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मूलम्
उत्तराध्ययनसूत्रे इह पश्चालग्रहणं पञ्चालदेशस्तस्मिन् समये विशिष्ट समृद्धिमानासीदिति सूचयति । अन्यथा हि भरतक्षेत्रेऽपि यद्विशिष्टं वस्तु तत् तदा ब्रह्मदत्तगृहे आसीत् ॥१३॥
किंचटेहि गीएहिं य वाइएहि, नारीजणाई परिवारयंतो। भुंजाहिभोगाई ईमाइं भिक्खू ,मैम रोयेई पवजा हुँ क्खं ॥१४॥ छाया-नाट}ी तैश्च वादित्रै नारी जनान् परिवारयन् ।
भुक्ष्व भोगानिमान् भिक्षो ! मह्यं रोचते प्रवज्या दुःखम् ॥१४॥ टीका-'णेझेहिं ' इत्यादि
हे भिक्षो ! नाटयैः द्वात्रिंशभेदोपलक्षितै नाटयैः, विविधाङ्गहारादि स्वरूपै यह कह रहे हैं कि पांचाल में एवं भरत क्षेत्रमें जितनी भी विशिष्ट वस्तुएँ हैं वे सब इन मेरे भवनों में हैं अतः आप इन भवनोंको अंगीकार करो। “पांचाल" पदसे यह ज्ञात होता है कि उस समय वहां की समृद्धि विशिष्ट थी, नहीं तो भरतक्षेत्रके कहने से ही उसका ग्रहण हो जाता है । फिर " पांचाल गुणोपपेतम् " ऐसा कहना व्यर्थ पड़ता है। सुनते हैं कि उच्चोदय मधु आदि प्रासाद जहां चक्रवर्ती की रुचि होती है वहीं बन जाते है । “गृहं" पद वर्तमान में चक्रवर्ती जहां रहता है उसका बोधक है ॥ १३॥ फिर चक्रवर्ती मुनिराजसे कहते हैं-'गडेहिं' इत्यादि ।
अन्वयार्थ (भिक्खू-भिक्षो) हे भिक्षो ! (गट्टेहि-गीएहिं य वाइएहिं नाटयैः गीतैः वादित्रैः) बत्तीस प्रकारके नाटकोंसे विविधप्रकारके રાજને એવું કહી રહેલ છે કે, પાંચાલમાં અને ભરતક્ષેત્રમાં જેટલી પણ વિશિષ્ટ વસ્તુઓ છે એ સઘળી વસ્તુઓ મારા ભવનમાં છે, આથી આપ આ ભવનેને स्वी२ ४२. “पांचाल" ५४थी से नमी शय छ है, ये सभये त्यांनी સમૃદ્ધિ વિશિષ્ટ હતી. નહીં તે ભરતક્ષેત્રના કહેવાથી જ તેમાં તેને સમાવેશ
तय छ. ५छी " पांचालगुणोपपेतम् " मेवु व्यथ मन छ. સાંભળીએ છીએ કે, ઉદય મધુ આદિ ભવન કે જ્યાં ચક્રવતીની રૂચી थाय छ त्यो सनी लय छे. " गृहं" ५४ वर्तमानमा यता न्यो २ छ. એનું બાધક છે. ૧૩ છે
॥ यती भुनिराजने ४९ छ. “ णट्टेहिं "-त्या !
स-क्याथ-भिक्खू-भिक्षोभिक्षु ! णट्रेहिं गीएहिं य वाइएहि-नाटयः गीतैः वादित्रैः मत्री प्रान नाटना विविध माना जाताथी तथा मने प्रारना
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨