Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ० ४ गा. १० गुर्खाशायां प्रमादकरणे ब्राह्मणीदृष्टान्तः १०९ भोगान्, प्रहाय = परित्यज्य, लोकं = षड्जीवनिकायरूपम्, समतया = समानभावेनआत्मवत्, समेत्य = विदित्वा, महर्षिः = महामुनिः, आत्मरक्षी = आस्रवनिरोधादात्मरक्षकः, वकारोऽत्र निश्चयार्थवाचकः, निश्चयेन अप्रमत्तः सर्वदा सर्वथा प्रमादवर्जितः सन् चरेत् = साधुमार्गे विहरेत् ।
अत्र ब्राह्मणीदृष्टान्तः प्रोच्यते
कश्चिद् ब्राह्मणोऽन्यत्र देशे गत्वा साङ्गवेदानधीत्य स्वगृहमागतः । तस्मै केनचिद् विप्रेण सुरूपा स्वकन्यका दत्ता । स राज्ञा प्रजाभिश्च संमानितो धनसमृद्धो विचाररूप जो प्रमाद है उसका परिहार करके जो उद्यम करता है, और सचेत होकर ( कामे - कामान्) शब्दादिक भोगों को ( पहाय - प्रहाय ) दूर करके - त्याग करके (लोगं - लोकम् ) षड्जीवनिकायरूप इस लोक को ( समया - समतया ) समानभाव से अपनी आत्मा के समान ( समेच्चसमेत्य ) जानकर (व - व ) निश्चय से ( अप्पाणरक्खी - आत्मरक्षी) आस्रव के निरोध से स्वयं अपनी रक्षा करनेवाला होता है, ऐसा (महेसी - महर्षिः ) महामुनि ( अप्पमत्ते घरे - अप्रमत्तः चरेत् ) सर्वदा सर्वथा प्रमादवर्जित होकर साधुमार्ग में विचरण करे ।
इस पर ब्राह्मणीका दृष्टान्त इस प्रकार है
कोई एक ब्राह्मण विदेश जाकर सांगोपाङ्ग वेदों का अध्ययन करके अपने घर पर वापिस आया । उसको विद्वान देखकर किसी दूसरे ब्राह्मण ने उसका संबंध अपनी कन्या के साथ कर दिया । कन्या रूपती थी। इस ब्राह्मण की विद्वत्ता से आकृष्ट होकर वहां की जनता एवं राजा ने इसका खूब सन्मान किया अतः यह अच्छे पैसे वाला हो गया ।
उद्यभ कुरे छे अने येतनवांत मनी कामे- कामान् शहाडि लोगोने पहाय - प्रहाय ६२ ४री-त्याग झुरी लोगं -लोकम् षट भवनीय३५ मा साउने समया - समतया समान लावथी पोताना आत्मानी भाइ समेच्च समेत्य लगीने व-व निश्चयथी अपारखी - आत्मरक्षी भावना निरोधथी स्वयं पोतानी रक्षा उरवात्राणा हाय छे मेवा महेसी-महर्षिः भडाभुनि अप्पमत्ते चरे - अप्रमत्तः चरेत् सर्व हा सर्वथा પ્રમાદથી વત બની સાધુમાગમાં વિચરણ કરે.
આના ઉપર એક બ્રાહ્મણીનું દૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે—
કાઈ એક બ્રાહ્મણુ વિદેશમાં જઇને ત્યાં સાંગાપાંગ વનું અધ્યયન કરીને પેાતાના ઘેર પાછા આવ્યા. એને વિદ્વાન જોઇને કાઇ બીજા બ્રાહ્મણે તેની સાથે પોતાની પુત્રી પરણાવી. કન્યા રૂપવતી હતી. તે બ્રાહ્મણની વિદ્વત્તાથી ત્યાંની જનતા અને રાજાએ તેનું બહુ જ સન્માન કર્યું. આથી તે ખુબ સારા પૈસાપાત્ર બની ગયેા.
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨