SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे स्सयं ' उपाश्रयम् उपसंपद्य विहर्तुमितिकृत्वा एवं संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुर्भूतप्रभातायां रजन्यां यावज्वलतिसूर्ये उदिते ति गोपालिकानामार्याणामन्तिकात् पतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य 'पाडिएक 'प्रार्थक्यं-पृथगभूतमन्यमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति-आस्ते स्म । ___ ततः खलु ता सुकुमारिका आर्या ' अणोहटिया ' अनप्पट्टिका अपवारकरहिता-उच्छृङ्खला अविनयवतीति यावत् ' अनिवारिया' अनिवार्या दुर्निवारा 'सच्छंदमई ' स्वच्छन्दमतिः-चारित्रधर्मानुरोधरहितभावा, अभीक्ष्णं-पुनः पुनहस्तौ धावति-प्रक्षालयति यावत् स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकी वा जलेनाभ्युक्ष्य चेतयति-स्थानादिकं करोतीत्यर्थः। तत्रापि च खलु पार्श्वस्था, पार्श्वस्थविहारिणी, श्रय मे चली जाऊँ इस प्रकार का उसने विचार किया (संहिता) ऐसा विचार करके (कल्लं पा० गोवालियाणं अज्जाणं) दूसरे ही दिन प्रातः काल जब सूर्योदय हो गया-तब वह गोपालिका आर्या के (अंतियाओ) पास से (पडिनिक्वमित्ता) निकल कर (पडिएक्कं) भिन्न दूसरे (उवस्सयं) उपाश्रय को ( उपसंपज्जित्ताणं विहरइ) प्राप्तकर वहां रहने लगी-अर्थात् दूसरे उपाश्रय में चली आई। (तएणं सा सूमालिया अज्जा अणोहहिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ) वहां यह सुकुमारिका आर्या विना किसी रोक टोक के स्वच्छंद बनकर रहने लगगई। वहाँ उसे कोई रोकने वाला रहा नहीं-सो जो मन में आया वह करने लगगई-इस तरह वह चोरित्र धर्म के भाव से रहित बन गई । बार २ अपने हाथों को धोती यावत् स्थान, शय्या, और स्वाध्याय की भूमि को धोकर वहां गोवालियाणं अजाणं) मीरे हिवसे सवारे न्यारे सूय य पाभ्यो त्यारे ते गोपालि आर्यानी ( अंतियाओ) पासेथी (पडिनिक्खमित्ता) नीजी (पडिएक) भीan ( उवस्सयं ) उपाश्रयने ( उवसंपजित्ताणं विहरइ ) भगवान त्या २३१ anी. मे मीn पाश्रयमा ती २ही. ( त एणं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ) त्यो તે સુમારિકા આર્યાં કોઈપણ જાતની રેક ટેક વગર સ્વચ્છતાપૂર્વક રહેવા લાગી. ત્યાં તેને કઈ રોક-ટેક કરનાર હતું નહિ એટલે જે પ્રમાણે તેની ઈચ્છા થતી તે પ્રમાણે જ તે આચરતી હતી. આ રીતે તે ચારિત્ર ધર્મના ભાવથી રહિત બની ગઈ. વારંવાર તે પિતાના હાથને છેતી હતી યાવત્ સ્થાન, પથારી અને સ્વાધ્યાયના સ્થાનને જોઈને ત્યાં પોતાનું સ્થાન નક્કી કરતી હતી. श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03
SR No.006334
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages867
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy