Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 842
________________ प्रियदशिनी टीका अ० १४ नन्ददत्त-नन्दप्रियादिषड्जीवचरितम् ८२७ लालप्यमानं-भृशं लपन्तं तं धनतृष्णावन्तं जनं हरा:-हरन्त्यायुरिति हरा अहो रात्राः, हरन्ति भवान्तरं नयन्ति, इत्यतो धर्म प्रमादः कथम्-अर्थात् धर्मकार्ये कथंचिदपि प्रमादो न कर्तव्यः ॥१५॥ संप्रति पुरोहितः कुमारौ पुनरपि धनादिभिः प्रलोभयितुं माह मूलम्धेणं पर्भूयं सँह इंत्थि आहिं, सैयणा तहा कामगुणा पगामा। तव केए तप्पइ जस्स लोओ, तं सव्व साहीणमिहेवं तुब्भं ॥१६॥ इस प्रकारके मनोराज्यादिक विकल्पोंमें पडकर (लालप्पमाणं-लालप्यमानम् ) व्यर्थही ज्यादा बकवाद करनेवाले उस मनुष्यको (हरा-हराः) दिन और रात्रियां (हरंति-हरन्ति) इस भवसे उठाकर दूसरे भवमें पहुंचा देती है अतः (कहं पमाओ-कथं प्रमादः) धर्ममें प्रमाद करना कैसे उचित माना जा सकता है, कभी नहीं । ___ भावार्थ--जैसे २ दिन और रात्रियां व्यतीत होती जाती है वैसे २ इस जीवकी आयु गलित होती रहती है । अतः अनेक प्रकारके संकल्पों एवं विकल्पोंमें पडे हुए प्राणी इस बातको जरा भी नहीं विचारते है कि मुझे पर्यायसे पर्यायान्तरित होनेका समय आ रहा है। वे तो उल्टे रात दिन इसी चिन्तामें फंसे रहते हैं कि मुझे यह करवाना है यह नहीं करवाना है यह मेरा है यह मेरा नहीं है। इसी विचार में पड़े हुए वे जीव मर जाते हैं, अतः धर्मसेवनमें किसीभी जीवको प्रमाद करना उचित नहीं है ॥१५॥ एवं-एवम् मा। १२ना मनाया qिxeywi पीने लालप्पमाणंलालप्यमानमू व्यर्थ मां नमः ५४६ ४२१ ते मनुष्यने हरा-हराः हिस भने रात हरंति-हरन्ति २॥ ममाथी पाडीने भी सभा पयास हे छ. माथी कहं पमाओ-कथं प्रमादः धर्ममा प्रभार ४२३ से ४०शत लयित માની શકાય ? જરા પણ નહીં. ભાવાર્થ–જેમ જેમ દિવસ અને રાત વ્યતિત થતી રહે છે તેમ તેમ આ જીવનું આયુષ્ય ઓછું થતું જાય છે, આથી અનેક પ્રકારના સંકલ્પ અને વિકલ્પમાં પડેલા પ્રાણ આ વાતને જરા પણ વિચારતા નથી કે, મારા માટે આ ભવમાંથી બીજા ભવમાં જવાને સમય નજીક આવી રહ્યો છે. એ તે ઉલટ રાત દિવસ એ ચિંતામાં ફસાયેલા હોય છે કે, મારે આ કરાવવું છે, આ નથી કરાવવું. આ મારૂં છે, આ મારૂં નથી. આવા વિચારમાં પડેલે આ જીવ.મરી જાય છે, આથી કઈ પણ જીવે ધર્મ સેવનમાં પ્રમાદ કર ઉચિત નથી. તે ૧૫ . ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨

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