Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टीका. अ० ६ गा० ८ मृषावादापासवनिरोधवर्णनम् २०७ शब्देन तस्यापतिबन्धदर्शनात् । ततश्च परिग्रहास्रवपरिहार उक्तः।
अत्र द्वितीयगाथायां 'सच्चमेसिज्जा' इति सत्यशब्देन साक्षात् संयममपि वदता मृषावादनिवृत्तिरावेदिता, तद्वारेणापि तस्य सत्यत्वात् । 'आयाणं' इत्यादिना तु साक्षाददत्तादानविरतिरक्ता। आदानं हि ग्रहणमेव, तथा दत्तस्येति गम्यते, नरकं-नरकहेतुं दृष्ट्वा नाऽऽददीत तृणमप्यदत्तमितीहापिज्ञायते । हता सूचित की गयी है । इस कथन से साधु के परिग्रहजन्य आस्रव का परिहार कहा गया है। इस प्रकार आदिका प्राणातिपात और अन्तिम परिग्रह, इनके आस्रवों का परिहार बतलाने से " तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते" अर्थात् आदि और अन्त का ग्रहण करने से मध्य में रहे हुओं का ग्रहण हो जाता है, इस न्याय से उनके मध्यमें रहे हुए मृषावाद, अदत्तादान मैथुनरूप आस्रवत्रय का निरोध भी जान लेना चाहिये। __ अथवा-यहां द्वितीय गाथा में “सच्चमेसिज्जा" ऐसा पद सूत्रकार ने कहा है, उससे “ सद्भयो हितम् सत्यम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार साक्षात् संयमरूप अर्थ का प्रतिपादन कर मृषावाद से विनिवृत्ति कह दी है, क्यों कि मृषावादनिवृत्ति पूर्वक ही उसमें सत्यता आती है। इस तरह सत्य-संयम के प्रतिपादन से मृषावाद से निवृत्ति प्रतिपादित हो जाती है । "आयाणं " इत्यादि के द्वारा साक्षात् रूप से अदत्तादान की विरति कही है। आदान का अर्थ है ग्रहण करना और वह ग्रहण अदत्त का ही समझना चाहिये, क्यों कि ऐसा ग्रहण ही नरक का हेतु છે. આ કથનથી સાધુના પરિગ્રહજન્ય આસ્રવને પરિહાર કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે આદિક પ્રાણાતિપાત અને અંતિમ પરિગ્રહ એન આમ્રવને परिवार मतावा भाटे " तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते" अर्थात् माह मन અંતનું ગ્રહણ કરવાથી મધ્યમાં રહેલાનું ગ્રહણ થઈ જાય છે એ ન્યાયથી તેની મધ્યમાં રહેલ મૃષાવાદ, અદત્તાદાન મિથુનરૂપ ત્રણ આસને નિરોધ પણ જાણી લેવું જોઈએ.
मथ-मह भी गाथामा “ सच्चमेसिज्जा" मे ५४ सूत्रारे हेछ तनाथी “ सद्भ्यो हितम् सत्यम्" मा व्युत्पत्ति अनुसार साक्षात संयम રૂ૫ અર્થનું પ્રતિપાદન કરીને મૃષાવાદથી વિનિવૃત્તિ કહેવામાં આવી છે, કારણ કે, મૃષાવાદની નિવૃત્તિથી જ તેમાં સત્યતા આવે છે. આ પ્રમાણે સત્ય-સંયમના प्रतिपादनथी भृषापाथी निवृत्ति प्रतिपाति थाय छे. “ आयाण" त्यालि પદદ્વારા સાક્ષાતરૂપથી અદત્તાદાનની વિરતિ કહી છે. આદાનને અથ ગ્રહણ કરવું અને તે ગ્રહણ પણ અદત્તનું જ સમજવું જોઈએ. કારણ કે, એવું ગ્રહણ
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨