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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५
ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि श्रुति वा यावत् प्रवृत्तिम् अलभमानः कुन्ती देवीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिये ! द्वारवती नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमर्थ निवेदय-सुखप्रसुप्ता द्रौपदी केनापि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूपं वृत्तान्तं कथय, कृष्णः खलु परं वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगवेपणं कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रौपद्या देव्याः श्रुति वा प्रवृत्तिं वा क्षुत्तिं वा उपलभेत। पास भेजदी ! इसके बाद जब पांडुराजा ने द्रौपदी देवी की कहीं पर भी श्रुती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तब उन्हों ने कुंति देवी को बुलाया(सहावि०ए०वयासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहा-(गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया ! वारवई नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्त एयमलु णिवेदेहि, कण्हेणं परं वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसणं करेजा--अन्नहान नजई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पवत्तीं वा उवल भेजा) हे देवानुप्रियो! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ-और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हलिया है। हरण कर उसे कहीं पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है। पता नहीं पड़ता है। वे कृष्ण वासुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी को मार्गणा गवेषणा करेंगे। नहीं तो द्रौपदी देवी को श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी-यह नहीं कहा जा सकता है। श्रुति यावत् प्रवृत्ति मेजवी नहि त्यारे तभणे ती वान मालावी. ( सहा वि० ए० वयासी) अने मोसावीन तभने २ प्रमाणे धु
(गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वारवइं नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयम8 णिवेदेहि, कण्हेणं परं वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसणं करेज्जा अन्नहा न नज्जई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पवत्तीं वा उवलभेज्जा)
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે સુખથી સુતેલી દ્રૌપદીનું કેઈએ હરણ કરી લીધું છે. હરણ કરીને તેને કયાંક મૂકી દીધી છે અથવા તે કઈ કુવામાં કે ખાડામાં નાખી દીધી છે. ન જાણે શું થઈ ગયું છે ? કૃષ્ણવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચેકસ દ્રૌપદી દેવીની માર્ગણ ગવેષણ કરશે નહિંતર દ્રૌપદી દેવીની પ્રતિ, સુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શક્યતા જણાતી નથી,
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૩