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________________ ३७४ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे बाहयचेष्टाविशेषाः, तैः संमिश्र=संयुक्तं, मैञ्यादिभावानां निःश्रेयसाभ्युदयधर्ममूलत्वेन शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात् । तदेवंविधमनुष्ठानं धर्म इति कीर्त्यते शब्द्यते सुधीभिरिति । नन्वेवं वचनाऽनुष्ठानं धर्म इति प्राप्तं, तथा च प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानेष्वव्याप्तिरिति चेन्न-इह तु वचनादित्यत्र वेदात् प्रवृत्तिरित्यत्रेव प्रयोज्यत्वार्थिका धर्म का अस्तित्व जाना जाता है अन्य सिद्धान्तकारों ने भी इन्हें निः श्रेयस और स्वर्ग के कारणभूत धर्म का मूल कहा है । अतः जो आगम से अविरुद्ध है, काल ओदि की आराधना के अनुसार जो आराधित होता है और जो मैत्री आदि चार भावनाओं से गर्मित है ऐसा अनुष्ठान ही धर्म है । ऐसे ही धर्म की आराधना करने का गणधर आदि का आदेश है। भावार्थ-तीर्थकर कथित आगम के अनुसार होने वाले अनुष्ठान का नाम धर्म है । इसका फलितार्थ यही है कि जिस अनुष्ठान में तीर्थकर प्रभु द्वारा कथित आगम से विरोध नहीं आता है वही धर्म है । तथा च-प्रीति भक्ति और असंग रूप अनुष्ठानों में इस लक्षण की अप्राप्ति नहीं होती है क्यों कि वहां पर भी इस लक्षण का सद्भाव पाया जाता है " वाचनानुष्टानं धर्मः" इस प्रकार के कथन में " वेदात् प्रवृत्तिः" की तरह प्रयोज्य अर्थ में पंचमी विभक्ति हुई है अतः जिस प्रवृत्ति का प्रयोज्य वचन है वह धर्म है। (वचनानुष्ठानं धर्मः ) यहां से लेकर (प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान इत्यादि तक ) लिखने की आवश्यकता જાણવામાં આવે છે. બીજા સિદ્ધાંતકારોએ પણ આ બધાને નિઃશ્રેયસ અને સ્વર્ગના કારણભૂત ધર્મનું મૂળ બતાવ્યું છે. એથી જે આગમથી અવિરુદ્ધ છે કાળ વગેરેની આરાધના મુજબ જે આરાધિત હોય છે અને જે મૈત્રી વગેરે ચાર ભાવનાઓથી યુક્ત છે એવું અનુષ્ઠાન જ ધર્મ છે. એવા જ ધર્મની આરાધના કરવા માટે ગણધર વગેરેનો આદેશ છે. ભાવાર્થ-તીર્થકર કથિત આગમમુજબ આચરાયેલા અનુષ્ઠાનનું નામ ધર્મ છે. એને અર્થ આ પ્રમાણે ફલિત થયો છે કે જે અનુષ્ઠાનમાં તીર્થંકર પ્રભુ વડે કથિત આગમથી વિરોધ જણાતું નથી તે જ ધર્મ છે તેમજ પ્રીતિ. ભક્તિ અને અસંગ રૂપ અનુષ્ઠાનમાં આ લક્ષણની અપ્રાપ્તિ પણ હોતી નથી म त्यां पशु या सक्षगुने सहमा भणे छ. “ वाचनानुष्ठान धर्मः" मा तनाथनमा " वेदात् प्रवृत्तिः "नी भ. प्रयोन्य अर्थमा यमी विमति छ. मेटमा भाट र प्रवृत्तिनु प्रयोज्य चयन छ त धम छ. (वचना. नष्ठान धर्मः) महीथी भांडीन प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान कोरे सुधी भवानी श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03
SR No.006334
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages867
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size50 MB
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