Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 886
________________ ८७१ प्रियदर्शिनी टी. अ० १४ नन्ददत्त-नन्दप्रियादिषड्जीवचरितम् यतश्च धर्मादन्यत्किमपि न त्राणाय वा शरणाय वा भवतीत्याह नाहं रमे पक्खिणि पंजेरे वा, संताण छिन्ना चरिसौमि मोणे। अकिंचणी उज्जुकंडा निरामिसा, परिग्गहारंभ नियत्तदोसा ॥४॥ छायानाहं रमे पक्षिणी पञ्जरे इव, सन्तानच्छिन्ना चरिष्यामि मनिम् । __अकिञ्चना ऋजुकृता निरामिषा, परिग्रहारम्भनिवृत्तदोष ॥४१॥ टीका-'नाहं'-इत्यादि। हे राजन् ! इव येथा पञ्जरे पक्षिणी न रमते-सुखं नानु भवति, तथैवअहमपि जरामरणाद्युपद्रवसहितेऽस्मिन् भवपारे न रमे = रतिं नानु भवामि । अतोऽहं संतानच्छिन्ना छिन्न-त्रोटितं सन्तानं स्नेहपरम्परा यया सा, परित्यक्तपरिवारस्नेहपरम्परेत्यर्थः, तथा अकिञ्चना-द्रव्यभावपरिग्रहरहिता, तथा ऋजुकृतामाया शल्यादि रहित तपःसंयमसमाराधनतत्परा तथा,-निरामिषा-निष्क्रान्ता धर्मके सिवाय कोई त्राण और शरण नहीं होता है इस बातको लेकर रानी कहती है-'नाहं रमे' इत्यादि । ___अन्वयार्थ हे राजन् ! जब धर्मके सिवाय रक्षक इस जीवका कोई और नहीं है तब (वा-इव) जैसे (पंजरे-पञ्जरे) पींजरेमें बंद हुई (पक्खिणि-पक्षिणी) पक्षिणी (न रमे-न रमते ) वहां सुखका अनुभव नहीं करती है उसी तरह (अहं-अहम् ) मैं भी जरा एवं मरण आदिके उपद्रवसे युक्त इस भव रूपी पीजरेमें (न रमे-न रमे) सुखानुभव नहीं करती हूं। इसलिये अब मैं (संताण छिन्ना-संतानच्छिन्ना) पारिवारिक स्नेह बंधनसे रहित तथा (अकिंचणा-अकिञ्चना) द्रव्य एवं भाव परि ધર્મના સિવાય કઈ રક્ષણ અને શરણું નથી બનતું આ વાતને લઈને सी ४९ छ-" नाहं रमे"-त्यादि ! અન્વયાર્થ–હે રાજન ! જ્યારે ધર્મના સિવાય આ જીવનનું રક્ષણ કરना२ । नथी. वा-इव रेभ पंजरे-पञ्जरे ५i०४२मा पुरयामा मायेर पक्खिणिपक्षिणी पक्षी त्यां न रमे-न रमते सुमनी अनुभव ४री शतु नथी. मेर प्रमाणे अहं-अहम् हुँ ५५५ वृद्धावस्था भने भ२५ महिना उपद्रवयी युत सा म१३५. पां४२मां न रमे-न रमे सुमन। मनुल नथी ४२री शती. मा भाटे हु संतोणछिन्ना- संतानछिन्ना परिवाना रनेडमधनथी २डित तथा अकिंचणा-अकिश्चना द्रव्य मन मा परियडथी परिवळत ने निरामिसा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨

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