है। (गामे पलिते रणो झियाइ, रन्नो पलित्ते गामे झियाई ) ग्राम में आगलगने पर मनुष्य जंगल में चले जाने को सोचता है-और जंगल में आग लगने पर ग्राम में चले आने के लिये विचारता है । (आउसो तेतलिपुत्ता ! उभओ पलित्ते कओ वयामो) परन्तु जब दोनों में आग लग जावे तो हे आयुष्मन तेतलिपुत्र ! कहो! हम कहां जावे ? (तएणं से तेरे पाहतार्नु ३५ धा२९ ४. ( विउव्वित्ता तेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठीच्चा एवं वयासी ) घा२५ ४ीन ते ततलिपुत्री पासे 5. त्यi ने तेरी तने 20 प्रमाणे ४थु (हं भो तेतलिपुत्ता ! पुरो पवाए पिओ हथिभय ) अरे, ઓ! તેતલિપુત્ર! તમારી સામે પ્રપાત-ધંધ છે અને તમારી પાછળ હાથીનો सय छे. ( दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि परिसंति) मने त२५ मा छ भने ज्या सभे मा छी त्यो ती। वर्षी २द्या छ ( गामे पलिते रणो शियाइ रनो पलित्ते गामे जियाई) मम मा aunti भाणुस समां નાસી જવાને વિચાર કરે છે અને જંગલમાં આગ લાગતાં ગામમાં આવતા २डवाना वियार ४२ छे. ( आउसो तेतलिपुत्ता उभओ पलित्ते कओ वयामो ) પણ જ્યારે બંને તરફ આગ સળગી ઉઠે ત્યારે તે આયુમન્ત તેતલિપત્ર! બેલે, અમે કયાં જઈએ ? श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 1 6 मेमवादीत् ' भो' हे पोट्टले ! भीतस्य खलु प्रव्रज्याशरणं भवति तत्र दृष्टान्तमाह-यथा-' उकं डियस्स ' उत्कण्ठितस्य = परदेशवर्तित्वादुन्सुकस्य स्वदेशगमनं, 'छुहियस्स ' क्षुधितस्य अन्नम् ' तिसियस्स ' तृषितस्य पानं, ' आउरस्स आतुरस्य - रोगिणः भेसज्ज'' भैषज्यं 'मायिस्स' मायिकस्य = मापाविनः रहस्यं गोपनम्, अभिजुनस्स' अभियुक्तस्य = दोषापवादयुक्तस्य ' पच्चयकरणं = प्रत्ययकरणं निराकरणेन स्वविषये निर्दोषता प्रतीत्युत्पादनम्, 'अद्धा परिसंतस्स' अध्यपरिश्रा-न्तस्य = मार्गगमनपरि खिन्नस्य 'वाहणगमणं' वाहनगमनं शकटादिना गमनं ' तरि तेतलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी-मीत्तस्म खलु भो पवज्जा-सरणं-उक्कंडियरस सदेसगमणं छुहियस्स अन्नं, तिसियस्स पाण, आउरस्स भेसज्जे, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्त्रयकरणं, अद्वाण परिसंतस्स वाहणगमणं, तरिकामस्स पहवणकिच्चे, परं अभिउंजिकामस्स सहायकिच्चं संतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमवि ण भवइ ) इस प्रकार पोहिला की बात सुनकर तेतलिपुत्र अमात्य ने उससे ऐसा कहा हे पाहिले ! भीत ( भय युक्त) के लिये प्रव्रज्या शरण भूत होती है, जैसे - परदेश वर्ती उत्सुक व्यक्ति के लिये स्वदेश गमन शरण भूत होता है, भूखे के लिये अन्न शरण भूत होता है प्यासे के लिये पानी, आतुर रोगी के लिये भैषज्य, मायावी के लिये मायाचारी, अभियुक्तदोषापवाद वाले के लिये दोषों के निराकरण से अपने विषय में निर्दो पता की प्रतीति का उत्पादन, शरण भूत होता है । मार्ग श्रान्त के लिये वाहन से गमन करना शरण भूत होता है, तैरने की इच्छा वाले के " , و (तएण से तेतलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी - भीतस्स खलु भो पवज्जा सरणं उक्कंडियस्स सदेसगमणं छुहियस्स अन्न निसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्ज, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स सहायकिच्चं संतस्स जिइंदियस्स एतो एगमविण भवइ ) આ રીતે પેફ્રિલાની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તેને કહ્યું કે હે પાટ્ટિલે! ભયભીત થયેલાને માટે પ્રયા શરણ ભૂત હાય છે–જેમ-પરદેશમાં રહેતી ઉત્સુક વ્યક્તિને માટે પેાતાને દેશ પાછા ફરવું શરણુ ભૂત હાય છે ભૂખ્યા ને માટે અન્ન શરણ ભૂત હોય છે, આ પ્રમાણે જ તરસ્યાને માટે પાણી, આતુર– रोग-ने भाटे लैषन्न्य-हवा, भाषावीने भाटे भाया यारी, अभियुक्त होषापवाहવાળાને માટે દોષોના નિરાકરણથી પેાતાના વિષે નિષિતાની પ્રતીતિનું ઉત્પાદન શરણુ ભૂત હાય છે. માગમાં ચાલતાં થાકી ગયેલાને માટે વાહનના ઉપયેગ શરણ ભૂત હાય છે, તરવાની ઈચ્છા ધરાવતા માણસને માટે નાવ વગેરે જલયાન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ge - ज्ञाताधर्मकथासो उकामस्स' तरीतुकामस्य 'पवहणकिच्चं ' प्रवहणकृत्यम्-प्रवहणं-प्रतरण कृत्यं यस्य तत् , जलयानं-नौकादिकमित्यर्थः परं अभियोजितुकामस्स' परमभियोजयितुकामस्य-समाक्रमितुमुद्यतस्य ' सहायकिच्चं ' सहाकृत्यं-मित्रादीनां साहाय्यं शरगं भवति, परं प्रव्रज्यानन्तरं · खंतस्स' क्षान्तस्य-क्षमाशीलस्य, 'दंतस्स । वान्तस्य इन्द्रिय नो इन्द्रियाणां दमनशीलस्य, 'जिइंदियस्स' जितेन्द्रियस्य वशीकृतेन्द्रियस्य 'एत्तो' इतः एषु पूर्वोक्तेषु मध्ये 'एगमवि न भवई' एकमपि न भवति । एकमपि शरणं तस्य प्रजितस्योपादेयं न भवतीत्यर्थः । ततः खलु तेतलिपुनस्यैतद्वचनश्रवणानन्तरम् स पोटिलो देवः तेतलिपुत्रममात्यमेवमवदत्-सुष्टु खलु वं हे तेतलिपुत्र ! एतमर्थम् ' भीतस्य प्रवज्या शरणम्' इत्येवंरूपं भावम् 'आयाणाहि' आजानीहि अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्व-प्रव्रज्यां गृहाणेत्यर्थः ‘ति लिये नौकादि यान शरण भूत होता है, और जो दूसरों पर आक्रमण करने के लिये उद्यत होता है उसके लिये मित्रादिकों की सहायता शरण भूत होती है। परन्तु जो क्षमाशील होता है, दान्त-इन्द्रियों को एवं मन को दमन करता है, जितेन्द्रिय होता है ऐसे प्रवजित को इन पूर्वोक्त शरणों मेसे एक भी शरण उपादेय नहीं होता है । (तएणं से पोटिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्च एवं वयासी-सुठ्ठण तुमं तेयलिपुत्ता ! एयम आयाणाहिं त्ति कटूटु दोच्चपि तच्चपि एवं वइत्ता जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए ) इस प्रकार तेतलिपुत्र के वचन सुनने के बाद उस पोटिल देवने तेतलिपुत्र अमात्य से ऐसा कहा हे तेतलि. पत्र। डरे हए को प्रव्रज्या शरण होती है इस भावरूप अर्थ को तुम अनुष्ठान द्वारा अच्छी तरह जानो अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण करो। ऐसा શરણ ભૂત હોય છે અને જે બીજાઓ ઉપર હુમલો કરવા તૈયાર હોય છે તેના માટે મિત્ર વગેરેની મદદ શરણ ભૂત હોય છે પણ જે ક્ષમાશીલ હોય છે, દાંત-ઈન્દ્રિ અને મનને દમન કરનાર હોય છે-એટલે કે જિતેન્દ્રિય હોય છે એવા પ્રવ્રુજિવને માટે એ બધી ઉપર વર્ણવામાં આવેલી શરણોમાંથી એકેય કામમાં આવતી નથી. (तएणं से पोटिले देवे तेयलिपुत्त अमच्चं एवं वयासी-मुठ्ठणं तुमं तेयलिपुत्ता ! एयमढें आयाणाहि त्ति कटु, दोच्चपि तच्चपि एवं क्यइ वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए) આ રીતે તેતલિપુત્રનાં વચન સાંભળીને તે પદિલ દેવે તેતલિપુત્ર અમાત્યને કહ્યું કે હે તેતલિપુત્ર ! ભયભીત થયેલાને માટે પ્રત્રજ્યા શરણભૂત હોય છે. આ ભાવરૂપ અર્થને તમે અનુષ્ઠાન દ્વારા સારી રીતે સમજે. એટલે કે તમે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितनिरूपणम् ८९ कट्ठ' इति कृत्वा इत्युक्त्वा 'दोच्चंपि' द्वितीयमपि द्वीतीयवारमपि एवं वदति, वदित्वा यस्या दिशः प्रादुर्भूतः, तस्यामेव दिशि प्रतिगतः ॥ मू० ११ ।। मूलम्-तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने । तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेमेयारूवे अज्झथिए५ समुप्पजित्था-एवं खलु अहं इहेव जंबूद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे पोक्खलावई विजये पोंडरि गिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्था । तएणं अहं थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चोदसपुवाइं० बहुणि वासाणि सामनपरियायं० मासियाए संलेहणाए महासुके कप्पे देवे । तएणं अहं ताओ देवलोयाओ आयुक्खणं३ इहेव तेतलिपुरे तेतलिस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए, तं सेयं खलु मम पुवदिवाइं महत्वयाई सयमेव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयमेव महत्वयाइं आरुहेइ, आरुहित्ता, जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, असोगवरपावयस्त अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसन्नस्स अणुचिंते माणस्स पुवाहीयाइं सामाइयमाइयाइं चोदसपुठवाई सयमेव अभिसमन्नागयाइं। तएणं तस्त तेतलिपुत्तस्स अणगारस्त सुभेणं परिणांमेणं जाव तयावरणिज्जाणं कम्माणं खयोव. कहकर उसने इसी बात को उससे दुबारा तिबोरा भी कहा और कहकर बादमें वह पोटिला रूप धारी देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा तरफ चला गया ॥ मू० ११ ॥ પ્રવ્રજા સ્વીકારી લે, આ પ્રમાણે કહીને તેણે બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ રીતે જ કહ્યું અને ત્યાર પછી તે પિદિલા રૂપ ધારી દેવ જે દિશા તરફ थी प्रगट थयो हतो ते त२३ पाछे। तो २wो. ॥ सूत्र “ ११ "॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे समेणं कम्मरयविकरणकरं अपुवकरणं पविट्ठस्स केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे ॥ सू० १२ ॥ टीका- 'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य शुभेन परिणामेण जातिस्मरणम्-पूर्वभवज्ञानं समुत्पन्नम् । ततः खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः प्रार्थितः चिन्तितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत एवं खलु अहम् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहेवर्षे पुष्कलावती विजये पुण्डरीकिण्यां राजधान्यां महापद्मो नाम राजा आसम् । ततः खलु अहं स्थविराणामन्तिकेमुण्डो भूत्वा यावत् ' चोहसपुव्वाइं०' चतुर्दशपूर्वाणि चतुर्दशपूर्वाणि अधीतवान् , बहूनि वर्षाणि — सामन्नपरियायं' श्रामण्यपर्यायं ० चारित्रपर्यायं पालित 'तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स' इत्यादि ।। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (तेतलिपुत्तस्स) तेतलिपुत्र को (सुभेणं परिणामेणं जाइ सरणे समुपन्ने)शुभपरिणाम से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। (तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेयाख्वे अज्झथिए ५ समु. प्पज्जित्था-एवं खलु अहं इहेव जंबूद्दोवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावई विजए पोंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था) उसके प्रभाव से उसने अपने पूर्वभव को जान लिया-उसने जाना कि मैं इसी जंबूरोप नामके द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नामकी राजधानी में महापद्म नाम का राजा था (तएणं अहं थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव चोद्दसपुत्वाइं० बहणि 'तएण तस्स तेतलिपुत्तस्स' इत्यादि दीर्थ-(तएणं ) त्या२६ (तेतलिपुत्तस्स) ततलिपुत्रने (सुभेणं परिणामेणं जाइ सरणे समुप्पन्ने ) शुभ परिणामयी गति भ२९ ज्ञान उत्पन्न थ आयु (तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इहेव जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावई विजए पोडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था) તેના પ્રભાવથી તેણે પિતાના પૂર્વ ભવને જાણી લીધું. તેને આ જાતનું સાન થયું કે તે આ જંબૂઢીપ નામના દ્વિીપમાં મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં પુષ્ક લાવતી વિજ્યમાં પુંડરીકિણ નામની રાજધાનીમાં મહાપદ્મ નામે રાજા હતે. ( तएणं अहं थेराणंअतिए मुंडे भवित्ता जाव चोइस पुव्वाइं० बहूणि वासाणि શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम ९१ वान् । अनन्तरं मासिक्या संलेखनया कालमासे कालं कृत्वा ' महामुक्के कप्पे' महाशुक्रे कल्पे-सप्तमे देवलोके ' देवे' देवा-देवत्वेनोत्पन्नः । ततः खलु अहं तस्माद् देवलोकात् ' आयुक्खएणं ३' आयुः क्षयेण ३=आयुर्भवस्थिति क्षयानन्तरम् इहैव तेतलिपुरे तेतलेरमात्यस्य भद्राया भार्याया ' दारगत्ताए' दारकत्वेनपुत्रतया — पच्चायाए ' प्रत्यायाता उत्पन्नः, तत्-तस्मात् श्रेयः ख मम पूर्वदृष्टानि-पूर्वभवपालितानि 'महव्वयाइं ' महाव्रतानि पञ्चमहाव्रतानि स्वयमेव उपसंपध विहर्तुम् , एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य स्वयमेव महाव्रतानि आरोहति स्वीकरोति, आरुह्य, यव प्रमदवनम् उद्यानं तचैव उपागच्छति, उपागत्य असोगवरपायबासाणि सामन्नपरियायं० मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवेतएणं अहं ताओ देवलोयाओ आयुक्खएणं ३ इहेव तेतलिपुरे तेतलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए ) वहां मैंने स्थविरों के पाम मुंडित होकर दीक्षा धारण की थी और ग्यारह अंगों का अध्ययन कर विशिष्ट तपस्या की थी अन्त में अनेक वर्षांतक श्रामण्य पर्यायका पालन कर एक मासकी संलेखना धारण कर मैं काल अवसर काल कर सातवां महाशुक्र कल्पमें देवकी पर्यायसे उत्पन्न हो गया। वहां की आयुष्य स्थिति भवस्थिति स्थितिके क्षयके अनन्तर मैं वहांसे चलकर इस तेतलिपुर में तेतलि अमात्य के यहां भद्रा भार्या की कुक्षि से पुत्र रूप में अवतरित हुआ। (तं सेयं खलु मम पुवदिट्ठाई महत्वयाई सय. मेव उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए-एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयमेव महत्व याई आरुहेइ, आरुहिता जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, सामनपरियाय० मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवे-तएणं अहं ताओ देवलोयाओ आयुक्खएणं ३ इहेव तेतलिपुरे तेतलिस्स अमचस्स भदाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए) ત્યાં મેં મંડિત થઈને સ્થવિરેની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી હતી અને અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કરીને વિશિષ્ટ તપસ્યા કરી હતી. છેવટે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રમણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને એક મહિનાની સંલેખના ધારણ કરી અને ત્યાર પછી કાળ અવસરે કાળ કરીને સાતમાં મહા શુક કલપમાં દેવના પર્યાયથી હું જન્મ પામ્યું. ત્યાંની ભવસ્થિતિ ૩ (ત્રણ) ના ક્ષય થવા બદલ હું ત્યાંથી આવીને આ તેતલિપુરમાં તેતલિ અમાત્યને ત્યાં ભદ્રા ભાર્યાના ગર્ભથી પુત્ર રૂપમાં જન્મ પામ્યા. (तं सेयं खलु मम पुत्वदिट्ठाई महत्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरितए एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयमेव महव्ययाई आरुहेइ, आरुहिता जेणेव पमयवणे श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे वस्स ' अशोकवरपादपस्य = अशोकवृक्षस्य ' अहे ' अधः परिणतशिलोपरि 'सुहनिसन्नस्स' सुखनिषण्णस्य सुखोपविष्टस्य ' अणुचितेमाणस्स ' अनुचिन्तयतः पूर्वभवे कृतमध्ययनादिकं स्मरतः 'पुव्वाहीयाई' पूर्वाधीतानि पूर्वभवे पठितानि सामायिकादीनि चतुर्दशपूर्वाणि स्वयमेव 'अभिसमन्नागयई' अभिसमन्वागतानि= ज्ञानविषयतया संजातानि । ततः खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य अनगारस्य शुभेन परिणामेन ' जाव' यावत् - प्रशस्तैरध्यवसायैः, प्रशस्ताभिर्लेश्याभि विशुद्धयमानाभिः ' तयावरणिज्जाणं ' तदावरणीयानां = ज्ञानावरणीयादीनां कर्मणां 'खयोवसमेणं ' उवागच्छत्ता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्ट्यंसि सुहनिसनस्स अणुचिंतेमाणस्स पुव्वाहीयाई सामाइयमाझ्या चोहसपुवाई सयमेव अभिसमन्नागयाइं ) इसलिये अब मुझे यही उचित है कि मैं पूर्व भव में पालित किये पंच महाव्रतों को अपने आप धारण करलूं । ऐसा उसने विचार किया। विचार करके फिर उसने अपने आपही महाव्रतों को धारण कर लिया। धारण करके फिर वह जहां प्रमदवन नामका उद्यान था वहाँ चला गाया। वहां जाकर वह अशोक वृक्ष के नीचे रक्खे हुए पृथिवी शिलापट्टक पर पटाकार से परिणत शिला के ऊपर - आनन्द के साथ बैठ गया और पूर्व भव में कृत अध्ययन आदि का बार२ चिन्तवन करने लगा। । इस तरह विचार करते? उसके पूर्व भव में पठित सामायिक आदि चौदह पूर्व ज्ञान के विषय भूत बन गये । ( तरणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं जाब तथाउज्जाणे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिला षट्ट्यंसि सुहनिसन्नस्स अणुचिंत्तेमाणस्स पुव्वाहीयाई सामाइयमाइयाई चोदस पुब्वाई' सयमेव अभिसमन्नागयाइं ) એટલા માટે હવે મને એજ ચેાગ્ય :લાગે છે કે પૂર્વ ભવમાં જે પાંચ મહાવ્રતાને મેં ધારણ કરેલાં તેને પેાતાની મેળે જ ધારણ કરી લઉં. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો. વિચાર કર્યાં બાદ તેણે પોતાની મેળે જ પાંચ મહાત્રતા ધારણ કરી લીધાં ધારણ કર્યા પછી તે જ્યાં પ્રમદવન નામે ઉદ્યાન હતું ત્યાં જતા રહ્યો. ત્યાં જઈને તે અશેક વૃક્ષની નીચે મૂકાયેલા પૃથિવી શિલા પટ્ટક ઉપર- પટ્ટાકાર રૂપથી પરિણત શિલા ઉપર–આનંદ અનુભવતા એસી ગચા અને પૂર્વ ભવમાં જે કંઈ અધ્યયન કર્યું... હતું તેનું વારવાર ચિંતન કરવા લાગ્યા. આ રીતે ચિંતન કરતાં કરતાં પૂર્વભવમાં ભળેલા સામાયિક વગેરે ચૌદ પૂર્વજ્ઞાન તેને વિષયભૂત થઈ ગયાં. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ९३ क्षशोपशमेन-उदितानां कर्मणां क्षयेण अनुदितानां कर्मणामुपशमेन-निरुद्धोदयत्वेन 'कम्मरयविकरणकरं ' कर्मरजो विकरणकरम् ‘अपुव्वकरणं' अपूर्वकरणम् अष्टमगुणस्थानम् प्रविष्टस्य तस्य केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ॥०१२॥ मूलम्-तएणं तेतलिपुरे नयरे अहा संनिहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि देवीहिय देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयंगधवनिनाए कए यावि होत्था । तएणं से कणगज्झए राया इमोसे कहाए लद्धडे समाणे एवं वयासी-एवं खलु तेतलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पवइए, तं गच्छामि णं तेतलिपुत्तं अणगारं वंदामि नमसामि वंदित्ता नमसित्ता एयमद्रं विणएणं भुजो २ खामेमि, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता पहाए० चाउरंगणीए वरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविहरणकरं अपुवकरणं पविट्ठस्स केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे ) इस प्रकार शुभ परिणामों से यावत् प्रसस्त अध्यवसायों से विशुद्धमान लेश्याओं से, उसके ज्ञानावरणी आदि कर्मों का क्षयोपशम-उदित कर्मों का क्षय एवं अनुदित कर्मों का उपशम-हो गया-सो इस के प्रभाव से वे कर्मरज को दर करने वाले अष्टम अपूर्व करण नामके गुणस्थान में प्राप्त हो गये। बाद में बाहरवें गुणस्थान के अंत में और तेरहवें गुणस्थान के प्रारंभ में उन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गया ॥४० १२॥ (तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं जाव तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविकरणकरं अपुवकरणं पविट्ठस्स केवलवरनाणदंसणं समुप्पण्णे) આ રીતે શુભ પરિણામેથી, યાવત્ પ્રશસ્ત અધ્ય વસાયાથી, વિશુદ્ધમાન લેશ્યાઓથી તેના જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને ક્ષયોપશમ–ઉદિત કર્મોનો ક્ષય અને અનદિત કમેને ઉપશમ થઈ ગયો. એના પ્રભાવથી તેઓ કમરજને વિકરણ કરનારા અષ્ટમ અપૂર્વ કરણ નામના ગુણસ્થાનમાં પ્રાપ્ત થઈ ગયા. ત્યાર પછી બારમા ગુણસ્થાનના અંતમાં અને તેરમાં ગુણસ્થાનના પ્રારંભમાં તેમને विज्ञान भने उ शन पत्र २७ गया. ॥ सूत्र “१२ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेतलिपुत्ते अणगारं वंदइ नमसइ वंदित्ता नर्मसित्ता एयम विणएणं भुज्जोर खामेइ, नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ । तएण से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रन्नो तीसे य महइ महालयाए० धम्मं परिकहेइ | तणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म, पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं सावगधम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जिन्त्ता समणोवासए जाए जाव अहिगय जीवाजीवे । तएणं तेतलिपुत्ते केवली बहूणि वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिबेमि ॥ सू० १३ ॥ ॥ चउद्दस अज्झयणं समत्तं ॥ टीका -' तरणं ' इत्यादि । ततः खलु तेतलिपुरे नगरे ' अहासंनिहिएहि ' यथा संनिहितैः = आसन्नैः ' वाणमंतरेहिं ' वाणव्यन्तरैः देवैः देवीभिश्व देवदुन्दुभयः समाहताः = आकाशे देवैः देवोभिश्व देवदुन्दुभयो वादिता इत्यर्थः, 'दसद्धवणे कुसुमे निवाडिए' दशार्द्धवर्ण कुसुमं निपातितम् अत्र जाति विवक्षायामेकवचनम्, " 'तएणं तेतलिपुरे नयरे ' इत्यादि ॥ टीकार्थ - (तएणं) इसके बाद ( तेतलिपुरे नयरे तेतलिपुर नगर में (अहासंनिहिएहि वाणमंत रेहिं देवेहिं देवीहिय देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयगंधन्वनिनाए कए यावि 'तएणं तेतलिपुरे नयरे' इत्यादि - टीडअर्थ - ( एणं ) त्यार पछी ( तेतलिपुरे नयरे ) तेतसिपुर नगरभां (अहा संनिहिरहिं वाणमंतरेर्हि देवेहिं देवीहिय देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयगंधव्वनिनाए कए यावि हत्था ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ९५ दशार्द्धवर्णानि-पञ्चवर्णाणि अचित्तपुष्पाणि निपातितानि वर्षितानि, दिव्यः मनोहरः गीतगन्धर्व निनादः कृतश्चापि अभवत् । ततः खलु स कनकध्वजो राजा 'इमीसे कहाए लढे समाणे ' यस्याः कथाया लब्धार्थः मया दुष्टचिन्ता विषयीकृतस्तेतलिपुत्रः अमात्यः प्रव्रज्य प्रमदबने केवलवरज्ञानदर्शनसम्पन्नो जात इति वृत्तान्ताभिज्ञः सन् एवमवादीत्-एवं खलु तेतलिपुत्रो मया ' अवज्झाए ' अपध्यात: दुष्टचिन्ताविषयी कृतः सन् मुण्डो भूखा प्रबजितः, 'त' तत्-तस्मात् कारणात् नमस्यित्वा 'एयमढे ' एतमर्थ-मया कृतमपमानरूपमर्थ विनयेन भूयो भूयः 'खामेमि' क्षमयामि, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य ‘हाए ' स्नातः कृतस्नानः 'चाउरंगिणीए सेणाए' चतुरङ्गिण्या सेनया साई यत्रैव प्रमदवन उद्यान यौव तेतलि. होत्था ) यथा संनिहित आसन्न भूत हुए वाण, व्यन्तर देवों ने और देवियों ने आकाश में देवदुन्दुभियां बजाई। पंचवर्ण के अचित्त कुसुमों की वृष्टि की । मनोहर गीत गर्व निदान भी किया। (तएणं से कण. गज्झए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं वयामी) जब यह समाचार कनकध्वज राजा को ज्ञात हुआ मेरो दुष्ट विचारणा के विषय भूत बने हुए, तेतलिपुत्र अमात्य ने दीक्षित होकर प्रमदवन में केवल ज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया है-इस प्रकार का वृत्तान्त जब उसे मालूम पड़ा-तब उसने अपने मन में विचार किया (एवं खलु तेतलि पुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पव्वइए, तं गच्छामि गं तेतलिपुतं अणगारं वंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमट्ट विणएणं भुज्जोर खामेमि एवं संपेहेइ-संपेहित्ता बहाए०चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमय. वणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेतलि યથા સંનિહિત આસન્નભૂત થયેલા વાણુવ્યંતર દેવોએ અને દેવીઓએ આકાશમાં દેવદુંદુભિ વગાડી, પાંચ રંગના અચિત્ત પુષ્પની વર્ષા કરી અને भना२ त निना ( नि ) पशु ध्यो. (तएणं से कणगज्ज्ञए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं वयासी ) न्यारे २मा समायानी रात કનક દવજને થઈ કે મારી દુષ્ટ વિચારણને લીધે તેતલિપુત્ર અમાત્ય દીક્ષિત થઈને અમદવનમાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દર્શન પ્રાપ્ત કરી લીધાં છે ત્યારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો કે (एवं खलु तेतलिपुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पव्वइए तं गच्छामिणं तेतलिपुत्तं अणगारंवंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमढे विणएणं भुज्जो २ खामेमि एवं संपेहेइ-सपेहित्ता हाए० चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्त अणगारं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गस वोsनगारस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तेतलिपुत्रमनगारं वन्दते नमस्यति, मन्दिवा नमस्त्विा एतमर्थ = स्वकृताऽपराधलक्षणं विनयेनभूयो भूयः क्षमयति = श्रम कारयति, तथा ' नच्चासन्ने० ' नात्यासन्ने नातिदूरे यावत् पर्युपास्ते= सेव करोति । ततः खलु स तेतलिपुत्रोऽनगारः कनकध्वजाय राज्ञे तस्यां च पुत्तं अणगारं बंदर, नमसह, वंदित्ता नमसित्ता एमयहं विणएणं भुज्जो २ खामेह नच्चामन्ने जाव पज्जुवामह) मैंने तेर्तालिपुत्र को अपनी दुष्ट चिन्ता का विषयभूत बनाया है-सो वह मुंडित होकर दीक्षित हो गया है । इसलिये मैं अब उसके पास जाऊँ और उन तेतलिपुत्र अनगार को वंदना करूँ नमस्कार करूँ । वंदना नमस्कार कर मैं अपने द्वारा किये अपमान रूप अपराधकी बडे विनय के साथ बार२ उनसे क्षमा मांगूंइस प्रकार ज्योही उसने विचार किया कि उसी समय वह उठा और स्नान किया बाद में अपनी चतुरंगीनी सेना के साथ जहां प्रमदवन था - उसमें जहां तेतलिपुत्र अनगार विराजमान थे वहां पहुँचा वहाँ पहुँच कर उसने तेतलिपुत्र अनगार को वंदना की नमस्कार किया । वंदना नमस्कार करके फिर अपने द्वारा कृत अपमान रूप अपराध की बड़े विनय के साथ बार २ उनसे क्षमा कराई और समुचित स्थान पर बैठ कर उनकी सेवा सुश्रूषा की (नएणं से तेनलिपुत्ते अणगारे कणगज्झवंद, नस, वंदिता नमसित्ता एपमट्ट विगएणं भुज्झो २ खामेइ नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ ) વિષયભૂત ( લક્ષ્ય ) છે. એટલા માટે હવે નમસ્કાર કરૂ વંદના તેતલિપુત્ર અમાત્યને મે પેાતાની દુષ્ટ ચિંતાને અનાન્યેા છે તેથી જ તે મુંડિત થઈને દીક્ષિત થઈ ગયા હું તેની પાસે જાઉં અને તૈલપુત્ર અનગારને વંદન કરૂં' અને નમસ્કાર કરીને હું મારા વડે થઈ ગયેલા અપમાન રૂપ અપરાધ બદલ અહુ જ નમ્રપણે તેમની પાસેથી ક્ષમા યાચના કરૂ. આ રીતે વિચાર થતાંની સાથે તરત જ તે ઊભા થયા અને સ્નાન કર્યું ત્યાર પછી પોતાની ચતુર'ગિણી સેનાને સાથે જ્યાં પ્રમદવન હતું અને તેમાં પણ જ્યાં તેલિપુત્ર અનગાર વિરાજમાત હતા ત્યાં પહાચ્યા ત્યાં પહોંચીને તેણે તૈતલિપુત્ર અનગારને વંદના કરી અને નમસ્કાર કર્યો. વધુના અને નનસ્કાર કરીને તેણે તેના વડે થઈ ગયેલા અપમાન રૂપ અપરાધની બહુ જ નમ્રપણે ક્ષમા માગી અને ત્યાર પછી તેણે ઉચિત સ્થાન ઉપર બેસીને તેમની સેવા તેમજ સુશ્રુષા કરી. ( तरणं से तेतलिदुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स एमो तीसे य महइ महालया धम्मं परिक) ९६ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ sup Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ९७ 'महइमहालयाए० ' महातिमहत्यां परिषदि धर्म ‘परिकहेइ' परिकथयति= उपदिशति । ततः खलु स कनकध्वजो राजा तेतलिपुत्रस्य केवलिनोऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य पश्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाप्रतिकं इत्येवं द्वादशविधं श्रावकधर्म पतिपयते, प्रतिपद्य श्रमणोपासको जातः । कीदृशः ?-अभिगत जीवा-जीवः परिज्ञातयस्स रण्णो तीसे य महामहालयाए० धम्म परिकहेइ ) इसके बाद उन तेतलिपुत्र अनगार केवली ने कनकध्वजराजा को उपस्थित परिषद को विशाल धर्म का उपदेश दिया-(तएणं से कणज्झझए राया तेतलिपु. त्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पंचाणुव्वयं सत्तसिक्खावइयं सावगधम्म पडिवजइ पडिवजित्ता समणोवासए जाए जोव अहिगयजीवाजीवे । तएणं तेतलिपुत्ते केवली बहणि वासाइं केवलिपरियागं पाणित्ता जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू : समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स णायन्झयणरस अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि ) उपदेश सुनने के बाद कनकध्वज राजाने तेतलिपुत्र केवलि के समीपश्रुतचारित्ररूप धर्म के प्रभाव से प्रेरित होकर और उस श्रुत धर्म का अच्छी तरह हृदय से विचार कर पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षा रूप श्रावक धर्म धारण कर लिया। धारण करके वे श्रमणोपासक बन गये-यावत् जीव और अजीव तत्व का क्या स्वरूप है इसके भी वे ज्ञाता हो गये । बाद में तेतलिपुत्र केवलीने अनेक वर्षा तक केवलि ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્ર અનગાર કેવળીએ કનકધ્વજ રાજાને તેમજ ઉપસ્થિત પરિષદને સવિસ્તર ધર્મ વિષે ઉપદેશ આપ્યો. (तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं सावगधग्मं पडिविज्जइ पडिविसज्जित्ता समणोवासए जाए जाव अहिगयजीवाजीवे । तएणं तेतलिपुत्ते केवलि बहूणि वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोद्दसमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते तिबेमि) ઉપદેશ સાંભળીને કનકદેવજ રાજાએ તેતલિપુત્ર કેવળિના મૃતચારિત્રરૂપ ધર્મના પ્રભાવથી પ્રેરાઈને તે ઋતચારિત્ર રૂપ ધર્મ વિષે મનમાં સારી રીતે વિચાર કરીને તેમની પાસેથી પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષારૂપ શ્રાવકધર્મ ધારણ કરી લીધા. ધારણ કરીને તેઓ શ્રમણોપાસક થઈ ગયા અને યાવત્ જીવ તેમજ અજીવતરવનું સ્વરૂપ શું છે ? તેનું પણ તેઓને જ્ઞાન થઈ ગયું. ત્યાર પછી તેતલિપુત્ર કેવળીએ ઘણાં વર્ષો સુધી કેવળી પર્યાયનું પાલન કર્યું અને આમ તેઓએ યાવત સિદ્ધપદ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सकलजीवाजीवतत्त्वश्वाऽपि जातः । ततः खलु तेतलिपुत्रः केवली बहूनि वर्षाणि केवलिपर्यायं पालयित्वा यावत् सिद्धः मोक्षं गतः । सुधर्मास्वामी पाह-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण चतुर्दशस्व ज्ञाताध्ययनस्य 'अयम?' अयमर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः, 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि-भगवत्समीपे यथा श्रुतं तथा त्वां पतिकथयामि । एतेन अध्ययनेन हदमायातं यत्-प्राणिनो यावद् दुःखं मानभ्रंशं च न प्राप्नुवन्ति तावद् बहुशः प्रबोधिता अपि धर्म न स्वीकुर्वन्ति, यथा तेतलिपुत्रः ॥ सू०१३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छ. त्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभृषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' मूत्रस्यानगारधर्मामृतव पिण्याख्यायां व्याख्यायां चतुर्दशमध्ययनं संपूर्णम् ॥१४॥ पर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध पद प्राप्त कर लिया। सुधर्मास्वामी कहते हैं-हे जंबू ! श्रमणभगवान महावीर ने इस चौदहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से भाव अर्थ प्ररूपित किया है । सो जैसा मैंने उन भगवान के समीप में सुना है यह वैसा ही तुमसे कहा है । इस अध्यपन से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि संसार में तेलिपुत्र की तरह ऐसे भी प्राणी हैं कि वे जब तक दुःख और अपमान को नहीं पालते हैं तब तक अनेक बार प्रतियोधित करने पर भी-धर्म को स्वीकार नहीं करते हैं ॥ सू० १३ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत __ "ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतषिणी व्याख्याका चौदहवां अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥ મેળવી લીધું. સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જંબૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયને પૂર્વોક્ત રૂપથી ભાવ-અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. જે અર્થ મે તેઓશ્રી ભાસેથી સાભળે છે તે જ તમને કહ્યો છે. આ અધ્યયનથી અમને આ જાતનું જ્ઞાન થાય છે કે સંસારમાં તેતલિપુત્રની જેમ એવાં પણ પ્રાણી એ છે કે તેઓ જ્યાં સુધી દુખી અને અપમાનિત થતા નથી ત્યાં સુધી ઘણા १५त प्रतियोपित २an छतमनस्वीरता नथी । सूत्र' १३" || શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી व्याभ्यानु न्यौह अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पञ्चदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ गतं चतुर्दशमध्ययनं सम्मति पञ्चदशमारभ्यते, पूर्वाध्ययनेऽपमानाद् विषयत्यागः प्रदर्शितः, अत्र तु स जिनोपदेशाद् भवतीति प्रतिपादयिष्यतेऽतस्तस्य सद्भावेऽर्थप्राप्तिः, असद्भावेत्वनर्थप्राप्तिर्भवतीत्येवं पूर्वेण सम्बन्धः तोदमा. दिसूत्रम्-' जइणं भंते ' इत्यादि । मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स नायज्झणस्स अयम? पण्णत्ते पन्नरसमस्स णं भंते णायज्झयणरस समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था, पन्नभद्दे चेइए जियसत्तू राया। तत्थ णं चंपाए नयरीए धण्णे णामं सत्यवाहे होत्था अड्डे जाव अपरिभूए । तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था, -नन्दिफल नामका पन्द्रहवां अध्यायन प्रारं :चौदहवां अध्ययन समाप्त हो चुका-अब पन्द्रहवां अध्ययन प्रारंभ होता है। पूर्व अध्ययन में तेतलि प्रधान के आख्यान द्वारा अपमान से भी विषयों का त्याग कर दिया जाता है यह बात समझाई गई है। इस अध्ययन में यह विषय त्याग जिनके उपदेश से होता है यह कहा जावेगा। इस लिये उसके सद्भाव में अर्थ प्राप्ति और असद्भाव में अनर्थ प्राप्ति होती है इस तरह से पूर्व अध्ययन के साथ इसका सबन्ध पन जाता हैः-जइणं भंते ! समणेणं इत्यादि ॥ નંદિફળ નામે પંદરમું અધ્યયન પ્રારંભ ચૌદમું અધ્યયન પુરૂં થયું છે. હવે પંદરમું અધ્યયન શરૂ થાય છે. પહેલાંના અધ્યયનમાં તેતલિપ્રધાનના આખ્યાન વડે એ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે અપમાનથી પણ વિષયને ત્યાગ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનમાં આ વિષય ત્યાગ જેમના ઉપદેશથી થાય છે તે વિષે કહેવામાં આવશે. એટલા માટે તેના સદૂભાવમાં અર્થ પ્રાપ્તિ અને અસદ્ભાવમાં અનર્થ પ્રાપ્તિ હોય છે. આ રીતે પૂર્વ અધ્યયનની સાથે અને સંબંધ સમજી શકાય છે. टीआय-'जइणं भंते ! समणेणं' इत्यादि । श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे रिद्धस्थिमियसमिद्धा वन्नओ। तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगकेऊ नामं राया होत्था, महया वन्नओ। तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झस्थिए चिंतिए पत्थिए कप्पिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थासेयं खलु मम विपुलं पणियभंड. मायाए अहिच्छत्तं नगरि वाणिज्जाए गमित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता गणिमंच: चउव्विहं भंडं गेण्हइ, सगडीसागडं सज्जेइ सज्जित्ता सगडीसागडं भरेंति२ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासो-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! चंपाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु घोसणं घोसेह ॥ सू० १॥ टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिमानधेयं स्थानं सम्पाप्तेन चतुर्दशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अय. मर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः तर्हि पञ्चदशस्य ज्ञाताध्यनस्य श्रमणेन भगवता महा टीकॉर्थ-जंबूस्वामी पूछते हैं कि (जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते णं चोदसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते पन्नरसमस्सणं भंते णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते ण के अटे पण्णत्ते) भदंत ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मोक्षप्राप्त कर चुके हैं चौदहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है-तो हे भदंत! मुक्ति प्राप्त हुए उन्हीं श्रमण भगवान જબૂ સ્વામી પૂછે છે કે – (जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं चोदसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते पन्नरसमस्स णं भंते णायज्झयगस्त समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते) ' હે ભદંત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી ચૂક્યા છે-ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપથી અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે તે છે ભત ! મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પંદરમા જ્ઞાતાધ્યયનને શે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् ११ वीरेण यावत्सम्पाप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ! सुधर्मस्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बः! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्यासीत् । तत्र पूर्णभद्र चैत्यं जितशत्रू राजा चाभवत् । तत्र खलु चम्पायां नगयों धन्यो नाम सार्थवाह आसीत् । स कीदृशः ? इत्याह-आढयो यावद् अपरिभूतः प्रभूतशक्तिशालीत्यर्थः । तस्या खल चम्पाया नगर्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अहिच्छत्रा नाम नगर्यासीत् । सा कीशी?स्याह- रिद्धस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धस्तिमितसमृद्धा, तत्र ऋद्धा नभः स्पशिबहुप्रासादयुक्ता, स्तिमिता = स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा धनधान्यादि परिपूर्णा, 'वण्णओ' वर्णकः नगरी वर्णनपाठोऽत्रवाच्यः, स तु औपपातिकमूत्रादवसेयः । तत्र खलु अहिच्छत्रार्यां नगर्यो कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् । 'महया वण्णओ' महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ निरूपित किया है। (एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानामं नयरी होत्था) इस प्रकार जंबू स्वामी के प्रश्न के समाधान निमित्त श्री सुधर्मा स्वामी उन से कहते हैं कि जंबू ! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार हैउस काल और उस समय में चंपा नाम की नगरी थी (पुनभद्दे चेहए जियसत्तू राया, तत्थ णं चंपाए नयरीए धण्णे नामे सत्यवाहे होत्था अड़े जाव अपरिभूए) पूर्णभद्र नाम का उसमें उद्यान था। जितशत्रु नामका राजा उसमें रहता था। उसी चंपा नगरी में धन्य नामका सार्थवाह भी रहता था। यह जन धन धान्यादि संपन्न था। एवं लोकमान्य भी था। (तीसे गं चंपाए नयरीए उत्तर पुरथिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था, रिद्धस्थिमिय समिद्धा वन्नओ-तत्थणं अहिच्छत्ताए ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था) આ રીતે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નના સમાધાન માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જબૂ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી. (पुन्नभद्दे चेइए जियसत्तू राया, तत्थ णं चंपाए नयरीए धण्णे नामे सत्यवाहे होत्था अड्रे जाव अपरिभूए) તેમાં પૂર્ણ ભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતું. તેમાં જિતશત્રુ નામે રાજા રહેતા હતો. ધન્ય નામે એક સાર્થવાહ પણ તે ચંપા નગરીમાં જ રહેતું હતું. તે જન. ધન, ધાન્ય, વગેરેથી સંપન્ન હતું, તેમજ લેક માન્ય પણ હતે. (तीसेणं चंपाए नयरीए उत्तरपुरथिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था, रिद्धस्थिमिय समिद्धा वन्नओ-तस्थणं हिच्छत्ताए नयरीए कणगल नामं राया होत्था महया वन्नओ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे " 6 महा० वर्णक =सच ' महयाहिमवंतमहंतमलय मंदरमहिंदसारे ' महाहिमवन्महाम : लयमन्दर महेन्द्र सारः, इत्यादिरूपोऽत्र विज्ञेयः । तस्य धन्यस्य सार्थवाहस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये - रात्रे पश्चिमे महरे अयमेतद्रूप आध्यात्मिकचिन्तितः प्रार्थितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः = विचारः समुदपद्यत - श्रेयः = उचितं खलु मम विपुलं = प्रचुरं 'पणियभंड' प्रणितभाण्डं = गणिमादिक्रय विक्रयवस्तुभाण्डम् आयाए ' आदाय = गृहीत्वा अहिच्छत्रां नगरीं वाणिज्याय गन्तुम्, गणिमादिपण्यवस्तुजातं गृहीत्वा व्यापारायाहिच्छत्रां नगर्यां मया गन्तव्यमिति भावः । एवं ' संपेहे ' सप्रेक्षते = विचारयति, संप्रेक्ष्य गणिमं ४ - गणिमं धरिमं मेयं परिच्छेयं चेत्येवंरूपं चत्तर्विध भाण्डं = पण्यवस्तुजातं गृह्णाति गृहीत्वा 'सगडीसागडं शकटीनथरीए कrahऊ नामं राया होत्था, महया बन्नओ) उस चंपा नगरी के ईशान कोण में अहिच्छत्रा नामकी नगरी थी। यह नभस्तलस्पर्शी प्रासादों से युक्त स्वचक्र और परचक्र के भयसे रहित तथा धन धान्य आदि विभव से विशेष समृद्ध थी । नगरी के वर्णन का पाठ औपपातिक सूत्र में जैसा नगरी का वर्णन किया गया है वैसा ही यहां जनना चाहिये | उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामका राजा रहता था । इस राजा के वर्णन में " महया हिमवंतमहंत मलयमंदरम हिंदसारे " इत्यादिरूप पाठ यहां लगा लेना चाहिये । (तस्म धन्नम्स सत्यवाहस्स अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरन्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चितिए पत्थिए, कप्पिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था सेयं खलु मम विउलं पणियमंड मायाए अहिच्छत नयरिं वाणिज्जाए गमितए, एवं संपेहेह, संपेहित्ता गणिमंच४ चव्विहं भंडे गेव्हइ, सगडी सागडं सज्जेह. स તે ચંપા નગરીના ઈશાન કાણુમા અહિચ્છત્રા નામે નગરી હતી. આકાશને સ્પર્શીતા એવા ઊંચા પ્રાસાદેથી આ નગરી યુક્ત હતી તેમજ સ્વચક્ર અને પરચક્ર ના ભયથી રહિત તથા ધન ધાન્ય વગેરે વૈભવથી આ નગરી સિવશેષ સમૃદ્ધ હતી. ઔપપાતિક સૂત્રમાં નગરીના વિષે જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ અહીં પણ જાણી લેવું જોઇએ તે અહિચ્છત્રા નગરીમાં કનકકેતુ નામે રાજા रहेतेो हतो, या रान्नना वार्जुन भाटे ( महया हिमवंत-महंत - मलय मंदरमहिंदसारे ) वगेरे पाह यहीं समन्वो ऽये. (तस्स धन्नस सत्थवाहस्स अन्नया कयाई, पुन्त्ररत्तावत्तकालसमर्थसि इमेयावे अज्झथिए चितिए, पत्थिए कपिए, मणोगए संकष्पे समुप्पज्जित्था - सेयं खलु मग विडलं पणियभंडमायाए अहिच्छत्तं नयरिं वाणिज्जाए गमित एवं संपेहेड, संपेहिचा गणिमं च ४ चउव्हि मंडे गेण्डर सगडीसागड सज्जे, सज्जिता શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृनवषिणा टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् ॥ शाकटं लघुमहच्छकटसमूहं सज्जयति,-पगुणी करोति सज्जयित्वा शकटोशाकर्ट भरेंति, भृत्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आह्वयति, आहूय एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! चम्पाया नगर्याः 'सिंघाडगजावपहेसु ' शृङ्गाटकत्रिकचतुष्क चत्वरमहापथपथेषु घोषणाम्घोषयत ।। मू०१ ।। ज्जित्ता सगडीसागडं भरेइ भरित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुपिया ! चपाए नयरीए सिंगाडग जाव पहेसु घोसण घोसेह) एक दिन की शत है कि उस धन्यसार्थवाह को रात्रि के पश्चिम प्रहर में यह इस प्रकार का आध्मात्मिक चिन्तित, प्रार्थित कल्पित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं गणिमादि रूप विपुल पण्य वस्तु को लेकर व्यापार के लिये जो अहिच्छत्रा नगरी में जाऊँ तो बहुत अच्छी बात है। इस प्रकार उसने विचार किया-ऐसा विचार करके उसने गणिम, धारिम, मेय और परिच्छेद्य रूप चार प्रकार का भाण्ड लिया। भाण्ड लेकर फिर उसने गाड़ी और गाड़ों को तैयार करवाया-जब वे गाडी गोड़े तैयार हो चुके तब उसने उस पण्य (विक्रेय वस्तु ) को उनमें भरा-भर कर फिर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उमने ऐसा कहा-हे देवानुप्रियों ! तुम लोग जाओऔर चंपा नगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ इन सब मार्गों में घोषणा कगे। क्या घोषणा करना-यह बात नीचे के सूत्र से सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं । सू० १ ॥ सगडीसागडं भरेइ, भरित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया । चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु घोसणं घोसेह) એક દિવસે તે ધન્ય સાર્થવાહને રાત્રિના છેલ્લા પહેરમાં આ જાતને આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, પ્રાર્થિત, કપિત, મને ગમત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે પુષ્કળ પ્રમાણમાં ગણિમ વગેરે વેચાણની વસ્તુઓ લઈને વેપાર ખેડવા માટે જે હું અહિચ્છત્રા નગરીમાં જાઉં તો બહુ સારુ થાય. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો. આ વિચાર કરીને તેણે ગણિમ, ધરિમ, મેય અને પરિચ્છેદ્ય રૂપ ચાર પ્રકારની વસ્તુઓ વાસણમાં ભરી. ચારે જાતની વસ્તુઓ વાસણમાં ભરીને તેણે ગાડી તેમજ ગાડીઓને તૈયાર કરાવ્યા જયારે ગાડી અને ગાડાઓ તૈયાર થઈ ચૂક્યાં ત્યારે તેણે તે વેચાણની વસ્તુઓને ગાડી અને ગાડાંઓમાં મૂકી ત્યાર પછી તેણે પિતાના કોમિક પુરુષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે, કહ્યું કે હે દેવાનુદિયે તમે જાઓ, અને ચંપા નગરીના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, મહાપથ આ બધા માર્ગોમાં ઘોષણું કરે. ઘોષણું કરતાં શું કહેવું તે નીચેના સૂત્ર વડે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. તે સૂત્ર “ ૧ ” છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ 6 घोषणास्वरूपमाह एवं खलु ' इत्यादि । ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम् - एवं खलु देवाणुपिया ! धण्णे सत्थवाहे विउलं पणियं मायाए इच्छइ अहिच्छत्तं नयरिं वाणिजाए गमित्तए त जो णं देवाणुप्पिया ! चरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छुडे वा पंडुरंगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्ध विरुद्धवुड सावगरन्त पडनिग्गंथप्पभिइपासंडत्थे वा गहत्थे वा घण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नगरिं गच्छइ तस्स णं धण्णे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ अकुंडियस्स कुंडियं दलयइ अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ अपक्खेव गस्स पक्खेवं दलयइ अंतराऽविय से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयइ सुहंसुहेण य णं अहिगच्छत्तं संपावेइ तिकट्टु दोच्चंपि तच्चपि घोसेह घोसित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चष्पिणह, तणं ते कोडुंबिय पुरिसा जाब एवं वयासी- हंदिसुणंतु भवंतो चंपानगरीवत्थवा बहवे चरगा य जाव पच्चपिणंति ॥ सू०२॥ टीका - एवं खल हे देवानुप्रियाः ! धन्यः सार्थवाहः विपुलान पणितभाण्डान् ' आयाए' आदाय इच्छति अहिच्छत्रां नगरीं ' वाणिज्जाए ' वाणिज्याय = ' एवं खलु देवाणुपिया' इत्यादि । टीकार्थ - ( एवं खलु देवाणुप्पिया । घण्णे सत्थवाहे विउलं पणियं मायाए इच्छह अहिच्छतं नयरिं वाणिजाए गमित्तर) हे देवाणुप्रियो ! एवं खलु देवाणुपिया इत्यादि । ( एवं खलु देवाणुपिया ! घण्णे सत्यवाहे विडलं पणियं मायाए इच्छ अहिच्छत्तं नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए) હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેાકેા શ્રૃંગાટક વગેરે માર્ગોમાં આ જાતની ઘેાષણા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १५ नंदीफलस्वरूपनिरूपणम् १०५ व्यापाराय गन्तुं तत्-तस्मात् यः खलु हे देवानुप्रिया ! कोऽपि धन्येन सार्थवाहेन सार्द्धमहिच्छत्रां नगरी 'गच्छतो' त्युत्तरेण सम्बन्धः, कोऽसौ, यस्तेन सार्द्ध गच्छेदित्याह-'चरए' इत्यादिना 'चरए वा' चरकः गृहस्थस्य गृहे निष्पन्नस्यौदनादे योऽग्रभागो दानार्थ पृथकृत्य स्थाप्यते तस्य भिक्षावृत्याग्राहकः, ' चीरिए वा' चीरिकमार्गपतितशटितचीवरसरिधारकः, ‘चम्मखंडिए वा ' चर्मखण्डिका धर्म धारकः, 'भिच्छुडे वा ' भिक्षोण्ड: अन्यानीतभिक्षानभोजी, 'पंडुरंगे वा' पाण्डुराग भस्मलिप्तशरीरः, ‘गोयमे वा' गौतमः वृषभमधिकृत्य कणभिक्षाग्राही, 'गोव्वइए वा' गोप्रतिकागोचर्यानुकारी यथा यथा गौः स्थानासनादिकियां करोति तथा तथा सोऽपि करोतीति भावः, 'गिहिधम्मचिंतए वा' गृहिधर्मचिन्तकः गृहिणो-गृहस्थस्य धर्मों गृहिधर्मस्तं चिन्तयतीति तथा, 'गृहस्थधर्मएचश्रेयान् नान्यः ' उक्तश्चतुम लोग शृंगाटक आदि मार्गों में खड़े होकर इस प्रकार की घोषणा करना-कि धन्य सार्थवाह विपुल मात्रा में पणित (विक्रय वस्तु ) को लेकर अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार के लिये जाना चाहता है (तं जो णं देवाणुप्पिया ! चरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छुडे वा पंडुरंगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्धविरुद्ध बुड़ सावगरत्तपडनिग्गंथप्पभिइपासंडत्थे वा गिहत्थे वा धण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नयरिं गच्छइ तस्स णं धण्णे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ ) इसलिये हे देवाणुप्रियो ! जो भी कोई धन्य साथैवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहतो हो-चाहे वह चरक हो चीरिक हो, चर्मखंडघारी हो, भिक्षोण्ड हो, पाण्डुरङ्ग हो, गौतम हो, गोव्रतिक हो, गृहस्थधर्म चिन्तक हो, अविरुद्ध हो, विरुद्ध हो, वृद्धકરે કે ધન્ય સાર્થવાહ પુષ્કર પ્રમાણમાં પણિત ( વેચાણની વસ્તુઓ ) લઈને અહિચ્છત્રા નામે નગરીમાં વેપાર ખેડવા માટે જવા ઈચ્છે છે. (नं जो णं देवाणुप्पिया ! चरए वा चोरिए वा चम्मरबडिए वा भिच्छुडे वा पंडुरंगे वा गोव्वइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्ध विरुद्धवुड्डसावगरनपडनिग्गंथ प्पभिइ पासंडत्थे वा गिहत्थे वा धण्णेणं सत्थवाहेण सद्धिं अहिच्छत्तं नयरिं गच्छइतस्स णं धण्णे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ) એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! ધન્ય સાર્થવાહની સાથે જે કઈ જવા ઈચ્છતે હોય-ભલે તે ચરક હોય, ચીરિક હય, ચર્મ ખંડ ધારી હેય, ભિક્ષેડ હોય, પાંડુરંગ હોય, ગૌતમ હેય, ગેબ્રતિક હય, ગૃહસ્થ ધર્મ ચિંતક હોય, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्ने "गृहाश्रमसमो धर्मों,-न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः शूरा, क्लीवा पाषण्डमाश्रिताः ॥ १॥" इत्यभिसन्धाय तथा चिन्तनशीलः, 'अविरुद्धविरुद्ववुडसावगरत्तपडनिग्गंथपभिइपासंडत्थे वा' अविरुद्वविरुद्धद्धश्रावकरक्तपटनिग्रन्थप्रभृतिपाषण्डस्थः तत्र'अविरुद्ध ' अविरुद्धः विरुद्धः कस्मादपीत्यविरुद्धः विनयवादी क्रीयावादीत्यर्थः, परलोकाभ्युपगमात् , ' विरुद्ध' विरुद्धः विरुद्धः = विरुद्धवादोऽस्यास्तीति-अर्श आदिन्वादच , विरुद्धवादी आक्रियावादीत्यर्थः परलोकानभ्युपगमात् , 'बुढ्ढसावग' वृद्धश्रावका ब्राह्मणः, वृद्ध वृद्धकालिको यः श्रावकः सः, भरतादिकाले पूर्व श्रावकसत्त्वेन पश्चाद् ब्राह्मगत्वभावात् , ' रक्तपड' रक्तपट भैरिकवस्त्रधारीपरिघाजकः, 'गिरगंथप्पभिइ ' निर्ग्रन्थमभृतिः = साधुप्रभृतिरन्यः कोऽपिकपिलादिः पापण्डस्थो वा गृहस्थो वा, इति यदि एषु यः कोऽपिगच्छेत् तस्मै खलु धन्यः सार्थवाहः अच्छत्रकाय छत्ररहिताय छत्रकं ददानि दास्यतीति भावः, एवं सर्वत्र विज्ञेयम् ' अणुवाहणस्स' अनुमानहे पादत्राणरहिताय — उवाहणाओ' उपानहीं ददाति, अकुण्डिकाय-जलपानरहिताय कुण्डिकांजलपात्रां ददाति । 'अपत्थय. णस्स' अपथ्यदनाय शम्बलरहिताय 'पत्थयण ' पथ्यदनं = शम्बलं ददाति । 'अपक्खेवगस्स' अप्रक्षेपकाय. प्रक्षेपकः = पूर्तिद्रव्यं, तद्रहिताय मध्यमार्गे न्यून शम्बलाय प्रक्षेपकं-शम्बलपूरकं द्रव्यं ददाति । 'अंतराविय ' अन्तराऽपि च= मार्गान्तरालेऽपि च ' से ' तस्मै पतिताय = वाहनाद् पादादिस्खलनेन वा, वाश्रावक हो, गैरिकवस्त्रधारी परिव्राजक हो, निर्ग्रन्थ हो, पाखंडी हो, चाहे गृहस्थ हो कोई भी क्यों न हो, उसके लिये धन्य सार्थवाह यदि वह छत्ररहित है तो छत्र देगा ( अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ अकुंडियस्स कुंडियं दलयइ अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ अपक्खेवगस्स पक्खेवं दलयइ अंतराऽविय से पडियस वा भग्गलुग्गस्मसाहेज्जं दलया, અવિરુદ્ધ હેય, વિરુદ્ધ હોય, વૃદ્ધ શ્રાવક હોય, ગરિક વસ્ત્ર ધારી પરિવ્રાજક હય, નિથ હોય, પાખંડી હોય અને ગૃહસ્થ હોય કઈ પણ કેમ ન હોય તેના માટે જે તે છત્ર વગરને હેય તેવાને ધન્ય સાર્થવાહ છત્ર આપશે. ( अणुवाहणस्स उवाहणाभो दलयइ, अकुंडियस्म कुंडियं दलयइ अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयह अपक्खेवगस्त पक्खेवं दलयइ अंतराऽविय से पडियस्स वा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १०७ अथवा ' भग्गलुग्गस्स ' भग्नरुग्गाय भग्नाय = त्रुटितहस्तपादाघवयवाय रुग्णाय = रोगाक्रान्ताय रोगग्रस्ताय वा 'साहेज्ज ' साहाय्यम् = औषधोपचारादि करणरूपं ददाति, तथा - सुखं -- सुखेन = सुखपूर्वक च तम् अहिच्छत्रां नगरी ' संपावेइ' संप्रापयति संप्रापयिष्यतीत्यर्थः । तिकटु' इति कृत्वा एवमुच्चार्य द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं घोषयत, घोषयित्वा मम 'एयमाणत्तियं' एतामाज्ञप्तिकाम् एतद्रूपां ममाज्ञां ' पच्चप्पिणह' मत्यर्पयत-मदुक्तां घोषणां कृत्वा पुनमा निवेदयतेत्यर्थः । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः 'तथाऽस्तु. सुहंसुहेणं अहिच्छत्तं संपावेइ, त्ति कटु दोच्चपि तच्चपि घासेह) पदब्राण (जूता) रहित है तो जूता (पदत्राण ) देगा जलपात्र रहित होगा उसे जलपात्र देगा, कलेवा (भोजन) रहित है तो कलेवा (भोजन) देगा, शम्ब लपाथेय पूरक द्रव्यसे रहित है तो उसे शम्बल पाथेय-भाता पूरक द्रव्य देगा, अर्थात् चलते२ बीच मार्ग में ही जिसका कलेवा (भोजन) समाप्त हो जावेगा उसे उसके योग्य द्रव्यप्रदान करेगा, मार्गके मध्यमें चलते२ यदि वह घोड़ेसे गिर गया होगा, अथवा पैदल चलते२ यदि वह पैर फिसल कर गिर गया होगा और इस तरह से उसके हाथ पैर आदि टूट गये होंगे तो उसकी सार संभाल करेगा-रोगी की दवाई करेगा, और बड़े आनन्द के साथ उसे अहिच्छत्रा नगरीमें पहुँचा देगा। इस प्रकार की इस घोषणा को तुम लोग दो तीन बार करना । और (घोसित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ) करके फिर हमें पीछे इसकी खबर देना (तएणं ते कौटुंबियपुरिसा जाव एवं क्यासी हंदि सुणंतु भवतो चंपा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयइ, सुहं सुहेणं अहिच्छत्तं संपावेइ, त्ति कड्ड दाच पि त चंपि घोसेह) જેડા વગરને હશે તેને જેડા આપશે, જમવાની સગવડ હશે નહિ તેને જમવાની સગવડ કરી આપશે. શંબલ-પાથેય-પૂરક દ્રવ્ય વગરનો હશે તેને શંબલ-પાથેય-પૂરક દ્રવ્ય આપશે. એટલે કે માર્ગમાં અધવચ્ચે ભાતું ખલાસ થઈ ગયું હશે તેને ચગ્ય ધન આપશે. માર્ગમાં અધવચ્ચે ચાલતાં ચાલતાં જે તે ઘડા ઉપરથી પડી જશે અથવા પગે ચાલતાં ચાલતાં જે તે પગ લપસવાથી પડી જશે અને તેથી તેના હાથ પગ વગેરે. ભાંગી ગયા હશે તે તેની તે સુશ્રુષા કરશે-રોગની દવા કરશે અને સુખેથી તેને અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચાउश. मा शत तमे मे ३ वमत घोषण। ४२। सने (घोसित्ता मम एयमाण त्तियं पच्चप्पिणह ) घोषणा रीने मम मम२ पापी. (तएणं ते कोडुबियपुरिसा जाव एवं वयासी हंदि सुगंतु भवंतो चंपानयरी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे इत्युक्त्वा चम्पानगयाँ शृङ्गाटकादिमहापथपथेषु समागत्य-एवमवादिषुः- हंदि' इत्यामन्त्रणे तेन हे लोकाः ! शृण्वन्तु-भवन्तः-यत् चम्पानगरी वास्तव्या बहका 'चरगाय जाव' इति-चरकचीरिकादयो धन्येन सार्थवाहेन सार्द्धमहिच्छत्रां नगरों गच्छन्ति तेभ्यो धन्यः सार्थवाहछत्रादिकं सर्व दास्यति, मार्गे च स्खलितेभ्यो रोगादिग्रस्तेभ्यश्च औषधोपचारादिना साहाय्यं करिष्यति, सुखपूर्वकमहिच्छत्रां मगरीं प्रापयिष्यति च, इत्येवं घोषयित्वा धन्यसार्थवाहाय ‘पच्चप्पिणति' प्रत्यर्पयंति-निवेदयन्ति ।। सू०२॥ नगरीवत्थव्या वहवे चरगा य जाव पच्चप्पिणंति ) इस प्रकार धन्यसार्थवाह की बात को उन कौटुम्बिक पुरुषों ने "तथास्तु" कहकर स्वीकर लिया और चंपानगरी में शृंगाटक आदि महापथ पर्यतके समस्त मार्गों में जाकर इस प्रकार की घोषणा की, हे लोको ! सुनो-जो कोई चंपा नगरी का निवासी चरक आदि जन धन्य सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी को जाना चाहता हो उसके लिये धन्यसार्थवाह छत्रादि सब देगा तथा जो मार्ग में पतित हो जावेंगे अथवा रोगाक्रान्त बन जावेंगे उनकी औषधि आदि द्वारा सहायता भी करेगा और इस तरह वह उनके लिये सकुशल अहिच्छत्रा नगरी में पहुंचा देगा-इस प्रकार की घोषणा करके उन लोगों ने इसकी खबर धन्य सार्थवाह के पास भेज दी। गृहस्थ के घर निष्पन्न हुए औदनादिक खाद्य वस्तुओं का जो सर्व प्रथम हिस्सा दान के लिये पृथक कर रख लिया जाता है, उस वत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चप्पिणंति ) આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહની આજ્ઞાને તે કૌટુંબિક પુરુષોએ સ્વીકારી લીધી અને ચંપા નગરીના શૃંગાટક વગેરે મહાપમાં જઈને આ રીતે તેઓએ ઘેષણ કરી કે હે લેકે ! સાંભળે, ચંપા નગરીમાં રહેનાર ચરક વગેરે ગમે તે માણસ ધન્ય સાર્થવાહની સાથે અહિચ્છત્રા નગરીમાં જ તેને ધન્ય સાર્થવાહ છત્ર વગેરે બધું આપશે, તેમજ માર્ગમાં કઈ પડી જશે અથવા તે માંદે થઈ જશે તે ધન્ય સાથ વાહની તેની બરોબર માવજત કરાવીને તેની સહાય કરશે અને તેને સકુશળ અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચાડશે આ રીતે છેષણ કરીને તે લેકે એ ધન્ય સાર્થવાહને ઘેષણનું કામ પુરૂં થઈ જવાની ખબર આપી. ગૃહસ્થને ઘેર તૈયાર કરાયેલા ભાત વગેરે ખાદ્ય વસ્તુઓને જે સૌ પહેલાં દાન માટે જુદે કરીને રાખવામાં આવે છે તે ભાગને જે ભીખ માંગીને લઈ જાય છે તેને ચરિક કહે છે. માર્ગમાં પડેલાં ફાટેલાં વસ્ત્રો જે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १०९ हिस्से को जो भिक्षावृत्ति से ले जाते हैं उनका नाम चरिक है । मार्ग में गिरे हुए फटेचिटे वस्त्र को लेकर जो पहिनते हैं उनका नाम चीरिक है । चमड़े को जो अपने पहिरने के उपयोग में लाते हैं वे चर्म खंडिक है । दूसरे के द्वारा लायी गई भिक्षा से जो अपना निर्वाह करते हैं वे भिक्षोण्ड हैं । अपने शरीर पर जो भस्म लपेटे रहते हैं वे पांडुरंग हैं । बैल को लेकर जो दूसरों के घरों से अनाज मांगते हैं ये गौतम है। दिलीप राजा की तरह जो गायकी सेवा करने में लगे रहते हैं-जब वह बैठती है तब वे बैठते हैं-वह खड़ी होती है तो वे भी खडे हो जाते हैं इत्यादि रूप से गोचर्यानुकारी जो जन होते हैं वे गोत्रतिक हैं। गृहस्थ धर्म ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार मान कर जो उसमें रह रहते हैं वे गृहिधर्म चिन्तक है। जैसे-गृहस्थाश्रम के समान धर्म न हुआ है और न आगे होगा ही। जो शूरवीर मनुष्य होते हैं वे ही इसे पालते हैं। पाषंड धर्म को पालने वाले मनुध्य शूरवीर नहीं हैं किन्तु वे तो क्लीव-नपुंसक हैं ऐसी इनकी मान्यता होती है। अविरुद्ध शब्द का अर्थ विरुद्ध नहीं रहते हैं सवका समानरूप से विनय करते हैं। विरुद्ध शब्द का अर्थ अक्रियावादी है । ये अक्रिया बादी परપહેરે છે તેનું નામ ચીરિક છે. ચામડાને જે વસ્ત્ર તરીકે પહેરવામાં કામમાં લે છે તે ચમ ખંડિત છે. બીજાઓ વડે લાવવામાં આવેલી ભિક્ષાથી જે પિતાનું ઉદર પિષણ કરે છે તે ભિક્ષેડ છે. પોતાના શરીર ઉપર જે રાખ ચોળે છે તે પાંડુરંગ છે. બળદને સાથે લઈને જેઓ બીજાઓના ઘરોથી અનાજ માંગે છે તેઓ ગૌતમ કહેવાય છે. રાજા દિલીપની જેમ જેઓ ગાયની સેવા કરવામાં વ્યસ્ત રહે છે-જ્યારે ગાય બેસે છે ત્યારે તેઓ બેસે છે, જ્યારે ગાય ઉભી થાય છે ત્યારે તેઓ પણ ઊભા થઈ જાય છે વગેરે રૂપમાં જેઓ ગોચ નકારી જન હોય છે તેઓ ગવતિક કહેવાય છે. ગૃહસ્થ ધર્મજ ખરેખર ઉત્તમ ધર્મ છે આમ ચોક્કસ પણે માનીને તેમાં દત્ત ચિત્ત રહે છે તેઓ ગૃહિધર્મચિતક છે. જેમકે –ગૃહસ્થાશ્રમ જે ધર્મ થયેલ નથી અને આગળ ભવિષ્યમાં થવાની સંભાવના પણ નથી. જેઓ શૂરવીર માણસ હોય છે તેઓ જ આ ધર્મનું પાલન કરે છે. પાખંડ ધર્મને પાલન કરનારા માણસો શૂરવીરે નથી પણ તેઓ તે નપુંસક છે. ગૃહસ્થીઓની આ જાતની માન્યતા હોય છે. અવિરુદ્ધ શબ્દનો અર્થ ક્રિયાવાદી છે. કેમ કે એ કઈ પણ માણસથી વિરુદ્ધ આચરણ કરતા નથી તેઓ બધાની સાથે સરખી રીતે વિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરે છે. વિરુદ્ધ શબ્દને અર્થ અક્રિયાવાદી છે. અક્રિયાવાદી લેકે પરલોક જેવી વસ્તુમાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ কাবাঘমকথা मूलम्-तएणं तेसिं कोडंबिय पुरिसाणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म चंपानयरी वत्थव्वा बहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति तएणं से धण्णे सत्थवाहे तेति चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयइ जाव पत्थय णं दलाइ दलइत्ता एवं क्यासीगच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! चंपाए नयरीए बहिया अग्गुजाणंसि मम पडिवालेमाणा चिट्ठह, तएणं ते चरगा य जाव गिहत्था य धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा जाव चिटुंति, तएणं धण्णे सत्थवाहे सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तंसि विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता मित्तनाइ० आमंतई आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ भोयावित्ता आपुच्छइ आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता चरगा य जाव गिहत्था य सधिं घेत्तूण णाइवि. प्पइटेहिं अद्धाणेहिं वसमाणे२ सुहेहिं वसहिं पायरासेहिं अंगं लोक नहीं मानते हैं । वृद्धश्रावक-ब्राह्मण-अर्थ का वाचक है । क्यों कि ये पहिले भरत चक्रवर्ती के समय में श्रावक थे-पश्चात् ब्राह्मण बन गये इसलिये "वृद्धकालिको यः श्रावकः " इस व्युत्पत्ति के अनुसार वृद्धश्रावक शब्द ब्राह्मण अर्थ का वाची बन जाता है । वाकी अवशिष्ट शब्दों का अर्थ स्पष्ट है । सू० २ ॥ વિશ્વાસ કરતા જ નથી. વૃદ્ધ શ્રાવક-બ્રાહ્મણ અને સ્પષ્ટ કરે છે કેમ કે એ પહેલાં ભરત ચક્રવર્તીના વખતે શ્રાવક હતા ત્યાર પછી એઓ બ્રાહ્મણ થઈ 14 मेरा भाटे 'वृद्ध कालिको यः श्रावकः सः वृद्ध श्रावकः । २॥ व्युत्पत्ति મુજબ વૃદ્ધ શ્રાવક શબ્દ બ્રાહ્મણ અર્થને વાચક થઈ જાય છે. બીજા શેષ शहाना म तो २५ ४ छ. ॥ सूत्र " २" ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम ११६ जणवयं मज्झं मझेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छइ उवागरिछत्ता सगडीसागडं मोयावेइ मोयावित्ता सत्थणिवेसं करेइ करित्ता कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-तुभेणं देवाणुप्पिया! मम सत्थनिवेसंसि महया महया सदेणं उग्रोसेमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमासे आगमियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे गंदिफला नामं रुक्खा पन्नत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति मणुण्णा वन्नेणं४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया ! तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा कंद. तय० पत्त० पुप्फ० फल० बोयाणि वा हरियाणि वा आहारेड छायाए वा वीसमइ तरुणं आवाए भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा२ अकाले चेव जीवियाओ वक्रोवति, तं माणं देवाणुप्पिया ! केइ तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ, मा णं सेऽवि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजिस्सइ, तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणिय जाव हरियाणि य आहारेह छायासु वीसमहत्ति घोसणं घोसेह जाव पच्चप्पिणंति, तएणं से धण्णे सत्थवाहे सगडीसागडं जोएइ२ जेणेव नंदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं अदूरसामंते सत्थणिवेसं करेइ करिता दोच्चपि तच्चपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेद सहावित्ता श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নানানথাম एवं वयासो-तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! मम सस्थानिवसति महया महया सदेणं उग्रोसेमाणा२ एवं वयह-एएणं देवाणुप्पिया! ते गंदिफला रुक्खा किण्हा जाव मणुन्ना छायाए तं जो गं देवाणुप्पिया! एएसिं गंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद० पुप्फ तय० पत्त० फल० जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ, तं माणं तुब्भे जाव दूरे दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा णं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्सइ, अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमहत्तिकट्ठ घोसणं जाव पच्चप्पिणंति, तस्थ णे अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सस्थवाहस्स एयमद्रं सदहंति पत्तियंत्ति रोयंति एयमह सदहमाणा३ तेसिं नंदिफलाणं० दूरं दूरेण परिहरमाणार अन्नसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति तेसिं णं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणार मुहरूवत्ताए भुज्जोर परिणमंति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथोनिग्गंथी वा जावपंचसु कामगुणेसु नो सन्जेइ नो रज्जेइ से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं अच्चणिज्जे५ परलोए नो आमच्छइ जाव वीइवइस्तइ, जहा य ते पुरिसा तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्थवाहस्त एयमद्वं नो सद्दहति३ धण्णस्स एयमटुं असदहमाणा३ जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि य जाव वीसमंति तेसिंणं आवाए भदए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा जाव चवरोति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निम्गंथो वा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् ११३ निग्गंथी वा जाव पव्वइए पंचसु कामगुणेसु सज्जेइ सज्जित्ता जाव अणुपरियटिस्सइ जहा बा ते पुरिसा ॥ सू० ३ ॥ ___टीका-'तएणं तेसिं' इत्यादि । ततः खलु तेषां कौटुम्बिकपुरषाणामन्तिके एतमर्थ पूर्वोक्तमहिच्छत्रानगरीगमनार्थघोषणारूपं भावं श्रुत्वा कर्ण विषयोकृत्य, निशम्य-हृयवधार्य चम्पानगरी वास्तव्या अहिच्छत्रानगरीगन्तुकामा बहवश्वरकाश्च यावद् गृहस्थाश्च यत्रैव धन्यः सार्थवाह-स्तत्रैवोपागच्छन्ति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहस्तेषां चरकाणां च यावद् गृहस्थानां च मध्ये अच्छत्रकायछत्रं ददाति यावत् पथ्यदनं-शम्बलं ददाति, एवमवादीत-कथयति गच्छत खल सूयं हे देवानुप्रियाः ! चम्पाया नगर्या बहिः ' अगुज्जाणंसि' अग्योद्यामे मां 'पडियालेमाणा' प्रतिपालयन्तः प्रतीक्षमाणास्तिष्ठत । ततः खलु ते चरकाच -तएणं तेसि इत्यादिःटीकार्थ-(तएण) इसके बाद (तेसि कोडुबियपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म चंपानगरी वत्थव्वा वहवे चरगाय जाव गिहस्थाय जेणेब धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छंति) उन कौटुम्बिक पुरुषों के मुख से इस घोषणारूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारणकर चंपा नगरी निवासी अनेक चरक से लेकर गृहस्थ पर्यंत मनुष्य जहां धन्य सार्थवाहक था वहां आये (तएणं से धपणे सत्यवाहे तेसिं चरगाण य जाव गिहत्थाण अच्छत्सगस्स छत्तं दलइ जाव पत्थयणं दलाइ दलइत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया । चंपाए नयरीए बाहिया अ. ग्गुज्जाणंसि ममं पडिवाले माणा चिट्टेह ) इसके बाद धम्य सार्थवाह 'तएणं तेसिं ' इत्यादि । ___ -( तएणं ) त्यार पछी ( तेसि कोथुविय पुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म चंपानगरी वत्थव्या वहवे चरगाय नाव गिहत्था य जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति ) તે કૌટુંબિક પુરુષના મુખથી આ ઘોષણા રૂપ અર્થને સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ચંપા નગરીને ઘણુ ચરકથી માંડીને ગૃહસ્થ સુધીના બધા માણસો જ્યાં ધન્ય સાર્થવાહ હતા ત્યાં આવ્યા. ( तएणं से धण्णे सत्यवाहे तेसिं चरगाण य जाव गिहत्थाण अच्छत्तगस्स छत्त दलयइ, जाव पत्थयणं दलाइ, दलइत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाशुप्पिया! चंपाए नयरीए वाहिया अगुजाणंसिं मम पडिवालेमाणा चिढेह ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे चरकादयो यावद् गृहस्था धन्येन सार्थवाहेन-एवमुक्ताः सन्तः 'जाव' यावत्धन्यं सार्थवाहं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः शोभने तिथिकरणनक्ष=शुभदिवसे विपुलमशनादिकं चतुर्विधाहारम् उपस्कारयति-निष्पादयति उपस्कार्य मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनान् आमन्त्रयति, भोजनं भोजयति-कारने उन चरक आदि से लेकर गृहस्थ पर्यन्त के मनुष्यों में जिसके पास छत्ता आदि नहीं था उसे छत्ता दिया यावत् जिस के पास कलेवा नहीं था उसको कलेवा-मार्ग भोजन-दिया। बाद में उसने उन सबसे कहा हे देवानुप्रियो ! तुम यहां से चलो और मुख्य उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे रहो-(तएणं ते चरगाय जाव गिहत्था य धपणेणं सत्य वाहेणं एवं वुत्ता समाणा जाव चिटुंति, तएणं धण्णे सत्थवाहे सोहणंसि त्तिहिकरणनक्खत्तंसि विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइ० आमंतेह, आमंत्तित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपु छह, आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ, जोयवित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ ) इस प्रकार धन्यसार्थवाह के द्वारा कहे गये वे चरकादि गृहस्थ पर्यन्त समस्तजन वहां से चलकर मुख्य उद्यान में गये-और धन्यसार्थवाह की प्रतीक्षा करते हुए वहां ठहर गये । धन्यसार्थवाह ने शुभ तिथि, करण, एवं नक्षत्र में विपुल मात्रा में अशन आदि रूप चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करवाया। जब आहार निष्पन्न हो ત્યાર પછી ધન્ય સાર્થવાહે તેઓ ચરક વગેરેથી માંડીને ગૃહસ્થ સુધીના બધા માણસોમાંથી જેની પાસે છત્રી વગેરે ન હતી તેને છત્રી વગેરે અને જેની પાસે માર્ગ માટેનું ભેજન ન હતું તેને ભેજન આપ્યું. ત્યાર બાદ તેણે બધા ને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અહીંથી મુખ્ય ઉદ્યાનમાં જાઓ અને ત્યાં મારી પ્રતીક્ષા કરે. (तएणं ते चरगाय जाव गिहत्थाय धण्णेणं सत्थवाहे णं एवं वुत्ता समाणा जाव चिट्ठति, तएणं धण्णे सत्थवाहे सोहणंसि त्तिहिकरणनक्खत्तं सि विउलं असणं ४ उवक्खडवेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ पामतेइ, आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसग्गडं जोयावेइ, जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ) આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા ચરક ગૃહસ્થ વગેરે બધા માણસે ત્યાંથી મુખ્ય ઉદ્યાનમાં ગયા અને ધન્ય સાર્થવાહની રાહ જોતા. તેઓ ત્યાં જ રોકાયા. ધન્ય સાર્થવાહે શુભ તિથિ, કરણ, અને સારા નક્ષત્રમાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે રૂ૫ ચારે જાતના આહાર તૈયાર કરાવ્યા. જ્યારે श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १५ मन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् ११५ यति, भोजयित्वा आपुच्छइ ' आपृच्छति-विदेशगमनार्थमाज्ञां प्रार्थयति, आपु. पछच आज्ञा प्राप्य शकटीशाकटं योजयति, योजयित्वा चम्पा नगरीतो निर्ग: च्छति-निस्सरति, निर्गत्य चरकान् यावत् गृहस्थांश्च सार्द्ध गृहीत्वा 'नाइविप्पमिटेहि' नातिविप्रकृष्टेषु नातिदुरेषु यथोचितेषु' अद्धाणेहि' अध्वसु-मार्गेषु 'वसमाणे २' बसन्-वसन स्थाने स्थाने निवासं कुर्वन् 'मुहेहिं ' शुभैः प्रशस्तैः · वसहिपायरासेहिं ' वसतिपातराशैः निवासस्थाने प्रातःकालीनलघुभोजनैः सह अङ्गजनपदस्य अङ्गदेशस्य मध्य-मन्येन यौव 'देसग्गं ' देशाग्य अङ्गदेशसीमा वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शकटीशाक्टं मोचयति, मोचयित्वा 'सस्थनिवेसं' सार्थनिवेशं करोति, कृत्वा कौटुम्विकपुरुषान् शब्दयति आढयति शब्दयित्वा आहूय एवमवादीत्-" हे देवानुपियाः ! यूयं खलु मम सार्थनिवेशे महता-महता शब्देन उच्चस्वरेण उद्घोषयन्तःसन्तः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदत-कथयतचुका-तष उसने अपने मित्र, ज्ञाति आदि परिजनोंको आमंत्रित किया। आमंत्रित करके फिर उन सबको उसने उस चतुर्विध आहारको भोजन कराया भोजन कराके फिर उन सबसे परदेश गमन करने की उसने आज्ञा मांगी । आज्ञाप्राप्त करके उसने गाडी और गाड़ों को जुतवाया जुतवा कर फिर वह चंपा नगरी से बाहिर निकला। चरकादि गृहस्थ पर्यन्त समस्त जन को अपने साथ में ले लिया-( निग्गच्छित्ता चरगाय जाव गिहत्थाय सद्धिं घेतूण णाइविप्पगिटेहि अद्धाणेणिं वसमाणे२ सुहेहिं वसहिपायरासेहिं अंगं जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देसर्ग तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मगडीसागडं मोयावेइ मोयावित्ता सस्थणिवेसं करेइ करित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दवित्ता एवं वयासी - तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! मम सनिवेसंसि मया २ આહાર તૈયાર થઈ ગયા ત્યારે તેણે પોતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનોને આમંત્રિત કર્યા. આમત્રિત કરીને તેણે બધાને ચારે જાતના આહારે જમાડયા. ત્યાર પછી તેણે સૌની પાસેથી પરદેશ જવાની આજ્ઞા માગી આમ તેણે બધાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને ગાડી તેમજ ગાડાંઓ જોતરાવ્યાં અને ત્યાર પછી તે ચંપા નગરી થી બહાર નીકળે. તેણે ઉદ્યાનમાં રાહ જોનારા બધા ચરક ગૃહસ્થ વગેરે માણસને પણ સાથે લઈ લીધા હતા. (निग्गच्छित्ता चरगाय जाव गिहत्था य सद्धिं घेत्तण णाइविप्पगिट्रेडिं अद्धाणेहि वसमाणे २ सुहेहिं वसहिपायरासेहिं अंगं जणवयं मज्झं मोणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोयावेइ, मोयावित्ता सत्यणिवेसं करेइ, करित्ता कौड बियपुरिसे सद्दावेइ, सदाविना શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे " एवं खलु हे देवानुप्रिया !' इमीसे ' अस्या: ' अगामियाए ' = ग्रामरहितायाः छिन्नवायाए ' छिन्नपातायाः छिन्नः आपातो = जनसञ्चारो यत्र सा, तस्याः जनसञ्चाररहितायाः ' दीहमद्वाए ' दीर्घाध्वायाः दीर्घः = बहुकालगम्यः अध्वा= मार्गों यत्र सा, तस्याः - चिरकाललङ्घनीयायाः, एतादृश्या अटव्याः बहुमध्यदेशभागे = अतिमध्यभागे, ' एत्थ णं ' अत्र खलु बहवो नन्दिफलानामवृक्षाः प्रज्ञप्ताःलोकैः कथिता । कीदृशास्ते ? इत्याह-' किव्हा ' इत्यादि = कृष्णाः = कृष्णवर्णाः, कृष्णावभासाः = अतिनीलत्वेन कृष्णच्छटासम्पन्नाः यावत् - नीलादिवर्णयुक्ताः, सणं उग्धोसेमाणार एवं वयह एवं खलु देवाणुपिया | हमीसे अगामियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे मंदिफलानामं रुक्खा पत्ता किव्हा जाव पत्तिया, पुष्किया, फलिया हरियगरेरि जमाणा सिरीए अईवर उवसोभेमाणा चिट्ठति ) निकल कर नाति विप्रकृष्ट-यथोचित मार्गों में ठहरता २ और वहां प्रातः कालीन कलेवा करता हुआ वह जहां अंगदेश की सीमा थी वहां पर आया। वहां आकर के उसने अपने शकटी शकटों को ढील दिया और ढील करके फिर अपने सार्थ को ठहरा दिया। ठहरा देने के बाद फिर उसने अपने कौटुम्बिक पुरूषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियों । तुम लोग हमारे सार्थनिवेश में बड़े जोर २ से घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि हे देवानुप्रियो । सुनो जन संचार रहित दीर्घ मार्ग वाली इस आगे की अटवी के मध्यभाग में लोग कहते हैं कि अनेक नंदीफल नाम के एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुपिया ! मम सत्य निवेसंसि महया २ सणं अधोसेमाणा २ एवं वयह एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमीसे अगामियाए छिन्नावायाए दीमद्वार, अडवीए बहुमज्ज्ञदेसभाए बहवे मंदिफलानामं रुक्खा पन्नता किव्हा जान पत्तिया, पुफिया फलिया, हरियगरेरिज्जमाणा सिरीप अव २ उबसोभेमाणा चिद्वंति ) - ત્યાંથી રવાના થઈને તે મામાં યથાસ્થાને નજીક નજીકના સ્થળે ઉપર વિશ્રામ કરતા અને ત્યાં સવાર થતાં જલપાન ( નાસ્તા ) વગેરે કરતા તે અંગદેશની હદ ઉપર પહેચ્યા. ત્યાં પહેાંચીને તેણે ગાડી અને ગાડાંઓને છોડી મૂક્યા અને ત્યાં પેાતાના સાને રોકયા. રાવ્યા પછી તેણે પેાતાના કૌટુબિક પુરુષાને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હ વાનુપ્રિયે ! અમારા સાથ સ'નિવેશમાં તમે લેકે મેટેથી આ પ્રમાણેની થાષણા કરતાંકા કે હે દેવાનુપ્રિયા ! સાંભળેા ! હવે આગળ આવનાર લાંખા માર્ગીવાળા નિર્જન વનમાં લેાકેા એમ કહે છે કે તેમાં ઘણાં ન નિષ્ફળ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणो टीका अ० १५ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् १९७ तथा-' पत्तिया ' पत्रिता: पत्रबहुलाः, · पुफिया ' पुष्पिता:=पुष्पबहुला, 'फलिया' फलिताः फलबहुलाः 'हरियगरेरिज्जमाणा' हरितकरारज्यमानाः हरितकेन-हरितवर्णेन भृशं शीभमानाः 'सिरीए' श्रिया हरितपल्लवादिशोभया अतीवातीव उवशोभमानास्तिष्ठन्ति वर्तन्ते । पुन कीदृशास्ते ! इत्याह-मनोज्ञाःवर्णेन, 'जाव' यावत्-गन्धेन, रसेन स्पर्शन, मनोज्ञा छायया, रम्यवर्णादिना रम्य छायया च युक्ता इत्यर्थः, 'त' तत्-तस्मात् नन्दिवृक्षाणां सौन्दर्यादिकारणवशात् 'जोणं' यः खलु हे देवानुप्रियाः ! तेषां नन्दिफलानां नन्दिफलाभिधानां वृक्षाणां मूलानि वा कन्दानि वा स्वचो वा, पत्राणि वा, पुष्पाणि वा, फलानि वा, वीजानि वा, हरितानि वा 'आहारेइ ' आहारयति, तेषां छायायो वा वीसमइ' विश्राम्यति तस्य खलु आवाए' आपाते-पूर्व भक्षणादि समये 'भदए' वृक्ष हैं। ये वृक्ष कृष्ण वर्णवाले हैं और देखने पर भी अति हरित होने के कारण कृष्ण ही प्रतीत होते हैं। पत्र, पुष्प एवं फलों से वे युक्त हैं। वे हरित वर्णसे बडे सुहावने लगते हैं। उनके पल्लव आदि सब हरे २ हैं। इससे उन की शोभा बडी नीराली बनी हुई हैं । (मणुण्णा पन्नेणं ४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया! तेखि नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलोणिवा कंद तय० पत्त० पुप्फ० फल० बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा बीसमइ, तस्स णं आवाए महर भवह, तओ पच्छा परिणममाणा २ आकाले चेव जोवियाओ व वरो चेति ) वर्ण, रस, गंध एवं स्पर्श से वे बडे मनोज्ञ हैं । छाया भी उनकी षडी मनोज्ञ है। इस लिये हे देवानुप्रियो ! जो कोई इन की सुन्दरता आदि कारण के वशसे आकृष्ट होकर इन नदिफल वृक्षों के मूलों को केटों को छालों को, पत्रों को, फलों को बीजों को अथवा हरित अंकुरों નામે વૃક્ષો છે. તે વૃક્ષો કૃષ્ણ વર્ણવાળાં છે અને ખૂબજ લીલાં હોવાથી કૃષ્ણ વર્ણન જેવા જ લાગે છે. પત્ર, પુષ્પ અને ફળેથી તેઓ સમૃદ્ધ છે. લીલાં છમ હોવાથી તેઓ અત્યંત સુંદર લાગે છે. તેમનાં પત્ર વગેરે બધાં લીલાં છે. તેથી તેમની શોભા એકદમ અનેખી છે. __(मणुण्णा बन्नेणं ४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए तं जो णं देवाण. पिया ! तेसि नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद तय० पत्त० पुप्फ फल बीयाणि, वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा बीसमइ तस्सणं आवाए मरण भवइ, तो पच्छा परिणममाणा २ अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेंति) વર્ણ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શથી તેઓ ખૂબજ મને જ્ઞ છે. છાંયડે પણ તેઓને અત્યંત મને છે એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! કોઈ પણ માણસ તેમની સુંદરતા વગેરે કારણોથી આકર્ષાઈને તે નંદિફળ વૃક્ષોના મૂળને, કદાને. છાલને પાંદડાંઓને, અને, બિયાંઓને અથવા તે લીલી કુંપળોને ખાશે કે श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे भद्रक-सुखं भवति, ततः पश्चात् स्तोककालानन्तरं 'परिणममाणा२ ' परिणमन्तः २ रसादिरूपेण परिणमनं प्राप्नुवन्तस्ते मूलकन्दादयस्तं पुरुषम् अकाले एव जीविताद् व्यपरोपयन्ति-माणनाशं कुर्वन्तीत्यर्थः, 'तं' तत्-तस्मात्कारणात् मा खलु हे देवानुपियाः ! 'केइ' कोऽपि तेषां नन्दिफलवृक्षाणां मूलानि वा यावत्कन्दादीनि आहारयत, तेषां छायायां वा विश्राम्यत तेषां फलानि मा आहारयत, छायायांच मा विश्राम्यतु, इतिभावः, सोऽपि च=यो नन्दिफलक्षाणां मूलादीनिनाहारयिष्यति, नापि च तच्छायायां विश्राभिष्यति सः न खलु अकाल एव जीविताद् व्यपरापिष्यते, स न मरिष्यतीत्यर्थः । यूयं खलु हे देवानुपियाः ! को, खावेगा अथवा उनकी छाया में विश्राम करेगा उसे उससमय तो बडा अनन्द आवेगा-परन्तु उसके बाद में थोडे ही समय में जैसे २ रसादिरूप से उसका परिणमन होगा वैसे२ वे भक्षित मूलादिकंद इस पुरुष को अकालमें ही जीवन से रहित कर देंगे। (तं माणं देवाणुप्पिया केइ तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ, माणं से वि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजिस्सइ, तुम्भेणं देवाणुप्पिया! अन्ने सिं रुक्खाणं मूलानि जाव हरियाणिय आहारेह, छायालु वीसमह त्ति घोसणं घोसेह, जाव पच्चप्पिणंति ) इसलिये हे देवानुप्रियो ! तुम लोग में से कोई भी व्यक्ति उन नंदिफल वृक्षों के मूल आदिकों को न खावे और न कोई उन की छाया में ही विश्राम करे। जो उन नंदिफल वृक्षों के मूल आदिकों को नहीं खावेगा और न उनकी छाया में विश्राम ही करेगा वह अकाल में अपने जीवन से रहित नहीं बनेगा। वहां इनसे તેમના છાંયડામાં વિસામો લેશે ત્યારે તો તેમને ખૂબ જ આનદ પ્રાપ્ત થશે પણ ત્યાર પછી થોડા જ સમયમાં જેમ જેમ તેમનું રસાદિરૂપ પરિણમન થશે તેમ તેમ તેઓ ખાધેલા મૂળ કંદ વગેરે તે માણસને અકાળે જ નિર્જીવ બનાવી દેશે. (तं माणं देवाणुप्पिया ! केइ तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वावीसमउ, माणं से वि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जिस्सइ, तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! अन्नेसिं रुक्खाणं मूलानि जाव हरियाणि य आहारेह, छायामु वीसमह तिघोसणं घोसेह जाव पच्चप्पिणंति ) એથી હે દેવાનુપ્રિયા ! તમારામાંથી કઈ પણ માણસ તે ન દફળ વૃક્ષોના અને ન ખાય અને તેની છાયામાં પણ વિસામે લેવા બેસે નહિ. જે માણસ નહિકળ વૃક્ષોના મૂળ વગેરેનું ભક્ષણ કરશે નહિ તેમજ તેમના છાંયડામાં પણ વિસામે લેશે નહિ તેનું અકાળે મરણ થશે નહિ. તમે લે કે તે વનમાં નરદિફળ વૃક્ષોને બાદ કરતાં બીજા જે વૃક્ષો ય હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો તેમના મૂળને તેમજ લીલી કૂંપળે વગેરેનું ભક્ષણ કરજો અને તેમની જ છાયામાં વિસામે લેશે. આ પ્રમાણે તમે ઘોષણા કરે. ત્યાર પછી તે લેક એ આજ્ઞા પ્રમાણે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् ११९ अन्येषाम्=तद्भिन्नानां वृक्षाणां मूल नि च यावत् हरितानि च 'आहारेत्थ 'आहारयत, छायासु विश्राम्यत च " इति एतद्रूषां घोषणां घोषयत कुरुत । 'जाव' यावत्-ते च तथैव कृत्वा तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति तस्मै निवेदयन्तीत्यर्थः। ततः खलु धन्यः सार्थवाहः शकटोशाकटं योजयति, योजयित्वा यत्रैव नन्दिफलाक्षास्तोपागच्छति, उपागत्य तेषां नन्दिफलानाम् अदूरसामन्ते सार्थनिवेशं करोति, कृत्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीद-- भिन्न जो और दूसरे वृक्ष हों हे देवानुप्रियों ! तुमलोग उन्हीं के मूलों को यावत् हरिताकुरों को खाना उनको ही छाया में विश्राम करना। इस प्रकार की तुमलोग घोषणा करो। यावत् उन्होने वैसा ही किया और इस की खबर धन्य सार्थवाह को भी दे दी। (नएणं से घण्णे सत्य वाहे सगडीसगडं जोएइ २ जेणेव नदिफलरुवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसि नंदिफलाणं अदूरसामते सत्थणिवेसे करेइ,करित्ता दोच्चंपि तच्चपि कोडंचियपुरिसे मद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी तुम्भे देवा. णुप्पिया! मम सत्थनिवेसंसि महयार सद्देणं उग्घोसेमाणार एवं वयह -एएणं देवणुप्पिया! ते णंदिफलामक्खा, किण्हा जाच मणुना छायाए) इस के बद उस धन्य सार्थवाहने अपनी गाड़ी और गाड़ोंको जुतवाया और जुनवाकर जहां वे नंदि फलवृक्ष थे वहां गया। वहां जाकर उसने उन नंदिफल वृक्षों के पास अपने सार्थ को ठहरा दिया-अर्थात् अपना पडाव डाला ठहरने के बाद फिर उसने कौटुम्बिक पुरुषों को दोषार और જ ઘેષણ કરીને ધન્ય સાર્થવાહને ઘેષણાનું કામ થઈ જવાની ખબર આપી. (तएणं से धण्णे सत्थवाहे सगडी सागडं जोएइ २ जेणेव नंदिफलरुक्खा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं असामंते सत्यणिविसे करे करिता दोच्चपि तच्चंपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ. सदाविती एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया! मम सत्थनिवेसंसि महया २ सद्देणं उग्धोसेमाणा २ एवं वयहएएणं देवाणुप्पिया ! ते णंदिफला रुक्खा, किण्हा जाव मणुन्ना छायाए ) ત્યાર પછી તે ધન્ય સાર્થવાહે ગાડીઓ અને ગાડાંઓને જોતરાવ્યાં અને જોતરાવીને તેઓ જે તરફ નદિફળ વૃક્ષો હતાં તે તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે નંદિફળ વૃક્ષોની પાસે પિતાના સાર્થને રે અર્થાત્ વિસામાં માટે ત્યાંજ પડાવ નાખે પડાવ નાખ્યા બાદ તેણે બે ત્રણ વખત કૌટુંબિક પુરૂને બેલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यूयं खलु हे देवानुपियाः ! मम सार्थनिवेशे महता-महता शब्देन उद्घोषयन्तार एवं वदत-" एते खलु हे देवानुप्रियाः ! ते इमो नन्दिफलारक्षाः यदर्थ, पूर्वमु पदिष्टम् कृष्णा यावत्-मनोज्ञा छायया, तद् यो खलु हे देवानुपियाः ! एतेषा नन्दिफलानां वृक्षाणां मूलानि वा, कन्दानि वा पुष्पाणि वा, त्वचो वा, पत्राणि वा, फलानि वा, यावत्-तानि मूलकन्दादीनि तं जीविताद् व्यपरोपयन्ति, तत् मा खलु यूयं जाव' यावत्-तेषां मूलकन्दादीनि मा आहारयत, मा च तेषां छायासु विश्राम्यत किन्तु तान् दूर-दरेण-दूरत एव परिहरमाणा' परिहरन्तः वर्जयन्तः तीन बार बुलाया-बुलाकर उसने ऐसा कहा-हे देवानुप्रिया! तुम मेरे सार्थ निवेश में जाकर जोर २ से ऐसी घोषणा करो-कि हे देवानुप्रियो जिन नंदिफल वृक्षों के विषय में पहिले सूचना दी गई है-वे येही कृष्ण यावत छाया से मनोज्ञ नंदि फल वृक्ष हैं। तं जो ण देवाणुप्पिया ! एएसि दिफलाणं रुर खाणं मूलाणिवा कंद० पुप्फ० तय० पत्त० फल जाब अकाले चेव जीचियाओ ववरोवेइ, तं माण तुम्भे जाव दूरे रेण परिहरमाणा वीसमह. माण अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्मह, अ. न्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव बीसमहत्ति कटु घोमण जाव पच्च. पिणति ) इस लिये हे देवानुप्रियो ! तुम लोग में से कोई भी व्यक्ति इन नंदिफलवृक्षों के मूलोंको, कंदों को, पुष्पोंको, छालोंको, फलोंको नही खावे और न वह इनको छायामें विश्राम ही करे-नहीतो वह अकालमें ही कालकवलित अर्थात् मर जावेगा हो जावेगा। इस लिये इन्हें बहुत दर छोडकर दूसरी जगह तुम लोग विश्राम करो इससे जीवन से रहित મારા સાથે નિવેશમાં જઈને મેટેથી તમે આ પ્રમાણે ઘોષણા કરે કે હે દેવાનપ્રિયે ! જે નંદિફળ વૃક્ષોના વિષે પહેલાં તમને જાણ કરવામાં આવી હતી. તે એજ કૃષ્ણ તેમજ છાયાથી મનેસ લાગતાં નદિફળ વૃક્ષો છે. (तं जो णं देवाणुप्पिया ! एएसिं णंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद० पुप्फ० तय० पत्त० फल जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ तं माणं तब्भे जाव दरं रेणं परिहरमाणा वीसमह,माणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्सइ, अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव वौसमहत्ति कटूटु घोसणं जाव पच्चप्पिणंति) એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે! તમારામાંથી કોઈ પણ માણસ નરદિફળ વૃક્ષોનાં મૂળને, કંદને, પુછપને, છાલને, ફળને ખાય નહિ અને તેમની છાયામાં પણ વિસામો લે નહિ, નહિતર તે અકાળે જ મૃત્યુને ભેટશે. એટલા માટે એમનાથી ખૂબ જ દૂર રહીને વિસામો લેશે તેથી તમારા જીવનને કંઈ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १२१ सन्तोऽन्यत्र 'वीसमइ ' विश्राम्यत-विश्राम कुरुत तेन न खलु यूयं जीविताद् व्यपरोपिष्यध्वे, तथा-अन्येषां वृक्षाणां मूलानि च यावत्-कन्दादीनि आहारयत, छायासु विश्राम्यत" इति कृत्वा घोषणां घोषयत, यावत्-ते घोषणां घोषयित्वाधन्यसार्थवाहाय तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति । तत्र स्खलु साथै अप्येके पुरुषा धन्यस्य सार्थवाहस्य एतमर्थम् एतदुपदेशं श्रद्दधति, प्रतियन्ति-रोचयन्ति, एतमर्थं श्रद्दधाना:श्रद्धाविषयिकुर्वाणाः प्रतियन्तः रोचयन्तः तेषां नन्दिफलवृक्षाणां मूलादीनि छायां च दूर-दूरेण-दरतएव परिहरन्तः परिवर्जयन्तोऽन्येषां वृक्षाणां मूलानि च यावत्कन्दादीनि आहारयन्ति, अन्यवृक्षाणां छायासु च विश्राम्यन्ति, तेषां खलु नहीं होंओगे । तथा इनसे अतिरिक्त और जो दूसरे वृक्ष हैं उनके मूलों को यावत् कन्दादिकों को खाओ और उनकी छाया में विश्राम करो। इस प्रकार की घोषणा कर दो-उन्हों ने धन्य सार्थवाह की आज्ञानुसार पैसा ही किया और इसकी उसे खयर भी दे दी। (तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्थवाहस्स एयम सद्दति, पत्तियति रोयंति, एयम8 सद्दहमाणाइ तेसिं नंदिफलाणं० दूर दूरेणं परिहरमाणा २ अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति ) वहां सार्थ में के कितनेक मनुष्यों ने धन्य सार्थवाहके इस सूचना रूप अर्थको स्वीकार कर लिया। उस पर श्रद्धा जमाई उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाया तथा उन्हें वह बात अच्छी तरह रुचि कर भी हुई । इसलिये इस बात पर श्रद्धा आदि संपन्न बने हुए उन लोगों ने उन नंदि फल वृक्षों के मूलादिकों को और उनकी छाया को बहुत दूर से छोड़कर अन्य वृक्षों के मूलादि પણ મુશ્કેલી નડશે નહિ. તેમજ આ વૃક્ષો સિવાયનાં બીજાં વૃક્ષો છે, તેમનાં મૂળ, કંદ વગેરે તમે ખાવ અને તેમના છાંયડામાં વિશ્રામ કરો. તેઓએ ધન્યસાર્થવાહની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘેષણ કરીને તેને ખબર આપી. (तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमट्ठ सदहंति, पत्तियंति, रोयंति, एयमलु सद्दहमाणाई तेसिं नंदिफलाणं. दूरं रेणं परिहरमाणा २ अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति) ત્યાં સાર્થમાં આવેલા કેટલાક માણસેએ ધન્યસાર્થવાહની સૂચના રૂપ આ વાતને સ્વીકારી લીધી અને તેને શ્રદ્ધાની અપેક્ષાએ પિતાના હદયમાં સ્થાન આપતાં બરોબર તેની ઉપર પ્રતીતિ કરી લીધી તે લેકેને તે વાત રૂચિકર પણ થઈ પડી. આ રીતે શ્રદ્ધાયુક્ત થયેલા તે લેકેએ તે નંદિફળ વૃક્ષોને મૂળ વગેરેથી અને તેમની છાયાથી ખૂબ જ દૂર રહીને બીજા વૃક્ષોના મૂળ તેમજ કંદ વગેરેને ખાધાં તથા તેમની છાયામાં વિસામો લીધે. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसले आपाते-पूर्वमाहारसमये नो भद्रकं भवति=विशिष्टस्वादादिलाभो न भवति किन्तु ततः पश्चाद-भक्षणविश्रामानन्तरं परिणम्यमानानि २ रसादिरूपेण परिणतानि मूलकन्दादीदि शुभरूपतया भद्रकतया भूयो भूयः परिणमन्ति । अथोपनयं दर्शयन् सुधर्मस्वामी माह-' एचामेवे ' त्यादिना । 'एवामेव ' एवमेव अजेनैव पूर्वोक्तप्रकारेण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ? योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा 'जाव' यावत्-आचार्योपाध्यायानामन्तिके मुण्डो भूत्वा प्रवजितस्तेषामुपदेशं श्रद्दधानः सन् पञ्चमु कामगुणेषु-शब्दादिविषयेषु 'नो सज्जेइ' नो कों को यावत् कंदों को खाया और उनकी छाया में विश्राम किया। (तेसि णं आवाए णो भद्दए भवइ, तो पच्छा परिणयमाणा २ सुहा रूवत्ताए भुज्जो २ परिणमंति, एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंधो चा निग्गंथी वा जाव पंचसु कामगुणेतु नो सज्जेह, नो रज्जेइ, से गं इहभवे चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगाइ, जाच वीईवयस्सइ, जहा वा ते पुरिसा) परन्तु इन पुरुषोंको उनके मूला दिकों के खाने के समय विशिष्ट स्वादादि को प्राप्तिरूप भद्रक का लाभ तो नहीं हुआ-किन्तु उसके बाद जब खाये हुए उन मूलादिकों का रसादि रूप से परिणमन हुआ तब उन्हें बार २ शुभ रूप परिणमन होने से आनन्द आया और जीवन सुरक्षित रहा-अब सुधर्मास्वामी इसका उपनय ( दृष्टान्त के अर्थ को प्रकृति में जोडना) दिखलाते हुए कहते हैं कि इसी तरह से हे आयुष्मन्त श्रमणो । जो हमारे निर्ग्रन्थ श्रमण एवं श्रमणियांजन हैं वे आचार्य उपाध्याय के पास मुंडित होकर दीक्षित हो जाते हैं और उनके उपदेश को श्रद्धा आदि का विषयभूत ( तेसिणं आवाए णो भदए भवइ, तो पच्छा परिणममाणा २ सुहरुकताए भुज्जो २ परिणं मंति, एवामेव समणाउसो जो अम्हनिग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव पंचसु कामगुणेसु नो सज्जेइ, नो रज्जेइ से णं इहभवे चेव बहूर्ण समणाणं४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छइ, जाव वीइवयस्सइ जहा वा ते पुरिसा) તે માણસને વૃક્ષોના મૂળ કંદ વગેરે ખાતી વખતે સવિશેષ સ્વાદ વગેરની અનુભૂતિ તે થઈ શકી નહિ પણ ખાધા પછી તે મૂળ કંદ રસ વગેરે રૂપમાં પરિણત થયાં ત્યારે તેમને સુખ મળ્યું અને સાથે સાથે તેમનાં જીવન પણ સુરક્ષિત રહ્યાં. સુધર્મા સ્વામી હવે એજ વાતને દૃષ્ટાન્તનાં રૂપમાં સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે કે તે આયુષ્મત શ્રમણ ! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ શમણીએ, આચાર્ય તેમજ ઉપાધ્યાયની પાસે મુંડિત થઈને શ્રદ્ધા વગેરેથી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d अनगारधर्मामृतवषिणी टोका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १२३ स्वजते-आसक्तो भवति, ‘नो रज्जेइ ' नो रज्यते नो अनुरक्तो भवति स खलु इह भवएव बहूनां श्रमणानां श्रमणीनां बहूनां साधूनां साध्वीनां मध्ये-अर्चनीयःमाननीयः सन् परलोके-भवान्तरे नो आगच्छति-जन्म न प्राप्नोति किन्तुयावत्-अस्मिन्नेव भवे चातुरन्तसंसारकान्तारं व्यतिब्रजिष्यति-उल्लङ्घयिष्यति, मोक्षं माप्स्यतीत्यर्थः 'जहा वा ते पुरिसा' यथा वाते पुरुषाः-यथा वा-येन प्रकारेण धन्यसार्थवाहोपदेशश्रद्धया ते नन्दिफलवृक्षमूलकन्दादि परिवर्जनेन तत्कथनानुसारसमाचरणशीलाः पुरुषाः सार्थपुरुषाः सुखपूर्वकमहिच्छत्रां नगरी माप्स्यन्ति तथेत्यर्थः । अथ श्रद्धा रहितान् वर्णयति-तत्थ णं' इत्यादि । तत्र खलु साथै अप्येके ये तेचित् पुरुषाः धन्यस्य सार्थवाहस्य एतमर्थ नन्दिफलभक्षणादि निषेधरूपं बनाते हुए पंच काम गुणों में-शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं बनते हैं अनुरक्त नहीं बनते हैं वे इस भवमें ही अनेक साधु और साध्वियों के बीचमें माननीय होते हुए परलोक में जन्म से रहित हो जाते हैंअर्थात् पुनः उन्हें जन्म धारण नहीं करना पड़ता है। कारण वे इसी भव में चतुर्गति रूप इस संसार कान्तार को पार करने वाले बन जाते हैं-उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जावेगा ऐसे वे तैयार हो जाते हैं। जिस प्रकार धन्य सार्थवाह के उपदेश पर श्रद्धा करने से ये सार्थ के कितनेक पुरुष नंदि वृक्षों के मूलकंदादिकों का परिहार-त्याग करते हुए और उसके कथनानुसार अपना आचरण बनाते हुए सकुशल अहिच्छत्रा नगरी को प्राप्त कर लेंगे ऐसे बन गये । अब जिन्होंने धन्य सार्थवाहके वचनों पर श्रद्धा नहीं की-उनको क्या दशा हुई इस बात का वर्णन सूत्रकार करते हैं-(तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयયુક્ત થઈને પાંચ કામ ગુણોમાં શબ્દાદિ વિષમાં-અનાસક્ત રહે છે એટલે કે અનુરક્ત થતા નથી, તેઓ આ ભવમાં જ ઘણા સાધુઓ તેમજ સાધ્વીઓની વચ્ચે સન્માનનીય થતાં પરલેકમાં જન્મરહિત થઈ જાય છે એટલે કે ફરી તેઓને જન્મ થતું નથી કેમકે તેઓ આ ભવમાં જ ચતુર્ગતિ રૂપ આ સંસાર કતારને પાર કરવા લાયક સામ મેળવી લે છે તેઓ મોક્ષ મેળવવા યોગ્ય થઈ જાય છે, જેમ ધન્યસાર્થવાહના ઉપદેશ ઉપર શ્રદ્ધા મૂકીને સાર્થના કેટલાક પુરૂષોએ નદિ વૃક્ષોના મૂળ કંદ વગેરેને ત્યજીને તેની સૂચના મુજબ આચરણ કરતાં અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચી શકે તેવા થઈ ગયા. હવે જે પુરૂએ ધન્યસાર્થવાહની વાત ઉપર શ્રદ્ધા મૂકી નહિ તેઓની શી હાલત થઈ તેનું વર્ણન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે (तत्थणं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयम नो सद्दहति ३ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र नो श्रद्दधति नो रोचयन्ति नो प्रतियति। ते धन्यस्य-एतमर्थम् अश्रद्दधाना अरोचयन्तः, अप्रतियन्त यौव नन्दिफला वृक्षास्तत्रौवोपागच्छन्ति, उपागत्य तेषां नन्दिफलानां मूलानि च यावत्-कन्दादीनि आहारयन्ति, तेषा छायासु च विश्राम्यन्ति तेषां खलु आपाते-पूर्व फलभक्षणादिसमये भद्रकं भवति-शुभस्वादादिलाभोभवति किन्तु ' तो पच्छा' ततः पश्चात्-फलभक्षणायनन्तरं परिणम्यमानाः रसादिरूपेण मटुं नो सद्दहंति ३ घण्णस्स एयमढे असहमाणा ३ जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छिंति उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि य जाव वीसमंति, तेसि णं आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणा जाव ववरोवेंति एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए पंचालु कामगुणेलु सज्जेइ, सजित्ता जाव अणुपरियहिस्सइ जहा वा ते पुरिसा) वहां पर कितनेक पुरुषों ने धन्यसार्थवाद के इस कथन को कि नंदिफल वृक्षों के कंदमूलादि नहीं खाना चाहिये और न उनकी छायामें ही विश्राम करना चाहिये श्रद्धाकी दृष्टि से नहीं देखा उस पर अपनी श्रद्धा नहीं जमाई, उसे अपनी रुचि का प्रतीति का विषय नहीं बनाया-वे पुरुष- धन्यसार्थवाह के इस कथन को अश्रद्वेय आदि मानकर जहां पर नंदिफल वृक्ष थे- वहां गये वहां जाकर उन्होंने उनके मूल कंदादि कों को खाया उनकी छाया में विश्राम किया उस समय उन्हें बड़ा आनन्द आया- स्वाद जन्य कोई अपूर्व सुख मिला -किन्तु जब उनका परिपाक काल आया जब वे खाये हुए मूलकन्दादि धण्णस्स एयमढे असदहमाणा ३ जेणेव ते णदिफला तेणेव उवागच्छति, उवा. गच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि य जाब वीसमति, तेसि णं आवाए भद्दए, भवइ, तो पच्छा परिणममाणा जाव ववरोति एवामेव समणाउसो । जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पब्बइए पंचसु कामगुणेसु सज्जेइ, सज्जित्ता जाव अणुपरियटिस्सइ, जहा वा ते पुरिसा ) ત્યાં કેટલાક માણસેએ ધન્યસાર્થવાહના નદિફળ વૃક્ષોના કંદમૂળ વગેરે ખાવા જોઈએ નહિ તેમજ તે વૃક્ષોની છાયામાં પણ વિસામે લે નહિ આ જાતના કથન પ્રત્યે શ્રદ્ધાવાન થયા નથી, તેના ઉપર વિશ્વાસ મૂક્યો નહિ અને પ્રતીતિપૂર્વક તેમાં પિતાની અભિરૂચી બતાવી નહિ. તે માણસે ધન્યસાથે વાહના કથન અશ્રદ્ધેય માનીને જ્યાં નંદિફળ વૃક્ષો હતાં ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તેમના મૂળ કંદ વગેરે ખાધાં અને તેમના છાંયડામાં વિસામે લીધો. તે સમયે તે તેમને ખૂબ જ આનંદ પ્રાપ્ત થયે, ફળના સ્વાદમાં અપૂર્વ સુખ મળ્યું, પણ જ્યારે તેઓની પાચન ક્રિયા થવા માંડી એટલે કે ખાધેલા મૂળમંદ વગેરે श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम १२५ परिणामं प्राप्नुवन्तः सन्तः कन्दादयः यावत् - तान् जीविताद् व्यपरोपयन्ति । 'एवमेव ' एवामेव = अनेनैव प्रकारेण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावत् प्रब्रजितः सन् पञ्चसु कामगुणेषु = शब्दादिकामभोगेषु स्वजते, रज्यते - कामभोगासक्तो भवति यावत् - स खलु इहभवे बहूनां श्रमण - श्रमणीनां बहूनां श्रावकश्राविकानां मध्ये हिलनीयो, निन्दनीयः, खिसनीयो भवति, परलोके च भवान्तरे चातुरन्त संसारकान्तारम् अनुपर्यटिष्यति चातुर्गतिकसंसार एव स्थास्यति न तु मोक्षं माप्स्यतीत्यर्थः । येन प्रकारेण ते धन्योपदेशमश्रद्दधानाः पुरुषाः = सार्थस्थिता जना नन्दिफलवृक्षमूलकन्दादिभक्षणेन तत्रैव म्रियन्ते नतुअहिच्छत्रा नगरीं प्राप्नुवन्तीति भावः ॥ ०३ || मूलम् - तणं से धण्णे सत्थवाहे सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता नयरी तेणेव उवागच्छइ उवारसादिरूप से पणिमने लगे-तब वे सब अपने जीवन से रहित हो गये - मर गये । इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणो । जो हमारा निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थी साध्वीजन यावत् प्रब्रजित होकर पंचकाम गुणों में पंचइन्द्रियों के शब्दादि विषयों में आसक्त बन जाता है-अनुरक्त हो जाता है, वह इस भवमें अनेक श्रमण श्रमणियों के बीच हीलनीय, निंदनीय एवं खिसहोता है एवं वह भवान्तर में भी इस चतुर्गति रूप संसार कान्तार में ही घूमता रहेगा-मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा। जिस प्रकार धन्य सार्थवाह के उपदेश पर श्रद्धा नहीं करने वाले सार्थ के ये कितनेक पुरुष नंदिफल वृक्षों के मूलादि के खाने से वहीं पर मर गये अहिच्छत्र नगरी नहीं जा सके | सू० ३ ॥ રસ વગેરે રૂપમાં પિરણત થવા લાગ્યા ત્યારે તે બધા નિર્જીવ થઈ ગયા, મૃત્યુ પામ્યા. આ પ્રમાણે જ હે આયુષ્મંત શ્રમણે ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુએ કે નિગ્રંથ સઘ્નિએ પ્રત્રજીત થઇને પાંચ કામ ગુણામાં અર્થાત્ પાંચ ઇન્દ્રિયાના શબ્દાદિ વિષયામાં આસક્ત થઇ પડે છે-એટલે કે અનુરક્ત થઈ જાય છે, તે આ ભવમાં ઘણા શ્રમણેા અને ઘણી શ્રમણીએની વચ્ચે હીલનીય, નિંદનીય, અને ખસનીય હોય છે અને બીજા ભવમાં પણુ આ ચતુČતિ રૂપ સંસાર–કાંતારમાં જ ભ્રમણ કરતા રહેશે. તેને મેક્ષ પ્રાપ્ત થશે નહિ. ધન્યસા વાહના ઉપદેશને શ્રદ્ધેય ન માનનારા કેટલાક માણસેા જેમ નિ ફળ વૃક્ષોના મૂળ વગેરે ખાઇને ત્યાંને ત્યાંજ મરણ પામ્યા, અ અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચી શકયા નહિ, તેમજ તેઓની પણ સ્થિતિ થાય છે. ! સૂ, ૩ !! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे गच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरीए बहिया अग्गुज्जाणे सत्थनिवेसं करेइ करिता सगडीसागडं मोयावेइ, तपणं से धण्णे सत्थवाहे महत्थं३ रायरिहं पाहुडं गेण्हइ गेण्हित्ता बहुहिं पुरिसेहिं सद्धि संपरिवुडे अहिच्छत्तं नयरिं मज्झं मज्झेणं अणुष्पविसइ अणुप्पविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वृद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं३ पाहुडं उवणेइ, तणं से कणगकेऊ, राया हट्टतुट्ट० घण्णस्स सत्यवाहस्स तं महत्थं३ जाव पडिच्छइ पडिच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता उस्सुक्कं वियरइ २ पडिविसज्जेइ । तएण से धण्णे सत्थवाहे भंडविणिमयं करेइ करिता पडि - भंड गेण्हइ गेण्हित्ता सुहं सुहेणं जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मित्तनाइ० अभिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणे विहरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं धणे सत्थवाहे धम्मे सोच्चा जेट्टपुत्ते कुटुंबे ठावेत्ता पठवइए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई वहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता मासियाए सं० अन्नतरेसु देवलोएस देवताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिबेमि ॥ सू० ४ ॥ || पन्नरसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नदिफलस्वरूप निरूपणम १२७ टीका- ' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः शकटीशाकट जयति, योजयित्वा यत्रैबाहिच्छत्रा नगरी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य अहिच्छ प्रायां नगर्या बहिः अय्योद्याने = मुख्योद्याने सार्थनिवेशं करोति. कृत्वा शकटीशाकटं मोचयति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः ' महत्थं ' महार्थ = महाप्रयो जनकं. ' महग्धं ' महार्घ महामूल्यं, ' महरिहं ' महार्ह = महतां योग्यं ' रायरिहं ' राजा = राजयोग्य प्राभृतं गृह्णाति गृहीत्वा बहुभिः पुरुषैः सार्द्ध संपरिवृतः अहिच्छत्रां नगरीं मध्यमध्येन अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव कनककेतू राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' करयल जाव वद्धावेड़' करतल यावद् वर्धयति -कर 6 तएण से घण्णे सत्यवा हे' इत्यादि ॥ टीकार्थ - (तए) इसके बाद (से घण्णे सत्थवाहे) उस धन्यसार्थवाहने (सगडी सागडं जोयावेह जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णयरी तेणेव उबागच्छइ ) वहां से अपने गोड़ी और गाड़ों को जुतवाया और जुतवाकर जहां अहिच्छत्रा नगरी थी उस ओर चल दिया । ( उवागच्छिता अहिच्छत्ताए नयरीए बहिया अगुजाणे सत्थनिवेस करेइ) धीरे धीरे अहिच्छत्रा नगरी में वह पहुँच गया। वहां पहुँच कर उसने बाहर रहे हुए प्रधान बगीचे में अपने सार्थ को ठहरा दिया। ( करिता सगड़ी सागडं मोयावेइ ) और वहीं पर अपनी गाड़ी और गाड़ों को ढील दिया । (तएण से धणे सत्यवाहे महत्थं ३ रायारिहं पाहुडं गेव्हह, गेहिता बहहिं पुरिसेहिं सद्धि संपरिवुडे अहिच्छन्तं नयरिं मज्झं मज्झे अणुष्पविसह, अणुष्पविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवाग तणं से धणे सत्थवाहे इत्यादि टीअर्थ - ( तणं ) त्यारमाह ( से घण्णे सत्थवाहे ) ते धन्यसार्थवाहे (सगडी सागडं जोयावेइ जोयाबित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णयरी तेणेव उवागच्छ ત્યાંથી પેાતાની ગાડીએ અને ગાડાંઓને જોતરાવીને જે તરફ અહિચ્છત્રા નગરી હતી તે દિશા તરફ રવાના થયે. उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए नयरीए हिया अगुज्जाणे सत्थनिवेसं करेइ ) भने धीमे धीमे अहिछत्रा नगरीमां પહોંચી ગયા. ત્યાં પહેાંચીને તેણે નગરીની બહાર આવેલા પ્રધાન ઉદ્યાનમાં श्रोताना सार्थना भुाभ नाभ्यो ( करिता सगडीसागडं मोयावेइ ) भने ત્યાંજ પેાતાની ગાડીએ અને ગાડાઓને છેડાવી નાખ્યાં, (तर से घण्णे सत्थवाहे महत्थं ३ रायरिह पाहुडं गेण्डर, गेण्हित्ता बहुहिं पुरिसेहि सद्धि संपरिवुडे अहिच्छत्तं नयरिं मज्झं मज्झेणं अणुष्पविसर, अणुष्पविसित्ता શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तलपरिगृहीतं शिरावते दशनखं मस्तके ऽञ्जलिं कृत्वा राजानं जयविजयशब्देन वर्दयति, वर्द्धयित्वा तन्महार्थ महाघ महार्ह प्राभृतम् उपनयति-राज्ञः समीपे स्थापयति । ततः खलु स कनककेतू राजा हृष्टतुष्टहृदयो हर्षवशविसर्पहृदयो धन्यस्य सार्थवाहस्य तन्महार्थं ३ यावत् प्राभृतं 'पडिच्छइ ' प्रतीच्छति-स्वीकरोति, प्रतीष्य धन्य सार्थवाहं सत्कारयति सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य तम्मै 'उस्सुकं' उच्छुल्क शुल्काभावपत्रं 'केनापि राजपुरुषेणास्मात्करो न ग्राह्यः' इत्येतदरूपमा. ज्ञापत्र वितरति ददाति, वितीय तं प्रतिविसर्जयति । च्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं ३ पाहुडं उवणेइ ) इस के बाद उस धन्य सार्थवाह ने महार्थ साधक, महामूल्य एवं महा पुरूषों के योग्य-प्रामृत-भेंट को साथ में लिया, और लेकर अनेक पुरुषों के साथ २ अहिच्छत्रा नगरी में वीच से होता हुआ प्रविष्ट हुआ। नगरी में प्रविष्ट होकर वह जहां कनक केतु राजा थे वहां गया वहाँ जाकर उसने राजा को दोनों हाथ जोड कर नमस्कार किया, और जय विजय शब्दों को उच्चारण करते हुए उन्हें बधाई दी। बधाई देकर उसने फिर राजा के समक्ष अपनी भेट रखदी। (तएणं से कणगकेऊ राया हह तुट्ट० घण्णस्स सत्यवाहस्त तं महत्थं ३ जाव पडिच्छइ पडिच्छित्ता धण्णं सत्थवाह सक्कारेह सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता उस्तुक्कं वियरइ २ पडिविसज्जेइ) कनककेतु राजाने हर्षित एवं संतुष्ट होकर धन्यसार्थवाह की उस महार्थ साधक महामूल्य राज योग्य भेट जेणेव कणगकेउ राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेइ, बद्धावित्ता तं महत्थं३ पाहुडं उवणेइ ) ત્યારપછી તે ધન્યસાર્થવાહે મહાઈ સાધક બહુ કિંમતી અને મહા પુરૂને ચગ્ય ભેટ સાથે લઈને ઘણુ માણસોની સાથે અહિચ્છત્રા નગરીની વચ્ચેના ભાગે ( રાજમાર્ગ ) થઈને નગરીમાં પ્રવિષ્ટ થશે. નગરીમાં પ્રવેશીને તે જ્યાં કનકકેતુ રાજા હતા ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તેણે રાજાને બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા અને જય વિજય શબ્દ ઉચ્ચારણ કરતાં તેમને વધાઈ આપી. વધાઈ આપ્યા પછી તેણે રાજાની સામે પિતાની ભેટ મૂકી દીધી. (तएणं से कणगकेऊ राया हट्ट तुठ. धण्णस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं ३ जाव पडिन्छइ पडिच्छित्ता धणं सत्यवाह सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता उस्सुक्कं वियरइ २ पडिविसज्जेइ ) કનકકેતુ રાજાએ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને મહાઈ સાધક મહામૂલ્યવાળી અને રાજાઓને માટે એગ્ય ભેટ સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કર્યા બાદ श्री शताधर्म अथांग सूत्र :03 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन गारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् સ ततः खलु सधन्यः सार्थवाहस्तत्र 'भंडविणिमयं ' भाण्डविनिमयं = भाण्डानां = क्रयाणकवस्तूनां विनिमयम् = आदानप्रदानं करोति, कृत्वा ' पडिभंड ' प्रतिभाण्डं= विनिमयेन प्राप्त वस्तुजातं गृह्णाति, गृहीत्वा शकटीशाकटे भरति भृत्वा शकटीशाकटं योजयति, योजयित्वा सुखं सुखेन सुखपूर्वकं यत्रैव चम्पानगरी स्वनिवासस्थानं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धि परिजनैः सह 'अभिसमन्नागए ' अभिसमन्वागतः - संमिलितो विपुलान् मानुष्यकान् कामभोगान् भुआनो विहरति । को स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उन्हों ने धन्यसार्थवाह का सत्कार एवं सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके " किसी भी राज पुरुष को इन से कर नहीं लेना चाहिये इस प्रकार का शुल्क भाव विषयक आज्ञा पत्र " उसके लिये प्रदान किया और प्रदान करके बाद में उसे वहां से विदा कर दिया। (तएणं से धण्णे सत्थवाहे भंडविणिमयं करेइ, करिता पडिभंड गेव्हह, गेव्हित्ता सुहं सुहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ ) इसके बाद धन्य सार्थवाह ने वहां रह कर अपनी क्रयाक वस्तुओं का विक्रय किया और उससे प्राप्त द्रव्य से और दूसरी वस्तुओं को खरीदा। खरीद कर उसने उन्हें गाडी और गाडों में भरा भरकर उन्हें जुतवाया और जुतवाकर फिर वह वहां से चंपानगरी की ओर वापिस चल दिया । ( उवागच्छित्ता मित्तनाइ० अभिमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणे विहरइ ) - તેમણે ધન્યસાથ વાહના સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું. સત્કાર અને સન્માન કરીને રાજાએ ‘ કાઇપણ રાજપુરૂષ તેમની પાસેથી રાજકર લે નહિ ’ તે પ્રમાઘેની વ્યવસ્થા કરતાં તેમને શુષ્ક માફીનું આજ્ઞાપત્ર લખી આપ્યું. ત્યારપછી તેને ત્યાંથી જવાની આજ્ઞા આપી ( तरणं से घण्णे सत्यवाहे भंडविणिमयं करे, करिता पडिभंडं गेव्हर, गेहिता सुद्द सुद्देणं जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छ ) ત્યારબાદ ધન્યસાવાડે ત્યાં રહીને પોતાની ક્રયાજીક વસ્તુઓને વેચી અને તેનાથી જે ધન મળ્યું તેનાથી બીજી વસ્તુઓ ખરીદી લીધી. વસ્તુઓની ખરીદ કરીને તેણે બધી વસ્તુએની ખરીદી કરીને તેણે બધી વસ્તુએને ગાડી તેમજ ગાડાઓમાં ભરી અને ત્યારપછી ગાડી અને ગાડાઓને જોતરાવીને ત્યાંથી ચાંપા નગરી તરફ પાછે રવાના થયું. ( उवागच्छित्ता मित्तनाइ० अभिसमन्नागए बिउलाई माणुस्सगाई काम भोगाई भुंजमाणे विहरह ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्थविरागमनम् । धन्यः सार्थवाहो धर्म श्रुत्वा पतिबुद्धः सन् ज्येष्टपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वा प्रवजितः, सामायिकादीनि एकादशाजान्यधीते । बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया ऽऽत्मानं जुष्ट्वा षष्टि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा कालमासे कालं कृत्वाचंपानगरी में आकर वह अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबन्धी परिजनों से मिला और विपुल मनुष्य भव संबन्धी काम भोगों को भोगने लगा (तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, धण्णे सत्थवाहे धम्म सोच्चा जेटुं पुत्तं कुर्युवे ठवेत्ता पव्वइए, सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अनतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ । एवं खलु जंबू ! समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तण पत्ररसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते तिबेमि) उसी काल और उसी समय में वहां पर स्थविरों का आगमन हुआ। धन्यसार्थवाह ने उनसे धर्म का व्याख्यान सुना सुनकर वह प्रतिबुद्ध हो गया और प्रतिबुद्ध हो करके फिर वह कुटुंब में अपने ज्येष्ठ पुत्र को रखकर दीक्षित होकरके उसने सामायिक आदि ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया। अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर १ मास की संलेखना से ६० भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करके काल अवसर काल करके देव ચંપા નગરીમાં આવીને તે પિતાના મિત્ર. જ્ઞાતિ, સ્વજન, સંબંધી પરિજનેને મળે અને વિપુલ મનુષ્ય ભવના કામો ભોગવવા લાગ્યો. ( तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं धण्णे सत्यवाहे धम्म सोच्चा जेट पुत्त कुटुंबे ठवेत्ता पव्वइए, सामाइयमाझ्याइं एक्कारसअंगाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अन्नतरे देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव अंतं करेहिइ । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाच संपत्तेणं पन्नरसमस्स अयमठे पण्णत्ते ति बेमि) તે કાળે અને તે સમયે તે નગરીમાં સ્થવિરો પધાર્યા ધન્યસાર્થવાહ તેઓના મુખથી ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળ્યું અને સાંભળીને તેને પ્રતિબંધ થયે પ્રતિબુદ્ધ થઈને તેણે પિતાના કુટુંબના વડા તરીકે પોતાના મોટા પુત્રની નીમણુક કરીને દીક્ષા ગ્રહણ કરી દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ તેણે સામાયિક વગેરે અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રમણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને એક માસની સંલેખનાથી ૬૦ ભક્તોનું અનશન વડે છેદન કરીને કાળના વખતે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १५ नदीफलस्वरूपनिरूपणम् १३१ अन्यतरेषु देवलोकेषु · देवत्ताए ' देवतया देवत्वेन उपपन्नः । महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत्-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्-सिद्धिगतिनामधेय स्थानं सम्प्राप्तेन पञ्चदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि व्याख्या पूर्ववत् ।०४। इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धबाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक -प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालचतिविरचितायां श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्यानगारधर्माम तवपिण्याख्यायां व्याख्यायां पञ्चदशमध्ययनं समाप्तं ॥१५॥ लोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हो गया। महाविदेह क्षेत्र से यह सिद्ध अवस्था कोप्राप्त करेगा-यावत् समस्त दुःखों का अन्त करने वाला होगा इस प्रकार हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धगति नाम के स्थान को प्राप्त करचुके हैं इस पंद्रहवे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त भाव प्रज्ञाप्त किया है। ऐसा मैंने उनके मुख से सुना है सो यह वैसा तुमसे कहा है ॥ सू० ४ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराजकृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र"की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका पंद्रहवा अध्ययन समाप्त ॥ १५॥ કાળ કરીને દેવેલેકમાં દેવતા પર્યાયથી જન્મ પામે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી તે સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે યાવતુ બધા દુઃખને તે અન્ત કરનાર થશે. આ રીતે હે જબૂશ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેઓએ સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને મેળવી લીધું છે-આ પંદરમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત ભાવ નિરપિત કર્યો છે. મેં જે પ્રમાણે તેઓશ્રીના મુખથી સાંભળ્યું છે તે પ્રમાણે જ तभारी भाग २नु यु छ. ॥ सूत्र ४॥ જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાધ્યયન સૂત્રની અનગારધમમૃતવષિણી વ્યાખ્યાનું પંદરમું અધ્યયન સમાપ્ત ૧પ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ षोडशाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ उक्त पश्चदशाध्ययनम् , तत्र विषयसङ्गोऽनर्थस्य कारणमित्युपदिष्टम् इह षोडशाध्ययने तु तद्विषयनिदानमनर्थस्य मूलं भवतीत्युच्यते, इत्येवं सम्बन्धेन प्रसङ्गतः प्राप्तस्यास्याध्ययनस्य प्रथमं सूत्रमाह-'जहणं भंते !' इत्यादि । मूलम्-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते सोलसमस्स णं भंते णायज्झयणस्स णं समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था, तीसेणं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए सुभूमिभागे उजाणे होत्था, तत्थ णं चंपा नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तं जहा-सोमे सोमदत्ते सोमभूई, अड्डा जाव अपरिभूया रिउठवेय जाव सुपरिनिहिया, तेसि णं माहणाणं तओभारियाओहोत्था, तं जहा-नागसिरी भूयसिरोजक्खसिरी सोलहवां अध्यन प्रारंभ पन्द्रहवां अध्यन समाप्त हो चुका-अब सोलहवां अध्यन प्रारंभ होता है। पंद्रहवें अध्यन में विषयसंघ अनर्थ का कारण कहा गया है-अब सोलहवें अध्यन में विषय निदान अनर्थ का कारण होता है यह स्पष्ट किया जायगा । इस संबन्ध से आया हुआ इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है 'जइणं भंते । ' इत्यादि । સોળમું અધ્યયન પ્રારંભ પંદરમું અધ્યયન પુરું થાય છે. હવે સેળયું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે. પંદરમા અધ્યયનમાં વિષયસંગને અનર્થનું કારણ બતાવવામાં આવ્યું છે. હવે સાળમા અધ્યયનમાં વિષય-નિદાન અનર્થનું કારણ હોય છે, આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે. આ વિષયને લગતું આ અધ્યયનનું પહેલું સૂત્ર આ છે – जइणं भंते इत्यादि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारवर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्माच्यागारवरितवर्णनम् १३३ सुकुमाल जाव तेसि णं माहणाणं इहाओ ५, विपुले माणुस्सए जाव विहरंतिं । तएणं तेसिं माहणाणं अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं तं सेयं खलु अन्हें देवाणुप्पिया ! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविउं उवक्डावित्ता परिभुंजमाणाणं विहरित्तए, अन्नमन्नस्त एयम, पडिसुणेति परिसुणित्ता कल्लाकल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असण४ उवक्खडावति, उवक्खडावित्ता परिभुजमाणा विहरांति, तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था, तएणं सा नागसिरी विपुलं असणं४ उवक्खडेति उवक्खडित्ता एगं महंसालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंजुत्तं गेहावगाढं उवक्खडेइ उवक्खडित्ता एगं बिंदुयं करयलंसि आसाएइ आसाइत्ता तं खारं कडुयं अक्खजं अभोज्ज विसब्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्थु णं मम नागसिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए, सुबहुदव्वक्खए, नेहक्खए य कए, तं जइणं मम जाउयाओ जाणिस्संति तो णं मम खिसिस्संति तं जाव ताव मम जाउयाओण जाणेति ताव मम सेयं एयं साल श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे इयं तित्तालाऊ य बहुसंभारणेहकयं एगंते गोवेत्तए अन्नं सालइयं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं सालइयं जाव गोवेइ, अन्नं सालइयं महरालाउयं उवक्खडेइ, तेसिं माहणाणं पहायाणं जाव सुहासणवरगयाणं तं विपुलं असणं४ परिवसेइ, तएणं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था, तएणं ताओ माहणोओ व्हायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असणं ४ आहारोति आहारित्ता जेणेव सयाइं२ गेहाइं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओ जायाओ ॥सू०१॥ टोका-श्रीजम्बूस्वामा श्रीसुधर्मस्वामिनं पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त != हे भगवन् श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संपाप्तेन पञ्चदशस्य अयम्-उक्तरूपः, अर्थः प्रज्ञप्तः, पोडशस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १, टीकार्थ-( जइणं भंते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते सोलसमस्स णं भंते? णायज्झयणस्सणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सं त्तण के अटे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ? ) श्री जंबू स्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि भंदत । श्रमण भगवान महावीरने जो कि सिद्धि गति नामक स्थानको प्राप्त हो चुके हैं पन्द्रहवें ज्ञाताध्ययनका यह पूर्वोक्तरूपसे अर्थ निरूपित किया है-तो -( जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पनरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सोलसगस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स गं समणेणं भगवया महावीरेणं जाच संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू!) શ્રી જ સ્વામી સુધમાં સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદત ! શ્રમણ ભગ વાન મહાવીરે કે-જે એ સિદ્ધિગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચૂક્યા છે-પંદરમાં વાતાવ્યયનને આ પૂર્વેત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે તે શમણ ભગવાન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १३५ श्रीसुधर्मास्वामी कथयति - ' एवं खलु जंबू इत्यादि । एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत्, तस्याः खलु चम्पाया नगर्या बहिरुतरपौरस्त्ये दिग्भागे सुभूमिभागनामक मुद्यानमासीत्, तत्र खलु चम्पायां नगर्यां त्रयो ब्राह्मणा भ्रातरः परिवसन्ति, तद् यथा - (१) सोम:, (२) सोमदत्तः, (३) सोमभूतिः, ते किं भूताः- आढयां धनवन्तः यावद्-अपरिभूताः, तथा रिउब्वेय जाव' ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेदाथर्ववेदेषु साङ्गोगङ्गेषु सुपरिनिष्ठिताः । तेषां खलु ब्राह्मणानां तिस्रोभार्या आसन्, तद् यथा - ( 1 ) नागश्रीः, सोलहवें ज्ञाताध्यन का हे भदंत ? उन्हीं श्रमण भगवान महावीरने कि जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार के जंबू स्वामी के प्रश्नका उत्तर देते हुए $ धर्मास्वामी उनसे कहते हैं कि जंबू ! (तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नपरी होत्था, तीसेणं चपाए बहिया उत्तरपुरन्धिमे दिसिभाए सुभूमिभागे उज्जाणे, होत्था, तत्थ णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भाय रा परिवसंति) उस काल और उस समय में चंपा नामकी नगरी थी । उस चंपा के बाहिर ईशान कोण में सुभूमि भाग नाम का उद्यान था । उसी बंपा नगरी में तीन ब्राह्मण भाइ रहते थे ( तं जहा ) उनके नाम ये हैं - ( सोमे सोमद से सोमभई) सोम, सोमदत्त, और सोमभूति ( अड्डा जाव अपरिभूया ) ये सब धन धान्यादि संपन्न एवं जन मान्य ( रिडब्बेय, जाव सुपरिनिट्टिया ) ये सबके सब ऋग्वेद आदि चारो वेदों મહાવીરે-કે જેઆ સિદ્ધિગતિ મેળવી ચૂકયા છે-સાળમા જ્ઞાતાયનના શા અથ નિરૂપિત કર્યાં છે ? આ રીતે જમ્મૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને સુધર્મો સ્વામી તેમને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે હે જમ્મૂ ! ( ते णं कालेणं तेणं समए चंपा नाम नयरी होत्था, तीसेणं चंपाए वहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए सभूमिभागे उज्जाणे, होत्था तत्थ णं नयरीए तओ माहणा भायरा परिवर्तति ) તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી તે ચા નગરીની મહાર ઇશાન કાણુમાં સુભૂમિભા! નામે ઉદ્યાન હતું તે ચંપા નગરીમાં ત્રણ ब्राह्मणु लामो रहेता हता. ( तंजहा ) तेमनां नाम या प्रमाणे हे - ( सोमे सोमदत्ते सोभूमई ) सोभ, सोमहत्त, मने सोमभूति ( अड्ढा जाव अपरिभूया ) तेसो भये धनधान्य वगेरेथी सम्पन्न तेभन नमान्य हता. ( रिडब्बेय, जाव सुपरिनिट्ठिया) ते। ऋभूवेह वगेरे यारे वेहोना सारा ज्ञाता हुता. ( तेसि णं माहणा णं तत्र भारिया होत्था तं जहा - नागसिरी, भूयसिरी શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्वे (२) भूतश्रीः, (३) यक्षश्रीश्च, ताः किं भूताः-सुकुमारपाणिपादाः, यावत्-सर्वाङ्ग सुन्दर्यः, तेषां खलु ब्राह्मणानामिष्टा कमनीयाः, विपुलान् मानुष्यकान् यावत् कामभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति । ततः खलु तेषां ब्राह्मणानामन्यदा कदाचिदेकतः समुपागतानां यावत् अयमेतद्रूपः-वक्ष्यमाणस्वरूपः, मिथः परस्परं, कथासमुल्लापः वार्तालापः समुदप. घत-एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! अस्माकमिदं विपुलं धनं गणिमधरिममेयपरिच्छेद्य भेदाच्चतुर्विधं यावत् ' सावतेज्जे ' स्वापतेयं - पद्मरागादिरूपं वा, अत्र यावत्पदबोध्यं-कनकसुवर्णरत्नादिकं तथा-मौक्तिकादिकं च विद्यते, किंभूतं तदित्याह- अलाहि ' पर्याप्त परिपूर्ण-यावत्-आसप्तमात् कुलवंशात् सप्तमवंशपर्यन्तंके अच्छे जानकार थे। ( तेसिणं मादणाणं तो भारियाओ होत्या-तं जहा-नागसिरी, भूयसिरी, जक्खसिरी, सुकुमाल जाव तेसिं गं माहणाणं इट्ठाओ ५ विपुले मा० जाव विहरंति ) इन तीनों ब्राह्मणों की तीन स्त्रियां थी। उनके नाम ये हैं। नाग श्री, भूत श्री, और यक्ष श्री, ये सब सुकुमार करचरणवाली थी यावत् सर्वाङ्ग, सुन्दर थीं। ये तीनों ब्राह्मण इनके साथ मनुष्यभव संवन्धी काम भागों को भोगते हुए आनंद से रहते थे। (तएणं तेसिं माहणाणं अन्नया कयाई एगय ओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था ) एक दिन की बात है कि जब ये तीनो भाई एक जगह बैठे हुए थे तब इनका परस्पर में इस प्रकार का विचार चला-( एवं खलु देवाणुप्पिया। अम्हं इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहिजाव आसत्तमाओ कुलजक्खसिरी, सुकुमार जाव तेसिणं माहणाणं इट्ठाओ५ विपुले मा०जाव विहरंति) આ ત્રણે બ્રહાણેને ત્રણ સ્ત્રીઓ હતી. તેમનાં નામે આ પ્રમાણે છે. નાગશ્રી, ભૂતશ્રી, અને યક્ષશ્રી. તેઓ ત્રણે સુકેમળ હાથ અને પગવાળી હતી અને બધાં અંગે તેમનાં સુદર હતાં. ત્રણે બ્રાહ્મણે તેમની સાથે મનુષ્ય ભવના કામો ભોગવતાં સુખેથી રહેતા હતા. (तएणं तेसि माहणाणं अनया कयाई एगयो समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था) એક દિવસની વાત છે કે તેઓ ત્રણે ભાઈ એક સ્થાને બેઠા હતા ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ જાતને વિચાર કરવા લાગ્યા કે— ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहि श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी री० अ०१६ धर्मरुच्यनगारररितवर्णनम् १३७ भकामं दातुं, प्रकामं भोक्तुं प्रकामं परिभाजयितुम् ततः = तस्मात् श्रेयः = श्रेयस्करं खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! अन्योन्यस्य = परस्परस्य एहेषु 'कल्लाकल्लिं' कल्याकल्यं प्रतिदिवसं विपुलं = बहुलम् , अशनं पानं खाद्य स्वाचं 'उवक्खडाउ' उपस्कार्युपरिभुञ्जानानां विहर्तुम् । अन्योन्यस्य-परस्परस्य एतमर्थ ते त्रयो भ्रातरो ब्राह्मणाः प्रतिश्रृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य 'कल्लाकल्लिं' वंसाओ पकामं दाउं पकामं भोउँ पकामं परिभाएउ-तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया । अन्नमन्नस्स गिहेतु कल्लाकल्लिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविउ) हे देवानुप्रियो ! अपने पास विपुलमात्रा में, गणिम, धरिम, मेय, एवं परिच्छेद्यरूप चारों प्रकार का धन है, यावत् पद्मराग आदिरूप स्वापत्य भी हैं, कनक,सुवर्ण,रत्न,मणिमौक्तिक आदि सब कुछ है-और वह इतना अधिक है कि सात पीढी तक भी यदि खूब दान दिया जावे, बैठ २ खूब खाया जावे-और उसका हिस्सा भाग भी कर दिया जावे-तो भी वह समाप्त नहीं हो सकता है। इसलिये हम लोगों को उचित है कि हम लोग प्रति दिन एक दूसरे के घर पर अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार विपुल मात्रा में धनवावे और ( उवक्खडावित्ता परि जमाणाणं विहरित्तए ) बनवा कर उस का भोजन करें। ( अन्नमन्नस्स एयमढे पडिसुणेति ) इस प्रकार का आपस का विचार उन्होंने एक दूसरे का स्वीकार कर लिया। जाव आसत्तमाओ कुलवंसोओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडाविउं) હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણી પાસે પુષ્કળ પ્રમાણમાં ગણિમ, ધરિમ, મેય, અને પરિચ્છેદ્ય રૂપ ચારે જાતનું ધન છે. યાવત્ પદ્મરાગ વગેરે રૂપ વાપત્ય पण छ. ४न सुवर्ष, २त्न, मणि, माती, वगैरे मधु छ-मन २ छ તે એટલું બધું છે કે સાત પેઢી સુધી પણ જે પુષ્કળ પ્રમાણમાં દાન કરવામાં આવે છતાં તે ખૂટશે નહિ. એથી અમને એ ગ્ય લાગે છે કે અમે બધા દરરોજ એકબીજાને ઘેર અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચાર જાતના साडा। पु०४ प्रभामा मनापावी मने ( उवक्खडावित्ता परिभुजमाणाणं विहरित्तए) मनावीन भाये. ( अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणे ति) मारीत બધાએ એકમત થઈને વાત સ્વીકારી લીધી. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ज्ञाताधर्मकथासूचे कल्याकल्यं प्रतिदिवसम् अन्योन्यस्य गृहेषु विपुलमशनादिकमुपस्कारयन्ति । उपस्कार्य परिभुञ्जाना विहरन्ति । ततः खलु तस्या नागश्रियो ब्राह्मण्या अत्यदाकदाचिदन्यस्मिन् समये 'भोयणवारए' भोजनवारकः=भोजयितुं नियमितो दिवसो भोजनवारकः जातः-समायातश्चाप्यभवत् । ततः खलु सा नागश्रीः विपुलमशनं पानं खाद्य स्वायमुपस्करोति-निष्पादयति, उपस्कृत्य एकं महत् ' सालइयं' सारचितं-सारेण रसेन चितं युक्त यद्वा-शारदिकं-शरदृतुभवं 'तित्तालाउअं' तिक्तालाबुकं निम्बादिवत् तिक्तरसयुक्ततुम्बीफलं, बहुसंभारसंयुक्त बहुभिः अनेकविधैः संभारद्रव्यैः-शाकादौ स्वादसुगन्धविशेषार्थ हिङ्गुमेथिकाजीरकादीनि व्यापारकद्रव्याणि निक्षिप्यन्ते, तैमिश्रितं, 'णेहावगाढं' स्नेहावगाढं-घृतादिप्लावितम् (युक्तम् ) — उवक्खडेइ ' उपस्करोति, उपस्कृत्यैकं बिन्दुकं करतले समादाय (पडिसुणित्ता कल्ला कल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विउलं असण ४ उवक्खडावेंति) स्वीकार करके अब वे एक दूसरे के घर पर विपुल मात्रा में निष्पन्न हुए अशनादिरूप चतुर्विध आहार को खाने पीने लगे। (तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था) किसी एक दिन नागश्री ब्राह्मणी की भोजन बनाने की बारी आई (तएणं सा नागसिरी विउलं असणं ४ उवक्खडेंति) सो उस दिन उसने विपुल मात्रा में चारों प्रकार का आहार बनाया ( उवक्खडित्ता एगं महं सालइयं तित्तालाउअं बहुसंभारसंजुत्तं णेहावगाढं उवक्खडेइ) आहार बनाकर फिर उसने शरदऋतु में उत्पन्न हुई अथवा रस से सरस बनी हुई तिक्तरसतुंबी का शाक बनाया-और उसमें स्वाद एवं सुगंधि के निमित्त हींग, मैथी, जीरे आदि का वधार दिया। उसे खूब अधिक घृत में छोंका था-इसलिये घृत उसके ऊपर तैर रहा था। (पडिसुणित्ता कल्लाकल्लि अन्नमन्नस्स गिहेसु विउलं असण ४ उवक्खडावेंति ) સ્વીકારીને તેઓ એકબીજાને ઘેર પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશનપાન વગેરે ચાર જાતના આહારને ખાવા-પીવા લાગ્યા. (तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था) કોઈ એક દિવસે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને ભજન તૈયાર કરવાનો વારો આવ્યો (तएणं सा नागसिरि विउल असणं ४ उवक्डे ति) तेथे ते हिवसे ॥ પ્રમાણમાં ચારે જાતના આહાર બનાવ્યા. (उवक्खडित्ता एगं महं सालइयं तित्तालाउअं बहुसंभार सजुत्तं णेहावगाढं उवक्खडेइ) આહાર બનાવીને તેણે શર૬ ઋતુમાં ઉત્પન્ન થયેલી અથવા રસથી સરસ થયેલી તિક્તરસવાળી તબીનું શાક બનાવ્યું અને તેમાં સ્વાદ અને સુગધીના માટે હીંગ, મેથી, જીરું વગેરેને વઘાર દીધું હતું એટલે તેની श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगास्थर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१६ धर्मरुध्यनगारचरितवर्णनम् १३९ आस्वादयति, अस्वाद्य तत् क्षारं कटुकमस्वाायमभोज्यं विषभूतं ज्ञाला एवमवादीत्धिगस्तु मां नागश्रियमधन्यामपुण्यां दुर्भगां 'दुभगसत्ताए' दुर्भगसत्वां दुर्भगं-निष्फलं सत्त्वं बलं यस्याः सा तां व्यर्थपरिश्रमामित्यर्थः 'दूभगणिबोलिए' दुर्भगनिम्बगुलिकानिम्बफलिका, तद्वद् दुर्भगा तां-जनैरनादरणीयामित्यर्थः, अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी माकृतत्वात् , 'जीए' यथा खलु मया शारदिकं बहुसंभारद्रव्यसंभृतं स्नेहाव(उवक्खडित्ता एग बिंदुयं करयलंसि आसाएइ ) जब वह तैयार शाक हो चुका-तब उसने उसमें से एक बिन्दु मात्र शाक अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चखा-(आसाइत्ता तं खोरं कडुयं अक्खजं अभोज विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्यु णं मम नागसिरीए अहनाए, अपुन्नाए दुरभगाए दुभगसत्ताए दुभगणिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाक तो बहुत खारा है, बहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नहीं है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विष जैसा है ऐसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार में उसने कहा-मुझ नागश्री को धिकार है, मैं अधन्या और अपुण्याहूँ| जनों के द्वारा आदर पाने योग्य नहीं है। मेरे इस बल को चार २धिकार हो-मेरा यह बल बिलकुल निष्फल है मैंने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीम ५२ घी तरतु तु. ( उवक्खडित्ता एग बिदुयं करयल सि आसाएइ) न्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું ત્યારે તેણે તેમાંથી ફક્ત એક ટીપા જેટલું શાક પિતાની હથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું. ( आसाइत्ता तं खारं कड्डयं अक्खन अभोज्जं विसन्भूयं जाणित्ता एवं षयासी-धिरत्थु णं मम नागसिरीए अहनाए, अपुनाए, दूरभगाए दूभगसत्ताए भगणिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए) ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તે ખૂબ જ ખારું છે, ખૂબ જ કડવું છે, ખાવાલાયક નથી, ભોજનમાં કામ લાગે તેવું નથી, આ તે ઝેર જેવું છે, આમ જાણીને તેણે પિતાના મનમાં જ વિચાર કર્યો અને વિચાર કરતાં તેણે પિતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કે-અને-નાગશ્રીને-ધિક્કાર છે, હું ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુણ્યો છું. હું લેકે દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી. મારા આ બળને વારંવાર ધિક્કાર છે, મારું આ બળ સાવ નકામું છે. શાક તૈયાર કરવામાં એટલે મેં શ્રમ કર્યો છે તે બધું નકામે ગયે. જેમ લીમ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ज्ञाताधर्मकथासूत्रे गाढमुपस्कृतं तेन सुबहुद्रव्यक्षयः - हिङ्गुजीरकादिद्रव्यनाशः, स्नेहक्षयः = घृतादिक्षयश्चकृतः, तत् तस्मात् यदि खलु मम ' जाउयाओ ' यातृकाः, देवरभार्याः ज्ञास्यन्ति, ' तोणं ' तर्हि खलु मम 'खिसिस्संति ' खिंसिष्यन्ति निन्दां कोपं च करिष्यन्ति, तत् - तस्मात् यावन्मम यातृका न जानन्ति, तावन्मम श्रेयः - उचितं एतत् शारदिकं तिक्ताला बुकं बहुसंभारस्नेहकृतम् एकान्ते 'गोवेत्तए ' गोपयितुम्, अन्यत् शारदिकं मधुरालावुकं मधुर तुम्बीफलं यावत् स्नेहावगाढमुपस्कर्तुम् । एवं की निबौली किसी मनुष्य की दृष्टि में आदर पाने योग्य नहीं होती है उसी प्रकार मैं भी जनों द्वारा अनादरणीय बनी हूँ । जो मैंने शरद कालिक अथवा सरस इस तुंबी फल का हिङ्गु, जीरकादि मच्पों से युक्त और घृतादि से युक्त शाक बनाया है (सुबहु दव्वक्खए, नेहक्खए य कए ) इस के बनाने में मैंने व्यर्थ ही बहुत से हिङ्गु जीरे मैंथी आदि द्रव्य का और घृत का विनाश किया है । ( तं जहणं ममं जाउयाओ जाणिस्संति, तो, णं मम खिसिस्संति) इस बात को यदि मेरी देवरानी जानेंगी तो वे मेरे ऊपर गुस्सा होगी और मेरो निंदा करेंगी । (तं जाव ताव ममं जाउयाओ ण जाणंति ताव ममं सेयं एवं सालइयं तित्तालाउय बहुसंभारणेह कयं एते गोवेत्तए) इसलिये मुझे अब यही उचित है कि मैं इस शारदिक तिक्तोलाबु के शाक को जो बहुत संभार एवं घृत डालकर बनाया हैं किसी एकान्त स्थान में छुपाकर रख दूँ और ડાની લીંખાળી માણસેાની સામે આદર મેળવવા ચેાગ્ય ગણાતી નથી તે પ્રમાણે હું પણુ માણુસા દ્વારા આદર પ્રાપ્ત કરવા લાયક રહી નથી. એટલે કે હું લેાકાની સામે અનાદરણીય થઇ ગઇ છું. મે શરતૢ કાલિક અથવા તુખીના ફળનું હીંગ, જીરૂં વગેરે દ્રવ્યેાથી યુક્ત અને ઘી વગેરેથી યુક્ત શાક मनान्युं छे ( सुबहु दव्वक्ख ए नेहक्ख ए य कए ) भेने तैयार अश्वामां में વ્યથ હીંગ, જીરૂં, મેથી વગેરે તેમજ ઘી વગેરે વસ્તુઓના દુર્વ્યય કર્યો છે ( त जइणं ममं जाउयाओ जणिस्स ंति, तो णं मम खिसिस्सति ) ले भारां દેરાણીને આ વાતની જાણ થશે તેા તેઓ ચાસ મારા ઉપર ગુસ્સે થશે અને મારી નિંદા કરશે. સરસ ( तं जाव ताव ममं जाउयाओ ण जाणंति ताव ममं सेयं एवं सालइयं तितालाउय बहु संभारणेहकथं एगते गोवेत्तर) એથી અત્યારે મને એ જ ચેગ્ય લાગે છે કે આ શારદિક તિકતાલાજી ( કડવી તુંબડી) ના શાક ને-કે જે ખૂબ જ સરસ ઘી નાખીને વધારવામાં आयु छेउ तर छुपावीने भूडीह भने तेनी भय्यामे ( अन्नं सालइयं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारबरितवर्णनम् संप्रेक्षते = विचारयति, संप्रेक्ष्य तत् शारदिकं यावद् तिक्कालावुकं गोपयति=कचित् समाच्छाद्य धरति अन्यत् शारदिकं मधुराला बुकमुपस्करोति = रन्धयति शैशवारादिभिः संस्करोति । तेषां ब्राह्मणानां यावत् सुखासनवरगतानां निजनिजासनेसुखोपविष्टानां तद् विपुलमशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं परिवेषयति तेषां भोजनावसरे भोजनपात्रे ददातीत्यर्थः । ततः खलु ते ब्रह्माणाः 'जिमियत्तत्तरगया' जिमित १४१ उसके स्थानपर (अन्नं सालइयं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए) दूसरी शारदिक मधुर तुंबड़ी का शाक हींग, जीरे और मैंथी का वघार लगाकर घृत में तैरता हुआ बनाएँ ( एवं संपेहेर, संपेहित्ता तं सालइ य जाब गोपेइ अन्नं सालइयं महुरालाउयं उवक्खडेह तेसिं महणाणं व्हायाणं जाव सुहासनवरगयाणं तं विपुलं असणं ४ परिवे सेइ ) ऐसा उसने विचार किया- विचार करके उस शारदिक कडबी तुंबडी के बहुत संभार एवं घृत युक्त शाक एकान्त में छुपाकर रख दिया और दूसरी शारदिक मधुर तुंबडी का शाक हींग जीरे और मैथी का बघार लगाकर घृत में तैरता हुआ बना लिया। इतने मेंवे तीनों ब्राह्मण स्नान आदि से निबट कर भोजन शाला में आकर अपने २ आसन पर शांति के साथ बैठ गये । उनके बैठते ही उसने उन्हें अशन आदिरूप चारों प्रकार का आहार थालों में परोसा (तएणं माहणा जिमिय भुतत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परम सुह महरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए) जील शारहिक भीडी तूजडीनु દ્વી ઉપર તરી રહ્યું છે એવું શાક હીંગ, જીરૂં અને મેથીમાં વધારીને બનાઉં, ( एवं संपेहेर, संपेदित्ता तं सालाइ य जात्र गोवेइ, अन्नं सालइयं महुरालाउयं उवक्खडे, तेसिं माहणाणं व्हायाणं जाव सुहासनवरगयाणं तं विपुलं असणं ४ परिवेसेइ ) આ જાતના તેણે વિચાર કર્યો, વિચાર કરીને તેં શાશ્વિક કડવી તુમ ડીના સરસ ઘીમાં વઘારેલા શાકને એક તરફ્ છૂપાવીને મૂકી દીધું અને ખીજી શાર્દિક મીઠી તુંબડી– ્ષીનું હીંગ, જીરૂં અને મેથીનેા વઘાર કરીને ઉપર ઘી તરતું શાક બનાવ્યું. એટલામાં તે તે ત્રણે બ્રહ્મા સ્નાન વગેરેથી પરવારીને લેાજનશાળામાં આવીને પોતપાતાના આસન ઉપર શાંતિથી બેસી ગયા. તેમને બેસતાં જ તેણે તેને અશન વગેરે રૂપ ચારે જાતના આહાર થાળીમાં પીરન્ચે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाजस्वे भुक्तोत्तरगताः भोजनानन्तरं बहिरागताः सन्त: 'आयंता' आचान्ताः कृतचुलुकाः ' चोक्खा , चोसा-मक्षालितहस्तमुखाः परमशुचिभूताः 'सकम्मसंपउत्ता' स्वकर्मसंप्रयुक्ताः स्वस्वकार्यसंलग्ना जाताश्वप्यभवत् । ततः खलु ताः ब्राह्मण्य: स्नाताः यावत् वस्त्रालंकारविभूषितास्तद् विपुलमशन पान खाद्य स्वायम् आहारयन्ति आहारंकुर्वन्ति भुञ्जते स्म । आहत्य, यौव स्वकानि स्वकानि गृहाणिआवासभवनानि तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य स्वकर्मसंप्रयुक्ता जाताः ॥ सू० १॥ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नामं नयरी जेणेव सुभूमिभागे । भूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था) आहोर जब परोसा जा चुका-तब उन सबने उसे खाया पीया-और खा पीकर जब वे निपट चुके तब उन्होंने कुल्ला आदि कर अपने मुंह का प्रक्षालन किया और हाथों को साफकर वे अपने २ कार्य में लग गये। (तएणं ताओ माहणीओ व्हायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असणं ४ आहारेति, आहारित्ता जेणेव सयाई २ गेहाई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सकम्म संपउत्ताओ जायाओ) इसके बाद उन ब्रह्मणियोंने जो कि पहिले से ही स्नान कर चुकी थी और अपने २ शरीर को सुन्दर वेषभूषा से सुसज्जित किये हुए थी, उस विपुल अशनादिरूप चतुर्विध आहार को खाया-और खाकर के फिर वे अपने २ वासभवनों में चली गई-वहां जाकर अपने २ वे सब काममें लग गई ॥ सूत्र १ ॥ (तएणं ते माहणा जिमिय भुत्तुत्तरागया समाणा आयंता, चोक्खा परमसुइ भूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्या) આહાર જ્યારે પીરસાઈ ગયે ત્યારે તેઓ ત્રણે જમ્યા અને જમી પર. વારીને કેગળા વગેરે કરીને હાથ મેં સાફ કર્યો અને હાથ મેં સાફ કરીને તેઓ ત્રણે પિતતાના કામમાં પરોવાઈ ગયા. (तएणं ताओ माहणीओ हायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असणं आहारिता जेणेव सयाइं२ गेहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओजायाओ) ત્યારબાદ તે બ્રાહ્મણીએએ-કે જેઓએ પહેલાં સ્નાન કરીને પિતાના શરીરને સુંદર વસ્ત્રઓથી શણગાર્યું હતું-તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલ અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતને આહાર કર્યો. આહારથી પરવારીને તેઓ પિતપોતાના વાસભવનમાં જતી રહી અને ત્યાં જઈને તેઓ સવે પિતપતાના કામોમાં પરવાઈ ગઈ વસૂ૦૫ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १४३ उज्जाणे तेणेव उवागच्छति २ अहापडिरूवं जाव विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तएणं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरइ, तएणं से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसाए सज्झायं करेइ बीयाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसा. मी तहेव उग्गाहेइ उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसे थेरं आपुच्छइ जाव चंपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविटे, तएणं सा नागसिरी माहणी धम्मरुइं एजमाणं पासइ पासित्ता तस्स सालइयस्स बहुसंभारसंभियस्स हावगाढस्स तित्तकडुयस्स पट्ठवणट्टयाए हट्टतुट्ठा उढाए उठेइ उटित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तकडुयं च बहसंभारसंभियं णेहावगाढं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सव्वमेव निसिरइ, तएणं से धम्मई अणगारे अहापज्जत्तमितिकटु णागसिरीए माहीए गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता चंपाए नयरीए मज्झ मज्झेणं पडिनिक्खमइ जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामंते अन्नपाणं पडिलेहेइ पडिलेहिता अन्नपाणं करयलंसि पडिदंसेइ, तएणं ते धम्मघोसा थेरा सालइयस्स जाव नेहावगाढस्स गंधेणं श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ जाव नेहावगाढाओ एग बिंदुर्ण गहाय करयलसि आसाएइ । तित्तर्ग खारं कडुयं अखज्जं अभोज्ज विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी-जइणं तुमं देवाणुप्पिया! एवं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जाव आहारहि, मा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जेहि, तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं एगतमणावाए अञ्चित्ते थंडिले परिवेहि परिहवित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्जं असणंपाणं खाइमं साइमं पडिगहित्ता आहारं आहारेहि ॥ सू० २ ॥ टीका-'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविरा यावत्-बहुपरिवाराः-बहुसाधुपरिवारेण सहिता यत्रैव चम्पा नाम नगरी, यौव सुभूमिभागमुद्यान नौवोपागच्छन्ति, अत्र 'धर्मघोषा' इति बहुवचनमादरार्थ प्रयुक्तम् , उपागत्य यथा प्रतिरूपं यावत्-अवग्रहमवगृह्य संयमेन तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि ॥ टीकार्थ-( तेणं कालेणं तेण समएणं) उस काल और उस समय में (धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नाम नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागाच्छित्ता अहापडिरूवं जाव विहरति-परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ परिसा पडिगया-तएणं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवाप्ती धम्मरुई नाम अणगारे ओराले ( ते णं कालेणं तेणं समएणं ) इत्यादि । टी -( तेणं कालेणं तेणं समएणं) त ने अनेते समय (धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नाम नयरी जेणेब मभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं जाव विहरंति परिसा निग्गया, धम्मो करिओ, परिसापडिगया, तएणं तेसि धम्मघोसाणं थेराणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवाषिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १४५ तपसाऽऽस्मान भावयन्तो विहरति-आसतेस्म । परिषद् निर्गता धर्मः कथितः= धर्मकथा कथिता. परिषत् प्रतिगता-धर्मकथा श्रवणानन्तरं प्रतिनिवृत्ता । ततः खलु तेषां धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तेवासी धर्मरुचिनामानगारः उदारः प्रधानो यावत् सक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः संक्षिप्ता शरीरान्तः संकोचिता, विपुला-अनेकयोजन. प्रमितक्षेत्रस्थितवस्तुदहनसमर्था, तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषो येन सः जाव तेउलेस्से मासं मासेण खममाणे विहरइ) धर्म घोष नामके स्थविर यावत् अनेक परिवार से युक्त होकर जहां चंपा नगरी, ओर उसमे जहां वह सुभूमिभाग नाम का उद्यान था वहां आये। वहां आकर के उन्हों ने वहाँ ठहरने के लिये अपने कल्पानुसार आज्ञा मांगी बाद मे वे वहा संयम और तप से आत्माको भावित करते हुए ठहर गये । चंपानगरी के समस्त जन उनको वंदना एवं धर्मकथा सुनाने के लिये वहाँ आये। उन्होंने श्रुतचोरित्र रूप धर्मका उपदेश दिया। उपदेश श्रवण कर परिषद अपने २ स्थान पर पीछे गई । इसके अनन्तर इन धर्मबोष स्थविर के अन्तेवासी जिनका नाम धर्मरुचि अनागार था बड़े उदार प्रकृति के थे विशिष्ट तपस्याओं को किया करते थे-उसके प्रभाव से इन्हें तेजोलेश्या की प्राप्ति हो गई थी और वह तेजोलेश्या इन्होंने अपने शरीर के भीतर संक्षिप्त कर रक्खी थी इस तेजोलेश्या का यह स्वभाव होता हैं कि जब यह शरीर से बाहिर निकलती है तो अनेक योजन प्रमित क्षेत्र में रही हुइ वस्तुओ को भस्मकर देती है। मास क्षपण की उपवास रूप तपस्या अंतेवासीधम्मरूई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणं विहरइ ધર્મ શેષ નામના સ્થવિર પિતાના ઘણા પરિવારોની સાથે જ્યાં જંપ નગરી અને તેમાં પણ જ્યાં તે સુભૂમિભાગ નામે ઉઘાન હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે ત્યાં રોકાવાની પોતાના આચાર મુજબ આજ્ઞા માંગી. ત્યારપછી તેઓ ત્યાં પિતાના આત્માને તપ અને સંયમથી ભાવિત કરતાં રહેવા લાગ્યા. ચંપા નગરીના બધા કે તેમનાં વંદન તેમજ ધર્મકથા શ્રવણ માટે ત્યાં આવ્યા. તેઓશ્રીએ થતચારિત્ર રૂપ ધમને ઉપદેશ આપે. ઉપદેશ સાંભળીને લોકે પિતા પોતાના નિવાસ સ્થાને જતા રહ્યા. ત્યારપછી ધમાલ વિરના અંતેવાસી-જેમનું નામ ધર્મરુચિ અનગાર હતું, જેઓ ખૂબ જ ઉદાર પ્રકૃતિના હતા, વિશિષ્ટ તપસ્યા કરતા રહેતા હતા. જેના પ્રભાવથી એમણે તેજલેશ્યા મેળવી હતી અને તેજલેશ્યાને તેમણે પોતાના શરીરમાં જ સંકેચી રાખી હતી, આ તે –લેશ્યાનો પ્રભાવ આ જાતને હેય છે કે જ્યારે તે શરીરની બહાર નીકળે છે ત્યારે ઘણા પેજને સુધીના ક્ષેત્રમાં મૂકેલી વસ્તુઓને ભસ્મ કરી નાખે છે-માસક્ષપણની ઉપવાસ રૂપ તપસ્યાથી તેઓ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तथा, मास-त्रिंशदहोरात्रात्मकं कालं मासेन-मासक्षपणेन मासोपवासरूपतपः कर्मणा ' खममाणे ' क्षपयन्न्यापयन् विहरति । ततः खलु स धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां ' सज्झ यं ' स्वाध्यायं सूत्रपाठरूपं करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानम् सूत्रार्थचिन्तनरूपं ध्यायति-करोति, एवं यथा गौतमस्वामी, तथैव गौतमस्वामीवत् तृतीयपौरुष्यां भाजनवस्त्राणिप्रमार्जयति, प्रमाl भाजनानि 'उग्गाहेइ' अवगृह्णाति, अवगृह्य यत्रैव धर्मघोषस्थविरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तथैव श्रीमहावीरस्वामीनं गौतमस्वामिवदेव धर्मघोष स्थविरमापृच्छति, से ये अपने त्रिंशत अहोरात्रात्मक काल को उस समय व्यतीत कर रहे थे । अर्थात् एक महीने की तपस्या इन्होंने उस समय कर रखे थे(तएणं से धम्ममइ अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ घीयाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ, जाव चंपाए नयरीए उच्च नीय मज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणी ए गिहे तेणेव अणुपविटे, तएणं सा नागसिरी माहणी धम्मरुइं एज्जमाणं पासइ) ये धर्मरुचि अनगार मासक्षपण की पारणा के दिनप्रथम पौरुषी में सूत्रपाठ रूप स्वाध्याय, द्वितीय पौरुषी में सूत्रार्थ चिन्तन रूप ध्यान और तृतीय पौरुषी मे गौतम स्वामी की तरह वस्त्रपात्रों का प्रमार्जन करते । इस तरह इन्होंने तृतीय पौरुषी में वस्त्र पात्रो का प्रमार्जन कर अपने पत्रों को उठाया और उठकर ये धर्मघोष स्थविर के पास गये। પિતાના ત્રિશત્ અહોરાત્રાત્મક કાળને તે સમયે પસાર કરી રહ્યા હતા-એટલે કે તેઓ તે સમયે એક માસની તપસ્યા કરી રહ્યા હતા, (तएणं से धम्मरूइ अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरीसए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता तहेच धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ, जाव चंपाए नयरीए उच्चनीय मज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविटे, तएणं सा नागसिरी माहणी धम्मरूई एज्जमाणं पासइ) ધર્મચિ અનગાર ગૌતમ સ્વામીની જેમ પ્રથમ પૌરુષમાં સુત્રપાઠ રૂપ સ્વાધ્યાય, દ્વિતીય પૌરુષીમાં સૂત્રાર્થ ચિંતન રૂપ ધ્યાન અને તૃતીય પૌરુષીમાં વણ અને પાત્રોનું પ્રમાર્જન કરતા હતા, માસક્ષપણના પિતાના પારણાના દિવસે પણ તેઓએ તૃતીય પૌરુષીમાં વસ્ત્ર-પિતાનું પ્રમાર્જન કરીને પોતાના પાત્રોને લીધા અને લઇને તેઓ ધર્મ શેષ સ્થવિરની પાસે ગયા, જેમ ગૌતમ श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी री० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १४७ यावत् - चंपायां नगर्यामुच्चनीचमध्यमकुलानि यावदटन् यौव नागश्रिया ब्राह्मण्या गृहं तत्रैतानुप्रविष्टः । ततः खलु सा नागश्री ब्राह्मणी धर्मरुचिमनगारम् एजमानम्-आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा तस्य 'सालइयस्स ' शारदिकस्य तिक्तकटुकस्य-तिक्तकटुकतुम्बकस्य बहुस भारसंभृतस्य स्नेहावगाढस्य 'पट्टवणट्टयाए ' प्रस्थापनार्थ परिष्ठा. पनार्थ हृष्टतुष्टा 'उठाए' उत्थया-उत्थानक्रियया उत्तिष्ठति, उत्थाय यचैव भक्तगृह तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तद् शारदिकं तिक्तकटुकतुम्बकं बहुसंभारसंभृतं स्नेहावगाढं धर्मरुचेरनगारस्य 'पडिग्गहंसि' पतद्ग्रहे-पात्रे, सर्वमेव 'निसिरह' जिस प्रकार गौतम स्वामो श्री महावीर स्वामी से पूछकर आहार लेने के लिये जाते थे उसी प्रकार इन्होंने धर्मघोष स्थविर से आहार लाने के लिये आज्ञा मांगी। आज्ञा प्राप्तकर ये चंपानगरी में उच्च नीच एवं मध्यमकुलो में भ्रमण करते हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी का घर था वहां गये । नागश्री ब्राह्मणी ने इन्हें ज्योंही आते हुए देखा (पासित्ता तस्स सालयस्स बहु संभारसंभियस्स हावगाढस्त तित्तकडुयस्त पट्टवणट्टयाए हट्ट तुट्ठा उठाए उठेइ उहित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ ) स्योहों यह बहुसंभार संभृत एवं स्नेहावगाढ उसकडवी तुंबडीका आहार देने के लिये उत्थान क्रिया द्वारा-उठो-अर्थात् अपने में रही हुई उठने की शक्ति से उठी और हृष्ट तुष्ट होती हुइ जहाँ भोजन-गृह था वहां गइ । ( उवागच्छित्ता तं सालइयंतित कडुयं च बहुसंभार संभियं णेहावगाई धम्मरुइयस्त अणगारस्स पडिग्गहसिं सत्थमेव निसिरइ ) वहां સ્વામીને પૂછીને આહાર લાવવા માટે નીકળતા હતા તેમજ તેઓએ પણ આહાર લાવવા માટે ધમશેષ વિરની પાસે આજ્ઞા માંગી. આજ્ઞા મેળવીને તેઓ ચંપા નગરીમાં ઉચ્ચનીચ અને મધ્યમ કુળમાં ભ્રમણ કરતાં જ્યાં નાગશ્રી બ્રાહ્મણીનું ઘર હતું ત્યાં ગયા. નાગશ્રી બ્રાહ્મણીએ તેઓને આવતા જોયા (पासित्ता तस्स सालइयस्त बहुसंभारसंभियस्त हावागाढस्स तित्तकडुयस्स पट्ठवणट्ठयाए हटतुट्टा उठाए उढेइ, उद्वित्ता जेणेव भत्तधरे तेणेव उवागच्छइ ) ત્યારે તરત જ સરસ વઘારેલો ઘી તરત કડવી તુંબડીને આહાર આપવા માટે ઉત્થાન ક્રિયા વડે ઊભી થઈ એટલે કે પિતાનામાં રહેલી ઊભા થવાની તાકાતથી તે ઊભી થઈ અને હૃષ્ટ તેમજ તુષ્ટ થતી જ્યાં ભેજનશાળા હતી ત્યાં ગઈ. (उबागच्छित्ता तं सालइयं तिक्तकड्यं च बहुसंभारसंभियं णेहावगादं ध. स्मरूइयस्स अणगारस्स पडिग्रहसिं सबमेव निसिरह) श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे निसृजति परिष्ठापयति । ततः खलु स धर्मरुविरनगारः 'अहापज्जतं' यथा पर्याप्तम्-उदरपूर्तये पूर्णमेतद् इति कृत्वा इति मनसि विभाव्य, नागश्रिया ब्राह्मण्या गृहात् प्रतिनिष्कामति-निर्गच्छति प्रतिनिष्क्रम्य चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन प्रतिनिष्क्राम्यति प्रतिनिष्क्रम्य यौव सुभूमिभागमुद्यानं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धर्मघोषस्य स्थविरस्य 'अदूरसामन्ते नातिदूरे नातिसमीपे, अन्नपानं 'पडिलेहे' प्रति लेखयति प्रतिलेख्य अन्नपानं करतले पात्रं कृत्वा प्रतिदर्शयति। ततः खलु ते धर्मघोषाः स्थविरास्तस्य शारदिकस्य तिक्तकटुतुम्बकस्य यावत् स्नेहावगाढस्य गन्धेनाऽभि. भूतासन्तस्तस्माच्छारदिकाद् यावद् स्नेहावगाढादेकं विन्दुकं गृहीत्वा करतले कृत्वा आस्वादयति । तिक्तकं क्षारं कटुकम् अवाघमभोज्यं विषभूतं ज्ञात्वा धर्मजाकर उसने उस शारदिक कडवी तुंबडी का बहु संभार संभृत एवं स्नेहावगाढ शाक धर्मरुचि अनागार के पात्र में सब का सब डाल दिया (तएणं सेधम्मरुइ अणगारे अहापज्जत्तमित्तिकट्टु णागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ ) इसके बाद वे धर्मरुचि अनगार " यह उदर पूर्ति के लिये पर्याप्त है " ऐंसा मन में समझ कर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले पडिक्खिमित्ता चपाए नयरीए मज्झं मज्झेणं पडिनिक्खमइ, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे - तेगेव उवागच्छह, उवागच्छित्तो धम्मघोसस्स अदुरसामंते अन्नपोणं पडिलेहेइ, पडिले. हित्ता अण्णपाणं करयलंसि पडिदंसेइ, तएणं से धम्मघोसा थेरा तस्स सालइस्स जाव नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा ताओ सालइयाओ जाव नेहावगाढाओ एगं बिंदुगं गहाय करयलंसि आसाएइ) ત્યાં જઈને તેણે તે શારદિક કડવી તુંબડીનું ખૂબ જ સરસ રીતે વઘા. રેલું તેમજ ઘી તરતું શાક લઈ આવી અને ત્યારપછી ધર્મચિ અનગારના પાત્રમાં બધું નાખી દીધું. (तएणं धम्मरूई अणगारे अहापज्जनमित्ति कट्ट गागसिरीए महिणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ) ત્યારપછી તે ધર્મરુચિ અનગાર “આ ઉદર પિષણ માટે પર્યાપ્ત છે " એવું જાણીને નાગશ્રી બ્રાહ્મણના ઘેરથી બહાર નીકળ્યા. (पडिनिक्खमित्ता चपाए नयरीए मज्झ मज्झेणं पडिनिक्खमइ, जेणेव सुभूमिभागे उजाणे-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदरसामंते अन्नपाणं पडिलेहेइ, पडिलेहिता अण्णपाणं करयलंसि पडिदंसइ, तएणं से धम्मघोसाथेरा तस्स सालइस्स जाव नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा तो सालझ्याओ जाव नेहावगाढाओ एगं बिंदुगं गहाय करयलंसि आसाएइ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १४९ रुचिमनगारमेवमवदन् यदि खलु त्वं हे देवोनुप्रिय । एतद् शारदिकं यावत्तिक्तकटुकतुम्बकं यावत् स्नेहावगाढम् आहारयसि-आहारं करिष्यसि, तर्हि खलु त्वमकाले एव जीविताद् व्यपरोपिष्यसे' एतदशनेन मरणमवश्यं प्राप्स्यसीत्यर्थः । तत् तस्मात् मा खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! एतद् शारदिकं यावदाहारय, मा खलु निकल कर चंपानगरी के बीचो बीचसे होकर चल दिये सो जहां सुभूमिभाग नाम का उद्यान था वहां आ गये। वहां आकर वे अपने आचार्य धर्मघोष स्थविर के पास आये वहां आकर उन्होंने भिक्षामें प्राप्त हुआ आहार बताया और बताने के बाद उस शारदिक कडवी तुंबडी के यावत् स्नेहावगाढ शाक की गंध से अभिभूत होते हुए उन धर्मघोष आचार्य ने उस शारदिक यावत् स्नेहावगाढ शाक में से एक बिन्दु मात्र को अपने हाथ की हथेली पर रख कर चखा (तित्तगं खारं कड्डयं अखज्जं अभोज्जं विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइ अणगारं एवं वयासी -इणं तुमं देवाणुपिया। एयं साल इयं जाव ने हावगाहं आहारेसि तो णं तुमं अकोले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि ) चखते ही “ यह तिक्त हैं क्षार से युक्त है कटुक है अखाद्य एवं अभोज्ज है तथा विषभूत है" ऐसा जानर धर्मरुचि अनगार से उन्होंने ऐसा कहा हे देवानु प्रिय ! यदि तुम शारदिक कडवी तुंबडो के बहु संभोर संभृत एवं स्नेहारगाढ इस शाक का आहार करोगे तो निश्चय से विना मृत्यु के નીકળીને ચંપા નગરીની વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થતાં જ્યાં સુભૂમિભાગ નામે ઉદ્યાન હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ પિતાના આચાર્ય ધર્મઘોષ વિરની પાસે આવ્યા અને ત્યાં આવીને તેમણે ભિક્ષામાં પ્રાપ્ત થયેલા આહારને બતાવ્યું અને બતાવીને તે શારદિક કડવી તુંબડીના સરસ વઘારેલા ઘી તરતા શાકની સુવાસથી અભિભૂત થતાં તે ધર્મઘોષ આચાર્યો તે શારદિક સરસ વઘારેલા ઘી તરતા શાકને હથેળી ઉપર મૂકીને ચાખ્યું. ( तत्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्नं विसभूयं जाणित्ता धम्मरूई अणगार एवं क्यासी-जइणं तुमं देवाणुप्पिया ! एयं सालइयं जाव नेहावगाडं आहारेसि तो गं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि) ચાખતાં જ “આ તિકત છે, ખારૂં છે, કડવું છે, અખાદ્ય તેમજ અ ન્ય છે તથા વિષભૂત છે” આવું જાણીને ધમરુચિ અનગારને તેઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! જે તમે શારદિક કડવી તુંબડીને સરસ વધા રેલા વીતરતા શાકનો આહાર કરશે તે ચોક્કસ તમે કમેતે મરી જશે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे त्वमकालएक जीविताद् व्यपरोष्यस्व-मा म्रियस्व । तत्-तस्माद् गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय । इदं शारदिकं 'एगंतमणावाए ' एकान्तेऽनापाते-एकान्ते= निर्जनस्थाने, अनापाते-आपातः-द्वीन्द्रियादिप्राणिनां संयोगस्तद्वर्जिते, अचित्ते= जीवरहिते, स्थण्डिले भूमौ ' परिहवेहि' परिष्ठापय, परिष्ठाप्यान्यत् प्रामुकमेषणीयं= द्वाचत्वारिंशदोषरहितं, शुद्धम्-अशनपानखाद्यस्वायम् पतिगृह्य आहारमाहारय।।म् ०२॥ मूलम्-तएणं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिल्लं मरजाओगे-(तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जाव आहारेहि माणं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजहि तं गच्छणं तुम देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं एगंतमणावाए अच्चित्ते थंडिले पडिट्ठवेहि, परिडवित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्ज असणं पाणं खाइमं साइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारेहि) इसलिये हे देवानुप्रिय ! तुम शारदिक कडवी तुंबडी के शाक किसी एकान्त स्थानमें कि जहां बीन्द्रियादि प्राणियोंको संचरण नहों-और जो अचित्त हो ऐसी भूमि पर परिष्ठापना कर आओ। और परिष्टापना करके फिर प्रामुक एषणीय ४ ४२ दोषों से रहित शुद्ध अशन, पान खाद्य स्वाध रूप दूसरे आहार को लेकर भोजन कर लो ॥ सू०२॥ (तं माण तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जाव आहारेहि माणं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्ञहि तं गच्छणं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं एगं. नमणाचाए अचित्ते थंडिले पडिहवेहि, परिहवित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्ज असणं पाणं खाइमं साइमं पडिगाहित्ता आहारं आहारेहि ) એથી હે દેવાનુપ્રિય! તમે આ શારદિક તુંબડીને શાકને ખાશો નહિ તેથી અકાળે તમારું મરણ પણ થશે નહિ. માટે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ આ શારદિક કડવી તુંબડીના શાકની કેઈપણ એકાંત-નિર્જન સ્થાનમાં કે જ્યાં પ્રિન્દ્રિયાદિ પ્રાણીઓનું સંચરણ હેય નહિ અને જે અચિત્ત હોય એવી ભૂમિ ઉપર પરિઝાપના કરી આવે અને પરિઝાપના કર્યા બાદ પ્રાસુક એષણીય ૪૨ દેથી રહિત શુદ્ધ અશન, પાન, ખાદ્ય-વાઘ રૂપ બીજો આહાર લાવી તે 24NEAR अहण 3. ॥ सूत्र "२"॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरितवर्णनम् १५१ पडिलेहेइ, पडिलेहिता तओ सालाइयाओ एवं बिंदुगं गहेइ हित्ता थंडिलंसि निसिरइ तो णं तस्स सालइयस्स तित्तकडुयस्स बहुनेहावगाढस्सगंधेण बहूणि पिपीलिंगासहस्त्राणि पाउभूयाई जा जहा य णं पिवीलिका आहारेइ सा तहा अकाले चैव जीवियाओ ववशेविज्जइ तएणं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए ५ जाव ताव इमस्स सालइयस्स जाव एगंमि बिंदुर्गमि पक्खित्तंमि अणेगाईं पिपीलिया सहस्साई वयरोविजति तं जइ णं अहं एयं सालइयं थंडिलंसि सव्वं निसिरामि तणं बहूणं पाणाणं ४ वहकारणं भविस्सइ, तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जावगाढं सयमेव आहारेतर, मम चैव एएणं सरीरेणं णिजाउत्तिकट्टु एवं संपेहेइ संपेहित्ता मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहिता ससीसोवरियं कार्य पमजेइ २ तं सालइयं तित्तकडुयं बहुने हावगाढं बिलमिव पन्नगभूतेणं अपाणं सव्वं सरीरकोटुंसि पक्खिवइ, तएणं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तंतरेण परिणममार्णसि सरीरगंसि वेचणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, तपणं से धम्मरुची अणगारे अथामे अवले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक आधारणिज्जमितिकट्टु आयारभंडगं एगंते ठवेइ ठवित्ता थंडिल्लं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दव्भसंथारगं संथारेइ संधारित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरुहिता पुरस्थाभिमुहे संपलियंनिसने करयल परिग्गहियं एवं बयासी - नमोऽस्थ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं, पुट्विपि णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सवे पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए जाव परिग्गहे, इयाणिपि णं अहं तेसिं चेव भगवंताणं अंतियं सव्वं पाणाइवाइं पञ्चक्खामि जाव परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवाए, जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सासेहिं वोसिरामितिकटु आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालगए ॥ सू० ३॥ ___टीका-ततः खलु स धर्मरुचिरनगारो धर्मघोषेण स्थविरेणैवमुक्तः सन् धर्मघोषस्य स्थचिरस्यान्तिकात्-समीपात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य सुभूमिभागो. द्यानाद् अदूरसामन्ते-नातिदूरे नातीसमीपे स्थण्डिलं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य ततः तस्माद् शारदिकात् तिक्तकटुकात् तुम्बकादेकं विन्दुकं गृह्णाति, गृहीत्वा स्थण्डिले भूमौ ' निसिरइ' निसृजति परिष्ठापयति । ततः खलु तस्य शरदिकस्य तएणं से धम्मरुई अणगारे इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद ( से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसे गं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्त थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ) वे धर्म रुचि अनगार धर्म घोष से इस प्रकार कहे जाने पर धर्मघोष के पास से चले आये (पडिनिक्खमित्ता सुभूमिभागाओ उजाणाओ अदर सामंते थंडिलं पडिलेहेइ,पडिलेहिता तओ सालइयाओ एग बिंदुगं गहेइ, गहित्ता थंडलसि निसिरइ, तो णं तस्स सालइयस्स तित्त कडुय त एणं से धम्मरूई अणगारे इत्यादि टी-( त एणं ) त्या२५छी ( से धम्मरूई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स रस्स अंतियाो पडिनिक्खमइ ) તે ધર્મરુચિ અનગાર ધમષની આ વાત સાંભળીને તેમની પાસેથી सावता २. (पडि निक्रवमित्ता मुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिलं पडिलेहेइ, पडिले हित्ता तो सालइयाओ एग बिंदुगं गहेइ, गहित्ता थंडिलंसि निसरह, तो णं तस्स सालइयस्स तितकडयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेणं बहूणि पिवीलिगा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरित निरूपणम् १५३ तिक्तकटुकस्य तुम्बकस्य बहुसंभारसंभृतस्य स्नेहावगाढस्य गन्धेन बहूनि पिपीलिकासहस्राणि प्रादुर्भूतानि या यथा च ' णं तं शारदिकस्य तिक्तकटुक तुम्बकस्य विन्दुकं पिपीलिका आहरति, सां तथा अकाले एव "जीवियाओ ववरोबिज्जइ ' जीविताद् व्यपरोप्यते= प्राणेभ्यो वियुज्यते 'त्रियते ' इत्यर्थः, ततः खलु-पिपीलिकाविराधनमवलोक्य धर्मरुचेरनगारस्यायमेतद्रूपः = वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्या. त्मिकः = ५ आत्मगतः चिन्तितः = स्मरणरूपः, मार्थितः = अभिलाषरूपः, कल्पितः = कल्पनारूपः, मनोगतः =अन्तः प्रकाशितः संकल्पो विचारः समुदपद्यत यदि तावदस्य शारदिकस्य यावत् - तिक्त तुम्बकस्य एकस्मिन् विन्दुके मक्षिप्ते सति अनेकानि पिपीलिकासहस्राणि 'ववपरोविज्जंति ' व्यपरोप्यन्ते माणेभ्यो वियुज्यंते म्रियन्ते । स्स बहुने हावडादस्स गंधेणं बहूणि पिपीलिंगासहस्साणि पाउन्भूयाई जा जहायणं पिपीलिका आहारेइ सा तहा अकाले चेव जीवियओ बबरो विज्जइ ) और आकर के उन्होंने सुभूमिभाग उद्यान से न अतिदूर और न अति समीप भूमि की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके फिर उन्होंने उस शारदिक - तिक्तकटु-तुंबडी के शाक में से एक बिन्दुमान शोक लिया और लेकर उसे भूमि पर डाल दिया। तो इतने में ही शारदिक तिक्तकडवी तुंबडी के उस बहुस्नेहावगाढ शाक की गंध से वहां हजारों कीड़िया एकट्ठी - एकत्रित हो गईं। उनमें से जिस कीड्रीने जिस समय उसे खाया वह कीड़ी उसी समय वहां मर गई । (तएर्ण तस्स घम्मरुइयस्स अणगारस्त इमेयारूवे अज्झत्थिए ५ - जइ ताब इमस्स सालइयस्स जाव एगंमि विन्दुगंमि पक्खित्तंमि अणेगा पिपीलिया सहस्साणि पाउन्भूयाई जा जहायणं पिवीलिका आहारे सा तहा अकाले चैव जीवियाओ ववरोबिज्जर ) અને આવીને તેમણે સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનથી વધારે દૂર પણ નહિ અને વધારે નજીક પણ નહિ એવા સ્થાને ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી. પ્રતિલેખના કરીને તેઓએ તે શારકિ–તિકત કડવી તુંબડીના શાકમાંથી એક ટીપા જેટલું શાક લીધું અને લઈને તે ભૂમિભાગ ઉપર નાખી દીધું. નાખતાંની સાથે જ ત્યાં શારદિક તિત-કડવી તુખડીના ઘી તરતા શાકની સુવાસથી હજા૨ા કીડી. એકઠી થઈ ગઈ. તેઓમાંથી જે જે કીડીએ તે શાકને ખાધું હતું તે તે તરતજ ત્યાં મરી ગઈ. तरणं तस्स धम्मरुइयस्स अणगारस्य इमेयारूवे अज्झत्थिए ५ जइ ताव इमइस सालइयस्स जाव एगंमि बिंदुगंमि पक्खित्तम्मि अणेगाई पिवीलिया सहस्साई શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___शाताधर्मकथासूत्र तत्-तस्माद् यदि खल्वहमेतद् शारदिकं 'थंडिलंसि' स्थण्डिले भूमौ सर्व 'निसिरामि' निसजामि-परिष्ठापयामि, ' तोणं तर्हि खलु बहूनां प्राणानां= माणाः सन्त्येषामिति प्राणाःमाणवन्तस्तेषां, तथाभूतानां जीवानां तत्-तस्माद् थेयः श्रेयस्करं खलु ममेदं शारदिकं तिक्तकटुकालाबुकं यावत्-स्नेहावगाढं स्वयमेव आहारयितुं-भोक्तुम् , ममैव ' एएण' एतेन-तिक्ततुम्बकाहारेण ' सरीरेणं' भरीरं खलु 'णिज्जाउ' निर्यातु-निर्गच्छतु नश्यतु 'त्तिक?' इति कृत्वा इति मनसि निधाय एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-पुनः पुनर्विचारेण शरीरनिर्याणं कर्तु सहस्साइं ववरोविजंति, तं जइणं अहं एयं सालइयं थंडलंसि सव्वं निसिरामि तएणं बहुणं पाणाणं ४ वह कारणं भविस्सइ तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाव गाढं सयमेव आहारेत्तए) इस तरह पिपीलिकाओ की विराधना देखकर धर्मरूचि अनगार को इस प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत सकल्प-विचार हुआ-यहां संकल्पके चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित इन तीन विशेषणों को ग्रहण कर ने के निमित्त सूत्र में ५ का अक दिया है । जब इस शारदिक तिक्त कडवी तुंबडी की शाक की एक बिन्दु मात्र जमीन पर डालने पर अनेक पिपीलिका सहस्र प्राणों से वियुक्त हो जाती हैं तो मैं जब इस शारदिक तिक्त कडवी तुंबी के शाकको पूरेरूपमें जमीन पर परिष्टापित कर दूँगा तो अनेक प्रणियों ४ के वह विराधना का कारण होगा इसलिये मुझे उचित है कि मैं ही इस शारदिक तिक्त कडवी तुंबडी के इस बहुत मसालेदार एवं स्नेहावगाढ बहुत घृतसे युक्त शाक को स्वयं आहार कर जाऊँ । (मम चेव एएणं सरीरेणं णिजाउत्तिकटु एवं संपेहेइ संपेहित्ता मुहपोत्तियं २ वयरोविजंति, तं जइणं अहं एयं सालइयं थंडलंसि सव्वं निसिरामि तएणं बहुणं पाणाणं४वह कारण भविस्सइ तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाच गाद सयमेव आहारेत्तए આ પ્રમાણે કીડીઓની વિરાધના જોઈને ધર્મરુચિ અનગારને આ જાતનો આધ્યાત્મિક કાવત્ મને ગત સ કલ્પ-વિચાર-ઉદ્ભવ્યો. અહીં સંકલ્પના ચિંતિત, પ્રાર્થિત, કલ્પિત આ ત્રણે વિશેષણોના ગ્રહણ માટે સૂત્રમાં પ ને અંક આપ વામાં આવ્યું છે-કે જ્યારે આ શારદિક તિકત કડવી તુંબડીના શાકના ફક્ત એક ટીપાને પૃથ્વી ઉપર નાખવાથી ઘણું–કીડીઓ હજારે પ્રાણથી વિયુકત થઈ જાય છે ત્યારે હું શારદિક કડવી તુંબડીના બધા શાકને પૃથ્વી ઉપર નાખીશ ત્યારે તે અનેક પ્રાણીઓ ૪ ની વિરાધનાનું કારણ થશે. એથી મને એજ ચોગ્ય લાગે છે કે હું આ શારદિક તિકત કડવી તુંબડીના આ સરસ મસાલાવાળા અને ઘી તરતા શાકને પિતે જ ખાઈ જાઉ.. श्री शतधर्म था। सूत्र:03 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १५५ निश्चिनुते । संप्रेक्ष्य-' मुहपोत्तिय ' मुखपोत्तिकांसदोरकमुखस्त्रिका रजोहरणं च पतिलेखयति, प्रतिलेख्य 'ससीसोवरियं ' सशीर्षोंपरिकं-चरणतला मस्तकोपरिभागर्यन्तं कायं-शरीरं, 'पमज्जेइ ' प्रमार्जयति, प्रमाज्यं तद् शारदिकं तिक्तकटुकं बहुसंमारसंभृतं स्नेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना सर्व शरीरकोष्ठ के उदरे पक्षिपति मुखस्य पार्श्वद्वयस्पर्शरहितमाहारयतीत्यर्थः । ततः खलु तस्य धर्मरुचेस्तद् पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता ससीसोवरियं कार्य पमज्जेइ पमजित्तातं सालइयं तित्तकडुयं वहुनेहावगाढ बिलमिव पनगभूएणं अप्पाणेणं सन्च सरीरकोहंसि पक्खिवइ) मेरा ही शरीर इस तिक्त कटु तुंबडी के आहार से नाश होवे इस प्रकार उन्होंने अपने मनमें बार २ सोचा सोचकर अपने शरीर के निर्याण करने का उन्होंने निश्चय कर लिया। निश्चय करने के अनन्तर सदोरक मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण इनकी उन्होने प्रतिलेखना करके फिर वे चरण तल से लेकर मस्तकोपरिभाग पर्यन्त तक के समस्त अपने शरीर की प्रमार्जना करके उन्होंने उस शारदिक तिक्त कडबी तुंबडी के बहुत मसाला से युक्त एवं स्नेहावगाद बहुत घी से युक्त समस्त शाक का आहार कर लिया-जिस प्रकार सर्प जब बिल में प्रविष्ट होता है तब बिल के दोनों पर्श्वभागों को स्पर्श नहीं करता हुआ उसमें सीधा प्रविष्ट हो जाता है-उसी तरह बह शाक रूप सर्प भी मुख रूप बिल के दोनों पार्श्वभागों को स्पर्श नहीं करता हुआ सीधा गले से होकर पेट में चला गया। (तएणं तस्स (मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउत्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता मुहषोत्तियं २ पडिलेहेइ, पडिलेहिता ससिसोवरियं कायं पमज्जेइ पमज्जित्ता तं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं बिलमिव पनगभूएणं अप्पाणेणं सव्वं सरीर कोसि पक्खिवइ) મારું શરીર જ આ તિક્ત કડવી તુંબડીના આહારથી નષ્ટ થાય. આ રીતે તેણે પિતાના મનમાં વારંવાર વિચાર કર્યો. વિચારીને પિતાના શરીરને નષ્ટ કરવાને તેમણે મક્કમ વિચાર કર્યા બાદ તેણે સદેરક મુખત્રિકા અને રજેહરણની તેમણે પ્રતિલેખના કરી. પ્રતિલેખના કરીને તેમણે પગના તળિયાથી માંડીને મસ્તક સુધીના પિતાના આખા શરીરની પ્રમાર્જના કરી ત્યારે તેણે તે શારદિક તિકત કડવી તુંબડીના સરસ મસાલાવાળા અને ઉપર ઘી તસ્તાં બધા શાકને આહાર કરી લીધે. જેવી રીતે સાપ જ્યારે દરમાં પ્રવેશે છે ત્યારે દરના બંને પાશ્વભાગને સ્પર્શ કર્યા વગર તેમાં સીધે પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે તેમજ તે શાક રૂપી સાપ પણ મુખ રૂપી દરના બંને પાશ્વભાગને. સ્પર્યા વગર સીધું ગળામાં થઈને પેટમાં જતું રહ્યું. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे : शारदिकं यावत् - स्नेहावगाढम् आहारितस्य = मुक्तवतः, सतो मुहुर्तान्तरेण परिणम्यमाने = आहारे परिणामं प्राप्ते सति शरीरे वेदना प्रादुर्भूता सा कीदृशी ? त्याहउज्ज्वला = तीव्रा, यावद् ' दुरहियासा ' दुरध्यासा=दुरधिसहा - असह्येत्यर्थः । ततः खल्लुस धर्मरुचिरनगारो ऽस्थामा, हीनपराक्रमः, अबल: = मनोबलरहितः अवीर्यः= हतोत्साहः अपुरुषकार पराक्रमः, पुरुषार्थहीनः, ' अधारणिज्जमितिकट्टु ' अधारणीयमिति कृत्वा - धारयितुमशक्यमिदं शरीरमितिमनसि विचार्य ' आयारभंडगं ' आचारभाण्डकम् - आचाराय आचारपालनार्थ भाण्डकं = भाण्डोपकरणं वस्त्रपात्रादिकधम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुत्तं तरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा-तरण से धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसबकारपरकमे अधारणिज्जमित्ति कट्टु अपारभंडगं एगंते ठवेइ, ठबिता डिल्लं पडिलेड, पडिलेहिता दम्भसंधारगं संथारेह, संधारित्ता दग्भसंवारगं, दुरुहह, दुरुहित्ता पुरस्थाभिमुद्दे संपलियंक निसन्ने करयल परिग्गहियं एवं वयासी ) शाक उन धर्मरुचि अनगार के पेट में पहुँचते ही एक मुहूर्त के बाद जब वह पचने लगा तब उनके शरीर में उज्ज्वल यावत् दुरधिध्यास वेदना प्रकट हुई । इस से वे धर्मरुचि अनगार पराक्रम से हीन, मनोबल से विहिन, हतोत्साह होकर पुरुचार्य रहित बन गये । यह शरीर अब धारण करने से अशक्य हो रहा है ऐसा जब उन्होंने प्रतीत होने लगा तब उन्होंने अपने आचारभांडक पंचविध आचार पालने के लिये जो - वस्त्र पात्रादिक थे उनको - एकान्त में रख दिया - रखकर फिर उन्हों ने संस्तारकभूमि की ( तणं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरंगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा - तरणं से धम्मरूई अणगारे अथामे, अबले अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्टु आयारमंडगं एगंते ठबे, ठवित्ता थंडिल्लं पडिलेहेड, पडिलेहित्ता दम्भसंधारगं संथारे, संधारित्ता दव्भसंथारगं दुरुहद्द, दुरुहित्या पुरत्याभिमु संपलियंक निसन्ने करयलपरिग्गहियं एवं वयासी ) શાક તે ધરુચિના પેટમાં પહેાંચતાં જ એક મુહૂત પછી જ્યારે તેનું પાચન શરૂ થયું ત્યારે તેમના શરીરમાં ઉજવલ યાત્રતા દુરભિધ્યાસ વેદના થવા માંડી. તેથી તે ધમ રુચિ અનગાર પરાક્રમ વગર, મનેાખળ વગર હતેાત્સાહી થઈને પુરુષાર્થ વગર બની ગયા. હવે આ શરીર ટકવું અશકય થઈ પડયુ છે એવી જ્યારે તેઓને પ્રતીતિ થવા લાગી ત્યારે તેમણે પાતાના આચાર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् म् १५७ मित्यर्थः, एकान्ते स्थापयति, स्थापयित्वा स्थण्डिलं-संस्तारकभूमि प्रतिलेखति, प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारकं 'संथारेइ' संस्तृणाति आस्तृतं करोति संस्तीय, दर्भसंस्तारकं दूरोहति-आरोहति, दूरूह्य पौरस्त्याभिमुखः पूर्वदिगभिमुखः, 'संपलियंकनिसन्ने ' संपल्यङ्क निषण्ण: पद्मासनसंनिविष्टः, करतलपरिगृहीत संयोजितहस्त. तलद्वयं मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् स्वमनस्युक्तवान् , " नमोऽत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, -णमोऽत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं " नमोऽस्तु खलु अर्हद्भयो भगवद्भयो यावत् संप्राप्तेभ्यः, नमोस्तु खलु धर्मघोषेभ्यः स्थविरेभ्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि दीक्षाग्रहणकालेऽपि खलु मया धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तिके सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातो यावज्जीवं 'यावत् परिग्रहः' अत्र यावच्छब्देन-सों मृपावादः, सर्वमदत्तादानं सर्व मैथुनं च प्रत्याख्यातम् , तथा-सर्वः परिग्रहः प्रत्याख्यातः। इदानीमपि खलु अहं तेषामेव भगवतामन्तिके सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावत् परिगहं प्रत्याख्यामि यावप्रतिलेखना की प्रतिलेखना करके फिर उसके ऊपर उन्होंने दर्णसंस्तारक को बिछाया-बिछाकर फिर वे उसपर बैठकर फिर पूर्वदिशा की और मुखकर पर्यङ्कासन से उस पर विराजमान हो गये विराजमान होकर उन्होंने अपने दोनों हाथों को जोड़ा ओर मस्तक पर उसकी अंजलि रखकर इस प्रकार अपने मन ही मन वे कहने लगे( नमोत्थुणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं, णमोत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं पुविपि णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीवाए जाव परिग्गहे. इयाणि पि अहं तेसिंचेव भगवंताणं अंतियं सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव ભાંડકન-વસ્ત્ર પાત્ર વગેરેને એકાંતમાં મૂકી દીધાં. મૂક્યા બાદ તેઓએ સંસ્તારક ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી. પ્રતિલેખના કરીને તેની ઉપર તેમણે દભ સંતારક કર્યો દર્ભસંસ્તારક પાથરીને તેઓ તેની ઉપર બેસીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને પર્યકાસનથી તેની ઉપર વિરાજમાન થઈ ગયા. વિરાજમાન થઈને તેઓએ પિતાના બંને હાથને જેડયા અને તેમની અંજલી બનાવીને મસ્તક ઉપર મૂકી અને પિતાના મનમાં જ કહેવા લાગ્યા. (नमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायारियाणं धम्मोवएसगाणं पुचि पिणं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सच्चे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव जीवाए जाव परिग्गहे, इयाणि पि अहं तेसिं चेव श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ज्जोवं, यथा-स्कन्दकः स्कन्दकवत् यावच्चरमै-रुच्छवासैः, 'वोसिरामितिका व्युत्सृजामि-शरीरं परित्यजामि' इति कृत्वा 'आलोइय पडिकंते' आलोचितप्रति कान्तःपूर्वकृतं यदतीचारजातं तदालोचितं, पुनरकरणप्रतिज्ञया प्रतिक्रान्तं येन स तथाभूतः समाधिप्राप्त आत्मसमाधियुक्तः कालगतः मरणं प्राप्तः ॥सू०३॥ मूलम्-तएणं ते धम्मघोसा थेरा धम्मरुइं अणगारं चिरं गयं जाणित्ता समणे निग्गंथे सदावेंति सदावित्ता एवंवयासी परिग्गहं पच्चक्खामि जाव जीवाए जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सा सेहिं वोमिरामित्ति कटु आलोइय पडिक्कंते समाहिपत्ते कालगए) यावत् सिद्रिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अरिहंत भगवंतो के लिये मेरा नमस्कार हो-धर्मोपदेशक मेरे धर्मावार्य श्री धर्मघोषस्थविर के लिय मेरो नमस्कार हो मैंने पहिले दीक्षा ग्रहण क समय उन धर्म वोष स्थविर के समीप समस्त प्राणातिपात, समस्त मृषावाद, समस्त अदत्तादान, समस्त मैथुन तथा समस्त परिग्रह जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यात कर दिया है। अब भी मैं उन्हीं भगवंतो के समक्ष समस्त प्राणातिपात घावत् समस्त परिग्रह का यावज्जीव प्रत्यख्यात करता हूँ। यावत् अन्तिम श्वासोतक स्कन्दककी तरह इस शरीरका परित्याग करता हूँ। इस प्रकार मन ही मन कह कर वे धर्मरूचि अनागार आलोचित प्रतिक्रान्त बनकर आत्मसमाधिमें तल्लीन होते हुए मरण प्राप्त हुबे सू०३।। भगवंताणं अंतियं सव्यं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गहं पच्चक्खामि जाव जीवाए जहा खंद ओ जाव चरिमेहिं उसासेहि वोसिरामित्ति कटु आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालगए ) યાવત્ સિદ્ધગતિ મેળવેલા અરિહંત ભગવંતેના માટે મારા નમસ્કાર છે ધર્મોપદેશક મારા ધર્માચાર્ય શ્રી ધર્મશેષ સ્થવિરના માટે મારા નમસ્કાર છે. પહેલાં દીક્ષા ગ્રહણ કરતી વખતે મેં તે ધર્મઘેષ સ્થવિરની પાસે સમસ્ત પ્રાણા તિપાત, સમસ્ત મૃષાવાદ, સમસ્ત અદત્તાદાને સમસ્ત મિથુને તથા સમસ્ત પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતું. અત્યારે પણ તે જ ભગવંતેની સામે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત યાવત્ સમસ્ત પરિગ્રહોનું ચાવજજીવ પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. જીવનના છેલ્લા શ્વાસ સુધી સકન્દકની જેમ આ શરીરને ત્યાગ કરું છું. આ રીતે પિતાના મનમાં જ કહીને તે ધર્મરુચિ અનગાર આચિત પ્રતિકાંત થઈને આત્મસમાધિમાં તલ્લીન થતાં મરણ પામ્યા. • સૂત્ર “3” | શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १५९ -एवं खलु देवाणुप्पिया ! धम्मरई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइयस्स जाव गाढस्सणिसिरणयाए बहिया निग्गए चिरगए तं गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! धम्मरुइस्स अणगारस्स सच्चओ समंता मग्गणगवेसणं करेह, तएणं ते समणा निग्गंथा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता धम्मघोसाणं थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मम्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिल्लं तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता धम्मस्इस्स अणगारस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेहं जीवविप्पजढं पासंति पासित्ता हा हा अहो अकज्जमितिकटु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सगं करेंति करित्ता घम्मरुइस्स आयारभंडगं गेण्हति गेमिहत्ता जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता गमणागमणं पडिक्कमति पडिक्कमित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्हे तुभं अंतियाओपडिनिक्खमामोर सुभूमिभागस्स उजाणस्स परिपेरंतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्व जाव करेमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवा०२ जाव इहं हव्वमागया, तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभंडए, ताणं ते धम्मघोसा थेरा पुत्वगए उवओगं गच्छंति गच्छित्ता समणे निगथे निग्गंथीओय सदावेंति सदावित्ता एवं वयासी -एवं खलु अजो ! मम अंतेवासी धम्मरुची नाम अणगारे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पगइभदए जाव विणीए मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविटे, तएणं सा नागसिरी माहणी जाव निसीरइ, तएणं से धम्मलई अणगारे अहापजत्तमितिकट्ठ जाव कालं अणवकंखेमाणे विहरति, से णं धम्मरुई अणगारे बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डूं सोहम्मजाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवताए उववन्ने, तत्थ णं अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता, तत्थ धम्मरुइस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ तं धिरत्थुर्ण अज्जो ! णागसिरीए माहीए अधन्नाए अपुन्नाए जावणिं बोलियाए जाए णं तहारूवे साहू धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए ॥ सू० ४ ॥ टोका-'तएणं ते' इत्यादि । ततः खलु इतश्च ते धर्मघोपाः स्थविरा धर्मरुचिमनगारं चिरं गतं बहुकालतो गतं ज्ञात्वा श्रमणान् निर्ग्रन्थान् शब्दयति, तएणं तें धम्मघोसा थेरा इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (ते धम्नघोसा थेरा) उन-धर्मघोष स्थविरने( धम्मरुइं अणगारं ) धर्मरुचि अनगार को (चिरंगयं जाणित्ता) बहुत देर के गये हुए जानकर ( समणे निग्गंथे सहावेंति, सद्दावित्ता एवं तएणं ते धम्मधोसा थेरा इत्यादि थ-(तएणं) त्या२॥४ (ते धम्मवोसा थेरो) ते भा५ स्थविरे (धम्मरुई अणगार) यि मारने (चिरं गयं जाणित्ता ) महुमती मार ગયેલા જાણીને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषषिणी टी० अ० १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम् १६१ शब्दयित्वा, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादिषुः उक्तवन्तः, एवं खलु हे देवानु पियाः ! धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके शारदिकस्य तिक्तकटुकतुम्बकस्य यावत्-स्नेहावगाढस्य 'णिसिरणट्ठयाए ' निसृजनार्थ बहिर्निर्गतश्चिरगतः तस्मिन् गते सति बहुतरः कालो व्यतीत इत्यर्थः । तत्-तस्माद् गच्छत खलु यूयं हे देवानुः प्रियाः ! धर्मरुचेरनगारस्य सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं सम्यगन्वेषणं कुरुत । ततः खलु ते श्रमणा निर्ग्रन्था यावत् प्रतिशृण्वन्ति तथा करिष्यामीत्युक्त्या सामाज्ञां स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनि वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धम्मरुई अणगारे मासखमणपारण. गंसि सालइयस्स जाव गाढस्स णिसिरणपाए बहिया निग्गए-चिरगए, तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! धम्मरुइयस्स अणगास्स सचओ समंता गवसणं करेह ) श्रमण निग्रन्थों को बुलाया। बुलाकर उनोने ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार आज मासखमण की पारणा के दिन शारदिक तिक्त कडुबी तुंबडी का बहु संभार संभृत शाक कि जिसके ऊपर घृत तैर रहा था लाये थे-मैंने उसे परिष्ठापन के लिये उन्हें आज्ञा दिया सो वे उसे परिष्टापन करने के लिये यहां से बाहिर चले गये-गये उन्हें बहुत देर हो गई-वे अभीतक नहीं आये इसलिये हे देवानुप्रियों ! तुम लोग जाओ और धर्मरुचि अनागार की सब तरफ चारों दिशाओं मे मार्गणा एवं गवेषणा करो। (नएणं ते समणा निग्गंधा जाव पडिसुणेति, पडि सुणित्ता धम्मघोसाणं (समणे निग्गंथे सद्दावेति सदायित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! धम्मढ़ई अणगारं मासखमणपारणगंसि सालइयस्त जाव गाढस्स णिसिरणद्वयाए बहिया निग्गयाए-चिरगए, तं गच्छह णं तुम्मे देवाणुप्पिया ! धम्मरूइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेह ) શ્રમણ નિર્ચ ને બોલાવ્યા. બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! ધર્મરુચિ અનગાર આજે માસ ખમણની પારણના દિવસે શાર. દિક તિકત કડવી ઝૂંબડીનું સરસ વઘારેલું ઉપર ઘી તરતું શાક આહાર માટે લાવ્યા હતા. તેઓને મેં પ્રતિષ્ઠાપાનની આજ્ઞા આપી છે, તેઓ પરિઝાપન માટે અહીંથી બહાર ગયા છે. તેઓને બહાર ગયાને બહુ જ વખત થયો છે. હજી તેઓ આવ્યા નથી. એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો જાઓ અને ધર્મરુચિ અનગારની ચોમેર માર્ગણ તેમજ ગષણા કરો. (तएणं ते समणा निग्गंथा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता धम्मघोसाणं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कम्य धर्मरुचेरनगारस्य सर्वत समन्ताद मार्गणगवेषणं कुर्वन्तो यत्रैव स्थण्डिलंस्थलं धर्मरुचेरनगारस्य कालकरणस्थानं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य धर्मरुचेरनगारस्य शरीरकं 'निपाणं' निष्प्राण-प्राणरहितं, 'निच्चेट' निश्चेष्टं चेष्टारहितं ' जवविष्पजढं ' जीव विपत्यक्तं-जीवहीनं पश्यन्ति, दृष्ट्वा हा ! हा ! अहो ! इति खेदे, 'अकज्ज' अकार्यम्-अनिष्टं जातं यद्धर्मरुचिनगारो मृतः, 'तिकटु' थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता धम्मरुइस्सअणगाहस्स सव्वाओ समंता मग्गणगवेसणं करे माणा जेणेव थंडिल्लं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं पासंति, पासित्ता हा हा अकज्जमित्ति कट्टु धम्मरुइस्स अणगारस्स परि निव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं-करें ति) उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने अपने धर्माचार्य की इस आज्ञा को यावत् स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके फिर वे धर्मघोष स्थविर के पास से निकले निकल कर उन्होंने धर्मरुचि अनागार की चारों दिशाओमें सब प्रकार से मार्गणा गवेषणा की। इस तरह मार्गण गवेषणा करते हुए जहां वह स्थण्डिल था-धर्मरुचि अनागार की मृत्यु होने का स्थान थावहां आये वहां आकर के उन्होंने धर्मरुचि अनगोर के शरीर को प्राणरहित, चेष्टो रहित और जीव रहित देखा । देखकर के सहसा उनके मुख से हाय हाय यह खेद सूचक शब्द निकल पड़ा वे कहने लगे यह वडा अनिष्ट हुआ-जो धर्मरूचि अनागार का देहावसान हो गया। थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता धण्मरुइस्स अणगारस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिल्लं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता धम्मरुहस्स अणगारस्स, सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीव विप्पनढं पासंति, पासित्ता हाहा अकज्जमित्ति कटु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिव्वाण वत्तियं काउस्सग्गं करेंति) તે નિગ્રંથ શ્રમણોએ પિતાના ધર્માચાર્યની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેઓ ધર્મઘોષ સ્થવિરની પાસેથી નીકળીને ધર્મરુચિ અનગારની બધી રીતે ચોમેર માગણ તેમજ ગષણ કરવા લાગ્યા. આ રીતે માર્ગણ ગવેષણ કરતાં જ્યાં તે સ્થડિલ હતું-ધર્મરુચિ અનગારના મૃત્યુનું સ્થાન હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓએ ધર્મરુચિ અનગારના શરીરને નિપ્રાણ નિષ્ટ અને નિર્જીવ જોયું. આ દશ્ય જોતાની સાથે જ તેઓના મુખથી હાય ! હાય ! ના ખેદ સૂચક શબ્દ નીકળી પડયા. તેઓ કહેવા લાગ્યા કે આ બહુ જ ખાટું થયું છે--મરુચિ અનગારનું દેહાવસાન થઈ ગયું છે. આ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम् १६३ O इतिकृत्वा - इतिखेदं कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्य ' परिनिव्वाणवत्तियं परिनिर्वाणप्रत्ययिकं = परिनिर्वाणं मरणं तत्र यन्मृतशरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययिकः तं तथा, मृतपरिष्ठापननिमित्तकमिस्वर्थः कायोत्सर्गे कुर्वन्ति कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्याऽऽचार भाण्डकं - वस्त्र पात्रादिकं ग्रहन्ति गृहीत्वा यत्रैव धर्मघोषाः स्थविरास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य गमनागमनम् = इर्यापथिकों प्रतिक्रामन्ति, प्रतिक्राम्यैवमवादिषुः एवं खलु हे स्वामिन् ! वयं युष्माकमन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामामः = प्रतिनिर्गताः, प्रतिनिष्क्रम्य सुभूमिभागस्योद्यानस्य इस प्रकार कहकर उन्होंने वहीं पर मृत शरीर को वोसराने रूप कायोसर्ग किया। (करिता उवागच्छ० ) कायोत्सर्ग करके फिर उन्होंने उन धर्मरुचि अनागार के आचार भांडको को वस्त्र पात्रादिकों को उठा लिया-उठाकर वे जहां धर्मघोष स्थविर थे वहां आये ( उवागच्छित्ता गमणागमणं पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एवं वयासी एवं खलु अम्हेतुमं अंतियाओ पडि निक्खनामो २ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरंतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्व जाच करेमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवा० २ जाव इहं हवमागया, तं कालगएणं भंते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आधारभंडए - तरणं ते धम्मघोसा थेरा पुव्वगए उवओगं गच्छति गच्छत्ता समणे निगंधे निगंधाओ य सदावेंति- सदावित्ता एवं वयासी) आकर के उन्होंने ईपिधिक प्रतिक्रमण किया । प्रतिकमग करके फिर इस प्रकार वे कहने लगे हे स्वामिन् ! हम लोग आपके पास से यहां से गये और जाकर सुभूमिभाग उद्यान की चारों રીતે કહીને તેમણે ત્યાંજ મૃત શરીરને વાસરાવા રૂપ કાયાત્સગ કર્યાં. (कारता उवागच्छ० ) अयोत्सर्ग उरीने तेथेो धर्मरुचि अनगारना मायार ભાંડકાને તેમજ વસ્ત્રઓને લઈ લીધા અને લઇને જ્યાં ધર્મ ઘેષ સ્થવિર હતા ત્યાં આવ્યા. ( उवागच्छित्ता गमनागमणं पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एवं वयासी एवं खलु अम्हे तुमं अंतियाओ पडिनिक्खनामो २ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरंतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्व जाव करमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवा० जाव इह हव्व - मागया तं कालगणं मंते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभंडर तरणं त धम्मघोसा येरा पुव्वगर उपभोगं गच्छति गच्छित्ता समणे निगंथे निग्गंयीओ य सहावेति- सदावित्ता एवं वयासी ) ત્યાં આવીને તેમણે ઈ પથિક પ્રતિક્રમણ કર્યું. પ્રતિક્રમણ કરીને તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હૈ સ્વામિન્! અમે લેકે અહીંથી આપની પાસેથી ગયા અને જઈને સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનની ચામેર ફરતાં ફરતાં ધરુચિ www શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - %3 - ज्ञाताधर्मकथासूत्रे 'परिपेरंतेणं' परिपर्यन्तेन चतुदिक्षु परिभ्रमन्तो धर्मरुचेरनगारस्य ' सव्वजाव' सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं कुर्वन्तो यनैव स्थण्डिलं तत्रैवोपागच्छामः, उपागत्य यावद् इह हव्यमागताः स कालगतः खलु हे भदन्त ! धर्मरुचिरनगारः, इमानि 'से' तस्य, आचारभाण्डकानि । ततः खलु ते धर्मघोषाः स्थविराः 'पुवगए' पूर्वगते दृष्टिवादान्तर्गतश्रुताधिकारविशेषे उपयोगं गच्छन्ति-लगयन्ति यदा धर्मरुचिराहारमानेतुं नगयों गतस्तदा कस्य गृहे गतः ? के नेदमाहारंदन ' मित्यादि ज्ञातुं स्वकीयोपयोगं नयन्तीत्यर्थः, गत्वा-स्वकीयोपयोगं लगयित्वा, श्रमणान् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रन्थीश्च शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-एवं खलु हे आर्याः ! ममान्तेवासी-शिष्यः, धर्मरुचिर्नामाऽनगारः 'पगइमदए' प्रतिकभद्रका प्रकृत्या दिशाओं में फिरते २ धर्मरुचि अनगार की सर्व प्रकार से मार्गण, गवेषणा करने लगे। मार्गणा, गवेषणा करते हुए हम लोग फिर उस स्थान पर पहुंचे जहां धर्मरुचि अनगार का शव पड़ा हुआ था वहां से अभी २ हम लोग आरहे हैं। हे भदंत ! वे धर्मरुचि अनगार कालगत हो गये हैं-ये उनके आचार भाण्डक वस्त्र पात्र हैं । इस के बाद उन धर्मघोष स्थविर ने दृष्टि बाद के अंतर्गत श्रुताधिकार विशेष में अपना उपयोग लगाया-तो उन्हें यह ज्ञात हो गया कि जब धर्मरुचि आहार लेने के लिये नगरी में गये तो वे किसके घर गये, किस ने यह आहार उन्हें दिया इत्यादि । अपने उपयोग से इस बात को जानकर उन्होंने निर्ग्रन्थ श्रमणों और निर्ग्रन्थ श्रमणियों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(एवं खल्लु अज्जो मम अंतेवासी, धम्मरूई, णाम અનગારની બધી રીતે માગંણ ગવણ કરવા લાગ્યા. માર્ગણ તેમજ વે. પણ કરતાં અમે લેકે તે જગ્યાએ પહોંચ્યા જ્યાં ધર્મરુચિ અનગારનું મડદુ પડયું હતું. અમે લોકે અત્યારે ત્યાંથી જ આવી રહ્યા છીએ. હે ભદંત ! તે ધર્મરુચિ અનુગાર મરણ પામ્યા છે. તેઓશ્રીના આ આચાર ભાંડક વસૂપાત્ર છે. ત્યારપછી તે ધર્મઘોષ સ્થવિરે દષ્ટિવાદના અંતર્ગત શતાધિકાર વિશેષમાં પિતાનો ઉપયોગ લગાવ્યા. તેમાંથી તેઓને આ વાતની જાણ થઈ કે જ્યારે ધર્મરુચિ આહાર લાવવા માટે નગરીમાં ગયા હતા, ત્યારે તેઓ કેના ઘેર ગયા હતા, આ આહાર તેમને કેણે આ હતો વગેરે. પિતાના ઉપયોગથી આ બધી વિગત જાણીને તેમણે નિગ્રંથ શ્રમણ અને નિથ શ્રમણીઓને પિતાની પાસે બોલાવી અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે ( एवं खलु अज्जो मम अंतेवासी, धम्मई णाम अणगारे पगइभदए जान श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषषिणी टी० अ० १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम् १६५ स्वभावेन भद्रका-शान्तः, यावद्-यावत् करणादिदं द्रष्टव्यम्-' पगइ उवसंते, पगइ-पयणु कोहमाणमायालोहे, मिउमद्दवसंपण्णे, आलीणे, भदए, इति । प्रकृत्युपशान्तः, प्रकृति प्रतनुक्रोधमानमाया लोभा, मृदु मार्दवसंपन्नः, आलीनः, भद्रका, इति । विनीतः 'मासं मासेणं' मासं व्याप्य मासेन-मासक्षपणनामकेन, अनिक्षिप्तेन-अन्तरहितेन, अविश्रान्तेनेत्यर्थः तपः कर्मणा विचरन् पारणकदिने यावत्नागश्रिया ब्राह्मण्यागृहमनुपविष्टः, ततस्तदनन्तरं सा नागश्री ब्राह्मणी यावत्शारदिकं तिक्तालावुकं 'निसिरइ ' निम्नति-पात्रे निक्षिपतिस्म । ततः धर्मरुचि. अणगारे पगइभदए जाव विणीए मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविढे तएणं सो नागसिरी माहणी जाव निसीरइ, तएणं से धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमित्ति कटूटु जाव कोलं अणवखेमाणे विहरइ, सेणं धम्मरुई अणगारे बहणि वासाणि सामनपरियागं पउणित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहि. पत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डूं सोहम्म जाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने ठिई पण्णत्ता ) आर्यो! सुनो बात ऐसी है मेरे अन्ते वासी शिष्य-धर्मरुचि अनगार स्वभाव से ही भद्र परिणामी थे। यावत् शब्द से इस पाठ का यहां संग्रह हुआ है "पगइ उवसंते पगइ पगणु कोहमाणमाया लोहे मिउमद्दवसंपण्णे आलोणे भद्दए"। ये अविश्रान्त अंतर रहित-मास मासखमण पारणाःकरते थे । आज उनके पारणा का दिन था-सो गोचरीके लिये भ्रमण करते हुए ये नागश्री ब्राह्मणीके धर विणीए मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविढे तएणं सा नागसिरि माहणी जाव निसीरइ, तएणं से धम्मरूई अणगारे अहापज्जमिति कडे जाव कालं अणवखेमाणे विहरइ,सेणं धम्मरूई अणगारे बहणि वासाणि सामनपरियागं पउणित्ता अलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्न सोहम्म जाव सव्वदृसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने ठिई पण्पत्ता) આર્યો ! સાંભળો, વાત એવી છે કે મારા અંતેવાસી શિષ્ય-ધર્મરુચિ અનગાર સ્વભાવથી જ ભદ્ર પરિણામી હતા. યાવત્ શબ્દથી અહીં આ પાઠને सड थय। छ-" पगइ उबसंते" (पगइपयणुकोहमाणमायालोहे मिउमदव संपण्णे आलिणे मद्दए) तेथे। मविश्रांत-मत२ २डित-(निरंतर) पास समय કરતા રહેતા હતા. આજે તેમને પારણને દિવસ હતો, તેઓ આહાર માટે ભ્રમણ કરતાં નાગશ્રી બ્રાહ્મણીના ઘેર ગયા હતા. બ્રાહ્મણીએ શારદિક તિકત श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्वे रनगारो यथापर्याप्तमितिकृत्वा = क्षुधानिवृत्तये पूर्णमिति मत्वा यावत् कालम् 6 अत्रणकंखेमाणे ' अनवकाङ्क्षमाणः विहरति, स खलु धर्मरुचिरनगारो बहूनि वर्षाणि श्रमण्यपर्यायं पालयित्वा, आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ऊ सोहम्म जान सम्बद्धसिद्धे ' सौधर्मादयो द्वादशदेवलोकाः, तत उर्ध्व नवग्रैवेयकानि तदुपरि यावत् सर्वार्थसिद्धे, महावमाने देवत्वेनोपपन्नः = देवभवं प्राप्तवान् । तत्र = तस्मिन् सर्वार्थसिद्धविमाने, खलु ' अजहण्णमणुक्कोसेणं ' अजधन्यानुत्कृष्टेन=जघन्योत्कृष्टवर्जितेन तत्र हि सर्वेषां देवानां स्थितिः समानैव भवति न तु न्यूनाधिककालतया विषमेतिभावः । त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र धर्मरुवेरपि देवस्य त्रयस्त्रितत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, स खलु धर्मरुचिर्देवस्तस्माद् देवलाकाद्=सर्वार्थसिद्धविमानाद् यावद् च्युत सन् यावद् महाविदेहे वर्षे सिज्झिहि' सेत्स्यति, सिद्धिं प्राप्स्यति । तत् = तस्माद् धिगस्तु खलु हे पहुचे । यावत् उसने शारदिक तिक्त कडवे तुंबे को शाक उनके पात्र में बोहरामा धर्मरुचि अनगार ने उसको क्षुधानिवृत्ति के लिय पर्याप्ति मान कर लिया। उन धर्मरुचि अनगारने अनेक वर्षों तक श्रमण्य पर्याय का पालन किया और पालन करके आलाचित प्रतिक्रान्त होकर वे समाधि में लीन हो गये । काल अवसर काल करके अव वे सौधर्म आदि १२ देवलोको से ऊपर नवग्रैवेय को से भो आगे जो सर्वार्थसिद्धि नाम का विमान है कि जिसमें ३३ सागर की स्थिति हैं और यह स्थिति जहां सब देवा की समान हैं उसमें ३३ सागर का स्थितिवाले देव हुए हैं । " अजहण्णमणुको सेणं " जधन्य और उत्कृष्ट तेत्रीस सागरोपम की स्थिति है। से णं धम्म रुई देवे ताओ देवलगाओ जाव महाविदेहे - वासे सिज्झिहिद, तं धिरत्यु અનગારે 1 b ९. કડવી તુંબડીનું શાક તેમના પાત્રમાં વહેારાવ્યુ. ધમ રુચિ તેને ક્ષુધા નિવૃત્તિ માટે પર્યાપ્ત જાણીને તેને સ્વીકારી લીધુ. તે ધરુચિ અનગારે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય પર્યાયનું પાલન કર્યુ છે અને પાલન કરીને આલેચિત પ્રતિક્રાંત થને તેએ સમાધિમાં લીન થઇ ગયા છે. કાળ સમયે કાળ કરીને હવે તેએ સૌધમ વગેરે બાર દેવલેાકાથી ઉપર નવ ત્રૈવેયકાથી પણ આગળ જે સર્વાસિદ્ધિ નામે વિમાન છે કે જેમાં ૩૩ સાગરની સ્થિતિ છે અને આ સ્થિતિ જ્યાં બધા દેવાની સરખી છે, તેઓ તેમાં ૩૩ સાગરની સ્થિતિવાળા દેવ થયા છે. "अजइष्णमणुक का सेणं જઘન્ય અને उत्पृ॒ष्ट 33 सागरोयमनी स्थिति छे. ( सेणं धम्मई देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिड, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ ," Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम् १६७ आर्याः ! नागश्रियं ब्राह्मणीमधन्यामपुण्यां यावद् दुर्भग निम्बगुलिकाम् , यथाखलु नागश्रिया ब्राह्मण्यातथारूपः प्रकृतिभद्रत्वादिगुण युक्तः साधुः धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके शारदिकेन तिक्तालाबुकेन यावत् स्नेहावगाढेनाऽकाल एव जीविताद् व्यपरोपितः ॥४॥ मूलम्-तएणं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं आतिए एयमढे सोचा णिसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एवमाइक्खंति-धिरत्थु णं देवाणुप्पिया! नागसिरीए माहणीए जाव शिंबोलियाए जाए णं तहारूवे साहू साहरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोवेइ, तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ गं अलो ! नागसिरीए माहणीए अधन्नाए, अपुन्नाए, जाव णियोलियाए जाए णं तहारूवे साहू धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइए णं जाव गाढेणं अकाले. चेव जीवियाओ ववरोविए) वे धर्मरुचि देव इस देवलोक से चवकर यावत् महाविदेह क्षेत्र से सिद्धि को प्राप्त करेंगे आर्यो ! अधन्य, अपुण्य यावत् दुर्भग निम्बगुलिका जैसी अनादरणीय उस नागेश्री ब्राह्मणी को धिक्कार हो-कि जिसने तथारूप, प्रकृति भद्रत्वादि गुणों से संपन्न सोधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणा के दिन शादिक तिक्त कडवी तुंबी का शाक यावत् स्नेहावगाढ बनाकर दिया-कि जिससे वे अकाल में मरण को प्राप्त हुए ॥ सू ४॥ तं घिरत्थुणं अज्जो ! नागसिरीए माहणीए अधनाए, अपुन्नाए, जाव णिबोलि. याए जाए णं तहारूवे साहू धम्मरूई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढेणं अकाले चेव जीवियाओ बवरोविए) તે ધર્મરુચિ દેવ તે દેવલોકથી ચવીને યાવત મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી સિદ્ધિને મિળવશે. હે આર્યો ! અધન્ય, અપુણ્ય, યાવત્ દુર્ભગ નિબગુલિકા જેવી અનાદરણય તે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને ધિક્કાર છે કે જેણે તથારૂપ, પ્રકૃતિ ભદ્રત્વ વગેરે ગુણવાળા સાધુ ધર્મરુચિ અનગારને માસ ખમણના પારણાંના દિવસે શારદિક તિકત કડવી તુંબડીનું શાક-કે જે સરસ વઘારેલું, જેની ઉપર ઘી તરતું ed-IAYनेली म तेमानु भ२५ ययुः ॥ सूत्र "" || श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्त्रे धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए, तएणं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयम सोचा निसम्म आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता णागसिरी माहणी एवं वयासी-हं भो ! नागसिरी ! अपत्थिय पत्थिय दुरंत पंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे धिरस्थु णं तव अधन्नाए अपुन्नाए जाव णिबोलियाए जाव of तुमं तहारूवे साहू साहरूवे मासखमणपारणंसि सालइएणं जाव ववरोविए, उच्चावएयाहिं अक्कोसणाहिं अकोसेंति उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेंति उच्चावयाहिं णिब्भत्थणाहिं णिब्भत्थंति उच्चावयाहिं णिच्छोडजाहिं निच्छोडति तज्जेंति तालेति तज्जेत्ता तालेत्ता सयाओ गिहाओ निज्छुभंति, तएणं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए मगरीए सिंघाडगतियच उक्कचच्चरचउम्मुह० बहुजणेणं हीलिजमाणी खिसिजमाणी निंदिजमाणी गरहिजमाणी तज्जिज्जमाणी पळवहिजमाणी धिक्कारिजमाणी थकारिजमाणी कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी२ दंडिखंडनिवसणा खंडमल्लयखंडघडगहत्थगया फुट्टहडाहडसीसा मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं वलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरइ, तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भवसि चेव सोलस रोयायंका पाउब्भूया, तं जहा-सासे कासे जाणिसूल जाव कोढे, तएणं सा नागसिरी माहणी શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १६९ सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्टदुहवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छाए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमहिइएसु नेरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना ॥ सू० ५॥ ___टीका-'तएणं ते ' इत्यादि । ततः खलु ते श्रमणाः निर्ग्रन्था धर्मघोषाणां स्थविराणामन्ति के एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य चंम्पायां श्रृङ्गाटक-यावन्महापथेषु बहुजनस्य एवमाख्यान्ति धिगस्तु खलु हे देवानुप्रियाः ! नागश्रियं ब्राह्मणों यावद् दुर्भगनिम्बगुलिकाम् , यया खलु तथारूपः साधुः साधुरूपो धर्मरुचिरनगारः शार. दिकेन यावत्तिक्तालाबुकेन जीविताव्यपरोपितः। ततः खलु तेषां श्रमणानामन्तिके 'तएणं ते समणा निग्गंथा ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते समणा निग्गंथा धम्मघोसा थेराणं अंतिएएयमटुं सोचा निसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एवमाइक्खंति-धिरत्थुणं देवाणुपिया! नागसिरीए जाव णिवालियाए जाएणं तहारूवे साहू साहरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोवेइ) उन श्रमण निर्ग्रन्थोंने धर्मघोष स्थविर के मुख से इस समाचार को सुनकर और उसका हृदय में विचार कर चंपानगरी में शृंगाटक यावत् महापथों में बहुजनों से ऐसा कहा हे देवानुप्रियों! ब्राह्मणी नागश्री को धिक्कार है यावत् निम्ब की नियोली जैसी अनादरणीय है कि जिसने तथा रूप साधु-साधुरूप धर्मरुचि अनगार को शारदिक यावत् कडबे तुम्बे का शाक देकर जीवन से रहित कर दिया है । (तएणं तेसि समणाणं अं. 'तएणं ते समणा निगथा ' इत्यादि टी. (तएणं) त्या२या ( ते समणा निग्गंथा धम्मघोसा थेराणं आतिए एयमझं सोचा निसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एव माइक्वंति-धिरत्युणं देवाणुप्पिया! नागसिरीए माहणीए जाव णिबोलियाए जाए णं तहारूवे साहू साहूरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोवेइ ) તે શ્રમણ નિએ ધગશેષ સ્થવિરના મુખથી આ વાત સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને ચંપાનગરીમાં શૃંગાટક મહાપ વગેરેમાં ઘણા માણસને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! બ્રાહ્મણી નાગશ્રીને ધિકકાર છે અને તે લીમડાની લીંબોળીની જેમ અનાદરણીય છે. કેમકે તેણે તથારૂપ સાધુ સાધુરૂપ ધર્મરુચિ અનગારને શારદિક કડવી તુંબડીનું શાક આપીને મારી નાખ્યા છે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Iso ज्ञाताधर्मकथाङ्गसत्रे एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य बहुजनोऽन्योन्यस्य-परस्परस्य एवमाख्वाति-एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति, एवं मरूपयति धिगस्तु खलु नागश्रिया ब्राह्मण्याः, यया धर्मरुचिरनगारः शारदिकेन यावद् जीविताद् व्यपरोपितः । ततः खलु ते ब्राह्मणा चंपायां नगयों बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य, आशुरुमा शीधं क्रोधाविष्टाः याक्त मिसमिसन्तः क्रोधानलेन प्रज्वलन्तः,यत्रैव नागश्रीना॑ह्मणी तत्रैवीपागच्छन्ति, तिए एयमहूं सोचा बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासद घिरत्युणं नामसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए, तएणं ते माहण चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागछंति) उन श्रमणजनों के मुख से इस समाचार को सुनकर और उसे हृदय में धारण करके अनेक मनुष्य आपस में इस प्रकार कहने लगे बोलने लगे प्रज्ञापना करने लगे प्ररूपणा करने लगे कि ब्राह्मणी नागश्री को धिकार है जिसने धर्मरुचि अनगार को शारदिक-तिक्त कड़वे तुंबे के शाक से जीवन रहित करदिया है । इस प्रकार उन ब्राह्मणों ने तथा सोम, सोमदत्त, सोमभूति आदि ने जब चंपानगरी में अनेक मनुष्यों के मुख से इस बात को सुना-तो वे सुनकर और उसे अपने २ हृदय में धारण कर इकदम क्रोध से तम तमा उठे और यावत् क्रोधानल से जलते हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी थी वहां आये( तएणं तेसिं समणाणं आतिए एयमढं सोचा बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ घिरत्थुणं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए, तएणं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढं सोचा निसम्म आसुरना जाव मिसिभिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति) તે શ્રમણ લેકના મુખથી આ સમાચાર સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ઘણું માણસે એકબીજાની સાથે આ રીતે વાતચીત કરવા લાગ્યા, પ્રજ્ઞાપના કરવા લાગ્યા, પ્રરૂપણ કરવા લાગ્યા કે બ્રાહ્મણી નાગશ્રીને ધિક્કાર છે. જેણે ધર્મરુચિ અનગારને શારદિક–તિકત કડવી તુંબડીના શાકથી મારી નાખ્યા. આ રીતે તે બ્રાહ્મણએ એટલે કે સોમ, સેમદત્ત અને સમભૂતિએ જ્યારે ચંપા નગરીના અનેક માણસના મુખથી આ વાત સાંભળી ત્યારે તેઓ સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને એકદમ ધાવિષ્ટ થઈ ગયા અને કાયરૂપી અગ્નિમાં સળગતા જ્યાં નાગશ્રી બ્રાહ્મણ હતી ત્યાં આવ્યા. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १७१ उपागत्य नागश्रियं ब्राह्मणीमेवमवादिषुः-उक्तवन्तः, हं भो ! नागश्रीः ! अार्थित प्राधिके ! मरणाभिलाषिणि ! दुरन्तप्रान्तलक्षणे! हीनपुण्यचातुर्दर्शिके ! धिगस्तु खलु तव अधन्यायाः अपुण्यायाः यावद्-दुर्भगनिम्बगुलिकायाः, अत्र द्वितीयायें षष्ठी आपत्वात् , यया खलु त्वया तथारूपः साधुः साधुरूपो धर्मलचिरनगारो भासक्षपणपारणके शारदिकेन तिक्तालावुकेन यावद् व्यपरोपितः, ' उच्चावयाहि । उच्चावचाभिः उच्चनीचाभिः ' अकोसणाहिं ' आक्रोशनाभिः निन्दावर नीचा. ऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनैः 'अक्कोसंति ' आक्रोशन्ति-फटकारयन्ति उच्चावचामिः उद्धं सनाभिः दुष्कुलोत्पन्नाऽसित्यादिवचनैः, ' उद्धंसेंति' उद्धंसयन्ति-कुलादि(उवागच्छित्ता णागसिरी माहणों एवं वयासी ) हं भो ! नागसिरी। अपत्थियपत्थिय दुरंतपतलक्खणे, हीण पुण्णचाउद्दसे धिरत्युणं तव अघनाए अपुन्नाए जावणिंबोलियाए जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहूरूवे मास खमणपारणंसि सालइएणं जाव ववरोविए उच्चावएयाहिं अकोसणाहिं अकोसंति........उद्ध से ति) वहां आकर न्होंने नागश्री ब्राह्मणीसे कहा अरीओ नागश्री ! अरी अप्रार्थित प्रार्थके। हे दुरन्तप्रान्त लक्षणे । ओ हीन पूण्य चातुर्दशि के ! तुझ अपुण्य अधन्या को धिकार हो ! तूं दुर्भग निम्बगुलिका जैसी अनादरणीय है जो तूने मासखमण के पारणा के दिन घरपर आहार लेने के निमित्त आये हुए तथा रूप साधुरूप धर्मरुचि अनगार को शारदिक तिक्त कडवे तुंबे का शाक देकर जीवन से रहित कर दिया है । तूंबडी नीच है इत्यादि रूप ऊँच, नीच आक्रोश निन्दा-वचनों से उन्हों ने उसे फटकारा तूं नीच खानदान की (उवागच्छित्ता णागसिरी माहणीं एवं वयासो-हं भो ! नागसिरी ! अपत्पि य पत्थिय दुरंतपंतलक्खणे, हीनपुण्णचाउद्दसे घिरत्थु णं तव अपनाए अपुनाए जाव णिबोलियाए जाए णे तुमे तहारूवे साहू साहूरूवे मासखमणपारणंसि सालइएणं जाव वघरोविए उच्चावएयाहि अक्कोसणाहिं अक्कोसति...उद्धंसें ति) ત્યાં આવીને તેમણે નાગશ્રી બ્રાહ્મણને કહ્યું કે કે મુઈ એ નાગશ્રી ! અપ્રાર્થિત પ્રાર્થક ! હે દુરંત પ્રાંત લક્ષણે! એ હીનપુય ચાતુર્દશિકે! તારા જેવી પાપણી અધન્યાને ધિકકાર છે તું દુર્ભગ નિંબરુલિકા (લિળી જેવી અનાદરણીય છે. કેમકે તેણે માસ–ખમણના પારણાંના દિવસે ઘેર આહાર લેવા માટે આવેલા તથારૂપ સાધુ સાધુરૂપ ધર્મરુચિ અનગારને શારદિક તિકત કડવી તુંબડીનું શાક આપીને મારી નાખ્યા છે, તું સાવ નીચ છે, આમ ઘણા ઊંચ-નીચ આકોષ-નિદાને વચનેથી તેઓએ તેને ફીટકારી. તું નીચ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ज्ञाताधर्मकथासो गौरवात्पातयन्ति, उच्चावचाभिनिर्भत्सनाभिः परुषवचनैः ‘णिभत्थंति' निर्भर्सयन्ति, उच्चावचाभिः ‘णिच्छोड़णाहिं' निश्छोटनाभिः अस्मद् गृहाब्दहिनिस्सर इत्यादि वचनैः ‘निच्छोडेंति' निश्छोटयन्ति = गृहादित्यागभयोत्पादनेन भीषयन्ति, ' तज्जेति' तर्जयन्ति 'ज्ञास्यसि पापे !' इत्यादिवाक्यैरशुली प्रदर्शनपूर्वकं ताडनभयं प्रदर्शयन्ति, 'तालेति' ताडयन्ति चपेटादिभिः, तर्जयित्वा ताडयित्वा, स्वकाद् गृहाद् ‘निच्छुमंति' निक्षिपन्ति = बहिनिः-सारयन्ति । ततस्तदनन्तरं सा नागश्रीः स्वकाद् गृहाद 'निच्छूढा समाणा' निक्षिप्तासती=निः सरितासती,चम्पाया नगर्याः शृङ्गाटक त्रिकचतुष्कचत्वरचतुमुखमहापथपथेषु यत्र यत्र है इस तरह की ऊँची नीची वाणियों से उसे भला बुरा कहा कुलादि के गौरव से उसे पतित कहा । (उच्चावयाहिं णिभत्थणाहिं णिन्भत्थंति उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं निच्छोडेंत्ति, तज्जेंति, तालेति, तज्जेत्ता तालेत्ता सयाओ गिहाआ निच्छु भनि ) ऊँचे नीचे कठोर वचनों से उसका तिरस्कार किया। भले बुरे वचनो से उसे डरवाया-हमारे घर से तू बाहिर निकल जा इत्यादि भयोत्पादक शब्दों से उसे भय दिखलाया। ओ पापिनी! तूजे मालूम पड जायगा, इत्यादि वाक्यों से अंगुली दिखा २ कर उसे मारने का भय दिखलाया और चपेटा-थप्पड आदि से उसे पीटा भी। और पीटपाट कर उसे उन्होंने फिर अपने घर से बाहिर निकाल दिया । (तएणं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूडा समाणी चंपाए नगरीए सिंघाडगतिगचउकचच्चरचउम्मुह. ખાનદાનની છે, આ જાતનાં ઉંચા નીચા વચનેથી તેણે બેટી ખરી સંભળાવી. કુળ વગેરેના ગૌરવથી તેણે પતિતા કહ્યું. (उच्चावयाहिं णिन्मस्थणाहिं णिन्मत्थंति, उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं निच्छो डेंति, तज्जेंति, तालेति तज्जेता तालेत्ता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति ) ઉંચા નીચા વચનેથી તેને તિરસ્કાર કર્યો, ખોટાં ખરાં વચનથી તેને બીવડાવી. “અમારા ઘરથી તુ બહાર નીકળી જા” વગેરે ભત્પાદક વચનથી તેણીને બીક બતાવી. “એ પાપણું ! તને મજા બતાવવી દઈશું ?” વગેરે વચ. નથી સામી આંગળી કરીને તેને મારી નાખવાની બીક બતાવવા લાગ્યા અને પડ લાફા વગેરેથી તેને માર પણ માર્યો, મારપીટ કરીને તેઓએ તેને પિતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકી. (तएणं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूडा समाणी चंपाए नगरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउम्मुह० बहुजणेणं हीलिज्नमाणी खिसिज्जमाणी श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितधर्णनम् १७३ गच्छति तत्र तत्र सर्वत्र बहुजनेन ' हीलिज्जमाणी' हील्यमाना-जात्यायुद्धाटनेन, 'खिसिज्जमाणी' खिस्यमाना-परोक्षकुत्सनेन, 'निदिज्जमाणी' निन्द्यमानातत्परोक्षम् 'गरहिज्जमाणी' गीमाना-तत्समक्षमेव 'तज्जिज्जमाणी' तय॑मानाअङ्गुलीचालनेन भयमुत्पादयमाना ' पब्वाहिज्जमाणी' प्रव्यथ्यमाना यष्टयादिता. डनेन ‘धिकारिजमाणी' धिक्रियमाणा 'थुकारिज्जमाणी' थुक्रियमाणा कुत्रापि बहुजणेणं हीलिजमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी, गरहिज्जमाणी, तज्जिज्जमाणी, पवहिज्जमाणी, धिक्कारिज्जमाणी, थुक्कारिज्जमाणी, करथइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी २ दंडि खंडा निवसणा खंड खंडमल्लय खंड खंड घउगहत्थगया फुड्डहडाहडसीसा मच्छियाउगरेणं अभिज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं बलियाए वित्तिकप्पेमाणी विहरइ) अपने घर से बाहिरनिकल कर वह नागश्री चंपानगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख महापथ आदि मार्गों पर जहां २ गई, वहाँ २ सर्वत्र अनेक जनों ने उसकी “ यह नीचजाति की है" इत्यादिरूप से हीलना की। सब के सब उसपर बहुत क्रोधित हुए सपने उसकी परोक्ष में निंदा की। सामने सबने उसे भला बुरा कहा। अंगुली संचालन पूर्वक उसे मारने पीटने का भय दिखलाया। किन्हीं २ ने उसे लकडी आदिसे मारा पीटा भी। अनेकोंने उसे धिक्कारा। कितनेक जनों ने उसे देखकर उसपर थूक भी दिया । इस तरह की परिस्थिति निदिज्जमाणी, गरहिज्जमाणी,तज्जिज्जमाणी पव्यहिज्जमाणी,धिक्कारिज्जमाणी, थुक्कारिज्जमाणी, कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी २ दंडिखंडा निवसणा खंडमल्लय खंड खंड धउगहत्थगया फुड्डहडाहडसीसामच्छियाचउगरेणं अभिज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं बलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरइ ) પિતાના ઘેરથી બહાર નીકળીને તે નાગશ્રી ચંપા નગરીના શૃંગાટ, ત્રિક, ચતુષ્ક ચત્વર, ચતુર્મુખ, મહાપથ વગેરે માર્ગો ઉપર જ્યાં ગઈ ત્યાં ત્યાં બધે ઘણા માણસોએ તેની “આ નીચ જાતની છે” વગેરે વચનેથી હીલના કરી. બધા માણસો તેની ઉપર ખૂબ જ ગુસ્સે થયા. તેની ગેર હાજરીમાં લેકેએ તેની ખૂબ નિંદા કરી, તેની સામે તેને બધાએ ખરી ખોટી સંભળાવી, આંગળી ચીંધી ચીંધીને તેની સાથે મારપીટ કરવાની બીક બતાવવા લાગ્યા. કેઈ કેઈએ તે તેને લાકડી વગેરેને ફટકો પણ માર્યો, ઘણાએાએ તેને ફિટકારી, કેટલાક માણસોએ તેને જોઈને તેની ઉપર ચૂકી દીધા श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासो स्थानं वा निवासाथै निलयं वा-अल्पकालविश्रामार्थस्थानम् , अलभमाना २=अपानुवती २, 'दंडीखंडनिवसणा' दण्डिखण्ड निवसनादण्डि-कृतसन्धानं जीर्णवलं, तस्य खण्डं, तदेव निवसन-परिधानं यस्याः सा तथा, 'खंडमल्लयखंडघडगहत्यगया' खण्डमल्लक-खण्डघटकहस्तगता-खण्डमल्ला भिक्षों शरावरखण्डं खण्डक्टकश्च पानार्थ घटखण्डं, तद् द्वयं हस्तगतं यस्याः सा तथा, 'फुट्टहडाहड़सीसा' स्फुटितहड़ाहड़शीर्षा-स्फुटितं स्फुटितकेशं 'हड़ाहड़म् ' अत्यर्थ शीर्ष शिरो यस्याः सा तथा, विकीर्ण केशवतीत्यर्थ 'मच्छियाचडगरेणं अभिज्जमाणमग्गा' मक्षिका चटकरेण अन्वीयमानमार्गा मक्षिकासमूहेन अनुगम्यमानमार्गा शरीरवस्त्रादीनां मलिनत्वान् मक्षिकास्तत्पृष्ठतो धावन्तीत्यर्थः गेहं गेहेणं देहं बलियाए' गृहं गृहेण देहबलिकया प्रतिगृहं देहनिर्वाहहेतोः उदरपूर्त्यर्थमेवेस्यर्थः-वृत्ति कप्पेमाणी' कल्प्यमाना-कुर्वाणा सती विहरति । ततस्तदनन्तरं खलु तस्या नागश्रिया ब्राह्मण्या स्तस्मिन् भवे एव षोडश रोगातङ्काः प्रादुर्भूताः, तद्यथा-(१) श्वासः, (२) कासः, (३) ज्वरः, 'जावकुठे ' यावन्-कुष्ठम् , (४) दाहः, (५) कुक्षिशूलम् . (६) का सामना करती हुई वह कहीं पर भी बैठने के लिये स्थान को, और ठहरनेके लिये-विश्राम करनेके लिये-जगह भी को नहीं प्राप्त करती फटे हुए जीर्ण वस्त्र के टुकडे को पहिरे हुए भिक्षा के लिये मिट्टी के खप्पर को और पानी के लिये फूटे घडे के टुकड़े को हाथ में लिये हुए इधर उधर एक घर से दूसरे घर पर उदर पूर्ति के लिये फिरने लगी। इसके शिर के बाल ईधर उधर विखरे हुए रहते थे। शरीर और वस्त्रादिकों के मैले कुचैले होने के कारण मक्षिकाओं का समूह इसके पीछे पीछे २ भागता रहता था। (तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलसरोयायंका पाउब्भूया-तं जहा सासे कासे जोणिसूले, जाव આવી પરિસ્થિતિને મુકાબલે કરતી કેઈ પણ સ્થાને બેસવાની કે રોકાવાની કે વિશ્રામ કરવાની જગ્યા તે મેળવી શકી નહિ, અને છેવટે ફાટેલા જૂના ધઓના કકડાને વીંટાળીને ભિક્ષાના માટે માટીનું ખપ્પર અને પાણીના માટે ફટી માટલીના કકડાને હાથમાં લઈને પેટ ભરવા માટે આમતેમ એક ઘેરથી બીજે ઘેર ભમવા લાગી. તેને માથાના વાળ આમ તેમ અસ્ત વ્યસ્ત રહેતા હતા, શરીર અને વસ્ત્રો વગેરે મેલા હોવાને લીધે માખીઓના ટેળેટેળાં તેની પાછળ પાછળ ભમતાં રહેતાં હતાં.. (तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलसरोयायंका पाउहभूया-तं जहा सासे कासे जोणिसूले, जाव कोढे तएणं सा नागसिरी माहिणी, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १७५ भगन्दरः, (७) अशः, (८) योनिशूलम् , (९) दृष्टिशूलम् , (१०) मूर्धशूलम् , (११) अरुचिः, (१२) अक्षिवेदना, (१३) कर्णवेदना, (१४) कण्डूः, (१५) जलोदरम् , (१६) कुष्ठम् । ततस्तदनन्तरं सा नागश्री ब्राह्मणी पोडशभी रोगातङ्करभिभूतासतो आतंदुःखार्तवशार्ता शारीरिकमानसिकदुःखयुक्ता कालमासे कालं कृत्वा षष्ठयां पृथिव्याम् ' उक्कोसेणं ' उत्कृष्टतः, द्वाविंशति सागरोपमस्थितिकेषु नरकेषु-नरकावासेषु नारकत्वेन उपपना-उत्पन्ना ॥ सू०५ ।। मूलम्-सा णं तओऽणतरंसि उव्वद्वित्ता मच्छेसु उववन्ना, तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवकंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तेत्तीसं सागरोवमट्टिईएसु नेरइएसु उववन्ना, सा णं ततोऽणंतरं उवठित्ता दोच्चंपि कोढे तएणं सा नागसिरी माहिणी, सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूग समाणी अदृदुहवसहा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसे णं बावीससागरोवमहिइएस्तु नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना) उस नागश्री ब्राह्मणी को उसी भव में ये सोलह रोगातंक प्रकट हो गये-(१) श्वास (२) कास (३) ज्वर (४) दाह (५) कुक्षिशूल (६) भगन्दर (७) अर्श (८) योनिशूल (९) दृष्टिशूल (१०) मूर्धशूल (११) अरूचि (१२) अक्षिवेदना (१३) कर्णवेदना (१४) कण्डू (१५) जलोदर (१६) कुष्ठ । इन १६ सोलहरोगातंको से अत्यन्त दुःखित हुई-शारीरिक एवं मानसिक व्यथाओं से व्यथित हुई-वह नागश्री काल अवसर कालकर छठी पृथिवी में २२ सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकावासों नैरपिक को पर्यायसेमें उत्पन्न हुई। सू० ५॥ सोलसहि रोयायंकेहि अभिभूया समाणी अट्ट दुहवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्टिइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना) તે નાગશ્રી બ્રાહ્મણને તેજ ભવમાં આ સોળ રોગાતકો પ્રકટ થયા. (१) श्वास (२) आस (3) १५२ (४) हाड (५) क्षिशूस (१) ४२ (७) AN (८) योनिशूज () टिशू (१०) भूधशूर (११) २५३६५ (१२) भक्षिवेदना (१३) ४वना (१४) ४९४ (१५) rait२ (१६) ४ मा सो ગાંતકથી અતીવ દુઃખી થયેલી શારીરિક તેમજ માનસિક વ્યથાઓથી વ્યથિત થતી તે નાગશ્રી કાળ અવસરે કાળ કરીને છઠ્ઠી પૃથિવીમાં બાવીસ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં નરયિકની પર્યાયથી જન્મ પામી. સૂ. ૫ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासत्रे मच्छेसु उववजइ, तत्थ विय णं सत्थविज्झा दाहवक्कंतीए दोच्चंपि अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसं तेत्तीससागरोवमदिईएसु नेरइएसु उववज्जई, साणं तओहितो जाव उव्वट्रित्ता तच्चपि मच्छेसु उववन्ना तत्थ वि य णं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चंपि छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं० तओऽणतरं उव्वहित्ता मच्छेसु उरएसु एवं जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव रयणप्पभाओ सत्तसु उववन्ना तओ उठवट्रित्ता जाइं इमाइं खहयर विहाणाइं जाव अदुत्तरं च णं खर बायर-पुढविकाइयत्ताते तेसु अणेगसतसहस्स खुत्तो ॥सू०६॥ टीका-सा णं' इत्यादि। सा=नागश्री ब्राह्मणी खलु ततः षष्ठ्या पृथिव्याः, अनन्तरम् आयुर्भवस्थितिक्षये सति ' उव्यट्टित्ता' उद्वर्त्य-निस्मृत्य मत्स्येषूत्पन्ना, तत्र खलु मत्स्यभवे सा 'सत्थवज्झा' शस्त्रविद्ध। ' दाहवक्कंतीए' दाहव्युत्क्रात्या-दाहोत्पत्या, कालमा से कालंकृत्वाऽधः सप्तम्यां पृदिव्यामुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकेभु' नेरइएषु ' नैरयिकेषु उत्पन्ना । सा खलु ततः सप्तम्या: पृथिव्याः अनन्तरमुद्वर्त्य द्वितीयवारमपि मत्स्येषूत्पद्यते । तत्रापि च खलु शस्त्र ‘सा णं तओ' इत्यादि। टीकार्थ-(सा) वह नागश्री (तओऽणंतरंसि) उस छट्ठी नरककी भव. स्थिति समाप्त होने पर ( उवद्वित्ता ) वहां से निकली-और निकलकर ( मच्छेसु उववन्ना तत्थणं सस्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उकोसाए तेत्तीसं सागरोवमहिइएसु नेरइएस्सु उववन्ना, सा णं ततोऽणंतरं उहित्ता दोच्चपि मच्छेस्तु उवव 'सा गं तओ' इत्यादि Astथ-(सा) ते नामश्री (त ओs णंतरमि) ते छडी न२४नी मपस्थिति पूरी यया ६ ( उव द्वित्ता ) त्यांथी नीxvil अने नीजीने (मच्छेसु उववना तत्थ णं सत्यवम्झा दाह वक्तीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तेत्तीसं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु उववना माणं उपबन्नइ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् विद्वा दाहयुत्क्रान्त्या द्वितीयवारमपि अधः सप्तम्यां पृथिव्यामुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूपपद्यते सा खलु ' तओहिंतो ' तस्या:= सप्तम्याः पृथिव्याः, यावद् उद्वर्त्य ' तच्चपि ' तृतीयवारमपि मत्स्येषु उत्पन्ना । तत्रापि च खलु शस्त्रविद्धा ' जाव कालं किच्चा ' यावत् दाहव्युत्क्रान्त्या कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि पष्ठ्यां पृथिव्यामुत्कृष्टतो द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नरकेषूत्पन्ना, सा खलु ततः = षष्ठ्याः पृथिव्या अनन्तरं ' उबहित्ता ' उद्वर्त्य = निस्सृत्य उरः परिसर्पेषूत्पन्नाः, तत्र शस्त्रवध्या दाहव्युत्क्रान्त्यामुत्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थिति के प्रत्पन्ना । एवं यथा गोशरलकस्तथा ज्ञातव्यम् = गोशालकवदस्या tes ज्जई ) तिर्यञ्चगति में मच्छ की पर्याय से उत्पन्न हो गई। वहां वह मत्स्य के भव में शस्त्र से विद्ध होकर दाह की उत्पत्ति से काल अवसर काल कर मरी सो नीचे सप्तम नरक में ३३ तेतीस सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकावास में नैरधिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां से निकलकर फिर वह मत्स्य की पर्याय से उत्पन्न हुई । (तत्थ वि य णं सत्थविज्झादाहयक्तीए दोच्चपि अहे सत्तमीए पु० ) वहां वह शस्त्र से पुनः विद्ध होकर दाहकी व्युत्क्रान्ति से मरी और मरकर द्वितीयवार भी सप्तम नरक में (उक्कोस तेतीससागरोवमहिइएस नेरहए उबबज्जइ ) उत्कृष्ट - तेतीस सागर की स्थिति लेकर नैरयिक की पर्याय में उत्पन्न हुई । ( साणं तओ हि तो जाव उववट्ठित्ता तच्चपि मच्छेसु उबवना, तत्थ वियणं सत्यवज्झा जाव कालं किचा दोच्चपि छट्टीए पुढ ate उक्को से णं तओणंतरं उवद्वित्ता मच्छेषु उरएस एवं जहा गोसाले તિયચ ગતિમાં મચ્છથી પર્યાયની જન્મ પામી, ત્યાં તે મત્સ્યેના ભવમાં શસ્ત્ર વડે વીંધાઈને દાહથી પીડાઇને કાળ અવસરે કાળ કરીને મરણ પામી અને નીચે સાતમા નરકમાં ૩૩ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં નૈરિયકની પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાંથી નીકળીને ફરી તે મત્સ્યના પર્યાયથી જન્મ પામી. ( तत्थ वि य णं सत्यविज्झा दाहवक्कंतीए दोपि अहे सत्तमीए पु० ) ત્યાં તે ફરી શસ્ત્ર વડે વિદ્ધ થઈને દાહથી પીડાઈને મરી અને મરીને मील वमत पशु सातमां नरम्भ ( उक्कोसं तेतीस सागरोवमट्टिइएस नेरइए उववज्जइ ) उत्पृष्ठ 33 सागरनी स्थिति सहने नैरयिउनी पर्यायभां जन्म पाभी. ( सा णं तओहिं तो जाव उव्वट्टित्ता तच्चपि मच्छेसु उवबन्ना, तत्थ वि य णं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चंपि छट्ठीए पुढवीए उक्को सेणं तओऽणंतरं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे १७८ वर्णनं बोध्यमित्यर्थः, ' यावरयणप्पभाए सत्तसु उववन्ना' यावद् रत्नप्रभायां सप्तसत्पन्ना=अयं भावः- उरः परिसर्पमत्रतो निःसृत्य पञ्चभ्यां धूमप्रभायां पृथिव्यामुत्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना, ततो निः सृत्य द्वितीयबारमुरः परिसर्वेषूत्पद्यते, तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि पञ्चम्यां पृथि तहा नेपच्वं जाव रथणपभाओ सत्तसु उबवन्ना, तओ उच्चद्विक्त्ता जाई ईमाई खाघर विहाणाई जाव अदुत्तरं च णं खरवायर पुढविकाइयत्ता ते तेसु अगसतसहस्स खुत्तो) वहां से भव स्थिति समाप्त होते ही वह निकली- निकल कर तीसरी बार भी मत्स्य की पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां शस्त्र विद्ध होकर दाह की व्युत्क्रान्ति से मरी सो मर कर दुबारा भी छठी ही पृथिवी में २२ बावीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति ले कर उत्पन्न हुई । वहाँ की भवस्थिति समाप्त कर जब वह वहां से निकली तो उरः परिसर्प की पर्याय में उत्पन्न हुई । वहाँ पर भी वह शस्त्र विद्ध होकर दाह की व्युत्क्रान्ति से - उत्पत्ति से काल अवसर काल कर धूमप्रभा नाम की पंचम पृथिवी में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां सतरह सागर की उत्कृष्ट स्थिति इसकी हुई। गोशालक की तरह इसका वर्णन जानना चाहिये । तात्पर्य इसका इस प्रकार है१७ सागर की उत्कृष्टस्थिति वाले पंचम नरक से निकल द्वितीय बार भी वह उरः परिसर्प की पर्याय से उत्पन्न हुई । वहां से पूर्व की तरह उव्वट्टित्ता मच्छेसु उरएसु एवं जहा गोसाले तहा नेयच्वं जाव रयणप्प भाओ सत्तसु उववन्ना, तओ उच्चट्ठित्ता जाई इमाई खयरविहाणारं जाव अदुत्तरं चणं खरखायरपुढविकाइयत्ता ते तेसु अणेगसतसहस्सखुत्तो ) ત્યાંની ભસ્થિતિ પૂરી થતાં જ તે ત્યાંથી નીકળી અને નીકળીને ત્રીજી વાર પશુ માછલીના પર્યાયમાં જન્મ પામી. ત્યાં શસ્ત્રથી વીંધાઈને તથા દાડુથી પીડાઈને મરણ પામી અને તે વખતે પણ છડી પૃથિવીમાં ૨૨ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને ઉત્પન્ન થઇ. ત્યાંની ભવસ્થિતિ પૂરી કરીને જ્યારે તે ત્યાંથી નીકળી ત્યારે તે ઉરઃ પરિસર્પના પર્યાયમાં જન્મ પામી. ત્યાં પણ તે શસ્ત્રથી વીધાઈને અને દાહથી પીડાઈને કાળ અવસરે કાળ કરીને ધૂમપ્રભા નામની પંચમ પૃથિવીમાં નૈરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાં ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેની થઈ. ગેાશાલકની જેમ આનુ વર્ણન જાણી લેવું જોઇએ. મતલખ આની આ છે કે ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા પંચમ નરકથી નીકળીને બીજી વખત પણ તે ઉઃ પરિસના પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાંથી પણ પહેલાંની જેમજ કાળ અવસરે કાળ કરીને ખીજીવાર પણ આ પંચમ પૃથિવીમાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी0 अ0 १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम् नम् १७९ व्यामुत्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना। ततो निः स्मृत्य तृतीयवारमपि उरः प्रतिसपुत्पद्यते, अत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा चतुयों पङ्कप्रभार्या पृथिव्यामुत्कृष्टतो - दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेपूत्पन्ना, ततो निःसृत्य सिंहेवृत्पद्यते,तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि चतुयां पृथिव्यामुत्कृष्टतो. दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना। ततश्चतुर्थ्याः पृथिव्याः निःमृत्य द्विती. यवारमपि सिंहेषूत्पद्यते, तत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा तृतीयायां बाहुकप्रभायां पृथिव्यामुत्कृष्टतः सप्तसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना, ततो निः मृत्य पक्षिघूत्पद्यते, तत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि तृतीयायां पृथिव्यामुस्कृष्टता काल कर द्वितीयवार भी यह पंचम पृथिवी में १७ सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां की स्थिति समाप्त कर जब यह वहां से निकली-तो तीसरी वार भी यह उरः परिसों में उत्पन्न हुई । वहां से पूर्व की तरह काल कर चौथी पंक प्रभा पृथिवी में कि जहां १० सागर की नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति है वहाँ नैरयिक की पर्याय से उत्पस्न हुई। वहां से निकल कर यह सिंह की पर्याय में उत्पन्न हुई । पहिले की तरह वहां से भी मर कर द्वितीय बार भी यह चतुर्थ नरक में दश सागर की स्थिति वाले नरक में नैरपिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। चतुर्थ नरक से निकल कर यह दुवारा भी सिंह को पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां से अपने समय पर मर कर फिर यह बालुका प्रभा नाम की तीसरी पृथिवी में सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर नैयरिक की पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां से निकल कर फिर यह पक्षियों के कुल में उत्पन्न हुई। यहां से मर कर ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરકમાં નિરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાંની સ્થિતિ પૂરી કરીને જ્યારે તે ત્યાંથી નીકળી તે ત્રીજી વાર પણ તે ઉરઃ પરિસર્ષમાં ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંથી પહેલાંની જેમ કાળ કરીને ચોથી પંકપ્રભા પૃથિવીમાં–કે જ્યાં દશસાગરની નિરયિકની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે, ત્યાં નરયિકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ, ત્યાંથી નીકળીને તે સિંહના પર્યાયથી જન્મ પામી. પહેલાની જેમ ત્યાંથી પણ મરણ પામીને બીજીવાર પણ ચતુર્થ નરકમાં દશ સાગરની સ્થિતિવાળા નરકમાં નૈરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. ચતુર્થ નરકથી નીકળીને તે ફરી સિંહના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંથી મરણ પામીને કરી તે વાલુકા પ્રભા નામની ત્રીજી પૃથિવીમાં સાત સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને નૈરચિકની પર્યાયમાં જન્મ પામી. ત્યાંથી નીકળીને તે ફરી તે પક્ષીઓના કુળમાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसत्रे सप्तसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेपूत्पन्ना । ततस्तृतीयायाः पृथिव्या निः मृत्य द्वितीयवारमपि पक्षिषूत्पद्यते, तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां शर्करप्रभायामुत्कृष्टतस्त्रिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना। ततो निसृत्य सरीस्पेषत्पद्यते, तत्रापि शस्त्रवेध्या दाहव्युत्क्रान्त्या कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि द्वितीयायां पृथिव्यामुत्कृष्टतस्त्रिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेपूत्पन्ना । ततो द्वितीयायाः पृथिव्याः निः सृत्य द्वितीयवारमपि सरीसृपेषत्पद्यते, तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा प्रथमायां पृथिव्यां रत्नप्रभायामुत्कृष्टत एकसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेयूत्पन्ना, ततो निः मृत्य संशिषु, ततो निः मृत्याऽसंज्ञित्पद्यते, ततो निः फिर यह पुनः तीसरे नरक में सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। यहां से निकल कर पुनः यह पक्षियों के कुल में उत्पन्न हुई। यहां से मर कर फिर यह दूसरी पृथिवी जो शर्करा प्रभा है और जिसके नरकावासों में तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति है वही नैरयिकों को पर्याय से उतनी स्थिति लेकर उ. त्पन्न हुई । वहां से निकल कर सरीसृपों में यह दाह की व्युत्क्रान्ति से मरी तो मर कर द्वितीय वार भी द्वितीय पृथिवी के नरकावासों में तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर उत्पन्न हुई । द्वितीय पृथिवी से निकल कर दुबारा यह सरीसृप में उत्पन्न हुई । वहां से अपने समय पर मर कर रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी में उत्कृष्ट एक सागर की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां की भवस्थिति समाप्त होने पर यह वहां से निकलकर संज्ञी जीवों में वहां જન્મ પામી. ત્યાંથી મરણ પામીને ફરી તે ત્રીજા નરકમાં સાત સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરયિકમાં નરયિકના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંથી નીકળીને ફરી તે પક્ષીઓના કુળમાં ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંથી મરણ પામીને ફરી તે બીજી પૃથિવી જે શરપ્રભા છે અને જેના નરકાવાસમાં ત્રણ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે ત્યાં નરયિકેના પર્યાયથી તેટલી જ સ્થિતિ લઈને જન્મ પામી ત્યાંથી નીકળીને સરીસૃપોમાં તે ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાં શસથી વધાઇને તથા દાહથી પીડાઈને મરણ પામી અને ત્યારપછી બીજીવાર પણ બીજી પૃથિવીને નરકાવાસમાં ત્રણ સાગર જેટલી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને ઉત્પન્ન થઈ. બીજી પૃથ્વિથી નીકળીને બીજીવાર તે સરીસૃપમાં ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંથી યથા સમય મરણ પામીને રત્નપ્રભા નામની પ્રથમ પૃથ્વિમાં ઉત્કૃષ્ટ એક સાગરની સ્થિતિવાળા નરકા, વાસમાં નૈરયિકના પર્યાયતી ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંની ભવસ્થિતિ પૂરી કરીને તે ત્યાંથી નીકળીને સંસી–જીમાં, ત્યાંથી પણ મરણ પામીને અસંસી-છમાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतव विणी टी० अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरितनिरूपणम् १८१ सृत्य द्वितीयवारमपि पथमायां पृथिव्यां पल्योपमत्याऽसंख्येयभागस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोत्पन्ना' इति । 'तओ उपट्टित्ता' तत उद्वत्यरत्नप्रभातो निः मृत्य यानि इमानि 'खहयरविहाणाई' खचरविधानानि चर्मपक्ष्यादीनि भवन्ति तेषु, यावत् अथोत्तरं च खलु यानीमानि खरवादरपृथिवी कायिकविधानानि तेषु खरबादरपृथिवीकायिकतयाऽनेकशतसहस्रकृत्वः समुत्पना ॥ सू०६॥ मूलम्-सा णं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबूद्दोवे दीवे भारहेवासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुञ्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया तएणं सा भद्दा सत्थवाही णवण्हं मासाणं० दारियं पयाया सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं, तीसे दारियाए निव्वत्तबारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोन्नं गुणनिप्फन्नं नामधेजं करेंति-जम्हा णं अम्हं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुयसमाणा तं होउणं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया, तएणं तीसे दारियाए अम्मापियरो नामधेज्ज करेंति सूमालियत्ति, तएणं सा सूमालिया दारिया पंचधाई परिग्गहिया तं जहा-खीरधाईए से भी मर कर असंज्ञी जीवों में और फिर वहां से मर कर फिर दुबारा भी प्रथम पृथिवी में १ एक पल्य के असंख्यात वें भाग प्रमाण स्थितिवाले नरकावासों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। उस रत्न प्रभा पृथिवी से निकल कर फिर यह जितने ये पक्षिभेद हैं-चर्म पक्षी आदि हैं-उनमें और उनके बाद जो ये खर-बादर-पृथिवीकायादि भेद हैं उनमें खरबादर पृथिवीकायिकरूपसे लाखों वार उत्पन्न हुई ॥सू०६॥ અને ફરી ત્યાંથી મરણ પામીને બીજીવાર પણ પહેલી પૃથ્વિમાં ૧ એક પલ્પના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં નરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. તે રત્નપ્રભા પૃથ્વિથી નીકળીને ફરી તે જેટલા પક્ષી ભેદે છેચમ પક્ષી વગેરે છે તેમાં અને ત્યારપછી ખર-બાદર પૃથ્વિીકાય વગેરે ભેદ છે તેમાં ખર-આદર પૃથ્વિકાયિકના રૂપમાં લાબે વાર જન્મ પામી. સૂ. ૬ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ज्ञाताधर्मकथासत्रे जाव गिरिकंदरमालीणा इव चंपकलया निव्वाए निवाघायसि जाव परिवड्डइ, तएणं सा सूमालियादारिया उम्मुक्कबालभावा जाव रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किह सरीरा जाया यावि होत्था ॥ सू० ७॥ टीका-'साणं तओ' इत्यादि । सा खलु नागश्रीः ततोऽनन्तरम् उद्वर्त्य जम्बूद्वीपे दीपे भारते वर्षे चम्पायां नगयों सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य भद्राया भार्यायाः कुक्षौ पच्चायाया' प्रत्यायाता गर्भेसमागता । ततः खलु सा भद्रा सार्थवाही नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेणु अष्टिमेषु रात्रिन्दिवेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु दारिका 'सा णं तओऽणंतरं' इत्यादि । टीकार्थ-(सा णं तओऽणंतरं उवट्टित्ता) इसके बाद वह नागश्री खर पृथवी कायिका से निकल कर ( इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसिदारियत्ताए पच्चायाया) इसी जंबूद्वीप नाम के द्वीप में स्थित भारतवर्ष नामके क्षेत्र में वर्तमान चंपानगरी में सागरदत्त सेठ की धर्मपत्नी-भद्रा की कुक्षि में पुत्रीरूप से अवतरी (तएणं सा भदा सत्यवाही नवण्हं मासाणं दारियं पयासा सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं तीसे दारियाए निब्वत्त बारिसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोन्नं गुणनिष्फन्नं नाम धे करेंति, जम्हाणं अम्ह एसा दारिया सुकुमाला गयतालुय समाणा तं होउणं अम्हें इमीसे दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया) भद्रा सार्थ 'सा णं तोऽतर उवद्वित्ता' इत्यादि Ast-(सा णं तओऽणंतर उवद्वित्ता) त्या२पछी ते नाश्री ५२ १४॥ यथा नीजीन ( इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदसम्म सत्थवाहस्स भदाए भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया ) એ જ બદ્રીપ નામના દ્વીપમાં આવેલા ભારતવર્ષ નામના ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન ચંપાનગરીમાં સાગરદત્ત શેઠની ધર્મપત્ની ભદ્રાના ઉદરમાં પુત્રી રૂપમાં અવતરી. (तएणं सा भद्दा सस्थवाही नवण्हं मासाणं० दारियं पयाया सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं तीसे दारियाए निव्वत्तवारिसाहियाए अम्मापियरो इमं पयाख्वं गोन्नं गुणनिष्फन्नं नामधेनं करेंति, जम्हाणं अम्हें एसा दारिया मुकुमाला गयतालुयसमाणा तं होउणं अम्हे इमीसे दारियाए नामधेजे सुकुमालिया) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनगारधर्मामृतव विणी टी० अ० १६ धर्म हच्यनगारचरितनिरूपणम् १९३ 'पयाया' प्रजाता-प्रजनितवती, कि भूतां दारिकामित्याह- सुकुमालकोमलियं' सुकुमारकोमलाम्-अतिमृदुलाम् गजतालुकसमानां अगस्यातिकोमलतया गजतालुतुल्यामित्यर्थः। तस्या दारिकाया 'निव्वत्तवारसाहियाए ' निर्वृ त्तद्वादशाहिकायाः सम्प्राप्तद्वादशदिवसायाः अम्बापितरौ-मातापितरौ इदमेतद्रूपं 'गोणं गौणं गुणेभ्य आगतं-माप्तं गुणनिष्पन्न-गुणबोधकं नामधेयं कुरुतः कर्तुविचारयतः तथाहि यस्मात् खलु अस्माकमेषा दारिका मुकुमारा गजतालुकसमाना जाता, तद्-तस्मात् भवतु खलु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं 'सुकुमारिका' इति । ततः विचारकरणानन्तरं खलु तस्या दारिकाया अम्वपितरौ नामधेयं कुरुतः 'सुकुमारिका' इति । ततः खलु सा सुकुमारिका दारिका पञ्चधात्रीपरिगृहीतापञ्चसंख्यकाभि धात्रीभिः उपमातृभिः सुरक्षिता जाता, तद् यथा-तासां पश्चान धात्रीणां नामानि दर्शयति 'खोरधाईए जाव गिरकंदर' इति । क्षीरधाच्या स्तन्यबाहिके गम के नौ मास तथा साढे सात दिन रात पूर्णरूप से व्यतीत हो चुके तब उसने पुत्रीको जन्म दिया। यह पुत्री अत्यन्त कोमल अंगवाली थी इसी लिये गजका तालु भाग जिस प्रकार मृदुल होता है यह वैसी ही कोमल थी। जब यह १२ बारह दिन की हो चुकी-तष इस के मातापिताने इसका 'यथा नाम तथा गुण' इस कहावतके अनुसार गुणों को लेकर नाम संस्कार करने का विचार किया। विचार करने के बाद उन्होंने इस ख्याल से कि यह हमारी पुत्री अत्यन्त सुकुमार और गज तालु का के जैसी मृदुल है अतः इसका नाम सुकुमारिका रहे (तएणं तीसे दारियाए अम्मा पियरो नामधेज्जं करेंति सूमालियत्ति) उस कन्या का नाम सुकुमारिका रख दिया (तएणं सा सुकुमारियदारिया ભદ્રા સાથે વાહીના ગર્ભના નવ માસ અને સાઢા સાત દિવસ રાત પૂરા થઈ ચૂક્યા ત્યારે તેણે પુત્રીને જન્મ આપે. આ પુત્રી અતીવ કમળાંગી હતી. હાથીના તાળવાને ભાગ જે સુકેમળ હોય છે, તે તેવીજ કમળ હતી. જ્યારે તે બાર દિવસની થઈ ગઈ ત્યારે તેના માતાપિતાએ જેવું નામ તેવા ગુણવાળી એ કહેવત મુજબ ગુણના આધારે તેને નામ સંસ્કાર કરવાને વિચાર કર્યો. વિચાર કર્યા બાદ તેઓએ પોતાની પુત્રીની સુકોમળ દષ્ટિ સમક્ષ રાખીને એટલે કે તેઓએ આ પ્રમાણે વિચારીને કે આ મારી પુત્રી હાથીના તાળવા જેવી સુકમળ છે માટે એનું નામ સુકુમારી રાખીએ. (तएणं तीसे दारियाए अम्मावियरो नामधेज्जं करति समालियति) તે કન્યાનું નામ સુકુમારી રાખ્યું. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दायिन्या, यावत्करणादेवं बोध्यम् -' मंडणत्राईए' मज्जणधाईए कीलावणधाईए अंकाईए' इति । मण्डनधात्र्या = वस्त्रमाल्याङ्कालरपरिधाविकया, मज्ज्जनधान्यस्= स्नानकारिकया, क्रीडनघाच्या या क्रीडां खेलनं कारयति तया, तथा अङ्कधात्र्या = उत्सङ्गे स्थापिकया च पाल्यमाना. उपलालयमाना आलिङ्गयमाना स्तूयमाना प्रचुव्यमाना, गिरिकन्दरमालीना चम्पकलतेव निर्वाते महावातरहिते निर्व्याघाते = पंचधाई परिग्गहिया तं जहा - खीरधाईए जाव गिरिकंदर मालिणा इव चंपकलया निव्वा निव्वाघायंसि जाव परिवड्डूइ-तएण सासूमालिया दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव रूवेण य जोन्वणेण य लांबण्णेणय उट्ठा उकिडसरीरा जाया यावि होत्था ) इसकी रक्षा के लिये माता पिताने ५ घायमाताए -उपमाताएँ - रख दी उनकी देखरेख में यह सुरक्षित रहने लगी उनके नाम ये हैं-क्षीरधात्री दुग्ध पान करानेवाली धाय, मंडनधात्री - वस्त्र माला अलंकार आदि पहिरानेवाली धार्य, मज्जन धत्री - स्नान करोनेवाली घाय, क्रीडन धात्री - खेल कुंद करोनेवाली धाय, अंक धात्री-अपनी गोद में बैठानेवाली धाय, इस तरह इन ५ धाय माताओं द्वारा पालित होती हुई, उपलालित होती हुई, आलिङ्गय मान होती हुई, स्तूयमान होती हुई और प्रचुम्यमान होती हुई यह सुकु मारिका कन्या, गिरिकन्दरा में उत्पन हुई चम्पकलता जैसे महावातसे वर्जित एवं उपद्रवों से रहित स्थान में आनन्द के साथ बढ़ता है-उसी प्रकार बढने लगी। धीरे २ बाल्यावस्था से जब यह रहित हो गई तब ( तरणं सा सुकुमारिया दारिया पंचधाई परिग्गहिया तं जहा - खीरधाईए जाव गिरिकंदर मालिणा इव चंपकल्या निव्वाए निव्वाघायंसि जाव परिवड्डूइतणं सा सूमालिया दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव रूवेणं य जोव्वणेण लावणे य उक्किट्ठा उक्किट्ठ सरीरा जाया यावि होत्था ) તેના રક્ષણ માટે માતા-પિતાએ ૫ ધાય-માતાએ ઉપમાતાએની નીમશુક કરી, તેમનાં નામેા નીચે લખ્યા મુજખ છે—ક્ષીરધાત્રી—દૂધ પીવડાવનાર धाय, भरनधात्री-वस्त्र, भाजा, असारी बगेरे पहेशवनारी धाय, भन्न. યાત્રી-સ્નાન કરાવનારી ધાય–ક્રીડનધાત્રી રમાડનાર ધાય, અંધાત્રી–પેાતાના ખેાળામાં બેસાડનારી ધાય, આ રીતે આ ૫ ધાય માતા વડે પાલિત થતીઉપપાલિત થતી, આર્લિગ્યમાન થતી, સ્તુયમાન થતી અને પ્રચુષ્યમાન થતી તે સુકુમારિકા કન્યા ગિરિક ંદરાઓમાં ઉત્પન્ન થયેલી ચંપકલતાની જેમ મહાવાતથી રક્ષિત તેમજ બીજા ઉપદ્રવથી રહિત સ્થાનમાં સુખેથી વધે છે. તેમજ મેટી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १८५ उपद्रववर्जिते स्थाने यावत् सुखं सुखेन परिवर्धते स्म । ततः खलु सा कुमारिकादारिका उन्मुक्तबालभावा-व्यतीतबाल्यावस्था, यौवनमनुप्राप्ता यावद् रूपेण आकृत्या च, यौवनेन तारुण्यवयसा च, लावण्येन-यौवनवयोजनितकान्तिविशेषेण च, उत्कृष्टा =विशेषशोभासम्पन्ना, उत्कृष्टशरीरा-सर्वाङ्गसुन्दरी जाता चाप्यभवत् ॥ सू०७॥ मूलम्-तत्थ णं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नाम सत्थवाहे अड्डे तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया सूमाला इट्टा जाव माणुस्सए कामभोए पच्चणुब्भवमाणा विहरइ, तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नाम दारए सुकुमाले जाव सुरूवे, तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वाईवयइ इमं च णं सूमालिया दारिया पहाया चेडियासंघपरिवुडा उप्पि आगासतलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी२ विहरइ, तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सूमालियं दारियं पासइ पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवे य३ जायविम्हए कोडुबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं वा णामधेनं यौवनने इसके शरीर पर अपना अधिकार स्थापित करना पारंभ कर दिया-उस समय यह रूप आकृति-से यौवन-तारुण्य वय से, और यौवन वय जनित कान्ति विशेषसे विशिष्ट शोभा संपन्न हो गई और समस्त इस के शारीरिक अवयव सुंदर हो गये अर्थात् उस समय यह सर्वाङ्ग सुन्दरी बन गई । सू०७। થવા લાગી. ધીમે ધીમે જ્યારે તે બચપણ વટાવીને યુવાવસ્થા સંપન્ન થવા માંડી ત્યારે તેના શરીર ઉપર યૌવનના ચિહ્નો દેખાવા લાગ્યાં. તે સમયે તે રૂપઆકૃતિ-થી, યૌવન-તારૂણ્ય-થી અને યૌવનાવસ્થા જનિત સવિશેષ કાંતિથી વિશિષ્ટ શભા સંપન્ન થઈ ગઈ અને તેના શરીરનાં બધાં અંગે સુંદર થઈ यां, सेट हे ते मते a स सुंदरी मनी गई. ॥ सूत्र ७॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯૬ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे से ?, तणं ते कोडुंबियपुरिसा जिणदत्तेण सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं वयासी - एस णं देवाणुपिया ! सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उक्किट्ठसरीरा तएण से जिणदत्ते सत्थवाहे तेसिं कोडुंबियाणं अंतिए एयमहं सोच्चा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पहाए जाब मित्तनाइ परिवुडे चंपाए० जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उबागच्छइ, तरणं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्थवाहं एजमाणं पासइ पासित्ता आसणाओ अब्भुट्ठेइ अब्भुद्विना आसणेणं उवणिमंतेइ उवणिमंतित्ता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी-भण देवाणुपिया ! किमागमणपओयणं ?, तरणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी - एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भहाए अत्तियं सूमालियं सागरस्स भारियत्ताए वरेमि, जइ णं जाणाह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउणं सूमालिया सागरस्स, तरणं देवाशुप्पिया कि दलयामो सुंक्कं सुमालियाए ?, तएणं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा जाव किमंग पुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं तं जइणं देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम घरजामाउए શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् ૨૨૭ भवइ तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामि - तणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदारगं सहावे सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्थवाहे मम एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया ! दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा तं चैव तं जड़ णं सागरदारए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि, तरणं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ते समाणे तुसिणीए, तरणं जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिकरण दिवसणक्खत्तमुहुत्तंसि विउले असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावित्ता मित्तणाइ० आमंतेइ जाव सम्माणित्ता सागरं दारगं पहायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करिता पुरिस सहरसवाहिणि सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडे सव्विडीए साओ गिहाओ निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता चंपानयरिं मज्झम झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्त सत्थ० उवणेइ, तपणं सागरदत्ते सत्थवाहे विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडाas उवक्खडवित्ता जाव सम्माणेत्ता सागरगं दारगं सूमालियाए दारियाए सद्धि पट्टयं दुरूहावेइ दुरूहावित्ता सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोमं करावेइ करावित्ता सागरं दारयं सूमालियाए दारियाए पार्णि गिण्हावेइ ॥ सू० ८ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे टीका-'तत्थ णं चंपाए' इत्यादि । तत्र खलु चम्पायां नगयां जिनदत्तो नाम सार्थवाह आढयो यावद् अपरिभूत आसीत् , तस्य जिनदत्तस्य भद्रा भार्या आसोत्-सा किम्भूता-मुकु मारा इष्टा यावद् मानुष्यकान् ‘पच्चणुब्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्ती विहरति । तस्य खलु जिनदत्तस्य पुत्रो भद्राया भार्याया आत्मजा= अगजातः, सागरो नाम दारकः आसीत् स किंम्भूतः-सुकुमारपाणिपादः, सर्वलक्षणसम्पन्नः यावत्-सुरूपः । ततः खलु स जिनदत्तसार्थवाहः अन्यदा कदाचित् 'तत्थ णं चंपाए' इत्यादि । टीकार्थ-( तत्थ णं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नाम सत्यवाहे अड्डे, तस्स गंजिणदत्तस्स भद्दा भारिया, सूमाला इट्ठा जाव माणुस्सए कामभोए पच्चणुब्भवमाणा विहरइ) उस चंपा नगरीमें जिनदत्त नामको एक सार्थवाह रहता था जो धनधान्य आदि से विशेष परिपूर्ण एवं जन मान्य था। इसकी धर्मपत्नी का नाम भद्राथा । यह सर्वाङ्ग सुन्दरी थी। समस्त अंग और उपांग इसके बडे ही सुकुमार थे। यह अपने पतिको अत्यन्त इष्ट प्रिय थी। पति के साथ मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगों को भागती हुई यह आनंद के साथ अपने समय व्यतीत किया करती थी (तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए सुकुमाले जाव सुरूवे) भद्रा भार्या से उत्पन्न हुओ जिनदत्त सार्थवाहके एक पुत्र था-जिसका नाम सागर था। यह सुकुमाल यावत् तत्थणं चंपाए इत्यादिAथ-(तत्थणं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नाम सत्थवाहे अड़े तस्सणं जिण दत्तस्स भद्दा भारिया, सूमाला इट्टा जाव माणुस्सए कामभोए पच्चणुन्भवमाणा विहरह) या नगरीमा हत्त नामे साथ वाड २७तो तो. ते धन ધાન્ય વગેરેથી સવિશેષ સંપન્ન તેમજ સમાજમાં પૂછાતા માણસ હતું. તેની ધર્મપત્નીનું નામ ભદ્રા હતું, તે સર્વાગ સુંદરી હતી. તેના બધા અંગે અને પગ બહુ જ સુકેમાળ હતાં, તે પિતાના પતિને બહુજ વહાલી હતી. પતિની સાથે મનુષ્ય ભવના કામગ ભેગવતી તે સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરી રહી હતી. (तस्सणं जिणथत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए सुकुमाले जाव सुरूवे) ભદ્રાભાર્યાથી ઉત્પન્ન થયેલે ભદ્રાભાર્યાને એક પુત્ર હતું. તેનું નામ સાગર હતું. તે સુકુમાર યાવત્ સુંદર રૂપવાન હતા. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति-निर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य, सागदत्तस्य गृहस्य 'अदूरसामन्ते ' =नातिदूरे नातिसमीपे वोइवयइ ' व्यतिव्रजति गच्छति, 'इमंचणं' अस्मिन् समये सुकुमारिका दारिका स्नाता-कृतस्नाना 'चेडियासंघपरिवुड़ा' चेटिकासंघपरिवृता-दासीसमूहमध्यगता, उपरि आकाशतलके-प्रासादस्याट्टालिकोपरि ' कणगतेंदुसकेणं' कनकतेंदुससयेन ' तेंदुसय' इतिदेशीशब्दः, सुवर्णमयकन्दुकेन ' कीलमाणी २' विहरति, ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः सुकुमारिकां दारिकां पश्यति, दृष्ट्वा सुकुमारिकाया दारिकाया रूपे च यौवने च लावण्ये च 'जाव विम्हए' यावत् विस्मिता आश्चर्ययुक्तः सन् कौटुम्बिकपुरुषान्= आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-एषा स्खलु हे देवानुमिया. ! कस्य दारिका किं वा नामधेयं ' से ' इति तस्याः ?, ततः खलु ते अच्छे रूपवाला था । (तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिवखमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूर सामंतेणं वीईवयई ) एक दिन जिनदत्त सार्थवाह अपने घरसे निकला और निकलकर सागरदत्तके घरके पास से हो कर जा रहा था। ( इमं च गं सूमालिया दारिया पहाया चेडियासंघपरिवुडा उप्पिआगा सतलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी२ विहरइ ) इसी समय सुकुमारिका दारिका नहा धो कर अपने प्रासाद की छत पर दासी समूहके साथ २ सुवर्णमय कंदुक (गेंद ) से खेल रही थी। (तएणं से जिण. दत्ते सत्यवाहे सूमालियं दारियं पासइ पासित्ता सूमालियाए दारियाए स्वेय ३ जाय विम्हए कोडुविय पुरिसे सद्दावेह, सदावित्ता एवं वयासी एसणं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं वा-नामधेज्ज से ? तएणं ते तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमा पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयई) એક દિવસે જનદત્ત સાર્થવાહ પિતાને ઘેરથી બહાર નીકળે અને નીકળીને સાગરદત્તના ઘરની પાસે થઈને જઈ રહ્યો હતે. (इमं च णं सूमालिया दारिया व्हाया चेडियासंघपरिखुडा उप्पि आगासतलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी २ विहरइ) તે વખતે સુકુમારિકા દારિકા નાન કરીને પિતાના મહેલની અગાશી ઉપર દાસી સમૂહની સાથે સુવર્ણમય કંદુક (દડી) રમતી હતી. (तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सूमालियं दारियं पासह पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवेय ३ जाय विम्हए कोड बिय पुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी एसणं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं वा नामधेज्जं से ! तएणं ते कोडविय श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कौटुम्बिकपुरुषा जिनदत्तेन सार्थवाहेनैत्रमुक्ताः सन्तो हष्टतुष्टाः - अतिमुदिताः 'करयल जाव' करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवा; दिपुः - हे देवानुप्रियाः ! एषा सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य ' धूया ' दुहिता = पुत्री, भद्राया आत्मजा सुकुमारिका नाम दारिका सुकुमारपाणिपादा यावद्-रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टा उत्कृष्ट शरीरा । ततः खलु स जिनदत्तः सार्थ कोडुंबिय पुरिसा जिणदत्तेन सत्थवाहेणं एवं वृत्तासमाणा हट्ट करयल जाव एवं वयासी-एसणं देवाणुपिया ! सागरदत्तस सत्थवाहस्स धूया. भद्दाए अतिया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उकि सरीरा ) खेलती हुई उस कुमारिका दारिका को जिनदत्त सार्थवाह ने देखा देखकर वे सुकुमारिका दारिका के रूप यौवन एवं लावण्य में आश्चर्यचकित हो गये और आश्चर्य से युक्त होकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया - बुलाकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगे - हे देवानुप्रियो ! यह कन्या किसकी है इसका नाम क्या है । जिनदत्त सार्थवाह के द्वारा पूछे गये उन कौटुम्बिक पुरुषों ने हर्षित हो कर और अपने दोनों हाथों जोड़ कर बडे विनय के साथ उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! यह पुत्री सागरदन्त सार्थवाहकी है । भद्रा भार्या की कुक्षि से यह जन्मी है | इसका नाम सुकुमारिका है । इसके कर चरण बडे ही सुकुमार हैं यावत् रूप, यौवन एवं लावण्यसे यह सर्वोत्कृष्ट है और सर्वाङ्ग सुन्दरी है | ( तएण से जिणदत्ते सत्यवाहे तेसिं कौडुबियाणं पुरषा जिणदत्तेन सत्यवाणं एवं वृत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं व्यासीएस देवाशुपिया ! सागरदतस्स सत्यवाहस्त धूया भद्दाए अत्तिया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव, उक्किट्ठसरीरा ) રમતી સુકુમાર દારિકાને જીનદત્ત સાથેવાડે જોઈ જોઈને તેએ સુકુમાર દ્વારિકાના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યમાં આશ્ચર્ય ચકિત થઇ ગયા અને ત્યારપછી તેમણે કૌટુંબિક પુરૂષાને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તે તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિયા ! આ કન્યા કેાની છે ? એનું નામ શું છે ? જીનદત્ત સાવાહ વડે એવી રીતે પૂછાએલા તે કૌટુંબિક પુરૂષાએ હિમંત થઇને પોતાના ખને હાથ જોડીને બહુજ વિનયની સાથે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! સાવાહ સાગરદત્તની આ પુત્રી છે. ભદ્રાભાર્યોના ઉદરથી આના જન્મ થયા છે સુકુમારિકા આનું નામ છે. એના હાથપગ ખૂબ જ સુકા અળ યાવત્ રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી આ સર્વોત્કૃષ્ટ છે અને સર્વાંગ સુ દરી છે, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १९१ वाहस्तेपो कौटुम्बिकानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्नातो यावद् मित्रज्ञातिपरिवृतश्चम्पाया नगर्या मध्ये भूत्वा यत्रैव सागरदत्तस्य गृहं तत्रैवोपागच्छति, ततस्तदनन्तरम् सागरदत्तः सर्थवाहः खलु जिनदत्तं सार्यवाहम् एजमानम् आगच्छन्तं पश्यन्ति, दृष्ट्वाऽऽसनादुत्तिष्ठति, उत्थाय 'आसणेणं उवणिर्म तेइ ' आसनेनोपनिमन्त्रयति आसन उपवेशनार्थ प्रार्थयति, उपनि मन्त्र्य, आसनोपर्युपवेशनानन्तरम् ,आस्वस्थं-मार्गश्रमापगमात् श्रान्तिरहितं, विस्वस्थं विशेषतो विश्रान्तिमुपगतं, सुखासनवरगत-मुखेन- विशिष्टासनोपविष्टं, तं अंतिए एयमढे सोच्चा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पहाए, जाव मित्तणाइपरिबुडे चंपाए० जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तएणं सागरदत्ते सस्थवाहे जिणदत्तं सत्यवाह एज्जमाण पासइ, पासित्ता आसणाओ अन्भुढेइ, अन्भुद्वित्ता आसणेणं उवणिमंतेह उवणिमंत्तित्ता आसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी ) जिनदत्त सार्थवाहने उन कौटुम्बिक पुरुषों के मुख से जब इस अर्थ को सुना तो सुनकर वह पहिले अपने घर गया-वहां जा कर उसने स्नान किया । यावत् फिर वह अपने मित्र, ज्ञाति आदि परिजनों के साथ२ चंपानगरी के बीच से हो कर जहां सागरदत्त का घर था वहां पहुँचा-सागरदत्तने ज्यो ही अपने घर पर आते हुए जिनदत्त सार्थवाहको देखा - तो वह जल्दीसे अपने स्थान से उठा-और उठकर " आप यहां बैठिये " इस प्रकार उनसे कहने लगा जब वे यथोचित स्थान पर बैठ चुके और आस्व (तएणं से निणदत्ते सत्यवाहे तेसिं कौडुबियाणं अंतिए एयमढे सोच्चाजेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रहाए, जाच मित्तणाइ परिखुडे चंपाए० जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तएणं सागरदत्ते सत्थवाहे, जिणदत्तं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ उवणिमंतित्ता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी) જનદત્ત સાર્થવાહે તે કૌટુંબિક પુરૂષોના મુખથી આ વાત સાંભળીને સૌ પહેલાં તેઓ પોતાને ઘેર ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે સ્નાન કર્યું. યાવત પછી તે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનોની સાથે ચંપા નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં સાગરદત્તનું ઘર હતું ત્યાં પહોંચ્યા. સાગરદત્ત જીનદત્ત સાર્થવાહને પિતાને ઘેર આવતા જોઈને ત્વરાથી તે પિતાના આસન ઉપરથી ઊભું થઈ ગયું અને ઊભે થઈને “તમે અહીં બેસે” શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - ज्ञाताधर्मकथासूत्र जिनदत्तं सार्थवाहमेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-हे देवानुप्रिय ! भण-कथय,किमागमनपयोजनम् कस्मै प्रयोजनाय समागतो भवान् ? ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदत्तं सार्थवाहमेवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादोत्-एवं खलु अहं हे देवानुप्रिय ! तव दुहितरं-पुत्री, भद्राया आत्मजां सुकुमारिकां=सुकुमारिकानाम्नी सगरस्य-सगरनामकस्य मत्पुत्रस्य भार्यात्वेन 'वरेमि' वृणोमि वाञ्छामि, यदि खलु त्वं जानीहि हे देवानुप्रिय ! 'जुत्तं वा' युक्तं वा-योग्यं वा-'एतत् कार्य समुचितं भवति ' ति ‘पत्तं वा' माप्तं वा-एतत् कार्य कुलमर्यादामनुमाप्त वा, स्थविश्वस्थ बन चुके-तब विशिष्ट आसन पर शांतिके साथ बैठे हुए उन जिनदत्त सार्थवाह से उसने इस प्रकार पूछा।-(भण देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं ) कहिये देवानुप्रिय ! यहां पधारने का आपका क्या प्रयोजन है ? किस प्रयोजन से आप यहां आये हैं-कहिये-(तएणं से जिणदत्तसत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भद्दाए अंतियं सूमालियं सागरस्स भारियत्ताए वरेमि जइणं जाणाह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउणं सूमालिया सागरस्स ) जिनदत्त सार्थवा. हने सागरदत्त सार्थवाहसे तब इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! में आपकी सुभद्रा की कुक्षिसे उत्पन हुई सूमालिका पुत्री को अपने पुत्र सागर की भार्या बनाना चाहता हूँ। यदि आप इसे स्वीकार करें कि यह कार्य योग्य है-उचित है-कुल मर्यादा के अनुसार है अथवा मेरा पुत्र आपकी આ રીતે તેમને કહેવા લાગે. જ્યારે તેઓ ઉચિત સ્થાને બેસી ગયા અને આસ્વસ્થ વિશ્વસ્થ થઈ ચૂક્યા ત્યારે વિશિષ્ટ આસન ઉપર શાંતિપૂર્વક બેઠેલા त महत्त सार्थवाहन तेथे या प्रमाणे ४ह्यु-(भण देवाणुप्पिया! किमागमण पओयणं ) वानुप्रिय ! मताव मडी यथावानी ॥७॥ मापन ॥ हेतु છે? ક્યા પ્રજનથી આપ અહીં આવ્યા છે? ___ (तएणं से जिणदत्त सत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तव धूयं भदाए अंतियं सूमालियं सागरस्स भारियत्ताए वरेमि जइणं जाणाह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउ णं सूमालिया सागरस्स) જીનદત્ત સાર્થવાહે સાગરદત્ત સાર્થવાહને ત્યારે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે. દેવાનુપ્રિય ! હું તમારી સુભદ્રાના ઉદરથી જન્મ પામેલી સુમાલિકા પુત્રીને મારા પુત્ર સાગરની પત્ની બનાવવા ઈચ્છું છું. આપ જો મારી માગણી ઉચિત સમજતા હે, કુળ-મર્યાદા ૫ તેમજ મારા પુત્ર તમારી કન્યા માટે યોગ્ય શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १९३ पात्र = कन्या योग्योऽयं मन्पुत्रः सागरः ' इति, ' सलाहणिज्जं वा ' श्लाघनीयं = प्रशंसनीयं वा ' सरिसो वा संजोगो ' सदृशो वा संयोगः-अयं कन्यावरयो वैवाहिकः सम्बन्धः कुलेन रूपेण गुणेन वा तुल्य इति, 'तो' तर्हि ' दिज्जउ ' ददातु भवान् खलु सुकुमारिकां दारिकां सागराय = मत्पुत्रायेतिभावः । ततः खलु है देवानुप्रिय 1 ब्रूहि किं दद्म- किं दद्यां, शुल्कं = संमानार्थं द्रव्यं सुकुमारिकाया दारिकायाः ? ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाहस्तं जिनदत्तमेवमवादीत् एवं खलु हे देवानुप्रिय ! सुकुमारिका दारिका ममैका एकजाता = एकैवोत्पन्ना, तथा इष्टाअनुकूला, यावत् - कान्ता - ईप्सिता, प्रिया = प्रीतिपात्रा, मनोज्ञा = मनोगता तथाकन्या के योग्य है यह संबन्ध प्रशंसनीय है, कन्या और वर का यह वैवाहिक संबन्ध कुल रूप और गुणों के अनुरूप है तो आप अपनी पुत्री सुकुमारिका को मेरे पुत्र सागर के लिये प्रदान कर दीजिये - (तरणं देवाविया ! किं दलयामो सुक्कं सुमालियोए ? ) हे देवानुप्रिय ! साथ में यह भी कहदीजिये कि सुकुमारिका दारिका के संमानार्थ हम क्या द्रव्य देवें ( तरणं से सागरदन्ते तं जिणदत्तं एवं वयासीएवं खलु देवाणुपिया ! सूमालिया दारिया मम एगा, एगजाया ईट्ठा जाव किमंगपुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि, सूमालियाए दारियाए खणमवि विष्पओगं तं जइणं देवाणुपिया ! सागरदारए मम धरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि ) सागरदत्तए ने जिनदत्त से तब इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! यह सुकुमारिका पुत्री मेरे यहां एक ही लड़की है और यह एक ही उत्पन्न हुई છે, આ સંબંધ સારા છે, કન્યા તેમજ વરનેા આ લગ્ન સબધ કુળ રૂપ અને ગુણાને અનુરૂપ છે તે તમે તમારી પુત્રી સુકુમારિકાને મારા પુત્ર સાગરને भाटे आपेो. (तएणं देवाणुपिया ! किं दलयामो सुकं सुमालियाए १ ) डे हेवाનુપ્રિય ! સાથે સાથે એ પણ અમને જણાવા કે સુકુમારી દ્વારિકાના સમાના અમે શું દ્રવ્ય રૂપમાં આપીએ ( तरणं से सागरदते तं जिणदत्तं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एग जाया इट्ठा जाव किमंगपुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं तं जइर्ण देवाणुप्पिया । सागरदारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सुमालियं दयामि ) त्यारे सागरहत्ते कुमहत्तने या प्रमाणे उद्धुं } हे हेवानुप्रिय ! मा સુકુમારિકા દ્વારિકા મારે એકની એક પુત્રી છે અને આ એક જ જન્મી છે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्र मनोमा मतसः स्थानभूता, कि बहूना उदुम्बरपुष्पमिव । उदुम्बरपुष्पं केनापि दृष्टम् ' इतिवत् श्रवणविषयत्वेन सा दुर्लभा, किमङ्ग ! पुन-दर्शनविषयतया, तत्तस्माद् नो खलु अहमिच्छामि सुकुमारिकाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोग वियोगम् , तत्-तस्माद् यदि खलु हे देवानुप्रिय ! सागरदारको मम 'घरजामाउए ' गृहजामातृका=गृहवासीजामाता भवति 'तोणं' तर्हि खलु अहं सागराय दारकाय सुकुमारिकां ददामि । ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदत्तेन सार्यवाहेनैव मुक्तः सन् यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सगरदारकं= स्वपुत्र शब्दयति, शब्दयिस्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे पुत्र ! सगारदत्तः सार्थवाहो मममा प्रति, 'सम्बन्धसामान्ये षष्ठी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीएवं खलु हे देवानुपिय ! सुकुमारिका दारिका ममैका एक जाता इष्टा 'तं चेव' है। यह मेरे लिये ईष्ट यावत् मनोम है-कान्त है, प्रिय है और मनोज्ञ है। अनुकूल होने से इष्ट, ईप्सित होने से कान्त प्रीतिपात्र होने से प्रिय मनको रुचने वाली होने से मनोज्ञ एवं मन का स्थान भूत होने से मनोज्ञ है। ज्यादा क्या कहूँ यह तो हमें उदुंबर पुष्प के समान दर्शन दुर्लभ थी-सुनने को तो बात ही क्या । अतः मैं इसे देना नहीं चाहता हूँ । कारण इस सुकुमारिका दारिका के विना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता हूँ इसलिए हे देवानुप्रिय ! सागर यदि घरजमाई धन कर रहना चाहे तो मैं उन्हें यह अपनी सुकुमारिका पुत्री दे सकता हूँ। (तएणं से जिणदत्ते सस्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदोरगं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्थवाहे मम एवं આ મને ઈષ્ટ યાવતું મનેમ છે એટલે કે કાંત છે, પ્રિય છે, અને મનેમ છે. અનુકૂળ હવા બદલ ઈષ્ટ, ઈસિત હોવાથી કાંત, પ્રીતિપાત્ર હોવા બદલ પ્રિય અને મનને ગમે એવી હવાથી મને જ્ઞ તથા મનને આશ્રય હોવાથી મનેમ છે. વધારે શું કહું ! આ તે અમને ઉર્દુબર પુષ્પની જેમ દર્શન–દુલભ હતી. સાંભળવાની તે વાત જ શી કરવી ! એથી આને હું આપવા ઈચ્છતા નથી. કારણ કે એના વગર હું ક્ષણવાર પણ રહી શકતો નથીએટલા માટે હે દેવાનુપ્રિય ! સાગર જે ઘર જમાઈ થઈને મારી પાસે રહેવા ઈચ્છતા હોય તે હું આ મારી સુકુમારીકા પુત્રી તેમને આપી શકું તેમ છું. __ (तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्ते णं सत्यवाहे णं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदारगं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं बवासी-एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्यवाहे मम एवं वयासी-एवं खल શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् तदेव-पूर्वोक्तवर्णनमेवात्रबोध्यं यावत्-तस्माद् नो खल्वहमिच्छामि सुकुमारिकाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोगं, तत्=तस्माद् यदि खलु सागरदारको मम 'घरजामाउए ' गृहजामातृका गृहवासी जामाताभवति, तर्हि ददामि । ततः खलु त सागरको दारको जिनदत्तेन तार्थवाहेनैवमुक्तः तन् तूष्णीका मौनावलम्बी सन् सतिष्ठते । वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा तं चेव जइणं सागरदारए मम घरजमाउए भवइ ता दलयामि ) इस प्रकार सागरदत्त सार्थवह के कहे जाने पर जिनदत्त सार्थवाह जहां अपना घर था वहाँ आया-वहां आकर उसने अपने सागर पुत्र को बुलाया । बुला कर फिर उससे उसने ऐसा कहा-हे पुत्र-सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है कि आपका पुत्र सागर यदि मेरे घर जमाई बन कर रहना चाहें तो मैं अपनी सुकुमारिका उन्हें दे सकता हूँ। उनका घरजमाई बनाने का कारण यह है कि यह सुकुमारिका पुत्र पुत्री उसके एक ही पुत्री है-और एक ही उत्पन्न हुई हैं। यह उसे बहुत ही अधिक इष्ट यावत् मनोम है। इस तरह सागरदत्त का कहा हुआ समस्त कथन जिनदत्त ने अपने पुत्र सागर को सुना दिया । इसलिये वह उसका एक क्षण भी वियोग सहन नहीं कर सकता है। अतः वह देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा तं चेव जइणं सागरदारए मम घरजमाउए भवइ ता दलयामि ) આ રીતે જીનદત્ત સાર્થવાહ તેમની આ વાત સાંભળીને તે જનદત્ત સાર્થવાહ જ્યાં પિતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે પિતાના સાગરપુત્રને બેલાવ્યો. બોલાવીને તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્રી સાગરદત્ત સાર્થવાહે મને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે તમારો પુત્ર સાગર જે મારે ઘર જમાઈ રહેવા કબૂલત હેય તે હું મારી પુત્રી સુકુમારિકા તેમને આપવા તૈયાર છું. તેઓ તમને ઘર જમાઈ બનાવવા એટલા માટે ઈચ્છે છે કે સુકમારિકા દારિકા તેમની એકની એક પુત્રી છે. તે તેમને અતીવ ઈષ્ટ યાવત મનેમ છે. આ રીતે સાગરદત્ત જે કંઈ કહ્યું હતું તે બધું તેમણે પિતાને પુત્ર સાગર આગળ રજૂ કર્યું. અને છેવટે કહ્યું કે એટલા માટે જ તે એક ક્ષણ પણ પિતાની પુત્રીને વિગ સહી શકતું નથી. તમને તે આ કારણથી જ ઘર જમાઈ બનાવવા ઇચ્છે છે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्र ततः खलु जिनदत्तः तार्थवाहो ऽन्यदा कदाचित् शोभने शुभकारके, तिथिकरणनक्षणमुहूर्ते विपुलमशनं पानं खाद्यं स्वाद्यमुपस्कारयति, निष्पादयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिप्रभृतिनामन्त्रयति, आमन्त्र्य 'जाव सम्माणेइ' याक्त् सम्मानयति भोजयति, भोजयित्वा वस्त्रादिभिः सत्करोति, सत्कृत्य स्वागतवचनादिना तुम्हें घरजमाई बनाना चाहता है । (तएणं से सागरए दारए जिणदत्ते णं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइं सोहणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहसि विउलं असण पान खाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ०आमंतेइ, जाव सम्माणित्ता सागरं दारगं व्हायं जाव सव्वा. लंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्स वाहिणि सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाह जाव संपरिबुडे सब्बिड्डीए साओ गिहाओ निग्ग च्छइ निग्गच्छित्ता चंपा नयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ ) जिनदत्त सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहा जाने पर वह सोगर दारक चुपचाप रह गया उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। एक दिन जिनदत्त ने शुभ, तिथि करण, दिवस नक्षत्र मुहूर्तमें विपुलमात्रा में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार बनवाया -बनवाकर उसने अपने मित्र ज्ञाति आदिवन्धुओं को आमंत्रित किया आमंत्रित करके फिर उसने उन सबको भोजनकराया-भोजन कराकर (तएणं से सागरए दारए जिणदत्ते णं सस्थवाहे णं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्टइ, तएणं जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहूत्र्तसि, विउलं असणपान खाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाई आमंतेइ, जाव सम्माणित्ता सागरं दारगं पहायं जाव सवालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडं सबिडीए साओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता चंपा नयरिं मझ मज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छद) જીનદત્ત સાર્થવાહ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયેલે સાગર પુત્ર એકદમ ચૂપ થઈને બેસી જ રહ્યો. તેણે કઈ પણ જાતને જવાબ આપે નહિ. એક દિવસ જનદત્તે શુભતિથિ, કરણ, દિવસ, નક્ષત્ર મુહૂર્તમાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતને આહાર બનાવડાવ્યું. બનાવડાવીને તેણે પોતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે સંબંધીઓને આમંત્રિત કર્યા. આમંત્રિત કરીને તેણે તે બધા આવેલા સંબંધીઓને જમાડ્યા. જમા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %ERA अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १९७ सम्मानयति समान्य सागरं दारकं स्नातं यावत् सर्वालङ्कारविभूषितं कारयति, कारयित्वा पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति-आरोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञाति स्वजन-सम्बन्धिभिर्यावत् परितः सर्वद्धर्या सकलविभवेन स्वकाद् गृहाद् निर्गच्छति, निर्गत्य चम्पाया नगर्या मध्यमध्येनमध्येभूत्वा यत्रैव सागरदत्तस्य गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शिबिकातः 'पञ्चोरुहावेइ' प्रत्यवरोहयति, सागरदारक स्वपुत्रं प्रत्यवतारयति, प्रत्यवरोह्य सागरकं दारकं सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य उपनयति समीपमानयति । . ततः खलु सागरदत्तः सार्थवाहो विपुलमशनं पानं खाधं स्वाद्य-चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति-निष्पादयति, उपस्कार्य यावत् = मित्रादिसहितं जिनदत्तमामन्त्र्य भोजयित्वा, सस्कृत्य, संमानयति, संमान्य सागरकं दारकं सुकुमारिकया दारिकाया सार्थ पट्टयं ' पट्टकं 'दुरूहावेइ ' दूरोहयति-आरोहयति, दुरुह्य श्वेतपीत*:सवका वस्त्रादिक से सत्कार किया सत्कार करके फिर उनका स्वागत बचानादिकों द्वारा सन्मान किया- । सन्मान कर के बाद में उसने अपने सागरपुत्रको स्नान कराया- । स्नान कराकर उसने उसे समस्त अलंकारो से विभूषित कराया। विभूषित कराकर बाद में उसने उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर चढाया चढाकर मित्र, ज्ञाति, स्वजन संबंधियो को साथ लेकर फिर वह सकल विभवके अनुसार अपने घर से निकला -निकलकर चंपानगरी के बीचो बीच से होता हुआ सागरदत्त का जहाँ घर था वहाँ पहुँचा । ( उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरु. हावित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सत्थ० उवणेह, तएण, सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असणपाण खाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता जाव सम्माणेत्ता सागरगं दारगं सूमालियाए दारियाए सद्धिं पट्टयं ડિને બધાને વો વગેરે આપીને સત્કાર કર્યો, સત્કાર કરીને તેણે તેમનું સ્વાગત વચને વડે સન્માન કર્યું. સન્માન કર્યા બાદ તેણે પોતાના સાગર પુત્રને સ્નાન કરાવ્યું સ્નાન કરાવીને તેણે તેને બધા અલંકારેથી શણગાર્યો, શણગારીને તેણે તેને પુરૂષ-સહસ્ત્રવાહિની પાલખીમાં બેસાડ. ત્યારપછી મિત્ર, જ્ઞાતિ. સ્વજન સંબંધીઓને સાથે લઈને તે પિતાના સંપૂર્ણ વૈભવની સાથે પોતાના ઘેરથી નીકળેનીકળીને ચંપા નગરીની વચ્ચે થઈને તે જ્યાં સાગરદત્તનું ઘર હતું ત્યાં પહો . ( उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरगं दारगं सा. गरदत्तस्स सत्थ० उवणेइ, तएणं, सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलअसणपाणखाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता जाव सम्माणत्ता सागरगं दारगं सूमालियाए -- श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे राजतसौवर्णैः कलशैः = वारिपूर्णैटैमज्जयति = रनपयति, मज्जयित्वा अग्निहोम कारयति, कारयित्वा सागरं दारकं सुकुमारिकाया दारिकायाः पाणिं ग्राहयति।।.८॥ दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता सेयोपीएहिं कलसेहिं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं करोवेह, कराविता सागर दारयं सूमालियाए दारियाए पाणि गिण्हावेइ ) वहां पहुँचकर उसने अपने पुत्र सागर को पालखी से नीचे उतारा और उतारकर सागरदत्त सार्थवाह के पास उसे लेआया। सागरदत्त सार्थवाहने भी पहिले से ही विपुलमात्रा में अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार करवालियो था सो उससे मित्रादि सहित जिनदत्त सार्थवाह को आनंद के साथ खिलाया खिलाकर सबका सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करने के बाद फिर सागरदत्तने सागर दारक को अपनी पुत्री सुकुमारिका के साथ एक पटक पर बैठाया-बैठाकर सुवर्ण चांदी के कलशोंसे उनका अभिषेक कराया अभिषेक हो जाने के बाद अग्निहोम कराया अग्निहोम जब हो चुका तब सागरदत्तने अपनी पुत्री सुकुमारिका का सागर के हाथ में हस्तमिलाप किया-अर्थात् लग्न कर दिया ।। सू०८॥ दारियाए सद्धिं पट्टयं, दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता सेयापीएहिं कल सेहिं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं करावेइ, करावित्ता सागरदारयं सूमालियाए दारियाए पाणि गिण्हावे) ત્યાં પહોંચીને તેણે પિતાના પુત્ર સાગરને પાલખીમાંથી નીચે ઉતાર્યો અને ઉતારીને સાગરદત્ત સાર્થવાહની પાસે લઈ ગયે. સાગરદત્ત સાર્થવાહ પણ પહેલેથી જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતને આહાર તૈયાર કરાવીને રાખ્યું હતું. તેણે મિત્ર વગેરે લેકેની સાથે જનદત્ત સાર્થવાહને આનંદની સાથે જમાડ્યા અને ત્યારપછી તેણે સૌને સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું. સત્કાર અને સન્માન કર્યા બાદ સાગરદત્તે સાગર દારકને પિતાની પુત્રી સુકુમારિકાની સાથે એક પટ્ટક ઉપર બેસાડે. બેસાડીને સોના-ચાંદીના કળશોથી તેમને અભિષેક કરાવડાવ્યું. અભિષેકનું કામ પુરૂ થયા બાદ તેણે અગ્નિહામ કરાવ્યું. અગ્નિની વિધિ પૂરી થઈ ગઈ ત્યારે સાગરદને પિતાની પુત્રી સુકુમારિકાને સાગરની સાથે હસ્તમેળાપ કરાવી દીધે मेरो बारावी वीयां ॥ ८॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १९९ मूलम् - तरणं सागरदारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेइ से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा एसो अणिदूतराए चेव० पाणिफासं परिसंवेदेइ, तपणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहुतमित्तं संचिgs, तरणं से सागरदन्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्राणाइ० विउलेण असणपाणखाइमसाइमं पुष्पवत्थ जाव सम्माणेता पडिविसज्जइ, तरणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागगच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ, तरणं से सागरए दारियाए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंग फासं पडिसंवेदेइ, से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव अमणामयरागं चेव अंगफासं पच्चणुभवमाणे विहरइ, तरणं से सागरए अंगफासं असहमाणे अवसव्वसे मुद्दत्तमित्तं संचिट्ठइ, तपणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहृपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाउ उट्ठेइ, उट्टित्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ, तपणं सूमालिया दारिया तओ मुहुतंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पड़मणुरत्ता पतिं पासे अपस्समाणी तलिमाउ उट्ठेइ, उट्ठित्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुबज्जइ, तरणं से सागरदारए सूमालियाए दारियाए શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दुच्चपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिटूइ, तएणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुतं जाणित्ता सयणिज्जाओ उट्ठेइ उट्टित्ता वासवरस्स दारं विहाडेइ विहाडित्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ सू०९ ॥ टीका- 'तएण ' इत्यादि । ततः खलु सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया इममेतद्रूपं वक्ष्यमाणप्रकारं पाणिस्पर्श करस्पर्श प्रतिसंवेदयति=अनुभवति, कीदृशः स करस्पर्शः इति सदृष्टान्तमाह- -' से जहानामए ' इत्यादि । तद् यथा नामकम् = यथा दृष्टान्तम्- दृष्टान्तं प्रदर्शयति- ' असिपत्तेइ वा ' इत्यादि । असिपत्रमिति वा = असिपत्रं - खङ्गः, यथा खड्गधारायाः स्पर्शः सोढुमशक्यस्तद्वत् सुकुमारिका दारिकायाः करस्पर्शः प्रतिसंवेद्यत इति भावः । ' जाव मुरमुरे इ वा० यावत् मुर्मुरेति या=अत्र यावत् करणादिदं बोध्यम् - करपतेह वा खुरपतेह वा " { २०० ( 'तणं सागरदारए ' इत्यादि । टीकार्थ - (तरण) इसके बाद अर्थात् सागरदारकने जब हस्तमिलाप किया तब ( सागरदारए) उस सागर को (सूम लियाए दारियाए) सुकुमारिका दारिकाका (पाणिपास) वह हस्तका स्पर्श (इमं एयारूवं पडिसंबे देह ) इस प्रकार से लगा ( से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइवा, एसो अतिराए चेव० पाणिफास पडिसंवेदेह) जैसे वह असिपत्र तलवार का स्पर्श हो यावत् अग्नि कणमिश्रित भस्म का स्पर्श हो । यहां यावत् शब्द से " कर पत्ते " वा खुर पत्तेइवा, कलंब चीरिया 'तपणं सागरदारए' इत्यादि टीडार्थ - (तएणं) त्यारपछी भेट सागरहारडे न्यारे हस्तभेजाय उर्यो त्यारे ( सागरदारए) ते सागरने ( सूमालियाए दारियाए ) सुकुमार हारिनो ( पाणि. पासं) ते हाथना स्पर्श ( इमंएया रूवं पडिसंवेदेइ ) या प्रमाणे लाग्यो ( से जहा नाम असि पत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा, एतो अणिदूत्तराए चेव पाणिफासं पडिसंवेदे ) જાણે તે અસિપત્ર–તરવાર ના સ્પર્શ ન હેાય, યાવત્ અગ્નિક્ષુ મિશ્રિત ભસ્મને સ્પર્શ ન હાય. અહીં ‘ યાવત્’ શબ્દથી ( करपते वा खुरपत्ते वा, कलंबची रियापत्तेइ वा सचि अग्गे वा कौतग्गेह શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवाषणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०५ कलंवचीरियापत्तेह वा सत्तिअग्गेइ वा कौतग्गेइ वा तोमरग्गेइ वा भिंडिमालग्गेइ वा सूचिकलावएइ वा विच्छुयडंकेइ वा कविकच्छूइ वा इंगालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चीइ वा जालेइ वा आलाएइ वा सुद्धागणीइ वा भवेयारूवेसिया?, नो इणद्वे समढे, करपत्रमिति वा क्षुरपत्रमिति वा कदम्बचीरिकापत्रमिति वा शक्त्यग्रमिति वा कुन्ताग्रमिति वा तोमराग्रमिति वा भिन्दिपालाग्रमिति वा वृश्चिकदंश इति वा कपिकच्छुरिति वा अङ्गार इति वा मुर्मुर इति वा अर्चिरिति वा ज्वालेति वा, अलातमिति वा शुद्धाग्निरिति वा भवेदेतद्रूपः-स्यात् ?, नायमर्थः समर्थः, इति । तत्र करपत्रक्रकचं ' करवत् ' इति प्रसिद्ध क्षुरपत्रम्=' उस्तरा' इति प्रसिद्धम् , कदम्बचीरिकापत्रम्-कदम्बचीरिका-तृणविशेषः, अस्या अग्रभागोऽतितीक्ष्णो भवति तस्य पत्रं, शक्तिः शस्त्रविशेष:-त्रिशूलं वा तस्या अग्रभागः स्व कुन्त: 'भाला' इति प्रसिद्धः शस्त्रविशेषः, तदग्रभागः, तोमरम्बाण विशेषस्तदग्रभागः, भिन्दिपालाशस्त्रविशेषः सूचीकलापकं सूचीसमूहस्तस्याग्रभागः, वृश्चिकदंशः वृश्चिक कण्टकः, कपिकच्छुः-खर्जुकारी वनस्पतिविशेषः, अङ्गारः ज्वालारहितोऽग्निः, मुर्मुरः अग्निपत्तेह वा, सत्ति अग्गेइवा कोतग्गेइवा तोमरग्गेइ वा, भिंडिमालग्गे वा सूचिकलावएइवा विच्छुय डंकेइ वा कवि कच्छूइवा इंगालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चोइ वा जालेइ वा आलाइ वा सुद्धागणीइ वा भवेयारू वेसिया ? नो इणढे समठे ) कर पत्र-कर वत, क्षुर पत्र-उस्तरा कदम्बचीरिका पत्र छुहिया घास-जिसका अग्रभाग अधिक तीक्ष्ण होतो है शक्ति-अग्र -शक्ति-त्रिशूल अथवा आयुधविशेष का अग्रभाग कुन्तान भाले की नोक तोमराग्र-याण की अनी भिन्दिपाल-शस्त्र विशेष-का अग्रभागसूची कलापका अग्रभाग-बिच्छु का डंक कपिकच्छु-करेंच-जिसके स्पर्श होनेपर खुजली आती है--ज्वाला रहित अग्नि, मुर्मुर-अग्निकणमिश्रित तोमरग्गेइ वा, भिडिमालग्गे वा मूचिकलावएइ वा विच्छ्य डंकेइ वा, कविकच्छुइ वा इंगालेइ वा, मुम्मुरेइ वा अच्चोइ वा जालेइ वा, आलाइ वा सुद्धागणीइ वा भवेयारूवे सिया ? नो इणढे समढे) ४२५३-४२१०, १२५ - मनो, ४ मया२ि४. पत्र-छुरि है ना અગ્રભાગ એકદમ તીર્ણ હોય છે, શકિત-અગ્ર-શકિત,-ત્રિશૂળ અથવા આરાધ વિશેષનો અગ્રભાગ, કુંતાગ્ર-ભાલાની અણી, મરા-તીરની અણી, ભિદિવાલવિશેષનો અગ્રભાગ, સૂચકલાપને અગ્રભાગ, વીંછીને ડંખ, કવિકચ્છ-કવચજેના સ્પર્શથી ખંજવાળ આવે છે, જવાળા રહિત અગ્નિ, મુર્મર-અગ્નિકણ મિશ્રિત ભસ્મ, અચિ–લાકડાઓથી સળગતી જવાળા, જવાળા-લાકડા વગરની श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कणमिश्रितभस्म अचिः इन्धन प्रतिबद्धा ज्वाला, ज्वालातु-इन्धनच्छिन्ना, आला. तम् उल्मुकं, शुद्धाग्निः लोहपिण्डस्थाऽग्निः । असिपत्रादि-शुद्धाग्निपर्यन्तानां स्पर्श इच सुकुमरिकायाः करस्पों भवेत्कथश्चिकिम्? नायमर्थः समर्थ अयं दृष्टान्तसमूहः करस्पर्श साम्यं प्राप्तुं न समर्थः तर्हि कीदृशः ? इत्याह 'एत्तो अणिद्वतराए चेव०' एतस्माद् असिपात्रदीनां स्पर्शादनिष्टतरक एव, अकान्ततरक एव=अत्यन्तमक मनीय एच, अप्रियतरक एव-अतिदुःखजनकएव अमनोज्ञतरकएव=अतिशयेन मनोविकूतिकारकएव अमनोमतरकएव अतिशयेन मनः प्रतिकूलएव वर्तते, तमेवम्भूतं पाणिस्पर्श सुकुमारिकादारिकायाः करस्पर्श प्रतिसंवेदयति-अनुभवति । ततः खलु स सागरदारकः अकामकःनिरभिलाषः 'अवसबसे' अपस्ववशः अपगतस्वातन्त्र्यः विवशः सन् मुहूर्तमात्रं-स्तोककालं संतिष्ठते (ततः खल स सागरदत्तः सार्थवाहः सागरस्य दारकस्य अम्बापितरौ मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपभस्म अचि-इन्धन प्रतिबद्ध ज्वाला, ज्वाला-इन्धन से रहित ज्वाला अलात-उल्मुक शुद्धाग्नि-लोहपिण्डस्थ अग्नि । इन असिपत्र से लेकर शुद्धअग्नि पर्यन्त पदार्थों का स्पर्श जैसा होता है वैसा ही सुकुमारिका के कर का स्पर्श हो सकता था-परन्तु यहां यह अर्थ समर्थित नहीं है -अर्थात् उसके सुकुमारिको के कर स्पर्श में इन दृष्टान्तों के स्पर्श की समानता नही मिल सकती है क्यों कि वह स्पर्श तो इनके स्पर्श से भी अधिक अनिष्टतर हीथा, अकान्ततरक ही था-अत्यन्त अकमनीय था, अप्रिय तरकही था-अत्यन्त दुःखजनक ही था, अमनोज्ञतरक ही था -अत्यंन्त मनो विकृतिजनक ही था, अमनोमतरक ही था-अत्यन्त मनः प्रतिकूल ही था। (तएणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिठ्ठइ, तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगरस વાળા, અલાત-ઉશ્ક, શુદ્ધ અગ્નિ-લોપિંડસ્થ અગ્નિ-આટલી વસ્તુઓનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ અસિપત્રથી માંડીને શુદ્ધ અગ્નિ સુધીના પદાર્થોને જે જાતને સ્પર્શ હોય છે તે જ સુકુમારિકાના હાથને પણ સ્પર્શ હતો. પણ હકીકતમાં તે આ વસ્તુઓની સમાનતા પણ તેના તીક્ષણ સ્પર્શની સાથે કરી શકાય તેમ નથી કેમકે તેના હાથને સ્પર્શ તે ઉકત વસ્તુઓના સ્પર્શ કરતાં પણ વધારે અનિષ્ટતર હતા, અકાંતતરક હો, અતીવ અકમનીય હતું, અપ્રિયતરક હતું, અત્યંત દુઃખજનક હતું, અમને મતરક હો, પૂબજ મને વિકૃતિજનક હતો, અમનેમ તરક હતા, બહુ જ મન પ્રતિકૂળ હતે. (तएणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहत्तमित्तं संचिट्ठइ, तएणं से सा श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृताषणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०३ रिजनाँश्च विपुलेनाशनपानखाधस्वाद्येन पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करोति संमानयति सत्कृत्य संमान्य प्रतिविसर्जयति = प्रस्थापयति । ततः खलु सागरको दारकः सुकुमारिकया सार्ध यत्रैव वासगृह-शयनगृहं तत्रैवोपागच्छति उवागत्प सुकुमारिकया दारिकया सार्थ तलिमंसि तलिमे देशीयोऽयंशब्दः तल्पे-शयनीये 'निवज्जइ ' निषीदति । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया इममेतमद्रूपमङ्गस्पर्श प्रतिसंवेदयति-तद् यथानामकं-तत् प्रतिसंवेदनं दष्टान्तोपन्यासपूर्वकं प्रदश्यते-असिपत्र वा यावद् अमनोमतरमेव सुकुमारिकाया अङ्गस्पर्श अम्मापियरो मित्तणाइ० विउलेणं असणं पाणंखाइमं साइमं पुफ्फवस्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जति ) अतः वह सागर उसमें अभिलाषा से रहित बन गया। फिर भी वहां विवश हाकर वह कुछ समय तक ठहरा रहा । सागरदत्त सार्थवाह ने सागर दारक के मातापिता का तथा उसके मित्र, ज्ञाति स्वजन, संबन्धी परिजनों का विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहोर से एवं पुष्प वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलंकार से खूब सत्कार किया-सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उसने सबको अपने यहां से बिदा कर दिया । (तएणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासगिहे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सूमालियाए दारिचाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ, तएणं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयावं अंगफासं पडिसंवेदेइ से जहानामए असि पत्तेइवा जाव अमणामयरागंचेव अंगफास गरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तगाइ० विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पुप्फवस्थ जाव सम्माणेता पडिविसज्जति) એટલા માટે તે સાગર તેમાં અભિલાષાથી રહિત બની ગયે. છતાંએ તે ત્યાં લાચાર થઈને થોડા વખત સુધી રોકાયા. સાગરદત્ત સાર્થવાહે સાગર દારકના માતાપિતાને તેમજ તેના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સંબંધી પરિજનોને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારથી અને પુષ્પ વસ, ગંધ, માળા તેમજ અલંકારોથી બહુ સત્કાર અને સન્માન કર્યું. સરકાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે સૌને પિતાને ત્યાંથી વિદાય કર્યા. (तएणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासगिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगसि निवज्जइ, तएणं से सागरए दारए समालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफास पडिसंवेदेह से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव अमगामयागं चेव अंगका पचणुभवमाणे विहरइ तपर्ण श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ज्ञाताधर्मकथाजसचे प्रयत्नुभवन् विहरति । ततः खलु स सागरदारकस्तस्या अङ्ग स्पर्शमसहमानोऽपस्ववश: अपगत स्वातन्यः , सन् मुहूर्तमात्र संतिष्ठते । ततः खलु स सागरदारक: सुकुमारिकां दारिकां सुखममुप्तां ज्ञात्वा सुकुमारिकाया दारिकायाः पार्श्वत उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव स्वकं शयनीयं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शयनीये, 'निवज्जइ' निषीदति स्वपितीत्यर्थः । ततः खलु सुकुमारिका दारिका ततो मूहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धा-जागरिता सति पतिव्रता 'पइमणुरत्ता' प्रत्यनुरक्ता स्वपति प्रत्यनुरागिणी, पार्श्व पतिमपश्यन्ती ' तलिमाउ' तल्यात्-शयनीयाद् उत्तिष्ठिति, उत्थाय यत्र पच्चणुभवमाणे विहरइ तएण से सागरए अंगफासं असहमाणे अव. सव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठह) इसके बाद सागरदारक सुकुमारिका के साथ जहां वासगृह-शयन घर-था वहीं गया वहां जाकर वह उस सुकुमारिकाके साथ एक शय्यापर बैठ गया। बैठ जाने पर उस सागरदारक को सुकुमारिका दारिकाका अगंस्पर्श इस रूपसे प्रतीत हुआ-जैसे मानो असिपत्र आदिका स्पर्श हो ! इन असिपत्र (खड्गको यावत् ) आदिको के स्पर्श से भी उसका वह अंगस्पर्श यावत् अमनामतरक ही था। इस प्रकार का उसका अंगस्पर्श अनुभवता हुआ वह सागरदारक विवश बनकर वहां कुछ समय तक ठहरा बाद में जब उससे सहन नही हुआ तो । (तएण से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्त जाणित्ता सूमालियाए दरियाए पासाउ उठेइ, उद्वित्तां जेणेव सए सय. णिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ, तएणं समालिया दारिया तओ मुहत्ततरस्स पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पइ से सागरए अंगफासं असहमाणे अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ) ત્યારપછી સાગર દારક સુકુમારિકાની સાથે જ્યાં વાસગૃહ-શયનઘર હતું ત્યાં ગયે, ત્યાં જઈને તે સુકુમારિકાની સાથે એક શય્યા ઉપર બેસી ગયે. બેઠા બાદ તે સાગર દારકને સુકુમારિકા દારિકાને અંગ-સ્પશે એવા પ્રકારને જણાય કે તે અસિપત્ર - તરવાર વગેરેને સ્પર્શ ન હોય ! અસિપત્ર વગેરે કરતાં પણ તેને અંગે સ્પર્શ યાવત અમને મતરક હતું. આ રીતે તેના અંગ સ્પર્શને અનુભવ સાગર દારક લાચાર થઈને ત્યાં થોડા વખત સુધી રોકાશે અને ત્યારબાદ જ્યારે તેને તે સ્પર્શ અસહ્ય થઈ પડયે ત્યારે (तएणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपमुत्तं जाणिवा सूमालियाए दारियाए पासाउ उद्देइ, उद्वित्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ, तएणं ममालिया दारिया तभो मुहुरंतरस्स श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०५ ' से ' तस्य शयनीयं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य सागरदारकस्य पार्श्वे (निवज्जई ) निषीदति = स्वपिति । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया 'दुच्चपि ' द्वितीयवारमपि इममेतद्रूपम् पूर्वोक्तमकारकम् अङ्गस्पर्श प्रतिसंवेदयति यावद् - अकामकोऽपस्ववशो मुहूर्तमात्रं संतिष्ठति, ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकां दारिकां सुखप्रसुप्तां ज्ञात्वा शयनीयात् शय्यात उत्तिष्ठति, उत्थाय वासगृहस्य = शयनगृहस्य द्वारं ' विहाडे ' विघाटयति = उद्घाटयति विघाटय ' मारामुक्के विकाए ' मारामुक्त इव काकः = मार्यन्ते प्राणिनो यस्यां सा मारा मरता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उट्ठेइ उट्ठित्ता.... उवागच्छइ ) वह सागरदारक उस सुकुमारिका दारिका को सुखसे सोई हुई जानकर उस सुकुमारिका दारिका के पास से उठ बैठा और उठकर जहां अपनी शय्या थी वहां चला गया। वहाँ आकर उस पर पड़ गया इतने में ही एक मुहूर्त के बाद वह पति में अनुरक्त बनी हुई पतिव्रता सुकुमारिका दारिका जग गई और अपने पास पति को न देखकर अपने पलंग से उठ बैठी । उठकर वह जहां सागरदारक का पलंग था वहां गई । ( उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ ) वहां जाकर वह उसके पास सो गई। (तएण से सागरदारए सुमालियाए दारियाए दुच्चपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिgs, तरणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुतं पडिबुद्धा समाणी पइव्वया परमणुरता पतिपासे अपस्समाणी तलिमा उ उट्ठत्ता उवागच्छ ) તે સાગર દ્વારક તે સુકુમારિકા દારિકાને સુખેથી સૂતેલી જાણીને તેની પાસેથી ઉચા, અને ઉઠીને જ્યાં પાતાની શય્યા હતી ત્યાં જતા રહ્યો. ત્યાં જઈને તે તેની ઉપર પડી ગયા. એટલામાં એક સુહૂત પછી પતિમાં અનુરકત બનેલી પતિવ્રતા સુકુમારિકા દારિકા જાગી ગઈ અને પેાતાની પાસે તિ ન જોતાં પાતાની શય્યા ઉપરથી ઉઠી અને બેઠી ગઈ. ત્યારપછી તે ઉઠીને જ્યાં સાગર हारउनी शय्या हती त्यां ग ( उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ ) त्यां જઈને તે તેના પડખામાં સૂઈ ગઈ. (तएण से सागरदारए सूमालियाए दारियाए दुच्चपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेह जाव अकामए अवसव्व से मुहुत्तमिचं संचिद्वर, तरणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुतं जाणित्ता सयणिज्जाओ उट्ठे, उडिया वासवरस्स दारं विहा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ज्ञाताधर्मकथासूत्र शूना वधस्थानं, तस्यामुक्तो निस्मृतः काक इव, यद्वा-मारा-मारकपुरुषादामुक्तः =निर्मुक्तःविच्छुटितः फाको यथा वेगतो निर्गच्छति तद्वत् , यस्या एवं दिशः मादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ।। सू० ९॥ मूलम्-तएर्ण सूमालिया दारिया तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्धा पइवया जाव अपासमाणी सयणिज्जाओ उठेइ सागरस्स दारियाए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणो२ वासघ. रस्स दारं विहाडियं पासइ पासित्ता एवं वयासी-गए से जाणित्ता सयणिज्जाओ उढेइ, उद्वित्ता वासघरस्स दारं विहाडेई, विहाडेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए) सागरदारक को सुकुमारिका दारिका का अंगस्पर्श दुचाराभी वैसा ही पूर्वोक्तरूप से अनुभव में ओया-अतः उसके पास सोने की इच्छा न होने पर भी वह विवशहोकर कुछ समय तक उसके पास सोता रहा-जब वह अच्छी तरह सो गइ-तब वह उसे सुख प्रसुप्तजानकर उसके पास से उठो-और उठकर उसने उस वास गृह के दरवाजे को खोला खोलकर जिस प्रकार 'मारामुक्त' काक बड़े वेगसे निकलता है -उसी तरह यह भी बहुत जल्दी वहां से निकलकर जिस दिशा से प्रकट हुआ था-उसी दिशा तरफ वोपिस चला गया। जिस में प्राणी मारे जाते हैं उसका नाम मारा-शूना- वधस्थान है। इस मारा से निकला हुआ अथवा मारनेवाले पुरुष के हाथ से छूटा हुआ-ऐसे ये दो अर्थ “ मारमुक्त" इस शब्द के हो सकते हैं। सू० ९ डेई,विहाडित्तामारामुक्के विव काए जामेव दिसि पाउम्भूए तामेव दिसि पडिगए) - સાગર દારકને સુકુમારિકાને બીજીવારને અંબા સ્પર્શ પણ પહેલાંની એમજ લાગે. એટલા માટે તેની પાસે સૂવાની ઈચ્છા ન હોવા છતએ તે વિવશ થઈને ડીવાર સુધી તેની પાસે પડી રહ્યો. જ્યારે તે સારી રીતે સૂઈ ગઈ ત્યારે તે તેને સુખેથી સૂતી જાણીને તેની પાસેથી ઉ અને ઉઠીને તેણે તે વાસગૃહના બારણું ઉઘાડયું. ઉઘાડીને જેમ મારા-મુક્ત કાગડે જલ્દી નીકળી જાય છે તેમજ તે પણ બહુ જ ત્વરાથી ત્યાંથી નીકળીને જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તે જ દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો. જે સ્થાને પ્રાણીઓ મારી नामपामा मा छ तर्नु नाम " भा।" (स्थान) छ, म 'भा थी છટીને આમ બે અર્થો ‘મારામુક્ત” શબ્દના થઈ શકે છે. એ સૂત્ર ૯ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०७ सागरे तिकडु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ, तएणं सा भदा सत्थवाही कलं पाउ० दास चेडियं सदावेइ सदावित्ता एवं वयाती-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! वहुवरस्त मुहधोवणियं उवणेहि, तपणं सा दासचेडी भदाए एवं वुत्ता समाणी एयमहं तहत्ति पडिसुणंति, मुहधोवणियं गेण्हइ गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासइ पासित्ता एवं वयासी - किन्नं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहिसि ?, तएणं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडी एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उढेइ उद्वित्ता वासघरदुवारं अवगुणइ जाव पडिगए तएणं तओ अहं मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए णं से सागरएत्तिकदु ओहयमण जाव झियायामि, तएणं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमढे सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमढें निवेएइ, तएणं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमद्रं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जिणदत्तं एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा जन्नं सागरदारए सूमालियं दारियं अदिट्रदोसं पइवयं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ - - - - - - - ज्ञाताधर्मकथाजसो विप्पजहाय इहमागओ बहहिं खिज्जणियाहि य रुंटणियाहि य उवालभइ, तएणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयम सोच्चा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी-दट्टणं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागते, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे, तएणं से सागरए जिणदत्तं एवं वयासी-अवि आई अहं ताओ ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धापिटुं वा पवजं वा विदेसगमणं वा अन्भुवगच्छिज्जामि नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा, तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डंतरिए सागरस्स एयमढं निसामेइ निसामित्ता लजिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सदावेइ सदावित्ता अंके निवेसेइ निवेसित्ता एवं वयासी-किपणं तुमं पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का ?, अहंणं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुमं इहा जाव मणामा भविस्ससित्ति सूमालियं दारियं ताहिं इटाहिं वग्गूहिं समासासेइ समासासित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १०॥ टीका-'तएणं ' इत्यादि । ततः तन्निर्गमनानन्तरं खलु सुकुमारिका दारिका ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुदा जागरिता सती पतिव्रता यावत् पतिमपश्यन्ती श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०९ शयनीयात्-शय्यात उत्तिष्ठति, उत्थाय सागरस्स दारकस्य सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं कुर्वती२ वासगृहस्य-शयनगृहस्य द्वारं विघाटितम्-उद्घाटितं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-गतः स सागरदारकः, इति कृत्वा 'ओहयमणसंकप्पा' अपह. तमनः संकल्पा-नष्टमनोरथा, यावत् ध्यायतिआतध्यानं करोतिस्म । ततस्तदन न्तरं भद्रा सार्थवाही 'कलं ' कल्ये-द्वितीय दिवसे प्रादुः प्रभातायां रजन्पां यावत् तेजसा ज्वलति-दीप्यमाने सूर्य उदिते दासचेटीकांदासपुत्रीं शब्दयति, शब्दयित्वा तएणं सूमालिआ दारिया' इत्यादी। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सूमालिया दारिया) सुकुमारिका दारिका (तओ मुहुत्ततरस्स पडिबुद्धा पइवया जाव अपासमाणी ) एक मुहूर्त के बाद जग पडी-सो उस पतिव्रता ने वहां अपने पतिको जब नहीं देखा तब (सणिज्जाओ उट्टेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वाओ समता मग्गणगवेसणं करेमाणी २ वासघरस्स दारं विहोडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी) पलंग से उठी उटकर उसने सागर दारक की वहीं पर सब और बार २ मार्गण गवेषणा की- । जब उसने शयन गृह के दरवाजे को उघड़ा हुआ देखा-तब उसे विचार आया कि ( गये से सागरे त्ति कह ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ, तएण सा भद्दा सत्यवाही कल्लं पाउ० दासचेडियं सदावेइ ) कि सागर चले गये हैं। इस प्रकार अपहतमनःसंकल्प होकर वह विचार में पड़ गई, इतने मे भद्रा सार्थवा (तएणं सूमालिया दारिया इत्यादि टी -( तएणं ) त्या२॥ (सूमालिया दारिया ) सुभा२ि४ २ि४॥ (तओ मुहत्ततरस्स पडिबुद्धा पइवया जाव अपासमाणी ) से भुत पछी જાગી ગઈ તે પતિવ્રતાએ ત્યાં પિતાના પતિને જ્યારે જોયા નહિ ત્યારે ( सयणिज्जाओ उठेइ, सागरस्स दारगस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी २ वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी) શગ્યા ઉપરથી ઊભી થઈ અને ત્યારપછી તેણે ત્યાંજ આસપાસ ચોમેર સાગર દારકની માર્ગણુ-ગવેષણ કરી. જ્યારે તેણે શયનગૃહના બારણાને ઉઘાડેલું જોયું ત્યારે તેને વિચાર આવ્યો કે ( गए से सागरे तिकट्टु ओहयमणसंकप्पा जाव झियाघर, तपर्ण सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउ दासचेडियं सद्दावेइ ) સાગર જતા રહ્યા છે. આ રીતે અપહત મનઃ સંકલ્પવાળી થઈને તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे एवमवादीत-हे देवानुपिये ! गच्छ खलु त्वं ' बहुवरस्स' बधूवरयोः समीपे ' मुहधोवणियं ' मुखधावनिकांदन्तधावनादिरूपाम् ' उवणेहि ' उपनयमापय । ततः खलु सा दासचेटी भद्रया सार्थवाह्या एवमुक्तासती ' एयमी' एतमर्थम्= एतद्वचनं ' तथा ऽस्तु ' इतिकृत्वा प्रतिशणोति, प्रतिश्रुत्य ' मुहधोवणियं' मुख धावनिकां गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव वासगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुकुमारिकां दारिकामेकाकिनी यावत्-ध्यायन्तीं प्रार्तध्यानं कुर्वतीं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीहीने द्वितीय दिन प्रातः काल होते ही दासपुत्री को बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए!वहूवरस्स मुहधोवेणियं उवणेहि तएणसा दासचेडी भद्दाए एवं वुत्ता समाणी एयम तहत्ति पडि सुणंति मुहयोवणियं गेहह, उवागच्छित्ता, सूमालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासह, पासित्ता एवं क्यासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया ! ओहमणसंकप्पा जाव झियाहिसि ? तरण सा सूमालिया दारिया तं दासचेडी एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जणित्ता मम पासाओ उठेइ, उहित्ता वासघरदुवारं अवगुणइ, जाव पडिगए ) बुलाकर उससे ऐसा कहा कि हे देवाणु प्रिय तूंजा, और बधूवर के पास इस दन्त धावन आदिरूप मुख धावनिका को ले जा भद्रा के इस कथन को उस दासचेटी ने “ तहत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया-और मुख धावनीको को ले लिया-और लेकर फिर वह जहां वासगृह था-वहां गई । वहां पहुँचकर उसने सुकुमारिका दारिका कों ચિંતામાં ગમગીન થઈ ગઈ. એટલામાં બીજા દિવસે સવારે ભદ્રાસાર્થવાહીએ દાસપુત્રીને બોલાવી. ___ (सदावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! वहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि, तएणं सा दासचेडी भद्दाए एवंवुत्ता समाणी एयमई तहत्ति पडिसुणंति मुहधोवणियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, समालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहिसि ? तएणं सा ममालिया दारिया तं दासचेडी एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जणित्ता मम पासाओ उट्टेइ, उद्वित्ता वासघरदुवारं अवगुणइ, जाव पडिगए) બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તુ વરવધૂની પાસે આ દંતધાવન વગેરે મુખધાવનિકા લઈ જા. ભદ્રાના આ કથનને સાંભળીને તે દાસચેટીએ * તત્તિ ” કહીને તેને સ્વીકારી લીધું અને મુખધાનિકા ( દાતણ ) ને લઈ લીધું અને લઈને તે જ્યાં વાસગૃહ હતું ત્યાં ગઈ ત્યાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २११ हे देवानुप्रिये ! हे सुकुमारिके ! किं-कुतः खलु स्वम् अपहतमनः संकल्पा यावत् ध्यायसि ?, ततस्तदनन्तरं सा सुकुमारिका दारिका तां दासचेटीमेवमवादीत्-हे देवानुप्रिये ! एवं खलु सागरको दारको मां सुखप्रसुप्तां ज्ञात्वा मम पादुत्तिष्ठति, उत्थाय वासगृहद्वारम् ' अवगुणइ ' अवगुणयति अपावृणोति उद्घाटयति, 'यावत् प्रतिगतः ' यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततस्तदनन्तरं खलु 'तो' ततो मुहूर्तान्तरेऽहं यावत्-प्रतिबुद्धा सती सागरदारकमपश्यन्ती शयनादुत्तिष्ठामि, उत्थाय तस्य मार्गणगवेषणं कुर्वती वासगृहस्य द्वारं विघाटितं पश्यामि गतः खलु स सागरकः' इति कृत्वा इति हेतोरहम् अपहतमनः संकल्पा यावद्चिन्ता मग्न देखा-देखकर उसने उससे पूछा कि हे देवानुप्रिये ! क्या कारण है जो आप अपहतमनः संकल्पा होकर चिन्ता मग्न बनी हुई हो ? इस दासचेटी के प्रश्नको सुनकर उस सुकुमारिका ने उस से कहा-देवानुप्रिये-सुनो-सागरदारक मुझे सुख प्रसुप्त जानकर मेरे पास से उठे और उठकर वासगृह के दरवाजे को खोलकर जहां से आये थे वहां चले गये है । (तए णं तओ अहं मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि गएणं से सागरए त्तिकटु ओहयमाणं जाव झियायामि, तए णं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयम8 सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छह ) उसके बाद ज्योंही मैं जगी-तो मैंने जब सागर दारक को अपने पास नहीं देखा तो में शय्या से उठ बैठी-और उठकर मैंने उनकी यहीं पर सब तरफ मार्गण गवेषणाकी उसमें मैंने वासगृह के दरवाजे उघडा पाया-तब मैं समझ જઈને તેણે સુકુમારિકા દારિકાને ચિંતામાં ગમગીન જોઈ જોઈને તેણે તેને પૂછયું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અપહત મનઃ સંકલ્પ થઈને ચિંતામાં બેઠા છે ? દાસ ચેટીના પ્રશ્નને સાંભળીને તે સુકુમારિકાએ તેને કહ્યુંકે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળે, સાગર દારક મને સુખેથી સૂતી જાણીને મારી પાસેથી ઉભા થયા અને ઉભા થઈને વાસગૃહના બારણાને ઉઘાડીને જ્યાંથી આવ્યા હતા, ત્યાં જતા રહ્યા છે. (तएणं तओ अहं मुहुत्तंतरस्स जाब विहाडियं पासामि गएणं से सागरए त्ति कटु ओहयमणं जाव झियायामि, तएणं सा दासचेडी, सूमालियाए दारियाए एयमढे सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ) . ત્યાર પછી જ્યારે હું જાગી ત્યારે મેં સાગર દારક ને મારી પાસે જોયે નહિં, હું શય્યા ઉપર ઉઠી અને બેઠી થઈ ગઈ અને ત્યાર પછી મેં અહીં જ તેમની બધે માર્ગણ–ગવેષણ કરી. મેં જ્યારે વાસગૃહના બારણાને ઉઘાડું જોયું ત્યારે હું સમજી ગઈ કે તેઓ ચાલ્યા ગયા છે. આ વિચારથી જ હું અપહત श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे आर्तध्यानध्यायामि । ततः खलु सा दासचेटी सुकुमारिकाया दारिकाया अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा, यत्रैव सागरदत्तः सार्थवाह =सुकुमारिकायाः पिता, तरैवोपागच्छति, उपागत्य तं सागरदत्तमेतमर्थ निवेदयति । ततस्तदनन्तरं स सागरदत्तः सार्यवाहो दासचेटया अन्तिके एतमय श्रुत्वा निशम्य आशुरुप्ता शीघ्रं क्रोधाविष्टः सन् यत्रैव जिनदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य जिनदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत-हे देवानुपिय ! किं-कथं खलु एवं युक्तम्-उचितं वा प्राप्त कुलमर्यादामनुप्राप्तं वा कुलानुरूपं कुलयोग्यतानुकूलं वा कुलसदृशं कुलसाम्यापन्नं वा, यत् खलु सागरो दारकः सुकुमारिकां दारिकामदृष्टदोषां-निर्दोषां पतिव्रता गई कि वे चले गये है इस विचार से मैं अपहतमनः संकल्प होकर आर्तध्योन-चिन्ता-में पड़ रही हूँ । इस प्रकार सुकुमारिका की बात सुनकर वह दासचेटी बहुत सोच विचार करके वहां से सागरदत्त के पास आई । ( उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयम8 निवेएइ-तएणं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमg सोच्चा निसम्म आसुरत्ते जेणेव जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छह-उवाच्छित्ता जिणदत्तं एवं वयासी ) वहाँ आकर उसने सगरदत्त से इस बात को कहा-। इस तरह दासचेटी के मुख से इस बोत को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर सागरदत्त बहुत अधिक-क्रुद्ध हुआ-और उसी समय जहां जिनदत्त सार्थवाह का घर था वहाँ गया। वहां जाकर उसने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-(किण्हं देवाणुप्पिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा जन्नं सागरदारए सूमालियं મનઃ સંકલ્પ થઈને આતંદયાન-ચિંતામાં પડી છું આ રીતે સુકુમારીકાની વાત સાંભળીને તે દાસ ચેટી ખૂબજ વિચાર કરીને ત્યાંથી સાગરદત્તની પાસે ગઈ. उवागच्छित्ता सागरदत्तस्य एयम निवेएइ-तएणं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ-उवागच्छित्ता जिणदत्त एवं वयासो) ત્યાં આવી ને તેણે સાગરદત્તને આ વાત કરી. આ રીતે દાસ ચેટીના મુખથી બધી વિગત સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને સાગર દત્ત અત્યંત ગુસ્સે થયે અને તરત જ જ્યાં જિનદત્ત સાર્યવાહનું ઘર હતું ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તેણે જિનદત્ત સાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (किणं देवाणुप्पिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसंवा जन्नं सागरदारए मूमालिथं दरियं अदिदोसं पइवयं विपनहाय इहमागओ बहूहि खिज्जणियाहि य रहणियाहि य उवालभइ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् विप्रहाय त्यक्त्वा इहागत:-कथमेत्तद् युक्तं यत् निर्दोषां सुकुमारिकां विहाय सागरदारकोऽत्र समायात इति । एवं बहीभिः 'खिज्जणियाहि य' खेदनिकामिः खेदपूर्णाभिस्तथा ' रुंटणियाहि य ' रुटणियाभिश्च देशोयोऽयं शब्दः, रोदनक्रियायुक्ताभिः वाग्भिः उपालभते-सागरदत्तो जिनदत्तस्य उपालम्भं करोतीत्यर्थः । ततः खलु जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदत्तस्य सार्थवाहस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशभ्य यत्रैव सागरदारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सागरकं दारकं स्वपुत्रमेवं= वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादी-हे पुत्र ! त्वया खलु दुष्ठु-अशोभनं कृतम् यत्-सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहादिह हव्यमागतः, तत्-तस्माद् गच्छ खलु त्वं हे पुत्र ! एवमपि यथास्थितस्तथैव सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहम् । सागरदारको जिनदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-हे तात ! अपि-निश्चयेन — आई' इति वाक्यालंकारे अहं दारियं अदिट्टदोसं पइवयं विप्पजहाय इह मागओ बहूहिं खिजणियाहि य रुट्टणियाहि य उवालभइ ) हे देवानुप्रिय ! क्या यह बात योग्य हैअथवा कुलमर्यादा के लायक है, या कुल की योग्यता के अनुसार है या कुल को शोभित करे ऐसी है, जो सागरदारक विना किसी दोषके देखे-पतिव्रता सुकुमारिका दारिका को छोड़कर यहां आ गया है इस प्रकार अनेक खेदपूर्ण एवं रोदनक्रिया युक्त वचनोंसे सागरदत्तने अपने संबंधी जिनदत्तको ठपका-उलाहना दिया। (तएणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयभट्ट सोच्चा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सागरयं दारयं एवंवयासी-दुहुणं पुत्ता तुमे कयं,सागरदत्तस्स गिहाओ इह हव्वमागए, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता । एवमविगए, सागरदत्तस्त गिहे, तएणं से सागरए जिणदत्तं एवं चयासी-अवि आइं अहं ताओ ! હે દેવાનુપ્રિય ! શું આ વાત વાજબી છે? કુળ મર્યાદાને લાયક છે ? અથવા તે કુળની યોગ્યતા મુજબ છે ? કુળને શેભવનારી છે? કે જે સાગર દારક કોઈ પણ જાતના દેષ જોયા વગર પતિવ્રતા સુકુમારીકા દારિકાને ત્યજીને અહીં આવી ગયો છે ? આ રીતે મનને દુભાવનારા તેમજ ગળગળા થઈને રડતાં રડતાં ઘણાં વચનેથી સાગરે પોતાના વેવાઈ જિનદત્તને ઠપકો આપે. (तएणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमढे सोच्चा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरयं दारय एवं वयासी-दुठुणं पुत्ता तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इह हव्वमागए, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमविगए, सागरदत्तस्स गिहे, तएणं से सागरए जिणदत्त एवं वयासी-अवि आई अहं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तवाज्ञया गिरिपतनं वा तरुपतनं वा मरुमपातं वा-निर्जलदेशगमनं वा जलप्रपातं वा अगाधनले पतनं वा, ज्वलनप्रवेशं वा ज्वलदग्नौ प्रवेशं वा विषभक्षणं वा, 'सत्थोवाडणं वा ' शस्त्रावपाटनं वा-शस्लेग शरीरविदारणं वा, वेहाणसं वा' वैहायसं वा कण्ठे पाशकग्रहणं वा, तथा-गृनस्पृष्ठ-गृ|ः स्पर्शनं मया गजोष्ट्रादीनां कलेवरे प्रवेशितस्य शरीरस्य मृतबुद्धया गृधैर्भक्षणं, तथा प्रव्रज्यां वा, विदेश गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धापिट्ट वा पवज्जं वा विदेसगमणं वा अन्भुवगच्छिज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिह गच्छिज्जा) जिनदत्त सागरदत्त के इस उलाहने रूप अर्थ को सुनकरके जहां सागरदारक था वहां गया-वहां जाकर उसने सागर दारक से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! यह तुमने अच्छा नहीं किया-जो तुम सागरदत्त के घर से यहां इतने जल्दी आ गये । इसलिये हे बेटा! तुम जैसे यहां बैठे हो वैसे ही सागरदत्त के घर चले जाओ। तब सागरदारकने अपने पिता जिनदत्त से इस प्रकार कहा-पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा से पर्वत से गिरना स्वीकार कर सकता हूँ, वृक्ष से नीचे पड़जाना स्वीकारकर सकता हूँ-मरुप्रपात-निर्जलप्रदेश में जाना अंगीकारकर सकता हूँ, अगाधजल में डूबकर भरसकता हूँ तथा जलती हुई अग्नि में प्रवेश करना, विषकाभक्षण करना, शस्त्र से शरीर का ताओ! गिरिपडणं वा तरुपडणं चा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धापि टुं वा पबज्नं वा विदेसगमणं वा अन्भुवगच्छिज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा) જિનદત્ત સાગરદત્તના આ ઠપકાને સાંભળીને જ્યાં સાગર દારક હતું ત્યાં ગયે અને ત્યાં જઈને તેણે સાગર દારકને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! તમે આ જે કંઈ કર્યું છે, તે સારું ન કહેવાય તમે સાગરદત્તના ઘેરથી આટલા જલ્દી આવતા રહ્યા આ ઠીક નથી. એથી હે બેટાતમે અત્યારે જેવી સ્થિતિમાં છે તેવી જ સ્થિતિમાં સાગરદત્તને ઘેર જતા રહે. ત્યારે સાગર દારકે પિતાના પિતાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પિતાશ્રી ! તમારી આ નાથી હું પર્વત ઉપરથી નીચે ગબડી પડવું સ્વીકારી શકું છું, વૃક્ષ ઉપરથી નીચે પડી જવું સ્વીકારી શકું છું, મરુકપાત-નિર્જળ પ્રદેશ માં જવું સ્વીકારી શકું છું, ઊંડા પાણીમાં ડૂબીને મરી શકું છું, તેમજ સળગતા અગ્નિમાં પ્રવેશવુ, વિષનું ભક્ષણ કરવું, શસ્ત્રના ઘાથી શરીર ને કાપવું, ગળામાં ફાંસો श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २१५ गमनं वा अभ्युपगच्छामि-स्वीकरोमि किंतु खलु-निश्चयेन सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहे नैवगच्छामि । ततस्तदा-स सागरदत्तः सार्थवाहः कुडयान्तरितः भित्तिव्यवधानेन स्थितः सागरस्य दारकस्य एतमर्थम् उक्तं वचनं निशामयति-शृणोति, निशाम्य लज्जितः स्वयं, वीडितः परतः 'विडे ' विड्डः देशीयोऽयं शब्दः स्वपरतोलज्जितः, जिनदत्तस्य गृहात् प्रतिनिष्क्रामति=निर्गच्छति । प्रतिनिष्क्रम्य यौव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुकुमारिकां दारिका शब्दयति, शब्दयित्वा अङ्के-उत्सङ्गे । निवेसेह' निवेशपति-उपवेशयति, निवेश्य एवमवादीत्-हे पुत्री ! किं-केन कारणेन खलु त्वं सागरेण दारकेण 'मुक्का' मुक्ता-त्यक्ता ? । विदारण करना गले में फांसी लगाकर मरजाना, गज, उष्ट्र आदि के मृतकलेवर मे मैं अपने आपको प्रविष्ट कराकर उस शरीरको मृतबुद्धि की कल्पना से गृद्ध पक्षियों द्वारा भक्षण करवाना यह सब में स्वीकारकर सकताई, इसी तरह दीक्षागृहण करना अथवा विदेश में चलेजाना भी स्वीकारकर सकता हूँ-परन्तु मैं सागरदत्त के घरजानास्वीकार नहीं कर सकता हूँ । अर्थात् ये सब पूर्वोक्त आपकी आज्ञाएँ मुझे विना किसी संकोचके या विचारके मान्य हैं परन्तु सागरदत्तके घरजाना मुझे मान्य नहीं है । (तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुटुंतरिए सोगरस्स एयमg निसामेइ, निसामित्तालज्जिए, विलीए, विड्डे जिनदत्तस्स गिहाओ पडिनिक्खमह पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सद्दावेइ, सद्दावित्ता केनिवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी, किण्णं तुमं पुत्ता सागरएणं दारएणं मुक्का? अहं णं तुमं तस्स ભેરવીને મરવું, હાથી ઊંટ વગેરેના મરેલા શરીરમાં પ્રવેશ કરી મારા શરીરને મૃતબુદ્ધિની કલ્પનાથી ગીધ પક્ષીઓને ખવડાવવું આ બધું હું સ્વીકારી શકું તેમ છું, તેવી જ રીતે દીક્ષા ગ્રહણ કરવી અથવા તે પરદેશમાં જતા રહેવું પણ હું સ્વીકારી શકું છું પણ હું સાગરદત્તના ઘેર જવું સ્વીકારવા તૈયાર નથી. એટલે કે આ બધી ઉપરની તમારી આજ્ઞા મને કોઈ પણ જાતના વિચાર કર્યા વગર માન્ય છે, પણ સાગરદત્તને ત્યાં જવું માન્ય નથી. ( तएणं से सागरदत्ते सत्यवाहे कुटुंतरिए सागरस्स एयमढे निसामेइ, निसामित्ता लज्जिए, विलीए, विड्डे, जिनदतस्स गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मुकुमालियं दारियं सद्दावेइ, सदावित्ता अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी किण्णं पुत्ता सागरएणं दारएणं શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अहं खलु त्यां तस्मै दास्यामि यस्य खलु त्वमिष्टा अभिलपिता कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोमा मनोगता भविष्यति, इति=एवं सुकुमारिकां दारिका तामिरिष्टाभिर्वाग्मिः 'समासासेई' समाश्वासयति समाश्वास्य प्रतिविसर्जयति-प्रधापयति ॥ १० ॥ मूलम्-तएणं से सागरदत्ते एगं महं दमगपुरिसं पासइ दंडिखंडनिवसणं खंडगमल्लगघडगहत्थगयं मच्छियासहस्सेहिं दहामि जस्स णं तुम इछा जाव मणामा भविस्ससित्ति सूमालियं दारियंताहि इट्टाहिं वग्गूहिं समासासेइ, समासासित्ता पडि विसज्जेइ ) वहीं भित्ति के पीछे छुपा हुआ सागरदत्त सार्थवाह सागर-के उन बचनों को सुन रहा था । सो सुनकरके स्वयं बड़ा लज्जित हुआ तथा दूसरोंसे भी उसे बड़ी शर्म आई इस तरह स्व और पर से लजाता हुआ वह जिनदत्त के घर से बाहर निकल गया। और जाकर अपने घर पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने अपनी पुत्री सुकुमारिका दारिका को बुलाया -बुलाने पर जब वह आ गई तब उसे उसने अपनी गोदी में बैठा लिया बैठानेके बाद फिर उसने उससे पूछा बेटी ! सागरने तुम्हें किस कारण से छोड़ दिया है मैं तुम्ह उसी के दूंगा। कि जिस के लिये तुम अच्छी तरह इष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा एवं मनोमा होओगी, इस प्रकार उसने सुकुमारिका दारिकाको उन२ इष्ट वचनों द्वारा अच्छी तरह आश्वासन दिया-धैर्य वधापा-और आश्वासन देकर उसे विसर्जित करदिया।सू०१० मुक्का ? अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्सणं तुमं इट्ठा जाव मणामा भचिस्ससित्ति मुमालियं दारियं ताहिं इटाहिं वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता पडिविसज्जेइ ) ત્યાં જ ભીંતની પાછળ છુપાઈને સાગરદત્ત સાથે વાહ સાગરની તે બધી વાતને સાંભળી રહ્યો હતો. સાંભળી તે બહુજ લજિજત થયે તેમજ બીજાએથી પણ તે ખૂબજ લજિજત થયો. આ રીતે “જાતે” અને બીજાઓથી લજાતે તે જિનદત્તના ઘેરથી બહાર નીકળી ગયા અને નીકળીને પિતાને ઘેર પહોંચ્યા. ત્યાં જઈને તેણે પિતાની પુત્રી સુકુમારિકા દારિકાને બોલાવી. જ્યારે તે સુક્રમારિકા દરિકા આવી ગઈ ત્યારે તેને પોતાના ખોળામાં બેસાડી લીધી. બેસાડીને તેણે તેને પૂછયું હે બેટી ! શા કારણથી સાગરે તને ત્યજી છે ? તને હું તે પુરુષને જ આપીશ કે જેના માટે તું સારી રીતે ઈષ્ટા, કાંતા. પ્રિયા, મનેણા અને મનમા થશે. આ રીતે તેણે સુકુમાર દારિકાને પિતાના ઈષ્ટ વચ નેથી સારી રીતે આશ્વાસન આપ્યું અને ત્યાર પછી તેને વિદાય આપી સૂ૦૧ના શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २१७ जाव अन्निजमाणमग्गं, तएणं से सागरदत्ते कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं पयासी-तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमं पलोभेहि पलोभित्ता गिहं अणुप्पवेसेह अणुप्पवेसित्ता खंडगमल्लगं खंडघडगं ते एगते एडेह एडित्ता अलंकारियकम्मं कारह कारिता पहायं कयबलि० जाव सव्वालंकारविभूसियं करेह करित्ता मणुण्णं असणपाणखाइमसाइमं भोयावेह भोयावित्ता मम अंतियं उवणेह, तएणं कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवा. गच्छइ उवागच्छित्ता तं दमगं असणं उवप्पलोभेति उवप्पलोभित्ता सयं गिहं अणुपवेसिति अणुपवेसित्ता तं खंडगमल्लगं खंडगघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगंते एडंति, तएणं से दमगे तसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य एगते एडिजमाणंसि महया२ सदेणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते तस्त दमगपुरिसस्त तं महया२ आरसियसदं सोचा निसम्म कोडुंबियपुरिसे एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया ! एस दमगपुरिसे महया महया सदेणं आरसइ ? तएणं ते कोडंबियपुरिसा एवं वयासी-एस णं सामी ! तसिखंडमल्लगंसि खंडघडगंसि एगंते एडिज्जमाणंसि महया महया सदेणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते सत्थ० ते कोडंबियपुरिसे एवं वयासी-मा णं तुम्भे देवाणुप्पिया! एयस्त दमगस्स तं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे खंड जाव एडेह पासे ठवेह जहा णं पत्तियं भवइ, ते वि तहेव ठविति. तएणं ते कोडुंबियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्भं करेंति करित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहि अब्भंगेति अब्भंगिए समाणे सुरभिगंधुव्वदृणेणं गायं उव्यहितिर उसिणोदगेणं गंधोदगेणं सीतोदगेणं हाणेति पम्हल सुकुमाल गंधकासाइयाए । गायाइं लूहति लूहित्ता हंसलक्खणं पट्टसाडगं परिहति परिहित्ता सवालंकारविभूसियं करेंति करित्ता विउलं असणपाणखाइमसाइमं भोया-ति भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवणेति, तएणं सागरदते सूमालियं दारियं पहायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करिता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-देवाणुप्पिया! मम धूया इट्टा एयं णं अहं तव भारियत्ताए दलामि भद्दियाए भदओ भविजासि, तएणं से दमगपुरिसे सागरदतस्स एयम पडिसुणति पडिसुणिता सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिमंसि निवजइ, तएणं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफास पडिसंवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ अब्भुट्टित्ता वासघराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए, तएणं सा सूमालिया जाव गएणं से दमगपुरिसे तिकटु ओहयमण जाव झियायइ ॥ सू० ११ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २१९ टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स सागरदत्तः सार्थवाहोऽन्यदा-अन्यस्मिन् कस्मिश्चित् काले ' उपि आगासतलगंसि' उपरि आकाशतलकेपासादोपरिभागे , सुहनिसण्णे ' सुखेनोपविष्टः, राजमार्गमवलोकमानः २ तिष्ठति । ततः खलु स सागरदत्त एकं महान्त · दमगपुरिसं' द्रमनपुरुष 'दमग ' इति देशीयः शब्दः दरिद्रपुरुषं पश्यति, किम्भूतम् ? इत्याह-'दंडिखंड निवसणं ' दण्डिखण्डनिवसनं दण्डि-कृतसन्धानं जीर्णवस्त्रं तस्य खण्डं तदेव निवसनं परिधानवस्त्रं यस्य स दण्डिखण्ड निवसनस्तम्, तथा-, खंडमल्लग घडगहत्यगयं' खण्डमल्लकघटकहस्तगत= खण्डमल्लकं-खण्ड शरावं स्कुटितशरावं भिक्षापात्रं, तथा खण्डघटकश्च-खण्डरूपो घटः स्कुटितस्य घटस्य भागः स एवं जलपानं, एतद् द्वयं हस्तगतं यस्य तम्, 'मच्छियासहस्सेहिं जाव अन्निज्जमाणमग्गं' मक्षिकासहरी वित् अन्वीयमानमार्ग, शरीरवस्त्रादेर्मलिनत्वात् तत्पृष्ठतो मक्षिका आप 'तएणं से सागरदत्ते' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं से सागरदत्त)इसके बाद सागरदत्तने किसी एक समय " उप्पि आगासतलगंसिं " अपने प्रासाद के ऊपर सुख पूर्वक बैठी हुई स्थिति में राजमार्ग का अवलोकन करते समय ( एगं महं दमगपुरिसं पासइ ) एक अत्यंत दरिद्र पुरुष को देखा ( दंडिखंडनिवसणं खंडगम लगघडगहत्थगयं मच्छियासहस्सेहिं जाव अनिज्जमाणमगं) जो जीर्णवस्त्र के जुड़े हुए चिथडे को पहिने था और जिसके हाथ में खंडमल्लकथा-फुटा हुआ मिट्टि के खप्पर था - तथा पानी पीने के लिये फुटे हुए घट का एक खप्पर था । हजारो मक्खिया जिसके पीछे पीछे, शरीर और वस्त्रो के मलिन होने से भिन्न २ करती हुई उड़ रही 'तएणं से सागरदत्ते' इत्यादि । साथ-(तएणं से सागरदत्ते) त्या२ मा सा॥२४त्त । २४ qua (उपि आगासतलगंसिं) पाताना मडानी १५२ सुमेथी मेसीन २४ मार्नु मन४२ते. त्यारे ते (एगं महं दमगपुरिसं पासइ) मे ५५०४ ६.२-४ -पुरुषने नया. (दंडिखंडनिवसणं खंडगमल्लगघडगहत्थगयं मच्छियासहस्सेहिं जाव अनिज्जमाणमग्गं ) तो शूना पखना थीथा। परेसा ता अने तेनहामी ખંડમલ્લક હતું ” એટલે કે ફુટી ગયેલા માટીના વાસણને એક કકડે હતો તેમજ પાણી પીવા માટે કુટેલી માટલીનું એક ખપ્પર હતું હજારો માખીઓ તેની પાછળ પાછળ-શરીર અને વસ્ત્રોની મલીનતાને લીધે ઉડી રહી હતી, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तन्तीत्यर्थः । ततः खलु स सागरदत्त कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् हे देवानुपियाः ! यूयं खलु एतं द्रमकपुरुष-रङ्कपुरुष विपुलेन अशनपानखाद्यस्वायेन प्रलोभयत प्रलोभ्य गृहमनुप्रवेशयत, अनुप्रवेश्य खंडकमल्लकंखण्डशरावं खण्डघटक-पानीयपानं ' से ' तस्य द्रमकपुरुषस्य एकान्ते एकान्त स्थाने ' एडेह । निक्षेपयत, निक्षेप्य अलंकारिककर्म = केशनखच्छेदनादिकं नापितादिमिः कारयत, कारयित्वा स्नातं कृतवलिकर्माणं यावत् सर्वालङ्कारथीं । ( तए णं से सागरदत्ते कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखाइम साइमं पलोभेइ, पलोभित्ता गिहं अणुपवेसेह, अणुपवेसित्ता खंडगमल्लगं खंडघडगं तं एगंते एडेह एडित्ता अलंकारिकम्मं कारेह कारित्ता हायं कयवलि० जाव सव्यालंकारविभूसियं करेह करित्ता मणुपण असणपाणखाइमसाइमं भोयावेह, भोयोवित्ता मम अंतियंउवणेह ) इसके बाद सागरदत्तने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया । बुलाकर उसने इस प्रकार कहा देवानुप्रियो। तुम लोग इस दरिद्र पुरुषको विपुल अशन, पान,खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहारका प्रलोभन दो-प्रलोभन देकर फिर इसे घर में भीतर करलो । जब यह घरके भीतर हो जावेगा तब तुमलोग इसके ये खंडमल्ल (फटी लंगोटी) और खंडघटक इससे छुड़ा. कर किसी एकान्त-सुरक्षित स्थान में रखदो । बाद में नापित ( नाई ) को बुलाकर इसके सुन्दर ढंग से बाल बनवाओ नखआदि जो वढ़ रहे (तएणं से सागरदत्ते कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-तुम्भेणं देवानुप्पिया! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमं पलोभेइ,पलोभित्ता गिहं अनुप्पवेसेह, अणुप्पवेसित्ता खंडगमल्लगं खंड धडगंतं एग ते एडेह, एडित्ता अलं. कारिकम्मं कारेह कारित्ताहायं कयवलिजाव सबालंकारविभूसियं करेह करिता मणुण्णं असणपाणखाइमसाइमं भोयावेह, भोयाचित्ता मम अंतियं उवणेह) ત્યારપછી સાગરદત્તે આજ્ઞાકારી પુરૂષોને લાવ્યા. બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે આ દરિદ્ર પુરૂષને પુષ્કળ પ્રમા ણમાં અશન,પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારની લાલચ આપે. લાલચ આપીને તેને ઘરની અંદર બેલાવી લે. જ્યારે તે ઘરમાં આવી જાય ત્યારે તમે તેની પાસેના ખંડમલ અને ખંડઘટક લઈને તેને એકાંત સુરક્ષિત સ્થાનમાં મૂકી દો. ત્યારપછી હજામને બેલાવીને તેના સરસ રીતે વાળ કપાવી નાખે અને વધી ગયેલા નખ વગેરેને કપાવી નાખો. ત્યાર પછી તેને સ્નાન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिका चरितवर्णनम् २२१ " " विभूषितं कुरुत कृत्वा ' मणुष्णं ' मनोज्ञं = रुचिरम् अशनपानखाद्यस्वाद्यं भोजयत भोजयित्वा ममान्तिकं समीपमुपनयत । ततः खलु कौटुम्बिकपुरुषा यावत्-प्रतिशृण्वन्ति = ' तथाऽस्तु ' इति कृत्वा तदाज्ञां स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य यत्रैव सद्रमकपु रुषः = रङ्कपुरुषः, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं द्रमकं रुचिरेण विपुलेनाशनादिना प्रलोभयन्ति प्रलोभ्य स्वकं गृहमनुप्रवेशयन्ति, अनुप्रवेश्य तं खण्डकमलकं खण्डकघटकं च तस्य द्रमकपुरुषस्यैकान्ते ' एडंति ' निक्षेपयन्ति ततः खलु स दमकस्तस्मिन् खण्ड मल्लके खण्डघटके च एकान्ते 'एडिज्जमानंसि निक्षेप्यमाणे सति महता २ शब्देन आरसइ ' आक्रन्दति । ततः खलु स सागरदत्तस्तस्य द्रमक पुरुषस्य तं महान्तं ' आरसियइ सद' ' आक्रन्दनशब्दं श्रुत्वा निशम्य कौटुहैं उन्हें कटवाओ । उसके पश्चात् इसे स्नान कराओ। बाद में इससे पशु पक्षी आदिको अन्नादिका भागरूप बलिकर्म आदिकरवाओ - जब यह बलिकर्म आदिकर चुके तब तुमलोग इसे समस्त अलंकारो से विभूषित करो, विभूषित करके फिर इसे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार खिलाओ - खिलाकर के बाद में फिर हमारे पास इसे ले आओ । ( तरणं कोडु बियपुरिसा जाव पडिसुर्णेति, पडिणित्ता, जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता तं दमगं असणं उवप्पलोभूति, उवप्पलोभित्ता सयं हिं अणुपवेसिंति अणुपविसित्ता, तं खंडमल्लगं खंडगघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगंते एडेंति, तएणं से दमगे तंसि खंड मल्लगंसि, खंडधडगं य एते एडिजमाणस महया २ सद्देणं आरसइ, तरणं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महया२ आरसियस सोच्चा કરાવે। સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેના હાથેથી પશુ-પક્ષી વગેરેના અન્ન વગેરેના ભાગ આપવા રૂપ અલિકમ કરાવડાવેા. જ્યારે મલિકની વિધિ પતી જાય ત્યારે તમે લેાકેા એને બધી જાતના અલંકારાથી શણગારે. શણગારીને તેને भनोज्ञ, अशन, पान, माद्य भने स्वाद्य ३५ यार भतना आहारो भाडो જમાડયા પછી તેને અમારી પાસે લઈ આવેા. ( तरणं कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुर्णेति, पडिणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उपागच्छ उवागच्छित्ता तं दमगं असणं उप्पलोभते उप्पलोभित्ता सयंहिं अणुपवेसिंति, अणुपविसित्ता, तं खंडगमल्लगं खंडगधडगं च तस्स दमगरिसस एगंते एडेंति तएणं से दमगे तंसि खंडमल्लगंसि, खंडघड - गंसि य एगंते एडिज्जमाणंसि महया २ सद्देणं आरसइ, तपणं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महया र आरसिय सङ्घ सोच्चा निसम्म कोडुंबिय पुरि से एवं बयासी) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे म्बिकपुरुषानेवमवादीत्-हे देवानुपियाः ! कि-केन कारणेन खलु एष द्रमकपुरुषो महता २ शब्देन आरसति-आक्रन्दति ? । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः एवमवदन्-एष खलु हे स्वामिन् ! तस्मिन् खण्डमल्ल के खण्डघटके एकान्ते निक्षेप्यमाणे महता २ शब्देन आरसति-आक्रन्दति । ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाहस्तान् कौटुम्बिकपुरुषान् एवमवादोत्-हे देवानुप्रियाः ! मा खलु यूयं एतस्य निसम्म को९वियपुरिसे एवं वयासी ) इस प्रकार की उन कौटुम्बिक ने सागरदत्त सेठ की इस आज्ञा को अच्छी तरह स्वीकार लिया और स्वीकार कर वहां जाकर उन्होंने उस दमक को अशन पान आदिरूप चतविध आहार से बार २ लुभाया लुमाकर वे उसे अपने घर तक ले आये और अंत में अपने घर में उसे प्रवेश कराया। बाद में उन लोगोंने उस दमक पुरुष के फूटे हुए मिट्टी के दीपक के खड को, तथा फूटे हुए घडे के खप्पर को उससे लेकर किसी सुरक्षित स्थान में रख दिया। जब उस दमकपुरूषने अपने खंडमल्लक फटी लंगोटी) को और खडघटकको अपने से लेकर एकान्त स्थानमें रखा जाता हुआ देखा-तो वह जोर जोरसे रोने लगा-उसके उस रोनेकी आबाजको सुनकर और उसे अपने चित्त में धारण कर सागरदत्तने कौटुम्विक पुरुषों से इस प्रकार कहा-(किण्णं देवाणुप्पियो ! एसदमगपुरिसे महया २ सद्देणं आरसह ३ तएणं ते कौडुबियपुरिसा एवं चयासो एसणं सामी ! तंसिं खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि एगते एडिज्जमाणंसि महया २ सद्देणं આ જાતની સાગરદત્તની આજ્ઞાને તે કૌટુંબિક પુરૂષને સારી રીતે સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર્યા બાદ તેઓ દદ્ધિ માણસની પાસે ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેને બોલાવ્યો અને અશન, પાન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહારની વારંવાર લાલચ આપી. લલચાવીને તેઓ તેને ઘર સુધી લઈ આવ્યા અને છેવટે તેને ઘરમાં દાખલ કરી દીધા. ત્યારપછી તે લેકેએ તે દરિદ્ર માણસની પાસેથી ફૂટેલા માટીના વાસણને કટકે તેમજ ફૂટેલા માટલાના ખપ્પરને લઈને સુરક્ષિત સ્થાને મૂકી દીધું. જ્યારે તે દરિદ્ર માણસે પોતાના ખંડમલકને અને ખંડઘટકને પિતાની પાસેથી છીનવીને એકાંત રથાનમાં મૃતાં જોયું ત્યારે તે માટેથી ઘાંટા પાડીને રડવા લાગ્યું. તેના રડવાના અવાજને સાંભળીને અને તેને પોતાના ચિત્તમાં ધારણ કરીને સાગરદત્તે કૌટુંબિક પુરૂષને આ પ્રમાણે કહ્યું. (किणं देवाणुप्पिया ! एस दमगपुरिसे महया २ सद्देणं आरसइ, तरण ते कोडवियपुरिसा एवं वयासी एसणं सामी ! तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि एनंते एडिज्जमाणंसि महया २ सदेणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते सत्यवाहे ते श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२३ द्रमकपुरुषस्य तत् खण्डमल्लकं खण्डघटकं यावत्-एकान्ते — एडेह' निक्षेपयत अस्य परोक्षे मा स्थापयतेत्यर्थः, किन्तु पार्श्वे स्थापयत, यथा खलु 'पत्तियं ' प्रत्यय:विश्वासो भवति । तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव स्थापयन्ति । ततः खलु ते कौटु आरसइ, तएणं से सागरदत्ते सत्यवाहे ते कोडुंबिय पुरिसे एवं क्यासी) हे देवानुप्रियो ! क्या कारण है जो यह दमक पुरूष जोर २ से रो रहा है ? तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने ऐसा कहा कि हे स्वामिन् ! इसने ज्योंही अपने खंडमल्लक को और घटखंड को लेकर एक ओर सुरक्षित स्थान में रखे जाते हुए देखा वैसे ही यह बड़े जोर से रोने लगा है। ऐसा सुनकर सागरदत्त ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा(माणं तुम्भे देवाणुपिया ! एयस्स दमगस्स तं खंड जाव एडेह, पासे ठवेह, जहाणं पत्तियं भवइ, तेवि तहेव ठवेंति, तएणं ते कोडुबिय पुरिसा तस्स दमगरस अलंकारियकम्मं करेंति, करित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अ०भगेति, अभंगिए समाणे सुरभिगंधुव्वदृणेणं गायं उव्वाहिति, २ उसिणोदगेणं गंधोदगेणं सीतोदगेणं हाति) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग इस दमक पुरुष के फूटे हुए मिट्टी के दीपक के खंड को और फूटे हुए घड़े के खप्पर को इससे लेकर परोक्ष मेंअदृश्य स्थान में-मत रखो किन्तु इस के पास में ही-समक्षरखो, जिससे इसे अपनाविश्वास बना रहे । इस प्रकार सागरदत्त की बात कोडं विय पुरिसे एवं एवं वयासी) હે દેવાનપ્રિયે ! શા કારણથી આ દરિદ્ર માણસ મેટેથી ઘાંટા પાડી પાડીને રડી રહ્યો છે? ત્યારે તે કૌટુંબિક પુરૂષએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન ! પોતાના ખંડમલક અને ખંડઘટકને તેની પાસેથી લઈને બીજા સુરક્ષિત સ્થાને લઈ જતાં જોઈને આ દરિદ્ર માણસ મેટેથી રડવા લાગ્યો છે. આ પ્રમાણે સાંભળીને સાગરદને કૌટુંબિક પુરૂષોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (माणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगस्स तं खंड जाव एडेह पासे ठवेह, जहाणं पत्तियं भवइ, ते वि तहेव ठवेति, तएणं ते कोडुबियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति, करित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहि अब्भगेति अभंगिए समाणे सुरभिगंधुघट्टणेणं गायं उव्वर्टिति २ उसिं णोदगेणं गंधोदगेणं सीतोदगेणं हार्वेति) હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો આ દરિદ્ર પુરૂષના ફૂટેલા માટીના દીપકના કટકાને અને ફૂટેલા ઘડાના ખપ્પરને એની પાસેથી લઈને દૂર એકાંતમાં મૂકશે નહિ પણ એની પાસે જ—એની સામે જ મૂકી રાખે. જેથી એને વિશ્વાસ રહે, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे म्बिकपुरुपास्तस्य द्रमक्रस्य-रङ्कपुरुषस्य अलंकारिककर्म कारयन्ति कारयित्वा शतपाक सहस्रपाकैस्तैलैरभ्यङ्गयति-मर्दयन्ति । अभ्यङ्गितः सन् सुरभिगन्धोद्वर्तनेन= सुगन्धिपिष्टकेन गात्रनुद्वर्तयन्ति, उद्वर्त्य उष्णोदकेन गन्धोदकेन शीतोदकेन स्नपयन्ति, स्नपयित्वा 'पम्हलसुकुमालगंधकासाइयाए ' पक्ष्मलसुकुमारगन्धकापायिकया पक्ष्मला पक्ष्मवती मृदुरोमयुक्ता अत एव मुकुमारा तथा कपायेण रक्ता साटी काषायिका तया गात्राणि 'लूहंति' रूक्षयन्ति = प्रोञ्छयन्ति, सुनकर उन आदेशकारी पुरुषों ने वैसा ही किया-अर्थात् उसके मल्लकखंड और घटखंड दोनों को ही उसके समक्ष उन्होंने रख दिया। इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषोंने उस दमक पुरुषका आलंकारिक कर्म करवाया । अब उसका अच्छी तरह अलंकारिक कर्म निष्पन्न हो चुकातब उसके बाद उस दमक पुरुष केशरीर की उन लोगों ने शतपाक और सहस्त्र पाकवाले तैल से मालिश की-मालिश करने के पश्चात् , सुगन्धिपिष्टक-सुगंधितपिटी-से उसके शरीर का उपटन किया उस सुगंधित पिटी को उसके शरीर पर रगड़ २ कर मला इससे जो उसके शरीर पर मल जमा हुआ था वह चिकनाहट के संबन्ध से उस पिटीद्वारा निकल गया । जब उनके शरीर का उद्वर्तन हो चुका-तब फिर उन लोगों ने उसे उष्णोदक से गंधोदक से, एवं शीतोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर बाद में उसका शरीर (पम्हलसुकुमारगंधकासाइयाए गायाइं लूहंति ) पक्ष्मल-हएँवाली-मृदुरोमयुक्त-सुकुमार-नरम, रंगीहुई ट्वाल से-अंगोछी-से-तौलिया से पोंछा। (लूहित्ता हसलक्षणं આ રીતે સાગરદત્તની વાત સાંભળીને તે આજ્ઞાકારી પુરૂએ તે પ્રમાણે જ કર્યું. એટલે કે તેના મલકખંડ અને ઘટખંડને તેની સામે જ મૂકી દીધા. ત્યારપછી તે કૌટુંબિક પુરૂએ તે દરિદ્ર માણસના વાળ અને નખ કપાવ્યા. જ્યારે આકામ સરસ રીતે પુરું થઈ ગયું ત્યારે તેઓએ દરિદ્ર માણસના શરીરને શતપાક અને સહસ્ત્રપાકવાળા તેલથી માલિશ કર્યા બાદ સગધિપિષ્ટક-સુગંધિત પીઠી-તેના શરીરે ચાળીને ઉપટન કર્યું. એથી તેના શરીર ઉપર જેટલો મેલ હતું તે પીઠીની સ્નિગ્ધતાને લીધે સાફ થઈ ગયો જ્યારે તેના શરીરે પીઠી ચોળાઈ ગઈ ત્યારે તે લેકોએ તેને ગરમ પાણીથી. સુવાસિત પાણીથી અને ઠંડા પાણીથી સ્નાન કરાવ્યું. સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેના शरी२२ (पम्हल सुकुमार गंध कोसाइयाए गायाई लूहंति ) ५६भस-३'वाटापाणा સુકમળ, નરમ રંગીન ટુવાલથી લૂછ્યું. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3E अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२५ रूक्षयित्वा ' हंसलक्खणं' हंसलक्षणं = हंसस्वरूपं तदिव शुक्ल स्वरूपं यस्य तत् , 'पट्टसाडर्ग' पट्टशाटकं क्षौमवस्त्रं परिहेति' परिधापयन्ति परिधाप्य सर्वालंकारविभूषितं कुर्वन्ति, कृत्वा विपुलमशनपानखाद्यस्वाद्य भोजयन्ति, भोजयित्वा सागरदत्तस्योपनयन्ति । ततः खलु सागरदत्तः सुकुमारिकां दारिकां स्नातां यावत्सर्वालङ्कारभूपितां कृत्वा तं द्रमकपुरुषम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-हे देवानुप्रिय ! एषा खलु मम दुहिता इष्टा, एतां खलु अहं तव भार्यात्वेन ददामि पट्टसाडगं परिहेति, परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करिता विउलं असनपाणखाइमसाइमं भोयाति, भोयावित्तो सागरदत्तस्स उवणेति ) जब शारीरिक प्रत्येक अवयव ठीक २ अच्छी तरह से पोछाजा चुका-तब फिर उन्होंने हँस चिह्नवाला अथवा हँस के जैसा शुभ्रपदृशाटक-क्षौमवस्त्र उसको पहिराया। क्षौमवस्त्र पहिराकर फिर उसको विपुल, अशन, पान, खाद्य एवं स्वाधरूप चतुर्विध आहार का भोजन कराया। भोजन कराकर फिर वे उसको सागरदत्त के पास ले गये (तएणं सागरदत्ते सूमालियं दारियं पहायं जाव सव्वालंकार विभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! मम धूया इट्ठो एयं णं अहं तव भारियत्ताए दलामि ) सागरदत्त ने अपनी सुकुमारिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारो से विभूषित करके उस दमक पुरुष से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! यह मेरी लड़की है । और मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रिय, कान्त (लूहित्ता हसलक्खणं पट्ट साडगं परिहेंति, परिहित्ता सव्यालंकारविभूसियं करेंति, करित्ता विउलं असनपाणखाइमसाइमं भोयाति,भोयावित्ता,सागरदत्तस्स उवणेति) જ્યારે શરીરના બધા અંગે સરસ રીતે લુંછાઈ ગયા ત્યારે તેઓએ હંસચિત્રિત અથવા તે હંસ જેવું સ્વચ્છ ઘેલું પક્શાટક લૌમ વસ્ત્ર પહેરાવ્યું. ક્ષમ વસ્ત્ર પહેરાવીને તેને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહાર જમાડયા. જમાડયા પછી તેઓ તેને સાગરદત્તની પાસે લઈ ગયા (तएणं सागरदत्ते भूमालियं दारियं हायं जाव सबालंकारविभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! मम धूया इट्टा एयं णं अहं तव भारियत्ताए दलामि) સાગરદત્ત પિતાની સુકુમારિકા દારિકાને સ્નાન કરાવીને યાવત્ બધી જાતના અલંકારોથી શણગારીને તે દરિદ્ર માણસને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! આ મારી પુત્રી છે અને મને બહુ જ ઈષ્ટ, પ્રિય, કાંત, મને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'भदियाए' भद्रिकया भाग्यशालिन्याऽनया त्वमपि भद्रको भाग्यशाली भविष्यसि । ततः खलु स द्रमकपुरुषः सागरदत्तस्यैतमर्थ प्रतिशृणोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य सुकुमारिकया दारिकया सार्धं वासगृहमनुप्रविशति, सुकुमारिकया दारिकया सार्ध 'तलिगंसि' तल्ये-शयनीये 'नीवज्जई' निषीदति उपविशति । ततः खलु स द्रमकपुरुषः सुकुमारिकाया इमं-पूर्वोक्तम् एतद्रूपं पूर्वोक्तस्वरूपम् अङ्गस्पर्श पडिसंवेदेई' पतिसंवेदयति-प्रत्यनुभवति शेष यथा सागरस्य शेषवर्णनं सागरदारकच बोध्यम् , यावत्-अत्र यावच्छब्दादिदं द्रष्टव्यम्-' असिपत्रादीनां स्पर्शादप्यनिष्टतरं तदङ्गस्पर्श ज्ञात्वा सागरदारकवद् द्रमकपुरुषोऽपि तां सुकुमारिकां सुखप्रसुप्तां ज्ञात्वा, शयनीयादुत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय वासगृहाद् निर्गच्छति, निर्गत्य खण्डमल्लकंरफुटिमनोज्ञ एवं मनोम है । मैं अपनी इस पुत्री को तुम्हें तुम्हारी भार्या के रूप में प्रदान करता हूँ (भद्दियाए भद्दओ भविज्जसि, तएणं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयम पडि०२ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वास घरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ ) इस भाग्यशालिनी से तुम भी भाग्यशाली बनजाओगे। दमकपुरुष ने सागरदत्त के इस कथनरूप अर्थ को अंगीकार करलिया, और फिर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ। वहां जाकर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ साथ एक ही पलंग पर-बैठ गया-सोगया (तएणं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडि संवेदेइ,से सं जहा सागररस जाव सयणिज्जाओ अन्भुट्टेइ, अन्भुद्वित्ता वासघराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं અને મનેમ છે. હું મારી આ પુત્રીને તમને તમારી પત્નીના રૂપમાં આપું છું. भदियाए भद्दओ भविज्जसि, तएणं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयममु पडि०२ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुप विसइ, अणुपविसित्ता सुमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ) આ ભાગ્યશીલાથી તમે પણ ભાગ્યશાળી થઈ જશે. તે દરિદ્ર પુરૂષ સાગરદત્તની એ વાતને સ્વીકારી લીધી અને ત્યારબાદ તે સુકુમારિક દારિકાની સાથે વાસગૃહમાં પ્રવિષ્ટ થયો. ત્યાં જઈને તે દરિદ્ર માણસ સુકુમારિક દારિકાની સાથે એક જ શય્યા ઉપર બેસી ગયો. (तएणं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, सेस जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता वासघराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी रो० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२७ तभिक्षापात्र, खण्डघटकं-स्फुटितपानीयपात्रं च गृहीत्वा 'मारामुक्के विव काए' मारामुक्तइव काकः मारा-शूना प्राणिवधस्थानं ततो मुक्तः निःसृतः काक इव, अथवा-माराद्-मारकपुरुषात् तदीयहस्तादित्यर्थः मुक्त -विच्छुटितः काक इव शीघ्रतया यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः खलु सा सुकुमारिका यावद्-ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धा सती पतिमपश्यन्ती शयनीयादुत्तिष्ठति, उत्थाय द्रमकपुरुषस्य मार्गणगवेषणं कुर्वाणा वासगृहस्य द्वारं विघाटितं पश्यति खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए ) उस समय उस दमक पुरुष को उस सुकुमारिका दारिका का वह पूर्वोक्त तथा पूर्वोक्त स्वरूपवाला अंगस्पर्श अनुभव में आया। शेष वर्णन सागरदारककी तरह जानना चाहिये । इस तरह वह दमक पुरुष भी असिपत्रादिकों के स्पर्श से भी अधिक अनिष्ट उसके अंगस्पर्श को जानकरके, सागरदारक की तरह, सुख प्रसुप्त उस सुकुमारिका दारिका को जान उसे छोड़ने के लिये पलंग से उठा और उठकर उस वास घर से बाहिर निकला-निकलकर खंडमल्लक-फूटे हुए भिक्षापात्र को तथा खंडघटक-फूटे हुए पानी पीने के पात्र को-लेकर वध्यस्थान से अथवा मारक पुरुष के हाथ से मुक्त हुए काककी तरह वह बहुत जल्दी जहां से आया था उसी ओर चलदिया (तएणं सा सूमालिया जाय गएणं से दमगपुरिसे त्ति कटु ओहयमण जाव झियायइ ) इसके थोड़ीदेर बाद वह सुकुमारिका दारिका जगी और पतिको अपने पास न दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडि गए ) તે વખતે તે દરિદ્ર માણસને સુકુમારિકા દારિકાના અંગોને સ્પર્શ પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યા પ્રમાણેને કઠેર જ લાગે. (અહીં સાગરદારક જેવું જ વર્ણન સમજી જવું જોઈએ.) આ રીતે તે દરિદ્ર માણસ પણ તરવારના સ્પર્શ કરતાં પણ વધારે અનિષ્ટકર તેને સ્પર્શી જાણીને સાગર દારકની જેમજ સુખેથી સૂઈ ગયેલી તે સુકુમારિકા દારિકાને જોઈને, તેને ત્યાગ કરવા માટે પલંગ ઉપરથી ઊભું થયે અને ઊભે થઈને વાસગૃહની બહાર નીકળ્યો અને નીકબળીને ખંડમલ્લક-ફૂટેલા ભિક્ષાપાત્ર તેમજ ખંડઘટક-ફૂટેલા પાણી પીવા માટેના પાત્રને લઈને વધસ્થાનથી અથવા તે મારક (હિંસક) પુરૂષના હાથથી મુક્ત થયેલા કાગડાની જેમ તે ત્વરાથી જ્યાંથી તે આવ્યો હતો તે તરફ જ જતું રહ્યું. (तएणं सा सूमालिया जाव गएणं से दमगपुरिसे त्ति कटु ओहमण जाव झियायइ) ઘડા વખત પછી તે સુકુમારિક દારિક જાગી અને પતિને પોતાની પાસે ન જોઈને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे २२८ , दृष्ट्वा एवमवादीत् इति कृत्वा, अपहतमनः संकल्पा यावद - आर्तध्यानं ध्यायति ॥ मु० ११ ॥ मूलम् - तरणं सा भद्दा कलं पाउ० दासचेडिं सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी जाव सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेइ, तरणं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ निवेसित्ता एवं वयासी - अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरा पोराणा णं जाव पच्चणुभवमाणी विहरसि तं मा णं तुमं पुत्ता ! ओहयमण जाव झियाहि तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं४ जहा पुविला जाव परिभाएमाणी विहराहि, तरणं सा सुमालिया दारिया एयमहं पडिसुणेइ पडिणित्ता माहणसंसि विपुलं असणं जाव दलमाणी विहरइ ॥ सू०११ ॥ टीका - तणं सा ' इत्यादि । ततः खलु सा भद्रा सार्थवाही = मुकुमारिका दारिकाया जननी ' कल्लं ' कल्ये द्वितीयदिवसे प्रादुः प्रभातायां रजन्यां यावत् देखकर पलंग से उठी । उठकर उसने उस दमकपुरुषकी मार्गणा एवं गवेषणा की। उसमें उसने वासगृह के द्वार को खुला हुआ देखा। देखकर उसने विचारा कि वह दमक पुरूष अब चला गया है। ऐसा सोचकर वह अपहत मनः संकल्प होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी ।। सू० ११ ॥ 1 तणं सा भद्दा कल्लं ' इत्यादि । टीकार्थ - ( तणं ) इसके बाद ( सा भद्दा कल्लं पाउ० दासचेडिं શય્યા ઉપરથી ઊભી થઈ, ઊભી થઈને તેણે તે દરિદ્ર માણસની શેષ ખાળ કરી. તેણે વિચાર કર્યો કે તે દરદ્ર માણુસ તા જતા રહ્યો છે. આ રીતે વિચાર કરીને તે અપહતમનઃ સંકલ્પા થઈને યાવત્ આ ધ્યાનમાં ડૂબી ગઈ, ૫ સૂત્ર ૧૧ ॥ " तणं सा भद्दा कल ' इत्यादि टीडार्थ - (तएण ) त्यारमाह (सा भद्दा कलं पाउ० दासचेडिं सहावेइ, सदा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२९ तेजसा ज्वलति सूर्ये-उदिते दासचेटी शब्दयति, शब्दयित्वा एक्मवादी-यावद सागरदत्तस्यैतमर्थ निवेदयति, अत्र यावच्छब्देन पूर्वसूत्रोक्तवर्णनमनुसन्धेयम् , तथावधूवरयोर्मुखधावनिकामुपनयेति । एवमुक्तासती दासचेटी वासगृहमुपागत्य सुकुमारिकामार्तध्यानं ध्यायन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-हे देवानुप्रिये ! किं खलु त्वम् अपहतमनः संकल्पा ध्यायसि ? ततः सुकुमारिका तां दासचेटीमेवमचादीत्-स द्रमकपुरुषो मां सुखप्रमुप्तां ज्ञात्वा मम पार्थादुत्थाय निर्गतः, ततोमुहूर्तान्तरेऽहमुत्थाय तमपश्यन्ती 'गतः स द्रमकपुरुषः, इति कृत्वाऽऽतध्यानं ध्यायामि सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी जाव सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेई ) सुकुमारिका दारिकाकी माता उस भद्रा ने द्वितीय दिन जब प्रातः काल हो गया था और सूर्य उदित हो चुका था-तब अपनी दासचेटी को बुलाया-धुलाकर उससे ऐसा कहा-यहां यावत् शब्द से यह पूर्वसूत्र गत वर्णन जोडलेना चाहिये जैसे, भद्राने बुलाकर उससे ऐसा कहा कि तूं वधू और वर के लिये यह मुख धोने की सामग्री दतौन आदि -लेजा जब भद्रा ने उससे ऐसा कहा तब वह दासचेटी वासगृह में गई -और वहाँ जाकर उसने सुकुमारिका को आर्तध्यान करती हुई देखा तब देखकर उसने उससे ऐसा कहा-देवानुप्रिये । क्या कारण है जो अपहतमनः संकल्प होकर तुम आतंभ्यान कर रहीं हो-तब सुकुमा. रिका दारिका ने उस दासचेटी से इस प्रकार कहा-वह दमक पुरुष मुझे यहां सुख प्रसुप्त जान छोड़कर चला गया है । जब मैं थोड़ी देरबाद उठी तो मैंने उसे अपने पास नहीं देखा, वासभवन का द्वार खुला हुआ वित्ता, एवं क्यासी जाव सागरदत्तस्स एयमह निवेदेई) सुमारानी माता ભદ્રાએ બીજા દિવસે જ્યારે સવાર થઈ ગયું અને સૂર્ય ઉદય પામ્યો ત્યારે તેણે દાસીને બોલાવી અને બેલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું–અહીં યાવત્ શબ્દથી પહેલાંના સૂત્રની જેમ જ વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. જેમકે ભદ્રાએ તેને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વધુ અને વરના સુખ પ્રશાસન માટે દાતણ વગેરે લઈ જા. જ્યારે ભદ્રાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે તે દાસી વાસગૃહમાં ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે સુકુમારિકા દારિકાને આર્તધ્યાન કરતી જોઈ. ત્યારે આ પ્રમાણે તેની હાલત જોઈને તેણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અપહતમનઃ સંકલ્પ થઈને આર્તધ્યાન કરી રહ્યાં છે. ત્યારે સુકુમાર દારિકાએ તે દાસીને આ પ્રમાણે કહ્યું–કે તે દરિદ્ર માણસ મને અહીં સુખેથી સૂતેલી છેડીને જતા રહ્યા છે. જ્યારે થોડા વખત પછી હું જાગી ત્યારે મેં તેને મારી પાસે જે નહિ અને મેં વાસગૃહના બારણને પણ ખુલે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे २३० ततः सा दासचेटी सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य समीपमागत्यैतमर्थं निवेदयतीति योजना बोध्या । ततः खलु स सागरदत्तस्तथैव ' संभंते ' संभ्रान्तः = उद्विग्नः सन् यत्रैव वासगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुकुमारिकां दारिकामङ्के निवेशयति, निवेश्य एवमवादीत् - अहो ! इत्याश्चर्ये खलु हे पुत्र ! त्वं ' पुरा' पुरा = पूर्वभवेषु ' पोराणाणं ' पुराणानाम् = अतीतकालकृतानां यावत् = अत्र यावच्छब्देनेदं बोध्यम् -' दुचिष्णाणं दुप्परकंताणं कड़ाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति , देखा तब मैं समझ गई कि वह यहां से चला गया है । इस प्रकार मैं चिन्ता में पड़ रही हूँ । सुकुमारिका की इस बात को सुनकर दासचेटी ने उसी समय वहां से वापिस आकर सागरदत्त को इस बात की खबर दी -" इस प्रकार यह पूर्वोक्त पाठ यहां लगा लेना चाहिये - (तएणं से सागरदन्ते तव संभते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी, अहोणं तुमं पुत्ता पुरा पोराणाणं जाब पच्चणुभवमाणी विहरसि तं माणं तुमं पुत्ता ओहमण जाव झियाहि-तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं४ जहा पुट्टिला जाव परिभाएमाणो विहराहि) इसके बाद वह सागरदत्त पहिले जैसा उद्विग्न चित्त होकर जहां वासगृह था वहां गया। वहाँ जा कर उसने सुकुमारिका दारिका को अपनी गोद में बैठा लिया और बैठाकर कहने लगा- हे पुत्र ! तुमने पहिले भवों में जो दुवीर्ण दुष्पराक्रान्त, (कठिनताई से भोगने योग्य एवं कृत ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्म उपार्जित એયું ત્યારે મને ચાક્કસપણે ખાત્રી થઈ ગઈ કે તે અહીંથી ચાલ્યા ગયા છે. આ રીતે હું ચિંતામાં પડી છું. સુકુમારિકાની આ વાત સાંભળીને દાસીએ તરત જ સાગરદત્તને ખબર આપી. આ રીતે અહીં પહેલાના પાઠ જાણી લેવા જોઈએ. तरण से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे, जेणेव वासहरे तेणेव उबागच्छ, उबागच्छित्ता मालियं दारियं अंके निवे सेइ, निवेसित्ता एवं वयासी अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरा पोराणाणं जाव पञ्चणुभवमाणी विहरसिं तं माणं तुम पुत्ता ओहयमण जाव शियाहि-तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं ४ जहा पुट्टिला जात्र परिभाएमाणी विहराहि ) ત્યારપછી સાગરદત્ત પહેલાંની જેમ વ્યાકુળ ચિત્તવાળા થઈને જ્યાં વાસગૃહ હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે સુકુમારિકા દારિકાને પેાતાના ખેાળામાં બેસાડી લીધી અને બેસાડીને કહેવા લાગ્યા કે હે પુત્રિ ! તે પહેલા ભવમાં જે કંઈ દુશ્રી, દૃષ્ણકાંત અને કૃતજ્ઞાનાવરણીય વગેરે અશુભ કર્મો ઉપા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २३१ विसेस ' इति-दुचीर्णानां-दुश्चरितानां वाङ्मनोजनित मृषावादादिकर्मणामित्यर्थः, कि भूतानां तेषां? दुष्पराक्रान्तानां-कायिकानां प्राणिहिंसाऽदत्तादानादीना, कृतानां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन बद्धानां पापानां-अशुभानां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां पापकम्-अशुभं, फलवृत्तिविशेषम् , प्रत्यनुभवन्ती-वेदयन्ती विहरसिवर्तसे तत्-तस्माद् मा खलु त्वं हे पुत्रि ! अपहतमनःसंकल्पा यावद् ध्याय% आर्तध्यानं मा कुरु इत्यर्थः, त्वं खलु हे पुत्रि ! मम 'महाणसंसि' महानसेपाकशालायां विपुलमशनं पानं खाद्य स्वाद्य यथा पोट्टिला यावत् परिभाजयन्ती श्रमणादिभ्यः प्रविभागं कुर्वती — विहराहि ' विहरतिष्ठ । ततः खलु सा सुकुकिये-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंधके भेदसे बांधे हैं-उन्हीं पुराने अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के तुम अशुभ फल विशेष को इस समय भोग रही हो । पूर्व भवों में जो पाप किये हैं वेही यहां" "पुराण" शब्द से गृहीत हुए हैं। पाप शब्द यहां अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बोधक है। ये अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव अशुभ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से जन्य मृषावाद आदि क्रियाओं से, तथा प्राणिहिंसा, अदत्तादान आदि कुकृत्यों से बांधता है। बांधते समय इनमें प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश बंधरूप विभाग हो जाता है। अधिक स्थिति और अधिक अनुभाग बंध इनमें संक्लेश परिणामों से पडता है। इसलिये हे पुत्रि। तुम अपहतमनः संकल्प होकर यावत् आर्तध्यान मत करो। तुम तो मेरी भोजन शाला में चतुर्विध आहार तैयार करा कर पोटिला की तरह श्रमण आदि જિત કર્યા હતાં–પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ બંધના ભેદથી બાંધ્યા છે. અત્યારે તું તેજ પહેલાંના અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને અશુભ ફળ વિશેષને ભોગવી રહી છે. પૂર્વ ભવમાં જે પાપ કરવામાં આવ્યાં હોય તેને અહીં “ પુરાણ ” શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. અહીં પાપ શબ્દ અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને સ્પષ્ટ કરે છે આ બધા અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મો જીવ અશુભ-મન, વચન, અને કાયની પ્રવૃત્તિથી જન્ય મૃષાવાદ વગેરે ક્રિયાઓથી તેમજ પ્રાણીઓની હિંસા, અદત્તાદાન વગેરે કુકર્મોથી બાંધે છે. બાંધતી વખતે એએમાં પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ બંધરૂપ વિભાગ થઈ જાય છે. અધિક સ્થિતિ અને અધિક અનુભાગ બંધ તેઓમાં સંકલેશ પરિશામેથી પડે છે. એથી હે પુત્રિ! તમે અપહતઃ મને સંપ થઈને ભાવતુ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे मारिका दारिका एतमर्थ प्रतिशृणोति स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य महानसे विपुलमशनपानखाद्य खाद्य यावद् ' दलमाणी ' ददती विहरति = आस्ते स्म ।। सू०१२ ॥ मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अजाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिणाए सुव्वयाओ तहेव समोस डाओ तव संघाडओ जाव अणुपविट्ठे तहेव जाव सूमालिया पडिला भित्ता एवं वयासी एवं खलु अजाओ ! अहं सागरस्स अणिट्ठा जाव अमणामा नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोगं वा, जस्स २ वि य णं दिजामि तस्स २ वि य णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुभे य णं अजाओ ! बहुनायाओ एवं जहा पुट्टिला जाव उवलद्धे जे णं अहं सागरस्स दारियाए इट्टा कंता जाव भवेजामि, अजाओ तहेव भणति तहेव साविया जाया चिंता तहेच सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छ जाव गोवालियाणं अंतिए पव्वइया, तरणं सा सूमाजनों के लिये वितरण करती रहो (तएणं सा सूमालिया दारिया एयम पडणे पडिणित्ता महाणसंसि विपुलं असण जाव दलमाणी विहरइ ) इस तरह पिता सागरदत्त के समझाने पर उस सुकुमारिका दारिका ने अपने पिता के इस कथन को स्वीकार कर के वह महानस भोजन शाला में निष्पन्न चतुर्विध आहार को श्रमणादि जनों के लिये वितरण भी करने लगी | सूत्र १२ ॥ આધ્યાન કરીશ નહિ. તુ' મારી ભાજન શાળામાં ચાર જાતના આહાર તૈયાર કરાવડાવીને પાટ્ટિલાની જેમ શ્રમણુ વગેરે જનાને આપતી રહે. ( तणं सा मुमालिया दारिया एयमहं पडिसुणे, पडिणित्ता महाणसं सि विपुलं असण जाव दलमाणी विहरइ ) આ રીતે પિતા સાગરદત્ત વડે સમજાવવામાં આવેલી તે સુકુમાક हारि કાએ પોતાના પિતાના કથનને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને તે ભેજનશાળામાં તૈયાર થયેલા ચાર જાતના આહારાતે શ્રમણુ વગેરેને આપવા લાગી. ।। સૂ. ૧૨ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २३३ लिया अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी बहूहिं चउत्थछटुम जाव विहरइ, तरणं सा सूमालिया अजा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं अज्जाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठ्ठछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणा विहरित्तए, तणं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं एवं वयासीअम्हे णं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पइ बहिया गामस्स जाव सण्णिवेसस्स वा छहं२ जाव विहरित्तए, कप्पइ णं अम्हं अंतो उवस्सस्स विइपरिक्खित्तस्स संघाडि बद्धियाए णं समतल पइयाए आयावित्तए, तपणं सा सूमालिया गोवालियाए एयमहं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ एयम अ०३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छटुं छट्टेणं जाव विहरइ ॥ सू०१३॥ टीका- ' तेणं कालेणं ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' गोवालियाओ अज्जाओ ' गोपालिका = गोपालिकानाम्न्यः आर्या:= साध्यः, ' बहुस्सुयाओ ' बहुश्रुताः = श्रुतपारगामिन्यः एवम् = अनेन प्रकारेण यथैव ' तेतलिणाए ' तेतलिज्ञाते = चतुर्दशे तेतलिपुत्राध्ययने वर्णिताः 'सुब्वयाश्रो ' सुव्रताः = सुव्रता 1 , ' तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि ॥ टीकार्थ- (तेणं कालेणं- तेणं समएणं) उस काल और उस समय में ( गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेब तेलिणाए सुब्वयाओ ' तेण कालेन तेणं समएण ' इत्यादि टीअर्थ - ( तेण कालेन तेण समएण ) ते अजे रमते ते सभये ( गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्याओ एवं जहेच तेयलिणाए सुब्बयाओ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे नाम्न्यः साध्व्यः, 'तहेब समोसड़ाओ' तथैव समवस्ताः सुव्रतावद् गोपालिकाः समागताः । ' तहेव संघाडओ जांच अणुप्पवितु' तथैव संघाटको यावद् अनुमविष्टः गोपालिकानामार्याणामेकः संघाटकः यावत्-सुकुमारिकाया गृहेऽनुपविष्टः । तथैव यावत् सुकुमारिका ता आर्याः अशनादिना प्रतिलम्भ्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-हे आर्याः ! एवं खलु अहं सागरस्य दारकस्यानिष्टा याव= अकान्ता अप्रिया अमनोज्ञा अमनोमा मनः प्रतिकूलाऽस्मि, नेच्छति खलु सागरको मम नाम वा गोत्र वा श्रोतुम् , किं पुनर्यावत् मया सह परिभोगं वा, यत्र मम नामाऽपि श्रोतुं नेच्छति तत्र का वार्ता परिभोगस्य, अहं तु तेन सर्वथा परि, त्यक्तेति भावः । अपि च यस्मै यस्मै खलु 'दिज्जामि' दीये-स्वपित्रा प्रदत्ता भवामि, तस्य तस्यापि च खलु अनिष्टा यावद् अमनोमा मनः प्रतिकूला भवामि, हे आर्याः ! यूयं च खलु — बहुनायाओ' बहुज्ञाताः ज्ञानातिशययुक्ताः, ‘एवं तहेव समोसड्डाओ तहेव संघाडओ जाव अणुपविढे तहेव जाव समालिया पडिलभित्ता एवं वयासी) गोपालिका नामकी आर्यिका जो श्रुत पारगामिनी थीं इस प्रकार से कि जिस प्रकार से तेतलि प्रधान नामक चौदहवें अध्ययन में सुब्रता साध्वी वर्णित हुई है-थीं-वे उसी तरह से वहां आई। इनका एक संगाडा था, यावत् सुकुमारिका के घर में गोचरी के लिये प्रवेश किया। सुकुमारिका ने बड़ी भक्ति के साथ उन्हें आहार पानी दिया-और देकर वह फिर इस प्रकार से उनसे कहने लगी-(एवंखलु अज्जाओ! अहं सागरस्स अणिट्ठा, जाच अम णामा, नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोगं वा जस्स २ वि यणं दिजामि तस्स-तस्स वि य णं अणिवा, जाव अमणामा भवामि तुम्भे य णं अजाओ! बहुनायाओ, एवं जहा पुटिला जाव उवलद्धे तहेव समोसड्राओ तहेव संघाडओ जाव अणुपपिढे तहेव जाव मूमालिया पडि लभित्ता एवं वयासी) ગોપાલિકા નામે આર્થિક કે જે શ્રત પારગામિની હતી. તેતલીબધાન નામના ચૌદમા અધ્યયનની સુવ્રતા સાધ્વી જેવી હતી તેવી જ તે પણ હતી. સુવ્રતા સાધ્વીની જેમ જ તે વાવત્ સુકુમારિકાના ઘેર તે ગેચરી માટે ગઈ. સુકુમારિકાએ ખૂબ જ ભક્તિ-ભાવથી તેમને આહારપાણ આપ્યું અને આપીને તે તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગી (एवं खलु अज्जाओ अहं सागरस्स अणिट्ठा, जाव अमणामा नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोगं वा जस्स २ वि यणं दिज्जामि तस्स तस्स विपण अणिहा, जाव अमणामा भवामि तुम्भे यणं अज्जाओ! बहुनापाओ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २३५ यथा पोटिला यावद् उपलब्धम् ' अयमर्थः-यथा तेतलिपुत्रभोर्या पोट्टिला स्वभर्तृवशीकरणोपायपदर्शनार्थ सुव्रतां साध्वी पृच्छतिस्म, तथा-सुकुमारिका दारिका गोपालिका संघाटकं पृष्ठवती, तादृशं चर्णयोगादिकमुपलब्धं-ज्ञातं किम् ? येनाहं सागरस्य दारकस्येष्टा कान्ता यावद् भवेयं आर्यास्तथैव भणन्ति यथा पोट्टिलि. जे णं अहं सागरस्स दारगस्स इट्टा कता जाव भवेजामि, अज्जाओ तहेव भणति. तहेव साविया जाया, तहेव चिंता, तहेव सागरदत्त सत्थवाह आपुच्छइ जाव गोवालियाणं अंतिए पवइया ) हे आर्याओं। मैं अपने पति सागर दारक के अनिष्ट बनी हूं यावत् अकान्त अप्रिघ अमनोज्ञ एवं अमनोम मनः प्रतिकूल बनी हुई हूँ। वे मेरा नाम गोत्र कुछ भी सुनना नहीं चाहते हैं। तो फिर उनके साथ परिभोग करने की तो बात ही क्या है। मुझे तो उन्होंने सर्वथा ही छोड दी है। अपिच-मेरे पिता मुझे जिस २ व्यक्ति के लिये देते हैं-मैं उस २ व्यक्ति के लिये भी अनिष्ट आदि बन जाती हूँ। हे आर्याओ! आप तो बहुश्रुत हैं अनेक शास्त्रों की ज्ञाता है-ज्ञान के अतिशय से संपन्न हैं। इस प्रकार उस सुकुमारिका ने पोट्टिला की तरह अपने पति को वश में करने के विषय में उनसे उपाय पूछा पोटिलाने अपने पति तेतलिपुत्र को वशमें करने को पहिले जैसे सुव्रता साध्वी के संघाटेसे उपाय पूछा था-और कहा आपको यदि कोई ऐसा चूर्ण आदि का प्रयोग उपलब्ध एवं जहा पुहिला जाव उवलढे जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता जाव भवेज्जामि, अज्जाओ तहे। भगति, तहेव साविया जाया, तहेव चिंता, तहेव सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छइ जाव गोवालियाणं अंतिए पव्वइया) હે આર્યાએ ! મારા પતિ સાગરદારક માટે હું અનિષ્ટ થઈ ગયેલી છું યાવત્ અકાંત, અપ્રિય, અમનોજ્ઞ અને અમનેમ થઈ ચૂકી છું. તેઓ મારા નામ ગેત્ર કંઈ પણ સાંભળવા ઈચ્છતા નથી ત્યારે તેમની સાથે પરિભોગ કરવાની તો વાત જ શી કરવી. તેઓએ મને એકદમ જ જે છોડી દીધી છે. અને મારા પિતાએ મને જે જે માણસને આપે છે તે બધા માટે પણ હું અનિષ્ટ વગેરે થઈ જાઉં છું. હે આર્યાએ ! તમે તે બહથત છે, ઘણું શાસ્ત્રોને જાણે છે, જ્ઞાન સંપન્ન છે. આ રીતે પિફ્રિલાની જેમ જ સુકુમારિકા દારિકાએ પણ પ્રતિને વશમાં કરવા માટેના ઉપાયની પૂછપરછ કરી. પિફ્રિલાએ પિતાના પતિ તેતલિપુત્રને વશમાં કરવા માટે પહેલા સુવ્રતા સાવીના સંઘા. ટાથી જેમ ઉપાયે પૂછયા હતા તેમજ તેણે પણ તેમને કહ્યું કે-જે એ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे कया पृष्टा सुत्रतायाः संघाटकस्थिताः साव्यस्तामवोचत्, तथैव गोपालिका संघाटस्थाः आर्या भणन्ति वदन्ति स्मेत्यर्थः । ' तहेव साविया जाया ' तथैव श्राविका जाता = पोहिला वत् सुकुमारिका दारिकाऽपि श्राविका जाता । तथैव चिन्ता - पोट्टिलावदेव पश्चात् प्रवज्यां ग्रहीतुं चिन्ता सुकुमारिकाया मनसि प्रादुभूता । सुकुमारिका सागरदत्तं सार्थवाहं - स्वपितरं तथैव यथा स्वपति पोहिला, तद् आपृच्छति यावद् गोपालिकानामन्तिके प्रत्रजिता-दीक्षां गृहीतवती । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या-साध्वी जाता सा किं भूता- ईयसमिता यावद् गुप्त हो तो भी बता दीजिये कि जिससे मैं अपने पति सागरदारक को इष्ट, कान्त यावत् मनोम बनजाऊँ । गोपालि का के संधाडे की इन आर्याओं ने सुकुमारिका को पोहिला को सुत्रता साध्वी की तरह समझाया - वह उसी तरहसे श्राविका बन गई । पोहिला की तरह इस सुकुमारिका ने भी बाद में दीक्षा लेने का मन में विचार किया-1 पोट्टिलाने जिस तरह अपने पति से आज्ञा लेकर दीक्षा धारण की थी - उसी प्रकार इस सुकुमारिका ने भी अपने पिता सागरदन्त से पूछकर गोपालिका आर्या के समीप दीक्षा धारण कर ली। (तएणं सा सूमालिया अज्जा जाया ईरिया समिया जाव गुत्तरं भयारिणी बहहिं चत्थ छटुडुम जाव विहरह, तरणं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाई जेणेव गोवालिया अजाओ तेणेव उवागच्छइ ) इस तरह वह सुकुमारिका आर्या बन गई। वह ईर्यासमिति आदि का पालन करने लगी કાઈ ચૂણુ વગેરેના પ્રયાગ મળી શકે તે પણ મને બતાવી દો કે જેથી હું મારા પતિ સાગરદારકના માટે ફ્રી ઇષ્ટ, કાંત, યાવતુ મનેામ થઈ જાઉ. ગેાપાલિકા સંઘાડાની તે આર્યોએએ-સુવ્રતા-સાધ્વીએ જેમ પાટ્ટિયાને સમજાવી તેમજ સમજાવી અને છેવટે તે શ્રાવિકા ખની ગઇ. પેટ્ટિલાની જેમજ તે સુકુમારિકાએ પણ ત્યારપછી દીક્ષા લેવાના મનમાં મક્કમ વિચાર કરી લીધા. પાટ્ટિલાએ જેમ પેાતાના પતિની આજ્ઞા લઇને દીક્ષા ધારણ કરી હતી તેમજ સુકુમારિકાએ પણ પોતાના પતિ સાગરદત્તને પૂછીને ગેાપાલિકા આર્યાની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી, (तरणं सा सूमालिया अज्जा जाया इरिया जाव गुत्तभयारिणी बहूहिं चत्थ छट्ठम जाव विहरह, तरणं सा स्मालिया अज्जा अन्नया कयाई जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छर ) આ રીતે સુકુમારિકા માર્યો થઈ ગઇ, તે ઇર્યો સમિતિ વગેરેનું પાલન કુરવા લાગી. અને નવકાટીથી બ્રહ્મચ મહાવ્રતની રક્ષા કરવા લાગી. ઘણા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २३७ ब्रह्मवारिणी सा बहुभिश्चतुर्थषष्ठाष्टमभक्तैर्यावत्-तपः कर्मभिरात्मानं भावयन्ती विहरति=आस्तेस्म । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या अन्यदा कदाचिद् यत्रैव गोपालिका आर्यास्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् = हे आर्याः । इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती चम्पानगर्या वहिः सुभूमिभागस्योद्यानस्यादूरसामन्ते = नातिदूरे नातिनिकटे षष्ठपष्ठेन - षष्ठभक्तानन्तरं पुनः षष्ठभक्तेन ' अणिक्खित्तेणं ' अनिक्षिप्तेन = अविश्रान्तेन - अन्तररहितेन, तपःकर्मणा ' सूराभिमुही ' सूर्याभिमुखी ' आयावेमाणी' आतापयन्ती - आतापनां कुर्वती विहर्तुम् ' इति । ततस्तदनन्तरं ता गोपालिका आर्याः सुकुमानिकामार्यामेवमवादिषुः- हे आयें ! वयं खलु श्रमण्यो और नौ कोटी ब्रह्मचर्य से महाव्रत की रक्षा करने लगी। अनेक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, भक्त आदि तपस्याओं से अपने आपको भाषित भी करने लगी । एक दिन की बात है कि वह सुकुमारिका आर्या साध्वी - जहां गोपालिका आर्या विराज मान थी वहां गई - ( उवागच्छिता वंद, नस, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी, इच्छामि णं अजाओ ! तुमेहिं अम्भणुन्नाया समाणी चंपाओ चाहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूर सामंते छहं छणं अणिक्खिन्ते णं तवोकम्मे णं सुरा भिमुही आयावेमाणी विरित्तए) वहां जाकर उसने उन्हें वंदना की, नमस्कार किया ! वंदना एवं नमस्कार कर फिर वह इसप्रकार कहने लगी- हे भड़ंत ! मैं आप से आज्ञा प्राप्त कर चंपा नगरी से बाहिर सुभूमिभाग नाम के उद्यान के समीप अंतररहित छह छह की तपस्या से सूर्याभिमुखी होकर आतापना करना चाहती हूँ । (तएणं ताओ गोवालियाओ अजाओ सूमालियं एवं वयासी- अम्हेणं यतुर्थ, षष्ठ, अष्टभ ભક્ત વગેરે તપસ્યાએથી પેાતાને ભાવિત પણ કરવા લાગી, એક દિવસની વાત છે કે તે સુકુમારિકા આર્યા સાધ્વી જયાં ગેાપાલિકા खार्या विरानमान हती त्यां गई. ( उत्रगच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नर्मसित्ता एवं क्यासी, इच्छामि णं अज्जाओ ! तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणरस अदूरसामंते छट्ठ छट्टेणं अणिक्खित्तेणं तबो कम्मे सूराभिमुही आयावेमाणि विहरित्तए) त्या लहाने तेथे तेमने वहना उरी નમસ્કાર કર્યો. વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે ભદત ! આપની આજ્ઞા મેળવીને હું ચંપા નગરીમાં બહાર સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાંસે અંતર રહિત છઠ્ઠ છઠ્ઠની તપસ્યા કરતાં સૂર્યાભિમુખી થઈને आतापना वा ६ ( तपणं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालिये શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे निर्ग्रन्थ्यः ईर्यासमिता ईर्यासमितियुक्ताः, यावद्-गुप्तब्रह्मवारिण्यः स्मः, तस्माद् नो खलु अस्माकं कल्पते-' बहिया' बहिः-ग्रामाद् यावद् संनिवेशाद् षष्ठ षष्ठेन ' जाव विहरित्तए ' यावद् विहर्तुम् ग्रामादे बहिः प्रदेशे साध्वीनां स्थितिः शीलभङ्गादिकारणं भवतीति भावः । किंतु कल्पते खलु अस्माकम् 'अंतो' अन्तः अभ्यन्तरे ' उक्स्सयस्स' उपाश्रयस्य-वसतेः, किम्भूतस्य 'वितिपरिक्खित्तम्स' वृति परिक्षितस्य=भित्त्यादिना सर्वतः समातस्य, 'संघाडिबद्धियाए' संवाटिका प्रतिबद्धाया: प्रतिबद्धशाटिकायाः सर्वधाऽनुद्वाटितगात्राया इत्यर्थः 'समतलपइयाए ' समतलपदिकाया भूमौ समतलतया स्थापितचरणयुगलाया आयावित्तए ' आतापयितुम् आतापनां कत्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः। ततः अज्जे ! समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीभो,नो खलु अम्हें कप्पइ बहियागामस्स जाव सणिवेसस्स वा छटुं० जाव विहरित्तए ) इस प्रकार सुकुमारिका साध्वी का कथन सुनकर गोपालिका आर्या ने उस सुकुमारि का आर्या से इस प्रकार कहा हे आर्ये । हम लोग निर्ग्रन्थ श्रमणिया हैं । ईर्या आदि समितियों का पालन करती हैं। और नौ कोटि से ब्रह्मचर्य की रक्षा करती हैं। इस लिये हम लोगों को ग्राम से यावत् सन्निवेश से बाहिर रह कर षष्ठ षष्ठ को तपस्या करना यावत् सूर्याभिमुखी होकर आतापन योग धारण करना कल्पित नहीं है । कारण-ग्रामादि के बाहिरी प्रदेश में साध्वियों का रहना शीलभंग आदि का निमित्त बन जाता है। (कप्पइ णं अम्ह. अंतो उबस्सयस्स विइपरिक्खित्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतल पइयाए आयावित्तए ) हमें तो यही कल्पित है कि हम लोग उपाश्रय के एवं क्यासी-अम्हेणं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओईरिया सामियाओं जाव गुत्त बंभवारिणोओ, नो खलु अम्ह कप्पइ बहिया गामरस जाव सणि वेसस वा छ,० जाव विहरित्तए ) माशते सुभारित सवीतुं ४थन समितीने गोपानि આર્યાએ સુકુમારિકા આર્યાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ ! આપણે નિર્ચ થે કામણીએ છીએ. ઈર્યા વગેરે સમિતિઓનું પાલન કરીએ છીએ, અને નવકેટિથી બ્રહ્મચર્યનું રક્ષણ કરીએ છીએ. એથી આપણે ગામથી યાવત્ સન્નિવેશથી બહાર રહીને ષષ ષષની તપસ્યા કરવી યાવત્ સૂર્યાભિમુખી થઈને આતપન ગ ધારણ કર કલ્પિત નથી. કારણ કે-ગામ વગેરેથી બહારના પ્રદે शम सापामाथे २९ शीम विजेरेनु निमित्त 45 लय छे. (कप्पडणं अम्हे अंतो उवस्सयस विइपरिक्खित्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आया वित्तए) मापधुनता से लियत है आपका लींत पोथी यामेर श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २३९ खलु सा सुकुमारिका गोपालिकानामार्याणामेतमर्थ नो श्रद्दधाति 'नो पत्तिय नो प्रत्येति = नो विश्वसिति, 'नो रोएइ ' नो रोचते, एतमर्थम् अधाना अप्रतियन्ती, अरोचमाना सति सुमृमिभागग्य उद्यानस्य अदृरसामन्ते षष्ठ- पष्ठेन यावत् - तपः कर्मणा सूर्याभिमुखी भूत्वा - आतापनां कुर्वती विहरति ॥ सु० १३ ॥ मूलम् - तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्टी परिवसइ, नरवइ दिण्णवियारा अम्मापिइनिययनिष्पिवासा वेसबिहा रकयनिकेया नाणाविहअविनयप्पहाणा अड्डा जाव अपरिभूया, तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणाए, तरणं तीसे ललियाए गोर्खाए अन्नया पंच गोट्टिलग पुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स कि जो भित्ति आदि से सब तरफ से परिक्षिप्त है भीतर ही अपने शरीर को शाटिका से अच्छी तरह संवृत्त करती हुई और भूमि पर दोनों चरणों को बराबर स्थापित कर आतापना लें (तपणं सा समालिया गोवालियाए एयमह नो सद्दह, नो पतियह नो गेएड एमई अ० ३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामने छट्ठ छट्टेणं जाव faers ) इस गोपालिका आर्याके कथन ऊपर उस सुकुमारिका आर्या को श्रद्धा नहीं जमी उस पर उसे विश्वास नहीं आया. वह उसे रुचा नहीं । इस तरह वह उसे अश्रद्धा अप्रतीति और अरुचि का विषय बनाती हुई सुभूमिभाग नामक उद्यान के पास पष्ट पष्ट की तपस्या करती हुई वह सूर्याभिमुख होकर आतापना करने लगी | सू० १३ ॥ પરિક્ષિપ્ત ઉપશ્રયની અંદર જ પેાતાના શરીરને શાટિકા-સાડીથી સારી રીતે ઢાંકીને અને ભૂમિ ઉપર બંને ચરણાને બરાબર સ્થાપિત કરીને આતાપના समे (तएण सासूमालिया गोवालियाए एयमट्ठ नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एयमट्ठ अ० ३ सुभूमिभागास उज्जाणस्स अदूरसामंते छट्टु छट्टणं जाब विहरइ ) गोपानि । आर्याना उथन उपर सुकुमार भार्याने श्रद्धा थर्म नहि, તેના ઉપર તેને વિશ્વાસ થયેા નહિ. તે તેને ગમ્યું પણ નહિ આ રીતે તે તે કથન પ્રત્યે અશ્રદ્ધા, અપ્રતીતિ અને અરુચિ ધરાવતી સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે ષષ્ટ ષષ્ટની તપસ્યા કરતી સૂર્યાભિમુખી થઈને આતાપના ५२वा बागी | सूत्र १३ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ज्ञाताधर्मकथासूत्र उज्जाणस्स उजाणसिरिं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति, तत्थ णं एगे गोहिलगपुरिसं देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरइ एगे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ एगे पुप्फपरयं रएइ एगे पाए रएइ एगे चामरुक्खेवंकरेइ तएणं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोहिल्लपुरिसेहिं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणी पासइ तएणं तीसे इमेयाख्वे संकप्पे समुप्पज्जित्था-अहोणंइमाइत्थिया पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव विहरइ, तं जइ णं केइ इमस्स सुचरियस्स तवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाइं उरालाइं जाव विहरिज्जामि तिकट्ठ नियाणं करेइ करित्ता आयावणभूमिओ पच्चोरुहइ ॥सू० १४॥ टीका-' तत्थ णं चंपाए ' इत्यादि । तत्र खलु चम्पायां नगर्या ललिता नाम्नी 'गोट्ठी' गोष्ठी-मण्डली परिवसति किं भूता सा गोष्ठीत्याह-'नरवइदिग्णवियारा' नरपतिदत्तविचारा नरपतिना दत्तो विचारः संमतिर्यस्यै सा तथा-सेवादिना सन्तुष्टान्नरपतेर्लब्धस्वतन्त्रता, तथा – ' अम्मापिइनिययनिप्पिवासा' अम्बापितृनिनकनिःपिपासा-मा तापित्रादि निरपेक्षा, 'वेसविहारकय निकेया' 'तत्य णं चंपाए ललिया नाम ' इत्यादि । टीकार्थ-( तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोही परिवमइ ) उस चंपानगरीमें 'ललिता' इस नामकी गोष्टी-मंडली-रहती थी । ( नरवइ दिण्णवियारा, अम्मापिइ नियय निप्पिवासा वेसविहारकयनिकेया, ' तस्यणं चंपाए ललिया नाम' इत्यादि A1-( तत्थणं चंपाए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ) ते । नगरीमा 'लता' नामे गाठी भजी २हेती ती. ( नरवइ, दिण्णवियारा अम्मापिइ निययनिप्पित्रासा, वेसविहारकनिकेया, नाणाविहअविणयप्पहाणा, अड्दा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २४१ वेश्याविहारकृतनिकेता - वेश्यागृहकृतनिवासा, तथा-' नाणाविहअविणयप्पहाणा' नानाविधाऽविनयप्रधाना, तथा-आढया धनधान्यसम्पना, यावद् अपरिभूता=परैरनभिभूता, आसीत् । तत्र खलु चम्पायां नगयों देवदत्ता नाम 'गणिया' गणिका वेश्या, आसीत् , सा किम्भूतेत्याह-सुकुमारपाणिपादा चतुष्पष्टिकलाविशारदा 'जहा अंडणाए' यथा अण्डज्ञाते-अण्डनामके तृतीये ज्ञाताध्ययने यथाऽस्यावर्णनं तद्वदिह बोध्यम् । ततः खलु तस्या ललिताया गोष्टया अन्यदा अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये, पञ्च ' गोहिल्लगपुरिसा' गोष्ठिकपुरुषा-मण्डलीपुरुषाः समानवयस्का इत्यर्थः देवदत्तयागणिकया साधै सुभूमिभागस्योद्यानस्योद्यानश्रियंउद्यानशोभा प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति । तत्र खलु एको गोष्ठिकपुरुषो देवदत्तां नाणाविह अविणयप्पहाणा, अडा जाव अपरिभूया) इसने अपनी सेवासे राजाको प्रसन्न कर रखा था-सो उसकी कृपा से यह बिलकुल स्वच्छंद थे। अपने माता पिता आदि कुटुम्बी जनों की यह परवाह नहीं किया करते थे-उनको इन पुरुषों से बिलकुल भय नहीं था। वेश्याओं के घर में पड़े रहना-यही इनका एक काम था। अनेक प्रकार के अविनय प्रधान रूप अनावारों का सेवन करना यही उनका काम था। पैसे की-द्रव्यको उनके पास कमी नहीं थी। कोई इनको कुछ कह सुन नहीं सकता था। (तत्थ गं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था, सुकुमाला, जहा अंडणाए, तएणं तीसे ललियाए गोट्ठीए अन्नया पंच 'गोहिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमाणा विहरंति ) उसी चंपा नगरी में जाव अपरिभूया ) ते भजी पोतानी सेवाथी ने प्रसन्न ४२ हतो. તેમની કૃપાથી તે મંડળી એકદમ સ્વચ્છંદપણું આચરતી હતી. પિતાના માતા પિતા વગેરે કુટુંબી લેકેની પણ તેઓ દરકાર કરતા ન હતા તેઓને આ વડીલેની કઈપણ જાતની બીક હતી નહિ, વેશ્યાઓના ઘેર પડયા રહેવું ફક્ત એજ એમનું એક માત્ર કામ હતું. અનેક પ્રકારના અવિનયપૂર્ણ આચરણ કરવાં એજ તેઓના જીવનનું મુખ્ય કામ હતું. ધનની તેઓની પાસે ખોટ હતી નહિ. કેઈપણ નાગરિકની એટલી પણ તાકાત નહોતી કે તેઓ તેમને કંઈપણ કહે! ( तत्थ ण चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था, सुकुमाला, जहा अंडणाए, तएण तीसे ललियाए गोट्टीए अन्नया पंच गोहिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सदि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उजाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरति) ते ५॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे गणिकामुत्सङ्गे धरति एकः 'पिओ' पृष्ठतः ' आयवत्तं ' आतपत्रं छत्र धरति, एक: पुप्फपूरयें' पुष्पपूरकं पुष्पाणां रचनाविशेषं 'ए' रचयति, एकः पादौ - अलक्तकादिना रञ्जयति । एकः 'चामस्वखेवं ' चामरोत्क्षेप = चामरवीजनं करोति । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या देवदत्तां गणिकां ते पञ्चभिर्गोष्ठिकदेवदत्ता नाम की एक गणिका रहती थी । यह चौसठ कलाओं में निष्णात थी । इसके हाथ पैर आदि सब ही अवयव बहुत ही अधिक सुकुमार थे । मयूर अंड नाम के तृतीय ज्ञाताध्ययन में इसका जैसा वर्णन किया गया है- वैसा ही वर्णन इसका यहां जानना चाहिये । एक समय की बात है कि गोष्ठी के ५, पुरुष कि जो समान वयसवाले थे देवदता गणिका के साथ उस सुभूमिभाग उद्यान में आये और वहां की उद्यान की शोभा का निरीक्षण करते हुए इधर-उधर घूमने लगे - ( तस्थ णं एगे गोहिल्लग पुरिसे देवदन्तं गणियं उच्छगे धरइ, एगे पिओ आयवन्तं धरेह, एगे पुष्फपूरयं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरुवखेवं करेइ, तरणं सा सूमालिया अज्जा देवदत्त गणियं तेहिं पंचहि गोहिल्लपुरि सेहिं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणी पासह) वहां एक उस मंडली के पुरुष ने देवदत्ता गणिका को अपनी गोदी में बैठाया, एक दूसरे मंडली के पुरुष ने उसके पीछे से उसके ऊपर छत्तों ताना, एक तीसरे पुरुषने उसके निमित्त पुष्पों की रचना रचीं, चौथे पुरुष ने उसके दोनों पैरों में माहुर लगाया पांचवें ने २४३ નગરીમાં દેવદત્તા નામે એ ગણિકા રહેતી હતી. તે ૬૪ કળાએમાં નિપુણ હતી, તેના હાથ-પગ વગેરે બધાં અંગે અતીવ સુકેામળ હતાં. મયૂરી અડ નામના ત્રીજા અધ્યયનમાં દેવદત્તાનું જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ વન અહીં પણ જાણી લેવું જોઇએ. એક દિવસની વાત છે કે ગોષ્ઠી-મંડળીના પાંચ માણસે કે જેઓ સરખી ઉમરવાળા હતા—દેવદત્તા ગણિકાની સાથે તે સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનમાં ગયા અને ત્યાંની ઉદ્યાન શાભાનું નિરીક્ષણુ કરતાં આમ तेभ ३२वा साभ्या. ( तत्थणं एगे गोट्ठिल्लपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरइ, एगे पिटुओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुप्फपूरयं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरक्खे वं करेइ तएण सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोट्ठिलपुरिसेहिं सद्धि उरालाई माणुस्सगाईं भागभोगाईं भुजमाणी पासइ) त्यां ते भंडળીના એક માણુસે દેવદત્તા ગણિકાને પોતાના ખેાળામાં બેસાડી જા માણસે તેની ઉપર છત્રી તાણી, ત્રીજા માણસે તેના માટે પુષ્પાની રચના કરી, માણસે તેના પગમાં લાલ રંગ લગાવ્યેા, પાંચમા માણુસે તેના ઉપર ચામર ચાથા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २४३ पुरुषैः सार्धमुदारान् श्रेष्ठान् भोगान् भुञ्जाना-कुर्वतीं पश्यति, ततस्तस्याः सुकुमारिकाया अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणखरूपः संकल्पः विचारः समुदपद्यत-अहो ! खलु इयं स्त्री पुरा-पूर्व भवे 'पोराणाणं' पुराणानाम्-पुरातनानां संचितानां कर्मा पुण्यकर्मणां यावत् फलवृत्तिविशेषं प्रत्यनुभवन्ती विहरति तत्-तस्मात् कारणाद् यदि खलु कोऽप्यस्य सुचरितस्य तपोनियमब्रह्मचर्यवासस्य कल्याणः-इष्टः शुभरूपः, फलवृत्तिविशेषः अस्ति, 'तो' तर्हि खलु अहमपि — आगमिस्सेणं' आगामिना भवग्रहणेन इमान् एतद्रूपान् उदारान् भोगान् यावद् भुञ्जाना 'विहउस पर चमर ढोरे। इस तरह से उस सुकुमारिका आर्या ने उन मंडली के पांच पुरुषों के साथ उस देवदत्ता गणिका को उदार मनुष्य भव संबन्धी काम भोगों को भोगते हुए देखा । (तएणं तीसे इमेयारूवे संकप्पे समुप्पजिया-अहो णं इमा इथिया पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव विहरइ) तो उस सुकुमारिका आर्पा को इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न हुआ-अहो ! इस स्त्री ने पूर्वभव में जो पुण्य कर्म कमाये हैं उन्हीं पुराने पुण्य कर्मों के यावत् फलवृत्ति विशेष को यह भोग रही है। (तं जहणं के इमस्त सुचरियस तव नियमवंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसे से अस्थि तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाइ उसलाइं जाव विहरिजामि, त्तिकटूटु नियाणं करेइ, करिता आपावणभूमिमो पच्चोरुहइ ) इसलिये यदि इन पालित तप, नियम एवं ब्रह्मचये व्रतों का कोई शुभरूप फलवृत्ति विशेष है तो मैं भी आगामी भव में इसी तरह के उदार मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगों ઢળ્યા. આ રીતે તે સુકુમારિ આર્યાએ મંડળીના પાંચે માણસની સાથે તે हेपत्ता गाने Bार मनुष्यसपना अमलागी साताया. ( तएण तीसे इमेयारूवे संकप्पे समुपज्जित्था-अहो ण इमा इथिया पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव विहरइ) त्यारे ते सुभा२ मार्यान मा तनो विया Grભવ્ય કે અહો? આ સ્ત્રીએ પૂર્વભવમાં જે પુણ્યકર્મ કર્યો છે તેમને લીધે જ એટલે કે તે જ પૂર્વભવના પુણ્ય-કર્મોના યાવતું ફળવિશેષને આ ભોગવી રહી छ. (तं जहणं केइ इमरस सुचरियस तव नियम बंभचेरवासरस कल्लाणे फल. वित्तिविसेसे अस्थि तो णं अहमवि आगमिस्से णं भवग्गणे णं इभेयारूवाई उरा. लाइं जाव विहरिज्जामि, ति कटु नियाण करेइ, करिता आयावणभमिओ पच्चोहाइ) मा नया मा ५. मायरवामां माता त५, नियम अन બ્રહ્મચર્ય બોનું શુભ ફળ છે તે હું પણ આવતા ભવમાં આ જાતના જ ઉદાર મનુષ્યભવ સંબં ધા કામભેગોને ભાગવું. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેણે નિદાન श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्र रिज्जामित्ति कह ''विहरामि ' इति कृत्वा ' नियाणं' निदानं करोति, कृत्वा आतापनभूमितः प्रत्यवरोहति-आतापनां परित्यजति ॥ मु०१४॥ मूलम्-तएणं सा सूमालिया अज्जा सरीरबउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं२ हत्थे धोवेइ पाए धोवेइ सांसं धोवेइ मुहं धोवेइ थणंतराइं धोवेइ कक्खंतराइं धोवेइ गोझंतराइं धोवेइ जत्थ णं ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेएइ तत्थ वि य णं पुवामेव उदएणं अब्भुक्खइत्ता तओ पच्छा ठाणं वा३ चेइए, तएणं ताओ गोवालियाओ सूमालियं अजं एवं वयासी-एवं खल देवाणप्पिया! अज्जे अम्हे समणीओ निग्गंथीओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ नो खल्लु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अजे! सरीरबाउसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेसि जाव चेएसि, तं तुमं णं देवाणुप्पिए ! तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि, तएणं सा सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ, तएणं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं अभिक्खणं अभिक्खणं अभिहीलंति जाव परिभवंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमद्वं निवारेंति, तएणं तीए सूमालियाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्ज. को भोगू । ऐसा विचार कर उसने निदान बंध किया और करके फिर वह आतापन भूमि से आतापना लेकर अपने स्थान आगई ॥ सू०१४॥ બંધ કર્યો અને કરીને તે આતાપન ભૂમિથી આતાપના લઈને પિતાના સ્થાને આવી ગઈ છે સૂત્ર ૧૪ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २४५ माणीए इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जयाणं अहं अगारवासमज्झे वसामि तया णं अहं अप्पवसा, जया णं अहं मुंडे भवित्ता पव्वइया तया णं अहं परवसा, पुदिव च णं ममं समाणीओ आढायंति२ इयाणिं नो आढ़ति२ तं सेयं खलु मम कल्लं पाउ० गोवालियाणं अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएकं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए तिकट्ट एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं पा० गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता पडिएकं उवस्सयं उवसंपज्जिनाणं विहरइ, तएणं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ तत्थ वि य णं पासस्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलार संसत्तार बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ अद्धमासियाए सलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिकंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणंसि देवगणियत्ताए उववण्णा, तत्थेगइयाणं देवीणं नव पलिओवमाई ठिई पण्णता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ॥ सू० १५ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा मुकुमारिका आर्या ' सरीर 'तएणं सा सूमालिया अजा' इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इस के बाद (सा सूमालियाए अज्जा सरीर बरसा 'तएण' सा सूमालिया अज्जा' इत्यादिA-(तरण) स्था२५छ। ( सा सूमालिया अज्जा सरीरबउसा जाया यावि श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे बउसा' शरीरबकुशा शरीरसंस्कारपरायणा जाता चाप्यभवत् , अभीक्ष्णं २ पुनः पुनः हस्तौ · धोवेइ' धावतिक्षालयति, पादौ धावति · सीसं' शीर्ष-शिरः धावति, मुखं धावति, 'थणंतराई ' स्तनान्तराणि धावति 'कखतराई' कक्षान्तराणि धावति, 'गोझंतराई ' गुह्यान्तराणि गुह्यपदेशं धावति, यत्र खलु 'ठाणं वा' स्थानम्-उपवेशनार्थ स्थानं । सेज्जं वा' शय्यां वा 'निसीहियं वा' नैषेधिकीं स्वाध्यायभूमि वा ' चेएइ' चेतयति-करोति, तत्रापि च खलु पूर्वमेवोदकेन ' अभुक्खइत्ता' अभ्युक्ष्यअगिषिच्य, ततः पश्चात् ' ठाणं चा ' स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकीं वा चेएइ ' चेतयति-करोति । जाया यावि होत्था-अभिक्खण २ हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराइं धोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गोज्झंतराई धोवेह) वह सुकुमारिका आर्या शरीर संस्कार करने में भी तत्पर बन गई। बार र वह हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, शिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनान्तरों को धोने लगी, कक्षाओं को धोने लगी और गुह्य प्रदेश को धोने लगी। (जत्थ णं ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेएइ तत्थ वियणं पुव्वामेव उदएणं अभुक्खइत्ता तओ पच्छा ठाणं वा ३ चेएइ, तएणं ताओ गोवालियाओ अजाओ सूमालियं अजं एवं वयासी) इसी तरह वह जहां अपना बैठने के लिये स्थान बनाती, शय्या-पाथरती, स्वाध्याय स्थान करती, वहां भी वह पहिले से ही उसे जल से सींच देती-तब जाकर वहां वह अपना स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय भूमि नियत करती। इस प्रकार की परिस्थिति देख कर गोपाहोत्या-अभिक्खण २ हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराई घोवेइ, कक्खंतराई धोवेइ गोज्झतराई धोवेइ) ते सुमारि सार्या शरी२-२४ રના કામમાં પરોવાઈ ગઈ. વારંવાર હાથ દેવા લાગી, પગ ધવા લાગી, માથું છેવા લાગી, મુખ દેવા લાગી,સ્તનેના વચ્ચેના સ્થાનને ધેવા લાગી,બગલેને घोपा an, भने गुप्त स्थानान घाव alil. (जस्थणं ठाणं वा सेजवा निसी. हियं वा चेएइ तत्थवि य णं पुवामेव उदएणं अब्भुक्खइत्ता तो पच्छा ठाणं वा ३ चेएइ तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वयासी) આ પ્રમાણે જ તે જ્યાં પોતાનું બેસવાનું સ્થાન નકકી કરતી, કે પથારી પાથરતી અથવા તે સ્વાધ્યાય માટે બેસવાનું સ્થાન નક્કી કરતી. ત્યાં પહેલેથી જ તે રથાનને પાણી છાંટતી હતી અને ત્યારપછી તે ત્યાં પોતાનું સ્થાન-શમ્યા અને સ્વાધ્યાય સ્થાન નક્કી કરતી હતી. આ જાતની પરિસ્થિતિ જોઈને ગે પાલિકા આર્યાએ તે श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २४७ ततः खलु गोपालिका आयोः सुकुमारिकामार्यामेवमवादिषुः एवं खलु हे देवानुपिये ! आर्ये ! वयं श्रमण्यः-तपस्विन्यः निन्थ्यः ब्राह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिताः ईसिमिता यावद् गुप्तब्रह्मचर्यधारिण्यः स्मः, नो खलु कल्पतेऽस्माकं सरीरबाउसियाए ' शरीरबकुशिका ‘होत्तए' भवितुम् इति स्वं च खलु हे आर्ये ! शरीरबाकुशिका जाता, अभीक्ष्णं-पुनः पुनरतिशयेन हस्तौ धावसि प्रक्षालयसि, यावत्-स्थानं वा शय्यां वा स्वाध्यायभूमि वा जलेनाभ्युक्ष्य 'चेएसि' चेतयसि स्थानादिकं करोषीत्यर्थः । तत्-तस्मात् त्वं खलु हे देवानुप्रिये ! तत् स्थानम् ' आलोएहि ' आलोचय, स्वातिचारं प्रकाशयेत्यर्थः । यावत् 'पड़िवज्जाहि' प्रतिपद्यस्व-प्रायश्चित्तं स्वीकुरु ' इत्यर्थः । ततः खलु सा मुकुलिका आर्या ने उस सुकुमारिका आर्या से कहा-( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्जे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेर धारिणिओ, नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए, तुमंच णं अज्जे सरीरबाउसिया. अभिक्खणं २ हन्थे धोवेसि. जाव चेएसि ) हे देवानुप्रिये ! हम आर्याएँ निर्ग्रन्थ श्रमणियां हैं। ईर्या आदि पांच समितियोंका पालन करती हैं। नौकोटि ब्रह्मचर्य सहितमहाव्रतको पालन करती हैं। अतः हम लोगों को अपने शरीर के संस्कार करने में परायण बनना कल्पित नहीं हैं। हे आर्य! तुम शरीर संस्कार करने में परायण बन चुकी हो । बार २ तुम हाथों को धोती हो यावत् स्थान को शय्या को, और स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानीसे धोकर नियत करती हो (तं तुमं णं देवाणुप्पिए ! तस्स ठाणस्स आलोएहिं, जाव पडिवज्जाहि ) इस लिये हे देवानुप्रिये ! तुम उस स्थान की आलोचना करो-अपने अतिचारों को प्रकाशित करो यावत् उनका प्रायश्चित्त लो। सुभा२ि४ मार्याने । प्रभा युं 3-( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्जे अम्हे समणोओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणिओ नो खलु कप्पड़ अम्हे सरीरवाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अज्जे सरीरबाउसिया, अभिक्खणं २ हत्थे धोवेसि जाव चएसि) हे देवानुप्रिये ! मामि नि श्रम. eણીએ છીએ, ઈર્યા વગેરે પાંચ સમિતિઓનું અમે પાલન કરીએ છીએ, નવકેટિથી બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રત ધારણ કરીએ છીએ. એથી પોતાના શરીરનો સંસ્કાર કરો એ આપણા માટે ગ્ય ગણાય નહિ. હે આયેં ! તમે શરીરના સાસ્કા૨માં પરાયણ બની ચૂકી છે. તમે વારંવાર હાથને ધુએ છે યાવત્ સ્થાનને, શખ્યાને અને સ્વાધ્યાયભૂમિને પહેલેથી જ પાણીથી ધોઈને નક્કી કરી લે છે. (तं तुम णं देवाणुप्पिए ! तस्स ठाणस्स आलोएहि, जाव पडिवज्जाहि ) मेथी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मारिका आर्या गोपालिकानामार्याणामेतमर्थ 'नो आढाइ ' नाद्रियते, नो परिजानीते तद्वचने ध्यान न ददानि, । अनाद्रियमाणा अनादरं कुर्वती, अपरिजानाना-ध्यानपददाना विहरति आस्ते । ततः खलु ताः गोपालिका आर्याः सुकुमारिकामामभीक्ष्णं-पुनः पुनरभिहीलन्ति खंसन्ति निन्दन्ति यावत् परिभवन्ति । अभीक्ष्णं पुनः पुनः, 'एयमढे ' एतमर्थम् उक्तमय शरीरशोभाकरणजलप्रक्षेपादिकं निवारयन्ति प्रतिषेधयन्ति । ततः खलु 'तीए' तस्याः सुकुमारिकायाः श्रमणीभिर्निग्रन्थीभिः हील्यमानाया यावद् वार्यमाणाया अयमेतत्रूपा= वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्यात्मिको यावन्मनोगतः संकल्पो-विचारःसमुदपद्यत-भादु(तएणं सा सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमट्ट नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणी, अपरिजाणमाणी, विहरइ) सुकुमारिका आर्या ने गोपालिका आर्या के इस कथन रूप अर्थ को आदर की दृष्टि से नहीं देखा, उनके वचनों पर उसने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इस तरह उनके वचनों का अनादर और उन पर ध्यान नहीं देती हुई वह रहने लगी (तएणं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्ज अभिक्खणं २ एयमट्ट निवारेंति, तएणं तीसे सूमालियाए समणीहिं निग्गंधीहिं हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयासवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जिस्था) इस के पश्चात् उन गोपालि का आर्या ने उस सुकुमारिका आर्या की बार २ अवहेलना की, उस पर वे गुस्सा भी हुई उसकी निंदा भी की यावत् उसका तिरस्कार भी किया। बार २ उसे शरीर की शोभा करने से और जल का सिंचन करने से रोका। तब उसे इस प्रकार का હે દેવાનુપ્રિયે! તમે તે સ્થાનની આચના કરે-પિતાના અતિચારને પ્રકા शित ४२॥ यावत् तेना भाटे प्रायश्चित्त ४२१. (तएणं सा सुमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयम, नो आढाइ, नो परिजोणाइ, अणादायमाणी, अपरिजाणमाणी, विहरइ) सुभारि मार्यास गोवानि मार्याना मा थन३५ सय ने मानी દષ્ટિથી જો નહિ, તેમનાં વચન ઉપર તેણે કંઈ પણ વિચાર કર્યો નહિ. આ રીતે તેમના વચનનો અનાદર અને તે પ્રત્યે બેદરકાર થઈને તે પિતાને मत ५सा२ ४२।। al. ( तएणं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्ज अभिक्खणं २ एयमटू निवारे ति, तएणं तीसे सूमालियाए समणीहि निग्गंधीहि हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्जथिए जाव समुप्पजित्था) त्या२५छ। તે ગોપાલિકા આર્યાએ તે સુકુમારિકા આર્યાની વારંવાર અવહેલના કરી, તેની તરફ તેમણે ગુસ્સો પણ બતાવ્યો, તેની નિંદા કરી યાવતું તેને તિરસ્કાર પણ કર્યો. તેને વારંવાર શરીરને શોભાવવા બદલ તેમજ જળનું સિંચન કરવા બદલ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २४९ भूतः, यदा यावत् कालं खलु अहमगारवासमध्ये वसामि, तदा तावत् कालं खल्वहं 'अप्पवसा' आत्मवशा स्वाधीना आसम् , यदा खल्वहं मुण्डा भूत्वा प्रजिता तदा खल्वहं परवशा पराधीना जाता । 'पुल्लिं ' पुरा पूर्वस्मिन् काले च खलु ' ममं ' मां श्रमण्यः ‘आढायति' २ आद्रियन्ते, तथा परिजानन्ति, इदानीं नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, 'तं' तत्=तस्मात् श्रेयः खलु मम कल्ये प्रादुर्भूत प्रभातयां रजन्यां यावज्ज्वलति सूर्ये अभ्युद्गते गोपालिकानामार्याणामन्तिकात् पतिनिष्क्रम्य 'पाडिएक' पार्थक्यं-पार्थक्याश्रयं पृथग्भूतम् अन्यमित्यर्थः ‘उवयह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-(जयाणं अम्हं आगारवासमज्झे वसामि तयाणं अहं अप्पयसा जयाणं अहं मुंडे भवित्ता पव्वइया तयाणं अहं परवसा, पुन्धि च णं ममं समणीओ आढायंति, इयाणि णो आढति २ तं सेयं खलु मम कल्लं पाउगोवालियाणं अंतियाओ पडिनिक्वमित्ता पडिएक्कं उवस्सयं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ ) जब तक में घर में रही तब तक स्वाधीन रही-और अब जब से मुंडित होकर प्रवजित हुई हूँ तब से पराधीन बन रही हूँ। पहिले ये श्रमणियां मेरा आदर करती थीं-मेरी बात मानती थीं परन्तु अबतो कोई भी न मेरा आदर करती है-और न मेरी बात ही मानती है। इस लिये मुझे अब यही उचित होगा कि मैं दूसरे दिन जब प्रातः काल होने पर सूर्य प्रकाश से चमकने लगेतब मैं गोपालिका आर्याके पास से निकल कर किसी दूसरे भिन्न उपाરેક ટેક કરી. ત્યારે તેને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત મગન સંકલ્પ अलव्य है ( जयाणं अम्ह आगारवासमझे वसामि तयाणं अह अप्पवसा जयाणं अह मुंडे भवित्ता पव्वइया तयाणं अह परवसा पुटिव च णं ममं समणीओ आढायंति, इयाणि णो आदति २ त सेयं खलु मम पाउ० गोचालियाण अंतियाओ पडिनिक्खमित्तो पडिक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताण विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ) arni सुधी हुं घमा २डी त्या सुधी पाधान २डी ५ न्यारथी મુંડિત થઈને પ્રવજીત થઈ છું ત્યારથી પરાધીન થઈ ગઈ છું. પહેલાં આ શ્રમણીઓ મારો આદર કરતી હતી. મારી વાત માનતી હતી પણ અત્યારે તે કઈ પણ મારે આદર નથી કરતું અને મારી વાત પણ માનતું નથી. તેથી મારે માટે એ જ ઉચિત છે કે બીજે દિવસે સવારે સૂર્ય ઉદય પામતાં જ હું ગરપાલિકા આર્યાની પાસેથી નીકળીને કેઈ બીજા ઉપાશ્રયે જતી २९. २ तन तो विया२ ४ ( संहिता) बिया२ ४शन त ( कल्लंपास શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे स्सयं ' उपाश्रयम् उपसंपद्य विहर्तुमितिकृत्वा एवं संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुर्भूतप्रभातायां रजन्यां यावज्वलतिसूर्ये उदिते ति गोपालिकानामार्याणामन्तिकात् पतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य 'पाडिएक 'प्रार्थक्यं-पृथगभूतमन्यमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति-आस्ते स्म । ___ ततः खलु ता सुकुमारिका आर्या ' अणोहटिया ' अनप्पट्टिका अपवारकरहिता-उच्छृङ्खला अविनयवतीति यावत् ' अनिवारिया' अनिवार्या दुर्निवारा 'सच्छंदमई ' स्वच्छन्दमतिः-चारित्रधर्मानुरोधरहितभावा, अभीक्ष्णं-पुनः पुनहस्तौ धावति-प्रक्षालयति यावत् स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकी वा जलेनाभ्युक्ष्य चेतयति-स्थानादिकं करोतीत्यर्थः। तत्रापि च खलु पार्श्वस्था, पार्श्वस्थविहारिणी, श्रय मे चली जाऊँ इस प्रकार का उसने विचार किया (संहिता) ऐसा विचार करके (कल्लं पा० गोवालियाणं अज्जाणं) दूसरे ही दिन प्रातः काल जब सूर्योदय हो गया-तब वह गोपालिका आर्या के (अंतियाओ) पास से (पडिनिक्वमित्ता) निकल कर (पडिएक्कं) भिन्न दूसरे (उवस्सयं) उपाश्रय को ( उपसंपज्जित्ताणं विहरइ) प्राप्तकर वहां रहने लगी-अर्थात् दूसरे उपाश्रय में चली आई। (तएणं सा सूमालिया अज्जा अणोहहिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ) वहां यह सुकुमारिका आर्या विना किसी रोक टोक के स्वच्छंद बनकर रहने लगगई। वहाँ उसे कोई रोकने वाला रहा नहीं-सो जो मन में आया वह करने लगगई-इस तरह वह चोरित्र धर्म के भाव से रहित बन गई । बार २ अपने हाथों को धोती यावत् स्थान, शय्या, और स्वाध्याय की भूमि को धोकर वहां गोवालियाणं अजाणं) मीरे हिवसे सवारे न्यारे सूय य पाभ्यो त्यारे ते गोपालि आर्यानी ( अंतियाओ) पासेथी (पडिनिक्खमित्ता) नीजी (पडिएक) भीan ( उवस्सयं ) उपाश्रयने ( उवसंपजित्ताणं विहरइ ) भगवान त्या २३१ anी. मे मीn पाश्रयमा ती २ही. ( त एणं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ) त्यो તે સુમારિકા આર્યાં કોઈપણ જાતની રેક ટેક વગર સ્વચ્છતાપૂર્વક રહેવા લાગી. ત્યાં તેને કઈ રોક-ટેક કરનાર હતું નહિ એટલે જે પ્રમાણે તેની ઈચ્છા થતી તે પ્રમાણે જ તે આચરતી હતી. આ રીતે તે ચારિત્ર ધર્મના ભાવથી રહિત બની ગઈ. વારંવાર તે પિતાના હાથને છેતી હતી યાવત્ સ્થાન, પથારી અને સ્વાધ્યાયના સ્થાનને જોઈને ત્યાં પોતાનું સ્થાન નક્કી કરતી હતી. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् अवसन्ना, अवसन्नविहारिणी, कुशीला कुशीलविहारिणी, संसक्ता, संसक्तविहारिणो, बहूनि वर्षाणि श्रामण्य पर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्धमासिक्या संलेखनया तस्य स्थानस्याऽनालोचिता अप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा, ईशाने कल्पेऽन्यत मस्मिन् विमाने माधुर्यादि वाचना ये आचार्याणां विमानसंख्याया विस्मरणेन निश्रयाभावादन्यतमस्मिन्नित्युक्तम्, देवगणिकतया उपपन्ना । तत्रैकैकासां देवीनां नवपल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।। सू० १५ ।। २५१ अपना स्थान नियत करती । इस प्रकार ( तत्थ वि य णं पासत्या पासत्थ बिहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी कुस्तीला २ संसत्तार बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ ) वहां उस सुकुमारिका ने पार्श्वस्था पार्श्वस्थ विहारिणी, अवसन्ना, अवसन्न वहारिणी, कुशीला, कुशील विहारिणी, संसक्ता, संसक्त विहारिणी बनक अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया ( पाउणित्ता अद्ध सियाए) पालन करके वह अर्धमास की संलेखना धारण कर ( कालमोत ) अपनी मृत्यु के अवसर ( कालं किच्चा ) पर मरी-सो मरकर ( अणालोइय अपडिक्कता) अपने पापों की अनालोचना करने से वह प्रतिक्रान्त नहीं बन सकने के कारण ( ईसाणे कप्पे ) ईशानकल्प में ( अण्णयरंसि विमाणंसि ) किसी एक विमान में ( देवगणयन्ताए उबवण्णा) देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई। (तत्येगइयाणं देवोणं नवपलिओ माई ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सूमालियाए देवीए नव पलिओ माई ठिह पण्णत्ता ) वहां कितनिक देवियों मारीते ( तत्थ वियणं पासत्या पासत्य बिहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलाऽसंसत्ता २ बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ ) त्यां ते सुभारिममे पार्श्वस्था, पार्श्वस्थ विहारिणी, अवसन्ना, अवसन्न विहारिखी, કુશીલા, કુશીલ વિહારિણી, સંસકતા, સંસકત વિહારિણી થઇને ઘણાં વર્ષો सुधी श्राभस्य पर्यायनुं पासन यु. ( पाउणित्ता अद्धमासियाए ) पासून पुरीने ते अर्धभासिनी सबेभना धारण्य उरीने ( कालमासे ) पोताना मृत्यु अणे ( काल' किच्चा ) ते भरयु याभी. मने भरणु पाभीने (अणालोइय अपडिकंता) પેાતાના પાપાની આલેચના ન કરવાથી પ્રતિક્રાંત ન ખની શકવાના કારણે તે ( ईसाणे कप्पे ) ईशान उदयभां ( अण्णयर सि विमाणंसि ) अर्थ थोड विभा नभां ( देवगणयत्ताए उबवण्णा) देवरालिअना ३५मां नन्म याभी. ( तत्थे गइयाणं देवी णं नवपलिओ माई ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सूमालियाए देवीए नव पलिओ माइ ठिई पण्णत्ता) त्यां डेंटली हेवी थोनी स्थिति नव पस्योपननी आहे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे पंचाले जणवएस कंपिल्लपुरे नामं नयरे होत्था, वन्नओ तत्थ णं of दुव नामं या होत्था, वन्नओ, तस्स णं चुलणीदेवी धट्ठज्जुणे कुमारे जुवराया, तएणं सा सूमालियादेवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणंजाव चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएस कंपिल्लपुरे नयरे दुपयस्स रण्णो चुलजीए देवीए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्छायाया, तपणं सा चुलणीदेवी नवहं मासाणं जाव दारियं पयाया, तणं सा तीसे दारियाए निव्वत्तवार साहियाए इमं एयारूवं गोणं गुणणिष्कणं नामजं जम्हाणं एस दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चुलणीप देवीए अत्तया तं होउ णं अहं इमीसे दारियाए नामधिज्जे दोवई, तरणं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गुण्णं गुणनिफनं नामधेज्जं करिति दोवई, तणं सा दोवई दारिया पंच धाइपरिगहिया जाव गिरिकंदरमणि इव चंपगलया निवायकी स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है-सो इस सुकुमारिकादेवी की वहां नौ पल्योपम की स्थिति हुई। यहां जो " किसी एक विमान में " ऐसा अनिश्चयात्मक पदआया है उसका तात्पर्य यह है कि माधुर्यादिवाचना के समय में आचार्यों को विमान संख्या का विस्मरण हो जाने से उसका निश्चय नहीं रहा । अतः ऐसा कहा गया है | सू० १५ ॥ २५२ વામાં આવી છે તે તે સુકુમારિકા દેવીની પણ ત્યાં નવપક્ષ્ચાપમની સ્થિતિ થઇ. અહીં જે “ કાઈ એક વિમાનમાં'’ આ જાતનું અનિશ્ચયાત્મક પદ્મ આવ્યું છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે માર્યાદિ વાચનાના સમયે આચાનિ વિમાન સખ્યાનું વિસ્મરણ થઇ જવાથી તે વિષે નિશ્ચય રહ્યો નહિ. એથી આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. ! સૂત્ર ૧૫ ૫ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीच रितवर्णनम् निव्वाघायंसि सुहंसुहेणं परिवड्डइ । तएणं सा दोवई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उक्किहसरीरा जाया जावि होत्था, तरणं तं दोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाई अंतेउरियाओ पहायं जाव विभूतियं करेंति करिता दुवयस्स रण्णो पाएवंदिउं पेसंति तणं सा दोवई राय० जेणेव राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेइ, तरणं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेइ निवेसित्ता दोवइए रायवरकन्नाए रुवेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवई रायवरकन्नं एवं वयासी - जस्सणं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियन्ताए सयमेव दलइस्सामि तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि, तरणं मम जावजीवाए हिययडाहे भविस्सइ, तं णं अहं तव पुत्ता ! अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिण्णसयंवरा जण्णं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरोहिसि से णं तब भत्तारे भविस्सइ तिकट्टु ताहि इट्टाहिं जाव आसासेइ आसासित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १६ ॥ टीका- ' तेणं काले ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये sta जम्बूद्वीपे भारते वर्षे पञ्चालेषु जनपदेषु काम्पिल्यपुरं = काम्पिल्यपुरनामकं नगर २५३ ' तेणं काळेणं तेणं समएणं ' इत्यादि ॥ टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (इहेव जंबुद्वीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएस कंपिलपुरे नामं art steer) इसी जंबूदीप में भारत वर्ष में पांचाल जनपद में तेणं कालेणं तेणं समपूर्ण इत्यादि टीडार्थ - (तेनं कालेणं तेणं समएणं) ते अणे मने ते समये (इहेष जंबुद्दीवे भारहेवासे पचासु जणवरसु कंपिल्लपुरे नामं नयरे होत्था ) मा यूद्वीपमां भारत वर्षभां पांयास नभां हियपुर नाभे नगर हेतुं ( बन्नओ ) भा નગરનું વર્ણન ઔષપાતિક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે ત્યાંથી પાઠકએ જાણી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मासीत् , वर्गका अस्य नगरस्य वर्णनमोपपातिकसूत्राद् बोध्यम् । तत्र खल्लु द्रुपदो नाम राजाऽऽसीत् , चुलनी नाम्नी देवी भार्याऽभवत् , तस्य पुत्रः 'धट्ठज्जुणे' धृष्टद्युम्नो नाम कुमारो युवराजोऽभवत् । ततः खलु सा सुकुमारिका देवी तस्माद् देवलोकादायुःक्षयेण यावत्च्युत्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पंचालेषु जनपदेषु काम्पिल्यपुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञः-चुलन्या देव्याः कुक्षौ दारिकतया-पुत्रीत्वेन 'पञ्चायाया' प्रत्या यातासमुत्पन्ना । ततः खल सा चुलनीदेवी नवानां मासानां बहुमतिपूर्णानां यावद् दारिकां पुत्री प्रजाता-प्रजनितवती । ततः खलु सा तस्या दारिकाया कांपिल्यपुर नाम का नगर था। ( वन्नओ) इस नगर का वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है सो वहां से जान लेना चाहिये । ( तत्थ णं दुवए नामं राया होत्था वन्नओ तस्स णं चुलणोदेवी, धज्जुणे कुमारे जुवराया, तएणं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे पंचालेलु जणवएस्सु कपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो चुलणीए देवीए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चाघाया) वहांके राजाका नाम द्रुपद था। राजाका वर्णन भी पहिले जैसा ही जानना चाहिये। इस की रानी का नाम चुलनीदेवी था। कुमार का नाम धृष्टद्युम्न था-यह युवराज था। वह सुकुमारिका आर्या का जीव उस दूसरे ईशान देवलोक से आयु आदि क्षय हो जाने के कारण चवकर इसी जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भरत क्षेत्र में, पांचाल जनपद में कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की चुल नीदेवी की कुक्षि में पुत्री रूपसे अवतरित हुआ। (तएणं सा चुलणीदेवी नवण्हं मासाणं जाव a . ( तत्थ णं दुवए नामं राया होत्था, वन्नओ, तस्सणं चुलणी देवी धद्वज्जुणे कुमारे, जुवराया, तएणं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आ उक्खएणं जाव चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पचालेसु जणवएस कंपिल्ल पुरे नयरे दुवयस्स रण्णो चुलणीए देवीए कुञ्छिसि दारियत्ताए पायायो ) त्यांना રાજાનું નામ દ્રપદ હતું રાજાનું વર્ણન પણ ઔપપાતિક સૂત્રમાં વર્ણિત કોણિક રાજાની જેમજ જાણી લેવું જોઈએ. તેની રાણીનું નામ ચુલની દેવી હતું. તેના પુત્રનું નામ ધૃષ્ટદ્યુમ્ન હતું. ધૃષ્ટદ્યુમ્ન યુવરાજ હતું, સુકુમારિકા આર્યાને જીવ તે બીજા દેવલોકથી આયુ વગેરે ક્ષય થવા બદલ ચવીને આજ જમ્બુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં, ભરત ક્ષેત્રમાં, પાંચાલ્ય જનપદમાં, કાંપિલ્યપુર નગરમાં દ્રપદ शानी युवनी वीना मां पुत्री ३५ मतरित थी. ( त एणं सा चलणी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २५५ 'निव्वत्तवारसाहियाए ' निवृत्तद्वादशाहिकायां-द्वादशेऽहनि संप्राप्ते इदमेतद्रूपं नाम कृतवती यस्मात् खलु एषा दारिका द्रुपदस्य राज्ञो 'धूया ' दुहिता-पुत्री चुलन्या देव्या ' अत्तिया ' आत्मजा=अङ्गजाता, तस्माद् भवतु खल्वस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं द्रौपदी ' इति । ततः खलु तस्या अम्बापितरौ इममेतद्रूपं गोणं-गुणप्राप्त गुणनिष्पन्न-गुणसंपन्नं, नामधेयं कुरुतः। ततः सा द्रौपदी दारिका पञ्चधात्रीभिर्यावद् गिरिकन्दरमालीने चम्पकलता निर्वातनिर्याघाते सुखसुखेन परिवर्धते स्म। दारियं पयाया तएणं सा तीसे दारियाए निन्वत्तबारसाहियाए इमं एया रूवं गोणं गुणणिप्फणं नामधेज्जं जम्हाणं एस दारिया दुवयस्स रणो धूया चुलणीए देवीए अत्तयातं होउणं-अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जे दोवई ) गर्भ के जच नौ मास अच्छी तरह समाप्त हो चुके तब चुलनीदेवी ने एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री को उत्पन्न हुए १२ वां दिन लगा-तय चुलनी माताने उसको इस रूप से गुणनिष्पन्न नामरक्खा क्यों कि यह त्रुपदराजा की पुत्री है और मुझ चुलनी के उदर से उत्पन्न हुई है-इसलिये इस हमारी कन्या का नाम द्रुपदी रहो इस तरह के विचार से (तीसे अम्मा पियरो) माता पिता ने उसका ( इमं एयारूवं गुण्णं गुणनिष्फन्नं नामज्जं करिति दोवई ) इस तरह का गुणनिष्पन्न नाम द्रौपदी रख दिया । (तएणं ) इसके बाद-(सा दोवई दारिया पंचधाइ परिग्गहिया जाव गिरिकंदरमल्लीणइव चंपगलया निवायनिव्वाघायंसि सुहं सुहेणं परिवड्नेह ) वह द्रौपदी दारिका पांच धायमाताओं से युक्त देवी नवण्ह मामाणं जाव दोरियं पयाया तएणं सा तीसे दारियाए निव्वत्तबारसाहियाए इमं एयारूवं गोण गुणणिप्फवण्ण नामधेज्ज जम्माणं एस दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चूलणीए देवीए अत्तया तं होउण अम्ह इमी से दारियाए नामधिज्जे दोवई) गलना नवमास ब्यारे ४५० ५ो समास च्या त्यारे ચૂલની દેવીએ એક પુત્રીને જન્મ આપે. પુત્રીના જન્મ પછી જ્યારે અગિ. ચાર દિવસ પૂરા થયા અને બારમે દિવસ શરૂ થયે ત્યારે ચુલની માતાએ વિચાર કર્યો કે કુપદ રાજાની આ કન્યા પુત્રી છે અને મારા ગર્ભથી જન્મ પામી છે, આ પ્રમાણે આનું નામ દ્રૌપદી રાખીએ તે સારું આમ વિચારીને (तीसे अम्मापियरो) मातापितासे (इमं एयारूवं गुण्ण गुणनिप्फन नाम घेज करिति दोवई ) मा शते ते न्यानुं गुण नियन्न नाम द्रौपट्टी पाउयुं. (तएण) त्या२५छी (सा दोवई दारिया पंचधाइपरिग्गहिया जाव गिरिकंदर मल्लीण इव चपगलया निवायनिव्वाधायसि सुहं सुहेण परिवड्ढेइ) द्रौपही શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या उन्मुक्तबालभाषा यावद् उत्कृष्टा, उत्कृष्ट शरीरा जाता चाप्यभवत् । ततः खलु तां द्रौपदी राजबरकन्यामन्यदा कदाचिद 'अंते उरियाओ' आन्तः पुरिक्यः अन्तः पुरवर्तिन्यः स्त्रियः स्नातां यावत्-वखाकंकारविभूषितां कुर्वन्ति कृत्वा द्रुपदस्य राज्ञः पादौ चन्दितुं 'पेसंति ' प्रेषयन्ति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या यत्रैव द्रुपदो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य द्रुपदस्य राज्ञः पादग्रहणं करोति, ततः खलु स द्रुपदो राजा द्रौपदी दारिकामङ्के होकर इस तरह पलने पुषने लगी कि जिस तरह गिरि की कंदरा के प्रदेशमें उत्पन्न हुई चंपकलता वात रहित निरुपद्रव स्थान में आनन्द के साथ पलती पुषतो है । (तएणं सा दोवई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा, जाव उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था, तएणं तं दोवई रायबरकन्नं अण्णया कयाई अंते उरियाओ व्हायं जाव बिभूसियं करेंति, करित्ता दुवयस्स रण्णो पाए वंदिउँ पेसंति ) वह राजवर कन्या द्रौपदी बालभाव रहित होकर जच यौवन अवस्था वाली हो चुकी तब इस के शरीर में लावण्य की चमक से विषय सौन्दर्य आ गया-अतः उस समय यह विशेषरूप से उत्कृष्ट शरीर वाली बनगई। किसी एक दिन की बात है कि अंतः पुर को स्त्रियों ने द्रौपदी को स्नान कराकर यावत् वस्त्रालंकार से विभूषित किया-और विभूषित कर के द्रुपद राजा की चरण वंदना करने के लिये भेज दिया (तएणं सा दोवइ राय० जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, दुवयस्स रणो पायग्गहणं करेइ, દારિકા પાંચ ધાયમાતાએથી યુક્ત થઈને આ પ્રમાણે લાલિત પાલિત થવા માંડી જેમકે પર્વતની કંદરાના પ્રદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલી ચંપકલતા નિર્વાત, (२३५द्रव २थानमा सुमेथी मोटी थती न य ! (एण सा दोबई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिदुसरीरा जाया यावि होत्या, तएणं तदोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाई अंते उरियाओ व्हायजाव विभूसिय करे ति करिता दुवयस्स रण्णो पाए वंदिउ पेसति) ते २१०४१२ ४-या, द्रौपदी य५७ पटावीन ત્યારે યુવાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના શરીરમાં લાવયના ચમકથી સવિશેષ સૌંદર્ય દીપી ઉઠયું. તેથી તે વખતે તે વિશેષ રૂપથી ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી થઈ ગઈ હતી. કોઈ એક દિવસની વાત છે કે રણવાસની સ્ત્રીઓએ દ્રૌપદીને સ્નાન કરાવ્યું યાવત્ અલંકારોથી વિભૂષિત કરી અને વિભૂષિત કરીને ६५६ २inनी यर१४ा ४२वा भाटे मेसी ( तएण सा दोवइ राय जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता, दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेइ, तएणं श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी री० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् निवेशयति, निवेश्य द्रौपद्या राजवरकन्याया रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च 'जायविह्मए' जातविस्मयः आश्चर्य प्राप्तः स द्रुपदो द्रौपदी राजवरकन्या मेवमवादीत-हे पुत्रि ! यस्य खलु अहं राज्ञो वा युवराजस्य वा भार्यात्वेन स्वय. मेव दास्यामि, तत्र खलु त्वं सुखिता वा दुःखिता वा भविष्यसि, ततः खलु मम 'जाव जीवाए ' यावज्जीवं ' हिययडाहे ' हृदयदाहः-मनोदुःखं भविष्यति । तएणं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवई, रायवरकन्नं एवं वयासी) सो वह राजवर कन्या द्रौपदी जहां द्रुपद राजा था वहां आई। वहां आकर उसने वंदना करने के लिये द्रुपद राजा के ज्योंही दोनों पैरों को पकड़ा कि इतने में उस द्रुपद राजाने उस द्रौपदी दारिका को अपनी गोदमें बैठा लिया। द्रौपदी के बैठते ही वह राजा उस राजवर कन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य से विशेष विस्मित हुआ-सो विस्मित होकर उसने उस राजवर कन्या द्रौपदी से इस प्रकार कहा-(जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि,तस्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविजासि तएणं मम जाव जीवाए हिययडाहे भविस्सइ) हे पुत्रि ! मैं स्वयं तुम्हें जिस राजा को, अथवा युवराज को भार्या के रूप में दंगा वहां तुम सुखी और दुःखी दोनों भी हो सकती हो। तो इससे मुझे यावज्जीव हृदय दाह-मानसिक दुःख रहेगा। (तं णं अहं पुत्ता! से दुवए राया दोवई दारिय' के निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवई रायवरकन्न एव वयासी) તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી જ્યાં રાજા દ્રુપદ હતા ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઈને તેણે કુપદ રાજાને વંદન કરવા માટે બંને પગ પકડયા ત્યારે તેઓએ દ્રૌપદી દારિકાને પિતાના ખળામાં બેસાડી દ્રૌપદી જ્યારે ખોળામાં બેસી ગઈ ત્યારે રાજા તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી સવિશેષ વિસ્મિત થશે અને વિમિત થઈને તેણે તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે કહ્યું – ( जरस णं अहंपुत्ता ! रोयस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सवमेव दलइस्सामि, तत्थण तुम सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि तएण मम जाव जीवाए हिययडाहे भविस्सइ) हे पुत्रि! हुँ तने रे ने युवा ने मायांना ३५i આપીશ ત્યાં તું સુખી પણ થઈ શકે તેમ છે અને દુઃખી પણ, તેથી મને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे 6 = तत्तस्मात् खल्वहं हे पुत्रि ! तव ' अज्जयाए ' अद्यतया - एषु दिवसेषु अल्पेषु दिनेषु इत्यर्थः स्वयंवरं वरयामि - कारयामि अद्यतया स्वल्प दिवसेष्वेव खलु एवं दिण्णसवरा ' दत्तस्वयंवरा - त्रियते इति वरः कन्यया स्वयं हृतः स्वयंवरः, स दत्तः कन्यायाः पित्रादिना यस्यै दत्तस्वयंवरा भविष्यतीति भावः । 'दत्तस्वयंबरा' इतिपदं व्याचक्षाणः कथयति- 'जंण्णं तुमं' इत्यादि । यं खलु त्वं स्वयमेव राजानं वा युवराजं वा वरिष्यसि, स खलु तव भर्ता भविष्यति' इतिकृत्वा - इत्युक्त्वा ताभिरिष्टाभिर्याविद्=वाग्भिराश्वासयति, आश्वास्य प्रतिविसर्जयति ॥ मु०१६ | मूलम् - तएण से दुवए राया दूयं सदावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! बारवई नयरिं तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं समुदविजयपामोक्खे दस दसारे बलदेवपामुक्खे पंचमहावीरे उग्गसेणपामोक्खे सोलसराय सहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुट्ठाओ कुमारकोडीओ संबपामोक्खाओ अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिष्ण सयंवरा जपणं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरेहिसि से णं तव भत्तारे भविस्सइ ति कटु ताहि इहाहिं जाव आसासेह, असासित्ता पडिविसज्जेह ) इस लिये हे पुत्र ! मैं थोड़े ही दिनों में तुम्हारा स्वयंवर करवाने वाला हूँ। तुम इन दिनों में दत्तस्वयंवरा हो जाओगी, सो तुम जिस राजाको या युवराज को अपनी इच्छानुसार वरोगी वही तेरा भर्ता बन जायगा । इस तरह कहकर राजा ने अपनी पुत्री को इष्ट आदि विशेषण वाली वाणी से आश्वासित किया और फिर आश्वासित करके उसे वहाँ से भेज दिया ।। सू० १६ ॥ भवन पर्यन्त दु:म थया ४२शे. ( त ण अहं पुत्ता ! अज्जयाए सयंवर विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिण्णसयंवरा जण्णं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं बावरेहिसी से णं तत्र भत्तारे भविस्सइ, ति कट्टु ताहिं इट्ठाहिं जाव आसासेइ आसासित्ता पडिविसज्जेइ ) हे पुत्र ! थोडा दिवसोभां हुं तभारा भाटे સ્વયંવર કરવાને છું. ત્યારે તુ સ્વયંવરમાં દત્ત સ્વયંવરા થઇ જશે. જે રાજા કે ચુવરાજને તુ તારી પસંદગી આપશે તેજ તારા પતિ થશે. આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ પેાતાની પુત્રીને ઈષ્ટ વગેરે વિશેષણાથી યુક્ત વચને વડે આશ્વાસનથી આશ્વાસિત કરીને તેને ત્યાંથી વિદાય ३. ॥ सूत्र १६ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् सहि दुदंतसाहस्सीओ वीरसेणपामोक्खाओ इकवीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ अन्ने य बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइन्भसिट्रिसेणावइसत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं अंजलिं मत्थए कटु जएणं विजएणं वद्धावेहि वद्धावित्ता एवं वयाहि-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए चुल्लणीए देवीए अत्तयाए धज्जुणकुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ तं गं तुब्भे देवाणुप्पिया ! दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह, तएणं से दूर करयल जाव कटु दुवयस्स रण्णो एयमढे पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवटवेह जाव उवट्ठवेंति, उवट्ठवित्ता तएणं से दूए हाए जाव अलंकार० सरीरे चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ दुरुहिता बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउह पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे कंपिल्लपुरं नयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छद पंचालजणवयस्स मज्झं मझेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, सुरट्राजणवयस्स मज्झंमज्झेणंजेणेव बारवइ नयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता बारवई नयरिं मज्झं मज्झेणं अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स बाहिरिया श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वाउघंटं आसरहं ठवेइ ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता मणुस्वग्गुरापरिक्खिते पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहसीओ करयल तं चैव जाव समोसरह । तएणं से कहे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियएतं दूयं सकाइ सम्माइ सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ || सू० १७ ॥ २६० टीका- ' तरणं से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं स द्रुपदो राजा दूत शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छ खलु त्वं हे देवानुमिय ! द्वारवतीं द्वारकां नगरीम्, तत्र खलु त्वं कृष्णं वासुदेवं, समुद्रविजयप्रमुखान् दश दशाहनि, बलदेवप्रमुखान् पञ्च महावीरान् उग्रसेनप्रमुखान् षोडश राजसहस्त्राणि, प्रद्युम्नप्रमुखाः अर्ध चतुर्थी: कुमारकोटीः=प्रद्युन्नप्रमुखान् सार्वत्रिकोटिराजकुमारान, साम्बप्रमुखाः षष्टिदुर्दान्तसाहस्री:- साम्बप्रमुखान् षष्टिसहस्रदुर्दान्तान्, वीरसेनप्रमुखान् एकविंशतिवीरपुरुषसाहस्रीः = वीरसेनप्रमुखान् एकविंशतिसहस्रवीरपुरुषान, महासेन 9 तणं से दुबए ' इत्यादि ॥ टीकार्थ - (तएर्ण से दुबए राया दूयं सहावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छ णं तुमं देवाणुपिया ! बारवई नयरिं तत्थणं तुमं कण्हें वासुदेवं समुविजय पामोक्खे द सदसारे बलदेव पामोक्खे पंच महावीरे उग्गसेन पामोक्खे सोलसराय सहस्से पज्जुण्णपामोक्खाओ अदाओ कुमारकोड़ीओ संपामोक्खाओ सहि दुर्द्दत साहस्सीओ वीरसेन पामोक्खाओ इक्कवीसं C 6 तएण से दुवर ' इत्यादि टीअर्थ - (तएण से दुवए राया दूयं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी - गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! वारवई नयरिं तत्थण तुमं कण्हं वासुदेवंसमुह विजयपामोक्खे दसदसारे बलदेवपामोक्खे पांच महावीरे उगासेनपामोक्खे सोलसरायसहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अद्धुट्ठाओ कुमारकोडीओ संबपामोक्खाओ सट्ठि दुदंत साहस्सीओ वीर• सेन पामोक्खाओ इकोसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेनपामोक्खाओ छप्पनं बलव શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् ममुखाः षट्पञ्चाशत् बलवत्साहस्री : = महासेनप्रसुखान् षट्पञ्चाशत्सहस्रप्रमितबलवतो राज्ञः, अन्यांश्च बहून् राजेश्वर तलवरमाडविक कौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठि सेनापति सार्थप्रभृतीन् करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्तमञ्जलि मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन =जय विजयशब्देन ' बद्धावेहि ' वर्धय = अभिनन्दय वर्धयित्वा एव ब्रूहि हे देवानुप्रियाः ! एवं खलु काम्पिल्यपुरे नगरे दुपस्य राज्ञो दुहितुः पुत्र्याः, चुलन्या देव्या आत्मजायाः धृष्टद्युम्न कुमारस्य भगिन्याः, द्रौपद्या राजवरकन्यकाया स्वयंवीर पुरिससाहसीओ महसेनपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सी ओ अन्नेय बहवे राई सरतलवरमाडंबिय कोडुंबिय इन्भसेट्ठिसे णावह सत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं अंजलि मत्थए कट्टु एणं विजएणं बद्धावेहि बद्धावित्ता एवं वयाहि ) इस द्रुपद राजाने अपने एक दूत को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा- देवानुप्रिय ! तुम द्वारका नगरीको जाओ वहा तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्र विजय प्रमुख दश दशार्हो को, बलदेव प्रमुख पांच महावीरों को, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं को प्रद्युम्न प्रमुख ३ || ) साढे तीन करोड़ राजकुमारों को ६० हजार दुर्दान्त साम्य प्रमुखों को २१ हजार वीरसेन प्रमुख वीरों को ५६ हजार महासेन प्रमुख बलिष्ठ राजाओं को, तथा और भी अनेक राजेश्वर तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदिकों को दोनों अपने हाथों की दशनखों वाली अंजलि बनाकर और उसे मस्तक से घुमाकर नमस्कार करना तथा " जय विजय" शब्दोच्चारण करते हुए उन्हें बधाई देना- उनका अभिनन्दन करना । वधाई देकरके फिर उन से ऐसा २६१ साहसीओ अन्नेय बहवे राईसरतलवर माडंचियकोडु' बियइव्भसेट्ठिसेणावइत्थवाह पभिइओ करयल परिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं अंजलि मत्थए कट्टु जपणं विज• ' वद्धावेहि, वद्धावित्ता एवं वयाहि ) त्यारयछी द्रुयह शब्नो थोताना भे નૂતને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે દ્વારકા નગરીમાં જાઓ, ત્યાં તમે કૃષ્ણવાસુદેવને, ખળદેવ પ્રમુખ પાંચ મહાવીરાને, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સેાળ હજાર રાજાઓને, પ્રદ્યુમ્ન પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ રાજકુમારાને, ૬૦ હજાર દુર્દતમાંમ પ્રમુખને, ૨૧ હજાર વીરસેન પ્રમુખ વીરાને, ૫૬ હજાર મહાસેન પ્રમુખ બલિષ્ટ રાજાઓને તેમજ બીજા પણ ખધા રાજેશ્વર, तलवर, भांडमि, छोटु मि४, हल्य, श्रेष्ठि, सेनापति, सार्थवाह वगेरेने पोताना ખ'ને દશ નખાવાળા હાથેાની અલિ ખતાવીને તેને મસ્તકે સૂકીને નમસ્કાર કરજો તથા < જય વિજય' શબ્દોચ્ચારણ કરતાં બધાને તમે અભિન દ્વિત શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वरो भविष्यति, तत्-तस्मात् खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! द्रुपदं राजानमनुगृह्णन्तः ' अकालपरिहीणं चेव' कालविलम्बरहितमेव काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत, ततः खलु स दूतः करतल. यावत्-अञ्जलिं मस्तके कृत्वा द्रुपदस्य राज्ञ एतमथै प्रति. शृणोति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिपमेव भो देवानुप्रियाः चतुर्घण्टं-घंटाचतु. ष्टययुक्तम् अश्वरथं युक्तमेवोपस्थापयत । यावत्-उपस्थापयन्ति । ततः खलु स दूतः कहना-(एवं खलु देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रणो धूयाए चुल्लीणीए देवीए अत्तयाए धट्ठज्जुणकुमारस्म भगिणीए दोवईए राघवर कण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! दुवयं रायं अणु. गिण्हे माणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह ) हे देवानुप्रियो ! कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी को आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की भगिनी राजवर कन्या द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला है, इसलिये हे देवानुपियों ! आप लोग द्रुपद राजाके ऊपर अनुग्रह करके बहुत ही शीघ्र कापिल्यपुर नगर मे पधारे । (तएणं से दुए करयल जाव कटूटु दुवयस्स रण्णो एयमढे पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडुबिध पुरिसे सद्दा वेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटे आसरह जुत्तामेव उवट्टवेह जाव उवट्ठति ) दूतने द्रुपद् राजा के इस कथन को दोनों हाथ जोड़कर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर ४२. अनिनहित ४ मा तमे ते माने २॥ प्रमाणे विनती ४२०ने ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए चुल्लणीए देवीए अत्तयाए धट्टज्जुणकुमारस्य भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सई, त ण तुभे देवाणुपिया ! दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीण चेव कंपिल्ल पुरे नयरे समोसरह ) हे कानुप्रिया ! पिल्यपुर नगरमा ५४ राजनी पुत्री ચુલની દેવીની આત્મજા, ધૃષ્ટદ્યુમ્નકુમારની બહેન રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને સ્વયંવર થવાનું છે. એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્રુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને सत्तरे पिय नगरमा ५धाश. (तरण से दुए करयल जाव कटु दुवयस्स रण्णो एयमटुं पडिसुणे ति, पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छिता कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवा. गुप्पिया ! चाउग्घट आसरह जुत्तामेव उवटुवेह जाव उवदुति ) दुप४ रानी આજ્ઞાને તે બંને હાથ જોડીને સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કર્યા બાદ તે જ્યાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २६३ स्नातः यावत्-सर्वालङ्कारविभूषितशरीरश्चतुर्घण्टमश्वरथं · दुरुहह' दरोहति-आरोहति । दुरुह्य बहुभिः पुरुषैः कीदृशैः पुरुषैरित्याह-' सन्नद्ध जाव गहिया' इति अत्र यावच्छब्देनैवं बोध्यम्-सम्बद्धबद्धवम्मियकवएहिं, उप्पीलियसरासनपट्टगेहि, पिणद्धगेविज्जगबद्धाविद्धविमलवरचिन्धपट्टेहिं, गहियाऽऽउहपरणेहिं इति । सन्नद्धबद्धवर्मितकवचैः उत्पीड़ितशरासनपट्टकैः, पिनगवेयकबद्धबिद्धविमलवरचिह्नपट्टैः गृहीतायुधपहरणैः, सन्नद्धाः सज्जीकृताः, बद्धाः कशाबन्धनेन संबद्धा, वमिता: अङ्गे परिहिताः कवचा यै स्ते सन्नद्धबद्धर्मितकवचास्तैः, तथा-उत्पीड़ितशरासनपट्टकैः उत्पीडितानि=गुणारोपणेन वक्रीकृतानि शरासनपट्टकानि धनुः प्रकाण्डानि यैस्ते उत्पीडितशरासनपट्टकाः रज्ज्वारोपणवक्रीकृतधनुर्धारिणस्तैः, वह जहां अपना घर था वहां आया। वहां आकर उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियों! तुम लोग शीघ्र ही चार घंटों से युक्त अश्वरथ को घोड़े जोतकर यहां ले आओ। उन्होंने आज्ञानुसार ऐसा ही किया। वे चार घंटा वाले उस रथ में घोड़े जोतकर उसे वहां ले आये ( तएणं से दृए हाए जाव अलंकार सरीरे चाउग्घंटे आसरह दुरुहह, दुरुहित्ता बहहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउहपहरणेहिं सद्धिं :संपरिबुडे कंपिल्लपुरनयरं मझं मज्झे गं निग्गच्छइ ) इस के बाद दूतने स्नान किया, यावत् अपने शरीर को समस्त अलंकारों से विभूषित किया। बाद में वह उस चतुर्घट वाले अश्वरथ पर सवार हो गया। उस के साथ सजाकर अपने शरीर पर कवच पहिर रखा है ऐसा अनेक पुरुष थे ज्यापर बाण को आरोपित करने से वक्री भूत हुआ धनुष जिनके हाथों में हैं ऐसे अनेक धनुर्धारी પિતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે કૌટુંબિક પુરૂષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે સત્વરે ચાર ઘંટડીઓવાળો અશ્વરથ છેતરીને અહીં આવે. કૌટુંબિક પુરૂષએ તેમજ કર્યું. ચાર ઘંટડીसापाणे २०१२थ लेतरीने त्यi माव्या. (तएण से दूए हाए जाव अलंकार० सरीरे चाउग्घटं आसरह दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउहपहरणे हि सिद्धिं संपरिवुडे कंपिल्लपुरनयर मज्झं मज्झेण निग्गच्छइ ) त्या२मा ते स्नान ४यु यावत् पाताना शरीरने मा dil અલંકારોથી શણગાર્યું. ત્યારપછી તે દૂત ચતુર્ઘટવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઈ ગયા. તે દૂતની સાથે બખતરથી સુસજજ થયેલા ઘણુ પુરૂષ હતા. પ્રત્યંચા ઉપર બાણ ચઢાવવાથી વક થઈ ગયેલા ધનુષ જેમના હાથમાં છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तथा-पिनौवेयकबद्धाविद्धविमलचरचिह्नपट्टैः- पिनद्धानि - परिधृतानि ग्रैवेयकाणि-कण्ठभूषणानि यै स्ते तथा, बद्धः आरोपितः संयोजितः आविद्धः मस्तकेपरिधृतः विमला स्वच्छः वरः चिह्नपट्टः-स्वपक्षबोधकचिह्न : यैस्ते तथा, ततो द्विपदकर्मधारयः, तथा-गृहीतायुधमहरणैः आयुधानि अस्त्राणि, प्रहरणानिशस्त्राणि गृहीतानि यैस्ते गृहीतायुधप्रहरणा स्तैः, साध संपरिवृतः काम्पिल्यपुरं नगरं मध्यमध्येन मध्यमार्गेण निर्गच्छति, पश्चालजनपदस्य मध्यमध्येन यौव 'देसप्पते ' देशप्रान्तं-देशसीमा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'मुरद्वाजणवयस्स' सौराष्ट्रजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव द्वारवती नगरी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य द्वारवती नगरी मध्यमध्येन अनुमविशति, अनुपविश्य यचैव कृष्णस्य वासुदेवस्य पुरुष थे, जिन्होंने गले में आभूषणों को पहिररक्खे हैं और मस्तक के ऊपर स्वच्छ, स्वपक्षयोधक चिह्न धारण किया है ऐसे अनेक व्यक्ति थे। तथा आयुध एवं प्रहरणों को लेकर अनेक सैनिक जन इसके आसपास हो कर चल रहे थे । सो वह दूत इन सब के साथ २ उस कोपिल्यपुर नगर के बीचोंबीच से होकर निकला । (पंचालजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ-सुरहा जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव बारवइ नयरी तेणेव उवागच्छड ) चलते २ वह पांचाल जनपदके बीचोंबीच से होता हुआ जहां पर अपने देशकी सीमा का अन्त था वहां आया । वहां आकर वह सौराष्ट्र देशके बीचसे निक लता हुआ जहां द्वारावती नगरी थी वहां आया-( उचागच्छित्तो बारवई नयरी मज्झ मज्झेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स એવા ઘણા ધનુધરે તેની સાથે હતા, જેઓએ ગળામાં આભૂષણે પહેરેલાં અને મસ્તક ઉપર સ્વચ્છ સ્વપક્ષ બોધક ચિહ્ન પટે બાંધી રાખેલા એવા પણ અનેક પુરૂષે તેની સાથે હતા. આયુધ અને પ્રહરણને ઉચકીને પણ ઘણા સિનિકે તેની બંને બાજુએ ચાલી રહ્યા હતા. આ રીતે તે ડૂત તેઓ બધાની સાથે siपिट्यपुर ना२नी १२ये 25 नीज्यो. ( पचाल जणवयस्स मज्झ मझेणं जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छइ सुरट्ठा जणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव बारवइ नयरी तेणेव उवागच्छइ ) शाम पातानी यात्रा पूरी परीने त त पांयार पनपनी વચ્ચે વચ્ચે જ્યાં પોતાના દેશની હદ પૂરી થતી હતી ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને ते सौराष्ट्र देशनी १२ये थनियां Aqती नगरी ती त्यां 24t०यो. (उवागच्छित्ता बारवई, नयरिं भग्झं मोणं, अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २६५ बाहिरुपस्थानशाला-आस्थानमण्डपः, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टमश्चरर्थ स्थापयति, स्थापयित्वा — रहाओ' रथात् ' पञ्चोरुइइ' प्रत्यवरोहति-प्रत्यवतरति, प्रत्यवरुह्य 'मनुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते' मनुष्यवागुरापरिक्षिप्तः मनुष्यसमूह परिवृतः, स दूतः पादविहारचारेण=पादाभ्यां गमनेन यत्रैव कृष्णवासुदेवस्तत्रैवोपागच्छति, उपगत्य कृष्णं वासुदेवं समुद्रविजयप्रमुखांश्च दशदशान् ियावत् बलवत्साहस्रीः, करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-'तं चेव' तदेव-अत्र पूर्वोक्तमेव वर्णनं बोध्यम् यावत्-समवसरत वासुदेवस्स बाहिरिया उवट्ठाण साला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउघंटं आसरहं ठवेह, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोहित्ता मणुस्सवरगुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ ) वहां आकर द्वारावती नगरी में बीचोंबीच के मार्ग से होता हुआ प्रविष्ट हो कर वह जहां कृष्ण वासुदेव की बाहिर में उप. स्थानशाला-सभामंडप था वहां गया। वहां पहुंचकर उसने अपने चार घंटावाले अश्वरथ को खड़ा कर दिया। रोक दिया-उसके रुकते ही वह उससे नीचे उतरा । उतर कर वह मनुष्योंके समूहसे परिक्षित (युक्त) हो कर पैदल ही जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां गया। ( उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवसमुद्दविजयपामुक्खे य दस दसारे जाब बलवगसाहस्सीओ करयल तं चेच जाव समोसरह ) वहाँ जा करके उसने कृष्ण वासुदेव को समुद्रविजय प्रमुख दश दशाों को यावत् महासेन प्रमुख५६, हजार बलिष्ट राजाओंको दोनों हाथों की अंजलिकर और उसे मस्तक पर रखकर देवस्स बाहिरिया उवाटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउघंट आसरह ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पचोरुहइ पचोरु हित्ता मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पाय विहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुरेवे तेणेव उवागच्छइ ) त्यां मावीन ते २६ વતી નગરીના મધ્યમાર્ગ થઈને નગરમાં પ્રવિણ થયે અને ત્યારપછી તે જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવની બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળા–દીવાને આમ-( સભા મંડપ) હતી ત્યાં ગયો. ત્યાં પહોંચીને તેણે પિતાના ચાર ઘંટડીઓવાળા રથને ઊભો રાખ્યો અને પિતે નીચે ઉતર્યો. ઉતર્યા પછી તે પોતાના નોકર-સેવકની સાથે જ્યાં ४५-पासुदेव ता त्यां गयी. ( उवागच्छित्ता कण्ह वासुदेवसमुद्दविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहस्सोओ करयल त चेव जाव समोसरह) त्यां જઈને તેણે કૃષ્ણ-વાસુદેવને સમુદ્ર વિજય પ્રમુખ દશાહને યાવતું મહાસેન પ્રમુખ ૫૦ હજાર બલિષ્ઠ રાજાઓને બંને હાથની અંજલિ બતાવીને તેને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ | জাবায়দােন इति पर्यन्तम् , अयमर्थ:-काम्पिल्यपुरनगरे द्रुपदस्य राज्ञः पुत्र्या द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति, तस्माद् यूयं द्रुपदं राजानमनुगृहन्तः कालविलम्बरहितं काम्पिल्यपुरे नगरे समागच्छ तेति स दूतः प्रोक्तवान् ' इति ।। ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः यावत्-हर्ष वशेन विसर्पदहृदयस्तं दूतं सत्कारयति तथा संमानयति, सत्कार्य समान्य प्रतिविसर्जयति ॥ सू०१७ ॥ ___मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरिं तालेहि, तएणं से कोडुंबियपुरिसे कर यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमहूँ पडिसुणेइ पडिसुणित्ता नमस्कार किया। यहां पर 'एवं खलु देवाणुप्पिया,' से लेकर समोसरह "तकका पूर्वोक्त पाठ इसके द्वारा कहा गया लगा लेना चाहिये-जिसका तात्पर्य यह है कि कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है सो आपलोग दुपद राजा के ऊपर कृपा कर के उसमें शीध्र पधारें। इस प्रकार (तएणं से कण्हे वासुदेवे तस्स यस्स अंतिए एयभट्ट सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियए तं यं सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारित्ता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ) कृष्ण वासुदेव ने उस दूत के मुखसे जब इस समाचार को सुना-तो वे सुनकर और उसे हृदयमें धारण कर बहुत ही अधिक हर्षित एवं संतुष्ट हुए। दूतका उन्होंने सत्कार किया, सन्मान किया। बादमें उसे वहां से विसर्जित कर दिया।सू०१७॥ भरत भूटी नम२४२ ४ा. ही ' एवं खलु देवाणुप्पिया' थी समोसरह' સુધીનો પાઠ દત વડે કહેવામાં આવેલ છે એમ સમજી લેવું જોઈએ તેની મતલબ એ છે કે કાંડિલ્યપુર નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીનો સ્વયંવર થવાનો છે તે આપ સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને તેમાં સાત્વરે ५पा. 21 शते ( तएण से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अतिए एयमढे सोचा निसम्म हद जाव हियए त दूयं सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारित्ता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ ) ४०-वासुदेव इतना भुपथी लतना समाया। सामन्या ત્યારે સાંભળીને અને તેઓને બરાબર હૃદયમાં ધારણ કરીને અત્યંત હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને તેમણે દૂતને સરકાર તેમજ સન્માન કર્યું. ત્યારપછી તેમણે દૂતને વિદાય કર્યો. એ સૂત્ર ૧૭ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २६७ जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरिं महया महया सदेणं तालेइ तएणं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुदविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महसेणपामुक्खाओ छप्पणं बलवगसाहस्सीओ व्हाया विभूसिया जहा विभव. इड्डिसकारसमुदएणं अप्पेगइया जाव पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव कण्हे वासुदेवे जएणं विजएणं वद्धाति, तएण से कण्हे वासुदेवे कोडंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! अभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयजाव पञ्चपिणंति, तएणंसे कण्हे वासुदेवे जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरूढे, तएणं से कण्हे वासुदेवे समुदविजयपामुक्खेहिं दसहिं दसारहिं जाव अणंगसेणापामुक्खेहिं अगेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिखुडे सव्विड्डीए जाव रवेणं बारवइनयरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता सुरद्वाजणवयस्स मज्झं मझेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंचालजणवयस्स मज्झं मझेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १८ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुष शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! सभायां सुधर्मायां ' सामुदाइयं ' सामुदायिकिं भेरि ताडय, ततः खलु स कौटुम्बिकपुरुषः करतल० यावद्-मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा यावत् कृष्णस्य वासुदेवस्यैतमर्थ प्रतिशणोति, प्रतिश्रुत्य यौव सभायां सुधर्मायां 'सामुदाइया' सामुदायिकी भेरी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सामुदायिकी मेरी महता २ शब्देन ताडयति, येन महाशब्दो भवति, तथा भेरी ताडयति स्मे' त्यर्थः, ततस्तदनन्तरं खलु तस्यां 'तएणं से कण्हे वासुदेवे' इत्यादि ।। टीकार्थ-(तएणं इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेवने ( कोडुंबियपुरिसं सदावेह ) अपने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया, बुलाकर ( एवं वयासी) उनसे ऐसा कहा- ( गच्छह णं तुमं देवोणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि तालेहि ) हे देवानुप्रिय तुम सुधर्मा समामें जाओ और वहां जाकर सामुदाय की भेरी को बजाओ (तएणं से कोडुंबिय पुरिसे करयल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयम पडि सुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरि महयार सदेणं तालेह ) इस प्रकार की कृष्ण वासुदेव की आज्ञा को उस पुरुष ने बड़े विनय के साथ अपने दोनों हाथों को मस्तक पर रखकर स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके फिर वह सुधर्मा सभा में जहां वह सोमुदायिकी भेरी थी वहां आया। वहां आकर उसने उस सामुदायिकी भेरी को इसतरह से 'तएणं से कण्हे वासुदेवे' इत्यादि Atथ-(तएणं) त्या२५छ(से कण्हे वासुदेवे) ते -सुवे (कोडुबिय पुरिसं सदावेइ) पाताना टुमि ५३षाने मोसाव्या सने मारावीन ( एवं वयासी ) तमने या प्रमाणे ह्यु -( गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि तालेहि ) हेवानुप्रिय ! तमे सुधर्मा समामा । भने त्यो ने सामुदायिती मेरी मा. ( तएणं से कोडुबियपुरिसे कर. यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयममट्ठ पडिसुणेह पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सामुदाइय भेरि महया २ सद्देणं तालेइ) 0 नती -वासुदेवानी माज्ञाने ते पु३२ भूम नम्र. પણે બંને હાથને મસ્તકે મૂકીને સ્વીકારી લીધી, સ્વીકાર કર્યા પછી તે ત્યાંથી જ્યાં સુધર્મા સભામાં સામુદાયિકી ભેરી હતી ત્યાં જઈને તેણે માટે અવાજ थाय तेम त सामुदायिक सेशन १॥डी. (तएण ताए सामुद्दाइयाए भेरोए श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २६९ सामुदायिक्यां भेयां ताडितायां सत्यां समुद्रविजयप्रमुखा दश दशाहीं यावत्महासेन प्रमुखा पट्पञ्चाशबलवत्साहस्रयाः पट्पञ्चाशत्-सहस्रपमिता बलवन्तो राजानः स्नाता यावद्-सर्वालंकारविभूषिता यथाविभवद्धिसत्कारसमुदयेन 'अप्पेगइया ' अप्येके-यावद् केचिद् हयारूढा अश्वारूढाः केचिद् गजारूहाः, केचिद् रथारूढाः केचिद् पादविहारचारेण यौव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छंति, उपागत्य करतल० यावत् कृष्णं वासुदेवं जयेन बिजयेन-जयविजयशब्देन वर्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-भो देवानुप्रियाः ! क्षिप्रमेव — अभिसेक्क ' आभिषेक्यं गजबड़े बल से बजायी कि जिससे उससे बड़ी भारी आवाज निकली (तएणं ताए सामुदाहयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुद्दविजय पामोक्खा दस दसारा जाव महालेण पामुक्खाओ छप्पणं बलवगसाहस्सीओ पहाया जाव विभूसिया जहा विभव इडी सक्कारसमुदएणं अत्थेगड्या जाव पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति ) इस तरह उस सामुयिकी भेरी के बजने पर समुद्रविजय आदि दश दशा) ने यावत् ५६ हजार महासेन प्रमुख बलिष्ठ राजाओं ने स्नान किया। यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर एवं सबके सब अपने विभव ऋद्धि और सत्कार के अनुसार जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां आये । इनमें कितनेक घोडों पर कितनेक हाथियों पर कितनेक रथों पर बैठकर आये और कितनेक पैदल ही चलकर आये (उवागच्छित्ता करयल जाव कण्हं वासुदेव जएणं विजएणं बद्धाति, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबिय पुरिसे सदावेह सद्दवित्ता एवं वयासी, खिप्पामेव तालियाए समाणोए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महासेण पामुएखाओ छप्पण बलवगसाहस्सीओ व्हाया जाव विभूसिया जहा विभव इड्ढी सकारसमुदएण अप्पेगइया जाव पायविहारचारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव सवागच्छति) मा रीते ते सामुयिही मेरी मां मावी त्यारे समुद्र विय વગેરે દશ દશાહએ યાવત ૫૬ હજાર મહાસેના પ્રમુખ બલિષ્ઠ રાજાઓએ સ્નાન કર્યું. યાવત તેઓ સર્વે સમસ્ત અલંકારોથી સુસજજ થઈને પિતાના વિભવ અને સત્કારની સાથે જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યા ગયા. આમાં કેટલાક ઘડાઓ ઉપર, કેટલાક હાથીઓ ઉપર, કેટલાક રથ ઉપર સવાર થઈને ત્યાં પહોંચ્યા હતા તે કેટલાક પગે ચાલીને જ કૃષ્ણ-વાસુદેવની પાસે હાજર થયા हता. ( उवागच्छित्ता करयल जाव कण्ह वासुदेवं जएण' विजएण बद्धावे ति तएण से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं क्यासी खिप्पा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे mam m om - रत्न-मम मुख्यहस्तिनं परिकल्पयत-सज्जीकुरुत, हयगजरथपदातिरूपं चतुरङ्गबलं सज्मीकुरुत, एतां ममाज्ञां प्रत्यर्पयत, इति ततस्ते कौटुम्विकपुरुषाः ' तथाऽस्तु' इत्युक्त्वा तदाज्ञा स्वीकृत्य सर्व संपाद्य वाहने बलं च सर्व सज्जीकृतमस्माभिरिति यावत् प्रत्यर्पयन्ति=निवेदयन्ति स्म । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति, मज्जनगृहं कीशमित्याह-'समुत्तजालाकुलाभिरामे' समु. तजालाकुलाभिरामं मुक्ताभिः सहितानि जालानि गवाक्षास्तैराकुलं युक्तमतएवा. भिरामं सुन्दरम् , उपागत्य स तत्र स्नानं कृत्वा यावत्-सर्वालंकारविभूषितः, अअनगिरिकूट संनिभम् उच्चतरं श्यामवर्णमित्यर्थः, गजपति हस्तिषु मुख्यं हस्तिनं नरपतिः श्री कृष्णवासुदेवः 'दुरूढे' दूरूढः समारूढः, ततः खलु स कृष्णो भो देवाणुप्पिया ! अभिसेक्कं हत्थिरयण पडिकप्पेह, हयगय जाव पच्चप्पिण ति ) वहां आकर उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा वधाई दी-इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को जुलाया-चुलाकर उससे इस प्रकार कहा-भो देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही मेरे मुख्य हाथी को सजाओ-तथा-हय, गज, रथ और पदातिरूप चतुरंग युक्त सेना को भी सजाकर तैयार करो । पीछे हमको इसको खबर दो । इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने-"तथास्तु" कहकर उनकी आज्ञा को स्वीकार लिया और स्वीकार करके बल और वाहन सब हमने सज्जित कर दिये हैं इस प्रकार की खबर उन्हें पीछे कर दी। (तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरि कूडसनिभं गयवई नरवई दुरूढे ) इसके पश्चात् वे मेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक हस्थिरयण पडिकप्पेह, हयगयजाव पञ्चप्पिणंति ) ત્યાં જઈને તેઓએ બંને હાથ જોડીને “વિજય’ શબ્દોથી કૃષ્ણ-વાસુદેવને નમસ્કાર કરતાં અભિનંદિત કર્યા. ત્યારપછી કૃષ્ણ-વાસુદેવે કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે સત્વરે તમે મારા મુખ્ય હાથીને તેમજ બીજી પણ ઘોડા, હાથી, રથ અને પાયદલની ચતુરંગિણી સેનાને સુસજજ કરે અને સેના સુસજજ થઈ જાય ત્યારે અમને ખબર આપે. ત્યારપછી કૌટુંબિક પુરૂએ “તથાતુ” કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેઓ પિતાના કામમાં પરોવાઈ ગયા. જ્યારે કામ થઈ ગયું ત્યારે તેઓએ “સેના અને વાહન તૈયાર છે ” આ જાતની ખબર આપી. (तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवामच्छित्ता मुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरुढे) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् वासुदेवः समुद्रविजयप्रमुखैदशा वित् अनङ्गसेनाप्रमुखाभिरनेकाभिर्गणिका साहस्रीभिः सार्ध संपरितृतः सर्वद्धर्या-छत्रादिराजचितरूपया यावत-शखपणवपटहभेर्यादिरवेण द्वारवती नगर्या मध्यमध्येन-निर्गच्छति, निर्गत्य सौराष्ट्रजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव देशप्रान्तं-देशसीमा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पश्चालजनपदस्य मध्यमध्येन यौव काम्पिल्यपुरं नगरं तव माधारयद् गमनाय% गन्तुं प्रवृत्तः ॥ मू०१८॥ कृष्ण वासुदेव जहां स्नान घर था वहां गये-वहां जाकर उन्होंने मुक्ताओं सहित गवाक्षों से सुन्दर उस स्नान घर में स्नान किया-स्नान करके फिर सर्व अलंकारो से विभूषित होकर वे नरपति अंजन गिरि के शिखर जैसे-विशाल कृष्णवर्ण वाले गजपति पर आरूढ हो गये । (तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोपखेहिं दसहिं दसारेहिं जाव अणंग सेणा पामुक्खेहिं अणेगाहिं गणिया साहस्सीहिं सद्धिं संपरिखुडे सबडीए जाव रवेणं बारवहनयरिं मझं मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुरट्ठा जणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता पंचाल जणवयस्स मज्झं मझेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) आरुढ होकर वे कृष्ण वासुदेव समुद्र विजय आदि दश दशा) यावत् अंगसेना प्रमुख हजारों गणिकाओं के साथ २ छत्र आदि राज चिह्नरूप विभूति से युक्त होकरशंख, पणव, पटह, भेरी आदि बाजों की तुमुल ध्वनि पूर्वक द्वारावती नगरी के बीच से ત્યારપછી તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ જ્યાં સ્નાનઘર હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે મોતી જડેલા ગવાક્ષેથી રમણીય લાગતા સ્નાનઘરમાં સ્નાન કર્યું અને ત્યાર પછી બધા અલંકારોથી વિભૂષિત થઈને-નરપતિ અંજનગિરિના શિખર જેવા विशाल १० वा वाणा पति ५२ सवार 25 गया. (तएण से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहि दसारेहि जाव अणगसेणा पामुक्खेहिं अणेगाहिं गणियाप्ताहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे सविट्ठीए जाव रवेण बारवइ नयरिं मज्झ मज्झेण निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता सुट्ठा जणवयस्स मज्झ मज्ोण जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंचालजणव यस्स मञ्झ मझेण जेणेष कपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए ) सपार ५४ ने तो। समुद्र विलय વગેરે દશ દશાહે ચાવતુ અંગસેના પ્રમુખ હજારો ગણિકાઓની સાથે છત્ર વિગેરે રાજચિહ્ન રૂપ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને શંખ, પણવ, પટક, ભેરી વગેરે તમલ ઇવનિ સ્થાને દ્વારવતી નગરીની વચ્ચે થઈને પસાર થયા. ત્યાંથી પસાર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम्-तएणं से दुवए राया दोच्चं दूयं सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी-गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया! हस्थिणाउरं नयरं तत्थ णं तुमं पंडुरायं सयुत्तयं जुहिठिल्लं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुरं दोणं जयदहं सउणी किवं आसस्थामं करयल जाव कट्ठ तहेव समोसरह, तएणं से दूए एवं वयासी जहा वासुदेवे नवरं भेरी नत्थि जाव जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। एएणेव कमेणं तच्चं दूयं चंपानयरिं तत्थ णं तुम कण्हं अंगरायं सेल्लं नंदिरायं करयल तहेव जाव समोसरह । चउत्थं दूयं सुत्तिमइं नयरिं तत्थ णं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसयसंपरिवुडं करयल तहेब जाव समोसरह । पंचमगं दूयं हत्थससिनयरं तत्थ णं तुमं दमदंतं रायं करयल तहेव जाव समोसरह । छटुं दूयं महरं नयरिं तत्थ णं तुमं धरं रायं करयल जाव समोसरह । सत्तमं दूयं रायगिहं नयर तत्थ णं तुमं सहदेवं जरासिंधुसुयं करयल जाव समोसरह। अट्रमं दूयं कोडिण्णं नयरं तत्थ णं तुम रुप्पिं भेसगसुयं करयल तहेव जाव समो. सरह । नवमं दूयं विराडनयरं तत्थ णं तुमं कीयगं भाउसय समग्गं करयल जाव समोसरह । दसमं दूयं अवसेसेसु य गामागार होते हुए निकले । निकलकर वे सौराष्ट्र देश के बीचों बीच से चलकर वहां आये जहाँ देश की सीमा थी। उस सीमा पर आकर के फिर वे पांचाल जनपद के मध्य से होते हुए जहां कांपिल्य पुर नगर था उस और चल दिये ।। सू० १८ થઈને તેઓ સૌરાષ્ટ્ર દેશની વચ્ચે થઈને પિતાના દેશની હદ સુધી પહોંચ્યા. ત્યાંથી તેઓ પાંચાલ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યાં કાંપિલ્યપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થયા. એ સૂત્ર ૧૮ છે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २७३ नगरे अणेगाई रायसहस्साई जाव समोसरह । तएणं से दूए तहेव निग्गच्छइ जेणेव गामागर जाव समोसरह । तएणं ताई अगाई रायसहस्साइं तस्स दूयरस अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हटु० तं दूयं सकारेंति सक्कारिता सम्मार्णेति सम्माणित्ता पडिविसर्जिति, तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेर पहाया सन्नद्धहत्थिखंधवरगया हयगयरह० महया भडचडगररहपहकर० सहिंतो२ नगरेहिंतो अभिनिगच्छतिर जेणेव पंचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १९ ॥ 6 टीका - तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स द्रुपदो राजा द्वितीयं दृतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छ खलु त्वं पाण्डं राजं सपुत्रकं = पुत्रैः सहितं 6 तएण से दुवए राया' इत्यादि ॥ टीकार्थ - ( तणं) इस के बाद ( से दुबए राधा ) उस द्रुपद राजाने (दोच्चं दूयं सहावे इ) अपने दूसरे दूतको बुलाया (सद्दावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा- गच्छणं तुमं देवाणुपिया हत्थिणाउरं नयरं तत्थ ं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं जुहिट्ठिल्लं भीमसेणं अज्जुर्ण नउलं सहदेवं दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुर दोण जयद्दह सउणीकिवं आसत्थामं करयल जाव कट्टु तहेव समोसरह ) बुलाकर उससे ऐसा कहा हे देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ - वहां जाकर तुम पुत्र C तएण से दुवए राया' इत्यादि - टीडार्थ - (तएण ) त्यारपछी ( से दुवए राया) ते द्रुयह राम (दोच्चं दूयं सहावे ) पोताना जीन इतने मासाव्य ( सद्दवित्ता एवं वयासी ) मोसावीने तेने या प्रमाणे उर्छु उ ( गच्छहणं तुमं देवाणुपिया हत्थिणाउर' नयर, तत्थ ं तुमं पंडुराय सपुत्तयं जुहिट्ठिल्लं भीमसेणं अज्जुर्ण नउलं सहदेवं दुज्जो - हण भाइससमग्गं गंगेयं विदुर दोण जयद्दह सउणी किवं आसत्थामं करयल जाव कट्टु तव समोसरह ) हे देवानुप्रिय ! तभे हस्तिनापुर नगरभां थे। શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे युधिष्ठिरं भीमसेनम् अर्जुनं नकुलं सहदेवं दुर्योधनं भ्रातृशतसमग्र-शतभ्रातृभिः सहितं, गाङ्गेयं भीष्म, विदुरं द्रोणं जयद्रथं शकुनि 'किवं' कृपम्-कृपाचार्य, अश्वत्थामानं करतल० यावत् मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, तथैव समवसरत यथा पूर्वमुक्तं तथैवात्र 'समवसरत' इतिपर्यन्तं बोध्यम् अयं भावः-जयविजयशब्देन वर्धथित्वा एवं बहि-काम्पिल्यपुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञः पुत्र्या द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति तस्माद् खलु हे देवानुप्रियाः ! यूयं द्रुपदं राजानमनुगृह्णन्तः कालविलम्बरहितमेव काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत । ततः स दृतो द्रुपदस्य वचनं स्वीकृत्य हस्तिना पुरं गत्वा पाण्डुराजादिकमेवमवादीत='काम्पिल्यपुरे द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति तत्र शीघ्रमागच्छत' इति ततोऽसौ दूतः पाण्डुराजादिना सम्मानितो विसर्जितश्च 'जहा वासुदेवे' यथा-वासुदेवः कृष्णस्तद्वदत्रापि विज्ञेयम्-' नवरं' विशेषस्तु 'भेरी नस्थि ' भेरीनास्ति, कृष्णवासुदेव इव पाण्डुराजादिः स्नातः सर्वालंकार विभूषितो गजारूढश्चतुरङ्ग सेनया संपरिहतः सर्वद्धर्या युक्तो यावत् यत्रैव काम्पिल्यपुरं नगर तौव प्राधारयद् गमनाय गन्तुं प्रवृत्तः । सहित पांडुराज को, युधिष्ठिर को, भीमसेन को, अर्जुन को नकुल को, सहदेव को, सौभाईयों सहित दुर्योधन को, गांगेय भीष्म पितामह को विदुर को, द्रोण को जयद्रथ को, शकुनि को, कृपाचार्य को, और द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा का पहिले दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार करना उन सबको जय विजय आदि शब्दों से बधा देना । वधाकर फिर इस प्रकार कहना कि काँपिल्य पुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर है, इस लिये हे देवानुप्रियों ! आप सब द्रुपद राजा के ऊपर कृपा करके विना किसी विलंब के शीघही कांपिल्यपुर नगर में पधारें। (तएणं से दूए एवं वयासी-जहा वासुदेवे नवरं भेरी नस्थि, जाच जेणेव कंपिल्लपुरे અને ત્યાં જઈને તમે પુત્ર સહિત પાંડુરાજને, યુધિષ્ઠિરને, ભીમસેનને, અર્જુન નને. નકુલને, સહદેવને, એ ભાઈઓ સહિત દુર્યોધનને, ગાંગેય ભીષ્મ પિતામહેને, વિદુરને, દ્રોણને, જ્યદ્રથને, શકુનિને, કૃપાચાર્યને અને દ્રોણાચાર્યના પુત્ર અશ્વત્થામાને સૌ પહેલાં કરબદ્ધ થઈને-અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરજો અને “જય વિય” શબ્દોથી તેઓને અભિન દિત કરજે. ત્યારપછી તમે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરજે કે કાંપિલ્યપુર નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીનો સ્વયંવર થવાનું છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! આપ સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને સત્વરે કાંપિલ્ય નગરમાં પધારે. (तएणं से दूए एवं वयासी-जहा वासुदेवे नवरं भेरी नस्थि जाव जेणेव कंपिल्ल श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २७५ नयरे तेणेव पहारेस्थ गमणाए २ एएणेव कमेणं तच्चं दूयं चंपानयरिं तत्थ णं तुम कण्णं अंगरायं सेल्लं नंदिरायं करयल तहेव जावसमोसरह चउत्थं दर्थ सुत्तिमइं नयरिं, तत्थ ण तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंच. भाइसयसंपरिखुडं करयल तहेव जाव समोसरह ) इस के बाद दूत अपने राजा की आज्ञा प्रमाण कर वहां से हस्तिनापुर को चला गया। वहाँ पहुँच कर उसने पांडुराजा आदि से बडे विनय पूर्वक इस प्रकार कहा-कांपिल्यपुर में द्रौपदी का स्वयंवर होगा-सो आप सब कृपाकर शीघ्रातिशीघ्र वहां पधारें। इस तरह के समाचार देकर वह दूत पांडुराजा आदि से सन्मानित होकर वहां से वापिस हो गया। पांडुराज आदि स्नान कर सर्वालंकारों से विभूषित होकर गजारूढ हो, चतुरंगिणी सेना के साथ अपनी ऋद्धि आदि के अनुसार यावत् जहां कापिल्यपुर नगर था उस ओर चल दिये। इस तरह कृष्ण वासुदेव की तरह यहां पर सब पाठ लगा लेना चाहिये। उस पाठ से इस में विशेषता केवल इतनी है कि वे सब जब द्वारावती नगरी से कांपिल्यपुर नगर को जाने के लिये निकले तो उनके साथ भेरी थी-यहां वह नहीं है। इसी क्रम से द्रुपद ने तीसरे दूत को बुलाया-बुलाकर उससे भी इसी प्रकार से पुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए २ एएणेव कमेणं तच्चं दूयं चपानयरिं तत्थ णं तुमं कण्ण अंगराय सेल्ल नादिराय करयल तहेव जाव समोसरह चउत्थ दूर्य सुत्तिमइ नयरिं तस्थण तुम सिसुपाल' दमधोससुय पंचभाइसयस परिवुडं करयल तहेव जान समोसरह ) त्या२५छी त पाताना रानी माज्ञा પ્રમાણે ત્યાંથી હસ્તિનાપુર તરફ રવાના થઈ ગયા ત્યાં પહોંચીને તેણે પાંડુ રાજા વગેરે રાજાઓને નમ્રપણે આ રીતે વિનંતિ કરી કે-કાંપિલ્યપુરમાં દ્રૌપદીને સ્વયંવર થશે તે આપ સૌ કૃપા કરીને સત્વરે ત્યાં પધારે. આ રીતે સમાચાર આપીને તે દૂત પાંડુરાજ વગેરેથી સન્માન પામીને ત્યાંથી પાછો ફર્યો. પાંડુરાજ વગેરે બધાએ પણ નાન વગેરેથી પરવારીને તેમજ સર્વાલંકારેથી સુસજજ થઈને હાથીઓ ઉપર સવાર થયા અને પિત પિતાની ચતરંગિણી સેના તેમજ ઋદ્ધિની સાથે યાવત્ જે તરફ કાંપિત્યપુર નગર હતી તે તરફ રવાના થયા. આ પ્રમાણે કૃષ્ણ-વાસુદેવની જેમજ અહીં પણું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. કૃષ્ણ-વાસુદેવના પાઠમાં પાંડુરાજ કરતાં એટલી વિશેષતા હતી કે તેઓ જ્યારે દ્વારાવતી નગરીની બહાર નીકળ્યા ત્યારે તેમની સાથે લેરી પણ હતી, પાંડુરાજની સાથે લેરી ન હતી આ પ્રમાણે પદ રાજાએ ત્રીજા દૂતને બેલા અને તેને પણ આ રીતે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे , एतेनैव क्रमेण तृतीयं दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! चम्पानगरीम्, तत्र खलु कर्ण - कर्णनामकम् - अङ्गराजम् = अङ्गदेशस्याधिपतिं तथा 'सेल्लं ' शैल्य = शैल्यनामकं नन्द्रिराजं= नन्दिदेशाधिपं करतलपरिगृहीतं दशनखं यावत - मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजवेन वर्धयित्वा एवं ब्रूहि तहेव ' तथैव = पूर्ववदत्र बोध्यम्-तद् यथा-" काम्पिल्यपुरे नगरे पदस्य राज्ञः पुत्र्या द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति, तस्माद् खलु हे देवानुप्रियाः । यूयं द्रुपदं राजानमनुगृह्णन्तः शीघ्रमेव काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत" इति एवं द्रुपदोराजा चतुर्थ दूतं शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छ खलु त्वं शुक्तिमतीं नगरी, तत्र खलु स्वं शिशुपालं दमघोषसुतं पञ्चभ्रातृशवसंपरिवृतं करतय० यावन्मस्तकेऽञ्चलि कृत्वा ब्रूहि - ' तथैव यावत् समवसरत' यथा पूर्वमुक्तं तद्वदत्र ' समवसरत ' इति - २७६ emppe कहा कि हे देवानुप्रिय ! तुम चंपानगरी जाओ वहां अंगदेश के अधिपति कर्ण राजा को तथा नन्दिदेश के अधिपति शैल्यराजा को कर तल परिगृहीत दशनखवाली अंजलि मस्तक पर रखकर नमस्कार करना बाद में जय विजय शन्दों से उन्हें बधाई देकर पूर्व की तरह ऐसा कहना कि कांपिल्यपुर नगर में ब्रुवद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है, सो हे देवानुप्रियों ! आपलोग द्रपद राजा पर कृपा करके जल्दी से जल्दी कांपिल्यपुर नगर पधारें । इसी तरह द्रुपद ने चौथे दूत को बुलाकर उससे ऐसा ही कहा कि तुम शुक्तिमती नगरी में जाओ वहां जाकर दमघोष के पुत्र तथा पांचसौ अपने भाइयों से युक्त शिशुपाल राजा से करतल परिगृहीत दशनखवाली अंजलि मस्तक पर रखकर कहना, पहिले की तरह ऐसा कहना कि कांपिल्यपुर नगर में ચપા નગરીમાં જાએ, ત્યાં અંગ દેશના અધિપતિ કણ રાજાને તેમજ નિ દેશના અધિપતિ શૈલ્યરાજને હાથીની અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરો અને જય-વિજય શબ્દોથી તેમને અભિન‘દ્વિત કરજો. ત્યારપછી તેમને વિનંતી કરો કે કાંપિપુર નગરમાં ધ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીના સ્વયંવર થવાના છે તેા હૈ દેવાનુપ્રિયા તમે સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને અવિલ`ખ કાંપિઠ્યપુર નગરમાં આવે. આ રીતે દ્રુપદ રાજાએ ચાથા દૂતને એલાબ્યા અને તેને પણ આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે શક્તિમતી નગરમાં જા અને ત્યાં જઇને ભ્રમદ્યાષના પુત્ર શિશુપાલ રાજાને જ પેાતાના પાંચસા ભાઈઓ સહિતકરબદ્ધ થઈને અંજલિ મસ્તકે મૂકીને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણેના સમાચાર આપો કે કાંપિલ્યપુર નગરમાં કુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २७७ पर्यन्तं वाच्यमित्यर्थः । एवं द्रुपदो राजा पश्चमकं दूतं शब्दयित्वा एवमवादीत्गच्छ खलु त्वं हस्तिशीर्षनगरं, तत्र खलु त्वं दमदन्तं दमदन्तनामकं राजानं करतलपरिगृहीतदशनखं यावन्मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा बहि-' तथैव यावत् समवसरत' इति पूर्ववदेवात्रापि ' समवसरत' इतिपर्यन्तं वाच्यम् एवं स द्रुपदो राजा षष्ठं दूतं शब्दयित्वाऽवादीत्-गच्छ खलु त्वं मथुरां नगरी, तत्र खलु त्वं धरं धरनामकं राजानं ' करतल० यावत् समवसरत' अत्रापि पूर्ववदूतगमनादिकं बोध्यम् , एवं सप्तमं दूतं शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छ खलु त्वं राजगृहं नगरम् , तत्र खलु त्वं सहदेवं जरासिन्धुसुतं ' करतल० यावत् समवसरत' इति पूर्ववत्-द्रौपद्याः स्वयंवरस्य वाती कथयित्वा 'काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत ' इति ब्रूहि । तथा स द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है-सो आप कृपा करके शीघ्र ही वहां पधारें । (पंचमगं यं हस्थिसीसनयरं तत्थ णं तुम दमदंतं रायं करयल तहेव जाव समोसरह,छठें यं महुरं नयरिं तत्थ णं तुमं धरं रायं करयल जाव समोसरह सत्तमं यं रायगिहं नयरं तत्थणं तुम सहदेवं जरासिंधुसुयं करयल जाव समोसरह, अट्टमं दूयं कोडिपणं नयरं तत्थणं तुमं रुपि भेसगसुयं करयल तहेव जाव समोसरह, नवमं यं विराडनयरं तत्थ णं तुमं कीयगं भाउसयसमग्गं करयल जाव समोसरह, दसमं दूयं अवसेसेसु गामागरनगरेसु अणेगाइं रायसहस्साई जाव समोसरह) इसी तरह पांचवे दूत को हस्तिशीर्षनगर में दमदन्त नाम के राजा के पास छठे दूत को मथुरा नगरी में धर राजा के पास, सातवेंदूत को राजगृह नगर में जरासिंधु के पुत्र सहदेव के पास દીને સ્વયંવર થવાનું છે એથી તમે કૃપા કરીને અવિલંબ ત્યાં પધારે. (पंचमगं दूर्य हत्थसीसनयर तत्थ णं तुम दमदंत रायं करयल तहेव जाव समोसरह छठें दूयं महुर नयरिं तत्थणं तुम धरं रायं करयल जाव समोसरह सत्तम दूर्य रायगिहं नयर तत्थ ण तुम सहदेवं जरासिंधु सुय करयल जाव समोसरह अट्ठम दुयं कोडिण्ण नयर तत्थण तुम रूप्पि भेसगसुय करयल तहेव जाव समोसरह नवम दूर्य विराडनयर तत्थ णं तुम कीयग भाउसय. समग्गं करयल जाव समोसरह, दसम दूर्य अवसेसेसु गामागर नगरेसु अणेगाह रायसहस्साई जाव समोसरह ) 40 प्रमाणे पाया इतने हस्ता५५ नगरमा દમદત્ત નામના રાજાની પાસે, છડું દૂતને મથુરા નગરીમાં ધર રાજાની પાસે, સાતમા દૂતને રાજગૃહ નગરમાં જરાસિંધુના પુત્ર સહદેવની પાસે, આડમા દૂતને કૌડિલ્ય નગરમાં ભીષ્મકના પુત્ર કિમ રાજાની પાસે, નવમા દૂતને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे 9 द्रुपदो राजा अष्टमं दूतं शब्दविश्वावादीत् गच्छ खलु त्वं कौण्डिल्यनगर तत्र खलु त्वं रूप ' रुक्मिणं रुक्मिनामकं भोष्मकसुतं करतल तथै यावत् समवसरत पूर्ववत् ' समवसरत ' इति पर्यन्तं वाच्यम् । एवं स द्रुपदो राजा नवमं दुतं शब्दयित्वाऽवादीत् गच्छ खलु त्वं विराटनगरं तत्र खलु त्वं ' कीयगं ' कीचककीचकनामकं राजानं शतभ्रातृसहितं करतल यावत् समवसरत अत्रापि व्याख्या पूर्ववत् । एवं स द्रुपदो राजा दशमं दृतं शब्दयित्वाऽवादीत्-अवशेषेषु च ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि यावत् समवसरत, अत्रापि व्याख्या पूर्ववत्, ततस्तदनन्तरं खलु स दूतस्तथैव = पूर्वोक्तदूतश्व निर्गच्छति काम्पिल्यनगर तो निः में आठवें दूत को कौण्डिल्य नगर में भीष्मक के पुत्र रुक्मि राजा के पास में नौवें दूत को विराट नगर में सौ भाइयों से युक्त कीचक के पास में, और दशवे दूतों को अवशिष्ट ग्रामों में आकरों में एवं नगरों में हजारों राजाओं के पास जाने के लिये कहा । इन दूतों को राजा द्रुपद ने यह समझा दिया कि तुम लोग जब इन राजाओं के पास जाओ तब पहिले उन्हें दानों हाथ जोड़कर नमस्कार करना और कहना कि कांपिल्य पुर नगर में द्रुपदकी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है सो आप लोग उस में द्रुपद राजा उपर दया कर के शीघ्र से शीघ्र पधारें । राजाकी आज्ञानुसार तीसरे दूतसे लेकर नौवें दूत तक समस्त दूत जिन्हें २ जहां २ जाने को कहा था - वे वहांर चले गये। वहां जाकर उन्हों ने जैसा द्रुपद राजा ने इन से करने एवं कहने को कहा था वैसा ही उन्हों ने वहां २ किया और कहा । इस तरह पहिले की तरह यहाँ तक सब व्याख्या समझलेनी चाहिये। (तएणं से दूए तहेव निगच्छइ, વિરાટ નગરમાં સેા ભાઈએથી યુક્ત કીચકની પાસે અને દશમા દૂતને ખાકી રહી ગયેલા બીજા ગ્રામામાં આકરોમાં અને નગરામાં હજારો રાજાએની પાસે જવા હુકમ કર્યાં. આ બધા તેને રાજા દ્રુપદે જતાં પહેલાં આ વાત સરસ રીતે સમજાવી દીધી હતી કે જ્યારે તમે રાજાએની પાસે જાઓ ત્યારે સૌ પહેલાં પેાતાના બંને હાથ જોડીને તેઓને નમસ્કાર કરો અને ત્યારપછી તમે તેમને વિન'તી કરો કે કાંપિલ્ય નગરમાં દ્રુપદની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વયંવર થવાને છે તા આપ સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને અવિલંબ ત્યાં પધારો. રાજાની આજ્ઞા મુજબ ત્રીજા દૂતથી માંડીને નવમા ત સુધીના બધા ક્રુતા જ્યાં જ્યાં તેઓને જવાનું હતું ત્યાં ત્યાં પહેાંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેઓએ દ્રુપદ રાજાએ જેમ આજ્ઞા કરી હતી તેમજ તેઓએ કર્યું અને કહ્યું, અહીં પહેલાંની જેમજ समल सेवु लेामे (तरण से दूए तहेब निगाच्छछ, जेणेव गामागर जाव શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २७९ सरति, निर्गत्य यत्रैव ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि, तत्रैवोपागच्छति उपागल्य यावत्-समयसरत, ' समवसरत' इति पर्यन्तं दूतवाक्यं पूर्ववद् बोध्यम् । ततः खलु तानि अनेकानि राजसहस्राणि तस्य दूतम्यान्ति के एतमर्थ श्रुवा निशम्य हृष्टतुष्टाः सन्तः दूतं सत्कारयन्ति-सत्कृत कुर्वन्ति संमानयन्ति,सत्कार्य, समान्य प्रतिविसर्जयन्ति । ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसंख्यका राजानः, प्रत्येकं २ स्नाता: जेणेघ गामागर जाव समोसरह) वह दशवां दूत उसी तरह सेपहिले के दूतों के समान कांपिल्य नगर से निकला और निकल कर जहां ग्राम आकर और नगर थे-वहां पर अनेक राजसहस्त्रों के पास गया-वहां जाकर शिष्टाचार पूर्वक उसने सब से इस प्रकार कहा कि काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है-सो आपसब लोग द्रुपद राजा के ऊपर कृपा करके जल्दी कांपिल्य पुर नगर पधारे (तएणं ताई अणेगाइं रायसहस्साइं तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ट तं दयं सक्कारेंति, सक्कारित्ता सम्माणति, सम्माणित्ता पडिविसज्जेति ) इस प्रकार वे अनेक सहस्त्र राजा उस दूत के मुख से इस समाचार को सुन कर और उसे अपने अपने २ हृदयों में अवधारित कर बहुत ही अधिक आनन्द से प्रमुदित घनकर परम संतोष को प्राप्त हुए। उन्होंने उस दूत का सत्कार किया सत्कार करके सन्मान किया और सन्मान करके फिर उसे पीछे विसर्जित कर दिया-भेज दिया। (तएणं ते वासुदेव पामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेय समोसरह ) त शमा त पानी में चाय नारथी नीयो सने નીકળીને જ્યાં ગ્રામ આકર અને નગર હતા ત્યાં અનેક સહસ્ર રાજાઓની પાસે ગયે. ત્યાં જઈને નમ્રપણે તેણે સહતે આ પ્રમાણે કહ્યું કે કપિલ્ય નગરમાં ૫૮ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીનો સ્વયંવર થવાનું છે તે આપ સૌ દ્રપદ २४ ५२ रीने मGिet i.५६य नगरमा ५धारी. (तएण ताई अगणाई रायसहस्साई तस्स दूयस्स अतिए एयम सोच्चा निसम्म हटू० त दूर सक्कारे ति. सकारित्ता, सम्माणे ति, सम्माणित्ता, पडिविसज्जे ति ) | शते સહ રાઓ તે દૂતના મુખથી આ સમાચાર સાંભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં ધારણ કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ પરમ સંતુષ્ટ થયા. તેઓએ વ્રતને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યારપછી તને તેઓએ विहाय पी. ( तरण ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेय २ पहाया શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे - - - - - - - सन्नद्धबद्धवर्मितकवचाः यावद् गृहीतायुदप्रहरणाः हस्तिस्कन्धवरगता हयगजरथ महाभटचटकरप्रकरवृन्दपरिक्षिप्ता: अश्वगजरथमहासुमटसमूह परिघृताः, स्वकेभ्यः स्वकेभ्योअभिनिर्गन्छन्ति, अभिनिर्गत्य यत्रैव पञ्चालो जनपदस्तत्रैव प्राधारयन् गमनाय गन्तुं प्रवृत्ताः ॥ सू०१९ ॥ मूलम्-तएणं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदा. वित्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! कंपिल्ल. पुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंते एग महं संयंवरमंडवं करेह अणेगखंभसयसन्निविटुं लीलट्ठियं साल. भंजिआगं जाव पञ्चप्पिणंति, तएणं से दुवए राया दोच्चंपि कोडुबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव २ण्हाया सन्नद्ध हथिखंधवरगया हय गयरह. महया भडचडगररहपहकर० सएहितो २ नगरेहितो अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पांचाले जण. वए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) बादमें जब दूत समाचार देकर वापिस कांपिल्य पुर नगर में ओचुके तब वासुदेव प्रमुख वे अनेक शहस्त्र राजा प्रत्येक स्नान से निबटे, और सजाकर अपने शरीर पर कवच पहिरा, यावत् आयुध और प्रहरणों को अपने २ साथ लिया, अपने २ प्रधान हाथियों पर चढे और हाथी घोडे रथ और महाभटों के समुदाय से घिरे हुए होकर ये सब अपने राज महलोंसे-नगरों से-निकले-निलकर जहां पांचाल जनपद था उस ओर चल दिये ॥ सू० १९ सन्नद्धहत्यिखंघवरगया हयगयरह० महया भडचडगररहपहकर० सहिंतो २ नगरेहितो अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पांचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) ત્યારપછી જ્યારે બધા દૂતે સમાચાર આપીને કાંપિલ્યપુર નગર પાછા આવી ગયા ત્યારે વાસુદેવ પ્રમુખ ઘણા હજારે રાજાઓએ સ્નાન કર્યા અને ત્યારબાદ પોતાના શરીર ઉપર કવચ ધારણ કર્યા યાવતુ આયુધ અને પ્રહરણને પિતાની સાથે લીધા ત્યાર પછી તેઓ બધા પોતપોતાના પ્રધાન હાથીઓ ઉપર સવાર થયા અને હાથી, ઘોડા, રથ અને મહામટોના સમુદાયની સાથે પિતાના રાજમહેલથી-નગરોથી નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં પાંચાલ જનપદ હતું તે તરફ રવાના થયા છે. સૂત્ર ૧૯ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् भो देवाणुपिया ! वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह तेवि करेत्ता पच्चपिणंति, तएणं दूवए वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमं जाणेसा पत्तेयंर हत्थिखंध जाव परिवुडे अग्घं च पजं च गहाय सविडिए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं २ आवासे वियर, तरणं ते वासुदेवपामाक्खा जेणेव सयार आवासा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हत्थिखं - धाहितो पच्चोरुहंति पच्चोरुहित्ता पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति करिता सए२ आवासे अणुपविसंति अणुपविसित्ता ससुर आवासेसु य आसणेसु य सयणेसु य सन्नन्ना य संतुट्टा य वहूहिं गंधव्वेहि य नाडएहि य उवगिजमाणा य उवणच्चिमाणा य विहरंति, तणं से दुवए राया कंपिल्लपुरं नगरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता बिउलं असण४ उवक्खडाइ उवक्खडावित्ता कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं४ सुरं च मज्जं च मंसं च सोधुं च पसण्णं च सुबहुपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह, तेवि साहरति, तपणं तं वासुदेवपामुक्खा तं विउलं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ २८१ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे असणं४ जाव पसन्नं च आसाएमाणा४ विहरंति, जिमियाभुत्तु. त्तरागया वि य णं समाणा आयंता जाव सुहासणवरगया बहहिं गंधव्वहिं जाव विहरति, तएणं से दुवए राया पुव्वावरोहकालसमयांस कोडुबियपुरिसे सदावह सदावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! कंपिल्ल पुरे संघाडग जाव पहे वासुदेवपामुक्खाण य रायसहस्साणं आवासेसु हस्थिखंधवरगया महया२ सद्देणं जाव उग्धोसेमाणार एवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया कल्लं पाउ० दुवयस्स रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धट्रज्जुण्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं तुभे णं देवाणुप्पिया ! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा व्हाया जाव विभूसिया हरिथखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामर० हयगयरह० महया भडचडगरेणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पत्तेयं २ नामंकिएसु आसणेसु निसीयह२ दोवइं रायकणं पडिवालेमाणार चिट्टह, घोसणं घोसेह२ मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं ते कोडुबिया तहेव जाव पच्चप्पिणंति, तएणं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी -गच्छह गं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडपं आसियसंमजिओवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुप्फपुंजोबयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुकतुरुक्क जाव गंधवटिभूयं मंचाइमंचकलियं करेह करित्ता वासुदेवपामुक्खाणं बहणं रायसहस्साणं पत्तेयं२ नाम श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् ૨૯૩ काई आसणाई अत्थुयपच्चत्थुयाई रएहर एयमाणत्तियं पच्चपिणह, ते वि जाव पच्चपिणंति, तरणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउ० व्हाया जाव विभूसिया हत्थि - खंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामराहिं हयगय जाव परिवुडा सव्विड्डीए जाव वेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसंति अणुपविसित्ता पत्तेयं२ नामंकिएसु आससु निसीयंति दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा चिट्ठति, तपणं से पंडुए राया कल्लं पहाए जाव विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरंट० हयगय० कंपिल्लपुरे मज्झं मज्झेणं निग्गच्छंति जेणेव सयंवरमंडवे जेणेव वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं करयल० वृद्धावेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिति ॥ सू० २० ॥ टीका---' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स दुपदो राजा कौटुम्बिकपुरुपान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खलु यूथं हे देवानुप्रियाः ! काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य बहिः प्रदेशे गङ्गाया महानद्या अदूरसामन्ते = नातिदूरे नातिसमापे एकं महान्तं स्वयम्वरमण्डपं कुरुत कीदृशमित्याह-' अणेग' इत्यादि । तरण से दूव राया को डुबिय पुरि से ' इत्यादि । टीकार्थ - (एणं) इसके बाद (दूवए राया) द्रुपद राजा ने (कोडुंबिय पुरिसे सहावे ) कौटुम्बिकपुरुषों को बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी ) बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा- (गच्छह णं तुमं देवाणुविया ! कंपिल पुरे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामंते एवं महं सर्ववरमंडवं करेह, 6 ' तरणं से दूर राया कोडुंबिय पुरिसे' इत्यादि Asia'-( ago) cuzuól ( gag crar) sus R1MA (sìg'faagkà सद्द वेइ) डौटु मिषाने मोलाच्या ( सद्दावित्ता एवं वयासी) मोसावीने तेभने या प्रमाणे उद्धुं ( गच्छहणं तुमं देवाणुपिया ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामंते गं महं सयंवरमडवं करेह, अगेगखंभ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टं अनेकशतस्तम्भयुक्तं, 'लीलट्ठियसालभंजिआगं' लीला स्थितशालभञ्जिकं लीलया स्थिता शालभत्रिका-पुत्तलिका यस्मिंस्तादृशं, यावत्'तथाऽस्तु ' इति कृत्वा ते कौटुम्बिकापुरुषास्तदाज्ञां स्वीकृत्य तथैव संपाद्य, प्रत्यर्पयन्ति मण्डपोनिर्मित इति निवेदयन्ति । ततः खलु स द्रुपदो राजा 'दोचंपि' द्वितीयवारमपि कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-हे देवानुप्रियाः ! क्षिप्रमेव वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणाम् आवासं-चासस्थान कुरुत-रचयत, तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषाः 'करेता' कृत्वाचामुदेवादीनां निवासार्थ पृथक पृथक् योग्यं वासस्थानं विधाय प्रत्यर्पयन्ति-द्रुपदाय राज्ञे कथयन्ति । ततः अणेग खंभसयसन्निविट्ठ लीलहियसालभंजियागं जाव पच्चप्पिणति) हे देवानुपियों ! तुमलोग जाओ-और कांपिल्यपुर नगरके गहिर गंगामहानदी के नअतिदूर और न अति समीप-उचित स्थान में एक बड़ाभारी स्वयंवरमंडप बनाओ। जो अनेक सैकडों स्तंभोंसे युक्त हो तथा जिसमें विविध प्रकार की क्रीडा करती हुई पुत्तलिकाएँ सजा कर लगाई गई हों । यावत् “तथास्तु " कह कर उन लोगों ने राजा की इस आज्ञा को मान लिया और उसी आज्ञाके अनुसार स्वयंवर मंडप बना कर इसकी खबर राजाको कर दी । (तएणं से दूवए राया दोच्चपिकोडुयिय पुरिसे सद्दावेद सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव देवाणुप्पिया! वासुदेव पामु. क्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आवासे करेह ते वि करेत्ता पच्चप्पिणंति इसके बाद द्रुपद राजा ने दूसरे कौटुम्धिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्रातिशीघ वासुदेव यसन्निविट्ठ लोलद्वियसालभंजिआगं जाव पच्चप्पिणति) हेनुप्रियो ! zif५८यપુરનગરની બહાર મહા નદી ગંગાથી વધારે દૂર નહીં તેમજ વધારે નજીક પણ નહિ એવા યોગ્ય સ્થળે એક ભારે વિશાળ સ્વયંવર મંડપ તૈયાર કરો કે જે ઘણા સેંકડો થાંભલાઓવાળ હોય, તેમજ જેમાં અનેક જાતની ક્રીડા કરતી પૂતબીએ સજાવીને મૂકવામાં આવી હોય તે લોકોએ પણ “તથાસ્તુ ” કહીને રાજાની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને ત્યારપછી તેમની આજ્ઞા મુજબ જ સ્વયં १२ भ७५ तैयार ४शन ने तेनी ५४२ मी . (तएण से दुवए राया दोच पि कोडुबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव देवाणुप्पिया ! बासुदेव पामुक्खाणं बहूण रायसहस्साण आवासे करेह, ते वि करेत्ता पचप्पिणीति) ત્યારપછી દ્રપદ રાજાએ બીજા કૌટુંબિક પુરૂષને લાવ્યા અને બેલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે લેક અવલંબ વાસુદેવ પ્રમુખ ઘણા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २८५ खलु द्रुपदो राजा वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणाम् आगमं आगमनं ज्ञात्वा प्रत्येकं २ हस्तिस्कंधवरगतः, हयगजरथमहाभटसमूहपरिहतः, अर्घा पानार्थ जलं पाय-चरणप्रक्षालनार्थमुदकं च गृहीत्वा सर्वद्वर्या छत्रचामरादिरूपया काम्पिल्यपुरतो निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव ते वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसंख्यकाराजानस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तानि वासुदेवपमुखाणि बहूनि राजसहस्राणि तान बहुसहस्रसंख्याकान् वासुदेवप्रमुखान् राज्ञः, अर्येण च पायेन च सत्कारप्रमुख अनेक सहस्र राजाओं को बैठने के लिये पृथक२ स्थान बनाओ। उन्होंने राजाकी आज्ञानुसार बैसा ही किया और इसकी खबर राजा को कर दी। (तएणं दूवए वासुदेव पामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आगमं जाणेत्ता पत्तेयं २ हथिखंध जाव पडिबुडे अग्धं च पज्जं च गहाय सन्धिः ड्डीए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ,निगच्छित्ता जेणेव ते वासुदेव पामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताई वास्तुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ ) इसके बाद दुपद राजा वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का आगमन जानकर अपने प्रधान हस्ती पर आरूढ हा हय, गज, रथ तथा महाभटों के समूह के साथ २ प्रत्येक राजा के लिये अध्ये-पीने के लिये पानी, पाद्य-चरण प्रक्षालन के जल-लेकर छत्रचामर आदि अपनी राजविभूति से युक्त होकर कांपिल्य पुर नगर से निकले-निकलकर जहां वासुदेव प्रमुख हजारों राजा थे वहां गये। वहां जाकर उन्होंने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का अर्घ्य હજાર રાજાઓને બેસવા માટે જુદા જુદા સ્થાન તૈયાર કરે. તે લેકોએ પણ રાજાની આજ્ઞા મુજબ જ બધું કામ પતાવી દીધું અને કામ થઈ ગયાની ખબર रात सुधी पायाधी . (तएण दुवए वासुदेवपामुक्खाण बहूण रायः सहस्ताण आगम जाणेता पतेय' २ हत्थिखंध जाव पडिवुडे अग्धच पज्ज च गहाय सविड्ढोए कंपिल्लपुराओ गिग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामोक्खा वहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता ताई वासुदेवपामुक्खाइ अग्धेण य पज्जेण य सकारेइ, सम्भाणेइ) त्या२५छी पासुहेप अभुम हारे। રાજાઓનું આગમન સાંભળીને દુપદ રાજા પોતાના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને ઘેડા, હાથી, રથ તેમજ મહાભટના સમૂહની સાથે દરેકે દરેક રાજાને માટે અધ્ય–પીવા માટે પાણી–લઈને છત્ર ચામર વગેરે પિતાની રાજ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને કપિલધપુરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને ત્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાએ હતા ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં જઈને તેમણે તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यति, संमानयति, सत्कार्य सत्कारं कृत्वा, संमान्य तेषां वासुदेवप्रमुखाणां प्रत्येकर पृथक् २ आवासं 'विपरइ' वितरति । ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखाः यत्रैव स्वकाः २=निजा २ आवासास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवरुह्य प्रत्येकर स्कन्धावारनिवेशं कुर्वन्ति, कृत्वा स्वके स्वके आवासेऽनुपविशन्ति, अनुपविश्य स्वकेषु स्वकेषु आवासेषु-आसनेषु च शयनेषु च संनिषण्णा उपविष्टाश्व तथा 'संतुपट्टा' संत्वग्वर्तिताः परिवर्तितपार्थाश्च बहुभिर्गन्धर्वैश्च 'नाड एहि य' नाटकेश्व उवगिज्जमाणा य' उपगीयमानाव, 'अणच्चिज्जमाणा य' और पाद्य से सत्कार किया-सन्मान किया। (सक्कारित्ता, सम्माणित्ता, तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं २ आवासे वियरइ, तएणं ते वासुदेव पामुक्खा जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता हत्थि खंधाहिं तो पच्चोरुहंति, पबोरुहिता पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति ) सत्कार सन्मान करके उन्होंने उन सब वासुदेव प्रमुखों को प्रत्येक के लिये पृथक् २ आवास-स्थान-दिया, । इसके पश्चात् वे वासुदेव प्रमुखराजा जहां अपना २ स्थान नियत था-वहाँ गये। वहां जाकर के अपने २ हाथियों पर से नीचे उतरे और उतर करके उन्होंने अपनी २ स्कन्धावार स्थापित कर दी-अर्थात् सैन्य को ठहरा दिया । ( करित्ता सर २ आवाले अणु० ) ठहरा कर फिर वे अपने २ आवासों में प्रविष्ट हुए ( अणुपविसित्ता सएलु २ आवासेसु य आसणेतु य सयणेतु य सन्निसन्ना य संतुयट्टा य बहूहि गंधब्वेहि य नाडएहि य उवगिन्जमाणा य વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓનું અર્થ અને પાઘથી સત્કાર તેમજ સમાન यु. (सकारिता सम्माणिता तेति वासुदेवमामुक्खाणं पत्तेव २ आवासे वियाइ, तएण ते वासुदेवपामुक्खा जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छइ, उवा. गच्छिता हथिखंधाहितो पच्चारुहति, पच्चोरुहिता पतेयं खंधावारनिवेसं करे ति) सारतमा सन्मान रीने तेमणे वासुदेव प्रभु५ ६२ १२४ રાજાને જુદું જુદું આવાસ સ્થાન આપ્યું. ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓ જ્યાં પિતપોતાનું આવાસ સ્થાન નકકી કરવામાં આવ્યું હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઇને તેઓ પોતપોતાના હાથીએ ઉપરથી નીચે ઉતર્યા અને ઉતરીને તેઓએ પિતાપિતાની કથાવાર-છાવણે સ્થાપિત કરી એટલે કે સેનાને પડાવ નાખે. (करित्ता सए २ आवासे अणु०) छापणी नागीन ते पातपाताना मावास स्थानमा प्रविष्ट था ( अणुपरिसिता सएसु २ आवासेसु य आसणेसु य सयणेसय सत्रिसन्ना य संतुयट्टा य बहूहिं गंधव्वेहि य नाडएहि य उवगिज्जमाणा व श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २८७ उपनृत्यमानाश्च गीतं श्राव्यमाणाश्च, नृत्यं दद्यमानाश्च विहरन्ति । ततः खलु स द्रुपदो राजा काम्पिल्यपुरं नगरमनुप्रविशति, अनुभविश्य विपुलम्- अशनं पानं खाध स्वाद्यम् उपस्कार यति. संस्कारयति, उपस्कार्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! विपुलम् , अशनं पानं स्वाद्य स्वाद्य सुरां च मधं च मांसं च सीधुं च प्रसन्नां च सीधुः प्रसन्ना च मदिरा विशेषे. तथा सुबह पुष्पवस्त्र धमाल्यालंकारं च वासुदेवप्रमुखाणां राजसहस्राणाम् आवासेषु ' साहरह' संहरत-उपनयत, तेऽपि कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव संहरन्ति । उवणच्चिजमाणा य विहरंति, तरणं से दुवए राया कंपिल्लपुरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता विउलं असण ४ उवक्खडावेइ ) प्रविष्ट होकर के वे अपने अपने आवास स्थानों में आसनों पर एवं बिस्तरों पर जाकर अच्छी तरह वैठ गये लेट गये। वहाँ लेटे हुए उनकी अनेक गंधर्वोने, अनेक नाटयकारों ने स्तुति की-उन की प्रशंसा के गीत गाए, नाटक दिखलाया। इसके बाद द्रुपद राजा कांपिल्यपुर नगर के भीतर आये-वहां आकर के उन्होंने विपुलमात्रा में अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार करवाया-पकवाया। (उवखडावित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-(गच्छह णं तुम्मे देवाणु प्पिया ! विउलं असणं ४ सुरं च मज्जं च सीधुं च पसणं च सुबह पुप्फवत्थ गंधमल्लालंकर च वासुदेवपामोक्रवाणं रायसहस्माणं आवासे सु साहरह ) तैयार करवा कर फिर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो तुमलोग जाओ और इस उवणच्चिज्जमाणा य विहरति, तएण' से दुवए राया कपिल्लपुर नयर अणुप. विसइ अणुपविसित्ता विउल असण४ उवक्खडावेइ) प्रवेशीन तेमापातपाताना આસન ઉપર સારી રીતે બેસી ગયા, સૂઈ ગયા. ત્યાં સૂઈ ગયેલા તેઓની ઘણુ ગંધર્વોએ, ઘણા નાટયકારોએ સ્તુતિ કરી, તેમની પ્રશંસાન ગીત ગાયાં અને નાટકો ભજવ્યાં. ત્યારપછી દ્રપદ રાજા કાંપિલ્યપુર નગરમાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓએ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર जतनी माहा२ तैयार ४२१वाव्या. ( उवक्खडावित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छह ण तुभे देवाणुप्पिया ! विउल असण४ सुर च मज्ज च मसं च सीधुच पसण्ण च सुबहुपुप्फवत्थगंधमलाल कार च वास. देवपामोक्खाणं रायसहरसाणं आवासेसु साहरइ) तैयार ४२वीन तमन और मि અને બેલાવ્યા અને બેલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखास्तद् विपुलम् , असनं पानं खाद्य स्वाद्य यावत् प्रसन्नां च ' आसायमाणा' आस्वादयन्तो विहरन्ति, अपि च खलु 'निमिया' जिमिता:- भुक्तवन्तः, 'भुत्तुनरागया ' भुकोत्तरागताः भुक्तोत्तरं भोजनानन्तरम् आगताः भुक्तेत्यत्र भावे क्तः भोजनस्थानादासन्नपदेशे मुखपक्षालनार्थमागताः सन्तः 'आयता' आचान्ताः-कृतचुल्लुकाः, यावत्-सुखासनवरगताः आसनबरे सुखोअशन, पान, खाद्य स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार को सुरा मद्य, सीधु और प्रसन्न मदिरा को और अनेक विध इन पुष्पों को वस्त्रों को गंधमाल्य एवं अलंकारों को वासुदेव प्रमुख राजसहस्रों के आवास स्थानों पर ले जाओ। (ते वि साहति ) राजा की आज्ञानुसार वे सब उन अशनादिवस्तुओं को वहां पर ले गये। (तएणं ते वासुदेवपामु. क्खा तं विडलं असणं ४ जाव पसन्नं च आसाएमाणा ४ विहरति ) इसके बाद उन वासुदेव प्रमुख राजाओं ने उस आनीत विपुल अशनादिरूप प्रसन्ना मदिरा तक की आहार की सामग्री को खाया (जिमिया भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा जाव सुहासणवरगया बहहि गंधब्वेहिं जाव विहरंति ) खा पी कर जब वे निश्चिन्त हो चुके और मुख प्रक्षालन के लिये भोजन स्थान से उठकर दूसरे निकट स्थान पर आये-तब उन्होंने कुल्ला किया और फिर सुन्दर अपने २ आसनों पर शांति पूर्वक आकर बैठ गये। इनके बैठते ही मनोविनोद के लिये લેકે જાઓ અને આ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારને સુરા, મધ, માંસ, સીધુ અને પ્રસન્ન મદિરાને અને ઘણી જાતના આ પુછપોને, વસ્ત્રોને, ગંધમાલ્ય અને અલંકારોને વાસુદેવ પ્રમુખ રાજસહસ્ત્રોના सापास स्थान पांया. (ते वि साहरति ) २०तनी भाशा प्रमाणे तसा सपास ते माध पहााने जमाना मावास स्थाने पडयाडी दीपा. (तएण ते वासुदेवपामुक्खा त विउल असण' ४ जाव पसन्नच असाएमाणा ४ विहरति ત્યારપછી તે વાસુદેવ પ્રસુખ રાજાઓએ ત્યાં પહોંચાડવામાં આવેલા પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરેથી માંડીને પ્રસન્ન મદિરા સુધીના બધી જાતના આહાર સામગ્રી વગેરેનું ખૂબ રૂચિપૂર્વક પાન કર્યું. (जिमिया भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता जाव सुहासणवरगया बहरि गंधवे हिं जाव विहरंति ) જમી પરવારીને જ્યારે તેઓ નિશ્ચિત થઈ ચૂક્યાં ત્યારે તેઓ મુખ પ્રક્ષાલન માટે ભેાજન સ્થાનથી ઊભા થઈને બીજા પાસેના સ્થાને ગયા. ત્યાં તેઓએ કોગળા કર્યા અને ત્યારપછી તેઓ ફરી પિતા પોતાના સુંદર આસનો श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीच रितवर्णनम् ૨૦ पविष्टाः बहुभिर्गन्धर्वैर्यावद् नाटकैश्चोपगीयमानाः उपन्नृत्यमानाश्च विहरन्ति = आसते स्म इत्यर्थः । ततः खलु स दुपदो राजा पूर्वापराह्नकालसमये कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छत खलु हे देवानुप्रियाः ! काम्पिल्यपुरे नगरे शृङ्गाटक यावत् त्रिकचतुष्कचत्वर महापथपथेषु वासुदेवप्रमुखाणां च राजसहस्राणामावासे आवाससमीपेषु दस्तिस्कन्धवरगता महता २ शब्देन उच्चैः स्वरेण यावद् उद्घोषयन्तः २ एवं वदत - एवं खलु हे देवानुप्रियाः । कल्ये - आगामीनि द्वितीय. गंधर्वो ने नाना प्रकार के स्तुत्यात्मक गीत गाये और नाटयकारों ने नृत्य दिखलाये । (एणं से दुवर राया पुण्यावरहकालसमयंसि कोई विपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी, गच्छह णं तुमे देवाणुपिया ! कंपिल्लपुरे सिंघोडग जाब पहेसु वासुदेवपामुकखाण य राय सहस्माण य आवासेसु हत्थि खंघवरगया महयार सहेणं जाव उग्योसेमाना २ एवं वदह, एवं खलु देवानुषिया ! कल्लं पाउ० दुवयरस रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धट्टजुण्णस्स भगिणीए दोवईए रायवर कन्नाए सयंवरं भविस्सइ ) इसके बाद दुपदराजा ने पूर्वापराह्न काल के समय में कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा है देवानु प्रियों ! तुमलोग हाथी पर बैठकर कांपिल्यपुर नगर में जाओ और वहां शृंगाटक यावत् त्रिक् चतुष्क चत्वर महापत्र आदि मार्गो में जो वासुदेव प्रमुख राजा के आवासस्थान हैं उनके समीप वडे जोर २ ઉપર શાંતિપૂર્વક બેસી ગયા. તેમના મને—વિનાદ માટે ગધાંએ અનેક જાતના સ્તુત્યાત્મક ગીતે ગાયાં અને નાટયકારેએ નૃત્ય કરી બતાવ્યાં. ( तरणं से दूबए राया पुण्वावरण्हकालसमयंसि कौटुंबिय पुरिसे सहावे, सदावित्ता, एवं वयासी, गच्छहणं तुमे देवाणुपिया ! कंपिल्लपुरे संघाडग जाव पहेसु वासुदेवपामुक्खाण य महया २ सदेणं जाव उग्घोसेमाणा २ एवं वदह, एवं खलु देवाणुपिया ! काल्लं पाउ० दुबयस्स रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्याए जुण्णस्स भागणीए दोवईए रायवरकन्नाए सयंवरं भविस्सर ) ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ પૂર્વાપરાત કાળના સમયે કૌટુંબિક પુરૂષાને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે હાથી ઉપર બેસીને કાંપિયપુર નગરમાં જાએ અને ત્યાંના શ્રૃંગાટક યાવત્ ત્રિક્ ચતુષ્ક ચત્થર મહાપથ વગેરે માર્ગોમાં-કે માર્ગોની પાસે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓના આવાસ ઘરે છે તેની પાસે બહુ મેટા સાદે આજાતની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे दिवसे प्रादुर्भूतमभातायां रजन्यां तेजसा ज्वलति सूर्येऽभ्युद्गते द्रुपदस्य राज्ञो दुहितुः=पुत्र्याः, चुलन्यादेव्या आत्मजायाः, धृष्टद्युम्नस्य भगिन्या द्रौपद्या राजवरकन्यायाः स्वयंवरो भविष्यति, तत्= तस्मात् खलु हे देवानुप्रिया ! यूयं द्रुपदं राजानमनुगृहन्तः स्नाता यावत सर्वालङ्कारविभूषिता - हरितम्कन्धवरगताः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन श्वेतवरचामरैरुध्यमानैश्व युक्ताः इयगजरथमहाभटकरेण चतुरङ्गबलेन यावत् परिक्षिताः परिवृताः यत्रैव स्वयंवर - से ऐसी घोषणा करते हुए कहो कि हे देवानुप्रिय ! कल सूर्योदय होने पर द्रुपद राजा की पुत्री चुलनी देवी की आत्मजा और धृष्टद्युम्न की बहिन राजवर कन्या- द्रौपदी का स्वयंवर होगा ( तं तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! दुपयं रायाणं अणुगिव्हे माणा व्हाया जाव विभूसिया हत्थिखंध वर गया सकोरण्ट० सेयवर चामर० हय गयरह० महया भडचडगरेणं जाव परिविखन्ता जेणेव सयंवर मंडवे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पत्तय२ नामंकिए आसणेसु निसीयह २ दोबई रायकण्णं पडिवालेमाणा २ चिट्ठह ) इस लिये हे देवानुप्रियों आपलोग दुपदराजा के ऊपर कृपा करके स्नान आदि से निबट कर एवं समस्त अलंकारो से विभूषित होकर जहाँ स्वयंवर मंडप है वहां पधारें । आते समय हाथियों पर बैठकर आयें। कोरण्ट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र उस समय आप सब के ऊपर तने हों और श्वेत सुन्दर चामर ऊपर ढोरे जा रहे हों । हय, गज, रथ एवं महाभटों का समूहरूप चतुरंगबल आप ઘાષણા કરે કે હૈ દેવાનુપ્રિયા ! આવતી કાલે સવાર થતાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી ચુલની દેવીની આત્મજા અને ધૃષ્ટદ્યુમ્નની ખરેન રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને स्वयंवर थशे. (तं तुम्भेणं देवाणुपिया ! दुवयं रायाणं अणुगिरहेमाणा व्हाया जाव विभूसिया इत्थिधवरगया सकोरण्ट० सेयवरचामर० हय गय रह० महया भडचडगरेण जाय परिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उपागच्छह, उवागच्छित्ता पत्तेयं नामं किए आसणेसु निसीयह २ दोवई रायकष्णं पडिवाले माणा २ चिट्ठह ) એથી હૈ દેવાનુપ્રિયેા ! તમે લેાકેા દ્રુપદ રાન્ન ઉપર મહેરબાની કરીને સ્નાન વગેરેથી પરવારીને તથા સમસ્ત અલંકારાથી વિભૂષિત થઇને જ્યાં સ્વયંવર મડપ છે, ત્યાં હાથીઓ ઉપર સવાર થઇને પધારે. કારંટ પુષ્પાની માળાઓથી શેલતું છત્ર તે વખતે તમારા ઉપર તાણેલું હાવું જોઈએ અને સફેદ ચમરા પણ તમારા ઉપર ઢોળાતા હોવા જોઇએ. હાથી, રથ અને મહાભટાના સમૂહ રૂપ ચતુર ગિણી સેના તમારી સાથે હોવી જોઇએ. સ્વયંવર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् मण्डपस्तत्रैवो पागच्छत, उपागत्य प्रत्येकं नामंकिएसु' नामाङ्कितेषु स्व स्व. नामाक्षरयुक्तेषु आसनेषु निपीदत, निषद्य द्रौपदी राजकन्यां 'पडिवालेमाणा २' प्रतिपालयन्तः २ प्रतीक्षमाणाः २ तिष्ठत इति घोषणां घोषयत, घोषयित्वा ममतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत, ततः खलु ते कौटुम्बिकास्तथैव यावत् प्रत्य पयन्ति । ततः खलु स द्रुपदो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादोत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! स्वयंवरमण्डपम् “आसियसमज्जिवलितं" आसिक्तसंमार्जितोपलिप्तम्-आसिक्तम्-जलप्रक्षेपेणार्टीकृतं, संमाजितं-कचराद्यपनयनेन संशोधितम् , उपलिप्तं-मृद्गोमयादिभिरनुलिप्तं, तथासुगंधधरगंधिय' सुगंधपरगन्धितं-अगुरुगुग्गुलकपूरसरलदाहादिजनितसुगन्धयुक्त, 'पञ्चवर्णपुप्फयुजोक्याएकलियं' पञ्चवर्णपुष्पपुञ्जोपचारकलितं । ' कालागुरुपवरकुंदुरुतुरुक-जाव गन्धपहिभूयं' कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुक-यावद्-गन्धवर्तिभूतं, अब यावच्छन्देन-धूवडझंतमघमपंतगन्धुधुयाभिराम'' इति बोध्यम् । सब के साथ हो । मंडप में आकर प्रत्येक जन अपने अपने नामवाले आसन पर बैठजावें । बैठकर फिर वहां वह राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें । (घोसणं घोसेह २ मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह) इस प्रकार की घोषणा करो और जब तुमलोग ऐसी धोषणा कर चुको तब इसकी हमें पीछे खबर दो। ( तएण ते कोडुबिया तहेव जाव पच्चपिण ति ) उन कौटुम्बिक पुरुषों ने नृपाज्ञानुसार ऐसा ही किया-बाद में हमलोग आपकी आज्ञानुसार घोषणा कर चुके हैं ऐसी सूचना राजा के पास भेज दी । (तरण से दुवए राया कोडु बिय पुरिसे सद्दावेइ, सहाविता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडवं आसियसंमन्जिभोवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुप्फपुंजोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क जाव गवटिभूयं मंचाइमंचकलियं મંડપમાં આવીને દરેકે દરેક પિતાપિતાના નામવાળા આસન ઉપર બેસી જાય. त्या मेसीन तमा २२२४५२ ४न्या दीपहीन भागमाननी प्रतीक्षा ४रे. (घोसण घोसेह २ मम एयमाणत्तिय पच्चपिणह) मा शत तमे घोष। २। भने साम लय त्यारे नने म२ मापो. (तएण ते कोडुपिया तहेव जाव पच्चप्पिणति ) ते टुमि ५३॥ सन्तानी माज्ञा प्रमाणे २५ मधु म પતાવી દીધું અને “અમે લેકએ આપની આજ્ઞા અનુસાર ઘોષણા કરી છે ? એવી ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડી દીધી. (तएणं से दूवर राया कोडुबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासीगच्छह ण तुम्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडवं आसियसंमन्जिभोवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुफ्फपुंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदक्कतुरुक्क जाव गंधवद्विक શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क --- २९२ ज्ञाताधमकथासूत्रे धृपदयमानमघमघायमानगन्धोधूताभिरामं, तत्र कालागुरुः कृष्णागुरुः, प्रवरकुन्दुरुष्क-चीडानामको गन्धद्रव्यविशेषः, तुरुष्कं च सिल्लकं,धूपश्च गन्धद्रव्य संयो. गन इति द्वन्द्वः, यदा-एतत्सम्बन्धी यो धूपस्तस्य दयनानस्य यः सुरभिर्मघमघायमान:-अतिशववान् , गन्ध उचूतस्तेनामिरामो रमणीपः स तथा तं तथागत्वाति मागत्य पति-गवदव्य तु टिका तद् मूर्त-तत्स्वरूपं सौरभ्यातिशयात् तथा'मंचाइमंचकलियं ' मञ्चातिमश्चलितं कुरुत, कृत्वा वासुदेवपमुखाणां बहूनां करेह, करित्ता वासुदेव पामुक्खाणं वहूगं रायसहस्ताणं पतेपं २ नामकाई आसणाई अत्युथपब्वत्युयाई रएह २ एयमाणतियं पच्वाप्पणह) इसके बाद द्रुपदराजा ने काटुम्बिक पुरुषा को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिया! तुमलोग जाआ-और स्वयंवर मंडप को आसिक्त कर-जलसिवन से आई करो, संमार्जित कराकचवर आदि को उससे बाहिर कर उसे साफ करो एवं उपलिप्त करो मिटी तया गोबर से उले लोपो। सुगंधवार्राषित करो उसमेंअगुरु, गुग्गुल, कपूर आदि को जलाकर उनकी गंध से उसे सुगंध युक्त बनाओ पंचवर्ण के पुष्पों के पुंज उसमें जगह २ रखो। कृष्णागुरु प्रवर कुन्दरुक, तुरुकलोवान इनके पूर्ण को वहां अग्नि में खूब जलाकर उनके गंध से उसे बहुत ही अधिक मनोभिराम बनाओ ज्यादा क्या-उसे ऐसा करदो कि जिससे ऐसा ज्ञात हो कि यह एक सुगंधित द्रा को वर्तिका है। वहां मंचां के ऊपर मंचों को भूयं मंचाइमंचकलिपं करेह, करित्ता वासुदेवपामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं पत्तेयं २ नामंकाई आसणाई अत्युयपचत्थुयाइ रएह २ एयमाणत्तियं पचप्पिणह) ત્યારપછી કુપદ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂષોને બેલાવ્યા અને બેલાવીને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકે જાઓ અને સ્વયંવર મંડપને આસિત કરે-પાણુ છાંટે, સંમાજિત કરે, કચરે વગેરે સાફ કરે, અને ઉપલિસ કરે, એટલે કે માટી તેમજ છાણથી લીંપે. સુગંધવર ગધિત કરો એટલે કે તે સ્થાને અગુરુ, ગુગ્ગલ, કપૂર વગેરેને ધૂપ કરીને તેની સુગંધથી તે સ્થાનને સુવાસિત કરો. પંચવર્ણન પુષ્પગુંજના સમૂહ સ્થાને સ્થાને ગોઠવીને તમે મંડપની શોભામાં અભિવૃદ્ધિ કરે. કૃષ્ણગુરૂ, પ્રવર, કુદરૂષ્ક, તુરૂષ્ક, લેબાન આ બધા પદાર્થોના ચૂર્ણને અગ્નિમાં નાખીને તે સ્થાનને સુગંધથી ખૂબ જ રમણીય બનાવી દે. તે સ્થાનને તમે એવું સરસ સુગંધમય બનાવી દે કે જેથી તે સુગંધિત દ્રવ્યની વર્તિકા (અગરબત્તી) જેવું લાગે. ત્યાં તમે મંચ ઉપર श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम् __ २९३ राजसहस्राणां प्रत्येकं २ नामाङ्कितान्यासनानि 'अत्थुयपञ्चत्थुयाई' आस्तृत प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादित प्रत्याच्छादितानि 'रएह ' रचयत, रचयित्वा एतामा. ज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत, तेऽपि कौटुम्विकपुरुषाः, यावत् प्रत्यर्पयन्ति । तएणं ते' वासुदेवप्रमुखाः बहुसहस्रसंख्यकाराजानः 'कलं ' कल्ये प्रादुर्भूतमभातायां रजन्यां यावत् तेजमा ज्वलति सूर्येऽभ्युद्गते स्नाता यावत् सर्वालंकारविभूषिता हस्तिस्कन्धवरगता सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण प्रियमाणेन श्वेतवरचामरैरुदयमानश्च युक्ता हय गज-यावत्-रथपदातिसमूहेन परिसता सर्पद्वर्या यावत् ' शङ्खपणहपटहादीनां रवेण यत्रैव स्थाने स्वयंवरमण्डपस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्यानुप्रविशन्ति, अनुपविश्य प्रत्येकं २ 'नामंकिएसु' नामाङ्कितेषु-स्वस्वनामाक्षरयुक्तेषु आस नेषु निषीदन्ति-उपविशन्ति, निषध द्रौपदी राजवरकन्यां पडियालेमाणा ' प्रतिपालयन्तः प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति । रखो। उन पर वासुदेव प्रमुख राजाओं के प्रत्येक के नाम के आसनों को आस्तृत-शुभ्रवस्त्र से ढककर प्रत्यवस्तृत-और द्वितीय शुभ्रवस्त्र से आच्छादित कर रखो। रख कर फिर हमें पीछे इस सब कार्य के समाप्त होने की खबर दो। (ते वि जाव पच्चप्पिणंति) इस प्रकार राजा की आज्ञानुसार उन कौटुम्विक पुरुषों ने सब कार्य उचित रूप में करके पीछे राजा को “ सब कार्य आज्ञानुसार यथोचित हो चुका है " ऐसी खबर करदी। ( तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउ० पहाया जाय विभूसियो हस्थिखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामराहिं हय गय जाव परिवुडा सचिड्डीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसंति, अणुपविसित्ता पत्तेयं नामंकिएस्तु आसणेतु निसीयंति, दोवइं रायवरकण्णं पडिवालेमाणा २ મંચની ગોઠવણ કરે. ત્યાં તમે વાસુદેવ પ્રમુખ દરેકે દરેક રાજાના નામથી અકિત થયેલા આસને આસ્તૃત-સ્વચ્છ વસ્ત્રથી ઢાંકીને, પ્રત્યાવસ્તૃત અને બીજા સ્વચ્છ વસ્ત્રથી ઢાંકે આ બધું કામ પતાવીને તમે અમને ખબર આપો. (ते वि जाव पच्चप्पिण ति) 241 रीत २रानी माज्ञा सामान ते मि પુરૂએ તે મુજબજ બધું કામ પતાવી દીધું અને ત્યારપછી “ તમારી આજ્ઞા મુજબ કામ બધું પતી ગયું છે ” એવી ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડી. (तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउ० पहाया जाव विभूसिया हस्थिखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामराहिं हय गय जाव परिवडा सविडीए जाच रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अपवि. संति, अणुपविसित्ता पत्तेयं नामंकिएसु आसणेसु निसीयंति, दोवई रायवरकणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथासूत्रे ततः खलु ' पंडुए ' पाण्डुः नामको राजा 'कलं ' कल्ये प्रातः काले स्नातो यावत् सर्वालङ्कारविभूषितो हस्तिस्कन्धवरगतः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण धियमाणेन श्वेतवरचामरैरुद्धूयमानैथ युक्तो हयगजरथपदातिसमूहेन परिवृतः सर्वदर्जा यावद - रवेण काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य मध्यमध्येन मध्येभूत्वा निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव स्वयंवरमण्डपो यत्रैव वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसंख्यका राजानस्तशैवोपागच्छति, उपागत्य तेषां वासुदेवप्रमुखाणां करतलपरिगृहीतदशन सं चिट्ठेति ) इस के बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा दूसरे दिन जब रात्रि समाप्त हो चुकी प्रातः काल हो गया-सूर्य उदित हो चुका तब स्नान यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर, हाथियों पर चढे हुए धियमाण कोरंट पुष्पों की माला से विराजित छत्र से युक्त होते हुए उद्धूयमान श्वेत वरचामरों से वीज्यमान होते हुए एवं हथ, गज यावत् स्थ पदाति समूह से परिवृत्त होते हुए अपनी राज विभूति के अनुसार यावत् शंख पणव पटह आदि के साथ २ जहां वह स्वयंवर मंडप था वहा आये। वहां आकर वे सब उसके भीतर प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर वे प्रत्येक जन अपने २ नाम से अंकित आसनों पर पृथक २ बैठ गये और राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। (तरणं से पंडुए राम्रा कलं पहाए जाव विभूसिए सकोरंट० हयगय० कंपिल्लपुरं मज्झ मज्झेणं निग्गच्छंति- जेणेव सयंवरमंडवे जेणेव वासुदेव पाभु. क्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता तेसिं वासुदेव पडिवालेमाणा २ चिह्नंति ) २९४ ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાએ બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પસાર થઈ ગઈ અને સવાર થતાં સૂર્ય ઉદય પામ્યા ત્યારે સ્નાન વગેરેથી પરવારીને પોતાના શરીરને ખધા આભૂષણેાથી શણગારીને, હાથીએ ઉપર સવાર થઈને, સુગ ંધિત કાર’૮ પુષ્પોની માળાએથી શોભિત અને છત્રથી યુક્ત થઈ ઉત્તમ શ્ર્વેત ચામરેથી વીજયમાન થતા તેમજ ઘેાડા, હાથી યાવત્ રથ પાતિ સમૂહથી પરિવૃત થતા પોતાના રાજ્ય વૈભવ અનુસાર યાવત્ શખ પણવ પટહ વગેરે વાાએાની સાથે જ્યાં સ્વયંવર મંડપ હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તે બધા મંડપમાં પ્રવિષ્ટ થયા અને પ્રવિષ્ટ થઇને તેએ પેાત. પેાતાના નામાંકિત જુદા જુદા આસન ઉપર બેસી ગયા અને રાજવર કન્યા દ્રૌપદીની પ્રતીક્ષા કરવા લાગ્યા. (तएण से पंडुए राया कल्लं व्हाए जाव विभूसिए हस्थिबंध वरगए सको• हम गय० सयंवरमंडवे जेणेव वासुदेव पामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणे रंट० શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयित्वा कृष्णस्य वासुदेवस्य श्वेतवरचामरं गृहीचा ' उयवीयमाणे ' उपवीजयन् चामराद्धृननेन सेवमान स्तिष्ठति ।। मू० २१ ।। पामुक्खाणं करयल वद्धावित्ता कण्हरस वासुदेबरस सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठति) इस के बाद पांडु नामक राजा प्रातः काल स्नान से निबट कर और समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने पट्ट गजराज पर चढ कर कांपिल्य पुर नगर के बीच से होते हुए उस स्व. यंवर मंडप में आये। जब ये गजराज पर चढे हुए आरहे थे उस समय इन के ऊपर कोरंट पुष्पों की माला से विरजित छत्र, छत्रधारियों ने तान रखा था। चामर ढोरने वाले शुभ्र चामर ढोर रहे थे। हय, गज, रथ एक पदादि समूहरूप चतुरगिणी सेना इनके साथ चल रही थी। राजसी ढाटबाट से ये सुसज्जित थे। विविध बाजे साथ में बजते हुएआरहे थे। मंडप में आकर ये जहां वासुदेव प्रमुख हजारों राजा बैठे हुए थे-वहां गये। वहां जाकर उन्होंने उन वमुदेव प्रमुग्व हजारों राजाओं को दोनों हाथ जोड कर बडी नम्रता के साथ नमस्कार किया। जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें बधाई दी। वधाई देकर फिर ये कृष्ण वासुदेव के ऊपर श्वेतचामर लेकर ढोरते हुए वहां बैठ गये। सू० २० ॥ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसिं बासुदेवपामुक्खाणं करयल०वद्धावेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स से यवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठति ) ત્યારપછી પાંડુ નામક રાજા સવારે સ્નાનથી પરવારીને સમસ્ત અલંકારથી પિતાના શરીરને શણગારીને અને પિતાના મુખ્ય ગજરાજ ઉપર સવાર થઈને કાંપિલ્યપુર નગરની વચ્ચેથી પસાર થઈને સ્વયંવર મંડપમાં આવ્યા. જ્યારે તેઓ ગજરાજ ઉપર બેસીને આવતા હતા ત્યારે કેરંટ પુપિની માળાઓથી શોભિત છત્ર છત્રધારીએાએ તાણેલું હતું. ચામર ઢળનારાએ વેત ચામર ઢળી રહ્યા હતા, ઘોડા, હાથી, રથ અને પદાતિ સમૂહ રૂપ ચતુરગિણી સેના તેમની સાથે સાથે ચાલી રહી હતી રાજસી ઠાઠથી તેઓ સુસજિજત હતા, અનેક જાતના વાજા વાગી રહ્યાં હતાં મંડપમાં આવીને તેઓ જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાએ બેઠેલા હતા ત્યાં ગયા. જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓ બેઠેલા હતા ત્યાં તેમની પાસે જઈને તેઓએ વાસુદેવ પ્રમુખ સંવે રાજાઓને ખૂબ જ નમ્રપણે બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા. જય વિજય શબ્દોથી તેઓને અભિનંદિત કર્યા. અભિનંદિત કર્યા બાદ તેઓ કૃષ્ણ વાસુवनी ५२ श्वत याम२ ढोणता त्यां सी गया. ॥ सूत्र २० ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे मूलम्-तएणं सा दोवइ रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हाया कयवलिकम्मा कय. कोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ, करित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ ॥ सू० २१ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं सा द्रौपदी राजवरकन्या यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्नाता ‘कयवलिकम्मा' कृतवलिकर्मा अन्नादिषु बायसादिप्राणिनां संविभागो बलिकर्म तत् कृतं यया सा तथा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता ‘सुद्रप्पावेसाई ' शुद्धप्रवेश्यानि शुद्धानि स्वच्छानि प्रवेश्यानि-सभायां प्रवेष्टुं योग्यानि, यत्परिधानेन सभायां लोकाः प्रवेष्टुमर्हन्तीत्यर्थः, मङ्गलानि-शुभानि वस्त्राणि ' पवरपरिहिय' प्रवरपरिहिता-वरविधिना प्रवरेण शोभाकारेण विधिना परिहिता-परिधानेन धृतवती आषत्वात् कर्तरिक्तः, ___ 'तएण सा दोबई रायवर कन्ना' इत्यदि ॥ टीकार्थ-(तएणं ) इस के बाद (सा दोबई रायवर कन्न) वह राजवर कन्या दौपदी (जेणेव मज्जणघरे) जहां स्नान घर था (तेणेव उवागच्छइ) उस ओर गई ( उवागच्छित्ता पहाया कययलिकम्मा कयकोज्यमंगल पायच्छित्ता) वहां जाकर २ उसने स्नानघर में स्नान किया, नहाकर फिर उसने काक पक्षि आदि को अनादि का भाग देने रूप बलि कर्म किया कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किये। (सुद्धप्पावेसाइं मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिया) सभा में प्रवेश के योग्य ५ शुद्ध स्वच्छ मांगलिक वस्त्र अच्छी तरह विधि के अनुसार पहिरी हुई (जिणपडिमाणं अचणं करेइ) 'तरुण' सा दोवईयवरकन्ना' इत्यादि टीजथ-(तएण) त्या२५४ी (सा दोवई रायवरकन्ना) ते २००४१२ उन्या द्रोपही (जेणेव मज्जणवरे) यां स्नानघर हेतु (लेणेव उवागच्छइ ) त्यां . ( उवागच्छिता व्हाया कयवलिकम्मा कय कोउयमंगलपायच्छि ना ) त्यां ने તેણે સ્નાનઘરમાં સ્નાન કર્યું. સ્નાન કર્યા બાદ તેણે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન વગેરેનો ભાગ અપને બલિકમ કયું-કૌતુક મંગળ પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યો, ( सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाइ पवरपरिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्रवमइ) સભામાં પ્રવેશવા એગ્ય સ્વચ્છ માંગલિક વસ્ત્રો તેણે સરસ રીતે પહેર્યા, त्या२५छी ते नान३२थी ५४२ नीsil. ( जिणपडिमाण अच्चण करेइ ) न. શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा २९७ वस्त्राणि परिधाय ' जिणपडिमाणं अञ्चणं करेइ ' जिनप्रतिमानां, कामदेव पतिमानांमर्चनं करोति विवाहविधि निर्विघ्न संपन्नार्थ मिति भावः 'करिता ' कृत्वा 'जेणेव अंते उरे तेणेव उवागछ।' यत्रैवान्तःपुरं तत्रैवो- पागच्छति ।।०२१॥ द्रौपदीचर्चा यत्तु-" जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ " इति पाठं समाश्रित्य भगवतोऽहंतः पूजनं जैनधर्मानुयायिभिः कर्तव्यमित्याहुस्तन्मिथ्यात्वविलसितम् , अस्य पाठस्य चरितानुवादरूपत्वेन विधायकत्वासम्भवात् । विधिवाक्यं हि जिनाज्ञाया बोधकत्वेन विधायकं भवति, यथा-भगवता विधेयतयोपदिष्टं पइविधावश्यक चतुर्विधजिन प्रतिमा का कामदेव की प्रतिमा का निर्विधन विवाह कार्य के लिये अर्चन करती है अचंन कर के फिर वह (जेणेव अंते उरे तेणेव उवा. गच्छइ ) जहाँ अतःपुर था वहां चली गई ॥ सू० २१ ।। द्रौपदी चर्चा जो "जिणपडिमाणं अञ्चणं करेइ" इस पाठका आश्रय लेकर प्रतिमापूजन की उपयोगिता कहते हुए यह कहते हैं, कि " अहंत भगवान की प्रतिमा की पूजा जैनधर्म के पालकों को करना चाहिये" यह उनका कथन मिथ्यात्व का विलास ही है। क्यों कि यह " जिनपडिमाणं " इत्यादि वाक्य चरित का ही अनुवादक है-अतः ऐसे वाक्य किसी मुख्य अर्थ के विधायक नहीं हुआ करते हैं । चारितानुवाद से तो सिर्फ जिस व्यक्ति ने जो २ आचरण किया है उसका ही बोध होता है। शास्त्र विहित मार्गके निर्देशक विधिवाक्य हुआ करते हैं-क्यों कि कि ऐसे वाक्य जिन भगवान की आज्ञाके विधायक होते हैं। जिस प्रकार षट् પ્રતિમાનું કામદેવની પ્રતિમાનું નિવિદને વિવાહકાર્ય સંપન્ન થવાના હેતુથી भयन ४२ छ, भयन रीन ( जेणेव अतेउरे तेणेव उवागच्छइ ) જ્યાં રણવાસ છે તે તરફ જતી રહી. એ સૂત્ર ૨૧ | દ્રૌપદી ચર્ચા sen४ "जिणपडिमाणं अञ्चणं करेइ" २॥ पाना साधारे प्रतिमा पूरનની ઉપગિતા સિદ્ધ કરતાં આ પ્રમાણે કહે છે કે “અહિત ભગવાનની પ્રતિમાનું પૂજન જૈનધર્મ પાલન કરનારાઓએ કરવું જોઈએ” તેમનું આ કથન સત્યથી બહુ દૂર છે એટલે કે આ વાત સાવ અસત્યથી પૂર્ણ છે. કેમકે ॥ " जिनपडिमाणं " पोरे पाय यरितना ४ मनुवा छे सटा भाटे એવાં વચન કેઈ વિશેષ અર્થને સ્પષ્ટ કરનારાં હોતા નથી. ચરિતાનુવાદથી તે ફક્ત જે માણસે જે તે આચરણ કર્યું છે, ફક્ત તેનું જ જ્ઞાન થાય તેમ છે. શાસ્ત્રવિહિત માર્ગ બતાવનારા તે વિધિ વાક જ થાય છે. જેવી રીતે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ज्ञाताधर्मकथासूत्र संघस्य कर्तव्यं भवति । तथा चोक्तम्-समणेण सावएण य अवस्सकायव्ययं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स य, तम्हा आवस्मयं नाम ॥१॥ इति (अनुयोगद्वा०) छाया-श्रमणेन श्रावकेण च अवश्यकर्त्तव्यकं भवति यस्मात् । अन्तेऽहर्निशस्य च तस्माद् आवश्यकं नाम ॥ १॥ " जं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा । तच्चित्ते तम्मणे जाव उभओकालं छव्विहं आवस्मयं करेंति (अनु०) छाया-यदिदं श्रमणो वा श्रमणी वा श्रावको वा श्राविका वा । तचित्तः तन्मना यावद् उभयकालं षविधमावश्यकं नाम ॥२॥ आवश्यक कार्यों को प्रतिपादन करने वाले वाक्य जिन प्रभु की आज्ञा के निर्देशक होने से साधु साध्वी श्रावक श्राविकारूप चतुर्विध संघ को उपादेय माने जाते हैं। शास्त्र में भी यही बात कही गई है 'समणे ण सावएणय' इत्यादि। शास्त्र विहित षटू आवश्यक कर्तव्य चतुर्विध श्रीसंघ को रात्री एवं दिनके अंतिमभागमें अवश्य करन चाहिये । उनके किये विना मुनि का मुनिपन नहीं और श्रावकका श्रावकपन नहीं । अतः षट् आवश्यक कार्य अवश्य करने योग्य होनेसे आवश्यक रूप से प्रतिपादित हुए हैं। "जं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे वा जाव उभओ कालं" इत्यादि। इसलिये जब ये आवश्यक हैं तब चाहे साधु हो या साध्वी हो श्रावक हो या श्राविका हो कोई भी क्यों न हो उसका यह कर्तव्य हो છ આવશ્યક કાર્યોનાં પ્રતિપાદન કરનારાં વાક્ય જન પ્રભુની આજ્ઞાનાં નિર્દેશક હોવાને કારણે સાધુ સાધવી શ્રાવક શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘના માટે ગ્ય ગણાય છે. શાસ્ત્રમાં પણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે – "समणेण सावएण य ' त्यादि શાસ્ત્રવિહિત છ પ્રકારના આવશ્યક કર્તવ્યો ચતુર્વિધ સંઘને રાત્રિ તેમજ દિવસના અંતિમ ભાગમાં ચોક્કસ પણે આચરવાં જોઈએ. તેનાં આચરણ વગર મુનિનું નિપણું નથી અને શ્રાવકનું શ્રાવકપણું નથી. એટલા માટે છ આવશ્યક કાર્ય ચોક્કસ કરવા યોગ્ય હોવાથી આવશ્યક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે. "जं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे जाव उभओ कालं इत्यादि-मा प्रमाणे न्यारे ते 'मावश्य' छे, त्यारे नवे સાધુ હોય કે સાધ્વી હોય તેમજ શ્રાવક હોય કે શ્રાવિકા હોય ગમે તે કેમ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा चारितानुवादवचनस्य विधायकत्वाङ्गीकारे मूर्याभदेवचरिते शस्त्रादिवस्तूनामर्चनस्य श्रूयमाणतया तन्मते तदपि विधेयं स्यात् । द्रौपद्यऽपि तत्र खलु प्रतिमायां भगवतोऽहंतः पूजनं न कृतम् , जैनप्रवचने प्रतिमापूजनस्य विधानाभावात् , प्रतिमापूजनस्य षट्कायजीवहिंसासाध्यतया जैनधर्मत्त्वाभावाच। तथाहि-प्रतिमापूजाऽङ्गीकारे तदर्थ षट्कायहिंसाऽवश्यंभाविनी, एवं च जाता है कि वह उन्हीं में चित्त लगाकर और मन को तन्मय करके इसे उभय काल में अवश्य करें। चरित के अनुवादक कथन करने वाले-वाक्य को यदि विधेय रूप से स्वीकार किया जाय तो सूर्याभदेवके चरित में सड़्गादि शस्त्र आदि वस्तुओं की भी पूजा सुनी जाती है-अतः उनमें भी पूज्यता आजानी चाहिये और इस प्रकार से पूजन के पक्षपातियों को उनका पूजन भी विधेय कोटि में मानलेना चाहिये। द्रौपदी ने भी वहां प्रतिमा में जो भगवान अर्हत की पूजन नहीं को उसका कारण यह है कि एक तो जैन प्रवचन में प्रतिमा पूजन के विधान का अभाव है और दूसरे-यह प्रतिमा पूजन षट् काय के जीवों की विराधना द्वारा साध्य होती है, इसलिये इस प्रतिमा पूजन में जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित-धर्म आत्मकल्यणसोधकरूप सम्यग्दर्शनादिक का अभाव है। षटू काय के जीवों की विराधना से जो साध्य हुआ करता है वहां सच्चे धर्म के दर्शन तक भी दुर्लभ हैं अतः प्रतिमा पूजन ન હોય તેની એ ફરજ થઈ પડે છે કે તે તેમાં જ પિતાનું ચિત્ત પરેવીને મનને તલ્લીન કરીને તેને બંને કાળમાં અવશ્ય આચરે. ચરિતને અનુવાદક રૂપે બતાવનાર વાક્યને જે વિધેય રૂપમાં સ્વીકારવામાં આવે તે સૂર્યાભદેવના ચરિતમાં શસ્ત્ર વગેરે વસ્તુઓની પણ પૂજાની વાત સાંભળવામાં આવે છે. એથી તેમનામાં પણ પૂજ્યતા આવી જવી જોઈએ અને આ રીતે પૂજનના પક્ષપાતીઓએ તેમની પૂજા પણ વિધેયના રૂપમાં માન્ય કરવી જોઈએ. દ્રૌપદીએ પણ ત્યાં પ્રતિમામાં ભગવાન અહંતનું પૂજન કર્યું નથી તેનું કારણ એ છે કે પ્રથમ તે જૈન પ્રવચનમાં પ્રતિમા–પૂજનનું વિધાન નથી અને બીજું આ પ્રતિમા પૂજન ષકાયના જીવોની વિરાધના દ્વારા સંપન્ન હોય છે, તેથી આ પ્રતિમા પૂજનમાં જીનેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત ધર્મ–આત્મકલ્યાણ સાધક રૂપ સમ્યગ્રદર્શન વગેરેને અભાવ છે. ષકાયના જીની વિરાધનાથી श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे प्राणातिपातविरमणवतिनां मुनीनां प्रतिमापूजोपदेशे स्वधर्मस्य मूलोच्छेदः स्यादेव । अत एव-जिनमणीतागमे प्रतिमापूजायाविधिोंपलभ्यते । प्रतिमास्थापनार्थ अंगीकार करने में उस पूजन के समय में षट् काय के जीवों की विराधना जब अवश्यंभावी है तब भला! हम इसे विधेय मार्ग कैसे मान सकते हैं, और कैसे यह स्वीकार किया जा सकता है कि इस पूजन का कर्ता सच्चे धर्म का उपासक है तथा प्रतिमापूजन को धर्म माना जावे तो एक बड़ा भारी दोष यह भी आकर उपस्थित होता है कि सर्व प्रकार के हिंसादिक पापों से सर्वथा विरक्त महाव्रती मुनिजन जब इस प्रतिमापूजनरूप धर्म का उपदेश करेंगे तब वे भी कारितादिरूप कराने आदि रूप से इसके कर्ता होने के कारण अपने मुनिधर्म के मूलतः ही विध्वंसक माने जायेंगे। मुनिजन हिंसादिक सावध व्यापारों के कृत, कारित एवं अनुमोदना इन तीन करण एवं तीन योग से त्यागी हुआ करते हैं। जब ये प्रतिमापूजन रूप धर्म का गृहस्थों के लिये व्याख्यान देंगे तब उनके व्याख्यान से प्रेरित हो गृहस्थ जन उस ओर अपनी प्रवृत्ति चालू करने वाले होंगें, और उस प्रकार के उनके व्यवहार से इस कार्य में षट्काय के जीवों की विराधना होने से उस विराधना જે સાથે થાય છે તેમાં તે સાચા ધર્મના દર્શન સુદ્ધાં દુર્લભ છે. એટલા માટે પ્રતિમા–પૂજન સ્વીકારવામાં તે પૂજન કરતી વખતે કાયના જીવોની વિરાધના જ્યારે એકસપણે થવાની છે ત્યારે અમે તેને વિધેય માર્ગ ક્યા આધારે માન્ય કરીએ. અને એની સાથે સાથે અમે એ પણ કેવી રીતે સ્વીકાર કરીએ કે આ જાતનું પૂજન કરનાર સાચા ધર્મને ઉપાસક છે? જે પ્રતિમા પ્રજનને ધર્મ રૂપે સ્વીકારીએ તે એમાં એક ભારે દોષ એ છે કે સર્વ પ્રકા૨નાં હિંસા વગેરે પાપોથી સર્વથા વિરક્ત મહાવ્રતી મુનિજને જ્યારે આ પ્રતિમા પૂજન રૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપશે ત્યારે તેઓ પણ કારિતાદિ રૂપ કરાવવા વગેરે રૂપથી એના કર્તા રૂપે હોવા બદલ પિતાના મુનિ ધર્મના મૂલતઃ વિવંસક ગણશે. મુનિજનો હિંસા વગેરે સાવધ વ્યાપારના કૃત, કારિત અને અનાદના આ ત્રણ કરણું અને ત્રણ યોગના ત્યાગી હોય છે. જ્યારે તેઓ પ્રતિમા–પૂજન રૂપ ધર્મનું ગૃહસ્થને માટે વ્યાખ્યાન આપશે ત્યારે તેમનાં વ્યાખ્યાનથી પ્રેરાઈને ગૃહસ્થ તે પ્રમાણે આચરશે જ અને આ જાતનાં તેમનાં આચરણેથી આ કામમાં ષકાય છની વિરાધના હોવાથી તે વિરાધનાને કરાવનારા આ ઉપદેશક મુનિઓ જ ગણાશે ત્યારે એમને અહિંસા વગેરે મહાપ્રતે ત્રિગ અને ત્રિકરણ વિશુદ્ધ રૂપે કેવી રીતે રહી શકશે ? એથી ધર્મ. લાભને ઈચ્છતાં પણ તેઓ આ જાતના વિચારોની ભૂલમાં જ મેટી ભૂલ કરી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३०१ देवायतनपतिमाऽऽरामकूपादिकरणे तदुपदेशदाने च पृथिवीकायहिंसाया अबश्यम्भावः । देवायतनादिकरणे पूजाङ्गतयास्नान प्रतिमास्नपनवस्त्रक्षालनादिकरणे च तदुपदेशदाने चाप्कायविराधनमपि, तथा-पूजाङ्गधूपदीपारात्रिकसम्पादनं चाग्निकायविराधनया विना न संभवति, वायुकायहिंसनं तु धूपदीपारात्रिका. के कराने वाले ये उपदेशक मुनिजन माने जायेंगे-तब इनके अहिंसादि महाबत त्रियोग और त्रिकरण विशुद्ध कैसे रह सकेंगे ? अतः लाभ की चाहना में इन विचारों की भूल में ही बड़ी भारी भूल होने से ये अपने धर्म के सच्चे आराधक नहीं माने जा सकेंगे। इसलिये यह बात अवश्य माननी चाहिये कि जिन प्रणीत आगम में प्रतिमापूजन की विधि नहीं पाई जाती है। इसी प्रकार प्रतिमा स्थापन, प्रतिमा प्रतिष्ठा करवाना, मंदिर वगैरह बनवाना एवं उस प्रतिमा की पूजा निमित्त बगीचा तथा कुआ आदि का करवाना ये बातें पृथिवी कायिक जीवों की हिंसा के कारण हैं अतः त्याज्य हैं। इनके बनवाने आदि का जो उपदेश करते हैं वे भी पृथिवीकायिक जीवों की हिंसा से मुक्त नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार पूजन का अंग होने से स्नान, प्रतिमा के अभिषेक तथा पूजन के वस्त्रों के धोने साफ करने में और उसके उपदेश देने में अप्काय के जीवों की विराधना होती है, धूपखेना, दीपक जलाना, आरती उतारना ये सब बातें अग्निकायिक जीवों की विराधना के विना नहीं हो सकती है अर्थात् इनमें अग्निकायिक जीवों की विराधना अवश्यंभाविनी है। બેસશે અને તેઓ પોતાના ધર્મના સાચા આરાધક ગણાશે નહિ. એટલા માટે આ વાત ચોક્કસપણે માની જ લેવી જોઈએ કે “જન પ્રત” આગમમાં પ્રતિમા–પૂજનની વિધિ મળતી નથી. આ પ્રમાણે પ્રતિમા–સ્થાપન, પ્રતિમા–પ્રતિષ્ઠા કરાવવી, મંદિર વગેરે બનાવવાં અને તે પ્રતિમાની પૂજા માટે ઉદ્યાન તેમજ વાવ વગેરે તૈયાર કરાવવાં એ પૃથ્વિ–કાયિક જીવોની હિંસાના કારણ છે–એટલા માટે ત્યાજ્ય તેને બનાવવા માટે જે લેકે ઉપદેશ આપે છે તેઓ પણ પૃથ્વિ-કાયિક જીની હિંસાથી મુક્ત થઈ શકતા નથી. આ રીતે જ પૂજનને માટે સ્નાન, પ્રતિમાનો અભિષેક તેમજ પૂજનના વસ્ત્રોને ધેવામાં અને તેના ઉપદેશમાં પણ અપૂકાયના જીવોની વિરાધના હોય છે. ધૂપ કર, દીપક કરે, આરતી ઉતારવી આ બધી વિધિઓ અગ્નિ-કાયિક જીવની વિરાધના વગર સંભવી શકે તેમ નથી એટલે કે તેઓમાં અગ્નિ-કાયિક જીવોની વિરાધના ચોક્કસપણે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दिभिश्चामरादिवीजनैर्नृत्यगीतवादित्रैश्च सविशदं भवति, वनस्पतिकायविराधनं च प्रतिमापूजानिमित्त केऽनन्तकायकोमलविविधफलपुष्पपत्रसंग्रहे नियतं भवति । पृथिवीकायाद्याश्रिता बहुविधनिरपराधहीनदीनदुर्बलप्रकृतिभीरुसंगोपितशरीरा द्वीन्द्रियादि पश्चेन्द्रियान्तास्त्रसा जीवा अपि छेदनभेदनस्वाश्रयविनाशजनितानन्तदुःखस्तीव्रतरवेदनामुपलभ्येतस्ततः स्खलितपतिता नियन्ते । धूपकेधुआ से, दीप तथा आरती की ज्योति से चमर आदि के ढोरने से, नृत्य करने से, गीत गाते समय मुख से निकले हुए गर्म वायु से, एवं वाजों के बजाने से वायुकायिक जीवों की विराधना होती हुई स्पष्ट मालूम देती है। वनस्पति कायिक जीवों की विराधना भी इस समय इस प्रकार से होती है, कि-मूर्ति पूजन के लिये उसके पूजक अनन्त कायिक ऐसे कोमल अनेक प्रकार के फल, पुष्प और पत्रों का संग्रह जो करता है इस प्रकार इस पूजन में षट्कायिक जीवों को हिंसा का आरंभ स्पष्ट देखा जाता है । तथा त्रस कायिक जीवों का भी इसके निमित्तहनन होता है और वह इस प्रकार से-कि जब पृथिवीकायिकादि जीवों का आरंभ प्रतिमा आदि के निर्माण में या देव आयतन (मन्दिर ) आदि के कराने में किया जाता है तो उस समय उसके आश्रित जो बहुत से अनेक जाति के निरपराधी, हीन, दीन, दुर्बल, प्रकृति से भयशील तथा संगोपित शरीरवाले ऐसे दीन्द्रियादिकसे लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी त्रस जीव रहते हैं वे सब के सब छेदन, भेदन, एवं स्वाश्रय के विनाश जनित अनंत दुःखों से संतप्त होकर થવાની જ છે. ધૂપના ધૂમાડાથી દીપક અને આરતીની તથી ચમર વગેરેને કેળવાથી તેમજ વાજાઓ વગાડવાથી વાયુકાયિક જીવની વિરાધના થાય છે તેની દરેકને સ્પષ્ટ પ્રતીતિ થતી જ રહે છે. વનસ્પતિ-કાયિક જીવની વિરાધના પણ તે વખતે આ પ્રમાણે થાય છે કે મૂર્તિ-પૂજન માટે પૂજા કરનારાઓ અનંત-કાયિક એવા કમળ ઘણી જાતનાં ફળે, પુપે અને પત્રોને એકઠાં કરે છે. આમ આ પૂજામાં ષડૂ-કાયિક જીવની હિંસા સ્પષ્ટપણે દેખાય છે. બસ-કાયિક જીવોનું પણ તેને લીધે હીન હોય છે. જેમકે જયારે પૃથ્વિ-કાયિક વગેરે જીવેને આરંભ પ્રતિમા વગેરેના નિર્માણમાં અથવા તે દેવ-આયતન (મંદિર) વગેરે બનાવવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે તેના આશ્રિત જે ઘણા અનેક જાતના નિરપરાધિ, હીન, દીન, દુર્બલ, પ્રકૃતિથી બીકણ તેમજ સંગે પિત શરીરવાળા એવા શ્રીન્દ્રિયાદિકથી માંડીને પંચેન્દ્રિય સુધીના જેટલાં ત્રસ જી રહે છે તેઓ સવે છેદન, ભેદન અને સ્વાશ્રયના વિનાશથી અનંત શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा धर्मस्य लक्षणं हि-जिनाज्ञापयोज्यमवृत्तिकत्वम् , " आणाए मामगं धर्म" इति भगवद्वचनात् , किं च-अगारानगारभेदेन धर्मस्य द्वैविध्यमभिधाय-भगवता-" अणगारधम्मो ताव" इत्यादिना सर्वमाणातिपातविरमणादि-रात्रिभोजनान्तान् अनगारधर्मानुपदिश्य तदनन्तरमिदं कथितम् 'अयमाउसो ! अणगारसामइए धम्मे पणत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उवहिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ' (औपपातिसूत्रम्) ___ अयमायुष्मन् ! अनगारसामायिका अनगारसिद्धान्तविषयः, धर्मः प्रज्ञप्तः । एतस्य धर्मस्य ‘शिक्षायामुपस्थितः 'आराधकः, निग्रंथो वा निग्रंथी वा विहरऔर वहां से गिर पड़कर अन्त में मर जाते हैं। जिनेन्द्र की आज्ञा में प्रवृति करना यही धर्म का लक्षण है। भगवान का भी आचारागसूत्र अ-६ उ. २ सू- ८ में यही कथन है " आणाए मामगं धम्म” इति । प्रभु ने जिस समय धर्म का उपदेश दिया उस समय उन्होंने इस धर्मके दो भेद कहे हैं इनमें एक१ सागारी गृहस्थका धर्म और दूसरा अनगार-मुनिका धर्म । " अनगार धम्मो ताव" इत्यादि सूत्र से समस्त जीवों की विराधना आदि से विरक्त होना यहां से लगाकर रात्रिभोजन का सर्वथा परिहार करना यहां तक जो कुछ कहा है वह सब अनगार धर्म को लेकर कहा गया है उसके बाद उन्होंने औपपातिक सूत्र में यह कहा है कि " अयमाउसो अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए, उवहिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ" हे आयु मन ! यह अनगारसामायिक-मुनियों का सिद्धान्त विषयक દુખેથી સંતપ્ત થઈને અને ત્યાંથી પડી જઈને, ભ્રષ્ટ થઈને અંતે મૃત્યુને ભેટે છે. જીનેન્દ્રની આજ્ઞા પ્રમાણે અનુસરવું એ જ ધર્મનું લક્ષણ છે. આચારાંગ सूत्र २५-६, ७-२, सू-८ मां पर भगवाने २प्रमाणे ४थु छ , “ आणाए मामगं धम्म इति" प्रभुमे यारे धर्म वि 6५हेश माल्या त्यारे तेभरे આ ધર્મના બે ભેદ બતાવ્યા છે ૧ સાગાર ગૃહસ્થને ધર્મ અને ૨ અનગર मुनिना यम. “ अनगारधम्मो ताव" वगेरे सूत्रथा समस्त वानी विशધન વગેરેથી વિરક્ત થવું અહીંથી માંડી રાત્રિ-જનને સંપૂર્ણપણે ત્યાગ કરવો અહીં સુધી જે કંઈ કહ્યું છે તે બધું અનગાર ધર્મને ઉદ્દેશીને કહેવામાં આવ્યું છે. ત્યારપછી ઔપપાતિક સૂત્રમાં તેઓશ્રીએ આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે( अयमाउसो अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एयरस धम्मस्स सिक्खाए, उदिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ) हे मायुस्मन् ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे माण आज्ञाया आराधको भवति । एतस्य धर्मस्याराधक एवाज्ञाया आराधक इत्युक्त्वाऽऽज्ञैव धर्मस्य प्रकाशकतया मूलमिति बोधितम् । तदनन्तरं च भगवता “अगारधम्म दुवालसविहं आइक्रवइ । तं जहा-पंच अणुव्वयाई, तिण्णिगुणव्वयाइं चत्तारि सिक्खावयाई" इत्यादिना द्वादशविधं धर्म निरूप्य कथितम् । 'अयमाउसो ! अगारसामइए धम्मे पण्णत्ते ' एयरस धम्मरस सिक्खाए उवद्विए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ" इति । धर्म कहा गया है-अर्थात् मुनियों का यह धर्म कहा गया है। इस धर्म की शिक्षा में जो उपस्थित होता है अर्थात् जो इस धर्म कीआराधना करते हैं- चाहे वे साधु हों चाहे साध्वी हों कोइ भी हो ये जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के आराधक होते हैं । इस धर्म की आरा. धना करनेवाला जीव ही जिनेन्द्र की आज्ञा का आराधक माना गया है इस कथन से " जिस बात में भगवान की आज्ञा हा वही धर्म का मूल है अन्य आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति है " यह बात समझाई गई है इस के बाद भगवान ने “अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ तं जहा-पंच अणुव्वयाइं, तिपिणगुणव्वयाइं चत्तारि सिक्खावयाई" इस सूत्र से यह प्रकट किया है कि गृहस्थ का धर्म १२ प्रकार का है ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाबत । इस प्रकार से कथन कर " अयमाउसो अगारसामइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धस्स सिक्खाए, उवहिए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ" इति-हे આ અગાર સામાયિક મુનિને સિદ્ધાન્ત વિષયક ધર્મ કહેવામાં આવે છે એટલે કે આ મુનિઓને ધર્મ કહેવામાં આવ્યો છે. આ ધર્મની શિક્ષામાં જે ઉપસ્થિત હોય છે એટલે કે આ ધર્મની આરાધના કરે છે- ભલે તેઓ સાધુ હોય કે સાધ્વીઓ ગમે તે કેમ ન હોય તેઓ જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધકો હોય છે આ ધર્મની આરાધના કરનારે જીવ જ જીનેન્દ્રના આરાધક ગણાય છે. આ કથનથી એ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે જે વાતમાં ભગવાનની આજ્ઞા હોય તે જ ધર્મ છે, આજ્ઞા વિરૂદ્ધ બીજું આચરણ અધર્મ छ. त्या२५छी लगवान 3 " अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ त जहा पंच अणुव्वयाई, तिणि गुणवयाइं चत्तारि सिक्खावयाई" मा सूत्र द्वारा स्पष्ट કરવામાં આવ્યું છે કે ગૃહસ્થને ધર્મ ૧૨ પ્રકાર છે-પ અણુવ્રત, ૩ ગુણવ્રત भने ४ शिक्षाबत. 20 रीते " अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाप उवदिए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३०५ छाया - अयमायुष्मन् ! अगारसामयिको धर्मः प्रज्ञप्तः, एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः ' = आराधकः श्रमणोपासको वा श्रमणोपासका वा विहरमाणा आज्ञाया आराधको भवति । इति ॥! raft rate द्वादशविधस्य धर्मस्याराधक एव श्रमणोपासक आज्ञाया आराधक इति बोधयताssशैव धर्मस्य मूलमिति बोधितम् । आचाराङ्गमुत्रेऽपि प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशे भगवताऽभिहितम् - " जाए सद्वाए णिक्खते तमेवमणुपालिज्जा - विजहित्ता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं । पणया वीरा महावीहिं | लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ।" इति आयुष्यमन् ! यह गृहस्थ का धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित - श्रमणोपासक मुनिजनों के भक्त ऐसे श्रावकजन अथवा श्रधिकाजन तीर्थकर प्रभु की आज्ञा के आराधक माने जाते हैं । इस सूत्र में भी यही प्रकट किया गया है कि इस १२ प्रकार के धर्म का आराधक ही श्रमणोपासक-श्रावक, श्राविका तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का आराधक है इस प्रकार समझानेवाले श्री जिनेन्द्र देव ने आज्ञा ही धर्म का मूल है यह समझाया है । आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशे में भगवान ने यह कहा है “ जाए सद्वाए निक्खते तमेव मणुपालिज्जा विजहिस्ता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं । पणया वीरा महावीहिं लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं कि जिस श्रद्धा उत्साह से "अर्हत प्रभु द्वारा प्रतिपादित सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके मार्ग है या नहीं है" इस प्रकार सर्व आणाए आराहए भवइ" हे आयुष्भन्त ! या गृहस्थ धर्म ताववामां भाव्यो છે. આ ધર્મની શિક્ષામાં ઉપસ્થિત શ્રમણેાપાસક મુનિના ભક્તજન-શ્રાવકે અથવા તેા શ્રાવિકાએ તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાના આરાધક ગણાય છે. આ સૂત્રમાં પણ આ પ્રમાણે જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે કે ૧૨ પ્રકારના ધના આરાધક જ શ્રમણેાપાસક શ્રાવક શ્રાવિકા તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાને આરાધકે છે. આ રીતે સમજાવનારા શ્રી જીનેન્દ્રદેવે આજ્ઞા જ ધંનું મૂળ છે આમ સમજાવ્યું છે. આચારાંગ સૂત્રના પહેલા અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં ભગવાને આ પ્રમાણે धुं छे- “ जाए सद्धाए णिक्खते तमेवमणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं । पणया वीरा महावीहिं लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं " જે શ્રદ્ધા-ઉત્સાહથી “ અહંત પ્રભુ વડે પ્રતિપ્રાતિસમ્યગ્ દન વગેરે મેાક્ષના માર્ગો છે કે નહિ” આ રીતે સવ આગમ વિષયક સર્વ શંકા તેમજ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - - - ३०६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यया श्रद्धया-सम्यक्त्वेन — विसोत्तिय ' विस्रोतसिकां शङ्का-सर्वशङ्कां देशशङ्कां चेत्यर्थः, यथा-'किमाहतो मोक्षमार्गोऽस्ति न वा ' इति सर्वागमविपयिका शङ्का सर्वशङ्का, तथा-" किमप्कायादयो जीवाः सन्ति न वा" इति देशशङ्का । तथा 'पुव्वसंजोगं ' पूर्वसंयोग-मातापित्रादिसम्बन्धं धनधान्यस्वजनादिसम्बन्धं वा, इदमुपलक्षणं-तेन पश्चात्संयोगमपि श्वशुरादिकृतं, 'विजहित्ता' विहाय परित्यज्य ‘णिक्वंत्ते' निष्क्रान्तः प्रव्रजितः । 'तं' तां श्रद्धाम् 'अणुपालिज्जा एव' अनुपालयेदेव-निरतिचारं रक्षेदित्यर्थः । ____ अथ-' परिशीलितमार्गोऽनुगम्यते' इति लोकरीत्या शिष्यश्रद्धादृढ़ीकरणाय पूर्वमहापुरुषाचरितोऽयं मार्ग इति । वीराः-भाववीराः संयमानुष्ठाने वीर्यवन्तः । महावी हिं' महावीथि= महावीथिः-सम्यग्दर्शनादिलक्षणो महामार्गः महापुरुषसे वितत्वात् , तां महावीथि आगम विषयक सर्वशंका का तथा “ अपू कायिकादिक जीव हैं या नहीं" इस प्रकार की देशशंका और माता पिता आदि के साथ के संबंधरूप पूर्व संयोग एवं धन, धान्य, स्वजन आदि संबंध, उपलक्षण से श्वशुर आदिरूप प्रश्चात् संयोग का परित्याग कर यह जीव संसार आदि पदार्था को हेय समझ उनसे सर्वथा विरक्त हो जाता है उस श्रद्धा का अतिचार आदि कों से रक्षा करनी चाहिये-उस श्रद्धा का अतिचार रहिक होकर मुनि को पालन करना चाहिये । जो मार्ग परिशीलित होता है उस पर अनेक प्राणी चलते हैं यह लौकिकरीति है। इसीरीति के अनुसार शिष्यों की श्रद्धा को दृढ करने के लिये “ यह मार्ग पूर्व में महापुरुषों द्वारा सेवित किया गया है " हमें समझाने के लिये सूत्रकार " पणया वीरा महावीहिं" इस अंश का कथन करते हैं “અષ્કાયિક વગેરે જીવે છે કે નથી” આ જાતની દેશ શંકા અને માતા પિતા વગેરેની સાથેના સંબંધ રૂપ પૂર્વ સંગ અને ધન, ધાન્ય, સ્વજન વગેરે સંબંધ ઉપલક્ષણથી “ શ્વસુર' વગેરે રૂપ પશ્ચાત્ સંગને પરિત્યાગ કરીને આ જીવ સંસાર વગેરે પદાર્થોને હેય સમજીને તેમના તરફ સંપૂર્ણપણે વિરક્ત થઈ જાય છે તે શ્રદ્ધાની અતિચાર વગેરેથી રક્ષા કરવી જોઈએ. તે શ્રદ્ધાનું પાલન મુનિએ અતિચાર વગર થઈને કરવું જોઈએ જે માર્ગ પરિ. શીલિત હોય છે તે તરફ ઘણાં પ્રાણીઓ જાય છે, આ લૌકિક પ્રથા છે. આ પ્રથા પ્રમાણે શિષ્યની શ્રદ્ધાને મજબૂત બનાવવા માટે “ આ માગ મહા પુરૂષ વડે સેવવામાં આવ્યા છે. ” આ વાત સમજાવવા માટે સૂત્રકાર " पणया वीरा महावीहिं " ॥ क्यनने द छ. वार में प्रसार हाय छ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३०७ 'पणया' प्रणता प्राप्ताः कठिनतरतपःसंयमाराधनेन प्राप्तवन्त इत्यर्थः । अय. मेव मार्गों मोक्षावाप्तिकरोऽशेषसंयमिसेवितत्वात् , तीर्थङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गमिममनुशीलितवन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणां श्रद्धापूर्वकं प्रवृत्तिर्यथा स्यादितिभावः । कश्चिन्मन्दधीः शिष्योऽनेकदृष्टान्तबोध्यमानोऽपि अपकायादिजीवेषु न श्रद्दधातीति तमुद्दिश्य कथयति-हे शिष्य ! तव मतियद्यपि अप्कायजीवविषये न वीर दो प्रकार के होते हैं ? द्रव्यवीर और दूसरे भाववीर । संयम के अनुष्ठान करने में जो शक्तिसंपन्न हैं वे भाववीर हैं ! ये जीव सम्यग्दर्शन आदि लक्षणरूप इस महाविस्तृतमार्ग को कि जो महापुरुषों द्वारा सेवित हुआ है कठिनतर तप और संयम की आराधना से प्राप्त कर लिया करते हैं । कहने का सार यही है कि भाववीर यही अपने चित्तमें विचार किया करते हैं कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यगचारित्र और सम्यग्तप रूप ही मार्ग है क्यों कि इसी से मुक्ति की प्रासी होती हैइसीलिये इस मार्गका समस्त संयमीजीवोंने पूर्व में सेवन किया है और तो क्या स्वयं तीर्थकर प्रभु ने भी इसी मार्ग की परिशीलना की है। इसलिये इस मार्ग में प्रवृत्ति सर्वहित विधायी है इस प्रकार यह मार्ग विश्वास योग्य होने से शिष्यजन भी श्रद्धापूर्वक इसमें प्रवृत्ति करें। कोई मन्दबुद्धिवाला शिष्य अनेक दृष्टान्तो द्वारा समझाये जाने पर भी यदि अप्काय आदि जीवों की श्रद्धा से रहित होता है तो उसे ૧ દ્રવ્ય-વીર, ૨ ભાવ-વીર. સંયમના અનુકાનમાં જે શક્તિશાળી છે તે ભાવ વીર છે. આ બધા જ સમ્યા-દશન વગેરે લક્ષણ રૂ૫ આ વિસ્તૃત માર્ગને કે જે મહાપુરૂષે વડે સેવવામાં આવ્યું છે-કઠણ તપ અને સંયમની આરા. ધનાથી મેળવી લે છે. કહેવાનો મતલબ એ છે કે ભાવ-વીરે પિતાના મનમાં આ પ્રમાણે જ વિચાર કરતા રહે છે કે ખરી રીતે સમ્યગૂ જ્ઞાન, સમ્યગ દર્શન, સમ્યગૂ ચારિત્ર રૂપ જ માર્ગ છે કેમકે મુક્તિની પ્રાપ્તિ એનાથી જ થાય છે. એટલા માટે જ પહેલાં થઈ ગયેલા બધા જીએ આ માર્ગનું જ અનુસરણ કર્યું હતું. તીર્થંકર પ્રભુએ જાતે પણ આ માર્ગની જ પરિશીલતા કરી છે. એથી આ માર્ગમાં પ્રવૃત્ત થવું તે બધી રીતે હિતાવહ છે. આ પ્રમાણે આ માર્ગ વિશ્વસનીય હવા બદલ શિષ્યો પણ શ્રદ્ધા રાખીને તેમાં પ્રવૃત્ત થાય. કઇક મંદ બુદ્ધિ ધરાવનાર શિષ્ય ઘણું દૂતે વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવવા છતાં પણ જે અષ્કાય વગેરે ની શ્રદ્ધાથી રહિત હોય છે તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂટ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे परिस्फुरति, तद्विषये विशेषज्ञानाभावात् , तथापि भगवदाज्ञया श्रद्धा नितरां विधेयेत्याशयेनाह-" लोगं च आणाए अभिसमेचा अकुतोभयं " इति।। " लोग " लोकम् अत्र लोकशब्देन प्रकरणबशादप्काय लोक एव गृह्यते, तमप्कायलोकं, च शब्देन अन्यांश्चापकायाश्रितान् जीवान् " आणाए" आज्ञया तीर्थकर वचनेन “ अभिसमेचा" अभिसमेत्य आभिमुख्येन सम्यग्ज्ञात्वा, अप्कायादयो जीवाः सन्तीत्येवमवबुध्येत्यर्थः, " अकुतोभयं " नास्ति कुतश्चित् समझाने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्य ! तुम्हारी बुद्धि अप्का यिक आदि जीवोंकी श्रद्धा करने में उन विषयक विशेषज्ञानके अभावसे यदि समर्थ नहीं है, तो भी भगवान की आज्ञा से तुम्हें उनके विषय में अपनी श्रद्धा को दूषित नहीं होने देना चाहिये-अर्थात् भगवान की आज्ञा प्रमाण मानकर तुम्हें उनके विषय में अपनी अतिशय श्रद्धा जाग्रत करनी चाहिये । सूत्रकार इसी अभिप्राय से कहते हैं कि "लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुताभयं" इति । अप्काय रूप लोक को तथा "च" शब्द से अन्य अप्काय के अश्रित जीवों को तीर्थकर प्रभु की आज्ञा से अच्छी तरह जानकर उनकी आज्ञानुसार उनका अस्तित्व मानकर आत्मकल्याण के अभिलाषी मुनियों को संयम का पालन करना चाहिये। सूत्रस्थलोक शब्द यहां प्रकरण के वश से अप. काय का बोधक है। "च" शब्द से तदाधित अन्य जीवों का ग्रहण हुआ है। "अकुतोभयं" शब्द का अर्थ संयम है कहीं से भी किसी તેને સમજાવવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે હે શિષ્ય ! તમારી બુદ્ધિ અષ્કાયિક વગેરે જેની શ્રદ્ધા કરવામાં તેમના વિષે સવિશેષ જ્ઞાનના અભાવના લીધે જે સમર્થ નથી તે પણ ભગવાનની આજ્ઞાથી તે પ્રત્યે તમે પિતાની શ્રદ્ધાને દૂષિત થવા દેશે નહિ એટલે કે ભગવાનની આજ્ઞા પ્રમાણ માનીને મંદ બુદ્ધિવાળા શિષ્યએ તેમના પ્રત્યે પિતાની વધારેમાં વધારે શ્રદ્ધા सयत ४२वी नये. सूत्रस२ मा प्रयोगनथा छ है “लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं " इति । सय ३५ याने ते 'च' शपथी બીજા અખાયાશ્રિત જીવોને તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાથી સારી પેઠે સમજીને તેમની આજ્ઞા મુજબ તેમનું અસ્તિત્વ માનીને આત્મકલ્યાણને ઈચ્છનારા મુનિ એ સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ, સૂત્રમાં આવેલે “લેક” શબ્દ અહીં પ્રકરણ વશાત અષ્કાયને વાચક છે. “ર” શબ્દથી તદાશ્રિત બીજા જીવોનું अहे थयुं छे. '' अकुतोभयं " शहनी म सयम छ. ५ या. એથી કંઈ પણ રીતે અને જેનાથી ભય હોતું નથી તે અકુતભય સંયમ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३०९ केनापि प्रकारेण प्राणिनां भयं यस्मात् सोऽकुतोभयः संयमस्तम् , "अणुपालिज्जा" अनुपालयेत् इति पूर्वोक्तेन सम्बन्धः । सर्वदा जीवाभिरक्षणरूपसंयमानुपालने सावधानतया यत्नः कार्यः इत्यर्थः । अत्र "जाए सद्वार णिक्खंते तमेवमणुपालिज्जा विजहिता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं" इत्यनेन श्रद्धाया आराध्यत्वे जिनाज्ञायाः सद्भावात् श्रद्धाया धर्मत्वं सिद्धम् । ___ श्रद्धादृढ़ीकरणमपि च धर्मस्तदर्थ " पणया वीरा महावोहिं" इति भगवदुपदेशस्य सद्भावात् । " लोगं च आणाए अभिस मेच्चा" इत्यनेनाज्ञायाः षट्कायजीवतत्त्वज्ञानहेतुत्वेन वर्णनात् तत्त्वज्ञानस्य धर्मत्वम् । भी प्रकार से जीवों को जिससे भय नहीं होता है वह अकुतोभयसंयम है भाव इसका यही है कि आत्म कल्याण के इच्छुक मुनियों को जीवों के संरक्षण रूप संयम की आराधना करने में सावधानता पूर्वक प्रयत्नशील रहना चाहिये। यहां "जाए सद्धाए निक्खते तमेवमणुपालिना, विजहिता विसोत्तियं पुत्वसंजोगं" इस सूत्रांश से यह बात समझाई गई है कि श्रद्धा की आराधना में जिनेन्द्र की आज्ञा का सद्भाव है अतः वहा धर्म है । अपि च श्रद्धा की दृढता करना यह भी धर्म है। इसी निमित्त "पणया वीरा महावाहिं" यह भगवान का उपदेश है। ___ "लोगं च अणाए अभिसमेचा" इस सूत्रांश से यह प्रकट होता है कि जब जिनेन्द्र की आज्ञा षटू कायिक जीवों के वास्तविक ज्ञान होने में हेतुरूप से वर्णित हुई है तो इस स्थिति में तत्वज्ञान धर्म है। છે. મતલબ એ છે કે આત્મકલ્યાણ ઈચ્છનારા મુનિઓને છાની રક્ષા રૂપ સંયમની આરાધના કરવામાં સાવધાન થઈને પ્રયત્ન કરતાં રહેવું જોઈએ. અહીં " जाए सद्धाए निक्खते तमेवमणुपालिज्जा, विजहित्ता विसोत्तियं पुत्वसंजोगं " આ સૂત્રાશ વડે આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે શ્રદ્ધાની આરાધનામાં જનેન્દ્રની આજ્ઞાને સદ્ભાવ છે એટલા માટે તેજ ધર્મ છે. અને શ્રદ્ધાને भरभूत मनावी ते ५ धर्म छे. या निमित्त " पणया वोरा महावीहि " આ ભગવાનને ઉપદેશ છે. "लोगच आणाए अभिसमेञ्चा" मा सूत्रांश १ मा पात २५ष्ट थाय છે કે જ્યારે જીનેન્દ્રની આજ્ઞા કાયિક જી વિષે વાસ્તવિક જ્ઞાન કરાવવા માટે જ કરવામાં આવી છે ત્યારે આવી પરિસ્થિતિમાં તત્વજ્ઞાન ધર્મ છે, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ___ अकुतोभयं' इत्यस्य-" अणुपालिज्जा" इत्यनेनान्वयाद् अकुतोभयंसंयमम् अनुपालयेदित्यपि भगवदाज्ञैव, तथा च संयमस्याऽऽराध्यतया विधानात् संयमस्य धर्मत्वं बोध्यम् । अपरं च-उत्तराध्ययनसूत्रो-"धम्माणं कासवो मुहं " इत्युक्तम् " धम्माणं" धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्रधर्माणां च "कासपो" काश्यपः काश्यपगोत्रीयः श्रीमहावीरवर्धमानस्वामी " मुहं " मुखं वक्ता वर्तते । अहिंसादौ खलु भगवतोऽर्हत आज्ञा वर्तते, पश्यागमेषु । यथा-आचाराङ्गसूत्रे " से बेमि-जे य अतीता, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमिस्सा अरहता भगवंतो, ते सव्वेवि एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूवेति'अकुतोभयं' इस पद का “ अणुपालिजा" इस क्रियापद के साथ अन्वय करने से यह अर्थ होता है कि अकुतोभयरूप संयम का पालन करना चाहिये, यह भी जब भगवान को आज्ञा ही है तो इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भगवान को आज्ञा से संयम आराधन करने लायक होने से धर्म रूप है । अपरं च-उत्तराध्ययन सूत्र में " धम्माणं कासवो मुहं " यह कहा है इसका भाव यह है कि श्रुत एवं चारित्र धर्मों के मुख-वक्ता-काश्यय गोत्रीय श्री महावीर वर्धमान स्वामी हैं । देखो उन्हों ने आगमों में अहिंसादिक महाव्रतों के पालने का मुमुक्षुओं मोक्षाभिलाषियों के लिये इस प्रकार आज्ञा प्रदान की है "से बेमि-जे य अतीता जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे वि एचमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परुति" सव्वे 'अकुतोभय' मा ५४ने। ' अणुपालिज्जा' 21 यापहनी साथे ४२વાથી આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે કે અકુતભય રૂપ સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. આ પણ ભગવાનની જ આજ્ઞા છે તો એનાથી આ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે કે ભગવાનની આજ્ઞાથી “સંયમ” આરધવા ગ્ય હોવાથી ધર્મરૂપ ७. मन वजी 'त्तध्ययन सूत्र 'भा “ धम्माणं कासवो मुहं" मा प्रमा. શેનો ઉલ્લેખ છે. એને અર્થ એમ થાય છે કે શ્રત અને ચારિત્ર ધર્મોના મુખ્ય-વકતા-કાશ્યપ શેત્રીય શ્રી મહાવીર વર્ધમાન સ્વામી છે. તેઓશ્રીએ અહિંસા વગેરે મહાવ્રતના પાલન કરનારા મેક્ષ ઈચ્છનારા લોકોને માટે આગમમાં આ જાતની આજ્ઞા કરી છે કે – “से बेमि-जे य अतीता जे य पडुवन्ना जे य आगमिस्सा अरहता भगवंतो ते सव्वे वि एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवे ति एवं' परूवेति सन्दे श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी रीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा सव्वे पाणा, सन्चे भूया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्या न अज्जा. वेयव्वा, न किलायव्वा, न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए, समेच्चा लोयं खेयन्नेहिं पवेइए। आहेतधर्मएव श्रद्धेय इति बोधयितु श्रीसुधर्मास्वामी माह-" से बेमि" इत्यादि । तीर्थकरैः स्वस्वशिष्येभ्यो यत् सम्यक्त्वमुक्तं तदहं ब्रवीमि । यद्वा'से' इत्यस्य 'स' इतिच्छाया । येन मया भगवतः श्री वर्धमानरवामिनस्तीथकरस्य सकाशे तद्वचनतस्तत्त्वज्ञानं लब्धं, सोऽहं ब्रवीमि ।- भगदुक्तार्थमेष कथयामि, तस्मान्मम वाक्यं श्रद्धेयमितिभावः। पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतच्या, न अजावेयेग्या, न परिघेत्तव्या, न परितावेयव्वा न किलामेयध्वा, न उहवेयवा। एस धम्मे सुद्धे णितिए समेच्चा लोयं खेयन्नेहिं पवेइए" (आ. सू० अ. ४ उ. १ सू० १) श्री सुधर्मा स्वामी इस सूत्र द्वारा जम्बूस्वामी को यह समझाते हैं कि अर्हतप्रभु द्वारा प्रतिपादित धर्म ही श्रद्धा करने योग्य हैं-वे इसमें कहते हैं कि तिर्थकर देवों ने अपने २ शिष्यों के लिये जिस सम्यक्त्व का कथन किया है वही तत्व उन तीर्थकर प्रभुके वचनों द्वारा श्रवण कर मैं तुम्हें समझाता हूँ अर्थात् मैं अपनी निजी कल्पना से इस विषय में कुछ भी न कह कर जो कुछ तुम्हें समझाउँगा वह तीर्थकर प्रभु की मान्यतानुसार ही समझाऊँगा अताइस में संदेह के लिये थोड़ी सी भी जगह नहीं है-इसलिये इस मेरे कथन का मूलस्रोत जय श्री तीर्थंकर प्रभु का उपदेशश्रवण है तब यह श्रद्धेय-श्रद्धा करने योग्य आवश्य है भगवान का यह आदेश है-कि जितने भी पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हतव्या, न अज्जावेयव्वा, न परिधेत्तव्वा, न परितावेयव्वा, न किलामेयव्वा, न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सद्धे णितिए सभेच्चा लोय खेयनेहि पवेइए" ( आ. सू. अ. ४ उ. १ सू. १) શ્રી સુધર્મા સ્વામી આ સૂત્ર વડે શ્રી અંબૂ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે કે અહંત પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત ધર્મ જ શ્રદ્ધેય છે, તેઓ આ સૂત્રમાં કહે છે કે તીર્થકર દેએ પિતપોતાના શિષ્ય માટે જે સમ્યકત્વનું નિરૂપણ કર્યું છે તે જ તત્ત્વ તીર્થંકર પ્રભુના મુખથી શ્રવણ કર્યા બાદ હું તમને સમજાવી રહ્યો છું. એટલે કે હું પિતાની મેળે આમાં કંઈ પણ ઉમેર્યા વગર તીર્થકર પ્રભની માન્યતા મુજબ જ તમને સમજાવીશ. એચી આમાં શંકાને માટે સહેજ પણ સ્થાન નથી. આ પ્રમાણે જ્યારે મારા કથનનો મૂળ સોત શ્રી તીર્થ કર પ્રભનું ઉપદેશ શ્રવણું છે ત્યારે તે શ્રદ્ધેય જ છે. ભગવાનની આ પ્રમાણે આજ્ઞા છે કે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ------ - - - -- - - - - - - - --- - -- - - - - - - - - - ३१२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ___ भगवदुक्तार्थमाह-" जे य अतीता" इत्यादि । ये च अतीताः अतीतकालिकाः, ये च पडुप्पना ' प्रत्युत्पन्नाः वर्तमानकालिकाः पञ्चभरतेषु पञ्चैरवतेषु पञ्चमहाविदेहेषु वर्तमानाः, ये च " आगमिस्सा" आगामिना-भविष्यत्कालभाविनः, ते सर्वेऽपि अर्हन्तो भगवन्तःएवं वक्ष्यमाणमकारेण “आइक्वंति" आख्यान्ति-परमश्नावसरे कथयन्ति । अत्र वर्तमानग्रहणमुपलक्षणं तेनातीतानागभूतकाल में तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में भी पांच भरत, पांच ऐरचत तथा पांच महाविदेह सम्बन्धी जितने भी तीर्थकर हैं और भविष्यत काल में जो तीर्थकर होंगे उन सब ने जब उनसे किसी ने प्रश्न किया, तो एक यही उत्तर दिया है देव एवं मनुष्यों की सभा में अपनी सर्वभाषा में परिणमित हुई अर्धमागधीरूप दिव्यध्वनि द्वारा उन्हों ने समस्त जीवों को यही समझाया है, और हेतु, दृष्टान्नों द्वारा इसी बात की पुष्टि की है। वक्तव्य विषय के भेद और प्रभेदों को प्रकट करते हुए उन्हों ने अच्छी तरह से यही प्ररूपणा की है कि समस्त प्राणी पृथिवी आदिक एकेन्द्रिय स्थावर जीवों से लेकर द्वीन्द्रि यादिक पंचेन्द्रिय जीव पर्यन्त त्रस जीव, चतुर्दश भूतग्रामरूप समस्त भूत, नरकगति, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति एवं देवगति के समस्त जीव, एवं अपने द्वारा किये गये कर्मों के उदय के फल स्वरूप सुख दुःख आदि का अनुभव करने वाले समस्त सत्व दण्ड आदि द्वारा कभी भी ताडन करने योग्य, घात करने योग्य, ये मेरे आधीन हैं ऐसा ख्याल ભૂતકાળમાં જેટલા તીર્થકર થયા છે, વર્તમાનકાળમાં પણ પાંચ ભરત, પાંચ ઐરવત તથા પાંચ મહાવિદેહ સંબંધી જેટલા તીર્થ કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં જેટલા તીર્થંકર થશે તે બધામાંથી જ્યારે કેઈએ પ્રશ્ન કર્યો ત્યારે એક જ ઉત્તર આપે છે, દેવ અને માણસની સભામાં પિતાની સર્વ ભાષામાં પરિ. ણમિત થયેલી અધ માગધી રૂ૫ દિવ્યધ્વનિમાં તેઓએ બધા ને એજ વાત સમજાવી છે અને હેતુ તેમજ દૃષ્ટાંત વડે આ વાતનું જ સમર્થન કર્યું છે. વક્તવ્ય વિષયને ભેદ અને પ્રભેદને સ્પષ્ટ કરતાં તેઓએ સરસ રીતે એજ પ્રરૂપણ કરી છે કે સમસ્ત પ્રાણીઓ પૃથ્વિ વગેરે એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીથી માંડીને હીન્દ્રિય વગેરે પંચેન્દ્રિય જીવ સુધીના ત્રસ જીવ, ચતુર્દશ ભૂતગ્રામ રૂપ સમસ્ત ભૂત, નરક ગતિ, તિર્યંચ ગતિ, મનુષ્ય ગતિ અને દેવ ગતિના બધા છે, અને પોતાના વડે કરવામાં આવેલાં કર્મોના ઉદયના ફળ સ્વરૂપ સુખ દુઃખ વગેરેને અનુભવતા બધા સ દંડ વગેરેથી કઈ પણ વખત તાડન કરવા યોગ્ય કે ઘાત કરવા લાગ્ય, કે એ મારા આધીન છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३३ तयोरपि ग्रह्णम् , तथा च-' एवमाचख्युः, एवमाख्यास्यन्ति' इत्यपि योजनी. यम् । एवं सर्वासु क्रियासु योजनीयम् । तथा-एवं " भासंति" भाषन्ते-मुरनरपरिषदि सर्वजीवानां स्वस्वभाषापरिणामिन्यार्धमागध्या भाषया ब्रुवन्ति । तथा-एवं" पण्णवेति" प्रज्ञापयन्ति-हेतुदृष्टान्तादिना प्रकर्षण बोधयन्ति । तथाएवं · परूति ' प्ररूपयन्ति-तत्तद्भेदं प्रदय प्रकर्षेण निर्णयन्ति । ननु सर्वेऽप्यहन्तो भगवन्तः-किमाख्यान्तीत्यादिजिज्ञासायामाह- सम्वेपाणा' इत्यादि । सर्वेनिरवशेषाः, प्राणाः प्राणिनः, पृथिव्यादयः स्थावरा कर परिग्रह रूप से संग्रह करने योग्य, अन्न, पान आदि के निरोध एवं गर्मीसर्दी आदिमें रखने से कभी भी पोडा पहुँचाने योग्य और विषप्रदान एवं शस्त्र के आघात से विनाश करने योग्य नहीं हैं। सूत्र में “आइक्खंति-आख्यान्ति" यह वर्तमानकालिक-क्रिया पद अतीत और अनागतकालिक क्रियापद का उपलक्षक है । अतः इस से यह अर्थ प्रतीत होता है कि उन तीर्थंकर प्रभुओं ने वर्तमान में जैसा कहा है वैसा ही उन्हों ने या अन्य भूत कालिक तीर्थकरों ने भूत काल में भी कहा है एवं आगामी कालमें भी वे वैसा ही कहेंगे। इसी प्रकार " भासंति, पण्णवेति" इत्यादि क्रियापदों के साथ भी अतीत और अनागत कालिक क्रियादोंका संबंध कर लेना चाहिये। इस कथन से सूत्रकार ने उनके कथन में परस्पर में विरुद्ध अर्थकी प्ररूपणा का अभाव प्रदर्शित किया है जो कुछ उन्हों ने कहा है। वह भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में से किसी भी काल में किसी भी એવું સમજીને પરિગ્રહ રૂપથી સંગ્રહ કરવા યોગ્ય, કે અન્ન, પાન વગેરેને નિરોધ અને ગર્મી, ઠંડી વગેરેમાં રાખીને કઈ પણ વખતે પીડિત કરવા ગ્ય અને વિષ આપીને તેમજ શાના આઘાતથી વિનાશ કરવા યોગ્ય નથી. सूत्रमा “ आइक्खति आख्यान्ति " मा वर्तमान लिया५४ मतीत તેમજ અનોગત કાલિક ક્રિયાપદનું ઉપલક્ષક છે. એથી એના વડે આ જાતના અર્થની પ્રતીતિ થાય છે કે તે તીર્થંકર પ્રભુએ વર્તમાનકાળમાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે પ્રમાણે જ તેઓએ અથવા તો બીજા ભૂતકાલિંક તીર્થકરોએ ભૂતકાળમાં પણ કહ્યું છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તેઓ તે પ્રમાણે જ કહેશે. આ शत “ भासंति, पण्णवें ति" वगैरे ठियापहोनी साये ५५५ मतीत मन मनाગત કાલિક ક્રિયાપદને સંબંધ જોડવું જોઈએ. આ કથનથી સૂત્રકારે તેમના કથનમાં પરસ્પરમાં વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણને અભાવ બતાવે છે. તેમણે જે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे " 66 द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यःतास्त्र साश्चेत्यर्थः, इन्द्रियादिप्राणानां यथासम्भवंधारणात् तेषु प्राणिश्वमस्तीति भावः । तथा सर्वे ' भूया' भूताः = भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति भूताः - चतुर्दश भूतग्रामखपाः, तथा - सर्वे जीवाः = जीवन्ति जीवि ध्यन्त्यजीविषु रिति जीवाः- नारक तिर्यद् मनुष्य देवाः, तथा सर्वे "सत्ता " सवा:= प्रमाण द्वारा बाधित नहीं हो सकने से पूर्वापर विरोध रहित ही कहा है । प्राण शब्द से सूत्रकार ने बस और स्थावर प्रणियों का ग्रहण किया है। क्यों कि १० द्रव्य प्राणों में से इनको अपने २ याग्य प्राणी का सद्भाव पाया जाता है। अतः इनके सद्भाव से ही ये प्राणी कहे जाते हैं । " भवन्ति भविष्यन्ति, अभूवन् " यह भूत शब्द की व्युत्पत्ति है । इसका भाव यही है कि जो वर्तमान में सत्ता विशिष्ट हैं, आगामी काल में सत्ता विशिष्ट रहेंगे एवं भूतकाल में भी जो सत्ता विशिष्ट थे । इस व्युत्पत्ति से सूत्रकार ने यह प्रदर्शित किया हैं कि प्रत्येक जीवादिक पदार्थ किसी भी काल में उत्पाद और व्यय धर्म विशिष्ट होते हुए भी अपनी २ सत्ता से रहित नहीं होते हैं। क्यों कि द्रव्य का " उत्पादव्ययध्रौव्यं सत् " उत्पाद, और धौव्य ये स्वभाव है । इससे यह बात निश्चित कोटि में आता है कि किसी भी नवीन पदार्थ का उत्पाद नहीं होता है और न सत् पदार्थ का विनाश ही होता है । " सतो विनाशः असतश्चोत्पादो न " जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविषु " यह जीव शब्द की व्युत्पत्ति है । કંઇ કહ્યું છે તે ભૂત ભવિષ્યત અને વમાનકાળમાંથી કોઈ પણ કાળમાં ગમે તે પ્રમાણ દ્વારા આધિત નહિ હોવા બદલ પૂર્વાપર વિષ રહિત જ કહ્યું છે, व्यय "" 66 ३१४ ܕܙ ܕܪ 66 भवन्ति, " प्राण શબ્દ વડે સૂત્રકારે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણીઓનું ગ્રહણ કર્યુ છે. કેમકે ૧૦ દ્રવ્ય પ્રાણેામાંથી એમનામાં પાતપેાતાને ચાગ્ય પ્રાણાના સદ્ભાવ મળે છે. એથી એમના સદૂભાવથી જ તેઓ પ્રાણી કહેવાય છે. भविष्यन्ति, अभूवन् આ ભૂત શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. એના અર્થ આ પ્રમાણે છે કે વર્તમાનકાળમાં જેએ સત્તા વિશિષ્ટ છે, તેએ ભવિષ્યકાળમાં સત્તા વિશિષ્ટ રહેશે અને ભૂતકાળમાં પણ જેએ સત્તા વિશિષ્ટ હતા. આ વ્યુત્પત્તિ વડે સૂત્રકારે એ બતાવ્યું છે કે દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થ કાઈ પણ કાળમાં ઉત્પાદ અને વ્યયધમ વિશિષ્ટ હેાવા છતાંએ પેાતપેાતાની સત્તાથી રહિત હતા नथी. भडे द्रव्यना " उत्पादव्ययator "" सत् ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્ય સ્વભાવ છે. એથી એ વાત ચેાક્કસ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે કઈ પણ નવીન પદ્માના ઉત્પાદ થતા નથી અને સત્ પદાથૅના વિનાશ પણુ થતા નથી. " सतो विनाशः असतश्चोत्पादो न " " जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविषु २५॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ ܕܕ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा स्वकृतकर्मजन्यमुखदुःखानुभविनः । अत्र सर्वपाणिषु पुनः पुनर्दयाकरणाय पर्यायशब्दप्रयोगः। _ 'न हंतव्वा' न हन्तव्याः दण्डादिभिर्न ताडयितव्याः इत्यर्थः, “न अज्जावेयव्या" नाज्ञापयितव्या=न घातयितव्या इत्यर्थः, " न परिवेत्तव्वा " न परिग्रहीतव्याः इमे ममायत्ता इति कृत्वा परिग्रहरूपेण न स्वीकर्तव्याः, " न परिताजो जीते हैं, जीवेंगे और जिये है, इस कथन से सूत्रकार ने जीव में त्रिकाल में भी जीवनत्व धर्म का अभाव नहीं होता है यह प्रदर्शित किया है चाहे जीव एक इन्द्रिय अवस्थावाला भी हो तो भी वह जीवन अवस्था से रहित नहीं होता है इससे वृक्षादिकों में अचेतनता मानने वाले बौद्ध आदिकों का मन्तव्य खंडित होता है । सूत्र में प्राणी, भूत, और सत्त्व इन एकार्थक पर्यायवाची शब्दों का जो सूत्रकार ने प्रयोग किया है उनका मुख्य प्रयोजन "समस्त जीवों में बारंबार दया करनी चाहिये " है। ___ यह वीतरागप्रभु द्वारा प्रतिपादित प्राणातिपातविरमणरूप धर्मशुद्ध पापानुबन्ध रहित हैं । इस कथन से सूत्रकार ने इस बात की पुष्टि की है जो अवीतराग-शाक्य आदि द्वारा धर्मरूप से प्रतिपादित हुआ है तथा जिसे उन्होंने धर्मरूप से स्वीकार किया है वह वास्तविक धर्म नहीं है । कारण कि इनमें हिंसादिक दोषों का सद्भाव पाया जाता है इनके જીવ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. જેઓ જીવે છે, જીવશે અને જીવ્યા છે. આ કથન વડે સૂત્રકારે જીવમાં ત્રિકાળમાં પણ જીવનત્વ ધમને અભાવ થતું નથી, આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે. ભલે તે જીવ એક ઇન્દ્રિય અવસ્થાવાળો હોય છતાંએ તે જીવન અવસ્થાથી રહિત થતો નથી. આ કથનથી વૃક્ષ વગેરેમાં અચેનતા માનનારા બૌદ્ધ વગેરેના મતનું ખંડન થઈ જાય છે. સૂત્રકારે સૂત્રમાં જે પ્રાણ, ભૂત અને સત્વ આ બધા એકાWક પર્યાયવાચી શબ્દને જે પ્રયાગ કર્યો છે તેનું ખાસ કારણ “બધા જેમાં વારંવાર સદય રહેવું જોઈએ” તે જ છે. વીતરાગ પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત પ્રાણાતિપાત વિરમણ રૂપ આ ધર્મ શુદ્ધ પાપાનબન્ધ રહિત છે, આ કથનથી સૂત્રકારે એ વાતને પુષ્ટ કરી છે કે જે અવીતરાગ-શાક્ય વગેરે દ્વારા ધર્મરૂપથી પ્રતિપાદિત થયે છે તેમજ તેમણે જેને ધર્મ-રૂપથી સ્વીકાર્યો છે તે ખરેખર ધર્મ નથી. કેમકે તેમાં હિંસા વગેરે દેને સદૂભાવ છે. અસર્વજ્ઞ તથા રોગયુક્ત લેકે દ્વારા પ્રતિપાદિત હોવાને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वेयव्या" न परितापयितव्याः अन्नपानाधवरोधनेन ग्रीष्मातपादौ स्थापनेन च न पीडनीयाः, " न किलामेयन्या" न क्लामयितव्याः न खेदयितव्याः-न विषशस्त्रादिना मारयितव्याः। एषः अनन्तरोक्तः सर्हिद्भगवत्मरूपितः, धर्मः सर्वपाणिप्राणातिपातविरमणरूपः, शुद्धः निर्मल:-पापानुवन्धरहित-इत्यर्थः । आईतधर्मादन्यस्तु धर्मत्वेन यः शाक्यादेरभिमतः स खलु असर्वज्ञसरागोपदिष्टत्वेन हिंसादिदोषसद्भावेन च न शुद्ध इति भावः । अत एव-एष नित्या अविनाशी, सर्वदा पञ्चसु महाविदेहेषु सद्भाव का कारण उसमें असर्वज्ञ और सरागियों द्वारा प्रणीतता ही है पूर्ण ज्ञानीयों द्वारा प्रदर्शित मार्ग ही शुद्ध होता हैं इसका कारण उनमें राग द्वेष का सर्वथा अभाव ही होता है । असर्वज्ञ या रागद्वेषकलुषित. चित्तवालों द्वारा प्रदर्शित मार्ग इसलिये शुद्ध नहीं होता है कि वे एक तो उस विषय के पूर्ण ज्ञाता नहीं होते, दूसरी अपनी रागद्वेषमयी प्रवृ. त्ति को पुष्ट करने के लिये उसकी अन्यथा भी प्ररूपणा कर देते हैं। ऐसा धर्म शाश्चतिक नित्य नहीं होता है-क्यों कि ऐसा धर्मका विशिष्ट ज्ञानियों-केवलज्ञानियों द्वारा जीवों का कल्याण की कामना से निराक रण कर दिया जाता है । वीतरागप्रतिपादित धर्म ही अविनाशी रहता है, और उसीसे जीवों का सदा कल्याण होता रहता है । इसमें अन्य. थाप्ररूपणाके लिये थोड़ी सी भी जगह नहीं मिलती है । पंच महाविदेह क्षेत्रों में अब भी इस शुद्ध धर्मका सद्भाव है । इसी अपेक्षा इसे सूत्रकारने नित्य-अविनाशी कहा है । शाश्वतगतिरूप मुक्ति का कारण होने से લીધે જ તેમાં હિંસા વગેરે સદેષતા છે. પૂર્ણજ્ઞાનીઓ વડે પ્રદર્શિત માર્ગે જ શુદ્ધ હોય છે. કેમકે તેઓમાં સંપૂર્ણપણે રાગદ્વેષને અભાવ જ હોય છે. અસર્વજ્ઞ કે રાગદ્વેષ કલુષિત ચિત્તવાળા લેકે વડે પ્રતિપાદિત માર્ગ શુદ્ધ એટલા માટે હોતા નથી કે તેઓ પ્રથમ તે તે વિષયને સંપૂર્ણપણે જાણતા નથી અને બીજું તેઓ પિતાની રાગદ્વેષમયી પ્રવૃત્તિને પુષ્ટ કરવા માટે તેની અન્યથા પ્રરૂપણા પણ કરી બેસે છે. એ ધર્મ શાશ્વતિક–નિત્ય હેતે નથી કેમકે એવા ધર્મનું વિશિષ્ટ જ્ઞાનીઓ-કેવળજ્ઞાનીઓ-વડે જીવોની કલ્યાણ કામનાથી પ્રેરાઈને નિરાકરણ કરવામાં આવે છે. વીતરાગ પ્રતિપાદિત ધર્મ જ અવિનાશી રહે છે, અને તેથી સર્વદા જીવનું કલ્યાણ થતું રહે છે. આમાં અન્યથા પ્રરૂપણું માટે અવકાશ જ નથી. અત્યારે પણ પંચવિદેહ ક્ષેત્રમાં આ શુદ્ધ ધર્મને સદ્ભાવ છે. આ ધમને આ દૃષ્ટિથી જ સૂત્રકારે નિત્ય-અવિનાશી કહ્યો છે. શાશ્વત ગતિ રૂપ મુકિતને કારણ હોવાથી આ ધર્મ શાશ્વત માન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 -- - अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३१७ सद्भावात् । तथा-शाश्वतः शाश्वतगतिकारणत्वात् । यद्वा-यतो नित्यस्तस्माच्छाश्वत इति । अयमेव धर्मः श्रद्धेयो ग्राह्यश्चेत्यत्र हेतुं प्रदर्शयन् विशेषणान्तरमाहसमेत्य इत्यादि । लोकं षट् जीवनिकायं दुःखदावानलान्तःपतितं, समेत्य केवलज्ञानेन प्रत्यक्षतया विज्ञान, खेदज्ञैः सर्वमाणिदुःखाभिज्ञैस्तीर्थकरैः प्रवेदितः= आदिष्टः । 'प्रवेदितः' इत्यनेन धर्मोऽयं मया न स्वमनीषया कल्पितः' इति च सुधर्मस्वामिना शिष्यमुद्दिष्य सूचितम् । अनुयोगद्वारेयह शाश्वत माना गया है अथवा हेतु हेतुमद्भाव से भी यों कह सकते हैं कि जिस कारण से यह नित्य है इसी कारण से यह शाश्वत माना गया है । अतः प्रत्येक मुमुक्षु जीवों द्वारा यह धर्म श्रद्धेय श्रद्धा करने योग्य एवं ग्राह्य-आराधन करने योग्य है इस विषय में पूर्वोक्तरूप से सूत्रकार हेतु का कथन कर उस धर्म की प्ररूपणा करने के कारण का प्रदर्शन करते हुए " समेत्य लोकं खेदज्ञैः प्रवेदितः" कहते हैं कि समस्त प्राणीयों के दुःखों के वेत्ता केवलज्ञानी प्रभु ने इस षट्जीव निकायरूप लोक को प्रत्यक्षरूप से साक्षात् दुःखरूपी दावानल से जलता हुआ देखकर इस शुद्ध, शाश्वतिक धर्म का कथन किया है। ___ भावार्थ-अनंत सांसारिक दुःखो से संतप्त समस्त संसारी जीवों को साक्षात् हस्तामलकवत् देखकर दुःखों से उनके उद्धार के निमित्त वोतराग केवलज्ञानियोंने ही इस धर्म की प्ररूपणा की है । मैं ने अपनी ओर से इसका कथन नहीं किया है। इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी को समझाते हैं। વામાં આવે છે. અથવા હેતુ-હેતુ મદુભાવથી પણ એમ કહી શકાય છે કે જે કારણને લઈને આ નિત્ય છે તે કારણથી જ આ શાશ્વત માનવામાં આવ્યું છે. એથી દરેક મેક્ષને ઇચ્છનારા છ વડે આ ધર્મ શ્રદ્ધય-શ્રદ્ધા કરવા રોગ્ય અને ગ્રાહ્ય આરાધવા ગ્ય છે. આ વિષે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત રૂપે હેતુનું ४थन जरीन त धनी ५३५५५। ४२di " समेत्य लोकं खेदज्ञैः प्रवेदितः " ४३ છે કે બધા પ્રાણીઓનાં દુઃખને જાણનારા કેવળજ્ઞાની પ્રભુએ આ ષજીવ નિકાય રૂપ લેકને પ્રત્યક્ષ રૂપમાં સાક્ષાત્ દુઃખ રૂપી દાવાનળમાં સળગતા જોઈને શુદ્ધ, શાશ્વતિક ધર્મનું કથન કર્યું છે– ભાવાર્થ-સંસારના બધા જીવોને અનંત સાંસારિક દુખેથી હસ્તામલકાવત્ સંતપ્ત જોઈને તેમના ઉદ્ધાર માટે વીતરાગ કેવળજ્ઞાનીઓ એ જ આ ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે. મેં પોતાની મેળે આ કથન કર્યું નથી. શ્રી સુધર્મી સ્વામી પોતાના શિષ્ય જંબૂ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे "जह मम ण पियं दुक्खं जाणियं एमेव सव्धजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य, सममणइ तेण सो समणो । इति" छाया-यथा मम न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् । न हन्ति न घातयन्ति च समम् अणति तेन स समणः ।। - च शब्दात् घ्नतश्चान्यान समणुजानीत इत्यनेन प्रकारेण 'सममणति' त्ति सर्वजीवेषु तुल्यं वर्तते यतस्तेनासौ श्रमण इति गाथार्थः । 'एस धम्मे सुद्धे' इत्यनेन आर्हत धर्मस्य हिंसादि दोषाभावाद्भगवता शुद्धत्वमुक्तम् । शुद्धधर्मबोधकत्वाच्च द्वादशाङ्गयाः प्रवचनत्वमागमत्वं सर्वोत्कृष्टत्वं च सिध्यति । प्रवचनस्य स्वरूपं माहात्म्यं चाऽऽगमेषु भगवताऽभिहितम् । अनुयोगद्वार मेंजह मम ण पियं दुःखं जाणियं एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणो ॥ इति । जिस प्रकार दुःख मुझे इष्ट नहीं है, उसी तरह वह दुःख किसी भी संसारी जीवों को इष्ट नहीं है ऐसा समझ कर जो जीवों की विराधना स्वयं नहीं करता और न दूसरों से करवाता है तथा समस्त जीवों में तुल्यता की भावना रखता है वही श्रमण है। श्रमण होने में ये पूर्वोक्त बाते हेतु-कारण हैं। __ " एस धम्मे सुद्धे " इस सूत्रांश से श्री सुधर्मास्वामी ने तीर्थंकर कथिन धर्म में हिंसादिक दोषों के अभाव से शुद्धता का कथन किया है । इप्त शुद्ध धर्म का बोधक-बोध करानेवाली होने से ही बादशांगी में प्रवचनता, आगमता एवं सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है । भगवान ने भनुयोगबा२मां-जह मम ण पिय' दुःख जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणे ॥ इति ।। જેમ મને દુખ ગમતું નથી તેમજ તે દુખ સંસારના કેઈ પણ જીવને ગમે જ નહિ. આમ સમજીને જેઓ જીવોની વિરાધના પિતે કરતા નથી અને બીજાઓથી કરાવતા નથી તેમજ બધા માં તુલ્યતા (સમાનતા) ની દૃષ્ટિ રાખે છે તેઓ જ “શ્રમણ છે. આ ઉપરની વાતો શ્રમણ થવા માટે હેતુ કારણ છે. "एस धम्मे सुद्धे " 241 सूत्रांशथी श्री सुधर्मा स्वाभीमे तय ४२ ४थित ધર્મમાં હિંસા વગેરે દેશના અભાવથી શુદ્ધતાનું કથન કર્યું છે. આ શુદ્ધ ધર્મને બેધક બોધ કરાવનારી હેવાથી જ દ્વાદશાંગીમાં પ્રવચનતા આગમતા અને સર્વેઋણતા સિદ્ધ થાય છે. ભગવાને આગમોમાં પ્રવચનનું સ્વરૂપ અને તેને પ્રભાવ= श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा यथा भगवतीमत्रे पवयणं भंते ! पवयणं, पावयणी पवयणं । " गोयमा ! अरहा ताव णियमा पावयणी । पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे । तं जहा-आयारो० जाव दिहिवाओ । इति, (श० २० उ०८) भंते ! हे भदन्त ! " पवयणं " प्रवचन-किं प्रवचनं, उत-" पावयणी" प्रवचनी प्रवचनम् ? । “ गोयमा ! " हे गौतम ! ' अरहा' अर्हन् ' ताव ' तावत् नियमात्मवचनी । प्रवचनं पुनः 'दुवालसंगे' द्वादशाङ्गी " गणिपिडगे" गणिपिटकम् । तद् यथा-" आयारो जाव दिट्टिवाओ" आचाराङ्गादि यावत् दृष्टिवादः। इति, पुनस्तत्रैव-" से नूणं भंते ! तमेव सच्चं नीसके जं जिणेहिं पवेइयं ?। प्रवचन का स्वरूप और उसका प्रभाव-माहत्म्य आगमों में कहा है। जैसे भगवती सत्र में “ पवयणं भंते ! पचयणं, पावयणी पवयणं ? गोयमा ! अरहा ताव णियमा पावयणी । पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे । तं जहा-आयारे जाव दिद्विवाओ। इति ( श० २० उ ०८) भावार्थ-गौतमस्वामी पूछते हैं हे भगवन् ! प्रवचन प्रवचन है-या प्रवचनी प्रवचन है ? इस अंश का समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं-हे गौतम ! गणिपिटक जो आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक द्वादशांग आगम है वह समस्त प्रवचन है। इस प्रवचन को अर्थतः प्रकट करने वाले श्री तीर्थकर प्रभु प्रवचनी हैं । उसी भगवती सूत्र में और भी यह कहा है कि-" से नृणं भंते ! तमेव सरचं निसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ! हंता गोयमा ! तमेव सच्चं से नृणं भंते ! एवं मणे भाडाभ्य यो छ. म भगवती सूत्रमा “पवयण भंते ! पवयण पावयणी पवयण १ गोयमा ! अरहा ताव णियमा पावयणी ! पवयण पुण दुवालसंगे गणि पिडगे ! त जहा-आयारो जाव दिट्रिवाओ। इति (श. २० उ. ८) ભાવાર્થ-ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે હે ભગવન ! પ્રવચન પ્રવચન છે કે પ્રવચની પ્રવચન છે? આ શંકાનું સમાધાન કરતાં ભગવાન કહે છે-કે હે ગૌતમ! ગણિપિટક -કે જે આચારાંગથી માંડીને દૃષ્ટિવાદ સુધી દ્વાદશાંગ આગળ છે તે સમસ્ત પ્રવચન છે. અર્થતઃ આ પ્રવચનને પ્રકટ કરનારા શ્રી તીર્થકર પ્રભુ પ્રવચની છે. તે ભગવતી સૂત્રમાં જ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે( से नूण भंते तमेव मच्चं नीसंक' ज. जिणेहिं पवेइय! हता गोयमा ! तमेवं सच्च से नूण भैते ! एवं मणे धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणाए आराहए श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ज्ञाताधर्म कथासूत्रे हंता गोयमा ! तमेव सच्चं । से नूणं भंते ! एवं मणे धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणाए आराहए भवइ ? । हंता गोयना ! तं चैव " त्ति । छाया - अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निःशङ्कं यज्जिनैः प्रवेदितम् ? | हन्त गौतम ! तदेव सत्यम् । अथ नूनं भदन्त १ एवं मनसि धारयन् एवं प्रकुर्वन् आज्ञाया आराधको भवति ? हन्त गौतम । तदेव " इति । आवश्य सूत्रेsपि - "इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुन नेयाज्यं समुद्धं सलगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमगं अवितहमसंदिद्धं । इत्थं ठिया जीवा सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाएंति सम्बदुःखाणमंत करंति । धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणाए आरोहए भवइ ! हंता गोयमा ! तं चेब इति " इस सूत्र का भावार्थ यह है कि प्रत्येक मुमुक्षु ( मोक्षाभिलाषी ) जन को अपने हृदय में इस बात का पूर्णदृढ विश्वास रखना चाहिये कि जो जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादित किया है वही वास्तविक तस्व है - उसमें किसी भी प्रकार की शंका के लिये स्थान नहीं है इस प्रकार के दढ विश्वास से उसे अपने मन में धारण करनेवाला और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति करनेवाला मोक्षाभिलाषीजन तीर्थकर प्रभुकी आज्ञाका आराधक होता है आवश्यक सूत्र में भी यही बात कही गई है " इणमेव निरथं पावयणं सच्चे अणुत्तरं केवलियं पडिपुन्नं नेयाउयं संसुद्धं सलगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमार्ग णिजाणमगं निव्वाणमग्गं अवितमसंदिद्धं । इत्थं ठिया जीवा सिज्झति बुज्झति मुच्चेति परिणि बाति सव्वदुःखाणमंत करंति । भवइ ! हृता गोयमा ! त चेव इति ) मा सूत्रना लावार्थ या प्रमाणे छे है દરેક મેાક્ષ ઇચ્છનારી વ્યક્તિને પેાતાના હૃદયમાં સંપૂર્ણ પણે આ વાતની ખાતરી થવી જોઈએ કે જે જીનેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદિત કર્યું છે તે જ વાસ્તવિક તત્વ છે તેમાં લગીરે શંકા નથી. આ જાતના દૃઢ વિશ્વાસથી તેને પેાતાના મનમાં કરનાર અને તે મુજબ જ આચરણુ કરનારી મેાક્ષને ઈચ્છનારી વ્યક્તિ પ્રભુની આજ્ઞાની આરાધક હાય છે. આવશ્યક સૂત્રમાં પણ એ જ વાત કહેવામાં આવી छे- ( इणमेव निग्गंथ पावयण सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुन नेयाज्यं संसुद्ध सलगत्तणं सिद्धिमग्ग मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवि तहमस दिद्ध' ! इत्थठिया जीवा सिन्झति बुज्झति मुच्चति परिणिवाएंति सव्व दुःखाणमतं कर ति શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ___३२१ छाया-इदमेव निग्रन्थं प्रवचनं सत्यम् अनुत्तरं, कैवलिकं, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्धं, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्गः, मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः, निर्वाणमार्गः, अवितथम् , असन्दिग्धम् , अत्र स्थिता जीवाः सिद्धयन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्व दुःखानामन्तं कुर्वन्ति । ____ अन्यच्च-इमं च णं सव्वजगजीवरक्खपादयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं” इति (प्रश्न संवर०) ___ छाया- इदं च खलु सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थाय प्रवचनं भगवता सुकथितम्' इति । धर्मध्यानस्याऽऽज्ञाविचयादि भेदेन चातुर्विध्यं प्रदर्शयता भगवता-प्राधान्यादाज्ञाविचयः प्राथम्येन प्रोक्तः। भावार्थ-इस का स्पष्ट है। इसमें सूत्रकार ने मुख्यरूप से यही बात प्रकट की है कि इस निर्ग्रन्थ प्रवचन मार्ग में स्थित जीव अष्ट कर्मोंका विनाश कर सिद्धदशासंपन्न हो जाते हैं। इस अवस्थाकी प्राप्ति होना ही जीवों के समस्त दुःखों का विनाश है। अन्यच्च-इमं च णं सव्वजगजीवरक्खणठयाए पावयणं भगवया सुकहियं" इति-(प्रश्न. संवर०) ___इस प्रवचन की प्ररूपणा करने का श्री तीर्थकर प्रभु का यही एक उद्देश रहा है कि समस्त संसारीजन इस प्रवचन के अभ्यास से सर्व जगत के जीवों की रक्षा करें और उनकी दया पालें। __ध्यान का वर्णन करते हुए भगवान ने उस ध्यान के ४ भेद कहे हैं। उनमें धर्मध्यान के आज्ञाविचय आदि जो ४ पाये प्रकट किये આ કથનનો ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે. આમાં ખાસ કરીને સૂત્રકારે એ જ વાત સ્પષ્ટ રીતે બતાવી છે કે આ નિગ્રંથ પ્રવચન માર્ગમાં સ્થિત જીવ અષ્ટ કર્મોનો વિનાશ કરીને સિદ્ધિ દશા સંપન્ન થઈ જાય છે. આ અવસ્થા મેળ. વવી એ જ જીવન સઘળા દુઃખનો વિનાશ છે. ___ अन्यञ्च-इम च ण सव्व जगजीवरक्खणदयटयाए पावयण भगवया सुकहीयं " इति-(प्रश्नः संवर०) શ્રી તીર્થંકર પ્રભુને આ પ્રવચનની પ્રરૂપણ કરવાને એ જ ઉદ્દેશ રહ્યો છે કે બધા સંસારીજને આ પ્રવચનના અભ્યાસથી જગતના સર્વે જીની રક્ષા કરે અને તેમની દયા પાળે. ધ્યાનનું વર્ણન કરતાં ભગવાને તેના ચાર ભેદ વર્ણવ્યા છે. તેમાં ધર્મધ્યાનના આજ્ઞા-વિચય વગેરે ચાર ઉપભેદે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे यथा भगवती सूत्रे - - ( श० २५ ३०७ ) " धम्मे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा - आणाविचए " अवायविचए, विवागविचए, संठाणविचए ॥ छाया - धर्मध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । तद् यथा - आज्ञाविचयः, अपायविचयः, विपाकविचयः, संस्थान विचयः । अत्र प्रसङ्गवशाद् आज्ञाविचय एव व्याख्यायते - आज्ञाविचयश्च - आज्ञायाः पर्यालोचनं, आज्ञा सर्वज्ञमणीत आगम, तामाज्ञामित्थं विचिनुयात् पर्यालोचयेत् - पूर्वापरविशुद्धमतिनिपुणामशेषजीवका यहिता हैं उन में सर्व प्रथम आज्ञाविचय को जो कहा है उसका कारण यही है कि शेष तीन पायों (भेदों) में प्रधान है। भगवती सूत्र श. २५७ में देखो यह वर्णन इस प्रकार से हुआ है-धम्मे झाणे चव्विहे पण्ण ते तं जहा आणाविवर, अवायविश्वए, विवागविचए, संठाणविचए ॥ 9 अर्थ - धर्मध्यान ४ प्रकार का है (१) अज्ञाविचय (२) अपायविवय (३) विपाकविचय (४) संस्थानविचय | प्रसंगवश यहां आज्ञाविषय पर विवेचन किया जाता है- तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का विचय-पर्यालोचन - विचार करना सो आज्ञाविचय है सर्वज्ञ कथित आगम का नाम आज्ञा है । उस आगमरूप आज्ञा का इस प्रकार से विचार करना चाहिये यह प्रभु प्रतिपादित आगम पूर्वापर विरोध रहित होने से विशुद्ध है, प्रत्येक सूक्ष्म अन्तरित और दूरार्थ के प्रतिपादन करने में अतिनिपुण है, प्रत्येक जीवों का यह हितकारी તેઓમાં જો સૌ પ્રથમ આજ્ઞા વિચયના જે ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યેા છે તેનું કારણ એ જ છે કે ખાકી રહેલા ત્રણ ઉપભેદોમાં તે મુખ્ય છે. ભગવતી સૂત્ર શ. ૨૫ ઉ. ૭ માં એના માટે જોવું જોઇએ. ત્યાં આનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું छे-धम्मे झाणे चउबिहे पण्णत्ते, त जहा - आणाविचर, अवाय बिचए, विवाग विचए, सठाणविचए ॥ अर्थ — धर्मध्यानना यार प्रहार छे. (१) भाज्ञा-विशय, (२) अपाय वियय, (3) विचाउ वियय, (४) संस्थान पियय. પ્રસ’ગવશ અહીં આજ્ઞાવિચય વિષે વર્ણન કરવામાં આવે છે. તી કર પ્રભુની આજ્ઞાને વિચય-પૉંલેચન–વિચાર કરવા તે આજ્ઞાચિય છે. સ જ્ઞકથિત આગમનું નામ આજ્ઞા છે. તે આગમરૂપ આજ્ઞાને આ રીતે વિચાર કરવા જોઈએ કે આ પ્રભુ પ્રતિપાદિત આગામ પૂર્વાપર વિરાધ રહિત હાવા બદલ વિશુદ્ધ છે, દરેક સૂક્ષ્મ અંતરિત અને દ્રાના પ્રતિપાદન કરવામાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३२३ है, अनवध है, इस में प्रत्येक जीवादिक पदार्थ का विवेचन बहुत ही अच्छी तरह से किया गया है अतः यह महार्थ है इसका प्रभाव भी अद्वितीय है इसकी छत्रछाया में आने से प्रत्येक भव्य जीव आत्मकल्याण के अपने अन्तिम लक्ष्य की सिद्धि कर लिया करते हैं । इस में प्रतिपादित तत्व सामान्यजन नहीं ज्ञात कर सकते हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नथरूप दो दृष्टियां जिनके पास हैं वे ही इसमें प्रतिपादित विषय को अच्छी तरह ज्ञात कर सकते हैं। इसमें जो भी कुछ कथन सर्वज्ञ भगवान् ने किया है वह इन्हीं दो दृष्टियों को सामने रखकर किया गया है यदि एक दृष्टि को ही प्रधान रखकर इसके तत्व को समझने की चेष्टा को जाय तो वह प्रतिपाद्य विषय ठीक २ नहीं समझा जा सकता है। तथा इस प्रकार की प्ररूपणा अन्यथा भी ज्ञात होने लगती है इसलिये दूसरी दृष्टि को सामने रखकर ही वह विषय ठीक २ रीति से समझ में आ सकता है, अतः इसी अभिप्राय से इसे निपुण जनवेद्य कहा है तथा इस में प्रत्येक पदार्थ को उत्पादन व्यय और श्रीव्य आत्मक कहा गया है - वह भी द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से ही कहा गया है की अपेक्षा से प्रत्येक जीवादिक पदार्थ धौव्यरूप અતીવકુશળ છે. દરેકે દરેક જીવા ના આ હીતકારી છે. અનવદ્ય છે, એમાં દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થનું વિવેચન બહુજ સૂક્ષ્મતા પૂર્વક કરવામાં આવ્યું છે એથી આ મહા છે. આના પ્રભાવ પણ અદ્વિતીય છે, આની છત્ર-છાયામાં આવવાથી દરેક સભ્યજીવ આત્મકલ્યાણુ વિષયક પેાતાની અંતિમ લક્ષ્યની સિદ્ધિ પ્રાપ્તકરી લે છે. આમાં પ્રતિપાદિત તત્ત્વ સામાન્ય લેાકેા જાણી શકતા નથી. દ્રવ્યાર્થિક તેમજ પર્યાયાર્થિક નયરૂપ એ દૃષ્ટિએ જેની પાસે છે. તેએ જ આમાં પ્રતિપાદિત વિષયને સારી પેઠે સમજી શકે છે. સ`જ્ઞ ભગવાને આમાં જે કંઈ કહ્યું છે તે બધુ આ પૂર્વે કત બંને દૃષ્ટિ ને પેાતાની સામે રાખીને જ કહ્યું છે. જો એક-દૃષ્ટિને જ પ્રધાન સમજીને તેના તત્ત્વને જાણવાની ચેષ્ટા કરવામાં આવે તે તે પ્રતિપાદ્ય વિષય યથાવત સમજી શકાય જ નહિ. તેમજ આ જાતની પ્રરૂપણા અન્યથા પણ માલુમ થવા માંડે છે એથી બીજી દૃષ્ટિને પેાતાની સામે રાખીને જ વિચાર કરીએ તે વિષય સરસ રીતે સમજી શકાય તેમ છે. આ પ્રાજનથી જ આને ‘નિપુણુજન–વેદ્ય' કહેવામાં આવ્યા છે તેમજ આમાં જે દરેક પદાર્થને ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્ય આત્મક કહેવામાં આવ્યા છે તે પણ દ્રવ્ય અને પર્યાયની અપેક્ષાથી જ કહેવામાં આવ્યે છે. દ્રષ્યની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे मनवद्यां महार्थी महानुभाव निपुणेजनविज्ञेयां द्रव्यपर्याय प्रपञ्चवतीमनाद्यनिधनाम् । अस्य प्रवचनस्याऽऽद्यन्तरहितत्वं च भगवता नन्दीमुत्रे निगदितम् - इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं न कयाइ णासी ॥ " इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं न कदापि नासीत् ॥ इत्यादि । " है और पर्याय की अपेक्षा से उत्पादन व्ययरूप है, इसलिये भी जिन प्रतिपादित आगमरूप आज्ञा स्वयं द्रव्य और पर्याय के विस्तार वाली है । अथवा जीवादिक समस्त ६ द्रव्यों की त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायें इसमें प्रतिपादित हुई हैं, अथवा कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय रहित नहीं हो सकता है- स्वभाव पर्यायें और व्यञ्जन पर्यायें, विभाव पर्यायें और अर्धपर्याये प्रत्येकक्षण में समस्तद्रष्पों में होती रहती हैं, इत्यादिरूप से द्रव्य और पर्यायों का प्रतिपादन इस आज्ञा में भगवान ने प्रदर्शित किया है इस अपेक्षा भी यह द्रव्य और पर्याय के विस्तार वाली मानी गई है तथा यह अनादि अनन्त है न कभी इस आज्ञा की आदि हुई है और न कभी इसका विनाश होगा। नंदीसूत्र में भी प्रवचन की अनादि अनन्तता के विषय में " इच्चेइयं दुबालसंग गणिपिडिगं न कयाइनासी" यही कहा है- ऐसा कोई सा भी काल नहीं था कि जिस काल में इस द्वादशांगरूप गणिपिटकका सद्भाव नहीं था । અપેક્ષાથી દરેક જીવ વગેરે પદાથ ધ્રૌવ્યરૂપ છે. અને પર્યાયની અપેક્ષાથી ઉત્પાદ યરૂપ છે. એટલા માટે પણ જિન પ્રતિપાદિત આગામરૂપ આજ્ઞા પાતે દ્રવ્ય અને પર્યાયના પ્રપંચ ( વિસ્તાર ) વાળી છે. અથવા તેા જીવ વગેરે બધા ૬ દ્રન્ગેાના ત્રિકાલ વર્તા સમસ્ત પર્યાય આમાં પ્રતિપાદિત થયા છે, અથવા કોઈ પણ દ્રવ્ય કાઈ પણ દિવસે પર્યાય રહિત થઇ શકતું નથી. સ્વભાવ પર્યાયા અને વ્યંજન પર્યાય, વિભાવ પર્યાય અને અ પર્યાયે દરેક ક્ષણમાં બધા દ્રષ્યેામાં થતી રહે છે. ઇત્યાદિ રૂપથી દ્રવ્ય અને પર્યાયોનું પ્રતિપાદન આ આજ્ઞામાં ભગવાને ખતાવ્યું છે. આ અપેક્ષાથી પણ આ દ્રવ્ય અને પર્યાયના પ્રપ ંચ ( વિસ્તાર ) વાળી માનવામાં આવી છે. તેમજ આ અનાદ્ધિ અત ત છે. કોઈ દિવસ આજ્ઞાની આદિ થઇ નથી અને કોઇ પણ દિવસે આને વિનાશ धशे नहि. नहीसूत्रमां पशु अवयननी नाहि अनंतताने लगती ( इच्चे इयं दुवासंग गणिपिडग' न कयाइनासी) से ४ वात अहेवामां भावी छे. એવા કોઈ પણ કાળ હતા નહિ કે તે કાળે આ દ્વાદશાંગ રૂપ ગણપિટકના સદ્દભાવ હતા નહિ. આ રીતે આ આગમની મહત્તા અથવા તે એના મહા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३२५ इत्थं चागममाहात्म्यपर्यालोचनरूपस्य धर्मध्यानस्याऽऽ - हताऽऽज्ञाविषयत्वाद् धर्मध्यानस्य धर्मत्वं सिद्धम् । तथा-हिंसादि-दोषलेशेनाप्यसंपृक्तस्य शुद्ध धर्मस्य बोधकत्वादहिंसाप्रधानस्य प्रवचनस्य श्रद्धेयत्वं च सिद्धम् । अहिंसायामहतो भगवत आज्ञा प्रदर्शिता, एवं संयमेपि तदाज्ञा वर्तते । यथा -ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे-( प्रथमाध्ययने ) " तएणं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेइ, जाव सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खइ एवं खलु देवाणुप्पिया! गंतव्वं चिट्ठियव्वं णिसीइयव्यं इस प्रकार इस आगम की महत्ता अथवा उसके महात्म्य का विचार करना यही आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान का प्रथम भेद है। इस ध्यान में अर्हतप्रभु की आज्ञा का ही विचार होता है-अतः इस ध्यान में उन की आज्ञा का विषय करनेवाला होने से धर्मरूपता सिद्ध है तथा हिंसादिक दोष के लेश से भी रहित ऐसे शुद्ध धर्म का बोधक होने से अहिंसाप्रधान इस प्रवचन में श्रद्धेयता सिद्ध होती है। इस पूर्वोक्त प्रकार से अहिंसा में अर्हत भगवान् की आज्ञा का प्रदर्शन कर अब संयममें भी उनकी आज्ञा इसी प्रकार की है यह प्रकट करने के लिये सर्व प्रथम ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र से इस विषय की पुष्टि करते हुए सूत्रकार कहते हैं। "तएणं समणे भगवं महावीरे मेहंकुमार सयमेव पवावेइ, जाव धम्ममाइक्खइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिट्ठियव्वं णिसी મ્યને લગતો વિચાર કરવો એ જ આજ્ઞા-વિચય નામક ધમયાનને પ્રથમ ભેદ છે. આ ધ્યાનમાં અહંત પ્રભુની આજ્ઞા વિશે જ વિચાર હોય છે. તેથી આ ધ્યાનમાં તેમની આજ્ઞાને વિષય પ્રતિપાદિત થયે છે માટે આમાં ધર્મ રૂપતા સિદ્ધ છે તેમજ હિંસા વગેરે દેથી પણ રહિત શુદ્ધ કર્મને બેધક હેવાને કારણે અહિંસા પ્રધાન આ પ્રવચનમાં શ્રદ્ધયતા સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત રીતે અહંત ભગવાનની અહિંસાના વિશે આજ્ઞા બતાવીને હવે આગળ સૂત્રકાર સંયમ માટે પણ તેઓશ્રીની આજ્ઞા આ રીતે જ છે. આ વાત સ્પષ્ટ કરવાને માટે સૌ પ્રથમ જ્ઞાતા-ધર્મકથાનું સૂત્રથી આ વિષયની પુષ્ટિ કરતાં કહે છે – "तए ण समणे भगवं महावीरे मेहकुमार सयमेव पब्बावेइ, जाव सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खइ, एवं खलु देवाणुप्पिया! गतव्वं चिटिक श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे तुयट्टियन्वं भुंजियव्वं भासियव्वं, एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूयेहिं जीवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमियव्वं, अस्सि च णं अटे णो पमाएयव्वं " इति, । ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरो मेघ कुमारं स्वयमेव प्रत्राजयति, यावत् स्वयमेव आचार यावद् धर्ममाख्याति-एवं खल्लु हे देवानुप्रिय ! गन्तव्यं,स्थातव्यं' निषत्तव्यं, त्ववर्तयितव्यं भोक्तव्यं भाषितव्यत्, एवमुत्था य उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु सत्त्वेषु संयमेन संयन्तव्यम् , अस्मिंश्च खलु अर्थे नो प्रमादयितव्यम् । इति, दशवकालिक सूत्रे ऽपि-- " जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए । जयं भुंजतो भासंतो पावकम्मं न बंधई ॥" इयव्वं तुयट्टियव्वं भुंजियव्वं भासियब्वं एवं उट्ठाय उद्याय पाणेहिं भूयेहिं जीवहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं, अस्सिचणं अढे णो पमाण्यवं" श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं अपने ही हाथों से मेघकुमारको जब भागवती दीक्षा प्रदान की उसके लिये मुनि विषयक आचार आदि का जब उन्होंने उपदेश दिया तब उन्होंने उसे यही समझाया कि हे देवानुप्रिय ! चलते, ठहरते, बैठते, लेटते, आहारकरते और बात. चित करते समय प्राणियों, भूतों, जीवों, और सत्वो में सदा संयम से ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। मुनि का यही कर्तव्य है कि वह प्रत्येक शारीरिक एवं वाचनिक क्रियाओं में, संयमित प्रवृत्ति करें। इस प्रकार की प्रवृत्तिशोल होने से ही मुनि द्वारा अपने संयम की रक्षा होती है इस विषय में मुनि को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । दशवै. कालिक सूत्र में भी यही कहा है-" जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं यव णिसीइयव्व तुट्टियव्य भुजियव्य, भासियव्व, एवं उदाय उदाय पाणेहि भूयेहि जीवेहि सत्तेहि संजमेण संजमियव्य अस्सि च ण अठे णो पमाएयच्च" શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે જાતે પોતાના હાથથી જ મેઘકુમારને જ્યારે ભાગવતી દીક્ષા આપી અને તેને મુનિવિષયક આચાર વગેરેને લગતે ઉપદેશ આપે ત્યારે તેઓશ્રીએ તેને ઉપદેશમાં એ જ વાત સમજાવી કે હે દેવાનુપ્રિય ! ચાલતાં ઊભા રહેતાં, બેસતાં, સૂઈ જતાં, આહાર કરતાં અને વાતચીત કરતાં પ્રાણીઓ, ભૂત, જી અને સર્વેમાં હમેશા સંયમથી જ પ્રવૃત્તિ કરતાં રહેવું જોઈએ. મુનિની એ જ ફરજ છે કે તે દરેક શારીરિક અને વાચનિક ક્રિયાએમાં સંયમિત પ્રવૃત્તિ કરે. આ રીતે પ્રવૃત્તિશીલ થઈને રહેવાથી જ મુનિઓ વડે સંયમની રક્ષા થાય છે. આ બાબતમાં મુનિએ કઈ પણ દિવસે પ્રમાદ કરવો જોઈએ નહિ. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં પણ એજ વાત કહેવામાં આવી છે. (जय चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयंसप, जय भुजतो भासतो पावकम्मं न बंधई) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा छाया-यतं चरेत् यतं तिष्ठेत्, यतमासीत यतं शयीत । यतं भुञ्जानो भाषमानः पापकर्म न बनाति ॥ १ ॥ इति । तत्रैव-' संजमं निहुओ चर" इत्यादि । छाया-संयमं निभृतश्चर' इति । संयमे तीर्थकरस्याज्ञा प्रदर्शिता, इदानीं तपसि तदाज्ञा प्रदश्यते । यथा-दशबैकालिक सूगे-( द्वितीयाध्ययने) " आयावयाही चय सोगमलं " इति । " आयावयाही" आतापय आता. पनारूपतपोधर्माराधनेन तनु शोषय, “ सोगमल्लं " सौकुमार्य " चय" त्यजपरिहर। सए, जयं भुंजतो भासंतो पावकम्मं न बंधई" सकल संयमियों को पूर्ण सावधान तापूर्वक ही चलना चाहिये और पूर्ण सावधानतापूर्वक ही बैठना चाहिये । उठने बैठने में तथा आहारादि क्रिया करने और बोलने चालने में सदा उसे अपनी यानाचारमय प्रवृति पर ही लक्ष्य रखना चहिये। इस प्रकार की प्रवृत्ति करने से वह साधु पापकर्म का बंध नहीं करता है । इसलिये हे मेघकुमार ! तुम "संयमं निभृतश्चर" इस सफल संयम की अच्छी तरह से-यत्नाचारमय प्रवृत्ति से रक्षा करो-पालन करो। इस प्रकार से संयम की आराधना में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का प्रदर्शन सूत्रकार ने किया है। अब तप के आराधन करने में उनकी क्या आज्ञा है-वे यह स्पष्ट करते हैं "आयावयाही चय सोगमल्लं" (दशवकालिक द्वितीय अध्ययन ) 'हे मुने! सुकुमालपने को छोड़ आतापनाले' आतापनारूप तपधर्म की आराधना से मुनि को चाहिये બધા સંયમી લોકેએ સંપૂર્ણપણે સાવધાન થઈને જ ચાલવું જોઈએ અને પૂર્ણ સાવધાન થઈને જ બેસવું જોઈએ. ઉઠવા બેસવામાં તેમજ આહાર વગેરે કિયા કરવામાં અને બેલવા ચાલવામાં હંમેશા તેને પિતાની યાત્રાચારમય પ્રવૃત્તિ ઉપર જ લક્ષ્ય આપવું જોઈએ. આ રીતે પ્રવૃત્તિ કરવાથી તે સાધુ પાપ-કર્મને 'ध ४२तो नथी. मेथी हे भाभार ! तमे " संयम निभूतश्वर " मा सस સંયમની સારી રીતે યત્નાચારમયી પ્રવૃત્તિ વડે રક્ષા કરો- આનું પાલન કરો. આ રીતે સૂત્રકારે સંયમની આરાધના વિષે પ્રભુની આજ્ઞાનું પ્રદર્શન કર્યું છે. હવે તપની આરાધના કરવામાં તેઓશ્રીની આજ્ઞા શી છે? તે સૂત્રકાર અહીં २५०८ ४२ छ-" आयावयाही चय सोगमल्लं " ( दशवैकालिक द्वितीय अध्ययन ) હે મુનિ ! સુકોમળતાને ત્યજીને આતાપના સ્વીકારે. આતાપના રૂપ તપ ધમની આરાધનાથી મુનિ પિતાના શરીરને કૃશ ( દુર્બળ) બનાવે અને શારીરિક શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे किंच श्रमणस्य क्षान्स्यादिदशविधे धर्मे तपसः पाठो वर्तते, तस्मात् तपोधर्म इति विज्ञायते । तथाचोक्तं समवायाऽङ्गसूत्रे-( समवाय १०) । “दसविहे समणधम्मे पण्णते, तं जहा-(१) खंती, (२) मुत्ती (३) अज्जवे (४) मद्दवे (५) लाघवे (६) सच्चे (७) संजमे (८) तवे (९) चियाए (१०) बंभचेरवासे । ____ अहिंसादीनां जिनाज्ञापयोज्यप्रवृत्तिकत्वरूपस्य धर्मलक्षणस्य सद्भावाद् धर्मत्वं सिद्धं । ___उक्तं धर्मस्य लक्षणं, लक्ष्या अहिंसादयश्च मोक्ताः, तत्राहिंसासंयमतपोरूपो धर्म उत्कृष्टं मङ्गलं वोध्यम् । तथाचोक्तं दशवैकालिकमूत्र-(प्र० अ० १) " धम्मो मंगलमुकिटं अहिंसा संजमो तवो । देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥" कि वह अपने शरीर को कृश करें एवं शारीरिक सुकुमारता का मोह छोड़े। उत्तम क्षमा आदिक जो श्रमणों के दशप्रकार के धर्म कहे गये हैं, उनमें तप का भी कथन आया है, अतः तप में धर्मरूपता सिद्ध ही होती है। समवायांग सूत्र में श्रमण के दश प्रकार के धर्मों का कथन करते हुए सूत्रकार ने यही कहा है-" दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए धंभचेरवासे। इन अहिंसादिक महाव्रतों में धर्मरूपता इसलिये सिद्ध होती है कि वहां पर जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा प्रयोज्य प्रवृत्तिरूप धर्म के लक्षण का सद्भाव पाया जाता है इस प्रकार धर्म का लक्षण और उसके लक्ष्यभूत अहिंसादिकों का कथन है। ये अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही સુકમારતાને મેહ ત્યજી દે. ઉત્તમ ક્ષમા વગેરે શ્રમણના દશ પ્રકારના ધર્મ કહેવામાં આવ્યાં છે તેઓમાં તપનું કથન છે. એથી તપમાં ધર્મરૂપતા સિદ્ધ થાય જ છે. સૂત્રકારે સમવાયાંગ સૂત્રમાં શ્રમણુના દશ પ્રકારના ધર્મનું કથન કરતાં આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે– ____ " दमविहे समणधम्मे पण्णत्ते -तौं जहा-खंत्ती, मुत्ती, अजवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे' संजमे, तवे चियाए बंभचेरवासे ।" આ અહિંસા વગેરે મહાવ્રતમાં ધર્મરૂપતા એટલા માટે સિદ્ધ થાય છે કે તેમાં જીનેન્દ્ર પ્રભુની આજ્ઞા પ્રાજ્ય પ્રવૃત્તિ રૂપ ધર્મના લક્ષણને સદુભાવ છે. આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ અને તેના લક્ષ્યભૂત અહિંસા વગેરેનું કથન છે. અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ધર્મ જ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ રૂપ છે. દશવૈકાલિક श्री शतधर्म अथांग सूत्र : ०3 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३२९ छाया-धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टम् अहिंसा संयमस्तपः । देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्म सदा मनः॥ नन्वहिंसा-संयम-तपो-रूपो धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाज्ञासिद्धम् आहोस्विद् युक्तिसिद्धमपि ? अत्रोच्यते-उभयसिद्धमपि, तथाहि-जिनवचनत्वा-दाज्ञासिद्धम् अनुमानमप्यत्रवर्तते-' अहिंसासंयमतपोरूपो-धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम् इति प्रतिज्ञा, ' देवादि उत्कृष्ट मंगलरूप हैं दशवकालिकसूत्र में यही कहा है “ धम्मो मंगलमुकिटं अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसति जस्स धम्मे सयामणो" धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा संयम और तप ये ही धर्म हैं। जिसका अन्तः करण इस धर्म से सदा युक्त रहता है उसके लिये देव भी नमस्कार करते हैं। __शंका-अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म में जो उत्कृष्ट मंगलरूपता कही है वह आज्ञासिद्ध है इसलिये कही है कि युक्ति से सिद्ध है इसलिये कही है ? भावार्थ-अहिंसादिकों में उत्कृष्टमंगलता किस प्रमाण से सिद्ध है ? आगम से या अनुमान से ? । उत्तर-इनमें उत्कृष्ट मंगलरूपता आगम और युक्ति दोनों से सिद्ध है। जिनेन्द्र के वचन होने से इनमें आज्ञासिद्धता है तथा अनुमान से प्रसिद्ध होने से युक्ति सिद्धता है । “धम्मो मंगलमुकिट्ट" इत्यादि गाथा द्वारा इनमें जिनेन्द्रवचनरूप आगमता पूर्व में ही प्रदर्शित की जा चुकी है अनुमान प्रसिद्धता इस प्रकार है-अनुमान के पांच अंग होते सूत्रमा मे १ वात ४ाम मावी छे-" धम्मो मंगलमुक्किटुं-अहिंसा सजमो तवो । देवा वि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो" भ ष्ट मग છે. અહિંસા સંયમ અને તપ એ જ ધર્મ છે. જેનું અન્તઃકરણ આ ધર્મથી . સદા યુક્ત રહે છે તેને દેવે પણ નમન કરે છે. શંકા–અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ધર્મને જે ઉત્કૃષ્ટ મંગળ રૂપ કહેવામાં આવ્યા છે તે આજ્ઞાસિદ્ધ છે. માટે કહેવામાં આવેલ છે કે યુક્તિથી સિદ્ધ છે એટલા માટે કહેવામાં આવે છે ? ભાવાર્થ-અહિંસા વગેરેમાં ઉત્કૃષ્ટ મંગળતા કયા પ્રમાણુથી સિદ્ધ છે? આગમથી કે અનુમાનથી ? ઉત્તર–આમાં ઉત્કૃષ્ટ મંગલરૂપતા આગમ અને યુક્તિ બંનેથી સિદ્ધ છે. જિનેન્દ્રના વચને હોવાથી આમાં આજ્ઞા સિદ્ધતા છે તેમજ અનુમાનથી પ્રસિદ્ધ हवा महल युति सिद्धता छ. " धम्मो मंगलमुक्किद्र" पोरे था ? આમાં જિનેન્દ્ર પ્રવચનરૂપ આગમતા પહેલાં બતાવવામા આવી જ છે અને અનુ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मान्यत्वात्, इति हेतुः। अहंदादिवत् इति दृष्टान्तः इह यो यो देवादिमान्यः स स उत्कृष्टं मङ्गलं यथाऽहंदादयः, ' तथा चायं धर्मः' इत्युपनयः, तस्माद् देवादिमान्यत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति निगमनम् । वस्तुतस्तु धर्माधर्मस्वरूपं सू. मत्वाच्छमस्थैर्दुज्ञेयं, केवलं सर्वज्ञेन रागादिदोष रहितेन पञ्चत्रिंशद्वचनातिशयसंपानेन के वलिना तीर्थकरण केवलालोकेन सुज्ञेयं भवति । छमस्थानां तु भगवद्वचन मेव नियामकं, तथाचोक्तम्हैं-१ प्रतिज्ञा, २ हेतु, ३ दृष्टान्त, उपनय ४ और ५ निगमन । अर्हत भगवान की तरह देवादिकों द्वारा मान्य होने से अहिंसा, तप और संयमरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल हैं। इस अनुमान वाक्य में "अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृ. ष्टमंगल है" यह प्रतिज्ञा है " देवादिकों द्वारा मान्य होने से" यह हेतु है। " अर्हन्त की तरह ” यह दृष्टान्त है पक्ष में हेतु के दुहराने से उपनय और प्रतिज्ञा के दुहराने से निगमन सिद्ध हैं जैसे-"जो जो देवादिको द्वारा मान्य होता है वह २ उत्कृष्ट मंगल होता है जैसे अहं: त प्रभु-ये भी देवादिकों द्वारा मान्य हैं। इस प्रकार पक्ष में हेतु के दुहराने रूप उपनय है इसलिये "वे भी उत्कृष्ट मंगल स्वरूप हैं " इस प्रकार प्रतिज्ञा के दुहराने रूप निगमनवाक्य है । वास्तव में तो धर्म और अधर्म का स्वरूप सूक्ष्म होने से हम छद्मस्थों के लिये अत्यंत परोक्ष है-इस लिये हम उसे सिर्फ अनुमान या માન પ્રસિદ્ધતા આ પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. અનુમાનના પાંચ અંગે હેય छे-प्रतिज्ञा १, २, दृष्टांत 3, उपनय ४, मन निगमन ५, અહંત ભગવાનની જેમ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય હવા બદલ અહિંસા, તપ અને સંયમ રૂપ ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ–મંગલ છે. આ અનુમાન વાકયમાં “અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ છે. ” આ પ્રતિજ્ઞા છે. “દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય હોવાથી આ હેતુ છે. અહં. તની જેમ ” આ દષ્ટાંત છે પક્ષમાં હેતુને બેવડાવવાથી ઉપનય અને પ્રતિજ્ઞાને બેવડાવવાથી નિગમન સિદ્ધ છે. જેમકે “દેવ વગેરે દ્વારા જે જે માન્ય હોય છે તે તે ઉત્કૃષ્ટ-મંગલ હોય છે જેમ અહંત પ્રભુ પણ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય છે. આ રીતે પક્ષમાં હેતને બેવડાવવાથી ઉપનય છે, માટે તેઓ પણ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ સ્વરૂપ છે” આરીતે પ્રતિજ્ઞાને બેવડાવવા રૂપ નિગમન વાક્ય છે. વસ્તુતઃ ધમ તેમજ અધર્મનું સ્વરૂપ સૂક્ષમ હોવાથી અમારા જેવા છટ્વસ્થ માટે તે અતીવ પરોક્ષ છે એથી અમે ફકત તેને અનુમાન કે આગમથી श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३६१ " धर्माधर्मव्यवस्थायाः, शास्त्रमेव नियामकम् । तदुक्ताऽऽसेवनाद् धर्मस्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात् ॥” इति, आगम से ही ज्ञात कर सकते हैं। घटपटादिकों की तरह उसे स्पष्ट रूप से देखनहीं सकते हैं । इसीलिये वह दुज्ञेय है । जो अनुमान और आगम से गम्य होता है वह अग्नि आदि की तरह किसी न किसी के प्रत्यक्ष होता है यह स्पष्ट सिद्धान्त है। तीर्थकर प्रभु ने कि जो राग और देष से सर्वथा रहित हैं, त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को जो हस्तामलकवत् स्पष्ट जानते हैं, ३५ वाणी के अतिशय से जो युक्त हैं अपने केवलज्ञान रूपी आलोक से उसे विशदरूप से जान लिया है । हम छद्मस्थों के लिये इनके वचनों के सिवाय इस विषय का नियामक और कुछ नहीं है। अतः उनके कथनानुसार ही धर्म और अधर्म का स्वरूप हम संसारी जीव जान सकते हैं या जानते हैं। "धर्माधर्मव्यवस्थायाः शास्त्रमेव नियामकं, तदुक्ता सेवनात् धर्मस्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात्"-धर्म और अधर्म के स्वरूप की व्यवस्था करने वाले केवल सर्वज्ञभगवान् के वचन स्वरूप आगम ही हैं। अतः उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग का सेवन करना धर्म और उससे विपरीत मार्ग का सेवन करना अधर्म है भावार्थ-जीवोंको धर्मकी प्राप्ति सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रदर्शित मार्ग સમજી શકીયે છીએ. “ઘટ પટ” વગેરેની જેમ તેને સ્પષ્ટ પણે જોઈ શકતા નથી એથી જ તે દુય છે. જે અનુમાન અને આગમથી ગમ્ય હોય છે તે અગ્નિ વગેરેની જેમ કેઈને કેઈને પ્રત્યક્ષ હોય છે. આ એક સ્પષ્ટ સિદ્ધાંત છે. રાગ અને દ્વેષથી સંપૂર્ણ પણે રહિત એવા તીર્થંકર પ્રભુએ-કે જેઓ ત્રિકાળવતી બધા પદાર્થોને હસ્તામલકવત્ સ્પષ્ટ રીતે જાણે છે, ૩૫ વાણીના અતિશયથી જેઓ ચુકત છે–પિતાના કેવળજ્ઞાન રૂપી આકથી તેને વિશદ રૂપથી જાણી લીધું છે. અમારા જેવા છદ્મસ્થાને માટે એમનાં વચને સિવાય આ વિષયને નિયામક બીજે કઈ નથી. એથી અમે તેમને કહ્યા મુજબ જ धम भने अधर्मनु २१३५ ngी शहीये छीमे " धर्माधर्म-व्यस्थायाः शाकामेव नियामक', तदुक्तासेवनात् धर्म स्त्वधर्म द्विपर्ययात् " धर्म भने अधर्मना સ્વરૂપની વ્યવસ્થા કરનાર ફકત સર્વજ્ઞ ભગવાનના વચન સ્વરૂપ આગામો જ છે. એથી તેમના વડે દર્શાવવામાં આવેલા માર્ગનું સેવન કરવું એજ ધર્મ અને તેથી વિરુદ્ધ માર્ગનું સેવન કરવું અધર્મ છે. ભાવાર્થ-સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पर चलनेसे ही हो सकती है, इससे विपरीत मार्ग पर चलने से नहीं। अतः जो जीव धर्म को साक्षात्कार करना चाहते हैं उनका कर्तव्य है कि वे सर्वज्ञ भगवन द्वारा कथित मार्ग का सेवन करें और उस से भिन्न मार्ग का परित्याग करें। इस प्रकार की प्रवृत्ति से वे धर्म और अधर्म के स्वरूप के ज्ञाता बन जाते हैं। इस कथन से शंकाकार की इस आशंकाका यहाँ परिहार किया गया है कि जो उसमें पहिले यह प्रश्न किया कि अहिंसादिकों में जो उत्कृष्ट मंगलरूपता है वह किस प्रमाण से है। सूत्रकारने आगम और अनुमान दोनों प्रमाणों से उनमें उत्कृष्ट मंगलता सिद्ध की है इस कथन से एक बात और हमें यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ कथित सिद्धान्त की जांच के लिथे जबतक तर्क का जोर चलता रहे बुद्धिमान तबतक अपनी तर्कणा की कसौटी पर उसे कसता रहे-पर जब तर्क की समाप्ति हो जावे-तर्कणा शक्ति कुंठित हो जावेतो उस व्यक्ति का कर्तव्य है वह आगम प्रमाण से ही उस सिद्धान्त का अनुसरण करें। फिर उसे उस विषय में तर्क करने की आवश्यकता नहीं है क्यों कि सूक्ष्मादिक पदार्थ सर्वज्ञ के सिवाय छद्मस्थों के પ્રદર્શિત માર્ગ ઉપર ચાલવાથી જ છે ને ધર્મની પ્રાપ્તિ થઈ શકે તેમ છે. એનાથી વિરુદ્ધ માર્ગના સેવન થી નહિ. એથી જે ધર્મનું પ્રત્યક્ષ દર્શન ઈચ્છતા હોય તેમની ફરજ છે કે તેઓ સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા કથિત માર્ગનું સેવન કરે અને તેના વિરુદ્ધ માર્ગને ત્યાગ કરે આ જાતની પ્રવૃત્તિથી તેઓ ધર્મ અને અધર્મના સ્વરૂપને જાણનારા થઈ જાય છે. આ કથનથી શકાકારની એ આશંકાને અહીં પરિહાર કરવામાં આવે છે કે જે તેમાં પહેલાં આ પન્ન કરવામાં આવ્યું છે કે અહિંસા વગેરે માં જે ઉત્કૃષ્ટ મંગળ રૂપતા છે તે કયા પ્રમાણના આધારે છે? સૂત્રકારે આગમ તેમજ અનુમાન બને-પ્રમાણે થી તેઓમાં ઉત્કૃષ્ટ મંગળતા સિદ્ધ કરી છે. એ કથન વડે બીજી આ વાતનું પણ જ્ઞાન થાય છે કે સર્વજ્ઞ–કથિત સિદ્ધાન્તની પરીક્ષા માટે જ્યાં સુધી તર્કની શકિત કાયમ રહે બુદ્ધિમાને ત્યાં સુધી પિતાની તર્કણાની કસોટી ઉપર કસતા રહે–પણ જયારે તેની શક્તિ મંદ થઈ જાય-તર્કણ શક્તિ યુતિ થઈ જાય ત્યારે તે વ્યક્તિ ની ફરજ છે કે તે આગળ પ્રમાણથી જ તે સિદ્ધાન્ત નું અનુસરણા કરે. પછી તે વિષયમાં જ તેને મીનમેખ કરવી જોઈએ નહિ કેમ કે સૂમ વગેરે પદાથે સર્વજ્ઞ સિવાય છાના માટે સ્પષ્ટ રૂપથી જાણી શકાય શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा स्वयमेव भगवता-अहिंसासंयमतपसां धर्मत्वं,तथा – तेषामुत्कृष्टमङ्गलस्वरूप त्वेन प्राधान्यं च वर्णितं, तत्राप्यहिंसायाः-सर्वधर्ममूलत्वेन प्राधान्यात् प्रथमं स्थानं प्रदत्तम् । तस्य सर्वप्रधानस्याऽहिंसाधर्मस्य षटूकायोपमर्दनसाध्ये मूर्तिपूजने मूलतः समुच्छेदं केवलालोकेन साक्षात् पश्यन् भगवानहन मूर्तिपूजनार्थमाज्ञां प्रदद्यादित्याकाशकुसुममिवात्यन्तमसदेव बोध्यम् । स्पष्ट रूप से ज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं । अतः ऐसे विषयों में सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाण कोटि में अंगीकार करना चाहिये। भगवान ने स्वयं ही अहिंसा, संयम और तप में धर्मरूपता तथा उत्कृष्ट मंगलरूप होने से प्रधानता कही है । अहिंसा में जो प्रधान रूपता कही गई है उसका मुख्य कारण यह है कि वह समस्तधर्मों का मूल है और इसीलिये उसे उन्हों ने सर्वप्रथमस्थान दिया है जब यह बात है तो विचारना चाहिये कि भगवा मूर्तिपूजा की आज्ञा कैसे दे सकते हैं। क्यों कि वह पूजा षटूकाय के जीवों की विराधना से साध्य होती है। इस विराधना में अहिंसा धर्म को मूलतः ही अभाव समाया हुआ है । अर्थात् मूर्तिपूजा में उस प्रभुप्रतिपादित अहिंसा धर्म का सर्वथा उच्छेद हो हो जाता है-मूर्तिपूजा करने वाला पूजक अहिंसा धर्म का रक्षक नहीं हो सकता है-प्रत्युत उसे हिंसा का ही दोष लगता है इस प्रकार स्वयं भगवान जब अपने केवल ज्ञान से इस बात को તેમ નથી. એથી એવી બાબતમાં સર્વજ્ઞ નાં વચને જ પ્રમાણ રૂપમાં સ્વીકા२१ नये. ભગવાનને પોતે જ અહિંસા, સંયમ અને તપમાં ધર્મ રૂપતા તેમજ ઉત્કૃષ્ટ મંગળરૂપ હોવાથી પ્રધાનતા બતાવી છે. અહિંસામાં જે પ્રધાન રૂપતા દર્શાવવામાં આવી છે, મુખ્યત્વે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે બધા ધર્મનું મૂળ છે અને એથી તેને સૌએ સૌ પ્રથમ સ્થાન આપ્યું છે. જ્યારે એવી વાત છે ત્યારે આપણે વિચારવું જોઈએ કે ભગવાન મૂર્તિપૂજાની આજ્ઞા કેવી રીતે આપી શકે તેમ છે ? કેમ કે તે પૂજા તો કાયના જીની વિરાધનાથી સાધ્ય હોય છે. આ વિરાધનામાં અહિંસા ધર્મતે મુખ્યત્વે અભાવને જ સમાવેશ થયો છે તેમ કહી શકાય છે. એટલે કે મૂર્તિપૂજામાં તે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અહિંસા ધર્મને સંપૂર્ણ પણે ઉચછેદ જ થઈ જાય છે. મૂર્તિપૂજા કરનાર પૂજારી અહિંસા ધર્મને રક્ષક થઈ શકતું નથી અને બીજી રીતે તે તેને હિંસાને દેષ જ એઢ પડે છે. આ રીતે જ્યારે પિતે ભગવાન પિતાના કેવલજ્ઞાનથી આ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे एवं लक्ष्याः समालोचिताः, इदानीमलक्ष्या उच्यन्ते - हिंसादौ जिनाज्ञाविरुद्धा प्रवृत्तिर्भवति लोकानां तस्मादधर्मा हिंसादय एव तस्य धर्मलक्षणस्यालक्ष्या भवन्ति । धर्माधर्मस्वरूपबोधनार्थ हि भगवताऽऽवश्यके नाम - स्थापनाद्रव्यभावभेदेन चतुर्विधो निक्षेपः प्रदर्शितः । तत्र भावावश्यके एव तीर्थंकराज्ञायाः सद्भावाद् साक्षात् जानते हैं तो फिर वे ही मूर्तिपूजा करने की आज्ञा देंगे यह मान्यता आकाशपुष्पकी तरह सर्वधा असत्य ही है यह स्वयं समझने जैसी बात है जहाँ हिंसा है वहां धर्म नहीं है अहिंसा में ही सच्चाधर्म है । इस प्रकार धर्म के लक्ष्यभूत अहिंसा आदि का यहां तक विचार किया। अब उससे विपरीत हिंसादिकों का विचार करते हैं हिंसा आदि पाप हैं-इन में प्रवृत्ति कने की आज्ञा जिन भगवान ने नहीं दी है फिर भी जो प्रवृत्ति करते हैं वे उस आज्ञा से बहिर्भूत हैं अतः जिनाज्ञा से विरुद्ध प्रवृत्ति होने से जीवों के लिये धर्म प्राप्ति के बदले इनसे अधर्म की हो प्राप्ति होती है। जिन से जोवों को अधर्म की प्राप्ति होती हो, वे स्वयं अधर्म हैं। हिंसादिक पापों में अधर्मता होने का कारण उनमें धर्म के लक्षण का अभाव है । इसीलिये ये धर्म के लक्षण के अलक्ष्य हुए हैं। इस धर्म और अधर्म के स्वरूप को समझाने के लिये भगवान ने आवश्यकसूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव વાતને સ્પષ્ટપણે પ્રત્યક્ષરૂપમાં જાણે છે તે પછી તેએ જ મૂર્તિપૂજા કરવાની આજ્ઞા આપે એવી માન્યતા આકાશ પુષ્પની જેમ સંપૂર્ણપણે અસત્ય જ સિદ્ધ થાય છે. આપણે પાતે પણ આ વાત સમજી શકીએ તેમ છીએ. કે જ્યાં હિંસા છે ત્યાં ધર્મ નથી. અહિંસામાં જ સાચા ધમ છે. આ રીતે ધર્મના લક્ષ્યભૂત અહિંસા વગેરે ને માટે અહીં સુધી વિચાર કરવામાં આવ્યે છે. હવે આગળ તેથી વિરુદ્ધ હિંસા વગેરેની માબતમાં વિચાર કરવામાં આવે છે— હિંસા વગેરે પાપ છે-આમાં પ્રવૃત્ત થવાની આજ્ઞા જિન ભગવાનને કોઇને પણ આપી નથી છતાં જેઓ તેમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તે તે આજ્ઞાથી બહિભૂત છે. એથી જિનાજ્ઞાની પ્રતિકૂળ પ્રવૃત્તિ હાવાથી જીવાને ધમ પ્રાપ્તિના સ્થાને એમનાથી અશ્વની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. જીવાને જેનાથી મધમ ની પ્રાપ્તિ થાય છે તે ાતે અધમ છે હિંસા વગેરે પાપામાં અધમતા હાવાને લીધે તેઓમાં ધર્મના લક્ષણના અભાવ છે. એટલા માટે જ તેઓ ધર્માંના લક્ષણુથી અલક્ષ્ય થયા છે. આ ધર્મ અને અધર્મના સ્વરૂપને સમજાવવા માટે ભગવાને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३३५ धर्मत्वम्, अन्यविधेष्वावश्यकेषु रागद्वेषहिंसादिदोषसद्भावेन मोक्षमार्गोपदेशे प्रवृत्तस्य तीर्थकररय चाऽऽज्ञाया अभावेन न तत्र धर्मलक्षणं समनुगच्छति, तेषां मोक्षसाधकत्वाभावाज्जैनधर्मपदं लब्धु-मनुर्हत्वात् । तथाचोक्तमनुयोगद्वारे-- __"से किं तं नामावरसयं ? । नामावस्सयं जरस णं जीवस्स वा अजीवस्स वा के भेद से ४ चार निक्षेपों का कथन किया है उनमें नाम स्थपना और द्रव्य रूप धर्म निक्षेप के आराधन करने की भगवान ने जीवों को आज्ञा नहीं दी है क्यों कि इनसे जीवों को धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। धर्म की प्राप्ति कराने वाला केवल भाव निक्षेपरूप आवश्यक है। इसकी आराधना से ही जीवों को धर्म प्राप्त हुआ करता है-अतः इस में ही धर्मरूपता प्रकट की गई है बाकी के इसके अतिरिक्त निक्षेपों में-आवइयकों में रागद्वेष और हिंसा आदि दोषों का सद्भाव होने से एवं मोक्ष मार्ग के उपदेशप्रदान करने में प्रवृत्त तीर्थकरों की इनके आराधन करने में आज्ञा का अभाव होने से धर्म के लक्षण का समन्वय ही नहीं होता है। मुक्ति का जो साधक होता है वही जैन-धर्म है। इन ३ निक्षेपरूप आवश्यकों में मुक्ति की साधकता का अभाव है-इसलिये ये जैनधर्म के पदको स्वप्न में भी प्राप्त नहीं कर कते हैं। अनुयोगद्वार में यही बात कही गई है से किं तं नामावस्सयं ? नामावस्मयं जस्स णं जीवस्स अजीवरस આવશ્યક સૂત્રમાં નામ, રથાપના દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી ચાર નિક્ષેપ નું કથન કર્યું છે. તેમાં નામ, સ્થાપના, અને દ્રવ્યરૂપ ધર્મ નિક્ષેપને આરાધવાની ભગવાને જીવેને આજ્ઞા આપી નથી કેમ કે એમનાથી અને ધર્મની પ્રાપ્તિ થતી નથી ધર્મની પ્રાપ્તિ કરાવનારે કેવળ ભાવનિક્ષેપરૂપ આવશ્યક છે. એની આરાધનાથી જ જીને ધર્મની પ્રાપ્તિ થાય છે એથી આમાં જ ધર્મરૂપતા બતાવવામાં આવી છે. એના સિવાયના બીજા નિક્ષેપમાં-આવશ્યકમાં–રાગદ્વેષ અને હિંસા વગેરે દેને સભાવ હોવાથી અને મોક્ષ માર્ગને ઉપદેશ આપવામાં પ્રવૃત્ત તીર્થકરોની એમની આરાધના કરવાની આજ્ઞાને અભાવ હોવાથી ધર્મના લક્ષણને સમન્વય જ થતું નથી. મુકિતને જે સાધક હોય છે તે જ જન-ધર્મ છે. આ ૩ નિક્ષેપરૂપ આવશ્યકમાં મુકિતની સાધકતાનો અભાવ છે માટે એઓ જન ધર્મના પદને સ્વપમાં મેળવી શકે તેમ નથી. અનુગદ્વરમાં એ જ વાત કહેવામાં આવી છે– से किं तं नामावासय ? नामावस्सय जस्स णं जीवस्स अजीवरस वा जीवाण वा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा आवस्सएत्ति नामं कज्जइ, से तं नामावस्सयं । ____ अथ किं तत् नामावश्यकं ? नामावश्यक-यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा, तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा आवश्यकमिति नाम क्रियते तदेतनामावश्यकम् । ___" से किं तं ठवणावस्सयं २ १ जणं कटकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सब्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ, से तं ठवणावस्सयं । छाया-अथ किं तत् स्थापनावश्यकम् ? स्थापनावश्यकं यत् खलु काष्ठकर्म का पुस्तम वा चित्रकम वा लेप्यकम वा ग्रन्थिमं वा वेष्टिमं वा पूरिमं वा सङ्घातिम वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नामं कजइ से तं नामावस्मयं । से किं तं ठवणावरसयं १ जपणं कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संधाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा सब्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठविजइ, से तं ठवणावस्सयं भावार्थ-जीव, अजीव अथवा तदुभय स्वरूप आदि पदार्थों में " यह आवश्यक है" इस प्रकार नाम संस्कार करना वह जीव अजीव आदि नाम आवश्यक है इस नाम आवश्यक में आवश्यक के वास्तविक गुणादि कुछ भी नहीं होते हैं-सिर्फ लोक व्यवहार के लिये ही इस प्रकार की वहां पर निक्षेपविधि करली जाती है काष्ठ, पुस्तक चित्र अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा आवस्सए ति नाम कज्जइ से तं नामावस्सयं । से कि तं ठवणावस्सयं १ जणं कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अवखे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सम्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठ विज्जइ, सेतं ठवणावस्सय। ભાવાર્થ-જીવ, અજીવ અથવા તદુભય સ્વરૂપ વગેરે પદાર્થોમાં “આ આવશ્યક છે” આ રીતે નામ સંસ્કાર કરે તે જીવ અજીવ વગેરે “ નામ આવશ્યક છે આ નામ આવશ્યકમાં આવશ્યક ના વાસ્તવિકગુણ વગેરે કંઈ જ હતા નથી ફક્ત લેકવ્યવહાર ને માટે જ આ જાતની ત્યાં નિક્ષેપવિધિ કરવામાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रोपदीचर्चा वा अक्षं वा वराटक वा एको वा अनेको वा सद्भावस्थापना वा असद्धावस्थापना वा ' आवश्यक '-मिति स्थापना स्थाप्यते, तदेतत् स्थापनावश्यकम् । भावावश्यकस्वरूपशून्ये गोपालदारकादौ आवश्यकेति नामकरणे नाम्नानाममात्रेणावश्यकं नामावश्यक गोपालदारकादिर्भवति। स्थापनाऽपि भावावश्यक एवं अक्ष-शतरंज की गोटी आदि में एक अथवा अनेक आवश्यक क्रिया करने वाले श्रावक आदि का तदाकार अथवा अतदाकार लिखित चित्र स्थापना आवश्यक (निक्षेप ) है यह स्थापना दो प्रकार की है एक सद्भाव स्थापना और २ दूसरी असद्भावस्थापना ! सद्भाय स्थापना में जिसकी स्थापना की जाती है उसकी सर्व आकृति कोतरी रहती है असद्भूत स्थापना में इस प्रकार की आकृति आदि नहीं रहती है वहां पर केवल संकेत ही है जैसे शतरंज की गोटियां में यह प्यादा है यह बजीर है, यह हाथी है इत्यादि सिर्फ कल्पना ही कल्पना रहती है-वहां उनका कोई भी आकार कोतरा नहीं रहता है। नाम निक्षेप में जिस प्रकार भाव आवश्यक शून्यता रहती है उसी प्रकार स्थापना में भी यही बात रहती है किसी गोपाल (ग्वालिये) के लड़के का “ आवश्यक" इस प्रकार का नाम जिस प्रकार भाव आवश्यक रहित नाम निक्षेप में है उसी प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूप से शून्य स्थापना निक्षेप में भी “ यह आवश्यक है" यह स्थापना निक्षेप है। આવે છે, કાષ્ટ, પુસ્તક, ચિત્ર અને અક્ષશતરંજ ની સોગઠી વગેરેમાં એક કે અનેક આવશ્યક ક્રિયા કરનાર શ્રાવક વગેરેનું તદાકાર કે અતદાકાર લેખિત ચિત્ર-સ્થાપન આવશ્યક ( નિક્ષેપ) છે. આ સ્થાપના બે પ્રકારની છે. એક સદુભાવ સ્થાપના અને બીજી અસદ્દભાવ સ્થાપના. સદ્દભાવ સ્થાપનામાં જેની સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેની આકૃતિ સંપૂર્ણ પણે કોતરેલ હોય છે અસદુભૂત સ્થાપનામાં આ જાતની આકૃતિ વગેરે રહેતી નથી ત્યાં ફક્ત સંકેત જ છે. જેમ શેતરંજની સોગઠીઓમાં આ પાયદળ છે, આ વજીર છે, આ હાથી છે વગેરે ફક્ત કેરી કલ્પના જ હોય છે તેમાં તેમની કેઈપણ જાતની આકૃતિ કતરેલી હોતી નથી. નામ નિક્ષેપમાં જેમ ભાવ આવશ્યક શૂન્યતા રહે છે તેમજ સ્થાપનામાં પણ એ જ વાત હોય છે. કેઈ ગોવાળિયાના પુત્રનું “આવશ્યક ” આ જાતનું નામ જેમ ભાવ આવશ્યક રહિત નામ નિક્ષેપમાં છે તે પ્રમાણે જ ભાવ આવકના સ્વરૂપથી શૂન્ય સ્થાપના નિક્ષેપમાં પણ “આ આવશ્યક છે” આ સ્થાપના નિક્ષેપ છે. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे स्वरूपशून्ये काष्ठकर्मादौ क्रियते । अतो भावशू ये क्रियमाणत्वाविशेषादनयोनास्ति कश्चिद् भेद इत्याशयेनाह-- ___ “णामढवणाणं को पइविसेसो ?। छाया-नामरथापनयोः कः प्रतिविशेषः। अत्रोत्तरमुच्यते-- 'णामं आवकहिअं, ठवणा इत्तरिआ वा होज्जा आवकहिआ वा' ॥ छायानाम-यावत्कथिकं, स्थापना-इत्वरिका वा भवेद् यावत्कथिका वा। ‘णामं आवकहियं ' नाम यावत्कथिक-स्वाश्रयद्रव्यस्यास्तित्वकथां यावदनुवर्तते इत्यर्थः, स्थापना तु ' इत्तरिया वा' इत्वरिका वा स्वल्पकालस्थायिनी चा 'होज्जा' स्यात् , यावत्कथिका वा, अयं भावः-काचित्-स्थापना स्वाश्रयद्रव्यस्य सद्भावेऽपि, मध्यकाल एव निवर्तते, काचित्तु-तत्सत्तां यावदवतिष्ठते ___ शंका-जिस प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूप से शून्य गापाल के लड़के आदि में "आवश्यक" इस प्रकार का नामनिक्षेपरूप आवश्यक है उसी प्रकार भाव आवश्यकके स्वरूपसे शून्य काष्ठधर्म आदिकों में भी यही बात है । अतः भाव ओवश्यकके स्वरूप की शून्यताकी अपेक्षा से इन दोनों में कोई भी अन्तर नहीं है। तो फिर इन दोनों में क्या भेद है ! उत्तर-"णामं आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिआवा" इस प्रकार की शंका ठीक नहीं-क्यों कि नाम यावत्कथित होता है स्थापना इत्वरिक और यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है । अपने आश्रयभूत द्रव्यका जबतक अस्तित्व-सद्भाव रहता है तबतक नामनिक्षेप रहता है ! इत्वरिक शब्द का अर्थ अल्पकालीन है चित्र एवं अक्ष आदिकों में यह स्थापना अल्पकालीन होती है। इस प्रकार नाम और શંકા-જેમ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય ગોવાળિયાના પુત્ર વગે. રેમાં “આવશ્ય” આ જાતનું નામ નિક્ષેપ રૂપ આવશ્યક છે તેમજ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય કાષ્ટકર્મ વગેરેમાં પણ એ જ વાત છે. એથી ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપની શૂન્યતાની દષ્ટિએ આ બંનેમાં કઈ પણ જાતનો તફાવત નથી, ત્યારે આ બંનેમાં ભેદ શું છે ? उत्तर-(णाम आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिआ वा) શંકા યોગ્ય નથી કેમકે નામ યાવત્ કથિત હોય છે. સ્થાપના ઇત્વરિક અને યાવસ્કથિત બંને પ્રકારની હોય છે. પિતાને આશ્રયભૂત દ્રવ્યનું જ્યાં સુધી સત્ભાવ-અસ્તિત્વ રહે છે ત્યાં લગી નામ નિક્ષેપ રહે છે! ઈરિક શબ્દનો અર્થ અલ્પકાલીન છે. ચિત્ર અને અક્ષ (રમવાના પાસા) વગેરેમાં એ સ્થાપના અલ્પકાળ માટે હોય છે. આ રીતે નામ અને સ્થાપનામાં ભાવ નિક્ષેપની श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रोपदीचर्चा इति । एवं च-नामस्थापनयोर्भाव शून्यत्वेनाधारसाम्येऽपि भेदः स्वस्वावस्थानकालकृत एव भगवता प्रदर्शितः । यद्यपि गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरिवर्तनं लोके क्वचिद् दृश्यते, तथा च कालकृतोऽपि भेदो नास्ति, तथापि-बहुशः स्थले नाम्नो यावत्कयिकत्वमेव दृश्यते, नाम्नः परावर्तनं तु क्वचिद्विरलतयोपलभ्यते । अतोऽल्पस्थलव्यापित्वेन नाम्न इत्वरिकता भगवता न विवक्षिता । नाम्नोऽल्पकालिकताकल्पने तूत्सूत्रप्ररूपणापत्तिरिति बोध्यम् । स्थापनामें भावनिक्षेपकी शून्यताकी अपेक्षासे समानता आती है तो भी अपने२ कालकी अपेक्षासे इनमें इस प्रकार भेद-अन्तर माना गया है। __ शंका-नामनिक्षेप में जो यावत्कयिकता प्रदर्शित की गई है, वह ठीक नहीं है-कारण कि हम देखते हैं नामवान द्रव्य-गोपालदारक आदि के विद्यमान रहते हुए भी उस में अनेक नामों का परिवर्तन होता रहता है । कभी उसका " आवश्यक" यह नाम होता है, तो " इन्द्र" यह नाम रख लिया जाता है। फिर "आवश्यक" इस नाम निक्षेप में यावत्कथिकता कैसे आ सकती है ? उत्तर-शंका ठीक है इस प्रकार से विचार करने पर कालकृत अन्तर यद्यपि उन दोनों में नहीं मालूम होता है तो भी इस बात की यहां पर विवक्षा नहीं है इसका कारण यही है कि यह नामपरिवर्तन अल्पस्थलवी होनेसे व्याप्य है। यह बात सब जगह नहीं होती। कहीं २ ही होती है यहां सामान्य कथन है-विशेष नहीं । सामान्यरूप से नाम શૂન્યતાની અપેક્ષાથી સમાનતા આવી જાય છે, છતાંયે પિતપોતાના કાળની અપેક્ષાથી તેઓમાં આ જાતને ભેદ અખ્તર માનવામાં આવ્યું છે. શંકા–નામ નિક્ષેપમાં જે યાવસ્કથિકતા બતાવવામાં આવી છે, તે ઉચિત નથી. કારણ કે નામવાળું ગેપાળદારક વગેરેના વિદ્યમાન રહેતા પણ તેમાં અનેક નામનું પરિવર્તન થતું રહે છે. કેઈ વખતે તેનું નામ “ આવશ્યક રાખવામાં આવે છે તે કઈ વખત “ઈન્દ્ર' નામ રાખવામાં આવે છે. તે પછી “આવશ્યક” આ નામ નિક્ષેપમાં યાવસ્કથિત કેવી રીતે આવી શકે છે? ઉત્તર–શંકા ઉચિત છે. આ રીતે વિચાર કરવાથી જે કે કાળકૃત અંતર તેઓ બંનેમાં જણાતું નથી છતાંયે આ વાતની અહીં વિવક્ષા નથી. એનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે આ નામ પરિવર્તન અલ્પ–સ્થલવતી હોવાથી ત્યાગ છે, આ વાત બધે સ્થાને હતી નથી કેઈક કઈક સ્થાને જ હોય છે. અહીં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ज्ञाताधर्मकथासूत्र यत्त-उपलक्षणमात्रं चेदं कालभेदेनैतयोर्भेदकथनम्-अपरस्यापि बहुप्रकारभेदस्य सम्भवात् , इत्युक्तं , तदुत्सूत्रमरूपणम् यथोत्सूत्रप्ररूपणभियानामनिक्षेपे इत्वरिकतायाः क्वचित् संभवेऽपि भगवताऽनुक्तत्वादुपलक्षणमिति न स्वीकृतं तथैव स्थापनायां कालातिरिक्तस्य भेदहेतोः कल्पनेऽप्युत्सूत्रप्ररूपणं प्रसज्येत कालान्यकृतयावत्कथिक ही होता है । इसी अपेक्षा को लक्ष्य में रखकर भगवान ने उसमें इत्वरिकता का कथन न कर केवल यावत्कथिकता का ही कथन किया है यदि नाम में जो केवल इत्वरिकता ही मानी जावेगी-तो यह बात सिद्धान्त से बहिर्भूत होने से मानने वाले के लिये उत्सूत्रप्ररूपणा करने की आपत्ति का दोष आवेगा-क्यों कि शास्त्र में भगवान ने नाम निक्षेप में केवल यावद्रव्य भविता ही प्रदर्शित की है। जो व्यक्ति इस शंका का इस प्रकार से समाधान करते हैं कि "काल के भेद से जो नाम और स्थापना में भेद कहा गया है वह केवल उपलक्षण मात्र है-इससे अन्य अनेक प्रकारों से भी इन दोनों में परस्पर भेद है यह बात जानी जाती है" सो उनका यह कथन शास्त्र. मर्यादा के विरुद्ध है जिस प्रकार नाम निक्षेप में कहीं २ इत्वरिकता होने पर भी भगवान द्वारा स्वीकृत न होने से वह उपलक्षणरूप से स्वीकृत नहीं की गई है-उसी प्रकार स्थापना में भी कालकृत भेद के સામાન્ય કથન છે વિશેષ નહિ. સામાન્ય રૂપથી નામ યાવત્ કથિત જ હોય છે. આ વાતને સામે રાખીને જ ભગવાને તેમાં ઈત્વરિકતાનું કથન ન કરતાં ફક્ત યાવથિકતાનું કથન કર્યું છે. જે નામમાં ફક્ત ઇવરિતા જ માનવામાં આવશે તે આ વાત સિદ્ધાન્તની બહાર હોવાથી માનનાર માટે ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણું કરવા રૂપ દેષ આવશે. કેમકે શાસ્ત્રમાં ભગવાને નામ નિક્ષેપમાં ફક્ત याव-द्र०य-साविता मतापी छ. જે માણસે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે કરે છે કે “કાલના ભેદથી જે નામ અને સ્થાપનામાં તફાવત બતાવવામાં આવ્યું છે તે ફક્ત ઉપલક્ષણ માત્ર છે. એથી બીજા અનેક પ્રકારથી પણ આ બંનેમાં પરસ્પર તાવત છે આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે. “ જેથી તેમનું આ કહેવું શાસ્ત્ર-મર્યાદાથી વિપરીત છે. જેમ નામ-નિક્ષેપમાં કઈક કઈક ઠેકાણે ઈવરિકતા હોવા છતાંયે ભગવાન વડે સ્વીકૃત ન હોવાથી તે ઉપલક્ષણ રૂપથી સ્વીકારવામાં આવી નથી. તેમ સ્થાપનામાં પણ કાલકૃત ભેદ સિવાય બીજા વડે અત્તર-ભેદ-માનવામાં श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३४१ भेदस्य भगवताऽनुक्तत्वात् । एतेन-" यत् कैश्चिदुक्तं यथा प्रतिमारूपस्थापनादशनाद् भावः समुल्लसति नैवं नामश्रवणमात्रादिति नामस्थापनयोर्भेदः, यथा चे. न्द्रादेः प्रतिमारूपस्थापनायां,लोकस्योपयाचितेच्छा पूजाप्रवृत्ति समीहितलाभादयोदृश्यन्ते,नैव नामेन्द्रादौ, इत्यपि तयोर्भेदः । एवमन्यदपि वाच्यमिति तदुत्सूत्रप्ररू. सिवाय अन्य द्वारा अन्तर भेद मानने में उत्सूत्र प्ररूपणा करने का दोष आता है, कारण कि भगवान ने कालकृत भेदके सिवाय स्थापना निक्षेप में अन्य और किसी दूसरी अपेक्षा से भेद का कथन नहीं किया हैं इस प्रकार के कथन से " यह बात भी जो दूसरों ने कही है कि नाम और स्थापना में इस प्रकार से भी भेद है-कि “जिस प्रकार अहंत की प्रतिमारूपस्थापना के देखने-दर्शन करने से भावों की जागृति होती है, उस प्रकार नाम निक्षेपरूप अहंत नाम के सुनने से भावों की जागृति नहीं होती है। अथवा-इन्द्रादिक की प्रतिमारूप स्थापना में जिस प्रकार से लौकिकजनों की उस प्रतिमा से कुछ मांगने की इच्छा उसके पूजन करने की भावना और उस प्रतिमा द्वारा उनके अभिलषितमनोरथों की पूर्ति होती हुई देखी जाती है उस प्रकार नामरूप इन्द्र में उनकी इस प्रकार की प्रवृत्ति और अभिलषित मनोरथों की पूर्ति होती हुई नहीं देखी जाती है । इसी तरह और भी ऐसी कई बातें हैं जो नाम और स्थापना में अन्तर कराती है। यह सब कालकृत भेद के सिवाय ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણ રૂપ દેષ થઈ જાય છે કારણ કે ભગવાને કાલકૃત ભેદ સિવાય સ્થાપના નિક્ષેપમાં બીજી કઈ અન્ય દૃષ્ટિએ ભેદ-કથન કર્યું નથી. આ જાતના કથનથી “આ વાત પણ જે બીજાએએ કહી છે કે નામ અને સ્થાપનામાં આ રીતે પણ તફાવત છે કે “જેમ અહંતની પ્રતિમા રૂપ સ્થાપનાને જેવા એટલે કે દર્શન કરવાથી ભાવની જાગૃતિ થાય છે, તેમ નામ નિક્ષેપ રૂપ અહંતના નામને સાંભળવાથી પણ ભાવેની જાગૃતિ હોતી નથી. અથવા તે ઈન્દ્ર વગેરેની પ્રતિમા રૂપ સ્થાપનામાં જેમ લૌકિક માણસની તે પ્રતિમાથી કંઈક માગણી કરવાની ઈચ્છા, તેની પૂજા કરવાની ભાવના અને તે પ્રતિમા વડે તેમના અભિલષિત મને રથોની પૂર્તિ થતી દેખાય છે તેમ નામ રૂપ ઈન્દ્રમાં તેમની આ જાતની પ્રવૃત્તિ અને અભિલષિત મને રથોની પૂર્તિ થતી જોવામાં આવતી નથી. આ પ્રમાણે બીજી પણ ઘણી બાબતે છે જે નામ અને સ્થાપનામાં અંતર કરાવે છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ __ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पणा जनितानन्तसंसारजनकम् । आगमे यदिदमुपलभ्यते-" तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयसवणयाए महाफलं ।" इति, तत्र नास्ति नामनिक्षेपस्य विषयः। " अरहताणं भगवंताणं " इत्युक्त्या तस्मिन्नर्थे प्रयुक्तस्य नाम्न एव श्रवणेन महा. फलसंभवात् , गोपालदारकादौ प्रयुक्तस्य नाम्नः श्रवणेन तु गोपालदारकाद्यर्थस्यैव बोधादात्मपरिणामशुद्धिहेतृत्वं तस्य नास्तीति । नामनिक्षेपस्थले भगवतोऽहतः स्मरणासंभवः, तस्य भावशून्यत्वात् , अत्र तु नामगोत्राभ्यां भगवदहतः सम्बन्धं षष्ठयन्तपदप्रयोगादेव दर्शयता भगवता नामनिक्षेपो न विवक्षितः । भावजिननाम और स्थापना में भेद कल्पना का कथन उत्सूत्र प्ररूपक होने से अनन्त संसार का जनक है अतः हेय है। "तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयसवणयाए महाफलं " आगम में जो यह सूत्र लिखा हुभा देखा है उसका अभिप्राय नामनिक्षेप परक नहीं है। अर्थात्-इस सूत्र से नाम निक्षेप की पुष्टि नहीं होती है। यदि सूत्रकार को इस सूत्र से जो नामनिक्षेप की पुष्टि करना इष्ट होता तो " अरहंताणं भगवंताणं इस पद के स्वतन्त्र देने की कोई खास आवश्यकता नहीं थीं। अतः यह बात माननी चाहिये कि अरहंत भगवान के ही नामगोत्र के श्रवण से महाफल होता है। किसी गोपाल के लड़के में निक्षिप्त " अरहंत" इस नाम के सुनने से नहीं। उस में प्रयुक्त भी उस नाम के श्रवण से तो केवल उस गोपाल दारकरूप अर्थ का ही बोध होता है । "अरहंत " यह नाम जिसरूप के संकेत से अरि આ બધું કાલકૃત ભેદ સિવાય નામ અને સ્થાપનામાં ભેદ કલ્પનાનું કથન ઉસૂત્ર પ્રરૂપક હોવાથી અનંત સંસારનું જનક છે એથી ત્યાજ્ય છે. " तहारूवाण अरहताण भगवताण' नाम गोयसवणयाए महाफलं " भागममा જે આ સૂત્ર મળે તેને અભિપ્રાય નામનિક્ષેપપરક નથી. એટલે કે આ સૂત્ર વડે નામ નિક્ષેપ-પુષ્ટિ થતી નથી. જે સૂત્રકારને આ સૂત્ર વડે નામ-નિક્ષેપની पल्टि ४२ म त त " अरहताणं भगवंताणं " मा ५४ने स्वतंत्र રૂપમાં મૂકવાની કેઈ ખાસ આવશ્યકતા હતી નહિ. એથી આ વાત માની લેવી જોઈએ કે અરહંત ભગવાનના નામ ગોત્ર-શ્રવણથી મહાફળ પ્રાપ્ત હોય છે. કઈ ગોપાળના પુત્રમાં નિક્ષિપ્ત “અરહંત” આ નામને સાંભળવાથી નહિ. તેમાં પ્રયુકત પણ તે નામના શ્રવણથી તે ફક્ત તે ગોપાળના પુત્ર રૂ૫ અર્થनाथ डाय छे. " अरहंत " मा नाम रे ३५ना सतथी मरिहत પ્રભુમાં સંકેતિત થયું છે તે રૂપના સંકેતથી જ પાળના પુત્રમાં સંકેતિત શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा हंत प्रभु में संकेतित हुआ है-उसी रूप से सकेत से गोपाल के पुत्र में संकेतित नहीं हुआ है ! लौकिक व्यवहार के लिये ही केवल "अरहंत" ऐसा उसका नाम करलिया गया है। नाम निक्षेप में जिसका निक्षेप किया जाता है उस जाति के द्रव्य, गुण और कर्म-क्रिया आदि निमित्त की अनपेक्षा रहती है इस निमित्त के सद्भाव में वह नाम निक्षेप का विषय नहीं माना जाताहै। भाव निक्षेप का ही वह विषय होता है अतः यह निश्चित होता है कि अरहंत भगवान के ही नाम गोत्र के श्रवण के महाफल सूत्रकार ने प्रकट कियाहै यदि नामनिक्षेप से यह फल प्राप्त होने लगता तो फिर भावनिक्षेप की आवश्यकता ही क्या थी। उसके श्रवण मात्र से ही जीवों के आत्मिक भावों में शुद्धिरूप महाफल का लाभ होने लगता। तथा जिसका “ अरिहंत" यह नाम है वह स्वयं अरिहंत प्रभु की तरह महापवित्र, ३४ अतिशयो सहित ८ प्रातिहार्य आदि विभूति संपन्न हो जाता। परन्तु ऐसा नहीं होता है अतः यह मानना चाहिये कि यह सूत्र भावनिक्षेप की ही पुष्टि विधायक है-नामनिक्षेप का नहीं। नामनिक्षेप से भगवान अरिहंत की स्मृति भी नहीं कराई जाती है-कारण कि वह नामनिक्षेप स्वयं उस प्रकार के भावों से शून्य है। अनुभूत पदार्थ की स्मृति हुआ करती થયું નથી. લૌકિક વ્યવહાર માટે ફક્ત “અરહંતઆવું નામ પાડવામાં નામનિક્ષેપમાં જેને નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે તે જાતિના દ્રવ્ય, ગુણ અને કર્મ-ક્રિયા વગેરે નિમિત્તની અપેક્ષા રહે છે. આ નિમિત્તના સદુભાવમાં તે નામ-નિક્ષેપને વિષય માનવામાં આવતું નથી. ભાવ નિક્ષેપને જ તે વિષય હોય છે. એથી એ સિદ્ધ થાય છે કે અરહંત ભગવાનના જ નામ શેત્રના શ્રવણથી જ સૂત્રકારે મહાફળ બતાવ્યું છે. જે નામનિક્ષેપથી આ ફળ મળી શક્યું હોત તો પછી ભાવનિક્ષેપની આવશ્યકતા જ શી હતી? તેના શ્રવણ માત્રથી જ જીવેની આત્મિક ભાવમાં શુદ્ધિ રૂપ મહાફળને લાભ થવા માંડતે. તેમજ જેનું “અરિહંત” આ નામ છે તે પિતે અરિહંત પ્રભુની જેમ મહાપવિત્ર, ૩૪ અતિશયે સહિત, ૮ પ્રતિહાર્ય વગેરે વિભૂતિઓથી સંપન્ન થઈ જાત, પણ આવું થતું નથી એથી એમ સમજી લેવું જોઈએ કે આ સૂત્રથી ભાવનિક્ષેપની જ પુષ્ટિ થાય છે–નામ નિક્ષેપની નહિ. નામ નિક્ષેપથી ભગવાન અરિહંતની સ્મૃતિ પણ કરવામાં આવતી નથી કારણ કે તે નામ-નિક્ષેપ જાતે તે જાતના ભાવથી રહિત છે. અનુભૂત પદાર્થનું સ્મરણ થયા કરે છે જેનું श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ne mari Omari. - -- - - ३४४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे है जिसका “ अरिहंत" यह नाम रखा गया है उसके देखने से अरिहंत की स्मृति हो भी कैसे सकती है-स्मृति तो अरिहंत की जब हो सकती कि जब उसमें उनकी स्मृति के चिह्न होते-वह स्वयं उस प्रकार के हेतु हो सकती है माना कि श्रवण कर्ता शास्त्र आदिकों में अरिहंतप्रभु के गुणों का वर्णन पढकर चित्त में उकेर कर भले ही "अरिहंत" इस नामके श्रवण से उनका स्मरण कर सकता है। परन्तु गोपालदारकादी में कृत नाम से उनका स्मरण उसे नहीं हो सकता-उस नाम से तो उसमें ही संकेतित उस शब्द से उस गोपाल दाररूप अर्थ का ही उसे बोध होगा। यदि अरिहंत नाम के सुनने से सुनने वाले को अरिहंत पदार्थ का भान होता हैतो वह नाम निक्षेप का विषय नहीं माना गया है भावनिक्षेप का ही वह विषय है। थोड़ा बहुत भी किसी अपेक्षा से सादृश्य होने पर एक पदार्थ को देखकर सहश दूसरे पदार्थ का स्मरण हो जाता है परन्तु प्रकृत में गोपालदाकरूप अरिहंत नामनिक्षेप में ऐसा कौन सा सादृश्य है जो वह अरिहंत का स्मरण करा सके। अतः नाम और गोत्र के साथ साक्षात् भगवान अरिहंत का संबंध षष्ठी विभक्ति द्वारा प्रदर्शित करने वाले सूत्रकार ने इस सूत्र में नामनिक्षेप का कोई * અરિહંત ” આ નામ રાખવામાં આવ્યું છે. તેને જેવાથી અરિહંત સ્મૃતિ પણ કેવી રીતે થઈ શકે તેમ છે ? સ્મૃતિ તે અરિહંતની ત્યારે જ થઈ શકે કે જ્યારે તેમાં તેમની સ્મૃતિના ચિહ્નો હોય, તે પોતે આ જાતના ભાવોથી રહિત થયેલ હોય, ત્યારે તે કેવી રીતે તેમની સ્મૃતિનું કારણ થઈ શકે છે આ વાત આપણે સ્વીકારી શકીએ તેમ છીએ કે શ્રવણ-કન્તુ શાસ્ત્ર વગેરેમાં અરિહંત પ્રભુના ગુણોનું વર્ણન વાંચીને ચિત્તમાં ધારણ કરીને ભલે “અરિહંત' આ નામના શ્રવણથી તેમનું સ્મરણ કરી શકે છે. પણ ગોપાળદારક વગેરેમાં કૃત નામથી તેનું સ્મરણ થઈ શકતું નથી. તે નામ વડે તે તેમાં જ સંકેતિત તે શબ્દથી તે ગોપાળદારક રૂપ અર્થને જ તે બંધ થશે. જે અરિહંત નામ શ્રવણથી સાંભળનારને અરિહંત પદાર્થોનું જ્ઞાન થાય છે ત્યારે તે નામનિક્ષેપને વિષય માનવામાં આવ્યો નથી ભાવનિક્ષેપતો જ તે વિષય છે. કોઈ પણ રીતે થોડું પણ સરખાપણું હેવાથી એક પદાર્થને જોઈને તેના સરખા બીજા પદાર્થનું મરણ થઈ જાય છે પણ પ્રકૃતમાં ગોપાળદારક રૂપ અરિહંત નામનિક્ષેપમાં એવું કઈ જાતનું સરખાપણું છે કે જે તે અરિહંતનું સ્મરણ કરાવી શકે ? એથી નામ અને ગેત્રની સાથે સાક્ષાત્ ભગવાન અરિહંતને સંબંધ ષષ્ઠી વિભકિત વડે દર્શાવનારા સૂત્રકારે આ સત્રમાં નામનિલેપને કઈ પણ વિષય પ્રતિપાદિત કર્યો નથી. ભાવનિક્ષેપ. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०० १६ द्रौपदीचर्चा ३४५ बोधकस्य नाम्न एव श्रवणेन महाफलसंभवः । एवं स्थापनापि भावरूपार्थशून्या, स्थापनया भावरूपार्थस्य नास्ति कोऽपि सम्बन्धः । भावजिनशरीरवर्तिनी याऽऽकृतिरासीत् , तस्या आश्रयायिभावरूपसम्बन्धो भावनिनेन सह तदानीं विद्य. मान आसीत् । यथा भावजिनं पश्पतस्तदानीं भावोल्लासोऽपि कस्यचित् संजातः, भी विषय प्रतिपादित नहीं किया है। भावनिक्षेप का ही विषय इसमें कहा है इसलिये भावजिन का बोध कराने वाले जिन 'अरिहंत' आदि नामों के सुनने से ही महाफल होता है ऐसा मानना चाहिये। __इसी प्रकार स्थापना निक्षेप भी भावरूप अर्थ से शून्य है कारण कि इसका उसके साथ कोई संबंध नहीं है भावजिन की अवस्था की आकृति पाषाण आदि की मूर्ति में “ यह वही है'' इस प्रकार की कल्पना करने का नाम स्थापना है तीर्थंकर प्रकृति के उदयसे समवस. रणादि विभूति सहित आत्मा का नाम भाव जिन है इस भाव जिन के शरीर की जो आकृति है उसका संबंध विचारिये उस पाषाण आदि की प्रतिमा में कैसे आसकता है । क्यों कि इस आकृति का संबंध आश्रय आश्रयी भावसे वे जिन जिसकाल में थे उसी काल में उनके साथ था। उनके नहीं रहने पर पाषाण आदि में इस तरह का आश्रय आश्रयी भाव संबंध मानना उचित कैसे कहा जा सकता है, भावजिन के सद्भाव में जिस प्रकर उनके साक्षात् दर्शन से प्राणियों को एक प्रकार ને જ વિષય તેમાં બતાવ્યું છે એથી જીનને બોધ કરાવનાર જીન “અરિ. હંત » વગેરે નામ શ્રવણુથી મહાફળ પ્રાપ્ત હોય છે આમ સમજવું જોઈએ. આ પ્રમાણે સ્થાપના નિક્ષેપ પણ ભાવ રૂપ અર્થથી રહિત છે. કારણ કે આનો તેની સાથે કઈ પણ જાતને સંબંધ નથી. ભાવજીનની અવસ્થાની આકૃતિ પથ્થર વગેરેની મૂર્તિમાં “આ તેઓ જ છે ” આ જાતની કલ્પના કરવાનું નામ સ્થાપના છે. તીર્થંકરની પ્રકૃતિના ઉદયથી સમવસરણ વગેરે વિભૂતિ સહિત આત્માનું નામ ભાવજીન છે. આ ભાવજીનના શરીરની જે આકૃતિ છે તેના વિષે આપણે પણ વિચાર કરીયે કે પથ્થર વગેરેની પ્રતિમામાં તેનો સંબંધ કેવી રીતે આવી શકે છે ? કેમકે તે આકૃતિને સંબંધ આશ્રય આશ્રયી ભાવથી તે જીન જે કાળમાં હતા તે કાળમાં જ તેમની સાથે હતે. તેમની ગેરહાજરીમાં પથ્થર વગેરેમાં આ જાતનો આશ્રય-આશ્રયી ભાવ સંબંધ માન્ય રાખ કેવી રીતે યોગ્ય કહી શકાય તેમ છે ? ભાવજીનના સદૂભાવમાં જેમ તેમના સાક્ષાત દર્શનથી પ્રાણીઓમાં એક જાતને ભાલ્લાસ ઉદ્ભવે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे तथा भक्त्या तामाकृतिं स्मरतो जनस्य भावोल्लासः संभवतु, तदाऽऽकृतेर्भावजिनेन संबन्धात्, परंतु स्थापनाया आश्रयाश्रयिभावसम्बन्धो नास्ति भावजिनेन सह । भावजिनात्मनस्तत्रावाहनं स्थापनंतु जिनाज्ञाबाह्य प्रवचनविरुद्धं कर्तुमशक्यं, कथं तर्हि - भावजिनसम्बन्धाभावे प्रतिमा भावजिनं तद्गुणं वा स्मारयितुं शक्ता भवेत् । का भावोल्लास होता है, उसी प्रकार से भक्ति के आवेश से भी उनकी उस आकृति का उस समय स्मरण करने वाले प्राणी को उस प्रकार के भावोल्लास का सद्भाव हो सकता है। इसका निषेध नहीं है। क्यों कि स्मृति के आधारभूत जिन परमात्मा उस काल में स्वयं विद्यमान हैं। उन के अभाव में उन्हें नहीं देखने वाले प्राणियोंको भी उनकी उस प्रतिमा से उसी प्रकार का भावोल्लास होता है यह मान्यता केवल एक कल्पना मात्र है वास्तविक नहीं। इसके समाधान के निमित्त जो यह कहा जाता है कि उस पाषाण प्रतिमा में जिन भगवान की आत्मा का मंत्रादिकों द्वारा आह्वान किया जाता है अतः उस प्रतिमा के दर्शन से साक्षात् भाव जिनके ही दर्शन होते हैं सो यह मान्यता सर्वथा असत्य है - कारण कि मोक्ष में प्राप्त आत्माओं का पाषाण आदि प्रतिमाओं में अपनी मान्यता सिद्ध करने के लिये आह्वान आदि मानना सर्वथा जिन सिद्धान्त से विरुद्ध है मोक्ष प्राप्त आत्माएँ कहीं पर भी किसी भी काल में आह्वान करने से नहीं आती हैं ऐसी जिनशासन की आज्ञा है इस तरह से उस पाषाण आदि की आत्माओं का છે, તેમ ભક્તિના આવેશથી પણ તેમની એ આકૃતિનુ તે સમયે સ્મરણ કરનાર પ્રાણીને તે જાતના ભાવેાલ્લાસની અનુભૂતિ થઇ શકે છે, આના નિષેધ નથી, કેમકે સ્મૃતિમાં તે આકૃતિના આધારભૂત જીન પરમાત્મા તે કાળમાં જાતે વિદ્યમાન છે. તેમના અભાવમાં તેમને નહિ જોનારા પ્રાણીઓને પણ તેમની તે પ્રતિમાથી તે પ્રમાણેના જ ભાવાલ્લાસ થાય છે, આ માન્યતા ફક્ત એક કારી કલ્પના જ છે, વાસ્તવિક નથી. એના સમાધાન માટે જે આમ કહેવામાં આવે છે કે તે પથ્થરની પ્રતિમામાં જીન ભગવાનના આત્માનુ` મ`ત્રા વગેરેથી આવાહન કરવામાં આવે છે, એથી તે પ્રતિમાનાં દર્શનથી પ્રત્યક્ષ ભાવજીન નાં જ દર્શન થાય છે, તેા આ માન્યતા સાવ અસત્ય છે, કારણ કે મેક્ષમાં પ્રાપ્ત આત્માઓનું પથ્થર વગેરે પ્રતિમાઓમાં પેાતાની માન્યતા સિદ્ધ કરવા માટે આહ્વાહન વગેરે માનવુ' તે તે જીન સિધ્ધાંતથી સાવ વિરૂધ્ધ છે. મેાક્ષ પ્રાપ્ત આત્માએ કોઇ પણ સ્થાને અને કાઇ પણ કાળે આવાહન કરવાથી આવતા નથી, એવી જીન શાસનની આજ્ઞા છે. આ રીતે તે પથ્થર વગેરેની પ્રતિમામાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३४७ सर्वथा कुपावनिकद्रव्यावश्यकवत् प्रतिमापूजनं कुर्वन्तः कारयन्तश्च मिथ्यादृष्टित्वं प्राप्नुवन्ति न तु सम्यक्त्वमिति । द्रव्यावश्यकं-द्विविध-आगमतो नोआगमतश्च । यस्य जन्तोरावश्यकशास्त्रं शिक्षितादिगुणोपेतं भवति, स जन्तुस्तत्रावश्यकशास्त्रे शिष्याध्यापनरूपया वाचनया गुरुं प्रति प्रश्नलक्षणया प्रच्छनया, पुनः पुनः सूत्रार्थाभ्यासरूपया परावर्तनया, तथा अह्वान होने से आना मान लिया जाय तो फिर उस प्रतिमा में सजीवता मानने में क्या दोष है इसलिये यह स्वीकार करना ही चाहीये। कि भावजिन के अभाव में वह प्रतिमा भावजिन एवं उनके गुणों का स्मरण करवाने में सर्वथा समर्थही है । जब यह निश्चित सिद्धान्त है तो फिर इसकी पूजनादि करने कराने से जो मनुष्य समकित की प्राप्ति होना मानते हैं वे उस विधवा कि दशा जैसे हैं जो अपने पति की फोटो या मूर्ति के दर्शन एवं सहवास आदि से सन्तान की उत्पत्ति की कामना करती हो। इसलिये कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक की तरह यह प्रतिमापूजनादि कर्म करने कराने वाले दोनों ही जन मिथ्यात्वरूप दृष्टि के ही पात्र हैं, सम्यक्त्व के नहीं।। ___द्रव्य निक्षेपरूप आवश्यक, आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। उसमें जिस प्राणी के आवश्यक शास्त्र शिक्षितादिगुणों से युक्त है वह प्राणी उस आवश्य शास्त्र में, शिष्यों का पढानेरूप તે આત્માઓનું આવાહન હોવાથી આવવું માની લઈએ તે પછી તે પ્રતિ માને સજીવ માનવામાં શું વાંધો છે? એટલા માટે આપણે આ વાત સ્વીકારવી જ જોઈએ કે ભાવજીનના અભાવમાં તે પ્રતિમા ભાવજીન અને તેમના ગુણોનું સ્મરણ કરાવવામાં સંપૂર્ણપણે સમર્થ જ છે. જ્યારે આ સિધાન્ત નિશ્ચિત રૂપે માન્ય થયેલો છે ત્યારે તેનું પૂજન વગેરે કરાવવાથી જે લેકે સમક્તિની પ્રાપ્તિ થવી માને છે તેમની તે વિધવા જેવી દશા છે કે જે પોતાના પતિની છબી કે મૂર્તિના દર્શન અને સહવાસ વગેરેથી સંતાન મેળવવાની ઈચ્છા કરતી હાય ! એટલા માટે કુખાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ આ પ્રતિમા પૂજન વગેરે કાર્ય કરનાર તેમજ કરાવનાર બંને માણસો મિથ્યાત્વ રૂપ દૃષ્ટિનાં જ પાત્ર છે, સમ્યકત્વનાં નથી. દ્રવ્ય નિક્ષેપ રૂપ આવશ્યક આગમ તેમજ આગમન ભેદથી બે પ્રકારે છે. તેમાં જે પ્રાણી આવશ્યક શાસ્ત્ર શિક્ષિત વગેરે ગુણેથી યુક્ત છે તે પ્રાણી તે આવશ્યક શાસ્ત્રમાં શિખ્યાને ભણાવવા રૂપ વાચનાથી, ગુરૂ-મતિ તદ્દ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे धर्मकथया वर्तमानोप्यनुपयोगे सति आगमतो द्रव्यावश्यकम् , 'अणुवओगो दव्वं' इति वचनात् । अनुपयोगी भावशून्यता । वाचना से, गुरु के प्रति तद्विषयक प्रश्न लक्षणरूप पृच्छना से बार बार सूत्र और अर्थ के अभ्यासरूप परावर्तन से तथा धर्मकथा से वर्तमान होता हुआ भी अनुपयुक्त अवस्थासंपन्न होने से आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है । अनुपयोग का नाम ही द्रव्य है । भावार्थ-" भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके तद्रव्यम्" यह द्रव्यनिक्षेप का लक्षण है। भूतपर्याय या भविष्यत् पर्याय का जो कारण आधार होता है, वह द्रव्य है जिस प्रकार किसी राजा के युवराज को राजा कह दिया जाता है यद्यपि वह अभी वर्तमान में राजारूपपर्याय से युक्त नहीं है-आगे उसे राजपर्याय प्राप्त होगी, परन्तु फिर भी उसे व्यवहार में लोग राजा कहते हैं । यह भविष्यत् पर्याय की अपेक्षा द्रव्य निक्षेपका विषय है। जोपहिले राजा था-कारण वश जब वह राजागद्दी का परित्याग कर देता है-तब भी लोग उसे राजा कहते हैं। यहां उस राजा में यद्यपि वर्तमान समय में राजपर्याय से युक्तता नहीं है तो भी भूतकाल की अपेक्षा से ही उसे राजा कहा जाता है। यह भूतकाल की अपेक्षा से राजपर्याय का आधार होने के कारण द्रव्यनिक्षेप का विषय है प्रकृत में इस निक्षेप की आयोजना इस प्रकार से વિષયક પ્રશ્ન લક્ષણ રૂપ પૃચ્છનાથી, વારંવાર સૂત્ર અને અર્થના અભ્યાસ રૂપ પરાવર્તનથી તથા ધર્મકથાથી વર્તમાન હોવા છતાંયે અનુપયુક્ત અવસ્થા સંપન્ન હવાથી આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, અનુપયોગનું નામ જ દ્રવ્ય છે. मावा--" भूतस्य भाविनो वा भावत्य हि कारणं तु यल्लाके तद् द्रव्यम्" આ દ્રવ્ય નિક્ષેપનું લક્ષણ છે. ભૂત-પર્યાય કે ભવિષ્ય પર્યાયનો જે કારણ આધાર હોય છે, તે દ્રવ્ય છે. જેમ કેઈ રાજાના યુવરાજને રાજા કહી દેવામાં આવે છે. જો કે તે વર્તમાનમાં રાજા રૂપ પર્યાયથી યુક્ત નથી. આગળ તેને રાજ પર્યાય પ્રાપ્ત થશે, છતાંયે તેને વ્યવહારમાં લોકે રાજા કહે છે. આ ભવિષ્ય પર્યાયની અપેક્ષા દ્રવ્ય નિક્ષેપનો વિષય છે. જે પહેલાં રાજા હત–પણ કઈ કારણસર રાજગાદિ ને તે પરિત્યાગ કરી દે છે, ત્યારે પણ લેકે તેને રાજા કહે છે. અહીં તે રાજામાં જે કે વર્તમાન સમયમાં રાજ પર્યાયથી યુકતતા નથી છતાંયે ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામાં આવે છે. આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામાં આવે છે. આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી રાજપર્યાયને આધાર હોવા બદલ દ્રવ્ય નિક્ષેપને વિષય છે. પ્રકૃતિમાં આ નિક્ષેપની આ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३४९ अथ नोआगमतो द्रव्यावश्यकमुच्यते-अत्र नो शब्दः सर्वथा प्रतिषेधे देशतः प्रतिषेधेऽपि च वर्तते । तथा च सर्वथा-आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकं, तथा होती है कि जो वर्तमान में आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता नहीं है आगे भविष्यत् काल में उस शास्त्र का ज्ञाता होंगे उसे तथा जो भूतकाल में उस शास्त्र का ज्ञाता था अब वर्तमान काल में उसका ज्ञाता नहीं हैउसे आवश्यक इस प्रकार जानना या कहना यहद्रव्यनिक्षेप की अपेक्षा आवश्यक है। इसके मूल में दो भेद हैं ? आगम द्रव्य निक्षेप और दूसरा नोआगमद्रव्यनिक्षेप । आवश्यक शास्त्र आदि का जो ज्ञाता हो, शिष्यों को जो उसे पढाता हो, उस विषयक गुरु आदि के निकट जो तात्त्विक चर्चा आदि भी करता हो इस प्रकार वाचना, प्रच्छना-पर्यटना अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेशरूप पांचो प्रकार के स्वाध्याय से जो उसकी पर्यालोचना कर रहा है परन्तु उसमें उपयोग नहीं है-अनुपयुक्त है वह आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है। इसमें आवश्यक शब्द के अर्थ का ज्ञान ही आगमरूप से विवक्षित है। अतः आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता होता हुआ भी उसमें अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है यह बात निश्चित हुई। नो आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक इस प्रकार है-जहां आगम का सर्वथा अभाव या आगम के एक देश का अभाव विवक्षित होता જના એ રીતે હોય છે કે વર્તમાનમાં જે આવશ્યક શાસ્ત્રને જ્ઞાતા નથી, ભવિષ્યકાળમાં તે શાસ્ત્રને જ્ઞાતા થશે તેને તેમજ જે ભૂતકાળમાં તે શાસ્ત્રનો જ્ઞાતા હતે, હમણું વર્તમાનકાળમાં તેનો જ્ઞાતા નથી તેને, “આવશ્યક ... આ રીતે જાણવું કે કહેવું આ દ્રવ્ય નિક્ષેપની અપેક્ષાએ આવશ્યક છે. એના મળ રૂપે એ ભેદ છે-૧ આગમ દ્રવ્ય નિક્ષેપ અને બીજા ના આગમ દ્રવ્ય નિકોપ. આવશ્યક શાસ્ત્ર વગેરેને જે જ્ઞાતા હોય, જે શિષ્યોને ભણાવતે હોય. ત૮. વિષયક ગુરૂ વગેરેની પાસે જઈને જે તાત્વિક ચર્ચા વગેરે પણ કરતો હોયે. આ રીતે વાચના, પ્રચ્છના, પર્યટના, અનુપ્રેક્ષા અને ધર્મોપદેશ ૩૫ પાસે જાતના સ્વાધ્યાયથી જે તેની પર્યાલચના કરી રહ્યો છે, પણ તેમાં તેને ઉપ ગ નથી, અનુપયુકત છે, તે આગમની અપેક્ષાદ્રવ્ય “ આવશ્યક છે. એ આવશ્યક શબ્દના અર્થનું જ્ઞાન જ આગમ રૂપથી વિવક્ષિત છે. એથી આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા હોવા છતાંયે તેમાં અનુપયુક્ત આત્મા આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે. આ વાત સિદ્ધ થઈ છે. ગામની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક એ પ્રમાણે છે કે જ્યાં આગમને સંપૂર્ણપણે અભાવ કે આગમના એક દેશને અભાવ વિવક્ષિત હોય છે તે ન श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे देशतः आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकं च-नोआगमतो द्रव्यावश्यकम् । तत्-त्रिवि धम्-ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक,तद्वयतिरिक्त द्रव्यावश्यकं चेति। है-वह नो आगम की अपेक्षा से द्रव्य आवश्यक माना गया है । " नो आगम" में नो शब्द सर्वथा आगम के अभाव का अथवा उसके एक देश के अभाव का बोधक है। इसके ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक, भव्यशरीर. द्रव्यावश्यक, और तद्व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक, इस प्रकार तीन भेद हैं। आवश्यक शास्त्र का जो पहिले ( भूतकाल में ) ज्ञाता था-तथा दूसरों के लिये इस शास्त्र का उपदेश आदि भी जिसने पहिले दिया है ऐसे जीव का अचेतन शरीर ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक है जो जीव इस समय आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता नहीं है भविष्यत् काल में उसका ज्ञाता बनेगा उसका वह सचेतन शरीर भविष्यत् काल में आवश्यक शास्त्र के ज्ञान का आधार होने की अपेक्षा से, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक है। तयतिरिक्तद्रव्यावश्यक लौकिक कुप्रावनिक और लोकोत्तर के भेद से ३ प्रकार का है । लौकिकजनों द्वारा आचरित आवश्यक कर्म लौकिक द्रव्यआवश्यक है। जैसे राजसभा में जाने वाले राजा, युवराज, तलवर (कोहपाल ) आदि जन प्रातः काल में उठकर राजसभा में जाने के लिये प्रथम प्राभातिक विधियों से निपटते हैं-मुख धोते हैं, दातों को सामनी अपेक्षाथी द्रव्य माश्य मानवामा व्या छ " नोआगम" भां નો શબ્દ આગમના સંપૂર્ણપણે અભાવને કે તેના એક દેશના અભાવને બોધક છે, તેના જ્ઞશરીર દ્રવ્યાવશ્યક, ભવ્યશરીર દ્રવ્યાવશ્યક અને તદ્દવ્યતિ. રિકત દ્રવ્યાવશ્યક આ પ્રમાણે ત્રણ ભેદે છે. આવશ્યક શાસ્ત્રને જે પહેલાં (ભૂતકાળમાં) જ્ઞાતા હતા તેમજ બીજાઓ માટે આ શાસ્ત્રને ઉપદેશ વગેરે પણ જેણે પહેલાં આપ્યું છે એવા જીવનું અચેતન શરીર જ્ઞ શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે. જે જીવ અત્યારે આવશ્યક શાસ્ત્રને જ્ઞાતા નથી, ભવિષ્યકાળમાં તેને સાતા થશે તેનું તે સચેતન શરીર ભવિષ્યકાળમાં આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાનને આધાર હોવાને કારણે ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે. તદ્દવ્યતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યક લૌકિક, કુબાવચનિક અને લકત્તર એમ ત્રણ પ્રકારનું છે. લૌકિક માણસે વડે આચરિત આવશ્યક કર્મ લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે. જેમ રાજસભામાં જનારા રાજા, યુવરાજ, તલવર (કેટ્ટપાલ) વગેરે લોકે સવારે ઉઠીને રાજસભામાં જવા માટે પ્રથમ પ્રાભાતિક વિધિથી પરવારે છે, મુખ ધુએ છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३५१ ज्ञातवानिति-ज्ञः ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं तदेव द्रव्यावश्यकमिति विग्रहः । जीव परित्यक्तमावश्यकशास्त्रज्ञानवतः शरीरं ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकम् । यः कश्चिद् जीवः जन्मकालादारभ्य अनेनैव आत्तेन गृहीतेन शरीरसमुच्छ्रयेण, जिनोपदिष्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत् पदं शास्त्रं आगामिनि काले शिक्षिप्यते न तावच्छिक्षते, तज्जीषाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति । ज्ञशरीर - भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यकं त्रिविधम् - लौकिकं, कुमावचनिकं, लोकोत्तरिकं चेति । - लौकिकं द्रव्यावश्यकम् " ये राजेश्वर तलवरादयः प्रभातसमये - मुखधावनदन्तप्रक्षालन-तैल- कङ्कतक- सर्पप- दूर्वा दर्पण धूप- पुष्प माल्य- गन्ध- ताम्बूल -वस्त्रादिकानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति कृत्वा पश्चाद् राजकुलदेवकुलादौ गच्छन्ति, तत्-तेषां सम्बन्धिमुखधावनादि । कुमावचनिकं द्रव्यावश्यकम् ' ये इमे चरकचीरिकादयः पाषण्डस्थाः, इन्द्रस्कन्द-रुद्र- शिव- वैश्रवण-देव-नाग-यक्ष-भूत-मुकुन्दाऽऽर्यादुर्गा को क्रियाणाम् - उपलेपनसंमार्जनाssवर्ष' णधूपपुष्पगन्धमाल्यादिकानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति तेषां तद् इन्द्रस्कन्दादेरुपलेपनादि । कुत्सितं प्रवचनं येषां ते कुप्रवचना स्तेषामिदं कुप्रावचनिकम् । उपलेपनं चन्दनपङ्केन, संमार्जनं - स्नपनानन्तरं वस्त्रेण जलप्रोञ्छनम् आवर्षण = गन्धोदकेन, 'गुलाबजल ' इत्यादि भाषाप्रसिद्धेन । - नामावश्यकम् - आवश्यकनामको गोपालदारकादिः, स्थापनावश्यकम् - आव साफ करते हैं, स्नान करते हैं। सुगंधित तेल लगाते हैं इत्यादि आवश्यक कार्य करते हैं। पीछे राजसभा में या देवकुल में जाते हैं। उनका यह मुख धावन आदि कार्य लौकिक द्रव्य आवश्यक है । चरक चीरिक आदि पाखंडियों द्वारा जो इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, वैश्रवण, देव, नाग और यक्षादिकों की मूर्तियों का चंदन से लेपन, अभिषेक कराने के बाद वस्त्र से मूर्तिस्थ जल का पोंछना मंदिर में या उन मूर्तियों पर गुलाबजल का छिडकाव आदि करना ये सब कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है । દાંત સાફ્ કરે છે, સ્નાન કરે છે, સુગધિત તેલ લગાવે છે, વગેરે આવશ્યક કાર્યો કરે છે. ત્યારપછી રાજસભામાં અથવા તે દેવકુળમાં જાય છે. તેમનુ મુખ ધેવુ' વગેરે કામ લૌકિક-દ્રવ્ય આવશ્યક છે. ચરક, ચીરિક વગેરે પાખ डीयो वडे ने छेन्द्र, स्टैन्ह, ३द्र, शिव, वैश्रवण देव, नाग पने यक्षो वगेरेनी મૂર્તિનુ' ચંદનથી અભિષેક કરાવ્યા બાદ વસ્ત્રથી મૂર્તિના પાણીને લૂંછવું, મદિરમાં કે તે મૂર્તિઓ ઉપર ગુલાબજળનું સિંચન વગેરે કરવુ. આ બધુ કુપ્રાવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક છે, આ પ્રમાણે નામ,સ્થાપના અને દ્રવ્યના ભેદથી આ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे श्यक क्रियावतः कस्यचित् काष्टकर्मादिषु प्रतिकृतिः, द्रव्यावश्यकं च आवश्यकोपयोग शुन्या देहागमक्रियाः एब्बावश्यकेषु उपयोगाभावेन चरणगुणरहितत्वेन चकर्मनिर्जराजनकत्वाभावादाराध्यत्वेन जिनाज्ञा नास्ति, तस्मादेतत् त्रिविधमावश्यकं धर्मपदवाच्यं न भवतीति निश्चयादलक्ष्यमेव । लोकोत्तरिकद्रव्यावश्यकं पवइस प्रकार नाम, स्थापना और द्रव्य के भेद से यह आवश्यक तीन 66 प्रकार का होता है । किसी गोपाल के पुत्र का आवश्यक " इस प्रकार युक्त का कृतनाम संस्कार नाम आवश्यक है। आवश्यक क्रियाओं से किसी व्यक्ति की काष्ट आदि में तदाकार रूप से या अतदाकाररूप से प्रतिकृतिको कल्पना करना या उसे बना लेना यह स्थापना आवश्यक है । आवश्यक में उपयोग से शून्य प्राणी की जो भी आगम और नो आगम की अपेक्षा से क्रियाएँ हैं वे सब द्रव्य आवश्यक हैं। इन तीनों आव इकों में उपयोग भावरूप - आवश्यक के अभाव से तथा चारित्रगुण तदनुकूल प्रवृत्ति के आचरण से रहित होने से कर्मों की निर्जरा कराने में साधकपना नहीं है । अतः जिनेन्द्रदेव ने इनके आराधन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की है। धर्म को ही आराधन करने की उन्होंने आज्ञा दी है क्योंकि वही कर्मों की निर्जरा कराने में साधक है। इन तीनों में कर्मो की निर्जरा कराने का अभाव होने से धर्मस्वरूपता नहीं है । धर्मपद वाच्य भी ये नहीं हैं । इसीलिये ये तीनों धर्म के लक्षण से शून्य होने से उसके अलक्ष्य हैं, ऐसा समझना चाहिये। लोकोत्तरिक द्रव्य આવશ્યક ત્રણ પ્રકારનું હાય છે. કાઈ ગેપાળના પુત્રને આવશ્યક આ રીતે કરેલા સ`સ્કાર નામ આવશ્યક છે. આવશ્યક ક્રિયાઓથી યુક્ત કાઇ વ્યકિતની કાઇ વગેરેમાં તદાકાર રૂપથી કે અતદાકાર રૂપથી પ્રતિકૃતિની કલ્પના કરવી કે પ્રતિકૃતિનું નિર્માણ કરવું તે સ્થાપના આવશ્યક છે. આવશ્યકમાં ઉપયાગથી રહિત પ્રાણીની જે કંઇપણ આગમ અને ના આગમની અપેક્ષાથી ક્રિયાએ છે તે બધી દ્રવ્ય આવશ્યક છે. આ ત્રણે આવશ્યકામાં ઉપયાગ ભાવ રૂપ આવશ્યકના અભાવથી તેમજ ચારિત્રગુણ તદનુકુળ પ્રવૃત્તિના આચરણ વગર થઈ જવાથી કર્મીની નિરા કરાવવામાં સાધકપણુ' નથી. તેથી જીનેન્દ્ર દેવે તેમના આરાધનની આજ્ઞા આપી નથી. ધર્મની આરાધના કરવાની જ તેઓશ્રીએ આજ્ઞા આપી છે. કેમકે ધમજ કર્મોની નિર્જરા કરાવવામાં સાધક છે. આ ત્રણેમાં કર્મોની નિર્જરા કરાવવાને અભાવ હાવાને કારણે ધર્મ સ્વરૂપતા નથી. એ ધમ પદ્મ વાચ્ય પણ નથી. તેથી આ ત્રણે ધર્મના લક્ષણથી રહિત હાવાને કારણે તેના અલક્ષ્ય છે એમ સમજવું જોઇએ. સામાયિક વગેરે લેાકેા , શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ 6 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३५३ चनोक्तं सदपि जिनाज्ञावायैः स्वच्छन्दविहारिभिमू लोत्तरगुणरहितैः षट्कायनिरनुकम्पैरनुपयोगपूर्व क्रियमाणं सामायिकादिकम् तच्च धर्मपदवाच्यं न भवितुमर्हति, तत्रापि निर्जराजनकत्वाभावेन विधेयतया जिनाज्ञाया आभावात् ।। ___ एवमेव-नामजिनः स्थापनाजिनस्तथा द्रव्यजिनश्च निर्जराजनकत्वाभावादाराध्यत्वेन जिनाज्ञाया अभावात् । तदाराधनं धर्मपदवाच्यं न भवितुमर्हति । आवश्यक समायिक आदि हैं इनके करने का विधान यद्यपि प्रवचन शास्त्र में विहित है तो भी इसे जो धर्म का अलक्ष्य बताया गया है उसका कारण यह है कि ये जब जिनदेव की आज्ञा से बहिर्भूत बने हुए, स्वेच्छाचारी, मूलगुण और उत्तर गुणों से रहित एवं षटूकाय के जीवों की रक्षा करने में आसावधान मनुष्यों द्वारा अनुपयोगपूर्वक करने में आते हैं तब ये द्रव्य आवश्यकरूप से कहे जाते हैं। और इसीलिये ये धर्मपद के वाच्य नहीं हैं अर्थात् धर्मरूप नहीं हैं। जहां धर्मरूपता नहीं है वहां कर्मों की निर्जरा कारकत्व भी नहीं है। यह सर्व सम्मत सिद्धान्त है। भगवान ने जो इस अवस्था में इन्हें विधेय नहीं कहा है उसका यही कारण है । अतः जिस प्रकार नाम आवश्यक, स्थापना आवश्यक और द्रव्य आवश्यक ये तीन निक्षेप आरा ध्यरूप से तीर्थकर प्रभु ने अनविधेय कहे हैं, उसी प्रकार से नामजिन स्थापनाजिन तथा द्रव्यजिन भी आराध्य नहीं हैं। इनकी आराधना करने में जो धर्म की प्राप्ति होना कहते हैं या मानते हैं उन्हें जिन ત્તર દ્રવ્ય આવશ્યક છે. પ્રવચન શાસ્ત્રમાં એમનાં આચરણનું વિધાન વિહિત છે, છતાંયે એને જે ધર્મના અલક્ષ્ય રૂપમાં બતાવવામાં આવ્યો છે. તેની મતલબ એ છે કે જ્યારે તે જીનદેવની આજ્ઞાથી બહિર્ભા બનેલા સ્વેચ્છાચારી, મૂળગુણ તેમજ ઉત્તર ગુણેથી રહિત અને ષટકાય જીવોની રક્ષા કરવામાં અસાવધાન માણસો વડે અનુપગ પૂર્વક આચરવામાં આવે ત્યારે તે દ્રવ્ય આવશ્યક રૂપમાં કહેવાય છે. એથી તે ધર્મ પ વાગ્યે નથી. એટલે કે ધર્મ રૂપ નથી. જ્યાં ધર્મરૂપતા નથી ત્યાં કર્મોની નિજર કારકતા પણ નથી. આ સર્વમાન્ય સિદ્ધાન્ત છે. ભગવાને જે આ અવસ્થામાં એમને વિધેય કહ્યા નથી તેનું કારણ પણ એ જ છે. એટલા માટે જેમ નામ આવશ્યક, સ્થાપના આવશ્યક અને દ્રવ્ય આવશ્યક આ ત્રણ નિક્ષેપોને આરાધ્ય રૂપથી તીર્થકર પ્રભુએ અવિધેય કહ્યા છે, તેમજ નામ જિન, સ્થાપના જિન તેમજ દ્રજિન પણ આરાધ્ય નથી. એમની આરાધના કરવામાં જે ધર્મની પ્રાપ્તિ થવી બતાવવામાં આવે છે કે માનવામાં આવે છે, તેમને જિન ભગવાનની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे ___ एवं च प्रतिमापूजनमपि धर्मलक्षणस्य लक्ष्यं न भवति. तत्र धर्मत्वाभावनिश्चयात् । 'मोक्षकामो जिनप्रतिमां पूजयेत्' इत्येवमहतो भगवत आज्ञायाः प्रवचनेऽनुपलब्धेः । धर्मविषये सर्वत्र भगवदाज्ञोपलभ्यते-दृश्यते हि आवश्यकार्थ भगवभगवान की आज्ञा से बहिर्भूत ही समझना चाहिये । यदि इन निक्षेपों की या स्थापनानिक्षेप की आराधना करने से आराधक जीवों को धर्म का लाभ होता तो वे उनकी आराधना करने का भव्य जीवों को अव श्य २ उपदेश देते। इस प्रकार की स्वमनः कल्पित प्रवृत्ति से उनकी पूजा आदि करने में षटकाय के जीवों की कितनी विराधना होती है यह एक स्वानुभवगम्य बात है। अतः जहां आरंभ है वहां धर्म नहीं है। जहां धर्म नहीं है उसकी आराधना से कर्मों की निर्जरा भी नहीं हो सकती है। इस प्रकार से नाम स्थापना और द्रव्यजिन आदि तीन निक्षेप भी धर्म के लक्षण से शून्य होने से उसके अलक्ष्य माने गये हैं । जब स्थापना जिन ही उसका अलक्ष्यभूत है, तो फिर जिन की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा आदि कार्य भी धर्मलक्षण से शून्य होने से वह भी उसका अलक्ष्य है ऐसा निश्चित हो जाता है भगवान ने इस प्रकार की आज्ञा शास्त्र में कहीं भी नहीं दी है " मोक्षकामो जिनप्रतिमां पूजयेत्” कि मुक्ति की अभिलाषा वाला प्राणी जिन प्रतिमा की पूजा करें। धर्मकी आराधना करने की ही उन्हों ने आगम में आज्ञा આજ્ઞાથી બહિબૂત જ સમજવા જોઈએ. આ નિક્ષેપની કે સ્થાપના નિક્ષેપોની આરાધના કરવાથી આરાધક અને ધર્મને લાભ થતું હોય ત્યારે તે તેઓ તેમની આરાધના કરવા માટે ભવ્ય જીવેને ચોક્કસ ઉપદેશ આપતા. આ રીતે પિતાના મનથી જ કલ્પના કરીને તેમની પૂજા વગેરે કરવામાં ષટૂકાય જીવોની કેટલી બધી વિરાધના હોય છે. તે જાતે જ અનુભવવા જેવી વાત છે. એટલા માટે જ્યાં આરંભ છે ત્યાં ધર્મ તે નથી જ, અને જ્યાં ધર્મ નથી તેની આરાધનાથી કર્મોની નિર્જરા પણ થઈ શકે તેમ નથી. આ રીતે નામ, સ્થાપના અને દ્રવ્ય જિન વગેરે ત્રણ નિક્ષેપ પણ ધર્મના લક્ષણથી રહિત હોવા બદલ તેને અલક્ષ્ય માનવામાં આવ્યા છે. જ્યારે સ્થાપના જિન જ તેના માટે અલક્ષ્યરૂપ છે, ત્યારે જિનની પ્રતિમા બનાવીને તેની પૂજા વગેરે કાર્યો પણ ધર્મલક્ષણથી રહિત હોવાથી તે પણ તેના માટે અલક્ષ્યરૂપ છે, આવી ચોક્કસ ખાત્રી થઈ જાય છે. ભગવાને આ જાતની આજ્ઞા શાસ્ત્રમાં કઈ પણ સ્થાને કરી નથી " मोक्षकामो जिनप्रतिमां पूजयेत्” ॐ मोक्षनी छ। २।माना। जिन પ્રતિમાનું પૂજન કરે. ધર્મની આરાધના કરવાની જ તેઓશ્રીએ આગમમાં આજ્ઞા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रोपदीचर्चा दाज्ञा, दर्शनार्थ ज्ञानार्थं च भगवदाज्ञा पुनरहिंसासंयमतपःसंवरादिविधिरपि शास्त्रे प्रदर्शितः परंतु प्रतिमापूजनार्थमाज्ञा क्वापि नोपलभ्यते शास्त्रेषु मत्युतकुप्रावचनिकद्रव्यावश्यक लक्षणाक्रान्तत्वेन प्रतिमापूजनं जैनागमविरुद्धमिति सूचितम् । इन्द्रादिपूजनं हि कुप्रावचनिकस्य नोआगमतो द्रव्यावश्यकस्योदाहरणतया भगवता प्रदशितम् । तेन सर्वे प्रतिमापूजनं कुमावनिचकं तादृशद्रव्यावके भगवता निक्षिप्तमिति सुस्पष्टं प्रतीयते । पट्कायहिंसासाध्यायाः पूजाया ३५५ प्रदान की है जैसे - आवश्यक, दर्शन और ज्ञान की आराधना प्रत्येक मोक्षाभिलाषी भव्य जन को करना चाहिये - इस प्रकार के आवश्यक आदि की आराधना करने का स्पष्ट उल्लेख आगमों में मिलता है तथा जिस प्रकार उन्होंने अहिंसा, संयम, तप और संवर आदि की विधि शास्त्रों में प्रदर्शित की है उस प्रकार न तो उन्होंने प्रतिमा पूजन की कहीं न आज्ञा प्रदान की है और न उस की विधि ही कही है कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक के लक्षण से युक्त होने से प्रत्युत प्रतिमापूजन को जैन आगम से विरुद्ध ही सूचित किया है । कुप्रावचनियों द्वारा मान्य इन्द्रादिकों के पूजन को भगवान नो आगम की अपेक्षा से द्रव्य आवश्यक के उदाहरण रूप में प्रकट किया है इससे ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने अन्य समस्त प्रतिमा पूजन को भी इसी कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक की तरह द्रव्य आवश्यक में रखा है । प्रवचन में कुत्सितता - खोटापन कुशास्त्रता हिंसादिक साध्य पूजा आदि कार्यों કરી છે. જેમ આવશ્યક, દન અને જ્ઞાનની આરાધના દરેકે દરેક માક્ષ ઈચ્છનારા ભવ્ય જનને કરવી ઘટે છે. જેમ આવશ્યક વગેરેની આરાધના કરવા વિષેના ઉલ્લેખ આગમામાં મળે છે, તેમજ જેમ તેમણે અહિંસા, સંયમ, તપ અને સંવર વગેરેની વિધિ શાસ્ત્રોમાં ખતાવી છે તેમ તેમણે કોઇ પણ સ્થાને પ્રતિમા પૂજનની આજ્ઞા કરી નથી અને તેની વિધિ પણ ખતાવી નથી. પ્રતિમા પૂજાને સુપ્રાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકના લક્ષણથી યુક્ત હેાવા ખદલ જૈન આગમાથી વિરૂદ્ધ જ બતાવવામાં આવી છે. કુપ્રાવથનીએ વડે માન્ય ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનને ભગવાને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય આવશ્યકના ઉદાહરણ રૂપમાં ખતાવ્યું છે. એથી આ વાત સ્પષ્ટ સમજી શકાય તેમ છે કે તેમણે ખીજી પણ અધી પ્રતિમા પૂજાને પણ આ કુÇાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ દ્રવ્ય આવશ્યકમાં જ સ્થાન આપ્યું છે. પ્રવચનમાં કુત્સિતતા, કુશાસ્રતા, હિંસા વગેરે સાધ્ય પૂજા વગેરે કાર્યની પુષ્ટિ કરવાથી જ સ`ભવે છે. બીજા ચરક શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विधायकतया प्रवचनस्य कुत्सितत्वं, तेनैव चेन्द्रादिपूजनस्य कुमावनिकत्वं भवति । एवं प्ररूपयतो भगवतोऽहंतः प्रतिमायाः पूजनस्य प्रसङ्ग एव तदानीं नासीत्-हिंसामयत्वात्पूजनस्य, तेन प्रवचने भगवता प्रतिमापूजनप्रतिषेधो विशिष्य नोक्तः । प्रतिषेधवाक्यं हि तदैव सार्थकं, यदाप्रतिषेध्यरूपोऽर्थः कथंचित् प्रसक्तो भवति । जिनप्रतिमापूजनं हि न तावल्लौकिकं द्रव्यावश्यक, नापि लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक, जिनो हि लोकोत्तरो देवस्तत्पूजनमपि स्याच्चेत् लोकोत्तरिकमेव की पुष्टि करने से ही आती है। अन्य चरक आदि समस्त प्रवचनों में इन्हीं हिंसादिक कर्मों के करने का विधान स्पष्टरूप से पाया जाता है । इसीलिये ये कुप्रवचन माने गये हैं। इनके द्वारा प्रदर्शित इन्द्रादिक पूजन भी इसी निमित्त से कुप्रावनिक कहा गया है। जैन शास्त्रों में प्रतिमापूजन के निषेध का स्पष्ट उल्लेख जो देखने में नहीं आता है, उसका यह कारण है कि जिस समय प्रभु ने इन्द्रादिक के पूजन का कुमावनिक रूप मानकर निषेध किया उस समय उनके समक्ष अर्हत की प्रतिमा के पूजन का प्रसंग ही नहीं था, नहीं तो इसका भी वे स्वतन्त्र रूप से निषेध करते-दूसरे-प्रतिमा पूजन कार्य हिंसामय कार्य है-भगवान ने धर्म के लिये भी हिंसा करने का आदेश नहीं दिया है अतः जब वीतराग शास्त्र में हिंसा का विधान ही नहीं है-तब इसका भी विधान कैसे वे करते प्रतिषेध वाक्य उसी समय सार्थक माना जाता है जब प्रतिषेध्यरूप पदार्थ किसी भी रूप से प्रसक्त होता है। ચીરિક વગેરે બધા પ્રવચનમાં એ જ હિંસા વગેરે કર્મોને કરવાનું વિધાન સ્પષ્ટ રૂપ જોવામાં આવે છે. એથી આ બધા કુકાવચનિક માનવામાં આવે છે. એમના વડે પ્રદર્શિત ઈન્દ્ર વગેરેનું પૂજન પણ આ કારણને લીધે જ કુપ્રવચન નિક કહેવાય છે. જૈન શાસ્ત્રોમાં પ્રતિમા પૂજનના નિષેધને સ્પષ્ટપણે જે ઉલ્લેખ જેવામાં આવતું નથી, તેનું કારણ પણ એ છે કે જ્યારે પ્રભુએ ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનને કુબાવચનિક રૂપ માનીને નિષેધ કર્યો ત્યારે તેમની સામે અહંતની પ્રતિમાના પૂજનની વાત જ ન હતી, નહિતર તેઓશ્રી એ તેને પણ સ્વતંત્ર રૂપથી નિષેધ કર્યો હોત. બીજી વાત એ છે કે પ્રતિમા પૂજનનું કાર્ય હિંસામય છે. ભગવાને ધર્મના માટે પણ હિંસા કરવાની આજ્ઞા કરી નથી. એટલા માટે જ્યારે વીતરાગ શાસ્ત્રમાં હિંસા વિષેનું વિધાન જ નથી ત્યારે આનું વિધાન પણ તેઓ કેવી રીતે કરે પ્રતિષેધ વાક્ય ત્યારે જ સાર્થક ગણાય છે જ્યારે પ્રતિષેધ્યરૂપ પદાથે કઈ પણ રૂપથી પ્રસક્ત હોય છે. આ પ્રતિમા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - %ES: अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३५७ स्यात् लोके तु तस्य समावेशानहतया लौकिकत्वासंभवात् । प्रवचने भगवता यत् सामायिकादि पइविधावश्यक प्ररूपितं तदेव स्वच्छन्दविहारिभिः षट्कायहिंसकैर्जिनाज्ञाबायैः क्रियमाणं लोकोत्तरिक-द्रव्यावश्यकम् । तत्र पइविधावश्यके जिनप्रतिमा पूजनस्य प्रवेशात् तस्य लोकोत्तरिकद्रव्यावश्यके समावेशो न संभवति । यह प्रतिमापूजनरूप कार्य न लौकिक द्रव्य अवश्यक है और न लोकोत्तर द्रव्य अवश्यक ही है। शंका-प्रतिमा पूजन लौकिक द्रव्य आवश्यक नहीं है यह तो आप का कहना ठीक है, क्यों कि यह लौकिक द्रव्य आवश्यकों से सर्वथा भिन्न है । परन्तु इसे लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक मानने में आपको क्या विवाद है। क्यों कि प्रभु स्वयं लोकोत्तर देव माने जाते अतः उनका पूजन भी लोकोत्तरिक ही मानना चाहिये ? उत्तर-प्रवचन में भगवान जो सामायिक आदि छह प्रकार के आवश्य कों का वर्णन किया है-वे जब जिन आज्ञा बाह्य-स्वच्छन्दविहारी और षटकाय की विराधना करने में निरत अनुपयुक्त पुरुषों द्वारा करने में आते हैं लोकोत्तरिक द्रव्य आसश्यक रूप से प्रतिपादित किये गये हैं। इन षटूप्रकार के आवश्यकों में प्रतिमापूजन का कोई अधिकार ही नहीं है । अतः इसे कैसे लोकोत्तरिक आवश्यक माना जा सकता है। પૂજનરૂપ કાર્ય માટે ન તે લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે અને ન તે લેકોત્તર દ્રવ્ય આવશ્યક છે. શકા –પ્રતિમા પૂજન લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક નથી. તમારી આ વાત તે ઉચિત છે. કેમ કે આ લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યકોથી સંપૂર્ણપણે ભિન્ન છે. પણ એને લોકોત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક માનવામાં તમને શો વધે છે ? કેમકે પ્રભુ જાતે લકત્તર દેવ મનાય છે. ત્યારે તેમનું પૂજન પણ લકત્તરિક જ भान १ ઉત્તર–પ્રવચનમાં ભગવાને જે સામાયિક વગેરે છ જાતના આવશ્યકોનું વર્ણન કર્યું છે તેઓ જ્યારે જિન-આજ્ઞા બાહ્ય સ્વચ્છેદ વિહારી અને ષટકાયની વિરાધના કરવામાં નિરત અનુપયુકત પુરુષો વડે આચરવામાં આવે છે. લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે. આ છ જાતના આવશ્યકમાં પ્રતિમા પૂજનને કેઈ અધિકાર જ નથી. એટલા માટે કેરિક આવશ્યક કેવી રીતે માની શકાય? श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ___ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे कुप्रवचनेऽर्हतः पूजाविधानं विशिष्य नोक्तं तथापि कामपूरकमृतमनुष्यपूजनवत् तस्य पूजा प्रतिमायां क्रियमाणा कुप्रावचनिकीति वक्तुं शक्यते । तस्मिन् कुपवचने हि पूजाधारनिर्णयावसरे सामान्यतः पूज्यस्य सर्वस्यापि पूनाधारः प्रतिमा भावार्थ-शंकाकार ने प्रतिमापूजन को लोकोत्तरिक आवश्यक मानकर द्रव्य आवश्यक में जो उसका समावेश करना चाहा है सो उसकी इस आशंका का समाधान करते हुए सूत्रकारने यह कहा है कि जिन आज्ञा बाह्य एवं सामायिक आदि में अनुपयुक्त पुरुषों द्वारा किये गये सामायिक आदि षट् विध आवश्यक कार्य ही लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक में परिगणित किये गये हैं। इनमें प्रतिमा पूजा का कोई संबंध ही नहीं है-प्रतिमा पूजा षटू विध आवश्यक कार्यों में परिगणित ही नहीं हुई है। अतः उसका वहां पर किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होने से उसे लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक में नहीं गिना जा सकता है अतः इसका समावेश केवल कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक में ही हुआ है ऐसा मानना चाहिये। शंका-कुप्रवचन में इन्द्रादिकों की पूजा करने के विधान की तरह प्रतिमा पूजा का विधान तो पाया नहीं जाता है फिर आप इसे कुप्रा. वचननिक में अन्तर्भूत कैसे कह सकते हैं ? ભાવાર્થ-શંકાકારે પ્રતિમા પૂજનને લેકોરિક આવશ્યક માનીને દ્રવ્ય આવશ્યકમાં તેને સમાવેશ કરવાની જે ઈચ્છા બતાવી છે. તેની તે શંકાનું સમાધાન કરતાં સૂત્રકારે આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે, જિન આજ્ઞા બાહ્ય અને સામાયિક વગેરેમાં અનુપયુક્ત પુરુષે વડે કરવામાં આવેલા સામાયિક વગેરે છ જાતના આવશ્યક કાર્યો જ લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકમાં પરિણિત કરવામાં આવ્યાં છે. એનાથી પ્રતિમા પૂજાને કઈ સંબંધ જ નથી. પ્રતિમા પૂજા વિવિધ આવશ્યક કાર્યોમાં પરિગણિત જ થઈ નથી. એટલા માટે ત્યાં તેનો કઈ પણ રીતે સંબંધ નહિ હોવાથી લોકોત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકમાં તેની ગણના થઈ શકે તેમ નથી. એથી ફક્ત દ્રવ્ય આવશ્યકમાં જ થયે છે આમ भानी देने मे શંકા-કુપ્રવચનમાં ઈદ્ર વગેરેની પૂજા કરવાના વિધાનની જેમ પ્રતિમા પૂજાનું વિધાન તે મળતું નથી, ત્યારે તમે એને કુપવાચનિકમાં કેવી રીતે સમાવિષ્ટ કરી શકે? श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा चित्रादय इति प्ररूपितम् । एवं च जिनपूजन-कुपावचनिकं-नोआगमतो द्रव्यावश्यक प्रतिमायां क्रियमाणत्वात् , इन्द्रादिपूननवत् ,इत्यनुमानेनापि कुमावनिक द्रव्यावश्यकतया धर्मपदवाच्यं न भवतीति । उत्तर-यद्यपि कुप्रवचन में प्रतिमा पूजा का विधान स्वतन्त्ररूप से नहीं किया गया है, तो भी कामपूरक प्रणियों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले-मनुष्य के मृत-निर्जीव देह की पूजा की तरह प्रतिमा में होती हुई पूजा भी कुप्रावचननि की है। इस प्रकार हम अनुमानसे कह सकते हैं । उसमें प्रवचन में पूजाके आधार का निर्णय करते समय सामान्यरूप से पूजा के आधारभूत जितने भी प्रतिमा चित्र आदि पूज्य हैं वे सब गृहीत हुए हैं। इस प्रकार प्रतिमा की सर्व पूजा का आधार प्रतिमा और चित्र आदि है। इसलिये वह कुप्रावनिक है । इस प्रकार हम कहते हैं । इस कथन से यह व्याप्ति सिद्ध होती है कि इन्द्रादिक पूजन की तरह प्रतिमा में जो जो पूजाएँ की जाती हैं वे सब कुप्रावनिकी हैं। अतः जिन पूजन भी प्रतिमा में किये जाने पर नोआगम की अपेक्षा से कुप्रावनिक द्रव्य आवश्यक ही है, और इसीलिये वह धर्मपद का वाच्य नहीं है यह बात स्पष्टरूप से सिद्ध हो जाती है इसमें अनुमान प्रयोग इस प्रकार से करना चाहिए। ઉત્તરઃ—જે કે કુપ્રવચનમાં પ્રતિમા પૂજનનું વિધાન સ્વતંત્ર રૂપમાં કરવામાં આવ્યું નથી છતાંય માનવીના મનોરથોને પૂર્ણ કરનારા-માણસના મૃત નિજીવ શરીરની પૂજાની જેમજ પ્રતિમાની કરવામાં આવેલી પૂજા પણ કુમાવચનિકી છે. આમ અમે અનુમાનથી કહી શકીએ છીએ. તે કુપ્રવચનમાં પૂજાના આધારને નિર્ણય કરતી વખતે સામાન્ય રૂપથી પૂજાના આધારભૂત જેટલા પ્રતિમા ચિત્ર વગેરે પૂજ્ય છે તે સર્વેનું ગ્રહણ થયું છે. આ રીતે પ્રતિમાની સર્વ પૂજાને આધાર પ્રતિમા અને ચિત્ર વગેરે છે. એટલા માટે તે કુપાવચનિક છે આમ અમે કહી શકીએ છીએ. આ કથનથી એ વ્યાપ્રિસિદ્ધ થાય છે કે ઇન્દ્ર વગેરેના પૂજનની જેમ પ્રતિમાઓમાં જે જે પૂજા કરવામાં આવે છે તેઓ સર્વે કુકાવચનિકી છે. એટલા માટે જિન પૂજા પણ પ્રતિમામાં આવતી હોવાથી આગમની અપેક્ષાથી કુપ્રવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે અને એથી તે ધર્મપદનાય નથી. આ વાત સ્પષ્ટપણે સિદ્ધ થઈ જાય છે. આમાં અનુમાન પ્રયોગ આ પ્રમાણે કહી શકાય તેમ છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अथ भावावश्यकमुच्यते - विवक्षितक्रियानुभवयुक्तो योऽर्थः स भावः भाव तद्वतोरभेदोपचाराद् भावः । यथा-ऐश्वर्यरूपायाइन्दनक्रियाया अनुभवात् इन्द्रो भाव उच्यते । भावश्चासौ आवश्यकं च, भावमाश्रित्य वा आवश्यक भावावश्यकम् । जिनपूजनं नो आगमतो कुप्रावचनि कं द्रव्यावश्यकं प्रतिमायां क्रियमाणत्वात् इन्द्रादिपूजनवत् " । अतः इस समस्त पूर्वोक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह प्रतिमापूजन कार्य लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक रूप से भी प्रसक्त होता तो भगवान् इसका अवश्य प्रतिषेध करते । 66 अथ भावावश्यकमुच्यते अब भाव आवश्यक क्या है इसका कथन सूत्रकार करते हैं- वर्तमान समय में उस विवक्षितरूप पर्याय से युक्त द्रव्य का नाम भाव है । भाव यद्यपि वर्तमान क्रिया रूप माना गया है, फिर भी यहां पर उस क्रिया से युक्त द्रव्य को जो भाव कहा है उसका कारण द्रव्य और पर्याय का अभेद संबंध है । भगवान द्रव्य के बिना नहीं रह सकता है । भाव द्रव्य की एक पर्याय है, वह निराश्रय होती नहीं है अतः जिस द्रव्य के आश्रय वह रहेगी उन दोनों में अभेदोपचार से उस पर्याय से उपलक्षित उस द्रव्य को ही भाव कह दिया है। जिस प्रकार ऐश्वर्यरूप इंदन ( देदीप्यमान होना) जिनपूजनं नो आगमतो कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकं प्रतिमायां क्रियमाणस्वात् इन्द्रादिपूजनवत् " 64 એટલા માટે આ પૂર્વાંકત કથનથી આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે તે પ્રતિમા પૂજન કાય, લેાકેાન્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક પણ નથી. જો તે લેાકેારિક દ્રવ્ય આવશ્યકરૂપે પણુ પ્રસક્ત હેાત તેા ભગવાન તેનેા ચાસ પ્રતિષેધ કરત. 6 अथ भावावश्यकमुच्यते ' : - दुवे भावश्य शु छे मेनु स्पष्टीपुराण સૂત્રકાર કરે છે-વર્તીમાન સમયમાં તે વિક્ષિત રૂપ પર્યાયથી યુક્ત દ્રવ્યનું નામ ભાવ છે. જો કે ભાવ વતમાન ક્રિયારૂપ માનવામાં આવ્યેા છે, છતાંય અહીં તે ક્રિયાથી યુક્ત દ્રવ્યને જ ભાવ ખતાન્યેા છે. તેનુ કારણ દ્રવ્ય અને પર્યાયના અભેદ સંબધ છે. ભાવ ભગવાન દ્રવ્ય વગર રહી શકતા નથી ભાવ દ્રવ્યની એક પર્યાય છે, તે નિરાશ્રય હોતી નથી. એથી જે દ્રવ્યના આશ્રયે તે રહેશે તેઓ બંનેમાં અભેદ્દેપચારથી તે પર્યાયથી ઉપલક્ષિત તે દ્રવ્યને જ ભાવ કહી દીધા છે. જેમ અશ્વ ઇંદન ( દેદીપ્યમાન થવુ.) ક્રિયાના અનુભ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदी चर्चा ३६१ तद् द्विविधम्- (१) आगमतः = आगममाश्रित्य (२) नोआगमतः = आग माभावमाश्रित्य | आगमतो भावावश्यकमाह " से किं तं आगमओ भावावस्तयं ? आगमओ भावावस्सयं जाणए उवउत्ते, सेतं आगमभ भावावस्सयं " ( अनुयोग० ) अथ किं तदागमतो भावावश्यकम् ?, उत्तरमाह - " ज्ञायक उपयुक्त ,, आगमतो भावावश्यकम् । अयमर्थः - आवश्यक पदार्थज्ञस्तजनितसंवेगेन विशुध्यमानपरिणामस्तत्र चो पयुक्तः साध्वादिरागमतो भावावश्यकम् अत्रावश्यकार्थज्ञानरूपस्यागमस्यात्र - क्रिया के अनुभव से उपलक्षित शचीपनि भाव इन्द्र कहा जाता है । इसी प्रकार जो आवश्यक रूप क्रिया के अनुभवसे युक्त है वही आत्मा भावावश्यक कहलाता है। भावरूप जो आवश्यक है वह, अथवा भाव को आश्रय करके जो आवश्यक है वह भावावश्यक है । यह भाव आवश्यक भी दो प्रकार का है- १ आगम की अपेक्षा भाव आवश्यक और दूसरा नो आगम की अपेक्षा भाव आवश्यक । इनमें " ज्ञायकः उपर्युक्तः आगमतो भावावश्यकं " ज्ञायक उपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक माना गया है । आवइयकरूप पदार्थ का जो ज्ञाता है उसका नाम ज्ञायक है । आवश्यकरूप पदार्थ के ज्ञान से जनित संवेग द्वारा विशुद्ध हुए परिणामों का नाम उपयोग है । इस उपयोग से विशिष्ट जो साधु आदि जन हैं वे आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक हैं। क्यों कि इनमें आवश्यकरूप पदार्थ વથી ઉપલક્ષિત શચીપતિ ભાવ ઇન્દ્ર કહેવાય છે તેમજ જે આવશ્યકરૂપ ક્રિયાના અનુભવથી યુક્ત છે તે આત્મા ભાવાવશ્યક કહેવાય છે. ભાવરૂપ જે આવશ્યક છે તે અથવા ભાવને આશ્રય કરીને જે આવશ્યક છે તે ભાવાવશ્યક છે. આ ભાવ આવશ્યક પણ એ પ્રકારને છે-૧, આગમનની અપેક્ષા ભાવ आवश्य भने २, नो भागभननी अपेक्षा भाव आवश्य सेभनामां "ज्ञायकः उपयुक्तः आगमतो भावावश्यकं " ज्ञाय उपयुक्त आत्मा मागभनी अपेक्षाथी ભાવ આવશ્યક માનવામાં આવ્યે છે. આવશ્યકરૂપ પદાના જે જ્ઞાતા છે તેનું નામ ગાયક છે. આવશ્યકરૂપ પદાના જ્ઞાનથી જનિત સ ંવેગડે વિશુદ્ધિ પામેલા પરિણામેનુ નામ ઉપયેગ છે. આ ઉપયાગથી વિશિષ્ટ જે સાધુ વગેરે લેાકેા છે તેઓ આગમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે. કેમકે તેઓમાં આવ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ - --- - - - -- - ज्ञाताधर्मकथासूत्रे सत्त्वात् , भावावश्यकता चात्रावश्यकार्थज्ञानजनितोपयोगपरिणामवत्त्वाभा - माश्रित्यावश्यकमिति व्युत्पत्तेः । इदमुक्तं भवति आवश्यकार्थज्ञस्य आवश्यकोपयोगपरिणाम आगमतो भावावश्यक, साध्वादिस्तु तादृशपरिणामवत्त्वादागमतो भावावश्यकमुच्यते । इदमावश्यकोपयोगपरिणामरूपं भावावश्यक धर्मपदवाच्यं, श्रुतधर्मान्तर्गतत्वात् , अत्र जिनाज्ञायाः सत्त्वात् । नोभागमतो भावावश्यक त्रिविधं-लौकिक, कुपावनिक, लोकोत्तरिक चेति लौकिकं भावावश्यक पूर्वाह्ने भारतस्य वाचनं श्रवणं वा, अपराह्ने रामायणस्य के ज्ञानरूप आगम का सद्भाव पाया जाता है। इसलिये साधु आदि जनों में आगम की अपेक्षा से आवश्यकता और इस आवश्यक के अर्थ ज्ञान से जनित उपयोगरूप परिणामों की विशिष्टता होने से भाव रूपता आती है। अतः " भाव को आश्रित करके जो आवश्यक है वह भाव आवश्यक है " यह कथन सुसंगत हो जाता है भावार्थ-"आवश्यक" इस पद के अर्थज्ञान से विशिष्ट तथा तद. नुकूल उपयोग परिणति संपन्न आत्मा ही आगम की अपेक्षा से भावावश्यक कहा गया है । ये भावावश्यक साधु आदि हैं । क्यों कि ये ही उस प्रकार की परिणति वाले होते हैं । अतः श्रुतधर्म के अन्तर्गत होने से यह भावावश्यक ही धर्म पद का वाच्य कहा गया है और ऐसे ही धर्म की आराधना करने की भगवानने आज्ञा प्रदान की है। नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक तीन प्रकार का माना गया है । (१) लौकिक (२) कुप्रावनिक और लोकोत्तरिक । पूर्वाह्न में શ્યકરૂપ પદાર્થના જ્ઞાનરૂપ આગમને સદૂભાવ મળે છે. એટલા માટે સાધુ વગેરે લોકમાં આગમની અપેક્ષાથી આવશ્યક્તા અને આ આવશ્યકતાના અર્થ જ્ઞાનથી જનિત ઉપયોગરૂપ પરિણામોની વિશિષ્ટતા હોવાથી ભાવરૂપતા આવે છે. એટલા માટે “ભાવને આશ્રિત કરીને જે આવશ્યક છે તે ભાવ આવશ્યક छ, " मा ४थनसुस गत 25 ५ छे. सापा:-" मावश्य" A! पहन॥ अथ शानथी विशिष्ट तभक तह નફળ ઉપયોગ પરિણતિ સંપન્ન આત્મા જ આગમની અપેક્ષાએ ભાવ આવશ્યક સાધુ વગેરે છે, કેમકે એ લેકો જ આ જાતની પરિણતિવાળા હોય છે. એથી શ્રતધર્મના અંતર્ગત હવા બદલ આ ભાવાવશ્યક જ ધર્મપદવાએ કહેવામાં આવ્યો છે અને આ જાતના ધર્મની આરાધના કરવાની ભગવાને પણ આજ્ઞા કરી છે. ને આગમની અપેક્ષાએ ભાવ આવશ્યકના ત્રણ પ્રકારે છેઃ-(૧) લૌકિક (२) प्रापयनि: (3) मन तरिक्ष पूर्वाहमा भारतनुं वांयन मथा श्रवण, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३६३ वाचनं श्रवणं वा । लोके हि भारतस्य वाचनं श्रवणं पूर्वाह्न एव क्रियमाणं दृश्यते, तथा रामायणस्य वाचनं श्रवणमपराह्न एव क्रियमाणं दृश्यते, वैपरीत्ये दोषदर्शनात् । ततश्चेत्थं लोकेऽवश्यकरणीयतयाऽऽवश्यकत्वं तद्वाचकस्य श्रोतुश्च तदर्थोंपयोगपरिणामसत्त्वाद् भावत्वं, तद्वाचकः पुस्तकपत्रादिपरावर्तनरूपया हस्ताभिनयरूपया च क्रियया युक्तो भवति, श्रोतापि च गात्रसंयतत्व-करसंपुटीकरणादि भारत का वांचना अथवा सुनना, अपराह्न में रामायण का वांचना या सुनना ये सब लौकिक भाव आवश्यक हैं । लोक में भारत का वांचना अथवा सुनना पूर्वाह्नमें ही किया जाता है । रामायणका वांचन और श्रवण अपराह्न में ही होता हुआ देखा जाता है। इससे विरुद्ध प्रवृत्ति करने से अनेक प्रकार के दोषों का भाजन बनना पडता है, इस प्रकार लोक में भारतादिक ग्रन्थों का वांचना आदि कार्य नियमित समय में अवश्य करने योग्य होने की वजह से आवश्यक रूपमें माना गया है । अतः इसमें इस प्रकार से आवश्यकपना आ जाता है । तथा इनके वांचने वालो में या सुनने वालों में उनके अर्थ के प्रति उपयोगात्मक परिणाम के सद्भाव से भावरूपता आती है । क्यों कि जबतक उनके वांचने वाले में उनके अर्थ के प्रति उपयोगात्मक परिणाम की जागृति नहीं होगी तब तक वे उन पुस्तकों के पत्रों आदि का परावतन करने रूप क्रिया और श्रोताओं को अनेक अर्थ की संगति बैठाने के लिये हस्त आदि के संचालनरूप अभिनय क्रिया का उपयोग ही અપરામાં રામાયણનું વાચન કે શ્રવણ આ બધું લૌકિક ભાવ આવશ્યક છે. લેકમાં ભારતનું વાંચન અથવા તે શ્રવણ પૂર્વામાં જ કરવામાં આવે છે. રામાયણનું વાંચન અને શ્રવણ અપરાઢમાં જ થતું જોવામાં આવે છે. એથી વિરુદ્ધ આચરણ કરવાથી માણસ ઘણું જાતના દેને પાત્ર થઈ પડે છે. આ પ્રમાણે ભારત વગેરે ગ્રંથનું વાંચન વગેરે કાર્યો નિયમિત સમયમાં આવશ્યક કરવા યોગ્ય હોવા બદલ આવશ્યક રૂપમાં માનવામાં આવે છે. એથી આમાં આ રીતે આવશ્યકપણું આવી જાય છે. તેમજ એમનું વાંચન કરનારાઓમાં તેમના તરફ ઉપગાત્મક પરિણામના સદૂભાવથી ભાવરૂપતા આવે છે. કેમકે જ્યાં સુધી તેમનું વાંચન કરનારાઓમાં તેમના અર્થ પ્રત્યે ઉપગાત્મક પરિણામની જાગૃતિ થશે નહિ, ત્યાં સુધી તેઓ તે પુસ્તકના પત્ર વગેરેના પરાવર્તન કરવારૂપ ક્રિયા અને શ્રાતાઓના માટે અનેક જાતના અર્થની સંગતિ બેસાડવા માટે હાથ વગેરેના હલનચલનરૂપ અભિનય ક્રિયા ઉપગ જ કેવી રીતે કરી શકે, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ___ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे क्रियावान् भवति, एवं तयोः क्रियावत्वेन नोआगमत्वं, "किरियाऽऽगमो नहोइ" इति वचनात् । क्रियारूपे देशे आगमाभावाद नोआगमत्वमपि, अत्र नो शब्दस्य देशनिषेधबोधकत्वात् । लोके भारतादाबागमत्वं व्यवहियते, तस्माद्देशत आगमोऽस्त्यपि । तस्माद पूर्वाह्नेऽपराह्ने यथानिर्दिष्टकाले भारताधुपयुक्तो यदवश्यं भारतादि वाचयति शृणोति वा, तद् वाचनं श्रवणं च लौकिकं भावावश्ययमिति बोध्यम् । कैसे कर सकते हैं । परन्तु उस समय इस प्रकार की ये समस्त क्रियाएँ उनमें प्रत्यक्ष ही देखने में आती हैं। इसी प्रकार श्रोताजन भी अटल होकर उनके सुनने में तन्मय हो जाते हैं । समय २ पर हाथ जोड़ने रूप क्रियाएँ भी करते हैं। इस प्रकार की क्रियाएँ से युक्त होने से उन सुनने वांचने वालों में नो आगमता भी है क्यों कि " किरिया आगमो न होइ" क्रिया आगम नहीं मानी जाती है ऐसा सिद्धान्त का कथन है। " नो आगम" में नो शब्द आगम के एक देश का वाचक है। इसलिये क्रियारूप एक देश में पूर्णरूप से आगम का अभाव होने से आगम की एक देशता उसमें मानने में आती है । भारतादिक पुस्तकों में आगमता का कथन लोक की अपेक्षा से ही किया गया जानना चाहिये । क्यों कि लोक में अन्य व्यवहारी जन इनमें आगमता का व्यवहार करते हुए देखे जाते हैं । इस प्रकार पूर्वाह्न या अपराह्न में किसी भी निर्दिष्ट समय में भारतादिक ग्रन्थों का ज्ञाता उनमें उपर्युक्त होकर जो उनका वांचना आदि कार्य करता है-या जो श्रोताजन उप. પણ તે વખતે આ જાતની આ બધી ક્રિયાઓ તેઓમાં પ્રત્યક્ષરૂપે જોવામાં આવે છેઆ રીતે શ્રોતાઓ પણ તલ્લીન થઈને સાંભળવા માંડે છે. યોગ્ય સમયે તેઓ હાથ જોડવારૂપ કિયાઓ પણ કરે છે. આ જાતની ક્રિયાઓથી ચક્ત હોવા બદલ તે વાંચનારા તેમજ સાંભળનારાઓમાં ને આગમતા પણ "किरिया आगमो न होइ” या मागम मानवामा मावती नथी ॥ सिद्धान्तनुं ४थन छ. “नो आगम” भनी २५४ मारामन मेशन વાચક છે. એટલા માટે ક્રિયારૂપ એકદેશમાં આગમને સંપૂર્ણપણે અભાવ હોવાથી તેમાં આગમની એકદેશતા માનવામાં આવે છે. ભારત વગેરે ગ્રંથમાં આગમતાનું કથન લેકની અપેક્ષાથી જ કરવામાં આવ્યું છે કેમકે લોકમાં બીજા વ્યવહારી લેકે પણ એમાં આગમતારૂપ વ્યવહાર કરતાં જોવાય છે. આ રીતે પૂર્વાહ્ય કે અપરામાં કઈ પણ નિર્દિષ્ટ સમયમાં ભારત વગેરે ગ્રંથ ને જ્ઞાતા તેઓમાં ઉપયુક્ત થઈને જે તેમનું વાંચન વગેરે કાર્ય કરે છે અથવા તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा कुमावनिकं भावावश्यकमुच्यते-ये इमे चरकचीरिकादयो यावत् पापण्डस्था उपयुक्ता यथावसरं यदवश्यम्-ईज्याञ्जलि-होम-जपो-न्दुरुकनमस्कारादिकं भावरूपमावश्यकं कुर्वन्ति तेषां तत् कुपावचनिकं भावावश्यकम् । तत्र-इज्या-सन्ध्योपासनम् , अञ्जलि:-जलाञ्जलिः सूर्याय दीयते, होम:नित्यहवनम् , जपः-गायत्र्याः, उन्दुरुक्क-अयं देशीयः शब्दः धूपार्थकः, नमस्कार:-वन्दनम् , एतेषां चरकादिभिः पाषण्डस्थैरवश्यं क्रियमाणत्वादावश्यकत्वम् । तदर्थोपयोगश्रद्धादिपरिणामसद्भावात् भावत्वम् । चरकादीनां तदर्थोपयुक्त होकर उन्हें सुनते हैं वह सब वाचना सुनना आदि कार्य नो आगम की अपेक्षा से लौकिक भाव आवश्यक है। जो चरक चीरिकादि जन उपयुक्त होकर अपने आवश्यक कार्य स्वरूप इज्या, अंजलि, होम जप, उन्दुरुक्क, और नमस्कार आदि भाव. रूप आवश्यक करते हैं, उनके ये सब कार्य कुप्रावनिक भाव आवश्यक हैं संध्या की उपासना करना इज्या है, सूर्य के लिये जलकी अंजलि देना अञ्जलि है, नित्य हवन करना होम, गायत्री का पाठ करना जब, धूप का खेना उन्दुरुक और नमस्कार करना वन्दना कर्म हैं। ये सब कार्य चरकादि जनों द्वारा प्रतिदिन अवश्य करने योग्य होते हैं-अतः इनमें उन्हीं की मान्यतानुसार आवश्यकपना कहा गया है इनके करने में उनके अन्तः कारण में उनके अर्थ के प्रति उपयोग एवं श्रद्धा आदिरूप परिणति का सद्भाव पाया जाता है । इस જે શ્રોતાઓ ઉપયુકત થઈને તેમનું શ્રવણ કરે છે તે બધું વાંચન શ્રવણ વગેરે કાર્ય ને આગમની અપેક્ષાએ લૌકિક ભાવ આવશ્યક છે. જે ચરક, ચીરિક વગેરે લોક ઉપયુકત થઈને આવશ્યક કાર્યસ્વરૂપ ઈજ્યા, અંજલિ, હમ, જપ, ઉદુરુક અને નમસ્કાર વગેરે ભાવરૂપ આવશ્યક કરે છે, તેઓના આ બધા કાર્યો કુબાવચનિકભાવ આવશ્યક છે. સંધ્યાની ઉપાસના કરવી એ ઈજ્યા છે, સૂર્યને માટે પાણીની અંજલિ આપવી તે અંજલી છે, દરરોજ હવન કરવું તે હોમ, ગાયત્રી પાઠ કરવો તે જપ અને ધૂપ કરવો તે ઉત્ત્વરુક્ત અને નમસ્કાર એ વંદના કર્મ છે. આ બધા કાર્યો ચરક વગેરે લોકો વડે હમેશાંઅવશ્ય કરવાગ્ય હોય છે. એટલા માટે આમાં તેમની માન્યતા મુજબ જ આવશ્યકપણું કહેવામાં આવ્યું છે. એમના આચરણથી તેમના હૃદયમાં તેના અર્થ પ્રત્યે ઉપગ અને શ્રદ્ધા વગેરે ૩૫ પરિણતિ ને સદૂભાવ મળે છે. આ અપેક્ષાએ ત્યાં ભાવતા અને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे योगरूपो देश आगमः, करशिरः संयोगादिक्रियारूपो देशस्तु नोआगमः, तथा च दैशिकागमाभावमाश्रित्य नो आगमत्वमपि, नोशब्दस्यात्रापि देशनिषे. धपरत्वात् । लौकिक कुमावनिक च नोआगमतो भावावश्यक न धर्मपदवाच्यम् , तत्र जिनाज्ञाया अभावादिति बोध्यम् । अथ किं लोकोत्तरिक नोआगमतो भावावश्यकम् ? उच्यते अनुयोगद्वारे । " जणं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा तचित्ते तम्मणे अपेक्षा से वहां भावता और एकदेश से आगमता भी है । क्यों कि हार्थों का जोड़ना नमस्कार करना आदि रूप जो भी क्रियाएँ हैं वे सब नो आगम हैं। इस अपेक्षा इनमें पूर्णरूप से आगमपनो न होकर आगम की एक देशता ही है चरक चीरीकादि द्वारा मान्य ग्रन्थों की निर्दिष्ट क्रियाओं का ही वहां सद्भाव है और उन्हीं के अर्थ में उनका उपयोगादिरूप परिणाम है । इसलिये ये सब चरक चीरीकादि की क्रियाएँ नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक हैं। यहां पर भी नो शब्द देश निषेध परक है अर्थात् आगम के एक देश का वाचक है ये लौकिक और कुप्रावनिक जिन्हें नो आगम की अपेक्षा से भावावश्यकरूप में प्रकट किया गया है धर्मपद के वाच्य नहीं हैं। क्यों कि इन की आराधना से जीवों के कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। अतः तीर्थकर प्रभु ने इनके आराधन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की है। नो आगम की अपेक्षा से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक इस प्रकार એકદેશથી આગમતા પણ છે. કેમકે હાથ જોડવા, નમસ્કાર કરવા વગેરે રૂપ જે ક્રિયાઓ છે તે સર્વે ને આગમ છે. આ દષ્ટિએ એમનામાં આગમતા સંપૂર્ણ પણે નથી, ફકત આગમની એકદેશતા જ છે. ચરક ચીરિક વગેરે વડે માન્ય ગ્રંથોની નિટિ ક્રિયાઓને જ ત્યાં સદૂભાવ છે અને તેમના જ અર્થમાં તેમનો ઉપગ વગેરરૂપ પરિણામ છે. એટલા માટે આ બધા ચરક ચરિકા વગેરેની ક્રિયાઓ ને આગમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે. અહીં પણ ન શબ્દ દેશનિષેધ પરક છે, એટલે કે આગમના એકદેશને વાચક છે. આ લૌકિક અને પ્રાચનિકો જેમને ને આગમની દષ્ટિએ ભાવાવશ્યક રૂપમાં પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે—ધર્મપદના વાચ્ય નથી, કેમકે એમની આરાધનાથી જીવના કર્મોની નિર્જરા થતી નથી, એટલા માટે તીર્થંકર પ્રભુએ એમને આરાધવાની આજ્ઞા કરી નથી. નો આગમની અપેક્ષાએ લકત્તરિક ભાવ આવશ્યક આ પ્રમાણે છે – जणं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३६७ तल्लेसे तदझवसिए तत्तिव्यज्झवसाणे तदह्रोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभोकालं आवस्सयं करेइ, से तं लोगु. त्तरियं भावावस्सयं, से तं नोआगमतो भावावस्सयं, से तं भावावम्सयं ॥" छाया-यत्खलु श्रमणो वा श्रमणी वा श्रावको वा श्राविका वा तच्चित्तस्तन्मनस्कस्तल्लेश्यस्तदध्यवसितस्तत्तीबाध्यवसायस्तदर्थोपयुक्तस्तदर्पितकरणस्तद्भावनाभावित अन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन् उभयकालं यत् आवश्यक सामायिकादि करोति तेषां तल्लोकोत्तरिक भावावश्यकम् । तेषां तद् नोआगमतो भावावश्यकम् तदेतद्भावावश्यकम् । अत्राप्यवश्यं करणीयत्वादावश्यकत्वं, तदर्थोपयोगश्रद्वादिपरिणामस्य सद्भावाद् भावत्वम् , रजोहरणप्रमाणिकाव्यापारयथारात्निकवन्दनकरणानन्तरं सविधि है-जण्णं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्ले से तदझवलिए तत्तिव्वउझवसाणे तदट्टोप उत्ते तदपिअकरणे तब्भावणाभाविए अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं, से तं नो आगमतो भावावस्मयं से तं भावावस्सयं (अनुयोगद्वार ) श्रमण अथवा श्रमणी श्रावक अथवा श्राविका जो सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं को तचित होकर ( उनमें ही चित्त लगाकर ) तन्नन होकर उनमें ही अन्तःकरणको एकाग्रकर इत्यादि सूत्र में कथित विधिके अनुसार दोनों कालों में करतेहैं वह उनका कार्य नो आगम की अपेक्षा से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक हैं । ये सामायिक आदि क्रियाएँ अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक है। कर्ता का उनके अर्थ में उपयोग रूप एवं श्रद्धा आदि रूप परिणाम का सद्भाव होने से उनमें तदज्झवसिए तत्तिव्यज्झवसाणे तदट्टोपउत्ते तदप्पिअकरणे तब्भावणाभाविए अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं, से तं नो आगमतो भावावस्मय, से तं भावावस्सयं (अनुयोगद्वार) । શ્રમણ અથવા શ્રમણી, શ્રાવક અથવા શ્રાવિકા જે સામાયિક વગેરે આવશ્યક ક્રિયાઓને તચિત્ત થઈને (તેમનામાં મન પરોવીને ) તલીન થઈને તેમનામાં જ મન લગાવીને વગેરે સૂત્રમાં કથિત વિધિ મુજબ બંને વખત કરે છે તેમનું તે કાર્ય ને આગમની અપેક્ષાએ લકત્તરિક ભાવ આવશ્યક છે. આ સામાયિક વગેરે ક્રિયાઓ અવશ્ય કરવા યોગ્ય હોવાથી આવશ્યક છે. કર્તાને તેમના અર્થમાં ઉપયોગરૂપ પરિણામને સદભાવ હોવાથી તેમનામાં ભાવતા પણ છે. રજોહરણથી ભૂમિ વગેરેનું પ્રમાર્જન કરવું, વંદના વગેરે કૃતિ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे षविधावश्यककरणरूपायाः क्रियायाः अनागमत्वात् नोआगमत्वं वोध्यम् , अत्रापि नो-शब्दम्य देशतः प्रतिषेधपरत्वात् । इदम् लोकोतरिक नो आगमतो भावावश्यक धर्मपदवाच्यम् तत्र विधेयतया भगवतोऽहंत आज्ञायाः सद्भावात् । अन्येऽपि धर्मलक्षणमेवमाहुः " वचनादविरुद्धाद्य-दनुष्ठानं यथोदितम् । मैव्यादिभावसंमिश्रं तद्धर्म इति कीर्त्यते " ॥१॥ भावता भी है रजोहरण से भूमि आदि का प्रमार्जन करना, वंदना आदि कृति कर्म करना आदि विधि पूर्वक जो षट् विध आवश्यक करने रूप क्रियाएँ हैं वे सब "किरिया आगमो न होइ" इस नियम के अनुमार आगम नहीं हैं। अतः इन में आगम के एक देश अभाव की अपेक्षा से नो आगमता है। यहां पर भी नो शब्द सम्पूर्ण रूप से आगमका प्रतिषेध परक न होकर उसके एक देश का ही प्रतिषेधक है। अतः ये सामायिक आदि षटूविध आवश्यक नोआगम की अपेक्षा से लोकोत्तरीक भाव आवश्यक है। और इनके ही आराधन करने की जिनेन्द्र देवने भव्य जीवों को आज्ञा दी है। कारण कि ये धर्मपद के वाच्य है इनकी आराधना से भव्यजीवों के कर्मों की निर्जरा होती है। दूसरों ने भी इस प्रकार धर्म का लक्षण कहा है वाचनादविरुद्धाद्यनुष्ठान यथोदितम् । मच्यादिभावसंमिश्रं तद्धर्म इति कीर्त्य ते ॥ કર્મ આચરવાં વગેરે વિધિપૂર્વક જે ષવિધ આવશ્યક કરવારૂપ ક્રિયાઓ છે ते। स "किरिया आगमो न होइ" मा नियम भु०४५ माम नथी. मेटसा માટે એમનામાં આગમના એકદેશ અભાવની અપેક્ષાથી ને આગમતા છે. અહીં પણ ને શબ્દ સંપૂર્ણ રૂપથી આગમને પ્રતિષેધ ફરક નથી પણ તેના એકદેશને જ પ્રતિષેધક છે. એટલા માટે સામાયિક વગેરે આ ષવિધ આવશ્યક ને આગમની અપેક્ષા એ લકત્તરિક ભાવ આવશ્યક છે અને જિનેન્દ્ર દેવે એમની આરાધના કરવાની જ ભવ્ય જીવોને આજ્ઞા કરી છે. કેમકે આ બધા ધર્મપદના વાગ્યા છે. એમની આરાધનાથી ભવ્ય જીના કર્મોની નિર્જરા થાય છે. બીજાઓએ પણ આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ બતાવ્યું છે वाचनादविरुद्धाद्यदनुष्ठान यथोदितम् ।। मैञ्यादि भावसमिथ तद्धर्म इति कीयते ।। श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा अस्यव्याख्या वचनादिति ल्यबलोपे पञ्चमी, वचनमनुसृत्येत्यर्थः । वचनम् अमागः। कीदृशाद् वचनादित्याह-अविरुद्धात्-कपच्छेदतापेषु अविघटमानात् , तत्र विधिप्रतिषेधयोर्बाहुल्येनोपवर्णन कषशुद्धिः, पदे पदे तद्योगक्षेमकारिक्रियोपदर्शनं छेदशृद्धि, विधिप्रतिषेधतद्विपयाणां जीवादिपदार्थानां च स्याद्वादपरीक्षया याथात्म्येन समर्थनं तापशुदिः । तच्चाविरुद्धं वचनं जिनप्रणीतमेव, निमित्तशुद्धेः ___अविरुद्ध आगम से यथादित एवं मैत्री आदि भावनाओं से मिश्रित जो अनुष्ठान है वह धर्म है । स्पष्टार्थ-वचन शब्द का अर्थ आगम है। आगम में अविरुद्धता कष, ताप, और छेद द्वारा परीक्षित होने पर ही आती है। जिस प्रकार सुवर्ण की परीक्षा कष-कसौटी पर करने से ताप-अग्नि में तपाने से और छेद-छैनी वगैरह द्वारा काटने से होती है, उसी प्रकार आगम की शुद्धि की परीक्षा भी इन तीन उपायों द्वारा की जाती है। विधि और प्रतिषेध का बहुलता से जिस शास्त्र में वर्णन है, वह शास्त्रकष से शुद्ध कहा जाता है। पद पद पर जिस शास्त्र में इनके योग और क्षेमकरि क्रियाओं का कथन किया गया मिलता है वह शास्त्र छेदसे शुद्धमाना जाता है । विधि एवं प्रतिषेध तथा इन के विषयभूत जीवादिक पदार्थों का स्यावाद ढंग से जहां पर यथार्थ समर्थन किया जाता है सप्तभंगी द्वारा जहां पर इनका सुन्दर शैली से विवेचन करने में आता है वह शास्त्र तप उपायद्वारा शुद्ध माना जाता અવિરુદ્ધ આગમથી યથોદિત અને મૈત્રી વગેરે ભાવનાઓથી મિશ્રિત જે અનુષ્ઠાન છે તે ધર્મ છે. સ્પષ્ટાર્થ–વચન શબ્દને અર્થ આગમ છે. આગમમાં અવિરુદ્ધતા, કષ, તાપ અને છેદ વડે પરીક્ષિત થયા પછી જ આવે છે. જેમ સોનાની પરીક્ષા કષ-કસોટી ઉપર કસવાથી તાપ અગ્નિ ઉપર તપાવવાથી અને છેદ-છીણી વગેરેથી કાપવાથી થાય છે, તેમજ આગમની શુદ્ધિની પરીક્ષા પણ આ ત્રણે ઉપાયે વડે કરવામાં આવે છે. વિધિ અને પ્રતિષેધનું મોટા પ્રમાણમાં જે શાસ્ત્રમાં વર્ણન છે, તે શાસ્ત્ર કષથી શુદ્ધ કહેવાય છે. ડગલે ને પગલે જે શાસ્ત્રમાં એમના યોગ અને ક્ષેમકરિ ક્રિયાઓનું કથન કરવામાં આવ્યું છે તે શાસ્ત્ર છેદથી શુદ્ધ માનવામાં આવે છે. વિધિ અને પ્રતિષેધ તેમજ એમના વિષયભૂત જીવ વગેરે પદાર્થોને યાદ્વાદના રૂપથી જ્યાં યથાર્થ વર્ણન કરવામાં આવે છે, સપ્તભંગી વડે જ્યાં સુંદર શૈલીમાં એમનું વિવેચન કરવામાં આવે છે, તે શાસ્ત્ર તપ ઉપાયવડે શુદ્ધ માનવામાં આવે છે. આ ત્રણે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वचनस्य हि वक्ता निमित्तमन्तरङ्गम् , तस्य च रागद्वेषमोहपारतन्त्र्यमशुद्धिः, तेभ्यो वितथवचनप्रवृत्तेः, न चैषाऽशुद्धिर्जिने भगवति, जिनत्वविरोधात् , जयति रागद्वेषमोहरूपान्तरङ्गान् रिपूनिति शब्दार्थानुपपत्तेः तपनदहनादिशब्दवत् , अन्वर्थतया चास्याभ्युपगमात् , निमित्तशुद्धयभावाद् नाजिनप्रणीतवचनमविरुद्धम् । यतःहै । इन तीनों उपायों से परीक्षित आगम ही परिशुद्ध कहा गया है। अविरुद्ध वचन का नाम ही आगम है। इन कषादिकों से जो आगम में शुद्धता आती है उसका कारण निमित्त की शुद्धि है। निमित्त शुद्ध जिन प्रणीत वचन ही हैं। अन्य प्रणीत वचन नहीं। निमित्त में भी शुद्धि का कारण राग, द्वेष और मोह का अभाव है। वचन का अन्तरंग कारण वक्ता ही हुआ करता है वक्ता की प्रमाणता से ही वचन-आगम में प्रमाणता आती है इसीलिये राग द्वेष आदि से कलुषित व्यक्तियों के वचन प्रमाण कोटि में नहीं आते हैं। क्यों कि राग द्वेष आदिक सद्भाव में वचनों में परस्पर विरुद्ध अर्थ की प्ररूपकता स्वयं ही आ जाती है अतः यह निश्चित सिद्धान्त है कि जहां पर इनका सर्वथा अभाव है वही सच्चा आगम का प्रणेता हो सकता है । और उसी आगम में अविरुद्धता है। ऐसा अविरुद्ध आगम जिन प्रणीत ही हो सकता है क्यों कि उनमें पूर्वोक्त रागद्वेष आदि द्वारा अशुद्धि का सर्वथा अभाव हो चुका है इस के सर्वथा दूर होने से ही वे "जिन" इस प्रकार की संज्ञा वाले हुए हैं। "जयति ઉપાયથી પરીક્ષિત આગમ જ પરિશુદ્ધ કહેવામાં આવ્યો છે. અવિરુદ્ધ વચનનું નામ જ આગમ છે. કષ વગેરેથી આગમમાં જે શુદ્ધતા આવે છે તેનું કારણ નિમિત્તની શુદ્ધિ છે. જિન પ્રણેત વચને જ નિમિત્તશુદ્ધ છે. બીજાઓ વડે પ્રણીત વચને નહિ. નિમિત્તમાં પણ શુદ્ધિનું કારણ રાગ, દ્વેષ અને મહિને અભાવ છે. વચનનું અંતરંગ કારણ બોલનાર જ હોય છે. બેલનારા (વક્ત) ની પ્રમાણુતાથી જ વચન-આગમમાં પ્રમાણુતા આવે છે. એટલા માટે જ રાગ ષ વગેરેથી કલુષિત માણસેના વચન પ્રમાણ કેટિમાં આવતાં નથી. કેમકે રાગદ્વેષ વગેરે સદૂભાવ વચમાં પરસ્પર વિરુદ્ધ અર્થની પ્રરૂપતા જાતે જ આવી જાય છે. એટલા માટે આ નિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે કે જ્યાં એમને સંપૂર્ણ અભાવ છે તે જ સાચા આગમને પ્રણેતા થઈ શકે છે અને તે આગમમાંજ અવિરુદ્ધતા છે. એવું અવિરુદ્ધ આગમ જિનપ્રણીત જ થઈ શકે છે, કેમકે તેમનામાં પૂર્વોક્ત રાગદ્વેષ વગેરે વડે અશુદ્ધિને સંપૂર્ણપણે અભાવ થઈ ચૂક્યો છે–અશુદ્ધિ સર્વ રીતે મટી જવાથી તેઓ “જિન” સંજ્ઞાવાળા થયા છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ गौपदीचर्चा कारणस्वरूपानुविधायि कार्य, तन्न दुष्टकारणाऽऽरब्धं कार्यमदुष्टं भवितुमर्हति, निम्बबीजादिक्षु यष्टिरिवेति । अन्यथा-कारणव्यवस्थोपरममसङ्गात् ।। ___ यच्च-यदृच्छाप्रणयनमवृत्तेषु तीर्थान्तरीयेषु रागादिमत्स्वपि घुणाक्षरोकिरण रागद्वेषमोहरूपान् अन्तरंगरिपून् इति जिनः" राग द्वेष आदिक जो अन्तरंग शत्रु हैं इन पर जिसने विजय पायी है वे ही जिन कहलाते है जिस प्रकार तपन (सूर्य) दहन (अग्नि) आदि शब्द यथानाम तथा गुण वाले हुआ करते हैं, इसी प्रकार “जिन" यह नाम भी यथा नाम तथा गुण वाला है यथा नाम तथा गुण का होना ही नाम की सार्थकता है । जिन्हों ने इन अन्तरंग शत्रुओं को परास्त नहीं किया उनके वचनों में परस्पर अविरुद्धार्थता नहीं आसकती है क्यों कि वहां पर निमित्त की शुद्धि नहिं हैं। इसीलिये अजिन प्रणीत वचन अविरूद्ध नहीं होते हैं। लोक में भी जिस प्रकार नीम के बीज से इक्षु की उत्पत्ति देखने में नहीं आती उसी प्रकार सदोष कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी निर्दोष नहीं होता है । कार्य में निर्दोषता कारण कि निर्दोषता पर आधार रखती है । न्याय शास्त्र का भी यही सिद्धान्त है " कारण स्वरूपानुविधायि कार्य" कि कार्य, कारण के स्वरूप का अनुविधायक होता है। यदि इस प्रकार की व्यवस्था न मानी जावे तो फिर कार्य कारण भाव की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। हर एक पदार्थ " जयति रागद्वेषमोहरूपान् अन्तरगरिपून् इति जिनः" रागद्वेष कोरे २ અંતરંગ શત્રુઓ છે તેમના ઉપર જેમણે વિજય મેળવ્યું છે તે જ જિન કહેવાય છે. જેમ તપન (સૂર્ય) દહન (અગ્નિ) વગેરે શબ્દ નામ જેવા જ ગુણવાળા હોય છે, તે પ્રમાણે જ “જિન” આ નામ પણ નામ પ્રમાણે જ ગુણવાળું છે. જેનું નામ તેવા ગુણે હવા એ જ નામની સાર્થકતા છે. જેમણે આ અંતરંગ શત્રુઓને હરાવ્યા નથી, તેમના વચનેમાં પરસ્પર અવિરુદ્ધાર્થતા આવી શકતી નથી, કેમ કે ત્યાં નિમિત્તની શુદ્ધિ નથી. એટલા માટે અજિન પ્રત વચને અવિરુદ્ધ હોતા નથી. લેકમાં પણ જેમ લીમડાના બીજથી શેરડીની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવતી નથી તેમજ સદોષ કારણથી ઉત્પન્ન થયેલું કાર્ય પણ નિર્દોષ હોતું નથી. કાર્યમાં નિર્દોષતા કારણની નિર્દોષતા ઉપર આધારિત હોય છે. न्यायशासन। ५ मे सिद्धांत छ, “ कारणस्वरूपानुविधायिकार्य " य २ના સ્વરૂપને અનુવિધાતા હોય છે. જે આ જાતની વ્યવસ્થા માનવામાં આવે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ __ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे व्यवहारेण क्वचित् किंचिदविरुद्धमपि वचनमुपलभ्यते, मार्गानुसारिबुद्धौ वा प्राणिनि क्वचित् , तदपि जिनप्रणीतमेव, तन्मूलकत्वात् तस्य । हर एक का कार्य और कारण हो जायगा। अतः आगमरूप कार्य की शुद्धि के लिये निमित्त रूप कारण शुद्धि का होना अवश्य आवश्यकीय माना गया है। प्रश्न-आपने जो कहा कि आगम में अविरुद्धता उसके कारणभूत प्रणेता के अधीन है-सो यह वात हमें मान्य हैं । परन्तु इससे यह बात तो सिद्ध नहीं होती है कि वे अविरुद्ध वचन जिन भगवान के ही है' अन्य के नहीं-कारण कि अन्य सिद्धान्तकारों के वचनों में भी किसी अंशसे अविरुद्धार्थता देखी जाती है। अतः उन्हें सदोष मान कर आप जो उनमें अनाप्तता सिद्ध करते हैं सो यह बात कैसे मान्य हो सकती है ? उत्तर-शंका तो ठीक है-परन्तु विचार करने से इसका उत्तर भी सहजरूप में मिल जाता है । अन्य सिद्धान्तकारों ने जो कुछ रचनाएँ की हैं-वे सब उन्हों ने अपनी इच्छानुसार ही की हैं। अपनी निज कल्पना में जो कुछ उन्हें सूझा वही उन्होंने लिखा है। उनकी रचनाओं में पूर्वापर विरोध स्पष्ट प्रतीत होता है इससे उनमें रागादिक दोषों का अस्तित्व सिद्ध होता है । अब रही उनके वचनों में घुणाक्षर નહિ તે કાર્ય કારણ ભાવની વ્યવસ્થા બની શકે તેમ નથી. દરેક પદાર્થ દરે. કનું કાર્ય અને કારણ થઈ જશે. એટલા માટે આગમરૂપ કાર્યની શુદ્ધિ માટે નિમિત્તરૂપ કારણ શુદ્ધિ થવી ચોક્કસપણે આવશ્યકીય માનવામાં આવી છે. પ્રશ્ન – તમે કહ્યું કે આગમમાં અવિરુદ્ધતા તેના કારણભૂત પ્રણેતાના આધીન છે–એ વાત એમને માન્ય છે. પણ એનાથી આ વાત તે સિદ્ધ થતી નથી, કે તે અવિરુદ્ધ વચને જિન ભગવાનના જ છે, બીજાઓના નહિ. કેમકે બીજા સિદ્ધાંતકારના વચનામાં પણ કઈ પણ અંશે અવિરુદ્ધાર્થતા જોવામાં આવે છે. એટલા માટે તેમને દેષયુક્ત માનીને તમે જે તેમનામાં અનાપ્તતા સિદ્ધ કરો છો, આ વાત કેવી રીતે માન્ય થઈ શકે તેમ છે ! ઉત્તર–શંકા તો ઠીક છે, પણ વિચાર કરવાથી અને જવાબ પણ સરળ રીતે મળી શકે તેમ છે. બીજા સિદ્ધાન્તકારોએ જે રચના કરી છે તે બધી તેમણે પિતાની ઈચ્છા મુજબ જ કરી છે. પોતાની કલ્પનાથી જે કંઈ તેમને ગ્ય લાગ્યું કે તેમણે લખ્યું છે. તેમની રચનાઓમાં પૂર્વાપર વિરોધ સ્પષ્ટ રીતે દેખાઈ આવે છે. એનાથી તેઓમાં રાગ વગેરે દેશો છે એવી વાત સિદ્ધ થાય છે. હવે ઘુણાક્ષર ન્યાયથી કોઈક કઈક સ્થાને તેમના વચનમાં અવિરુદ્ધ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा कीदृशमनुष्ठानं धर्मः? इत्याह--' यथोदितम् ' यथा येन प्रकारेण कालाद्या. राधनानुसाररूपेण-उदितं प्रतिपादितं, तत्रैवाविरुद्धवचने इति गम्यम् । अन्यच्च जो जहवायं न कुणइ, मिच्छादिट्ठी तओ उ को अन्नो १ । वड्ढेई मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥ इति । छाया-यो यथावादं न करोति, मिथ्यादृष्टिस्ततस्तु कोऽन्यः । वर्धयति मिथ्यात्वं, परस्य शङ्काजनयन् ।। इति । पुनरपि कीदृशमित्याह-' मैत्र्यादिभावसंमिश्रम् ' इति । मैत्र्यादया मैत्री मुदिता करुणा माध्यस्थलक्षणा ये भावा: अन्तःकरणपरिणामाः, तत्पूर्वकाश्च न्याय से कही २ अविरुद्ध अर्थ प्रतिपादकता सो वह उनकी निज की घर की वस्तु नहीं है-उसका मूल स्रोत अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक जिन प्रणित आगम ही है । यही बात मार्गानुसारी बुद्धिवाले व्यक्ति में भी समझ लेनी चाहये । वह जा कुछ भी सत्यार्थ कहता है उसका मूल कारण जिनप्रणीत आगम का सहारा ही है। श्लोक कथित "यथोदित" पद इस बात का समर्थन करता है कि देश काल आदि की आराधना के अनुसार जो आचार-अनुष्ठान प्रतिपादित किया गया है। उससे जो अविरुद्ध कहा गया है-वही धर्म है इससे विपरीत नहीं। "मैञ्यादि. भाव संमिश्रम् ” इस पद द्वारा सूत्रकार यह प्रतिपादित करते हैं कि वह अनुष्ठान मैत्री, मुदिता, करुणा और माध्यस्थ इन चार लक्षणों से युक्त होता है । ये धर्म के बाह्य चिह्न हैं । इनके सद्भाव से आत्मा में અર્થ પ્રતિપાદકતા પણ છે, તે તેમની પોતાની વસ્તુ તે નથી જ, કેમકે તેનાં મળિયાં તે અવિરુદ્ધ અર્થના પ્રરૂપક જિનપ્રણીત આગમમાં જ છે. એ જ વાત માર્ગાનુસારી બુદ્ધિવાળી વ્યક્તિમાં પણ સમજી લેવી જોઈએ. તે જે કંઈ પણ સત્યાર્થ કહે છે તેનું મૂળ કારણ જિન પ્રણીત આગમ જ છે. કલોક કથિત છે.દિત » પદ આ વાત ને સ્પષ્ટ કરે છે કે દેશકાળ વગેરેની આરાધના અજબ જે આચાર–અનુષ્ઠાન–પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યાં છે, તેનાથી જે અવિરુદ્ધ કહેવામાં આવ્યું છે તે ધર્મ છે. એનાથી વિપરીત નહિ. શા भावसंमिश्रम् ॥ २॥ ५४५३ सूत्रा२ मा पात स्पष्ट ४२ छ ते अनुहान ત્રી, મુદિતા, કરુણા અને માધ્યસ્થ આ ચાર લક્ષણોથી યુક્ત હોય છે. આ બધા ધર્મના બાહા ચિન્હો છે. એમના સદ્દભાવથી આત્મામાં ધર્મનું અસ્તિત્વ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे बाहयचेष्टाविशेषाः, तैः संमिश्र=संयुक्तं, मैञ्यादिभावानां निःश्रेयसाभ्युदयधर्ममूलत्वेन शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात् । तदेवंविधमनुष्ठानं धर्म इति कीर्त्यते शब्द्यते सुधीभिरिति । नन्वेवं वचनाऽनुष्ठानं धर्म इति प्राप्तं, तथा च प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानेष्वव्याप्तिरिति चेन्न-इह तु वचनादित्यत्र वेदात् प्रवृत्तिरित्यत्रेव प्रयोज्यत्वार्थिका धर्म का अस्तित्व जाना जाता है अन्य सिद्धान्तकारों ने भी इन्हें निः श्रेयस और स्वर्ग के कारणभूत धर्म का मूल कहा है । अतः जो आगम से अविरुद्ध है, काल ओदि की आराधना के अनुसार जो आराधित होता है और जो मैत्री आदि चार भावनाओं से गर्मित है ऐसा अनुष्ठान ही धर्म है । ऐसे ही धर्म की आराधना करने का गणधर आदि का आदेश है। भावार्थ-तीर्थकर कथित आगम के अनुसार होने वाले अनुष्ठान का नाम धर्म है । इसका फलितार्थ यही है कि जिस अनुष्ठान में तीर्थकर प्रभु द्वारा कथित आगम से विरोध नहीं आता है वही धर्म है । तथा च-प्रीति भक्ति और असंग रूप अनुष्ठानों में इस लक्षण की अप्राप्ति नहीं होती है क्यों कि वहां पर भी इस लक्षण का सद्भाव पाया जाता है " वाचनानुष्टानं धर्मः" इस प्रकार के कथन में " वेदात् प्रवृत्तिः" की तरह प्रयोज्य अर्थ में पंचमी विभक्ति हुई है अतः जिस प्रवृत्ति का प्रयोज्य वचन है वह धर्म है। (वचनानुष्ठानं धर्मः ) यहां से लेकर (प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान इत्यादि तक ) लिखने की आवश्यकता જાણવામાં આવે છે. બીજા સિદ્ધાંતકારોએ પણ આ બધાને નિઃશ્રેયસ અને સ્વર્ગના કારણભૂત ધર્મનું મૂળ બતાવ્યું છે. એથી જે આગમથી અવિરુદ્ધ છે કાળ વગેરેની આરાધના મુજબ જે આરાધિત હોય છે અને જે મૈત્રી વગેરે ચાર ભાવનાઓથી યુક્ત છે એવું અનુષ્ઠાન જ ધર્મ છે. એવા જ ધર્મની આરાધના કરવા માટે ગણધર વગેરેનો આદેશ છે. ભાવાર્થ-તીર્થકર કથિત આગમમુજબ આચરાયેલા અનુષ્ઠાનનું નામ ધર્મ છે. એને અર્થ આ પ્રમાણે ફલિત થયો છે કે જે અનુષ્ઠાનમાં તીર્થંકર પ્રભુ વડે કથિત આગમથી વિરોધ જણાતું નથી તે જ ધર્મ છે તેમજ પ્રીતિ. ભક્તિ અને અસંગ રૂપ અનુષ્ઠાનમાં આ લક્ષણની અપ્રાપ્તિ પણ હોતી નથી म त्यां पशु या सक्षगुने सहमा भणे छ. “ वाचनानुष्ठान धर्मः" मा तनाथनमा " वेदात् प्रवृत्तिः "नी भ. प्रयोन्य अर्थमा यमी विमति छ. मेटमा भाट र प्रवृत्तिनु प्रयोज्य चयन छ त धम छ. (वचना. नष्ठान धर्मः) महीथी भांडीन प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान कोरे सुधी भवानी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३७५ पश्चमी, तथा च-बचनप्रयोज्यप्रवृत्तिकत्वं लक्षणमिति न कुत्राप्यव्याप्तिदोषावकाशः पीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानानामपि वचनप्रयोज्यत्वाऽनपायादिति । किं च--हिंसादिपापपरिहारो धर्मसिद्धेलिङ्गमित्याहताः स्वीकुर्वन्ति । तथा चोक्तम् औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः । लिङ्गानि धर्मसिद्धेः, प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥ इति । पापजुगुप्सा-पापपरिहारः। षट्कायवधसाध्यं प्रतिमापूजनं कुर्वतां धर्मसिद्धिः कथं स्यादिति विचारयन्तु मुधियः । अपरं च - प्रतीत नहीं होता है क्यों कि वचनानुष्ठान धर्म का अर्थ वचन के अनुसार होने वाला अनुष्ठान धर्म है इसमें कोई जातका दोष नहीं आता है।" किंच-हिंसादिक पांच पापों का परित्याग धर्म सिद्धि का चिह्न है इस प्रकार की मान्यता जैनियों की है। शास्त्रान्तर में यही बात प्रकट की गई है औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः । लिङ्गानि धर्मसिद्धेः प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥ (षोडश-ग्रंथ ४ प्रकरण) उदारता-हृदय की विषालता, दाक्षिण्य-सर्व जीवों के अनुकूल प्रवृत्ति, पापजुगुप्सा-पाप का परित्याग, निर्मलबोध-तत्त्वज्ञान, और जन प्रियत्व ये ५ धर्मसिद्धि के लक्षण हैं। अब यहां पर विचारने की बात यह है कि जब पाप का परिहार करना यह धर्मसिद्धि का लक्षण આવશ્યકતા જણાતી નથી, કેમકે વચનાનુષ્ઠાન ધર્મને અર્થ વચન મુજબ થનાર અનુષ્ઠાન ધર્મ છે. આમાં કોઈ પણ જાતને દોષ નથી. કિચ–હિંસા વગેરે પાંચ પાપને પરિત્યાગ ધર્મસિદ્ધિનું ચિત્ર છે. આ જાતની માન્યતા જૈનીઓની છે. શાસ્ત્રા-તરમાં પણ એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે – औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्ताऽथ निम लो बोधः । लिङ्गानि धर्मसिद्धेः प्रायेण जिनप्रियत्व च ॥ ( षोडशग्रंथ ४ प्रकरण) ઉદારતા–હદયની વિશાળતા, દાક્ષિણ્ય-બધા જીવોને અનુકૂળ થઈ પડે તેવી પ્રવૃત્તિ, પાપ જુગુસા–પાપને ત્યાગ, નિર્મળ બંધ - તત્ત્વજ્ઞાન, અને જિનપ્રિયત્વ આ પાંચે ધર્મસિદ્ધિનાં લક્ષણો છે, હવે આપણી સામે આ વાત વિચાર કરવા ગ્ય છે કે જ્યારે પાપને પરિહાર કરે એ ધર્મસિદ્ધિનું લક્ષણ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे एकेन्द्रियादिषड्जीवनिकायजीवानां रक्षणं धर्मस्य मूलमिति वदतामर्हतां षट्कायविराधना साध्यायाः प्रतिमापूजायाः अङ्गीकारे जैनत्वमेव नश्यति, जैन धर्मस्य मूलतस्तत्र समुच्छेदात् । ३७६ तथा चोक्तम्- जीवदयसच्चवयणं, परधणपरिवज्जणं सुसीलं च । स्वती पंचिदयनि-ग्गहो य धम्मस्स मूलाई || दर्शनशुद्धि - २ तत्र) है तो प्रतिमा का पूजन करने वाले के इसका परिहार कैसे हो सकता है । क्यों कि यह पहिले ही प्रकट किया जा चुका है कि यह प्रतिमापूजन कार्य षट् काय के आरंभ के विना साध्य हो ही नहीं सकता । अतः प्रतिमापूजन चाले को धर्मसिद्धि का लाभ मानना यह एक मनग ढंत कल्पना ही है - शास्त्रीय कल्पना नहीं । शास्त्र में तो यही जिनेन्द्र देव की आज्ञा है कि एकेन्द्रिय आदि षट् निकाय के जीवों की रक्षा करना ही प्रत्येक जैन मात्र का कर्तव्य है, और यही धर्म का मूल है। जब इस प्रकार की वीतराग प्रभु की आज्ञा है तो फिर यह तो सोचो की षट्निकाय की विराधना से साध्य इस प्रतिमापूजन की मान्यता में जैनत्व का रक्षण ही केसे हो सकता है । प्रत्युत जैनधर्म का इस प्रकार की मान्यता में समूलतः नाश ही हो जाता हैं । जीवदयसचवयणं परधनपरिवज्रणं सुसीलंच | वंती पंचिदिय निग्गहोय धम्मस्स मूलाई || (दर्शन शु २ तत्व) છે ત્યારે પ્રતિમાની પૂજા કરનારાઓ માટે આાને પરિહાર કેવી રીતે થઈ શકે તેમ છે, કેમકે આ વાત પહેલાં જ પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે આ પ્રતિમા પૂજન કાર્ય ષટ્કાચના આર'મ વગર સાધ્ય થઇ શકે તેમ નથી. એથી પ્રતિમા પૂજનવાળા માટે ધ'સિદ્ધિના લાભ સમજી લેવા આ એક ખાટી કલ્પના માત્ર છે. શાસ્ત્રીય કલ્પના નથી. શાસ્ત્રમાં તેા જિનેન્દ્રદેવની એ જ આજ્ઞા છેકે એકેન્દ્રિય વગેરે ષટ્રકાયના જીવાની રક્ષા કરવી જ દરેકે દરેક જૈનનું કન્ય છે અને એ જ ધર્મનું મૂળ છે. જ્યારે આ જાતની વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞા છે ત્યારે આ વાત ઉપર તેા વિચાર કરીએ કે ષટ્કાય નિકાયની વિરાધનાથી સાધ્ય આ પ્રતિમા પૂજનની માન્યતામાં જૈનત્વનુ` રક્ષણ જ કેવી રીતે થઈ શકે છે? આ જાતની માન્યતાથી તેા જૈન ધર્મના મૂળરૂપે વિનાશ જ થઇ જાય છે. जीवदय सच्चवयणं, परधनपरिवज्जणं सुसीलं च । खंती पंचिदियनिगहोय, धम्मस्स मूलाई ॥ ( दर्शन शु० २ तत्व ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CE अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३७७ जीवाश्चेतनादिलिङ्गव्यङ्गया एकेन्द्रियादयः तेषां दया रक्षणं जीवदयेति । हस्वत्वं माकृतमभवम् । धर्ममूलं भवतीति सर्वत्र क्रियाऽध्याहारः कार्यः । पतिमापूजनं विशुद्धपरिणामजनकत्वादुपादेयमितिकथनं निर्मूलम्-- धर्माङ्गेषु दयायाः प्राधान्यात् प्राथभ्यं वर्तते । हिंसासाध्यायां प्रतिमापूजायां दयाया अभावाद् धर्माङ्गत्वं न सिध्यति । तथा च विशुद्धात्मपरिणामरूपं धर्म प्रति कारणत्वं प्रतिमापूजनस्य न संभवति । अन्यच्च-- इस लोक में यही बात कही गई है। जीवों की दया करना सत्य बोलना, पर धन के हरण करने का त्याग करना, कुशील का त्यागना, क्षमाभाव रखना, पांचों इद्रियों को वश में रखना ये सब धर्म के मूल हैं । जिस प्रकार विना मूल-जड़ के वृक्ष की स्थिति आदि नहीं हो सकती है-उसी प्रकार उनके विना भी धर्मरूपी महावृक्ष की जीवात्मा ओं में स्थिरता नहीं हो सकती है जो व्यक्ति “ प्रतिमा के पूजने से विशुद्ध परिणामों की आत्मा में जागृति होती है " इस बात का सम र्थन करते हुए उपयोगिता सिद्ध करते हैं उनका यह कथन बिलकुल ही निर्मूल है क्यों कि धर्म में सर्वप्रथम स्थान दया को ही दिया गया है जीवों की हिंसा से साध्य इस प्रतिमापूजन में उस दया का संरक्षण ही नहीं होता है-इसलिये इसे धर्म का अंग कैसे माना जा सकता है जो धर्म का ही अंग नहीं बनता है उससे कैसे परिणामों में विशुद्धता की जागृति हो सकती है अतः यह प्रतिमापूजन धर्म प्राप्ति में कारण नहीं है ऐसा मानना चाहिये। આ લેકમાં એ જ વાત બતાવવામાં આવી છે કે જીવ ઉપર દયા કરવી, સત્ય બોલવું, પારકાના ધનને લઈ લેવાની વૃત્તિને દુર કરવી, કુશીલને ત્યાગ કર, ક્ષમાભાવ રાખ, પાંચ ઈન્દ્રિયોને વશમાં રાખવી આ બધાં ધર્મનાં મૂળ છે. જેમ મૂળ-જડ વગરનાં વૃક્ષની સ્થિતિ વગેરે જ થઈ શકે તેમ નથી તેમજ એમના વગર પણ ધમરૂપી મહાવૃક્ષની જીવાત્માઓમાં સ્થિરતા થઈ શકે તેમ નથી. જે વ્યક્તિ “પ્રતિમાના પૂજનથી વિશુદ્ધ પરિણામોની આત્મામાં જાગૃતિ થાય છે. ” આ વાતને યોગ્ય માનીને આની ઉપયોગિતા સિદ્ધ કરે છે, તેમનું આ કથન સાવ નિર્મળ-વ્યર્થ છે. કેમકે ધર્મમાં સૌ પ્રથમ સ્થાન દયાને જ આપવામાં આવે છે. જીવોની હિંસાથી સાધ્ય આ પ્રતિમા પૂજનમાં તે દયાની રક્ષા જ થતી નથી. એટલા માટે આને ધર્મનું અંગ કેવી રીતે માની શકીયે. અને જે ધર્મનું જ અંગ થઈ શકતું નથી તેનાથી કેવી રીતે પરિણામમાં વિશુદ્ધતાની જાગૃતિ થઈ શકે. એટલા માટે આ પ્રતિમાપૂજન ધર્મપ્રાપ્તિમાં કારણ નથી આમ માની લેવું જોઈએ. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३७८ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे धर्मालम्बनानि स्थानाङ्गसूत्रे भगवता प्रजातानि-- "धम्म णं चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता । तं जहा-छक्काया, गणो, राया, गिहवई, सरीरं " ॥ इति । भगवता धर्मालम्बनानि पञ्चैव कथितानि । तत्र " छक्काया" इत्युक्त्या गणराजादीनामपि संग्रहे सत्यपि पुनस्तेषां विशिष्योपन्यासः प्राधान्यख्यापनार्थः अन्यच्च-"धम्म चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता-तंजहा-छकाया, गणो, राया, गिहवई, सरीरं" इति-भगवान ने धर्म के छहकाय, गण, राजा, गाथापति और शरीर इस प्रकार ये छह आलम्बन स्थान स्थानाङ्गसूत्र में कहे हैं। इनमें जिन प्रतिमा का कथन नहीं किया है-इससे यह भली भांति विदित हो जाता है कि जिन प्रतिमा और उसका पूजन धर्म का अवलम्बन रूप नहीं है यदि जिन प्रतिमा का पूजन कार्य धर्म का अवलम्बनरूप सिद्धान्तकारों की दृष्टि में मान्य होता तो वे अवश्य इन स्थानों के कथन करते-जिस प्रकार छहकाय, गण, राजा इत्यादि का कथन किया है। यद्यपि "छहकाय" इस एक पद से हीगण, राजा आदि का स्वतः कथन सिद्ध हो जाता है, क्यों की इन सब का समावेश उसी एक पद में हो जाता है । फिर भी इनका भिन्न २ रूप से जो नाम निर्देष किया है उसका कारण ये धर्म के प्रधान आलम्बन रूप हैं इस बात को प्रकट करने के लिये ही किया गया है । इसी प्रकार भने यी ५५ धुंछ “धम्म चरमाणम्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता-त जहा छक्काया, गणो, राया, गिहवई, सरीर " इति, भगवान माना छ ।य, ગણ, રાજા, ગાથા પતિ અને શરીર આ રીતે છ આલંબનસ્થાન સ્થાનાંગ સૂત્રમાં કહ્યાં છે. આ બધામાં જિન પ્રતિમાનું કથન કરવામાં આવ્યું નથી. એનાથી આ સ્પષ્ટ રીતે જણાય છે કે જિનપ્રતિમા અને તેનું પૂજન ધર્મનું અવલંબના નથી. જે સિદ્ધાન્તકારોની દષ્ટિમાં જિન પ્રતિમાના પૂજનનું કાર્ય ધર્મના અવલંબન રૂપમાં માન્ય હેત તે તેઓ ચોક્કસ આ સ્થાનના કથનની સાથે સાથે તેમનું પણ કથન જેમ છ કાય, ગણુ. રાજા વગેરેનું કથન કર્યું છે તેમ કર્યું હોત. જે કે “ષકાય ” આ એક પદથી જ ગણ, રાજા વગેરેનું સ્વતઃ કથન સિદ્ધ થઈ જાય છે, કેમકે આ બધાને સમાવેશ તે એક પદમાં જ થઈ જાય છે, છતાંય આ બધાને સ્વતંત્ર રૂપમાં જે નામ નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે તે સર્વે ધર્મના પ્રધાન આલંબનરૂપ છે, આ વાતને પ્રગટ કરવા માટે જ કરવામાં આવ્યો છે. આ પ્રમાણે જે જિનપ્રતિમા પણ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३७९ दर्शनवन्दनपूजनादिना जिनप्रतिमायाः सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वाऽष्टकर्म क्षयहेतुत्व स्वीकारे तु अस्या अपि निश्रास्थानत्वेन निश्रास्थानेषु विशिष्य तदुपन्यासमकृत्वा "पंच निस्साठाणा पण्णत्ता" इति कथनं विरुध्यते । तस्मात् जिनप्रतिमाया निश्रास्थानेष्वनभिधानात् प्रतिमायां धर्मालम्बनत्वं न सिध्यति । एवं च तत्पूजनं कुशलात्मपरिणामविशेषस्य धर्मस्य कारणं नास्तीति विश्वसनीयम् । प्रतिमापूजायामारम्भः परिग्रहश्यावश्यं भावी । ताभ्यां विना पूजाया असं. भवात् तथाऽपि-प्रतिमापूजोपदेशकाः एवं वदन्ति-- यदि जिन प्रतिमा भी दर्शनवन्दना और पूजादिक द्वारा सम्यक्त्वशुद्धि एवं अष्टकमों के क्षय का कारण होती तो उसका भी धर्म का आलम्बनरूप होने से यहां पर विशेषरूप से शास्त्रकार को कथन करना चहिये था ! परन्तु ऐसा तो सूत्रकार ने किया नहीं है। फिर भी यदि उसे धर्म का अवलम्बनरूप स्वीकार किया जाय तो इस सूत्र में प्रतिपादित 'पांच ही निश्रास्थान हैं " इस कथन से विरोध आता है कारण कि उन स्थानों से अतिरिक्त एक और जिनप्रतिमापूजन धर्म का आलम्बन रूप स्थान बढ जाता है अतः 'पंच निस्साठाणा पण्णत्ता' इस सूत्र प्रदर्शित उपन्यास से यह बात पुष्ट होती है कि जिन प्रतिमा धर्म का आलम्बन स्थान नहीं है । यह तो उस के पक्षपातियों के ही दिमाग की एक उटपटांग सूझ है यह जानते हुए भी कि जिनप्रतिमापूजन में आरंभ और पार ग्रह अवश्यंभावी है, इनके विना वह कथमपि साध्य हो नहीं सकती है, तो भी जिनपूजाके उपदेशक खेद है कि जनता को દર્શન, વન્દના અને પૂજા વગેરે વડે સમ્યકત્વ શુદ્ધિ અને અષ્ટ કર્મોના ક્ષયનું કારણ હોત તે ધર્મના આલંબનરૂપ હોવા બદલ અહીં વિશેષરૂપમાં શાસ્ત્રકારે વડે તેનું કથન કરવું જોઈએ. પણ સૂત્રકારે આવું કંઈ કર્યું નથી. છતાંય જે તેને ધર્મના અવલંબનરૂપે સ્વીકારીએ તે આ સૂત્રમાં પ્રતિપાદિત પાંચ જ નિશ્રાસ્થાને છે “ આ કથનથી વિરોધ ઊભો થાય છે કેમકે તે સ્થાનોથી અતિરિક્ત એક બીજા જિનપ્રતિમા પૂજન ધર્મના આલંબનરૂપ स्थानी वृद्धि थ य छे. मेथी “पंच निस्साठाणा पण्णत्ता” मा सूत्र પ્રદર્શિત ઉપન્યાસથી આ વાત પુષ્ટ થાય છે કે જિનપ્રતિમા ધર્મનું આલંબન સ્થાન નથી. આ તો ફક્ત તેના તરફદારીઓના મસ્તિષ્કની જ વ્યર્થની કલ્પના છે. જિનપ્રતિમા પૂજનમાં આરંભ અને પરિગ્રહ અવસ્થંભાવી છે. એના વગર તે કોઈ પણ સંજોગે સાધ્ય થઈ શકે તેમ નથી, આવું જાણવા છતાં બહુ हम साथे ४ ५3 छ है 600 भूलना अपडेश। सभासने “ पूयाए काय. श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अपि च-" पूयाए कायवहो, पडिकुट्ठो सो उ किं तु जिणपूया । सम्मत्तमुद्धिहेउ, त्ति भावणीया उ णिरवज्जा" ॥१॥ छाया-पूजायां कायवधः प्रतिकुष्ठः सतु किन्तु जिनपूजा। सम्यक्त्वशुद्धिहेतु-रिति भावनीया तु निरवद्या ॥१॥ सर्वमेतदुत्सूत्रमरूपणम्--श्रूयतां प्रवचनं तावत्-- दो हाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए । तं जहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव । दोहाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलं बोहिं बुझिज्जा । तं जहा-आर भे चेव परिग्गहे चेव ।। (स्था. २ ठा. १उ.)इति " पूयाए कायवहो पडिकुट्टो सो उ किं तु जिणपूधा । सम्मत्तसुद्धिहेर्ड, त्ति भावणीया उणिरवजा ॥ १ ॥ इस प्रकार की उत्सूत्र प्ररूपणा द्वारा भ्रम में ही डालते रहते हैं। हमें तो बुद्धि पर तरस आता है कि वे क्यों नहीं इस सिद्धान्त को समझने की चेष्टा करते हैं कि-"दोहाणाइं अपरियाणित्ता आया णो केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए । तं जहा आरंभे चेव परिगाहे चेव । दोहाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलबोधि वुज्झिज्जा तं जहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव (स्था. २ ठा. १ उ.) ये दो धनधान्य आदि रूप परिग्रह और प्राणातिपात आदि रूप आरंभ स्थान अनर्थ के कारण है । जब तक आत्मा ज्ञ परिज्ञा से इन्हें जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका परित्याग नहीं कर देती है तब वह ब्रह्मदत्त की तरह केवलि द्वारा कथित धर्म के सुननेका अधिकारी नहीं हो सकती है और न इन दोनों के त्याग किये विना वक्र सम्यक्त्व को वहो पडिकुटो सोउ किं तु जिणपूया । सम्मत्तसुद्धिहेउ, त्ति भावणीया उ णिरवज्जा ॥ १ ॥ ॥ ततनी उत्सूत्र ५३५॥ १ भ्रममा ४ नाजी राजे छ. અમને તે તેમની બુદ્ધિ ઉપર દયા આવે છે કે, તેઓ આ સિદ્ધાંતને સમ पानी शिश भ. नहि ४२ता डाय ? भो “ दो द्राणाई अपरियाणिचा आयाणो केवलिपण्णत्तं धम्म लमेज्ज सवणयाए । तं जहा-आरभे चेव परिग्गहे चेव । दो द्राणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिबोधि बुज्झिज्जा त जहाआरभे चेव परिग्गहे चेव ( स्था० २ ठा० १ उ० ) ॥ धन धान्य वगेरे રૂપ પરિગ્રહ અને પ્રાણાતિપાત વગેરે રૂપ આરંભ સ્થાન અનર્થના કારણ છે. જ્યાં સુધી આત્મા જ્ઞ પરિજ્ઞા વડે એમને જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન પરિઝાવડે એમને પરિત્યાગ કરતી નથી, ત્યાં સુધી તે બ્રહ્મદત્તની જેમ કેવલિવડે કથિત ધર્મને સાંભળવા માટે અધિકારી (યોગ્ય પાત્ર) ગણાઈ શકે તેમ નથી. અને તે બંનેને જ્યાં સુધી ત્યાગ કરે નહિ ત્યાં સુધી તે સમ્યક્ત્વ મેળવવા યોગ્ય श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा 'दो हाणाई' द्वे स्थाने द्वे वस्तुनी 'अपरियाणित्ता' अपरिज्ञायज्ञपरिक्षया 'एतावारम्भपरिग्रहावनाय ' इत्यविज्ञाय अलं ममाभ्यामिति परिहाराभिमुख्यद्वारेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत् तयोः प्रवृत्तः, 'आया' आत्मा-जीवः, नो केवलिप्रज्ञप्त-निनोक्तं धर्म लभेत श्रवणतया- श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्थः । जैनधर्मश्रवणान) भवतीति भावः । तद् यथा आरम्भः-प्राणा. तिपातादिरूपः, पापस्थानम् परिग्रहः-धनधान्यादिसंग्रहः । द्वे स्थाने अपरिज्ञाय - ज्ञपरिज्ञयाऽनर्थकारणमज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिक्षया अप्रत्याख्याय च तत्र प्रवृत्तः 'आया' आत्मा-जीवः केवलं बोधि अर्थात् सम्यक्त्वं न बुध्येत=न प्राप्नुयादित्यर्थः ।। पाने के भी योग्य बन सकती है " यह सूत्र हमें यह शिक्षा देता है कि भला जिस परिग्रह और आरंभयुक्त आत्मामें केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनने तक की भी योग्यता नहीं है और न जिसमें सम्यक्त्व का अनुभव है, है उस आत्मा में " वह प्रतिमा सम्यक्त्व की शुद्धि का कारण होता " इस प्रकार की मान्यता आकाश के फूल के समान एक कल्पना मात्र ही है । अतः यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि इस प्रतिमापूजन में न तो धर्म के कोई मौलिकतत्त्व का समावेश है और न धर्म का कोई अंग ही है। यह न तो धर्म का आलम्बनरूप है और न धर्म के लक्षण से ही युक्त है। फिर भी इसे धर्म पद का वाच्य मानना केवल स्पष्ट रूप से उत्सूत्र प्ररूपणामात्र है इस प्रकार शास्त्रीयमर्यादा के विरुद्ध इस प्रतिमा पूजन का उपदेश देने वाले तथा प्रतिमापूजन कराने वाले उप બની શકે તેમ નથી. “આ સૂત્ર અમને આ જાતની ભલામણ કરે છે કે જે પરિગ્રહ અને આરંભયુક્ત આત્મામાં કેવલિ પ્રજ્ઞત્વ ધર્મ સાંભળવા સુધીની પણ યોગ્યતા નથી અને જેમાં સમ્યક્ત્વની અનુભૂતિ પણ નથી, તે આત્મામાં તે પ્રતિમા સમ્યક્ત્વની શુદ્ધિનું કારણ હોય છે” આ જાતની માન્યતા આકાશના પુષ્પની જેમ એક પેટી કલ્પના માત્ર જ નથી તે બીજું શું છે ? એટલા માટે એ સિદ્ધાન્ત નિશ્ચિત થાય છે કે, આ પ્રતિમાપૂજનમાં ધર્મના ન કઈ મૌલિક તને સમાવેશ છે અને ન તો તે ધર્મનું કઈ પણ એક અંગ છે. આ ધર્મનું આલંબનરૂપ નથી અને ધર્મના લક્ષણથી યુક્ત પણ નથી. છતાં ય તેને ધર્મપદવાણ્ય માનવું તે સ્પષ્ટ રીતે ઉસૂત્ર પ્રરૂપણું માત્ર છે. આ રીતે શાસ્ત્રની મર્યાદાથી વિપરીત આ પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ આપનારાઓ તેમજ પ્રતિમા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे __ यत्र के वलिप्रज्ञप्तधर्मस्य श्रवणायापि योग्यता न भवति, सम्यक्त्वस्य च नानुभवः, तत्र सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वं गगनकुसुमवन्मनोविकल्पमात्रम् । यस्य प्रतिमापूजनस्य नास्ति धर्ममूलत्वं न चास्ति धर्माङ्गत्वं, नापि धर्मालम्बनत्वं, न चापि धर्मलक्षणसमन्वितं, तस्य धर्मपदवाच्यत्वकल्पने - सुस्पष्टमेवोत्सूत्रमरूपणम् । भगवताऽईता-प्रवचने अनुपदिष्टस्य प्रतिमापूजनस्योपदेशकरणेन भ्रान्ति जनयतां प्रतिमापूजन कारयतां च का गतिः स्यादिति समालोचनीयं सुधीभिः। अपरं च दोहि ठाणेहिं आया केवलिपनत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए तं जहा खएण चेव उवसमेण चेव एवं जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा तं जहा-खएण चेव उवसमेण चेव । ( स्था० २ ठा० ४ उ० ) "खएण चेव” इति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण उदयमाप्तस्य क्षयेण, अनुदितस्य चोपशमेन-क्षयोपशमेनेत्यर्थः । अत्र पदद्वयेन क्षयोपशमरूपोऽर्थों गृह्यते । यावत् करणात्-"केवलं बोहिं बुज्झेज्जा ।" केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्य श्रवणं तथा सम्यक्त्वं च ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणः क्षयोपशमादेव लभ्यते इति भगवता प्रतिबोधितम् । इदमत्रबोध्यम् नहि रुधिरलिप्तवस्त्रस्य रुधिरेण प्रक्षालने शुद्धिर्भवति प्रत्युत मलिनतरत्वमेव, देशक तथा प्रेरक की वास्तविक वस्तुस्थिति से जनता को अंधकार में रखने के कारण क्या गति होगी यह स्वयं बुद्धिमानों को विचार ने जैसी बात है। __अपरं च-दोहिं ठाणेहिं आयाके वलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए-तं जहा इत्यादि सूत्र__इसका भावार्थ यह है-जीव केवलियों द्वारा प्रजप्त धर्म का श्रवण तथा सम्यक्त्व का लाभ ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय और क्षयोपशम से ही करता है प्रतिमापूजन से नहीं। जिस प्रकार रुधिर से मैले वस्त्र की सफाई रुधिर में ही धोने से नहीं होती, उसी પૂજન કરાવનારા ઉપદેશકે પ્રેરકરૂપ થઈને યથાર્થ વસ્તુસ્થિતિથી સમાજને અંધારામાં રાખે છે, તે બદલ તેમની શી દશા થશે તે વિદ્વાને સમજી શકે છે. भने मासु ५९ -दोहि ठाणेहिं आया केवलिपन्नत्तं धर्म लभेज्जा सवणयाए-तं जहा-त्यादि सूत्र અને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે, કેવલિઓ વડે પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ તેમજ સમ્યક્ત્વને લાભ જીવ જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શન મેહનીય કર્થના ક્ષય અને ક્ષપશમથી કરે છે. પ્રતિમાપૂજનથી નહિ. જેમ લોહીથી ખરડાએલા વસની સાફસૂફી લેહી વડે ધેવાથી થતી નથી, તેમ જ સમ્યક્ત્વની શદ્ધિ અથવા તે કમેને વિનાશ પ્રતિમાપૂજનથી થતું નથી. બલકે જેમ તે લોહીથી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३८३ तथा-सम्यक्त्वशुद्धयर्थ कर्मक्षयार्थं च प्रतिमापूजने प्रवृत्तस्य जीवस्य षट्कायोपमर्दनसाध्यपूजया ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणो वृद्धौ सत्यां सम्यक्त्वस्य केवलि प्रज्ञप्तधर्मस्याऽपि प्राप्तिःकालत्रयेऽपि न संभवति किं पुनः कर्मक्षयाशा __ सम्यक्त्वमात्मनः क्षायोपशमिको भावः । प्रतिमा तु न क्षयोपशमस्वरूपा, न चापि क्षयोपशमहेतुः, ज्ञानावरणीयदर्शनमोहनीयकर्मनिर्जराजनकत्वाभावात् , देशतः कर्मक्षयो हि निर्जरा तां प्रति तपस एव कारणत्वात् । उक्त चोत्तराध्ययनमत्रेप्रकार सम्यक्त्व की शुद्धि अथवा कमों का विनाश प्रतिमापूजनसे नहीं होता है, प्रत्युत जिस प्रकार वह रुधिरयुक्त वस्त्ररुधिर से साफ किये जाने पर अधिक मलिन हो जाता है उसी प्रकार षटूकाय की विराधना साध्य इस प्रतिमापूजन में लवलीन जीव भी ज्ञानावरणीय और दर्शन मोहनीय कर्म की वृद्धि करता हआ अधिकाधिक मलिन होता रहता है वह कभी भी इनकी वृद्धिमें सम्यक्त्व और केवलि प्रज्ञप्त धर्म का पाने वाला नहीं बन सकता है। इसलिये कर्मों के क्षय करने की आशा से प्रतिमापूजन में लवलीन मनुष्य अपने कर्मों का इस कार्यसे क्षय करता है यह एक दुराशामात्र है अरे ! जब इस कार्य से जीव सम्यक्त्व और केवलिप्रज्ञप्त धर्म तक के भी लाभ से सदा वंचित रहता है तो उससे फिर कम क्षय मानना यह कोरी कल्पना मात्र ही है। सम्यक्त्व यह जीव का क्षायोपशमिक भाव है । प्रतिमा न क्षयोपशम स्वरूप है और न उस क्षयोपशम में कारण रूप ही है । कारण कि इस से ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म की निर्जरा नहीं होती है । कर्मों का ખરડાયેલું વસ્ત્ર લેહીવડે સાફ કરવાથી મલિન થઈ જાય છે તેમજ પકાયની વિરાધના સાધ્ય આ પ્રતિમાપૂજનમાં તલ્લીન થયેલે જીવ પણ જ્ઞાનાવરણીય દર્શન મેહનીય કર્મની વૃદ્ધિ કરતે કરતે વધારે વધારે મલિન થતું જાય છે. તે કઈ પણ સમયે એમની વૃદ્ધિમાં સમ્યક્ત્વ અને કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મને મેળવી શકનાર થઈ શકતું નથી. એટલા માટે કર્મોને ક્ષય કરવાની આશાથી પ્રતિમા પૂજનમાં તદલીન માણસ પિતાના કર્મોને આ કાર્ય ( પ્રતિમાપૂજન) થી ક્ષય કરવા માંગે છે તે ફકત દુરાશા માત્ર છે. જ્યારે આ કાર્યથી જીવ સમ્યકૃત્વ અને કેવલિપ્રજ્ઞસ ધર્મના લાભથી પણ સદા દૂર રહે છે, ત્યારે તેનાથી કમર ક્ષયની આશા રાખવી તે ખોટી કલ્પના માત્ર જ છે. સમ્યક્ત્વ જીવને ક્ષપથમિક ભાવ છે. હવે ન તો પ્રતિમા ક્ષપશમ સ્વરૂપ છે અને ન તે ક્ષયે. પશમમાં કારણ રૂપે છે. કેમકે એનાથી જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનમોહનીય श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ __ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे __"भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ ।” (अ ३०, गा ६) तत्त्वार्थसूत्रेऽपि " तपसा निर्जरा च" (अ० ९ सू० ४) अत्र चकारः संवरसमुच्चयार्थः । समितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः संवरो भवति, तपसा तु निर्जरा संवरोऽकि चेति भावः सम्यक्त्वं नाम सम्यग्दर्शनं, तच्च स्थानाङ्गसूत्रम्- (स्था० २उ० १) द्विविधं प्रोक्तं । निसर्गसम्यग्दर्शनम् अभिगमसम्यग्दर्शनं चेति । निसर्गतः स्वभावतः-न परोपदेशतो यदुत्पद्यते, तनिसर्गसम्पग्दर्शनम् । अभिगमात् - सद्गुरूपदेशतो यदुत्पद्यते, तदभिगम. सम्यग्दर्शनम् । एक देश क्षय होना निर्जरा है । इस निर्जरा के प्रति कारणता तो तप में बतलाई गई है। देखो उत्तराध्ययन सूत्र में यही बात कही है भधकोडी संचियं कम्मं तपसा निजरिज्जइ" करोडों भवों में संचित कर्मों की जीव तप से निर्जरा कर देता है। तत्वार्थ सूत्र में भी " तपसा निर्जरा च" इस सूत्र द्वारा यही बात कही गई है-तप से निर्जरा और संवर दोनों होते हैं । सूत्रस्थ " च " शब्द से संवर का ग्रहण हुआ है। भावार्थ-इसका यही है कि पांच समिति, ३ गुप्ति, १० यतिधर्म १२, अनुप्रेक्षा, २२ परीषहों का जीतना एवं ५ प्रकार का चारित्र पालनाइनसे संवर होता है और तप से संवर एवं निर्जरा दोनों ही होते हैं। स्थानाङ्गसूत्र में सम्मग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-१ निसर्ग કર્મની નિર્જરા થઈ શકે તેમ નથી. કર્મોના એકદેશનો ક્ષય થ તે નિરા પ્રત્યે કારણુતા તો તપમાં બતાવવામાં આવી છે, જુઓ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ જ વાત સ્પષ્ટ કરી છે – “भवकोडी संचियं कम्मं तपसा निज्जरिज्जइ" शेड भवामा सथित भनी नि। १. तपथी ४श नां छे. तत्वाथ सूत्रमा ५७ " तपसा निर्जग च" म सूत्र बात अपामा मापी छ , तपथी नि। તેમજ સંવર બંને થાય છે. “સૂત્રમાં આવેલ “શબ્દથી સંવરનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. लावार्थ-मानी मा प्रमाणे छ , पांय समिति, 3 शुसि, १० યતિધર્મ, ૧૨ અનુપ્રેક્ષા, ૨૨ પરીષહને જીતવા અને ૫ પ્રકારના ચારિત્રનું પાલન કરવું આ બધા થી સંવર થાય છે. અને તપથી સંવર અને નિરા બંને થાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રમાં સમ્યગ્દર્શન બે પ્રકારનું બતાવવામાં આવ્યું श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचा केचित्तु--अत्राभिगमशब्दार्थों निमित्तमपि, तच्च प्रतिमादि इति वदन्ति, तन्मोहनीयकर्मोदयविलसितम् -- अभिगमसम्यग्दर्शने हि प्रतिमानिमित्तकत्वं न संभवति श्रवणादिना क्षयोपशमहेतोरेव सद्गुरूपदेशस्यात्राभिगमन और दूसरा अभिगम । जो सम्यग्दर्शन जीवों को स्वभाव से ही होता है। सद्गुरु के उपदेश से जो जीव को प्राप्त होता है वह अभिगम सम्यग्दर्शन है । निसर्ग और अभिगम में अन्तरंग कारणदर्शन मोहनीय कर्म का क्षयोपशम आदि समान हैं परन्तु इसके होने पर भी जो जीव को सद्गुरु के उपदेश से प्राप्त होता है वह अभिगम और जो इसके विना प्राप्त होता है वह निसर्ग सम्यग्दर्शन है कोई २ व्यक्ति अभिगम शब्द का अर्थ निमित्त परक भी करते हैं और वह निमित्त "प्रतिमा आदि हैं " ऐसा मानते हैं। परन्तु यह उनका कथन केवल मोह कर्म का ही विलास है क्यों कि अभिगम सम्यग्दर्शन में प्रतिमा रूप निमित्त कला संभवित नहीं होती है-वहां तो श्रवण आदि से दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम के कारणरूप सद्गुण के उपदेश का ही अभिगम शब्द से ग्रहण हुआ है। यदि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में वह कारण होता तो उस का ग्रहण निमित्तरूप से होता परन्तु ऐसा तो होता नहीं है-कारण कि वह अचेतन है उस से प्रवचन के अर्थ का उपदेश होता नहीं है। प्रवचन के अर्थ के उपदेश सुनेविना श्रोता. ओं को प्रवचन का अर्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ? अर्थज्ञान हुए विना છે. ૧ નિસર્ગ અને ૨ અભિગમ. સદ્દગુરુના ઉપદેશથી નહિ પણ જીવને સ્વભાવથી જ જે સમ્યગ્દર્શન થાય છે તે નિસર્ગ સમ્યગ્દર્શન છે. સદગુરુના ઉપદેશથી જે જીવને સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત થાય છે તે અભિગમ સમ્યગ્દર્શન છે. નિસર્ગ અને અભિગમમાં અંતરંગ કારણ દર્શનમેહનીય કમને ક્ષયોપશમ વગેરે સમાન જ છે, પણ એના હોવા છતાંય જીવને જે સદ્દગુરુના ઉપદેશથી મળે છે તે અભિગમ અને જે એના વગર મળે તે નિસર્ગ સમ્યગ્દર્શન છે. કેટલીક વ્યક્તિઓ અભિગમ શબ્દનો અર્થ નિમિત્ત પરક પણ કરે છે અને તે નિમિત્ત “પ્રતિમા વગેરે છે” એવું માને છે. પણ આવું કથન તેમના ફક્ત મહ કર્મનો જ વિલાસ છે. કેમકે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં પ્રતિમા રૂપ નિમિતકતા સંભવિત થઈ શકે તેમ નથી. ત્યાં તે શ્રવણ વગેરેથી દશમેહનીય કર્મના ક્ષપશમના કારણરૂપ સદ્ગુણના ઉપદેશનું જ અભિગમ શબ્દથી ગ્રહણ થયું છે. જે સમ્યગ્દશનની ઉત્પત્તિમાં તે કારણે હેત તો તેનું ગ્રહણ નિમિત્ત રૂપથી થાત પણ આવું થતું નથી, કેમકે તે અચેતન છે. તેનાથી પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ થઈ શકતો નથી. પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे शब्देन ग्रहणात् सम्यक्त्वं हि तत्वार्थश्रद्धानरूपं, तच्च प्रवचनार्थज्ञानादेव, प्रवचनार्थज्ञानं च निर्जरामूलकं, निर्जरा च विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायरूपतपोविशेषेभ्यः, तत्र च सद्गुरूपदेशः कारणं, न तु प्रतिमा। सो हि सद्गुरुवत् प्रवचनार्थमुपदेष्टुमसमर्था, तस्या जडत्वात् , । नापि सा निर्जराहेतुः, विनयादितपोरूपकर्मा की निर्जरा नहीं हो सकती है। निर्जरा के अभाव में दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय उपशम आदि रूप सम्यक्त्व की उत्पत्ति संभवित नहीं है। अतः अभिगम सम्यग्दर्शन में सद्गुरु का उपदेश ही निमित्त माना गया है और उसीका ग्रहण वहां पर उस शब्द से हुआ है प्रतिमा का नहीं-इसी का खुलाशा " सम्यक्त्वं हि तत्वार्थश्रद्धानरूपं, तच प्रवचनार्थज्ञानादेव, प्रवचनार्थज्ञानं च निर्जरामूलकं - निर्जरा च विनय वैयावृत्यस्वाध्यायरूपतपोविशेषेभ्यः, तत्र च सद्गुरूपदेशः कारण न तु प्रतिमा" अर्थ इन पंक्तियों में लिखा गया है। तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। वह श्रद्धान प्रवचन के अर्थज्ञान से ही होता है और उस अर्थज्ञानका मूल कारण निर्जरा मानी गई है अपना प्रतिपक्षी कर्मों की निर्जरा हुए विना तत्त्वज्ञान हो ही नहीं सकता है विनय, वैयावृत्य, स्वाध्यायरूपतप विशेष निर्जरा के कारण हैं तप की आरा धना में सद्गुरू का उपदेश कारण है इस प्रकार परम्परा संबंध से अभिगम सम्यग्दर्शन में सद्गुरु का उपदेश ही निमित्तरूप से गृहीत हुआ है प्रतिमा नहीं-कारण वह सद्गुरु के उपदेश की तरह प्रवचन શ્રોતાઓને પ્રવચનનું અર્થજ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે ? અર્થજ્ઞાન વગર કમેની નિર્જરા પણ થઈ શકતી નથી. નિર્જરા વિના દર્શન મેહનીય કર્મના ક્ષય ઉપશમ વગેરે રૂપ સમ્યક્ત્વની ઉત્પત્તિ સંભવિત નથી, એટલા માટે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં સદૂગુરુને ઉપદેશ જ નિમિત્તરૂપે માનવામાં આવ્યું છે. અને તે શબ્દથી તેનું જ ગ્રહણ થયું છે. પ્રતિમાનું નહિ. આનું જ સ્પષ્ટીકરણ " सम्यक्त्व हि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप, तच्च प्रवचनार्थ ज्ञानादेव, प्रवचनार्थ ज्ञान निर्जरामलक निर्जरा च विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायरूपतपोविशेषेभ्यः, तत्र च सद्गुरूपदेशः कारण न तु प्रतिमा ” माने। मथ मा प्रभारी छे, ते તરવાર્થનું શ્રદ્ધાન કરવું તે સમ્યક્ત્વ છે. તે શ્રદ્ધાના પ્રવચના અર્થજ્ઞાનનું મૂળ કારણે નિર્જરા જ માનવામાં આવે છે. પોતાના પ્રતિપક્ષી કર્મોની નિર્જરા થયા વગર તત્ત્વજ્ઞાન થઈ જ શકતું નથી. વિનય, વૈયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય રૂપ તપ વિશેષ નિર્જરાના કારણ છે. તપની આરાધનામાં સદ્દગુરુનો ઉપદેશ કારણ છે. આ રીતે પરંપરા સંબંધથી અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં સદ્દગુરુને ઉપદેશ જ નિમિત્ત રૂપમાં ગૃહીત થયે છે. નહિકે પ્રતિમા, કેમકે તે સદગુરુના ઉપદેશની જેમ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा वाभावातू , कथं तहि सम्यक्त्वं प्रतिमायाः संभवति ? कथमपि नहि । अत एवो. पदेशस्य सम्यक्त्वं प्रति कारणत्वं प्रदर्शयन् भगवानवादीत्-उत्तराध्ययनमूत्र(अ० २८ गा० १५) " तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ इति । छाया-तथ्यानां तु भावानां सद्भाव उपदेशनम् । भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥ जीवाजीवादिपदार्थानां सद्भावे यद् उपदेशनं-गुरोरुपदेशः, तद् भावेनअन्तःकरणेन श्रद्दधतः मोहनीयकर्मणः क्षयेण क्षयोपशमेन वा याऽभिरुचिरुत्पद्यते, तत् सम्यक्त्व तीर्थकरैर्व्याख्यातम् । के अर्थ का उपदेश करने में अचेतन होने से सर्वथा असमर्थ है कर्मों की निर्जरा में भी वह हेतु रूप नही होती है-कारण कि कर्मों की निर्जरा के हेतु तो विनयादिक तप ही माने गये हैं, प्रतिमा विनयादि तप स्वरूप नहीं है। अतः प्रतिमा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारणता किसी भी प्रकार संभवित नही होती है-उत्तराध्ययन सूत्र में सद्गुरु के उपदेश को सम्यक्त्व के प्रति कारण प्रकट करते हुए सिद्धान्तकार कहते हैं कि-तहियाणं तु भावा णं सम्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ इति ॥ जीव और अजीव आदि पदार्थों का सद्गुरु ने जो यथावस्थित स्वरूप प्रकट किया है, उसका उसीरूप से अन्तः करण से श्रद्धान करने वाले प्राणी के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ કરવામાં અચેતન લેવા બદલ સંપૂર્ણ પણે અસમર્થ ? છે. કારણ કે કર્મોની નિજાના હેતુ તે વિનય વગેરે તપજ માનવામાં આવ્યા છે. પ્રતિમા વિનય વગેરે તપ સ્વરૂપ નથી, એટલા માટે પ્રતિમામાં સમ્યકત્વની ઉત્પત્તિમાં કારણતા કેઈ પણ રીતે સંભવી શકે તેમ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં સદ્દગુરૂના ઉપદેશને સમ્યકત્વના પ્રતિ કારણ બતાવતાં સિદ્ધાન્તકાર કહે છે– तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहतस्स, सम्मत्तं त वियाहिय ॥ इति ॥ જીવ અને અજીવ વગેરે પદાર્થોનું જે યથાવસ્થિત સ્વરૂપ સદૂગુરૂએ પ્રકટ કર્યું છે તેનું તે રૂપથી અંત:કરણથી શ્રદ્ધા ન કરનારા પ્રાણીના દર્શન મેહનીય કર્મના ક્ષય કે ક્ષપશમથી જે રૂચિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું નામ જ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे यदि प्रतिमाऽपि सम्यक्त्वलाभे निमित्तं स्यात्तर्हि भगवता स्थानाङ्गमगे प्रतिमानिमित्तकत्वेन सम्यग्दर्शनस्य तृतीयभेदोऽपि वाच्यः, तस्यानुक्तत्वात् प्रतिमायाः सम्यक्त्वलाभे निमित्तत्वं नास्तीति बोध्यम् । किं च प्राणातिपातसाध्यायाः प्रतिमापूजायाः सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वं वदन्तः स्व. दुर्गतिं न पश्यन्ति मोहान्धाः, स्थानाङ्गसूत्रे हि प्राणातिपातस्य दुर्गतिहेतुत्वं प्रदर्शितम्___पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुग्गइं गच्छति । तं तहा-पाणाइवाएणं, मुसावाएणं, अदिन्नादाणेणं, मेहुणेणं, परिग्गहेणं " इति । (स्था. ५ ठा. १ उ. ) से जो रुचि उत्पन्न होती है उसी का नाम सम्यग्दर्शन है ऐसा तीर्थकर प्रभुने कहा है यदि सम्यक्त्व की प्राप्ति में प्रतिमा निमित्त होती तो स्थानाङ्ग सूत्र में जो " दोहिं ठोणेहिं आया केवलि पन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए " ऐसा कहा है वहां यदि सम्यक्त्व के लाभ में प्रतिमा भी निमित्त होती तो उसके निमित्त होने से दो स्थानों की जगह सम्यक्त्व की प्राप्ति में तीन स्थानों का कथन सूत्रकार को करना चाहिये था परन्तु वहां दो स्थानों के अतिरिक्त तृतीयस्थान का कथन हुआ नहीं है, अतः इससे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि सम्यक्त्व के लाभ में प्रतिमा निमित्त नहीं है। फिर भी प्राणातिपात द्वारा साध्य प्रतिमा पूजन को मोह के आवेश से ऊंधे हुए व्यक्ति सम्यक्त्व की शुद्धि का कारण बतलाते हुए अपनी दुर्गति का कुछ भी ख्याल नहीं करते हैं यही एक बड़े आश्चर्य की बात है देखो प्राणातिपात को स्थानाङ्ग सूत्र में दुर्गति સમ્યગ્ગદર્શન છે, આમ તીર્થંકર પ્રભુએ કહ્યું છે. જે સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમાં निमित्त ३ डात तो स्थानांग-सूत्रमा “ दोहि ठाणेहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए " २ प्रमाण यु छ, त्यो सभ्यत्वना सालमा પ્રતિમા પણ નિમિત્ત થઈ શક્ત તો તેને નિમિત્ત રૂપે થવા બદલ બે સ્થાનોની જગ્યાએ સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમાં ત્રણ સ્થાનેનું કથન સૂત્રકારે કરવું જોઈતું હતું, પણ ત્યાં તો બે સ્થાને સિવાય ત્રીજા સ્થાનનું કથન થયું જ નથી. એથી આ સિદ્ધાન્તની ખાત્રી થાય છે કે સમ્યકત્વના લાભમાં પ્રતિમા નિમિત્ત નથી. છતાં યે પ્રાણાતિપાત વડે સાધ્ય પ્રતિમા પૂજનને અજ્ઞાનની નિદ્રામાં પડેલી વ્યક્તિઓ સમ્યકત્વની શુદ્ધિનું કારણ બતાવતી પિતાની દુરવસ્થા-તરફ સહેજ પણ જેતી નથી, તે એક બહુ નવાઈ જેવી વાત છે. જુઓ પ્રાણાતિપાતને स्थानांगसूत्रमा हुतिनुं० २५ मामi मायुं छे-(पचहि ठाणेहि श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा किं च-यथा लोके मुग्धानां सुवर्णमात्रसाम्येना शुद्धस्वर्णेऽपि प्रवृत्तिमवलोक्य शुद्धाशुद्धपरीक्षणाय विचक्षणैः कपच्छेदतापा आद्रियन्ते, तथाऽत्रापि परीक्षणीये श्रुतचारित्रलक्षणे धर्मे कपादयः समादरणीया भवन्ति । माणिवधादीनां पापस्थानानां यस्तु शास्त्रे प्रतिषेधः, तथा स्वाध्यायध्यानादीनां यश्च तत्र विधिः स धर्मकषः । प्राणिवधसंपर्कवति पूजने तु धर्मत्वबुद्धिर्मोहवशादेव भवति, शास्त्रे प्राणिवधस्य प्रतिषेधात् । अतस्तत्र नास्ति कषशुद्धिः। का ही कारण कहा है "पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुग्गइं गच्छंति-तं जहा-पाणाइवाएणं, भुसावाएणं, अदिनादाणेणं, मेहुणेणं, परिग्गहेणं इति । (स्था- ५ ठा- १ उ.) इन पांचो स्थानों से जीव दुर्गति के पात्र बनते हैं - प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्तादान से मैथुन से और परिग्रह से। किञ्च-लोक में जिस में जिस प्रकार भोलेभाले व्यक्तियों की सुवर्णमात्र की समानता से अशुद्ध स्वर्ण में भी यह सच्चा सुवर्ण है इस प्रकारकी प्रवृत्ति को देखकर सुवर्णपरीक्षक जन उसके सम्यक्त्व और असम्यत्क्व परीक्षाके लिये कष छेद और तप रूप उपायों का अवलम्बन करते हैं उसी प्रकार परीक्षणीय इस श्रुतचारित्ररूप धर्म की परीक्षा के लिये सूत्रकारों ने कषादिक परीक्षा के साधनों का उपयोग किया है प्राणिवधादिक पापस्थानों का शास्त्र में जो निषेध का विधान हुआ है तथा स्वाध्याय एवं अध्ययन आदि का जो वहां पर विधान किया गया है यही धर्म का कष है पूजन में यह धर्म कष नहीं है क्यों कि वह प्राणि वध के संपर्क से दूषित है-अतः फिर भी जो उसमें धर्म जीवा दुग्गई गच्छंति-तजहा-पाणाइवाएण, मुसावाएण', अदिन्नादाणेण', मेहणेण परिग्गहेण इति ) ( स्था. ५, ठा. १ उ. ) पांच स्थानाथी . તિને એગ્ય ઠરે છે-પ્રાણાતિપાતથી, મૃષાવાદથી, અદત્તાદાનથી, મિથુનથી અને પરિગ્રહથી. અને બીજું પણ કે લેકમાં જેમ ભેળા માણસની સુવર્ણ માત્રની સમાનતાથી અશુદ્ધ સુવર્ણમાં પણ “આ સેનું ખરું છે,” આ જાતની પ્રવૃત્તિ જોઈને સુવર્ણ પરીક્ષકો તેના ખરા-ખોટાની પરીક્ષા માટે કષ, છેદ અને તાપ રૂપ ઉપાયને આસરે લે છે, તેમજ પરીક્ષણીય આ શ્રતચરિત્ર રૂપ ધર્મની પરીક્ષા માટે સૂત્રકારોએ કષ વગેરે પરીક્ષાના સાધનોનો ઉપયોગ કર્યો છે. પાણિ વધ વગેરે પાપસ્થાનનું શાસ્ત્રમાં જે નિષેધ રૂ૫ વિધાન થયું છે તેમજ સ્વાધ્યાય અને અધ્યયન વગેરેનું જે ત્યાં વિધાન કરવામાં આવ્યું છે તે જ ધર્મની કટી-કષ છે. પૂજનમાં આ ધર્મ કષ નથી કેમકે તે પ્રાણિવધના સંપર્કથી દૂષિત છે. છતાં ય તેમાં ધર્મની બુદ્ધિ રાખવામાં આવે છે તે ફક્ત श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ज्ञाताधर्मकथासूत्रे यत्र विधिः प्रतिषेधवेति द्वयं कदाचित् स्वरूपतो वैपरीत्यं न याति, अर्थात्स्वाध्यायध्यानादौ नियमतः प्रवृत्त्या विधिपरिशुद्धिः, तथा हिंसादौ नियमतो निवृत्त्या प्रतिषेधपरिशुद्धिर्भवति, स धर्मच्छेद उच्यते । प्रतिमापूजायां तु नास्ति च्छेदशुद्धिः, तस्याः षट्कायोपमर्दनसाध्यत्वेन प्रतिषेधपरिशुद्धयभावात् । प्रवचने जीवाजीवादीनां तत्त्वानां यथावस्थितस्वरूपनिरूपणं मोक्षसाधक मित्येवं निश्चयस्तापशुद्धिः । यथा वह्नौ तापनेन सुवर्णस्य यथावस्थितस्वरूपाविर्भावः तथा-प्रवचनोक्ततत्त्वानुसन्धानेन धर्मस्य स्वरूपमाविर्भवति । अत्र प्रतिमापूजायां प्रवचनोक्तंसंवरनिर्जरातत्त्वलक्षणानाक्रान्तत्वान्नास्ति तापशुद्धिः । स्वकी बुद्धि होती है वह केवल मोहका ही आवेश है। प्राणिवध शास्त्र से निषिद्ध है । जहां पर विधि और प्रतिषेध ये दोनों कभी भी अपने स्वरूप से विपरीतपने को प्राप्त नहीं होते हैं वहां पर छेद से शुद्धि मानी जाती है जिस प्रकार स्वाध्याय और अध्ययन आदि शुभ कार्यों में नियम से शास्त्र में प्रवृत्ति प्रदर्शित की गई है और हिंसादि कार्यों से उसमें नियम से निवृत्ति कही गई है। प्रतिमा पूजन में यह छेद शुद्धि नहीं है। क्यों कि इसमें प्रतिषेध से परिशुद्धि का अभाव है इस को कारण यह है कि वह षट्काय के जीवों के घात से साध्यकार्य है। प्रवचन में जीव और अजीव आदि तत्त्वों के यथावस्थित स्वरूप का वर्णन ही मोक्षका साधक है इस प्रकार का निश्चय ही ताप शुद्धि है। जिस प्रकार अग्नि में तपाने से स्वर्ण का यथावस्थित स्वरूप प्रकट होता है। उसी प्रकार प्रवचन कथित तत्त्वों के अनुसन्धान से धर्म के स्वरूप का अविर्भाव होता है इस प्रतिमापूजन में धर्मतत्त्वके अविर्भाव करने અજ્ઞાનને જ ઊભરો છે. પ્રાણિ વધ શાસ્ત્રનિષિદ્ધ છે. જ્યાં વિધિ અને પ્રતિષેધ આ બને કઈ પણ વખતે પોતાના સ્વરૂપથી વિપરીતાવસ્થામાં પરિવર્તિત થતા નથી ત્યાં છેદથી શુદ્ધિ માનવામાં આવે છે. જેમ સ્વાધ્યાય અને અધ્યયન વગેરે શુભ કાર્યોમાં નિયમથી શાસ્ત્રમાં પ્રવૃત્તિ બતાવવામાં આવી છે અને હિંસા વગેરે કાર્યોથી તેમાં નિયમથી નિવૃત્તિ બતાવવામાં આવી છે. પ્રતિમા પૂજનમાં આ છેદ શુદ્ધિ નથી, કેમકે આમાં પ્રતિષેધથી પરિશુદ્ધિનો અભાવ છે. આનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે, તે ષકાયના જીવોના ઘાતથી સાધ્ય કાર્ય છે. પ્રવચનમાં જીવ અને અજીવ વગેરે તેના યથાવસ્થિત સ્વરૂપનું વર્ણન જ મોક્ષનું સાધન છે. આ જાતને નિશ્ચય જ તાપ શુદ્ધિ છે. જેમ અગ્નિમાં તપાવવાથી સોનાનું યથાવસ્થિત સ્વરૂપે પ્રગટ થાય છે, તેમજ પ્રવચન કથિત તના અનુસંધાનથી ધર્મના સ્વરૂપને આવિર્ભાવ થાય છે. આ પ્રતિમા પૂજનમાં ધર્મ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३९१ एभिः कषादिभिः परिशुद्धस्यैव धर्मत्वं संभवति तादृशस्यैव धर्मफलजनकत्वात् । यथा-आधाकर्मादिदोपदूषिताहारादिदाने धर्मबुद्धधा क्रियमाणे धर्मव्याघातः, यथा वा इन्द्रादिपूजादौ धर्म व्याघातः, तथैव धर्मबुद्धया प्रतिमापूजनेऽपि धर्मव्याघातः स्यात् तस्य जीवोपघातहेतुत्वात् । " प्रतिमापूजा - धर्म व्याघातवती, आगमोक्तन्यायनिराकृतत्वात्, अयोग्यप्रव्रज्यादानवत् इन्द्रादिपूजावद् वा " इत्याद्यनुमानेनापि प्रतिमापूजायां धर्मव्याघातो भवतीति विश्वसनीयम् । उक्तं च " की योग्यता तक भी नहीं है । कारण कि यह प्रवचन कथित संवर और निर्जरा तत्व के लक्षण से युक्त नहीं है- -अतः इसमें ताप शुद्धि भी नहीं है । इन कषादिकों द्वारा परिशुद्ध हुई वस्तु में ही धर्मता आती है और वही यथार्थ में धर्म के फलका प्रदाता होता है। प्रतिमापू जन में यह बात नहीं है अतः वह धर्मरूप नहीं है । किंच - धर्मबुद्धि से बनाये गये, परन्तु आधाकर्म आदिदोषों से दूषित ऐसे आहार के दान में तथा इन्द्र आदिकों का पूजन करने में जिस प्रकार धर्म का व्याघात माना गया है, उसी प्रकार धर्मबुद्धि से की गई प्रतिमा का पूजन में भी जीवों का घात होने से धर्म का व्याघात होता है । इसलिये आगम कथित सिद्धान्त के अनुसार यह प्रतिमापूजन उपादेय कोटि में नहीं आना है। फिर भी जो इसे करते हैं-कराते हैं-वे आगम कथित सिद्धान्त से सर्वथा बाह्य हैं - और धर्म का व्याघात कर તત્ત્વને આવિર્ભૂત કરવા સુધીની પણ ક્ષમતા નથી, કેમકે આ પ્રવચન કથિત સવર અને નિર્જરા તત્ત્વનાં લક્ષણથી યુક્ત નથી. એટલા માટે આમાં તાપ શુદ્ધિ પણ નથી. આ કષ વગેરે વડે પરિશુદ્ધ થયેલી વસ્તુમાં જ ધર્માંતા આવે છે અને તે જ સાચા સ્વરૂપમાં ધર્મોના ફળને આપનાર છે. પ્રતિમા પૂજનમાં આ વાત નથી એથી તે ધ રૂપ નથી. ધબુદ્ધિથી તૈયાર કરવામાં આવેલા, પણ આધાકમ વગેરે દોષો વડે કૃષિત એવા આહારના દાનમાં તેમજ ઇન્દ્ર વગેરેની પૂજા કરવામાં જેમ ધર્મોના વ્યાઘાત માનવામાં આવ્યે છે, તેમ જ ધબુદ્ધિ રાખીને કરવામાં આવેલા પ્રતિમા પૂજનમાં પણ જીવાના ઘાત હાવાથી ધર્મના વ્યાઘાત હોય છે. એટલા માટે આગમ કથિત સિદ્ધાન્ત મુજબ આ પ્રતિમા પૂજન ઉપાદેય કાટિમાં આવતું નથી. છતાં ચે જે આને કરે છે, કરાવે છે તેએ માગમ કથિત સિદ્ધાંતથી સર્વથા ખાદ્ય છે અને ધર્મના વ્યાઘાતક છે એથી અાગ્યને આપેલી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे " प्रव्रज्यादिविधाने च, शास्त्रोक्तन्यायबाधिते । द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो, धर्मव्याघात एव हि "॥ हारिभद्राष्टकम् यत्तु-जिनपतिमाया दर्शनं वन्दनं चावश्यकमेव साधूनामिति वन्दनाद्यकृत्वा भक्तपानं न कल्पते तेपामित्याहुस्तन्निर्मूलम्___ अहोरात्रकृत्येषु साधुकल्पेषु जिनमतिमादर्शनादेरनुक्तत्वात् । शृणु तावदहोरात्रकृत्यं साधूनाम्नेवाले हैं अतः अयोग्य को दीक्षा दान की तरह अथवा इन्द्रादिक के पूजन की तरह यह प्रतिमापूजन आगमोक्त न्याय से निराकृत होने से धर्म का व्याघात करनेवाला है ऐसा विश्वास करना चाहिये । तथा च अनुमानप्रयोगोऽयं-प्रतिमापूजा धर्मव्याघातवती आगमोक्तन्याय निराकृ तत्वात् अयोग्यप्रव्रज्यादानवत् इन्द्रादिपूजनवरा । इस अनुमान में दिया गया हेतु असिद्ध नहीं है क्यों कि " प्रव्रज्यादिविधाने च शस्त्रोक्तन्या. यबाधिते - द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि " दृष्टान्त में इस हेतु का इस श्लोक द्वारा कथित प्रकार से सद्भाव पाया ही जाता है।। जो यह कहा जाता है कि जिनप्रतिमा के दर्शन वन्दन किये विना माधुओं को आहार पानी करना कल्पनीय नहीं है-अतः उसका दर्शन वन्दन करना साधुओं के लिये आवश्यक है वह बिलकुल निर्मूल हैकारण कि दिनरात संबंधी जितने भी साधुओं के कल्प हैं उन में इस बात का कहीं भी कथन किया हुआ नहीं मिलता है-दिनरात संबंधी साधुओं के ये कृत्य हैंદીક્ષાની જેમ અથવા તે ઈદ્ર વગેરેની પૂજાની જેમ આ પ્રતિમાપૂજન આગમ કથિત ન્યાયથી નિરાકૃત લેવા બદલ ધમને નાશ કરનારું છે આમ માની જ सनस. “ तथा च अनुमानप्रयोगोऽय प्रतिमापूजा धर्मव्याधातवती आगमोक्तन्यायनिराकृतत्वात् अयोग्य-प्रव्रज्यादानवत् इन्द्रादिपूजनवद्वा । २in अनुमानमा मापेर उतु मसिद्ध नथी, ४२ ई-प्रव्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्तन्यायबाधिते -द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि । दृष्टांतभा हेतुनो भा Is વડે જે કથિત પ્રકાર છે તેને સદ્ભાવ મળે છે. જે એમ કહેવામાં આવે છે કે જીન પ્રતિમાના દર્શન કર્યા વગર સાધુએને આહાર પાણી કરવું યોગ્ય નથી. એથી તેના દર્શન વન્દન કરવા સાધુએના માટે આવશ્યક છે તે સાવ બેટી વાત છે. કેમકે દિવસ અને રાત્રિને લગતા સાધુઓને માટે જેટલા ક૯પ છે તેમાં આ વાતનું કથન કયાંયે નથી. દિવસ અને રાત્રિના સાધુઓના આ નીચે લખ્યા મુજબ કૃત્ય છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = -- - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचच ३९३ पढमं पोरिसि सज्झायं, बीए झाणं झियायए। । तइयाए भिवस्वायरियं, चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥ पढमं पोरिसि सज्झाय, बीए झाणं झियायए । तइयाए निद्दमोक्खं च, चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥ इति, (उत्तराध्ययनसूत्रे २६ अ.) किं च-सामायिकाद्यावश्यकेष्वपि प्रतिमादर्शनादेरनुक्तत्वाद् जिनाज्ञाया एव च धर्ममूलत्वात्तस्य धर्मत्वं न सिध्यति । ___ यत्तु-पुष्पादिसमभ्यर्चनलक्षणो द्रव्यस्तवः साधुना हेय एव श्रावकेण तु उपादेयोऽपि तथा चाह-भाष्यकार: अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणो दव्वत्थए कूवदिटुंतो ( भाष्यकारः ४२) पढम पोरिसि सज्झायं बीए झाणं झियायए । तइयाए भिक्खायरियं चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥ पढमं पोरिसि सज्झायं बीए झाणं झियायए। तइयाए निमोक्खं च च उत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥ (उतरा-सूत्र २६ अ-) अर्थस्पष्ट है । इसी प्रकार साधुओं के जो सामायिक आदि आवश्यक कृत्य हैं, उनमें भी प्रतिमा के दर्शन आदि करना नहीं कहा है। धर्म का मूल तो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा की आराधना करने में है इसलिये दर्शन वगैरह ये धर्म के मूल नहीं हैं। भाष्यकारने जोइस गाथा द्वारा " अकसिण पवत्तगाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसार पयणुकरणो दव्यथए कूवदिटुंतो" (भाष्यकार ४२) यह कहा है कि पढमे पोरिसि सज्झायं, बीए झाण झियायए । तइयाए भिक्खायरिय, चउथिए पुणो वि सज्ज्ञाय॥ पढमे पोरिसि सज्झाय, बीए झाण झियायए। तइयाए निमोक्खंच, चउथिए पुणो वि सज्झाय ।। (उत्तराव्सूत्र-२६ अ.) અર્થ સરળ જ છે. આ રીતે સાધુઓના જે સામાયિક વગેરે આવશ્યક કૃત્ય છે, તેમનામાં પણ પ્રતિમાના દર્શન વગેરે કરવાની વાત કહી નથી. ધર્મનું મૂળ તે જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને આરાધવામાં આવે છે માટે દર્શન पोरे २१५i भूज नथी. माज्यारे ने PAL था 43-( अकसिण पवत्तगाण विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणो व्वत्थए श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्त्रे अकृत्स्नप्रवर्तकानां अकृत्स्नसंयममवृत्तिमतां विरताविरतानां देशविरतीनां श्रावकाणाम् एष द्रव्यस्तवः खलु युक्त एव । किंभूतोऽयमित्याह-संसार प्रतनुकरणः=संसारक्षयकारकः इत्यर्थः । ननु द्रव्यस्तवो हेयः प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणां युक्तः ? | इत्याशङ्क्याह - कूपदृष्टान्त इति - यथा लोके केsपि जलाभावतस्तृष्णाकुलाः पिपासापनोदनाद्यर्थं कूपं खनन्ति ते कूपनका मृत्तिकाकर्दमादिभिश्च मलिना भवन्ति, पश्चात् तदुद्भवेन जलेन तेषां तृष्णायास्तथा मृत्कर्दममलस्य च नाशो भवति तदनन्तरमपि ते तदन्ये च श्रवणों के लिये उपादेय भी पुष्प आदिकों द्वारा भगवान की पूजा स्वरूप द्रव्यस्तव साधुओं के लिये हेय ही है । क्यों कि साधु सर्व आरंभ और परिग्रह के सर्वथा त्यागी हैं- श्रावक नहीं वे देश विरति संपन्न हैं । अतः उनके लिये द्रव्यस्तव संसार का क्षय कारक माना गया है कूप का दृष्टान्त देकर भाष्यकार ने इस शंका का परिहार किया है कि जिस प्रकार जल के अभाव से पिपासा को दूर करने के लिये कोई २ मनुष्य कूप को खोदते हैं और उसे खोदते समय मिट्टी और कीचड़ से मलिन भी हो जाते हैं परन्तु पश्चात् उस कूप में निकले हुए जल से वे उस कीचड़ और लगी हुई मिट्टी को साफ कर देते हैं और समय २ पर अपनी पिपासा की भी शांति करते रहते हैं। दूसरे और भी लोक उससे लाभ उठाते हैं । इस प्रकार उस जलयुक्त कुएँ से खोदने वाले व्यक्तियों को तथा और भी अन्यजनों को समय २ पर अनेक प्रकार से लाभ होता रहता है। ठीक इसी तरह इस द्रव्यस्तव में जो कि संयम ३९४ कूवदितो | ) ( भाष्यकार ४२ ) २ प्रमाणे उद्धुं छे श्रावाने भाटे उमाદેય હોવા છતાં પુષ્પ વગેરે વડે ભગવાનની પૂજા સ્વરૂપ દ્રવ્યસ્તવ સાધુએના માટે તે ત્યાજ્ય જ છે, કેમકે સાધુ સ` આર'ભ અને પરિગ્રહની સ’પૂર્ણપણે ત્યાગી હાય છે. શ્રાવક નથી, તેએ દેશ વિરતિ સપન્ન છે. એટલા માટે તેમને સામે રાખીને વિચાર કરીએ તે દ્રવ્યસ્તવસસારને ક્ષય કરનાર માનવામાં આવ્યેા છે. કૃપનું દૃષ્ટાંત આપીને ભાષ્યકારે આ શકાને દૂર કરી છે કે જેમ પાણીના અભાવને લીધે પીડાઇને તરસ મટાડવા માટે કેટલાંક માણસા વાવ ખાડે છે અને તે વખતે તેઓ માટી અને કાદવથી ખરડાઈં જાય છે, પણ ત્યાર પછી વાવમાંથી નીકળતા પાણીથી જ તે કીચડ તેમજ શરીરે ચાટેલી માટીને સાફ કરી નાખે છે અને વખતેા વખત પેાતાની તરસ પણ મટાડે છે. બીજા પણ કેટલાક લેાકેા તેનાથી લાભ મેળવે છે. આ રીતે તે પાણી ભરેલી વાવથી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३९५ लोका जलेन सुखिनो भवन्ति एवं द्रव्यस्तवे यद्यप्यसंयमो भवति तथापि तत एव सा परिणामशुद्धिर्भवति, या तद् असंयमोपार्जितमन्यच्च निरवशेष क्षपयति इति । " तस्माद्विरताविरतैः श्रावकैरेष द्रव्यस्तवः कर्तव्यः । शुभानुबन्धी प्रभूतनिर्जराफल इति कृखा" इत्युक्तम्तदसत्-अत्र हि कूपदृष्टान्तो न संघटते कूपखननेन जलमुत्पद्यते इति सकल लोकप्रत्यक्षं, किन्तु षट्कायवधं कुर्वतः कारयतश्च धर्ममूलभूताया दयाया एव की रक्षा नहीं होती है, तो भी यह कर्ता को परिणामों में शुद्धि का हेतु होता है। इससे कर्त्ता उस द्रव्यस्तव के करने में उद्भूत असंयम द्वारा उपार्जित पापों का सम्पूर्णरूप से विनाश कर देता है । इसलिये विरताविरत ( एकदेश संयम की आराधना करने वाले पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकों द्वारा यह द्रव्यस्तव कर्तव्य कोटि में आने से उपादेय है। कारण कि यह उनके लिये शुभानुबंधी और कर्मों की अधिक निर्जरा. रूप फल का प्रदाता होता है" यह सब भाष्यकार का कथन ठीक नहीं है। कारण कि उन्हों ने जो कूप का दृष्टान्त देकर इस विषय की पुष्टि करनी चाहिये, उससे प्रकृत विषय की वास्तविक पुष्टि नहीं होती है। यह तो प्रत्येक लौकिक जन के प्रत्यक्ष अनुभव में आने जैसी बात है कि कूप के खोदने से जल निकलता है इस में तो विवाद की कोई जरूरत ही नहीं है, किन्तु प्रतिमा की पूजा करने और करानेवालों से षट्ખોદનાર લોકોને તેમજ બીજા પણ ઘણા માણસોને વખતો વખત ઘણી રીતે લાભ થતા રહે છે. ઠીક આ પ્રમાણે જ દ્રવ્યસ્તવમાં જો કે સંયમની રક્ષા થતી નથી, છતાં ય તે કર્તાના માટે પરિણામમાં શુદ્ધિનું કારણ હોય છે. તેનાથી કર્તા તે દ્રવ્યસ્તવના કરવામાં ઉદ્ભૂત અસંયમ વડે મેળવેલા પાપને સંપૂર્ણ પણે વિનાશ કરી નાખે છે. એથી વિરતાવિરત (એકદેશ સંયમની આરાધના કરનાર પંચમ ગુણસ્થાનવતી ) શ્રાવકો વડે આ દ્રવ્યસ્તવ કર્તવ્ય કટિમાં આવવાથી ઉપાદેય છે. કારણ કે તે તેમના માટે શુભાનુબંધી અને કર્મોની વધારે નિજ રા ફળને આપનાર છે. ભાષ્યકારનું આ બધું કથન એગ્ય નથી, કારણ કે તેઓએ જે વાવનું દૃષ્ટાંત આપીને આ વિષયની પુષ્ટિ કરવા પ્રયત્ન કર્યો છે, તેનાથી પ્રકૃત વિષયની વાસ્તવિક રૂપમાં પુષ્ટિ થતી જોવામાં આવતી નથી. દરેકે દરેક માણસના માટે આ તે એક પ્રત્યક્ષ અનુભવ કરી શકાય તેવી હકીકત છે કે વાવ ખેદવાથી પાણી નીકળે છે, આમાં તે ચર્ચાની કઈ વાત જ ઊભી થતી નથી, પણ પ્રતિમાની પૂજા કરનાર અને કરાવનારાઓથી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे काय के जीवों की रक्षा नहीं हो सकती है-उनसे उनकी विराधना होती है। ऐसी परिस्थिति में धर्म के मूलभूत सिद्धान्त काही जब वहां अभाव है तब उस पूजन कार्य के उनके परिणामों में शुद्धि मानना यह कथन शास्त्र से विरुद्ध और प्रत्यक्ष आदि समस्त प्रमाणों से बाधित होता हुआ किसी भी समझदार व्यक्ति को मान्य नहीं हो सकता है प्रतिमा पूजनके पक्षपाती जो इस प्रकार अपने पक्षमें तर्क करते हैं कि सम्यक् स्नात्वोचिते काले संस्नाप्यच जिनान् क्रमात् । पुष्पाहारस्तुतिभिश्च पूजयेदिति तविधिः॥ तथा-जिनप्रभसूरिकृतपूजाविधौ-सरससुरहिचंदणेणं........ अंगेसु पूअं काऊग पंचगकुसुमेहिं गंधवासे हिं च पूएइ सद्वर्गः सुगंधिभिः सरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरसहितदलैः प्रत्यत्रैश्च प्रकीर्णे नाप्रकारग्रथितैर्वा पुष्पैः पूजयेत्" इति-तथा-कुसुमक्खयगंधपईवधूयनेवेजफलजलेहिं पुणो अट्ठविहकम्मदलनी अळुवयारा हवइ पूया" इति किञ्च जिनभवनं जिनविम्बं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ ષકાય છની રક્ષા થઈ શકતી નથી, તે કાર્યથી તે તેમની વિરાધના જ હોય છે. આવી પરિસ્થિતિમાં ધર્મના મૂળભૂત સિદ્ધાન્તને જ જ્યારે અભાવ છે ત્યારે તે પૂજા રૂપ કાર્યથી તેમના પરિણામમાં શુદ્ધિ માનવી આ વાત શારાથી વિરૂદ્ધ અને પ્રત્યક્ષ વગેરે બીજા બધા પ્રમાણેથી બાધિત થતી કઈ પણ સમજુ માણસના માટે તે માન્ય થઈ શકે તેમ નથી. પ્રતિમા પૂજનની તરફદારી કરનારા પિતાની વાતને પુષ્ટ કરવા માટે જે આ જાતની બેટી દલીલે સામે મૂકે છે કે – सम्यक् स्नात्वोचिते काले संस्नाप्य च जिनान् क्रमातू । पुष्पाहारस्तुतिभिश्च पूजयेदिति तद्विधिः ॥ तथा-जिनप्रभसूरिकृतपूजाविधौ-सरस-सुरहिचंदणेण अंगेसु पू काउण पंचगकुसुमेहिं गंधवासेहिं य पूएइ सवर्णैः सुरांधिभिः सरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरसहित. दलैः प्रत्यप्रैश्च प्रकीर्णैर्नानाप्रकारप्रथितैर्वा पुष्पैः पूजयेत् । इति तथा कुसुमक्खयगंधपईवधूयनेवेज्जफलजलेहि पूणो अविहकम्मदलनी अटुवयारा हवा पूया" इति किञ्च जिनभवन जिनबिम्ब जिनपूजा, जिनमत च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि, करपल्लवस्थानि ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ३९७ समुच्छेदात् परिणामशुद्धिरुत्पद्यत इति प्रवचनविरुद्धं कल्पनं सर्वप्रमाणबाधितं कस्यानुमतं भवेत् । अपि तु न कस्यापि । (आचाराङ्गसूत्रे भगवताऽभिहितम् ( अ. १ उ. १) " इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव पुढविसत्यं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, ___ भावार्थ-पूजक उचित समय में अच्छी तरह स्नान करके जिनेन्द्र का अभिषेक कर पुष्प आदिकों से उन की पूजा करें। जिनप्रभसूरि द्वारा विरचित पूजाविधि में भी पूजा के विषय में यही विधि प्रदर्शित की गई है सरस सुगंधित चंदन से भगवान के नव अंगो में तिलकरूप पूजन कर पूजक सुगंधित, जमीन पर नहीं गिरे हुए, पत्र विनाके ताजे पंच जाति ते पुष्पों द्वारा प्रभु की पूजा करें । पुष्प, अक्षत, गंध, प्रदीप, धूप, नैवेद्य फल और जल इन आठ द्रव्यों से आठ कर्मों को नाश करनेवाली अष्टप्रकारी पूजा होती है। जिनमंदिर, जिनप्रतिमा जिनपूजा और जिनमत को जो करता है, उस मनुष्य के हाथ में मनुष्यगति देवगति और मोक्ष के सुख आ जाते हैं-अर्थात् वह मनुष्य इन गतियों के सर्वोत्तम सुख भोग कर मोक्षसुख का भोक्ता बन जाता है-सो इस प्रकार का यह पूजन विषयक समस्त कथन प्रवचन सिद्ध ही है क्योंकी आचारांगसूत्र में भगवान ने "इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण माणण. पूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपरिघायहेउ' से सयमेव पुढविस ભાવાર્થ–પૂજા કરનાર એગ્ય સમયે સારી રીતે સ્નાન કરીને જીનેન્દ્રને અભિષેક કરે તેમજ પુષ્પ વગેરેથી તેમની પૂજા કરે. જીનપ્રભસૂરિ વડે વિર ચિત પૂજાવિધિમાં પણ પૂજાના વિષયમાં આ વિધિ જ બતાવવામાં આવી છે. સરસ સુગંધિત ચંદનથી ભગવાનનાં નવ અંગેમાં તિલક રૂપ પૂજન કરી પૂજા કરનાર સુવાસયુકત, જમીન ઉપર પડેલાં નહિ, પત્ર વગરનાં તાજાં, પાંચ જાતિનાં પુખેથી પ્રભુની પૂજા કરે. પુષ્પ, અક્ષત, ગંધ, પ્રદીપ, ધૂપ, નિવૈદ્ય, ફળ અને પાણી આ આઠ દ્રવ્યથી આઠ કર્મોને નષ્ટ કરનારી અષ્ટ પ્રકારની પૂજા હોય છે. જીન મંદિર, જીન પ્રતિમા, જીન પૂજા અને જીન મતને જે કરે છે, તે માણસની પાસે મનુષ્ય ગતિ, દેવગતિ અને મેલનાં સુખે – આવી જાય છે. એટલે કે તે માણસ આ ગતિએનાં સર્વોત્તમ સુખો ભેગવીને મેક્ષ સુખને ભેગવનાર બની જાય છે, માટે આ જાતનું આ પૂજનને લગતું બધું કથન अqयन सिद्ध छे, म साया सूत्रमा पाने-( इमस्स चेव जीवि. यस्स परिव दणं माणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपरिपायहेर्ड से श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे - अण्णेवा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए तं से अबोहीए।" इति जीवः कस्मै प्रयोजनाय पृथिवीकायस्य समारम्भं करोतीत्याह-" इमस्स चेव" इत्यादि । अस्यैव क्षणभङ्गुरस्य, “ जीवियस्स" जीवनस्य-जीवनस्यार्थे, तथा--परिवन्दनमाननपूजनाय परिवन्दनं-प्रशंसा, तदर्थ यथाऽऽश्चर्यगृहादिकरणे, माननं सत्कारः तदर्थ, यथा -कीर्तिस्तम्भादिकरणे, पूजनं स्वपूजनं प्रतिमापूजनं च, तत्र स्वपूजन-वस्त्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थ, तथा-प्रतिमापूजनार्थ च प्रतिमादिरचने तथा-जातिमरणमोचनाय, तथा दुःखप्रतिघातहेतुं-दुःखविध्वंसार्थ । स्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढवि. सत्थं समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए तं से अबोहिए" इतिइस सूत्र में " जीव किस प्रयोजन के लिये पृथिवीकाय का समारंभ करता है" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहा है कि यह जीव इस क्षणभंगुर जीवन के लिये परिवन्दन-प्रशंसा के लिये-आश्चर्योत्पादक गृह आदि बनवा न दें मान-सत्कार के लिये कीर्तिस्तंभ आदि कराने में, अपनी प्रतिष्ठा के लिये वस्त्र रत्नकम्बल आदि पुरस्कार में तथा प्रतिमापूजन के लिये प्रतिमादि बनवाने में तथा जाति-परलोक में सुखके लिये देवमन्दिर आदिके बनवाने में, मरण-जिनकी मृत्यु हो चुकी है ऐसे अपने पिता आदि की स्मृति के लिये स्तूप आदि की रचना कराने ने में, मोचन-मुक्ति प्राप्ति के लिये देव प्रतिमा आदि बनवानेमें अथवा अनेक प्रकार के दुःखों के विनाशके लिये वर्तमानकालमें स्वयं भी पृथिवी सममेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णेवा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ त से अहियाए त से अबोहिए ) इति“ જીવ શા માટે પૃથ્વિીકાયન સમારંભ કરે છે ” એ સવાલનો જવાબ આપતાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે આ જીવ આ ક્ષણભંગુર જીવન માટે પરિવંદન-પ્રશંસા માટે આશ્ચર્યોત્પાદક ઘર વગેરે બનાવવામાં, માન-સત્કાર માટે કીર્તિસ્તંભ વગેરે તૈયાર કરાવવામાં, પિતાની પ્રતિષ્ઠા માટે વસ્ત્ર, રત્ન, કામળ વગેરે રૂપ પુરસ્કાર તેમજ પ્રતિમા પૂજન માટે, પ્રતિમા વગેરે બનાવવામાં જાતિ–પરલોકમાં સુખ પ્રાપ્તિ થાય તેના માટે, દેવ-મંદિરે વગેરે તૈયાર કરાવવામાં, મરણ-જેઓ મરણ પામ્યા છે તેવા પિતાના પિતા વગેરેની યાદમાં તૂપ, સમાધિ વગેરે બનાવવામાં, મોચન મુક્તિ મેળવવા માટે દેવ-પ્રતિમા વગેરે બનાવવામાં અથવા તે ઘણી જાતનાં દુઃખોના વિનાશ માટે વર્તમાન કાળમાં પિતે પણ પૃથ્વિીકાયના વિનાશ સ્વરૂપ દ્રવ્યભાવ અને વ્યાપાર श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा सः जीवनपरिवन्दनमाननपूजनाद्यर्थे जनः स्वयमेव पृथिवी शस्त्रं समारभते =पृथिव्युपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्रं व्यापारयति । अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति =उद्योजयति । पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् समनुजानाति अनुमोदयति । एवमतीतानागताभ्यां, तथा मनोवाकायैश्च पृथिवीशस्त्रसमारम्भभेदा अवगन्तव्याः। पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः किं फलं प्राप्नोतीत्याह-" तं से अहियाए" इत्यादि । "तं" तत्-पृथिवीकायसमारम्भणं, "से" तस्य-पृथिवीशस्त्रं समारभमाणस्य " अहियाए” अहिताय अकल्याणाय भवतीति शेषः। 'तं' तत् = तदेव च पृथिवीकायसमारम्भणमेव च “ से " तस्य पृथिवीशस्त्रं समारभमाणस्य "अबोहीए " अबोधये सम्यक्त्वालाभाय जिनधर्मप्राप्त्यभावाय च भवति । __ पृथिवीकायसमारम्भणं हि-कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधम् , तस्यातीतकाय के विनाशस्वरूप द्रव्य भाव शस्त्रका व्यापार करता है, दूसरों से कराता है और इस शस्त्र का प्रयोग करने वाले प्राणियोंकी अनुमोदना करता है इसी प्रकार भूत और भविष्यत काल में मनवचन और काय से(त्रियोग और त्रिकरणके संबंधसे) यह जीव पृथिवी कायका समारम्भ करने वाला हुआ है और होगा। अतः जिस प्रकार वर्तमान में त्रियोग और त्रिकरण के संबंध से इस पृथिवी काय समारंभ के भेद होते हैं उसी प्रकार भूत और भविष्यत काल में भी उनके संबंध इसके भेद जानलेना चाहिये। यह पृथिवी काय का समारंभरूप शस्त्रका प्रयोग प्रयोक्ता जीवको कभी भी कल्याण एवं सम्यक्त्व के लाभ जिनधर्म की प्राप्ति की प्राप्ति कराने वाला नहीं होता है। ___भावार्थ-पृथिवीकाय का समारम्भ कृत, कारित और अनुमोदना (કાર્ય) કરે છે, બીજાઓ પાસે કરાવે છે અને આ શસ્ત્ર પ્રયોગ કરનાર પ્રાણીઓની અનુમોદના કરે છે. આ પ્રમાણે ભૂત અને ભવિષ્યકાળમાં મન, વચન અને કાયથી (ત્રિયોગ અને ત્રિકરણના સંબંધથી ) આ જીવ પ્રવિ. કાય સમારંભ કરનાર થયેલ છે અને થશે. એટલા માટે જેમ વર્તમાનકાળમાં ત્રિગ અને ત્રિકરણના સંબંધથી આ પૃથ્વિકાય સમારંભના ભેદ (પ્રકાર) હોય છે તેમજ ભૂત અને ભવિષ્યત કાળમાં પણ તેમના સંબંધ તેમજ ભેદ જાણી લેવા જોઈએ. આ પૃથ્વિકાયના સમારંભ રૂપ શસ્ત્ર પ્રયોગ પ્રયકતા જીવન માટે કદાપિ કલ્યાણ સમ્યકત્વને લાભ તેમજ જીન ધર્મની પ્રાપ્તિ કરાવનાર થતું નથી. ભાવાર્થ–પૃથ્વિકાય સમારંભ કૃત, કારિત અને અનુમંદનાના ભેદથી ત્રણ પ્રકાર છે. અતીત અને અનાગત કાળના ભેદથી તેના બીજા ત્રણ ત્રણ श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वर्तमानानागतभेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये नवधा भवति । नवविधस्यापि पृथिवीकायसमारम्भणस्य मनोवाकाययोगभेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये सप्तविंशतिभङ्गा भवन्ति । एवं विधपृथिवीकायसमारम्भप्रवृत्तः खलु षट्कायारम्भसंपातजन्यघोरतरदुरितार्जनेन दुरन्तसंसारदावानलज्वालान्तःपातं पाप्यानन्तनरकनिगोदादिदुःखमनुभवन् न कदाचित् कल्याणं शाश्वतमुखप्रदं मोक्षमार्ग प्रामोतीतिभावः ॥ भगवता पृथिवीकायसमारम्भणवदप्कायादिसमारम्भणमप्यहितायाबोधये च भवतीत्यपि तत्रैव प्ररूपितम् । यत्रैकस्य पृथिवीकायस्य समारम्भणे सम्यक्त्वके भेद से तीन प्रकार का है-इसके अतीत और अनागत काल के भेद से तीन ३ प्रकार का और हो जाते हैं इस प्रकार यह तीनों कालों की अपेक्षा से ९ प्रकार का है । इन नव प्रकारों के साथ-मन वचन और काय इन तीनों का गुणा करने से यह २७ प्रकार का माना गया है इस प्रकार त्रिकरण और त्रियोग के संबंध से २७ प्रकार के इस पृथिवीकाय के समारंभ में प्रवृत्त जीव षट्काय के आरंभ के संपात जन्य घोरतर पापों के अर्जन से दुरन्त संसार रूपी दावानल की ज्वाला के मध्य में निमग्न बन अन्त में अनन्त नरक निगोदादिकों के दुःखो का अनुभव करता हुआ कभी भी निज कल्याण का भोक्ता एवं शाश्वत सुख को प्रदान करने वाले मोक्ष के मार्ग का पथिक नहीं बन सकता है पृथिवीकाय के समारम्भ की तरह अपकाय आदि का समारंभ भी इस जीवात्मा को सदा अहितकारी और अबोध का दाता है यह बात भी वहां पर (आचारांग सूत्र में ) भगवान ने कही है अब विचारिए-जब ભેદ થઈ જાય છે. આ રીતે આ ત્રણે કાળોની અપેક્ષાએ નવ પ્રકારનો છે. આ નવ પ્રકારોની સાથે મન, વચન અને કાર્યો અને ત્રણેને ગુણાકાર કરવાથી આ ૨૭ પ્રકારનું માનવામાં આવ્યો છે. આ પ્રમાણે ત્રિકરણ અને ત્રિગના સંબંધથી ૨૭ પ્રકારના આ પૃવિકાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્ત જીવ ષટકાયના આરંભના સંપાત જન્મ ઘેરતર ( ભયંકર) પાપને કારણે દુરંત સંસાર રૂપી દાવાનલના અગ્નિમાં પડીને છેવટે અનંત નરક નિગઢ વગેરે દુખેને અનુભવતે કદાપિ પિતાના કલ્યાણને ભેંકતા થઈને અને શાશ્વત-સુખને આપનાર મેક્ષ માર્ગને પથિક (વટેમાર્ગ) બની શકતા નથી. પૃવિકાયના સમારંભની જેમ અમુકાય વગેરેને સમારંભ પણ આ જીવાત્મા માટે હમેશાં અહિતકારી અને અબોધ (અજ્ઞાન) આપનારો છે. આ વાત પણ આચારાંગ સૂત્રમાં ભગવાને કહી છે. હવે આટલું તો આપણે પણ સમજી શકીએ છીએ કે જયારે જીવન માટે ફક્ત પૃવિકાય સમારંભ જ જ્યારે અહિત કરનાર અને મેક્ષના श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा मलभ्यं, किं पुनस्तत्र षटकायसमारम्भणे स्वर्गापवर्गलाभस्य संभवः । परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातार्थ च ये जीवाः पृथिवीकायादिसमारम्भं कुर्वन्ति, ते तत्फलं विपरीतमेव लभन्ते यतोऽसौ समारम्भः अबोधिमहितं चोत्पादयतीत्युक्तं भगवता । परंतु तत्र प्रतिमापूजकाः शास्त्रविरुद्धमेवं कथयन्तिप्रतिमापूजायां स्वाभ्युदयमोक्षार्थ क्रियमाणः षट्कायसमारम्भः खलु अबोधिमजीव के लिये यह अकेला पृथिवीकाय का समारंभ ही अहित का कर्ता और मोक्ष के मार्ग से वंचित रखनेवाला कहा गया है तो भला किस कार्य में षटूकाय के जीवों का समारंभ होता है, उस कार्य से अथवा उस प्रकार के समारंभ से जीवों को स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) का लाभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् किसी तरह नहीं हो सकता। जो मनुष्य परिवंदन मानन और पूजन के निमित्त तथा जाति और मरण के मोचन के निमित्त एवं दुःखो के विनाश करने के निमित्त पृथिवीकाय आदि का समारंभ करते हैं, वे उसका विपरीत ही फल भोगते हैं यह बात अच्छी तरह से प्रकट की जा चुकी है। क्यों कि प्रतिमापूजा बोध एवं हित प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर के ही की जाती है -परन्तु इस लक्ष्य की सिद्धि न होकर उससे उल्टा कर्ता जीव अबोध एवं अहित का प्रापक ही होता है ऐसा श्री महावीर प्रभु का कथन है। फिर भी इसके पक्षपाती जन इस बात पर ध्यान न देकर शास्त्र विरुद्ध ही कथन करते हैं-वे यह कहते हैं "कि इस प्रतिमापूजन में माना कि માર્ગથી દૂર ફેંકી દેનાર બતાવવામાં આવ્યો છે ત્યારે કયા કાર્યમાં કાયના સમારંભ હોય છે, તે કાર્યથી અથવા તે તે જાતના સમારંભથી જીવને સ્વર્ગ અને અપવગ (મોક્ષ) ને લાભ કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે? એટલે કે કોઈ પણ કાળે જીવને આ કાર્યથી સ્વર્ગ કે મોક્ષને લાભ થઈ શકતું નથી. જે માણસ પરિવંદન, મનન અને પૂજનના માટે તેમજ જાતિ અને મરણના મોચન માટે અને દુઃખના વિનાશ માટે વૃશ્ચિકાય વગેરેને સમારંભ કરે છે, તેઓ તેનું ઉલટું ફળ ભોગવે છેઆ વાત સારી રીતે સમજાવવામાં આવી છે, કેમકે પ્રતિમા પૂજા બેધ તેમજ હિત પ્રાપ્તિના લક્ષ્યને લઈને જ કરવામાં આવે છે. પણ આ લક્ષ્યની સિદ્ધિ ન થતાં તેનાથી સાવ વિપરીત કર્તા જીવ અબોધ અને અહિતને મેળવે છે એવું જ શ્રી મહાવીર પ્રભુએ કહ્યું છે. છતાં ય પ્રતિમા પૂજાના કેટલાક તરફદારીઓ આ વાતને લક્ષ્યમાં ન રાખતાં શાસ્ત્ર વિરૂદ્ધ જ કથનને વળગી રહે છે. તેઓ આ પ્રમાણે કહે છે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे हितं नोत्पादयति, प्रत्युत बोधिं नरामरशिव सुखरूपं हितं च सम्यग् जनयतीति, तदेतत् साक्षात् प्रवचनविरुद्धमिति । किं च आचाराङ्गसूत्रे पृथिवीकायसमारम्भस्य फलमुक्त्वा भगवता पुनरभिहितम् -' एस खलु गंथे, एस खलु मोहे एस खलु मारे, एस खलु णिरये, इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूबरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसंभारंभेणं पुढविसत्थं समा रंभमाणे अण्णे अगवे पाणे विहिंसइ । ' ( आ० १ अ० २ उ० ) छाया - एष खलु ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं षट्का का समारंभ होता है- परन्तु यह समारंभ स्वाभ्युदय एवं मुक्ति प्राप्ति के निमित्त ही किया जाता है अतः यह कर्त्ता जीवों को न अहित काही उत्पादक होता है और न बोधि के लाभ से वंचित रखता है प्रत्युत यह उन्हें बोधि एवं नर अमर और मोक्ष के सुख स्वरूप हित का प्रदान करने वाला ही होता है " सो इस प्रकार का उनका यह कथन साक्षात् शास्त्र से विरुद्ध ही है-यह बात आचारांग सूत्र से भली भांति पुष्ट होती है उसमें पूर्वोक्तरीति से पृथिवीकाय के समारंभ का फल कह कर फिर यह कहा गया है - " एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरये, एच्चत्थं गड्डिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ " ( आ- १ अ- २ उ ) यह पृथिवीकाय का समारंभरूप शस्त्र निश्चय से जीवों को अष्टप्रकार के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध કે-આપણે થાડા વખત માટે આમ પણુ માની લઇએ કે આ પ્રતિમા પૂજ નમાં ષટ્કાયના સમારંભ થાય છે-પણ આ સમારભ સ્વાભ્યુદય અને મુકિતની પ્રાપ્તિ માટે જ કરવામાં આવે છે. એટલા માટે આ કર્તા જીવેાના માટે અહિતને ઉત્પાદક પણ હાતા નથી અને આધિના લાભથી પણ તેએને વાચિત રાખતા નથી. આ તે તેમને એધિ અને નર અમર અને મેક્ષના સુખ સ્વરૂપ હિતને આપનાર જાય છે. પણ તેમનું આ કથન પ્રત્યક્ષ રૂપમાં શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ જ છે. આ વાત આચારાંગ સૂત્રથી સારી પેઠે પુષ્ટ થઈ જાય છે. તેમાં પૂર્વોક્ત રીતથી પૃથ્વિકાયના સમારંભનું ફળ ખતાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું છે " एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु नरये, एञ्चत्थं गइदिए लोए जमिण विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमार मेणं पुढविसत्थ समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ " ( आ. १ अ. २ उ. ) આ પૃથ્વિકાયનું સમારંભ રૂપ શસ્ત્ર ચાસ જીવેાના માટે આઠ પ્રકારના શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४०३ समारममाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । एषः पृथिवीशस्त्रसमारम्भः खलु निश्चयेन ग्रन्थः प्रथ्यते बध्यते जीवोऽनेनेति ग्रन्थः, अष्टविधकर्मबन्धः, वन्धजनकत्वाद् ग्रन्थ इत्युच्यते । तथा-एष मोहः विपर्यासः वीपरीतज्ञानरूप इत्यर्थः तथा-एष मार:-निगोदादिमरणरूपः । तथा-एष खलु नरका-नारक जीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यर्थम्-एतदर्थ कर्मबन्ध-मोह मरण-नरकरूपं घोरं दुःखफलं प्राप्य पुनः पुनरेतदर्थमेव लोकः=अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्धः-लिप्सुरस्ति । यद्यपि विषयभोगासक्तो लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थ परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातार्थ च पृथिवीशस्त्रसमारम्भं करोति, तथापि तत्फलं कर्मबन्धमोहमरणनरकरूपमेव लभते, अतः पृथिवीकर्मसमारम्भस्य तदेव फलं भवतीति भावः । तदेवं प्रवचनविरुद्धप्ररूपणकराने वाला होने से ग्रन्थस्वरूप, विपरीत ज्ञान का जनक होने से मोहरूप, निगोदादि जीवों का इस में मरण होता है-इसलिये मार स्वरूप तथा नारकियों की दश प्रकार की यातना का हेतु होने से यह नरकरूप माना गया है। इस प्रकार यह जीव इस पृथिवीकाय के समारंभरूप शस्त्र के फलस्वरूप कर्मबन्ध, मरण और नरकरूप घोरतर दुःखों को भोगता हुआ भी अज्ञान के आधीन होकर उसी शस्त्र के प्रयोग करने का फिर भी अभिलाषी हो रहा है। यद्यपि विषय भोगों में आसक्त बना हुआ यह जीव शरीर आदि की पुष्टि परिवंदन, मानन, पूजन एवं जाति और मरण के मोचन के लिये तथा दुःखो के विनाश के लिये पृथिवीकाय के समारंभरूप शस्त्र का प्रयोग करता है परन्तु फिर भी इसका वह कर्मबन्ध, मोह, मरण, नरकरूप फल का ही भोक्ता बनता જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને બંધ કરાવનાર હોવા બદલ ગ્રન્થ સ્વરૂપ, વિરુદ્ધ જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરનારું હોવાથી મેહ રૂપ, નિગોદ વગેરે જેનું આમાં મરણ થાય છે માટે માર સ્વરૂપ તેમજ નારકીઓની દશ પ્રકારની યાતનાનું કારણ રૂપ હોવાથી આ નરક રૂપ માનવામાં આવ્યું છે. આ રીતે આ જીવ આ પૃવિકાયના સમારંભ રૂપ શસ્ત્રના ફળ સ્વરૂપ કર્મબંધ, મરણ અને નરક રૂપ ઘરતર દુઃખને ભેગવવા છતાં પણ અજ્ઞાનવશ થઈને તે જ શસ્ત્રનો પ્રાગ કરવા માટે ફરી તૈયાર થઈ રહ્યું છે. જો કે વિષય ભેગોમાં આસક્ત બનેલે આ જીવ શરીર વગેરેની પુષ્ટિ પરિવંદન, માનન, પૂજન અને જાતિ મરણના મેચન માટે તેમજ દુઃખને દૂર કરવા માટે પ્રવિકાયના સમારંભ રૂપ શસ્ત્રનો પ્રવેગ કરે છે, પણ છતાંયે તે કર્મબન્ધ, મોહ, મરણ અને નરક રૂપ ફળને ભગવનાર જ બને છે. એટલા માટે આપણે ચેકકસ કહી શકીએ તેમ છીએ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्त्रे पराः सर्वदोषनिर्मुक्तं शुद्धमद्वितीयमनवद्यं जैनधर्म सावद्यपूजोपदेशेन कुमावचनिकोपमेयं कुर्वन्तः संसारदावानले जनान् पातयन्तः स्वयं च मोहनीयकर्मोदयवशादन्धा इव सन्मार्गतो निपतन्तः स्वात्मानमहितेन मिथ्यात्वेन च पुनः पुनः संयोजयन्ति । यदि मृगतृष्णाऽपि केषांचित् पिपासाकुलानां स्वच्छ जलधारावाहिनी भवेत् तदा प्रतिमापूजापि तेषां द्रव्यलिङ्गिनां परिणामशुद्धि संपादिनी अष्टवि धकर्मदलनी नरामर शिवसुख विधायिनी भवेदिति बोध्यम् । " है । अतः प्रतिमापूजन का उपदेश निश्चित है कि प्रवचनमार्ग से विरुद्ध है । इस विरुद्ध प्ररूपणा करने में तत्पर मनुष्य सर्व दोषों से रहित, शुद्ध और अद्वितीय एवं अनवद्य इस जैनधर्म को सावद्य पूजा के उपदेश से कुप्रावचनिक की तरह कलंकित सदोष कर संसाररूपी दावानल में भोले भाले प्राणियों को डाल रहे हैं और स्वयं भी मोहनीय कर्म के उदय से अन्ध की तरह बन कर सन्मार्ग से विमुख होते हुए अपनी आत्मा को अहित और मिथ्यात्व के कलंक से कलुषित कर रहे हैं । अरे कहीं मृगतृष्णा से भी प्यासे व्यक्तियों की प्यास बुझती हैं ? यदि नहीं, फिर मृगतृष्णा तुल्य इस प्रतिमा पूजन से कर्त्ता की सम्यक्त्व और हित की प्राप्ति होने रूप प्यास कैसे बुझ सकती है सोचो। हां ! यदि ऐसा होता कि मृगतृष्णा स्वच्छजल की धारा बहाकर प्यासे प्राणियों की तृषा को शांत करती तो यह प्रतिमा पूजन भी द्रव्णलिङ्गि यों के परिणामों में शुद्धि करती हुई उनके अष्टकर्मों कों दलने वाली और उन्हें नर, अमर एवं शिवसुख प्रदान करने वाली भी हो सकती । કે પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ પ્રવચન માથી વિરૂદ્ધ છે. આ જાતની વિરૂદ્ધ પ્રરૂપણા કરવામાં તત્પર માણુસ બધા દાષાથી રહિત, શુદ્ધ, અદ્વિતીય અને અનવદ્ય આ જૈન ધર્મને સાવદ્ય પૂજાના ઉપદેશથી કુપ્રાવચનિકની જેમ કલ'કિત દોષયુક્ત બનાવીને સ`સાર રૂપી દાવાનલમાં ભાળા પ્રાણીઓને નાખી રહ્યો છે અને જાતે પણ માહનીય કર્મના ઉદયથી આંધળાની જેમ થઈને સન્માર્ગથી દૂર થતાં પેાતાના આત્માને અહિત અને મિથ્યાત્વના કલંકથી કલુષિત કરી રહ્યો છે. મૃગજળથી પણ કાઈ દિવસે તરસ્યા માણુસેની તરસ મટી શકી છે? જો આવું નથી તેા પછી મૃગજળ જેવી આ પ્રતિમા પૂજનથી કર્તાની સમ્યકત્વ અને હિતની પ્રાપ્તિ થવા રૂપ તરસ કેવી રીતે મટી શકે તેમ છે. જો મૃગજળ નિર્મળ પાણીના ઝરા થઈને તરસ્યાં પ્રાણીઓની તરસ મટાડી શકત તા આ પ્રતિમા પૂજા પણ દ્રવ્યલિંગિઆના પરિણામેામાં શુદ્ધિ કરનારીતેમના આઠ કર્મોને નષ્ટ કરનારી અને નર, અમર અને શિવ-સુખ આપનારી પણ થઈ શકત ? શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४०५ यत्तु-ब्राह्मीलिपिरिव प्रतिमा वन्द्या, 'नमो बंभीए लिचीए " इतिपदं यद् व्याख्याप्रज्ञप्तेरादावुपन्यस्तं, तत्र ब्राह्मीलिपिरक्षरविन्यासः, सा यदि श्रुतज्ञानस्याऽऽ कारस्थापना, तदा तद्वन्द्यत्वे साकारस्थापनाया भगवत्पतिमायाः स्पष्टमेव वन्द्यत्वम् तुल्यन्यायादित्युक्तं, तन्मोहनीयकर्मोदयविलसितम् श्रुतज्ञानरूपस्य भावश्रुतस्य स्थापना-श्रुतज्ञानवतः श्रुतपठनादिक्रियावत: साध्वादेश्चित्रादिकं भवति, श्रुततद्वतोरभेदोपचारात् साध्वादिः श्रुतमुच्यते । स्थापनावश्यकस्य स्थापनाश्रुतस्य च तथैवानुयोगद्वारे भगवता वर्णनात् । यदेवं लिपिः श्रुतज्ञानस्य स्थापनारूपत्वं न प्रामोति । तस्मात् प्रतिमायां ब्राह्मीलिपिदृष्टान्त प्रदर्शनमुत्सूत्रप्ररूपणम् । किञ्च-प्रतिमापूजन की पुष्टि के लिये " नमो बंभीए लिवीए" व्याख्याप्रज्ञप्ति की आदि में लिखे हुए इस सूत्र के बल पर जो उसके पक्षपाती जन यह कहते हैं-"कि अक्षर विन्यासरूप ब्राह्मीलिपि जिस प्रकार श्रुतज्ञान के आकार की स्थानपारूप होकर वन्द्य-वन्दनीय मानी गई है उसी प्रकार साकार स्थापनारूप भगवान की प्रतिमा में भी वन्दनीयता स्पष्ट ही है " सो यह कथन विचार करने पर ठीक नहीं बैठता है। तथाहि-श्रुतज्ञानरूप भावश्रुत की स्थापना-श्रुतज्ञानसंपन्न, और श्रुत के पठन की क्रिया विशिष्ट ऐसे जो साधु आदिजन हैं उनके चित्र आदि स्वरूप पड़ती है अर्थात् श्रुतज्ञानी साधु आदि के चित्रस्वरूप ही श्रुतज्ञानरूप भावश्रुतकी स्थापना होती है। ब्राह्मीलिपि अक्षर विन्यास है। वह श्रुतज्ञान की स्थापना है । यहाँ श्रुतज्ञानी साधु आदि को जो भने भानु ५५ -प्रतिभा पुराननी पुष्टि भाट “ नमो बंभीए-लिवीए " વ્યાખ્યા પ્રજ્ઞપ્તિની શરૂઆતમાં આવેલા આ સૂત્ર મુજબ જે તેની તરફદારી કરનારા માણસે આમ કહે છે કે “અક્ષર વિન્યાસ રૂપ બ્રાદ્ધિ લિપિ જેમ શ્રુતજ્ઞાનના આકારની સ્થાપના રૂપ થઈને વન્ય-વંદનીય માનવામાં આવી છે, તેમજ આકાર-સ્થાપના રૂપ ભગવાનની પ્રતિમામાં પણ વંદનીયતા સ્પષ્ટ દેખીતી વાત જ છે પરંતુ આ કથનને પણ વિચાર કર્યા બાદ એગ્ય લાગતું નથી, તેમજ અતજ્ઞાન રૂપ ભાવકૃતની સ્થાપના-શ્રુતજ્ઞાન સંપન્ન અને શ્રતના પઠનની પ્રિયા વિશિષ્ટ એવા જે સાધુ વગેરે લેકે છે તેમના ચિત્ર વગેરે સ્વરૂપ હોય છે. એટલે કે શ્રુતજ્ઞાની સાધુ વગેરેના સ્વરૂપ જ શ્રુતજ્ઞાન રૂપ ભાવકૃતની સ્થાપના હોય છે. પ્રાદ્ધિ-લિપિ અક્ષર વિન્યાસ છે. તે શ્રુતજ્ઞાનની સ્થાપના છે. અહીં કૃતજ્ઞાની સાધુ વગેરેને જે ભાવભૃત રૂપ કહેવામાં આવ્યું છે તે શ્રુતજ્ઞાન श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यत्तु-अभयदेवीयवृत्तौ संज्ञाक्षररूपं द्रव्यं श्रुतं नमस्कुर्वन्नाह-' णमो बंभीए लिवीए ' इत्युक्तं तद् भ्रान्तिमूलकम् पुस्तकवर्तिन्या अकारादिवर्णसंकेतरूपाया लिपेर्द्रव्यश्रुतत्वं न संभवति यतः श्रुतं नाम द्वादशाङ्गीरूपमहत्मवचनं शास्त्रं यस्य कस्यचिज्जीवस्य शिक्षितं स्थितं जितं यावद् वाचनोपगतं भवति स जन्तुस्तत्र वाचनापच्छनादिमिवर्तमानोऽपि श्रुतोपयोगाभावादागममाश्रित्य द्रव्यश्रुतम् , आ भावश्रुतरूप कहा गया है-वह श्रुतज्ञान और श्रुतवान में अभेद के उपचार से ही कहा गया समझाना चाहिये। इसी रूप से ही भगवान ने अनुयोग द्वार में स्थापना आवश्यक और स्थापना श्रुत का कथन किया है। अतः लिपि में भावश्रुत की कल्पना से श्रुतज्ञान की स्थापना मानना कथमपि युक्ति संगत नहीं है। इसी प्रकार लिपि में द्रव्यश्रुतता भी नहीं आती है। क्यों कि द्वादशांगीरूप अर्हत प्रवचन का नाम श्रुत है। श्रुतज्ञान का ज्ञाता जब उसमें अनुपयुक्त अवस्थानवाला है। तब वही आगम की अपेक्षा द्रव्यश्रुत कहा जाता है। संज्ञा अक्षर रूप आकृति को द्रव्यश्रुत नहीं कहा है। इस कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि-अभयदेव विरचित वृत्ति में " णमो बंभीए लिवीए" इस पद का अर्थ संज्ञा अक्षररूप द्रव्यश्रुत परक मानकर जो नमस्कार किया गया है -वह भ्रान्तिमूलक है, क्यों कि पुस्तक में रही हुई संकेतित अकार आदि वर्ण की आकृति में द्रव्यश्रुतता संभवित नहीं होती है। वाचना, पृच्छना आदि से अधिगत श्रुत में अनुपयुक्तज्ञाता ही द्रव्यश्रुत है इसी અને શ્રતવાનમાં અભેદેપચારથી જ કહેવાયેલે સમજવું જોઈએ. આ રૂપથીજ ભગવાને અનુગદ્વારમાં સ્થાપના આવશ્યક અને સ્થાપના શ્રતનું કથન કર્યું છે. એટલા માટે લિપિમાં ભાવકૃતની કલ્પનાથી શ્રુતજ્ઞાનની સ્થાપના માનવી કઈ પણ રીતે ચગ્ય નથી. આ પ્રમાણે જ લિપિમાં દ્રવ્યથતતા પણ આવતી નથી. કેમકે દ્વાદશાંગી રૂપ અહંત પ્રવચનનું નામ શ્રત છે. આ શ્રુતજ્ઞાનને જ્ઞાતા જ્યારે તેમાં અનુપયુકત અવસ્થાવાળે હોય છે, ત્યારે તે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યશ્રુત કહેવાય છે. સંજ્ઞા અક્ષર રૂપ આકૃતિને દ્રવ્યશુત કહી નથી. मा ४थनथी । वातनी पुष्टी थाय छे समयदेव वि२थित वृत्तिमा " णमो बभीए लिवीए " २मा पहने। म सज्ञा २५६२ ३५ द्रव्य श्रुत५२४ मानीन જે નમસ્કાર કરવામાં આવ્યા છે તે ભ્રાંતિમય છે, કેમકે પુસ્તકમાં રહેલી સંકેતિત અકાર વગેરે વર્ણની આકૃતિમાં દ્રવ્યશ્રુતતા સંભવિત નથી હોતી. વાચના, પૃચ્છના વગેરેથી અધિગત શ્રતમાં અનુપયુકત જ્ઞાતા જ દ્રવ્યકૃત છે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४०७ चाराङ्गादिकं प्रतिपूर्णघोष कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं पठितवतः साध्यादेस्तदर्थज्ञानाभावे सति द्रव्यश्रुतत्वं भवति, तथैवानुयोगद्वारे द्रव्यश्रुतस्य वर्णनात् । वर्णसंकेतरूपा लिपिस्तु न शब्दात्मिका, यतो वर्णस्यैवोच्चारणमुपपद्यते, न तु तत्संकेतस्य लिपिमतः पुस्तकादेस्तु श्रुतं शिक्षितं यावद् वाचनोपगतं न भवितुमर्हति अतस्तस्य द्रव्यश्रुतत्वं न संमवति कथं पुनस्तद्गतलिपेस्तत्संभवः ? कथमपि नहि । ___किं च-द्रव्यश्रुतस्य वन्द्यत्वमेव नास्ति, अनुपयुक्तत्वाच्चरणगुणशून्यत्वाच्च, तस्माद् भावश्रुतस्यैव वन्धत्वप्राप्तौ द्रव्यश्रुतनमस्कारकल्पनं भ्रान्तिमूलकमेव । 'नमो बंभीए लिवीए' अस्यायमर्थः-वर्णात्मकभाषासंकेतरूपा लिपिाह्मी लिपिः प्रकार द्रव्यश्रुत का वर्णन अनुयोगद्वार में किया गया मिलता है। अकार आदि वर्णरूप से संकेतित लिपि में शब्दात्मकता आभी नही सकती है-क्यों कि वर्ण का ही उच्चारण होता है-उसके संकेत का नहीं। लिपियुक्त पुस्तकादि में भी वाचना आदि कुछ नहीं होता है। क्यों कि वह जड़ है-चेतन में ही ये वाचना पृच्छना आदि होते हैं। अतः उस में द्रव्यश्रुतता मानना सर्वथा अयुक्त है इसलिये यह निश्चित होता है कि अकार आदि वर्णरूप से संकेतित लिपि में और इस लिपि विशिष्ट पुस्तकादिक में द्रव्यश्रुतता किंचित मात्र भी संभावित नहीं है। किच्च-अनुपयुक्त होने से और चरणगुण शून्य होने से द्रव्यश्रुत में बंधता आ ही नहीं सकती है। भावश्रुत में ही उपयोग सहित और चरणगुण युक्तता होने से वंदता आती है-अतः द्रव्यश्रुत में नमस्कार करने की कल्पना करना केवल भ्रान्तिमूलक ही है " नमो बंभीए આ રીતે દ્રવ્યશ્રતનું વર્ણન અનુયોગ દ્વારમાં કરવામાં આવ્યું છે. અકાર વગેરે વર્ણરૂપથી સંકેતિત લિપિમાં શબ્દાત્મકતા આવી શકે તેમ નથી. કેમકે ઉચારણ તે દ્રવ્યનું જ થાય છે, તેના સંકેતનું નહિ. લિપિ યુકત પુસ્તકો વગેરેમાં પણ વાચના વગેરે કંઈ જ હોતું નથી. કેમકે તે જડ છે, ચેતનામાં જ વાચના પૃચ્છના વગેરે થાય છે. એથી તેમાં દ્રવ્યથતતા માનવી સાવ અયોગ્ય છે. એથી એ વાત ચોકકસ થાય છે કે અકાર વગેરે વર્ણરૂપથી સંકેતિત લિપિમાં અને આ લિપિ વિશિષ્ટ પુસ્તક વગેરેમાં દ્રવ્યગૃતતા થડી પણ સંભવિત નથી. અને બીજું પણ કે–અનુપયુકત હોવાથી અને ચરણગુણ શૂન્ય હોવાથી દ્રવ્યથતમાં બંધતા આવી જ શકતી નથી. ભાવછતમાં જ ઉપયોગ સહિત અને ચરણગુણ યુક્તતા હોવાથી વંદતા આવે છે. એટલા માટે દ્રવ્યશ્રતમાં નમસ્કાર ४२वानी ४६५ना ४२वी प्रतिभूस ॥ छे. “ नमो बंभीए लिवीए " मानो म શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे ब्राह्मीशब्दस्य भाषार्थकत्वात् , उक्तं चामरकोशे-'ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती' इति । यद्वा-अष्टादशपकारा लिपिः श्रीमन्नाभेयजिनेन ब्राह्मीनामिकां स्वसुतां प्रदर्शिता तस्मात् सा लिपिाह्मीत्युच्यते । लिपिज्ञानस्य श्रुतज्ञानोपयोगितया भावश्रुतहेतुं लिपिज्ञानरूपं भावलिपि वन्दमानः श्रीसुधर्मा स्वामी पाह-नमो बभीए लिवीए' इति । श्रुतज्ञान प्रति लिपिज्ञानं कारणं, यतो लिपिज्ञानेन तत्संकेतितशब्दस्मरणं, ततस्तदर्थज्ञानं जायते । तस्माद् भगवदुक्ताथस्य प्रतिबोधनाय तन्दोधकशब्दजातरूपं श्रुतं लिपिबद्धं कर्तुकामः श्रुतबोधिकां लिवीए" इसका अर्थ इस प्रकार से संगत बैठता है-अकार आदि वर्णात्मक भाषा के संकेतरूप लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि है-ब्राह्मी शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अमर कोष में भी यही बात कही है-" ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग् वाणी सरस्वती"। अथवा-श्री आदिनाथ प्रभु ने अपनी ब्राह्मी नाम की पुत्री को १८ प्रकार की लिपि कही थी इसलिये भी उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि इस प्रकार से पड़ गया है। श्रुतज्ञान में उपयोगी होने से इस लिपि के ज्ञान को भावश्रुत का कारण माना है । इसलिये लिपि ज्ञानरूप भाव लिपि को वन्दन करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं " नमो बंभीए लिवीए"। श्रुतज्ञान के प्रति लिपि ज्ञान कारण है-क्यों कि लिपि के ज्ञान से अकारादि वर्णास्मक लिपि रूप से संकेतित उस उस शब्द का स्मरण होता है और उससे उसके अर्थ का ज्ञान होता है । अतः भगवान द्वारा प्रतिपादित अर्थ को समझाने के लिये उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्दों के આ પ્રમાણે સુસંગત બેસી શકે છે કે-અકાર વગેરે વર્ણાત્મક ભાષાના સંકેત રૂપ લિપિનું નામ બ્રાહ્મી લિપિ છે. બ્રાહ્મી શબ્દ “ભાષા ” આ અર્થમાં પ્રયુકત थय। छ. अमरशमा ५५ मे १ वात वाम मावी छ है " ब्रह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती " अथवा तो श्री माहिनाथ प्रभु पोताना બ્રાહ્મી નામની પુત્રીને અઢાર પ્રકારની લિપિઓ બતાવી હતી. એટલા માટે પણ આ લિપિનું નામ બ્રાહ્મી લિપિ પડી ગયું છે. શ્રુતજ્ઞાનમાં ઉપયોગી હોવાથી આ લિપિના જ્ઞાનને ભાવકૃતનું કારણ માનવામાં આવ્યું છે. એથી લિપિજ્ઞાન ३५ मिपिन न ४२तi श्रीसुधास्वामी ४ छे , “नमो बभीए लिवीए" શ્રતજ્ઞાનના પ્રતિ લિપિઝાન કારણ છે, કેમકે લિપિને જ્ઞાનથી અકાર વગેરે વર્ણાત્મક લિપિ રૂપથી સંકેતિત તે શબ્દનું સ્મરણ થાય છે. અને તેનાથી તેને અર્થનું જ્ઞાન થાય છે એટલા માટે ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત અથને સમજાવવા માટે તે અર્થનું श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा भावलिपि प्रति समुपजातभक्तिः श्रीमुधर्मा स्वामी लिपिज्ञानस्य माहात्म्यं प्रकटयन् भावश्रुतं प्रति भावलिपे? कारणतयाऽभ्यर्हितत्वेन ततः पूर्व भावलिपिवन्दनं कृतवान् , तत्पश्चाद् भावश्रुतं नमस्कुर्वन्नवादीत् ' नमः सुयस्स ' इति । __ यत्तु-अभयदेवरिणा स्वकृतटीकायामुक्तम् ‘जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ' त्ति एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते । वाचनान्तरे तु- हाया जाव सबालंकारविभूसिय मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जिणघरं अणुपविसइ २ ता, जिणपडिमाणं समूहरूप श्रुत को लिपिबद्ध करने की इच्छा से श्री सुधर्मास्वामी कि जिन की भक्ति श्रुतबोधक भावलिपि के प्रति जागृत हुई है लिपिज्ञान के माहात्म्य को प्रकट करते हुए भावश्रुत को नमस्कार करने के पहिले भावलिपि को ही नमस्कार करते हैं क्यों कि भावश्रुत के प्रति भावलिपि को ही कारणता है, और इसी निमित्त से यह उसकी अपेक्षा पूज्य मानी गई है भावलिपि को नमस्कार करने के पश्चात् ही उन्हों ने " नमः-सुयस्स" भावश्रुत को नमस्कार इस सूत्र द्वारा किया है। "जिणपडिमाणं अचणं करेइ" इस पाठ को लेकर जो टीकाकार अभयदेव सूरि ने जिनप्रतिमा कि पूजन करने की बात कही है-सो ठीक नहीं हैं। क्यों कि मालूम होता है, कि उन्हें मूल पाठ का निश्चय ही नहीं हुआ है-कारण कि एक वाचना में तो यही पाठ मिलता है तब कि दूसरी वाचना में "हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मजणघ. राओ पडिनिक्खमई, २ जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छइ, २ પ્રતિપાદન કરનારા શબ્દોના સમૂહરૂપ શ્રતને લિપિબદ્ધ કરવાની ઈચ્છાથી શ્રીસુધર્મા સ્વામી-કે જેમની કૃતબેધક ભાવલિપિ પ્રત્યે ભક્તિ ઉત્પન્ન થઈ છે-લિપિ જ્ઞાનના માહાસ્યને પ્રગટ કરતાં ભાવશ્રતને નમસ્કાર કરતાં પહેલાં ભાવલિપિ. ને જ નમસ્કાર કર્યા છે. કેમકે ભાવકૃત પ્રત્યે ભાવલિપિ જ કારણુતા છે અને આ કારણથી જ આ તેના કરતાં પૂજ્ય માનવામાં આવી છે. ભાવલિપિને નમ२४.२ ४ा मा तेम “ नमः सुयस्स" मा सूत्र 3 लावतने नभ२४१२ ४ छ. “ जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ " 240 पाना आधारे २05કાર અભવદેવસૂરિએ જનપ્રતિમાની પૂજાની વાત કહી છે તે ચગ્ય નથી કેમકે તેમને મૂળ પાઠને નિશ્ચય જ થયો નથી એમ જણાઈ આવે છે કારણ કે એક વાચનામાં તે એ જ પાઠ મળે છે. ત્યારે બીજી વાચનામાં – (व्हाया जाव सव्वाल'कारविभूसिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमई, २ जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छई, २ जिणधर अणुपविसइ, जिणपडिमाणं आलोए श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे आलोए पणामं करेइ २ ता, लोमहत्थयं परामुसइ २ ता, एवं जहा मूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ ' त्ति । तेन मूलपाठस्य निश्चयस्तस्य नाभूदिति विज्ञायते । ___ अतः परं च-'वामं जाणुं अंचेइ दाहिणं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेइ २' इति प्रतिमापूजकैः स्वीकृतो मूलपाठस्तत्र वर्तते, टीकाकारस्तु- दाहिणं जाणुं धरणीतलंसि निहट्ट ' इति पाठं टीकायां विलिख्य निगदति-'निह? ' निहत्य स्थापयित्वेत्यर्थः, ‘णिवेसेइ ' इत्यत्र-'निहटु' इति पाठभेदः कृतः। तेना. प्येतद् विदितं भवति-यस्य यादृशं मनस्यभिरुचितं स तादृशमिह मूलपाठं प्रक. ल्पयति स्म इति । जिणघरं अणुपविसइ जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ, २ लोमहत्थयं परामुसइ, २ एवं जहासूरियाभो जिनपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ" त्ति यह पाठ मिलता है । इसके बाद “वामं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेइ २" ऐसा पाठ मिलता है-और यही पाठ प्रतिमा पूजकों को संमत है । परन्तु टीकाकार श्री अभयसूरि ने " दाहिणं जाणुं धरणीतलंसी निहटूटु' ऐसा पाठ टीकामें रखकर 'निहटु' इस पद की टीका " स्थापना करके " ऐसी की है। इस प्रकार " णिवेसेइ" की जगह 'निहटूटु' ऐसा पाठ भेद किया गया है । इसी प्रकार प्रतिमा पूजकों द्वारा स्वीकृत “तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि नमेइ" इस मूल पाठ में भी परिवर्तन “नमेह" क्रिया पद में “ निवेशयति" इस रूप से कर दिया है। इससे यह बात निश्चित होती है कि जिस के मन पणामं करेइ, २ लोमहत्थयं परामुसइ, २ एवं जदा सूरियाभो जिनपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्व जाव धूव डहइ ) त्ति, मा ५४ भणे छ त्या२५छी " वामं जाणु धरणियल सि णिवेसेइ २" આ જાતનો પાઠ મળે છે અને એ જ પાઠ પ્રતિમા પૂજાના તરફદારીઓને માટે सभत ३५ छ. ५y 2018२श्री अभयवसूरि “ दाहिण जाणु धरणीतलसो निहट" मा तन। ५।४ मा श “ निहट्टु” २५४नी Alस्थापना पशन या प्रमाणे श छे. मारीत “णि वेसेह" न स्थान " निहटु" म. नतने। 48 से ४२११मा माव्ये छे. २मा शत प्रतिभा पूतना त२५४ारी। 3 स्वीकृत ( तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणीतलसि नमेइ ) । भू१५ मा ५५ “नमेइ" यापहमा “निवेशयति " २॥ तनु परવર્તન કરી નાખ્યું છે. આથી આ વાતની ખાત્રી થાય છે કે જેના મનમાં જે પાઠ ગમે તેણે તે પ્રમાણે જ ફાવે તેમ પિતાની કલ્પનાથી મૂળ પાઠમાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४११ तदनन्तरं पुनः प्रतिमापूजकैः स्वीकृते मूलपाठे' तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणिलंसि नमेइ ' इति दृश्यते, 'नमेइ' इत्यत्र टीकाकार:- ' निवे सेइ ' इतिलिखित्वा निवेशयतीत्यर्थ उक्तः, तेनात्र - मूलपाठस्य स्वस्वकपोलकल्पितत्वं सिध्यति, द्रौपद्याश्वरिते टीकाकृताऽभयदेवसूरिणा पुनरीदृशः पाठो लब्धः 'ईसि पच्चुन्नमति रत्ता, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं बंदइ नमसहर जिणघराओ पडिनिक्खमइ ' इति इमं पाठ टीकायां विलिख्य टीकाकारः प्राह 'तत्र वन्दते = चैस्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्यति = पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः । न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमें जैसा पाठ रुचा है उसने उसी प्रकार मूल पाठ में जिन कल्पना का पाठ प्रक्षिप्त करके पाठ भेद कर दिया है। अतः स्वकपोलकल्पित होने से असली मूल पाठ का निश्चय ही नहीं होता है, द्रौपदी के चरित में टीकाकार अभयदेवसूरि को इस प्रकार का पाठ उपलब्ध हुआ- ईसिं पच्चुन्नमति २, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ, नमंसइ २, जिणघराओ पडिनिक्खमइ इति " पाठ को लिखकर उन्हों ने टीका की । वन्दते नमस्यति पद के अर्थ का खुलाशा करते हुए वे कहते हैं कि प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधि के अनुसार नमन करना वंदना और इसके बाद प्रणिधान आदि के योग से नमस्कार करना नमन है ऐसा सिद्धान्त वृद्धों का है। सूत्र में जब द्रौपदी का प्रणिपात दृण्डक मात्र चैत्यवंदन कहा है- अर्थात् दण्ड की तरह प्रणाम करने रूप चैत्यवंदन कहा गया है तो इसी से यह - કઈક ઉમેરો કરીને પાઠ ભેદ કરી નાખ્યા છે. એટલા માટે સ્વકપેાલકલ્પિત હાવા બદલ અસલ મૂળપાઠને નિશ્ચય જ થઇ શકે તેમ નથી. દ્રોપદી ચરિતમાં टीअार मलयदेवसूरिना या लतनो पाठ भज्यो छे - ( ईसि पच्चुन्नमत्ति २, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थूणं अरिहंताण भगवंताणं जाव सपत्ताणं वदइ, नमसइ २, जिणघराओ पडिनिक्खमइ इति ) या पाहने समीने તેમણે ટીકા કરી છે. वन्दते ' नमस्यति' पहना अर्थ स्पष्टी४२ रतां તેઓ કહે છે કે પ્રસિદ્ધ ચૈત્ય વંદન વિધિ મુજખ નમન કરવું. વંદના અને ત્યારપછી પ્રણિધાન વગેરેના ચેાગથી નમસ્કાર કરવા નમન છે, વૃદ્ધોના આ જાતના સિદ્ધાન્ત છે. સૂત્રમાં જ્યારે પ્રણિપાત દડક માત્ર ચૈત્યવંદન કહ્યું છે ત્યારે એનાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઇ જાય છે કે બીજા શ્રાવકાને પણુ આ 6 > શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे प्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं चरितानुवादरूपत्वादस्य, इति । न चेत्यस्य मन्तव्यमित्यत्रान्वयः । द्रौपदी प्रणिपातदण्डकमात्रं - दण्डवत्मणाममात्ररूपं चैत्यवन्दनं प्रतिमावन्दनं कृतवतीत्यर्थं बुद्ध्याऽन्यपि श्रावक एतत्सूत्रं प्रमाणमाश्रित्य तावदेव तत् प्रणिपातदण्डकमात्रं वन्दनं कुर्यादिति न मन्तव्यम्, तत्र कारणमाह ' चरितानुवादरूपत्वादस्य ' इति । अस्य एतत्सूत्रस्य चरितानुवादरूपत्वात् ज्ञातप्रदर्शकतया यथावृत्तस्य तत्तच्चरितस्यानुवादरूपत्वात् न तु भगवता ' जयं चरे जयं चिट्ठे ' इत्यादिवत् कचिदाज्ञा प्रदत्ता | " तस्मादस्य विधिनिषेधबोधकत्वं न संभवतीत्याह - ' न च चरितानुवादवचबात भी सिद्ध हो जाती है कि अन्य श्रावकों को भी इसी प्रकार वन्दन नमन करना चाहिये-सो इस प्रकार का कथन ठीक नहीं है । कारण कि यह चरितानुवाद रूप है । भावार्थ- कोई अन्य श्रावक जन ऐसा समझकर कि सूत्र में जब द्रौपदी ने दण्डकी तरह होकर चैत्यवंदन किया है तो इसी सूत्रकी प्रमाणता लेकर हमें भी इसी तरह से प्रणाम करना चाहिये सो इस प्रकार की मान्यता उनकी ठीक नहीं है कारण कि यह चरित का ही अनुवादक है । चरितका अनुवादक वाक्य विधेयरूप से मान्य नहीं होता है । यह सूत्र चरित का अनुवादक रूप है - इसका यह भाव है कि यह वाक्य ज्ञात अर्थ का प्रदर्शक होने से पहिले जो जो बातें २ जिस २ रूपमें हो चुकी हैं उन सब का अनुवादक रूप है । " जयं चरे जयं चिट्ठे " इत्यदि सूत्र की तरह यह विधि वाक्य नहीं है । इसीलिये भगवान ने प्रतिमा के पूजन और वंदना, नमन करने आदि की आज्ञा कहीं भी सूत्र में नहीं दी પ્રમાણે જ વંદન નમન કરવાં જોઇએ. તેા આ જાતનું કથન ચેગ્ય નથી, કેમકે આ ચિતાનુવાદ રૂપ છે. ભાવા —ગમે તે શ્રાવક આમ સમજીને કે સૂત્રમાં જ્યારે દ્રૌપદીએ દડાકારે થઈને ચૈત્ય વદન કર્યું છે તે આ સૂત્રને જ પ્રમાણુ સ્વરૂપ માનીને અમારે પણ આ પ્રમાણે જ પ્રણામ કરવા જોઇએ. તે તેમની આ વાત પણ ઠીક કહી શકાય તેમ નથી, કેમકે આ ચરિતના જ અનુવાદક છે. ચિરતનું અનુવાદક વાકય વિધેય રૂપમાં માન્ય હાતું નથી. આ સૂત્ર રતને અનુ. વાદક રૂપ છે. આને ભાવ એ છે કે આ વાકય જ્ઞાત અનેા પ્રશ્નક હાવાથી જે જે વાત જે રૂપમાં થઈ ચૂકી છે તે બધાનુ અનુવાદક રૂપ છે" जय चरे जय चिट्ठे " धत्याहि सूत्रनी प्रेम या विधिवाक्ष्य नथी. भेटला માટે ભગવાને પ્રતિમાના પૂજન અને વંદન, નમન કરવા વગેરેની આજ્ઞા સૂત્રમાં ४१२ - શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४१३ नानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति अन्यथा सूर्यादेवादिवक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते इति तदपि विधेयं स्यात् ' । ___ अत्रेदं बोध्यम्-' न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रो इत्यादि वाक्यसन्दर्भेण टीकाकारेणाभयदेवमूरिणा द्रौपद्या वन्दनमेव कृतन तु पूजनादिकमिति बोधयता तावानेव पाठः स्वीकृत इति । तस्माद् विधिरूपेण प्रति मापूजनाय भगवतोऽर्हत आज्ञा न लभ्यते इति वादस्तावदास्ताम् , चरितानवादरूपेणापि शास्त्रे भगवताऽहत्मतिमापूजनं कापि नोक्तमिति सिद्धम् । एवं चायमेहै चरितानुवादरूप वाक्य में विधि और निषेध बोधकता संभवित नहीं होती है इसी ध्येय से " न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति" ऐसा माना जाता है नहीं तो फिर, सूर्याभदेव द्वारा जिस प्रकार बहुत शस्त्र आदि वस्तुओं का पूजन करना सुना जाता है उसी प्रकार प्रतिमा पूजकों के लिये भी इनका पूजन विधेय मान लेना चाहिये। भावार्थ-" न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवंदनमभिहितं सूत्रे" इत्यादि वाक्य के द्वारा टीकाकार अभयसूरि ने इतना ही पाठ स्वीकृत किया है कि द्रौपदी ने सिर्फ वंदना ही की है, प्रतिमापूजन नहीं इसलिये इससे यह बात सिद्ध हो जाती है जब चरितानुवाद रूप से भी शास्त्र में कहीं भी भगवान ने अहंत की प्रतिमा का पूजन नहीं कहा है। तव विधिरूप से प्रतिमा पूजन के लिये भगवान अहंत की आज्ञा है ऐसी मान्यता कोरी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार स्थानकકઈ પણ સ્થાને કરી નથી. ચરિતાનુવાદ રૂપ વાક્યમાં વિધિ અને નિષેધ माता सवित थती नथी. २मा ध्येयथी (न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाघकानि भवन्ति ) सेम मानवामा मावे छे. नति२ ५छी सूर्यालय વડે જેમ ઘણાં શસ્ત્રો વગેરે વસ્તુઓની પૂજા કરેલી વાત સંભળાય છે તેમજ પ્રતિમા પૂજકોના માટે પણ એમની પૂજા વિધેય રૂપમાં માની લેવી જોઈએ. भावार्थ- " न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवदनमभिहित सूत्रे" વગેરે વાકય દ્વારા ટીકાકાર અભયદેવસૂરિએ આટલા પાઠને જ સ્વીકાર કર્યો છે કે દ્રૌપદીએ ફક્ત વંદના જ કરી છે. પ્રતિમા પૂજા નહિ. એથી આ વાત સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ થઈ જાય છે કે જ્યારે ચરિતાનુવાદ રૂપથી પણ શાસ્ત્રમાં કોઈ પણ સ્થાને ભગવાને અર્હ°તની પ્રતિમાના પૂજન વિષે કહ્યું નથી. ત્યારે વિધિ રૂપથી પ્રતિમા પૂજન માટે ભગવાન અહંતની આજ્ઞા છે એવી માન્યતા ફક્ત કલ્પના માત્ર જ છે. આ પ્રમાણે સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયની આ માન્યતા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तद्रूपः स्थानकवासिनां सिद्धान्तः शास्त्रानुकूलः सत्य इति निश्चीयताम् । अर्हद्वन्दनमपि द्रौपद्या न कृतमित्यग्रे सप्रमाणं निरूपयिष्यामः । किं च-प्रतिमापूजकानां प्रमाणभूते महानिशीथसूत्रेऽपि 'प्रतिमापूजायाः सावद्यतया तदर्थ जिनालयविधानं सावधं भवतीति मत्वा द्रव्यलिङ्गिभिः पृष्टेन कुवलयप्रभनाम्नाऽनगारेण निगदितं सावद्यमिदं नाहं वाङ्मात्रेणापि कुर्वे" इति । तदेवमनेन भणतासता तीर्थकरनामगोत्रं कर्मार्जितम् । एकभवावशेषीकृतश्च भवोदधिः । ततस्तैः सर्वैरेकमतं कृत्वा तस्य सायद्याचार्य इति नाम दत्तं प्रसिद्धिनीतं च । इति प्रतिबोधितम् । वासी संप्रदाय की यह मान्यता निर्दोष एवं शास्त्रानुकूल और सत्य है कि अर्हत की प्रतिमा बनाकर पूजना शास्त्र हितमार्ग से विपरीत मार्ग है । अहंत की प्रतिमा की वन्दना भी द्रौपदी ने नहीं की है इस बात को भी हम आगे प्रमाण देकर पुष्ट करेंगे। किञ्च-प्रतिमापूजकों द्वारा प्रमाणरूप से स्वीकृत महानिशीथ सूत्र में भी यही समझाया गया है कि प्रतिमापूजन स्वयं एक सावद्यकर्म है, उसके निमित्त जनालय आदि बनवाना भी सावद्यकर्म हैं। ऐसा समझकर-कुवलयप्रभनामक आचार्य ने द्रव्य लिंगियों द्वारा पूछे जाने पर यही उत्तर दिया है कि ये सब सावद्यकर्म हैं, मैं अपने वचनों से भी इस विषय का जरा भी मंडन नहीं कर सकता हूं" इस प्रकार कहने वाले उन कुवलयप्रभनामक आचार्यने तीर्थकर नाम गोत्र कर्म उपार्जन करके एकभवावतारी बने । सावद्यकर्म निषेध करने वाले होने से નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્રાનુકૂલ અને સત્ય છે કે અર્વતની પ્રતિમા બનાવીને પૂજવી શાસ્ત્રવિહિત માર્ગથી ઉલટે માર્ગ છે. અર્વતની પ્રતિમાની વંદના પણ દ્રૌપ દીએ કરી નથી. આ વાતને પણ અમે આગળ સપ્રમાણસિદ્ધ કરવા પ્રયત્ન કરીશું. અને બીજું પણ કે-પ્રતિમા પૂજકે વડે પ્રમાણ રૂપે સ્વીકૃત મહાનિશીથ સૂત્રમાં પણ એ જ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે પ્રતિમા પૂજન જાતે એક સાવદ્ય કર્મ છે. તેના નિમિત્ત જીનાલય વગેરે બનાવવા તે પણ સાવદ્ય કર્મ છે. એમ જાણીને જ કુવલયપ્રભ નામના આચાર્ય દ્રવ્યલિંગિઓ વડે પૂછાએલા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે કે આ બધું સાવદ્યકર્મ છે. હું મારા વચનથી પણ આ વિષયનું જરાય પણ મંડન કરી શકું તેમ નથી. આ રીતે કહેનાર તે કુવલયપ્રભ નામક આચાર્ય તીર્થંકર નામ ગોત્રકમ ઉપાર્જન કરીને એક ભવાવતારી બન્યા. સાવદ્યકમ નિષેધ કરનાર હોવાથી તે ત્યવાસીઓએ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा भगवान् श्री वर्धमानस्वामी गौतमं प्रति कथयति - अस्या ऋषभादिचतुर्वि शतिकायाः प्राक् अतीतकालेन याऽतीता चतुर्विंशतिका, तस्यां मत्सदृशः सप्तहस्ततनुर्धर्मश्रीनामा चरमतीर्थङ्करो बभूव, तस्मिञ्च तीर्थङ्करे सप्ताश्चर्याणि अभूवन् । असंयत पूजायां प्रवृत्तायामनेके श्राद्धेभ्यो गृहीतद्रव्येण स्वस्वकारितचैत्यनिवासि नोऽभूवन् तत्रैको मरकतच्छविः कुवलयमभनामा नगारो महातपस्वी उग्रविहारी शिष्यगणपरिवृतः समागात्, तैवैन्दित्वोक्तम्, तदेव तत्रत्यप्रकरणं प्रदर्श्यते, तथा हि-- महानिशीथसूत्रे पञ्चमाध्ययने , ४१५ जहा णं भयवं ! जइ तुममिहाइ एगवासारत्तियं चाउम्मासिय पउंजियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालया भवंति नृणं तज्झाणणत्तीए ता कीरउ अणुग्गहमम्हाण उन चैत्यवासियों ने मिलकर उनका नाम 'सावद्याचार्य' रख दिया, और प्रसिद्ध भी कर दिया। जैसे- भगवान् श्री वर्धमानस्वामी गौतम प्रति कहते हैं - इस ऋषभादि चौवीसी के पहले भूतकाल में जो चोवीसी होगई है उस चौवीसी में मेरे जैसा सात हाथप्रमाण शरीर वाला धर्म श्री नामका अंतिम तीर्थकर हो गया है, उस तीर्थकर के समय में सात आश्चर्य हुए थे, उनमें " असंयतपूजा" नामका एक आश्चर्यथा । उस असंतपूजाकी प्रवृत्ति होनेपर बहुत से साधु श्रावकों के पैसों से अपने अपने बनवाये हुये चेत्योंमें निवास करते थे अर्थात् चत्यवासी हो गये थे, वहां पर एक श्याम कांतिवाले कुवलयप्रभ नाम के मुनि महातपस्वी उग्रविहारी शिष्यपरिवार सहित पधारे थे, उनको उन चैत्यवासियों ने वंदना कर के जो कहा सो इस प्रकार है । जिस पाठ का यह कथानक है वह पाठ इस प्रकार है તેમનું નામ “ સાવદ્યાચાય ” એ પ્રમાણે રાખ્યું અને પ્રસિદ્ધ પણ કર્યું. જેમકે ભગવાન્ શ્રી વર્ધમાનસ્વામી ગૌતમને કહે છે કે-આ ઋષભાદિ ચૌવીસીના પહેલા ભૂતકાળમાં જે ચાવીસી થઈ ગઈ છે તે ચાવીસીમાં મારા જેવા સાત હાથ પ્રમાણ શરીરવાળા ધર્મશ્રી નામના છેલ્લા તીર્થંકર થઈ ગયા છે. તે તીર્થંકરના સમયમાં સાત આશ્ચર્યોં થયા હતા, તેમાં અસયતપૂજા ’ નામનું એક આન્ધ્ર હતું તે અસયત પૂજાની પ્રવૃત્તિ થઈ ત્યારે અનેક સાધુ શ્રાવકાના પૈસાથી પાતપેાતાના માટે અનાવરાવેલા ચૈત્થામાં વાસ કરતા હતા અર્થાત્ ચૈત્યવાસી થઇ ગયા હતા. ત્યાં એક શ્યામ વર્ણવાળા કુવલયપ્રભ નામના મુનિમહારાજ કે જેએ મહા તપસ્વી, ઉગ્ર વિહારી હતા, તેઓ પેાતાના શિષ્ય પરિવાર સહિત ત્યાં પધાર્યાં હતા તેમને તે ચૈત્યવાસીઆએ વંદના કરીને જે કહ્યું તે આ પ્રમાણે છે— શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे हे चाम्पासियं । ताहे भणियं तेण महाणुभागेणं - गोयमा ! जहा भो भो पियंवए ! जइ वि जिणालए तहा वि सावज्जमिणं णाहं वायामितेणं पि आयरिज्जा । एवं च समयसारपरं तत्तं जहट्ठियं अविपरीतं णीसंकं भणमाणेण तेर्सि मिच्छद्दिद्विलिंगीणं साहुवेसधारीणं मज्झे गोयमा ! आसंकालियं तित्थयरनामकम्मगोयं तेणं कुत्रलयप्पभेणं, एगभवाव से सीकओ भवोयही ।। इति । छाया-यथा खलु भगवन् ! यदि त्वमिहापि एकवर्षारात्रिकं चातुर्मासिकं प्रयोतृणामिच्छया अनेके चैत्यालया भवन्ति नूनं । तद्ध्यानाज्ञप्त्या तस्मात् करोतु अनुग्रहमस्माकम् इहैव चातुर्मासिकम् । तदा भणितं तेन महानुभागेन गौतम ! यथा भो भो प्रियवंदाः ! यद्यपि जिनालयः, तथापि सावधमिदं नाहं वाङ्मात्रेणापि आचरामि । एवं च समयसारवरं तत्त्वं यथास्थितम् अविपरीतं निःशङ्कं भणता तेषां मिथ्यादृष्टिलिङ्गिनां साधुवेषधारिणां मध्ये गौतम ! आसंकलितं तीर्थकरनामकर्मगोत्रं तेन कुवलयप्रभेण एकभवावशेषीकृतो भवोदधिः ॥ इति 66 जहा णं भयचं ? जइ तुममिहाइ एकवासारत्तियं चाउम्मासियं पउंजियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालया भवंति नृणं तज्झाणपत्तीए, ता कीरड अणुग्गहमम्हाणं इहेब चाउम्मासियं । ताहे भणियं तेण महाणुभागेणं गोयमा ! जहा भो भो पियंए जइवि जिणालए तहा वि सावज्जमिणं णाहं वायामित्तणं पि आयरिजा । एवं च समयसार परं तत्तं जहट्ठियं अविपरीतं णीसंकं भणमाणेण तेर्सि मिच्छद्दिडिलिंगीण साहुवेसधारीणं मज्झे गोयमा । आसंकलियं तित्थयरनामगोत्तं तेणं कुवलयप्प भेणं एगभवाव से सीकओ भवोयही । इति (महानिशीथ पञ्चम अध्ययन ) इस सूत्र का भावार्थ इस प्रकार है हे भगवन् ! आप यहां एक वर्षारात्रिक चारमहिनें ठहरें - 66 जहा णं भयव ! जइ तुमभिहाइ एकवासारतिय चाउम्मासियं परं - जिय'ताण मिच्छाए, अणेगे चेइयालया भवति नूणं तज्झाणत्तिए ता कीरउ अणुग्गहम्माण इहेव चाउम्मासियो । ताहे भणिय तेण महाणुभागेण गोयमा । जहा भो मो पियवए जइवि जिणालए तहावि सावज्जमिणं णाहं वायामित्तेण पि आयरिज्जा । एवं च समयसारपरं तत्त' जहट्ठिय अविपरीत णीसंक भाणमाग तेसि मिच्छदिट्ठिलिंगीण साहुवे सधारीण मज्झे गोयमा ? आसकलियं तित्थयरनामगोत' तेण कुत्रलय पभेणं एगभवाव से सीकओ भवोयही । इति ( महानिशीथ पच्चम अध्ययन ) मा सूत्रना लावार्थ मा प्रमाणे छे है-हे भगवन ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४१७ हेभगवन् ! इह यदि यथा खलु त्वम् एकवर्षारात्रिकं चातुर्मासिकं तिष्ठसि प्रयोक्तृणाम् प्रवर्तकानाम् इच्छया-आज्ञया अनेके चैत्यालया नूनं भवन्ति-भविध्यन्ति, तत् तस्माद् निवासार्थमाज्ञामुपादाय इहैव चातुर्मासिकं कुरु तावदस्माकमनुग्रहं कुरु भवदीयाज्ञया बहवश्चैत्यालया भविष्यन्ति । ततश्चास्माकमुपकारः क्रिय. तामिति भावः । तदा तेषां सावधपूजायां प्रवृत्तानां द्रव्यलिङ्गिनां वचनं श्रुत्वा तेन महानुभावेन कुवलयप्रभनाम्नाऽनगारेण भणितम्-उक्तम् , यथा-भो भो प्रियंवदाः । भो देवानुप्रियाः ! यद्यपि जिनालयः, तथापि सावद्यमिदं जिनभवने कृते -अर्थात् यहीं पर चौमासा व्यतीत करें। प्रवर्तकों की आज्ञा से यहां पर अनेक चैत्यालय बन जायेंगे । इस लिये आप यहीं पर चौमासा व्यतीत करने का अनुग्रह करें । हमारे ऊपर आपका बड़ा ही अनुग्रह होगा । आपके उपदेश से निश्चय समझिये अनेक चैत्यालयों का निर्माण हो जायगा। इस प्रकार से उन व्यलिंगियों से प्रार्थित होने पर महानुभाव कुवलयप्रभ आचार्य ने कहा कि हे देवानुप्रिय ! यद्यपि तुम जिनालय के विषय में कहते हो-परन्तु-मैं इस कार्य को करवाने में श्रेय नहीं देखता हूं-कारण कि यह सावद्यकार्य है जिन भवन बनवाना और उसके बनवाने की प्रेरणा करना इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों में पृथिवीकाय आदि छह प्रकारके जीवों की विराधना होती है इसी प्रकार से पूजन करने में भी षट्काय के जीवनिकायों का आरंभ अवश्यंभावी है। इसलिये अनेक प्रकार के षटूकाय के जीवों के विघात का हेतु होने से पूजन के निमित्त भी जिन भवन का बनवाना सावद्यतर कार्य है ऐसे सावद्यतर कार्य का मैं किसी भी प्रकारसे उपदेश नहीं दूंगा । मैं कभी भी ऐसा उपदेश नहीं दूंगा कि તમે અહીં એકવર્ષીરાત્રિક-ચાર માસ–રકાઓ–એટલે કે અહીં તમે ચોમાસું પુરૂ કરે. પ્રવર્તકેની આજ્ઞાથી અહીં ઘણા ઐત્યાલયો બની જશે. એથી તમે અહીં જ ચોમાસું પુરું કરવાની કૃપા કરો, અમારા ઉપર તમારે ભારે અનુગ્રહ થશે. તમારા ઉપદેશથી અમને ચોક્કસ ખાત્રી છે કે ઘણા ઐત્યાલયનું નિર્માણ થઈ જશે. આ રીતે દ્રવ્ય લિંગિઓની પ્રાર્થના સાંભળીને મહાનુભાવ કુવલયપ્રભ આચાર્યે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! જો કે તમે જમાલયના વિષે કહો છે, પણ મને આ કામ કરાવવામાં શ્રેય લાગતું નથી, કેમકે આ સાવદ્યકર્મ છે. જીનભવન બનાવવું અને તેને બનાવવાની પ્રેરણા આપવી આ બંને જાતની પ્રવૃ ત્તિઓમાં પ્રવિકાય વગેરે છ જાતના જીવોની વિરાધના થાય છે આ રીતે પૂજા કરવામાં પણ ષકાયના જીવનિકાને આરંભ અવયંભાવી છે. એટલા માટે ઘણી જાતના ષકાયના જીવોના વિઘાતના માટે હેતુરૂપ હોવા બદલ પૂજાના માટે પણ જીનભવન બનાવવું સાવતર કાર્ય છે. એવા સાવઘતર કાર્ય श्री शताधर्म थां। सूत्र:03 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ __ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कारिते च पृथिवीकायादिषड्जीवनिकायविराधना, तथैव जिनपूजायामपि तस्मात् पूजार्थकत्वान्जिनभवनविधानं सावद्यतर, बहुतरषट्कायजीवोपघातहेतुत्वात् नाहं वाङ्मात्रेणाऽपि उपदेशदानरूपेण वाग्योगमात्रैणापि आचरामि कुर्वे जिनालयं कर्तु मुपदेशं न करिष्यामीत्यर्थः । एवं च अनेन प्रकारेण, समयसारपरं शास्त्रसिद्धान्त साराऽशेषश्रेष्ठं तत्त्वं त्रिकरणत्रियोगैः प्राणातिपातो वर्जनीय इत्यादिरूपं यथास्थितं यथावस्थितस्वरूपं प्रमाणभूतं, अविपरीत=विपर्ययज्ञानाविषयं, निश्शङ्क-संशयवर्जितं वचनं भणता-कथयता, तेषां मिथ्यादृष्टिलिङ्गिनां मिथ्यादृष्टयः कुतीथिकास्तद्वज्जीवोपघातकारिणांसाधुवेषधारिणांमध्ये हे गौतम ! आसंकलितम् सम्यक संशहीतम् उपार्जितमित्यर्थः । किमुपार्जितमित्याह-तीर्थकरनामगोत्रं तेन कुवलयप्रभेण, एकभवावशेषी कृतो भवोदधिः । सुगममेतत् । जिस में जिनालय बनवाने का विधान हो । इस प्रकार प्रवचन सिद्धान्त की सारभूत वस्तुस्थिति को यथार्थ रूप से विना किसी संकोच के प्रकट करने वाले उन मुनिराज ने उन साधुवेष धारी द्रव्यलिंगियों के बीच कि जो मिथ्यादृष्टियों की तरह जीवों की हिंसा करने में प्रवृत्त थे उनके सामने इस प्रकार शुद्ध प्ररूपणा करनेसे हे गौतम ! तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बंध किया-और संसार भी उनका एक भव मात्र बाकी रह गया इस उद्धरण से यही समझना चाहिये-कि जब प्रतिमा पूजन के लिये भी मंदिर बनवाना सावध कर्म है और इस सावद्यकार्य का उपदेश देना भी साधु के लिये वर्जनीय है-इसी अभिप्राय से कुवलयप्रभ सूरि ने इस कार्य का निषेध किया-इस निषेध से उन्हें तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म का बंध हुआ और संसार भी उनका एकभव मात्र बाकी बचा-तो फिर सर्व प्रकार से सावद्य कर्मो का परित्याग માટે હું કઈ પણ રીતે ઉપદેશ આપવા તૈયાર નથી, હું આ જાતનો ઉપદેશ કોઈપણ વખતે આપવા તૈયાર નથી કે જેમાં જીનાલય બતાવવાનું વિધાન સરખુંય હાય. આ રીતે પ્રવચન સિદ્ધાંતની સારભૂત વસ્તુસ્થિતિને સાચા રૂપમાં વગર કોઈ પણ જાતના સંકેચે–પ્રગટ કરનારા તે મુનિરાજે તે સાધુ વેશધારી દ્રવ્ય લિંગિઓની સામે કે જેઓ મિથ્યાદષ્ટિવાળાઓની જેમ જીવોની હિંસા કરવામાં પ્રવૃત્ત હતા–શુદ્ધ પ્રરૂપણા કરી. આ રીતે શધ પ્રરૂપણ કરવાથી હે ગૌતમ ! તીર્થકર નામ-ગોત્રકમને બંધ કર્યો અને સંસાર પણ એક ભવ જેટલે જ શેષ રહ્યો. આ ઉદાહરણથી આપણે એજ વાત સમજવી જોઈએ કે જ્યારે પ્રતિમા પૂજન માટે પણ મંદિર બનાવવું સાવકમ છે અને આ સાવધકાર્યને ઉપદેશ કરે પણ સાધુના માટે ત્યાજ્ય છે. આ હેતુથી જ કુવલયપ્રભસૂરીએ આ કાર્યને નિષેધ કર્યો છે. આ નિષેધથી તેમને તીર્થકર श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४१९ अद बोध्यम्-यत्र प्रतिमापूजार्थ क्रियमाणस्य जिनालयस्य वाचोपदेशकरणं सावधमिति जानता तत्परिवर्जने कृते तीर्थकर नामगोत्रं कर्म समुपार्जितं, तत्र सर्वथा सावद्यमार्ग परिवर्जयतां सर्वप्राणिरक्षणार्थमहिंसाधर्म सर्वतः प्रचारयतां प्रवचन-सिद्धान्तसार विजानतां संयममार्गे प्रवृत्तिमतां सम्यक्त्वशुद्धिमतां प्रतिमापूजामकुर्वतां तनिषेधयतां किं नामात्मनः कल्याणकरं कार्यमवशिष्टम् , इति । ____ अथ विवाहसमये द्रौपदी सम्यक्त्ववती नासोदिति वर्ण्यते-जैनागमानां विद्वांसः सम्यगिदं वदन्ति-सनिदानस्य जीवस्य निदानफलमाप्तियविन्न भवति, तावदसौ सम्यक्त्ववश्चितो जैनधर्माद् दूर एवावतिष्ठते ।। करने वाले, समस्त प्राणियों की रक्षा के निमित्त अहिंसाधर्म का प्रचार करने वाले, प्रवचन सिद्धान्त के सार को जानने वाले, संयममार्ग में प्रवृत्ति वाले, सम्यक्त्व की शुद्धि से विशिष्ट और प्रतिमा की पूजा नहीं करने वाले एवं उसका निषेध करने वाले ऐसे संयमियों का अब और कौनसा ऐसा कार्य बाकी रहा है जो उनकी आत्मा के लिये कल्याण का साधन न हो। - अब यहां इस बात का वर्णन किया जाता है कि विवाह के समय द्रौपदी सम्यक्त्ववाली नहीं थी। जैन आगमों का भलीभाँति परिशीलन करने वाले विद्वान इस बातको अच्छी तरह जानते हैं कि जिस जीव ने जो निदान किया हैजबतक उसके फल की प्राप्रि उस जीव को नहीं हो जाती-तबतक वह जीव सम्यक्त्व से वंचित रहकर जिनधर्म से दूर ही रहता है। નામ-ગોત્ર કમને બંધ થયો અને સંસાર પણ તેમને માટે એકભવ જેટલે જ શેષ રહ્યો હતો. તે પછી સર્વ રીતે સાવદ્યકર્મોનો પરિત્યાગ કરનારા બધા પ્રાણીઓની રક્ષાના નિમિત્તે અહિંસા ધર્મનો પ્રચાર કરનારા પ્રવચન સિદ્ધાંતના સારને જાણનારા, સંયમ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, સમ્યકત્વની શુદ્ધિથી વિશિષ્ટ અને પ્રતિમા પૂજા નહિ કરનારા અને તેને નિષેધ કરનારા એવા સંયમીઓનું એવું કયું કામ શેષ રહ્યું છે કે જે તેમના આત્માના કલ્યાણનું સાધનરૂપ ન હોય ? હવે અહીં આ વાતનું વર્ણન કરવામાં આવે છે કે લગ્નના વખતે દ્રૌપદી સમ્યકત્વવાળી ન હતી જૈન આગમનું સારી રીતે પરિશીલન કરનારા વિદ્વાને આ વાતને સારી પિઠે જાણે છે કે જે જીવે જે નિદાન કર્યું છે-જ્યાં સુધી તેને ફળની પ્રાપ્તિ તે જીવને થઈ જતી નથી ત્યાં સુધી તે જીવ સમ્યકત્વથી વંચિત રહીને જીનધમથી દૂર રહે છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे " पुवकयनियायेणं चोइज्जमाणी२ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ, करित्ता, एवं क्यासी-एए णं मए पंच पंडवा वरिया।" इति सूत्रपाठ प्रामाण्याद् विवाहसमये पूर्वकृतनिदानाधीनतया सम्यवत्वहित्यं द्रौपद्या आसीत् अतस्तस्यास्तदानीं श्राविकात्वं न सिध्यति युगपत् पश्चानां पतीनां वरणेन तस्याः पूर्वसंस्कारोदयवशाद् विपुलमुखभोगलालसाऽपि स्वाभाविकी, अतः सा कौमारे वयसि श्राविका नासीदिति युक्तिसिद्धस्यार्थस्यापलापः केन शक्यते कर्तुम् । द्रौपदी कस्य पूजनं कृतवतीति जिज्ञासायां निणीयते " पुचकयनिव्वाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसवण्णेणं कुलुपदामेणं आवेढिय परिवेढियं करेइ । करित्ता एवं वयासी-एएणं मए पंच पँडवा वरिया" इस प्रकार के इस प्रमाणिक सूत्र पाठ से यह स्पष्टरीति से विदित हो जाता है कि विवाह के समय पूर्वकृत निदान के अधीन होने से द्रौपदी सम्यक्त्व रहित थी इसी लिये उस समय उस में श्राविकापना भी सिद्ध नहीं होता है। तथा एक ही साथ पांच पांडवों को पतिरूप से वरण करने से उसके पूर्व संस्कार के उद्य से विपुल सुख भोगने की लालसा भी स्वभाविकी ज्ञात होती है इसलिये वह कुमार अवस्था में श्राविका नहीं थी इस युक्ति सिद्ध अर्थ का अपलाप कौन कर सकता है ! द्रौपदी ने किस की पूजा की इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर " पुव्वकयनियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पच पडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, ते पंच पडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ । करित्ता एव वयासी-एएणं मए पच पडवा वरिया" । આ જાતના આ પ્રામાણિક સૂત્રપાઠથી આ સ્પષ્ટ રૂપમાં માલુમ થઈ જાય છે કે લગ્નના વખતે પૂર્વકૃત નિદાનને સ્વાધીન હોવાને કારણે દ્રૌપદી સમ્યકતવ રહિત હતી. એટલા માટે તે સમયે તેમાં શ્રાવિકાપણું સિદ્ધ થઈ શકે તેમ નથી. તેમજ એકી સાથે પાંચ પાંડને પતિરૂપમાં વરણ કરવાથી તેના પૂર્વ સંસ્કારના ઉદયથી વિપુલ સુખ ભોગવવાની ઈચ્છા પણ સ્વાભાવિકી માલુમ થાય છે. એથી તે કુમારી અવસ્થામાં શ્રાવિકા હતી નહિ, આ યુક્તિ અર્થને પરિહાર કેણ કરી શકે તેમ છે. દ્રૌપદીએ તેની પૂજા કરી ? આ જાતની જીજ્ઞાસાને સામે રાખીને ટીકા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ___ अखण्डसौभाग्यप्रचुरभोगकामनया कामदेवस्यैव पूजनं तदानीमुपपद्यते । कामपूजनं विवाहोत्सवे विस्तरतो भवतीति लोके प्रसिद्धमस्तीति प्रतिमापूजकोऽपि श्री वर्धमान मूरिः प्रोक्तवान् । स्पष्टं चैतत् तद्विरचिते आचारदिनकरे द्वितीयविभागे--" परसमये गणपतिकन्दर्प स्थापनम् । गणपतिकन्दर्पस्थापनं सुगम लोकप्रसिद्धम् । " इति । टीकाकार निर्णय करते हैं___ अखंड सौभाग्य एवं प्रचुर भोग की इच्छा से कामदेव का ही पूजन उस समय द्रौपदी ने किया है-यही बात संगत बैठती है। लोक में भी यही व्यवहार देखा जाता है कि विवाह के समय अच्छी तरह गाजे बाजे के साथ काम देवका पूजन लोग किया करते हैं। इस बात को वर्धमान सरि भी जो प्रतिमापूजन के पक्षपाती हैं स्वीकार करते हैं और ऐसा ही कहते हैं। इसी बात का स्पष्टीकरण उन्हों ने स्वनिमित आचारदिनकर के द्वितीय विभाग में किया है-वे लिखते हैं कि - परसमये गणपतिकंदर्पस्थापनम् । गणपतिकंदर्पस्थापनं सुगम लोकप्रसिद्धम्" इति । लौकिक शास्त्रमें गणपति एवं कंदर्प ( कामदेव ) की स्थापना होती है अतः गणपति और कन्दर्पका स्थापन करना सुगम और लोकप्रसिद्ध है। કાર નિર્ણય કરતાં કહે છે કે અખંડ સૌભાગ્ય તેમજ પ્રચુર ભોગની ઇચ્છાથી જ તે સમયે દ્રૌપદીએ કામદેવનું જ પૂજન કર્યું છે, આ વાત જ યોગ્ય લાગે છે. લોકમાં પણ આ જાતને જ વહેવાર જોવામાં આવે છે કે લગ્નના વખતે વાજાઓની સાથે સારી રીતે કામદેવનું પૂજન લેકે કરતા રહે છે. આ વાતને વર્ધમાનસૂરિ પણ કે જેઓ પ્રતિમા પૂજનના તરફદાર છે-સ્વીકાર કરે છે અને આ પ્રમાણે જ કહે છે. આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ તેમણે સ્વનિર્મિત આચાર દિનકરના બીજા વિભાગમાં કર્યું છે. તેઓ લખે છે કે – "परसमये गणपतिकंदर्पस्थापनम् । गणपतिकंदर्पस्थापन सुगमं लोक प्रसिद्धम् ” इति । લૌકિક શાસ્ત્રમાં ગણપતિ અને કંદર્પ (કામદેવ) ની સ્થાપના થાય છે. તેથી ગણપતિ કંદર્પની સ્થાપના કરવી તેજ સુગમ અને લેકપ્રસિદ્ધ છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ __ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ___ "जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ " अत्र जिनशब्दः कामदेवपरः । जिनशब्दस्य बहवोऽर्थाः कोशादौ प्रसिद्धाः सन्ति । यथा अर्हन्नपि जिनश्चैव, जिनः सामान्यकेवली । कन्दर्पोऽपि जिनश्चैव, जिनो नारायणो हरिः ॥ इति (हैमी नाममाला) विजयगच्छीयः श्रीगुणसागरमूरिरपि ढालसागरनामके काव्ये षष्ठखण्डे द्रौपद्याः पूज्यदेवं निर्णीतवान् । उक्तं च तेन करि पूजा कामदेवनी भांखे द्रुपदी नार । देव दया करी मुझने भलो देजो भरतार ॥ १॥ अर्हन् सकलकर्म कषायमोहपरीषहान् जयतीति जिन उच्यते । सामान्य " जिनपडिमाणं अच्चणं करेइ" इस सूत्र में जिन शब्द जिनेन्द्र भगवान का वाचक नहीं है, किन्तु कामदेव का वाचक है क्यों कि जिन शब्द के अनेक अर्थ कोषादिक ग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं-यथा अहन्नपि जिनश्चैव जिनः सामान्य केवली । कंदर्पोऽपि जिनश्चैव जिनो नारायणो हरिः॥ इति (हैमीय नाममाला विजय गच्छीय श्री गुणसागर सूरि ने भी " ढालसागर " नाम के काव्य में छठवें खंड में द्रौपदी के आराध्य देव का निर्णय किया है। उन्होंने लिखा है करि पूजा कामदेव नी भांखे द्रुपदी नार । देव ! दया करी मुझने भलो देजो भरतार ॥१॥ इस सूत्र में अर्हन्त भगवान को 'जिन' इसलिये कहा गया है " जिनपडिमाणं अच्चणं करेइ" આ સૂત્રમાં જીન શબ્દ જુનેદ્ર ભગવાનને વાચક નથી પણ કામદેવને વાચક છે કેમકે જીન શબ્દના ઘણા અર્થો કેષ વગેરે ગ્રન્થમાં પ્રસિદ્ધ છે જેમકે अर्हन्नपि जिनश्चैव जिनः सामान्यकेवली । कदोऽपि जिनश्चैव जिनो नारायणो हरी ः ॥ इति ( है मीय नाममाला) વિજયગચ્છીય શ્રી ગુણસાગરસૂરિએ પણ “ઢાલસાગર” નામના કાવ્યના છઠ્ઠા ખંડમાં દ્રૌપદીના આરાધ્યદેવને નિર્ણય કરતાં તેમણે કહ્યું છે કે – करि पूजा कामदेवनी भांखे द्रुपदिनार । देव ! दया करी मुझने भलो दे जो भरतार ॥ १ ॥ આ સત્રમાં અહંત ભગવાનને “જિન” એટલા માટે કહ્યા છે કે તેમણે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४२३ केवल घनघातककर्मचतुष्टयं जयतीति जिन उच्यते । विष्णुः स्वभुजबलेन खण्डत्रयं जयतीति जिन उच्यते । जिनशब्दस्य कामदेवोऽर्थश्चापि संगतः, यतः संसारिणां कामदेव वशवर्तिश्वेन लोकजयकारित्वाज्जिनत्वं कामस्योपपद्यते । रूपरहितस्यापि सिद्धस्य प्रतिमां पूज्यत्वेन शास्त्रानुक्तामपि प्रतिमापूजकाः प्रकल्पयन्ति, तद्वदङ्गस्यापि कामस्य लौकिकशास्त्रमसिद्ध तद्भूयानमनुसृत्य प्रतिमा प्रकल्प्यत इति कि उन्हों ने समस्त कषाय, कर्म, मोह और परीषहों को जीता है । सामान्य केवली 'जिन' इसलिये कहे गये हैं कि उन्हों ने चार घनघातिया कर्मों को अपनी आत्मा से समूल नष्ट कर दिया है। विष्णु 'जिन' इसलिये कहलाये कि उन्हों ने अपने भुजबल से भरतरखंड के छह खंडों में से तीन खंडों को अपने वश किया है इसी लिये ये अर्द्धचक्री भी कहलाते हैं। कामदेव को 'जिन' इस लिये कहा गया है कि इसके वश समस्त त्रिलोक है त्रिलोक में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं बचा कि जिसे इस ने अपने वश में न किया हो । शंका- द्रौपदी ने कामदेव की मूर्ति की पूजा की आप की यह बात उस समय मानी जा सकती जब कि कामदेव की मूर्ति बन सकती होती ? परन्तु कामदेव की मूर्ति तो बन नहीं सकती क्यों कि वह तो अमूर्तिक- अशरीर - अनङ्ग है । अंगवाले की ही मूर्ति बनती है - अनंग की नहीं । બધા કષાય ક, મેાડુ અને પરિષહેાને જીત્યા છે. સામાન્ય કેવલી “જીન” એટલા માટે કહેવામાં આવ્યા છે કે તેમણે ચાર ધનપતિઓના કર્મને પેાતાના આત્માથી સમૂળ નષ્ટ કરી નાખ્યા છે. વિષ્ણુ ‘ જીન ' એટલા માટે કહેવાય છે કે તેમણે પેાતાના ભુજ ખળથી ભરતખંડના છ ખડામાંથી ત્રણ ખડાને પેાતાને વશ કર્યાં છે એથી તેએ અદ્ધચક્રી પણ કહેવાય છે. કામદેવને ‘જીન’ એટલા માટે કહેવામાં આવ્યા છે કે તેના વશમાં ત્રણે લેાકેા છે. ત્રણે લેાકેામાં એવું કેાઇ પ્રાણી રહ્યું નથી કે જેને કામદેવે પેાતાના વશમાં કર્યું' ન હોય. શંકા—દ્રૌપદીએ કામદેવની મૂર્તિની પૂજા કરી તે તમારી આ વાત ત્યારેજ ચેાગ્ય કહી શકાય કે જ્યારે કામદેવની મૂર્તિ ખની શકતી ય ? પણ કામદેવની મૂર્તિ તો તૈયાર થઈ શકે તેમ નથી કેમકે તે તે અમૂર્તિક-અશરીર-અનગ छे. अंगवाजानी ४ भूर्ति भने छे, अनगनी नहि. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ नास्त्यत्र संशयः । लक्ष्मीगौर्यादिदेव्या अपि स्वाभीष्टपतिप्राप्तिकामनया पूजनं लोके प्रसिद्धमस्ति । लौकिकमन्त्रशास्त्रे मन्त्ररत्नमज्जूषायां कामदेवाराधनस्याभी ष्टपतिलाभ हेतुत्वं निगदितम् - " कन्यामिष्टामवाप्नोति, सापीष्ट पतिमाप्नुयात् ॥ " इति । अधुनाऽपि परिणयनसमये कुलदेवपूजनं लोके क्रियमाणं दृश्यते । कामदेवोऽपि ज्ञाताधर्मकथासूत्रे उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है क्यों कि मूर्ति पूजक जन अनङ्ग - सिद्धों की भी तो मूर्ति बनाकर उसकी पूजा किया करते हैं । यद्यपि सिद्धों की मूर्ति बनाने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं कही गई है तो भी मूर्तिपूजक जन अपनी कल्पना से उनकी भी मूर्ति बनाकर पूजा करते ही हैं - उसी प्रकार लौकिकशास्त्र प्रसिद्ध अनङ्ग कामदेव की भी लोग अपनी कल्पनासुर मूर्ति बनाकर पूजते हैं । इस में आपत्ति की कौनसी बात है । लक्ष्मी, गौरी आदि देवियों की भी पूजा लोक में अपने को अभि लषित पनि प्राप्ति की कामना से स्त्रियों द्वारा की ही जाती है । लौकिक मन्त्र शास्त्र में मंत्ररत्नमंजूषा में कामदेव का आराधन - " कन्यामिष्टामवाप्नोति सापीष्टं पतिमाप्नुयात्' इस श्लाकार्धद्वारा इच्छित पति प्राप्ति का कारण कहा गया है । वर्तमान समय में भी देखो ! विवाह के समय में लोक में कुल देवता का पूजन किया ही जाता है यह कुल देवता का पूजन ही एक ઉત્તર—આ વાત ચેગ્ય નથી, કેમકે મૂર્તિ પૂજા કરનારા લેાકેા અનગ સિદ્ધોની મૂર્તિ મનાવીને તેની પૂજા કરતા રહે છે. જો કે શાસ્રોમાં સિધ્ધાની મૂર્તિ ખનાવવાની આજ્ઞા કરવામાં આવી નથી છતાંય મૂર્તિ પૂજક લેાકેા પેાતાની કલ્પનાથી તેમની પણ મૂર્તિ ખનાવીને પૂજા કરે જ છે. તેમજ લૌકિક શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ અનંગ કામદેવની પણ લેાકેા પેાતાની કલ્પના મુજબ મૂર્તિ બનાવીને તેને પૂજે છે, આમાં વાંધા જેવી કાઈ વાત નથી. લક્ષ્મી, ગૌરી વગેરે દેવીએની પૂજા લેાકમાં પેાતાની ઇચ્છા મુજબ પતિ મેળવવાની કામનાથી સ્ત્રીએ વડે કરવામાં આવે જ છે. લૌકિક મંત્ર શાસ્ત્રમાં मंत्र रत्न मंभूषाभां अमहेवनुं आराधन “ कन्यामिष्टामवाप्नोति साभीष्ट पति माप्नुयात्” मा अर्द्धाश्सोऽ पछि प्रतिप्रासिनुं २७ मताववामां आव्युं छे. વમાન સમયમાં પણ આપણે જોઇએ તે લગ્નના સમયે લેાકમાં કુળ દેવતાનું પૂજન કરવામાં આવે જ છે. આ કુળદેવતાનું પૂજન જ એક રીતે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४२५ रागवतां गृहस्थानां कुलदेवत्वेन व्यवह्रियमाण आसीत् । द्रौपद्याऽपि स्वकुलदेवः पूजित इति युक्तमुत्पश्यामः । अत्र - " नमोऽस्थु णं अरिहंताणं " इति पाठस्तु प्रवचनविरुद्ध एव वर्तते, लौकिक कुल देवप्रतिमाऽचैनप्रकरणे लोकोत्तरस्य भगवतोऽर्हतः प्रसङ्गाभावात् । पूर्वभवकृत निदानवत्याः कामभोगानुरक्त्या द्रौपद्याः कामदेवार्चनसमये कामभोगविरतस्य वीतरागमार्गोपदेशक्रस्य वीतरागस्य भगवतोऽर्हतो वन्दनं नैव शास्त्रानुकूलम् । अत्र परिणयावसरे कुलदेवपूजनप्रसङ्गे भगवतोऽर्हतः प्रसङ्गएव नास्ति, तरह से कामदेव का पूजन अनुसरण है। एक समय था कि जब कामदेव ही, रागशाली गृहस्थ जनों के लिये कुल देवता के रूप से वैवाहिक व्यवहार में मान्य होता था । द्रौपदीने भी उस समय जो कुल देवता का पूजन किया- वह कामदेव का ही पूजन किया यही युक्ति संगत बैठती है । इस पूजन के प्रकरण में जो " नमोत्धुणं अरिहंताणं " यह पाठ आता है वह प्रवचन विरुद्ध ही है क्यों कि लौकिक कुल देवता की प्रतिमा के अर्चन - प्रकरण में लोकोत्तर अर्हत भगवान के प्रकरण का संबंध ही क्या है । उस समय जब कि वह पूर्व भव में किये गये निदान से युक्त थी - और कामभोग में अनुरक्त हृदयवाली थी उस के लिये कामदेवका अर्चन (पूजन) करनेका समय ही स्पष्टरूपसे ज्ञात होता है कामभोगों से विरत वीतराग मार्ग के उपदेशक वीतरागप्रभु अर्हत भगवान की पूजन वंदना का नहीं । यही सिद्धान्त शास्त्रनुकूल है - अन्य नहीं । अरे कहीं કામદેવની પૂજનનું અનુસરણ છે. એક વખત એવા હતા કે જ્યારે કામદેવજ, રાગશાળી ગૃહસ્થ લેાકેાને માટે કુળ દેવતાના રૂપમાં લગ્ન-સંબધી વ્યવહારમાં માન્ય ગણાતા હતા. દ્રૌપદીએ પણ તે સમયે જે કુળ દેવતાનું પૂજન કર્યું તે કામદેવનું જ પૂજન કર્યું હતું એ જ વાત ખરાખર લાગે છે. આ પૂજનના પ્રકરણમાં જે " नमोत्थूण अरिहंताणं " मा पा भावे हे ते अवयन વિરૂદ્ધજ છે કેમકે લૌકિક કુળદેવતાની પ્રતિમાના અન-પ્રકરણમાં લેાકેાત્તર અર્હત ભગવાનના પ્રકારણના સ`બંધ જ શી રીતે ચેાગ્ય કહી શકાય તે વખતે કે જ્યારે તે પૂર્વ ભવમાં કરેલા નિદાનથી યુક્ત હતી અને કામભેાગમાં અનુ રક્ત હૃદયવાળી હતી એવી સ્થિતિમાં તે તેના માટે કામદેવની અર્ચના કર વાના વખત જ સ્પષ્ટ રૂપે જણાઇ આવે છે. કામલેગાથી વિરત વીતરાગ માગના ઉપદેશક વીતરાગ પ્રભુ અર્હત ભગવાનની પૂજા ના માટે તે વખત ચગ્ય કહી શકાય નહિ, આ સિધ્ધાંત જ શાસ્ત્રાનુકૂળ છે ખીને નહિ. યુધ્ધમાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे द्रौपद्याः पूर्वभवकृतनिदानफलप्राप्त्यभावेन सम्यक्त्वरहितत्वात् । यस्य पूजनं तस्यैव वन्दनं तु न्यायोपपन्नं भवति, अत्र पूजनं कुलदेवतायाः, वन्दनं तु वीतरागस्याहत इति लोकन्यायविरुद्धम् । तस्माद् द्रौपद्या वीतरागस्याहतो वन्दनमपि तदानीं न कृतमिति सर्वप्रमाणसिद्धम् । अत्राभयदेवमरिणा स्वकृतवृत्तौ यदुक्तम् एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते "जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ ” इति । वीररसके सिवाय युद्ध में जाने वाले वीरके लिये मल्हारराग भी आनंददायी हो सकता है ?। कभी नहीं परिणय-विवाहके अवसर में कुलदेवता की ही पूजा करने का प्रसंग होता है-न कि भगवान अहंत की। अतः इस प्रकार का प्रसंग मानना एक मनगढंत कल्पना मात्र ही है ! क्यों कि इस समय द्रौपदी पूर्वभव में किये हुए निदान की फल प्राप्ति के अभाव से सम्यक्त्व रहित थी, फिर उसे उस समय कामदेव की ही इच्छित फल प्राप्ति के लिये पूजा की सूझेगी, या उसके अभाव को करने वाले जिन भगवान की पूजा की। यह स्वयं विचारने जैसी बात है जिस का पूजन किया जाता है उसी की बंदना की जाती है-पूजन तो हो कुलदेवतारूप कामदेव का और वंदना की जाय वीतराग प्रभु श्री अरिहंत देव की। इस प्रकार की मान्यता तो लौकिकरीति से भी विरुद्ध पड़ती है। इसलिये सर्व प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि द्रौपदी ने जिनप्रतिमा का पूजन नहीं किया। જનાર લડવૈયા માટે વીર રસ સિવાયને મલ્હાર રાગ પણ શું આનંદ પમાડનાર થઈ શકે છે? નહીંજ લગ્નના સમયે તે ભગવાન અહંતની પૂજા કરતાં તે કુળદેવતાની પૂજા કરવાનો પ્રસંગજ ગ્ય લેખાય છે. એટલા માટે આ જાતના પ્રસંગની વાત માનવી એ મનમાની કલ્પના માત્રજ છે. કેમકે આ સમયે દ્રૌપદી પૂર્વભવમાં કરેલા નિદાનની ફળ પ્રાપ્તિના અભાવને લીધે સમ્યકત્વથી રહિત હતી અને એવી સ્થિતિમાં ઈચ્છિત ફળ પ્રાપ્તિ માટે તેને કામદેવની પૂજા કરવાની ઈચ્છા થાય કે તેનાથી વિરૂધ્ધ ફળ આપનાર અને ભગવાનની પૂજાની ? આ જાતે વિચાર કરવા ગ્ય વાત છે. જેની પૂજા કરવામાં આવે છે. તેને જ વંદના કરવામાં આવે છે. પૂજા તે કુળ દેવતારૂપ કામદેવની થાય અને વંદના વીતરાગ પ્રભુ શ્રી અરિહંત દેવની કરવામાં આવે. આ જાતની માન્યતા તે લૌકિક રીતિથી પણ વિરૂધ્ધ છે. આ પ્રમાણે બધી રીતે વિચારતાં આ સિદ્ધ થાય છે કે દ્રૌપદીએ જન પ્રતિમાનું પૂજન કર્યું નથી. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वाचनान्तरे तु ' व्हाया ' इत्यादि, तथा - द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति, तदप्यत्र पाठे सिद्धान्तविरुद्ध पाठप्रक्षेप संभावनां प्रद्योतयति । अत्र यद्वाच्यं तत्प्रागेव निगदितम् । ४२७ मूलम् - तणं तं दोवइरायवरकन्नं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूतियं करेति किं ते ? वरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचक्कवालमयहरगविंद परिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइपडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव चाउ - घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, तएणं से धट्टज्जुणे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ, तपणं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सयवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रहं ठवेइ रहाओ पच्चोरुes पञ्च्चोरु पहाया अभयदेव सूरि ने स्वरचित वृत्ति में जो यह कहा है कि एक वाचना में " जिनपडिमा अवणं करेइ " दूसरी अन्य वाचना में " इत्यादि - तथा द्रौपद्याः प्रणिपात दण्डकमात्र चे युवंदनमभिहितं सूत्रे इति" सो यह उनका कथन इस बात की संभावना को प्रकट करता है कि इस पाठ में सिद्धान्त से विरुद्ध पाठ का प्रक्षेप हुआ है । इस विषय में जो कुछ हमें समाधान करना था वह हमने पहिले ही कर दिया है । ॥ द्रौपदी पूजाचर्चा समाप्त ॥ हाया इत्यादि तथा द्रौपद्याः તે અભયદેવસૂરિએ સ્વરચિત વૃત્તિમાં જે એ કહ્યું છે કે એક વાચનામાં " जिनपरिमाणं अच्वण करेइ " मी वाथनामां " प्रणिपातदण्डक पात्र चैत्यवदनमभिहित सूत्रे इति । " વાતને પ્રકટ કરે છે કે આ પાઠમાં સિધ્ધાન્તથી વિરૂધ્ધ થયા છે. આ વિષે જે કઈ ચાગ્ય સ્પષ્ટીકરણ કરવાનું उरी हीधु छे. દ્રૌપદી પૂજા ચર્ચા સમાપ્ત. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ તેમનું આ કથન આ એવા પાઠના પ્રક્ષેપ હતું તે અમે પહેલાં Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे हित्ता किड्डावियाए लोहियाए य सद्धिं सयंवरमंडपं अणुपविसइ अणुपविसित्ता करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ, तएणं सा दोवई रायवर० एगं महं सिरिदामगंडं किं ते ? पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धाणिं मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिजं गिण्हइ, तएणं सा किड्डाविया जाव सुरूवा जाव वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकंतबिंबसंदसिए य से दाहिणेणं हत्थेणं दरिसए पवररायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीर महुरभणिया सा तेसि सव्वेसि पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंससत्तसामत्थगोत्तविकंतिकांत बहुविह आगममाहप्परूवजावणगुणलावण्णकुलसील जाणिया कितणं करेइ, पढमंताव वहिपुंगवाणं दसदसारवीरपुरिसाणं तेलोक्कवलवगाणं सत्तुसयसहस्तमाणावमहगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलबीरियरूव. जोवणगुणलावन्नकित्तिया कित्तणं करेइ, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं, भणइ य-सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिस गंधहत्थीणं । जो हु ते होइ हिययदइओ, तएणं सा दोबई रायवरकन्नगा वहणं रायवरसहस्साणं मज्झं मज्झेणं समतिच्छ माणीर पुवकयणियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ते पंचपंडवे तेणं दसवण्णणं कुसुमदामणं आवेढियपरिवेढियं करेइ करिता एवं वयासीएएणं मए पंच पंडवा वरिया, तएणं तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४२९ बहूणि रायसहस्साणि महयारसदेणं उग्घोसेमाणा२ एवं वयंति सुवरियं खलु भो ! दोवइए रायवरकन्नाए २ तिकट्टु सयंवरमंड - वाओ पडिनिक्aमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता, तएणं धट्टज्जुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोवई रायवरकण्णं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ दुरूहित्ता कंपिल्लपुरं मज्झं मज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसइ, तरणं दुवए राया पंच पंडवं देवई रायवरकन्नं पट्टयं दुरूहेइ दुरूहित्ता सेया पीएहि कलसेहिं मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोमं कारवेइ पचपहं पंडवाणं दोवईए य पाणिग्गणं करावेइ तरणं से दुवए राया दोवईए रायवरकण्णयाए इमं एयारूवं पीईदाणं दलय, तं जहा - अट्ट हिरण्णकोडीओ जाव अटू पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विउलं धणकणग जात्र दलयइ तणं से दुवए राया ताइं वासुदेवपामाक्खाणं विउलेणं असण४ गंध जात्र पडिविसज्जेइ ॥ सू० २१ ॥ टीका-' तरगं तं ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु तां द्रौपदों राजवरकन्यां ' अंते उरियाओ' आन्तः पुरिक्यः = अन्तःपुरवर्तिन्यः स्त्रियः सर्वालंकारविभूषितां कुर्वन्ति, ' किं ते ' तत् तत्सौन्दर्य किं वर्णयामि तद् वाचाऽभिलपितुं न तए णं तं दोवई रायवरकन्न' इत्यादि । टीकार्थ - (तए णं) इसके बाद (तं दोवई रायवरकन्न) उस राजवर कन्या द्रौपदी को ( अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेति ) अतः पुर की स्त्रियों ने समस्त अलंकारों से विभूषित किया । ( किंते ) उस समय तएण त दोबई रायवरकन्नं इत्यादि ढीअर्थ – (तए ण) त्यापछी (त' दोबई रायवरकन्नं) ते शनवर उन्या द्रौपदीने ( अंते उरियाओ - तव्वाल कारविभूसियं करें ति ) रवासनी खीथे।यो समस्त असं आरोथी शशुगारी. ( किं वे ) ते सभयना तेना सौंहर्यनुं वन શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे शक्यत इत्यर्थः । 'वरपायपत्तणेउरा' वरपादप्राप्तनूपुरा चरणस्थापित प्रशस्तनूपुरा यावत्- चेडियाचकवालमयहरगविन्दपरिक्खित्ता चेटिकाचक्रवालमहतरक वृन्देन-अनेकदासीमहत्तरसमूहेन परिसिप्ता-परिवृता, अन्तःपुरात् प्रतिनिष्कामति -निः सरति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव बाह्या-बहिः प्रदेशस्था ' उवट्ठाणसाला' उपस्थानशाला आस्थानमण्डपः-सभामण्डइत्यर्थः, यत्रैव चातुर्घण्टोऽश्वरथस्तौवोपागच्छति, उपागत्य — किडावियाए ' क्रीड़िकया-क्रीड़नधाच्या कीदृश्या कीडिकया. इत्याह 'लेहियाए' इति लेखिकया राजकुलवंशनामादिपरिचारिकया साधै के उसके सौन्दर्य का हम क्या वर्णन करें। वह वाणी द्वारा कहने के योग्य नहीं है अर्थात् वाणी से उसका वर्णन नहीं हो सकता है । (वर पायपत्तणेउरा जाव चेडियाचकवालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंते उराओ पडिणिक्खमइ ) चरणों में स्थापित किये गये हैं-पहिराये गये हैं-प्रशस्तनू पुर जिसको ऐसी वह द्रौपदी यावत् अनेक समझदार दासियों के महामहिम समूह से परिक्षिप्त होकर-अंतःपुर से बाहिर निकली । (पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउरघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ) बाहिर निकलकर वह जहां बाहिर में सभामंडप और उसमें भी जहां चारघंटों वाला अश्वरथ था वहां आई। वहां आकर वह अपनी क्रीडनधात्री के कि जो लेखिका राजकुल, वंश नाम आदि की परिचायिका थी साथ उस चारघंटोंवाले આપણે કેવી રીતે કરી શકીયે. વાણી વડે તેનું વર્ણન અશક્ય છે એટલે કે વાણીમાં એટલી શક્તિ નથી કે તેના સૌંદર્યનું સચોટ વર્ણન કરી શકે. __ (वरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचक्कवालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिवखमइ) પગમાં જેણે સુંદર નૂપુર પહેર્યા છે એવી તે દ્રૌપદી ઘણી ચતુર દાસીએથી વીંટળાઈને રણવાસથી બહાર નીકળી. ( पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ ) બહાર નીકળીને તે જ્યાં બહારના સભામંડપમાં ચાર ઘટવાળા અશ્વ રથ હતું ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તે પિતાથી કિડન ધાત્રી-કે જે લેખિકા રાજકુલ, વંશ નામ વગેરેની પરિચારિકા હતી તેની સાથે તે ચાર ઘંટવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઈ ગઈ. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४३१ चातुर्घण्टमश्वरथं ' दुरूहइ' दोहति आरोहति । ततस्तदनन्तरं धृष्टद्युम्नः कुमारो द्रौपद्याः कन्यायाः 'सारत्यं' सारथ्य-सारथिकर्म करोति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य मध्यमध्येन यचैव स्वयम्वरमण्डपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्थं स्थापयति रथात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरूह्य क्रीडिकया लेखिकया च साध स्वयंवरमण्ड पम् अनुप्रविशति, अनुपविश्य करतलपरिगृहीत दशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तेषां वासुदेवपमुखाणां बहूणं राजवरसहअश्वरथ में सवार हो गई। (तएणं से धट्ठज्झुण्णे कुमारे दोवईए कन्नाए सारत्थं करेइ, तएणं सा दोवइ रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झं. मज्झेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ ) उस के सवार होते ही धृष्टद्युम्न कुमार ने उस द्रौपदी कन्या का मारथ्य किया-उसके रथ पर सारथि का काम किया-द्रौपदी के रथ को हांका। इस तरह धृष्ट द्युम्न के द्वारा हांके गये रथ पर बैठी हुई वह राजवर कन्या द्रौपदी कांपिल्य पुर नगर के बीच से होकर जहां स्वयंवर-मंडप था उस ओर चल दी। ( उवागच्छित्ता रहं ठवेइ रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ) वहां पहुंचकर उसने रथ को खड़ा करवा दिया-रथके खड़े होते ही वह उससे नीचे उतरी, नीचे उतर कर वह उस लेखिका क्रीडन धात्री के साथ स्वयंवर मंडप में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर के उसने अपने दोनों हाथों को जोड कर उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को प्रमाण (तएणं से धद्वज्जुण्णे कुमारे दोचईए कनाए सारत्थं करेइ, तएणं सा दोवइ रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नगरं मज्झं मझेर्ण जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ) જ્યારે તે સવાર થઈ ગઈ ત્યારે કુમાર ઘણgને તે દ્રૌપદી રાજવર કન્યાના રથ ઉપર બેસીને સારથીનું કામ સંભાળ્યું. આ પ્રમાણે ધૃષ્ટદ્યુમ્ન વડે હાંકવામાં આવેલા તે રથ ઉપર સવાર થઈને તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી કાંપિલ્યપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યાં સ્વયંવર મંડપ હતા ત્યાં રવાના થઈ. ( उवागच्छित्ता रहं ठवेइ रहाओ पचोरुहइ, पचोरुहिता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरमंडवं अणुपविसइ, अणुवविसित्ता करयल तेसिं वासुदेव पामुक्खाणं बहूर्ण रायवरसहस्साणं पणामं करेइ) ત્યાં પહોંચીને તેણે રથને થોભાવડા, જયારે રથ થંભ્યો ત્યારે તે રથ ઉપરથી નીચે ઉતરી, નીચે ઉતરીને તે લેખિકા ક્રીડન ધાત્રીની સાથે સ્વયંવર મંડપમાં પ્રવિષ્ટ થઈ. પ્રવિષ્ટ થઈને તેણે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાઓને પિતાના બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યો. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे त्राणां प्रणामं करोति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या एकं महत् श्रीदामकाण्डं 'किं ते ' किं तत्-तत्सौन्दर्यसौगन्ध्यवर्णनं किं करोमि ? तद् अपूर्वमितिभावः । 'पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं' पाटलमल्लिकाचम्पक-यावत् सप्तच्छदादिभिः गंधद्धाणि ' गन्धधाथि गन्धवृप्ति 'मुयंत ' मुश्चत् ददत् प्रकाशयदित्यर्थः परमसुखस्पर्श दर्शनीयं गृह्णाति । ततः खलु सा क्रीडिका-क्रीडनधात्री यावत्मुरूपा जाव 'वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं ' यावत् वामहस्तेन चिल्लगं दर्पणम् अत्र यावच्छब्देनेदं बोध्यम्-साभावियघंसं चोदह जणस्स उस्मुयकर विचित्तमणिरयणबद्धच्छरुहं ' इति । स्वाभाविकघर्ष =स्वाभाविको नैसर्गिको घर्षों घर्षणं यत्र स तथा तं दर्पणमित्यन्वयः । स्वभावादेव चिक्कणमित्यर्थः, तथा-चतुर्दशजनस्यौत्सुक्यकरं तरुणलोकस्य प्रेक्षणाभिलाषजनकं, तथा-विचित्रमणिरत्नबद्धच्छरूकं-विचित्रमणि रत्नबद्धः छरुको-मुष्टि ग्रहणस्थानं, यस्य स तथा तं, तथा-' चिल्लगं' देदीप्यमानं, दर्पणं-वामहस्तेन "गहे उण" गृहीत्वा 'सललियं' सललितं 'दप्पणकिया (तए णं सा दोवई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंड किंते ? पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्वाणि मुयंत परमसुहफासं दरिसणिज्जं गेण्हइ) इसके बाद उस राजवर कन्या द्रौपदी ने एक बडा विस्तृत श्री दामकांड-जिस की सुन्दरता और सुगंधि का हम क्या वर्णन करें-जो अपूर्व था-पाटक-गुलाब के पुष्पों से, मल्लिका-मोघरा के पुष्पों से यावत् सप्तच्छद वृक्ष के पुष्पों के गूथा गया था, और जिस में से नासिका को तृप्ति करने वाली गंध निकल रही थी। जिसका स्पर्श परम सुख दायक था-तथा जो दर्शनीय था अपने हाथ में लिया (तएणं सा किड्डाविया जाव सुरूवा जाव वामहत्थेणं चिल्लगंदप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकेतबिंवदंसिए य से दाहिणेणं (तए णं सा दोबई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंडं किं ते ! पाडलमल्लिय चंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धाणि मुयंत परमसुहफासं दरिसणिज्जं गेण्हइ) ત્યારપછી તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીએ એક બહુ મોટે ભારે શ્રીદામકાંડને કે જેની સુંદરતાનું વર્ણન થઈ શકે તેમ નથી અને જે અપૂર્વ હતપાટલ ગુલાબના પુષ્પોથી, મલ્લિકા–મોગરેના પુષ્પોથી, ચમ્પાના પુષ્પથી યાવત સમચ્છદ વૃક્ષના પુપેથી તે તૈયાર કરવામાં આવ્યું હતું અને જેમાંથી નાસિકાને તૃપ્તિ થાય તેવી સુવાસ પ્રસરી રહી હતી જેને સ્પર્શ અત્યંત સુખકારી તેમજ જે દર્શનીય હતહાથમાં લીધો. (तएणं सा किड्डा विया जाव सुरूवा जाव वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहेजण सललियं दप्पणसंकंतबिंबसंदंसिए य से दाहिणणं हत्येणं दरिसए पवर श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदोचरितनिरूपणम् ४३३ संकेतबिंबसंदंसिए य' दर्पणसंक्रान्तबिम्बसंदर्शितान-दर्पणे संक्रान्तानि यानि राज्ञां बिम्बानि-प्रतिबिम्बानि, तैः संदर्शिताः प्रतिबोधितास्तांश्च प्रवरराजसिंहान् सिंहसदृशशूरान् श्रेष्ठनृपान् दक्षिणेन हस्तेन 'से' तस्याः द्रौपद्याः ‘दरिसए' दर्शयति इह कर्मणः सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठी। तथा-'फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीरमहुरभणिया ' स्फुटविशदविशुद्धरिभितगम्भीरमधुरमणिता= अर्थतः हत्थेणं दरिसए पवररायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीरमहुरभणिया सा तेसिं सव्वेसिं पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंससत्तसामत्थगोत्तविक्कतिकतिबहुविहआगममहप्परूवजोव्वणगुणलावण्णं कुल जाणिया कित्तणं करेइ) इसके बाद उस क्रीडन धाय ने अपने हाथ में एक चमकता हुआ दर्पण लिया। यहां दर्पण के इन और विशेषणों का यावत् शब्द से ग्रहण हुआ है वे विशेषण ये हैं 'सामावियघंसं चोदहजणस्स उस्सुयकर विचित्तमणिरयणवद्धछरुहं " इनका अर्थ इस प्रकार है-यह दर्पण स्वभावतः चिकना था। तथा तरुणजनों के चित्त में अपने को देखने की अभिलाषा का जनक था । मुष्टि से पकड़ने का जो इसका स्थान था वह विचित्र मणि-रत्नों से निर्मित था । उस दर्पण में जिन २ सिंह जैसे शूरवीर राजाओं के उस समय प्रतिविम्ब पड़े हुए थे उन प्रतिबिम्बों को लेकर उस धायने उन श्रेष्ठ राजाओं को उस द्रौपदी के लिये अपने दक्षिण हाथ से बतलाया ! बतलाते समय उन्हें दिखाते समय-वह धात्री चिलकुल अर्थ की अपेक्षा स्फुट एवं वर्ण रायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीरमहुरभणिया सा तेसिं सव्वेसि पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंससत्तसा मत्थगोत्तविक्कंतिकंतिबहुविहआगममहाप्परूवजोव्वण गुणलावण्णं कुलजाणिया कित्तणं करेइ ) ત્યારપછી તે ક્રીડનધાત્રીએ પોતાના હાથમાં એક ચમકતો અરીસો લીધો. અહીં “અરીસા” માટે યાવત્ શબ્દથી નીચે લખ્યા મુજબ વિશેષણનું પણ ग्रहण सभाबु मे. (सामावियव सं चोदहजणस्स उस्सुयकर विचित्तं मणिरयणवद्धछरुहं ) . विशेषणातुं स्पष्टी४२११ मा प्रमाणे छे-ते सरीसे વાભાવિક રીતે લીસે હતું, તેમજ તણે સ્ત્રીઓના ચિત્તમાં તેને જોવાની સહજ ભાવે ઈચ્છા જાગ્રત થાય તે હતે. તે અરીસાને હાથો વિચિત્ર મણરથી જડેલે હતો. તે અરીસામાં સિંહ જેવા શૂરવીર જે જે રાજાઓ દેખાયા તે ધાત્રીએ તે રાજાઓને પિતાના જમણા હાથથી સંકેત કરીને બતાવ્યા. બતાવતી વખતે અને સમજાવતી વખતે તે ધાય અર્થની અપેક્ષાથી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे " } " स्फुटं वर्णतो विशदं स्फुटत्रिशद - शब्दार्थदोषरहितं, रिभितं - स्वरयुक्त गम्भीरंमेघध्वनिवत् मधुरं - प्रियं श्रवणसुखदं भणितं भाषितं यस्याः क्रीडिकायाः सा तथा, सा क्रीडिका तेषां सर्वेषां पार्थिवानां ' अम्मापिऊणं ' मातापित्रोः ' वंससत्तसामत्थगोत्तविकंतिकंति बहुविह आगममा हप्परूनजोन्वणगुणलावण्णकुलसीलजाणिया ' वंशसत्वसामर्थ्यगोत्रविक्रान्तिकान्तिवहुविधागममाहात्म्यरूपयौवनगुलावण्यकुलशीलज्ञायिका - वंशे हरिवंशादिकं सत्वम् - आपत्सु धैर्यम् सामर्थ्यं = बलं गोत्र = गौतम गोत्रादि, विक्रान्ति विक्रमं कान्ति-प्रभां, बहुविधागमं अनेकशास्त्रविशारदं, माहात्म्यं - महानुभावतां, तथा रूपयौवनगुणलावण्यानि च तथाकुलं- वंशस्यावान्तरभेदं शीलं च स्वभावं च जानाति या सा 'कित्तणं ' कीर्तनं= वंशादिवर्णनं करोति स्म । प्रथमं तावत् - ' वण्डिपुंगवाणं दृष्णिपुङ्गवानां ' दसदसारवीरपुरिसाणं ' दशानां दशार्हाणां समुद्रविजयादोनां वीरपुरुषाणां, 'तेलोगबलवगाणं ' त्रैलोक्यबलवतां 'सत्तुसय सहस्समाणावमद्दगाणं ' शत्रुशतसहस्रमानावमर्दकानां तथा - ' भवसिद्धियवरपुंडरीयाणं ' भवसिद्धिकवरपुण्डरीकाणां=भवतिकी अपेक्षा विशद ऐसी विशुद्ध शब्दार्थ दोष रहित - स्वर युक्त मेघ ध्वनि समान गंभीर मधुर वाणी से भाषण करती जाती थी । उस भाषण में वह उन सब राजाओं के माता, पिता, वंश, सच्च, सामर्थ्य, गोत्र, विक्रम, कांति, अनेक शास्त्रों का ज्ञातृत्व, माहात्म्य, तथा रूप, यौवन गुण, लावण्य, कुल एवं शील की ज्ञाता होने के कारण इन सब का वर्णन करती जाती थी । वंश से हरिवंश आदि का और कुल से वंशके अवान्तर भेदं का कथन होता है । ( पढमं ताव वहि गवाणं दसदसारवीर पुरिसाणं तेल्लोकबलवगाणं सत्तसयसहस्समाणाव महगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरियरूवजोन्वणं એકદમ સ્ફુટ અને વની અપેક્ષાથી વિશદ એવી વિશુદ્ધ એટલે કે શબ્દાર્થ દોષરહિત-સ્વરયુક્ત, મેઘવિને જેવી ગ*ભીર મધુરવાણીનું ઉચ્ચારણ કરી રહી હતી. પેાતાના ભાષણ વડે તે ધાય ખધા રાજાઓના માતા પિતા વંશ, સત્વ, सामर्थ्य, गोत्र, विटुभ, अंति, शास्त्रज्ञान, महात्म्य तेभन ३५, यौवन, गुणु, લાવણ્ય, કુળ અને શીલ વગેરેની ખાખતમાં જાણકાર હતી એટલે ખધુ' વર્ણન કરતી જતી હતી. વંશથી હિરવંશ વગેરે અને કુળથી વ'શને અવાન્તર લેકનું કથન થયુ છે. ( पढमं ताव वहिपुंगवाणं दसदसारवीरपुरिसाणं तेलोक्कबलवगाणं सत्तुसयसहस्समाणावमद्दगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरियरूव શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४३५ भाविनी सिद्धिर्येषां, ते भवसिद्धिकास्तेषां मध्ये वरपुण्डरीकाणीव ये श्रेष्ठास्ते तथा तेषां, तथा · चिल्लगाणं' तेजसा देदीप्यमानानां 'चिल्लग' इति देशी शब्दः। तथा- 'बलवीरियरूबजोवणगुणलावन्नकित्तिया' बलवीर्यरूपयौवनगुणलावण्य कीर्तिकाबलं-कायिक, वीर्यम्-उत्साहा, रूप-सौन्दर्य, यौवनं-तारुण्यं, गुणान्-औदार्यगाम्भीर्यादीन , लावण्य-यौवनवयोजन्यं कान्तिविशेषं, कीर्तयति या सा तथा, सा क्रीडिकाधात्री कीर्तनं करोति स्मेत्यर्थः । अत्र पूर्वोक्तमपि विशेपणं किंचिद् विशेषबोधनार्थं पुनः कथितम् ।। ततस्तदनन्तरं पुनः सा क्रीडनधात्री — उग्गसेणमाईणं जायवाणं' उग्रसेनादीनां यादवानां बलवीर्यादि कीर्तनं करोति कृत्वा भणति च-सा धात्री द्रौपदी गुणलावण्ण कित्तियाकित्तणं करेइ ) सबसे पहिले उस क्रोडन धात्री ने वृष्णिवंश के पुंगव समुद्रविजय आदिदश दशार्कों के कि जो त्रैलोक्य में भी विशिष्ट बलशाली माने जाते थे, लाखों शत्रुओं के मान को मर्दन करने वाले थे, भवसिद्धिक पुरुषों में जो श्रेष्ठ कमल के जैसे माने गये हैं, और जो अपने स्वाभाविक तेज से सदा दमकते रहते थे बल का, वीर्य का, रूप का, यौवन का, गुणों का, लावण्य का, कीर्तिका होने के कारण कीर्तन-वर्णन किया। शारीरिक शक्तिका नाम बल, उत्साह का नाम वीर्य, सौन्दर्य का नाम रूप तारुण्य का नाम यौवन है । औदार्य गांभीर्य आदि गुण है । यौवन वय से जन्य जो कति शरीर में आती है वह लावण्य है (तओ पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं भगइ य सोहग्गरूवकलिए वरेहि वर पुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हियय. दइओ, तएणं सा दोबई रायवरकन्नगा बहूर्ण रायवरसहस्साणं मज्झं जोव्वणगुणलावण्णकित्तिया कित्तणं करेइ ) તે ક્રીડન ધાત્રીએ સૌ પહેલાં વૃષ્ણિ વંશમાં પુંગવ (શ્રેષ્ઠ) સમુદ્ર વિજય વગેરે દશ દશાહનું–કે જેઓ ત્રણે લેકમાં પણ વિશિષ્ટ શક્તિશાળી ગણાતા હતા, લાખે શત્રુઓના માનનું મર્દન કરનારા હતા, ભવસિદ્ધિક પુરૂષમાં જેઓ કમળની જેમ શ્રેષ્ઠ ગણાતા હતા અને જે પિતાના સ્વાભાવિક તેજથી उमेश शत! २९ता al, , वीर्य, ३५, यौवन, गुणे, सापश्य, प्रीति વગેરેથી સંપન્ન હતા-વર્ણન કર્યું. શારીરિક શક્તિનું નામ બળ, ઉત્સાહનું નામ વીર્ય, સૌન્દર્યનું નામ રૂપ અને તારૂણ્યનું નામ યૌવન છે. ઔદાર્ય ગાંભીર્ય ગુણે છે. યુવાવસ્થામાં જે શરીર કાંતિવાળું થાય છે તેને લાવણ્ય કહેવામાં આવે છે. (तओ पुणो उग्गसेणभाईणं जायवाणं भणइ य सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हिययदइओ तएणं तं दोबई रायवरकन्नगा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पुनराह- 'सोहग्गरूवकलिए' इत्यादि, एवमत्रान्वयमुखेनव्याख्या-' वरपुरिसगंधहत्थोणं' वीरपुरुषगन्धहस्तिना हस्तिषु गन्धहस्तिन इव ये विशिष्टगुणसद्भावात् पुरुषेषु सर्वतः श्रेष्ठास्ते वरपुरुषगन्धहस्तिनस्तेषां मध्ये ' सोहग्गरूवकलिए' सौभाग्यरूपकलितः-अतिशयेन सौभाग्यसौन्दर्यसमन्वितः, यः खलु ते तव हृदयदयितः हृदयप्रियः ' होइ' भवति, तं ' वरेहि' वरय-पतिभावेन स्वीकुरु इत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु द्रौपदी राजवरकन्या बहूनां राजवरसहस्राणां मध्यमध्येन 'समइच्छमाणी २ ' समतिक्रामन्ती-गच्छन्ती 'पुवकयणियाणेणं' पूर्वकृतनिदानेन सुकुमारिकाभवे भतपश्चकाभिलापरूपं निदानं कृतं तेन, 'चोइज्जमाणी २' प्रेर्यमाणा २ यौव पञ्च पाण्डवास्तौवोपागच्छति, उपागत्य तान् दशार्धवर्णेनपञ्चवर्णेन कुसुमदाम्ना ' आवेढियपरिवेढिए' आवेष्टितपरिवेष्टितान् करोति, मज्झेणं समतिच्छमाणी २ पुवकयणियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंचपंडवा तेणेव उवागच्छइ ) इसके बाद उस क्रीडन धाय ने यादव वंशवाले उग्रसेन आदि यादवों के बलवीर्य आदि का वर्णन कियाउसने द्रौपदी से कहा ये जैसे हाथियों में गंधहस्ती श्रेष्ठ होता है उसी तरह ये पुरुषों में विशिष्ट गुणोंके सद्भाव के कारण सर्व प्रकार से श्रेष्ठ हैं-उनके बीच में जो तुझे सौभाग्यरूप संकलित प्रतीत हो और तेरे हृदय को प्यारा लगे-उसे तू पतिरूप से वरले । इसके बाद वह राजवर कन्या द्रौपदी उन हजारों राजाओं के बीच से होती हुई सुकुमारिका के भव में कृत निदान के प्रभाव से वार २ प्रेरित होकर जहां पांच पांडव थे-वहां पहूँची-( उवागच्छित्ता ते पंच पांडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ, करित्ता एवं वयासी, एएणं मए पंच वहणं रायवरसहस्साणं मज्झं मज्ज्ञेणं समतिच्छमाणी २ पुवकयणियाणेणं चोइ. जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उपागच्छइ) ત્યારપછી કીડન ધાત્રીએ ઉગ્રસેન વગેરેનું વર્ણન કર્યું અને કહ્યું કેહાથીઓમાં જેમ ગંધ હસ્તી ઉત્તમ ગણાય છે, તેમજ પુરૂમાં સવિશેષ ગુણવાન એવા એઓ બધી રીતે સારા છે, આ બધામાં તને જે સૌભાગ્યશાળી લાગતા હોય અને તને જેઓ ગમતા હોય તેઓને તું પતિ રૂપમાં સ્વીકારી લે. ત્યારપછી તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી તે હજારે રાજાઓની વચ્ચેથી પસાર થઈને પિતાના સુકુમારિકાના ભાવમાં કરેલા અભિલાષથી પ્રેરાઈને જ્યાં પાંચ પાંડે હતા ત્યાં પહોંચી. (उवागच्छित्ता ते पंच पांडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेदिय परिवेढियं करेइ, करिता एवं वयासी, एएणं मए पंचपंडवा धरिया, तएणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४३७ कला एवमवादी-एते खलु पश्च पाण्डवा मया वृता इति । ततः खलु ' ताई वासुदेवपामोक्खाई बहूणि रायसहस्साणि' तानि वासुदेवप्रमुखाणि बहूनि राजसहस्रसंख्यका वासुदेवप्रमुखा राजान इत्यर्थः । महता २ शब्देनोद्घोषयन्त एवं वदन्ति-सुवृतं खलु भोः ! द्रौपद्या राजवरकन्यया इति कृत्वा-इत्युक्त्वा स्वयंवरमण्डपात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, निर्गच्छन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव स्वका स्वका आवासास्तवोपागच्छन्ति । ततः खलु धृष्टद्युम्नः कुमारः पञ्च पाण्डवान् द्रौपदी राजवरकन्यां चातुर्घण्टमश्वरथं दुरूहइ ' दुरोहयति-आरोहयति दूरोह्य काम्पिपंडवा वरिया, तएणं तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणि रायसहस्साणि, महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयंति, सुवरियं खलु भो! दोवइए रायवरकन्नाए त्ति कटु सयंवरमंडवाओ पडिनिक्खमंति, पडि. निक्वमित्ता जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छइ) वहां पहुंच कर उसने उन पांचो पांडवों को उस पंचवर्णवाली माला से अवेष्टित परिवेष्टित कर दिया। करके फिर वह इस प्रकार कहने लगी-ये पाँच पांडव मैंने पतिरूप से वर लिये हैं। इसके बाद उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं ने बड़े २ जोर के शब्दों से ऐसा कहा इस राजवर कन्या द्रौपदीने बहुत अच्छे वर बरे ऐसा कहकर वे उस स्वयंवर मंडप से बाहिर हो गये। बाहिर आकर फिर वे जहां अपने २ आवास स्थान थे वहां चले आये। ( उवागच्छित्ता तएणं धज्जुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोवइं रायवरकण्णं चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता कंपिल्लपुरं तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणि रायसहस्सागि, महया २ सद्देणं उग्धोसेमाणा २ एवं वयंति, सुवरियं खलु भो ! दोवइए रायवरकन्नाए २ त्ति कटु सयंवरमंडवाओ पडिनिक्खमंति, पडि निक्ख मित्ता जेणेव सया२ आवासा तेणेव उवागच्छइ) ત્યાં પહોંચીને તેણે તે પાંચ પાંડવેને પાંચ વર્ણવાળી માળાથી અવે. ણિત, પરિવેષ્ટિત કરી દીધા. ત્યારપછી તેઓને કહેવા લાગી કે હે પાંચ પાંડ ! મેં તમને પતિ રૂપમાં વરી લીધા છે. ત્યારબાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓએ બહુ મોટા સાદથી આ પ્રમાણે કહ્યું કે--આ રજવર કન્યા દ્રૌપદીએ બહુ જ સારા વરે પસંદ કર્યા છે. આમ કહીને તેઓ સવે સ્વયંવર મંડપમાંથી બહાર નીકળી ગયા. બહાર નીકળીને તેઓ જ્યાં પિતાના આવાસ સ્થાને હતાં ત્યાં જતા રહ્યા. (उवागच्छित्ता तएणं धज्जुण्णे कुमारे पंचपंडवे दोवई रायवरकणं चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता कंपिल्लपुरं मझं मज्झे णं जाव सयं भवणं अणु श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे त्यपुरस्य मध्यमध्येन यावत् स्वकं भवनमनुप्रविशति, ततः खलु द्रुपदो राजा पञ्च पाण्डवान् द्रौपदी राजवरकन्यां ‘पट्टयं ' पट्टक-पट्टकोपरि 'दुरूहेइ ' दूरोहयति आरोहयति, दरोह्य श्वेतपीतैः कलशैः 'मज्जावेइ ' मज्जयति-स्नपयति अग्निहोमं विवाहविधिनाऽग्नौ होमं कारयति, पश्चानां पाण्डवानां द्रौपद्याश्च पाणिग्रहणं कारयति, अत्र पश्चानां पाण्डवानामिति सम्बन्धसामान्ये षष्ठी । ततः खलु स द्रुपदो राजा द्रौपद्या राजवरकन्यायाः इममेतद्रूपं भीतिदानं यौतुकदानं ददाति, मज्झं मज्झेणं जाव सयंभवणं अणुपविसइ, तएणं दुवए राया पंच पंडवे दोवइं रायवरकन्नं पट्टयं दुरूहेइ, दुरूहित्ता सेयापीएहिं कलसे हिं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं कारवेइ, पंचण्हं पंडवाणं दोवइए य पाणिग्गहणं करावेह, ) इसके बाद धृष्टद्युम्नकुमार ने उन पांच पांडवो को एवं राजवर कन्या द्रौपदी को चारघंटो से युक्त उस अश्वरथ पर बैठाया-बैठाकर कांपिल्यपुर नगर के बीच से होता हुआ वह जहां अपना भवन था वहां आया वहां आकर वह उसमें उन सब के साथ प्रविष्ट हुआ। इसके बाद द्रुपद राजा ने उन पांचो पांडवों को और राजवर कन्या उस द्रौपदी को एक पट्टक पर बैठा दिया-बैठाकर फिर उसने उनका श्वेत पीत कलशों से चांदी सोने के घड़ो से-अभिषेक करवाया अभिषेक करवा कर फिर उसने अग्नि होम करवाया-और उसकी साक्षी पूर्वक पांचो-पांडवो के साथ अपनी कन्या द्रौपदी का पाणि ग्रहण संस्कार करवा दिया। (तएणं से दुवए राया दोवइए रायपविसइ, तएणं दुवए राया पंच पंडवे दोबई रायवरकन्नं पट्टयं दुरुहेइ, दुरूहित्ता सेयापीएहिं कलसेहि मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोमं कारवेइ, पंचण्डं पंडवाणं दोबइए य पाणिग्गहणं करावेइ)। ત્યારપછી ધષ્ટદ્યુમ્ન કુમારે તે પાંચ પાંડવોને અને રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને ચાર ઘંટવાળા તે અશ્વરથ ઉપર બેસાડયા અને બેસાડીને કાંપિલ્યપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યાં પિતાનું ભવન હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેઓ સર્વે તેમાં પ્રવિણ થયા. ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ તે પાંચે પાંડને અને રાજવર કન્યા તે દ્રૌપદીને એક પટ્ટક ઉપર બેસાડી દીધા અને બેસાડીને તેણે તેમને સફેદ, અને પીળા કળશેથી-એટલે કે ચાંદી અને સોનાના કળશેથી અભિષેક કરાવડાવે અભિષેક કરાવીને તેણે અગ્નિહામ કરાવરાવ્યું અને તેની સાક્ષીમાં પિતાની કન્યા દ્રૌપદીને હસ્તમેળાપ તેઓની સાથે કરાવી દીધો. (तएणं से दुवए राया दोवइए रायवरकण्णयाए इमं एयारूवं पीईदाणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम् ४३९ तद्यथा - अष्ट हिरण्यकोटी, यावत्=अष्ट रजतकोटी, अष्ट सुवर्णकोटीः, अष्ट ' पेसणकारीओ ' प्रेषणकारिणीः, आज्ञाकारिणीः दासचेटी:- दासपुत्री, अन्नं च विपुलं धनकनक - यावत् धनं - गणिमादिकं, कनकम् अघटितस्वर्ण, यावच्छब्देनरत्ननि - कर्केतनादीनि, मणयचन्द्रकान्ताद्याः मौक्तिकानि च शङ्खश्च प्रतीत एव शिलामवालानि च विमाणि रक्तरत्नानि - पद्मरागादीनि तान्येव सद् विद्यमानं यत् सारं = प्रधानं स्वापतेयं द्रव्यं तद् ददाति स्म । ततः खलु स द्रुपदो राजा तान् वासुदेवप्रमुखान् बहुसहस्रसंख्यकान् राज्ञः विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन भोजयति, भोजयित्वा वस्त्रगन्धादिभिर्यावत् सत्कायति संमानयति, सत्कार्य संमान्य प्रतिविसर्जयति ।। ०२२ ॥ वरकण्णयाए इमं एयावं पीईदाणं दल्यइ, तं जहा - अट्ठहिरण्ण कोडीओ जाव अट्ठपेसणकारिओ दासचेडीओ, अण्णं च विउलंधणकणग जाव दलयइ, तएणं से दुबए राया ताई वासुदेव पामोक्खाणं विउ लेणं असण४ वत्थगंध जाव पडिविसज्जेइ) इसके बाद दुपद राजाने राजवर कन्या उस द्रौपदी के लिये इतना इस प्रकार प्रीति दान दिया आठ हिरण्य कोटि-चांदी के बने हुए आठ करोड आभूषण, सुवर्ण के बने हुए आठ करोड आभूषण यावत् आज्ञा कारिणी ८ आठ दासियों और भी बहुत सा गणिमादिक रूप धन, अघटित सुवर्ण, कर्केतनादि रत्न, चन्द्रकान्त आदि मणि, मौक्तिक, शंख, विद्रुम, पद्मरागादि रक्त रत्न । यह सब सारभूत द्रव्य उसके लिये प्रदान किया। इसके बाद द्रुपदराजा ने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को अशन, पान, स्वाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार एवं वस्त्र गंध आदि से सत्कृत सन्मानित कर अपने यहां से बिदा कर दिया ।। सू० २२ ।। दलय, तं जहा अट्ठ हिरण्णकोडीओ जात्र अट्ठ पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विउलं धणकणग जाव दलयह, तरणं से दुवए राया ताई वासुदेव पामोक्खाणं विउलेणं असण ४ वत्थ गंध जाव पडित्रिसज्जे ) ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે પ્રીતિદાન આપ્યું કે આઠ હિરણ્ય-કેટિ-ચાંદીના આઠ કરાડ આભૂષણા યાવત્ આજ્ઞામાં રહેનારી આઠ દાસીએ અને બીજી પણ ઘણું ગણમ વગેરે રૂપ, ધન, અઘटित सुवार्थ, अद्वैतन वगेरे रत्न, यन्द्रांत वगेरे मणि, भौम्ति, शम, વિદ્રુપ, પદ્મરાગ વગેરે રક્ત રત્ના આપ્યા. આ બધું સારભૂત ધન દ્રૌપદીને આપ્યું. ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાએને અશન, પાન, ખાદ્ય, અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહાર અને વસ્ત્ર, ગધ વગેરેથી સત્કૃત સન્માન્વિત કરીને પાતાના નગરથી વિદાય કર્યાં. ॥ સૂત્ર ૨૨ ।। શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम्-तएणं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं राय० करयल एवं वयासो- एवं खलु देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरे नयरे पंचव्हं पंडवाणं दोवइए य देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! ममं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह, तएणं वासुदेवपामोक्खा पत्तेयं२ जाव पहारेत्थ गमणाए । तएणं से पंडुराया कोडुबियपुरिसे सद्दा० २ एवं वयासी-गच्छहणंतुब्भे देवाणुप्पिया! हस्थिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायवडिसए कारेह अब्भुग्गयमूसिय वण्णओजावपडिरूवे, तएणं ते कोडुंबियपुरिसा पडिसुणेति जाव करावेंति, तएणं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवईए देवीए सद्धिं हयगयसपरिवुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ२ जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागए, तएणं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोथुवि० सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासो-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हस्थिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आवासे कारेह अणेगखंभसय तहेव जाव पच्चप्पिणंति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागच्छइ, तएणं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता हट्ठतुढे हाए कयवलि जहा दुवए जाव जहारिहं आवासे दलयइ, तएणं ते वासुदेव पा० बहवे रायसहस्सा जेणेव श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४४१ सयाइं२ आवासाइं तेणेव उवा० तहेव जाव विहरांति,तएणं से पंडुराया हत्थिणाउरणयरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता कोडुबिय० सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणु. प्पिया ! विउलं असण४ तहेव जाव उवणेति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया पहाया कयबलिकम्मा तं विउलं असणं४ तहेव जाव विहरंति, तएणं से पंडुराया पंच पंडवे दोवई च देवि पट्टयं दुरूहेइ दुरूहित्ता सेयपीएहिं कलसेहिं पहावेंति पहावित्ता कल्लाणकारि करेइ करिता ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विउलेणं असण? पुप्फवत्थेणं सकारेइ सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ, तएणं ताई वासुदेवपामोक्खाइं बहहिं जाव पडिगयाइं ॥ सू० २३ ॥ टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु पाण्डू राजा तेषां वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणां करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुरे नगरे पश्चानां पाण्डवानां द्रौपद्याश्च देव्याः कल्याणकरो भविष्यति तत्-तस्मात् यूयं खलु हे देवानुपियाः मामनुगृह्णन्तः, अकालपरिहीनं कालविलम्बरहितं-शीघ्रं समवसरत आग 'तएणं से पंडूराया ' इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से पंडूराया) उस पांडुराजा ने (तेसिं वासुदेव पामोक्खा णं ) उन वासुदेव प्रमुख ( बहणं राय० करयल एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! हात्थिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवइए देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ तं तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम तएण से पंडुराया इत्यादि 10-( तएणं ) त्या२५छी ( से पंडराया ) ते पांड २ ( ते सिं वासुदेवपामोक्खाण) ते वासुदेव प्रभुम (बहूणं राय० करयल एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! इत्थिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवइए, देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ तं तुम्भेणं देवाणुपिया ! ममं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ __ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मनं कुरुत । ततः खलु वासुदेवममुखाः प्रत्येकं २ यावत् प्राधारयद् गमनाय% हस्तिनापुर नगरं गन्तुं प्रवृत्ता इत्यर्थः। ततः खलु स पाण्डुनामको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! हस्तिनापुरे पश्चानां पाण्डवानां पञ्च 'पासायवडिसए ' प्रासादावतंसकान् कारयत । किं भूतानित्याह-' अब्भुगयमूसिय' अभ्युद्गतोच्छितान्-अत्युच्चानित्यर्थः । वर्णकः-प्रथमाध्ययनोक्तअणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह ) हजारों राजाओं से अपने दोनों हाथों की अंजलि करके और उसे शिर पर रखकर के बड़ी नम्रता के साथ नमस्कार करके-इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पांच पांडवों और द्रौपदी देवी का कल्याणकारी उत्सव होगा इसलिये हे देवानुप्रियों! आप सब मेरे ऊपर अनुग्रह करके शीघ्र से शीघ्र पधारें । (तएणं वासुदेवपामोक्खा पत्तेयं २ जाव पहारेत्थ गमणाए ) इस के बाद वे वासुदेव प्रमुख प्रत्येक जन वहाँ हास्तिना पुर जाने के लिये प्रस्थित हो गये। (तएणं से पंडराया कोडुम्बियपुरिसं सद्दावेइ २ एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया हस्थिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायवडिंसए कारेह, अब्भुग्गयमुसिय वण्णओ जावपडिख्वे ) इतने में पांडुराजा ने कौटुम्बिकपुरुषों को बुलाया ओर बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हस्तिना पुर जाओ वहां जाकर पांचों पांडवों के लिये पांच श्रेष्ट प्रासाद बनवाओ। ये प्रासाद હજારે રાજાઓને પિતાના બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને ખૂબ જ નમ્રપણે નમસ્કાર કર્યો અને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે હે દેવાનુપ્રિયે ! હસ્તિનાપુર નગરમાં પાંચે પાંડે તેમજ દ્રૌપદી દેવીને કલ્યાણકારી ઉત્સવ થશે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ મારા ઉપર કૃપા ४शन सत्वरे त्यां पधारे।. ( तएण वासुदेवपामोक्खा पत्तेयं २ जाव पहारेत्थ गमणाए ) त्या२५छी ते वासुदेव प्रभुम ४२४ रात त्यांथी इस्तिनापुर ०४१। 64डी गया. तएणं से पंडुराया कोड बियपुरिसं सदावेइ २ एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया हस्थिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायव डिसए कारेह, अन्भुग्गयमुसिय वण्णओ जाव पडिरूवे) તે વખતે પાંડુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂષને લાવ્યા અને બેલાવીને તેઓને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે હસ્તિનાપુર જા અને ત્યાં જઈને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणो टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् मेघकुमार-मासादवद् वर्णनं विज्ञेयम् यावद् अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टान् प्रतिरूपान्-शोभासौन्दर्यसम्पन्नान् । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा:-' तथाऽस्तु ' इत्युक्त्वा प्रतिशृण्वन्ति आज्ञा स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य हस्तिनापुरं गत्वा पञ्च प्रासादावतंसकान यावत् कारयन्ति । ततस्तदनन्तरं पाण्डूराजा पञ्चभिः पाण्डवै द्रौपद्या देव्या च साध हयगजरथपदातिसंपरिसृतः काम्पिल्पपुरात् पतिनिष्कामतिप्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव हस्तिनापुर नगरं तौवोपागतः । ततः खलु स पाण्डूराजा तेषां वासुदेवप्रमुखाणामागमनं ज्ञात्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! बहुत ऊंचे हो । इन प्रासादों का वर्णन प्रथम अध्ययन में उक्त मेघ कुमार के प्रासादों जैसा जानना चाहिये । यावत् ये प्रासाद अनेक स्तंभशत से युक्त हों-शोभा सौन्दर्य से संपन्न हों। (तएणं ते कोडुम्बिय पुरिसा पडिसुणेति, जा करावेति ) राजा की इस प्रकार की आज्ञा को उन कौटुम्बिक पुरुषों ने मान लिया और हस्तिनापुर जाकर उन्होंने पांच प्रासाद कथित रूपसे बनवा दिये । (तएणं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवइए देवीए सद्धिं हय गय संपरिबुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ २ जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागए) इसके बाद वे पांडुराजा पांडवों और द्रौपदी देवी को साथ लेकर हय, गज, आदि चतुरंगिणी सेना के साथ २ कांपिल्यपुर नगर से चल दिये-चलकर जहां हस्तिनापुर नगर था-वहां आये (तएणं से पंडुराया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं પાંચે પાંડ માટે પાંચ ઉત્તમ મહેલ બનાવડાવે. મહેલ ઊંચા હોવા જોઈએ. આ મહેલેનું વર્ણન પહેલા અધ્યયનમાં વર્ણવવામાં આવેલા મેઘ કુમારોના મહેલો જેવું જાણી લેવું જોઈએ. યાવત્ આ બધા મહેલે ઘણું સેંકડો થાંભલાसाथी युत तम शला तथा सौर्य संपन्न होने से. (तएण ते कोडुबियपुरिसा पडिसुणे ति जाव करावेंति) तनी शनी भाज्ञान કૌટુંબિક પુરૂએ સ્વીકારી લીધી અને હસ્તિનાપુર જઈને તેઓએ કહેવા મુજબ જ પાંચ મહેલો તૈયાર કરાવી દીધા. (तएणं से पंडुए पंचहिं पंडवेहि दोवइए देवीए सद्धिं हयगयसंपरिबुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ २ जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागए) ત્યારપછી તે પાંડુ રાજા પાંચે પાંડ અને દ્રૌપદી દેવીને લઈને સાથે ઘડા, હાથી વગેરેની ચતુરંગિણી સેનાની સાથે કપિલ્યપુર નગરની બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું ત્યાં પહોંચ્યા. (तएणं से पंडुराया तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोडुंबिय० श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୨୫ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे - हस्तिनापुरस्य नगरस्य बहिः प्रदेशे वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणामावा. सान् कारयत, कीदृशानावासान् इत्याह-' अणेगखंभ' इत्यादि । अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टान् , तथैव-यथाऽऽवासान् कारयितुं पाण्डुना कथितं, तथैव कारयित्वा कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रत्यर्पयन्ति-राज्ञे निवेदयन्ति स्म । ततः खलु वासुदेवप्रमुखा बहु सहस्रसंख्यका राजानो यौव स्वकाः स्वका आवसास्तत्रैवोपागच्छन्ति, जाणित्ता कोडुविय० सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्मे देवाणुप्पिया ! हथिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहणं रायसहस्साणं आवासे करेह ) वहां आकर उन पांडुराजा ने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का आगमन जानकर कोडुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और हस्तिनापुर नगर के बाहिर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को ठहरने के लिये आवासों को बनवाओ (अणेगखभसय तहेव जाव पच्चप्पिणति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागच्छंति ) ये आवास अनेक सेंकडोंस्तभों से युक्त हों। इस प्रकार जैसे आवासों को बनवाने के लिये पांडु राजा ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा था-वैसे ही आवास उन कोम्बिक पुरुषों ने बनवादिये और बनवाकर पीछे इसकी खबर भी राजा को करदी। इसके बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहां हस्तिनापुर सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया ! हथिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह ) । ત્યાં આવીને તે પાંડુ રાજાએ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજા એને આવી ગયેલા જાણુને પિતાના કૌટુંબિક પુરૂષને લાવ્યા અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે જાઓ અને હસ્તિનાપુર નગરની બહાર વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાઓને રહેવા માટે આવાસ બનાવો. (अणेगखंभसय० तहेव जाव पचप्पिणति, तए णं ते वासुदेवपामोक्खा वहवे रायसहस्सा जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागच्छंति ) આ બધા આવાસે સેંકડે સ્તંભેથી યુક્ત હોવા જોઈએ. આ રીતે પાંડુ રાજાએ જે જાતના આવાસો બનાવડાવવાને હુકમ કર્યો હતે તે કૌટુંબિક પુરૂએ તે જ જાતને આવા બનાવડાવી દીધા અને બનાવડાવીને કામ પુરું થઈ જવાની રાજાને ખબર આપી. ત્યારપછી તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાએ જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું ત્યાં આવી ગયા, श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणो टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४४५ उपागत्य तथैव यावद विहरम्ति । ततः खलु स पाण्डू राजा हस्तिनापुर नगरमनुमविशति, अनुपविश्य कौटुम्बिकपुरुषान् शद्धयति, शद्धयित्वा एवमवादीयूयं खलु हे देवानुप्रियाः ! विपुलम् अशनपानपानखाद्यस्वाद्यं, उपस्कारयत, उपस्कार्य यचैव वासुदेवप्रमुखास्तत्रैवोपनयत । तथैव यावद् उपनयन्ति, ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव विपुलमशनादि चतुर्विधाऽऽहारमुपस्कारयन्ति उपस्कार्य यावद् वासुदेवादीनामन्ति के-उपनयन्ति-उपस्थापयन्ति । नगर था वहां आगये। (तएणं से पंडुराराया तेसि वासुदेवपामोक्खा णं आगमणं जाणित्ता हतुट्टे पहाए कयवलिकम्मे जहा दुवए जाव जहा रिहं आवासे दलयंति, तएणं ते वासुदेव पा० यहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई २ आवासाइं तेणेव उवाग० तहेव जाव विहरंति) वासुदेव प्रमुख उन हजारों राजाओं का आगमन जानकर पांडुराजाने हर्षित एवं संतुष्ट होकर स्नान किया वायसादि पक्षियों के लिये अन्नादि का देने रूप बलि कर्म किया-जिस प्रकार द्रुपद राजाने यथा योग्य आवासस्थान इन्हों के लिये दिये थे उसी तरह पांडुराजा ने भी उन्हें जो जिस के योग्य स्थान था वह आवासस्थान दिया। पश्चात् वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहां अपने २ ठहरने के लिये आवासस्थान थे वहां गये वहां जाकर वे उसी तरह से ठहर गये। (तएणं से पंडूराया हथिणाउरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, कोडुबिय० सदावेइ, सहावित्ता एवं वासी-तुभेणं देवाणुप्पिया! विउलं असणं ४ तहेव जाव उव (तएणं से पंडुराया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता हट्ठतुढे हाए कयबलिकम्मे जहा दुवए जाव जहारिहं आवासे दलयंति, तएणं ते वासुदेव पा० बहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई २ आवासाई तेणेव उवाग० तहेव जाव विहरति) વાસુદેવ પ્રમુખ તે હજારે રાજાઓનું આગમન સાંભળીને હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને પાંડુ રાજાએ સ્નાન કર્યું. કાગડા વગેરે પક્ષીઓના માટે અને વગેરેનો ભાગ અર્પીને બલિકર્મ કર્યું દુપદ રાજાએ જેમ તે રાજાઓને યથા. યેગ્ય આવાસ સ્થાને રહેવા માટે આપ્યા હતા તેમજ પાંડુ રાજાએ પણ તેઓ બધાને ઉચિત આવાસો આપ્યા. ત્યારપછી તેઓ વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાએ જ્યાં પિતપતાના રોકાવાના આવાસે હતા ત્યાં ગયા, ત્યાં પહોંચીને તેઓ ત્યાં રોકાઈ ગયા. (तएणं से पांडुराया हत्थिणाउर नयर अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, कोडंबिय० सहावेइ, सदावित्ता एवं बयासी-तुम्भेणं देवाणुप्पिया! विउलं असणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे મુદ્ ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहवो राजानः स्नाताः कृतवलिकर्माण::= काकादिजीवेभ्यः कृतान्नादिसंविभागाः, तद् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं तथैव - आस्वादयन्तो विस्वादयन्तः परिभुञ्जाना यावद् विहरन्ति = आसतेस्म । ततस्तदनन्तरं स पाण्डुराजा तान् पञ्च पाण्डवान् द्रौपदीं च देवीं ' पट्टयं ' पट्टकं = पोपरि ' दुरूहेड़ 'दूरोहयन्ति = आरोहयति । आरोह्य श्वेतपीतैः कलशैः स्नपर्यंति, पति, तणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया व्हाया कयबलिकम्मा तं विडलं असणं ४ तहेव जाव विहरति-तरणं से पंडुराया पंचपंडवे दोवई दोवि पट्टयं दुरूह, दुरूहित्ता सेयपीएहिं व्हावेंति, पहावित्तो कल्लाण कारि करेइ ) इस के बाद पांडुराजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया प्रवेश कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा है देवानुप्रियो ! तुम लोग विपुल मात्रामें अशनादि रूप चतुर्विध आहार बनवाओ बनवाकर फिर उसे जहां वासुदेव प्रमुख राजा ठहरे हुए हैं वहां ले जाओ। इस प्रकार की अपने राजाकी आज्ञानुसार उन्होने वैसा ही किया- चतुर्विध आहार बनवाया और फिर उसे वासुदेव आदि राजाओं के पास पहुँचा दिया। आहार के पहुँचने पर उन वासुदेव प्रमुख राजाओं ने स्नान किया बलिकर्म किया-काक आदि जीवों के लिये कृत अन्नमें से विभाग देनेरूप कियाकी - बादमें उन्हों ने उस चतुविध आहार को किया । इसके पश्चात् पांडुराजा ने उन पांचों पांडवों ४ तत्र जाव उवति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया व्हाया कयबलि कम्मा तं विलं असणं४ तहेब जाव विहरंति-तरणं से पंडुराया पंच पंडवे दोवईं च देवि पट्टयं दुरुदेइ, दुरुहित्ता सेयपी एहिं कलसेहिं व्हावेंति पहाविचा कल्लाणकारि करे ) ત્યારપછી પાંડુરાજા હસ્તિનાપુર નગરમાં પ્રવિષ્ટ થયા પ્રવિષ્ટ થઈને તેઓએ કૌટુંબિક પુરૂષને ખેલાવ્યા અને મેલાવીને તેએને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેાકેા વિપુલ માત્રામાં અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહાર બનાવડાવા. અનાવડાવીને તમે તે આહારને જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાએ રોકાયા છે ત્યાં લઈ જાએ, આ રીતે પેાતાના રાજાની આજ્ઞા સાંભળીને તે લેાકેાએ તે પ્રમાણે જ કર્યું. તેએએ ચાર જાતના આહારેખના વડાવ્યા અને ત્યારપછી તે આહારને વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાએની પાસે પહેચાડી દીધા. આહાર પહોંચાડી દીધા બાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓએ સ્નાન fo કર્યું અને કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન ભાગ અને ખલિકમ કર્યું. ત્યાર પછી તેઓએ તે ચાર જાતના આહારને જમ્યા. ત્યારબાદ પાંડુ રાજાએ તે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम् स्नपयित्वा ' कल्लाणकारि ' कल्याणकारि - शुभकारकं कर्म कारयति, कारयित्वा तान् वासुदेवप्रमुखान् बहुसहस्रसंख्यकान् राज्ञो विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन भोजयति, भोजयित्वा पुष्पवस्त्रादिभिः सत्कारयति, संमानयति, सत्कार्य संमान्य यावत् प्रतिविसर्जयति । ततः खलु ते वासुदेवममुखा बहुसहस्रसंख्यका राजानो यावत् प्रतिगताः || सु०२३ ॥ मूलम् - एणं ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धिं कल्लाकल्लि वारंवारेणं ओरालाई भोगभोगाई जाव विहरंति, तएर्ण से पंडू राया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहि कोंतीए देवीए ४४७ को और द्रौपदी देवी को एक पटक पर बैठाया-बैठाकर उन का श्वेत पीत कलशों से चांदी और सोने के घडों से स्नान करवाया स्नान करवाकर फिर उसने उनका शुभकारक कर्म करवाया । (करिता ते वासुदेव पामोक्खे बहवे रायसहस्से विउलेणं असण ४ पुष्पवत्थेणं सक्कारेह सम्माणे जाव पडिविसज्जेह, तरणं ताई वासुदेवपामोक्खाई बहूहि जाव पडिगयाई) शुभकारक कर्म करवाकर बाद में उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का उस पांडुराज ने विपुल अशन पान आदिरूप चतुर्विध आहार से एवं पुष्प वस्त्रादि से खूब सत्कार किया सन्मान किया । यावत् फिर उन्हें अपने यहांसे अच्छी तरह से बिदा कर दिया । इसके बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहां २ से जो २ आये थे वहां २ चले गये || सू० २३ ॥ પાંચે પાંડવા અને દ્રૌપદી દેવીને એક પટ્ટક ઉપર બેસાડયા અને મેસાડીને સફેદ તેમજ પીળા કળશેાથી એટલે કે ચાંદી અને સેનાના કળશેાથી તેમને સ્નાન કરાવ્યું. સ્નાન કરાવ્યા માદ તેમણે તેમની પાંસેથી શુભ કર્યાં કરાવડાવ્યાં. ( करिता ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विउलेणं असण पुप्फवत्थेर्ण सक्कारे, सम्माणे जाव पड़िविसज्जेइ तरण ताई वासुदेवपामोक्खाई बहूहिं जाव पडिगयाइं ) શુભ કર્મો કરાવ્યા ખાઇ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાઓને તે પાંડુ રાજાએ વિપુલ અશન-પાન વગેરે રૂપ ચતુર્વિધ આહારથી તેમજ પુષ્પ વસ વગેરેથીખૂબ જ સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. યાવત ત્યારપછી તેને ત્યાંથી સારી રીતે વિદાય કર્યો. વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાએ પણ જ્યાંથી આવ્યા હતા ત્યાં જતા રહ્યા. !! સૂત્ર ૨૩ ll શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दोवइए देवीए य सद्धिं अंतो अंतेउरपरियालसद्धि संपरिबुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ, इमं च णं कच्छल्लणारए दसणेणं अइभदए विणीए अंतोर य कलुसहियए मज्झत्थोवस्थिए य अल्लीणसोमपियदंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदि. त्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तियमुंजमेहलवागलघरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणिओवयणिउप्पयणि लेसणीसु य संकामणिअभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसु य बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे इट्टे रामस्स य केसवस्स य पज्जुन्नपईवसंबअनिरुद्धणिसढ-उम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुयहातीण जायवाणं अधुटाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहुसु य समरसयसंपराएसु दंसणरए समंतओ कलहंसदक्खणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवई पकमणिं गगणगमणदच्छं उप्पडओगगणमभिलंघयतो गामागरनगरनिगमखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं वसुहं ओलोइंतो रम्मंहत्थिगाउरं उवागए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए, तएणं से पंडंराया कच्छुल्लनारयं एजमाणं पासइ पासित्ता पंचहिं पंडवेहि कुंतीए य देवीए सद्धिं आसणाओ अब्भुटेइ अब्भुट्टित्ता कच्छुल्लनारयं सत्तटुपयाईपच्चुग्गच्छइ पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खु. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४४९ तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ,तएणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीयित्ता पंडुरायं रज्जे जाव अंतेउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं से पंडूराया कोंतीदेवी पंच य पंडवा कच्छुल्लणारयं आढंति जाव पज्जुवासंति, तएणं सा दोवई कच्छल्लनारयं असंजय अविरय अपडिहयपचक्खायपावकम्मे तिकटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुहेइ नो पज्जुवासइ ॥ सू० २४ ॥ ____टीका-' तएणं ते' इत्यादि । ततस्तस्तदनन्तरं खलु ते पश्चपाण्डवा द्रौपद्या देव्या साई · कल्लाकलिं' कल्याकल्ये प्रतिदिवसं वारंवारेण उदारान् भोगभोगान् यावद् भुनाना विहरन्ति । ततः खलु स पण्डू राजाऽन्यदा कदाचित् पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्या देव्या द्रौपद्या देव्या च सार्ध ' अंतो अंतेउरपरियाल' 'तएणं ते पंच पंडवा' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते पंच पंडवा) वे पांचों पांडव (दोवईए देवीए) द्रौपदी देवी के साथ-( कल्लाकल्लिं वारंवारेणं ओरालाई भोग भोगाइं जाव विहरंति-तए णं से पंडूराया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवईए देवीए य सद्धिं अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिघुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ ) प्रतिदिन बारी बारी से उदारकाम भोगों को भोगने लगे एक दिन की बात है-कि पांडु राजा किसी एक समय पांचों पांडवों एवं अपनी पत्नी कुन्ती देवी और पुत्रवधू द्रौपदी सार्थ-" तएणं ते पंच पंडवा इत्यादि-- टी -( तएण) त्या२५७ (ते पंच पंडवा ) पांय ५is (दोवईए देवोए ) द्रौपट्टी वानी साथै ( कल्लाकल्लि वारंवारेणं ओरालाई भोगभोगाई जाव विहरंति-तएणं से पंडूराया अन्नया कयाई पंचर्हि पंडवेहिं कोतीए देवीए दोवइए देवीए य सद्धिं अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ ) દરરોજ વારાફરતી ઉદાર કાગ ભેગવવા લાગ્યા. એક દિવસની વાત શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे अन्तः अन्तःपुरस्य प्रासादमध्ये अन्तःपुरपरिवारेण 'परियाल ' इति लुप्ततृतीयान्तं साध संपरिकृतः सिंहासनवरगतश्चापि विहरति । ' इमं च ' अस्मिन् समये खलु 'कच्छुल्लणारए' कच्छुल्लनाम्नाप्रसिद्धो नारदः दर्शनेन 'अइभदए' अतिभद्रका भद्रदर्शनः । विणीए' विनीता नम्रो बाह्यतः 'अंतो य' अन्तश्वकलुषहृदयः, ' मज्झत्थोवत्थिए य माध्यस्थ्योपस्थितः बाह्यतो मध्यस्थभावं प्राप्तः 'अल्लीणसोमपियदंसणे' आलीनसौम्यप्रियदर्शनः आलीनानामाश्रितानां सौम्यम् =आहादकं, प्रियं = प्रीतिकारकं दर्शनं यस्य स तथा, सुरूपः - सुन्दराकृतिकः, तथा-' अमइलसगलपरिहिए' अमलिनसकलपरिहितः अमलिनं सकलम्-अखण्डम् परिहितं-वल्कलवस्त्ररूपं परिधानं यस्य स तथा, 'कालमियचम्मउत्तरासंगके साथ अंतःपुर के प्रासाद के भीतर अन्तःपुरपरिवार के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे-कि (इमंच णं) इसी समय (कच्छुल्लणारए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए दंसणे णं अइभद्दए, विणीए, अंतोय कलुसहियए मज्झत्थोवत्थिए य, अल्लीणसोमपियदंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए ) पांडुराजा के भवन में कच्छुल्लनाम से प्रसिद्ध नारद गगन-आकाश-मार्ग से बड़े वेगसे उतर कर आये। नारद देखने में अति भद्र थे। ऊपर से बड़े विनीत थे। परन्तु भीतर में इनका हृदय बहुत अधिक कलुषित था। केवल ऊपर से ये माध्यस्थ भाव संपन्न थे। अपने आश्रित व्यक्तियों को इनका दर्शन आहादक एवं प्रीति कारक होता था। आकृति उनको बड़ी सुन्दर थी। इनका बल्कल रूप परिधान अमलिन-सोफ स्वच्छ और खण्ड रहित था। (कालमिय છે કે તે પાંડુ રાજા કેઈ એક વખતે પાંચે પાંડવે, પિતાની પત્ની કુંતી દેવી અને પુત્ર વધુ દ્રૌપદીની સાથે રણવાસના મહેલની અંદર પોતાના પરિવારની साथे सिंहासन ५२ मे ता. ( इमं च णं) ते मते ( कच्छुल्लणारए पंडरायभवणंसि अइवेगेण, समोवइए दंसणे णं अइभदए विणीए अंतोय कलुसहियए मज्झत्थोवत्थिए य, अल्लीणसोमपियदंसणे सुरुवे अमइलसगलपरिहिए ) પાંડુ રાજાને ભવનમાં કચ્છલ નામથી પંકાયેલા નારદ ગગન-આકાશ માર્ગથી બહુ જ વેગથી ઉતરીને આવ્યા. નારદ દેખાવમાં અત્યંત ભદ્ર હતા. ઉપર ઉપરથી તેઓ એકદમ વિનમ્ર હતા. પણ અંતર તેમનું મન ખૂબ જ કલષિત હતું. ફક્ત ઉપર ઉપરથી જ તેઓ માધ્યસ્થ ભાવ સંપન્ન હતા. આશ્રિત વ્યક્તિઓને તેમનું દર્શન આહૂલાદક અને પ્રતિકારક હતું. તેમની આકૃતિ ખૂબ જ સુંદર હતી. તેમનું વલ્કલ રૂપ પરિધાન, એકદમ સ્વચ્છ-નિર્મળ હતું અને અંડરહિત હતું. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् रइयवच्छे' कालमृगचर्मोत्तरासंगरचितवक्षाः-कृष्णमृगचर्मोत्तरासङ्गेन रचितं शोभितं वक्षो यस्य स तथा, कृष्णमृगचर्मोत्तरीयवस्त्रधारकः । तथा-'दंडकमडलुहत्थे' दण्डकमण्डलुहस्त:-' जडामउडदित्तसिरए ' जटामुकुटदीप्तशिरस्कः, जण्णोवइयगणेत्तियमुंजमेहलाबागलधरे ' यज्ञोपवीतगणेत्रिकामुञ्जमेखलावल्कलधरः-तत्र यज्ञो. पवीतं यज्ञमूत्र गणेत्रिका-रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणं, मुञ्जमेखला-मुञ्जमयं कटिबन्धनमूत्र वल्कलं क्षत्वक, तेषां धारकः स्कन्धोपरियज्ञसूत्रधारी, करमूले धृतरुद्राक्षमालः, मुञ्जमयकटिसूत्रधारी, शरीरे परिधृतवल्कल इत्यर्थः । ' हत्थकयकच्छभीए ' हस्तकृतकच्छपिकः-हस्ते कृता कच्छपिका-वीणा येन स तथा, ' पियगंधवे' प्रियगन्धर्वः-गानप्रियः, 'धरणिगोयरप्पहाणे' धरणिगोचरमधानःधरणिगोचराणां-भूमिचारिणां जनानां मध्ये प्रधानस्तस्या काशेऽपि विहरणशीलत्वात् चम्मउत्तरासंगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे, जडामउडदित्तसिरए, जन्नो वहयगणेत्तिय मुंजमेहलवागलधरे, हत्थकयकच्छभीए, पियगंधब्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, संवरणावरणिओवयणि उप्पयणी लेसणीसुयसंकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसु य बहुसु विजाहरीसु विज्जास्तु विस्तृयजसे ) इनका वक्षस्थल काले मृग के चर्म रूप उत्तरासंग से सुशोभित था। दण्ड और कमण्डलु इनके हाथों में था। जटारूपी मुकुट से इनका मस्तक दीप्त हो रहा था। यज्ञसूत्र-जनेऊ, गणेत्रिका कलाई का आभरण रूप रुद्राक्ष की माला, मुञ्जमेखला-मुंज का बना हुआ कटि बन्धन सूत्र, और वृक्ष की छाल इन्हों ने धारण कररक्खी थी। हाथमें कच्छपिका-वीणा ले रखी थी। गान इन्हें बहुत प्रिय था। भूमि गोचरियों के बीच में ये प्रधान थे-क्यों कि ये आकाश में भी विहार (कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए, जन्नोवइय गणेत्तियमुंजमेहलवागलधरे, हत्थकयकच्छभीए पियगंधव्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, संवरणावरणिओवयणिउप्पयणिलेसणोसु य संकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसुय बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे ) તેમનું વક્ષસ્થળ કાળા હરણના ચર્મરૂપ ઉત્તરાસંગથી શોભતું હતું. દંડ અને કમંડળ તેમનાં હાથમાં હતા. જટા રૂપી મુકુટથી તેમનું મસ્તક પ્રકાશિત થઈ રહ્યું હતું. યજ્ઞ સૂત્ર-જનેઈ, ગણેત્રિકા-કાંડામાં પહેરવાની આભરણ રૂપ રુદ્રાક્ષની માળા, મુંજ-મેખલા-મુંજનું બનેલું કેડમાં પહેરવાનું બંધન સૂત્ર અને વૃક્ષની છાલ તેઓએ ધારણ કરેલી હતી. હાથમાં તેઓએ કચ્છ. પિકા-વીણું ધારણ કરેલી હતી. સંગીત તેમને ખૂબ જ ગમતું હતું. ભૂમિ ગોચરીઓને વચ્ચે તેઓ પ્રધાન હતા કેમકે તેઓ આકાશમાં વિચરણ કરતા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર્ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे 33 " संवरणावरणिओवयणिउप्पयणिलेसणीसु य संवरण्यावरण्यवपतन्युत्पतनीश्लेषणीषु च ' संवरणी - स्वस्यान्तर्धानकारिणी विद्या, आवरणी - परस्यान्तर्धानकारिणी विद्या, अवपतनी अधोऽवतरणी विद्या, उत्पतनी-ऊर्ध्वगमनकारिणी विद्या, श्लेषणी - वज्रलेपादिवत् सन्धानकारिणी विद्या, तासु तथा - ' संकामणि अभिओगपण्णति गमणीथंभणीसु य' संक्रमण्यभियोगप्रज्ञप्तिगमनी स्तम्भनीषु चसंक्रामणी - विद्या - विशेषः यया- परशरीरादौ प्रवेष्टुं शक्नोति सा विद्या, अभियोगः स्वर्णादिनिर्माणविद्या वशीकरणविद्या च प्रज्ञप्तिः = अविदितार्थबोधिनी गमनी 1 करते थे। संवरणी, आवरणी अवपतनी, उत्पतनी, श्लेषणी इन विद्याओं में तथा संक्रमणी, अभियोग, प्रज्ञप्ति, गमनी स्तम्भिनी इन नाना प्रकार की विद्याधर संबन्धी विद्याओं में इनकी कीर्ति विख्यात थी । जिस विद्या के प्रभाव से अपने आपको अन्तर्धान कर दिया जाता जाता है उसका नाम संवरणी विद्या है। दूसरा जिस विद्या से अन्तधन करदिया जाता है उस विद्या का नाम आवरणी विद्या है। जिस विद्या के प्रभाव से ऊपर से नीचे उतरा जाता है उसका नाम अबपतनी और जिसके प्रभाव से उर्ध्व में गमन किया जाता है उसका नोम उत्पतनी विद्या है। वज्रलेप आदि की तरह जो चिपका देती है वह श्लेषणी विद्या है। जिस विद्या के बल दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होना होता है-ऐसी परशरीरप्रवेशकारिणी विद्याका नाम संक्रमणी विद्या है। स्वर्ण आदि के बनाने की जो निपुणता है एवं परको से हता. संवरथी, आवरणी, अवपतनी, उत्पतनी, श्लेषणी या अधी विद्याशोभां तेभन सभागी, अभियोग, प्रज्ञप्ति, गमनी, स्तलनी या अने જાતની વિદ્યાધર સ‘બધી વિદ્યાઓમાં તેમની કીતિ ચામેર પ્રસરેલી હતી જે વિદ્યાના પ્રભાવથી પેાતાની જાતને અદૃશ્ય કરી શકાય છે તે સાઁવરણી વિદ્યા છે. જે વિદ્યાથી બીજાને અદૃશ્ય કરી શકાય છે તે આવરણી કહેવાય છે. જે વિદ્યાના પ્રભાવથી ઉપરથી નીચે ઉતરી શકાય છે તે અવપતની અને જેના પ્રભાવથી ઉ ( આકાશ ) માં ગમન કરી શકાય છે તે વિદ્યાનું નામ ઉત્પતની છે. વ લેપ વગેરેની જેમ જે ચાંટાડી દે છે તે શ્લેષણી વિદ્યા છે. જે વિદ્યાના બળથી બીજાના શરીરમાં પ્રવેશી શકાય એવી પરકાય પ્રવેશ કરિણી વિદ્યાનું નામ સંક્રમણી વિદ્યા છે. સેાનું વગેરે બનાવવામાં જે નિપુણતા છે અને ખીજાને વશવર્તી કરવાની જે શક્તિ છે તે વિદ્યાનું નામ અભિચાગ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४५३ -गमनप्रकर्षसाधिका-आकाशगामिनी च विद्याविशेषः-स्तम्भनी-स्तम्भनकारिणी विद्या, तासु 'बहुसु विज्ञाहरीसु विज्नासु' बहुषु-नानाविधामु विद्याधरीषु-विद्याधर सम्बन्धिषु विद्यासु 'विस्सुयन से' विश्रुतयशाः-विद्यासु नैपुण्या-विख्यातकीर्तिः, इष्टः पियः, रामस्य बलदेवस्य केशवस्य कृष्णवासुदेवस्य च पुनः केषां प्रियइत्याह- पज्जुन्नपईवसंवअनिरुद्धनिसढउस्सुयसारणगयसुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं' प्रद्युम्न प्रतीपशाम्बानिरुद्धनिषधोत्सुकसारणगजसुमुखदुर्मुखादीनां यादवानाम् , प्रद्युम्नादीनां संख्यामाह-प्रद्युम्नः, प्रतीपः, शाम्बः, अनिरुद्धः, निपधः, उत्सुकः, वश में करने कि जो शक्ति है उस विद्या का नाम अभियोग विद्या है। अविदित अर्थ जिस के प्रभाव से विदित हा जावे वह प्रज्ञप्ति विद्या गमन प्रकर्ष की साधक तथा आकाश में गमन कराने वाली विद्या गमनी विद्या स्तम्भन कराने वाली विद्यास्तम्भिनी विद्या है। (इटे रामस्स य केसवस्स य पज्जुनपईयसंघ अनिरुद्धणिसढ उम्मुय सारण गयसुमुह दुम्मुहातीण जायवाणं अबुट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संधवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए, भंडणाभिलासी, बहुसु य समर सयसंपराएसु दंसणरए, समंतओ कलहंसक्खणं अणुगवेसमाणे, असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिलोक्कबलवगाणं, आमंतेऊण तं भगवई पक्कमणि गगणगमणदच्छं उप्पडओ गगणमभिलंघयंतो गामागरनगरनिगमखेडकब्बड मडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्समंडियं थिमियमेइ गीतलं वसुहं आलोइंतो रम्मं हथिणारं उवागए) बलदेव एवं कृष्ण वासुदेव को ये इष्ट थे तथा साढे तीन करोड, प्रद्युम्न, प्रतीप, साम्ब, अनिरुद्ध निषध उत्सुक, सारण, गज सुकुमाल सुमुख दुर्मुख વિદ્યા છે અવિદિત અર્થ જેના પ્રભાવથી જાણી શકાય તે પ્રજ્ઞપ્તિ વિદ્યા, ગમન પ્રકર્ષની સાષિકા તેમજ આકાશમાં ગમન કરનારી વિદ્યા ગમની વિદ્યા કહેपाय छे. स्तमन रावतारी विद्या स्तनानी विद्या छ. ( इवें रामस्स य केस. घस्स य पज्जुन्नपईवसंबअनिरुद्ध णिसढउत्सुयसारणगयसमुहदुम्मुहतीण जायवाणं अधुद्वाणकुमारकोडीण हिययदहए संथवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए, भंडणाभिलासी. बहुसयसमरसयसंपराएसु दंसणरए समंतओ कलहसदक्खणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिलोक्कबलवगाणं, आमतेऊण त भगवई, पक्कमणि गगणगमणदच्छं उप्पडओ गगणमभिलं वयं तो गामागारनगरनिगमखेडकब्बडमडंब दोण. मुहपट्टणासमसंवाहसहस्समडिय थिमिण मेइणीतल वसुहं आलोइतो रम्मं हथिणार उवागए) मतेम १ पासुवनेतमा छट तामने सार ४१७ अधुन, પ્રતીપ, સાખ, અનિરૂધ, નિષધ, ઉત્સુક, સારણ, ગજ સુકુમાલ, સુમુખ દુર્મ અવગેરે વદાય કુમારેને માટે તેઓ હદયદયિત હતા એટલે કે ખૂબ જ પ્રિય હતા. એટલા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे सारणः, गजमुकुमालः, सुमुखः, दुर्मुखः, इत्यादयो यादवकुमारास्तेषां 'अदुवाणं कुमारकोडीणं' अर्धचतुर्थीना कुमारकोटीनां च सार्वत्रिकोटिप्रमितानां यादवकुमाराणामित्यर्थः 'हिययदइए' हृदयदयितः हृदयपियः, 'संथावए ' संस्ता. वकः-यादवानां प्रशंसकः, तथा-कलहयुद्धकोलाहल प्रियः कलहो-विवादः, युद्धशस्त्रादिभिः पहरणं, कोलाहलो जनानां महाध्वनिः, एते मियाः प्रमोदजनका यस्य स तथा, ' भंडणाभिलासी' भण्डनाभिलाषी भण्डनं राटिः-कलहः 'राइ' इति भाषायां तस्याभिलाषी तथा-बहुषु च समरशतसंपरायेषु-समरशतसंग्रामेषु दर्शनरत. दर्शनाऽऽसक्तः, 'समंतभो' समन्ततः सर्वप्रकारेण-परस्परं च कलहं 'सदक्खणं ' सदाक्षण-सर्वस्मिन् क्षणे ' अणुगवेसमाणे' अनुगवेषयन् अन्वेषयन् , ' असमाहिकरे' असमाधिकरः-चित्तविक्षेपकारकः चित्तस्यास्थैर्यकरः केषां चित्तस्य विक्षेपकइत्याह- दसारवरवीरपुरिसतिलोकवलवगाणं' दशाहवरवीरपुरुषौलोक्यबलवती-दशार्हाः-समुद्रविजयादयो दशसंख्यकाः त एव वराः श्रेष्ठाः इत्यादि यादवकुमारों के लिये ये हृदय दयित थे-अत्यंत प्रिय थे। इसी कारण यादवों के प्रशंसक थे। कलहविवाद युद्ध एवं मनुष्यों का कोलाहल ये सब इन्हें बहुत अधिक अच्छे लगते थे। आनन्द जनक होते थे। रोड (लडाई) के ये अभिलाषी बने रहते थे। अर्थात् हर एक जगह किसी न किसी रूप में परस्पर में लोगों में तकरार, कजिया कैसे उत्पन्न हो इस बात का इन्हें विशेष ध्यान रहता था। समर शतसंग्राम के देखने में इन्हें विशेष हर्षोल्लास होता था। सब प्रकार से परस्पर में सब समय में ये कलह की गवेषणा करने में ही लगे रहते थे। नेमिनाथ की अपेक्षा त्रैलोक्य में विशिष्ट बलवाली जो श्रेष्ठ वीर पुरुष समुद्र विजयादि दश માટે જ તેઓ યાદનાં વખાણ કરનારા હતા. કલહ-કંકાસ, વિવાદ, યુદ્ધ અને માણસને શોરબકોર આ બધું તેમને બહુ જ ગમતું હતું. આ બધાથી તેમને ખૂબ જ મજા પડતી હતી, કજીયે તેમને ખૂબજ ગમતું હતું એટલે કે દરેક સ્થાને ગમે તે કારણને લીધે વચ્ચે પરસ્પર કલહ-કંકાસ કજીયે કેવી રીતે શરૂ થાય આ વાતની તેઓ તક જતા રહેતા હતા. સેંકડે યુદ્ધોના બીભત્સ દશ્ય જોવામાં તેમને ખૂબ જ આનંદને અનુભવ થતું હતું. તેઓ બધી રીતે રાત અને દિવસ એકબીજાને લડાવવાની શોધમાં જ ચોંટી રહેતા હતા. નેમિનાથની અપેક્ષા શૈલેયમાં સવિશેષ બળવાન શ્રેષ્ટ વીર પુરૂષ સમુદ્ર વિજય વગેરે દશ દશાહ હતા તેમના ચિત્તને તેઓ કષ્ટ આપનારા હતા. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीच रित निरूपणम् वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये बलवन्तः नेमिनाथापेक्षया तेषाम्, 'आमंतेऊण तं भगवई ' आमन्त्र्य = प्रयुज्य तां भगवतीं विद्यां कीदृशीं विद्यामित्याह – ' पक्कमणि ' प्रक्रमण= प्रकृष्टगमनशक्ति शालिनीं 'गगणगमणदच्छं' गगनगमनदक्षाम् = आकाशे गमने समर्थाम् 'उप्पइओ' उत्पतितः, गगनमभिलङ्घयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्लङ्घयन् 'गामा गर नगर निगमखेड कब्बड मडंवदोण मुहपट्टणासम संवादसहस्स मंडियं' ग्रामाकरनगर निगम खेटकर्बट मंडबद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंवाह सहस्रमण्डितं, तत्र अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आकरः = स्वर्णाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकरं नगरं, निगमं= वणिग्ग्रामं खेटं= धूलीप्रकारं, कर्वटं कुत्सितनगरं, यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्बं यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां, भाण्डान्यागच्छंति तत् द्रोणमुखं, पत्तनं = द्वेधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहंति स संवाह एतैः सहस्रैर्मण्डितं, स्तिमितमेदिनीतलं, 'वसुहं' वसुधां भूमिं ' ओलोईतो ' अवलोकयन् = पश्यन् रम्यं हस्तिनापुरं नगरमुपागतः पाण्डुराजभवनेऽतिवेगेन समुपेतः- गगनादवतीर्ण इत्यर्थः ! ततः खलु स पाण्डुराजा कच्छुल्लनारर्य' कच्छुल्लनारदम् आगच्छन्तं पश्यति - दष्ट्वा पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्या च देव्यासार्धमासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे । गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली एवं आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके ये आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लंघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर निगम खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, संवाह इनके सहस्रों से मंडित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और वहां से गगनमार्ग से होकर फिर ये पांडुराज के भवन में पहुँचे। ऐसा संबंध यहां लगाना (तएण से पडूराया कच्छुल्लनारयं एज्जमाणं पासइ) इम के बोद पांडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जब देखा (पासित्ता) तो ગમનમાં વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઇ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણી વિદ્યાના બળથી તેઓ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા. આ રીતે આ નારદ ગમનથી આકાશને એળગીને સહઓ ગ્રામ, આકર. નગર, निगम जेट अर्जंट, भउंज, द्रोणुभुख, पत्तन, समाहोथी, मंडित अने स्तिमित પૃથ્વીને જોતા રમણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાંથી આકાશ भार्गभां थाने पांडुराना लवनभां यह भ्या. ( तरणं' से पांडुराया कच्छुल्लनार एज्जमानं पासइ) त्यारमाह पांडुरालये छुनारहने क्यारे भावता लेया ( पासिता ) त्यारे लेने ( पंचहि पंडवेहिं कुतीए देवीए सद्धि आसणाओ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र कच्छुल्लनारदं सप्ताष्टपदानि प्रत्युद्गच्छति, नारदाभिमुखमायाति,प्रत्युद्गत्य तिक्खुत्तो' त्रिः कृत्वः - त्रिवारं, 'आयाहिणपयाहिणं' आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्त्वा वन्दते, नमस्यति वंदित्वा, नत्वा, महाhण-महतां योग्येन आसनेन उपनिमन्त्रयति । उपवेशनार्थ मार्थयति । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः 'उदगपरिफासियाए' उदकपरिस्पृष्टायां जलच्छटेन सिक्तायां 'दभोवरिपञ्चत्थुयाए' द परिमत्यवस्तुतायां कुशे पर्यास्तीर्णायां 'भिसियाए ' वृष्यां आसनविशेषे निषीदति-उपविशति, निषध पाण्डु राजानं राज्ये यावदन्तः पुरे च कुशलोदन्तं-कुशलवार्ती पृच्छति, ततः खलु स पाण्ड्रराजा कुन्तीं देवीं पञ्च च पाण्डवा, कच्छुल्लनारदं ' आदंति' आद्रियन्ते यावत् पर्युपासते सेवन्ते स्म । ततः खलु सा द्रौपदो कच्छुल्लनारदम् ' असंजयअविरयअपडिहयपञ्चकखायपावकम्मे तिकडु ' असंयताविरतापतिहताप्रत्याख्यानपापकर्मेति कृत्वा, तत्र-असंयता-वर्तमानकालिकसर्वसावधानुष्ठाननिवृत्तः देखकर (पंचहि पंडवेहि कुंतीए देवीए सद्धिं आसणाओ अन्भुटेइ ) ये पांचो पांडवो एवं कुन्ती के साथ अपने आसन से उठे। (अग्भुद्वित्ता कच्छुल्लनारयं सत्तटुपयाइं पच्चुग्गच्छइ ) और उठकर सात आठ पैर कच्छुलनारद के सामने स्वागत निमित्त गये (पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खु. त्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ तएणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दभोवरि पच्चत्थुयाए भिसीयाए णिसीयइ, णिसीयित्ता पंडरायं रज्जे जाव अंते. उरे य कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं से पंडराया कोंतीदेवी पंचय पंडवा कच्छुल्लनारयं आढ़ति जाव पन्जुवासंति, तएणं सा दोबई कच्छुल्ल नारयं असंजयअविरयअपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे त्ति कटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुटेइ, नो पज़्जुवोसइ) जाकर के इन्हों ने अन्भुदेह ) तेथे पांये पांडव। भने तानी साथे पोताना सासन ५२थी ला थया. ( अब्भुद्वित्ता कच्छुल्लनारय सत्तटुपयाई पच्चुग्गच्छद) मने असा થઈને કડ્ડલ નારદના સ્વાગત માટે સાત આઠ ડગલાં સામે ગયા. (पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता बंदइ नमसइ, महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ, तरणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दभोपरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइं, णिसीयित्ता पंडुरायं रज्जे जाव अंतेउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ तएणं से पंडुराया कोतीदेवी पंचय पंडवा कच्छुल्लनारयं आढ़ति जाव, पज्जुवासंति, तएणं सा दोवई कच्छुल्लनारयं असंजयअविरयअयडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे ति कडु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्टेइ, नो पज्जुवासइ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ---- - - - - - - -- - - - - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४५७ संयतस्तथा विधो न भवति यः सोऽसंयतः संयमरहित इत्यर्थः, अविरतः अतीत कालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वकं, भविष्यति च संवरपूर्वकमुपरतो निवृत्तो विरतस्तथा विधो न भवति यः सोऽविरतः, विरतिरहितः, अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहतं वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहा सेन नाशितं तथा प्रत्याख्यातं-पूर्वकृतातिउनके लिये तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण किया-करके उनको वंदनाकी नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर उन्होंने उनसे महान् पुरुषों के बैठने योग्य आसन पर बैठने के लिये प्रार्थना की-इस के बाद वे कच्छुल्ल नारद जल के छीटों से सिक्त हुए आसन पर कि जो दर्भ के ऊपर आस्तीर्ण था बैठ गये। बैठकर उन्होंने पांडु राजा से राज्य की यावत् अंतः पुर की कुशल वर्ता पूछी। उनके पूछने पर पांडु राजाने कुन्ती देवी ने एवं पांचों पांडवों ने उन कच्छुल्ल नारद को खूब आदर किया यावत् अच्छी तरह से उनकी पर्युपासना की। द्रौपदी ने उन्हें असंयत, अविरत एवं अप्रतिहत प्रत्याख्यतपापकर्मा जानकर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उनके आने पर उठी। वर्तमान कालिक सर्व सावध अनुष्टान से जो निवृत्त होता है वह संयत है-ऐसा संयत जो नहीं होता है वह असंयत कहलाता है। अतीत काल में हुए पापों से जुगुप्सा पूर्वक और भविष्यकाल में उनसे संवर पूर्वक जो उपरत होता સામે જઈને તેમણે ત્રણવાર તેમની ચોમેર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરી. ત્યારપછી તેમણે વંદન તેમજ નમન કર્યા અને પછી તેમને પિતાના કરતાં મોટા માણસોને બેસવા ગ્ય આસન ઉપર બેસવાની વિનંતી કરી. ત્યારબાદ તે કચ્છલ નારદ પાણીના છાંટાઓથી ભીના પાથરેલા દર્ભના આસન ઉપર બેસી ગયા. બેસીને તેઓએ પાંડુરાજાને રાજ્યની યાવત રણવાસની કુશળવાર્તા પૂછી. પાંડુરાજા, કુંતીદેવી અને પાંચ પાંડવોએ કચ્છલ નારદને ખૂબજ આદર કર્યો યાવતું સારી રીતે તેમની પર્યું પાસના કરી. તેમને અસંયત, અવિરત અને અપ્રતિહાપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મા જાણીને દ્રૌપદીએ તેમને આદર કર્યો નહિ, તેમના આગમનની અનુમોદના કરી નહિ અને જ્યારે તેઓ આવ્યા ત્યારે પણ તે ઊભી થઈ નહિ. વર્તમાનકાલિક સર્વ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનથી જે નિવૃત્ત હોય છે તે સંયત છે, આ વ્યાખ્યા મુજબ જે સંયત નથી તે અસં. યત કહેવાય છે. ભૂતકાળમાં થઈ ગયેલા પાપકર્મોથી જુમુસાપૂર્વક અને ભવિષ્યત્કાલમાં તેમનાથી સંવરપૂર્વક જે ઉપરત હોય છે તે વિરત છે, એ જે નથી તે અવિરત છે, એટલે કે વિરતિથી રહિત છે. વર્તમાનકાળમાં જેમાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे चारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतम् अनयोः कर्मधारये प्रतिहतमत्याख्यातं ततो नस्तत्पुरुषः, न प्रतिहतप्रत्याख्यातम् - अप्रतिहत प्रत्याख्यातं न प्रतिहतं नापि - प्रत्याख्यातं पापकर्म येन सोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, इति कृत्वा - एवं मत्वा 'नो आढाई' नो आद्रियते, नो परिजानाति = नानुमोदयति नो अभ्युत्तिष्ठति नो पर्युपास्ते स्म ॥ सू०२४ ॥ है वह विरत है। ऐसा जो नहीं होता है वह अविरत है - विरति से रहित है। वर्तमान काल में जिसमें पापकर्मों को स्थिति और अनुभाग के हास से नाश कर दिया है, तथा पूर्वकृत अतिचारों की निंदा से भविष्यत् काल में अकरण से जिसने उन्हें निराकृत कर दिया है ऐसा प्राणी प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म कहलाता है । ऐसा जो नहीं करता है - पापकर्मों को न प्रतिहत करता है और न प्रत्याख्यात करता है - वह अप्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा है । अष्टादश कर ग्राह्य ( करसे युक्त) जो होता है वह ग्राम है। स्वर्ण आदि की उत्पत्तिकी खाने जिसमें हो वह आकर है । जिसमें अठारह तरह का टेक्स कर नहीं लगता है वह नगर है। जहां पर वणिजनों का निवास हो वह निगम है। धूली का प्राकार जिसमें होता है-अर्थात् धूलि के परकोटे से जो घिरा होता है वह खेट है। कुत्सित नगर का नाम कर्बट है जहां एक अढाई कोस के अन्तराल में ( चारों दिशा से ) ग्राम आदि नहीं पाये जाते हैं वह मडम्ब है । जहाँ पर स्थलमार्ग से एवं जल मार्ग से भाण्ड ( वस्तु ) आते हैं वह द्रोणमुख है । जल पत्तन और स्थलपत्तन के भेद से पतन दो प्रकार का होता है। जहां तापसलोग निवास करते हों वह પાપકર્માંને સ્થિતિ અને અનુભાગના હાસથી નાશ કર્યો છે તેમજ પૂર્વકૃત અતિચારાની નિંદાથી ભવિષ્યકાળમાં અકરણથી જેણે તેમને નિરાકૃત કરી દીધા છે એવું પ્રાણી પ્રતિહત પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મી કહેવાય છે. એવું જે કરતા નથી એટલે કે જે પાપકમાંને પ્રતિહત કરતા નથી અને પ્રત્યાખ્યાત પણ કરતા નથી તે અપ્રતિ હત પાપકર્મો છે. જેમાં સામાન્ય માણસે વસે તે ગ્રામ છે. સેાના વગેરેની ખાશે. જ્યાં હાયતે આકર છે. જેમાં કાઇપણ જાતના વેરા નાખવામાં આવતા નથી તે નગર છે. જ્યાં વાણીયાઓને નિવાસ હોય તે નિગમ છે. માટીની ભીંત ચૈામેર બનાવેલી હાય તે ખેટ છે. કુત્સિત નગરનું નામ કમઁટ છે. જ્યાં અઢિ ગાઉ સુધીમાં ચારે તરફ ગ્રામ વગેરે હતાં નથી તે મડબ છે. જ્યાં સ્થળ માથી અને જળ માથી વાહને આવે છે તે દ્રોણુમુખ છે. જલપત્તન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४५९ मूलम्-तएणं तस्स कच्छल्लणारयस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था अहोणं दोवई देवी रूवेणं जाव लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहि अणुबद्धा समाणी ममं णो आढाइ जाव नो पज्जुवासइ तं सेयं खलु मम दोवइए देवीए विप्पियं करित्तए त्तिकदृ एवं संपेहेइ संपेहित्ता पंडुयरायं आपुच्छइ आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ आवाहित्ता ताए उकिटाए जाव विजाहरगईए लवणसमुहं मझमझेणं पुरत्थाभिमुहे वीइवइउं पयत्ते यावि होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं घायइसंडे दीवे पुरस्थिमद्धदाहिणड्ड भरहवासे अमरकंकाणामरायहाणी होत्था, तएणं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णाम राया होत्था महया हिमवंत. वण्णओ, तस्स णं पउमनाभस्स रन्नो सत्त देवीसयाइं ओरोहे होत्था, तस्स णं पउमनाभस्सरण्णो सुनाभे नामं पुत्ते जुवराया यावि होत्था, तएणं से पउमणाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओरोहसंपरिवुडे सिंहासगवरगए विहरइ, तएणं से कच्छुल्लणारए जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव पउमनाभस्त भवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि झत्ति वेगेणं समोवइए, तएणं से पउमनाभे राया कच्छल्लं नारयं आश्रम है जहां पर पर्वत आदि दुर्गम स्थानोंमें मनुष्य धान्य आदि रखते हैं-वह संवाह है अर्थात् नगर के बाहर का प्रदेश जहां आभीर वगेरे लोग निवास करते हो ॥ सूत्र २४ ॥ સ્થલપતનની દૃષ્ટિએ પત્તનના બે પ્રકાર છે, જ્યાં પવર્ત વગેરે દુર્ગમ સ્થાનમાં માણસ ધાન્ય વગેરેની રાખે છે તે સંવાહ કહેવાય છે. અર્થાત નગરની બહારને પ્રદેશ કે જ્યાં ભરવાડ વિગેરેને વાસ હોય છે. એ સૂત્ર ૨૪ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ४६० ज्ञाताधर्मकथासूत्र एज्जमाणं पासइ पासित्ता आसणाओ अब्भुटेइ अब्भुद्वित्ता अग्घेणं जाव आसणेणं उवणिमंतेइ, तएणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदंतं आपुच्छइ, तएणं से पउमनाभे राया णियग ओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासी-तुब्भं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाणि जाव गेहाइं अणुपविससि, तं अस्थि आई ते कहिंचि देवाणुप्पिया ! एरिसए ओरोहे दिट्टपुटवे जा. रिसए णं मम ओरोहे ?, तएणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेणं रना एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइ करित्ता एवं वयासी -सरिसे गं तुमं पउमणाभा! तस्स अगडददुरस्स, के गं देवाणुप्पिया! से अगडददुरे ?, एवं जहा मल्लिगाए एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवे दोवे भारहेवासे हथिगाउरे दुवयस्स रणो धूया चूलगीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुहा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूवेण य जाव उकिसरीरा दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्टयस्त अयं तव ओरोहो सतिमंपि कलं ण अग्छतित्तिकद्दु, पउमणाभं आपुच्छइ आपुच्छित्ता जाव पडिगए, तएणं से पउमणाभे राया कच्छुल्लगारयस्स तिए एयमढे सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य३ मुच्छिए ४ दोवइए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव पुठ्वसंगइयं देवं एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवे दीवे भारहेवासे हथिणाउरे श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम् ४६१ जाव सरीरा तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! दोवई देवीं इहमाणियं, तरणं पुव्वसंगइए देवीए पउमनाभं एवं वयासी - नो खलु देवाणुपिया ! एयं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जपणं दोवई देवी पंचपंडवे मोत्तूण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालाई जाव विहरिस्सइ, तहा वि य णं अहं तव पियद्वतयाए दोवई देविं इहं हव्वमाणेमित्तिकद्दु पउमणाभं आपुच्छर आपुच्छित्ता ता ऊक्किट्ठाए जाव लवणसमुद्दे मज्झंमज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे जुहिट्ठिल्ले राया दोवईए सद्धिं उप्पिं आगासतलंसि सुहपत्ते याविं होत्था, तरणं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिट्टिले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ दलित्ता दोवई देवीं गिण्हइ गिन्हित्ता ताए उक्किहाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्त भवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पउमणाभस्त भवणंसि अलोगवणियाए दोवई देवीं ठावेइ ठावित्ता ओसोवणि अवहरइ अवहरिता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुविया मए हत्थणाउराओ दोवई इह हव्वमाणीया तव असोगबाणियाए चिट्ठइ, अतो परं तुमं जाणसित्तिकद्दु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ सू० २५ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे टीका- तएणं तस्स' इत्यादि । ततः खलु तस्य कच्छुल्लनारदस्य अयमेतदूपः आध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत, अहो ! खलु द्रौपदी देवी रूपेण यावत् लावण्येन च पञ्चभिः पाण्डवैरनुबद्धासती मां नो आद्रियते यावत् नो पर्युपास्ते, तत्-तस्मात् श्रेयः खलु मम द्रौपद्या देव्याः 'विप्पियं करित्तए' विप्रियं कर्तुम् , पाण्डवकृतसत्कारसंमानगर्विता विवेकरहिता जाता -तएणं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (तस्स कच्छुल्लनारयस्स) उन कच्छुल्ल नारदको (इमेयारूवे) यह इस रूप (अज्झस्थिए, चितिए, पस्थिए, मणोगए, संकप्पे समुप्पज्जित्था ) आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। (अहो णं दोवईदेवी स्वेणं जाव लावण्णेणं य पंचहिं पंडवेहिं अणुबद्धा समाणी मम णो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करित्तए त्ति कटु एवं संपेहेह, संपेहित्ता पंडुरायं आपुच्छइ आपुच्छित्ता उप्पयणि विज्जं आवाहेइ आवाहित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव विज्जाहरगईए लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीइवइउं पयत्ते यावि होत्था) देखो-यह कितने आश्चर्य की बात है कि द्रौपदी देवी ने रूप यावत् लावण्य से पांचों पांडवों के साथ भोगासक्त बनकर मेरा कोई आदर नहीं किया है यावत् किसी भी प्रकार की पर्युपासना नहीं की है। इसलिये अब मुझे यही उचित-श्रेयस्कर है कि मैं इस द्रौपदी देवी का विप्रिय करू-अनिष्टकरूँ तएण तस्स कच्छुल्लनारयस्स इत्यादि । 211-( तएण) त्या२५छी ( तस्स कच्छुल्लनारयस्स) शुस ना२४ने ( इमेयारूवे) मा ततनी (अन्झथिए, चितिए, पथिए, मणोगए, संकप्पे समुप्पज्जित्था ) माध्यात्मि, यितित, प्रथित, मनोगत स४६५ मव्य। (अहोणं दोबई देवी रूवेणं जाव लावण्णेणं य पंचहिं पंडवेहिं अणुबद्धा समाणी मम णो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता पंडुरायं आपुच्छइ आपुच्छित्ता उप्पयणि विज्ज आवाहेइ आवाहिता ताए उकिटाए जाव विज्जाहरगईए लवणसमुदं मझं मज्झेगं पुरस्थाभिमुहे वीइवइउपयत्ते याविहोत्था) " જુઓ, આ કેવી નવાઈની વાત છે કે દ્રૌપદી દેવીએ રૂપ યાવત્ લાવ. યથી પાંચે પાંડેની સાથે ભેગાસત થઈને મારો કેઈ પણ રીતે આદર કર્યો નથી થાવત્ કઈ પણ જાતની પર્યું પાસના કરી નથી. એથી હવે મને એ જ યોગ્ય જણાય છે કે ગમે તે રીતે દ્રૌપદીનું વિપ્રિય અહિતકરૂ. હમણાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४३ तस्मान्मदापहरणेन अस्याः प्रतिकूलाचरणं श्रेयः इति भावः । इति कृत्वा इति मनसि निधाय एवं संप्रेक्षते-पर्यालोचयति, संपेक्ष्य पाण्डं राजानमापृच्छय ' उप्प. यणि विज्ज' उत्पतनीम्-विद्याम् ' आवाहेई' आवाहयति-स्मरति आवाय, मत्वा तया उत्कृष्टया यावद् विद्याधरगत्या लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन पौरस्त्याभिमुखःपूर्वदिगभिमुखः, 'वीइवइउं पयंत्ते ' व्यतिव्रजितुं प्रवृत्ता=गमनतत्परश्चाप्यभवत् । ___ तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'धायईसंडे ' धातकीपण्डे धातकीपण्डनामके, द्वीपे 'पुरथिमद्धदाहिणभरहवासे' पौरस्त्यार्धदक्षिणार्ध-भारतवर्षे पूर्व दिग्वतिनि दक्षिणार्धभरतक्षेत्रे अमरकंका नाम राजधानी आसीत् । ततः खल्लु अमरकंकायां राजधान्यां पद्मनाभो नाम राजाऽभवत् । स कीदृश इत्याह- महया हिम. वंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे ' महा-हिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसार: महाहिमवानिव तथा-महामलयमन्दरमहेन्द्रवत् सारः प्रधानः । अन्यनृपापेक्षयाऽधिकमहत्त्वादिगुणविभवैश्वर्यसम्पन्न इत्यर्थः, विस्तरतस्तु व्याख्यानं प्रथमाध्ययने कृतम् , यह इस समय पांडवों द्वारा कृत सत्कार सम्मान से गर्विष्ट बनी हुई है-सो विवेक रहित बन गई है-इसलिये इसके मद को उतारना चाहिये अतः इसके प्रतिकूल आचरण करना यही मुझे श्रेयस्कर है। इस प्रकार मन में रखकर उन्हों ने विचार किया-विचार करके फिर उन्हों ने पांडुराज से पूछा हे राजन् हम जाते हैं-पूछकर उन्हों ने उत्पतनी नाम की विद्या का आह्वान किया स्मरण किया-स्मरण कर के उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर संबन्धी गति से वहां से पूर्व दिशा की तरफ मुख कर के वे उड़ने में प्रवृत्त भी हो गये-( तेणं कालेणं तेणं समएणं धायईसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणभरहे वासे अमरकंका णाम रायहाणी होत्था-तएणं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था, महया हिमवंत० તે આ પાંડવે વડે સત્કૃત તેમજ સન્માનીત થઈને ગર્વિષ્ઠા બની ગઈ છે તેથી તે અવિવેકી થઈ પડી છે, એથી હવે એના મદને ઉતારવો જોઈએ, એના વિરૂદ્ધ આચરવું જોઈએ, આ પ્રમાણે તેઓએ મનમાં વિચાર કર્યો. વિચાર કરીને તેમણે પાંડુરાયને પૂછ્યું કે હે રાજન ! અમે જઈએ, એ પ્રમાણે પૂછીને તેઓએ ઉત્પતની નામની વિદ્યાનું આહાન કર્યું, સ્મરણ કર્યું. સ્મરણ કરીને તે ઉત્કૃષ્ટ યાવત વિદ્યાધર સંબંધી ગતિથી ત્યાંથી પૂર્વ દિશા ભણી મુખ કરીને ઉડવા લાગ્યા. (तेणं कालेणं तेणं समएणंधायईसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणभरहे वासे अमरकंका णाम रायहाणी होत्था तएणं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया श्री शतधर्म अथांग सूत्र : ०3 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वर्णकः वर्णनं पूर्वोक्तवद् बोध्यम् , तस्य खलु पद्मनाभस्य राज्ञः 'सनदेवीसयाई' सप्तदेवीशतानि-देवीनां राजीनां शतानि-सप्तशतानिभार्याः 'ओरोहे ' अवरोधेअन्तः पुरे आसन् तस्य खलु पद्मनाभस्य राज्ञः सुनाभो नाम पुत्रो युवराजश्चाप्यभवत् । ततः खलु स पद्मनाभो राजा अन्तः प्रदेशे 'अंतेउरंसि' अन्तः पुरे 'आरोहसंपरिबुडे ' अवरोधसंपरितृतः - स्त्रीपरिवारसंपरितृतः, सिंहासनवरगतो विहरति-आस्तेस्म । वण्णओ तस्सणं पउमनाभस्स रणो सत्तदेवीसयाइं ओरोहे होत्था तस्स णं पउमनाभस्स रणो सुनाभे नाम पुत्ते जुवराया यावि होत्था तएणं से पउमणाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओरोहसंपरिखुडे सिंहासण वरगए विहरइ) उस काल और उस समय में धातकी षंड नाम के द्वीप में पूर्व दिग्वर्ती दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में अमरकंका नाम की राजधानी थी। उस अमरकंका नाम की राजधानी में पद्मनाभ नाम का राजा रहता था। यह राजा महा हिमवान् पर्वत की तरह तथा महा मलय, मन्दर एवं माहेन्द्र की तरह अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वादिगुणों से विभव से एवं ऐश्वर्य से संपन्न था। इन पदों का विस्तार पूर्वक वर्णन प्रथम मेघकुमार अध्ययन में किया जा चुका है। इस राजा का वर्णन पहिले की तरह जानना चाहिये । उस पद्मनाभ राजा के अंतःपुर में ७०० सात सौ रानियां थीं। सुनाम नाम का पुत्र था जो युवराज था, पद्मनाभ राजा के यहां एक दिन की बात है होत्था, महथा हिमवंत०वण्णओ,तस्सणं पउमनाभस्स रणो सत्तदेवी सयाई ओरोहे होत्था तस्स णं पउमनाभस्स रण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुवराया यावि होत्था तएणं से पउमगाभे राया अंतो अंते उरंसि ओरोहसंपरिबुडे सिंहासणवरगए विहरइ) તે કાળે અને તે સમયે ઘાતકી વંડ નામે દ્વીપમાં પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણ ભરત ક્ષેત્રમાં અમરકંકા નામે રાજધાની હતી. તે અમરકંકા નામે રાજધાનીમાં પદ્મનાભ નામે રાજા રહેતો હતે. તે રાજા મહા હિમાચલ પર્વ. તની જેમ તેમજ મહામલય, મંદર અને મહેન્દ્રની જેમ બીજા રાજાઓ કરતાં વધારે મહત્વ વગેરે ગુણોથી, વૈભવથી અને ઐશ્વર્યથી સંપન્ન હતો. આ પદોનું સવિસ્તાર વર્ણન પ્રથમ મેઘકુમાર અધ્યયનમાં કરવામાં આવ્યું છે. આ રાજાનું વર્ણન પણ પહેલાની જેમ જ સમજવું જોઈએ. તે પાનાભ રાજાના રણવાસમાં ૭૦૦ રાણીઓ હતી, સુનાભ નામે તેને પુત્ર હતો, જે યુવરાજ હતો. એક દિવસની વાત છે કે તે પદ્મનાભ રાજા રણવાસમાં સ્ત્રી પરિવારની સાથે સિંહાસન ઉપર બેઠા હતા. श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम् ४६५ ततः खलु स कच्छुल्लनारदो यत्रैवामरकङ्काराजधानी यत्रैव पद्मनाभस्य भवनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पद्मनाभस्य राज्ञो भवने ' झत्ति ' झटिति वेगेन 'समोवइए ' समुपेतः आकाशादवतीर्णः । ततः खलु स पद्मनाभो राजा कच्छुल्लं नारदं एजमानम् - आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाध्यैण यावदासनेन उपनिमन्त्रयति - जलमासनं च ग्रहीतुं प्रार्थयति । ततः खलु स कच्छुल्ल कि अतःपुर के भीतर स्त्री परिवार के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। (तएण से कच्छुल्लनारए जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव पउम नाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स रण्णो भवसि झत्तिवेगेणं समोवइए, तएण से पउमनाभे राया कच्छुल्लं नारयं एज्जमाणं पासह, पासिता आसणाओ अन्मुद्देह, अन्मुट्ठित्ता अग्घेण जाव आसणेणं उवणिमंते, तरणं से कच्छुल्लनारए उद्ग परिफासियाए दभोवरिपच्चत्याए भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोतं आपुच्छ) वे कच्छुल्ल नारद जहां अमर कंका राजधानी थी, जहां पद्मनाभ का भवन था वहाँ आये । आकर के वे पद्मनाभ राजा के भवन में बहुत शीघ्र वेग से उत्तरे । पद्मनाभ राजा ने जैसे ही कच्छुल्ल नारद को आते हुए देखा तो देखकर के अपने आसन से उठे और उठकर के उन्हों ने उन्हे अर्घ्य यावत् आसन से आमंत्रित किया । ( तरणं से कच्छुल्लनारए जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव परमनाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परमणाभस्स रण्णो भवणंसि झत्तिवेगेणं समोइए, तरणं से पउमनाभे राया कच्छुल्लं नारयं एज्जमाणं पास, पासित्ता आसणाओ अभुट्टे, अभुद्वित्ता अग्घेणं जाव आसणेण उवणिमंते, तरणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दव्भोपरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदतं आपुच्छइ ) તે સ્કુલ નારદ જ્યાં અમરકંકા રાજધાની હતી, જ્યાં પદ્મનાભનું ભવન હતું ત્યાં આવ્યા, આવીને તે પદ્મનાભ રાજાના ભવનમાં શીઘ્ર વેગથી ઉતર્યાં. પદ્મનામ રાજાએ જ્યારે કચ્છલ નારદને આવતા જોયા ત્યારે તેઓ પેાતાના આસન ઉપરથી ઊભા થયા અને ઊભા થઇને તેમણે તેએને અઘ્ય યાવત્ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे नारदः उदकपरिस्पृष्टायां-जलाभिषिक्तायां द परि प्रत्यवस्तृतायां वृष्याम् आसनशेषे निषीदति, यावत् कुशलोदन्तं कुशलवार्ताम् आपृच्छति-मुखोपविष्टं तं कच्छुल्लनारदं पद्मनाभः कुशलवातों पृच्छतीत्यर्थः । ततः खलु स पद्मनाभो राजानिजकावरोधे स्त्रीपरिवारे जातविस्मयः समुत्पन्नगः, कच्छुल्लनारदम् एवंवक्ष्यमाणक्रमेण, अवादी-हे देवानुपिय ! त्वं बहून् ग्रामान यावत् गृहाणि अनु. प्रविशति, तत्-तस्माद् अस्ति ' आई ' इति वाक्यालङ्कारे ते त्वया कुत्रचिद् हे इसके बाद वे कच्छुल्लनारद जल के छींटो से सिंचित आसन पर जो दर्भ के ऊपर बिछा हुआ था बैठ गये-बैठकर उन्हों ने पद्मनाभ राजा से कुशलवार्ता पूछा। पद्मनाभ राजा ने भी सुख पूर्वक बैठे हुए उन कच्छुल्ल नारद से उन के कुशल समाचार पूछे । (तएणं से पउमनाभे राया णियगओरो हे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासी-तुम्भं देवाणुप्पिया! बहणि गामाणि जाव गेहाइं अणुपविससि तं अस्थि आई तेकहिं चि देवाणुप्पिया ! एरिसए ओरोहे दिट्ठपुव्वे, जारिसए णं मम आरोहे ? तएणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइ, करित्ता एवं क्यासी-सरिसेणं तुमं पउमणाभा! तस्स अगड ददुरस्स, केणं देवाणुप्पिया! से अगडदुरे! एवं जहा मल्लिणाए एवं खलु देवाणुप्पिया!) इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपने अतःपुर में विस्मित बनकर कच्छुल्लनारद से इस प्रकार આસન ઉપર બેસવા માટે વિનંતી કરી. ત્યારપછી તે કચ્છલ નારદ પાણીના છાંટાઓથી સિંચિત દર્ભના ઉપર પાથરેલા આસન ઉપર બેસીને પદ્મનાભ રાજાને તેઓના પરિવારની કુશળતાના સમાચારો પૂછ્યા. પદ્મનાભ રાજાએ પણ આસન ઉપર સુખેથી બેઠેલા તે કચ્છકલનારદને કુશળ સમાચાર પૂછ્યા. (तएणं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासी-तुब्भं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाणि जाव गेहाई अणुपविससि, तं अत्थि आई ते कहिं चि देवाणुप्पिया ! एरिसए औरोहे दिट्टपूवे जारिसए णं मम ओरोहे ? तएणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेणं रना एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-सरिसेणं तुमं पउमणाभा ! तस्स अगडददुरस्स केणं देवाणुप्पिया !:से अगडदद्दुरे? एवं जहा मल्लिणाए एवं खलु देवाणुप्पिाया!) ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ પોતાના રણવાસના વૈભવને જોઈને આશ્ચર્ય થઈને કચ્છલ નારદને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે ઘણા ગ્રામ યાવત્ ઘરમાં આવજા કરતા રહે છે તે છે દેવાનુપ્રિય ! શું તમે પહેલાં श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४६७ देवानुप्रिय ! ईदृशोऽवरोधो दृष्टपूर्वो यादृशः खलु ममावरोधः १ ममान्तः पुरे यादृश्यः स्त्रियो वर्तन्ते, तादृश्यः स्त्रियः कुत्रापि भवता दृष्टा इति पृच्छतीत्यर्थः । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः पद्मनाभेन राज्ञा एवमुक्तः सन् 'ईषद् विहसितं' मन्दहासं करोति, कृत्वा एवमवादीत्-हे पद्मनाभ ! सदृशस्त्वं खलु तस्य 'अगडददुरस्स' आउददुरस्य-कूपमण्डूकस्य यथा कूपमण्डूकः कूपाद् बहिः प्रदेशे विद्यमानं नकिमपि जानाति, तद्वत् त्वमपि स्वभवनाद् बहिरन्यत्रावस्थितं किमपि वस्तु न वेत्सीति भावः । कच्छुल्लनारदस्य वचनं श्रुत्वा पद्मनाभः कच्छुल्लनारदं पृच्छति- के णं देवाणुप्पिया! से अगडददुरे' इति। हे देवानुप्रिय ! कः खलु सोऽगडददुरः ? एवं पद्मनाभेन राज्ञा पृष्टः सन् कच्छुल्लनारदः प्राह-एवं यथा मल्लिणाए' यथा मल्लिज्ञाते वर्णितमेवमत्र बोध्यम् समुद्रदर्दुरकूपदर्दुरयोः परस्परवार्तालापो यथा संजातस्तथा कच्छुल्लनारदेन कथित इत्यर्थः । पुनः कच्छुल्लकहा-हे देवानुप्रिय ! तुम अनेक ग्राम यावत् से घरों में आते जाते रहते हो तो क्या हे देवानुप्रिय ! तुमने कहीं पर क्या ऐसा अंतः पुर पहिले कभी देखा है-जैसा मेरा अन्तः पुर है ? पद्मनाभ राजा के द्वारा इस प्रकार पूछे गये वे कच्छुल्ल नारद कुछ हँसने लगेहसकर तब उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा-हे पद्मनाभ ! तुम उस कूपमं डूक के समान हो-जो अपने निवासस्थान भूत कुंए से बाहिरी प्रदेश में विद्यमान कुछ भी नहीं जानते हो। कच्छुल्ल नारद के वचन सुनकर के पद्मनाभ ने उन कच्छुल्लु नारद से पूछा-देवानुप्रिय ! वह अगड?र का आख्यान कैसा है ? तब नारद ने उनसे कहा-मल्लि नाम के अध्ययन में कूपमंडूक और समुद्र मंडूक के परस्पर में वार्तालाप के रूप में यह आख्यान वर्णित किया हुआ है-सो नारद ने यह आख्यान जैसे का तैसा उन्हें सुना दिया- पुनः कच्छुल्ल नारद उनसे કોઈ પણ સ્થાને અને કોઈ પણ દિવસે આવે મારા જેવો રણવાસ છે છે? પદ્મનાભ રાજા વડે આ રીતે પ્રશ્ન પૂછાએલા તે કચ્છલ નારદ હસવા લાગ્યા, હસીને તેઓએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પદ્મનાભ! તમે તે કૃપ મંડૂક જેવા છે કે જે પિતાના નિવાસસ્થાન કૂપથી બહારના પ્રદેશ વિષે થોડું પણ જ્ઞાન ધરાવતો નથી. કચ્છલ નારદના વચન સાંભળીને પદ્મનાભે તે કડ્ડલ નારદને પૂછયું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તે અગડ દÉરકનું આખ્યાન કેવી રીતે છે? ત્યારે નારદે તેમને મલિ નામે અધ્યયનમાં વર્ણવવામાં આવેલા કૂપમંડૂક અને સમુદ્ર મંદૂકના વાર્તાલાપ રૂપે તે સંપૂર્ણ આખ્યાન તેમને કહી સંભળાવ્યું શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ ज्ञाताधर्म कथासूत्रे नारदो वदति - एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण खलु हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञो दुहिता चूलन्या देव्या आत्मजा पाण्डोः स्नुषा पञ्चानां पाण्डवानां भार्या द्रौपदी देवी रूपेण च यावद् उत्कृष्ट शरीरा वर्तते द्रौपद्याः खलु देव्यान्निस्यापि पादाङ्गुष्ठकस्यायं तत्रावरोधः तवान्तःपुरवर्तिनी काचिदपि देवी 'सयतमपि कलं शततमामपि कलां नार्हति इति कृत्वा = एवं ज्ञात्वा कथयामि - द्रौपदीसदृशी नास्ति काचिदपीति । ततः कच्छुल्लनारदो गन्तुकामः कहते हैं कि हे देवानुप्रिय । सुनो-बात इस प्रकार है- (जंबू द्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे दुवयस्स रण्णो धूया, चूलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुण्हा, पंचहं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूवेण य जाव उक्कि सरा, दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायगुडयस्स अयं तब अवरोहो सयनमपिकलं ण अग्घई तिकट्टु पउमणाभं आपुच्छइ आपुच्छित्ता जाव पडिगए, तएण से पमणाभे राया कच्छुल्लणारयस्स अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा णिसम्म दोवइए, देवीए रूवे य च्छिए४ दोबईए अज्जोववन्ने जेणेव पोस हसाला तेणेव उवागच्छ३) जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप ( मध्य जंबुद्वीप में) में भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नाम के नगर में द्रुपद रोजा की पुत्री चुलनी देवी की आत्मजा, पांडु राजा की स्नुषा-पुत्रवधू-पांच पांडवों की भार्या द्रौपदी देवी है । यह रूप से यावत् उत्कृष्ट शरीर है। तुम्हारा यह अंतःपुर उसके कटे हुए पैर के अंगूठे के सौवें अंश के बराबर અને ત્યારપછી કચ્યુલ તેમને કહેવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! સાંભળે, વાત એવી છે કે~ ( जंबू दीवे दीवे भारहेवासे इत्थिणाउरे दुवयस्स रण्णो धूया, चूलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुण्हा, पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूवेण य जाव उक्किसरीरा, दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायगुद्वयस्स अयं तव अवरोहो यन्नमपि कलं अम्बई ति कट्टु पउमणाभं आपुच्छर, आपुच्छित्ता जाव पडिगए, तणं से पउमणाभे राया कच्छुल्लणारयस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म दोवईए, देवीए रूवेय मुच्छिए ४ दोवईए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छ ) ण જંબૂ દ્વીપ નામના પ્રથમ દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નામે નગ૨માં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી ચૂલની દેવીની આત્મજા, પાંડુ રાજાની સ્નુષા-પુત્રવધૂ પાંચ પાંડવાની પત્ની દ્રૌપદીદેવી છે. તે રૂપથી યાવત ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે. તમારા આ રણવાસ તેના કપાયેલા અંગૂઠાના સામા ભાગની બરાબર પણ નથી. આ બધું હું વિચારપૂર્વક કહી રહ્યો છુ. દ્રૌપદી જેવી નારી કોઈ પણ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४६९ पद्मनाभमापृच्छति, पृष्ट्वा यावत् पद्मनाभेन राज्ञा सत्कार प्राप्य प्रतिगतः उत्पतनी विद्यया गगनमुद्ययन् प्रतिगत इत्यर्थः । ततः खलु स पद्मनाभो राजा कच्छुल्लनारदस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा= आकर्ण्य निशम्य हृयवधार्य द्रौपद्या देव्या रूपे च यौवने च लावण्ये च मूच्छितः= आसक्तः, गृद्धः = लोलुपः, ग्रथितः निबद्धचित्तः, अध्युपपन्नः = एकाग्रचित्तः सन् यत्रैव पौषधशाला तत्रैचोपागच्छति, उपागत्य पौषधशालां प्रमाज्य यावदष्टम भक्तं कृत्वा — पूर्वसंगतिकं ' पूर्वमित्रं देवम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरे पाण्डवभार्या द्रौपदी देवी यावत्-उत्कृष्टशरीरा वर्तते, तत्=तस्माद् इच्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! भी नहीं है। ऐसा मैं जानकर ही कह रहा हूँ। द्रौपदी के जैसी कोई भी नारी नहीं है। इस प्रकार कहकर वे कच्छुल्ल नारद वहां से चलने के लिये अभिलाषी बन गये-तब उन्होंने पद्मनाभ राजा से जाने के लिये पूछा पूछकर यावत् वे वहां से पद्मनाभ राजा से सत्कृत होकर उत्पतनी विद्या के प्रभाव से गगन तल को उल्लंघन करते हुए वापिस चले गये। इसके बाद वे पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के मुख से इस समाचार रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन एवं लावण्य में मूञ्छित ४ बन गये, यावत् उनका चित्त उन में बिलकुल एकाग्र हो गया। इस तरह होकर, वे जहां पौषधशाला थी वहां गये । ( उवगच्छित्ता पोसहसालं जाव पुण्वसंगइयं देवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूहीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! નથી. આ પ્રમાણે કહીને તે કચ્છઠ્ઠ નારદ ત્યાંથી ચાલવા માટે તૈયા થઈ ગયા. તેમણે પદ્મનાભ રાજાને જવા માટે પૂછયું, પૂછીને યાવત ત્યાંથી તેઓ પદ્મનાભ રાજાની પાસેથી સંસ્કૃત થઈને ઉત્પતની વિદ્યાના પ્રભાવથી આકાશને ઓળંગતા જતા રહ્યા. ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કચ્છલ નારદના મુખથી આ સમાચારને સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને દ્રૌપદી દેવીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી મૂછિત ૪ થઈ ગયા, યાવત્ તેમનું મન તેમાં એકદમ ચૅટી ગયું. આ સ્થિતિમાં તેઓ જ્યાં પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા. (उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव पुव्यसंगइयं देवं एवं बयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबू दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामि नं देवाणुप्णिया! दोबई देवी इहमाणियं तएणं पुब्धसंगइए देवे पउमनाभं एवं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दौपदी देवीम् ' इह माणियं' इहानेतुम् । ततः खलु पूर्वसंगतिको देवः पद्मनाभं नृपम् एवमवादी-हे देवानुप्रिय ! नो खलु एतद् भूतं वा भवद् वा भविष्यद् वा, यत् खलु द्रौपदी देवी पञ्च पाण्डवान् मुक्त्वाऽन्येन पुरुषेण साधमुदारान् भोगान् यावद् विहरति, तथापि च खलु अहं तव प्रीत्यर्थं द्रौपदी देवीमिह हव्यप्रानयामीति दोवई देवों इहमाणियं तएणं पुष्वसंगइए देवे पउमनाभं एवं वघासी-नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जणं दोवई देवी पंच पंडवे मोत्तण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालाई जाव विहरिस्तइ ) वहां जाकर उन्हों ने उस पोषध शाला को रजोहरण से साफ किया यावत् अष्टम भक्त कर के पूर्व संगति देव का आवाहन किया देवों के आनेपर पूर्व संगतिक देव से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भारत वर्ष में हस्तिनापुर नगर में पांडवो की भार्या द्रौपदी देवी है । यह यावत् उत्कृष्ट शरीर है। इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं उस द्रौपदी देवी को तुमसे यहां ले आने के लिये चाहता हूँ। पद्मनाभ की इस बात को सुनकर पूर्वभव के मित्र उस देव ने उस से तब ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! ऐसी बात द्रौपदी के साथ न पहिले हुई है, न आगे होगी-और न अब वर्तमान में हो सकती है, जो द्रौपदी देवी पांच पांडवो को छोड़कर अन्य किसी दूसरे पुरुष के साथ उदार यावत् मनुष्य भव सबन्धी काम सुखों को भोगे (तहावि. वयासी नो खलु देवाणुपिया! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जग्णं दोबई देवो पंच पंडवे मोत्तण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालाई जाव, विहरिस्सइ ) ત્યાં જઈને તેમણે તે પૌષધશાળાને રજોહરણથી સાફ કરી યાવત્ અષ્ટમ ભકત કરીને પૂર્વ સંગતિ દેવનું આવાહન કર્યું. દેવ જ્યારે આવી ગમે ત્યારે તેમણે પૂર્વસંગતિક દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! જંબદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભરત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નગરમાં પાંડેની પત્ની દ્રૌપદી દેવી છે. તે યાવત ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે. એથી હે દેવાનુપ્રિય! તે દ્રૌપદી દેવીને તમે અહીં લઈ આવે એવી મારી ઇચ્છા છે. પદ્મનાભની આ વાતને સાંભળીને પૂર્વભવના મિત્ર તે દેવે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! દ્રૌપદી દેવીની સાથે આ જાતનું આચરણ ન પહેલાં થયું છે ન ભવિષ્યમાં થશે અને ન વર્તમાનમાં થવાની શકયતા છે દ્રૌપદી દેવી પાંચે પાંડવે સિવાય બીજા કે પુરૂષની સાથે ઉદાર યાવત્ મનુષ્યભવ સંબંધી કામસુખે ભગવે આ વાત તદ્દન અસંભવિત છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका०अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ७१ कृत्वा-उक्त्वा पद्मनाभम् आपृच्छति आपृच्छय तया उत्कृष्टया देवसम्बन्धिम्या गत्या यावत् लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन-उपरिभागेन गगनमार्गेण, यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय । तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरो राजा द्रोपद्या सार्धमुपरि आकाशतले पासादाट्टालिकोपरि सुखप्रसुप्तचाप्यासीत् , ततः खलु स पूर्वसंगतिको देवो यौच युधिष्ठिरो राजा यत्रैव द्रौपदी देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य द्रौपद्यै यणं अहं तव पियट्टतयाए दावइं देवीं इहं हव्यमाणेमि त्तिकट्टु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव लवणसमुदं मन्झ मज्झेणं जेणेव हथिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) फिर भी मैं तुम्हारी प्रीति के निमित्त द्रौपदी देवी को यहां शीघ्र लेकर आता हूँ। ऐसा कहकर उसने जाने के लिये उन पद्मनाभ से पूछा, पूछकर फिर वह उस उत्कृष्ट देवभवसंबंन्धी गति से यावत् लवण समुद्र के बीच से होकर जहां हस्तिनापुर नगर था उस और चल दिया ! (तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे जुहिट्ठिले राया,दोवईए सद्धि उपि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था, तएणं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिटिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ ) उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नगरमें युधिष्ठिर राजाके साथ द्रौपदी आकाशतलमें-प्रासाद की अट्टालिका के ऊपर सोये हुए थे। वह पूर्व संगतिक देव जहां वे युधिष्टिर राजा और जहां वह द्रौपदी देवी थी वहां आया-(उवागच्छित्ता ( तहावि य णं अहं तव पियट्टतयाए दोवई देवीं इहं हव्वमाणेमि त्ति बडु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव लवणसमुदं मझं मज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) છતાંએ તમને ખુશ કરવા માટે હું દ્રૌપદી દેવીને શીધ્ર અહીં લઈ આવું છું. આમ કહીને તેણે જવા માટે પદ્મનાભ રાજાને પૂછ્યું, પૂછીને તે પોતાની ઉત્કૃષ્ટ દેવભવ સંબંધી ગતિથી યાવતુ લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થયે. ( तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे जुहिट्ठिले राया, देवईए सद्धिं उप्पि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था तएणं से पुत्रसंगइए देवे जेणेव जुहिडिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ ) તે કાળે અને તે સમયે હસ્તિનાપુર નગરમાં યુધિષ્ઠિર રાજા અને દ્રૌપદી દેવી મહેલની અગાશી ઉપર સૂતા હતા. તે પૂર્વ સંગતિક દેવ જ્યાં તે યુધિઝિર રાજા અને જ્યાં તે દ્રૌપદી દેવી હતી ત્યાં આવ્યું. श्री शताधर्म थां। सूत्र : ०3 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे देव्यै 'आसोवणिय ' अवस्वापनी निद्रां 'दलयइ' ददाति सुखप्रसुप्तां द्रौपदी गाढ़निद्रयाऽऽक्रान्तां कृतवानित्यर्थः । दत्वा-गाढ़निद्रावती कृत्वा द्रौपदी देवी गृहीत्वा तया उत्कृष्टया देवसम्बन्धिन्यागत्या यावत् यचैवामरकंका राजधानी यव पद्मनाभस्य भवनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पद्मनाभस्य भवने ' असोगवणियाए ' अशोकवनिकायाम् अशोकवाटिकायां द्रौपदों देवीं स्थापयति, स्थापयित्वा · आसोवणि अवहरइ ' अवस्वापनी निद्रामपहरति, अपहृत्य दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ, दलित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिण्हत्ता तीए उक्किट्ठाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणि. याए दोवइ देवों ठवेद ठावित्ता ओसोवणिं अवहरइ, अवहरित्ता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! मए हस्थिणाउराओ दोवई इह हव्वमाणीया, तव असोगवणियाए चिट्ठइ, अतोपुरं तुमं जाणिसि तिकटूटुजामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए) वहां आकर उसने द्रौपदी देवी को गाढ निद्रा में सुला दिया, सुलाकर फिर उसने उस द्रौपदी को वहां से उठाया-और उठाकर फिर वह उस उत्कृष्ट देवभवसंबंन्धी गति से चलकर यावत् जहां अमरकंका नगरी और जहां पद्मनाभ राजा का भवन था वहां आयावहां आकर के उसने पद्मनाभ के भवन में अशोकवाटिका में द्रौपदी देवी को रखदिया। रखकर के फिर उसने उसे गाढ निद्रा से रहित कर (उवागच्छित्ता दोवईए दीवीए ओसोवणियं दलयइ, दलित्ता दोवई देविं गिण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे-तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवई देवीं ठवेइ ठावित्ता ओसोवणिं अवहरइ, अवहरित्ता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया मए हत्थिणाउराओ दोवई इह हव्वमाणीया, तब असोगवणियाए चिट्ठइ, अतोपुरं तुमं जाणिसित्ति कटु जागेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए) ત્યાં આવીને તેણે દ્રૌપદીને ગાઢ નિદ્રામાં સૂવાડી દીધી, સુવાડીને તેણે તે દ્રૌપદીને ત્યાંથી ઉડાવી અને ઉડાવીને તે ઉત્કૃષ્ટ દેવભવ સંબંધી ગતિથી ચાલીને યાવત્ જ્યાં અમરકંકા નગરી અને જયાં પદ્મનાભ રાજાનું કામવન હતું ત્યાં આવ્યો. ત્યાં આવીને તેણે પદ્મનાભના ભવનમાં અશોક-વાટિકામાં દ્રૌપદી દેવીને મૂકી દીધી, મૂકીને તેણે ગાઢ નિદ્રા દૂર કરી દીધી, ગાઢ નિદ્રા દૂર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४७३ यौ व पद्मनाभस्तौवोपागच्छति, उपागत्य एवमवादी-एषा खलु हे देवानुप्रिय ! मया हस्तिनापुराद् द्रौपदी इह हव्यमानीता तवाशोकवनिकायां तिष्ठति, अतः परं त्वं जानासि ' इति कृत्वा उक्खा, यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ॥ सू०२५ ॥ ___मूलम्-तएणं सा दोवई देवी तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं वयासी-नो खलु अम्हं एसे सए भवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णजइ णं अहं केणइ देवेण वा दाणवेणं वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अन्नस्स रपणो असोगवणियं साहरियत्तिकटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ, तएणं से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालंकार विभूसिए अंतेउरपरियालं संपरिवुडे जेणेव असोगवणियाजेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवई देवीं ओहय० जाव झियायमाणी पासइ पासित्ता एवं वयासीकिष्णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियाहि, एवं दिया-गाढ निद्रा से रहित कर फिर वह वहाँ से जहां पद्मनाभ राजा थे वहां गया-वहां जाकर उसने उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर नगर से द्रौपदी को यहां ले आया हूँ। वह तुम्हारी अशोक वाटिका में ठहरी है, अतः अब तुम जानो। ऐसा कहकर वह देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था-उसी दिशा की और वापिसचला गया। सू-२५ કરીને તે જ્યાં પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેણે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! હસ્તિનાપુર નગરથી દ્રૌપદી દેવીને હું અહીં લઈ આવ્યો છું. તે તમારી અશોક વાટિકામાં છે, એથી હવે તમે જાણો. આ પ્રમાણે કહીને તે દેવ જે દિશા તરફથી પ્રકટ થયા હતા તે જ દિશા તરફ પાછે જ રહ્યો. સૂત્ર ૨૫ . શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे खलु तुमं देवाणुप्पिया ! मम पुव्वसंगइएणं देवेणं जंबूद्दी वाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापुराओ नयराओ जुहिद्विल्लस्स रण्णो भवणाओ साहरिया तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहय० जाव झियाहि, तुमं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई जाव विहराहि, तएणं सा दोवई देवी पउमणाभं एवं क्यासी -एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसइ, तं गं से छण्हं मासाणं मम कूवं नो हव्वमागच्छइ तएणं अहं देवाणुप्पिया! जं तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिदेसे चिट्ठिस्सामि, तएणं से पउमे दोवईए एयमढे पडिसुणित्तार दोवई देविं कण्णंतेउरे ठवेइ, तएणं सा दोवई देवी छटुं छट्टेणं अनिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणंतवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ सू० २६ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा द्रौपदी देवी ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धा-जागरिता सती तद् भवनम् अशोकवनिकां च ' अपञ्चभिजाणमणी' अप्रत्यभिजानन्ती भवनादिकमपरिचितं जानन्ती एवमवादीत्-नो खलु अस्माक -तएणं सा दोवई देवी इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा दोवईदेवी) वह द्रौपदीदेवी (ताओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी) १ मुहूर्त के बाद जगी सो जग कर उसने ( तं भवणं असोगवणियं च अपञ्चभिजाणमाणी एवं वयासी) उस भवन को एवं उस अशोकवाटिका को अपरिचित जानकर अपने मन में ऐसा विचार किया-(नो खलु अम्हं एसे सएभवणे, णो खलु तएण सा दावई देवी इत्यादि । टरी -(तएण) त्या२पछी (सा दोवई देवी) ते द्रौपदी हेवी (ताओ मुहुत्तरस्स पडिबुद्धा समाणी) से मुहूर्त ५छी ०ी मने भान तेणे ( त भवण असोगवाणिय च अपञ्चभिजाणमाणी एव वयासी) ते मन भने त Als વાટિકાને અપરિચિત જાણુને પોતાના મનમાં આ જાતને વિચાર કર્યો કે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४७५ " तद् भवनं नो खलु एषाऽस्माकं ' सगा ' स्वका स्वकीया, अशोकवनिका, तद् न ज्ञायते खलु - अहं केनापि देवेन वा दानवेन वा किं पुरुषेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गन्धर्वेण वा अन्यस्य राज्ञोऽशोकवनिकायां साहरिया' संहताआनीताऽस्मि इति कृत्वा = इति विचार्य, अपहतमनः संकल्पा= अनिष्टयोगेन भग्नमनोरथा विपादपतेत्यर्थः यावद् ध्यायति = आर्तध्यानं करोति । " ततः खलु पद्मनाभो राजा स्नातो यावत् सर्वालंकारविभूषितोऽन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतो यत्रैवाशोकवनिका यत्रैव द्रौपदी देवी, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णज्जइ, णं अहं केणई देवेणवा दाणवेण वा किं पुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अन्नस्त रण्णो असोगवणियं साहरियत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ ) यह मेरा निज का भवन नहीं है, यह मेरी निज की अशोक वाटिका नहीं है। तो पता नहीं पड़ता क्या मैं किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में किसी देव, दानव, किंपुरुष, किन्नर महोरंग अथवा, गंधर्व के द्वारा हरण कर लाई गई हूँ । इस प्रकार के विचार से उस का मनः संकल्प अपहत हो गया-अनिष्ट के योग से उस का मनोरथ भग्न हो गया और वह खेदखिन्न हो गई यावत् आर्तव्यान करने लगी। (तरणं से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अतेउरपरियालं संपपिवुडे, जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता दोवई देवीं ओहय० जाव झिया( नो खलु अहं एसे सरभवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण जणं अहं केणई देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा अन्नस्सरण्णो असोगवणियं साहरियत्ति कहु ओहयमण संकप्पा जाव झियाय ) આ મારૂં ભવન નથી, આ મારી અશોક વાટિકા નથી. કઈ ખખર પડતી નથી, શું હું ખીજા કોઈ રાજાની અશેાક વાટિકામાં કાઈ દેવ, દાનવ, કિપુરુષ કિન્નર, મહેારગ અથવા તેા ગધવ વડે અપહૃત થઈને લઈ જવામાં આવી છું. આ જાતના વિચારાથી તેનું મન ઉદાસ થઈ ગયું, અનિષ્ટના ચેાગથી તેના મનારથ ભગ્ન થઈ ગયા અને તે ખેદ-ખિન્ન થઈ ગઈ યાવતૂ આત ધ્યાન ४२वा लागी. (तए से पउमणाभे राया व्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अंते उरपरियालं संपरिवडे, जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी, तेणेव उत्रागच्छर, उनाग• શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे द्रौपदी देवीमपहतमनःसंकल्पां यावद् ध्यायन्ती आर्तध्यानं कुर्वती पश्यति दृष्ट्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हे देवानुप्रिये ! किं खलु ब 'ओहय० जाव झियाहि ' अपहतमनः संकल्पा यावद् ध्यायसि-विषीदसि एवं खलु त्वं हे देवानुपिये ! मम पूर्वसंगतिकेन देवेन जम्बूद्वीपाद् द्वीपाद् भारताद् वर्षाद् हस्तिनापुराद् नगराद् युधिष्ठिरस्य राज्ञो भवनात् संहृता-अपहताऽसि, ततस्तस्माद् मा यमाणी पासइ, पासित्ता एवं वयासी, किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मम पुत्वसंगइएणं देवेणं जंबूद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापु. राओ नयराओ जुहिडिल्लस्स रणो भवणाओ साहरिया, तं माणं तुम देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव झियाहि तुमं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाइं जाव विहराहि) इसके बाद वह पद्मनाभ राजा नहा धोकर यावत् सर्वालंकारो से विभूषित हो अपने अंतःपुर परिवार से संपरिवृत होकर जहां वह अशोक वाटिका थी और उसमें भी जहां वह द्रौपदी देवी बैठी थी-वहां आया-वहां आकर के उसने द्रौपदी देवी से अपहत मनः संकल्पवाली यावत् आतध्यान करती हुई देखकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिये ! तुम क्यों अपहत मनः संकल्प होकर यावत् आर्तध्यान कर रही हो-खेद खिन्न हो रही हो तुम यहां हे देवानुप्रिय ! मेरे पूर्व भव के मित्र देव के द्वारा जंबूद्वीप नाम के द्वीप से भारतवर्ष के हस्तिनापुर नगर से युधिष्ठिर राजा के भवन से हरण कर ले आई च्छित्ता दोबई देवों ओहय० जाव झियायमाणी पासइ, पासिता एवं चयासी किणं तुमं देवाणुप्पिया! ममपुव्वसंगइएगं देवेणं जंबूदिवाओ २ भारदाओ वासाओ हथिणापुराओ नयराओ जुहिहिलस्स रणो भवणाओ साहरिया, तं माणं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव ज्ञियाहि तुम मए सद्धि विपुलाई भोगभोगाई जाव विहराहि) ત્યારપછી તે પદ્મનાભરાજા સ્નાન કરીને યાવત્ સર્વાલંકારોથી વિભૂષિત થઈને પિતાના રણવાસ-પરિવારને સાથે લઈને જ્યાં અશોક વાટિકા હતી અને તેમાં પણ જ્યાં તે દ્રૌપદી દેવી બેઠી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે દ્રૌપદી દેવીને અપહતમનઃ સંકલ્પવાળી યાવત્ આર્તધ્યાન કરતી જોઈને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે શા માટે અપહતમનઃ સંકલ્પ થઈને ચાવતુ આર્તધ્યાન કરી રહી છે ? ખેદ-ખિન્ન થઈ રહ્યા છો ? હે દેવાનુપ્રિયે! મારા પૂર્વભવના મિત્ર દેવ વડે તમે જંબુદ્વિપ નામના દ્વીપના, ભારત વર્ષના હસ્તિનાપુર નગરના યુધિષ્ઠિર રાજાના ભવનથી અપહૃત થઈને અહીં લાવવામાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४७७ खलु त्वं हे देवानुप्रिये ! अपहतमनःसंकल्पा यावद् ध्याय, आर्तध्यानं मा कुरु वं मयासार्ध विपुलान् भोगभोगान् याच भुनाना विहर-मदीयप्रासादे तिष्ठ' इति । ततः खलु सा द्रौपदी देवी पद्मनाभमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे द्वारवत्यां नगर्या कृष्णो नाम वासुदेवो मम प्रियभातृकः= ममप्रियस्य भर्तुर्धाता परिवसति, तद् यदि खलु स षण्णां मासानां मध्ये 'मम' मां 'कूवं ' देशीशब्दोऽयम् , अन्वेषयितुं ग्रहीतु वा नो शीघ्रमागच्छति-ततः खलु गई हो। इमलिये हे देवानुप्रिये ! तुम आपहतमनःसंकल्प बनकर यावत् आतध्यान मत करो। तुम तो अब मेरे साथ विपुल कामभोगों को भोगती हुई मेरे प्रासाद में रहो । (तएणं सा दोवई देवी पउमणाभं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसइ, तं जहणं से छण्हं मासाणं मम कूवं णो हव्व मागच्छइ, तएणं अहं देवाणुप्पिया! जं तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिद्देसे चिट्टिस्सामि तएणं से पउमे दोवईए एयमढे पडिसुणेह २ दोवइं देवीं कण्णंतेउरे ठवे; तएणं सा दोवई देवी छ8 छटेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) इसके बाद उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! सुनो-जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भारतवर्षमें दारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव मेरे प्रिय पतिके भ्राता रहते है । वे यदि छह मासके भीतर मुझे अन्वेषण करने के लिये या આવી છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અપહતમનઃ સંકલ્પ થઈને યાવત્ આધ્યાન ન કરે તમે મનુષ્યભવ સંબંધી કામ ભેગે ભેગતાં મારા મહેલમાં રહો. (तएणं सा दोवई देवो पउमणाभं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबू होवे दीवे, भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्णे णामं वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ, तं जइणं से छण्हं मासाणं मम कूवं णो हव्व मागच्छइ, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! जं तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिद्देसे चिहिस्सामि तएणं से पउमे दोवईए एयमé पडिसुणित्ता २ दोवई देवीं कण्णं तेउरे ठवेइ, तएणं सा दोबई देवी छ? छटेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावे माणे विहरइ) ત્યારપછી દ્રોપદી દેવીએ પદ્મનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે દેવાનુપ્રિય! સાંભળે, જંબદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં દ્વારાવતી નગરીમાં કણવાસુદેવ મારા પ્રિય પતિના ભાઈ રહે છે. તેઓ છ મહીનાની અંદર મારી તપાસ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे अहं हे देवानुप्रिय ! यत् स्वं वदसि वदिष्यसि ' तस्स ' तत्र ' आणाओवायवयणणिदे से ' आज्ञावपातवचननिर्देशे स्थास्यामि, तवाज्ञाकारिणी वशवर्तिनी भवि व्यामीत्यर्थः, आज्ञा - अवश्यं विधेयतया आदेशः, उपपातववनं सेवावचनं, निर्देश:कार्याणि प्रति प्रश्ने ते यनिषतार्थमुत्तरम् एषां समाहारद्वन्द्वः तत्र ततः खलु स पद्मनाभो राजा द्रौपद्या एतमर्थ प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य द्रौपदीं देवीं ' कण्णंतेउरे' कन्यान्तः पुरे स्थापयति, ततः खलु सा द्रौपदीदेवी ' छटुं छडेणं ' षष्ठषष्ठेन षष्ठभक्तानन्तरं पुनः षष्ठभक्तेन, ' अनिक्खित्तेणं' अनिक्षिप्तेन = विरामरहितेन अन्तररहितेनेत्यर्थः, ' आयंबिलपरिग्गहिएणं ' आयंबिलपरिगृहीतेन तपः कर्मणा आत्मानं भावयन्ती विहरति ।। सू०२६ ।। मूलम् एणं से जुहूट्ठिल्ले राया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवई देवि पासे अपासमाणो सयणिजाओ उट्ठेड़ उट्टित्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ करिता दोवईए देवीए कत्थई सुई वा खुई वा पवत्ति वा अलभमाणे जेणेव पंडुंराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंडुं रायं एवं वयासी एवं खलु ताओ ! ममं आगासतलगंसि सुहृपसुत्तस्स पासाओ लेने के लिये यहां जल्दी से नहीं आयेंगे तो उसके बाद हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम कहोगे वैसा मैं करूँगी तुम्हारी आज्ञा कारिणी वशवर्तिनी बन जाऊँगी। ऐसा अर्थ " आणाओवायवयणणिद्देसे " इन पदो का निकलता है। इसके बाद पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी के इस कथन को स्वीकार करके उसे कन्या के अन्तः पुर में रखदिया। वहां वह द्रौपदी देवी आयंबिल परिगृहीत छट्ट छट्ट की अन्तर रहित तपस्या से अपने आप को भावित करती हुई रहने लगी । सू० २६ કરતાં કરતાં અહીં નહિ આવી શકે તેા ત્યારપછી હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમે જેમ કહેશે! તેમ કરીશ, હું તમારી આજ્ઞાકારણી વર્તિની ખની જઈશ. 66 आणा ओवायवयणा णिद्दे से " આ પદેથી આ જાતને અથ નીકળે છે. ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ દ્રૌપદીના તે કથનને સ્વીકારી લીધું અને તેને કન્યાના અન્તઃ પુરમાં મૂકી દીધી. ત્યાં તે દ્રોપદી દેવી આયંબિલ પરિગૃહીત છઠ્ઠ છઠ્ઠની અન્તર રહિત તપસ્યાથી પાતાની જાતને ભાવિત કરતી રહેવા લાગી, ૫ સૂત્ર ૨૬૫ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४७९ दोवइ देवी ण णजइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा ?, इच्छामि णं ताओ ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं कयं, तएणं से पंडुराया कोडुबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह गं तुम्भे देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे सिंघाडगतियचउक्कचञ्चरमहापहपहेसु महयार सदेणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! जुहिथिल्लस्स रपणो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओदोवई देवी ण णजइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा. तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवइए देवीए सुई वा जाव पवित्तिं वा परिकहेइ तस्स णं पंडुराया विउलं अस्थसंपयाणं दाणं दलयइ तिकट्ठ घोसणं घोसावेह२ एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति, तएणं से पंडराया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव अलभमाणे कोंती देवीं सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! बारवई गरि कण्हस्स वासुदेवस्स एयम, णिवेदहि कण्ह णं परं वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसणं करेजा अन्नहा न नज्जइ दोवइए देवीए सुती वा खुती वा पवत्ती वा उवलभेज्जा, तएणंसा कोंती देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ पडिसुणित्ता पहाया कयबलिकम्मा हत्थिखंध શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वरगया हस्थिणाउरं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता कुरुजणवये मज्झमझेणं जेणेव सुरट्ठजणवए जेणेव बारवई णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता कोडंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जेणेव बारवई णयरी तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयल० एवं वयह-एवं खलु सामी ! तुभं पिउच्छा कोंती देवी हथिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया तुम्भं दंसणं कंखइ, तएणं ते कोडुबियपुरिसा जाव कहेंति, तएणं कण्हे वासुदेवे कोडुंबि. यपुरिसाणं अंतिए सोच्चा णिसम्म हत्थिखंधवरगए हयगय बारवईए य मज्झंमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पञ्चोरुह पच्चोरुहित्ता कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेइ करित्ता कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखंधं दुरूहइ दुरुहित्ता बारावइए णयरीए मझंमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुपविसइ । तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंती देविं पहायं कयबलिकम्मं जिमियभुत्तुत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ?, तएणं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! हथिणाउरे णयरे जुहिडिल्लस्स आगासतले सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा, तं इच्छामि णं पुत्ता ! दोवईए શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४८१ देवीए मग्गणगवेसणं करित्तए, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंती पिउच्छि एवं वयासी-जं णवरं पिउच्छा! दोवइए देवीए कत्थइ सुई वा जाव लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ अद्धभरहाओ वासमंतओ दोवई साहत्थिं उवणेमित्तिकट्ठ कोंती पिउत्थिं सकारेइ संमाणेइ जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसजिया समाणी जामेव दिसिं पाउ० तामेव दिसिं पडिगया ॥ सू० २५॥ ___टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स युधिष्ठिरो राजा ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धः सन् द्रौपदी देवीं पावै 'अपासमागो' अपश्यन् अनवलोकयन् शयनीयादुत्तिष्ठति, उत्थाय द्रौपद्या देव्याः सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं करोति, कृत्वा द्रोपद्या देव्या ' कत्थइ' कुत्रापि 'सुइ' श्रुति सामान्यवृत्तान्तं वा, 'खुई' क्षुतिं छिक्कादि शब्दं वा ' पत्तिं ' प्रवृत्तिं वा विशेषवृत्तान्तं अलभमानो ____तएणं से जुहिडिल्ले राया इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से जुहिडिल्ले राया) वे युधिष्ठिर राजा (तओ मुहुत्तरस्स ) एक मुहूर्त के बाद (पडिबुद्धे समाणे ) जगे-और जगकर उन्होंने (दोवई देवीं) द्रौपदी देवी को (पासे अपासमाणो सयणि जाओ उद्देइ, उहित्ता दोवईए सव्वओ समंतो मग्गणगवेसणं करेइ) अपने पास जब नहीं देखा तो वे अपनी शय्या से उठे और उठकर द्रौपदी देवीकी सबओरसे उन्होंने मार्गणा गवेषणाकी (करित्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवत्ति वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया 'तएण से जुहिछिल्ले राया ' इत्यादि ॥ टी -(तएण) त्या२५छी ( से जुहिट्ठिल्ले राया ) ते युधिष्ठिर रात ( तओ मुहुत्ततरस्स) मे मुहूत माह (पडिबुद्धे समाणे ) श्या. मन शान. तेमणे ( दोवह देवी ) द्रौपट्टी पान, ( पासे अपासमाणो सयणिज्जाओ उठेइ, उद्वित्ता दोवईए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ) જ્યારે પોતાની પાસે જઈ નહિ ત્યારે પિતાની શય્યા ઉપરથી ઊભા થયા અને ઊભા થઈને દ્રૌપદી દેવીની ચેમેરા માણા ગવેષણ કરી. ( करित्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुई वा पवत्तिं वा अलभमाणे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे - यौव पाण्डराजा तौवोपागच्छति, उपागत्य पाण्डं राजानमेवमवादी-हे तात ! एवं खलु ममाकाशतले प्रासादादालिकोपरि ' मुद्दपमुत्तस्स ' मुखप्रमुप्तस्य पार्थाद् द्रौपदी देवी ' ण णज्जइ' न ज्ञायते केनापि देवेन वा दानवेन वा किन्नरेण वा किंपुरुषेण वा गन्धर्वेण वा हृता वा नीता अन्यत्र प्रापिता वा अवक्षिप्ता वा-? कूपगर्तादौ कुचित् पातिता वा इत्यर्थः, तत्-तस्माद् इच्छामि खलु हे तातः ! द्रौपद्या देव्याः सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं कर्तुम् । तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी एवं खलु ताओ ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ, केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा) मार्गणा गवेषणा करके जब उसने द्रौपदी देवी की कहीं भी शोध, सामान्य खबर को उस के चिह्नस्वरूप छिक्का आदि के शब्द को, अथवा प्रवृत्ति-विशेष वृत्तान्त को नहीं पाया तब वे जहाँ पांडुराजा थे वहां गये-वहां जाकर के उन्होंने पांडुराजा से इस प्रकार कहा-हे तात ! जब मैं प्रासाद की अट्टालिकाके ऊपर सुखसे सो रहा था-तब मेरे पाससे न मालूम द्रौपदी देवी को किसी देवने, दानवने, किन्नरने, किंपुरुषने, महोरगने, गंधर्वने हरण कर कहां रख दिया है। या उसे किसी कुंए में या खड्ड़े में डाल दिया है (इच्छामि णं ताओ दोवईए देवीए सत्वओ समंता मग्गण गवेसणं कयं ) इस लिए हे तात ! मैं द्रौपदी देवी की सब तरफ से जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी एवं खलु ताओ ममं आगासतलगंसि मुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ, केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा) માણા ગષણ કર્યા બાદ પણ જ્યારે તેમણે દ્રોપદી દેવીની કોઈપણ રીતે, સામાન્ય ખબર અને ચિહ્ન સ્વરૂપ છીંક વગેરે શબ્દને અથવા તે પ્રવૃત્તિ-વિશેષ વૃત્તાંત–ની પણ જાણ થઈ નહિ ત્યારે તેઓ જ્યાં પાંડુરાજા હતા ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે પાંડુરાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે તાત! જ્યારે હું મહેલની અગાશીમાં સૂઈ રહ્યો હતો ત્યારે મારી પાસે ન જાણે કેણે દ્રૌપદી દેવીનું કઈ દેવ, દાનવે કે કિન્નરે કે કિપરુષે કે મહોરગે કે ગંધર્વે હરણ કર્યું છે. અથવા તે દ્રોપદી દેવીને કઈયે કૂવામાં કે ખાડામાં नाभी हीधी छे. (इच्छामि ण ताओ दोवईए देवीए सव्वओ समतो माण श्री शताधर्म अथांग सूत्र : ०3 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ०१६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४८३ ततः खलु स पाण्डुराजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु महता महता शब्देनोद्धोषयन्तः एवं वदत-एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! युधिष्ठिरस्य राज्ञ आकाशतलके सुखममुप्तस्य पार्थाद् द्रौपदी देवी न ज्ञायते केनापि देवेन वा दानवेन वा किं पुरुषेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा और सब प्रकार से मार्गणा और गवेषणा करना चाहता हूँ। (तए णं से पंडुराया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी गच्छहाणं तुम्भे देवाणुपिया! हस्थि गाउरे नयरे, सिंघाडगतीय चउक्कचच्चर महा पहपहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया ! जुहिडिल्लस रणो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ, केण इ, देवेण वा दानवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा) इस वात को सुनकर के उन पांडुराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हस्तिनापुर नगर में जाओ-और वहां के शृंगाटक, त्रिक चतुष्क, चत्वर, महापथ इन समस्त मागों में बड़े जोर २ से ऐसी घोषणा बार २ करो कि हे देवाणुप्रियों! सुनो प्रासादकी अट्टालिका पर सुखपूर्वक सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से न मालूम किसी देवने, या दानवने, किसी, किनरने, गवेसण कयौं) मेटा माटे तात ! ई योमे२ मधी राते द्रोपही पीना માર્ગણ અને ગવેષણ કરવા ઈચ્છું છું. (तए णं से पंडुराया कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! हथियाउरे नयरे, सिंघाडगतोयच उक्कचच्चरमहापहपहेसु महया २ सदेणं उग्घोसे मागा २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिडिल्लास रणो आगासतलगंसि सुहपमुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ, केणइ देवेग वा दानवेर वा किंवरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खिता वा) આ વાતને સાંભળીને પાંડુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકો હસ્તિનાપુર નગરમાં જાઓ અને ત્યાંના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, મહાપથ આ બધા માર્ગોમાં મોટા સાદે આ જાતની ઘોષણા કરે કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળે, મહેલની અગાશી ઉપર સુખેથી સૂતા યુધિષ્ઠિર રાજાની પાસેથી ન જાણે કઈ દેવે કે દાનવે અથવા તે કઈ કિંજરે છે કિપરુષે અથવા કેઈ મારગે કે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे गन्धर्वेण वा हता वा नीता वा अवक्षिप्ता वा, तत्=तस्माद् यः खलु हे देवानुमियाः ! द्रौपद्या देव्याः श्रुति वा क्षुति वा प्रवृत्तिं वा परिकथयति, तस्य खलु पाण्डू राजा विपुलमर्थसंपदानं दानं ददाति इति कृत्वा-इत्युक्त्वा घोषणां घोषयत, घोषयित्वा एतामज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव घोषणां कृत्वा यावदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति-हे स्वामिन् ! भवदाज्ञया घोषणा कृताऽस्माभिरिति निवेदयन्ति । या किसी किंपुरुष ने या किसी महोरग ने या किसी गंधर्व ने द्रौपदी देवी को हरण कर लिया है-या हरणकर उसे कहीं रख दिया है अथवा किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है (तं जो णं देवाणुप्पिया ! दोवईए देवीए सुई वा जाव पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्स णं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयइ, त्ति कटु घोसणं घोसावेह २ एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा जाव पच्चप्पिणंति-तएणं से पंडुराया दोवईए देवीए कत्थइ सुइंवा जाव अलभमाणे कोंती देवी सदावेह) तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य द्रौपदी देवी की शोध करेगा यावत् उसके विशेषवृत्तान्त को लाकर देगा-हम से आकर कहेगा, उसको पांडुराजा बहुत अधिक मात्रा में अर्थ संप्रदान-दानदेगा। इस प्रकार की तुम घोसषणा करो, और घोषणा कर के फिर हमें इसकी पीछे खबर दो। इस प्रकार राजा की आज्ञा पाकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने इसी प्रकारकी घोषणा करके इस की खबर राजाके ગંધ દ્રૌપદી દેવીનું અપહરણ કર્યું છે કે હરણ કરીને તેને કયાંક મૂકી દીધી છે કે કઈ કવામાં અથવા તે ખાડામાં નાખી દીધી છે. (तं जो णं देवाणुप्पिया ! दोवईए देवीए सुई वा जाव पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्सणं पंडराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयइ, त्ति कह घोसणं घोसावेह २ हयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तएणं ते कौटुंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति-तएणं से पंडराया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव अलभमाणे कोंती देवीं सदावेइ) તે હે દેવાનુપ્રિયે! જે કઈ પણ માણસ દ્રૌપદી દેવીની શોધ કરશે યાવત તેના વિષે સવિશેષ સમાચાર જાણીને અમને ખબર આપશે, અમને કહેશે, તેને પાંડુ રાજા ખૂબ જ દ્રવ્ય-ધન આપશે. આ રીતે તમે ઘોષણા કરે અને છેષણ થઈ જવાની અમને ખબર પણ આપો. આ રીતે રાજાની આજ્ઞા સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરૂષએ આ પ્રમાણે જ છેષણ કરીને તેની ખબર રાજાને આપી ત્યારપછી જ્યારે પાંડુ રાજાએ દ્રૌપદી દેવીની કેઈપણ સ્થાને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५ ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि श्रुति वा यावत् प्रवृत्तिम् अलभमानः कुन्ती देवीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिये ! द्वारवती नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमर्थ निवेदय-सुखप्रसुप्ता द्रौपदी केनापि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूपं वृत्तान्तं कथय, कृष्णः खलु परं वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगवेपणं कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रौपद्या देव्याः श्रुति वा प्रवृत्तिं वा क्षुत्तिं वा उपलभेत। पास भेजदी ! इसके बाद जब पांडुराजा ने द्रौपदी देवी की कहीं पर भी श्रुती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तब उन्हों ने कुंति देवी को बुलाया(सहावि०ए०वयासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहा-(गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया ! वारवई नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्त एयमलु णिवेदेहि, कण्हेणं परं वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसणं करेजा--अन्नहान नजई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पवत्तीं वा उवल भेजा) हे देवानुप्रियो! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ-और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हलिया है। हरण कर उसे कहीं पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है। पता नहीं पड़ता है। वे कृष्ण वासुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी को मार्गणा गवेषणा करेंगे। नहीं तो द्रौपदी देवी को श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी-यह नहीं कहा जा सकता है। श्रुति यावत् प्रवृत्ति मेजवी नहि त्यारे तभणे ती वान मालावी. ( सहा वि० ए० वयासी) अने मोसावीन तभने २ प्रमाणे धु (गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वारवइं नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयम8 णिवेदेहि, कण्हेणं परं वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसणं करेज्जा अन्नहा न नज्जई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पवत्तीं वा उवलभेज्जा) હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે સુખથી સુતેલી દ્રૌપદીનું કેઈએ હરણ કરી લીધું છે. હરણ કરીને તેને કયાંક મૂકી દીધી છે અથવા તે કઈ કુવામાં કે ખાડામાં નાખી દીધી છે. ન જાણે શું થઈ ગયું છે ? કૃષ્ણવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચેકસ દ્રૌપદી દેવીની માર્ગણ ગવેષણ કરશે નહિંતર દ્રૌપદી દેવીની પ્રતિ, સુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શક્યતા જણાતી નથી, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ततः खलु सा कुन्ती देवी पाण्डुना राज्ञा एवमुक्ता सती यावत् प्रतिशृणोति= पाण्डुनृपस्याज्ञां स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य स्नाता कृतमलिकर्मा हस्तिस्कन्धवरगता हस्तिनापुरस्य मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य कुरुजनपदस्य-कुरुनामकस्य देशस्य मध्यध्येन यत्रैव सौराष्टजनपदः, यत्रैव द्वारवती नगरी, यौवाग्रोद्यानन्यत्रान्यस्थानादागतानां स्थित्यर्थमावासो विद्यते तादृशं बहिः प्रदेशवयुपवनम् , तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति-प्रत्यवतरति, प्रत्यवरुह्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे (तएणं सा कोंती देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, हाया कयगलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हत्यिणाउरं मन्झं मज्झेणं णिगच्छइ णिगच्छित्ता कुरुजणवयं मज्झ मज्झेणं जेणेव सुरट्ठ जणवए जेणेव बारवई णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ उवा. गच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता कोडुंबियपुरिसे सद्दा. वेह, सद्दावित्ता एवं वयासी) इस के बाद पांडुराजा द्वारा इस प्रकार कही गई कुंती देवी ने पांडुराजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया और स्वीकार कर के उसने स्नान किया-काक आदि पक्षियों के लिये अन्नदेने रूप बलि कर्म किया। बाद में वह हाथी के ऊपर बैठकर हस्तिनापुर नगर के बीच से होकर निकली -निकलकर वह कुरुदेश के बीच से होती हुई जहाँ सौराष्ट जनपद था और उसमें भी जहां द्वारावती नगरी थी-वहां पर भी जहां वह अग्रउद्यान था कि जिसमें बाहरसे आये हुए पथिक विश्राम के लिये ठहर जाते थे-वहां गई। वहां जाकर ( तए ण सा कोंतो देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, हाया कयवलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हथिणाउर मज्झं मझेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता कुरुजाणवय मझ मज्झेण जेणेव सुरद्वजणवए जेणेव बारवई णयरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हथिखंधाओ पच्चोरुहाइ, पच्चोरुहित्ता कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी) ત્યારપછી પાંડુરાજા વડે આ પ્રમાણે આજ્ઞાપિત થયેલી કુંતી દેવીએ પાંડુરાજાની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેણે સ્નાન કર્યું. કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્નભાગ અપને બલિકર્મ કર્યું ત્યારપછી તે હાથી ઉપર સવાર થઈને હસ્તિનાપુર નગરની વચ્ચે થઈને નીકળી. નીકળીને તે કુરૂદેશની વચ્ચે થઈને જ્યાં સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતું અને તેમાં પણ જ્યાં અગ્ર ઉદ્યાન હતું કે જેમાં બહારથી આવનારા પથિકે વિશ્રામ માટે રોકાતા હતા તેમાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् ४८७ देवानुप्रियाः । यत्रैव द्वारवती नगरी तत्रैवानुप्रविशत, अनुप्रविश्य कृष्णं वासुदेवं करतल परिगृहीतदशनखं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं वदत एवं खलु हे स्वामिन् ! युष्माकं पितृष्वसा कुन्ती देवी हस्तिनापुराद् नगराद् इह हव्यमागता युष्माकं दर्शनं काङ्क्षति । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् कथयन्ति = कृष्णवासुदेवस्य समीपे कुन्तीकथितं वचनं निवेदयन्तीत्यर्थः । ततः खलु कृष्णो वासुवह हाथी से नीचे उतरी और उतर कर के उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया - बुलाकर उनसे इस प्रकर कहा - ( गच्छह णं तुभे देवाणुपिया ! जेणेव बारवईणयरी, तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हे वासुदेवं करयल एवं वयह, एवं खलु सामी ! तुभं पिउच्छा कोंती देवी हत्थिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया, - तुब्भं दंसणं कखइ, तरणं ते कोटुंबिय पुरिसाणं अंतिए सोच्चा णिसम्म हत्थिखंधवरगए हयगय बारवईए य मज्झ मज्झेणं जेणेव कोंती देवी - तेणेव उवागच्छर ) हे देवानुप्रियों ! तुम द्वारावती नगरी में जाओ वहां जाकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर शिर झुकाते हुए नमस्कार करना - बाद में उनसे ऐसा कहना - कि हे स्वामिन्! आपकी पितृष्वसा भुआ-कुंती देवी हस्तिनापुर नगर से यहां अभी आई है वे आपके दर्शन करना चाहती हैं। उन कोटुस्विक पुरुषोंने कुंती देवी की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर श्री कृष्ण રોકાઇ. ત્યાં જઇને તે હાથી ઉપરથી નીચે ઉતરી અને ઉતરીને તેણે કૌટુબિક પુરૂષોને એલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે - (गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जेणेव बारवई णयरी, तेणेव अणुपविसह, अणुविसित्ता कन्हं वासुदेव करयल० एवं वयह एवं खलु सामी ! तुब्भं पिउच्छा कोंती देवी हत्यिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया, तुभ दंसणं कखइ, तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव कहेंति, तएणं कण्हे वासुदेवे कोडबिय पुरिसाण अतिए सोच्चा णिसम्म हस्थिखंधवरगए हयगयबारवईए य मज्ज्ञ मज्झेण जेणेव कोंती देवी - तेणेव उवागच्छर ) હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં જાએ, ત્યાં જઇને કૃષ્ણુવાસુદેવને ખતે હાથેાની અંજિલ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને માથુ' નીચે નમાવીને નમસ્કાર કરો ત્યારપછી તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરો કે હે સ્વામિન્ ! તમારી પિતૃષ્ણસા-ફાઈ કુંતી દેવી હસ્તિનાપુર નગરથી અત્યારે અહીં આવ્યા છે તેએ તમને જોવા માગે છે. તે કૌટુબિક પુરૂષોએ કુતી દેવીની આ આજ્ઞાને સ્વીકારીને શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવને આ સમાચારની ખબર આપી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे देवः कौटुम्बिकपुरुषाणामन्तिके श्रुत्वा निशम्य हस्तिस्कन्धवरगतो हयगजरथपदातिसंपरितो द्वारवत्या नगर्या मध्यमध्येन यौव कुन्ती देवी तशैवोपागच्छति, उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य कुन्त्या देव्याः पादग्रहणं करोति, कृत्वा कुन्त्या देव्या साध हस्तिस्कन्धं ‘दुरुहइ 'दूरोहति-आरोहतीत्यर्थः । दूरुह्य द्वारवत्या नगर्या मध्मध्येन यचैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्वकं गृहमनुप्रविशति । वासुदेव के लिये इस समाचार की खबर करदी कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से इस समाचार को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हाथी पर बैठ, हयगज, रथ एवं पदातियों के साथ २ द्वारा वती नगरी के बीच से होते हुए जहाँ कुंतीदेवी थी वहां आये। (उवा. गच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहह, पच्चोरुहित्ता वोतोए देवीए पाय गहणं करेइ, करित्ता कोंतीए देवीए सद्धि हथिखधं दुरूहइ, दुरूहित्ता बारवईए णयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुपविसइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंतीदेवी पहायं कयबलिकम्म जिमियभुत्तुत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी ) वहां आकर वे हायी पर से नीचे उतरे और उतरकर कुंती देवी के चरणों में नमन किया-चरण स्पर्श करके कुंतीदेची के साथ २ हाथी पर बैठ गये-बैठ कर के द्वारावती नगरी के ठीक भीतर से होकर जहां अपना गृह-प्रासाद-था वहाँ आये-वहां आकर प्रासाद के भीतर દીધી. કૃષ્ણ વાસુદેવે કૌટુંબિક પુરૂષની પાસેથી આ સમાચારો સાંભળીને તેને હદયમાં ધારણ કરીને, હાથી ઉપર સવાર થઈને, ઘોડા, હાથી, રથ અને પાયદળેની સાથે દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે થઈને જયાં કુંતી દેવી હતાં ત્યાં આવ્યા. ( उवागच्छित्ता हतिथखंधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहिता कोंतीए देवीए पायग्गहण करेइ, करित्ता कोतीए देवीए सद्धिं हथिखधं दुरुह इ, दुरुहित्ता बारवईए णयरीए मझ मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सयगिह अणु पविसइ, तरण से कण्हे वासुदेवे कोनी देवी हाय कयबलिकम्म जिमियभुत्तुतरागयं जाव सिहासणवरगय एव वयासी) ત્યાં પહોંચીને તેઓ હાથી ઉપરથી નીચે ઉતર્યા અને ઉતરીને કુંતી દેવીને પગે લાગ્યા અને પગે લાગીને કુંતી દેવીની સાથે હાથી ઉપર સવાર થયા. સવાર થઈને જ્યાં પિતાનું ભવન હતું ત્યાં આવ્યા, ત્યાં આવીને ભવનની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् ४८९ ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्ती देवीं स्नातां कृतबलिर्माणं काकादिभ्यः कृतान्नसंविभागा जिमित्तभुक्तोत्तरागतां जिमिता-भोजनं कृतवती भुक्तोत्तरागताभुक्तोत्तरकालं-भोजनोत्तरकालम्-आगता, तां तथा, यावत् सुखासनवरगता-मुखपूर्वकं विशिष्टासनोपविष्टाम् एवमवादीत्-हे पितृष्वसः ! संदिशन्तु किमागमनप्रयोजनम् ?, ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे पुत्र ! हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरस्याकाशतले मुखप्रसुप्तस्य पार्थाद द्रौपदी देवी न ज्ञायते केनापि अपहता यावद् अवक्षिप्ता वा, तत् तस्माद् इच्छामि खलु हे पुत्र ! चले गये । कुंती ने वहां जाकर स्नान किया बलिकर्म किया। बाद में चतुर्विध आहार को जीमकर जब वे सुखपूर्वक बैठ गई तब कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा ( संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु पुत्ता! हथि णाउरे जुहिडिल्लस्स अगासतले सुहपस्सुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ, केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा तं इच्छामिणं पुत्ता! दोवई ए देवीए मग्गणगवेसणं करित्तए ) हे भुआजी ! कहिये-किस कारण से आप यहां पधारी हैं ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर उस कुंतीने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-पुत्र ! सुनो-आने का कारण इस प्रकार है-हस्तिनापुर नगरमें प्रासाद की अट्टालिका के ऊपर सुखके साथ सोये हुए युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी न मालूम किसीने हरण करली है-यावत् किसी कुंए मे या खड़े में डाल दी है। અંદર ગયા. કુંતીએ ત્યાં પહોંચીને સ્નાન કર્યું અને બલિકર્મ કર્યું. ત્યાર પછી ચાર જાતના આહારો જમીને જ્યારે તે સુખેથી સ્વસ્થ થઈને બેસી ગયા ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે તેમને કહ્યું કે – (संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा कोती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! हथिणाउरे णयरे जुहिद्विल्लस्स आगोसतले सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवीण णज्जइ, केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा त इच्छामि ण पुत्ता ! दोवईए मग्गणगवेसणं करित्तए) કહે, શા કારણથી તમે અહીં આવ્યા છો ? આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાંભળીને કુંતી દેવીએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! સાંભળે, હું એટલા માટે અહીં આવી છું કે હસ્તિનાપુર નગરમાં મહેલની અગાશી ઉપરથી સુખેથી સૂતેલા યુધિષ્ઠિરની પાસેથી ન જાણે કણે દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરી લીધું છે યાવત કેાઈ કુવામાં એ કે ખાડામાં નાખી દીધી છે. એથી હે પુત્ર ! હું ઈચ્છું છું કે—દ્રૌપદી દેવીની શોધખોળ થવી જોઈએ. श्री शताधर्म थां। सूत्र:03 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ज्ञाताधर्म कथासूत्रे द्रौपद्या देव्या मार्गणगवेषणं ' करितए ' कर्तुम् इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्तीं ' पिउच्छि पितृष्वसारमेवमवादीत् यत् नवरं हे पितृष्वसः । यदि द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि श्रुतिं वा क्षुर्ति वा मवृत्तिं वा यावत् लभे, ' तो णं' तर्हि खलु, अहं पातालाद् भवनाद् वा अर्ध भरताद् वा = खण्ड त्रयमध्यात् समन्तात् = सर्वतः द्रौपदीं देवीं ' साहत्थि स्वहस्तेन ' उवणेमि स्थानाद्, उपनयामि, इति कृत्वा == इत्युक्त्वा कुन्तीं 'पिउस्थि' पितृष्वसारं सत्कायति संमानयति, सत्कार्य 3 9 इस लिये हे पुत्र ! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदी की मार्गणा एवं गवेषणा होनी चाहिये । (तपणं से कण्हे वासुदेवे कोंती पिउच्छि एवं वयासीजं णवरं पिउच्छी दोवइए देवीए कत्थई सुई वा जाब लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ अद्धभरहाओ वा, समंतओ दोवई साहित्थि उवणेमि ति कट्टु कोंती पिउच्छि सक्कारेइ सम्माणेह, जाव पडिविसज्जेइ, तरणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया, समाणी जामेव दिसिं पाउ० तामेवदिसिं पडिगया ) तब कृष्ण वासुदेव ने अपनी भुआ कुंती देवी से इस प्रकार कहा- हे भुआ ! मैं और अधिक तो क्या कहूँ- द्रौपदी देवी की यदि मैं कहीं पर भी श्रतिक्षति, और प्रवृत्ति पा लेता हूँ तो मैं चाहे वह पाताल में हो, या किसीके भवन में हो, या अर्ध भरत क्षेत्र में से कहीं पर भी क्यों न हो- उस द्रौपदी देवी को सब जगह से अपने हाथों से ला कर दूँगा । इस प्रकार कहकर उन कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृष्वसा कुंती देवी का सत्कार किया, ( तणं से कहे वासुदेवे कोत पिउच्छिं एवं वयासी जं णवर पिउछा दोवइए देवीए कत्थई सुई वा जाव लभामि तो णं अह पायालाओ वा भवणाओ अद्ध भरहाओ वा, समंतओ दोवइ साहत्थि उवणेमित्ति कट्टु कोंती पिउच्छि सक्कारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तरणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसिं पडिगया ) ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે પેાતાના ફેાઈ કુંતી દેવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ફાઇ! હું વધારે શું કહું, દ્રૌપઢી દેવીની જો હું કોઈ પણ સ્થાને શ્રુતિ, શ્રુતિ અને પ્રવૃત્તિ મેળવી લઈશ તેા ભલે તે પાતાળમાં હાય, કાઇના ભવનમાં હાય કે અધ ભરત ક્ષેત્રમાં ગમે ત્યાં કેમ ન હોય તે દ્રૌપદી દેવીને ગમે ત્યાંથી હું લાવી આપને આપીશ તેમ છું. આ પ્રમાણે કહીને તેકૃષ્ણ વાસુદેવે પેાતાના ફાઈ પિતૃશ્વસા–કુતીદેવીના સત્કાર કર્યાં અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४९१ संमान्य यावत् - प्रतिविसर्जयति । ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्णेन वासुदेवेन प्रतिविसर्जिता सती यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगिता । सु०२७ ॥ मूलम् - तणं से कहे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! बारवई एवं जहा - पंडू तहा घोसणं घोसावेंति जाव पच्चपिणंति, पंडुस्स जहा तरणं से कहे वासुदेवे अन्नया अंतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरइ, इमं चणं कच्छुल्लए जाव समो इए जाव णिसोइत्ता कन्हं वासुदेवं कुसलोदतं पुच्छइ, तएण से कहे वासुदेवे कच्छुलं एवं वयासी-तुमं णं देवाशुप्पिया ! बहूणि गामा जाव अणुपविससि, तं अस्थि याई ते कहिं विदोवइए देवीए सुतीं वा जाव उवलद्धा ?, तएर्ण से कच्छुले कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अन्नया कयाई धायईसंडे दीवे पुरत्थिमद्धं दाहिणडुभरहवासं अवरकंकाराय हाणि गए, तत्थ णं मए पउमनाभस्त रन्नो भवणंसि दोवई देवी जारिसिया दिट्टपुव्वा यावि होत्या तरणं कण्हे वासुदेवे कच्छुलं एवं वयासी - तुब्भं चैव णं देवाशुप्पिया ! एवं पुव्वकम्मं तपणं से कच्छुल्ल - नारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे उप्पयणि विजं सन्मान किया, सत्कार सन्मान कर यावत् उन्हें प्रति विसर्जित कर दिया। इसके बाद वे कुंती देवी वहां से प्रतिविसर्जित होकर जिस दिशा से प्रकट हुई थीं उसी दिशा की और चली गई ।। सू०२७ ।। 5 કરીને તેમને વિદાય કર્યા, ત્યારપછી તે કુંતીદેવી ત્યાંથી વિદ્યાય મેળવીને જે દિશા તરફથી આવ્યાં હતાં તે જ તરફે પાછાં રવાના થયાં. ॥ સૂત્ર ૨૭ II तपणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि || सूत्र २८ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे आवाहेइ आवाहित्ता जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए, तएणं से कण्हे वासुदेवे दूयं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासो-गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरंपंडुस्स रन्नो एयमढें निवेदेहि एवं खलु देवाणुप्पिया ! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अवरकंकाए रायहाणीएपउमणाभभवणंसि दोवइए देवीए पउत्ती उवलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा पुरथिमवेयालाए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु, तएणं से दूए जाव भणइ, पडिवालेमाणा चिट्टह ते वि जाव चिटंति, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! सन्नाहियं भेरिंताडेह, ते वि -तालेंति, तएणं तेसिं सण्णाहियाए भेरीए सदं सोचा समुद्दविजयपामोक्खा दसदसारा जाव छप्पण्णं बलवयसाहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया गयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेंति, तएणं कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवर० हयगय० महया भडचडगरपहकरेणं बारवईए णयरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, जेणेव पुरस्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागछित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं एगयओमिलित्ताखंधावारणिवेसं करेइ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४९३ करित्ता पोसहसालं अणुपविसइ अणुपविसित्ता सुद्वियं देवं मणसि करेमाणे२ चिटइ, तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुट्रिओ आगओ, भणदेवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुटियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! दोवई देवी जाव पउमनाभस्स भवणंसि साहरिया तण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जण्णं अहं अमरकंकारायहाणा दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से सुटिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासीकिण्हं देवाणुप्पिया! जहा चेव पउमणाभस्स रन्नो पुव्वसंगइएणं देवेणं दोवई जाव संहरिया तहा चेव दोवईं देविं धायइसंडाओ दीवाओ भारहाओ जाव हथिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि , तएणं कण्हे वासुदेवे सुठियं देवं एवं वयासी -मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव साहराहि तुमं णं देवाणुप्पिया ! लवणसमुद्दे अप्पछटस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि, सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से सुटिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं होउ, पंचहिं पंडवेहि अप्पछट्टस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरइ, तएणं से कण्हेवासुदेवेचाउरंगिणसिणं पडिविसजेइ-पडिविसजित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छहिं रहेहि लवणसमुई श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे मज्झमज्झेणं वीइवयइ वीइवइत्ता जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव अमरकंकाए अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता दारुयं सारहिं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहिर पउमणाभस्स रण्णो वामेणं पारणं पायपीढं अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि तिवलियं भिउडिं णिडाले साहहु आसुरुते रुट्टे कुद्धे कुविए चांडक्किए एवं वयासी - हं भो पउमणाहा ! अपत्थियपत्थिया दुरंतपंतलक्खणा हीणपुन्नचाउद्दसा सिरी हिरिधी परिवज्जिया अज्ज ण भवसि किन्नं तुमंण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसज्जे णिग्गच्छाहि एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं अप्पछट्टे दोवई देवीए कूवं हव्वमागए, तएण से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ते समाणे तुट्ठे जाव पडिसुणेइ पडिसुणित्ता अमरकंका रायहाणि अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी - एस णं सामी ! मम विणयपडिवित्ती इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्तित्तिकट्टु आसुरुते वामपारणं पायपीढं अणुकमइ अणुक्कमित्ता कोतग्गेणं लेहं पणामइ पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए, तएणं से पउमणाभे दारुणेणं सारहिणा एवं वृत्ते समाणे आसुरुते त्तिवलिं भिउडिं निडाले साहहु एवं वयासी - णो अपिणामि पणं अहं देवाणुपिया ! कण्हस्स ४२४ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् _ ४९५ वासुदेवस्स दोवई, एसणं अहं सयमेव जुज्झसज्जो णिग्गच्छामि त्तिक? दारुयं सारहिं एवं वयासी केवलं भो ! रायसत्थेसु दूये अवज्झे तिकट्ठ असकारिय असम्माणिय अवदारेणं णिच्छभावइ, तएणं से दारुए सारही पउमणाभेणं असक्कारिय जाव णिच्छुढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयला कण्हं जाव एवं वयासी--एवं खलु अहं सामी ! तुब्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेइ ॥ सू० २८ ॥ टोका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रिय ! द्वारबती नगरीम् , एवं यथा पाण्डुस्तथा घोषणां घोषयत'- यथा पाण्डू राजा हस्तिनापुरे घोषणां कारितवान् तद्वदित्यर्थः । तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव घोषणां -तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि। टोकार्थ-(तएणं) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेव ने (कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सदायित्ता) बुलाकर (एवं वयासी) उन से ऐसा कहा (गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया बारवई ) हे देवानुप्रियों ! तुम द्वारावती नगर में जाओ ( एवं जहा पंडु तहा घोसणं घोसावेंति जाव पच्चप्पिणंति पंडुस्स जहा ) वहां पांडु राजाकी तरह घोषणा करो-अर्थात् पांडु राजाने जिस प्रकार द्रौपदी की खबर लानेवाले के लिये अर्थ प्रदान का घोषणा अपने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा हस्तिनापुर नगर में करवाई थी-इसी प्रकार की घोषणा करने के 'तएणं से कण्हे वासुदेवे' त्यादि. साथ-(तएणं) त्या२५छी (से कण्हे वासुदेवे) ते ६ वासुदेव (कोडुबिय पुरिसे सद्दावेइ ) अमिर पुरुषाने मोसाव्या (सदावित्ता) मापीने ( एवं वयासी) तमन मा प्रमाणे -(गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया बारवई ) हैवानुप्रिय।। तमे द्वारवती नगरीमा । ( एवं जहा पंडु तहा घोसण घोसावे ति जाव पच्चदिपणंति पडुस्स जहा ) त्यां पड सकतनी भी घोषणा કરે એટલે કે પાંડુ રાજાએ જેમ દ્રૌપદીની શોધ કરવા માટેની દ્રવ્ય આપવાની ઘોષણુ હસ્તિનાપુર નગરમાં કરાવી હતી તે પ્રમાણે જ ઘોષણા કરવા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कृत्वा 'जाव पच्चप्पिणंति' यावत् प्रत्यर्पयन्ति-घोषणां कृत्वा-कृष्णस्य वासुदेवस्यान्तिके ते कौटुम्बिकपुरुषा निवेदयन्ति-द्वारवत्यां नगर्या सर्वत्र घोषणाकृताऽस्माभिरिति । 'पंडुस्स जहा' पाण्डोर्यथा यथा पाण्डो पस्य वर्णकस्तथाऽत्रापि बोध्यः । यथा पाण्डूराजा द्रौपद्याः श्रुति यावत् प्रवृत्तिं न लब्धवान्, तथा कृष्णवासुदेवोऽपि द्रौपद्याः श्रुत्यादिकं न प्राप्तवानिति भावः । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः अन्यदा-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् समये 'अंतो' अन्तः-स्वमासादे अन्तःपुरगतोऽवरोधे यावद् विहरति । 'इमं च णं' अस्मिन् समये च खलु 'कच्छुल्लए' कच्छुल्लको नारदो यावत् समवसृतः= गगनतलादवतरन् कृष्णसद्मनि समागतः यावत् निषद्य=उपविश्य गगनतलादवतरन् कृष्णसमनि समागतः, यावत् निषध-उपविश्य लिये कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया कि वे भी द्वारावती में इसी तरह की घोषणा करें। अपने राजा की आज्ञानुसार उन्हों ने द्वारावती में घोषणा करदी और इस की खबर पीछे कृष्ण वासुदेव को कर दो। यहां अवशिष्ट वर्णन पांडु राजा के जैसा वर्णन है वैसा ही जानना चाहिये । अर्थात् घोषणा कराने पर भी द्रौपदी की किसी भी प्रकार की खबर वगैरह का कोई भी समाचार पांडु राजा को नहीं मिला वैसा कृष्ण वास्तुदेव को भी नहीं मिला (तएणं ) तब (से कण्हे वास्तुदेवे अन्नया अतो अतेउरगए ओरोहे जाव विहरइ इमं च णं कच्छुल्लए जाव समोसरए) वे कृष्ण वासुदेव एक दिन की बात है कि अपने अन्तः पुर के प्रासाद के भीतर अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ बैठे हुए थे कि इसी समय वे कच्छुल्ल नाम के नारद आकाश मार्ग से માટે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાને કૌટુંબિક પુરુષને આજ્ઞા કરી કે તેઓ પણ દ્વારાવતી નગરીમાં આ પ્રમાણે જ ઘેષણા કરે. પિતાના રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે તે લેકએ દ્વારવતી નગરીમાં ઘોષણા કરી અને ઘેષણાનું કામ થઈ ગયું છે તેની ખબર પણ કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે પહોંચાડી દીધી. અહીં અવશિષ્ટ વર્ણન પાંડુ રાજાનું જેવું છે તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ, એટલે કે ઘોષણા કર્યા પછી પણ પાંડુ રાજાને દ્રૌપદી દેવીની કોઈ પણ જાતની ખબર કે સમાચાર મળ્યા નહિ તે પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવને પણ કોઈ પણ સમાચારે ઘેષણ माह भन्या नहि. (तएण) त्यारे ( से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अते. उरगए ओरोहे जाव विहरइ, इमंच णं कच्छुल्लए जाव समोसरए ) से हवसनी વાત છે કે તે કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના મહેલની અંદર રણવાસની સ્ત્રીઓની સાથે બેઠા હતા તે વખતે કબુલ નામે નારદ આકાશ માર્ગથી ઉતરીને ત્યાં श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् ४९७ कृष्णं वासुदेवं कुशलोदन्तं कुशलवार्ता पृच्छति, ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कच्छुल्ल नारदमेवमवादीत्-हे देवानुप्रिय ! त्वं खलु बहूनि ग्रामाकरादीनि परिभ्राम्यसि, तत्र बहूनि गृहाणि यावदनुपविशसि, तत् तस्मादस्ति 'आई' इति वाक्यालंकारे ते स्वया यदि कुत्रचिद् द्रौपद्यादेव्याः श्रुतिर्वा यावद् उपलब्धा ज्ञाता ? तर्हि कथय' इति भावः । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः कृष्ण वासुदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुमियाः अहमन्यदाकदाचिदू धातकीपण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्ध-पूर्वदिग्भागववर्तिनि, दक्षिणार्धभरतवर्षे-अमरकंकानाम्नी राजधानीं गतः। तत्र खलु मया उतरकर वहां आये-(जाव णिसी इत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छह, तएणं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं क्यासी-तुमं णं देवाणुप्पिया! यहूणि गामागर जाव अणुपविससि तं अत्थि आई ते कहिं वि दोवईए देवीए सुतींवा जाव उवलद्धा तएणं से कच्छुल्ले कण्हं वासुदेवं एवं वयासी) यावत् बैठकर उन्हों ने कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछा -कृष्णवासुदेव ने तब कच्छुल्ल नारद से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम अनेक ग्राम आकर आदिस्थानों में परिभ्रमण करते रहते हो-अनेक गृहादिकों में आते जाते रहते हो तो कहो-कहीं पर क्या तुम्हें द्रौपदी देवी की श्रुति उपलब्ध हुई है-उसकी तुम्हें किसी प्रकार की कोई खबर मिली है-उसका किसी भी प्रकार का कोई चिन्ह उपलब्ध हुआ है ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर कच्छुल्ल नारद ने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया कयाई याव्या. ( जाव णिसी इत्ता कण्ह वासुदेवं कुसलोदतं पुच्छइ, तरुणं से कण्हे वासुदेवे कच्छल्लं एवं वयासी, तुमं णं देवाणुपिया! बहूणि गामागर जाव अणुपविससि त अस्थि आई ते कहिं वि दोवईए देवीए सुती वा जाव उवलद्धातपणं से कच्छुल्ले कण्ह वासुदेवं एवं वयासी) त्यां मावीन मे मने मेसीन તેમણે કૃષ્ણ વાસુદેવને કુશળ વાર્તા પૂછી. વાસુદેવે ત્યારે કચ્છતલ નારદને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે ઘણુ ગ્રામ, આકર વગેરે સ્થાનમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે, ઘણા ઘરે વગેરેમાં આવજા કરતા રહે છે તે કહે, કોઈ પણ સ્થાને તમને દ્રૌપદી દેવીની કૃતિ મળી છે તેને તમને કઈ પણ જાતના સમાચાર મળ્યા છે, તેનું કોઈ પણ જાતનું ચિહ્ન તમને મળ્યું છે? આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાંભળીને કચ્છલ નારદે તે કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે – ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया कयाइ धायईसंडे दीवे पुरथिमद्ध श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पमनाभस्य राज्ञो भवने द्रौपदीदेवी यादृशी दृष्टपूर्वा चाप्यभवत् , अयं भावःकाचिद्रौपदीसदृशी देवी पद्मनाभस्य राज्ञोभवने दृष्टा किंतु सा मया न सम्यग. ज्ञाता नापि सम्यग्परिचिता, इति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कच्छुल्लनारदमेवमवादीत्-हे देवानुपियाः युष्माकमेव खलु ' एवम् ' इदृशं ' पुवकम्मं ' पूर्वकर्म -पूर्वकृतं कर्म, युष्माभिरेवेदृशं कर्म पूर्व कृतमित्यर्थः । ततः खलु स कच्छुलुनारदः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्तः सन् उत्पतनी विद्यामावायति । आवाह्य यस्याः एवदिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो दूतं शब्दयति= धायईसंडे दीवे पुरथिमद्धं दाहिणभरहवासं अमरकंका गयहागि गए तत्थ णं मए पउमनाभस्स रणो भवणंसि दोवई देवी जोरिसिया दिट्टपुव्वा यावि होत्या, तएणं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं वयासी-तुभं चेव गं देवाणुप्पिया! एवं पुव्वकम्मं-तएणं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणि विज्जं आवाहेइ, आवाहित्ता जामेव दिसि पाउन्भुए तामेव दिसि पडिगए) सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ -हे देवाणुप्रिय ! मैं किसी एक समय द्वितीय धातकी खंड द्वीप में पूर्व दिग्भागवर्ती दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नाम की राजधानी में गया हुआ था वहां मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी एक नारी देखी थी-परन्तु मैं उसे अच्छी तरह नहीं जान सका-और न उससे परिचित ही हो सका। नारद की ऐसी बात सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा हे देवानुप्रिय ! आपने ही ऐसा कार्य सब से पहिले किया है-इसके बाद उन कच्छुल्ल नारदने कृष्ण वासुदेवके द्वारा दाहिणद्धभरहवासं अमरकंका रायहाणि गए, तत्थणं मए पउमनाभस्स रण्णो भवण सि दोवई देवी, जारिसिया दिद्रपुव्वा यावि होत्या, तएणं कण्हे वासुदेवे कच्छुलं एवं वयासी-तुभं चेवण देवाणुप्पिया ! एवं पुष कम्म-तएणं से कच्छल्ल नारए कण्हेणं वासुदेवेण एवं वुत्ते समाणे उप्पयणि विज्ज आवाहेइ, आवाहिता जामेव दिसि पाउब्भुए तामेव दिसि पडिगए) સાંભળે, તમને હું બધી વિગત બતાવું છું. હે દેવાનુપ્રિય ! કઈ એક વખતે હું ધાતકી પંડદ્વીપમાં, પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણાર્ધ ભરત ક્ષેત્રમાં, અમરકંકા નામે રાજધાનીમાં ગયા હતા. ત્યાં મેં પદ્મનાભ રાજાના ભવનમાં દ્રૌપદી દેવી જેવી એક નારી જોઈ હતી. પણ હું તેને સારી પેઠે ઓળખી શ નહિ અને ન તેનાથી પરિચિત થઈ શકે. નારદની આ વાત સાંભળીને કૃષ્ણવાસુદેવે તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! સૌ પહેલાં તમે જ આ કામ કર્યું છે. ત્યારપછી તે કચ્છલનારદે કૃષ્ણ વાસુદેવની આ વાત સાંભળીને પિતાની ઉત્પતની श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगराधममृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४९९ - आह्वयति, शब्दयित्वा - एवमवादीत - गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुरं पाण्डोराज्ञ एतमर्थं निवेदय एवं खलु हे देवानुप्रिय ! धातकीपण्डे द्वीपे ' पुरस्थिमद्धे ' पौरस्त्यार्धे पूर्वदिग्भागवर्तिनि अमरकंकायां राजधान्यां पद्मनाभभवने द्रौपद्या देव्याः प्रवृत्तिरुपलब्धा, तत् = तस्मात् गच्छन्तु पञ्च पाण्डवाश्चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं संपरिता 'पुरत्थिमवेयालीए ' ' पौरस्त्य वेलायां - पूर्वदिग्वर्तिनि लवणसमुद्रे मां' पडिवालेमाणा ' प्रतिपालयन्तः - प्रतीक्षमाणा स्तिष्ठन्तु, ततस्तदनन्तरं स दूतो यावत् पाण्डोरग्रे गत्वा कृष्णवासुदेवोक्तं वचनं भणति = कथयति= ' पडिवालेमाणा चिह्न ' अयं भावः -' घातकीपण्डे द्वीपे पूर्वदिग्भागवर्तिनि अमरकंकायां राजधान्यां पद्मनाभभवने द्रौपद्याः प्रवृत्तिरुपलब्धा, तस्मात् पञ्च पाण्डइस प्रकार कहे जाने पर अपनी उत्पतनीविद्याका स्मरण किया । स्मरण करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की और चले गये । (तरणं से कहे वासुदेवे दूयं सदावेह सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छणं तुमं देवाणुपिया ! हत्थिणाउरं पंडुस्स रण्णो एयमहं निवेदे हि ) इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया - बुलाकर उससे ऐसा कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ वहां पांडु राजा से ऐसा कहना - ( एवं खलु देवाणुपिया ! घायइसंडे दीवें पुरित्थिमद्धे अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभभवणंसि दोवईए देवीए पडतीं उवलद्धा तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडा पुरस्थिमवे पालीए ममं पडिवालेमाणा चिडंतु ) हे देवानुप्रिय ! वह वक्तव्य विषय यह है- धातकी षंड नाम के द्वीप में पूर्व दिग्भागवत दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र मे वर्तमान अमरकंका नाम की राजधानी में पद्मनाभ राजा સ્મરણ કરીને પછી તેએ જે દિશા તરફથી આવ્યા વિદ્યાનું સ્મરણ કર્યું. हता ते दिशा तर पाछा खाना था गया. ( तरणं से कण्हे वासुदेवे दूयं सावे, सावित्ता एवं वयासी- गच्छ णं तुमं देवाणुपिया ! हत्थिणाउर' पंडुस्स रण्णो एयटुं निवेदेहि ) त्यारपछी ते पृ॒ष्णु वासुदेवे इतने मीसाव्या भने ખેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હસ્તિનાપુર નગરમાં જાએ-અને ત્યાં પાંડુ રાજાને આ પ્રમાણે કહા કે— ( एवं खलु देवाणुपिया ! धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे अमरकंकाए राय हाणीए परमणामा भवणंसि दोवईए देवीए पत्ती उवलद्धा-त गच्छंतु पंच पंडवा चाउर गिणोए सेणाए सद्धि संपरिवुडा पुरत्थिमवेयालीए ममं पडिवाले माणा चिट्टंतु ) हे हेवानुप्रिय ! धातडी षड नाभे द्वीपभां पूर्व दिशा तरइना दक्षिणार्ध ભરત ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન અમરકકા નામની રાજધાનીમાં પદ્મનાભ રાજાના ભવ્ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे वाचतुरङ्गिण्या सेनया सार्ध संपरिवृताः पौरस्त्यवेलायां मां प्रतिपालयन्तस्तिष्ठन्तु ' इति । एवं दूतसुखात् कृष्णवासुदेवोक्तं वचनं श्रुत्वा तेऽपि पञ्च पाण्डवा यावत् तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, के भवन में द्रौपदी देवी की खबर मिली है इसलिये पांचो पांडव चतुरंगिणी सेना के साथ युक्त होकर लवण समुद्र की पूर्व दिग्भागवर्तनी वेला पर जाकर वहाँ मेरी प्रतीक्षा करें। (तएण से दूए जाव भणह, पडिवालेमाणा चिट्ठह, ते वि जाव चिह्नंति, तरणं से कण्हे वासुदेवे कोटुंबियपुरिसे सहावेह सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुन्भे देवाणुपिया ! सन्नाहियं भेरिं ताडेह ते वि ताडेंति, तरणं तीसे सण्णाहियाए भेरिए सदं सोच्चा विजयपामोक्खा, दस दसारा जाव छप्पण्णं बलवय साहसीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया, गयगया, जाव वग्गुरा परिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्णे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ ) इस प्रकार अपने राजा कृष्णवासुदेव की आज्ञा लेकर वह दूत हस्तिनापुर गया वहाँ जाकर उसने इस समाचार को पांडुराजा से कह दिया। वे पांचों पांडव इस समाचार को दूत के मुख से सुनकर चतुरंगिणी सेना के साथ लवण समुद्र के पूर्व दिग्भागवर्ती तट पर जाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा में ठहर गये - 1 इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया - बुलाकर નમાં દ્રૌપદી દેવીના વાવડ મળ્યા છે તે હવે પાંચે પાંડવે ચતુર ગણી સેનાની સાથે પ્રયાણ કરીને લત્રણ સમુદ્રના પૂર્વ કિનારા ઉપર પહેાંચીને મારી પ્રતીક્ષા કરે. ( तरणं से दूर जाव भइ, पडिवाले माणा चिट्ठह ते वि जाव चिट्ठति, तणं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं वयासीं गच्छछ णं तुभे देवाणुपिया ! सन्नाहियं भेरिं ताडेह ते वि तोडेंति, तएण से सण्णाहियाए भेरीए सदं सोचा समुद्दविजयपामोक्खा, दस दसारा जाव छप्पण्णं बल वय साहस्सीओ सन्नद्धबद्धजाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया, गयगया, जोव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुइम्मा जेणेव कण्णे वासुदेवे तेणेव उवागच्छर ) આ રીતે પેાતાના રાજા કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞા મેળવીને તે દૂત હસ્તિનાપુર તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહેાંચીને તેણે પાંડુ રાજાને બધા સમાચારો કહી સભળાવ્યા. પાંચે પાંડવા કૃતના મુખથી આ સમાચાર સાંભળીને પેાતાની ચતુર'ગિણી સેના સાથે ત્યાંથી પ્રયાણ કરીને લવણ સમુદ્રના પૂર્વ કિનારા ઉપર પહોંચીને ત્યાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રોકાઇ ગયા. ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે કૌટુબિક પુરુષાને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું ५०० શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५०१ शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुमियाः सांनाहिकी सैनिकानां सज्जीभवनाथै नादो यस्यास्तां भेरी ताडयत तेऽपि ताडयन्ति, ततः खलु तस्याः सांनाहिक्या भेर्याः शब्दं श्रुत्वा समुद्रविजयप्रमुखा दश दशाीं यावत् 'छप्पण्णं बलवयसाहस्सीओ' षट् पश्चाशद् बलवत्साहस्रयाः षट्पञ्चाशत्सहस्रपमिता बलवन्त इत्यर्थः 'सबद्धबद्ध-जाव गाहियाउहपहरणा ' अत्र यावच्छब्देनैवं द्रष्टव्यम्सन्नद्रवद्धवर्मितकवचा उत्पीडितशरासनपट्टकाः पिनद्धौवेयकबद्धाविद्धविमल वरचिह्नपटाः गृहीतायुधप्रहरणा इति । व्याख्याऽस्मिन्नेवाध्ययने पूर्वमुक्ता अप्येकिकाः केचिद् हयगताः केचिद् गजगताः यावद् वागुरापरिक्षिप्ताः मनुष्यन्दैः परिवृताः, यौव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य करतल० यावद् जयेन विजयेन वर्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवो हस्तिस्कन्धवरगतः सकोउनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम सुधर्मा सभा में जाओ वहाँ जाकर तुम सांनाहिकी भेरी बजाओ- कौटुम्बिक पुरुषोंने ऐसा ही किया सुधर्मा सभामें जाकर उस सांनाहिकी भेरीको बजाया-। इस सांनाहि की भेरीकी गर्जनाको सुनकर समुद्रविजय आदि दश दशाह यावत् ५६,हजार प्रमित बलवीर पुरुष सन्नद्ध बद्धर्मिवतकवच होकर, यावत् आयुध प्रहरणों को लेकर तैयार सुसज्जित हो गये। यहां यावत् शब्द से उत्पीडितशरासन पटकाः, “ पिनद्धाप्रैवेयकबद्ध बिद्धविमलवरचिह्नपट्टाः " इस पाठ का संग्रह हुआ है। इन शब्दों की व्याख्या इसी अध्ययन में पहिले की जा चुकी है। इनमें कितनेक घोडों पर, कितनेक हाथियों पर, बैठकर अन्य मनुष्यों के समूह से परिवृत्त हो जहां वह सुधर्मा सभा और जहां वे कृष्णवासुदेव थे वहीं आये। (उवागच्छित्ता करयल जाव કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સુધર્મા સભામાં જાઓ, ત્યાં જઈને તમે સાંનાહિકી ભેરી વગાડે, તે કૌટુંબિક પુરુષોએ પણ તે પ્રમાણે જ આજ્ઞાનું પાલન કર્યું. સુધમ સભામાં જઈને તેઓએ સાંનાહિક ભેરી વગાડી. સોનાહિકી ભરીને અવાજ સાંભળીને સમુદ્રવિજય વગેરે દશ દશાર્દો યાવત્ ૧૬ હજાર પ્રમિત બળવીર પુરૂષે કવચ વગેરેથી સુસજજ થઈને યાવત આયુધ પ્રહરણને લઈને तैयार 25 गया. मही यावत् ७४थी " उत्पीडितशरासनपट्टकाः, पिनद्ध अवेयक. बद्धाबिद्धविमलवरचिह्नपट्टाः " 241 48ने सड थये। छे. या म्होनी व्याच्या આ અધ્યયનમાં જ પહેલાં કરવામાં આવી છે. આમાં કેટલાક ઘોડાઓ ઉપર, કેટલાક હાથીઓ ઉપર બેસીને તેમજ કેટલાક માણસોના સમૂહેથી પરિવૃત થઈને જ્યાં તે સુધર્મા, સભા અને જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યા. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे रण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण धार्यमाणेन श्वेतवरचामरैरुद्धूयमानः, हयगजरथपदाति संपरितो महाभटचटकरप्रकरण द्वारवत्या नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, यत्रैव पौरस्त्यवेला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पञ्चभिः पाण्डवैः सह 'एगयओ' बद्धाति, तएणं कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवर ह्यगय०महया भडचडगरपहकरेणं बारवईए णयरीए मज्झं मज्झेणं णिगच्छह, जेणेव पुरथिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचहिं पंडवेंहि सद्धिं एगयओ मिलइ, मिलित्ता खंधावा. रणिवेसं करेइ, करित्ता पोसहसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सुट्टियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ, तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुट्टिो आगओ भण देवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं ) वहां आकर उन सबने कृष्णवासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर बड़े विनय के साथ नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा वधाई दी। इसके बाद वे कृष्णवासुदेव हाथी पर सवार हुए। सवार होते ही छत्र धारियों ने उन पर कोरंट पुष्पों की माला से विराजित छत्र ताना, चामर ढोरने वालों ने उनपर श्वेत चामर ढोरना प्रारंभ करदिया। इस प्रकार हय, गज, रथ, एवं पैदलसेना से घिरे हुए वे कृष्णवासुदेव महाभटों के समूह के साथ २ द्वारावती नगरी के बीच से होकर निकले, निकलकर जहां वह लवणसमुद्र की पूर्व दिग्भागवर्तिनी वेला थी वहां पहुंचे। ( उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धाति, तएणं कण्हे वासुदेवे हत्थि खंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवर २ हयगय महया भडचडगरपहकरेणं वारबईए णयरीए मज्झं मज्ज्ञेणं णिगच्छइ जेणेव पुरथिमवेयाली तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता पंचहिं पंडवेंहि सद्धि एगयओ मिलइ, मिलित्ता खंधावारणिवेसं करेइ, करित्ता पोसहसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, सुट्ठियं देवं मणसिं करेमाणे २ चिट्ठइ, तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणं सि सुडिओ आगओ भणदेवाणुप्पिया ! जं मए कायव्यं) ત્યાં પહોંચીને તે બધાએ બંને હાથ જોડીને બહુ જ વિનમ્રતાથી નમસ્કાર કરતાં જયવિજય શબ્દોથી તેમને વધામણી આપી. ત્યારપછી તે કૃષ્ણવાસુદેવ હાથી ઉપર સવાર થયા. સવાર થતાં જ છત્રધારીઓએ તેમની ઉપર કેરટ પુપિની માળાથી શોભતું છત્ર તાર્યું તેમજ ચામર ઢેળનારાઓએ ચામર ઢળવાની શરૂઆત કરી. આ પ્રમાણે ઘેડા, હાથી, રથ અને પાયદળથી પરિવૃત્ત થયેલા તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ મહાભોના સમૂહની સાથે સાથે દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે થઈને પસાર થયા અને જ્યાં તે લવણું સમુદ્રને પૂર્વ કિનારો શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५०३ एकतः एकस्मिन् स्थाने मिलति, मिलित्वा स्कन्धावारनिवेशं सैनिकानामावासं करोति कृत्वा पौषधशालामनुप्रविशति, अनुपविश्य " सुट्टियं देवं " सुस्थितंसुस्थितनामानं देवं लवणसमुद्राधिष्ठितं मनसि कुर्चन् स्मरन् तिष्ठति, ततः खलु कृष्णस्य वासुदेवस्याष्टमभक्ते परिणममाणे सुस्थितो देव आगतः, आगत्य वदतिहे देवानुप्रियाः ! भणन्तु कथयन्तु यन्मया कर्तव्यमिति ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः मुस्थितदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभस्य भवने संहता, तत्-तस्मात् खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! मम पञ्चभि: पाण्डवैः साधं ' अप्पछट्ठस्स ' आत्मषष्ठस्य-आत्मा-अहं षष्ठो यत्र तस्य समुदायस्य-अस्माकं पण्णामित्यर्थः, पण्णां रथानां लवणसमुद्रे मार्ग वितर-देहि, येनाहम मरकङ्कां राजधानी द्रौपद्या देव्याः ‘कूवं ' प्रत्यानयनकर्तुं गच्छामि । वहां पहुँचकर वे पांच पांडवों के साथ एक स्थान पर संमिलित हुए। संमिलित होकर उन्होंने अपनी सेना को ठहर ने का स्थान नियत किया-स्थान नियतकर के फिर वे पौषधशाला में प्रविष्ट हो गये वहां प्रविष्ट होकर उन्हों ने लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित देव का स्मरण किया। इसके बाद जब कृष्णवासुदेव का अष्टमभक्त समाप्त हो रहा था-तय वह सुस्थित देव उनके पास आयो-और कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! कहिये-मेरे लायक क्या काम है ? (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! दोवई देवी, जाव पउमनाभस्स भवर्णसि साहरिया, तएणं तुमं देवाणुप्पिया मम पंचहि पंडवेहि सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जणं अहं अमरकंकारायहाणी दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से सुटिए देवे कण्हं હતે ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેઓ પાંચ પાંડેની સાથે એક સ્થાને એકત્ર થયા. એકત્ર થઈને તેમણે પોતાના સૈન્યના પડાવનું સ્થાન નકકી કર્યું. સ્થાન નકકી કરીને તેઓ પૌષધશાળામાં પ્રવિણ થયા. ત્યાં જઈને તેઓએ લવણ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવનું સ્મરણ કર્યું. ત્યારબાદ જ્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવને અષ્ટમ ભક્ત પૂરો થઈ રહ્યો હતો, ત્યારે તે સુસ્થિત દેવ તેમની પાસે આવ્યું અને કહેવા લાગ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! બેલે, મારા લાયક શું કામ છે ? (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया। दोवईदेवी, जाव पउमनाभस्स भवणंसि साहरिया, तएणं तुमं देवाणुप्पिया मम पंचहिं पंडवेहि सद्धिं अप्पछट्टस्स छण्डं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जणं अहं अमरकंका रायहाणी दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से मुहिए देवे कण्हें श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे 1 ततः खलु स सुस्थितो देवः कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत् — हे देवानुप्रिय ! किं खलु यथैव पद्मनाभस्य राज्ञः पूर्वसंगतिकेन देवेन द्रौपदी यावत् संहृता, तथैव द्रौपदीं देव घातकीपण्डाद द्वीपाद् भारताद् यावद् हस्तिनापुरं संहरामि । ' उदाहु उताहो ! =अथवा, कथय, पद्मनाभं राजानं सपुरबलवाहनं = नगर सैनिकवाहनसहितं लवणसमुद्रे क्षिपामि ? ततः खलु कृष्णो वासुदेवः सुस्थितं देवम् एववासुदेवं एवं बयासी किन्हं देवाणुपिया ! जहा चैव परमणाभस्स रनो पुव्वसंगइएणं देवेणं दोबई जाव संहरिया, तहा चेव दोवई देवि घायईसंडाओ दीवाओ भारहाओ जाब हत्थिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रासपुरचलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ? ) तब कृष्णवासुदेव ने उस सुस्थित देव से इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिय ! सुनो- द्रौपदी देवी योवत् पद्मनाभ के भवन में हरण कर रखी गई है इसलिये हे देवानुप्रिय ! तुम आत्मषष्ठ मेरे पांच पांडवो के साथ छहों रथों को लवण समुद्र में मार्ग प्रदान करो। अर्थात् पांच पांडवों के और छठे मेरे इस प्रकार हमारे छह रथों को जाने के लिये रास्ता दो कि जिससे मैं अमरकंका राजधानी में द्रौपदीदेवी को वापिस ले आने के लिये जा सकू । तब सुस्थित देव ने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार पद्मनाभ राजा के पूर्व संगतिक देवने द्रौपदीदेवी का यावत् हरण किया है, उसी तरह मैं भी द्रौपदी देवी को धातकी खंड द्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् हस्तिनापुर में हरणकर ला सकता हूँवासुदेवं एवं बयासी कि देवाणुपिया ! जहा चेव पउमणाभस्स रनो पुव्वसंगणं देवेणं दोबई जाव संहरिया, तहा चेव दोवई देवि धायईसंडाओ दवाओ भारहाओ जाब हत्थिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ? ) પ્રમાણે કહ્યું કે હૈ દેવાનુભવનમાં હરણુ કરાઈને રાખ , આત્મષ મારા તેમજ ત્યારે કૃષ્ણ-વાસુદેવે તે સુસ્થિત દેવને આ પ્રિય ! સાંભળેા, દ્રૌપદી દેવી યાવત્ પદ્મનાભના વામાં આવી છે. એટલા માટે હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમે પાંચે પાંડવાના છ રથાને લવણ સમુદ્રમાં થઇને પસાર થવા માટે માગ આપે. એટલે કે પાંચે પાંડવાના અને છઠ્ઠા મારા આમ છએ રથાને પસાર થવા માટે રસ્તા આપે. જેથી હું દ્રૌપી દેવીને પાછા લાવવા માટે અમરક કા રાજધાનીમાં જઈ શકે. ત્યારે સુસ્થિત દેવે તે કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! પદ્મનાભ રાજાના પૂર્વસંગતિક દેવે જેમ દ્રૌપદી દેવીનું યાવત્ હરણ કર્યુ છે, તેમજ હું પણ દ્રૌપદી દેવીને ધાતકી ખડદ્વીપના ભરત ક્ષેત્રમાંથી યાવત હસ્તિનાપુરમાં હરણ કરીને લાવી શકું તેમ છું' અને જો ९. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदचरितनिरूपणम् मवादीत्-मा खलु त्वं हे देवानुमिय ! यावत् संहर, स्वं खलु हे देवानुप्रिय ! लवणसमुद्रे आत्मषष्ठस्य पण्णां रथानां मार्ग 'वियराहि ' वितर=देहि, स्वयमेव खल्वहं द्रौपद्या देव्याः 'कू' प्रत्यानयनकर्तुं गच्छामि, ततः खलु स सुस्थितो अथवा-आपकी आज्ञा हो तो नगर, सैनिक, और वाहन सहित पद्म नाभ राजा को लवण समुद्र में डुबा दे सकता हूँ (तएणं कण्हे वासुदेवे सुट्टियं देवं एवं वयासी) जब कृष्णवासुदेव ने उस स्वस्तिक देव से इस प्रकार कहा-(माणं तुमं देवाणुप्पिया! जाव साहराहि तुमं णं देवाणुः प्पिया! लवणसमुद्दे अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियराहि सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से सुटिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं क्यासी, एवं होउ, पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरइ तएणं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीसेणं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीइवयइ, वीइवइत्ता जेणेव अमर कंका रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ ) हे देवानुप्रिय ! तुम ऐसा मत करो-अर्थात् पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी देवी को हरण मत करो, और न पद्मनाभ राजा को नगर, सैनिक एवं वाहन सहित लवणसमुद्र में प्रक्षिप्त करो, तुम तो केवल हे देवानुप्रिय ! हमारे छहों रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दे दो । मैं તમારી આજ્ઞા હોય તે નગર, સિનિક અને વાહન સહિત પદ્મનાભ રાજાને सपसमुद्रमा हुपाडी शतम छु. (तएणं कण्हे वासुदेवे सुद्वियं देवं एवं वयासी ) त्यारे ४५-पासुहेव ते ५स्ति वने ॥ प्रमाणे - (माणं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव साहराहि तुमं गं देवाणुपिया ! लवणसमुहे अप्पछट्टस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियराहि सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से सुटिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं बयासी, एवं होउ, पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणी सेणं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता पंचहिं पंडवेहि सद्धिं अप्पछडे छहि रहेहिं लवणसमुदं मज्ज्ञं मझेणं वीइवयइ, वीइवइत्ता जेणेव अमरकंका रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ ) હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ પ્રમાણે કરવાની તસ્દી લે નહિ એટલે કે પદ્મનાભના ભવનમાંથી દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરો નહિ તેમજ પદ્મનાભ રાજાને નગર, સિનિક અને વાહન સહિત લવણ સમુદ્રમાં ફે કે પણ નહિ. તમે તે હે દેવાનુપ્રિય ! ફક્ત અમારા છએ રથ માટે લવણ સમુદ્રમાં માર્ગ આપો. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे देवः कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत्-एवं भवतु इति, ततोऽसौ पञ्चभिः पाण्डवैः सार्धम् आस्मषष्ठस्य पण्णां स्थानां लवणसमुद्रे मार्ग वितरति ततः खलु स कृष्णो वासु. देवश्चतुरङ्गिणी सेनां प्रतिविसर्जयति, प्रतिविसयं पञ्चभिः पाण्डवैः सार्धमात्मा षष्ठः षड्भीरथैलवणसमुद्रं मध्मध्येन वीइवयइ' व्यतिव्रजति-गच्छति, व्यतिबज्य यौवामरकङ्का राजधानी, यौवामरकङ्काया अग्रोद्यानं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य रथं स्थापयति, स्थापयित्वा दारुकं सारथिं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-गच्छ खलु त्वं हे देवानुपिय ! अमरकङ्काराजधानोमनुपविंश, अनु. स्वयं ही द्रौपदी देवी को वहां से वापिस ले आऊँगा । अथवा मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को लेने के लिये जाऊँगो तब उस सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-अच्छा ऐसा ही हो-इस प्रकार कह कर उसने आत्म षष्ठ के छहों रथों को लवणसमुद्र में मार्ग वितरित कर दिया । तब कृष्णवासुदेव ने अपनी चतुरंगिणी सेना को वहां से वापिस करदिया वापिस कर फिर वे पांच पांडवों के साथ छहीं रथों को-१ एक अपने रथको और पांच पांडवोंके रथोंको-लेकर लवणसमुद्रके भीतरसे होकर चलने लगे। चलते २ वे जहां अमरकंका राजधानी थी और उसमें भी जहां वह अग्रोद्यान था वहां पहुँचे। ( उवाग्गच्छित्ता रहे ठवेइ) वहां पहुँच कर उन्होंने अपने रथ को रोक दिया-(रवित्ता दारुयं सारहिं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहि२, पउमणाभस्स रणो वामेणं पाएणं ત્યાં જઈને હું જાતે જ દ્રૌપદી દેવીને ત્યાંથી પાછી લઈ આવીશ. એટલે કે હું જાતે જ દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે જઇશ. ત્યારે તે સુસ્થિત દેવે કૃષ્ણવાસુદેવને કહ્યું કે સારું, આમ જ કરો. આ પ્રમાણે કહીને તેણે આત્મષષના છએ રથને લવણ સમુદ્રમાં રસ્તા આવે. ત્યારપછી કૃષ્ણ–વાસુદેવે પોતાની ચતરંગિણી સેનાને ત્યાંથી પાછી વળાવી દીધી અને પાછી વળાવીને તેઓ પાસે પાંડવોની સાથે છએ રથને-એક પિતાના રથને અને પાંચ પાંડવોના રથનેલઈને લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થવા લાગ્યા. આમ પસાર થતાં તેઓ જ્યાં અમરકંકા રાજધાની અને તેમાં પણ જ્યાં તે અગ્રોદ્યાન હતું ત્યાં પહોંચ્યા. ( उवागच्छित्ता रह ठवेइ) त्यां पडेयान तेभर पाताना २थने असे! यो. ( ठवित्ता दारुयं सारहिं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी, गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! अमरकंका रायहाणी अणुपविसाहि २ पउमणाभस्स रणो वामेणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतव पणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५०७ , " 6 प्रविश्य पद्मनाभस्य राज्ञो वामेन पादेन ' पायपीढ' पादपीठम् सिंहासन संलग्नसोपानम् आक्रम्य कुन्ताग्रेण लेखं प्रत्रिकां ' पणामेहि ' अर्पय = देहि अर्पयित्वा 'तिवलियं ' त्रिवलिक रेखात्रययुक्तां ' भिउडिं ' भ्रूकुटिं - ' गिड़ाले ' ललाटे ' साह ' संहत्य - उन्नीय ' आसुरुते आशुरुप्तः = शीघ्रं क्रोधाविष्टः ' रुङ्कं ' रुष्टः कुद्धे ' क्रुद्धः ' कुविए ' कुपितः चंडिक्किए ' चाण्डिक्यितः - रोषयुक्तः, एवमवादीत् - हं भो ! पद्मनाभ ! ' अपत्थियपत्थिया' अमार्थितप्रार्थित ! - मरवाञ्छक ! ' दुरंत पंतलक्खण ! दुरन्तमान्तलक्षण ! पूर्वं व्याख्यातमेतत्, पायपीढं अकमित्ता कुंत्तग्गेणं लेहं पणामेहि, तिवलियं भिउडिं णिडाले साह आसुरुते रुट्ठे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं वयासी हंभो पउमणाहा अपत्थिय पत्थिया ! दुरंत पंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउछसा ! सिरिहिरि धी परिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि किन्न तुमं ण याणासि, कण्हस्स वासुदेवस्स अहवणं जुद्धसज्जे णिगच्छाहि) रथ को रोककर वहां स्थापित कर - दारुक सारथि को बुलाया बुलाकर के उससे ऐसा कहाहे देवानुप्रिय तुम जाओ - अमरकंका राजधानी में जाओ वहां जाकर पद्मनाभ राजाके पादपीठको वाम पादसे आक्रमित कर कुन्त ( भाला) के अग्रभाग से उसे पत्रिका दो देकर के अपनी भ्रुकुटी को भालपर चढा - कर, इकदम गुस्से में आकर, रुष्ट, कुपित एवं क्रुद्ध होकर क्रोध के आवेश से तमतमाते हुए तुम उससे ऐसा कहीं- अरे ओ पद्मनाभ ! अप्रार्थित प्रार्थित ! मरणवाञ्छक ! दुरंतप्रान्त लक्षण ! मालुम होता है पाणं पायपीढं अक्कमित्ता कुंत्तग्गेणं लेहं पणामेहि, तिवलियं भिउडिं गिडाले साहहु आसुरुते रुट्ठे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं वयासी हं भो पउमणाहा ! अपत्थियपत्थिया ! दुरंतपंतलक्खणा : हीणपुण्णचाउदसा ! सिरि हिरिधी परिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि किन तुमं ण याणासि, कण्हस्स वासुदेवस्त अहवणं जुद्रसज्जे णिगच्छा हि ) રથને ઊભેા રાખીને, ત્યાં જ રથને મૂકીને દારૂક સારથિને મેલાવ્યો. અને ખેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે અમરકંકા રાજધાનીમાં જાઓ અને ત્યાં જઇને પદ્મનાભ રાજાના પાદપીઠને ડાબા પગથી આક્રમિત કરીને કુતના અગ્ર ભાગથી તેને પત્રિકા આપે. પત્રિકા આપીને તમે પાતાની ભમ્મર ચઢાવીને, એકદમ લાલચેાળ થઇને રૂ, કુષિત અને કૃ થઈને ક્રોધના આવેશમાં આવીને તેને આ પ્રમાણે કહેા કે અરે એ પદ્મનાભ ! અપ્રાર્થિત પ્રાર્થિત ! મરણ વાંક ! દુરંત પ્રાંત લક્ષણ ! ( નીચ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ' हीणपुनचाउद्दसा !' हीनपुण्यचातुर्दशिकः - अलब्धपुण्यचातुर्दशिकजन्मा, चतुर्दशीजातो हि भाग्यवान् भवति । तथा-' सिरी हिरि धी परिवज्जिया !' श्री हो धी परिवर्जित ! लक्ष्मी लज्जा बुद्धि रहित !, अद्य न भवसि, किं खलु त्वं न जानासि, कृष्णस्य वासुदेवस्य भगिनी द्रौपदी देवीमिह 'हव्वं आणमाणे' हव्यमानयत् , 'तं' तत्-तस्मात् 'एयमपि ' एतामपि-आनीतामपि आङ् पूर्वकाद् इण्गतौ ' इत्यस्मात् क्त प्रत्ययः, ' अहव ' अथवा खलु ‘जुद्ध सज्जे ' युद्धसज्जः-युद्धाय सज्जः सन्नद्धः सन् ‘णिग्गच्छाहि' निर्गच्छ-बहिनिःसर एष खलु कृष्णो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सह 'अप्पछट्टे' आत्मषष्ठः आत्मा षष्ठो यत्र स समूहे, द्रौपदी देव्याः ' कूवं' प्रत्यानयनं कर्तु हव्यमागतः । तू अलब्ध पुण्य चातुर्दशिक जन्म वाला है-तू-चतुर्दशी में उत्पन्न हुआ नहीं हैं-क्यों कि चतुर्दशी के दिन उत्पन्न हुआ व्यक्ति भाग्यशाली होता है किन्तु तूं ऐसा नहीं है अर्थात् अभागा है तूं श्री ही, बुद्धि से रहित है। याद रख-या तो आज तूं नही है या मैं नहीं हूं तुझे यह ख्याल नहीं है-कि यह द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव की बहिन है जिसे तूंने यहां हरण करवा कर मंगवाई है । अतः यदि अपनी कुशल चाहता है, तो तू इस हरण करवा कर अपने यहां मंगवाई गई द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव के पास जाकर पीछे वापिस पहुँचा दे। नहीं तो युद्ध के लिये सज्जित होकर घर से बाहिर निकल आ । (एसणं कण्हे वासुदेवे ) ये कृष्ण वासुदेव (पंचहिं पंडवेहिं अप्पछट्टे दोवई देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं से दारुए सारही कण्हे णं वासुदेवे णं एवं बुत्ते વિચારો તેમજ નીચ લક્ષણ યુક્ત) અમને એમ લાગે છે કે તું અલબ્ધ પુય ચાતુર્દશિક જન્મવાળે છે, એટલે કે તું ચૌદશને દિવસે જ નથી કેમકે ચૌદશને દિવસે ઉત્પન્ન થનારી વ્યક્તિ ભાગ્યશાળી હોય છે. તે શ્રી, હી અને બુદ્ધિ વગરને છે. ખરેખર સાંભળી લે કે આજે કાં તો તું નહિ કે કાં હું નહિ. તને એટલી પણ ખબર નથી કે આ દ્રૌપદી દેવી કૃષ્ણ–વાસુદેવની બહેન છે-કે જેને તેં હરણ કરાવીને અહીં મંગાવી છે. હવે જે તે પિતાનું ભલું ઈચ્છતો હોય તે તું આ હરણ કરાવીને પિતાને ત્યાં રોકી રાખેલી દ્રોપદી દેવીને કૃષ્ણ–વાસુદેવની પાસે જઈને પાછી મેંપી દે. નહિતર યુદ્ધના માટે तयार ४२ महा२ मेहानमा भावी .(एस णं कण्हे वासुदेवे) ॥ वासुदेव (पंचहिं पंडवेहि अप्पछट्टे दोवई देवीए कूवं हब्ब मागए, तएणं से दारुए શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५०२ ततः खलु स दारुकः सारथिः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टो यावत् प्रतिशृणोति ' तथाऽस्तु' इति कृत्वाऽऽज्ञां स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य-अमरकङ्काराजधानीमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव पद्मनाभस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा यावद् वर्धयति-जयेन विजयेन चाभिनन्दयति । वर्धयित्वा-अभिनन्ध एवमवादी-एषा खलु हे स्वामिन् ! मम विनयप्रतिपत्तिः इयमन्या मम स्वामिनो विनयप्रतिपत्तिः, "समुसमाणे हद्वतुढे जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, अमरकंका रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, करयल जाव बद्धावेत्ता एवं वयासी-एसणं सामी मम विणयपडिवित्ती, इमा अन्नी मम सामिस्स समुहाणत्ति त्ति कट्टु असुरुत्ते नाम पाएणं पायपीढं अणुक्कमइ ) पांच पांडवों के साथ आत्म षष्ठ होकर द्रौपदी देवी को लेने के लिये अभी अभी आये हुए हैं । इस प्रकार कृष्णवासुदेव के द्वारा कहे गये उस दोरुक सारथि ने हृष्ट तुष्ट होकर कृष्णवासुदेव की आज्ञा स्वीकार करली। स्वीकार कर के फिर वह अमरकंका राजधानी में प्रवेश किया वहां प्रवेश कर वह वहां पहुंचा जहां पद्मनाभ राजा थे। उनके समीप जाकर उस ने पहिले उन्हें दोनों हाथों की अंजलि बना कर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया-जय विजय शब्दों से उन्हें बँधाया-बाद में उसने इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-हे स्वामिन् ! यह तो मेरी विनय प्रतिपत्ति है-दूत सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे हटतुट्टे जाव पडिमुणेइ पडिमुणित्ता, अमरकंका रायहाणि अणुपचिसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाहे तेणेब उवागच्छइ, उवागच्छित्ता,करयल जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एस णं सामी मम विणयपडिवित्ती, इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्ति त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अणुक्कमइ) પાંચ પાંડવોની સાથે આત્મષષ્ટ થઈને દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે અત્યારે આવી ગયા છે. આ પ્રમાણે કૃષ્ણ-વાસુદેવ વડે કહેવામાં આવેલાં વચનો સાંભળીને હૃષ્ટ-તુષ્ટ થઈને તે દારુક સારથીએ તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. સ્વીકારીને તે અમરકંકા રાજધાનીમાં પ્રવિષ્ટ થયે. પ્રવિષ્ટ થઈને તે જ્યાં પદ્મ. નાભ રાજા હતા તેમની પાસે જઈને સૌ પહેલાં તેણે બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યો અને જય વિજય શબ્દથી રાજાને વધામણી આપી. ત્યારપછી તેણે આ પ્રમાણે કહેવાની શરૂઆત કરી કે હે સ્વામી ! આ તે મારી વિનય પ્રતિપત્તિ છે. દૂતની ફરજ બજાવતાં મેં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे ५१० " I , हात्ति " स्वमुखाइप्तिः स्वमुखेन कथिता आज्ञप्तिः- आज्ञा' इति कृत्वा 'आसु रुते ' आशुरुप्तः शीघ्रं क्रोधाविष्टः वामपादेन पादपीठं ' अणुकमइ' अनुक्रामति, अनुक्रम्य कुन्तायेण लेख-पत्रिकां ' पणामह ' अर्पयति । अर्पयित्वा यावत् ' कूवं ' प्रत्यानयनं कर्तु हव्यमागतः । ततः खलु स पद्मनाभो दारुकेण सारथिना एवमुक्तः सन् अशुरुप्तः = शीघ्रः क्रोधाक्रान्तं, त्रिवलिकां रेखात्रययुक्तां अकुर्टि- ' निडाले ' ललाटे - भालप्रदेशे 'साइड' संहत्य - उन्नीय, एवमवादीत्नो अर्पयामि खलु अहं हे देवानुमिय कृष्णस्य वासुदेवस्य द्रौपदीम् एष खलु अहं स्वयमेव युद्धसज्जो निर्गच्छामि = अधुनैव युद्धार्थं बहिर्निःसरामि इतिकृत्वा के कर्तव्य अनुसार मैंने यह आपको नमस्कार किया है जय विजय आदि शब्दों द्वारा बधाई दी है परन्तु मेरे स्वामीकी उनके मुखसे आपके लिये जो आज्ञा दी गई है वह दूसरी है और वह इस प्रकार है - इस प्रकार अपने मुख से कहकर वह शीघ्र कोध से भर गया, और वामपाद से उसके पादपीठ पर चढ गया । (अवक्कमित्ता) चढकर फिर ( कौतग्गेणं लेहं पणामह) फिर उसने उसके लिये कुन्त के अग्रभाग से पत्रिका अर्पित की। ( पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए ) पत्रिका अर्पित करके यावत् कृष्णवासुदेव पांचों पांडवों के साथ यहां द्रौपदी देवी को वापिस लेने के लिये हव्व-अभी अभी-आये हैं यह सब समाचार उसे सुनादिया । (तएण से पमणाभे दारुणं सारहिणा एवंवुत्ते समाणे आसु रुते त्तिवलि भिउडिं निडाले साहद्ध एवं वयासी णो अप्पिणामि, णं अहं देवाणुपिया ! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई, एस णं अहं सयमेव વિનયેાપચાર માટે નમસ્કાર કર્યાં છે તેમજ જય વિજય વિજય શબ્દો દ્વારા તમને વધામણી આપી છે. પરંતુ મારા સ્વામીએ તેમના મુખથી તમારે માટે જે કઈ આજ્ઞા આપી છે તે કઇંક ખીજીજ છે અને તે આ પ્રમાણે છે કેદ્ભુત આમ કહીને એકદમ ક્રોધમાં લાલચેાળ થઈ ગયા અને ડાબા પગથી तेना पाहासन उपर थदी गया. ( अवक्कमित्ता ) थढीने (कॉतग्गेणं लेहं पणा• मइ ) तेथे रामने हुंत (लासा ) ना अग्रभागथी पत्रा साथी ( पणामित्ता जब कूव हव्यमागए ) पत्रिा साथीने यावत दृष्णु-वासुदेव यांचे पांडवानी સાથે અહીં દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે અત્યારે આવ્યા છે. આ જાતના બધા સમાચાર તેને કહી સંભળાવ્યા. (तर से पउमणाभे दारुयेणं सारहिणा एवं वृत्ते समाणे आसुरुते ति बलि भिउडि निडाले साइड एवं वयासी-गो अपिणामि, णं अहं देवाणुपिया ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी डी० अ० १६ द्रौपदचरितनिरूपणम् दारुकं सारथिमेवमवादीत् " केवलं भोः !' रायसत्सु ' राजशास्त्रेषु - राजनीतिषु दूतः ' अबज्झे ' अवध्यः== न हन्तव्यः इत्युक्तमस्ति तस्मात् त्वां मुञ्चामि इति कृत्वा = इत्युक्त्वा तं दृतम् असत्कार्य, असम्मान्य अपद्वारेण ' णिच्छुभावेइ' निक्षोभयति-निष्कासयति, ततः खल्लु स दारुकः सारथिः पद्मनाभेनासत्कार्य यावत् - ' णिच्छूढे' निक्षोभितःनिःसारितः समाणे ' सन् यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा कृष्णं यावद् एवमवादीत् जुद्धसज्जो निगच्छामि, त्ति कटु दारुयं सारयं एवं वयासी केवलं भो रायसत्ये दूये अबज्झे न्ति कटु असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेह ) तय वह पद्मनाभ जब दारुक सारथि ने इस प्रकार कहा तो इकदम क्रोधित होकर त्रिवलि युक्त भ्रकुटि को माथे पर चढा कर इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिय ! मैं द्रौपदी को कृष्णवासुदेव के लिये अर्पित नहीं करता हूं-पीछी नहीं देता हूंइसके लिये मैं अभी स्वयं ही युद्ध करने को तैयार हूँ। इस प्रकार कहकर फिर उसने उस दारुक सारथि से ऐसा कहा अरे ! राजनीति के शास्त्रों में दून अवध्य कहा गया है - इस लिये तुझे छोड़ देता हूँ । इस तरह कहकर उसने दूत को असत्कृत और असंमानित कर पीछे के दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया ! (तरणं दारुए सारही परमणाभे णं असक्कारिय जाव णिच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा कण्डस्स वासुदेवस्स दोवई, एसणं अहं सयमेव जुद्धसज्जो णिगच्छामि ति दारुयं सारहिं एवं बयासी - केवलं भो ! रायसत्थेसु दूये अबज्झे त्ति कटु असक्कारिय सम्माणिय अवधारेणं णिच्छ भावे ) कट्टु ५११ દારુક સારથિના આ પ્રમાણે વચા સાંભળીને પદ્મનાભ એકદમ ક્રોધમાં લાલચેાળ થઈ ગયા. અને ભમ્મરા ચઢાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! હું કૃષ્ણ-વાસુદેવને દ્રૌપદી કાઇપણ સ્થિતિમાં સોંપવા તૈયાર નથી. એના માટે હું અત્યારે પણુ યુદ્ધ કરવા તૈયાર છું. આ પ્રમાણે કહીને તેણે દારુક સાથીને કહ્યું કે અરે ! રાજનીતિના શાસ્ત્રોમાં કૃત મધ્ય કહેવામાં આવ્યા છે એથી તને જતા કરૂં છું. આ પ્રમાણે કહીને તેણે દૂતને અસત્કૃત અને અસમાનિત કરીને પાછલા ખારણેથી બહાર કઢાવી મૂકયા. (तरणं दारू सारही पउमणाभेणं असक्कारिय जाव णिच्छढे समाणे जेणेव कण्णे वासुदेवे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाव एवं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे एवं खलु अहं हे स्वामिन् ! युष्माकं वचनेन यावत् — णिच्छुभावेइ ' निक्षोभयतिपद्मनाभः क्रोधाविष्टः सन् द्रौपदी न दास्यामीत्युक्त्वा दूतो न हन्तव्य इति कृत्वा मामसत्कार्य, असंमान्यापद्वारेण निःसारयति स्म ' इत्यर्थः ॥ २८ ॥ मूलम्-तएणं से पउमणाभे बलवाउयं सदावेइ सदावित्ता एवं क्यासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। आभिसेक हस्थिरयणं पडिकप्पेह, तयाणंतरं च णं से बलवाउए छेयायरियउवदेसमइविकप्पणा विगप्पेहिं निउणेहिं जाव उवणेइ, तएणं से पउमनाहे सन्नद्ध० अभिसेयं दूरुहइ दूरहित्ता हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं रायाणं एजमाणं पासइ पासित्ता तं पंच पंडवे गच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाव एवं वयासी-एवं खलु अहं सामी? तुम्भं क्यणेणं जाव णिच्छुभावेइ) इस प्रकार जब वह दारुक सारथि पद्मनाम के द्वारा असत्कृत यावत् होकर बाहिर निलवा दिया, तब वह वहां से चलकर जहां कृष्णवासुदेव थे वहां आया। वहां आकर उसने दोनों हाथों की अंजलि बनोकर और उसे मस्तक पर रखकर कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ? मैंने पद्मनाभ राजा से आपके वचन जैसे ही कहे वैसे ही उसने "क्रोध में आकर" मैं नहीं दूगा, दूतमारने योग्य नहीं होता है-इत्यादि कहकर मुझे असत्कृत एवं असंमानित कर अपने यहां से पीछे के दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया है। सूत्र २८॥ वयासी-एवं खलु अहं सामी ! तुम्मं वयणेणं जाव णिच्छुभावेइ ) આ પ્રમાણે જ્યારે તે દારુક સારથિ પદ્મનાભ રાજા વડે અસત્કૃત યાવત અસંમાનિત થઈને બહાર કઢાવી મૂકાયે ત્યારે તે ત્યાંથી બહાર આવીને જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે બંને હાથથી અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી ! પા નાભ રાજાને મેં જ્યારે તમારે સંદેશ કહી સંભળાવ્યું. ત્યારે સાંભળતાંની સાથે જ તે ક્રોધમાં ભરાઈને “હું દ્રૌપદી દેવી પછી આપીશ નહિ, યાવત દૂત અવધ્ય હોય છે. ” વગેરે વચનેથી અસકૃત તેમજ અસંમાનિત કરીને મને તેણે પિતાના ભવનના પાછલા બારણેથી બહાર કઢાવી મૂકે છે. એ સ. ૨૮ છે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५१३ एवं वयासी-हं भो दारगा! किन्नं तुब्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह ?, तएणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--अम्हे गं सामी ! जुज्झामो तुन्भे पेच्छह तएणं पंच पंडवे सण्णद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहति दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी--अम्हे वा पउमणाभे वा रायत्तिकद्दु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तएणं से पउमनाभे राया तं पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहिय पवर निवडिय चिन्धद्ध्यपडागा जाव दिसोदिसि पडिसेहेइत्ति, तएणं ते पंच पंडवा पउमनाभणं रन्ना हयमहियपवरनिवडिय जाव पडिसेहिया समाणा अत्थामा जाव आधारणिजत्तिकटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएणं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी--कहाणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पउमणाभेणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा ?, तएणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरुहामोर जेणेव पउमनाभे जाव पडिसेहेइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे तं पंच पंडवे एवं वयासो--जइ णं तुब्भे देवाणु. प्पिया ! एवं वयंता अम्हे णो पउमणाभे रायत्तिकटु पउमना. भेणं सद्धिं संपलग्गं ताओ णं तुब्भे णो पउमणाहे हयमहियपवर जाव पडिसेहते, तं पेच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अहं नो पउमणाभे रायत्तिक? पउनाभेणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि रहं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दुरुहइ दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहारधवलं तणसोल्लियसिंदुवारकुंदेंदुसनिगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचजण्णं संखं परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपुरियं करेइ, तएणं तस्स पउमणाहस्स तेणं संखसदेणं बलइभाए हयजाव पडिसेहिए, तएणं से कण्हे वासुदेवे धऍपरामुसइवेढो धणुं पूरेइ पूरित्ता धणुसदं करेइ, तएणं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बलइभाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय जाव पडिसेहिए, तएणं से पउमणाभेराया तिभागबलावसेसे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जत्तिकट्ट सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं अणुपविसइ अणुपविसित्ता दाराइं पिहेइ पिहित्ता रोहसज्जे चिटइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता वेउब्वियसमु. ग्घाएणंसमोहणइ,एगं महं णरसीहरूवं विउव्वइ विउवित्ता महया महया सद्देणं पादददरयं करेइ, तएणं से कण्हेणं वासुदेवेणं महया महया सद्देणं पादददरएणं कएणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागारगोपुराट्टालयचरियतोरणपल्हस्थियपवरभवणसिरिघरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया, तएणं से पउमणाभे राया अमरकंकं रायहाणि संभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवईए देवीए सरणं उवेइ तएणं सा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् दोवईदेवी पउमनाभं रायं एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! न जाणसि कण्हस्त वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इहं हवमाणेसि, तं एवमवि गए गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! पहाए उल्लपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिबुडे अग्गाइं वराइं रयणाई गहाय ममं पुरओ काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला गं देवाणुप्पिया ! उत्तमपुरिसा, तएणं से पउमनाभे, दोवइए देवीए एयम पडिसुणेइ पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उवेइ उवित्ता करयल० एवं वयासी-दिहाणं देवाणुप्पियाणं इड्डी जावपरक्कमे तं खाममि णं देवाणुप्पिया! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुज्जोर एवं करणयाएत्तिकह पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइं देवि साहत्थि उवणेइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी-हं भो पउमणाभा ! अप्पत्थियपत्थिया४ किण्णं तुमं ण जाणसि मम भगिणिं दोवइंदेवीं इह हव्वमाणमाणे तं एवमवि गए णस्थि ते ममाहितो इयाणिं भयमत्थि त्तिकठ्ठपउमणाभं पडिविसजेइ पडिविसजित्ता दोवई देवि गिण्हइ गिण्हितारहं दुरूहेइ दुरूाहित्ता जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवइं देवि साहत्थिं उवणेइ,तएणं से कण्हे पंचहि पंडवेहि सद्धिं अप्पछट्टे छहिं रहेहि लवणसमुई मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबूद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २९॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स पद्मनाभः 'बलवाउयं ' बलव्यापृतं-सैन्यनायकं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'आभिसेकं' आभिषेक्यं प्रधानं हस्तिरत्नं ' पडिकप्पेह' प्रतिकल्पय सुसज्जितं कुरु, तदनन्तरं च स बलव्यापृतः खलु " छेयायरियउवदेसमइविकप्पणाविगप्पेहिं " छेकाचार्योपदेशमतिविकल्पनाविकल्पैः-तत्र छेक:-निपुणः, आचार्य:-कलाशिक्षकः, तस्योपदेशाद् या मति द्विस्तस्या विकल्पना-विचारणा, तज्जनितो विकल्पः-विशिष्ट रचनाशक्तिर्येषां तः, 'जाव उवणेइ ' यावद् उपत -तएणं से पउमणामे इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से पउमणाभे) उन पद्मनाभ राजा ने (बलवाउयं सद्दावेइ ) अपने सैन्य नायक को बुलाया (सद्दावित्ता) और बुलाकर फिर उससे ( एवं क्यासी) इस प्रकार कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह ) हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही प्रधान हस्तिरत्न को सुसज्जित करो। (तयाणंतरं च णं से बलवाउए छेयायरिय उवदेसमा विकप्पणा विगप्पेहिं निउणेहिं जाव उवणेइ ) इसके बाद उस सैन्य नायक ने निपुणकला शिक्षक के उपदेश से प्राप्त बुद्धि की कल्पना से उत्पन्न हुई है विशिष्ट रचना की शक्ति जिन्हों को ऐसे मनुष्य से कि जो शोभा करने में अत्यन्त निपुण थे उस हस्तिरत्न को सुसज्जित करवाया। जब उन्हों ने उस हस्तिरत्न को चमकीले निर्मल वेष से शीघ्र परिवस्त्रित-करदिया । वस्त्राच्छादन द्वारा तएणं से पउमणाभे इत्यादि -(तएणं) त्या२५छी (से पउमणाभे) ते पनाम सलमे (बलवाउय' सहावेइ) पोताना सैन्य नायने मोसाव्या. (सदावित्ता ) भने मासावीनतेने ( एवं क्यासी) मा प्रमाणे द्यु (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेह) वानुप्रिय ! तमे सत्वरे प्रधान हस्तिरत्नने सुस २१. ( तयाणतर च ण से बलवाउए छेयायरियउवदेसमइविकप्पणा विगप्पेहि निउणेहिं जाव उवणेइ ) त्या२५छी ते सैन्य नाय? निपुण शिक्ष. કના ઉપદેશથી જેમણે વિશિષ્ટ રચના માટે બુદ્ધિ તેમજ કલ્પના શક્તિ મેળવી છે. તેમજ શ્રેગાર કલામાં જેઓ અતીવ ચતુર છે તેવા માણસો વડે હસ્તિનને સુસજિજત કરાવ્યું. જ્યારે સત્વરે તેમણે તે હસ્તિરત્નને ચમક્તા નિર્મળ વેષથી પરિવત્રિત કરી દીધે-વઆચ્છાદન વડે આચ્છાદિત કરીને સશે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् यति-अत्र यावच्छब्देनैवं बोध्यम्-सुनिउणेहि नरोहिं हत्थिरयणं परिकप्पेइ, उज्जलनेवत्थ हव्यपरिवत्थियं सुसज्ज इत्यादि परिकप्पित्ता' इति सुनिपुणैः शोभा करणचतुरैः, नरै स्तिरत्नं परिकल्पयति-शोभयति किं भूतं हस्तिरत्नं-उज्ज्वलनेपथ्यहव्यपरिवत्रितं उज्ज्वलनेपथ्येन-द्युतिमनिमलवेषेण शीध्र परिवस्त्रितः वस्त्राच्छादनमुशोभितः, तथा-सुसज्ज-घण्टाभरणादिभिः समलङ्कृतं, एवं परिकल्प्य सबलव्यापूतः पद्मनाभनृपस्यान्तिके तं हस्तिरत्नमुपनयति, आनयति । ततः खलु स पद्मनाभः सन्नद्धवद्धवर्मितकवचः - आभिषेक्यं हस्तिरत्नं दूरोहतिआरोहति दूह्य हयगजरथपदातिपरिवृतः यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैव प्राधारयद् गमनाय। ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मनाभं राजानम् एजमानम् आगच्छन्तं पश्यति । दृष्टा च तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवदत-हं भो ! दारकाः भो वत्साः ! आच्छादित कर सुशोभित करदिया-अर्थात्-झूल वगैरह डालकर उसे बहुत अच्छी तरह सजा दिया, तथा घंटा आभरण आदि से उसे अलं. कृत कर दिया, तब वह सैन्य नायक उस हस्ति रत्न को लेकर पद्मनाभ राजा के पास पहुँचा (तएणं से पउमणामे सन्नद्ध० अभिसेय० दूरुहइ, दूरहित्ता हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाणं एजमाणं पासइ पासित्ता ते पंच पंडवे एवं वयासी) इसके बाद वह पद्मनाभ राजा सन्नद्ध, बद्ध, वर्मित कवच वाला होकर उस प्रधान हस्तिरत्न पर आरूढ हो गया और आरूढ होकर हय, गज, रथ, एवं पैदल सैन्य को साथ लेकर जहां कृष्णवासुदेव थे उस और चल दिया। जब कृष्णवासुदेव ने पद्मनाभ राजा को आता हुआ देखा तो देखकर उन्हों ने पांच पांडवो से ऐसा कहा-(हं भो ભિત કરી દીધું એટલે કે સ્કૂલ વગેરે નાખીને બહુ જ સરસ રીતે સુસજિજત કરી દીધો તેમજ ઘંટ, આભરણે વગેરેથી તેને અલંકૃત કરી દીધું. ત્યારે તે સૈન્ય નાયક તે હસ્તિરત્નને લઈને પદ્મનાભ રાજાની પાસે ગયે. (तएणं से पउमणाभे सन्नद्ध० अभिसेय० दुरुहइ दूरूहित्ता हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाणं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता ते पंच पंडवे एवं वयासी) ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કવચ તેમજ બીજા શસ્ત્રોથી સજજ થઈને તે પ્રધાન હસ્તિર ઉપર સવાર થઈ ગયો અને સવાર થઈને ઘોડા, હાથી. રથ અને પાયદળ સેનાને સાથે લઈને કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા તે તરફ રવાના થ, કૃષ્ણ-વાસુદેવે જ્યારે પનાભ રાજાને આવતા જોયે ત્યારે તેને જોઈને પાંચે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ज्ञाताधर्मकथासूत्र किं खलु यूयं पद्मनाभेन सार्ध 'जुज्झिहिह ' युध्यथ ! ' उयाहु ' उताहो-अथवा 'पेच्छिहिह ' प्रेक्षध्वे, ? ततः खलु ते पञ्च पाण्डवा कृष्णं वासुदेवमेवमवादोत्-वयं खलु हे स्वामिन् ! युध्यामः, यूयं प्रेक्षध्वम् । ततः खलु पञ्च पाण्डवाः सन्नद्रवद्धवर्मितकवचा यावद् गृहीतायुधप्रहरणाः रथान् स्व स्व रथोपरि दोहन्ति आरोहन्ति दूरोह्य यत्रैव पद्मनाभो राजा तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य एवमवदन्-'अम्हे वा पउमणामे वा राया' वयं वा भवामः पद्मनाभो वा राजा, इति दारगा! किन्नं तुम्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उयाह पेच्छिहिह ? तएणं ते पंडवा कण्णं वासुदेवं एवं वयासी) हे वत्सो! क्या तुमलोग पद्मनाभ के साथ युद्ध करोगे-या युद्ध को देखोगे? तब उन पांडवो ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-(अम्हेणं सामी ! जुज्झामो, तुब्भे पेच्छह, तएणं पंच पंडवे सन्नद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहंति, दुरुहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एवं वयासी, अम्ह वा पउमणाभे वा रायत्ति कटूटु पउमणाभेणं सद्धिं संपलग्गा यावि होस्था) हे स्वामिन् ! हम तो युद्ध करेंगे-आप उस का निरीक्षण करें। इसके बाद वे पांचो पांडव सन्नद्धबद्धर्मित कवचवाले होकर यावत् आयुध प्रहरणों को ले २ कर अपने २ रथों पर सवार हो गये। सबार होकर फिर वे जहां पद्मनाभ राजा थे-उस और गये-वहां जाकर उन्हों ने पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-यो तो आज हम नहीं या पद्मHisवाने 21 प्रमाणे यूं-(हं भो दारगा ! किन्नं तुब्भे पउमनाभेण सद्धि जज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह ? तएणं ते पंच पंडवा कण्ह वासुदेव एवं वयासी) હે વત્સ શું તમે પદ્મનાભ રાજાની સાથે મેદાને ઉતરશે ? કે ફક્ત યુદ્ધને જોશે છે ત્યારે તે પાંડાએ કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે – ( अम्हेणं सामी ! जुज्झामो, तुब्भे पेच्छह, तएणं पंच पंडवे सन्नद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहंति, दुरूहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छंति, उवा. गच्छित्ता एवं वयासी, अम्हे वा पउमणाभे वा रायत्ति कटु पउमणाभेणं सद्धि संपलगा यावि होत्था) હે સ્વામી! અમે તે યુદ્ધ ખેડીશું, તમે અમારા યુદ્ધને જુઓ. ત્યાર પછી તે પાંચ પાંડ કવચથી સુસજજ થઈને આયુધ પ્રહરણોને લઈને પિત. પોતાના રથ ઉપર સવાર થઈ ગયા. સવાર થઈને તેઓ પદ્મનાભ રાજા તરફ રવાના થયા. પદ્મનાભ રાજાની પાસે પહોંચીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે “આજે કાં તો અમે નહિં અને કાં પદ્મનાભ નહિં. ” આમ કહીને તેઓ પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધ કરવા લાગ્યા. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदचरितनिरूपणम् ५१९ कृत्वा इत्युक्त्वा-पद्मनाभेन सार्ध योद्धु संपलग्नाश्चाप्यभवन् , ततः खलु स पद्म नाभो राजा तान् पश्च पाण्डवान् क्षिप्रमेव 'हयमहियपवरनिवडियचिन्धद्धयपड़ागा' हयमथितमवरनिपतितचिह्नध्वजपताकान्-तत्र हयाः-अश्वा मथिताः-पीडिताः, प्रवरा:-प्रशस्ताः, चिह्नध्वजपताका निपातिता येषां तान् , शस्त्रास्त्रप्रहारजनित प्राप्तान इत्यर्थः, यावद् दिशो दिशं सर्वतः ‘पडिसेहेइ' प्रतिषेधयति-प्रतिनिवर्तयति स्मेत्यर्थः । ततः खलु ते पश्च पाण्डवाः पद्मनाभेन राज्ञा हयमथितप्रवरनिप. तित यावत् प्रतिषेधिताः सन्तः ‘अत्थामा' अस्थामान:-बलरहिताः, 'जाव अधारणिज्जा' अत्र यावच्छब्देन-'अबला अवीर्या' इत्यनयोः संग्रहः । अबलाःनाभ राजा ही नहीं" ऐसा कहकर वे पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करने में संलग्न हो गये । (तएणं से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहियपवर निवडिय जाव पडिसेहिया, समाणा, अत्थामा जाव अधारणिज्ज त्ति कटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएणं से वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी कहण्णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पउमनाभेणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा? तएणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणा सनद्ध० रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमणाभे जाव पडिसेहेइ ) तब पद्मनाभ राजा ने उन पांचो पांडवो को बहुत जल्दी पीडित घोडों वाला एवं निपातित प्रशस्त चिह्नध्वज पताका वाला कर दिया। यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा में जाने से भी उन्हें रोक दिया अथवा-एक दिशा से दूसरी दिशा में खदेड दिया। इस तरह वे पांचो पांडव पद्मनाभ राजा के द्वारा पीडित घोडोवोले, एवं निपातित प्रशस्त चिह्न ध्वज पताका वाले जब बन गये और एक दिशा से दूसरी दिशा में जाने से रोक दिये गये-अथवा खदेड़ दिये गये तब बलरहित बनकर यावत् (तएणं से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव यमहियपवरं निवडिय जाव पडिसेहिया समाणा, अत्थामा जाव अधारणिज्ज ति कटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तएणं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी कहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! पउमनाभेणं रन्ना सद्धि संपलग्गा ? तएणं ते पंचपंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुब्भेहिं अब्भणुनाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमणाभे जाव पडिसेहेइ ) ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ તે પાંચે પાંડને થડા વખતમાં જ પીડિત ઘોડાઓવાળા તેમજ નિપતિત પ્રશસ્ત વિશ્વજ પતાકાવાળા બનાવી દીધા યાવત એક દિશામાંથી બીજી દિશા તરફ જઈ શકે નહિ તેમ તેઓએ રસ્તો રોકી લીધે. અથવા તે એક દિશામાંથી બીજી દિશા તરફ ભગાડી મૂકયા. આવી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सन्यहीनाः अवीर्याः-आन्तरिकशक्तिरहिताः, उत्साहहीनाइत्यर्थः, तथा-अधा रणीयाः आत्मानं रणभूमौ धारयितुमशक्ताः, इति कृत्वा-इति विचार्य, यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तीवोपागच्छन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तान् पञ्च पाण्डवान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-' कहणं ' कथं खलु यूयं हे देवानुपियाः ! पद्मनाभेन राज्ञा सार्ध योद्धु संपलग्नाः ?, ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः कृष्णं वासुदेवमेवमवादी-एवं खलु हे देवानुपियाः ! वयं युष्माभिरभ्यनुज्ञाता: सन्तः सनबद्धर्मितकवचाः रथान् ‘दुरुहामो ' दूरोहामः-आरोहामः आरूढाः, आरूह्य यत्रैव पद्मनाभस्तत्रैव गत्वा युद्धाय संपलग्नाः ततः पराजयं प्राप्ता यावत् प्रतिषेधिता' इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवारणभूमि में अपने आपको टीका ने में भी असमर्थ जानकर जहां कृष्णवासुदेव थे वहां आये। वहां पहुँच तेही कृष्णवासुदेवने उनसे-उन पांचो पांडवों से-इस प्रकार कहा- जब आपलोग पराजित हो गये तो पद्मनाभ राजा के साथ युद्धरत हुए-लड़े-तब उन पांचो पांडवो ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा, हे देवानुप्रिय! हमलोगो ने आप से अभ्यनुज्ञात होकर ही कवच आदि से सुसज्जित हो रथों पर आरोहण किया, और आरोहण कर जहां एमनाभ राजा था वहाँ हमलोग पहुँचे। वहां पहुँचकर हमलोग उनके साथ युद्धरत हो गये। बाद में पराजित हो गये। और पराजित होकर फिर ऐसे बन गये जो उसने हमें एक दिशा से दूसरी दिशा में खदेड दिया या जाने से रोक दिया। (तएणं से कण्हे वासुदेवे ते पं पं.) तब कृष्णवासुदेव ने उन पांचो पांडवो से પરિસ્થિતિમાં લાચાર થઈને યાવત્ યુદ્ધભૂમિમાં પોતાની જાતને ટકાવી શકવામાં પણ અસમર્થ જાણીને પાંચ પાંડે જ્યાં કૃષ્ણ–વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં પહોંચતાં જ કૃષ્ણ–વાસુદેવે પાંચે પાંડેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે લેકે પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધરત થઈને પરાજીત થઈ ગયા છે ? ત્યારે તે પાંચે પાંડેએ કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! અમે બધા આપની આજ્ઞા મેળવીને કવચ વગેરેથી સુસજિજત થઈને રથ ઉપર સવાર થયા. સવાર થઈને અમે જ્યાં પદ્મનાભ રાજા હતો ત્યાં ગયે. ત્યાં પહોંચીને અમે બધા તેની સાથે યુદ્ધ કરવા લાગ્યા અને તેને પરિણામે અમે હારી ગયા છીએ. હાર પામીને અમે એવી ભયંકર પરિસ્થિતિમાં સપડાઈ ગયા હતા કે જેથી એક દિશા તરફથી બીજી દિશા તરફ જવામાં પણ અસથે થઈ ગયા અથવા તે તેણે અમને એક દિશામાંથી બીજી દિશા તરફ ભગાડી भूया छ. (तएण से कण्हे वासुदेवे ते पं. पं.) त्यारे -पासुदेव ते पाय પાંડાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् दीत्-यदि खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! पूर्वमेवं वक्तारो भवत, 'अम्हे,' णो पउनाभे राया' इति 'वयं भवामः, नो पद्मनाभो राजा' इति " वयमेवजेष्यामो न तु पद्मनाभो राजा' इत्यर्थः. तथा-यदि पूर्वम्-इति कृत्वा-इत्येव निश्चयं मनसि निधाय, पद्मनाभेन सार्ध ' संपलग्गंता' युद्धाय संपलग्ना भवत, ' तो णं ' तर्हि खलु ' तुम्भे, णो पउमणाहे ' यूयं नो पद्मनाभः यूयमेव जेतारो भवेत, न तु पद्मनाभः, तथा यूयं तं हयमथितप्रवरनिपतित चिहध्वजपताकं यावत्-पद्मनाभं 'पडि सेहते ' प्रतिषेधयेत-यतिनिवर्तयेत । तत्-तस्मात् 'पेच्छह ' प्रेक्षध्वं, खलु इस प्रकार कहा-(जइणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एवं वयंता अम्हे णो पउमणाभे राय त्ति कटु पउमनाभेणं सद्धि संपलग्गंताओ णं तुम्भे णो पउमणाहे, हय-महिय-पवर-जाव पडिसेहंते, तं पेच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! अहं णो पउमणाभे राय त्ति कटूटु पउमनाभेणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि, रहं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहारधवलंतणसोल्लियसिंदुवारकुंदेंदु सन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकर पंचजण्णं संखं परामुसइ) हे देवोनुप्रिय ! तुम तो पहिले ऐसा कहते थे कि हम जीतेंगे, पद्मनाभ राजा नहीं जीतेगा-और ऐसा ही मन में विचार कर-निश्चय कर-तुमलोगों ने पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करना प्रारंभ किया-तो तुमलोगों को ही जीतना चाहिये था। पद्मनाभ राजा को नहीं और तुम्हीं लोग उसे पीडित घोडों वाला एवं निपातितप्रश ( जइणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एवं वयंता अम्हे णो पउमणाभे राय त्ति कटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गं ताओ णं तुन्भे णो पउमणाहे, हयमहियपवर जाव पडिसेइंते, तं पेच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! अहं णो पउमणाभे रायत्ति कटु पउमनाभेणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि, रहं दुरूहइ, दुरुहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहारधवलंतणसोल्लियसिंदुवार कुंदेंदु सनिगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचजण्णं संखं परामुसइ) હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તે પહેલેથી જ આ પ્રમાણે કહેતા હતા કે અમેજ જીતીશું, પદ્મનાભ રાજા જીતશે નહિ. અને આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જ તમે લકોએ પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધની શરૂઆત કરી હતી, આવી પરિસ્થિમાં તો તમારે જીત મેળવવી જોઈએ. પદ્મનાભ રાજાની જીત નહિ થવી જોઈએ. તમે લોકો તેને પીડિત ઘડાઓવાળો બનાવત, તમને તે નહિ પણ આ બધી તમારી મનની ઇચ્છા સફળ થઈ શકી નહિ. એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! હવે જુઓ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे " ' यूयं हे देवानुप्रियाः ! ' अहं नो पउमणाभे राया ' ' अहं नो पद्मनाभो राजा'= अहमेव जेता भवामि, न तु पद्मनाभी राजा, इति कृत्वा पद्मनाभेन राज्ञा सार्धं युध्यामि इत्युक्त्वा रथं ' दुरूहइ ' दुरोहति-आरोहति-स कृष्ण वासुदेव: पद्म नाभेन सह योद्धुं रथमारूढवान् इत्यर्थः । आरुह्य यत्रैव पद्मनाभो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' सेयं श्वेतं गोक्षीरहारधवलं गोदुग्धवत् - हारवच्च धवलं शुक्लं 'तणसोलिपसिंदुवार कुंदेंदुस भिगासं 'तणसोलिया मल्लिका अयं देशीयः शब्दः सिन्दुवारो= निर्गुण्डी, कुन्दं - कुन्दनाम्ना प्रसिद्धः श्वेतपुष्पविशेषः, इन्दुश्चन्द्रस्तद्वत् संनिकाशः - प्रभा यस्य स तं निययबलस्स ' निजकवलस्य स्वकीयसेनाय 'हरिसजणं ' हर्षजननं हर्षोत्पादकं, 'रिउसेण्ण विणासकरं' रिपुसैन्यविनाशकरं = शत्रु सैन्यबलहारकं पाञ्चजन्यं शङ्ख पाञ्चजन्यनामकं शङ्ख 'परामुस 'परामृशति हस्ते गृह्णाति परामृश्य 'मुहवायपूरियं करे३' मुखवातपूरितं मुखवातेन मातं करोति - वादयतीत्यर्थः । ततः खलु तस्य पद्मनाभस्य तेन शङ्खशब्देन , " बल स्त चिह्नध्वज पताका वाला बनाते वह तुम्हें ऐसा नही बनाता - परन्तु ऐसा तुम लोगों का मन में धारा विचार सफली भूत नहीं हुआ अतः देवानुप्रियो ! अब देखो मैं उसके साथ युद्धरत होता हूँ इसमें मैं ही जीतूंगा पद्मनाभ राजा नहीं । ऐसा कहकर वे कृष्णवासुदेव रथपर सवार हो गये । और सवार होकर वे वहां पहुँचे जहां पद्मनाभ राजा था । वहाँ पहुँच कर उन्हों ने अपने पांचजन्य श्वेतशंख को जो अपनी सेनाको हर्ष का जनक एवं शत्रु सेना का संहारक था एवं गोक्षीर तथा हार के जैसा धवल वर्णवाला था उठाया । इसकी प्रभा मल्लिका निर्गुठी कुंदपुष्प एवं चन्द्रमा के जैसी उज्ज्वल थी। (परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ) उसे उठाकर उन्हों ने मुँह से बजाया - ( तरणं तस्स पउमणाहस्त तेणं संखसद्देणं बलइभाए हय जाव पडिसेहिए ) तब उम पद्मनाभ की सेना પ્રાપ્ત થશે, પદ્મ સવાર થઇ ગયા તેની સાથે હું હવે મેદાને પડું છું. આમાં વિજય મને જ નાભ રાજાને નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ-વાસુદેવ રથ ઉપર અને સવાર થઈને જ્યાં પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યાં પહોંચ્યા ત્યાં પહોંચીને તેમણે પેાતાના પાંચજન્ય સફેદ શખને-કે જે તેમની સેના માટે હર્યોત્પાદક તેમજ શત્રુઓની સેના માટે સહાર રૂપ હતા તથા ગાયના દૂધ અને હારના જેવા સફેદ હતા હાથમાં લીધેા. તે શંખની કાંતિ મલ્લિકા નિર્ગુ ઠીકુદ પુષ્પ रमने शन्द्र नेवी हती. (परामुसित्ता मुहवायपूरिथ करेइ ) वर्धनेतेभ भुमथी वगाउये. (तरण तस्स पउमणाहस्स तेण संखसद्देण बलइभाए हय जाव पडिसेहिए ) ते वसते ते पद्मनाल रामनी सेनानी त्रिभाग शमना શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२३ तिभाए हते ' बलत्रिभागो हतः-सैन्यस्य तृतीयांशो हतमथित यावत् दिशोदिशं पतिषेधित -प्रतिनिवृत्तः पलायित इत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु स कृष्णो वासु. देवो धनुः परामृति गृह्णाति, परामृश्य ' वेढो ' वेष्टः वर्णकः धनुर्विषयकं वर्णनं जम्ब्दीपप्रज्ञप्तितो विज्ञेयमित्यर्थः, 'धणुं पूरेइ ' धनुः पूरयति धनुषि गुणमारो. पयति पूरयित्वा धनुः शब्दं करोति ततः खलु तस्य पद्मनाभस्य द्वितीयवारं 'बलतिभाए ' बलत्रिभाग बलस्य सैन्यस्य तृतीयोभागस्तेन धनुः शब्देन ' इयमहिय पवरनिवडिय विन्धद्धय पडागे' हयमथितप्रवरनिपतितचिह्नथ्वजपताको यावद् का त्रिभाग उस शंख के शब्द से हत हो गया मथित हो गया यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा की तरफ भाग गया। तएणं से कण्हे वास्तुदेवे धणुं परामुसइ, वेढोधणुं पूरेइ, पूरित्ता धणुस करेइ ) इसके बाद कृष्ण वासुदेवने धनुष को उठाया। इस धनुष को वर्णन जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में किया गया है। सो वहां से जानना चाहिये उठाकर उन्होंने उस पर ज्या का आरोपण किया फिर उसे चढाया-सो उससे शब्द हुआ (तएणं तस्स पउमनाभस्त दोच्चे बलइभाए तेणं धणुसण हयमहिय जाव पडिसेहिए, तएणं से पउमणाभे राया तिभागवलावसेसे अत्था मे अबले, अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधारणिजत्ति कटु सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छद) तब उस पद्मनाभ राजा की सैन्य का तृतीयभाग उस धनुष के शब्द से हत हो गया, मथित हो गया, उस की प्रवर चिन्ह स्वरूप ध्वजापताकाएँ सब गिर गई यावत् શબ્દથી જ હત થઈ ગયે, મથિત થઈ ગયે યાવત્ એક દિશા તરફથી બીજી लिशा त२५ नाशी गये. ( तएण से कण्हे वासुदेवे धणु परोमुसइ, वेढो धणु पूरेइ, परित्ता धणुसदं करेइ ) त्या२५। ६०-वायुवे धनुष यु. मा ધનુષનું વર્ણન જમ્બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં કરવામાં આવ્યું છે. જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ. ઉઠાવીને તેઓએ તેની ઉપર પ્રત્યંચા ચઢાવી. ત્યારપછી ધનુષને ચઢાવ્યું અને તેનાથી શબ્દ થયે– (तएणं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बलइभाए तेणं धणुसदेणं हयमहिय जाव पडि सेहिए, तएणं से पउमणाभे राया तिभागवलावसेसे अत्थामे अबले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जत्ति कटु सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ) તે પદ્મનાભ રાજાની સેનાને ત્રીજો ભાગ તે ધનુષના શબ્દથી જ હત થઈ ગયે, મથિત થઈ ગયે, તેની પ્રવર ચિહ્ન-વરૂપ વજા પતાકાએ બધી પડી श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे दिशो दिशं प्रतिषेधितः, ततः खलु स पद्मनाभो राजा 'तिभागबलावसेसे' त्रिभागबलावशेषः तृतीयांशावशिष्टसैन्यवान् सन् अस्थामा, अबलः, अवीर्यः, अस्थामेत्यादि प्राग्व्याख्यातम् अपुरुषकारपराक्रमः-पौरुषपराक्रमरहितः, अधारणीयः-प्राणान् धारायितुमशक्तः, इति कृत्वा-इति विचार्य शीघ्र त्वरितं यत्रैवा मरकंका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य अमरकंकां राजधानीमनुप्रविशति, अनुपविश्य द्वाराणि 'पिहेइ ' पिधत्ते, रोधसज्जः-दुर्ग निरुध्य तिष्ठति, ततः खलु स कृष्णो वह एकदिशा से दूसरी दिशा में भाग गया अथवा भागने में असमर्थ बन गया । इस के बाद तृतीयांशावशिष्ट सेना वाला होकर वह पद्मनाभराजा बल रहित हो गया, पर्याप्त सैन्य रहित हो गया एवं अन्तरिक शक्ति-उत्साह हीन हो गया। अतः वह पौरुष पराक्रम से रहित होने के कारण रणभूमि में ठहरने के योग्य नहीं रहा। अथवा प्राणों को धारण करने में भी असमर्थ बन गया। इसलिये वह वहां से शीघ्र बड़ी उतावली से जहां अमरकंको नगरी थी वहां आ गया। (उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दारोइं पिहेइ पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह, तएणं से कण्हे वासुदेवे, जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छद ) वहां आकर वह अमरकंका राजधानी में गया। जाकर उसने दरवाजोंको बंद करवा दिया। बंद करवाकर फिर वह अपने दुर्ग (किल्ला) की रक्षा करता हुआ वहां ठहरा । इसके बादकृष्णवासुदेव ગઈ યાવત્ તે સેનાને ભાગ એક દિશા તરફથી બીજીદિશા તરફ નાશી ગયે. અથવા તે તે નાશી જવામાં પણ અસમર્થ થઈ ગયે. ત્યારપછી ત્રીજા ભાગ જેટલી સેના જ જેની પાસે રહી છે એ તે પદ્મનાભ રાજા સાવ નિર્બળ થઈ ગયે, પર્યાપ્ત સન્ય રહિત થઈ ગયું અને આંતરિક શક્તિ-ઉત્સાહ રહિત થઈ ગયે. તે પૌરૂષ પરાક્રમ વગરને થઈ તે રણભૂમિમાં ટકી શકે તેમ પણ રહ્યો નહિ અથવા તો તે પ્રાણેને ધારણ કરવામાં પણ અસમર્થ થઈ ગયે. એથી તે સત્વરે જ્યાં અમરકંકા નગરી હતી ત્યાં આવી ગયે. __ (उवागच्छित्ता अमरकंक रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता-दाराई पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे, जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ ) ત્યાં આવીને તે અમરકંકા રાજધાનીમાં ગયે, ત્યાં જઈને તેણે દરવાજાઓને બંધ કરાવી દીધા બંધ કરાવીને તે પિતાના દુર્ગની રક્ષા કરતાં ત્યાં જ રોકાયે. ત્યારપછી કૃષ્ણ-વાસુદેવ જ્યાં તે અમરકંકા નામે નગરી હતી ત્યાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम् ५२५ 9 वासुदेवो यत्रैवामकङ्का तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य रथं स्थापयति, स्थात् प्रत्यबरोहति प्रत्यवरुह्य, ' वेउव्वियसमुग्धाएणं वैक्रियसमुद्घातेन वैक्रियशरीरं निर्मातुं मात्मप्रदेशानां बहिर्निं सारणेन खलु ' समोहणइ ' समुद्धातं करोति समुहन्ति एक महत् ' णरसीहरूवं ' नरसिंहरूपं ' बिउव्व' विकुर्वते दिव्यसामर्थ्येन करोति विकुर्व्य महता २ शब्देन ' पाददद्दरयं पाददद्देरकं = भूमौ चरणाघातं करोति, ततः खलु स कृष्णेन वासुदेवेन महता २ शब्देन पाददर्दरकेण= भूमौ चरणाघातेन कृतेन सता अमरकङ्काराजधानी 'संभग्गपागारगो पुराहालय चरियतोरणपल्हत्थिय पवरभवणसिरिधरा सम्भग्नप्राकार गोपुराहालकच रिकातोरणपर्यस्aिngatभवनश्रीगृहा=तत्र संभग्नानि - प्राकारथ गोपुराणि च अट्टालकाश्च चरिका जहांवह अमरकंका थी वहां गये ( उवा० ) वहां जाकर के ( रहं ठवेह, afai रहाआ पचोरुहद्द, पच्चारुहिता वेउब्वियसमुग्धारणं समोह " इ) उन्होंने अपने रथको खड़ा किया- खड़ा करके फिर वे उससे नीचे उतरे । नीचे उतर कर वैक्रिय समुद्घात किया । वैक्रियशरीरको निर्माण करने के लिये जो आत्मप्रदेशों का बाहिर निकालना होता है उसको नम वैक्रिय समुद्घात है । ( एगं महं नरसिहरूवं विउव्वज्ञ विजव्वित्ता महया २ सद्देणं पाददद्दरएणं करणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्ग पागारगो पुराट्टाल चरिथतोरणं पल्हत्थियपवरभवणसिरिघरा सरस्सरस्स धरणियले संन्निवइया) इस समुद्घातके द्वारा उन्होंने एक विशाल काय नरसिंहरूप की विकुर्वणा की नरसिंहरूप की विकुर्वणा करके अपनी भयंकर गर्जना से भूमि पर चरणों द्वारा आघात किया । इस तरह गर्जना पूर्वक किये गये चरणाघात से अमरकंका राजधानी की गया. ( उबा० •) cui qya (16' sàg, zfdar cersì qìaeg, qāìafgar " त्रिसमुग्धापण समोहणइ ) तेभले घोताना २थने ओले राज्यो, अलो રાખીને તેઓ તેમાંથી નીચે ઉતર્યાં. નીચે ઉતરીને તેમણે વૈક્રિય સમુદ્દાત કર્યાં, વૈક્રિય શરીરને બનાવવા માટે જે આત્મપ્રદેશેાને બહાર કાઢવામાં આવે છેતે વૈક્રિય સમુદૂધાત કહેવાય છે. ( एवं महं नरसिहरूवं विउव्वर, विउब्वित्ता महया २ सदेणं पाददद्दरणं कर्ण समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागारगोपुराट्टालयचरियतोरणं पल्हत्थिय पवरभवण सिरिधरा सरस्परस्त धरणियले संन्निवइया ) આ સમુદ્ધાત વડે તેમણે એક વિશાળ કાય નરસિંહ રૂપની વિકા કરી. નરસિંહ રૂપની વિધ્રુણા કરીને પેાતાની ભયંકર ગર્જનાથી ભૂમિ ઉપર ચરણાના આધાત કર્યાં. આ રીતે ગજનાપૂર્વક કરાયેલા ચરણાઘાતથી અમર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे च तोरणानि च यस्यां सा तथा, तत्र गोपुराणि-प्रतोल्यः अट्टालकाः-प्राकारोपरिस्थान विशेषाः, चरिका-नगरमाकारान्तरेऽष्टहस्तोमार्गः। तथा-पर्यस्तितानिसर्वतः क्षिप्तानि प्रवरभवनानि श्रीगृहाणि-भण्डागाराणि कोशागाराणि च यस्यांसा तथा, ततो द्विपदः कर्मधारयः । कृष्णवासुदेवेन भूमौ चरणाघातशब्देन अमरकंकाराजधान्याः प्राकारगोपुरादिकं विध्वंसितमित्यर्थः, तथा-'सरस्सरस्स' अनुकरणशब्दोऽयम् निपतनक्रियाविशेषणं धरणितले संनिपतिता अमरकंकां राजधानी सरस्सरस्सेति शब्दं कुर्वाणा भूभौ पतितेत्यर्थः । ततः खलु स पद्मनाभो राजा अमरकंकां राजधानी संभग्नप्राकारादिकां यावत्-धरणितले संनिपतितां दृष्ट्वा भीतः त्रस्तः, उद्विग्नः, संजातभयः, द्रौपद्या देव्याः शरणमुपैति प्राप्नोति, ततः खलु सा द्रौपदी देवी पद्मनाभं राजानमेवमवादी-कि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! न जानासि कृष्णस्य वासुदेवस्योत्तमपुरुषस्य विप्रियं कुर्वन मामिह अत्र गलियों को अटारियों को, चरिकाओं को, श्री गृहों को कोशागारों को श्री कृष्ण ने ध्वंस करदिया। तथा वह अमरकंका राजधानी भी सरसर शब्द करती हुई उस गर्जना पूर्वक किये गये चरणाघात से जमीन पर गिर पड़ी। (तएणं से पउमणाभे राया, अमरकंका रायहाणि संभागजाव पासित्ता, भीए दोवईए देवीए सरणं उवेइ ) तथ पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को प्राकार गोपुर आदि की ध्वस्त अवस्थावाली देखकर अत्यंन्त भीत हुआ त्रस्त हुआ, उद्विग्न हुआ। और संजातभय संपन्न होकर द्रौपदी देवी की शरण में पहुँचा। (तएणं सा दोवई देवी, पउमनाभं रायं एवं वयासी) तब उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-(किण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! न जाणासि कण्हકંકી રાજધાનીની શેરીઓને, અટારીઓને, ચરિકાઓને, શ્રીગૃહોને, કેશાગારને શ્રીકૃષ્ણ નષ્ટ કરી નાખ્યા તેમજ તે અમરકંકા રાજધાની પણ સરસર શદ કરતી ગર્જનાપૂર્વક કરવામાં આવેલા ચરણઘાતથી જમીનદોસ્ત થઈ ગઈ. (तएणं से पउमणाभे राया, अमरकंका रायहाणि संभग्ग जाव पासित्ता, भीए दोबईए देवीए सरणं उवेइ ) પદ્મનાભ રાજા અમરકંકા રાજધાનીના પ્રાકાર, ગોપુર વગેરેને વિનાશ જોઈને ખૂબ જ ભયભીત થઈ ગયે, ત્રસ્ત થઈ ગયે તેમજ ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયે अन सभतमय संपन्न ने द्रौपट्टी वानी शरण ५व्या . (तरण सा दावई देवी पउमनाभं राय एवं क्यासी) त्यारे ते द्रौपदी की पद्मनाल રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२७ हव्यं-शीघ्रम् आनयसि-आनीतवानसि तत्-तस्मात्-' एवमवि गए' एवमपि गते-इत्थंममापहरणे कृतेऽपि, गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! स्नातः 'उल्ल पडसाडए' आर्द्र पट्टसाटकः स्नानेनाऽऽीकृतोत्तरीयपरिधानवस्त्रधारी ' अवचूलगवत्थणियत्थे ' अवचूलकवस्त्रणियत्थः अवचूलकम्-अधोमुखं नीचैलम्बमानं चूलंवस्त्राञ्चलं-वस्त्रप्राप्तं यथा भवति तथा 'णियत्थं' परिहितं वस्त्रं येन स तथा-स्त्रीणां परिधानमिव चरणपर्यन्तलम्बितवस्त्रान्तं यथास्यात्तथा परिहितवस्त्र इत्यर्थः । 'अंते उरपरियालसंपरिखुडे' अन्तःपुरपरिवारसंपरितः स्त्री परिवारेण सहितः, — अग्गाई' अग्र्याणि वराणि रत्नानि गृहीत्वा मां पुरतः ‘ काउं' कृत्वा कृष्णं स्स वा सुदेवस्स उत्तमपुरिसस्म विप्पियं करे माणे ममं इह हव्वमाणेसि) हे देवानुप्रिय ! क्या तुम उत्तम पुरुष कृष्णवासुदेव को नहीं जानते हो जो उनको अनिष्ट कर तुम मुझे यहां ले आये हो । (तं एवमविगए गच्छहणं तुमं देवावुप्पिया! पहाए उल्लपडसाडए अव चलगवथणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिवुडे, अग्गइं वराइं रयणाई गहाय, ममं पुरओ, काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि) खैर अब इस बात को जाने दो-हे देवानुप्रिय ! तुम स्नान कगे, और गीले वस्त्र पहिने हुए ही श्री कृष्णवासुदेव की शरण में जाओ । जाते समय तुम स्त्रीयों के परिधान के समान चरण पर्यन्त लटकते हुए वस्त्र पहिनकर जाना । अकेले मत जाना किन्तु अपने अंतःपुर की समस्त स्त्रियों को साथ में ले जाना। रीते हाथ भी मत जाना किन्तु भेट निमित्त वेश कीमती रत्नों को लेकर और मुझे आगे करके चलना । (किणं तुम देवाणुप्पिया ! न जाणासि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इह हव्यमाणेसि ) હે દેવાનુપ્રિય ! શું તમે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણ-વાસુદેવને ઓળખતા નથી. મને અહીં લાવીને તમે તેમનું જ અનિષ્ટ કર્યું છે. (तं एवमविगए गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! ण्हाए उल्लपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिखुडे, अग्गाई वराई रयणाई गहाय, ममं पुरतो, काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि ) ખેર, છેડે એ વાતને. હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હવે નાન કરો અને ભીના વસ્ત્રોથી જ શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવની શરણમાં જાઓ. જતી વખતે તમે સ્ત્રીઓના પરિધાન (ચણિયા) ની જેમજ પગ સુધી લટકતા વસ્ત્રો પહેરજે. તમે એકલા જતા નહિ પરંતુ રણવાસની બધી સ્ત્રીઓને સાથે લઈને જજે. તમે ખાલી હાથે તેમની પાસે જતા નહિ પણ કંઈક ભેટ સ્વરૂપ કિંમતી વસ્ત્રોને લઈને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ५२८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसत्र वासुदेवं ' करयलपायपडिए ' करतलपादपतितः-संयोजितकरतलद्वयः, पादयोः पतितः सन् शरणं उपैहि-त्रायस्वमामितिबदन उपगतो भवेत्यर्थः । हे देवानुप्रिय ! ‘पणिवइयवच्छला' प्रणिपतितवत्सला-चरणोपरिनिपतितानां वत्सलाः स्नेहवन्तः खलु उत्तमपुरुषाः भवन्ति प्रणाममागेण महापुरुषाः प्रसीदन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं स प्रद्मनाभो राजा द्रौपद्या देव्या एतमर्थ-उक्तकथनरूपमर्थ प्रतिश्रृणोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्नातो यावत् शरणमुपैति द्रौपदीवचनमनुसृत्य पद्मनाभो राजा कृष्णवासुदेवस्य शरणमुपगत इत्यर्थः। उपेत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिर आवर्त मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीद् दृष्ट्वा वहां पहुँच कर तुम दोनों हाथ जोड़ कर उनके चरणों में गिर जाना (पणिवइयवच्छलो ण देवाणुप्पियो उत्तमपुरिसो तएणं से पउमनाभे दोवईए देवोए एयमढे पडिप्लुणेइ, पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उवेइ, उवित्ता, करयल०एवं वयासी दिट्ठाणं देवानुप्पियाणं इडी, जाव परक्कमे तं खामेमि णं देवाणुप्पिया।) हे देवाणुप्रिय ! उत्तम पुरुष जो हुआ करते हैं वे प्रणिपतितवत्सल हुआ करते हैं-प्रणाममात्रसे महापुरुष प्रसन्न हो जाया करते हैं-अर्थात् नमन करनेवालेको वे नहीं मारते तब पद्मनाभ राजाने द्रौपदी देवीके इस शिक्षाप्रद कथनरूप अर्थको स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर बाद में उसने स्नान किया, यावत् वह द्रौपदीके कहे अनुसार कृष्णवासुदेव की शरणमें पहुंच गया। शरण में पहुंच कर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर अंजलि बनाई और आदक्षिण प्रदक्षिण करके उसे शिरपर रखा । फिर इस प्रकार बोला-आप देवानुप्रियकी मैंने ऋद्धि તેમજ મને આગળ રાખીને ચાલજો. ત્યાં પહોંચીને તમે બંને હાથ જોડીને તેમના પગે પડજે. (पणिवइय वच्छलाणं देवाणुप्यिा उत्तमपुरिसा, तएणं से पउमनाभे दोवइए देवीए एयमट्ट पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उवेइ, उवित्ता करयल एवं बयासी,दिट्ठा णं देवाणुप्पियाण इट्टी जाव परक्कमे तं खामेमि णं देवाणुप्पिया!) હે દેવાનુપ્રિય ! ઉત્તમ પુરૂષે તેમની સામે વિનમ્ર થયેલા માણસો પ્રત્યે એકદમ વત્સલ થઈ જાય છે. ફક્ત નમસ્કાર કરવાથીજ તેઓ પ્રસન્ન થઈ જાય છે. આ બધું સાંભળીને પદ્મનાભ રાજાએ દ્રોપદીના આ શિક્ષાપ્રદ કથન રૂપ અર્થને સ્વીકારી લીધો. સ્વીકાર કરીને તેણે સ્નાન કર્યું યાવત્ તે દ્રૌપદીના કહ્યા મુજબ જ કૃષ્ણ-વાસુદેવની શરણમાં ગયે. શરણમાં જઈને તેણે પિતાના બંને હાથ જોડીને અંજલિ બનાવી અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને તેના માથા ઉપર મૂકી અને ત્યારબાદ તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે-દેવાનુપ્રિય ! તમારી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२९ खलु देवानुप्रियाणाम् ऋद्धिर्यावत् पराक्रमः-तत्-तस्मात् क्षमयामि खलु हे देवानुप्रियाः ! यावत् क्षमन्तु खलु यावत् नाहं भूयो भूयः एवं करणतया-पुनरेवं न करिष्यामि, इति कृत्वा-इत्युक्त्वा-' पंजलिवुडे' प्राञ्जलिपुटः-संयोजितकरतलद्वयः पादपतितः कृष्णस्य वासुदेवस्य द्रौपदी ' साहत्थि ' स्वहस्तेन, उपनयति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मनाभमेवमवादीत्-हं भोः ! पद्मनाभ ! अप्रार्थितप्रार्थित ! हे मरणवाञ्छक ! ४ किं खलु त्वं न जानासि मम भगिनीं द्रौपदी देवीमिहहव्यमानयन् , ' तं' तत्-तस्मात् 'एवमवि गए ' एवमपिगते अनेन प्रकारेण शरणं प्राप्ते सति, नास्ति ते तव मद्भयमिदानीमिति कृत्वा प्रतिविसर्ज यति । प्रतिक्सृिज्य द्रौपदों देवीं गृहाति, गृहीत्वा रथं दूरोहति=आरोहयति देखली, यावत् पराक्रम देख लिया। हे देवानुप्रिय ! मैं अपने अपराध की क्षमा मांगता हूँ। (जाव खमंतु ) यावत् आप मुझे क्षमा दें। (णं जाव णा हं भुज्जो २ एवं करणाए ) अब मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा। (त्ति कटूटु पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइं देविं सा हत्यि उवणेइ) इस प्रकार कहकर वह दोनों हाथ जोड उन कृष्णवासुदेव के पैरों पर गिर पड़ा और अपने हाथ से ही उसने फिर उनके लिये द्रौपदी सौपदी। (तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी -हं भो ! पउमणाभा! अपत्थियपत्थिया ४ किण्णं तुम ण जाणासि मम भगिणि दोवइं देविं इह हव्व माणमाणे तं एवमविगए, णत्थि ते ममाहितो इथाणिं भयमस्थि त्ति कटु पउमणाभं पडिविसज्जेइ, पडि विसज्जित्ता दोवदं देवि गिण्हइ, गिम्हित्ता रहं दुरूहेइ, दुरुहिता जेणेव મેં ઋદ્ધિ જોઈ લીધી છે, યાવત તમારું પરાક્રમ પણ મેં જોઈ લીધું છે. હે हेवानुप्रिय ! हुँ भा२१ २०५२।५ मत क्षमा मांशु छु. (जाव खमंतु ) यावत् तभे भने क्षमा ४२१. (ण जाव णाह भुज्जो २ एवं करणाए) वेश ई मा हापि नहि ४३ (त्ति कटूटू पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवरस दोवई देवि' साहत्थि उवणेइ ) या प्रमाणे हीन ते मना सन કૃષ્ણ-વાસુદેવના પગમાં આળોટી ગયો અને ત્યારપછી તેણે પોતાના હાથથીજ દ્રૌપદી તેમને સોંપી દીધી. (तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी-हं भो ! पउभणाभा ! अपत्थियपत्थिया ४ किण्णं तुम ण जाणासि मम भगिणिं दोवई देविं इह, हन्न माणमाणे त एवमपि गए, णस्थि ते ममाहितो इयाणि भयमत्थि त्तिकटु पउमणाभं पडिविसज्जेइ पडिविसज्जित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिण्हित्ता रहं दुरूहेइ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- -- ---- ५३० । ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे आरोह्य यौव पञ्च पाण्डवास्तौवोपागच्छति, उपागत्य पञ्चानां पाण्डवानां द्रौपदी देवीं 'साहत्थि' स्वहस्तेन, उपनयति=ददाति । ततः खलु स कृष्णः पञ्चभिः पाण्डवैः सार्धमात्मषष्ठः षडभीरथैलवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन यौव जम्बूद्वीपो द्वीपः, यौव भारतं वर्षे तौव प्राधारयद् गमनाय गन्तुं प्रवृतः ॥ सू०२९॥ पंच पंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवई देवि साहत्थि उवणेइ) तब कृष्णवासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा अरे ओ पद्मनाभ ! तुम इस तरह से अकाल में ही मरण के अभिलाषी क्यों बने ४क्यातुझे यह पता नहीं था कि द्रौपदी मेरी बहिन है। क्यों तूं इस को यहां ले आया! खैर-जब तू इस रूप में मेरी शरण में आचुका है-तो अब तुझे किसी भी प्रकार का मेरी तरफ से भय नहीं रहा-ऐसा कहकर कृष्णवासुदेव ने उसे विसर्जित कर दिया-अपने स्थान पर उसे जाने की आज्ञा देदी-। बाद में द्रौपदी को साथ में लिया और लेकर वे रथ पर आरूढ हुए। आरूढ होकर फिर वे, वहीं आये-जहां पांचों पांडव थे वहां आकर उन्हों ने द्रौपदी को अपने हाथों से पांचो पांडवों के सुपुर्द कर दिया। (तएणं कण्हे पंचेहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं जेणेय जंबूद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इसके बाद वे कृष्णवासुदेव पांचों पांडवों के साथ आत्मषष्ट होकर छहों रथों को ले लवण समुद्र से बीचों दुरूहित्ता जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवई देवि साहत्थिं उवणेइ ) ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે પદ્મનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે અરે ઓ ! પદ્મનાભ! તમે આ પ્રમાણે અસમયમાં જ મરણના અભિલાષી કેમ બની ગયા છે કે, શું તમને ખબર નહોતી કે દ્રોપદી મારી બહેન છે તું એને અહીં શા માટે લઈ આવ્યો ? ખેર, તું જ્યારે આ સ્થિતિમાં મારી પાસે આવ્યો છે તો હવે તારે મારા તરફથી કોઈ પણ જાતનો ભય રાખવો જોઈએ નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ વાસુદેવે તેને વિદાય કર્યો. ત્યારપછી દ્રૌપદીને સાથે લઈને તેઓ રથ ઉપર સવાર થયા. સવાર થઈને તેઓ જ્યાં પાંચ પાંડે હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પોતાના હાથથી દ્રૌપદીને પાંચે પાંડને સેંપી દીધી. ( तएणं से कण्हे पंचेहिं पंडवेहिं सद्धि अप्प छटे छहिं रहेहिं लवणसमुह मझ मज्ज्ञेणं जेणेव जंबूद्दीवे दीवे जेणेव भारहेवासे तेणेब पहारेत्थ गमणाए) ત્યારબાદ તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ પાંચે પાંડેની સાથે આત્મષષ્ટ થઈને છીએ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५३१ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरस्थिमिद्धे भारहे वासे चंपाणामं णयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए, तत्थ णं चंपाए नयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महिया हिमवंत० वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्म सुणेइ तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयस्स अरहओ धम्म सुणेमाणे कण्हस्त वासुदेवस्स संखसई सुणेइ, तएणं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पजित्था - किं मण्णे धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अयं संखसदे ममंपिव मुहवायपूरिए वीयं भवइ,तएणं मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी से णूणं ते कविला वासुदेवा ! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसई आकपिणत्ता इमेयारूवे अज्झथिए किं मन्ने जाव वीयं भवइ, से णूणं कविला वासुदेवा ! अयमढे समटे ? हंता ! अस्थि, नो कविला ! एवं भूयं वा३ जन्नं एगे खेत्ते एगे जुगे समए दुवे अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिंसु उप्पञ्जिति उप्पज्जिस्संति वा,एवं खलु वासुदेवा ! जंबूद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हथिणाउरणयराओ पंडुस्स रपणो पुव्व बीच हो जहां जंबूद्वीप नाम का द्वीप, जहां भरतक्षेत्र नाम का क्षेत्र था उस ओर चल दिये। सू०२९॥ રથને લઈને લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જ્યાં જબૂદ્વીપ નામે દ્વિીપ, અને તેમાં પણ જ્યાં ભારતવર્ષ નામે ક્ષેત્ર હતું તે તરફ રવાના થયા. એ સૂત્ર ૨૯ છે श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे संगइएणं देवणं अमरकंकाणयरिं साहरिया, तएणं से कण्हे वासुदेवे पंचहि पंडवेहि सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहि अमरकंकं रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्त पउमणाभेणं रण्णा सद्धिं संगामे संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इव वीइं भवइ, तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ२ एवं वयासी-गच्छामि णं अहं भंते ! कण्हे वासुदेवे उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि, तएणं मुणिसुव्वए अरहा कविले वासुदेवे एवं वयासी - नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं वा३ जणं अरहंतो वा अरहंतं पासइ चकवट्टी वा चक्वटि पासइ बलदेवा वा बलदेवं पासइ वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ, तहविय णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मझमझेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाइं धयग्गाई पासिहिसि, तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ताहत्थिखधं दुरूहइ दुरूहित्ता सिग्घ२ जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवण. समुदं मज्झमझेणं वीइवयमाणस्त सेयापीयाइं धयग्गाई पासइ पासित्ता एवं वयइ-एसणं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मझं मज्झेणं वीइवयइत्तिकटु पंचजन्नं संखं परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसहं आयन्नेइ आयन्नित्ता पंचजन्नं जाव पूरियं करेइ, तएणं दोवि वासुदेवा संखसहसा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीच रित निरूपणम् ५३३ मायारिं करेइ, तएण से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं संभग्गतोरणं जाव पास पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी - किन्नं देवाणुप्पिया ! एसा अमरकंका संभग्ग जाव सन्निवइया ?, तएणं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु सामी ! जंबूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुब्भे परिभूए अमरकंका जाव सन्निवाडिया, तरणं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा पउमनाहं एवं वयासी हं भो ! पउमणाभा! अपत्थियपत्थिया किन्नं तुमं न जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ?, आसुरुते जाव पउमणाहं णिव्विसयं आणवेइ, पउमणास पुत्ते अमरकंका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव पडिगए | सू० ३० ॥ टीका-' तेणं कालेणं ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धातकीषण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्थे भारते वर्षे चम्पा नाम नगरी आसीत् । तस्या बहिर्भागे पूर्णभद्र नाम चैत्यम् = उद्यानम् आसीत् । तत्र तस्यां खलु चम्पानगर्यां ' तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि ॥ टीकार्थ- (तेणं कालेणं तेणं समर्पणं) उस कालमें और उस समय में ( धायइसंडे दीवे, पुरत्थिमद्धे भारहेवासे चंपा णामं णयरी होत्था, पुण्ण भt are ) धातकी षंड द्वीप मे पूर्व दिग्भागवर्ती भरत क्षेत्र में चंपा ' तेर्ण कालेणं तेण समएणं ' इत्यादि टीडार्थ' - (ते ं कालेणं तेणं समएणं) ते आणे मने ते समये (घायइ संडे दीवे, पुरत्थिमद्धे भारहेवासे चंपा णामं णयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए ) धातडी ષડદ્વીપમાં પૂર્વ દિભાગવત્ ભરતક્ષેત્રમાં ચંપા નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણ ભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતું. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्र 'कविले णाम' कपिलो नाम वासुदेवो रानाऽऽसीत् ' महया हिमवंत०' वण्णओ' महाहिमवानित्यादि वर्णकःवर्णनं पूर्वोक्तवद् बोध्यम् ।। तस्मिन् काले तस्मिन् समये मुनिसुव्रतोऽर्हन् चम्पायां नगर्यां पूर्णभद्रे नाम्नि चैत्ये समवसृतः । तस्य समीपे कपिलो नाम वासुदेवो धर्म श्रृणोति । ततः खलु स कपिलो वासुदेवः मुनिसुव्रतस्याहंतोऽन्तिके धर्म शृण्वन् कृष्णस्य वासुदेवस्य शङ्खशब्दं शृणोति ततः स्खलु तस्य कपिलस्य वासुदेवस्य अयमेतद्रूप वक्ष्यमाणस्वरूपः, 'अझथिए ' आध्यात्मिकः आत्मगतः संकल्पो-विचारः, यावद् समुदपद्यत-किम्-अन्यो धातकीपण्डे द्वीपे भारते वर्षे द्वितीयो वासुदेवः नामकी नगरी थी। उसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था। (तत्थणं चंपाए नयरीए कपिले नाम वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत वण्णओ तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहो, चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे) उस चंपानगरीमें कपिल नाम के वासुदेव रोज्य करते थे। ये महा हिमवान् पर्वत जैसे गुणोंसे पूर्ण थे। पहिले जैसा वर्णन राजाओंका भिन्न २ जगह किया गया है वैसा ही वर्णन इसका भी जानना चाहिये । उस काल और उस समय में मुनि सुव्रत तीर्थ कर चंपा नगरी में इस पूर्ण भद्र उद्यान में आये हुए थे ( कविले वासुदेवे धम्मं सुणेह, तएण से कविले वासुदेवे मुणिस्तुव्वयस्स अरहाओ धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसदं सुणेइ, तएणतस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-किं मण्णे धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अयं संखसद्दे ममंपिव मुहवायपूरिए बीयं __ (तत्थ णं चंपाए नयरीए कपिले नाम वासुदेवे राया होत्या, महया हिमवंत वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिमुपए अरहा, चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे) તે ચંપા નગરીમાં કપિલ નામે વાસુદેવ રાજ કરતા હતા. તેઓ મહા હિમાવાન વગેરે જેવા બળવાન હતા. પહેલાં જુદા જુદા રાજાઓનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે આ રાજાનું પણ વર્ણન જાણી લેવું જોઈએ. તે કાળે અને તે સમયે મુનિસુવ્રત તીર્થકર ચંપા નગરીમાં તે પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધાર્યા હતા. ( कविले वासुदेवे धम्म सुणेइ, तरणं से कविले वासुदेबे मुणि सुव्वयस्स अरहाओ धम्मं सुणेमाणे, कण्हस्स वासुदेवस्स संखसदं सुणेइ, तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-कि मण्णे धायइसंडे दीवे भारहेवासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अयं संखसद्दे ममं पिव मुहवायपूरिए वीयं भवइ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् समुत्पन्नः ? यस्य वासुदेवस्य खलु अयं शङ्खशब्दो ममेव मुखवातपूरितः-मद्वादितशङ्खध्वनिरिवेत्यर्थः, ' बीयं भवइ' द्वितीयो भवति । ततः खलु मुनिसुव्रतोऽर्हन् कपिलं वासुदेवम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-' से णं इत्यादि-से' नूनं ते तव हे कपिल वासुदेव ! ममान्तिके धर्म ‘णिसामेमाणस्स' निशामयतः= शृण्वतः, शङ्खशब्दम् ' आकणित्ता' आकर्ण्य=श्रुत्वा · इमेयारूवे ' अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः संकल्पो विचारः समुदपद्यत-किमन्यो वासुदेवः समुत्पन्नः, यस्यायं शङ्खशब्दो यावद् द्वितीयो भवति ' से ' अथ नूनं हे कपिलवासुदेव ! अयमर्थः समर्थः किं सत्यः ?, कपिल वासुदेवः पाह-हंता ! अत्थि इति हन्त ! हे प्रभो ! अयमर्थः सत्योऽस्ति । मुनिसुव्रतोभगवानाह-हे कपिल वासुदेव ! नो खलु एवम्= ईदृशं, ' भूयं वा ' भूतं वा अतीतं वा, भवद् वा-वर्तमानं वा भविष्यद् वा अनागतं वा कालत्रयेऽप्येवं न भवतीत्यर्थः, 'जन्न' यत् खलु एकस्मिन् क्षेत्रो, एकभवइ) उनके पास वे कपिल वासुदेव धर्मका उपदेश सुन रहे थे । सो उस कपिल वासुदेवने मुनिसुव्रतप्रभुके पास धर्मका उपदेश सुनते हुए कृष्ण वासुदेवकी शंखध्वनि सुनि । तब उस कपिल वासुदेवको इस प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ-क्या धातकीपंड नामके द्वीपमें वर्तमान भरतक्षेत्र में कोई और दूसरी वासुदेव उत्पन्न हुआ है ? कि जिसके शंखका यह शब्द मेरे द्वारा बजाये गये शंखके शब्द जैसा हुआ है ? (तएणं मुणि सुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी-से गृणं ते कविला वासुदेवा! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखमई आकणित्ता इमेयाख्वे अज्झथिए कि मण्णे जाव वीयं भवइ से गूणं कविला वासुदेव ! अयमढे समढे ? हंता अस्थि, नो खलु कविला एयंभूयं वा३ जन्नं તેમની પાસે તે કપિલ વાસુદેવ ધર્મોપદેશ સાંભળી રહ્યા હતા. તે કપિલ વાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુની પાસે ધર્મોપદેશ સાંભળતાં જ કૃષ્ણવાસુદેવના શંખને ધ્વનિ સ ભળે. ત્યારે તે કપિલ વાસુદેવને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવતુ મનોગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે શું ઘાતકી વંડ નામના દ્વિીપમાં વિદ્યમાન ભરતક્ષેત્રમાં કોઈ બીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયે છે? કેમકે તેના શંખનો આ વનિ મારા વડે વગાડવામાં આવેલા શંખના ધ્વનિ જેવો જ છે. (तएणं मुणि सुव्बए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी-से शृणं ते कवि. लावासुदेवा ! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसई आकण्णित्ता इमेयारूवे अझस्थिए कि मण्णे जाव वीयं भवइ, से गूणं कविला वासुदेवा ! अयमद्वे समढे ? हता, अत्थि, नो खलु कविला एवं भूयं वा ३ जन्नं एगखेत्ते एगे जुगे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे स्मिन् युगे, एकस्मिन् समये द्वावर्हन्तौ वा चक्रवर्तिनौ वा वलदेवौ वा वासुदेवौ वा ' उप्पन्जिसु ' उदपवेताम् , ' उपजिति' उत्पद्यते ' उपज्जिस्संति ' उत्पत्स्ये ते वा, एवं खलु हे वासुदेव ! जम्बूद्वीपाद् भारताद् वर्षाद् हस्तिनापुरनगरात् पाण्डो राज्ञः ' सुण्हा ' स्नुषा-पुत्रवधूः, पश्चानां पाण्डवानां भार्या द्रौपदी देवी तव पद्म एगे खेत्ते एगे जुगे एगे समए दुवे अरहंता वा,चकवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा उप्पजिंस्तु, उप्पजिति, उप्पजिस्संति वा, ) तब मुनिसुव्रत तीर्थ कर प्रभुने उन कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा हे कपिल वास्तुदेव ! मेरे पास धर्म को सुनते समय तुम्हें शंख शब्द श्रवण कर इस प्रकार का यह आध्यात्मिक संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ है, कि क्या कोई दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है-जिसके शंख का शन्द मुझे सुनाई दिया है। कहो कपिल वासुदेव ! यही बात है न ? तब कपिल वासुदेवने कहा-हां प्रभो! यही बात है-ऐसा ही विचार उत्पन्न हुआ है-तब मुनिसुव्रत भगवान्ने कपिल वासुदेवसे कहा-हे कपिल वासुदेव ऐसी बात न भूतकाल में हुई है और न भविष्यकाल में होगी-न वर्तमान में होती है कि जो एक ही क्षेत्रमें एक ही युगमें एक ही समय में दो अहेत प्रभु, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव, दो वासुदेव, उत्पन्न हो रहे हों, उत्पन्न हुए हों और आगे उत्पन्न हों ! (एवं खलु वासुदेवा ! जंबूदीवा ओ भारहाओ वासाओ हथिणाउरणयरोओ, पंडुस्सरणो सुण्हा एगे समए दुवे अरहंता वा चक्कवट्टो वा, वासुदेवा वा उप्पग्जिसु, उप्पजिति, उप्पज्जिस्संति वा) ત્યારે મુનિસુવ્રત તીર્થંકર પ્રભુએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે કપિલવાસુદેવ મારી પાસે ધર્મને સાંભળતાં શંખ-શબ્દ સાંભળીને તમને આ જાતને આધ્યાત્મિક સંકલ્પ-વિચાર ઉત્પન્ન થયેલ છે કે, શું કઈ બીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયે છે-જેના શંખને ધ્વનિ મને સંભળાઈ રહ્યો છે. બેલે, કપિલ વાસુદેવે કહ્યું કે હા, પ્રભુ ! એ જ વાત છે. મારા મનમાં એ જ જાતનો વિચાર ઉદુભાવ્યું છે. ત્યારે મુનિસુવ્રત ભગવાને કપિલ વાસુદેવને કહ્યું કે હે કપિલ વાસુદેવ! આવી વાત ભૂતકાળમાં થઈ નથી અને ભવિષ્યકાળ માં થશે નહિ અને વર્તમાનકાળમાં સ ભવી શકે તેમ પણ નથી કે જે એક જ ક્ષેત્રમાં, એક જ યુગમાં, એક જ સમયમાં બે અહંત પ્રભુ, બે ચક્રવર્તી, બે બળદેવ, બે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયા હોય, ઉત્પન્ન થઈ રહ્યા હોય અને આગળ ઉત્પન્ન થવાના હોય (एवं खलु वासुदेवा ! जबू दीवाओ भारहाओ वासाओ हथिणाउरणया. राओ, पंडुस्स रणो, मुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी तव पउमनाभस्स श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५३७ नाभस्य राज्ञः पूर्वसंगतिकेन देवेनामरकङ्कानगरी ' साहरिया' संहृता आनीता, ततः खलु सः कृष्णो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सर्ध आत्मषष्ठः षड्भीरथैरमरकंका राजधानी द्रौपद्या देव्याः ‘कूवं ' देशी शब्दोयं प्रत्यानयनार्थकः प्रत्यानयनं कर्तु हव्यमागतः, ततः खलु तस्य कृष्णस्य वासुदेवस्य पद्मनाभेन राज्ञा साध संगामं' संग्राम-युद्धं 'संगामेमाणस्स' युध्यत, अयं शङ्खशब्दस्तवमु. खवातपूरित इव द्वितीयो भवति । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनिसुव्रतं वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-गच्छामि खलु अहं हे पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवईदेवी तव पउमनाभस्स रणो पुव्वसंगई. एणं देवेणं अमरकंका नयरिं साहरिया, तएणं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछठे छहिं रहेहिं अमरकंक रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्हमागए, तएणं तस्स कण्णस्स वासुदेवस्स पउमणाभेणं रण्णा सद्धिं संगाम, संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इववीयं भवइ) सुनो बात इस प्रकार है जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में वर्तमान हस्तिनापुर नगर से पांडुराजा की पुत्रवधू पांच पांडवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा को पूर्व भवीय मित्र कोई देव हरण कर अमरकंका नगरी में ले आया। तब भरत क्षेत्र के वासुदेव कृष्ण पांच पांडवों के साथ आत्मषष्ठ होकर छह रथों से उस अमरकंका नगरी में द्रौपदी देवी को वापिस ले जाने के लिये बहुत जल्दी आये। तब उन कृष्ण वासुदेव के, पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करते समय शंख का यह शब्द तुम्हारे शंख के शब्द जैसा हुआ है। (तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदति, २ एवं वयासी गच्छामि गं रण्णो पुव्वसंगइएणं देवेणं अमरकंका नयरिं साहरिया तएणं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं अमरकंकं रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं तस्स कण्णस्स वासुदेवस्स पउमणाभेण रण्णा सद्धिं संगामं, संगामे माणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इव बीयं भवइ ) સાંભળે, વિગત એવી છે કે જંબુદ્વીપના ભરતક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન હસ્તિ. નાપુર નગરથી પાંડુરાજાની પુત્રવધૂ પાંચે પાંડવોની પત્ની દ્રૌપદી દેવીને તમારા પદ્મનાભ રાજાના પૂર્વભવનો મિત્ર કે દેવ હરીને અમરકંકા નગરીમાં લઈ આવ્યો હતો. ત્યારપછી ભરતક્ષેત્રના વાસુદેવ કૃષ્ણ પાંચે પાંડવોની સાથે આત્મષષ્ટ થઈને છ રથ ઉપર સવાર થયા અને સત્વરે દ્રૌપદી દેવીને પાછાં મેળવવા માટે ત્યાં પહોંચી ગયા. પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધ કરતાં કૃષ્ણ વાસુદેવે જે શંખધ્વનિ કર્યો છે તે તમારા શંખના ધ્વનિ જેવો છે. (तएणं से कविले वासुदेवे मुणि सुव्ययं वंदंति, २ एवं वयासी, गच्छामि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे - भदन्त ! कृष्णं वासुदेवमुत्तमपुरुष पश्यामि ततः खलु मुनिसुव्रतोऽर्हन् कपिलं वासुदेवम् एवमवादीत्-नो खलु हे देवानुपिय ! एवं भूतं वा, भवति वा भविष्यति वा यत् खलु अर्हन् अर्हन्तं पश्यति, चक्रवर्ती वा चक्रवर्तिनं पश्यति बलदेवो वा बलदेवं पश्यति वासुदेवो वा वासुदेवं पश्यति, तथा ऽपि च खलु त्वं अह भंते ! कण्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ) इस प्रकार सुनकर उस कपिल वासुदेव ने मुनि सुव्रत प्रभु को वंदना की-नमस्कार किया वंदना नमस्कार करके फिर उनसे इस प्रकार कहा -हे भदंत ! मैं जाता हूँ और उत्तम पुरुष उन कृष्णवासुदेव से कि जो मेरे जैसे पुरुष हैं-वासुदेव पद के धारक हैं-जाकर मिलता हूँ। (तएणं मुणि सुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासो) तब मुनि सुव्रत प्रभु ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-(नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा ६ जणं अरहंतो, वा अरहंतं पासइ, चक्कवट्टी वा चक्कवहिं पासइ, बलदेवो वा, बलदेवं पासइ, वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ) हे देवानुप्रिय ! ऐसी बात न हुई है, वर्तमान में न होती है और न भविव्यत्काल में होनेवाली है कि जो एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर से मिलें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती से मिले, एक बलदेव दूसरे बलदेव से मिलें, एक वासुदेव दूसरे वासुदेव से मिलें । ऐसा सिद्धान्त का नियम है कि एक तीर्थकर का दूसरे तीर्थकर से कभी भी मिलाप नहीं होता है। णं अहभंते ! कण्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ) આ પ્રમાણે સાંભળીને તે કપિલવાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુને વંદન તેમજ નમન કર્યા. વંદન અને નમન કરીને તેમની સામે આ પ્રમાણે વિનંતી કરતાં કહ્યું કે હે ભદંત ! હું જાઉં છું અને જઈને મારા જેવા તે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણ पासुदेव । वासुदेव पहने नाव -तमन म छु. (तएणं मुणि सुव्वए अरहा कबिल वासुदेव एवं वयासी) त्यारे मुनिसुव्रत प्रभुत पित વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (नो खलु देवाणप्पिया! एवं भूयं वा ३ जणं अरहंतो वा अरहंतं पासइ, चक्कवट्टी वा चक्कट्टि पासइ, बलदेवो वा, बलदेवं पासइ, वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ) હે દેવાનુપ્રિય! એવી વાત કોઈ પણ દિવસે સંભવી નથી, વર્તમાનમાં પણ સંભવી શકે તેમ નથી અને ભવિષ્યકાળમાં પણ સંભવી શકશે નહિ કે એક તીર્થકર બીજા તીર્થકરને મળે, એક ચકવતાં બીજા ચકવર્તીને મળે, એક બળદેવ બીજા બળદેવને મળે. આ જાતને સિદ્ધાન્તને નિયમ છે કે એક श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५३९ कृष्णस्य वासुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजतः श्वेतपीतानि - ध्वजाग्राणि 'पासिहिसि ' द्रक्ष्यसि । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनि सुत्रतं वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा हस्तिस्कन्धं दृरोहति = आरोहति आरुह्य शीघ्रं २ यत्रैव ' वेलाउले ' वेलाकूलं = समुद्रवेला तटं वर्तते, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कृष्णस्य वसुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइवयमाणस्स ' व्यतिव्रजतः = गच्छतः, श्वेतपीतानि ध्वजाग्राणि पश्यति, दृष्ट्वा एवं वदति एसणं मम सदृशपुरुषः उत्तमपुरुषः कृष्णो वासुदेवो लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइवयइ ' व्यतिव्रजति = गच्छति, इति कृत्वा पाञ्चजन्यं शङ्ख परामृशति गृह्णाति, गृहीत्वा मुखवातपूरितं करोति = कपिलवासुदेवः स्वशङ्कां वादयति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कपिचक्रवर्ती का दूसरे और चक्रवर्ती से बलदेव का दूसरे और किसी बलदेव से, वासुदेव का दूसरे और वासुदेव से कभी भी मिलाप नहीं होता है । (तह वियणं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुहं मज्झं मज्झेणं वोsवयमाणस्स सेया पीयाई धयग्गाई पासिहिसिं) हां, इतना हो सकता हैं कि जब वे कृष्णवासुदेव लवण समुद्र के बीचसे होकर जा रहे होवें तब तु मउनकी श्वेत पीत ध्वजाओंके अग्र भाग को देख सकते हा । (तरणं से कवि वासुदेवेणि सुव्वयं वंदह, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता, हत्थिबंधं दुरूह, दुरुहित्ता सिग्धं २ जेणेव वेलाउले, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुहं मज्झं मज्झेणं वीइचयमाणस्स सेापीयाधियग्गाई पासह, पासित्ता एवं वयइ - एसणं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवण समुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयइति कट्टु તીર્થંકરની સાથે ખીજા તીર્થંકરના મેળાપ કાઇ પણ સોગામાં થતા નથી. એક ચક્રવર્તીના બીજા ચક્રવર્તીની સાથે, એક બળદેવના ખીજા બળદેવની સાથે તેમજ એક વાસુદેવના ખીજા કોઈ પણ વાસુદેવની સાથે કદાપિ મેળાપ થતા नथी. (तह वियणं तुमं कणहस्स वासुदेवस्स लवण समुहं मज्झं मज्झेणं वीइ. वयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाइ पासिहिसि ) हा, शुभ यह शडे छे } क्यारे તે કૃષ્ણવાસુદેવ લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઇને પસાર થતા હોય ત્યારે તમે તેમ ની सङ्केट, पीजी ध्वनयोना अग्रभागने लेह राओ। छो. ( तएण से ) कविले वासुदेवे मुणिन्त्रयं वंदर, नमसर, वंदित्ता नमंसित्ता हत्थिखंधं दुरूह, दुरूहित्ता सिंग्धं२ जेणेव वेलाउले, तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाहिं धयग्गाई पास, पासिता एवं वय, एसणं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे लस्य वासुदेवस्य शङ्खशब्दम् ' आयन्नेइ' आकर्णयति-शृणोति, आकर्ण्य पाश्चजन्यं यावत् मुखबातपूरितं करोति-कृष्णो वासुदेवः स्वकीयं शङ्ख वादयति, ततः खलु द्वावपि वासुदेवौ — संखसहसामायारि ' शङ्खशब्दसामाचारिं शङ्कशब्देन परस्परमिलनं कुरुतः। पंचयन संख परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ) इस प्रकार प्रभु का आदेश सुनकर उन कपिलवासुदेव ने उन प्रभु मुनिसुव्रत भगवंत को वंदना की, नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर वे अपने प्रधान हस्ती पर आरूढ हुए। और आरूढ होकर शीघ्र जहां लवणसमुद्र का वेलातट था -वहां पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने लवणसमुद्र के बीच से होकर जाते हुए कृष्णवासुदेव की श्वेत पीत ध्वजाओं के अग्रभाग को देखा देखकर तब मनमें विचार-किया ये ही मेरे जैसे उत्तम पुरुष कृष्णवासुदेव लवणसमुद्र के बीच से होकर जारहे हैंऐसा विचार कर उन्हों ने अपने पांचजन्य शंख को उठाया और उठा. कर उसे अपने मुख की वोयु से पूरित किया (तएणं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसदं आयन्नेह, आयन्नित्ता, पंचजन्ने, जाव पूरियं करेह, तएणं दो वि वासुदेवा संखसहसामायारिं करेइ, तएणं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीइवयइत्ति कडे पंचजन्नं संखं परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ) આ રીતે પ્રભુની આજ્ઞા સાંભળીને તે કપિલ વાસુદેવે તે પ્રભુ મુનિસુવ્રત ભગવંતને વંદન અને નમસ્કાર કર્યો. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેઓ પિતાના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને સવાર થઈને જલ્દી જ્યાં લવણું સમુ. દ્રને કિનારો હતો ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે લવણસમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થતા કૃષ્ણ વાસુદેવની સફેદ-પીળી દવાઓના અગ્રભાગને જે અને જોઈને મનમાં વિચાર કર્યો કે મારા જેવા ઉત્તમ પુરુષ કૃષ્ણ વાસુદેવ એ જ છે કે જેઓ લવણ-સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થઈ રહ્યા છે. આમ વિચાર કરીને તેમણે પાંચ જન્ય શંખને ઉઠાવ્ય અને ઉઠાવીને પિતાના સુખના પવનથી તેને પૂરિત કર્યો. (तएणं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयन्नेइ, आयबित्ता, पंचजन्नं जाव पूरियं करेइ तएणं दो वि वासुदेवा संखसई सामायारि करेइ, तएणं से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिना શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ९४१ ___ ततस्तदनन्तरं स कपिलो वासुदेवो यत्रैवामरकङ्काराजधानी तौवोपागच्छति, उपागत्यामरकको राजधानी संभग्नतोरणां यावत् पश्यति, दृष्ट्वा पद्मनाभमेवमवादीत्-कि-कस्मात् खलु हे देवानुप्रिय ! एषा अमरकंकां संभग्नतोरणा यावत्सनिपतिता ? ततः खलु स पद्मनामः कपिलं वासुदेवमेवमवादी-एवं खलु हे स्वामिन् ! जम्बूद्वीपाद् द्वीपाद भारताद् वर्षाद् इह हव्यमागत्य कृष्णेन वासुदेवेन 'तुम्भे परिभूए' युष्मान् परिभूय-अनादृत्य कपिलवासुदेवेन मम काऽपि हानिन शक्यते कर्तुमिति मनसि निधायेत्यर्थः, अमरकङ्का यावत् संनिपतिता। से कविले वासुदेवे जेणेव असरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं संभग्गतोरणं जाव पासइ, पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी ) तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख शब्द को सुना सुनकर उन्हों ने भी पांचजन्य शंख को अपने मुख की वायु से पूरित किया-बजाया-इस तरह वे दोनों वासुदेव साक्षात् रूप में न मिलकर शंख के शब्द से परस्पर में मिले। अब वे कपिल वासुदेव जहां वह अमरकंका नगरी थी वहाँ आये। वहां आकर उन्होंने अमरकंका राजधानी को संभग्न तोरण आदि वाला देखा । देखकर तब पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-(किण्णं देवाणुप्पिया! एसा अमरकंका संभग्ग जाव सन्निवइया ? तएणं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु सामी ? जंबूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूए अमरकंका जाव सन्निवाडिया) हे देवानुप्रिय ! यह अमरकंका नगरी क्या कारण है-जो अमरकंकारायहाणि संभग्गतोरणं जाव पासइ, पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी) જ્યારે કૃષ્ણવાસુદેવે કપિલ વાસુદેવના શંખને વનિ સાંભળે ત્યારે તેમણે પણ પિતાના પાંચજન્ય શંખને મુખના પવનથી પૂરિત કર્યો અને વગાડ. આ રીતે તેઓ બંને વાસુદેવ પ્રત્યક્ષ રીતે નહિ પણ શંખના ધ્વનિથી પરસ્પર મળ્યા. ત્યારપછી તે કપિલ વાસુદેવ જ્યાં તે અમરકંકા નગરી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે અમરકંકા રાજધાનીને ધજાઓ વગે. રેથી નષ્ટ થયેલી , જોઈને તેમણે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે– (किण्णं देवाणुप्पिया ऐसा अमरकंका संभग्ग जाव सनिवइया ? तएणं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! जंबूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्यमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूए अमरकंका जाव सनिवाडिया) श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे -- ततः खलु स कपिलो वासुदेवः पद्मनाभस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा पद्मनाभम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हं भो ! पद्मनाभ ! अप्रार्थित प्रार्थित ! =मरण. वाञ्छक !, किं खलु स्वं न जानासि मम सदृशपुरुषस्य वासुदेवस्य विप्रियं-विरुद्ध कुर्वत् !, इत्युक्त्या आशुरुतः शीघ्र क्रोधाऽऽक्रान्तः, यावत् पद्मनाभं 'णिव्विसयं' निर्विषय-विषयात स्वराज्याद् निर्गतं-निष्कासितं कर्तुम् ‘आणवेइ ' आज्ञापयति पदनामस्य पुत्रममरकङ्काराजधान्यां महता महता राज्याभिषेकेण अभिषिञ्चति, संभग्न तोरण आदि वाली होकर भूमिसात् हो गई है। तब पद्मनाभ राजा ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! इसका कारण इस प्रकार है-जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप से भरतक्षेत्र से यहाँ बहुत ही शीघ्र आकर कृष्ण वासुदेव ने आपकी कुछ भी परवाह न करके-कपिल वासुदेव हमारी कुछ भी हानि नहीं कर सकते हैं-ऐसा अपने मन में समझ करके-अमरकंका में आकर-उसे पहिले संभग्न तोरण वोली किया और बाद में विध्वस्तकर दिया। (तएणं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमढे सोच्चा पउमणाहं एवं वयासी) तव पद्मनाभ राजा के मुख से इस समाचार को सुनकर के उस कपिल वासुदेव ने उस पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-(हं भो! पउमणाभा! अपत्थियपस्थिया! किन्नं तुमं न जाणासि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ? असुरूत्ते जाव पउमणाहं णिविसयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्तं अमरकंका रायहाणीए महया હે દેવાનુપ્રિય! શા કારણથી આ અમરકંકા નગરીની ધજાઓ વગેરે પણ તૂટી ગઈ છે અને સંપૂર્ણ નગરી વિનષ્ટ થઈ ગઈ છે. ત્યારે પદ્મનાભ રાજાએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પામી ! વાત એવી છે કે જંબૂદ્વીપ નામના પ્રથમ દ્વિીપના ભરતક્ષેત્રથી અહીં બહુ જ જલદી આવીને કણવાસુદેવે તમારી જરાએ દરકાર કર્યા વગર “કપિલ વાસુદેવ અમારૂં કંઈજ કરી શકશે નહિ” આ જાતને પિતાના મનમાં વિચાર કરીને પહેલાં તે અમરકંકાના તેરણે નષ્ટ કર્યા અને ત્યારપછી આ નગરીને પણ જમીનસ્ત श नाभी छे. ( तएण से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स ऑतिए एयमढे सोच्चा पउनणाह एवं वयासी) त्यारे ५नाम राना भुमथी म सधी विगत सन. ળીને તે કપિલવાસુદેવે તે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે – (# भो ! पउमणाभा ! अपत्थियपत्थिया ! किन्नं तुमं न जाणासि मम सरिस परिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं फरेमाणे ? आसुरुत्ते जाव पउमणाहं णिनि श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५४३ यावत् प्रतिगत =पद्मनाभस्य पुत्रं राज्येऽभिषिच्य कपिलवासुदेवो यस्यादिशः मादुर्भूतस्तां दिशं प्रतिगत इति भावः ॥ सु०३० ॥ मूलम्-तए णं से कण्हे वासुदेव लवणसमुदं मझ मज्झेणं वीइवयइ, तं पंच पंडवे एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवानुप्पिया ! गंगामहानई उत्तरह जाव ताव अहं सुट्रियं लवणाहिवइं पासामि, तए णं तं पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगामहानई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करोति करित्ता एगट्टियाए नावाए गंगामहानई उत्तरंति उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति-पहू णं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगामहाणइं बाहाहिं उत्तरित्तए उदाहु णो पभू उत्तरित्तएत्ति कटु एगठियाओनावाओ महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव पडिगए) अरेओ मरणवाञ्छक पद्मनाभ ! मेरे जैसे पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय-अनिष्ट-करते हुए तुमने मेरा कुछभी ख्याल नहीं किया ? इस प्रकार कह कर वे उस पर बहुत अधिक कुपित हो गये। यावत् उस पद्मनाभ राजा को उन्हों ने अपने देश से बाहिर भी निकालदिया। तथा-उसका जो पुत्र सुनाभ था। उस को बड़े भारी उत्सवके साथ राज्य में अभिषिक्त किया। इस प्रकार पद्मनाभ के पुत्र को राज्य में अभिषिक्त करके वे कपिल वासुदेव जिस दिशोसे आये थे उस दिशाकी ओर वापिस चले गये।।सू३०॥ संयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्तं अमरकंका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, जाव पडिगए) ' અરે, એ મૃત્યુને ઈચ્છનાર પાનાભ! મારા જેવા પુરુષ કૃષ્ણ વાસુદેવનું બુરું કરતાં તે મારી પણ દરકાર કરી નહિ? આ પ્રમાણે કહીને તેઓ ખૂબજ ક્રોધિત થઈ ગયા. યાવત્ તે પાનાભ રાજાને પોતાના દેશથી બહાર પણ નસાડી મૂક. ત્યારપછી તેના પુત્ર સુનાભને ભારે ઉત્સવની સાથે રાજ્યાભિષેક કર્યો. આ રીતે પદ્મનાભના પુત્રને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને કપિલ વાસુદેવ જે દિશા તરફથી આવ્યા હતા તે દિશા તરફ પાછા જતા રહ્યા. એ સૂત્ર ૩૦ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - --- - --- - -- --- - - - - ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे णूमेंति मित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणार चिटुंति, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवइं पासइ पासित्ता जेणेव गंगामहाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगट्टियाए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता एगट्रियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससारहिगेण्हइ एगाए बाहाए गंगं महाणइं बासहिँ जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिन्नं उत्तरिउं पयत्ते यावि होत्था, तएणं से कण्हे वासुदेवे गंगामहाणईए बहुमज्झदेसभाग संपत्ते समाणे संते तंते परितंते बद्धसेए जाए यावि होत्था तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अब्झथिए जाव समुप्पज्जित्था अहो णं पंच पंडवा महाबलवगा जेहिं गंगामहाणई वासर्द्धि जोयणाइं अद्धजोयणं च विच्छिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा, इत्थंभूएहिं णं पंचहिं पंडवेहिं पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए, तएणं गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एया. रूवं अज्झत्थियं जाव जाणित्ता थाहं वितरइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे मुहत्तंतरं समासासइ समासासित्ता गंगामहाणइं बावटुिं जाव उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं वयासी-अहो णं तुब्भे देवाणुप्पिया! महाबलवगा जेणं तुब्भेहिं गंगामहाणई बासहिं जाव उत्तिण्णा, इत्थं भूएहिं तुब्भेहिं पउमं जाव णो पडिसेहिए, तएणं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे तुब्भेहिं विसजिया समाणा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् जेणेव महाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगट्ठियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव णूमेमोतुब्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो तएणं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्हं पांडवाणं एयमद्रं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाव तिवालयं एवं वयासी-अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिण्णं वोइवइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहिताअमरकंका संभग्गन्दोवई साहत्थिं उवणीया तया णं तुब्भेहिं मम महप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सहत्तिकट्ठ लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ चूरित्ता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रह मदणे णामं कोड्डे णिविटे, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ उवाच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवईणयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसइ॥सू०३१॥ टीका-'तएणं से इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स कृष्णो वासुदेवो लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजति गच्छति व्यतिव्रज्य तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत्त-उतीर्णा भवत, __तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्णवासुदेवने (लवणसमुदं) जब लवण समुद्र में (मज्झं मझेणं वीइवयइ ) वीच से होकर वे चले जा रहे थे। (ते पंच पंडवे एवं वयासी ) तब पांच पांडवों से ऐसा कहा-(गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! गंगामहानइं उत्तरह जाव तएणं से कण्णे वासुदेवे इत्यादि 2014-(तएणं) त्या२५छ। (से कण्हे वासुदेवे) ते वासुदेव (लवणसमुदं। है न्यारे तसा सव समुद्रनी (मझ मज्झेणं वीइवयइ) पश्ये ५४२ ५सार थता हता त्यारे (ते पंच पंडवे एवं क्यासी) पांय ५isa मा प्रभारी ४j (गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! गंगा महानदि उत्तरह जाव ताव अह सुट्टिय श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे 9 , यावत् तावदहं सुस्थितं देवं लवणाधिपतिं पश्यामि सुस्थितेन देवेन सह मिलित्वा तमापृच्छयागच्छामि, ततः खलु ते पञ्चपाण्डवा कृष्णेन वासुदेवेन एवमुक्ताः सन्तो यत्रैव गङ्गामहानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' एगडियाए ' एकार्थिकायाः = महानौकासमानकार्यकारिण्याः ' नावाए ' नावः-नौकाया मार्गणगवेषणं कुर्वन्ति । कृत्वा = मार्गणगवेषणं कृत्वा नौकायामारुह्य ते पञ्च पाण्डवा एकार्थकया नावा गङ्गामहानदी मुत्तरन्ति उत्तीर्य अन्योन्यम्-परस्परमेवं वदन्ति' पह प्रभुः समर्थः, खलु हे देवानुमियाः ! कृष्णो वासुदेवो गङ्गामहानदीं ' बाहाहिं बाहुभ्यां= भुजाभ्याम् ' उत्तरितए ' उत्तरीतुम् ' उदाहु' उताहो अथवा नो ताव अहं सुट्टियं लवणाहिवई पासामि ) हे देवानुप्रियाँ ! तुमलोग जाओ और गंगानदी को पार करो तबतक मैं लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से मिलकर और उनकी आज्ञा लेकर आता हूँ। (तएर्ण ते पंच पंडवा कण्हेणं वसुदेवेणं एवं बुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति, करिता एगट्टियाए गंगामहानई उत्तरंति ) इस तरह कृष्ण वासुदेव द्वारा कहे गये वे पांचों पांडव जहां गंगा महानदी थी वहां आये । वहां आकर के उन्होंने एकार्थिक- महानौकासे जैसी कार्य साधक - नौका मार्गणा एवं गवेषणा की, मार्गणा गवेषणा कर के वे पांचों पांडव नौका पर चढ गंगा महानदी से पार हो गये । (उत्तरिता अण्णमण्णं एवं वयंति पहूणं देवाणुपिया ! कण्हे वासुदेवे गंगा महानई बाहाहिं उत्तरि लवणाहिवई पासामि ) हे देवानुप्रियो ! तमे सोने हवे भयो भने गंगा નદીને એળંગા ત્યાંસુધી હું લવણુ સમુદ્રના અષિપતિ સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને આવું છું. (तरणं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ता समाणा, जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मम्गणग वेसणं करेंति, करिता एगट्टियाए नावाए गंगा महानई उत्तरंति ) આ રીતે કૃષ્ણવાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા તે પાંચે પાંડવે જ્યાં ગંગા મહા નદી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે એકાર્થિક મહાનૌકા જેવી કામમાં આવી શકે તેવી નૌકાની માણા તેમજ ગવેષણા કરી. માણા તેમજ ગવેષણા કરીને તે પાંચે પાંડવો નૌકા ઉપર સવાર થઈને ગગા મહા નદીને પાર ઉતરી ગયા. ( उत्तरिता अण्णमण्णं एवं वयंति पहूणं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५४७ प्रभुः समर्थ उत्तरीतुम् , इति कृत्वा गङ्गामहानद्या बाहुभ्यामुत्तरणे कृष्णवासुवदेस्य सामर्थ्यमस्ति, नास्ति वा तद् विजानामीति विचार्य एकाथिकां नावं नौकां 'मेति' गोपयन्ति । गोपयित्वा कृष्णं वासुदेवं 'पडिबालेमाणा' प्रतिपालयन्तः प्रतीक्षमाणाः तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थितं देवं लवणाधिपतिं पश्यति-सुस्थितेन साकं मिलति दृष्ट्वा तमापृच्छय यत्रैव गङ्गामहानदी तवोपागच्छति, उपागत्य एकाथिकाया नावा-नौकाया मार्गणगवेषणं करोति, कृत्वा, एकार्थिकां नावमपश्यन् एकेन बाहुना रथं सतुरगं-सहाश्व, सए उदाहुणो पभू उत्तरित्तए तिकटूटु एगट्टियाओ णावाओ मेंति, गृमित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवाले माणा २ चिट्ठति, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुद्वियं लवणाहिवइं, पासइ, पासित्ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छद) जब पार होकर वे तट पर पहुँच चुके-तब परस्पर में उन्हों ने ऐसा विचार किया-हे देवानुप्रियो ! देखो कृष्ण वासुदेव गंगा महानदी को हाथों से तैरकर पार करने में समर्थ हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं ? इस प्रकार विचार करके उन्हों ने उस एकाधि नौका को कृष्ण वासुदेव के आने के लिये वापिस उस पार भेजा नहीं वहीं पर छिपा दिया । और छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते वे वहीं ठहरे रहे। उधर-कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से जाकर मिले और उसकी आज्ञा लेकर जहां गंगा नदी थी वहां आये । (उवागच्छित्ता एगट्टियाए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेई, करित्ता एगट्टियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेण्हइ महानई बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहु णो पभू उत्तरित्तए त्तिकटु एगद्वियाओ णावाओ णूमेंति, मित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणार चिटुंति, तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई, पासइ, पासित्ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ ) પાર ઉતરીને જ્યારે તેઓ કિનારે પહોંચી ગયા ત્યારે તેમણે પરસ્પર વિચાર કર્યો કે હે દેવાનુપ્રિયે ! કુવાસુદેવ ગંગા મહાનદીને હાથે વડે તરીને પાર કરી શકે કે નહિ? આમ વિચાર કરીને તેમણે તે “એકાર્થિ નૌકાને કૃષ્ણવાસુદેવને લાવવા માટે પાછી મોકલી નહિ પણ ત્યાંજ છુપાવી દીધી. અને છુપાવીને તેઓ ત્યાંજ કૃષ્ણ વાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રોકાઈ ગયા. કૃષ્ણવાસુદેવ લવણ સમુદ્રાધિપતિ સુસ્થિતદેવને મળ્યા અને તેની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને જ્યાં ગંગા નદી હતી ત્યાં આવ્યા. ( उवागच्छित्ता एगढियाए सव्वो समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करिता एगट्टियं अपासमाणे एगाए बाहाए रह सतुरग ससारहिं गेण्हइ, एगाए बाहाए श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ससारथिं गृह्णाति एकेन बाहुना गङ्गां महानदी · बासर्टि' द्वापष्टिं योजनानि अर्धयोजनं च - वित्थिन्नं ' विस्तीर्णाम् , उत्तरितुं प्रवृत्तश्चाप्यभवत् , ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो गङ्गामहानद्या बहुमध्यदेशभागं संप्राप्तः सन् ‘संते ' श्रान्तः श्रमप्राप्तः, 'तंते ' तान्तः खिन्नः परितंते ' परितान्तः सर्वथा खिन्नः ‘बद्धसेए ' संप्राप्तस्वेदः, जातश्चाप्यभवत् । ___ ततः खलु कृष्णस्य वासुदेवस्यायमेतद्प आध्यात्मिको यावत् मनोगत संकल्पः समुदपद्यत-अहो खलु पश्च पाण्डवा महाबलवन्तः, यैर्गङ्गामहानदी द्वापष्ठि योजनानि अर्धयोजनं च वित्थिना-विस्तीर्णा बाहुभ्यामुत्तीर्णा, ' इत्थंभूएहि ' इत्थंभूतैः-ईदृशपराक्रमशालिभिः खलु पश्चभिः पाण्डवैः पद्मनाभो राजा यावत् नो एगाए बाहाए गंगं महाणई वासहि जोयणाइं अद्धजोयणं च विच्छिन्नं उत्त रिपयत्ते यावि होत्था) वहां आकर के उन्हों ने एकाधिक नौका की सय तरफ सब प्रकारसे मार्गणा गवेषणा की 'मार्गणागवेषण करके जब उनके देखने में एकार्थिक नौका नहीं आई, तब सारथि और घोडों से युक्त रथ को उन्हों ने एक हाथ से पकड़ा और एक हाथ से ६२॥, साढे वासठ, योजन विस्तीर्ण उस गंगा महानदी को तैरकर पार करना प्रारंभ किया। (तएणं से कण्हे वासुदेवे गंगा महाणईए बहुमज्झदेसभागं संपत्ते समाणे संते, तंते, परितंते, बद्धसेए जाए यावि होत्था, तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था -अहोणं पंच पंडवा महाबलवगा, जेहिं गंगामहाणई वासहि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा इत्थंभूएहिं णं पंचहिं पंड. गंगं महाणइं वासहूिँ जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिन्नं उत्तरिपयत्ते यावि होत्था) ત્યાં આવીને તેમણે “એકાથિક” નૌકાની ચેમે બધી રીતે માર્ગણુ ગવેષણા કરી. માગણા તેમજ ગષણ કરીને જ્યારે “એકોર્થિક નૌકા તેમના જોવામાં આવી નહિ ત્યારે સારથિ અને ઘોડાથી યુક્ત રથને તેમણે એક હાથમાં ઉપાડ અને એક હાથ વડે ૬૨” જન વિસ્તીર્ણ તે ગંગા મહા નદીને તરીને પાર કરવા લાગ્યા. (तएणं से कण्हे वासुदेवे गंगा महाणईए बहुमज्झदेस भागं संपत्ते समाणे संते, तंते, परितंते, बद्ध सेए जाए यावि होत्था, तएणं कण्हस्स वासुदे वस्स इमे एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-अहोणं पंच पंडवा महाबलवगा जेहि गंगा महाणई वासर्टि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा इत्थं श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५४९ प्रतिषेधित:नो पराजितः, इदमाश्चर्यम् , ततः खलु गङ्गादेवी कृष्णस्य वासुदेवस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं यावत् मनोगतं संकल्प ज्ञावा' थाहं ' स्ताघ-गाधवितरति, ददाति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो मुहूर्तान्तरे ' समासासइ' समाश्व. सिति-विश्रामं प्राप्नोति समाश्वस्य गङ्गामहानदी द्वापष्ठिं यावद् उत्तरति, उत्तीर्य वेहिं पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए-तएणं गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एयारूवं अज्झस्थिए जाव जाणित्ता थाहं वितरइ ) तैरते २ जब वे कृष्णवासुदेव गंगा महानदी के ठीक मज्झ-मध्य भाग में आये-तब वहां तक आते २ वे श्रम प्राप्त हो गये, खेदखिन्न बन गये, और सर्वथा थक गये। यहां तक कि उनके शरीर भर में थकावट की बजह से पसीना २ हो गया। तब उन कृष्णवासुदेव को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। देखो-ये पांचो पांडव बड़े बलिष्ट है-जिन्हों ने ६२॥, योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को हाथों से तैरकर पार कर दिया परन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात हैं-कि ऐसे पराक्रम से युक्त होते हुए भी इन पांडवों से वह पद्मनाभ राजा प्रतिषेधित नहीं हो सका-जीता नहीं जा सका। इस प्रकार के उन कृष्णवासुदेव के इस रूप इस आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प को गंगादेवी ने जानकर उन्हें थाह दे दी ( अधार दिया)। (तएणं से कण्हे वासुदेवे मुहुत्तत्तरं समासासइ) थाह प्राप्त कर कृष्णवासुदेव ने वहां भूएहिं णं पंचहिं पंडवेहिं पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए-तएणं गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एयारूवं अज्झस्थिए जाव जाणित्ता थाहं वितरइ) તરતાં તરતાં જ્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવ ગંગા મહાનદીના એકદમ મધ્યમાં આવ્યા-ત્યાંસુધી આવતાં આવતાં તે તેઓ થાકી ગયા, ખેદખિન્ન થઈ ગયા, અને એકદમ થાકી ગયા, થાકને લીધે તેમનું સંપૂર્ણ શરીર પરસેવાથી તરબળ થઈ ગયું. ત્યારે તે કૃષ્ણવાસુદેવને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત્ મને ગત સંક૯૫ ઉદ્દભવ્યું કે જુઓ આ પાંચ પાંડવ કેટલા બધા બલિષ્ટ છે કે જેમણે ૬૨ જન વિસ્તીર્ણ આ ગંગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી છે પણ એની સાથે આ પણ એક નવાઈ જેવી વાત છે કે એવા પરાક્રમી હેવા છતાંએ આ પાંડવોથી તે પદ્મનાભ રાજા યાવત્ પરાજીત કરી શકાશે નહિ. કૃણવાસુદેવના ગંગા મહાનદીએ આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ મને ગત ६५ arola तमना भाट थाइ मापी. (तएणं से कण्हे वासुदेवे मुहत्तंत्तरं समासासइ) थाइ मेजवान ०७३पासुहेवे थाडीवार त्या विश्राम या (समासा०) વિશ્રામ કર્યા બાદ તેમણે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र यत्रैव पञ्च पाण्डवास्तौवोपागच्छति, उपागत्य पश्च पाण्डवान् एवमवादीत्अहो खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! महाबलचन्तः येन युष्माभिर्गङ्गा महानदी द्वापष्टि योजनानि अर्धयोजनं च विस्तीर्णा यावद् उत्तीर्णा, इत्थंभूतैर्युष्माभिः पद्मनाभो यावत् नो प्रतिषेधितः पराजयं न प्रापितः, ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः थोड़ी देर तकविश्राम किया (समासो०)विश्राम करके फिर उन्होंने (गंगा महाणइं बावडिंजाव उत्तरह,उत्तरित्ताजेणेव पंचपंडवातेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं वयासी-अहोणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! महाबलवगा जेणं तुम्भेहिं गंगा महाणई वासहि जाव उत्तिण्णा, इत्थंभूएहिं तुम्भेहिं पउम जाव णो पडिसेहिए, तएणं ते पंचपंडवा कण्हे णं वासु देवेणं एवं वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया! अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्तो एगट्टियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव गुमेमो तुम्भे पडिवाले माणा चिट्टामो) साढे बासठ योजन विस्तीर्ण उस गंगा महानदी को तैरकर पार कर दिया। पार करके फिर वे वहां आये-जहाँ ये पांचो पांडव थे ! वहां आकर उन्हों ने उन पांचो पांडवों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों ! तुमलोग बहुत ही अधिक बलशाली हो जो तुमलोगों ने ६२॥ योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को बाहुओं से तैरकर पार कर दिया। परन्तु यह आश्चर्य की बात हैं कि इतने बलशाली होकर भी जो तुम से पद्मनाभ राजा पराजित नहीं हो सका। (गंगा महाणइं बावहिं जाव उत्तरइ, उत्तरित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं वयासी-अहोणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! महाबलवगा जेणं तुम्भेहिं गंगा महाणई वासहि जाव उत्तिण्णा इत्थं भूएहि तुम्भेहिं पउमं जाव णो पडिसेहिए, तरणं ते पंच पंडवा कण्हे ण वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगढियाए मग्गण गवेसणं तं चेव जाव 'मेमो तुब्भे पडिवाले माणा चिट्ठामो) દર જન વિસ્તીર્ણ તે ગંગા મહાનદીને તરીને પાર પહોંચી ગયા પાર પહોંચીને તેઓ જ્યાં પાંચે પાંડવો હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પાંચ પાંડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે બહુ જ બળવાન છે કેમકે તમે લેકેએ ૬૨” યાજન વિસ્તીર્ણ આ ગંગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી છે. પણ એની સાથે આ એક નવાઈ જેવી વાત છે કે તમે આટલા બધા બળવાન હોવા છતાં પણ પદ્મનાભ રાજાને હરાવી શકયા નહિ. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तः कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत-एवं खलु हे देवानु. प्रियाः ! वयं युष्माभिर्विसर्जिताः सन्तो यत्रैव गङ्गा महानदी तत्रैवोपागच्छामः, उपागत्य ' एगट्ठियाए ' एकाथि काया नावो मार्गणगवेषणं कृत्वा 'तं चेव जाव मेमो' तदेव-यदुक्त पूर्व तदेवात्र बोध्यमित्यर्थः-तां नावमधिरुह्य वयं गङ्गामहानदीमुत्तीर्णाः, ततः खलु हे देवानुप्रियाः ! गङ्गां महानदी बाहुभ्यामुत्तरितुं भवन्तः शक्नुवन्ति नवा, इति ज्ञातुं चयमेकाथिकां नौकां यावद् ‘णूमेमो' गोपयामः, युष्मान् पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः-प्रतीक्षमाणा वयं तिष्ठामः । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तेषां पञ्चानां पाण्डवानाम् एतमर्थ श्रुत्वा आकर्ण्य निशम्य हृद्यवधार्य आशुरुताः-शीघ्रं संजातकोपः, यावत् त्रिवलिका-रेखाइस प्रकार जब कृष्णवासुदेवने उन पांचो पांडवों से कहा तब उन्हों ने कृष्णवासुदेव से ऐसा कहा हे देवानुप्रिय ! सुनिये-बात इस प्रकार है जब हमलोगों को आपने वहां से विसर्जित कर दिया-तब हमलोग जहां गंगा महानदी थी-वहाँ आये-वहां आकर हमलोगों ने एकार्थिक नौका की मार्गणा गवेषणा की-नाव के मिलते ही हमलोग उसपर चढकर यहां गंगा नदी को पार कर आये हैं। हमलोगों ने यहां आकर फिर हे देवानुप्रिय ! ऐसा विचार किया - कि - कृष्णवासुदेव गंगा महानदी को हाथों से पार कर सकते है या नहीं-इसी बात को जानने के लिये हमलोगों ने उस एकाथिक नौका को यहीं छिपा कर रख दिया है । और आपकी प्रतीक्षा में यहां ठहरे हुए हैं । (तएणं से कण्हे वासुदेवे तेसि पंचण्हं पांडवाणं एयमटुं सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव तिवઆ રીતે જ્યારે કૃષ્ણવાસુદેવે તે પાંચ પાંડવોને કહ્યું ત્યારે તેમણે કૃણવાસુ દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! સાંભળે, વાત એવી છે કે અમને બધાને તમે જ્યારે વિદાય કર્યા ત્યારે અમે લોકો જ્યાં ગંગા મહાનદી હતી ત્યાં આવ્યા, ત્યાં આવીને બધાએ એકર્થિક નૌકાની માગણા ગષણા કરી. નૌકા પ્રાપ્ત થતાં જ અમે બધા તેમાં બેસીને ગંગા મહાનદીને પાર કરીને આ તરફ આવી ગયા. આ તરફ આવીને હે દેવાનુપ્રિય! અમે લેકેએ આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે-કૃષ્ણવાસુદેવ ગંગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી શકશે કે કેમ ? આ વાત જાણવા માટે જ અમે લોકોએ તે એકર્થિક નૌકાને છુપાવીને તમારી પ્રતીક્ષા કરતાં અમે અહીં જ બેસી રહ્યાં હતા. ( तए णं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्डं पांडवाणं एयमह सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाब तिवलियं एवं वयासी-अहोणं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयण श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे त्रयुक्तां भुकुटि ललाटे उन्नीय प्रदर्श, एवमवादीत-अहो-आश्चर्य खलु ' जया' यदा-यस्मिन् समये, मया लवणसमुद्रं 'दुवे जोयणसयसहस्सा विस्थिणं ' द्वियोजनशतसहस्रविस्तीर्ण द्विलक्षयोजनपरिमितं विस्तीर्ण 'वीइवहत्ता' व्यतिव्रज्यसमुल्लङ्ध्य, पद्मनाभं राजानं ' हयमहिय-जाव पडिसेहिता' हतमथित-यावत् लियं एवं वयासी-अहोणं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिन्नं वीइवइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहित्ता अमरकंका संभग्ग० दोवई साहत्यि उवणीया तया णं तुम्भेहिं मम माहप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सह, त्ति कटूटु लोहदंडं परामुसह, पंचण्हं पंड. वाणं रहे चूरेइ, चूरित्ता णिविसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रहमद्दणे णाम कोडूडे गिवेढे,तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धि अभिसमन्नोगए यावि होत्था, से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवईए णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसइ) उन पांचो पांडवों के मुख से इस कथन रूप अर्थ को सुनकर और उसे अपने हृदय में अवधारित कर उन कृष्णवासुदेव को इकदम क्रोध आ गया। त्रिवलियुक्त उनकी दोनों भृकुटियां ललाटतट पर चढ गई। उसी समय उन्हों ने उन पांडवों से कहा यह बड़े आश्चर्य की बात है-जिस समय मैंने २ दो लाख योजन विस्तारवाले लवणसमुद्र को उल्लंघन कर पद्मनाभ राजा को संग्राम मे जीता-उस की सेना को हत मथित किया-राजचिन्हस्वरूप उसकी सयसहस्सा विछिन्नं वीइवइत्ता पउमणामं हय महिय जाव पडिसेहित्ता अमरकंका संभग्ग० दोवई साहस्थि उवणीया तयाणं तुब्भेहिं मम माहप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सह, तिकट्टु लोहदंडं परामुसइ, पंचण्डं पंडवाणं रहे चूरेइ, चूरित्ता णिविसए आणवेइ आणवित्ता तत्यणं रहमदणे णामं कोड्डे णिवेढे, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं खंधा वारेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्या तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवइ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसइ) તે પાંચે પાંડવોના મુખથી આ કથનરૂપ અર્થને સાંભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં અવધારિત કરીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવ એકદમ ક્રોધાવિષ્ટ થઈ ગયા. ત્રિવલિયુક્ત તેમના બંને ભમ્મરો વક્ર થઈ ગયા. તેમણે તે જ સમયે પાંડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ ખરેખર નવાઈ જેવી વાત છે કે જ્યારે મેં ૨ લાખ જન વિસ્તીર્ણ લવણ સમુદ્રને ઓળંગીને પદ્મનાભ રાજાને યુદ્ધમાં જ, તેની સેનાને મથી નાખી, રાજચિહ સ્વરૂપ તેની પ્રશસ્ત વિજા પતાકાઓને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५३ प्रतिषेध्य-हतमथितप्रवरवीरघातितनिपतितचिह्नध्वजपताकं यावत् प्रतिषेध्य = संग्रामात् प्रतिनिवर्त्य-पद्मनाभं विजित्येत्यर्थः, अमरकंकां राजधानी संभग्नतोरणा यावद् विनिपातिता-विध्वंसिता,तथा-द्रौपदी स्वहस्तेनोपनीता-भवद्भयः प्रदत्ताः, ' तयाणं' तदा तस्मिन् समये खलु युष्माभिर्मम 'माहप्पं ' माहात्म्यं महत्व वलं, 'ण विण्णायं ' न विज्ञातम् ' इयाणि ' इदानीम्-अस्मिन् समये 'जाणिस्सह ' ज्ञास्यथ, इति कृत्वा इत्युक्त्वा, लोहदण्डं 'परामुसइ' परामृशति-गृह्णाति पञ्चानां पाण्डवानां रथान् चूर्णयति, चूर्णयित्वा 'णिव्विसए आणवेइ' निर्विषयान् आज्ञापयति-विषयात् स्वदेशतो निर्गताः बहिर्याता इति निर्विषयास्तान , यूयं मम देशात् निर्विगच्छत, इत्याज्ञापयति स्म ' इत्यर्थः । आज्ञाप्य तत्र खलु ' रहमदणे णामं कोटे णिविटे' रथमर्दननामा कोष्ठो निविष्टः-रथमर्दनपुरं नाम नगरं स्थापितम् । ततस्तदनन्तरं स कृष्णो वासुदेवो यत्रैव स्वकः निजः, 'खंधावारे ' स्कन्धावारः-सेनानिवेशस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्वकेन स्कन्धावारेण-सोपकरणसैनिकेन सार्धम् अभिसमन्वागतः मिलितश्चाप्यभवत् । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो यत्रैव द्वारवती नगरी, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, अनुपविशति ॥स्०३१॥ प्रशस्त ध्वजा पताकाओं को जमीन में मिलादिया-उस की राजधानी अमरकंका नगरी को ध्वस्त कर दिया, तथा उससे द्रौपदी को अपने हाथ से लाकर तुमलोगों को दिया उस समय तुमलोगों ने मेरे बल को नहीं जाना ? जो अब जानोगे-ऐसा कहकर उन वासुदेव कृष्ण ने लोह दंडे को उठाया-और उससे पांचों पांडवों के रथों को चूर २ कर दिया। चर २ कर के फिर उन्हें देश से बाहिर हो जाने की आज्ञा देदी । आज्ञा देकर उन कृष्ण वासुदेव ने वहीं पर एक रथमदन नाम का नगर वसा दिया । इस के बाद वे कृष्ण वासुदेव जहां अपना स्कंधावार था वहाँ જમીનદોસ્ત કરી નાખી તેની રાજધાની અમરકંકા નગરીને નષ્ટ કરી નાખી અને તેની પાસેથી દ્રૌપદીને લાવીને તમને સેંપી દીધી તે વખતે તમે લેક મારા બળને જાણી શકયા નહિ તે હવે મારા બળને તમે જુએ-આમ કહીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવે લેહદંડને હાથમાં લીધું અને તેનાથી તેમણે પાંચ પાંડવોના રથના ભૂકેભૂકા ઉડાવી દીધા. રથને નષ્ટ કરીને તેમણે પાંચે પાંડવોને દેશથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી. આજ્ઞા આપીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવે તે સ્થળેજ એક રથમઈન નામે નગર વસાવ્યું. ત્યારપછી તે કૃષ્ણવાસુદેવ જ્યાં પોતાના સિન્યની છાવણી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ પોતાના સૈનિકોને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे मूलम्-तएणं ते पंच पंडवा जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जेणेव पंडू तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल एवं वयासी-एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं णिव्विसया आणत्ता, तएणं पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासीकहाणं पुत्ता ! तुन्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिव्विसया आणत्ता?, तएणं ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं वयासी-एवं खलु ताओ! अम्हे अमरकंकाओ पडिणियत्ता लवणसमुदं दोन्नि जोयणसयसहस्साई वीइवइत्ता तएणं से कण्हं अम्हे एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! गंगामहाणई उत्तरह जाव चिट्ठह ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई दट्टण तं चेव सव्वं नवरं कण्हस्स चिंता ण जुज्जइ जाव अम्हे णिव्विसए आणवेइ,तएणं से पंडुराया ते पंचपंडवे एवं वयासा-दुट्ठणं पुत्ता ! कयं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमा. हिं, तएणं से पंडुराया कोंतिं देवि सदावेइ सदावि त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! बारवई कण्हस्स वासुदेवस्स णिवेदेहि-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुम्हे पंच पंडवा णिवि. सया आणत्ता तुमं च णं देवाणुप्पिया ! दाहिणभरहस्स सामी तं संदिसंतुणं देवाणुप्पिया पंच पंडवा कयरं दिसि वा विदिसं आये। वहां आकर वे अपने सैनिकों के साथ मिले। बाद में जहां द्वारावती नगरी थी उस ओर चल दिये वहाँ पहुँच कर वे द्वारावती नगरी में प्रविष्ट हुए ॥ सू० ३१ ।। મળ્યા, ત્યારબાદ તેઓ જે તરફ દ્વારાવતી નગરી હતી તે તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહોંચીને તેઓ દ્વારાવતી નગરીમાં પ્રવિષ્ટ થયા છે. સૂત્ર ૩૧ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५५ वा गच्छंतु ?, तएणं सा कोंती पंडुणा एवं वुत्ता समाणी हत्थिखंधं दुरूहइ दुरूहित्ता जहा हेट्टा जाव संदिसंतु णं पिउत्था! किमागमणपओयणं ?, तएणं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु पुत्ता ! तुमं पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता तुमं च णं दाहिणभरह जाव विदिसं वा० गच्छंतु ?, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं देवि एवं वयासी--अपूईवयणाणं पिउस्था ! उत्तमपुरिसा वासुदेवा बलदेवा चक्कवट्टी तं गच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेलाऊलं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु ममं अदिट्ठसेवगा भवतु तिकटु कोतिं देविं सकारेइ सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमदं णिवेदेइ, तएणं पंड पंच पंडवे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे पुत्ता ! दाहिणिल्लं वेलाऊलं तत्थ ण तुब्भे पंडुमहुरं णिवेसेह, तएणं पंच पंडवा पंडुस्स रपणो जाव तहत्ति पडिसुणेति सबलवाहणा हयगय० हस्थिणाउराओ पडि. णिक्खमंतिपडिणिक्खमित्ताजेणेवदक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नगरिं निवसति निवेसित्ता तत्थ णं तेविपुलभोगसमिति समण्णागया यावि होत्था ॥ सू० ३२ ।। टीका-'तएणं ते इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु ते पञ्च पाण्डवा यौव हस्तिनापुर नगरं तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य यत्रैव पाण्डू राजा तत्रैवोपागच्छन्ति, -: तएणं ते पंच पंडवा इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते पंच पंडवा) वे पांचों पांडब (जेणेव हस्थिणा उरे ) जहां हस्तिनापुर नगर था (तेणेव उवागच्छंति) वहां तएण ते पंच पंडवा इत्यादि Astथ-(तएणं) त्या२५छी (ते पंच पडवा) ते पाये ५isी (जेणेव हत्थिणा उरे) arni स्तिनापुर ना२ तुं ( तेणेव उवागच्छति ) ५i माव्या. (उवा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादिषुः- एवं खलु हे तात ! वयं कृष्णेन निर्विषयाः = विषयाद मम देशाद् बहिर्निर्गताः आज्ञप्ताः = कृष्णोऽस्मान् देशाद् बहि र्निगन्तुमाशप्तवानि - त्यर्थः । ततः खलु पाण्डू राजा तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवादीत् -' कहण्णं' कथंकेन कारणेन खलु हे पुत्र ! यूयं कृष्णेन निर्विषया आज्ञप्ताः ? ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पाण्डुं राजानम् एवमवदन् - एवं खलु हे तात ! वयममरकङ्कातः प्रतिनिवृत्ता लवणसमुद्र' दोन्निजोयणसयं सहस्साइं 'द्वियोजनशतसहस्राणि द्विलक्षयोजrपरिमितं ' वीवत्ता ' व्यतित्रजिताः - उल्लङ्घिताः । ततः खलु स कष्णोआगए ( उवागच्छित्ता) वहां आकर के ( जेणेव पंडू ) वे जहां पांडु राजा थे ( तेणेव उवागच्छंति) वहां गये ( उवागच्छित्ता) वहां जाकर ( करयल एवं वयासी) उन्हों ने अपने २ दोंनों हाथों कों जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा - ( एवं खलु ताओ !) हे पिताजी ! सुनो- (अम्हे कण्हेणं णिविसया आणता ) हमलोगों को कृष्ण वासुदेव ने देश से निकल जने को कहा है (तरणं पंडुराया पंच पंडवे एवं वयासी) तब पांडु राजा ने उन पांचों पांडवों से इस प्रकार कहा - ( कहण्णं पुत्ता तुम्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिव्विसया आणत्ता) हे पुत्रो ! किस कारण को लेकर कृष्ण वासुदेव ने तुमलोगों को देश से बाहिर निकल जाने को कहा है (तएणं ते पंच पंडवा पंडुराया एवं वयासी) तब उन पांचों पांडवों ने पांडु राजा से इस प्रकार कहा - ( एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकाओ पडिणियत्ता लवणसमुहं दोन्नि जोयणसयसहस्साइं वीइवइत्ता ) हे तात ! गच्छित्ता ) त्यां भावीने ( जेणेव पंडू ) तेथे। कयां पांडु शन्न हता ( तेणेव उवागच्छंति ) त्यां गया. ( उवागच्छित्ता ) त्यां धने ( करयल० एवं वयासी ) તેમણે પાતપેાતાના અને હાથો જોડીને તેમને આ પ્રમાણે વિન'તી કરી કે ( एवं खलु ताओ) हे पिता ! सांलणे, ( अम्हे कण्हेणं णिव्विसया आणत्ता ) सॄष्णुवासुदेवे अभने हेराथी महारता रहेवानी याज्ञा खायी छे. (तएणं पंडु राया पंच पंडवे एवं वयासी) त्यारे पांडु शमये पांये पांडवोने या प्रमाणे उ - ( कहणं पुत्ता तुभे कण्हेणं वासुदेवेणं णिव्विसया आणत्ता ) हे पुत्रो ! કૃષ્ણવાસુદેવે શા કારણથી તમને દેશમાંથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી छे ? ( तणं ते पंच पंडवा पंडुराया एवं वयासी ) त्यारे ते यांचे पांडवो पांडु राजने आ प्रमाणे धुंठे - ( एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकाओ पडिणियन्त्ता लवण समुहं दोन्नि जोयणसयसहरसाई वोइवइत्ता ) हे पिता ! सांलणे, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५७ ऽस्मान् एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत, यावत् तिष्ठत । ताव अहं एवं तहेव ' जाव चिट्ठामो ' एवं यथा कृष्णवासुदेवस्य वाक्यं पूर्वमुक्त तथैवात्र बोध्यम्-तावदहं सुस्थितं लवणाधिपतिं पश्यामीति । 'नाव चिट्ठामो' यावत्तिष्ठामः-अत्र यावच्छब्देनैवं योजनीयम्-ततः खलु वयं कृष्णवासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो नौकया गङ्गामहानदीमुत्तीर्य, कृष्णो बाहुभ्यां गङ्गामहानदीमुत्तरितुं समर्थों न वेति विज्ञातुं तां नौकां संगोपितवन्तः, ततः कृष्णं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठाम इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थितं लवणाधिपति दृष्ट्वा, ' तं चेव सव्वं ' तदेव सर्व-गङ्गामहानद्यास्तटे समागत्य, एकाथिकां नाव. सुनो-बात इस प्रकार है-जब हमलोग अमरकंका नगरी से पीछे आकर २, दो लाख योजन विस्तार वाले लवणसमुद्र को पार कर चुके (तएणं) तब (से कण्हे अम्हं एवं वयासी) उन कृष्ण वासुदेव ने हमलोगों से इस प्रकार कहा-(गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! गंगा महाणई उत्तरह जाव चिठ्ठह-ताव-अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग चलो और गंगा महानदी को पारकरो-तब तक मैं सुस्थित देव से मिलकर और आज्ञा प्राप्तकर आता हूँ। कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आज्ञप्त हुए हमलोगों ने नौका से गंगा महानदी को पार करके वहीं पर उस नौका को छुपा दिया-इस अभिप्रायसे कि देखें कृष्ण वासुदेव अपने हाथों से तैर कर इस गंगा महानदी को पार कर ने में समर्थ हो सकते हैं या नहीं। नौका को छिपाकर हमलोग वहीं पर उनकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे। (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई વાત આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે અમે અમરકંકા નગરીથી પાછા વળતાં ૨ લાખ योसन २८मा विस्तारवा Aqण समुद्र पा२ ७२री यूटया (तएणं) त्यारे ( से कण्हे अम्हं एवं वयासी) ते वासुदेव मभने मा प्रभारी युं है(गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! गंगा महाणइ उत्तर ह जाव चिह-ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो) है पानुप्रिया ! तमे न। मने ॥ भडानहीन पा२ કરે તેટલામાં હું સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને આવું છું. આ પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા અમે નૌકા વડે ગંગા મહાનદીને પાર કરીને ત્યાં જ તે નોકાને છુપાવી દીધી. નૌકાને છુપાવવા પાછળ અમારે એ જાતને આશય હતો કે કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના હાથથી તરીને ગંગા મહાનદીને પાર કરી શકે છે કે નહિ ? નૌકાને છુપાવીને અમે त्या तेभनी प्रतीक्षा ४२di २४15 गया. (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुद्वियं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मदृष्ट्वा एकेन बाहुना रथं सतुरगं ससारथिं गृहीत्वा, एकेन बाहुना गङ्गामहानदी मुत्तीर्य, समागतः । 'नवरं कण्हस्स चिंता न बुज्झइ' नवरं कृष्णस्य चिन्ता न बुध्यते नवरं विशेषस्तु हे तात ! नौकायां संगोपितायां सत्यां कृष्णः केनोपायेन गङ्गामहानदीं तरिष्यति इति चिन्ताऽस्माभिर्न बुध्यते-न क्रियतेस्म, अनेनापरा. धेन 'जाव अम्हे णिब्बिसए आणवेइ ' यावत्-रथांश्चूर्णीकृत्याऽस्मान् निर्विषयान् आज्ञापयति । ततस्तदनन्तरं स पाण्डू राजा तान् पञ्चपाण्डवानेवमवादी'दुठ्ठणं' दुष्ठु-अशोभनं खलु हे पुत्राः ! कृतं युष्माभिः कृष्णस्य वासुदेवस्य विप्पियं ' विपियम्-अनिष्टम् कुर्वद्भिः, ततः खलु स पाण्डू राजा कुन्ती देवी शब्दयति, शब्दयित्वा, एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिये ! द्वारवती दछुण तंचेव सवं-नवरं कण्हस्स चिंत्तो न जुज्जति जाव अम्हे णिवि. सये आणवेइ) बाद में कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से मिलकर ज्यों ही गंगा महानदी के तट पर आये-तो उन्हें वह नौका नहीं मिली-इस कारण वे १ एक हाथ से तुरग एवं सारथि युक्त रथ को ले दूसरे हाथ से गंगा महानदी को तैर कर जहां हमलोग थे-वहां आ गये। “कृष्णजी किस तरह गंगा महानदी को पार करेंगे" यह विचार हमवोगों ने नौका को छिपाते समय नहीं किया। इसी अपराध से उन्हों ने हमारे रथों को चकना चूर कर देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञा दी है । (तएणं से पंडुराया ते पंच पंडवा एवं वयासीदुटुणं पुत्ता ! कयं कण्हस्त वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहि-तएणं से पंडुराया कोंति देविं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम लवणाहिबई ठुण तं चेव सव्वं-नवर कण्हस्स चिंत्ता न जुज्जति जाव अम्हे णिव्विसये आणवेइ ) त्या२५७ पासुहेव aq] समुद्रना मधिपति सुस्थित. દેવને મળીને જ્યારે ગંગા મહાનદીના કિનારા ઉપર આવ્યા ત્યારે તેમને નૌકા જડી નહિ. ત્યારે તેઓ એક હાથમાં ઘડા અને સારથિ સહિત રથને ઉચકિને બીજા હાથથી ગંગા મહાનદીને તરીને જ્યાં અમે હતા ત્યાં આવી ગયા. કુવાસુદેવ કેવી રીતે ગંગા મહાનદીને પાર કરશે” નૌકાને છુપાવતાં અમે આ વિષે વિચાર જ કર્યો નહોતો. આ અપરાધથી તેમણે અમારા રથોને નષ્ટ કરી નાખ્યા અને અમને દેશની બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા કરી છે. (तएणं से पंडराया ते पंच पंडवे एवं वयासी-दुटणं पुत्ता ! कयं कण्हहस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहि-तएणं से पंडुराया कोंतिं देविं सद्दावेइ, सद्दा. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५९ नगरी, कृष्णस्य वासुदेवस्य निवेदय, एवं खलु हे देवानुप्रिया ! युष्माभिः पञ्च पाण्डवा निर्विषयाः देशनिष्कासिताः आज्ञप्ताः, यूयं च खलु हे देवानुप्रियाः ! दक्षिणार्धभरतस्य स्वामिनः । ' तं' तत्-तस्मात् संदिशन्तु-कथयन्तु हे देवानुप्रियाः ! ते पञ्च पाण्डवाः कतरां दिशं विदिशं वा गच्छन्तु ? भवतामेव सर्वे देशाः, तर्हि इमे कुत्र गमिष्यन्तीति कथयन्तु भवन्तः । ततः खलु सा कुन्ती पाण्डुना राज्ञैवमुक्ता सती हस्तिस्कन्धं दूरोहति-आरोहयति-दुरुह्य ' जहाहेट्ठा' देवाणुप्पिया ! बारवई कण्हस्स वासुदेवस्स निवेदेहिं एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता, तुमं च णं देवाणुप्पिया! दाहिणभरहस्स सामी, तं संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयर दिसि वा विदिसं वा गच्छंतु ?) तब पांडु राजा ने उन पांचों पांडवों से इस प्रकार कहा तुम लोगों ने यह सुन्दर काम नहीं किया जो इस प्रकार से कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया-उन्हें नहीं रुचने वाला काम किया इस प्रकार कहकर पांडु राजा ने उसी समय कुंती देवी को बुलाया-बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव के पास जाओ और उनसे निवेदन करो -कि आपने पांच पांडवों को देश से. बाहिर निकल जानेके लिये आज्ञा दी है-सो हेदेवानुप्रिय ! आप दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के अधिपति हैंअतः कहें कि वे कौनसी दिशा अथवा विदिशा की ओर जावें । जब आपके ही सर्व देश हैं तो ये कहाँ जावें आप कहें । (तएणं सा कोंती वित्ता एवं वयासी-गच्छहई णं तुम देवाणुप्पिया! बारव कण्हस्स वासुदेवस्स निवेदेहिं एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! दाहिणभरहस्स सामी, तं संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयरं दिसि वा विदिसं वा गच्छंतु ?) ત્યારે પાંડુ રાજાએ તે પાંચ પાંડેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે લોકોએ કૃષ્ણવાસુદેવનું બુરું કરીને સારું કર્યું નથી તેમને અણગમતું કામ તમે કર્યું છે. આ પ્રમાણે કહીને પાંડુ રાજાએ તે જ વખતે કુંતી દેવીને બોલાવી. બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને વિનંતી કરો કે તમે પાંચે પાંડવોને દેશથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા આપી છે. હે દેવાનુપ્રિય! તમે દક્ષિણા ભરતક્ષેત્રના અધિપતિ છે તે બતાવે કે તેઓ કઈ દિશા કે વિદિશા તરફ જાય. જ્યારે બધા દેશો તમારા જ છે ત્યારે બતાવે કે આ લેકે ક્યાં જાય? શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यथा अधः, यथापूर्व द्वारवतीमागता तथाऽत्रापि बोध्यम् यावत् संदिशन्तु-अत्र यावदित्यनेनैवं बोध्यम्-द्वारवतों नगरीमागत्य कृष्णेन सत्कृता स्नाता कृतभोजनासुखासनवरगताऽभवत् इति, ततस्तां कृष्णः पृच्छति संदिशन्तु-कथयन्तु खलु हे पंडुणा एवं वुत्तो समाणी, हत्थिखंधं दुरूहइ, दुरूहित्ता जहा हेट्ठा जीव संदिसंतु णं पिउत्था ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता! तुमे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता, तुमं च णं दाहिणभरह जाव विदिसं वा गच्छंतु ? तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंतीदेवि एवं वयासी अपूईवयणा णं पिउत्था ! उत्तम पुरिसा वासुदेवा, बलदेवा, चक्कवट्टी तं गच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेलाउलं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु ममं अदिट्ठसेवगा भवंतु त्ति कटु कोतीदेविं सकोरेइ, सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ ) पांडु के द्वारा इस प्रकार कही गई वह देवी हाथी पर चढी और चढ कर जिस प्रकार पहिले यह द्वारवती आई थी उसी तरह अब भी यह वहां पहुंची। यहां यावत् शब्द से इस प्रकार पाठका संबन्ध लगा लेना चाहिये-जब कुंती द्वारावती नगरी में आई-तब कृष्ण वासुदेवने उनका खूब मनमाना सत्कार कियो। बडे ठाट बाट से उनका प्रवेशोत्सव मनाया-1 कुंतीने स्नान आदि दैनिक कार्यों से निबट कर आनंद के साथ चतुर्विध आहार किया बाद में विश्राम के निमित्त सुखासन पर (तएणं सा कोंती पंडुणा एवं वुत्ता समाणि, हथिखंध दुरुहइ, दुरूहित्ता जहा हेढा जाव संदिसंतु णं पिउत्था ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा कौती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तुमे पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता, तुम चणं दाहिण भरह जाव विदिसं वा गच्छंतु ? तएणं से कण्हे वासुदेवे कोती देवि एवं वयासी-अपूई वयणा णं पिउत्था उत्तमपुरिसा देवा, बलदेवा, चक्कवट्ठी तं गच्छंतु णं देवाणुप्पिया! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेलाउल्लं तत्थ पडुमहुरं णिवेसंतु ममं अदिवसेवगा भवंतु त्ति कटु कौती देवि सकारेइ, सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ) આ પ્રમાણે પાંડુ વડે આજ્ઞાપિત થયેલી કુંતી દેવી હાથી ઉપર સવાર થઈ અને સવાર થઈને પહેલાં જેમ તે દ્વારાવતી નગરી ગઈ હતી તેમજ અત્યારે પણ પહોંચી. અહીં યાવત્ શબ્દથી આ જાતને પાઠ સમજવો જોઈએ કે જ્યારે કુંતી દ્વારાવતી નગરીમાં આવી ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે તેમને ખૂબ જ સત્કાર કર્યો. બહુ જ ઠાઠથી તેમનો પ્રવેશોત્સવ ઉજવ્યો. કુંતીએ પણ સ્નાન વગેરે નિત્યકર્મોથી પરવારીને સુખેથી ચતુવિધ આહાર કર્યો. ત્યારપછી વિશ્રામ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५६१ पितृष्वसः ! किमागमनप्रयोजनम् ?, ततः खलु सा कुन्ती कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे पुत्र ! त्वया पश्च पाण्डया निर्विषया आज्ञप्ताः त्वं च खलु दक्षिणार्धभरतस्य यावत् स्वामी, तत् कथय ते पञ्च पाण्डवाः कतरां दिशं विदिशं वा गच्छन्तु ? । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्ती देवीमेवमवादीत्-' अपूइवयणा णं' अपूतिवचनाः सकृद्वचनाः खलु हे पितृष्वसः ! उत्तमपुरुषाः वासु. देवा बलदेवाश्चक्रवर्तिनः, 'तं ' तत्-तस्मात् गच्छन्तु खलु हे देवानुप्रिये ! पश्च पाण्डवाः 'दाहिणिल्लं' वेलाऊलं ' दाक्षिणात्यं वेलाकूलं-दक्षिणसमुद्रतटम् , तत्र 'पंडुमहुरं' पाण्डुमथुरा नगरी 'णिवेसंतु' निवेश्यन्तु, ममादृष्टसेवका भवन्तु, उन्होंने आराम किया। इतने में कृष्ण वासुदेव ने जब वे विश्राम कर चुकीं उन से पूछा-कहिये भुआ जी! किस प्रयोजन को लेकर यहां आपका आगमन हुआ है तब कुंती ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा हे पुत्र ! आनेका प्रयोजन इस प्रकार है-तुमने जो पांचों पांडवों को अपने देश से बाहिर निकल जाने की आज्ञा दी है-सो इस विषय में यह पूछना है कि तुम तो दक्षिणार्ध भरत के अधिपति हो अतः हमें समझाइये कौनसी दिशा या विदिशा में जावें ? इस प्रकार कुंतीदेवीके मुखसे सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उससे ऐसा कहा-हे भुआ जी-उत्तम पुरुष, वासुदेव, बलदेव, एवं चक्रवर्ती ये सब अपूतिवचन वाले होते हैं-जो कुछ कहते हैं वह एक ही बार कहते हैं-उसमें परिवर्तन नहीं होता है-इसलिये हे देवानुप्रिय ! पांचों पांडव दक्षिणसमुद्र पर जावें और वहां पांडु मथुरा नगरी को बसावें-स्थापित करें और मेरे अदृष्ट सेवक માટે તેમણે સુખાસન ઉપર આરામ કર્યો. જ્યારે તેઓ સારી રીતે વિશ્રામ કરી ચૂક્યા ત્યારે તેમને કશુવાસુદેવે પૂછયું કે-બેલે, ફઈબા, શા કારણથી તમે અહીં પધાર્યા છે ? ત્યારે કુંતીએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર ! હું એટલા માટે આવી છું કે તમે પાંચે પાંડેને પોતાના દેશમાંથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા કરી છે તે આ વિષે મારે આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવું છે કે તમે તે દક્ષિણાઈ ભરતના અધિપતિ છે, તો આવી પરિ. સ્થિતિમાં તમે જ અમને બતાવો કે તેઓ કઈ દિશા કે વિદિશા તરફ જાય? આ પ્રમાણે કુંતી દેવીના મુખથી બધી વાત સાંભળીને કૃષ્ણ વાસુદેવે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ફઈબા ! વાસુદેવ, બળદેવ અને ચક્રવર્તી આ બધા ઉત્તમ પુરૂષે અતિ વચનવાળા હોય છે–તેઓ જે કંઈ પણ કહે છે તે એકજ વાર કહે છે તેમાં કઈ પણ જાતનો ફેરફાર થઈ શકતો નથી. એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! પાંચે પાંડવો દક્ષિણ સમુદ્ર તરફ જાય અને ત્યાં પાંડુ મથુરા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे इति कृत्वा कुन्ती देवी सत्कारयति संमानयति, सत्कार्य, संमान्य यावद् विसर्ज. यति । ततः खलु सा कुन्ती देवी हस्तिनं समारुह्य हस्तिनापुरमागता यावत् पाण्डो राज्ञ एतमर्थ निवेदयति । ततः खलु पाण्डू राजा पञ्च पाण्डवान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे पुत्राः ! 'दाहिणिल्लं वेलाऊलं ' दाक्षिणात्यवेलाकूलं-दक्षिणसमुद्रतटं, तत्र खलु यूयं पाण्डुमथुरा नगरी निवेशयत । होकर रहें। इस प्रकार कहकर उन्हों ने कुंनीदेवी का सत्कार किया सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर उन्हें अपने यहां से विदा दिया। (तएणं सा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमढे निवेदेइ, तएणं पंडू पंच पंडवे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे पुत्ता ! दाहिजिल्लं वेलाउलं तत्थणं तुम्भे पंडुमहुरं णिवेसेह तएणं पंच पंडवा पंडुस्स रणो जाव तहत्ति पडिसुणेति, सबल वाहणा हय गज० हथिणाउराओ पडिणिक्खमंति,पडिणिक्खमित्ताजेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नगरि णिवेसेंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते विउलभोगसमितिसमण्णागया याचि होत्था) वहां से हाथी के ऊपर बैठ कर कुंतीदेवी हस्तिनापुर में आगई, यावत् पांडुराजासे कृष्णवासुदेव के कथितआदेश को उन्हों ने सुना दिया। इसके बाद पांडु राजा ने पांचों पांडवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहाँ-हे पुत्रों-तुम यहां से दक्षिण दिग्वर्ती समुद्र तट पर जाओ और वहां पांडु मथुरा નગરીને વસાવે અને મારા અદષ્ટ સેવકે થઈને ત્યાં નિવાસ કરે. આ પ્રમાણે કહીને તેમણે કુંતી દેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમણે કુંતીદેવીને ત્યાંથી વિદાય કર્યા. (तएणं सा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमढे निवेदेइ, तएणं पंडू पंच पंडवे सदावेइ, सदाविना एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे पुत्ता ! दाहिणिल्लं वेलाऊलं तत्थणं तुम्भे पंडुमहुरं णिवे सेह तएणं पंच पंडवा पंडुस्स रण्णो जाव तहत्ति पडि मणेति, सबलवाहणा हय गय० हथिणाउराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्विणिले वेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नगरि णिवेसें ति निवेसित्ता, तत्थणं ते विउलभोगसमितिसमण्णागया यावि होत्था) ત્યાંથી હાથી ઉપર સવાર થઈને કુંતીદેવી હસ્તિનાપુર આવી ગયાં. યાવત્ કણવાસુદેવની જે કંઈ આજ્ઞા હતી તે પાંડુ રાજાને કહી સંભળાવી. ત્યારપછી પાંડુ રાજાએ પાંચ પાંડેને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્રે ! તમે અહીંથી દક્ષિણ દિશા તરફના સમુદ્રના કિનારા ઉપર જાઓ અને ત્યાં પાંડુ-મથુરા નગરીને વસાઓ. પિતા પાંડુ રાજાની આ પ્રમાણે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५६३ ततः खलु पञ्च पाण्डवाः पाण्डो राज्ञो वचनं यावत्-' तहत्ति' तथाऽस्तु' इति कृत्वा प्रतिश्रृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य सबलवाहनाः-सैन्ययानसहिताः, हयगजरथपदातिसंपरिहताः, हस्तिनापुरात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रनिनिष्क्रम्य यत्रैव ' दाहिणिल्लं वेलाऊलं ' दाक्षिणात्यं वेलाकूलं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य पाण्डुमथुरा नगरी निवेशयन्ति निवेश्य तत्र खलु ते विपुलभोगसमिति समत्वागताश्चाप्यभवन् ।। सू०३२ ॥ मूलम्-तएणं सा दोवई देवी अन्नया कयाइं आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था, तएणं सा दोवई देवो णवण्हं मासाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया सूमालणिव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करेंति जम्हाणं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णमधेज्जं पंडुसेणे, तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज्जं करोति पंडुसेणत्ति, बावत्तरि कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरइ, थेरा समो. सढा परिसा निग्गया पंडवा निग्गया धम्मं सोचा एवं जं णवरं देवाणुप्पिया! दोवइं देवि आपुच्छामो पंडसेणं च नगरी को वसाओ। पिता पांडु राजा की इस आज्ञा को उन पांचों पांडवों ने " तहत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर वे हय, गज, रथ, एवं पदातिरूप चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर हस्तिनापुर नगर से निकले और निकलकर जहां दाक्षिणात्य वेलोकूल था वहां आये-वहां आकर उन्हों ने पांडु मथुरा नगरी को वसाया। वसाकर वहां के विपुल भोगों को भोगते हुए रहने लगे॥ सू०३२॥ આજ્ઞાને તે પાંચ પાંડેએ “તહત્તિ” કહીને સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કરીને તેઓ ઘોડા, હાથી, રથ અને પાયદળવાળી ચતુરાગિણી સેનાની સાથે હસ્તિનાપુર નગરથી બહાર નીકળ્યા--અને નીકળીને જ્યાં દક્ષિણ દિશાને સમુદ્રને કિનારે હતું ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યાં પહોંચીને તેમણે પાંડુ-મથુરા નગરી વસાવી. વસાવીને તેઓ ત્યાં પુષ્કળ કામો ભોગવતાં રહેવા લાગ્યા. એ સૂત્ર ૩૨ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ % 3E ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र कुमारं रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवाणुप्पिया! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो, अहासुहं देवाणुप्पिया!, तएणं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवई देवि सदाति सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयामो तुम देवाणुप्पिए ! किं करेसि ?, तएणं सा दोवई देवी ते पंच पंडवे एवं वयासी-जइणं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसारभउठिवग्गा पव्वयह ममं के अण्णे आलंबे वा जाव भविस्सइ ?, अहंपि य णं संसारभउव्विग्गा देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पव्वइस्सामि, तएणं ते पंच पंडवा पंडुसेणस्स अभिसेओ राया जाए जाव रज्जे पसाहेमाणे विहरइ, तएणं ते पंच पंडवा दोवई य देवी अन्नया कयाइं पंडुसेणं रायाणं आपुच्छंति, तएणं से पंडुसेणं रायाकोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया! निक्खमणाभिसेयं जाव उवट्वेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सिबियाओ जाव पच्चोरुहंति पच्चोरुहित्ता जेणेव थेरा तेणेव० आलित्ते णं जाव समणा जाया चोदस्स पुव्वाइं अहिज्जंति अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्टट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥सू०३२॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर - -- - - -- - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ___टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा द्रौपदीदेवी अन्यदा कदा. वित् ' आवण्णसत्ता' आपन्नसत्त्वा-गर्भवती जाता चाप्यभवत् । ततः खलु सा द्वौपदीदेवी नवसु मासेषु संपूर्णेषु सार्धाष्टमदिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु यावत् सुरूपं सुन्दरं दारकंबालकं 'पयाया' प्रजाता=प्रजनितवती, कि भूतं दारकंसूमाल-सुकुमारपाणिपादं, ' णिव्वत्तवारसाहस्स ' निवृत्तद्वादशाहस्स-संप्राप्त द्वादशदिवसस्य दारकस्य इदमेतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुर्वन्ति यस्मात् खलु अस्माकमेष दारकः पश्चानां पाण्डवानां पुत्रो द्रौपद्या आत्मजः, 'त' तत्-तस्माद् -तएणं सा दोवई देवी इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा दोवई देवी) वह द्रौपदीदेवी (अन्नया कयाई ) किसी एक समय (आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था ) गर्भावस्थासे संपन्न हुई। (तएणं सा दोवई देवी णवण्हं मासाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया) जब गर्भ ९ नौमास ७॥ दिन का हो गया तब उस द्रौपदी देवी ने पुत्र को जन्म दिया। यह बालक बहुत ही अधिक सुन्दर था । ( सूमालणिव्वत्तबारसाहस्सइमं एयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करेति जम्हाणं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्त दोवईए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेज्जं पंडुसेणे) इसके करच. रण आदि अवयव सब हो अधिक सुकुमार थे। जब बारहवाँ दिन लगा -तब माता पिताओं ने इस पुत्र का गुणनिष्पन्न होने से यह नाम रक्खा यस्मात्-यह पुत्र हम पांचो पांडवों का है तथा द्रौपदी की कुक्षि से तएणसा दोबई देवी इत्यादि 2012-(तएण) त्या२५छी (सा दोवई देवी) ते द्रौपदी वी (अन्नया कयाई) है। मते (आवण्ण सत्ता जाया यावि होत्था ) साली ५४. (तएण सा दोवई देवी णवण्हं मासाण जाव सुरूवं दारगं पयाया ) न्यारे नव માસ છલા દિવસનો થઈ ગયે ત્યારે તે દ્રૌપદી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે. તે બાળક ખૂબ જ સુન્દર હતુ. (सूमालणिव्यत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिज्ज करेंति, जम्हाणं अम्हें एसदारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेज्जे पंडुसेणे) તેના હાથ પગ વગેરે બધા અવયવો ખૂબ જ સુકોમળ હતા. જ્યારે બારમે દિવસ આવ્યું ત્યારે માતા-પિતાએ તે પુત્રનું નામ તેને ગુણે વિષે વિચાર કરતાં આ પ્રમાણે રાખ્યું કે આ પુત્ર અમારા પાંચ પાંડવોને છે, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे भवतु अस्माकमस्य दारकस्य नामधेयं 'पाण्डुसेन ' इति । ततः खलु तस्य दारकस्याम्बापितरौ नामधेयं कुर्वन्ति-'पाण्डुसेन ' इति । 'बावत्तरि कलाओ' द्वासपति कला शिक्षिताः, यावद् भोगसमर्थो जातः, राजकन्यां परिणीय युवराजो यावत् मानुष्यकान् भोगान् भुनानो विहरति-आस्ते । उत्पन्न हुआ है-अतः हमारे इस पुत्र का नाम पांडुसेन होना चाहिये (तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति पंडुसेणत्ति) इस ख्याल से उन्हों ने उस नवजात पुत्र का नाम पांडुसेन रख दिया। (बावत्तरि कलाओ जाच भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरइ थेरा समोसढा, परिसा निग्गया, पंडवा निग्गया, धम्म सोच्चा एवं वयासी जं णवरं देवानुप्पिया ! दोवइं देवि आपुच्छामो पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवानुप्पिया! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो) पांडुसेन कुमार को ७२ कलाओं में निपुण बनाने के लिये माता पिताने उसे कलाचार्य के पास भेज दिया। धीरे २ वह ७२, कलाओं में निष्णोत बन गया। यावत् भोग भोगने के लायक अवस्था संपन्न भी हो गया। राजकन्याओं के साथ इसका वैवाहिक संबन्ध कर के पिताओं ने इसे युवराज पद प्रदान भी कर दिया-यावत् यह मनुष्यभव संबन्धी काम सुखों को अनुभव करता हुआ अपने समय को आनन्द के साथ તેમજ દ્રૌપદી દેવીના ગર્ભથી તેને જન્મ થયો છે, એટલા માટે અમારા આ પુત્રનું નામ પાંડુસેન હોવું જોઈએ. (तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्ज करेंति पंडुसेणत्ति) આ વિચારથી તેમણે તે નવજાત પુત્રનું નામ પાંડુસેન રાખ્યું. ( वावत्तरि कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरइ, थेरा समोसढा, परिसा निग्गया, पंडवा निग्गया धम्मं सोचा एवं वयासी जं णवरं देवानुप्पिया ! दोवई देवि आपुच्छामो पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो तओपच्छा देवाणुप्पिया ! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो) પાંડસેન કુમારને ૭૨ કળાઓમાં નિપુણ બનાવવા માટે માતાપિતાઓએ કલાચાર્યની પાસે મોકલ્યો. આમ ધીમે ધીમે તે ૭૨ કળાઓમાં નિષ્ણાત બની ગયે. યાવત્ તે સંસારના ભેગે ભેગવવા ગ્ય અવસ્થાવાળ પણ થઈ ગયો. રાજકન્યાઓની સાથે લગ્ન કરાવીને પિતાએ તેને યુવરાજ પદ પણ સોંપી ટી. યાવત તે મનુષ્ય-ભવ સંબંધી કામસુખને અનુભવતા પિતાના વખતને સખેથી પસાર કરવા લાગ્યા. એક વખતની વાત છે કે પાંડુ-મથુરા નગરીમાં श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५६७ अथ कदाचित् तत्र-थेरा समोसड़ा' स्थविराः समवमृताः, परिपन्निर्गता, पाण्डवा अपि स्थविराणां वन्दनाथै निर्गताः, धर्भ श्रुत्वा ते पाण्डवोः प्रतिबुद्धाः सन्त एवमदन्-यत् नवरं हे देवानुप्रियाः द्रौपदी देवीमापृच्छामः, पाण्डुसेनं च कुमारं राज्ये स्थापयामः, ततः पश्चात् देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डाभूत्वा यावत् प्रव्रजामः प्रत्रज्यां गृह्णीमः, तदा स्थविरा ऊचुः-' अहासुहं देवानुप्पिया!' हे देवानुप्रियाः यथासुख-सुखं यथा भवति तथा कुरुत, अलं विलम्बेन इति भावः । ततः खलु ते पञ्च पाण्डवा यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य द्रौपदों देवीं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा, एवमवदन्-एवं खलु हे देवानुप्रिये ! वयं स्थविराव्यतीत करने लगा। एक समय की बात है कि पांडु मथुरा नगरी में स्थविरों का आगमन हुआ। स्थविरों का आगमन सुनकर नगरी का समस्त जन उनकी वंदना एवं धर्मोपदेश सुनने के निमित्त अपने २ घर से निकले पांचों पांडव भी निकले- परिषद को आयी हुई देखकर स्थविरों ने उसे धर्म का उपदेश दिया। उपदेश श्रवण कर परिषद पीछे चली गई। पांडव लोग उस धर्म के उपदेश का पानकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गये-उसी समय उन्हों ने उन स्थविरों से कहा-हे देवानुप्रियों ! हमलोग द्रौपदी देवी को पूछकर और पांडुसेन कुमार को राज्य में स्था. पित कर आप देवानुप्रियों के समीपमुंडित होकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहते हैं । पांडवों की इस प्रकार हार्दिक भावना देखकर उन स्थविरों ने पांडवों से इस प्रकार कहा-(अहासुहं देवाणुप्पिया! तएणं ते पंच पंडवा जेणेव सएगिहे, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता दोवई देविं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु देव णुप्पिया! વિરે પધાર્યા. સ્થવિરેના આગમનની જાણ થતાં નગરીના બધા લેકે તેમની વંદના તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે પોતપોતાના ઘેરથી નિકળ્યા, પાંચે પાંડવો પણ ત્યાં પહોંચ્યા. પરિષદને આવેલી જોઈને વિરોએ ધર્મનો ઉપદેશ આગે. ઉપદેશ સાંભળીને પરિષદ જતી રહી પાંડવે તે ધર્મને ઉપદેશ સાંભળીને પ્રતિબંધિત થઈ ગયા. તેમણે તે જ સમયે વિ ને વિનંતી કરતાં કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે દ્રૌપદી દેવીને પૂછી તેમજ પાંડુસેન કુમારને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને તમારી પાસે મુંડિત થઈને યાવતું પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરવાની અભિલાષા રાખીએ છીએ. પાંડવેની આ જાતની હાર્દિક ઈચ્છા જાણીને તે સ્થવિરાએ તે પાંચ પાંડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે ( अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएणं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता दोवई देवि सद्दावेति, सदावित्ता एवं वयासी, एवं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे णामन्तिके धर्म श्रुतवन्तो यावत् प्रबनामः, त्वं हे देवानुप्रिये ! किं करोषि कि करिष्यसि ? । ततः खलु सा द्रौपदी तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवादीत्-यदि खलु यूयं हे देवानुपियाः ! संसारभयोद्विग्नाः जन्ममरणादि दुःखाद् भीताः सन्तो यावत् प्रव्रजथ, मम कोऽन्य आलम्बो वा यावद् भविष्यति ?, अहमपि च खलु संसारभयोद्विग्ना देवानुप्रियैः सार्ध प्रजिष्यामि, ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पाण्डुसेनस्य अभिषेक राज्याभिषेकं कृत्वा स्वराज्ये स्थापितवन्तः, यावद् राजा जातः, यावद् राज्यं प्रसाधयन्=पालयन् विहरति आस्तेस्म ।। अम्हेहिं थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयोमो-तुमं देवाणुप्पिए ! किं करेसि) हे देवानुप्रियों ! जिस प्रकार तुम्हें सुख मिले वैसा तुम करो' अच्छे काम में विलम्ब मत करो। इसके बाद-वे पांचों पांडव जहां अपना घर था वहां आये वहां आकर के उन्हों ने द्रौपदी देवी को बुलाया-बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये ! सुनो बात इस प्रकार है-हमलोगों ने विरोंके पास धर्मका श्रवण किया है। अतः हमलोगों की भावना मुंडित होकर उनके पास प्रबजित होने की है। अब-तुम्हारी भावना क्या है-हे देवानुप्रिये कहो तुम हमारे बाद क्या करोगी-(तएणं सा दोबई देवा ते पंच पंडवे एवं वयासी-जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! संसार भउन्विग्गा पन्वयह ममं के अण्णे आलंबे वा जाव भविस्सइ ? अहं पि य णं संसारभउब्धिगा देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पच्वइस्सामि, तएणं ते पंच पंडवा पंडुसेणस्म अभिसे ओ जाव राया जाए, जाव रज्जं पसाहे खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहि थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पन्चयामो तुम देवाणुप्पिए ! किं करेसि ) - હે દેવાનુપ્રિયે ! જેમ તમને સુખ મળે તેમ કરો, સારા કામમાં મોડું કરે નહિ ત્યારપછી તેઓ પાંચે પાંડવે જ્યાં પિતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે દ્રૌપદી દેવીને બોલાવી. બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળો, વાત એવી છે કે અમોએ સ્થવિરોની પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ કર્યું છે, એટલા માટે અમારી ઈચ્છા મુંડિત થઈને તેમની પાસેથી પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરવાની છે. હવે તમારી શી ઈચ્છા છે ? હે દેવાનપ્રિયે ! અમને કહો. અમે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરી લઈશું ત્યારબાદ તમે શું કરશે ? ( तएणं सा दोबई देवी ते पंच पडवे एवं वयासी-जइणं तुम्भे देवाणुप्पिया! संसारभउधिग्गा पव्वयह, ममं के अण्णे आलंबे वा जाव भविस्सइ ? अहं पि यण संसारभउव्विग्गा, देवाणुप्पिएहिं सद्धि पब्बास्सामि, तएणं ते पंच पंडवा पडुसेणस्स अभिसेओ जाव राया जाए, जाव रज्ज पसाहेमाणे बिहरइ ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५६९ ततः खलु ते पञ्च पाण्डवा द्रौपदी च देवी अन्यदा कदाचित् पाण्डुसेन राजानमापृच्छन्ति, ततः खलु स पाण्डुसेनो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा, एवमवादी-क्षिप्रमेव भो ! देवानुप्रियाः! निष्क्रमणाभिषेकं-दीक्षोपयोग वस्तूनि यावद् उपस्थापयत, पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविका उपस्थापयत, ' यावत् प्रत्यवरोहन्ति=अत्र यावच्छब्देनेदं बोध्यम् , ततः पाण्डुसेनस्य राज्ञोवचनमाकर्ण्य ते माणे विहरइ) इस प्रकार पांडवो का कहना सुनकर द्रौपदी देवी ने उन पांचो पांडवों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुमलोग यदि संसार भय से उद्विग्न होकर प्रबजित होना चाहते हो, तो फिर मेरे लिये आप के सिवाय और कौन दूसरा आलंबन अथवा आधार होगा। अतः मैंभी आप देवानुमियों के साथ संसार भय से उद्विग्न होकर दीक्षित होऊँगी। इस प्रकार द्रौपदी देवी का कथन सुनकर उन पांचो पांडवों ने पांडुसेन कुमार का राज्याभिषेक करके उसे राज्यपद में स्थापित किया। इस तरह पांडुकुमार राजा हो गया। यावत् राज्य का वह अच्छी तरह पालन करने लगा। (तएणं ते पंच पंडवा दोवईय देवी अन्नया कयाई पंडुसेणरायाणं आपुच्छंति, तएणं से पंडुसेणे राया कोडंविय पुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता, एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! निक्खमणाभिसेयं जाव उवट्ठवेह, पुरिलसहस्सवाहणीओ सिवियाओ उवट्ठवेह, जाव पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणेव थेरा उवा આ પ્રમાણે પાંડવોનું કથન સાંભળીને દ્રૌપદી દેવીએ તે પાંચ પાંડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જ્યારે સંસારભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છો છો ત્યારે તમારા વગર મારા માટે આ સંસારમાં બીજું કયું આલંબન અથવા તે બીજે કયો આધાર થશે ? એટલા માટે હું પણ તમારી સાથે સંસારભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું. આ પ્રમાણે દ્રૌપદી દેવીનું કથન સાંભળીને તે પાંચ પાંડવોએ પાંડુસેન કુમારને રાજ્યાભિષેક કરીને તેને રાજ્યાસને બેસાડી દીધું. આ પ્રમાણે પાંડુસેન કુમાર રાજા થઈ ગયો યાવત તે રાજ્યનું સારી રીતે રક્ષણ કરવા લાગ્યો. (तएणं ते पंच पंडवा दोवईय देवी अन्नया कयाइं पंडुसेणरायाणं आपुच्छंति, तएणं से पंडुसेणे राया कोड बियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! निक्खमाणाभिसेयं जाव उवट्ठवेह, पुरिससहस्सवाहणीओ सिवियाओ उवट्ठवेह, जाव पचोरुहंति, पचोरुहित्ता जेणेव थेरा तेणेव उवाग० आलित्तेणं जाव समणा जाया, चोद्दस्सपुव्वाइं अहिज्जंति, अहिज्जित्ता बहूणि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कौटुम्बिकपुरुषास्तथास्तु' इत्युक्त्वा तथैव यावदुपस्थापयन्ति, तदा ते पञ्च पाण्डवाः पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविका आरुह्य, पाण्डुमथुराया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य शिविकाभ्यः प्रत्यवरोहन्ति-प्रत्यवतरन्ति । प्रत्यवरुह्य, 'जेणेव' यत्रैव स्थविरास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य एवमवादिषुः-'आलित्ते णं जाव समणा गच्छइ आलितेणं जाव समणा जाया, चोदसपुव्वाइं अहिज्जंति, अहिजित्ता, बहूणि बासाइं छट्टमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ) इसके बाद पांचो पांडवों ने और द्रौपदी देवी ने किसी एक समय पांडुसेन राजा से दीक्षित होने के लिये पूछा। तब पांडुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा-भो देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही दीक्षा में उपयोग आनेवाली वस्तुओं को लाकर उपस्थित करो-तथा पुरुष सहस्रवाहिनी शिषिकाओं को भी उपस्थित करो-इस प्रकार पांडुसेन राजा के पचन सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने “ तथास्तु" कहकर उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया-और दीक्षा में उपयोगी समस्त सामग्री को एवं पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकाओं को लाकर उपस्थित कर दिया। तब वे पांचो पांडव उन पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकाओं पर आरूढ होकर पांडु मथुरा नगरी के बीच से होकर निकले। वहां से निकलकर वे जहां स्थविर ठहरे हुए थे-वहां-आये-वहां आकर सबके सब शिक्षिकाओं से बासाइं छटमदसमदुवालसेहिं मासदमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरंति) ત્યારપછી પાંચે પાંડવોએ અને દ્રૌપદી દેવીએ કોઈ એક વખતે પાંડુસેન રાજાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે પૂછયું. ત્યારે પાંડુસેન રાજાએ કૌટુંબિક પુરુ ને બોલાવ્યા લાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે દીક્ષા વખતે ઉપયોગમાં આવનારી બધી વસ્તુઓ જલ્દી લઈ આવે તેમજ પુરુષ સહસવાહિની પાલખી પણ લઈ આવે. આ પ્રમાણે પાંડુસેન રાજાના વચન સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરુએ તથાસ્તુ ” કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને દીક્ષા માટે ઉપયોગી એવી બધી વસ્તુઓ તેમજ પુરુષ-સહસવાહિની પાલખી લઈ આવ્યા. ત્યારપછી તે પાંચે પાંડવો તે પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખીએ ઉપર સવાર થઈને પાંડુ-મથુરા નગરીની વચ્ચે થઈને નીકળ્યા. ત્યાંથી નીકળીને તેઓ જ્યાં સ્થવિર હતા ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યાં પહોં. ચીને તેઓ બધા પાલખીઓમાંથી નીચે ઉતર્યા, નીચે ઉતરીને સ્થવિરની श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका०अ० १६ द्रौपदीच रित निरूपणम् ५७१ जाया ' आदीप्तोऽयं लोकः खलु इत्यादि । यावद् श्रमणाः जाताः, चतुर्दशपूर्वाणि अधीयते स्म, अधीत्य बहूनि वर्षाणि षष्ठाष्टमदशम द्वादशैर्मासार्धमा सक्षपणे स्तपोभिरात्मानं भावयन्तो विहरन्ति ॥ ९३३ ॥ मूलम् - तणं सा दोवई देवी सोयाओ पञ्च्चोरुहइ जाव पव्वइया सुव्वयाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए दलयइ, इक्कारस अंगाई अहिजइ बहूणि वासाणि छटुमद्समदुवालसेहिं जाव विहरइ ॥ सू० ३४ ॥ टीका - ' तरणं सा ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु सा द्रौपदी देवी शिबिकातः प्रत्यवरोहति प्रत्यवतरति प्रत्यवतीर्य यावत् प्रब्रजिता - दीक्षां गृहीतवती । ' सुव्वयाए ' सुव्रतायै = सुव्रतानामधेयायै ' अज्जाए ' आर्यायै 'सिस्सिणीयत्ताए' " नीचे उतरे । नीचे उतरकर स्थविरों के पास पहुँचे। वहां पहुँचकर उन्हों ने स्थविरों से इस प्रकार कहा - हे भदंत ! यह समस्त लोक आदीप्त हो रहा है इत्यादिरूप से अपनी भावना प्रदर्शित कर यावत् वे श्रमण हो गये । चौदह पूर्वो का उन्हों ने अध्ययन किया । अध्ययन करके अनेक वर्षो तक षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, मास अर्धमास की तपस्याओं को वे करते हुए विचरने लगे || सू० ३३ ॥ तणं सा दोवई ' इत्यादि । टीकार्थ - (तए) इसके बाद (दोवई देवी) द्रौपदीदेवी (सीयाओ पच्चोset ) अपनी शिबिका से नीचे उतरी - ( जा पव्वइया, सुव्वयाए अज्जाए सिस्सिणीयत्ताए दलयह, इक्कारसअंगाई अहिज्जइ, बहूणि बासाई પાસે પહેાંચ્યા, ત્યાં પહાંચીને તેમણે સ્થવિરેને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભઇન્ત ! આ સપૂર્ણ જગત સળગી રહ્યું છે વગેરે રૂપથી પેાતાની ભાવના પ્રકટ કરીને યાવત તેએ શ્રમણ થઈ ગયા. ચૌદ પૂર્વનું તેમણે અધ્યयन म्यु, अध्ययन अरीने धायां वर्षो सुधी तेथे षष्ठ, अष्टम हशम, द्वाहश, માસ અમાસની તપસ્યાઓ કરતા રહ્યા. ॥ સૂત્ર ૩૩ ૫ तएण सा दोवई इत्यादि - टीडार्थ - (तएण ') त्यारपछी (दोवई देवी) द्वीपही देवी (सीयाओ पञ्चोरुहइ ) પાતાની પાલખીમાં નીચે ઉતરી. (जा पव्वइया, सुव्वयाए अज्जाए सिस्सिणीयत्ताए दलयर, इक्कारसअंगाई શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭ર ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे शिष्यातया ददाति पाण्डुसेनो राजा द्रौपदी सुबतायै शिष्यारूपेण दत्तवानिति. भावः । एकादशाङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि षष्ठाऽष्टमदशमद्वादशैस्तपोभिर्यावदात्मानं भावयन्ती विहरति ॥सू०३४॥ मूलम् -तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पंडमहराओ गयरीओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति, तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिटनेमी जेणेव सुरद्वाजणवए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तएणं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ०-एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिट्ठनेमी सुरहाजणवए जाव वि०, तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा अन्नमन्नं सदाति लहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहा अरिटूनेमी पुवाणु० जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरिट्टनेमि वंदणाए गमित्तए छट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ ) नीचे उतरकर यावत् वह भी प्रवजित हो गई। पांडुसेन राजा ने उसे द्रौपदी को सुव्रता नाम की साध्वी के शिष्यारूप से प्रदान किया। द्रौपदी आर्या ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बाद में अनेक वर्षों तक छट्ठ अष्टम, दशम, द्वादश तपस्याओं से अपने आपको उसने भावित किया ॥ सू०३४ ॥ अहिज्जइ, बहूणि बासाई छ88मदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ ) નીચે ઉતરીને યાવત્ તે પણ પ્રજિત થઈ ગઈ. પાંડુસેન રાજાએ દ્રૌપદીને સુવ્રતા નામની સાવીને શિષ્યાના રૂપમાં અર્પિત કરી. દ્રૌપદી આર્યાએ અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું. ત્યારપછી ઘણાં વર્ષો સુધી છઠ્ઠ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ તપસ્યાઓથી પિતાના આત્માને તેણે ભાવિત કર્યો. એ સૂ. ૩૪ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् अन्नमन्नस्स एयमढे पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थेरं भगवंतं वंदति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया संमाणा अरहं अरिहनेमि जाव गमित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुन्नाया समाणा। थेरे भगवंते वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गा. माणुगामं दुईजमाणा जाव जेणेव हत्थिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हत्थिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति, तएणं ते जुहिडिलवज्जा चत्तारि अणगारा मासखमणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी णवरं जुहिटिल्लं आपुच्छंति जाव अडमाणा बहुजणसई णिसाति, एवं खल्लु देवाणुप्पिया ! अरहा अरिट्ठनेमी उज्जितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए जाव पहीणे, तएणं ते जुहिहिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा हत्थिकप्पाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ताजेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिडिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिकमंति पडि श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Param - -- ५७४ ज्ञाताधर्मकथासूत्र कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेंति पडिदंसित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! जाव कालगए तं सेयं खल्लु अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुत्वगहियं भत्तपाणं परिटवेत्ता सेत्तुजं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्तए 'संलेहणा झूसणा झूसियाणं' कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तएत्तिक अण्णमण्णस्त एयमह पडिसुणेति पडिसुणित्ता तं पुव्वगाहियं भत्तपाणं एगते परिवेति परिटुवित्ता जेणेव सेत्तुंजे पव्वए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सेत्तुजं पव्वयं दुरूहति दुरूहित्ता जाव कालं अणवकंखमाणा विहरंति । तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाइं चोदसपुव्वाइं०बहुणि वासाणि० दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सहाए कीरइणग्गभावे जाव तमहमाराहेति तमहमाराहिता अणते जाव केबलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा ॥ सू० ३३ ॥ टीका-'तएणं थेरा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स्थविरा भगवन्तोऽ न्यदाकदाचित् पाण्डुमथुरातो नगरीतो सहस्राम्रवणादुधानात् प्रतिनिष्कामन्ति= निर्गच्छन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य, बहिर्जनपदविहारं विहरन्ति । -:तएणं थेरा भगवंता इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (थेरा भगवंतो) उन स्थविर भगवंतोने (अन्नया कयाइं) किसी एक समय (पंडुमहुराभो) पांडु मथुरा (णय. रीओ) नगरी से (सहसंबवणाओ) सहस्राम्रवन नाम के (उज्जा तएण थेरा भगवंता इत्यादि Astथ-(तएण) त्या२६ (थेरा भगवंतो) ते स्थविर ममतामे (अन्नया कयाई ) | मे मते (पंडु महुराओ) पांड मथु२॥ ( णयरीओ ) नगरीया (सहसंबवणाओ) सहस्त्रावन नामना (उज्जाणाओ) Gधानमi ( पडि. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५७५ तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽर्हन अरिष्टनेमियत्रैव सौराष्ट्रजनपदस्तत्रैवोपा. गच्छति, उपागत्य सौराष्ट्रजनपदे संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति । ततः खलु बहुजनोऽन्योन्यमेवमाख्याति वक्ति, एवं भाषते, एवं मरूपयति एवं प्रज्ञापयति-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! अर्हन् अरिष्टनेमिः सौराष्ट्रजनपदे यावद् विहरति । ततः खलु ते युधिष्टिरप्रमुखाः पश्चानगारा बहुजनस्यान्ति के एतमर्थ श्रुत्वाऽन्योन्यं मान्दयन्ति, शब्दयित्वा. एवमवदन् ,एवं खलु हे देवानुप्रिय! अर्हन अरिष्टनेमिः पूर्वाणाओ) उद्यान से (पडिणिक्खमंति ) विहार किया (पडिणिक्खमित्ता) विहार करके (बहिया जणवयविहारं विहरंति) बाहिर के जनपदों में विचरने लगे (तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहा जणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठा जणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तएणं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ) उस काल में और उस समय में अर्हत अरिष्टनेमि प्रभु विहार करते हुए जहां सौराष्ट्र जनपद था-वहां आये वहां आकर के वे उस सौराष्ट्र जनपद में संयम और तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। जब वहां के अनेक लोगों को इसकी खबर हुई तब वे परस्पर में इस प्रकार कहने लगे ( एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा । अरिहनेमी सुरहा जणवए जाव वि० तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमई सोचो अन्नणिक्खमति ) Rel२ या. ( पड़िणिक्खमित्ता) विहार ४शन तशा ( चहिया जणवयविहार विहरति ) ५४ान नपमा विहा२ ४२१॥ साया. (तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहा जणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरहा जणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे एवमाइक्खइ ) તે કાળે અને તે સમયે અહત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ વિહાર કરતાં કરતાં જ્યાં સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ તે સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતાં વિચરણ કરવા લાગ્યા. જ્યારે ત્યાંના ઘણું લોકોને આ વાતની જાણ થઈ ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે (एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अदिट्ठनेमी सुरद्वाजणवए जाव वि० तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा अन्नमन्नं सदाति, सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहा अरिखनेमी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र नुपूर्ध्या तीर्थकराणां मर्यादया यावद् विहरति, 'त' तत्-तस्माद् 'सेयं' श्रेयः खलु अस्माकं यत् स्थविरान् आपृच्छयार्हन्तमरिष्टनेमि वन्दनायै गन्तुम् । अन्योन्यस्य =परस्परस्यैतमर्थ सर्वे पश्चानगाराः प्रतिशृण्वन्ति, स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्थ. विरा भगवन्तस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तान् स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति च वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादिषु-इच्छामः खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाताः सन्तोऽहन्तमरिष्टनेमिं यावद् गन्तुम् । स्थविरा ऊचुः यथासुखं हे देवानुप्रिया! मन्नं सदावेंति, सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणु जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरष्टिनेमि वंदणाए गमित्तए) हे देवानुप्रियों ! सुनो-अहंत अरिटनेमि प्रभु तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए यावत् सौराष्ट्र जनपद में आये हुए हैं। लोगों के मुख से इस बात को उन पांच युधिष्ठिर आदि अनगारो ने सुना-तब आपस में एक दूसरे को-बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! सौराष्ट्र जनपद में तीर्थकर परम्परा के अनुसार भगवान् अरिष्टनेमि विहार कर रहे हैं-अतः हमलोगों को स्थविरों की आज्ञा लेकर अहंत अरिष्टनेमि को वंदना करने के लिये चलना बहुत अच्छा है-उचित है-( अन्नमन्नस्स एयमढे पडिप्सुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं पुन्वाणु० जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरिहनेमि वंदणाए गमित्तए) હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળો, અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ તિર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં ચાવત સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં પધારેલા છે. લોકોના મુખથી આ વાતને તે પાંચે યુધિષ્ઠિર વગેરે અનગારાએ સાંભળી. ત્યારે તેઓએ પરસ્પર એક બીજાઓને લાવ્યા અને બેલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં તીર્થંકર પરંપરા મુજબ ભગવાન અરિષ્ટનેમિ વિહાર કરી રહ્યા છે એથી સ્થવિરેની આજ્ઞા મેળવીને અરિષ્ટનેમિને વંદન કરવા માટે અમારે જવું જોઈએ. ( अनमन्नस्स एयमढे पडिमुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थरा भगवंतो, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं तुन्भेहिं अन्भणुनाया समाणा अरहं अरिष्टनेमि जाव गमित्तए श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५७७ ततः खलु ते युधिष्ठिरप्रमुखाः पञ्चानगाराः स्थविरैर्भगवद्भिरभ्यनुज्ञाताः सन्तः स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा स्थविराणामन्तिकात प्रतिनिष्क्रामन्ति, मास-मासेन 'अणिक्खित्तेणं' अनिक्षिप्तेन अन्तररहितेन तपः तुम्भेहिं अब्भुणुन्नाया समाणा अरहं अरिट्टनेमि जाव गमित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया! तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं भगवंतेहिं अभणुन्नाया समोणा थेरे भगवंते वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, मासं मासेणं अणिक्खित्ते णं त कम्मेणं गामाणुगामं दूईज्जमाणा जाव जेणेव हथिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हस्थिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति-तएणं ते जुहिडिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा मासखमणपारणए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेंति, बीयाए जहा गोयमसामी, णवरं जुहिद्विलं आपुच्छंति जाव अडमाणा बहुजणसद्द णिसामेंति) इस प्रकार का परस्पर का यह विचार उन्हों ने स्वीकार कर लिया-स्वीकार करके फिर वे जहां स्थविर भगवंत थे-वहां गये-वहां जाकर उन्हों ने उन स्थविर भगवंतों को वंदना की नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर फिर उनसे इस प्रकार कहा हमलोग आप भगवंतों से आज्ञा प्राप्त कर अहंत नेमिनाथ प्रभु को वंदना करने के लिये सौराष्ट्र जनपद जाना चाहते हैं। तब उन स्थविर भगवंतों ने उनसे कहा हे देवानुप्रियों ! यथासुखम्-तुम्हें जैसे सुख हो-वैसा करो इस प्रकार उनस्थविर भगः अहामुहं देवाणुप्पिया ! तएणं ते जुहिड्रिलपामोक्खा पंच अणगारा, थेरेहिं भगवंतेहिं अभणुनाया समाणा थेरे भगवंते वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, मासंमासेणं अणिक्खेत्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दइज्जमाणा जाव जेणेच हथिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हथिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाब विहरंति तएणं ते जुहिद्विल्लवज्जा चत्तारि अणगारा मास खमणपारणए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेंति, बीयाए एवं जहा गोयमसामी, णवरं जुहिटिलं आपुच्छंति जाव अडमाणा बहुजणसदं णिसार्मेति) આ રીતે તેઓએ એકબીજાના વિચારોને સ્વીકારી લીધા, સ્વીકારીને તેઓ જ્યાં સ્થવિર ભગવંત હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તે સ્થવિર ભગવંતેને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે અમે આપ ભગવંતની આજ્ઞા મેળવીને અહં ત નેમિ. નાથ પ્રભુના વંદન માટે સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં જવા ઈચ્છીએ છીએ. ત્યારે તે स्थविर लगतास तमन मा प्रमाणे माज्ञा शह देवानुप्रिया! 'यथा सुखम् ' तमने से मना मान प्राप्त थाय ते ४२१. २मा प्रमाणे ते स्थविर શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कर्मणा ग्रामानुग्रामं 'दुइज्जमाणा' द्रवन्तः गच्छन्तः, यावत् यत्रैव ' हथिकप्पे नयरे' हस्तिकल्पं नगरं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य हस्तिकल्पस्य बहिः सहस्रा. म्रवणे उद्याने यावद् विहरन्ति । ततः खलु ते युधिष्टिरवर्जाश्चत्वारोऽनगारा मास क्षपणपारण के प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं कुर्वन्ति, 'बीयाए ' द्वितीयायां पौरु. ष्यां ध्यानं ध्यायन्ति तृतीयायां पौरुष्यामत्वरितमचपलमसंभ्रान्तसदोरकमुखवत्रिका प्रतिलेखयन्ति, भाजनवस्त्राणि प्रतिलेखवयन्ति, भाजनानि च-पात्राणि प्रमार्जयन्ति, भाजनान्यवगृह्णन्ति, गृहीत्वा एवं यथा गौतमस्वामी श्रमणं प्रहाचीरमापृच्छति नवरं-अयमत्र विशेषः अत्र चत्वारोऽनगाराः युधिष्ठिरमापृच्छन्ति यावत् वंतों से आज्ञा प्राप्त कर वे युधिष्ठिर प्रमुख पांच अनगार उन स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार करके उनके पास से चले आये और निरन्तर मास मास खमण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करने लगे। इस तरह ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे पांचों अनगार जहाँ हस्तिकल्पनाम का नगर था वहां आये। वहां आकर वे हस्तिकल्प नगर के बाहिर सहस्राम्रवन उद्यान में जाकर ठहर गये। इसके बाद वे युधिष्ठिर के सिवाय चारों अनगार मासक्षपण के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करते, द्वितीय पौरुषी में ध्यान करते, और तृतीय पौरुषी में अत्वरित, अचपल एवं असंभ्रान्त होकर सदोरक मुखवस्त्रिकाकी प्रतिलेखना करते, भाजन और वस्त्रोंकी प्रतिलेखना करते-फिर उन्हें उठाते और लेकर जिस प्रकार गौतम स्वामी श्रमण महावीर स्वामी से पूछकर गोचरी के लिये निकलते उसी प्रकार ये भी युधिष्ठिर से पूछ कर हस्ति ભગવતેની આજ્ઞા મેળવીને તે યુધિષ્ઠિર પ્રમુખ પાંચે અનગારો તે સ્થવિર ભગવંતને વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પાસેથી આવતા રહ્યા અને સતત માસ ખમણ કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવા લાગ્યા. આ રીતે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતાં તે પાંચે અનગારો જ્યાં હસ્તિકલપ નામે નગર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ હસ્તિક૯૫ નગરની બહાર સહસ્સામ્રવન ઉદ્યાનમાં જઈને મુકામ કર્યો. ત્યારબાદ તે યુધિષ્ઠિર સિવાયના ચારે અનગાર માસક્ષપણ પારણાના દિવસે પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાધ્યાય કરતા, દ્વિતીય પૌરૂષીમાં ધ્યાન કરતા અને તૃતીય પૌરૂષીમાં ગોચરી માટે નીકળતી વખતે પણ અચપળ અસંભ્રાત થઈને સરકમુખવસ્ત્રિકાની પ્રતિલેખના કરતા, ભાજન અને વસ્ત્રોની પ્રતિલેખના કરતા, ત્યારબાદ તેમને ઉપાડતા અને ઉપાડીને જેમ ગૌતમ સ્વામી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞા મેળવીને ગોચરી માટે નીકળતા તેમજ તેઓ પણ યુધિષ્ઠિરની આજ્ઞા મેળવીને હસ્તિક૫ નગરમાં ઉચ્ચ, નીચ, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५७९ हस्तिकल्पे नगरे उच्चनीचमध्यमकुलानि ' अडमाणा' अटन्तः बहुजनशब्दं निशामयन्ति-शृण्वन्ति-किं शृण्वन्तीत्याह-' एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! अर्हन् अरिष्टनेमिः 'उज्जितसेलसिहरे' उज्जयन्तशैलशिखरे-गिरनारपर्वतोपरिभागे मासिकेन भक्तेन भक्तपत्याख्यानेन पानकेन-पानीयरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थः ‘पञ्चहिं छत्तीसेहिं अणगारसरहिं ' पञ्चभिः षट्त्रिंशताऽनगारशतैः शट्त्रिंशदधिकपञ्चशतसंख्यकैरनगारः सार्धे कालगतो यावत्-सिद्धोबुद्धः परिनिर्वृतः सर्वदुःखपहीणो जातः ।। 'तएणं' ति' ततः खलु ते युधिष्ठिरवश्चित्वरोऽनगारा बहुजनस्यान्ति के एतमर्थ श्रुत्वा हस्तिकल्पाद् नगरात् प्रतिनिष्क्रान्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सहस्रा. कल्प नगर में उच्च, नीच एवं मध्यम कुलों में गोचरी के लिये आये। उस समय इन्हों ने अनेक मनुष्यों के मुख से इस प्रकार समाचार सुने ( एवं देवाणुप्पिया ! अरहा अरिट्ठनेमी उजितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तासेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए जाव पहीणे, तएणं ते जुहिडिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढं सोच्चा हत्थिकप्पाओ पडिणिक्खमंति) देवानुप्रियो ! अहैत अरिष्टनेमि ऊर्जयंतशैल शिखर पर-गिरनार पर्वत के ऊपर एक मास के चतुरविध आहार के परित्यागरूप भक्तप्रत्याख्यान से ५३६ अनगारों के साथ कालगत यावत् सिद्ध, बुद्ध, परिनिवृत हो कर सर्व दुःखों से रहित हो गये हैं। इस प्रकार अनेक मनुष्यों के मुख से इस समाचार को सुनकर वे युधिष्ठिर व चारों अनगार उस हस्तिकल्पनगर से निकले (पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव અને મધ્યમ કુલેમાં ગોચરી માટે આવ્યા. તે સમયે તેમણે ઘણા માણસના મુખથી એ જાતના સમાચાર સાંભળ્યા કે– ( एवं देवाणुप्पिया ! अरहा अरिद्वनेमी उज्जित सेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहि छत्तीसेहिं अणगारसएहि सद्धि कालगए जाव पहीणे, तएणं ते जुहिटिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमह सोच्चा हथिकप्पाओ पडिणिक्खमंति) હે દેવાનપ્રિયે અહત અરિષ્ટનેમિઊજેયંત શિલશિખર ઉપર-ગિરનાર પર્વત ઉપર-એક માસના ચારે જાતના આહારના પરિત્યાગ રૂપ ભક્ત પ્રત્યા ખ્યાનથી પ૩૬ અનગારોની સાથે કાળગત યાવત્ સિદ્ધ, બુદ્ધ, પરિનિવૃત થઈને સર્વ દુઃખોથી મુક્ત થઈ ગયા છે. આ પ્રમાણે ઘણા માણસના મુખથી આ જાતના સમાચાર સાંભળીને તે યુધિષ્ઠિર વગરના ચારે અનગારે તે હસ્તિકલ્પ નગરથી નીકળ્યા. श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे श्रवणमुद्यानं यत्रैव युधिष्ठिरोऽनगारस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य भक्तपानं 'पच्चक्खंति ' प्रत्याख्यान्ति = प्रत्याख्याय ' गमनागमनस्स ' गमनागमनं प्रतिक्रामन्ति ईर्यापथिकों कुर्वन्ति प्रतिक्रम्य ' एसणमणेसणं ' एषणामनेपणाम् आलोचयन्ति, आलोच्य भक्तपानं-प्रतिदर्शयन्ति युधिष्ठिरस्य पुरोऽवस्थाप्य प्रतिदर्शयन्ति, प्रतिदर्श्य एवमवादिपुः - एवं खलु हे देवानुप्रिय ! यावत् कालगतः =अर्हन् अरिष्टनेमि मक्षंप्राप्तः, 'तं ' तस्मात् श्रेयः खलु अस्माकं हे देवानुमियाः । इमं पूर्वगृहीतं जुहिट्ठिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चक्खति, पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमति पडिकमित्ता एसणमनेसणं आलोएँति, आलोहत्ता भत्तपाणं पडिदसेंति पडिसित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! जाव कालगए तं सेयं खलु अम्हं देवाशुप्पिया ! इमं पुण्वगहियं भत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेतुंजं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहित्तए) निकलकर वे जहाँ सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था और उस में भी जहां युधिष्ठिर अनगार विराजमान थे, वहां आये । वहां आकर उन्हों ने उनकी साक्षी से भक्त प्रत्याख्यान करदिया और भक्त प्रत्याख्यान करके फिर उन्हों ने ईर्यापथ शुद्धि की । शुद्धि करके एषणा अनेषणा की आलोचना करके फिर उन्होंने लाये हुए उस आहार को युधिष्ठिर अनगार के समक्ष रख कर दिखलाया | दिखलाकर फिर वे इस प्रकार कहने लगे । हे देवानुप्रिय ! अर्हन् अरिष्टनेमि मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं - इसलिये हे देवानुप्रिय ! हमको अब यही उचित - ५८० ( पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिडिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छंत उवागच्छित्ता भत्तपाणं पञ्चक्खति पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिकमित्ता एसणमनेसणं आलोएंति, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदर्सेति पडिदसित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव कालगए तं सेयं खलु अम्हे देवाणुपिया ! इमं पुब्बगहियंभत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेत्तुंजं पब्वयं सणियं सणियं दुरूहित ) નીકળીને તેઓ જ્યાં સહસ્રામ્રવન નામે ઉદ્યાન હતુ અને તેમાં પણુ જ્યાં યુધિષ્ઠિર અનગાર હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે તેમની સામે ભક્ત પાનનું પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધું. પ્રત્યાખ્યાન કરીને તેમણે ઇર્યાપથની શુદ્ધિ કરી. શુદ્ધિ કરીને એષણા અને અનેષણા કરી, આલેચના કરી. આલાચના કરીને તેમણે લઇ આવેલા તે આહારને યુધિષ્ઠિર અનગારની સામે મૂકીને ખતાન્યેા. બતાવ્યા બાદ તેઓ આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિય 1 અત્યંત અષ્ટિનેમિપ્રભુએ મુક્તિ મેળવી છે એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિય ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५८१ भक्तपानं परिष्ठाप्य ' सेत्तुंनं ' शत्रुजयं-शत्रुजयनामकं पर्वतं शनैः शनैर्दूरोहितुम् आरोहितुम् , तथा-' संलेहणाझूसणाझूसियाणं ' संलेखना जोषणाजुष्टानां सलेखनायां कषायशरीरकृषीकरणे या जोषणा-प्रीतिः सेवा वा तया जुष्टाः-सेवितास्तेषां संलेखनातपःकारिणामित्यर्थः-कालम्-अनवकाङ्क्षमाणानाम् - अनिच्छताम् विहर्तुम् , इति कृत्वाऽन्योन्यस्यैतमर्थ प्रतिश्रृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, पतिश्रुत्य तद् पूर्वगृहीतं भक्तपानम् एकान्ते मासु के स्थाने परिष्ठापयन्ति, परिष्ठाप्य यत्रैव शत्रुजयः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य शत्रुनय पर्वतं शनैः शनै रोहन्ति आरोहन्ति, दूरूह्य यावत्-कालमनवकाङ्क्षमाणा विहरन्ति ।। है कि हम इस पूर्व गृहीत भक्त पान का परिष्टापन कर शत्रुजय नामके पर्वत पर धीरे धीरे चढें (संलेहणा झूसणा झुसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए त्तिकटूटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिप्लुणेति, पडिसुणित्ता तं पुवगहियं भत्तपाणं एगंते परिवेंति, परिद्ववित्ता जेणेव सेत्तुंज पन्धए तेणेव उवागच्छंति ) और वहाँ काय और कषाय को कृश करनेवाली संलेखना मरणाशंसा से रहित होकर प्रीति पूर्वक धारण करें इस प्रकार विचार करके उन्हों ने परस्पर के इस विचार रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उस पूर्व गृहीत भक्त पान को उन्होंने एकान्त स्थान में परिष्ठापित कर दिया और परिष्ठापित करके वे सब जहां शत्रुजय पर्वत था वहाँ चले गये ( उवागच्छित्ता) वहां जाकर के (सेतुंजं पव्वयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाच कालं अणवહવે અમને એ જ વાત ચોગ્ય લાગે છે કે અમે આ પૂર્વગૃહિત ભકત પાનનું પરિઝાપન કરીને શત્રુંજય નામના પર્વત ઉપર ધીમે ધીમે ચઢીએ. ( संलेहणा झूसणा झूसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए तिकटु अण्णमण्णस्स एयमहं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगंते परिहवेंति, परिद्ववित्ता जेणेव सेतुं पब्वए तेणेव उवागच्छंति ) અને ત્યાં કાય અને કષાયને કૃશ કરનારી સલેખનને મરણશંસાથી રહિત થઇને પ્રેમપૂર્વક ધારણ કરીએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના આ વિચાર રૂપ અર્થને સ્વીકારી લીધું. સ્વીકાર કરીને તેમણે તે પૂર્વગ્રહીત ભક્ત પાનને એકાંત સ્થાને પરિઝાપિત કરી દીધું. અને પરિષ્ઠાપિત उशन तमे। सस्यां शत्रुभय 'हता त्यां यादया गया. (उवागच्छित्ता) ત્યાં જઈને– ( सेत्तुं पव्वयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाव कालं अणवकंखमाणा विहरति, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे ततः खलु ते युधिष्ठिरममुखाः पञ्चानगाराः 'सामाइयमाझ्याई' सामायि कादीनि चतुर्दशपूर्वाणि अधीत्य बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा षष्ठाष्ठमादितपः कृत्वा द्विमासिकया संलेखनयाऽऽत्मानं 'झोसित्ता' जुष्टा सेवित्वा यस्यार्थाय क्रियते नग्नभावो-निग्रन्थभावः यावत् तमर्थमाराधयन्ति, आराध्य अनन्तम् अनन्तार्थविषयकं यावत् ' केवलवरणाणदंसणे' केवलवरज्ञानदर्शनं समु. त्पन्नं यावत् सिद्धाः सिद्धिगति प्राप्ता इत्यर्थः ।। सू०३५ ॥ कंखमाणो विहरंति, तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाइं चोदसपुव्वाइं बहूणि वासाणि दो मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सट्टाए कीरइ, णग्गभावे जाव तमट्ठमारोहंति, तमट्ठमाराहित्ता अणंते जाव केवलवरणादसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा) वे शबूंजय पर्वत पर चढे चढकर के उन्होंने मरणाशंसा से रहित होकर संलेखना धारण करली । इस तरह उन युधिष्ठिर प्रमुख पंच अनगारोंने सामायिक आदिचतुर्दश पूर्वोका अध्ययन करके अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करके तथा षष्ठ, अष्टम, आदि तपस्याओं को करके अन्त में दो मास की संलेखना से अपने आप की प्रीति पूर्वक सेवित किया और जिस निमित्त नग्न भाव-निग्रंथ अवस्था धारण की थी उस अर्थ को उन्हों ने सिद्ध कर लिया। सिद्ध करके-आरोधित कर के अनत अर्थ को विषय करने वाले केवलवरज्ञानदर्शन को उत्पन्नकर यावत् वे सिद्धि गति को प्राप्त हो गये ॥ सूत्र ३५ ॥ तएणं ते जुहिद्विल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाइं चोदसपुव्वाइं० वहणि धासाणि० दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणे झोसित्ता जस्सट्टाए कीरइ, जग्गभावे जाव तमट्ठमारोहंति, तमट्ठमाराहिता अणंते जाव केवलवरणाण दसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा) તેઓ શત્રુંજય પર્વત ઉપર ચઢયા અને ચઢીને તેમણે મરણશંસાથી રહિત થઈને સંલેખન ધારણ કરી લીધી આ પ્રમાણે તે યુધિષ્ઠિર પ્રમુખ પાંચે અનગારેએ સામાયિક વગેરે ચતુર્દશ પૂર્વોનું અધ્યયન કરીને ઘણાં વર્ષો પછી શામગ્ય-પર્યાયનું પાલન કરીને તેમજ ષષ્ઠ અષ્ટમ વગેરે તપસ્યાઓને રીતે છેવટે બે માસની સંલેખનાથી પ્રેમપૂર્વક પોતાની જાતને સેવિત કરી અને જે નિમિત્તને લઈને નગ્નભાવ-નિગ્રંથ અવસ્થા ધારણ કરી હતી તે અને તેમણે સિદ્ધ કરી લીધા. સિદ્ધ કરીને આરાધિત કરીને અનંત અર્થને વિષયરૂપ બનાવનાર કેવળજ્ઞાન દર્શનને ઉત્પન્ન કરીને યાવત તેઓએ સિદ્ધગતિ મેળવી લીધી. એ સૂત્ર ૩૫ . श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५८३ मूलम्-तएणं सा दोवई अज्जा सुव्वयाणं अजियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारसअंगाई अहिजइ अहिज्जित्ता बहणि वासाणि० मासियाए संलेहणाए० आलोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता, से णं भंते ! दुवए देवे ताओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झइ जाव काहिइ । एवं खलु जंबू ! सम णेणं जाव संपत्तेणं सोलमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि ॥ सू० ३४ ॥ सोलसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ १६ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु सा द्रौपदी आर्या साध्वी सुव्रतानामाथिकाणामन्ति के सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा मासिक्या संलेखनया आलोचित. प्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा 'बंभलोए' पंचमे ब्रह्मलोके देवत्वेन ' उववन्ना' 'तएणं सा दोवई ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा दोवई अज्जा) उस द्रौपदी आर्याने (सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारसअंगाई अहिज्जइ) सुव्रता आर्या के पास सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया (अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि० मासियाए संलेहणाए. आलोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना) अध्ययन करके अनेक वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना तएण सा दोवई इत्यादि - (तएण) त्या२५७. (सा दोवई अज्जा) ते द्रौपट्टी भार्या (सुव्वयाणं अज्जियाण तिए सामाइयमाइयाइं एकारसअंगाई अहिज्जइ) सुत्रता આર્યાની પાસે સામાયિક વગેરે ૧૧ અંગેનું અધ્યયન કર્યું. ( अहिन्जित्ता बहूणि वासाणि० मासियाए संलेहणाए० आलोईय पडिक्कतां कालमासे कालंकिच्चा बंभलोए उववन्ना) અધ્યયન કરીને ઘણાં વર્ષો સુધી ગ્રામશ્ય પર્યાયનું પાલન કર્યું. ત્યાર - श्री शतधर्म अथांग सूत्र : ०3 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे उत्पन्ना, तत्र तस्मिन् देवलोके - खलु अस्त्येकेषां केषांचिदवानाम् दशसागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु द्रौपदेवस्यस्य दशसागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता तत्र खलु गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! स खलु द्रौपदो देव आयुर्भवस्थितिक्षयेण 'ताओ ' तस्माद् देवलोकाच्च्युत्वा कुत्रगमिष्यति कुत्रोत्पत्स्यते ? भगवान् प्राह- ' जाव ' इति यावन्महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । 3 से आलोचित प्रतिक्रान्त वन वे काल अवसर काल कर के पांचवें ब्रह्म. लोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई । ( तत्थ णं अत्थे गइयाणं देवाणं दस सागरोबमाई टिई पण्णत्ता, तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरो माई ठिई पण्णत्ता, सेणं भंते! दुबए देवे ताओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झह, जाव काहिए। एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिबेमि) उस देवलोक में कितनेक देवों की दश सागर की स्थिति प्रज्ञप्त हुई है। सो वहां द्रौपदी देव की दश सागर की स्थिति हुई। अब गौतम पूछते हैं हे भदंत ! वह द्रौपदी देव आयु एवं भवस्थिति के क्षय होने पर वहां से चव कर कहां जावेगा- कहाँ उत्पन्न होगा ? उत्तर में भगवान कहते हैं - हे गौतम! वह द्रौपदी देव वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और वहीं से सिद्ध बनेगा यावत् समस्त दुःखों का अंत करेगा । પછી એક માસની સલેખનાથી આલેાચિત પ્રતિક્રાંત બનીને તેએ કાળ અવ સરે કાળ કરીને પાંચમા બ્રહ્મલેાકમાં દેવના પર્યાયથી જન્મ પામી. ( तत्थ णं अथेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइ ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, सेणं भंते ! दुवए देवे ताओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झइ, जाव काहि । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेर्ण सोलमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिबेमि ) તે દેવલેાકમાં કેટલાક દેવેની દશ સાગરની સ્થિતિ પ્રજ્ઞપ્ત થઈ છે. આ પ્રમાણે દ્રૌપદી દેવીની ત્યાં દશ સાગરની સ્થિતિ પ્રાપ્ત થઈ. હવે ગૌતમ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદન્ત ! તે દ્રૌપદી દેવીની આયુ અને ભવસ્થિતિ પૂરી થયા બાદ ચવીને કયાં જશે ? કર્યાં ઉત્પન્ન થશે ? તેના ઉત્તરમાં ભગવાન કહેવા લાગ્યા કે હે ત્યાંથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને યાવત્ તેઓ પેાતાના સમસ્ત દુ:ખાનેા અંત કરશે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ ગૌતમ ! તે દ્રૌપદી દેવ ત્યાંથી જ સિદ્ધ બનશે. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५८५ सुधर्मास्वामी कथयति-' एवं खलु' इत्यादि । एवं खलु हे जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन षोडशस्य ज्ञाता. ध्ययनस्यायं-पूर्वकथितः अर्थः द्रौपदीदृष्टान्तरूपो भावः प्रज्ञप्तः, प्ररूपितः, इति ब्रवीमि व्याख्यापूर्ववत् ॥ ३४ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक- श्रीशाहूच्छ. त्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां ज्ञाताधर्मकथाङ्गमूत्रस्या, नगारधर्मामृतवर्षि ण्याख्यायां व्याख्यायां षोडशमध्ययनं समाप्तं ॥ १६ ॥ __ सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने जो सिद्धि गतिनामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस षोडश ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त द्रौपदी दृष्टान्त रूप भाव अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा मैं उन्हीं श्रमण भगवान महावीर के द्वारा कहे श्रुत उपदेश के अनुसार कहता हूँ ॥ सूत्र ३६ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका सोलहवां अध्ययन समाप्त ॥ १६ ॥ સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જંબૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેઓ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચૂકયા છે. આ સોળમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વે વર્ણવેલો દ્રૌપતી દૃષ્ટાંત રૂપ ભાવ અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર વડે કહેવાએલા ઝુત ઉપદેશ મુજબ જ તમને હું કહી રહ્યો છું. સૂરદા શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી व्याभ्यानु सागभु अध्ययन सभाः ॥ १६ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सप्तदशाध्ययनम् ॥ व्याख्यातं षोडशाध्ययनम् , साम्प्रतं सप्तदशं व्याख्यायते । पूर्वस्मिन्नध्ययने द्रौपधा नागश्रीभवे कुत्सितदानेन तस्या एव सुकुमारिकाभवे निदानेन चानर्थः पोक्तः, साम्प्रतमवशेन्द्रियत्वेनानौँ भवतीत्युच्यते, इति सम्बन्धेन सम्बद्धस्यास्याध्ययनस्येदमादिमंसूत्रम्-' जइणं भंते ! ' इत्यादि । मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्लणायज्झयणस्स अयमट्रे पण्णत्ते सत्तरसमस्त णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अहे पन्नत्ते?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं सत्रहवां अध्ययन का प्रारंभ -आकीर्ण-जातिमान् घोड़े का सत्रहवां अध्ययन प्रारंभः सोलहवां अध्ययन संपूर्ण हुआ-अब सत्रहवां अध्ययन कहा जाता है। पूर्व अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि द्रौपदी ने नागश्री के भव में कुत्सित दान दिया था-कडवे तुबेका आहार मुनिराज को दिया था-तथा जब वह सुकुमारिका के भव में उत्पन्न हुई थी तो उसने निदानबंध किया था इससे उसे महान् अनर्थ की प्राप्ति हुई । अब इस अध्ययन में यह विषय स्पष्ट किया जावेगा-कि जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखते हैं-वे अनर्थ के भागी होते हैं । इसी संबंध से सम्बन्धित हुए इस अध्ययन का यह आदिम सूत्र है સત્તરમા અધ્યયનનો પ્રારંભ -: मी तिमान मनु सत्तरभुं अध्ययन प्रारम : સોળમું અધ્યયન પૂરું થઈ ગયું છે, હવે સત્તરમા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. સોળમા અધ્યયનમાં એ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે કે દ્રૌપદીએ નાગશ્રીના ભવમાં કુત્સિત (ખેટું) દાન કર્યું હતું. કડવા તુંબાને આહાર મુનિરાજને આપ્યો હતો. તેમજ જ્યારે તે સુકુમારિકાના ભાવમાં ઉત્પન્ન થઈ હતી ત્યારે તેણે નિદાન બંધ કર્યો હતો. તેથી તેને મહાન અનર્થની પ્રાપ્તિ થઈ હતી. હવે આ સત્તરમા અધ્યયનમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે કે જેઓ પિતાની ઇન્દ્રિયને વશમાં રાખતા નથી–તેઓ અનર્થ ભેગવે છે. એ જ વાતને સ્પષ્ટ કરતું સત્તરમા અધ્યયનનું આ પહેલું સૂત્ર છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ नौकाबणिग्वर्णनम् ५८७ समएणं हथिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ णं कणगकेऊ णामं राया होत्था, वण्णओ, तत्थणं हथिसीसे णयरे बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था, तएणं तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं अन्नया एगयओ जहा अरहण्णओ जाव लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाइं ओगाढा यावि होत्था तएणं तेसिं जाव बहुणि उप्पाइयसयाइं जहा मार्गदियदारगाणं जाव कालियवाए य तत्थ समुत्थिए, तएणं सा णावा तेणं कालियवाएणं आघोलिज्जमाणी२, संचालिज्जमाणी२, संखोहिज्जमाणी२, तत्थेव परिभमइ, तएणं से णिज्जामए णट्ठमइए णटुसुइए णहसण्णे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, ण जाणइ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए तिकडे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ, तएणं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गभिल्लगा य संजत्ताणावावाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी-किन्नं तुमं देवा. णुप्पिया ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह ?, तएणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! णहमइए जाव अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि, तएणं ते कुच्छिधाराय ४ तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयमह सोचा णिसम्म भीया ४ पहाया कयबलिकम्मा करयल बहणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लि. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे नाए जाव उवायमाणा२ चिटुंति, तएणं से णिज्जामए तओ मुहत्तरस्स लद्धमइए३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, तएणं से णिजामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! लद्धमइए जाव अमूढदिसाभाए जाए, अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कालियदीवे तेणं संवूढा एसणं कालियदीवे आलोकइ, तएणं ते कुच्छिधारा यह तस्स णिज्जामगस्स अंतिए एयमढे सोच्चा हट्टतुट्टा पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पोय. वहणं लवेंति लवित्ता एगट्ठियाहिं कालियदीवं उत्तरंति, तत्थ णं ते बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरा. गरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते ?, हरिरणुसोणिसुत्तगा आइण्णवेढा, तएणं ते आसा ते वाणियए पासंति पासित्ता तेसिं गंधं अग्घायंति अग्घायित्ता भीया तत्था उब्बिग्गमणा तओ अणेगाइं उब्भमंति, तेणं तत्थ पउरतणपाणिया निब्भया निरुबिग्गा सुहं सुहेणं विहरंति ॥ सू० १ ॥ टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेन षोडशस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः = -जहणं भंते ! इत्यादि। टीकार्थ-(भंते ! हे भदंत ! (जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं) यदि श्रमण भगवान् महावीरने कि जो सिद्धिगति नामकस्थान को प्राप्तकर चुके हैं (सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सत्तर जइण भते ! इत्यादि साथ-(भाते !) हे महन्त ! ( जइण समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण) श्रमण भवान महावीरे २-२ सिद्धगति नामना स्थान મેળવી ચૂક્યા છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ नौकाबणिग्वर्णनम् पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीप्राह-एवं खलु हे जम्बूः तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिशीर्ष नाम नगरमासीत् । ' वण्णओ ' वर्णकः= ऋद्धे ' त्यादिनगरवर्णनम् पूर्ववद् विज्ञेयम् । तत्र खलु कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् 'वष्णो ' वर्णकः-' महयाहिमवंते ' त्यादि राजवर्णनं पूर्ववद् बोध्यम् । तत्र खलु हस्तिशीर्षे मस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संप. तेणं के अटे पण्णत्ते ) सोलहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ प्ररूपित किया है-तो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए उन्हों श्रमण भगवान् महावीर ने सत्रहवे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है (एवं खलु जंबू ! ) इस प्रकार जंबू स्वामी के पूछने पर सुधमा स्वामी अब उन्हें समझाते हैं-वे कहते हैं हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है: (तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ, णं कणगके ऊणामं राया होत्था, वण्णओ, तत्थ, णं हथिसीसे णयरे बहवे संजत्ता णावा वाणिगया परिवसंति, अड्डा जाच बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था ) उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नाम का नगर था। "ऋद्ध" इत्यादि रूपसे पूर्व अध्ययनों में वर्णित पाठ की तरह इस नगर का वर्णन जानना चाहिये । उस नगर में कनक केतु नामका राजा रहता था। इसका भी वर्णन " महया हिमवंत " इत्यादिरूप से पहिले के अध्ययनों में वर्णित राजाओंके वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। उस (सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सत्तरमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ) સેળમા જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોકત રૂપે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે ત્યારે સિદ્ધગતિ સ્થાનને મેળવી ચૂકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સત્તરમાં જ્ઞાતાધ્યયનનો શો અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. ( एवं खलु जंबू ) म रीत भूना प्रश्नने समजान मन सभqdi સુધર્મા સ્વામી કહેવા લાગ્યા કે હે જંબૂ! તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે – ( तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थणं कणगकेऊणामं राया होत्था, वण्णओ, तत्थणं हथिसीसे णयरे बहवे संजत्ता णावा वाणियगा परिवसंति, अडुा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था) तणे भने त समये हस्तिशी नामे नगर . “ ऋद्ध " वगैरे રૂપમાં પહેલાંના અધ્યયનેમાં વર્ણન કરવામાં આવેલા પાઠની જેમ આ નગરનું વર્ણન પણ જાણી લેવું જોઈએ. તે નગરમાં કનકકેતુ નામે રાજા રહેતે હતે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे नगरे बहवः · संजत्ताणावावाणियगा । संयात्रानौकावाणिजका सं-सङ्गता यात्रा देशान्तरगमनं संयात्रा, तत्पधाना नौकावाणिजकाः पोतवणिजः-संयात्रा. नौका वाणिजकाः परिवसन्ति कीदृशाः ? इत्याह-आढया यावत् ' बहुजणस्स' बहुजनस्य सम्बन्धसामान्ये षष्ठीजनसमुदायेनेत्यर्थः ' अपरिभूया ' अपरिभूता पराभवरहिता चाप्यासन् । ततः खलु तेषां संयात्रानौका वाणिजकानाम् अन्यदा अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये 'एगयओ' एकतः एकत्रमिलित्वा ‘जहा अरहणणओ' यथा अहंन्नकः अत्रैवाष्टमाध्ययनोक्ताहन्नकवत् यावत् लवणसमुद्रमनेकानि योजनशतानि ' ओगाढा' अवगाढाः उत्तीर्णाश्वप्यासन् । ततः तत्र खलु तेषां यावत् बहूनि ' उप्पाइयसयाई' औत्पातिकशतानि आकस्मिकोत्पातशतानि यथा माकन्दिकदारकयोः-जिनरक्षितजिनपालितयोः संजातानि तथैवास्यापि यावत् ' कालियवाए ' कालिकवातः प्रलयकालिकवत्प्रचण्डवातश्च तत्र समुत्थितः । ततः तदनन्तरं खलु सा नौका तेन कालिकवातेन 'आघोलिज्जमाणी २' आघूर्यमाना २ पुनः पुनर्धाम्यन्ती ' संचालिज्जमागी २' संचाल्यमाना २ पुनः पुनश्वाल्य. हस्तिशीर्ष नगरमें अनेक पोत वणिक (नावसे व्यापार करने वाले) रहते थे। ये एक साथ मिलकर ही परदेश में जाकर व्यापार किया करते थे। इनकी उस नगर में अच्छी प्रतिष्ठा थी-कारण ये सब के सब लक्ष्मीदेवी के विशेष रूप से कृपापात्र थे। (तएणं तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं अन्नया एगयाओजहा अरहण्णाओ जाव लवणसमुदं अणेगाइं जायणसयाई ओगाढा यावि होत्था, तएणं तेसिं जाव बहूणि उप्पाइयसयाई जहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए य तत्थ समुत्थिए, तएणं सा तेणं कलियवाएणं आघोलिजमाणी २ संचालिज्जमाणी २ संखोहिन्जमाणी मा ननु न ५५५ " महया हिमवत " वगेरे ३५i पहसान अध्य. યોમાં વર્ણિત રાજાઓના વર્ણન જેવું જ જાણી લેવું જોઈએ. તે હસ્તિશીર્ષ નગરમાં ઘણા પિતવણિકે (વહાણ વડે વેપાર કરનારા) રહેતા હતા તેઓ સવે એકી સાથે મળીને પરદેશમાં જતા અને ત્યાં વેપાર કરતા હતા. તે નગરમાં તેમની સારી એવી પ્રતિષ્ઠા હતી. કેમકે ખાસ કરીને તેઓ સર્વે લક્ષ્મીની કૃપાપાત્ર હતા. (तएणं तेसिं संजत्ता णाया वाणियगाणं अन्नया एगयाओ जहा अरहण्णो जाव लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा यावि होत्था, तएणं तेसिं जाव बहणि उप्पाइयसयाईजहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए य तत्थ समथिए तएणं सा णावा तेणं कलियवाएणं आघोलिज्जमाणी २ संचालिज्जमाणी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ निर्यामकस्यदिङ्मूढत्वम् माना — संखोहिज्जमाणी २ ' संक्षोभ्यमाणा २ पुनः पुनः क्षोभं प्राप्यमाणा सती तत्रैव-एकस्थान एवेतस्ततः परिभ्राम्यति किन्तु ततः परं गन्तुं न प्रभवतीति भावः। ततः खलु स निर्यामका नाविकः ‘णट्ठमइए' नष्टमतिकः-मतिज्ञानरहितः 'गट्ठसुइए' नष्टश्रुतिकः-विस्मृतनिर्यामकशास्त्रः दिग्निर्णयं कर्तुमशक्तत्वात् गट्ठसणे' नष्टसज्ञा मार्गज्ञानरहितः ‘मूढदिसाभाए' मूढदिग्भागः पूर्वादि. दिग्विभागज्ञानरहितः जातश्चप्यासीत् , पुनश्च स न जानाति यत् कतर=कं देशं २ तत्थेव परिभमइ, तएणं से णिजामए णट्टमइए जट्ट सुइए णट्ठ सपणे मूढदिसभाए जाए यावि होत्था) एक दिनकी बात है कि जब ये सांयात्रिक पोत वणिक एक जगह मिलकर बैठे हुए थे तब अष्टम अध्ययन में वर्णित अरहनक सेठ की तरह इनका लवण समुद्रसे होकर परदेश में व्यापर निमित्त जाने का विचार हुआ। विचार स्थिर होते ही ये जय नौका द्वारा लवण समुद्र में सैंकडों योजन तक निकल चुके तब इनके लिये जिन रक्षित और जिनपालितकी तरह आकस्मिक अनेक उत्पातशत (सैंकडों)हुए। उस समय प्रलय कालकी तरह प्रचण्ड वायु उठी। उससे उनकी नौका बार २ डगमगा ने लगी इधर से उधर फिर ने लगी। बार २ चञ्चल होकर बार २ क्षुभित होकर एक ही स्थान पर नीची ऊँची होने लगी-उससे आगे वह नहीं बढी। इससे निर्यामिक-नाविकमतिज्ञान से रहित हो गया। दिशाओं का निर्णय करने का ज्ञान उसका जाता रहा। वह मार्ग ज्ञान रहित होकर दिग्मूढ बन गया। (ण जोणइ २ संखोहिज्जमाणी १ तत्थे वपरिभमइ, तएणं से णिज्जामए णट्ठमइए णट्ठसुइए णहसण्णे मूढ दिसाभाए जाए यावि होत्था) એક દિવસની વાત છે કે જ્યારે તેઓ સર્વે સાંયાત્રિક પિતવણિકે એક સ્થાને એકત્ર થઈને બેઠા હતા ત્યારે આઠમાં અધ્યયનમાં વર્ણિત અરહનક શેઠની જેમ તેમને પણ લવણું સમુદ્રમાં થઈને પરદેશમાં વેપાર માટે જવાને વિચાર થયે. વિચાર સ્થિર થતાં જ તેઓ જ્યારે નૌકા વડે લવણ સમુદ્રમાં સેંકડે જન સુધી પહોંચી ગયા ત્યારે જીનપાલિત અને જનરક્ષિતની જેમજ તેમના માટે પણ સેંકડો એચિંતા ઉપદ્ર ઉત્પન્ન થયા. તે વખતે પ્રલય કાળને જે પ્રચંડ વાયુ કુંકાવા લાગ્યું. તેથી તેમની નૌકા વારંવાર ડગમગવા લાગી, આમથી તેમ કરવા લાગી. વારેઘડીએ ચંચળ થઈને, વારંવાર સુભિત થઈને એક જ સ્થાન ઉપર નીચે ઉપર થવા લાગી, તેનાથી આગળ વધી નહિ. તેથી નિર્ધામિક-નાવિક મતિજ્ઞાનથી રહિત થઈ ગયે. દિશાએને જાણવાનું તેનું જ્ઞાન જતું રહ્યું. માર્ગજ્ઞાનથી રહિત થઈને દિમૂઢ બની श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वा दिशं वा विदिशं वा प्रति मे पोतवहनम् नौकायानं ' अवहिए' अपहृतम् महा वातेन नीतम् , इति । इति कृत्वा-इतिमनसि निधाय अपहतमनः संकल्पो यावद् ध्यायति आर्तध्यानं करोति । ततः खलु ते बहवः कुक्षिधाराश्च-पार्श्वतो नौका चालकाः कर्णधाराश्च-नाविकाः । 'गभिल्लगाय ' गार्भयकाश्च नौमध्ये यथावसर कर्मकराः, संयात्रानौका वाणिजकाः=भाण्डपतयश्च यौव स निर्यामकः-नौकाधिपतिरतौवोपागच्छन्ति, उपागत्य एवमवादिषुः-किं खलु यूयं हे देवानुप्रियाः! अपहतमनःसंकल्पाः निरुत्साहमनस्काः यावत् 'झियायह ' ज्यायथ आतध्यानं कुरुथ, आदरार्थे बहुवचनम् । ततः खलु स निर्यामकस्तान बहून् कुक्षिधारांश्च ४ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटूटु) अतः जब उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं रहा कि यह महावीत मेरी नौका को किस दिशा अथवा विदिशा की ओर ले गया है-तब इस प्रकार मन में विचार कर के वह ( ओहयमणसंकप्पे जाव झियायह) अपहत मनः संकल्पवाला बनकर यावत् आर्तध्यान करने लगा। (तएणं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ता णावो वाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेव उवागच्छइ ) इतने में अनेक कुक्षि. धर-पाच में बैठकर नौका चलाने वाले कर्णधार-नाविक, गार्मेयक-नौका के भीतर यथावसर काम करने वाले और सांयात्रिक पोत वणिक जहां वह निर्यात्रिक था-वहां आये । ( उवागच्छित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम देवाणुपिया ओह्यमणसंकप्पा जाव झियायह-तएणं से णिज्जामए गया. (ण जाणाइ कयर देसं वा दिसंवा विदिसं वा पोयवहणे अवहिएत्ति कटु) એથી જ્યારે તેને આ વાતની પણ ખબર રહી નહિ કે આ મહાવાત અમારી નૌકાને કઈ દિશા અથવા તે વિદિશા તરફ લઈ ગયેલ છે. ત્યારે મનમાં આ सतना पियार ४ीन ते ( ओह्यमणस कप्पे जाव झियायइ) अ५६तमनः સંકલ્પવાળે થઈને યાવત્ આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યું. (तएणं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ता णावा वाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेण उवागच्छइ ) એટલા માં ઘણું કુક્ષિધર–પાશ્વમાં બેસીને નૌકા ચલાવનારા, કર્ણધાર નાવિક, ગાર્મેયક-નૌકામાં યથા સમય કામ કરનારા અને સાંયાત્રિકો–પોતવણિકે જ્યાં તે નિર્ધામક હતું ત્યાં ગયા. (उवागच्छित्ता एवं वयासी-किन्नं तुमं देवाणुप्पिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह-तएणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ निर्यामकस्यदिङ्मूढत्वम् ५९३ एवमवादीत् एवं खलु हे देवानुपियाः ! अहं नष्टमतिकः यावत् न ज्ञायते कं देशं वा दिशं वा विदिशं वा प्रतिपोतवहनम् ' अवहिए ' अपहृतं महावातेन नीतम् ? इति कृत्वा इति विचार्य ततः तस्मात्कारणात् अपहतमनःसङ्कल्पो यावत् ध्यायामि-आर्तध्यानं करोति । ततः खलु ते कुक्षिधाराश्च४ सर्वे तस्य निर्यामक स्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य भीताः, त्रस्ताः, त्रसिताः, उद्विग्नाः, सातभयाः सन्तः स्नाताः कृतवलिकर्माणः 'करयल०' करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा बहूनां इन्द्राणां च स्कन्दानां च यथा मल्लिज्ञाते तथैव यावत्-बहूनां रुद्रादीनां देवानां देवीनां च-उपयाचितशतानि अनेकविधते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गट्टमइए जाव अवहिए त्ति कट्टु तो ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि) वहां आकर के उन्हों ने उस से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! क्या कारण है जो तुम अपहतमनः संकल्प यावत् होकर आतध्यान कर रहे हो। उन सब को ऐसी बात सुनकर उस निर्यामक ने उन अनेक कुक्षिधार ४ आदिकों से इस प्रकार कहा-सुनो बात इस प्रकार है-मैं इस समय नष्ट मतिज्ञान आदि वाला हो रहाहूँ-मुझे यह पता नहीं पड रहा है कि मेरी यह नौका महावातके द्वारा किस देशमें और किस दिशाअथवा विदिशा में ले आई गई है-इस कारण मैं इस समय निरुत्साह मनवाला आदि बन रहा हूँ। (तएणं ते कुच्छिधारा य ४ तस्स णिजामयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म भीया ५ पहाया कयबलिकम्मा करयल बरणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लिनाए जाव उवोयमाणा २ एवं खलु देवाणुप्पिया णट्टमइए जाव अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि ) ત્યાં જઈને તેમણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! શા કારણથી તમે અપહતમનઃ સંક૯પવાળા થઈને આર્તધ્યાન કરી રહ્યા છે. તેઓ સર્વેની આ વાત સાંભળીને નિયામકે તે ઘણું કુક્ષિધાર ૪ વગેરે બધાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે સાંભળે, વાત એવી છે કે અત્યારે હું નષ્ટ મતિજ્ઞાનવાળે થઈ ગયો છું. મને એ જાતની પણ સમજ પડતી નથી કે આ મારી નૌકા મહાવાત વડે પ્રેરાઈને કયા દેશમાં અને કઈ દિશા અથવા તો વિદિશામાં તણાઈ આવી છે. એટલા માટે હું અત્યારે નિરાશ મનવાળે થઈ ગયે છું. (तएणं ते कुच्छिधारा य ४ तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म भीया ५ हाया कयवलिकम्मा करयलबहूणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लिनाए जाव उवायमागा २ चिट्ठति, तएणं से णिज्जामए तओ मुहत्तंतरस्स શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ૦૩ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मान्यताशतानि ' उव्वीयमाणा २' उपयाचमाचाः २ पुनः पुनः कुर्वाणाः-तत्तत्प्रसादनार्थमनेकविधां प्रतिज्ञां कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति, ततः खलु स निर्यामकः ततोमुहूर्तान्तरातू-मुहूर्त्तानन्तरं लब्धमतिकः लब्धश्रुतिकः, लब्धसज्ञः, अमूढदिग्भागः सर्वथा समुपलब्धसंज्ञ इत्यर्थः जातश्चाप्यासीत् । ततः खलु स निर्यामकस्तान् बहून् चिट्ठति तएणं से णिजामए तओ मुहुर्सतरस्स लद्धमहए ३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था) इस तरह वे कुक्षिधार वगैरह उस निर्यामक के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर और उन्हें हृद्य में अवधारण कर भीत, त्रस्त, त्रसित उद्विग्न एवं उत्पन्न भयवाले हो गये। उन्हों ने उसी समय स्नान एवं वायसादि पक्षियों को अन्नादि देने रूप बलिकर्म करके अपने २ हाथों की अंजलि बनाई और उसे मस्तक पर रखकर अनेक इन्द्रों की स्कन्दों की, अनेक रुद्रादिक देवताओं की अनेक देवियों की जैसा कि मल्लिनामक अध्ययन में कहा है-सैंकडों तरह की बार २ मनौती की, उनके प्रसाद के लिये अनेक प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की । इस के बाद उस निर्यामक की मति ठिकाने आ गई। वह दिशाओं के ज्ञान करने में समर्थ बन गया। मार्ग का ज्ञान उसे हो गया। तथा यह पूर्व दिशा है यह पश्चिम दिशा है इत्यादि रूप से उसे दिशाओं के विभाग का भी ज्ञान हो गया। (तएणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी एवं खलु अह देवाणुप्पिया! लद्धमइए लद्धमइए ३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था ) તે કુક્ષિધાર વગેરે લેકે એ નિયમકના મુખથી આ પ્રમાણે વચને સાંભળીને અને તેમને હૃદયમાં ધારણ કરીને ભીત, ત્રસ્ત, ઉદ્વિગ્ન અને ઉત્પન્ન ભયવાળા થઈ ગયા. તેઓએ તત્કાળ સ્નાન તેમજ કાગડા વગેરે પક્ષીએને અન્નભાગ વગેરે આપીને બલિકર્મ કર્યું અને ત્યારપછી તેઓએ પિતાના હાથની અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને ઘણા ઈન્દ્રોની, ઘણા રૂદ્ર વગેરે દેવતાઓની ઘણું દેવીઓની–મલ્લી નામક અધ્યયનમાં જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તે પ્રમાણે સેંકડે જાતની વારંવાર માનતા માની, તેમને પ્રસાદ ચઢાવવાની અનેક જાતની પ્રતિજ્ઞા કરી. ત્યારપછી તે નિર્યા. મકની વિવેક શક્તિ જાગ્રત થઈ ગઈ. તેને દિશાઓનું જ્ઞાન થવા લાગ્યું. માર્ગનું જ્ઞાન તેને થઈ ગયું તેમજ આ પૂર્વ દિશા છે, આ પશ્ચિમ દિશા છે, વગેરે રૂપથી પણ તેને દિશાઓના વિભાગનું જ્ઞાન થઈ ગયું. (तएणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! लद्धमइए जाव अमूढदिसाभाए जाए-अम्हेणं देवाणुप्पिया ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपे हिरण्यादीनांवर्णनम् ५९५ कुक्षिधारांश्च ४ एवमवादीत्-एवं खलु अहं हे देवानुपियाः ! अधुना लब्धमतिको यावद् अमूढदिग्भागो जातोऽस्मि-वयं खलु हे देवानुप्रियाः ! 'कालियदीवंतेणं' कालिकद्वीपान्ते कालिकद्वीपसमीपे खलु ' संबूढा' संध्यूढाः संप्राप्ताः, एषः अग्रे वर्तमानोऽयं खलु कालिकद्वीपः 'आलोकई आलोक्यते-दृश्यते । ततः खलु ते कुक्षिधाराश्च ५ सर्वे तस्य निर्यामकस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्टाः प्रदक्षिणानुकूलेन=पृष्टप्रदेशागमनशीलत्वात्सानुकूलेन वातेन यत्रैव कालिकद्वीपस्तचैवोपागच्छन्ति,उपागत्य पोतवहनं लंबेंति-लम्बयन्ति श्रृङ्खलाभिर्बध्नन्ति स्थिरी कुर्वन्ति-इत्यर्थः, लम्बयित्वा ' एगट्ठियाहिं ' एकाथिकाभिः-एका समानः प्रवजाव अमूढदिसाभाए जाए-अम्हेणं देवाणुप्पिया ! कालियदीवंतेणं संवूढा, एसणं कालियदीवे आलोकद, तएणं ते कुच्छिधारा ४ य तस्स णिज्जामगस्स अंतिए एयमढे सोच्चा हट्टतुट्ठा पायक्खिणाणुकूलेणं वारणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छंति ) इस के बाद उस नियामक ने उन अनेक कुक्षिधार आदिकों से ऐसा कहा हे देवानुप्रियों ! मैं लब्धमतिवाला हो गया हूँ मेरी बुद्धि ठिकाने आ गई है। यावत् अब मैं पूर्वादि दिशाओं का विभाग कर सकता हूँ। इस समय हमलोग कालिक द्वीप के पास आ गये हैं ! देखों यह सामने कालिक द्वीप ही दिखलाई दे रहा है । इस तरह उस निर्यामक के मुख से सुनकर वे सब कुच्छिधार आदि बड़े प्रसन्न हुए, उन्हें बड़ा अधिक संतोष हुआ। इसी समय अनुकूल वायु ने उन सब को जहां वह कालिक द्वीप था वहां पहुंचा दिया ) ( उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता एगट्टियाहिं कालियकालियदीवं तेणं संबूढा, एसणं कालियदीवे आलोक्कइ, तएणं ते कुच्छिधारा ४ य तस्स णिज्जामगस्स अंतिए एयमट्ठसोचा हट्ट तुट्ठा पायक्खिणाणुकूलेणं वागणं जेणेव कालियदीवे तेणे व उवागच्छंति ) । ત્યારબાદ તે નિયમકે તે ઘણુ કુક્ષિધાર વગેરે લોકોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! મારી બુદ્ધિ શક્તિ ફરી જાગ્રત થઈ ગઈ છે. મારી બુદ્ધિ વ્યવસ્થિત થઈ ગઈ છે. યાવત્ હવે હું પૂર્વ વગેરે દિશાઓનું વિભાજન પણ સમજી શકું છું. અત્યારે અમે કાલિક દ્વીપની પાસે આવી ગયા છીએ. જુઓ આ સામે કાલિક દ્વીપજ દેખાઈ રહ્યો છે. આ પ્રમાણે તે નિર્ધામકના મુખથી સાંભળીને તે બધા કુક્ષિઘાર વગેરે લોકે ખૂબ જ પ્રસન્ન થયા, તેઓને ખૂબજ સંતોષ થયે. એ જ વખતે અનકળ પવને તેઓને જ્યાં કાલિકાદીપ હતે ત્યાં પહોંચાડી દીધા. ( उवागच्छित्ता पोयवहणं लंवंति, लंबित्ता एगट्ठियाहिं कालियदीवं उत्त श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे हणतुल्यः अर्थःप्रयोजनं यासां तास्तथा, ताभिः सहायिकाभिलघुनौकाभिः कालिकद्वीपम् उत्तरन्ति स्म । तत्र खलु ते बहून् हिरण्याकरान्-रजताकरान् सुवर्णाकरांश्च, रत्नाकरांश्च, वत्राकरान् वज्राख्यरत्नखनी रित्यर्थः, तथा बहून् तत्राश्वांश्च पश्यन्ति, किं ते किम्भूतास्ते ? इत्याह- हरिरेणुसोणिसुत्तगा' हरिद्रेणुशोणिसूत्रकाः हरिद्वर्णधूलिकृतकटिसूत्राः 'आइण्णवेढा' आकीर्णवेष्टःवर्णनग्रन्थो-अत्र वाच्यः- हरिरेणुसोणिसुत्तगा' इत्यादिरूपं वर्णनं सर्वमत्र कथनी यमित्यर्थः । ततः खलु तेऽश्वास्तान् पश्यन्ति, दृष्ट्वा तेषां गन्धम् ' अग्घायति' आजिघ्रन्ति, आघ्राय भीताः भयं प्राप्ताः, त्रस्ताः त्रासं प्राप्ताः त्रसिताः-विशेषदीवं उत्तरंति, तत्थणं ते बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगाआइण्णवेढा, तएणं ते आसा ते वाणियए पासंति पासित्ता तेसिं गंधं अग्धाय ति, अग्धायित्ता भीया तत्था उव्विग्गा उव्विगमणा तओ अणेगाई जोयणाइं उन्भमंति ) वहां पहुँच कर उन्होंने लंगर डालदिया। अर्थात् जहाज को सांकलों से बांधकर वहाँ स्थिर कर दिया। बाद में वे एकाथिक-समान प्रयोजन साधक-छोटी २ नौकाओं से उस कालिक द्वीप में उतरे । वहां पर उन्होंने अनेक हिरण्य की खानों को सुवर्ण की खानों को, रत्न की खानों को, हीरे की खानोंको तथा अनेक घोड़ों को देखा । उन पर कटिसूत्र हरिद्वर्ण वाली धूलि से रचा गया था। ये सब जात्यश्व थे। उन जात्यश्वों ने उन पोतवणिकों को देखा। उनकी गंध को उन्होंने सूंघा। सूंघ कर वे सबके सब भयभीत हो गये । त्रस्त हो रंति, तत्थणं ते बहवे हिरणागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगा आइण्णवेढा, तएणं ते आसा ते वाणियए पासंति, पासित्ता तेसिं गंधं अग्धायंति, अग्धायित्ता भीया तत्था उचिग्गा उव्विगमणा तओ अणेगाइं जोयणाई उन्भमंति) ત્યાં પહોંચીને તેમણે લંગર નાખ્યું. એટલે કે વહાણને સાંકળ વડે બાંધીને ત્યાં ઊભું રાખ્યું. ત્યારપછી તેઓ એકર્થિક નાની નાની નૌકાઓ વડે તે કાલિક દ્વીપમાં ઉતર્યા. ત્યાં તેમણે ઘણી હિરણ્યની ખાણ, સુવર્ણની ખાણ તેમજ ઘણા ઘડાઓને જોયા. ઘોડા ઉપર કટિસૂત્ર લીલા રંગની માટી વડે બનાવવામાં આવ્યું હતું. આ બધા જાત્યા હતા. તે જાત્યાએ તે પિતવાણિકને જોયા. તેમણે તેમની ગંધને સૂધી. સૂધીને તેઓ બધા ભયભીત થઈ ગયા. ત્રસ્ત થઈ ગયા. વિશેષરૂપથી તેમના ચિત્તમાં ભયનું સંચરણ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१७ कालिकद्वीपे हिरण्यादिना पोतभरणम् ५९७ तस्त्रासं प्राप्ताः,उद्विग्नाः उद्वेगं प्राप्ताः उद्विग्नमनसः=व्याकुलमानसः सन्तः ततः= तस्मात्स्थानात् अनेकानि योजनानि-अनेक योजनदरम् , ' उन्भमंति' उद्माम्यन्ति पलायन्ते स्म । ते अश्वाः खलु तत्र वने 'पउरगोयरा' प्रचुरगोचराःप्रचुर: बहुलः गोचरः संचरणभूमिमागो येषां ते तथा, स तु तृणजलरहितोऽपि भवतीत्याह-'पउरतणपाणिया' प्रचुरतृणपानीयाः-प्रचुराणि-प्रभूतानि तृणानि पानीयानि च येषु ते तथा, निर्भया: श्वापदादिभयरहिताः, अतएव णिरुविग्गा' निरुद्विग्नाः मनः क्षोभरहिताः सन्तः सुखं सुखेन विहरन्ति ॥ सू०१ ॥ मूलम्-तएणं ते संजत्तानावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासी-किणं अम्हं देवाणुप्पिया ! आसेहिं ?, इमे णं बहवे हिरण्णागरा य सुवण्णागरा य रयणागरा य वइरागरा य तं सेयं खलु अम्हं हिरणस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्त य पोयवहणं भरित्तए त्तिकदृ अन्नमन्नस्स एयमद्रं पडिसुणेति पडिसुणिचा हिरणस्स य सुवण्णस्त य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कट्रस्स य पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति गये। विशेषरूप से उनके चित्त में भय का संचार हो गया। उनका मन उद्विग्न हो गया। इस तरह होकर वे सब वहां से अनेक योजन दूरतक वन में भाग गये। (तण तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया निम्भया, निरुबिग्गा सुहं सुहेणं विहरंति) वहां वन में उनको विचरण करने के लिये बहुत अधिक विस्तृत भूमिभाग था तृण जल की वहां सर्व प्रकार से प्रचुरता थी। अतः वे उस वन में श्वापद आदि के भय से निर्मुक्त होकर विना किसी मनः क्षोभ के आनन्द के साथ विचरण करने लगे॥ सूत्र १॥ થઈ ગયું. તેમનું મન ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયું. આ પ્રમાણે તેઓ બધા ત્યાંથી ઘણા योन। ६२ सुधी वनमा नासी गया. ( तेण' तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया निब्भया, निरुव्विग्गा सुहं सुहेण विहरति ) त्यां वनमा विय२५५ ४२१॥ માટે બહુ જ વિસ્તૃત ભૂમિભાગ હતે. ઘાસ, પાણીની ત્યાં બધી રીતે સરસ સગવડ હતી. એટલા માટે તેઓ વનમાં હિંસક પ્રાણીઓને ભયથી મુક્ત થઈને ભરહિત થઈને સુખેથી વિચરણ કરવા લાગ્યા. આ સૂત્ર ૧ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे भरित्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पोयवहणं लंति लम्बित्ता सगडीसागडं सजेति सजित्ता तं हिरणं जाव वइरं च एगट्रियाहिं पोयवणाओ संचारैति संचारित्ता सगडीसागडं भरेंति भरित्ता संजोइंति संजोइत्ता जेणेव हत्थिसीसए नयरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता हथिसीसयस्स नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सस्थणिवेसं करेंति करिता सगडीसागडं मोएंति माइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति गेण्हित्ता हत्थि सीसं नगरं अणुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव उववेति ॥ सू० २ ॥ टीका-'तएणं ते संजत्ता' इत्यादि । ततः खलु ते संयात्रानौकावाणिजका अन्योन्यमेवमवादिषुः-किं खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! अवैः-इमे खलु बहवो हिरण्याकराश्च, सुवर्णाकराश्च, रत्नाकराश्च वज्राकराश्च सन्ति, तत् श्रेयः खलु अस्माकं हिरण्यस्य च सुवर्णस्य च रत्नस्य च वज्रस्य च पोतवहनं भत्तुम् इति 'तएण ते संजत्ता नावा वाणियगा' इत्यादि। टोकार्थ-(तएण) इसके बाद (ते संजत्ता नावावाणियगा) उन सांयात्रिक नौका वणिक जनों ने (अण्णमण्णं एवं वयासी) परस्पर में इस प्रकार से विचार किया-(किण्ण अम्हं देवाणुप्पिया! आसे हिं ? इमे ण बहवे हिरण्णागरा य सुवण्णागरा य रयणागरा य वइरागरा य तं सेयं खलु अम्हें हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहण तएण ते संजत्ता नावा वाणियगा, इत्यादि 2014-( तएणं ) त्या२५छी ( ते संजत्ता नावा वाणियगा ) ते सांयात्रि नी। मामे ( अण्णमण्णं एवं वयासी) मे 2ीनी साथे २प्रभा વિચાર કર્યો કે (किण्णं अम्हं देवाणुप्षिया ! आसेहिं ? इमेणं बहवे हिरण्णागरा य सुव. bणागरा य रयणागरा य वइरागरा य तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य सुवण्णस्स श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१७ कालिकद्वीपे हिरण्यादिना पोतभरणम् ५९९ कृत्वा इति विचार्य अन्योन्यस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य हिरण्यस्य च सुवर्णस्य च रत्नस्य च वज्रस्य च तृणस्य च अन्नस्य च काष्ठस्य च पानीयस्य च पोतवहनं भरन्ति, भृत्वा प्रदक्षिणानुकूलेन-पृष्ठतः समागच्छताऽनुकूलेन वातेन यचैव 'गंभीरपोयपट्टणे ' गम्भीरपोतपत्तनं-पोतावतरणस्थानं वर्तते त.. वोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतवहनं ' लंबेंति ' लम्बयन्ति-श्रृङ्खलापातादिना स्थापयन्ति, लम्बयित्वा-स्थापयित्वा शकटीशाकटं सज्जयन्ति, मज्जयित्वा 'तं' तद् हिरण्यं यावद् वज्रं च 'एगट्ठियाहिं ' एकाथिकाभिः लघुनौकाभिः पोतवहनात् 'संचारेति ' संचारयन्ति-हिरण्यादिकमवतारयन्ति, संचार्य, अवतार्य तैः शकटीभरित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमट्ट पडिसुणेति पडिसु० हिरण्णस्स रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कट्ठस्स य पाणियस्स पोयवहण भरेंति ) हे देवानुप्रियों! हमें इन अश्वों से क्या तात्पर्य है। ये जो हिरण्य की खानें हैं, सुवर्ण की खाने हैं, रत्न की खाने हैं वज्र की खाने हैं उनमें से हिरण्य, सुवर्ण, रत्न एवं वनों को लेकर पोत भर लेने में आनंद है इस प्रकार विचार:कर उन्होंने एक दूसरेकी इस बात को मान लिया। मान करके फिर उन्होंने हिरण्य को सुवर्ण को रत्न को वज्र को तृण को अनाज को काष्ठ लकड़ी-और पानीको जहाज में भर लिया। (भरित्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएण जेणेव गंभिर पोयपट्ट णे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता, सगडीसागडं सज्जेंति सज्जित्ता तं हिरण जाव वरं च एगद्वियाहिं य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमद्वं पडिसुणेति पडिसु० हीरण्णस्स रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कट्ठस्स य पाणियस्स पोयवर्ण भरेंति) હે દેવાનુપ્રિયે! આ ઘડાઓથી અમારે શી નિસ્બત છે ? આજે હિર યની ખાણે છે, સુવર્ણથી ખાણો છે, રત્નની ખાણે છે, વજની ખાણો છે,. તે એમાંથી હિરણ્ય, સુવર્ણ, રત્નો, અને વજોને લઈને વહાણને ભરી લેવામાં જ આનંદ છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાની વાતને स्वी४२री दीधी. २वारीने तेभाणे डि२९य, सुपथ, २त्ने, नो, तृण, मना કાષ્ઠ-લાકડાંઓ, અને પાણીને વહાણમાં ભરી લીધાં. ( भरित्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीर पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवह्नणं लंबेति, लंबित्ता, सगडीसागडं सज्जेंति सजित्ता तं हिरणं जाव वइरं च एगठियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति, संचारित्ता सगडी श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ज्ञाताधर्मकथासूत्र शाकटं भरन्ति, भृत्वा शकटीशाकटं संयोजयन्ति संयोज्य यत्रैव हस्तिशीर्षकं नगर तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य हस्तिशीर्षकस्य नगरस्य बहिः ‘अग्गुज्जाणे' अयोधाने-आगन्तुकनिवासोद्याने सार्थनिवेशं कुर्वन्ति, कृत्वा शकटीशाकटं मोच. यन्ति, मोचयित्वा, महार्थ यावत् प्राभृतं गृह्णन्ति, गृहीत्वा हस्तिशीर्ष नगरमनु. पोयवहणाओ संचारैति, संचारित्ता सगडीसागड़ भरेंति, भरित्ता संजो. इंति, संजोइत्ता जेणेव हथिसीसए णयरे तेणेव उवागच्छंति) भरकर के फिर वे लोग अपने पृष्ठ भाग से होकर आनेवाली अनुकूल वायु की सहायता से जहां पोत के ठहरने का स्थान बंदरगाह-था वहां आ. ये। वहाँ आकर के उन्होंने अपने पोत को लंगर डालकर ठहरा दिया। पोत ठहरा करके फिर उन्होंने शकटी-गाड़ी और शकटों-गाडों को सज्जित किया-रस्सी आदि बांध कर उन्हें तैयार किया। जब वे अच्छी ताह सुसज्जित हो चुके-तब बाद में उन लोगों ते छोटी २ नौकाओं से उस पोत-नाव पर रक्खे हुए हिरण्य आदि वज्र पर्यंत के समस्त सामान को उतार लिया और उतार कर उन शकटी-गाड़ी शाकटोंगाडों में उसे भर दिया। भरने के बाद फिर उन्होंने उन शकटी शाकटों को जोत दिया-जोनकर फिर वे जहां हस्तिशीर्ष नगर था वहां आये ( उवागच्छित्ता हथिसीमयस्स नयरस्त बहिया अग्गुज्जाणे सत्थणिवेसं करेंति, करित्ता सगडी सागड मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति, गेमिहत्ता हत्थिसीसं नगरं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव सागडं, भरेंति, भरित्ता संजोइंति, संजोइत्ता जेणेव हस्थिसीसए णयरे तेणेव उवागच्छइ) ભરીને તેઓ બધા પિતાની પીઠ તરફથી વહેતા અનુકૂળ પવનની સહાયતાથી જ્યાં વહાણ ઊભું રાખવાનું સ્થાન-બંદર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પિતાના વહાણને લંગર નાખીને લાંગર્યું. વહાણને લાંગરી તેમણે શકટી–ગાડી, અને શકટે-ગsi એને સુસજજ કર્યા. દેરી વગેરેથી બાંધીને તેમને તૈયાર કર્યા. જ્યારે તે સારી રીતે સુસજજ થઈ ગયાં ત્યારે તે લેકે એ નાની નાની નૌકાઓથી તે વહાણમાં મૂકેલા હિરણ્યથી માંડીને વજ સુધીના બધા સામાનને ઉતારી લીધે, અને ઉતારીને તે શકટી-ગાડી અને શકટેગાડાઓમાં ભરી દીધે. ભર્યા પછી તેમણે તે શકટી–ગાડી અને શકટ–ગાડાંઓને તર્યા અને જેતરીને તેઓ જ્યાં હસ્તિશીર્ષ નગર હતું ત્યાં ગયા. (उवागच्छित्ता हथिसीस यस्स नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सत्थणिवेसं करेंति, करित्ता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पहुडं गेहंति गेण्हित्ता શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ कालिकद्वोपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०१ प्रविशन्ति, अनुप्रविश्य यौव कनककेतू राजा तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् तस्माभृतम् ' उवणेति ' उपनयन्ति भूपसमीपे स्थापयन्ति ।। सू०२ ।। मूलम्-तएणं से कणगऊ राया तेसिं संजत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पढिच्छइ पडिच्छित्ता तं संजत्ताणावावाणियगा एवं वयासी तुब्भेणं देवाणुप्पिया! गामागार जाव आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं२ पोयवहणेणं ओगाहह तं अस्थि आई केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्रपुव्वे ?, तएणं ते संजत्ताणावावणियगा कणगके ऊं एवं वयासी-एवं खलु अम्हे देवाणुप्पिया ! इहेव हस्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवं तेणं संवूढा, तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य जाव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव उवति) वहाँ आकर के वे लोग उस हस्तिशीर्ष नगर के बाहर के प्रधान उद्यान में ठहर गये वहां ठहर उन्हों ने वहीं पर शकटी-गाड़ी शाकटो-गाड़ों की ढील-ठहरा दिया। ढीलकर के बाद में महार्थ-महाप्रयोजन साधक भूत -यावत् प्राभृत भेंट को उन्हों ने अपने २ हाथों में लिया-और लेकर के वे हस्तिशीर्ष नगर में प्रविष्ट हुए नगर में प्रविष्ट होकर वे जहां कनक केतु राजा थे वहां पहुंचे। वहां पहुँचक उन्हों ने उस महाप्रयोजन साधक भूत प्राभूत को राजा के पास रख दिया। सू०२ ॥ हत्थिसीसं नगरं अणुपसिंति, अणुपविसित्ता, जेणेव कणगकेक राया तेणेव उवा गच्छइ, उवागच्छित्ता जाव उववेंति ) ત્યાં આવીને તેઓ બધા તે હસ્તિ શીર્ષ નગરની બહારના મુખ્ય ઉદ્યાનમાં રોકાઈ ગયા, ત્યાં રોકાઈને તેમણે ત્યાં જ શકટી-ગાડી અને શાકટેગાડાઓને છેડી મૂક્યાં. ત્યારબાદ તેમણે મહાથ–મહાપ્રયજન સાધક ભૂત થાવત્ ભેટને પિતાના હાથમાં લીધી અને લઈને તેઓ હસ્તિશીર્ષ નગ રમાં પ્રવિષ્ટ થયા. નગરમાં પ્રવિષ્ટ થઈને તેઓ જ્યાં કનકકેતુ રાજા હતો ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે તે મહાપ્રયજન સાધક રૂપ ભેટને રાજાની સામે મૂકી દીધી. એ સૂત્ર ૨ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र बहवे तत्थ आसा किं ते ?, हरिरेणु जाव अणेगाई जोयणाई उन्भमंति, तएणं सामी अम्हेहिं कालियदीवे ते आसा अच्छेरए दिपुवे, तएणं से कणगकेऊ राया तेसिं संजत्तगाणं अंतिए एयम, सोच्चा ते संजत्तए एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया मम कोडुंबियपुरिसेहि सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह, तएणं ते संजत्ताणावावाणियगा कणगकेऊ रायं एवं वयासी-एवं सामि त्तिकद्दु आणाए पडिसुणेति, तएणं कणगकेऊ राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! संजत्तिपहिं सद्धिं कालियदीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुणेति, तएणं ते कोडंबिय० सगडीसागडं सज्जेंति सजित्ता तत्थ णं बहूणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छभीण य भंभाण य छब्भामरीण य वित्तवीणाण य अन्नसिं च बहूणं सोतिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति भरित्ता बहूणं किण्हाण य जाव सुकिलाणं य कट्टकम्माण य ४ गंथिमाण य ४ जाव संघाइमाण य अन्नेसिं च बहूणं चक्खिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति बहूणं कोहपुडाण य केयईपुडाण य जाव अन्नसिं च बहणं घाणिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति बहुस्स खंडस्त य गुलस्स य सकराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर पउमुत्तराण य अन्नेसिं च जिभिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेति । बहूणं कोयवियाण य कंबलाण श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०३ य पावरणाण य नवतयाण य मलयाण य मसूराण य सिला. वहाण य जाव हंसगब्भाण य अन्नेसिं च फासिंदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति भरित्ता सगडीसागडं जोएंति जोइत्ता जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति मोइत्ता पोयवहणं सज्जेति सजित्ता तेसिं उकिटाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं कट्रस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स यगोरसस्स य जाव अन्नति च बहणं पोयवहणपाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति भरित्ता दक्खि. णाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति लंबित्ता ताई उकिट्ठाइं सदफरिसरसरूवगंधाइं एगट्टियाहि कालियदीवे उत्तारैति । जहिं २ च णं ते आसा आसायंतिं वा सयंति वा चिटंति वा तुयदृति वा तहिं २ च णं ते कोडंबियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य बहूणि सोइंदियपाउग्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिटुंति तेसिं परिपरंतेणं पासए ठवेंति ठवित्ता णिच्चला णिप्फंदा तुसिणीया चिटुंति, जत्थर ते आसा आसयंति वा जाव तुयति वा तत्थ तत्थ णं ते कोडुंबियपुरिसा बहुणि किण्हाणि य ५ कठकम्माणि य जाव संघाइमाणि य अन्नाणि य बहुणिं चक्खिदियपाउग्गाणि य दव्वाणि ठवत तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति ठवित्ता णिच्चला णिप्फंदा तुसिणीया चिट्ठति जत्थ २ ते आसा आसयंति ४ तत्थ २ णं तेसिं बहुणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे कोटूपुडाण य जाव अन्नेसिं च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दव्वाणं पुंजे य पियरे य करेंति करिता तेसिं परिपेरं तेणं जाव चिट्ठति जत्थ २ णं ते आसा आसयंति ४ तत्थ २ णं गुलस्स जाव अन्नोसें च बहूणं जिभिदियपाउग्गायं दव्वाणं पुंजे य निकरे य करेंति करिता वियरए खणंति खणित्ता गुलेपाणगस्स खंडपाणगस्स जाव अन्नेसिं च बहूणं पाणगाणं वियरे भरेंति भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिट्ठति, जहिं २ चणं ते आसा आस० तहिं २ च णं ते बहवे कोयविया य जाव हंसगब्भा य अण्णाणि य बहूणि फासिंदिय पाउग्गाई अत्थुपच्चत्थुयाई ठवेंतिठवित्ता तेर्सि परिपेतेणं जाव चिह्नंति, तणं ते आसा जेणेव एते उक्किड्डा सदफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तत्थणं अत्थेगइया आसा अपुव्वा णं इमे सफरिसर सरूवगंधा इतिकट्टु तेसु उक्किट्ठेसु सदफरिस - रसरूवगंधे अमुच्छिया ४ तेसि उक्किद्वाणं सद जाव गंधाणं दूरंदूरेण अवक्कमंति, तेणं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिन्भया णिरुव्विग्गा सुहं सुहेणं विहरंति, एवामेव समणाउसो ! जो अहं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सहफरिसर सरूवगंधेसु णो सज्जइ णो रजइ णो गिज्झइ, णो मुज्झइ णो अज्झोववज्जेइ से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिजे जाव वीइइस्सइ ॥ सू० ३ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०५ टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कनक केतू राजा तेषां संयात्रनौकावाणिजकानां तन्महार्थ यावत् प्राभृतं 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-स्वीकरोति मतीष्य तान् संयात्रनौकावाणिजकान् एवमवादीत्-यूयं खलु हे देवानुमियाः ! 'गामागर जाव अहिंडह ' ग्रामाकर यावत् - ग्रामाकरनगरादिषु आहिण्डथ= गच्छत, लवणसमुद्रं च अभीक्ष्णं २ पोतवहनेन अवगाहध्वे 'तं' तत्-तर्हि अस्ति 'आई' इतिवाक्यालङ्कारे किमपि 'भे 'युष्माभिः 'कहिचि' कुत्रचिद् 'अच्छेए' आश्चर्य कर्म आश्चर्यजनकवस्तु 'दिट्टपुव्वे ' दृष्टपूर्वम् ? यदि दृष्टमस्ति तहि कथयतेतिभावः । ततः खलु ते संयात्रनौकावाणिजकाः कनककेतुमेवमय __ -तएणं से कणगकेऊ राया इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कणगकेऊ राया) उस कनककेतु राजा ने (तेसिं संजत्ता जावा वाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ, पडिच्छित्ता-ते संजत्ता णावा वाणियगा एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया! गामगर जाव आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणेणं ओगाहह तं अस्थिआई केई भे कहिंचि अच्छेरए दिडपुत्वे ?) उन सांयात्रिक पोतवणिक जनों की उस महार्थसाधक भेंट को स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके फिर उन सांयात्रिक पोतवणिक जनों से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियों तुमलोग अनेक ग्राम आकर नगर आदि स्थानों में जाते रहते हो और बार २ पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते रहते हो तो कहो कहीं पर तुम ने यदि कोई आश्चर्य कारी वस्तु देखी हो तो कहो-तएणं ते संजत्ता णावा वाणियगा कण तएणं से कणगकेऊ राया इत्यादि साथ-(तएणं ) त्या२५छी (से कणगके ऊ राया) ते तु २०१ये (तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ, पडिच्छित्ताते संजात्ता णावा वाणियगा एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! गामागर जाव आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणेणं ओगाहह तं अस्थि आइं केई भे कहिंचि अच्छेरए दिद्वपुव्वे ?) તે સાંયાત્રિક પિતવણિકજનેની તે મહાઈ સાધક ભેટને સ્વીકારી લીધી. અને સ્વીકારીને તે સાંયાત્રિક પિતવણિકજનને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુ પ્રિયે ! તમે લોકો ઘણું ગામ, આકર, નગર વગેરે સ્થાનમાં આવજા કરતા રહે છે અને વહાણ વડે લવણ સમુદ્રની વારંવાર યાત્રા કરતા રહે છે તે અમને કહો કે તમે કેઈ નવાઈ પમાડે તેવી અદૂભુત વસ્તુ જોઈ છે? श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % D ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दन्-एवं खलु वयं हे देवानुप्रियाः । इहैव हस्तिशीर्षे नगरे परिवसामः, 'तंचे' तदेव पूर्वोक्तवर्णनं सर्वमत्र वाच्यम् ' जाव' यावत् कालिकद्वीपान्ते-कालिक द्वीपसमीपे खलु ' संबूढा' संव्यूढाः-प्राप्ताः, तत्र खलु बहवो हिरण्याफराश्च यावद् बहवस्तत्राश्वाः सन्ति, किंते' किम्भूतास्ते ? इत्याह- हरिरेणु जाव' हरिद्रेणु शोणिसुत्रकाः यावद्-तेऽस्मद्गन्धमाघ्राय भीताः सन्तः अनेकानि योजनानि दुरम् 'उन्भ. मंति' उद्ममन्ति पलायन्ते स्म, ततः खलु हे स्वामिन् ! अस्माभिः “ कालिकद्वीपे तेऽश्वाः सन्ति " तदेव · अच्छेरए ' आश्चर्यकं दृष्टपूर्वमिति । ततः खलु स गऊ एवं वयामी एवं खलु अम्हे देवाणुप्पिया! इहेव हथिसीसे नयरे वसामो तं चेव जाव कालियदीवं तेणं संबूढा तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य जाव बहवे तत्थ आता किंते ? हरिणेणु जाव अणेगाइं जोयणाइं उन्भमंति-तएणं सामी अम्हें हि कोलियदीवे ते आसा अच्छेरए दिट्ठपुव्वे) इस प्रकार राजा की बात सुनकर उन सांयात्रिक पोत वणिरजनों ने उन कनककेतु राजा से कहा हे देवानुप्रिय ! हमलोग इसी हस्तिशीर्ष नगर में रहते हैं । हमलोग यहां से लवणसमुद्र में होकर व्यापार के निमित्त बाहर परदेश गये हुए थे-। मार्ग में हमलोगों को अनेक प्रकार के सैंकडों उपद्रव हुए-उनसे जिस किसी तरह सुरक्षित हो हमलोग कालिकद्वीप के समीप पहुँच गये। वहां हमने अनेक हिरण्य आदि की खानों को एवं अनेक अश्वों को कि जिनका कटिभाग हरिद्वर्णवाली धूलि से रचित कटिसूत्रसे चिन्हित था देखा, वे हमलोगों की गंध को सूंघ. (तएणं ते संजत्ता णा वाणियगा कणगऊ एवं वयासी-एवं खलु अम्हे देवाणुप्पिया ! इहेव हस्थिसीसे नयरे वसामो तं चेव जाव, कालिभ दीवं तेणं संवूढा, तत्थ णं वहवे हिरण्णागरा य जाव बहवे तत्थ आसा किं ते ? हरिरेणु जाव अणेगाई जोयणाई उन्भमंति-तएणं सामी अम्हेंहि कालियदीवे ते आसा अच्छेरए दिट्ठपुव्वे ) આ પ્રમાણે રાજાની વાત સાંભળીને તે સાંયાત્રિક પિતવણિકજનોએ તે કનકકેતુ રાજાને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! અમે બધા આ હસ્તિશય નગર માં જ રહીએ છીએ. અમે બધા વ્યાપાર ખેડવા માટે અહીંથી લવણ સમુદ્રમાં થઈને બહાર પરદેશમાં ગયા હતા. રસ્તામાં ઘણી જાતના સેંકડે ઉપદ્ર થયા. છેવટે ગમે તેમ કરીને સુરક્ષિત રૂપમાં અમે બધા કાલિકટ્ટીપની પાસે ગયા. ત્યાં અમેએ ઘણી હિરણ્ય વગેરેની ખાણોને અને ઘણા અશ્વોને-કે જેમના કટિભાગે લીલા રંગની માટીથી બનાવેલા કટિસૂત્રથી ચિતિત હતાજોયા. અમારી ગધને સૂધીને તે અધો ત્યાંથી કેટલાક પેજને દૂર સુધી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वोपगत आकीर्णाश्विवक्तव्यता ६०७ कनककेतू राजा तेषां ' संजत्तिगाणं ' सांयात्रिकाणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा तान् सांयात्रिकान् एवमवदत् - गच्छत खलु यूयं हे देवानुमियाः ! मम कौटुम्बिकपुरुषैः सार्द्धं कालिकद्वीपात्तानश्वानानयत । ततः खलु ते संयात्रा नौकावाणिजकाः कनककेतुं राजानमेवमादिषुः हे स्वामिन् ! एवमस्तु 'ति कट्टु ' इति कृत्वा = इत्युक्त्वा ' आणाए ' आज्ञायाः = आज्ञामित्यर्थ, ' पडिसुर्णेति । प्रतिशृण्वन्ति = , कर वहांसे कई योजन दूरतक जंगलमें भाग गये । अतः हे देवानुप्रिय " कालिकद्वीप में हमलोगों ने उन घोडों रूपी आश्चर्य को देखा है। (तएण से कणगऊ राया तेर्सि संजत्तगाणं अंतिए एयमहं सोच्चा ते संजत्तए एवं वयासी - गच्छह णं तुन्भे देवाणुपिया ! मम कोडुंबिय पुरिसेहि सद्धि कालियदीवाओ ते आसे आणेह तपणं ते संजत्ता णावा वाणिगया कणगकेऊं रायं एवं वयासी एवं सामित्ति कटु आणाए पडिसुर्णेति, तरणं कणग केऊ राया कोहुंबिधपुरिसे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुग्भे देवाणुपिया | संजत्तिएहिं सद्धिं कालियदीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुर्णेति ) इसके बाद कनक केतु राजा ने उन सांयात्रिक पोतवणिकजनों के मुख से इस अर्थ को सुनकर उन सांयात्रिकों से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियों ! तुमलोग जाओ और मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ कालिकद्वीप से उन अश्वों को लाओ। इस प्रकार सुनकर पोतवणिक् जनों ने कनक केतु राजा से ऐसा कहा વનમાં નાસી ગયા. હે દેવાનુપ્રિય ! અમેએ કાલિક દ્વીપમાં તે અશ્વ રૂપી અદ્ભુત વસ્તુને જોઈ છે. ( तरणं से कणगकेऊ राया तेर्सि संजत्तिगाणं अंतिए एयमहं सोच्चा ते संजत्तए एवं वयासी - गच्छहणं तुभे देवाणुपिया ! मम कोडुंबियपुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह, तरणं ते संजत्ता णावा वाणियगा कणगके राय एवं वयासी एवं सामी त्ति कहु आणाए पडिसुर्णेति, तरणं कणगकेऊ राया को बियपुर से सदावेह, सद्दावित्ता एवं क्यासी - गच्छहणं तुन्भे देवाणुपिया ! जत्तिएहिं सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह ते वि पडिनुर्णेति ) ત્યારબાદ કનકકેતુ રાજાએ તે સાંયાત્રિક તવણિકજનાના મુખથી આ વાતને સાંભળીને તે સાંયાત્રિકેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેાકેા મારા કૌટુબિક પુરુષોની સાથે કાલિકા દ્વીપમાં જાઓ અને ત્યાંથી તે અશ્વોને લાવે. આ પ્રમાણે કનકકેતુની આજ્ઞા સાંભળીને તે પાતણુકનાએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી ! તમારી આજ્ઞા અમારા માટે પ્રમાણ સ્વરૂપ છે. આમ કહીને તેમણે કનકકેતુ રાજની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. ત્યાર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ज्ञाताधर्मकथासूत्र स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु कनककेतू राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! सांयात्रिकैः सार्द्ध कालिकद्वीपात् मह्यम् अश्वानानयत । तेऽपि-कौटुम्बिकपुरुषाः 'पडिमुणेति' प्रतिशृण्वन्ति 'तथास्तु' इत्युक्त्वा राजाज्ञां स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः शकटीशाकटं 'सज्जेंति' सज्जयन्तिकालिकद्वीपे गमनाथ सज्जीकुर्वन्ति, सज्जयित्वा तत्र खलु शकटीशाकटे बहूनां च बल्लकीनां च, भ्रामरीणां च 'कच्छभीण य' कच्छभीनां च'कच्छभी' इति कच्छपाकारवीणाविशेषः, भंभानां भेरीणां च, षड्भ्रामरीणां च, हे-स्वामिन् ! हमें आपकी आज्ञा प्रमाण है-ऐसा कहकर उन्हों ने कनक केतु राजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। इसके बाद कनक केतु राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियों ! तुम सांयात्रिक पोतवणिक जनों के साथ जाओ -और कालिकद्वीप से मेरे लिये घोड़ों को ले आओ। राजा की इस आज्ञा को उन लोगों ने भी स्वीकार कर लिया। (तएणं ते कोडुबियपुरिसा सगडीसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तत्वणं बहूणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छ भीण य भंभाण य छन्भामरीण य वित्तवीणाण य अन्नेसिं च ब्रहणं सोइंदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेंति, भरित्ता बहूणं किण्हाणं य जाव संधाइमाण य अन्नेसिं च बहूर्ण चक्खिदियपाउग्गाणं व्वाणं सगडीसागडं भरेति ) इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने गाड़ी और गाड़ों को सज्जित किया-सज्जित करके उनमें उन्हों ने अनेक चीणाओं को, वल्लकियों को, भ्रामरियों को, कच्छप બાદ કનકકેતુ રાજાએ પોતાના કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સાંયાત્રિક પિતવણિકજનની સાથે જાઓ અને કાલિક દ્વીપમાંથી મારા માટે ઘડાઓને લા. રાજાની આ આજ્ઞાને તે લેકે એ પણ સ્વીકારી લીધી. (तएणं ते कोडुंबियपुरिसा सगडीसागडं सज्जेति, सज्जित्ता तत्थणं बहूण वीणाण य वल्लकीण य भामरीणय कच्छभीणय भंभाण य छब्भामरीण य वित्तवीणाण य अन्नेसिं च बहूणं सोइंदियपउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति, भरित्ता बहूणं किण्हाणं य जाव संधाइमाण य अन्नेसि च बहूणं चक्खिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति ) ત્યારપછી તે કૌટુંબિક પુરુષોએ ગાડી અને ગાડાંઓને જોતર્યા. જોતરીને તેમાં તેમણે ઘણી વીણાએ, વહલકીએ ભ્રામરીઓ, કાચબાના આકાર श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्रोपगत आकीर्णाश्विवक्तव्यता ६०९ 'वित्तवीणाणय' वृत्तवीणानां = गोलाकार वीणानां च - अन्येषां च बहूनां नानाविधानां 'सोइंदियपाउग्गाणं ' श्रोत्रेन्द्रिय प्रायोग्याणां = कर्णेन्द्रियसुखजनकानां द्रव्याणां= तन्त्र्यादिरूपाणां शकटीशाकटं भरन्ति तैर्वीणादिभिरित्यर्थः भृत्वा बहूनां' किण्हाtय जाव सुकाणय ' कृष्णानां यावत्-नीलानां पीतानां रक्तानां शुक्लानां च कृष्णादिपञ्चवर्णयुक्तानां ' कटुकम्माण य' काष्ठकर्मणां = काष्ठनिर्मित पुतलिकादीनाम्, 'पोत्थकम्माणय ' पुस्तषु कर्मणां पुस्तेषु वस्त्र ताडपत्रकर्गलादिषु कर्माणि= लेखनकर्माणि तेषाम् ' चित्तकम्माण य' चित्रकर्मणां पट्टकादिषु चित्ररूपाणाम्, 'लेप्पकम्माणय ' लेप्यकर्मणां = मृत्तिका से टिकादिना वल्ल्याद्याकाररचना विशेषरूपाणाम्, तथा - ' गंथिमाण य ' ग्रन्थिमानां = कौशलातिशयेन ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितानाम् - यावत् - ' वेढिमाण य' वेष्टिमानां=लतादि वेष्टनतो निष्पादिवानाम्, ' पूरिमाण य' पूरिमाणां कनकादिषु पुचलिकावत् छिद्रादिपूरणेन के आकार जैसी वीणाओं को, भंभाओं भेरियों-को, षड् भ्रामरियों को - गोलाकार वीणाओं को, तथा और भी अनेक विधश्रोत्रेन्द्रिय सुखजनक तंत्री आदिरूप द्रव्यों को, भरा-भर करके फिर नीले, पीले, रक्त, शुक्ल और कृष्ण रंग से रंगे हुए काठ के बने हुए खिलौनों को, पुस्तकर्मों को वस्त्र, ताडपत्र एवं कागज आदि पर लिखे विविध प्रकार के लेखों को, निबन्धों को उपदेश पूर्ण दोहे चौपाइ आदि में लिखी हुईं कविता आदि को को चित्रकर्मों को पटिया आदि पर उकेरे गये विविध चित्रों को लेप्यकर्मों को मृत्तिका सेटिका आदि से बल्ली आदि रूप में बनाये गये चित्रों को, ग्रंथिमों को विशेष चतुराई के साथ गांठों से बनाये गये खिलौनों को, लताओं आदि द्वारा वेष्टित करके २ रचीं गईं चीजों को, - टोपियों को, हाथों की पैरों की अंगुलियों में पहिरने योग्य --- नेवी वीलामी, ललाओ।-लेरीओ ( नगाराओ। ) षडू-आभरीभेो, गोण साठारવાળી વીણાએ તેમજ બીજા પણ ઘણા કણેન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા તત્રી वगेरै साधनाने लय लरीने सीसा, चीजा, राता, सह भने अजा गोथी રંગાએલાં લાકડાંના બનેલાં રમકડાંને, પુસ્તકમેનિ-વ* તાડપત્ર અને કાગળ વગેરે ઉપર લખાએલા જાતજાતના લેખાને, નિબધાને, દૃઢા, ચાપાઇ વગેરેમાં લખાએલી ઉપદેશક કવિતાઓ વગેરેને, ચિત્ર કર્મોને-ફલક વગેરે ઉપર ચિત્રિત કરેલાં ઘણાં ચિત્રાને લેપ્ટ કર્મોને, માટી સેટિકા વગેરેથી લતા વગેરે રૂપમાં બનાવવામાં આવેલા ચિત્રાને, ગ્રંથિમાને–વિશેષ ચાતુર્યથી ગાંઠોથી બનાવવામાં આવેલાં રમકડાંને, લતાએ વગેરે વડે વેષ્ટિત કરીને ખનાવવામાં આવેલી વસ્તુ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे निष्पादितानाम् , 'संघाइमाण य' सङ्घातिमानां लोहकाष्ठादिभी स्थादिवद् वस्तुसमूहै निष्पादितानाम् , तथा अन्येषां च बहूनां ' चविखदियपाउग्गाणं ' चक्षुरिन्द्रियप्रायोग्याणां-नयनानन्दजनकानां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति । तथा बहूनां ' कोट्ठपुडाण य' कोष्टपुटानां = सुगन्धिद्रव्यविशेषाणां च केतकीपुटानां च यावत्-एलापुटानां च, कुङ्कुमपुटानां च, उशीरपुटानां=' खस' इतिभाषा प्रसिद्धसुगन्धिद्रव्याणां च, लवङ्गपुटानां चेत्यादि । अन्येषां च बहूनां घाणेन्द्रियप्रायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति । तथा वहोः खण्डस्य च गुडस्य च शर्करायाश्च 'मिसरी' इति भाषा मसिद्धायाः ‘मच्छंडियाए य' मत्स्यण्डिकायाः= 'कालपीमिसरी ' इति भाषा प्रसिद्धायाः, पुष्पोत्तर-पद्मोत्तराणां गुलकन्द ' इति प्रसिद्धानां च, अन्येषां च जिहवेन्द्रियप्रायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति । तथा बहूनां 'कोयवियाण य' कोयविकानां = रूतपूरितमावरणविशेषाणां 'रजाई ' इति प्रसिद्धानाम् , कम्बलानां रत्नकम्बलानाम् , प्रावरणानां शाटिकानां ' चद्दर' इति प्रसिद्धानाम् , ' नवतयाण य' नवतकानाम् ऊर्णामयपर्याणानां आभूषण आदि कों को-पुत्तलिका की तरह जो सुवर्ण आदि के पतरों पर कृत छिद्रादिकों के पूरने से चित्र बनाये जाते हैं वे पूरिम हैं इन पूरिमों को और संघातिमों को-लोहकाष्ट आदि की तरह अनेक वस्तुओं के समुदाय से निष्पादित चित्रों को तथा और भी नेत्र इन्द्रिय को सुहावने लगने वाले द्रव्यों को भरा । ( बहूणं कोट्ठपुडाण य, केयई पुडाण य जाव अन्नेसि च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति, बहुस्स खंडस्स य गुलस्स सकराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर पउमुत्तराणय अन्नेसिं च जिभिदिय पाउग्गाणं दव्वाण सगडीमागडं भरेंति बहणं कोयवियाण य केवलाणय पावरणाण य नवतयाण य ઓને-ટોપીઓને, હાથ, પગ અને આંગળીઓમાં પહેરવાનાં આભૂષણ વગે. રેને પૂતળીની જેમ જે સુવર્ણ વગેરેનાં પતરાં ઉપર કાણાં પાડીને તેમને પૂરીને બનાવવામાં આવેલા ચિત્રો એટલે કે પૂરિને અને સંઘાતિમોને લખંડ, કાષ્ટ વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા રથ વગેરેની જેમ ઘણી વસ્તુઓને એકત્રિત કરીને તેમના વડે બનાવવામાં આવેલાં ચિત્રને તેમજ બીજા પણ ઘણું નેત્ર ઇન્દ્રિયને ગમે તેવા દ્રવ્યોને ભર્યા. ___ (बहूर्ण कोट्टपुडाण य, केयई पुडाण य जाव अन्नेसिं च बहूणं घाणिदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेति, बहुस्स खंडस्स य गुलस्स सक्कराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तरपउमुत्तराण य अन्नेसिं च जिभिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरति बहूणं कोयवियाण य केवलाण य पावरणाण य नवतयाण श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकछोपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६११ 'जीन' इति प्रसिद्धानाम् , मलयानां च मलयदेशोत्पन्नवस्त्रविशेषाणाम् , ' मसूराण य ' ममुरकाणां वस्त्रादिनिर्मित वृत्ताकारासनविशेषाणाम् , 'सिलावट्टाण य' शिलापट्टानां पट्टाकारचिक्कणशिलानां यावत् हंसगर्भाणां हंसः चतुरिन्द्रियकृमिविशेषः, गर्भ: तनिवर्तित कोसिकारोरूतरूपः, तन्मयवस्त्राण्यपि हंसगर्भाणीत्युमलयाण य मसूराण य सिलावट्टाण य जाव हंसगम्भाण य अन्नेसिं च फासिंदियपाउग्गाण व्याण सगड़ीसागडं भरेति) इसी तरह अनेक कोष्टपुटों को-सुगंधित द्रव्य विशेषों को केतकीपुटों को-सुगंधित पुष्पों यावत् एलापुटों को-इलायचियों को, उखीरपुटों को, खश के समुदाय को-कुंकुमपुटों को तथा और भी अनेक, घ्राणेन्द्रिय को तृप्ति कारक द्रव्यों को उन लोगों ने गाडी और गाडों में भरा। बहुत सी खांड, बहुत से गुड़ बहुत सी शर्करा- मिसरी-बहुत सी मत्स्यण्डी-कालपी मिसरी बहुत से गुलकंद, बहुतसे पद्मपाक को तथा और भी जिह्वाइन्द्रिय को तृप्ति करने वाले द्रव्यों को उन लोगों ने गाड़ी और गाडों में भरा। इसी तरह स्पर्शन इन्द्रिय को आनंददेने वाले कोयविकों को-रूई कपास-से भरे हुए प्रावरण विशेषों को-रजाइयों को-कम्बलों को-रत्न कम्बलों को-प्रावरणे। को-चद्दरों को-नबलकों को-ऊन के बने हुए पलेंचों को-जीनों को-मलयदेश के बने हुए वस्त्रों को, मसूरकों को-वस्त्रों से बनाये हुए गोलाकार आसनों को-शिलापट्टों को-पट्टाकार चिकनी य मलयागय ममुराण य सिलावटाण य जाव हंसगन्माण य अन्नेसिं च फांसिं. दियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेंति ) આ પ્રમાણે ઘણા કેષ્ટ પુટકોને-સુગંધિત દ્રવ્ય-વિશેષને, કેતકી પુને કેવડાનાં પુષ્પોને યાવત્ એલાપુને, એલચીઓને, ઉશીર પુટોને-ખશના સમુદાયને, કુંકુમ પુટને તેમજ બીજા પણ ઘણા ધ્રાણેન્દ્રિય (નાક) ને તૃપ્તિ પમાડનારા દ્રવ્યને તેઓએ ગાડી અને ગાડીઓમાં ભર્યા. બહુ જ પુષ્કળ प्रभाभा मांड, गो, सा४२-मिश्री, मत्स्य 1-1पी मिश्री, (Gथी सतनी सा७२) ગુલકંદ, પદ્મપાકે તેમજ બીજા પણ ઘણું જીહાઈ ઈન્દ્રિય (જીભ) ને તૃપ્તિ આપનાર દ્રવ્યને તે લોકોએ ગાડી અને ગાડાઓમાં ભર્યા. આ પ્રમાણે સ્પર્શેન્દ્રિયને સુખ આપનારી કેયવિકેને રૂથી ભરેલા પ્રાવરણ વિશેષને-રજાઈઓને, કામછેને, રત્ન કામળને, પ્રાવરણને, ચાદરોને, નવલકોને, ઊનથી બનાવવામાં આવેલાં પચાઓને-જીને-મલય દેશના વોને, મસૂરકેને–વસ્ત્રો વડે બનાવવામાં આવેલા ગોળ આકાર આસનને, શિલાપટ્ટકોને-પટ્ટના આકારની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे च्यन्ते, तेषां कौशेयवस्त्राणां ' रेशमीवस्त्र ' इति भाषा पसिद्धानां च, तथाअन्येषां च स्पर्शेन्द्रियपायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति, भृत्वा शकटीशाकटं योनयन्ति, योजयित्वा यौव गम्भीरकं-गम्भीरनामकं पोतस्थानं तत्रेयोपागच्छन्ति, उपागत्य शकटीशाकटं मोचयन्ति, मोचयित्वा 'पोयवहणं' पीतवहनं-नौकां सज्जयन्ति, सज्जयित्वा तेषाम् 'उकिटाणं' उत्कृष्टानां श्रेष्ठानां शब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां काष्ठस्य च पानीयस्य च तन्दुलानां च 'सामियस्स य' समीतस्य शिलाओं को, हंस गर्भो को-रेशमी वस्त्रों को, तथा और भी स्पर्शन इन्द्रिय को आनन्द देने वाली वस्तुओं को उन लोगों ने गाडी और गाडों में भरा। (भरित्ता सगडीसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव गंभी. रए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता पोयवहणे सज्जेंति, सजित्ता तेसि उकिटाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं कस य तणस य पाणियस्स य तंदुलाणय समियरस य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूण पोयवहणपाउग्गा णपोयवहण भरेंति ) भरकर के फिर उन लोगों ने गाडी और गाडों को जोत दिया। जोतकर के फिर वे वहाँ आये-जहां गंभीर नाम का पोतस्थान था-बंदरगाह था। वहां आकर के उन लोगों ने गाड़ी और गाड़ों को ढील-रोक दिया। और फिर नौकाओको सजाया-तैयार किया। और तैयार करके बादमें उन्होंने उन श्रेष्ठ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, एवं गंधोंको काष्ठको तृण को पानीय द्रव्य को तंदूलों को, गेहुँ के आटे को, गोरस घृतादिक-को લીસી શિલાઓને, હંસ ગર્ભોને રેશમી વસ્ત્રોને તેમજ બીજી પણ ઘણી સ્પશે ન્દ્રિયને સુખ પમાડે તેવી ઘણી વસ્તુઓને તે લેકેએ ગાડી અને ગાડાઓમાં ભરી. (भरित्ता सगडीसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेच उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति मोइत्ता पोयवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता तेसिं उक्किट्ठाणं सदफरिसरसरूपगंधाणं कठुस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्ने सिं च बहूणं पोयवहण पाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति ) ભરીને તે લકે ગાડી અને ગાડાંઓને છેતર્યા. જોતરીને તેઓ ત્યાંથી જ્યાં ગંભીર નામે પિતસ્થાન (બંદર) હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તે લેકે એ ગાડી અને ગાડાંઓને છેડી મૂક્યા. અને ત્યારપછી નૌકાઓને સુસજિજત કરી. સુસજિત કર્યા બાદ તેમણે તે ઉત્તમ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, ३५ भने मधाने, अष्टन, घासने, पाणा द्रव्याने, तga (योमा) ने, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वोपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१३ गोधूमादीनामट्टकस्य ' आटा' इति प्रसिद्धस्य, · गोरसस्स य' गोरसस्य-घृतादिकस्य च यावत् अन्येषां च बहूनां पोतवहनमायोग्याणां द्रव्याणां पोतवहनं भरन्ति, भृत्वा ' दक्विणाणुकूलेणं' दक्षिणानुकूलेन सानुकूलेन वातेन यत्रैव कालिकद्वीपस्तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य तत्र पोतवहनं 'लंबेति' लम्बयन्ति= तीरस्थापितशङ्कुषु वनन्ति, बद्ध्या तान्नौकास्थितान् उत्कृष्टान् उत्तमोत्तमान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान ' एगडियाहिं ' एकाथिकाभिः लघुनौकाभिः · कालियदीवे' कालिकद्वीपे · उत्तारेति' उत्तारयन्ति नौकातो निस्सार्य भूमौ स्थापयन्ति । यावत् और अनेक पोतवहन प्रायोग्य द्रव्यों को उस नौका में भरदिया। (भरित्ता दक्षिणाणुकूलेण वाएणजेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता पोयवहण लंबेति, लंबित्ता ताई उकिट्ठाइं सद्दफरिसरस. रूप गंधाई एगडियाहिं कालियदीवे उत्तारेति । जहिं २ च ण ते आसा आसायंति वा सयंति वा चिटुंति वा तुयति वा तहिं२ च णं ते कोडं बियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य बहूणि साइंदिय पाउग्गाणि समुदीरेमाणा चिटुंति) भर करके फिर ये लोग जब पीछे से आनेवाला अनुकूल वायु वहा तब वहां से चलकर जहां कालिक द्वीप था वहां आये-वहां आकर के इन लोगों ने लंगर डाल दिया-लंगर डालकर पोत में से शब्द के साधन भूत वीणा आदिकों को, अच्छे स्पर्श के साधनभूत रूई से भरे हुए रजाई आदि वस्त्रों को रसनाइन्द्रिय को सुहावने लगनेवाले खांड आदि पदार्थों को ઘઉંના લોટને, ગોરસ ઘી વગેરેને યાવત્ બીજા પણ ઘણા વહાણ યાત્રામાં કામ લાગે તેવાં દ્રવ્યને તે નૌકામાં ભર્યા. (भरित्ता दक्खिणाणुकले णं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छड. उवाणच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता ताई उक्किट्ठाई सदफरिसरसरूपगंधाइ एगद्वियाहिं कालियदीवे उत्तारेति । जहिं २ च णं ते आसा आसायंति वा सयंति वा चिटुंति वा तुयद्दति वा तर्हि २ च णं ते कोडुबियपुरिसा ताभो वीणाओ य जाव वित्तविणाओ य अन्नाणि य बहूणि सोइंदिय पाउग्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति ) ભરીને તેઓ બધા જ્યારે પાછળથી વહેતે અનુકૂળ પવન વહેવા લાગે ત્યારે ત્યાંથી રવાના થઈને જ્યાં કાલિક દ્વીપ હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તે લેકેએ લંગર નાખ્યું. લંગર નાખીને વહાણમાંથી શબ્દના સાધન રૂપ વીણા વગેરેને, કેમળ સ્પર્શના સાધનભૂત રૂથી ભરેલા રજાઈ વગેરે વસ્ત્રોને, રસના (જીભ) ઈન્દ્રિયને ગમતા ખાંડ વગેરે પદાર્થોને, નેત્ર ઇન્દ્રિયને આનંદ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'जहिं २ च णं' यत्र यत्र च वने खलु ते 'आसा' अश्वाः जात्या अश्वाः 'आसपंति वा' आसते-उपविशन्ति 'सयंति वा' शेरतेस्वपन्ति वा चिट्ठति वा' तिष्ठन्ति वा, ' तुयति वा' त्वग्वर्तयन्ति-शरीरं प्रसार्य स्वपन्ति वा ' तर्हि २ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः ‘ताओ' ता:-हरितशीर्ष नगरादानीता वीणाश्च यावत्-वृत्तवीणाच, तथा अन्यानि च बहूनि श्रोनेन्द्रियप्रायोग्याणि च द्रव्याणि ' समुदीरेमाणा' समुदीरयन्तः मधुरध्वनिना वादयन्तः तिष्ठन्ति, तेषामवानां ' परिपेरंतेणं' परिपर्यन्तेन सर्वतः समन्तात् चतुर्दिक्षु इत्यर्थः ‘पासए' पार्श्वे समीपे वीणादीनि स्थापयन्ति, स्थापयित्वा ते पुरुषाः 'निच्चला' निश्चलाः चलनक्रियारहिताः ‘णिफंदा' निः स्पन्दाः हस्ताद्यवयवसंचाररहिताः 'तुसिणीया' वचन व्यापाररहिताः 'चिट्ठति ' तिष्ठन्ति । तथा-यत्र यत्र तेऽश्वाः आसते वा यावत् त्वग्वतयन्ति लुठन्ति तत्र तत्र खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः बहूनि कृष्णानि च ५=कृष्णनीलपीतरक्तशुक्लवर्णानि काष्ठनेत्र इन्द्रिय को आनंद देनेवाले नीले पीले आदि रंगवाले चित्रों को एवं घ्राणहन्द्रियों को सुखकारक काष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यों को छोटी २ नौकाओं द्वारा पोत में से उतार कर कालिक द्वीप में रख दिया। बाद में जहां २ वे जाति अश्व बैठते थे सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहां २ वे कौटुम्बिक पुरुष उन हस्तिशीर्ष नगर से लाये हुए वीणा से लेकर वृत्तवीणा पर्यन्त के साधनो को तथा और भी श्रोत्र इन्द्रिय को सुहाधनी लगनेवाली साधन सामग्री को मधुर ध्वनि से बजाते हुए ठहर गये। और (तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेति, ठवित्ता णिच्चला, णिफंदा, तुसिणीया चिट्ठति, जत्य २ ते आसा आसयंति वा जाव तुयटुंति वा तत्थ २ णं ते कोडुंबिय पुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कट्टकम्माणि य પમાડનાર નીલા, પીળા વગેરે રંગના ચિત્રોને અને ઘાણ (નાક) ઈન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા કાષ્ઠપુટ વગેરે સુગંધિત દ્રવ્યોને વહાણમાંથી નાની નાની હેડીઓમાં મૂકીને કાલિક દ્વીપ ઉપર મૂકી દીધી. ત્યારપછી જ્યાં તે જાતિ અશ્વો બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યાં તે કૌટુંબિક પુરુષે તે હસ્તિ શીર્ષ નગરથી લઈ આવેલી વીણથી માંડીને વૃત્ત વીણ સુધીના સાધનને તેમજ બીજા પણ શ્રોત્ર (કાન) ઇન્દ્રિયને ગમે તેવી સાધન સામગ્રીને મધુર ધ્વનિથી વગાડતાં ત્યાં રોકાઈ ગયા અને– (तेसिं परिपेरंतेगं पासए ठवेंति, ठवित्ता णिच्चला, णिफंदा, तुसिणीया चिट्ठति, जत्थ २ ते आसा आसयंति वा जाव तुयद्वंति वा तत्थ २ गं ते कोडु श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ०१७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१५ कर्माणि यावत् संघातिमानि च अन्यानि च बहूनि चक्षुरिन्द्रियप्रायोग्याणि च द्रव्याणि स्थापयन्ति-एकत्री कुर्वन्ति, तेषामश्वानां परिपर्यन्तेन सर्वतः समन्तात् पार्थे स्थापयन्ति च, स्थापयित्वा ते निश्चलाः, निस्पन्दाः, तूष्णीकास्तिष्ठन्ति२ । तथा-यत्र यत्र तेऽश्वा आसते स्वपन्ति तिष्ठन्ति त्वग्वतयन्ति च तत्र तत्र खलु तेषां बहूनां कोष्ठपुटानां च यावद् अन्येषां च बहूना घ्राणेन्द्रियमायोग्याणां जाव संघाइमाणि य अन्नाणि य बहूणि चविखंदिय पाउग्गाणि यदव्याणि ठति, ठवित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति, ठवित्ता णिचल्ला णिफंदा तुसिणीया चिट्ठति) उस के चारों तरफ चारों दिशाओं मेंवीणा आदिकों को स्थापित करते रहे । स्थापित करके फिर वे वहीं पर निश्चल-चलन क्रिया से रहित होकर हस्तादि अवयव को कंपित किये विना ही चुपचाप बैठ गये। __इस तरह-जिस२ वनमें वे अश्व बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहां २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस आनीत बहुतसी कृष्ण, नील, पीत, रक्त, शुक्ल वर्णवाली काष्ठकर्म आदि संघातिम पर्यत की सामग्री को जो चक्षुइन्द्रिय को आनन्दप्रद थी, तथा और भी चक्षुइन्द्रि को सुहा. वनी लगने वाली जो वस्तुएँ थीं उन को एकत्रित किया और उन्हें उन अश्वो की चारों दिशाओं में रख दिया। रखकर के फिर वे निश्चल, निस्पन्द होकर चुपचाप बैठ गये। (जत्थ २ ते आमा आसयंति ४ तत्य बिय पुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कट्ठकम्माणिय जाव संधाइमाणि य अन्नाणि य बहूणि चक्खिदिय पाउग्गाणि य दव्वाणि ठवेंति, ठवित्ता तेसि परिपेर तेणं पासए ठति ठवित्ता णिच्चला, जिप्फंदा तुसिणीया चिटुंति ) તેમની ચેમેર, ચાર ચાર દિશાઓમાં વીણા વગેરે મૂકી. મૂકીને તેઓ ત્યાં જ નિશ્ચલ-હલન ચલનની ક્રિયાથી રહિત થઈને અંગોને હલાવ્યા વગર ચુપચાપ ત્યાં બેસી ગયા. આ પ્રમાણે જે જે વનમાં અશ્વો ઘડાઓ) બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા તે તે વનમાં તે કૌટુંબિક પુરુષોએ સાથે લાવેલી ઘણી કાળી, નીલી, પીળી રાતી, સફેદ રંગની કાષ્ટકમ વગેરે સંઘાતિમ સુધીની બધી વસ્તુઓને કે જેઓ ચક્ષુ (આંખ) ઇન્દ્રિયને સુખ આપનારી હતી તેમજ બીજી પણ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને સુખ આપનારી જેટલી સારી વસ્તુઓ હતી તેમને ભેગી કરી અને અધોની ચોમેર તેમને ગોઠવી દીધી. ગોઠવીને તેઓ ત્યાં જ નિશ્ચલ, નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ ત્યાં જ બેસી ગયા. ( जत्थ २ ते आसा आसयंति ४ तत्थ २ णं तेसिं बहूणं फोटपुडाणं य जाव अन्नेसिं च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दवाणं पुजेय पियरे य करेंति, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ __ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे द्रव्याणां पुांश्च एकवस्तुसमूहरूपान निकरांश्च नानाविधवस्तुराशिरूपान् कुर्वन्ति, कृत्वा तेषामश्वानां परिपर्यन्तेन=सर्वादिक्षु यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ३ । ___ यत्र यत्र च खलु तेऽश्वा आसते ४ तत्र तत्र खलु गुडस्य यावद् अन्येषां च बहूनां निहवेन्द्रियमायोग्याणां द्रव्यणां पुञ्जांश्च निकरांश्च कुर्वन्ति, कृत्वा · विय२ णं तेसिं बहणं फोटपुडाणं य जाव अन्नेसिं च बढणं घाणिं दिय पाउग्गाणं दव्याणं पुंजेय णियरे य करेंति करित्ता तेसि परिपेरंतेणं जाव चिटुंति, जत्थ जत्थ णं ते आसा आसयंति ४ तत्थ २ of गुलस्स जाव अन्नेसिं च बहूर्ण जिभिदिय पाउग्गाणं दव्याणं पुंजे य णियरे य करेंति, करित्ता वियरए खणंति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्त जाव अन्नेसि च बहणं पाणगाणं वियरे भरेंति-भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिट्ठति जहिं २ च णं ते आसा आस० तहिं २ णं ते बहवे कोयविया य जाय गम्भाय अण्णाणि य बहूणि फासिंदियपाउ. ग्गाई अत्थुय पच्चत्युयाई ठति, ठवित्ता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिटुंति ) जहां जहां वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहाँ २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अनेक कोष्ठ पुटों के यावत् अन्य और घ्राणेन्द्रिय प्रायोग्य द्रव्यों, के पुंजों को निकरो को एकात्रित कर दिया और करके फिर वे उन अश्वों की चारों दिशाओं में यावत् चुपचाप बैठ गये। जहां २ वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहां उन कौटुम्बिक पुरुषों ने गुड़ के यावत् दूसरे और रसनेन्द्रिय आल्हादक करिता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति, जत्थ जत्थ पंते आसा आसयति ४ तत्थ २ णं गुलस्स जाव अन्नेसि च बहूर्ण जिभिदिय पाउग्गाणं दव्वाणं पुजे य गियरे य करेंति, करिता वियरए खर्णति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स जाव अन्नेसिं च बहणं पाणगाणं वियरे भरेंति-भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेति जाव चिट्ठति जहिं २ च णं ते आसा आस० तहिं २ च णं ते बहवे कोयविया य जाव गम्भाय अण्णाणि य बहूणि फासिदिय पउग्गाइं अत्थुयपच्चत्थुयाई ठवेंति, उवित्ता तेर्सि परिपेरंतेणं जाव चिटुंति ) જ્યાં જ્યાં તે ઘડાઓ બેસતા હતા, સૂતા હતા. રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યાં ત્યાં તે કૌટુંબિક પુરુષોએ તે ઘણા કષ્ટ પુટકોને યાવત્ બીજી પણ ઘણી ઘાણેન્દ્રિય (નાક) ને સુખ પમાડે તેવી વસ્તુઓને પુષ્કળ પ્રમા. માં ત્યાં ગોઠવી દીધી, એકઠી કરી દીધી અને એકઠી કરીને તેઓ તે ઘોડા ને ચારે તરફ ચાવતુ ચુપચાપ થઈને બેસી ગયા તે ઘડાઓ જ્યાં જ્યાં બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યાં ત્યાં તે કૌટ. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१७ रए ' विवराणि गर्तानि खनन्ति, खनित्वा गुडपानकस्य खण्डपानकस्य यावद् अन्येषां च बहूनां पानकानां विवराणि भरन्ति, भृत्वा तेषां परिपर्यन्तेन पार्श्व स्थापयन्ति यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ४ । यत्र यत्र च खलु तेऽधा आसते ४ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः बहून कोयविकान्रूतपूरितप्रावरणविशेषान् यावत् हंसगर्भान् कौशेयवस्त्रविशेषान् अन्यानि च बहूनि स्पर्शेन्द्रियप्रायोग्याणि वस्त्रादीनि 'अत्थुय पञ्चत्थुयाई' आस्तृतप्रत्यवस्तृतानि-लक्ष्णप्रावरणप्रावृतानि कृत्वा स्थापयन्ति, स्थापयित्वा तेषां परिपर्यन्तेन यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ५। ततः खलु तेऽश्वा यत्रैव एते उत्कृष्टाः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तत्रैवोपागच्छन्ति, द्रव्यों के पुंज एवं निकर लगाकर खडे कर दिये । एक ही वस्तुओंकी जो राशि होती है उसका नाम पुंज तथा भिन्न वस्तुओं की राशि का नाम निकर है। बाद में वहीं पर उन्हों ने अनेक गर्त खड्डे किये । गर्त करके उनमें गुडपानक खंडपानक यावत् और भी अनेक पानक भर दिये। वाद में वहां पर उनकी चारो दिशाओं में निश्चल-निस्पन्द होकर चुपचाप बैठ गये। इसी तरह जिन २ वनो में वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, एवं लेटते थे, वहां २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने अनेक रूई के भरे हुए प्रावरणों को यावत् हंसगी को-रेशमी वस्त्रों को तथा-और भी अनेक स्पर्शनइन्द्रिय को सुखदायक वस्त्रों को चिकने प्रावरणों से ढककर रख दिया। बाद में वे उनके चारों ओर यावत् चुपचाप बैठ गये (तएणं ते आसा जेणेच एए उक्किठा सद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवा બિક પુરુષોએ ગોળના યાવત્ બીજાં ઘણાં રસનેન્દ્રિય (જીભ) ને સુખ પમાડે તેવાં દ્રવ્યના પુજે અને નિકો લગાવીને ખડકી દીધાં. એક જ વસ્તુના ઢગલાને પુંજ તેમજ જુદી જુદી વસ્તુઓના ઢગલાઓને નિકર કહે છે. ત્યારપછી તે લોકોએ ત્યાં જ ઘણું ખાડાઓ તૈયાર કર્યા. તે ખાડાઓમાં તેઓએ ગળ. પાનક, ખાંડપાનક, યાવત્ બીજા પણ ઘણી જાતના પાનકો ભરી દીધાં. ત્યારે બાદ તેઓ ત્યાં જ તેમની ચારે તરફ નિશ્ચલ-નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ બેસી ગયા. આ પ્રમાણે જે જે વનમાં તે ઘડાઓ બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા અને આરામ કરતા હતા ત્યાં ત્યાં તે કૌટુંબિક પુરુષએ ઘણાં રૂના પ્રાવરણને યાવત્ હંસગને, રેશમી વસ્ત્રોને તેમજ બીજા પણ ઘણું સ્પશે. ન્દ્રિયને સુખ આપે તેવાં વસ્ત્રોને લીસાં પ્રાવરથી આચ્છાદિત કરી દીધાં. ત્યાર પછી તેઓ બધા ચુપચાપ તેની ચારે તરફ બેસી ગયા. (तएणं ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सदफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवाग श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे उपागत्य तत्र खलु-'अत्थेगइया' अस्त्येके केचिद् अश्वाः-'अपूर्वा अदृष्टपूर्वाः खलु इमे शब्दस्पर्शरसरूपगन्धाः सन्ति' इति कृत्वा इति विचिन्त्य तेषु उत्कृष्टेषु= आकर्षकेषु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु ' अमुच्छिया' अमूञ्छिताः मूर्छारहिताः, प्राप्तहेयोपादेयविवेकाः अग्रद्धा-अप्सक्तिरहिताः, अग्रथिता:-लोभतन्तुभिरबद्धाः, अनध्युपपन्नाः तदेकाग्रतारहिताः किश्चिन्मात्रमपि तेष्वासक्तिमकुर्वाणाः सन्तः तेषामुत्कृष्टानां सद्द जाव गंधाणं' शब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां दूरंदरेण अतिद्रत एव ' अवकमंति ' अपक्रामन्ति पलायन्ते स्म । ते च खलु तत्र प्रचुरगोचराप्रचुरचरणभूमयः प्रचुरतृणपानीयाः, निर्भयाः, निरुद्विग्नाः 'मुहं सुहेणं' सुखं. सुखेन-सुखपूर्वकं विहरन्ति । गच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं अस्थे गइया आसा अपुव्वा णं इमे सद्दफरिसरसरूवगंधाई त्ति कटु तेसु उक्किडेसु सफरिसरसरूवगंधेतु अमुच्छिया४ तेसि उक्किट्ठाणं सद्द जाव गंधाणं दूरं दूरेणं अवक्कमंति) बादमें वे अश्व जहां ये पूर्वोक्त उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप गंध और स्पर्शवाले पदार्थ थे वहां पर आये वहां आकर के इनमें कितनेक अश्व "ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध अदृष्टपूर्व है" ऐसा विचार कर उन आकर्षक शब्द रूप, रस, स्पर्श एवं गंधो में-उन पदार्थों में-मूच्छित नहीं बने । हेय उपादेय के विवेक से युक्त बने हुए वे कितनेक अश्व उन में आसक्ति से गहित ही रहे लोभरूपतन्तु से बन्धे नहीं। तथा किश्चिमात्र भी उनमें आसक्ति नहीं करते हुए वे उन शब्द, स्पर्श रूप, और गंधों को बहुत ही दूर से छोड़कर चल दिये। (तेणं तत्थ पउरगोयरा च्छंति, उवागच्छित्ता तत्थणं अत्थेगदपा आसा अपुव्या णं इमे सदफरिसरसरूब त्ति कर तेसु उक्किट्ठसु सद्दफरिसरसख्वगंधेसु अमुच्छिया ४ तेसि उक्किट्ठाणं सद्द नाव गंधाणं रं रेणं अवक्कमंति ) । ત્યારપછી તે ઘોડાઓ આ બધા પૂર્વે મૂકેલા ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, રપર્શ, રસ ૩૫ અને ગંધવાળા પદાર્થો હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમાંથી કેટલાક ઘોડાઓ “આ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ અદષ્ટપૂર્વ છે.” આમ વિચાર કરીને તે આકર્ષક શબ્દ, રૂપ, રસ, સ્પર્શ અને ગ વાળા તે પદાર્થોમાં મૂછિત (મહાધ-લોલુપ) થયા નહિ. હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી સાવધ બનેલા કેટલાક ઘોડાઓ તે પદાર્થોમાં નિરાસક્ત જ રહ્યા. તેઓ લેભ રૂપી દોરીથી બંધાયા નહિ. ઘેડી પણ આસક્તિ બતાવ્યા વગર તેઓ તે શબ્દ, સ્પ, રસ, રૂપ અને ગ ધવાળા પદાર્થોને ખૂબ દૂરથી જ છોડીને જતા २. ( तेणं तत्थ पउरगोयरा पउरत्तणपाणिया णिभ णिरुव्विग्गा सुह श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वोपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१९ अथोपनयं प्रदर्शयति,-' एवामेव' एवमेव शब्दाद्यमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थी वा यावत्-आचार्योपाध्यायानामन्ति के प्रत्रजितः सन् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु 'नो सज्जइ 'नो सज्जतेआसक्तिमान् न भवति ‘नो रज्जइ ' नो रज्यते अनुरक्तो न भवति, नो गृध्यति, न वाञ्छति, नो मुह्यति=न मूर्छति, नो अध्युपपद्यतेन तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एव बहूनां श्रमणादीनां चतुर्विधसङ्घस्य अर्चनीयासंमाननीयः यावत् चातुरन्तसंसारकांन्तारं 'वीइवइस्सइ ' व्यतित्रजिष्यति-उल्लङ्घयिष्यति-पारं गमिष्यतीत्यर्थः । सू०३ ।। पउरत्तणपाणिया णिम्भया णिरुम्विग्गा सुहं सुहेणं विहरंति) और जंगल में ही जो प्रचुरचरने की जमीन थी-जिसमें अधिक से अधिक मात्रा में तृण और पानी भरा हुआ रहता था उसमें ही निर्भय, निरुद्विग्न होकर सुखपूर्वक रहे। अब इस दृष्टान्त का उपनय प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार कहते है-। (एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सद्द फरिसरसरूवगंधेसु णो सजइ णो णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्झोववज्जेइ, से णं इह. लोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिजे जाव वीइवइस्सइ) हे आयु मंत श्रमणो! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन एवं निर्ग्रन्थी साध्वी जन अचार्य उपाध्यय के पास प्रव्रजित होकर शब्द स्पर्श, रस, रूप, और गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयो में आसक्ति युक्त नहीं होता है, अनुरक्त नहीं बनता है, उन्हें चाहता नहीं है, उनमें मूर्छित नहीं होता है, उनमें तल्लीन नहीं होता है, वह इस लोक में ही अनेक सुहेण विहरति ) मने वनमा प्रयु२ २२वानी भीन ती, न्यi qधारमा વધારે ઘાસ અને પાણી હતાં ત્યાં જ નિર્ભય, નિરૂદ્વિગ્ન થઈને સુખથી રહેવા લાગ્યા. હવે આ દૃષ્ટાન્તને ઉપનય સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે – (एवामेव समणाउसो जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सदफरिसरसरूवगंधेसु णो सज्जइ णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्झोववज्जेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ) હે આયુષ્મત શ્રમણ ! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ સાધુઓ કે નિગ્રંથ સાધવીએ આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઈને શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચે ઈન્દ્રિયના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી, અનુરક્ત થતા નથી. તેમને ઈચ્છતા નથી, તેઓમાં મૂછિત થતા નથી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० ज्ञाताधर्मकथासूत्र मूलम्-तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्ट्रिा सहफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेसु उकिटेसु सहफरिसे ५ मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा असिविउं पयत्ता यावि होत्था, तएणं ते आसा ते उकि? सद्द ५आसेवमाणा तेहिं बहूहि कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बझंति, तएणं तेकोडुंबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति गिणिहत्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारोंत संचारित्ता तणस्स कट्रस्स जाव भरेंति, तएणं ते संजत्तानावावाणियगा दक्खिणाणु. कूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयट्टणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबति लंवित्ता ते आसे उत्तारेंति उत्तारित्ता जेणेव हत्थिसीसे णयरे जेणेव कणगकेऊ राया तणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धाति वद्धावित्ता ते आसे उवणेति, तएणं से कणगकेऊ तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं उस्सुक्कं वियरइ वियरित्ता सकारेंति सम्माणति सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ, तएणं से कणगकेऊ कोडंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता सक्काति० पडिविस. जेइ, तएणं से कणगकेऊ राया आसमदए सद्दावेइ सदा. वित्ता एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! मम आसे विणश्रमण आदि जनोंका तथा चतुर्विध संघका संमाननीय होता है । यावत् वह इस चतुर्गति संसार कान्तारको पार कर देने वाला होताहै ॥सू०३।! તે આ લેકમાં જ ઘણા શ્રમણ વગેરેથી તેમજ ચતુર્વિધ સંઘથી સન્માન પ્રાપ્ત કરે છે. યાવત તે આ ચતુર્ગતિ રૂપ સંસાર કાંતારને પાર કરનાર થઈ ય છે. એ સૂત્ર ૩ | श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगाधमांमृतवर्षिणी टी० अ० १७ आकीर्णाश्वदान्तिक योजना ६२१ एह, तरणं ते आसमद्दगा तहात्ति पडिसुगंति पडिसुणित्ता ते आसे बहूहिं मुहबंधेहिं य कण्णबंधेहि य णासाबंधेहि य खुरबंधेहि य खलिणबंधेहिय अहिलाणेहि य पडियाणेहिय अंकणाहि य वित्तप्पहारेहि य लयप्पहारेहि य कसप्पहारेहिय छिवष्पहारेहि य विजयंति विणयित्ता कणगकेउस्स रन्नो वर्णेति । तणं से कणगकेऊ राया ते आसमद्दए सक्का - रेइ सक्कारिता पडिविसज्जेइ, तपणं ते आसा बहूहिं मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाणि दुक्खाई पावेंति, एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वइए समाणे इट्ठेसु सहफरिसरसरुवगंधेसु य सजइ रजई गिज्जइ मुज्झइ अज्झोववजह से णं इहलोए चैव बहूणं समणाण य जाव सावियाण य हीलणिजे जाव अणुपरिस्सिइ ॥ सू० ४ ॥ टीका- ' तत्थ णं इत्यादि । तत्र खलु ' अत्थेगइया ' अस्त्ये के-के चित् अश्वा यत्रैव उत्कृष्टाः शब्दस्पर्शर सरूपगन्धास्तत्रैवो पागच्छन्ति, उपागत्य तेषु उत्कृष्टेषु = शब्दस्पर्शर सरूपगन्धेषु मूच्छिताः यावत् - अध्युपपन्नाः तत्तद्विषयेषु एकाग्रतां प्राप्ताः सन्तस्तान् आसेवितुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन् । ततः खलु तेऽश्वा एतान् उत्कृष्टान् तत्थणं अत्थे गइया' इत्यादि । , टीकार्थ - (तस्थणं अथेगइया आसा जेणेव उक्किट्टा सहफरिसरसरुवगंधा तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता तेसु उकिट्टेस सहफ रिसे५ मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा आंसेविडं पयत्ता याविहोत्था ) उस जंगल में उन 6 तत्थ अत्थेगइया इत्यादि - टीकार्य - ( तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठासफरिसरसख्वगंधा तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तेसु उक्किट्ठेषु सद्दफरि से ५ मुच्छिया जाव अज्झोबवण्णा आसेवि पयत्ता यावि होत्था ) તે વનમાં તે ઘેાડાઓમાં કેટલાક ઘેાડાઓ એવા પણ હતા કે જે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान् ' आसेचमाणा ' आसेवमानाः तत्लुखानुभवं कुर्वाणाः तैर्बहुभिः कूटैश्व बन्धनविशेषैः पाशैश्च रज्ज्वादिरूपैः गलएषु = गलेषु = कण्ठेषु पादेषु च ' वज्यंति ' बध्यन्ते - ते कौटुम्बिक पुरुषास्तानश्वान् बध्नन्ति स्मेत्यर्थः । ततः घोड़ों में से कितनेक घोड़े ऐसे भी थे जो जहां वे उत्कृष्ट शब्द स्पर्श रस, रूप एवं गंध ये पांचों इन्द्रियों के आकर्षक विषय थे वहां आकर उन उत्कृष्ट शब्द स्पर्श आदि विषयों में मूर्छित यावत् तल्लीन बनगये । और उन्हें सेवन करने में प्रवृत्त भी हो गये । (तएणं ते आसा ते उकिडे सह ५ आसेवमाणा तेर्सि बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पारस य बज्झति, तरणं ते कोटुंबिय पुरिसा ते आसे: गिव्हंति गिव्हित्ता एमट्टियाहिंय पोयवहणे संचारेंति, संचारित्ता तणस्स कटुस्स जाव भरेंति, तरणं ते संजत्ता णावा वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वारणं जेणेव गंभीर पोपट्टणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेतिलंबित्ता ते आसे उत्तारेति ) इसके बाद वे घोड़े उन उत्कृष्ट शब्द स्पर्श रस, रूप, एवं गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयों को सेवन करते हुए रज्वादिरूपबन्धन विशेषों द्वारा कंठों और पैरोंमें बाँध लिये गये । अर्थात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने इन घोड़ों को उस समय रस्सियों द्वारा बांधलिया। बांध करके फिर उन कौटुम्बिक पुरुषोंने उन्हें पकड लिया पकड ६२२ જ્યાં તે ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધ આ પાંચ ઇન્દ્રિયાના આકર્ષક વિષયા હતા ત્યાં આવીને તે ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્ધા વગેરે વિષયામાં મૂહિત ( આસકત ) યાવત્ તલ્લીન થઈ ગયા અને તેમના સેવનમાં પ્રવૃત્ત પણ થઈ ગયા. (तएण ते आसा ते उक्किट्ठे सद्द ५ आसेवमाणा तेर्सि बहूहिं कूडेईि य पासेहिय गलएसु य पाएमु य वज्ज्ञंति, तएणं ते कोडुबियपुरिसा ते आसे गण्डति गिण्डित्ता एगद्वियाहिं य पोयवहणे संचारेति, संचारिता तणस्स कटुस्स जाव भरेंति, तरणं ते संजत्ता णावा वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपणे तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति-लंबित्ता ते आसे उतारेंति ) ત્યારપછી તે ઘેાડાએ ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચ ઇન્દ્રિયાના વિષયાનું સેવન કરતાં દેદરડાએ વગેરે રૂપ અધત વિશેષથી ડાર્કા અને પગેામાં ખંધાઈ ગયા. એટલે કે તે કૌટુબિક પુરુષોએ તે ઘેાડાઆને દોરડાઓથી બાંધી લીધા. માંધીને તે કૌટુંબિક પુરુષોએ તે ઘેાડાઓને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधामृतषिणी टोक अ० १७ आकीश्विदान्तिकयोजना ६२३ खलु ते कौटुम्बिकपुरुषास्तानश्वान् गृहन्ति, गृहीत्वा एट्ठियाहि एकाधिकाभिः लघुनौकाभिः पोतवहने-बृहन्नौकायां संचारेंति ' सञ्चारयन्ति=आरोहयन्ति सञ्चार्य तृणस्य काष्ठस्य च यावत् पोतवहनं भरन्ति तृणकाष्ठादिभिरितिभावः । ततः खलु ते संयात्रनौकावाणिजकाः दक्षिणानुकूलेन=स्वानुकूलेन बातेन यौव गम्भीरपोतपत्तनं-पोतलम्बनस्थानं तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतवहनं लंबेति' लम्बयन्ति-शंकुषु बद्ध्वा स्थापयन्ति, लम्वयित्वा तान् अश्वान् ‘उत्तारैति' उत्तारयन्ति, उत्तार्य यौव हस्तिशीर्ष नगरं यत्रैव कनककेतू राजा तवोपागच्छन्ति, उपागत्य 'करयल जाव' करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त दशनखं मस्त केकर फिर उन्हें छोटी २ नौकाओं द्वारा लाकर घडी नौका में चढायाचढा करके फिर उसमें तृण और काष्ट आदि को भरा। इसके बाद वे सांयात्रिक पोतवणिक दक्षिणानुकूल वायु के चलने पर जहां गंभीर नामका पोतपट्टण (बन्दरगाह ) था वहां आये। वहां आकर के उन्हों ने अपने पोत को लंगर डालकर ठहरा दिया। ठहरा कर उन अश्वों को उस पोत से फिर उन्हों ने नीचे उतार लिया। ( उत्तारित्ता जेणेव हत्थिसीसे जयरे जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंनि उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेंति, बद्धावित्ता ते आसे उवणेति, तएणं से कणकेऊ तेसिं संजत्ता णावावाणियगाणं उस्सुक्कं वियरह, वियः रित्ता सकारेइ संमाणेह सकारिता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ ) उतार कर फिर वे वहां उन्हें ले गये जहां हस्तिशीर्ष नगर और उसमें भी પકડી લીધા. પકડીને તેમણે નાની નાની હોડીઓ વડે મોટા વહાણમાં ચઢાવ્યા. ચઢાવ્યા બાદ તેઓએ તેમાં ઘાસ એને કાષ્ઠ ભર્યા. ત્યારપછી તે સાંયાત્રિક પિતવણિકે દક્ષિણને અનુકૂળ પવન વહેવા લાગે ત્યારે ત્યાંથી રવાના થઇને જ્યાં ગભીર નામે પતપટ્ટણ (બંદર) હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પિતાના વહાણને લંગર નાખીને રોકયું. ત્યારબાદ તેમણે ઘોડાઓને વહાણમાંથી નીચે ઉતાર્યા. ( उत्तारित्ता जेणेव हत्थिसीसे णयरे जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धाति, बद्धावित्ता ते आसे उवणेति, तएणं से कणगकेऊ तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं उस्मुक्कं वियरइ, वियरित्ता सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्करित्ता, संमाणित्ता पडिविसज्जेइ) નીચે ઉતારીને તેઓ તે ઘોડાઓને હસ્તિશીષ નગરમાં જ્યાં કનકકેત રાજા હતા ત્યાં લઈ ગયા. ત્યાં જઈને પહેલાં તેમણે બંને હાથ જોડીને રાજા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દઇ __ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ऽञ्जलिं कृत्वा बद्धाति' वर्द्धयन्ति जयविजयशब्देनाभिनन्दन्ति, वर्द्धयित्वा तान् अश्वान् राज्ञः समीपे ' उवणेति ' उपनयन्ति । ततः खलु स कनककेतू राजा तेषां संयात्रनौकावाणिजकानाम् ' उस्सुक्क उच्छुल्कम् ' एभ्यः केनापिकरो न ग्राह्यः' इत्येवंरूपमाज्ञापत्र वितरति ददाति, वितीर्य सत्करोति-मधुरवचनादिभिः, सूमानयति-वस्त्रादिभिः, सत्कार्य सम्मान्य प्रतिविसर्जयति । ___ततः खलु स कनककेतू राजा 'आसमदए' अश्वमर्दकान् अश्वशिक्षकान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यूयं खलु हे देवानुप्रियाः ! ममाश्वान ‘विणएह ' विनयत-शिक्षयत-गत्यादिकलाकुशलान् कुरुतेत्यर्थः । ततः खलु तेऽश्व. मर्दकाः ' तहत्ति ' तथेति 'तथाऽस्तु' इत्युक्त्वा प्रतिश्रृण्वन्ति-नृपाज्ञां स्वीकुर्वन्ति, जहां कनककेतु राजा थे। वहां जाकर उन्होंने पहिले दोनों हाथ जोड कर राजा कनककेतु को नमस्कार किया-जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें बधाई दी-बधाई देकर बाद में उन घोडों को उनके समक्ष उपस्थित करदिया इसके बाद कनककेतु राजा ने उन सांयाधिक पोतवणिकजनों के लिये निःशुल्क (कररहित ) अवस्था वितरित की इन्हों से कोई भी राज्यकर्मचारी टेक्स न लेवें इस प्रकार का आज्ञापत्र उन्हे लिखकर दे दिया। आज्ञापत्र लिखकर देने के बाद राजाने उनका मधुर वचनों द्वारा सत्कार किया। वस्त्रादि प्रदान पूर्वक उनका सन्मान किया। फिर सत्कार मन्मान करके उन्हें विसर्जित कर दिया। (तएणं से कणककेऊ कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता सक्कारेंति० पडिविसज्जेइ, तएणं से कणगके ऊराया आममद्दए सद्दावेइ सदायित्ता एवं वयासी तुम्भेणं देवानुप्पिया ! मम आसे विणएह ) इस के बाद कनककेतु राजाने कौटुકનકકેતુને નમસ્કાર કર્યા અને જય-વિજય શબ્દો વડે તેમને વધામણી આપી. વધામણ આપીને તેમણે તે બધા ઘોડાઓને તેમની સામે ઉપસ્થિત કર્યા ત્યારપછી કનકકેતુ રાજાએ તે સાંયાત્રિક પતવણિકને માટે કર માફી કરી આપી તેમની પાસેથી કોઈ પણ રાજ્ય કર્મચારી કર (ટેકસ) લે નહિ તેવું આજ્ઞા પત્ર તેમને લખી આપ્યું આજ્ઞા પત્ર આપીને રાજાએ તેમને મધુર વચને વડે સત્કાર કર્યો અને વસ્ત્રો વગેરે આપીને તેમનું સન્માન કર્યું. ત્યાર પછી તેમને વિદાય કર્યા. (तपणं से कणगके ऊ कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सहावित्ता सक्कारेंति० पडिविसज्जेइ, तएणं से कणगकेऊ राया आसमद्दए सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी तुम्भेणं देव णुप्पिया ! मम आसे विणएह । श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधामृतषिणी टोक अ० १७ आकीश्विदान्तिकयोजना १२५ प्रतिश्रुत्य तान् अश्वान् बहुभिर्मुखबन्धैश्च कर्णबन्धैश्च नासाबन्धैश्च बालबन्धैश्च केशबन्धैरित्यर्थः खुरबन्धैश्च 'खलिणबंधेहि य' खलीनबन्धैः ' लगाम' इति प्रसिद्धबन्धनैः, ' अहिलाणेहि य ' अभिलानः= जीन ' इति प्रसिद्धैः, पडियाणेहि ' पर्याणकैः=' तंग ' इति प्रसिद्धैश्चर्ममयैरश्वोपकरणविशेषैः, 'अंकणाहि य ' अङ्कनाभिः-तप्तलोहशलाकादिभिरङ्कनकरणैश्च — वित्तप्पहारेहि य ' वेत्रप्रहारैश्च म्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर उनका आदर सत्कार किया। फिर उन्हें विसर्जित कर दिया। इसके पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वशिक्षको को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम इन हमारे इन घोडों को शिक्षित बनाओ-गत्यादिकला में निपुण करो। (तएणं ते आसमद्दगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते आसे बहूहिं मुह बंधेहि य कण्णबधेहि णासा बंधेहि य बालबंधेहि य खुरबंधेहि य खलिणबंधेहि य अहिलाणेहि य पडियाणेहि य अंकणाहि य वित्तप्पहारेहि यकसप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति) राजा कनककेतु की इस आज्ञा को उन अश्वमर्दकों ने " तहत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उन्हों ने अनेक विध मुख बंधनों से, कर्णबंधनों से नासाबंधनों से लगामरूप बंधनों से अभिलानों से-पलेचाओं से-पर्या. णकों से तंगों के कसने से-अंकनों से-तप्त हुई लोहकी शलाकाओं द्वारा डाम लगाने से वेत्र के प्रहारों से, लताओंके प्रहारोंसे, चाबुकों के ત્યારપછી કનકકેતુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરુષને લાવ્યા, બેલાવીને તેમનો સત્કાર કર્યો અને પછી તેમને વિદાય કર્યા. ત્યારબાદ કનકકેતુ રાજાએ અશ્વશિક્ષકોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય તમે અમારા આ ઘડાઓને શિક્ષિત બનાવે, દેડવા વગેરેની કળાએમાં નિપુણ બનાવે. ( तएणं ते आसमद्दगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते आसे बहूहिं मुह बंधेहि य कण्ण बंधेहिं णासा बंधेहि य बालबंधेहि य खुर बंधेहि य खलिण बंधेहि य अहि लाणेहि य पडियाणेहि य अंकणाहि य वित्तप्पहारेहिय लयप्पहारेहिय करूप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति ) રાજા કનકકેતની આજ્ઞાને તે અશ્વમર્દકે એ “તહત્તિ ” કહીને સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કરીને તેમણે ઘણી જાતના મુખ્ય બંધનોથી, કણ બંધનોથી, નાસા બંધનથી, વાળ બંધનથી, ખુર બંધનથી, લગામ રૂપ બંધનેથી, અભિલાનોથી, પચાઓથી, પણ કોથી, સંગેને કસવાથી, અંકનેથી, તપાવવામાં આવેલી લેખંડની સળીઓ વડે ડામવાથી, વેંતોના આઘાતથી લતા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨૬ - - ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'लयप्पहारेहि य ' लतापहारैश्च, 'कसप्पहारेहि य' कशामहारैश्च — कशा'चाबुक ' इति भाषायाम् , ' छिवप्पहारेहि य' छिवामहारैः चर्ममयचिक्कणकशामहारैश्च ‘विणयंति ' विनयन्ति=शिक्षयन्ति, विनीय शिक्षयित्वा कनककेतो राज्ञ उपनयन्ति । ततः खलु सः कनककेतू राजा तान् अश्वमर्दकान् सत्करोति सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य प्रतिविसर्जयति । ततः खलु तेऽश्वाः बहुभिर्मुखबन्धैश्च यावत्-छिवामहारैश्च बहूनि शारीरमानसानि दुःखानि प्राप्नुवन्ति । ' एवामेव ' एवमेव-शब्दादिविषयमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! योऽस्माकं निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचार्योपाध्यायानामन्तिके प्रबजितः सन् इष्टेषु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु 'सज्जइ' सज्जते-आसक्तो प्रहारों से, छिपा-चर्म की बनी हुई चिकनी कशाओं के प्रहारों से उन घोडों को शिक्षित बना दिया। (विणयित्ता कणगकेऊस्स रण्णो उवणेति तएणं से कणगके ऊराया ते आसमदए सक्कारेइ सक्कारित्ता पडिविस जेइ, तएणं ते आसा बहूहि मुहबंधेहिं जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमानसाणी दुक्खाइं पावेंति ) शिक्षित बनाकर फिर वे उन घोडों को कनककेतु राजा के पास ले गये। बादमें राजा कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उन्हें विसर्जित कर दिया। वे घोडे लेकर अनेक विध उन मुख बंधनों से यावत् चर्ममय चिक्कणकशाओं के प्रहारों से नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुखों को पाने लगे। ( एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथो वा पव्वइए समाणे इहेतु सद्दफरिसरस એના પ્રહારોથી, ચાબુકના પ્રહારોથી, છિપા ચામડાના બનેલા લીસા ચાબકેના પ્રહારોથી તે ઘડાઓને કેળવ્યા. (विणयित्ता कणगकेऊ राया ते आसमदए सक्कारेइ, सक्कारित्ता पडिविसज्जेई तएणं ते आता बहूहि मुह बंधेहि जाब छिपप्पहारेहिं य बहणि सारीरमानसाणि दुक्रवाई पावेंति ) કેળવીને-શિક્ષિત બનાવીને તે ઘોડાઓને તેઓ કનકકેતુ રાજા પાસે લઈ ગયા. ત્યારપછી કનકકેતુએ તે અશ્વમર્દકનો સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું. સત્કાર અને સન્માન કરીને તેમને વિસજિત કર્યા. તે ઘોડાએ ઘણુ મુખ બંધનોથી યાવતું ચામડાના લીસા ચાબુકના પ્રહારોથી અનેક જાતના શારીરિક અને માનસિક દુઃખો ભેગવા લાગ્યા. (एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वइए समाणे इसु सदफरिसरसरूवगंधेसु य सज्जइ, रज्जइ, गिज्झइ, मुज्झइ, अज्झोववज्झइ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधामृतषिणी टोक अ० १७ आकीश्विदान्तिकयोजना ६२७ भवति, ‘रज्जइ' रज्यते अनुरक्तो भवति, ' गिज्झइ' गृध्यति-तद्वाञ्छासक्तो भवति, 'मुज्झइ ' मुह्यति-मूर्छितो भवति, ' अज्झोववज्जइ' अध्युपपद्यते सर्वथा तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एव बहूनां श्रमणानां च यावत्-श्रमणीनां श्रावकाणां श्राविकाणां च ' हीलणिज्जे ' हीलनीयः यावत् चातुरन्तसंसारकान्तारम् ' अणुपरियट्टिस्सइ ' अनुपटिष्यति-भ्रमिष्यतीति भावः ॥०४॥ मूलम्-कलरिभियमहुर तंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जाणा रमति सोइंदियवसट्टा ॥ १ ॥ सोइंदियदुद्दन्तत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। दीविगरुयमसहसो वहबंधं तित्तिरो पत्तो ॥ २॥ टीका-अथेन्द्रियासंवरणदोषान् गाथाभिः प्रदर्शयति-'कलरिभिय० ' इत्यादि कलरिभितमधुरतन्त्री तल तालवंसककुदाभिरामेषु ।। रूवगंधेस्तु य सज्जइ, रज्जइ, गिज्झइ, मुज्झइ, अज्जोववज्जह, सेणं इहलाहे चेव बहणं समणाण य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणुपरियट्टिस्सइ ) इसी प्रकार हे आयुष्मंत श्रमणों ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन अथवा साध्वीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रवजित होता हुआ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, अनुरक्त होता है, उनकी चाह से बंधता है, उनमें मूच्छित बनता है, सर्व प्रकार से उनमें तल्लीन होता है वह इस लोक में ही अनेक श्रमणजनों द्वारा श्रमणी, श्रावक और श्राविकाओं द्वारा हीलनीय-निन्दा का पात्र होता है यावत् वह चतुर्गतिरूप इस संसार कान्तार में भटकतो है ।। सू०४ ।। सेणं इहलोए चेव बहूर्ण समाणाण य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणु परियटिस्सइ) આ પ્રમાણે હે આયુમંત શ્રમ ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુજને કે સાધ્વીજને આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઈને ઈષ્ટ, શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચે ઈનિદ્રાના વિષયમાં આસક્ત હોય છે, અનુરક્ત હોય છે, તેમની ઈચ્છા કરીને તેમાં બંધાઈ જાય છે, તેમાં મૂછિત બની જાય છે, બધી રીતે તેમાં તલ્લીન બની જાય છે. તે આ લોકમાં જ ઘણા શ્રમણે વડે તેમજ ઘણું શ્રમણ, શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓ વડે હીલીય-નિન્દનીય-હાય છે યાવત તે ચતુર્ગતિ રૂપ આ સંસાર–કાંતારમાં ભટકતા રહે છે. એ સૂત્ર ૪ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ _ज्ञाताधर्मकथासूत्रे शब्देषु रज्यमाना, रमन्ते श्रोगेन्द्रियवशातः ॥ १ ॥ श्रोगेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः । द्वीपिकारुतमसहमानो,-वधवन्धं तित्तिरः प्राप्तः ॥ २॥ श्रोत्रेन्द्रियवशार्ताः कर्णेन्द्रियवशवर्तिनः कलाः श्रवणसुखदाः रिभिताः स्वरघोलनाविशेषयुक्ताः मधुराः-प्रियाः कलरिभितमधुरध्वनिजनकत्वात् तद्रूपा ये तन्त्रोतलतालवंशाः-चीणा-करताल वेणवस्तैः समुद्भावितत्वात्-ककुदः-प्रधानाः, अभिरामा:-मनोहरास्तेषु-शब्देषु रग्यमानाः अनुरक्ताः सन्तः रमन्ते मोदन्ते ॥ १॥ 'सोइंदिये ' त्यादि । 'सोइंदियदुईतत्तणस्स ' श्रोनेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य श्रोत्रेन्द्रिय दुर्दान्तं यस्य स श्रोत्रेन्द्रियदुर्दान्तः श्रोनेन्द्रियस्य जेतुमशक्यतया तद्वशवतीत्यर्थः, तस्य भावस्तत्त्वं, तस्य, श्रोत्रेन्द्रियाधीनतायाः, ' एत्तिओ' एतावान वक्ष्यमाणप्रकारकः दोषो भवति । तं सदृष्टान्तं प्रदर्शयति-'दीविगरुयमसहंतो' द्वीपिकारु. तमसहमानः-द्वीपिका व्याध पचरस्थतित्तिरः, तस्याः रुतं शब्दम् असहमानः= 'कलरिभिय' इत्यादि। अब सूत्रकार, इन्द्रियों के असंवरण से जो दोष उत्पन्न होते हैं उन्हें इन गाथाओं द्वारा प्रदर्शित करते हैं-कर्णेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी फल-श्रवण सुखद, रिभित-स्वरों के घोलना विशेष से युक्त ऐसे मधुरप्रिय, तंत्री-वीणा, तलताल-करताल, वंशवासुरी इन से उत्पन्न होने की वजह से ककुद-अत्यन्त, अभिराम-मनोहर ऐसे शब्दो में अनुरक्त होते हुए यद्यपि मुदितमन होते हैं परन्तु श्रोत्रेन्द्रिय उनकी दुर्दमन होने के कारण-श्रोत्रेन्द्रिय उनकी जितने में अशक्य होने के कारण तदशवर्ती बने हुए वे प्राणी जिस तरह व्याध के पंजर में रही हुई तित्तिरी के शब्द को सुनकर तोतरपक्षी-कामराग के वश से आकृष्ट — कलरिभिय ' इत्यादि સૂત્રકાર હવે ઈન્દ્રિયેના અસંવરણથી જે દેશે ઉત્પન્ન થાય છે તેમને આ ગાથાઓ વડે પ્રદર્શિત કરે છે. કર્ણેન્દ્રિયના વશમાં થયેલા પ્રાણીઓ કલશ્રવણ સુખદ, રિભિત સ્વરોને વિશેષ રૂપમાં મેળવવાથી ઉત્પન્ન થયેલ વનિ, भइ२-प्रिय, तत्री-पीए!, Gadle-२ता, १श-वांसजी मेमनाथी उत्पन्न હેવા બદલ કકુદ-અત્યંત, અભિરામ-મનહર એવા શબ્દમાં અનુરકત થતાં જો કે તેઓ મુદિતમન-પ્રસન્ન થાય છે. પરંતુ તેમની શ્રોત્રેન્દ્રિય (કાન) દુર્દમનીય હોવા બદલ એટલે કે મોન્ટેન્દ્રિય ઉપર કાબુ મેળવવાનું કામ તેમના માટે અશકય હોવા બદલ તેને વશ થયેલા પ્રાણીઓ જેમ વ્યાપા-શિકારીના પીંજરામાં સપડાઈ ગયેલી તિત્તિરીના શબ્દને સાંભળીને તીતર પક્ષી કામરાગના શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १७ आकीर्णाश्वदाष्टन्तिकयोजना ६२९ तित्तिरः वधं मरणं बन्धं पञ्जरादि बन्धनं मामः - प्राप्नोतीत्यर्थः ' अथ ' वाक्यालङ्कारे ॥ २ ॥ मूलम् - थणजहणत्रयणकरचरणणयणगव्वियविलासियगईसु । रूवेसु रजमाणा रमंति चक्खि दिवसट्टा ॥ ३॥ चक्खिदियदुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ भवइ दोसो । जं जलणंमि जलंते पडइ पयंगो अबुद्धोओ ॥ ४॥ टीका - स्तनजघनवदन करचरणनयगर्वित बिलासितगतिषु । रूपेषु रज्यमाना, रमन्ते चक्षुरिन्द्रियवशार्त्ताः ॥ ३ ॥ चक्षुरिन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः । यद्ज्वलने ज्वलति पतति पतङ्गः अबुद्धिकः ॥ ४ ॥ ' थणे ' त्यादि । चक्षुरिन्द्रियवशार्त्ताः स्त्रीणां स्तनजघनादि रूपेषु रज्यमानाः =अनुरक्ता रमन्ते ॥ ३ ॥ ज्वलने = अग्नौ । शेषं सुगमम् ॥ 1 ४ ॥ होकर वध और बंधन को पाता है उसी तरह नाना प्रकार के वध बंधनों को पाया करते हैं । गा० १-२ ॥ 'थणजहण, चक्खिदिय ' इत्यादि । यद्यपि चन्द्रिय के विषय की प्राप्ति करने में व्याकुल हुए प्राणी उस विषय की प्राप्ति होने पर आनन्दमग्न बन जाया करते हैं-वे स्त्रियों के स्तन, जघन, बदन, कर, चरण, नयन, गर्वित विलासयुक्त गमनादिरूप चक्षुइन्द्रिय के विषय को बार बार देखकर आसक्त होते हैंपरन्तु यह इन्द्रिय जब दुर्दान्त बन जाया करती है तब ऐसे प्राणी जिस આવેશમાં આવીને મૃત્યુ તેમજ બંધનને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમ જ અનેક જાતના વધખધના મેળવે છે. गा. १-२ " 66 थण जहण चक्खिदिय इत्यादि -- જો કે ચક્ષુન્દ્રિયાના વિષયને મેળવવા માટે અત્યંત ઉત્સુક બનેલા પ્રાણીએ તે વિષયની પ્રાપ્તિ થઇ જવા બાદ આનંદમગ્ન થઇ જાય છે-તે स्त्रीशोना स्तन, न्धन, भुभ, हाथ, यरलु, नयन, गर्वित विलास-युक्त गमन વગેરે રૂપ ચક્ષુઇન્દ્રિયાના વિષયાને વારંવાર જોઇને આસક્ત થઈ જાય છે, પર’તુ આ ઇન્દ્રિય જ્યારે દુર્દા ત ખની જાય છે ત્યારે એવા પ્રાણીએ અજ્ઞાની પતંગની શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D ६३० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम्-अगुरुवरपवरधूवण उउय मल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रजमाणा रमति घाणिंदियवसट्ठा ॥ ५॥ घाणिंदियदुदंतत्तणस्स अहं एत्तिओ हवइ दोसो । जं ओसहिगंधेणं बिलाओ निद्धावइ उरगो ॥ ६॥ टीका-अगुरुवरपवरधूपन ऋतुजमाल्यानुलेपनविधिषु । गन्धेषु रज्यमाना,-रमन्ते घ्राणेन्द्रियवशार्ताः ॥५॥ नाणेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः। यद् औषधिगन्धेन बिलाद् निर्धावति उरगः ॥ ६ ॥ घ्राणेन्द्रियवशार्ताः अगुरुवर:-कृष्णागुरुः, प्रवरधूपनं दशाङ्गादिरूपो धूपः, ' उउयमल्ल' ऋतुजमाल्यानि-तत्तऋतुजातपुष्पाणि, अनुलेपनानि-चन्दनकुङ्कुमादिरूपाणि, तेषां विधया प्रकारा येषु गन्धेषु तत्र रज्यमानाः अनुरक्ताः सन्तो रमन्ते ॥ ५ ॥ ' ओसहिगंधेणं ' ओषधिगन्धेन=केतक्यादिवनस्पतिसुगन्धानुरागवशेन प्रकार अज्ञानी पतंग अपने प्राणों को अग्नि में डाल देता है उसी प्रकार उसी विषय में अपने प्राणों का नाश करते हैं ।। गा०॥३-४॥ ___ अगुरुवर, घाणिय इत्यादि। घ्राणइन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी अगुरुवर-कृष्णागुरु, प्रवर, धूपन, दशाङ्गादिरूप घूप, ऋतुजमाल्य-तत्तऋतु के पुष्प, अनुलेपनचन्दन ककुम आदि के विविध लेप रूप गंध में अनुरक्त होते हुए हर्षित मन होते हैं, परन्तु वे इस इन्द्रिय की दुर्दमनता का कुछ भी विचार नहीं करते हैं। जब यह इन्द्रिय दुर्दमन बन जाती है-तब ऐसे प्राणी જેમ પિતાના પ્રાણેને અગ્નિમાં હોમી દે છે, તેમજ તે પણ તે વિષયમાં જ पोताना प्राणेने नट ४२री नामे छे. " 1. 3-४" अगुरुवर, पाणिं दिय इत्यादि । ઘાણઇન્દ્રિયના વશમાં પડેલા પ્રાણીઓ અગુરૂવર-કૃષ્ણગુરૂ, પ્રવર, ધૂપન દશાંગાદિ રૂપ ધૂપ ઋતુ જ માલ્ય-તત્ત૬ જતુના પુપિ, અનુલેપન ચંદન-કુંકુમ વગેરેના જાતજાતના લેપના ગંધમાં અનુરક્ત થઈને હર્ષિત થઈ જાય છે, પરંતુ હકીક્તમાં તે તેઓ તે ઇન્દ્રિયની દુર્દમતા વિષેને કોઈ પણ જાતનો વિચાર કરતા જ નથી. જ્યારે તે ઈન્દ્રિય દુર્દમ બની જાય છે ત્યારે એવા પ્રાણીઓ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १७ आकीर्णाश्वदाष्टान्तिकयोजना ६३१ उरगा=सर्पः बिलात् 'निधावई ' निर्धावति-निस्सरति, ततो वधं बन्धनं च प्राप्नोतीति भावः ! शेषं स्पष्टम् ॥ ६ ॥ मूलम्-तित्तकडुय कसायंबमहखजपेजलज्झेसु । आसाएसु य गिद्धा रमंति जिभिदियवसट्टा ॥ ७॥ जिभिदिय दुईतत्तणस्त अह एत्तिओ हवइ दोसो। जंगललग्गुक्खित्तो फुरइ थरविरल्लिओ मच्छो ॥ ८॥ छाया-तिक्तकटुककषायाम्लमधुरबहुखाद्यपेयले ह्येषु । आस्वादेषु च गृद्धा, रमन्ते जिह्वेन्द्रियवशार्ताः ॥ ७ ॥ जिह्वेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य, अथ एतावान् भवति दोषः । यद् गललग्नोत्क्षिप्तः, स्फुरति स्थलविरल्लितो मत्स्यः ।। ८ ॥ टीका-निवेन्द्रियवशातः-तिक्तं मरीचादिक, कटुकं कारवेल्लादिकं, कपाय:आमलकादिकम् , अम्लं काम्बादिकं, मधुरं-मोदकादिकं, बहु-अनेकविधं 'खज' खाद्यं कदलीफलादिकं, ' पेज्नं' पेयं दुग्धादिकं, ' लेझं ' लेह्य-दधिशर्करादिकेतकी आदि की गंध से आकृष्ट बनकर जिस प्रकार बिल से निकला सर्प वधबंधन आदि कष्टों को पाता है वैसे कष्ट पाते है । गा०५-६ ।। 'तित्तकडुय जिभिय ' इत्यादि । जो प्राणी जिह्वाइन्द्रिय के वशवर्ती बना रहता है वह मरीच आदि के जैसे तिक्त स्वाद में करेला के जैसे कटुक स्वाद में, आमल आदि के जैसे कषायरस में करम्बादिके जैसे अम्ल-खट्टे रस में, मोदकादि के जैसे मधुर स्वाद में तथा विविध प्रकार के कदली फलादिक खाद्य पदार्थों में, दुग्धादि पेयपदार्थों में, एवं दधि और शक्कर आदि से निष्पन्न हुए કેતકી વગેરેની ગંધથી આકૃષ્ટ થઈને જેમ દરમાંથી નીકળેલે સાપ વધબંધન વગેરે કાને પ્રાપ્ત કરે છે તેમજ કષ્ટ પ્રાપ્ત કરે છે. ગા. ૫-૬ છે तित्तकडुय जिभिदिय इत्यादि । જે પ્રાણી છવા ઈન્દ્રિય (જીભ) ને વશ થયેલે હોય છે, તે મરચું વગેરેના જેવા તીખા સ્વાદમાં, કારેલા જેવા કડવા સ્વાદમાં, આમલી વગેરેના જેવા કષાય રસમાં, કરંબાદિના જેવા અમ્લ-ખાટા રસમાં, લાડવા વગેરેના જેવા મધુર સ્વાદમાં તેમજ જાતજાતનાં કેળાં વગેરેના ખાદ્ય પદાર્થોમાં, દૂધ વગેરે જેવા પેય પદાર્થોમાં, અને દહીં તેમજ ખાંડ વગેરેથી તૈયાર થયેલા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ነ निष्पन्नं श्रीखण्डादिकम् एतेषां द्वन्द्व:, तेषु आस्वादेषु = आस्वाद्यन्ते इति आस्वादाः रसास्तेषु गृद्धाः = आसक्ताः सन्तः रमन्ते ॥ ७ ॥ , 'जिभिदिये 'त्यादि । पूर्व गले = मत्स्यवेधने लग्नः, मत्स्यवेधनेन मुखे विद्ध इत्यर्थः पश्चाद् उत्क्षिप्तः = जलादुद्धृतः इति कर्मधारयः एवंभूतो मत्स्यः स्थलविरल्लितः = स्थले निपातितः सन् स्फुरति व्याकुलो भूत्वा भूमौ लुठति । शेषं स्पष्टम् ॥ ८ ॥ मूलम् - उउभयमाणा सुहेसु य सविभवहिययमणनिव्वुइकरेसु । फासेसु रज्जमाणा रमंति फासिंदियवसट्टा ॥ ९॥ फासिंदिय दुतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ॥ १० ॥ छाया - ऋतुभज्यमानमुखेषु च सविभवहृदयमनोनिवृतिकरेषु । स्पर्शेषु रज्यमाना, रमन्ते स्पर्शेन्द्रियवशात्तः ॥ ९ ॥ स्पर्शेन्द्रिय दुर्दान्तत्वस्य, अथ एतावान् भवति दोषः । यत् खनति मस्तकं कुञ्जरस्य लोहाङ्कुशस्तीक्ष्णः ॥ १० ॥ टीका- 'उउभये' त्यादि । स्पर्शेन्द्रियवशार्त्ताः - 'उउभय माणसुहेसु य' ऋतुभज्यमानमुखेषु ऋतुषु = हेमन्तादिषु भज्यमानानि = सेव्यमानानि सुखानि येषु ते, श्री खंड आदि लेह्य पदार्थों में आसक्तमति होकर बड़ा हर्ष मनाया करते हैं । परन्तु जब इनकी यह इन्द्रिय दुर्दान्त बन जाती है तब ऐसे प्राणी जैसे मत्स्यवेधन से मछली पकड़ने के कांटे वंशी से मुख में विद्व हुआ मत्स्य जल में से खींचकर बाहर भूमिपर डाल दिया जाता है और वह भूमिवर तड़प २ कर मर जाता है उस इन्द्रिय के विषय में फसकर तडपू २ कर मर जाया करते हैं । गा० ७-८ ॥ આસક્ત શ્રીખંડ વગેરે લેદ્ય ( ચાટીને ખાઈ શકાય તેવા ) પદાર્થીમાં થઇને ખૂખ જ હર્ષિત થતા રહે છે. પરંતુ જ્યારે તેમની આ ઇન્દ્રિય દુર્ઘત ખની જાય છે, ત્યારે એવા પ્રાણી જેમ મત્સ્યવેધનથી-માછલી પકડવાના કાંટાથી મુખમાં વિદ્ધ થયેલું માછલું પાણીમાંથી બહાર ખેંચીને બહાર જમીન ઉપર નાખવામાં આવે છે અને તે જમીન ઉપર તડપી તડપીને મૃત્યુવશ થાય છે, તેમજ તે ઇન્દ્રિયના વિષયમાં ફસાઈને તડપી તડપીને મૃત્યુવશ थाय छे. ॥ था. ७-८ ।। શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १७ आकीर्णाश्चदाष्टान्तिकयोजना ६३३ तेषु तथोक्तेषु तथा सविभवानां-संपत्तिशालिनां हृदयस्य मनसश्च नित्तिकरेषु सुखकरेषु । एवं भूतेषु स्पर्शेषु रज्यमानाः अनुरक्ताः रमन्ते ।। ९ ।। ___ 'फासिदिये' त्यादि । कुञ्जरस्य-करिणीस्पर्शलुब्धस्य हस्तिनो मस्तकं तीक्ष्णोलोहाङ्कुशः खनति-विदारयति । शेष सुगमम् ।। १० ॥ ५ ॥ सू० ॥ मूलम्-कलरिभिय महुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु । सद्देसु जं न गिद्धा वसटमरणं न ते मरए ॥ ११ ॥ थणजहणवयणकरचरणनयणगव्वियविलासियगईसु । रूवेसु न रत्ता वसहमरणं न ते मरए ॥ १२ ॥ अगुरुवरपवरधूवण उउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १३ ॥ तित्तकडुयकसायंबमहुरबहुखज्जपेज्जलेज्झेसु । आसाएसु न गिद्धा वसट्टमरणं न ते मरए ॥ १४॥ (उउभयमाणं, फासिंदियदुदंत इत्यादि, टीकार्थ-जो प्राणी स्पर्शन इन्द्रियके वशवर्ती होते हैं वे अपनी स्पर्शनेन्द्रियकी लोलुपतासे हेमन्त आदि प्रत्येक ऋतु संबन्धी सुख भोगते हैं। तथा संपत्तिशालियों के हृदय में और मन सुखकर स्पर्शों में अनुरक्त बने रहते हैं। इस तरह करते २ जब इनकी यह स्पर्शन इन्द्रिय दुर्दान्त बन जाती है तब वे प्राणी जिस प्रकार तीक्ष्ण लोह का अंकुश करिणी ( हस्तिनी) के स्पर्श करने में लुब्धक बने हुए मत्त गजराज के मस्तक को विदार देता है उसी तरह इस स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा विनष्ट कर दिये जाते हैं। गा०९-१० ॥ उ उ भयमाणं, फ सिदियदुईत इत्यादि। જે પ્રાણીઓ સ્પશેન્દ્રિયને વશ થાય છે, તેઓ પોતાની સ્પશેન્દ્રિયની લુપતાથી હેમંત વગેરે દરેકે દરેક ઋતુઓના સુખે ભેગવે છે. તેમજ સંપત્તિવાળાઓના હદય અને મનસુખદ સ્પર્શોમાં આસક્ત બનીને રહે છે. આમ કરતાં કરતાં જ્યારે તેમની આ સ્પર્શેન્દ્રિય દુદત બની જાય છે ત્યારે તે પ્રાણીઓ ( હાથિણી) ને સ્પર્શવામાં લુબ્ધ બનેલા મત્ત ગજરાજના મસ્તકને વિદીયું કરી નાખે છે તેમજ આ સ્પર્શેન્દ્રિય વડે વિનષ્ટ કરી नामपामा मावे छे. ॥ 1. ८-१० ॥ - - - - श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ जाताधर्मकथाजस्त्रे उउभयमाणसुहेसु य सविभवाहिययमणनिव्वुइकरेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १५ ॥ टीका-शब्दादिविपयेष्वनासक्तानां वशार्त्तमरणं न भवतीति पञ्चभिर्गा थाभिः प्राह- कलरिभिय' इत्यादि । कलरिभितमधुरतन्त्रीतलतालवंशककुदाभिरामेषु । शब्देषु ये न गृद्धा,-वार्तमरणं न ते नियन्ते ॥ ११ ॥ स्तनजघनवदनकरचरणनयन गर्वितविलासितगतिषु । रूपेषु ये न रक्ता,-शार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥ अगुरुवरप्रवरधूपन,-ऋतुजमाल्यानुलेपनविधिषु । गन्धेषु ये न गृद्धा,-चशार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १३ ॥ तिक्तकटुककषायाम्ल, मधुरबहुखाद्यपेय लेह्येषु । आस्वादेषु न गृद्धा,-शामरणं न ते म्रियन्ते ॥ १४ ।। ऋतुभज्यमानसुखेषु च, सविभव हृदयमनोनितिकरेषु । स्पर्शेषु ये न गृद्धा-वशात्तैमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १५ ॥ आसाम् व्याख्या सुगमा ॥ १५ ॥ मू० ६ ॥ (कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, तित्तकडुय, उउभयमाण, इत्यादि। इन गाथाओं द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते हैं कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं बनते हैं उनका वशातमरण नहीं होता है। इन गाथाओं की व्याख्या सुगम है! जो प्राणी कर्णइन्द्रिय के विषय नूत शब्द में, चक्षुइन्द्रिय के विषयभूत रूप में नासिका इन्द्रिय के विषयभूत गंध में जिह्वाइन्द्रिय के विषयभूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभूत स्पर्श में आसक्तगृद्ध-नहीं होते हैं । गा० ११-१५ ।। कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, तित कडुय उ उ भयमाण, इत्यादि । આ ગાથાઓ વડે સૂત્રકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાંચે ઈન્દ્રિયોના વિષયમાં આસક્ત થતાં નથી, તેમનું વશાર્તમરણ થતું नथी, मा यामानी व्याया स२ छे. જે પ્રાણી કર્ણ ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપમાં, નાસિકા ઈન્દ્રિયના, વિષયભૂત બંધમાં. જીવા ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમાં તેમજ સ્પર્શન ઈદ્રિયના વિષય ભૂત સ્પર્શમાં અત્યંત આસક્ત-વૃદ્ધ થતા નથી, તેઓ વશામરણને પ્રાપ્ત ४२ता नथी. ॥ .. ११-१५ ॥ श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ आकीर्णाश्वदाष्टन्तिकयाजना मूलम् -सदेसु य भक्ष्यपावएस सोयविसयं उवागएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १६ ॥ रूवे भद्दपावसु चक्खुविसय उवगएसु । तुट्टेण व रुट्ठेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १७ ॥ गंधेसु य भद्दपावसु घाणविसयं उवागएसु । तुट्ठेण व रुट्टेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १८ ॥ रसेसु य भद्दय पावसु जिब्भविसय उवगएसु । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १९ ॥ फासेसु य भपावसु कार्याविसयं उवगएसु । तुट्ठेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ २० ॥ एवं खलु जंबू ! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते त्तिवेमि । ६३५ ॥ सतरसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ १७ ॥ टीका - अनुकूल प्रतिकूलशब्दादिषु रागद्वेषवर्जनं पञ्चभिर्गायाभिः प्रतिबोध यति - सद्देसु य' इत्यादि । शब्देषु च भद्रकपापकेषु श्रोत्र विषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १६ ॥ सहेसुय; फासेय इत्यादि । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अयभट्ठे पण्णत्ते तिबेमि ॥ अब सूत्रकार इन पांच गाथाओं द्वारा अनुकूल प्रतिकूल शब्दादि विषयों में श्रमणजन को कभी भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये - इस इत्यादि सद्देसुय, फासे एवं खलु जंबू ! समणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेर्ण सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्तेति बेमि || સૂત્રકાર હવે આ પાંચ ગાથાઓ વડે એ વાત સ્પષ્ટ કરવા ઈચ્છે છે કે અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ શબ્દાદિ વિષયામાં શ્રમણજનાને કદાપિ રાગ-દ્વેષ નહિ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे रूपेषु च भद्रकपापकेषु, चक्षुर्विषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १७ ॥ १-भद्रकपापकेषु अनुकूल-प्रतिकूलेषु ।। गन्धेषु च भद्रकपापकेषु, घ्राणविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १८ ॥ रसेषु च भद्रकपापकेषु, जिह्वाविषयमुपगतेषु। तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् । १९ ।। स्पर्शेषु च भद्रकपापकेषु, कायविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ २० ॥ विषय को समझाते हैं यहां भद्रक शब्द का अर्थ अनुकूल और पापक शब्द का अर्थ प्रतिकूल है । जब शब्द रूप विषय श्रोत्रेन्द्रिय का हो तो उस समय चाहे वह मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ हो कैसा ही क्यों न हो उसमें श्रमण-साधु-को कभी भी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा० ॥१६॥ चक्षुइन्द्रिय का विषयभूतरूप जब उस इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने में आवे-तब वह चाहे मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ हो उसमें श्रमण जन को कभी भी हर्ष विषाद-तुष्ट रुष्ट नहीं होना चाहिये ॥ गा० १७॥ मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ गंध जब घ्राणइन्द्रिय का विषय हो तब साधु को उस विषय में कभी भी तुष्ट रुष्ट नहीं होना चाहिये ॥ गा० १८॥ मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ रस जिह्वाइन्द्रिय का विषय हो-तब उसमें श्रमण जन को कभी भी तुष्ट और रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा० १९॥ કરવું જોઈએ અહીં ભદ્રક શબ્દનો અર્થ અનુકૂળ અને પાપક શબ્દનો અર્થ પ્રતિકૂળ છે. જ્યારે શબ્દરૂપ વિષય શ્રોત્ર ઈન્દ્રિયને હેય તે ભલે તે મનેસ હોય કે અમને હેય, ગમે તે કેમ ન હોય, તેમાં શ્રમણ-સાધુ-ને કદાપિ તુષ્ટ કે રૂષ્ટ થવું જોઈએ નહિ. ગા. ૧૬ | ચક્ષુ ઈન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપ જ્યારે તે ઇન્દ્રિય વડે ગ્રહણ કરવામાં આવે ત્યારે તે મનેજ્ઞ હોય કે અમને જ્ઞ હોય, શ્રમણને કદાપિ તેમાં હર્ષ. વિષાદ-તુષ્ટ-રૂષ્ટ નહિ થવું જોઈએ કે ગા. ૧૭ છે મનોજ્ઞ અને અમનેશ ગંધ જ્યારે ઘાણ ઈન્દ્રિયનો વિષય હોય ત્યારે સાધુને તે વિષયમાં કદાપિ તુષ્ટ કે રૂટ નહિ થવું જોઈએ. જે ૧૮ મનેઝ અથવા તે અમનેઝ રસ જ્યારે જીહુવા ઈન્દ્રિયને વિષય હોય ત્યારે તેમાં શ્રમણ-જનને કદાપિ તુષ્ટ અને પુષ્ટ થવું જોઈએ નહિ. છે ગા. ૧૯ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणो टी० अ० १७ माकीणाश्वदाष्टान्तिकयोजना ६३७ ' सदेसु य ' इत्यादि, गाथा पञ्चकं सुगमम् ॥ सुधर्मास्वामी माह-' एवं खलु हे खम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन सप्तदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य असमर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः। इति ब्रवीमि-व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०७॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक - प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचितायां श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्यानगारधर्माम तवर्षिण्याख्यायां व्याख्यायां सप्तदशमध्ययनं समाप्तं ॥ १७॥ ८ आठ प्रकार का स्पर्श चाहे वह अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल होजब २ स्पर्शन इन्द्रिय का विषय हो उसमें साधु को किसी भी तरह से कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट नहीं होना चाहिये ॥२०॥ इस प्रकार हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्रिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं इस सत्रहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा में उन्हीं के कहे अनुसार कह रहा हूँ। श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता धर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगार धर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का सत्रहवां अध्ययन समाप्त ॥ १७॥ ૮ જાતને સ્પર્શ–ભલે તે અનુકૂળ કે પ્રતિકૂળ ગમે તે કેમ ન હોય જ્યારે જ્યારે તે સ્પર્શન ઈન્દ્રિયને વિષય હોય તેમાં સાધુને કઈ પણ રીતે કદાપિ તુષ્ટ અને રૂટ થવું જોઈએ નહિ કે ગા. ૨૦ છે આ પ્રમાણે હે જંબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવ્યું છે-આ સત્તરમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. આવું હું તેમના કહ્યા મુજબ જ તમને કહી રહ્યો છું. શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણ व्याभ्यानु सत्तरभु मध्ययन समास ॥ १७ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथाष्टादशमध्ययनम् ॥ अथाष्टादशमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् अध्ययने इन्द्रियवशवर्तिनाम् वशीकृतेन्द्रियाणां च अनर्थाौँ प्रोक्तो, इह तु लोभावि. ष्टानां लोभरहितनां च तावेवोच्येते, इत्येवं पूर्वेण सह संबद्धमिदमध्ययनम् , तस्येदमादिम सूत्रम्-' जइणं भंते' इत्यादि मूलम्-जइ णं भंते ! समणेणंजाव संपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते, अटारमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते ? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहं णामं णयरे होत्था । वण्णओ० । तत्थ णं धण्णे णामं सत्थवाहे । भद्दाभारिया तस्त णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भदाए अत्तया पंचसत्थवाह अठारहवां अध्ययन प्रारंभ सुंसमादारिका का वर्णन सत्रहवां अध्ययन समाप्त हो चुका हैं। अब १८ वां अध्ययन प्रारंभ होता है। इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संबंध है-कि पूर्व अध्ययन में इन्द्रियवशवर्ती तथा वशकृत इन्द्रियवाले जीवों को अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अब इस अध्ययन में सूत्रकार यह कहेंगे कि जो लोभ कषायसे युक्त तथा लोभ कषाय से रहित जीव होते हैं वे अनर्थ और अर्थ प्राप्ति से योग्य होते हैं। इस अध्ययन का सर्व प्रथम सूत्र यह है-' जइणं भंते' इत्यादि। અઢારમા અધ્યયનને પ્રારંભ સંસમાદારિકાનું વર્ણન સત્તરમું અધ્યયન પુરું થયું છે. હવે અઢારમા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. આ અધ્યયનનો પહેલા અધ્યયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે પહેલા અધ્યયનમાં ઈન્દ્રિય વશવર્તી તેમજ વશીકૃત ઈન્દ્રિયેવાળા જીવને અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વિશે કહેવામાં આવ્યું છે. સૂત્રકાર હવે આ અધ્યયનમાં આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરશે કે જે જીવ લેભકષાયથી તેમજ ભકષાયથી રહિત હોય છે. તેઓ અનર્થ અને અર્થ પ્રાપ્તિને લાયક ઠરે છે. આ અધ્યयननु ५९ सूत्र 20 छे-जइण भते समणेण महावीरेण इत्यादि श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम् दारगाहोत्था,तं जहा-धण्णे धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरखिए। तस्स णं धपणस्त सत्थवाहस्सधूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमाणामं दारिया होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स णं धण्णास सत्थवाहस्स चिलाए नामं दासचेडे होत्था, अहीणपंचिंदियसरीरे मंसोवचिए बालकीलाव. णकुसले यावि होत्था। तएणं से चिलाए दासचेडे सुसुमाएदारियाए बालग्गाहे जाए यावि होत्था । सुसुमं दारियं कडीए गिण्हइ, गिण्हित्ता, बहुहिं दारएहि यदारियाहि य बालेहिं बालियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं आभिरममाणे २ विहरइ। तएणं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहुर्ण दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहग्इ, एवं वइ आगेलियाओ, तेंदुसए, पोतुल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणप्रल्लालंकारं अवहरइ अप्पेगइए आउस्सइ, एवं अवहसइ निच्छोडेइ, निब्भच्छेइ तज्जेइ, अप्पेगइए तालेइ । तएणं ते बहवे दारगा य ६ जाव रोयमाणा य कंदमाणा य साणं २ अम्मापिऊणं णिवेदेति । तएणं तेसिं बहूणं दारगाणय ६ जाव अम्मापियरो जेणेव धन्ने सस्थवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धन्ने सत्थवाहे बहूहिं खिजणाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणाहिय रुंटमाणाहि य उवलंभमाणा य धण्णस्स एयमद्रं णिवेदोंत ।। सू० १ ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे टीका-' जहणं भन्ते ! ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावन्मोक्षं संप्राप्तेन सप्तदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः जितेन्द्रियाऽजितेन्द्रियाणामर्थानर्थप्राप्तिरूपो भावः प्रज्ञप्तः = मरूपितः, अष्टादशस्य तु ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन यावन्मोक्षं सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १ सुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नाम नगरमासीत्, 'वण्णओ ' वर्णकः- नगरवर्णनं पूर्ववद् विज्ञेयम् तत्र खलु धन्यो नाम सार्थवाहः परिवसति । तस्य भद्रा नाम भार्याऽसीत् । तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य पुत्राः, भद्राया आत्मजाः पञ्च सार्थ वाहदारका आसन । तेषां नामान्याह - ' तं जहा ' तद्यथा ૨૪૦ टीकार्थ- जंबू स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि- जइणं भंते ! समणेण जात्र संपतेग सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अग्रमट्ठे पण्णत्ते अट्ठार समस्म णमंते णायज्झयणस्स समणें जाव संपते के अड्डे पण्णते ? ) हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीर ने जो कि सिद्धिगनि नाम क स्थान को प्राप्त कर चुके हैं मत्रहवे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो उन्हीं सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने १८ वें ज्ञानाध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? ( एवं खलु जंबू 1) इस प्रकार जंबू स्वामी के पूछने पर सुधस्वामी उनसे कहते हैं कि जंबू ! सुनों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था । वण्णओ० तत्थणं घण्णे णामं सत्थवाहे भद्दा भारिया - तस्सणं घण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए अत्तया पंच सत्थवाहदारगा होत्था, तं जहा - ટીકા”—જ. સ્વામી શ્રી સુધર્માં સ્વામીને પૂછે છે કે( जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्ते सत्तरसमस्त नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते अट्ठारसमस्स णं भंते णायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते ? ) હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે-જેએ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકયા છે-સત્તરમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપે અથ નિરૂપિત કર્યાં છે તે તે જ સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે ૧૮ મા જ્ઞાતાધ્યયનના શો અથ પ્રરૂપિત કર્યો છે ? ( एवं खलु जंबू ! ) या प्रमाणे मंजू स्वाभीये प्रश्न पूछयो त्यारमाह શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હૈ જબૂ! સાંભળેા, તમારા પ્રશ્નના જવાબ આ પ્રમાણે છે— ( तेणं काळेणं तेनं समरणं रायगिदे णामं णयरे होत्था ! वण्णओ० तत्थणं धणे णामं सत्थवाहे - भद्दा भारिया - तस्स णं घण्णस्स सत्यवाहरस पुत्ता भद्दाए શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० 40 १८ सुसमादारिकावर्णनम् धनः १ धनपाल' २ धनदेवः ३ धनगोपः ४ धनरक्षितः ५ इति । तस्या खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य दुहिता भद्रायाः सार्थवाह्या आत्मजा धनादीनां पञ्चानां पुत्राणाम् ' अणुमग्गजाइया' अनुमार्गजातिका-जाता एव जातिका, अनुमार्ग जातिका अनुमार्गजातिका-पश्चाज्जाता सुंमुमा नाम दारिका आसीत् । कीदृशी सा ?-'सूमालपाणिपाया' सुकुमार पाणिपादा-कोमलकरचरणा । तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य चिलातो नाम दासचेटः दासपुत्र आसीत् । योहि 'अहिणधण्णे २- धणपाले-२ धणदेवे ३, धणगोवे-४ धणरक्खिए-५) उस काल और उस समयमें राजगृह नाम का नगर था। इसका वर्णन पहले जैसा हो जानना चाहिये। उस नगर में धन्य नामका सार्थवाह रहता था। इसकी पत्नी का नाम भद्रा था। इस भद्रा भार्या से उत्पन्न हुए धन्य सार्थवाह के ये पांच पुत्र थे-धन-१ धनपाल-२ धनदेव-३ धनगोप-४ और धनरक्षित-५।। (तस्सणं धण्णस्स सत्यवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमा णामं दारिया, होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स चिलाएणामं दासचेडे होत्था, अहं णं पंचेंदिय सरीरे मंसोवचिए, बालकीलावणकुसले यावि होत्था ) इस धन्य सार्थवाह के भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न एक सुंसुमा नामकी पुत्री थीजो धनादिक पांच पुत्रों के पीछे उत्पन्न हुई थी। इसके कर, चरण बड़े कोमल थे। इस धन्य सार्थवाह का एक दासचेट-दास पुत्र-था-जिस अत्तया पंच सत्यवाहदारगा होत्था, तं जहा-धण्णे १, धणपाले २, धणदेवे ३, धणगोवे-४, धणरक्खिए-५ ) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેનું વર્ણન પહેલાની જેમ સમજી લેવું જોઈએ. તે નગરમાં ધન્ય નામે સાર્થવાહ રહેતે હતો. તેની પત્નીનું નામ ભદ્રા હતું. તે ભદ્રા ભાર્યાના ગર્ભથી જન્મ પામેલા પાંચ પુત્રો હતા, તેમના नाम २ प्रमाणे छे-धन-1,धनपास-२,धनद्वेष-3,धनगर-४,मने एनक्षित-५ (तस्स गंधण्णस्स सत्थवाहस्स धृया भदाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमा णामं दारिया, होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स गंधण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाए णामं दासचेडे होत्था, अहं णं पंचेदिय सरीरे मंसोवचिए, बालकीलावणकुसले यावि होत्था) તે ધન્ય સાર્થવાહની ભદ્રા–ભાર્યાને ગભથી જન્મ પામેલી સુંસુમા નામે એક પુત્રી હતી. તે ધન વગેરે પોતાના ભાઈઓ બાદ ઉત્પન્ન થઈ હતી. તેના હાથ-પગ બહુ જ કોમળ હતા. તે ધન્યસાર્થવાહને એક દાસીપુત્ર હતો. તેનું શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - आताधर्मकथानो पचिंदियसरीरे ' अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरः पतिपूर्णसर्वेन्द्रिशरीरः, 'मंसोवचिए । मांसोपचितः-मांसैरुपचितः, पुष्टशरीर इत्यर्थः, पुनः बालकीलावणकुसले' बालक्रीडनकुशलश्चापि आसीत् । ततः खलु स दासचेटः सुसुमाया दारिकायाः 'बालग्गाहे ' बालग्राहः यो हि बालंक्रीडयितुं नियुक्तो भृत्यः स 'बालग्राहः' इत्युच्यते जाताश्चाप्यभवत् । सहि चिलातः सुसुमा दारिकां कटयां गृह्णाति, गृहीत्वा, बहुभिरिकैश्च दारिकाभिश्च बालकैश्च बालिकाभिश्च, डिम्भकैश्च डिम्भिकाभिश्च कुमारैश्च कुमारिकाभिश्च सार्द्धम्=दारकडिभकबालककुमाराणां अल्प, बहु, बहुतर कालकृतभेदो विज्ञेयः, अभिरममाणः २ = पुनः पुनः क्रीडन् विहरति । ततः खलु स चिलातो दासचेटः तेषां बहूनां — दाराण जाव ' दारकाणां यावत्-दारकाणां दारिकाणां डिम्भकानां डिम्भिकानां कुमाराणां कुमारिकाणां का नाम चिलात था। जो प्रमाणोपेत पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाला था। मांसोपचित था पुष्ट देहवाला था। यह बालकों को खिलाने में विशेष कुशल था । ( तएणं से चिलाए दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यावि होत्था सुंसुमदारियं कडीए गिण्हइ, गिण्हित्ता बहहिं, दारएहिं य दारियाहि य........विहरह-तेसिं बहूणं दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एवं वद्दए आडोलियाओ तेंदुझए पोतुल्लए साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणमल्लालंकारं अवहरइ, अप्पेगइयाए आउस्सइ, एवं अवहरइ, निच्छोडेइ, निन्भच्छेइ तज्जेइ अप्पेगइए तालेइ ) इसलिये वह दासचेट सुसमा दारिकाके खिलाने के लिये नियुक्त हो गया। अतः वह चिलात दास चेटक सुंसमादारिका को गोदी में लेकर अनेक दारक दारिकाओं के साथ बालक बालिकाओं के साथ डिंभक डिंभिकों के साथ और कुमार कुमारिकों નામ ચિલાત હતું. તે સપ્રમાણ પાંચે ઈન્દ્રિયોથી પરિપૂર્ણ શરીરવાળે હતે. તે માંસલ તેમજ પુષ્ટ શરીરવાળો હતો તે બાળકને રમાડવામાં સવિશેષચતુર હતે. (तएणं से विलाए दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यावि होत्था सुसुम दारियं कडीए गिण्हइ, गिण्हित्ता बहूहिं, दारएहि य दारियाहि य विहरइ तेर्सि बहूणं दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एवं वद्दए आडोलियाओ तेंदुरुए पोत्तुल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणं मल्लालंकारं अवहरइ, अप्पेगइए, आउस्सइ, एवं बहसइ, निच्छे डेइ, निब्भन्छेइ, तज्जेइ, अप्पेगइए तालेइ) તેથી તે દાસર સુંસમાં દારિકાને રમાડવા માટે નિયુક્ત કરવામાં આવ્યું. આ પ્રમાણે તે ચિલાત દાસ ચેરક સંસમા દારિકાને ખેાળામાં બેસાહીને ઘણું દારક દારિકાઓની સાથે બાળક તેમજ બાળાઓની સાથે ડિભક श्री शताधर्म अथांग सूत्र :03 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम् ६४३ च मध्ये 'अप्येगइयाणं' अप्ये केषाम् ‘खुल्लए' क्षुल्लकान् कपर्दकविशेषान् 'कोडी' इति भाषा प्रसिद्धान अपहरति-चोरयति। एवं 'वट्टए' वर्तकान्-जत्वादिमयगोलकान् 'आडोलियाओ' आडोलिका इति नाम्नाप्रसिद्वान् बाल क्रीडनवस्तुविशेषान्'तेंदूसए' देशीशब्दोऽयम्-गेन्दुकान् ‘पोत्तुल्लए' वस्त्रमयपुत्तलिकाः, 'साडोल्लए ' उत्त. रीयवस्त्राणि चोरयति । तथा अप्येकेषाम् आभरणमाल्यालङ्कारान् अपहरति । अनन्तरम् ' अप्पेगहए ' अप्येककान् ‘आउस्सइ ' आक्रुश्यति-निष्ठुरवचनेन ' एवं ' अवहसई' अपहसति अपशब्दमुच्चार्य हास्यं करोति, 'निच्छोडेइ ' नि छोटयति* यदि त्वं किमपि वदिष्यसि तदा त्वां बहिनिष्काशयिष्यामीत्यादि शब्देस्तान् भोषयति, तथा ‘णिब्भच्छेइ' निर्भर्त्सयति-तेषां निर्भर्त्सनां करोति, एवं 'तज्जेइ ' तर्जयति · मया कृतं किमपिकार्य यदि स्त्र मातापितृभ्यो यूयं वदिष्यथ के साथ बार २ खेलने में लगा रहता। खेलते २ वह चिलात दासचेटक उन अनेक दारक दारिक, डिम्भका, डिम्भिका, कुमार कुमारिकाओं में से कितनेक बच्चों के खेलने के साधन भूत कपर्दक विशेषों को कौडियों को चुरा लेता कितनेक के जतुके बने हुए चपेटों को, कितनेक के अडोलिक नाम से प्रसिद्ध खिलोनों को, कितनेक बच्चों की गेंदों को कितनेक बच्चों की वस्त्र के बनी हुई गुडियों को, तथा कितनेक बच्चों के उत्तरीयवस्त्रों-को फरियों को चुरालेता था। कितनेक बच्चों के आभरणों को मालाओं को और अलंकारों को भी चुरालिया करता था कितनेक बच्चों को गाली देता कितनेक बच्चों की वह निष्ठुर बचनों को उच्चारण कर हँसी मजाक करने लग जाता था। यदि तू कुछ कहेगातो मैं तुझे यहाँ से बाहिर निकाल दूंगा इत्यादि शब्दों से कितनेक बच्चों को वह डरा दिया करता था। कितनेक बच्चों को અને ડિભિકઓ સાથે અને કુમાર કુમારિકાઓની સાથે વારંવાર રમવામાં જ ચૂંટી રહેતો હતો. તે ચિલાત દાસર રમતાં રમતાં ઘણાં દારક-દારિક, વિભક-ડિભિક, કુમાર-કુમારિકાઓમાંથી કેટલાક બાળકનાં રમવાનાં સાધન કપર્દક વિશેષને-કેડીઓને ચરી લેતે, કેટલાકનાં લાખના બનેલા ચપેટાએને, કેટલાકનાં અડલિક નામથી પ્રસિદ્ધ એવા રમકડાંઓને, કેટલાંક બાળકોની દડીઓને, કેટલાંક બાળકોની વસ્ત્રથી બનેલી ઢીંગલીઓને તેમજ કેટલાંક બાળકોના ઉત્તરીય વને ચોરી જતું હતું તે કેટલાંક બાળકના આભરણને, માળાઓને અને ઘરેણુઓને પણ ચેરી જતો હતો. તે કેટલાંક બાળકોને ગાળે દેતે અને કેટલાંક બાળકોની નિષ્ફર વચને બોલીને ઠઠા-મશ્કરી કરવા લાગતું હતું. “જો તું કંઈ પણ બેલશે તે હું તને અહીંથી બહાર કાઢી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ ताधर्मकथानो तदायुष्माकं प्राणान् अपहरिष्यामीत्येवरुपैर्वाक्यैरङ्गुलिनिर्देशपूर्वकं तेषु भीतिमुत्पादयति । तथा अप्येककान् बालकान् ‘तालेइ ' ताडयति चपेटादिभिः । ततः खलु ते बहवो दोरकश्च यावत्-कुमारिकाश्च सर्वे वाला ' रोयमाणा य' रुदन्तश्च ' कंदमाणा य' क्रन्दन्तश्च-उच्चैः स्वरेण चीत्कारं कुर्वन्तः 'साणं २' स्वेषाम् २ 'अम्मापिऊण ' अम्बापितृभ्यइदमर्थ निवेदयन्ति । ततः खलु तेषां वहूनां=दारवह नित्सित कर देता " मेरा किया हुआ कुछ भी काम यदि तुमलोग अपने माता पिता से कहोगे तो याद रखना मैं तुम्हारे प्राणों को ले लूंगा-तुम्हें जान से मार डालूंगा” इस तरह कितनेक बालकों को वह अंगुलि दिखा २ कर भयभीत कर दिया करता। कितनेक बालकों को वह थप्पड़ आदि भी मार देता। (तएणं ते बहवे दारगाय जाव रोयमाणा य कंदमाणा य ४ सायं २ अम्मापिऊणं णिवेदेति, तएणं तेसिं बहणं दारगाण य ६ जाव अम्मापिउरो जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता धणं सत्यवाहं बहूहिं खिजणाहिं य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणाय रुंटमाणाय उवलं भेमाणा य धण्णस्स एयमढे णिवेदेति) इस तरह वे अनेक दारक यावत् कुमारिकाएँ सब ही रो रो कर के आक्रंदन करके-उच्चस्वर से चीत्. कार करके-अपने २ माता पिताओं से उस दासचेटक की इस वर्ताव મૂકીશ વગેરે વચનેથી કેટલાંક બાળકને તે બીવડાવી દેતો હતે. કેટલાંક બાળકની તે ભત્સના પણ કરતા હત-મારી કઈ પણ વાત તમે તમારા માતાપિતાને કહેશો તે યાદ રાખજે હું તમને જીવતા નહિ છે. તમને હું જાનથી મારી નાખીશ.” આ પ્રમાણે કેટલાંક બાળકોની સામે તે આંગળીઓ ચીપી ચીપીને બીવડાવી દેતો હતો. કેટલાંક બાળકોને તે તમારો વગેરે પણ લગાવી દેતા હતા. (तएण ते बहवे दारगा य ६ जान रोयमाणा य कंदमाणा य ४ सायं २ अम्मापिऊण णिवेदेति, तएणतेसि बहूण दोरगाण य ६ जाव अम्मापिरो जेणेय धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छ ति, उवागच्छित्तो धण्ण सत्यवाहं बहहिं खिन्ज. णाहि य रुंठणाहि य उवलंभणा हि य खिज्जमाणा य रूटमाणा य उवल भेमाणा य धण्णस्स एयम8 णिवेदेति ) આ પ્રમાણે તે ઘણું દારક યાવત્ કુમારિકાઓ રડતાં રડતાં, આકંદ ન કરતાં કરતાં, મોટા સાદે ચીત્કાર કરીને પોતપોતાનાં માતાપિતાને તે દાસચેટકની ખરાબ વર્તણુક વિષે ફરિયાદ કરવા લાગ્યાં. પિતાનાં બાળકૅને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम् ६४५ कादीनां अम्बापितरः यौव धन्यः सार्थवाहस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपोगत्य धन्यं सार्थवाहं बहुभिः · खिज्जणाहि य ' खेदनाभिश्व खेदजनकवाग्भिः 'रुंटणाहि य' रोदनाभिः साश्रुरुदितवाग्भिः, 'उलंभणाहि ' उपालम्भनाभिः किमेतदुचितम् ? भवादृशाम् ? इत्यादि वाग्भिश्च ' खेज्जमाणा' खेदयन्तः स्वखेदं प्रकाशयन्तः रूदन्त रुंटमाणा य' उपलंभमाणा य' उपालम्भयन्तश्च धन्याय सार्थवाहाय एतमर्थ-चिलातकृताऽपराधरूपमर्थ निवेदयन्ति ॥ मू०१ ॥ मूलम्-तएणं से धणे सत्थवाहे चिलायं दासचेडं एयमद्रं भुजो भुजो णिवारेइं, णो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमइ। तएणं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारगाण य ६ अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ। तएणं ते बहवे दारगा य जाव रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं जाव णिवेदति । तएणं ते आसुरुत्ता जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव की शिकायत करने लगें । अपने २ बालकों के मुख से इस प्रकार की दासचेटक थी हरकत सुनकर उन दारक आदि को के माता पिता जहां धन्य सार्थवाह होता था वहां आते और आकर के धन्य सार्थवाह को अनेक खेदजनक वचनों द्वारा रोते २ उपालंभ-उलहना दिया करतेक्या आप जैसे व्यक्तियों को यह उचित-है-इस तरह से उससे कहा करते। इस तरह वे खेदजनक तथा अश्रुभरकर कही गई वाणियों द्वारा अपना खेदप्रकाशित करते हुए रोते हुए एवं उलहना देते हुए धन्यसार्थ. वाह के लिये चिलातकृत अपराध रूप अ) की निवेदना करते ॥सू०१॥ મુખેથી આ પ્રમાણે દાસ ચેટકની ખરાબ વર્તણુક વિષેની વિગત સાંભળીને તે દારક વગેરેનાં માતાપિતા જ્યાં ધન્યસાર્થવાહ હતો ત્યાં આવતા અને આવીને ધન્યસાર્થવાહને ઘણું કઠેર વચનોથી રડતાં રડતાં ઠપકો આપતાં રહેતાં હતાં. શું તમારી જેવી વ્યક્તિને આ વાત શેભે છે?” આ પ્રમાણે તે કહ્યાં કરતાં હતાં આ પ્રમાણે તેઓ ખેદજનક તેમજ અશ્રુભીની હાલતમાં કહેલી વાણીએ વડે પિતાનું દુઃખ પ્રકટ કરતાં, રડતાં તેમજ ઠપકે આપતાં ધન્ય સાર્થવાહને ચિલાતે જે કંઈ ખરાબ વર્તણુક કરી હોય તે બદલ ફરિયાદ કરતાં રહેતાં હતાં, છે સૂત્ર ૧ | श्री शताधर्म अथांग सूत्र :03 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाताधर्मकथाजसूत्रे उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहहिं खेजणाहिं जाव एयमद्रं णिवेदेति । तएणं से धण्णे सत्थवाहे बहूणं दारगाणं ६ अम्मापिऊणं अंतिए एयम, सोच्चा आसुरुत्ते चिलायं दासचेडं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ, उद्धंसइ, णिब्भच्छेइ निच्छोडेइ, तजेइ उच्चावयाहि तालणाहिं तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छभइ । तएणं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छुढे समाणे रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव पहेसु देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जूयखलएसु य वेसाघरेसु य पाणघरेसु य सुहं सुहेणंपरिवड्डइ ॥सू० २॥ टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः चिलातं दासचेटम् ' एयमट्ठः' एतमर्थम् एतस्मादर्थात् दारकादीनां कपर्दकापहरणादिरूपोदर्थात् भूयोभूयो निवारयति । नो चैव खलु दासचेट एतस्माद्दुष्कृत्यादुपरमते । ततः खलु स चिलातो दासचेटः तेषां बहूनां 'दारगाण य ' दारकाणां चदार तएणं से धण्णे सत्थवाहे इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं से धण्णे सत्यवाहे) इसके बाद उस धन्यसार्थवाहने (चिलायं दासचेडं ) चिलात दास पुत्र को (एयमद्रं भुज्जो २ णिवारेइ) चालकों के कपर्दक आदि चुराने रूप अर्थ से वार २ मना किया, परन्तु (णो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमइ ) वह चिलात दारक उस काम से विरक्त नहीं हुआ। (तएणं से दासचेडे तेसिं बहूणं दारगाण य ६ तपणं से घण्णे सत्थवाहे इत्यादि 14-(तएणं से घण्णे सत्थव हे) त्या२मा६ ते धन्य साया (चिलाय दास चेड ) nिald सपुत्रने (एयमढे भुज्जो २ णिवारेइ ) भागहीनी ।। परेने यारी rqn मस पारा२ भनाई ४२री, परंतु ( णो चेव णं चिलाए वासचेडे उवरमई) a and l२४ पातानी १२.५ छ।डीने सुध नलि. (तएण से चिलाए दासचेडे तेसि बहूण दारगाण य ६ अप्पेगइयाण' श्री शताधर्म अथांग सूत्र : ०3 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१८ सुसमादारिकावर्णनम् ६४७ कादीनां मध्ये अप्येकेषां 'खुल्लर ' क्षुल्लकान् कपर्दकविशेषान् अपहरति 'जाव तालेइ' यावत्ताड़यति-पूर्वोक्तक्रमेण एव कपर्दकाद्यपहरणं यावतर्जनं ताडनं च करोति । ततः खलु बहवो दारकाच दारकादयो रुदन्तश्च यावत् स्वेषां २ अम्बापितभ्यो निवेदयन्ति । ततः खलु ते आशुरुताः-स्व पुत्रवचनं श्रु वा झटिति क्रोधाविष्टमानसाः यौव धन्यः सार्थवाहः तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य बहुभिः ' खेज्जणाहि जाव एयम' खेदनाभिर्यावत् एतमर्थम्-खेदसंम्चनाभिर्यावन् उपालम्भनयुक्ताभिर्वाग्भिः चिलातदासचेटक कृताऽपराधलक्षणम् अर्थम् निवेदयन्ति । ततः खलु धन्यः सार्थ वाहो बहूनां 'दारगाणं' दारकाणां ६-दारकादीनाम अम्बापितृणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य आशुरुतः चिलातः दासचेटम् 'उच्चावचाभिः अनेकविधाभिः ' आउमणाहिं ' आक्रोशनाभिः कोपननर्वचनैः 'आउसइ' आक्रुश्यति-पाक्षिपति — उद्धंसइ' उद्धर्ष यति-नामगोत्रादिनाधः पातयति-निन्दतीत्यर्थः । नेत्रमुखादि वक्रीकमणेन ‘णिभच्छेइ ' निर्भयति= अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ, तएण ते यहवे दारगा य जाव रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं जाव णिवेदेति) इस तरह समझाने पर भी वह विलात दासचेट उन अनेक दारकों आदि में से कितनेक दारक आदिकों के कपर्दक (कौडी) विशेषों को चुराता रहा यावत् उन्हें ताडित करता रहा-मारता पीटता रहा। और वे बालक आदि भी रोते हुए अपने २ माता पिताओं से उस के अपराध को जा २ कर कह देते रहे । (तएणं ते आतुरुत्ता जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, बहहिं खेज्जाणाहिं जाव एयम, निवेति. तएणं से धणे सत्यवाहे बहूणं दारगाणं अम्मापिऊणं अंतिए एयमढें सोच्चा आसुरूत्ते चिलायदासचेडं उच्चावयाहिं आउमणाहिं आउसड उद्धंसइ णिब्भच्छेइ, ) इस प्रकार अपने २ बालकों के मुख से वार २ खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ, तरण ते बहवे दारगा य जोव रोयमाणा य जाव अम्मापिऊण जाव णिवेदेति ) આ પ્રમાણે સમજાવવા છતાં તે ચિલાત દાસચેટક ઘણા દારક વગે જેમાં કેટલાક દારકે વગેરેની કેડીઓને ચેરત જ રહ્યો યાવત તે બાળકને તાડિત કરતો રહ્યો, તેમજ મારો પીટતે રહ્યો. અને તે બાળકો વગેરે પણ રડતાં રડતાં પિતપોતાનાં માતાપિતાને આની ફરિયાદ કરતાં જ રહ્યાં. (तएणते आसुरुत्ता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता बहूहिं खेज्जणाहि जाव एयम? णिवेदेति, तएण से धण्णे सत्यवाहे बहूण दारगाण अम्मापिऊण तिए एयम सोचा आसुरूत्ते चिलाय दासचेडं उच्चावयाहि आउसणाहिं आउसइ उद्धसइ, णिभच्छेइ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ज्ञाताधर्मकथानस्ने तिरस्करोति, 'निच्छोडेइ' निश्छोटयति-त्यजति, ' तज्जेइ' तर्ज यति= 'निस्सर मम गृहात नोवेत्त्वां ताडयिष्यामि' इत्यादि वनेन भत्सयति ' उच्चा. वयाहि तालणाहिं । उच्चावचाभिर्यष्टिमुष्टयाघनेकविधाभिस्ताडनाभिः । तालेइ' ताडयति 'साभो गिहाओ' स्वस्माद् गृहात् ‘णिच्छुभइ ' निक्षिपति-निः सारयति । ततः खलु स चिलातो दासचेटः तेन सार्थवाहेन स्वस्माद् गृहात 'णिच्छूढे ' निक्षिप्तः=निः सारितः सन् राजगृहे नगरे सिंघाडग जाव गहेसु श्रृङ्गाटक यावन्महापथपथेषु चतुष्पथादिषु सर्वत्र स्थलेषु, देवकुलेषु च सभासु च चिलात दासचेटक की पूर्वोक्त अपराधों को जघ २ वे सुना करते तय वे गुस्से में भर २ कर जहां धन्यसार्थवाह होता वहां चले जाते रहे । और वहां जाकर बडे खेद के साथ रोते हुए अपने २ दुःखों को प्रकट करते रहे इस तरह पार २ उन दारक आदि के माता पिताओं के मुख से इस दासचेटक के दुष्कृत्य को सुनकर वह धन्य सार्थवाह क्रोध में आकर उस दासचेटक चिलात को अनेक विधकोप जनक ऊँचे नीचे शब्दों से धिक्कार ने लगते थे उसका नाम गोत्र आदि की निंदा करने लग जाते थे। नेत्र, मुग्व, आदि को टेडा करके उसका तिरस्कार भी करते थे। (णिच्छोडेइ, तज्जेइ, उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छुभद, तएणं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छूढे समाणे रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव पहेलु देवकुलेप्सु जाव सभासु આ પ્રમાણે પોતપોતાનાં બાળકને મુખેથી વારંવાર ચિલત દાસચેટકની ફરિયાદે જયારે જયારે તેઓ સાંભળતાં ત્યારે ત્યારે તેઓ ગુસ્સે થઈને જ્યાં ધ સાર્થવાહ હતા ત્યાં જતા હતા અને ત્યાં જઈને તેઓ બહુ જ દુઃખની સાથે રડતાં રડતાં પિતપોતાના દુઃખે ને પ્રકટ કરતા રહેતા હતા. આ પ્રમાણે વારંવાર તે દારક વગેરેના માતાપિતાના મુખથી તે દાસપેટની ખરાબ વર્તણુક વિષેની વિગત સાંભળીને તે ધન્યસાર્થવાહ ક્રોધમાં ભરાઈને તે દાસચેટક ચિલાતને ઘણું કોધ ઉત્પન્ન કરે તેવા ખરાબ વચનેથી ધિક્કારવા લાગતું હતું તેમજ તેનાં નામ ગોત્ર વગેરેની નિંદા કરવા લાગતું હતું. આંખે સુખ વગેરે બાડીને તેને તિરસ્કાર પણ કરતા રહેતા હતા. ( णिच्छोडे, तज्जेइ, उच्चावयाहि तालणाहि तालेइ, साओ गिहाओ णि छभइ, तएणं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छुडे समाणे गयगिहे जयरे सिंघाडग ज व पहेसु देवकुलेसु जाव सभासु य पवासु य जूय खलएसु य वेसा घरेसु य पाणधरेसु य सुहं सुद्देण' परिवद्धढइ) श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ संसभादारिकाचरितनिरूपणम् ६४९ प्रपासु-पानीयशालासु च 'जूय खलएसु' द्यूतखलकेषु-द्यूतक्रीडनस्थानेषु च 'वेसाघरेसु' वेश्यागृहेषु च पाणघरेसु' पानगृहेषु-मद्यपानगृहेषु च सुखं सुखेन परिवडइ' परिवर्द्धते वृद्धि प्राप्नोति ।। सू०२॥ __मूलम्-तएणं से चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मज्जप्पसंगी चोजप्पसंगी मंसपसंगी जुयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि य पवासु य जूयखलएसु य वेसाघरेसु य पाणघरेसु य सुहंसुहेणं परिवडा) और यहाँ तक हुआ कि कभी २ वह उसे छोड भी देता रहा और कभी २ तू मेरे घर में से निकल जा नहीं तो मैं तुझे मारूँगा इस तरह के वचनों से उस को तिरस्कार भी कर देते थे। परन्तु जब इस की शिक्षाओं का या भय प्रदर्शक वाक्यों का उस चिलात दासचेटक पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा तब अन्त में धन्य सार्थवाह ने हताश होकर उसे अनेक विध यष्टि मुष्टि आदिकी ताडनाओं से ताडित कर अपने घर से बाहिर निकाल दिया। इस तरह जब धन्य सार्थवाह ने इसे अपने घर से बाहिर निकाल दिया-तप यह राजगृह नगरमें शृंगा. टक आदि मार्गों में अवारा (स्वच्छन्दगामी) फिरने लगा और देवकुलों में सभास्थानों में, पानीय शालाओं में-प्याऊ घरो में, जुआ खेलने के स्थानों में वेश्याओं के घरों में, और शराब पीने की जगहो में घूम फिर कर जिस किसी भी तरह से अपना पालन पोषण करने लगा ॥सू०२॥ અને છેવટે આ વાત ત્યાં સુધી પહોંચી કે કઈ કઈ વખતે તે તેને બહાર પણ કાઢી મૂકતે હતા, અને કઈ કઈ વખતે તેને આ જાતનાં વચનથી ઠપકે પણ આપતે રહેતું હતું કે તું મારા ઘરમાંથી નીકળી જા નહિ. તર તને હું મારી નાખીશ. પરંતુ જ્યારે આ જાતની શિક્ષાઓની કે ભય પ્રદર્શનની તે દાસ ચેટક ઉપર કશી અસર થઈ નહિ ત્યારે છેવટે ધન્યસાર્થવાહે હતાશ થઈને તેને લાકડી, મુક્કીઓ વગેરેથી તાડિત કરીને પોતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકશે. આ પ્રમાણે જ્યારે ધન્ય સાર્થવાહે તેને પિતાના ઘરથી બહાર કાઢી મૂકયે ત્યારે તે રાજગૃહ નગરનાં શૃંગાટક વગેરે રસ્તાઓમાં રખડેલની જેમ ભટકવા લાગ્યા અને દેવકુળમા, સભાસ્થાનમાં, પરબમાં. જગારના અડ્ડાઓમાં, વેશ્યાઓનાં ઘરોમાં અને શરાબખાનાઓમાં ભટકીને જેમ તેમ કરીને પોતાનું પાલન-પોષણ કરવા લાગે છે. સૂત્ર ૨ in શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाताधर्मकथाजसो होत्था। तएणं रायगिहस्स नयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरस्थिमे दिसीभाए सीहगुहा नामं चोरपल्ली होत्था, विसमगिरिकडगकोडंबसंनिविद्या, वंसी कलंकपागारपरिक्खित्ता छिण्णसेलविसमप्पवायफलिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदियजणणिग्गमपवसा अभितरपाणिया सुदुल्ल. भजलपेरंता सुबहुस्स वि कुवियबलस्स आयगस्स दुप्पहंसा यावि होत्था। तत्थ सीहगुहाए चोरपीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसइ अहम्मिए जाव अधम्मकेऊ समुटिए बहुणगरणिग्गयजसे सूरे दृढप्पहारी साहसिए सद्दवेही । से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्चं जाव विहरइ। तएणं से विजए तक्करे चोरसेणावई बहणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण यखत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य बालघायगाण य विसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसिं च बहूणं छिन्नभिन्नबहिराययाणं कुडंगे यावि होत्था । तएणं से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमे जणवयं बहुहि गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणेहि य खत्तखणणेहि य पंथकुट्टणेहि य उवीलेमाणे २ विद्धंसेमाणे २ णित्थाणं णिद्धणं करमाणे विहरइ । तएणं से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहुहि अस्थाभि संकीहि य चोज्जामि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम् ६५१ संकीहिय दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जूड़करेहि य परब्भवमाणे२ रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता, जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ सू०३ ॥ ___टीका-'तएणं से इत्यादि । ततः खलु स चिलातो दासचेटः 'अणोहट्टिए' अनपघटितः, यो हि दुष्कृतौ प्रवर्तमानं कमपि हस्तौ धृत्वा निवारयति, सोऽपघटकः, निवार्यमाणस्तु अपघट्टितः, अयं हि निवारयितुरभावात् अनपघट्टित:निरङ्कुशः 'अणिवारिए ' अनिवारितः, हितोपदेशकस्याभावात् अनिवारितः, 'तएणं से चिलाए दासचेडे' इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चिलाए दासचेडे) वह चिलात दासचे टक (अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई सहरप्पयारी मज्जप्पसंगी चोज्जप्पसंगी मंसप्पसंगी, जूयप्पसंगी, वेसापसंगी, परदारप्पसंगी जाए यावि होत्था ) अनपघटित-निरङ्कुश बन गया-जो दुष्कर्म में प्रवर्तमान किसी को भी हाथ पकडकर उससे निवारित कर देता है उसका नाम अपघट्टक और जो दूर किया जाता है वह अपघहित कहलाता है। निवारण कर नेवाले का अभाव होने से यह चिलात दासचेटक अनपघट्टित इसा कारण से बन गया। हितोपदेशक कोई उसका रहा नहीं अतः यह कुत्सित काम करने से पीछे नहीं हटता-इसलिये यह अनिवारित होकर जो मन में आता उसे कर डालता-अतः उद्दण्ड बन गया। स्वच्छन्द तएण से चिलाए दासचेडे इत्यादि - सार्थ-(तएण) त्या२५छ। (से चिलाए दासचेडे ) ते यिala a ( अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छदमई, सहरप्पयारी मज्जप्पसंगी, चोग्जरसंगी मंसप्पसंगी, जूयप्पसंगी, वेसारसंगी, परदारप्पसंगी, जाए यावि होत्था ) અનપતિ-સ્વચ્છદ બની ગયે, દુષ્કર્મમાં પડેલા ગમે તેને જે હાથ પકડીને તેમાંથી તેને દૂર કરે છે તેનું નામ અપઘટક અને જે દૂર કરવામાં આવે છે તે અપઘદિત કહેવાય છે. ચિલાત દાસચેટકને બેટા કામેથી દૂર લઈ જનાર-તેને નિવારણ કરનાર કોઈ હતું નહિ એથી તે અનપતિ થઈ ગયે હતો. તેને કઈ હિતોપદેશક હતે નહિ તેથી તે કુત્સિત કામ કરવામાં પણ પીછેહઠ કરતું ન હતું, ખરાબ કામેથી તેને રોકનાર નહિ હેવાને કારણે તે મનમાં ફાવે તેમ કરતે હતે એથી તે ઉડ બની ગયું હતું. તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ शताधर्मकथासूत्रे 'सच्छंदमई ' स्वच्छन्दमतिः स्वाभिप्रायवर्ती-उद्दण्डइत्यर्थः, अतएव 'सइरप्पयारी' स्वैरमचारी = स्वच्छन्दविहारी 'मज्जप्पसंगी' मद्यप्रसङ्गी मद्यपायी, 'चोज्जप्पसंगी' चौर्यप्रसङ्गी-चौर्यकर्मणि परायणः, ' मंसप्पसंगी ' मांसप्रसङ्गीमांसभक्षणशीलः, 'जूयप्पसंगी' द्यूतपसङ्गी- द्यूतक्रीडाप्रसक्तः, 'वेसापसंगी' वेश्यालम्पटः, एवं 'परदारप्पसंगी' परदारप्रसङ्गी-परदाररतो जातश्चापि आसीत् । ततः खलु राजगृहस्य नगरस्य अदूरसामन्ते दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागे अग्निकोणे सिंहगुहानाम चोरपल्ली आसीन् , या हि पल्ली 'विसमगिरिकडगकोडंबसंनिविट्ठा' विषमगिरिकटककोडम्बसन्निविष्टा-विषमो निम्नोन्नतो यो गिरिकटका पर्वत मध्यभागः, तस्य यः कोडम्बः प्रान्तभागः, तत्र संनिविष्टा-स्थिता आसीत् । पुनः वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता' वंशीकलंकपाकारपरिक्षिप्ता=वंशीकलङ्का वंशजालमयी वृतिःः, सैव प्राकारः, तेन परिक्षिप्ता=परिवेष्टिता-बंशनिर्मितजालमयमाकारैः समन्तात् -परिवेष्टिता, 'छिण्णसेलविसमप्पवायफलिहोवगूढा' छिन्नशैलविषमप्रपातपरिखोपगूढा-छिन्नोऽवयवान्तरापेक्षया विभक्तो यः शैला पर्वतः, तत्सम्बन्धिनो ये विषमाः प्रपाता गर्ताः, त एव परिखाः तया उपगूढा= आश्लिष्टा परिवेष्टिता-विभक्तशैलाययवनिर्गतविषमप्रपातरूपपरिखापरिवेष्टितेत्यर्थः 'एगदुवारा ' एकद्वारा एकं द्वारं प्रवेशनिर्गमरूपं यस्याः सा-एकप्रवेशनिर्गमा, 'अणेगखंडी' अनेकखण्डा-अनेकानि खण्डानि-विभागा रक्षा हेतोयस्यां सा अनेकखण्डा, यत्र-स्वरक्षार्थ अनेकानि स्थानानि सन्ति, 'विदियजणणिग्गमपवेसा' विहारी हो गया-मद्यप्रसंगी हो गया-मदिरा पीने लग गया। मांस खाने लग गया, चोरी करने लगा, जूआ खेलने लगा, वेश्यासेवन करने लगा, और परदार सेवन करने में भी लंपट हो गया। (तएणं रायगिहस्स नयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरस्थिमे दिसीभाए सीहगुहा नामं चोरपल्ली होत्था-विसमगिरिकडगकोडंबसनिविट्ठा वंसीकलंक पागारपरिक्खित्ता छिण्णसेलविसमप्पघायफालिहोवगूढा रग्गदुवारा, अणेगखंडी, विदियजणणिग्गमपवेसा अभितरपाणिया सुदुल्लभजल સ્વચ્છેદ વિહારી થઈ ગયા હતા, દારૂ પિનાર થઈ ગયે હતે. તે માંસ ખાવાલા, ચોરી કરવા લાગે, જુગાર રમવા લાગે, વેશ્યા–સેવન કરવા લાગે અને પરસ્ત્રી સેવામાં પણ લંપટ થઈ ગયે હતે. (तएण रायगिहरस नयरस्स अदूरसामते दाहिणपुरस्थिमे दिसीभाए सीहगुहा नाम चोरपल्ली होत्था-विसमगिरिकडगकोडवसन्निविट्ठा वंसीकलंकपगारपरिक्खित्ता, छिण्णा सेल विसमप्पघायफालिहोवगूढा एगदुवारा, अणेगखंडी, विदियजणणिग्गमपवेसा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम् ६५३ विदितनननिर्गप्रवेशा-विदितजनानामेव-विश्वासवतामेव निर्गमप्रवेशौ यस्यां सा= विश्वस्तजननिर्गमप्रवेशवती ' अभितरपाणिया' अभ्यन्तरपानीया मध्यस्थितपेरंता, सुबहस्स विकूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा, यावि होत्था तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसई, अहम्मिय जाव अहम्म के ऊसमुट्ठिए बहुगगरणिग्गयजसे, सूरे दढप्पहारी साहसिए सहवेही-सेणं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोर सयाणं आहेवच्चं जाव विहरइ) उसी राजगृह नगर के न अधिक दूर पर और न अधिक पास में दक्षिण पौरस्त्य दिग्विभाग में-अग्निकोण में-सिंहगुहा नाम की एक चोर पल्ली थी-यह चोरपल्ली विषम गिरिकंटक के प्रान्त भाग में-निम्नोन्नतपर्वत के मध्यभाग के अन्त भाग में स्थित थी। इसके चारों ओर वांसों की बाड़ थी-यह बाड़ ही इसका प्राकार (किला) था-उससे यह घिरी हुई थी। अवयवान्तरों की अपेक्षा से विभक्त जो पर्वत तत्संबन्धी जो विषम प्रपात खड़ा उन विषम खडेरूप परिखा से यह परिवेष्टित थी। निकलने का और आने का इस में एक ही द्वार था। इसमें रक्षा के निमित्त चोरोंने अनेक स्थान बना रखे थे। परिचित-विश्वासवाले-व्यक्ति ही इसमें आ जा सकते थे। अभितरपाणिया, सुदुल्लभजलपेरता, सुबहुस्स वि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा, यावि होत्था तत्थ सहगुहाए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावई परिवसई, अह. म्मिय जाब अहम्मके उ समुद्विए बहुणगरणिग्गयजसे, सूरे दढप्पहारी, साहसिए सहवेही सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाण अहिवञ्च जीव विहरह) તે રાજગૃહ નગરથી ઘણે દૂર પણ નહિ અને ઘણી નજીક પણ નહિ એવી, દક્ષિણ પીરસ્ય દિવિભાગમાં અગ્નિમાં-સિંહગુહા નામે એક ચોરપલી હતી તે ચોર૫લી ઊંચી નીચી ગિરિમાળાઓના પ્રાંત ભાગમાં નિન્નત પર્વતના મધ્યભાગના અંતભાગમાં આવેલી હતી તેની ચોમેર વાંસની વાડ હતી. તે વાડ જ તેને કેટ (કિલ્લે) હતું. તેનાથી તે ઘેરએલી હતી અવયવતરોની અપેક્ષાએ વિભક્ત જે પર્વત અને તત્સંબંધી જે વિષમ પ્રપાત-ખાડે–તે વિષમ ખાડારૂપી પરિખાથી તે પરિવેષ્ટિત હતી. આવવા અને જવા માટે તેમાં એક જ દરવાજે હતે. ચરોએ પિતાની રક્ષા માટે ઘણાં સ્થાને બનાવેલાં હતાં. પરિચિત વિશ્વાસુ માણસો જ તેમાં આવા કરી શકતા હતા. પાણી માટે તેની વચ્ચે એક જળાશય હતું, તેની બહાર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे जलाशया 'सुदुल्लभजलपेरंता' मुदुर्लभजलपर्यन्ता=मुदुर्लभं जलं पर्यन्ते-पान्तभागे-बहिर्भागे यस्याः सा जलरहितबहिर्भागा ‘सुबहुस्स वि' सुबहोरपि कूवियबलस्स' कूपिकबलस्य-चोरगवेषकसैन्यस्य ' आगयस्स' आगतस्य 'दुप्पहंसा' दुष्पध्वंसा दुर्धर्षणीया चापि आसीत् । तत्र खलु सिंहगुहायां चोरपल्ल्यां विजयो नाम चोरसेनापतिः-चोरनायकः परिवसति यो हि 'अहम्मिए जाव' अधार्भिको यावत् अधर्मेण चरति अधार्मिकः अधर्माचरणशील:-अत्र यावत्पदेनइतभारभ्य 'घायाए वहाए अच्छायणाए ' इत्यन्तः पाठो ग्राह्यः, तथाहि-' अधम्मिटे' अधर्मिष्ठः सर्वथा धर्मरहितः, अधम्मक्खाई । अधर्माख्यायी-अधर्मकथकः, अधम्माणुगे' अधर्मानुगः अधर्मानुगामी ' अधम्मपलोई ' अधर्मप्रलोकी अधर्मदर्शी · अधम्मपलज्जणे' अधर्मप्ररञ्जनः अधर्मानुरक्तः, · अधम्मसीलसमुदायारे' अधर्मशील समुदाचारः अधर्म एव शीलं स्वभावः समुदाचारश्च यस्य सः, पानी के लिये इसमें बीच में एक जलाशय था-इसके बाहिरी भाग में जल नहीं था। अनेक भी चोर गवेषक सेनाजन यहां आजावे तो भी वे इस पल्ली का नाश नहीं कर सकते थे। इस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली में विजय नाम का एक चोर सेनापति रहता था। यह अधार्मि क यावत् अधर्म केतुग्रह जैसा उदित हुआ था। यहां यावत् शब्द से "घायाए वहाए अच्छायणाए" यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है-इस का खुलाशा भाव इस प्रकार है-अधार्मिक शब्द का अर्थ होता है अधर्माचरणशील-यह विजय नामका चोर अधर्माचरणशील था। अध. मिष्ठ था-सर्वथा धर्मसे रहित था, अधर्माख्यायी था-अधर्मका कथन करनेवाला था, अधर्मानुग था-अधर्म का अनुगामी था, अधर्मप्रलोकी थाअधर्म का ही देखने वाला था-अधर्मप्ररञ्जन था अधर्म में अनुरक्त था પાણી હતું નહિ. ઘણા ચોરોની શોધ કરતા સૈનિકે ત્યાં આવે છતાંએ તે પલીને નાશ કરી શકતા ન હતા. તે સિંહગુડા નામની ચોર૫લ્લીમાં વિજય નામે એક ચોર સેનાપતિ રહેતા હતા. તે અધાર્મિક યાવત્ અધમ કેતુગ્રહની २म य पाभ्य। 1. Asी यावत् शपथी " घायाए वहाए अच्छायणाए" અહીં સુધી પાઠ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે-અધાર્મિક શબ્દનો અધર્મા–ચરણશીલ હોય છે. તે વિજય નામે ચાર અધર્માચરણશીલ હતું, અધર્મિષ્ટ હતો, સાવ ધર્મરહિત હતો, અધર્માખ્યાયી હત, અધર્મની વાત કહેનાર હતું, અધર્માનુરાગી હતું, અધર્મને અનુગામી એટલે કે અધર્મને અનુસરનાર હતો, અધર્મપ્રલે કી હો, અધર્મને જ જેનાર હત, અધર્મપ્રરજન હતું, અધર્મમાં આસક્ત હતા, અધર્મશીલ સમુદાચારી श्री शताधर्म था। सूत्र : 03 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम् ६५५ अधर्म शीलोऽधर्माचरणश्चेत्यर्थः, 'अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पे माणे विहरइ ' अधर्मगैव वृत्ति कल्पयन् विहरति अधर्मेणैव सावधानुष्ठानेनैव, वृत्ति कल्पयन् जीविकामुपायन् ‘विहरइ ' विहरति आस्ते । पुनः ' हणछिंद भिंदवियत्तए ' जहिछिन्धि भिन्धि विकतका' हण' जहि-मारय यष्टयादिना — छिंद ' छिन्धि छेदयखङ्गादिना, · भिंद ' भिन्धि-भेदय भल्लादिना, इतिशब्दैः स्वानुयायिनः प्रेरयन् पाणिनो विकृन्तति यः सः, जहि छिन्धिभिन्धि विकर्तकः, इति, लोहियपाणी' लोहितपाणिः लोहितौ पाणी यस्य सः, रक्तरञ्जितकरयुगलः 'चंडे' चण्डः उत्कटरोषः 'रुद्दे ' रौद्रः भयानकः 'छुल्ले' क्षुद्रः क्षुद्र कर्मचारी — उचगवंचणमायानिय. डिकवडकूडसाइसंपयोगबहुले' उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकपटकूटसाइसंपयोग अधर्मशील समुदाचारवाला था-अर्थात् इसका स्वभाव और आचरण दोनों अधर्ममय थे-अधर्म ही इस का स्वभाव था और अधर्म ही इस का आचरण था । अतः अपनी जीविका का निर्वाह सावद्य अनुष्ठानों (अधर्म ) द्वारा ही किया करता था यष्टयादि द्वारा इसे मारो, खङ्गादि बारा इसे छेदो भल्लादि द्वारा इसे भेदो इस प्रकार के शब्दों से यह अपने अनुयायियों को सदा प्रेरित करता हुआ स्वयं जीवों का छेदन भेद न किया करता था। इसके दोनों हाथ रक्त से रंजित रहते थे। इस का क्रोध बहुत प्रचंड था देखने में यह बडा भयानक दिग्वता था। क्षुद्र कर्मकारी था। " उक्कंचणवंचणमायानियडिकवडडसाइसंपओग बहुले" उत्कंचन, वंचन, माया, निकृति, कपट, कूट, साइ, इनका व्यव હતે-એટલે કે તેને સ્વભાવ અને આચરણુ બંને અધર્મમય હતાં. અધર્મ જ તેને સ્વભાવ હતું અને અધર્મ જ તેનું આચરણ હતું. એથી તે પિતાનું જીવન સાવધ અનુષ્ઠાન વડે એટલે કે અધર્મનું આચરણ કરીને પુરું કરતો હતો. લાકડી વગેરેથી એને મારે, તરવાર વગેરેથી એને કાપી નાખે, ભાલાઓ વગેરેથી એને ભેદી ના આ જાતના શબ્દોથી તે પિતાના અનુયાયીઓને હમેશાં હકમ કરતો રહેતો હતો. તે પોતે પણ જીવનું છેદન-ભેદન કરતો રહેતા હતા. તેના બંને હાથે લેહીથી ખરડાએલા રહેતા હતા. તેને ક્રોધ અત્યંત પ્રચંડ હતે. દેખાવમાં તે ખૂબ જ ભયાનક લાગતો હતો, તે ક્ષુદ્ર કર્મ કરનાર હતે. ( उक्क'चणवंचणमायानियडिकवडकूडसाइसंपओगबहुले ) यन, पयन, માયા, નિકૃતિ, કપટ, કૂટ, સાઈ આ બધાને વહેવાર તેના જીવનમાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाताधर्मकथाजले बहुलः, तत्र-उत्कश्चनम् मुग्धजनवञ्चनप्रसस्य समीपागतविचक्षणभयात् तत्क्षणेवचनाकरणम् पश्चन-प्रतारणम् , माया-परवञ्चनबुद्धि, निकृति: मायापच्छादनार्थ मायान्तरकरणम् , कपटम्वेवादिविपर्ययकरणम् , कूटम्=तुलातोलनकादीनामन्यथाकरणम् , ' साइ' देशी शब्दोऽयम् , विश्वासामावा, एषां संप्रयोगो व्यवहारः स एव बहुला प्रचुरो यस्य सः, निस्सीले ' निःशील: शीलरहिता, 'नियर ' निता अणुव्रतरहितः, 'निग्गुणे' निर्गुणः-गुणन्नतरहितः, 'निष चक्खाणपोसहोत्रासे' निष्प्रत्याख्यान पौषधोपवासार प्रत्याख्यानपोषधोपयासरहितः 'बहूणं दुपयचउपयमियपसुपविखसरी सिवाणं धायाप बदाए उच्छाय. णाए' बहूनां द्विपद चतुष्पदमृगपशुपक्षिसरीमपाणां घाताय, वायसामाग्य हार इसके पास प्रचुर था। भोलेजनों के बंधन करने में प्रवृत्त हुआ वंचक जन जब पास में आये हुए जनको भय से नहीं उगता है इसका नाम उत्कंचन है। प्रसारण (गना) करना इसका नाम बंधन है। दूसरों को इंधन करने की बुद्धि का नाम माया है। अपनी मायाचारी को छिपाने के लिये जो दुसरी मामाधाररूप क्रिया करनी होती है इस का नाम निकृति है। वेष आदि के परिवर्तन करने का नाम कपट है। तराजू एवं तोलने आदि के पांटों को कमनी बढती रखना इसका नाम कूट है। " साद" ग्रह देशीय शब्द है। इसका अर्थ विश्वास का अभाव होता है। यह निाशील घा-शीलरहित धा-निर्चत धावत रहित था, निर्गुण था-गुण रहित था, “प्रत्याख्यान और पौषधोपचास से धर्जित था " बद्दणं दुपयच उप्पयमियपसुपक्विसरीसिवाणं घायाए चहाप उच्छायणाए अधम्मोक समुहिए" अनेक विपद, चतुष्पद, भूग, પુષ્કળ પ્રમાણુમાં હતું, જેમાં માણસને વંચના પ્રવૃત્ત થયેલો વંચક જ્યારે પાસે આવેલા માણસને બીકથી તે નધી તેનું નામ ઉચન છે. પ્રતારણુ નામ વચન છે. બીજા માણૂસને હળવાની બુદ્ધિનું નામ માયા છે. પિતાની માયાચારીને છુપાવવા માટે જે બીજી માયાચાર રૂપ ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેનું નામ નિકૃતિ છે. વેશ વગેરે બદલવું તે કપટ કહેવાય છે. ત્રાજવાં તેમજ જોખવાના વજનેને હલકાં અને ભારે કરવાં તેનું નામ ફૂટ છે. “સાઈ ” આ દેશીય શબ્દ છે તેને અથે વિશ્વાસને અભાવ હોય છે. તે નિશીલ હતે-શીલ રહિત હતા, નિવૃત ગત રહિત હતો. નિર્ગુણ હતેગુ રહિત sal. अत्याच्या मने पायापासथी पति सती. "बहण' दुपयन उपएय मियपसुपक्सिसरीसिवाणं पायाए वहाप - उच्छायणार अधम्मऊ समुहिए" श्री शतधर्म अथांग सूत्र:03 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१८ सुंसमादारिकाचरितवर्णनम् ६५७ विशेषप्रकारेण नाशाय उत्सादनाय - द्विपदादिसकलजीवानां सर्वथा नाशाय च, ' अधम्म के ऊ समुट्ठिए ' अधर्मकेतुः समुत्थितः - अधर्मः पापप्रधानो यः केतुः = केतुग्रहः, अधर्मकेतु = उत्पातरूपधूमकेतुमहाग्रहः तद्वत् समुत्थितः । बहुणगरणिग्गज से ' बहुनगरनिर्गतयशाः, बहुनगरेषु निर्गतं जनमुखान्निःसृतं यशः ख्याति यस्य सः, प्रसिद्ध इत्यर्थः शूरः ' दढप्पहारी ' दृढप्रहारी - दृढमहरण शील: ' साहसिए साहसिकः = अविमृश्यकारी ' सदवेही ' शब्दवेधी शब्दश्रवन लक्ष्यवेधी च आसीत् । ' से ' सः = विजयश्वरः खलु तत्र सिंहगुहायां चोरपल्ल्यां पञ्चानाम् चोरशतानाम् ' आहेवच्चं जाव आधिपत्यं यावत् = स्वामित्वं कुर्वन् विहरति । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापतिः बहूनां चोराणां च 'पारदारियाणय पारदारिकाणां परस्त्रीगामिनां च ' गंठिभेय गाणय' ग्रन्थिभेदकानां संधिच्छेयगाणय ' सन्धिच्छेदकानां भित्तिसंधि छिन्ना ये धनमपहरन्ति ते संधिच्छेदका उच्यन्ते तेषाम् खत्तखणगाण य' क्षात्रखनकानां - संधिरहितभित्ति खनकानाम्, 'रायावगारीणय ' राजाऽपकारिणां = " 6 " 9 3 पशु, पक्षी, सरीसृप आदि प्राणियोंके घात के लिये, वध के लिये, तथा उनके सर्वथा विनाशके लिये, यह अधर्मकेतुग्रह जैसा उदित हुआ था । अनेक नगरों में यह कुख्यात होचुका था । घडा शुरवीर था । इसका प्रहार बहुत गहरा होता था । विना विचारे काम करना ही इसका स्वभाव था शब्द श्रवण कर यह अपने लक्ष्य के वेधने में बडा निपुण था । वह विजय चौर सिंहगुफा नाम की उस चोरपल्ली में पांचसौ चोरों का आधिपत्य यावत् स्वामित्व करता हुआ रहता था । (तएण से विजय तक्करे चोर सेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य, रायावगारीण य अणधारगाण य घणा द्विपह, यतुष्यः, भृग, पशु, पक्षी, सरीसृप ( साथ) वगेरे प्राणीयोना ઘાત માટે, વધ માટે તેમજ તેમના સર્વનાશ માટે તે અધમ કેતુગ્રહની જેમજ ઉદય પામ્યા હતા. ઘણાં નગરમાં તે કુખ્યાત થઈ ચુકયા હતા. તે ભારે શૂરવીર હતા, તેનેા પ્રહાર ખૂબ જ ભારે થતા હતા. વગર વિચાર્યું કામ કરવામાં જ તેના સ્વભાવ હતા. શબ્દ શ્રવણુ કરીને તે પેાતાના લક્ષ્યને વીંધી નાખવામાં ખૂબ જ નિપુણ હતા. તે વિજય ચાર સિંહ ગુફા નામની તે ચાર પલ્લીમાં પાંચસે ચારાના સ્વામી-યાવત્ સ્વામિત્વ ભાગવતે રહેતા હતા. ( तएण से विजयतकारे चोरसेणावई बहूण गठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाणय, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ चोराण य पारदारियाण य रायावगारीण य ऊण Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ जाताधर्मकथाजसत्रे राजद्रोहिणां ' अणधारगाणय' ऋणधारकाणाम् बालघातकानां 'वीसंभधायगाण य' विश्रम्भघात कानां विश्वासघातिनां घूतकारकाणां ' खंडक्वाण य' खण्डरक्षाणां राजविरोधेन भूमिखण्डधारिणाम् एवम् अन्येषां च बहूनां 'छिन्नभिन्नबहिराहयाणं ' छिन्नभिन्नबहिराहतानाम्-छिन्ना-छिन्नहस्तादिकाः, भिन्नाभिन्नक. नासिकादिकाः, बहिराहता-राजापराधेन देशनिष्काशिताः, एतेषां द्वन्द्वः, तेषां च ' कुटुंगे' कुटङ्क:-कुटङ्कः इव कुटङ्कः - वंशवनं रक्षार्थमाश्रयणीयत्वसाम्यात् बालधायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अ. न्नेसिं यहूणं छिन्नभिन्न बहिराययाणं कुडंगे याविहोत्था) वह विजय तस्कर चोर सेनापति अनेक चोरों का अनेक परस्त्री लंपटों का ग्रन्थि भेद को का, संधिच्छेदकों का-मकान की भीत फोड़कर धनका अपहरण करने वालों का, क्षात्रखनकों का संधि रहित भीत को फोडकर चारी करनेवालों का, राजा का अपकार करने वालों का राजद्रोहियों का, ऋण करने वालों का बाल हत्या करने वालों का विश्वासघात करने वालों का जुआ खेलनेवालों का, राजा की आज्ञा लिये विना ही कुछ जमीन को अपने अधिकार में करनेवालों का, तथा और भी अनेक छिन्न, भिन्न बहिराहत व्यक्तियों का यह कुटंक जैसा था। जिन के हाथ आदि काटदिये गये है ऐसे प्राणी, छिन्न शब्द से जिनकी नाक आदि काट दी गई है ऐसे प्राणी भिन्न शब्द से एवं राजापराध के कारण जो देश से बाहिर निकाल दिये गये हैं ऐसे मनुष्य यहां यहि आहत शब्द धारगाण य बालधायगाण य वीसंभघायाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसिं बहूण छिन्नभिन्नबहिराययाणं कुडंगे यावि होत्था) તે વિજય તસ્કર ચાર સેનાપતિ ઘણા ચોરે, ઘણા પરસ્ત્રી -લંપટે, ગ્રંથિભેદક, સંધિચ્છદક-માકેરું પાડીને ધનનું અપહરણ કરનારાઓ, ક્ષાત્ર ખન–સંધિભાગ વગરની ભીંતમાં બાકેરું પાડીને ચોરી કરનારાઓ, રાજાના અપકારકે-રાજદ્રોહીઓ, અણુ કરનારાઓ (દેવાદારે) બાળહત્યા કરનારાઓ, બાળહત્યા કરનારાઓ, વિશ્વાસઘાત કરનારાઓ, જુગાર રમનારાઓ, રાજાની આજ્ઞા લીધા વગર જ શેડી જમીનને પિતાના અધિકારમાં લેનારાઓ તેમજ બીજા પણ ઘણા છિન્ન, ભિન્ન બહિરાહત લોકેના માટે તે કુટેક જેવો હતો. જેમના હાથ પગ વગેરે કાપી નાખવામાં આવ્યા છે એવાં પ્રાણીઓ, છિન્ન શબ્દ વડે જેમનાં નાક વગેરે કાપવામાં આવ્યાં છે એવાં પ્રાણીઓ, ભિન્ન શબ્દ વડે અને રાજ્યપરાધ બદલ જે દેશમાંથી બહાર કાઢી મૂકવામાં આવ્યા છે એવા માણસે અહીં “અહિ આહત ” શબ્દ વડે સંબંધિત કરવામાં આવ્યા श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् ६५९ चापि अभूत् । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापतिः राजगृहस्य ' दाहिण पुरस्थिमं ' दक्षिणपौरस्त्यं अग्निकोणस्थितं जनपदं बहुभिः ‘गामघाएहिं ' ग्रामघातैः ग्रामविनाशैश्च, नगरघातैश्च, ‘गोग्गहणेहिय ' गो ग्रहणैः गवां लुण्ठनैः, बंदिग्गहणेहिय' वन्दिग्रहणैः-लुण्ठने ये जना गृहीतास्ते चन्दिनउच्यन्ते, तेषां ग्रहणैः स्वकारायां स्थापनैः, ' खत्तखणणेहिय' क्षात्रखननैश्च एवं विधैष्दुकृत्यैः से प्रतियोधित किये गये हैं। रक्षणार्थ आश्रयणीय होने की समानता से इसे कुटंक-वंशवन-जैसा कहा गया है। (तएणं से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमं जणवयं बहहिं गामधाएहिं य नगरधाएहिं य गोग्गहणेहि य बंदिगहणेहि य खत्तखणणेहिय, पंथकु. दणेहि य उवीले माणे २ विद्धंसणे माणे २ णित्थाणं, णिद्धणं करेमाणे विहरइ, तएणं से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहूहिं अत्थाभिसंकीहि य चोज्जाभिसंकीहि य दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जूयकरेहि य पर. भवमाणे २ रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ) चोरों का सेनापति वह विजय तस्कर राजगृह नगर के अग्निकोण में स्थित जनपदों को, अनेक ग्रामों के विनाश से नगरों के घात से, गायों के लूटने से, लूटते समय पकड़े गये मनुष्य का अपने कारागार में बंद करने से, क्षत्रखनन से-मकानों में खोतदेने છે. રક્ષણ માટે આશ્રયણીય હેવાના સામ્યથી તેને કુક-વાસનાવનની જેમ બતાવવામાં આવ્યું છે. (तएण से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमं जणवयं बहूहि गामधाए ह य नगरधाएहि य गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणे ह य खत्तखणणेहि य पथकुद्दणे हि य उनीलेम णे२ विद्धंसणे माणे२ णित्थाणं, णिद्धणं करेमाणे विहरइ, तएण से चिलाए दास चेडे रायगिहे बहूहिं अत्थामिसंकीहि य चोज्जाभिसंकी. हि य घणियेहि य जूयकरेहि य परब्भवमाणे २ रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपन्जिताणं विहरह) ચરને સેનાપતિ તે વિજય તસ્કર રાજગૃહ નગરના અગ્નિકેશુના જનપદેને, ઘણાં ગ્રામને વિનાશ કરીને નગરને ઘાત કરીને ગાયને લૂંટીને સૂતી વખતે પકડી પાડેલા માણસેને પિતાના કારાગારમાં પૂરી દઈને, ક્ષત્ર ખનન કરીને, મકાનમાં ખાતર પાડીને અને મુસાફરોને મારીને નિરંતર श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० शाताधर्मकथानसूत्र 'पंधकुट्टणेहिय' पान्थकुट्टनैः पथिकजनमारणैश्च ‘उवीलेमाणे २ ' उत्पीडयन् २=सन्ततमुत्पीडनं कुर्वन् , 'विद्धंसेमाणे २' विध्वंसयन् २-सर्वदा विध्वंसं कुर्वन् , ' णित्याणं ' निः स्थानं गृहरहितं, ' गिद्धणं ' निर्धनम् धनरहितं कुर्वन् विहरति । ततः खलु स चिलातो दासचेटः राजगृहे बहुभिः । अत्थाभिसंकीहिय' अर्थाभिशङ्किभि-अयं चिलातो मदीयमर्थ गृहीतवान् , ग्रहीष्यति वा इत्यभिशङ्कनशीलैः 'चोज्जाभिस कोहिय ' चौर्याभिशङ्किभिः अयं मम गृहे चौर्य कृतवान् करिष्यति वेत्यभिशङ्कन शीलेश्च दाराभिस कीहि ' दाराभिशङ्किभिा= अयं मम दारान् पितवान् दूषयिष्यति वेत्यभिशङ्कनशीलैः तथा धनिकैश्च द्यूतकरैश्च परा. भूयमाणः २= पुनः पुनः पराभवं प्राप्यमाणो राजगृहात् नगराद् बहिः निर्गच्छति, निर्गत्य, यत्रैव सिंहगुहा चोरपल्ली तव उपागच्छति, उपागत्य विजयं चोरसेनापतिम् उपस पध-माप्य विहरति ।। सू०३ ।। से, एवं पथिकजनों के मारने से, निरन्तर पीडित करता विध्वंस करता करता और गृह विहिन करता रहता था। इस के पश्चात् वह दासचेटक चिलात राजगृह नगर में अनेक अर्थाभिशंक-इस चिलात ने हमलोगों के द्रव्य को हरण किया है तथा इसी तरह से यह आगे भी करेगाप्रकार की शंका करने वाले, चौर्याभिशंकी इसने हमलोगों के घर में घुसकर पहिले चोरी की है-तथा इसी तरह यह आगे भी करेगा-इस प्रकार की आशंका करने वाले, दाराभिशंकी-इसने पहिले हमारी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया है-इसी तरह से यह आगे भी करेगा इस तरह की अपनी स्त्रियों के साथ बलात्कार करने की आशंकावाले पुरुषों के द्वारा तथा धनिक व्यक्तियों के द्वारा, जुआ खेलने वाले ज्वारियों के द्वारा पुनः पुनः पराभूत होता हुआ राजगृह नगर से बाहर निकला પીડિત કરતે, વિધ્વંસ કરતા અને ગૃહવિહીન બનાવી મૂકતે હતા. ત્યારપછી તે દાસચેટક ચિલાતે રાજગૃહ નગરમાં ઘણા અર્થાભિશંક- આ ચિલાતે અમારા દ્રવ્યનું હરણ કર્યું છે. તેમજ આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ હરણ કરશે, આ જાતની શંકા કરનારાઓ વડે, ચૌર્યાભિશંકીએણે અમારા ઘરોમાં પેસીને પહેલાં ચોરી કરી હતી તેમજ ભવિષ્યમાં પણ તે ચેરી કરશે જ-આ જાતની ચેરીની આશંકા કરનારાઓ વડે, દારાભિશંકી–એણે પહેલાં અમારી સ્ત્રીઓ ઉપર બલાત્કાર કર્યો છે, આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ તે ચેકસ આવું કરશે જ, આ રીતે પિતાની સ્ત્રીઓ ઉપર બલાત્કારની આશંકાવાળા પુરૂ વડે તેમજ ધનવાને વડે, જુગાર રમનારા જુગારીઓ વડે, વારંવાર પરાભૂત થત श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् मूलम् - तणं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणाइस अग्गे असिलग्गाहे जाए यावि होत्था, जाहे त्रियणं से विजए चोरसेणावई गामघायं वा जाव पंथकोहिं वा काउं वञ्च ताहे वियणं से चिलाए दासचेडे सुबहुपि हु कुवियबलं हयविमहिय जाव पडिसेहेइ । पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणह समग्गे सहिगुहं चोरपल्लि हव्वमागच्छइ । तएणं से विजए चोरसेणावई चिलायं तक्करं बहुईओ चोरविजाओ य चोरमंते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ । तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था । तएणं ताई पंचचोरसयाई विजयस्स चोरसेणावइस्स महयार इड्डीसक्कारसमुदपणं णीहरणं करेंति, करिता बहुई लोइयाई मयकिचाई करेंति, करिता जाव विगयसोया जाया यावि होत्था । तएणं ताई पंच चोरसयाई अन्नमन्नं सहावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी - एवं खलु अम्हं देवाणुपिया ! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च णं चिलाए करे विजएणं बोरसेणावणा बहूईओ चोरविजाओ य जाब सिक्खाविए, तं सेयं खलु अहं देवाणुप्पिया ! चिलायं तक्करं सहिगुहाए चोरपलाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचित्तए तिक अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुर्णेति, पडिणित्ता चिलायं तीए सीहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचंति । तएणं से चिलाए ६६१ और निकल कर जहां वह सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी वहां आया वहां आकर वह चोर सेनपति के बाद रहने लगा || सूत्र - ३ રાજગૃહ નગરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં તે સિહગુહા નામે ચારપક્ષી હતી ત્યાં આવ્યા, ત્યાં આવીને ચેાર સેનાપતિની સાથે રહેવા લાગ્યા. સૂ॰l શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ शाताधर्मकथाङ्गसूत्र चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव विहरइ। तएणं से चिलाए चोरसेणावई चोराणय जाव कुडंगे यावि होत्था । से णं तत्थ सोहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिणपुरथिमिल्लं जणवयं जाव नित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरइ ॥ सू०४॥ ___टीका-'तएणं' इत्यादि । ततः खलु स चिलातो दासचेटो विजयस्य चोरसेनापतेरण्या प्रधानः । असिलट्ठग्गाहे । असियष्टिग्राहः असि: करवाला, यष्टि वंशदण्डः, तौ गृह्णातीति, असियष्टिग्राहः असियष्टयादिप्रचालनचतुरो जातश्चापि अभूत् । ' जाहे वि यणं ' यदाऽपि च खलु स विजयश्चोर सेनापतिः तएणं से चिलाए दासचेडे इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चिलाए दासचेडे ) वह दासचेटक चिलात (विजयस्स चोर सेणावइस्स) चोर सेनापति उस विजय तस्कर का (अग्गे........यावि हो०) सब से प्रधान असि, यष्टि, ग्रह-तलवार और लाठी के चलाने मे चतुर-बन गया । (जाहे वि य णं से विजए चोरसेणावईगामघायं वा जाव पंथकोटि वा काउं बच्चइ, ताहे वि यणं से चिलाए दासचेडे सुबहुं पि हु कूवियघलं हयविमहिय जाव पडिसेहेइ, पुणरवि लद्धट्टे कयकज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लि हव्वमागच्छइ) जब वह चोर सेनापति विजय, ग्रामों का घात करने के लिये, (तएण से चिलाए दासचेडे इत्यादि साथ-( तएण) त्या२५छ। (से चिलाए दासचेडे ) ते हास 22 थिसात (विजयस्स चोरसेणावइस्स) यार सेनापति त यि त२४२न। (अग्गे.... यावि हो०) सोयी प्रधान मासि, यट (alssa) आहे, तरवार भने all ચલાવવામાં ચતુર બની ગયે. (जाहे वि य णं से यिजए चोरसेणावई गामधायं वा जाव पंथकोटि वा काउं वचइ, ताहे वि य णं से चिलाए दासचेडे सुबहुं पि हूँ कूवियबलं हयविमहिय जाब पडिसेहेह, पुणरवि लढे कय कज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लिं हव्वमागच्छइ) જ્યારે તે ચેર સેનાપતિ વિજય ગ્રામના ઘાત માટે વાવત્ પથિકને લુંટવા માટે નીકળતું હતું ત્યારે તે દાસ ચેટક ચિલાત ચોરોને પકડવા માટે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : ०3 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ०१८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् ६६३ ग्रामघातं वा यावत् 'पंयको' पान्थकुटिम्=पथिक ननलुण्टनं वा ' काउं' कर्तु 'वच्चइ ' व्रजति गच्छति 'ताहेवि य' तदाऽपि च खलु स चिलातो दासवेटः सुबहु अपि ' हुँ' इति वाक्यालङ्कारे कूवियबलं' कूपिकवलं-चोरगवेषकसैन्य 'हयविमहिय जाव' हतविमथित यावत्-सर्वथा विध्वस्त कृत्वा 'पडिसे हेइ ' प्रतिषेधयति=निवारयति । पुनरपि 'लद्धढे' लब्धार्थः लब्धः प्राप्तः, अर्थः= स्वाभिलषितं येन साप्राप्तस्वाभिलषितः, अत एव 'कयकज्जे' कृतकार्यः कृतं कार्य येन सः, कृतनिजकृत्यः 'अणहसमग्गे' अनघसमग्रः अनघम् अक्षतम्अन्तराले केनाप्यनपहतं समग्रं-समस्तं चौर्याद्यपहृतवस्तुजातं यस्य सः अलुटित सर्वस्वः सिंहगुहां चोरपल्लि ' हव्वं ' शीघ्रमागच्छति । ततः खलु स विजयश्चोरसेनापतिः चिलातं तस्करं बहीः चोरविद्याश्च चोरमन्त्रांश्च चोरमायाश्चोरनिकृतीश्च मायायाः प्रच्छादनार्थ या माया सा ' निकृतिः ' उच्यते ताः 'सिक्खावेइ' यावत् पथिक जनो को लूटने के लिये चलता था-तब वह दास चेटक चिलात भी चोर गवेषक सैन्य को हत, विमथिन यावत् सर्वथा विध्वस्त करके पीछे भगा देता था-और स्वाभिलषित अर्थ को प्राप्तकर अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लिया करता था। इस तरह वह चोरी में मिले हुए द्रव्य को सुरक्षित रखता हुआ-बीच में किसी के भी द्वारा द्रव्य की छीना झपटी से रहित होता हुआ उस सिंहगुहा नाम के चोरपल्ली में बहुत जल्दी लौट आता था! (तएणं से विजए चोर सेनावई चिलायं तक्करं बहईओ चोरविजाओ य चोरमंते य चोर मायाओ चार निगडीओ य सिक्खावेइ) उस चोर सेनापति विजय तस्कर ने चिलात चोर के अनेक चोर विद्याओं को, अनेक चोरमंत्रों को अनेक विध चोर सम्बन्धी मायाचारी को और मायो को छिपाने के આવેલા સૈન્યને હત, વિમથિત યાવત્ સંપૂર્ણ રીતે વિવસ્ત કરીને ભગાડી મૂકતે હતું અને પિતાના ઈચ્છિત અર્થને પ્રાપ્ત કરીને પિતાના કાર્યમાં સફળતા મેળવતું હતું. આ પ્રમાણે તે ચેરીમાં મેળવેલા દ્રવ્યને સુરક્ષિત રાખત વચ્ચે કંઈ પણ બીજા વડે દ્રવ્યની લટ-પાટ ન થાય-તેમ પોતાની જાતને સુરક્ષિત રાખતો તે શીઘ સિંહગુહા નામે ચેરપલીમાં પાછો આવતો રહેતે હતે. (तरण से विजए चारसेनावई चिलायं तकर बहूईओ चोरविज्जाओ य चोरमंते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेह) તે ચોર સેનાપતિ વિજય તસ્કરે ચિલાત ચારને ઘણી ચાર વિધાઓને, ઘણું ચરમંત્રને, ઘણી ચાર સંબંધી માયાચારીઓને અને માયાને છુપાવવા માટે બીજી માયાચારીઓ શીખવાડી. श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाताधर्मकथाजसो शिक्षयति । ततः खलु स विजयो चोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् ‘कालधम्मुणा' कालधर्मेण मृत्युना संयुक्तश्चापि अभवत् मृतइत्यर्थः । ततः खलु तानि पञ्चचोरशतानि पञ्चशतसंख्यकाचौराः, विजयस्य चोर सेनापतेः महता २ इडिसकारसमुदएणं' ऋद्धिसत्कारसमुदयेन ‘णीहरणं' निर्हरण=श्मशान भूमिनयनं करेंति' कुर्वन्ति, कुन्या बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि कुन्ति, कृत्वा यावत् विगतशोका जाताश्चापि अभवन् । ततः खलु तानि पश्चचोरशतानि अन्योऽन्य शब्दयति शब्दयित्वा एयमवादिषुः-सर्वे मिलिया परस्परमेवं विचारितवन्तइत्यर्थः एवं लिये दूसरी और माया चारी को सिखला दिया। (तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कारधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्या, तएणं ताई पंचचोरसयाई विजयस्स चोरसेणावइस्स महया २ इडी सकार समुदएणं णीहरणं करेंति करित्ता बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेंति, करिता जाव विगयमोया जाया यावि होत्था। तएणं ताइं पंच चोर सयाइं अन्नमन्न सद्दाति, सद्दायित्ता एवं वयासी) इस से बाद वह चोर सेनापति विजय किसी एक दिन कालधर्मगत हो गया। तय उन पांच सौ चोरों ने चोर सेनापति विजय तस्कर को बड़े ठाट बाट के साथ अर्थी-इमशान यात्रा निकाली बादमें उन्हों ने भृत्यसंबन्धी जितने भी लौकिक कृत्य होते हैं वे सब किये । लौकिक कृत्य करके सबके सब धीरे २ शोक रहित जब बन चूके-तय उन पांच सौ चोरों ने परस्पर में एक दूसरे को बुलायो-और बुलाकर उन से इस प्रकार कहा-विचार (तएण से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्या, तरण ताई पंच चोरसयाइ विजयस्स चोरसेणावइस्स महया २ इड्ढी सक्कारस मुदएणं णीहरणं करेंति करित्ता बहूई लोइयाइं मयकिंचाई करे ति, करित्ता जाब विगयसोया जाया यावि होत्था । तरण ताइपच चोर सयाई अन्नमन्नं सदावे ति, सदावित्ता एवं वयासी) ત્યારપછી તે ચોર સેનાપતિ વિજય કેઈએક દિવસે મૃત્યુ પામ્યો. ત્યારે તે પાંચસો ચેરીએ ચેર સેનાપતિ વિજય તરસકરની ભારે ઠાઠથી સ્મશાનયાત્રા કાઢી. ત્યારપછી તેમણે તેના મૃત્યુ સંબંધી લૌકિક કૃત્ય કર્યા. લૌકિક કૃત્ય પૂરા કર્યા બાદ ધીમે ધીમે જ્યારે બધા શેક રહિત થયા ત્યારે તે પાંચસો ચોરોએ પરસ્પર એકબીજાને બોલાવ્યા અને એક સ્થાને એકત્ર થઈને તેમણે આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે – શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंखुमादारिकाचरितवर्णनम् ६६५ खलु अस्माकं हे देशानुप्रियाः ! विजयश्वोर सेनापतिः कालधर्मेण संयुक्त मृत इत्यर्थः । अयं च खलु चिलातः तस्करो विजयेन चोरसेनापतिना ' वहूईओ चोरविज्जाओ जाव ' बहव्यः चोरविद्या यावत्-चोरविद्यादि चोरनिकृतिपर्यन्तासु सकलचोरशिक्षासु 'सिक्खिए ' शिक्षितः पारङ्गमितः, 'तं ' तस्मात् कारणात् 'सेयं श्रेयः खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! चिलातं तस्करं सिंहगुहायाचीरपल्ल्याश्चोरसेनापतितयाऽभिषिश्चितुम् , अर्थात् अयं चिलोतः तस्करोऽस्माभिः चोर सेनापतिपदे नियोज्यः, 'त्तिक ' इति कृत्वा इति मनसि विधाय ' अन्नमन्नस्स' अन्योऽन्यस्य 'एयम' एतमर्थम्-चिलातस्य चोरसेनापतिपदे नियोजनरूपमर्थम् किया-(एवं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च णं चिलाए तक्करे विजएणं चोरसेणावइणा बहईओ चोरविजाओ य जाव सिक्खाविए, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! चिलायंतस्करं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुणेति, पडिप्लुणित्ता चिलायं तीसे सीहगुहाए चोरसेणायइत्ताए अभिसिंचंति ) देवानुप्रियो ! देखो-हमारे नायक चोर सेनापति विजय तो अब मर चुके हैं। उन्होंने इस चिलात चोर को अनेक चोर विद्याएँ आदि सब कुछ सिखलाही दिया है। अतः हमलोगों को अब यही उचित है कि हमलोग चिलात चोर को सिंह गुहा नामकी इस चोर पल्ली का चोर सेनापति के रूप में नियुक्त करलें अर्थात् चोरसेनापति के पद पर इस चिलात चोर को नियुक्त करलें इस प्रकार विचार करके उन्होंने एक दूसरे के विचार रूप अर्थ को (एवं खलु अम्ह देवाणुप्पिया ! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयच f चिलाए तकरे विजएणं चोरसेणावइणा बहूईओ चोर विजाओ य जाव सिक्खाविए, त सेयं खलु अम्ह देवाणुप्पिया ! चिलाय तक्कर सीह गुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचित्तए तिकटु अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणे ति, पडिसुणित्ता, चिलायतीसे सीहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचति ) હે દેવાનુપ્રિયે ! જુઓ, અમારા નાયક ચેર સેનાપતિ વિજય તે હવે મરણ પામ્યા છે. તેમણે આ ચિલાત ચોરને ઘણી ચોર વિદ્યાઓ વગેરે બધું શીખવ્યું જ છે. એટલા માટે હવે અમને એ જ યોગ્ય લાગે છે કે અમે લેકે ચિલાત ચોરને આ સિંહગુહા નામની ચોરપલીને ચોર સેનાપતિ બનાવી લઈએ. એટલે કે ચોર સેનાપતિના સ્થાને આ ચિલાત ચોરની નીમશુંક કરી લઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના વિચાર રૂપ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साताधर्मकथानसूत्रे 'पडिसणेति ' प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य, चिलातं तस्करं चोरसेनापतितया अर्थात् चोरसेनापतिपदे अभिषिञ्चति । ततः खलु स चिलातः चोरसेनापतिर्जातः, कीदृशः ? इत्याह-' अहम्मिए नाव ' अधार्मिको यावत्-विजयचोरसेनापतिवदधार्मिको याबदधर्म के तुर्भवन् विहरति । ततः खलु स चिलातः चोरसेनापतिः 'चोराण य जाव' चोराणां च यावत् चोरपारदारिकादीनां च 'कुडंगे' कुडङ्गः आश्रयस्थानं चाऽपि आसीत् । स खलु तत्र सिंहगुहायां चोरपल्ल्यां पञ्चानां चोरशतानां च एवं यथा विजयस्तथैव सर्व यावत्-विजयवत् पश्चशतानां चोराणामुपरि आधिपत्यं कुर्वन् , राजगृहस्य दक्षिणपौरस्त्यम्-अग्निकोणस्थं स्वीकार कर लिया। और स्वीकार करके उस चिलात चोर को अन्त में उस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली का उन्हों ने चोर सेनापति के रूप में अभिषेक कर दिया। (तएणं से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव विहरइ तएणं से चोर से० चोराण य जाव कुडंगे यावि होत्था, से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिणपुरथिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरइ) इस तरह वह चिलात चोर सेनापति बन गया। चोरसेनापति बनकर वह विजय चोर सेनापति की तरह अधार्मिक यावत् अधर्मकेतु जैसा हो गया । अतः वह चिलात चोर सेनापति चोरों का यावत् पारदारिक आदिकों का कुडंग की तरह वासों के वन के समान-आश्रयस्थान बन गया और उस सिंहगुहा नामकी पल्ली में पांचसो चौरों का आधिपत्य करता हुआ विजय तस्कर અર્થને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને છેવટે તે ચિલાત ચોરને તે સિંહગુહા નામની ચોરપલીને તેમણે ચોર સેનાપતિના રૂપમાં અભિષેક કરી દીધે. (तएण से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जोव विहाइ सएणं से चोर से चोराण य जाव कुडगे यावि होत्था, सेण तत्थ सीइगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसयाणं य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिण. पुरथिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहर) આ પ્રમાણે તે ચિલાત ચાર ચાર સેનાપતિ થઈ ગયે. ચોર સેનાપતિ બનીને તે વિજય ચાર સેનાપતિની જેમ અધાર્મિક યાવત્ અધર્મકેતુ જે થઈ ગયો. તેથી તે ચિલાત ચેર સેનાપતિ ચેરને યાવત્ પારદારિક વગેરેને કુડુંગની જેમ-વાસોના વનની જેમ–આશ્રયસ્થાન બની ગયું અને તે સિંહગુહા श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६६७ जनपदं नित्थाणं निधणं' निस्थानं निर्धनं गृहरहितं धनरहितं च कुर्वन् विहरति ॥ सू०४ ॥ मूलम्-तएणं से चिलाए चोरसेणावई अन्नया कयाइं विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेत्ता पंचचोरसए आमंतेइ। तओ पच्छा पहाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च जाव पसण्णं च आसाएमाणे४ विहरइ, जिमिय भुत्तत्तरागए ते पंच चोरसए विउलेणं धूवपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सकारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! रायगिहे णयरे धण्णे णामं सत्थवाहे अड्डे०, तस्स णं धूया, भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुंसुमा णामं दारिया यावि होत्था, अहीण जाव सुरूवा, तं गच्छामो गं देवाणुप्पिया! धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं विलंयामो, तुम्भं विउले धणकणगजाव सिलप्पवाले ममं सुंसुमादारिया। तएणं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमह पडिसुणेति। तएणं से चिलाए चोरसेणावई तेहिं पंचहि चोरसएहिं सद्धिं अल्लचम्मं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुव्वावरण्हकालसमयंसि पंचहि चोरसएहिं सद्धिं सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहिं फलएहि णिकट्ठाहिं असिलट्ठीहि अंसगएहिं तोणेहिं की तरह राजगृह नगर के बाहिर के अग्निकोणस्थ जनपदों को गृह रहित और धन रहित करने लग गया। सूत्र ४ ॥ નામની ચરપલીમાં પાંચસે ચોરેને અધિપતિ થઈને વિજય તસ્કરની જેમ રાજગૃહ નગરની બહારના અગ્નિકોણ તરફના જનપદને ગૃહરહિત અને ધનરહિત એટલે કે બરબાદ કરવા લાગ્યા. મેં સૂત્ર ૪ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जाताधर्मकथासूत्रे सजीवेहिं धणूहिंसमुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहि दीहाहिं ओसारियाहिं उरुघंटयाहिं छिप्पतूरेहि वजमाणेहि महया महया उकिसीहणायचोरकलकलरवं समुदरवभूयं करेमाणे सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिणिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्त नयरस्स अदूरसामते एगं महं गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, दिवसं खवेमाणे चिटइ ॥ सू० ५॥ टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स चिलातश्चोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् विपुलम् अशनपानखादिमस्वादिमम् ' उवक्खवेत्ता' उपस्कार्य-निष्पाघ पञ्च चोरशतानि आमन्त्रयति । ततः पश्चात् स्नातः ‘कयवलि कम्मे' कृतबलिकर्मा=कृतं वलिकर्म येन सः, काकादीनां कृतेदत्त भोजनोपहारो भोजनमण्डपे तैः पञ्चभिः चोरशतैः सार्ध 'विउलं' विपुलम् अत्यर्थम् , अशनं पानं खाद्यस्वायं सुरां च यावत् प्रसन्नां च 'आसाएमाणे' आस्वादयन् विहरति । पुनश्च ‘जिमिय 'तएणं से चिलाए चोरसेणावई' इत्यादि । टीकार्थ- (तएणं) इसके बाद (चोर सेणावई चिलाए) चोर सेनापति चिलात चोर ने (अन्नया कयाई) किसी एक समय (विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेत्ता पंचचोरसए आमंतेइ - तओ पच्छा महाए कयबलिकम्मे,भोयणमंडवंसि तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च जाव पसण्णं च आसाए माणे ४ विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विउलेणं धूवपुप्फगंधम तएणं से चिलाए चोरसेणावई इत्यादि-- Ast-(तएण' ) त्या२५छ। ( चोरसेणावई चिलाए ) यार सेनापति शिसात योरे (अन्नया कयाई) ७ मे मते (विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेत्ता पंच चोरसए आमंतेइ-तओ पच्छा हाए कयबलिकम्मे, भोयणमंडसि तेहिं पंचहि चोरसरहिं सद्धि विउलं असण पाण खाइमं साइमं सुरं च जाव पसण्ण च आसाए माणे४ विहरइ, जिमिय भुनुत्तरागए ते पंच चौरसए विठ लेणं धूवपुप्फगंधमल्लालंकारेण सकारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी) श्री शाता था। सूत्र : 03 Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६६९ भुत्तुत्तरागए' निमितभुक्तोत्तरागतः जिमितः कृतभोजनः भुक्तोत्तरकालमागतः यावत् परमशुचिभूतः सुखासनवरगतः सन् तानि पञ्च चोरशतानि विपुलेन-अत्यर्थेन 'धूवपुप्फगंधमल्लालंकारेणं 'धूप पुष्पगन्धमाल्यालंकारेण धूपः सुगन्धित द्रव्येण उत्पन्नो धूमः, पुष्पं कुसुमम् , गन्धः चन्दनादि माल्यम्-माला, अलङ्काराणि आभरणानि, एतेषां च समाहारद्वन्द्वः, तेन सत्करोति, सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य एवम्-अवदत्-एवं खलु हे देवानुपियाः ! राजगृहे नगरे धन्यो ल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता एवं क्यासी) विपुल मात्रा में, अशन पान, खादिम एवं स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार बनवा कर उन पांचसौ चोरो को आमंत्रित किया। जब वे सब आचुके-तब उस चिलात चोर ने स्नान से निवट कर और वायसादि को अन्नादिका भाग देनेरूपबलिकर्म आदि कर भोजन मंडपमें बैठकर उन पांच सौ चोरों के साथ उस विपुलमात्रा में निष्पन्न हुए अशन, पान, खादिम, एवं स्वादिमरूप चारों प्रकार के आहार को तथा सुरा, यावत् प्रसन्न मदिरा को खूब मनमाने रूप में पिया खाया जब वे सब के सब अच्छी तरह भोजन कर उत्तर काल में परमशुचिभून होकर आनंद के साथ एक स्थान पर आकर बेठचुके तब उस चिलात चोर सेनापति ने उनका धूप से-सुगंधित द्रव्य से निष्पन्न हुए धूप से, पुष्पों से, चंदन आदि से, मालाओ से, और आभरणां से सत्कार किया सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उनसे उसने इस प्रकार પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ ચારે જાતને આહાર બનાવડાવીને તે પાંચસો ચરોને આમંત્રિત કર્યા. જ્યારે તેઓ બધા આવી ગયા ત્યારે તે ચિલાત ચોરે સ્નાન કર્યું અને ત્યારપછી તેણે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન વગેરેને ભાગ અપને બલિકમ વગેરે કર્યું. ત્યારબાદ તેણે ભજન મંડપમાં બેસીને તે પાંચસે ચેરની સાથે તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવડાવેલા, અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ રૂપ ચારે પ્રકારના આહારને તેમજ સુરા યાવત્ પ્રસન્ન મદિરાને ખૂબ ધરાઈ ધરાઈને ખાધા-પીધાં. જ્યારે તેઓ બધા સારી રીતે જમીને પરમશુચીભૂત થઈને આનંદપૂર્વક એક સ્થાન ઉપર આવીને એકઠા થયા–બેસી ગયા, ત્યારે તે ચિલાત ચેર સેના પતિએ તેમને ધૂપથી, પુખેથી, ચંદન વગેરેથી, માળાઓથી અને આભાર થી સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० ज्ञाताधर्मकथाजसूत्र नाम सार्थवाहः आढयोऽस्ति । तस्य खलु दुहिता भद्राया आत्मजा पञ्चानां पुत्राणामनुमार्गजातिका=पश्चानां पुत्राणां जननान्तरं समुत्पन्ना सुसुमा नाम दारिका चापि अस्ति, कीदृशी सा ? ' अहीण जाव सुरूवा' अहीन यावत् सुरूपा=अहीन पश्चेन्द्रियशरीरा यावद् सुरूपवती, ' तं' तत्=तस्माद् गच्छामः खलु हे देवानुमियाः ! धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं विलुम्पामा लुण्ठामः, युष्माकं धनकनक कहा-(एवं खलु देवाणुप्पिया! रायगिहे णयरे धण्णे णामं सत्यवाहे अड़े तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसमाणामंदारिया यावि होत्था, अहोण जाव सुरूवा तं गच्छामोणं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं विलुंयामो तुभं विउले धणकणग जाव सिलप्पवाले, ममं सुसुमा दारिया ! तएणं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणवईस्स एयमढे पडिसुणेति । तएणं सेचिलाए चोरसेणावई तेहिं पंचहिं चोरसहिं सद्धिं अल्लचम्मं दुरूहइ, दुरुहित्ता पुव्वावरण्हकालसमयंसि पैचहिं चोरसएहिं सद्धिं ) हे देवानुप्रियो ! सुनो-एक बात कहना है-वह इस प्रकार है-रोजगृह नगर में धन्य नाम का एक धनिक एवं सर्वजन मान्य सार्थवाह रहता है। इस की एक लड़की है। जिसका नाम सुंसमा है। यह उसकी पत्नी भद्रा भार्या से पांच पुत्रों के बाद उत्पन्न हुई है । यह अहीन पांचों इन्द्रियों से यक्त शरीरवाली है तथा बहुत अधिक सुकुमार एवं सुन्दर है। इसलिये -चलो हे देवानुप्रियों ! हम सब चलें और धन्य सार्थवाह के घर को ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! रायगिहे णयरे धण्णे णामं सत्थवाहे अडूढे. तस्सण धूया भद्दाए अत्तया पंचण्डं पुत्ताण अणुमग्गजाइया सुसमा णामं दारिया यावि होत्था अहीण जाव सुरूवा त गच्छामो ण देवाणुपिया ! धणस्स सत्थ. वाहस्स गिहं विलुयामो, तुभं विउले धणकणग जाव सिलप्पवाले, ममं सुसमा धारिया ! तएणं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमद्रं पडि मणेति । तएण से चिलाए चोरसेण वई तेहिं पंचहि चोरसएहि सद्धि' अल्ल चम्म दुरूहइ, दुरूहित्ता पुव्वावरण्हकालसमयसि पचहि चोरसएहि सद्धि') । હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળો, તમને મારે એક વાત કહેવી છે તે આ પ્રમાણે છે કે રાજગૃહ નગરમાં ધન્ય નામે એક ધનિક અને સર્વજનમાન્ય સાર્થવાહ રહે છે. તેને એક પુત્રી છે, તેનું નામ સુંસમા છે. ધન્યની પત્ની ભદ્વાભાર્યાના ગર્ભથી તે પુત્રી પાંચે ભાઈઓ બાદ જન્મ પામી છે. તે અહીન પાંચે ઈન્દ્રિયથી યુક્ત શરીરવાળી છે તેમજ ખૂબ જ સુકુમાર અને સુંદર છે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६७१ यावत् शिलप्रवालः, मम सुसुमा दारिका-लुण्ठितेषु वस्तुषु मध्ये धनकनकमणिमौक्तिकशिलाप्रवालादि वस्तुजातानि युष्माकं भवन्तु, मम तु एका मुमुमा दारिका भविष्यति । ततः खलु तानि पञ्च चोरशतानि चिलातस्य चोरसेनापतेः एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु स चिलातश्योरसेनापतिः तैः पञ्चभिः चोरशतैः सार्धं 'अल्लचम्मं ' आर्द्रचर्म दूरोहति, लुण्ठकाहि लुण्ठनप्रस्थानात् पूर्व माङ्गल्यार्थमाद्रचमण्यारोहन्तीति तेषांच्यवहारः, दूरुह्य, 'पुन्यावरहकालसमयंसि । पूर्वापराहकालसमये 'दिनस्य चतुर्थप्रहरे पञ्चभिश्चोरशतैः सार्द्ध 'सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधमहरणः सन्नद्धबद्धवर्मितकवचः संनद्धा सज्जीकृतः, बद्धः कशाबन्धनेन संबद्धः, वर्मित: अङ्गे परिहितः कवचो येन स तथोक्तः, 'गृहीतायुधप्रहरणः ' गृहीतानि आयुधप्रहरणानि लूटे-जो वस्तु हम तुम लूटेंगे उनमें से तुम्हारी तो धन, कनक, मणि, मौक्तिक शिलाप्रवाल आदि चीजें होगी-और मेरी केवल एवं वह सुंस. मादारिका होगी। इस तरह उन पांचसौ चोरों ने अपने सेनापति चिलात चोर की इस बात को मान लिया। इसके बाद यह चोर सेनापति चिलात, उन पांचसौ चोरों के साथ गीले चमडे पर बैठ गया। लुटेरे लूटने के लिये जब प्रस्थान करते है तब वे पहिले गीले चमडे पर शुभ शकुन मानने के निमित्त बैठते है ऐसा उनमें व्यवहार है बैठकर फिर वह दिन के चतुर्थप्रहर में पांच सौ चोरों के साथ (सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमइ) उस सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से निकला । (सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहिं फल एहिं એટલા માટે ચાલો તૈયાર થાઓ, હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણે બધા ત્યાં જઈએ અને ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને લુંટી લઈએ, જે વસ્તુઓ આપણે બધા લુંટી તેમાંથી ધન, કણક, મણિ, મૌક્તિક, શિલાપ્રવાલ વગેરે વસ્તુઓ તમારી થશે અને ફક્ત તે સંસમા દારિકા મારી થશે. આ પ્રમાણે તે પાંચસો ચોરોએ પિતાના સેનાપતિ ચિલાત ચેરની આ વાત સ્વીકારી લીધી. ત્યારપછી તે ચોર સેનાપતિ ચિલાત, તે પાંચસે ચોરેની સાથે સાથે ભીના ચામડા ઉપર બેસી ગયો. લુંટારાઓ લુંટવા માટે જ્યારે ઘેરથી નીકળે છે ત્યારે તેઓ પહેલાં શુભ શકુન માટે ભીના ચામડા ઉપર બેસે છે, આ જાતને તેઓમાં રિવાજ છે. ભીના ચામડા ઉપર બેસીને તે દિવસના ચોથા પહેરમાં પાંચસે ચારની साथे (सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमइ ) ते सिंडगुड नामनी ચારપટલીમાંથી નીકળે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ६७२ ___जानाधर्मकथासूत्रे येन सः, गृहीताऽस्त्रशस्त्रः, 'माइयगोमुहियेहि ' माइकगोमुखितैः = माइकानि= पक्ष्मलानि, गोमुखितानि-गोमुखाकाराणि-माइकानि च तानि गोमुखितानि तैः उदररक्षार्थ भल्लू करोमाटतेोमुखाकारैः ' फलएहि' फलकै पट्टिकेति प्रसिद्धः 'गिकट्ठाहि असिलट्ठी हिं ' निष्कृष्टाभिः असियष्टिभिः, कोशबहिष्कृतैः खङ्गः, — अंसगरहिं तोणेहिं ' अंशगतैस्तूणै: स्कन्धस्थितैस्तूणीरैः, ' सजीवे हिं धनूहि' सजीवैनुभिः कोटयारोपितप्रत्यश्चैर्धनुभिः, ' समुक्वित्तेहिं सरेहिं ' समुक्षिप्तः शरैः-तूणीरसकाशान्निष्काशितैर्वाणः, ‘समुल्लालियाहिं दीहाहिं ' समुल्लालिताभिः दीहाभिः समुच्छालितैः शस्त्रविशेषः ‘ओसारियाहिं' अवस्वरिताभिः नादिताभिः ' उरुघंटियाहिं ' उरुघण्टिकाभिः विशालघण्टाभिः । छिप्पतूरेडिं गिकट्टाहिं असिलट्ठीहिं अंसगएहिं तोणेहिं मजीवेहिं धणूहि, समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं दीहाहिं, ओसारियाहिं उरुघंटयाहिं छिप्पतुरेहिं बजमाणेहिं महयार उक्किट्ठी सीहणाये चोरकलकल रवं समुद्दरवं भूयं करेमाणे ) चोर पल्ली से वह किस तरह की स्थिति में निकला-यही बात सूत्रकार इन पंक्तियों में कह रहे हैं-वे कहते हैं कि जब वह अपनी चोरपल्ली में से निकला तो उस समय उसने अपने शरीर पर कवच को सजित करके कशाबंधन से अच्छी तरह बांध रखा था " गृहीतायुधप्रहरणः" आयुध और प्रहरण उसके दोनों हाथों में थे। रीछ के रोम से युक्त गोमुखाकार पट्टिका से, म्यान से बाहिर खेंची हुई तलवारों से, कंधों पर लटकते हुए भाथोंतूणीरों-से ज्यापर चढे हुए धनुषों से, तूगीर से निकाले गये बाणों से ऊपर उछालेगये दास्त्र विशेषों से, (सण्णद्ध जाव गहिया उहपहरणे माइयगोमुहिएहि फलएहि णिकट्टाहि असिलवोहि अंसगएहि तोणेहि सजीवेहि धणूहि समुक्खित्तेहि सरेहि समुल्लालियाहिं दिहाहि ओसारियाहिं उरूघरियाहि छिप्पतूरेहिं वज्जमाणेहि महया २ उक्किद्र सीहणाये चोरकलकलरवं समुदरवं भूयं करेमाणे) ચેરપલીમાંથી તેઓ કેવી રીતે બહાર નીકળ્યા એ જ વાત સૂત્રકાર આ પંક્તિઓમાં સ્પષ્ટ કરી રહ્યા છે. તેઓ કહે છે કે જ્યારે તે પિતાની ચારપત્રીમાંથી નીકળે ત્યારે તેણે પિતાના શરીર ઉપર કવચ ધારણ કરીને ते२ ४॥ धनथी सारी रीत मांधी रायुं तु. “गृहितायुधप्रहरणः " આયુધ અને પ્રહરણ તેના બંને હાથમાં હતાં. રીંછના રોમથી યુક્ત ગેમુખાકાર પટ્ટિકાથી, મ્યાનમાંથી બહાર કાઢેલી તરવારોથી, ખંભા ઉપર લટ કતા તૂરથી, જયા ઉપર ચઢેલા ધનથી, તૂણીરમાંથી કાઢવામાં આવેલાં બાથી, ઉપર ફેંકવામાં આવેલાં શસ્ત્ર વિશેથી, શબ્દ કરતા–મોટા ઘટેથી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१८ सुंसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६७३ वज्जमाणेहिं ' क्षिपतूर्यैः वाद्यमानै द्रुतं वाद्यमानैः तूर्यैः उपलक्षितः सन् — महयामहया उकिटसीहणाये चोरकलकलरवं' महामहोत्कृष्टसिंहनादचोरकलकलरवंअत्यन्तोत्कृष्टसिंहनादचोरकल कलशब्दं समुद्ररवभूतं-समुद्रवेलावृद्धिसमये ध्वनिमिवकुर्वन् , यद्वा महता महता उत्कृष्टसिंहनादेन-' लुप्ततृतीयान्तं पदम् ' स्वकृतोत्कृष्टसिंहनादेनेत्यर्थः, शेषं पूर्ववत् । सिंहगुहातश्चोरपल्लीतः प्रतिनिष्काम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य राजगृहस्य नगरस्य अदूरसामन्ते एक महद् ‘गहणं ' गहनम् धनम् अनुपविशति, अनुपविश्य, दिवसम् शेषदिवसभागं क्षपयन् व्यतियन् तिष्ठति ।। मू०५ ।। शब्दायमान-बड़े २ घंटों से जल्दी २ बजते हुए बाजोंसे वह उपलक्षित -युक्त था। तथा उसके निकलने पर जो चोरों का कलकल रव हुआ-वह सिंह की गर्जना के जैसा महान उच्चस्वर था- तथा जिस समय समुद्र घढता है उस समय जैसा उसका शब्द होता है-वैसा ही वह कल २ रव गंभीर था। (पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स अदूर सामंते एगं महं गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवस खवेमाणे चिट्ठइ ) चोरपल्ली से निकलकर वह जहां राजगृह नगर था वहां आया-वहां आकर के वह राजगृह नगर के अदरसामंत-न अति दूर न अति समीप रहे हुए एक महान जंगल में छिप रहे वहां छिपकर उसने अपना वह दिवस वहीं पर ठहर कर समाप्त कर दिया। सू०५ ॥ જલદી જદી વાગતાં વાજાંએથી તે યુક્ત હતા. તેમજ જ્યારે તે નીકળે ત્યારે ચોરને જે ઘંઘાટ થયો તે સિંહની ગર્જના જે મહા વનિ હતે. તેમજ જ્યારે સમુદ્રમાં ભરતી આવે છે અને ત્યારે જે તેને વનિ હોય छ, ते भासानो पनि ५५ ते २४ मी२ sal. ( पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स अदूरसामंते एगं मह गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवसं खवेमाणे चिदुइ) या२५सीमाथी નીકળીને જ્યાં રાજગૃહ નગર હતું ત્યાં તે આવ્યા. ત્યાં આવીને તે રાજગૃહ નગરથી ઘણે દૂર પણ નહિ અને ઘણું નજીક પણ નહિ એવા એક મોટા વનમાં છુપાઈને રહ્યા ત્યાં છુપાઈને તેણે પિતાનો તે દિવસ ત્યાં જ પસાર કરી દીધો..સૂપા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ___शताधर्मकथासूत्रे ____ मूलम्-तएणं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्तकालसमयसि निसंत पडिनिसंतंसि पंचहिं चोरसएहि सद्धिं माइयगोमुहिएहिं फलएहिं जाव मूइआहि उरुघंटियाहि जेणेव रायगिहस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता उदगवत्थिं परामुसइ, आयते चोक्खे सुइभूए तालुग्घाडणिविज्ज आवाहेइ, आवाहित्ता, रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएण अच्छोडेइ, कवाडं विहाडेइ विहाडित्ता रायगिहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, महया२ सद्देणं उग्धोसेमाणे२ एवं वयासी -एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! चिलाए णामं चोरसेणावई पंचहिं चोरसएहिं सद्धि सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इह हव्वमागए धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं घाउकामे, तं जोणं णवियाए माउयाए दुद्धं पाउकामे से णं णिगच्छउत्तिक? जेणेव धण्णस्स सत्थवाहस्सगिहं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताधण्णस्तगिहं विहाडेइ। तएणंसेधण्णे चिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहिं चोरसएहि सद्धिगिहं घाइज्जमाणं पासइ, पासित्ता भीए तत्थे४ पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि एगतं अवक्कमइ । तएणं से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं घाएइ घाइत्ता, सुबहु धणकणग जाव सावएज्जं सुसुमं च दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता,रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव सोहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ६ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१८ सुंसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६७५ टीका- ' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स चिलातश्चोरसेनापतिः 'अद्धरतकालसमसि' अर्धरात्रकालसमये = मध्यरात्रे, कीदृशे 'निसंतपडिनिसंते' निशान्तप्रतिनिशान्ते= निशान्तं= जनध्वनिरहितं प्रतिनिशान्तं = प्रत्येकं गृहं यस्मिन् तस्मिन्, जने प्रसुप्ते सतीत्यर्थः, पञ्चभिश्चोरशतै सार्द्धम् 'माइयगोमुहिएहिं ' माइकगोमुखितैः, उदररक्षार्थं भल्लूकरोमावृतैर्गोमुखाकारैः 'फलएहिं' फलकैः = पट्टकैः उदरबकाष्ठफलकैरित्यर्थः यावत् 'मूहआहिं उरुघंटियाहिं' मूकिताभिरुरुघंण्टिकाभिः = निः शब्दी कृताभिः विशालघण्टाभिर्युक्तः यत्रैव राजगृहस्य नगरस्य पौरस्त्यं द्वारं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, 'उद्गवस्थि' उदकवस्ति = चर्ममयजलपात्रम्, 'मसक' इति प्रसिद्धम् 'परामुस ' परामृशति = गृह्णाति, अनन्तरम् ' आयंते ' आवान्तः= कृतमुखादि प्रक्षालनः ' चोक्खे ' चोक्षः स्वच्छः अतएव ' तालुग्वाडणिं विज्जं ' तएण से चिलाए चोर सेणावई ' इत्यादि । " टीकार्थ- (तए) इसके बाद (चोर सेणावई से चिलाए) चोर सेनापति वह चिलात चोर (निसंतपडिनिसंते अद्धरत्तकालसमयंसि ) जब जन ध्वनिरहित प्रत्येक घर हो गया ऐसे मध्यरात्रि के समय में (पंचहिं चोरएहिं सद्धि) उन पांचसौ चोरों के साथ ( माझ्य गोमुहिएहिं फलए हिं जाव मूहआहिं उरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहस्स नयरस्स पुरस्थिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छद्द) अपने उदर की रक्षा के निमित्त बद्धभल्लूक के रोमों से आवृत हुए गोमुखाकार काष्ठफलकों से यावत् निःशब्दीभूत विशाल घंटिकाओं से युक्त होकर जहां राजगृह नगर का पूर्वदिशा का द्वार था वहां आया । ( उवागच्छित्ता उदगवस्थि परामुसद्द, आयंते, चोक्खे, सुइभूए, तालुग्धाडणिविज्जं आवाहे, आवाहिता रायगिहस्स 'तएण से चिलाए चोरसेणावई' इत्यादि -- टीअर्थ - ( तएण ) त्यारमाह (चोरसेणावई से चिलाए) र भेनापति ते शिसात थोर ( निसंतपडिनिसंते अद्धरत्तकालसमयंसि ) न्यारे हरे हरे ઘરમાં માણસાના અવાજ એકદમ ખધ થઈ ગયા, એવા તે મધ્યરાત્રિના समये ( पचहिं चोरसएहिं सद्धि ) ते पांयसेो थोरोनी साथै ( माइय गोमुहिएहि फलएहि जाव मूइआहि उरुघटियाहि जेणेव राय गिस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ ) પેાતાના પેટની રક્ષા માટે રીંછના રામેથી આવૃત્ત થયેલા ગે!મુખાકાર કાઇ ફુલકાથી યાવત્ શાંત થઈ ગયેલી માટી ઘટિકાઓથી યુક્ત થઈને જ્યાં रामगृह नगरनुं पूर्व हिशानुं द्वार हेतुं त्यां भाव्या. ( उवागच्छित्ता उद्गवस्थि परामुलइ आयते चोक्खे सुइभूए, तालुग्धाडणि विज्जं आवाहेइ, आवाहिता શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे तालोद्धाटिनी विद्याम् ' आवाहेइ ' आवाहयति-स्मरति ' आवाहित्ता' आवाह्यस्मृत्वा राजगृहस्य द्वारकपाटानि उदकेन 'आच्छोडेइ ' आच्छोटयति अभिषिचति, 'आच्छोडित्ता' आच्छोटय अभिपिच्य, कपाटं 'विहाडेइ ' विघाटयतिउद्घाटयति, विघाटय सकलचोरैः सहितः राजगृहमनुपविशति, अनुप्रविश्य महता महता-अतिमहता शब्देन — उग्धोसमाणे २ ' उद्घोषयन् २-मुहुर्मुहुर्घोषणां कुर्वन् एवमवदत् , घोषणाप्रकारमाह-एवं खलु अहं हे देवानुप्रियाः ! चिलातो नाम चोरसेनापतिः पञ्चभिः चोरशतैः सार्द्धम् सिंहगुहातचोरपल्लीत इह ' हव्वं ' हव्यं= दुवारे कवाडे उदएणं अच्छोडेइ कवाडं विहाडेइ, विहाडित्ता रायगिहं अणुपविसइ अणुपविसित्ता महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासी -एवं खलु अहं देवाणुप्पिया चिलाए नामं चोरसेणावेई पंचहिं चोरसएहिं सद्धि सिंहगुहाओ चोरपल्लीओ इह हव्वमागए धण्णस्स सस्थवाहस्स गिहं घाउंकामे ) वहां आकर के उसने चर्ममय जलपान को-मसक को-अपने हाथ में लिया और उसके जल से आचमन किया-आचमन करके जब वह शुद्ध परमशुचीभूत हो चुका-तब उसने तालोद्घाटिनी विद्या का आवाहन किया-स्मरण किया-और स्मरण करके राजगृह के द्वार कपाटों को उदक के छीटों से सिश्चित किया। सिञ्चित करके फिर उसने उन किवाडों को खोला और खोल करके फिर वह समस्त चोरों के साथ राजगृह नगर के भीतर प्रविष्ट हो गया। प्रविष्ठ होकर के उसने वहां बड़े आवाजसे बारंबार घोषणा करते हुए इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! सुनो-मैं चोरसेनापति चिलात नाम का चोर हूँ-अभी २ रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएण अच्छोडेइ कवाड विहाउइ, विहाडित्ता रायगिह अणपविसइ, अणुपविसित्ता महया २ सद्देणं उग्धोसेमाणे २ एवं वयासी-एवं खलु अह देवाणुपिया चिलाए नामं चोरसेणावई पंचहि चोरसएहि सद्धि सिंहगुहाओ चोरपल्लीओ इइ हव्वमागए धण्णस सत्थवाहस्स गिह घाउकामे ) ત્યાં આવીને તેણે ચામડાની થેલી-મશકને પિતાના હાથમાં લીધી અને તેના પાણીથી આચમન કર્યું . આચમન કરીને જ્યારે તે શુદ્ધ પરમ શુચીભૂત થઈ ચૂકે ત્યારે તેણે તાલે દુઘાટિની વિદ્યાનું આવાહન કર્યું–સ્મરણ કર્યું, અને સ્મરણ કરીને રાજગૃહના દરવાજાનાં કમાડેને પાણીથી સિંચિત કરીને તેણે તે કમાડને ઉઘાડયાં. ઉઘાડીને તે બધા ચેરેની સાથે રાજગૃહ નગરની અંદર પ્રવિણ થઈ ગયે. પ્રવિષ્ટ થઈને તેણે ત્યાં મોટા સાદે વારંવાર વેષણ કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! સાંભળે, હું ચોર સેનાપતિ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम ६७७ शीघ्रम् आगतः धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं 'घाउकामे' घातयितुकामः लुण्ठयितुकामः हे देवानुप्रियाः ! यूयं शृणुत, पञ्चशतचौरैः सहाहं चिलातचोरसेनापतिरत्रधन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं लुण्ठयितुमागतोऽस्मीति भावः, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् 'जो णं' यः खलु ' णवियाए माउआए ' नव्यायाः मातृकायाः 'दुद्धं पाउकामे' दुग्धं पातुकामः यः खलु मदीयहस्तान्मृत्युं प्राप्य पुनर्भाविभवभाविन्या नूतनाया मातुर्दुग्धाभिलाषीभवेत् ' सेणं ' स खलु ‘णिग्मच्छउ ' निर्गच्छतु मम संमुख मागच्छतु 'त्ति कटु' इतिकृत्वा इत्थमुक्त्वा यौव धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं तत्रैव पांचसौ चोरों के साथ यहां सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से आया हुआ हूँ। मेरी इच्छा धन्यसार्थवाह के घर को लूटने की है-(तं) इसलिये -(जो णं णवियाए, माउयाए, दुद्धं पाउकामे सेणं णिग्गच्छउ, त्तिकटूटु जेणेव धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गिहं विहाडेइ। तएणं से धण्णे चिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं गिहं घाइजमाणं पासइ, पासित्ता भीए तत्थे ४ पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं एगंतं अवक्कमइ, । तएणं से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाएइ, घाइत्ता सुबहुधणकणग जाव सावएजं सुसमं च दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमइ,पडिणिक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) जो नवीन माता का दध पीना चाहता हो-मेरे हाथ से मृत्यु को प्राप्त कर पुनः भाविभव में होनेवाली जननी का दुग्ध पान करने का जो अभिलाषी बन रहा हो ચિલાત નામે ચોર છુ. હમણાં જ હું પાંચસે ચોરોની સાથે અહીં સિંહગાહ નામની ચાર૫લીથી આવ્યો છું. ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને લૂટવાની મારી ४०छ। छे. (त) माटे (जोणं णवियाए, माउयाए, दुद्धं पाउकामे सेणं णिग्गच्छउ, ति कह जेणेव धणस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धण्णस्स गिहं विहाडेइ, तएणं से धण्णे चिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं गि घाइज्जमाणं पासइ, पासित्ता भीए तत्थे४ पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं एगंतं अवक्कमइ । तएणं से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाएइ, घाइत्ता सुबह धणकणग जाव साबएज्जं सुंसमं च दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ पडि. णिक्खमइ, पडिक्खमित्ता जेणेव सीह गुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) જે નવી માતાનું દૂધ પીવા ઈચ્છે છે એટલે કે મારા હાથથી મૃત્ય પામીને ફરી બીજા ભવમાં થનારી માતાનું દૂધ પીવા જે ઈચ્છતા હોય તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे उपागच्छति, उपागत्य धन्यस्य गृहं — विहाडेइ ' विघाटयति=उद्घाटयति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः चिलातेन चोरसेनापतिना पञ्चभिः चोरशतैः साई गृहं 'घाइज्जमाणं ' घात्यमानं लुण्ठयमानं पश्यति, दृष्ट्वा, भीत: भयं प्राप्तः, त्रस्तः= त्रासंगतः, त्रसितः विशेषतस्त्रासं प्राप्तः 'उनिग्गे ' उद्विग्न: अयमस्माकं सर्वस्वमपहरति अहमस्य किमपि कर्तुं न शक्नोमीति हेतोः परमचिन्तामापन्नः, पञ्चभिः पुत्रैः सार्धम् ' एगंतं ' एकान्तम्-भयरहितं स्थानम् ' अवकमइ ' अपक्राम्यति अपगच्छति । ततः खलु स चिलातः चोरसेनापतिः धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं घातयति लुण्ठयति घातयित्वा लुण्ठयित्वा सुबहुं 'धणकणग जाव सावएज्ज' धनकनक यावत् स्वापते यम्-धनकनक मणिमौक्तिकादिकं द्रव्यं सुंसुमां च दारिकां गृह्णाति, गृहीत्वा राजगृहात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सिंहगुहा तत्रैव प्राधारयद् गमनायगन्तुमुद्यतोऽभूत् ॥ सू०६ ॥ -वही मेरे सम्मुख आवे-इस प्रकार कहकर वह जहां धन्यसार्थवाह का घर था वहां गया-वहां जाकर उसने धन्यसार्थवाह के घर को खोला जब धन्यसार्थवाह ने पांचसौ चोर के साथ चोरों सेनापति चिलात के द्वारा अपने घर को लुटता हुआ देखा तो देखकर वह भय को प्राप्त हो गया-और त्रस्त एवं त्रसित-विशेष त्रास को प्राप्त होकर अन्त में वह उद्विग्न बन गया यह हमारा सर्वस्व हरण कर रहा है और मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता हूँ-इस ध्यान से वह चिन्ताकुल हो गया और चिन्ताकुल होकर अपने पांचों पुत्रों के साथ वहां से निर्भय स्थान में चला गया। चोर सेनापति चिलात ने धन्य सार्थवाह को खूब मनमाना लूटा और लूट करके उसमेंसे बहुत सा धन कनक, मणि, मौक्तिक आदि द्रव्यों को एवं सुंसमादारिका को ले लिया-1 लेकर वह राजगृह नगर से મારી સામે આવે આ પ્રમાણે કહીને તે જ્યાં ધન્ય સાર્થવાહનું ઘર હતું ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તેણે ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને ઉઘાડયું જ્યારે ધન્ય સાર્થવાહ પાંચસ ચેરેની સાથે ચાર સેનાપતિ ચિલાત વડે પોતાના ઘરને લુંટાતું જોયું ત્યારે જોઈને તે ભયભીત થઈ ગયે. અને ત્રસ્ત તેમજ ત્રાસિત (વિશેષ વ્યાસ) પ્રાપ્ત કરીને છેવટે ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયા. આ અમારું સર્વસ્વ હરણ કરી રહ્યો છે અને હું એનું કંઈ જ બગાડી શકતું નથી. આ જાતને વિચાર કરીને તે ચિંતાકુળ થઈ ગયા અને ચિંતાકુળ થઈને તે પિતાના પાંચે પુત્રોની સાથે ત્યાંથી નિર્ભય સ્થાનમાં જતું રહ્ય ચેર સેનાપતિ ચિલાતે ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને ખૂબ ઈચ્છા મુજબ લૂંટયું અને લૂંટીને તેમાંથી ઘણું ધન, કનક, મણિ, મેતી વગેરે દ્રવ્ય તેમજ સંસમાં દારિકાને લઈ લીધી. લઈને તે રાજગૃહ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिका चरितनिरूपणम् ફ્લર્ मूलम् - तणं से धन्ने सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहुं धणकणगं सुंसुमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता, महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं गहाय जेणेव नगरमुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, तं महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं जाव उवर्णेति, उवणित्ता, एवं वयासी एवं खलु देवाशुपिया ! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपलीओ इहं हव्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं ममगिहं घाएता धणकणगं सुसुमं च दारियं गहाय जाव पडिगए । तं इच्छामो णं देवाणुपिया ! सुसुमा दारियाए कूवं गमित्तए, तुब्भं णं देवाशुप्पिया ! से विउले धणकणगे, ममं सुंसुमा दारिया । तएणं ते जगरगुत्तिया धण्णस्स एयमट्टं पडिसुर्णेति, पीडसुणित्ता संनद्ध जाव गहियाउहपहरणा महयार उक्किट्ट० जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाजा रायगिहाओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता, जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था । तएणं ते जगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावईं हयमहिय जाव पडिसेहेंति । तएणं ते पंच चोरसया णयरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विउलं धणकणगं विच्छड्डेमाणाय विष्पकिरेमाणा य सव्वओ वापिस निकला और निकल करके जहां सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी - उस ओर चलने के लिये उद्यत हो गया ।। सू०६ ॥ નગરમાંથી પાછે બહાર આવ્યે અને આવીને જ્યાં સિંહશુદ્ધા નામે ચારપલ્લી હતી તે તરફ રવાના થવા તૈયાર થઈ ગયા. ॥ સૂત્ર ૬ । શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे समंता विप्पलाइत्था । तएणं ते णगरगुत्तिया ते विउलं धण. कणगं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छति । तएणं से चिलाए तं चोरसेणं तेहिं णयरगुत्तिएहि हयमहिय जाव भीए तत्थे सुसुमं दारियं गहाय एगं महं अग्गामियं दीहमद्धं अडवि अणुप्पविट्रे। तएणं धण्णे सस्थवाहे सुंसुमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहं अवहीरमाणिं पासित्ताणं पंचहि पुत्तेहि सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्ध० चिलायस्स पदमग्गवीहि अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभितासेमाणे पिट्टओ अणुगच्छइ । तएणं से चिलाए तं धण्णं सत्थवाहं पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछठें सन्नद्धबद्ध० समणुगच्छ. माणं पासइ, पासित्ता अस्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे जाहे णो संचाएइ सुसुमं दारियं णिवाहित्तए, ताहे संते तंते परितंते नीलुप्पल. असि परामुसइ, परामुसित्ता सुंसुमाए दारियाए उत्तमंग छिदइ, छिदित्ता, तं गहाय तं अग्गामियं अडवि अणुप्पविदें। तएणं से चिलाए तीसे अगामियाए अडवीए तण्हाए अभिभूए समाणे पम्हुट्ट दिसाभाए, सीहगुहं चोरपल्लिं असंपत्ते अंतरा चेव कालगए। ____ एवामेव समगाउसो ! जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स जाव विद्धंसणधम्मस्स वण्णहेडं जाव आहारं आहारेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं४ हिलणिज्जे ३ जाव अणुपरियटिस्सइ, जहा व से चिलाए तक्करे ॥ सू०७॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिका चरितनिरूपणम् ६८१ टीका - ' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैव उपागच्छति उपागत्य सुबहु धनकनकं सुंसुमां च दारिकाम् अपहृतां ज्ञात्वा ' महत्थं महग्धं महरिहं ' महार्थ महार्थ महार्हम् = महानर्थः प्रयोजनं यस्मिन् तत् = महार्थ = महाप्रयोजनकम् बहुमूल्यं पुनः महतां योग्यम् ' पाहुडं प्राभृतं= उपायनं गृहीत्वा यचैव ' जगरगुत्तिया नगरगोप्तृकाः-नगररक्षकाः कोट्टपाला " " दयः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तत् महार्थं यावत् = महार्थ महार्ह माभृतम् उबणे ' उपनयति= समर्पयति, उपनीय = समर्थ्य एवमवदत् एवं खलु हे देवानु " ' तरणं से धन्ने सत्थवाहे' इत्यादि । टीकार्थ - (तएणं ) इसके बाद ( से धन्ने सत्थवाहे) वह धन्य सार्थवाह (जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ ) जहां अपना घर था वहां आया ( उवागच्छित्ता सुबहुं धणकणगं सुंसमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्थं महग्धं महरियं पाहुडं गहाय जेणेव नगर गुत्तिया तेणेव उवागच्छइ ) वहां आकरके उसने अपने घर में से बहुत सा धन कनक एवं सुसमा दारिका को हरण किया हुआ जब जाना तब वह महार्थ बहुमूल्य एवं महापुरुषों के योग्य भेंट लेकर जहां नगर रक्षक - कोहपाल - आदि थे वहां गया - ( उवागच्छित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं पाहुडं जाव उवर्णेति, उवणित्ता एवं वयासी) वहां जाकर उसने उस महाप्रयोजन साधक भूत बहुमूल्य तथा महापुरुषों के योग्य भेंट को उनके समक्ष रख दिया और रखकर उनसे उसने इस प्रकार कहा - ( एवं ' तरणं से धन्ने सत्थवाहे ' इत्यादि टीअर्थ - ( तणं ) त्या२पछी ( से धन्ने सत्थवाहे ) ते धन्य सार्थवाह ( जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ ) नयां पोतानुं घर तुं त्यां खाव्या. ( उवागच्छित्ता सुबहु धणकणगं सुंसमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्थं महग्धं महरियं पाहुडं गहाय जेणेव नगर गुत्तिया तेणेव उवागच्छइ ) ત્યાં આવીને તેણે પેાતાના ઘરમાંથી પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન, કનક અને સુંસમા દારિકાનું હરણ કરવામાં આવેલું જાણીને તે મહા, બહુ કિંમતી અને મહાપુરુષાને ચાગ્ય ભેટ લઇને જ્યાં નગર-રક્ષક-કટ્ટપાળ-વગેરે હતા ત્યાં गये. ( उवागच्छित्ता त महत्थं महग्धं महरिह पाहुडं जाव उबणेति, उवणित्ता एवं वयासी ) त्यांने तेथे ते महाप्रयोजन साधभूत जहु भिती तेमन મહા પુરુષાને યેાગ્ય ભેટને તેમની સામે મૂકી દીધી અને મૂકીને તેમને તેણે આ પ્રમાણે વિન ંતી કરતાં કહ્યું કે— શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे मिया ! चिलातश्वोरसेनापतिः सिंहगुहायाश्चोरपल्याः इह हव्यमागत्य पञ्चभिश्चोरशतैः सार्द्धम् मम गृहं 'घाएत्ता' घातयित्वा-लुण्ठयित्वा सुबहुं धनकनकं सुंसुमां च दारिकां गृहीत्वा 'जाव पडिगए' यावत् प्रतिगतः पञ्चभिश्चोरशतैः सार्ध सिंहगुहां चोरपल्ली प्रतिनिवृत्त इत्यर्थः, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् इच्छामः खलु हे देवानुपियाः ! 'मुंसुमा दारियाए सुंसुमा दारिकाया 'कूवं ' प्रत्यानयने 'गमित्तए' गन्तुम् । ' तुम्भेणं देवाणुप्पिया !' युष्माकं खलु हे देवानु प्रियाः ! तत्-अपहतं विपुलं धनकनकम् हे देवानुप्रियाः ! चोराऽपहृतं धनकनादिकं सर्व युष्माकं भवतु, मम सुंसुमा दारिका भवतु । ततः खलु ते नगरगोप्तकाः खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं मम गिहं घाएत्ता, सुबहुं धणकणगं सुंसमं च दारियं गहाय जाव पडिगए-तं इच्छामो णं देवाणुप्पिया! सुंसमा दारियाए कूवं गमित्तए-तुम्भणं देवाणुप्पिया से विउले धणकणगे ममं सुसमा दारिया) हे देवानुप्रियों सुनो चोर सेनापति चिलात चोर ने सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से यहां शीघ्र आकर पांचसौ चोरों के साथ मेरे घर पर डांका डाला है। उसमें उसने बहुत सा धन, कनक एवं सुंसमा दारिका को लूटा है और-लूटकर वह वहां वापिस अपने स्थान पर चला गया है। अतः हे देवानुप्रियों! मैं चाहता हूँ कि आप लोग उस सुंसमा दारिका को लेने के लिये जावें, मिलने पर वह हृत धनकनक आदि सब आपका रहे-और सुसमा दारिका मेरी (एवं खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाभो चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धि मम गिहं घाएत्ता, सुबहुं धणकणगं सुंसमं च दारियं गहाय जाव पडिगए तं इच्छामो णं देवाणुप्पिया ! सुसमा दारियाए कूवं गमित्तए-तुम्भं णं देवाणुप्पिया ! से विउले धणकणगे ममं सुंसमा दारिया) હ દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળે, ચોર સેનાપતિ ચિલાત ચારે સિંહગુહા નામની ચેરપલ્લીથી એકદમ અહીં આવીને પાંચસે ચોરોની સાથે મારા ઘરમાં ધાડ પાડી છે. તેમાં તેણે ઘણું ધન, કનક અને સંસમાં દારિકાની લૂંટ કરી છે. લૂંટ કરીને તે પાછે પિતાના સ્થાને જતો રહ્યો છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! મારી ઈચ્છા છે કે તમે સુંસમાં દારિકાને પાછી લેવા માટે જાઓ અને તેને મેળવી લીધા બાદ તે અપહુત કરાયેલું ધન કનક વગેરે બધું તમે રાખજે અને સંસમાં દારિકાને મને સેંપી દેજે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम् ६८३ पुरुषाः धन्यस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति स्वीकृर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य ' सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधप्रहणाः सनद्धबद्धवर्मितकवचा यावद् गृहीतायुधपहरणा इत्यस्य व्याख्या पूर्ववद् बोध्या, ' महया २ उकिट जाव समुदरवभूयंपिव ' महा महोत्कृष्ट यावत् समुद्ररवभूतमिव, वेलावृद्धिसमये समुद्रध्वनिमिव महाध्वनि · करेमाणा ' कुर्वन्तो राजगृहात् निर्गच्छन्ति, निर्गत्य रहे । (तएणं ते णगरगुत्तिया धण्णस्स सत्यवाहस्स एयममु पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा महया २ उक्किट्ट० जाव समुद्दरवभूयं पिवकरेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छंति णिगच्छित्ता जेणेव चिलाए चोरे-तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धि संपलग्गा यावि होत्था तएणं ते णगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावई हयमहिय जाव पडिसेहेंति, तएणं ते पंच चोरसया गयरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विउलं धणकणगं विच्छइमाणा य विप्पकिरेमाणा य सव्वओ समंता विप्पलाइत्था ) धन्य सार्थवाह की इस बात को सुनकर उन नगर रक्षकों ने स्वीकार कर लिया। और स्वीकार करके उसी समय उन्हों ने अपने २ शरीरपर कवच को सजित करके कशाबंधन से बांध लिया यावत् आयुध और प्रहरणों को ले लिया। वेलावृद्धि के समय में जिस प्रकार समुद्र की ध्वनि होती है-उसी प्रकार की महाध्वनि करते हुए फिर वे राजगृह नगर __ (तएणं ते णगरगुत्तिया धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमढे पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता सन्नद्ध जाव गहियाउहपरणा महया २ उक्किट्ठ० जाव समुदरवभूयं पिवकरेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छंति, णिगच्छित्ता जेणेव चिलाए चोरे-तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था-तएणं ते णगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावई हयमहिय जाव पडिसेहेंति, तएणं ते पंच चोरसया णयरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विउलं धणकणगं विच्छड्डेमाणा य विप्पकिरेमाणा य सव्वओ समंता विप्पलाइत्था) ધન્ય સાર્થવાહની તે વાતને સાંભળીને નગર રક્ષકેએ તેને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેમણે તરત જ પિતપોતાના શરીર ઉપર કવચો પહેરીને કશા બંધનથી બાંધ્યાં યાવત્ આયુધ અને પ્રહરણોને સાથે લઈ લીધાં. ભરતીના સમયે જે સમુદ્રને દવનિ હોય છે તે જ મહાધ્વનિ કરતાં તેઓ રાજગૃહ નગરમાંથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં ચેર સેનાપતિ તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे यत्रैव चिलातश्चोरः, तचैव उपागच्छन्ति, उपागत्य चिलातेन चोरसेनापतिना साध ' संपलग्गा' संप्रलग्नाः युद्धं कर्तुं प्रवृत्ताश्चापि अभवन् । ततः खलु नगरगोप्तकाः चिलातं चोरसेनापति ‘हयमहिय० जाव' हतमथित यावत्-हतमथित प्रवरवीरघातितनिपतितचिह्नध्वजपताकं-हता =मारिताः, मथिताः निश्शेषतां प्राप्तिताः, प्रवरवीराः श्रेष्ठवीरा यस्यासौ हतमथितपवरवीरः, घातितः घातः शस्त्रादिप्रहारेण क्षतिः, स संजातोऽस्य घातितः क्षत इत्यर्थः, निपतिता भूमौ पतिता चिह्वध्वज पताकाः यस्याऽसौ, निपतितचिह्नध्वजपताका, एतेषां कर्मधारयः, तम् , यावत् प्रतिषेधयन्ति-निवारयन्ति । ततः खलु ते 'पंचचोरसया' पश्चशतचौराः ‘णगरगोत्तिएहिं' नगरगोप्तकैः नगररक्षकैः पुरुषैः ‘हयमहिय जाव पडिसेहिया ' हतमथितयावत्पतिषेधिताः प्रतिषेधिताः सन्तः तत् विपुलं धनकनक-धनकनकमणिमौक्तिकादिकं 'विच्छड्डेमागा' विच्छर्दयन्तः प्रक्षिपन्तः 'विप्पकिरेमाणा य ' विपकिरन्तश्च-इतस्ततो विकिरणं कुर्वन्तः 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात्-चतुर्दिक्षु 'विप्पलाइत्या' विप्लायन्ता पलायिताः ततः खलु ते से बाहर निकले और निकलकर जहां चोर सेनापति वह चिलात चोर था वहां गये-वहां पहुँचते ही उनका चोर सेनापति उस चिलात चोर के साथ युद्ध होना प्रारंभ हो गया-उस युद्ध में उन्हों ने उस चिलात के सैन्य को पहिले खूब मारा-पीटा-वाद में उन्हें बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर दिया। कितनेक चोरों को उन्हों ने क्षत किया। उसकी चिब ध्वजपताकाओं को जमीन पर डाल दिया। इस प्रकार उसे हरतरह परास्त कर दिया। जब वे पांचसौ चोर नगररक्षक पुरुषों द्वारा हर प्रकारसे हतमथित यावत् प्रतिषेधित हो चुके तब वे उस विपुल धनकनक मणिमौक्तिक आदिको छोड़कर तथा इधर उधर डालकर सर्व प्रकारसे चारों दिशाओंमें इधर उधर भाग गये। (तएणं ते णयरगुत्तिया तं विउलं धणकणगं ચિલાત ચોર હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જતાંની સાથે જ ચોર સેનાપતિ ચિલાતની સાથે તેમનું યુદ્ધ શરૂ થઈ ગયું. યુદ્ધમાં તેમણે પહેલાં તે ચિલાતની સેના સાથે ખૂબ માર–પીટ કરી અને ત્યારપછી તેને નષ્ટ–ભ્રષ્ટ કરી નાખી. કેટલાક ચારેને તે તેમણે ક્ષત (ઘવાયેલા ) કર્યા. તેમની ચિઠ્ઠભૂત વિજા પતાકાઓને જમીનદોસ્ત કરી નાખી આ પ્રમાણે તેને બધી રીતે હરાવી દીધું. જ્યારે તે પાંચસે ચેરે નગર રક્ષક પુરુષો વડે સર્વ રીતે હત, મથિત યાવત્ પ્રતિષધિત થઈ ગયા ત્યારે તેઓ તે પુષ્કળ ધન, કનક, મણી, મેતી વગેરેને ત્યાં જ મકીને આમતેમ નાખીને ચારે દિશાઓમાં આમતેમ પલાયન થઈ ગયા. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६८५ नगरगोप्तृकाः नगररक्षकाः-तं विपुलं धनकनक०-धनकनकादिकं गृह्णन्ति, गृहीत्वा, यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव उपागच्छन्ति । ततः खलु स चिलातः तां चोरसेनां ' हयमहिय जाव' हतमथित यावत्-हतमथितमवरवीरघातितनिपतित चिहध्वजपताकाम् यावद् दृष्ट्वा भीतस्त्रस्तः सुंसुमा दारिकां गृहीत्वा एकां महतीम् 'अग्गामियं ' अग्रामिकाम् ग्रामरहिताम् — दीहमद्ध' दीर्घावां-दीर्घमार्गाम् 'अडविं' अटवीम्-अनुपविष्टः । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः सुंसुमां दारिकां चिलातेन 'अडवीमुहं ' अटवीमुखम् अरण्यसम्मुखम् ' अबहीरमाणि ' अपहियमाणाम्-नीयमानां 'पासित्ता' दृष्ट्वा पञ्चभिः पुत्रैः सार्द्धम् ' अप्पछ?' आत्मषष्ठः ' संनद्धबद्ध० ' सन्नद्धबद्धवर्मितकवचः चिलातस्य ‘पदमग्गवीहिं ' पदगेण्हंति, गेव्हित्ता, जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छति । तएणं से चि. लाए तं चोरसेणं तेहिं पयरगुत्तिएहिं यमहिय जाव भीए तत्थे सुंसमं दारियं गहाय एगं महं अग्गामियं दीहमद्धं अडविं अणुप्पविठे) उन नगर रक्षकों ने उस विपुल धन कनक आदिको ले लिया और लेकर राजगृह नगर में वापिस आ गये। इस के बाद वह चिलात चोर अपनी उस सेना को नगर रक्षकों द्वारा हत मथित प्रबल वीरवाली एवं घातित तथा निपतित चिन्ह ध्वज पताका वाली देखकर त्रस्त हो गया और सुसमादारिका को लेकर एक बड़ी भारी ग्रामरहित अटवी में घुस गया (तएणं धण्णे सत्थवाहे सुंसमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहं अवहिरमाणि पासित्ता णं पंचहिं पुत्तहिं सद्धि अप्पछट्टे सन्नद्धबद्ध चिलायस्स पदमग्गवीहिं अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हाक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे (तएणं ते णयर गुत्तिया तं विउलं धणकणगं गेण्हंति, गेण्हिता, जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छंति । तएणं से चिलाए तं चोरसेणं तेहिं णयरगुत्तिएहिं हयमहिय जाव भीए तत्थे सुंसमंदारियं गहाय एगं महं अग्गामियं दीहमदं अडविं अणुप्पविटे) તે નગર રક્ષકએ તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં પડેલાં ધન, કનક વગેરેને લઈ લીધું અને લઈને રાજગૃહ નગરમાં પાછા આવી ગયા. ત્યારપછી તે ચિલાત શારે પોતાની તે ચેર સેનાને નગર રક્ષક વડે હત, મથિત તેમજ ઘાતિત અને નિપતિત ચિહ્રધ્વજ પતાકાઓવાળી જોઈને ત્રસ્ત થઈ ગયો અને સંસમાં દારિકાને લઈને એક ભારે મોટી ગ્રામરહિત અટવીમાં પિસી ગયા. (तएणं धण्णे सत्यवाहे सुंसमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहं अवहीरमाणि पासित्ता णं पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्धचिलायस्स पदमग्गवीहि अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हाक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभिहासे श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्त्रे 4 6 मार्गविधिं=पदमार्ग प्रचारम् = चरण चिह्नम् 'अणुगच्छमाणे' अनुगच्छन् = पृष्ठतो धावन् 'अणुगज्जेमाणे' अनुगर्जन्= मेघवद्गर्जनां कुर्वन् ' हकारेमाणे 'हंभो ' दुष्ट ! तिष्ठ तिष्ठ' इत्यादि, वाक्यैः हकारयन = आकारयन् ' पुकारेमाणे ' पूत्कारयन् ' fag २, नोचेत्रां हनिष्यामीत्यादिवाक्यैः तमाहयन् ' अभितज्जेमाणे ' अभि तर्जन्= ' रे निर्लज्ज ' इत्यादि वाक्यैस्तर्जनां कुर्वन्, 'अभिता सेमाणे ' अभि त्रासयन्=अस्त्रशस्त्रादिदर्शनेन त्रासमुत्पादयन् 'पिटुओ' पृष्ठतः - चिलात वोरस्य पृष्ठदेशत: अनुगच्छति = पश्चाद्धावति । ततः खलु स चिलातः तं धन्यं सार्थवाह पञ्चभिः पुत्रैः सादर्धम् ' अप्पछ ' आत्मषष्ठं सन्नद्धवद्भवर्मितकवचं यावत् समनुगच्छन्तं=पश्चाद्धावन्तं पश्यति, दष्ट्वा ' अस्थामे ४ , अस्थामा - आत्मबलरहितः, अवल:- सैन्यरहितः, अवीर्यः = उत्साहरहितः, अपुरुषकारपराक्रमः सन् अभितासेमाणे पिट्ठाओ अणुगच्छइ ) धन्यसार्थवाह ने जब सुसमा दारिका को चिलात चोर द्वारा अटवी के मध्य में हरणकर ले जाई गई जब जाना - तब वह अपने पांचों पुत्रों के साथ आत्मषष्ठ होकर कवच बांध उस चिलात के पीछे २ पद चिह्नों का अनुसरण करता हुआ, मेघ के जैसी गर्जना करता हुआ, अरे ओ दुष्ट ! ठहर ठहर इस प्रकार से कहता हुआ, पुकार करता हुआ ठहर जा ठहर जा-नहीं तो में तुझे मार डालूंगा इस प्रकार के वाक्यों से उसे बुलाता हुआ रे निर्लज्ज ! इस प्रकार से उसे तर्जित करता हुआ, तथा अस्त्र शस्त्र आदि के दिखाने से उसे त्रास उत्पन्न करता हुआ चला । ( तरणं से चिलाए तं घण्णं सत्थवाह पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछ अन्नद्धबद्ध० समणुगच्छमाणं पासइ, पासित्ता अत्थामे अबले ६८६ माणे पिट्ठाओ अणुगच्छ ) જ્યારે ધન્ય સાવાડે ચુંસમા દ્વારિકાને ચિલાત ચાર વર્ક અટવીમાં હરણ કરીને લઈ જવાયેલી જાણી, ત્યારે તે પાતાના પાંચે પુત્રાની સાથે આત્મષષ્ઠ થઈને કવચ ખાંધીને તે ચિલાત ચારની પાછળ તેના પદ્મ ચિહ્નોનું અનુसर उरतो भेधना देवी ध्वनि उरतो " अरे थे। दुष्ट ! अलोरे, अलेारे, या प्रमाणे आहेत. “ अलोरे, अलोरे, नडितर भरी गयेसेो भागने" भा પ્રમાણે હાકલ કરતા, તેને ખેલાવતા · અરે નિજ્જ !' આમ તર્જિત કરતા તેમજ શસ્ર અસ્ર વગેરેને બતાવીને તેને ત્રસિત કરતા ચાલ્યા. "" ( aणं से चिलाए तं घण्णं सत्यवाहं पंचहि प्रत्तेहिं सद्धि अध्यच्छ सभद्ध बद्ध समजुगच्छमाणं पास, पासिता अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार O શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम् ६८७ पुरुषकारः पौरुषम् , पराक्रमः सामर्थ्य, तद्रहितः सन् ' जाहे ' यदा नो शक्नोति सुंसुमा दारिको ‘णिवाहित्तए' निर्वाहयितुंधोढुम् , ' ताहे ' तदा 'संते' श्रान्तः परिश्रमं गतः, 'तंते ' तान्ता ग्लानिं प्राप्तः, 'परितंते ' परितान्त:सर्वतोभावेन खिन्नतामुपगतः, 'नीलुप्पल. ' नीलोत्पल नीलोत्पगवलगुलि. कादि विशेषणविशिष्टमतितीक्ष्णम् 'असिं' करवालं 'परामुसइ' परामृशतिकोशान्निःसारयति, परामृश्य, सुंसुमाया दारिकायाः ' उत्तमंग ' उत्तमाङ्गं शिरः अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे जाहे णो संचाएइ सुसमं दारियं णिव्या हित्तए, ताहे संते तंते परितंते निलुप्पल० असिं परामुसह, परापुसित्ता सुसमाए दारियाए उत्तमंग छिदइ, छिदित्ता, तं गहाय तं अग्गामियं अडविं अणुपविटे, तएणं से, चिलाए तीसे आग्गामियाए अडवीए तण्हाए अभिभूए समाणे पम्हुट्टदिसाभाए सीहं गुहं चोरपल्लिं असं. पत्ते अंतराचेव कालगए ) जब चिलात चोर ने उस धन्यसार्थवाह को पांचो पुत्रों के साथ आत्मषष्ट होकर एवं कवच आदि से सुसज्जित होकर अपने पीछे २ आता हुआ देखा-तब वह देख कर आत्मबल रहित हो गया। इस तरह सैन्य रहित, उत्साह रहित तथा पौरुष और पराक्रम रहित बना हुआ वह जब सुसमा दारिका को अपने पास रखने के लिये शक्तिशाली नहीं हो सका तब उसने श्रान्त, तान्त-ग्लानि युक्त और परितांत सर्वतोभावेन खिन्नता को प्राप्त होकर नीलोत्पल, गवलगुलिका, आदि विशेषणों वाली अपनी तलवार को उठाया-म्यान परक्कमे जाहे णो संचाएइ सुंसमं दारियं णिचाहित्तए, ताहे संते तंते परितंते नीलुप्पल० असिं परामुसइ, परामुसित्ता सुंसमाए दारियाए उत्तमंगं छिदइ, छिदित्ता, तं गहाय तं अग्गामिय अडवि अणुपविटे, तएणं से, चिलाए तीसे आग्गामियाए अडवीए तहाए अभिभूए समाणे पम्हुट्ठदिसाभाए सीहगुहं चोरपल्लि असंपत्ते अंतरा चेव कालगए ) - જ્યારે ચિલાત ચારે તે ધન્ય સાર્થવાહને પાંચ પુત્રોની સાથે આત્મષષ્ઠ થઈને તેમજ કવચ વગેરેથી સુસજિજત થઈને પિતાની પાછળ પાછળ આવતે જે ત્યારે તે જોઈને આત્મબળ વગરને થઈ ગયે. આ પ્રમાણે સેના રહિત ઉત્સાહ રહિત તેમજ પૌરુષ અને પરાક્રમ રહિત થઈ ગયેલો તે જ્યારે સંસમાં દારિકાને પિતાની પાસે રાખવામાં પણ અસમર્થ થઈ ગયે ત્યારે તેણે શ્રાંત, તાંત, ગ્લાનિ યુક્ત અને પરિતાંત તેમજ બધી રીતે ખિન્નતા પ્રાપ્ત કરીને નીલે+લ, ગવલ ગુલિકા વગેરે વિશેષણાવાળી પિતાની તરવારને ઉપાડી અને મ્યાનમાંથી બહાર કાઢી અને બહાર કાઢીને સુંસમાં દારિકાનું માથું કાપી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे छिनत्ति, छित्त्वा, ' तं' वत्-उत्तमाङ्गं गृहीत्वा ताम् अग्रामिकाम् जनावासरहिताम् अटवीमनुमविष्टः प्रवेशं कृतवान् । ततः खलु चिलातः तस्यामग्रामिकायामटव्यां ' तण्हाए ' तृष्णया=पिपासया अभिभूतः सन् 'विम्हुट्टदिसाभाए ' विस्मतदिग्भागः पूर्वादिदिशाविवेकविकलः सन् सिंहगुहां चोरपल्लीम् ' असंपत्ते ' अस. म्माप्तः 'अंतराचेत्र ' अन्तरा एव-मध्य एव — कालंगए ' कालंगतः असौ चोरो मृत्यु प्राप्तवान् । अस्य शेषचरितं ग्रन्थान्तरादवसे यम् , शास्त्रेतु-उपयोगि चरितं तावन्मात्रं भगवतोपदिष्टम् ।। ___ अथ चिलातदृष्टान्तेन भगवान् निग्रन्थादीन् संबोध्य प्रतियोधयति-' एवामेव ' एवमेव अनेन प्रकारेणैव ' समणाउसो' आयुष्न्तः श्रमणाः ! ' जाव पव्वइए समाणे ' यावत् प्रत्रजितः सन् योऽस्माकं निम्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचार्योंपाध्यायानां समीपे प्रव्रजितः सन् 'इमस्स' अस्य ‘ओरालियसरीरस्स' औदारिकशरीरस्य वान्तात्रवस्य यावद् विध्वंसनधर्मस्य 'वण्णहेउं' वर्णहेतुं = कान्तिविशेषप्राप्त्यर्थम् , यावत्-' रूवहेउं ' रूपहेतुं-सौन्दर्याधर्थम् , 'बलहे' से बाहर किया और उठाकर सुसमा दारिका के मस्तक को काट डाला। उस कटे हुए मस्तक को लेकर फिर निर्जन अटवी में प्रवेश कर गया। उस अटवी में पिपासा से व्याकुल होकर वह पूर्वादि दिशाओं के विवेक से रहित हो गया-इस तरह वह पुनः वहां से पीछे वापिस अपनी सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली में नहीं आ सका-और वीच ही में काल कवलित बन गया। इसका अशिष्ट चरित्र ग्रंथान्तर से जान लेना चाहिये। यहां तो भगवान् ने जितना चरित्र इसका उपयोगी जाना उतनाही उपदिष्ट किया है !-( एवामेव समणाउसो ! जाव पन्धः इए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स जाव विद्धंसणधम्मस्स वण्णहेउजाव आहारं आहारेइ से णं इहलोए चेव बहणं समનાખ્યું. તે કપાએલા માથાને લઈને તે નિર્જન-ભયંકર અટવીમાં પિસી ગયો. અટવીમાં તે તરસથી વ્યાકુળ થઈને પૂર્વ વગેરે દિશાઓના વિવેકથી રહિત થઈ ગયો અને આ પ્રમાણે તે ફરી ત્યાંથી તે પિતાની સિંહગુહા નામની ચોર. પલીમાં કોઈ પણ દિવસે પાછો આવી શકે નહિ અને વચ્ચે જ મૃત્યુ પામે. તેનું બાકીનું ચરિત્ર બીજા ગ્રંથમાંથી જાણી લેવું જોઈએ, અહીં તે ભગવાને જેટલું ચરિત્ર તેનું ઉપયુક્ત જાણ્યું તેટલું કહ્યું છે. ( एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स जाव विद्धसणधम्मस्स वण्णहेउं जाव आहार आहारेइ सेणं इहलोए श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६८९ बलहेतुं शरीरबलबर्धनार्थम् , ' वीरियहेउं' वीर्यहेतुम् आन्तरिकशक्तिसम्पादनाथम् , आहारम् आहारयति, स खलु इह लोके एव बहूनां श्रमणानां श्रमणीनां श्रावकाणां श्राविकाणां च ' हीलणिज्जे जाव' हीलनीयो यावत् , यावत्पदेन, निन्दनीयः, खिंसनीयः गर्हणीयो भवेत् , परलोकेऽपि दुःखं प्राप्नोति, यावत्चातुरन्तसंसारकान्तारम् ' अणुपरियटिस्सइ ' अनुपर्यटिष्यति-भ्रमिष्यति, यथा स चिलातस्तस्करः-चिलाततस्करवदिति भावः ॥०७ ॥ मूलम्-तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहि सद्धिं अप्पछट्टे चिलायं परिधाडेमाणे२ तण्हाए छुहाए य संते तंते परितंते णाणं ४ हीलणिज्जे ३ जाव अणुपरियहिस्सइ जहाव से चिलाए तकरे) अब प्रभु इस चिलात के दृष्टान्त से निर्ग्रन्थ आदिकों को संबोधित कर प्रतिबोधित करते हैं-हे आयुष्मंत श्रमणों ! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रवजित होकर वान्तास्रववाले यावत् विध्वंसन धर्मवाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेष प्राप्ति के लिये सौन्दर्य आदिरूप विशेष के लिये, बलवधन के लिये तथा आन्तरिक शक्ति वृद्धि के लिये आहार को लेता हैकरता है - वह इस लोक में अनेक श्रमण श्रमणी, श्रावक तथा श्राविका जनों द्वारा हीलनीय यावत् निदनीय, खिंसनीय गर्हणीय तो होता ही है-परन्तु पर भवमें भी वह दुःखों कोही पाता है। यावत् ऐसा जीव इस चतुर्गतिरूप संसार कान्तार में चिलात चोर की तरह परिभ्रमण ही करता रहता है ॥ सूत्र ७॥ चेव बहूणं समणाणं४ हीलणिज्जे २ जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहाव से चिलाए करें) હવે પ્રભુ તે ચિલાતના દૃષ્ટાન્તને સામે રાખીને નિર્ગથ વગેરેને રસ બેધિત કરીને આજ્ઞા કરે છે કે તે આયુમંત શ્રમણ ! આ પ્રમાણે જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણ અથવા શ્રમણીજન આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રવજિત થઈને વાન્તાસ્ત્રવવાળા યાવતું વિધ્વંસન ધર્મવાળા આ ઔદારિક શરીરમાં કાંતિ વિશેષની પ્રાપ્તિ માટે, સૌંદર્ય વગેરે રૂપ વિશેષના માટે, બળવર્ધન માટે તેમજ આંતરિક શકિતને વધારવા માટે આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે આ લેકમાં ઘણું શ્રમણ, શ્રમણી, શ્રાવક તેમજ શ્રાવિકાઓ વડે હીલનીય યાવત્ નિંદનીય. ખિસનીય અને ગીંણીય તે હોય જ છે પણ સાથે સાથે તે પરભવમાં પણ દુઃખ જ મેળવે છે. યાવત એ જીવ આ ચતુર્ગતિ રૂપ સંસાર કાંતારમાં ચિલાત ચેરની જેમ ભટક્ત જ રહે છે. સૂત્ર ૭ | શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० ज्ञाताधर्मकथासूत्रे नो संचाएइ चिलायं चोरसेणावई साहस्थि गिहित्तए । से णं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा सुंसुमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सुसुमं दारियं चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ, पासित्ता परसुनियत्तेव चंपगवरपायवे धसत्ति धरणियलंसि निवडइ । तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे आसत्थे कूयमाणे कंदमाणे विलवमाणे महयार सदेणं कुहूर सुपरुन्ने सुचिरं कालं बाहमोक्खं करेइ । तएण से धपणे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समंता परिघाडेमाणे तण्हाए छुहाए य परिभूए समाणे ती अग्गामिया अडवीए सव्वओ समंता उद्गस्स मग्गणगवेसणं करे, करिता संते तंते परितंते, निव्विन्ने, तीसे अग्गामियाए अडवीए उद्गस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे नो चेवणं उदगं आसादेइ । तरणं से घण्णे सत्थवाहे अप्पछडे उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुंसुमा जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेहं पुत्तं धणदत्तं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - एवं खलु पुत्ता ! अम्हे सुंसुमाए दारियाए अट्ठाए चिलायं तकरं सव्वओ समंता परिधाडेमाणा तण्हाए हाए य अभिभूया समाणा इमीसे अग्गामियाए अडवीए उदग्गस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उद्गं आसादेमो, तरणं उदगं, अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए, तण्णं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधामृतवषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९१ तुम्हे ममं देवाणुप्पिया ! जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेइ, आहारित्ता, तेणं आहारेणं अबिद्धत्था समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामियं अडविं णित्थरिहिह, रायगिहं च संपावेहिह, मित्तणाइ० य अभिसमागच्छिहिह, अन्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह । तएणं से जेट्रपुत्ते धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे धण्णं सत्थवाहं वयासीतुब्भे णं ताओ ! अम्हे पिया गुरुजण य देवभूया ठावगा पइटावगा संरक्खगा संगोवगा तं कहण्णं अम्हे ताओ! तुब्भे जीवियाओ ववरोवेमो, तुब्भे णं मंसं च सोणियं च आहारेमो ? तं तुब्भे णं तातो! ममं जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामियं अडविं णित्थरह, तं चेव सव्वं भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह । तएणं धण्णं सत्थवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासी-मा णं ताओ ! अम्हे जे भायर गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुब्भे णं ताओ ! ममं जीवियाओ ववरोवेह जाव आभागी भविस्सह । एवं पंचमे पुत्ते तएणं से धणे सत्थवाहे पंचण्डं पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता, तं पचं पुत्ते एवं वयासी-मा णं अम्हे पुत्ता ! एगमावजीवियाओ ववरोवेमो, एसणं सुंसुमाए दारियाए णिप्पाणे णिच्चेठे जाव विप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता ! अम्हे सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए । तएणं अम्हे तेणं आहारेणं अविद्ध; स्थासमाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो। तएणं तं पंच पुत्ता શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे धपणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा एयमहं पडिसुर्णेति । तणं धणे सत्थवाहे पंचहिंपुत्तेहिं सद्धिं अरणिं करेइ, करिता, सरगं च करेइ, करिता, सरएणं अणि महेइ, महिता अरिंगपाडेइ, पाडित्ता, अरिंग संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुयाइं परिक्खेवेइ, परिक्खवित्ता, अग्गिपज्जालेइ, पज्जालिचा, सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारोंति । ते णं आहारेण अवित्था समाणा रायगिहं नयरं संपत्ता मित्तणाइ० अभिसमणागया तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव आभागी जाया या होत्था । तणं से धण्णे सत्थवाहे सुसुमाए दारियाए बहूई लोइयाई जाव विगयसोए जाए यावि होत्था || सू०८ ॥ टीका – ' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रैः सह आत्मषष्ठः चिलातं ' परिधाडेमाणे २ ' परिधावन् २ = चिलातं ग्रहीतुकामस्तपृष्ठतोऽनुधावन् 'तण्हाए छुहाए य ' तृष्णया क्षुधया च ' संते ' श्रान्तः, - मनसा खिन्नः, ' तंते ' तान्तः शरीरेण क्रांतः, 'परितंते' परितान्तः मनसा शरीरेण च -: तरणं से धण्णे सत्थवाहे । इत्यादि । टीकार्थ - (तए) इसके बाद ( पंचहि पुतेहि सद्धि अप्प से धणे सत्थवाहे) पांचो पुत्रों के साथ छठा बना हुआ वह धन्यसार्थवाह ( चिलायं परिधाडेमाणे २) चिलातचोर को पकड़ ने की इच्छा से उस के पीछे २ बार बार दौडता हुआ, ( तव्हाए छुहाए य संते तंते परितंते नो संचाइए चिलाये चोरसेणावई साहित्थि गिव्हिन्तए) पिपासा और 'तएण से धणे सत्थवाहे' इत्यादि टीडार्थ - ( तएणं ) त्यारपछी ( पंचहि पुत्तेहिं सद्धि अध्यछट्टे से घण्णे सत्यवाहे) यांचे पुत्रानी साथै छठ्ठो ते धन्य सार्थवाह ( चिलायं परिधाडेमाणे २ ) ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ તેને પકડી પાડવા માટે વારવાર દોડતાં દોડતાં ( तन्हाए छुहाए य संते तंते परितते नो संचाएह चिलायें चोरसेणावई साहस्थि गिण्डित्तए) तस्स भने लूजथी श्रांत थ गयो, भिन्न मनी गयी, तांत थ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९३ खिन्नः, ‘नो संचाएइ ' न शक्नोति चिलातं चोरसेनापतिं ' साहत्थि ' स्वहस्तेन ग्रहीतुम् । तदा स खलु 'तो' ततः-चिलातग्रहणव्यापारात् , ' पडिनियत्तइ ' प्रति निवर्तते, प्रतिनिवृत्य, यत्रैव सा सुंसुमा दारिका चिलातेन जीविताद् ‘वयरोविया' व्यपरोपिता-पृथक्कृता-मारिता सती पतिता आसीत् तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य सुंसुमा दारिकां चिलातेन जीवितादू व्यपरोपितां पश्यति, दृष्ट्वा ' परमुनियत्तेव ' परशुनिकृत्त इच-परशुच्छिन्नो यथा चम्पकवरपादपस्तद्वत् क्षुधा से श्रान्त हो गया-खिन्न बन गया, तान्त हो गया-शरीर से मुरझा गया-परितान्त हो गया-इकदम उत्साह रहित बन गया-सो वह उसे अपने हाथ से पकड़ने के लिये शक्तिशाली नहीं हो सको-(सेणं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा सुंसमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविया-तेणेव उवागच्छइ) अतः-वह वहां से लौट आयो-और लौटकर वहां गया जहां वह अपनी पुत्री सुंसमा चिलातचोर के द्वारा-जीवन से रहित की गई पड़ी थी। ( उवागच्छित्ता सुंसमा दारियं चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पासह, पासित्तो परसुनियत्तेव चंपगवरपायवे धसत्ति धरणियलंसि निवडइ-तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछडे आसत्थे कूयमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया २ सहेणं कुहू २ सुपरुन्ने सुचिरं कालंबाहमोक्खं करेइ ) वहां जाकर उसने सुंसमा दारिका को चिलातचोर के द्वारा जीवन से रहित की गई देखा। देखते ही वह पुत्रों सहित परशु से काटे गये उत्तम ગયે શરીર તેનું ચિડાઈ ગયું. પરિતાંત થઈ ગયે-સાવ નિરૂત્સાહી બની ગયે. એવી હાલતમાં તે પિતાના હાથથી તેને પકડી પાડવામાં સમર્થ થઈ या नडि (से गं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा सुसमा दारिया चिलाएणं जिवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ) तेथीत त्यांथी पाछ। ફરી ગયે. અને પાછા ફરીને તે જ્યાં ચિલાત ચાર વડે હણાયેલી પિતાની પુત્રી સુંસમાં દારિકા પડી હતી ત્યાં ગયો. (उवागच्छित्ता सुंसुमा दारियं चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पास पासित्ता परसुनियत्तेव चंपगरपायवे धसत्ति धरणियलंसि निवडइ,-तएणं से धण्णे सत्यवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछडे आसत्थे कूयमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया २ सदेणं कुहू २ सुपरुन्ने सुचिरं कालं बाहमोक्खं करेइ ) ત્યાં જઈને તેણે સંસમાં દારિકાને ચિલાત ચેર વડે હણાયેલી જોઈ જેતાની સાથે જ તે પુત્રની સાથે પરશુ વડે કપાએલા ઉત્તમ ચંપક વૃક્ષની श्री शतधर्म अथांग सूत्र:03 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ जाताधर्मकथासूत्र सपुत्रो धन्यः सार्थवाहः ' धसत्ति' धस' इति शब्दपूर्वकं धरणीतले निपतति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः आत्मषष्ठः 'आसत्थे ' आश्वस्त-उच्छ्वासं मुश्चन् सचेष्टः सन् ‘कूवमाणे ' कूजन = अव्यक्तशब्दं कुर्व 'कंदमाणे ' क्रन्दन उच्चस्वरेण, पुनः 'विलवमाणे' विलपन्-विलापं कुवन् ' महया महया सदेणं' महतामहता शब्देन-अत्युच्चैः शब्देन 'कुहू २ सुपरुन्ने ' कूहू २ सुमरुदन-कुहू कुहू इति शब्दमुच्चार्यात्यर्थ रुदितः सन् सुचिरं कालं बहुकालपर्यन्तं 'वाहमोक्खं' वाष्पमोक्षम् अश्रुमोचनं करोति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रैः सह आत्मषष्ठः चिलातं तस्यामग्रामिकायाम् अटव्यां सर्वतः समन्तात् परिधाडे चंपक वृक्ष के समान " धस" इस शब्द पूर्वक भूमिपर गिर पड़ा। बाद में पांच अपने पुत्रों के साथ आत्मषष्ट बना हुआ वह धन्यसार्थवाह आश्वस्त, उच्छ्वास छोड़ता हुआ सचेष्ट-हो गया सो अव्यक्त शब्द करता हुआ खूब जोर २ से रोने लगा, विलाप करने लगा। एवं बहुत ऊँचे २ शब्दों से कुहू कुहू करता हुआ-हाय सांसे लेता हुआ-बहुत देरतक रोता रहा-अश्रुमोचन पूर्वक आक्रंदन करता रहा-(तएणं से धण्णे सत्यवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अग्गामियाए अडवीए सवओ समंता परिधाडे माणे तण्हाए छुहाए य परिभूए समाणे तीसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समंता उद्गस्स मग्गणगवेसणं करेइ) इसके बाद पांचो पुत्रों के साथ आत्मषष्ठ बना हुआ वह धन्यसार्थवाह उस अग्रामवाली अटवी में चिलातचोर के पीछे पीछे बार २ दौड़ता हुआ तृषा और क्षुधा से पीडित होकर उस अग्रामवाली अटवी આમ “ ધમ - શબ્દની સાથે જમીન ઉપર પડી ગયો. ત્યારપછી પાંચે પુત્ર તેમજ છઠ્ઠો તે ધન્યસાર્થવાહ આશ્વસ્ત–ઉવાસ છેડતા–નિસાસા નાખો સચેષ્ટ થઈ ગયો અને અવ્યકત શબ્દ કરતે ધ્રુસકે ધ્રુસકે ખૂબ જોરથી રડવા લા, વિલાપ કરવા લાગે અને બહુ મોટા સાદે “કુઠ્ઠ કુદ્દ” કરતો હોય હાય કરીને શ્વાસ લેતા ઘણુવાર સુધી રડતો રહ્યો તેમજ આંસૂ પાડતા આકંદ કરતે રહ્યો. (तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं अपछठे चिलायं तीसे अग्गा मियाए अडवीए सचओ समंता परिधाडेमाणे तण्हाए छुहाए य परिभूए समाणे तीसे अग्गामियाए अडवीए सपओ समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेइ ) - ત્યારબાદ પાંચ પુત્રોની સાથે છઠ્ઠો તે ધન્યસાર્થવાહ તે ગામ વગરની નિર્જન અટવીમાં ચિલાત ચેરની પાછળ પાછળ વારંવાર દોડતે દેડતે તૃષા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९५ माणे ' परिधावन् तृष्णया क्षुधया च ' परिभूए ' परिभूतः सन् तस्यामग्रामिकायामटव्यां सर्वतः समन्तात्-चतुर्दिक्षु ' उदगस्स' उदकस्य जलस्य ' मग्गणगवेसणं ' मार्गणगवेषणम् अन्वेषणं करोति, कृत्वा श्रान्तः, तान्तः, परितान्तः 'णिविन्ने' निर्विष्णः औदासीन्यं प्राप्तः । तस्यामग्रामिकायामटव्यामुदकस्य मार्गणगवेषणं कुर्वन् नो चैव खलु उदकम् ‘आसादेइ ' आसादयति प्राप्नोति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाह आत्मषष्ठः उदकमनासादयन् पानीयमप्राप्नुवन् यत्रैव सुंसुमा जीविताद् व्यपरोपिता मारिता सती पतिताऽऽसीत् तत्रैव उपाग: च्छति, उपागत्य ज्येष्ठ पुत्रं धनदत्तं शब्दयति, शब्दयित्वा, एवमवदत्-एवं खलु में चारों दिशाओं में जल की मार्गणा और गवेषणा करने लगा (करित्ता संते तंते परितंते णिविन्ने तीसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे णो चेव णं उयगं आसाएइ) मार्गणा गवेषणा करके वह श्रान्त, मन से खिन्न, तान्तशरीर से खिन्न और परितान्त-बन गया शरीर एवं मन इन दोनों से खिन्न हो गया इस तरह उस अग्रामवाली अटवी में उदकपानी की मार्गणा और गवेषणा करते हुए भी उसे जल नहीं मिला (तएणं से धण्णे सत्थवाहे अप्पछटे उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुंसुमा दारिया जीवियाओ ववरोविया-तेणेव उवागच्छइ ) तब आत्मषष्ठ बना हुआ वह धन्यसार्थवाह उदक प्राप्त नहीं करता हुआ जहाँ सुंसुमादारिका का शव पड़ा हुआ-था वहां आया -(उवागच्छित्ता जेठं पुत्तं धणदत्तं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी) અને ક્ષુધા ( તરસ અને ભૂખ) થી પીડાઈને તે ગામ વગરની અટવીમાં ચોમેર પાણીની માર્ગણ અને ગવેષણ કરવા લાગ્યા. (करित्ता संते तंते परितंते णिविन्ने तीसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे णो चेव णं उदगं आसाएइ ) । માર્ગણ તેમજ ગવેષણ કરીને તે શ્રાંત, મનથી ખિન્ન, તાંત શરીરથી ખિન્ન અને પરિતાંત બની ગયે. શરીર તેમજ મન આ બંનેથી તે ખિન્ન થઈ ગયે. આ પ્રમાણે તે ગામ વગરની અટવીમાં ઉદક-પાણી-ની માણા ગવેષણ કરતાં તેને પાણી મળ્યું નહિ. (तएणं से धण्णे सत्थवाहे अप्पछठे उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुंसुमा दारिया जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ) ત્યારે આત્મષષ્ઠ બનેલે તે ધન્ય સાર્થવાહ પાણી ન મેળવતાં જ્યાં सुंसभा नि भई ५७युं तु त्या माव्या. ( उवागच्छित्ता जेटुं पुत्तं धण. दत्तं सहावेई सद्दावित्ता एवं वयासी) यां मावाने तो पाताना मोटा पुत्र ધનદત્તને બેલા અને બેલાવીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે– શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ' हे पुत्राः वयं सुमाया दारिकायाः ' अडाए' अर्थाय = निमित्तं चिलातं तस्करं प्रति ' सव्वओ समता' सर्वतः समन्तात् = अटव्यां चतुर्दिक्षु ' परिधाडेमाणा' परिधावन्तः ' तहाए ' तृष्णया = पिपासया, ' छुहाए' क्षुधया व अभिभूताः सन्तः अस्यामग्रामिकायामटव्यामुदकस्य मार्गणगवेषणं कुर्वन्तो नो चैत्र खल उदकमासादयामः, ततः खलु उदकम् अनासादयन्तः = अलभमानाः नो शक्नुमो राजगृहं संप्राप्तुम्, 'तणं ' तत्खलु तस्मात् कारणात् खलु यूयं मां हे देवानुप्रियाः ! जीविताद् व्यपरोपयत, मांसं च शोणितं च ' आहारेह ' आहारयत, आहार्य = भुक्त्वा, ' तेणं आहारेणं तेन आहारेण ' अविद्धत्था ' अविध्वस्ताः = शरीरनाशमप्राप्ताः सन्तः तृप्ताः सन्तः ' तओपच्छा ' ततः पश्चात् इमामग्रामिकावहां आकर के उसने अपने जेष्ट पुत्र धनदत्त को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा - ( एवं खलु पुत्ता ! अम्हे सुंसमाए दारियाए अट्ठाए चिलायें तक्करं सव्वओ समता परिघाडेमाणा तव्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमी से अग्गामियाए अडवीए उद्गस्स मागण गवसणं करेमाणा णो चेव णं उदगं आसाएमो - तरणं उदगं अणासा एमाणा णो संचारमो रायगिहं संपावित्तए) हे पुत्र सुनो अपने लोग सुसमा दारिका के निमित्त चिलातचोर के पीछे २ सब तरफ सब प्रकार से दौड़ते २ प्यास और भूख से दुःखी हो गये हैं हमने इस अग्रामवाली अटवी में पानी की मार्गणा और गवेषणा भी की- परन्तु वह मिला नहीं अतः पानी की प्राप्ति के अभाव में अब रोजगृह नगर में पहुँचने के लिये हम असमर्थ बन चुके हैं । ( तरणं तुम्हे ममं देवाणुपिया ! जीवियाओ वबरोबेह मंसं च सोणियं च आहारेह, आहारिता तेणं आहारेणं अविद्वत्था समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामियं अडविं णित्थ ( एवं खलु पुत्ता ! अम्हे सुसुमाए दारियाए अट्ठाए चिलायें तक्करं सव्वओ समता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमीसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो वेत्र णं उदगं आसाए मो- तणं उदगं अणसामाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए ) હે પુત્ર! સાંભળ, અમે સંસમા દારિકાને મેળવવા માટે ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ આમતેમ ચારે તરફ્ ભટકતાં ભટકનાં તરસ અને ભૂખથી દુ:ખી થઈ ગયા છીએ. અમેએ આ ગામ વગરની અટવીમાં પાણીની માગણુા અને ગવેષણા પર કરી છે, પણ અમે હજી મેળવી શકયા નથી. એથી હવે પાણીના અભાવમાં અમે રાજગૃહ નગરમાં પહોંચી શકીશું તેમ લાગતું નથી. ( तरणं तुम्हे ममं देवाणुपिया ! जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेइ, आहारिता तेणं आहारेणं अविद्धत्या समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामियं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १८ सुसुपादारिकाचरितवर्णनम् ६९७ 6 9 6 Heat ' णित्थरिsिe ' निस्तरिष्यथ = पारङ्गमिष्यथ, राजगृहं च ' संपाविद्दिह ' संप्राप्स्यथ ' मित्तणाई० य' मित्रज्ञातिश्च = मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनान अभिसमागच्छहिह ' अभिसमागमिष्यथ = मित्रज्ञातिप्रभृतिभिः सह संगता भवि व्यथ, तथा च ' अत्थस्स ' अर्थस्य धनस्य च धर्मस्य च पुण्यस्य च 'आभागी ' अभागिनो भोक्तारो भविष्यथ । ततः खलु स ज्येष्ठपुत्रो धन्येन सार्थवाहेन एव मुक्तः = अनेन प्रकारेण कथितः सन् धन्यं सार्थवाहमेव मवदत् - हे तात ! यूयं खलु अस्माकं पिता ' गुरुजण देवयभूया' गुरुजनदैवतभूताः = देवगुरुजनसदृशाः ठावका स्थापकाः नीतिधर्मादौ पट्टाबका' प्रतिष्ठापकाः = राजादिसमक्षं स्वपदस्थापनेन प्रतिष्ठाकारकाः तथा 'संरक्खगा' रिहिय रायगिहं च संपावेहिह ) इसलिये हे देवानुप्रियों ! तुम मुझे मारडालो और मेरे माँस और रक्त से तुम अपने प्राणोंकी रक्षाकर शरीर के विनाश होने से बचाकर इस अग्रामिक अटवी से पार हो जाओगे - एवं राजगृह नगर पहुँच जाओगे । ( मित्ताणाइ० य अभिसमागच्छिहिह अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह, तरणं से जेट्टे पुसे) वहां पहुँचकर तुम अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबन्धी परिजनों के साथ मिलोगे तथा धन, धर्म और पुण्य के भोक्ता भी बनोगे- इसके बाद उस ज्येष्ठ पुत्र धनदत्त ने ( घण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी ) धन्यसार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन अपने पिता धन्यसार्थवाह से इस प्रकार कहा (तुभे णं ताओ ! अम्हं पिया गुरुजणयदेवभूया ठावगा aafi freeरिहि रायगिहं च संवेदिह ) 6 એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મને મારી નાખા અને મારા માંસ અને રક્તને ખાવે, પીવેા ખાધાં-પીધાં પછી તમે શરીરના વિનાશથી ઊગરી જશે અને તૃપ્તિ મેળવીને આ ગામવગરની અટવીને પાર કરી જશે! અને છેવટે રાજગૃહ નગરમાં પહેાંચી જશે. (मिताणाइ य अभिसमागच्छिहिह अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह, तरणं से जेट्टे पुत्ते ) ત્યાં પહોંચીને તમે પેાતાના મિત્ર,જ્ઞાતિ, સ્વજન,સ...બધી પિરજનાની સાથે મળશે તેમજ ધન, ધર્મ અને પુણ્યાના ઉપભેગ કરશે. ત્યારપછી મેાટા પુત્ર ધનદત્ત ( घण्णेणं सत्थवाहेणं एवे वुत्ते समाणे घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी ધન્ય સાવહ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયા બાદ પાતાના પિતા ધન્ય સા વાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે. ८८ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ जाताधर्मकथानसूत्रे संरक्षकाः यहच्छाप्रवृत्तेः । संगोवगा ' संगोपका दुश्चरितप्रवृत्तेः, 'त' तत्-तस्मात् कारणात् ' कहणं ' कथं खलु-केन प्रकारेण खलु हे तात ! वयं युष्मान् जीविताद् व्यपरोपयामः-मारयामः, युष्माकं खलु मांसं च शोणितं च कथम् आहारयामः ? ' तं' तत्-तस्माद् यूयं खलु हे तात! मां धनदत्तनामानं जीविताद् व्यपरोपयतमारयत मम मांसं च शाणितं च आहारयत, अग्रामिकामटवीं ' णित्थपइट्ठावगा संरक्खगा संगोवगा तं कण्णं अम्हे ताओ ! तुम्भे जीवियाओ ववरोवेमो तुभ णं मंस च सोणियं च आहारेमो अग्गमियं अडविं णित्थरह तं चेव सव्वंभणइ जाव अस्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह ) हे नात! आप हमारे पिता है इसलिये आप मेरे लिये देव, गुरुजन के स्थान भूत हैं । नीति धर्म आदि में मुझे स्थापित करते रहते हैं। राज आदि समक्ष आप अपने पद पर मुझे बैठाते है इसलिये आप मेरे लिये स्थापक एवं प्रतिष्ठापक हैं यथेच्छा प्रवृत्ति से आप हमारी सदा रक्षा करते रहते हैं इसलिये आप मेरे संरक्षक हैं, दुश्चरित-प्रवृत्ति से आप हमे रोकते रहते हैं इसलिये आप मेरे संगोपक हैं, तो कैसे मैं हे तात! आप को जीवन से रहित कर सकता हूँ। और कैसे आप के शोणित और मांस को खा सकता हूँ। इसलिये हे तात ! आप ही मुझे जीवन से रहित कर दीजीये और मेरे खून और मांस को आप खाइये ताकि आप इस अग्रामिक अश्वी को पार कर सके और राजगृह नगर (तुम्भेणं ताओ ! अम्हं पिया गुरूजणयदेवभूया ठावगा पइट्ठावगा संरक्खगा संगोवगा तं कहां अम्हे ताओ ! तुम्भे जीवियाओ ववरोवेमो तुभं णं मंसं च सोणियं च आहारेमो अगामियं अडविं णित्थरह तं चेव सव्वं भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह ) હે તાત ! તમે અમારા પિતા છે, એથી તમે અમારા દેવ અને ગુરૂના સ્થાને છે. તમે મને નીતિ ધર્મ વગેરેમાં પ્રવૃત્ત પણ કરતા રહે છે. રાજા વગેરેની સામે તમે પિતાના સ્થાને મને બેસાડે છે એથી તમે મારા સ્થાપક અને પ્રતિષ્ઠાપક છે. યથેચ્છા પ્રવૃત્તિથી તમે મારી રક્ષા કરતા રહે છે એથી તમે મારા સંરક્ષક છે, દુશ્ચરિત પ્રવૃત્તિથી તમે મને રોતા રહે છે, એથી તમે મારા સંગોપક છે. તે આવી પરિસ્થિતિમાં હે તાતહું તમને કેવી રીતે જીવન રહિત બનાવી શકું અને કેવી રીતે તમારા શેણિત અને માંસનું ભક્ષણ કરી શકું ? એથી હે તાત ! તમે મુજ ધનદત્તને જ જીવન રહિત બનાવી દે અને મારા ખૂન અને માંસનું તમે ભક્ષણ કરો. જેથી તમે આ ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે અને રાજગૃહ નગરમાં પહોંચીને ત્યાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिगो टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ९९ रह ' निस्तरत-पारंगच्छत, ' तंचेव सव्वं भणह' तदेवसर्व भणति-यथा धन्य सार्थवाहो ज्येष्ठं पुत्रमवदत् , तथैवायमपि तदेव सर्व कथयति, यावत् अर्थस्य धर्मस्य पुण्यस्य च आभागिनो भविष्यथ । ततः खलु धन्यं सार्थवाहं ' दोच्चे' द्वि. तीयः पुत्रधनपालनामा एवमवदत्-मा खलु हे तात ! अस्माकं ज्येष्ठं भ्रातरं 'गुरुदेवयं ' गुरुदैवतं देव-गुरुसदृशम् , जीविताद् व्यपरोपयामा-मारयामः, यूयं खलु हे तात ! ' ममं ' मां-धनपालनामानं जीविताद् व्यपरोपयत यावत् अर्थादिफलभाजो भविष्यथ । ' एवं =अनेन प्रकारेण · जाव पंचमेपुत्ते' यावत् पहुंच कर वहां अपने मित्रादि परिजनों के साथ मिल सके। तथा धन धर्म एवं पुण्य के भोक्ता बन सके। "तं चैव सव्वं भणइ" इसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार धन्यसार्थवाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, धनदत्त से कहा-उसी प्रकार धनदत्त ने भी अपने पिता से वैसाही कहा(तएणं धण्णं सत्यवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासी-माण ताओ ! अम्हे जेटे भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो-तुम्भेणं ताओ ! ममं जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामियं अडविं णित्यरह तं चेव सव्वं भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भवि. स्सह ) इसके बाद धन्यसार्थवाह से उसके द्वितीय पुत्र ने इस प्रकार कहा-हे तात ! आप हमारे गुरु देवतातुल्य ज्येष्ठ भाई को जीवन से रहित मत कीजिये किन्तु आप तो हे तात ! मुझे ही जीवितसे रहितकर दीजिये और मेरे ही रक्त एवं मांस को आप खाईये पीईये-ताकि इस अग्रामिक अटवी से पार हो सके इत्यादि पहिले जैसा ही इसने પિતાના મિત્રો વગેરે પરિજનોની સાથે મળી શકે. તેમજ ધન ધર્મ અને पुयना माता मनी 31. “तचेव सव्वं भणइ" मान! म माम थाय છે કે જેમ ધન્ય સાર્થવાહે પિતાના મોટા પુત્ર ધનદત્તને કહ્યું તેમજ ધનદેને પણ પિતાના પિતાને કહ્યું. (तएणं धणं सत्थवाहं दोच्चे पुत्ते एवं क्यासी-माणं ताओ ! अम्हे जेटे भायरं गुरूदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भेग ताओ ! ममं जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामि यं अडविं णित्थरह तं चेव सव्वं भणइ जाब अत्थस्स जाव पुण्णस्त आभागी भविस्सह ) ત્યારપછી ધન્ય સાર્થવાહને તેના બીજા પુત્રે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે તાત! તમે અમારા ગુરુદેવતા જેવા મોટા ભાઈને જીવન રહિત ન કરે પણ હે તાત ! તમે મને જ મારી નાખે અને મારા જ લેહી અને માંસને તમે ખાઓ પીઓ, જેથી તમે આ ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે, આમ श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० शाताधर्मकथासूत्र पश्चमः पुत्रा नृतीयो धनदेवश्चतुर्थों धनगोपः, पञ्चमो धनरक्षितश्चाऽप्यवदत् । ततः इत्थं तेषां वचनश्रयणानन्तरं, खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चपुत्राणां 'ह्यिइच्छियं' हृदयेष्टम् हृदयेप्सितं ज्ञात्वा तान् पुत्रान् एवमयादीत-मा खलु वयं हे पुत्राः ! एकमपि अस्माकं मध्येएकमपि जीचिताद् व्यपरोपयामः एतत् खलु सुसुमाया दारिकायाः शरीरं 'णिप्पाणं' निष्प्राण-प्राणरहितम् , ' णिच्चेट्ट' निश्चेष्टंचेष्टारहितम् ' जीवविप्पजढे ' जीवविप्रत्यक्तम् जीवहीनम् , सर्वथा मृतमस्ती त्यर्थ?, तच्छ्रेयः-उचितं खलु हे पुत्राः ' अम्हं ' अस्माकम् सुंसुमाया दारिकाया मांसं च शोणित च आहत्तुम् , ततः तदनन्तरं च खलु वयं तेन आहारेण 'अ. सब कहा ( एवं पंचमे पुत्ते) इसी तरह उससे तृतीय धनदेवने चतुर्थ धनगोपने एवं पांचये धनरक्षित ने भी कहा-(तएणं से धण्णे सत्यवाहे पंचण्हं पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता तं पंचपुत्ते एवं बयासी) इस के बाद उस धन्यसार्थवाह ने पांचों पुत्रों के अभिप्राय को जानकर उन अपने पांचों ही पुत्रों से इस प्रकार कहा-(माणं अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो एसणं सुसमाए दारियाए सरीरए णिप्पाए णिच्चे? जीवविप्पजढे-तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुसमाए दारियाए मंसं च सोणियं च अहारेत्तए) हे मेरे पुत्रों! मैं एक को भी जीवन से रहित नहीं करना चाहता हूँ किन्तु यह सुसमादारिका का शरीर जो कि निष्प्राण, निश्चेष्ट, और जीवन से रहित बन गया है-इसलिये हमे उचित है कि हे पुत्रों ! हम इस सुंसमदारिका का मांस एवं शोणित तो पहaiनी भ४ मधु ५युं. (एवं पंचमे पुत्ते ) प्रमाणे ४ तेने ત્રીજા ધનદેવે, ચેથા ધનગોપે અને પાંચમા ધનરક્ષિત પણ કહ્યું. (तएणं से धण्णे सत्थचाहे पंचण्हं पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता तं पंच पुत्ते एवं ययासी) ત્યારપછી તે ધન્ય સાર્થવાહ પાંચ પુત્રોની હદયની અભિલાષા જાણીને પિતાના તે પાંચ પુત્રોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે – (माणं अम्हे पुत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो एसणं सुसमाए दारि. याए सरीरए णिप्पाणे णिच्चेट्टे जीयविप्पजढे-तं से यं खलु पुत्ता ! अम्हं सुंसमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए) હે મારા પુત્રો ! તમારામાંથી એકને પણ હું મારવા માગતો નથી. પરંતુ આ સંસમાં દારિકાનું શરીર કે જે નિપ્રાણ, નિચેષ્ટ અને નિર્જીવ બની ગયું છે–એટલા માટે અમારા માટે હે પુત્ર! એ જ યોગ્ય છે કે આપણે આ સસમા દારિકાનાં માંસ અને શેણિતને ખાઈએ. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १८ सु सुमादारिकापरितवर्णनम् ७०१ विद्धत्था समाणा' अरिध्यस्ताः शरीरनाशमप्राप्ताः सन्तः राजगृहं 'संपाउणि स्सामो ' संप्राप्स्यामः । ततः खलु ते पञ्चपुत्राः धन्येन सार्थवाहेन एवमुक्ताः सन्तः 'एयमहूं' एतमर्थम् पूर्वोक्तरूपम् ' पडिसुणेति' प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकु. चन्ति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रैः सार्द्धम् । अरणिं' अरणिं यस्मिन् मथ्यमानेऽग्निरुत्पद्यते तत्काष्ठम् 'करेइ' करोति-संग्रहाति, कृत्वा 'सरगं' सरकम-निमन्थनकाष्ठं करोति-आनयति कृत्या, सरकेण अरणिं मथ्नातिघर्षयति मथित्या, 'अग्गि पाडेइ ' पातयति मन्यनवशादग्निमुत्पादयति 'पाडित्ता' पातखावें । (तएण अम्हे तेणं आहारेणं अविद्धत्था समाणा रायगिहं संपाउ. हिस्सामो-तएणं ते पंच पुत्ता धण्णेणं सत्थयाणं एवंयुत्ता समाणा एयमढे पडिसुणेति) इस से हमलोग उस आहार से शरीर नाश को अप्राप्त होकर राजगृह नगर में पहुँच जावेंगे। इस प्रकार धन्यसार्थवाह के द्वारा कहे गये उन पांचों पुत्रों ने धन्यसार्थवाह के इस कथन को स्वी कार कर लिया। (तएण धणे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणिकरेइ, करित्ता सरगंच करेइ, करित्ता सरएणं अरणिं महेइ, महित्ता अ. गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधुक्खेइ, संधुविखत्ता दारुयाई परिक्खवेइ परिक्खचित्ता अग्गि पज्जालेइ पन्जालित्ता सुंममाए मंसं च सोणियं च आहारेति ) इस के बाद धन्यसार्थवाह ने पांचों पुत्रों के साथ मिलकर अरणिकाष्ठ को एकत्रित किया। एकत्रित कर के फिर वह सरक काष्ठ को निर्मथनकाष्ठ को ले आया-उसे लेकर के उसने उससे अरणि का घर्षण किया। इस तरह घर्षण से अग्नि उत्पन्न हो गई । अग्नि के (तएणं अम्हे तेणं आहारेण अविद्धत्था समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो तएणं ते पंच पुता धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्तासमाणा एयम पणिसुणेति) એથી આપણે બધા આ આહારથી શરીર નાશથી ઊગરી જઈને રાજગૃહ નગરમાં પહોંચી જઈશું. આ પ્રમાણે ધન્ય સાર્થવાહ વડે કહેવાયેલા પાંચે પુત્રેએ ધન્ય સાર્થવાહની તે વાતને સ્વીકારી લીધી. (तएणं धण्णे सत्थयाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणि करेइ, करित्ता, सरगं च करेइ, करित्ता सरएणं आणि महेइ, महित्ता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधु. क्खेइ, संधुक्खित्ता दारुपाई परिक्खवेइ, परिक्खवित्ता अग्गि पज्जालेइ, पज्जा. लित्ता सुंसमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेति ) ત્યારપછી ધન્ય સાર્થવાહ પાંચે પુત્રની સાથે મળીને અરણિ કાષ્ટને 23 . शन तेमा स२४ ॥४ने-निमयन ४ने आल्या. તેને લઈને તેણે તેથી અરણિકા કાકનું ઘર્ષણ કર્યું. આ પ્રમાણે ઘર્ષણથી અગ્નિ श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ ____ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यित्वा-उत्पाद्य अग्नि - संधुक्खेइ' संधुक्षयति-उद्दीपयति, संधुक्ष्य उद्दीप्य 'दारुयाई' दारु काणि-इन्धनानि तत्र 'परिक्खिवइ ' परिक्षिपति, परिक्षिप्य, अग्नि पज्यालयति, प्रज्वाल्प, सुंमुमाया दारिकाया भर्जितं मांसं च शोणितं च ' आहारेइ' आहारयति । अनन्तरं तेन आहारेण · अविद्धत्था' अविध्वस्ताः शरीरनाशमप्राप्ताः सन्तो राजगृहं नगरं संप्राप्ताः 'मित्तणाई० अभिसमण्णागया' मित्रज्ञाति-मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनैः सह 'अभिसमण्णागया' अभिसमन्यागताः= संमिलिताः सन्तः तस्य च विपुलस्य 'धणकणगरयण जाय' धनकनक रत्न यावत् =धनकनकरत्नादिकस्य 'आभागी जाया यावि होत्था' आभागिनो जाताश्चाप्यभवन् । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः सुम्माया दारिकाया बहूनि लौकिकानि उत्पन्न होने पर उसने फिर उसे धोंका-उद्दीपित किया-जब वह उद्दीपित हो चुकी-तब उसने उसमें लकडियों को लगाया। इस तरह की क्रिया से जब अग्नि अच्छी तरह प्रज्वलित हो चुकी-तब उसमें सुसमा दारिका के मांस को और खून को भूजा-भूजकर उसे सबने खाया पीया-(तेण आहारेण अविद्धत्था समाणा रायगिहं नयरं संपत्ता मित्तणाइ० अभिप्तमणागया तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव आभागी-जाया याबि होत्था तएण से धण्णे सत्यवाहे सुंसमाए दारिया ए बहूई लोइयाइं जाब विगयसोए याविहोत्या) इस प्रकार उस आहार की सहायता से अविध्वस्त शरीर होकर वे वहां से चल कर राजगृह नगर में आ गये । यहाँ अकार वे अपने मित्रज्ञाति आदि परिजनों से खूब हिले मिले । एवं धनकनक आदि द्रव्य के भोक्ता भी बन गये । ઉત્પન્ન થઈ ગયા. અગ્નિ ઉત્પન્ન થયા બાદ તેણે તેને ઉદ્દીપિત કર્યો. જ્યારે તે ઉદીપિત થઈ ગયો ત્યારે તેણે તેમાં લાકડીઓ મૂકી. આ રીતે જ્યારે સારી રીતે અગ્નિ પ્રજવલિત થઈ ગયે ત્યારે તેમાં સુંસમાં દારિકાના માંસને અને લેહીને શેક્યાં, શેક્યા બાદ તેને બધાએ ખાધા-પીધાં. ( तेणं आहारेणं अविद्धत्था समागा रायगिहं नयरं संपत्ता, मित्तणाइ० अभिसमणा गया, तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाय आभागीजाया यावि होत्था तएणं से धण्णे सत्यवाहे सुंसमाए दारियाए बहूई लोइयाई जाव विगयसीए यावि होत्था) તે આહારની સહાયતાથી અવિનષ્ટ શરીરવાળા થઈને તેઓ ત્યાંથી રવાના થઈને રાજગૃહ નગરમાં આવી ગયા. ત્યાં આવીને તેઓ પિતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનની સાથે ખૂબ આનંદ-પૂર્વક મળ્યા, અને ધન, કનક વગેરે દ્રવ્યોને ભેગવવા લાગ્યા. સંસમા દારિકાના મરણ પછીનાં જેટલાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १८ सुसुमादारिकाचरित वर्णनम् ७०३ मृतकृत्यानि कृत्या कालान्तरे — विगयसोगे ' विगतशोकः=सुंसुमामरणजनितशोकरहितो जातश्चास्यभूत् ।। सू०८॥ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए समोसढे।से णं धण्णे सत्थवाहे सपुत्ते धम्म सोचा पवइए, एकारसंगवी। मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णा, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। जहा वि य णं जम्बू! धण्णेणं सत्थवाहेणं णो वण्णहेउं वा नो रूवहेडं वा नो बलहेडं वा नो विसयहेडं वा सुंसुमाए मंससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्रयाए । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स बंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासयस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सं विप्पजहियव्वस्स वा नो वण्णहेउं वा नो रूबहेडं वा नो बल. हेडं वा नो विसयहेउं वा आहारे आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूर्ण सावयाणं बहणं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ। एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महाचीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्त णायज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते तिबेमि ॥सू०९॥ ॥ अटारसमं अज्झयणं समत्तं ॥ टीका-'तणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो गुणशिलके चैत्ये 'समोसढे' समवसृतः तीर्थकरपरम्परया सुसमा दारिका के मरणोत्तर काल में जो भी लौकिक कृत्य कियेजाते -ये सब भी उन्होंने किये और धीरे २ विगत शोक भी हो गए ।०८। લૌકિક કૃત્ય કરવાં જોઈએ તે સર્વે તેમણે પતાવ્યાં અને ધીમે ધીમે તેઓ શંકરહિત પણ બની ગયા. એ સૂત્ર ૮ ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ ----- - - - - - -- ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे समागतः । अनन्तरं स धन्यः सार्थवाहः सपुत्रो धर्म श्रुत्या प्रत्रजितः, प्रवज्यानन्तरम् ‘एक्कारसंगवी' एकादशाङ्गवित्-एकादशाङ्गाभिज्ञो जातः 'मासियाए' मासिक्या संलेखनया कालं कृत्वा ' सोहम्मे सौधर्म कल्पे 'उपपन्नः' । पुनः तत च्युतः महाविदेहे वर्षे सिज्झिहिइ' सेत्स्यति-मुक्ति प्राप्स्यति । सम्प्रति धन्यसार्थबाह्दृष्टान्तेन जम्बूस्वामिनं सम्बोध्य श्रीसुधर्मास्वामीप्राह 'जहा वि इत्यादिना 'तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि । टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (समणे भगवं महावीरे ) श्रमण भगवान् महावीर (गुणसिलए चेइए समोसढे, से णं धण्णे सत्यवाहे सपुत्ते धम्मं सोचा पव्वइए-एका रसंगवी-मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उपचण्णे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ) गुणशिलक उद्यान में आये। उनसे धर्म का उपदेश सुनकर यह धन्यसार्थवोह अपने पांचों पुत्रों सहित उनके पास प्रवजित हो गया। प्रबजित होकर धीरे २ वह एकादशांगों का ज्ञाता भी हो गया। अन्त समय में उसने एक मास की संलेखना धारणकर काल अवसर काल किया तो उसके प्रभाव से वह सौधर्म कल्प में उत्पन्न हो गया। वहां से चय कर अब वह महाविदेह क्षेत्र में मुक्ति को प्राप्त करेगा। इस धन्यसार्थवाह के दृष्टान्त से जंबू स्वामीको संबोधितकर के श्री तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि 11- (तेणं कालेणं तेणं समएणं ) ते आणे भने त समये ( समणे भागव महावीरे ) श्रम समान महावीर (गुणसिलए चेइए समोसढे । सेणं धण्णे सत्थयाहे सुपुत्ते धम्मं सोचा पाइए-एक्कारसंगवी-मासियाए सलेहणाए सोहम्मे उबवण्णे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ) ગણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને તે ધન્ય સાર્થવાહ પોતાના પાંચ પુત્રોની સાથે તેમની પાસે પ્રજિત થઈ ગયો. પ્રજિત થઈને તે ધીમે ધીમે એકાદશ (અગિયાર) અંગોને જ્ઞાતા પણ થઈ ગયો. છેવટે મૃત્યુ સમયે એક માસની સંખના ધારણ કરીને કાળ અવ. સરે તેણે કાળ કર્યો. તે તેના પ્રભાવથી સૌધર્મ કલ્પમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયે. ત્યાંથી ચવીને હવે તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે. આ ધન્ય સાથે. વાહના દાન્તને સામે રાખીને શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ જ બૂ સ્વામીને સંબંધિત श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम ७०५ जहावि य णं' यथाऽपि च खलु येन प्रकारेण खलु हे जम्बू! धन्येन सार्थवाहेननो वर्णहेतोः = नो रूपहेतोः बलहेतोःनो विषयहेतो. सुंसुमाया दारिकाया मांसशोणितमाहारितम् , एगाए रायगिहसंपावणट्टयाए' एकस्य राजगृह संप्रापणार्थताया अन्यत्र न, किन्तु-अहं राजगृहं संपाप्नुयाम् इति हेतोरेव तेन पुत्रौः सह तद आहारितमिति भावः। भगवानाह-' एवामेव' एवमेव अनेन प्रकारेणैव 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी या अस्य वान्तास्रवस्य पित्तासुधर्मा स्वामी ने उनसे कहा-(जहाँ वि य ण जंबु ! धण्णेण सत्थवाहेण णो वण्णहेउं वा नो रूबहेउं वा नो बलहेडं वा नो विसयहेउ या सुसुमाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपाचणट्टयाए-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथीया इमस्स ओरालियसरीर स्स चंतास बस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासचस्स जाच अचस्सं विप्पजहियव्वरस नो यण्णहेउ वा नो रूवहेउं वा नो बलहे वो नो विसयहेउं आहरं अहारेइ, नन्नथएगाए सिद्धिगम णसंपावणट्टयाए) हे जंबू ! जिस तरह धन्यसार्थवाह ने अपने शरीर में कान्ति विशेष बढाने के लिये. बल बढाने के लिये, अथवा विषय सेवन की शक्ति चढाने के लिये सुसुमा दारिका का मांस एवं शोणित नही खाया। किन्तु मैं पुत्रों के सहित राजगृह नगर में पहुँच जाऊँ इसी एक अभि. प्राय से सुसुमा दारिका का अपने पुत्रों सहित मांस शोणित सेवन किया-इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमरा निग्रन्थ श्रमण जन अथवा श्रमणी जन है-वह इस वान्तास्रयवाले, पित्तानववाले, शुक्रास्रકરીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે (जहा वि य ण जंबू! धण्णेणं सत्यवाहेणं णो वण्ण हे उं वा नो रूवहेवा नो बलहेउवा नो बिसय हेउं चा सुंमुमाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं, संपावणट्टयाए एयामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासबस्स पितासवस्स सुक्कासबस्स सोणियासबस्स जाव अवस्से विप्पजहियक्स्स नो चण्णहेउ वो नो रूपहेउँ वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं या आहारं आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए ) હે જબૂ! જેમ ધન્ય સાર્થવાહે પિતાના શરીરમાં કાંતિ વિશેષની વૃદ્ધિ કરવા માટે બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા વિષય સેવનની શક્તિના વર્ધન માટે સંસમાં દારિકાનાં માંસ અને શાણિત નહિ ખાધાં, પણ પુત્રો સહિત હું રાજ. ગૃહ નગરમાં પહોંચી જાઉં આ એક જ મતલબથી પોતાના પુત્રોની સાથે સંસમાં દારિકાના માંસ-શોણિત સેવન કર્યા. આ પ્રમાણે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણજન અથવા શ્રમણીજને છે તેઓ આ વાતા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे स्ववस्य शुकास्रवस्य जाय अवस्सं विप्पजहियधस्स ' याषद् अवश्यं विप्रत्याज्यस्य औदारिकशरीरस्य नो वर्णहेतो , नो रूपहेतो नो बलहेतो, नो विषयहेतोर्या, आहारमाहरति-आहारं करोति, 'एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्ठयाए' एकस्याः सिद्धिगमनसंपापणार्थतायाः नन्नत्थ ' अन्यत्र न, मोक्षप्राप्तिरूपं प्रयोजनं विहाय वर्णादिषयोजनेन आहारं नाहरतीति भावः । सा-निर्ग्रन्थो वा निग्रन्थी था खलु । इहभये चेव ' इहभवे एव अस्मिन् जन्मन्येव बहूनां श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूनां श्राविकाणाम् 'अच्चणिज्जे ' अर्चनीय आदरणीयः 'जाव बीइवइस्सइ यायद् व्यतिबनिष्यति चातुरन्तसंसारकान्तारमुल्लङ्घयिष्यति-संसारपारं गमिष्यतीत्यर्थः । वाले, यावत् अवश्य परित्याग होने की योग्यतावाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेष बढाने के लिये बल बढाने के लिये, अथवा विषय की प्रवृत्ति चालू रखने के लिये आहार नहीं लेता है किन्तु-एककेवल सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने के लिये ही आहार लेता हैं। मोक्ष प्रातिरूप प्रयोजन को छोड़कर और किसी कान्ति आदि बढाने के अभिप्राकरूप प्रयोजन से निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणी जन अहार नहीं लिया करते हैं-(सेणं) ऐसे निर्गन्ध श्रमण श्रमणी जन (इहभवे चेय चहणं समणाणं चहूणं समणीणं बहूणं सावयाण बहूण सावियाण अञ्चगिजे जाव वीइवइस्सइ) इस भव में ही अनेक श्रमण, श्रमणी, जनों द्वारा तथा श्रावक श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय-आदरणीय यावत् इस चतुर्गतिरूप संसार कान्तार को पारकरने वाले होते हैं। (एवं खलु સવવાળા, પિત્તાસવવાળા, શુક્રાસવવાળા યાવત્ ચક્કસ નષ્ટ થનારા આ દારિક શરીરમાં કાંતિ વિશેષની વૃદ્ધિ માટે, બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા તે વિષયની પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખવા માટે આહાર લેતા નથી પણ ફક્ત એક જ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવા માટે જ આહાર ગ્રહણ કરે છે. મોક્ષપ્રાપ્તિ રૂપ પ્રજન વગર બીજી કઈ કાંતિ વગેરેની વૃદ્ધિની અભિલાષા રાખીને निय-अभी- मा२ अ ४२ता नथी. ( सेणं) मेपा निर्याथ શ્રમણ શ્રમણીજને– ( इहभवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं बहूगं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ) આ ભવમાં જ ઘણા શ્રમણ શ્રમણીજને વડે તેમજ શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, આદરણીય યાવત્ આ ચતુતિ રૂપ સંસાર કાંતારને પાર કરી જનારા હોય છે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १८ सुसुपादारिकाचरितवर्णनम् ७०७ सुधर्मास्वामीप्राह-' एवं ' अनेन पूर्वोक्तमकारेण खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण 'जाव संपत्तेणं' यावत् संप्राप्तेन-मोक्षंगतेन अष्टादशस्य ज्ञाताध्ययनस्य 'अयमढे' अयमर्थः पूर्वोक्तरूपोऽर्थः प्रज्ञप्ता-प्ररूपितः, 'ति बेमि' इति ब्रवीमि-अस्य व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०९॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धयाचकपश्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-यादिमानमर्दक -श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलाल व्रतिविरचितायां-ज्ञाताधर्मकथासूत्रस्यानगारधर्मामृतवर्षि ण्याख्यायां व्याख्यायामष्टादशमध्ययनं समाप्तं ॥ १८॥ जंबू! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तण अट्ठारसमस णाय. ज्झयणस्स अयमढे पण्णतेत्तिबेमि ) इस प्रकार से हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीरने जो सिद्धि गति नमक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस अठारहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा जो मैंने कहा है वह उन्हीं के श्री मुख निर्गतवाणी को सुनकर ही कहा है-अपनी और से इसमें कुछ भी मिलाकर नहीं कहा है ।। सू०९॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका अठारहवां अध्ययन समाप्त ॥ १८॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाय संपत्तेणं अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णणेत्तिबेमि ) આ પ્રમાણે તે જંબૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુક્યા છે આ અઢારમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્તા રૂપથી અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. આવું જે મેં કહ્યું છે, તે તેમના જ શ્રીમુખથી નીકળેલી વાણીને સાંભળીને જ કહ્યું છે. પોતાના તરફથી ઉમેરીને મેં કહ્યું નથી. સૂત્ર ૯ ! શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “જ્ઞાતાધર્મકથાસૂત્ર” ની અનગારધર્મામૃતવર્ષિ વ્યાખ્યાનું અઢારમું અધ્યયન સમાપ્ત છે ૧૮ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ एकोनविंशतितममध्ययनम्गतमष्टादशमध्ययनम् , साम्पतमेकोनविंशतितमं व्याख्यायते, अस्य च पूर्येण सह अयमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन्नध्ययने असंतानवस्य तदितरस्य च अन यौँ उक्तौ, इहतु चिरं संहतास्रयोऽपि यः पश्चादन्यधा स्यात्तस्य अल्पकालं संटतास्रवस्य च अनर्थायौँ प्रोच्येते, इत्येवं सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-' जइणंभंते ' इत्यादि। ॥ पुण्डदीक-कण्डरीक नाम का उन्नीसवां अध्ययन प्रारंभ ॥ अठारहवां अध्ययन समाप्त हो चुका-अब १९ वां अध्ययन प्रारंभ होता है-इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार का संब. न्ध है पूर्व अध्ययन में असंवृतास्रव अथवा संवृतास्रव वाले प्राणी को अर्थ एवं अनर्थ की प्राप्ति होना समर्थित किया गया है-अर्थात् असं. वर वालेको अनर्थ की प्राप्ति होती है और संघरवाले को इष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है । अब इस अध्ययन में सूत्रकार यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि जिस प्राणी ने चिरकाल से आस्रवको संवृत कर दिया हैपरन्तु यदि वह पीछे से असंवृतास्रव वाला बन जाता है तो उसके अनर्थ की प्राप्ति तथा अल्प काल भी जिसने आस्त्रव को संवृतकर दिया है उसके अर्थ की प्राप्ति होती है। इस संबंध को लेकर प्रारंभ किये गये इस अध्ययन का यह सर्व प्रथम सूत्र है।। પુણ્ડરીક-કણ્ડરીક નામે ઓગણીસમું અધ્યયન પ્રારંભ અઢારમું અધ્યયન પુરું થઈ ગયું છે હવે ઓગણીસમું અધ્યયન શરૂ થાય છે. આ અધ્યયનને એના પૂર્વના અધ્યયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે પૂર્વ અધ્યયનમાં અસંવૃતાસવ અથવા સંવૃતાસવવાળા પ્રાણીને અર્થ અને અનર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વાતનું સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે. એટલે કે અસંવરવાળાઓને અનર્થની પ્રાપ્તિ હોય છે અને સંવરવાળાઓને ઈષ્ટ–અર્થની પ્રાપ્તિ હોય છે. હવે આ અધ્યયનમાં સૂત્રકાર આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરી રહ્યા છે કે જે પ્રાણીઓ ચિરકાળથી એટલે કે બહુ લાંબા વખતથી આમ્રવને સંવૃત કરી દીધા છે, પરંતુ જે તે પાછળથી એટલે કે ભવિષ્યમાં અસંવૃત્તાસવવાળો બની જાય છે તે તેને અનર્થની પ્રાપ્તિ તેમજ થોડા વખત સુધી પણ જેણે આસ્રવને સંવૃત કરી દીધું છે તેને અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ વાતને લઈને આરંભાએલા આ અધ્યયનનું આ પહેલું સૂત્ર છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतयषिणी टीका अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७०९ मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्त णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, एगूण. बीसइमस्स णायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे पुव्वविदेहेवासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणेणं उत्तरिलस्स सीयामुहवणसंडस्स पञ्चस्थिमेणं एगसेलगस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं पुक्खलावई णामं विजए पन्नत्ते । तत्थ णं पुंडरिगिणी णामं रायहाणी पन्नत्ता णवजोयणवित्थि. पणा दुवालसजोयणायामा जाव पञ्चक्खं देवलोगभूया पासाईया दरसणिजा अभिरूवा पडिरूया । तीसेणं पुंडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए णलिणिवणे णाम उजाणे । तत्थ णं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णामं राया होत्या, तस्स णं पउमावई णामं देवी होत्था । तस्स णं महापउमस्त रन्नो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था, तं जहापुंडरीए य कंडरीए य, सुकुमालपाणिपाया० । पुंडरीए जुवराया। तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए धम्म सोच्चा, पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पव्वइए पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया, महापउमे अणगारे चोदसपुवाई अहिजइ , तएणं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरंति , तएणं से महापउमे बहूणि वासाइं जाव सिद्धे ॥ सू० १॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० ज्ञाताधर्मकधानसूत्रे ___टीका-' जइणं भंते ' इत्यादि । यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संमान अष्टादशस्य ज्ञाताऽध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः, पुनः खलु हे भदन्त ! एकोनविंशतितमस्य ज्ञाताऽध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?। इति जम्बूस्वामीप्रश्नानन्तरं सुधर्मास्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव 'जंजूदीये दीये ' जम्बूद्वीपे द्वीपे-मध्यजम्बूद्वीपे 'पुविदेहे वासे' पूर्व विदेहे वर्षे शीताया महानद्याः · उत्तरीये-उत्तरदिक स्थिते कूले तीरे · नीलचंतस्स दाहिणेणं ' नीलवतो दक्षिणे-नीलवतः पर्वतस्य दक्षिणेभागे 'उत्तरिल्लस्स' उत्तरीयस्य-उत्तरदिक् स्थितस्य 'सीयामुहबणसण्डस्स' सीतामुखयनषण्डस्यशीताया नद्या यन्मुखमुद्गमस्थानं, तत्र यद् वनपण्डम् तस्य, ‘पच्चस्थिमेणं' 'जइणं भंते ! समणेण भगवया महावीरेण ' इत्यादि । टीकार्थः-जंबू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि (जइण भंते समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते एगूणवीसइमस्स णायज्झयणस्स के अढे पण्णते?) हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीरने कि जो सिद्धि गति नामक मुक्तिस्थान को प्राप्त कर चुके हैं अठारहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया है तो उन्हीं श्रमण भगवान् महावीरने १९ वे ज्ञाताध्ययन का क्या भाव-अर्थ निरूपित किया है ? ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेण तेणं समएणं इहेव जंबुदीवे दीवे पुविदेह वासेसीयाए महाणईए उत्तरिल्ले कूले नीलयंतस्स दाहिणेगं उत्तरिल्लस्स सीयामुहयणसंडस्स पच्चत्थिमेगं एगसेलगस्स वक्खारपव्ययस्स 'जइण भते ! समणेण भगवया महावीरेण - ટીકાર્યું–જંબૂ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે : ( जहणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते एगूणवीसइमस्स णायज्झयणस्स के अहे पण्णते ?) હે ભદન્ત ! જો શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે સિદ્ધિગતિ નામક ભક્તિસ્થાનને મેળવી લીધું છે-અઢારમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અથ નિરૂપિત કર્યો છે ત્યારે તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમાં જ્ઞાતાધ્યયનને શે ભાવ-અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेय जंबू दीवे दीये पुव्यविदेपासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणेणं उत्तरिल्लस्स શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधामृतवार्षिणी रीका अ० १९ पुंडरीक कंडरीकचरित्रम ७११ पाश्चात्ये-पश्चिमेभागे 'एगसेलगस्स' एकशैलकस्य मध्यजम्बूद्वीपमेरुपर्वतसमीपस्थस्य एक शैलकनामकस्य ‘यक्रवारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्ये-पूर्वस्यां दिशि ' एस्थणं' अत्र खलु पुष्कलायती नाम बिजयः प्रज्ञप्तः । तत्र खलु पुण्डरीकिणी नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा 'णवजोयणविस्थिण्णा' नवयोजनविस्तीर्णा = नवयोजनविस्तारवती ' दुबालसजोयणायामा ' द्वादशयोजनायामा द्वादशयोजनानि आयामो दैर्ध्वं यस्याः सा द्वादशयोजनदोघेत्यर्थः, पुनः 'जाय पच्चक्खं देवलोयभूया यावत् प्रत्यक्षदेवलोकभूता-साक्षात् स्वर्गसहशापुनः प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा । तस्याः खलु पुण्डरीकिण्याः पुरस्थिीमेण एस्थण पुक्खलाइणाम विजए पण्णत्त ) इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं-सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है उस काल और उस समय में इस जंबूद्वीप नाम के द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्रमें, शीत महानदी के उत्तरदिग्वर्ती तीर पर स्थित नील पर्वत के दक्षिण दिग्भाग में, तथा उत्तर दिग्यर्ती शीतामुखवनषंड के पश्चिम भाग में, तथा एक शैलक नाम वाले वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में पुष्कलावती इस नाम का विजय है । शीतामुखवनषंड का तात्पर्य यह है-कि जहां से शीतानदी नीकली है उस उद्गमस्थान पर एक वनपंड है। मध्य जंबूद्वीप और मेरूपर्वत के समीप में रहा हुआ एक शैलक नाम का वक्षस्कार पर्वत है।-(तएण पुडरिगिणीणामं रायहाणी पनत्ता, णवजोयणवित्थिण्णा दुधालसजोयणायामा, जाव पच. क्खं देवलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरूवा पडिख्या) उस सीयामुहवणसंडस्स पच्चत्थिमेणं एगसेलगस्स वववारपव्ययस्स पुरस्थिमेणं एत्थणं पुक्खलाबइ णामं पिजए पण्णत्ते) આ પ્રમાણે જંબૂ વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધર્મા તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જબૂ! સાંભળે, તમારા સવાલનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે આ જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રમાં, શીતા મહા નદીના ઉત્તર દિશા તરફના કિનારા ઉપર આવેલા નીલ પર્વતના દક્ષિણ દિગુભાગમાં તેમજ ઉત્તર દિશામાં આવેલા સીતા મુખવનખંડના પશ્ચિમ ભાગમાં, તેમજ એક શિક્ષક નામવાળા વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં પુષ્ક લાવતી નામે એક વિજય છે. સીતા મુખવન-કંડનો અર્થ આમ સમજ જોઈએ કે જ્યાંથી શીતા નદી નીકળી છે, તે ઉદ્દગમ સ્થાન ઉપર એક વનખંડ છે. મધ્ય જંબુદ્વિપ અને મેરૂ પર્વતની પાસે આવેલ એકશલક નામે વક્ષસ્કાર પર્વત છે. (तत्थणं पुंडरिगिणीणामं रायहाणी पन्नता, णय जोयणवित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा, जाच पच्चक्खं देवलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...- - - ७१२ शाताधर्मकथाजसूत्रे नगर्याः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे नलिनीयनं नाम उद्यानम् । तत्र खलु पुण्डरीकिण्यां राजधान्यां महापमो नाम राजाऽऽसीत् । तस्य खलु पद्मावती नाम देवी आसीत | तस्य खलु महापद्मस्य राज्ञः पुत्रो पद्मावत्या देव्या आत्मजो द्वौ कुमारी आस्ताम् । 'तं जहा' तद्यथा तयोर्नामरूपे, तदाह-' पुंडरीए य कंडरीए य सुकुमालपाणिपाया' पुण्डरीकश्च कण्डरीकश्च सुकुमारपाणिपादौ कोमलकरचरणौ । तयो. मध्ये पुण्डरीको युवराजाऽऽसीत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'थेरागमणं' पुष्कलावती विजय में पुंडरी किनी नाम राजधानी थी। यह नव योजन विस्तारवाली तथा १२ योजन की लंबी है यह साक्षात स्वर्ग जैसी प्रतीत होती है। प्रासादीयचित्त एवं अन्तःकरण को यह प्रसन्न करने वाली है, दर्शनीय-नेत्रों को तृप्ति करने वाली है, अभिरूप-असाधारण रचना से युक्त हैं एवं प्रतिरूप है-इसके जैसी और दूसरी कोई नगरी नहीं हैं ऐसी। (तीसेणं पुंडरिगीणीए गयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए लिणिवणे णामं उज्जोणे-तत्थ णं पुंडरिगिणीए रापहाणीए महापउमे णामं राया होत्था-तस्सणं पउमावईणामं देवी होत्था, तस्स णं महापउ. मस्स रणो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुये कुमारा होत्था) उस पुंडरीकिणी नगरी के उत्तर पौरस्त्य दिग्भाग में नलिनीवन नाम का एक उद्यान था। उस पुंडरीकिणी राजधानी में महापद्मनाम का एक राजा रहता था। उसकी देवी का नाम पद्मावती थी। उस महापद्म राजा के यहां पद्मावती को कुक्षि से उत्पन्न हुए दो कुमार थे (तं जहा पुंडरीए य, कंडरीए य-सुकुमालपाणि पाया । पुंडरीए जुधराया तेणं कालेणं તે પુષ્કલાવતી વિજયમાં પુંડરીકિની નામે રાજધાની હતી. તે નવ જન જેટલા વિસ્તારવાળી તેમજ બાર યોજન જેટલી લાંબી છે. તે પ્રત્યક્ષ સ્વર્ગ જેવી જ લાગે છે. તે પ્રાસાદી ચિત્ત અને અન્તઃકરણને તે પ્રસન્ન કરનારી છે, દર્શનીય–આંખેને તે તૃપ્ત કરનારી છે, અભિરૂપ તે અસાધારણ (અપૂર્વ) રચનાવાળી છે, અને પ્રતિરૂપ-એના જેવી બીજી કોઈ નગરી નથી એવી છે. (तीसेणं पुंडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए णलिणिवणे णाम उज्जाणे-तत्थणं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णामं राया होत्था-तस्सणं पउमावईणामं देवी होत्था, तस्सणं महापउमस्स रण्णो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था) તે પરીકિણી નગરીના ઉત્તર પરિત્ય દિગવિભાગમાં નલિનીવન નામે એક ઉદ્યાન હતું. તે પુંડરીકિણી રાજધાનીમાં મહાપ નામે એક રાજા રહેતા હતો. તેની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. તે મહાપદ્મ રાજાને ત્યાં પદ્માવતી દેવીના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થયેલા બે રાજકુમાર હતા. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो०अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७१३ स्थविरागमनं = तस्या राजधान्या नलिनीवने उद्याने स्थविराणामागमनमभूत् । महापद्म राजा धर्म श्रोतुं निर्गतः, धर्म श्रुत्वा संजातवैराग्यः पुण्डरीकं राज्ये स्थापयित्वा मत्रजितः । अनन्तरं पुण्डरीको राजा जातः कण्डरीको युवराजः । महापद्म नगारः चतुर्दश पूर्वीणि अधीते । ततः खलु स्थविरा वहिर्जपदविहारं विहरन्ति । ततः खलु स महापद्मो बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा यावद् सिद्धः । सू० १ ॥ तेणं समएणं थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए, धम्मं सोचा पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पचइए | पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया | महापउमे अणगारे चोइस पुण्बाइ अहिजइ, तरणं थेरा बहिया जणवयविहारं चिरंति, तएण से महापउमे बहूणि वासाई जाय सिद्धे ) उनके नाम इस प्रकार है - १ पुंडरीक और दूसरा कंडरीक ये दोनों पुत्र सुकुमार करचणवाले थे। पुंडरीक को पिता ने युवराज पदप्रदान किया था। उस काल में और उस समय में वहां स्थविरों का आगमन हुआ। महाप राजा धर्म का व्याख्यान सुनने के लिये अपने महल से निकलकर नलिनीवन उद्यान में आये। वहां धर्म का उपदेश सुनकर उन्हे वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया- सोचे पुंडरीक को राज्य में स्थापितकर दीक्षित हो गये । पुंडरीक राजा बन गया और कंडरीक युवराज हो गया । महापद्मराजर्षि ने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर लिया। इसके बाद वहां से स्थविरों ने ( तं जहा - पुंडरीए य, कंडरीए य- सुकुमालपाणिपाया० । पुंडरीए जुवराया तेणं कालेणं तेणं समरणं थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए, धम्मं सोच्चा पोंडरीयं रज्जे ठवेता पव्वइए । पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया । महापउमे अणगारे चोदसपुब्बाई अहिज्जर, तरणं थेरा बहिया, जणवयविहारं बिहरंति, तरणं से महापउमे बहूणि वासाई जाव सिद्धे ) તેમનાં નામે આ પ્રમાણે છે-૧ પુંડરીક, અને ૨ કડરીક આ ખને પુત્રા સુકામળ હાથ-પગવાળા હતા. રાજાએ પુંડરીકને યુવરાજપદ પ્રદાન કર્યું. હતું. તે કાળે અને તે સમયે ત્યાં સ્થવિરાનું આગમત થયું. મહાપદ્મ રાજા ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળવા માટે પેાતાના મહેલથી નીકળીને નલિનીવન ઉદ્યાનમાં આવ્યે. ત્યાં ધર્મોપદેશ સાંભળીને તેને વૈરાગ્યભાવ ઉત્પન્ન થઇ ગયા. છેવટે પુંડરીકને રાજ્યાસને સ્થાપિત કરીને તેએ દીક્ષિત થઇ ગયા. પુંડરીક રાજા થઈ ગયા અને કંડરીક યુવરાજ થઈ ગયા. મહાપદ્મ રાજર્ષિએ ચૌદ પૂર્વીનું અધ્યયન કરી લીધું. ત્યારપછી સ્થવિરેશ ત્યાંથી બહાર જનપદોમાં વિહાર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम्-तएण थेरा अन्नया कयाइं पुणरवि पुंडरिगिणीए रायहाणीए णलिणिवणे उजाणे समोसढा, पोंडरीए राया णिग्गए । कंडरीए महाजणसदं सोच्चा जहा महाबलो जाय पज्जुवासइ । थेरा धम्म परिकहेंति पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए । तएणं से कंडरीए उठाए उठेइ, उट्राए उट्रित्ता जाव से जहेयं तुम्भे वदह जं णवरं पुण्डरीयं रायं आपुच्छामि, जाव पव्ययामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएणं से कंडरीए जाव थेरे वंदइ णमंसइ वंदित्ता मंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउग्धंट आसरहं दुरुहइ जाव पच्चोरहइ, जेणेव पुण्डरीए राया तेणेव उवागच्छइ करयल जाव पुंडरीयं एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे जाव अभिरुइए, तण्णं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइत्तए । तएणं से पुंडरीए कंडरीए एवं वयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिया ! इयाणि मुंडे जाव पन्वयाहि, अहं णं तुमं महया२ रायाभिसेएणं अभिसिंचामि। तएणं से कंडरीए पुंडरीयस्स रपणो एयमé णो आढाइ णोपरिजाणइ तुसिणीए संचिटइ । तएणं पुण्डरीए राया कंडरीयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं बयासी-जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तएणं पुण्डरीए कंडरयिं कुमारं जाहे नो संचाएइ, बहहिं आघवणाहि बाहिर जनपदों में विहार कर दिया। महापद्म अनगार ने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालनकर यावत् सिद्धपद को प्राप्त कर लिया ॥ सू०१॥ માટે નીકળી પડ્યા. મહાપદ્મ અનગારે ઘણાં વર્ષો સુધી ગ્રામર્થ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને યાવત્ સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કરી લીધું. એ સૂત્ર ૧ છે. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टो० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् सरिता ७१५ य पण्णवणाहि य४ ताहे अकामए चेव एयम; अणुमनित्था जाय णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ । पव्वइए अणगारे जाए एगारसंगविऊ । तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाइं पुंडरिगणीओनयरीओ णलिणीवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥ सू० २॥ टीका-'तएणं ते ' इत्यादि । ततः खलु ते स्थविरा अन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिण्या राजधान्या नलिनीवने उद्याने समबमृताः समगताः । तेषां समागमनं श्रुत्वा पुण्डरीको राजा तान् वन्दितुं निर्गतः । अनन्तरम्-कण्डरीको ' महाजणसई ' महाजनशब्द स्थविरान् पन्दितुं कामानां गच्छतां बहूनां जनानां कोलाहलं श्रुत्या ' जहा महाबलो जाच पपज्जुवासइ ' यथामहाबलो यावत्पर्युपास्ते । महाबल इव स्थचिराणां समीपे गत्या तान् वन्दित्वा नमस्थित्वा सेवते । स्थविरा धर्म परिकहेंति' परिकथयन्ति-उपदिशन्तीत्यर्थः । तैरुपदिष्टं धर्म श्रुत्वा पुण्डरीकः श्रमणोपासको जातः 'जाव पडिगए' यावत्पतिगतः स्थविरान् वन्दित्त्या 'तएणं ते थेरा अन्नया कयाई' इत्यादि । टीकार्थ:-(तएणं) इसके बाद (ते थेरा) वे स्थविर (अन्नया कयाइं किसी एक समय (पुणरवि) फिर से (पुंडरिगीणीए रायहाणीए णलिणिवणे उजाणे समोसढा, पोंडरीए राया णिग्गए) पुंडरीकिणी राजधानी में आये। वहां वे नलिनीवन उद्यान में ठहरे। पुंडरीक राजा उनका आगमन सुनकर धर्म सुनने की इच्छा से वहां जाने के लिये अपने महल से निकले । (कंडरीए महाजणसदं सोचा जहा महब्बलो जाव पज्जुवासइ, थेरा धम्म परिकहेंति, पुंडरीए समणोवासए जाए जाय 'तएण ते थेरा अन्नयो कयाइं ' इत्यादिAt4-( तएण) त्या२५७१ ( ते थेरा) ते स्थविरे। ( अन्नया कयाई) मे मते (पुणरवि ) ३२(पुडरिगीणीए रायहाणीए णलिणिवणे उज्जाणे समोसढा, पोंडरीए रायाणिग्गए ) [gी पानीमा २०या. त्या तमा નલિનીવન ઉદ્યાનમાં રોકાયા. પુંડરીક રાજા તેમનું આગમન સાંભળીને ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળવાની ઈચ્છાથી ત્યાં જવા માટે પિતાના મહેલથી નીકળ્યા. ( कंडरीए महाजणसदं सोचा जहा महाब्बलो जाव पज्जुवासइ, थेरा धम्म परि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्र नमस्यित्वा प्रतिनिवृत्तः। ततः खलु कण्डरीक: ' उट्ठाए' उत्थया-उत्थानशक्त्या उत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय 'जाव' यावत् स्थविरान् वन्दित्या नमस्यित्वा एव. भवदत्-' से जहेयं तुब्भे वदह ' तद्यथेदं यूयं वदथ-हे देवानुमियाः ! यूयं यथा यद् वदथ, तत्तथैव, 'जं वर । यन्नवर यो विशेषः सचैवम्-यदह पूर्व पुण्डरीकं राजानम् आपृच्छामि । ततः खलु 'जाव पव्ययामि ' पायत् प्रव्रजामि । पडिगए) इसके बाद कंडरीक युवराज स्थविरों को बंदना करने के लिये जानेवाले अनेक मनुष्यों का कोलाहल सुनकर महाबल राजा की तरह विरों के पास गया-वहां जाकर उसने उनकी वंदना की-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर फिर उसने उनकी पर्युपासना की। स्थविरों ने धर्म का उपदेश दिया। उस उपदेश को सुनकर पुंडरीक श्रमणोपासक बन गया। बाद में वह स्थविरों को वंदना और नमस्कार कर अपने स्थान पर वापिस वहां से लौट आया। (तएणं से कंडरीए उठाए उट्टेइ, उठाए उद्वित्ता जाव से जहेयं तुब्भे वदह, ज णवरं पुंडरीयं रायं आपु. च्छामि, तएणं जाव पन्धयामि-अहासुहं देवाणुप्पिया! तएणं से कंडरीए जाव थेरे यंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ) इसके बाद कंडरीक उत्थानशक्ति से उठा-उत्थानशक्ति -उठने की शक्ति से उठकर उसने स्थविरों को चंदना की-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा-हे कहेंति, पुउरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए) त्या२पछी ४४ यु१२।०४ વિરેની વંદના કરવા માટે ઉપડેલા અનેક માણસોને ઘંઘાટ સાંભળીને મહાબલ રાજાની જેમ સ્થવિરેની પાસે ગયે. ત્યાં જઈને તેણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પર્યું પાસના કરી. વિરેએ ધર્મોપદેશ આપે, તે ઉપદેશને સાંભળીને પુંડરીક શ્રમણપાસક બની ગયું ત્યાર પછી તે સ્થવિરેને વંદન તેમજ નમન કરીને પિતાના निवासस्थाने पाछ। मापतो रह्यो. (तएण से कंडरीए उदाए उद्वेइ, उदाए उद्वित्ता जाव से जहे यं तुब्भे वदह जं णवर पुंडरीयं राय आपुच्छामि, तएण जाव पव्ययामि-अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएण से कंडरीए जाव थेरे वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता थेराण अंतियाओ पडिनिक्खमइ) ત્યારપછી કંડરીક ઉત્થાન શકિત વડે ઊભે થયો, ઉત્થાન શતિ-ઊભા થવાની શકિત વડે ઊભો થઈને તેણે સ્થવિરેને વંદન તેમજ નમસ્કાર કર્યા, વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરતાં કહ્યું કે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७१७ , इति तद्वचनं श्रुत्वा ते स्थविरा: प्रोचुः ' अहासुहं देवाणुपिया ' यथासुखं हे देवानुप्रिया ! हे देवानुप्रिय ! यथा तव सुखकरं भवेत् तथा कुरु । ततः खलु स कण्डरीको यावत् स्थविरान् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा स्थचिराणामन्तिकात् = समीपात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य, तमेव ' चाउग्घंटं ' चतुटं चतस्रो घण्टा यस्मिन् स तम् = घण्टा चतुष्टयोपेतम् अश्वरथं दूरोहति यावत् प्रत्यवरोहति - रथादवतरति । अवतरणानन्तरं यत्रैव पुण्डरीको राजा तत्रैव उपागच्छति, ' करयल जाव' करतल यावत् = करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त्त दशनखं मस्तके अलि कृत्या पुण्डरीकमेवमवादीत् एवं खलु हे देवानुप्रिय ! मया स्थवि - राणामन्तिके यावदधर्मो निशान्तः = श्रुतः, स धर्मः = स्थविरप्रोक्तो धर्मः यावत् अभिरुचितः । तत् खलु हे देवानुप्रिय ! ' जाव पव्यइत्तए ' यावत् प्रत्रजितुम् = हे देवानुप्रियाः ! भवद्भिरभ्यनुज्ञातो स्थविराणामन्तिके पत्र जितुमिच्छामीतिभावः । देवानुप्रियो ! आप जैसा कहते है - यह वैसा ही है- मेरी भावना उसे सुनकर संयम लेने की हो गई है अतः संयम धारण करने के पहिले मैं पुंडरीक राजा से इस विषय में पूछ आता हूँ उसके बाद संयम धारण करना चाहता हूँ । इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन स्थविरों ने उससे कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जैसे सुख हो तुम वैसा करो - इसके बाद कंडरीक ने स्थविरों को वंदना की नमस्कार किया और वंदना नमस्कारकर वह उनके पास से चला आया (पडिनिक्खमित्ता) आकर के ( तमेवचा उघंटं आसरहं दुरूहइ, जाय पचोरुहइ, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, करयल जाव पुंडरीयं एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे जाव अभिरुइए હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જેમ કહા છે તે ખરેખર તેમ છે. આ બધું સાંભળીને સયમ ગ્રહણ કરવાની મારી ઈચ્છા થઈ ગઈ છે. એટલા માટે સયમ ધારણ કરતાં પહેલાં હું પુંડરીક રાજાને આ વિષે પૂછી આવું છું. ત્યારપછી હું સયમ ધારણ કરવા ચાહું છું. આ પ્રમાણે તેનાં વચને સાંભળીને તે સ્થવિશ્વએ તેને કહ્યું કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમાં સુખ મળે તેમ કરી, ત્યારપછી કડરીકે સ્થવિાને વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તે તેમની પાસેથી આવત રહ્યો. ( qfsfazefnaı ) 21917, ( तमेव चाउघंटे आसरहं दुरुहइ, जाव पचोरूहह, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छर, करयल पुंडरीयं एवं क्यासी एवं खलु देवाणुपिया | मए धेराणं अंतिए जाप धम्मे निसंते से धम्मे जाय अभिरूइए-तणं देवाणुप्पिया ! શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ ___ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ततः पुण्डरीकः कण्डरीकमेवमवादीत-मा खलु त्वं हे देवानुपिय ! भ्रातः इदानीं मुंण्डो यावत् प्रवज अहं खलु त्वां महता २ ‘रायाभिसेएणं' राजाभिषेकेण अभिसिंचामि-अभिषेचयामि । ततः खलु स कण्डरीको युवराजः पुण्डरीकस्य राज्ञ एतमर्थ नो आद्रियते स्वस्य राज्याभिषेकरूपमर्थं नो मनुते, 'नो परिजाणइ ' नो प्रतिनानाति=न स्वीकरोति 'तुसिणीए संचिट्ठइ ' तूष्णीकः -तण्णं देवाणुप्पिया! पव्वइत्तए ! तएणं से पुंडरीए कंडरीए एवं बयासी -मोणं तुम देवाणुप्पिया! इयाणिं मुंडे जाव पव्ययाहि-अहं णं तुमं महया २ रायाभिसे एणं अभिसिंचामि) वह वहां आया-जहां चतुर्घटो पेत अपना अश्वरथ रखा हुआ था। वहां आकर वह उसपर चढ गया -चढकर यह जहां पुंडरीक राजा थे वहां आया-वहां आते ही वह रथ से नीचे उतरा । नीचे उतरकर पुंडरीक राजा के पास गयावहां जाकर उसने पुंडरीक राजा को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया-बाद में इस प्रकार कहने लगा-हे देवानुप्रिय मैंने स्थविरों के पास धर्म का उपदेश सुना है-यह मुझे बहुत रूचा है इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं आपसे आज्ञापित होकर उन स्थविरों के पास संयम लेना चाहता हूँ-इस प्रकार कंडरीक की बात सुनकर पुंडरीकने उससे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम इस समय मुंडित होकर स्थविरों के पास संयम धारण मतकरो मैं बड़े जोर शोर के उत्सव के साथ तुम्हारा राज्याभिषेक करना चाहता हूँ। (तएणं से कंडरीए पुंडरीयस्स जाय पव्यइत्तए ! तएणं से पुंडरीए कंडरीए एवं चयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिया। इयाणिमुडे जाव पव्ययाहि अहं गं तुमं महया२ रायाभिसेएणं अभिसिंचामि ) તે ત્યાં આવ્યા જ્યાં ચતુર્ઘટવાળો પિતાનો અશ્વરથ હતું ત્યાં આવીને તે તેમાં બેસી ગયો, અને બેસીને તે જ્યાં પુંડરીક રાજા હતો ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચતા જ તે રથ ઉપરથી નીચે ઉતર્યો, નીચે ઉતરીને પુંડરીક રાજાની પાસે ગયો. ત્યાં જઈને તેણે બંને હાથ જોડીને પુંડરીક રાજાને નમસ્કાર કર્યો અને ત્યારપછી તેણે તેમને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! મેં સ્થવિરોની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળ્યો છે તે મને ખૂબ જ ગમી ગયે છે. એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમારી આજ્ઞા મેળવીને સ્થવિરેની પાસેથી સંયમ ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું. આ પ્રમાણે કે ડરીકની વાત સાંભળીને પુંડરીકે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હમણાં મુંડિત થઈને સ્થવિરેની પાસેથી સંયમ ધારણ કરે નહિ. હું મોટા ઉત્સવ સાથે તમારા રાજ્યાભિષેક કરવા ચાહું છું. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७१९ संतिष्ठते तमर्थ न स्वीकृतवान् केवलं मौनमवलम्ब्य स्थितः । ततः खलु पुण्डरीको राजा कण्डरीकं भ्रातर द्वितीयमपि तृतीयमपि वारम् ' एवं 'पूर्वोक्तरूपेण अयादीत्-' जाय तुसिणीए संचिट्ठइ' यावत्-तुष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु पुण्डरीकः कण्डरीकं यदा 'नो संचाएइ ' नो शक्नोति = न समर्थों भवति बहुभिः ' आघवणाहि य ' आख्यापनाभिश्च-आख्यापनाभिः-प्रव्रज्याविरोधिमिराख्यानैः ' पण्णवणाहि य ' प्रज्ञापनाभिश्च ' अहं तव ज्येष्ठभ्राताऽस्मि, तय हितं येन भवति, तदेव कथयामि, इत्यादि रूपैः प्रज्ञापनवाक्यैः एवं ' विण्णवणाहि य' विज्ञापनाभिः विनितमृदुवचनावलिरूपक्यि प्रबन्धैः, तथा 'सण्णवणाहि य' संज्ञापनाभिः ' प्रव्रज्यायां महान् कष्टो भवति' इत्यादि स्वाभीप्सितसंज्ञापकैर्वाक्यैश्च रण्णो एयमढें णो आढाइ, णो पजिाणइ, तुसिणीए संचिट्टइ, तएणं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चपि तच्चपि एवं क्यासी जाव तुसिणीए संचि. Bइ, तएणं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएई, बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेय एयमढे अणुमनित्था जाय णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाय थेराणं सीसभिक्खं दलयइ ) कंडरीक कुमारने पुंडरीक राजा की इस बात को आदर की दृष्टि से नहीं देखा-नहीं माना-और न उसे स्वीकार ही किया-केवल चुपचाप ही रहा । पुंडरीक राजा ने जब कंडरीक कुमार को चुपचाप देखा-तय उसने दुवारा और तिबारा भी उससे ऐसा ही कहा-परन्तु उसने इस बात पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया केवल चुपचाप ही रहा। अतः जब पुंडरीक राजा कंडरीक कुमार को उसके ध्येय से विचलित करने (तएणं से कंडरीए पुंडरीयस्स रण्णो एयमढें णो आढाइ, णो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चंपि तच्चपि एवं बयासी जाच तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएई, बहूहि आघवणाहि य पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेव एयमé अणुमन्नित्था जाय णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाय थेराणं सीसभिक्खं दलयइ) કંડરીક કુમારે પુંડરીક રાજાની આ વાતનું સન્માન કર્યું નહિમાની નહિ અને તેને સ્વીકાર પણ કર્યો નહિ, ફક્ત તે મૂગો થઈને બેસી જ રહ્યો. પુંડરીક રાજાએ જ્યારે કંડરીક કુમારને મૂંગે મૂગો બેસી રહેલ છે ત્યારે તેમણે બીજી વાર અને ત્રીજી વાર પણ તેને આ પ્રમાણે જ કહ્યું. પરંતુ તેણે આ વાતની સહજ પણ દરકાર કરી નહી, ફક્ત મૂગો થઈને બેસી જ રહ્યો. છેવટે જ્યારે પુંડરીક રાજા કેડરીક કુમારને તેના ધયેયથી મક્કમ વિચારથી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० ज्ञाताधर्मकथासूत्र 'आघवित्तए' आख्यापयितुं ४=सर्वथापतिरोधयितुं न शक्नोतीति पूर्वेण सम्बन्धः, 'ताहे ' तदा ' अकामए चेव । अकामक एक-अनिच्छ एव ' एयमह' एतमथैम्-कण्डरीकाभिलषितं प्रव्रज्यारूपम् , ' अणुमन्नित्था' अन्यमन्यत-स्वीकृत घान् , ' जाव णिक्खमणामिसेएणं ' यावत् निष्क्रमणाभिषेकेण ' स्वीकरणानन्तरं निष्क्रमणोपयोगि वस्तुजातमुपनीय सविधि दीक्षाभिषेकेण अभिपिश्चति, 'जाय थेराणं सीसभिक्खं दलयइ ' यावत्-स्थविरेभ्यः शिष्यभिक्षाम् अभिषेकानन्तरं स पुण्डरीको राजा कण्डरीकं शिबिकायां समुपवेश्य महता समारोहेण सह नलिनीबने उद्याने समायाति, तत्र स्थितेभ्यः स्थविरेभ्यः स्वलघुभ्रातरं शिष्यभिक्षां ददाति । अनन्तरं स कण्डरीकः प्रव्रजितः सन् अनगारो जातः । तथा ' एका. रसंगविऊ ' एकादशाङ्गचित्=एकादशाङ्गज्ञानवान जातः । ततः खलु स्थविरा भग के लिये आख्यापनाओं द्वारा, प्रज्ञापनाओं द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा संज्ञापनाओं द्वारा, समर्थ नहीं हो सके-तब उन्होंने बिना इच्छा के ही कंडरीक कुमार को दीक्षा ग्रहण करने रूप अर्थ की स्वीकृति देने के बाद निष्क्रमणोपयोगी समस्त वस्तुओं को उन्होंने मंगवाया-जब ये आ चुकी-तब उन्होंने उसका सविधि दीक्षाभिषेक से अभिसिंचन किया। अभिषेक के बाद पुंडरीक राजा कंडरीक को शिविका में बैठाकर बडे समारोह के साथ नलिनीयन में आये। यहां आकर उन्होंने स्थविरों के लिये अपने लघुभाई को शिष्य की भिक्षा रूप से प्रदान किया। इसके बाद कंडरीक (पव्वइए अणगारेजाए) प्रव्रजित होकर अनगारावस्था संपन्न हो गये। (एगारसंगयिऊ,-तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुंडरिगिणीओ नयरीओ णलिणीवणाओ उजाणाभो पडिणिक्खमंति, વિચલિત કરવા માટે આખ્યાનાઓ, પ્રજ્ઞાપનાઓ, વિજ્ઞાપનાઓ, સંજ્ઞા નાઓ વડે પણ સમર્થ થઈ શક્યા નહિ ત્યારે તેમણે ઈચ્છા ન હોવા છતાંએ કંડરીક કુમારને દિક્ષા ગ્રહણ કરવાની સ્વીકૃતિ આપી દીધી. સ્વીકૃતિ આપ્યા બાદ તેમણે નિષ્કમણને લગતી બધી વસ્તુઓ મંગાવી. જ્યારે વસ્તુઓ આવી ગઈ ત્યારે તેમણે તેનું વિધિસર દીક્ષાભિષેક વડે અભિસિંચન કર્યું. અભિષેક કર્યા બાદ પુંડરીક રાજા કંડરીકને પાલખીમાં બેસાડીને ભારે સમારોહની સાથે નલિની વનમાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે સ્થવિરેને પિતાના નાના ભાઈને शिष्यन। ३५i मापी घो. त्या२५छी (पञ्चइए अणगारे जाए) પ્રજિત થઈને અનગારાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગયે. ( एगारसंगचिऊ-तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुंडरिगिणीओ नय श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७२१ वन्तो ऽन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिण्या नगर्या नलिनीवनात् उद्यानात् प्रतिनिष्काम्यन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहार विहरन्ति । सू० २ ॥ मूलम्-तएणं तस्स कंडरीयस्त अणगारस्स तेहिं अंतेहिं य पंतहि य जहा सेलागस्स जाव दाहवक्कंतिए यावि विहरइ। तएणं थेरा अन्नया कयाइं जेणेव पोंडरिगिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, णलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए धम्मं सुणेइ । तएणं पोंडरीए राया धम्मं सोच्चा जणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वावाहं सरोयं पासइ, पासित्ता, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, थेरे भगवंते वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-अहण्णं भंते ! कंडरीयस्स अणगारस्स अहा पवत्तेहि ओसहभेसजेहिं जाव तेइच्छं आउट्टामि, तं तुब्भे णं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह। तएणं थे। भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जाव उवसंपज्जित्ताणं पडिणिक्खमित्ता बहिया जणययविहारं विहरंति) धीरे २ वे ग्यारह अंगोंके पाठी भी बनगये इसके बाद उन स्थविर भगवंतों ने किसी एक दिन पुंडरीकिणी नगरी के उस नलिनीयन नामकेउद्यान से विहार किया सो विहार कर वे बाहिर के जनपदों में विचरने लगे। सू० २॥ रीओ णलिणीवणाओ उज्जोगाओ पडिणिस्यमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति ) ધીમે ધીમે તેમણે અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કરી લીધું. ત્યારબાદ તે સ્થવિર ભગવંતે એ કે એક દિવસે પુંડરીકિણી નગરીના તે નલિનીવન નામના ઉદ્યાનથી વિહાર કર્યો, વિહાર કરીને તેઓ બહારના જનપદોમાં વિચરણ કરવા લાગ્યા. એ સૂત્ર ૨ | શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ૦૩ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३ वाताधर्मकथाजसूत्रे विहरंति। तएणं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलागस्स जाव बलियसरीरे जाए । ताणं थेरा भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया जणश्यविहारं विहरति । तएणं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुण्णांस असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्जोववण्णे णो संचाएइ पोंडरीयं राय आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहार विहरित्तए । तत्थेव ओसण्णे जाए । तएणं से पोंडरीए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे पहाए अंतेउरपरियालसंप. रिखुडे राया जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता बंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता, एवं वयासीधन्नेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीवियफले जे णं तुमं रज्जं च जाव अंतेउरं चावि छड्डयित्ता जाव विगोवइत्ता जाब पव्वइए । अहणणं अहणणे अकयपुन्ने रज्जे जाव अन्तेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए । तं धन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले । तएणं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमहंणो आढाइ जाव संचिटुइ । तएणं कंडरीए पोंडएिणं दोच्चंपि तच्चपि एवं बुत्ते समाणे अकामए अवस्प्लबसे लज्जाए गारवेणय पोंडरीयं रायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहि सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ सू०३ ॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टो० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७२३ _____टीका-'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य कण्डरीकस्य अनगारस्य तैः । अंतेहि य ' अन्तैश्च चल्लचणकादिभिः, 'पंतेहि य' प्रान्तैश्च-पर्युषितैः, नीरसैः स्वादवर्जितै; अशनादिभिः यथा शैलकस्य राजर्षस्तथा ऽस्याऽपितथाविधमाहारं कुर्वतो यावत्प्रकृतिसुकुमारकस्य सुखोपचितस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, कीदृशीत्याह - उज्ज्वला यावद् दुरधिसह्या = सोढुमशक्या पुनः सुखलेशरहिता कण्डरीकः ‘दाहक्कंत्तिए ' दाहव्युत्क्रान्तिकः दाहस्य शरीरसन्तापरूपरोगस्य व्युत्क्रान्तिः उत्पत्तिर्यस्यासौ दाहव्युत्क्रान्तिका करचरणादिज्वलनवान् चापि विहरति । ततः खलु स्थविरा अन्यदा कदाचित् यौव पुण्डरीकिणी नगरी तय उपागच्छन्ति, उपागत्य, नलिनीवने समयमृताः । पुण्डरीकस्तदर्शनार्थ स्वभवना 'तएणं तस्स कंउरीयस्स' इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (तस्स कंडरीयस्स अणगास्स तेहिं अंतेहिं पंतेहिं य जहासेलगस्स जाव दाहवक्कंतिए यावि विहरइ) उस कंडरीक अनगारके बल्लचणक आदि रूप अन्ताहार करनेसे तथा पर्युषित अथवानी. रस आहाररूप प्रान्ताहार करनेसे शैलक राजर्षिकी तरह प्रकृतिसे सुकुमार सुखोपचित होने के कारण शरीरमें वेदना उत्पन्न हो गई। जो उज्ज्वला एवं सोढुमशक्या थी। इस तरह शरीर सन्तापरूप रोग की उत्पति से वे कंडरीक अनगार कर चरण आदि में जलन होने के कारण सुख के लेश से भी वर्जित हो गये। (तएणं घेरा अन्नया कयाइं जेणेव पोंडरिगिणी तेणेच उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लिणिवणे समोसढा पोंडरीए तएण तस्स कंडरीयस्स इत्यादिसाथ-(तएणं ) त्या२५७), ( तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहिं अंतेहिं पंतेहिं य जहा सेलगस्स जाय दाहयक्कतिए यावि विहरइ ) તે કંડરીક અનગારના શરીરમાં બલચણક વગેરે રૂપ અંતાહાર કરવાથી તેમજ પર્યષિત અથવા નીરસ આહાર રૂપ પ્રાન્તાહાર કરવાથી શિલક રાજર્ષિની જેમ પ્રકૃતિથી સુકુમાર અને સુખ પચિત હવા બદલ વેદના ઉત્પન્ન થઈ ગઈ. તે વેદના અત્યંત ઉગ્ર અને અસહ્ય હતી. આ પ્રમાણે શરીર સંતાપ રૂપ રેગની ઉત્પત્તિથી તે કંડરીક અનગાર હાથે પગમાં બળતરાને લીધે થેડી સુખશાંતિ પણ મેળવી શક્યા નહિ. (तएणं थेरा अन्नया कयाई जेणेव पोंडरिंगिणी तेणेय उवागच्छइ, उवागच्छिता णलिणिवणे समोसढा पोंडरीए निगगए धम्मं सुणेइ, तएणं पोंडरीए राया श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ शाताधर्मकथासूत्र निर्गतः तत्र गत्या धर्म शृणोति । ततः खलु पुण्डरीको राजा धर्म श्रुत्वा यत्रय कण्डरीकोऽनगारस्तव उपागच्छति, उपागत्य, कण्डरीकं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थिखा कण्डरीकस्य अनगारस्य शरीरं 'सव्याबाहं ' सव्याबाधंपीडासहितं ' सरोयं ' सरोगं रोगसहित 'पासइ ' पश्यति, दृष्ट्वा यौव स्थविरा भगवन्तस्तत्रीय उपागच्छति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दते नमस्यति, वन्दित्त्वा नमस्यित्वा एवमयादीत्-' अहणं भंते !' अहं खलु हे भदन्त ! कण्डरीकस्य निग्गए धम्मं सुणेइ, तएणं पोंडरी ए राया धम्मं सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उयागच्छइ उचागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्यायाहं सरोयं पासइ) किसी एक समय वे स्थविर पुंडरीकिणी नगरी में विहार करते हुए आये। यहां आकर वे नलिनीवन नाम के उद्यान में ठहर गये। आगमन सुनकर पुंडरीक राजा उन को वंदना एवं उनसे धर्मश्रवण करने की भावना से अपने राजमहल से निकलकर उस नलिनीवन उद्यान में आये-स्थविरों ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। धर्म का उपदेश श्रवण कर फिर वे जहां कंडरीक अनगार थे उनके पास आये। वहां आकर उन्हों ने उनको वंदना की नमस्कार किया- वंदना नमस्कार करके उन्होंने कंडरीक अनगारके शरीर को पीडासहित एवं रोगसहित देखा-(पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ णमंसइ, बदित्ता णमंसित्ता एवं चयासी-अहण्णं भंते ! धम्मं सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उपागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सन्या बाहं सरोयं पासइ) કઈ એક વખતે તે સ્થવિર પુંડરીકિણી નગરીમાં વિહાર કરતા કરતા આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ નલિનીન નામના ઉદ્યાનમાં રોકાયા. તેમનું આગમન સાંભળીને પુંડરીક રાજા તેમને વંદન કરવા માટે તથા તેમની પાસેથી ધર્મો પદેશ સાંભળવા માટે પોતાના રાજમહેલથી નીકળીને તે નલિનીવન ઉદ્યાનમાં આવ્યું. સ્થવિરાએ તેમને ધર્મોપદેશ આપે, ધર્મોપદેશ સાંભળીને તેઓ જ્યાં કંડરીક અનગાર હતા તેમની પાસે ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે કંડરીક અનગારના શરીરને પીડા સહિત અને રોગયુક્ત જોયું. (पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उपागच्छित्ता थेरे भगचंते चंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी-अहणं भंते ! कंडरीयस्स अण. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टो० अ० १९ पुण्डरीक कडरीकचरित्रम् ७२५ अनगारस्य ' अहापत्तेहिं ' यथा प्रवृत्तः पासुकैरित्यर्थः 'ओसहभेसज्जेहिं' औषधभैषज्यैः 'जायतेइच्छं' यावत् चिकित्साम् ‘आउटामि' आवर्तयामि=कारयामि, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् यूयं खलु हे भदन्त ! मम यानशालासु समयसरत= आगच्छत । ततः खलु स्थविरा भगवन्तः पुण्डरीकस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति= एतद्वचनं स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य यावत्-उपसंपद्य-यानशालां समाश्रित्य विहरन्ति । ततः खलु पुण्डरीको राजा 'जहा मंडुए सेलगस्स जाय बलियसरीरे जाए' यथा मण्डूकः शौलकस्य यावद् बलिकशरीरो जातः = कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छं आउटामि-तं तुम्भे गं भंते ! मम जाणसालास्तु समोसरह-तएणं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जाय उपसंपजित्ताणं विहरंति ) देखकर जहां स्थविर भगवंत विराजमान थे-वहां पर वे आये वहां आकर उन्हों ने स्थविर भगवंतों को वंदना एवं नमस्कार कियावंदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा हे भदंत ! मैं कंडरीक अनगार की यथा प्रवृत्त-प्रासुक-औषध, भैषज्यों द्वारा यावत् चिकित्सा करवाऊंगा-अतः हे भदंत ! आपलोग मेरी यानशाला में यहां से विहार कर पधारें-वहीं ठहरें-। इस प्रकार पुंडरीक राजा की प्रार्थना को उन स्थविर भगवंतों ने स्वीकार कर लिया और वहां से विहार कर वे पुंडरीक राजा की यानशाला में आकर ठहर गये। (तएणं पुडरीए राया जहामंडुए सेलगस्स जाच बलियसरीरे जाए तएणं थेरा गारस्स अहापयत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाय तेइच्छं आउट्ठामि तं तुब्भेणं भंते मम जाणसालासु समोसरह-तएणं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जाव उपसंपज्जित्ताणं विहरंति) જોઈને તેઓ જ્યાં સ્થવિર ભગવંત વિરાજમાન હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે સ્થવિર ભગવતેને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે હે ભદન્ત ! હું કંડરીક અનગારની યથાપ્રવૃત્ત-પ્રાસુક-ઔષધ-મૈષ (દવાઓ) વડે યાવત ચિકિત્સા (ઈલાજ ) કરવા માગું છું. એટલા માટે હે ભદન્ત ! તમે સૌ અહીંથી વિહાર કરીને મારી યાનશાળામાં આવે અને ત્યાં જ રોકાએ આ પ્રમાણે પુંડરીક રાજાની વિનંતીને તે સ્થવિર ભગવંતે એ સ્વીકાર કરી લીધે અને ત્યાંથી વિહાર કરીને તેઓ પુંડરીક રાજાની યાનશાળામાં આવીને રોકાઈ ગયા. (तएणं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए तएण थेरा श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ शाताधर्मकथाङ्गमूत्रे यथा मण्डूको राजा शौलकस्य राजर्षेः प्रासुकैरौषधभैषज्यैश्चिकित्सामकारयत् , तथैव पुण्डरीकोऽपि कण्डरीकस्यानगारस्य यथा योग्यैरौषधभैषज्यैश्चिकित्सा कारयतिस्म यावत् कतिपयैर्दिनैः कण्डरीको बलितशरीरः निरामयो जातः। ततः खलु स्थविरा भगवन्तः पुण्डरीकं राजानं आपृच्छन्ति, आपृच्छय बहिर्जनपदविहारं विहरन्ति । ततः खलु स कण्डरीकः तस्मात् 'रोगायंकाओ' रोगातङ्काद् विषमुक्तः सन् तस्मिन् ' मनुणंसि' मनोज्ञे-रमणीये अशनपानखाद्यस्वाये चतुविधे आहारे 'मुच्छिए' मूच्छितः मूर्छां प्राप्तः आसक्त इत्यर्थः, 'गिद्धे 'गृद्धा आकाङ्क्षावान् , 'गहिए ' ग्रन्थितः रसास्वादे निबद्धमानसः, ' अन्झोक्यण्णे' भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छिता बहिया जणवयविहारं बिहरंति, तएणं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुण्णंसि असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोपवणे जो संचाइए पोंडरीयं रायं आपुच्छित्ता बहिया अब्भुजएणं जणवयविहारं विहरित्तए) इसके बाद मंडूक ने जिस प्रकार शैलकराजर्षि की प्रामुक औषध, भैषज्यों द्वारा चिकित्सा करवाई थी उसी प्रकार पुंडरीक राजा ने भो कंडरीक अनगार की यथायोग्य औषध भैषज्यों द्वारा चिकित्सा करचाई-इस से ये बलितशरीर निरोग हो गये। इसके अनन्तर उन स्थविर भगवंतो ने वहां से विहार करने के लिये पुंडरीक राजा से पूछा- बाद में वे वहां से बाहिर जनपदों में विहार कर गये । कंड. रीक अनगार कि जो रोगातंकसे निर्मुक्त हो चुके थे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार में इतने अधिक आसक्त हो गये भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति, तएणं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुष्णसि-असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोयवण्णे णो संचाएइ पोंडरीयं रायं आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारं विहरित्तए) - ત્યારપછી મંડૂકે જેમ શૈલક રાજષિની પ્રાસુક, ઔષધ, અને ભષ વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી હતી તેમજ પુંડરીક રાજાએ પણ કંડરીક અનગારની ઉચિત ઔષધ-ભષો (દવા) વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી. તેથી તેઓ નિરોગ-સબળ બની ગયા. ત્યારપછી તે સ્થવિર ભગવંતોએ ત્યાંથી વિહાર કરવા માટે પુંડરીક રાજાને પૂછયું. ત્યારબાદ તેઓ બહારના જનપદમાં વિહાર કરી ગયા ગાતંગેથી નિમુક્ત થઈ ગયેલા કંડરીક અનગાર તે મનેણ, અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ ચાર જાતના આહારમાં એટલા બધા આસક્ત થઈ ગયા-મૃદ્ધ બની ગયા, ગ્રથિત-રસને આસ્વાદનમાં નિબદ્ધ માન श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कंडरीकचरित्रम् ७२७ अध्युपपन्नः = सर्वथा आसक्तः सन् नो शक्नोति पुण्डरोकं राजानमापृच्छ्य ' बहिया' बहिः ' अन्भुज्जएणं ' अभ्युद्यतेन = उग्रविहारेण खलु विहर्तुम्, किन्तु 'तरथेव ' तत्रैव = यानशालायामेव ' ओसणे' अवसन्नः = शिथिलसाधुसमाचारीयान् जातः । तत खलु स पुण्डरीको राजा 'इमी से कहाए' अस्या, कथायाः = कण्डरीकोऽनगारोsaसन्नो जात: ' इतिवृत्तान्तस्य लब्धार्थः सन् स्नातः 4 अंतेउर परियाल संपरिबुडे' अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतः, यत्रैव कण्डरीकोऽनगारस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, कण्डरीकं त्रिः कृत्व आदक्षिण प्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा यमस्या एवमवादीत्-धन्योऽसि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! यतस्त्वम् 'कडे ' कृतार्थः = विहितजीवनकृत्यः ' कयपुन्ने' कृतपुण्मः = विहितप्रव्रजितवेषः । पुनः सुलद्वे ' सुलब्धं = सुष्ठुतया प्राप्तं खलु हे देवानुमिय !' तब ' त्वया 'माणुस्सए ' मानुष्यकं = मनुष्यसम्बन्धि, 'जम्मजीवियफले ' जन्मजीवितफलम् - जन्म -गृद्ध बन गये ग्रथित - रसास्वाद में निबद्धमानसवाले हो गये, और अध्युपपन्न बन गये - अर्थात् सर्वथा आसक्त बन गये कि वहां से बाहिर उग्र विहार करने के लिये उनका मन ही नहीं हुआ-अतः उन्हों ने पुंडरीक नरेश से विहार करने की कोई बात ही नहीं पूछी किन्तु ( तस्थेव - ओसन्ने जाए ) वहीं पर ये रहते २ शिथिल साधुसमाचारीवाले बन गये । (तएण से पोंडरीए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे पहाए अंतेउरपरियाल संपरिवुडे राया जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उचागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्ती आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता बंद, णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-धन्ने सिणं तुम देवापिया ! कत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे सुलद्वेणं देवाणुपिया ! तब माणुस्सजन्मजीवियफले जेणं तुमं रज्जं च जाव अंतेउरं चावि छड्डुइत्ता સવાળા થઈ ગયા અને અણુપપન્ન મની ગયા એટલે કે તેએ એકદમ આસક્ત થઈ ગયા કે ત્યાંથી ખહાર ઉગ્ર વિહાર કરવા માટે પણ તે તૈયાર થયા નહિ. એથી તેમણે પુંડરીક રાજાને વિહાર કરવાની ખાખતમાં કઈંજ પૂછ્યું नहि या ( तत्थेव ओसन्ने जाए ) त्यां रतां रखेतां तेथे। शिथिल साधु સમાચારી થઇ ગયા એટલે કે સાધુએના આચારમાં તેઓ શિથિલ થઈ ગયા ( तणं से पोंडरीए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे व्हाए अंतेउरपरियालसंपरिवडे राया जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं तिक्त आयाहिणं पयाहिणं करेड़, करिता वंद णमंस, वंदित्ता मंसित्ता एवं वयासी धन्नेसि गं तुमं देवशुपिया ! कयत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मानवयोनौ उत्पत्तिः, जवितम् जीबनम्माणधारणम् , तयोः फलम् जन्मजीवि. तफलम्-प्रवज्याग्रहणमेव मनुष्यजन्मसारः, तदेव स्पष्टयति-यः खलु त्वं राज्यं च यावदन्तः पुरं च छड्डइत्ता' छर्दयित्वा-त्यक्त्वा — विगोवइत्ता' विगोप्य=तिरस्कृत्य यावत् प्रव्रजितः अहं खलु अधन्यः अकृतपुण्यो राज्ये यावत् अन्तः पुरे च मानुष्यकेषु च कामभोगेषु मूछितो यावत् अध्युपपन्नो नो शक्रोमि यावत् प्रव्रजितुम् = राज्येऽन्तः = पुरे मानुष्य केषु च कामभोगेषु निमग्नमानसोऽहं न शक्कोमि प्रव्रज्यां ग्रहीतुम् इति भावः । ' तं' तत् = तस्मात् विगोबइत्ता जाव पव्वइए ) जब पुंडरीक राजा को " कंडरीक अनगार अवसन्न हो गये है" यह समाचार ज्ञात हुआ-तो वे स्नान कर अपने अन्तःपुर परिवार को साथ लेकर जहां कंडरीक अनगार थे यहां आये वहां आकर उन्हों ने कंडरीक अनगार को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण करके बंदना की नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर उनसे ये इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, तुम कृतार्थ हो, तुम कृतलक्षण हो । हे देवानुप्रिय ! तुमने मनुष्यभव संबंधी जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पालिया है। जो तुम राज्य यावत् अन्तःपुर का परित्याग एवं तिरस्कार कर प्रवजित हो गये हो । (अहण्णं अहण्णे अकयपुन्ने रज्जे जाव अंतेउरे य माणुस्सएप्सु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्यइत्तए । तं धन्नेसि णं तुम सुलद्धेणं देवाणुप्पिया ! तच माणुस्सए जम्म जीवियफले जेणं तुमं रज्जं च जाय अंतेउरं चावि छड्डइत्ता विगोवइत्ता जाय पच्चइए) - જ્યારે પુંડરીક રાજાને કંડરીક અનગારના અવસાન થઈ જવાના સમા. ચારો મળ્યા ત્યારે તેઓ સ્નાન કરીને પોતાના રણવાસના પરિવારને સાથે લઈને જ્યાં કંડરીક અનવાર હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે કંડરીક અનગારને ત્રણ વખત આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન તેમજ નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેઓ તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે यानुप्रिय ! तमे धन्य छ।, कृतार्थ छौ, तृत-सक्षY छ।. यानुप्रिय ! મનુષ્ય ભવના જન્મ અને જીવનના ફળને સારી પેઠે મેળવી લીધું છે. કેમકે તમે ખરેખર રાજ્ય યાવત્ રણવાસને ત્યજીને તેને તિરસ્કૃત કરીને પ્રવજિત २४ गया छ. ( अहणं अहणणे अकयपुन्ने रज्जे जाय अंतेउरे य माणुस्सएमु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अन्झोववन्ने नो संचाएमि जाय पव्यइत्तए ! तं धन्नेसिणं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ०१९ पुण्डरोक-कंडरीकचरित्रम् ७२९ कारणात् खलु ब्रवीमि यत् धन्योऽसि ख हे देवानुप्रिय ! 'जाव सुलब्धं जन्मजीवितफलम् , तमः खलु स कण्डरीकोऽनगारः पुण्डरीकस्य एतमर्थ विहाराभिप्रायकमर्थ, नो आद्रियते यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते मौनमवलम्व्य तिष्ठति । ततः खलु कण्डरीकः पुण्डरीकेण द्वितीयमपि तृतीयमपि-द्वित्रिवारम् , एव-पूर्वोक्तप्रकारेण, उक्तः सन् ' अकामए ' अकामका कामनारहितः ' अवस्सबसे ' अपदेवाणुप्पिया! जाच जीवियफले तएणं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमटुं णो आढाइ जाव संचिट्ठइ, तएणं कंडरीए पोंडरीएणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लजाए गारवेण य पोंडरीयं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ) मैं अधन्य हूँ अकृतपुण्य हूँ। जो राज्य में यावत् अन्तःपुर में तथा मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूर्छित यावत् अध्युपपन्न बना हुआ हूँ। इसीलिये प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हो रहा है। इसी कारण से मैं यह कह रहा हूँ कि तुम धन्य हो, हे देवानुप्रिय ! तुमने ही जन्म और जीवन का फल जो प्रव्रज्या का ग्रहण करना है-यह अच्छी तरह पा लिया है। पुंडरीक राजा की विहार करने के अभिप्रायवाली इस बात को सुनकर कंडरीक अनगार ने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया-उसे आदर की दृष्टि से नहीं देखा-किन्तु ये उसे सुनकर भी चुपचाप बैठ रहे। कंडरीक अनगार की इस स्थिति को देखकर पुंडरीक ने दूसरी बार और तीसरी तुमं देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले तएणं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमदं जो आढाइ, जाव संचिटुइ, तएणं कंडरीए पौडरीएणं दोच्चंपि तच्चंपि एवंयुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लज्जाए गारवेण य पोंडरीय रायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहार विहरइ) । તે અધન્ય અને અકૃતપુણ્ય છું કેમકે હું તે રાજ્યમાં યાવત રણવાસમાં તેમજ મનુષ્યભવના કામમાં મૂછિત થાવત અષ્ણુપપન્ન બની રહ્યો છું, એટલા માટે જ પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ થઈ રહ્યો છું. એથી જ હું આ કહી રહ્યો છું કે તમે ખરેખર ધન્ય છે. હે દેવાનુપ્રિય ! તમે જ જન્મ અને જીવનનું ફળ કે જે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા રૂપ છે–તે સારી રીતે મેળવી લીધું છે. તેઓ ત્યાંથી વિહાર કરી જાય તે આશયથી કહેલા તે પંડરીકના વચનો સાંભળીને કંડરીક અનગારે તેની કશી જ દરકાર કરી નહિ. તે વાતને તેમણે સન્માનની દષ્ટિએ સ્વીકારી નહિ. આ બધું સાંભળીને પણ તેઓ ત્યાંજ મૂંગા થઈને બેસી જ રહ્યા. કંડરીક અનગારની આ સ્થિતિ જોઈને. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० ज्ञाताधर्मकथाजसूत्रे स्वयशः अपगतस्वातन्त्र्यः सन् ' लज्जाए ' लज्जया, 'गारवेण' गौरवेण= साघुत्वगौरवेण च पुण्डरीकं राजानमापृच्छति, आपृच्छ व स्थपिरैः साई बहिर्जनपदविहारं विहरति ।। मू० ३ ॥ मूलम्--तएणं से कंडरीए थेरोहिं सद्धिं किंचिकालं उग्गं उग्गेणं विहरइ । तओ पच्छा समणत्तणपरितंते समणत्तण णिविण्णे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी, थेराणंअंतियाओ सणियं२ पच्चोसकइ, पच्चोसक्कित्ता, जेणेव पुंडरिगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्त भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयांस णिसीयइ णिसीइत्ता, ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिइ । तएणं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयसि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोंडरीयं रायं एवं-वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तव पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवर बार जब उनसे पूर्वोक्त प्रकारसे कहा-तब उन्हों ने नहीं इच्छा होने पर भी स्ववशताका अभाव होने के कारण लज्जावश होकर साधुत्त्यके गौरवके ख्याल से-पुंडरीक राजा से विहार करनेकी बात पूछी-पूछकर फिर ये वहां से स्थविरोंके साथ बाहिरके जनपदों में विहार कर गये ॥सू० ३ ॥ પંડરીકે બીજી અને ત્રીજી વાર પણ જ્યારે પહેલાં મુજબ જ વાત કહી ત્યારે તેમણે પિતાની ઈચ્છા નહિ હોવા છતાંએ લાચાર થઈને, લજિજત થઈને, સાધુત્વના ગૌરવને લક્ષ્યમાં રાખીને પુંડરીક રાજાને વિહાર કરવાની વાત પૂછી. પૂછીને તેઓ ત્યાંથી સ્થવિરેની સાથે બહારના જનપદમાં વિહાર કરી ગયા. સૂ. ૩ श्री शतधर्म अथांग सूत्र:03 Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकचरत्रम् पायवस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमण संकप्पे जाव झियायइ । एणं पोंडरीए अम्मधाईए एयमटुं सोच्चा णिसम्म तव संभंते समाणे उट्टाए उट्टेइ, उट्टित्ता, अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करिता, एवं वयासी- घण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइए । अहणं अधपणे३ जाव नो पव्वइत्तए । तं धन्नेसि णं तुमं देवाणुपिया ! जाव जीवियफले । तरणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वृत्ते समाणे तुसिणीए संचिटूइ, दोच्चंपि तच्चपि जाव संचिवइ । तएर्ण पोंडरीए कंडरी एवं वयासी अट्ठो भंते ! भोगेहिं ? हंता अट्टो तएणं से पोण्डरीए राया कोटुंबियपुरिसे सहावेइ, सावित्ता, एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवानुप्पिया ! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसेअं उबट्टवेह जाव रायाभिसेएवं अभिसिंचइ ॥ सू० ४ ॥ ७३१ " टीका - तणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कण्डरीकः स्थविरैः सार्ध किंचित् कालम् ' उरंग उग्गेणं' उग्रोग्रेण - अत्युग्रेण विहारेण विहरति । ततः पश्चात् ' समणत्तणपरितं ते ' श्रमणवपरितान्तः श्रमणधर्मपरिपालने खिन्नः पुनः 'तएण से कंडरीए थेरेहिं सद्धि' इत्यादि । टीकार्थ - (तएणं) इसके बाद ( से कंडरीए) वे कंडरीक (थेरेहिं सर्द्धि) स्थविरों के साथ (किंचिकाल ) कुछ काल पर्यन्त (उग्गं उग्गेर्ण ) अत्युग्रविहार करने में (बिहरह) लग गये (तओवच्छा समणत्तण 'तरण से कंडरीए थेरेहिं सद्धि" इत्यादि । Akıy—(agoj) culaybl ( à deûg) à s'sals ( àèfe' afg') स्थविरोनी साथै ( किं चिकालं ) थोडा वमत सुधी तो ( उग्गंउग्गेणं ) अतीव अन विडार ४२वामां ( विहरइ ) प्रवृत्त थया ( तओ पच्छा समणत्तण परितंते ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ - शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'समणत्तणनिविण्णे' श्रमणत्वनिर्विणः साधुभावे औदासीन्यं प्राप्तः 'समणतणणिब्भच्छिए' श्रमणत्वनिर्भत्सितः श्रमणत्वं निर्भत्सितं येन सः साधुभावानादरपरायणः, अतएव 'समणगुणमुकजोगी' श्रमणगुणमुक्तयोगी-श्रमणगुणेभ्योमुक्तः रहितो योगः योगा-मनोवाकायरूपः, सोऽस्यास्तीतित्यक्तश्रमणगुणइत्यर्थः, स्थविराणामन्तिकात् शनैः शनैः प्रत्यवष्यस्कते-पश्रादागच्छति, प्रत्यवष्वस्क्य, यसैव पुण्डरीकिणी नगरी यौव पुण्डरीकस्य भवनं तव उपागच्छति, उपागत्य अशोकवनिकाया: अशोकवाटिकायाः अशोकबरपादपस्य अधः पृथ्योशिलापट्ट के निषीदति-उपविशति, निषध, 'ओहयमणसंकप्पे ' अपहतमनः संकल्पः अवहतो. मनः संकल्पः=मनोव्यापारो यस्य सः=अपगतमानसिकव्यापारः, 'जाव झियाय-- परितंते ) बाद में बे श्रमणधर्म के परिपालन करने में खिन्न चित्त बन गये (समणत्तणणिविण्णे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं २ पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेच पुंडरिगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेच उचागच्छइ ) साधुभाव के निर्वाह करने में उदासीनता को प्राप्त हो गये-साधुभाव के प्रति उनमें अनादर भाव आ गया अत एव वे श्रमण गुणों से मुक्त योगवाले बन गये-श्रमण के गुणों का उन्हों ने परित्याग कर दिया। इस तरह वे धीरे २ स्थविरों के पास से खिसककर एक दिन जहां पुंडरीकिणी नगरी थी और उसमें भी जहां पुंडरीक राजा का भवन था वहां पर आ गये(उधागच्छित्ता असोगणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिला पट्टयंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता ओहयमणसंकप्पे जाव झिपायमाणे ત્યારપછી તેઓ શ્રમણ ધર્મના પાલનમાં ખિન્નચિત્ત-ઉદાસ બની ગયા. (समणत्तणणिविषण्णे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं २ पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरागिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ ) તેઓ સાધુભાવને નભાવવામાં ઉદાસ બની ગયા. સાધુભાવ પ્રત્યે તેમનામાં અનાદર ભાવ ઉત્પન્ન થઈ ગયો, એથી તેઓ શ્રમણ-ગુણોથી મુક્ત ગવાળા બની ગયા એટલે કે શ્રમણના ગુણોને તેમણે ત્યજી દીધા. આ પ્રમાણે તેઓ ધીમે ધીમે સ્થવિરેની પાસેથી ચુપચાપ નીકળીને એક દિવસ જ્યાં પુંડરિકિણી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં પુંડરીક રાજાનું ભવન હતું, ત્યાં આવી ગયા. (उवागच्छित्ता असोगवणियाए असोगवरपायवरस अहे पुढविसिलापEयंसि, णिसीयइ, णिसीइत्ता ओहयमणसंकप्पे जाव झिपायमाणे संचिट्ठइ, तएणं श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कण्डरीकरित्रम् ७३ माणे ' यावद्ध्यायन् आर्तव्यानं कुर्वन् संतिष्ठते । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य राज्ञोऽम्बधात्री यत्रैव अशोकवनिका तव उपागच्छति, उपागत्य कण्डरीकमनगारम् अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्ट केऽपहतमनःसंकल्पं यावद् ध्यायन्तं पश्यति, दृष्ट्वा, यजैव पुण्डरीको राजा तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पुण्डरीकं राजानमेवमयादीत-एवं खलु देवानुप्रिय ! तव 'पिउभाउए ' प्रियभ्राता कण्डरीकोऽनगारोऽशोकवनिकाया अशोकवरपादपस्य अधः पृथ्वीशिलापट्टके अवहतमनः संकल्पो यावद्ध्यायति । ततः खलु पुण्डरीकः अमाधाच्या एतमथै कण्डरीकस्य संचिट्ठइ, तएणं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेच असोगवणिया तेणेय उयागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायरस अहे पुढविसिलावट्टयंसि ओहयमणसंकप्पं जाय झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उचागच्छित्ता पोडरीयं रायं एवं वयासी) यहां आकर वे अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे पृथिवी शिला पट्टक पर बैठ गये। बैठकर अपहत मानसिक व्यापारवाले होकर वे वहां आर्त ध्यान करने लगे। इनने में पुंडरीक राजा को अम्बधात्री-धायमाता उस अशोक वाटिका में आई-वहां आकर उसने कंडरीक अनगार को अशोक पादप के नीचे पृथिवीशिलो पटक पर चिन्तामग्न देखा-देखकर वह जहां पुंडरीक राजा थे वहां आई-वहां आकर उसने पुंडरीक राजा से इस प्रकार कहा-' एवं खलु देवाणुप्पिया! तय पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायघस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमणसंकप्पे जाय झियायइ ) हे देवानुप्रिय ! तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीय अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि ओह्यसणसंक प जाव झियाययाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता पोंडरीयं रायं एवं बयासी) ત્યાં આવીને તેઓ અશોક વાટિકામાં અશોક વૃક્ષની નીચે પૃવિશિલા પક ઉપર બેસી ગયા. ત્યાં બેસીને તેઓ અપહત માનસિક વ્યાપારવાળા ( ઉદાસ) થઈને આજ્ઞધ્યાન કરવા લાગ્યા. એટલામાં પુંડરીક રાજાની અંબધાત્રી-ધાયમાતા-અશોક વાટિકામાં આવી. ત્યાં આવીને તેણે કંડરીક અનગારને અશોક વૃક્ષની નીચે પૃવિશિલા ઉપર આર્તધ્યાન કરતા જોયા. જેઈને તે જ્યાં પુંડરીક રાજા હતા ત્યાં આવીને તેણે પુંડરીક રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणि. याए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अशोकवनिकामध्यगताशोकक्षाधः स्थितस्यातध्यानरूपमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृद्यवधार्य 'तहेब' तथैव यथास्थितस्तथैव — संभंते समाणे' सम्भ्रान्तः सन्'कथं पुनरसौ समागत ' इति शङ्कितः सन् उत्थाय उत्तिष्ठति झटिति उत्तिष्ठतीत्यर्थः, उत्थाय. अन्तः पुरपरिवारसंपरिटतः यत्रैव अशोकवनिका यचैव कण्डरीकोऽनगारस्तव उपागच्छति, उपागत्य ' तिक्खुत्तो ' त्रिः कृत्वा वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा एवमवादीत्-'धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाय पव्वइए' धन्योऽसि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! यावत् प्रवजितः । अहं खलु ' अधण्णे ' ३ अधन्यः ३ यावत् नो शक्नोमि प्रबजितुम् । 'तं' तस्मात्कारणात 'धन्नेसि ' धन्योऽसि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! ' जाय जीवियफले' यावत् जीवितफलम् त्वया जन्मजीवितफलं लब्धम् इति भावः। ततः खलु कण्डरीकेण एवं प्रशंसापरवचनरुक्तः सन् तूष्णीकः संतिष्ठते, 'दोच्चपि तचंति ' द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं पूर्वप्रकारेण उक्तः सन् 'जाव संचिठ्ठइ ' यावत् संतिष्ठते= मौनमवलम्ब्य स्थित इतिभावः ! ततः खलु पुण्डरीकः कण्डरीकमेवमयादीन-अटोसुनिये-तुम्हारे प्रिय भाई कंडरीक अनगार अशोक वाटिका में अशोक वृक्षके नीचे पृथिवीशिलापटक पर अपहतमनःसंकल्प होकर यावत् चिन्ता मग्न बैठे हुए हैं (तएणं पोंडरीए अम्मधाईए एयमढे सोच्चा णिसम्म तहेय संभंते समाणे उहाए उठेइ, उहित्ता अंतेउरपरियालसंपरिघुडे जेणेय असोगवणिया जाय कंडरीयं त्तिक्षुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता एवं बयासी धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाच पव्यइए अहणं अधण्णे ३ जाय नो पच्चइत्तए तं धन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले-तएणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वुत्ते सनाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, दोच्चपि तच्चपि जाच संचिट्टइ, तएणं पौंडरीए कंडरीयं एवं चयासी अठ्ठो भंते ! भोगेहिं ! हंता अट्ठो! तएणं से पोंडरीए राया कोडं. હે દેવાનપ્રિય ! સાંભળો, તમારા પ્રિય ભાઈ કંડરીક અનગાર અશોક વાટિકામાં અશક વૃક્ષની નીચે પૃશ્ચિશિલા પટ્ટક ઉપર અપહતમન સંક૯૫ થઈને યાવત્ ચિંતામગ્ન થઈને બેસી રહ્યા છે. (तएणं पोंडरीए अम्मधाईए एयमहूँ सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उदाए उट्टेइ, उद्वित्ता अंतेउरपरिपालसंपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंड. रीयं तिक्खुत्तो आया हिणपयाहिणं करेइ, करित्ता एवं बयासी धणेसि णं तुम देवाणुप्पिया ! जाय पव्यइए अहणं अधण्णे २ जाव नो पव्यइत्तए तं धन्नेसिणं तुम देवाणुप्पिया ! जाय जीवियफले तएणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, दोच्चवि, तच्च वि जाव संचिट्ठइ, तएणं पोंडरीए कंडरीय एवं वयासी, अट्ठो भंते ! भोगेहिं ? हंता अट्ठो! तएणं से पोंडरीए राया कोडुबिय श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टो० अ० १९ पुण्डरीक-कण्डरीकचरित्रम् ७३५ वियपुरिसे मदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसे उचट्टयेह, जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचइ ) इस प्रकार अम्बाधाय के मुख से इस बात को सुनकर और उसे चित्त मैं जमाकर जैसे बैठे हुए थे उसी तरह संभ्रान्त होते हुए-ये क्यों आये है-इस प्रकार शंकित चित्त होते हुए-उत्थानशक्ति से उठे बहुत जल्दी सुनते ही प्रमाण-उठे और उठकर अन्तःपुर के परिवार को साथ लेकर जहां अशोक वनिका थी-यहां पर आये-यहां आकर कंडरीक अनगार के पास पहूँचे-यहां पहूँच कर उन्हों ने उन्हें तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिण किया बाद में वे कहने लगे-हे देवानुप्रिय! तुम्हें धन्यवाद है-जो तुम राज्य एवं अन्तःपुर का परित्याग कर प्रवजित हो गये हो इत्यादि जिस प्रकार पहिले उनसे कहा था इसी प्रकार अब भी कहा मैं अधन्य हूँ-३-जो यावत् दीक्षित होने के लिये शक्तिशाली नहीं हो रहा हूँ। इसलिये हे देवानुप्रिय! आपके लिये धन्यवाद है-आपने जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है। इस तरह प्रशंसा परक वचनों से पुंडरीक राजा द्वारा कहे गये वे कंडरीक अनगार कुछ भी नहीं बोले-किन्तु चुपचाप ही बैठे रहे- जब पुंडरीक राजा ने उनकी इस प्रकार की स्थिति देखी-तब दुबारा तिवारा भी उन्हों ने पुरिसे सद्दावेइ, सहोवित्तो एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कंडरीयस्स महत्थ जाव रायाभिसे अं उपद्ववेह, जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचइ) આ પ્રમાણે અંબાધાયના મુખથી આ વાત સાંભળીને અને તેને મનમાં ધારણ કરીને જેવી સ્થિતિમાં તેઓ બેઠા હતા તેવી જ સ્થિતિમાં સ્તબ્ધ થઈને તેઓ કેમ આવ્યા છે ?' આ પ્રમાણે શંકાયુક્ત થતાં-ઉત્થાન શક્તિ વડે તેઓ ઊભા થયા અને ઊભા થઈને જલદી રણવાસના પરિવારને સાથે લઈને જ્યાં અશોક વાટિકા હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને કંડરીક અનગારની પાસે પહેંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે તેમને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કર્યા બાદ કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિય! તમને ખરેખર ધન્યવાદ ઘટે છે કે જે તમે રાજ્ય અને રણવાસને ત્યાગ કરીને પ્રવજીત થઈ ગયા છે, વગેરે જેમ પહેલાં કહ્યું હતું તેમજ તે વખતે પણ કહ્યું. હું તો અધન્ય છું-૩-જે યાવત્ દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનું પણ સામર્થ્ય ધરાવતા નથી. એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમને ધન્ય છે. તમે ખરેખર પિતાનાં જન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધું છે. આ પ્રમાણે પ્રશંસાજનક વચનેથી પુંડરીક રાજા વડે સંબોધિત કરાયેલા તે કંડરીક અનગાર કંઈપણ બોલ્યા નહિ, તેઓ મૂંગા થઈને બેસી જ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - ७३६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे भंते । भोगेहि ' अर्थों हे भदन्त ! भोगैः ? किं भोगैः प्रयोजनमस्ति ? इति, कण्डरीकः प्राह-'हंता ! अट्ठो' हन्त ! अर्थः भोगमुपभोक्तुमानसोऽस्मीतिभाः। ततः खलु-कण्डरीकाभिपायज्ञानानन्तरमित्यर्थः, स पुण्डरीको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति=आह्वयति, शब्दयित्या, एवमवदत् - क्षिममेव भो देवानुप्रियाः ! कण्डरीकस्य महार्थम् अत्यर्थम् ' जाव रायाभिसेयं ' यावत् राजाभिषेकम् ' उपट्टयेइ' उपस्थापयत परिकल्पयत, 'जाय रायाभिसे एण अभिसिंचइ' यावत् राज्याभिषेकेण अभिषिञ्चति स पुण्डरीको राजा कण्डरीकं राजपदे स्थापयति ॥ मू० ४ ॥ मुलम्-तएणं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्रियं लोयं करेइ, उनसे ऐसा ही कहा परन्तु फिर भी उन्हों ने कुछ नहीं ध्यान दिया केवल मौन धारण कर ही बैठे रहे-तब पुनः पुंडरीकने उन कंडरीक अनगार से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! क्या आप को भोगों से तात्पर्य है ? तब कंडरीक ने कहा हां-मेरा मन भोगों को उपभोग करने के लिये हो रहा है । इस तरह कंडरीक का अभिप्राय जानने के बाद 'डरीक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-भो देवानुप्रियो तुम लोग कंडरीक के लिये राज्याभिषेक योग्य सामग्री एकत्रित कर लेआओ पुंडरीक राजा की इस आज्ञा के अनु. सार, उनलोगों ने पैसा ही किया-जब राज्याभिषेक सामग्री उपस्थित हो चुकी-तब पुंडरीकने कंडरीक का राज्याभिषेककर दिया-कंडरीक को राजपद में स्थापित कर दिया ।। सूत्र ४ ॥ રહ્યા. પુંડરીક રાજાએ તેમની આવી સ્થિતિ જોઈને બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યું. પણ તેમણે તેની કંઈ દરકાર કરી નહિ તે ફક્ત મૂંગા થઈને બેસી જ રહ્યા ત્યારે ફરી પુંડરીકે તે કંડરીક અનગારને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભગવન ! તમને શું હજી બેગ ઉપભેગોની ઈચ્છા છે? ત્યારે કંડરીકે કહ્યું કે હા, ખરેખર મારું મન ભોગ ઉપગમાં પ્રવૃત્ત થવા ઈચ્છે છે. આ પ્રમાણે કંડરીકની ઈચ્છા જાણીને પુંડરીક રાજાએ કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનપ્રિયે ! તમે લેકે કંડરીક માટે–રાજ્યાભિષેક એગ્ય સામગ્રી ભેગી કરો. પુંડરીક રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા સાંભળીને તે લોકોએ તેમજ કર્યું. જ્યારે રાજ્યા. ભિષેકની બધી વસ્તુઓ એકત્રિત થઈ ગઈ ત્યારે પુંડરીકે કંડરીકનો રાજ્યાભિષેક કરી દીધો. એટલે કે કંડરીકને રાજ્યસને બેસાડી દીધું. એ સૂત્ર ૪ | श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १९ पुण्डरीक-कण्डरीकचरित्रम् ७३७ करित्ता, सयमेव चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, पडिवजित्ता कंडरीयस्स संतियं आयारभंडयं गेण्हइ, गेण्हित्ता, इम एयारूवं आभग्गहं आभिगिण्हइ-कप्पइ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्म उवसंपजित्ताणं तओ पच्छा आहारं आहरित्तए त्तिकद्द, इमं च एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हेत्ता णं पोंडरिगिणीए पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, पुव्वाणपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए।सू०५॥ टीका-'तएणं पुंडरीए' इत्यादि । ततः खलु पुण्डरीका स्वयमेव पश्च मुष्टिकं लोचं करोति, तथा स्वयमेव ' चाउज्जामं' चातुर्याम=चतुर्महाव्रतलक्षणं धर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य, 'कंडरीयस्स संतियं । कण्डरीकस्य सत्कम् कण्डरीक सम्बन्धि इत्यर्थः, 'आयारभंडयं ' आचारभाण्डकं आचारायसाधोः पञ्चविधा चारपरिपालनाय यद्भाण्डकं वस्त्रपात्रसदोकमुखयस्त्रिकारजोहरणादिरूपम् तद् __'तएणं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (पुंडरीए) पुंडरीक ने (सयमेव) अपने आप (पंचमुट्टियं लोयं करेइ) अपना पंचमुष्टिक लोंच किया(करित्ता सयमेव चाउज्जामं धम्म पडियजइ पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स संतियं आधारभंडयं गेहइ) और लोंच करके स्वयं ही उन्होंने-चातु मि-चतुर्महाव्रत रूप धर्म को धारण कर लिया। एवं कंडरीक के अनगार अवस्था संबन्धी आचार भाण्डक को-वस्त्र, पात्र, सदोरक मुखयस्त्रिका, रजोहरण आदिरूप साधु चिह्नों को-ले लिया। (गेण्हित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, कप्पड़ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता 'तएणं पुडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं' इत्यादि । - (तएणं) त्या२५छी (पुंडरीए) धुरी (संयमेव ) पातानी onar (पंचमुट्ठियं ले।ये करेइ) पातानुं ५ यमुष्टे दुयन यु. (करित्ता सयभेव चाउज्जामं धर्म पडियज्जइ, पडिवज्जित्ता कडरीयस्स संतियं आयारभडय गेण्हइ ) । અને લંચન કરીને જાતે જ તેમણે ચાતુર્યામ-ચતુર્મહાવ્રત રૂપધર્મને ધારણ કરી લીધું. અને કંડરીકની અનગાર અવસ્થા સંબંધી આચાર ભાંડકે–વસ, પાત્ર, સદરક મુખત્રિકા, રજોહરણ વગેરે સાધુ ચિહ્નોને લઈ લીધાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- - - --- - -- ७३८ जाताधर्मकथासूत्र गृहाति, गृहीत्या, इममेतद्रूपं वक्ष्यमाणमभिग्रहं प्रतिज्ञाविशेषम् अभिगृहाति= करोति अभिग्रहस्वरूपमाह-कल्पते, मे स्थविरान् वन्दित्वा नमस्यित्या स्थविराणामन्तिके चातुर्यामं धर्मम् ' उपसंपज्जित्ताणं ' उपसंपद्य-स्वीकृत्य, ततः पश्चात्आहारमाहत्तुम् इति कृत्वा निश्चित्य, इमं च एतद्रूपम् अभिग्रहम् , अभिगृह्य खलु पुण्डरी किण्याः प्रतिनिष्क्राम्यति निस्सरति, प्रतिनिष्क्रम्य 'पुव्याणुपुयि ' पूर्वानुपूर्ध्या चरन् , ग्रामानुग्रामं द्रयन् यत्र स्थबिरा भगवन्तस्तव प्राधारय-गमनाय गन्तुं प्रस्थितः ॥ सु०५॥ थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्मं उपसंपज्जित्ताणं, तो पच्छा आहारं आहरित्तए) बाद में उन्होंने इस प्रकार अभिग्रह धारण किया कि जबतक मैं स्थविर भगवंतो को वंदना नमस्कार कर उनके पाससे चातुर्याम धर्मको धारण नहीं कर लूंगा, तबतक मैं आहार पानी ग्रहण नहीं करूँगा उनके पास चातुर्याम धर्म धारण करके ही आहार ग्रहण करूँगा (त्ति कटु इमंच एयाख्यं अभिग्गहं अभिगिणिहत्ता णं पांडरिगिणीए पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्याणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दइज्जमाणे जेणेच थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) इस प्रकार का यह अभिग्रहण कर वे उस पुंडरीकिणी नगरी से निकले और निकल कर तीर्थंकर परम्परानुसार विहार करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए वे उस ओर प्रस्थित हुए कि जहां स्थविर भगवंत विराजमान थे ॥ सूत्र ५॥ (गेण्हिता इम एयारूव अभिग्गह अभिगिण्हइ, कापइ, मे थेरे वदित्ता णमंसित्ता थेराणं अतिए चाउज्जाम धम्म उवसंपज्जित्ताणं, तओपच्छा आहारं आहरित्तए) ત્યારબાદ તેમણે આ જાતનો અભિગ્રહ ધારણ કર્યો કે જ્યાં સુધી હું સ્થવિર ભગવંતેને વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પાસેથી ચાતુર્યામ ધર્મને ધારણ નહિ કરું ત્યાં સુધી હું આહાર પણ ગ્રહણ કરીશ નહિ. તેમની પાસેથી ચાતુર્યામ ધર્મને ધારણ કરીને જ હું આહાર ગ્રહણ કરીશ. (त्ति कटु म च एयारूव अभिग्गह अभिगिण्हित्ताणं पोंडरिगिणीए पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) । આ પ્રમાણે તે અભિગ્રહને મનમાં ધારણ કરીને તેઓ તે પુંડરીકિણી નગરીની બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં અને આ પ્રમાણે એક ગામથી બીજે ગામ વિચરણ કરતાં કરતાં તેઓએ જ્યાં સ્થવિર ભગવંતો વિરાજમાન હતા તે તરફ પ્રસ્થાન કર્યું. સૂપા श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कंडरीकचरित्रम् ७३९ मूलम्--तएणं तस्स कंडरीयस्स रणो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अइ भोयणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ । तएणं तस्स कंडरीयस्स रणो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरइ । तएणं से कंडरीए राया रज्जे य रटे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अट्टदुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकाल ट्रिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उबवण्णे । एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाए जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से कंडरीए राया ॥ सू०६॥ टीका-'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य कण्डरीकस्य राज्ञस्तं 'पणीयं ' प्रणीतम् = सरसं गरिष्ठं च पानभोजनम् ' आहारियस्स समाणस्स' आहारितस्य सतः आहारं कुर्वतः सतः ' अइजागरियेण य ' अतिजागरितेन च= ____टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (तस्स कंडरीयस्स रणो) उस कंड रीक राजा के (तं पणीयं पोणभोयणं आहारीयस्स समाणस्स अतिजागरिएणय अइभोयणप्पसंगेणय से आहारे णो सम्मं परिणमइ ) इस प्रणीत-सरस-गरिष्ठ पान भोजन के खाने से तथा विषयों की अधिक आसक्ति के कारण अतिजागरण करने से एवं प्रमाणाधिक भोजन के 'तएणं तस्स कंडरीयस्स रणो' इत्यादि । ast-(तएणं ) त्या२५छी ( तस्स कंडरीयस्स रण्णो ) ते ४४ २०nने (तं पणीयं पाणभोयणं ओहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अईभो. यणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ) તે પ્રણીત-સરસ-ગરિષ્ઠ પાન ભેજનના આહારથી તેમજ વિષયમાં વધારે પડતી આરાપ્તિના લીધે, વધારે જાગરણ કરવાથી, અને પ્રમાણ કરતાં श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० शाताधर्मकथाजसने विषयासक्तेरतिजागरणया ' अइमोयणप्पसंगेण ' अतिभोजनपसन-प्रमाणाधिकभोजनेन स आहारो नो सम्यकू परिणमति यथावदाहारस्य परिपाको न भवति । ततः खलु तस्य कण्डरीकस्य राज्ञः ' तंसि' आहारंसि' तस्मिन् आहारे ' अप. रिणममाणंसि' अपरिणमति परिपाकमगच्छति सति 'पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसममेरामध्यभागे ' सरीरंसि' शरीरे वेदना प्रादुभूता, कोदशीवेदना ? उज्ज्वला-सुखलेशरहिता, विपुला-विशाला-सर्वशरीरव्याप्ता 'पगाढा' प्रगाढा 'जाय दुरहियासा' यावद् दुरधिसह्या-सोढुमशक्या, पुनः स कण्डरीको राजा ' पित्तज्जरपरिगयसरीरे' पित्तज्वर परिगतशरीरः पित्तज्वरेण परिगतं व्याप्तं शरीरं यस्य सः पित्तज्वरपरिव्याप्तशरीरः दाहयकंतीए ' दाहव्युत्क्रान्तिकः दाहज्वरज्यालासमाक्रान्तः चापि विहरति आस्ते । ततः खलु स कण्डरीको राजा राज्ये च राष्ट्रे च अन्तःपुरे च 'जाव अज्झोवयन्ने ' यावत् प्रसंग से कृत आहार का परिपाक ठीक २ नहीं होता रहा-(तएणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुन्चरत्तावर त्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउन्भुया उज्जला विउला पगाढा जाय दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ) इसलिये एक दिन की बात है कि उन कंडरीक राजा के जब वह कृत सरस गरिष्ठ आहार अच्छी तरह नहीं पचा तब उनके शरीर मे रात्रि के मध्यभागमें वेदना प्रादुर्भूत हुई। जिस वजह से वह वेदना सुख के लेश से वर्जित थी उनके समस्त शरीर भर में व्याप्त हो रही थी बहुत अधिक थी-यावत् वह उन्हें दुरधिसह्य हो रही थी। पित्तज्वर से व्याप्त है शरीर जिन का ऐसे वे कंडरीक राजा दाहज्वर की ज्वाला પણ વધારે ભેજન પ્રસંગમાં કરેલા આહારનું પાચન બરાબર થતું નહોતું. (तएणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तसि आहार सि अपरिणममाणंसि पुव्यरत्तावरत्तकालसमय सि सरीरंसि वेयणा पाउब्भुया उज्जला विउला पगाढा जाय दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहयकंतीए यावि विहरइ) એથી એક દિવસની વાત છે કે તે કંડરીક રાજાને જ્યારે ભેજના રૂપમાં લીધેલા તે સરસ અને ગરિક આહારનું સારી રીતે પાચન થયું નહિ ત્યારે રાત્રિના મધ્ય ભાગમાં તેમના શરીરમાં વેદના થવા માંડી, તેથી તેઓ ખૂબ જ દુઃખી થયા. આ વેદનામાં માત્ર દુખ જ થતું હતું, તે વેદના તેમના સંપૂર્ણ શરીરમાં વ્યાપ્ત થઈ રહી હતી. પ્રમાણમાં તે બહુ જ વધારે હતી. યાવત્ તે તેમના માટે દુરધિસહ્ય (અસહ્ય) થઈ પડી હતી પિત્તજવરથી વ્યાપ્ત થયેલા શરીરવાળા તે કંડરીક રાજા દાહજવરની જવાળાઓથી સળગી ઉઠયા. श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतदिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कंठरोकचरित्रम् अध्युपपन्न:-मच्छितो पृद्धः अथितः अध्युपपन्नः राज्यादिषु सर्वथासक्त इत्यर्थः, ' अदुहट्टयसहे' आर्तदुःखार्तवशातः तत्र-आता मनसा दुःखितः, दुःखातः= देहदुःखयुक्तः, वशातः राज्यराष्ट्रान्तः पुराद्यासक्तेन्द्रियवशेन विषयसुखवियोगसम्भावनया पीडितः आर्तध्यानोपरात इत्यर्थः । ' अकामए ' अकामकः अनि छकः-मरणयान्छारहितः, 'अवस्सबसे ' अपस्वयशः अपगतस्वातन्त्र्यः परा. धीनः सन् कालमासे कालं कृत्या 'अहे सत्तमाए' अधः सप्तम्यां पृथिव्याम् तमस्तसः प्रभाख्ये सप्तमे नरके 'उकोसकालट्टिइयंसि' उत्कृष्टकालस्थितिके नरके से भी युक्त हो गये । (तएणं से कंडरीए राया रज्जे य रहे य अंतेउरे य जाय अज्झोपवन्ने अदुहवसट्टे अकामए अवस्सबसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उकोसकालटिइयंसि नरयंसी नेरइयत्ताए उपवण्णे) इस तरह दुःखित बने हुए ये कंडरीक राजा राज्य राष्ट्र, एवं अन्तपुर में अध्युपपन्न हो गये इस प्रकार राज्यादिकों में सर्वथा आसक्तिभाव से बंधे हुए वे राजा मन से दुःखित होकर, देह के दुःख से एकक्षण अर्तध्यान में पड़ गये । अन्त में चे, ये नहीं चाहते थे कि मेरी मृत्यु हो जावे-तो भी सांसारिक स्थिति से बन्धे हुए होने के कारण या वेदनाओं से पीडित होने के कारण वे स्वयश नहीं थे परतंत्र थे, इसलिये काल अवसरकाल करके मर कर नीचे तमस्तम प्रभा नाम के सातवें नरक में कि जो उत्कृष्ट काल स्थिति प्रमाण है-अर्थात् ३३ सा (तएणं से क डरीए राया रज्जे य रटे य अंतेउरे य जाय अझोययन्ने अद्र दुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए, अक्कोसकालद्विइयंसि नरयासि नेरइयत्ताए उववण्णे ) આ પ્રમાણે ખિત થયેલા તે કંડરીક રાજા રાજ્ય, રાષ્ટ્ર અને રણવાસમાં અયુપપન્ન થઈ ગયા એટલે કે વધારે પડતા આસક્ત થઈ ગયા. આ પ્રમાણે રાજ્ય વગેરેમાં સંપૂર્ણપણે આસક્ત ભાવથી બંધાયેલા તે રાજ મનથી દખિત થઈને, શારીરિક કષ્ટથી એક ક્ષણ માટે પણ મુક્તિ નહિ થવાને કારણે વિષય સુખોના વિયેગની સંભાવના બદલ તેમજ રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, રણવાસ વગેરેમાં આસક્ત ઇન્દ્રિયના વશમાં હોવાને કારણે આર્તધ્યાનમાં મગ્ન થઈ ગયા છેવટે તેઓ મૃત્યુને ઈચ્છતા નહોતા છતાંએ સાંસારિક વાતાવરણમાં બંધાયેલા હોવાને કારણે અથવા વેદનાઓથી પીડિત હોવાને કારણે તેઓ સ્વવશ હતા નહિ, પરવશ–પરતંત્ર હતા, એથી કાળ અવસરે કાળ કરીને, અન્ય પામીને-નીચે તમસ્તમપ્રભા નામના સાતમાં નરકમાં કે જે ઉત્કૃષ્ટ કાલ श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ ज्ञाताधर्मकथाऽसूत्रे नैरयिकतया उपपन्नः। एतद् दृष्टान्तेन भगवान महावीरः साधूनुपदिशति-एवमेय =अने नैवप्रकारेण हे आयुष्मन्तः ! श्रमणाः यः कश्चिदस्माकं श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यायानामन्तिके यात्मवजितः सन् पुनरपि मानुष्यकान् कामभोगान् 'आसाएइ ' आस्वादयति । स 'जाव अणुपरियट्टिस्सइ' यावदनुपर्यटिष्यतियायत्-चातुरन्तसंसारकान्तारं परिभ्रमिष्यति । ' जहेब से कंडरीए राया' यथैव स कण्डरीको राजा ॥ सू०६ ।। ___ मूलम्-तएणं से पोंडराए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, करित्ता जाव अडमाणे सीयलक्खं पाणभोयणं पडि गाहेइ, पडिगाहित्ता, अहापज्जत्तमिति कह पडिणियत्तइ, गर की जहां उत्कृष्ट स्थिति है-नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो गये इसी बात को दृष्टान्त से श्री भगवान महावीर प्रभु साधुओं को सम झाते है-(एचामेव समणाउसो! जाय पच्चइए समाणे पुणरवि माणु स्सए कामभोगे आसाए जाच अणुपरियटिस्सइ, जहा व से कंडरी गया) इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणों! जो कोई हमारा श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास में दीक्षित होकर के पुनः मनुष्य भव संबन्धी कामभोगों को भोगता है वह कंडरीक राजा की तरह यायत इस चतुर्गति रूप संसार कान्तार में परिभ्रमण कयेगा ॥सूत्र६॥ સ્થિતિ પ્રમાણ છે–એટલે કે ૩૩ સાગરની જ્યાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે-નારકીની પર્યાયથી જન્મ પામ્યા. એ જ વાતને શ્રી ભગવાન મહાવીર પ્રભુ દષ્ટાંત રૂપમાં સાધુઓને સમજાવે છે કે – ___ एवामेव समणाउसो! जाव पव्वईए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाए जाय अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से डरीए राया ) આ પ્રમાણે હે આયુષ્ય ત શ્રમણ ! જે કોઈ અમારા શ્રમણ અથવા શ્રમણીજન આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે દીક્ષિત થઈને ફરી જે તે મનુષ્ય ભવના કામોને ભેગવે છે, તે કડરીક રાજાની જેમ કાવત્ આ ચતુતિ રૂપ સંસાર કાંતારમાં પરિભ્રમણ કરશે. એ સૂત્ર ૬ . श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतधार्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कंडरीकचरित्रम् ७४३ जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता, थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुनाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणझुक्वण्णे बिल. मिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुएसणिजं असणपाणखाइमसाइमं सरीरकोटुगंसि पक्खिवइ । तएणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइकंतं अरसं विसरं सीयलुक्खं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणमइ । तएणं तस्स पुंडरीस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए विहरइ । तएणं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल जाव एवं वयासी-जमोऽत्थुणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं पुटिव पि य णं मए थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइ. वाए पञ्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पच्चक्खाए जाव आलोइयपडिकंते कालमासे कालं किच्चा सव्वट्ठसिद्ध उववन्ने । तओ अणतरं उव्यट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ । एवामेव समणाउसो ! जाव पव्यइए समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं णो सज्जइ णो रजइ, जाब विष्पडिघायमावज्जइ,सेणं इहभवे चेव बहूणं सायगाणं० श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉત્તર ज्ञाताधर्मकथासूत्रे अच्च णिज्जे बंद णिज्जे पूयणिज्जे सक्कारनिज्जे सम्माणणिजे कलाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जेत्तिकहु परलोए वि य णं णो आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्ञ्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरतं संसारकंतारं जाव इवइस्सइ जहावसे पोंडरीए अणगारे । एवं खलु जंबू ! समणेण भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरणं जाय सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्त नायज्झयणस्स अथमट्टे पन्नत्ते । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगणामधेनं ठाणं संपत्तेणं छट्ठस्स अंगरस पढमस्स सुयवखंधस्स अयमट्ठे पण्णेते तिमि ॥ सू० ७ ॥ टीका - तणं से ' इत्यादि । ततः खलु स पुण्डरीकोsनगारो यत्रैव स्थविरा भगवन्तस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा स्थविराणामन्तिके ' दोच्चंपि ' द्वितीयमपिवारम् चातुर्यामं= चतुर्महाव्रतरूपं धर्म प्रतिपद्यते । तथा पष्ठक्षपणपारणायां संप्राप्तायां प्रथमायां 'तपणं से पोंडरीए अणगारे' इत्यादि । टीकार्थ :- ( तरणं) इसके बाद ( से पोंडरीए अणगारे ) ये पुंडरीक अनगार ( जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उद्यागच्छइ ) जहां स्थविर भगयंत विराजमान थे वहां आ गये । ( उवागच्छिता थेरे भगवंते वंदइ, नमसर, वंदित्ता, नर्मसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चपि चाउज्जामं धम्मं (तएण से पोंडरीए अणगारे ) इत्यादि । टीडार्थ – (तएणं ) त्यारमा ( से पेंडरोए अणगारे ) ते पुंडरी मनगार ( जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छइ ) ल्यां स्थविर लगपर्यंत मिराજમાન હતા ત્યાં ગયા. ( उवागच्छित्ता धेरे भगवते वदइ, नम सड् वदित्ता, नम सित्ता थेराण' अंतिए दोच्चपि चाउज्जार्म, धम्म वडिवज्जइ, छटुक्खमणपारणगंसि परमाए શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारघमामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कंडरीकचरित्रम् ७४५ पौesri = प्रथमे पहरे स्वाध्यायं करोति, कृत्वा 'अडमाणे' यावत् अटन उच्चनीचमध्यमकुलेषु भिक्षार्थ परिभ्राम्यन् ' सीयलुक्खं ' शीतरूक्षं - शीतं पर्युषित, रूक्षं घृतादिरहितं पानं भोजनं प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृह्य 'अहापज्जतमितिक' यथापर्यातमिति कृत्वा = उदरभरणपर्याप्तमिदमन्नमितिमनसि कृत्य ' पडिणियत्तइ ' प्रति पडियज्जइ, छदुक्खमणवारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ करिता जाय अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोगणं पडिगाइ, पडिगाहिता अहाज्जन्तमिति कट्टु पडिनियत्तइ - जेणेव थेरा भगवंतो तेणेय उवागच्छइ, उवागच्छिता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदसित्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुन्नाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झयवण्णे बिलमिय पण्गगभूषणं अप्पाणेण तं फासुएसणिज्जं असणपाणखाइम साइमं सरीरको गंसि पक्खिवइ) यहाँ आकर के उन्हों ने स्थविर भगवंतों को वंदना नमस्कार किया। चंदना नमस्कार करके बाद में उन्हों ने उनसे दुधाराचातुर्याम चतुर्महाव्रतरूप धर्म को धारण किया। जब षष्ठक्षपण की पारणा का समय आया उस समय वे प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करते - और स्वाध्याय करके फिर वे उच्च नीच मध्यम कुलों में भिक्षा के लिये परिभ्रमण करते उस समय जो उन्हें शीत- पर्युषित, रूक्ष - घृतादिरहित पान भोजन मिलता वह वे ले लेते और यह अन्नसामग्री उदरभरण के लिये पर्याप्त है ऐसा मन में विचार कर वहां से पारिसीए सज्जाय करेइ करिता जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिताहेइ पडिगाहिता अहापज्जत्तमि त्ति कटु पडिनियत्तई - जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता थेरेहिं भगवतेहि, अब्भणुन्नाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्युववण्णे विलमिव पण्णगभूणं अप्पाणं तं पोसुएसणिज्जं असणपाणखाइमसाइम' सरीरको दुगंसि पक्खियइ ) ત્યાં આવીને તેમણે સ્થવિર ભગવાને વંદના અને નમસ્કાર કર્યાં. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમની પાસેથી ખીજીવાર ચાતુમ-ચતુમહાવ્રતરૂપ ધર્મને ધારણ કર્યાં. જ્યારે ષષ્ઠ ક્ષપણુની પારણાનેા વખત આવ્યા ત્યારે તેએ પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાઘ્યાય કરતા અને સ્વાધ્યાય કરીને તે ઉચ્ચ, નીચ અને મધ્યમ કુળેમાં ભિક્ષા માટે પરિભ્રમણ કરતા તે સમયે તેમને શીત-પર્યું`ષિત, રૂક્ષ-ઘી વગરનેા, પાન આહાર મળતા તે તેને તેએ સ્વીકારી લેતા અને ‘ આટલા આહાર ઉત્તર-પેષણ માટે પૂરતા છે આવા મનમાં વિચાર કરીને ત્યાંથી પાછા ફરી જતા. પાછા આવીને ભિક્ષામાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঘানামৰূথা निवर्तते-प्रत्यागच्छति, प्रतिनित्य यौव स्थविराभगवन्तस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, भक्तपानं प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्य, स्थविरैर्भगयद्भिरभ्यनुज्ञातः सन् अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्ना=आसक्तिपरिवर्जित इतिभावः, 'बिलमिय पन्नगभूएणं अप्पाणेणं ' बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना इप-यथा पन्नग भूतेन पन्नगमयमागतेन आत्मना-जीवेन बिलं प्रविष्यते, तथा तं 'फासुएसणिज्ज ' प्रासुकैषणीयं द्वाचत्वारिंशद्दोषयर्जितम् अशनं पानं खाद्यं स्वाचं 'सरीरकोद्वगंसि' शरीरकोष्ठके-उदरे प्रक्षिपति, यथा भुजङ्गो बिलस्य पार्थ भागद्वयमसंस्पृ. शन् मध्यभागत एवात्मानं बिले प्रवेशयति तथा स मुखस्य पाद्वयस्पर्शरहितमाहारं कण्ठनालाभिमुखं प्रवेश्य आहारयतीति भावः । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य 'कालाइकंत' कालातिकान्त कालमतिक्रम्य प्राप्तम्-बुभुक्षावापिस आ जाते-वापिस आकर फिर प्राप्त भिक्षान्न को दिखाने के लिये वे जहां स्थविर भगयंत विराजमान होते वहां आते-यहां आकर प्राप्त भिक्षान्न को उन स्थविर भगवंतों को दिखलाते-दिखालकर जब वे उस आहार को खाने की आज्ञा देते-तब वे अमूच्छित भाव से अगृद्धचित्तवृत्ति से, एवं आसक्ति रहित परिणति से उस प्राशुक एषणीय-४२ दोषों से रहित अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप-आहार को जिस तरह सर्प-बिल में प्रविष्ट होता है उसी तरह से शरीर कोष्ठक मेंउदर में डाल देते थे। कारण इसका इस प्रकार है-जैसे भुजंग बिल के पार्श्वद्वय नहीं छूता हुआ सीधे मध्यभाग से अपने को बिल में प्रविष्ट कराता है उसी तरह वे मुनिराज मुख के पार्श्वद्वय के स्पर्श से रहित आहार को सीधे कण्ठनाल में धर कर आहार करते थे (तएणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कतं अरसविरसं सियलुक्खं पाणપ્રાપ્ત આહારને બતાવવા માટે જ્યાં તે સ્થવિર ભગવંત વિરાજમાન હતા ત્યાં આવતા. ત્યાં આવીને મેળવેલા આહારને તે સ્થવિર ભગવંતને બતાવતા અને બતાવીને જ્યારે તેઓ તે આહારને ગ્રહણ કરવાની આજ્ઞા કરતા ત્યારે તેઓ અમૂછિત-ભાવથી, અમૃદ્ધ-ચિત્તવૃત્તિથી અને આસક્તિ રહિત પરિણતિથી તે પ્રાસુક એષણય-૪૨ દેથી રહિત અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ આહારને જેમ સાપ દરમાં પ્રવેશે છે તેમજ શરીર કોષ્ટકમાં–પેટમાં નાખી દેતા હતા. જેમ સાપ દરના બંને પાર્શ્વને સ્પર્શ ન કરતાં સીધો વચ્ચે થઈને પિતાની જાતને દરમાં પ્રવિષ્ટ કરાવી લે છે તેમજ તે મુનિરાજ પણ મુખના બંને પાશ્વના સ્પર્શથી રહિત આહારને સીધે કંઠનાળમાં મૂકીને ઉદરસ્થ કરતા હતા. (तएणं तस्स पुज्रीयरस अणगाररस त कालाइक्त अरसं विरसं सिय श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १९ पुण्डरीक कंडरीकचरित्रम् ७४७ समयमुल्लध्य प्राप्तम् , अरसं विरसं शीतरूक्षं पान भोजनम् ' आहारियस्स' आहारितस्य सतः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये 'धम्मजागरियं जागरमाणस्स' धर्म: जागारिकां जाग्रतः धर्मचिन्तनार्थ जागरणां कुर्वतः स आहारो नो सम्यक् परिणमति-नो परिपाकं गच्छति । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता ' उज्जला जाव दुरहियासा' उज्ज्वला यावत् दुरधिसह्या, एषां व्याख्यापूर्ववत् , तथा स पुण्डरीकोऽनगारः पितज्यरपरिगतशरीरो दाहव्युत्कान्तिकः दाहज्वरसमाकुलश्चापि विहरति । ततः खलु स पुण्डरीकोऽनगारः 'अस्थामे' अस्थामा शक्तिरहितः, अबला शारीरिकवलरहितः, 'अवीरिए' अधीर्यः उत्साहरहितः, अपुरुषकारपराक्रमः पुरुषार्थपराक्रमरहितः ' करयल जाय' करतल यावत् करतलपरिगृहीतं दशनखं मस्तके अञ्जलिं कृत्या एवमयादीत्-नमोऽस्तु खलु अर्हद्भ्यो यायत्सैमाप्तेभ्यः मोक्षं गतेभ्यः, नमोस्तु खलु स्थविरेभ्यो भगवद्भ्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि च खलु मया स्थविराणाभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्मं परिणमइ ) इस तरह उन पुंडरीक अनगार का कालातिक्रम से खाया हुआ यह अरस, चिरस, शीत, रूक्ष, पानभोजन रात्रि के मध्यभाग में धर्मचिन्तन निमित्त जाग. रण करने के कारण अच्छी तरह से नहीं पचता था (तएणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाय दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहयक्कंतिए विहरइ, तएणं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे, अबले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरिक्कमे करयल जाव, एवं वयासी-णमोत्थुणं अरिहंताण जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोयएसयाणं पुच्चि पि य णं मए लुक्ख पाणभोयणं आहारियरस समाणस पुव्वरत्तोयरत्तकालासमयसि धम्मजाग. रियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणमइ) આ પ્રમાણે તે પુંડરીક અનગારને કાળાતિક્રમથી કરે તે અરસ, વિરસ, શીત, રૂક્ષ પાન આહારનું રાત્રિના મધ્ય ભાગમાં ધર્મચિંતન માટે કરેલા જાગરણને લીધે સારી રીતે પાચન થતું ન હતું. (तएणं तस्स पुडरीयस्स अणगोरस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला आय दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहयकतिए विहरइ, तएणं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे, अवले, अवीरिए अपुरिसकारपरिक्कमे करयल जाय, एवं वयासी-णमोत्थुण अरिहताणं जाप संपत्ताणं थेराणं भगवताणं मम धम्मायरियाणं શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ૭૪૮ मन्तिके सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावत् मिथ्यादर्शनशल्यं खलु प्रत्याख्यातम् = अष्टादशपापस्थानानि प्रत्याख्यातानि इति भावः, इदानीमपि तेषामेव थेराणं अंतिए सव्ये पाणाइयाए पच्चक्खाए जाब मिच्छादंसणसल्ले णं पच्चक्खाए जाव आलोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा सव्यहुसिद्धे उन्ने ) इस कारण पुंडरीक अनगोर के शरीर में वेदना प्रकट हो गइ । जिसके कारण उन्हें क्षणभर भी शाता नही मिलती। धीरे २ यह समस्त शरीर में भी व्याप्त हो गई । यावत् यह उनके लिये सहन हो सके ऐसी नहीं रही वे उसे बड़ी कठिनता से सहते । दाहज्वर ने भी इनके शरीर पर अपना प्रभाव जमा लिया । इस तरह ये दाहज्वर की ज्वाला से भी आकुल व्याकुल रहने लगे। धीरे २ इनका शरीर शक्ति रहित हो गया । शारीरिक बल भी इनका जाता रहा । उत्साह रहित एवं पुरुषार्थ पराक्रम से विहीन जब ये हो गये तब करतल परिगृहीत दशनखोंवाली अंजलि को इन्हों ने अपने मस्तक पर रखकर इस प्रकार का पाठ बोलना प्रारंभ किया यावत् मुक्ति प्राप्त अर्हत भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक स्थविर भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो । मैंने पहिले भी स्थविर भगवंतों के निकट सम स्त प्राणातिपात प्रत्याख्यान कर दिया है - यावत् मिथ्यादर्शन शल्य धम्मोचयाणं पुव्धिपि य णं मए थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव मिच्छाद सणसल्लेणं पच्चखाए जाय आलोइयपडिक्क ते कालमासे काल किच्चा सव्व सिद्धे उन्ने ) એથી તે પુંડરીક અનગારના શરીરમાં વેદના પ્રકટ થઈ ગઇ તેથી તેમને એક ક્ષણ માટે પણ શાતા મળતી નહેાતી. ધીમે ધીમે આ વેદના સપૂ શરીરમાં પ્રસરી ગઈ યાવત્ તે તેમના માટે અસહ્ય થઈ ગઇ, ભારે મુશ્કેલીથી તેઓ તેને ખમતા હતા. દાહવરે પણ તેમના શરીર ઉપર પેાતાના પ્રભાવ જમાવી લીધા હતા, એથી તેઓ દાહવરની જ્વાળાઓથી પણ આકુળ-વ્યાકુળ રહેવા લાગ્યા. ધીમે ધીમે તેમનું શરીર અશક્ત થઈ ગયું, શારીરિક ખળ પણ તેમનું નષ્ટ થઈ ગયું હતું. આ પ્રમાણે જ્યારે તે ઉત્સાહ રહિત અને પુરૂષા પરાક્રમ વિહીન થઈ ગયા ત્યારે કરતલ-પરિગૃહીત દશ નખાવાળી અંજલિને તેમણે પેાતાના મસ્તકે મૂકીને આ પ્રમાણેના પાઠ મેલવા લાગ્યા કે યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત અહંત ભગવ ંતને મારા નમસ્કાર છે, મારા ધર્માંચા, ધર્મોપદેશક સ્થવિર ભગવંતાને મારા નમસ્કાર છે. મેં પહેલાં પણ ભગવતાની પાસે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત કરી દીધું છે. યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યનું અઢાર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १९ पुण्डरीक-कंडरीकचरित्रम् ७४९ अन्तिके प्राणातिपातं यावत् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि, एवं ' जाव आलोइय पडिकंते' यावदालोचितप्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपन्नः । ततोऽनन्तरम् तत्पश्चात् सर्वार्थसिद्धात् ' उव्यट्टित्ता' उद्धृत्य-सर्वाथसिद्धेनिर्गत्य महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । पुण्डरीकानगारचरित दृष्टान्तेनोपदय श्रमणानुपदिशति भगवान् महावीर:-' एवामेय' अनेनैवप्रकारेण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः 'जाय पच्वइए ' यावत्मत्रजितः योऽस्माकं श्रमणो या श्रमणी या आचार्योपाध्यायानामन्तिके प्रबजितः सन् मानुष्य केषु कामभोगेषु नो सज्जते नो असक्तिमाश्रयते 'नो रज्जते ' नो रज्यते-नो अनु. रागवान् भवति, 'जाय नो विप्पडिघायमावज्जइ' यावत् नो विप्रतिघातमापद्यते-संयमनाशं न प्राप्नोति, स खलु इह भवे एव बहूनां श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूनां श्राविकाणाम् अर्चनीयो बन्दनीयः पूजनीयः सत्कारणीयः सम्माननीयो भवति, तथा च-स सर्वेषां 'कल्लाणं' कल्याणंकल्याणरूपम् ' मंगलं' मङ्गलम् -मङ्गल रूपम् , 'देवयं' दैवत-धर्मदेवरूपः, ' चेइयं ' चैत्यम् ज्ञानरूपः पर्युपासनीयश्च भवति 'त्तिक? ' इति कृत्या इति का अष्टादश पोपस्थानों का, मैंने प्रत्याख्योन कर दिया है। और अब भी उन्हीं के साक्षी से प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। इस तरह आलोचित प्रतिक्रान्त होकर वे कालअवसर कालकर सर्वाध सिद्ध नामके अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो गये। (तओ अणंतरं उव्यद्वित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाच सयदुक्खा णमंतं काहिह, एयामेय समणाउसो! जाव पव्यइए समाणे माणुस्स. एहिं कामभोगेहिं णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विप्पडियायमायज्जा सेणं इह भवे चेय बहूणं साथियाणं अच्चणिज्जे, वंदणिज्जे, पूणिज्जे, सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुयासપાપંસ્થાનોનું મેં પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધું છે અને હવે તેમની જ સાક્ષીમાં પ્રાણુતિપાત યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. આ પ્રમાણે આચિત પ્રતિક્રાંત થઈને તેઓ કાળ અવસરે કાળ કરીને સર્વાર્થસિદ્ધ નામના અનુત્તર વિમાનમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયા અને ત્યાં તેમની ૩૩ સાગરોપમની સ્થિતિ છે. (तओ अणंतर उव्यद्वित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव सव्यदुक्खाणमत' काहिइ, एवामेव समणाउसो! जाय पव्यइए समाणे माणुस्सएहि काम भोगेहि णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाय नो विप्पडिघायमायज्जइ से णं इह भये चेव बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, वदणिज्जे, पूयणिज्जे, सकारणिज्जे, सम्माणणिउजे, कल्लाणं मंगल देवयं चेइय पज्जुबासणिज्जे त्ति कट्टु परलोए वि यणं णो श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० ज्ञाताधमेकथागसूत्रे हेतोः परलोकेऽपि च खलु सा नो आगच्छति न प्राप्नोति बहूनि बहुविधानि इण्डनानि च मुण्डनानि च तर्जनानि च ताडनानि च यावत् चतुरन्त संसारकान्तरं 'बीइयइस्सइ' व्यति अनिष्यति-उल्लङ्घयिष्यति, यथा स पुण्डरीकोऽनगारः णिज्जे त्ति कटूटु परलोए वि य णं णो आगच्छइ, बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडगाणि य जाव चाउरंतसंसारकंतारं जाव बीइयइस्सइ) इसके बाद ये उस सर्वार्थ सिद्ध विमान से चय कर महाविदेहक्षेत्र में जन्म धारण कर यहीं से सिद्धपद के भोक्ता बनेंगेयावत् समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। इस तरह पुंडरीक अनगार के चरित्र को दृष्टान्त रूप से कहकर भगवान महावीर प्रभु श्रमणजनों को. उपदेश करते हैं कि इसी प्रकार से हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमारा श्रमण या श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रव्रजित होकर मनुज्यभव संबंधी कामभोगों में आसक्त नहीं बनता है, रज्जित-अनुराग भाच संपन्न-नहीं होता है, धावत् अपने संयम को नष्ट नहीं करता है, वह इस भय में ही अनेक श्रमण श्रमणी, श्रावक एवं श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वंदनीय पूजनीय सत्करणीय एवं सन्माननीय होता है। तथा जगत के लिये कल्याणरूप, मंगलरूप, धर्म देवरूप, और ज्ञानरूप बन जाता है। लोग उसकी उपासना करते हैं । यह परलोक में भी अनेक प्रकार के दंडनरूप, दुःखों को, मुंडनों को तर्जनों को, ताडनाओं आगच्छइ, बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणिय तज्जणाणि य ताडगाणि य जाय चाउर तसंसारकतार जाय वीइयइस्सइ) ત્યારપછી તેઓ તે સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાંથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ ધારણ કરીને ત્યાંથી જ સિદ્ધપદ મેળવશે, યાવત્ સમસ્ત દુઃખને અંત કરશે. આ રીતે પુંડરીક અનગારના ચરિત્રને દષ્ટાંત રૂપે કહીને મહાવીર પ્રભ શ્રમજને ઉપદેશ કરતાં કહે છે કે આ પ્રમાણે જ છે આયુમંત શ્રમણ ! જે અમારા શ્રમણ કે શ્રમણીજને આચાર્ય ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઈને મનુષ્ય ભવના કામમાં આસક્ત થતા નથી. રજિજત-અનુરક્ત થતા નથી, યાવત પિતાના સંયમને નષ્ટ કરતા નથી તે આ ભવમાં જ ઘણા શ્રમણશ્રમણી અને શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, વંદનીય, પૂજનીય, સત્કરણીય અને સન્માનનીય હોય છે. તેમજ જગતના માટે કલ્યાણરૂપ, મંગળરૂપ, ધર્મ, દેવરૂપ અને જ્ઞાનરૂપ બની જાય છે. જોકે તેની ઉપાસના કરે છે, તે પરલોકમાં પણ ઘણી જાતના દંડન રૂપ, દુઓને, મુંડનને, તર્જનેને, તાડનાઓને श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७५१ सुधर्मास्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण आदिकरेण तीर्थकरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संपाप्तेन एकोनविंशतितमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । ज्ञातश्रुतस्कन्धं समापयन् सुधर्मा पुनः कथययि-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवतां महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन षष्ठस्य अङ्गस्य-षष्ठाइसम्बन्धिनः प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य अयमर्थः पूर्वोक्तरूपो भावः प्रज्ञप्तः भगयता कथितः । 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि, व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०७ ॥ को नहीं पाता है और चतुर्गतियाले इस संसार कान्तार को पुडरीक अनगार की तरह पार करनेवाला हो जाता है । ( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरे णं आइगरेणं तित्थगरेणं जाय सिद्ध गई नामधेज्जं ठाणं संपत्तणं एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगयया महावीरे णं जाय सिद्धिगइणामधेज्जं ठाणं संपत्ते णं छठुस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि ) अब श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जंबू ! आदिकर तीर्थकर यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भप्रधान महावीर ने १९ वे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। इस तरह हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिगति नामक स्थान को अच्छी तरह प्राप्त कर चुके हैं, छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कंध का यह पूर्वोक्त रूप से भाव प्रतिपादित किया है। ऐसा मैने प्रभु के कहे अनुसार ही यह हे जंबू ! तुमसे निवेदित किया है। પ્રાપ્ત કરતું નથી અને ચતુર્ગતિવાળા આ સંસાર કતારને પુંડરીક અનગારની જેમ પાર કરનાર થઈ જાય છે. ( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाय सिद्धगई नामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीस इमस्स नायज्झयणस्स :अयमढे पष्णत्ते, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाय सिद्धिगइणामधेज्ज ठाणं संपत्तेणं छदुस्स अंगरस पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि) હવે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જંબૂ! આદિકર તીર્થકર યાવત સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમાં જ્ઞાતાધ્યયનનો આ પૂર્વોક્ત રીતે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે છે જબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધું છે-છઠ્ઠા અંગના પ્રથમ શ્રુતકને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં ભાવ પ્રતિપાદિત કર્યો છે. જ બૂ! આવું મેં પ્રભુના કહ્યા મુજબ જ તમને કહ્યું છે. श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ ce ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे _ ' तस्से ' त्यादि, तस्य खलु प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य एकोनविंशतिरध्ययनानि ' एगसरगाणि' एकस्वरकानि-समानोच्चारणानि=अन्तराले उद्देशरहितानि एकोनविंशति दिवसेषु समाप्यते ।। सू० ७ ।। मंगलं भगवान् वीरः मंगलं गौतमः प्रभुः । सुधर्मा मंगलं, जंबूर्जेनधर्मश्च मंगलम् ॥ १ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धयाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-यादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री-घासीलालअतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव र्षिण्याख्यायां व्याख्यायां प्रथमश्रुतस्कंधः समाप्तः ॥ इस कथन में मैंने अपनी तरफ से कोई भी कल्पना मिश्रित नहीं को है किन्तु प्रभु के मुख से जैसा मैंने इसे सुना है वैसा ही यह तुम से मैंने कहा है । " तस्से" त्यादि इस प्रथम श्रुतस्कंध के अन्तराल में उद्देश रहित १९ अध्ययन हैं। ये अध्ययन १९ दिनोंमें समाप्त होते हैं। टीकार्थ:-सांसरिक समस्त जीवों के लिये यदि मंगलकारी पदार्थ है-तो ये हैं भगवान् महावीर प्रभु गौतमगणघर, सुधर्मास्यामी, जंबूस्वामी और जैनधर्म। इस तरह ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रके प्रथम श्रुतस्कंध संपूर्ण । આ કથનમાં મેં મારા તરફથી કોઈ પણ જાતની કલ્પના મિશ્રિત કરી નથી, vey प्रभुना भुथी रे में सामन्युं छे ते २४ मे ४j छ. “ तस्से " त्य આ પ્રથમ કૃત–રકંધના અંતરાલમાં ઉદ્દેશ રહિત એગણીસ અધ્યયને છે. આ અધ્યયને ઓગણીસ દિવસોમાં સમાપ્ત હોય છે. ટીકાઈ–બધા સાંસારિક જીવોના માટે જે મંગળકારી પદાર્થો છે તે તે એજ છે-ભગવાન મહાવીર પ્રભુ, ગૌતમ ગણધર, સુધર્મા સ્વામી, જબૂ સ્વામી અને જૈન ધર્મ. આ પ્રમાણે જ્ઞાતાધર્મ કથાગને જ્ઞાતા–નામે પ્રથમ શ્રુતસ્કંધ સમાપ્ત થશે.” શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ ज्ञातासूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धविवरणम् ॥ मङ्गलाचरणम् (बसन्ततिलकात्तम् ) आये श्रुते भगवता रुचिरैरनेकै, तिरदायि सकलातिहरः सुबोधः । स्कन्धे द्वितीयइह धर्मकथा च साक्षाद् , विज्ञापिता तमनिशं वरदं स्मरामि ॥१॥ ( मालिनीछन्दः) गणधरगुणधारं, प्राप्तसंसारपारम् , भविजनहितकारं, दत्तसम्यक्त्वसारम् , । हृतसकलविकारं, भव्यचित्तैकहार, शियमुखपदधारं, नौमि चारित्रसारम् , ॥ २ ॥ -:द्वितीयश्रुतस्कंधप्रारंभ:आद्येश्रुते इत्यादिः-प्रथम श्रुतस्कंधमें भगवान् सूत्रकार ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा सकल आर्ति (दुःख) हारक सुबोध प्रदान किया है अब ये इस द्वितीय श्रुतस्कंध में साक्षात् धर्मकथाएँ प्रकट करेंगे-अतः ऐसे भगवान को मैं कि जो भव्यजीवों को कल्याण करनेवाले होते हैं उनको निरन्तर नमस्कार करता हूँ॥ १॥ गणधरइत्यादि-जो गणधरों के गुणों को धारण करनेवाले हैं संसार को पार करनेवाले हैं, जो भव्यजनों को हितकारक हैं, सम्यक्त्यरूपी गुणके बोधक हैं-सकल विकारों से रहित है, इसलिये जो भव्यजीवों દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધ પ્રારંભ आये श्रुतेत्यादि- प्रथम श्रुत२४ मा भगवान सूत्र॥२ घणा सुंदर दृष्टांत। વડે સમસ્ત આતિ (દુઃખ) હારક સુબોધ પ્રદાન કર્યો છે. હવે તેઓ આ બીજા શ્રુતસ્કંધમાં સાક્ષાત્ ધર્મકથાઓ પ્રકટ કરશે એટલા માટે એવા ભગ વાનને-કે જેઓ ભવ્ય જીવનું કલ્યાણ કરનારા છે-હું નિરંતર નમસ્કાર કરું છું. ૧ ગણધર ઈત્યાદિ–જેઓ ગણધરોના ગુણોને ધારણ કરનારા છે, સંસારને પાર કરનારા છે જેઓ ભવ્યજનના હિતકારક છે, સમ્યકત્વ રૂપી ગુણના બેધક છે, આ બધા વિકારોથી રહિત છે, એટલા માટે જ જેઓ ભવ્ય જીવન શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ - शाताधर्मकथा सूत्र व्याख्यातः प्रथमो ज्ञाताख्यः श्रुतस्कन्धः, अथ धर्मकथाख्यो द्वितीयः पारभ्यते, अस्य पूर्वेण सहाय सम्बन्धः-पूर्वस्मिन् श्रुतस्कन्धे उदाहरणप्रदर्शनपूर्वकमाप्तोपालम्भादिना धर्मरूपोऽर्थः प्रतिपादितः, इह तु स एव साक्षाद् धर्मकथाभिः प्रतिपाद्यते, इत्येवं सम्बन्धेन समायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-' तेणं कालेणं' इत्यादि । ___मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, वण्णओ, तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए तत्थ णं गुणसिलए णामं चेइए होत्था वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा. वीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मा णाम थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगया पंचहिं अणगाके चित्त को हरण करनेवाले हैं ऐसे उस सम्यक् चारित्ररूपी सार को धारण करनेवाले मोक्षपद के धारी हैं उसको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रथम ज्ञाता नाम का श्रुतस्कंध व्याख्यात हो चुका अब धर्मकथा नाम का द्वितीय श्रुतस्कंध प्रारंभ किया जाता है। इस श्रुतस्कंध का पूर्व श्रुतस्कंध के साथ इस प्रकार से संबंध है कि पूर्व श्रुतस्कंध में उदाहरण प्रदर्शन पूर्वक आप्त तीर्थकर के उपालंभ आदि द्वारा धर्म रूप अर्थ प्रतिपादित किया गया है। अब इस द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्म रूप अर्थ साक्षात् धर्मकथाओं द्वारा निरूपित किया जायेगा। इस द्वितीय श्रुतस्कंध का यह आदि सूत्र है । तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि । ચિત્તને આકર્ષવારા છે, એવા તે સમ્યફ-ચારિત્ર રૂપી સારને ધારણ કરનારા મોક્ષપદના ધારી છે, તેને હું નમસ્કાર કરું છું. પ્રથમ જ્ઞાતા નામને શ્રુતસ્ક ધ વ્યાખ્યાત થઈ ચુક્યો છે. હવે ધર્મકથા નામને બીજે શ્રતસ્કંધ શરૂ કરવામાં આવે છે. આ શ્રતસ્ક ધ પહેલા શ્રત ધની સાથે આ પ્રમાણે સંબંધ છે કે પૂર્વ શ્રુતસ્કંધમાં ઉદાહરણોની સાથે આમ તીર્થકરના ઉપાલંભ વગેરે દ્વારા ધર્મરૂપ અર્થનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ બીજા ગ્રુતસ્કંધમાં તે જ ધર્મરૂપ અર્થ સાક્ષાત્ ધર્મ કથાઓ વડે નિરૂપવામાં આવશે. આ બીજા શ્રુતસ્કંધનું આ પ્રથમ સૂત્ર છે— 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमगारधर्मामृतवपिणी टीका श्रु. २ व. १ अ. १ द्वितीयश्रुतस्कधस्योपक्रमः ७५५ रसएहि सद्धिं संपरिखुडा पुव्वाणुपुटिव चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेब गुणसिलए चेइए जाय संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्टस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स णायाणं अयमटे पन्नत्ते दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पन्नत्ते ?, एवं खल्लु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता, तं जहा - चमरस्स अग्गमहिसणं पढमे वग्गे? बलिस्स बइरोयणिंदस्स बइरोयणरन्नो अग्गमहिसीणं बीओ वग्गो२ असुरिंदवज्जियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तइओ वग्गो ३ उत्तरिल्लाणं असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थो वग्गो ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसाणं पंचमो वग्गो५ उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छटो वग्गो६ चंदस्स अग्गमहिसीणं सत्तमो वग्गो ७ सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्ठमो वग्गोट सक्कस्स अग्गमहिसीणं णवमो वग्गो९ ईसाणस्स अग्गमहिसणं दसमो वग्गो१०॥सू०१॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे टीका - तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीत्, 'वण्णओ' वर्णकः- नगरवर्णनं सर्वमत्र विज्ञेयम् । तस्य खलु राजगृहस्य नगरस्य वहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे तत्र खल गुणशिलकं नाम चेत्यमासीत्, 'चाओ' वर्णकः = चैत्यवर्णनप्रकारः सर्वोऽत्र वाच्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीर - स्यान्तेवासिन आर्यसुधर्माणो नाम स्थविरा भगवन्तः ' जाइसंपन्ना ' जातिसम्पन्नाः = सुविशुद्ध मातृवंशाः, कुलसंपन्नाः = विशुद्ध पितृवंशाः, 'जाव' यावत्-बलरूप- विनय-ज्ञान-दर्शन- चारित्र - लाघव-सम्पन्नाः, इत्यादि यावत् - चतुर्दशपूर्विणः ' चरणाणोवगया' चतुर्ज्ञानोपगताः = मतिश्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानयुक्ताः पञ्चभिर ७५६ टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में ( रायगिहे नामं नरे होत्था ) राजगृह नाम का नगर था। (यण्णओ) नगर का वर्णन औपपातिक सूत्र में वर्णित चंपा नगरी के समान जानना चाहिये । (तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थि मे दिसिभाए तत्थणं गुणसिलए णामं चेइए होत्या, वण्णओ) उस राजगृह नगर के बाहिर उत्तर पौरस्त्यदिग्भाग की ओर ( ईशानकोण में ) एक गुणशिलक नाम का चैत्य-उद्यान -था। यहां पर भी सब चैत्यवर्णन औपपातिक सूत्र की तरह जानना चाहिये - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज सुहम्माणामं थेरा भगबंतो जाइ संपन्ना कुल संपन्ना जाव चउद्दसपुण्वी चरणाणावगया पंचहि अणगारसहिं सद्धिं संपरिवुडा पुच्चाणुपुर्विय चरमाणा गामाणुगामं दूइ टीडार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) ते अणे अने ते समये ( रायगिहे नामं नयरे होत्था ) रामगृह नामे नगर तुं. ( वण्णओ) मा नगरनुं वर्शन ઔપપાતિક સૂત્રમાં વર્ણવવામાં આવેલા ચંપા નગરીના વનની જેમ જ જાણી લેવુ જોઈએ. ( तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स वहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए तत्थणं गुणसिलए णामं चेहए होत्या, वण्णओ ) તે રાજગૃહ નગરની બહાર ઉત્તર પૌરસ્ય ગ્-ભાગની તરફ એટલે કે ઇશાન કાણુમાં એક ગુણુશિલક નામે ચૈત્ય-ઉદ્યાન-હતા. અહીં ચૈત્ય વિષેનું બધુ વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રની જેમ જાણવુ જોઇએ. ( तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज हम्माणामं थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउदस पुच्ची चडणाणीचगया पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुचाणुपुच्चि चरमाणा गामाणुगामं दूइ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतयषिणो टी० श्रु. २ य. १ अ.१ द्वितीयश्रुतस्कंधस्योपक्रमः ७५७ नगारशतैः साई संपरिमृताः ‘पुध्याणुपुब्धि' पूर्वानुपूर्व्या-तीर्थङ्करपरम्परया 'चरमाणा' चरन्तः विहरतः ग्रामानुग्रामं एकग्रामाव्यवधानेनान्यं ग्रामम् 'दुइज्जमाणा ' द्रयन्तः स्पृशन्तः ' मुहं सुहेणं' सुखं सुखेन=सुखपूर्वकं यथायसरमित्यर्थः विहरन्तो यव राजगृहं नगरं यत्रैय गुणशिलकं चैत्यं यावत्-संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । अत्र आदरार्थ बहुवचनम् । परिषन्निर्गता । धर्मः कथितः । परिषद् यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता। तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽनगारस्यान्तेवासी आर्य जम्बू मानज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाय संजमेणं तयसा अप्पाणं भायमाणा विहरंति ) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर भगवंत कि जो विशुद्ध मातृवंशयाले थे विशुद्ध पितृयंशयाले थे, यारत् बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं लाघर संपन्न थे, चौदहपूर्व के पाठी थे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनःपर्यय ज्ञान इन चारों ज्ञानों के धारक थे-पांचसौ अनगारों के साथ तीर्थकर परंपरा के अनुसार विहार करते २ एक ग्राम से दूसरे ग्राम में बिना किसी व्यवधानके विचरण करते हुए सुख पूर्वक समय पर-जहां राजगृह नगर और उस में भी जहाँ यह गुणशिलक चैत्य था आये। यहां वे संयम एवं तए से आत्मा को भावित करते हुए उतरे (परिमा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेज्जमाणा सुहं सुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाय संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति) તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના અંતેવાસી આર્ય સુધર્મા નામના સ્થવિર ભગવંત કે જેઓ વિશુદ્ધ માતૃવંશવાળા હતા-વિશુદ્ધ मितृयशया , यावत् २, ३५, विनय, शान, शन, यास्त्रि अने લાઘવ-સંપન્ન હતા. ચૌદ પૂર્વના પાઠી હતા, મતિજ્ઞાન, શ્રતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાન એ ચારે જ્ઞાનના ધારક હતા. પાંચસે અનગારોની સાથે તીર્થકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ કેઈપણ જાતના વ્યવધાન વગર સુખેથી યથા સમયે જ્યાં રાજગૃહ નગર અને તેમાં પણ જ્યાં તે ગુણશિલક ચૈત્ય હતું ત્યાં આવ્યા ત્યાં તેઓ સંયમ અને તપ દ્વારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા રોકાયા. (परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ - - शाताधर्मकथासूत्र गारः यायत्-'पज्जुबासमाणे ' पर्युपासीनः सेवमानः एवमयदत-यदि खलु 'भंते ' भदन्त हे भगवन् ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्-मोक्षं सम्प्राप्तेन पष्ठस्याङ्गस्य प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य ‘णायाणं' ज्ञातानाम्-उदाहरणानाम् अयमर्थः प्रज्ञप्तः द्वितीयस्य खलु हे भदन्त ! श्रुत स्कन्धस्य धर्मकथानां श्रमणेन यावत्सम्पा. प्तेन मोक्षं गतेन भगवता कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । सुधर्मास्वामीमाह-एवं खलु हे जम्बूः ! वासी अज्ज जंबूणामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइणं भंते समणेणं जाय संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्त सुयक्खंधस्स णायाणं अयमढे पन्नत्ते दोच्चस्स णं भंते! सुयखंधस्स धम्मकहाणं समणेणं जाय संपत्तणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाय संपत्तेणं धम्मकहाणं दसयग्गा पण्णत्ता) राजगृह नगर से परिषद वंदन करने के लिये आई। सुधर्मास्वामी धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर परिषद अपने २ स्थान पर पीछे वहां से चली गई। उस काल में और उस समय में आर्य सुधर्मास्वामी के अंतेवासी आर्य जंबू नामके अनगार ने यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए उनसे इस प्रकार पूछा हे भदंत ! यावत् मुक्तिको प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीरने छठे अंगके ज्ञातासूत्र प्रथम श्रुतस्कंध के उदाहरणांका यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया है-तो हे भदंत ! द्वितीय श्रुतस्कन्धकी धर्मकथाओं का उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं क्या अर्थ निरूपित किया है ? इस प्रकार जंबू के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मा अज्जजंबू णाम अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं बयासी-जइणं भंते समणेणं जाय संपत्तेणं छठुस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्वंधस्स णायाणं अयमढे पन्नत्ते दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खं धस्स धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता) રાજગૃહ નગરથી પરિષદ વંદન કરવા માટે ત્યાં આવી. સુધર્મા સ્વામીએ ધર્મને ઉપદેશ આપે. ઉપદેશ સાંભળીને પરિષદ પિતાના સ્થાને પાછી જતી રહી. તે કાળે અને તે સમયે આર્ય સુધર્મા સ્વામીના અંતેવાસી ( શિષ્ય) આર્ય જંબૂ નામના અનગારે યાવત્ તેમની પયુ પાસના કરતાં તેમને આ પ્રમાણે પૂછ્યું કે હે ભદન્ત ! યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવિરે છઠ્ઠા અંગના પ્રથમ ગ્રુતસ્કંધના ઉદાહરણોને આ પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદન્ત ! તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધું છે-દ્વિતીય શ્રતસ્ક ધની ધર્મકથાઓને શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે જંબૂના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધમ સ્વામીએ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० श्रु. २ व. १ अ. १ द्वितीयश्रुतस्कंध स्योपक्रमः ७५९ श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन धर्मकथानां दशवर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा तानेव दर्शयतिचमरस्त 'चमरस्य=चमरेन्द्रस्य दाक्षिणात्या सुरकुमारेन्द्रस्य अग्रमहिषीणां प्रथमोवर्ग: ९ । ' बलिस' बलिनाम्नः 'बहरोयर्णिदस्स ' वैरोचनेन्द्रस्य = वि-विविधप्रकारैः रोचन्ते=दीप्यन्ते दाक्षिणात्या सुरकुमारेभ्यो विशिष्टदीप्तिमच्यात इति विरो चनाः, त एव बैरोचना:= औदीच्यासुरकुमारास्तेषामिन्द्रः वैरोचनेन्द्रस्तस्य ' वइरोयणरत्रो' वैरोचनराजस्य वैरोचनाधिपतेः अग्रमहिषीणां द्वितीयो वर्गः २ । अ सुरेन्द्रवर्जितानां ' दाहिणिल्लाणं ' दाक्षिणात्यानां = दक्षिणदिक्सम्बन्धिनां भवनवासिनामिद्राणामग्रमहिषीणां तृतीयो वर्गः ३ । ' उत्तरिल्लाणं ' उत्तरीयाणामसुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनामिद्राणामग्रमहिषीणां चतर्थो वर्गः ४ । दाक्षिणात्यानां वानव्यन्तराणामिन्द्राणामग्रमहिषीणां पञ्चमो वर्ग: ५ । उत्तरीयाणां वानव्यन्तराणामिन्द्राणामग्रमहिषीणां षष्ठो वर्गः ६ । चन्द्रस्याग्रमहिषीणां सप्तमो वर्गः ७ । स्वामी ने उनसे कहा - हे जंबू ! सुनो यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथाओं के दश वर्ग प्रज्ञप्त किये हैं- तं जहा ) वे इस प्रकार हैं - ( चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमेवग्गे ? बलिस्स बइरोयदिस्स वइरोयणरन्नो अग्गमहिसीणं बीओ वग्गो २ असुरिंद वज्जियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तइओ चग्गो ३ उत्तरिल्लाणं असुरिदवज्जियाणं भवणवासीणं इदाणं अग्गमहिसणं चत्थो वग्गो ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं-इदाणं अग्गमहिसीणं पंचमो वग्गो, उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छट्टो arit ६, चंद अग्गमहिसीणं सत्तमो वग्गो, सूरस्स अग्गमहिसीणं अमो वग्गो, सक्कस अग्गमहिसोणं णवमो वग्गो, ईसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमो वग्गो) चमरेन्द्र की - दाक्षिणात्य असुरकुमारेन्द्र की - 6 તેમને કહ્યું કે હૈ જમ્મૂ ! સાંભળેા, યાવત્ મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા श्रमण भगवान महावीरे धर्म थामना हश वर्गो प्रज्ञप्त र्या छे ( तंजहा ) તેઓ આ પ્રમાણે છે~~ ( चमरस अग्गमहिसणं पढमेवग्गे बलिस्स बइरोयदिस्स वइरोयणरन्नो अग्गमहिसणं बीओ वग्गो २ असुरिंदवज्जियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं sari अग्गमहिसणं तइओ वग्गो ३, उत्तरिल्लाणं अमरिंदवज्जियाणं भवणवासी इंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थो वग्गो ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणंइंदाणं अग्गमहिसणं पंचमो वग्गो, उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अम्गमहिसी छट्टो वग्गो ६, चंदस्स अग्ग महिसीणं सत्तमो वग्गो, सूरस्स अग्गमहिसीणं अहमो ग्गो, सक्कस अग्गमहिसीणं णवमो वग्गो, ईसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमो वग्गो) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० शाताधर्मकथाडसूत्रे सूरस्स=सूर्यस्याग्रहिषीणामष्टमो वर्गः ८ । शक्रस्याग्रमहिषीणां नवमो वर्ग: ९ । ईशानस्याग्रमहिषीणां दशमो वर्ग: १० ॥ मू० १ ।। मूलम्-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं भंते ! बग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ?, एवं खल्लु जंबू ! समणेणं जाव संप. तेणं पढमस्स वग्गरस पंच अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा-काली अग्रमहिषियों का-पट्टदेवियों का-प्रथम वर्ग, बलि नामक वैरोचनेन्द्र की अग्रमहिषियोंका द्वितीय वर्ग, असुरेन्द्रको छोडकर दक्षिण दिशा संबंधी भवनवासियों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का तृतीय वर्ग, उत्तर दिशा संबंधी भवनवासियों के इन्द्रों की कि जिन में असुरेन्द्र छोड दिये गये हैं अग्रमहिषों का ४ चतुर्थ वर्ग, दक्षिण दिशा संबंधी वानव्यन्तरों के इन्द्रों को अग्रमहिषियोंका पंचम वर्ग, उत्तर दिशा संबंधी व्यानव्यंतरोंके इन्द्रों की अग्रमहिषियों का छठा वर्ग, चन्द्र की अग्रमहिषियों का ७ वां वर्ग, सूर्यको अग्रमहिषियोंका आठयां वर्ग, शक की अग्रमहिषियों का नया वर्ग, और ईशानकी अग्रमहिषियों का दशमां वर्ग। पैरोचन उत्तरदिशाके असुरकुमार हैं। ये दक्षिण दिशासंबंधी असुरकुमारोंकी अपेक्षा विशिष्ट दीप्तिसंपन्न होते हैं इसलिये इन्हें वैरोचन कहा गया है। सू०१॥ ચમરેન્દ્રની-દક્ષિણના અસુકુમારેન્દ્રની-અમહિષીઓન-પટ્ટદેવીઓને પહેલો વર્ગ, બલિ નામે ઘેરે ચન્દ્રની અગ્રમહિષીઓને બીજે વર્ગ, અસુરેન્દ્રને બાદ કરતાં દક્ષિણ દિશાના ભવનવાસીઓના ઈન્દ્રની અમહિષીઓને ત્રીજો વર્ગ, ઉત્તર દિશા સંબંધી ભવનવાસીઓના ઈન્દ્રોની કે જેમાંથી અસુરેન્દ્રોને બાદ કરી દીધા છે. અમહિષીઓને ચે વર્ગ, દક્ષિણ દિશા સંબંધી વાનવ્યંતરોના ઈન્દ્રોને અગમહિષીઓને પાંચ વગર, ઉત્તર દિશા સંબંધી વાનઅંતરના ઈન્દ્રોની અઝમહિષીઓને સાત વર્ગ, સૂર્યની અગમહિષીઓને આઠમે વર્ગ, શક્રની અગ્રમહીષીઓને નવમે વર્ગ અને ઈશાનની અગ્રસહિપીઓને દશમે વર્ગ. વૈરોચન ઉત્તર દિશાના અસુરકુમાર છે. એ દક્ષિણ દિશા સંબંધી અસુરકુમારો કરતાં વિશિષ્ટ દીપ્તિ-સંપન્ન હોય છે એથી જ એ વિરેચન કહેવામાં આવ્યા છે. એ સૂત્ર ૧ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० श्रु. २ ३. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ७६१ राईरयणी विज्जू मेहा, जइणं भंते! समणेर्ण जाव सपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णता पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गयरै गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नामं देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालयडिंसगभवणे कालंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहि महत्तरियाहि सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबईहि सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्साहि अण्णेहि बहएहि य कालवडिंसयभवणवासीहि असुरकुमारेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडा महया हय जाव विहरइ, इमं च णं केवलकष्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी२ पासइ, तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणं पासइ पासित्ता हट्टतुट्टचित्तमाणंदिया पीड़मणा जाव हियया सीहासणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुद्वित्ता पायपीढाओ पञ्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ ओमुइत्ता तित्थगराभिमुहा सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचइ अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहटु तिक्युत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ निवेसिनाईसि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ ___ज्ञाताधर्मकथासूत्र पच्चुण्णमइ पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओ साहरइ साहरित्ता करयल जाव कट्टु एवं बयासी-जमोऽत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं नमोऽत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाय संपाविउकामस्स बंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इह गया पासउ मं भगवं तत्थ गए इह गयत्तिकटु वंदइ नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा निसपणा, तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूबे जाव समुप्पजित्था -सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाय पज्जुवासित्तएत्तिकटु एवं संपेहेइ संपेहित्ता आभिओगिए देवे सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेब आणत्तियं देइ जाव दिव्यं सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह करित्ता जाव पच्चपिणह, तेधि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवरं जोयणसहस्सवित्थिणं जाणविमाणं सेसं तहेब, तहेव णामगोयं साहेइ तहेव नट्टविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया ॥ सू० २ ॥ टीको-'जइणं भंते' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु 'भंते' भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्संपाप्तेन धर्मकथानां दशवर्गाः प्रज्ञप्ताः, -जइणं भंते ! इत्यादि। टीकार्थः-(जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं दसग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं भंते ! बग्गस्स समणेणं जोय संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स) जंबूस्वामी श्रो जइणं भंते ! इत्यादि(जइणं भंते ! समणेणं जाय संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं क्लु जंबु ! समणेणं जाय संपत्तणं पढमस्स० ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणा टोका श्रु. २ व. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ७६३ प्रथमस्य खलु हे भदन्त ! वर्गस्य श्रमणेन यावत्सम्माप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीपाह-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-काली १, रात्रिः २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेधा ५ । जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तत्र प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । सुधर्मा स्वामी कथयति___एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशिलकंचैत्यम् , श्रेणिको राजा, चेल्लना देवी आसीत् । सामी स्वामी श्रीमहावीरस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भंते ) हे भदंत ! (जइणं) यदि (समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये हैं तो (णं भंते ) हे भदंत ! (समणेणं जाय संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स के अटे पन्नत्ते) उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? (एवं खलु जंबू समणेणं जाय संपत्तणं पढमस्स यागस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइणं भंते ! समणेणं जाय संपत्तणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्स णं भंते अज्ज्ञयणस्स समणेणं जाय संपत्तणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणे कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणादेवी ) इस प्रकार जंबू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने ५ स्वामी श्री सुधा स्वामीन पूछे छे है (भंते ) हे महन्त ! ( जइणं) ने (समणेणं जाव संपतेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णता) श्रभार ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધું છે. ધર્મકથાઓના દશ पा ३पित र्या छ त (णं भंते ) 3 महन्त ! (समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स के अढे पन्नते) ते श्रम समपान महावीरे । २। મેક્ષમાં વિરાજમાન થઈ ચૂક્યા છે–પહેલા વર્ગને શું અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે ? ( एवं खलु जंबू समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स पंचअज्झयणा पण्णत्ता। पढणस्स णं भंते, अज्झयणस्स समणेणं जाय संपत्तेणं के अटे पण्णते ! एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणे समएगं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ हाताधर्मकथाडसूत्र 'समोसरिए ' समवसतः समागतयान् । 'परिसा'-परिषत् राजगृहनगरवास्तव्यो जनसमूहः ‘णिग्गया ' निर्गता भगवद्वन्दनार्थ स्व स्वस्थानान्निस्मृता, भगवता धर्मकथा कथिता यावद् परिषद् भगवन्तं 'पज्जुवासइ' पर्युपास्ते सेवते, तस्मिन् काले तस्मिन समये काली नाम देवी चमरचञ्चायां राजधान्यां उन्हें उत्तर देने के अभिप्राय से कहा कि ( एवं खलु जंबू !) हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है सुनो यावत् संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं वे ये हैंकाली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, और मेघा ५। अब पुनः जंबू स्वामी प्रश्न करते हैं कि हे भदंत ! यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन निरूपित किये हैं तो मैं आपसे पूछता हूं कि भदंत यावत् मोक्ष को संप्रास उन्हीं श्रमण भगवान महावीरने प्रथम अध्ययनका क्या अर्थ निरूपित किया है ? इसका उत्तर उन्हें सुधर्मास्यामी इस प्रकार देते हैं-हे जंबू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामकी नगरी थी-उस में गुणशिलक नाम का उद्यान था-नगरी के राजा का नाम श्रेणिक था। उसकी रानी का नाम चेल्लना था। (सामी समोसरिए परिसा जिग्गया जाव परिसा पज्जुयासइ-तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नामं देवी, चमरचंचाए रायहोणीए આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામી એ પ્રશ્નને સાંભળીને તેમને ઉત્તર આપવાના देशथी श्री सुधर्मा स्थाभीसे युं है ( एवं खलु जंवू ! ) हे भू ! तभा२॥ પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. સાંભળે, યાવત્ સંપ્રાસ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા વર્ગના પાંચ અધ્યયન પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. તેઓ આ પ્રમાણે છે – १ सी, २ त्रि, 3 २४नी, ४ विधुत, सने ५ भा. હવે ફરી જંબૂ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદન્ત ! યાવત્ મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા વર્ગના પાંચ અધ્યયને નિરૂપિત કર્યા છે તે હું તમને ફરી પૂછવા માગુ છુ કે હે ભદન્ત ! યાવત મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા અધ્યયન શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેને ઉત્તર આપતાં કહેવા લાગ્યા કે જંબૂ ! તે કાળે અને તે વખતે રાજગૃહ નામે એક નગરી હતી. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉદ્યાન હતું. નગરીના રાજાનું નામ શ્રેણિક હતું. તેની રાણીનું નામ ચેલના હતું. (सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाय परिसा पज्जुवासइ-तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नाम देवी, चमर चंचाए रायहाणीए कालपडिसगभवणे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० श्रु २ व. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ७६५ 'कालघडिंसगभवणे' कालावतंसकभक्ने काले कालाख्ये सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः, चतसृभिमेह तरिकाभिः, सपरिवाराभिस्तिभिः बाह्याभ्य. न्तरमध्यरूपाभिः ‘परिसाहिं । परिषद्भिः पारिवारिकदेवीरूपाभिः, सप्तभिः 'अणिएहिं ' अनीकैः हयगजरथपदातिषभगन्धर्यनाट्यरूपैः, अत्रायं विवेकःकालयडिंसगभयणे कालंसि, सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महरियाहिं, सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबई हिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहिं बहुएहिं कालबडिंसगभवणयासिहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहिं य सद्धिं संपरिघुडा महयाय जाय विहरइ ) यहां पर श्री महावीर स्वामी का आगमन हुआ। लोगों को जब इनके आगमन की खबर लगी-तब समस्त राजगृह निवासी जन इन को पंदना करने के अभिप्राय से गुणशिलक उद्यान में आये । भगवान् ने धर्मकथा कही-यावत् परिषदने भगवान की पर्युपासना की । उस काल में और उस समय में काली नाम की देवी चमरचंपा नाम की राजधानी में रहती थी। इसके भवन का नाम कालावतंसक था। जिस तिहोसन पर यह बैठती थी उसका नाम काल था। यह उस भवन में चार हजार सामानिकों की परिषदो के साथ, चार हजार महत्तरिकाओं के साथ, अपने २ परिवारवाली तीन हजार पारिवारिक देवियों के साथ, सात अनीकोंके-हय, गज, रथ, पदाति, वृषभ, गंधर्व एवं नाट्यरूप सैन्य केकालंसि, सोहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महरियाहिं, सपरिबाराहि तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबईहिं सोलसहिं आय. रक्वदेवसाहस्सीहि अण्णेहिं बहूएहिं कालबडिंसयभवणपासीहि असुमकुमारेहि देवेहि देवीहिं य सद्धि सपरिपुडा महयाहय जाय विहरइ ) ત્યાં શ્રી મહાવીર સ્વામીનું આગમન થયું. જ્યારે લેકેને તેમના આગમનની જાણ થઈ ત્યારે રાજગૃહના બધા લકે તેમને વંદન કરવાના અભિપ્રાયથી ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. ભગવાને ધર્મકથા કહી સંભળાવી. યાવત્ પરિષદે ભગવાનની પર્થપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે કાળી નામની દેવી ચમચંચા નામની રાજધાનીમાં રહેતી હતી. તેના ભવનનું નામ કાલા વત સક હતું. જે સિંહાસન ઉપર તે બેસતી હતી તેનું નામ કાળ હતું. તે ભવનમાં તે ચાર હજાર સામાનિ કોની પરિષદાની સાથે, ચાર હજાર મહત્તરિ, કાઓની સાથે પોતપોતાના પરિવારવાળી ત્રણ હજાર પારિવારિક દેવીઓની साथै सात सनी-७, थी, २थ, पाय, वृषभ, म भने नारय श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाताधर्मकथाडसूत्र आद्यपञ्चकानि सङ्ग्रामाय, गन्धर्षनाटये पुनरुपभोगायेति, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, पोडशभिः आत्मरक्षकदेवसाहस्रीभिः, अन्यैबहुभिश्च कालावतंसकभवनवासिभिरसुरकुमारैर्देवैर्देवी भिश्च सार्द्ध संपरिटता ' महयाहय जाब विहाइ' महताऽहत यावद् विहरति-' महयाऽऽहयनट्टगीयबाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं' महताऽऽहतनाट्यगीतवादित तन्त्रीतल ताल त्रुडित घनमृदङ्गपटुपयादितरवेण, तत्र-' महता' रवेणेतिसम्बन्धः, आहतानि-अव्याहतानि यानि नाटयगीतानि, तथा-वादितानि-तन्त्री-बीणा, तलाः हस्ततालाः, ताला कांस्यतालाः, त्रुडितानि-शेषाणि तूर्यादिवाद्यानि, तथा घन इव मृदङ्गः धनध्वनिसादृश्याद् घनमृदङ्ग:स चासौं पटु प्रवादितश्चेति घनमृदङ्गपटुप्रवादितः, ततत्रिपदो द्वन्द्वः, तेषां यो रवस्तेन-उपलक्षितान् दिव्यान् भोगभोगान शब्दादीन भुञ्जाना विहरति । ' इमं च णं' अस्मिन्नवसरे खलु केवलकल्प-संपूर्णम् जम्बूद्वीपं नाम द्वीपं-मध्यजम्बूद्वीपं विपुलेन 'ओहिणा' अवधिना=अवधिज्ञानेन 'अभोएमाणी २' अभोगयमाना २ पश्यन्ति पुनः पुनरुपयोगं ददती सती पश्यति। किं पश्यति ? इत्याह-'तत्थ' तत्र अवधिज्ञानोपयोगे श्रमणं भगवन्तं महागीरं जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगृहेसाथ अनीकाधिपतियों के साथ, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के साथ, तथा और भी बहुत से कालावतंसक भवन में निवास करनेवाले असु. रकुमार देवों के एवं देवियों के साथ परिवृत होकर रहा करती थी। अव्याहत (सतत) नाटयगीतों के एवं वादित तन्त्री, हस्त, ताल, कांस्य ताल, त्रुडित आदि तूर्यादिचाद्यों के एवं मेघ की ध्वनि जैसे अच्छी तरह पजाये गये मृदंगों के सुन्दर २ शब्दों से उपलक्षित दिव्य भोगों को भोगती हुई अपने समय को आनन्द के साथ व्यतीत किया करती थी। (इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासइ, तत्थ समणं भगवं महावीरं जबू दीये दीये भारहे वासे रायगिहे રૂપ સિન્યની સાથે અનીકાધિપતિઓની સાથે, સોળ હજાર આત્મરક્ષક દેવોની સાથે તેમજ બી જા પણ ઘણા કાલાવતંસક ભવનોમાં નિવાસ કરનાર અસુરકુમારદેવ અને દેવીઓની સાથે પરિવૃત થઈને રહેતી હતી. તે અવ્યાહત (સતત) નાટય ગીતે, વાદિત તંત્રી, હસ્તતાલ, કાંસ્યતાલ, લૂડિત વગેરે તર્ય વગેરે વાધે, મેઘના વનિની જેમ સારી પેઠે વગાડવામાં આવેલા મૃદંગના સુંદર શબ્દોથી ઉપલક્ષિત દિવ્ય ભેગોને ઉપલેગ કરતી પિતાના સમયને સુખેથી પસાર કરતી રહેતી હતી. ( इमं च णं केवलकप्पं जंबुहीवं दीवं विउलेगं मोहिगा आभोएमाणी २ पासइ, तत्थ समणंभगवं महावीर जंबुद्दीये दोये भारहेवासे रायगिहे णयरे श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ ० १ अ० १कालीदेवीवर्णनम ७६७ नगरे गुणशिल के चैत्ये यथाप्रतिरूपं = यथाकल्पम् ' उग्गहं ' अवग्रह = वसतेराज्ञाम् 6 उग्गहत्ता ' अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता 'पी मणा ' प्रीतिमनाः = प्रसन्नमनस्का: ' जावहियया ' यावत्हर्षवशविसर्पदृहदया = हर्षवशादुल्लसितहृदया सिंहासनाद् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय णयरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूचं उग्गहं उग्गिव्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासइ, पासित्ता हट्टनुट्ठचित्तमाणं दिया पोमणा जाव हियया सीहातणाओ अम्भुट्ठेइ, अन्भुट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउनाओ ओमुयइ, ओमुत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणु अंचेह, अंचित्ता दाहिणं जाणं धरणियलंसि निहटु त्तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ, निवेसित्ता.. कट्टु एवं वयासी ) इस अवसर में उसने केवल कल्प- सम्पूर्ण जंबूद्वीप नामके द्वीपको मध्यजंबूद्वीप को विपुल अवधिज्ञान के द्वारा वार २ उपयोग देकर देखा । उस समय उसने श्रमण भगवान् महावीर को जंबूद्वीपान्तर्गत भरत क्षेत्र में राजगृह नगर में गुणशिलक चैत्य में यथाकल्प वसति की आज्ञा लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए स्थित देखा। देखकर यह बहुत अधिक हृष्ट एवं तुष्ट हुई । उसका मन प्रीति से भर आया । हर्ष के यश से हृदय उल्लसित हो उठा । वह उसी समय अपने सिंहासन गुणसिलए चेहए अहापरूियं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पास, पासित्ता हट्ट तुट्ठ चित्तमागंदिया पोमणा जाव हियया सीहासाओ, अट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहद्द, पच्चोरु हित्ता पाउयाओ ओgs, ओमुत्तातित्थगराभिमुही सत्तपयाइं अणुगच्छर, अणुगच्छित्ता, वामंजा अंचे, अंचिता दाहिनं जाणुं धरणियलंसि निहद्दु चिक्खुतोमुद्राणं धरणियलंसि निवे सेइ निवेसित्ता..... कट्टु एवं वयासी ) તે સમયે તેણે કેવલકલ્પ-સ ́પૂર્ણ-જબુદ્વીપ નામના દ્વીપને મધ્ય જમ્મૂ· ટ્રીપને વિપુલ અવધિજ્ઞાનના ઉપયાગથી વારંવાર જોયા. તે સમયે તેણે શ્રમણ્ ભગવાન મહાવીરને જમૂદ્રીપમાં આવેલા ભરતક્ષેત્રના રાજગૃહ નગરના ગુણુશિલક ચૈત્યમાં યથાકલ્પ વસતીની આજ્ઞા લઇને સંયમ અને તપ દ્વારા પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા રહેતા જોયા જોઇને તે ખૂબ જ હુ અને તુષ્ટ થઈ ગઈ. તેનું મન પ્રેમથી તરખેાળ થઈ ગયું હર્ષાતિરેકથી હૃદય ઉલ્લાસિત થઈ ગયું. તે તે જ વખતે પેાતાના સિંહાસન ઉપરથી ઉઠી અને ઉઠીને તે પાદપીઠ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७६८ ज्ञाताधर्मकथाऽसूत्र पादपीठात् 'पञ्चोरुहह ' प्रत्यवरोहति-अवतरति, प्रत्यवरुह्य अवतोर्य ‘पाउयातो' पादुके 'ओमुयइ ' अपमुश्चति-परित्यजति, मुक्त्या तीर्थकराभिमुखी सतीसप्ताटपदानि 'अणुगच्छइ ' अनुगच्छति-सम्मुखं गच्छति, अनुगम्य याम जानु * अंचेइ' अञ्चति-उर्वीकरोति, अश्चित्या-उर्चीकृत्य दक्षिणं जानु धरणितले 'निह९' निहत्य-स्थापयित्या ‘तिक्खुत्तो' त्रिः कृत्या त्रिवारम् ' मुद्धाणं' मूर्धानं मस्तकं धरणितले निवेशयति लगयति, निवेश्य ईसिं पच्चुण्णमइ ' ईपसत्यवनमति-स्तोकं शिरोनामयति, प्रत्ययनम्य 'कड यतुडियर्थभियाओ' कटकत्रुटित स्तम्भिते कटके-करभूषणे तुत्रितेबाहुभूषणे तैः स्तम्भिते अवष्टब्धे ' भुयाओ' भुजे 'साहरइ ' संहरति एकत्रीकरोति, संहृत्य ' करयल जाय कटु' करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलि कृत्या एवमयादीत्-' नमोत्थुणं' इत्यादिनमोऽस्तु खलु अर्हद्भ्यः यावद् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्पाप्तेभ्यः, नमोऽस्तु से उठी-और उठकर वह पादपीठ से होकर नीचे आई-नीचे आकर उसने दोनों पादुकाओं को पैरों में से उतार दिया। उतार कर फिर वह तीर्थकरराधिष्ठित दिशा की ओर सात आठ पद आगे गई। यहां आकर उसने अपने वाम जानु को ऊंचा किया-ऊँचा कर के फिर दक्षिण जानु को नीचे धरणीतल में रखा-रखकर फिर तीन बार अपने मस्तक को नीचे भूमिपर लगाया-लगाकर फिर वह कुछ झुकी-शिर को नीचेनयाया। बाद में कटक और त्रुटित से भूषित भुजाओं को एकत्रित किया-एकत्रित करके फिर उसने उन दोनों हाथोंकी अंजलि बनाई-और उसे मस्तक पर आदक्षिण प्रदक्षिण कर इस प्रकार कहो ( नमोत्थुणं अरहंताणं जाव संपन्नाणं नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ઉપર થઈને નીચે આવી. નીચે આવીને તેણે બંને પાદુકાઓને પગમાંથી ઉતારી દીધી. ઉતારીને તે તીર્થકર જે દિશા તરફ વિરાજમાન હતા તે દિશા તરફ સાત-આઠ ડગલાં આગળ ગઈ. ત્યાં જઈને તેણે પિતાના ડાબા ઢીંચણને ઉો કર્યો. ઊંચે કરીને પછી તેણે જમણા ઢીંચણને નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેકવ્ય ટેકવીને તેણે ત્રણ વખત પોતાના મસ્તકને નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેકવ્યું, ટેકવીને તે ઘડી નમી-મસ્તકને નીચે નમાવ્યું. ત્યાર પછી તેણે કટક અને ત્રુટિતથી વિભૂષિત ભુજાઓને ભેગી કરી, ભેગી કરીને તેણે તેઓ બંનેની અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણ-પૂર્વક ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યું, (नमोत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स वदामि णं भमवंतं तत्थगयं इह गया पासउ मं भगवं શ્રી જ્ઞાતાધર્મકથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० श्रु. २ च. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ७६९ खलु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्विगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामाय, चन्दे खलु भगवन्तं तत्थगयं ' तत्रगतं-जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको. द्याने समयसृतम् ' इहगया' इहगता-चमर चञ्चाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मां भगवान् तत्रगत इहगतम् , 'त्ति कडु' इति कृत्वा इत्युक्त्या वन्दते नमस्यति, पन्दित्त्वा नमस्यित्वा सिंहासनबरे 'पुरत्याभिमुही 'पौरस्त्याभिमुखी पूर्वदिशाभिमुखी 'निसण्णा' निषण्णा-उपविष्टा । ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अयमेत. जाय संपाविउकामस्स बंदामि गं भगवंतं तत्थ गयं इह गया पासउ में भगवं तत्थ गए इह गयं तिकटु वंदइ नमसइ, यदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुही निसण्णा तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनायाले श्रमण भगवान महावीर को मैं नमस्कार करती हूँ। जंबूद्वीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मैं इस चमर चंपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हूँ। यहां पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यहां पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वंदना की -नमस्कार कियो-वंदना नमस्कार करके फिर यह अपने उत्तम सिंहासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यह इस प्रकार का यावत् मनः संकल्प उत्पन्न हुआ(सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाय पज्जुयासित्तए त्ति तत्थ गए इह गयं त्ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुही निसण्णा-तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जााच समुप्पज्जित्था) યાવત્ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે. સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમસ્કાર કરું છું. જબૂ દ્વીપના રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હું આ ચમચંચા નામની રાજ. ધાનીમાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છું. ત્યાં વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વંદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તે પિતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ. ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતનો યાવત્ મનઃ સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે– श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० ज्ञाताधर्मकथाडसूत्रे दूपः यावत् मनः-सङ्कल्पः समुदपयत-श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीर पन्दित्वा यावत् ' यज्जुवासित्तर ' पर्युषासितुम्सेवितुम् , इति कृखा इतिमनसिनिधाय एवम् उक्तरीत्या ' संपेहेइ' सम्प्रेक्षते-विचारयति. सम्प्रेक्ष्य-विचार्य • आभिभोगिएदेवे' आभियोगिकान् देवान् भृत्यदेवान् शब्दयति-आयति, शब्दयित्या-आहूय एवमवदत्-एवं खलु हे देवानुपियाः ! श्रमणो भगवान् महावीरः एवं यथा मूर्याभस्तथैव आज्ञाप्तिका ददाति यावत् दिव्यं सुरवराभिगमन योग्यं 'जाणविमाणं' यानविमानं यानाय गमनार्थविमानं कुरुत, कृत्वा यावत्ममाज्ञां ' पञ्चप्पिणह ' प्रत्यर्पयत मह्यं निवेदयत । तेऽपिदेवाः तथैव कृत्वा यावत् कटु एवं संपेहेइ संपेहित्ता आभिओगिए देवे सहावेइ, सदायित्ता एवं ययासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेय आणत्तिय देइ जाय दिव्यं सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह, करित्ता जाय पच्चप्पिणह ) मुझे अब यही उचित-श्रेय. स्कर है-कि मैं श्रमण भगवान महावीर को वंदना करके यावत् उनकी पर्युपासना करूँ इस प्रकार उसने पूर्वीक्तरूप से विचार किया। विचार करके उसने उसी समय आभियोगिक देवों को बुलाया-और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में पधारे हुए हैं-मैं उनको वंदना करने के लिये जाना चाहती हूँ-अतः तुमलोग मेरे लिये दिव्य सुरवराभिगमन योग्य एकयान-विमान तैयार करो इस प्रकार की उसने उन्हें सूर्याभ देव की तरह आज्ञा दी। और स्थान में उनसे यह भी कह दिया (सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं बंदित्ता जाप पज्जुवासित्तए तिकडु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता आभिओगिए देवे सदायेइ, सदायित्ता एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सुरियाभो तहे व आणत्तियं देइ जाप दिव्यं सुरवराभिगमणजोग्ग जाणविमाणं करेह, करित्ता जाव पच्चप्पिणह ) મારા માટે હવે એ જ વાત યોગ્ય છે કે હું શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદના કરીને યાત્ તેમની પર્યું પાસના કરૂં, આ પ્રમાણે તેણે વિચાર કર્યો. વિચાર કરીને તેણે તરત જ આભિયોગિક દેવોને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં પધારેલા છે. તેમને વંદન કરવા માટે હું ત્યાં જવા ઈચ્છું છું. એથી તમે બધા મારા માટે દિપ સુરવરાભિગમન ગ્ય એક યાન-વિમાન તૈયાર કરો. આ પ્રમાણે તે લે કેને તેણે સૂયમદેવની જેમ આજ્ઞા કરી, અને સાથે સાથે તેઓને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે જ્યારે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमगारधर्मामृतवषिणो टी० श्रु० २ ० १ १०१ कालीदेवीवणनम् ७७१ प्रत्यर्पयन्ति = तदाज्ञानुसारेण कार्यं कृत्वा निवेदयन्ति । ' णवरं ' नवरं = विशेषस्त्वयम् - यत्- सूर्याभस्य यानविमानं योजनशतसहस्र विस्तीर्णमस्ति अस्यास्तुयोजन सहस्र विस्तीर्ण यानविमानमस्ति शेषं तथैव विज्ञेयम् । तथैव सूर्याभदेववदेव काली देवी स्वस्य नामगोत्रं साधयति कथयति । तथैव = सूर्याभदेववदेव च नाटयविधिम् उपदर्शयति, उपदर्श्य यावत् प्रतिगतायत आगता तत्रैव प्रतिनिवृत्ता ।। ०२॥ + मूलम - भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी-कालिए णं भंते ! देवीए सा दिव्या देfasts कहिं गया० कूडागारसालादिट्टंतो, कि जब यह विमान बनकर तैयार हो जाये तब उसकी पीछे हमें खबर कर देना । सो उन आमियोगिक देवों ने वैसा ही किया और पीछे इसकी खबर उसे कर दी। इसमें ( जोयणसहस्तवित्थिष्णं जाणचिमाण सेसं तहेव ) विशेषता इतनी रही कि सूर्याभदेव का यान विमान एक लाख योजन का विस्तारवाला था। तब कि इसका यह यान विमान १ हजार योजन का विस्तारवाला था। बाकी सब रचना इसकी उसी सूर्याभ विमान की तरह जाननना चाहिये । (तदेव णामगोयं साहे, तहेच नाटयविहिं जयदंसेइ जाय पडिगया) सूर्याभ देव की तरह काली देवी ने अपने नाम गोत्र का कथन किया और सूर्याभ देव की तरह ही विधि को दिखलाया दिखालाकर फिर यह जहां से आई थी वहीं पर पीछे गई सूत्र २ ॥ વિમાન તૈયાર થઈ જાય ત્યારે તેની મને જાણ કરવામાં આવે. ત્યારપછી તે આભિચાગિક દેવએ તેમજ કર્યું. અને વિમાન તૈયાર થઈ જવાની ખબર દેવીની પાસે મોકલાવી દીધો या विमानयां ( जोयणसहस्त्रवित्थिणं जाण. विमाणं सेसं तहेब) विशेषता भारती उती है क्या? सूर्यालहेवनुं यानવિમાન એક લાખ ચેાજન જેટલું વિસ્તારવાળુ` હતું ત્યારે તેનું આ યાન–વિમાન એક હજાર ચાજન જેટલું વિસ્તારવાળુ હતું ખાકી રચના સ`ખી તેની બધી विगत सूर्याल- विमाननी प्रेम भगवी लेये ( तहेब णामगोयं साहेइ, तहेब नाटयविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया ) सूर्यालदेवनी प्रेम अजी हेपी પેાતાના નામ-ગેત્રનું કથન કર્યુ અને સૂર્યાભદેવની જેમ જ નાટ્યવિવિધ મતાવી અને બતાવીને તે જ્યાંથી આવી હતી ત્યાંજ પાછી જતી રહી. । સૂત્ર ૨૫ ०४ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे अहो णं भंते! काली देवी महिड्डिया३ कालिए णं भंते ! देवीए सा दिव्या देवडी३ किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता किण्णा अभि समण्णा या ?, एवं जहा सूरियाभस्त जाव एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दोवे भारहे वासे आमलकप्पा नाम णयरी होत्था वण्णओ अंबसालवणे चेइए जियसत्तू राया तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नामं गाहावह होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णामं दारिया होत्था, बुड्डा बुड्ढकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडिपुयत्थणी णिविन्नवरा वरपरिवजिया यावि होत्था, तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा वद्धमासामीणवरं वहत्थुस्सेहे सोलसहिं समण साहस्सीहि अटूत्तीसाए अज्जिया साहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे जाव अंबसालवणे समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तपणं सा काली दारिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ट जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव एवं बयासी एवं खलु अम्मयाओ ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरs, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुम्भेहि अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायचंदिया गमित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ व० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७३ तएणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुन्नाया समाणी हट्र जाव हियया व्हाया कयबलिकम्मा कायकोउय मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाइ मंगल्लाइं वत्थाई पवर परिहिया अप्पमहाग्घाभरणालंकियसरीराचेडियाचकवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उपठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवरं दूरूढा, तएणं सा काली दारिया धम्मियं जाणपवरं एवं जहा दोबइ जाव पज्जुवासइ, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइ. महालयाए परिसाए धम्मं कहेइ, तएणं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पास अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो चंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि गंभंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुम्भं वयह, जं गवरं देवाणुपिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्ययामि, अहासुहं देवाणुप्पिए !, तएणं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं बुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पासं अरहं बंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दूरुहइ दूरहित्ता पासस्त अरहओ पुरि. सादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेड्याओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाडसूत्र उवागच्छइ उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरिं मझमझेणंजेणेब बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ध. म्मियं जाणपवरं ठवेइ ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० एवं वयासी एवं खल्लु अम्मयाओ ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मं णिसंते सेऽवि य मे धम्भे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तएणं अहं अम्मयाओ ! संसार भउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि गं तुब्भेहि अब्भगुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्यइत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तएणं से काले गाहावई विपुलं असणं४ उवक्खडावेई उवक्खडावित्ता मित्तणाइ णियगसयणसंबंधिपरियणं आमंतेइ आमंत्तित्ता तओ पच्छा हाए जाव विपुलेणं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणि. यगसयणसंबंधिपरियणस्स पुरओ कालियं दारियं सेयापीएहि कलसेहि पहावेइ पहावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेइ करित्ता पुरिससहस्सवाहिणियं सीयं दुरोहेइ दुरोहित्ता मित्तणाइणियगसयणंसंबंधिपरियणेणं सद्धिं संपरिबुडे सव्विड्डीए जाय रवेणं आमलकप्पं नयरिं मज्झं मज्झेणं जिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालयणे चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ पासित्ता सीयं ठावेइ ठावित्ता શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतचर्षिणी टीका श्रु० २ १०१ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७५ कालियंदारियं सीयाओ पच्चोरुहइ तएणं तं कालियंदारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ उयागच्छित्ता बंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयातीएवं खलु देवाणुप्पिया ! काली दारिया अम्हं धूया इट्टा कंता जाय किमंग पुण पासणयाए ?, एसणं देवाणुप्पिया! संसार. भउव्यिगा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पव्यइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्खं, दलयामो पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह तएणं काली कुमारी पासं अरहं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अपकमइ अवकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ करित्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उबागच्छइ उवागच्छित्ता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-आलित्ते णं भंते ! लोए एवं जाव सयमेव पच्याविया, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ, तएणं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं दारियं सयमेव पव्वायेइ, जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, तएणं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी, तएणं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अजाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ बहूहिं चउत्थ जाव विहरइ॥सू०३॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाताधर्मकथासूत्रे टीका-कालीदेवीगमनानन्तरं गौतमः पृच्छति-भंतेति' इत्यादि । 'भंतेति ' हे भदन्त ! इति सम्बोव्य भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीर चन्दते नमस्यति यन्दित्या नमस्पित्वा एयमवादीत-काल्या खलु हे भदन्त ! देव्या सा-या साम्प्रतं दर्शिता सा दिव्या देविड़ी' देवद्धिः धिमानपरिवारादिरूपा, 'देवज्जुई ' देवद्युतिः शरीराभरणादीनां दीप्तिरूपा ' देवणुभावे ' देवानुभावः= शक्तिप्रभावादिरूपः, कुत्रगता ? कुत्र प्रविष्टा ? भगवानाह-शरीरंगता, शरीरमनु 'भंते त्ति भगवं गोयमे' इत्यादि। टीकार्थः-कालीदेवी के चले जाने के बाद (भगवं गोयमे) भग. यान गौतम ने (भंते त्ति) हे भदंत ! इस प्रकार संबोधित कर (समणं भगवं महावीरं चंदइ णमंसइ) श्रमण भगवान् को वंदना की-नमस्कार किया (वंदित्ता णमंसित्ता एवं ययासी) वंदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार पूछा-(कालिएणं भंते ! देवीए-सा दिव्या देचिड़ी ३ कहिं गया० कूडागारसालादिट्टतो, अहोणं भंते ! कालीदेवी महड्रिया ३, कालिएणं भंते ! देवीए सा दिव्या देविड्रि ३ किण्णा लद्धा, किण्णा पत्ता, किण्णा अभिसमण्णा गया? एवं जहा सूरियाभस्स जाय) हे भदंत ! कालीदेवी ने जो इस समय दिव्य विमान-परिवार आदिरूप ऋद्धि दिखलाई, शरीर, आभरण आदि की दीप्तिरूप जो देवद्युति एवं शक्ति प्रभाव आदिरूप जो देवानुभाव दिखलाया-वह सब कहां चला 'भंतेत्ति भगवं गोयमे' इत्यादि in-जी पीना Vता मा ( भगवं गोयमे ) भगवान गौतम (भंतेत्ति ) हे महन्त ! A प्रमाणे समाधन ४रीन (समणं भगवं महावीर चंदइ णमंसइ) श्रभा भगवान महावीरने यन भने नभ२४॥२ ४ा. (वंदित्ता गंमसित्ता एवं वयासी ) ॥ अने नभ७२ ४ीन तेमणे तोश्रीन पूछ्युं । (कालिएणं भंते ! देवोए सा दिव्या देविड्डी ३ कहिं गया० कूडागारसालादिटुंतो, अहोणं भंते ! काली देवी महडिया ३, कालिएणं भंते ! देवीए सा दिव्या देविडि ३ किण्णा लद्धा, किण्णा पत्ता, किण्णा अभिसमण्णा गया ? एवं जहा सूरियाभस्स जाप ) હે ભદન્ત! કાળી દેવીએ અત્યારે જે દિવ્યવિમાન, પરિવાર વગેરેની અદ્ધિ બતાવી, શરીર, આભરણ વગેરેની દીપ્તિની જે દેવઘુતિ. તેમજ શક્તિ, પ્રભાવ વગેરેને જે દેવાનુભાવ બતાવ્યું તે બધે કયાં અદશ્ય થઈ ગયો? કયાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયે ? श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारघमामृत्यषिणी टी० श्रु० २ १०१ ० १ कालीदेवीवनम ७७७ मविष्टा, कूडागारसालादिद्रुतो' अत्र कुटाकारशाला दृष्टान्तो बोद्धच्यः । 'अहो' आश्चर्ये खलु हे भदन्त ! कालीदेवी महद्धिका महाद्युतिका महानुभाया वर्त्तते काल्या खलु हे भदन्त ! देव्या सा दिव्या देवद्धिः ३ ' किण्णा' कथंकेन प्रकारेण 'लद्धा' लब्धा=अर्जिता, 'किण्णा' कथं केन प्रकारेण 'पत्ता' प्राप्ता स्वाधीनीकृता ' किण्णा' कथं-केन प्रकारेण 'अभिसमन्नागया' अभिसमन्यागता-उपभोगविषयतया समागता ? एवं ' जहासूरियाभस्स जाय ' यथासूर्याभस्य यावत् यथा सूर्याभदेवविषये गौतमस्वामिना प्रश्नः कृतस्तथैवात्रापि विज्ञेयः । अथ भगवान् कालीदेवीपूर्वभवत्तान्तं वर्णयति-' एवं खलु ' इत्यादि । एवं खलु हे गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहेय=अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारत वर्षे आमलकल्या नाम नगरी आसीत् । ' यण्णओ' वर्णका-नगरीवर्णनग्रन्थऔपपातिसूत्रादयसेयः । तत्र आम्रशालयनं चैत्यं, जितशत्र राजा गया-? कहां प्रविष्ट हो गया? इस प्रकार गौतम का प्रश्न सुनकर भगवान् ने उनसे कहा-शरीर में चला गया-शरीर में प्रविष्ट हो गया। इस विषय में कूटाकारशाला का दृष्टान्त जानना चाहिये । हे भदन्तकालीदेवी महद्धिक, महाद्युतिक एवं महानुभावयाली है। इस कालीदेवी ने वह देवर्द्धि ३ किस प्रकार प्राप्त की अर्जित की किस प्रकार उसे अपने आधीन किया? और किस प्रकार से उसने उसे अपने भोग की विषयभूत बनाई ? इस तरह गौतमस्वामी ने सूर्याभदेव के विषय में जिस तरह से प्रश्न किया उसी तरह से यहां पर भी जानना चाहिये- अय भगवान् कालीदेवी के पूर्वभय के वृत्तान्त का वर्णन करते हैं-(एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं-इहेव जंबुद्दीये दीये भारहे यासे आमलकप्पा णाम जयरी होत्था-वण्णओ-अंबसालयणे चेइए जियसत्त આ પ્રમાણે ગૌતમને પ્રશ્ન સાંભળીને ભગવાને તેમને કહ્યું કે શરીરમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયે-શરીરમાં જતો રહ્યો. આ વિષે કૂટાકાર શાળાનું દૃષ્ટાન્ત જાણવું જોઈએ. હે ભદન્ત! કાળી દેવી મહદ્ધિક, મહાવૃતિક અને મહાનુભાવવાળી છે. આ કાળી દેવીએ તે દેવદ્ધિ ૩ કેવી રીતે પ્રાપ્ત કરી છે, અર્જિત કરી છે, કેવી રીતે સ્વાધીન બનાવી છે, અને તેણે તેને કેવી રીતે પોતાના ઉપભોગની વિષયભૂતા બનાવી છે ? આ પ્રમાણે ગૌતમ સ્વામીએ સૂર્યાભદેવના વિષે જેમ પ્રશ્ન કર્યો હતો તેમજ અહીં પણ જાણવો જોઈએ. ભગવાન હવે કાળી દેવીના પૂર્વભવના વૃત્તાન્તનું વર્ણન કરે છે– ( एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेच जंबुद्दीये दीये भारहे पासे अमलकप्पा णाम णयरी होत्या-चण्णओ-अंबसालवणे चेइए जियसत्तू राया શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ ज्ञाताधर्मकथाडसूत्रे चासीत् । तत्र खलु आमलकल्पायां कालो नाम गाथापतिरासीत् कीदृशः ? इत्याह' अड्डे ' आढयः धनधान्यादि समृद्धि-समृद्धः, 'जाय ' यावत् ' अपरिभूए' अपरिभूतःबहुजनैरपि पराभवितुमशक्यः । तस्य खलु कालस्य गाथापतेः काल. श्री म भार्याऽऽसीत् , कीदृशीत्याह-सुकुमारपाणिपादा यावत् सुरूपा । तस्य खलु कालस्य गाथापतेदुहिता कालश्रियः भार्या या आत्मजा काली नाम दारिका-पुत्री आसीत् । सा कीदृशी ? त्याह-'बुडा' वृद्धा-बहुपयस्कत्वात् , वृद्धकुमारी-अपरिणीतत्वात् , ' जुण्णा' जीर्णा जीर्णशरीरत्वात् , ' जुण्णकुमारी' जीर्णकुमारी-अपरिणीतावस्थायामेव संजातजीर्णशरीरत्वात् , 'पडियपूयत्थणी' राया तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नाम गाहावई होत्था, अड्डे जाय अपरिभूए) वे कहते हैं-गौतम सुनो-तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है-उस काल और उस समय में इसी जंबूद्वीप नामके द्वीप में भारतवर्ष में आमलकल्पा नामकी नगरी थी। नगरीका वर्णन करनेवाला पाठ यहां पर औपपातिक सूत्र से योजित कर लेना चाहिये। उस नगरी में उद्यान था जिसका नाम आम्रशालायन था। इस नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था। इस आमलकल्पा नगरी में काल नाम का गाथापति रहता था। यह धन धान्यादिसे विशेष समृद्ध था और लोगों में भी इस की अच्छी प्रतिष्ठा थी। (तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाय सुरूवा, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णामं दारिया होत्था बुड़ा बुडकुमारी, जुण्णो जुण्णकुमारी, पडियपूयस्थणी णिविन्नवरा घरपरिवतत्थणं आमलकप्पाए नयरीए काले नाम गाहावई होत्था अड़ जाय अपरिभूए ) તેઓ કહે છે કે હે ગૌતમ ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નોને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે-કે તે કાળે અને તે સમયે આ જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં આમલકલ્પ નામની નગરી હતી. નગરીના વર્ણન વિષેને પાઠ અહીં ઔપપાતિક સૂત્ર વડે જાણી લેવું જોઈએ તે નગરીમાં એક ઉદ્યાન હતું. તેનું નામ આમ્રશાલ વન હતું. તે નગરીના રાજાનું નામ જીતશત્રુ હતું. તે આમલકલ્પા નગરીમાં કાલા નામે ગાથાપતિ રહેતો હતો. તે ધનધાન્ય વગેરેથી સવિશેષ સમૃદ્ધ હતો અને સમાજમાં તેની સારી એવી પ્રતિષ્ઠા હતી. ( तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरीणामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाय सुरू या, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स धृया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णाम दारिया होत्था बुड्डा बुडकुमारी, जुण्णा जुण कुमारी, पडियपूयत्थणी શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतयषिणी टोका श्रु० २ १० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७९ पतितपूतस्तनी-अपनतनितम्बस्तनी, ‘णिब्धिन्नवरा' निर्विष्णयरायरपरणे विरक्ता, अतएव वरपरिवज्जिया' घरपरिवर्जिता-पतिरहिता चाप्यासीत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थोऽर्हन पुरुषादानीयः पुरुषश्रेष्ठः आदिकरः यथा वर्धमानस्वामी तथैव पाचप्रभुरपि ‘णवरं' नवरम्-अयं विशेषः-श्रीवर्द्धमानस्वामी सप्तहस्तोच्छ्रेयः, पार्श्वप्रमुः णयहत्थुस्सेहे ' नवहस्तोत्सेधा-नवहस्तपरिमितशरीरावगाहनः, स षोडशभिः श्रमणसाहस्रीभिः, अष्टत्रिंशता आर्यिकाजिया याबि होत्था) इस काल गाथापति की कालश्री नाम भार्या थी। इसके हाथ पैर आदि समस्त अंग उपांग विशेष सुकुमार थे। देखने में यह बड़ी सुन्दर थी काल गाथापति के इस काल श्री की कुक्षि से उत्पन्न हुई एक काली नाम की दारिका भी थी। जो बहुत बयस्का हो चुकी थी-इसका विवाह भी नहीं हुआ था। इसलिये कुमारी अवस्था में ही यह वृद्धा जैसी बहु उमरवाली हो गई थी। शरीर भी बहु अयस्था संपन्न होने के कारण इसका जीर्ण हो चुका था । अतः अपरिणीतावस्था में ही यह जीर्ण कुमारी बन गई थी। इसके नितम्ब और स्तन दोनों ही बिलकुल ढोले हो गये थे नीचे झुक आये थे। घरके वरण करने रूप कार्य से यह विरक्त बन चुकी थी अतः यह यरपरिवर्जित थी-पति से सर्वथा रहित थी। (तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा बद्धमाणसामी णवरं णयहत्थुस्से हे सोलसहिं समणसाहस्सीहिं अट्टत्तीसाए अज्जिया साहस्सीहि णिविन्नवरा, वरपरिवज्जिया याचि होत्था) તે કાલ ગાથા પતિની કાલશ્રી નામે ભાર્યા હતી. તેને હાથ-પગ વગેરે અને બધા અંગે તેમજ ઉપાંગો સવિશેષ સુલેમળ હતાં. દેખાવમાં તે બહુ જ સુંદર હતી. કાલ ગાથા યતિની આ કાલશ્રીના ગર્ભથી જન્મ પામેલી એક કાલી નામે દારિકા (પુત્રી) પણ હતી. તે મેટી ઉંમરની થઈ ચૂકી હતી. તેનું લગ્ન પણ થયું નહોતું. એથી કુમારિકાની અવસ્થામાં જ તે ડેરી જેવી બહ ઉંમરે પહોંચેલી થઈ ગઈ હતી. બહુ ઉંમરે પહોંચેલી હવા બદલ તેનું શરીર પણ જીર્ણ થઈ ચૂકયું હતું. એથી કુમારિકાની અવસ્થામાં જ તે જીર્ણ કુમારિકા બની ગઈ હતી તેના નિતંબ અને સ્તને બંને સાવ ઢીલા થઈ ગયા હતા, નીચે લટકવા લાગ્યા હતા. વરને વરણ કરવા રૂપ કાર્યથી તે વિરક્ત બની ગઈ હતી એથી તે વર પરિવર્જિત હતી. તે એકદમ પતિ વગરની હતી. ( तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा पद्धमाणसामी णवरं णयहत्थुस्सेहे सोलसहि समणसाहस्सीहिं अट्टत्तीसाए अज्जिया श्री शताधर्म थां। सूत्र:03 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० - ज्ञाताधर्मकथासूत्र साहस्रीभिः साई संपरितः यावत् आम्रशालयने समयमृतः । परिषन्निर्गता यावत् पर्युपास्ते । ततः खलु सा काली दारिका अस्याः भगवत्पार्श्वप्रभुसमागमनरूपायाः कथावाचार्तायाः ‘लट्ठा' लब्धार्था भगवानत्रसमयमृतः, इत्येवं. रूपार्थपाप्ता 'हट जाय हियया' हृष्ट यापहृदया-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता प्रीतमनस्का हर्षवशविसर्पहृदया सती यौव अम्बापितरौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'करयल जाय' करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनवं मस्त केऽञ्जलिं कृत्या एवमयादीत्एवं खलु हे अम्ब तातौ ! पार्थोऽर्हन पुरुषादानीयः आदिकरो.यावत्-आम्रशालबने चैत्ये यथा-प्रतिरूपमवग्रहमयगृह्य संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति आस्ते, तद्गच्छामि खलु हे अम्बतातौ ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्यासद्धि संपरिघुडे जाव अंबलसालघणे समोसढे ) उस काल में और उस समय में पुरुषादानीय पुरुषश्रेष्ठ-आदिकर पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु जो श्री वर्द्धमान स्वामी जैसे थे-सोलह हजार श्रमणों के तथा ३८, हजार आर्यिकाओं के साथ तीर्थकर परंपरानुसार विहार करते हुए उस आम्रशालयन में आये। भगवान महावीर और पार्श्वनाथ प्रभु की शरीरावगाहना में विशेषता केवल इतनी ही थी कि उनका शरीर सात हाथ ऊँचा था और पार्श्व प्रभु का शरीर ९ हाथ ऊँचा था। (परिसा णिग्गया, जाय पज्जुयासइ, तएणं सा दारिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ठ जाय हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाय एवं ययासी-एवं खलु अम्मयाओ पासे अरहा पुरिसा. दाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं साहस्सीहिं सद्धिं संपरिघुडे जाव अंबसालपणे समोसढे ) । તે કાળે અને તે સમયે પુરુષાદાનીય-પુરુષ શ્રેષ-આદિકર પાર્શ્વનાથઅહત પ્રભુ-જેઓ શ્રી વાદ્ધમાન સ્વામી જેવા હતા–સેળ હજાર શ્રમણે તેમજ ૩૮ હજાર આયિકાઓની સાથે તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં તે આમ્રશાલ વનમાં આવ્યા. ભગવાન મહાવીર અને પાર્શ્વનાથ પ્રભુની શરી. રાવગાહનામાં વિશેષતા ફક્ત આટલી જ છે કે તેમનું શરીર સાત હાથ જેટલું ઊંચું હતું અને પાર્શ્વ પ્રભુનું શરીર નવ હાથ ઊંચું હતું. (परिसा णिग्गया, जाय पज्जुवासइ, तएणं सा काली दारिया इमीसे कहाए लदूधट्ठा समाणी हट्ट जाय हियया जेणेत अम्मापियरो तेणेव उयागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाय एवं बयासी-एवं खलु अम्मयाओ ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाय विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुम्भेहिं अन्भ श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० श्र. २ ० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८१ हतः पुरुषादानीयस्य पादयन्दिका पादवन्दनाशया गन्तुम् । अम्बापितरौ कथयतः-हे देवानुप्रिपे ! पुत्रि यया सुखं तथा कुरु किन्तु अस्मिन् शुमकार्ये पतिबन्ध प्रमादं मा कुरु । ततः खलु सा कालिका दारिका अम्बापितृभ्यामभ्यनुज्ञाता सती हृष्टयावहृदया स्नाता कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमगलमायश्चित्ता शुद्ध. अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायबंदियागमित्तए ?) लोगों को ज्योंही पाच प्रभु के आम्रशालयन में आने की खबर लगी-त्योंही सब जनता प्रभु को चंदना के लिये अपने २ स्थान से निकलकर उस आम्रशालयन में आने लगी। वहां आकर प्रभु का धार्मिक उपदेश सुन यह प्रभु की पर्युपासना करने लगी। इसके अनन्तर जब यह समाचार काली दारिका को मिला तो यह बहुत अधिक हर्षित एवं संतुष्ट चित्त हुई। बाद में वह जहां अपने माता पिता थे वहां पहुँची वहां जाकर उसने माता पिता को दोनों हाथ जोडकर चरण वंदना की-और इस प्रकार कहा-हे माततात ! पुरुषश्रेष्ठ, आदिकर, ऐसे पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु आम्रशालयन में पधारे हुए हैं-इसलिये मैं आपसे आज्ञापित होकर उन पुरुषश्रेष्ठ अहंत प्रभु पार्श्वनाथ को वंदना करने के लिये जाना चाहती हूँ। (अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, तएणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुन्नाया समाणी हतुटुं जाय हियया पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता णुनाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पाययंदिया गमित्तए ? ) પાર્શ્વ પ્રભુના આશ્રશાલવનમાં પધારવાની જાણ થતાં જ બધા લોકો પ્રભુને વંદન કરવા માટે પોતપોતાના સ્થાનેથી નીકળીને તે આમ્રશાલ વનમાં આવવા લાગ્યા. ત્યાં આવીને પ્રભુને ધાર્મિક ઉપદેશ સાંભળીને તે પ્રભુની પર્ય પાસના કરવા લાગ્યા. ત્યારબાદ કાલી દારિકાને આ સમાચાર મળ્યા ત્યારે તે ખૂબ જ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ ચિત્તવાળી થઈ ગઈ. ત્યારપછી તે જ્યાં તેના માતા-પિતા હતા ત્યાં પહોંચી. ત્યાં જઈને તેણે માતા-પિતાને બંને હાથ જેડીને ચરણ વંદના કરી અને ત્યારપછી આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે હે માતા પિતા ! પુરુષ શ્રેષ્ઠ, આદિકર એવા પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુ આપ્રશાલ વનમાં પધાર્યા છે. એટલા માટે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે પુરુષ શ્રેષ્ઠ અહિત પ્રભુ પાર્શ્વનાથને વંદન કરવા માટે જવા ઇચ્છું છું. ( अहा सुह, देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, तएणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अन्भणुनायो समाणी हटतुट्ठ जाव हियया हाया कयबलिकम्मा कय શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ ज्ञाताधर्मकथासूत्र प्रवेश्यानि माङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिता अल्पमहाद्वैभरणालङ्कृतशरीरा चेटिकाचक्रयालपरिकीर्णा स्वकाद् गृहाद् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव बाह्याउपस्थानशाला यौव धार्मिको यानप्रवरस्तत्रैयोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवर दुरुढा-आरूढा । ततः खलु सा काली दारिका धार्मिक यानपवरम् , एवं सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाइं पयरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकिय सरीरा चेडिया चक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उचट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पयरे तेणेच उयागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा, तएणं सा काली दारिया धम्मियं जाण पवरं जहा दोबई जाय पज्जुवासइ) तय माता पिता ने उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये ! तुझे जिस प्रकार सुख मिले उस प्रकार तूं कर-इस शुभकार्य में प्रतिबंध-प्रमाद मत कर । इस प्रकार माता पितासे अभ्यनुज्ञात हुई उस दारिका ने हृष्ट तुष्ट चित्त होकर स्नान किया वायसादि के लिये अन्नका भागरूप-बलिकर्म किया कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके शुद्ध प्रवेश योग्य, मंगलकारी वस्त्रों को अच्छी तरह पहिरा, और अल्पभार बहुमूल्य आभरणों से अलंकृत शरीर होकर वह चेटिका चक्रयाल से युक्त हो अपने घर से निकली । निकलकर वह यहां गई-जहां बाह्य उपस्थान शाला थी-उसमें जाकर वह जहां धार्मिक यानप्रवर रक्खा था-वहां पहुंची-यहां जाकर कोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पयेसाई मंगल्लाई वत्थाई पचरपरिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, धम्मियं जाणप्पयरं दुरूढा तएणं सा काली दारिया धम्मियं जाणप्पयरं एवं जहा दोबई जाय पज्जुवासइ) ત્યારે માતાપિતાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તને જેમ સુખ મળે તેમ તું કર. આ શુભ કાર્યમાં પ્રતિબંધ-પ્રમાદ કર નહિ આ પ્રમાણે માતાપિતા વડે આજ્ઞાપિત થયેલી તે દારિકાએ હષ્ટ-તુષ્ટ ચિત્ત થઈને સ્નાન કર્યું. કાગડા વગેરેને અન્નભાગ આપીને ખલિકર્મ કર્યું. કૌતુક, મંગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને શુદ્ધ પ્રવેશ યોગ્ય, મંગળકારી વસ્તોને સારી રીતે પહેર્યા અને વજનમાં હલકા પણ કિમતમાં બહુ ભારે એવા આભરણથી શરીરને અલંકૃત કરીને દાસીઓના સમૂહથી પરિવેષ્ટિત થઈને પિતાના ઘેરથી નીકળી. નીકળીને તે ત્યાં પહોંચી જ્યાં બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી. તેમાં જઈને તે જ્યાં ધાર્મિક યાનપ્રવર ઊભું હતું તેમાં આરૂઢ થઈ ગઈ. આરૂઢ થઈને તે श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतयर्षिणी टी० श्रु० २ व० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८३ 'जहा दोबई जाव' यथा द्रौपदी यायत्-द्रौपदीवत् छत्रादीन् तीर्थङ्करातिशयान् दृष्ट्वा धार्मिका यानप्रबरोदवतरति, पश्चाभिगमपूर्वकं भगवत्समीपे गत्वा पन्दित्या नमस्यित्वा च भगवन्तं 'पज्जुवासइ' पर्युपास्ते । ततः खलु पाश्वोऽहन पुरुषादानीयः काल्यै दारिकायै तस्यां च महातिमहालयायां पर्ष दि धर्म कथयति ततः खलु सा काली दारिका पार्श्वस्याहंतः पुरुषादानीयस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्ट यावद् हृदया पार्थ मर्हन्तं पुरुषादानीयं त्रिकृत्वो वन्दते नमस्यति, वन्दित्या वह उस पर आरूढ हो गई। आरूढ होकर वह वहां से चली। ज्योंही उसने द्रौपदी की तरह तीर्थकरातिशयरूप छत्रादि विभूति को देखा तो यह देखकर उस धार्मिक यानप्रयर से नीचे उतरी। और पञ्च अभिगमन पूर्वक भगवान के पास जाकर उसने उनको चंदना की, उन्हें नमस्कार किया-चंदना नमस्कार करके फिर उसने उनकी पर्युपासना की। (तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालयाए परिसाए धम्मो कहिओ) पुरुषादानीय अहंत प्रभु पार्श्वनाथने उस काली दारिकाको उस विशाल परिषदाके बीचमें धर्मकथा सुनाई। (तएणं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिवखुत्तो बंदइ नमंसइ) पुरुषादानीय उन अर्हत पार्श्वनाथ प्रभु से धर्म को सुनकर और हृदय में अवधारण कर यह काली दारिका बहुत अधिक हर्षित ત્યાંથી રવાના થઈ. દ્રૌપદીની જેમ તેણે જ્યારે તીર્થંકરાતિશય રૂપ છત્ર વગેરે વિભૂતિને જોઈ કે તાંની સાથે જ તે ધાર્મિક યાન-પ્રવરમાંથી નીચે ઉતરી પડી. અને પંચ અભિગમનપૂર્વક ભગવાનની પાસે જઈને તેમને વંદના કરી, તેમને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પર્યપાસના કરી. ત્યારપછી (तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालयाए परिसाए धम्मो कहिओ) પુરુષાદાનીય અહજત પ્રભુ પાર્શ્વનાથે તે કાલી દારિકાને તે વિશાલ પરિપદાની સામે ધર્મકથા સંભળાવી. ( तएणं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाय हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो बंदइ नमसइ) પુરુષાદાનીય તે અહંત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી ધર્મને સાંભળીને અને તેને હદયમાં અવધારિત કરીને તે કાલી દારિકા બહુ જ વધારે હર્ષિત श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وق ज्ञाताधर्मकधाडसूत्र नमस्थित्या एवमयादीत्-श्रदधामि खलु हे भदन्त ! नैर्ग्रन्थ्यं प्रयचनं यावत् तद् तथैतद् यूयं वदथ नवरं-विशेषोऽयम्-यत्-अहम् अम्बापितरौ आपृच्छामि, ततः मातापितरौ पृष्ठा खलु अहं देवानुप्रियाणामन्ति के यावत् प्रव्रजामि । भगवानाहयथासुखं हे देवानुप्रिये ! । ततः खलु सा काली दारिका पार्श्वन अर्हता पुरुषा. हृदय हुई । उसने उन पुरुषादानीय पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु को तीन बार वंदना नमस्कार किया। बाद में (चंदित्ता नमंसित्ता एवं ययासी सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पाययणं जाय से जहेयं तुम्भे वयह, ज णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्ययामि, अहासुहं देवाणुप्पिए ! तएणं सा काली दारिया पासेणं अरया पुरिसादाणीएणं एवं बुत्ता समाणी हट्ट जाय हियया पासं अरहं वंदइ, नमसइ, चंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दुरुहह, दूरहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी, तेणेव उवागच्छइ) वंदना नमस्कार करके उसने उन प्रभु से ऐसा कहा-हे भदंत ! मैं आपके द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ प्रवचन को विशेष श्रद्धा की दृष्टि से देखती हूँ आपने जैसा यह प्रतिपादित किया है वह वस्तुतः वैसा ही है। यह मुझे बहुत रुचा है। अतः मैं माता पिता से पूछती हूँ। उनसे पूछकर फिर आप देवानुप्रिय के पास आकर હૃદય થઈ. તેણે તે પુરુષાદાનીય પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુને ત્રણ વાર વંદના અને નમસ્કાર કર્યો. ત્યારબાદ (पंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी सद्दहामिणं भंते ! जिग्गंथं पाययणं जाय से जहेयं तुब्भे ययह, जं जयरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाय पव्ययामि, अहा सुहं देवाणुप्पिए ! तएणं सा काली दारिया पासे णं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं युत्ता समाणी हट जाय हियया पासं अरहं चंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दुरुहड दुरूहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडि निक्खमई, पडिनिक्रयमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेच उयागच्छइ ) વંદના નમસ્કાર કરીને તેણે તે પ્રભુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદન્ત ! તમારા વડે પ્રતિપાદિત નિગ્રંથ પ્રવચનને હું વિશેષ શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિએ જે છું. તમે જેવું આ પ્રતિપાદિત કર્યું છે ખરેખર તે તેવું જ છે. મને આ ખૂબ જ ગમી ગયું છે. એથી હું માતાપિતાને પૂછી લઉં છું. તેમને પૂછીને श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० श्रु० २३० १ अ० १ कालीदेवोवर्णनम् ७८५ दानीयेन एवमुक्ता सती हृष्ट यायद् हृदया पार्थ मर्हन्तं चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्या तदेव धार्मिक यानप्रवरं दरोहति, दह्य पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्यान्तिकाद् आम्रशालानात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैय आमलकल्पा नगरी तत्रैयोपागच्छति, उपागत्य आमलकल्पाया नगर्या मध्य-मध्येन यौव बाह्या उपस्थानशाला तौयोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानयर स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरूह्य यत्रैव अम्बा. पितरौ तौयोपागच्छति, उपागत्य ' करतल० ' करतलपरिगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिंदीक्षित होना चाहती हूँ। काली दारिका के इस अभिप्राय को सुनकर प्रभुने उससे कहा देवानुप्रिये ! यथासुखम् । इस प्रकार यह काली दारिका पुरुषादानीय उन अहंत प्रभु पार्श्वनाथ से अनुमोदित होकर चित्त में बहुत अधिक प्रसन्न हुई। उसने अर्हन्त पार्श्वनाथ प्रभु को चंदना नमस्कार किया और वंदना नमस्कार करके वहां से आकर वह उसी अपने धार्मिक यान पर चढ गई चढकर वह फिर पुरुषादानीय, अहंत प्रभु पार्श्वनाथ के पास से और उस आम्रशालयन नामके उद्यान से बाहिर चली आई। बाहिर आकर वह जहां आमलकल्पा नगरी थी -वहां पर आ गई। (उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेच बाहिरिया उचठ्ठाणसाला-तेणेय उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवरं ठवेइ, ठवित्ता धम्मियाओ जाणपवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उयागच्छइ, उवागच्छित्ता कर આપ દેવાનુપ્રિયની પાસે આવીને દીક્ષિત થવા ચાહું છું. કાલી દારિકાના આ અભિપ્રાયને સાંભળીને પ્રભુએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! “યથાસુખમ્ ” આ પ્રમાણે તે કાલી દારિકા પુરુષાદાનીય તે અહત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વડે અનુદિત થઈને ચિત્તમાં ખૂબ જ પ્રસન્ન થઈ. તેણે અહ°ત પાર્શ્વનાથ પ્રભુને વંદના નમસ્કાર કર્યા અને વંદના નમસ્કાર કરીને ત્યાંથી આવીને તે તેજ પિતાના ધાર્મિક યાનમાં બેસી ગઈ અને બેસીને તે પુરુષાદાનીય અહત પ્રભુ પાર્શ્વ નાથની પાસેથી અને તે આમ્રશાલ વન નામના ઉદ્યાનથી બહાર આવી ગઈ. બહાર આવીને તે જ્યાં આમલકલ્પા નગરી હતી ત્યાં આવી ગઈ ( उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता धम्मियं जाणपपरं ठवेइ, ठवित्ता :धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, जेणेव अम्मापियरो तेणेय उवागच्छइ, उयागच्छित्ता करयल० एवं पयासी-एवं खलु अम्मयाओ ! मंए पासस्स श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे " " कृत्वा एवमवादीत् एवं खलु हे अम्बतातौ ! मया पार्श्वस्यार्हतोऽन्तिके धर्मः सिंते निशान्तः =श्रुतः, सोऽपि च धर्मः ' मे' मम ' इच्छिए ' इष्टः = इच्छाविषयीभूतः, 'पडिच्छिए ' प्रतीष्ट = पुनः पुनरभिलषितः ' अभिरुहए ' अभिरुचितः=आस्वाद्यवस्तुवत्सर्वथाभियः, ततः तस्मात् कारणात् खलु अहं हे अम्बतात ! संसार भयो द्विग्ना भीता जन्ममरणेभ्योऽतः इच्छामि खलु युष्माभ्यामयल० एवं वयासी एवं खलु अम्मयाओ ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे णिसंते से चि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुए-तपणं अहं अम्मयाओ ! संसारभउच्चिग्गा भीया जम्मणमरणाणं- इच्छामि णं तुम्मेहिं अन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए) वहां आकर के वह आमलकल्प नगरी के बीचों बीच से होकर जहाँ यह बाह्या उपस्थान शाला थी- वहाँ आई - यहां आकर वह उस धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी-नीचे उत्तर कर फिर बाद में यह जहां अपने माता पिता थे-वहां गई- वहां जाकर उसने अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर उनसे इस प्रकार कहा- हे मान तात ! सुनो मैंने अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ के मुख से धर्म सुना है - वह धर्म मुझे बहुत अच्छा लगा है, बार बार उस धर्म को सुनने की अभिलाषा हो रही है । जिस प्रकार आस्वाद्य वस्तु प्रिय लगती है उसी प्रकार वह धर्म मेरे लिये सब प्रकार से प्रिय लगा है। उसके सुनने से मैं हे मात तात ! इस संसार अरहओ अंतिए धम्मेणिसंते से विय मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए: अभिरुइए-तरणं अहं अम्मयाओ ! संसारभउच्चिग्गा भीया जम्मणमरणाणी - हच्छामि णं तुन्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चसए) ત્યાં આવીને તે આમલકલ્પા નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં તે બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તે તે ધાર્મિક યાન પ્રવરમાંથી નીચે ઉતરી, નીચે ઉતરીને તે જ્યાં તેના માતાપિતા હતાં ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઈને પેાતાના ખને હાથેાની અતિ ખનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું માતાપિતા ! સાંભળે, મહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથના મુખથી મેં ધર્મનું શ્રવણ કર્યું” છે, તે મને અહુ જ ગમી ગયું છે. તે ધમને વારંવાર સાંભળવાની ઈચ્છા થઈ રહી છે જેમ આસ્વાદ્ય વસ્તુ પ્રિય લાગે છે તેમજ તે ધર્મ મારા માટે ખપી રીતે પ્રિય થઈ પડચો છે. માતાપિતા ! તેના શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणी टीका थु. २ ३०१ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८७ भ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्याहतोऽन्तिके मुण्डाभूत्या आगाराद् अनगारितां प्रबजितुम्= स्वीकर्तुम् । मातापितरौ कथयतः-यथासुखं हे देवानुपिये =यथा रोचते तथाकुरु किन्तु अस्मिन् कार्ये प्रतिबन्ध-प्रमादं मा कुरु । ततः स्वपुञ्या दीक्षानिश्चयानन्तरं खलु स कालो गाथापतिर्षिपुलम् अशनम् ४ अशनादि चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिनिजकस्पजनसम्बन्धिपरिजनम् आमन्त्रयति, आमन्त्र्य ततः पश्चात् स्नातः यावत् विपुलेन पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्कृत्य सम्मान्य तस्यैव मित्रज्ञातिनिजकस्यजनसम्बन्धिपरिजनस्य पुरतः अग्रे कालिकां दारिकां श्वेतपीतैः रजतसुवर्णमयैः कलशैः स्नपयति, स्नपयित्या सर्वालङ्कारविभूपितां करोति, कृत्वा पुरुषसहस्रवाहिनिकां शिविकां दूरोहयति-आरोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञातिनिजकस्य जनसम्बन्धि परिजनेन सार्द्ध संपरितः सर्वद्ध यावत्-वाद्यके भय से उद्विग्न होकर जन्ममरण से भयभीत हो चुकी हूँ-अतः मैं चाहती हूँ कि मैं आप से आज्ञा प्राप्त कर उन अर्हत पार्श्वनाथ प्रभु के समीप मुंडित होकर अगारावस्था से अनगारावस्था स्वीकार कर लूं। इस प्रकार अपनी काली दारिका की बात सुनकर माता पिता ने उससे कहा-(अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह, तएण से काले गाहाचई विपुलं असणं ४ उयक्खडायेइ, उयक्खडावित्ता मित्तणाइ णियग सयणसंबंधिपरियणं आमंतेइ आमंतित्ता तओ पच्छा पहाए जाय विउलेणं पुष्फयत्वगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेता सम्माणेत्ता तस्सेय मित्तणाइणियगसयणसंबंधिरिजणस्स पुरओ कालियं दारियं सेया पीएहिं कलसेहिं पहायेइ पहावित्ता सव्यालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरोहेइ, दुरोहित्ता मित्तणाइणियगसयण શ્રવણથી હું આ સંસારના ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને જન્મ-મરણથી ભયભીત થઈ ગઈ છું. એથી મારી ઈચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે અહત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે મુંડિત થઈને અગારાવસ્થા ત્યજીને અનગારાવસ્થા સ્વીકારી લઉં. આ પ્રમાણે પિતાની કાલી દારિકાની વાત સાંભળીને માતાપિતાએ તેને કહ્યું – ___ ( अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह, तएणं से काले गाहावई विपुलं असणं ४ उपक्खडायेइ, उवक्रवडायित्ता मित्तणाइणियगसपणसंबंधिपरियणं आमतेइ आमंतित्ता तओ पच्छा हाए जाय विपुलेणं पुप्फपत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेय मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणस्स पुरओ कालियं दारियं सेयापीएहिं कलसेहिं राहावेइ ण्हावित्ता सन्यालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता श्री शतधर्म अथांग सूत्र :03 Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे मानानेकविधयादित्ररवेण सह आमलकल्पाया नगर्यां मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैवाम्रशालवनं चैत्यं तत्रैयोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिकान् तीर्थकरातिसंबंधिपरियणेणं सद्धि संपरिबुडे सब्बिडीए जाव रवेणं आमलकप्पं नयरिं मज्झं मज्झेणं णिगच्छइ ) हे देवानुप्रिये ! तुझे जिस तरह अच्छा लगे वैसा तू कर इस कार्य में प्रमाद न कर । इस तरह उस काल गाथापति ने अपनी पुत्री को दीक्षा ग्रहण करने मे दृढ निश्चयवाली जानकर विपुल मात्रा में अशनादि रूप चतुर्विध आहार निष्पन्न करवाया - बाद में मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबन्धी परिजनों को आमंत्रित किया आमंत्रित करके बाद में उसने स्नात होकर विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध माल्य, एवं अलंकारों से सत्कार सन्मान करके उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबन्धी, परिजनों के साथ काली दारिका का श्वेत पीत कलशों द्वारा अभिषेक किया- बाद में उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया - फिर पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर उसे चढवाया। चढवाकर फिर उन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन संबन्धी परिजनों से घिरा हुआ होकर वह अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार, वाद्यमान अनेकविध बाजो की ध्वनि के साथ २ आमलकल्पा नगरी के ठीक बीचों बीच से होकर निकला। ( णिग्गच्छित्ता जेणेव अंवसालवणे चेहए पुरिससहस्वाहिणीयं सीयं दुरोहेइ, दुरोहित्ता मित्तणाइ, णियगसयणसंबंधि परियणेणं सद्धिं संपरिवुडे सब्बिीए जाव रयेणं आमलकप्पं नयरिं मज्झ मज्ज्ञेणं णिगच्छ ) હે દેવાનુપ્રિયે ! તને જેમ સારૂ લાગે તેમ કર આ કામમાં પ્રમાદ કરીશ નહિ. આ પ્રમાણે તે કાલગાથાપતિએ પેાતાની પુત્રીના દીક્ષા ગ્રહણુ કરવાના મક્કમ વિચાર જાણીને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે ચાર જાતના माहारा तैयार उशवडाव्या. त्यारमा भित्र, ज्ञाति, निगड, स्वन्न, संधी પરિજનાને આમત્રિત કર્યાં. આમંત્રિત કરીને તેણે સ્નાન કરીને પુષ્કળ પુષ્પ, વસ્ત્ર, ગંધ, માલ્ય અને અલંકાર વડે સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તે મિત્ર, ज्ञाति, निन्न, स्वन्न, संधी, परिनानी साथै अली हारिानो सह, अने પીળા કળશે! વડે અભિષેક કર્યો ત્યારખાદ તેને સમસ્ત અલંકારા વધુ વિભૂષિત કરી અને ત્યારપછી પુરુષ સહસ્રવાહિની પાલખી ઉપર તેને ચઢાવી. थढावीने तेथे मित्र, ज्ञाति, नि४५, स्वजन संबंधी, परिनानी साथै परि વેષ્ટિત થઇને પેાતાની સમસ્ત ઋદ્ધિની સાથે, ઘણાં વાજાઓના ધ્વનિની સાથે સાથે આમલકલ્પા નગરીની ખરાખર વચ્ચે થઇને નીકળ્યે. ७८८ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनगारघमामृतषिणी टी० श्रु० २ ० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८९ शयान् पश्यति, दृष्ट्वा शिविकां स्थापयति, स्थापयित्वा कालिकां दारिकां शिविकातः प्रत्यवरोहयति । ततः खलु तां कालिकां दारिकाम् अम्बापितरौ पुरतः कृत्वा यत्रैव पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादिष्टाम्-एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! काली दारिका आवयोर्दुहिता इष्टा कान्ता यावत् उदुम्बरपुष्पमिव श्रवणायापि दुर्लभा किमङ्ग ! पुनः तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ) निकलकर वह वहां गया कि जहां वह आम्रशालवन नाम का उद्यान था। वहाँ जाकर उसने तीर्थकर प्रकृति के उदय से होनेवाले छत्रादिक अति. शयों को देखा। (पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता कालियदारियं सीयाओ पच्चोरुहइ, तएणं तं कालीय दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी) देखकर उसने उस पुरुष सहस्त्रवाहिनी शिविका को खडी कर दिया। खड़ी करके उसमें से काली दारिका को नीचे उतारा बाद में वे माता पिता उस कालिक दारिका को आगे करके जहां पुरुषादानीय अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान थे वहां गये। वहां जाकर उन्हों ने उनको वंदना की-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके बाद में उन्हों ने इस प्रकार प्रभु से कहा-( एवं खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्हं धूया इट्टा कंता, जाव किमंगपुणपासणयाए ! एस (णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ) નીકળીને તે ત્યાં ગયો કે જ્યાં તે આમ્રશાલ વન નામે ઉદ્યાન હતું ત્યાં જઈને તેણે તીર્થંકર પ્રકૃતિના ઉદયથી અસ્તિત્વમાં આવતા છત્ર વગેરે અતિશયોને જોયા. (पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता कालियदारियं सीयाओ पच्चोरुहइ, तएणं तं कालियं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी) જોઈને તેણે તે પુરુષ સહસ્ત્રવાહિની પાલખીને રોકી. રોકીને તેમાંથી કાલી દારિકાને નીચે ઉતારી. ત્યારપછી તે માતાપિતા તે કાલીક દારિકાને આગળ કરીને જ્યાં પુરુષદાનીય અહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વિરાજમાન હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તેમને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યા વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમણે પ્રભુને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે (एवं खलु देवाणुप्पिया ! कालीदारिया अम्हं धूया इट्टा कंता, जाव किमंग श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसत्र 'पासणयाए' दर्शनाय ?, एषा खलु हे देवानुप्रियाः । संसारभयोद्विग्ना इच्छति देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डाभूत्वा यावत्पव्रजितुं, तद् एतां खलु देवानुप्रियाणां शिष्याभिक्षां दद्मः, 'पडिच्छंतु ' प्रतीच्छन्तु स्वीकुर्वन्तु खलु हे देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षाम् । भगवानाह-यथासुखं हे देवानुप्रियो !मा प्रतिबन्धं कुरुतम् । ततः खलु काली कुमारी पार्श्व मर्हन्तं कन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा उत्तरपौरस्य णं देवाणुप्पिया! संसारभउचिग्गा, इच्छइ, देवाणुप्पियाणं! अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिमिक्खं दलयामो पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं) हे देवानुप्रिय ! यह हमारी कालो दारिका नामकी पुत्री है। यह हमें बहुत अधिक इष्टा, कान्ता यावत् उदम्बर पुष्प के समान सुनने के लिये भी दुर्लभा है-तो फिर हे अंग! इसके दर्शन की तो बात ही क्या कहना है । हे देवानुप्रिय ! यह संसारभय से उद्विग्न हो रही है अतः आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर यावत् संयम लेना चाहती है । इस लिये हम दोनों आपके लिये शिष्या की भिक्षा दे रहे है-आप देवानुप्रिय ! हमारी इस शिष्यारूप भिक्षा को स्वीकार करें (अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिवंधं करेह ) इस प्रकार उन दोनों का कथन सुनकर प्रभु ने उनसे कहा हे देवानुप्रियो ! आप को जैसा सुख हो-वैसा आप करो-इसमें विलम्ब करने से लाभ नहीं हैं । (तएणं) इसके बाद ( काली कुमारी पास पुण पासणयाए ? एसणं देवाणुप्पिया ! संसारभउचिग्गा, इच्छइ, देवाणुप्पियाणं ! अतिए मुंडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणि भिक्खं दलयामो पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं ) હે દેવાનુપ્રિય! આ અમારી કાલી દારિકા નામે પુત્રી છે. અમારા માટે આ બહુ જ વધારે ઈષ્ટા, કાંતા યાવત્ ઉદુબર પુષ્પની જેમ નામ શ્રવણમાં પણ દુર્લભ છે. તે પછી એના દર્શનની તો વાત જ શી કરવી ? હે દેવા નુપ્રિય ! આ સંસાર ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈ રહી છે. એથી આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી મુંડિત થઈને યાવત્ સંયમ ગ્રહણ કરવા ઇચ્છે છે. એથી અમે બંને આપના માટે આશિષ્યાની ભીક્ષા અર્પણ કરીએ છીએ. આપ દેવાનુપ્રિય અમારી मा शिव्या३५ लिक्षाने २१७१२ ४२. ( अहासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंध करेह ) मा प्रमाणे तसा मनन थन सीने प्रभु तेभन युं है દેવાનુપ્રિયે ! તમને જેમ સુખ પ્રાપ્ત થાય તેમ કરે. આમાં વિલંબ કરવાથી डा नथी. (तएणं) त्या२५७ श्री शताधर्म अथांग सूत्र:03 Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MO -पाय अनगारधर्मावृतबर्षिणी टी० नु० २ ३०१ अ० १ कालीदेचीवर्धनम् ७२१ दिग्भागम् अत्रकामति, अवक्राम्य स्वयमेव स्वहस्तेनैव आभरणमाल्यालङ्कारम् अवमुञ्चति अवतारयति, अवस्य स्वयमेव स्वहस्तेनैव लोच केशलुचनं करोति कृत्वा यत्रच पार्थोऽहन् पुरुषादानीयस्तबोपरगति, उपागत्य पार्चमहन्त त्रि: कुरखो बन्द ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एत्रयवादीत-आदीसः खलु हे भद'त: लोकः एवम्भनेन प्रकारेण यावत्-एषाऽपि स्वयमेव पार्श्वप्रभुणा प्रचाजिता । अरई वंदइ, नमसइ, दिसा नमंसित्ता, उत्तरपुरस्थिम दिसिभागं अबक्कमह, अवनकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकार ओमुयइ, ओमुइत्ता, संयमेव लोयं करेइ, करित्ता जेणेव पासे अरिहा पुरिसादा. जीए तेणेव उवागच्छइ, उवागछिया पासं अरई निववृसो वंदइ, नमसइ, यदिशा नर्मसित्ता एवं बासी ) काली कुमारी ने पार्श्वनाथ अरिहाल प्रभु को वंदना एवं नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर वह उत्तर पौरस्त्य दिमाग ईशान कोण की ओर गई। वहां जाकर उसने अपने आप आभरण माल्य एवं अलंकारों को उतार दिया। उत्तार कर अपने हाथों से उसने बालों का लंघन किया-लंघन करके फिर वह जहां पुरुषादानीय पार्श्वनाथ प्रभु विराजमान थे वहाँ आईवहां आकर उसने पार्श्वनाथ अईत को तीनधार चंदन एवं नमस्कार किया और बंदना नमस्कार कर फिर वह उनसे इस प्रकार कहने लगी -(आलिफोां भंते लोए एवं जहा देवाणंदा जाव सयमेव पवाविया (काली कुमारी पास अरहं बंदइ, नमंसइ, बंदित्ता नमसित्ता, उत्तरपुरस्थिम दिसिभागं अवक्कमइ, अमक्कमित्ता, सयमेव आमरणमल्लालंकार ओमुपद, ओमइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करिता जेणेव पासे रिहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छड उवागच्छिन्ना पासं अरहं तिक्खुमो पंदइ, नमसइ, चंदिसा नमंसित्ता एवं बयासी) કાલી કુપારીએ પાર્શ્વનાથ અરિહંત પ્રભુને વંદના અને નમસ્કાર કર્યા. વદન અને નમસ્કાર કરીને તે ઉત્તર પરિચય દ્વિબાગ ઈશાન કંપની તરફ ગઇ. ત્યાં જઈને તેણે પિતાની મેળે જ અભિરણ, માય અને અલંકારને ઉતાય. ઉતારીને પિતાના હાથ વડે જ તેણે વાળનું લંચન કર્યું. હુંચન કરીને તે જ્યાં પુછવાદનીય પાર્શ્વનાથ પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તેણે પાર્શ્વનાથ અહંતને ત્રણ વાર વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરવા લાગી કે ( आलितण भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव सयमेव पन्नानिया-तएण શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ૨ cop ततः खलु पार्थोऽर्हन पुरुषादानीयः काली स्वयमेव पुष्पचलाये आर्या शिष्यात्वेन ददाति । ततः खलु सा पुष्पचूला आर्या काली दारिकां स्वयमेव प्रवाजयति पावत् सा काली तदाज्ञाम् उपसम्पद्य खलु विहरति । ततः सा काली- आर्या जाता, कीदृशी ? स्याह - ईयीसमिता यावत्-गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा काली अर्थ पुष्पचलाया आर्यांया अन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, तपणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फलाए अज्जाप सिस्मिणियलाए दलह, तरणं सा पुष्फला अज्जा कालिं दारियं सयमेव पवावेड जाव उवपणिं विरड) हे भदंत | यह लोक आटीस हो रहा है - इस प्रकार से पार्श्वनाथ प्रभु के द्वारा स्वयं ही दीक्षित की गई। इसके बाद उन पुरुषादानीय पार्श्व प्रभु ने काली को दीक्षित करके पुष्पचूला आर्या को शिष्याणीरूप से प्रदान कर दिया । पुष्पचूला आर्या ने उसे काली को इस प्रकार दीक्षित करवा कर अपनी शिष्याणीरूप में उसे स्वीकार कर लिया यावत् वह काली उस आर्या की आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करने लग गई। (एणं सा काली अञ्चा जाव ) इस तरह वह काली अय आर्या हो गई। (ईरिया समिधा जान गुत्तरं भयारिणी संपूर्ण मा काली अज्जा पुष्कचूलाए अजाप अंति पासे अरहा पुरिसादाणीए कार्लि सयमेव पुष्फलाए अज्जाए सिस्सिणिय सार दलय, वर्ण सा पुष्कचूला अज्जा कालिं दारिये सयमेव पन्यावेइ-जाव उपसंप जित्ताणं विहरद ) હું બદન્ત આ લક દ્રીસ થઈ રહ્યો છે. આ પ્રમાણે આ પ પાર્શ્વનાથ પ્રભુ વધુ જાતે જ દીક્ષિત્ત કરવામાં આવી, ત્યારપછી તે પુરુષાદાનીય પાર્શ્વ પ્રભુએ કાલીને દીક્ષિત કરીને પુષ્પયૂલા આર્યાને શિષ્યાના રૂપમાં આપી દીધી. પુષ્પચૂલા આર્યાએ તે કાલીને આ પ્રમાણે દીક્ષિત કરાવીને પાતાની શિષ્યાના રૂપમાં તેના સ્વીકાર કરી લીધે ચાલતું તે કાલી તે આર્યોની आजा शुक्रतानी प्रवृत्ति का बागी (तपणं सा काली अज्जा जाब ) આ રીતે તે કાલી હવે આ થઈ ગઈ. (ईरिया समिया जाव गुत्तर्वभयारिणी, वएणं सा काली अज्जा पुष्फलाए अज्जा अंतिए सपाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ, बहू उत्यजाय बिहरह શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० २ ० १ अ. १ कालीदेवी वर्णनम् ७९३ वहुभिः चतुर्थ यावत्-षष्ठाष्टमदशमद्वादशभिस्तपाकर्मभिरात्मानं भावयन्ती विहरति ।। सू०३ ॥ मूलम्-तएणं सा काली अजा अन्नया कयाई सरीरबाउसिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं२ हत्थे धोवइ पाए धोवइ सीसं धोवइ मुहं धोवइ थणंतराइं धोवइ कक्खं तराणि धोवइ गुज्झंतराइं धोवइ जत्थर वि य णं ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइए तं पुत्वामेव अब्भुक्खेत्ता तओ पच्छा आसयइ वा सयइ वा, णिसीहइ वा, तएणं सा पुप्फचूला अज्ज कालिं अजं एवं क्यासी-नो खलुकप्पइ देवाणुप्पिया ! समणीणं णिग्गं थीणं सरीरबाउसियाणं होत्तए तुमं च णं देवाणुप्पिया ! सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं२ हत्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा तं तुमं देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवजाहि, तएणं साकाली सामाइयमाइयाई एक्कारसभंगाई अहिजइ, बहहिं चउत्थ जाव विहरइ) उसका रहन शयन आदि सब व्यवहार नियमित एवं सीमित हो गया। चलती तो वह ईर्या समिति से मार्ग का संशोधन कर चलती। यावत् वह गुप्त ब्रह्मचरिणी बन गई। ९ नौ कोटी से ब्रह्मचर्यव्रत की संरक्षिका हो गई। इसके बाद उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया-और अनेक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम दशम, द्वादश, तपस्याओं की आराधना से अपने आपको भावित किया। सूत्र ३॥ તેનું રહેવું, સૂવું વગેરે બધું કામ નિયમિત અને સીમિત થઈ ગયું. ચાલતી ત્યારે તે ઇર્યા–સમિતિથી માર્ગનું સંશોધન કરીને ચાલતી. યાવત્ તે ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી બની ગઈ ૯ કેટિથી બ્રહ્મચર્ય વ્રતની તે સંરક્ષિકા થઈ ગઈ. ત્યારપછી તે કાલી આર્યાએ પુપચૂલા આર્યાની પાસે સામાયિક વગેરે અગિયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણા ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ તપસ્યાઓની આરાધનાથી પિતાની જાતને ભાવિત કરી. એ સૂત્ર ૩ છે श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ - - - ज्ञाताधर्मकघाजमचे अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमद्रं नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिटइ, तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालिं अजं अभिक्खणं२ हीलेंति जिंदंति खिसंति गरिहंति अवमण्णति अभिक्खणं२ एयम, निवारेंति, तएणं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं णिग्गंथीहिं अभिक्खणं२ हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्ज माणिए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था जया णं अहं अगारवासमझे वसित्था तया णं अहं सयवसा जप्पिभिई च णं अहं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया तप्पभियं च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खल मम कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते पाडिका उवस्सयं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ संहिता कल्लं जाव जलंते पाडिएकं उवस्सयं गिण्हइ, तत्थणं सा अणिवारिया अणोहडिया सच्छंदमई अभिक्खणं२ हत्थे धोवइ जाव आसयइ वा सयइ वा, णीसेहेइ वा, तएणं सा काली अज्जा पासस्था पासस्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ पाउणित्ताअद्धमसियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ झुसित्ता तीसंभत्ताई अणसणाए छेएइ छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंपाए रायहाणीए कालवडिसए भवणे उववायसभाए देवसणिज्जंसिदेवदूसंतरिए अंगुलस्सअसंखेज्जइ भागमत्ताए ओगाहणाए कालीदेवित्तए उववण्णा, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतपषिणी टीका श्रु०२ व०१ अ०र कालादयावणनम् ७९५ तएणसा कालीदेवीआहुणोववण्णा समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामण पज्जत्तीए। तएणं सा कालीदेवी चउण्हंसामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च बहूर्ण कालवडेंसगभवणवासणिं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव विहरइ, एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्डी३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा! अडाइज्जाइं पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, काली णं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतरं उव्वहित्ता कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिबेमि । धम्मकहाणं पढमज्झयणं समत्तं ॥ सू० ४ ॥ टीका-'तएणं सा' इत्यादि-ततः खलु सा काली आर्या अन्यदा कदा. चित् — सरीरवाउसिया ' शरीरा बाकुशिका-शरीरसंस्करणशीला जाता चाप्यासीत् । अथ सा किं करोती? त्याह-अभीक्ष्णं २ वारंवारं हस्तौ धावति, पादौ धावति, ___ 'तएणं सा काली अज्जा अन्नया कयाई,' इत्यादि। टीकार्थः-(तएणं) इसके बाद (सा काली अज्जा ) वह काली आर्या (अन्नया कयाइं) किसी एक समय (सरीरवाउसिया) शरीर को संस्कारित करने के स्वभाववाली बन गई इसलिये वह (अभिक्खणं २ 'तएणं सा काली अञ्जा अन्नया कयाइ'' इत्यादि Easil(तएणं ) त्या२५७। ( सा काली अजा) ते ४ा माया ( अन्नया कयाइ) 13 मे मते ( सरीरयाउसिया) शरीरने सारित કરવાના સ્વભાવવાળી બની ગઈ, એટલા માટે તે– (अभिक्खणेर हत्थे धोवइ, पाए धोवेइ सोस धोबइ, मुहं धोवई, थर्णतराई धोबइ, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे " ' " शीर्ष धावति, मुखं धावति स्तनान्तराणि धावति कक्षान्तराणि धावति, गुद्धान्तराणि धावति यत्र यत्रापि च खलु ' ठाणं वा स्थानम् = उपवेशनस्थलम् 'सेज्जं वा शय्यां शयनभूमिम्, 'णिसीहियं वा 'नैषेधिकीं = स्वाध्यायभूमिम् ' चेएइ ' चेतयते = करोति तं ' तत् =स्थानादिकं ' पुब्वामेव ' पूर्वमेव-उपवेशनादि क्रियायाः पूर्व ' आसयइ वा ' आस्ते = उपविशति, ' सयइ वा ' शेते= शयनं करोति, ' णिसीहइ वा ' निषेधयति = स्वाध्यायं करोति वा । ततः खलु सा पुष्पचूलाssa कालीमार्यामेवमवादीत्-नो खलु कल्पते हे देवाणुमिये ! श्रमणीनां ܕ - हत्थे धोवइ पाए धोवइ, सीसं धोवइ मुहं धोवई थणतराई धोवइ, कक्खतराणि धोवइ, गुज्झतराई धोवइ, जत्थर वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइए-तं पुण्वामेव अन्भुकखेत्ता तओपच्छा आसयह, वा सयइ वा णिसीहइवा) बार २ हाथों को धोने लग गई, पैरों को धोने लग गई, शिर को धोने लग गई, मुँह को धोने लग गई, स्तनान्तरों को - स्तनों के मध्यभाग को धोने लग गई, कक्षान्तरों को कांखो के मध्यभाग को धोने लग गई, गुह्यभागों को गुप्तांगों को धोने लग गई। जहाँ २ वह बैठने का स्थान, शयन, स्थान, स्वाध्याय करने का स्थान नियत करती उसे पहिले से ही वह पानी से सिंचित कर देती - बाद वह यहां बैठती शयन करती, स्वाध्याय करती, (तणं सा पुष्पचूला अज्जा कालि अज्जं एवं व्यासी) उस काली आर्या की इस स्थिति को देखकर पुष्पचूला आर्या ने उसे इस प्रकार कहा - ( नो खलु कप्पड़, - कक्खंतराणी धोवइ, गुज्झतराई धोबइ, जत्थर वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेएई तं पुव्वामेव अब्भुकखेत्ता तओपच्छा आसयइ, वा सयइ वा णिसीहइ वा ) વારવાર હાથાને ધાવા લાગી, પગાને ધાવા લાગી, માથાને ધાવા લાગી, મુખને ધાવા લાગી, સ્તનાન્તરને-સ્તનના વચ્ચેના સ્થાનને ધાવા લાગી, કક્ષાં તાને-મગલાના મધ્ય ભાગને ધાવા લાગી, ગુહ્ય ભાગાને-ગુહ્યાંગાને ધાવા લાગી. જ્યાં જ્યાં તેને બેસવાનું સ્થાન, શયનસ્થાન, સ્વાધ્યાય કરવાનું સ્થાન નક્કી કરતી તે તેને પહેલેથી જ તે પાણીથી સિંચિત કરી દેતી, ત્યારપછી તે त्यां मेसती, शयन उरती, स्वाध्याय पुरती. ( तरणं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं अर्ज एवं वयासी ) ते असी मार्यांनी भावी स्थिति लेने पुष्ययूसी आर्यामे તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે— શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी0 श्रु. २ व. अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७९७ निग्रन्थीनां शरीरवाकुशिका जाताऽसि, यतस्त्वम्-अभीक्ष्णं २ हस्तौ धावसि यावत् — आसयाहि वा' आस्से-उपविशसि, 'सयाहि वा ' शेषे-शायनं करोषि 'णीसीहियाहि वा' निषेधयसि-स्वाध्यायं करोषि, ' तं ' तत्-तस्मात् कारणात् त्वं हे देवानुप्रिये ! एतत् स्थानम्-' आलोएहि ' आलोचय यावत् मायश्चित्तं प्रतिपद्यस्व । मूले-सम्बन्धसामान्ये षष्ठी । ततः खलु सा काली आर्या देवाणुप्पिया ! समणी णं णिग्गंधीणं सरीरवाउसियाणं होत्तए-तुमं च णं देवाणुप्पिया! सरीरबाउसिया जाया-अभिक्खणं २ हत्थे धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा तं तुमं देवाणुप्पियाए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि) हे देवानुप्रिये ! निर्ग्रन्थ श्रमणियों को शरीरवकुश होना कल्पित नहीं हैं। परन्तु तुम तो हे देवानुप्रिये ! शरीरवकुश बन रही हो। बार २ हाथों को धोती हो यावत् जहां तुम्हें उठना बैठना होता है, शयन करना होता है, स्वाध्याय करना होता है उस स्थान को पहिले से ही सिंचित कर लेती हो तब जाकर वहाँ उठती बैठती हो, शयन करती हो, स्वाध्याय करती हो। इसलिये हे देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त ग्रहण करो। (तएणं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमद्वं नो आढाइ, जाव तुसिणीया संचिट्टइ, तएणं ताओ पुप्फचूलाओ (नो खलु कप्पड़, देवाणुप्पिया ! समणीणं णिग्गंथीणं सरीरवाउसियाणं होत्तए-तुमं च ण देवाणुप्पिया ! सरीर वाउसिया जाया अभिक्खणं २ हत्थे धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा, णिसीहियाहि वा तौं तुमं देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोए हि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि ) હે દેવાનુપ્રિયે ! નિર્વથ શ્રમણીઓને શરીરવકુશ થવું કલ્પિત નથી, પરંતુ તમે તે હે દેવાનુપ્રિયે ! શરીરવકુશ થઈ રહી છે. વારંવાર હાથને ધૂઓ છો યાવત્ જ્યાં તમારે ઉઠવા બેસવાનું હોય છે, સૂવાનું હોય છે, સ્વાધ્યાય કરે હોય છે તે સ્થાનને પહેલાં તમે પાણીથી સિંચિત કરી લે છે, અને ત્યારપછી તમે ત્યાં ઉઠે-બેસે છે, સૂવે છે અને સ્વાધ્યાય કરે છે. એથી હે દેવાનુપ્રિયે!તમે આ સ્થાનની આચના કરો યાવત્ પ્રાયશ્ચિત્ત ગ્રહણ કરે. (तएणं सा काली अज्जा पुप्फचलाए अज्जाए एयम8 नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिटुइ, तएणं ताओ पुष्फचूलाओ अज्जाओ कालिं अजं अभि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताधर्मकथासूत्र पुष्पचूलाया आर्याया एतमर्थ 'नो आढाइ' नो आद्रियतेन मन्यते यावत् 'तुसिणीया' तूष्णीका-समौनी संतिष्ठते । ततः खलु ताः पुष्पचूला आर्याः कालीमार्याम् 'अभिक्रवण २' अभीक्ष्णं २ वारं पारं 'हीलेंति' हिलन्ति-जन्मकमों द्घाटनपूर्वकं निर्भसयन्ति गिदंति'निन्दन्ति-कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्धाटनेन अना. द्रियन्ते, 'खिसंति' खिंसन्ति-हस्तमुखादिविकारपूर्वकमवमन्यन्ते, अपमानं कुर्वन्तीत्यर्थः ‘गरिहंति' गर्हन्ते=गुर्वादिसमक्षं दोषाविष्करणपूर्वकं तिरस्कुर्वन्ति, 'अवमण्णंति' अवमन्यन्ते रूक्षवचनादिभिरपमानं कुवन्ति, तथा-अभीक्ष्णमभीक्ष्णम् वारंवारं एतमर्थ शरीरसंस्करणरूपं निवारयन्ति। ततः खलु तस्याः काल्या आर्यायाः श्रमअज्जाओ कालिं अज्जं अभिक्खणं २ हीलेंति, जिंदति, विसंति, गरिहंति अवमण्णंति, अभिक्खणं २ एयमé निवारेंति, तएणं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं णिग्गंथीहिं अभिक्खणं २ हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूबे अज्झथिए जाय समुप्पन्जित्था ) उस काली आर्याने पुष्फचूला आर्या के इस कथन रूप अर्थको नहीं माना। केवल वह यावत् चुपचाप ही रही। उत्तरमें जब उसने उनसे कुछ नहीं कहा-तब उस पुष्पचूला आर्या 'हीलंति' काली आर्याकी बार२ जन्मकर्म उद्घाटन पूर्वक भर्त्सना (तिरस्कार) करना प्रारभ करदिया। 'निंदंति' कुत्सित शब्दोच्चारण पूर्वक दोषोद्घाटन करते हुए वे उसकी बार २ निंदा करने लगीं। 'खिसंति' हस्त, मुख, आदि के विकार प्रदर्शन पूर्वक वे उसका अपमान करने लग गई। 'गरिहंति ' गुरु आदिजनों के समक्ष दोषों को प्रकट करके वे उसका तिरस्कार करने लगीं। तथा "अवमण्णंति" रूक्षवचन आदि बोल २ कर उसका अपमान भी करने लग गई। क्षणं २ हीति णिति, खिसंति, गरिहति अपमण्णंति, अभिक्खणं २ एयमद निवारे ति, तएण तीसे कालीए अज्जाए समणीहि णिगथीहि अभिक्खण २ हीलिज्जमाणीए जाय पारिज्जमाणीए इमेयारूबे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था ) તે કાલી આર્યાએ પુ૫ચૂલા આર્યાના આ કથન રૂપ અને સ્વીકાર કર્યો નહિ ફક્ત તે મૂંગી થઈને જ બેસી રહી. જવાબમાં જ્યારે તેણે તેમને કંઈ જ કહ્યું નહિ ત્યારે પુષ્પચૂલા આર્યાએ કાલી આર્યાની વારંવાર જન્મ, કર્મ, ઉદૃઘાટનપૂર્વક ભત્સના કરવા માંડી. કુત્સિત શબ્દચ્ચારણથી દુઘાટન કરતો તે તેની વારંવાર નિંદા કરવા લાગી. હાથ, મુખ વગેરેને વિકૃત કરીને તે તેમનું અપમાન કરવા લાગી. ગુરૂ વગેરેની સામે દેને પ્રકટ કરીને તે તેમને તિરસ્કાર કરવા લાગી. તેમજ રૂક્ષ વચને વગેરે બેસીને તેનું અપમાન પણ કરવા લાગી અને સાથે સાથે તે આર્યા તેને વારંવાર શરીર-સંસ્કાર કરવાની મનાઈ પણ કરતી રહી. આ પ્રમાણે નિગ્રંથ શ્રમણીઓ વડે વારંવાર श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ व. १ अ० १ काली देवीवर्णनम् ७९९ " अनगारधर्मामृत पक्षिणी टी० णीभिः निर्ग्रन्थीभिः अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हिस्यमानायाः यावत् - वार्यमाणाया अयमेतद्रूपः ' अज्झत्थिए ' आध्यात्मिकः = आत्मगतविचारः यावत् - मनोगतः सङ्कल्पः समुदपद्यत यदा खलु अहम् अगारवासमध्ये ' वसित्था' उषिता = न्यवसं तदा खलु अहं' सयंवसा ' स्वयंवशा= स्वतन्त्रा आसम् यत्प्रभृति च खलु अहं मुण्डाभूत्या अगारात् अनगारितां प्रत्रजिताऽभवं तत्प्रभृति च स्वल अहं परवशा जाताऽस्मि 6 तं' तत् = तस्मात् श्रेयः खलु मम कल्ये मादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् सूर्ये ज्वलति = सूर्योदये सति' पाडिकं ' प्रत्येकम् = एकमात्रं भित्रमित्यर्थः, उपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहर्तुम्, ' तिकट्टु ' इति कृत्वा = इति मनसि निधाय एवं सम्प्रेक्षते, साथ २ में वे आर्या उसे बार २ शरीर संस्कार करने से मना भी करती रही। इस प्रकार उस काली आर्या के निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा वार २ भसित आदि होने पर तथा शरीर संस्कार करने से निषिद्ध होने पर, उसे यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ । (जया णं अहं अगारवा समज्झे वसित्था तया णं अहं सयवसा, अप्पिभि च णं अहं मुंडा भक्त्तिा अगाराओ, अणगारियं पव्वइया तप्पभिरं च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाडिक्काउवस्सयं उवसंपजित्ता णं विहरितए त्तिकट्ठ एवं संपइ संपेहित्ता कल्लं जाव जलते पाडिएक्कं उवस्सपं गिव्हइ ) जब मैं अपने घर के बीच में रहती थी - उस समय मैं स्वतंत्र थी। परन्तु जिस दिन से मुंडित होकर अगार अवस्था से इस अनगार अवस्था में आई हूँ उस दिन से मैं परवश- पराधीन बन चुकी हूँ। अतः मुझे वही श्रेयस्कर है कि मैं दूसरे दिन प्रातः काल होते ही जब सूर्यो લસિંત વગેરે થવાથી તેમજ શરીર સંસ્કારની મનાઇ હાવા બદલ તે કાલી આર્યોને આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવતુ મનેાગત સંકલ્પ ઉદ્દભવ્યે કે— ( जयाणं अहं अगारवास मज्झे वसित्या तयाणं अहं सयवसा जप्यभि चणं अह मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइया तपभिङ् चणं अह परवसा जाया त सेयं खलु मम कलं पउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाडिका उवस्मयं उनसंपज्जित्ताणं विहरितर तिकट्टु एवं संपेहेद, संपेहित्ता कल्लं जाव जलते पाटिएक उबरसयं गिन्हइ ) જ્યારે હું ઘરમાં રહેતી હતી ત્યારે હું સ્વતંત્ર હતી. પરંતુ જ્યારથી મેં મુંડિત થઇને અગાર અવસ્થાને ત્યજીને અનગાર.અવસ્થા સ્વીકારી છે ત્યારથી હું પરવશ –પરાધીન થઇ ગઇ છું. એથી મારા માટે હવે પે જ શ્રેયસ્કર જણાય છે કે હું ખીજે દિવસે સવાર થતાં જ જ્યારે સૂર્ય ઉદય પામશે ત્યારે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथानमत्रे सम्प्रेक्ष्य कल्ये यावत् सूर्ये ज्वलति 'पाडिएकं ' प्रत्येकम्-उपाश्रयं गृह्णाति । तत्र खलु सा ' अणिवारिया' अनिवारिता-निवारकाभावात् , ' अणोहट्टिया' अनवघट्टिका यहच्छा प्रवृत्तिप्रतिरोधकाभावात् , अतएव 'सच्छंदमई ' स्वच्छन्दमतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धावति यावत्-आस्ते वा शेते वा निषेधयति वा। ततः खलु सा काली आर्या पासस्था' पावस्था-गाढकारणंविना नित्यपिण्डभोक्त्री, अतएव पार्श्व स्थविहारिणि, ' ओसण्णा' अवसन्ना समाचारीपालनेऽवसी. दय हो जावेगा-दूसरे उपाश्रय में चली जाऊँ। इस प्रकार का उसने अपने मन में विचार किया। विचार करके फिर वह दूसरे दिन प्रातः काल होते ही सूर्योदय होने पर दूसरे उपाश्रय में चली गई। (तत्थणं सा अणिवारिया अणोहटिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवेइ, जाव आसयइ वा सयइ वाणीसेहेइ वा-तएणं सा काली अज्जा पासस्था पासस्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाछंदा अहाछंदविहारी, संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सा माण्णपरियागं पाउणइ ) वहाँ वह विना रोक टोक, यदृच्छा प्रवृत्ति करने लग गई। इच्छानुसार बार २ हाथ पैर आदि धोने लग गई। उठने बैठने एवं सोने के स्थान को तथा स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानी से सिञ्चित कर वहां उठने बैठने एवं स्वाध्याय करने लगी। इस तरह की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से वह काली आर्या पासस्था-गाढकारण के विना नित्य पिण्ड भोक्त्री-बन गई, पार्श्वस्थ विहारिणी हो गई। समाचारी બીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહું. આ પ્રમાણે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો. વિચાર કરીને તે બીજે દિવસે સવાર થતાં જ સૂર્યોદય થયા બાદ બીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહી. (तत्थणं सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवेइ, जाव आसयइ वा सयइ वा णीसेहेइ वा तएणं सा काली अज्जा पासत्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहा दा अहाछंद. विहारी संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ) ત્યાં તે રેક-ટેક વિના સ્વચ્છેદ થઈને પ્રવૃત્તિ કરવા લાગી. ઇચ્છ મુજબ વારંવાર હાથ-પગ ધોવા લાગી, ઉઠવા-બેસવા અને સૂવાના સ્થાનને તેમજ સ્વાધ્યાય ભૂમિને પહેલેથી જ પાણી વડે સિંચિત કરીને ત્યાં ઉઠવા બેસવા તેમજ સ્વાધ્યાય કરવા લાગી. આ જાતની સ્વચ્છન્દ પ્રવૃત્તિથી તે કાલી આર્યા પાસાગાઢ કારણ વગર નિત્ય પિંડ ભકત્રી-બની ગઈ પાશ્વરથ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० . २ व. १ अ० १ कालीदेव घर्णनम् ८०१ दन्ती, अतएव अवसन्नविहारिणी, ' कुसीला ' कुशीला - उत्तरगुण सेवया संज्वलनकषायोदये प्रवृत्ता, अतएव कुशीलविहारिणी, ' अहाच्छंदा ' यथाच्छन्दा=स्वाभिप्राय पूर्वकस्वमति कल्पितमार्गे प्रवृत्ता, अतएव यथा छन्दविहारिणी, 'संसत्ता' संसक्ता गृहस्थादिप्रेमबन्धनेन शिथिलसामाचारीपत्ता सती बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्द्धमासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं 'झूसेइ ' जोषयति = सेवते, असित्ता=जोषयित्वा त्रिंशद भक्तानि 'अणसणाए 'अनशनया 'छेएड' छिनत्ति, छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताs प्रतिक्रान्ता कालमा से कालं कृत्वा चमरचञ्चायां राजधान्यां कालावतंसके भवने उपपातसभायां देवशयनीये देवदृष्यान्तरिते = देवदूष्यवस्त्राच्छादिते अङ्गुलस्याऽसंख्येयभागमात्रायामवगाहनायां कालीदेवीतया उपपन्ना । ततः खलु सा कालीदेवी अधुनो पालन करने में शिथिलता दिखलाने लगी- अवसन्न विहारिणी हो गई । कुशीला बन गई -संज्वलन कषाय के उदय होने से उत्तरगुणों की विराधना करने लगी- कुशील विहारिणी हो गई और अपनी इच्छानु सार मार्ग की कल्पना कर उसमें प्रवृत्त रहने लग गई इसलिये वह यथाच्छन्द विहारिणी भी बन गई। गृहस्थ आदि जनों के अधिक परि चयजन्य प्रेमबंधन से अपने आचार पालन में शिथिल बनी हुई उस इस तरह होकर अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और ( पाउणित्ता) पालनकर (अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताण झूसेइ, झूसित्ता तीस भत्ताइं अणसणाए छेएइ, छेइत्ता, तस्स ठाणस्स अणाaise अपक्त्तिा कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालवर्डिएस भवणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुल વિહારિણી થઈ ગઈ. સમાચારી પાલન કરવામાં શિથિલતાવાળી ખતાવવા લાગીઅવસન્ત વિહારિણી થઈ ગઈ. કુશીલા થઈ ગઇ, સ`જવલન કષાયના ઉદય હાવાથી ઉત્તર ગુણાની વિરાધના કરવા લાગી, કુશિલ વિહારિણી થઈ ગઈ અને પોતાની ઇચ્છા મુજમ માર્ગની કલ્પના કરીને તેમાં પ્રવૃત્ત થવા લાગી. એથી તે યથાચ્છન્દ વિહારિણી પણ ખની ગઇ. ગૃહસ્થ વગેરે લેાકેાના વધાર પડતા પરિચયજન્ય પ્રેમમધનથી પેાતાના આચાર પાલનમાં શિથિલ થઈ ગઈ. તેણે આ પ્રમાણે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય-પર્યાયનું પાલન કર્યુ અને ( पउणित ) पालन उरीने ( अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसिया तीस भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेइत्ता, तरस ठाणास अणालोइय अपडिव कंत्ता कालमासे कालं किच्चा चमर શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ ज्ञाताधर्मकधाङ्गसूत्रे 6 पपन्ना - तत्काल समुत्पन्नासती पञ्चविधयापर्याप्त्या यथामूर्याभः = सूर्याभदेववत्, जाव भासामणपज्जत्तीए ' भाषामन. पर्याप्तया - यावत् - आहारपर्याप्त्या १, शरीरपर्याप्त्या २, इन्द्रियपर्याप्त्या ३. आनमाणपर्याप्त्या ४ भाषामनः पर्याप्त्या ५, पर्याप्तिभावं गच्छति । पर्याप्तिबन्धकाले देवानामाहारशरीरादिपर्याप्तिसमाप्तिकालान्तरापेक्षया भाषामनः पर्याप्त्योः स्तोककालान्तरतया तयोरेकत्वेन विवक्षणात् पर्याप्तीनां पञ्चविधत्वम् । ततः खलु सा काली देवी चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां यावत् अन्येषां च बहूनां कालावतंसक भवनवासिनामसुर कुमारणां " रूस असंखेज्जइ भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवीत्तए उबवण्णा) अर्द्धमास की संलेखना से उसने अपनी आत्मा को युक्त किया । इस प्रकार उसने अनशनों द्वारा ३० भक्तोंका छेदन करने पर भी उस स्थानकी आलोचना नहीं की और न वह उन अतिचारों से पीछे ही हटी -अतः अनालोचित अप्रतिक्रान्त बनकर वह जब उस काल अवसर-काल कर चमरचंपा नाम की राजधानी में, कालावतंसक भवनमें, उपातात सभामें देवदूष्यवस्त्र से आच्छादित देवशयनीय' शय्या' ऊपर अंगुल के असंख्यातवे मात्र की अवगाहना से काली देवी के रूप में उत्पन्न हो गई (तपणं सा कालीदेवी अणोववण्णा समाणी पंचविहाए पत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जन्तीए ! तरणं सा कालीदेवी चउण्हं समाणि य साहस्सी णं अण्णेसिं च बहूणं कालवडेंसकभवणवासीणं असुरकुमाराणं चंचाए रायहाणीए कालवडिसए भवणे उबवायसभाए देवसय णिज्जंसी देवदुसंतरिए अंगुलम्स अस खेज्जइ, भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवीत्तर उववण्णा ) તેણે અદ્ધ માસની સલેખનાથી પેાતાના આત્માને યુકત કર્યાં. આ પ્રમાણે તેણે અનશન વડે ૩૦ ભક્તોનું છેદન કરીને પણ તે સ્થાનની આલેચના કરી નહિ અને તે અતિચારાના આચરણથી પણ અટકી નહિ. એથી અનાલેાચિત અપ્રતિક્રાંત થઈને તે જ્યારે કાળ અવસરે કાળ કરીને અમરચા નામન રાજધાનીમાં કાલાવત ́સક ભવનમાં, ઉપપાત સભામાં દેવદૃષ્ય વસ્ત્રથી આચ્છાદિ દેવશનીય ઉપર આંગળીઓના અસખ્યાતમા માત્રની અવગાહનાથી કાલી દેવીન રૂપમાં ઉત્પન્ન થઈ ગઈ. ( तणं सा काली देवी अहुणोववण्णा समाणी पंचविहार पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जान भासमणपज्जत्तीए० । तपणं सा काली देवी चउण्ही सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च बहूणं कालवडें सकभवणवासी णं असुरकुमाराणं देवाय देवीय आहेवचं जाव विहरइ ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी0 श्रु. २ व. १ अ० १ कालीदेवावर्णनम् ८०३ देवानां च देवीनां च ' आहेबच्च' आधिपत्यं स्वामित्वं कुर्वन्तीपालयन्ती यावद् विहरति । एवम् उक्तप्रकारेण खलु हे गौतम ! काल्या देव्या सा दिव्या देवर्द्धिः ३, लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता । गौतमः पृच्छति-काल्या खलु हे भदन्त ! देव्यास्तत्र ' केवइयं ' कियन्तं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरइ) इस प्रकार वह काली देवी अभी अभी उत्पन्न होकर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त बनी है। पर्याप्तियां ६ होती हैं परन्तु यहां पर जो वे पांच की संख्या में निर्दिष्ट हुई हैं-उसका कारण यह है कि पर्याप्ति के बंधकाल में देवों के आहार, शरीर आदि पर्यासियों के समाप्तिकाल की अपेक्षा भाषा और मनः पर्याय का साथ साथ बंध होता है, इसलिये इन दोनों को एक रूप से यहां विवक्षित किया गया है ! वे पर्याप्तियां इस प्रकार है- (१) आहारपर्याप्ति (२) शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रियपर्याप्ति (४) श्वासोच्छ्रवासपर्याप्ति (५) भाषा एवं मनः पर्याप्ति। वह काली देवी चार हजार सामानिक देवोंका यावत् और दूसरे अनेक कालावतंसक भवनवासी असुरकुमार देवों का देवियों का आधिपत्य कर रही है । ( एवं खलु गोयमा! कालीए देवीए सा दिव्या देवडी ३ लद्धापत्ता अभिसमण्णा गया, આ પ્રમાણે તે કાલી દેવી હમણાં જ ઉત્પન્ન થઈને પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિઓથી પર્યાપ્ત બની છે. પર્યાસિઓ છ હોય છે. પણ અહીં જે પાંચની સંખ્યામાં જ બતાવવામાં આવી છે. તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે પર્યાતિના બંધકાલમાં દેવના આહાર, શરીર વગેરે પર્યાપ્તિઓના સમાપ્તિકાળની અપેક્ષા ભાષા અને મનઃ પર્યાપ્તિનું એકી સાથે બંધ હોય છે એથી આ બંનેને અહીં એક રૂપમાં જ બતાવવામાં આવી છે. તે પર્યાપ્તિએ આ પ્રમાણે છે(१) मा।२ पाप्ति, (२) २२२ ५ति, (3) धन्द्रिय पति, (४) श्वास ૨છવાસ પર્યાપ્તિ, (૫) ભાષા અને મનઃ પર્યાતિ. તે કાલી દેવી ચાર હજાર સામાનિક દેવે ઉપર થાવત્ બીજા પણ ધણ કાલાવત સક ભવનવાસી અસુર કુમાર દે, દેવીઓ ઉપર શાસન કરી રહી છે. ( एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्ढी ३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा अङ्कदा इज्जाई पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? भगवान्माह- हे गौतम ! ' अड्डाइज्जाई ' अर्द्ध तृतीये = सार्दे द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । गौतमः पृच्छति - काली हे भदन्त ! देवी तस्माद्देवलोकाद् अनन्तरम्=आयुवस्थितिक्षयानन्तरं ' उव्वट्टित्ता उदहृत्य = निस्सृत्य कुत्र गमिष्यति कुत्रउत्पत्स्यते ? ! " भगवानाह - हे गौतम! सा काली देवी देवलोकाच्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे उत्पद्यसेत्स्यति । कालीए णं भंते! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा अढाइजाई पलिओ माई ठिईपण्णत्ता) इस तरह से हे गौतम! काली देवी ने वह दिव्य देवर्द्धि ३, अर्जित की है स्वाधीन की है और उसे अपने उपभोग के योग्य बनाया है। अब गौतम पुनः प्रभु से पूछते हैं कि हे भदंत ! कालीदेवी की कितनी स्थिति है ? उत्तर में प्रभु ने उनसे कहा- हे गौतम ! कालीदेवी की स्थिति अढाई पल्य की (प्रज्ञप्त हुई ) है ( काली णं भंते! देवी ताओ देवलोगाओ अनंतरं उबट्ठित्ता कहिं गच्छहिइ, कहि उववज्जिहिह ? गोयमा ! महाविदेहेवासे सिज्झिहिह एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिबेमि, धम्मकहाणं पढमज्झयणं समन्तं ) हे भदंत ! कालीदेवी उस देवलोक से आयु एवं भवस्थिति के क्षय के अनन्तर निकलकर कहां जावेगी, कहां उत्पन्न होगी ? इस गौतम के प्रश्न का उत्तर प्रभु ने उन्हें इस प्रकार दिया - गौतम ! वह काली देवी देवलोक से चव कर महा આ પ્રમાણે હે ગૌતમ ! કાલી દેવીએ તે દિવ્ય દેવર્ષિં ૩ પ્રાપ્ત કરી છે. સ્વાધીન મનાવી છે અને તેને પેાતાને માટે ઉપલેગ ચાગ્ય બનાવી છે. હવે ગૌતમ ફરી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદ્દન્ત ! કાલી દેવીની સ્થિતિ કેટલી જવાખમાં પ્રભુએ તેમને કહ્યું કે હું ગૌતમ ! કાલી દેવીની સ્થિતિ અહી પલ્યની ( अज्ञप्त थर्ड) छे. ( कालीणं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अनंतर उव्वट्ठित्ता कहि गच्छिहिइ, कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्ज्ञिहिइ, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव सपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ति वेमि, धम्मकहाणं पढमज्झयणं समत्तं ) હે ભદન્ત ! કાલી દેવી તે દેવલેાકથી આયુ અને ભવસ્થિતિને પૂરી કરીને કયાં જશે ? કયાં ઉત્પન્ન થશે ? આ પ્રમાણે ગૌતમના પ્રશ્નને સાંભળીને પ્રભુએ ઉત્તરમાં તેને કહ્યું કે હે ગૌતમ ! તે કાલી દેવી દેવલાકથી ચવીને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका श्रु. २ व. १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ८०५ श्रीसुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बू ! श्रमणेन यावत्-मोक्षं सम्मान प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्य अयमर्थः = पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः । तिवेमि ' इति ब्रवीमि व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०४ ॥ S ॥ धर्मकथानां प्रथमवर्गस्य प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ॥ विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी और वहीं से सिद्ध होगी। अब सुधर्मा स्वामी श्री जंबू ! स्वामी से कहते हैं कि हे जंबू ! मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रज्ञप्त किया है । ऐसा मैंने उन्हीं के मुख से सुनकर यह तुमसे कहा है | सूत्र ४ ॥ -: प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्तः મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ્ધ થશે. હવે સુધર્મા સ્વામી શ્રી જંબૂ ! સ્વામીને કહે છે કે હે જબૂ! મુક્તિપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનના આ પૂર્વક્તિ રૂપે અથ પ્રજ્ઞસ કર્યો છે. આવુ' હું તેમના શ્રી મુખથી સાંભળીને તમને કહી ગયા છું. ॥ સૂત્ર ૪ ૫ " प्रथम वर्णनुं प्रथम अध्ययन समाप्त " શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयमध्ययनं मारभ्यतेमूलम्-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते बिइयस्स गं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अहे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ,तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवीचमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेव आगया णट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया भंतेत्ति भगवं गोयमा! पुव्वभवपुच्छा, एवं खल्लु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा णयरी अंबसालवणे चेहए जियसत्तू राया राई गाहावई राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समोसरणं राई दारिया जहेव काली तहेव निक्खंता तहेव सरीरबाउसिया तं चेव सव्वं जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! बिइयज्झयणस्स निक्खेवओ ॥ ॥ पढमवग्गस्स बीयज्झयणं समत्तं ॥ सू० ५॥ टीका-'जइणं भंते ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु हे भदन्त । -द्वितीय अध्ययन प्रारंभः-जइणं भंते ! समणेणं इत्यादि। टीकार्थः-जंबू स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भंते) हे भदंत ! (जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं मान्नु मध्ययन प्रा२:जइणं भंते ! समणेणं इत्यादिail-यू स्वामी श्री सुधर्मा स्वाभान पूछे छे है (भते) 3 महन्त ! (जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी0 श्रु. २३.१ अ० २ रात्रीदेवीवर्णनम् ८०७ श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाममधेयं स्थानं सम्प्राप्तन धर्मकथानां प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन कोऽर्थ:को भावः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीपाह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राज. गृहं नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् । स्वामी भगवान महावीरः समवसतः । परिष. पटमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते विइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पपणत्ते ? एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुण सिलए चेइए सामी समोसढे) यदि श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति स्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथाके प्रथम वर्ग के प्रथम अध्य. यन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है-तो हे भदंत ! द्वितीय अध्ययन का उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार जंबू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंबू! सुनो -तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान था। उसमें महावीर स्वामी समवसरे।-(परिसा निग्गया-जाव पज्जुवासइ, वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते विइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ? तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिद्दे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे) જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધું છે. ધર્મકથાના પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદન્ત ! તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિ સ્થાન મેળવી લીધું છે. બીજા અધ્યયનને શો ભાવ-અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જબ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તેમાં ગુણશિલક નામે ઉઘાન હતું તેમાં મહાવીર સ્વામી પધાર્યા. ( परिसा निग्गया-जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाताधर्मकथाजमने निर्गता यावत् भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' राई ' रात्रिःरात्रिनाम्नी देवी चमरचञ्चायां राजधान्याम् , एवं यथा काली तथैव-आगता, नाटयविधिमुपदर्य प्रतिगता । ' भंते त्ति' हे भदन्त ! इति सम्बोध्य भगवान् गौतमः 'पुचभवपुच्छा ' पूर्वभवपृच्छा रात्रि देव्याः पूर्वभवं पृच्छति । भगवान् पाह-एवं खलु हे गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये आमलकल्पा नगरी, आम्रशालपनं चैत्यम् , जितशत्रू राजा, रात्रिर्गाथापतिः, रात्रिश्री र्या, तयोः तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली-तहेव आ गया नदृविहिं उपदंसेत्ता पडिगया) प्रभु का आगमन सुनकर नगर निवासिनी समस्त जनता उन प्रभु के दर्शन करने और उनसे धर्मोपदेश सुनने के लिये उस गुणशिलक उद्यान में आई। प्रभु ने सब को धर्म का उपदेश दिया। सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में रात्रिनाम की देवी चमरचंचाराजधानी में रहती थी-जैसे वहां काली देवी रहती थी। सो वह भी प्रभु का आगमन सुनकर वहां आई। वहां आकर उसने नाटय विधि दिखलाई-और दिखलाकर फिर वह वहां से वापिस अपने स्थान पर चली गई । ( भंते त्ति भगवं गोयमा! पुव्वभवपुच्छा-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा गयरी अंबसालवणे चेइए-जियसत्तू राया-राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली-तहेव आगया नट्टविहिं उवंदसेत्ता पडिगया) પ્રભુનું આગમન સાંભળીને નગરના બધા નાગરિકને તે પ્રભુનાં દર્શન કરવા માટે તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે તે ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. પ્રભુએ બધાને ધર્મને ઉપદેશ આપે. બધાએ પ્રભુની પપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે રાત્રિ નામે દેવી ચમચંચા રાજ. ધાનીમાં કાલી દેવીની જેમ રહેતી હતી. તે પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તેણે નાટયવિધિ બતાવી અને બતાવીને તે ત્યાંથી પાછી જતી રહી. (भंते ति भगवं गोयमा ! पुव्वभवपुच्छा-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा णयरी अंबसालवणे चेइए-जियसत्तः राया-राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई दारिया, पासस्स समोसरणं-राई दारिया श्री शताधर्म अथांग सूत्र:०३ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु०२ ० १ अ० २ रात्रीदेवीवर्णनम् ८०९ रात्रिदरिकाssसीत् । पार्श्वस्य = पार्श्वप्रभोः समवसरणम् । रात्रिर्दारिका यथैव काली तथैव निष्कान्ता=तथैव शरीरवाकुशिका, तदेव सर्वं यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । दारिया पासस्स समोसरणं राई दारिया जहेब काली- तब निक्खता, तहेवसरीर बाउसिया तं चैव सव्वं जाव अंतं काहिइ एवं खलु जंबू । विश्यज्झयणस्स निक्खेवओ ) उसके चले जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर से गौतम ने रात्रिदेवी का पूर्वभव पूछा- प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा- हे गौतम! उसकाल और उस समय में आमलकल्पा नामकी नगरी थी । उसमें आम्रशालवन नामका उद्यान था । नगरीके राजा का नाम जितशत्रु था। वहां रत्रि नामका एक गाथापति रहता था । उस की भार्या का नाम रात्रिश्री था। इन दोनों के रात्रि नाम की एक पुत्री थी जिस प्रकार काली प्रभु का उपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई थी। उसी प्रकार पार्श्वनाथ के वहां उद्यान में आने पर भी उनसे धर्मोपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई। अतः वह माता पिता से आज्ञा लेकर काली की तरह बड़े टाठ बाद के साथ शिबिका में बैठाकर प्रभु के समीप माता पिता ले गये। वहां वह दीक्षित हो गइ | धीरे २ वह शरीर बाकुशिका बनगई । जिस प्रकार जहेव काली - तहेव निक्खता, तहेव सरीरवाउसिया तं चैव सव्वं जाव अंतं काहि एवं खलु जंबू ! वियज्झयणस्स निक्खे बओ ) તેના ગયા ખાદ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમે રાત્રિ દેવીના પૂર્વભવની વિગત પૂછી. પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હૈ ગૌતમ ! તે કાળે અને તે સમયે આમલકલ્પા નામે નગરી હતી. તેમાં આમ્રશાલવન નામે ઉદ્યાન હતું. નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. ત્યાં રાત્રિ નામે એક ગાથાપતિ રહેતા હતા. તેની પત્નીનું નામ રાત્રિશ્રી હતું. તેએ બંનેને રાત્રિ નામે એક પુત્રી હતી. જેમ કાલી પ્રભુને ઉપદેશ શ્રવણ કરીને પ્રતિબંધને પ્રાપ્ત થઈ તેમજ ત્યાં ઉદ્યાનમાં પધારેલા પાર્શ્વનાથની સાંભળીને તે પણ પ્રતિમાધિત થઈ ગઈ. એથી કાલીની જેમજ તેને પણ પેાતાના માતાપિતાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને ત્યારપછી તેના માતાપિતાએ તેને પાલખીમાં બેસાડીને પ્રભુની પાસે લઈ ગયા, ત્યાં તે દીક્ષિત થઈ ગઈ. ધીમે ધીમે તે પણ શરીર ખાકુશિકા બની ગઇ. જેમ કાલી દ્વારિકા પણ આ થઈને શરીર વાકુશિકા બની ગઈ હતી ત્યારપછી જેવી સ્થિતિ કાલી આર્યોની પાસેથી ધર્મોપદેશ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधर्मकथाऽसूत्रे ‘एवं खलु जम्बूः !' इत्यादि द्वितीयाध्ययनस्य निक्षेपका-उपसंहारःसमाप्तियाक्यप्रबन्धोऽत्र बोध्यः ॥ मू०५॥ इति प्रथमवर्गस्य द्वितीयाध्ययनं समाप्तम् ॥-१-२ ॥ काली दारिका आर्या होकर शरीर वाकुशिका बनगई थी। इसके बाद जैसी स्थिति काली आर्या की हुई-वहो सब स्थिति इस रात्रि दारिका की भी हुई-इस प्रकार सब संबन्ध यहां पर इसके विषय में लगालेना चाहिये और वह संबन्ध "महाविदेह में उत्पन्न होकर यह समस्त दुःखों का अन्त करेगी " यहां तक जानना चाहिये । इस प्रकार हे जंबू ! यह प्रथमवर्ग के द्वितीय अध्ययन का उपसंहार है ॥ सू०५॥ प्रथमवर्ग का द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ થઈ તેવી જ સ્થિતિ તે રાત્રિદારિકાની પણ થઈ. અહીં આ પ્રમાણે કાલિદારિકાને બધે સંબંધ આના વિષે સમજી લેવે જોઈએ અને તે સંબંધ “મહાવિદેહમાં ઉત્પન્ન થઈને તે બધા દુઃખને અંત કરો ” અહીં સુધી સમજ જોઈએ. આ પ્રમાણે છે જબૂ! પ્રથમ વર્ગના બીજા અધ્યયનને આ ઉપસંહાર છે. સૂ. ૫ " प्रथम गनुं भी अध्ययन समास" શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयमध्ययनम् मूलम्-जइ णं भंते ! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खल्लु जंबू ! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि, णवरं आमलकप्पा नयरी रयणी गाहावई रयणीसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहिइ ३ । एवं विज्जू वि आमलकप्पा नयरी विज्जुगाहावई विज्जुसिरीभारिया विज्जुदारिया सेसं तहेव । ४ एवं मेहा वि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई मेहसिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेब ५। एवं खलु जंबू ! समजेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्त अयम? पण्णत्ते ॥ सू० ६ ॥ टीका-'जइणं भंते ' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! इत्यादि तृतीयाध्ययनस्य उत्क्षेपका जम्बूमश्नादिरूपः पारम्भवाक्यप्रबन्धोऽत्रवाच्यः । सुधर्मास्वामी कथ. ॥ तृतीय अध्ययन प्रारंभ ॥ (जइणं भंते ! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ) इत्यादि ॥ टीकार्थ:-(जइणं भंते! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ) अब जंबू स्वामी पुनः पूछते हैं कि हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय अध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया है तो तृतीय अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस तरह से इस तृतीय अध्ययन का जंबू स्वामी का यह प्रश्न आदिरूप वाक्य प्रबन्ध उत्क्षेपक है-प्रारंभक है-इस प्रश्न का उत्तर श्री सुधर्मा स्वामी lag अध्ययन प्रारम:' जइण भाते ! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ' इत्यादि -( जइण भते ! तइयज्ज्ञयणस्स उखेवओ) वे यू स्वामी ફરી પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે બીજા અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે ત્રીજા અધ્યયનને તેમણે શે અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે? આ પ્રમાણે આ ત્રીજા અધ્યયનને જંબૂ સ્વામીને આ પ્રશ્ન વગેરે રૂપ વાકય પ્રબ ધ ઉલ્લેપક છે -પ્રારંભ છે આ પ્રશ્નને ઉત્તર શ્રી સુધમરવાની આ પ્રમાણે આપે છે કે – શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ज्ञाताधर्म कथागसूत्र यति-एवं खलु हे जम्बूः ! राजगृहं नगरं, गुणशिलकं चैत्यम् । एवं यथैव रात्रिस्तथैवरजनी अपि, नवरम् आमलकल्पा नगरी, रजनीगाथापतिः, रजनीश्री र्या, रजनी दाारिका । शेषं तथैव । यावत्-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति ॥ ॥इति प्रथमवर्गस्य तृतीयाध्ययनम् ॥ १-३॥ इस प्रकार से देते हैं-(एवं खलु जंबू ! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि, णवरं आमलकप्पा नयरी, रयणी गाहावई रयणीसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहिइ ३ ) जंबू ! सुनो-उस काल में और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसमें गुणशिलक नामका उद्यान था। जिस प्रकार रात्रि प्रभु का आगमन सुनकर गुणशिलक उद्यान में गई थी उसी तरह रजनी भी वहां गई उसने प्रभु के मुख से धर्म का उपदेश सुना। सुनकर संसार शरीर और भोगों से वह विरक्त हो गई । दीक्षा लेने का अपना भाव उसने प्रभु से निवेदित किया। प्रभुने यथासुखं देवानुप्रिये कहकर उसके भाव की सराहना करतेहुए 'शुभस्य शीघ्र' करने की अपनी अनुमति प्रकट की-तब यह घर आई और मातासे अपना दीक्षा लेने का विचार प्रकट किया-इत्यादि सब संबन्ध काली दारिका के कथानक अनुसार रजनी के साथ लगालेना चाहिये । जब रजनी देवी प्रभु को वंदना करनेके लिये गुगशिलक उद्यान में आई और वहां ( एवं खलु जंबू ! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेहए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि णवरं आमलकप्पा नयरी, रयणी-गाहावई रयणोसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहिइ ३) હે જંબૂ ! સાંભળે, તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉદ્યાન હતું. જેમાં રાત્રિ પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં ગઈ હતી તેમજ રજની પણ ત્યાં ગઈ. તેણે પ્રભુના મુખથી ધમને ઉપદેશ સાંભળે. સાંભળીને તે સંસાર, શરીર અને ભેગેથી વિરક્ત થઈ ગઈ. તેણે પિતાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને ભાવ પ્રભુની સામે પ્રકટ કર્યો. પ્રભુએ “યથાસુખમ્ ” દેવાનુપ્રિયે ! કહીને તેના ભાવની સરાહના કરી અને શુભ કાર્યમાં વિલંબ કરે નહિ એવી પિતાની અનુમતી દર્શાવી. ત્યારે તે પોતાને ઘેર આવી અને માતાપિતાની સામે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને વિચાર પ્રકટ કર્યો-વગેરે બધી વિગત કાલી દારિકાની જેમજ રજનિની સાથે પણ સમજી લેવી જોઈએ. જ્યારે રજનીદેવી પ્રભુને વંદના કરવા માટે ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવી અને ત્યાં તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું. ત્યારબાદ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टोका श्रु. २ व १ रजनीदारिकादिचरित्रनिरूपणम् ८१३ ' एवं विवि ' इत्यादि । एवं विद्युदपि । आमलकल्पा नगरी, विद्युद् गायापतिः, विद्युत् श्रीर्भार्या, विद्युद्दारिका । शेषं तथैव । इति प्रथमवर्गस्य चतुर्थाध्ययनम् ॥ १-४ ॥ उसने नाटयविधिका प्रदर्शन किया बाद में वह जब वहां से प्रभु की पर्युपासना कर वापिस अपने स्थान पर चली गई-तब प्रभु से गौतम गणधर ने उसके पूर्व भव पूछे तब प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-उस काल और उस समय में आमलक कल्पा नामकी नगरी थी-उसमें रजनी नामका गाथापति रहता था। रजनी श्री उसकी भार्या का नाम था।इन दोनों के एक पुत्री जिसका नाम रजनी था। इसके विषय का अवशिष्ट कथानक "समस्त दुःखो का यह अन्त करेगी" यहां तक का काली दारिका के जैसा ही जानना चाहिये ॥ सू०६॥ ॥प्रथम वर्ग का तीसरा अध्ययन समाप्त ॥ एवं विज्जूवि आमलकप्पा नयरी विज्जू गाहावई ॥ विज्जुसिरीभार्या विज्जुदारिया, सेसं तहेव ॥ ४॥ एवं मेहावि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई ॥ मेहासिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ॥५॥ (एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तण धम्मकहाणं पढमस्स वग्गપ્રભુની પર્ય પાસના કરીને પાછી પિતાના સ્થાને જતી રહી ત્યારે ગૌતમ ગણ ધરે પ્રભુને તેના પૂર્વ પૂગ્યા. ત્યારે પ્રભુએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તે કાળ અને તે સમયે આમલકલ્પ નામે નગરી હતી, તેમાં રજની નામે ગાથાપતિ રહેતા હતા, રજની શ્રી તેની પત્નીનું નામ હતું. તેઓ બંનેને એક પુત્રી હતી-જેનું નામ રજની હતું. એના વિષેની બાકીની બધી વિગત “સમસ્ત દુઃખને તે અન્ત કરશે ” અહીં સુધીની કાલી દારિકાની જેમજ સમજી લેવી જોઈએ. એ સૂત્ર ૬ છે "प्रथम पनी अध्ययन समास ॥ ( एवं विज्जूवि आमलकप्पा नयरी विज्जु गाहावई । विज्जुसिरीभार्या विज्जुदारिया, सेसं तहेव ॥ ४ ॥ एवं मेहा वि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई । मेहासिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ॥ ५ ॥ ( एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अय श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे ' एवं मेहावि ' इत्यादि । एवं मेघाऽपि । आमलकल्पायां नगर्यां मेघो गाथापतिः, मेघश्रीर्भार्या, मेघा दारिका । शेषं तथैव । श्रीसुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकथानां प्रथमस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । सू०६ ॥ ॥ इति प्रथमवर्गस्य पञ्चमाध्ययनम् ॥ १-५ ॥ अथ द्वितीय वर्गः प्रारभ्यते ' जइणं भंते ' इत्यादि । मूलम् - जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोचस्स स्स अयमठ्ठे पण्णत्ते ६) इसी तरह का कथानक विद्युत के विषय में भी जानना चाहिये | आमलकल्पा नगरी विद्युत गाथापति विद्युत् श्री भार्या इन दोनों के यहां विद्युत् दारिका । इस तरह नाम आदि में ही परिवतन हुआ है । अभिधेय विषय में कुछ अन्तर नहीं है । मेघ के विषय में भी यही बात जाननी चाहिये । आमलकल्प- नगरी, मेघ गाथापति, मेघ श्री भाय, मेघा दारिका - इस प्रकार इस कथानक में इन नामों में परिवर्तन हुआ है- अभिधेय वक्तव्य-विषय में नहीं । इस प्रकार यहां तक प्रथम वर्ग के ५, अध्ययन समाप्त हो जाते हैं । विद्युद्दारिका का अध्ययन ४ चौथा, एवं मेघा दारिका का अध्ययन ५ पंचम है । इस तरह हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्ति स्थान के अधि पति बन चुके हैं धर्मकथा के प्रथमवर्ग का यह अर्थ प्ररूपित किया है ? આ પ્રમાણેનું જ કથાનક વિદ્યુતના વિષે પણ સમજી લેવું જોઇએ, આમલકલ્પા નગરી, વિદ્યુત ગાથાપતિ અને વિદ્યુત શ્રી ભાર્યાં. આ બંનેને ત્યાં વિદ્યુત દારિકા. આ પ્રમાણે ફક્ત નામ વગેરેમાં પરિવર્તન થયું છે. અભિધેય વિષયમાં કાઈ પણ જતના તફાવત નથી. મેઘતા વિષે પણ એ જ વાત સમજી लेवी लेछो. आामसया नगरी, भेव गाथापति, भेघ श्री लार्या, भेघ हारि. આ પ્રમાણે આ કથાનકમાં પણ નામામાં જ પરિવર્તન થયું છે-અભિધેય વક્તવ્ય વિષયમાં નહિ. આ પ્રમાણે અહીં સુધી પ્રથમ વના પાંચ અધ્યયને પૂરા થઈ જાય છે. વિદ્યુારિકાનું અધ્યયન ચાથું, અને મેઘ દારિકાનું અધ્યયન પાંચમું છે. આ પ્રમાણે હે જમ્મૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેએ મુકિત સ્થાનના અધિપતિ થઇ ચૂકયા છે-ધર્મકથાના પ્રથમ વાઁને આ અ પ્રરૂપિત કર્યાં છે. ૫ ૯ u શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारथर्मामृतवाणी टी० श्रु० २ ० १ शुभानिशुंभादिदेवीवर्णनम् ८१५ वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-सुंभा निसुंभा रंभा निरंभा मयणा, जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दोच्चस्त वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णता, दोच्चस्स गं भंते ! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अहे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहेणयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएण सुंभादेवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुभंसि सीहासणंसि कालीगमएणं जाव णट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगया, पुत्वभवपुच्छा, सावत्थी णयरी कोट्रए चेइए जियसत्तू राया सुंभेगाहावई सुंभसिरी भारिया सुंभा दारिया सेसं जहा कालीए णवरं अधुट्राइं पलिओवमाइं ठिई एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ अज्झयणस्त एवं सेसावि चत्तारि अज्झयणा सावत्थीए नवरं माया पिया सरिसनामया, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ बिईयवग्गस्स२ ॥ सू० ७॥ ॥बीओ वग्गो समत्तो॥ टीका-जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मास्वामीमाह-एवं खलु हे जम्बूः श्रमणेन यावत् -द्वितीयवर्गप्रारंभ:'जइणं भंते ! समणेणं ' इत्यादि। टीकार्य:-जंबू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि ( भंते ! जइणं समणेणं जाव संपत्तणं दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवओ-एवं खलु બીજે વર્ગ પ્રારંભ– ' जइण भते ! समणेण ' इत्यादिટીકાથં–જબૂસવામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે( भंते ! जइणं समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवो-एवं खलु શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ma ज्ञाताधर्मकथाजसूत्रे मोक्ष सम्पाप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पश्चाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शुम्भा १, निशुम्भा २, रम्भा ३, निरम्भा ४, मदना ५, । यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पञ्च-अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, द्वितीयस्य खलु हे भदन्त । वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । सुधर्मास्वामी पाह-एवं जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोचस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता) हे भदंत ! मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय वर्ग का उत्क्षेपक प्रारंभ किस रूप से प्ररूपित किया है-तब सुधर्मा स्वामी ने उनसे कहा-हे जंबू ! सुनो यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए उन श्रमण भगवान महावीर ने इस द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं-(तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(सुंभा, नितुंभा, रंभा, निरंभा मयणा, जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तण धम्मकहाणं दोचस्स वग्गस्स पंच अज्जयणा पण्णत्ता, दोचस्सणं भंते वग्गस्स पढमज्झयणस्सके अहे एण्णत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवा. सइ) (१) शुम्भा, (२) निशुंभा (३) रम्भा, (४) निरंभा (५) मदना, । अब जंबू स्वामी पुन: सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि हे भदंत ! यदि यावत् मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीरने द्वितीयवर्ग जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस पंचभज्झयणा पण्णत्ता) હે ભદન્ત ! મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે બીજા વર્ગને ઉલ્લેપક-પ્રારંભ-ક્યા રૂપથી પ્રરૂપિત કર્યો છે? ત્યારે સુધર્મા સ્વામીએ તેમને કહ્યું કે હે જંબૂ ! સાંભળે, યાવત્ મુક્તિસ્થાનને વરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ બીજા વર્ગના પાંચ અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે. ( तजहा) ते २॥ प्रमाणे - (सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मयणा, जइणं भंते ! समणेणं जाव संप. तेणं धम्मकहाणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते वग्गस्स पहमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ! एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ) (1) शुंभा, (२) निशुंभा, (3) २, (४) नि२, (५) महना. वे જંબૂ સ્વામી ફરી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જે યાવત્ મુક્તિ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु २ व. २ शुमानिशुभ दिदेवीवर्णनम् ८१७ खल हे जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् | स्वामी = वर्द्धमानस्वामी समवसृतः । परिषन्निर्गता यावत्पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुम्मा देवी बलिचञ्चायां राजधान्यां शुम्भावतंसके भवने शुम्भे सिंहासने ' कालीगमरणं ' कालीगमेन=काली देवी सदृशपाठेन यावत्नाटय विधिमुपदर्श्य यावत प्रतिगता । पुव्वभवपुच्छा' पूर्वभवपृच्छा = गौतमस्वामी शुम्भा देव्याः पूर्वसवं पृच्छति । भगवान् कथयति - श्रावस्ती नगरी । कोष्ठकं चैत्यम् । जितशत्रू राजा । शुम्भो गाधापतिः । शुम्भश्रीर्भार्या । शुम्भा दारिका । शेषं यथा काया काली दारिकाया वर्णनं तथात्रापि विज्ञेयम्, नवरं = विशेस्त्व 6 के पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं-तो हे भदंत ! द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सुधर्मा स्वामी उनसे इस प्रकार कहते हैं कि है जंबू !-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था - उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान था । उसमें वर्द्धमान स्वामी आये । प्रभु का आगमन सुनकर वहां की समस्त जनता उन्हें चंदन के लिये अपने २ स्थान से चल कर उस गुणशिलक उद्यान में आई । प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया परिषद् उपदेश सुनकर प्रभु की यावत् पर्युपासना की। (तेण कालेनं तेणं समरणं) उसी काल और उसी समय में ( सुभादेवी बलिचंचाए रामहाणीए संभवडेंसए भवणे सुभंसि सीहासांसि कालीगमरणं जाव नट्टविहिं उबदंसेत्ता जाव पडिगया पुग्वभव पुच्छा, सावत्थी पथरी, कोइए चेइए जियसत्तू राया, सुंभे गाहावई सुभ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રત્રણ ભગવાન મહાવીરે ખીજા વર્ગના પાંચ અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યાં છે. તે હે ભદન્ત! બીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનના તેમણે શે। અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને આ પ્રમાણે કહે છે કે હૈ જમ્મૂ ! તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉદ્યાન હતું. તેમાં વર્લ્ડ માન સ્વામી પધાર્યાં. પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાંના અધા નાગરિકા તેમને વંદના કરવા માટે પાતપેાતાને સ્થાનેથી નીકળીને તે ગુરુશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. પ્રભુએ બધાને ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા. परिषद्धे धर्मोपदेश सांलजीने प्रभुनी यावद् पर्युपासना री ( तेण कालेण तेण समएण ) ते अणे अने ते सभये ( सुंभा देवी बलिचंवाए रायहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुभंसि सीहासणंसि काली गमएवं जात्र नह विर्हि उवदंसेत्ता जाव पडिगया, पुण्त्रभवपुच्छा सावत्थी णयरी, कोट्ठए चेइए जियसत्तू राया, सुंभे गाहावई, सुंभसिरी भारिया, सुंभा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे , यम् - अस्याः शुम्भादेव्याः ' अधुट्टाई' अर्द्ध चतुर्थानि सार्द्धत्र्याणि पल्योपमानि स्थितिरस्ति । सुधर्मास्वामीमाह - हे जम्बूः ! निक्षेपकः = उपहारोऽध्ययनस्य वाच्यः ॥ ।। इति द्वितीयवर्गस्य प्रथमाध्ययनम् ॥ सिरी भारिया सुंभा दारिया, सेसं जहा कालीए णवरं अछुट्टाई पलिओव माई ठिई, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ अज्झयणस्स एवं सेसा वि चत्तारिअज्झयणा सावत्थीए नवरं माया पिया सरिस नामया एवं खलु जंबू । निक्खेवओ बिईयवग्गस्स बीओ वग्गो समतो) शुभादेवी जो बलिचंचा नामकी राजधानी में शुभावतंसक नामके भवन में रहती थी और शुं नाम के सिंहासन पर बैठती थी वह काली देवी के प्रकरण में वर्णित पाठ के अनुसार प्रभु के समीप उनको वंदना करने के लिये आई। वहाँ उसने नाट्यविधिका प्रदर्शन किया बाद में फिर वह वहां से पीछे अपने स्थान पर चली गई। उसके चले जाने के बाद गौतमस्वामी ने प्रभु से उस शुंभादेवी के पूर्वभव की पृच्छा की तब भगवान् ने उन से इस प्रकार कहा-श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उसमें कोष्टक नामका उद्यान था, । नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था उसमें गाथा पति रहता था। जिसका नाम शुभ था । इसकी शुभ श्री नाम की भार्या थी । दारिका का नाम शुंभा था। इसके बाद का इसका वर्णन I दारिया, सेसं जहा कालीए गवरं अट्ठाई, पलिओ माई ठिई । एवं खलु जंबू ! निक्लेव अज्झयणस्स एवं सेसा वि चत्तारि अज्झयणस्स सावत्थीए नवरं मायापिया सरिसनामया, एवं खलु जंबू । निक्खेवओ - विईयवग्गस्स पंच अज्झयणा समत्ता बीओ वग्गो समत्तो ) શુભા દેવી-કે જે અલિચ'ચા નામે રાજધાનીમાં શુભાવત'સક નામના ભવનમાં રહેતી હતી અને શુભ નામે સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી—કાલી દેવીના પ્રકરણમાં વણ`વેલા પાઠ મુજબ પ્રભુની પાસે તેમને વંદના કરવા માટે આવી. ત્યાં તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું. ત્યારબાદ તે ત્યાંથી પાછી પેાતાના સ્થાને જતી રહી. તેમના જતા રહ્યા બાદ ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુની શુભા દેવીના પૂર્વ ભવની પૃચ્છા કરી. ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે— શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી, તેમાં કૈક નામે ઉદ્યાન હતું. નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. તેમાં શુભ નામે ગાથાપિત રહેતા હતા. શુ'ભશ્રી નામે તેની પત્ની હતી, તેની પુત્રીનું નામ શુભા હતું ત્યારપછીનું તેનું શેષ વર્ણન કાલી દેવીની જેમજ સમજી લેવું જોઇએ. તેમાં અને આમાં તફાવત એટ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० श्रु. २ व. २ शुमानिशुंभादिदेवीवर्णनम् १९ ' एवं सेसावि' इत्यादि-एवं शेषाण्यपि-निशुम्भा १-रम्भा २-निरम्मा ३-मदना ४ नामकानि चत्वारि अध्ययनानि श्रावस्त्या नगर्या विज्ञेयानि, नवरम्-एतावान् विशेषः-मातरः पितरः सदृशनामानः दारिकासदृशनामानः, तथाहिनिशुम्भाया माता निशुम्भश्रीः, पिता निशुम्भः । रम्भाया माता रम्भश्रीः, पिता रम्भः । निरम्भाया माता निरम्भश्रीः, पिता निरम्भः। मदनाया माता मदनश्रीः पिता मदनः । एते सर्वे गाथापतयः आसन् । एवं खलु हे जम्बूः ! निक्षेपको द्वितीयवर्गस्य ॥ ७ ॥ ॥ इति धर्मकथानां द्वितीयो वर्गः समाप्तः ॥२॥ कालीदेवी का है वैसा ही जानना चाहिये। उसमें और इसमें केवल अन्तर इतना ही है कि कालीदेवी की स्थिति २॥ पल्य की थी और इस शुभादेवी की ३॥, पल्प की थी। इस प्रकार हे जंबू! इस द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का यह निक्षेपक है। इसी तरह निशुभा, रंभा निरम्भा और मदना नाम के चार अध्ययन भी जानना चाहिये । इन में विशेषता केवल इतनी ही है कि यहां जो माता पिता हैं वे दारिका सदृश नामवाले हैं-जैसे निशुभा के पिता का नाम निशुंभ, माता का नाम निशुभ श्री, रंभाके पिता का नाम रम्भ, माताका नाम रम्भश्री, निरंभा के पिता नाम निरंभ माता का नाम निरंभश्री, मदना के पिता का नाम मदन, और माताका नाम मदनश्री। ये सब ही गाथापति हैं। इस तरह यह द्वितीयवर्ग का निक्षेपक-उपसंहार-हैं। ॥ द्वितीयवर्ग समाप्त ।। લો જ છે કે કાલી દેવીની સ્થિતિ આ પલ્યની હતી અને આ શુંભ દેવીની સ્થિતિ ૩ ૫થની હતી. આ પ્રમાણે હે જંબૂ ! આ બીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ નિક્ષેપક છે. આ પ્રમાણે જ નિશુંભા, રંભા, નિરંભા અને મદના નામને ચાર અધ્યયને પણ જાણી લેવા જોઈએ. એમનામાં વિશેષતા ફક્ત એટલી જ છે કે અહીં જે માતાપિતા છે તે પુત્રીના જેવા જ નામવાળા છે. જેમકે નિશુંભાના પિતાનું નામ નિશુંભ, માતાનું નામ નિશુંભશ્રી. રંભા ના પિતાનું નામ રંભ, માતાનું નામ રંભશ્રી નિરભાના પિતાનું નામ નિરંભ, માતાનું નામ નિરંભશ્રી, મદનાના પિતાનું નામ મદન અને માતાનું નામ મદનશ્રી, આ બધા ગાથાપતિએ છે આ પ્રમાણે બીજા વર્ગને નિક્ષેપક ઉપસંહાર છે. ॥ भने यसमात ॥ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अथ तृतीयो वर्गः प्रारभ्यते-' उक्खेवओ तइयवस्स ' इत्यादि मूलम्-उक्खेवओ तइयवग्गस्स एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइयस्स वग्गस्त चउपपणं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे, जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउप्पन्नज्झयणा पण्णता पढमस्त गं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणाए रायहाणोए अलावडंसए भवणे अलंसि सीहासणंसि एवं कालीगमएणं जाव पट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया, पुत्वभवपुच्छा, वाणारसो णयरी काममहावणे चेइए अले गाहांवई अलसिरी भारिया अला दारिया सेसं जहा कालीए णवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ साइरेंगं अद्धपलिओवमंठिई सेसं तहेव, एवं खलु णिक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं कमा सक्का सतेरा सोयामणी इंदा धणविज्जुयावि, सव्वाओ एयाओ धरणस्स अगमहिसीओ एवं, एते छ अज्झयणा वेणुदेवस्सवि अविसेसिया भाणियव्वा एवं जाव घोसस्सवि एए चेव छ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं चउपण्णं अज्झयणा भवंति, सव्वाओवि वाणारसीए काममहावणे चेइए तइयवग्गस णिक्खेवओसू०८॥ तइओ वग्गो समत्तो ॥३॥ श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु०२ व०३ श्रलादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् टीका - ' उक्खेवभो उत्क्षेपकः=जम्बूमश्नादिरूपः प्रारम्भवाक्यमवन्धः तृतीय वर्गस्यात्रबोध्यः । श्रीसुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बुः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मोक्षं सम्प्राप्तेन तृतीयस्य वर्गस्य ' चउप्पण्णं ' चतुपञ्चाशत् अलादीनि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - तानि यथा - प्रथममध्ययनम् अलेति यावत् चतुष्पञ्चाशत्तममध्ययनम् । जम्बूस्वामी पृच्छति यदि खलु हे -: तृतीय वर्ग प्रारंभ:' उक्खेबओ तयवग्गस्स ' इत्यादि । , ८२१ टीकार्थ - तृतीयवर्ग का प्रारंभवाक्य प्रबन्ध इस प्रकार है- अर्थात् सुधर्मास्वामी से जंबू स्वामी ने प्रश्न किया कि भदंत । श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं इस तृतीयवर्ग के कितने अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-तब सुधर्मा स्वामी ने उनसे इस प्रकार कहा( एवं खलु जंबू ! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं तइयस्स वग्गस्स चपणं अज्झयणा पन्नत्ता तं जहा पढमे अज्झयणे जाव च पण मे अज्झयणे जणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपन्नज्झयणा पण्णत्ता, पदमस्सणं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्ते णं के अड्डे पण्णत्ते ? ) हे जंबू ! सुनो-उन मुक्ति प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने तृतीय वर्ग के अलादिक चौपन ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं। जंबू स्वामी पुनः पूछते हैं-भदंत ! त्रीले वर्ग प्रारं ' उक्खेवओ तइयवग्गस्स ' इत्यादि ટીકા—ત્રીજા વર્ગનું પ્રારંભ વાકય પ્રમ`ધ આ પ્રમાણે છે એટલે કે સુધર્માં સ્વામીને જમ્મૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યાં કે હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર-કે જેમણે મુક્તિ મેળવી લીધી છે. આ ત્રીજા વર્ગના કેટલાં અધ્યયના પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે? ત્યારે સુધર્મા સ્વામીએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું ( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइयरस वग्गस्स चपणं अज्झयणापन्नता - तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइ मे अज्झयणे जणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपन्नज्झयया पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पणते ? ) હે જમ્મૂ ! સાંભળે, મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ત્રીજા વર્ગના અલાર્દિક ૫૪ અધ્યયના પ્રજ્ઞપ્ત કર્યાં છે. જમ્મૂ સ્વામી ક્રી પ્રશ્ન કરે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताधर्मकथाडसूत्रे भदन्त ! श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकथानां तृतीयस्य वर्गस्य चतुष्पश्चाशद् अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तेषु प्रथमस्य खलु हे भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मस्वामी कथयति एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् , गुणशिलकं चैत्यम् , स्वामी समवस्तः, परिषन्निर्गता यावत्-भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अलादेवी धरणेन्द्रस्याग्रमहिपी धरणायां राजधान्याम् आलावतंसके भवणे अले सिंहासणे, एवं 'कालीगमएणं' कालीगमेन-कालीसदृशपाठेन यावत् नाटयविधमुपदर्य प्रतिगता । 'पुचभवपुच्छा' पूर्वभवपृच्छागौतमस्वामी अलादेव्याः पूर्वभवं पृच्छति, भगवान् कथयति-वाणारसी नगरी । काममहावनं चैत्यम् । ' अले' अलनामा गाथापतिः । अलश्रीर्भार्या । अला दारिका । शेषं 'जहाकालीए' यथा काल्याः कालीदेव्या वर्णनं तथैव अला. देव्या वर्णनं विज्ञेयम् , नवरम्-धरणस्याग्रमहिषीतयाऽस्था उपपातः, सातिरेक= यावत् मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा के तृतीयवर्ग के ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं तो उनमें से हे भदंत ! उन्हीं यावत् मुक्ति प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? इस प्रश्न के समाधान निमित्त सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि-( एवं खलु जंबू! ) हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है( तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणाए राय हाणीए अलावडंसए भवणे अलंसि सीहासणंसि एवं कालीगमएणं जाव णट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया, पुव्वभवपुच्छा, वाणारसी जयरी, काममहावणे चेइए अलंगाहावई, अलासिरी भारिया, अलादारियासेसं जहा कालीए णवरं धरणस्त अग्गमहिसित्ताए उववाओ, साइरेगं છે કે હે ભદન્ત! યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધમકથાના ત્રીજા વર્ગના ૫૪ ચેપન અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે, તે તેમાંથી હે ભદંત ! તે જ યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા અધ્યયનને શો અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે? આ પ્રશ્નના સમાધાનમાં શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને छ है ( एवं खलु जंवू ! ) यू ! तमा। प्रश्न उत्तर मा प्रभारी छ । __ (तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणाए रायहाणीए अलावडंसए भवणे अलंसि सीहासणंसि एवं काली गमएणं जाव गढविहिं उबदंसेत्ता पडिगया, पुवभवपुच्छा, वाणारसी गयरी, काममहावणे चेहए, अलं गाहावई, अलासिरी भारिया, अलादारिया सेसं जहा कालीए णवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उप શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० श्रु० २ ० २ अलादीदेवीनां चरित्रवर्णनम् अपलिओ मं ठिई सेस तहेव, एव खलु णिवखेवओ पढमज्झयणस्स) उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। वहां गुणशिलक नाम का उद्यान था । उसमें तीर्थकर परंपरानुसार विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर आकर ठहरे हुए थे। नगर की परिषदा प्रभु को वंदना के लिये अपने २ घर से निकलकर उस उद्यान में आई प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया। सुनकर लोगों ने यावत् प्रभु की पर्युपासना की। उसी समय वहां पर धरणेन्द्र की अग्रमहिषी अलादेवी जो धरणा राजधानी में अलावतंसक इस नाम के भवन में रहती थीऔर जिसके बैठने के सिंहासन का नाम अला था प्रभु को वंदना आदि करने के निमित्त आई। वहां आकर उस ने नाट्यविधि दिखलाई । दिखलाकर वह फिर वहां से पीछे अपने स्थान पर गई। उसके आते ही गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से उसका पूर्वभव पूछा तब भगवान् ने उनसे इस प्रकार कहा वाणारसी नामकी नगरी थी उसमें काम महावन नाम का उद्यान था । उसमें अलनाम का गाथापति रहता था। उसकी भार्या “ अल श्री " इस नामकी थी। इस की एक पुत्री थी जिसका नाम अला था। इसका अला का शेष कथानक, कालीदेवी का ance "" ८२३ बाओ, साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिई सेसं तहेब, एवं खलु निक्खेवओ पढमज्झयणस्स ) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃડ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉદ્યાન હતું. તેમાં તીર્થકર પરપરા મુજઞ વ્હિાર કરતાં પધારીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર મુકામ કર્યાં હતા. નગરની પરિષદ પ્રભુને વંદન કરવા માટે પેતાતાને ઘેરથી નીકળીને તે ઉદ્યાનમાં આવી. પ્રભુએ સૌને ધમના ઉપદેશ આપ્યા. ઉપદેશ સાંભળીને લેાકેાએ યાવત્ પ્રભુની પયુ પાસના કરી, તે વખતે ત્યાં ધરણેન્દ્રની અગ્રમહિષી ( પટરાણી ) અલાદેવી કે જે ધરણા રાજધાનીમાં અલાવત ́સક આ નામના ભવનમાં રહેતી હતી, અને જેને એસવાના સિંહાસનનું નામ અલા હતું-પ્રભુને વંદના કરવા માટે આવી. ત્યાં આવીને તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું", પ્રદર્શન કરીને તે ત્યાંથી પાછી પેાતાના સ્થાને જતી રહી. તેના ગયા પછી તરત જ ગૌતમ સ્વામીએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને તેના પૂર્વભવ પૂછ્યા ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વાણારસી નામે નગરી હતી, તેમાં કામમહાવન નામે ઉદ્યાન હતું, તેમાં અલ નામે ગાથાપતિ રહેતા હતા. તેની ભાર્યાંનું નામ અલશ્રી હતું. તેને એક પુત્રી હતી તેનું નામ અલા હતુ. અલા વિષેતુ' શેષ કથાનક પહેલાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨૪ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे साधिकम् अर्द्ध पल्पोपमं स्थितिः । शेषं तथैव । एवं खलु निक्षेपकः प्रथमाध्ययनस्य । एवं क्रमात् शक्रा २, सतेरा ३, सौदामनी ४, इन्द्रा ५, घनविद्युदपि ६ । सर्वा एता धरणस्य = धरणेन्द्रस्य अग्रमहिष्य एव । एतानि षड् अध्ययनानि वेणुदेवस्यापि । ' अविसेसिया' अविशेषितानि = निर्विशेषानि सदृशानि भणितव्यानि । जैसा कथानक पीछे वर्णित किया जा चुका है वैसा ही जानना चाहिये । उसके वर्णन में और इसके वर्णन में केवल अन्तर इतना ही है कि यह धरणेन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में उत्पन्न हुई और इसकी स्थिति १ ॥ पल्प से कुछ अधिक है। बाकी का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के जैसा ही है । इस तरह यह द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेपक - उपसंहार - है | - ( एवं कमा सक्का, सतेरा, सोयामणी, इंदा, घणविज्जुया fa, सव्वओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ, एवं एते ६ अज्झयणा वेणुदेवस्स वि अविसेसिया भाणियव्वा, एवं जाव घोसस्स वि एए चैव ६ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं - चउप्पण्णं अज्झयणा भवंति, सध्यओ वि वाणारसीए काममहावणे चेइए तइयवग्गस्स क्विओ ८ ॥ ( तइओ वग्गो समत्तो ) इसी क्रम से शक्रा २, सतेरा ३, सौदामनी ४, इन्द्रा ५, घनविद्युत् ६, ये सब देवियां धरणेन्द्र की ही अग्रमहिषियां थीं। इस तरह के ६ अध्ययन वेणुदेव के भी हैं। और इनका વર્ણવેલા કાલી દેવીના કથાનકની જેમજ સમજી લેવુ' જોઇએ. તેના અને આના વર્ણનમાં તફાવત ફક્ત એટલેા જ છે કે આ ધરણેન્દ્રની અગ્રમહિષીના રૂપમાં ઉત્પન્ન થઇ અને આની સ્થિતિ ૧ા પલ્ય કરતાં કઇક વધારે છે. આનુ ખાકીનુ વર્ણન કાલી દેવી જેવુ' જ છે. આ પ્રમાણે આ બીજા વર્ગોના પહેલા અધ્યયનના નિક્ષેપક ઉપસંહાર છે. ( एवं कमा सक्का सतेरा, सोयामणी, इंदा, घणविज्जुया वि, सन्त्रओ याओ धरणस्स, अग्गमहिसीओ एवं एते ६ अज्झयणा वेणुदेवस्स वि अविसे सिया भाणियव्वा, एवं जात्र घोसस्स वि एए चैव६ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं - चउप्पण्णं अज्झयणा भवंति, सव्वाओ वि वाणारसीए काम महावणे चेइए तइयवग्गस्स णिक्खेत्रओ ॥ ८ ॥ तइओ वग्गो समत्तो ) આ અનુક્રમ પ્રમાણે જ શકા ૨, સતેરા 3, સૌદામની ૪, ઇન્દ્રા પ, ધનવિદ્યુત ૬, આ બધી દેવીએ ધરણેન્દ્રની જ અગ્રમહિષીઓ હતી. આ પ્રમાણે જ ૬ અધ્યયને વેણુ દેવીના પણ છે અને એમનું વર્ણન ધરણેન્દ્રના શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टी० श्रु०२ ३०३ रूपादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२५ एवं यावत् घोषस्यापि घोषेन्द्रस्यापि, एतान्येव षड् अध्ययनानि सन्ति । एवमेतानि दाक्षिणात्यानामिन्द्राणां चतुष्पञ्चाशद् अध्ययनानि भवन्ति । सर्वा अपि पूर्वो. तादेव्यः पूर्वभवे वाणारस्यां जाताः काममहावने चैत्ये भगवतः पार्श्वस्याहतः समीपे प्रव्रजिताः, तृतीयवर्गस्य निक्षेपकः समाप्तिवाक्यमबन्धो विज्ञेयः ॥ सू०८ । ॥ इति धर्मकथानां तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ ३ ॥ अथ चतुर्थों वर्गः प्रारभ्यते-' चउत्थस्स ' इत्यादि । मूलम् चउत्थस्त उक्खेवओ, एवं खलु जंबू !समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्त चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं रूया देवी रूयाणंदा रायहाणी रूयगव. वडिंसए भवणे रूयगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुठवभवे चंपाए पुण्णभद्दे चेइए रूयगे गाहावई रूयगसिरी भारिया रूया दारिया सेसं तहेव, णवरं भूयाणंदअग्गमहिसिवर्णन भी धरणेन्द्र के वर्णन जैसा ही है। घोपेन्द्र के भी ये ही ६ अध्य यन इसी तरह के हैं। इस तरह दक्षिण दिशा संवन्धी इन्द्रों के० ५४ अध्ययन हो जाते हैं। ये सब देवियां पूर्वभवमें वाणारसी में उत्पन्न हुई और काममहावन उद्यानमें भगवान पार्श्वनाथ अर्हत प्रभुके समीपदीक्षित हुई । इस तरहसे धर्मकथाका यह " तृतीय वर्ग समाप्त हुआ है।" વર્ણન જેવું જ છે. ઘેન્દ્રના પણ આ જાતનાં જ ૬ અધ્યયને છે. આ પ્રમાણે દક્ષિણ દિશા સંબંધી ઈન્દ્રોના ૫૪ અધ્યયને થઈ જાય છે. આ બધી દેવીએ પૂર્વભવમાં વણારસીમાં ઉત્પન્ન થઈ હતી અને કામમહાલન ઉદ્યાનમાં ભગવાન પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુની પાસે દીક્ષિત થઈ. આ પ્રમાણે ધર્મકથાનો આ ત્રીજો વર્ગ પૂરો થયો છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधर्मकथामने ताए उववाओ देसूणं पालिओवमं ठिई णिक्खेवओ एवं सुरूयावि रूयंसावि रूयगावईवि रूयकंतावि रूयप्पभावि, एयाओ चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियव्वाओ जाव महाघोसस्त, गिक्खेवओ चउत्थवग्गस्स ॥ सू० ९॥ ॥चउत्थो वग्गो समत्तो ॥४॥ __टीका-' चउत्थस्स-चतुर्थवर्गस्य — उक्खेवओ' उत्क्षेपकः प्रारम्भवाक्य पाठोऽत्रवाच्यः । सुधर्मस्वामी पाह-एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत्सम्माप्तेन धर्मकथानां चतुर्थवर्गस्य चतुष्पश्चाशत् अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा प्रथममध्ययनं यावत्-चतुष्पश्चाशत्तममध्ययनम् । तेषु प्रथमस्याध्ययनस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मस्वामीप्राह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे सम. -चतुर्थ वर्ग प्रारंभः'चउत्थस्स उवक्खेवओ' इत्यादि। टीकार्थः-(चउत्थस्स उवक्खेवओ) चतुर्थ वर्ग का प्रारंभ किस तरह से हुआ है-इस प्रकार-जंबूस्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं कि (एवं खलु जंबू) हे जंबू ! सुनो-(समणेणं जाव संपत्तणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णाइ मे अज्झयणे) यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के चतुर्थ वर्ग के ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-वे प्रथम अध्ययन से लेकर ५४ वें अध्ययन तक हैं-(पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं याथा का प्रारम. 'चउत्थम्स उवक्खेवओ' इत्यादि ai-( चउत्थस्स उवक्खेवओ) याथा पानी २३मात पी शत થઈ છે! આ જાતને જંબૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યા બાદ શ્રી સુધર્મા સ્વામી तेभने ४ छ 3 ( एवं खलु जंवू ) यू ! सानो , ( समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे) યાવત્ મુક્તિસ્થાનને પામેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધર્મકથાના ચોથા વર્ગના ૫૪ અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. તેઓ પહેલા અધ્યયનથી માંડીને ૫૪ મા અધ્યયન સુધી છે. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्र अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ०२ व० ४ रूपदिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२७ वसरणं= भगवतः श्री महावीरस्वामिनः समागमनं संजातं, यावत् परिषद भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये रूपादेवी = भूतानन्देन्द्रस्याग्रमहिषी रूपकावतंस के भवने रूपके सिंहासने यथा काल्याः = कालीदेव्या वर्णनं तथा तद्वत् समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं रूया देवी, रूयाणंदा रायहाणी रूयगवर्डिसए भवणे रूयगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुण्वभवे चंपाए पुण्णभद्दे चेइए रूयगे गाहावई रूयगसिरी भारिया, रूया दारिया, सेसं तहेव, णवरं भूयानंद अग्गमहिसित्ताए उबबाओ देसूणं पलिओवमं ठिई निक्खेवओ, एवं सुरुवया वि, रूयंसावि, रूपगाहावई वि रूपकंता वि रूपप्पभावि, एयाओ चैव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियव्वाओ, जाव महाघोसस्स णिक्खेवओ चउत्थवग्गस्स चउत्थो वग्गो समत्तो ) -- प्रथम अध्ययन का हे जंबू । उत्क्षेपक इस प्रकार है उसकाल में और उस समय में राजगृह नगर में महावीर स्वामी का आगमन हुआ । परिषद प्रभु को वंदना करने के लिये अपने २ स्थान से निकलकर जहां प्रभु विराजमान थे वहां आई। प्रभु ने धर्म का उपदेश दिया । यावत् सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल और उस समय में भूतानंद इन्द्र की अग्रदेवी जिसका नाम रूपादेवी था वह प्रभु को वंदना के लिये ( पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ - एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं राय समोर जाव परिसा पज्जुवासर, तेणं कालेणं तेणं समएणं रूयादेवी, रूयाणंदा, रायहाणी रूयगवर्डिसए भवणे रूयगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुण्वभवे चंपाए पुष्णभद्दे चेइए रूपगे गाहावई रूयगसिरी भारिया, या दारिया, सेसं तहेव, णवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उववाओं देमूणं पलिओवमं ठिई निक्खेत्रओ, एवं सुरुवया वि, रूयंसावि, रूपगाहावई, वि रूयकंता विरूपभावि, एयाओ चैव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियव्वाओ, जाव महाघोसस्त णिक्खेओ उत्थवस्स ॥ ९ ॥ चत्थो वग्गो समत्तो ) હે જ'બૂ ! પહેલા અધ્યયનના ઉલ્લેષક આ પ્રમાણે છે-તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં મહાવીર સ્વામીનું આગમન થયું. પ્રભુને વદના કરવા માટે પરિષદ પાતપેાતાને સ્થાનેથી નીકળીને જ્યાં પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યાં આવી, પ્રભુએ ધર્માંના ઉપદેશ આપ્યા યાવતુ સૌએ પ્રભુની પયુ પાસના કરી, તે કાળે અને તે સમયે ભૂતાન'દ ઈન્દ્રની અગ્રદેવી ( પટરાણી ) જેનુ નામ રૂપા દેવી હતું–પ્રભુને વંદના કરવા માટે આવી. તેના રહેવાના ભવનનુ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे रूपादेव्या अपि विज्ञेयम् , नवरं-विशेषोऽत्रायम्-पूर्वभवे चम्पायां नगयों पूर्णभद्रं चैत्यम् , रूपको गाथापतिः, रूपश्री र्या, रूपादारिका, शेषं तथैव नवरं भूतानन्दाग्रमहिषीतया तस्या उपपातः जन्म । देशोनं पल्योपमं स्थितिः। निक्षे. पका-समाप्तिवाक्यरूपः प्रबन्धोऽत्र विज्ञेयः । एवं सुरूपापि २, रूपांशाऽपि ३, रूपकावत्यपि ४, रूपकान्तापि ५, रूपप्रभापि ६ । एताश्चैव उत्तरीयाणामिन्द्राणां आई। इसके रहने के भवन का नाम रूपकावतंसक था। और जिस सिंहासन पर यह बैठती थी उसका नाम रूपक था। पीछे जिस प्रकार का वर्णन कालीदेवी का किया गया है-उसी प्रकार का इनका भी वर्णन जानना चाहिये । उस के पूर्वभव का वर्णन इस प्रकार है-यह पूर्वभव में चंपा नामकी नगरी में कि जिसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था और रूपक गाथापति जिस में रहता था उस गाथापति की यह रूपश्री भार्या से " रूपा दारिका" इस नाम से पुत्री उत्पन्न हुई थी। बाद में प्रभु का उपदेश सुनकर यह प्रतिबोध को प्राप्त हो गई और काली देवी की तरह यह आर्या बन गई इसके आगे जिस तरह का काली देवी का वृत्तान्त बना इसी तरह से इसका भी जानना चाहिये। जब यह काल अवसर काल कर गई तब यह भूतानंद इन्द्र की अग्रमहिषीरूप से उत्पन्न हुई। वहाँ इसकी कुछकम १, पल्य की स्थिति है। इस प्रकार रूपा देवी के कथानक का यह निक्षेपक है। इसी तरह से (२) सुरूपा (३) रूपांशा (४) रूपकावती (५) रूपकान्ता और ६ रूपप्रभा का भी वर्णन जानना નામ રૂપકવતંસક હતું અને જે સિંહાસન ઉપર તે બેસતી હતી તેનું નામ રૂપક હતું. જેમાં પહેલાં કાલી દેવીનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેમજ આનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. તેના પૂર્વભવનું વર્ણન આ પ્રમાણે છેઆ પૂર્વભવમાં ચંપા નામની નગરીમાં- કે જેમાં પૂર્ણભદ્રા નામે ઉદ્યાન હતું અને રૂપક ગાથાપતિ જેમાં રહેતે હતો. તે ગાથા પતિની આ રૂપશ્રી ભાર્યાથી રૂપાદારિકા ” આ નામથી પુત્રી રૂપે ઉત્પન્ન થઈ હતી. ત્યારપછી પ્રભુને ઉપદેશ સાંભળીને એ બેધને પ્રાપ્ત થઈ અને કાલી દેવીની જેમ આર્યા થઈ ગઈ, એના પછીની વિગત કાલી દેવીની હતી તેવી જ એની પણ સમજી લેવી જોઈએ. જ્યારે તેણે કાળ અવસરે કાળ કર્યો ત્યારે આ ભૂતાનંદ ઈન્દ્રની અગ્રમહિષી (પટરાણી) ના રૂપમાં ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાં તેની થોડી ઓછી એક વેલ્યની સ્થિતિ છે. આ પ્રમાણે રૂપાદેવીના કથાનકને આ નિક્ષેપક છે. या प्रमाणे (२) ९३५), (3) ३५iशा, (४) ३५४ावती, (५) ३५४ial अने શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका श्रु०२५० ५ कमलादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२९ भणितव्याः अग्रमहिध्यो वक्तव्याः यावत् महाघोषस्य । महाघोषेन्द्रस्य । निक्षेपकश्चतुर्थवर्गस्य ।। मू०९॥ ॥ इति धर्मकथानां चतुर्थों वर्गः समाप्तः ॥ ४ ॥ अथ पञ्चमो वर्गः प्रारभ्यते-पंचमवग्गस्स ' इत्यादि । मूलम्-पंचमवग्गस्त उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-कमला१ कमलप्पभार चेव, उप्पला३ य सुदंसणा४। रूववई५ बहुरूवा६, सुरूवा७ सुभगाविय८॥१॥ पुण्णा९ बहुपुत्तिया१० चेव, उत्तमा११ तारयाविय१२ । पउमा१३ वसुमती१४ चेव, कणगा१५कणगप्पभा१६ ॥२॥ वडेंसा१७ केउमई १८ चेव, वइरसेणा१९ रइप्पिया२० । रोहिणी२१ नवमिया२२ चेव, हिरी२३ पुप्फवईइय २४ ॥३॥ भुयगा२५ भुयगवई २६ चेव, महाकच्छौ . ऽपराइया२८ । सुघोसा२९ विमला३० चेव, सुस्सरा३१ यसरसर्वई३२ ॥४॥ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं कमलादेवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलसि सीहासणांस सेसं जहा कालीए तहेव गवरं पुत्वभवे नागपुरे नयरे सहसंब. चाहिये। ये देवियां भूतानंद इन्द्र की तरह उत्तरीय इन्द्रों की भी अग्रमहिषियां हैं। और ये ही महाघोपेन्द्र की भी हैं। इस प्रकार यह चतुर्थ वर्ग का निक्षेपक ( स्वरूप ) है। ॥ चतुर्थवर्ग समाप्त ॥ (૬) રૂપપ્રભાનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ બધી દેવીઓ ભૂતાનંદ ઈન્દ્રની જેમ ઉત્તરીય ઈન્દ્રોની પણ અમહિષીઓ (પટરાણીઓ) છે. અને મહાઘોષેન્દ્રની પણ તેઓજ પટરાણીઓ છે. આ પ્રમાણે આ ચોથા વર્ગને નિક્ષેપક છે. ચેાથે વર્ગ સમાપ્ત. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० ज्ञाताधर्मकथासूत्रे वणे उज्जाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासस० अंतिए निक्खता कालस्स पिसायकुमारिंदस्स अग्गमहिसी अद्धपलिओवमं ठिई, एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतररिंदाणं भाणियव्वाओ सव्वाओ नागपुरे सहस्संबवणे उज्जाणे माया पिया धूया सरिसनामया, ठिई अपलिओवमं ॥ सू० १० ॥ ॥ पंचमो वग्गो समत्तो ॥ ५ ॥ " टोका - पंचमवग्गस्स ' पञ्चमवर्गस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मस्वामी माह एवं खलु जम्बूः । इत्यादि, यावत् द्वात्रिंशद अध्ययनानि कमलादि नामकानि प्रज्ञ प्तानि तद्यथा - तेषां नामानि गाथा चतुष्टयेन प्राह कमला १ कमलप्रभा २ चैव, उत्पला ३ च सुदर्शना ४ | रूपवती ५ बहुरूपा ६, सुरूपा ७ सुभगा ८ ऽपि च ॥ १ ॥ -: पंचम वर्ग प्रारंभः'पंचम वग्गस्स उक्खेवओ' इत्यादि । टीकार्थ - ( पंचमग्गस्स उवक्खेवओ) हे भदंत ! पांचवें वर्ग का उत्क्षेपक प्रारंभ का स्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने किस प्रकार से प्ररूपित किया है ? इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर सुधर्मास्वामी ने उनसे इस प्रकार कहा - ( एवं खलु जंबू !) हे जंबू ! सुनो- वह इस तरह से है- (जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता-तं जहा (१) कमला (२) कमलप्पभा चैव, (३) उप्पला य (४) सुदंसणा । (५) रूचवई (६) बहुरुवा (७) सुरुवा (८) सुभगाविय, । (९) पुण्णा (१०) बहुपुत्तिया चेव (११) उत्तमा (१२) तारयाविय । (१३) पउमा (१४) वसुमती चेव (१५) कणगा (१६) Trader (१७) वडेंसा (१८) केउमई चेव (१९) वइरसेणा (२०) इપાંચમા વર્ગ પ્રાર’ભ. 66 'पंचम वग्गस्स उक्खेवओ' इत्यादि टीअर्थ - ( पंचम वग्गरस उक्खेवओ ) हे लहन्त ! पांथमा वर्णना ઉત્પ્રેષક-પ્રાર’ભ-નું સ્વરૂપ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કેવી રીતે પ્રરૂપિત કર્યુ× છે ? એ પ્રમાણે જમ્મૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્માં સ્વામીએ તેમને भा प्रभाणे उद्धुं ठे-( एवं खलु जंबू ! ) हे न्यू ! सांलो, ते या प्रमाणे छे ( जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता - तं जहा (१) कमला (२) कमलप्पभा वेव, (६) उप्पलाय, (४) सुदंसणा (५) रूववई (६) बहुरूवा (७) सुरूवा (४) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतषिणो टी0 श्रु० २ ० ५ कमलादिदेवीनाचरित्रवर्णनम् ८३१ पूर्णा ९ बहुपुत्रिका १० चैव, उत्तमा ११ तारका १२ ऽपि च । पद्मा १३ वसुमती १४ चैव, कनका १५ कनप्रभा १६ ।। २ ।। अवतंसा १७ केतुमती १८ चैव, वनसेना १९ रतिप्रिया २० । रोहिणी २१ नवमिका २२ चैव, हीः २३ पुष्पवती २४ ति च ॥ ३ ॥ भुनगा २५ भुजगवती २६ चैव, महाकच्छा २७ ऽपराजिता २८ ॥ सुघोषा २९ विमला ३० चैव, मुस्वरा ३१ च सरस्वती ३२ ॥ ४ ॥ पिया। (२१) रोहिणी (२२) नवमिया चेव (२३) हिरी (२४) पुप्फबईइय। (२५) भुयगा (२६) भुयगवई चेव (२७) महाकच्छा (२८) पराइया (२९) सुघोसा (३०) विमला चेव (३१) सुस्सरा (३२) सरसवई ) इस पंचम वर्ग के श्रमण भगवान् महावीर ने कमलादि नामवाले ३२ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं। इनके नाम सूत्रकार चार गाथाओं द्वारा इस तरह से प्रकट करते हैं। कमला १, कमलप्रभा २, उत्पला ३, सुदर्शना ४, रूपवती ५, बहुरूपा, ६, सुरूपा ७, सुभगा ८, पूर्णा ९, बहुपुत्रिक १०, उत्तमा ११ तारका १२, पद्मा १३, वसुमती १४, कनका १५ कनकप्रभा १६, अवतंसा १७, केतुमती, १८, वज्र सेना १९, रतिप्रिया २०, रोहिणी २१, नवमिका २२, ही २३, पुष्पवती, २४, भुजगा,२५, भुजगवती २६, महाकच्छा २७, अपराजिता २८, सुघोषा २९, विमला ३०,। सुस्वरा सुभगाविय, (९) पुण्णा (१०) बहुपुत्तिया चेव (११) उत्तमा (१२) तारयाविय, (१३) पउमा, (१४) वसुमती चेव (१५) कणगा, (१६) कणगप्पभा, (१७) वडेंसा, (१८) केउमइ चेव, (१९) वइससेणा, (२०) रइप्पिया, (२१) रोहिणी, (२२) नवमिया चेव (२३) हिरी (२४) पुप्फबईइय, (२५) भुयगा (२६) भुय. गवई चेव, (२७) महाकच्छा (२८) पराइया, (२९) सुघोसा (३०) विमला चेव (३१) सुस्सरा, (३२) य सरसवई ) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ પાંચમા વર્ગના કમલા વગેરે નામવાળા ૩૨ અધ્યયન પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. એમનાં નામો સૂત્રકાર ચાર ગાથાઓ વડે એ प्रभाग ४८ ४२ जे-भता (१), भतप्रभा (२), Sun (3), सुशिद! (४), ३५वती (५), १३५। (६), सु३५। (७), सुभा (८), पूर्ग (4), महु. पुत्रिी (१०), उत्तमा (११), ता२४१ (१२), ५ (१३), वसुमती (१४), न। (१५), ४४मा (१६), सतसा (१७), तुभती (१८), १००सेना (१८), २तिप्रिया, (२०), शहिणी (२१), नवमी (२२), ही (१3), यु५५पती (२४) । (२५), सुगपती (२६), म६४४२७१ (२७), अ५२१ (२८), सुधाषा (२८), विभत(30), सुस्१२। (31), स२स्वती (3२). શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे उत्क्षेपकः प्रथमाध्ययनस्य । जम्बूस्वामिना पृष्टे सुधर्मास्वामी प्राह एवं खलु हे जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे 'समोसरणं समवसरणं=भग३१, सरस्वती ३२, । ( उक्खेवओ पढमज्झयणस्स एवं खलु जंबू ! तेणं काले तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासर, तेणं काले ते समपर्ण कमला देवी, कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलंसि सीहासांसि सेसं जहा कालीए तहेव णवरं पुन्वभवे नागपुरे नयरे सहसंबवणे उज्जाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासस्स अंतिए निक्खता कालस्स पिसायकु - मारिदस्स अग्गमहिसी अद्धपलिओ मं टिई, एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंत रिंदाणं भाणियव्त्राओं, सव्वओ नागपुरे सहसं aaणे उज्जाणे माया पिया घ्या सरिसनामया, ठिई अपलिओदमं ) इसके बाद जंबूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से पूछा कि इनमें से कमला नामका जो प्रथम अध्ययन है उसका उत्क्षेपक किस तरह से है - इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर उनसे सुधर्मास्वामी ने कहा कि हे जंबू ! सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल में और उस समय में राजगृह नामका नगर था। उसमें भगवान् महावीर का आगमन हुआ। यावत् वहां की परिषद प्रभु को वंदना करने के लिये आई। ८३२ ( उक्खेचओ पढमज्झयणस्स एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं रायगि समोसरणं जाव परिसापज्जुवासर, तेणं कालेणं तेणं समरणं कमलादेवी कमला राहाणीए कमलपडेंसए भवणे कमलंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहेच णवरं पुग्वभवे नागपुरे नयरे सहसंबवणे उज्जाणे कमलस्स गाहा इस कमलसिरी भरियाए कमला दारिया पासस्स० अंतिए निक्खता कालस्स पिसाय कुमारिदस्स अम्गमहिसी अपलिओवमठिई, एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंत रिंदाणं भाणियव्वाओ, सव्वाओ नागपुरे सहसंबवणे उज्जाणे मायापिया धूया सरिसनामया, ठिई अपलिओ मं ) ત્યારપછી જમ્મૂ સ્વામીએ શ્રી સુધાં સ્વામીને પૂછ્યું કે આ બધામાં કમલા નામે જે પહેલું અધ્યયન છે તેના ઉત્સેપક કેવી રીતે છે ? આ પ્રમાણે જમ્મૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યાં ખાદ તેમને શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યું કે અે જ બૂ! સાંભળેા, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ભગવાન મહાવીરનું આગમન થયું. ચાવતુ નગરની પરિષદ તેમને વંદના કરવા માટે આવી. પ્રભુએ સૌને શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु०२ ३० ५ कमलादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८३३ वन् महावीरस्वामी समागमनं संजातं, यावत् परिषद् भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कमला देवी कमलायां राजधान्यां, कमलावतंसके भवने कमले सिंहासने, शेषं यथा-काल्याः कालीदेव्या वर्णनं तथैवाऽस्या अपि, नवरं विशेषोऽयम्-पूर्वभवे नागपुरं नगरं, सहस्राम्रवनमुद्यानम् , कमलस्य गाथापतेः कमलश्रियो भार्यायाः कमला दारिका पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्य अन्तिके 'निक्खंता' निष्क्रान्ता-प्रजिता, कालस्य पिशाचकुमारेन्द्रस्य अग्रमहिषी । अर्द्धपल्योपमं स्थितिः । एवं शेषाण्यपि कमलप्रभादिनामकान्यपि एकत्रिंशद् अध्यप्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया। परिषद ने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में कमला नाम की देवी, कमला राजधानी में कमलावतंसक भवन में रहती थी। उस के सिंहासन का नाम कमला था। इसके आगे का समस्त वर्णन कालीदेवी के वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। परन्तु इसमें जो विशेषता है वह इस प्रकार है-जब गौतमस्वामी ने उसके-अर्थात् देवी के चले जाने के बाद उसके पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा-तब प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-पूर्वभव के इसके नगर का नाम नागपुर था-उसमें सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था। उस नगर में कमल नामका गाथापति रहता था। उसकी भार्या का नाम कमला श्री था। इनके एक पुत्री थी जिस का नाम कमला था। वह काललब्धि के आनेपर पुरुषदानीय-पुरुष श्रेष्ठ-पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु के समीप प्रव्रजित हो गई। बाद में मरने पर वह काल नाम के पिशाच कुमारेन्द्र की अग्रमहिषी बनी। वहां इसकी स्थिति अर्धपल्य की है। ધર્મને ઉપદેશ આપ્યો. પરિષદે પ્રભુની પથું પાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે કમલા નામની દેવી, કમલા રાજધાનીમાં કમલાવર્ત સક ભવનમાં રહેતી હતી. તેના સિહાસનનું નામ કમલા હતું. એના પછીનું બધું વર્ણન કાલી દેવીના વર્ણનની જેમ જ સમજી લેવું જોઈએ. પરંતુ આમાં જે કઈ વિશેષતા છે તે એ પ્રમાણે છે-કે જયારે ગૌતમ સ્વામીએ દેવીના ગયા પછી તેના પૂર્વ ભવ વિશેની વિગત પૂછી ત્યારે પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું-કે આના પૂર્વ ભવના નગરનું નામ નાગપુર હતું. તેમાં સહસ્ત્રાપ્રવન નામે ઉદ્યાન હતું. તે નગરમાં કમલ નામે ગાથાપતિ રહેતો હતો. તેની પત્નીનું નામ કમલાશ્રી હતું. એમને એક દિકરી હતી તેનું નામ કમલા હતું, તે યોગ્ય કાળલબ્ધિના અવ સરે પુરુષાદાનીય-પુરુષ શ્રેષ્ઠ-પાર્શ્વનાથ અહંત પ્રભુની પાસે પ્રજિત થઈ ગઈ. ત્યારપછી મૃત્યુ થયા બાદ તે કાલ નામના પિશાચ કુમારેન્દ્રની અગ્ર શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ૦૩ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे यनानि दाक्षिणात्यानां वानव्यन्तरेन्द्राणामग्रमहिषीणां भणितव्यानि । सर्वाश्चैताः पूर्वभवे नागपुरे नगरे संजाताः, सहस्राम्रबने उद्याने भगवत्पार्श्व प्रभोः समीपे पत्रजिताः । मातापिता दुहिता सदशनामकः । आसां स्थितिरर्द्धपल्योपमम् ॥सू०१०॥ ॥ इति धर्मकथानां पञ्चमो वर्गः समाप्तः ॥ ५ ॥ मूलम्-छहोवि वग्गो पंचमवग्गसरिसो, णवरं महाकालादोणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुठवभवे सागेयनयरे उत्तरकुरु उज्जाणे माया पिया धूया सरिसणामया सेसं तं चेव ॥ सू० ११॥ ॥छटो वग्गो समत्तो ॥ ६॥ बाकी जो ३१, कमलप्रभा नामके अध्ययन हैं वे दक्षिण दिशा संबन्धी वानव्यंतरेन्द्रों की अग्रमहिषियों के हैं ऐसा जानना चाहिये। ये सब ही पूर्वभव में नागपुर नगर में उत्पन्न हुई-और सहस्राम्रवन नामके उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के समीप प्रवजित हुई। इन अध्ययनों में माता पिता तथा पुत्री ये सब एक सरीखे नामवाली है । जैसे कमलप्रभा नामक अध्ययन में माता का नाम कमलप्रभा श्री, पिता का नाम कमलप्रभ एवं पुत्री का नाम कमलप्रभा है-इसी तरह से और अध्ययनों में भी जानना चाहिये। इन सब देवियों की स्थिति अर्धपल्य की है।सू१०॥ -पंचमवर्ग समाप्त: મહિષી (પટરાણી) બની. ત્યાં તેની સ્થિતિ અર્ધપત્યની છે. શેષ જે ૩૧ કમલપ્રભા નામના અધ્યયન છે તે દક્ષિણ દિશા સંબંધી વાનર્થાતરેન્દ્રોની અગ્રમહીષીઓ (પટરાણીઓ ) નાં સમજવાં જોઈએ. આ બધી પૂર્વભવમાં નાગપુર નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ અને સહસ્સામ્રવન નામના ઉદ્યાનમાં ભગવાન પાશ્વનાથની પાસે પ્રત્રજિત થઈ ગઈ. આ બધાં અધ્યયનમાં માતાપિતા તેમજ પુત્રી આ સર્વે એક સરખાં નામવાળાં છે. જેમકે કમલપ્રભા નામના અધ્યય. નમાં માતાનું નામ કમલપ્રભાશ્રી, પિતાનું નામ કમલાપ્રભ અને પુત્રીનું નામ કમલપ્રભા છે એ પ્રમાણે બીજા અધ્યયને વિષે પણ જાણી લેવું જોઈએ. આ બધી દેવીઓની સ્થિતિ અર્ધપત્યની છે. સૂ૦ ૧૦ | પાંચમે વર્ગ સમાપ્ત. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु.२ व.६ कमलादिदेवानां चरित्रवर्णनम् ८३५ टीका-'छटोवि' इत्यादि षष्ठोऽपि वर्गः पश्चमवर्गसदृशः । नवरम्-एतावान् विशेषः-अत्र महाकालादीनाम् उत्तरीयाणामिन्द्राणामग्रमहिष्यः । एताः सर्वाः पूर्वभये साकेतनगरे उत्तरकुरूद्याने पाचप्रभुसमीपे पत्रजिताः मातरः पितरो दुहितरः सदृशनामकाः। शेषं तदेव सर्व वाच्यम् ॥ सू० ११ ॥ इति धर्ककथानां षष्ठो वर्गः समाप्तः ॥ ६॥ -षष्ठवर्ग प्रारंभः'छट्टो वि वग्गो पंचमवग्गसरिसो' इत्यादि। टीकार्थः-(छटो वि वग्गो पंचमवग्गसरिसो, णवरं महाकालादीणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुन्वभवे सागेयनयरे उत्तरकुरुउ. जाणे माया पिया धूया सरिसणामया सेसं तं चेव ११) छठा वर्ग भी पंचमवर्ग के जैसे ही है । परन्तु इसमें जो उसकी अपेक्षा विशेषता है -वह इस प्रकार है-इस अध्ययन में उत्तर दिशा के इन्द्र महाकाल आदिकों की अग्रमहिषियों का वर्णन है। ये सब अग्रमहिषियां पूर्वभव में साकेत नगर (अयोध्या) में उत्तर कुरु नामके उद्यान में पार्श्वप्रभु के समीप प्रवजित हुई हैं। माता पिता एवं पुत्रियां ये सब एक जैसा नामवाले हैं। बाकी का इनके विषय का समस्त कथन कालीदेवी के वर्णन जैसा जानना चाहिये। -षष्ठवर्ग समाप्त: છઠ્ઠો વગ પ્રારંભ – 'छट्ठो वि वग्गो पंचम वासरिसा' इत्यादि(छट्टो विवग्गो पंचमवग्गसरिसो, णवरं महाकालादीणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुत्वभवे सागेय नयरे उत्तरकुरु उजाणे मायापिया धूया सरिस णामया सेसं तं चेव ११) છ વર્ગ પણ પાંચમા વર્ગના જેવો જ છે. પરંતુ આમાં જે તેના કરતાં વિશેષતા છે, તે એ પ્રમાણે છે કે આ અધ્યયનમાં ઉત્તર દિશાના ઈન્દ્ર મહાકાલ વગેરેની અગ્રમહિષીઓ (પટરાણીઓ) નું વર્ણન છે. આ બધી અગમહિષીઓ પૂર્વભવમાં સાકેત નગરમાં ઉત્તરકુરૂ નામના ઉદ્યાનમાં પાર્શ્વ પ્રભુની પાસે પ્રવજિત થઈ છે. માતાપિતા અને પુત્રીએ બધાં એક સરખાં નામવાળાં છે. એમના વિષેનું બાકીનું બધું કથન કાલી દેવીના વર્ણન જેવું જાણવું જોઈએ. છઠ્ઠો વર્ગ સમાસ, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अथ सप्तमो वर्गः प्रारभ्यते-' सत्तमस्से' त्यादि । मूलम्-सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू | जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-सूरप्पभा आयवा अच्चिमाली पभंकरा, पढमज्झयणस्त उक्खेवओ, एवं खल जंब ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभा देवी सूरंसि विमाणंसि सूरप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहाणवरं पुव्वभवे अरक्रीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहाव. इस्स सूरसिरीए भारियाए सुरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहिं अब्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि सव्वाओ अरक्खुरीए णयरीए ॥ सू० १२ ॥ ॥ सत्तमो वग्गो समत्तो ॥ ७॥ टीका-'सत्तमस्से ' ति-सप्तमस्य वर्गस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मस्वामीकथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! यावत् चत्वारि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-तानि -:सप्तमवर्ग प्रारंभः'सत्तमस्सवग्गस्स उक्खेवओ' इत्यादि । टीकार्थ:--(सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ एवं खलु जंवू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता) हे भदंत ! सातवें वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार है ? इस जंबूस्वामी के प्रश्न करने पर गौतमस्वामी उनसे कहते हैं-कि हे जंबू! सुनो, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण સાતમે વર્ગ પ્રારંભ 'सत्तमस्स वग्गरस उक्खेवओ' इत्यादि २४१-(सत्तमरस वग्गस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! जाव चत्वारि अज्झयणा पण्णत्ता ) 3 महन्त ! सातमा पानी र५७ वी शत छ ? જંબૂ વામીના આ પ્રશ્નને સાંભળીને ગૌતમ સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જબૂ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ સાતમા વર્ગના ચાર અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે. श्री शाता था। सूत्र : 03 Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु २ व. ७ सूरप्रमादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८३७ यथासुरप्रभा १, आतपा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्ककरा ४ । प्रथमाध्ययनस्योत्क्षे. पकः । सुधर्मस्वामीमाह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राज. गृहे समवसरणम् भगवद्वर्धमानस्वामिसमागमनम् यावत् परिषत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मुरप्रभादेवी, सुरविमाने, मूरप्रभे सिंहासने, शेष भगवान महावीर ने इस सातवें वर्ग के चार अध्ययन प्ररूपित किये हैं -(तं जहा-सूरप्पभा, आयवा, अचिमाली, पभंकरा, पढमज्झयणस्त, उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभा देवी, सूरंसि विमाणंसि सूरप्पमंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहा) वे चार अध्ययन इस प्रकार है सूरप्रभा १, आतपा २, अर्चिमाली ३, प्रभङ्करा ४, इनमें प्रथम अध्ययन का उत्क्षेपक हे जंबू ! इस प्रकार हैउस काल और उस समय में राजगृह नाम के नगर में भगवान वर्धमानस्वामी का आगमन हुआ था-प्रभु का आगमन सुनकर वहां की परिषद उनको वंदना करने के लिये उनके समीप गई-प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनकर सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल और उस समय में सूरप्रभा नाम की एक देवी जो सूरविमान में रहती थी-और सूरमन सिंहासन पर बैठती थी प्रभु को वंदना करने के लिये आई। इसके गद का इसका वृत्तान्त जैसा पहिले कालीदेवी (तं जहा-मुरप्पभा, आयवा, अच्चिमाली, पभेकरा, पढमज्झयणस्स, उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभादेवी, सूरंसि विमाणंसि सूरप्पमंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहा) - તે ચાર અધ્યયને આ પ્રમાણે છે–સૂરપ્રભા ૧, આતા ૨, અર્ચિમાલી ૩, પ્રભાસ્કરા ૪, હે જંબૂ ! આ બધામાં પહેલા અધ્યયનને ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામના નગરમાં ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીનું આગમન થયું. પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાંની પરિષદ તેમને વંદના કરવા માટે તેમની પાસે ગઈ. પ્રભુએ સૌને ધર્મને ઉપદેશ આપે. ઉપદેશ સાંભળીને સૌએ પ્રભુની પર્યપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે સૂરપ્રભા નામની એક દેવી-જે સૂર વિમાનમાં રહેતી હતી અને સૂરપ્રભ સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી-પ્રભુની વંદના કરવા માટે આવી. એના પછીનું શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यथा काल्याः काली देव्या वर्षनं तथा विज्ञेयम् , नवरम् अयं विशेषः पूर्वभवे अरक्षयों नगयों सूरपभस्य गाथापतेः, सूरश्रियो भार्यायाः मुरप्रभा दारिका, सुरस्य अग्रमहिषी स्थितिर पल्योपमं पञ्चभिवर्षशतैरभ्यधिकम् । शेषं यथा काल्याः । एवं शेषा अपि-आतपादिकाः देव्यो वाच्याः । सर्वाः पूर्वभवे अरक्षुयों नगर्यामासन् ॥ सू०१२॥ ॥ इति धर्मकथानां सप्तमो वर्गः समाप्तः ॥७॥ का वृत्तान्त लिखा जा चुका है-वैसा ही हैं। उसमें कुछ अन्तर नहीं है (णवरं ) परन्तु जिन बातों में अन्तर है-वह इस प्रकार है-(पुत्वभवे) यह पूर्वभव में (अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सूरसिरीए भारियाए सूरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अभहियं सेसं जहा कालीए एवं सेसाओ वि सव्वाओ अरक्खुरीए णयरीए १२) अरक्षुर नामकी नगरी में निवास करनेवाले सूरप्रभा गाथापति की सूर श्री भार्या की कुक्षि से अवतरी थी। इसका नाम सूरप्रभा था। यह सूर की अग्रमहिषी हुई। इसकी वहां पांचसो वर्ष से अधिक अर्धपल्य की स्थिति है। और इसका इस अवस्था का समस्त वर्णन काली समान ही है। इसी तरह का आतपाआदिक ३ देवियों का भी जीवन वृत्तान्त है । ये ३ तीनों ही देवियां अपने २पूर्वभव में अरक्षुर नगरी में जन्मी थीं। सू०१२ ।। -सप्तमवर्ग समाप्त:આનું વર્ણન કાલી દેવીના વર્ણન જેવું જ સમજી લેવું જોઈએ, તેમાં કઈ upy andो तावत नथी. ( णवर) ५२तु रे पातमा त छ, ते । प्रमाणे छ. ( पुत्रभवे ) 24पूनम ( अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सुरसिरीए भारियाए सूरप्पमा दारिया मुरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहिं अब्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओ वि सव्वाओ अरक्खुरीए णयरीए १२) અરક્ષરી નામની નગરીમાં રહેનારી સૂરપ્રભા ગાથા પતિની સૂરશીભાર્યાના ગર્ભથી જન્મ પામી હતી, તેનું નામ સૂરજપ્રભા હતું. તે સૂરની અગમહિષી ( પટરાણી) થઈ તેની ત્યાં પાંચસો વર્ષ કરતાં વધારે અર્ધપત્યની સ્થિતિ છે. તેનું આ અવસ્થા વિષેનું બધું વર્ણન કાલીના જેવું જ છે. એ પ્રમાણે જ આપ વગેરે ૩ દેવીઓનું પણ જીવનવૃત્તાંત છે. આ ત્રણે દેવીઓ પિત. પિતાના પૂર્વભવમાં અરક્રુર નગરમાં જન્મ પામી હતી. સૂ૦૧૨ સાત વર્ગ સમાપ્ત. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणो टो० श्रु०२ २०८ चद्रप्रमादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८३९ अथाष्टमो वर्गः प्रारभ्यते-' अट्ठमस्से' त्यादि । मूलम्-अट्ठमस्स उक्खेवओ, एवं खल्लु जम्बू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णता, तं जहा-चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा, पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभा देवी चंदप्पभंसि विमाणंसि चंदप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, गवरं पुव्वभवे महुराए णयरीए भंडीरवडेंसए उजाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया चंदस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अभहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि महराए णयरीए मायापियरोवि धूयासरिसणामा ॥ सू० १३ ॥ अहमो वग्गो समत्तो ॥ ८॥ टोका-'अट्टमस्से ति-अष्टमस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मास्वामी पाह-एवं खलु हे जम्बूः ! यावत् चत्वारि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-तानि यथा-चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अधिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४ । प्रथमस्याध्ययनस्योत्क्षेपकः । एवं -अष्टमवर्ग प्रारभ-: 'अट्टमस्स उक्खेवओ' इत्यादि । टीकार्थ-:( अट्ठमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता तं-जहा-चंदप्पभा,दोसिणाभा, अचिमाली, पभंकरा, આઠ વર્ગ પ્રારંભ — अट्ठमस्स उवखेवओ , इत्यादि( अट्ठमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता-तं जहा-चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा, पढमस्स अज्झयणस्स उवखे શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० ज्ञाताधर्मकथाजस्त्रे खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे श्रीमहावीरस्वामिनः समवसरणं, यावत्-परिषत् पयुपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्रप्रभा देवी चन्द्रप्रभे विमाने चन्द्रप्रभे सिंहासने शेषं यथा काल्याः कालीदेव्या वर्णनं तद्वद् पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं-जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभादेवी चंदप्पभसि विमाणंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, णवरं पुचभवे महुराए णयरीए भंडीरवडेंसए उजाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया ) हे भदंत ! आठवें वर्ग का उत्क्षेपक कैसा है ? इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर सुधर्मास्वामी ने उनसे कहा-हे जंबू ! सुनो तुम्हाने प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण भगवान महावीर ने इस वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किये है -वे इस प्रकार से हैं-चंद्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्माली ३, प्रभकरा ४,। इनमें हे जबू! प्रथम चन्द्रप्रभा अध्ययन का उत्क्षेपक इस प्रकार से है-उस काल में और उस समय में राजगृह नामके नगर में श्री महावीर स्वामी का आगमन हुआ था। उनसे धर्म का उपदेश प्राप्त करने के लिये वहां की समस्त धार्मिक जनता उनके पास आई थी प्रभु ने सब के लिये धर्म का उपदेश सुनाया-सुनाकर सबों ने उनकी यावत् पर्युपासना की। उस काल और उस समय में चंन्द्रप्रभा देवी जो कि वओ-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं-जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभादेवी चंदप्पभंसि विमाणंसि चंदप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, णवरं पुषभवे महुराए णयरीए भंडीरवडेंसए उज्जाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया) હે ભદન્ત ! આઠમા વર્ગને ઉન્નેપક કે છે ? આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્મા સ્વામીએ તેમને કહ્યું કે હે જંબૂ ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ વર્ગનાં ચાર અધ્યયન પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે, તે આ પ્રમાણે छ-यद्रप्रभा १, ज्योत्स्नामा २, माथिभासी 3, प्रम'४२॥ ४. ! આ ચારેમાં પહેલા ચન્દ્રપ્રભા નામે અધ્યયનને ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને સમયે રાજગૃહ નામના નગરમાં શ્રી મહાવીર સ્વામીનું આગમન થયું તેમની પાસેથી ધર્મકથા સાંભળવા માટે ત્યાંની બધી ધાર્મિક જનતા ત્યાં આવી. પ્રભુએ ધમને ઉપદેશ સંભળાવ્યો. સાંભળીને બધાએ તેમની યાવતુ પJપાસના કરી, તે કાળે અને તે સમયે ચંદ્રપ્રભા દેવી-કે જે ચંદ્રપ્રભ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૩ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका श्रु०२००८ चन्द्रप्रभादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४९ विज्ञेयम्, नवरं = विशेषस्स्वयम् - पूर्वभवे मथुरायां नगयी भण्डी रावतंसकमुद्यानम्, चन्द्रभो गाथापतिः, चन्द्रश्रीर्भार्या, चन्द्रप्रभा दारिका, चन्द्रस्याग्रमहिषी, स्थितिरर्द्ध पल्योपमं पञ्चाशद्भिर्वर्षसहस्त्रैरभ्यधिकम् । शेषं यथा काल्याः । एवं चंद्रप्रभ विमान में रहती थी और चंद्रप्रभ सिंहासन पर बैठती थीश्रमण भगवान् महावीर को वंदना करने एवं उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये उनके निकट आई। इसके बाद का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के वृत्तान्त जैसा ही है। उसमें कोई अन्तर नही है। जहां अन्तर है - उसका खुलाशा इस प्रकार है- पूर्वभव में यह मथुरा नगरी में जन्मी थी। वहां भंडीरावतंसक उद्यान था । उस नगरी में चंद्रप्रभ नाम का गाथापति रहता था । उसकी भार्या थी जिसका नाम चंद्रश्री था । उनके यहां यह चंद्रप्रभा नामकी पुत्री थी । यह चन्द्र की अग्रमहिषी बनी । (ठिई अद्धपलिओवमं, पण्णासाए वाससहस्सेहिं अन्भहियं सेस जहा कालीए एवं सेसाओवि चंदस्स अग्गमहिसी ) पचास हजार वर्ष से अधिक इसकी स्थिति आधेपल्य की है। इसके बाद का इसका जीवन वृत्तान्त काली दारिका के जीवन वृत्तान्त जैसा ही जानना चाहिये । इसी तरह ज्योत्स्नाभा आदिशेष ३ देवियों के संबन्ध को लेकर जो अध्ययन कहे गये हैं-वे जानना चाहिये ये सब ज्योत्स्नाभा વિમાનમાં રહેતી હતી અને ચંદ્રપ્રભ વિમાનમાં બેસતી હતી–શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની વના કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધર્મના ઉપદેશ સાંભળવા માટે તેમની પાસે આવી. તેના પછીનું તેનું વૃત્તાંત કાલી દેવીના વૃત્તાંત જેવુ જ છે તેમાં :કાઇ પણ જાતના તફાવત નથી. જ્યાં તફાવત છે-તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વભવમાં તે મથુરા નગરીમાં જન્મી હતી, ત્યાં ભંડીરાવત’સક ઉદ્યાન હતું. તે નગરીમાં ચંદ્રપ્રભનામે ગાથાપતિ રહેતા હતા. ચંદ્રશ્રી તેની ભાર્યાનું નામ હતું. તેને ચન્દ્રપ્રભા નામે પુત્રી હતી. या यन्द्रनी अश्रमहिषी ( पटराणी ) थ. ( ठिई अपलिओनमं, पण्णासाए वाससहस्सेहिं अन्महियं सेसं जहा कालीए एवं सेसाओवि चंदस्स अग्गमहिसी ) પચાસ હજાર વર્ષ કરતાં આની સ્થિતિ અડધા પલ્યની છે. એના પછીનું આનું જીવન વિષેનુ વર્ણન કાલી દ્વારિકાના જીવન જેવું જ સમજી લેવુ જોઇએ. આ પ્રમાણે જ્ગ્યાનાભા વગેરે ખાકી ત્રણ દેવીઓના સબધને લઇને જે અધ્યયના કહેવામાં આવ્યાં છે તેમને પણ સમજી લેવાં જોઇએ. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथाजसूत्र शेषाः ज्योत्स्नामादि देव्योऽपि विज्ञेयाः । सर्वाः पूर्वभवे मथुरायां नगयों जाताः पार्थप्रभुसमीपे च प्रवजिताः। मातापितरोऽपि दुहितसदृशनामानः ॥सू०१३॥ इति धर्मकथानामाष्टमो वर्गः समाप्तः ॥ ८॥ अथ नवमो वर्गः प्रारभ्यते-‘णवमस्स ' इत्यादि । मूलम्-णवमस्त उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाव अट्रअज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-पउमा सिवा सई अंजू रोहिणी णवामिया, अचला अच्छरा, पढमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खल्ल जंब ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई देवो सोहम्मे कप्पे पउमवडसए विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणंसि जहा कालोए एवं अवि अज्झयणा कालीगमएणं नायव्वा, णवरं सावत्थीए दो जणीओ हत्थिणाउरे दोजणीओ कंपिल्लपुरे दोजणीओ सागेयनयरे दोजणीओ पउमे पियरो विजया मायराओ सव्वाओऽवि पासस्स अंतिए पव्वइयाओ सकस अग्गमहिसीओ ठिई सत्त पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति जाव अंतं काहिति ॥ सू०१४ ॥ ॥णवमो वग्गो समत्तो ॥९॥ आदि देवियां पूर्व भव में ( महुराए णयरीए) मथुरा नगरी में उत्पन्न हुई और पार्श्वनाथ प्रभु के समीप दीक्षित हुई। (माया पिघरोवि० धृया सरिसणामा ) इन पुत्रियों का नाम वैसा ही नाम इनके माता पिता का है। -अष्टमवर्ग समाप्त:भी थी यानाला वगैरे देवी मां (महुराए णयरीए) भ७२१ नगरीमा पनि थमने पायानाथ प्रभुनी पासेथी दीक्षित 5. ( मायापियरो वि धूया सरिसणामा ) मा पुत्रीसाना नाम 24 तमना मातापिता-मानां નામે પણ છે. આઠ વર્ગ સમાપ્ત. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवषिणो टी0 श्रु. २ व० ९ पद्मादिदेवोनां चरित्रवर्णनम् ८४३ टीका-'णवमस्से ' ति-नवमस्य वर्गस्योत्क्षेपकः । एवं खलु हे जम्बूः ! यावत्-अष्ट-अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पद्मा १, शिवा २, शची ३ अतः ४, रोहिणी ५, नवमिका ६, अवला ७, अप्सराः ८ । एष प्रथमाध्ययनस्योत्क्षे -नवमवर्ग प्रारंभःणवमस्स उक्खेवओ इत्यादि। टीकार्थः- (णवमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता-तं जहा-पउमा, सिवा, सई, अंजू, रोहणी, णवमिया, अचला, अच्छरा,-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई, देवी सोहम्मे कप्पे पउमब.सए विमाणे सभाए स्तुहम्माए पउमंसि-सीहासणंसि जहा कालीए एवं अट्ठवि अज्झयणा कालीगमएणं नायव्या ) हे भदंत ! नौवें वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार से है ? इस प्रकार जब स्वामी के प्रश्न करने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंबू! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस तरह से है-श्रमण भगवान् महावीर ने इस की के यावत् आठ अध्ययन प्ररूपित किये-वे इस प्रकार से हैं-पद्मा १, शिवा, २, शची ३, अंजू ४, रोहिणी ५, नवमिका ६, अचला ७, और अप्प्सरा । इनमें हे जंबू ! प्रथम નવમે વર્ગ પ્રારંભ. (णवमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाय अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता-तं जहा पउमा, सिवा, सई, अंजू, रोहिणी, णवमिया, अचला, अच्छरा, पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जु पासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंसए विमाणे समाए मुहम्माए पउमंसि-सीहासणंसि जहा कालिए एवं अट्ठ वि अज्झयणा काली गमएणं नायब्वा ) હે ભદન્ત ! નવમા વર્ગને ઉન્નેપક કેવી રીતે છે? આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જંબૂ ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ વર્ગનાં યાવત્ આઠ અધ્યયનો પ્રરૂપિત કર્યા છે, તે या प्रमाणे छ:-५॥ १, शिवा २, शयी 3, अनू ४, डिणी ५, १. મિકા ૬, અચલા ૭ અને અસરા ૮, श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ शाताधर्मकथासूत्रे पकः । एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे समवसरणम् = भगवतो महावीरस्य समागमनमभूत् यावत्परिषत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पद्मावती देवी, सौधर्मे कल्पे पद्मावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां ? सिंहासने, यथा काल्याः । एवम् अष्टापि अध्ययनानि कालीगमकेन-कालीदेवी सह पाठेन ज्ञातव्यानि, नवरं = विशेषस्त्वयम् - पूर्वभवे श्रावस्त्यां नगर्यां 'दोज अध्ययन का उत्क्षेप इस प्रकार से है-उस काल में और उस समय में राजगृह नगर में भगवान् महावीर का अगमन हुआ था। लोगों को जब इनके शुभागमन की खबर पड़ी तो वे सब के सब उनको वंदना करने के लिये और उनसे धर्मोपदेश को काम लेने के लिये उनके समीप पहुँचे । प्रभु ने आये हुए परिषद को श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनने के बाद उसने प्रभु की यावत् पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में पद्मावती देवी जो कि सौधर्मकल्प में पद्मावतंसक विमान मे सुधर्मा सभामें रहती थी और जिसके सिंहासन का नाम पद्म था श्रमण भगवान् महावीर को वंदना करने और उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये वहां आई। इसके बाद का सम्बन्ध कालीदेवी का जैसा वर्णन पहिले किया गया है वैसा ही जानना चाहिये । इसी तरह से अवशिष्ट सात अध्ययन भी जानना चाहिये । इन आठों ही अध्ययनों को पाठ जैसा कालीदेवी का पाठ है 'वैसा ही है । कोई अन्तर नहीं हैं ( णवरं ) परन्तु जहां अन्तर है वह - હું જખ્! આમાં પહેલા અધ્યયનના ઉત્પ્રેષક આ પ્રમાણે છે-તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં ભગવાન મહાવીરનું આગમન થયું. લેાકેાને તેમના શુભાગમનની જ્યારે જાણ થઈ ત્યારે તે સર્વે તેમને વંદન કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધમને ઉપદેશ સાંભળવા માટે તેમની પાસે ગયા. પ્રભુએ આવેલા સ લેાકેાને શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધના ઉપદેશ સંભળાવ્યા. ઉપદેશ સાંભળીને લેાકેાએ પ્રભુની યાવત્ પ પાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે પદ્માવતી દેવી-કે જે સૌધર્માં કલ્પમાં, પદ્માવત'સક વિમાનમાં સુધાં સભામાં રહેતી હતી અને જેના સિંહાસનનું નામ પદ્મ હતું-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન કરવા અને તેમની પાસેથી ધર્મના ઉપદેશ સાંભળવા ત્યાં આવી. એના પછીનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવેલા કાલી દેવીના વર્ણનની જેમ સમજી લેવું જોઇએ. આ પ્રમાણે જ બાકીનાં સાત અધ્યયના વિષે પણ જાણી લેવું જોઈએ. એ આઠે આઠ અધ્યયને પાઠ કાલી દેવીના જેવા જ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु. २ ० ९ पद्मादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४५ णीओ ' द्वे जन्यौ-पा-शिवाभिधे द्वे दारिके संजाते । एवं हस्तिनापुरे द्वे जन्यौ श्रुतिः-अजूः चेति, काम्पिल्यपुरे द्वे जन्यौ रोहिणीनवमिकानाम्न्यौ, साकेतनगरे द्वे जन्यौ अचला-अप्सरा इति संजाते । सर्वेषाम् ' पउमे' पद्मः पझेति नामानः पितरः, विजया विजयानाम्नो मातर आसन् । सर्वा अपि पार्श्वस्य पार्श्वपभोरन्तिके प्रजिताः, शक्रस्याग्रमहिष्यो जाताः । तासां स्थितिः सप्तपल्योपमानि । एताः सर्वा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यन्ति यावत्सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति ॥सू०१४॥ ॥ इति धर्मकथानां नवमो वर्गः समाप्तः ॥९॥ इस प्रकार से है-(सावत्थीए दोजणीओ) पद्मा और शिवा ये दो कन्याएँ पूर्व भवमें श्रावस्ती नगरी में उत्पन्न हुई (हत्थिणाउरे दोजणी. ओ, कम्पिल्लपुरे दो जणीओ सागेयनयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजयाभायराओ सवओवि पासस्स अंतिए पव्वइयाओ सकस अग्गमहिसीओ हिई सत्तपलिओवमाई महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति जाव अंतं काहिंति १४' ) श्रुति और अंजू ये दो हस्तिनापुरमें, रोहिणी, नवमिका ये दो काम्पिल्यपुरमें, अचला एवं अप्सरा ये दो साकेत नगर में, उत्पन्न हुई। इन सब कन्याओंके पिता का नाम:पद्म और माता का नाम विजया था। ये सब कन्याएँ पार्श्वनाथ प्रभु के पास प्रवजित हई हैं। शक्र की अग्रमहिषियां बनी हैं। इन की स्थिति सातपल्य थी। ये छ तम सभा मेय. तभी तो तशवत नथी. (णवर) ५२ ज्यां तत छ-ते 40 प्रमाणे छे (सावत्थीए दोजणीओ) पद्मावती અને શિવા આ બંને કન્યાએ પૂર્વભવમાં શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઉત્પન્ન થઈ. ( हथिणाउरे दो जणीओ, कंपिल्लपुरे दो जणीओ सागेय नयरे दो जणीभो पउमे पियरो विजया भायराओ सवाओवि पासस्स अंतिए पन्नइयाओ सक्कस्त अग्गमहिसीओ ठिई, सत्त पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति जाव अंतं काहिंति “ १४"।) શ્રતિ અને અંજૂ આ બંને હસ્તિનાપુરમાં, રોહિણી અને નામિકા આ બને કાંપિત્યપુરમાં અચલા અને અસરા આ બંને સાકેત નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ. આ બધી કન્યાઓના પિતાનું નામ પદ્મ અને માતાનું નામ વિજયા હત. આ બધી કન્યાએ પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે પ્રત્રજિત થઈ છે અને શકની અમહિષીઓ (પટરાણીઓ ) બની છે. એમની સ્થિતિ સાત પલ્ય જેટલી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शाताधर्मकथाडसूत्रे अथ दशमो वर्गः प्रारभ्यते-दसमस्स' इत्यादि। मूलम्-दसमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हा य कण्हराई रामा तहरामरक्खिया वसू य । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव ईसाणे ॥१॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हादेवी ईसाणे कप्पे कण्हवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए एवं अवि अज्झयणा कालीगमएणं गेयव्वा, णवरं पुत्वभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ सावत्थीए नयरीए दो जणीओ कोसंबीए नयरीए दो जणीओ, रामे पिया धम्मा माया सव्वओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ पुप्फचूलाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए ईसाणस्त अग्गमहिसीओ ठिई णव पलिओवमाइं महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति बुन्जिहिंति मुच्चिहिंति सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति। एवं खलु जंबू ! णिक्खेवओ दसमवग्गस्ल ॥ सू० १५॥ ॥दसमो वग्गो समत्तो ॥ १०॥ टीका-'दसमस्से' ति दशमस्य उत्क्षेपकः । एवं खलु हे जम्बूः ! यावत् अष्ट-अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-तानि गाथया प्रदर्श्यन्ते 'कण्हे ' त्यादि । सब महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध अवस्था प्राप्त करेंगी-यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगी। सू०१४ ॥ ॥ नवमवर्ग समाप्त ॥ છે. આ બધી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાંથી સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે યાવત સર્વ हुमानो मत ४२ ॥ सूस १४ ॥ નવ વર્ગ સમાપ્ત. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ०२ २०१० कृष्णादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४७ "कृष्णा १ च कृष्णराजिः २, रामा ३ तथा रामरक्षिका ४ वसूश्च ५ वसुगुप्ता ६, वसुमित्रा ७, वसुन्धरा ८ चैत्र ईशाने ॥ १॥" तत्तन्नामभिरध्ययनानि प्रसिद्धानि । तत्र प्रथमाध्ययनस्योत्क्षेपकः । एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे भगवतः श्रीमहावीर ॥ दशमवर्ग प्रारंभ ॥ 'दसमस्स उक्खेवओ' इत्यादि० "१५" टीकार्थ-(दसमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठअज्झयणा पण्णत्ता-तं जहां कण्हाय कण्हराई, रामा, तह रामरक्खिया वसूय। वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव ईसाणे "१"-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू !) हे भदन्त श्रमण भगवान महावीर ने दशवें वर्गका उत्क्षेपक किस प्रकार से कहा है ? इस तरह का जंबू! स्वामी के प्रश्न का समाधान करने के निमित्त सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंबू ! सनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण भगवान् महावीरने इस दशवें वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-वे ये हैं-कृष्णा १, कृष्णराजि २, रामा ३, रामरक्षिका ४, वसू ५, वसुगुप्ता ६, वसुमित्रा ७, और वसुंधरा। इन २ नामों द्वारा इन २ नाम वाले अध्ययन प्रसिद्ध हुए हैं। इनमें प्रथम अध्ययन का हे जंबू ! उत्क्षेपक शमी व प्राम' दस्समस्स उक्खेवओ' इत्यादि( दसमस्स उक्खेव मो-एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अझयणा पण्णत्ता-तं जहा-कण्हा य कण्डराई, रामा तह रामरक्खिया वस् य । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव ईसाणे ॥ १॥ पढमझयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! ) હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમાં વર્ગને ઉક્ષેપક કેવી રીતે કહ્યો છે? આ પ્રમાણેના જ બૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને તેના સમાધાન માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જબૂ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ દશમા વર્ગના આઠ અધ્યયને પ્રજ્ઞસ કર્યા છે, તે આ પ્રમાણે છે-કૃષ્ણ ૧, કૃષ્ણારાજિર, રામા 3, रामरक्षिा ४, वसू ५, सुगुता ६, सुमित्रा ७ मने पसुंधरा ८. આ ઉક્ત જુદા જુદા નામે વડે એ જ નામનાં જુદાં જુદાં અધ્યયને પ્રસિદ્ધ થયાં છે. હે જબૂ! આ બધામાંથી પહેલા અધ્યયનને ઉક્ષેપક श्री शताधर्म थांग सूत्र :03 Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे स्वामिनः समवसरणं यावत् परिषत् पर्युपास्ते, तस्मिन् काले तस्मिन् समये कृष्णादेवीशाने कल्पे कृष्णावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां, कृष्ण सिंहासने, शेषं इस तरह से हैं - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासर) उस काल एवं उस समय में राजगृह नगर में भगवान् महावीर का शुभागमन हुआ था। परिषद् उन को वंदना आदि करने के लिये उनके समीप पहुँची । प्रभुने सबके लिये धर्म का उपदेश सुनाया। लोगोंने उपदेश सुनकर प्रभु की पर्युपासना की ( तेणं कालेणं तेणं समरणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए कहंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालिए एवं अविट्ठाअज्झयणा कालीगमएणं णेयव्वा णवरं पुण्वभवे वाणारसीए नगरीए दो जणीओ रायगिहे नवरे दो जणीओ, सावत्थीए नयरीए दो जणीओ, को बीए नयरीए दो जणीओ रामे पिया धम्मा माया सव्वओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ पुप्पाचलाए अज्जाए सिस्सिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठिई, णवपालिओ माई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति, बुज्झिहिंति, मुच्चिहिंति, सव्वदुक्खाणं, अंतंकाहिंति एवं खलु जंबू ! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स ) उसी काल और उसी समय वहां कृष्णादेवी जो ईशान कल्प में कृष्णावतंसक विमान में रहती थीं- और या प्रमाणे छे. ( तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं, जाव परिसा पज्जुवासइ ) ते जे भने ते समये राजगृह नगरमा भगवान महावीरनुं શુભાગમન થયું. તેમને વંદન કરવા માટે પિરષદ તેમની પાસે પહેાંચી. સૌને પ્રભુએ ધમેપદેશ સંભળાવ્યો. ધર્માંપદેશ સાંભળીને પરિષદે પ્રભુની પયુ પાસના કરી. ( तेणं कालेणं तेणं समरणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हेवडेंसर विमाणे सभाए सुम्मा कहंसि सीहासगंसि सेसं जहा कालीए एवं अविट्ठा अज्झयणा कालीगमरणं यया, वरं पुव्वभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ, सावत्थीए नयरीए दो जणीओ, कोसंबीए नयरीए दो जणीओ रामे पिया धम्मा माया सव्वओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ पुष्फ चूलाए अज्जाए सिस्मिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठिई, णवपलि ओवमाई, महाविदेहे वासे सिज्झिर्हिति बुज्झिर्हिति मुच्चिर्हिति सव्वदुक्खाणं, अंत कार्हिति एवं खलु जंबू ! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स ) તે કાળે અને તે સમયે ત્યાં કૃષ્ણા દેવી કે જે ઇશાન-કલ્પમાં કૃષ્ણાવતસક વિમાનમાં રહેતી હતી અને જેની સભાનું નામ સુધર્મા તેમજ સિંહાસનનું નામ કૃષ્ણા હતું—આવી એના પછીના પારૂ કાલી દેવીના શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ " Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ १० १० कृष्णादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४९ यथा काल्याः। एवमष्टा कृष्णराजिप्रभृतीनि अध्ययनानि कालीगमकेन-कालीदेवीसदृशपाठेन ज्ञातव्यानि नवरं-विशेषः यत्-पूर्वभवे वाणारस्यां नगयों द्वे कृष्ण-कृष्णराजिनाम्न्यौ जन्यौ-दारिके संजाते । एवं राजगृहे नगरे द्वेवसूवसुगुप्ता नाम्न्यौ जन्यौ, कौशाम्ब्यां नगर्या द्वेवसुमित्रा-वसुन्धरा नाम्न्यौ जन्यौ-दारिके समुत्पन्ने । सर्वासां रामारामाभिधः पिता, धर्मा-धर्माऽभिधा माता । सर्वा अपि पार्श्वस्याहतोऽन्तिके पत्रजिताः, पुष्पचूलाया आर्यायाः शिष्यात्वेन पार्श्वप्रभुणा स्वयं प्रदत्ताः । ईशानस्य ईशानेन्द्रस्य अग्रमहिष्यो जाताः । तत्र तासां स्थिति व पल्योपमानि वर्तते । ततश्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे समुत्पद्य सेत्स्यन्ति, जिसकी सभा का नाम सुधर्म तथा सिंहासन का नाम कृष्ण था आई। इस के आगे का पाठ कालीदेवी के वर्णन में जैसा पाठ कहा गया है वैसा ही है। इसी तरह से कृष्णराजि प्रभृति अध्ययन भी-कालीदेवी वर्णन में पठित पाठ के सदृश ही जानना चाहिये । कालीदेवी के पाठ में और इन आठ अध्ययनोक्त पाठों में जो अन्तर है वह इस प्रकार से है-पूर्वभव में वाणारसी नगरीमें कृष्णा और कृष्णराजि ये दो जनी -उत्पन्न हुई, राजगृहनगर में रामा और रामरक्षिका श्रावस्ती नगरी में वसू, वसुगुप्ता और कौशांबी नगरी में वसुमित्रा एवं, वसुंधरा उत्पन्न हुई। इन सब के पिता का नाम राम और माताओं का नाम धर्मा था। ये सबकी सब पार्श्वनाथ प्रभु के पास प्रव्रजित हुई। प्रभुने इन सब को दीक्षित करके पुष्पचूला आर्या की शिष्यारूप से दिया। ये सब इस ईशानेन्द्रकी अग्रमहिषी हुई। वहां इनकी स्थिति नौ पल्योपम की है। वहां से चवकर ये महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और वहीं से વનમાં જે પ્રમાણે પાઠ કહેવાય છે તે પ્રમાણે જ સમજી લે જોઈએ. આ પ્રમાણે જ કૃષ્ણરાજિ વગેરે અધ્યયને પણ કાલી દેવીના પાઠમાં અને આ ઉક્ત આઠ અધ્યયના પાઠેમાં જે કંઈ તફાવત છે તે આ પ્રમાણે છે–પૂર્વભવમાં વાણારસી નગરીમાં કૃષ્ણ અને કૃષ્ણારાજ આ બંને ઉત્પન્ન થઈ રાજગૃહ નગરમાં રામ અને રામરક્ષિકા શ્રાવતી નગરીમાં વસ, વસુગુપ્તા અને કૌશાંબી નગરીમાં વસુમિત્રા અને વસુંધરા ઉત્પન્ન થઈ. એમના પિતાનું નામ રામ અને માતાનું નામ ધર્મા હતું. એ ખધીએ પાર્શ્વનાથ પ્રભુતી પાસે પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરી હતી. પ્રભુએ સને દિક્ષિત કરીને પુષ્પચૂલા આર્યાને શિષ્યાઓના રૂપમાં સોંપી હતી. એ બધી ઈશાનેન્દ્રની અગ્રમહિષીઓ થઈ. ત્યાં તેમની સ્થિતિ નવ પલ્યોપમની છે. ત્યાંથી ચવીને એ બધી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ્ધ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર:૦૩ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे भोत्स्यन्ति, मोक्ष्यन्ति सर्व दुःखानामन्तं करिष्यन्ति । एवं खलु हे जम्बूः ! निक्षेपको दशमवर्गस्य ॥ सू०१५ ॥ ॥ इति धर्मकथानां दशमो वर्गः समाप्तः ॥ १० ॥ मूलम्--एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं सयंसंबुद्धणं पुरिसोत्तमेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं अयम? पण्णत्ते ॥ ॥धम्मकहासुयक्खंधो समत्तो दसहि वग्गेहिं ॥ ॥णायाधम्मकहाओ समत्ताओ ॥ टीका-सुधर्मास्वामी कथयति-' एवं खलु' इत्यादि । एवं खलु हे जम्बूः! श्रमणेन भगवता महावीरेण आदिकरेण तीर्थकरेण स्वयं सम्बुद्धेन पुरुषोत्तमेन सिद्ध पद की भोक्ता बनेंगी केवलज्ञानरूप आलोक से समस्त चराचर पदार्थों की ज्ञाता बनेगी। द्रव्य एवं भावरूप समस्त कर्मों से छूटजावेंगी इस तरह ये वहीं से समस्त दुःखों का अन्त करने वाली होंगी। इस प्रकार हे जंबू ! यह दशवेवर्ग का निक्षेपक है। ॥दसमवर्ग समाप्त ॥ ‘एवं खलु जंबू ! ' इत्यादि । टीकार्थ-( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आदि गरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेण जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं अयम? पण्णत्ते ) अब जबूस्वामी से श्री सुधीस्वामी कहते हैं कि हे પદ મેળવશે એ બધી કેવળજ્ઞાન રૂપ આલેકથી સમસ્ત ચર અને અચર પદાર્થોનું જ્ઞાન મેળવશે. દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ બધા કર્મોથી મુક્ત થઈ જશે. આ પ્રમાણે એ બધી ત્યાંથી જ બધા દુઃખને અંત કરનારી થશે. આ પ્રમાણે હે જંબૂ ! આ દશમા વર્ગને નિક્ષેપક છે. शमी व समास. एवं खलु जंबू ! इत्यादि( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयं संबुद्धणं पुरिसोत्तमेणं जाव संपत्तेणं धम्म कहाणं अयमढे पण्णत्ते ) श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03 Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५१ यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन धर्मकथानामयमर्थः प्रज्ञप्तः ॥ ॥ धर्मकथनामको द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक- प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - ''जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु- बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां - ज्ञाताधर्मकथासूत्रस्थानगारधर्मामृतवर्षि व्याख्या व्याख्या समाप्ता ॥ जंबू | आदिकर, तीर्थङ्कर, स्वयं संबुद्ध पुरुषोत्तम, यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए ऐसे श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कंध का पूर्वोक्तरूप से अर्थ प्रज्ञप्त किया है । (धम्मकहासुयक्खधो समत्तो दसहिँ वग्गेहिं ) धर्मकथा नामका यह द्वितीय श्रुतस्कंध दशवर्गों में समाप्त हुआ है । इस तरह ( णायाधम्मकहाओ समन्ताओ) यह ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र समाप्त हुआ । श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या समाप्त ॥ હવે જબ્રૂ સ્વામીને શ્રી સુધર્માં સ્વામી કહે છે કે હે જમ્મૂ ! આદિકર તીર્થંકર, સ્વયં સંબુદ્ધ, પુરૂષાત્તમ યાવત્ સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચૂકેલા એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધકથા નામના બીજા શ્રુતસ્કંધના यूर्वेत इथे मर्थ अ३पित ये छे. ( धम्म कहा सुयक्खंधो समत्तो दसहि बग्गेहि' ) धर्म था नामनो या मीने श्रुतस्संबंध दृश वर्गोभां पूरो थयो छे. खा प्रभा ( णाया धम्म कहाओ समत्ताओ ) मा ज्ञाता धर्मसूत्र भूई थयुं छे. શ્રી જૈનાચાય જૈનનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “જ્ઞાતાધર્મકથાઙ્ગસૂત્ર” ની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યા સમાપ્ત શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 852 जाताधर्मकथाजस्व -शास्त्रप्रशस्ति:काठियावाडदेशेऽस्ति, राजकोटपुरे शुभे कोठारीहरगोबिन्द काकानाम प्रसिद्धिमान् / तस्यास्तिभार्यापरमा सुशीला, धर्मानुरक्तागृहकार्यदक्षा। शान्तिप्रिया दीनदयाद्रभावो, नाम्ना प्रसिद्धा किलरुक्मिणीसा // 2 // दिनेशचन्द्रस्तनयोऽस्ति यस्य, कुलस्य दीपः सरलस्वभावः / कन्या सुशीला सरला जितुश्च-सदा-प्रमोदाय चकास्तिपित्रोः // 3 // व्याख्यानभवने तस्य, ज्ञाताधर्मकथानके / घासीलालेन मुनिना कृता टीका सतां मुदे // 4 // द्विसहस्रचतुः संख्ये, विक्रमाब्दे रवौ दिने / माघे शुक्ले च पञ्चम्यां, सम्पूर्णा धर्मवर्षिणी // 5 // काठियावाडदेश में राजकोट नामका अच्छा नगर है। उस में कोठारी हरगोविन्दकाका रहते हैं। इनका सुशीलभार्याका नाम रुक्मिणी हैं। यह गृहकार्य में बहुत चतुर है। धर्मात्मा है, शान्ति प्रिया है एवं दीन दुःखियों के ऊपर सदा दया भाव रखती है / काका का कुल दीपक एक दिनेशचन्द्र नाम का पुत्र और जितु नाम की कन्या है। ये दोनों माता पिता के प्रमोद के स्थान भूत हैं। मुझ घासीलाल मुनिराज ने उन्ही के व्याख्यान भवन में ठहर कर विक्रम संवत् 2004 दिन रविवार माघशुक्ला पंचमी के दिन ज्ञाता धर्मकथाङ्ग, सूत्र की यह टीका रचकर समाप्त की है। કાઠિયાવાડ પ્રાંતમાં રાજકોટ નામે એક સરસ રમ્ય નગર છે. તેમાં કોઠારી હરગોવિંદ કાકા રહે છે. તેમની સુશીલ પત્નીનું નામ રુકિમણી છે. તેઓ ગૃહકાર્યમાં બહુ જ ચતુર છે, ધર્માત્મા તેમજ શાંતિ પ્રિયા પણ છે. તેઓ ગરીબ દુઃખીઓના ઉપર હમેશાં દયાભાવ રાખે છે. કાકાને કુળદીપક એક દિનેશચંદ્ર નામે પુત્ર અને જિતુ નામે એક કન્યા છે. આ બંને માતાપિતાનાં પ્રમોદનાં આશ્રયસ્થાને છે. મેં ઘાસલાલ મુનિરાજે તેમના જ વ્યાખ્યાન ભવનમાં રહીને વિકમ સંવત 2004 રવિવાર માઘ શુકલા પંચમીના દિવસે જ્ઞાતાધર્મકથાગ સત્રની આ ટીકા રચીને પૂરી કરી છે. श्री शताधर्म अथांग सूत्र :03