Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे प्राणवधं-प्राणातिपातम्-अजानन्तः, अनेन 'मथमत्रतमपि न ते विदन्ति, आस्तां शेषाणि' इत्युक्तं भवति । अत एव मृगाः मृगा इव मृगाः अज्ञानिनः, मन्दाः इव मन्दाः मिथ्यात्वमहारोगग्रस्ताः, बालाबाला इव बालाः हेयोपादेयविवेकविकलाः, पापिकाभिः परस्परविरोधादिदोषात् स्वरूपेणैव कुत्सिताभिः, 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' इत्याद्यभिधाय श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूतिकामः' इत्यादि परस्परविरुद्धार्थाभिधायिनीभिः, पापहेतुभि वा, दृष्टिभिः-दर्शनाभिप्रायरूपामिः, निरयं-नरकं गच्छन्ति ॥ ७॥ हुए (पाणवहं आयाणंता-प्राणवधं अजानन्तः) प्राणातिपात को ही नहीं जानते हैं, तो अन्य पापों की बात ही क्या है-अर्थात् प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम व्रत को ही जब वे नहीं जानते हैं तो अन्य व्रतों को वे कैसे जान सकते हैं। इसलिये वे (मिया-मृगाः) मृग के समान मृग-अज्ञानी हैं (मंदा-मंदाः) मिथ्यात्वरूप महारोग से ग्रस्त हैं। (बाला-बालाः) हेयोपादेय के विवेक से विकल हैं । और इसी कारण (पावियाहिं दिहिहिं-पापिकाभिः दृष्टिभिः) परस्पर विरुद्ध अर्थवाले दर्शनोंमतों की प्ररूपणा कर (निरयं गच्छंति-नरकं गच्छन्ति) नरक जाते हैं। ___अर्थात्-" न हिंस्यात् सर्वभूतानि" इस प्रकार वेदादिक शास्त्रों में कथन करके भी (श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशिभूतिकामः) किसी जीवको न मारना ऐसा प्रतिपादन करके भी श्रेयकी इच्छावाले वायव्य दिशामें श्वेत छाग-(बकरा) को मारे ऐसे विरूद्ध अर्थकी प्ररूपणा करते हैं, यही पापदृष्टि है। अथवा पापका हेतुभूत दृष्टिदर्शन पापदृष्टि है ॥७॥ अजानन्तः प्रातियातन or angal नथी त्यां भी पापानी तो पात ४ ४यां રહી? અર્થા-પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ પ્રથમ વ્રતને જ તે જાણતા નથી તે भील तान ते रीत यश १ माथी मिया-मृगा भृगनी समान मज्ञानी छ. मंदा-मंदाः भिथ्यात्१३५ महाराथी धेशयेसा छे. बाला-बालाः इय पायना विवथी विद छ. मन मे ॥२था ते पावियाहिं दिद्रिहि-पापिकाभिः दृष्टिभिः ५२२५२ वि३ मा मतानी प्र३५९।। ४२१ निरयं गच्छंतिनरकं गच्छन्ति न२४i Mय छे. अर्थात् “ न हिंस्यात् सर्वभूतानि" मा प्ररनु वहाशि शास्त्रीभ प ४थन ४रीन " श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूतिकामः" એવા વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણ કરે છે. એ પાપદષ્ટી છે. અથવા પાપના હેતુભૂત દષ્ટિદર્શન પાપ દર્શન છે. જે ૭ છે
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨