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मियदर्शिनी टीका. अ. १२ हरिकेशवलमुनिचरितवर्णनम्
का: अग्निसमीपवर्तिनो होतारः, सन्ति, वा=अथवा केऽपि अध्यापकाः उपाध्यायाः सन्ति, ये खलु खण्डिकैछात्रः सह एतं निर्ग्रन्थं खलु-निश्चयेन दण्डेन लगुडेन, फलेन-बिल्वादिफलेन च हत्वा-ताडयित्वा, कण्ठे गहीत्वा अर्द्धचण्द्रं दस्वे. त्यर्थः, स्खलयेयुः निष्कासयेयुः। 'जो' इति 'खलेन्ज' इत्युभयं मूले बहर्थे एक वचनम् ॥१८॥
अध्यापकनिदेशमाकर्ण्य, छात्रा थदकुर्वस्तदाह
अज्झावयणं वयेणं सुणेत्ता, उद्धाईया तत्थ बहू कुमारा । दंडहिं वेत्तेहिं कैसेहिं चेवे, सांगयातं इंसिं तालयंति ॥१९॥ क्षत्राः) क्या कोई ऐसे भी क्षत्रिय हैं (वा-वा) अथवा (उवजोइयावो उप. ज्योतिष्काः वा) कोई ऐसे भी हवन करनेवाले पुरुष हैं या (अज्झावया अध्यापकाः) कोई ऐसे भी अध्यापक हैं (जोणं-ये खलु ) जो (खंडिएहिं सह-खंडिकैः सह) छात्रों के सहित होकर (एयं-एतम् ) इस निर्ग्रन्थ साधुको (दंडेग फलेण हता-दंडेन फलेन हत्वा) दंडो से एवं बिल्वादिक फलों से मार मारकर और (कंठम्मि घित्तूण-कंठे गृहीत्वा) इसकी गर्दन पकडकर (खलु) निश्चय से यहां से(खलेज-निष्कासयेयुः) निकाल सकें।
भावार्थ-मनुष्य जब युक्तियों के आगे निरुत्तर हो जाता है तब वह प्रायः साम्हने वाले को परास्त करने की अयोग्य चेष्टांये भी अपना लिया करता है । यही मार्ग प्रधान अध्यापक ने भी अपनाया और दुःखित होकर वह कहने लगा कि कोई यज्ञशाला में ऐसा बलिष्ठ व्यक्ति नहीं है जो इसको हाथ पकडकर मारकर निकाल सके ॥१८॥ ५१ क्षत्रिय छ, वा अथ40 उवजीइया वा-उपज्योतिष्काः वा छ । ५ हवन ४२वाया। पुरुष छ, २१॥ अज्झावया-अध्यापकाः ४ व ५६५ अध्या५४ छ जो गं-ये खलु २ खंडिएहिंसह-खंडिकैः सह छात्रानी साथे भगीन एय-एत मा निन्य साधुन दंडेण फलेण हता-दंडेन फलेन हत्वा थी भने. भीम गाथा भा२ भारी कंठम्मि चित्तूण-कंठे गृहीत्वा मन तनी गहन ५४ीन खलु निश्चयथा मही थी खलेज्ज-निष्कासयेयुः ६२ पदी मुहै!
ભાવાર્થ મનુષ્ય જ્યારે યુક્તિઓની સામે નિરૂત્તર બની જાય છે ત્યારે છેવટે સામાવાળાને પરાસ્ત કરવાની અયોગ્ય ચેષ્ટાઓ હાથ ધરે છે. એજ માર્ગ પ્રધાન અધ્યાપકે પણ લીધો અને દુકખિત બનીને તે કહેવા લાગ્યા કે શું આ યજ્ઞશાળામાં કઈ એવી બલિષ્ઠ વ્યક્તિ નથી કે જે આને માર મારીને અને હાથથી પકડીને દૂર કાઢી શકે છે ૧૮ છે
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨