Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टीका अ० ४ गा.७ निर्जरालाभार्थमेव शरीरपोषणं श्रेयः ९१ उक्तमेवार्थ स्पष्टीकुर्वन् प्राह
मूलम् चरे पयोइं परिसंकमाणो, जं किाँच पास इह मन्नमाणो । लाभंतरे जीविय बहइत्ता, पैच्छा परिन्नौय मलार्वधंसी ॥७॥ छाया-चरेत् पदानि परिशङ्कमानः, यत् किंचित् पाशम् इह मन्यमानः । ___लाभान्तरे जीवितं बृंहयित्वा, पश्चात् परिज्ञाय मलापध्वंसी ॥७॥
टोका-'चरे' इत्यादि___ मुनिः पदानि पदनिक्षेपरूपाणि परिशङ्कमानः पदनिक्षेपेषु शङ्कां कुर्वाणः "आगमोक्तविधिमननुसरतो मम भूमौ चरणनिक्षेपे षट्कायरक्षणरूपसंयमस्य विराधना स्या-"दिति चिन्तयन्नित्यर्थः, तथा यत् किंचित् गृहस्थपरिचयादिकम् , आतरौद्रलक्षणं दुर्थ्यानं च प्रमादस्थानं तत्सर्व पाशं - पाशमिव बन्धहेतुत्वान्मन्यमानः इह-संयममार्गे चरेत् अप्रमत्तः सन् विहरेदित्यर्थः। किंच-मुनिर्लाभान्तरे एकस्माइसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-"चरे पयाई "-इत्यादि
अन्वयार्थ-मुनि (पयाई-पदानि) पदनिक्षेपरूप गमन को (पडिसंकमाणो-परिशंकमानः ) आगमोक्तविधि के अनुसार जानता हुआ, अर्थात् "भूमि में चरणनिक्षेप होने पर षटकायके रक्षणरूप संयमकी विराधना होती है" ऐसा चिन्तवन करता हुआ, तथा (जं किंचि-यत् किंचित् ) जो गृहस्थजनों के साथ परिचय आदि करता है वह, एवं प्रमादरूप आत रौद्र जो ध्यान हैं वह सब (पासं-पाशम् ) पाश के जैसा बंधन का हेतु है, यह बात (मन्नमाणो-मन्यमानः ) मानता हुआ (इह-इह ) यहां संयम के मार्ग में (चरे-चरेत् ) अप्रमत्तदशासंपन्न होकर विचरण करे। (लाभ
20 Aथने २५ट ४२di सूत्र४.२ ४९ छे-चरे पयाइं त्या !
सन्वयार्थ-मुनि पयाई-पदानि पनि५३५ गमनने पडिस कमाणो-परिशंकमानः मागमारतविधि अनुसार तीन अर्थात " भीन ५२ ५७॥ भुपाथी ષકાયના રક્ષણરૂપ સંયમની વિરાધના થાય છે” એવું ચિંતવન કરતાં કરતાં तथा जं किंचि-यत् किंचित् स्थानी साथै पश्यिय मा ४२ छ, ते भने प्रमा३५ मातशेद्र ध्यान छे ते स पास-पाशम् पाशना i धननांतु छ. या पात मन्नमाणो-मन्यमानः मानीने इह-इह संयमन मामा चरे-चरेत् अप्रमत्त हा संपन्न मनीन वियर ४२. लाभतरे-लाभान्तरे से सालथामील
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨