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________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे निर्ग्रन्थ्यः ईर्यासमिता ईर्यासमितियुक्ताः, यावद्-गुप्तब्रह्मवारिण्यः स्मः, तस्माद् नो खलु अस्माकं कल्पते-' बहिया' बहिः-ग्रामाद् यावद् संनिवेशाद् षष्ठ षष्ठेन ' जाव विहरित्तए ' यावद् विहर्तुम् ग्रामादे बहिः प्रदेशे साध्वीनां स्थितिः शीलभङ्गादिकारणं भवतीति भावः । किंतु कल्पते खलु अस्माकम् 'अंतो' अन्तः अभ्यन्तरे ' उक्स्सयस्स' उपाश्रयस्य-वसतेः, किम्भूतस्य 'वितिपरिक्खित्तम्स' वृति परिक्षितस्य=भित्त्यादिना सर्वतः समातस्य, 'संघाडिबद्धियाए' संवाटिका प्रतिबद्धाया: प्रतिबद्धशाटिकायाः सर्वधाऽनुद्वाटितगात्राया इत्यर्थः 'समतलपइयाए ' समतलपदिकाया भूमौ समतलतया स्थापितचरणयुगलाया आयावित्तए ' आतापयितुम् आतापनां कत्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः। ततः अज्जे ! समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीभो,नो खलु अम्हें कप्पइ बहियागामस्स जाव सणिवेसस्स वा छटुं० जाव विहरित्तए ) इस प्रकार सुकुमारिका साध्वी का कथन सुनकर गोपालिका आर्या ने उस सुकुमारि का आर्या से इस प्रकार कहा हे आर्ये । हम लोग निर्ग्रन्थ श्रमणिया हैं । ईर्या आदि समितियों का पालन करती हैं। और नौ कोटि से ब्रह्मचर्य की रक्षा करती हैं। इस लिये हम लोगों को ग्राम से यावत् सन्निवेश से बाहिर रह कर षष्ठ षष्ठ को तपस्या करना यावत् सूर्याभिमुखी होकर आतापन योग धारण करना कल्पित नहीं है । कारण-ग्रामादि के बाहिरी प्रदेश में साध्वियों का रहना शीलभंग आदि का निमित्त बन जाता है। (कप्पइ णं अम्ह. अंतो उबस्सयस्स विइपरिक्खित्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतल पइयाए आयावित्तए ) हमें तो यही कल्पित है कि हम लोग उपाश्रय के एवं क्यासी-अम्हेणं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओईरिया सामियाओं जाव गुत्त बंभवारिणोओ, नो खलु अम्ह कप्पइ बहिया गामरस जाव सणि वेसस वा छ,० जाव विहरित्तए ) माशते सुभारित सवीतुं ४थन समितीने गोपानि આર્યાએ સુકુમારિકા આર્યાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ ! આપણે નિર્ચ થે કામણીએ છીએ. ઈર્યા વગેરે સમિતિઓનું પાલન કરીએ છીએ, અને નવકેટિથી બ્રહ્મચર્યનું રક્ષણ કરીએ છીએ. એથી આપણે ગામથી યાવત્ સન્નિવેશથી બહાર રહીને ષષ ષષની તપસ્યા કરવી યાવત્ સૂર્યાભિમુખી થઈને આતપન ગ ધારણ કર કલ્પિત નથી. કારણ કે-ગામ વગેરેથી બહારના પ્રદે शम सापामाथे २९ शीम विजेरेनु निमित्त 45 लय छे. (कप्पडणं अम्हे अंतो उवस्सयस विइपरिक्खित्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आया वित्तए) मापधुनता से लियत है आपका लींत पोथी यामेर श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03
SR No.006334
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages867
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size50 MB
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