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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा ४११ तदनन्तरं पुनः प्रतिमापूजकैः स्वीकृते मूलपाठे' तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणिलंसि नमेइ ' इति दृश्यते, 'नमेइ' इत्यत्र टीकाकार:- ' निवे सेइ ' इतिलिखित्वा निवेशयतीत्यर्थ उक्तः, तेनात्र - मूलपाठस्य स्वस्वकपोलकल्पितत्वं सिध्यति, द्रौपद्याश्वरिते टीकाकृताऽभयदेवसूरिणा पुनरीदृशः पाठो लब्धः 'ईसि पच्चुन्नमति रत्ता, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं बंदइ नमसहर जिणघराओ पडिनिक्खमइ ' इति इमं पाठ टीकायां विलिख्य टीकाकारः प्राह 'तत्र वन्दते = चैस्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्यति = पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः । न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमें जैसा पाठ रुचा है उसने उसी प्रकार मूल पाठ में जिन कल्पना का पाठ प्रक्षिप्त करके पाठ भेद कर दिया है। अतः स्वकपोलकल्पित होने से असली मूल पाठ का निश्चय ही नहीं होता है, द्रौपदी के चरित में टीकाकार अभयदेवसूरि को इस प्रकार का पाठ उपलब्ध हुआ- ईसिं पच्चुन्नमति २, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ, नमंसइ २, जिणघराओ पडिनिक्खमइ इति " पाठ को लिखकर उन्हों ने टीका की । वन्दते नमस्यति पद के अर्थ का खुलाशा करते हुए वे कहते हैं कि प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधि के अनुसार नमन करना वंदना और इसके बाद प्रणिधान आदि के योग से नमस्कार करना नमन है ऐसा सिद्धान्त वृद्धों का है। सूत्र में जब द्रौपदी का प्रणिपात दृण्डक मात्र चैत्यवंदन कहा है- अर्थात् दण्ड की तरह प्रणाम करने रूप चैत्यवंदन कहा गया है तो इसी से यह - કઈક ઉમેરો કરીને પાઠ ભેદ કરી નાખ્યા છે. એટલા માટે સ્વકપેાલકલ્પિત હાવા બદલ અસલ મૂળપાઠને નિશ્ચય જ થઇ શકે તેમ નથી. દ્રોપદી ચરિતમાં टीअार मलयदेवसूरिना या लतनो पाठ भज्यो छे - ( ईसि पच्चुन्नमत्ति २, करयल० जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थूणं अरिहंताण भगवंताणं जाव सपत्ताणं वदइ, नमसइ २, जिणघराओ पडिनिक्खमइ इति ) या पाहने समीने તેમણે ટીકા કરી છે. वन्दते ' नमस्यति' पहना अर्थ स्पष्टी४२ रतां તેઓ કહે છે કે પ્રસિદ્ધ ચૈત્ય વંદન વિધિ મુજખ નમન કરવું. વંદના અને ત્યારપછી પ્રણિધાન વગેરેના ચેાગથી નમસ્કાર કરવા નમન છે, વૃદ્ધોના આ જાતના સિદ્ધાન્ત છે. સૂત્રમાં જ્યારે પ્રણિપાત દડક માત્ર ચૈત્યવંદન કહ્યું છે ત્યારે એનાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઇ જાય છે કે બીજા શ્રાવકાને પણુ આ 6 > શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૩
SR No.006334
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages867
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size50 MB
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