Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 869
________________ उत्तराध्ययनसूत्रे पत्युर्वचनं निशम्य ब्राह्मणी प्राह __मूलम्-- सुसंभिया कामगुणा ईमेते, संपिंडिया अग्गरसा पभूया । भुंजामु ता कामंगुणे पंगामं, पैच्छागमिस्सीम पहाणमग्गं ॥३१॥ छाया-सुसंभृताः कामगुणा इमे ते, सम्पिण्डिता अग्र्यरसा प्रभूताः। भुञ्जीमहि तान् कामगुणान् प्रकामं, पश्चाद् गमिष्याकः प्रधानमार्गम् ॥३१॥ टोका--'सुसंभिया' इत्यादि-- हे स्वामिन् ! ते तब गृहे इमे प्रत्यक्षं दृश्यमानाः कामगुणाः पञ्चेन्द्रियसुखदाः पदार्थाः सद्वस्त्रसरसमिष्टान्नपुष्पचन्दननाटकगीततालवेणुवीणादयः मुसंभृताःसम्यक् संस्कृताः सन्ति, तथा-सम्पिण्डिताः सम्यक् पुञ्जीकृताः, तथाअय्यरसाः= अग्यः प्रधानो रसो येषु ते तथा, मधुरादिरसमयाः, अथवा-अय्यः प्रधानः रसो येभ्यस्ते तथा-श्रृङ्गाररसजनकाः, उक्तंच 'सुसंभिया' इत्यादि। __ अन्वयार्थ--पतिके इस प्रकार वचन सुनकर ब्राह्मणीने कहा-हे स्वामिन् ! (ते-ते) आपके घरमें (इमे-इमे ) यह प्रत्यक्ष दृश्यमान (कामगुणा-कामगुणाः) पंचेन्द्रियसुखदपदार्थ-सद्वस्त्र, सरसमिष्टान्न, पुष्पचंदन, नाटक, गीत, तालवेणु वीणादिक ये सब (सुसंभिया-सुसंभृताः ) खूब २ भरे पडे हुए हैं तथा (संपिडिया-संपिण्डिताः) ये थोडे बहुत होवे तो बात भी सही है या अलग २ स्थानों में भिन्न २ रूपमें रखे होवें सो बात नहीं है किन्तु ये सब एक ही जगह समुदाय रूपमें रखे हुए हैं (अग्गरसा-अय्यरसाः) ये नीरस भी नहीं हुए हैं । मधुरादि रस संपन्न हैं । अथवा श्रृंगार रसके ये सब उत्तेजक हैं। कहा भी है “ सुसंभिया"-त्यादि અન્વયાર્થ–પતિનો આ પ્રકારનાં વચન સાંભળીને બ્રાહ્મણીએ કહ્યું, હે स्वामिन् ! ते-ते मापना १२मा इमे-इमे ॥ प्रत्यक्ष माता कामगुणा-कामगुणाः पयन्द्रिय सुभ६ ५४ाथ-सा पखा, सरस मिष्टान, ५०५ यहन, नाट जात. तa, व वीहि २मा सघi सुसंभिया-सुसंभृताः सुभ यूम पूम नयाँ पडे छ. संपडिया-संपिण्डिताः से थोडा हाय तो पात मरास२ छ. अथवा અલગ અલગ સ્થાનમાં ભિન્નભિન્ન રૂપમાં રાખેલ છે એ વાત નથી પરંતુ એ સઘળાં १ स्थणे समुदायमा समेत छ. अगारसा-अय्यरसाः से निरस ५५ नथी બન્યા. મધુરાદિ રસસંપન્ન છે. અથવા શૃંગારરસને ઉત્તેજવાવાળા છે કહ્યું પણ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨

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