Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 848
________________ प्रियदशिनी टीका अ० १४ नन्ददत्त-नन्दप्रियादिषइजीवचरितम् ८३३ इदमत्रबोध्यम्-पूर्वमसन्त एव जीवाः शरीराकारपरिणतभूतसमुदायादुत्पद्यन्ते, वदन्ति च-"पृथिव्यप्तेजोवायवस्तत्त्वानि, एतेभ्यश्चैतन्यं, मद्याङ्गेभ्यो मदशक्तिवत्" इति । यथामदशक्तिरूपमेकं वस्तु मद्यसाधनानां-घातकी-पुष्प-गुड-धाना म्बूनां संयोगादुत्पद्यते तद्वदयं चेतनाशक्तिरूपोऽयमात्मा पृथिव्यादितत्त्वसंयोगादुत्पद्यत इति तदर्थः, भूतानां पृथग्भावे शरीरनाशस्तदा जीवोऽपि नश्यतीति । यद्वा-शरोरे सत्यपि अमी सत्त्वा नश्यन्ति, न चावतिष्ठन्ते, जलबुबुदवत् । उक्तं हि तैः-" जलबुद्बुद्वज्जीवाः" इति । अयं भावः-शरीरादन्य आत्मा नास्ति, प्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमानत्वात् । अतः शशविषाणतुल्यस्यात्मनोऽस्तित्वमेव नास्तीति तन्मोक्षाय धर्माचरणं निरर्थकमिति ।। १८ ॥ अनुभव करने के लिये उनका परलोकमें जाना एक कल्पित बात ही है। अतः इससे यही बात सिद्ध होती है कि जीवका पुनर्जन्म नहीं होता है। भावार्थ-भूतोंके समुदायसे चैतन्यकी उत्पत्ति माननेवालोंका ऐसा कहना है कि कायाकार परिणत भूतसमुदायसे ही पहिलेसे उनमें प्रत्येकमें अविद्यमान जीव उत्पन्न होता है-जिस प्रकार मद्यांगोंसे मदशक्ति उत्पन्न होती है । अर्थात्-जैसे मदशक्तिरूप एक वस्तु मद्यके साधनों-धातकी पुष्प, गुड, धान, जब आदिके संयोगसे उत्पन्न होती है उसी तरह चेतना शक्तिरूप यह आत्मा भी पृथिव्यादि भूतोंके संयोगसे उत्पन्न होता है। भूतोंके पृथग्भाव होने पर शरीरके नाशसे जीवका भी विनाश हो जाता है अथवा शरीरके नाशसे जीवका भी विनाश हो जाता है अथवा शरीर रहने पर भी जीव नष्ट हो जाता है जलबुद्बुदकी तरह वह ठहरता नहीं है। क्यों कि "जलबुद्बुद्वज्जीवाः" ऐसा उनका कथन है । अतः-"प्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमानत्वात्"-प्रत्यक्षसे नहीं जाना गया होनेसे-"आत्माમાટે એનું પરલોકમાં જવું એ તદ્દન કલ્પિત વાત છે. આથી એ વાત સિદ્ધ બને છે કે, જીવને પુનર્જન્મ થતું નથી. ભાવાર્થભૂતના સમુદાયથી ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ માનવાવાળાઓનું એવું કહેવું છે કે, કાયા, આકાર, પરિણત ભૂતસમુદાયથી જ પહેલાંથી એનામાં પ્રત્યેકમાં અવિદ્યમાન જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. જે પ્રમાણે મદ્યાગથી મદશક્તિ ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત–જેમ મદશક્તિરૂપ એક વસ્તુ મદ્યનાં સાધ–ઘાતકી, પુષ્પ, ગોળ, ધાન, જવ, આદિના સંયોગથી ઉત્પન્ન થાય છે. ભૂતોના પૃથક્ભાર થવાથી શરીરના નાશથી જીવને પણ વિનાશ થઈ જાય છે. અથવા શરીર રહેવા છતાં પણ જીવને નાશ થઈ જાય છે. પાણીના પરપોટાની માફક તે રહી શકતો નથી કેમ કે, "जलबुदबुद्वज्जीवाः" से ४थन छे. माथी “प्रत्यक्षतोऽनुपलम्यमानत्वात् " उ०१०५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨

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