Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 809
________________ उत्तराध्ययनसूत्रे तपश्च द्वादशविधं यस्य स तथा भूतस्तपस्वीश्चित्रोऽपि अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टमूतिचारवर्जितं संयमं सर्वविरतिरूपं पालयित्वा=आसेव्य, अनुत्तरी-सर्वोत्कृष्टां सर्वलोका. काशोपरिवर्तिनी सिद्धिगति-सिद्धिरूपां गतिं गतः प्राप्तः । इति ब्रवीमि=अस्यार्थः पूर्ववद् बोध्यः ॥ ३५ ॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा कलित-ललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशा हूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-" जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर -पूज्य-श्रीघासीलालप्रतिविरचितायाम् "उत्तराध्ययनसूत्रस्य" प्रियदर्शिन्याख्यायां व्या ख्यायाम्-' चित्रसंभूतीयं ' नाम त्रयोदशमध्ययन-सम्पूर्णम् ॥१३॥ अन्वयार्थ-( कामेहिं विरत्तकामो-कामेभ्यः विरक्तकामः) मनोज्ञ शब्दादिक विषयों से विरक्त (उदत्तचारित्त तवो- उदारचारित्रतपा) तथा सर्वोत्कृष्ट सर्वविरतिरूप चारित्र एवं बारह प्रकारके तपोंवाले ऐसे वे (तवस्सी-तपस्वी) तपस्वी चित्रमुनिराज (अणुत्तरं संजमं पालइत्ताअनुत्तरं सयमं पालयित्वा) अतिचार रहित होनेसे सर्वोत्कृष्ट सर्वविरति रूप संयमकी पालना करके (अणुत्तरं सिदिगई गओ-अनुत्तरां सिद्धि गतिं गतः) सर्वलोकाकाशके उपर वर्तमान होनेसे अनुत्तर सिद्धिरूप गतिको प्राप्त हो गये । (त्तिबेमि-इति ब्रवीमि) सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामीसे कहते हैं कि-हे जंबू ! मैंने जैसा भगवान महावीरसे सुना है पैसा यह मैंने तुमसे कहा है ॥ ३५॥ ॥ इस प्रकार तेरहवें अध्ययन का हिन्दी अनुवाद समाप्त ॥ १३ ॥ मक्याथ-कामेहिं विरत्तकामो-कामेभ्यः विरक्तकामः मनोज्ञ शहाडि विषयोथीव२४त उदत्तचारित्ततवो-उदारचारित्र तपा तथा सर्वोत्कृष्ट सब विति३५ यारित्र मन भा२ प्र४१२ना तपाना बता मेवाते तबस्सी-तपस्वी तपस्वी चित्र मुनिरा अणुत्तरं संजमं पालइत्ता-अनु र संयम पालयित्वा मतियार बीत डापाथी सवाष्ट स विति३५ संयमनु पासन शने अणुत्तरं सिद्धिगई गओअनुतरां सिद्धिगतिं गतः स शनी अ५२ वर्तमान पाथी मनुत्तर सिद्धि३५ गती पाभ्या. त्तिबेमि-इतिब्रवीमि सुधर्मा स्वामी भ्यू स्वामीन કહે છે કે, જમ્બુ! જેવું ભગવાન મહાવીર પાસેથી સાંભળ્યું છે એજ પ્રમાણે મેં તમને કહેલ છે. આમાં મારી બુદ્ધિથી કાંઈ પણ કરેલ નથી. તે ૩૫ છે આ પ્રકારે આ શ્રી ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રની પ્રિયદર્શિની ટીકાને ચિત્ર-સંભૂત નામના તેરમા અધ્યયનને ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સ પૂર્ણ થશે. ૧૩ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨

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