Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका. अ०५ गा. १८-१९ सकाममरणवर्णनम्
१५७ अनुश्रुतं भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनः समीपे, तत् सकाममरणम् अर्थात्-पण्डित मरणं शृणुत इति पूर्वेण संबन्धः । मरणं कथंभूतम् ? विप्रसन्नं-भरणकालेऽपि ये अनित्याशरणादिविविधभावनाभिर्मोहापगमादनुद्विग्नाः कर्मनिर्जरया च प्रमुदि. तास्ते विप्रसन्नास्तत्सम्बन्धि मरणमपि धर्माधर्मिणोरभेदाद् विप्रसन्नं, तथा-अनाघातं न विद्यते आघातो यस्मिंस्तत्तथा, यतनापूर्वकं यथोचितसंलेखनाकरणात् स्वपरोपघातवर्जितमित्यर्थः । अयं भावः-यथैतत् विप्रसन्नमनाघातं मरणं संयतानां सयतानाम् ) चारित्रधारी जीवों का (मरणंपि-मरणमपि ) मरण भी (जहा मे य मणुस्लुयं-यथा मया यदनुश्रुतम् ) जैसे मैंने महावीरप्रभु के समीप सुना है यह मरण सकाममरण है- पण्डित मरण है,
और उसको मैं कहता हूं सो सुनो वह मरण (विप्रसण्णमणाघायंविप्रसन्नमनाघातम् ) विप्रसन्न और अनाघात स्वरूप है-मरणकाल में
भी चारित्रवान् मुनि अनित्य अशरण आदि बारह प्रकार की भावनाओं का चिन्तवन करते रहते हैं, उससे उनका परपदार्थों से मोह दूर होता रहता है, उससे वे उद्विग्न नहीं होने पाते तथा कर्मों की निर्जरा से वे प्रसन्नचित्त बने रहते हैं, इसलिये धर्म और धर्मी के अभेद संबंध से यह मरण भी विप्रसन्न कहा गया है। जिसमें किसी भी प्रकार का आघात नहीं है वह अनाघात है, इस मरण में यतनापूर्वक यथोचित्त संलेखना की जाती है इसलिये यहां न स्व का घात होता है, और न न्द्रिय 6५२ विन्य प्रात ४२वावासा सेवा संजयाण-संयतानाम् यात्रिधारी
वा मरणंपि-मरणमपि भ२४ ५-३, म जहा मे मणुस्सुय-यथा मे अनुश्रुतम् भगवान महावीर प्रभु पासेथी सलमेल छ य-तत् ते भ२ समभर छपडतम२१ छ,२ तमन ईछु ते सालणे. मे भए विप्पसण्णमणाघाय-विप्रसन्न अनाघातमू विप्रसन्न मन मनाधात- पशु बतन माघात વિનાનું મરણકાળમાં પણ ચારિત્રવાન મુનિ અનિત્ય, અશરણ, આદિ બાર પ્રકારની ભાવનાઓનું ચિંતવન કરતા રહે છે. જેથી તેમને પરપદાર્થો ઉપરથી મેહ દૂર થઈ જાય છે. તેથી તેઓ ઉગ પામતા નથી. અને કર્મોની નિજેરાથી તે પ્રસન્નચિત્ત બની રહે છે. આ માટે ધર્મ અને ધમને અભેદ સંબંધથી એ મરણ પણ વિપ્રસન્ન કહેવાયેલ છે. તેમાં કેઈ પણ પ્રકારને આઘાત નથી, તે અનાઘાત છે. આ મરણમાં યતના પૂર્વક યથોચિત સંખના કરાય છે. આથી અહિં ન તો પિતાને વાત થાય છે કે ન તો પર ઘાત થાય છે. આ કારણે
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨