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________________ - अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वोपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१९ अथोपनयं प्रदर्शयति,-' एवामेव' एवमेव शब्दाद्यमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थी वा यावत्-आचार्योपाध्यायानामन्ति के प्रत्रजितः सन् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु 'नो सज्जइ 'नो सज्जतेआसक्तिमान् न भवति ‘नो रज्जइ ' नो रज्यते अनुरक्तो न भवति, नो गृध्यति, न वाञ्छति, नो मुह्यति=न मूर्छति, नो अध्युपपद्यतेन तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एव बहूनां श्रमणादीनां चतुर्विधसङ्घस्य अर्चनीयासंमाननीयः यावत् चातुरन्तसंसारकांन्तारं 'वीइवइस्सइ ' व्यतित्रजिष्यति-उल्लङ्घयिष्यति-पारं गमिष्यतीत्यर्थः । सू०३ ।। पउरत्तणपाणिया णिम्भया णिरुम्विग्गा सुहं सुहेणं विहरंति) और जंगल में ही जो प्रचुरचरने की जमीन थी-जिसमें अधिक से अधिक मात्रा में तृण और पानी भरा हुआ रहता था उसमें ही निर्भय, निरुद्विग्न होकर सुखपूर्वक रहे। अब इस दृष्टान्त का उपनय प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार कहते है-। (एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सद्द फरिसरसरूवगंधेसु णो सजइ णो णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्झोववज्जेइ, से णं इह. लोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिजे जाव वीइवइस्सइ) हे आयु मंत श्रमणो! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन एवं निर्ग्रन्थी साध्वी जन अचार्य उपाध्यय के पास प्रव्रजित होकर शब्द स्पर्श, रस, रूप, और गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयो में आसक्ति युक्त नहीं होता है, अनुरक्त नहीं बनता है, उन्हें चाहता नहीं है, उनमें मूर्छित नहीं होता है, उनमें तल्लीन नहीं होता है, वह इस लोक में ही अनेक सुहेण विहरति ) मने वनमा प्रयु२ २२वानी भीन ती, न्यi qधारमा વધારે ઘાસ અને પાણી હતાં ત્યાં જ નિર્ભય, નિરૂદ્વિગ્ન થઈને સુખથી રહેવા લાગ્યા. હવે આ દૃષ્ટાન્તને ઉપનય સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે – (एवामेव समणाउसो जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सदफरिसरसरूवगंधेसु णो सज्जइ णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्झोववज्जेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ) હે આયુષ્મત શ્રમણ ! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ સાધુઓ કે નિગ્રંથ સાધવીએ આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઈને શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચે ઈન્દ્રિયના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી, અનુરક્ત થતા નથી. તેમને ઈચ્છતા નથી, તેઓમાં મૂછિત થતા નથી श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03
SR No.006334
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages867
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size50 MB
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