Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 771
________________ ७५६ उत्तराध्ययनसूत्रे दासीदासगोमहिषहस्त्यश्चहिरण्यमुवर्णमणि-मणिक्याधीश्वरः प्रतिदिवसं कोटिसुवर्णदीनारान् ददानो नरसङ्घमध्ये स्थविरैनुगीतां तीर्थंकरगणधरोक्तां गाथां श्रुत्वा सर्व परित्यज्य प्रबजितोऽस्मि । न तु यथा मां पश्यसि, तथैवाहमासम् । अतो न ममापि पूर्वकृतसुकृतं बिफलम् । किंतु त्वत्तुल्यं सफलमेवेति ॥ १२ ॥ एवं मुनेवचनं श्रुत्वा चक्रवर्ती स्वसंपदा तं निमन्त्रयन्नाह मूलम्उच्चोदए मेहु केके ये बंभे, पवेइया आव॑सहा य रम्मा। इमं गिहं चित्तं धणप्प यं, पाहि पंचालगुणोववेयं ॥१३॥ छाया-उच्चोदयो मधुः कर्कश्च ब्रह्मा, प्रवेदिता आवसथाश्च रम्याः। ___इदं गृहं चित्र ! धनप्रभूतं, प्रशाधि पश्चालगुणोपपेतम् ॥ १३ ॥ तात्पर्य इसका यह है कि-समस्त भोग और उपभोगोंकी सामग्री संपन्न मैं महाऋद्धिवाला था। मेरे पास अनेक दासी, दास, गो महिष, हस्ति, अश्व, हिरण्य सुवर्ण माणिक्य मणि आदि सब पुण्य के ठाट थे। किसी भी वस्तु की कमी नहीं थी। प्रतिदिन मैं एक करोड़ सुवर्ण दीनारोंका दान दिया करता था। एक समय की बात है कि श्रमणजनोने नरसमुदाय के बीच एक ऐसी गाथा गाई कि जिसको सुनकर भिक्षुजन शील एवं गुणोंसे विशिष्टरूपमें संपन्न हो जाते हैं और जो विस्तृत अर्थ को ली हुइ थी तथा अक्षर जिसमें बहुत कम थे उसको सुनकर मैं मुनि हो गया। जिस रूपमें आप मुझे देख रहे हैं ऐसा मेरारूप नहीं था। इसलिये आप मेरा सुकृत निष्फल नहीं समझे-किन्तु अपने तुल्य ही समझें ॥१२॥ તાત્પર્ય આનું એ છે કે, સમસ્ત ભંગ અને ઉપભોગની સામગ્રી સંપન્ન शाहु महान सिद्धिवाणे ता. भारी पासे सने हास, हासी, गाय, बैंस, हाथी, घोडा, डि, सुवर्ण, भा, भी माहिसा पुश्यना प्रभा१३ तां, કઈ પણ વસ્તુની કમીના ન હતી. પ્રતિ દિવસ હું એક કરોડ સુવર્ણમુદ્રાઓનું દાન કરતે હતે. એક સમયની વાત છે કે, શમણુજનેએ જનસમુદાયની વચમાં એક એવી ગાથા ગાઈ સંભળાવી કે, જેને સાંભળીને ભિક્ષુજન શીલ અને ગુણેથી વિશેષરૂપ સંપન્ન બની જાય છે. અને તેમાં ઘણોજ અર્થ ભરેલો હતે. તથા અક્ષર તેમાં ખૂબ જ ઓછા હતા. જેને સાંભળીને હું મુનિ બની ગયો, જે રૂપમાં આપ મને જોઈ રહ્યા છે એવું મારું રૂપ ન હતું. આ માટે આપ મારું સુકૃત્ય નિષ્ફળ ન સમજે પરંતુ તમારા તુલ્ય જ સમજે. મે ૧૨ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨

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