Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi  Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्यपाद-देवनन्दिविरचितं जैनेन्द्रव्याकरणम् तस्य टीका आचार्य-अभयनन्दिप्रणीता जैनेन्द्रमहावृत्तिः ਕਰਕਤ ਲੜਾਈ For Private And Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला [ संस्कृत ग्रन्थाङ्क १७ ] पूज्यपाददेवनन्दिविरचितं जैनेन्द्रव्याकरणम् प्रथम आवृति ६०० प्रति तस्य टीका आचार्य अभयन न्दिप्रणीता जैनेन्द्रमहावृत्तिः BHARATIYANANA PITH Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पादक पण्डित शम्भुनाथ त्रिपाठी, व्याकरणाचार्य, सप्ततीर्थ सहायक पण्डित महादेव चतुर्वेदी, व्याकरणशास्त्राचार्य भारतीय ज्ञानपीठ काशी मार्गशीर्ष वीर नि० सं० २४८३ वि० सं० २०१३ नवम्बर १९५६ For Private And Personal Use Only {{ मूल्य १५ रु० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवीकी पवित्र स्मृतिमें तत्सुपुत्र साहू शान्तिप्रसादजी द्वारा संस्थापित भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला ICIC संस्कृत ग्रन्थाङ्क १७९ एम० ए०, IC **************++**************++ इस ग्रन्थमाला में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड, तामिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्यका अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन और उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन होगा। जैन भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख संग्रह, विशिष्ट विद्वानोंके अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित होंगे। ************* ग्रन्थमाला सम्पादक • डी० लिट्० डॉ० हीरालाल जैन, एम० ए०, डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, डी० लिट्० स्थापनाब्द फाल्गुन कृष्ण ९ वीर नि० २४७० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वाधिकार सुरक्षित मुद्रकः -- शारदामुद्रण तथा संसार प्रेस, बनारस । *************************************************************** प्रकाशक अयोध्याप्रसाद गोयलीय मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस For Private And Personal Use Only विक्रम सं० २००० १८ फरवरी सन् १९४४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भारतीय ज्ञानपीठ, काशी www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वर्गीय मूर्तिदेवी, मातेश्वरी साहू शान्तिप्रसाद जैन For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JÑANAPĪTHA MURTIDEVI JAINA GRANTHAMALA SAMSKRIT GRANTHA NO. 17 JAINENDRA VYĀKARANAM BY PUJYAPADA DEVANANDI WITH JAINENDRA MAHĀVRITTI OF SHRI ABHAYANANDI Editor Pandit SHAMBHU NATH TRIPATHI, V yakaranacharya Assistant Pandit, MAHADEO CHATURVEDI, V yakaranashastracharya Published By BHARATIYA JNANAPITHA KASHI Price First Edition) 600 Copies. MARGSHIRSHA, VIR SAMVAT 2483 VIKRAMA SAMVAT 2013 NOVEMBER 1956 Rs, 151 For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BHARATIYA INANA-PITIA KASHI FOUNDED BY SETH SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE BENEVOLENT MOTHER SHRĪ MŪRTI DEVI BHARATIYA JŇANA-PUTHA MŪRTI DEVĪ JAIN GRANTHAMALA SAMSKRIT GRANTHA NO. 17 IN THIS GRANTHAMĀLĀ CRITICALLY EDITED JAIN ACAMIC PHILOSOPHICAL, PAURĀNIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSHA, HINDI, KANNADA AND TAMIL ETC., WILL BE PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES AND CATALOGUES OF JAIN BHANDARAS, INSCRIITIONS, STUDIES OF COMPETENT SCHOLARS & POPULAR JAIN LITERATURE WILL ALSO BE PUBLISHED General Editors Publisher Dr. Hiralal Jain M. A.. D.Litt.AYODHYA PRASAD GOYALIYA Dr, A.N. Upadhye M.A., D. Litt Secy., BHARATIYA JNANAPITHA DURGAKUND ROAD, BANARAS Vikrama Samayat 2000 Founded on Phalguna Krisbna 9. Vira Sam. 2470 All Rights Reserved. 18 Febr, 1944 For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पादकीय जैन साहित्य जिस प्रकार साहित्यकी अन्य विविध धाराओंसे परिपुष्ट है, उसी प्रकार उसमें वैज्ञा निक व शास्त्रीय साहित्यकी भी कमी नहीं है । व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, गणित आदि विषयोंपर अनेक प्राचीन जैन ग्रन्थ पाये जाते हैं जो भारतीय साहित्यके अभिन्न अंग हैं और जिनका अध्ययन किये बिना किसी भी विषयका ज्ञान परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता । किन्तु दुर्भाग्यतः वह सब साहित्य अभी तक भी प्रकाशित व सुलभ नहीं किया जा सका। इस दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ जो प्रयत्न कर रहा है वह स्तुत्य है । । किन्तु यह इतिहास प्रसिद्ध व्याकरण अभी काशीसे इसका एक संस्करण निकला था भारतीय व्याकरण शास्त्र में जैनेन्द्र व्याकरणका एक प्रमुख स्थान है। जैन साहित्य में तो इसकी ख्याति है ही, किन्तु अन्य मतावलम्बी शास्त्रकारों ने भी उसका उल्लेख, शाकटायन और पाणिनि जैसे अतिप्राचीन और सुविख्यात वैयाकरणोंके साथ-साथ किया है। इसकी दो सूत्र परम्पराएँ पाई जाती हैं और उसपर बारह सहस्र श्लोक प्रमाण महावृत्ति भी उपलब्ध है तक पूरा प्रकाशित नहीं हो सका । लगभग चालीस वर्ष पूर्व जिसमें इसके पाँच अध्यायों में से केवल तीन अध्याय ही प्रकाशित हुए थे। बहुत कालसे वह संस्करण भी अप्राप्य है । इस प्रकार जिज्ञासु संसार इस ग्रन्थकी परिपूर्ण आवृत्तिके लिए दीर्घकालसे तृषातुर हो रहा था। हर्षका विषय है कि इस महान् त्रुटिकी प्रस्तुत संस्करण द्वारा भले प्रकार पूर्ति हो रही है। इसमें पाठ-संशोधनार्थ काशी और पूनासे प्राप्त अनेक प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है और अभयनन्दि कृत पूरी महावृत्ति भी सम्मिलित है । इस व्याकरण के सम्बन्ध में समस्त ज्ञातव्य विषयोंका परिचय इसके साथ प्रकाशित श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी लेख एवं विद्वद्वर डॉ० वासुदेवशरणजी अग्रवालकी भूमिका में आ गया है। प्रेमीजीका लेख मूलतः बहुत पहले, जब वह काशीका प्रथम संस्करण निकला था तब ही ( सन् १९२१ में ) लिखा गया था । इसका संशोधित रूप सन् १९४२ में उनके 'जैन साहित्य और इतिहास' शीर्षक संकलनमें प्रकाशित हुआ था । जिसका द्वितीय संस्करण सन् १९५६ में प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत 'लेखमें इस समय तक इस ग्रन्थ व ग्रन्थकर्त्ता के विषय में जो कुछ ऐतिहासिक बातें ज्ञात हो चुकी हैं उनका निर्देश आ गया है । डॉ० अग्रवाल जी व्याकरणशास्त्र के, विशेषतः उसके ऐतिहासिक पक्षके, प्रकाण्ड पण्डित हैं, जिसका प्रमाण उनका 'पाणिनिकालीन भारतवर्षं ' ग्रन्थ विद्यमान है। उन्होंने जैनेन्द्रमहावृत्तिके सूत्रों और उनकी महावृत्तिका सूक्ष्म आलोडन करके जो अनेक ऐतिहासिक तथ्य -रत्नोंका आविष्कार किया है वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी ओर हम पाठकोंका ध्यान विशेष रूपसे आकर्षित करना चाहते हैं । For Private And Personal Use Only हीरालाल जैन आ० ने० उपाध्ये Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 40.0.0.0.0.0.040060..0.0.0.000000000000.0.0.0.0.0.ooo o or ग्रन्थ-लागत ८७५-Jul कागज़ २२४ २९ - २८ पौण्ड ३६७१३) सम्पादन ४३ रीम १५ जिस्ता १० शीट २००J कार्यालय-व्यवस्था १८२६) छपाई ७०॥ फार्म ७५०) भेंट आलोचना ५४०) जिल्द बधाई ४००) प्रूफ-संशोधन ३२०)। कवर काराज़ ७५) पोस्टेज ग्रन्थ भेट भेजनेका २८) कवर छपाई । ३५५०) कमीशन, विज्ञापन, बिक्री-व्यय आदि कुल लागत ११९४७॥ ६०० प्रति छपी • लागत मूल्य १९॥an • मूल्य १५) .00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000. For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रति-परिचय 'मु०' प्रति यह प्रति सरस्वतीभवन, काशीसे प्रकाशित हुई है। इसमें अध्याय ३ पाद २ सूत्र ६० तक ही छपे हैं। 'अ' प्रति यह भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूड पूनाको प्रति है । इसमें पत्र संख्या ४०२, पङक्ति प्रति पृष्ठ १५ और अक्षर प्रति पङ्क्ति लगभग ४६ हैं। साइज साँची सुपर रायल । पुस्तकके अन्तमै लेखनकाल तथा लेखक आदिका नाम निम्न प्रकार है “फागणमासे शुकृपते तिथो ३ बुधवासरे संवत् १८८३ का । लीखकृतं माहतमा पनालाल वासी सवाई जयपुरका । लिखी आगरा मध्ये। लिषायतं चम्पारामजी पुस्तक मथुराको।" 'ब' प्रति यह श्रीस्याद्वाद दिगम्बर जैन महाविद्यालय काशीको प्रति है। इसमें कुल पत्र ४०३ हैं, प्रत्येक पृष्ठमैं १० पङ्क्तियाँ और प्रत्येक पङ्क्तिमें लगभग ३२ अक्षर हैं । प्रति पूर्ण है। पुस्तकके अन्तमें समय अादिका निर्देश निम्न प्रकार है “अथ संवत्सरस्मिन् विक्रमाकसमयातीत् सं० १९२६ वर्षे श्री मच्छालिवाहन शाके १६६४ प्रवर्तमाने उत्तरायने वशंतती [?] आषाढमासे कृष्णपक्ष दशम्यां तिथौ शुक्रवासरे समाप्तमिति ।...."ऐन्द्रपुरी नगरमध्ये।" 'स' प्रति यह भी श्रीस्यादवाद दिगम्बर जैन महाविद्यालय काशीकी ही प्रति है। इसमें पत्र संख्या ३९४ है। पत्र संख्या १ से २७० तक प्रतिपृष्ठ १३ या १४ पंक्तियाँ और प्रति पङ्क्ति लगभग २५ अक्षर है। उसके आगेके पत्र दूसरे लेखकके लिखे हुए प्रतीत होते हैं जिनमें प्रत्येक पृष्ठमें १६ पङ्क्तियाँ और प्रत्येक पङ्क्ति में 1 ३४ अक्षर हैं। प्रति सुवाच्य तथा प्रायः शुद्ध है किन्तु इसके ३५० से ३६२ तक पत्र नहीं हैं। यह प्रति अाध्याय ५ पाद १ सूत्र ३४ में जाकर समाप्त हो जाती है। इससे अागेके पत्र नष्ट प्रतीत होते हैं। 'द' प्रति यह प्रति भी श्रीस्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालय काशीकी है। इसके २७५ पत्रों में अध्याय ४ पाद १ सूत्र १२५ तकको वृत्ति उपलब्ध है। इसके प्रारम्भके ४९ पत्रों में प्रतिपृष्ठ ११ पक्तियाँ तथा प्रतिपक्ति लगभग ३८ अक्षर हैं तथा उसके आगे पत्र संख्या ५० से २७५ तक प्रति पृष्ठ १२ पंक्तियाँ तथा प्रतिपङक्ति लगभग ४६ अक्षर हैं। 'पू०' प्रति यह प्रति भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूड पूनाकी है। यह दो भागोंमें विभक्त है। प्रथम भागमैं पत्र संख्या १ से ३१४ तक तथा दूसरेमें १ से ७४ तक है। इसके प्रत्येक पृष्ठमैं १४ पङ्क्तियाँ और प्रत्येक पङ्क्तिमें लगभग ४२ अक्षर हैं। दूसरे भागमें चतुर्थ अध्यायके चतुर्थं पादका कुछ अन्तिम भाग तथा पञ्चम अध्याय पूर्ण है । लेखन काल आदिका परिचय लेखकके शब्दों में निम्नप्रकार है "पंडित जन सू बीनती है परोक्ष मम एह । हीनाधिक लखि सोधियो हँसियो मति धरि नेह ॥ मिति चैत्र-शुकु २ भौमवासरे शुभ सम्वत् १९३३ का।" इन सभी प्रतियों में अध्याय ४ पाद ३ से पञ्चम अध्यायके अन्त तक बीच बीचमैं कुछ सूत्रोंकी वृत्ति . नहीं लिखी गई है जो यत्न करनेपर भी उपलब्ध न हो सकी और इसीलिए जैनेन्द्र पञ्चाध्यायीके अाधारसे सूत्र-क्रममैं केवल सूत्रमात्रका निर्देश कर दिया गया है। For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका [ लेखक-श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ] भारतवर्षमें व्याकरणशास्त्रका अध्ययन लगभग तीन सहस्र वर्षसे चला आ रहा है। भाषाके शुद्ध ज्ञानके लिए व्याकरणका महत्त्व सर्व सम्मतिसे स्वीकृत हुआ, अतएव व्याकरणको 'उत्तरा विद्या' अर्थात अन्य विद्याओंकी अपेक्षा श्रेष्ठ कोटिमें माना गया । किसी भी भाषाके इतिहास में धातु और प्रत्ययों की पहचान उस गौरवपूर्ण स्थितिकी सूचक है जिसमें सूक्ष्म दृष्टि से भाषाके आन्तरिक संगठनका विवेक कर लिया जाता है, और शब्दोंकी उत्पत्ति और निर्माण की जो प्राणवन्त प्रक्रिया है उसके रहस्यको आत्मसात् कर लिया जाता है। यो तो सभी मनुष्य अपनी अपनी मातृभाषामें बोलकर अपना अभिप्राय प्रकट कर लेते हैं; किन्तु व्याकरणकी प्रक्रियाका जन्म उस राजपथका निर्माण है जिसपर चलकर निर्भय भावसे हम भाषाके विस्तृत साम्राज्यमें जहाँ चाहें पहुँच सकते हैं और शब्दों में भावप्रकाशनको जो अपरिमित क्षमता है उसको भी प्राप्त कर सकते हैं । संस्कृत वैयाकरणोंने संसारमें सर्वप्रथम इस प्रकारका महनीय कार्य किया। शब्दोंके विभिन्न रूपोंके भीतर जो एक मूल संज्ञा या धातु निहित रहती है उसके स्वरूपका निश्चय और प्रत्यय जोड़कर उससे बननेवाले क्रिया और संज्ञा रूपी अनेक शब्दोंकी रचना एवं प्रत्ययोंके अर्थोंका निश्चय-इस प्रकारके विविध विचारकी पद्धतिका जिस शास्त्रमें प्रारम्भ और विकास हुआ उसे शब्दविद्या या व्याकरणशास्त्र कहा गया । संस्कृत साहित्यमें पाणिनिकी अष्टाध्यायी व्याकरणशास्त्रका सर्वाङ्गपूर्ण विवेचन है। उसके लगभग चार सहस्त सूत्रों में लौकिक और वैदिक संस्कृतका जैसा अद्भुत विचार किया गया है, वह विलक्षण है। पाणिनिने संस्कृत व्याकरणका जो स्वरूप स्थिर किया उसीका विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदिके रूपमें लगभग इस शती तक होता आया है। किन्तु पाणिनिके अतिरिक्त, पर मुख्यतः उन्हींकी निर्धारित पद्धतिसे और भी व्याकरण-ग्रन्योका निर्माण हुआ । इस विषयमें एक प्राचीन श्लोक ध्यान देने योग्य है इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः। पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ यह श्लोक मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेवका कहा जाता है। इस सूची में वैयाकरणोंकी दो कोटियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। पहली कोटिमें इन्द्र, शाकटायन, श्रापिशलि, काशकृत्स्न और पाणिनि, ये पाँच प्राचीन वैयाकरण थे। दूसरी कोटिमें अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र इन नवीन शाब्दिकोंकी गणना है। पाणिनीय सूत्र 'क्रतूक्थादिसूत्रान्ताहक्' [४।२।६०] के एक वार्तिकपर काशिकामें 'पञ्चव्याकरणः' यह उदाहरण पाया जाता है। इसका अर्थ था पाँच व्याकरणोंका अध्ययन करनेवाला या जाननेवाला विद्वान् [तदधीते तद्वद] । इसमें जिन पाँच व्याकरणों का एक साथ उल्लेख है, वे यही पाँच प्राचीन व्याकरण होने चाहिए जिनकी सूची मुग्धबोधके इस श्लोकमें है। इसपर सूक्ष्म विचार करनेसे यह तथ्य सामने आता है कि पाणिनिसे पूर्वकालमें व्याकरणका अध्ययन-अध्यापन व्यापक रूपसे हो रहा था, जैसा कि पाणिनीय व्याकरणके इतिहाससे ज्ञात होता है। प्रातिशाख्य, निरुक्त और अष्टाध्यायीमें लगभग ६४ श्राचार्यों के नाम आये हैं जिन्होंने शब्टशास्त्र के सम्बन्धमैं उस प्राचीनकालमें ऊहापोह किया था। इनमेंसे इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि और काशकृत्स्नके व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं है, किन्तु पाणिनिसे पहले वे अवश्य विद्यमान थे। शात For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका होता है कि उन प्राचीन व्याकरणोंकी अधिकांश सामग्रीके आधारपर एवं स्वतः अपनी सूक्ष्मेक्षिका द्वारा लोकसे शब्द-सामग्रीका संग्रह करके पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायीका निर्माण किया। वह शास्त्र लोकमें इतना महान् और सुविहित समझा गया [पाणिनीयं महत् सुविहितम् , भाष्य ४।३।६६] कि पाणिनिके उत्तर कालमें नये व्याकरणोंकी रचनाका क्रम एक प्रकारसे बन्द सा हो गया। उसके बाद व्याकरणका परिष्कार केवल वार्तिक, भाष्य और वृत्तियों द्वारा चलता रहा। कात्यायन जैसे प्रखर बुद्धिशाली प्राचार्यने पाणिनि व्याकरणपर लगमग सवा चार सहस्र वार्तिकोंकी रचना करके उस महान् शास्त्र के प्रति अपनी निष्ठा अभिव्यक्त की, पर कोई स्वतन्त्र व्याकरण रचनेका उपक्रम नहीं किया। इसी प्रकार भगवान् पतञ्जलिका महाभाष्य भी पाणिनीय व्याकरणकी सोमाके भीतर एक अद्भुत प्रयत्न था। पाणिनि लगभग पाँचवीं शती विक्रम पूर्वमें नन्द राजाओं के समयमै हुए थे। यह अनुश्रुति ऐतिहासिक तथ्यपर आश्रित जान पड़ती है जैसा कि हमने अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' नामक ग्रन्थमें प्रदर्शित किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाणिनिके बाद लगभग एक सहस्र वर्षतक नूतन व्याकरणकी रचनाका प्रयत्न नहीं किया गया । भारतीय साहित्यिक इतिहासका यह सुविदित तथ्य है कि कुषाण कालके लगभग संस्कृत भाषाको पुनः सार्वजनिक रूपमें साहित्यिक भाषा और राजभाषाका पद प्राप्त हुआ किनिष्कके समयमै अश्वघोषके काव्योंकी रचना और रुद्रदामाके जूनागढ़ लेखसे यह स्पष्ट विदित होता है। वस्तुतः इस समय भाषाके क्षेत्रमें जो क्रान्ति घटित हुई उसका ठीक स्वरूप कुछ इस प्रकार था-ब्राह्मण साहित्य में तो संस्कृत भाषाकी परम्परा सदासे अक्षुण्ण थी ही, पर उसके अतिरिक्त बौद्ध और जैन श्राचार्योंने भी संस्कृत भाषाको उन्मुक्त भावसे अपना लिया और उसके अध्ययनसे दोनोने अपने अपने क्षेत्रमें विपुल साहित्यका निर्माण किया जिसमें किसी समय सहस्रों ग्रन्थ थे। कुषाण कालसे जो भाषा सम्बन्धी नया परिवर्तन आरम्भ हुआ था वह उत्तरोत्तर सबल होता गया, यहाँ तक कि लगभग चौथी-पाँचवीं शती ईस्वी में संस्कृत भाषाको न केवल भारतवर्ष में अखण्ड राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वरञ्च मध्य एशियासे लेकर हिन्द एशिया या द्वीपान्तर तकके देशोंमें पारस्परिक व्यवहार के लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा भी बन गई। इस पृष्ठभूमिमें शब्दविद्याका पुनः वह छुटा हुआ सूत्र प्रारम्भ हुआ और नये व्याकरणशास्त्र लिखे जाने लगे। स्वयं पाणिनीय व्याकरणों पर वामन जयादित्य कृत काशिका वृत्ति और जिनेन्द्रबद्धि कृत न्यासकी रचना हुई । यह टीकाके मार्गसे प्राचीन व्याकरणका ही विशदीकरण था; किन्तु बौद्ध और जैन जो दो बड़े समुदाय संस्कृत भाषाकी नई शक्ति से परिचित हो रहे थे, उन्होंने अपने अपने क्षेत्र में दो नये व्याकरणोंका निर्माण किया। बौद्धोंमें प्राचार्य चन्द्रगोमी कृत चान्द्र व्याकरण और जैनों में प्राचार्य देवनन्दी पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरण गुप्त युगमैं अस्तित्वमें आये। ज्ञात होता है कि दोनोंकी ही रचना लगभग ५ वीं शती ईस्वीके उत्तरार्धमें हुई। चान्द्र व्याकरणकी त्वोपज्ञ वृत्ति में 'अजयद् जर्ती हूणान्' [ १॥२॥८१ ] उदाहरणसे सिद्ध है कि पाँचवीं शतीके मध्य में स्कन्दगुप्तने हणोंपर जो बड़ी विजय प्राप्त की थी उसकी समकालीन स्मृति इस उदाहरणमें अवशिष्ट है। इससे चान्द्र व्याकरणके रचनाकाल पर प्रकाश पड़ता है। पूज्यपाद देवनन्दीने दो सूत्रोंमें प्रसिद्ध आचार्य, सिद्धसेन [ वेत्तेः सिद्धसेनस्य, ५।१७ ] और समन्तभद्र 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' [५/१४०] का उल्लेख किया है, ये दोनों देवनन्दीसे कुछ समय पूर्व हो चुके थे। यद्यपि सिद्धसेन दिवाकरका समय भी सर्वथा निश्चित नहीं है; किन्तु अनुश्रतिके अनुसार उन्हें विक्रमादित्यका समकालीन माना जाता है। विक्रमके नवरत्नोंकी सूची में जिस क्षपणकका उल्लेख है उन्हें विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर ही मानते हैं। श्री राइसने सिद्धसेनका समय पाँचवीं शतीके मध्यभागमैं माना है। किन्तु चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य [ ३७५.४१३ 1 और सिद्धसेनकी समसामयिकताका आधार यदि सत्य हो तो सिद्धसेनको चौथी शतीके अन्तमें मानना ठीक होगा । लगभग यही समय समन्तभद्रका होना चाहिए। श्री प्रेमीजीने अपने पाण्डित्यपूर्ण लेखमें देवनन्दीके For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् समयके विषय में जो प्रमाण संगृहीत किये हैं उनकी सम्मिलित साक्षीसे भी यही सूचित होता है कि प्राचार्य देवनन्दी लगभग पाँचवीं शतीके अन्तमें हुए हैं। इस सम्बन्धमैं एक विशेष प्रमाणको श्रोर ध्यान दिलाना आवश्यक है। इसके अनुसार संवत् १६० में बने हुए दर्शनसार नामक प्राकृत ग्रन्थमें कहा है कि पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दीने दक्षिण मधुरामै ५२६ विक्रमीमें [ ४६६ ई० ] द्राविड़ संघकी स्थापना की । इससे भी पूज्य पादका समय ५ वीं शतीके उत्तरार्धमें सिद्ध होता है। इसीका समर्थन करनेवाला एक अन्य प्रमाण है-कर्नाटककविचरित्र के अनुसार गंगवंशीय राजा अविनीत [वि० सं० ५२३ ] के पुत्र दुविनीत [ वि० सं० ५.३८, ईस्वी ४८१ ] श्राचार्य पूज्यपादके शिष्य थे; अतएव पूज्यपाद ५ वीं शतीके उत्तरार्धके सिद्ध होते हैं। महाराज पृथिवीकोंकणके दानपत्रमें लिखा है-श्रीमत्कोंकणमहाराजाधिराजस्याविनीतनाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारतीनिबद्धबृहत्कथेन किरातार्जुनीयपंचदशसर्गटीकाकारेण दुविनीतनामधेयेन'; अर्थात् अविनीतके पुत्र दुर्विनीतने शब्दावतारनामक ग्रन्थकी रचना की थी। जैसे प्रेमीजीने लिखा है शिमोगा जिलेकी नगर तहसीलके शिलालेखमें देवनन्दीको पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यासका कत्र लिखा है। अनुमान होता है कि दुर्विनीतके गुरु पूज्यपादने वह ग्रन्थ रचकर अपने शिष्यके नामसे प्रचारित किया था। जैनेन्द्र व्याकरण उस शृंखलाकी पहली कड़ी है जिसमें गुप्त कालसे लेकर मध्यकाल तक उत्तरोत्तर नये. नये व्याकरणोंकी रचना होती चली गई । जैनेन्द्र पांचवीं शती], चन्द्र [पांचवीं शती], शाकटायन [नवमी शती का पूर्वार्द्ध], सरस्वतीकण्ठाभरण [ ग्यारहवीं शतीका पूर्वार्द्ध 1 और प्रसिद्ध हैमशब्दानुशासन [ बारहवीं शतीका पूर्वाद्धं ] इन सबने उन्मुक्त मनसे और अत्यन्त सौहार्द भावसे पाणिनीय व्याकरणको मल सामग्रीका अवलम्बन लिया। इनमें भी जैनेन्द्र -व्याकरणने भोजके सरस्वतीकण्ठाभरणको छोड़ कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रोंके सबसे निकट रखा है । किसी भी प्रकरणके अध्ययनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्रने पाणिनि सामग्रीकी प्रायः अविकल रक्षा की है। केवल स्वर और वैदिक प्रकरणोंको अपने युगके लिए आवश्यक न जानकर उन्होंने छोड़ दिया था। जैनेन्द्र व्याकरणके काने पाणिनीय गणपाठकी बहुत सावधानीसे रक्षा की थी। मूल व्याकरणमें पाणिनिके गणसूत्रोंको प्रायः स्वीकार किया गया है। यद्यपि वैदिक शाखाओंवाले और गोत्र सम्बन्धी गणोंसे सिद्ध होनेवाले नामोंका जैन साहित्यके लिए उतना उपयोग न था, किन्तु जिस समय इस व्याकरणकी रचना हुई उस समय भाषाके विषयमें लोककी चेतना अत्यन्त स्वच्छ और उदार भावसे युक्त थी; अतएव जैनेन्द्र व्याकरणकी प्रवृत्ति पाणिनि सामग्री के निराकरण में नहीं, वरन् उसके अधिकसे अधिक संरक्षणमें देखी जाती है। जैनेन्द्र व्याकरणके साथ उसका अलग गणपाठ किसी समय अवश्य ही रहा होगा, यद्यपि अब वह पृथक् रूपसे उपलब्ध न होकर अभयनन्दी कृत महावृत्तिके अन्तर्गत ही सुरक्षित है। कात्यायनके वार्तिक और पतञ्जलिके भाष्यकी इष्टियों में जो नये नये रूप सिद्ध किये गये थे उन्हें देवनन्दीने सूत्रों में अपना लिया है। इस लिए भी यह व्याकरण अपने समयमैं विशेष लोकप्रिय हुआ होगा। यह प्रवृत्ति काशिकामें भी किसी अंशमैं आ गई थी और चन्द्र श्रादि व्याकरणों में भी बराबर पाई जाती है । जैनेन्द्र व्याकरणके दो सूत्रपाठोंकी परम्परा इस समय पाई जाती है-एकमें तीन सहस्र सूत्र है: दुसरेमें लगभग ७०० सूत्र अधिक हैं। इस विषयमें श्रीप्रेमीजीका निष्कर्ष यथार्थ है कि मूल जैनेन्द्र सूत्रपाठकी संख्या ३ सहस्र ही थी जिसपर अभयनन्दीकी टीका पाई जाती है। अभयनन्दी कृत महावृत्ति लगभग १२ सहस्र श्लोक परिमाणका बड़ा ग्रन्थ है। काशीसे १६१८ में इसके प्रथम ३ अध्यायोंका एक संस्करण प्रकाशित हुआ था। किन्तु वह केवल एक प्रतिके अाधारपर तैयार किया गया था, अतएव इस बातकी बहुत आवश्यकता थी कि सम्पूर्ण जैनेन्द्र व्याकरण तथा उसकी महावृत्तिका एक संशोधित संस्करण प्रकाशित किया जाय। हर्षकी बात है कि भारतीय ज्ञानपीठके सत्प्रयत्नसे इस मूल्यवान् ग्रन्थका यह संशोधित संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है जिसके तैयार करनेमें पूनाके भण्डारकर ओरिएण्टल इंस्टीट्यडमें सुरक्षित प्रतियोंका और काशी में ही प्राप्त ३ प्रतियोंका उपयोग किया गया है। आशा है, व्याकरण For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका शास्त्रके तुलनात्मक अध्ययनके लिए जैनेन्द्रका यह वर्तमान संस्करण अधिक उपयोगी सिद्ध होगा, विशेषतः गणपाठसे तुलनात्मक अध्ययनके लिए इस संस्करणका विशेष उपयोग हो सकेगा। - आचार्य अभयनन्दीकी महावृत्ति लगभग काशिकाके समान ही बृहत् ग्रन्थ है। इसके कर्ताने कात्यायनके वार्तिक और पतञ्जलिके भाष्यसे बहुत अधिक उपादेय सामग्री का अपने ग्रन्थमैं संकलन कर लिया है। महावृत्तिका काल अाठवीं शताब्दीका प्रारम्भ माना जाता है और सम्भावना ऐसी है कि अभयनन्दीने काशिको वृत्तिका उपयोग किया था।) वस्तुतः किसी भी पाठकसे यह तथ्य छिपा नहीं रह सकता कि अष्टाध्यायी और काशिकाका ही रूपान्तर जैनेन्द्र पञ्चाध्यायी और उसकी महावृत्तिमें प्राप्त होता है। फिर भी काशिका और महावृत्तिकी सूक्ष्म तुलना करनेपर यह प्रकट हो जाता है कि अभयनन्दीने कुछ ऐसे उदाहरण दिये हैं जो काशिकामें उपलब्ध नहीं होते और फलस्वरूप ऐसी सामग्रीकी रक्षा की है जो काशिकासे प्राप्त नहीं हो सकती। उन्होंने जहाँ सम्भव हो सका वहाँ जैन तीर्थङ्करोंके, महापुरुषोंके, या ग्रन्थों के नाम उदाहरणों में डाल दिये हैं। जैसे, सूत्र ११४|१५ के उदाहरणमें 'अनु शालिभद्रम् आढ्याः , अनुसमन्तभद्रं तार्किकाः; सूत्र १।४।१६ के उदाहरण में 'उपसिंहनन्दिनं कवयः, उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः'; सूत्र १।४।२० की वृत्तिमें 'आकुमारेभ्यो यशः समन्तभद्रस्य'; सूत्र ११४२२ की टीकामें 'अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति'; सूत्र २१४६८ को टीकामें 'भरतगृह्यः, भुजबलिगृह्यः'; सूत्र १।३।१० की वृत्तिमें 'आकुमारं यशः समन्तभद्रस्य' ऐसे उदाहरण हैं जो वृत्तिकारने मूलग्रन्थके अनुकूल जैन वातावरणका निर्माण करनेके लिए अपनी प्रतिभासे बनाये हैं। सूत्र १।३५ की वृत्तिमें 'प्राभृतपर्यन्तमधीते' उदाहरण महत्त्वपूर्ण है, उसीके साथ 'सबन्धम् , सटीकम् अधीते' भी ध्यान देने योग्य हैं। यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्राभृतसे तात्पर्य महाकर्मप्रकृति प्राभृतसे था जिसके रचयिता श्रा० पुष्पदन्त तथा भूतबलि माने जाते हैं [प्रथम-द्वितीय शती] । इसीका दूसरा नाम घटखण्डागम प्रसिद्ध है। इसीका भागविशेष 'बन्ध' या महाबन्ध [महाधवल सिद्धान्तशास्त्र] था जिसके अध्ययनसे यहाँ अभयनन्दीका तात्पर्य ज्ञात होता है। अर्थात् उस समय भी विद्वानों में प्राभृत या षट् खण्डागमसे पृथक् महाबन्धका अस्तित्व था और दोनोंका अध्ययन जीवनका आदर्श माना जाता था । 'सटीकमधीते' में जिस टीकाका उल्लेख है वह धवला टीका नहीं हो सकती क्योंकि उसकी रचना वीरसेनने८१६ ई. में की थी। श्रुतावतारके अनुसार महाकर्मप्राभृतपर प्राचार्य कुन्दकुन्दने भी एक बड़ी प्राकृत टीका लिखी थी जो इस समय अनुपलब्ध है। संभवतः वही टीका प्राभूत और बन्धके साथ पढ़ी जाती थी। इनके स्थान पर पाणिनि सूत्रके उदाहरणों में किसी समय इष्टि, पशुबन्ध, अग्नि, रहस्य नामक शतपथ ब्राह्मणके तत्तद् काण्डोंका अध्ययन विद्याका आदर्श माना जाता था। देवनन्दीने सूत्र ११४१३४ में जिन श्रीदत्त प्राचार्यका उल्लेख किया है उन्हें कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते हैं, परन्तु अभयनन्दीकी महावृत्तिसे सूचित होता है कि श्रीदत्त कोई अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जिनका लोकमें प्रमाण माना जाता है। 'इतिश्रीदत्तम्', यह प्रयोग 'इतिपाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार 'तच्छ्रीदत्तम्', 'अहोश्रीदत्तम्' प्रयोग भी श्रीदत्तकी लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते हैं [श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशते; महावृत्ति १।३।५] । सूत्र ३।३।७६ पर 'तेन प्रोक्तम्' के उदाहारणमें अभयनन्दीने श्रीदत्तके विरचित ग्रन्थको श्रीदत्तीयम कहा है। इससे ज्ञात होता है कि श्रीदत्तका बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था। सूत्र ११४/४ की वृत्तिमैं 'शरदं मथुरा रमणीया, मासं कल्याणी काञ्ची' ये दोनों उदाहरण अभयनन्दीकी मौलिकता सूचित करते हैं। पाणिनि सूत्र 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' [२।३।५] की काशिका वृत्तिमें 'मासं कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'मासं कल्याणी काञ्ची' यह ऐतिहासिक सूचना अभयनन्दीने किसी विशेष स्रोतसे प्राप्त की थी। जिस काञ्चीपुरीके मासव्यापी उत्सवोंकी विशेष शोभाकी श्रोर इस उदा. हरणमें संकेत है वह महेन्द्रवर्मन् , नरसिंह वर्मन् श्रादि पल्लवनरेशोंकी राजधानीके सम्बन्धमैं होना चाहिए। अतएव सप्तम शतीसे पूर्व यह उदाहरण भाषामें उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४।३।११४ की वृत्तिमें अभयनन्दी. ने माघके 'सटाछटाभिन्नघनेन विभ्रता...'श्लोकमा उद्धरण दिया है। माघके दादा सुप्रभदेव वर्मलातके मंत्री For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् थे जिसका एक शिलालेख ६२५ ई० का पाया जाता है। अतएव माघका समय सप्तम शतीका उत्तरार्ध होना चाहिए। उसके बाद ही अभयनन्दीने महावृत्तिका निर्माण किया होगा। सूत्र ११४/६९ पर 'चन्द्रगुप्तसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परामें प्राप्त होता है किन्तु उसके साथ काशिकामें जो 'पुष्यमित्रसभा' दसरा उदाहरण है उसकी जगह महावृत्ति कारने 'सातवाहनसभा' उदाहरण रक्खा है। उसी प्रकार काशिकामें [१४२३] मैं केवल 'काष्ठसभा' उदाहरण है, किन्तु अभयनन्दीने 'पाषाणसभा और पक्वेष्टकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये हैं। कहीं-कहीं अभयनन्दीने काशिकाकी अपेक्षा भाष्यके उदाहरणोंको स्वीकार किया है। जैसे सूत्र ११४।१३७ में 'औद्दालकिः पिता, औद्दालकायनः पुत्रः' यह भाष्यका उदाहरण था जिसे बदलकर काशिकाने अपने समयके अनुकूल 'आर्जुनिः पिता, प्रार्जुनायनः पुत्रः' [काशिका २१४६६] यह उदाहरण कर दिया था। 'आर्जुनायन' काशिकाकारके समयके अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्तिमें प्रार्जुनायनगण के उल्लेखसे ज्ञात होता है। कहीं-कहीं महावृत्तिमें काशिकाकी सामग्रीको वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये हैं जो सूचित करते हैं कि अभयनन्दीकी पहँच अन्य प्राचीन वृत्तियों तक थी, जैसे सूत्र ११४९८३ की वृत्तिमें 'उद्धधरावति' तो काशिकामें भी है किन्तु 'विपाटचक्रभिदम् विपाशा और चक्रभिद् नर्दीका संगम] उदाहरण नया है। ऐसे ही सूत्र २।४/२९ में मयूरिकाबन्ध, क्रौञ्चबन्ध, चक्रवन्ध, कूटबन्ध उदाहरण महावृत्ति और काशिकामें समान हैं, पर चण्डालिकाबन्ध और महिषिकबन्ध उदाहरण महावृत्तिमें नये हैं। काशिकाका मुष्टिबन्ध महावृत्तिमें दृष्टिबन्ध और चोरकबन्ध चारकबन्ध हो गया है। सूत्र १।३।३६ में भी चारकबन्ध पाठ है। सूत्र ५।४।९६ 'पानं देशे' की वृत्तिमें काशिकाके 'क्षीरपाणा: उशीनराः' को 'क्षीरपाणाः आन्ध्राः' और 'सीवीरपाणा वालीकाः' को 'सौवीरपाणाः द्रविणा:' कर दिया है। 'द्रविणाः' द्रमिल या द्रमिडका रूप है। ये परिवर्तन अभयनन्दीने किसी प्राचीन वृत्तिके आधार पर या स्वयं अपनी सूचनाके आधारपर किये होंगे। आन्ध्र देशमैं दूध पीनेका और तामिल देशमै काँजी पीने का व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध रहा होगा | कहीं-कहीं महावृत्तिमै कठिन शब्दोंके नये अर्थ संग्रह करनेका प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २।४११६ का 'अषडक्षीण' शब्द है। पाणिनि सूत्र ५।४।७ की काशिका वृत्तिमें 'अपडीणो मन्त्रः' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मंत्र या परामर्श जो केवल राजा और मंत्री के बीच हुआ हो [यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभिः] । 'पटक! भिद्यते मन्त्रः' के अनुसार राजा और मुख्य मंत्रीकी 'चार आँखों' या 'चार कानों' से बाहर जो मन्त्र चला जाता था उसके फूट जानेकी अाशंका रहती थी। अभयनन्दीने काशिकाके इस अर्थको स्वीकार तो किया है, किन्तु गौण रीतिसे । उन्होंने 'अषडक्षीणो देवदत्तः' उदाहरणको प्रधानता दी है। अर्थात् कोई देवदत्त नामका व्यक्ति जिसने अपने पिता, पितामह और पुत्र में से किसीको न देखा हो। अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामहकी मृत्युके बाद उत्पन्न हुआ हो और स्वयं अपने पुत्र नन्मके कुछ मास पहले गत हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेंदको भी अपडक्षीणा कहा है [येन वा कन्दुकेन द्वौ क्रीडतः सोऽप्येवमुक्तः । या तो ये अर्थ अभयनन्दीके समयमै लोकप्रचलित थे या उनकी कल्पना है। महावृत्तिमें 'अषडक्षीण का एक अर्थ मछली भी किया है पर उसमें खींचतान ही जान पड़ती है। सूत्र ३।४।१३४ में 'अयानयोन' शब्दके अर्थका भी महावृत्तिमै विस्तार है। महावृत्ति सूत्र २।२।६२ में इतिहासको विशेष महत्त्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित रह गई है। उसमें ये दो उदाहरण आये हैं 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । अरुणद यवनः साकेतम्' व्याकरणकी दृष्टिसे यह आवश्यक था कि कोई ऐसा उदाहरण लिया जाता जो लोकप्रसिद्ध घटनाका सूचक हो, जो कहनेवालेके परोक्षमें घटित हुआ हो किन्तु जिसका देख सकना उसके लिए सम्भव हो अर्थात् उसके जीवन कालकी ही कोई प्रसिद्ध घटना हो, पर जिसे सम्भव होने पर भी उसने स्वयं देखा न हो। भाष्यकार पतञ्जलिने इसका उदाहरण देते हुए अपनी समसामयिक दो घटनाओका उल्लेख किया था-'अरुण For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका ११ यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो मध्यमिकाम् ।' इनमें शाकलके यवन राजाओं द्वारा किये हुए उन दो हमलों का उल्लेख है जिनमें से एक पूर्व की ओर साकेत पर और दूसरा पच्छिम में मध्यमिका पर । मध्यमिका चित्तौड़ के पासका वह स्थान था जिसे इस समय नगरी कहते हैं और जहाँ खुदाई में प्राप्त पुराने सिक्कों पर मध्यमिका नाम लिखा हुआ मिला है। ये हमले किस राजाने किये थे उसका नाम पतञ्जलिने नहीं दिया, किन्तु यूनानी इतिहासलेखकों के वर्णनसे ज्ञात होता है कि उस राजाका नाम मिनन्डर था जिसे पाली भाषा में मिलिन्द कहा गया है। उसके सिक्कों पर तत्कालीन बोलचालकी प्राकृत भाषा में उसका नाम मेनन्द्र मिलता है । महावृत्तिके 'अरुणन्महेन्द्रो मधुराम्' इस उदाहरणमें दो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ हैं। इसमें राजाका नाम महेन्द्र दिया हुआ है, पर हमारी सम्मतिमें इसका मूलपाठ 'मेनन्द्र' था । पीछेके लेखकोंने मेनन्द्र नामकी ठीक पहचान न समझ कर उसका संस्कृत रूप महेन्द्र कर डाला। इस उदाहरण से संस्कृत साहित्यकी भारतीय साक्षी प्राप्त हो जाती है कि पूर्व की ओर अभियान करनेवाले यवनराजका नाम मेनन्द्र या मिनन्डर था । यवनराज मेनन्द्रने पाटलिपुत्र पर दाँत गड़ा कर पहले धक्के में मथुरा पर अधिकार जमाया और फिर आगे बढ़कर सातको छेक लिया । साकेत पहुँचने के लिए मथुराका जीतना आवश्यक था । अत्र यह सूचना पक्के रूपमें अभयनन्दीके उदाहरणसे प्राप्त हो जाती है। इससे यह भी पता लगता है कि काशिका के अतिरिक्त भी अभयनन्दीके सामने पाणिनि व्याकरणकी ऐसी सामग्री थी जिससे उसे यह नया ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हुआ | सूत्र १३/३६ की वृत्ति में श्रारण्यक पर्व १२६८ - १० का यह श्लोक पठित हैउलूखलैराभरणैः पिशाची यदभाषत् । एतत्तु ते दिवा नृत्तं रात्रौ नृत्तं तु द्रक्ष्यसि ॥ काशिका २|१|४५ में यह श्लोक किन्हीं प्रतियों में प्रक्षिप्त और किन्हीं में मूलके अन्तर्गत माना गया है, किन्तु महावृत्तिसे सिद्ध हो जाता है कि वह काशिका के मूलपाठका भाग था । श्लोकके उत्तरार्ध में जो 'दिवानृत्त' राम्रो नृत्तं ' पाठ है उसका समर्थन महाभारतकी कुछ प्रतियोंसे होता है पर कुछ अन्य प्रतियों में 'वृत्तं ' पाठ है जैसा कि काशिका मैं और महाभारत के पूना संस्करण में भी स्वीकार किया गया है। प्राचार्य अभयनन्दी ने अपनी महावृत्तिको जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरणकी पुष्कल सामग्री से भर दिया है वह सर्वथा अभि नन्दनके योग्य है । श्राशा है जिस समय काशिकावृत्ति, अभयनन्दीकृत महावृत्ति और शाकटायन व्याकरणकी मोधवृत्ति इन तीनोंका तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव होगा तो यह बात और भी स्पष्ट रूपसे जानी जा सकेगी कि प्रत्येक वृत्तिकारने परम्परासे प्राप्त सामग्रीकी कितनी अधिक रक्षा अपने अपने ग्रन्थ में की थी। यह सन्तोषका विषय है कि इन कृतियोंने सावधानीके साथ प्राचीन सामग्रीको बच्चा लिया । आचार्य देवनदीने पाणिनीय अष्टाध्यायीको आधार मानकर उसे पञ्चाध्यायी में परिवर्तन करते समय दो बातोंकी ओर विशेष ध्यान रखा था - एक तो धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासंज्ञाओं को भी जिनके कारण पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण में इतनी स्पष्टता और स्वारस्य श्रा सका था, इन्होंने बीजगणित के जैसे अतिसंक्षित संकेतों में बदल दिया है जिनकी सूची परिशिष्ट में दे दी गयी है। दूसरे जितने स्वर सम्बन्धी और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्र थे उनको श्रा० देवनन्दीने छोड़ दिया है । किन्तु ऐसा करते हुए इन्होंने उदारता से काम लिया है, जैसे श्रानाय्य, धाय्या, सानाय्य, कुण्डपाय्य, परिचाय्य, उपचाय्य, [ २|१|१०४ - १०५ ]; ग्रावस्तुत् [ २/२/१५६ ] श्रादि वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंको रख लिया है। इसी प्रकार सास्य देवता प्रकरण [३।२।२१-२८] में शुक्र, पोनप्तृ, महेन्द्र, सोम, द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीषोम, वास्तोस्पति, गृहमेव आदि गृह्यसूत्रकालीन देवताओं के नामोंको पाणिनीय प्रकरण के अनुसार ही रहने दिया है। प्रत्ययों में आनेवाले फ, ट, ख, छ घ और यु, वु, एवं उनके स्थान में होनेवाले आदेशोंको भी ज्योंका त्यों रहने दिया है । [ ५ | १ | १ : ५ | १/२ ] | 'तेन प्रोक्तम्' प्रकरण [ ३/३/७६ - ८० ] मैं वैदिक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थोंके नाम भी ज्यों के त्यों जैनेन्द्र व्याकरणमै स्वीकृत कर लिये गये हैं । कहीं कहीं जैनेन्द्रने उन परिभाषाओं को स्वीकार किया है जो प्राक् पाणिनीय व्याकरणों में मान्य थीं और जिनका For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जैनेन्द्र-व्याकरणम् १२ उल्लेख भाष्य या वार्तिकों में आया है । उदाहरण के लिए जैनेन्द्र सूत्र १/३/१०५ में उत्तरपदकी संज्ञा मानी गई है । पतञ्जलि के महाभाष्य में सूत्र ७ | ३ | ३ पर श्लोकवार्तिक में घु पाठ है और वहां 'किमिदं घोरिति उत्तरपदस्येति' लिखा है | सूत्र ७।१।२१ के भाष्य को अनुत्तरपदका पर्याय माना है पर कीलहार्न का सुझाव था कि घु का शुद्ध पाठ द्यु होना चाहिए। वह बात जैनेन्द्र के सूत्र १ । ३ । १०५ ' उत्तरपदं चु' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है । और अत्र भाष्यमें भी द्यु ही शुद्ध पाठ मान लेना चाहिए । जैनेन्द्र १।१ सबसे आश्चर्यको बात यह है कि पाणिनिके 'पूर्वत्रासिद्धम्' [ = 1२1१] सूत्र और उससे संबंधित प्रसिद्ध प्रकरणको भी जो पाणिनिके शास्त्रनिर्माण कौशलका अद्भुत नमूना है, जैनेन्द्र व्याकरण में 'पूर्वत्रासिद्धम्' सूत्र [५।३।२७ ] में स्वीकार किया है। तदनुसार जैनेन्द्रके साढ़े चार अध्यायोंके प्रति अन्तके लगभग दो पाद सिद्ध शास्त्र के अन्तर्गत आते हैं । देवनन्दीने अपनी पञ्चाध्यायी में पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रक्रममैं कमसे कम फेरफार करके उसे जैसेका तैसा रहने दिया है। केवल सूत्रोंके शब्दों में जहाँ तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है। जैनेन्द्र और पाणिनीय व्याकरणों की तुलनात्मक पाद सारणीसे यह स्पष्ट हो जाता है । विशेष तुलनात्मक सूत्रसूची ग्रन्थके अन्त में परिशिष्ट रूपमें दी गयी है । जैनेन्द्र ३।३ ३/४ ४|१ ४/२ ४/३ ४|४ ५/१ ५२ ५। ३ ५/४ ११२ १।३ १/४ २१ २२ २/३ २/४ ३।१ ३२ काशी विश्वविद्यालय ५ जून १९५६ www.kobatirth.org पाणिनि १११-२ १।३-४ २१-२ २/३-४ ३/१ શર ३/३ રાજ ४|१ ४/२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only पाणिनि ४१३-४|४|१०६ ५/१-५/२/४७ ५/२१४८-५/३।११० ५/४ ६।१-३ ६१४ ७/१२/११३ ७/२।११४-७१४ पूज्यपाद देवनदीने आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि नामक टीकाका निर्माण किया था जो ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुकी है । उस ग्रन्थ में उन्होंने कई स्थलोंपर व्याकरणके सूत्रोंका उद्धरण दिया है। उनमें बिना पक्षपातके जैनेन्द्र सूत्रोंको भी और पाणिनीय सूत्रों को भी उद्धृत किया गया है । उदाहरण के लिए अध्याय ४ सूत्र १६ की सर्वार्थसिद्धि टोकामैं दो सूत्रों का उल्लेख है—'तदस्मिन्नस्तीति' और 'तस्य निवासः' । इनमें पहले के विषय में यह कहना कठिन है कि वह किस व्याकरणसे लिया गया है किन्तु दूसरा पाणिनीय व्याकरणका ही है [ ४/२/६९ ] क्योंकि उसका जैनेन्द्रगतपाठ 'तस्य निवासादूरभवी' रूप में मिलता है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृष्ठ ५० ] | पूज्यपादने न केवल नवीन व्याकरण सूत्रोंकी रचना की, वरन् उनपर जैनेन्द्रन्यास भी बनाया था। उन्होंने पाणिनीय सूत्रों पर शब्दावतार न्यास भी लिखा था किन्तु अभी तक ये दोनों ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुए हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलिके भाष्यके पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैनधर्म और दर्शनपर भी उनका असामान्य अधिकार था । वे गुप्तयुग के प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनक तत्कालीन प्रभाव कोकणके नरेशोंपर था, किन्तु कालान्तर में जो सारे देशकी विभूति बन गये । } ८१-२ ८३-४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो शब्द मुग्धबोध व्याकरणके रचयिता बोपदेवके नामसे एक श्लोक प्रसिद्ध है; यथार "इन्द्रश्चन्द्रः काशकृरस्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः॥" . इसमें मुख्य आठ व्याकरणोंके साथ जैनेन्द्र व्याकरणका भी उल्लेख है। इस समय यद्यपि इस व्याकरणका पूर्ण रूपसे अध्ययनाध्यापन आदिमें उपयोग नहीं दिखाई देता तथापि ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से इसका अपना विशेष महत्त्व है। इतना होने पर भी जैनेन्द्र व्याकरणका कोई प्रामाणिक संस्करण अद्या. वधि उपलब्ध न हो सका। लाजरस कम्पनी बनारसकी अोरसे इसका प्रकाशन हुआ भी तो भी वह अध्याय ३ पाद २ सूत्र ६० तकका ही हो सका। और इसलिए इस ग्रन्थके सर्वाङ्गपूर्ण सुन्दर प्रकाशनकी आवश्यकता बनी रही। लगभग ८-१० वर्ष भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारियोंका ध्यान इस कमौकी ओर आकृष्ट हुआ। फलस्वरूप इसके सम्पादनका गुरुतर कार्य इसके अधिकारी विद्वान् श्री पं० शम्भुनाथ जी त्रिपाठी व्याकरणाचार्य सप्ततीर्थको सौंपा गया। श्री त्रिपाठीजीने इसका पूरा प्रामाणिक सम्पादन करनेका प्रयत्न तो किया किन्तु प्रेसमें देनेके पूर्व ही वे यहाँसे चले गये और उन्होंने यहाँ आनेका विचार ही त्याग दिया । तब भी ज्ञानपीठके सुयोग्य मन्त्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीयने अपने प्रयत्नमें कमी न आने दी। उन्होंने सूचित किया कि यदि त्रिपाठी जी यहाँ नहीं पा सकते हैं तो आप इसे उनके पास ले जाकर सम्पादन सम्बन्धी सारी बातें समझ लीजिए और इसे पूर्ण निर्दोष बनाकर प्रकाशनके लिए दे दीजिए । तदनुसार मैं त्रिपाठी जीके मूल निवासस्थान दोस्तपुर फैजाबाद भी गया किन्तु उनसे साक्षात् भेट न हो सकनेके कारण मन्त्री जीको सम्मतिसे मुझे ही इस कार्यमें लग जाना पड़ा। अभी तक सम्पादित होकर मेरे नामसे कोई ग्रन्थ प्रकाशित तो नहीं हुआ है फिर भी ज्ञानपीठमें रहते हुए मैंने जो सम्पादन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया है उसपर विश्वास करके मैंने माननीय मन्त्रीजी, श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री एवं डा. वासुदेवशरण अग्रवालके उत्साहपूर्ण आदेशसे यह कार्य अपने हाथमैं ले लिया। 'अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्' इस वचनके अनुसार यह शब्दशास्त्र अनन्त और अगाध है-इसका पार पाना कठिन है। फिर भी त्रिपाठी जी द्वारा किये गये सम्पादनरूप सेतुके रहनेसे उसपरसे चलनेमें मुझे विशेष कठिनाईका अनुभव नहीं करना पड़ा। इन सब प्रयत्नोंके फलस्वरूप जो भी कार्य हुश्रा है वह सामने है। सम्पादनकी विशेषताएँ यह तो पहले ही निर्देश कर आये हैं कि इसका सर्वप्रथम सम्पादन श्रीमान् त्रिपाठी जीने किया था। उन्होंने भाण्डारकर इन्स्टीट्यूट पूना और स्याद्वाद विद्यालय काशीकी हस्तलिखित प्रतियों तथा लाजरस कम्पनी बनारसकी मुद्रित प्रतिके श्राधारसे प्रस्तुत संस्करणका सम्पादन किया है। प्रतियोंका परिचय ग्रन्थमें अन्यत्र दिया है। यद्यपि उपर्युक्त सभी प्रतियों में वृत्तिमें आये हुए सूत्रोंकी अध्याय व पादके अनुसार संख्याका उल्लेख नहीं किया है तथापि आवश्यक समझकर [] कोष्ठकमें उन्होंने उसका निर्देश कर दिया था जिसमें हमें बहुत कुछ संशोधन भी करना पड़ा है। __ प्रायः सब प्रतियोंमें कुछ पाठ त्रुटित व अशुद्ध हो गये हैं। इस सम्बन्धमें वहाँ अशुद्ध पाठको वैसा ही रखकर उसके सामने अन्य ग्रन्थोंके आधारसे शुद्ध पाठ देनेका प्रयास किया गया है; यथा-'अनियता [नियतवृत्तयः] उत्सेधजीविनः', 'दशोर [दृश्यमानेन] सम्भाव्यमानेन' [पृष्ठ १०३] आदि । वृत्ति में प्रायः वार्तिकों और परिभाषाओंका उल्लेख किया गया है। उनके परिज्ञानके लिए वार्तिकोंके अन्तमें [वा०] तथा परिभाषाओंके अन्तमें [प०] या [परि०] ऐसा संकेतात्मक निर्देश कर दिया है। यह तो मानी हुई बात है कि श्रीमान् त्रिपाठीजीने इसके सम्पादनमें बहुत श्रम किया है तथापि हमें जो अन्य विशेषताएँ लानी पड़ी हैं उनका विवरण इस प्रकार है १. किसी भी उपलब्ध प्रतिमें अध्याय व पादके साथ सूत्रसंख्या नहीं दी गई थी, किन्तु श्रावश्यक समझकर हमने अध्याय तथा पादको संख्याका प्रत्येक सूत्रके साथ उल्लेख कर दिया है। For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् २. अध्याय ४ तथा ५ में अनेक स्थलों पर सूत्र तथा उनकी वृत्ति खण्डित है। हमने उन स्थलों पर मुद्रित जैनेन्द्र पञ्चाध्यायीके अनुसार सूत्रपाठ देकर उसे पूर्ण करने का प्रयत्न किया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. श्री त्रिपाठीजीने परिशिष्ट तैयार नहीं किये थे जिनकी पूर्ति हमें करनी पड़ी है। जो परिशिष्ट दिये गये हैं वे ये हैं- [१] जैनेन्द्र सूत्रों की अकारादि अनुक्रमणिका, [२] जैनेन्द्र वार्तिकों की अकारादि श्रनुक्रमणिका, [३] जैनेन्द्र परिभाषाओंकी अकारादि अनुक्रमणिका, [५] जैनेन्द्र गणपाठ सूची, [५] जैनेन्द्र संज्ञा सूची [इस सूची में विद्वानोंकी जानकारीके लिए जैनेन्द्र संज्ञाओं के साथ तत्समकक्ष पाणिनि संज्ञाओंका भी उल्लेख कर दिया है], [६] जैनेन्द्र तथा पाणिनिके सूत्रों की तुलनात्मक सूत्र-सूची और [७] जैनेन्द्रधुपाठ । प्रत्याहार - विचार उपलब्ध किसी भी प्रतिमैं प्रत्याहार-सूत्रों का उल्लेख नहीं मिलता। मालूम पड़ता है कि जैनेन्द्र व्याकरण में लेखक-परम्पराकी भूलसे उनका उल्लेख होना छूट गया है, क्योंकि शब्दानुशासन के सूत्रोंमें प्रत्याहारौका आश्रय लेकर शास्त्रोंकी प्रवृत्ति दिखलाई गई है। इस समय हमारे सामने दो प्रकार के प्रत्याहार-सूत्र उपस्थित हैं- प्रथम पञ्चाध्यायीके आरम्भ में आये हुए और दूसरे शब्दार्णवचन्द्रिका के आरम्भ में आये हुए । पञ्चाध्यायी के प्रारम्भ में आये हुए प्रत्याहार-सूत्र ये हैं “अइउण् १ । ऋलुक् २ । एत्रोङ ३ । ऐऔच् ४ । हयवरट् ५ । लण् ६ । ञमङणनम् ७ । झभञ् ८ । घढधघ् १ । जबगडद‍ १० । खफल्ठथचटत ११ । कपय् १२ । शपसर १३ । हल १४।” किन्तु शब्दार्णवचन्द्रिका में ग्राये हुए प्रस्याहार-सूत्रों में पञ्चाध्यायी के प्रत्याहार-सूत्रोंसे कुछ अन्तर है । यहाँ पर द्वैविध्यका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके लिए शब्दाविचन्द्रिका के प्रत्याहार सूत्र भी दिये जाते हैं “अइउणु १ । ऋकू २ । एओङ ३ । ऐश्रच ४ । हयवरलण् ५ । जमङणनम् ६ । भम् ७ । घढधष् ८ । जबगडदश् ह । खफछठथचटतव १० । कपय् ११ । शपल अं अः कर् १२ । हल् १३ ।” शब्दार्णवके ये प्रत्याहार-सूत्र शाटकायन के प्रत्याहारसूत्रों से बहुत कुछ साम्य रखते हैं । जानकारीके लिए शाकटायन के प्रत्याहार सूत्र भी यहाँ उद्धृत किये जाते हैं “अइउण् १ । ऋक् २ । एग्रोङ ३ | ऐऔच ४ । हयवरलज् ५ । जमङणनम् ६ | जबगडदश् ७ | सभघढधष् ८ । खफछठथद् । चटतवू १० | कपय् ११ । शषस अं अः क Čपर् १२ । हल् १३ ।” यह तो सुनिश्चित है कि महावृत्तिके आधारसे पञ्चाध्यायी में जो सूत्रपाठ उपलब्ध होता है उससे शब्दाव चन्द्रिकाका सूत्रपाठ बहुत अंशमैं भिन्न है और इसी सूत्रपाठके अनुसार प्रत्याहार-सूत्रों में अन्तर हुआ है; उदाहरणार्थ --- सन्धिसूत्रों में पञ्चाध्यायी में 'शश्वोऽटि' [५। ४ । १७३ ] सूत्र आता है उसके अनुसार टू प्रत्याहारके परे रहते 'श' के स्थान में 'छ' आदेश होता है किन्तु शब्दाविकारने उसके स्थान में 'शश्वोऽमि ' [ ५।४ । १५६ ] सूत्र को रखकर अटू प्रत्याहारको नहीं माना है और इसलिए 'हयवरट्, लण्' इन दो सूत्रों के स्थानमैं शब्दाविकारने 'हयवरलण्' यह एक ही प्रत्याहार-सूत्र माना है। इसी प्रकार अन्यत्र भी टू प्रत्याहारके निमित्त से होनेवाले कार्यों में शब्दार्णवकारने अन्य प्रकारसे निर्वाह करनेका प्रयास किया है । ऋ और लृ में अभेद मानकर 'ऋलक' के स्थान में शब्दार्णवकारने 'ऋक्' प्रत्याहार-सूत्र रखा है। अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा यमकी व्याकरण शास्त्रमें अयोगवाह संज्ञा है | पाणिनिके प्रत्याहार-सूत्रों में तथा जैनेन्द्र- पञ्चाध्यायीगत प्रत्याहार-सूत्रों में इनका उल्लेख नहीं हैं किन्तु शब्दाववाले पाठ में प्रयोगवाहका भी शर प्रत्याहार के अन्तर्गत समावेश किया है। शाकटायन व्याकरण के प्रत्याहारसूत्रों से शब्दार्णव के प्रत्याहार-सूत्र बहुत कुछ साम्य रखते हैं। ज्ञात होता है शब्दाविकारने शाकटायन व्याकरणके सूत्रोंके आधारसे ही अपने प्रत्याहार-सूत्रोंकी रचना करके तदनुसार ही जैनेन्द्र शब्दानुशासन के सूत्रों में परिवर्तन या परिवर्तन किया हो । सिद्धान्तकौमुदीके हल्सन्धि प्रकरण में एक वाक्य मिलता है- “ अनुस्वारविसर्गजिह्वामूलीयोपध्मानीययमानामकारोपरि शर्षु च पाठस्योपसंख्यानत्वेन । ज्ञात होता है कि शाकटायन तथा शब्दार्णवके प्रत्याहार-सूत्रों को ध्यान में रखकर ही मट्टोजिदीक्षितने उपर्युक्त वाक्य लिखा हो । कि For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो शब्द सात विभक्तियोंका विचार साधारणतया पाणिनीय अष्टाध्यायी सूत्रपाठमें ७ विभक्तियोंके लिए प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि शब्दोंका ही निर्देश किया है। पृथक् किन्हीं संज्ञाओं का निर्देश नहीं किया है, किन्तु जैनेन्द्रकारने 'विभक्ती' शब्दके प्रत्येक अक्षरको अलग करके स्वरके श्रागे 'प' और व्यञ्जनके आगे 'या' जोड़कर सात विभक्तियोंकी संशा निर्दिष्ट की है। यथा-'वा' [प्रथमा], इप द्वितीया], भा [तृतीया, अप् चतुर्थी], का [पञ्चमी], ता [षष्ठी] और ईप [सप्तमी] । इस प्रकार 'विभक्तो' शब्दके आधारसे ही इन संज्ञाओंका उल्लेख अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आता। जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ १. पाणिनीय अाध्यायी में वैदिक एवं स्वरप्रक्रिया इन दो प्रकरणों के सूत्रों का स्वतन्त्र रूपसे उल्लेख है किन्तु जनेन्द्रकारने इन दोनों प्रकारणों के सूत्रोंका उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि वैदिक शब्दों व प्रयोगोंकी सिद्धि और स्वरविधानका प्रश्न जैनेन्द्रकारके समक्ष उपस्थित नहीं था। २. पाणिनीय व्याकरणमैं एकशेष प्रकरणके सूत्रोंका स्वतन्त्र रूपसे उल्लेख है। किन्तु जैनेन्द्रकार इस प्रकरणके सूत्रों की आवश्यकताका अनुभव नहीं करते हुए मालम देते हैं। उन्होंने इस प्रकरणको ध्यानमें रखकर 'स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः' इस सूत्रको रचना की है। इससे विदित होता है कि उनका मत रहा है कि लोक-व्यवहारमैं जो चीज नाबाल वृद्ध प्रचलित है उसे सूत्रबद्ध निर्देश करके शास्त्रके कलेवरको बढाना उचित नहीं है। और इसी लिए उन्होंने एकशेष प्रकरणको नहीं रखा है। ३. पाणिनीय व्याकरणसे सम्बद्ध स्वतन्त्र रूपसे चार प्रकरण मिलते हैं-लिङ्गानुशासन, पाणिनीय शिक्षा, धातुपाठ यार गणपाठ। यह कह सकना तो काठन है कि इन सबका निमोण स्वयं पाणिनिने किर होगा। उदाहरणार्थ-पाणिनीय शिक्षाको ही लीजिए । इसके प्रारम्भके प्रथम श्लोकमें कहा है-'अथ शिक्षा प्रवच्यामि पाणिनीयं मतं यथा ।' अर्थात् पाणिनिके मतानुसार शिक्षाका निरूपण करते हैं। तथा इसी प्रकरणके अन्तमें एकाधिक बार पाणिनिके लिए नमस्कार भी किया गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि इस प्रकरण का संकलन पाणिनीय व्याकरणको आधार मानकर किसी अन्य समर्थ विद्वान्ने किया हो । स्वामी दयानन्द सरस्वतीने विक्रम संवत् १६३६ मैं 'वर्णोच्चारण शिक्षा के नामसे भाषानुवाद सहित एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, उसमें उन्होंने किसी प्राचीन प्रतिके अाधारसे पाणिनीय शिक्षा-सूत्रोंका संकलन किया था। बहत सम्भव है कि ये शिक्षासूत्र ही वर्तमान श्लोकबद्ध पाणिनीय शिक्षाके आधार रहे हो। ४. पाणिनीन लिङ्गानुशासनका समावेश अष्टाध्यायीमें नहीं किया गया है। उपलब्ध पाणिनीय लिङ्गानुशासनमै कुल १८१ सूत्र हैं। उनमें कुछ ऐसे भी सूत्र हैं जो अष्टाध्यायीमें भी उपलब्ध होते हैं। परन्तु अधिकतर सूत्र अष्टाध्यायीसे सम्बन्ध नहीं रखते। इन सूत्रोंका निर्माण किसने किया यह प्रश्न विचारणीय है। बहत सम्भव है कि पाणिनि व्याकरणमें शब्दसिद्धिके आधार पर अन्य किसी विद्वान्ने लिङ्गानुशासनको सूत्रबद्ध कर दिया हो। जैनेन्द्र व्याकरण में लिङ्गानुशासन तथा जैनेन्द्र शिक्षा नामके तो प्रकरण अभी तक उपलब्ध नहीं हुए। ५. 'भूवादयो धातवः' [ १।३।१] 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः' [ २।४।७२ ] इत्यादि सूत्रों द्वारा गणशः प्रत्यय-विधान तथा 'इदितो नुम् धातोः' [७।१।५८], मयन्तक्षणश्वसजागृणिश्व्येदिताम्' [ ७२१५], 'रुदश्च पञ्चभ्यः' [७३।१८] आदि सूत्रों द्वारा अनुबन्ध तथा गणपाठका आश्रय लेकर धातुओंसे कार्य विधान किया गया है। इसी प्रकार गणपाठका आश्रय लेकर भी प्रकृति-प्रत्ययका विधान किया हृया है,। इससे यह सुनिश्चित है कि पाणिनिके समक्ष उनके स्वनिर्मित गणपाठ और धातुपाठ अवश्य ही विद्यमान थे। यही स्थिति जैनेद्र धातुपाठ तथा गणपाठके विषयमें भी है । वहाँ भी 'भूवादयो धुः' [१२।१] 'उज्जुहोत्यादिभ्यः' [ १।४।१४५ ] 'इदिद्धोर्नुम' [५।११३७ ] श्रादि सूत्रों-द्वारा धातुओंसे संज्ञा, प्रत्यय और श्रागम एवं श्रादेश यादिका विधान किया गया है। तथा गणपाठके निमित्तसे भी शास्त्र प्रवृत्ति देखी जाती है। For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् तः सुनिश्चत है कि जैनेन्द्र के समक्ष भी अपने स्वरचित धातुपाठ तथा गणपाठ अवश्य रहे होंगे किन्तु कालक्रम वे आज अनुपलब्ध हो गये हैं । ६. पाणिनि व्याकरणमैं उणादि- सिद्ध कार्योंके लिए "उणादयो बहुलम् " [ ३|३|१ ] सूत्र आता है । जैनेन्द्र व्याकरण में भी इसी रूपमें इस सूत्रका उल्लेख है [ २/२/१६ ] । इन दोनों मूल व्याकरणों में इस प्रकरण में आये हुए प्रयोगों की सिद्धिके विषय में इससे अधिक कुछ नहीं कहा गया है । मात्र जैनेन्द्र महावृत्तिमें इस सूत्र की व्याख्या करते समय कुछ सूत्रों के उल्लेखके साथ उनके द्वारा सिद्ध होनेवाले प्रयोगोंके कतिपय प्रकार दिखलाये गये हैं । यह निश्चित कहना कठिन है कि जैनेन्द्र महावृत्ति में ये उणादि सूत्र कहाँ से श्राये । यदि इन्हें जैनेन्द्रकारका माना जाय तो शंका होती है कि पञ्चाध्यायी में इनका संकलन क्यों नहीं हुआ ? यद्यपि महावृत्ति में उल्लिखित उणादि सूत्रों में कहीं-कहीं जैनेन्द्रव्याकरणकी संज्ञाओं का प्रयोग किया हुआ दिखाई देता है यथा 'अस् सर्वधुभ्यः ' [ पृष्ठ १७ ]; पर जबतक कोई निश्चित आधार नहीं मिलता तबतक इन सूत्रों को स्वयं जैनेन्द्रकारका मान लेनेको मन नहीं होता । उणादि प्रकरणका संकलन करते हुए भट्टोजिदीक्षितने सिद्धान्तकौमुदी में ७५५ सूत्र प्रमाणपञ्चपादी उणादि सूत्रों की सोदाहरण व्याख्या दी है। किन्तु पाणिनिकी अष्टाध्यायी में ये सूत्र उपलब्ध नहीं होते । उणादिका निर्देश करनेवाला 'उणादयो बहुलम्' [ ३|३|१] सूत्र अष्टाध्यायी में उपलब्ध होता है किन्तु उसका संकलन भट्टोजिदीक्षितने उणादि प्रक्रियामें न करके उत्तर कृदन्तमें किया है। विद्वानोंका मत है कि ये उणादिसूत्र शाकटायन प्रणीत हैं जिनके समयका उल्लेख करते हुए श्रीयुधिष्ठिर मीमांसकने लिखा है कि 'इसका काल विक्रमसे लगभग ३१०० वर्ष पूर्व होगा' । [ संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास पृष्ठ ११६] पातञ्जल महाभाष्य मैं एक वाक्य मिलता है; यथा- 'नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकः । ' इसका आशय यह है कि 'निरुक्तमें सभी संज्ञाशब्दोंको धातुज कहा है और व्याकरण शास्त्र में शकटके पुत्र [ शाकटायन] भी ऐसा ही कहते हैं।' इससे मालूम पड़ता है कि शाटकायन विरचित कोई ऐसा प्रकरण अवश्य रहा होगा जिसमें धातुओं के निमित्तसे प्रत्यय विधान करके संज्ञाशब्दों की सिद्धि की गई हो । वह प्रकरण उणादिके सिवा और क्या हो सकता है ? उणादिके दशपादी तथा त्रिपादी पाठ भी उपलब्ध होते हैं। [विशेष विवरण के लिए इसी ग्रन्थ में प्रकाशित श्री युधिष्ठिर मीमांसकका 'जैनेन्द्र शब्दानुशान और उसके खिलपाठ' शीर्षक निबन्ध देखिए.] । श्री डा० वासुदेवशरण जी अग्रवालने ज्ञानपीठके अनुरोधसे इसकी अनुसन्धानपूर्ण भूमिका लिखकर इसके महत्त्वको बढ़ाने की कृपा की तथा इनके ही अनुरोधसे ऐतिहासिक सामग्री की पूर्णता के लिए श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' में मुद्रित 'देवनन्दि तथा उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक वेणा पूर्ण निबन्ध छापने की अनुमतिपूर्वक उसके दूसरे संस्करणके फार्म भिजवाने की कृपा की जिससे ग्रन्थकारके विषय में ऐतिहासिक अन्वेषण के कठिन कार्यसे मुझे छुट्टी मिल गई। श्री युधिष्ठिर मीमांसकने भी 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ' शीर्षक अनुसन्धानपूर्ण निबन्ध लिखकर हमारी बहुत बड़ी सहायता की है। इतना ही नहीं, उन्होंने, प्रस्तुत संस्करण में जो थोड़ी बहुत त्रुटियाँ रह गई हैं, उनका उल्लेख करके आत्मीयतापूर्वक सौहार्द भी प्रदर्शित किया है । अतः उक्त तीनों विद्वानोंका विशेष आभारी हूँ । श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीने भी समय समय पर उपयोगी सुझाव देकर इस ग्रन्थको शुद्ध, सर्वाङ्गपूर्ण तथा सर्वोपयोगी बनाने में सहायता दी तथा मेरे उत्साहको बढ़ाया इसलिए मैं उनका भी विशेष श्राभारी हूँ । कार्य बहुत बड़ा था और सम्पादनका मेरा यह पहला अवसर है, इसलिए सम्भव है कि इसमें अभी भी कुछ दोष रह गये हों। मेरा विश्वास है कि विद्वान् पाठक इसके लिए क्षमा करेंगे । वाराणसी दीपावली } - महादेव चतुर्वेदी वि० सं० २०१३ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण लेखक :- श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी जैनेन्द्र और ऐन्द्र मुग्धबोधकर्ता बोपदेवने जिन आठ वैयाकरणोंके नामोंका उल्लेख किया है, उनमें एक 'जैनेन्द्र' भी है । ये जैनेन्द्र अथवा जैनेन्द्र व्याकरणके कर्त्ता कौन थे इस विषय में इतिहासज्ञों में कुछ समय तक बड़ा विवाद चला था। डॉ० कीलहार्नने इसे जिनदेव अथवा भगवान् महावीरद्वारा इन्द्रके लिए कहा गया बतलाया और इसके सुबूतमें उन्होंने कल्पसूत्रको समयसुन्दरकृत टीका, और लक्ष्मीवल्लभकृत उपदेशमाला-कर्णिकाका यह उल्लेख पेश किया था कि जिनदेव महावीर जिस समय आठ वर्षके थे उस समय इन्द्रने शब्दलक्षण संबंधी कुछ प्रश्न किये और उनके उत्तररूप यह व्याकरण बतलाया गया, इसलिए इसका नाम जैनेन्द्र पड़ा । श्वेताम्बरसम्प्रदाय और भी कई ग्रन्थोंमें इस प्रकारके उल्लेख मिलते हैं। कल्पसूत्र की विनयविजयकृत सुबोधिक टीका में लिखा है कि भगवान्को माता-पिताने पाठशाला में गुरुके पास पढ़नेके लिए भेजा है, यह जानकर इन्द्र स्वर्गसे आया और पण्डितके घर, जहाँ भगवान् थे वहाँ, गया । उसने भगवान्से पण्डितके मनमें जो जो सन्देह थे, उन सबको पूछा । जब सब लोग यह सुननेके लिए उत्कर्ण हो रहे थे कि देखें यह बालक क्या उत्तर देता है, तब भगवान् वीरने सब प्रश्नों के उत्तर दिये, और तब 'जैनेन्द्र व्याकरण' बना । परन्तु इस प्रसंगके वे सत्र उल्लेख अपेक्षाकृत अर्वाचीन ही हैं जिनमें भगवान् के उत्तररूप इस व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' बतलाया है । प्राचीन उल्लेखों में इसका नाम जैनेन्द्रकी जगह 'ऐन्द्र' प्रकट किया है; जैसा कि आवश्यक सूत्र की हारिभद्रीयवृत्तिके पृष्ठ १८२ में लिखा है । इसी प्रकार सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में लिखा है कि भगवान् १. इन्द्रश्वन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ धातुपाठ २. इंडियन एन्टिक्वेरी १०, पृ० २५१ । ३. यदिन्द्राय जिनेन्द्रेण कौमारेऽपि निरूपितम् । ऐन्द्र जैनेन्द्रमिति तत्प्राहुः शब्दानुशासनम् ॥ ४. [ शक्रः ] यत्र भगवान् तिष्ठति तत्र पण्डितगेहे समाजगाम । श्रागत्य च पण्डितयोभ्ये श्रासने भगवन्तमुपवेश्य पण्डितमनोगतान् सन्देहान् पप्रच्छ, श्रीवीरोऽपि बालोऽयं किं वच्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददौ ततो 'जैनेन्द्रव्याकरणं' जज्ञे । यतः सक्को य तस्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसित्ता । सदस्य लक्खणं पुच्छे वागरण अवयवा इंदं ॥ ५. शक्रः तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं तीर्थकरं श्रासने निवेश्य शब्दस्य लक्षणं पृच्छति । भगवता च व्याकरणं अभ्यधायि । व्याक्रियन्ते लौकिक-सामायिकाः शब्दाः अनेन इति व्याकरणं शब्दशास्त्रम् । तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः, ततश्च ऐन्द्रं व्याकरणं संजातम् । ६. मातापितृभ्यामन्येद्यः प्रारब्धेऽध्यापनोत्सवे । श्राः सर्वज्ञस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थितः ॥ ५६ ॥ उपाध्यायासने तस्मिन्वासवेनोपवेशितः । प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शब्दपारायणं जगौ ॥ ५७ ॥ इदं भगवतेन्द्राय प्रोक्तं शब्दानुशासनम् । उपाध्यायेन तच्छ्रुत्वा लोकेष्वैन्द्रमितीरितम् ॥ ५८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् इन्द्रके लिए जो शब्दानुशासन कहा, उपाध्यायने उसे सुनकर लोकमें 'ऐन्द्र' नामसे प्रकट किया । अर्थात् इन्द्रके लिए जो व्याकरण कहा गया, उसका नाम 'ऐन्द्र' हुआ। प्राचीन कालमें इन्द्रनामक आचार्यका बनाया हुआ एक संस्कृत व्याकरण था। उसका उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है। ऊपर दिये हुए बोपदेवके श्लोकमें भी उसका नाम है । हरिवंश पुराणके कर्त्ताने देवनन्दिको 'इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापिव्याकरणेक्षिणः' विशेषण दिया है। शब्दार्णवचन्द्रिकाकी ताड़पत्रवाली प्रतिमें, जो १३ वीं शताब्दीके लगभगकी लिखी हुई मालूम होती है, 'इन्द्रश्चन्द्रः शकटतनयः' आदि श्लोकमें इन्द्रके व्याकरणका उल्लेख किया है। बहुत अधिक समय हुआ यह नष्ट हो गया है। जब यह उपलब्ध ही नहीं है तब इसके विषयमें कुछ कहनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। यद्यपि आजकलके समयमैं इस बातपर कोई भी विद्वान् विश्वास नहीं कर सकता है कि भगवान् महावीरने भी कोई व्याकरण बनाया होगा और वह भी मागधी या प्राकृतका नहीं, किन्तु ब्राह्मणों की खास भाषा संस्कृतका । तो भी यह निस्सन्देह है कि वह व्याकरण 'जैनेन्द्र' नहीं था। यदि बनाया भी होगा तो वह 'ऐन्द्र' ही होगा। क्योंकि हरिभद्रसूरि और हेमचन्द्रसूरि उसीका उल्लेख करते हैं, जैनेन्द्रका नहीं। जान पड़ता है, विनयविजय और लक्ष्मीवल्लभने पीछेसे 'ऐन्द्र' को ही 'जैनेन्द्र' बना डाला है। उनके समयमें भी 'ऐन्द्र' अप्राप्य था, इसलिए उन्होंने प्राप्य 'जैनेन्द्र' को ही भगवान् महावीरकी कृति बतलाना विशेष सुकर और लाभप्रद सोचा। हरिभद्रसूरि विक्रमकी अाठवीं शताब्दिके और हेमचन्द्रसूरि तेरहवीं शताब्दिके विद्वान् हैं जिन्होंने 'ऐन्द्र' को भगवान्का व्याकरण बतलाया है; परंतु 'जैनेन्द्र' को भगवत्प्रणीत बतलानेवाले विनयविजय और लक्ष्मीवल्लभ विक्रमकी अठारहवीं शताब्दिमें हुए हैं। भगवद्वाग्वादिनी ___ विनयविजयजीके इस उल्लेखका अनुसरण करके उनके कुछ समय बाद वि० सं० १७६७ में किसी विद्वान्ने साक्षात् महावीर भगवान्का बनाया हुआ व्याकरण तैयार कर दिया और उसका दूसरा नाम 'भगवद्वाग्वादिनी' रक्खा! इस भगवद्वाग्वादिनीकी एक प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट में है, जो तक्षक नगरमें रत्नर्षि नामक लेखक द्वारा वि० सं० १७६७ में लिखी गई थी। इसकी पत्रसंख्या ३०, और श्लोकसंख्या ८०० है। प्रति बहुत शुद्ध है। जैनेन्द्रका सूत्रपाठ मात्र है और वह सूत्रपाठ है जिसपर शब्दार्णवचन्द्रिका टीका लिखी गई है। इस वाग्वादिनीके आविष्कारकने शक्ति भर इस बातको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि इसके कर्ता साक्षात् महावीर भगवान् हैं, दिगम्बरी देवनन्दि नहीं । उनको सब युक्तियाँ हमने इस ग्रन्थके अन्तमैं उद्धृत कर दी हैं। उन सबपर विचार करने की यहाँ अावश्यकता प्रतीत नहीं होती। हमारा अनुमान है कि डॉ० कोलहान के हाथमें यह 'भगवद्वाग्वादिनी' को प्रति अवश्य पड़ी होगी और इसीकी कृपासे प्रेरित होकर उन्होंने अपना पूर्वोक्त लेख लिखा होगा। उनके लेखमैं जो श्लोकादि प्रमाणत्वरूप दिये गये हैं वे भो सब इसी परसे लिये गये जान पड़ते हैं। १. ऋकृतन्त्र (१-४) के अनुसार इन्द्रने प्रजापतिसे शब्दशास्त्रका अध्ययन किया था और यह उसीका अनुकरण मालूम होता है। २. डॉ. ए. सी० बर्नेलने इन्द्रव्याकरणके विषय में चीनी तिब्वतीय और भारतीय साहित्यमें जो उल्लेख मिलते हैं उनको संग्रह करके 'प्रोन दि ऐन्द्रस्कूल ऑफ संस्कृत ग्रामेरियन्स' नामकी एक बड़ी पुस्तक लिखी है। ३. "तेन प्रणष्टमैन्द्रं तदस्माद्व्याकरणं भुवि"-कथासरित्सागर, तरंग ४ ४. जयपुर राज्यके 'टोडारायसिंह' का पुराना नाम तक्षक नगर है। For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण १६ डॉ० कीलहार्नके इस भ्रमको सबसे पहले स्व० डॉ० के० बी० पाठकने दूर किया और अब तो जैनेन्द्र व्याकरण काफी प्रसिद्ध हो गया है । देवनन्दि और पूज्यपाद श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४० (६४) में लिखा है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धि की महत्ता के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ। मंगराज कविके शकसंवत् १३६५ के शिलालेख से भी यही दो नाम प्रकट होते हैं । जिनेन्द्रबुद्धि नामके एक और वैयाकरण हो गये हैं जिनका बनाया हुआ पाणिनि व्याकरणकी काशिका - वृत्तिपर एक न्यास है । वे बोधिसत्त्वदेशीयाचार्य या बौद्ध साधु थे । देवनन्दिका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था । जिनसेन और वादिराजसूरिने इन्हें इसी संक्षिप्त नाम से स्मरण किया है। अनेक लेखकोंने उन्हें केवल देवनन्दि नामसे और केवल पूज्यपाद नामसे स्मरण किया है और दोनों नामसे उन्हें वैयाकरण माना है। महाकवि धनंजयकी नाममालामें एक श्लोक है जिसमें पूज्यपादको लक्षण ग्रन्थ (व्याकरण) का कर्ता माना हैं । जैनेन्द्रकी प्रत्येक हस्तलिखित प्रतिके प्रारंभ में जो श्लोक मिलता है, उसमें ग्रन्थकर्त्ता ने 'देवनन्दितपूजे ' पदमें जो कि भगवान्का विशेषण है अपना नाम भी प्रकट कर दिया है । संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंके मंगलाचरणों में १. यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धबा महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥ २ ॥ श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥ ३ ॥ जैनेन्द्रं निजशब्द भागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुकवितां जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीस पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥ ४॥ २. श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः । दुगुणा निदान वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि ॥ १५ ॥ धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावमनुबिभ्रदुश्ञ्चकैः । जिनवबभूव यदनङ्गचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ॥ १६ ॥ श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमोषधद्विजयाद्विदेह जिनदर्शन पूतगात्रः । यत्पादधौत जलसंस्पर्शप्रभावात् कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥ १७ ॥ ३. कवीनां तीर्थकृद्देवः किं तरां तत्र वर्यते । विदुषां वाङ मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥ ५२ ॥ - श्रादिपुराण प्र० पर्व ४. अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंद्यो हितैषिणा । शब्दाश्च येन सिद्ध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलंभिताः ॥ १८ ॥ - पार्श्वनाथचरित प्र० सर्ग ५. प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रखत्रयमपश्चिमम् ॥ २० ॥ ६. लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते । देवनन्दितपूजेशं नमस्तस्मै स्वयं भुवे ॥ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० जैनेन्द्र-व्याकरणम् यह पद्धति अनेक विद्वानोंने स्वीकार की है। इससे स्वयं ग्रन्थकर्ताके वचनोंसे भी जैनेन्द्र के कर्ता 'देवनन्दि' ठहरते हैं। गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमान और हैम शब्दानुशासनके लघुन्यास बनानेवाले कनकप्रभ भी जैनेन्द व्याकरणके कर्ताका नाम देवनन्दि ही बतलाते हैं। अतः अब इस विषयमें किसी प्रकारका कोई सन्देह बाकी नहीं रह गया कि यह व्याकरण देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ है। दो तरहके सूत्र-पाठ जैनेन्द्र व्याकरणके मूल सूत्र-पाठ दो प्रकारके उपलब्ध हैं-एक तो वह जिसपर प्राचार्य अभयनन्दिकी 'महावृत्ति' तथा श्रुतकीर्तिकृत 'पञ्चवस्तु' नामकी प्रक्रिया है; और दूसरा वह जिसपर सोमदेवसूरिकृत 'शब्दार्णवचन्द्रिका' और गुणनन्दिकृत 'प्रक्रिया' है । पहले प्रकारके पाठमें लगभग ३००० और दूसरेमें लगभग ३८०० सूत्र हैं, अर्थात् एकसे दूसरेमें कोई ७०० सूत्र अधिक हैं, और जो ३००० सूत्र हैं वे भी दोनों में एकसे नहीं हैं । अर्थात् दूसरे सूत्रपाठमें पहले सूत्र-पाठके सैकड़ों सूत्र परिवर्तित और परिवर्धित भी किये गये हैं। पहले प्रकारका सूत्र-पाठ पाणिनीय सत्र-पाठके ढंगका है. वर्तमान दृष्टिसे वह कछ अपूर्ण सा जान पड़ता है और इसी लिए महावृत्तिमें बहुतसे वार्तिक तथा उपसंख्यान आदि बनाकर उसकी पूर्णता की गई दिखलाई देती है, जब कि दूसरा पाठ प्रायः पूर्ण-सा जान पड़ता है और इसी कारण उसको टीकाओं में वार्तिक श्रादि नहीं दिखलाई देते। दोनों पाठोंमें बहुत-सी संज्ञाएँ भी भिन्न प्रकारकी हैं। ___इन भिन्नताओंके होते हुए भी दोनों पाठोंमें समानताकी भी कमी नहीं है। दोनोंके अधिकांश सूत्र समान हैं, दोनों के प्रारंभका मंगलाचरण बिलकुल एक है और दोनोंके कर्ताओंका नाम भी देवनन्दि या पूज्यपाद लिखा हुआ मिलता है। असली सूत्रपाठ अब प्रश्न यह है कि इन दोनोंमसे स्वयं देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुया असली सूत्र-पाठ कौन-सा है ? हमारे खयालमें श्राचार्य देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्र-पाठ वही है जिसपर अभयनन्दिने अपनी महावृत्ति लिखी है। यह सूत्रपाठ उस समयतक तो ठीक समझा जाता रहा जब तक शाकटायन व्याकरण नहीं बना । शायद शाकटायनको भी जैनेन्द्र के होते हुए एक जुदा जैन व्याकरण बनानेको आवश्यकता इसीलिए महसूस हुई कि जैनेन्द्र अपूर्ण है, और इसलिए बिना वार्तिकों और उपसंख्यानों आदिके उससे काम नहीं चल सकता, परन्तु जब शाकटायन जैसा सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण बन चुका, तब जैनेन्द्र व्याकरणके भक्तोंको उसकी त्रुटियाँ खटकने लगी और उनमेंसे प्राचार्य गुणनन्दिने उसे सर्वांगपूर्ण बनानेका प्रयत्न किया । इस प्रयत्नका फल ही यह दूसरा सूत्र-पाठ है जिसपर सोमदेवकी शब्दार्णव-चन्द्रिका रची गई है। इस सूत्र पाठको बारीकीके साथ देखनेसे मालूम पड़ता है कि गुणनन्दिके समय तक व्याकरण-सिद्ध जितने प्रयोग होने लगे थे उन सबके सूत्र उसमें मौजूद हैं और इसलिए उसके टीकाकारोंको वार्तिक आदि बनानेके झंझटोंमें नहीं पड़ना पड़ा है। अभयनन्दिकी महावृत्तिके ऐसे बीसों वार्तिक हैं जिनके इस दूसरे पाठमैं सूत्र ही बना दिये गये हैं। १. क-नीतिवाक्यामृतके मंगलाचरणमें सोमदेव कहते हैं सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनि नत्वा नीतिवाक्यामृतं बवे ॥ ख-प्राचार्य अनन्तवीर्य लघीयस्त्रयकी वृत्तिके प्रारंभमें कहते हैं जिनाधीश मुनिं चन्द्रमकलंक पुनः पुनः । अनन्तवीर्यमानौमि स्याद्वादन्यायनायकम् ॥ २. शालातुरीय शकटाङ्गज-चन्द्रगोमि-दिग्वस्त्र-भर्तृहरि-वामन-भोजमुख्याः । For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण १--शब्दार्णव-चन्द्रिकाके अन्तिम पद्यमें सुप्रसिद्ध गुणनन्दि आचार्यके शब्दार्णवमें प्रवेश करनेके लिए सोमदेवकृत वृत्तिको नौकाके समान बतलाया है। इससे जान पड़ता है कि प्राचार्य गुणनन्दिके बनाये हुए व्याकरण ग्रन्थकी यह टीका है और उसका नाम शब्दार्णव है। इस टोकाका 'शब्दार्णव चन्द्रिका' नाम भी तभी अन्वर्थक होता है, जब मूल सूत्र-ग्रन्थका नाम शब्दार्णव हो। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि प्रक्रियाके अन्तिम श्लोकसे और भी अच्छी तरहसे हो जाती हैं जिसका आशय यह है कि गुणनन्दिने जिसके शरीरको विस्तृत किया है, उस शब्दार्णवको जाननेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए तथा आश्रय लेनेवालोंके लिए यह प्रक्रिया साक्षात् नाक्के समान काम देगी। इसमें 'शब्दार्णव' को जो 'गुणनन्दितानितवपुः' विशेषण दिया है, वह विशेष ध्यान देने योग्य है। उससे साफ समझमें बात है कि गुणनन्दिके जिस व्याकरणपर ये दोनों टीकाएँ-शब्दार्णवचन्द्रिका और प्रक्रिया-लिखी गई हैं उसका नाम 'शब्दार्णव' है और वह मूल (असली ) जैनेन्द्र व्याकरणके संक्षिप्त शरीरको तानित या विस्तृत करके बनाया गया है। शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रारम्भका मंगलाचरण भी इस विषयमें ध्यान देने योग्य है। जिसमें ग्रन्थकर्ताने भगवान् महावीरके विशेषणरूपमें क्रमसे पूज्यपादका, गुणनन्दिका और अपना ( सोमामर या सोमदेवका) उल्लेख किया है, और इससे वे निस्सन्देह यही ध्वनित करते हैं कि मुख्य व्याकरणके कर्ता पूज्यपाद हैं, उसको विस्तृत करनेवाले गुणनन्दि हैं और फिर उसकी टीका करनेवाले सोमदेव ( स्वयं ) हैं। यदि यह चन्द्रिका टीका पूज्यपादके व्याकरणकी ही होती, तो मंगलाचरणमैं गुणनन्दिका नाम लानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। गुण • नन्दि उनकी गुरु-परम्परामें भी नहीं हैं, जो उनका उल्लेख करना आवश्यक होता! अतः यह सिद्ध है कि चन्द्रिका और प्रक्रिया दोनोंके ही कर्ता यह समझते थे कि हमारी टीकाएँ असली जैनेन्द्र पर नहीं किन्तु उसके 'गुणनन्दितानितवपुः' शब्दार्णवपर बनी हैं। २-शब्दार्णव-चन्द्रिका और जैनेन्द्र-प्रक्रिया इन दोनों ही टीकाश्रोंमें 'एकशेष' प्रकरण है। परन्तु अभयनन्दिकृत 'महावृत्ति' वाले सूत्रपाठमैं एकशेषको अनावश्यक बतलाया है-"स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः ।" [ १-१-६६ ] और इसीलिए देवनन्दि या पूज्यपादका व्याकरण 'अनेकशेष' कहलाता है। चन्द्रिका टीकाके कर्ता स्वयं ही "श्रादावुपज्ञोपक्रमम्' [१-४-१५४ ] सूत्रकी टीकामै उदाहरण देते हैं "देवोपज्ञमनेकशेषव्याकरणम् ।" यह उदाहरण अभयनन्दिकृत महावृत्तिमै भी दिया गया है। इससे सिद्ध है कि शब्दार्णव-चन्द्रिकाके कर्ता भी उसी व्याकरणको देवोपज्ञ या देवनन्दिकृत मानते हैं, जो अनेकशेष है, अर्थात् जिसमें 'एकशेष' प्रकरण नहीं है और ऐसा व्याकरण वही है जिसकी टीका अभयनन्दिने की है। ३-श्राचार्य विद्यानन्दि अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृष्ठ २६५ में 'नगमसंग्रह-' आदि सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं, “नयश्च नयौ च नयाश्च नया इत्येकशेषस्य स्वाभाविकस्याभिधाने दर्शनात् केषाञ्चित्तथा बचनोपलम्भाव न विरुद्ध्यते।" इसमें स्वाभाविकताके कारण, एकशेषकी अनावश्यकता प्रतिपादन की है और यह अनावश्यकता जैनेन्द्रके वास्तविक सूत्र पाठमें ही उपलब्ध होती है। “स्वाभाविकत्वादमिधानस्यैकशेषानारम्भः" [ १-१-६६ ] यह सूत्र शब्दार्णववाले पाठमैं नहीं है, अतः विद्यानन्द भी पूर्वोक्त सूत्रवाले १. श्रीसोमदेवयतिनिर्मितिमादधाति या नौः प्रतीतगुणनन्दितशब्दवाधौं । सेयं सताममलचेतसि विस्फुरन्ती वृत्तिः सदा नुतपदा परिवर्तिषीष्ट ॥ २. सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनामोन्नतं, नितिं बहुतद्धितं कृतमिहाख्यातं यशःशालिनम् । सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णये, नावित्याश्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रक्रिया ॥ ३. श्रीपूज्यपादममलं गुणनमिददेवं सोमामरबतिपपूजितपादयुग्मम् । सिद्धं समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्रं सच्छब्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥ ४. इस प्रक्रियाका भी नाम 'शब्दार्णव-प्रक्रिया' होगा, जैनेन्द्र प्रक्रिया नहीं। For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ जैनेन्द्र व्याकरणम् जैनेन्द्र-पाठके माननेवाले थे । पाठकोंको यह स्मरण रखना चाहिए कि उपलब्ध व्याकरणों में 'अनेकशेष' व्याकरण केवल देवनन्दिकृत ही है, दूसरा नहीं। ४-तत्त्वार्थ-टीका 'सर्वार्थसिद्धि' के कर्ता स्वयं पूज्यपाद या देवनन्दि हैं । इस टीकामें अध्याय ५, सूत्र २४ की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, “ 'अन्यतोऽपि' इति तसि कृते सर्वतः।" और इसी सूत्रको व्याख्या करते हुए राजवार्तिककार लिखते हैं, " 'दृश्यतेऽन्यतोऽपीति' तसि कृते सर्वेषु सर्वत इति भवति ।" जान पड़ता है कि या तो सर्वार्थसिद्धिंकारने इस सूत्रको संक्षेप करके लिखा होगा. या लेखकों तथा छपानेवालोंने प्रारम्भका 'दृश्यते' शब्द छोड़ दिया होगा। वास्तवमें यह पूरा सूत्र 'दृश्यतेऽन्यतोऽपि' ही है और यह अभयनन्दिवाले सूत्र-पाठके अ० ४ पा० १ का ७९ वाँ सूत्र है। परन्तु शब्दार्णववाले पाठमें न तो यह सूत्र है और न इसके प्रतिपाद्यका विधानकर्ता कोई दूसरा सूत्र है। इससे सिद्ध है कि पूज्यपादका असली सूत्रपाठ वही है जिसमें उक्त सूत्र मौजूद है ५-भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिकमें 'श्राद्ये परोक्षम् [अ० १, सू०११ ] की व्याख्यामें "सर्वादि सर्वनाम" [१-१-३५ ] सूत्रका उल्लेख किया है, इसी तरह पण्डित श्राशाधरने अनगारधर्मामृतटीका [अ० ७ श्लो० २४ ] में "स्तोके प्रतिना" [१-३-३७ ] और "भार्थे [१-४-१४ ] इन दो सूत्रोंको उद्धृत किया है और ये तीनों ही सूत्र जैनेन्द्र के अभयनन्दिवृत्तिवाले सूत्रपाठमें ही हैं । शब्दार्णववाले पाठमें इनका अस्तित्व ही नहीं है । अतः अकलंकदेव और पं० आशाधर इसी अभयनन्दिवाले पाठको ही माननेवाले थे। अकलंकदेव वि० की आठवीं नौवीं शताब्दिके और आशाधर १३, वीं शताब्दिके विद्वान् हैं।' ६-पं० श्रीलालजी शास्त्रीने शब्दार्णव-चन्द्रिकाकी भूमिकामें लिखा है कि "आचार्य पूज्यपादने स्वनिर्मित सर्वार्थसिद्धि' में 'प्रमाणनयैरधिगमः' [अ० १ सू० ६ ] की टीकामें यह वाक्य दिया है-"नयशब्दस्याल्पान्तरत्वात् पूर्वनिपातः प्राप्नोति ? नैष दोषः, अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य तत्पूर्वनिपातः।" और अभयनन्दिवाले पाठमैं इस विषयका प्रतिपादन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है । केवल अभयनन्दिका 'अभ्यर्हितं पूर्व निपतति' वार्तिक है । यदि अभयनन्दिवाला सूत्र-पाठ ठीक होता तो उसमें इस विषयका प्रतिपादक सूत्र अवश्य होता जो कि नहीं है । पर शब्दार्णववाले पाटमें 'अर्यम्' [१-३-११५] ऐसा सूत्र है जो इसी विषयको प्रतिपादित करता है। इसलिए यही सूत्र-पाठ देवनन्दिकृत है।" इसपर हमारा निवेदन यह है कि “अल्पान्तरम्" [२-२-३४ ] यह सूत्र पाणिनिका है और इसके ऊपर कात्यायनका "अभ्यहितं च" वार्तिक तथा पतंजलिका "अभ्यहितं पूर्व निपतति” भाष्य है । इससे मालूम होता है कि पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि-टीकाके इस स्थल में पाणिनि और पतंजलिके ही सूत्र तथा भाष्यको लक्ष्य करके उक्त विधान किया है। यह निश्चित है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धि में अन्य वैयाकरणों के भी मत दिये हैं और अनेक बार पतंजलिके महाभाष्यके वाक्य' । सर्वार्थसिद्धि अ० ४ सूत्र २२ की व्याख्यामें लिखा है-“यथाहुः-द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानमिति ।" इसकी अन्य पुरुषकी 'आहुः' क्रिया ही कह रही है कि ग्रन्थकर्ता यहाँ किसी अन्य पुरुषका वचन दे रहे हैं। अब पतंजलिका महाभाष्य देखिए। उसमें १-२-१ के ५ वे वार्तिकके भाष्यमै चिलकुल यही वाक्य दिया हुआ है-एक अक्षरका भी हेरफेर नहीं है। इससे स्पष्ट है कि सर्वार्थसिद्धिके कर्त्ताने अन्य व्याकरण-ग्रन्थों के भी प्रमाण दिये हैं। १. 'संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास' में श्री युधिष्ठिर मीमांसकने लिखा है कि जैनेन्द्रसे कई शताब्दि पूर्वके चान्द्र व्याकरणमें भी एकशेष प्रकरण नहीं है। २. तत्त्वार्थराजवार्तिकमें इसी 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्रकी व्याख्यामें पतंजलिका यह भाष्य ज्योंका त्यों अक्षरशः दिया है। अभयनन्दिका भी यही वार्तिक है। परन्तु तब तक अभयनन्दिका अस्तित्व ही म था। ३. राजनातिक और श्लोकवार्तिकमें भी यह वाक्य उद्धत किया गया है। For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण सर्वार्थसिद्धि अ० ७ सूत्र १६ की व्याख्या में लिखा है, “शास्त्रेऽपि श्रश्ववृषयो मैथुनेच्छायामिस्येवमादिषु तदेव गृह्यते ।" यह पाणिनिके ७-१-५१ सूत्रपर कात्यायनका पहला वार्तिक है । वहाँ " अश्ववृषयो मैथुनेच्छायाम्” इतने शब्द हैं और इन्हींको सर्वार्थसिद्धिकारने लिया है । यहाँ कात्यायन के वार्तिकको उन्होंने 'शास्त्र' शब्दसे व्यक्त किया है । सर्वार्थसिद्धि श्र० ५ सूत्र ४ की व्याख्या में 'नित्य' शब्दको सिद्ध करनेके लिए पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं, “नेः ध्रुवे त्यः इति निष्पादितत्वात् ।" परन्तु जैनेन्द्र में 'नित्य' शब्दको सिद्ध करनेवाला कोई सूत्र ही नहीं है, इसलिए अभयनन्दिने अपनी वृत्तिमैं "ङयेस्तुट्” [ ३-२-८६ ] सूत्रकी व्याख्या में "नेधु वः इति वक्तव्यम्” यह वार्तिक बनाया है और 'नियतं सर्वकालं भवं नित्यं' इस तरह स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र में 'त्य' प्रत्यय ही नहीं है, इसके बदले 'य' प्रत्यय है । अतः सर्वार्थसिद्धिकारने पूर्वोक्त बात स्वनिर्मित व्याकरणको लक्ष्य में रखकर नहीं कही है। अन्य व्याकरणोंके प्रमाण भी वे देते थे और यह प्रमाण भी उसी तरहका है । २३ कुछ स्थानों में उन्होंने अपने निजके सूत्र भी दिये हैं। जैसे पाँचवें अध्यायके व्याख्यानमें लिखा है “विशेषणं विशेष्येण' इति वृत्तिः ।" यह जैनेन्द्रका १-३-५२ वाँ सूत्र है । यह सूत्र शब्दाव- चन्द्रिका [-३-४८] वाले पाठमैं भी है । इन सब प्रमाणों से यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि जैनेन्द्रका असली सूत्र- पाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकृत वृत्ति है । शब्दार्णव- चन्द्रिकावाला पाठ असली सूत्र-पाठको संशोधित और परिवर्धित करके बनाया गया है और उसका यह संस्करण संभवतः गुणनन्दि आचार्यकृत है । अब प्रश्न यह है कि जब गुणनन्दिने मूल ग्रंथ में इतना परिवर्तन और संशोधन किया, तब उस परिवर्तित ग्रन्थका नाम जैनेन्द्र ही क्यों रक्खा १ इसके उत्तरमें निवेदन है कि एक तो शब्दाव-चन्द्रिका और जैनेन्द्र- प्रक्रिया के पूर्वोल्लिखित श्लोकोंसे गुणनन्दिके व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' नहीं किन्तु 'शब्दार्णव' मालूम होता है । सम्भव है कि अर्ध-दग्ध लेखकोंकी कृपासे इन टीका- ग्रंथों में 'जैनेन्द्र' नाम शामिल हो गया हो । दूसरे यदि 'जैनेन्द्र' नाम हो भी, तो ऐसा कुछ अनुचित नहीं है। क्योंकि गुणनन्दिका प्रयत्न कोई स्वतंत्र ग्रंथ बनानेकी इच्छासे नहीं किन्तु 'जैनेन्द्र' को सर्वांगपूर्ण बनानेकी सदिच्छासे है और इसीलिए उन्होंने जैनेन्द्रके आधेसे अधिक सूत्र ज्योंके त्यों रहने दिये हैं, तथा मंगलाचरण आदि भी उसका ज्योंका त्यों रक्खा है । जैनेन्द्रकी टीकाएँ पूज्यपादस्वामीकृत असली जैनेन्द्रकी इस समय तक केवल चार ही टीकाएँ उपलब्ध हैं - १ अभयनन्दिकृत 'महावृत्ति' २ प्रभाचन्द्रकृत 'शब्दाम्भोजभास्करन्यास', ३ श्रुतकीर्तिकृत 'पंचवस्तुप्रक्रिया' और ४ पं० महाचन्द्रकृत 'लघु जैनेन्द्र' | परन्तु इसके सिवाय इसकी और भी कई टीकाएँ होनी चाहिए । पंचबस्तु के अन्तके श्लोक में जैनेन्द्रशब्दागम या जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी है। वह मूलसूत्र रूप स्तम्भों पर खड़ा किया गया है, न्यासरूप उसकी भारी रत्नमय भूमि है, वृत्तिरूप उसके किवाड़ हैं, भाष्यरूप शय्यातल है, टीकारूप उसके माल या मंजिल हैं और यह पंचवस्तु टीका उसकी सोपानश्रेणी है। इसके द्वारा उक्त महलपर प्रारोहण किया जा सकता है। इससे मालूम होता है कि पंचवस्तु के कर्ता के समय में इस व्याकरणपर १ न्यास, २ वृत्ति, ३ भाग्य और ४ कई टीकाएँ, इतने टीका- ग्रन्थ मौजूद थे । १. तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी है “शास्त्रेऽपि अश्ववृषयो मैथुनेच्छायामित्येवमादौ तदेव कर्माख्यायते । " २. सूत्रस्तम्भसमुद्धतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्न क्षितिश्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामा लमिहारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमं प्रासादं पृथु पंचवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् न्यास-उक्त टीकायोंमेंसे 'न्यास' तो शायद स्वयं पूज्यपादका ही होगा जो अभी तक अनुपलब्ध है। शिमोगा जिलेकी नगर तहसील के ४६३ शिलालेखमें लिखा है कि पूज्यपाइने एक तो (अपने व्याकरणपर) जैनेन्द्र-संज्ञक न्यास और दूसरा पाणिनि व्याकरण पर शब्दावतार नामक न्यास बनाया। इसके सिवाय वैद्यकशास्त्र और तत्त्वार्थ-टीका भी लिखो। यह निश्चय है कि पूज्यपाद केवल सूत्र-ग्रन्थ बनाकर ही न रह गये होंगे। अपनी मानो हुई अतिशय सूक्ष्म संज्ञाओं और परिभाषाओंका स्पष्टीकरण करनेके लिए उन्हें कोई टीका या वृत्ति अवश्य बनानी पड़ी होगी जिस तरह शाकटायनने अपने व्याकरणपर अमोघवृत्ति नामकी स्वोपज्ञटीका बनाई। विद्यानन्दने अष्टसहस्री ( पृष्ठ १३२ ) में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात्' यह वचन उद्धृत किया है। यह किसी व्याकरण ग्रन्थका वार्तिक है; परन्तु पाणिनिके किसी भी वार्तिकमें यह नहीं मिलता । अभयनन्दिको महावृत्तिमै अवश्य ही "प्यखे कर्मणि का वक्तव्या" [४-१-३८] इस प्रकारका वार्तिक है; परन्तु अभयनन्दिकी वृत्ति विद्यानन्दसे पीछे की बनी हुई है, इसलिए विद्यानन्दने यह वार्तिक अभयनन्दिकी वृत्तिसे नहीं किन्तु अन्य ही किसी ग्रन्थसे लिया होगा। भाष्य-जैनेन्द्र के भाष्यका अभी तक पता नहीं लगा। आगे हम उपलब्ध टीकाग्रन्थोंका परिचय देते हैं १-महावृत्ति-इसकी एक प्रति पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीटय टमें मौजूद है और एक प्रति बम्बईके सरस्वती-भवन में भी है | पूनेकी प्रतिमें इसकी श्लोकसंख्या १२००० के लगभग है। प्रारंभके ३१४ पत्र एक लेखकके लिखे हुए और शेष ७४ पत्र, चैत्र सुदी २ सं० १६३३ को किसी दूसरे लेखकके लिखे हुए हैं । प्रतिके दोनों ही भाग जयपुरके लिखे हुए मालूम होते हैं। कई स्थानों में कुछ पंक्तियाँ छूटी हुई हैं। और अन्तमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है । इस महावृत्तिके कर्ता अभयनन्दि मुनि हैं। उन्होंने न तो अपनी गुरुपरम्पराका ही परिचय दिया है और न ग्रन्थ रचनाका समय ही। परन्तु सूत्र ३-२-५ की टीकामैं एक जगह उदाहरण दिया है"तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते।” इससे मालूम होता है कि भट्टाकलंकदेवके बाद अर्थात् वि० की आठवीं नवी शताब्दिके बादकी यह वृत्ति है-और पंचवस्तुके पूर्वोल्लिखित श्लोकमें इसी वृत्तिका उल्लेख जान पड़ता है, इसलिए श्रतकीर्तिके अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दिके पहले किसी समयमें वे हुए हैं। जैनेन्द्रकी उपलब्ध टीकाओंमें यही टीका सबसे प्राचीन मालूम होती है। २-शब्दाम्भोजभास्करन्यास-बम्बईके सरस्वती-भवनमें इसकी दो अपूर्ण प्रतियाँ मौजूद हैं । एक प्रतिमें १४३ पत्रसे २६ह तक और फिर ६२० वे पत्रसे ७०३ तकके ही पत्र हैं । १४ वे पत्रपर पहले १. न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्योधवृत्तः ॥ २. नं ५६० A और B सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट । ३. ओं नमः । श्रीमत्सर्वज्ञवीतरागतद्वचनतदनुसारिगुरुभ्यो नमः । देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्त्वाभयप्रदम् । शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिर्विरच्यते ॥१॥ यच्छब्दलक्षणमसुवजपारमन्यैरव्यक्तमुक्तमभिधानविधौ दरिदैः । तत्सर्वलोकहृदयप्रियचारुवात्यैर्व्यक्तीकरोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥ २॥ शिष्टाचारपरिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मंगलमिदमाहाचार्यः । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्चायं पञ्चमोऽध्यायः । For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण अध्यायके पहले पादका १६ वाँ सूत्र है। यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्ध है परन्तु श्रागसे झुलसी हुई है । दूसरी प्रतिमें केवल तीन अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या १२००० है। इससे जान पड़ता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ १६००० के लगभग होगा । अभयनन्दिकी वृत्तिसे यह बड़ा है और उससे पोछे बना है। इसमें महावृत्तिके शब्द ज्योंके त्यों ले लिये गये हैं और तीसरे अध्यायके अन्तके एक श्लोकैमें अभयनन्दिको नमस्कार भी किया है। इसके कर्ता प्रभाचन्द्र हैं और वे प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के ही कर्ता मालूम होते हैं। क्योंकि इसके प्रारंभमैं ही यह कहा गया है कि अनेकान्तकी चर्चा उक्त दोनों ग्रन्थों में की गई है, इसलिए यहाँ नहीं करते । अवश्य ही इसमें उन्होंने अपने ही ग्रन्थोंको देखनेके लिए कहा है, "अथ कोऽयमनेकान्तो मामेत्याह-अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यासामान्याधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासावनेकान्तः, अनेकान्तात्मक इत्यर्थः । तत्र च प्रतिष्ठितमिथ्याविकल्पकल्पिताशेषविप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षादिप्रमाणमेव प्रत्यस्तमयतीति (2) तद्धिततया तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानदिश्च यथा सिद्धयति तथा प्रपञ्चतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्रतिरूपितमिह दृष्टश्यम् ।" इसके मंगलाचरणमैं पूज्यपाद और अकलंकको नमस्कार किया गया है। ३-पंचवस्तु-भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटय टमें इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एक ३००४०० वर्ष पहलेकी लिखी हुई है और बहुत शुद्ध है और दूसरी संवत् १६२० की । पहलीपर लेखकका नाम और प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है। इसके अन्तमें केवल इतना लिखा हुश्रा है-“कृतिरियं देवनद्याचार्यस्य परवादिमथनस्य छ। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ श्रीसंघस्य ॥" दूसरी प्रति रत्नकरण्डश्रावकाचारवचनिका आदि अनेक भाषाग्रन्थोंके रचयिता सुप्रसिद्ध पण्डित सदासुखजीके हाथकी संवत् १९१० की लिखी हुई है। यह टीका प्रक्रिया-बद्ध है और बड़े अच्छे ढंगसे लिखी गयी है। इसकी श्लोकसंख्या ३३०० के लगभग है। प्रारंभके विद्यार्थियों के लिए बड़ी उपयोगी है। इस ग्रन्थके आदि-अन्तमें कहीं भी कर्ताका नाम नहीं है । केवल एक जगह पाँचवें पत्रमें नाम अाया है, जिससे मालूम होता है कि इसके रचयिता श्रुतकीर्ति हैं। १. नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥ २. नं० १०५६ सन् १८८७-११ की रिपोर्ट । ३. नं० ५६० सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट । इस ग्रन्थकी एक प्रति परतापगढ़ (मालवा ) के पुराने दि. जैनमन्दिरके भंडारमें भी है। देखो जैनमित्र ता. २६ अगस्त १९१५। ४.अब्दे नभश्चन्द्रविधिस्थिरांके शुद्ध सहय॑म (?) युक चतुर्थ्याम् । सत्प्रक्रियाबन्धनिबन्धनेयं सद्वस्तुवृत्तीरदनात्समाप्ता (?)॥ श्रीमन्नराणामधिपेशराज्ञि श्रीरामसिंहे विलसत्यलेखि । श्रीमद्धेमेह सदासुखेन श्रीयुक्फतेलालनिजात्मबुद्धय ॥ शब्दीयशास्त्रं पठितं न यैस्तैः स्वदेहसंपालनभारवद्भिः। किं दर्शनीयं कथनीयमेतद् वृथांगसंधावपलापवद्भिः ॥ यह प्रति भी प्रायः शुद्ध है। ५, याम वैर-वर्ण-कर-चरणादीनां संधीना बहूनां संभवत्वात् संशयानः शिष्यः संपृच्छति स्म । कस्सन्धिरिति । संज्ञास्वरप्रकृतिहरूजविसर्गजन्मा संधिस्तु पंचक इतीत्थमिहाहुरन्ये । तत्र स्वरप्रकृतिहल्जविकल्पतोऽस्मिन्संधिं त्रिधा कथयति श्रुतकीर्तिरायः ।। For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् कनड़ी भाषा के चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रन्थके कर्ता अग्गल कविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बतलाया है-“इदु परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्सरिन्नाथ - श्रुतकीर्तित्रैविद्यच कवर्तिपदपद्मनिधानदीपवर्तिश्री मदग्गलदेवविरचिते चन्द्रप्रभचरिते -" इत्यादि । और यह चरित शक संवत् १०११ ( वि० सं० ११४६ ) मैं बनकर समाप्त हुआ है । अतएव यदि श्रुतकीर्ति और श्रुतकीर्ति त्रैविद्य चक्रवर्ती एक ही हों तो पंचवस्तुको भी श्रभयनन्दि महावृत्ति के पीछे की- विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के प्रारंभकी- रचना समझना चाहिए। नंदिसंघकी गुर्वावली में श्रुतकीर्तिको वैयाकरण- भास्कर लिखा है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ - लघुजैनेन्द्र- इसकी एक प्रति अंकलेश्वर ( भरोच) के दिगम्बर जैनमन्दिर में है और दूसरी अधूरी प्रति परतापगढ़ ( मालवा ) के पुराने दि० जैनमन्दिरमै । यह श्रभयनन्दिकी वृत्तिके आधार से लिखी गई है। पण्डित महाचन्द्रजी विक्रमकी इसी बीसवीं शताब्दिमें हुए हैं। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और भाषा में कई ग्रंथ लिखे हैं । ५-- जैनेन्द्र- प्रक्रिया - यह पं० वंशीधरजी न्यायतीर्थं न्यायशास्त्रीने हाल ही लिखी है। इसका केवल पूर्वार्ध ही छपकर प्रकाशित हुआ है। शब्दार्णवकी टीकाएँ जैनेन्द्र सूत्र- पाठ के संशोधित परिवर्धित संस्करणका नाम-जैसा कि पहले लिखा जा चुका है -- शब्दाव । इसके कर्ता गुणनन्दि हैं। यह बहुत संभव है कि सूत्र- पाठके सिवाय उन्होंने इसकी कोई टीका या वृत्ति भी बनाई हो जो कि उपलब्ध नहीं है । गुणनन्दि नामके कई विद्वान् हो गये हैं। एक गुणनन्दिका उल्लेख श्रवणबेलगोल के ४२, ४३ और ४७ वें नम्बरके लिखालेखों में मिलता है। ये बलाकपिच्छके शिष्य और गृध्रपिच्छके प्रशिष्य थे । तर्क, व्याकरण और साहित्य शास्त्रोंके बहुत बड़े विद्वान् थे। इनके ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे और उनमें ७२ शिष्य सिद्धान्तशास्त्री थे । आदि पंपके गुरु देवेन्द्र भी इन्हीं के शिष्य थे। कर्नाटक कविन्चरितके कर्ताने इनका समय वि० संवत् ६५७ निश्चय किया है। क्योंकि इनके प्रशिष्य देवेन्द्रके शिष्य आदि पंपका जन्म वि० सं० ६५६ में हुआ था और उसने ३६ वर्षकी अवस्था में अपने सुप्रसिद्ध कनड़ी काव्य भारतचम्पू और श्रादिपुराण निर्माण किये हैं । हमारा अनुमान है कि ये ही गुणनन्दि शब्दार्णवके कर्त्ता हैं । चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य के कर्त्ता वीरनन्दिका समय शक संवत् ९०० के लगभग निश्चित होता है । क्योंकि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें उनका स्मरण किया है और वीरनन्दिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार १. त्रैविद्यः श्रुतकीत्यख्यो वैयाकरण भास्करः । २. देखो जैन मित्र ता० २६ अगस्त १६१५ । ३. महावृत्तिं शुंभत्सकलबुधपूज्यां सुखकरी, विलोक्योद्यद्ज्ञानप्रभु विभयन न्दिप्रवहिताम् । श्रनेकैः सच्छन्दर्भमविगतकैः संदृढभूतां (2) प्रकुर्वेऽहं ( टीकां ) तनुमतिमहाचन्द्रविबुधः (१) ॥ ४. जैनेन्द्रकी एक टीका प्रक्रियावतार नामकी और है जिसके कर्ता नेमिचन्द्र हैं । डिस्क्रिप्टिव कैटलाक आफ दि सं० मे० गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मेनु० लायब्रेरी मद्रास, वोल्यूम III में उसका परिचय दिया हैसर्वज्ञाय नमस्तस्मै वीतक्लेशाय शान्तये । येन भव्यात्मनश्चेतस्तमस्तोमश्चिकित्सितः || किं वाणीचतुरानः किमथवा वाचस्पति: कि न्वसौ, विद्यानां विभवात्सहस्रवदनस्साक्षादनन्तः किमु । इत्थं संसदि साधवः समुदितास्संशेरते सादरं, विद्वत्पुङ्गवनेमिचन्द्रभवति व्याख्यानमातन्वति || ५. तच्छिष्यो गुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरः, तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणः साहित्य विद्यापतिः । मिथ्यात्वादिमदान्धसिन्धुरघटा संघातकण्ठीरवो, भव्याम्भोज दिवाकरो विजयतां कन्दर्पदः ॥ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण है-१ श्री गुणनन्दि, २ विबुध गुणनन्दि, ३ अभयनन्दि और ४ वीरनन्दि । यदि पहले गुणनन्दि और वीरनन्दिके बीचमै हम ७८ वर्षका अन्तर मान लें, तो पहले गुणनन्दिका समय वही शक संवत् ८२२ या वि० सं० ९५७ के लगभग आ जायगा। इससे यह निश्चय होता है कि वीरनन्दिकी गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदि पम्पके गुरु देवेन्द्र के गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे। गुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] मैं हुए हैं जो मेघचन्द्र विद्यके गुरु थे। शब्दार्णवकी इस समय दो टीकाएँ उपलब्ध हैं और दोनों ही सनातनजैनग्रन्थमालामें छप चुकी हैं१-शब्दार्णवचन्द्रिका, और २-शब्दार्णव प्रक्रिया । १-शब्दार्णव-चन्द्रिका-इसकी एक बहुत ही प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूटमें है। यह ताड़पत्रपर नागरी लिपिमें है। इसके आदि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट हो गये हैं। छपी हुई प्रतिमें जो गद्य-प्रशस्ति है, वह इसमें नहीं है और अन्त में एक श्लोक है जो पूरा नहीं पढ़ा जाता इन्द्रश्चन्द्रः शकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यत्प्रोवाचापिशलिरमरः काशकृत्स्न".""शब्दपारायणस्येति । इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं। ये शिलाहार वंशके राजा भोजदेव [द्वितीय] के समयमें हुए हैं और अर्जु रिका नामक ग्रामके त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिरमें-जो कि महामण्डलेश्वर गंडरादित्यदेवका बनवाया हुआ था। इसे शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२७२] में बनाया है। यह ग्राम इस समय आजरें नामसे प्रसिद्ध है और कोल्हापुर राज्यमें है। वादीभवज्रांकुश श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेवके वैयावृत्त्यसे इस ग्रन्थको रचना हुई है। इस ग्रन्थके मंगलाचरणके पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और सोमदेव ये विशेषण वीर भगवान्को दिये है। और दूसरे श्लोक में कहा है कि यह टीका मूलसंघीय मेघचन्द्रके शिष्य नागचन्द्र ( भुजंगसुधाकर) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई गई । गुणनन्दिकी प्रशंसा चुरादि धातुपाठके अन्तमें भी एक पद्यमें की गई है, जिसका अन्तिम चरण यह है"शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनन्दिव्रतीशस्सुसौख्यः।" इसमें शब्दब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दिको शब्दार्णव व्याकरण का कर्ता ही प्रकट किया गया है। ये मेघचन्द्र श्राचारसारके कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके गरु ही मालूम होते हैं। इन्हें श्रवणबेलगोलके नं० ४७ के शिलालेखमें सिद्धान्तज्ञतामें जिनसेन और वीरसेनके सदृश, न्यायमें अकलंकके समान और व्याकरण में साक्षात् पूज्यपादसदृश बतलाया है। श्रवणयेल्गोलके नं० ५० और ५२ नम्बरके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] मैं और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक संवत् १०६८ [वि० सं० १२०३ में हुआ था। इसके सिवाय उनके दूसरे शिष्य प्रभाचंद्रदेवने शक सं० १०४१ [ वि० सं० ११७६ ] में एक महापूजाप्रतिष्ठा कराई थी। जब सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रिका मेषचन्द्र के प्रशिष्य हरिचन्द्र के लिए शक सं० ११२७/वि० सं० १२६२7 में बनाई थी, तब मेषचन्द्रका समय वि० सं० ११७२ के लगभग माना जा सकता है। 1. नं० २५ सन् १८८०-८८ की रिपोर्ट । २. श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमामरव्रतिपपूजितपादयुग्मम् । सिद्धं समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्र सच्छब्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥१॥ ३. श्रीमूलसंघजलजप्रतिबोधभानोमधेन्दुदीक्षितभुजङ्गसुधाकरस्य । राद्धान्ततोयनिधिवृद्धिकरस्य वृत्तिं रेभे हरीदुयतये वरदीक्षिताय ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् नागचन्द्र नामके दो विद्वान् हो गये हैं, एक पम्प रामायणके कर्ता नागचन्द्र जिनका दूसरा नाम श्रभिनव प्रम्प था, और दूसरे लब्धिसारटीका के कर्ता नागचंन्द । पहले गृहस्थ थे और दूसरे मुनि । श्रभिनव पम्प के गुरुका नाम बालचन्द्र था जो मेघचन्द्र के सहाध्यायी थे और दूसरे स्वयं बालचन्द्र के शिष्य थे । इन दूसरे नागचन्द्रके शिष्य हरिचन्द्र के लिए यह वृत्ति बनाई गई है । इन्हें जो 'राद्धान्ततोयनिधिवृद्धिकर' विशेषण दिया है उससे मालूम होता है, कि ये सिद्धान्तचक्रवर्ती या टीकाकार होंगे। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २- शब्दार्णव प्रक्रिया - यह जैनेन्द्र-प्रक्रिया के नामसे छुपी है, परन्तु वास्तव में इसका नाम शब्दा- प्रक्रिया ही है । हमें इसकी कोई हस्तलिखित प्रति नहीं मिल सकी। जिस तरह अभयनन्दिकी वृत्तिके बाद उसीके आधारसे प्रक्रियारूप पंचवस्तु टीका बनी है, उसी प्रकार सोमदेवकी शब्दार्णव चन्द्रिका के बाद उसीके आधारसे यह प्रक्रिया बनी है। प्रकाशकोंने इसके कर्ताका नाम गुणनन्दि प्रकट किया है; परन्तु जान पड़ता है कि इसके अन्तिम श्लोक में गुणनन्दिका नाम देखकर ही भ्रमवश इसके कर्त्ताका नाम गुणनन्दि समझ लिया है । इनमें से पहले पद्यसे यह स्पष्ट है कि गुणनन्दिके शब्दार्णव के लिए यह प्रक्रिया नावके समान है और दूसरे पद्य में कहा है कि सिंहके समान गुणनन्दि पृथ्वीपर सदा जयवन्त रहें। यदि इसके कर्त्ता स्वयं गुणनन्दि होते तो स्वयं ही अपने लिए यह कैसे कहते कि वे गुणनन्दि सदा जयवन्त रहें ? अतः गुणनन्दि ग्रन्थकर्त्तासे कोई पृथक् ही व्यक्ति है जिसे वे श्रद्धास्पद समझते हैं । तीसरे पथ में भट्टारकशिरोमणि श्रुतकीर्ति देवकी प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है कि वे मेरे मनरूप मानसरोवर में राजहंस के समान चिरकालतक विराजमान रहें। इसमें भी ग्रन्थकर्त्ता अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं; परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे श्रुतिकीर्तिदेव के कोई शिष्य होंगे और संभवतः उन श्रुतिकीर्तिके नहीं जो पंचवस्तु कर्त्ता हैं । ये श्रुतिकीर्ति पंचवस्तुके कर्त्तासे पृथक जान पड़ते हैं। क्योंकि इन्हें प्रक्रिया के कर्त्ताने 'कविपति' बतलाया है, व्याकरणश नहीं। ये वे ही श्रुतिकीर्ति मालूम होते हैं जिनका समय प्रो० पाठकने शक संवत् १०४५ या वि० सं० १९८० बतलाया है | श्रवणबेलगोलके जैन गुरुश्रोंने 'चारुकीर्ति पंडिताचार्य' का पद शक संवत् १०३२ के बाद धारण किया है और पहले चारुकीर्ति इन्हीं श्रुतकीर्तिके पुत्र थें । श्रवणबेलगोलके १०८ वें शिलालेख में इनका जिक्र है और इनकी बहुत ही प्रशंसा की गई है। प्रक्रिया के कर्त्ताने इन्हें भट्टारकोत्तंस और श्रुतकीर्तिदेवयतिप लिखा है और इस लेखमें भी भट्टारक यति लिखा है । अतः ये दोनों एक मालूम होते हैं । श्राश्चर्य नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारुकीर्ति परिडताचार्य ही इस प्रक्रिया के कर्त्ता हो । १. छपी हुई प्रति के अन्त में " इति प्रक्रियावतारे कृद्विधिः समाप्तः । समाप्तेयं प्रक्रिया ।" इस तरह छपा है । इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र-प्रक्रिया नहीं जान पड़ता । २. सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनामोन्नतं निर्ज्ञातं बहुतद्धितं कृतमिहाख्यातं यशः शालिनम् । सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णयं नावित्याश्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रक्रिया || १॥ दुरितमदेभ निशुम्भ कुम्भस्थलभेदनक्षमोग्रनखैः । राजन्मृगाधिराजो गुणनन्दी भुवि चिरं जीयात् ॥२॥ सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापिते सहने दिग्वासस्सु चरित्रवानमलकः कान्तो विवेकी प्रियः । सोऽयं यः श्रुतकीर्तिदेवयतिपो भट्टारको संसको रंरम्यान्मम मानसे कविपतिः सद्राजहंसश्चिरम् || ३ || ३. देखो 'सिस्टिम्स आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ६७ । ४. देखो 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २० । ५. तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृत मतिविं जितेन्द्रियः । सिद्धशासनवर्द्धन प्रतिलब्धकीर्तिकालापकः ॥ २२ ॥ विश्रुतश्रुतकीर्ति भट्टारकयतिस्समजायत । प्रस्फुरद्वचनामृतांशुविनाशिता खिलहृत्तमाः ॥ २३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण देवनन्दिका समय देवनन्दिने अपने किसी ग्रन्थमें न तो कोई रचना-तिथि दी है और न अपनी गुरुपरम्परा । इसलिए उनके समयका निर्णय उनके ग्रन्थों के उल्लेखों तथा दूसरे साधनोंसे ही करना पड़ेगा। जैनेन्द्र व्याकरणके 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' [५-१-७] सूत्रमें सिद्धसेनका मत दिया है और प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने सिद्धसेनका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है। उनके लेखका सारांश आगे दिया जाता है-- "जैसलमेरके जैन भण्डार में विशेषावश्यक भाष्यकी जो अतिशय प्राचीन प्रति मिली है उसके अंतमें ग्रन्थकार जिनभद्र गणिने स्वयं ही ग्रन्थ-रचना-काल दिया है। और उसके अनुसार उक्त ग्रन्थ वि० सं० ६६६ में वल्लभीमें समाप्त हुआ है। उन्होंने अपने इस विशेषावश्यक भाष्यमें और द्वितीय लघुग्रन्थ विशेषणवतीमें सिद्ध सेन और मल्लवादिके उपयोगाभेद-वादको विस्तृत समालोचना की है। मल्लवादि सिद्ध सेनके सन्मतितर्कके टीकाकार हैं। इससे सिद्ध होता है कि मल्लवादि और सिद्धसेन जिनभद्रगणिसे क्रमशः पूर्व और पूर्वतर हैं। मल्लवादिके विनष्टमूल द्वादशार नयचक्रके जो प्रतीक उसके विस्तृत टीकाग्रन्थमें मिलते हैं उनमें सिद्धसेन दिवाकरके उल्लेख तो हैं, परन्तु जिनभद्रगणिके नहीं है। इससे फलित होता है कि मल्लवादि जिनभद्रसे पहले हुए हैं और मल्लवादिने सिद्धसेनके सन्मतितर्कपर टीका लिखी थी, इसका निर्देश श्राचार्य हरिभद्रने किया है । अतः यह सिद्ध है कि सिद्धसेन मल्लवादिसे पहले हुए हैं। इसलिए मल्लवादिको विक्रमकी छठी शताब्दिके पूर्वार्धमें माना जाय, तो सिद्धसेनका समय पाँचवीं शताब्दि ठीक लगता है। ___ "सिद्धसेनके मतके अनुसार 'विद्' धातुमें 'र' का आगम होता है, भले ही वह सकर्मक हो। उनकी नवी द्वात्रिंशतिकाके २२वें पद्यमें 'र' श्रागमवाला 'विद्रते' प्रयोग मिलता है। अन्य वैयाकरण 'सम्' उपसर्गपूर्वक अकर्मक विद् धातुमें 'र' श्रागम मानते हैं जब कि सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक विद् धातुमें 'र' श्रागमवाला प्रयोग किया है । इसके सिवाय पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकाके [अ०७ सूत्र १३] में सिद्ध सेनकी तीसरी द्वात्रिंशिकाके १६ पद्यकी 'उक्तं च' शब्दके साथ “वियोजयति चासुभिन वधेन संयुज्यते" पंक्ति उद्धृत की है । द्वात्रिंशिकामैं यह पूरा पद्य इस प्रकार है वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपु [4] रुषस्मृतेर्विद्यते । बधायतनमभ्युपैति च पराननिघ्नमपि स्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रथ[श]महेतुरुद्योतितः ॥१६॥ "पूज्यपाद देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध माना जाता है। परन्तु मेरी समझमें अभी इसपर और भी गहराईसे विचार होनेकी जरूरत है। यदि सिद्धसेनको देवनन्दिसे पूर्ववर्ती अथवा उनका वृद्धसमकालीन माना जाय, तो भी उनका समय पाँचवीं शताब्दिसे अर्वाचीन नहीं जान पड़ता।" सिद्धसेनसे देवनन्दि कितने बादके हैं, इसका निर्णय करनेके लिए देवसेनके दर्शनसारसे भी कुछ सहायता मिल सकती है। यह ग्रन्थ उन्होंने वि० सं० ६६० में धारानगरीमें निवास करते हुए पूर्वाचार्योकी बनाई हुई गाथाओंका एकत्र संचय करके-'पुच्वाइरियकयाई गाहाई संचिजण एयत्थ' लिखा गया है । अर्थात् इस ग्रन्थकी गाथाएँ देवसेनसे भी पहलेकी हैं और इस दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता अधिक है । उसके अनुसार श्री पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदि वज्रनन्दि द्राविड संघका कर्ता हुश्रा और तब दक्षिण मथुरा [मदुरा] में देखो भारतीय विद्या, भाग ३, अंक ५ में 'श्री सिद्धसेन दिवाकरनां समयनी प्रश्न' शीर्षक लेख। For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् वि० सं० ५२६ में यह महामिथ्याती संघ उत्पन्न हुआ। वज्रनन्दि चूँ कि देवनन्दिके शिष्य थे, इसलिए इस संघ-स्थापना-काल के लगभग या दस बीस वर्ष पहले देवनन्दिका समय माना जा सकता है। सिद्धसेनके पूर्वोक्त निश्चित किये हए समयसे भी यह असंगत नहीं जान पड़ता। पं० युधिष्ठिर मीमांसकने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास लिखा है। उन्होंने जैनेन्द्र के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्रपरसे अनुमान किया है कि सिद्धसेनका कोई व्याकरण ग्रन्थ अवश्य होगा। उज्ज्वलदत्तकी उणादि सूत्र वृत्तिमें 'क्षपणक' के नामसे एक ऐसा सूत्र उदधृत है जिससे प्रतीत होता है कि क्षपणकने भी उणादि सूत्रोंपर कोई व्याख्या लिखी थी और उससे यह भी संभावना होती है कि क्षपणकने अपने शब्दानुशासनपर भी कोई वृत्ति रची होगी। मैत्रेयरक्षितने तंत्रप्रदीपमैं भी क्षपणकके व्याकरणका उल्लेख किया है। बहुतसे विद्वानोंकी राय है कि ज्योतिर्विदाभरणमैं बतलाये हुए विक्रमके नौ रत्नोंमें जो क्षपणक है, वही सिद्धसेन है और गुप्तवंशके चंद्रगुप्त (द्वितीय) ही विक्रमादित्य हैं। इतिहासज्ञ विन्सेंट स्मिथके अनुसार चन्द्रगुप्तका समय वि० सं० ४३२ से ४७० तक है और इस तरह सिद्धसेनका समय जो पं० सुखलालजीने विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है, और भी पुष्ट हो जाता है। हेब्बुरुके दानपत्रमैं गंगवंशी महाराजा अविनीतके पुत्र दुविनीतको "शब्दावतारकारः देवभारतीनिबद्धवृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः” ये तीन विशेषण दिये हैं जिनका अर्थ होता है-शब्दावतारके कर्ता, पैशाचीसे संस्कृतमें गुणाढ्यको बृहत्कथाको रचनेवाले और किरातार्जुनीय काव्यके पन्द्रह सगों के टीकाकार । इन विशेषणों में कोई ऐसी बात नहीं जिससे यह प्रकट हो कि देवनन्दि दुविनीतके शिक्षागरु थे या उनके समकालीन थे। परन्तु चूंकि शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुकेके ४६ वे शिलालेखमें पूज्यपादको पाणिनीयके शब्दावतारका कर्ता बतलाया है, इसलिए दुविनीतके साथ लगे हुए "शब्दावतारकार" विशेषणसे कुछ विद्वानों को भ्रम हो गया और दोनोंको समकालीन समझकर गुरु-शिष्यका सम्बन्ध खड़ा कर दिया है । दुविनीतका राज्यकाल वि० सं० ५३९ से शुरू होता है, इसलिए इसीके लगभग पूज्यपादका समय मान लिया गया, परंतु मैसूरके आस्थान विद्वान् पं० शान्तिराज शास्त्रीने भास्करनन्दिकृत तत्त्वार्थटीकाकी प्रस्तावनामें इस भ्रमको स्पष्ट कर दिया है। इसलिए भले ही पूज्यपाद देवनन्दि दुविनीतके राज्यकाल में रहे हों, परन्तु केवल इस दानपत्रसे वह सिद्ध नहीं किया जा सकता। __ जैनेन्द्र व्याकरणके एक और सूत्र “चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" [४-४-१४०] में सिद्ध सेनके ही समान श्राचार्य समन्तभद्रूका उल्लेख है, जिससे समन्तभद्रका देवनन्दिसे पूर्ववर्ती होना सिद्ध होता है, परन्तु साथ ही १. सिरिपुज्जपाइसीसो दाविडसंघस्स कारणो दुह्रो । णामेण वज्जणंदी पाडवेदी महासत्तो ।। पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुरा-जादो दाविडसंघे महामोहो ॥ . २. प्रकाशक-भारतीय साहित्यभवन, नवाबगंज, दिल्ली । ___३. धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशंकुवेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहरो नृपतेः समायाः रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ ४. मैसूर एण्ड कुर्ग गैजेटियर, प्रथम भाग पृ० ३७३. ५. इस शिलालेखका वह 'न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञ' आदि पद्य इसके पहले पृष्ठ ३३ पर उद्धृत किया है। ६. बौद्धाचार्य चन्द्रौतिने "समन्तभद्" नामका एक व्याकरण लिखा था और चन्द्रकीर्ति धर्मकीर्तिसे भी पूर्ववर्ती है। १४ वीं शताब्दिमें लिखे हुए बौद्ध धर्मके इतिहाससे जो तिब्बती भाषामें है, और जिसका अंग्रेजी अनुवाद हो गया है इस बातकी सूचना मिलती है। पं० श्री दलसुख मालवणियाने अपने एक पत्रमें मुझे यह लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण ३१ सर्वार्थसिद्धि टीका 'मोक्षमार्गस्य नेतार' आदि मंगलाचरण पर समन्तभद्रने 'श्रात्ममीमांसा' नामक ग्रन्थ लिखा है। इससे जान पड़ता है कि दोनों समकालीन एक दूसरेका आदर करनेवाले हैं और एक दूसरे के ग्रन्थोंसे सुपरिचित होनेके कारण ही यह संभव हुआ है कि देवनन्दि अपने जैनेन्द्र व्याकरण में समन्तभद्र का व्याकरणविषयक मत देते हैं और समन्तभद्र देवनन्दिकी सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरणपर अपनी आतमीमांसा निर्माण करते हैं । आचार्यं विद्यानन्द ने अपनी श्राप्तपरीक्षा के अन्त में लिखा है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्द्भुत सलिलनिधेरिन्द्धरत्नोद्भवस्थ, प्रोथानारम्भकाले सकलमल भिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुयशं स्वामिमीमांसितं तत्, विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै ॥ १२३ ॥ अर्थात् प्रकाशमान रत्नों के उद्भवस्थान तत्त्वार्थशास्त्र रूप अद्भुत समुद्र के उत्थान या बढ़ावके आरम्भकाल में शास्त्रकार ( देवनन्दि ) ने तीर्थ के तुल्य जो प्रसिद्ध और प्रति यशस्वी स्तोत्र (मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि) बनाया और जिसकी स्वामि ( समन्तभद्र ) ने मीमांसा की, उसीका अपनी शक्तिके अनुसार सत्यवाक्यार्थसिद्धि के लिए विद्यानन्दने बड़े चादर के साथ कथन किया । इसमें यह बिलकुल स्पष्ट रूपसे कह दिया गया है कि 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इस मंगलाचरण पर ही ग्रामीमांसा रची गई है और उसीपर विद्यानन्द परीक्षा ( आप्तपरीक्षा ) लिखते हैं । परन्तु उक्त पद्यमें जो 'शास्त्रकारैः' पद पड़ा हुआ है, उसपर एक बड़ा भारी विवाद खड़ा कर दिया गया है और उसका अर्थ किया जाता है- तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति; जब कि वास्तवमें मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धिका है। मूल तत्त्वार्थसूत्रका नहीं। क्योंकि यदि यह मंगलाचरण तत्त्वार्थसूत्रका होता तो उसकी टीका सभी दिगम्बर श्वेताम्बर टीकाकार जो प्राचीन हैं - अवश्य करते । और कोई न करता तो देवनन्दि पूज्यपाद तो [सर्वार्थसिद्धि में] श्रवश्य करते । सर्वार्थसिद्धि टीकाका पहला संस्करण स्व० पं० कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने प्रकाशित किया था। उसमें इसे टीकाके मंगलाचरणके रूपमें ही दिया है और भूमिका में भी उन्होंने इसे टीकाका ही बतलाया है। शोलापुरके पं० वंशीधरजी शास्त्रीके संस्करण में भी यह टोकाका है और यह संस्करण उन्होंने श्रागरेकी तीन प्राचीन प्रतियोंके आधारसे सम्पादित किया है । उसमेंकी एक प्रतिको तो वे ५०० वर्ष पुरानी बतलाते हैं। अकलंकदेव और विद्यानन्दने भी राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकमें इसकी टीका नहीं की है, श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेन और हरिभद्र आदिने भो नहीं की । तत्त्वार्थसूत्रपाठ [ मूल ] की भी अधिकांश लिखित प्रतियाँ इस मंगलाचरण से रहित हैं । सनातनग्रन्थमाला प्रथम गुच्छक, जैननित्यपाठ संग्रह श्रादि मुद्रित प्रतियों में भी यह नहीं है । तत्त्वार्थसार में भी, जो तत्त्वार्थका एक तरहसे पल्लवित पद्यानुवाद है, अमृतचन्द्रने इस मंगल पद्यका अनुवाद नहीं किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दिका है, इसीपर समन्तभद्रने आतमीमांसा और विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाकी रचना की । १. दिगम्बर टीकाकारोंमें श्रुतसागर और भास्करनन्दिने 'मोक्षमार्गस्य' प्रादिकी टीका की है। इनमें श्रुतसागर विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि के अन्तमें हुए हैं और भास्करनन्दि १३-१४ वीं शताब्दिमें | २. जिन पोथियों या गुटकोंमें मूल तत्वार्थसूत्र लिखा मिलता है, उसमें इस मंगलाचरणके साथ ही प्रायः "काल्यं द्रव्यपट्क" आदि संस्कृत पद्य और भगवती आराधना के प्रारम्भकी 'सिद्ध जयप्पसिद्धे' आदि दो गाथाएँ भी लिखी रहती हैं और उनके बाद 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः शुरू होता है । वास्तवमें जो लोग नित्यपाठ करते हैं, उन्होंने यह परम्परा चला दी है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् अतएव समन्तभद्र और देवनन्दि छठी शताब्दिके हैं और समकालीन हैं। सिद्धसेन उनके पूर्ववर्ती हैं।' जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य पाणिनि अादि वैयाकरणोंने जिस तरह अपनेसे पहलेके वैयाकरणों के नामोंका उल्लेख किया है, उसी तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे पूर्वाचार्योका उल्लेख मिलता है राद् भूतबलेः [३-४-८३], 3 गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् [१-४-३४], ३ कृवृषिमजा यशोभद्रस्य [२-१-११), ४ रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य [४-३-१८०],५ वेत्तेः सिद्धसेनस्य [५-१-७), ६ चतुष्टयं समन्तभद्स्य [५-४-१४०]। जहाँतक हम जानते हैं : इन छहों श्राचार्यों में से शायद किसीने भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं लिखा है। इनके ग्रन्थों में कुछ भिन्न तरह के शब्द प्रयोग किये गये होंगे और उन्हीको लक्ष्य करके उक्त सत्र सूत्र रचे गये हैं। शाकटायनने भी इसीका अनुकरण करके तीन श्राचार्यों के मत दिये हैं। १-भूतबलि-भूतबलिका ठीक-ठीक समय निश्चित करना कठिन है। इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीर नि० सं०६८३ के बाद हुए हैं। २-स्वामी समन्तभद्र और ३-सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। ४-श्रीदत्त-विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है। मालूम होता है कि ये बड़े भारी वादि-विजेता थे। श्रादिपुराणके कर्ता जिनसेनसूरिने भी इनका स्मरण किया है। संभव है ये श्रीदत्त दूसरे हों और जल्प-निर्णयके कर्ता दूसरे, तथा इन्हीं दूसरेका उल्लेख जैनेन्द्र में किया गया हो। ५-यशोभद्र-आदिपुराणमैं यशोभद्र का स्मरण करते हुए कहा है कि विद्वानोंकी सभामै जिनका नाम कीर्तन सुननेसे ही वादियोंका गर्व खर्व हो जाता है। ६-प्रभाचन्द्र-आदिपुराणमैं जिनसेन स्वामीने प्रभाचन्द्र कविकी स्तुति की है, जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना की थी। हरिवंशपुराणमें भी इनका स्मरण किया गया है। ये कुमारसेनके शिष्य थे । उपलब्ध ग्रन्थ जैनेन्द्रके सिवाय पूज्यपादके केवल पाँच ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। १-सर्वार्थसिद्धि-प्राचार्य उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्रपर दिगम्बर सम्प्रदायको उपलब्ध टीकात्रों में सबसे पहली टीका। २-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० श्लोक हैं, इसलिए इसे समाधिशतक भी कहते हैं। ३-इयोपदेश-यह केवल ५१ श्लोकोंका छोटा-सा ग्रन्थ है। पं० आशाधरने इसपर एक संस्कृत टीका लिखी है। ४-दशभक्ति [ संस्कृत ]-प्रभाचन्द्राचार्यने अपने क्रियाकलापमें इसका कर्त्ता पूज्यपाद या पादपूज्यको बतलाया है। परन्तु इसके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता। १-२. इसके लिए प्रो० हीरालालजीकी धवलाकी 'भूमिका' और पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका 'स्वामी समन्तभद्र' देखिए। ३. द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्व-प्रातिभगोचरम् । त्रिषष्टे दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ ४. श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तप:श्रीदीप्तमूर्तये। कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥४५॥ ५. विविणीषु संसत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । निखयति तदगर्ष यशोभद्रः स पातु नः ॥४६॥ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण ३३ ___५-सिद्धप्रियस्तोत्र-निर्णयसागरकी काव्यमाला [सप्तमगुच्छ] में छप चुका है। २६ पद्योंमें चौबीस तीर्थङ्करोंकी स्तुति है। अनुपलब्ध ग्रन्थ शब्दावतार न्यास और जैनेन्द्र न्यास--पूज्यपादका पाणिनि व्याकरणपर 'शब्दावतार' नामका न्यास है और जैनेन्द्रपर स्वोपज्ञ न्यास भी है। वैद्यक ग्रन्थ-शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवके 'अपाकुर्वन्ति' आदि श्लोकके 'काय' शब्दसे ध्वनित होता है कि पूज्यपादका कोई वैद्यक ग्रन्थ होगा। सार-संग्रह-धवला [वेदनाखंड पु० ९ पृ० १६७ ] के एक उद्धरणके अाधारसे 'सारसंग्रह' नामक एक और ग्रन्थके होने का अनुमान है-"तथा सारसग्रहऽप्युक्तं पूज्यपादैः अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।" यह कोई न्याय या सिद्धान्तका ग्रन्थ जान पड़ता है। उक्त वाक्यका 'पूज्यपाद' किसी अन्य पूज्य आचार्यका विशेषण भी हो सकता है। 'जैनाभिषेक' नामके एक और ग्रन्थका जिकर श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं.४० के 'जैनेन्द्र निजशब्द भागमतुलं' आदि श्लोकमें किया गया है। इस लेखके लिखने में हमें श्रद्धेय मुनि जिनविजय और पं० बेचरदास जीवराजकी न्याय-व्याकरणतीर्थसे बहुत अधिक सहायता मिली है। इसलिए हम उक्त दोनों सज्जनोंके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। मुनि महोदयकी कृपासे हमको जो साधन सामग्री प्राप्त हुई है यदि न मिलती तो यह लेख शायद ही इस रूपमें पाठकों के सम्मुख उपस्थित हो सकता। परिशिष्ट १ पूज्यपाद-चरित कनड़ी भाषाके इस चरितको चन्द्रय्य नामक कविने जो कनाटक देशके मलयनगरकी 'बाह्मणगली' के रहनेवाले थे । दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें समाप्त किया है । चरितका सारांश यह है १. अपाकुर्वन्ति यवाचः कायवाकचित्तसम्भवः । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्य टमें 'पूज्यपादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ है, परन्तु वह आधुनिक कनड़ीमें लिखा हुआ कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है। उसमें न कहीं पूज्यपादका उल्लेख है और न वह उनका बनाया हुआ है। “वैद्यसार नामका एक और ग्रन्थ अभी जैन-सिद्धान्त-भास्करमें प्रकाशित हुआ है, पर वह भी उनका नहीं है। विजयनगरके राजा हरिहरके समयमें एक मंगराज नामके कनड़ी कवि हुए हैं। वि. सं. १४३६ के लगभग उनका अस्तित्व-काल है। स्थावर विषोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उनका खगेन्द्रमणिदर्पण नामका ग्रन्थ है। वे उसमें अपनेको पूज्यपादका शिष्य बतलाते हैं और यह भी कि यह ग्रन्थ पूज्यपाद वैद्यक ग्रन्थसे संगृहीत है। अभी हाल ही शोलापुरसे उग्रादित्याचार्यका 'कल्याणकारक' नामका ग्रन्थ प्रकाशित हश्रा है। उसमें भी अनेक जगह 'पूज्यपादेन भाषितः' कहकर पूज्यपादके वैद्यक ग्रन्थका उल्लेख किया गया है। उग्रादित्य राष्ट्रकूट अमोघवर्षके समयके बतलाये गये हैं, परन्तु हमें इसमें सन्देह है। उसकी प्रशस्तिकी भी बहुत-सी बातें सन्देहास्पद हैं जिनपर विचार होनेकी आवश्यकता है। २. इसके लिए प्रो. हीरालालजी जैन लिखित धवला (पुस्तक) की भूमिकाके पृष्ठ ६०-६१ देखिए। For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् कर्नाटक देशके ' कोले' नामक ग्रामके माधबभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हुश्रा । ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतलाया, इस कारण उसका नाम पूज्यपाद रक्खा गया । माधवभट्टने अपनी स्त्रीके कहनेसे जैनधर्म स्वीकार कर लिया । भट्टलीके सालेका नाम पाणिनि था उसे भी उन्होंने जैनी बननेको कहा, परन्तु प्रतिष्ठाके खयालसे वह जैनी न होकर मुडीगुंड ग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई, और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुआ। ___ पूज्यपादने एक बगीचेमें एक साँपके मुँहमें फंसे हुए मेंडकको देखा। इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये । पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे। वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरण-काल निकट आया जान कर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो । उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया। पाणिनि दुर्व्यानवश मरकर सर्प हुए। एक बार उसने पूज्यवादको देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, विश्वास रक्खो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया। इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण और वैद्यक ज्योतिष आदिके कई ग्रन्थ रच चुके थे। गणमह के मर जानेसे नागार्जुन अतिशय दरिद्री हो गया । पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्ध करनेकी विधि भी बतला दी। उसके प्रभावसे पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी। इस सिद्ध-रससे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करनेके लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिसे कई घड़े सिद्ध-रस बना दिया। नागार्जुन जब पर्वतोंको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्रपद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेको कहा । तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की। पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा करके द्राविड़ संघकी स्थापना की। नागार्जुन अनेक मन्त्र तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया। एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आई जो गाने नाचनेमें कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनी। पूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगाभ्यास करते रहे । फिर एक देव-विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा की। मार्गमैं एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्योकी त्यों कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने ग्राममै आकर समाधिपूर्वक मरण किया । इस चरितपर कोई टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है। इस तरहके न जाने कितने मनगढन्त और ऊलजलूल किस्से हमारे यहाँ इतिहासके नामसे चल रहे हैं। परिशिष्ट २ हेब्रुका दानपत्र श्रीमन्माधवमहाधिराजः, तस्य पुत्र: अविच्छिनाश्वमेघावभृथाभिषिक्तः श्रीमत्कदम्यकुलगगनगभस्तिमालिनः श्रीमत्कृष्णवर्ममहाराजस्य प्रियभागिनेयः जननीदेवताङ्कपर्यङ्क एवाधिगतराज्यः विद्वत्कविकाञ्चननिकषोपलभूतः असम्भावनमितसमस्तसामन्तमण्डलः अविनीतनामा श्रीमत्कोमणिमहाराजः तस्य पुत्रः पुनाडराजप्रियपुत्रिकापुत्रः विज़भमाणशक्तित्रयोपनमितसमस्तसामन्तमण्डलः अन्दालत्त रुपौरुलरेपेर्नगराधनेकसमर For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण मुखमखहुतप्रधानपुरुषपशूपहारः विधसविहस्तीकृतकृताम्ताभिमुखः शब्दावतारकारः देवभारतीनिषद्धवृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः दुर्निनीतनामा'..." -४सूर एण्ड कुर्ग गैजेटियर, प्रथम पृ० ३७३ परिशिष्ट ३ [भगवद्वाग्वादिनीका विशेष परिचय] इसके प्रारंभमें पहले 'लक्ष्मीरात्यन्तिकी पस्य' आदि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया था। परन्तु पीछेसे उसपर हरताल फेर दी गई है और उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका लिख दी गई है नों नमः पाश्चाय त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनादभुतात्मा, विषममपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । श्रतमदरिपुरासीन वादिवृन्दाग्रणीनां परमपदपटुर्यः स श्रिये वीरदेवः ।। श्रष्टवार्षिकोऽपि तथाविधभक्ताभ्यर्थनाप्रणुन्नः स भगवानिदं प्राह-सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१। इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है। पहले पत्रके ऊपर मार्जिनमें एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि श्रादि व्याकरणों को अप्रामाणिक ठहराया है "प्रमाणवदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीतसूत्राणि स्यात्कारवादिनदूरत्वात्परिव्राजकादिभाषितवत् अप्रमाणानि च कपोलकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वात्तद्वदेव।" इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और श्रादिमें इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र-पाटके भगवत्प्रणीत होने में कोई सन्देह बाकी न रह जाय "इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः। ओनमः पाश्र्वाय । स भगवानिदं प्राह।" सर्वत्र 'नमः पार्थाय लिखना भी हेतुपूर्वक है। जब ग्रन्थकर्ता त्वयं महावीर भगवान हैं तब उनके ग्रन्थमें उनसे पहले के तीर्थंकर पार्श्वनाथको ही नमस्कार किया जा सकता है। देखिए, कितनी दूरतक विचार किया गया है ! आगे अध्याय २ पाद २ के 'सह वह चल्यपतेरिः' [६४] सूत्र पर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्धहमके अमुक सूत्रकी उपपत्ति नहीं बैठ सकती "इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । 'सह वह चल्यपतेरिर्धात्रकृसृजनमेः कालिद चवत्-डो सासहिवावाहचाचलिपापति, सस्रिचाक्रिदधिधज्ञिनेमीति सिद्ध हैमसूत्रस्याऽग्यथानुपपत्तः। शर्ववर्मपाणियोस्तु श्रावपिधालोपिन किढेच १, श्रापृगमहनजनः किकिनौ लिट चेति २।" इसके बाद ३-२-२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्पणी दी है "कथं न वचः प्राग्भरतेष्वादि क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यानामाश्विनं मासमूचिवान् । मैथुनं तु भिषक्तंत्रे वाचकं मधुसर्पिषः ॥ इत्यायन्यथानुपपत्तेरिति बौटिकतिमिरोपलत्ताम् ।" इसके बाद ३-४-४२ सूत्र[स्तेयाहत्यम् ] पर फिर एक टिप्पणी दी है "इदं शब्दानशानं भगवत्कर्टकमेघ भवति । अहंतस्तोन्त च १, सहारा २, सखिवणिग्दताद्यः ३, स्तेनान्नलुक् चे ४, ति सिद्ध हैमसूत्रान्यथानुपपत्तेः । पाणिन्यादौ त्वाहत्यशब्दं प्रति सूयाभावात् । कथं सरस्वतीकंठाभरणे तदाप्तिः । ऐन्द्रानुसारादर्हतशब्दयश्चेति पश्य । फिर ३-४-४० सूत्र [राः प्रभाचन्द्रस्य पर एक टिप्पणी है। इसमें बौटिको या दिगम्बरियोंका सत्कार किया गया है For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् "इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य सूत्रस्य प्रक्षेपता स्फुटत्वात् । अतो बौटिकतिमिरोपलक्षणे देवनन्दिमतां मोहः प्रक्षेपरजसोऽपि चेत् । चिराय भवता रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य जीव्यताम् ॥ पञ्चोत्तरः कः स्वचानासीः प्रभेन्दोः नग्न यस्य यः[]। विस्मयो रमयेः शिष्ट्या स तं चेदेवनन्दिनम् ।। इति । विक्रमातुखयुगाब्दे ४०६ देवनन्दी, ततो गुणनन्दि-वुमारनंदि-लोकचंद्रानंतरं मुनिरैयुगाब्दे प्रथमप्रभाचन्द्र इति बौटिके।" इसी तरह ४-३-७ [वेत्तेः सिद्धसेनस्य] सूत्रपर लिखा है "वेत्तेः सिद्धसेनस्य, चतुष्टयं समंतभद्रस्य प्रक्षेपेऽर्वाच्यता स्फुटत्वात् , रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य वदिति बौटिकतिमिरोपलक्षणे ।" ___अन्तमें ५-४-६५ [शश्छोमि] सूत्रपर एक टिप्पणी दी है जिसमें पाणिनि श्रादि वैयाकरणोंकी असर्वज्ञता सिद्ध की गई है “प्रयोगाशातना माभूदनादिसिद्धा हि प्रयोगाः । ज्ञानिना तु केवलं ते प्रकाश्यन्ते न तु क्रियन्ते इति । अतएव शश्छोटीति पाणिनीयसूत्रं वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरः शकाश्छुकारं नवेति शर्ववर्मकर्तृककालापकसूत्रानुसारि । अत एव पाणिन्यादयोऽसर्वज्ञा इति सिद्धम् । अतएव तेषां तत्त्वत प्राप्तत्वाभाव इति सिद्धिः । नन्भ्यः प्रभृतानिसूत्रे निर्जरसैर्मुख्या यदि युक्तिस्ते मस्करिणव भवत्कृतमास्ते न तु सारस्वतवाग्देव्या । शश्लोटिप्रमुखैः सूत्रैस्तच्छश्रुप्रभृतिपदादी कालापकाद्युपजीवी पाणिनिरजिनत्वं प्रति नाव्यक्तः ।" जहाँ सूत्रपाठ समाप्त होता है, वहाँ लिखा है: - इत्याख्यद्भगयानहन्श्रुत्वेन्द्रस्तु मुदं वहन् । वादिवक्त्राब्जचन्द्रः स्वमंदिराभिमुखोऽभवत् ॥ आगे ग्रन्थ-प्रशस्ति देखिए "श्रो नमः सकलकलाकौशलपेशलशीलशालिने पार्थाय पार्श्वपार्वाय । स्वस्ति तत्प्रवचनसुधासमुद्दलहरीस्नायिभ्यो महामुनिभ्यः। परिसमाप्तं च जैनेन्द्रं नाम महाव्याकरणम् । तदिदं श्रीवीरप्रभुर्मघोने पृच्छते प्रकाशयांचकार । सपादलक्षव्याख्यानकपरमतमदांधकारापहारपरममिति । नमः श्रीमच्चरमपरमेश्वरपादप्रसाद विशदस्याद्वादनयसमुपासनगुणकोटिमत्कौटिकगणाविर्भूतचिद्विभूतिविमलचंद्रचान्द्र कुलविपुलबृहत्त - पोनिगमनिर्गतनागपुरीयस्वच्छगच्छ्समुत्थमुत्पविपार्श्वचन्द्रशाखासुखाकृतसुकृतसुकृतिवररामेन्दूपाध्यायचारुचरणारविन्दरजोराजीमधुकरानुकरवाचकपदवीपवित्रिताक्षयचंद्रचरणेभ्यः ससुधी रत्त चंद्रम् । श्रीवीरात् २२६७ विक्रमनृपात्त सं० १७६७ फाल्गुनसितत्रयोदशी भौमे तक्षकाख्यपुरस्थेन रत्नर्षिणा दर्शनपावित्र्याय लिखितं चिरं नंद्यात् ।" ग्रन्थके पहले पत्रकी खाली पीठपर भी कुछ टिप्पणियाँ हैं और उनमें अधिकांश वे ही हैं जो ऊपर दी जा चुकी हैं। शेष इस प्रकार हैं . ओं नमः पार्थाय जैनेन्द्रमैन्द्रतः सिद्ध हैमतो जयहेमवत् । प्रकृतत्यंतरदूरत्वान्नान्यतामेतुमर्हति ॥ कथं । इंद्रश्चंद्रः काशकृत्स्नापिशलीशाकटायनाः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयंत्यष्टौ हि शाब्दिकाः ।। इति (?) चतुर्थी तद्धितानुपलक्षणात् । १ यह 'बौटिकमततिमिरोपलक्षण' नामका कोई ग्रंथ है और संभवतः वाग्वादिनीके कर्ताका ही बनाया हुआ है। For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण यदिद्राय जिनेंद्रेण कौमारेऽपि निरूपितं । ऐंद्र जैनेंद्रमिति तत्प्राहुः शब्दानुशासनं ॥ यदावश्यक नियुक्तिः ग्रह तं अम्मापि रो जाणित्ता श्रहिय श्रहवासं तु । कयको अलंकारं लेहायरिस्स उवर्णिति ॥ सक्को अ तस्समक्कं भयवंतं श्रासणे सदस्य लक्खणं पुच्छे वागरणं तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः । ततश्चैन्द्रं यत्त देवनंदिबौटिकं पूज्यपाद Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेसित्ता । अवयवा इदं ॥ इति ॥ व्याकरणं संजातमिति हरिभद्रः ॥ इतीच्छतस्तद्गुरुकाः पूज्यपादस्य लक्षणं । द्विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । & ३७ इति धनंजयकोषात्तदयुक्तं । नेति चेत्कथं जैनेन्द्र मिति । द्वादशस्वरमध्यमिति चेन्न इतरोपपदस्याभावात् । जैनकुमारसम्भववद्गतिरिति चेन्न । कुमारवदिनं प्रति श्लेषाभावात् थारीतिकततद्धितभावाच्च तहिं लक्ष्मीरात्यंतिकी यस्य निरवद्यावभासते । देवनंदितपूजेशे नमस्तस्मै स्वयंभुवे || का गतिरिति चेत् । लक्ष्मीरात्यंतिकी पद्यनुपज्ञ ेशस्य किंतरां । ऐद्रत्वयजि तत्वार्थे मोक्षमार्गस्य पद्यवत् ॥ मित्रादयश्चेत्प्रथमं यदि हैमत्व पेच्यते । कालापकादि न तथा षट्वेन्द्र महते कृतिः ॥ पूर्वत्र । मिप्वस् मस् १ सिप् थस्य २ तिप् तस् झि ३ इड् वहि महि १ थस्थां२ श्राताम् झड् ३ इति । For Private And Personal Use Only श्राख्यातरीतिं प्रति देवराजे मिव्वस्मसो यः पितः रादितोदाः । जीवं प्रपन्नाहममात्थ विश्वे तत्वादिमं स्वां कतिमात्मनाथं ॥ तहिं सिद्धसेनादिविशेषोऽपि दुर्निवार इति चेन्न जातामात्रोपि चिद्वीयं प्रत्यात्मशरणोऽसि यः । जनताका वराकीयं परात्मन् वीर तत्पुर || इति बौटिकमततिमिरोपलक्षणस्य तुर्येऽवकाशे इन्द्र जिनेन्द्रौ प्रत्युत्तरिणौ यदतोङटातद्विततस्त्वमसि - मिबिङ ढौरेय महेंद्र जैनेन्द्रं व्याकरणानां । सिद्धिमनेकांतादिच्छों श्रः x क x पार्ह त्यतथारीते हैमागीकृतवर्त्मन्प्रक्षेपार्यविजेयचिरं जीया इति प्रसन्नचन्द्रोत्पले [?] १ इसके आगे ४-३ - ७ सूत्रकी टिप्पणी जैसा ही लिखा है और फिर ३-४-४० सूत्रकी टिप्पणीके 'देवनन्दिमतi' आदि ही श्लोक दिये हैं । २ इसके धागे ५-४-६५ सूत्रकी टिप्पणी दी है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ [श्री युधिष्ठिर मीमांसक, प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, दिल्ली ] संसारमें वाङ्मयके प्रादुर्भावका आदिस्थान पुण्यभूमि भारत है । उसका विशाल संस्कृत वाङ्मय मुख्यतः तीन धाराओंमें विभक्त है। इस वाङ्मयकी समृद्धि में वैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों तथा प्राचार्योंने मुक्तहस्तसे सहयोग प्रदान किया है। भगवान् महावीरसे पूर्वके जैन तीर्थङ्करोंने उपदेश और ग्रन्थ-रचनामें किस भाषाका आश्रय लिया था, इसके प्रमाण अभी नहीं मिले । उनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध अथवा ज्ञात नहीं। इसलिए उपलब्ध संस्कृत वाङ्मयमैं वैदिक वाङमय ही प्राचीनतम कहा जा सकता है। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध तथा उनके अनुयायी मनीषियोंने अपने विचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचानेके लिए उपदेश और ग्रन्थ-रचनामें तात्कालिक जनभाषा प्राकृत तथा पालीका आश्रय लिया। कालान्तरमैं, सम्भवतः विक्रमकी प्रमथ शतीके लगभग जैन तथा बौद्ध आचार्योंने भारतीय जनताके हृदय में संस्कृतके प्रति युग-युगसे वर्तमान विशिष्ट अनुराग और श्रादरकी भावनाको अनुभव किया और उदारचेता होकर उन्होंने भी विद्वज्जनोपयोगी विशिष्ट ग्रन्योंकी रचनाके लिए संस्कृत भाषाको अपनाना प्रारम्भ किया। नये युगके प्रवर्तक इस नये युगके प्रवर्तक जैन सम्प्रदायमें प्राचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर तथा बौद्ध सम्प्रदायमें भदन्त अश्वघोष थे। ये सब वैदिक सम्प्रदायके विशिष्ट ज्ञाता थे। इसलिए उभय सम्प्रदायके शास्त्रज्ञानकी जो प्रौढ़ता इनके ग्रन्थों में उपलब्ध होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन आचार्योंने अपनी अगाध-विद्वत्ताके कारण अपने-अपने सम्प्रदायों में नये युगका सूत्रपात किया। इनका अनुकरण करके उत्तरवर्ती अनेक सुहृद् आचार्योंने अपने-अपने उत्तमोत्तम ग्रन्थों-द्वारा संस्कृत वाङ्मयको आगे बढ़ाया। संघर्ष युग-दोनों सम्प्रदायोंमें संस्कृत भाशके प्रति अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। प्रत्येक विषय पर संस्कृतमें ग्रन्थ-रचनाएँ होने लगी। विक्रमकी प्रथम शतीसे १२ वीं शती तकका युग संस्कृत वाङ्मयके इतिहास में अपना स्वतन्त्र स्थान रखता है। इस काल में बैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों के पारस्परिक तार्किक वाद-प्रतिवादने वाङ्मयके प्रत्येक क्षेत्रको, विशेषकर न्यायशास्त्रको परिहित करनेमें विशेष योग प्रदान किया । इस कालमें वैदिक न्यायशास्त्रकी तो प्रवृत्ति ही बदल गई। वह अपने मूल प्रयोजनसे हटकर अर्थात् प्रमेय निर्णायक न रहकर केवल प्रमाण-लक्षण-निर्णय तक ही सीमित हो गया और अन्तमें उसने नव्य न्यायके रूपमें केवल बौद्धिक श्रमका रूप धारण कर लिया। जैन व्याकरण-वाङ्मय संस्कृत वाङ्मयमें व्याकरणशास्त्र अपना प्रमुख स्थान रखता है। प्राचीन शास्त्रों में इसे स्वतन्त्र विद्यास्थान माना है। इसलिए जब जैन विद्वानोंने संस्कृत भाषाको अपनाया, तब जैन सम्प्रदायमें भी इस शास्त्रका महत्त्व बढा । अनेक जैन आचार्योंने व्याकरणके क्षेत्रमें भी अनेक उत्तम कृतियाँ प्रदान की। उनसे अधिकांश विकराल काल द्वारा कवलित हो गई, अनेक ग्रन्थोंका नाम भी स्मृति-पटलसे नष्ट हो गया। कइयोंका नाममात्र शेष रहा। बहुत स्वल्प कृतियाँ शेष बचीं। जो कृतियाँ कथञ्चित् कालकवलित होनेसे इस समय तक बच भी गई वे ग्रन्थागारों में वेष्टनों में बँधी, प्रकाशमें आनेकी तिथिकी प्रतीक्षा कर रही हैं। सम्भव है उनमैसे अधिकांश कृतियाँ 'शीर्यते वन एव वा नियमके अनुसार विद्वजगत्को सुरभित न करक बनोपम ग्रन्थागारोंमें ही For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४० www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् शीर्ण हो जायें । ईंट पत्थरों से बने भौतिक कृतियोंको बचाने अथवा उनके उद्धारकी चिन्ताकी अपेक्षा इन सांस्कृतिक और बौद्धिक कृतियोंका बचाना, उनका उद्धार करना परम आवश्यक है। जो विद्वान् महानुभाव, धनीमानी श्रेष्ठ वर्ग तथा संस्थाएँ इस कार्य में लगी हुई हैं वे देश, जाति तथा धर्मकी वास्तविक सेवा कर रही हैं। देश के स्वतन्त्र हो जाने पर युगयुग उपार्जित प्राचीन वाङ्मयकी रक्षाका भार मुख्यतया राज्यको ही वहन करना चाहिए, परन्तु सम्प्रति हमारे नेता इस ओर उदासीन हैं । उपलब्ध जैन व्याकरण जैन चाय द्वारा लिखे गये ६, ७ व्याकरण इस समय उपलब्ध प्रमुख हैं— जैनेन्द्र, शाकटायन और सिद्ध हैम । इनमें आचार्य देवनन्दी, जिनेन्द्रबुद्धि द्वारा प्रोक्त जैनेन्द्र व्याकरण सबसे प्राचीन है । आचार्य पूज्यपाद ने अपने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन प्रमुख तीन व्याकरणों के ग्रन्थ भी अभी तक पूरे प्रकाशित नहीं हुए। सबसे अधिक हैम व्याकरण के ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं । शाकटायन व्याकरण केवल चिन्तामणि नामक लघुवृत्ति सहित प्रकाशित हुआ [परिशिष्ट में मूल गणपाठ, लिङ्गानुशासन तथा धातुपाठ भी छपे हैं ] । सूत्रकारकी स्वोपज्ञ अमोघ महावृत्ति अभी तक लिखित रूप में ही क्वचित् उपलब्ध होती है । जैनेन्द्र व्याकरण भी तृतीय अध्यायके द्वितीय पादके ६० सूत्र तक भयनन्दी विरचित महावृत्ति सहित कुछ वर्ष पूर्व लाजरस कम्पनी काशीसे प्रकाशित हुया था [अब वह भी दुर्लभ है ] । यह प्रथम अवसर है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस भारी कमीको पूर्ण करनेका बीड़ा उठाया और वह उसे ग्रभयनन्दीकी महावृत्ति सहित प्रकाशित कर रहा है। जैनेन्द्र से प्राचीन व्याकरण । उनमें से केवल तीन व्याकरण अपर नाम पूज्यपाद, इतर नाम ३४ ] । शब्दानुशासन में निम्न ६ पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख किया है१ - गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् [ १ । ४ । २ - कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य [ २ । १ ३ - रादु भूतबलेः [ ३ । ४ । ८३ ] ४ - रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य [ ४ | ३ | १८० ] ५ -- वेत्तेः सिद्धसेनस्य [ ५ । ११७ ] ६ - चतुष्टयं समन्तभद्रस्य [ ५ । ४ । ५४० ] ६ ε ] For Private And Personal Use Only इन छ आचार्यों में से किसीका भी ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है । अनेक विद्वानोंको इन श्राचार्यों के व्याकरण-शास्त्र-प्रवक्तृत्वमैं भी सन्देह है । जैसा कि जैन इतिहास - विशेषज्ञ श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' [ पृ १२० ] में लिखा था "इन छ आचार्यों से किसीका भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं है । परन्तु जान पड़ता है इनके अन्य ग्रन्थोंमें कुछ भिन्न तरहके शब्द प्रयोग किये गये होंगे और उन्हींको व्याकरण- सिद्ध करने के लिए ये सब सूत्र रचे गये हैं ।" १ सम्प्रति है व्याकरणकी केवल लघुवृत्ति सुप्राप्य है, अन्य सभी मुद्रित ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये । इनका पुनर्मुद्रण अत्यन्त श्रावश्यक है । २ यह महावृत्ति भी शीघ्र ही भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे ही प्रकाशित होगी । ३ यद्यपि माननीय प्रेमीजीने इस विचारकी निस्सारताको समझकर अपने ग्रन्थके द्वितीय संस्करण में उक्त अंश निकाल दिया, पुनरपि जिनकी ऐसी धारणा अभी भी है उनके विचारोंके प्रतिनिधित्व रूपमें उक्त पक्तियाँ उद्धृत की हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ पं० फूलचन्द्र सि. शा० ने भी सर्वार्थसिद्धि की भूमिका में लगभग इसी मतका प्रतिपादन किया है। पाणिनीय व्याकरण में स्मृत शाकल्य प्रापिशलि शाकटायन श्रादि १० प्राचीन शाब्दिकोंके विषयमें भी अनेक विद्वानोंकी ऐसी ही धारणा है । हमारे विचारमें इस प्रकारको धारणाओंका मूलकारण भारतीय प्राचीन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के विषयमें पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा समुत्पादित अविश्वासकी भावना और अनर्गल कल्पनाएँ ही हैं। हम अपने 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्रका इतिहास' ग्रन्थ, पाणिनिसे पूर्ववर्ती श्रापिशलि काशकृत्स्न और भागुरि श्रादि अनेक शाब्दिक प्राचार्यो के सूत्र, धातु और गणके वचन उद्धृत करके सिद्ध कर चुके है कि पाणिनिसे प्राचीन प्राचार्योंके भी पाणिनिके समान ही सर्वांगपूर्ण व्याकरण थे। अब तो काशकृत्स्न व्याकरणका समग्र धातुपाठ चन्नवीर कवि कृत कन्नड टीकासहित प्रकाशमें आ गया है। उसमें काशकृत्स्न शब्दानुशासनके लगभग १४० सूत्र भी उपलब्ध हो गये हैं। ये [ धातुपाठ तथा सूत्र] न केवल उनके सर्वाङ्गपूर्ण, होनेके, अपितु पाणिनीय व्याकरणसे अधिक विस्तृत होनेके भी प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इसी प्रकार श्राचार्य पूज्यपादके शब्दानुशासनमैं उद्धृत प्राचीन वैयाकरणों के विषयमें भी हमारी यही धारणा है कि उन आचार्योंने भी अपने-अपने शब्दानुशासन रचे थे । उन्हीं के शब्दानुशासनोंसे आचार्य पूज्यपादने उनके मतोंका संग्रह किया। इसके विपरीत कल्पना करना पूज्यपाद जैसे प्रामाणिक प्राचार्यको मिथ्यावादी कहना है [ आः शान्तं पापम् ]। जब हमने पाणिनिसे पूर्ववर्ती अनेक शाब्दिक श्राचार्यों के बहुतसे वचन प्राचीन ग्रन्थों मैं ढूँढ लिये, यहाँ तक कि आद्य शब्दतन्त्र-प्रणेता इन्द्र के भी 'अथ वर्णसमूहः','अर्थः पदम्' दो सूत्र उपलब्ध कर लिये, ऐसी अवस्थामैं हमें पूर्ण निश्चय है कि यदि जैन वाङ्मयका सावधानता पूर्वक अवगाहन किया जाय तो इन आचार्योंके शब्दानुशासनों के सूत्र भी अवश्य उपलब्ध हो जायेंगे। आचार्य सिद्धसेनका व्याकरण-प्रवक्तृत्व-श्राचार्य सिद्धसेनके व्याकरणविषयक मतका उल्लेख आचार्य पूज्यपादने तो किया ही है। उसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनसे उनके व्याकरण प्रवक्ता होने की पुष्टि होती है । यथा १ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ० ५१ । २. देखो 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास' के तत्तत् प्रकरण । ३. श्री डा. वासुदेवशरणजी अग्रवालने "पाणिनि कालीन भारतवर्ष [हिन्दी संस्करण | पृष्ठ ५ पं० २२, २३ पर पाणिनिपूर्ववर्ती व्याकरणोंको बिना किसी प्रमाणके एकाङ्गी लिखा है। पृष्ठ २६ पं०६ पर गणपाठकी सामग्रीको पाणिनिकी मौलिक देन बताया है। परन्तु पृष्ट ३१ पं० १६, १६ में भर्तृहरिके प्रमाणसे पाणिनि-पूर्ववर्ती आपिशलिके गणपाठकी सत्ता भी स्वीकार की है। डा. कीलहानका भर्तृहरि कृत महाभाष्य टीका संबंधी लेख हमें सुलभ नहीं हुआ। अतः नहीं कह सकते कि उसमें श्रापिशल गणपाठका उल्लेख था वा नहीं। परन्तु हमने अपनी भर्तृहरिकृत महाभाष्य टीकाकी प्रतिलिपिके अाधारसे 'सं० व्या० शास्त्रका इतिहास' पृष्ठ १०२ पर श्रापिशल गणपाठ का उल्लेख किया है। तथा इसी ग्रन्थके पृष्ठ २७४-२७६ पर महाभाग्यटीकाके इतिहासोपयोगी सभी वचन एकत्रित कर दिये हैं। १. इन सूत्रोंका प्रकाशन हम शीघ्र ही कर रहे हैं। ५. सं० व्या० शा० का इतिहास पृष्ट ६२ । महाभाष्य मराठी अनुवाद प्रस्तावना खण्ड [भाग ७, सन् १९५४ ] पृष्ठ १२५, १२६ पर श्री पं० काशीनाथ अभ्यङ्करजीने हमारे द्वारा प्रथमतः[सन १९५१] प्रकटीकृत दोनों सूत्रोंका उल्लेख किया है। दूसरे सूत्रका पाठ भी हमारे द्वारा परिष्कृत ही स्वीकार किया है। लेखकने अन्यत्र भी हमारे ग्रन्थके पर्याप्त दुर्लभ सामग्री स्वीकार की है, परन्तु हमारे ग्रन्थका कहीं निर्देश नहीं किया। For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् १. अभयनन्दी जैनेन्द्र १।४।१६ की वृत्तिमें एक उदाहरण देता है-'उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः' अर्थात् सब वैयाकरण सिद्धसेनसे हीन हैं । इस उदाहरणसे स्पष्ट है कि अभयनन्दी प्राचार्य सिद्धसेनको न केवल वैयाकरण ही मानता है, अपितु उस कालतक प्रसिद्ध वैयाकरणों में उसे सर्वश्रेष्ठ कहता है। जैनेन्द्र व्याकरण आचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दीने जिस शब्दानुशासनका प्रवचन किया वह लोकमें जैनेन्द्रनामले विख्यात है। इस शब्दानुशासनका जैनेन्द्र नाम क्यों पड़ा, आचार्य पूज्यपादका काल कौन सा है, जैनेन्द्र व्याकरण का मूल सूत्रपाठ कौन सा है, इसपर कितने व्याख्या ग्रन्थ लिखे गये और आचार्य पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरणके अतिरिक्त और कितने ग्रन्थ लिखे इत्यादि विषयोंपर हम यहाँ विशेष चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि इन विषयोंपर माननीय श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थमै विस्तारसे लिखा है [यही अंश पुनः परिष्कृत करके इस ग्रन्थके आदिमें पृष्ठ१७-३७ तक छपा है]। पश्चात् हमने भी अपने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास' ग्रन्थ में विस्तारसे विवेचना की है' [ हमने श्री प्रेमीजीके ग्रन्थसे पर्याप्त सामग्री ली है ]। इसलिए हम यहाँ केवल उतना ही अंश लिखेंगे, जो उक्त दोनों लेखोंके पश्चात् परिज्ञात हुआ है। जैनेन्द्र नामका कारण इस शब्दानुशासनको सर्वत्र जैनेन्द्र नामसे स्मरण किया है। इसके नामकरणके सम्बन्धमै श्री प्रेमीजीने जैनग्रन्थोंसे जो कथाएँ उद्धृत की हैं, वे प्रायः ऐतिहासिक तत्त्वरहित है । श्री प्रेमी जी भी उक्त कथाओंसे सन्तुष्ट नहीं हैं। हमारे विचारमें इस नामकरणका निम्न कारण है आचार्य देवनन्दीका एक नाम जिनेन्द्रबुद्धि भी था. जैसा कि श्रवणबेल्गोलके ४०वे शिलालेखमें लिखा है यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥२॥ श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभियंत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥३॥ अर्थात्--आचार्यका प्रथम नाम देवनन्दी था, बुद्धि की महत्ताके कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणों की पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ। जिस प्रकार 'पदेषु पदैकदेशान् नियम अथवा 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम्' [४।१।१३६] वार्तिकके अनुसार प्राचीन ग्रन्थकार देव अथवा नन्दी नामसे देवनन्दीको स्मरण करते हैं, उसी प्रकार जिनेन्द्र एक देश भी जिनेन्द्रबुद्धि अपरनाम देवनन्दीका वाचक है। अतः 'जैनेन्द्र' की व्युत्पत्ति होगीजिनेन्द्रेण प्रोक्तं जैनेन्द्रम् । अर्थात् जिनेन्द्र जिनेन्द्रबुद्धि=देवनन्दी द्वारा प्रोक्त व्याकरण । आचार्य देवनन्दीका काल और उसका निश्चायक नूतन प्रमाण-प्राचार्य देवनन्दीके कालके विषयमें ऐतिहासिकोंका परस्पर वैमत्य है। यथा १-कीथ अपने 'हिस्ट्री श्राफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' में लिखता है___The जैनेन्द्र व्याकरण ascribed to the Jinendra realy written by पूज्यपाद देवनन्दी perhaps was Composed C. 678. P. 432. १. देखो पृष्ठ ३२३-३२८ तथा ४२१-४३१ । २. जिनसेन तथा वादिराज सूरि 'देव' नामसे स्मरण करते हैं। देखो श्री प्रेमीजीका लेख, यही ग्रन्थ, पृष्ठ १६, टि० ३,४। ३. इसके उद्धरण आगे लिङ्गानुशासनके प्रकरण में देंगे । For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ ४३ अर्थात्-जैनेन्द्र व्याकरण सन् ६७८ [= ७३५ वि०] के समीप लिखा गया। २-श्री प्रेमी जीने अनेक प्रमाण उपस्थित करके देवनन्दीका काल सामान्यतया विक्रमकी षष्ठ शताब्दी निश्चित किया है। देखो इसी ग्रन्थके साथ मुद्रित उनका लेख] । ३-श्री आई० एस० पवतेने अपने 'स्टक्चर अाफ़ दी अष्टाध्यायी' में लिखा है 'महामहोपाध्याय नरसिंहाचार्यने कर्णाटक कवि चरितके प्रथम भागके प्रथम संस्करणमें पूज्यपादको ईस्वी सन् ४७० [=५२७ वि०] में बताया है और दूसरे संस्करणमैं सन् ६०० [=६५७ वि०] का। परन्तु मुझे २१।१२।१९३३ को लिखे एक प्रनमें लिखा है कि पूज्यपाद ४५० ई० =५०७ वि०] के आसपास हैं। ४-हमने अपने व्याकरण शास्त्रके इतिहास में श्री प्रेमीजी द्वारा उद्धृत प्रमाणोंके आधारपर प्राचार्य पूज्यपादका काल विक्रमकी षष्ठ शताब्दीका पूर्वाद्ध माना था। अब हम उसे ठीक नहीं समझते। विक्रमकी षष्ठ शताब्दीसे पूर्व-अब हमें जो नूतन प्रमाण उपलब्ध हुआ है, उसके अनुसार आचार्य पूज्यपाद विक्रमकी षष्ठ शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं, यह निश्चित होता है। कात्यायनने एक विशिष्ट प्रकारके प्रयोगके लिए नियम बनाया है--परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुर्दर्शनविषये [महा० ३।२।३१] । अर्थात्-ऐसी घटना जो लोकविज्ञात हो, प्रयोक्ताने उसे न देखा हो, परन्तु प्रयोक्ताके दर्शनका विषय सम्भव हो [अर्थात् वह घटना प्रयोक्ताके जीवन-कालमें घटी हो] उस घटनाको कहनेके लिए भूतकाल में लङ् प्रत्यय होता है। पतञ्जलिने महाभाष्यमैं इस वार्तिकपर उदाहरण दिये हैं-अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् । वार्तिकके नियमानुसार साकेत[ = अयोध्या और माध्यमिका [=चित्तौड़ समीपवर्ती नगरी ग्राम पर यह लोकप्रसिद्ध अाक्रमण पतञ्जलिके जीवनकालमें हुआ था। प्रायः सभी ऐतिहासिक इस विषयमें सहमत हैं। इसी प्रकारका नियम पाणिनिसे उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याकरण-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है और उसका उदाहरण देते हुए ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणों के साथ साथ स्वसमकालिक किन्हीं महती घटनाओंका भी प्रायः निर्देश करते हैं। यथा अजयद् जो हूणान् । चान्द्र अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । जैनेन्द्र० [२।२।६२ ] श्रदहदमोघवर्षोऽरातीन् । शाकटायन [४।३।२०८] अरुणत् सिद्धराजोऽवन्तिम् । हैम० [५।२।८ ] इनमें अन्तिम दो उदाहरण सर्वथा स्पष्ट हैं। प्राचार्य पाल्यकीति [शाकटायन] महाराज अमोघवर्ष और प्राचार्य हेमचन्द्र महाराज सिद्धराजके कालमै विद्यमान थे। इसमें किसीको विप्रतिपत्ति नहीं। परन्तु चान्द्रके जतं और जैनेन्द्र के महेन्द्र नामक व्यक्तिको इतिहासमै प्रत्यक्ष न पाकर पाश्चात्य मतानुयायी विद्वानोंने जर्तको गुप्त और महेन्द्रको मेनेन्द्र-मिनण्डर बनाकर अनर्गल कल्पनाएँ की हैं। इस प्रकारकी कल्पनाओस इतिहास नष्ट हो जाता है । हमारे विचारमें जैनेन्द्रका 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम्' पाठ सर्वथा ठीक है, उसमें किञ्चिन्मात्र भ्रान्तिको सम्भावना नहीं है। प्राचार्य पूज्यपादके कालकी यह ऐतिहासिक घटना इतिहासमै सुरक्षित है। १. देखो, स्टू क्चर आफ दी अष्टाध्यायी, भूमिका, पृष्ठ १३ । २. यद्यपि ये उदाहरण क्रमशः धर्मदास तथा अभयनन्दीकी वृत्तिसे दिये हैं, परन्तु इन वृत्तिकारोंने ये उदाहरण चन्द्र और पूज्यपादकी स्वोपज्ञ वृत्तिसे लिये हैं। For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् मर और उसका मथुरा-विजय-जैनेन्द्र में स्मृत महेन्द्र गुप्तवंशीय कुमारगुप्त है। इसका पूरा नाम महेन्द्रकुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम्' [४।१।१३६] वार्तिक अथवा 'पदेषु पदैकदेशान' नियमके अनुसार उसीको महेन्द्र अथवा कुमार कहते थे। उसके सिक्कोंपर श्री महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्रवर्मा, महेन्द्रकुमार श्रादि कई नाम उपलब्ध होते हैं।' तिब्बतीय ग्रन्थ चन्द्रगर्भ सूत्र में लिखा है-"यवनों पल्हिको शकुनों [कुशनों ने मिलकर तीन लाख सेनासे महेन्द्र के राज्यपर आक्रमण किया । गङ्गाके उत्तरप्रदेश जीत लिये। महेन्द्रसेनके युवा कुमारने दो लाख सेना लेकर उनपर अाक्रमण किया और विजय प्राप्त की । लौटनेपर पिताने उसका अभिषेक कर दिया । चन्द्रगर्भ सूत्रका महेन्द्र निश्चय ही महाराज कुमारगुप्त है और उसका युवराज स्कन्दगुप्त । मञ्जु श्री मूलकल्प श्लोक ६४६ में श्री महेन्द्र और उसके सकारादि पुत्र [स्कन्दगुत] को स्मरण किया है। चन्द्रगर्भ-सूत्रमै लिखित घटनाकी जैनेन्द्र के उदाहरणमें उल्लिखित घटनाके साथ तुलना करनेपर स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्रके उदाहरणमैं इसी महत्त्वपूर्ण घटनाका संकेत है। उक्त उदाहरणसे यह भी विदित होता है कि विदेशी आकान्ताोंने गङ्गाके आस पासका प्रदेश जीतकर मथुराको अपना केन्द्र बनाया था। इस कारण महेन्द्रकी सेनाने मथुराका ही घेरा डाला था। महाभाष्य, शाकटायन तथा सिद्ध हैम ब्याकरणों में निर्दिष्ट उदाहरणोंके प्रकाशमें यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचार्य पूज्यपाद गुप्तवंशीय महाराजाधिराज कुमारगुप्त अपर नाम महेन्द्र कुमारके समकालिक हैं। पाश्चात्यमतानुसार कुमारगुप्तका काल वि० सं० ४७०-५१२ [=४१३-४५५ ई० तक था। अतः पूज्यपादका काल अधिक से अधिक विक्रमकी ५ वीं शतीके चतुर्थ चरणसे षष्ठ शताब्दीके प्रथम चरण तक माना जा सकता है, इसके पश्चात् नहीं। भारतीय ऐतिहासिक काल-गणनानुसार गुप्तकाल इससे कुछ शताब्दी पूर्व ठहरता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के 'अरुणन्महेन्दो मथुराम्' उदाहरणमें महेन्द्रको मेनेन्द्र= मिनण्डर समझना भारी भ्रम है।। _ जैनेन्द्र शब्दानुशासन अब हम जैनेन्द्र व्याकरणके सम्बन्ध में संक्षेपसे लिखते हैं जैनेन्द्र शब्दानुशासनका परिमाण-जैनेन्द्र शब्दानुशासनमें ५ अध्याय, २० पाद और ३०६७ सूत्र प्रत्याहार सूत्रोंके बिना] हैं। जैनेन्द्रका प्रधान उपजीव्य ग्रन्थ-आचार्य पूज्यपादके समय निश्चय ही पाणिनीय और चान्द्र शब्दानुशासन विद्यमान थे। पूज्यपादने अपने शब्दानुशासन की रचना पाणिनीय शब्दानुशासन के अाधार पर की है, यह पाणिनीय चान्द्र तथा जैनेन्द्र शब्दानुशासनों को सूत्र-रचना और प्रकरण विन्यासकी तुलनासे स्पष्ट हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि पूज्यपादने चान्द्र शब्दानुशासनसे भी कुछ सहायता ली है। जैनेन्द्र में प्रत्याहार सूत्रोंका सद्भाव-अभयनन्दीकी महावृत्तिके साथ 'अ इ उ ण' आदि प्रत्याहार सूत्र उपलब्ध नहीं होते, परन्तु जैनेन्द्र शब्दानुशासनके मूल पाठमें ये अवश्य विद्यमान थे। इसमें निम्न हेतु हैं। क-जैनेन्द्र सूत्रपाठमैं जहाँ अनेक वर्णों का निर्देश करना होता है, वहाँ संक्षेपार्थ पाणिनीय अनुशासन के समान प्रत्याहारोंका प्रयोग किया है । यथा-अच् [१ । १ । ५६], इक् [१ । १ । १७], यण [१।१।४५], 1. श्री पं० भगवदत्तजी कृत भारतवर्ष का इतिहास [सं० २००३], पृष्ठ ३५४ । २. वही, पृष्ट ३५४ । ३. महेन्द्रनृपवरो मुख्यः सकारायो मतः परम् । ४. जैनेन्द्र और पाणिनीय सूत्रोंकी तुलनात्मक सूची इस प्रन्थके अन्तमें छपी है। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ ४५ ऐच् [१ । १ । १५], एङ् [१ । १ । ७० ] | ये प्रत्याहार पाणिनीय प्रत्याहारोंके समान हैं। किस प्रत्याहार में कितने वर्णों का निर्देश समझना चाहिए अथवा प्रत्याहार कैसे बनाया जाता है, इसका नियम-प्रदर्शक "अन्त्ये नेतादिः " सूत्र जैनेन्द्र शब्दानुशासन [ १ । १ । ७३] में विद्यमान है। इस सूत्र द्वारा श्रच् प्रत्याहारोंका परिज्ञान तभी सम्भव है, जब ग्रन्थके आरम्भ में पाणिनीय ग्रन्थवत् प्रत्याहार सूत्र पठित हो । अन्यथा 'अन्त्येतादिः ' सूत्र तथा इसकी वृत्ति कभी समझ में नहीं आ सकती । ख -- जैनेन्द्र १ । १ । ४८ पर श्रभयनन्दी लिखता है— 'रन्त इति लो लकारेण प्रश्लेषनिर्देशात् प्रत्याहारग्रहणम् ।' अर्थात् 'रन्त' इस निर्देश में लण् सूत्रके लकारमें पठित प्रकार र प्रत्याहार लिया गया है । "ल" यह पाणिनिके समान प्रत्याहार सूत्र ही है । ग - अभयनन्दी १ । १ । ३ सूत्रकी वृत्तिके अनन्तर उदाहरण देता है--'अ इ उ णू णकारः । अर्थात् 'अ इ उ ण्' सूत्र में '' इत् संज्ञक है। यहाँ भी पाणिनिके समान 'अ इ उ ण्' सूत्रको उद्घृत किया है। इन प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र व्याकरणके श्रारम्भ में भी प्रत्याहार सूत्र थे। हमने प्रत्याहार-सूत्रोंके विषय में इस महावृत्तिके सम्पादक महोदय से पूछा था कि किसी हस्तलेख में ये सूत्र मिलते हैं, अथवा नहीं। श्री सम्पादकजीने २६ । । ५६ के उत्तर में लिखा- "प्रत्याहार-सूत्रों का पाठ किसी भी हस्तलिखित प्रतिमें उपलब्ध नहीं है । मुद्रित जैनेन्द्र पञ्चाध्यायी तथा शब्दाव- चन्द्रिका में कुछ हेर फेर के साथ पाणिनीय व्याकरण सदृश [अ इ उ ण् श्रादि] दो प्रकारके सूत्रपाठ मिलते हैं।" हमारा विचार है कि प्रत्याहार सूत्रोंकी व्याख्या की आवश्यकता न समझकर अभयनन्दीने इनकी व्याख्या नहीं की । अव्याख्यात दोनेके कारण महावृत्तिके हस्तलेखों में इनका अभाव हो गया । श्रथवा यह भी सम्भव है - जैसे अन्यत्र कई स्थानों पर सूत्रों की वृत्ति उपलब्ध नहीं होती, उसी प्रकार इन प्रत्याहार-सूत्रोंकी भी व्याख्या नष्ट हो गई और व्याख्याके न रहने पर महावृत्तिके हस्तलेखों में सूत्र पाठका भी प्रभाव हो गया। जो कुछ भी कारण उनके अभावका हो, परन्तु इतना निस्सन्दिग्ध है कि श्रभयनन्दी जैनेन्द्र प्रत्याहार-सूत्रों से परिचित था । सूत्रपाठ के पाठान्तर - महावृत्तिके साथ जो जैनेन्द्रसूत्र पाठ छपा है उसमें तथा अभयनन्दीकी व्याख्या में उद्धृत सूत्र पाठ में कतिपय पाठान्तर उपलब्ध होते हैं। कई पाठान्तर अभयनन्दीको वृत्तिके गम्भीर अनुशीलनसे विदित होते हैं; यथा क - अभयनन्दी ने ११ ८५ की व्याख्या मैं ५/११७९ का पाठ उद्धृत किया है - ' वदवज' इत्यादिनैपू | परन्तु ५ | १|७६ पर सूत्रपाठ छपा है - 'व्रजवदल्वोऽतः ' [ इस पर वृत्ति प्राप्त है ] | ख --- जैनेन्द्र १|२||११४ सूत्रका मुद्रित पाठ है- साधकतमं करणम् । इसकी व्याख्या में भयनन्दी लिखता है - 'पुल्लिङ्गनिर्देशः किमर्थः ? परिक्रयणम् [ १/२/११२ ] इत्यनवकाशया संप्रदानसंज्ञया बाधा मा भूत् ।' अर्थात् - पुलिंग निर्देश क्यों किया...... | इस सूत्र में दो पद हैं। दोनों ही नपुंसक लिङ्ग पढ़े हैं। ऐसी अवस्था में न तो शंका ही उपपन्न होती है और न उनका समाधान हो । क्योंकि 'नब्बाध्य आसम् ' [ ११२६१ ] सूत्रानुसार नपुंसक लिंगसे निर्दिष्ट संज्ञाका अनवकाश संज्ञासे बाघ होता है । अतः 'करण' संज्ञाका नपुंसकसे निर्देश होने के कारण अनवकाश सम्प्रदानसंज्ञा [ १|२| १११२ ] से निश्चय ही बाध होगा । इस कारण प्रतीत होता है अभयनन्दीका सूत्रपाठ " साधकतमः करणः " था, जो पीछेसे विकृत हो गया । 'करण' पुल्लिंग निर्देश होनेपर ही १. शाकटायनकी चिन्तामणि वृत्ति में भी प्रत्याहार सूत्र व्याख्यात नहीं हैं । २. पृष्ठ २८८, ३१७, ३२८ । For Private And Personal Use Only 1 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् 'पुल्लिंगनिर्देशः किमर्थः' यह शंका तथा उसका समाधान उत्पन्न हो सकता है। पुल्लिंग निर्देश [ करणः ] होनेपर अनवकाश संप्रदान संज्ञासे भी करण संज्ञाकी बाधा नहीं होगी और 'शतेन परिक्रीतः' प्रयोग भी उपपन्न हो जायगा। जैनेन्द्र में एक विवेचनीय स्थल-जैनेन्द्र व्याकरण लौकिक भाषाका व्याकरण है। इसलिए उसमें स्वर और वैदिक प्रक्रियाका अंश छोड़ दिया है। प्रथमाध्यायके प्रथम पादमें श्राचार्यने तीन सूत्र पढ़े हैं-कौवैती, उमः, ऊम् [२४-२६] [यहाँ शुद्ध पाठ 'ॐ' चाहिए] इन सूत्रोंके पाठ तथा इनकी वृत्तिसे प्रतीत होता है कि इनका प्रयोग विषय लोकभाषा है। परन्तु इनका वास्तविक प्रतिपाद्य विषय वैदिक [पदपाठ है। यह बात पाणिनिके 'संबुद्धौ शाकल्यस्येतावना, उजः ॐ' [१।१६-१७] सूत्रोंसे स्पष्ट है। पाणिनिने प्रथम सूत्रमें वैदिक सम्प्रदायके पारिभाषिक 'अनार्ष इति' का निर्देश किया है इसकी अनुवृत्ति अगले सूत्र में भी जाती है । पदकारों द्वारा पदपाठमें प्रगृह्य आदि संज्ञाका निदर्शन कराने के लिए. मन्त्रसे बहिर्भूत जिस 'इति' शब्दका प्रयोग किया जाता है वह अनार्ष इतिकरण कहाता है। इसीको उपस्थित भी कहते हैं। इस शब्दका व्यवहार भी पाणिनिने ६।१।१२६ में किया है। ये संज्ञाएँ प्रातिशाख्यग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं। पदपाठमैं अनाप इतिकरणका प्रयोग कहाँ करना चाहिए इसका प्रतिपादन प्रातिशाख्यों में विस्तारसे किया है। ऋग्वेदके पदपाटमैं शाकल्यने प्रगृह्य संज्ञक [जैनेन्द्रके अनुसार 'दि' संज्ञक] पदसे परे सर्वत्र इति शब्दका प्रयोग किया है । यथाअग्नि इति [ऋ० ५।४५४], मेथेते इति [अ० १।११३॥३] युष्मे इति [ऋ० ४।१०८], वायो इति [ऋ० १२।१], ॐ इति [अ० ११२४॥८, गौरी इति [ऋ० ६।१२।३] । पाणिनिने शाकल्यके मतका अनुवाद अपने शास्त्र में किया है। इससे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र के उक्त सूत्रों-द्वारा प्रतिपाद्य विषय भी वैदिक नियमों के अन्र्तगत आता है । इसलिए, आचार्यको चाहिए था कि उसने जैसे पाणिनिके "शे" [२॥१॥१३] और "इदूतौ च सप्तमी" [१1१1१८] सूत्रों के प्रतिपाद्य विषयके लिए सूत्र रचना नहीं की, वैसे ही इनका भी समावेश न करता। समावेश करनेसे विदित होता है कि प्राचार्थने इन सूत्रोंके प्रतिपाद्य विषयको लौकिक समझा है। परन्तु लोक्में वाया इति ॐ इति ऐसे प्रयोग उपलब्ध नहीं हैं। भूलका कारण-इस भूलका कारण भगवान् पतञ्जलिकी पाणिनीय उमः ॐ [१५। १७1 सूत्र की व्याख्या है। पतञ्जलिने शाकल्य ग्रहणको विकल्पार्थ मानकर और उमः ॐका योग-विभाग करके 'वायो इति वायविति, वाय इति, ऊं इति उ इति विति' इतने काल्पनिक रूप बनाये हैं। पतञ्जलिने भी पारिभाषिक 'अनार्ष इति' को 'लौकिक इति' मान लिया, ऐसा प्रतीत होता है, परंतु है यह समस्त प्राचीन वैदिक साम्प्रदायके विपरीत। इस विषयमें भाष्यकार पतञ्जलिका अनुकरण करनेसे ही जैनेन्द्र में यह भूल हई प्रतीत होती है। जैनेन्द्र के सम्बन्धमें एक भ्रम-जैनेन्द्र शब्दानुशासनके सम्बन्धमैं भ्रम है कि जैनेन्द्र ही प्रथम व्याकरण है जिसमें एकशेष प्रकरण नहीं है। इसका कारण महावृत्तिमै निर्दिष्टि 'देवोपज्ञमनेकशेष व्याकरणम् [ ११४६७ ] उदाहरण है। हमने सं० व्या० शास्त्रका इतिहास'मैं [ पृष्ठ ४२४ ] इस भ्रमका निराकरण किया है । जैनेन्द्रसे प्राचीन चान्द्रमैं भी एकशेष प्रकरण नहीं है। सर्वार्थसिद्धि और जैनेन्द्र शब्दानुशासनका पौर्वापर्य-प्राचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थ सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक व्याख्यामें कहीं पाणिनीय शब्दानुशासनके और कहीं स्वरचित शब्दानुशासनके सूत्र यत्र तत्र उदधृत किये हैं। इससे विदित होता है कि जैनेन्द्र शब्दानुशासनकी रचना आचार्य ने सर्वार्थ सिद्धिके पूर्व ही कर १. इसकी विशद विवेचनाके लिए देखो हमारे द्वारा सम्पादित 'अष्टाध्यायीप्रकाशिका' का 'उमः ऊं[१।१ । १७ ] सूत्र । For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ ली थी। तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १० सूत्र ४ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें श्राचार्य पूज्यपादने पञ्चमी विभक्ति के लिए स्वनिर्मित 'का' संज्ञाका निर्देश किया है । इससे भी उक्त तथ्यको पुष्टि होती है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ० ५१] जैनेन्द्र शब्दानुशासानके खिल पाठ वैयाकरण वाङ्मयमै शब्दानुशासन पद केवल सूत्रपाठके लिए प्रयुक्त होता है । सूत्रपाठको लघु बनानेके लिए उससे सम्बद्ध विस्तृत विषयोंको सूत्रकार जिन ग्रन्थों में संग्रहीत करते हैं वे शब्दानुशासनके खिल अथवा परिशिष्ट कहाते हैं । प्रायः प्रत्येक शब्दानुशासनके धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन ये चार खिल होते हैं। इन्हें मिलाकर व्याकरणकी पञ्चपाठी बनती है। जैनेन्द्र व्याकरण के भी ये चार खिल थे [ उणादि और लिङ्गानुशासन उपलब्ध नहीं हैं ] । धातुपाठ-प्राचार्य देवनन्दी प्रोक्त धातुपाठका मूल ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । गुणनन्दी प्रोक्त शब्दार्णव व्याकरण [ जैनेन्द्रका परिवर्धित संस्करण ] का चन्द्रिका टोकासहित जो संस्करण काशीसे छपा है, उसके अन्तमें जैनेन्द्र धातुपाठ भी मुद्रित है । वह धातुपाठ जिनेन्द्र [ पूज्यपाद ] प्रोक्त मूल रूपमें है अथवा शब्दार्णवके समान परिवर्धित है, यह हम नहीं कह सकते । अभयनन्दीकी महावृत्ति में जैनेन्द्र धातुपाठके अनेक सूत्र' उद्धृत है उनकी मुद्रित जैनेन्द्र धातुपाठकी तुलनासे कुछ परिणाम निकाला जा सकता है। परन्तु सम्प्रति मेरे पास मुद्रित जैनेन्द्र धातुपाठ नहीं है । अतः मैं इसके निर्णयमें इस समय असमर्थ हूँ। मैं इसी वर्ष ६ अगस्तको काशीमें भारतीय ज्ञानपीठके व्यवस्थापक तथा महवृत्तिके सम्पादक महोदयोंसे मिला था [ यह मेर। प्रथम मिलन था] और उन्हें ग्रन्थके अन्तमैं जैनेन्द्र धातुपाठ छापनेका सुझाव दिया था। दोनों महानुभावोंने बड़ी सहृदयतासे मेरे सुझावको स्वीकार किया और वह इस ग्रन्थ के अन्त में दिया जा रहा है [अभी छपा मेरे पास नहीं पहुँचा] । धातपारायण-आचार्य हेमचन्द्रने स्वीय लिङ्गानुशासनके स्वोपज्ञ विवरणमें पृष्ठ १३२ पं० २० पर नन्दिधातुपारायण तथा पृष्ठ १३३ पं० २३ पर नन्दिपारायण उद्धृत किया है । इस नामके साथ धातुपारायण नामकी तुलनासे प्रतीत होता है कि यह प्राचार्य देवनन्दीका अपने धातुपाठ पर स्वोपज्ञ विवरण रहा होगा। . गणपाठ-जैनेन्द्र गणपाठ अभयनन्दीकी महावृत्तिमें यथास्थान सन्निविष्ट है, पृथक् छपा नहीं मिलता। उणादिसूत्र-जैनेन्द्र उणादि सूत्रका कोई हस्तलेख अभी तक हमारी दृष्टि में नहीं आया। महावृत्तिके सम्पादकजीसे भी इसके विषयमें पूछा था। उन्होंने २६ ।। ५६ के पत्र में लिखा-"उणादि सूत्र तथा परिभाषाओंका भी संकलन कहीं नहीं उपलब्ध हो सका। लिङ्गानुशासन भी जैनेन्द्रका अनुप अभयनन्दीको महावृत्तिमें अनेक उणादि सूत्र उद्धृत हैं। कुछ प्राचीन पञ्चपादीसे पूर्णतया मिलते हैं, कछमें पाठान्तर है। अनेक सूत्र ऐसे भी हैं जिनमें प्रत्यक्ष जैनेन्द्र संज्ञाओंका प्रयोग हुआ है। इसलिए यह निश्चित है कि जैनेन्द्र प्रोक्त उणादि सूत्र भी थे। उदाहरणके लिए हम कुछ सूत्र उद्धृत करते हैं । यथा १. काशिका १।३।२ में खिल शब्द इसी अर्थमें प्रयुक्त है। २. प्राचीन परम्परानुसार 'भू सत्तायाम्' एध वृद्धौं' श्रादि वाक्य सूत्र माने जाते हैं। दृष्टव्य-अस्मत्संपादित क्षीरतरङ्गिणी, पृष्ठ १, टि. २ । For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनेन्द्र-व्याकरणम् १-तनोतेर्डउः सन्वच्च । पृष्ठ ३ । ५-अण्डो जुकृसृवृङः । पृष्ठ ३१६ । २- अस् सर्वधुभ्यः । पृष्ठ १७ । ६-गमेरिन् । पृष्ट ११६ । ३-कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण । पृष्ठ ११८ । ७-आङि णित् । पृष्ठ ११६ । ४-वृतवदिहनिकमिकषिभ्यः सः । पृष्ठ ११८ । -भुवश्च । पृष्ठ ११६ । जैनेन्द्र उणादि सूत्रोंका आधार-जिस प्रकार आचार्य पूज्यपादने अपने शब्दानुशासनके प्रवचनमें पाणिनीय शब्दानुशासनका प्रधान आश्रय लिया, उसी प्रकार उणादि सूत्रोंके प्रवचनमें भी निश्चय ही किसी प्राचीन उणादिको मुख्य आधार बनाया होगा । जैनेन्द्र उणादि पाठके उपलब्ध न होनेसे यद्यपि हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते कि आचार्यने किस प्राचीन उणादि पाठको मुख्यता दी, पुनरपि हमारा अनुमान इस प्रकार है पाणिनीय सम्प्रदायसे संबद्ध मुख्यतया दो प्रकारके उणादि पाठ उपलब्ध होते हैं। एक है पञ्चपादी और दूसरा दशपादी । पञ्चपादी-पाठ भी रामायण महाभारत आदि ग्रन्थोंके समान अनेक शाखाओंमें विभक्त है । एक है औत्तर पाठ, दूसरा पश्चिमोत्तर, तीसरा दाक्षिणात्य | उज्ज्वलदत्त तथा तदाश्रित भट्टोजिदीक्षित आदिकी वृत्तियाँ औत्तरपाठ पर हैं [ उज्ज्वलदत्त वंगीय था, अतः इसे वाङ्ग पाठ भी कह सकते हैं ] | श्वेतवनवासी तथा नारायणकी वृत्ति दाक्षिणात्य पाठ पर हैं। क्षीरस्वामी अपनी क्षीरतरङ्गिणी में पश्चिमोत्तर पाठको उद्धृत करता है [ इसे काश्मीर पाठ कह सकते हैं ] । दशपादी पाठ पञ्चपादीके सम्भवतः पश्चिमोत्तर पाठके आधार पर रचा गया है। पञ्चवादी पाठका भी मूल कोई त्रिपादी पाठ प्रतीत होता है। उणादिके ये सभी पाठ प्राचार्य पूज्यपादसे प्राचीन हैं । अभयनन्दीने ११११७५ सूत्रकी वृत्ति में एक जैनेन्द्र उणादि सूत्र उद्धृत किया है-"अस् सर्वधुभ्यः”। पञ्चपादीका श्रौत्तरपाठ-सर्वधातुभ्योऽसुन् । [ उज्ज्वल० ४।१८८] दाक्षिणात्य पाठ-असुन् [श्वेत० ४।१६४ ] पश्चिमोत्तर पाठ-असुन् [दौरतरङ्गिणी पृष्ठ ९३ पं० १६] दशपादीका पाठ असुन् [९/४९] इन सब सूत्रों की तुलनासे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र उणादि पाठका मुख्य उपजीव्य श्रोत्तर पाठ है जिसमें जैनेन्द्र के 'सर्वधभ्यः' समान 'सर्वधातुभ्यः' पद विद्यमान है। अन्यपाठों में 'सर्वधातुभ्यः' पद है ही नहीं उणादि सूत्र व्याख्या-श्राचार्य देवनन्दी कृत उणादि सूत्र व्याख्याका हमें कोई साक्षात् प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ, परन्तु जिस प्रकार प्राचार्यने अपने धातुपाठकी तथा लिङ्गानुशासनकी व्याख्या की उसी प्रकार उणादिकी व्याख्या भी अवश्य रची होगी। १. महावृत्तिका मुद्रित पाठ है-'अण्डः । जुकृसृङः'। यह अशुद्ध है। तुलना करो'अण्डन् कृसृभृवृजः [पञ्चपादी उ०१।११८॥ द० उ० ५। ॥] सूत्र से। २. हमने इसका अनेक हस्तलेखोंके आधारपर सम्पादन किया है । सरस्वती भवन ग्रन्थमाला काशीसे [ १६४२ में ] यह प्रकाशित हुआ है। ३. हमने दशपादी-उणादिके उपोद्धातमें दोनों पाठों तथा इनकी वृत्तियोंका संक्षिप्त इतिहास १६४२ में लिखा था। उस समय पञ्चपादीके इतने विभिन्न पाठका बोध हमें नहीं था। उणादि सूत्र और उनकी व्याख्यानोंका विस्तृत इतिहास हम अपने सं० व्या० शास्त्रका इतिहासके दूसरे भागमें लिखेंगे। १. चीरतरङ्गिणीके सम्पादनके प्रारम्भमें हमें इसका ज्ञान नहीं था, अतः हमने वहाँ दशपादीके पते दिये हैं। ५. लिङ्गानुशासनकी व्याख्याका वर्णन श्रागे करेंगे। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ ४६ लिङ्गानुशासन-आचार्य देवनन्दी प्रोक्त लिङ्गानुशासनका कोई ग्रन्थ हमारी दृष्टि में नहीं आया, परन्तु जैनेन्द्र लिङ्गानुशासन था अवश्य । इसमें निम्न प्रमाण हैं १-वामन अपने लिङ्गानुशासनके अन्त में प्राचीन आचार्य प्रोक्त लिङ्गानुशासनोंका निर्देश करता हुआ लिखता है-व्याडिप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्र लक्षणगतं विविधं तथाऽन्यत् । लिङ्गस्य लक्ष्म"..... ॥३०॥ इसमें जैनेन्द्र लिङ्गानुशासनका उल्लेख स्पष्ट है। २-अभयनन्दी अपनी महावृत्ति २४/१०८ में लिखता है.--गोमयकषायकार्षापणकुतपकवाटशंखादिपाठादवगमः कर्तव्यः । अर्थात् गोमय आदि शब्द जिनमें उभयलिंगता देखी जाती है, उनका ज्ञान पाटसे कर लेना चाहिए। यहाँ पाठसे अभिप्राय लिङ्गानुशासनका ही है, क्योंकि 'पुंसि चार्धर्चाः' [१।४।१०८] सूत्र पर पाणिनिके समान जैनेन्द्र में कोई गण नहीं है। अतः इनका पाठ लिङ्गानुशासनमैं ही सम्भव हो सकता है। ३. आचार्य हेमचन्द्रने अपने लिङ्गानुशासनके स्वोपज्ञ विवरणमैं नन्दीके नामसे एक पाठ उद्धृत किया है-"भ्रामरं तु भवेच्छुक्लं क्षौद्रं तु कपिलं भवेत्" इति नन्दी। पृष्ठ० ८५ पंक्ति २५ । ___ हमारे विचारमें यह पाठ देवनन्दीके लिङ्गानुशासनका है और पूर्वोल्लिखित नियमके अनुसार यहाँ नन्दी शब्दसे देवनन्दीका ग्रहण है । हर्षवर्धनीय लिङ्गानुशासनके सम्पादक पं० वेङ्कट राम शर्माने अपनी निवेदनामें २३ प्राचीन लिङ्गानुशासनोंका उल्लेख किया है। उसमें संख्या १८ पर 'नन्दिकृत लिङ्गानुशासन' का निर्देश है। इससे भी हमारे विचारकी पुष्टि होती है कि प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा नन्दी-नामसे स्मृत श्राचार्य देवनन्दी ही है। लिङ्गानुशासन छन्दोबद्ध था-हैमलिङ्गानुशासन विवरणमें उदधृत पूर्व वचनसे प्रतीत होता है कि देवनन्दी प्रोक्त लिङ्गानुशासन छन्दोबद्ध था। लिङ्गानुशासन-व्याख्या-श्राचार्य देवनन्दीने अपने लिङ्गानुशासनपर कोई व्याख्या भी लिखी थी। हेमचन्द्र अपने लिङ्ग विवरणमें लिखता है-"नन्दिनः गुणवृत्तस्त्वाश्रयलिङ्गता स्वादुरोदनः, स्वाद्वी पेया, स्वादु पयः ।' प्राचार्य हेमचन्द्रने यह पङ्क्ति अथवा अभिप्राय निश्चय ही जैनेन्द्रलिङ्गानुशासनकी व्याख्यासे लिया होगा। व्याकरणके अन्य ग्रन्थ पूर्वलिखित धातुपाठ, गणापाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन इन ४ खिलोंके अतिरिक्त जैनेन्द्र शब्दानुशासनसे संबन्ध रखनेवाले न्यूनातिन्यून तीन ग्रन्थ और थे। उनके नाम हैं-वार्तिकपाठ, परिभाषा पाठ, शिक्षा। वार्तिक पाठ-अभयनन्दीकी महावृत्तिमें जैनेन्द्र शब्दानुशासनसे संबन्ध रखनेवाले बहुतसे वार्तिक व्याख्यात हैं। ये वार्तिक किसके हैं, यह अज्ञात है। इसी प्रकार महावृत्तिमें समस्त वार्तिक व्याख्यात हैं अथवा उसमें काशिकाके समान अधिक उपयोगी वार्तिकोंका ही सन्निवेश है, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जैनेन्द्र वार्तिक पाठका स्वतन्त्र ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं आया। आर्य श्रुतकीर्तिने अपनी पञ्चवस्तुप्रक्रियाके अन्तमें जैनेन्द्रशब्दानुशासनपर रचे गये किसी भाष्य ग्रन्थ की सूचना दी है। यह भाष्य इस समय अनुपलब्ध है। स्वयं प्राचार्य पूज्यपादने भी अपने शब्दानुशासनपर एक न्यास लिखा था, वह भी अप्राप्य है। अतः जैनेन्द्रसे संबद्ध वार्तिक पाठकी रचना किसने की यह अज्ञात है। वार्तिक अभयनन्दी विरचित नहीं हैं--महावृत्तिमैं व्याख्यात वार्तिक अभयनन्दी विरचित नहीं हैं, क्योंकि उसमें स्थान-स्थानपर पातञ्जल महाभाष्यके समान वार्तिकोंका निराकरण करके सूत्र-द्वारा कार्यका १. अग्रेज़ीमें पृष्ट ११ पर, संस्कृतमें पृष्ठ ३४ पर । For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५० जैनेन्द्र-व्याकरणम् निर्वाह दर्शाया है । यथा— उदित्कार्यं वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति वक्तव्यं भवती, श्रतिभवती, दातिः । नैतद् वक्तव्यम् | पृष्ठ १५ । यदि वार्तिक अभयनन्दी विरचित होते तो वह स्वयं अनर्थक वार्तिक रचकर उनका खण्डन न करता । इतना ही नहीं, अभयनन्दीसे पूर्ववर्ती विद्यानन्द जैनेन्द्र महावृत्ति १।४।३७ मैं पठित 'ध्यखे का वक्तव्या' वार्तिकका अष्टसहस्री [ पृष्ठ १३२ ] में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात्' इस रूप में अर्थतः अनुवाद करता है । 'य, ख' ये जैनेन्द्रके पारिभाषिक प्रयोग हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यनन्दोकी वृत्ति में वार्तिकोंके व्याख्यात होने तथा अष्टसहस्री में उद्धृत होनेसे इतना तो निश्चय है कि ये अभयनन्दीसे प्राचीन हैं। हमारा विचार है कि व्याकरण संबंधी अन्य ग्रन्थोंके समान वार्तिकपाठ भी श्राचार्यने स्वयं रचा होगा । परिभाषा - पाठ - परिभाषाएँ व्याकरण शास्त्रका महत्त्वपूर्ण भाग हैं। परिभाषाएँ दो प्रकार की हैं। कुछ सूत्रकार द्वारा स्वयं सूत्रों में पठित होती हैं । यथा - इको गुणवृद्धी [ श्रष्टा० ११११३ ] इकस्तौ [ जैनेन्द्र० १|१|१७ ] | कुछ सूत्र से बहिर्भूत होती हुई भी सूत्रकार द्वारा स्वीकृत होती हैं । पाणिनीय व्याकरण से संबद्ध परिभाषाएँ व्याडिकृत मानी जाती भाष्यकार पतञ्जलिने अनेक परिभाषाओं को सूत्रोंसे ज्ञापित किया है, अनेकको वे बिना ज्ञापकके प्रमाण मान लेते हैं । श्रभयनन्दीकी महावृत्ति में अनेक परिभाषाएँ उद्घृत हैं । कतिपय परिभाषाओं के ज्ञापक भी लिखे हैं । इन परिभाषाओंका पाठ पाणिनीय परिभाषाओं के समान होते हुए भी स्वतन्त्रानुसार परिवर्तित है । जैनेन्द्र संबद्ध परिभाषाओंका प्रवक्ता कौन है, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता । परिभाषा पाठका स्वतन्त्र ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । परिभाषाओंकी व्याख्या - इन जैनेन्द्र परिभाषाओंकी व्याख्या भी किसी प्राचीन ग्रन्थकारने की थी | अभयनन्दी १९६१ पर लिखता है - सन्निपातपरिभाषाया अनित्यतां वच्यति । यहाँ ' वच्यति' क्रियाका कर्ता कौन है, यह अज्ञात है । परन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि अभयनन्दीसे पूर्व किसीने परिभाषाओंकी व्याख्या रची थी। इस प्रकारका विचार परिभाषा वृत्तिनें ही सम्भव हो सकता है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने व्याकरण से संबद्ध परिभाषाओं की स्वयं ही रचना की और स्वयं ही उनकी व्याख्या की । इसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपादने भी स्वयं परिभाषा पाठ और उसकी व्याख्या लिखी हो यह सम्भव हो सकता है । शिक्षा - भयनन्दीने १ । १ । २ की वृत्ति में लगभग ४० शिक्षासूत्र उद्धृत किये हैं। ये अधिकांश मैं पिशल शिक्षासूत्रों से मिलते हैं । पुनरपि इनका प्रवचन जैनेन्द्र व्याकरणकी प्रक्रियानुसार किया हुआ है, यह दोनों की तुलनासे स्पष्ट है । यद्यपि ये जैनेन्द्र सम्बन्धी शिक्षासूत्र किसके द्वारा प्रोक्त हैं, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, तथापि जैसे पिशलि, पाणिनि और चन्द्रगोमीने अपने-अपने शब्दानुशासनोंसे सम्बद्ध शिक्षासूत्रों का प्रवचन किया। इसी प्रकार सम्भव है आचार्य देवनन्दीने इन शिक्षा सूत्रों का भी प्रवचन किया हो। इसका विशेष वर्णन हम 'शिक्षाका इतिहास' नामक ग्रन्थमें करेंगे [ पाण्डुलिपि प्रायः तैयार हो चुकी है। १. देखो, श्री प्रेमीजीका 'देवनन्दीका जैनेन्द्र व्याकरण' लेख, यही ग्रन्थ पृष्ठ २४ । २. सं० व्या० शा० का इतिहास पृष्ठ २०७ । २. देखो महावृत्ति पृष्ट ४५५, ४५६ । इस सूची में कुछ परिभाषाएँ रह गई हैं। यथा- पृष्ठ १२ पर उद्घृत — “अनुबन्धकृतमनेकालत्वं न" परिभाषा । ४. देखो हमारे द्वारा सम्पादित तथा प्रकाशित 'शिक्षा-सूत्राणि' [ श्रपिशल, पाणिनीय तथा चान्द्र ] | For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ आचार्य पूज्यपादके अन्य ग्रन्थ श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने लेखमें आचार्य पूज्यपादके निम्न ग्रन्थोंका उल्लेख किया हैउपलब्ध ग्रन्थ-१. सर्वार्थसिद्धि, २. समाधितन्त्र ३. इष्टोपदेश, ४. दशभक्ति। अनुपलब्ध, परन्तु ज्ञात ग्रन्थ-१. शब्दावतार न्यास, २. जैनेन्द्र न्यास, ३. वैद्यक ग्रन्थ निाम अज्ञात], ४. सार-संग्रह, ५. जैनाभिषेक। वैद्यक ग्रन्थके सम्बन्धमें नये प्रमाण-१. प्राचार्य पूज्यपाद रचित वैद्यक ग्रन्थका उल्लेख श्री प्रेमीजीके लेखके पृष्ठ १९, टि. १ पर उद्धृत श्रवणबेलगोलके ४० चे शिलालेखके चतुर्थ श्लोकके तृतीय चरणके 'स्वाध्यं यदीयम्' पदोंमें भी मिलता है। ___२. जैन आचार्य उग्रादित्य-विरचित कल्याणकारक नामक ग्रन्थमैं भी पूज्यपादके वैद्यक ग्रन्थका निर्देश है ऐसा ज्ञात हुआ है [स्वयं नहीं देखा] । आचार्य पूज्यपादका नूतन परिक्षात ग्रन्थ-छन्दःशास्त्र-प्राचार्यने छन्दःशास्त्र पर भी कोई ग्रन्थ लिखा था, इसकी सूचना श्रवणबेलगोलके ४० वें शिलालेखके चौथे श्लोकके तृतीय चरणके 'छन्दः' पदसे मिलती है। श्री प्रेमीजीसे इसका संकेत रह गया प्रतीत होता है। जैनेन्द्र छन्दःशास्त्रका विस्तृत वर्णन हम अपने 'छन्दःशास्त्रका इतिहास' में करेंगे। यह लिखा जा रहा है। इस प्रकार आचार्य पूज्यपादके व्याकरणातिरिक्त उपलब्ध और अनुपलब्ध ग्रन्थोंकी संख्या १० हो जाती है। हमारे विचारानुसार आचार्य विरचित जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी निम्न ग्रन्थ थे जैनेन्द्र सूत्रपाठ, जैनेन्द्रन्यास, धानुपाठमूल, धातुपारायण, गणपाठ, उणादिसूत्र, लिङ्गानुशासन, लिङ्गानुशासन व्याख्या, वार्तिकपाठ, परिभाषापाठ और शिक्षासूत्र । सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठके अतिरिक्त अन्य सभी ग्रन्थोंको ढूँढनेका प्रबल प्रयत्न होना चाहिए। ये ग्रन्थ निश्चय ही किन्हीं जैन ग्रन्थागारों में छिपे पड़े होंगे। उनका उद्धार परम आवश्यक है। धातुपाठ और गएपाठके हस्तलेखोंको भी उपलब्ध करनेका प्रयत्न करना चाहिए। जिससे इनकी पाठशुद्धि में सहायता मिले। जैनेन्द्र के व्याख्याग्रन्थ जैनेन्द्र शब्दानुशासनपर अनेक ग्रन्थ लिखे गये। उनमैसे जैनेन्द्रन्यास, भाष्य, अभयनन्दीकी महावृत्ति, प्रभाचन्द्रका शब्दाम्भोजभास्कर न्यास, पञ्चवस्तु, लघुजैनेन्द्र और जैनेन्द्र प्रक्रिया नामक ग्रन्थोंका उल्लेख श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'देवनन्दीका जैनेन्द्र व्याकरण' नामक लेखमें किया है। इनमें से न्यास और भाष्य ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध हैं। उपलब्ध ग्रन्थों में अभयनन्दीकी वृत्ति ही सबसे प्राचीन है। __ अभयनन्दीसे प्राचीन अनेक वृत्तियाँ-अभयनन्दीने महावृत्तिके प्रारम्भमें एक श्लोक लिखा है यच्छन्दलक्षणमसुत्रजपारमन्यैरव्यक्तमुक्तमभिधानविधौ दरिद्वैः । तत्सर्वलोकहृदयप्रियचारुवाक्यैर्व्यक्तीकरोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥ अर्थात्-कठिनतासे पार पाने योग्य जिस शब्दलक्षणको दरिद्रीने व्याख्या करने में स्पष्ट नहीं किया, दलक्षणको अभयनन्दी मुनि सबके हृदयोंको प्रिय लगनेवाले सुन्दर वाक्योंसे स्पष्ट करता है। उक्त श्योकके पूर्वार्धसे स्पष्ट है कि अभय नन्दीसे पूर्व इस जैनेन्द्र शब्दानुशासनपर ऐसी अनेक वृत्तियाँ बन चुकी थीं, जिनमें सूत्रोंकी पूर्ण स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। ये व्याख्याएँ लधुवृत्ति के रूपमें थीं, यह 'दरिद्वैः' पदसे व्यक्त होता है । .. अभयनन्दीका काल-अभयनन्दीका काल विवादास्पद है। डाक्टर बेल्वेल्करने अपने सिस्टम अफि संस्कृत ग्रामर' में अभयनन्दीका काल सन् ७५० [वि०८०७] माना है [पैराग्राफ ३०] । अभयनन्दीकी For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् महावृत्ति ३।२। ५५ मैं भट्ट अकलंक [जिनका काल ८००विक्रम माना जाता है] के तत्वार्थवार्तिक का उल्लेख है। इससे यह वृत्ति उसके बाद की है, यह निश्चित है। हमने अपने सं० व्या० शास्त्रका इतिहास ग्रन्थमें अभयनन्दीका काल विक्रम संवत् १०००-१०५० के मध्य में लिखा है पृष्ठ ४२६] । अभी इस विषयमें अनुसंधान की आवश्यकता है। . ___अभयनन्दीकी महावृत्ति-जैनेन्द्र व्याकरण के वाङ्मयमें महावृत्तिका वही गौरवपूर्ण स्थान है जो पाणिनीय व्याकरणमैं काशिका का है। यह महावृत्ति काशिकासे भी अधिक विस्तृत है। इसका ग्रन्थ परिमाण १२ सहस्र श्लोक है । ग्रन्थकारने अपनी वृत्तिके सम्बन्धमें पूर्वनिर्दिष्ट श्लोकमैं जो लिखा है वह पूर्णतया सत्य है, उसमें यत्किंचित् अतिशयोक्ति नहीं है। अभयनन्दीका पाण्डित्य--निश्चय ही अभयनन्दी व्याकरण शास्त्रमें परम निपुण थे। उनका व्याकरण विषयक-ज्ञान केवल जैनेन्द्र तक सीमित नहीं था, अपितु पाणिनीय व्याकरणमैं भी उनकी अप्रत्याहत गति थी। यह इस वृत्तिके सूक्ष्म अध्ययनसे पदे-पदे स्पष्ट होता है। महावृत्तिमें कई स्थल उनके व्याकरण विषयक अभूतपूर्व पाण्डित्यका निदर्शन कराते हैं। यथा श२।९६ सूत्रकी व्याख्यामें “प्रविनय्य" प्रयोगकी सिद्धिके सम्बन्धमैं जो विचार किया है, वह हमें अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुआ। महावृत्तिके उपजीव्य ग्रन्थ- यद्यपि अभयनन्दीने अपनी महावृत्तिकी रचनामें निस्सन्देह जैनेन्द्र न्यास, प्राचीन लघु वृत्तियाँ, पातञ्जल महाभाष्य आदि सभी ग्रन्थोंसे सहायता ली है, तथापि सूत्र व्याख्या शैली और वाक्य विन्यासमै काशिकावृत्तिका प्रभाव अधिक प्रतीत होता है। पतञ्जलिके पदचिह्नोंपर-[क] पतञ्जलिने जिस प्रकार पाणिनि और कात्यायमके प्रति सम्मानकी भावना रखते हुए उनके सूत्र तथा चार्तिककी सूक्ष्म विवेचना करते समय पाणिनि और कात्यायनके गौरवसे प्रभावित हुए बिना अपना निर्णय प्रकट किया है, उसी प्रकार अभयनन्दी मुनिने भी अनेक स्थलों पर जैनेन्द्र वार्तिकोंका निष्प्रयोजनत्व दर्शाया है। यथा-पृष्ठ १५ पर "उगित् कार्यम्' तथा पृष्ठ २६ पर 'दाणश्च सा' वार्तिक का। [ख] जैसे पतञ्जलिने पाणिनीय सूत्रोंसे साक्षात् असिद्ध प्रयोगोंका साधुत्व दर्शानेके लिए योगविभाग रूपी कौशल दिखाया है। उसी प्रकार अभयनन्दीने भी योगविभाग द्वारा अनेक पदोंका साधत्व दर्शानेका प्रयत्न बहुत स्थानोंपर किया है। महावृत्तिकी एक महती विशेषता-महावृत्तिकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पाणिनि पतञ्जलि चन्द्र तथा पूज्यपाद द्वारा असंगृहीत प्राचीन व्याकरण-नियमोंका यत्र तत्र संग्रह उपलब्ध होता है। यथा [शरा 'भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते। इको यरिभर्व्यवधानमनेकेषामिति संग्रहः।" अर्थात्- 'भूवादयो धुः' [११२।१] सूत्रमै 'भू+श्रादयो' के मध्यमें वकारका निर्देश ब्याकरणका लक्षण बतलानेके लिए रखा गया है। अनेक आचार्योंके मतमें 'इक् से परे यणका व्यवधानं होता है', इस लक्षणका संग्रह वकारसे दर्शाया है। १. कलकत्ताके श्री पं० क्षितीशचन्द्र जी चट्टोपाध्यायने 'टेक्निकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर' [पृष्ट ७१] में इस कारिका तथा महावृत्तिमें आगे व्याख्यात दो चरणोंका पाठ इस प्रकार उद्धृत किया है-"भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । व्यवधानमिको यएिभर्वायुवम्बरयोरिव ॥ भूवो वार्थ वदन्तीति वदेरौणादिके इजि । भूवादय इति ज्ञेया भूवोऽर्था वादयोऽथवा ।" २. इस सन्धि तथा इससे पदसिद्धि-प्रक्रियापर पड़नेवाले प्रभावके लिए हमारा सं० व्या० शा. का इतिहास, पृष्ठ २१-२४ विशेष रूपसे देखना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ हमारी दृष्टि में अभीतक सबसे प्राचीन यही ग्रन्थ है, जिसमें यणव्यवधान-सन्धि का साक्षात् उल्लेख किया है। अागे वृत्तिकारने महाभाष्योत वकारके मंगलार्थत्वका खण्डन किया है। हमारे विचारमै 'मङ्गलार्थः प्रयुज्यते' लेखमैं पतञ्जलिका 'मंगल' का वह भाव नहीं है जो जनसाधारणमें प्रसिद्ध है। अपितु यहाँपर अध्येता छात्रोंका मंगल अभिप्रेत है। इसकी व्याख्याने स्पष्ट कहा है-अध्येतारश्च मंगलार्था यथा स्युः । अध्येतानोंका मंगल लक्षण ज्ञानसे ही सम्भव है। महावृत्ति मध्यमध्यमें त्रुटित-यद्यपि महावृत्तिका यह संस्करण पाँच हस्तलेखोंके आधार छपा है, परन्तु इसमें अनेक स्थलोपर कई-कई सूत्रों की व्याख्या खण्डित है। देखो पृष्ठ २८, ३१७, ३५८। इससे स्पष्ट है कि ये पाँचों हस्तलेख किसी एक ही मूल प्रतिको प्रतिलिपियाँ हैं। अतः इसकी पूर्तिके लिए अन्य हस्तलेख प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । जैनेन्द्र व्याकरण तथा महावृत्तिका मुद्रण आजसे ४६ वर्ष पूर्व काशीकी लाजरस कम्पनीकी ओरसे सन् १९१० में महावृत्ति सहित जैनेन्द्र व्याकरण का मुद्रण प्रारम्भ हुआ था। इसके सम्पादक थे, विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी। इसका मुद्रण तृतीय अध्यायके द्वितीय पादके ६०वे सूत्र तक ही होकर रह गया । तब से यह परमोपयोगी ग्रन्थ अधूरा ही रहा । यह परम सौभाग्यका विषय है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस ग्रन्यरत्नको प्रकाशमें लानेका महान् प्रयत्न किया। उसोका यह फल है कि ४६ वर्षके अनन्तर यह ग्रन्थ पूग छपकर प्रकाशमैं आया है। इसके लिए उक्त संस्था अत्यन्त धन्यवादको पात्र है। इस संस्थाने इसी प्रकारके अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंका प्रकाशन करके समस्त भार तीयों, विशेषकर जैनमतानुयायियोंका महान् उपकार किया है। हमारी यही कामना है कि यह संस्था भविष्यमें भी इसी प्रकार अपना कार्य करनेमें समर्थ हो, दिन दूनी रात चौगुनी फले फूले। महावृत्तिका नूतन संस्करण-भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित महावृत्तिका यह संस्करण निस्सन्देह महान् परिश्रमका फल है। इसके सम्पादनमै ५ हस्तलेखोसे सहायता ली गई है। इतना प्रयत्न करनेपर भी इसके सम्पादन में कुछ कमियाँ रह गई हैं। उनकी ओर भी संकेत कर देना हम उचित समझते हैं, जिससे अागामी संस्करण में उसका परिमार्जन हो सके । क-अनेक स्थानोंपर उद्धृत जैनेन्द्र सूत्रोंके पते देने रह गये हैं। यथा-पृष्ठ ११५०२-जेरिति दीत्वम्-'जे' ४।३।२३४ का सूत्र है, यहीं पृष्ठ पं० १३-शास इत्येवमादिषु-शास' यह ४/४/३३ का प्रतीक है। ख-वृत्तिमै उद्धृत उद्धरणोंके पते देने रह गये। यथा-पृष्ठ २४ पङ्क्ति २६–'एति जीवन्तमानन्दः'। यह रामायण सुन्दरकाण्ड सग ३४ श्लोक ६ का तृतीय चरण है। पृष्ठ ११६ पं०६ पर निर्दिष्ट 'बाहलक प्रकृतेस्तनुदृष्टेः' कारिका महाभाष्य ३।३।१ की है। इसी प्रकार ११२।१२१ सूत्रपर उद्धृत कारिकाएँ भी महाभाष्य को हैं। ग-कई स्थानौपर कुछ अधिक सावधानता वर्ती जाती तो अनेक पाठ ठीक हो सकते थे। यथा-पृष्ठ ११६ पं० ३ पर मुद्रित 'अण्डः । जुकृसवृङः' पाठ 'अण्डो जुकृमृडः' चाहिए। पृष्ठ ८५० ५-६–'कृतः। कृतवान् । भूतवर्तमाने...'। यहाँ 'कृतः। कृतवान् । “तः" [२।२।८५] भूत इति वर्तमाने ....." १. यद्यपि शाकटायन लघुवृत्ति [पृष्ट २३] में यह नियम उल्लिखित है। उसका काल अनिश्चित है। अमोघवृत्तिमें इसका उल्लेख है या नहीं यह हमें ज्ञात नहीं। २. महाभाष्यकी पंक्तिका यह अभिप्राय हमें महावृत्तिके प्रकाशमें ही समझमें आया । For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् पाठ चाहिए । 'भूत इति वर्तमाने' आदि पदों द्वारा जिस सूत्रकी वृत्ति लिखी है वह, 'त:' [२।२।८५] सूत्र यहाँ त्रुटित है। घ· अनेक स्थानोंपर वृत्तिमें उद्धृत जैनेन्द्र सूत्र तथा परिभाषा आदिको भिन्न टाइपमें करना रह गया है। ङ-कहीं-कहीं सम्पादकीय टिप्पणियों में भी भूल प्रतीत होती है। यथा-पृष्ठ १६ पं०१६ पर F: अन्यथा अनिदित इति उङः खस्य प्रतिषेधः स्यात् ।] पर टिप्पणी है--४, कोष्ट स्थितः पाठोऽप्रासंगिक इव भाति । "अलुङः-विडत्यनिदितः” इत्यस्यात्राप्रवृत्तः । प्रतीत होता है यह पङ्क्ति पाणिनीय व्याकरणकी प्रक्रियाकी भ्रान्तिसे लिखी गई है। 'हनस्त' इस अवस्थामै 'त' के परे रहने पर 'यत्त्ये तदादि गुः' जै० ।१०२] सूत्रसे 'हन् स्' की 'गु' [पाणिनीय-अंग संज्ञा है। जैनेन्द्र प्रक्रियानुसार २।१।३८ सूत्रसे 'सि' प्रत्यय होता है, उसका इकार इत् है। गुके इदित् होनेसे 'हलुङः कित्यनिदितः' [४।४।२३] सूत्रकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उसकी प्रवृत्ति न होनेसे उङ् = उपधा] के 'न्' का लोप नहीं हो सकता। अतः कोष्टान्तर्गत पक्ति सर्वथा शुद्ध है। इन सब कमियोंने रहने पर भी जो संस्करण प्रकाशित हुआ है, वह निस्सन्देह महान् प्रयत्नका फल है । प्रथमबार इतना सुन्दर संस्करण प्रकाशित हो गया, यह महान संतोषकी बात है। ग्रन्थके सम्पादनमें कितना परिश्रम पड़ता है, यह भी भुक्तभोगी ही जान सकता है। हाँ, ग्रन्थको सर्वाङ्गसुन्दर बनानेका लक्ष्य तथा उसके लिए सर्वविध प्रयत्न सम्पादकका अवश्य होना चाहिए। तत्पश्चात जो कार्य हो जाय उससे सन्तुष्ट रहते हुए अगले संस्करणको सर्वात्मना श्रेष्ठ बनानेका प्रयत्य होना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रमहावृत्तिः For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्यदेवनन्दिप्रणीतम् जैनेन्द्र-व्याकरणम् अभयनन्याचार्यकृतमहात्तिसहितम् देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्त्वाभयप्रदम् । शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिर्विरच्यते ॥ १॥ यच्छब्दलक्षणमसुत्रजपारमन्यैरव्यक्तमुक्तमभिधानविधौ दरिद्रैः। तत् सर्वलोकद्ददयप्रियचारुवाक्यैर्व्यक्तीकरोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥ २ ॥ शिष्टाचारपरिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मङ्गलमिदमाहाचार्यः लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते । देवनन्दितपूजेशे नमस्तस्मै स्वयम्भुवे ।। लक्ष्मीः श्रीः। सैव विशिष्यते-अन्तमतिक्रान्तः कालोऽत्यन्तः तत्र भवा प्रात्यन्तिकी अविनश्वरी आत्मस्वभावाधीना केवलज्ञानादिविभूतिरित्यर्थः । अवद्याद् गान्निष्कान्ता निरवद्या निर्दोषा, अवभासते शोभते, यस्य भगवतः, यस्यति सर्वनामपदस्य सामान्यवाचित्वेऽपि अन्यस्यैवंविधा श्रीन सम्भवतीति पारिशेध्यादईद्भट्टारकस्य ग्रहणम् | यच्छब्दाभिहितोऽर्थस्तच्छब्देन परामृश्यत इति तस्मै देवनन्दितपूजेशे स्वयम्भुवे नमः । 'अस्तु' इत्यध्याहारः, देवाः सुराः तैनन्दिता अभिवर्द्धिता सा चासौ पूजा च तस्याः, 'ईष्ट' इति क्विपि कृते देवनन्दितपूजेट', तथा स्वयमात्मना भवतीति स्वयम्भूः । नमःशब्दयोगे सर्वत्र उर्भवति । लोके प्रसिद्धसाधुत्वानां शब्दानामन्वाख्यानार्थमिदमारभ्यते । अन्वाख्यानश्च प्रकृत्यादिविभागेन सामान्यविशेषवता लक्षणेन शब्दानां व्युत्पादनम् । तच्च शब्दार्थसम्बन्धमन्तरेण न सम्भवति । शब्दार्थसम्बन्धसिद्धिश्रानेकान्ताधीनेत्यत आह सिद्धिरनेकान्तात् ।।१।१।।। प्रकृत्यादिविभागेन व्यवहाररूपा श्रोत्रग्राह्यतया परमार्थतोपेता प्रकृत्या'दिविभागेन च शब्दानां सिद्धिः अनेकान्ताद्भवतीत्यर्थाधिकार श्रा शास्त्रपरिसमातेर्वेदितव्यः । अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकः अन्तः स्वभावो यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः अनेकात्मा इत्यर्थः। तस्यावग्रहहावायधारणात्मकं प्रत्यक्षं तद्व्यवहारान्यथानुपपत्तेरितीदमनुमानञ्च साधकम् । अथास्तित्वनास्तित्वादीनां परस्परविरुद्धानां कथमैकाधिकरण्यमसङ्कीर्णरूपता च? यथा भवतामेकत्र हेतौ अन्वयव्यतिरेकयोः जनके रसे वा जन्यमानरूपरसापेक्षयोः सहकारित्वासहकारित्वयोः । श्रथ हेतौ सपक्षविपक्षापेक्षया रूपद्वयं रसे च सभागासभागकार्यापेक्षया; अत्रापि तर्हि स्वरूपपररूपापेक्षयाऽस्तित्वनास्तित्वे द्रव्यपर्यायापेक्षया च नित्यत्वानित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोश्चान्वयव्यतिरेकाभ्यां सिद्धिरित्यास्तां तावदेतत् । अनेकान्तादितीदमेव ज्ञापकम, हेतौ कापि भवति । तेनानित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादि सिद्धम् । १. दुस्तरम् । २. तस्मै नमः इति शेषः । ३. सम्बन्धान्तरेण अ०, मु०। ४. 'प्रकृत्यादिविभागेन' इति पुनरुकः । ५. -मैक्याधि-मु०। ६. जनकयोरपि मु०। ७. च भागा-म०। ८. पञ्चम्यपि । For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० १ सू० २ 1 उत्तरत्र त्वेकदेशाद्व्यवायोऽधिकार इति । वक्ष्यति - "सस्थानक्रियं स्वम् [१|१| २] इति । एतच्च वस्तुना साधर्म्य - वैधर्म्यात्मकेऽनेकान्ते सत्युपपद्यते । तथा हि काराकारयोः ह्रस्वदीर्घकालभेदेन वैधर्म्येऽपि तुल्यस्थान करणत्वेन साधर्म्यमस्तीति स्वसज्ञाव्यवहारः सिध्यति । यदि हि साधर्म्यमेव स्यात्; तदास्तित्वेनेवान्यैरपि धर्मैः साधर्म्ये सर्वमेकं प्रसज्येत । यदि च वैधर्म्यमेव तदा कस्यचिदस्तित्वमपरस्य नास्तित्वमन्यस्य चान्यत् स्यात् । "धु मृत्" [१|१| ५ ] इति श्रन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थवच्छब्दरूपं मृत्सञ्ज्ञकमनेकान्तात् सिध्यति । तथा हिविभक्त्यन्तस्य च शब्दस्य प्रयोगादर्थे ज्ञानमुत्पद्यत इति सङ्घाता अर्थवन्तो दृष्टाः; तदवयवानामप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थवत्ता जायते । वृज्ञावित्यत्र विसर्जनीयाभावादेकत्वार्थो निवृत्तः, कारभावाद् द्वित्वं जातम् । कारान्तवृक्षशब्दान्वयाज्जातिरन्वयिनी प्रतीयते । अन्वयव्यतिरेकौ च भावाद्येकान्तवादे न स्तः । तथा "ध्यपाये ध्रुवमपादानम्” [१|२|११०] इत्यादिषट्कारकी नित्यणिकपक्षयोर्नोपपद्यते व्यपायधौव्याद्यभावात् । उक्त च" इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेष क्रमो व्ययोयमनुषङ्गजं फलमिदं दशेयं मम । सुहृदयं द्विषन् प्रयतदेशकालाविमा विति प्रतिवितर्कयन् प्रयतते बुधो नेतरः ॥" सस्थानक्रियं स्वम् || १|१|२ || स्थानं ताल्वादि, क्रिया स्पृष्टतादिका । समाना स्थाने क्रिया यस्य, सामर्थ्यात् स्थानमपि समानं लभ्यते । अथवा समानं स्थानक्रियं यस्य, समानस्येति योगविभागात् सादेशः, तत् संस्थानक्रियं स्वसंज्ञ भवति । श्रात्मलाभमापद्यमाना वर्णास्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं वर्णोत्पत्तिस्थानमित्यर्थः । तदष्टविधम् "अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा । जिवामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च ॥” इति । द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुरान्तरः परिस्पन्दः क्रिया । सा चतुर्विधा - स्पृष्टता ईषत्स्पृष्टता विवृतता ईषद्विवृतता चेति । ध्वनावुत्पद्यमाने यया स्थानानि स्पृशति सा स्पृष्टता । मनाक् स्पर्शे ईषत्स्पृष्टता । दूरेण स्पर्शे विवृतता । समीपेन स्पर्श ईषद्विवृतता । कस्य पुनः किं स्थानम् ? अकुहविसर्जनीयाः कण्ठ्याः । हविसर्जनीयावरस्यावेकेषाम् । जिह्वामूलीयो निह्वयः । सर्वमुखस्थानमवर्णमेके मन्यन्ते । इशयच्वेदैतस्तालव्याः । एदैतौ कण्ठतालव्यावेकेषाम् । उप्योदौदुपध्मानीया श्रोष्ठ्याः । श्रोदौतौ कण्ठोष्ठयावेकेषाम् । वकारो दन्तोष्ठ्यः । सुक्क स्थानमेके वाञ्छन्ति । ऋटुरषा मूर्धन्याः । रेफो दन्तमूल्य एकेषाम् । लृतुलसा दन्त्याः । नासिक्यो ऽनुस्वारः । ञमङणनाः स्वस्थानाः । नासिकास्थाना एकेषाम् । तेषां स्वसञ्ज्ञाप्राप्तिर्दोषः । स्पृष्टिः स्पृष्ट ं स्पृष्टानुगतं करणं कृतिरुच्चारणमेषामिति स्पृष्टकरणा वर्ग्याः । ईषत्स्पृष्टकरणा अन्तःस्थाः । ईषद्विवृत करणा ऊष्माणः । विवृतकरणाः स्वराः । तेभ्य एदोतौ विवृततरौ । तेन दध्येतत् मध्वोदनमिति स्वेऽको दीलाभावः । ताभ्यामैदौतौ विवृततरौ । तेन दिश्यैन्द्रथां मध्वौषधम् । ताभ्यामवर्ण इति । तेन पित्रर्थः, दध्यत्र, मध्वत्र । अन्ये संवृतमकारमिच्छन्ति लोके । शास्त्रव्यवहारे तु विवृतम् । एतच्चायुक्तम्, लोकशास्त्रयोरुच्चारणं प्रत्यविशेषात् । अयं च प्रपञ्चश्चिन्तनीयः । स्वरेभ्यो विवृततराः श्रावर्णेच इति । इयत्यपि निर्देशे न दोषं पश्यामः । कार उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितः । स प्रत्येकं ङसञ्ज्ञकोऽङसंज्ञकः " । एवं दी, एवं पः । एवमष्टादशप्रभेदोऽवर्णः तथा इवर्ग:, तथा उवर्णः, तथा ऋवर्णः, तथा लृवर्णः । कथं लृकारो द्विमात्रः ? शक्तिजानुकरणापेक्षया । सन्ध्यक्षराणां प्रान सन्ति, तान्यतो द्वादशप्रभेदानि । अन्तःस्था यवला द्विप्रभेदाः नासिक्येतरभेदात् । एवमर्थ १२ इत्य i १. उत्तरसूत्र क ब ० उत्तरसूत्र कदेशाध्याचायो - मु० । २. अनुवृतिरित्यर्थः । ३. नकारण- अ०, स०, ४.-न्यत् । अधु ब०, मु० | ५. च भावावेकान्त-मु० । ६. प्रतिपु 'द्विषत्' इति पाठ: । ७. पा० शि० १३ | ८. पाणिनीयानाम् । १. श्रोष्ठप्रान्तयोः सृक्कम् | १०. श्रवर्णेच ब०, स० मु० । ११. कः, एवं प्रः, एवं दी:, अ०, ब०, स० । १२. - मत्र चै - श्र० । For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१ पा० १ सू० ३-६ ] महावृत्तिसहितम् चैतेऽणसु पठ्यन्ते । अण् स्वं गृह्णातीति यथा स्यात् । रेफोष्मणां स्वा न सन्ति । वर्ग्यः स्ववर्येण स्वसञ्शो भवति । उदाहरण-लोकाग्रम् । मुनीशः । स्थानग्रहणं किम् ? कचटतपानां समानक्रियाणां भिन्नस्थानानां मा भूत्। तर्ता तप्तुमिति । अत्र "झरो झरि स्वे" [५।४।१३६] इति पकारस्य तकारे खं प्रसज्येत । क्रियाग्रहणं किम् ? इचुयशानां समानस्थानानां भिन्नक्रियाणां मा भृत् । तत्र को दोषः ? अरुश्श्च्योततीत्यत्र "झरो झरि स्वे" [५।४।१३६] इति शकारस्य चकारे खं प्रसज्येत । "ऋकारलूकारयोः स्वसज्ञा वक्तव्या" [वा०] । पितृ लकारः पितृकारः। स्वप्रदेशाः "स्वेऽको दी:" [४।३।८८] इत्येवमादयः । शास्त्रलाघवाथै संज्ञाकरणम् । हलोऽनन्तराः स्फः ।। ११॥३॥ हलोऽनन्तराः विजातीयैरम्भिरव्यवहिताः सम्बद्धोच्चारणाः स्फसंज्ञा भवन्ति । समुदाये वाक्यपरिसमाप्तिराश्रीयते । तेन प्रत्येक स्फसञ्ज्ञा न भवति । हल इति जात्यपेक्षो बहुत्वनिर्देशः । तेन द्वयोर्बहूनां च स्फसज्ञा । शर्म-कर्मेति रमौ । इन्द्रश्चन्द्र इति नदराः । हल इति किम् ? तितउः। "तनेड उः सन्वच्च' इति डउः । अत्राकारोकारावनन्तरौ स्फान्तखं प्रसज्येत । अनन्तरा इति किम् ? पचति पनसम् । श्राद्य रूपं प्रत्युदाहरणं पनसमित्यत्र "स्फादेः स्कोऽन्ते च" [ ४१३।४६ ] इति सखं स्यात् । स्फ इति वर्णपिण्डेन सज्ञाकरणं किम् ? एवंरूपः समुदायः स्फसञ्ज्ञो यथा स्यादित्येवमर्थम् । स्कप्रदेशाः "स्फेरुः" [१।२।१००] "लिडस्फात् किन्” [१।१।७६] इत्येवमादयः । नासिक्यो ङः॥शश४|| नासिकायां भवो वणों डसज्ञो भवति । नासिकायाश्चावर्णनगरयोनसादेशो ये विहितः । ञमङणना उदाहरणम् ।: परस्परं स्वसज्ञा स्यात् इति चेत् । नैवम् ; स्वस्थानप्रभवा एवामी । उपचारान्नासिक्यत्वम् । यथा मुखप्रभवोऽपि स्वर उपचाराद्वंशे भवो वंश्य इत्युच्यते । तथापि सति मुख्येऽनुस्वारे नासिक्ये कथमुपचरितग्रहणम् । तस्य डसंज्ञायां प्रयोजनं नास्तीत्यग्रहणम् । ङसज्ञाकार्य शान्तो दान्त इति "ढस्य क्विझलो: किति" [ १३] इति दीत्वम् । नासिक्य इति किम् ? तप्तम् । "अनुदात्तोपदेश" [४।४।३७] इत्यादिना ङखन प्रसज्येत । पक्कः पक्कवान् इत्यत्र "डस्य क्विझलो:"[४।४।१३ ] इति दीत्वं स्यात् । वत्वस्य चासिद्धत्वात् "अनुदात्तोपदेश' [ ४१४३७ ] इत्यादिना ङखं च प्रसज्येत । __ अधु मृत् ।।१।१५। धुवर्जितमर्थवच्छब्दरूपं मृत्सझं भवति । धोरर्थवतः पर्युदासाचा [८] र्थवत्त्वं लभ्यते । अर्थश्चाभिधेयो भावाभावरूपः । तत्र भावरूपो जातिगुणक्रियाद्रव्यभेदेन चतुर्विधः । गौः । शुक्लः । पाचकः । इति । अद्रव्यविवक्षायां जात्यादिनार्थवत्त्वम् । द्रव्याभिधाने तु द्रव्यगुणलिङ्गसंख्याकर्मादयो व्यपदिश्यन्ते । तेषां द्योतनार्थ टाबादयः स्वादयश्चोत्पद्यन्ते। एवं डित्थो डविथः । कुण्डं पीठम् । अभावरूपाभिधाने अभावो विनाशः । शशविषाणम् । अध्विति किम् ? अहन् । मृत्त्वे नखं स्यात् । पर्युदासादर्थवदिति किम् ? धनं वनम् । नकारावधेम॒सञ्ज्ञायां नखं प्रसज्येत । लूः पूरिति वच्यन्तस्य धुत्वेऽपि कृदन्तत्वान् मृत्सज्ञा। मृत्प्रदेशाः"ड्याम्मृदः', [३।१११] इत्येवमादयः । क्रदधत्साः ॥श६|| कृदन्तं हृदन्तं ससञ्जकञ्च मृत्सझ भवति । कृत-ज्ञाता। ज्ञातव्यम । हतप्राजापत्यः । प्राकम्पनिः । सः-जिनधर्मः । साधुवृत्तम् । “सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थ : [परि०] 'नियमश्च विधिमुखः प्रतिषेधफलः' इति त्यान्तेषु कृ. दन्तस्यैव मृत्संज्ञा । इह मा भूत् । असिचन् । अभवन् । उत्पन्नानां स्वादीनामेकत्वादिनियम इत्यस्मिन् दर्शने स्वायत्पत्तिः स्यात् । इह च काण्डे कुख्य रमते राजकुलमिति "प्रो नपि' [११] इति मृत्त्वात्प्रादेशः स्यात् । सग्रहणमपि नियमार्थम् | अर्थवत्संघातानां ससंज्ञकस्यैव मृत्संज्ञा, वाक्यस्य माभूत् । साधुधमे बृत इति, "सुपा धुमृदो:" [११४४१४२] इति सुप उपप्रसज्येत । सग्रहणात् तुल्यजातीयस्यैव समुदायस्य वाक्यस्य निवृत्तिः, न प्रकृतित्यसमुदायस्य । तेन "वा सुपो बहुःप्राक्तु १२७इति वहौ केडकचि च कृते बहुतृणं कुमारिका उच्चकैः पठतीति मृत्त्वं न निवर्तते । ननु च "सुम्मिङन्तं पदम्" [१२।१०३] १.-सम्बन्धो-इति पाठः । २.-ति नै-अ० । ३. खम्प्रस-इति सुवचम् । ४.-ना चु खं च मु० । ५. स्यात् । अर्थवत्पर्यु-अ०, स०।-त् । अर्थवत: पर्यु-ब०। ६. न्यायसं० । ७. मुखप्रतिषेधफलमिमु०, स०।८. मते । १. कचि कृ-म०। For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० १ सू०७-१० इत्यत्रान्तग्रहणादन्यत्र " संज्ञाविधौ त्यग्रहणात्तदन्तविधिर्नास्ति" [परि० ] इत्युक्तं तत्कथं कृदन्तहृदन्तग्रहणम् ? नायं संज्ञाविधिः । पूर्वेण विहिताया मृत्संज्ञाया नियमोऽयम् । अथवा “सात्” [ ५।४।७७ ] इति षत्वप्रतिषेधादिह तदन्तविधिर्ज्ञायते । श्रन्यथा सादित्येतस्य केवलस्य मृत्त्वे "नाद्यन्ते” [५।४।७६ ] इत्यनेनैव प्रतिषेधः सिद्धः स्यात् । श्रथ “कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम्" [परि० ] इति कृद्ग्रहणं समुदायविध्यर्थं न नियमार्थम् । तेन देवदत्तेन कृंतमित्यादेः समुदायस्य मृत्त्वात् " सुपो धुमृदो: [ १।४।१४२ ] इति सुपः उप् प्रसज्येत । नैष दोषः, “साधनं कृता बहुलम्” [ १1३।२६ ] इत्यस्यानर्थक्यप्रसङ्गात् । सर्वशब्दानां व्युत्पत्तिरस्तीत्यस्मिन् पो, पूर्वसूत्रे नास्त्युदाहरणं, संज्ञार्थमेव तत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रो नपि ॥ १|१|७|| मृदिति वर्तमानमर्थात्तान्तं सम्पद्यते । प्रादेशो भवति नपि वर्तमानस्य मृदः । नत्रिति नपुंसकलिङ्गस्य संज्ञा पूर्वेषाम् । श्रियमतिक्रान्तमतिश्रि । अतिरि । प्रतिवधु कुलम् । अतिनु जलम् । Sardara तालव्यौ । ऊकारौकारौ च श्रोष्ठयावस्माकम्, ततः "स्थानेऽन्तरतमः ” [१1१1४७ ] इति परिभाषया अन्त्यस्याचः प्रादेशः । नपीति किम् ? राजकुमारी । अग्रणीः । मृद इति किम् ? रमते कुलम् । नन्वलिङ्गत्वा - दाख्यातस्यात्र प्रादेशाप्रासिरत एवात्रापि न प्रादेश: कारडीभूतमिति । इह तर्हि मा भूत् । काण्डे तिष्ठतः, कुब्ये तिष्ठत इति । अत्र मृदधिकाराद् मृदमृदोरेकादेशी मुद्रन्न भवति । स्त्री गोर्नीः ॥ ११८ ॥ न्यग्भूतो यः स्त्रीत्यः गोशब्दश्च तदन्तस्य मृदः प्रादेशो भवति । स्त्री इति स्वरितचिह्नितनिर्देशात् स्त्रियामित्येवंविहितस्य त्यस्य ग्रहणम् । निष्कौशाम्बिः । निर्मधुरः । उभयगतिरिह शास्त्रे । तैन एकविभक्तिकत्वादप्रधानत्वाच्च शास्त्रीयं लौकिकं च न्यक्त्वं गृह्यते । "त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेः " इतीयं परिभाषा स्त्रीत्यग्रहणान्नेष्यते । तेन - प्रतितिलपीडनिः । ग्रतिराजकुमारिः । चित्रगुः । श्वेतगुः । 'वोक्तत्वादप्रधानत्वाच्च न्यक्त्वम् । स्त्री इति स्वरितचिह्नितग्रहणं किम् ? तिलक्ष्मीः । श्रतिश्रीः । नीच इति किम् ? साधुविद्या । सुगौः । इह राजकुमारीपुत्र : सुगोकुलमिति यदपेक्षं न्यक्त्वं तत्प्रति तदन्तत्वं नास्तीति न प्रादेशः । मृद इत्यधिकारः किमर्थः ? कुमारीपुत्रः गोकुलम् "वोक्तं व्यक" [१।३।१३] इति प्रादेशः प्रसज्येत । "ईयसो बसे प्रतिषेधो वक्तव्यः " (वा० ) बह्वयः श्रेयस्यो यस्य बहुश्रेयसी पुरुषः । विद्यमानश्रेयसी । सान्तो विधिरनित्य इति "ऋन्मो: " [ ४।२।१५३ ] इति कवपि न भवति । दुप्प् ॥ ११६ ॥ स्त्रीग्रहणं नीच इति चानुवर्तते । हृदुपि सति स्त्रीत्यस्य नीच उन्भवति । श्रामलकम् । कुवलम् । बदरम् । श्रामलक्या अवयवः फलम् । "नित्यं दुशरादे: " [३|३|१०३] इति मयट् । इतराभ्यां "प्राग् द्वोरण्” [३।११६८ ] तयोः "उप् फले” [३।३।१२१ ] इत्युप् । स्त्रीत्यस्य पूर्वेण प्रादेशे प्राप्ते उबनेन क्रियते । तस्य “परेऽचः पूर्वविधौ” [१।१।५७ ] इति स्थानिवद्भावाद् “यस्य ड्य च" [४|४|१३६ ] इत्यकारस्य खं प्राप्तमीविधिं प्रति स्थानिवद्भावप्रतिषेधान्न भवति । एवं पञ्चेन्द्रः । पञ्चशष्कुलः । पञ्चेन्द्रायो देवता श्रस्य "हृदर्थ--" [१।३।४६ ] इति प्रसः "संख्यादी रश्च" [१।३।४७ ] इति रसंज्ञः, "प्राोरण' [३।१।६८] इति, तस्य "स्योदनपत्ये” [३।१।७४ ] इत्युप् । स्त्रीत्यस्थोपि "सन्नियोगशिक्षनामन्यतरापाये उभयोरप्यभाव:" [परि०] इत्यानुको निवृत्तिः । पञ्चभिः शष्कुलीभिः क्रीतः श्रहहिणः “रादुबखौ”[३।४।२६] इत्युप् । हृदिति किम् ? गार्गीपुत्रः । सुप उचत्र । उपीति किम् । गार्गी त्वम् । नीच इत्येव - अवन्ती । कुन्ती । कुरूः । श्रवन्तेरपत्यं स्त्री "द्विकुरुन द्यजाद कोशलाज्ज्य: ” [ ३ | १ | १५३ ] इति त्र्यः । तस्य "कुन्त्यवन्ति कुरुभ्यः स्त्रियाम्” [३।१।१५७] इत्युप् । “ड़तो मनुष्यजातेः” [३ | १|५५ ] इति ङी । "ऊरुतः”[३|१|५६] इति ऊः । त्र उपि सतीत्युच्यमाने प्रसज्येत । इद् गोण्याः ||१|१|१०|| इकारादेशो भवति गोण्या हृदुपि सति । पञ्चभिर्गोणीभिः क्रीतः पञ्चगोणिः । दशगेणिः। आर्हाडणो “रादुबखौ" [३।४।२६] इत्युपि कृते स्त्रीत्यस्य पूर्वेणोपि प्राप्ते ऽनेन इकारः । गोण्या इति सूत्रे प्रकृतप्रादेशेन सिद्धे इद्वचनं किम् ? कचिदन्यत्रापि यथा स्यात् । पञ्चभिः सूचिभिः क्रीतः पञ्चसूचिः । सप्तसूचिः । १. चोक्क - मु० । २. गौरीपुत्रः ब० । For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० । सू. ११-१..] महावृत्तिसहितम् आकालोऽच प्रदीपः ॥११॥११॥ श्रा इति मात्रिकद्विमात्रिकत्रिमात्राणां संहितया निर्देशः । प्र-दी-प इति "सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्टः” [५/२।११४] इति जसः स्थाने सुः । अश्रा श्रा३इत्येवं काल इव कालो यस्य सोऽच् यथासंख्यं प्रदीप इत्येवंसंज्ञो भवति । अकाल:-दधि । मधु । पितृ । आकालः–खट्वा । गौरी । वामोरूः । श्रा ३ काल:-श्रागच्छ भो माणव जिनदत्ता ३ इत्यादयः। कालग्रहणं प्रत्येक परिमाणार्थम् । ततः अकाल इति विशेषणाद भिन्नकालयोर्दीपयोर्ग्रहणं न भवति । अज्ग्रहणं किमर्थम् ? हलचर्चा संघातनिवृत्त्यर्थम् । प्रतक्ष्य । तितउच्छत्रमिति । प्र-दी-पप्रदेशाः "प्रो नपि [११११७ ] इत्येवमादयः। अचश्च ॥११॥१२॥ परिभाषेयम् । अचः स्थाने ते प्रदी पसंज्ञका भवन्ति । "प्रो नपि" [10] इति । अतिनु । अतिथि । इच्छातो विशेषणविशेष्यभाव इति अजन्तस्य प्रादेशः। अच इति किम् ? सुवाक् पूतकुलम् । हलः प्रो न भवति । “दीरकृद्रों" [५।२।१३४] इति । चीयते । स्तूयते । अच इति किम् ? भिद्यते । "शमित्यामदोदी" ५।।७२] इत्यत्र गृह्यमाणेन शमादिना विशिष्यत इत्यनजन्तस्यापि दीत्वम् । शाम्यति । वाक्यटेः५ इत्यत्रापि गृह्यमाणेन टिना अविशिष्यते । अागच्छ भो माणव जिनदत्ता ३। अच इति किम ? धर्मवी३त् । तकारस्य मा भूत् । चकारः किमर्थः ? संज्ञाविधौ नियमार्थः । इह मा भूत् । द्यौः । पन्थाः । सः। धुभ्याम् ।धुभिः। उच्चनीचावुदात्तानुदात्तौ ॥१।१।१३॥ अजिति वर्तते । उच्चैरुपलभ्यमानोऽच् उदात्तसंज्ञो भवति । नीचैरुपलभ्यमानोऽनुदात्तसंज्ञो भवति । स्थानकृतमुच्चत्वं नीचत्वं च गुणः संशिनो विशेषणम् । समान एव स्थाने ऊर्जभागनिष्पन्नोऽच उदात्तसंज्ञो भवति, नंचभागनिव्यन्नोऽनुदात इति ( "नित्याः शब्दार्थसंबन्धाः इति यैरिष्यते तेषां निरवयवस्य नित्यस्य शब्दस्य अवयवोपचयापचयाभावात् उदात्तादिव्यपदेशो न घटते. सावयवत्वे च तेषामनित्यत्वं प्राप्नोति । न च नित्यस्य स्थान करणव्यापारविशेषाद्विशेषः प्रसज्यते । क्षणिकपनेऽपि नैका नित्या स्वरजातिरस्ति यामपेक्ष्यायमत्रोच्च यं नीचैरिति परस्परापेक्षो व्यवहारो भवेत् । तस्मादतमनेकान्तमाश्रित्योदातादयः समर्थनीयाः । न च लोकप्रतीतेषु शब्देषु विभागेनोदात्तादयः प्रतीयन्ते केवलं शास्त्रे व्यवहारार्थ प्रति संज्ञायन्ते । भू इति उदात्तत्वादिट् । भविता । एध स्पर्ध इत्येतयोरन्तोऽनुदात्त इति “अनुदात्त तो दः" [१।२।६] इति दो भवति । एधते । स्पर्धते । उदात्तानुदात्तप्रदेशेषु उच्चनीचगुणविशिष्टस्य ग्रहणं प्रत्येतव्यम् । व्यामिशः स्वरितः॥१११४॥ उच्चनीचगुणव्यामिश्रोऽच् स्वरितसंज्ञो भवति । पच यज इत्यन्तस्य स्वरितत्वात् "अस्वरितेत: कत्राप्य फले' [१।२।६८] इति दो भवति । पचे । यजे । स्वरितप्रदेशाः "स्वरितेनाधिकारः” [ ११२।५ ] हत्येवमादयः । १२१५॥ प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तिराश्रीयते । प्रत्येकमादैचां वर्णानामैबित्येषा संज्ञा भवति । पारिशेष्यात्संज्ञासंजिसम्बन्धो ज्ञायते । तथा हि नानर्थकमिदमाचार्यप्रामाण्यात् । 'साधनानुशासनमपि न भवति. श्रादैचां प्रत्याहारे उपदेशात् । ऐपशब्दस्यापि मृत्संज्ञा सिद्धा। नापि पूर्वापरप्रयोगनियमार्थम् । "सावैम्मे" [५।१७७]इत्यन्यथापि प्रयोगदर्शनात् । स्थान्यादेशार्थमपि न संभवति।“अवधात् [अवयवाहतो:][५।२।१६] "रायो हलि [५/१1१४४] "नावों रात्"[१।२।१०२]"मृजेरप्”[५।२।१]इति च उभयदर्शनात् । लिङ्गाभावान्नागमामिभावः। विशेषणविशेष्यभावोऽपि प्रतीतपदार्थयोर्भवति नीलोत्पलवत् । एवमन्यस्यार्थस्यासम्भवात संज्ञासंजिसम्बन्धः। लध्वक्षरा संज्ञा । श्रादैचामैपा तद्भावितानामतदभावितानां च सामान्येनैप्संज्ञा । तदभावितानाम हलामचा च संघातस्य प्र-दी-पसंज्ञानिवृत्यर्थः । २ 'क्ष' इत्यस्य हलसमुदायस्य 'प्र' संज्ञायां ल्यपि परतस्तुक प्रसज्येत । ३ तितउच्छन्नमित्यत्र 'उ' इति श्र-उसंघातस्य दीमंज्ञायां 'वा पदस्य' ३६४] इति विभाषया तक प्रसज्येत । ४. विशेष्यते अ०, ब०, स० । ५. परिशेषा-ब० । ६. साध्वनुशास-स० । ७ 'नाचो रात्' अ०, ब०, सः । एतच्च नोपलभ्यते । 'नावो रात्' इत्युपलभ्यते परन्तु नोचितमिदमत्र । ग्रन्थस्वारस्यात् “अतो नादेषैः [५।१।८३ ] इति प्रतिभाति । For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० . पा. १ सू० १६-२० दाहरणम्-नाडायनः । दैवदत्तिः । औपगवः । अतद्भावितानाम्-मालामयम् । रैमयम् । नौमयम् । विकाराऽर्थे "नित्य दुशरादेःश३।१०६] इति मयट । श्रादिति तपरकरणमैजर्थम् । तादपि परस्तपर इति । तेन तवैषा महौषधिरित्यादिषु त्रिमात्रचतुर्मात्राणां निवृत्तिः । “प्रादैगैप्" [१1१1१५] इत्यत्र “सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिटः” इति जसः स्थाने सुः । ऐप्प्रदेशाः “मृऔरैप' [५।२।१] इत्येवमादयः ।। अदेउप ॥ १।१।१६ ।। अदेङां वर्णानां प्रत्येकमेबित्येषा संज्ञा भवति । अत्राप्यतद्भावितानां तद्भावितानामदेडामेप्संज्ञा । अतद्भावितानाम्-पचन्ति । पचे । एधन्ते । "एप्यतोऽपदे"[।३।८४] इति पररूपम् । तद्भावितानाम् –कर्ता । तरति । चेता । स्तोता। ऋकारस्यैबै प्रसङ्ग स्थानतोऽन्तरतमौ अकाराकारौ भवतः । तौ च प्रसज्यमानावेव रन्तौ । अदिति तपरकरणं दी पनिवृत्त्यर्थमेङर्थ च । तेन मालेयं खट वोढा इत्यत्र त्रिमात्रचतुर्मात्राणां निवृत्तिः । ए प्रदेशाः "मिदेरेप्" [५।२१७६] इत्येवमादयः ।। इकस्तौ ।। १।१।१७ ॥ परिभाषेयम् । ऐबेपौ संज्ञया विधीयमानौ इक एव स्थाने भवतः। स्थानिनियमोऽयं न विधिनियम इति । कुत एतत् ? "सक्थ्यस्थिदध्यक्ष्णाम्" [५।१।५५] इतीको निर्देशात्, एबैपोलक्षणान्तरेण विधानाच्च । प्रत्यासत्तेः पूर्वमेबुदाहरणं वक्ष्यति । "गाऽगयो:५।२।१] । करोति । नयति । भविता | "सावैम्मे"[५।११७७]। अकार्षीत् । अनैषीत् । अहौषीत् । इच्छातो विशेषणविशेष्यभावः ।“मिदेरेप्' इत्यत्र गृह्यमाणेन मिदादिना इगविशेष्यते । तेनानन्त्यस्य भवति | "जुसि" [ ५।२।८०] "गाऽगयोः" [५।।८१] इति च गृह्यमाणमिका विशेष्यते इतीगन्तस्य भवति । इक इति किम् ? अात्संध्यक्षरव्यञ्जनानां मा भूत् । यानम् । ग्लायति । उम्भिता । अजित्यत्रानुवर्तनादै।पोः सम्बन्धे सिद्ध 'तौ ग्रहणं संज्ञाविधाने नियमार्थम् । द्यौः । पन्थाः । सः । यत्र स्थानी निर्दिश्यते तत्र नेदं व्याप्रियते । यथा “ब्णित्यच:"५/२।३] इति । _ नधुखेऽगे ॥ १।१।१८ ।। प्रतिषेधसामर्थ्यादेकदेशे धुर्वर्तते । धोः खं यस्मिन्नगे स धुखः । तन्निमित्तावैबेपौ न भवतः । लोलुवः । पोपुवः । मरीमृजः । यङन्तेभ्यः पचाहाच् । “योऽचि" [१।४।१४४] इति यङ उप. । अतः खात् प्रागेव च यङ उ बेषितव्यः । अन्यथा देर्घ इत्यत्र अखमजा देश इति कृत्वा तस्य स्थानिवद्भावात् “दीकोऽचि डिति युट” [४।४।६२] इति युट् प्रसज्येत । धुग्रहणं किम् ? लूञ्-लविता । खविधिर्बलवानिति प्रागेव धुसंज्ञाया अनुबन्धनाशः । अत्रागनिमित्तं खं नास्तीति व्यङ्गवकल्य नाशङ्कन यतो धुग्रहणे सति बसो लभ्यतो धोः खं यस्मिन्निति । बसेन अग इत्यस्य विशेषणं किम् ? क्नूयी, कोपयति । अत्र पुकमाश्रित्य यखं नागनिमित्तमिति न प्रतिषेधः। षसे तु प्रसज्येत । अग इति किम् ? रोरवीति । गनिमित्त एब्भवत्येव । अत्रापि यङ खमगनिमित्तं न भवतीति व्यङ्गवैकल्यं न मन्तव्यम् । यतोऽगग्रहणे सति धुखनिमित्तत्वं लभ्यते । इक इत्येव । अभाजि । रागः । कङिति ॥२०१९।। गिति किति ङिति च निमित्तभूते यावैबेपौ प्राप्नुतस्तौ न भवतः। गिति-- "ग्लाभूजिस्थः वस्नुः” [ २।२।११५] इति, भूष्णुः। जिष्णुः। किति-चितम् । स्तुतम् । भिन्नम् । मृष्टम् । डिति-चिनुतः। चिन्वन्ति । मृष्टः। मृजन्ति । इक इत्येव । कामयते । अचिनवमित्यत्र लङो डित्वात्कस्मान्न प्रतिषेधः, "सूभवत्योर्मिङि" [५/२।८६] इति । अभूत् । भवतेह लादो मिङ्ये प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं ङितो लकारस्यादेशो ङिन्न भवतीति । यासुटो ङित्करणं च ज्ञापकम् । ईदूदेद्विर्दिः ।।१।१।२०।। ईत् ऊत् एत् इत्येवमन्तो यो द्विः स दिसंज्ञो भवति । अग्नी इति । वायू इति । खट्वे इति । तद्वदित्यनेन दुरदश्चैकादेशो द्विग्रहणेन गृह्यत इतीदायन्तश्च भवति व्यपदेशिवद्भावेन । मुख्यरूपेणायं द्विरेकारान्तः । पचेते इति । पचेथे इति । सत्यां दिसंज्ञायाम् "प्रकृत्याऽचि दिपाः" [४।३।१०३] १. निवृ-अ०, ब०, स० । २. अकारस्येत्यर्थः। ३. अकारनाश इत्यर्थः। ४. अच्स्थानिकादेश इत्यर्थः। ५, विध्यंग-ब० । ६. बसे त अ०, ब०, म०। ७. यङः स-१०, ब०, स०। ८. 'अगनि. मित्तं म' इत्यत्र 'अनिमित्तं न' इति पाठः स्वरसः । १. पस्नुः' मु०। १०. अभूत इत्यस्य 'सूभवत्योर्मिति' इत्यत: पूर्वमेव पाठो युक्तः । 'अभूत्' इत्यस्याने 'इत्यत्र' इत्यपि योग्यम् । For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११० १ सू. २१-२७ ] महावृत्तिसहितम् इति प्रकृतिभावः । ईदूदेदिति किम् ? वृक्षावत्र । तपकरणमसन्देहार्थम् "मणीवादिषु नेष्यते" मणीव | दम्पतीव । रोदसीव शोभेते । " संज्ञाविधौ त्यग्रहणे तदन्तविधिर्नास्ति" इति अशुक्ले शुक्ले सम्पन्ने शुक्लयास्तां वस्त्रे इति त्यखे त्याश्रयन्यायेन दिसंज्ञा न भवति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “ ईषद मातं द्मः ||१|१|२१|| एदिति निवृत्तम् । दकारस्य स्थाने यो मकारस्तस्मात्परावीदूतौ दिसंज्ञौ भवतः । श्रमी आसते । श्रमी अत्र । अमू आसते । अभू अत्र | "बहावीरेतः" [ ५८ ] इति मत्वमीत्वं च । " दादुर्दो मोsसोऽसे: " [ ५३ ] इति मत्वम् । द्विमात्रस्य चौकारस्य द्विमात्र ऊकारः । श्राश्रयान्म कारादीनां सिद्धि: । द इति किम् शम्यत्र । दाडिम्यत्र । म इति किम् ? द इति तानिर्देशपक्षे तेऽत्रेत्यत्र दकारादेशस्य 'परेणादेपि कृते स्थानिवद्भावात्तद्वद्भावाच्च दिसंज्ञा प्रसज्येत । कानिर्देशपदे चतुष्पद्यर्थ इत्यत्र स्यात् । ईदूदित्येव । इमेऽत्र । एकयोग निर्दिष्टानामेकदेशोऽनुवर्तते निवर्तते चैक देश इति एद्ग्रहणं निवृत्तमिति । श्रन्यथा अमुकेऽत्रेत्यत्रानुवर्तनसामर्थ्यादुकारककाराभ्यां व्यवधानेऽपि वचनप्रामाण्याद्दिसंज्ञा प्रसज्येत । निरेकाजनाङ् ||१|१|२२|| निसंज्ञ एकाच् अनाङ दिसंज्ञो भवति । ७ अपेहि । इ इन्द्रं पश्य । उ पायिना ह्यनुबन्धलिङ्गेन' पसर । निरित किम् ? चकारात्र । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रकृतेस्त्यस्य च विभागः । निरनुबन्धादकाराद् भिद्यते एल् । एकश्चासावच्च एकाजिति किम् ? प्रश्नाति । अनाङिति किम् ? श्री उदकान्तात् । श्रोदकान्तात् । ङित्करणं येष्वर्थेषु ङिदयं वर्तते तत्र प्रतिषेधो यथा स्यादन्यत्र दिसंज्ञ व भवति । क्रियायोगे मर्यादाऽभि विधौ च यः । तं विद्याद् वाक्यस्मरणयोरङित् ॥” यथाक्रमम् । श्रा उष्णम् श्रोष्णम् । श्रा इहि एहि । श्रा उदकान्तात् श्रदकान्तात् । श्रा अर्भकेभ्यः श्रर्भकेभ्यः । श्रर्भकेभ्यो यशः प्रतीतम् । वाक्यपूरणे स्मरणे चार्थे ङित्त्वाभावाद्दिसंज्ञा । श्रा एवं नु मन्यसे । श्रा एवं किल तत् । ओत् ||१|१|२३|| अनेकार्थ आरम्भः । श्रोदन्तो निर्दिसंज्ञो भवति । श्रहो इति । उताहो इति । दिति प्रधानम् । वचनात्तु प्रधानेनापि तदन्तविधिः । तेनेह लाक्षणिकत्वान्न भवति । श्रदोऽभवत् । तिरोऽभवत् । अनुपदेशेऽदः [१/२/१३६] “तिरोऽन्तर्धी [ १/२/१४० ] इति निसंज्ञा । इह तु गौणत्वान्न भवति । अगौर्गौः सम्पन्नो गोभवत् । “च्विडाजूर्यादि : ” [ १/२/१३२ ] इति निसंज्ञा । गौणत्वाद्वाहीके गोशब्दस्य कथमैवादिकार्यमिति चेत् ? सामान्येन संस्तु तस्य पदस्य प्रयोगाददोषः । कौ तौ ॥ १|१|२४|| किनिमित्तो य प्रकारस्तदन्त इतौ परतो वा दिसंज्ञो भवति । पटो इति । पटविति । साधो इती । साधविती । काविति किम् ? गवित्ययमाह । गौरिति वक्तव्यमशक्त्या गो इत्युक्तमनुक्रियतेऽनेकान्ताश्रयणात् । अनुकार्यानुकरणयोरभेदविवक्षायामसत्यर्थवत्त्वे विभक्त्यनुत्पाद: । इताविति किम् ? पटोऽत्र । उञः ||१|१|२५|| उञित्येतस्य वा दिसंज्ञा भवतीतौ परतः । उ इति, विति । "निरेकाजनाङ " [ १।१।२२ ] इति नित्यं दिसंज्ञा प्राप्ता । सानुबन्धकनिर्देशः किमर्थः १ ग्रहो इति । उताहो इति । निसंघातपक्षे निरनुबन्धस्य मा भूत् । ऊम् ||१|११२६ ॥ उञः ऊमित्ययमादेशो भवतीतौ परतः । इति द्विमात्रो नासिक्यो दिसंज्ञकश्च ऊ इति यद्यपठितोऽपि निसंज्ञकोऽस्ति तस्येतावेव प्रयोगो यथा स्यादित्यारम्भः । दाat वपि ॥ १|१|२७|| दा धा इत्येवंरूपा धवो भुसंज्ञका भवन्ति पितौ वर्जयित्वा । दारूपाश्च - For Private And Personal Use Only १. - यात्मका – श्र०, स० मु० । २. अकारेण इत्यर्थ: । ३. योगे निर्दि- - श्र० । ४. को दे स० । ५. निरिति ग्रहणे कस्मान्न भवतीत्यत श्राह श्रपायिनेत्यादि । ६. लिङ्गेन निरनुबन्धलिङ्गेन निर - अ०, मु० । परमसमीचीन एष पाठः । ७. एण्व मु० ८ तेन विना मर्यादा । १ तेन सहाभिविधिः । १०, माछ डि - भ०, ब०, स० । ११. संस्कृतस्य ब० । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० पा० . सू. २८-३५ त्वारः। प्रणिददाति । दाण। प्रणिदाता । प्रणिदयते । प्रगिद्यति । धारूपो द्वौ। प्रणिदधाति । प्रणिधयति । दैपः पित्करणं ज्ञापकम् । अत्र प्रतिपदोक्लपरिभाषा नाश्रीयते । भुसंज्ञाकार्य "नेर्गदनद" [५/१०.] इत्यादिना णत्वं “भुमा" f 7 इत्यादिना हलीत्वं च । दीयते। धीयते। धीतं वत्सेन । अपिदिति किम् ? दायते बर्हिः। अवदायते भाजनम् । भूप्रदेशाः “भुस्थो:" [११] इत्येवमादयः। क्लक्लवतू तः॥॥॥२८॥ क्तश्च क्तवतुश्च तसंज्ञौ भवतः । रूपसंज्ञेयम् । कृतः । कृतवान् । भूत इति वर्तमाने इति तक्तवतुरूपौ त्यो भवतः । कारितः। कारितवान् । "ते सेटि" [ १५४] इति णे: खम् । भिन्नः । भिन्नवान् । "द्रान्तस्य तो नः"[५।३१५६] इति नत्वम् । ककारः कित्कार्यार्थः । उकार उगित्कार्यार्थः । तप्रदेशाः "ते सेटि" [४४।५४] इत्येवमादयः । संज्ञाः खुः॥११२६॥ संज्ञाशब्दवाच्योऽर्थः खुसंज्ञो भवति । खुप्रदेशाः "खावन्यपदार्थे" [॥३॥१८] इत्येवमादयः। भावकर्म डिः ॥११॥३०॥ भावकर्मशब्दवाच्योऽर्थो डिसंज्ञो भवति । डिप्रदेशाः "जिडौँ” [२।११६२] इत्येवमादयः । तत्र भावकर्मणोम्रहणं प्रत्येतव्यम् । शि धम् ॥ ३१॥ शि इत्येतद्धसंज्ञ भवति । शि इति नपुंसके जश्शसोरादेशस्यार्थवतो ग्रहणम् । कुण्डानि तिष्ठन्ति । कुण्डानि पश्य । धप्रदेशाः "धेऽकौ" [१४६] इत्येवमादयः । सुडनपः ।।१।१।३२।। सुडिति प्रत्याहारेण स्वौजसमौटां ग्रहणम् । सुट् धसंज्ञो भवति नपुंसकलिङ्गादन्यस्य । राजा । राजानौ । राजानः । राजानम् । राजानौ। "धेऽकौ" [४॥४॥६] इति दीत्वम् । सुडिति किम् ? राशः पश्य । अनप इति किम् ? सामनी । वेमनी । अनप इति पर्युदासात् स्त्रीपुंसम्बन्धिनः सुटो धसंज्ञा नसके न विधिन प्रतिषेधः । तत्र पूर्वेण जश्शसोरादेशस्य शेर्धसंज्ञा भवत्येव । ननु व्यक्तं स्त्रीपुंसग्रहणमेव कर्तव्यम् ? एवं तर्धनप इति निर्देशात् सापेक्षस्यापि नः सविधिर्भवतीति ज्ञाप्यते । तेन अश्राद्धभोजी अलवणभोजीत्येवमादयः सिद्धाः। कतिः संख्या ॥ ११॥३३॥ कतिशब्दः संख्यासंज्ञो भवति । कतिकृत्वः। कतिधा । कतिकः । किं परिमाणमेषां "किमः" [२४।१६२] "सख्यापरिमाणे डतिश्च" शि१६३] इति इतिः। कति वारान् भुक्त । कतिभिः प्रकारैः । कतिभिः क्रीत इति । यथाक्रमं "संख्याया भ्यावृत्तौ कृत्वस" [।२।२४] "संख्याया विधार्थे धा" १०६] "संख्यायाः कोऽतिशतः" ३११] इति क इत्येते भवन्ति । ननु प्रदेशेषु संख्याग्रहणेनान्वर्थविज्ञानात् संख्यायतेऽनयेति कृत्वा कतिशब्दस्यापि ग्रहणे सिद्धे किमर्थमिदम् ? नियमार्थम् । अनियमितेषु कतिशब्दस्यैव संख्यारूपता । तेन भूरिप्रभूतादीनां निवृत्तिः “संख्याबाड्डोऽबहुगणात्" [४।२।६६] इत्यत्र बहुगणयोः प्रतिषेधाद्भवति संख्याग्रहणम् । बहुकृत्वः । गणकृत्वः । वैपुल्यसङ्घयोन संख्यात्वम् | "वतोवट ३४२०] इति वचनं ज्ञापकं भवति वत्वन्तस्य संख्याग्रहणेन ग्रहणम् । तावतिकः । तावत्कः । संख्याप्रदेशाः "संख्यायाः कोऽतिशत:" [३।४।१६] इत्येवमादयः । ष्णान्तेल ॥ ११२३४॥ कतिः संख्येति वर्तते । षकारनकारान्ता संख्या कतिशब्दश्च इल्संज्ञौ भवतः । प्रणान्तेति पदस्य संख्यापेक्षः स्त्रीलिङ्गनिर्देशः। कतेरनुवर्तनसामर्थ्यादिलसंज्ञा। षट् । पञ्च । सप्त । कति तिष्ठन्ति । "उबिलः" [५1१1१६] इति जस उप । ष्णान्तेति संख्याविशेषणं किम् ? विप्रष. पामान इति अन्तग्रहणं बसनिर्देशेन संख्याप्रतिपत्त्यर्थमौपदेशिकार्थ च। तेन शतानीत्यादौ न भवति । इलप्रदेशाः "उबिला" [५।११६] इत्येवमादयः । सर्वादिः सर्वनाम ॥ १।१।३५ ।। सर्वादयः शब्दाः प्रत्येकं सर्वनामसंज्ञा भवन्ति । सर्वे । सर्वस्मै । सर्वेषाम् । स्त्रियाम्-सर्वस्यै । विश्वे । विश्वस्मै । उभशब्दस्य सर्वनाम्नों भा[१४॥३६] इत्येवमर्थः पाठः। १. जिडा-१०, स०। २, स्त्रीपुससम्ब-१०, स०। ३. नपः ब०। ५.-या अभ्या-मुः। ५.-दिस-मु०। ६.-मो भावत्ये-ब० । -म्नो भावत्ये-स० । For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० १ सू० ३६-३८ ] महावृत्तिसहितम् उभाभ्यां हेतुभ्याम् । उभयोर्हे लोर्वसति । द्विवचनटाप्परश्चायम् । उभौ पक्षौ । उभे कुले । उभे विद्ये । उभे । उभयस्मिन् । उभयेषाम् । जसि " प्रथमचरम " [१|१| ४१ ] आदिविकल्पात् पूर्वनिर्णयेनायमेव विधिः । उभये इति । डतरडतम इति त्यौ । कतरस्मै । इतर अन्य अन्यतर । इतरस्मै । अन्यस्मिन् । अन्यतरस्मै । व इत्ययं शब्दोऽन्यवाची । ये । लेषाम् । नेम । नेमस्मिन् । जसि वदयमाणो विकल्पः । नेमे । नेमाः । समशब्दः सर्वशब्दस्यार्थे । समे । समस्मिन् । अन्यत्र यथासंख्यं समाः । समे देशे तिष्ठतीति भवति । सिमः । सिमस्मै । पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम्” “स्वमज्ञातिधनाख्यायाम्" " " अन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोः ” त्यद् तद् यद् एतद् दम् इदम् एक द्वि । अत्वविधिं प्रति द्विपर्यन्तास्त्यदादयः । युष्मद् श्रस्मद् भवत् किम् ।' त्यदादीनां यद्यत्परं तत्तदुभयवाचि । सर्वनामेत्यन्वर्थसंज्ञाविज्ञानात् संज्ञोपसर्जनानां न भवति । सर्वो नाम कश्चित्तस्मै सर्वाय देहि । श्रतिक्रान्तः सर्वमतिसर्वस्तस्मै अतिसर्वाय । “पूर्वपदात् खावग: " [५|४|८७] इति णत्वं न भवति । सर्वनामप्रदेशाः “आम्यात्सर्वनाम्नः” [५|१|३४] इत्येवमादयः । वा दिक्स ||१|१|३६|| दिगुपदिष्टे से बसंज्ञके सर्वादीनि वा सर्वनामसंज्ञकानि भवन्ति । "न बे" [१|१|३७] इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । दक्षिणपूर्वस्यै । दक्षिणपूर्वायै । उत्तरपूर्वस्यै । उत्तरपूर्वायै । दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालमिति विगृह्यं “दिशोऽन्तराले” [११३३८८] इति बसः । “सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः " [वा०] इति पूर्वपदस्य पुंवद्भावः । उत्तरपदस्य " स्त्रीगोनींच: " [११] ८ ] इति प्रः । पुनष्टाप् । प्रतिपदोक्तस्य दिक्सस्य ग्रहणादिह नास्ति विकल्पः । दक्षिणैव पूर्वा श्रस्य मुग्धस्य दक्षिणपूर्वीय देहि । दक्षिणा च सापूर्वी च सा अस्मिन्नपि विग्रहे परत्वात् “दिशोऽन्तराले " [११३३८८ ] इतीयं प्राप्तिर्न राज्ञा दण्डवारितैति कर्तव्यमेवेदं सूत्रम् । दिग्रहणं किम् ? “न बे" इति प्रतिषेधं वक्ष्यति तस्य प्रतिषेधस्यास्य च विकल्पस्य विषयज्ञापनार्थम् । सग्रहणं किम् ? साधिकार विहिते बसे विकल्पो यथा स्यादातिदेशिके मा भूत् । दक्षिणदक्षिणस्मै देहि । “श्रबाधे" [३८] इति द्वित्वम् । अवदतिदेशश्च "न बे" इत्यत्रापीदं सग्रहणमनुवर्तते तेनापि न प्रतिषेधः । चग्रहणं किम् ? दक्षिणोत्तरपूर्वाणाम् । द्वन्द्वे विकल्पो मा भूत् । ननु प्रतिपदोक्तस्य ग्रहणमत्रोक्तं ततो द्वन्द्व " [१|१|३] इत्येव प्रतिषेधः सिद्धः । उत्तरार्थं तहि बग्रहणम् । नये ||१|१|३७|| बसे सर्वादीनि सर्वनामसंज्ञानि न भवन्ति । द्वयन्याय । त्र्यन्याय | "सर्वनामसंख्ययोः " इति वक्तव्येन पूर्वनिपातः संख्याया एवं । प्रियविश्वाय । प्रियोभयाय । इदमेव प्रतिषेधवचनं ज्ञापकमत्र तदन्तविधिरस्तीति । तेन परमसर्वस्मै इत्यत्रापि सर्वनामसंज्ञा । ननु सर्वनामसंज्ञायामन्वर्थविज्ञानात्संज्ञोपसर्जननिवृत्तिरुक्का सर्वोपसर्जनश्च बस इति सर्वनामसंज्ञायाः प्राप्त्यभावात्सूत्रमिदमनर्थकम् । नानर्थकमेतत् प्रयोजनसद्भावात् । कं पिताऽस्य ग्रहकं पिताऽस्य त्वत्कपितृकः । मत्कपितृकः । बसावयवस्य सर्वनामसंज्ञाविरहादग्मा भूत् । कुत्साद्यर्थे के परतः " त्यद्योश्व” [ ५ | १|१५७ ] इति खमादेशौ । स इत्येव । एकैकस्मिन् । “एको बघत्" [२२३३७] इत्यातिदेशिके बसे प्रतिषेधो मा भूत् । बाऽधिकारे पुनर्ब्रग्रहणं बसगर्भे द्वन्द्वेपि नित्यप्रतिषेधार्थम् । वस्त्रान्तरगृहान्तरा इति । ६ भासे ॥ १|१|३८ ॥ भासे सर्वादीनि सर्वनामसंज्ञानि न भवन्ति । मासपूर्वाय । संवत्सर पूर्वाय । मासेन पूर्वः । “पूर्वावरसदृश" [१|३|२८ ] आदिसूत्रेण भासः । सः इति वर्त्तमाने पुनः सग्रहणं भासार्थे वाक्येऽपि तत्संज्ञाप्रतिषेधार्थम् । मासेन पूर्वाय । मुख्ये च "पूर्वावर " [१|३|२८ ] इत्यादि भासे यद् वाक्यं तत्र प्रतिषेधो न । "साधनं कृता बहुलम् " [ ११३।२६] इति भासे । त्वयका कृतम् । मयका कृतम् । अन्यथा त्वत्केन कृतं मत्न कृतमित्यनिष्टं स्यात् । त्वयका मयकेति पूर्वं त्वमादेशौ । ततः सुबन्तादकू । तथा ह्यग्विधौ वक्ष्यति । मृदः सुपः इति च द्वयमपीहानुवर्त्तते । श्रभिधानतश्च व्यवस्था । तत्र मृदः प्राक् सुपोऽग्भवति । युष्मकाभिः । अस्माभिः । For Private And Personal Use Only १. एकशेषवादिनो हि “त्यदादीनामिथः सहोकौ यत्परं तच्छ्रिध्यते" इति वचनेन परस्य पूर्वार्थ - बाचितामभ्युपगच्छन्ति । परं “त्यदानीनां यद्यत्परं तत्तदुभयवाचि" इत्य ेकशेषम कृत्वैवायमाचार्य एकशेषप्रयोजनं निर्वाहयति । २. 'सर्वनाम इत्यत्र' इति शेषः । ३. सौन्रत्वात् इति शेषः । ४. 'प्रदाय' मु० | ५. "न बे" सूत्रार्थ मित्यर्थः । ६. 'एवं' मु० । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० १ पा० १ सू० ३१-४१ थुष्मासु । अस्मासु । युवकयोरावकयोरिति । क्वचित्तु सुबन्तस्याक् । त्वयका । मयका । त्वयकि । मयकि । द्वन्द्वे ||१|१|३९|| द्वन्द्वे से सर्वादिनि सर्वनामसंज्ञानि न भवन्ति । कतरकतमाय । कतरकतमात् । कतरकतमानाम् । जसि || १||४०|| द्वन्द्वे से सर्वादयः सर्वनामसंज्ञा वा भवन्ति । कतरकतमे । कतरकतमाः । पूर्वेण नित्यप्रतिषेधः प्राप्तः । जसीत्याधारनिर्देशाज्जसि कार्य शीभावो विभाष्यते । ऋक् तु पूर्वेणैव प्रतिषिद्धः । यदि जसि परतस्तत्संज्ञा विकल्येत तदा संज्ञापक्षेऽग्भवेत्, कतरकतमके इत्यनिष्टं प्रसज्येत । कृत्साद्यर्थाविवक्षायां तु के सति तद्व्यवधानान्न शीभावः । श्रतः कतरकतमका इति सिध्यति । न च केऽपि सति स्वार्थिकस्य प्रकृतिग्रहणेन ग्रहणम् । अन्यथा सर्वादौ डतरडतमग्रहणमनर्थकं स्यात्, सर्वनाम्न एव तयोर्विधानात् । प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः || १ | १|४१।। प्रथमादयः शब्दा जसि वा सर्वनामसंज्ञा भवन्ति । प्रथमे, प्रथमाः । चरमे, चरमाः । तय इति त्यग्रहणं तेन वचनात्संज्ञाविधावपि तदन्तविधिः । द्वाववयवावेषामिति द्वितये, द्वितयाः । "संख्याया अवयवे तयटू” [ ३ | ४| १६४ ] इति तयट् । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वाद्विकल्पः द्वये, द्वयाः । उभये । श्रयमुभयशब्दः सर्वादित्वान्नित्यं सर्वनामसंज्ञः । श्रल्पे, अल्पाः । अथें, अर्धाः । कतिपये, कतिपयाः । नेमे, नेमाः । नेमशब्दस्य प्राप्त ऽन्येषामप्राप्ते विभाषा । अत्रापि जसः कार्य प्रति विकल्पः । कुत्साद्यर्थे के कृते तेन व्यवधानात्पक्षेऽपि सर्वनामसंज्ञा न भवति । तेन प्रथमका इत्यादि सिद्धम् । पूर्वादयो नव ||१|१|२२|| पूर्वादयो नव सर्वादौ व्यवस्थिता जसि वा सर्वनामसंज्ञा भवन्ति । तथा हि“पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम्" "स्वमज्ञातिधनाख्यायाम्" “श्रन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोः" इति । पूर्वे, पूर्वाः । परे, पराः । वरे, श्रवराः । दक्षिणे, दक्षिणाः । उत्तरे, उत्तराः । अपरे, पराः । अधरे, अधराः । व्यवस्थायामिति किम् ? दक्षिणा इमे गाथकाः । अपरा वादिनः । नात्र दिग्देशकाल - कृतोऽवधिनियमो व्यवस्था प्रतीयते; किं तर्हि ? प्रावीण्यमन्यार्थता च । श्रसंज्ञायामिति किम् । उत्तरा कुरवः । व्यवस्थायामपीयं संज्ञा । तेषां स्त्रे शिष्याः स्वाः । यदा ज्ञातिधनयोः संज्ञारूपेण वर्तते स्वशब्दस्तदा नास्ति सर्वनामसंज्ञा । उल्मुकानीव स्वा दहन्ति । विद्यमाना अपि स्वा न दीयन्ते । अन्तरे ग्रहाः । श्रन्तरा ग्रहाः । नगरबाह्या इत्यर्थः । पुरीति वक्रव्यम् [ वा०] । अन्तरायाः पुर श्रागताः । बाह्याया इत्यर्थः। अन्तरे शाय्काः । श्रन्तराः शाटकाः । उपसंव्यानमित्युत्तरीयवस्त्रस्य संज्ञा । बहिर्योगोपसंव्यानयोरिति किम् ? हमें ग्रामाणामन्तराः । श्रयमन - योरन्तरे स्थितः । जसि कार्य विभाष्यते; अक्तु भवत्येव प्रतिपेधाभावात् । पूर्वके, पूर्वकाः । इत्येवमादि ज्ञयम् । ङिङस्योरतः | १|१|२३|| पूर्वादयो नव वेति चानुवर्तते । अकारान्तानि नव पूर्वादीनि ङिङस्योर्वा सर्वनामसंज्ञानि भवन्ति । पूर्वस्मिन् पूर्वे । पूर्वस्मात् पूर्वात् । परस्मिन् परे । परस्मात् परात् । इत्यादि योज्यम् | ङिङस्याश्रयं कार्यं विभाष्यते; अक्तु भवत्येव । श्रत इति किम् ? पूर्वस्याम् । पूर्वस्याः । 1 तीयस्य ङिति || ११ |४४ || तीयत्यान्तस्य ङिति वा सर्वनामसंज्ञा भवति । द्वितीयस्मै, द्वितीयाय । तृतीयस्याः, तृतीयाया । इह मुखादागतः पाशर्वादागतः “ मुखपार्श्वतसोरीयः " [ ३३२ | ११५ ग० ] इतीयः | मुखतीयः । पार्श्वतीयः । पर्वते जातः पर्वतीय इति । श्रमीषा लाक्षणिकत्वादग्रहणाम् । ङितीति किम् ? द्वितीयायाम् । ङिति कार्य विकल्प्यते; अक्तु न भवत्येव । कुत्सायर्थे के कृते द्वितीयकाय । इग्यणो जिः ||१|१|१५|| इक् यो यणः स्थाने भृतो भावी वा स जिसंशो भवति । इक् यण: थाने भाविवेनासत्वात् कथं जिसंज्ञ इति चेत्; संशिनो भावित्वात्संज्ञापि भाविनी । यथाऽस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति भावी। यथा “ष े ष्यस्य पुत्रपत्योजि : " [ ४| ३ |8 ] “वसोर्जि:' [ ४|४|११८ ] इति । कारीषगन्धीपुत्रः । For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० पा० १ सू० ४६-४८] महावृत्तिसहितम् विदुषः पश्य । शास्त्रान्तरेण भूतो यणः स्थाने इ स जिसंज्ञो यथा “जेः" [४।३।१५] इति परपूर्वत्वम् , जेरिति दीत्वम् । हूतः । गृहीतः । यदि यणः स्थाने इक् भाव्यमानो जिसंज्ञ इहापि स्यात् , अदुहितराम् । अक्षाभ्याम् । अनवा । दुह प्रात्मकर्मणि लङ्। "स्नोश्च जिश्च' [२।११५६] इति जियकोः प्रतिषेधः । शप तस्याप । अत्र लस्य स्थाने इट् वकारस्य स्थाने उदूठा? ततश्च "ज" ||३१५] इति परपवत्वं हल" [ २] इति दीत्वं च प्रसज्येत । नायं दोषः, भाविन्या संज्ञया विधीयमानस्येको जित्वात। "कार्यकालं संज्ञापरिभाषम" इति । जिप्रदेशाह " ब्यस्य पुत्रपत्योर्जिः" [३६] इत्येवमादयः ता स्थाने ॥ ४६॥ येयमनुसूत्रमुच्चारिता ता सा स्थान एव ज्ञातव्या । बह्वो हि तार्थाः। स्वस्वामिसंबन्धसमीपसमूहविकारावयवस्थानादयः । तेषु प्राप्तेषु नियमः क्रियत-अन्यार्थसंप्रत्ययो मा भूदिति । नित्यशब्दार्थसंबन्धविवक्षायां स्थानशब्दः प्रसङ्गवाची। प्रसङ्गश्च प्राप्ताहवं स्वार्थप्रत्यायकावसरो वा। यथा गरो स्थाने शिष्य उपचर्यते इति गुरोः पसङ्ग इति गभ्यते । एवमस्तेः स्थाने प्रसङ्ग भूः। भविता । भवितम । भवितव्यम् । ब्रजः प्रसङ्ग वचिर्भवति । वक्ता । वक्तम् । वक्तव्यम् । अनित्यशब्दार्थसम्बन्धविवक्षायामपकवाची स्थानशब्दः । यथा गोः स्थाने अश्वं बन्नाति । एवमस्तेः स्थानेऽपकर्षे भूर्भवति । अस्तेरनन्तरमस्ते समीप इत्येवमादयो निवर्तिता भवन्ति । यत्र तानिर्देशे सम्बन्धविशेषो न निर्मातस्तत्रयं परिभाषोपतिष्ठते । शास इत्येवमादिषु तु शासो य उ तस्येत्यवयवयोगो निज्ञात इति नेयं व्याप्रियते । स्थानेऽन्तरतमः ॥११॥४७॥ अन्तरः प्रत्यासन्नः । स्थाने प्राप्यमाणानामन्तरतम एवादेशो भवति । श्रान्तयं च शब्दस्य स्थानार्थगुणप्रमाणतः । स्थानतः-लोकाग्रम् । “स्वेऽको दी:"[ ८८ ] इति कण्ठय एवाकारो दीर्भवति । अर्थतः-वतण्डस्यापत्यं स्त्री 'वतण्डात्"[३/११६७] इति यम् । तस्य "स्त्रियामु" [३।१९८] इत्युप् । वतण्डी चासौ युवतिश्च वातण्ड्ययुवतिः । “पोटायुवतिस्तोक'' [॥३।६०] आदि सूत्रेण यसंज्ञः सः, "स्त्र्युक्तपुंस्क" [३/१४६] श्रादिना पुंवद्भावः प्रातो "जातिश्च" [४।३।१५३] इति प्रतिषिद्धः "पुंवद्यजातीयदेशीये" [४/३/१५४] इति । अर्थतो वातण्ड्यशब्दो भवति । गुणतःपाकः । त्यागः । अल्पप्राणस्य घोषवतस्तादृश एव । प्रमाणतः-अभुष्मै । अमूभ्याम् । प्रस्य प्रः । दीसंज्ञकस्य दीः । स्थान इति वर्तमाने पुनः स्थानग्रहणं यत्रानेकमान्तर्य सम्भवति तत्र स्थानत एव भवतीति । चेता । स्तोता। प्रमाणतोऽकारः प्राप्त. स्थानतोऽन्तरतमावेकारौकारौ च । तत्र पुनः स्थानग्रहणात्स्थानकृतमेवान्तर्य बलीय इत्येकारौकारौ भवतः । तमग्रहणं किम् ? वाग्धसति । हकारस्य पूर्वस्वत्वे सोष्मसस्सोष्मा द्वितीयः प्राप्तो नादवतो नादवांस्तृतीयः । तमग्रहणाद्यः सोष्मा नादवांश्च स चतुर्थो भवति । रन्तोऽणुः ॥१४॥ उः स्थानेऽण प्रसज्यमान एव रन्तो भवति । लक्षणान्तरेण विधीयमान एवाण विधानबलेन तत्सहायक प्रतिपद्यमानेन रन्तो भाव्यत इत्यर्थः। अकर्तरीति निर्देशात्सर्वादेशो न भवति । कर्ता । किरति । गिरति । द्वैमातुरः । भरतः। शातमातुरः। द्वयोर्मात्रोरपत्यं [ शतमातुरपत्यम् ] 'तस्यापत्यम्' [३।१।७७] इत्यणि परतो "मातुरुल्संख्याऽसम्भद्रादेः' [३।११३०४इत्युकारादेशः । उरिति किम् ? गेयम् । पन्थाः । अणिति किम् ? मातापितरौ । सौधातकिः। अानङ्गकङौ संघातावेतौ । नाणौ । महर्षिरित्यत्र द्वयोः स्थाने एप कथं रन्तः ? यो हि द्वयोस्तानिर्दिष्टयोः स्थाने भवति सोऽन्यतरेणापि व्यपदिश्यते । नरस्य पुत्रः । नायाः पुत्रः । ऋकारलकारयोः स्वसंज्ञोक्ता । तेन तवल्कारः। कथं लन्तत्वम् ? रन्त इति लणो लकाराकारेण प्रश्लेषनिर्देशात् प्रत्याहारग्रहणम् । तेनादोषः। १. स्थाने इग्भूतो जि-मु०। २. प्रत्यायनावसरो वा अ०स०। ३. उस्तस्य मु०। ४. "रन्तोऽणुः" सूत्रारम्भसामय नेत्यर्थः । ५. अनेनेति शेषः। ६.-पत्यं शतमातृणामपत्यं तस्या, अ०, ब०, स.। For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र व्याकरणम् - [अ० १ पा० १ सू०।४६-५६ अन्तेऽलः ॥११॥४६॥ तानिर्दिष्टस्य य उच्यते विधिः सोऽन्ते वर्तमानस्यालः स्थाने भवति । "ता स्थाने" इति तास्थाने निर्मातस्यानेनान्ते उपसंहारः क्रियते । टित्किन्मितस्त्ववयवसम्बन्धतानिर्दिष्टस्य विधीयमाना अन्तस्य न भवन्ति । "इद् गोण्या:" [ १।१।१०] पञ्चगोणिः । दशगोणिः । अन्त्यस्येद् भवति । ननु "पुसीदोऽ" [५११११६६ ] इति वर्तमाने "हलि खम्" [१।१७१] इतीद्रूपस्य योऽन्त्यस्तस्य प्राप्नोति । "नानर्थकऽन्तेऽलो विधिः" इति न भवति । "ता स्थाने"इत्यस्य योगस्य कि प्रयोजनम् ? यस्तानिर्दिष्टस्तस्य स्थाने श्रादेशो यथा स्यादधिकस्य मा भूत् । “पादः पत्' [४।४।११६] इति । द्विपदः पश्य । पादन्तस्य न भवति । जित् ॥२१॥५०॥ ङितः सर्वेऽनेकालः । डिद्य आदेशोऽनेकाल सोऽन्तेऽलः स्थाने भवति । वक्ष्यति "युष्मदस्मदोऽकङ खन्' [३१२११२१] योष्माकीणः । श्रास्माकीनः। दकारस्याकङ् । अकारोचारणसामर्थ्यात्पररूपाभावः । "सिरे सत्यारम्भो नियमाय" ङिदेवानेकालन्त्यस्य स्थाने। अतोऽन्यः सर्वस्य । “अस्तिओवची' [१॥४॥१२४ ] इत्येवमादयः सर्वा देशाः। परस्यादेः ।।१।११५१॥ परस्य कार्य शिष्यमाणमादेरलः स्थाने वेदितव्यम् । क्व च परस्य कार्यम् । यत्र कानिर्देशेन "ईप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः [ ११११६० ] इति परस्य तापक्लूप्तिः । "ईदासः''[२११४२] श्रासीनो भुङ्क्ते । द्वयनगरीदपः'' [ ४।३।२०२ ] द्वीपः । अन्तरीपः । समीपः । शित्सर्वस्य ॥११॥५२॥ शिदादेशः सर्वस्य स्थाने वेदितव्यः । “जश्शसो: शिः" [१।१।१७] धनानि तिष्ठन्ति । वनानि पश्य । इदमेव ज्ञापकमनुबन्धकृतमनेकाल्त्वं न भवतीति । तेन "दिव उत्" [४३१०८] इत्येवमादिषु सर्वादेशो न भवति । ण अल् णलिति प्रश्लेषनिर्देशारणलादयः सर्वादेशाः । “अष्टाभ्य औश्' १८] इति ॥ परस्यादेः" इतीमं बाधित्वा शित्त्वेन परत्वाद्वा सर्वा देशः । टिदादिः ॥१।१।५३ टिद्यः स तानिर्दिष्टस्यादिर्भवति । “बलाद्यगस्येट् [१११८४] लविता । लवितुम् । लवितव्यम् । "ता स्थाने" इत्यस्यायमपवादः । “चरेष्टः" [२१२।२१] इत्येवमादौ तानिर्देशाभावानादौ विधिः । अथवा “मध्य ऽपवादाः पूर्वान्विधीन् बाधन्ते'' इति "ता स्थाने" इत्यस्यैव बाधो न तु त्यपरत्वस्य । किदन्तः ॥२॥१॥५४ किद्यः स तानिर्दिष्टस्यान्तो भवति । मुण्डो भीषयते । जटिलो भीषयते । भियो णिच् हेतुभयार्थे । "ईतः पुग्नित्यम्' [४।३।४६] इति षुक् । “णे स्मेहें तुभय" [१२।६४] इति दः । पूर्वोक्तपरिहाराट् “आतः कः" [२२२१३] इत्येवमादिषु नातिप्रसङ्गः । परोऽचो मित् ॥११॥५५ अन्त इति वर्तते । अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः। मिद्यः स तानिर्दिष्टस्यान्त्यादचः परो भवति । अन्तग्रहणानुवृत्तेहलन्तस्यापि भवति । अन्यथा अच इति विशेषणम् तेन तदन्तविधिः स्वयमेव लभ्येतेति वक्ष्यति । "इदिद्धोनु म्" [५।१३७ ] नन्दिता। नन्दितुम् । नन्दितव्यम् । व्यपदेशिवद्भावादत्रान्त्यत्वम् । “रुधितुदादिभ्यो श्नम्शौ" [२१११७३] रुणद्धि । भिनत्ति । "ता स्थाने' [१।१।४६] "त्य:"[२।१११] "परः"[ २२] इत्यनयोरयमपवादः । "मध्य ऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते' इत्यनित्या परिभाषा "तृणह" [५।२।६०] इति निर्देशात् ।। स्थानीवादशोऽनल्विधौ ॥१॥२॥५६॥ स्थानं प्रसङ्गोऽस्यास्तीति स्थानीव भवत्यादेशः । स्थान्याश्रयेष कार्येष्वनलाश्रयेषु स्थान्यादेशयो नाखात् स्थानिकार्यमादेशे न प्राप्नोतीत्यतिदिश्यते । धुगुकृतहत् सुम्मिङपदगादेशाः प्रायः प्रयोजयन्ति । घोरादेशो धुरिव भवति । अस्ते भावे धोर्विहितास्तव्यादयः सिद्धाः। भवितव्यम् । भवित्त । गोरादेशो गुरिव भवति । त्रयाणाम् | "गो:' [४|४१] "नामि" [१४३] इति दीत्वं सिद्धम् । कृदादेशः कृदिव । प्रकृत्य । प्रहृत्य । प्यादेशे कृते पिति तुक्सिद्धः । हृदादेशो हृदिव। अर्दीव्यति आक्षिकः । १. नानुबन्धेति परिभाषा एतत्सामर्थ्यानिष्पन्ना। २. "वाधा" अ०, ब०, स० । ३. तानिर्देशाभाषादित्यर्थः। For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. पा० १ सू० ५७-५८] महावृत्तिसहितम् शालाकिका “प्राग्याट्ठण्" [ ३।३।१२६ ] इकादेशे कृते “कृद्धृत्साः" [१६] इति मृत्संज्ञा सिद्धा। सुबादेशः सुबिव । वृक्षाय । ङादेशेऽपि "सुपि" [ १७] इति दीत्वं सिद्धम् । मिङादेशो मिडिव । बभूवतुः । बभूवुः । अतुस्युसि च कृते "सुम्मिङन्तं पदम्" [ १।२।१०३ ] इति पदसंज्ञायां पदस्येति रित्वं सिद्धम । पदादेशः पदमिव भवति । ग्रामो वः स्वम् । ग्रामो नः स्वम् । वस्नसोः कृतयोः पदस्येति रित्वं सिद्धम् । गादेशो ग इव । अचिनुतम् । डिलादेप्रतिषेधः । इवेति किम् ? स्थानी आदेशस्य संज्ञति मा विज्ञायि । अत्र को दोषः? "श्राङा यमहमः [१।२।२३ ] हात वधरेव दावाधः स्याद्धन्तस्त्वाश्रयस्य न स्या इवग्रहणादभयत्र भवति । अाहत । श्रावधिष्ट । अादेशग्रहणं किम् ? विकारमात्रेऽपि यथा स्यात। पचत । पचन्तु । मिङन्तं पदं सिद्धम् । अनल्विधाविति किम् ? द्यौः। पन्थाः । स्यः। पथित्यदादेशा न स्थानिवद भवन्ति । स्थानिवद्भावे "हल्यापः" [ ४।३।५६] इति सोः खं प्रसज्येत । अलः परो विधिरयं प्राप्तः । क इष्ट इत्यत्रेकारस्य स्थानिवद्भावे हशि रेरुत्वं प्रसज्येत । अलि विधिरयम् । प्रदीव्येति क्वात्यस्य स्थानिवदावे "वलाद्यगस्येद" [१९८४ ] प्रसज्येत । अलः स्थाने विधिरयम् । अलाश्रयो विधिः अल्बिधिः। शाकपार्थिवादिवन्मयूरव्यंसकादित्वात्सः । .' परेऽचः पूर्वविधौ ॥१॥११५७॥ श्रादेशः स्थानीवेति वर्तते । अजादेशः परनिमित्तकः पूर्वविधौ कर्तव्ये स्थानीव भवति । पटुमाचष्टे पटयति । णिनिमित्तस्य स्थानिवद्भावात् "उडोऽतः" [सशक्षा इत्यैम्न भवति । अवधीत् । श्रगनिमित्तस्यातः खस्य स्थानिवद्भावात् "अतोऽनादेः" [श१९३] इति हलन्तलक्षण ऐविकल्पो न भवति । पूर्वेण "अनस्विधी" [१।१।१६] इति प्रतिवेध उक्तऽल्विध्यर्थमिदम् । परे इति किम ? वैयाघ्रपद्यः । पादस्य खमजादेशः परनिमित्तो न भवतीति पद्भावे स्थानीव न भवति । यतिञ्जयार स्य युवजानिः । जायाया निकन परनिमित्तक इति "वलि व्योः खम्" [ ४३१५५1न प्रतिबध्नाति । अच इति किम् १ प्रगत्य । प्ये परतो ङस्य खं परनिमिचे प्रस्य तुकि कर्तव्ये स्थानीव न भवति । पर्वविधाविति किम् ? नैधेयः । निधेरपत्यं “इयचः' [३।१।११०] "इतोऽनिजः'' [३।१११११] इति ढणि परविधौ कर्तव्ये श्रावस्य न स्थानिवद्भावः । अन्यथा त्र्यचो ढण् न स्यात् । हे गौः । परविधौ सुखे कर्तव्ये ऐपो न स्थानिवद्भावः । अचोऽनादिष्टात् पूर्वविधौ स्थानिवद्भावः । इह मा भूत् । अचीकरत् । अजीहरत् । अत्र हि "णो कच्युङ:"श२।११५] इति प्रादेशे कृते द्वित्वे च प्रादेशस्य स्थानिवभावात् “छौ कच्यनक्खे सनवत" [२१११०] इति सन्वद्भावो न प्राप्नोति । अादिष्टादेषोऽचः पूर्व इति स्थानिवद्भावाद्भवति । वाय्वोरध्व ोरित्यत्र यखविधि प्रति स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् “वलि व्योः खम्' [ ३।५५ ] इति यखं प्राप्नोति । कर्तव्योऽत्र यत्नः। ५) न पदान्तद्वित्ववरेयखस्वानुस्वारदीचर्विधौ ॥११११५८॥ पदान्तादिविधिध्वजादेशः स्थानीव न भवति । पूर्वेण प्राप्तस्य स्थानिवद्भावस्य प्रतिषेधोऽयम् । पदान्तविधौ---कौ स्तः। कानि सन्ति । अतः खं विङनिमित्तमावादेशे यणादेशे च कर्तव्ये स्थानीव न भवति । अथ नात्र नियमः पूर्वविधेः । स्तः को, सन्ति कानि इत्यपि प्रयोगात् । आदिष्ठाचाचः पूर्वमौकारादि । इदं त[दाहरणम्---अभिषन्ति । निषन्ति । द्वित्वविधौ-दध्यत्र । मध्वत्र । यणादेशस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् "अनचि" [१४।१२७ ] इति धकारस्य दित्वं सिद्धम | "असिदधं बहिरंगमन्तरंगे' इति स्फान्तस्य खं न भवति । वरविधी-----यायावरः। यातेर्यडन्तात "यो यङ:"[२।१५५] इति वरे कृतेऽतः खस्यागनिमित्तस्य स्थानिवदभावप्रतिषेधाद्यखेच कते: रस्य स्थानिवद्भावात् “इटि चाल्खम्" [४।४।६३ ] इत्यात्वं न भवति । ईविधौ-आमलकम् । पञ्चदाक्षिः । १. पदत्वात् “ससजुषो रिः' इति रित्वं सिद्धमित्यर्थः। २. ब्यावस्येव पादावस्येति बसे "खम्पादस्याहस्त्यादेः' इत्यतः खे ततोऽपत्यार्थे “गर्गादेयं'' इति यजि “पादः पत्" इति पदादेशे ऐचि रैयाघ्र पद्य इति । ३. "दीधे थलोपे च लोपाजादेश एव न स्थानिवत्' इत्येवंरूपो यत्नः । For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० १ सू० ५९-६१ श्रामलक्या अवयवः फलं "नित्यं दुशरादेः [३।३।१०१] इति मयट । तस्य "उफ्फले" [३।३।१२३] इत्युप् । "हृदुप्युप्' [१॥१६] इति स्त्रीत्यस्योप् परनिमित्तकस्तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् “यस्य ङयाँ च" [४।४।१३६] इत्यखं न भवति । पञ्चभिर्दादीभिः क्रीतः "रादुबखौ" [३।४।२६] इति ठण उपि स्त्रीत्यस्योप। तस्य स्थानिवद्भावप्रति धादिकारस्य खं न भवति । यखविधी-करा इतिः । कराइयते: "क्तिचक्ती खो" [२।३।१५० ] इति तिचि कृतेऽतः खल्यागनिमित्तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् "वलि व्योः खम्" [ ४३११५] इति यखं भवति । उबादेशं प्रति स्थानिवद्भावः स्यादिति चेद भवतु । च्छवोः शूड भविष्यति । ततः स्वेऽको दीत्वम् । योऽनादिष्टापूर्व इति न्यायात्पुनरुबादेशो न भवति । स्वविधौ-शिण्टि । पिरिढ । श्नस खस्य स्थानिवद्भावप्रति धादत्रानुस्वारस्य परस्वत्वं भवति । अनादिष्टादचः पूर्वस्थानी नकारस्तस्यैवायं विधिः । अनुस्वारविधौ-शिषन्ति । पिंपन्ति । "नश्चापदान्तस्य झलि" [ ५/४/८ ] इत्यनुस्वारे कर्तव्ये नकारः “श्नसः खम्''[४।४।१०१]इत्यनादिष्टादचः पूर्व इत्यखं न स्थानिवद्भवति । दीविधौ प्रतिदीनः । प्रतिदीना । अनः खस्य परनिमित्तस्य स्थानिषद्भावप्रतिषेधात् "हल्यभकुछुरः" [५/३१८६] इत्यनुवृत्तौ "उङि" [५।३।८७] इति दील सिद्धम् । वकारो हल्परोऽस्मादेव वचनात् । चर्विधौ —जक्षतुः । जक्षुः । "गमहनजनखनबसोऽनङि जिङति' [-1४/६३] इन्युङः खं धकारस्य चखे कर्तव्ये स्थानीव न भवति । गिर्योरिति प्रकृतिपूर्ववेनान्तरङ्गे दोचे कर्तव्ये यणादेशोऽसिद्धः।। २ द्वित्वेऽचि ॥११॥५६॥ नपदान्तद्वित्त्यतो द्विखग्रहणमनुवर्तते । त कार्यविशेषणम्। द्वित्वनिमित्तेऽच्यजादेशो द्विले कर्तव्ये स्थानीय भवति । रूपातिदेशोऽयम्। श्रादुणिखान्तःस्थायाद्यादेशाः प्रयोजनम्। श्राखम्-पपतुः । पपुः। "इटि चात्खम्" [४/४/६३1 इत्यात्वस्य स्थानिवद्रावादेकाचो लिटि द्वित्वं सिद्धम् । उङः खम्-जग्मतुः । जग्मुः। “गमहनजनखनघसोऽनङि" [४|४|१३] इत्युङः खस्य स्थानिवद्भावाद द्वित्वं भवति । णिखम्-आटिटत् । लुङि कचि णिखे च कृते णिखस्य स्थानिवद्भावादच इति द्वितीयस्पैकाचो द्वित्व भवति । अन्तःस्थादेशः--चक्रतुः । चक्रः । यणादेशस्य स्थानिवद्भावादेकाचो द्विख भवति । अयाद्यादेशाः--अहं निनय निनाय । अहं लुलव लुलाव । अयाद्यादेशानां स्थानिवद्भाबादस्य गलि नेने, लोलौ इति द्वित्व भवति । द्विलनिमित्त इति किम् ? दुयषति । ऊठि यणादेशो धोर्न तू द्विवनिमित्तमिति स्थानिवद्भावो न भवति । अचीति किम् ? जेनीयते । देधमीयते । यङि द्विलनिमित्त प्राध्मोरीकारादेशः स्थानीव न भवति । द्विवे कर्तव्य इति किम र जन्ले । मम्ले | धोराकारस्यावस्थानं न भवति । "ईकेत्यव्यवाय पूर्वपरयोः ॥१॥९॥६०॥ ईबिति यत्र निर्दिश्यते तत्र पूर्वस्याव्यवहितस्य कार्य भवति । केति यत्र निर्दिश्यते तत्र परस्याव्यवहितस्य कार्य भवति । ताप्रक्तृतिर्भवतीत्यर्थः । इतिकरणोऽर्थ शार्थः। ईप्केति इमे संज्ञे द्वयोर्विभक्त्योः प्रत्यायिके प्रसिद्ध । ताभ्यामितिशब्दः परः प्रयुज्यमानो विभक्तिप्रतिपाद्यो योऽर्थस्तं प्रत्याययति । ईबों यत्र निर्दिश्यते, कार्थो यत्र निर्दिश्यत इत्यर्थः । ईबर्थनिर्देशः "अचीको यण" [४३१६५] दध्युदकम् । मध्वियत् । अव्यवाय इति किम् ? धर्मविदत्र । कार्थनिर्देश:अत्यात् । ददति । दधति । अव्यवाय इति किम् ? चिकीर्षन्ति । शपा व्यवायाज्झेरदादेशो न भवति । नाशःखम ॥११॥६१॥ नाशोऽनुपलब्धिरभावोऽप्रयोग इत्यनर्थान्तरम् । एतैः शब्दैः प्रतिपाद्यमानस्यार्थस्य खमित्येषा संज्ञा भवति । इतिकरणोऽनुवर्तते । तेन नाशार्थस्य संज्ञेयं लभ्यते । स्थानिग्रहणां चानुवर्तते । प्रसङ्गवांश्च स्थानी । तेन प्रसक्तस्य नाशः खसंज्ञो भवति । भाविनो नाशस्य संशित्वं संज्ञापि भाविनीति नेतरेतराश्रयदोषः। वक्ष्यति"वलि व्योः खम् ॥४॥३५५] दासेरः। काणेर। "क्षुद्राभ्यो वा”[३११११२०] इति दूण, । "इटि चात्खम्"[४|४|१३]यिखम् । जह्यात् । खप्रदेशाः "वलि व्योः खम्"४३५५] इत्येवमादयः। १. खभित्यखं न अ०, स०। २. प्रतिदीना अ०, स० । ३. प्रतिदने अ०, स०। ४. प्रकृतेः "गिरि" इत्यस्य पूर्वभागस्य "गिर'' इत्यस्यापेक्षवेनेत्यर्थः । ५. -वादेकाचो द्वि-प० । ६. आयाद्यादे-स। For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० १ सू० ६२-६७ ] महावृत्तिसहितम् १५ 1 उबुजुस् ॥१|१|६२॥ तस्यैव नाशस्त्र उप् उच् उस् इत्येताः संज्ञा भवन्ति । संज्ञासंकरप्रसङ्ग इति चेत् उप् उच् उस् संज्ञाभिर्भावितस्य नाशस्य एताः पृथक् संज्ञास्तेनादोषः । “नोमता गो: " [ १/१/३४ ] इति प्रतिषेधो ज्ञापकः खसंज्ञाया श्रत्र समावेशो भवति । ततः पञ्च सप्तेति त्याश्रयं पदत्वं सिद्धम् । “क्सस्याचि खम् " [ ५२६१ ] इति वर्तमाने "वो दुहदिह" [ ५/२/७० ] श्रादिसूत्र उब्वचनं ज्ञापकमुबुजुसः सर्वस्य स्थाने भवन्ति नान्तस्य । एता अपि भाविन्यः संज्ञाः । उदाहरणम् - पञ्चशष्कुलम् । पञ्चभिः शष्कुलीभिः क्रीतम् । "दुबखौ " [ ३ । २६ ] इत्याहस्य ठण उप् । ततो " हृदुप्युप्” [ १|१|8 ] इति स्त्रीस्यस्योपू । जुहोति । बिभेति । “उज् जुहोत्यादिभ्यः " [ १|४ | १४५ ] इति शप उच् । तत उचि द्वित्वम् । पञ्चालानां निवासो जनपद इत्यागतस्याणः “जनपदे उस्" [ ३१२१६१] इत्युस् । ततो "युक्त दुखि लिङ्गसंख्ये" [ १/१६८ ] इति लिङ्गसंख्यातिदेशः । उबुजुभूप्रदेशाः “हृदुष्युप्” [ १|१| ] इत्येवमादयः । त्यखेत्याश्रयम् ||१|१|६३ ॥ त्यस्य खे कृतेऽपि त्याश्रयं कार्य भवति । सुमिङ् क्विप्यङ् शिखानि प्रायः प्रयोजयन्ति । सुपः खम्-धर्मवित् । सोः खेऽपि पदसंज्ञा भवति । मिङः खम्-अधोक्। “हल्डचापः " [ ४/३/५६ ] इति तपः खेऽपि पदसंज्ञायामेन्घत्यभष्ट्वजश्वचर्त्वानि भवन्ति । किपः खम् अग्निचित् । विपो नाशेऽपि तुकू । यः खम् पापचीति । यङो नाशेऽपि द्वित्वादिकार्य भवति । खिम् — कार्यते । हार्यते । रोरभावेऽयैभवति । प्रथमं त्यग्रहणं किम् ? आध्नीत । आङ् पूर्वाद्धन्तेर्विध्यादिलिङ् । "श्राङो यमहनः " [ २ ] इति दः । " लिङोऽनन्त्यसखम् " [ २|१|१३८ ] इति सीयुडेकदेशस्य सकारस्य खेऽपि त्याश्रयं कार्य लिक्ङिति डस्य खं न भवति । द्वितीयं त्यग्रहणं किम् ? वर्णाश्रयं मा भूत् । गवे हितम् गोहितम् । त्यखे सत्यपि चीति वर्णाश्रया अवादयो न भवन्ति । नोमता गोः ||१|१|६४ ॥ उमता वचनेन नाशिते त्ये यो गुस्तस्य त्याश्रयं न भवति । मृष्टः । जुहुवः । शबाश्रयावैवेपौ न भवतः । गर्गा इति बहुत्वविवक्षायां यञिञोरुपि कृते तदाश्रय श्रादेरैन्न भवति । गोरिति किम् १ पाक्ति । जरीगृहीति । द्वित्वं ञिश्च भवतः । नोमतेति योगविभागः । तेन गोरन्यत्रापि क्वचि - च्याश्रयं न भवति । परमवाचः । परमवाचा | अन्तर्वर्तिनी विभक्तिमाश्रित्य पदत्वात्कुत्वं प्राप्तं नोमतेति प्रतिषिध्यते । अन्त्याद्यष्टिः || १ |१| ६५ ॥ श्रच इति जातिनिर्देशः । निर्धारणे च ता । समानजातीयस्यैवं लोके निर्धारणं प्रसिद्धमिति द्वितीयमज्ग्रहणं लभ्यते । श्रचां योऽन्त्योऽच् तदादि शब्दरूपं टिसंज्ञ भवति । धर्मविदत्र इच्छन्दः । ज्ञानभुदत्र उच्छन्दः । श्राताम् श्राथामित्यत्र उच्छब्दः । पचेते । पचेथे “टिद्दट रे" [ २/४/६५ ] इति टेरेत्वम् । ग्रहं पचे इति व्यपदेशिवद्भावात्तदादित्वम् । टिप्रदेशाः “टिद्वट” [२|४| ६५ ] इत्येवमादयः । उपान्त्यालुङ् ||१|१|६६॥ अलामन्त्यस्य समीपोऽलू उसंज्ञो भवति । अन्त्यग्रहणादलां समुदायो लभ्यते । श्रसमुदायापेक्षया ह्यन्त्योऽलू भवति न केवलः । पच् इत्यकारः । भिद् इतीकारः । पाचकः । भेदकः । उपान्त्य इति किम् ? व्यवहितस्यान्त्यस्य च मा भूत् । अलिति किम् ? समुदायस्य मा भूत् । उङ प्रदेशाः "उङोsa: " ' [ ५|२१४ ] “भ्युङ: " [ ५२८३ ] इत्येवमादयः । येनालि विधिस्तदन्ताद्योः || १ | १२६७ ॥ येन शब्देन यो विधिर्विधीयते स तदन्तस्य भवति । यो विधिः स तदादौ भवति । "योऽचोऽरासुयुव:" [ २१८४ ] इत्यचो यविधिर्विधीयत इत्यजन्ता - द्भवति । चेयम् । जेयम् । केवलाद्व्यपदेशिवद्भावेन । एयम् । श्रध्येयम् । “आतः कः " [ २१२१३ ] इत्याकारान्तात्कः। गोदः। कम्बलदः । “सत्य-विधौ न तदन्तविधिः " [वा०] । सविधौ - कथं परमश्रित इति ईप्सो न भवति । यविधौ – सूत्रनडस्यापत्यं सौत्रनाडि: । "नडादेः फण्" [ ३१८८ ] इति फण् न भवति । “उगित्कार्य' वर्णकार्ये च तदन्तादपि भवतीति वक्तव्यम्" [वा०] भवती । अतिभवती' । दाक्षिः । नैतद्वक्तव्यम् । 1 १. कार्य तद- अ०, ब०, स० । २. वती । नैत-०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० १ सू० ६८-७२ सुपा श्रितादयो विशेष्यन्ते न तु श्रितादिभिः किञ्चिद्विशेषणेन च तदन्तविधिः । मृदा नडादयो विशेष्यन्ते न नडादिभिर्मदः । उगिता च वर्णेन मृद् विशेष्यते । अलीति वर्णनिर्देशः । अलि यो विधिः स तदादौ भवति । "श्नुधुभ्रुवां स्वोरचीयुवौ' [४१४७२] चिक्षियतुः । चिक्षियुः। व्यपदेशिवद्भावेन केवलेऽपि तदादिलम् । चिक्षिये । येनेति करणे भा । विधिशब्दः कर्मसाधनः । अवाद्यैब्दुः ॥ १।१।६८ ।। अक्ष्विति जातिनिर्देशो निर्धारणे चेप् । अक्षु श्रादिभूतोऽच् ऐप् यस्य समुदायस्य स दुसंज्ञो भवति । ऐतिकायनस्य शिष्य ऐतिकायनीयः “दोश्छः'' [३।२।६०] इति छः । आम्बष्ठस्यापत्यमाम्बष्ठ्यः "द्वित्कुरुनाद्यजादकोशलाइज्यः" [३।१।१५३] इति व्यः। दुघणा अस्मिन्देशे सन्ति "वुन्छणकठेल" [३।२।६.] आदिसूत्रे अरीहणादित्वाद् वुञ् । द्रौघणके जातो द्रौघणकीयः "दोः कखोल" [२१११७] इति छः । अदिवति किम् ? हलाविवक्षार्थम् । श्रोपगवीयः । कापटवीयः। जात्यपेक्षया बहुत्वं किम् ? दूधच एकाचश्च दुसंज्ञा यथा स्यात् । मालामयम् । वाङमयम् । आदिरिति किम् ? सभासन्नयने जातः साभासन्नयनः। छः प्रसज्येत । ऐबिति किम् ? दत्तस्यायं दात्तः । दुप्रदेशाः "दोश्छः"[ ३१०] इत्येवमादयः । त्यदादि । शश६।। त्यदादीनि शब्दरूपाणि दुसंज्ञानि भवन्ति । अवादिरिति नेहाभिसंबध्यते । यद्यभिसंबध्येत तदोपसर्जनत्वे सत्यपि वचनात्तदादेव दुसंज्ञा स्यान्न केवलानामिति । त्यदीयः। तदीयः । तवापत्यं खादायनिः। मादायनिः । “वा वृद्धाद् दो:" [३।१।१४४ ] इति फिञ् । त्यदादिः सर्वादेरन्तर्गण श्रा परिसमाप्तः। एङ् प्राग्देशे ।। १।११७० ।। अक्ष्वादेरिति वर्तते । एङ, यस्याचामादिस्तद् दुसंज्ञ भवति प्राची देशाऽ भिधाने । एणीपचने जात एणीपचनीयः । एवं गोनीयः। भोजकटीयः। एङिति किम् ? आहिच्छत्रः । कान्यकुब्जः । प्राग्ग्रहण किम् ? देवदत्तो नाम वाहीकेषु ग्रामस्तत्र भवो देवदत्तः । देश इति किम् ? गोमती नाम नदी तस्यां भवो गौमतः । “या नाम्नः" [११] इति यदा दुसंज्ञा नास्ति तदेदमुक्तम् । “भिन्नलिङ्गो नदीदेशोऽग्रामोऽपुरम्' [ ११४८३ ] इति ज्ञापकान्नदी देशग्रहणेन न गृह्यते । शरावती नाम नदी तस्याः पूर्वो देशः प्राग्देशः । उत्तरस्तूदीचां देशः। या नाम्नः॥ ॥१७१ ॥ पुरुषैर्व्यवहाराय सङ्केतितः शब्दः संज्ञा नाम । नामधेयस्य वा दुसंज्ञा भवति । पद्मनन्दीयम् । पाद्मनन्दिनम् । देवदत्तीयम् । देवदत्तम् । नाम्न इति किम् ? देवदत्त इति यः क्रियानिमित्तको देवदत्तशब्दस्तस्य काश्यादिषु पाठाहावेव भवतः । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेन घृतप्रधानो रोदिः धृतरौदिः। संज्ञेयम् । तस्य शिष्या घृतरौदीयाः । एवमोदनपाणीयाः। वृद्धाम्भीयाः। वृद्धकाश्यपीयाः । नित्यं दुसंज्ञा । "जिह्वाकात्यहरितकात्ययो भवत्येव' [ वा. ] जैह्वाकाताः। हारितकाताः । अणुदित् स्वस्यात्मनाऽभाव्योऽतपरः ॥ १।१।७२ ॥ अण, उदिच्च गृह्यमाणः स्वस्य ग्राहको भवति श्रात्मना सह भाव्यमानं तपरं च वर्जयित्वा । इदमणग्रहणं परेण णकारेण । “ऋतः रफादेरेप्' [२२११२२] इति तपरनिर्देशाज्ञायते । “यस्य कथा च" [ ४।४।१३६ ] दाक्षिः । चौलिः । दैत्यः । कौमारः । "अस्य वौ' [।१४१] शुक्लीभवति । मालीभवति । उदित्-"स्तोः च ना :" [१४११६] " ना टुः" [१४।१२० ] । अभाव्य इति किम् ? भाव्यन्ते उत्पाद्यन्ते त्यादेशटिकिन्मितस्ते स्वस्य ग्राहका न भवन्ति । "अस्त्यात्" [ २२३८४ ] "त्यदादेरः" [ २११६१ ] टित्-लविता। कित्-बभूव । मित् । "सृजिशोरम्" ३।११। अतपर इति किम ? भिसोऽत ऐस" [ 1। वनैः । खटवा भिरित्यत्र न भवति । तकार इद्यस्य सोऽयं तिदिति सिद्ध परग्रहणमुभयार्थम् । तः परोऽस्मात्तपरस्तादपि परस्त १. इतिकस्यापत्यं पुमान् ऐतिकायनः । नडादेः फणिति फण् । ३. प्रश्नादेरित्यर्थः । ४. वृद्धान्तीयाः ब०, स०। For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ प ० १ सू०७३-७६] महावृत्तिसहितम् परः । इदमेव ज्ञापकं सविधौ केति योगविभागोऽस्ति । " आदेगेप्" । [ १1१1१५ ] “श्रदेहेप्” [ १।१।१६] तपरत्वादैजेङादिषु त्रिमात्रचतुर्मात्राणां निवृत्तिः । " भाव्योऽतपरः" इति पृथग्भावान्नशुच्चारणं किम् ? क्वचिद्भाव्योऽपि स्वं गृह्णातीति ज्ञापनार्थम् । अमूभ्याम् । संज्ञासूत्रमिदं न परिभाषा । साहि नियमार्था भवति । न चादितां स्वस्यास्वस्य च ग्रहणं प्राप्तं येन स्वस्यैवेति नियमः स्यात् । १७ अन्त्येतादिः ॥ १|१/७३ ॥ अन्त्येनेत्संज्ञकेन गृह्यमाण आदिस्तन्मध्यपतितानां ग्राहको भवत्यात्मना सह । श्राद्यन्तौ सम्बन्धिशब्दौ । श्रतः सामर्थ्यादाद्यन्तव्यतिरेकेण तन्मध्यपाति वस्तु प्रत्येकं संज्ञित्वेनाक्षिप्तम् । अ इ उ इत्येतेषां प्रत्येकमरिणति संज्ञा । एवमकू अच् श्रट् इत्येवमादयः । श्रन्त्येनेति किम् ? सुडित्यत्र प्रादिना टाइत्येतस्य टकारेण ग्रहणं मा भूत् । अन्त्येनेतीदमेव ज्ञापकं सहार्थे गम्यमानेऽपि भा भवति । असंख्यं झः ||१|१|७४ ॥ संख्या एकत्वादिका सा यस्य न विद्यते तदसंख्यं झिसंज्ञ भवति । एकत्वादिनिबन्धना विभक्त्युत्पत्तिरसंख्यादप्राप्ता "सुपो : " [१|४|११० ] इति वचनाद्भवति । के पुनरसंख्याः १ स्वर् । अन्तर् । प्रातर् । सनुतर् । पुनर् । सायम् । नक्तम् । अस्तम् । वस्तोः । दिवा । दोषा । ह्यः । श्वः । कम् । शम् । योर्मयः (१) च । न । अम्नत् । विहायसा । रोदसी । श्रोम् । भूः । भुवः । स्वस्ति । समया । निकषा । अन्तरा । बहिस्॑ । साम्प्रतम् । श्रद्धा | सत्यम् । इद्धा | मुधा । मृषा । वृथा । मिथ्या । मिथो । मिथु | मिथुनम् | मिथस् । अनिशम् | मुहुः | अभीक्ष्णम् | मनु । झटिति । उच्चैस् । अवश्यम् । सामि | साचि । विष्वक् । श्रन्वक् । आनुषक् । साज । द्राक् । प्राक् । ऋधक् | पृथक् । धिक् । हिरुक् | ज्योक् । मनाक् । शनैः । ईषत् | जोषम् | तूष्णीम् । कामम् । निकामम् । प्रकामम् । श्रारात् । अरम् । वरम् । परम् । चिरम् । तिरः । नमः । स्वयम् । भूयः । प्रायः । प्रवाहुकम् ।। श्रार्यहलम् । कुः । अलम् । बलवत् । अतीव । सुष्ठु । दुष्ठु । ऋते । सपदि । साक्षात् । सनात् । सना । श्राशु । सहसा । युगपत् । उपांशु । पुरा । पुरतः। पुरस्तात् । पुरः । इत्येवंप्रकाराः, निसंज्ञकाश्च सर्वे "च, वा, ह, ग्रह" एवम्प्रभृतयो हृतश्च तसादयस्तत इत्यादयश्च्व्यर्थाः कृतः मुमातुमादयः क्वाप्यादेशश्चेति । हसश्चेति केचित्पठन्ति तत्तु चिन्त्यम् । उपाग्निकमित्यकोऽसम्भवात् । उपकुम्भमन्यम् इति मुमो दर्शनात् । उपकुम्भीकृत्येति ईत्वविधानाच्च । सामान्यविषया भिसंज्ञा । विशेषविषया निसंज्ञा । असंख्यग्रहणं किम् ? यत्रासंख्यत्वं प्रतीयते तत्र भिसंज्ञा । उच्चैः । परमोच्चैः । श्रस्ति । स्वस्ति । उपसर्जने मा भूत् । अत्युच्चैः । श्रच्युच्चैसौ । श्रत्युच्चैसः । श्रत्यस्तिः । झिप्रदेशाः “सुपो भेः " [ १।४।१५० ] इत्येवमादयः । / गाङ्कटादेरणिन्ङित् ||१|१| ७५ ॥ गाङित्येतस्मात् कुटादिभ्यश्व घुभ्यः परेऽणितस्त्या ङितो भवन्ति । विनापि वतमतिदेशो गम्यते । गाङिति व्याख्यानादिङादेशो गृह्यते । कुटादिस्तुदादेरन्तर्गणो यावत् वृत्शब्द इति । गाङ - अध्यगीष्ट । अध्यगीषाताम् । अध्यगीषत । लुङ्लुङोर्वेति इङो गाङादेशः । " भुमा” [४/४/६५ ] श्रादिसूत्रेणेत्वम् । कुटादि कुटिता । कुटितुम् । कुटितव्यम् । पुटिता । पुटितुम् । पुटितव्यम् । व्यचेरनसि कुटादित्यम् — विचिता । विचितुम् । विचितव्यम् । अनसीति किम् ? उद्वयचाः । “अस् सर्वधुभ्यः” इत्यस् । दिति किम् ? उत्कोटयति । उत्कोटो वर्तते । ङितीव ङिद्वत् । ईबन्ताद्वदर्थो गम्यते । तेन उच्चुकुटिषति इत्यत्र "नुदात्ततो द:" [१।२।६] इति दो न भवति । ||१|१|७६ || अन्त्येनेतादिरित्यत श्रादिरिति वर्तते । विजेर्धोरुत्तर इडादिस्त्यो ङिद्भवति । उद्विजत्वा । उद्विजितम् । उद्विजितव्यम् । इडिति किम् ? उद्वेजनम् । उद्वेजनीयम् । विज इति किम् ? लविता । For Private And Personal Use Only १. " झि" मु०२. "च नाम्नो" इति अ०, ब०, स०, पुस्तकेषु तत्र "च" "न" "श्राम्" "नो" इति पदच्छेदो युक्तः । ३. 'बहिर्' अ०, ब०, स० । ४. " भाजक्" इति श्र० । " ताजक्" इति स० । "साजक्" इति ब० मुद्वितयोः । परमयं शब्दभेदोऽन्वेष्यमाणोऽन्यव्याकरणकोशेषु च नोपलब्धः । ५. अदर्शनादिति युक्तम् । ६. "ङिवद्भ - श्र०, ब०, स० । ३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० १ पा० १ सू० ७७ - ८३ वोर्णोः ॥ १|१|७७ ॥ ऊर्णोतेः पर इडादित्यो वा ङिद्भवति । प्रोणु विता । प्रोर्णविता । श्रप्राप्से २ विकपोऽयम् । दसंज्ञके तु लङ इटि परत्वान्नित्यो विधिः । प्रौणुवि । ञ्णिदित्येव । निवदिटि - प्रोविष्यते । डादिरित्येव । प्रोवनम् । प्रोविनीयम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोऽपि ॥ ११७८ ॥ अपिद् गसंज्ञको ङिद्भवति । कुरुतः । कुर्वन्ति । चिनुतः । चिन्वन्ति । मृष्टः । मृजन्ति । ग इति किम् ? कर्ता । मा । श्रपिदिति किम् ? करोति । मार्ष्टि । अपिदिति प्रसज्यप्रतिषेधः । ari तुदान लिखानीत्यत्र पिदपितोरेकादेशः ३ पिद्भवतीति “भ्युङ : " [२२८३] एप्प्रसज्येत । नायं दोषः । लोडादेशस्य पित्वं न चाट: । अथवायं पर्युदासः । इह तर्हि च्यवन्ते 'लवन्त इति परापेक्षपिदपितोरेकादेशस्य पितोऽन्यत्वमस्तीत्यप्रतिषेधः प्रसज्येत । नैष दोषः "वार्णाद् गावं बलीयः" इति प्रागेवैकादेशादेप् । लिडस्फात्कित् ॥ ११११७६ || पिदित्येव । स्फान्तात्परोऽपिल्लिट् किद्भवति । बिभिदतुः । चिभिदुः । ममृजतुः । ममृजुः । लिडिति किम् ? यष्टा । अस्फादिति किम् ? ममन्यतुः । ममन्धुः । ननु ररन्धिव र रन्धिम इत्यत्रास्फाद्विहितो लिट् । नैवम् । भुम्विधावुपदेशग्रहणाश्रयणात् । एवञ्च कुराडा हुण्डेत्यत्र " सरोल : " [३८] इति श्रस्त्यो भवति । अपिदित्येव । विभेदिथ । ङिदिति वर्त्तमाने किद्ग्रहणं किम् ? ईजतुः । ईजुः । ङिति जिनं स्यात् । श्रयमेव विद्विषयः । ववृते वृवृधे इत्यत्र परत्वादेपि कृते स्फान्तत्वमिति चेत्, इष्टवाचित्वात्परशब्दस्येत्यदोषः । अस्फादिति प्रसज्यप्रतिषेधः । न चेत् स्फान्ताद्विहित इति पर्युदासे हि हलन्तादेव लिट कित् स्यात् । "बोर्णोः ” [२८] इत्यतो वेति व्यवस्थितविभाषाऽनुवर्तते । ततः श्रन्थिग्रन्थिदम्भिध्वञ्जीन्धिभ्योऽपि द्भिवतीत्येके । श्रेथतुः । श्रेथुः । ग्रेथतुः । ग्रेधुः | देभतुः । देभुः । परिषस्वजे । परिषस्वजाते । समीधे । समीधाते । समीधिरे । 1 मृडमृदगुधकुषवदवसः क्त्वा ॥ १११२८० ॥ मृड मृद गुध कुष वद वस इत्येतेभ्यः परः क्त्वा त्यः किद्भवति । मृडित्वा । मृदित्वा । गुधित्वा । कुषित्वा । उदित्वा । उषित्वा । सिद्धे विधिरारभ्यमाणो नियमार्थः । तुल्यजातीयस्य च नियमः । सेट् क्त्वा तुल्यजातीयः, तेन मृडादिभ्य एव क्त्वा सेट् किद्भवति नान्येभ्यः । देवित्वा । सेवित्वा । वर्तित्वा । सेडिति विशेषणं किम् ? भुक्त्वा । मुक्त्वा । मृडादिभ्यः क्त्वैव किद्भवतीति विपरीतो नियमो नाशङ्कनीयः । एवं हि "क्लिश: " [११८१] इति कित्त्ववचनमनर्थकं स्यात्, प्रतिषेधाभावात् । गुधकुष्योस्तु “व्युङोऽवो हलः संश्च" [१।१।६७ ] इति विकल्पे प्राप्त नित्यार्थः पाठः । क्लिशः ॥ ११११८१ ॥ क्लिशः परः क्त्वा सेट् किद्भवति । क्लिशित्वा । पूर्वेण नियमेन किच्चे निवर्तिते "हङोsat हल: संश्च" [१/१/१७] इति विकल्पः प्राप्तः । पूर्व सूत्रे इष्टतोऽवधारणार्थं योगान्तरम् । मुग्रहिरुदविदः संश्च ॥ ११११८२ ॥ मुष ग्रहि रुदविद इत्येतेभ्यः परः संश्च (सन्) क्त्वा च सेट् किद्धवति । मुमुषिषति । जिघृक्षति । रुरुदिषति । विविदिषति । मुषित्वा । गृहीत्वा । रुदित्वा । विदित्वा । ग्रहेडादिनियमान्निवृत्तौ विध्यर्थमितरेषां "ब्युङोऽवो हलः संश्व" [१1१1९७ ] इति विकल्पे प्राप्ते वचनम् । झलिकः ॥ १|१|८३ ॥ क्त्वेति निवृत्तम् । अन्त्येनेतादिरित्यत श्रादिरिति वर्तते । इगन्ताद्धोः परो भलादिः सन्किद्भवति । सामर्थ्यात्सन्निहितस्य धोरिका तदन्तविधिः । चिचीषति । निनीषति । रुरूषति । चिकीर्षति । लुलूषति । यदि सनि दीत्ववचनसामर्थ्यान्मात्रिर्काद्विमात्रिकयोरेवभावः सिद्ध इत्यस्यानर्थक्यम् । णिखमपि तर्हि न स्यात् । ' ज्ञीप्सति । एतस्मिंस्तु सनि चिचीषत्यादिषु सावकाशं दीत्वं परत्वारिणखेन बाध्यते । भलादिरिति किम् ? शिशयिषते । इक इति किम् ? पिपासति । सनीत्येव । कर्ता । १. - दिः त्यो " ब०, स०, मु० । २. प्तविक प्र० । ३. पिवद् भ-अ०, ब०, स० । ४. त्वाटः अ० | ५. यति विप श्र०, ब०, स० । ६. पूर्वे सूत्रे मु० । ७. रुदित्वा इति नास्ति अ० ब० स० पुस्तकेषु । म. ज्ञीप्सतीति अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० १ पा० १ सू० ८४-११] महावृत्तिसहितम् १६ हलन्तात् ॥ १।१८४ ॥ सन् झलिक इति वर्तते । श्रन्तशब्दः समीपवचनः । इकोऽन्तः समीपो यो हल तदन्ताद्धोर्झलादिः सन्किद् भवति । बिभित्सति । बुभुत्सते । विवृत्सति । अन्तग्रहणं किम् ? यियति । जिनं भवति । नात्रेक्समीपाद्धलः परः सन् । एवं वा सूत्रार्थः । इकः परो हलन्तो हलवयवो यो धुस्तस्मादुत्तरो झलादिः सन्किद्भवति । अन्तग्रहणं स्पष्टार्थमुक्तमस्मिन् व्याख्याने । इक इति कानिर्देशः किम् ? यियक्षति | झलित्येव । विर्विद्वषते । “निरेकाजनाङ ” [१।१।२२] इत्यत्र एकग्रहणं ज्ञापकमुक्तम्, "अन्यत्र वर्णग्रहणे जातिग्रहणमिति ।” तैनेह् हल्ग्रहणेन भिन्नेष्वभिन्नाभिधानप्रत्ययनिमित्तं हल् जातिर्गृह्यते । ततो धिप्सतीति सिद्धम् । सिलिङ दे || १।१८५ ॥ सन्निति निवृत्तम् । झलिकः हलन्तादिति च वर्तते । सिश्च लिङ च दे इको हलन्तात्परौ झलादी किती भवतः । सेरेव दपरत्वं विशेषणं न लिङोऽसम्भवात् । द एव हि लिङ झलादिः । भित्त । बुद्ध । भित्सीष्ट । भुत्सीष्ट । द इति किम् ? साक्षीत् । श्रद्राक्षीत् । किवे सृजिहशोरमागमो न स्यात् । "वदब्रज ( ब्रजवद ) " [ २१/७६ ] इत्यादिनैप् । इक इत्येव । यष्ट । यक्षीष्ट । जिः प्रसज्येत । हलन्तादित्येव । अचेष्ट । चेषीष्ट । एम्न स्यात् । झलादिरित्येव । श्रवर्तिष्ट । वर्तिषीष्ट । एम्न स्यात् । उः ॥ १|१८६ ॥ व्र्व्याख्यानादग्रहणम् । ऋवर्णान्ताद्धोः परौ सिलिङौ दे भलादी कितौ भवतः । अकृत । ग्रहृत । कृषीष्ट । हृषीष्ट । द्विमात्रस्य । अस्तीम् । स्तीर्पोष्ट । “लिङ्स्योदें" [५1१1०] इत्यनिटूपक्षे द्रष्टव्यम् । झलादिरित्येव । श्रस्तरिष्ट । स्तरीषीष्ट । गमो वा ॥ ९९८७ ॥ गमेर्धोः परौ सिलिङौ दे फलादी वा कितौ भवतः । समगत । सङ्गसीष्ट । वागमः कित्त्वे “अनुदात्तोपदेश" [४ | ४ | ३७ ] इत्यादिना ङखं “प्राद् गो: " [ ५|३|४५] इति सेः खम् | पढ़ेंसमगंस्त । सङ्गंसीष्ट । हनः सिः ॥ ११८ ॥ हन्तेर्वोः परः सिर्दे किद्भवति । आहत । श्राहसाताम् । श्रहसत । सेः कित्त्वान्ङस्य खम् | ["अन्यथा अनिदित इति उङः खस्य प्रतिषेधः स्यात् । ] पुनः सिग्रहणं लिनिवृत्त्यर्थम् । ग्रहणमनुवर्तते । एवं नित्यो वधादेश इति इह प्रयोजनं नास्ति । यमः सूचने || १||८६ ॥ यमेधः सूचनेऽर्थे वर्तमानात्परः सिदें किद्भवति । सूचनं गन्धनमा - विष्करणमित्यर्थः । उदायत । उदायसाताम् । उदायसत । अकर्मकत्वे “ | ङो यमहनः " [१।२।२३] इति दः । सूचन इति किम् । श्रयंस्त कूपाद्रज्जुम् । सकर्मकत्वे “समुद | यमोऽग्रन्थे” [१|२|७० ] इति दः । वोपयमे ॥ १९६० ॥ उपयमो दारस्वीकारः । उपयमेऽर्थे वर्तमानाद्यमेधः परः सिर्दे वा किद्भवति । उपायत कन्याम् । उपायंस्त कन्याम् । “स्वीकृतावुपाद्यमः” [ १।२।२१] इति दः । इयमप्राप्ते विभाषा । स्वीकारसूचने पूर्वविप्रतिषेधेन पूर्वेण नित्यो विधिः । थोरः ||१|१|१| द इति वर्तते । भुसंज्ञकानां स्था इत्येतस्य च धोरिकारोऽन्तादेशो भवति सिश्च दे कि । अदित | अधित । उपास्थित । "प्रात्" [४|३|१८ ] इति सेः खम् । सन्निपातपरिभाषाया अनित्यतां वक्ष्यति । तिष्ठते: “उपान्मन्त्रकरणे " [१/२/२०] "धेः” [१/२/२१] इति दः । इलवचनसामर्थ्यादेपो निवृत्तिः सिद्धेति किग्रहणमुत्तरार्थमनुवर्त्तमानं सेरपि विशेषणम् । १. इति च वर्त्तते अ०, ब०, स० । अत्र च शब्दोऽप्यर्थकः । २ अन्तः शब्दः ब० । ३. श्रद्राक्षीत् इति मुद्वतपुस्तके नास्ति । ४. कोष्टकस्थितः पाठोsप्रासंगिक इव भावि । "हलुङः किङत्यनिदितः” इत्यस्यात्राप्रवृत्तेः । ५. हन्धोर्दे "हनो वध लिङि" इति नित्यवधादेशविधानात् "नः सिः" इत्यत्र लिङनुवृत्त ेः प्रयोजनं नास्ति किrवप्रयुक्त - नख रूप - फलस्य लिङि नित्ये बधादेशेऽभावात् । ६. - षणं विहितम् । तः खेटू - अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० १ सू० १२-१७ तः सेट पूङ शी स्विन्मिद्विषो न ॥१॥१२॥ पूङ् शीङ् स्विद् मिद् क्ष्विद् धृष इत्येतेभ्यः परस्तसंज्ञः सेट् न किद्भवति । पवितः । पवितवान् । "युकः किति" [शा१७] इतीटि प्रतिषिद्धे "पूङः" [११११] इति तक्त्वोरिट् विभाषितः। शी-शयितः । शयितवान् । अनुबन्धो यकुबन्तनिवृत्त्यर्थम् । शेश्यितः । शेश्यितवान् । “एर्गिवाक्चादुङोऽसुधियः'' [/४७८] इति यत्वम् । स्विदा । प्रस्वेदितः । प्रस्वेदितवान् । प्रमेदितः। प्रमेदितवान् । प्रदोदितः । प्रदवेदितवान् । प्रधर्षितः । प्रधर्षितवान् । वैयात्ये धृष्ट इत्येव भवति । पूङः “तयोर्व्यक्तखार्थः'' [२।४।५५] इति कर्मणि क्तः। शीङः "धिगत्यर्थाच्च" [२।४।५८] इति कर्तरि (क्तः) चेति । स्विदादीनां “कर्तरि चारम्भेक्तः''[२।४।५६] इति कर्त्तरिक्तः ।"आदितः" [शा१२२] इति प्रतिषेधे ( षिद्धे ) "वा भावारम्भयोः'' [२।१।१२३] इति पक्षे भवति । त इति किम् ? पवित्वा । “पूङ:'' [२।१।६६] इतीट्पक्षे मृडादिनियमादकित्त्वम् । सेडिति किम् ? पूतः । पूतवान् । मृषः स्वार्थे ॥११॥६३॥ स्वार्थस्तितिक्षा । मुषेोः स्वार्थे वर्तमानात्तसंज्ञः सेट न किद्भवति । मर्षितः। मर्षितवान् । स्वार्थ इति किम् ? अपमृषितं वाक्यमाह । धूनामनेकार्थत्वात् स्वार्थग्रहणं पठितापेक्षम् । पाठस्तूपलक्षणम् । सेडित्येव । मृत्रु सहने चास्योदिखात् “यस्य वा" [२१।१२१] इतीटि प्रतिषिद्धे मृष्टम् । वोदुङो भावारम्भयोः शपः ॥११॥४॥ तः सेएन किदिति वर्तते। उदुङो धोः शब्धिकरणात्परो भावे चारम्भे च तः सेड् वा न किद्भवति । भावग्रहणां क्तस्य विशेषणम् । श्रारम्भ श्राद्यःक्रियाक्षणः । स धोविशेषणम् । द्यतितमस्य । द्योतितमस्य । सम्बन्धे ता। कर्तृत्वविवक्षायां "न झित" [१२] इत्यादिना ताप्रतिषेधः। द्युतितमनेन । द्योतितमनेन । प्रलुठितः । प्रलोठितः। प्रलुठितवान् । प्रलोठितवान् । "कर्तरि चारम्भे क्तः" [२।४।५६] इति कर्तरि क्तः। उदुङ इति किम् ? विदितमनेन । प्रविदितः । भावारम्भयोरिति किम् ? रुचितः कार्षापणः । शब्धिकरणादिति किम् ? गुधितमस्य । प्रगुधितः । भाविकरणोऽयम् । सेडित्येव । रूढमस्य । प्ररूढः । तपरकरणमसन्देहार्थम् । निकुचित इति नकारस्य खे कृते “सन्निपातलक्षणो विधिरनिमिर्ग तद्विघातस्याः' इत्युदुडो विकल्पो न भवति । विहितविशेषणाद्वा । नोङस्थफात् क्त्वा ॥२१॥६५॥ सेडिति वर्तते वेति च । नकारोङोधोस्थकारान्तात् फकारान्ताच्च क्त्वा सेड् वा किद्भवति । श्रथित्वा । श्रन्थित्वा । ग्रथित्वा । ग्रन्थित्वा । गुफित्वा । गुम्फित्वा । मृडादिनियमान्नित्यमकित्त्वे प्राप्ते विधिर्विभाष्यते । नोङ इति किम् ? गोफित्वा । नन्वत्रापि “व्युङोऽवो हलः संश्च" [१११६७ ] इति विकल्पेन भाव्यम् । एवं तर्हि फेरफित्वा प्रत्युदाहरणम् । थकान्तादिति किम् ? स्रसित्वा ।। वञ्चिलुयुत्त पिमृषिकृषः ।।१।१॥६६॥ वञ्चि लुञ्चि ऋति तृषि मृषि कृष् इत्येतेभ्यः परः क्त्वा सेड् वा किद्भवति । वचित्वा । वञ्चित्वा । लुचित्वा । लुञ्चित्वा । ऋतेर्वाऽगै इति यदा ईयङ् न भवति तदा ऋतित्वा । अर्तित्वा। तृषित्वा । तर्षित्वा । मूषित्वा । मर्षित्वा । कृषित्वा । कर्षित्वा। मृडादिनियमान्नित्यमकित्त्वं प्राप्तम् । सेडित्येव । वक्त्वा । मृष्टा । "वोदित: [शा१०४ 1 इति पक्षे नेट । व्युङोऽवो हलः संश्च ॥११॥६७॥ सेडिति वर्तते वेति च । उकारोङ इकारोङश्च धोरवकारान्ताद्धलादेः परः संश्च क्त्वा च सेटो वा कितौ भवतः। उकारेकारोडोऽजन्तत्वासम्भवाद्धलग्रहणमादिविशेषणम् । दिद्युतिषते । दियोतिषते । “धु तिस्वाप्योर्जि:''[१२।१६७] इति चंस्य जिः । द्युतित्वा । द्योतित्वा । लिलिखिषति । लिलेखिषति । लिखित्वा । लेखित्वा । सन्नकिदेव क्त्वापि सेएमृडादिनियमादकित । तयोरप्राप्त कित्त्वमनेन विधीयमानं १. धातुपाठपठिततितिक्षार्थस्य ग्रहणमित्यर्थः । २, मृष्टः ब०। ३.-धक्रि-ब०। ४. "कमृत्यो. र्णिङीयङ्' २१२८। इति नित्यं हिङीयौ । अत्र वाडगे" इत्यनुवृत्त अगे विकल्पेन विडीयौ इति तत्रत्यवृत्त्यभिप्रायः । एतदाशयेनैवात्र ऋतेर्वाग इति इत्याद्य क्तम् । नस्वित्थं किमपि सूत्रम् । ५. क्वेति ब०, स०। ६. अभ्यासस्य। For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ अ०१ पा० १ सू०६८-६] महावृत्तिसहितम् विकल्प्यते । व्युङ इति किम् ? विवर्तिषते । वर्तित्वा । अव इति किम् ? दिदेविषति । देवित्वा । हलादेरिति किम् ? एषिषिषति । एषित्वा । सनि एपि कृते द्वित्वम् । सेडित्येव । बुभुक्षते । भुक्त्वा । युक्रवदुसि लिङ्गसंख्ये ॥१२८॥ युक्तः प्रकृत्यर्थः । प्रत्ययार्थेन सम्बन्धात् । उसोऽथ उस् । उसि युक्त इव लिङ्गसंख्ये भवतः। इवार्थे वत् । उसिति नाशस्य संज्ञा । उसा नष्टस्य त्यस्यार्थः साहचर्यादुस । तत्रोस] प्रकृत्यर्थे इव लिङ्गसंख्ये विधीयते । लिङ्ग स्त्रीनपुसकानि । संख्या एकत्वद्वित्वबहुत्वानि । पञ्चालो नाम राजा तस्यापत्यं “राष्ट्रशब्दादाज्ञोऽञ्" ३।।१५०] इत्यञ् । बहुत्वे तत्योपि कृते पञ्चालाः क्षत्रियाः पुल्लिङ्गा बहुसंख्याः । तेषां निवासो जनपदः "तस्य निधासादूरभवौ" [३।२।१६] इत्यागतस्याण: “जनपद उस्”[३।२।६१] इत्युस् । क्षत्रियेषु ये लिङ्गसंख्ये ते जनपदेऽपि भवतः । पञ्चालाः । कुरवः । अङ्गाः । वङ्गाः । कलिङ्गाः। एवं वरणानामदूरभवः । गोदौ नाम हृदो तयोरदूरभवः । “वरणादेः" [३।२।३२] इति उस् । वरणाः । शिरीषाः । गोदौ । अर्थातिदेशाद्विशेषणानामपि तद्वत्ता सिद्धा" वा पञ्चाला रमणीया बन्ना बहुक्षीरघृता बहुमाल्यफलाः। वरण रमणीयाः । गोदौ रमणीयौ । “अजातेरिति वक्तव्यम्" (वा०)। पञ्चाला जनपदः । गोदौ ग्रामः । अत्र जनपदग्रामयोर्जातित्वान्नातिदेशः । जात्यों जातिः । तेन तद्विशेषणानामपि प्रतिषेधः। पञ्चाला जनपदो रमणीयः। नेदं वक्तव्यम् । सज्ञाप्रामाण्यात् । यथा वर्षा आपो दारा गृहाः सिकता इत्येवमादीनां संज्ञाशब्दानां संज्ञाप्रामाएयादेव स्वलिङ्गन स्वसंख्यया च साधुत्वमेवं जातेरपि भविष्यति । पञ्चालादीनां तु संज्ञाशब्दानामन्वाख्यानप्रदर्शनार्थमुस्लिङ्गसंख्यातिदेशश्च विधीयते इत्यदोषः । उसीति किम् ? आमलकं फलम् । उपि कृते फलेऽर्थे श्रामलकशब्दस्य स्त्रीलङ्ग मा भूत् । लिङ्गसंख्ये इति किम् ? बदर्या अदूरभवो ग्रामः। वरणादित्वादुस् तस्य वनं बदरीवनभू । वनस्पतित्वातिदेशो मा भूत् । "विभाषौषधिवनस्पतिभ्यः [५/४०] इति णत्वं प्रसज्येत । बेति व्यवस्थितविभाषानुवृत्तेमनुष्याथै उसि विशेषणानां न लिङ्गसंख्यातिदेशः । पञ्चाला अभिरूपः । बहीका दर्शनीयः। चचेव मनुष्यः । "इवे प्रतिकृतौ कः" [ १११५०] इति कः। तस्य "उस मनुष्ये" [ १२] इत्यस्। खलतिकादिषु संख्यातिदेश एव । खलतिकस्य पर्वतस्यादूरभवानि खलतिक वनानि । हरीतक्यादिषुलिङ्गातिदेश एव । हरीतक्या अवयवः फलानि । "हरीतक्यादेः” [ ३।३।१२४ ] इत्युस् । हरितक्यः फलानि । तिष्यपुनर्वसूनां भद्धन्द्धे द्वित्वम् ॥११॥६६॥ तिष्य एकः पूनर्वसू द्वौ । तेषां भद्वन्द्वे द्वित्वं भवति । उदितौ तिष्यपुनर्वसू । तिष्यपुनर्वसूनामिति किम् । राधानुराधाः । श्रवणधनिष्ठाः । भग्रहणं किम् । तिष्ये जातः । पुनर्वस्वोर्जातो तत्र जात इत्यागतस्याणो 'भेभ्यो बहुलम्" [ ३।३।१३] इत्युप् । तिष्यश्च पुनर्वसू च तिष्यपुनर्वसवो माणवकाः। ननु गौणल्यादेवात्र न भविष्यति । पर्यायाधै तर्हि भग्रहणम् । पुष्यपुनर्वसू सिद्धपुनर्वसू इति । बहुवचननिर्देशः किमर्थः ? एकवद्भावे मा भूत् । इदं तिष्यपुनर्वसु । इदमेव ज्ञापकं "वा तरुमृग०" [ I] अादिसूत्रे वेति योगविभागोऽस्ति । द्वन्द्व इति किम् । यस्तिष्यस्तौ पूनर्वसू येषां ते तिष्यपुनर्वसवो मुग्धाः तिष्यादय एवात्र विपर्ययेण प्रतीयन्त इति भविषयत्वमास्त। "जात्याख्यायामकास्मन् बहुवचनमन्य तरस्याम् । [११८ पा० सू०] इति न वक्तव्यम् । सामान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः । विशेषेष्वनुवृत्ताकार बुद्धि निमित्त सामान्यम् । व्यावृत्ताकारबुद्धिहेतवो विशेषाः। तत्र सामान्यविवक्षायामेकत्वं भवति । सन्नो श्रीहिः। विशेषविवक्षायां बहुलम् । सम्पन्ना ब्रीहयः। संख्यानुप्रयोगे जातिविवव । एको ब्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति । अस्मदो द्वयोरेकस्य च वा बहत्वं न वक्तव्यम् । कथमहं ब्रवीमि, आवां बवः, वयं ब्रम इति ? आत्मन इन्द्रियाणां च स्वातन्त्र्यं पारतन्त्र्यं विवक्षया भविष्यति । कदाचिदात्मा स्वतन्त्रो भवति । अनेनाणा पश्यामि । कदाचिदिन्द्रियाणां स्वातन्त्र्यम्। इदम्मेऽक्षि पश्यति । तत्रात्मनः स्वातन्त्र्यविवक्षाया १. विकल्पेन विधीयत इत्यर्थः। २. “वद्धिका' अ. “वद्रिका'' मु०। ३. अस्मदो द्वयोश्च (पा० सू० १॥२ ५६ ) इति सूत्रं लक्षयति वृत्तिकारः। For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् अ. १ पा. सू. १०० मेकत्वमिन्द्रियाणां स्वातन्त्र्ये बहुत्वम् । सविशेषणस्यात्मविवक्षैव । अहं देवदत्तो ब्रवीमि । अहं साधुब्रवीमि । युष्मदि गुरावुभयविवक्षा । त्वं मे गुरुः । यूयं में गुरवः । एतच्च शब्दशक्ति स्वाभाव्यात् । फल्गुनीप्रोष्ठपदानां नक्षत्रे द्वयोर्बहुत्वं वेति न वक्तव्यम् । कथं कदा पूर्वे फल्गुन्यौ कदा पूर्वाः फल्गुन्यः। कदा पूर्व प्रोष्ठपदे कदा पूर्वाः प्रोष्ठपदाः ? यदा फल्गुनोसमीपगते चन्द्रमसि फल्गुनीशब्दो विवक्ष्यते तदा बहुत्वमन्यदा द्वित्वम् । स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः ॥१।१।१००।। स्वभावत एव शब्द एकशेषमनपेक्ष्य एकत्वद्विलबहुत्वेषु वर्तते । अत एवैकशेषानारम्भः । एकत्वादीनां प्रकृत्युपात्तानामभिव्यक्तये विभक्त्युपादानम् । यथा एको द्वौ बहवः पञ्च सतेति । एवं वृक्षः वृक्षौ वृत्ताः । अथ प्रत्यर्थ शब्दनिवेशान्नंकेनानेकस्याभिधानं तत्रानेकार्थाभिधानेऽनेकशब्दत्वं प्रसक्तमत एकशेषः । अत्रोच्यते-यदि भिन्नेष्वभिन्नाभिधान प्रत्ययहेतुर्जातिः शब्दार्थः । तस्याः प्रत्यायने एक एव शब्दः समर्थः । अथ द्रव्यं शब्दार्थः। तच्चानेकं व्यावृत्ताभिधानबुद्धि लिङ्गम्। तस्याभिधित्सायामनेकशब्दत्वे प्राप्त एकशेष इति । एतदप्ययक्तम् । अवशिष्टः शब्दो निवृत्त शब्दस्य यद्यर्थमभिधत्ते तदास्य द्वित्वेऽपि वृत्तिरिति किमेकशेषेण । अथ नाभिधचे तदा पश्चादपि स एवार्थः । कथमनेकत्रार्थे वृत्तिः १ सरूपाणां द्वन्द्वनिवृत्यर्थमेकशेष इत्यपि नास्त्यनभिधानात् । न हि भवति द्वौ च द्वौ च द्वाविति । अथ विरूपशब्दार्थ एकशेषः । तथाहि-"वृद्धो यूना तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः” [पा० सू० १।२।६१] 'अपत्यमन्तर्हितं वृद्धम् । एवकारो भिन्नक्रमः । विशेषो वैरूप्यम् । वृद्धः शिष्यते यूना सह वचने वृद्धयुवलक्षणे एव यदि विशेषः समानायां प्रकृतौ । गार्ग्यश्च गाायणश्च गाग्यो । दाक्षिश्च दाक्षायणश्च दाक्षी। वृद्ध इति किम् ? औपगवश्चानन्तर औपगविश्च युवा प्रोपगवीपगवी । गार्गिगाायणौ । यूनेति किम् ? गर्गश्च गार्ग्यश्च गर्गगाग्र्यो । तल्लक्षण एवेति किम् ? गार्ग्यवात्स्यायनी । अत्र प्रकृतिविशेषोऽप्यस्ति । एवकारः किमर्थः । भागवित्तिभागवित्तिका । भागवित्तरपत्यं युवा । "दोष्ठण सौवीरेषु प्रायः" [३।१।१३६ ] इत्यत्र क्षेपस्यापि भावान्न तल्लक्षण एव । विशेष इति किम् ? वैदश्च वृद्धो वैदश्च युवा वैदवैदौ । तल्लक्षणवैरूप्याभावात् द्वन्द्वो भवत्येव । “स्त्री पुंवच" [पा. सू. १२१६६ ] स्त्री वृद्धा यूना सह वचने शिष्यते पुंवद्भावश्चास्या भवति तल्लक्षण एव यदि विशेषः । गार्गी च गाायणश्च गाग्यो । दाक्षी च दाक्षायणश्च दाक्षी। नेदं द्वयं वक्तव्यम् । जीवति वंश्ये वृद्ध द्वयमभिधत्ते । अजीवति वृद्धयूनोर्द्वन्द्वी नास्त्यनभिधानात् । जीवति वंश्ये वृद्धा स्त्री युवानञ्च सामान्येन वृद्धशब्द एवाभिधत्ते । द्वन्द्वस्य चानभिधानम् । यदपि पुमान् स्त्रिया सह वचने शिष्यते तल्लक्षण एव यदि विशेषः। कठश्च कठी च कटो। मयूरश्च मयूरी च मयूरौ। प्राणिधर्मयोः स्त्रीपुंसयोर्ग्रहणादिह न भवति । नदनदीपतिः । घटघटीसरावोदञ्चनादि । तल्लक्षण इत्येव । कुक्कुटमयूयौं । एवकार इत्येव । इन्द्रेन्द्राण्यौ। भवभवान्यौ। पुंयोगलक्षणोऽप्यत्र विशेषः । इदमपि जातिमात्रविवक्षया सिद्धांत । द्वन्द्वस्य चानाभधानम् । श्रभिधाने द्वन्द्वोऽस्ति। नदनदीपतिः। ब्राह्मणवत्स ब्राह्मणी(ण)वत्सौ। भातपुत्रौ स्वसूदुहितृभ्यां शिष्यत इति न वक्तव्यम् । भ्राता च स्वसा च भगिनी वा भ्रातरौ । पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ । अपत्यमात्रविवक्षया द्वन्द्वानभिधानञ्च । इदं तर्हि वक्तव्यम् । नपुंसक १ मनपंसकेनैकपच्चास्यान्यतरस्यान्तल्लक्षण एव यदि विशेष इति । शुक्लञ्च वस्त्रं शुक्लश्च कम्बलः शुक्ला च साटी तदिदं शुक्तम् । तानीमानि शुक्लानि । नेदं ज्यायः, त्रिषु लिङ्गेष नपुंसकस्य प्रश्नादौ प्राधान्यात् । तेन (नपुंसकत्व) १.-याणां बहु-अ, ब, स.। २.-क्तिस्व वात् । फल्गु-अ.] ३, “फल्गुनीप्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे" पा० सू० १२१६०। ४. प्रत्यर्थशब्द-अ०। ५.-धाने प्रत्य-अ०। ६.-त्तस्य शब्दअ०, ब०, स० । ७.-कार्थे वृ-स०। ८. "पुमान् स्त्रिया" पा० सू० १।२।६७। इत्यभिलक्ष्य खण्डयति । है. 'भ्रातृपुत्री स्वसूदुहितृभ्याम्" पा० सू० १२६८इति खण्डयति। १०. "नपुंकमनपुंसकेनैकवच्चास्यान्यतरस्याम्" इति पा० सू० ११६६ For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू०१-३] महावृत्तिसहितम् २३ सामान्यविशेषापेक्षया च वचनभेदः । पिता' मात्रा श्वशुरः श्वश्वाऽन्यतरस्यामित्यपि न वक्तव्यम् । सामान्यविवक्षया पितरौ श्वशुराविति । द्वन्द्वोऽप्यस्ति । मातापितरौ । श्वश्रूश्वशुरौ। श्वश्रूशब्दः स्त्रियामिहैव निपातितः । "त्यदादीनि सनित्यम् ।" [पा० सू० १।२१७२] सर्वैरिति त्यदादिभिरन्यैश्च सहवचने त्यदादीनि शिष्यन्त इत्येतदपि नास्ति । त्यदादीनामन्यापेक्षया सामान्यवाचित्वम् । त्यदादिषु च यद्यत्परं तत्तत्सामान्यवाचीति तत्प्रयोगो युक्तः। स च देवदत्तश्च तौ। कश्च देवदत्तश्च को। स च यश्च यौ । अथात्र कस्य लिङ्गम् । स च स्थाली च कुण्डञ्च । स च देवदत्ता च कुण्डं चेति । उच्यते-द्वन्द्वा पवादोऽयम् | द्वन्द्वे चान्यलिङ्गम् । अत्रापि तदेव युक्तम् । इदं चापि न वाच्यम् । "ग्राम्यपशुसङ्केष्वतरुणेषु स्त्री " [पा० सू० १।२१७३ ] ग्राम्या ये पशवस्तेषां सङ्केषु स्त्री शिष्यते अतरुणाश्चेद् ग्राम्यपशवः । गावश्व स्त्रियो गावश्च पुमासः गाव इमाः। अजा इमाः । ग्राम्यग्रहणं किम् । श्रारण्यानां मा भूत् । रुरव इमे । पृषत इमे । पशुग्रहणं किम् । ब्राह्मणा इमे। सङ्केष्विति किम् ? एतौ गावौ चरतः । अतरुणेष्विति किम् ? वत्सा इमे । वर्करा इमे । कथं नेदं वक्तव्यम् ? लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वालिङ्गस्येति । अन्यथा अश्वा इमे इत्येवमादिषु एकशेषेषु अनिष्टं स्त्रीलिङ्गं प्रसज्येत इत्यभयनन्दि मुनिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः। भूवादयो धुः ॥ १२॥१॥ भू इत्येवमादयः शब्दाः प्रत्येकं धुसज्ञा भवन्ति । भू एध स्पर्द्ध इत्यादि । धोरित्यधिकृत्य लडादिविधिः कार्यम् । भवति । एधते । स्पद्धते । श्रादिशब्दो व्यवस्थावाची। तेन प्राणवयत्यादीनां निरासः। अर्थपदोपलक्षितानाञ्च व्यवस्था । ततो धुसमानशब्दानां यावामादिवित्येवमादीनां सर्वनामविकल्पप्रतिषेधस्वर्गादिवाचिनामग्रहणम् । भूशब्द आदिरेषामिति बसे भ्वादय इति प्राप्नोति । नैवम् । "भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्र ज्यते । इको यणभिन्यवधानमेकेषामिति संग्रहः" । तेन त्रियम्बकं यजामहे वायुवम्बरयोरिवेत्यादि सिद्धम् । "मुवो वायं वदन्तीति" भवतेः सम्पदादिपाठाक्विप । भुवं भवनं क्रियां वदन्तीति बहलवचनादण्य न्तादपि वदेरौणादिके इजि कृते भूवादयः । अस्मिन् पक्षे शिष्टाप्रयोगादाणवयत्यादीनां क्षेपः । "भ्वर्था वा वादयः स्मृताः । अथवा वा गतिगन्धनयोरित्यस्मात्पर श्रादिशब्दः । भुवो वादयो वाच्यवाचकभावसम्बन्धे ता भ्वर्थ इत्यर्थः । ये तु वकारो मङ्गलार्थ इति पठन्ति । त इदं वाच्याः । यद्याधिक्याद्वकारो मङ्गलमतिप्रसङ्गः स्यात् । एतेन तत् ज्ञानं प्रत्युक्तम् । मङ्गला भिधेयश्च वकारो नाममालादिषु न पठ्यते । वृत्तौ मध्यनिपातश्च चिन्त्यः । धुप्रदेशाः "धोर्य क्रियासमभिहारे' [२।१११६] इत्येवमादयः ।। अकर्मको धिः ॥ श२।२ ॥ अकर्मको धुर्धिसज्ञो भवति । "काप्यम्। [११२।१२०] इत्यादिना लक्षणेन विहितं कर्म तदविवक्षितं वा नास्या (नास्त्यस्य वाऽ) कर्मकः । धप्रदेशाः "अनोधेः [२।४५] इ. वमादयः। ) कार्यार्थोऽप्रयोगीत् ॥ १।२।३ ॥ शास्त्रेऽन्यस्य कार्यार्थमाश्रीयते प्रयोगे च न श्रूयते यः स इत्सझो भवति । अइउण् णकारः । अिमिदा स्नेहने, टुनदि समृद्धौ, डुकृञ करण इत्यादिषु भिटुडवो डेङस्यादिषु कारः । कार्यार्थ इति किम् ? कुलात्खः कुलीनः । परमकुलीन इत्यत्र खकारस्याऽप्रयोगित्वात् "खित्यमेम १."पिता मात्रा, श्वसुरः श्वश्वा" पा० सू० १२१७०,७१ इत्यभिलक्ष्य खण्डयति । २.-ता च । सच कु-म०, स.। ३. इदमेकशेषवादिना मते संगच्छते । एकशेषानारम्भवादिना वृत्तिकृता तु "लिंगमशिष्यं लोकाश्रयस्वाल्लिंगस्य" इति वाच्यम् । ४.-न्दिविर-१०, ब०, स०। ५, प्राणपयत्या-म०, स. आणययस्या-ब० । ६.-दाणपय-प्र०, ब०, स०। ७. निरास इत्यर्थः । ८. "भूवादीनां वकारोऽयम्मंगछार्थः प्रयुज्यते" ( १।३।। पा० म० भा०) इति खण्डनपरः सन्दर्भः । For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [१०१ पा० २ सू० ४-८ मच" [४३११७६, १७७] इति मुम् प्रसज्येत । अप्रयोगीति किम् ? परमकुलीनः । ईनादेशः कार्यमिति मुम् स्यात् । ननु कार्यार्थोऽप्रयोगी च खः कथं नेत्सञ्ज्ञः ? उभयविशेषणोपादानात् । अन्यस्य कार्यार्थो भूत्वा योऽप्रयोगी यदोषः । अन्वर्था चेयमित्संज्ञा । एति गच्छति नश्यतीत् तेन "तस्य लोपः" [पा. स. ११३।१] इति न वक्तव्यम् । प्रयोगानुसारेणाप्रयोगित्वावगतेः। प्रतिपत्तिगौरवमिति चेत् "उपदेशेऽजनुनासिक इत्" [पा० सू० १॥३॥२] इत्यनुनासिकत्वमपि प्रयोगादेवावसीयत इति समानम् । इत्प्रदेशाः "टिदादिः" [१।२।५३] इत्येवमादयः । यथासंख्यं समाः ॥ १२।४॥ यथासंख्यं यथाक्रमं समाः शिष्यमाणा भवन्ति । यथासंख्यं "यावद्यथावधुत्यसादृश्ये" [१।३।६] इति हसः। समास्तुल्याः । तुल्यत्वञ्च द्विष्ठमतः पूर्वोद्दिष्टानामनुद्दिष्टाः समा ज्ञेयाः । "मिप्यस्थतसोऽम्तंतताम्" [ २ २] प्रथमसंख्यस्य मिपः प्रथमसंख्योऽम् इत्येवमादि योज्यम् । समा इति किम् ? "सवाङ्गलक्षणघोषऽज्यजिजामण" [३३] सङ्घादयश्चत्वारोऽर्था अञादयस्त्रयः, वैषम्यात सङ्घादिषु चतुर्वर्थेष्वनंतादणू भवति, तथा यान्तादिञन्ताच्च । समशब्दस्य सर्वार्थे युक्तार्थे च सर्वनामसज्ञोक्का न तुल्यार्थे । स्वरितेनाधिकारः ॥ १।२।५ ॥ स्वरितेन लिङ्गेनाधिकारी वेदितव्यः । “त्यः" [२।१।१] "परः" [२२] "ङ्याम्मृदः" [३११] इत्येवमादिः। स्वरित इति प्राचार्यप्रतिज्ञाया लिङ्गम् । “व्यामिश्रः स्वरितः" [१1१1१४] इत्यस्याचो धर्मत्वेन "रो रि" [२१४।१८] इत्येवमादिषु हल्स्वसम्भवादग्रहणम् । अधिकारो विनियोगी व्यापार इत्यर्थः । स्वरितेनेति योगविभागायथासंख्यमपि स्वरितेन ज्ञे यम् । अनुदात्तेतो दः॥१२।६ ॥ कारेतोऽनुदात्तेतश्च धोर्द एव भवति । ङितः । खूङ् । सूते । शीङ् । शेते । इङ् । अधीते । अनुदान्तः । श्रास । श्रास्ते । वस । वस्ते । चक्ष । आचष्टे । चक्षेत्किरणमनर्थकम् । अनुदात्तेत्त्वाधुन् । विचक्षणः। "लः कर्मणि च भावे च धे" [ १४] इति धोलकारा विहिताः। तदद्वारेण दविधौ मविधौ च प्राप्त प्रकृतिनियमोऽयम् । ङनुदात्तेतो द एव भवति । दस्त्वनियतः। सोऽन्येभ्योऽपि प्राप्तः । “मम्" [१॥२१७५] इति द्वितीयो नियमः । यत्र मञ्च दश्च प्राप्नोति तत्र ममेव भवति । यदि त्यनियमः स्याद ङनुदाचेत एव दो भवति नान्येभ्यस्तदान्यत्र मस्य सिद्धृत्वात "म" [ १ ५] इति सूत्रमनर्थकं स्यात् । तदारम्भादिष्टावधारणं सिद्धम् । किञ्च त्यनियमे हि ङनुदात्तोऽपि मं प्राप्नोति तन्निवृत्तये शेषान्ममिति शेषग्रहणं कुर्यात् । तदकरणं च ज्ञापर्क प्रकृतिनियमस्य । ___ौ ॥ १२७ ॥ डिरिति भावकर्मणाः सञ्ज्ञा । ङौ द एव भवति | आस्यते भवता । सुप्यते भवता । भावस्पैकत्वं युष्मदस्मदर्थाऽसम्भवश्व । कारकेभ्यः पृथग्भूतो धोरर्थः स्वप्रधानको भावः । एति जीवन्तमानन्द इत्यत्र अानन्दो बाह्य एतेः कर्तृत्वेन विवक्षित इति दो न भवति । कर्मणि । क्रियते कटः । कर्मकरि । लूयते के सरः। मिद्यते कुसूलः स्वयमेव । अर्थनियमोऽयम् । दस्तु कर्तर्यपि प्राप्तः स ममित्यनेन नियमेन निवर्त्यते । यदि ङावेव दो भवतीति त्यनियमः स्याद् भाबकर्मणोरनियतवान्मेऽपि प्राप्ते तन्निवृत्त्यर्थं शेषात् कर्तरि ममित्युच्येत शेषा'ऽकरणं ज्ञापकमर्थनियमस्य । एवं प्रकृतिनियमेऽर्थनियमे च सति "मम्" [ ११२।७५ ] इत्यत्र कर्तृग्रहणं शेषग्रहणञ्च प्रत्याख्यातम् । ___कर्तरि ॥ १।२।८ ॥ कर्तरि आर्थे दो भवति । “कर्मव्यतिहारे नः" [२।३।७६ ] इति जो विहितस्तत्सहचरितः कर्मव्यतिहारो आर्थः । कर्मव्यतिहारश्च कर्मग्रहणसामर्थ्यात् क्रियाव्यतिहारः। अन्यस्य कर्तुमिष्टां क्रियां यदान्यः करोति तदिष्टां चेतरस्तदा क्रियाव्यतिहारः। व्यतिलुनीते । व्यतिपुनीते । प्रारम्भसामर्थ्यात् १.-न्ति । यायासङ्ख्या यथा--अ०, ब०, स० । २. इत्यन्न दो अ०, ब० । ३. केदारः 40, 40, स०। ४. उत्तरवाक्यस्वारस्येन शेषाकरणं ज्ञापकं प्रकृतिनियमस्य, कर्तृग्रहणाकरणज्ञापकमर्थनियमस्येति पाठो युक्तः । ५. असहचरित इत्यर्थः । ६. व्यतिलुनते। व्यतिपुनते अ०, ब० । For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५ भ० : पा० २ सू० ६-१५] महावृत्तिसहितम् कर्तर्येव सिद्ध कर्तृग्रहणमुत्तरार्थम् "न गतिहिंसार्थेभ्यः" [१।२।१] इति । कर्तरि कर्मव्यतिहारे विहितस्य दस्य प्रतिषेधो यथा स्यादिह मा भूत् । व्यतिभूयते सेनया । व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः । व्यतिहन्यन्ते दस्यवः । क्रियाव्यतिहार इति किम् ? पारिभाषिककर्मव्यतिहारे मा भूत् । देवदत्तस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति । न गतिहिंसार्थेभ्यः ।। २रा || गत्यर्थेभ्यो हिंसार्थेभ्यश्च धुभ्यो आर्थे दो न भवति । व्यतिगच्छन्ति । व्यतिधावन्ति । हिंसार्थेभ्यः । व्यतिहिंसन्ति । व्यतिभिन्दन्ति । व्यतिछिन्दन्ति । व्यन्तिपिंषति । बहुवचननिर्देशो हसादिसंग्रहणार्थः । व्यतिहसन्ति । व्यतिजल्पन्ति । व्यतिपठन्ति । व्यतिकथयन्ति । "वह्योरप्रतिषेधो वक्तव्यः" [वा०] सम्प्रहरन्ते राजानः । व्यतिवहन्ते नयः । गतिहिंसयो प्रतिषेधो गतिहिंसाहेतौ न भवति । व्यतिगमयन्ते । व्यतिभेदयन्ते । परस्परान्योन्येतरतरे ॥ १॥२॥१०॥ परस्पर अन्योन्य इतरेतर इत्येतेषु प्रयुक्तेषु आर्थे दो न भवति । परस्परस्य व्यतिलुनन्ति | अन्योन्यस्य व्यतिलुनन्ति । इतरेतरस्य व्यतिलुनन्ति । व्यतिभ्यां द्योतितेऽपि कर्मव्यतिहारे परस्परादिपदप्रयोगो द्वावपूपौ भक्षयेति यथा । परस्परादिशब्दानां कथं सिद्धिः । द्वित्वप्रकरणे कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो द्वित्वम् । “सवच्च बहुलम्" [वा. ] इति वक्ष्यति । . निविशः ॥ २२॥११॥ नि इति स्वरूपस्य ग्रहणं न निसज्ञाया । निपूर्वाद्विशो दो भवति । निविशते । निविशेते । निविशन्ते । लावस्थायामडागमः। तद्भक्तो न व्यवधायकः । न्यविशत | "मम्" [ ११२७५ ] इति में प्राप्तम् । सनिर्देशः समर्थार्थः । सामर्थ्यश्च धोगिना । तेनेह न भवति । मधुनि विशन्ति भ्रमराः । अनर्थकत्वाद्वा । परिव्यवक्रियः ॥११२।१२॥ परि वि अव इत्येवंपूर्वात् क्रीणातेयॊ भवति । परिक्रीणीते । विकीणीते । अवक्रीणीते । अकाप्ये फले विधिरयम् । अनर्थकवादिह न भवति । उपरि क्रीणाति । गवि क्रीणाति । अपचाव क्रीणीवः । क्री इति अनुकरणम् । अनुकार्येणार्थवत्त्वान्मृत्वे सति स्वादिविधिः। "प्रकृतिवदनकरणम्" इति धुलातिदेशादियादेशः । उत्तरत्र जेरिति निर्देशात् वत्करणादपि स्वाश्रयोऽपि क्वचिदेव । विपराजेः ॥१२१३॥ वि परा इत्येवंपूर्वाजयतेो भवति । विजयते । पराजयते । अत्रापि सनिदशः समर्थस्य गेग्रहणार्थः । तेनेह न भवति । बहुविजयति वनम् । पराजयति सेना । आङो दोऽव्यसने ॥२॥१४॥ व्यसनं विकसनं विवरणं वा। अन्येषां दारूपाणां व्यसने वृत्तिर्नास्ति । आपूर्वाददातेरव्यसनेऽर्थे दो भवति । विद्यामादत्त । अकळये फले प्रापणार्थमिदम् । अव्यसनमिति किम् ? आस्यं व्याददाति । पिलकं व्याददाति । विपादिकां व्याददाति । "स्वाङ्गकर्मकादिति वक्तव्यम्" [वा. ] इह मा भूत् । व्याददते पिपीलिकाः पतङ्गमुखम् । यद्यक प्ये फले प्राप्तस्याव्यसन इति प्रतिषेधः काप्ये फले व्यसने दः प्राप्नोति । नैवम् । अव्यसन इति योगविभागाद येन केनचित्प्राप्तस्य प्रतिषेधः। श्राङिति ङित्करणं किम् ? श्रा ददात्यसौ भिक्षामिदानीमहमस्मार्षम् । आङिति योगविभागः । तेन स्थः प्रतिज्ञाने दो भवति । अनित्यं शब्दमातिष्ठन्ते । “गमयते: कालहरणे” [ वा० ] अागमयस्व तावद्देवदत्त । "नुप्रच्छिभ्याञ्च" [वा०] । आनुते शृगालः । श्रापृच्छते गुरुमिति सिद्धम् । क्रीडोऽनुपर्याङः ॥२२॥१५॥ अनु परि श्राङ् इत्येवंपूर्वान् क्रीडो दो भवति । अनुक्रीडते । परिक्रीडते । आक्रीडते । गिसाहचर्यादनोर्गे रेव ग्रहणादिह न भवति । माणवकमनु क्रीडति । माणवकेन सहेत्यर्थः । "भार्थे [१४।१४] इत्यनुना योग इप गितिसज्ञाप्रतिषेधश्च । “शिक्षेर्जिज्ञासायां दो वक्तव्यः' [ वा०] शकेः सन्नन्तस्येदं ग्रहणम् । विद्यासु शिक्षते। धनुषि शिक्षते । कर्मविवक्षायां विद्याः शिक्षांचक्रे । “हरतेर्गतिताच्छील्ये' [वा०] पैतृकमश्वा अनुहरन्ते मातृकं गावः । मातुरागतम् "ऋतष्ठञ्” [ ३।३।५२ ] इति ठत्र । १. बहु मुवि जय-ब०। २. अपरा अ०। ३. -मातिष्ठते अ०, ब०, स०। For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू०१६- २३ गतिताछील्य इति किम् ? मातरमनुहरन्ति । “शप उपलम्भन इति च वक्तव्यम्” [ वा० ] वाचा शरीरस्पर्शनमुपलम्भः । देवदत्ताय शपते । उपलम्भन इति किम् १ शपति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोऽक्रूजे ॥१|२|१६|| सम्पूर्वात् क्रीडोऽकुजेऽर्थे दो भवति । संक्रीडते । संक्रीडेते । संक्रीडन्ते । कूज इति किम् ? संक्रीडन्ति शकटानि । अव्यक्तं शब्दं कुर्वन्तीत्यर्थः । स्थोऽविप्राच्च ||१|२|१७|| श्रव विप्र इत्येवंपूर्वीत् सम्पूर्वाच्च तिष्ठतेर्दो भवति । श्रवतिष्ठते । वितिष्ठते । प्रतिष्ठते । सन्तिष्ठते । ज्ञीप्सास्थेयो || १२|१८|| परपरितोषार्थमात्मरूपादिप्रकाशनं ज्ञीसा । स्थीयतेऽस्मिन् निर्णयरूपेणेति स्थेयः । बहुलवचनादधिकरणे यः । ज्ञीप्सायां स्थेयोक्तौ च तिष्ठतेर्दो भवति । ज्ञी सायाम् तिष्ठते कन्या छात्रेभ्यः । तिष्ठते ब्राह्मणी छात्रेभ्यः । स्वाभिप्रायप्रकाशनेनात्मानं रोचयतीत्यर्थः । ज्ञीप्सनक्रियया कर्मव्यपदेशभाजां छात्राणामुपेयत्वात् संप्रदानत्वम् । स्थेयोनौ - देवदत्ते तिष्ठते । त्वयि तिष्ठते । मयि तिष्ठते । संशयान्निश्चयं करोतीत्यर्थः । उद ईहे ||१२|१६|| उत्पूर्वात्तिष्ठतेरीहार्थे वर्तमानाद्दो भवति । गेहे उत्तिष्ठते । धर्मे उत्तिष्ठते । घ इत्यर्थः । इह इति किम् ? अस्माद् ग्रामाच्छतमुत्तिष्ठति । उत्पद्यत इत्यर्थः । इह इति ईहते: पर्यायग्रहणात् गम्यमानायामीहायां न भवति । श्रासनादुत्तिष्ठति । उत्तिष्ठति सेना । अस्माद् ग्रामाद्विष्टि: ( ? ) | पञ्च पुरुषा उत्तिष्ठन्ति । उपान्मन्त्रकरणे ||१|२२० ॥ उपपूर्वात्तिष्ठतेर्मन्त्रकरणे दो भवति । जगत्योपतिष्ठते । त्रिष्टुभोपतिष्ठते । मन्त्रकरण इति किम् ? भर्तारमुपतिष्ठति भार्या यौवनेन । उपादिति योगविभागः । तेन देवपूजासङ्गतिकरणमित्रकरणपथिषु दो भवति । देवपूजायाम्- सीमन्धरमुपतिष्टते । सङ्गतिकरणे - रथिकानुपतिष्ठते । मित्रकरणे - महामात्रानुपतिष्ठते । सङ्गतिकरणमुपश्लेषः । मित्रकरणं मानसः सम्बन्धः । पथि श्रयं पन्थाः स्रुघ्नमुपतिष्ठते । “वा लिप्सायामिति वक्तव्यम्” [ वा० ] | भिक्षुको दातृकुलमुपतिष्ठते । उपतिष्ठति वा । धेः ||१|२|२१|| श्रकर्मको धिरिति । उपपूर्वात्तिष्ठतैधैर्दो भवति । यावद्भुक्तमुपतिष्ठते । यावदोदैनमुपतिष्ठते । भोजने भोजने श्रदने श्रदने उदीक्षत इत्यर्थः । घेरिति किम् ? स्वामिनमुपतिष्ठति । व्युत्तपः || १||२२|| घेरिति वर्तते । वि उदित्येवम्पूर्वात्तपतेर्भेदों भवति । वितपते । ज्वलतीत्यर्थः । उत्तपत्ते । धेरित्येव । उत्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः । वितपति पृथ्वीमादित्यः । दहतीत्यर्थः । व्युद इति किम् ? निष्टपति । दीप्यत इत्यर्थः । “स्वाङ्गकर्मकाच्चेति वक्तव्यम्" [ वा० ] वितपते पाणिम् । उत्तपते पाणिम् । श्रात्मीयमङ्गं स्वाङ्गं न पारिभाषिकं तेनेह न भवति । वितपति परपाणिम् । उत्तपति देवदत्तो यज्ञदत्तस्य पृष्ठम् । ङो महनः || १ |२|२३|| श्राङ्पूर्वाभ्यां यम हन इत्येताभ्यां धिभ्यां दो भवति । श्रायच्छते । दीर्घो भवतीत्यर्थः । श्राहते । श्रघ्नाते । श्राघ्नते । यमः कर्त्राप्ये फले “समुदाङ थमोऽग्रन्थे” [ १/२/७० ] इति दः सिद्धो ऽन्यत्रेदम् । धेरित्येव । श्रायच्छति रज्जुम् । श्राहन्ति पापम् । “स्वाङ्गकर्मकाच्चेति वक्तव्यम् [ वा० ] | आयच्छते पाणिम् । आते वक्षः । स्वाङ्गादिति किम् ? परकीयाङ्गे कर्मरिण मा भूत् । ग्राहन्ति शिरः परकीयम् । १. रहेऽर्थे अ०, ब०, स० । २ श्र० स० पुस्तकयोः "विष्टिः” इति पाठ: । ब० मु० पुस्तकयोः "दिष्टिः" इति । परं "विष्टिः" इति पाठ: प्रतिभाति । विष्टिश्व कर्मकृत् "आजूवेतनयोविष्टिः कर्मकृत्कर्मणोरपि " इति शाश्वतवचनात् । पूर्ववाक्याच्चात्र "उसिष्टति" इत्यध्याहारः । "गृष्टिः" इत्यपि पाठः सम्भवति । गृष्टिश्व सकृत्प्रसूता गौः । ३ दानिकु - अ० । ४ - दामोद- श्र० । २. दीर्घीभव ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० २४-३१] महावृत्तिसहितम् समो गम्प्रच्छिस्वच्छिश्रुविदृशः ॥१।२।२४॥ धेरिति वर्तते । सम्पूर्वेभ्यो गम्-प्रच्छि-स्व-अ-च्छिश्रु-विद-दृश्-इत्येतेभ्यो दो भवति । सङ्गच्छते । संपृच्छते । संस्वरते । ऋ इति ऋच्छतेरियर्तेश्च ग्रहणम् । समृच्छते। समियते। समरिष्यते । अच्छतेरनादशस्य ग्रहणम् । आदेशस्य ऋग्रहणेन सिद्धत्वात् । समृच्छिष्यते । संशृणुते। विदेरादादिकस्य ग्रहणं मद्भिस्साहचर्यात् । संवित्त । संपश्यते । धेरित्येव । सकुच्छति सुहृदम् । संवेत्ति धर्मम् । “गेरस्वत्यूह्योति वक्तव्यम्" [वा०]। निरस्यते । निरस्यति । समूहति । समूहते । निसंव्युपाद् ह्वः ॥१।२।२५।। पुनः संग्रहणाद्ध रिति निवृत्तम् । नि-सं-वि-उप इत्येवम्पूर्वात् हयतेदों भवति । नियते । संह्वयते । विह्वयते । उपह्वयते । ह्वयतेरात्वेन विकृतनिर्देशेऽपि प्रकृतिग्रहणम् "न व्यो लिटि" [४।३।३६] इति निर्देशात् । आङः स्पर्द्ध ।।१।२।२६॥ स्पर्ध: पराभिभवेच्छा । श्राङपूर्वात् ह्वयतेः स्पद्धविषये दो भवति । मल्लो मल्लमाह्वयते । छात्रछात्रमाह्वयते । स्पर्द्ध याह्वानं करोतीत्यर्थः । स्पद्ध' इति किम् ? गामाह्वयति । गन्धनाऽवक्षेपसेवाऽन्यायप्रतियत्नप्रकथोपयोगे कृतः ॥१२॥२७॥ गन्धनं सूचनम् । अवक्षेपो भर्सनम् । सेवा संश्रयः । अविधिना प्रवृत्तिरन्यायः । अविद्यमानार्जनं विद्यमानसंस्कारो वा प्रतियत्नः। प्रबन्धेन कथनं प्रकथा । उपयोगो धर्मादिनिमित्तो व्ययः । गन्धनादिष्वर्थेषु वर्तमानात् कृत्रो दो भवति । गन्धनेउत्करते अयमिमम । सूचयतीत्यर्थः। अवक्षेपे-स्येनो वर्तिकामुपकुरुते । भर्सयतीत्यर्थः । सेवायाम-गणकानपकुरुते । सेवत इत्यर्थः । अन्याये-परदारानुपकुरुते । न्यायमनपेक्ष्य तेषु प्रवर्तत इत्यर्थः । प्रतियत्ने-एधो दकस्योपस्कुरुते । “प्रतियरने कृमः"[१।४।६० ] इति कर्मणि ता । उपात्प्रतियत्नवैकृत." [४।३।११२] इत्यादिना सुट् । प्रकथायाम्-जनापवादान् प्रकुरुते । उपयोगे-शतं प्रकुरुते । धर्माद्यर्थ विनियुक्त इत्यर्थः । एतेष्विति किम् ? कटं करोति । अविष्करोतीत्यत्र प्राविः शब्द एव गन्धने वर्तते न करोतिः। अपकारप्रयुक्त वा सूचनं गन्धनमित्यदोषः। प्रसहनेऽधेः ॥१२॥२८॥ प्रसहनमभिभवः । अधिपूर्वात्कृत्र : प्रसहनेऽर्थे दो भवति । शत्रुनधिकुरुते । वादिनोऽधिकुरुते । अभिभवतीत्यर्थः । प्रसहन इति किम् ? अधिकरोति । अकाप्ये फले ममेव भवति । शब्दकर्मणो वेः ॥ २६॥ कर्मेह कम्प्यम् । विपूर्वात् करोतेः शब्दकर्मकाद्दो भवति । ध्वाङ्गो विकुरुते स्वरान् । कोष्टा विकुरुते स्वरान् । शब्दकर्मण इति किम् ? विकरोति कटम् । शब्दग्रहणेन शब्दविशेषाः स्वरादयो गृह्यन्ते । तेनेह न भवति । वकरोति शब्दम् । विकरोत्यनुवाकम् । विकरोत्यध्यायमसावह्ना । धेः ॥१२३०॥ विपूर्वात्करोतेधैः भवति । विकुर्वते सैन्धवाः । साधुदान्ताः । ओदनस्य पूर्णाश्चात्रा विकुर्वते । “तृप्त्यर्थे योगे उपसंख्यानम्" [वा०] इति करणे ता । सम्मानोत्सजनोपनयनशानभूतिगणनव्यये नियः ॥२॥१॥३२॥ सम्मानः पूजनम् । उत्सञ्जनमुत्क्षेपः। उपनयनमाचार्यकरणम् । ज्ञानमवगमः। भ्रांतवेतनादानम् । ऋणशुल्कादिनिर्यातनं गणनम् । व्ययो धादिष्वर्थावनियोगः। सम्मानादिषु यथासम्भवं विशेषणेवु नयतेधोदों भवात । सम्माने-नयते चावी स्याद्वादे। चावी बुद्धिस्तयागादाचायाऽपि तथोक्तः। विनयेषु प्रतिपादनेन सम्मानं करोतीत्यर्थः। उत्सजनेबालमुदानयते । उत्क्षिपतीत्यर्थः । उपनयने-माणवकमुपनयते । आत्मनः शिष्यभावेन माणवक प्रापयतीत्यर्थः। ज्ञाने-नय ते चार्वी तत्त्वार्थे । तत्त्वपदार्थान् निश्चिनोतीत्यर्थः। भृती-कर्मकरानुपनयते । वेतनादानेन पुष्णातीत्यर्थः । गणने-मद्रकाः करं विनयन्ते । निर्यातयन्तीत्यर्थः । व्यये-शतं विनयते । सहस्र विनयते । एतेविति किम् ? अजां नयति ग्रामम् । १. अत्र गन्धनस्य वर्तमानत्वेन दो वक्तव्य इत्याशङ्कायामुत्तरद्वयम् । For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० ३२-४३ कर्तृस्थे कर्मण्यमूर्ती ॥ १|२|३२|| नयतेः कर्ता लकारवाच्यः । रूपाद्यात्मिका मूर्तिः । कर्तृस्थे कर्म मूर्तिवर्जिते सति नयतैर्दो भवति । क्रोधं विनयते । हर्ष विनयते । श्रमं विनयते । शमयतीत्यर्थः । अत्र कर्तृस्थत्वात्कर्मणः कर्त्राऽप्यफलता कर्मता । तेन कर्त्राप्ये क्रियाफले सिद्धेऽपि दे नियमार्थमेतत् । कर्तृस्थ इति किम् ? देवदत्तो जिनदत्तस्य क्रोधं विनयति । कर्मणीति किम् ? बुद्धया विनयति । अमूर्ताविति किम् ? गडु ं विनयति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किरते हर्षजीविकाकुला करणे || १ |२| ३३ ॥ किरतेदों भवति हर्षजीविकाकुलायकरण इत्येतेषु गम्यमानेषु । पस्किरते वृषभो हृष्टः । जीविकायाम् अपस्किरते कुक्कुटो भक्षार्थी । कुलायो निवासः - कुलायकरणे–अपस्किरते श्वा श्राश्रयार्थी । "चतुष्पाच्छकुनिष्वपाद्धर्षादौ” [४|३|११५] इति सुट् । वृत्तिसर्गतायने क्रमः ॥ १२॥३४॥ वृत्तिरविधातः । सर्ग उत्साहः । तायनं पृथूभावः । वृत्त्यादिष्वर्थेषु वर्तमानात् क्रमेद भवति । वृत्तौ नयेध्वस्य क्रमते बुद्धिः । न प्रतिबध्यत इत्यर्थः । सर्गे -क्रमते जैनेन्द्राध्ययनाय । उत्सहत इत्यर्थः । तायने - नास्मिन्मूढे शास्त्राणि क्रमन्ते । न तायन्त इत्यर्थः । एतेष्विति किम् ? क्रामति । "क्रमो मे” [५|२|७४] इति दीत्वम् | परोपात् || १ |२|३५|| वृत्तिसर्गतायन इति वर्तते । पर- उप- इत्येवम्पूर्वात् क्रमेद भवति । पराक्रमते । उपक्रमते । सिद्धं सत्यारम्भो नियमाय परोपाभ्यामेव नान्यस्माद्वेः । अनुक्रामति । वृत्त्यादिष्वित्येव । पराक्रामति । उपक्रामति । ज्योतिरुद्र तावाङः ||११२/३६ ॥ श्राङ्पूर्वात् क्रमेर्ज्योतिषामुद्गमनेऽर्थे दो भवति । श्राक्रमते सूर्यः । श्राक्रमते चन्द्रमाः । श्रक्रमन्ते ज्योतींषि । ज्योतिरुद्वताविति किम् ? श्राक्रामति धूमो हर्म्यतलम् । श्राक्रामति माणवकः कुतपमित्यत्रोद्गतिरपि नास्ति । वेः स्वार्थे ॥ १|२|३७॥ स्वार्थः पादविक्षेपः । विपूर्वात् क्रमेः स्वार्थे दो भवति । ( श्रश्वः ) सुष्ठु विक्रमते । साधु विक्रमते । विक्रमणमश्वादीनां शिक्षाविशेषाद् गतिविशेषः । स्वार्थ इति किम् ? विक्रामत्यजिनसन्धिः । स्फुटतीत्यर्थः । प्रादारम्भे || १२|३८|| श्रारम्भः प्रथमं कर्म । प्रपूर्वात् क्रम प्रारम्भे दो भवति । प्रक्रमते भोक्तुम् । परोपादित्यत उपादिति वर्तते । उपक्रमते भोक्कुम् । श्रारभते भोक्तुमित्यर्थः । श्रारम्भ इति किम् ? पूर्वेद्य : प्रक्रामति । अपरेद्युरुपक्रामति । पूर्वस्मिन्नहनि यदनेन गतं तदपरस्मिन्नागच्छतीत्यर्थः । वाऽगेः || १ |२|३६|| श्रगेः क्रमो वा दो भवति । क्रमते । क्रामति । इयमप्राप्ते विभाषा । वृत्त्यादिषु पूर्वेण नित्यो विधिः । गेरिति किम् ? संक्रामति । झोपवे ॥१२॥४०॥ श्रपह्नवोऽपलापः । श्रपह्नवेऽर्थे जानातेर्दो भवति । शतमपजानीते । सहखमपजानीते । पह्नव इति किम् ? ' किंचिदपि जानासि । धेः ॥ ११२२४१ ॥ जानातेर्धेर्दो भवति । सर्पिषो जानीते । दध्नो जानीते । सर्पिषा दध्ना चोपायनेन सम्पश्यत इत्यर्थः । "झोsस्वार्थे करणे” [१।४।१८ ] इति करणे ता । कर्त्राप्ये फले इदं दविधानम् । धेरिति किम १ स्वरेण पुत्रं जानाति । 1 संप्रतेरस्मृतौ ॥ १|२|४२ ॥ स्मृतिराध्यानं चिन्तनं वा । सम्प्रतिपूर्वाजानातेरस्मृत्यर्थे दो भवति । शतं सञ्जानीते । शतं प्रतिजानीते । श्रस्मृताविति किम् ? मातुः सञ्जानाति । पितुः सञ्जानाति । "स्त्रदर्थदयेश कर्मणि” [१|४|११ ] इति ता । दीप्त्युपोक्शिज्ञाने हवि मत्युपमन्त्रणे वदः || १ | २|४३|| दीप्तिः प्रकाशनम् । उपेत्योक्तिरुपोक्तिः । उपसान्त्वनमित्यर्थः । ज्ञानं पदार्थावगमः । ईहो यत्नः । नानामतिर्विमतिः । उपमन्त्रणं रहस्यनुकूलनम् । दीप्त्या १. न त्वं किञ्चिद अ०, स० । For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० ४४-५३ ] महावृत्तिसहितम् दिष्वर्थेषु वदतेो भवति । दीप्तौ-बदते चावी तत्त्वार्थे । 'दीप्यमानो वदतीत्यर्थः। उपोक्ती-कर्मकरानुपवदते। उपत्य सम्भाषत इत्यर्थः । ज्ञाने-वदते चावी चन्द्रोदये। जानाति वदितुमित्यर्थः। ईहे-कोऽस्मिन् क्षेत्र वदते । को यतत इत्यर्थः । विमतौ-गेहे विवदन्ते । गोष्ठे विवदन्ते । विचित्रं भाषन्त इत्यर्थः । उपमन्त्रणे-कुलभार्यामुपवदते । परदारानुपवदते । अनुकूलयतीत्यर्थः । एतेष्विति किम् ? वदति देवदत्तः । व्यक्तवाक्समुक्तौ ॥१२॥४४॥ व्यक्तवाचो व्यक्तवर्णत्वान्मनुष्यादयः प्रसिद्धाः । सम्भय वचनं समुक्तिः । व्यक्रवाचां समक्तो गम्यमानायां वदतेर्दा भवति । सम्प्रवदन्ते ग्राम्याः। सम्प्रवदन्ते साधवः । सम्भूय भाषन्त इत्यर्थः । व्यक्तवागिति किम् ? सम्प्रवदन्ति कुक्क टाः । समुक्ताविति किम् । देवदत्तो वदति जिनदत्तम् । अनोधैः ॥१॥२॥४५॥ अनु पूर्वाद् वदतेधेयॊ भवति । अनुवदते जिनदत्तो देवदत्तस्य । अनुः सादृश्ये पुनरर्थे वा । धेरिति किम् ? पूर्वमुक्तमनुवति । व्यक्तवाक्समुक्तावित्येव । अनुवदन्ति वीणा। वा विवादे ॥ ४६॥ विवादो विप्रलापस्तत्र वर्तमानाद्वदतेर्वा दो भवति । विप्रवदन्ते सांवत्सराः । विप्रवदन्ति सांवत्सराः। विप्रवदन्ते वादिनः । विप्रवदन्ति वादिनः । युगपद्विरुद्ध वदन्तीत्यर्थः । व्यक्तवाग्ग्रहणमनुवर्तते । ततो व्यक्तवाक्समुक्ताविति नित्ये प्राप्त विकल्पः । विवाद इति किम् ? सम्प्रवदन्ते साधवः । व्यक्तवागित्येव । सम्प्रवदन्ति शकुनयः । समुक्तावित्येव । सम्प्रवदन्ति वादिनः क्रमेण । प्रोऽवात् ॥१॥२॥४७॥ अवपूर्वागिरतेो भवति । अवगिरते। अवगिरेते । अवगिरन्ते । गृणातेरवपूर्वस्य प्रयोगो नास्ति । अवादिति किम् ? गिरति । निगिरति ? - प्रतिज्ञाने समः ॥४८॥ प्रतिज्ञानमभ्युपगमः प्रतिज्ञानेऽथें सम्पूर्वागिरतेो भवति । अनेकान्तास्मकं वस्तु सङ्गिरते । शतं सङ्गिरते । प्रतिज्ञान इति किम् ? सङ्गिरति । उच्चरोऽधेः ॥१२॥४६॥ उत्पूर्वाच्चरतेरधेर्दो भवति । गुरुवचनमुच्चरतें । उत्क्रम्य चरतीत्यर्थः । अधेरिति किम् ? धूम उच्चरति । उर्ध्वं गच्छतीत्यर्थः । समो भया ॥१२॥५०॥ सम्पूर्वाच्चरतेर्भान्तेन योगे दो भवति । रथेन संचरते। अश्वेन संचरते । भान्ते प्रयुक्त दो भवति, न तु गम्यमाने । भायुक्तादिति किम १ त्रील्लोकान संचरति जिनधर्मः । अत्र स्वात्मनेति करणं गम्यमानम् । “दाणश्च सा चेदबर्थेऽशिष्टव्यवहारे इति वक्तव्यम्" [वा०] सम्पूर्वाद्दाणो भायोगे दो भवति सा चेदबर्थे भा । इदमेव ज्ञापकमशिष्टव्यवहारे भाऽपि भवतीति । दास्या संप्रयच्छते । वृषल्या संप्रयच्छते कामुकः । सम इति संबन्धे ता । तेन प्रशब्देन व्यवधानं न भवति । अबर्थ इति किम् ? पाणिना सम्प्रयच्छति । नेदं वक्तव्यम् । कर्मव्यतिहारे दः । सहार्थे च भा द्रष्टव्या। स्वीकृतावुपाद्यमः ॥१॥२॥५१॥ पाणिग्रहणमविरोधो वा स्वीकृतिः। उपपूर्वाद्यमः स्वीकृतावर्थे दो भवति । कन्यामुपयच्छते । भार्यामुपयच्छते । स्वीकृताविति किम् ? परभार्यामुपयच्छति । श्रुस्मृदृशः सनः ॥१२॥५२॥ श्रु-स्मृ-दृश-इत्येतेभ्यः सन्नन्तेभ्यो दो भवति । शुश्रूषते शास्त्रम् । सुस्मूर्षते पूर्ववृत्तम् | दिदृक्षते देवम् । श्रुदृशिभ्यामकर्मकावस्थायां "समो गम्प्रच्छि." [१२।२४] इत्यादिना दो विहितस्तत्र “सनः पूर्ववत् " [ २८] इत्येव दः सिद्धः सकर्मकार्थमिदम् । स्मरतेरप्राप्ते विधानम् । शः ॥१२॥५३॥ जानातेः सन्नन्तात् दो भवति । जिज्ञासते धर्मम् । “ज्ञोऽपहवे" [२०] "धेः" [१२0१] "संप्रतेरस्मृती" [१२।४२] इति जानातेदों विहितः। तथा काप्ये फले "ज्ञोजोः" [११२१७१] इत्यत्र पूर्ववत्सन इति सिद्धस्ततोऽन्यत्रदं वचनम् । १. तयेति शेषः । २.- प्यमाना वद-अ०, ब०, स० । ३. 'गोष्ठे विवदन्ते' अ० पुस्तके नास्ति । ४. -ति सावत्सरः । व्यक्त-अ०। ५. वाप्यः ब०, स०, मु०। ६. सङ्गिरन्ते मु०। ७. -रते । कुटुम्बमुच्चरते। उत्क्रम्य-१०, ब., स.। For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् ० . पा. २ सू० ५४-६० नानोः ॥१२॥५४॥ अनुपूर्वाज्जानातैः सन्नन्तादो न भवति । पुत्रमनुजिज्ञासति । भृत्यमनुजिज्ञासति । सकर्मकादिति वक्तव्यम् [वा०] इह मा भूत् । अनुजिज्ञासते मनसा । नो वक्तव्यम् । पूर्वेण प्रातस्यायं प्रतिषेधः । पूर्वेण च सकर्मकादेव सन्नन्ताद्दो विहितः । धेस्तु "सन: पूर्ववत्" [१२।५८] इति दः । अनोरिति किम् ? पुत्र जिज्ञासते। प्रत्याश्रुवः ॥१॥२॥५५॥ नेति वर्तते । प्रति प्राङ् इत्येवम्पूर्वात् शृणोतेः सन्नन्ताद्दो न भवति । प्रतिशुश्रूषति । अाशुश्रूषति शास्त्रम् । “श्रुस्मृदृशः सनः" [१।२।१२] इति प्राप्तस्यानेन प्रतिषेधः। सनिर्देशः समर्थार्थः । सामर्थ्यञ्च धोर्गिना । तेनेह न प्रतिषेधः । देवदत्त प्रतिशुश्रूषते । शदेर्गात् ॥२॥५६॥ नेति निवृत्तमसम्भवात् । गनिमित्तभूतः । शदिरुपचाराद्गः । शदेविषयाद्दो भवति । शीयते । शीयेते । शोयन्ते । "पाघ्रा" [१२।३६] श्रादिना शीयादेशः । गादिति किम् ? शत्स्यति । अशत्स्यत् । शिशत्सति । मृङो लुङ्लिङोश्च ॥१२॥५७।। म्रियतेलुंलिङोर्गपराच्च दो भवति । अमृत । मृषीष्ट । आशिषि लिङ् । “3:" [१।११८६] इति सिलिकोः कित्वम् । गपरात् खल्वपि । म्रियते । म्रियस्व । “रिङ् यगलिशे" [१२।१३०] इति रिकादेशः। ङित्वादेव दे सिद्ध नियमार्थमिदमन्यत्र दो न भवति । मरिष्यति । अमरिष्यत् । ममार । सनः पूर्ववत् ॥१॥२॥५८॥ पूर्वेण तुल्यं वर्तत इति पूर्ववत् । पूर्वत्वञ्च प्रत्यासत्त: । सनः पूर्वो यो धुत्तद्वत्सन्नन्ताहो भवति । येभ्यो धुभ्यो येन विशेषणेन दो विहितस्तेभ्यः सन्नधिकेभ्योऽपि दो भवतीत्यर्थः । यथा "इनुदारोतो दः" [१।२।६] इति । शेते। प्रास्ते । एवं सन्नन्तादपि शिशयिषते । आसिसिषते । गिविशेषणेन “निविशः" [१।२।११] निविशते । निविविक्षते । अर्थविशेषेण "गन्धना." [१।२।२७] श्रादिना उत्कुरुते । अमिममुच्चिकीर्षते । उभयविशेषेण "ज्योतिरुद्गताघाङः" [१।२।३६] आक्रमते । श्राचिकंसते । " स्नोर्थात्, शिश१११] "क्रमः" [११।११२] इतीट्पतिषेधः । कारकविशेषेण "ज्ञोऽपहवे" [१।२।४०] “धेः" [१।२।४१] । सर्पिषो जानीते । सर्पिषो जिज्ञासते । इह जुगुप्सते मीमांसत इति गुप्प्रकृतेरवयवस्यानुदात्तेत्करणं सन्नन्तसमुदायस्य विशेषेणमिति दः सिद्धः। यद्येवं गोपायत्यादावपि स्यात् । कर्तव्योऽत्र 'यत्नः । पूर्ववदिति किम् ? शिशत्सति । मुमूर्षति । अत्र दनिमित्तं नास्ति । आम्वत् तत्कृषः ॥१॥२॥५६॥ आम्ग्रहणेन यस्मादाम् विहितस्तस्य ग्रहणम् । श्राम इव आम्वत् । तस्य कृन तत्कृत्र । यस्मादाम् तस्येव धोस्तत्कृतो दो वेदितव्यः। ईहाञ्चक्र । ईक्षाञ्चक्रे । लिटि परतः "सरोरिजादे" [२१११३२] इत्याम् | "आमः" [११४१४६] इति परस्योप् । लस्य कृत्वान्मृत्वे सति स्वादिविधिः । “सुपो मेः" [१।४।१५०] इति तस्योप् । “लिड्वत् कृजि' [२१११३६] इत्यनुप्रयोगस्य करोतेरनेन दः । विधिनियमश्चात्रेभ्येते । पूर्ववदिति वर्तते । अकाप्ये फले पूर्ववद्दो भवतीति विधिः। कर्नाप्ये फले अाम्वदेव दो भवति । तेन दाई स्यैवामन्तस्य प्रयोगे दो भवतीति नियमादिह न भवति । उदुम्भाञ्चकार । तद्ग्रहणं किम् ? आमन्तानुप्रयोगस्य ग्रहणं यथा स्यादिह मा भूत् । ईहते । करोतीति कृग्रहणं किमर्थम् ! करोतेरेव था स्यादिह मा भूत् । ईक्षामास । ईक्षाम्बभूव । इह कृञ्ग्रहणादन्यनिरासार्थाज्ज्ञायते"लिड्वत्कृजि"[२१११३६] इत्यत्र प्रत्याहारग्रहणं "कृभ्वस्तियोगे" [१।२।१५] इत्यत आरभ्य “कृजो द्वितीय '[४।२।६२] इति अकारेण । युजोऽयज्ञपाने गेः ॥१।२।६०॥ अकाप्यफलार्थोऽयमारम्भः । युजेर्गिपूर्वादो भवत्ययज्ञपात्रविषये । १. "प्रासिसिषते” इति अ. पुस्तके नास्ति । २. विशेषकमिति अ०,ब०,स०। ३. “अनुदारोत्त्वलक्षणो दोऽनित्यः' इति परिभाषारूपो यत्नः । For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० ६१-७० ] महावृत्तिसहितम् प्रयुङ । वियुङ्क्ते । नियुङ्क्ते । अयज्ञपात्र इति किम् ? द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । गेरिति किम् ? युनक्ति । "युज समाधौ” इत्यस्यानुदात्त त्वादग्रहणम् । उदः ॥१।२६१॥ उत्पूर्वाद्य जेरयज्ञपात्रे दो भवति । उद्युते । नियमोऽयं हलन्तेषूद एव नान्य. स्मात् । निर्युनक्ति । दुर्युनक्ति । संयुनक्ति । संक्ष्णोः ॥शश६२॥ सम्पूर्वात् चणुवो दो भवति । संघणुते । संक्ष्णुवाते । संदणुवते शस्त्रम् । भुजोऽदौ ॥१।२।६३॥ शब्दे कार्यस्यासम्भवाददावित्यर्थग्रहणम् । भुजेरद्यर्थवर्तमानादो भवति । भुङ्क्ते । भुञ्जाते । भुञ्जते । अर्थासम्भवात्तौदादिकस्य भुजेरग्रहणम् । निभुजति पाणिम् । अदाविति किम् ? भुनक्ति वसुधां भरतः । पालयतीत्यर्थः । णे(स्मेहेतुभये ॥१॥२६४॥ एयन्ताभ्यां भी स्मि इत्येताभ्यां हेतुभयेऽर्थे दो भवति । "तद्योजको हेतुः" [११२२६] इति हेतुः । तस्य भयशब्देन भावसाधनेन "का भीभिः' [१।३।३२] इति षसः । भयग्रहणेन विस्मयोऽपीह लक्ष्यते। मुण्डो भीषयते । “ईतः षुङ नित्यम्" [३।४६] इति षुम् । मुण्डो विस्मापयते । जटिलो विस्मापयते । "स्मिङः'' [।३।५०] इत्यात्वम् । हेतुभय इति किम् ? कुञ्चिकयैनं भाययति । वाचा विस्माययति । अकाप्यफलार्थोऽयमारम्भः । वञ्चने गृधिवञ्चः॥१२६५॥ णेरिति वर्तते । वञ्चनं विसंवादनम् । गृधि वञ्चि इत्येताभ्यां एयन्ताभ्यां वञ्चनेऽर्थे दो भवति । माणवकं गर्द्धयते । माणवकं वञ्चयते । विसंवादयतीत्यर्थः। वञ्चन इति किम् ? श्वानं ग यति । काङ्क्षामस्योत्पादयतीत्यर्थः । अहिं वञ्चयति । गमयतीत्यर्थः। लियोऽधायसम्मानने च ॥२२॥६६॥ णेरिति वर्तते । न धाय मधाष्ये शालीनीकरणम् । सम्माननं पूजनम् । लिनातीयतेश्च एयन्तादधाष्ट्यं सम्माननयोर्वञ्चने च वर्तमानाहो भवति । अधाष्ट्येश्येनो वर्तिकामपलापयते । अभिभवतीत्यर्थः । सम्मानने-जटाभिरालापयते । हेतौ भा। आत्मानं पूजयती त्यर्थः । वञ्चने च । कस्त्वामुल्लापयते । प्रलम्भयतीत्यर्थः। "विभाषा लियोः" [१३४४] इति व्यवस्थितविभाषाश्रयणादेषु त्रिषु नित्यमात्वम् । अधाादिष्विति किम् ? बालकमुल्लापयति ।। को मिथ्यायोगेऽभ्यासे ॥१६॥ गोरिति वर्तते । अभ्यासो गणनिका । करोतेर्यतालिम ध्याशब्दयोगेऽभ्यासेऽर्थे दो भवति । पदं मिथ्या कारयते । स्तुति मिथ्या कारयते। सदोषं पुनः पनरुच्चारय तीत्यर्थः । कृत्र इति किम् ? पदं मिथ्या वाचयति । मिथ्यायोग इति किम् ? स्तोत्रं सुष्टु कारयति । अभ्यास इति किम् ? सकृत्पदं मिथ्या कारयति । एकवारमुच्चारयतीत्यर्थः । __ अस्वरितेतः क प्ये फले ॥शश६८॥ रिति निवृत्तम् । उत्तरत्र णिच इति निर्देशात् । जितः स्वरितेतश्च ये धवस्तेभ्यो दो भवति कर्तारमाप्नोति चेत् क्रियाया फलम् । फलं सर्व क्रियातो भवतीति सामर्थ्यात् क्रिया लभ्यते । फलग्रहणं मुख्यफलपरिग्रहार्थम् । जितः-पुनीते । लुनीते । कुरुते । स्वरितेतः-पचते । यजते । वपते । मुख्य क्रियाफलमत्र कर्तारमाप्नोति । कम्प्ये फल इति किम् ? पचन्ति भक्तकराः। वपन्ति भूतकाः। नात्र मुख्यं फलं किन्तु भृतिरानुषङ्गिक वा फलम् । अस्वरितेत इति किम् ? याति । वाति । वदोऽपात् ॥१॥२॥६६॥ अपपूर्वाद्वदतेर्दो भवति काप्ये फले । एकान्तवादमपवदते। क;प्ये फले इत्येव । अपवदति । इतः प्रभृति काप्ये फले दो वेदितव्यः । समुदाङचमोऽग्रन्थे ॥१।२७०॥ .सम उत् प्राङ् इत्येवम्पूर्वायमेरग्रन्थविषये दो भवति । व्रीहीन् संयच्छते । आत्मनश्चद् व्रीहयो भवन्ति । भारमुद्यच्छते । पापमायच्छते । अग्रन्थ इति किम् ?. उद्यच्छति १. वियुक्त इति अ० पुस्तके नास्ति । For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir र जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० ७१-८३ चिकित्सां वैद्यः । चिकित्सेति वैद्यकग्रन्थः । काप्ये इत्येव । संयच्छति उद्यच्छति श्रायच्छति परस्य वस्त्रम् । "आडो यमहनः" [ १।२।२३ ] इत्यनेन धेर्दविधानमुक्तम् । शोगः ॥शश७१॥ जानातेरगिपूर्वादो भवति काप्ये फले। गां जानीते। अगेरिति किम ? स्वर्गलोकं प्रजानाति । काप्ये फले इत्येव । परस्य गां जानाति । णिचः ॥१।१७२।। णिजन्ताद्दो भवति काप्ये फले । कटं कारयते । श्रोदनं पाचयते । लक्षः स्वरितेत्करणाज्ज्ञायते हेतुमण्णिचो ग्रहणमिदम् । क प्ये फल इत्येव । परस्य कटं कारयति । पादम्याङयमाङ यसपरिमुहरुचिनृद्धेट्वद्वसः ॥११२।७३॥ णिच इति वर्तते । पा दमि श्राङ्यम प्राङ्यस परिमुह रुचि-नृत्-धेट् वद् वस इत्येतेभ्यो एयन्तेभ्यः काप्ये फले दो भवति । पाययते । दमयते । आयामयते । "यमोऽपरिवेषण" इति मित्सज्ञाप्रतिषेधात् प्रो न भवति । प्रायासयते । परिमोहयते । रोचयते । नर्तयते। धापयते। वादयते। वासयते । पाधेटोरद्यर्थत्वान्नतिवद्योश्चल्यर्थत्वात् "चल्यद्यर्थात्" [१॥२।८५] इति मं प्राप्तम् । अन्येषाम् "अणौ धेः प्राणिकर्तृकात्" [ ११२१८५] इति । तत प्रारम्भः । वा वाग्गम्य ॥१॥२।७४॥ वागिति नेदं पारिभाषिकत्य "ईपाऽत्र वाक् [२११७६] इत्यस्य ग्रहणं किं तर्हि वाक्छब्दः । पदान्तरमित्यर्थः। वागगम्ये काप्ये फले वा दो भवति । स्वं धान्यं पुनीते । स्वं धान्यं पुनाति । षभिर्योगैनित्यं दे प्राप्ते विकल्पोऽयम् । मम् ॥॥२७॥ नियमार्थम् । यस्मान्मं दश्च प्राप्नोति तस्मान्ममेव भवति । पूर्वेण प्रकरणेन प्रकृतिनियमः कृतो दस्त्वनियत इत्युभयप्रातिरस्ति । याति । वाति । प्रविशति । अाक्रामति धूमः । औ द एव भवतीति अर्थनियमो व्याख्यातः । ततः कर्तरि मं द्रष्टव्यम् । यदि वा "कर्तरि ज" [१॥२] इत्यतः कर्तरि तेनेह न भवति । गम्यते । रम्यते । परानुकत्रः ॥२६॥ परा अनु इत्येवंपूर्वात् कृत्रो में भवति । गन्धनादिषु दः प्राप्तस्तदपवादोऽयम् । पराकरोति । अनुकरोति । क प्ये फले ममेव भवति । कस्मान्न नियमः । तत्रापूर्वो विधिरस्तु नियमो वास्त्वित्य पूर्व एव विधिर्भवति । प्रत्यभ्यतिक्षिपः॥१२७७।। प्रति अभि अति इत्येवम्पूर्वात् क्षिपो मं भवति । प्रतिक्षिपति । अभिक्षिपति । अतिक्षिपति । स्वरितत्वादः प्राप्तः। एतेभ्य इति किम् ? प्राक्षिपते । प्रवहः ॥१२॥७८॥ प्रपूर्वाद्वहतेः काप्ये फले मं भवति । प्रवहति । मृषः परेः ॥२६॥ परिपूर्वान्मृषतेमं भवति । परिमृष्यति । परिमृष्यतः। परिमृष्यन्ति । वहिमपि केचिदनुवर्तयन्ति । परिवहति । परेरिति किम् । मृष्यते परीषहान् साधुः । व्याङश्च रमः ॥२०॥ विश्राङ, इत्येवम्पूर्वात् परिपूर्वाच्च रमेमें भवति । विरमति । श्रारमति । परिरमति । अनुदात्तेत्त्वाद्दः प्राप्तः । एतेभ्य इति किम् । रमते । अभिरमते । उपात् ।।१।२।८।। उपपूर्वाञ्च रमेम भवति । भार्यामुपरमति । पृथग्योग उत्तरार्थः । वा धेः॥२२॥ उपपूर्वाद्रमेधैर्वा में भवति । यावद्भक्तमुपरमति । उपरमते । निवर्तत इत्यर्थः । विरिरंसतीत्यत्र पूर्वस्य दनिमित्ताभावात् "सनः पूर्ववत्' [१॥२१८ ] इति दो न भवति । बुध्युनश्जने प्रद्र स्रोणेः ॥१॥२॥८॥ काप्ये फले णिच इति दे प्राप्तेऽयमारम्भः। बुध युध नश जन इङ्छु द्रु स् इत्येतेभ्यो एयन्तेभ्यो मं भवति । येऽत्राकर्मकास्तेषाम् “अणौ धेः प्राणिकर्तृकात्'' [११२१८५] १ जानीते । अश्वं जानीते। अगे--अ०, ब०, स०। २. "लक्ष दर्शनाङ्कनयोः" इति धोः स्वरितेत्करणादित्यर्थः । ३. नियमोऽयम् अ०, स०। ४. प्रवहति । प्रवहतः। प्रवहन्ति ।",ब., स०।५. "परिषहान्" अ०। ६. “यावद्भक्तमुपरमति" ब० । For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प०. पा० २ सू० ८४-१०] महावृत्तिसहितम् इति सिद्धे अप्राणिकर्तृकार्थ ग्रहणम् । प्रवत्यादीनामचल्यद्यर्थम् । बोधयति पद्मम् । योधयति काष्ठानि । नाशयति पापम् । जनयति पुण्यम् । अध्यापयति शास्त्रम् । प्रावयति ग्रामम् । प्रापयतीत्यर्थः । द्रावयति लोहम् । वितापयतीत्यर्थः । स्रावयति तैलम् । स्यन्दयतीत्यर्थः। चल्यद्यर्थात् ॥१॥२॥८४|| णेरिति वर्तते । चलेरर्थः कम्पनम् । अदेरर्थोऽभ्यवहारः । चल्यर्थेभ्योऽद्यर्थेभ्यश्च धुभ्यो एयन्तेभ्यो मं भवति । चल्यर्थेभ्यः-चलयति । चोपयति । कम्पयति । "कम्पने चलेः" (१) इति मित्सज्ञायां प्रादेशः। अद्यर्थेभ्यः-निगारयति । भोजयति । श्राशयति । सर्वत्राद्यर्थकार्यमदेर्नेष्यते । श्रादयन्ते देवदत्तेन । इह पय उपयोजयते देवदत्तेनेति भक्षणार्थाभावान्मं न भवति । सकर्मकाथमप्राणिकर्तृकार्थञ्च सूत्रम्। अणौ धेः प्राणिकर्तृकात् ॥२२८अण्यन्तावस्थायां यो धुधिः प्राणिकर्तृकस्तस्साएण्यन्तान्म भवति । आस्ते देवदत्तः। श्रासयति देवदत्तम् । शेते देवदत्तः । शाययति देवदत्तम् । अणाविति किम् १ चेतयमानं प्रयोजयति । चेतयते । ननु च "णिच:" [१२२७२] इत्यत्र हेतुमण्णिचो ग्रहणं व्याख्यातम् । अणाविति तस्यायं प्रतिषेधः। तेनात्र मं भवत्येव चेतयतीति । इदं तर्हि प्रत्युदाहरणम् । श्रारोहयमाणं प्रयोजयति श्रारोहयते । अथवाऽणाविति धेविशेषणम् । अणौ यो धिस्तस्य प्रणं यथा स्यात् । अन्यथा धिग्रहणे तविशेषणे इहैव मं स्याच्चेतयमानं प्रयोजयति चेतयति । श्रासयति इत्यादौ न स्यात् । धेरिति किम ? कटं कुर्वाणं प्रयोजयति कारयते । प्राणिकर्तृकादिति किम् ? शुष्यन्ति व्रीयः । शोषयते व्रीहीनातपः । "प्राण्योषधिवृक्षेभ्योऽवयवे च" [३।३।१०३] इति पृथा निर्देशादिह शब्दशास्त्रे वनस्पतिकायाः प्राणिग्रहणेन न गृह्यन्ते । क्यषो वा ॥१॥८६॥ क्यषन्ताद्वा मं भवति । वावचनसामर्थ्यात् पने दोऽपि भवति । अपटत्पटद्भवति पटपटायति । पटपटायते । "अव्यक्तानुकरणादनेकाचोऽनिती डा" [ १६] इति डान् । 'डाचि" इति द्वित्वम् । “म्रौ डाचि नित्यम्' [॥३॥८७] इति तकारस्य पररूपत्वम् । टिखम् । “डाउलोहितात्क्य" [ ५] इति क्यः । एवमलोहितो लोहितो भवति लोहितायते । धु झ्यो लुङि ॥१॥२॥८७॥ कृपूपर्यन्ता | तादयः । वेति वर्तते । द्यु तादिभ्यो वा में भवति लुङि परतः । व्या तत् । व्यद्योतिष्ट । अलुटत् । अलोटिष्ट । मविधिपक्षे “धु त्पुषादिलित्सर्तिशास्स्यतेम' [२।१।४] इत्यङ्। यद्यपि मेऽविधानसामर्थ्यान्मविधिलब्धस्तथाप्यनुदात्तेत्करणं लुङोऽन्यत्र सावकाशमिति नित्यं मं स्यादिति विकल्पार्थं वचनम् । लुङीति किम् ? द्योतते । द्यु ता सहचरिता इतरेऽपि तयोच्यन्त इति बहुवचननिर्देशः। स्यसनोवृद्भ्यः ॥१।२।८८॥ द्यु तादिष्वन्तता वृतादयः। वृतादिभ्यो वा मं भवति स्ये सनि च सति । वय॑ति । अवस्य॑त् । विवृत्सति । वर्तिष्यते । अवति यत । विवर्तिषते । एवं वृध सृध स्यन्दू इत्येते योज्याः । मविधौ “न वृतादेः" [५।१।१०७] इतीट्प्रतिषेधः। लुटि च क्ल,पः॥१२॥८६॥ क्ल पेलुटि स्यसनोश्च वा में भवति। कलता । कल्तारौ। कल्सारः । कल्प्स्यति । अकल्प्स्यत् । चिक्लप्सति । कल्पितारः। कल्पिष्यते । अकल्पिष्यत । चिकल्पिषते । क्ल पेवृतादित्वादेव स्यसनोर्विकल्पे सिद्धे चकारेणानुकर्षणमसन्देहार्थम् । क्लप इति लत्वं किमर्थम् ? ऋकारस्थस्य रेफभागस्य रेफग्रहणेन ग्रहणं यथा स्यात् । क्लुप्तः । क्लुप्तवान् । मातृणाम् । पितृणाम् । लत्वं णत्वञ्च सिद्धम् । स्पर्द्ध परम् ॥१२॥६०॥ स्पर्द्ध परं कार्य भवति । द्वयोः प्रसङ्गयोरन्यार्थयोरेकस्मिन् युगपदुपनिपाते सङ्घर्षः स्पर्धः। “यव्यतो दीः" [श६६] "सुपि" [१२।६७] इति दीत्वस्यावकाशः। देवाभ्याम् । वृषाभ्याम् । "बहौ झल्येत् [२।२।६८] इत्यस्यावकाशः । देवेषु । वृक्षेषु । इहोभयं प्राप्नोति देवेभ्य इति । सूत्रविन्यासे परमेत्वं भवति । अप्रवृत्तौ पर्याये वा प्राप्ते वचनम् । “कार्यकालं सज्ञापरिभाषम्" [परि०]इति । यावन्ति 1. पापम् । जनयति पापम् । जन-ब०, स० । २.'आदयते' अ०,ब०, स० । ३. चिक्लप्सति । कपिपता। कल्पितारौ। कल्पितार:-अ०, ब. For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू०६१-६६ कार्याणि तावद्वा सूत्रस्य भेद इति विधिनियमश्चेदं सूत्रम् । यत्र परस्मिन्कार्ये कृते "पुनः प्रसंगविज्ञानात्" पूर्व तत्र विधिः । यत्र परमेव कार्य दृश्यते "सकृद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एव" [परि०] इति तत्र नियमः । तद्यथा द्वित्वस्यावकाशः । बेभिद्यते । जेरवकाशः । विचति । वेविच्यते इति परत्वाजौ कृते पुनः प्रसङ्गाद् द्वित्वम् । "जरशसो शिः [१।१७] इत्यस्यावकाशः । कुण्डानि । “उसुटोरम्' [२१११२४] इत्यस्यावकाशः । यूयं राजानः। इह यूयं गुरुकुलानि इति पर एवाम्भावः। अतुल्यबलयोः स्पर्दो न भवति । उत्सर्गादपवादः परनित्यविचारणे भवेन्नित्यम् । नित्यात्तथान्तरङ्गम् । तस्मादप्यनवकाशं यत् । एकार्थयोरपि नास्ति विरोधः । धोर्विहितास्तव्यादयः पर्यायेण भवन्ति । नब्बाध्य आसम् ॥१।२।६१॥ नपा निर्दिष्टो बाध्यो भवति श्रा साधिकारपरिसमाप्त रित्येषोऽधिकारो वेदितव्यः । लोके संज्ञासमावेशो दृष्टः इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति । शास्त्रेऽपि त्यः कृद् व्य इति । "शेषोऽग एव'' [ १४] इत्यवधारणाज्ञापयति इहापि संज्ञासमावेशः स्यादिति यत्नः क्रियते । यत्र नपः समावेश इष्यते तत्र चशब्दोपादानमस्ति । यथा “यश्च काश्रये" [१३/४४] इति । वक्ष्यति "प्रो घि च" [ ११] विदि' । भिदि । "स्फे रुः" [१॥२॥१००] । शिक्षि । भिक्षि । नपा निर्दिष्टा धिसंज्ञा रुसंज्ञया बाध्यते समावेशे हि अततर्वेदित्यत्र "घौ कच्यनक्खे सन्वत्' [श२।१६०] इति कच्परें घौ परतः सन्वद्भावः प्रसज्येत । अविव्रजदित्यत्र घेर्दीत्वं स्यात् । नबिति किम् ? बाभ्रव्यः। पुल्लिङ्गा गुसंज्ञा पुल्लिङ्गया भसंज्ञया न बाध्यते । खौ च्याख्यौ मुः ॥१२॥३२॥ स्त्रियमाचक्षाते इति स्त्राख्यौ । “प्रे' [२।२।४] इति नियमादप्राप्तः "सुपि" [२।२७] इति योगविभागात्कः । यावीकारोकारौ स्व्याख्यौ तदन्तं शब्दरूपं मुसंज्ञ भवति । “सुम्मिङन्तं पदम् [१।२।१०३] इत्यत्रान्तग्रहणमन्यत्र संज्ञाविधौ तदन्तविधिप्रतिषेधार्थमिह नाश्रीयते "आमीयुवोः" [१२।१४] इति नियमारम्भात् । य्वाविति यणादेशादूकारो द्विमात्रस्तत्साहचर्यादीकारोऽपि द्विमात्रः । ईकारःकुमारी। गौरी। लक्ष्मीः । ऊकारः-ब्रह्मबन्धूः। वामोरूः । यवागूः। 'अण्" मोः" [५।२।१०७] इत्यादि मुसंज्ञाकार्यम् । य्वाविति किम् ? मात्रे । दुहित्रे । स्त्र्याख्याविति किम् ? हे ग्रामणीः । हे खलपुः । नेमौ स्त्रियमेवाचक्षाते । श्राख्याग्रहणं किम् ? शब्दार्थे स्त्रीत्वे यथा स्यात् पदान्तरगम्ये मा भूत् । ग्रामण्ये स्त्रियै। खलप्वे स्त्रियै। उभयलिङ्गानामिष्वसनिप्रभृतीनां शब्दार्थ एव स्त्रीत्वम् । इष्वै असन्यै स्त्रियै । तथा गुणशब्दानां पटव्यै स्त्रियै । इदञ्चाख्याग्रहणस्य प्रयोजनम् । कुमारीभिवात्मानमाचरति (कुमारीवाचरति ) "श्राचारे सर्वमृद्भ्यः क्विप्" इति क्विप् । कुमार्यै देवदत्ताय । लक्ष्मीमतिक्रान्ताय अतिलक्ष्म्यै । प्रागेव मुसंज्ञा वृत्ता तदन्तान्मुकार्यं भवति । इह अतिकुमारये देवदत्ताय । प्रादेशे कृते "अनविधौ' [१।११५६] इति प्रतिषेधान्मुकार्य न भवति । स्त्री ॥१।२।६३॥ स्त्रीशब्दश्च मुसंज्ञो भवति । 'श्रामीयुवो:" [१।२।६४] "वा” [१॥२॥६५]] हिति प्रश्च [११२।१६] इति नियमविकल्पयोः सामान्येन पुरस्तादयमपवादः । हे स्त्रि। स्त्रीणाम् । स्त्रियै । प्रादेश डाडागमाः सिद्धाः। आमीयुवोः ॥शश६४॥ श्रामि परत इयुवोः स्थानिनौ ग्वौ स्त्र्याख्यौ मुसज्ञौ भवतः। सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थः, अाम्येव मुसंज्ञा नान्यत्र । हे श्रीः । हे भ्रः। इयुवोरिति किम् ? प्रध्यै । वर्षाम्वै । वा ॥१॥२६॥ वा मुसंज्ञा भवतीत्यामीयुवोः। श्रीणाम् । श्रियाम् । भ्रणाम् । ध्रुवाम् । जिति प्रश्च ॥१॥६६॥ वोर्यः प्रः स्त्र्याख्य इयुवोश्च स्थानिनौ यौ य्वौ तेषां ङिति वा मुसंशा भवति । कृत्यै । कृतये । धेन्वै। धेनवे । पक्षे "स्वसखि" [११२।१७] इति सुसंज्ञा । "सोहिति" १. 'छिदि' अ०, ब०, स०। २.-तक्षत् । अररक्षदित्य-अ०, स०। ३. कपरघौ प-१०। १. 'पाण्मोः ' स०। ५.-डागमाडागमाः सिद्धाः-अ०, ब०, स०। ६. 'वा च मु-ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० १७- १०२ ] महावृत्तिसहितम् ३५ [५।२।१०६ ] एप् । इयुवौ । श्रियै । श्रिये । भ्रुवै । भ्रुवे । स्याख्यावित्येव । श्रग्नये । श्रतिकृतये । अतिश्रिये । अतिभ्रुवे दवदत्ताय । य्वौ य्वोः प्र इति किम् ? मात्रे । दुहित्रे । स्वसखि ||१|| ६७ | प्रो खोरिति वर्तते । वोः प्रस्सुसंज्ञो भवति सखिशब्दं वर्जयित्वा । सखीति प्रतिषेधात् सिद्धौ प्रेति निर्दे शाच्चास्त्र्याख्यस्य स्त्र्याख्यस्य च प्रस्येह ग्रहणम् । श्रग्नये । वायवे । स्त्र्याख्यश्च यो मुसंज्ञो न भवति तस्य ग्रहणम् । कृतये । धेनवे । मुसंज्ञाविषये "नब्बाध्य आसम् ” [१।२।११] इति सुसंज्ञा बाध्यते । कृत्याम् । धेन्वाम् । सखीति किम् ? सख्युः । सख्यौ । सखीति पर्युदासोऽयम् । तेन शोभनः सखा सुसखा । श्रुतिसखा । अतिसखेरागच्छति । अतिसखेः स्वम् । सखिशब्दादन्यत्वमस्तीति सुसंज्ञा । मृद्यहणेन तदन्तविधिरिति वा । य्वोः प्र इत्येव । पित्रे । मात्रे । सुप्रदेशाः “सोर्डिंति” [ ५/२/१०६ ] इत्येवमादयः । "" पतिः से ॥ ११२६८ ॥ पतिशब्दः स एव सुसंज्ञो भवति । प्रजाप्रतिना । प्रजापतये । पतिरेव स इति कस्मान्न नियमः । एवं हि "द्वन्द्व े सुः " [१।३।१८ ] इति पूर्वनिपातवचनमनर्थकं स्यात् द्वन्द्वे पतिरिति ब्रूयात् । नान्यस्य से सुसंज्ञासम्भवः । श्रपि चानेकप्राप्तावेकस्य नियम इति वचनमनर्थकं स्यात् । पटुमृदुगुप्तपटव इति । स इति किम् ? पत्या । पत्ये । I प्रो घिच ॥ १२॥६६॥ प्र इति मात्रिकस्य संज्ञा । प्रो घिसञ्ज्ञो भवति । भेत्ता । बोद्धा । घीति नपा निर्देशः किमर्थः १ पुल्लिङ्गया रुसज्ञया बाधा यथा स्यात् । प्रयोजनमग्रे वक्ष्यते । चशब्दः सञ्ज्ञान्तरसमावेशार्थः । घिच भवति यच्चान्यत्प्राप्नोति तच्च भवति । इह प्रविनय्य गत इति सुसंज्ञासमावेशः । विश्च नाच विनरौ तावाचष्टे णिच् । “ णाविष्टवन्मृदः " [ ४|४|१४६ ] इति इष्ठवद्भावः । टिखम् । प्रशब्देन योगः । क्त्वः प्यादेशे णिखे प्राप्त घिसंज्ञायां सत्यां "ध्ये धिपूर्वात् [ ४|४|१६ ] इति णेरयादेशः सिद्धः । सुसंज्ञायाच पूर्वनिपातः । अन्यथेकारोकाराभ्यामन्यत्र सावकाशा घिसंज्ञा इकारोकारविषयत्वादनवकाशया सुसंज्ञया बाध्येत । स्फेरुः ॥१२॥१००॥ प्र इति वर्तते । स्फसञ्ज्ञं परतः प्रो रुसञ्ज्ञो भवति । कुण्डा । हुण्डा । स्पर्धा । नुम्विधावुपदेशाश्रयणात्प्रागेव नुम् । “सरोई ल:" [२३८१] इति श्रस्त्यः । " श्रजाद्यतष्टाप् ” [ ३|१|४ ] | दीः ||१|२| १०१ ॥ दीरिति द्विमात्रस्य सञ्ज्ञा । दीश्च रुसज्ञो भवति । ईहाञ्चक्रे । लिटि परतः "सरोरिजादे : ” [२/१/३२ ] इत्याम् । शेषम् “आम्वत्तत्कृन : ” [१|२|५६ ] इत्यत्रोक्तम् । रुरिति पुल्लिङ्गनिर्देशः किमर्थः १ ईकारोकारविषयया मुसञ्ज्ञया बाधा मा भूत् । द्वयोः समावेशे हे परमवाणी ३क इत्यत्र “ऋन्मो:” [४।२।१५३] इति मुसञ्ज्ञाश्रयः कप् । रुसज्ञाश्रयो “अनृतोऽनन्तस्याप्येकैकस्य रो: ” [५|३|ε४] इति पविधिश्च सिद्धः । ये तदादि गुः || १ |२| १०२ ॥ यो हि यस्मात्त्यः स तस्येत्युच्यते । यस्य धोर्मृदो वा त्यः यत्त्यस्तस्मिन् परतस्तदादिशब्दरूपं गुसञ्ज्ञं भवति । केवलायाः प्रकृतेर्व्यपदेशिवद्भावात्तदादित्वम् । दोग्धि । जुहोति । करिष्यति । कुण्डानि । गुकार्य मेबिडागमो नुमागमश्च । जसि "नोङ: ” [४|४|१] इति दीत्वञ्च । यदिति सञ्ज्ञिनिर्देशार्थम् । श्रन्यथा तदादीति न लभ्येत तथा च त्ये सति पूर्वमात्रस्य गुसज्ञा स्यात् । तत्र को दोषः ? इह न्यविंशत प्राकरोदिति सगेरडागमः स्यात् । यत्त्य इति यच्छब्देन त्यस्य विशेषणं किम् ? अस्यापत्यमिः। देवदत्त इं पश्येत्यत्र श्रादेरैप् स्यात् । श्रखस्य स्थानिवद्भावाद् व्यवधानमिति चेत् योऽनादिष्टादचः पूर्वस्तं प्रति स्थानिवद्भावः । श्रादिष्टाच्चैषोऽचः पूर्वी निष्पन्नस्य पदस्य पदान्तरेणाभिसम्बन्धात् । यत्य इति ईम्निर्देशः १. 'निर्देशात्' इत्यस्य 'अनुवृ त ेः' इत्यर्थः । प्रसङ्गस्वारस्यात् । २. 'वा' अनित्यमित्यर्थः । ३. नोङ इत्यस्मिन्ननुवर्तमाने 'घेऽकौ' इति दीः । For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० १०३ - १०७ किमर्थः १ यत्त्यस्तदादि गुरित्युच्यमाने यस्य त्यः सम्भवति तस्यान्यस्मिन्नपि शब्दे गुसंज्ञा स्यात् । तथा च स्त्रियै इदं स्त्र्यर्भुवे इदं वर्थम् । युवौ प्रसज्येयाताम् । तदादिवचनं किमर्थम् ? यत्रानेकस्त्यः सम्भवति तत्र संज्ञा यथा स्यात् । करिष्यति । कुण्डानि । स्यान्तस्य सनुमुकस्य च गुसंज्ञायां "यज्यतो दी : " [ २४२६६ ] "धेऽकौ " [ ४|४|६ ] इति दीत्वं सिद्धम् । गुरिति पुल्लिङ्गनिर्देशो भपदसंज्ञासमावेशार्थः । इह बाभ्रव्य इति गुसंज्ञाश्रय श्रादेरप् । भसंज्ञाश्रयः "कद्रवो रोऽस्वयम्भुव:" [४|४|१३४ ] इति श्रोकारः । इह च यजुः पण्यमस्य याजुष्कः । गुसंज्ञाश्रय श्रादेरैप "स्वादावधे [१|२| १०६ ] इति पदत्वे पदसंज्ञाश्रयाणि रिसत्वप्रत्वानि सिद्धानि । नपुंसकलिङ्गा चेद् गुसंज्ञा होतुरपत्य' हौत्र इत्यत्र सावकाशा सती पदसंज्ञया बाध्येत । I सुम्मिन्तं पदम् ||१||१०३ || "न: क्ये " [ ११२|१०४ ] इति नियमारम्भात् सुविति प्रत्याहारग्रहणं नेपो बहोः । मिङा साहचर्याद्वा । सुबन्तं मिङन्तं च शब्दरूपं पदसंज्ञ भवति । सूपकारः पचति । पदसंज्ञाश्रयो रित्वादिविधिः । खरि सादेशविधिश्च भवति । ननु सुम्मिङौ त्यौ । त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेव हरामित्यन्तग्रहणं किमर्थम् ? अन्यत्र संज्ञाविधौ तदन्तविध्यभावज्ञापनार्थम् । तेन दृषत्तीर्णेत्यत्र क्लान्तस्य "फक्ततु" [ १।१।२८ ] इत्यनेन तसंज्ञा नास्तीति "द्रान्तस्य तो न: ” [ ५।३।५१ ] इत्येष विधि षकारापेक्षया न भवति । इह च कुमारीगौरितरा "तादी झ: ” [४/१/११७ ] इत्यनेन तरान्तस्य भसंज्ञा नास्तीति “झरूप०” [४।३।१५५] इत्यादिना प्रादेशो न भवति । पदमिति नपा निर्देशो भसंज्ञया बाधा यथा स्यादित्येवमर्थः । अन्यथा राज्ञः राजन्य इत्यत्र भसंज्ञाश्रयमनोऽखं पदसंज्ञाश्रयं नखञ्च स्यात् पदप्रदेशाः “पदस्य" [ ५/३/१४ ] इत्येवमादयः । नः क्ये ||१|२| १०४ ॥ क्य इति क्यच्क्यङ्क्यषामविशेषग्रहणम् । क्ये परतो नान्तस्य पदसंज्ञा भवति । राजानमिच्छति राजीयत । राजेवाचरति राजायते । चर्म चर्म भवति चर्मायते । पदत्वे सति नखं सिद्धम् । "नखं विधिं कृत्त कि" [ ५३२८ ] इति नियमादन्यत्र सिद्धमिति " क्यचि " [ ५।२।१४२ ] इतीत्वं “दीरकृदूगे” [ ५|२| १३४ ] इति दीत्वञ्च भवति । "त्यखे त्याश्रयम्” [१1१।६३ ] इति पदत्वे सिद्धे नियमार्थमिदम् । नान्तमेव क्ये पदसंज्ञ' भवति नान्यत् । वाच्यति । शुच्यति । कुत्वं न भवति । नान्तं क्य एवेति विपरीतो नियमो नाशङ्कनीयः । “अकौ” [५|३ | ३० ] इति कौ नखप्रतिषेधात् ज्ञायते पदत्वे हि नखप्राप्तिः । 1 सिति ||१२|१०५ || सिति त्ये परतः पूर्वं पदसंज्ञ भवति । भवतोऽयं भवदीयः । " भवतष्ठ छसौ" [ ३|२| ११ ] इति छस् । "यचि भः ” [ १/२1१०७ ] इति पदसंज्ञायां बाधितायां पुनरारम्भः । एवमूर्णा अस्यास्तीति ऊर्णायुः । "ऊर्णाहं शुभंभ्यश्च युस् ” [ ४|१| ६२ ] इति युस् । “यस्य याञ्च [ ४|४|१३६ ] इति खं न भवति । अय्युः । श्रहंयुः । शुभैय्युः । शुभंयुः । "वा पदान्तस्य " [२४] १३३ ] इति परस्वविकल्पः । स्वादावधे ॥१२॥१०६॥ श्रध इति प्रतिषेधाद्वाया एकस्य सोर्ग्रहणम् । स्वादौ धवर्जिते परतः पूर्व पदसंज्ञ ं भवति । राजभ्याम् । राजभिः । राजत्वम् । राजता । अध इति किम् ? राजानौ । राजानः । यद्येवं राजेत्यत्रापि प्रतिषेधः स्यात् । नैवं शङ्कयम् । श्रध इति पर्युदासोऽयं धादन्यत्र पदसंज्ञा विधीयते । वे तु पूर्वेण भविष्यति । यद्येवं सुवाचौ सुवाच इत्यत्रान्तर्वर्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदत्वं प्राप्नोति । अस्तु तर्हि प्रसज्यप्रतिषेधः । राजेत्यत्र “अकौ” [ ५|३|३० ] इति प्रतिषेधात् ज्ञायते सौ पदसंज्ञा भवति । एवमन्यध इति श्रनन्तरस्य स्वादौ विधेः प्रतिषेधोऽयं सुवाचौ सुवाच इत्यत्र पूर्वेण प्राप्तिरस्त्येव । कर्तव्योऽत्र यत्नः । “उत्तरपदत्वे चापदादिविधौ त्यलक्षणं न भवतीति । चिभः || १ |२| १०७ || स्वादावध इति वर्तते । यकारादावजादौ च स्वादौ धवर्जिते पूर्वं भसंज्ञ' भवति । गार्ग्यः । वात्स्यः । दाक्षिः । 'लाक्षिः । पूर्वेण पदसंज्ञा प्राप्ता भत्वाद् "यस्य ङयाच" इत्यखम् । “नभोऽङ्गिरो३. इति नरववि ब०, स० । १. भ्रुवे अ०, ब०, स० । २. भवर्थम् - अ०, ब०, स० । ४. न सम्भ - अ० । २. स्रुच्यति अ०, स० । For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० १०८ - १११] महावृत्तिसहितम् ३७ मनुष वत्युपसङ्ख्यानम् । [ वा० ] नभसा तुल्यं वर्तते इति नभस्वत् । श्रङ्गिरस्वत् । मनुष्वत् । वृष्णो वस्वश्वयोर्भसंज्ञति केचित् । वृष्णो वसुः वृषएवसुः । वृषरणश्वः । मत्वर्थे स्तौ ॥१२॥१०८॥ मत्वर्थे त्ये परतः सकारान्तं तकारान्तञ्च भसंज्ञ भवति । तपस्वी । यशस्वी । “विन्नस्मायामेधास्त्रज: ” [४ | १|४७ ] इति विन् । मतोर्विशेषणत्वेऽपि मत्वर्थग्रहणेन ग्रहणम् । यथा देवदत्तशाला पण्डिता श्रानीयन्तामित्युक्ते देवदत्तो विशेषणभूतोऽपि यदि पण्डितः सोऽपि श्रानीयते । भास्वान् । विद्युत्वान् । मरुत्वान् । स्ताविति किम् ? राजवद् गृहम् । कारके ||१२|१०६ ॥ कारक इत्ययमधिकारः । यदित उर्ध्वमनुक्रमिष्यामः कारक इत्येवं तद्वेदितव्यम् | कारकं निर्वर्तकं हेतुर्वा । कस्य १ क्रियायाः । का च क्रिया ? ध्वर्थः । कारक इति निर्धारणलक्षणेयमीप् । जात्यपेक्षैकवचनम् । । सौत्रो वा निर्देशः । कारकेषु यद्भुवं तदपादानं, यः कर्मणोपेयोऽर्थः स सम्प्रदानमित्यादि योज्यम् । वक्ष्यति “घ्यपाये ध्रुवमपादानम्” । [ १ | २|११० ] ग्रामादागच्छति । स्वर्गादवरोहति । श्रपायक्रियाया ग्रामोऽपि निर्वर्तकः देवदत्तोऽपि । ध्रुवत्वाद् ग्रामोऽपादानम् । कारक इति किम् ? वृक्षस्य पर्णं पतति । कुड्यस्य पिण्डः पतितः । अपायक्रियाया निर्वर्तकत्वेन वृक्षः कुड्यञ्च न विवक्षितम् । "अकथित [ १/२/१२१] अपादानादिभिरकथितं च कारकं कर्मसंज्ञ भवति । आचार्य धर्मे पृच्छति । कारक इति किम् ? श्राचार्यस्य शिष्यं धर्म पृच्छति । श्राचार्यस्य शिष्यविशेषणत्वादकारकत्वम् । यदा कारकचाकारञ्च सर्वमकथितमप्रतिपादितमित्यर्थस्तदेदं प्रत्युदाहरणम् । असङ्कीर्तितमिति व्याख्याने कारकमेव लभ्यते । प्रदेशेषु कारकाभिधानेऽपादानादीनां ग्रहणम् । " " ध्याये ध्रुवमपादानम् ||१२|११०॥ धीबुद्धिः । प्राप्तिपूर्वको विश्लेषोऽपायः । धिया कृतो अपायोध्यायः । धीप्राप्तिपूर्वको विभाग इत्यर्थः । धीग्रहणे ह्यसति कायप्राप्तिपूर्वक एवापायः प्रतीयेत धीग्रहन सर्वः प्रतीयते । ध्रुवमविचलम् अवधिभूतं वा । ध्यपाये साध्ये यद् ध्रुवं तदपादानसंज्ञ भवति । ग्रामादागच्छति । ग्रामो देवदत्तं नानुपतति इति ध्रुवः । अथवा पायात्प्रागपि ग्रामः । अपायेऽपि ग्राम एव । देवदत्तस्त्वपाये ग्रामग्रहणेन न गृह्यत इति ग्रामो ध्रुवः । एवमश्वाद् धावतः पतितः । गच्छतः सार्थादवहीनः । देवदत्तो जिनदत्तादागतः । मेषौ परस्परतोऽपसर्पतः । शृङ्गाच्छरो जायते । गङ्गा हिमवतः प्रभवति । इह ग्रामान्नागच्छ तीति पूर्वमपादानसंज्ञा पश्चात्प्रतिषेधः । धियाऽपायस्य विशेषणं किम् ? धर्माज्जुगुप्ते । प्रेक्षापूर्वकारी दुःखहेतुरधर्म इति बुद्ध्या संप्राप्य ततो निवर्तत इति अपादानत्वम् । एवमधर्माद्विरमति प्रमाद्यति । व्याघ्राद्विभेति । चौरेभ्यस्त्रायते । अध्ययनात् पराजयते । न शक्नोतीत्यर्थः । यवेभ्यो गां वारयति । श्रकार्यात्सुतं वारयति । कूपादन्धं वारयति । उपाध्यायादन्तर्द्धते । भयं सञ्चिन्त्य निवर्तत इत्यर्थः । विवक्षातः कारकाणि भवन्ति । उपाध्यायादधीते । उपाध्यायाच्छ, गोति । श्रविवक्षायां नटस्य शृणोति । ग्रन्थिकस्य शृणोति । श्रवमिति किम् ? अरण्ये बिभेति । नात्र भयावधिभूतमरण्यं किं तर्हि चौराः । नपा निर्देशः किमर्थः । वक्ष्यमाणाभिः संज्ञाभिर्वाधा यथा स्यात् । धनुषा विध्यति । पुलिङ्गया करणसंज्ञया बाधात् । कांस्यपात्र्यां भुङ्क्ते । पुलिङ्गाऽधिकरणसंज्ञ व } धनुर्विध्यतीति कर्तृ संज्ञा । इह गां दोग्धि पय इति परत्वात्कर्ससंज्ञा । श्रपादानप्रदेशाः "काऽपादाने” [१।४।३७] इत्येवमादयः । कमगोपेयः सम्प्रदानम् || १२|१११॥ उपपूर्वादिङो ये कृते उपेय इति भवति । कर्मणा य उपेयोऽर्थस्तत् कारकं सम्प्रदानसंज्ञ भवति । उपाध्यायाय गा ददाति । देवाय बलिं प्रयच्छति । कर्मणेति किम् ? गवा उपाध्यायमुपैति । सम्प्रदानमित्यन्वर्थसंज्ञाकरणात् ददात्यर्थानां धूनां द्रव्येण कर्मणा उपेयोऽर्थः सम्प्रदानमिति । तैनेह न भवति । देवदत्तस्य वस्त्रं दर्शयति । मित्रस्य कार्य कथयति । अजां नयति ग्रामम् । सम्यक् प्रदानं सम्प्रदानमिति चाश्रितम् । तेनेह न भवति । घ्नतः पृष्ठं ददाति । रजकस्य वस्त्रं ददाति । राज्ञो दण्डं ददाति । इह तर्हि कथं श्रद्धा निगृह्णते । युद्धाय सन्नह्यति । तिष्ठते ब्राह्मणी छात्रेभ्यः ? तादर्थ्यात् सिद्धम् । अथवा For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० ११२." . कथचिद्विवक्षितभेदाभिः सन्दर्शनप्रार्थनाऽध्यवसायक्रियाभिः क्रियापि व्याप्या सती कर्मतयोपेयत्वात् सम्प्रदानत्वम् । तेनेहापि भवति । रोचते देवदत्ताय मोदकः । स्वदते देवदत्ताय मोदकः । पुष्पेभ्यः स्पृहयति । मित्राय कथयति । मित्राय ऋध्यति । मित्राय गुह्यति । मित्राय ईय॑ति । मित्रायासूयति । मित्राय कुप्यति । कोपादन्यत्र धादीनां प्रार्थनादिभिः क्रियाविशेषैर्भेदो न विवक्षित इति क्रियायाः कर्मव्यपदेशो नास्ति । भार्यामीय॑ति । औषधं द्वेष्टि । शप उपलम्भनेऽर्थे भेदः। देवदत्ताय शपते । हङ अात्मनिहवे भेदः। मित्राय हृते । अन्यत्र मित्रं हृते । राधीक्ष्योर्दैवालोचने । पुत्राय राध्यति । पुत्राय ईक्षते । अन्यत्र पुत्रस्य राध्यति । पुत्रमीक्षते । यत्र च प्रत्यापर्वः शृणोतिरभ्युपगमे वर्तते । देवदत्ताय प्रतिशृणोति । अनुप्रतिपूर्वश्च गृणातिर्यदि कथयितुः प्रोत्साहने वर्तते । प्राचार्याय अनुगृणाति । प्राचार्याय प्रतिगृणाति । इह भेदाभेदविवक्षा । देवदत्ताय श्लाघते । देवाय प्रणमति । गत्यर्थानां चेष्टायामसम्प्राप्तावुभे [वा०] । यथा ग्रामाय गच्छति । ग्रामं गच्छति । ग्रामाय ब्रजति । ग्रामं व्रजति । चेष्टायामिति किम् ? मनसा पाटलिपुत्रं गच्छति । असम्प्राप्ताविति किम् ? पन्थानं गच्छति । भार्या गच्छति । अन्यत्राभेदविवव । कटं करोति । श्रोदनं पचति । शास्त्र पठति । "सग्योश्च क्रधिोः " [वा०] मित्रमभिक्र ध्यति । मित्रमभिद्रुह्यति । "सिद्विरनेकान्तात्" [१।१।१] इत्यतो भेदाभेदोभयविवक्षा प्रत्येतव्या । परेषामपि प्रतिपत्तिगौरवं तुल्यम् । क क्रियाया व्याप्यत्वमिष्ट' क च नेति दुर्बोधम् । धारेरुत्तमणः ॥१।२।११२।। ऋणे उत्तम उत्तमर्णः । निपातनात् सविधिः । धारयतेरुत्तमों योऽर्थस्तत्कारकं सम्प्रदानसंज्ञ भवति । देवदत्ताय गां धारयति । उत्तमर्ण इति किम् ? देवदत्ताय शतं धारयति दरिद्रः। परिक्रयणम् ॥१२॥११३।। परिक्रीयतेऽनेनेति परिक्रयणम्। तत्कारकं सम्प्रदानसंज्ञं भवति । शताय परिक्रीतः । सहस्राय परिक्रीतः। साधकतमत्वात् करणसंज्ञा प्रासा। साधकतमं करणम् ॥१।२।११४॥ क्रियायामतिशयेन साधकं साधकतमम् , तत्कारकं करणसज्ञ भवति । "दानेन भोगं दयया सुरूपं ध्यानेन मोक्षं तपसेप्टसिद्धिम् । सत्येन वाक्यं प्रशमेन पूजां वृत्तेन जन्मानमुपैति मर्त्यः ॥" तमयहां किमर्थम १ यथा रूपप्रस्ताव अभिरूपाय कन्या देयेत्युक्त ऽभिरूपतमायेति । एवमिहापि कारकाधिकारादकारके संज्ञावृत्तिनास्तीति 'साधकं करणम्'इत्युक्तेऽपि साधकतममिति गम्यते तदेतत् तमग्रहणंज्ञापकमन्यत्रसमग्रहणेन विना प्रकर्षा न लभ्यते । तेना 'आधारोऽधिकरणः" [१1१।११६] इत्यनेन मुख्यामुख्ययोरधिकरणत्वं सिद्धम् । तिलेषु तैलम् । गङ्गायां घोषः। साधकतमस्याविवक्षायां स्वातन्यानुर्विव्यतीति भवति । पंल्लिनिदेशः किमर्थः १ परिक्रयणमित्यनवकाशया सम्प्रदानसञ्जया बाधा मा भूत् । शतेन परिक्रीतः । वचनात् साऽपि भवति । शताय परिक्रीतः। “दिवः कर्म" [१।२।११५] इत्यत्र च समावेशो यथा स्यात् । अक्षर्दीव्यति । दिवः कर्म ॥१॥२।११५॥ दिवेः साधकतम कारकं कर्मसञ्ज्ञ भवति । अक्षान् दोव्यति । शाकां दीव्यति । नपा निर्दशात् करणत्वमपि । आधारोऽधिकरणः ॥१।२।११६।। आध्रियतेऽस्मिन् क्रियेत्याधारः । इदमेव निपातनमधिकरणे धनः। आधारो यस्तत् कारकमधिकरणसझं भवति । यद्यवं कर्तृकर्मणोरधिकरणसंज्ञा प्राप्ता तदाश्रितत्वात् क्रियायाः । एवं तर्हि कर्तृ कर्मणोः क्रियाश्रययोर्धारणादाधारोऽभिप्रेतः। पूर्व तमग्रहणेन ज्ञापितं गौण १. 'शलाका विष्यति' अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प. १ पा० २ सू० ११७-१२१] महावृत्तिसहितम् स्याप्याधारस्याधिकरणत्वम् । कर्तृकर्मणोः सत्यपि क्रियाधारत्वेऽनवकाशत्वात् कर्तृकर्मसज्ञे भविष्यतः । भेदविवक्षायामधिकरणत्वमपि । अशनक्रिया देवदत्तं वर्तते । विक्ल दनं तण्डुलेषु । "औपश्लेषिकवैषयिकाऽभिव्यापक इत्यपि । आधारस्विविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ॥" औपश्लेषिकः-कटे आस्ते । स्थाल्यां पचति । वैषयिकः-श्राकाशे शकुनयः । गङ्गायां धोषः । गुरौ वसति । यदधीना यस्य स्थितिः स तस्याधारः । अभिव्यापको विभागाप्रतीतेः। तिलेषु तैलम् । दधनि सर्पिः। अधिकरणप्रदेशाः "ईबधिकरणे च" [॥४॥४४] इत्येवमादयः। कर्मैवाऽधिशीङस्थाऽसः॥१।२।११७॥ अधिपूर्वाणां शीङ् स्था श्रास् इत्येषामाधारो यस्तत् कारक कर्मसज्ञमेव भवति । ग्राममधिशेते । पर्वतमधितिष्ठति । प्रासादमध्यास्ते । एवकारः पुल्लिङ्गाऽधिकरणसंशासमावेशनिवृत्त्यर्थः । कर्मप्रदेशाः "कर्मणीप्" [१।४।२] इत्येवमादयः । वसोऽनूपाध्याः ॥१।२।११८॥ अनु उप अधि प्राङ् इत्येवम्पूर्वस्य वसतेराधारो यस्तत् कारक कर्मसंज्ञ भवति । ग्राममनवसति । गिरिमुपवसति । गृहमधिवसति । वनमावसति । इह कथं ग्रामे उपवसति । भोजननिवृत्ति करोतीत्यर्थः १ अत्रापि त्रिरात्रादेराधारस्य कर्मत्वं प्रतीयते । अभिनिविशश्च ॥१।२११६॥ अभिनि इत्येवंपूर्वस्य विशतेराधारो यस्तत् कारक कर्मसंज्ञ भवति । ग्राममभिनिविशते । गेहमभिनिविशते । चकारात् क्वचिदधिकरणसंज्ञाऽपि भवति । या या संज्ञा यस्मिन्नभिनिविशते । अर्थेष्वभिनिविष्टः । कल्याणेऽभिनिवेशः। कप्यिम् ॥१।२।१२०॥ कर्ता क्रियया यदाप्यं तत् कारकं कर्मसंज्ञ भवति । कर्तृ ग्रहणादाप्यग्रहणसामर्थ्याद्वा क्रिया लभते । तत्र कर्म । "प्राप्यं विषयभूतं च नित्यं विक्रियात्मकम् । कर्तुश्च क्रियया व्याप्यमीप्सितानीप्सितेतरत् ॥" प्राप्यवसामान्यं सर्वत्र विद्यते । प्राप्यम्-ग्रामं गच्छति । आदित्यं पश्यति । विषयभूतम्-जैनेन्द्रमधीते । हिमवन्तं शृणोति । निर्वयम्-घटं करोति । श्रोदनं पचति । विक्रियात्मकम्-काष्ठानि दहति । घटं भिनत्ति । ईप्सितम-गुडं भक्षयति । श्रोदनं भुत । अनीप्सितम्-ग्राम गच्छन् व्याघ्र पश्यति । कण्टकान. मृगाति । अनुभयम्-ग्रामं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति । कति किम् ? मापेष्वश्वं बध्नाति । अश्वेन कर्मणा भक्षणक्रियया माषाणामाप्यानां कर्मसंज्ञा मा भूत् । अथ सवाणि कारकाणि कर्नाऽप्यन्त इति कर्मसंज्ञा प्राप्नोति ? नैष दोषः। सर्वेषु कारकेष्वाप्येषु प्राप्यग्रहणसामर्थ्यादाप्यतमे संप्रत्ययः । तेन करणादिषु न भवति । पयसा श्रोदनं भुङक्त । इह कथं कर्मत्वं गेहं प्रविशतीति ? श्राधारस्याविवनया। अकथितश्च ।।१।२।१२१।। अकथितमसङ्कीर्तितम् । अपादानादिभिर्विशेषकारकादिभिरकथितं च यत कारकं तत कर्मसंज्ञभवति । अकथितमप्रधानमिति गृह्यमाणे इह देवदत्ताद गां याचत इत्यप्रधानतयाऽपादानसंज्ञा कर्मसंज्ञया बाध्येत । "दुहियाचिरुधिप्रच्छिभिक्षिचित्रामुपयोगनिमित्तमपूर्वविधौ । ब्रुविशासिगुणेन च यत् सचते तदकीर्तितमाचरितं कविना ।" दुहि-गां दोन्धि पयः । गौः कारकमपादानत्वेनासङ्कीर्तितमपायस्याविवक्षितत्वात् । गोरप्याप्यत्वेन सिद्ध' कर्मलमिति चेत परिगणनार्थमिदं वक्तव्यम् । इह मा भूत् । नटस्य शृणोति श्लोकम् । याचि-माणवकं गां याचते। याचनमात्रेणापायस्याविवक्षितत्वात् । रुधि-गामवरुणद्धि व्रजम् । सतोऽप्याधारस्याक्विचा। अन्दरा कन्येति यथा । प्रच्छि-श्राचार्य धर्म पृच्छति । प्रश्नमात्रेणापायस्याविवक्षा। भिति-देवदत्तं गां मितते । चित्र-मनमवचिनोति फलानि । उपयोगनिमित्तं प्रयोगनिमित्तम् । अथवा उपयोगो दुग्धादि तन्निमितं गवादि। इडापि तहि स्यात। पाणिना कांस्यपान्यां दोग्धि। पाण्यादिकमप्युपयोगनिमित्तमित्याह ।। For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० १२२ पूर्वविधौ यस्य पूर्वो विधिर्नोक्तः । इह तु पूर्वमेव करणसञ्ज्ञा अधिकरणसञ्ज्ञा च विहिता । ब्रुविशास्योर्गुणेन च क्रियया कर्मणा वा यत् सचते सम्बध्यते तदकीर्तितमित्युक्तमाचार्येण । ब्रूवि - माणवकं धर्म ब्रूते । शासि - माणवकं धर्ममनुशास्ति । माणवकस्य सम्प्रदानत्वेनाविवक्षा । कथितमिति किम् ? देवदत्तात् गां याचते । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेनम् "कालभावाध्वगन्तव्याः' कर्मसंज्ञा ह्यकर्मणामिति” लब्धम् । काले - मासमास्ते । संवत्सरं वसति । भावे - गोदोहं स्वपिति । श्रध्वा च स गन्तव्यश्चेति इच्छया विशेषणत्वम् । क्रोशमास्ते । क्रोशं स्वपिति । देशोऽपि कर्मसंज्ञ इति केचित् । कुरूनास्ते । कुरून् स्वपिति । अथ नीवहिहरतिकृषि जयत्यादयो द्विकर्मका उपलभ्यन्ते । तेषां कथं द्विकर्मकत्वं प्रधानाप्रधानकर्मणोः सामान्येनाऽप्यत्वात् । अजां नयति ग्रामम् । भारं वहति ग्रामम् । भारं हरति ग्रामम् । शाखां कर्षति ग्रामम् । देवदत्तो जिनदत्तं शतं जयति । देवदत्तो ग्रामं शतं दण्डयति । श्रयं तु विशेषः I "प्रधानकर्मण्यभिधेये लादीनाहुर्द्विकर्मणाम् । अप्रधाने दुहादीनां ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मणः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीयते अजा ग्रामम् । उद्यते भारो ग्रामम् । ह्रियते भारो ग्रामम् । कृष्यते शाखा ग्रामम् । जीयते जिनदत्तः शतम् । दण्ड्यते जिनदत्तः शतम् । श्रप्रधाने कर्मणि दुहादीनाम् । दुह्यते गौः पयः । याच्यते माणवको गाम् । अवरुध्यते गां व्रजः । पृच्छयते श्राचार्यो धर्मम् । भिक्ष्यते देवदत्तो गाम् । श्रवचीयते वृक्षः फलानि । उच्यते माणवको धर्मम् । शिष्यते माणवको धर्मम् । एयन्ते कर्तु च कर्मण इति उत्तर सूत्रेणाऽण्यन्तावस्थायां यः कर्त्ता एयन्तावस्थायां कर्मतामापन्नः प्रयोज्यस्तस्याभिधाने लादोनाहुः । बोध्यते माणवकः शास्त्रम् । गम्यते माणवको ग्रामम् । भोज्यते माणवक श्रोदनम् । श्रास्यते माणवको मासम् । अध्याप्येते माणवकौ जैनेन्द्रम् । ननु एयन्तेषु धुषु एयन्तवाच्यया क्रियया प्रेषणाऽध्येषणलक्षण्या यदाप्यते तत् प्रधानं कर्म । श्रवयवक्रियया यदाप्यते तदप्रधानम् । एवं च सति प्रधानकर्मण्यभिधेये लादीनाहुरित्यनेनैव सिद्धत्वादन कमिदं एयन्ते कर्तुश्च कर्मण इति १ नानर्थकं समुच्चयार्थमेतत् प्रधाने कर्मणि लादयो भवन्त्यप्रधाने च । टेन बोध्यतॆ माणवकं धर्मः । भोज्यते माणवकमोदनः । श्रध्याप्यते माणवकं जैनेन्द्रः । कर्मणां गत्यर्थानां च प्रधान एव कर्मणि लादयः । श्रस्यते माणवको मासम् । श्रास्यते माणवको गोदोहम् । गम्यते माणवको ग्रामम् । प्राप्यते माणवको ग्रामम् । T शागम्यद्यर्थधेरणि कर्ता णौ ॥१॥ - ॥१२२॥ ज्ञार्थानां गभ्यर्थानामद्यर्थानां धीनाञ्च धूनामण्यन्तानां यः कर्ता स णौ सति कर्मसंज्ञो भवति । ज्ञार्थानाम् जानाति माणवको धर्मम् । ज्ञापयति माणवकं धर्मम् | बुध्यते माणवको धर्मम् । बोधयति माणवकं धर्मम् । पश्यति माणवको ग्रामम् । दर्शयति माणवकं ग्रामम् । गम्यर्थानाम् गच्छति माणवको ग्रामम् । गमयति माणवकं ग्रामम् । याति माणवको ग्रामम् । यापयति माणवकं ग्रामम् । श्रद्यर्थानाम् भुक्त श्रोदनं माणवकः । भोजयति माणवकमोदनम् । अश्नाति माणवक श्रोदनम् | आशयति माणवकमोदनम् । धीनाम् - आस्ते माणवकः । श्रासयति माणवकम् । शेते माणवकः । शाययति माणवकम् । अत्रापि पूर्ववणिजन्तवाच्यया क्रियया प्रेषणाध्येपणलक्षणया श्राप्यत्वात् कर्मसंज्ञा सिद्धा । यद्यपि स्वातंत्र्यमाप्यत्वास्ति तथापि कर्मैवेत्यवधारणात् कर्तृ संज्ञा न भवतीति । एवं सिद्धे नियमार्थमिदं तेषामेवाणौ कर्ता एयन्ते कर्मसंज्ञो भवति नान्येषाम् । पचत्योदनं देवदत्तः । पाचयत्योदनं देवदत्तेन । आणि कर्तेति किम् ? गमयति देवदत्तो जिनदत्तम् । तमन्यः प्रयुङ्क्ते । गमयति देवदत्तेन जिनदत्तम् । नयत्यादयः प्रापणार्थी न गत्यर्थास्तेनेह कर्मसंज्ञा न भवति । श्रजां नयति देवदत्तः । नाययति देवदत्तेन । भारं १. गन्तव्य: क- मु०, ब० । २. कालः अ०, स० । ३. भाव: छा०, स० । ४. कृषज - मु० । ५. जिनदत्तो ग्राम भारं हरति अ०, ब०, स० । ६. कृषति अ०, ब०, स० । ७. 'शिष्यते माणवको धर्मम्' इति म० पुस्तके नास्ति । म अध्याप्यते माणवको जैनेन्द्रम् अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० १२३ - १२८ ] महावृत्तिसहितम् ४१ 2 वहति वाहकः । वाहयति वाहीकेन । यदा गत्यर्थतासंभवस्तदा भवति कर्मसंज्ञा । वहन्ति बलीवर्दा यवान् । वाहयन्ति बलीवर्दान् यवान् । प्रवहत्युदकं देवदत्तः । प्रवाहयत्युदकं देवदत्तम् । “अद्यर्थेषु श्रदिखाद्योः प्रतिषेधो वक्तव्यः [ वा० ] अत्ति देवदत्तः । श्रादयति देवदत्तेन । खादयति ( खादति ) देवदत्तः । खादयति देवदत्तेन । अथवा "सर्वमद्यर्थं कार्यमदेर्न भवतीति वक्तव्यमधिकरणे तविधि मुक्त्वा" [ वा० ] श्रादयते माणवकेन । "वल्यद्यर्थात् " [ १ | २८४ ] ममपि न भवति । "भक्षिरहिंसार्थः कर्मसंज्ञो न भवतीति वक्तव्यम्'' [ वा० ] भक्षयति पिराडी देवदत्तः । भक्षयति पिण्ड देवदत्तंन । अहिंसार्थस्येति किम् ? भक्षयति बलीवर्दो यवम् । भक्षयति बलीवर्द' यवम् । अत्र हिंसाऽस्ति । वनस्पतिकायानां प्राणित्वात् । प्रकृतेन कर्मणा - का इह गृह्यन्ते तेन धिग्रहणे कालादिकर्मणः कर्ता कर्मसंज्ञो भवति । श्रास्ते मासं देवदत्तः । श्रासयति मासं देवदत्तम् । आस्ते गोदोहं देवदत्तः । श्रासयति गोदोहं देवदत्तम् । श्रास्ते क्रोशं देवदत्तः । श्रासयति क्रोशं देवदत्तम् । शब्दे च ॥ १।२।१२३ ॥ शब्दे कर्मभावेन क्रियाभावेन च यो धुर्वर्तते तस्यारयन्तस्य कर्ता गौ कर्मसंज्ञो भवति । शब्दकर्मणः शृणोति देवदत्तः शब्दम् । श्रावयति देवदत्तं शब्दम् । उपलभते देवदत्तः शब्दम् । उपलम्भयति देवदत्तं शब्दम् । श्रधीते माणवकस्तर्कम् । अध्यापयति माणवकं तर्कम् | शब्दक्रियस्य - जल्पति देवदत्तः । जल्पयति देवदत्तम् । विलपति देवदत्तः । विलापयति देवदत्तम् । चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन ह्वयत्यादिषु न भवति । ह्वयति देवदत्तः । ह्वाययति देवदत्तेन । क्रन्दति देवदत्तः । क्रन्दयति देवदत्तेन । कोन वा ॥ १|२| १२४ ॥ हृ कृ इत्येतयोरएयन्तयोर्यः कर्ता स एयन्तयोर्न वा कर्मसंज्ञो भवति । न वेति निर्देशात् प्राप्त चाप्राप्त च विकल्पः । प्राप्त अभ्यवहरति देवदत्तः । श्रभ्यवहारयति देवदत्तं देवदत्तेनेति वा । विहरति देवदत्तः । विहारयति देवदत्तं देवदत्ते नेति वा । विकुर्वते सैन्धवाः । विकारयन्ति सैन्धवान् सैन्धवैरिति वा । द्यर्थम्यर्थे धियंज्ञायां पूर्वेण प्राप्तिः । श्रप्राप्ते - हरति माणवको भारम् । हारयति माणवकं माणवकेन वा । करोति कटं देवदत्तः । कारयति कटं देवदत्त देवदत्तेन वा । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थेऽनुवर्तते । तेन अभिवदिदृश्योदविषये विकल्पः । अभिवदति गुरुं देवदत्तः । श्रभिवादयते गुरु देवदत्तं देवदत्तेन वा । पश्यन्ति भृत्या राजानम् । दर्शयते भृत्यान् भृत्यैरिति वा । “णिचः " [ १२/७२ ] इति दविधिः । स्वतन्त्रः कर्ता ||१|२|१२५ ॥ | स्वतन्त्र श्रात्मप्रधानः । क्रियासिद्धौ स्वतन्त्रो योऽर्थस्तत् कारकं कर्तृ संज्ञ' भवति । देवदत्तः पचति । देवदत्तेन कृतम् । प्रेषितः करोतीत्यत्रापि स्वातन्त्र्यं गम्यते । अनिछायाम करणात् । इह स्थाली पचतीति स्वातन्त्र्यं विवक्षितम् । तद्योजक हेतुः || १ | २|१२६ ॥ योजकः प्रेरकः, तस्य स्वतन्त्रस्य योजको योऽर्थस्तत् कारकं हेतुसंज्ञ ं भवति । पुल्लिङ्गकर्तृ संज्ञासमावेशात् कर्तृ संज्ञ ं च । कारयति । भोजयति । हेतुत्वात् “हेतुमति” [२|१|२४] इति णिच् । कर्तृत्वाल्लकारवाच्यता । गौणस्यापि योजकस्य हेतुत्वम् । भिक्षा वासयति । कारीषोऽग्निरध्यापयति । तद्योजक इति वचनं ज्ञापकं "तृजकाभ्यां" [ ११३७८ ] "कर्तरि " [ १1३1७६ ] इत्यस्य तास प्रतिषेधस्यानित्यत्वम् । निः || १ |२| १२७ || अधिकारोऽयम् । "प्राग्धोस्ते” [१।२।१४१] इत्यतः प्राक् । यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो निसंज्ञास्ते वेदितव्याः । वक्ष्यति चादिरसत्त्वे । च वा ह ग्रह एव । निरिति पुल्लिङ्गनिर्देशः किमर्थः १ गितिसंज्ञाभ्यां समावेशो यथा स्यात् । निप्रदेशाः " निरेकाजनाङ्” [१।१।२२] इत्येवमादयः । चादिरसत्त्वे ||१|२|१२८ ॥ सीदत अस्मिंल्लिङ्गसंख्ये इति सत्त्वम् । लिङ्गसंख्यावद् द्रव्यमित्यर्थः । चादयो निसंज्ञका भवन्ति न चेत् सत्त्वे वर्तन्ते । च वाह अह एव एवम् नूनम् शश्वत् सूपत् कूपत् कुवित् For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० १२१-१३२ नेत् चेत् चण् कच्चित् यत्र नह हन्त माकिम् नकिम् माङ् । डकारो "माङि लुङि" [२२३३१५३] इति विशेषणार्थः । अङिति माशब्दे माऽभवत् मा भविष्यति । न ना । अकारो "न" [१३।६८] इति विशेषणार्थः । नहि वाच वाक ननु च त्वे तु कै न्वै नु वै सवै रे वै श्रौषट् वौषट् वषट् स्वाहा स्वधा श्रोम् तथाहि खलु किल अथ अवस् स्म अस्मि अ इ उ ऊ ऋ ल ए ऐ ओ औ उन सुत्र श्रादह अातङ वेलायमा मात्रायाम यावत् यथा किम् यत् तत् यदि पुरा धिक हे हो पाट प्याट् उताहो आहो अथो अधों मानो ननु नाना मन्ये असि हि हिनु तु इति इव वत चन धावत एवं अा अां शं हिकम् हिरुक् शुभम् सुकम् शुकम् तुकम् नहि कम ऋतम् सत्यम् अद्धा नो हि मुधा न चेत् जातु कथम् ऋते कुत्र अपि (अयि) श्रादक श्रावहन् भोस् श्वित् वाह्य संवत् दिष्ट्या पशु युगपत् फट सह अनुष्वक् ताजक् नाजक अङ्ग पुत्र अये अरे अवे वट वेट वाट उं श्ववित् मर्या ईप'' कीम् सीम् गिविभक्तीस्वरप्रतिरूपकाश्च । गिप्रतिरूपका श्रवदत्तमित्यादौ । दुर्नीतं दुर्नय इति णत्वं न भवति । असत्त्व इति किम् ? अस्यापत्यमिरिति । प्रादिः ॥१२॥१२६॥ प्रादयो निसंज्ञा भवन्त्यसत्त्वे । प्रपराऽपसम्निदुर्व्याङन्यधयोऽप्यनिसूदभयश्च । प्रतिना सह लक्षयितव्याः पर्युपयोरपि लक्षणमत्र । असत्त्व इत्येव । विप्रातीति विप्रः। पराजयति सेना । पृथक्करणमुत्तरार्थम् । प्रादीनामेव गिसंज्ञा यथा स्याच्चादीनां मा भूत । उत्तरत्र प्रादिग्रहणे क्रियमाणे अक्रियायोगे निसंशा न स्यात् । श्रा एवं नु मन्यसे । श्रा एवं किल तत् । क्रियायोगे गिशश१३० क्रियायोगे प्रादयो गिसंज्ञा भवन्ति । प्रणमति । परिणायकः । "गेरसेऽपि विकृते" [N९८] इति णत्वं सिद्धम् । क्रियायोग इति किम् ? प्रगता नायका अस्माद्देशात् प्रनायको देशः। नन्वत्रापि क्रियाऽस्ति । योगग्रहणसामर्थ्यात् यतक्रियायुक्तास्तं प्रति गितिसंज्ञा भवति । गमिक्रियया चात्र योगः । “मरुन्छब्दस्योपसंख्यानम्"। मरुत्तः । “गेस्तोऽच:"५/२११४४] इति अनजन्तत्वेऽप्युपसंख्यानसामर्थ्यात्तादेशः। "प्रज्ञाश्रद्धा वृत्तिभ्यो ण:"[१२८] इति निर्देशादविषये श्रतो गित्वम। "तिरोऽन्तद्धौं" [१२।१५] इति निर्देशादन्तःशब्दस्यापि क्यादिविषये। ति ॥शश१३२॥ तिसंज्ञाश्च प्रादयो भवन्ति क्रियायोगे । प्रकृत्य । प्रस्तुत्य । तिसंज्ञायां "तिकुप्रादयः" [ 1] इति षसः। "प्यस्तिवाक्से त्वः" [५॥१॥३१] इति प्यादेशः । पुंल्लिङ्गा गिसंज्ञा समाविशति । अभिषिच्य । प्रणम्य । षत्वणत्वे सिद्ध । योगविभागः किमर्थः ? उत्तरत्र तिसंज्ञव यथा स्यात् गिसंशा मा भूत् । इह ऊरीस्यादिति । "गिप्रादुर्यो यच्यस्तेः'' [२।४।६८] इति षत्वं त्यात् ।। विडाजूर्यादिः ॥१।२।१३२॥ च्यन्तो डाजन्त ऊरीप्रभृतयश्च शब्दाः क्रियायोगे तिसंज्ञा भवन्ति । अशुक्ल शुक्ल कृत्वा शुक्लीकृत्य । डाच्-अपटत् पटत् कृत्वा पटपटाकृत्य । कृम्वस्तियोगे विडाचौ विहितो तत्साहचर्यादुर्यादीनामपि कृभ्वस्तिभिरेव योगे तिसंज्ञा भवति । ऊर्यादिषु च्च्यर्थो न संभवति । ऊरीकृत्य । उररीकृत्य । ऊरीभूय । उरीभूय । ऊरीउररीशब्दावङ्गीकरणे विस्तारे च । पापीशब्दो विध्वंसे माधुय्ये सकरुणविलापे च । तालीअातालीशब्दौ वर्णे । वेताली वैरूप्ये । धूसीशब्दः कान्तौ वाञ्छायाश्च । सकलाशंसकलाध्वंसकलाभ्रंसकला एते हिंसायाम् । गुलुगुथाशब्दो पीडायाम् । सजूः सहार्थे । फलू फली विल्लो अक्ली एते विकारे। श्रालम्बी आलोष्टी केवासी केवाली वर्षाली भस्मसा मसमसा एते हिंसायाम् । श्रौषट् वौषट् स्वाहा ।। क्रियायोगे प्रादयो गिसंज्ञा भवन्ति । प्रणमति । र "गेरसेऽपि विकृत १. त्वै ब० । २. तुवे अ० । तुवै ब०, स० । ३.रै अ०, ब०। १. है अ०। ५. है स०। ६. अधो अ०, ब०, स०। ७. चन । ध । वत अ०। वत । ध। वत स० । वत । धवत । मु.। ८. भो श्वित् अ०। ६. वाट अ.। १०. इप् प० । For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० १३३-१४२] महावृत्तिसहितम् स्वधा एते दानार्थाः। चादिषु च पाठादक्रियायोगेऽपि निसंज्ञा । प्रादुर श्रत् आविस् । प्रादुःकृत्य । प्रादुर्भय । श्रद्धाय । प्राविर्भूय । प्राविःशब्दः साक्षादादौ च पठ्यते । तस्य "वा कृजि" ५. सादादादा पपव्यत तस्य "वा कृाज ग१४१॥ इति करोतियोग तिसंज्ञाविकल्पः । आविष्कृत्य । आविष्कृला । अनितावनुकरणम् ।।२२।१३३।। अव्यक्तो व्यक्तो वा शब्दोऽनुक्रियतेऽनेनेत्यनुकरणम् । अनितिपरमनुकरणं क्रियायोगे तिसंज्ञ भवति । 'खाटकृत्य । पटत्कृत्य । अनिताविति किम् ? खाडिति कृत्वा निरष्ठी वत् । खाट्छब्दस्य धोः प्राक् प्रयोगः सविधिश्च प्रसज्येत । "ध्वादेः षः सः" [२३] इत्यत्र सुबधुष्टीवतिष्वष्कति व्यायतीमा प्रतिषेध उक्तः। (सदादरानादरयोः ॥१।२।१३४॥ श्रादरः सम्भ्रमः। अवज्ञानमौदासीन्यं वाऽनादरः। सच्छब्द आदरानादार इत्येतयोरर्थयोस्तिसंज्ञो भवति ) श्रादरे-सत्कृत्य । अनादरे-असत्कृत्य । अनादर इत्यर्थनिर्दे. शात सच्छब्दस्य तदन्तविधिरिष्टः। तेनेहापि भवति । परमसत्कृत्य । तिसंज्ञायां निसंज्ञासमावेशः। निसंज्ञस्यासंख्यत्वाझिसज्जा । श्रादरानादरयोरिति किम् ? सत्कृला काण्डं गतः। विद्यमानं कृत्वेत्यर्थः । भूषाऽपरिग्रहेऽलमन्तः ।।१।२।१३५॥ अलमन्तरित्येतौ शब्दौ भूषायामपरिग्रहे चार्थे यथासंख्य तिसंज्ञौ भवतः । अलङ कृत्य । भूषयित्वेत्यर्थः । अन्तर्हत्य । मध्ये हत्वेत्यर्थः। भूषाऽपरिग्रह इति किम् ? अलं कृत्वा । अन्तर्हवा मूषिका गताः । पर्याप्तं कृत्वेत्यर्थः । परिगृह्येत्यर्थः । "तिरोऽन्तद्धों" [१२।१५०] इति ज्ञापकादन्तःशब्दस्य गिसंज्ञाऽपि । अङ्किविधिणत्वेषु प्रयोगदर्शनात् । अन्तर्दा । अन्तर्द्धिः । अन्तर्णयः । कणेमनः श्रद्धाघाते ॥१।२।१३६॥ श्रद्धाघातोऽभिलाषनिवृत्तिः। कणेमनःशब्दौ श्रद्धाघातेऽर्थे तिसंज्ञो भवतः । कणेशब्द ईबन्तप्रतिरूपको निसंज्ञोऽभिलाषातिशये वर्तते । मनःशब्दोऽपि तत्साहचर्यादिह तादृशः। कणेहत्य भुङ्क्ते । मनोहत्य भुङ्क्ते । श्रद्धाघात इति किम् ? तन्दुलावयवे कणे हत्वा गतः । मनो हत्वा गतः । चेतो हत्वेत्यर्थः। पुरोऽस्तं झिः ॥१२॥१३७॥ पुरस् अस्तमित्येतौ झिसंज्ञौ क्रियायोगे तिसंज्ञौ भवतः । पुरःशब्दः "पूर्वाधरावराणों पुरधोऽसि" [४।१।१०३] इत्यत्र साधितः । अस्तंशब्दोऽनुपलब्धौ वर्तते । पुरस्कृत्य गतः । अस्तङ्गत्य पुनरुदेति । "नमःपुरसोस्त्योः " [५।४।२६] इति सलम् । झिरिति किम् ? पूः पुरौ पुरः कृत्वा गतः । अस्त कला काण्डं गतः । गत्यर्थवदेऽच्छः ॥१॥२॥१३८॥ झिरिति वर्तते । अच्छशब्दो झिसंज्ञः गत्यर्थे वदतो च तिसंशो भवति । अच्छगत्य । अच्छगम्य । “प्ये" [ ३८] "वा मः" [ ३६] इति वा मस्य खम् । अच्छोय। अच्छशब्दो दृढार्थे अाभिमुख्ये च वर्तते । मिरित्येव । उदकमच्छं गला।) ___अनुपदेशेऽदः ॥१।२।१३६॥ अवचनात्मिका प्रतिपत्तिरनुपदेशः। अदःशब्दोऽनुपदेशे तिसंशो भवति । अदःकृत्य । अनुपदेश इति किम् ? अदः कृत्वा गतः । एतत् कृत्वा गत इति परस्य कथयति । तिरोऽन्तौ ।।१।२।१४०॥ तिरःशब्दोऽन्तर्दाने तिसंज्ञो भवति । तिरोभूय । अन्तर्द्धाविति किम् ? तिरो भूला स्थितः । तिर्यग्भूला स्थित इत्यर्थः । वा कृषि ॥२२॥१४१॥ तिरःशब्दोऽन्तौं कृत्रि वा तिसंज्ञो भवति । प्राप्ते विकल्पः । तिरस्कृत्य । तिरः कृखा । "तिरसो वा" [१४३०] इति सत्वम् । अन्तर्दावित्येव । तिरः कृत्वा काष्ठं गतः । ____ उपाजेऽन्वाजे ॥२२॥१४२॥ उपाजे अन्वाजे ईबन्तप्रतिरूपकावेतौ कृत्रि वा तिसंज्ञौ भवतः । उपाजेकृत्य । उबाजे कृत्या । अन्वाजे कृत्य । अन्वाजे कृत्वा । दुर्बलस्य भग्नस्य वा बलाधानं कृत्वेत्यर्थः । १. खाकृत्य ०, ब०, स० । २, खादिति अ०, ब०, स० । ३. अन्तर्णीयः । For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० २ सू० १४३ - १५२ साक्षादादिः || १ |२| १४३ ॥ वेति वर्तते । साक्षात्प्रभृतीनि शब्दरूपाणि कृषि वा तिसंज्ञानि भवन्ति । "विडाजूर्यादि : " [ १२/१३२ ] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या क्विग्रहणमर्थपरमनुवर्तते । तेन च्व्यर्थे तिसंज्ञाविकल्पोऽयम् । साक्षात्कृत्य | साक्षात्कृत्वा । मिथ्याकृत्य । मिथ्याकृत्वा । यदा च्चिरुत्पद्यते तदा " चिवडाजूर्यादिः " इत्यनेन नित्यं तिसंज्ञा भवति । साक्षात् । मिथ्या । चिन्ता । भद्रा । रोचना । लोचना । अमा । आस्था | श्रद्धा । आसा । प्राजर्या । प्राजरुहा । बीजर्या । बीजरहा । संसर्या । श्रर्थे । लवणम् । उष्णम् । शीतम् । उदकम् । श्रदम् । तिसन्नियोगे लवणादीनां मकारान्तत्वं निपात्यते । श्रग्नौ । वसे । विकसने । विकम्पने । विहसने । अग्नप्रभृतय ईवन्तप्रतिरूपका निपातनं वा । वेति व्यवस्थितविभाषानुवर्तनाल्लवणादीनां च्व्यन्तानां मकारौकारनिपातनं न भवति । लवणीकृत्य । वसीकृत्य । नमस् । प्रादुराविःशब्दौ ऊर्यादिष्वपि पठ्यते । तयोः कृञि विकल्पार्थ इह पाठः । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनस्युरस्यनत्याधाने ||१|२| १४४ ॥ मनसिउरसिशब्दौ ईबन्त प्रतिरूपकौ निपातनं च । अत्याधानमुपश्लेषः । मनसि उरसि इत्येतौ अनत्याधानेऽर्थे कृत्रि वा तिसंज्ञौ भवतः । उरसिकृत्य । उरसि कृत्वा । मनसिकृत्य । मनसि कृत्वा । निश्चित्येत्यर्थः । अनत्याधान इति किम् ? उरसि कृत्वा पाणि शेते । मध्ये पदे निवचने ॥ | १ |२| १४५ || अनत्याधान इति वर्तते । मध्ये पदे निवचने इत्येते शब्दाः कृत्रि वा तिसंज्ञा भवन्ति अनत्याधाने । एकारान्तता पूर्ववद्वेदितव्या । मध्येकृत्य । मध्ये कृत्वा । पदेकृत्य । पदे कृत्वा । निवचने इति वचनाभावे वर्तते । निवचनेकृत्य । निवचने कृत्वा । अनत्याधान इत्येव । हस्तिनः पदे कृत्वा हस्तमास्ते । हस्ते पाणी स्वोकृतौ तिः || १ |२| १४६ || हस्ते पाणौ इत्येतौ स्वीकृतावर्थे कृत्रि तिसंज्ञौ भवतः । हस्तेकृत्य । पाणौकृत्य । भार्या कृत्वेत्यर्थः । स्वीकृताविति किम् ? हस्ते कृत्वा कार्षापणं गतः । नात्र दारस्वीकारः । पुनस्तिग्रहणं नित्यार्थम् । प्राध्वं बन्धे || १ | २|१४७ || प्राध्वमिति मकारान्तो भिसंशः शब्द श्रानुलोम्ये वर्तते । प्राध्वं शब्दः कृञितिसंज्ञो भवति बन्धी निमित्तं चेत् । प्राध्वं कृत्य । बन्धनिमित्तमानुलोम्यमिह प्राध्वं करणम् । बन्ध इति किम् ? प्रगतमध्वानं प्राथ्यं कृत्वा शकटं गतः । “तिकुप्रादयः " [ ११३८ १] इति षसः । “गेरध्वनः” [ ४ २८७] इति सान्तो ऽकारः । प्रतिपदोक्त परिभाषा नाश्रयणे प्रत्युदाहरणमिदम् । जीविकोपनिषदाविवे || १ |२| १४८ ॥ उपनिषद्रहस्यम् । जीविका उपनिषदित्येतौ शब्दाविवशब्दस्यार्थे कृञितिसंज्ञौ भवतः । जीविकाकृत्य । उपनिषत्कृत्य । जीविकामिव उपनिषदमिव कृत्वेत्यर्थः । इवाथ इति किम् १ जीविकां कृत्वा गतः । I प्राग्धोस्ते || १/२/१४६ ॥ प्रयोगनियमोऽयम् । ते गितिसंज्ञा धोः प्रागेव प्रयोक्तव्याः । तथा चैवोदाहृतम् । ते इति वचनं किमर्थम् । श्रनन्तराणां तीनां गीनां च ग्रहणार्थम् । लो मम् ॥ १२ ॥ १५० ॥ नवानां लकाराणामनुबन्धापाये ल इति सामान्येन निर्देशः । लादेशो मसंज्ञो भवति । मिप् वस् मस् सिप थस् थ तिप् तस कि शत्रु नपा निर्देशः पुंल्लिङ्गया दसंज्ञया बाधा यथा स्यात् । समावेशे हि श्राक्रमत आदित्यः सङ्गस्यत इत्यत्र “क्रमो मे " [५/२/७४ ] दीत्वं "गमेरिमे" [५|१|१०६ ] इति इट् प्रसज्येत । शतरि मसंज्ञा सावकाशेति मिङ् तु वच्यमाणाभिरस्मदादिभिः संज्ञाभिर्वाध्यत्वं नाशङ्कनीयम् | "सावैम्मे' [५।१।७७ ] इति वचनं ज्ञापकं मिङां मसंज्ञाऽपि भवतीति । नंदः ||१|२|१५१ ॥ इङिति प्रत्याहार इडित्यतः प्रभृति श्रा झङो ङकारेण । इङ् च श्रानश्च दसंज्ञौ भवतः । इट् वहि महि थास् श्राथाम् ध्वम् त श्राताम् झङ । श्रान इति शानो गृह्यते । मिङस्त्रिशोऽस्मद्युष्मदन्याः || १ |२| १५२ || मिङो मसंज्ञानि च त्रीणि त्रीणि वचनानि श्रस्मद्युष्मदन्य इति एवंसंज्ञानि भवन्ति । मिपू वसू मसित्यस्मद् । सिप् थस् थेति युष्मद् । तिप् तस् भीत्यन्यः । For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० २ सू० १५१-१५६] महावृत्तिसहितम् ४५ दानामपि । इट वहि महि इत्यस्मद् । थास् प्राथां ध्वमिति युष्मद् । त आतां झङित्यन्यः। मिङ इति किम् ? अनुत्तरस्य दस्य मस्य च ग्रहणार्थम् । त्रिश इति "संख्यकाद्वीप्सायाम् [२४] इति शस्। साधने स्वार्थे ॥१।२।१५३।। अस्मदादयोऽन्वर्थसंज्ञा अनुवर्तन्ते । लस्येत्यधिकृत्याविशेषेण मिङादयो विहितास्तन्नियमोऽयम् । स्वस्यार्थः स्वोऽर्थो वा स्वार्थस्तस्मिन् स्वार्थे साधनेऽस्मदादयो वेदितव्याः। अस्मत्पदस्यार्थे साधनेऽस्मत्रिक युष्मत्पदस्यार्थे साधने युष्मत्रिकमाभ्यामन्यस्यार्थे साधनेऽन्यन्त्रिकं भवति । अस्मदाद्यर्थानां साधनत्वे सति नियमोऽयम् । ततोऽस्मदादिपदानामनुप्रयोगे सत्यसति चास्मदादयो भवन्ति । अहं पचामि | आवां पचावः । वयं पचामः । पचामि | पचावः । पचामः । त्वं पचसि । युवां पचयः । यूयं पचथ । पचसि । पचथः । पचथ । स पचति । तौ पचतः। ते पचन्ति । पचति । पचतः । पचन्ति । एवं दविधावपि योज्यम् । भावेऽस्मद्युष्मदर्थयोरभावात् भावस्य चाभ्यामन्यत्वादेकत्वाच्च तस्मिन् साधनेऽन्य एव भवति । प्रास्यते भवता । ग्लायते भवता । यत्रास्मदाद्यर्था युगपत् साधनं तत्र क इष्यते ? पूर्वनिर्णयमेव यः पूर्वः। अत्र किमस्मदर्थ एव साधनेऽस्मद् भवतीत्यवध्रियते आहोस्विदस्मदर्थे साधनेऽस्मदेव भवतीति । उभयथाऽप्यदोषः सर्वेषां नियतत्वात् । ननु द्वितीये पदे त्वया (मया) कुर्वाणेनेत्यत्र दोषः । मैवम् । त्रिकापेक्षया नियमो न साधनापेक्षया । प्रहासे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतेरस्मदेकवच्च ॥२।१५४॥ मन्य इति मन्यतेरेकदेशः । ब्रते इति वाक । मन्यो वाक यस्य प्रहासस्य तस्मिन् मन्यवाचि प्रहासे गम्यमाने युष्मद्भवति मन्यतेश्चास्मद्भवति एकवच्च । अस्मद्यष्मदोर्व्यत्ययार्थोऽयमारम्भः । पहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता । एहि मन्यसे रथेन यामीति प्राप्तम । एवमेहि मन्ये अोदनं भोक्ष्यसे न हि भोच्यसे भुक्तः सोऽतिथिभिः। द्वित्वबहत्वविवक्षायासपि मन्यतेरेकवद्भावो भवति । एवं मन्ये रथेन यास्यथ न यास्यथेति । प्रहास इति किम ? एहि मन्यसे प्रोदनं भोक्ष्य इति सुष्ठु मन्यसे साधु मन्यसे । एकद्विबहवश्चैकशः ॥१२॥१५५॥ यान्यस्मयुष्मदन्यसञ्ज्ञानां संज्ञित्वेनोपात्तानि षट् त्रिकाणि तान्येकश एक द्वि बह इत्येवंसंज्ञानि भवन्ति । मिबित्येकः । वसिति द्विः । मसिति बहुः । एवं शेषेषु योज्यम। अस्मदादिसंज्ञाः पुंल्लिङ्गा एकादिभिः सह समाविशन्ति । सुपश्च ॥१॥२॥१५६।। त्रिश इति वर्तते । सुपश्च त्रिकाणि एकद्विबहुसंज्ञानि भवन्त्येकशः । सु इत्येकः औ इति द्विः । जसिति बहुः । एवं शेषेषु त्रिकेषु नेयम् । उभयत्र चशब्दः “साधने स्वार्थे" [१२।१५२] इत्यस्यानुकर्षणार्थः । एकार्थे साधने एको मिब्भवति । द्वयर्थे द्विर्वस् । बह्वर्थे बहुर्मस् । एवं मित् सुम्सु चयोज्यम । नन च "साधने स्वार्थे" इत्येतन्मिङ उपपद्यते यतः साधनं कारक क्रियाया निर्वर्तक क्रिया च ध्वर्थः । धोश्च मिडो विहिता इति साधनवाचित्वोपपत्तंः। सुपस्त्वक्रियावाचिनो ड्याम्मृदो विधीयन्त इति तत्र साधने स्वार्थ इत्येतन्न घटते । नैष दोषः । अक्रियावाचिनोऽपि विधीयमानाः सुपः क्रियावाचिपदान्तरमाकाङतन्ति । पदान्तरवाच्यायाः क्रियायाः साधनभावोपपत्ते: सुप्स्वपि “साधने स्वार्थे" इत्ययं व्यवहारो यज्यते। देवदत्तः पचति देवदत्तौ पचतः । देवदत्ताः पचन्ति । यत्रापि क्रियापदं न प्रयुज्यते वृक्षः प्लक्ष इति तत्राप्यस्ति भवतीति परः सन्निहितस्तदपेक्षया व्यवहारः । मिङ: सामान्येन धुमात्राद्विधीयन्ते सुपश्च मृन्मात्रात्तेषां संकरेण प्राप्ती नियमोऽयम । त्यनियमोऽर्थनियमो वा । एकार्थ एव साधन एको भवति द्वयर्थ एव साधने द्विर्भवति बर्थ एव (साधने) बहर्भवतीति त्यनियमः। एकार्थ साधने एक एव भवति द्वयर्थे द्विरेव भवति बह्वर्थे बहरेव भवतीत्यर्थनियमः । त्यनियमपक्षे "सुपो मे" [१।४।१५०] इति वचनं ज्ञापकमेकत्वादीनामभावेऽप्युत्पद्यन्ते झेः सुप इति । अर्थनियमपने एकत्वादयो नियतास्त्यान्न व्यभिचरन्ति त्याः पुनरनियता एकत्वादीनामभावे व्यतिकरणेन भिसज्ञकेभ्यो भवन्ति । तत्र "सुपो झेः" [ १०] इत्युपि कृते सुबन्तं पदं भवति । For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. पा. ३ सू. १-३ विभक्ती ॥१२।१५७।। सुप इत्यनुवर्तते त्रिश इति च । सुपां त्रीणि त्रीणि वचनानि विभक्तीसंज्ञानि भवन्ति । सु श्री जसिति त्रिको वर्गस्तस्य विभक्ती इति संज्ञा । त्रिकसमुदाये संज्ञा । विहिताऽवयवेऽप्युपचर्यते । एवं सर्वत्र सुपां त्रिकेषु योज्यम् । मिडां विभक्तीसंज्ञायां न गुणो नापि दोषः। विभक्तीशब्दस्य कथं सिद्धि। विपूर्वादभजे: "क्तिचक्तौ खौ" २।३।१५०] इति क्तिच् । तस्मात् "कृदिकारादत:" [३।१।३१। ग० सू०] इति डीविधिः । महासंज्ञाकरणमुत्तरार्थम् । तासामाप्यरास्तद्धलच ॥२१५॥ तस्य विभकीशब्दस्य हलोऽचश्च श्राकारपकारपगस्तासां विभक्तीनां यथासंख्यं संज्ञा भवन्ति । वा इषु भा अप का ता ईप इति एताः संज्ञाः। सुपस्त्रिश इति चानुवर्तते । सु श्री जसिति वा । अम् औट शसिति इप । टा भ्यां भिसिति भा। डे भ्यां भ्यसिति अप् । उसि भ्यां भ्यसिति का। ङस् अोस् आमिति ता । ङि श्रोम् सुप् इति ईप्। तासां ग्रहणं सुब्बिभक्त्युपादानार्थम् । “सपूर्वाया वायाः" [५।३ । २३] इत्येवमादयो निर्देशाः सौत्राः। इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।।२।। समर्थः पदविधिः ॥१॥३॥१॥ परिभाषेयम् । समर्थपदाश्रयत्वात् समर्थः । पदसम्बन्धी विधिः पदविधिः । सर्वः पदविधिः समर्थो वेदितव्यः । समर्थानां पदानां विधिर्वेदितव्य इत्यर्थः। द्विविधं सामर्थ्यमेकार्थीभावः परस्परव्यपेक्षा च । तत्र सविधिनामधुहृद्विधिषु स्वभावत एकार्थीभावः सामर्थ्यमन्यत्र व्यपेक्षा । एकार्थीभावे सङ्गतार्थः संस्पृष्टार्थो वा समर्थः। व्यपेक्षायां सम्बद्धार्थः सम्प्रेक्षितार्थो वा समर्थः । वक्ष्यति "इप सचिछतातीतपतितगतात्यस्तैः श३।२१] धर्म श्रितो धर्मश्रितः। समर्थग्रहणं किम् ? व्याचष्टे मुनिर्धर्म श्रितः शिष्यो गुरुकुलम् । अत्र व्यपेक्षा नास्ति । "भा गुणोक्त्याऽर्थेनोन: "१३२७]। मदेन पटुर्मदपटुः । समर्थ ग्रहणं किम् १ दन्ती भ्रमति मदेन पटुः शास्त्रेण । 'अक्षदर्थार्थबलिहितसुखरक्षित" [११३२३१] । रथाय दारु रथदारु । समर्थग्रहणं किम् ? गच्छ त्वं रथाय दारु देवदत्तस्य गेहे । "का भीभिः" [१३३२। संसाराद्वयं संसारभयम् । समर्थग्रहणं किम् ? ध्यानी निष्कामति संसाराद्भयमरण्ये। "ता" [१॥३१७०] । मोक्षस्य मार्गों मोक्षमार्गः । समर्थग्रहणणं किम् ? अनन्तसुखं मोक्षस्य मार्गः स्वर्गस्य व्रतम् । “ईछौण्डैः [१॥३॥३॥ अक्षेषु शौण्डोऽक्षशौण्डः । समर्थग्रहण किम् ? मूढः शक्तोऽक्षेषु शौण्डः पिबति पानागारे । पदग्रहणं किम् ? तिष्ठतु दध्यशान त्वं साकेन । तिष्ठतु कुमारी, छत्रं हर देवदत्तात् । वविधौ समर्थपरिभाषा नावतरतीत्यानन्तर्यमात्रेण यणादेशस्तुग्विधिश्च भवति । "वा पदस्य" [॥३६५] इत्यत्र पदग्रहां द्विमात्रस्य विशेषणमिति पदविधिरयं न भवतीति विकल्पेन तुक । सः॥१२॥ स इत्ययमधिकारो वेदितव्य ा पादपरिसमाप्तेः। समुदाये वाक्यपरिसमाप्तिश्चाश्रीयते तेन पदसमुदाये ससंज्ञा न प्रत्येकमिति । वक्ष्यति “यावद्यथावत्यसादृश्ये" [१३।६] । यथावृद्धमतिथीन भोजय। नित्यत्वात् सविधेरस्वपदविग्रहेणार्थः प्रदर्श्यते ये ये वृद्धा इति। वीप्सायां यथाशब्दः। स इति पंलिंगनिर्देशः किमर्थः ? हादिभिविशेषसंज्ञाभिः समावेशो यथा स्यात् । सुप सुपा ॥१॥३॥३॥ सुबन्तं सुबन्तेन सह सो भवतीत्येतदधिकृतं वेदितव्यमापादपरिसमाप्तः । वन्यति"हप्तच्छिता" [१॥३॥२१] इत्यादि । धर्मश्रितः। लक्षणञ्च दं सुबन्तं सुबन्तेन सह सो भवति [ यदृच्छया तर्कितोपस्थिते चित्रीकरणे वाऽयमिष्यते। तेन काकतालीयादयः सिद्धाः । तथाहि यहच्छयो तालस्य पतनं सन्निहितं काकश्चातर्कित उपस्थितः स काकस्तेन तालेन पतता हतः। अस्मिन्नर्थेऽनयोः सामान्येन सः। काकश्च जालञ्च काकतालं तदिव काकतालीयम् । इवे प्रतिकृती" [४।१।१५०] इत्यधिकृत्य "कुशा. प्राच्छः" [४।१११५६] इति चानुवर्तमाने “सातद्विषयात्'' [४।१।१६०] इति च्छो भवति । एवमजाकृपाणीयमन्धकवर्तकीयम् ।। हः ।।१।३।४॥ अधिकारोऽयम् । यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो हसंज्ञास्ते वेदितव्याः षमित्यतः प्राक् । १.न्दिरचि-अ० । २.-या महा-अ० । स० । ३. द्विविधम् इति अ० ब० स० पुस्तकेषु नास्ति । For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ३ सू० ४ -- ६ ] महावृत्तिसहितम् वक्ष्यति "स्तोके प्रतिना" [११३७] सूपप्रति । शाकप्रति । स्वपदेन विग्रहः । श्रस्त्यत्र किंचित् सूपस्य मात्रा स्तोकमिति वा । अत्रान्ये मन्यन्ते श्रनव्ययस्याव्ययभवनभव्ययौभाव इत्यन्वर्थसंज्ञा कर्तव्या । एतच्चायुक्तम् । असंख्यस्य भिसंज्ञा युज्यते । श्रस्य च संख्या विद्यते । उपकुम्भेन । उपकुम्भाभ्याम् । उपकुम्भैः । दोषः खल्वपि झिसंज्ञायां “झिसर्वनाम्नोऽक् प्राक्टै:" [४ |१| १३०] इति यथेहाग्भवति । उच्चकैः । नीचकैरिति । एवमिहापि प्राप्नोति उपाग्निकं प्रत्यग्निकमिति । तथा "खित्यः " [४|३|१७६] “मुमच: " [४ | ३ | १७७ ] इति भेः प्रतिपेध उच्यते दोषामन्यमहः दिवामन्या रात्रिः । स इहापि प्राप्नोति । उपकुम्भंमन्यः । उपमणिकंमन्यः । इह च "अस्य वौ" " [५।२।१४१] इति ः प्रतिषेधो वक्ष्यति दोषाभूतमहः वाभूता रात्रिरिति । स इहापि प्राप्नोति । कुम्भीभूतः । उपमणिकीभूतः। तस्माल्लधीयसी ह इति संज्ञा युक्ता । यद्येवं "कृकमिकंस कुम्भकुशाकर्णी पात्रेतो h: " [ २/४ / ३४ ] इत्यनेन सत्वस्य प्रतिषेधो न प्राप्नोति उपपयः कार इति । श्रद्यस्थस्येति तत्र वर्तते । हसे च स्थो भवतीति प्रतिषेधः सिद्धः । पूर्वपदप्राधान्यञ्च हसत्याभिधानवशाज्ज्ञे यम् । हप्रदेशाः “हात्” [१/४/१५१] इत्येवमादयः । 68 झि विभक्त्यभ्यासद्धर्यं र्थाभावातीत्य संप्रतिव्युद्धि-शब्दप्रभवपश्चाद्यथानुपूव्यंयौगपद्य संपसाकल्यान्तोकौ ॥ १३५ ॥ विभक्ती - अभ्यास ऋद्धि अर्थाभाव प्रतीति श्रसंप्रति व्यृद्धि शब्दप्रभव-पश्चात्यथानुपूर्व्यं यौगपद्य-सम्पत्-साकल्य श्रन्तोक्ति इत्येतेष्वर्थेषु यत् भिसंज्ञ ं वर्तते तत् सुबन्तेन समर्थेन सह हसंज्ञकः सो भवति । विभक्त्यर्थः कारकमधिकरणादि । स्त्रीषु कथा वर्तते । अधिस्त्रि | अधिकुमारि । ईचन्तेन वृत्तिः । “द्दश्च " [ १ । ४ । १४ ] इति नपुंसकलिङ्गातिदेशः । " प्रो नपि [ १1१1७ ] इति प्रादेशः । "हात्" [ १ । ४ । १५१ ] इति सुप उप् । अभ्यासः - समीपम् । उपकुम्भम् । उपगुरु । कुम्भस्याभ्यास इत्यर्थप्रदर्शनम्, तान्तेन वृत्तिरिति केचित् । तदयुक्तम् । उपशब्दोऽयं द्योतकः स उत्तरपदार्थव्यतिरेकं न जनयति अभ्यासादीनान्तु शब्दानां वाचकानां सन्निधाने व्यतिरेकः प्रतीयते यथा धवश्व खदिरश्वेत्यस्यार्थे समुच्चयो धवखदिरस्य । तस्माद्वान्तेन वृत्तिः । विभूतेराधिक्यं ऋद्धिः । मद्राणां ऋद्धिः सुमद्र सुमगधं वर्तते । पूर्वपदार्थस्य प्राधान्ये हसः । यदा तु मद्रा ऋद्धया विशिष्यन्ते तदा शोभना मद्राः सुभद्रा इि “तिकुप्रादयः” [१ । ३ । ८१] इति षसः । श्रभाव उत्तरपदार्थप्रध्वंसः । अभावो मक्षिकाणाममक्षिकम् । विमक्षिकम् । निर्मक्षिकम् । अर्थग्रहणं किम् ? धर्माभावे इतरेतराभावे च मा भूत् । न भवति ब्राह्मणो गौरश्वो न भवतीति । प्रतीतिरतीतत्वम् । स्वत एवातिक्रान्तत्वमित्यर्थः । श्रतीतानि तृणानि तृणम् । नितृणम् । एवं निशीतं निवातं वर्तते । न सम्प्रति असम्प्रति नेदानीमित्यर्थः । न सम्प्रति तैस्सृकर्मातितैसृकम् । नायं तैसुकस्याच्छादनस्योपभोगकाल इत्यर्थः । तिसृका नाम ग्रामस्तत श्रागतं तैसृकम् । विराम ऋद्धेत्यृद्धिः । गब्दिकानामृद्धेर्विगमो दुर्गब्दिकम् । दुर्यवनम् । शब्दप्रभवः शब्दस्य प्रकाशमानता। श्रीदत्तस्य शब्दप्रभवः इतिश्रीदत्तम् । तच्छ्रीदत्तमहो श्रीदत्तम् । श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशत इत्यर्थः पश्चात् रथानां पश्चादनुरथं पादातम् । यथार्थो योग्यता । श्रनुरूपं सुरूप वहति । सादृश्यमपि यथार्थः । उत्तरत्रासादृश्य इति प्रतिषेधाज्ज्ञायतॆ । सदृशं व्रतस्य सव्रतम् । सशीलम् । “हेकाले' [४/३/१८९ ] इति सहस्य सादेशः । पूर्वं पूर्वमनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्त्यम् | अनुज्येष्ठं प्रविशन्तु भवन्तः । ज्येष्ठानुक्रमेणेत्यर्थः । श्रानुपूर्व्यं विन्यासविशेष इति यथार्थात् पृथगुक्तम् | यौगपद्यसम्पत्साकल्यान्तोक्तिषु सहशब्दो वर्तते । यौगपद्यमेककालता । सचक्रं धेहि । युगच्चक्रे धेहीत्यर्थः । सधुरं प्राज । युगपद्ध रौ प्राजेत्यर्थः । सम्पत् सिद्धिः । श्रात्मभावनिष्पत्तिरित्यर्थः । वृत्तस्य सम्पत् क्षत्रस्य सम्पत् सवृत्तं साधूनाम् । सक्षत्रं शालकायनानाम् । साकल्य — सतृणमभ्यवहरति । सर्वेण सहाभ्यवहरतीत्यर्थी । अन्तः समाप्तिः प्राभृतपर्यन्तमधीते । एवं सबन्धं सटीकम् । श्रत्र परिसमाप्तिरसाकल्येऽप्यध्ययने प्रतीयत इति साकल्येऽनन्तर्भावः । इह चण्डाले प्रयच्छतीति अन्तोक्तिरभिविधिरप्यस्ति । परत्वात् For Private And Personal Use Only "पर्य बहिरचच: कया” [१/३/१० ] इति विभाषा भवति । श्राचण्डालमा चण्डालेभ्य इति । "वीप्सायां are aaor: " [aro] प्रत्यर्थम् । प्रतिपर्यायम् । अर्थमर्थं प्रति । पर्यायं पर्यायं प्रति । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू०७-१२ यावद्यथावधृत्यसादृश्ये ॥१३॥६॥ प्रसक्तस्य परिमाणमवधृतिः । सादृश्यं तुल्यता । यावत् यथा इत्येतौ शब्दाववधृति असादृश्य इत्येतयोरर्थयोः सुपा सह यथासंख्यं हसो भवति । यावदमत्रं यावदवकाशमतिथीन् भोजय । यावन्त्यमत्राणि तावतो भोजयेत्यवधार्यते । यथावृद्ध साधूनर्चय । यथापटु । यथाध्यापकम् । वृद्धानतिक्रमणेत्यर्थः । उत्तरपदार्थानतिवृत्तिर्यथाशब्दस्यार्थो वीप्सा सादृश्यञ्च । अवधृत्यसादृश्य इति किम् ? यावद् दत्तं तावद्भक्तम् । यथा देवदत्तस्तथेन्द्रदत्तः। पूर्वेणैव यथार्थे हसे सिद्ध सादृश्ये प्रतिषेधार्थमिह यथाशब्दोपादानम् । गुणक्रियाछायासादृश्ये हसो वक्तव्यः [वा ] गुणः यथाशक्ति । यथावलम् । क्रिया यथोपदेशम् । छाया-यथासुखम् । न वक्तव्यम् । अत्राप्युत्तरपदार्थानतिवृत्तिर्गम्यते । स्तोके प्रतिना ॥१॥३।७।। झीति निवृत्तम् । स्तोक मात्रा । स्तोकेऽर्थे प्रतिना सह सुबन्तं हसो भवति । सूपस्य मात्रा सूपप्रति | शाकप्रति । स्तोक इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतते विद्य त् । लक्षणेऽत्र प्रतिशब्दो वर्तते । परिणाऽक्षशलाकासंख्याः ॥ ११३८ ।। अक्षशब्दः शलाकाशब्दः संख्या च परिणा सह हसो भवति । परिणाक्षशलाकासंख्यमिति सिद्धे बहुवचननिर्देशादिष्टसंग्रहो लब्धो वेति सिंहावलोकनाद्वा । अक्षादयो यदा भान्ता एकत्वचाक्षशलाकयोः पूर्वोक्तस्यान्यथावृत्तौ परिशब्दो यदा वर्तते कितवव्यवहारविषये तदा वृत्तिरिष्यते। तथाहि पञ्चिका नाम द्यतं यत्र पञ्चाक्षाः शलाका वा पात्यन्ते पञ्चस्वेकरूपास पातयिता जयत्यन्यथा पाते जीयते । अक्षणेदं न तथा वृत्त यथा पूर्व जये। अक्षपरि। शलाकापरि । संख्या-एकपरि। द्विपरि । त्रिपरि चतुःपरि । परिणति किम् ? सुबन्तमात्रे मा भूत् । अक्षादय इति किम् ? पाशकेनेदं न तथा वृत्तम् । एकत्वेऽक्षशलाकयोरिति किम् ? अक्षाभ्यां न तथा वृत्तम् । कितवव्यवहार इति किम् ? अखेणेदं न तथावृत्तं शकटे। वा॥१३।९।। वेत्ययमधिकारः। यदित ऊर्वमनुक्रमिष्यामस्तद्वा भवतीति वेदितव्यः। इत उत्तरः सविधिर्वा भवति पक्षे वाक्यमपि साधु भवति । पूर्वस्तु सविधिनित्यः । तेनास्वपदेन तत्र विग्रहो शेयः । पर्यपाबाहिरञ्चवः कया ॥१॥३॥१०॥ परि अप आङ् बहिस् अञ्च इत्येते सुबन्ताः कान्तेन सह वा हसो भवति । परित्रिगत वृष्टो देवः । वाक्यपक्षे परेर्वजने वा वचनमिति वा द्वित्वम् । परि परि त्रिगर्तेभ्यः । परि त्रिगर्तेभ्यः। अप त्रिगर्तेभ्यः । "वर्जनेऽपपरिभ्याम् [ २१] । इति का। आपाटलिपुत्रं वृष्टी देवः । पाटलिपुत्रात् । आकुमारं यशः समन्तभद्रस्य । या कुमारेभ्यः । “काडामर्यादावचने' [ २०] । इति मर्यादाभिविध्योः का। बहिामम् । बहिनामात् । इदमेव ज्ञापकं बहिःशब्दयोगे का भवति । अञ्च । प्राग्ग्रामम् । प्राग्ग्रामात् । प्राची दिग रमणीया इति विगृह्य "दिक्छब्देभ्यो वा केभ्योऽस्ताहिग्देशयोः काले" [ २] इति अस्तात् । तस्य "अञ्चेरुप्' [११९६] इत्युप् । “सुपो झे:"[१।४।१५०] इति सुप उप । पदत्वात् कुत्वम् । तेन योगे ता प्राप्ता तां बाधित्वा दिक्छब्दत्वात् का प्राप्ता तां बाधित्वा "ताऽतसर्थे त्येन" [ ३६] इति तायां प्राप्तायाम् "अञ्चुधु" [४॥३८] इति का भवति । कयेति किम् ? परिगतः । अपगतः । वर्जनार्थाभावात् का नास्तीति "तिकुप्रादयः [३॥३॥८१] इति नित्यं षसो भवति । लक्षणेनाभिमुख्यऽभिप्रती ॥१३॥११॥ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । तद्वाचिना सुबन्तेन सह अभिप्रतिशब्दावामिमुख्ये वर्तमानौ वा हसो भवति । अभ्यग्नि शलभाः पतन्ति । प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति । अग्निमभि पतन्ति । अग्नि प्रति पतन्तीति वाक्यम् । अत्राग्निना चिह्नन शलभपातो लक्ष्यते । "वीप्सेत्थम्भूतलक्षणेऽमिना [ ११] इप । “भागे चानुप्रतिपरिणा' [ १२] इति चेप् । लक्षणेनेति किम् ? खुध्नं प्रति गतः । दिङ्मोहात्तत्रैव पुनरागत इत्यर्थः । श्राभिमुख्य इति किम् ? अभ्यङ्का गावः। अभिनवः प्रतिनवोऽको यासामिति । यद्यपि पूर्वपदार्थप्रधानो हसस्तथापीहार्थविशेषाभावेऽन्यपदार्थेऽपि स्यात् । अभिप्रती इति किम् ? येनाग्निस्तेन गतः। येनेत्यस्याग्निना सह हसो न भवति । For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ३ सू० १२-१७] महावृत्तिसहितम् यत्समयाऽनुः ॥१३॥१२॥ समयावाची अनुशब्द उपचारात् समया। यस्य समया यत्समया । मुख्येन समयाशब्देन योगाभावादिम्न भवति । अत एव "न झित" [१/४७२ ] इत्यादिनाऽदिन तासप्रतिषेधः । अनुर्यत्समयावाची तेन लक्षणभूतेन सह वा हसो भवति । अनुवनं गतोऽशनिः । वनमनुगत इति वाक्यम् । “भागे चानुप्रतिपरिणा" [ १२] इति लक्षणा इप् । वनेन समीपस्थमशनिगमनं लक्ष्यते । “झि विभक्त्यभ्यास-" [३५] इत्येवं सिद्धे विकल्पार्थ वचनम् । यत्समयेति किम् ? वृक्षमनु विद्योतते । आयामिना ।।१।३।१३।। अनुरिति वर्तते । लक्षणेनेति च | अनुनाऽऽयामिना लक्षणभतेन सह वा हसो भवति । द्वयोः प्रकृष्टहीनयोर्दीर्घयोर्योगेऽनुः प्रयुज्यमान उभयोर्दीर्घत्वमाह। तत्र प्रसिद्धाऽऽयामेन लक्षणेनातिशयेन दीपेण वा हसवृत्तिर्भवति । अनुगङ्ग वाराणसी। अनुशोनं पाटलिपुत्रम् । वाक्यमपि साधु भवति । गङ्गामन्वायता वाराणसी । नद्यायामेन पत्तनायामो लक्ष्यते । लक्षणे इप् । अथवा “हेतावनुना" [१॥४॥१३] । 'भाऽर्थे"[ ४] इतीब । गङ्गया सहायतेत्यर्थः।। तिष्ठद्ग्वादीनि च ॥१३॥१४॥ तिष्ठद्गु इत्येवमादीनि च शब्दरूपाणि हसंज्ञानि भवन्ति । समुदाया एते हसंज्ञाः कार्यार्थ (कार्यार्थाः) पाठादेवं निपात्यन्त इत्यर्थः । तिष्ठद्गु कालविशेषेऽन्यपदार्थे । तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले दोहाय तिष्ठद्गु । "त्यद्यो"[५/१११५७] इति लटः शत्रादेशोनिपातनाद्वा । 'स्त्रीगोर्नीचः''[1] इति प्रादेशः । वहन्ति गावो यस्मिन् काले वहद्गु । आयतीगवम् । पूर्वपदस्य निपातनात् पुंवद्भावाभावो ऽकारश्च सान्तो निपात्यते । खलेजुसम् । निपातनादीपोऽलुप् । लूनयवम् । लूयमानयवम् । लूयन्ते यवा यस्मिन् काले त्यद्योरिति लटः शानादेशः। पूतयवम् । पूयमानयवम् । संहृतयवम् । संह्रियमाण्यवम् । संहृतबुसम् । संह्रियमाणबुसम् । एते कालविशेपेऽन्यपदार्थे उक्ताः । समभूमिसमपदातिशब्दौ पूर्वपदार्थप्रधानौ समत्वं भूमेः समत्वं पदातैरिति । उत्तरपदार्थप्रधाने तु समा भूमिः समभूमिरिति षस एव । हसे पूर्वपदस्य केचिन्मकारान्तत्वमपीच्छन्ति । समम्भूमि । समम्पदाति । सुषमम् । विषमम् । निष्षमम् । दुष्षमम् । अवरसमम् । समशब्देन पूर्वपदार्थप्राधान्ये हसः। अनशोभनत्वं समस्येत्येवमादिवाक्यमंप्यूह्यम् । उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु षसः । सम संवत्सरवाचि । तेन वक्ष्यमाणो हसः । श्रायतीसमा। अायतीसमम् । पापसमम् । पुण्यसमम् । केचित्त समशब्देनैव भासमिच्छन्ति । प्राय या सममायतीसमम् । प्रगतमह्नः प्राह्नम् (प्राहम्)। उत्तरपदार्थप्राधान्ये षसः । प्राह (ह) कल्याणनामानावुदितौ तिष्यपुनर्वसू । प्ररथम् । प्रमृगम् | प्रदक्षिणम् । अपदक्षिणम् । सम्प्रति । असम्प्रति । इच-दण्डादण्डि । मुसलामुसलि । "ज इच्"[४।२।१२८] इति इच् सान्तः । “अन्यस्यापि" [३२२३२] इति पूर्वपदस्य दीत्वम् । चशब्दोऽवधारणार्थः । तिष्ठद्ग्वादीन्येव नान्यैः सह वृत्तिं लभन्ते । परमं तिष्ठद्गु । "सन्महत्परमो." [१॥३॥५६] इत्यादिना षसो न भवति । पार मध्ये तया वा ॥१॥३॥१५॥ पारे मध्ये शब्दौ तान्तेन सह हसो भवति वावचनात्तासोऽपि । प्रकतेन वाग्रहणेन वाक्यस्य साधुत्वमभ्यनुज्ञायते । हसन्नियोगेन वानयो रेकारान्तता निपात्यते । पारं गङ्गायाः। मध्यं गङ्गायाः । पारेगङ्गम् । मध्येगङ्गम् । तासपक्षे गङ्गापारम् । गङ्गामध्यम् । संख्या वंश्येन ॥१३॥१६॥ विद्याजन्मादिकृतः सन्तानो वंशः। तत्र भवो वंश्यः। संख्या वंश्यवाचिना सह हसो भवति । द्वौ मुनी व्याकरणस्य वंश्यो द्विमुनि व्याकरणस्य । अत्र सम्बन्धे ता। यदा व्याकरणस्याचार्ययोरभेदविवक्षा यावेतौ द्वौ मुनी तावेव व्याकरणमिति द्वौ मुनी वंश्यो द्विमुनि व्याकरणमिति तदासामानाधिकरण्यं भवति । एवं सप्तकाशि । त्रिकोशलम् । एकाश्रयस्य वसस्य चापवादोऽयम् । नदीभिश्च ॥१॥३॥१७॥ बहुवचननिर्देशादर्थस्येदं ग्रहणम् । नदीवाचिभिः शब्दैः सह संख्या हसो भवति (सत सिन्धवः समाहताः सप्तसिन्धु । सप्तगङ्गम् । द्वियमुनम् । तिस्रो गोदावर्यः समाहृताः त्रिगो दावर णोदकपाण्डुपूर्वाया भूमेरः सान्त इष्यते । गोदावर्याश्च नद्याश्च संख्याया उत्तरे यदा ॥” इति । १-वाक्यमभ्यूह्यम् अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू० १८-२६ अस्त्यः सान्तो भवति । नदीशब्दोऽपि नदीवचन इति तेनापि वृत्तिः । पञ्चनदम् । अत्राऽप्यः सान्तः। चकारः किमर्थः ? समाहारे यथा स्यादिह मा भूत् । द्वीरावतीको देशः। एका नदी एकनदी। खावन्यपदार्थ ॥१॥३॥१८॥ संख्येति निवृत्तम् । नदीभिरिति वर्तते । अन्यपदार्थे खुविधये नदीभिः सह सुबन्तं हसो भवति । उन्मत्तगङ्गं देशः। लोहितगङ्गम् । शनैर्गङ्गम् । तूष्णीगङ्गम् । अत्र वृत्तिपदेन संज्ञा गम्यत इति सामर्थ्यान्नित्यः सविधिः । उन्मत्ता गङ्गा यस्मिन् देशे इति सादृश्यमात्रेणार्थकथनं यथा गोरित्यस्यार्थे गच्छतीति | खाविति किम् ? शीघ्रा गङ्गा यस्मिन् देशे स शीघ्रगङ्गो देशः। अन्यपदार्थ इति किम् ? कृष्णावेष्णा | कृष्णावेष्णा नाम नदीविशेषलक्षणः षम् ॥१३॥१६॥ अधिकारोऽयं प्राग बसात् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः षसंज्ञः सो भवति इत्येवं वेदितव्यम् । वक्ष्यति “इसच्छितातीतपतितगतात्यस्तैः” [३।३।२१] । धर्म श्रितो धर्मश्रितः । नपा निर्देशः किमर्थः १ इह वीरपुरुषको ग्राम इति पूर्वापरप्रथमादिसूत्रेण प्राप्तः स्वपदार्थविषयत्वादन्तरङ्गः पसो बहिरङ्गन बसेन बाध्यो यथा स्यात् । उत्तरपदार्थप्रधानत्वं घसस्याभिधानवशात् । इपा च प्राप्तापन्ने ॥११२०॥ इबन्तेन सह प्राप्तापन्ने शब्दरूपे षसो भवति । प्राप्तो जीविकां प्राप्तजीविकः । आपन्नो जीविकामापन्नजीविकः । 'स्त्रीगोर्नीच:"[191 इति प्रादेशः । चकारः किमर्थः १ अकारादेशसमुच्चयार्थः । प्राप्ता जीविकां प्राप्ताजीविका । श्रापन्ना जीविकामापन्नाजीविका । प्रपञ्चार्थमिदं सूत्रम् । बसेनाप्येतत् सिध्यति । यदा कर्मणि तस्तदा प्राप्ता जीविका येनेति विग्रहो यदा कर्तरि तदा प्राप्ता जीविका यं पुरुषमिति । इप्तच्छितातीतपतितगतात्यस्तैः ॥१३॥२१॥ तच्छब्देन प्रासापन्नयोग्रहणम् । इबन्तं श्रित अतीत पतित गत अत्यस्त इत्येतैश्च सह षसो भवति । जीविका प्राप्तो जीविकाप्राप्तः । सुखापन्नः । धर्मश्रितः । संसारमतीतः संसारातीतः । नरकं पतितो नरकपतितः । मोक्षं गतो मोक्षगतः। तुहिनमत्यस्तस्तुहिनात्यस्तः । इबिति पदं सूत्रे वानिर्दिष्ट "वोक्तं न्यक्' [१॥३।१३] इति न्यसंशं तस्य वृत्तौ "पूर्वम्" [१॥३६७] इति पूर्वनिपातः । महान्तं धर्म श्रित इति सापेक्षत्वावृत्त्यभावः । यदा महांश्वासो धर्मश्च महाधर्म इति तदा महाधर्मश्रित इति भवति । स्वयं क्लन ॥१॥२२२॥ स्वयमित्येतत् झिसंज्ञ क्लान्तेन सह षसो भवति । इबधिकारोऽसम्भवादिमं योगमुत्प्लुत्य गच्छति । स्वयन्धौतौ पादौ। स्वयं गुप्ताः । “कृग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम् ।" स्वयंविलीनमाज्यम् । एकपद्यं प्रयोजनम् । स्वयंधौतस्येदं स्वायंधौतम् । खट्वाऽक्रमे ॥१॥३॥२३॥ श्राचार्यासनं खट्वा । उत्पथगमनमक्रमः । खट्वाशब्द इबन्तः क्लान्तेन सह षसो भवति अक्रमे। खटवारूढो जाल्मः। खट्वाश्रितः । खट्वाप्लुतः । सर्व एते अविनीतपर्यायाः। गुरुभिरनुज्ञातेन खट्वा अारोढव्या तदन्यथाकरणमक्रमोऽत्र प्रतीयते । अत्रापि वृत्तिपदेनाक्रमो गम्यत इति नित्यः सविधिः । वाक्यं सादृश्यमात्रेण । अक्रम इति किम् ? खट्वामारूढोऽध्यापकोऽध्यापयति ।। सामि ॥१॥३२४॥ सामि इत्य वाचि मिसंज्ञ' तत् सुबन्तं क्वान्तेन षसो भवति । सामिकृतम् । सामिभुक्तम् । सङ्घाताद्धृदुत्पत्तिः प्रयोजनम् । इबित्युपेक्षया गच्छति । कालाः ॥१॥३॥२५॥ कालवाचिनः शब्दा इबन्ताः कान्तेन सह षसो भवति । “कालावन्यविच्छेदे" [१।४।४] इत्यनेन या विहितेप् तस्या उत्तरसूत्रेणाक्लान्तेन वृत्तिं वक्ष्यति । विच्छेदे कान्तेनेहोदाहरणम् । षण्मुहूर्त्ताश्चराः । ते उत्तरायणेऽहर्गच्छन्ति । दक्षिणायने रात्रिम् । तेन नास्त्यविच्छेदः। अहरतिसृता मुहूर्ताः। अहःसंक्रान्ताः । “रोऽसुपि'' [१३.७८] इत्यह्नो नकारस्य रेफादेशः। रात्र्यारूढाः । रात्रिसंक्रान्ताः । मासं प्रमितो मासप्रमितश्चन्द्रमाः । मासं प्रमातुमारब्धः प्रतिपञ्चन्द्रमाः। तेन विच्छेदः । अविच्छेदे ॥१॥३॥२६॥ क्लान्तेनेति निवृत्तम् । अविच्छेदोऽत्यन्तसंयोगः। कालाः इयन्ताः सुबन्तेन सह षसो भवति अविच्छेदे । अविच्छेदश्च कालस्य द्रव्यक्रियागणैः सम्बन्धिभिव्याप्तिः । अत्यन्तं सुखमत्यन्त -प्राप्तः । सुखमापनः । सुखा-म०, स.। For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. १ पा० ३ सू० २७-३१] सुखम् । अत्यन्तरमणीयम् । सर्वरात्रकल्याणी । सर्वरात्रशोभना । “कालाध्वन्यविच्छेदे'' [11४४] इतीप् । __भा गुणोक्तयाऽर्थेनोनैः ॥१॥३॥२७॥ भान्तं गुणोक्त्या अर्थशब्देन गुणवाचिभिश्च शब्दैः सह षसो भवति । शङ्कलया खण्डः शङ्कलाखण्डः । “गुणवचनादुप्" [वा० ४।१।२३]'' इति मतोरुप् । एवं गिरिणा काण: गिरिकाणः । मदेन पटुर्मदपटुः । कुसुमैः सुरभिः कुसुमसुरभिः। कार्यकारणभावलक्षणमत्र सामर्थ्य शङ्कुलादिकृतलात् खण्डत्वादीनाम् । उक्तिग्रहणं किमर्थम् ? उच्यते इत्युक्तिः । गुणनोक्तिगुणोक्तिः । गुणद्वारेण द्रव्ये यः शब्दो वर्तते तेन वृत्तिर्यथा स्यात् केवलेन गुणेन मा भूत् । मदेन पाटवम् । वृत्तेन पाटवम । अर्थेन-धान्येनार्थो धान्यार्थः । पुण्येनार्थः पुण्यार्थः । अर्थशब्दोऽत्र प्रयोजनवाची। उनैः-माषणोनो माषोनः । माषविकलम् । एतैरिति किम् ? गोभिर्वपावान् । अस्त्यत्र कार्यकारणभावः । गोभिः कृतलादपावत्त्वस्य । इह कस्मान्न भवति ? अक्ष्णा काणः। असामर्थ्यात् । नात्र काणखमक्षि कृतमन्येन केनापि काणः कृतः । केवलमक्षणा काणत्वयुक्तो लक्ष्यते । इह कमान्न भवति । दध्ना पटुः । घृतेन पटुः । अनभिधानात् । पूर्वावरसदृशकलहनिपुणमिश्रश्लदणसमैः ॥१॥३॥२८॥ पूर्व अवर-सदृश-कलह-निपुण-मिश्रश्लक्ष्ण सम इत्येतैः सह भान्तं षसो भवति । मासेन पूर्वो मासपूर्वः। संवत्सरपूर्वः । मासावरः । संवत्सरावरः । अस्मादेव वचनाद्भा। हेतौ वा। पित्रा सदृशः पितृसदृशः। “भाऽतुलोपमाभ्यां तुल्याथैः'' [११४४७६] इति भा। विद्यया सदृशो विद्यासहशः। असिना कलहोऽसिकलहः । वाचा निपुणो वाङ निपुणः। गडेन मिश्रा गुडमिश्राः । तिलमिश्रा धानाः । वाचा श्लक्ष्णो वाक्श्लक्ष्णः। जिह्वाश्लक्ष्णः । मात्रा समो मातृसमः । कुलेन समः कुलसमः । साधनं कृता बहुलम् ॥१३२६॥ साधनं कारकं तत् कृदन्तेन बहुलं षसो भवति । कर्तृ-हिना हतोऽहिहतः । करणंमू-विषेण हतो विषहतः । "कृदग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि ।"(ननिर्भिन्नः ) नखनिर्भिन्नः । तथा देवदत्तेन नखनिभिन्नः देवदत्त नखनिभिन्नः। कर्म-ग्रामं गमी ग्रामगमी। श्रोदनं बुभुत्तरोदनबुभुक्षः। अपादानम्-ग्रामनिर्गतः। अधर्मजुगुप्सुः। सम्प्रदानम्-पादाभ्यां ह्रियते पादहारको भूपः। अधिकरणमगले चोपते गलचोपकः । "युव्या बहुलम्' [२।३।६४] इति बहुलवचनादुभयत्र कर्मणि एबुचु । कचिन्न भवति । दात्रेण लूनवान् । परशुना छिन्नवान् । व्यान्तैरधिकार्थवचन इष्यते । कुक्कुटैः सम्पात्याः कुक्कुटसम्पात्या ग्रामाः । अत्यासन्नताकथनम् । काकपेया नदी । श्वलेह्यः कूपः । कण्टकसंचय अोदनः । बाष्पच्छेद्यानि तृणानि । कचिन भवति । काकैः पातव्याः। काकैः पानीया नदी। कचिदधिकार्थाभावेऽपि । बसोपेन्ध्यम । तृणोपेन्थ्यम् । पूर्वमुत्तरञ्च कारकविभक्तोलक्षणं सविधानमस्यैव प्रपञ्चः । साधनमिति किम् ? भिक्षाभिरुषितः । हेतौ भा। क़द्ग्रहणं किम् ? कृदन्तेनैव वृत्तिर्यथा स्यात् सुबन्तेन मा भूत् । अभ्रविलिप्सी । "कादल्पे" [३।१।४४] इत्यकारान्तात् ङोविधिः सिद्धः । सुप्पुंलिङ्गयुक्ताद्भवति ।। भयानाभ्यां मिश्रणव्यञ्जने ॥१॥३॥३०॥ मिश्रणव्यञ्जनवाचिना सुबन्तेन भक्ष्यान्नवाचिभ्यां यथासंख्यं षसो भवति । गुडेन मिश्रा धाना गुडधानाः। वृत्तो क्रियाया अन्तर्भावादप्रयोगः । एवं गुडपृथुकाः । तिलगृथुकाः। व्यञ्जनम्-दध्ना उपसिक्त श्रोदनो दध्योदनः। घृतौदनः । अप्तदर्थार्थबलिहितसुखरतितैः ॥१३॥३१॥ तस्मै इदं तदर्थम् । अनन्तं तदर्थेनार्थशब्देन च बलि-हित-सुख-रक्षित इत्येतैश्च सह पसो भवति । रथाय दारु । रथदारु । कुण्डलाय हिरण्यम् । कुण्डलहिरण्यम् । बहुलग्रहणानुवृत्तेः प्रकृतिविकृतिभावे तदर्थेन वृत्तिः । विकृतिः प्रकृत्या सह इत्यर्थः । इह न भवति । रन्धनाय स्थाली । अवहननायोलूखलम् । इदमेव ज्ञापकं तादयें अब् भवति । कथमश्वघासो हस्तिविद्येति ? तासेन सिद्धम् । अर्थशब्देन नित्यं वृत्तिः । मात्र इदं मात्रथम । त्रिलिङ्गता लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्य । अातुरार्था १. मात्रर्थम् । पित्र इदम्, पित्रर्थम् । निलि-ब० । For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू० ३२-४१ यवागूः । आतुरार्थः सूपः । देवाय बलिः देवबलिः । गृहबलिः । तादर्थे अप् । गोभ्यो हितं गोहितम् । अश्वहितम् । हितयोगे इदमेव ज्ञापकमपः । गोभ्यः सुखं गोसुखम् । "अप् चाशिष्या" [१॥४७७] इत्यादिना अप् । गोभ्यो रक्षितं गोरक्षितम् । तादर्थेऽप् । का भीभिः ।।१।३।३२।। बहुवचनादर्थविज्ञानम् । कान्तं भीवचनैः सह घसो भवति । वृकेभ्यो भीः वृकभीः। वृकेभ्यो भीतो वृकभीतः। वृकेभ्यो भयं वृकभयम् । वृकेभ्यो भीतिः वृकभीतिः। सुष्वनुग्रहार्थं" पूर्वस्यायं प्रपञ्चः। मुक्तापतापोढपतितापत्रस्तैः प्रायः ॥१३॥३३॥ मुक्त-अपेत-अपोढ-पतित-श्रपत्रस्त इत्येतैः सह कान्तं प्रायः घसो भवति । भवान्मुक्तो भवमुक्तः । पापापेतः । सुखापोढः । स्वर्गपतितः । तरङ्गापत्रस्तः । सर्व त्रापादाने का । प्राय इति किम् ? प्रासादात् पतितः । भोजनादपत्रस्त इत्येवमादौ न भवति । स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्न ।।१।३।३४|| स्तोक-अन्तिक-दूर इत्येवमर्थाः शब्दाः कृच्छ्रशब्दश्च कान्ताः क्लान्तेन सह षसो भवति । स्तोकान्मुक्तः । अन्तिकांदागतः। अभ्यासादागतः । दूरादागतः । विप्रकृष्टादागतः। कृच्छ्रान्मुक्तः। कृच्छ्राल्लब्धः । “स्तोकार्थकृच्छू भ्योऽपादाने का" । दूरान्तिकार्थेभ्य इप्चेति का । "कायाः स्तोकादेः' [४।३।१२१] इत्यनुप् । ईपछौण्डैः ॥१॥३॥३५॥ ईबन्तं शौण्डादिभिः सह पसो भवति । शौण्डैः सहचरिताः शौएडाः । अक्षेषु प्रसक्तः शौण्डोऽक्षशोण्डः । पानशौण्डः । वृत्तौ प्रसक्तिक्रियाया अन्तर्भावादप्रयोगः । सर्वत्र अधिकरणे ईप् । शौण्ड, धूर्त, कितव, व्याड, संवीत, समीरण, अन्तर् वने अन्तर्वनान्तः । अधि राशि अधि राजाधीनम् । "अषडक्षासितङग्वधियोः" [।२।१६] इति खः । यदा पूर्वपदार्थप्राधान्यं विभक्त्यर्थश्च तदा हसः । अन्तर्वणम् । अधिस्त्रि । पण्डित । कुशल । चपल । निपुण । सिद्धशुष्कपक्कबन्धैः ॥१॥३॥३६॥ सिद्ध-शुष्क-पक्क-बन्ध इत्येतैरीबन्तं घसो भवति । काम्पिल्ये सिद्धः काम्पिल्यसिद्धः। सांकास्यसिद्धः । ऊके शुष्कः । ऊकशुष्कः । छायाशुष्कः । कुम्भीपक्कः । स्थालीपकः । चक्रबन्धः । चारकबन्धः । “साधनं कृता" [१।३।२६] इत्यस्यैव प्रपञ्चः। ऋणे व्यैः ॥१॥३॥३७॥ ईबन्तं व्यान्तैः सह षसो भवति ऋणे गम्यमाने । मासे देयमृणं मासदेयम् । मासैकदेशे मासशब्दः । अधिकरणे ईप्। एवं संवत्सरदेयम् । नियोगतः कार्यमृणम् । तेनेहापि भवति पूर्वाह्नज्ञेयम् । प्रातरध्येयम् । अत्र यत्यान्तेनैवाभिधानादिह न स्यात् । मासे दातव्यम् । मासे दानीयम् । भृण इति किम् ? मासे देया भिक्षा। खौ ॥१॥३॥३८॥ खुवषये ईबन्तं सुबन्तेन सह षसो भवति । अरण्येतिलकाः । वृत्तिपदेन संज्ञा गम्यत इति नित्यः सविधिः । “ईपोऽद्धलः'' [४।३।१२०] इत्यनुप् । एवमरण्येमाषकाः । वनेकसेरुकाः । वनेवल्वजकाः। पूर्वाह्न कोटकाः। पेपिशाचिकाः।। नाहोरात्रभेदाः ॥१३॥३६॥ भेदा अवयवाः । क्तान्तेन सह अहोरात्रभेदा ईबन्ताः षसो भवति । पूर्वाह्नकृतम् । अपराह्नकृतम् । पूर्वरात्रभुक्तम् । अपररात्रभुक्तम् । भेदग्रहणं किम् ? "उलूखलैराभरणः पिशाची यदभाषत । एतत्तु ते दिवा नृत्त रात्रौ नृत्तन्तु द्रक्ष्यसि ।” । तत्र ॥१॥३॥४०॥ क्त नेति वर्तते । तत्रेत्येतत् क्लान्तेन सह षसो भवति । तत्रकृतम् । तत्रभुक्तम् । तत्रपीतम्। एकपद्य प्रयोजनम् । क्षेपे ॥१॥३॥४१॥ क्षेपः कुत्सा । क्षेपे गम्यमाने ईबन्तं क्लान्तेन सह षसो भवति । "कृन्ग्रहणे तिका १.-हणार्धम् अ०। २. वने अन्तः ( वनान्तः ) वसति अ०, ब०, स० । ३.-रुकाः । वने हरिदुषाः । वने अ०। -रुकाः । वने हरिद्वकाः । बने ब०,स। For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३ अ० १ पा० ३ सू० ४२-४६] महावृत्तिसहितम् रकपूर्वस्यापि ।' अवतप्तेनकुलस्थितं त एतत् । कार्येष्वनवस्थितत्वं तवेदमित्यर्थः । “पे कृति बहुलम्" [३।१३२] इत्यनुप् । एवमुदकेविशीर्ण भस्मनिहुतम् । निष्फलं तवेदमित्यर्थः । ध्वाः ॥१॥३॥४२॥ क्त नेति निवृत्तम् । क्षेप इति वर्तते । बहुवचनादनिर्देशः । ध्वाङ्क्षवाचिभिः सुबन्तं षसो भवति क्षेपे। तीर्थे ध्वाङ्ग इव तीर्थध्वाङक्षः। वृत्ताविवार्थस्यान्तर्भावः । तीर्थकाकः। श्राद्धवायसाः। अनवस्थित एवमुच्यते । ध्वाङ्क्षरित्यर्थनिर्देशात्तत्सदृशानामपि ग्रहणमिति केचित् । तीर्थश्वा । तीर्थसारमेयः । तीर्थशृगालः । क्षेप इति किम् ? तीर्थे ध्वासो वास्यते । पात्रेसमितादयश्च ॥१॥३॥४३॥ क्षेप इति वर्तते । पात्रेसमितादयश्च शब्दा गणपाठादेव निपातिताः षसंज्ञा भवन्ति क्षेपे । पात्रे एव समिताः पात्रेसमिताः । पात्रेबहुलाः । न कचित्कार्य इति क्षेपो गम्यते । निपातनादनुप् । उदुम्बरे मशक इव उदुम्बरमशकः । उदुम्बरकृमिः । कूपकच्छपः। अवटकच्छपः । कुपमण्डूकः । उदपानमण्डूकः। नगरकाकः। नगरवायसः । एतेष्विवार्थो वृत्तावन्तर्भूतः। मातरिपुरुषः । अयुक्तकारीत्यर्थः। पिण्डीशूरः। निरुत्साह इत्यर्थः। गेहेक्ष्वेडी। गेहेनर्दी। गेहेनती। गेहेविजिती । गेहेव्याडः। गर्भेतृप्तः । गर्भेदृप्तः । पाखनिकवकः । गोष्ठेशूरः। गोष्ठविजिती। गोष्ठेक्ष्वेडी | गेहेशूरः । गेहेमेही । गेहेर्दासः । गोष्ठेपटुः । गोष्ठेपण्डितः । गोष्ठेप्रगल्भः। कर्णेचुरुचुराः । चकारोऽवधारणार्थः । पात्रेसमितादय एव न वृत्त्यन्तरं लभन्ते । परमाः पात्रेसमिताः। अत एव क्तान्तेनापीह वृत्तिः सार्थिका अन्यथा 'क्षेपे' [१।३।४१] इत्यनेनैव सिद्धा स्यात् । पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलं यश्चैकाश्रये ॥१॥३॥४४॥ एकाश्रयः समानाधिकरणम् । पूर्वकालवाचि-एकसवं-जरत् पुराण-नव-केवल इत्येते सुबन्ता एकाश्रये सति सुबन्तेन सह यसंज्ञः सो भवति पसं. शश्च । पूर्वः कालो यस्य स पूर्वकालः । सम्बन्धिशब्दत्वादपरकालेन तस्य वृत्तिः । पूर्व स्नाताः पश्चादनुलिप्ता स्नातानुलिप्ताः । कृष्टसमीकृतम् । छिन्नप्ररूढम् । दग्धप्ररूढम् । एकशाटी । एकचर्या । एकभिक्षा । सर्वदेवाः । सर्वपदार्थाः । जरद्धस्ती । जरद्गवः । पुरा भवं पुराणम् । “सायञ्चिरम्प्राहे प्रगेझिभ्यस्तनट्" [३।२।१३६] इति तनट । अत एव निपातनात्तखम् । पुराणान्नम् । पुराणशास्त्रम् । नवावसथः केवलमसहायं ज्ञानं केवलज्ञानम् विशेषणवृत्तरयं प्रपञ्चः । चशब्दः षसंज्ञासमावेशार्थः । अन्यथा राजपुरुषादौ कृतार्था पसंज्ञा बाध्येत । मोषिका गौः मोषकगवी । “स्त्र्युक्तपुंस्क' [४।३।१४६] श्रादिना पुंवद्भावः,"न चुहृत्कोङ४३११४१] इति प्रतिषिद्धो यसंज्ञायां 'पुंवद्यजातीयदेशीये" १५४] इति पुनर्भवति । षसंज्ञाश्रयो “गोरहृदुपि' [४।२।६४] इति टः सान्तः । इत उत्तरमेकाश्रयाधिकारो यावत् "मयूरव्यसकादयश्चा' [१३।६६] इति । एकाश्रय इति किम् ? एकस्या शाटी। दिक्संख्यं खौ ॥१॥३॥४५॥ दिग्वाचि संख्यावाचि च सुबन्तमेकाश्रये सुबन्तेन सह षसो भवति खुविषये । पूर्वेषुकामशमी । अपरेषुकामशमी । पूर्वकृष्णमृत्तिका । अपरकृष्णमृत्तिका । दक्षिणपञ्चालाः । उत्तरपञ्चालाः। संख्या-पञ्चाम्राः। पञ्चवटाः । सप्तर्षयः। खाविति किम् ? दक्षिणा ग्रामाः। पञ्च ग्राम्राः। हृदथंधुसमाहारे ॥१३॥४६॥ दिसंख्यमिति वर्तते । हृदर्थविषये द्यौ परतः समाहारेऽभिधेये दिसंख्यमेकाश्रये सुबन्तेन सह षसो भवति । दिक् । हृदर्थे-पूर्वस्यां शालायां भवः षसे कृते समुदायात् "दिगादेरखौ''[३।२।८४]इति णः । पौर्वशालः । श्रापरशालः। द्यौ-पूर्वा शाला प्रिया अस्य पूर्वशालाप्रियः । अपरशालाप्रियः । अक्यवापेक्षया पसः। पूर्वपदस्य पुंवद्भावः । दिशां समाहारो नास्ति । क्रियागुणापेक्षयाऽपि समाहारे अनभिधानम् । संख्या । हृदर्थे-पञ्चभिः शष्कुलीभिः क्रीतः पञ्चशष्कुलः। अनेन १. गेहेदाही श्रा, ब० । २.-प्रगल्भः । कर्णे ठिरिटिराः । कर्णे-अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् ० १ पा० ३ सू०४७-२१ ५४ षसे कृते तस्य “संज्ञादी रश्च" [ १ | ३ | ४७ ] इति रसंज्ञायां श्रायस्य ठरणो "रादुबखौ” [३|४|२३] इत्युप् । "हृदुप्युप्” [१।१18 ] इति स्त्रीत्यस्योप् । पञ्चानां नापितानामपत्यं पाञ्चनापितिः । "रस्योबनपत्ये " [३|१|७४ ] इति वचनं ज्ञापकं हृदर्थेऽपि से हृदुत्पत्तिर्भवति । द्यौ - पञ्च गावो धनमस्येति पञ्चगवधनः । श्रवयवसापेक्षया "गोरहृदुपि" [४।२।१४] इति टः सान्तः सिद्धः । द्वेऽहनी जातस्य द्वयहजातः । “एभ्योऽह्नोऽह्नः '' [४/२/१०] इत्यह्णादेशः । समाहारे - पञ्च पूलाः समाहृताः पञ्चपूली । अनेन षसः । उत्तरसूत्रेण रसंज्ञायां "शत्” [३।१।२५] इति ङीविधिः । कथं परणगरी १ अत्रापि क्रियागुणापेक्षया समाहारोऽस्ति । लब्धा शोभना चेति गम्यते समाहारस्यैकत्वादेकवचनम् । ननु समाहारः समूहः स तु हृदर्श एव न पृथक् समाहारनिर्देशात् । समूहार्थस्य त्यस्यानुपपत्तिः पञ्चानां कुमारीणां समाहारः पञ्चकुमारि । त्योत्पत्तौ हि 'रस्योबनपश्ये' [३|१|७४] इत्युप् प्रसज्येत । ततश्च "हृदुप्युप” [971/8] स्त्रीत्यस्योप् स्यात् । संख्यादी रश्च ||१|३|४७॥ हृदर्थ समाहार इत्यत्र संख्यादिर्यः स उक्तः स रसंज्ञो भवति हृदर्थे । द्वावनुयोगौ वेत्यधीते वा द्वयनुयोगः " । "रस्योबनपत्ये” [३|१|७४] इत्यण उप् । पञ्चसु कपालेषु संस्कृतः पञ्चकपालः। द्यौ- पञ्च नावः प्रिया अस पञ्चनावप्रियः । “नावो रात्” [४/२/१०२] इति टः सान्तः । समाहारे-पञ्चपूली । चशब्दः षसंज्ञासमावेशार्थः । द्व े अंगुली समाहृते द्वयङ्गुली । "बेऽङ्गुले - संख्यादेः” [४|२|८८] इति श्रः सान्तः । "रात्" [३।१।२५] इति ङीविधिश्च सिद्धः । कुत्स्यं कुत्सनैः ||१|३|४८ ॥ कुत्स्यवाचि सुबन्तं कुत्सनवाचिना प्रसो भवति । वैयाकरणखसूचिः । प्रत्यासत्त : शब्द प्रवृत्तिनिमित्तस्य कुत्सायामयं सविधिः । रूपसिद्धि पृष्टो निःप्रतिभः सन् यः खं सूचयति वीक्षते सखसूची । खसूचित्वं कुत्सनम् । विशेषणस्य परनिपातार्थ आरम्भः । एवं क्षत्रियभीरुः । श्रोत्रियकितवः । भिक्षुविटः । मीमांसक दुदु रूढः । कुत्स्यमिति किम् ? वैयाकरणः कितवः । न हि वैयाकरणत्वं कितवत्वेन कुत्स्यते । कुत्सनैरिति किम् ? कुत्सितो ब्राह्मणः । पापा के कुत्स्यैः ||१|३३४९ ॥ पापाणकशब्दौ कुत्सनवचनौ कुत्स्यवचनैः प्रसो भवति । पापकुलालः । श्राणकनापितः । पूर्वयोगेन कुत्स्यस्य पूर्वनिपाते प्राप्त परनिपातार्थ श्रारम्भः । सामान्येनोपमानम् ||१|३|५० ॥ उपमानोपमेययोः साधारणो धर्मः सामान्यम् । उपमीयते परिच्छि द्यते अनेन सादृश्येनार्थं इत्युपमानम् । उपमानवाचि सुबन्तं सामान्यवाचिना सुबन्तेन सह प्रसो भवति । निराधारं सामान्यं न प्रतीयत इति सामान्यधर्मेण विशिष्ट यदुपमेयं तेनात्र वृत्तिः । शस्त्रीव श्यामा शस्त्रीश्यामा देवदत्ता | शस्त्रीशब्दः श्यामगुणमुपादाय देवदत्तायां वर्तत इति एकाश्रया वृत्तिर्न विरुध्यते । मृगीव चपला मृगचपलेति पु ंवद्भावश्च भवति । एवं कुमुदस्येनी हंसगमनी न्यग्रोधपरिमण्डला दूर्वाकाण्डश्यामा सरकाण्ड - गोरी | सामान्येनेति किम् ? फला इव तण्डुलाः । पर्वता इव बलाहकाः । उपमानमिति किम् ? देवदत्ता श्यामा | व्यरुपमेोऽद्योगे || १ | ३|५१ ॥ तस्य सामान्यस्य योगः प्रतिषिध्यते । उपमेयार्थवाचिव्याघ्रादिभिः सह षसो भवत्यतद्योगे । उपमेयशब्दस्य सम्बन्धिशब्दत्वादुपमाने न वृत्तिः । साधारणधर्मः सामान्यं हि वृत्तावन्तर्भूतम् । तद्योग इत्यनेन विशिष्टः साधारणधर्मः प्रतिषिध्यते । पुरुषोऽयं व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः । पुरुषविशेषणस्य परनिपातार्थ आरम्भः । व्यात्र सिंह ऋषभ चन्दन वृक वृषभ वृष वराह दस्तिन् कुञ्जर रुरु पुण्डरीक स्त्री पलाविका । श्राकृतिगणोऽयम् । तेन मुखकमलं करकिशलयं पुरुषचन्द्रादि सिद्धम् । तद्योग इति किम् ? पुरुषोऽयं व्याघ्र इव शूरः । इदमेव प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं भवति - प्रधानस्य सापेक्षस्यापि वृत्तिः । तेन राजपुरुषो दर्शनीयः । राजपुरुषः पण्डित इत्येवमादि सिद्धम् । १.--योगः | त्र्यनुयोगः | रस्यो- अ० । २. मीमांसकदुर्दुरूटः स० । ३. सम्बन्धिश्वादुप - मु० । For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ३ सू० ५२-५४ ] महावृत्तिसहितम् ५५ विशेषणं विशेष्येति || १ | ३|५२ || एकाश्रय इति वर्तते । यत् सामान्याकारेण प्रवृत्तं सत् अनेकप्रकाराधारभूतं वस्तु प्रकारान्तरेभ्यो व्यावल्यैकत्र प्रकारे वस्थापयति तद्विशेषणम् । अनेकप्रकाराधारभूतं वस्तु विशेष्यम् । विशेषणं विशेष्यवाचिना सह षसो भवति । कृष्णश्च स कम्बलश्च स कृष्णकम्बलः । लोहिता च सा शाटी च सा लोहितशाटी । श्रद्धञ्च तत् पिप्पली च सा श्रद्धपिप्पली । यदा पिप्यल्यवयवे पिप्पलीशब्दस्तदेयं वृत्तिरेकाश्रयाधिकारात् । यदा समुदाये वर्तते तदा पिप्पल्यद्धमिति तासः । भिक्षैकदेशे भिक्षाशब्दः । द्वितीया भिक्षा द्वितीय भिक्षा | तृतीय भिक्षा | चतुर्थभिक्षा | तुर्यभिक्षा । इह भिक्षाद्वितीयमिति तासो नोपपद्यते । "डद्गुणतृप्तार्थण [१।३।७५] श्रादिप्रतिषेधस्य बलीयस्त्वात् । कायैकदेशे कायशब्दः । पूर्वः कायः पूर्वकायः । परः कायः अपरकायः । उत्तरकायः । एवं मध्याह्नः । सायाह्नः । पूर्व कायस्येति व यत्रसम्बन्धे तासानभिधानं पूर्वं कायादिति प्राप्नोति । विशेषणविशेष्ययोरन्यतरस्य ग्रहणेऽपि सम्बन्धिशब्दत्वादुभयोः प्रतिपत्तिरिति द्वयनिर्देशो व्यर्थः ? नैत्रम् ; यत्र पूर्वोत्तरपदयोः प्रत्येकं विशेषणविशेष्यभावस्तत्र यथा स्यादिह मा भूत् । वृक्षः शिशपा । शिशपा हि वृक्षार्थं न व्यभिचरतीति न तस्या विशेष्यत्वम् । यदा शिंशपादिशब्दाः फलादिष्वपि वर्तन्ते तदोभयोर्विशेष्यत्वे सविधिर्भवत्येव । शिशपावृक्षः । पलाशवृक्षः । उभयोर्विशेषणत्वे कस्य पूर्वनिपात इति चेत् प्रधानद्रव्यापेक्षयान्वर्थस्य नीचो गुणस्य पूर्वनिपातः । यद्यन्युत्पलादिशब्दो जातिशब्दस्तथापि जातिद्रव्यस्योत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशादात्मभूता प्रतीयत इति जातिनिमित्तः शब्दो द्रव्यशब्दो व्यवस्थाप्यते । अत एव विशेष्यत्वमुत्तरपदार्थस्य द्रव्यद्वारेण जातेरनीलत्वादनाधेया 'तिशयत्वाच्च, सामानाधिकरण्यं तु जात्यपेक्षया, जातेर्भेदाभेदविवक्षा अनेकान्ताधिकाराल्लभ्यते । विशेषणमिति किम् ? तक्षकः सर्पः । संज्ञा । विशेष्यत्वमेव न विशेषणत्वम् । विशेष्येति किम् ? लोहितस्तचकः । तस्य लोहितत्वाव्यभिचारादविशेष्यत्वम् । इतिशब्दः किमर्थो यत्र लोके विवक्षा तत्र यथा स्यात् । इह न भवति रामो जामदग्न्यः । अर्जुनः कार्तवीर्यः । इह कृष्णसर्पः लोहिताहि: लोहितशालिरित्येवमादिषु संज्ञाशब्देषु नित्यः सविधिः । वाक्यं तु साह - श्यमात्रेण । नीलोत्पलादिधूभयम् । नीलमुत्पलं नीलोत्पलम् । इहेच्छया विशेषणत्वम् । खञ्जकुटः | कुण्टखञ्जः । पूर्वाऽपरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीराः ॥ १/२/५३ ॥ पूर्व-पर-प्रथम चरम जघन्यसमान-मध्य-मध्यम-वीर इत्येते एकाश्रये सुपा सह समस्यन्ते षसो भवति । पूर्वपुरुषः । परपुरुषः । प्रथमपुरुषः । चरमपुरुषः । जघन्यपुरुषः । समानपुरुषः | मध्यपुरुषः । मध्यमपुरुषः । वीरपुरुषः । एवमाद्यनुक्रम‍ पूर्वयोगप्रपञ्चार्थः । उपसर्जनानां परोपसर्जनार्थम्, प्रधानानां परप्रधानार्थञ्च । इह सूत्रे पूर्वशब्दो वीरशब्दवोपसर्जनं तयोर्वृत्तौ परत्वात् वीरशब्द उपसर्जनम् । वीरपूर्वः । "वृन्दारकनागकुञ्जरैस्वत्" [१/३/२७] इत्यत्र नागशब्दः प्रधानं "पोटायुवति " [१|३|६० ] इत्यत्र प्रवक्तृशब्दः प्रधानं तयोर्वृत्तौ परत्वात् प्रवक्ता प्रधानम् । नागप्रवक्ता । श्रेयादि कृतैः ॥ १|३|१४|| श्रेण्यादयः कृतादिभिः सह एकाश्रये बसो भवति । वैषम्याद्यथासङ्ख्यं न भवति । श्रेयादिषु च्व्यर्थग्रहणं कर्त्तव्यं न कर्त्तव्यमितिशब्दानुवृत्तेस्तत्रैव वृत्तिः । अश्रेणयः श्रेणयः कृताः श्रेणिकृताः । अनूका ऊकाः कृताः ऊककृताः । व्यर्थादन्यत्र श्रेणयः कृताः । करोतेरनेकार्थत्वाद्दरिडता पूजिता वेति गम्यते । विकल्पेन चिवविधास्यते यदा च्चिस्तदा परत्वात् ' तिकुप्रादयः " [१|३|८०] इति नित्यं प्रसः । श्रेणीकृताः । ऊकीकृताः । श्रेणि ऊक पूरा कुन्दुम राशि निचय विषय विशिष्ट निर्धन देव इन्द्र मुड श्रम भूत वदान्य अध्यापक ब्राह्मण क्षत्रिय पटु पण्डित कुशल चपल निपुण इति श्रेण्यादिः । कृतादिराकृतिगणः । कृत मित मत भूत उक्त समाज्ञात समाख्यात समाम्नात सम्भावित अवधारित संसेवित कल्पित निराकृत उपकृत इत्येवमादि । क्रियाकारकसम्बन्धोऽत्र न विशेषणविशेष्यभाव इति । १. न आधेयोऽतिशयो यस्मिन् तस्य भावः तस्मात् । २. तक्षकस्य अ०, ब० । For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू० ५५-६० विसमाप्तौ क्लोऽनञ् ॥१॥३॥५५॥ विगता समाप्तिः विसमाप्तिः। ईषन्निष्पत्तिरित्यर्थः । अननक्तान्तं विसमाप्ती सामर्थ्यात् क्तान्तेन समस्यते षसो भवति । एकस्यां हि क्रियायां विसमाप्तिर्भवति न क्रिया भेद इति सामर्थ्यम् । क्तान्तस्यानभिति प्रतिषेधान्न पूर्वेणापि क्तान्तेन सविधिः । कृतञ्च तदकृतञ्च कताकुतम् । कृतभागसम्बन्धात् कृतम् । अकृतभागसबन्धात्तदेवाकृतम् । एवं भुक्ताभुक्तम् । पीतापीतम् । अशितानशितम् । क्लिष्टाक्लिशितम् । "क्लिशस्तक्त्वोः " [५/१६८] इति वेट । मुक्तविमुक्तम् । पीतविपोतम् । कृतापकृतम् । विसमाप्ताविति किम् ? सिद्धं चाभुक्तं च । क्रियाभेदे विसमाप्तिास्ति एकस्याः समाप्तत्वादपरस्या अननुष्ठानात् । क्त इति किम् ? कर्तव्यं तदकर्तव्यं च । अनभिति किम् ? अकृतं च तत्कृतञ्च । ननु कृद्ग्रहणे तिकारकपूर्वस्यैव ग्रहणमननिति किमर्थम् ? न पूर्वेणापि वृत्त्यर्थमिति शेषः । इह गतप्रत्यागतः यातानुयात इत्येवमादिषु “पूर्वकालैक" [१॥३॥४४] इत्यादिना धसः । सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्ट पूज्येन ॥१॥३॥५६॥ सत्-महत्-परम उत्तम-उत्कृष्ट इत्येते सुबन्ताः पूज्यवचनेन सह समस्यन्ते षसो भवति । संश्च सः पुरुषश्च सत्पुरुषः। महापुरुषः । परमपुरुषः । उद्गततमः उत्तमः । अत एव निपातनात् किमेन्मिझिभादामद्रव्ये' [४।२।२०] इत्याम् न भवति । उत्तमपुरुषः । उत्कृष्टपुरुषः । पूज्येनेति वचनादत्र सदादयः पूजावचना ज्ञातव्याः। पूज्येनेति किम् ? उत्कृष्टो गौः। कर्दमादुद्धृत इत्यर्थः। वृन्दारकनागकुञ्जरैस्तत् ॥१३॥५०॥ पूज्येनेति वर्तमानमर्थवशाद्वान्तं संपद्यते । वृन्दारकादिभिः सह तत् पूज्यवाचिसुबन्तं समस्यते षसो भवति । तदित्यनेन पूज्यवचनेनाभिसम्बन्धात् वृन्दारकादयः पूजावचना गृह्यन्ते । गौश्चासो वृन्दारकश्च गोवृन्दारकः । पुन्नागः । गोकुञ्जरः । अश्वकुञ्जरः । व्याघ्रादेराकृतिगणत्वात् “व्याघ्ररुपमेयेऽतद्योगे'' [३॥३१५] इत्येव सिद्ध सामान्यप्रयोगेऽपि यथा स्यादित्यारम्भः। गोनागो बलवान् । तदिति किम् ? शोभना शीमा फणा अस्य सुशीमो नागः।। (कतरकतमौ समर्थौ ॥१॥३॥५८॥ किंशब्दात् "किंयत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरः" [१७] "वा बहूनां जातिप्रश्ने डतमः" [191१४८] तयोः परतष्टिखे कृते कतरकतमशब्दौ सिद्धयतः। समर्थी सङ्गतार्थों समानार्थावेकार्थावित्यर्थः ) तौ सुबन्तेन सह समस्येते षसो भवति । कदा चानयोः समानार्थत्वं यदा जातिप्रश्ने तौ व्युत्पाद्यते तदा तयोः समानार्थत्वम् । कतरश्च स गार्ग्यश्च कतरगार्ग्यः। कतमगार्ग्यः। कत. रकठः। कतमकठः। वृद्धं चरणैः सहेति जातिवाचित्वम् । समर्थाविति किम् ? कतरो भवतोदेवदत्तः। द्रव्यप्रश्नोऽयम् । समर्थग्रहणं हि कतरस्यैव विशेषणं डतरस्याविशेषेण विधानान्न कतमस्य । डतमस्य जातिप्रश्न एव तैविधानात् । अतः कतमो भवतां देवदत्त इति व्यावृत्त्युदाहरणमत्रानुपपन्नम् । कतरकतमयोः प्रश्ने विहितयोः सविधिना न गार्यादेविशेष्यव्यवस्थेति वचनम् । क्षेपे किम ॥१॥३॥५६॥ क्षेपः कुत्सा । यो हि यदर्थत्तस्य तदर्थाननुष्ठानं क्षेपः । किमेतत् क्षेपे गम्ये सुबन्तेन समस्यते षसो भवति । को नाम राजा किंराजा । यो न रक्षति। "न स्वति किमः" ६] इति सान्तप्रतिषेधः। किसखा । योऽभिद्रु ह्यति। किंगौः। यो न वहति । “गोरहृदुपि" [१२।६४] इति सान्ते टे प्राप्ते "न स्वति किमः” [१२।६६] इति प्रतिषेधः । सर्वत्र स्वकार्याभावात् क्षेपः। क्षेप इति किम् ? को राजा पाटलिपुत्रे । किमिति योगविभागः । तेन संज्ञायां शुकादिभिः सह किंशब्दः समस्यते षसो भवति । किंशुकः पलाशः । किंशुलुकः पर्वतः । किंपुरुषो मयुः । किन्नरः स एव । किञल्कः पुष्परेणुः । किङ्किरातः । किंवदन्तीत्यादयः सिद्धाः। (पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्वष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूतर्जातिः ॥१॥ ३६०॥ पोटादीनामितरेतरयोगो द्वन्द्वः। पोटादिभिः सहकाश्रये जातिः समस्यते षसो भवति । विशेषणस्य परनिपावार्थ प्रारम्भः। जातिद्वारेण यः शब्दो द्रव्ये वर्तते स इह जातिशब्दोऽभिप्रेतः। इभ्या च सा पोटा For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७ म. पा० ३ ० ६१-६५] महावृत्तिसहितम् च इभ्यपोटा । इभ्येति जातिशब्दः । स्त्री भूत्वा राज्यपालनार्थ या पुंवेषेण युज्यते सा पोटा । यापि गर्भ एव दास्यं गता साऽपि पोटा । "स्त्र्युक्तस्क" [१।३।१४६] इत्यादिना पुंवद्भावे प्राप्ते “जातिश्च' [४।३।११३] इति प्रतिषिद्ध “पुवद्यजातीयदेशीये" [४।३।१५४] इति पुंवद्भावः । एवमार्यपोटा । युवतिस्तरुणी । इभ्ययवतिः। त्रिययवतिः। अग्निश्च स स्तोका तदग्निस्तोकम । दधिच त कतिपयञ्च दधिकतिपयम। स्तोककतिपयशब्दावेकार्थे । सकृत्प्रसूता गृष्टिः । गोश्च सा गृष्टिश्च गोष्टिः। धेनुरभिनवप्रसवा । गोधेनुः । वशा वन्ध्या । गोवशा। वेत् गर्भघातिनी। गर्भधारिणीत्यन्ये । गोहत् । महता वत्सेन या दह्यते सा बकयिणी। गोबष्कयिणी। प्रवक्ता उपाध्यायः। कठप्रवक्ता। कठश्रोत्रियः। अध्यापकोऽध्येता। कठाध्यापकः। कठधूर्तः । बुद्धिमानित्यर्थः । धूर्तग्रहणमिहाकुत्सार्थम् । अथवा श्राश्रयिषु कुत्सितेषु तद्भवति । आश्रयेषु तु कुत्स्येषु इदम् । ब्राह्मणधूर्तः क्षत्रियधूर्त इति यदा हि ब्राह्मणत्वमाश्रयि कुत्स्यते तदा तेनैव सिद्धं सविधानम । यदा तु तद्य तो देवदत्तः कुत्स्यते तदर्थमिदम् । जातिरिति किम् ? देवदत्तः प्रवक्ता । देवदत्तशब्दस्याजातिवचनत्वादवृत्तिः । जातेर्विशष्यायाः पूर्वनिपातार्थ प्रारम्भः । चतुष्पाद्गर्भिण्या ॥२३॥६१॥ जातिरिति वर्तते । चत्वारः पादा यस्याः सा चतुष्पाद्गवादिजातिः । "सुसंख्यादेः [२११४०] इत्यकारस्य खम् । चतुष्पाज्जातिर्गर्भिणीशब्देन सहकाश्रये समस्यते षसो भवति । गौश्च सा गर्भिणी च गोगर्मिणी। अजगर्भिणी । "वद्यजातीयदेशीये' [१॥३।१५५] इति वद्भावः । चतुष्पादिति किम् ? ब्राह्मणी गर्भिणी । जातिरित्येव । कालाक्षी गर्भिणी। स्वस्तिमती गर्मिणी । चतुष्पदः संशैषा । न तु जातिः । विशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थं वचनम् । प्रशंसोक्तथा ॥१॥३॥६२॥ जातिरिति वर्तते । उच्यते इत्युक्तिः शब्दः । प्रशंसाशब्देन सह जातिवाचि सुबन्तं समस्यते षसो भवति । गौश्च स प्रकाण्डश्च तत् गोप्रकाण्डम् । प्रशस्तो गौरित्यर्थः । एवमश्वप्रकाएडम् । गोमतल्लिका । अश्वमचर्चिका । गोकुमारी । गोतल्लजकः । अभिधा जातिरित्येव । देवदत्ता कुमारी। युवा खलतिपलितवलिनजरद्भिः ॥१३॥६३॥ खलति पलित वलिन जरदित्यतैरेकाश्रयैयुवशब्दः समस्यते षसो भवति । युवा खलतिः युवखलतिः । युवतिः खलती युवखलती। युवा पलितः युवपलितः। युवतिः पलिता युवपलिता। वलयोऽस्य सन्ति वलिनः । पामादित्वान्नः । युवा वलिनः युववलिनः । युवतिर्वलिना युववलिना। "जषोऽतृ"शश८७] इति अतृत्ये कृते जरदिति भवति । युवा जरन् युवजरन् । युवतिजेरती युवजरती। "मृदग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् ।, "वद्यजातीयदेशीये"[ ३४१५४इति पुंवद्भावात् तिशब्दस्य निवृत्तिः । व्यतुल्याख्या प्रजात्या ॥२॥३॥६४॥ व्यान्तास्तुल्याख्याश्च अजातिवाचिना सह समस्यन्ते षसो भवति । परनिपातः फलम् । भोज्यश्च तदुष्णश्च भोज्योष्णम् । भोज्यलवणम् । पानीयशीतम् । हरणीयपूर्णो घटः । तुल्याख्याः । तुल्यश्च स श्वेतश्च स तुल्यश्वेतः । सदृशश्वेतः । तुल्यमहान् । सदृशमहान् । अज किम् ? भोज्य श्रोदनः। तुल्यो वैश्यः । इह तुल्यसन्निति पूज्यत्वाभावात् परत्वादानेन सः । इह कथमेकाश्रया वृत्तिः । कृष्णसारङ्गः। लोहितसारङ्गः। कृष्णशबलः । लोहितशबलः। यदि सारङ्गादिशब्दा जातिवचना जाते. कथञ्चिद्व्यादभिन्नत्वमित्येकाश्रयत्वमस्ति ततो विशेषणलक्षणः सः। अथ पूर्वोत्तरपदयोर्वर्णविशेषवाचित्वं तत्रापीच्छातो विशेषणविशेष्यभावः । कृष्णश्वेतः । श्वेतकृष्णः। कुमारः श्रमणादिभिः ॥१॥३॥६५॥ कुमारशब्दः श्रमणादिभिः सह समस्यते षसो भवति । कुमारशब्दो मृत् । स्त्रीलिङ्गैरुत्तरपदैः स्त्रीलिङ्गः । अध्यापकादिभिरुभयथा समस्यते । कुमारी श्रमणा कुमारश्रमणा । १. मतल्लिका । अश्वमतल्लिका । गोमचर्चिका । गोकुमा-अ० ।-ल्लिका । अश्वमतल्लिका । अश्वम-ब.। For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. १ पा० ३ सू० ६६-६६ कुमारी प्रव्रजिता कुमारप्रव्रजिता । कुमारश्च स अध्यापकश्च स कुमाराध्यापकः। कुमारी अध्यापिका कुमाराध्यापिका । श्रमणा प्रव्रजिता कुलटा गर्भिणी तापसी बन्धकी दासी एते स्त्रीलिङ्गाः। अध्यापक अभिरूपक पटु मृदु पण्डित कुशल चपल निपुण । मयूरन्यंसकादयश्च ॥१॥३॥६६॥ मयूरव्यंसकादयश्च शब्दा गणपाठादेव निपातिताः षसंज्ञा भवन्ति । विशिष्टावंसावस्य व्यंसः । इवार्थे कः। व्यंसको मयूरो मयूरव्यंसकः। छत्रव्यंसकः । कम्बोजमुण्डः । यवनमुण्डः । एतेषु परनिपातः प्रयोजनम् । “एडीडादयोऽन्यपदार्थे ।' एहीडमिति यत्र कर्मणि एहि यवैरिति एहीडम् । "हियवं वर्तते । एहिवाणिजेति यस्यां क्रियायां सा एहिवाणिजा। प्रेहिवाणिजा' । एहिस्वागता । अपेहिस्वागता। एहिद्वितीया । अपेहिद्वितीया । प्रोहकटमस्यां प्रोहकटा । प्रोहकर्दमा । उद्धमचूडा । श्राहरचेला । अाहरवसना । अाहरवितता | भिन्धिप्रलवणा । उद्धर उत्सृजेति यस्यां सा उद्धरोत्सृजा । उद्धमविधमा । उद्धरविसृजा । उत्पतनिपता। उत्पचनिपचा। श्राख्यातमाख्यातेन सिद्ध ऽप्यसातत्यार्थ वचनम् । उदक्च अवाक्च उच्चावचम् । उच्चैश्च नीचैश्च उच्चनीचम् । अाचितञ्चोपचितञ्च प्राचोपचम् । आंचितपराचितस्य पाचपराचम् । निश्चितप्रचितस्य निश्चप्रचम् । अकिञ्चनम् । स्नात्वाकालकः । पीत्वास्थिरकः । भुक्त्वासुहितः । प्रोष्यपापीयान् । उत्पत्यपाकला जाता। निपत्यरोहिणी जाता । निषद्यश्यामा जाता । अपेहिप्रघसा वर्तते । इहपञ्चमी । इहद्वितीया । 'जहि कर्नणा बहुलमाभीक्ष्ण्ये कर्तारं चाभिदधाति ।" जहि जोडमित्याह जहिजोडः। उज्जहिजोडः। जहिस्तम्बः । बहलमिति किम् ? पचौदनम् । "पाख्यानमाख्यातेन सातत्ये।" अश्नीतपिबता वर्तते । पचतभृज्जता । मदतमोदता । खादाचामाः। श्राहरविवसा । श्राहरनिष्किरा । अविहितलक्षणं सविधानमिह द्रष्टव्यम् । तेन शाकप्रधानः पार्थिवः शाम्पार्थिवः । कुतपसौश्रुतः । अजातौल्वलिः । धृतरौढीयाः । अोदनपाणिनीया इत्येवमादि सिद्धम् । चकारोऽवधारणार्थः । परमो मयूरव्यंसकः । वृत्त्यन्तरं न भवति । काला मेयैः ॥११३१६७॥ कालवाचिनः शब्दा मेयैः परिच्छेद्यः सह समस्यन्ते षसो भवति । मेयैरिति सम्बन्धात् काला मानवचना गृह्यन्ते । यद्यपि मुख्यं मानव व्यवहारकालस्य मासादेर्न सम्भवति तथापि वचनात् परिच्छेदहेतुत्वमानं साधर्म्यमुपादायोपचारात् कालः परिमाणम् । मासादयो जातादेः सम्बन्धिनीमादित्यगति परिच्छिन्दन्तीति जातस्यापि परिच्छेदहेतव उच्यन्ते । एकाश्रय इति निवृत्तम् । मासो जातस्य मासजातः। संवत्सरजातः। तासापवादोऽयम् । काला इति बहुवचननिर्देशः किमर्थः ? द्वे अहनी जातस्य द्वथहजातः । त्रिपदोऽपि षसो यथा स्यात् । “हृदर्थधु समाहारे।' [१२४६] इत्यवयवषसे “राजाहःसखिभ्यष्टः" [२३] इति टः । “एभ्योऽह्वोऽह्नः [४।२।६०] इति अह्लादेशः । यदा द्वयोरह्नोः समाहार इति विग्रहस्तदा "न समाहारे" [२।६१] इत्यहादेशप्रतिषेधः सिद्धः। द्वयहो जातस्य द्वयत्जातः । त्यहजातः । नन ॥१३६८॥ नञ् सुपा सह समस्यते घसो भवति । अब्राह्मणः । अधर्मः। असर्वज्ञः । अगौः। नेयं पूर्वपदार्थप्रधाना वृत्तिरलिङ्गासंख्यत्वप्रसङ्गात् । किञ्च पूर्वपदप्रधानो हस उक्तः । अमक्षिा कमिति । अन्यपदार्थप्राधान्ये तु अवर्षा हेमन्त इत्यत्र प्रादेशादि प्राप्नोति । अस्तूत्तरपदाथप्रधानेयं वृत्तिः । यद्ये वमगामानयेत्युक्त ऽगोमात्रस्यानयनं स्यात् । अथ स्वयमेव निवृत्तिपदार्थको गोशब्दः स नत्रा केवलं द्योत्यते । एवं सति न कस्यचिदानयनं स्यात् । नायं दोषः । द्वाविह गोशब्दो प्रवृत्तपदार्थको निवृत्तपदार्थकश्च । सारूप्यात्तयोर्भेदापरिज्ञाने निवृत्तपदार्थकस्य द्योतनार्थ नत्रःप्रयोगः प्रतिषेधे सत्युत्तरपदार्थसहशो वृत्यर्थो जायते । "नजिवयुक्तमन्यसइशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः" [परि०] इति वचनात् । श्रन्यपदार्थे तु परत्वादसो भवति । अशालिको देशः । अकारो नञोऽनित्यत्र विशेषणार्थः । वामनपुत्रादिष्वनादेशो मा भूत् । गुणोक्त्येषद् ॥१॥३॥६६॥ उच्यते इत्युक्तिः शब्दः । गुणशब्देन सह ईषच्छब्दः समस्यते पसो भवति । ईषत्कडारः। ईषत्पिङ्गलः । ईषद्विकटः । ईषदुन्नतः । ईषद्रतः। ईषत्पीतः। हृदुत्पत्तिः प्रयो १. वाणिजा । अपेहिवाणिजा । एहिस्वा-१०, ब०, स० । २. निषण्णरयामा मु.। For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० पा० ३ सू० ७०-७५ ] महावृत्तिसहितम् ५६ जनम् । गुणोक्त्येति किम् ? ईषत्कारकः । ईषद्गार्ग्यः । जात्येकार्थसमवायिक्रियागुणापेक्षया जातेरपि वृद्धिहासौ । ता || १३|७० ॥ तान्तं सुबन्तेन सह षसो भवति । मोक्षमार्गः । स्वर्गसुखम् । राजपुरुषः । कृति ॥ १|३|७१ || कृत्प्रयोगे या ता तदन्तं सुपा सह षसो भवति । "न प्रतिपदम् [१।३।७३ ] इति प्रतिषेधं वक्ष्यति । तस्यायं पुरस्तान्निरासः । इध्मनां ब्रश्वनः इध्मश्वनः । पलाशसातनः । विलवनः । श्मश्रुकर्त्तनः । करणे युट् । “कर्तृकर्मणोः कृति " [१।४।६८] इति ता । याजकादिभिः || १ | ३ |७२ || याजकादिभिश्च सह तान्तं समस्यते षसो भवति । पूर्वेण प्राप्तः तृजकाभ्यां कर्त्तरीति प्रतिषिद्धः पुनरनेन सः । देवानां याजको देवयाजकः । साधूनां पूजकः साधुपूजकः । याजक पूजक परिचारक परिवेषक स्नापक अध्यापक उद्वर्त्तक उत्सादक होतृ भर्तृ रथगणक पत्तिगणक । न प्रतिपदम् || १ | ३|७३ ॥ प्रतिपदं विहिता या ता तदन्तं न समस्यते । शेषलक्षणां तां मुक्त्वा सर्वाऽन्यता प्रतिपदविधाना । सर्पिषो ज्ञानम् । पयसो ज्ञानम् । "ज्ञो स्वार्थे करणे" [१|४|५८ ] इति ता । हापि धर्मानुस्मरणम् । धर्मचिन्तनमिति । " स्त्रर्थदयेश कर्मणि” [१|४|५९ ] इत्यनेन शेषलक्षणा तानूद्यते । वनस्वामी | वनेश्वरो विद्यादायाद इत्येवमादिषु “स्वामीश्वर०" [ १ ४/४७ ] आदि सूत्रे चकारेण शेषलक्षणा ता समुच्चीयते । निर्धार || १ | ३ |७४ || निर्धारणे या ता तदन्तं न समस्यते । जातिगुणक्रियाभिः समुदायादेकदेशस्य निष्कृष्य धारणं पृथक्करणं निर्धारणम् | क्षत्रियो मनुष्याणां शूरतमः । श्यामा नारीणां दर्शनीयतमा । कृष्णा व सम्पन्नक्षीरतमा | धावन्तोऽध्वगानां प्रितमाः । क्षत्रियादिशब्देन सह वृत्तिर्न भवति । “यतश्च निर्धारणम्" [ १।४।४१ ] इति चकारेण शेषलक्षणायास्तायाः समुच्चयः । प्रतिपदविधानत्वे हि पूर्वेणैव सिद्धः प्रतिषेध इतीदमनर्थकं स्यात् । इह पुरुषेश्वर इति शेषलक्षणा ता विवक्षिता न निर्धारणलक्षणा । उड् गुणतृप्तार्थं सत्तव्यैकद्रव्यैः || १ |३|७५ ॥ उदन्त गुणार्थं तृप्तार्थ सत्संज्ञ तव्य एकद्रव्य इत्येतैः सह तान्तं न समस्यते । तस्य पूरणे डडित्यतः प्रभृति तमटष्टकारेण डडिति प्रत्याहारः । चक्रधराणां पञ्चमः । तीर्थंङ्कराणां षोडशः । बलदेवानां नवमः । समुदायसमुदितसम्बन्धे शेषलक्षणा ता । गुणार्थ:- बलाकायाः शौक्यम् । काकस्य कार्यम् । कण्टकस्य तैदण्यम् । गुणगुणिसम्बन्धे ता । "एङि पररूपम् " [४३८१ ] इत्यत्र परस्य रूपं पररूपमिति वृत्तिपदं ज्ञापकं यो गुणद्वारेण पूर्व द्रव्ये वृत्तो भवत्यन्ते गुणमाह तेन गुणशब्देनेह प्रतिषेधः । यस्तु सर्वदा गुणवचनस्तेन वृत्तिर्भवत्येव । हस्तिरूपम् । कपित्थरस: । चन्दनगन्धः । अग्निस्पर्शः । गुणशब्देनेह लोकप्रसिद्धा रूपरसगन्धस्पर्शा गुणा अभिप्रेताः । ततस्तद्विशेष्यैरयं प्रतिषेधः तेन यत्नगौरवं सूत्रलाघवं करणपाटवं वचनप्रामाण्यं गोविंशतिरित्येवमादिषु न प्रतिषेधः । वृषलस्य धाष्टर्यमित्यत्र वृत्तेरनभिधानम् । तृतार्थः - फलानां तृप्तः । सक्तनां पूर्णः । फलानां सुहितः । सक्तूनां प्रीतः । "तृप्त्यर्थे तूपसंख्यानम्” [वा०] इति ता । सदिति शतृशानयोः संज्ञा । चोरस्य द्विषन् । “कर्तृकर्मणोः कृति” [१|४|६८ ] इति कर्मणि ता प्राप्ता "न झित ०" [१।४।७२ ] इत्यादिना प्रतिषिद्धः । “द्विषः शतुर्वा वचनम्" [ वा० ] इति ता । इह तु शेषलक्षणा ता । देवदत्तस्य कुर्वन् । देवदत्तस्य कुर्वाणः । तव्यः - देवदत्तस्य कर्तव्यम् । जिनदत्तस्य कर्तव्यम् । अत्रापि "व्यस्य वा कर्तरि" [१।४।७५ ] इति शेषलक्षणा ता । तव्येन केचिद्विकल्पमिच्छन्ति । देवदत्त कर्तव्यम् । एकं द्रव्यमस्य एकद्रव्यम् । राज्ञः पाटलिपुत्रकस्य । शुकस्य मारविदस्य (आचायस्य श्रीदत्तस्य पूर्वनिपातस्यानियमः प्रसज्येत । विशेषणादिसूत्रे इतिशब्दोऽस्ति तेन नीलस्योत्पलस्य नीलो 1 १. पूर्वनिपातस्येत्यादि न भवतीत्यन्तसन्दर्भस्यायमभिप्रायः "एक द्रव्ये तासाङ्गीकारे उभयोः पदयोस्तान्तत्वेन वोक्तत्वात्पूर्वनिपातस्यानियमः प्रसज्येत । ननु नीलस्योत्पलस्य नीलोत्पलस्येत्यत्र कद्रव्यत्वेन तास निषेधः कुतो न, गुणगुणिभावस्थले एकद्रव्यत्वानङ्गी For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० है सू० ७६-८१ त्पलस्येति । गुणगुणिसम्बन्धे सविधिर्भवति । एकद्रव्येण गुणगुणिविवक्षा नास्तीति विशेषणवृत्तिरपि न भवति । मिना प्रतिषेधो वक्तव्यः । देवदत्तस्य साक्षात् । देवदत्तस्योपरि । कर्मणि च ॥ १|३|७६ ॥ चकारोऽवधारणार्थः । कर्मण्येव या ता विहिता तदन्तं सो न भवति । आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन । रोचते मे श्रोदनस्य भोजनं देवदत्तेन । साधु खलु पयसः पानं जिनदत्तेन । “युट्” [२|३|१७] इति नन्भावै युट् । “कर्तृकर्मणोः कृति [ १।४।६८ ] इत्युभयत्र तायां प्राप्तायां " द्विप्रासौ परे " [१।४।६६] इति कर्मण्येव भवति । कर्तरि तु भा । कर्मण्येवेति किम् ? इध्मश्वनः । कर्तरि क्रेन || १ | ३|७७॥ कर्तरीति ताया विशेषणम् । कर्तरि या ता विहिता तदन्तं क्लान्तेन सो न भवति । अस्मिन्नास्यते स्म इदमेषामासितम् । इदमेषां यातम् । इदमेषां भुक्तम् । तयोरेव भावकर्मणोः क्के प्राप्ते "धिगत्यर्थाच्च " [२|४|१८] " अधिकरणे चाद्यच्च' [ २/४/२६] इति श्रधिकरणे क्तः । अधिकरणस्योक्तत्वात् । इदमित्येतस्मादीम्नास्ति " मडैकार्थे वा " [ १४/५४ ] इति वैव भवति । “कर्तृकर्मणोः कृति” [१।४।६८ ] इति ता प्राप्ता "न झितलोक" [१।४।७२ ] इत्यादिना प्रतिषिद्धा ' कस्याचिकरणे'' [१1४/७०] इत्यनेन एषामिति कर्त्तरि ता । एवं राज्ञां मतः राज्ञां बुद्धः, राज्ञां पूजितः “मतिबुद्धिपूजार्थाच्च [२/२/१६६ ] इत्यनेन वर्तमाने काले क्तो नियम्यते । स चेह कर्मणि कारके विहितः "कर्तृकर्मणोः कृति " [ १।४।६८ ] इति कर्तरि ता प्राप्ता "नति ० " [१/४/७२ ] इत्यादिना प्रतिषिद्धा भवतीत्यनेन सूत्रेण प्रत्यवस्थाप्यते । अथ यदा सकर्मकेभ्योऽधिकरणे क्तस्तदा कर्तृकर्मणोरनुक्तत्वात् " कस्याधिकरणे" [918/७० ] इत्यनेन या ता कर्तरि तस्याः प्रतिषेधः सिद्धः कर्मणि या ता तस्याः कथं वृत्तिप्रतिषेधः । इदमोदनस्य भुक्तमिति । नैष दोषः । कर्मणि चेति वर्तते तेनेह कर्त्तरि कर्मणि च ता क्तान्तेन न समस्यते । इह शेषलक्षणा ता । छात्रहसितम् । तृजकाभ्यां योगे || १ | ३२७८ ॥ कर्तरि या ता तदन्तेन सो न भवति । तृचैव कत्तु रुक्तत्वात् । तद्योगे - कर्तरि ता नास्ति । तृज्ग्रहणमुत्तरार्थम् । भवत श्रासिका । भवतः शायिका । भवतोऽग्रे गामिका । “पर्यायाखोत्पत्तौ वुण्” [२|३|६२] इति भावे स्त्रीलिङ्गे वुण् । “कर्तृकर्मणोः कृति” [१/४/६८ ] इति कर्तरि ता । कर्तरीत्येव । इक्षुभक्षिकां मे धारयसि । पूर्ववदुर । अत्रे शब्दात् कर्मणि ता "कृति" [ १।३।७१ ] इति तासः । मइति सम्प्रदानमेतत् । कर्तरि ||१३|७६ ॥ कर्तरि यौ तृजकौ ताभ्यां सह तान्तं न सो भवति । श्रपां स्रष्टा । पुरां भेत्ता । वज्रस्य भर्ता । याजकादिषु पतिपर्यायो भर्तृशब्दः । यवानां लावकः । सक्तूनां पायकः । कर्तरीति शक्यमकर्तुं तृचोsकस्य च कर्तरि विधानात् । नन्वकस्य भावेऽपि विधानमस्ति । सत्यम् । तद्योगे कर्तरि विहितायास्तायाः पूर्वेण वृत्त्यभावः सिद्धः सामर्थ्यादिह कर्तरि विहितस्याकस्य ग्रहणम् । तदेतत्कर्तृग्रहणं ज्ञापकं पूर्वप्रतिषेधो नित्यः श्रयम नित्यस्तेन तीर्थंकर्तारमर्हन्तमित्येवमादि सिद्धम् । तृनन्तेन वा "साधनं कृता” [१|३|२९ ] इति सः | कोडाजीविक योनित्यम् ॥१३॥८०॥ नेति निवृत्तम् । तृचः क्रीडाजीविकयोरसम्भवान्नानुवृत्तिः । क्रीडायां जीविकायाञ्च तान्तमकेन सह नित्यं षसो भवति । क्रीडायाम् - उद्दालकपुष्पभञ्जिका । भावे खुविषये वुण् । "कर्तृकर्मणोः कृति” [१/४/६८ ] इति कर्मणि ता । जीविकायम् - दन्तलेखकः । नखलेखकः । श्रवस्करसूदकः । क्रीडायां कृतीति विकल्पः प्राप्तः । जीविकायां कर्तरीति प्रतिषेधः प्राप्तः । क्रीडायां श्रारम्भादेव नित्यत्वं सिद्धं नित्यग्रहणं जीविकार्थमुत्तरार्थंञ्च । तिकुप्रादयः || १३२८१ ॥ तिसंज्ञाः कुशब्दः प्रादयश्च समर्थेन नित्यं षसो भवति । ऊरीकृत्य । ऊरीकृतम् । पटपटयकृत्य । प्रादिसाहचर्यात् कुशब्दो भिस ज्ञो गृह्यते । कुत्सितो ब्राह्मणः कुब्राह्मणः । ईषन्मधुरं काम कारात् । ननु भेन सः विशेषणं विशेष्येणेतिशब्दस्य क्वचिदन्यत्रापि विवक्षितस्थले समासार्थत्वेनातिशब्दबलेन सः । विशेषयवृत्तिस्तु न गुणगुणिवद्भावे विशेषणवृत्तेरप्यनङ्गीकारात् । " For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. पा. ३ सू० ८२-८६] महावृत्तिसहितम् धुरम् । "क्रियायोगे गि,ति" [१।२।१३०-१३१] इति प्रादयोऽपि क्रियायोगे तिसंज्ञा अक्रियायोगार्थ प्रादिग्रहणम् | स्वती पूजार्थकम् । शोभनः पुरुषः सुपुरुषः । अतिपुरुषः । अतिशयेन स्तुतं सुस्तुतम् । अतिक्रमण स्तुतमतिस्तुतम् । दुः पापाद्यर्थे । पापः पुरुषो दुष्पुरुषः। कच्छेण कृतं दुष्कृतम् । श्राङीषदाद्यर्थे । ईषत्कडार श्राकडारः। क्रियायोगे श्राबद्धमाभरणम् । प्रादय एवमात्मका यत्र क्रियापदं प्रयुज्यते तत्र क्रियाविशेषमाहः । यत्र न प्रयुज्यते तत्र ससाधनां क्रियामाहुरिति । "प्रादयो गताधर्थ च वयाः' [वा०] प्रगत श्राचार्यः प्राचार्यः । वृत्तिविषये प्रशब्दो गतशब्दस्यार्थ ससाधनमभिधत्ते । एवं प्रवृद्धो गुरुः प्रगुरुः। प्रपितामहः । सङ्गतार्थः समर्थः । “अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थ इपा" [वा. ] अतिक्रान्तः खट्वामतिखट्वः । उत्क्रान्तो वेलामुद्बलः। "अवादयः क्रुष्टाद्यर्थे भया" [वा.] अवक्रुष्टः कोकिलया अवकोकिलः । परिणद्धो वीरुद्भिः परिवीरुत् । "पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे अपा"[वा.] परिम्लानोऽध्ययनाय पर्यध्ययनः । उद्युक्तः संग्रामाय उत्संग्रामः । पर्यादिराकृतिगण इत्येके । अलं कुमारिः । “निरादयः क्रान्ताद्यर्थे कया'' [वा०] निःष्क्रान्तः कौशाम्ब्या निष्कौशाम्बिः । अपगतः शाखाया अपशाखः। लक्षणादिष्वर्थेष्वनभिधानादवृत्तिः । वृक्षं प्रति विद्योतते । वागमिङ ॥२३॥५२॥ वाक्संज्ञममिङन्तं समर्थेन नित्यं षसो भवति । कुम्भं करोतीति कुम्भकारः । शरलावः । अमिडिति किम् ? एधानाहारको व्रजति । "वुण्तुमौ क्रियाय तदर्थायाम् [२३] इति वुण। अमिङिति प्रतिषेधवचनं ज्ञापकमनयोर्योगः "सुप्सुपा'[१॥३॥३] इति नाभिसंबध्यते । एवञ्च सत्येतल्लब्धम् "तिवाकारकाणां प्राक् सुबुत्पत्तेः कृद्भिः सविधिः'' [परि० ] इति । इह माषवापिणी । व्रीहिवापिणी स्त्री। कृदन्तेन वृत्तौ "मृदन्तनुमविभक्त्याम्" [२१४६५] इति णत्वं सिद्धम् । अन्यथा सुबुत्पत्तिः स्त्रीत्येन बाध्येत । अश्वक्रीती च प्रयोजनम् । यदि सुबुत्पत्तेः प्राक् तिवाक्कारकाणां कृता वृत्तिः । अदःकृत्य तमोपहः राजश्रित इत्यत्र पूर्वस्य पदकार्य न स्यात् । "कायाः स्तोकादेः" ४ि३।१२१] इत्येवमादि अनुबिधानं चानर्थकं कचिदेव डीविधिणत्वादिविषये ज्ञापकात् सिद्धिः । मिनाऽमैव ॥१३॥३॥ पूर्वेण सिद्ध नियमोऽयम् । झिसंशकेनामन्तेनैव वागमिङ् षसो भवति। स्वादुझारं भुडत। लवणकारं भुङ्क्ते । स्वादर्थेषु वाक्षु "स्वादुमि णम्" [२॥१२] इति राम् भवति । स्वादमीति निर्देशात्यसन्नियोगे मान्तता निपात्यते। अमेवेति किम् ? कालो भोक्तुम् । समयो भोक्तुम् । 'कालसमयवेलासु तुम्वा" [२१३/१४३ ] इति तुम् । आरम्भादेव नियमः सिद्धः। झिनैवेति विपरीतावधारणे व्यावहँ नास्तीत्येयकारः किमर्थः ? अमैव यत् सह निर्दिष्टं वाक्सं तस्य वृत्तिर्यथा स्यात् । अमा चान्येन च यत् सह निर्दिष्टं तस्य मा भूत् । अग्रे भोजं गच्छति । अग्रेभुक्त्वा । प्रथमम्भोजम् । पूर्व भोजम् । "वाने प्रथमपूर्वे' [२।४।१०] इति क्त्वाणमौ विहितौ । झिनेति विस्पष्टार्थम् । व्यावाभावात् । वा भादि ॥१॥३॥८४॥ "उपदंशो भायाम्'' [२।४।३३] इत्यतः प्रभृति वाक्संज्ञ भादीत्युच्यते । भादीनि वाक्संशानि श्रमा सह वा समस्यन्ते षसो भवति । मलकोपदंशं भुक्त। "उपदंशो भायाम्" [२।४।३३] इति णम् । पाश्वापपीडम् । पार्श्वनोपपीडं पार्श्वे उपपीडं शेते। "ईपि चोपपीडरुधकर्षः', [२।१।३५] इति णम् । अमन्तेनेत्येव । पर्याप्तो भोक्तम् । प्रभु क्तुम् । “पर्याप्तिवचने अलमर्थे" [१] इति तुम् । एवकारो नानुवर्तते तेन भादिषु यदमा सह निर्दिष्टं वाक्संज्ञं यदमा चान्येन च सह निर्दिष्टं तदपि समस्यते । उच्चैःकारमाचष्टे उच्चैःकारं "भावनिष्टोक्तौ कृजः क्वाणमौ'' [२।४।४४] इति णम् । क्त्वा ॥१॥३॥८॥ क्त्वान्तेन सह वा भादि समस्यते घसो भवति । उच्चैःकृत्याचष्टे । उच्चैः कृत्वा । भादीत्येव । प्रदेशान्तरवाचो वृत्तिन भवति । अलं कृत्वा । अग्रे भुक्त्वा । अन्यपदार्थेऽनेक बम् ॥१॥३॥८६॥ वानिर्दिष्ट सुग्रहणमनुवर्तते । भानिर्दिष्टं निवृत्तम् । अन्यस्य पदस्यार्थे वर्तमानमनेकं सुबन्तं बसंज्ञकः सो भवति । चित्रगुः । लम्बकर्णः । दर्शनीयरूपः । अन्यग्रहणं किम् ? स्वपदाथें बसो मा भूत् । लम्बश्च स कर्णश्च स लम्बकर्णः। पदग्रहणं किम् ? अन्यवाक्यार्थे मा भूत् । For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ भ० १ पा० ३ ० ८७-३१ ग्रहणं किमर्थम् ? यावता शब्दे कार्यस्यासम्भवादर्थे कार्य विज्ञास्यते । अन्यपदार्थस्य ये लिङ्गसंख्ये ते यथा स्यातामित्येवमर्थम् । बहुयवं कुलम् | बहुयवा भूमिः । बहुयवौ । बहुयवाः । वाविभक्त्यन्ते अन्यपदार्थे वृत्तिर्न भवत्यनभिधानात् । श्रनेकग्रहणं बहूनामपि प्रापणार्थम् । सामानाधिकरण्याभावेऽपि बसो भवति । कण्ठेकालः । उरसिलोमा । उच्चैर्मुखो देवदत्तः । श्रस्तितीरा गौः । भीनामसंख्यत्वादसामानाधिकरण्यम् । इहाभिधानाभावान्न भवति । पञ्चभिर्भुक्तमस्य । सामानाधिकरण्येऽप्यनभिधानम् । पञ्च भुक्तवन्तोऽस्य । नपा निर्देशः किमर्थः ? उन्मत्तगङ्गम् । लोहितगङ्गम् । "खावन्यपदार्थे' [१|३|१८ ] इति हस एव भवति । इह वीरपुरुषको ग्राम इति परत्वादवसः प्रसस्य बाधकः । शस्त्रीश्यामा देवदत्तेत्येवमादिषु "यश्चैकाश्रये” [१|३|४४] इति प्रकृतमस्ति तेन बसस्य बाधः । “प्रादयो गताद्यर्थे वया” [वा०] इत्येवमादि वार्त्तिकवचनं प्रमाणम् । तेन निष्कौशाम्बिरित्येवमादिषु बसो न भवति । "ईबुपमानपूर्वस्य द्युखं वक्तव्यम्" [वा०] उदरे स्थितो मणिरस्य उदरेमणिः । "षे कृति बहुलम् ' [ ४ | ३ | १३२ ] इति ईपोऽनुप् । उष्ट्रमुखमिव मुखमस्य उष्ट्रमुखः। उपमानावयवत्वादुष्ट्रोऽप्युपमानम् । इह केशचूड़ः सुवर्णालङ्कारो देवदत्तः इति केशसम्भारे केशशब्दः । "सुवर्णविकारे सुवर्णशब्दो वर्तते । सङ्गतार्थः समर्थ इति निर्देशादेवंजातीयस्य वा खं द्रष्टव्यम् । प्रपतितपर्णः प्रपर्णः । श्रविद्यमानभार्यः भार्यः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 संख्येये संख्या भयासन्नादूरसंख्यम् ||१|३| ७ || सख्येये या संख्या वर्तते तया भिन्न श्रदूर इत्येतानि संख्या च बसो भवति । अनन्यार्थार्थ वान्तेऽप्यन्यपदार्थे प्रापणार्थञ्च । समीपे दशानामिमे उपदशाः । उपविंशाः । समीपप्राधान्ये तु हसः । श्रसन्ना दशानामिमे श्रासन्नदशाः । श्रासन्नविंशाः । अदूरदशाः । श्रदूरचत्वारिंशाः । द्वौ वा त्रयो वा इमे द्वित्राः । त्रयो वा चत्वारो वा इमे त्रिचतुराः । "नवि सूप त्रिभ्यश्चतुरः " [ ४।२।७५ ] इति ग्रस्त्यो निपात्यते । त्रिर्दश इमे त्रिदशाः । वृत्त्यैवाभ्यावृत्तेरुक्तत्वात् सुचोऽप्रयोगः । संख्यासंज्ञाविधानेऽधिकशब्दस्यापि संख्यात्वमुक्तम् । अधिका दशानामिमेऽधिकदशाः । संख्येय इति किम् ? अधिका विंशतिर्गवाम् । संख्ययेति किम् ? पञ्च पदार्थाः । भयासन्नादूरसंख्यमिति किम् ? पार्थिवाः पञ्च । दिशोऽन्तराले ||१|३|८|| दिच्छन्दाः सुबन्ता अन्तरालवचने बसंज्ञकः सो भवति । अन्तराल एव यथा स्यादिति नियमार्थ आरम्भः । दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं दक्षिणपूर्वा । "सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पूर्वपदस्य पुंवद्भावः " [वा०] इति पुंवद्भावः । उत्तरपदस्य "स्त्रीगोनी' च: " [१1१1८] इति प्रादेशः । अन्तरालदिशः स्त्रीलात् पुनष्टाप् । अनेकमित्यनुवर्त्तनात् न्यक्संज्ञायां द्वयॊः पर्यायेण पूर्वनिपातः । एवं दक्षिणपरा । उत्तरपरा । उत्तरपूर्वा । प्रसिद्धानां दिक्कब्दानां ग्रहणादिह न भवति । वारुण्याश्च कौबेर्याश्च दिशोरन्तरालम् । तदमिति सरूपे ||११३८६ ॥ तत्रेति ईवन्ते द्वो सरूपे इदमित्येतस्मिन्नर्थे बसो भवति । इतिकरणात् ग्रहणविशिष्ट युद्धे विवक्षा । केशेषु केशेषु च गृहीत्वा इदं युद्ध वृत्त केशाकेशि | कचाकचि । “ञ इच्” [४।२।२८] इति इच् सान्त इजिति तिष्ठद्ग्वादौ हसंज्ञार्थ पठ्यते । "श्रन्यस्यापि " [४/३/२३२ ] इति पूर्वपदस्य दीत्वम् । अत्र सापेक्षत्वात् पूर्वेण वृत्तिर्न प्राप्नोति । सरूपे इति किम् ? केशेषु च कचेषु च गृहीत्वा इदं युद्ध वृत्त म् । तेन ॥ १३ ॥ ६०॥ इदमिति सरूपे इति वर्तते । तेनेति भान्ते सरूपे इदमित्येतस्मिन्नर्थे वसो भवति । इतिकरणानुवृत्तेर्यत्तेनेति निर्दिष्ट प्रहरणं चेत्तद्भवति । दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहृत्येदं युद्धं वृत्तं दण्डादण्डि । मुसलानुसलि । सरूपे इत्येव । दण्डैश्च कमण्डलुभिश्च प्रहृत्येदं युद्ध वृत्तम् । योगविभाग उत्तरार्थः । सहेति तुल्ययोगे ||१३|११|| तुल्ययोगः समानक्रियादियोगः । तेनेति वर्तते । सह इत्येतत् सुबन्तं तुल्ययोगे वर्तमानं तेनेति भान्तेन सह समस्यते बसो भवति । सह छात्रेण सच्छात्र श्रागतः । सशिष्यः । For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ प ३ सू० ११-१७] महावृत्तिसहितम् ६३ सपुत्रः । “वा नीच:" [४|३|११०] इति सहशब्दस्य सादेशः । तुल्ययोग इति किम् ? प्रत्यहं सह शान भारं वहति रासभी । विद्यमानताऽत्र सहार्थः । श्रद्य नैव सिद्धे हसनिवृत्त्यर्थे कबभावार्थञ्च वचनम् । इति - शब्दो योगविभागार्थः । तैनातुल्ययोगेऽपि क्वचिद्वसः का च । तेन सकर्मकाच्चरेर्दो भवति । सपक्षको वादी बत इत्यादि सिद्धम् । अत्र हि खरेरेव देन योगो न कर्मणः । तथा वादिन एव च तेन योगो न पक्षस्य । चार्थे द्वन्द्वः ||१|३|६२॥ चकृतोऽर्थश्चार्थः । तस्मिन् वर्तमानमनेकं सुचन्तं द्वन्द्वसंज्ञः सो भवति । चत्वारश्चार्थाः । समुच्चयोऽन्वाचय इतरेतरयोगः समाहारश्चेति । तत्रानियतक्रमयौगपद्यानां द्वयादिवस्तूनामेक त्राभ्यारोपः समुच्चयः । यथा " गामश्वं पुरुषं पशुमहरहर्नयमानो वैवश्वतो न तृप्यति, सुरया इव दुर्मदी । " गुणप्रधानभावमात्रविशिष्टः समुच्चय एवान्वाचयः । यथा भिक्षामट गां चानयेति । इतरेतरयोगसमाहारावपि समुच्चयस्य भेदौ । परस्परं सापेक्ष णामवयवभेदानुगत इतरेतरयोगः । अनपेक्षिता अवयवभेदाः संहतिप्रधानाः समाहाराः । श्राद्ययोश्चमन्तरेणापि क्वचित् प्रयोगात् । असामर्थ्याच्च नास्ति सविधिः । इतरेतरयोगे । प्लक्षन्यग्रोधौ छायां कुरुतः । समाहारे प्लक्षान्यग्रोधं सिध्यति । वाक्त्वचम् । वाग्दृषदम् । छत्रोपानहम् । इह द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिशद्गणितैत्येवमादिषु समाहारेऽपि लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादिति नपुंसकत्वाभावः । द्वन्द्वप्रदेशः 'द्वन्द्वाच्चुदहषो राधे'' [ ४।२।१०८ ] इत्येवमादयः । वो यक् ॥ ११३॥६३॥ सलक्षणसूत्रेषु वानिर्दिष्टं न्यक् संज्ञ भवति । तस्य प्रयोजनं पूर्वमित्यनेन पूर्वनिपातः । अधिस्त्रि । अधिकुमारि । भीति वोक्तम् । कष्टश्रितः । इबिति वोक्तम् । शङ्कुलाखण्डः । भेति वोक्तम् । एवं सर्वत्र बोद्धव्यम् । वसेऽनेकं सुबन्तं तस्य पूर्वनिपातनियममुत्तरत्र वक्ष्यति । इह राज्ञः रुति इति यत् प्रति यदप्रधानं तत् प्रति तन्न्यक्संज्ञ भवति । कथमयं विभागो लभ्यते । न्यगितीयमन्वर्थसंज्ञा । नीचैरञ्चतीति न्यगप्रधानमित्यर्थः । एकविभक्ति ||१|३|१४|| विभक्तिशब्दः पूर्वाचार्येष्टो निर्दिष्टः एका विभक्तिर्यस्य तन्त्र्य संज्ञ भवति । निष्कौशाम्बिः । निर्मथुरः । "परम्" [ ११३६२] इत्यनेन परनिपातार्थमेतत् । प्रादेशस्तु "स्त्रीगोर्नीच:' [१।१।१] इत्यत्र अन्वर्थस्य नीचः समाश्रयणात् सिद्धः । परम् ॥ १|३|१५|| एकविभक्ति न्यसंज्ञः परं प्रयोक्तव्यम् । पूर्वमित्यनेन पूर्वनिपाते प्राप्तेऽपवादः । इह धर्म श्रितः । धर्मं श्रितेन धर्मश्रिताय इत्येवमादिषु "वोक्तम्" [४|३|११० ] इत्यनेनैव न्यकसंज्ञा भवत्यनवकाशत्वात्ततस्तदाश्रयः पूर्वनिपातः । राजदन्तादौ ||१|३|६६ ॥ राजदन्तादिषु न्यक् परं प्रयोक्तव्यम् । उत्तरसूत्रैः प्राप्तस्य पूर्वनिपातस्यापवादोऽयम् । दन्तानां राजा राजदन्तः । वनस्या अग्रेवणम् । गणपाठादनुप् । लिप्तवासितं नग्नमुषितम् श्रवक्लिन्नपक्क सिक्नसंमृष्ट भृष्टलुञ्चितम् अर्पितोप्तम् उतगाढमेतेषु' पूर्वकालस्य परनिपातः । उलूखलमुसलं तन्दुलकिण्वम् । श्रारग्वायनिबन्धकी। चित्ररथबाहूलीकम् । अवन्त्यश्मकम् । शूद्रार्यम् । स्नातकराजानौ । विष्वक्सेनार्जुनौ । अचि भ्रुवम् । दारगवम् । शब्दार्थो । धर्मार्थौ । कामार्थौ । ऋतु व्यत्ययोऽपि । शब्दौ । अर्थधर्मौ । श्रर्थकामौ । वैयाकरणमतम् । भोजवाजौ । गोपालधानीपूलासम् । पूलासकरण्डम् | उशीरबीजम् । सिञ्जस्थम् । शिक्षास्त्री | चित्रास्वाती । भार्यापती । जायापती । जम्पती । दम्पती । जायाशब्दस्य जम्भावो दम्भावश्च निपात्यते । पुत्रपती । पुत्रपशू । केशश्मश्रुः । शिरोबिन्दु | सपिर्मधुनी । मधुसर्पिषी । श्राद्यन्तौ । अन्तादी | गुणवृद्धी । वृद्धिगुणौ । पूर्वम् ॥१३॥६७॥ न्यगिति वर्तते । न्यक्संज्ञ पूर्व प्रयोक्तव्यम् । वाक्यवद् वृत्तावनियमो मा भूदि - त्यारम्भः । उक्तान्युदाहरणानि । यत्र द्वे अपि तान्ते राज्ञः पुरुषस्येति तत्र कस्य न्यक्त्वं न्यगित्यन्वर्थसंज्ञाश्रयणाद्राजशब्दस्य । १, सर्वकालस्य ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [.. पा० ३ ० १८-१०५ द्वन्द्धे सुः ॥१॥३६॥ द्वन्द्वे से स्वन्तं पूर्व प्रयोक्तव्यम् । मुनिगुप्तौ । यदुगुप्तौ। अनेकप्राप्तावनियमेन मुनिपटुगुप्ताः। पटुमुनिगुप्ताः । पटुगुप्तमुनयः । न्यगित्यन्वर्थसंज्ञा । द्वन्द्वे च न कस्यचिदप्राधान्यमित्यप्राप्ते पूर्वनिपात इदं सूत्रम् । अजाद्यत् ॥१॥३॥६६॥ अजादि अदन्तं शब्दरूपं द्वन्द्व से पूर्व प्रयोक्तव्यम् । इन्द्रचन्द्रौ । उष्ट्रखरम् । उष्ट्रशशम् । इह इन्द्राग्नी । इन्द्रवा) इति सुलक्षणात् परत्वादनेन पूर्वनिपातः । उभयत्र वायोः प्रतिषेध इति आनङ्न भवति । बहुष्वनियमेन इभरथाश्वम् । अश्वरथेभम् । तपरकरणं किम् ? वृक्षाश्वे । श्रश्वावृक्षो। अल्पान्तरम् ॥१॥३॥१००।। अल्पान्तरं शब्दरूपं द्वन्द्वे पूर्व प्रयोक्तव्यम् । धवखदिरौ। धवाश्वकणंम् । "बहुष्वनियमः" [बा०]। वीणादुन्दुभिशाः । शङ्खदुन्दुभिवीणाः । "ऋतुनक्षत्राणां समानाक्षराणामानुपूयण वक्तव्यम्' [वा०] । शिशिरवसन्तौ। हेमन्तशिशिरवसन्ताः। अश्विनीभरण्यः। कृत्तिकारोहिण्यः । समानाक्षाणामिति किम् ? ग्रीष्मवसन्तौ । "यक्षरस्य पूर्वनिपातो वक्तव्यः'' [वा०]। कुशकाशम् । तृणकाष्ठम् | "वर्णानामानुपूर्येण" [ वा०] | ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः । 'भ्रातुश्च ज्यायसः" [वा०] युधिष्ठिराजु नौ । "संख्याया अल्पीयसो वाचिकायाः" [वा०] द्वित्राः । एकादश । नवतिशतम् । “अभ्यर्हितस्य च' [वा०] मातापितरौ । श्रद्धामधे । दीक्षातपसी । ईब्विशेषणे घे ॥१॥३॥१०१॥ ईबन्स विशेषणं च बसे पूर्व प्रयोक्तव्यम् । बसे अनेकं सुबन्तं न्यसंशमित्यनियमे प्राप्तेऽयमारम्भः । कराठेकालः। उरसिलोमा। उदरेमणिः । बहेगडुः । "कामेऽमर्धमस्त. कात् स्वाङ्गम् [१३१३१] इत्यनुप । चित्रगुः। लम्बकर्णः। "सर्वनामसंख्ययोः पूर्वनिपातो वक्रव्य:' [पा०] । सर्वे श्वेतमस्य सर्वश्वेतः । सर्वगौरः । द्विशुक्लः । द्विकृष्णः । सर्वनामसंख्ययोः परस्परं वृत्तिः । वाक्ये संख्यायाः परत्वात् पूर्वनिपातः । द्वयन्यः । त्र्यन्यः । “वा प्रियस्य' [वा.] । प्रियदधिः । दधिप्रियः । कथं गडुकण्ठः । गडुशिराः । अाहिताग्न्यादिषु द्रष्टव्यः । तः॥१॥३॥१०२॥ तान्तं बसे पूर्व प्रयोकव्यम् । कृतकटः । भिक्षितभिक्षः। अवमुक्तोपानत्कः । तान्तस्य विशेषणत्वेनाविवक्षितत्वात् पूर्वेण न सिध्यति । कथं क्वचिजातिकालसुस्वादिभ्यश्च तान्तस्य परप्रयोगः (जातः)। सारङ्गजग्धी। पलाण्डुमक्षिती। कालात्-मासजाता। संवत्सरजाता। सुखादिभ्यश्च-सुखं जातं यस्याः सुखजाता। दुःखजाता । वाऽहिताग्न्यादिषु व्यवस्थयेदं भविष्यति । प्रहरणार्थेभ्यः परे वेपो वक्तव्ये । उद्यतोऽसिरनेन अस्युद्यतः । मुसलोद्यतः । असिः पाणावस्य असिपाणिः । दण्डपाणिः । कथमुद्यतगदः । उद्यतासिः । इदमपि वेति सिंहावलोकनात् । वाऽऽहिताग्न्यादौ ॥१॥३।१०३॥ श्राहिताग्न्यादिधु बसे तान्तं वा पूर्व प्रयोक्तव्यम् । श्राहिताग्निः । अग्न्याहितः। एवं जातपुत्रः । जातदन्तः । जातश्मश्रुः । तैलपोतः। घृतपीतः। मद्यपोतः। ऊढभायः । अर्थगतः। आकृतिगणोऽयम् । तेनेष्टयो न वक्तव्याः। ये कडाराः ॥१॥३१०४॥ ये कडायदयो वा पूर्व प्रयोक्लव्याः । कडारश्च स भद्रश्च स कडारभद्रः । भद्रकडारः । विशेषणस्य "वोक्तं व्यक्' [१॥३॥६३] पूर्वनिपातः प्राप्तो विभाष्यते । कडार गडुल कूट काण खज कुण्ट खोड खलति गौर वृक्ष भिक्षुक पिङ्गल तनु नट बधिर । ___ उत्तरपदं धु ॥॥३॥१०॥ से यदुत्तरपदं तद्य संज्ञ भवति । पञ्चगवधनः। द्यौ परतः "इद (थ) धु समाहारे''[३४६] इति पूर्वस्य (स) संज्ञायां टः सान्तः सिद्धः । एवं द्वे अहनी जातस्य द्वथहजातः । "काला मेयः' इति समुदायस्य षसंज्ञा द्यौ परतः पूर्वस्यापि षसंज्ञायां टः सान्तः ।। इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य तृतीयः पदः समाप्तः । For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ अ० १ पा० ४ सू० १-४ ] महावृत्तिसहितम् अनुक्ते ॥ १४९ ॥ श्रनुक्त इत्ययमधिकारः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्याम अनुक्त इत्येवं तद्वेदितव्यम् । स्वार्थद्रव्यलिङ्गानि त्रिको मृदर्थं इति श्रस्मिन् दर्शने स्वार्थिकाष्टाबादयः संख्या कर्मादयो विभक्त्यर्थाः । एवं च "कर्मणीपू” [१।४।२ ] इत्येवमादीनां "साधने स्वार्थे” [१।२।१५३] इत्येतस्य च गुणप्रधानभावेनैक्यता | स्वार्थैकत्वादिविशिष्टेषु कर्मादिष्वनुक्तेष्विवादयो भवन्ति । श्रथवा श्रनुक्तकर्माद्याश्रयेष्वेकत्वादिष्विवादयो भवन्ति । इह परिसंख्यानमिति केचित् । मिङकृत्सैरनुक्त कर्मादाविति । वक्ष्यति "कर्मणीप्” [१|४|२] | कटं करोति । श्रोदनं भुङ्क्क्क े ! अनुक्ते इति किम् ? क्रियते कटः । मिङोक्तं कर्म । कृतः कटः । कृतोक्तं कर्म । श्राद्धिको देवदत्तः । “श्राद्ध' मुक्तं ठोऽनेन" [४|१|१८ ] इति ठः । हृतोक्तः कर्ता । शतेन क्रीतः । “शतास्वार्थेऽसे ठयौ' [३४] १८ ] इति यः । हृतोक्तं करणमिति । कर्तरि करणे च भा न भवति । प्राप्तमुदकं यं ग्रामं स प्राप्तोदको ग्रामः । सेन कर्मोक्तम् । मिङ कुट्टत्तैरिति परिसं ख्यानं किम् ? कटं करोति भीष्ममुदारं दर्शनी यम् । अत्र कटशब्दादुत्पद्यमानया इपा उक्ते कर्मणि भीष्मादिभ्य इम्न स्यात् । तदेतत्परिगणनमयुक्तम् । कोsपि कर्म भीष्मादयोऽपि न ह्यसौ कटमात्रे सन्तोषं करोतीत्यनेकं कर्म गृह्यते । समुदायस्य चामृत्त्वात् प्रत्यवयवाद्विभक्त्युत्पत्तिः । इह श्रासने आस्ते शयने शेते इति श्रन्यो ह्यधिकरणप्रत्ययः सामान्येन युटाऽभिहितो अन्यश्व विशेषरूपेण विभक्त्योच्यते इति न दोषः । कर्मणी ||१४|२|| कर्मणि कारके अनुक्त इब् विभक्तिर्भवति । कटं करोति । ग्रामं गच्छति । आदित्यं पश्यति । श्रविशेषेण ड्याम्मृदः स्वादयो वक्ष्यन्ते । तन्नियमो ऽयं कर्मादिष्वेव इवादयो भवन्ति । बायो नियताः । कर्मादयस्त्वनियताः । तेषु ताऽपि प्राप्नोति । तत इदमुच्यते "ता शेषे " [११४/१७ ] इति शेषे ता भवति' नोक्ते कर्मादौ । अन्तरान्तरेण योगे || १ |४|३|| प्रतिपदोक्तत्वादिहान्तरान्तरेणशब्दौ निसंज्ञौ ताभ्यां योगे इब्बिभकोर्भवति । अन्तरा गन्धमादनं माल्यवन्तञ्च कुरवः । कुरुविशेषणत्वेन तायां प्राप्तायामिब्विधीयते । कुरुशब्दार्थे वर्तमानात् मृदर्थातिरेकाभावात् इम्न भवति । अन्तराराब्दो मध्यमाधेयप्रधानं व्रते । अन्तरेणशब्दः तच्च विनार्थं च । अन्तरेण सौमनसं विद्युत्प्रभञ्च 'देवकुखः । मोक्षमन्तरेण नात्यन्तिकं सुखम् । निसंज्ञयहणादिह न भवति । अन्तरायां पुरि वसति । किं ते धात्रवाणां सालङ्कायनानां चान्तरेण गतेन । योग इति किम् ? अन्तरा तक्षशिलाञ्च पाटलिपुत्रञ्च सुघ्नस्य प्राकारः । ननु पदविधिरयं अन्तराशब्दे सामर्थ्यात् स्रुघ्नशब्दाग्नि भविष्यति योगग्रहणमनर्थकम्। कचिदन्यैरपि योगे यथा स्यादित्येवमर्थम् | "अभितः परितः समयानिकषाद्दाप्रतियोगेषूपसंख्यानम्' [वा०] अभितो ग्रामम् । परितो ग्रामम् । समया ग्रामम् । निकषा ग्रामम्। हा देवदत्तम् । वृणीष्व भद्रे प्रतिभाति चेत्त्वम् । बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चित् । "उभसवंतसोः कार्यो पिर्यादिषु त्रिषु । कृतद्वित्वेष्विपा योगस्ततोऽन्यत्रापि दृश्यते" [वा०] उभयतो ग्रामम् । सर्वतो ग्रामम् । धिग्देवदत्तम् । उपर्यादिष्विति सूत्रोपलक्षणम् । सामीप्येऽवोऽध्युपरि ['उपर्यध्यवसः सामीप्ये" ] [ ५३५] इति द्वित्वे कृते त्रयाणां ग्रहणम् । अधोऽधो ग्रामम् । उपर्युपरि ग्रामम् | अभ्यधि ग्रामम् । “अन्यत्राऽपि दृश्यते" [वा०] विना धर्म कुतः सुखम् । श्रपि शब्दान्न च दृश्यते । हा तात हा पुत्र वत्सल । । कालाध्वन्यविच्छेदे ॥ १।४/४ ॥ विच्छेदोऽत्यन्तसंयोगः । द्रव्यगुणक्रियाभिः कार्त्स्न्येन कालाध्वनोः सम्बन्ध इत्यर्थः । कालाध्वनोरविच्छेदे वर्तमानयोः सतोरिय् भवति । श्रन्यस्याश्रुतत्वात् कालाध्ववाचिभ्यामेवाधिकरणविवक्षायामपि प्राप्तायां तदविवक्षायां सम्बन्धलक्षणायां तायां प्राप्तायामयं विधिः । कालस्य द्रव्येण योगे—मासं गुडापूपाः । संवत्सरं क्षीरोदनम् । गुणेन- शरदं मथुरा रमणीया । मासं कल्याणी काञ्ची । क्रियया - मासमधीते । संवत्सरमधीते । अध्वनो द्रव्येण योगे-क्रोशं सिकताः । योजनं वनराजिः । गुणेन I १. कर्मवेन विवक्षायां नेत्यर्थः । २. - म्वान्तरा कुरवः मु० । ३. - दिम्न भवति ब०, स० । ε For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ४ सू० १-११ क्रोशं कुटिला नदी । योजनं दीर्घः पर्वतः । क्रियया - क्रोशमधीते । योजनमधीते । श्रविच्छेद इति किम् ? मासस्य द्विरधीते । क्रोशस्यैकदेशे पर्वतः । सिद्धौ भा ||१|४|५|| अविच्छेद इति वर्तते । सिद्धिः क्रियाफलनिष्पत्तिः । श्रविच्छेदे यो कालाध्वानौ तद्वाचिभ्यां भा भवति सिद्धौ गम्यमानायाम् मासेन प्राभृतमधीतम् । योजनेन प्राभृतमधीतम् । सिद्धाविति किम् ? मासमधीतं प्राभृतं न चानेनावधारितम्। नात्र क्रिया फलनिष्पत्तिरस्ति पूर्वेण इमेव भवति । क्रियामध्ये केपी || १ |४| ६ || कालाध्वनीति वर्तते । क्रिययोर्मध्ये यौ कालाध्वानौ ताभ्यां केपौ विभक्त्यौ भवतः । भुक्वा मुनिद्वाद्भोक्ता द्वय भोक्ता । इहस्थोऽयमिष्वासः क्रोशाद् विध्यति क्रोशे विध्यति चापाच्छरस्य निर्गमनं धानुष्कावस्थानं वा एका क्रिया द्वितीया व्यधनक्रिया तयोर्मध्ये कोशशब्दात्ता 1 लक्ष्यम् प्राप्ता । पूजायां न गति ||१ |४| ७ || सुशब्दः पूजायामर्थं गिसंज्ञस्तिसंशश्च न भवति । सुस्थितं भवता । सुक्ति भवता | सिंज्ञाश्रयं षत्वं न भवति । तिसंज्ञाप्रतिषेधे यद्यपि तिसंज्ञाश्रयः सविधिर्न भवति, तथापि प्रादिलक्षणो भविष्यति । स्वती पूजायामिति वचनात् । सुसिच्य गतः । तस्मादुत्तरार्थं तिसंज्ञाप्रतिषेधवचनम् । पूजायामिति किम् ? सुषिक्तं किं तवाऽत्र । अतिक्रमे चातिः ||१||८|| अतिक्रम आधिक्यम् । अतिक्रमे पूजायाञ्चातिशब्दो गितिसंज्ञो न भवति । अतिसिक्कमेव भवता । तिस्तुतमेव भवता । गितिसंज्ञाश्रयः प्रादिलक्षणश्च सविधिर्न भवति । प्रतिक्तित्वैव गतः । पूजायाम् -- अतिरिक्त मतिस्तुतं भवता । स्वती पूजायामिति प्रादिलक्षणः सविधिः । प्रतिसिच्य गतः । “प्यस्तिवाक्से क्त्व : " [५।१।३१] इत्यत्र तिग्रहणमुपलक्षणं प्रादिसेऽपि प्यादेशः । पदार्थ संभावनाऽनुज्ञागहसमुच्चयेऽपिः || १ |४| ९ || अप्रयुज्यमानस्य पदस्यार्थः पदार्थः । संभावनं सामर्थ्याविष्करणम् । अनुज्ञा श्रभ्युपगमः । गर्दा निन्दा | एकत्रानेकस्य नियोजन समुच्चयः । एतेष्वर्थेष्वपिर्गितिसंज्ञो न भवति । पदार्थे - सर्पिषोऽपि स्यात् । पयसोऽपि स्यात् । बिन्दुः स्तोकं मात्रा चेत्यस्यार्थेऽपिशब्दः । सम्बन्धे च ता । संभावने - श्रपि सिञ्चेन्मूलकसहस्रम् । अपि स्तुयाद्राजानम् । अनुज्ञायाम् — अपि सिञ्च । अपि स्तुहि । अतिसर्गे लोट् । गर्हायाम् धिग् ब्राह्मणमपि सिञ्चेत्पलाण्डुम् । अपि स्तुयाद्वृषलम् | “अनवक्लृप्त्यमपै” [२|३|१२१] इति लिङ् । समुच्चये - अपि सिञ्च । अपि स्तुहि । सिञ्च च स्तुहि चैत्यर्थः । गिसंज्ञाश्रयं त्वादिकार्य न भवति । अधिपरी अनर्थको || १ |४|१०|| अनर्थका वनर्थान्तरवाचिनौ । अधि परि इत्येतौ नर्थको गितिसंज्ञौ न भवतः । कुतोऽध्यागतः । कुतः पर्यागतः । गितिसंज्ञाश्रयं सविधानं न भवति । "प्राग्घोस्ते” [ १/२/१४९ ] इति प्रयोगनियमश्च न भवति । इह च पर्यानामति गत्वं न भवति । वसेत्थम्भूतलक्षणेऽभिने || १|४|११ ॥ न गितिरिति वर्त्तते योग इति च । वीप्सा इत्थम्भूत लक्षण इत्येतेष्वर्थेषु अभिना योगे इविभक्ती भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । वीप्सायाम् वृक्ष वृक्षमभिसिञ्चति । इत्थम्भूते - साधुर्देवदत्तो मातरमभिस्थितः । इत्थम्भावोऽभिना गम्यते । लक्षणे -- वृक्षममिसिञ्चति । वृक्षमभिविद्योतते । गितिसंज्ञाप्रतिषेधात् पलं "प्राग्धोस्ते " [१।२।१४१] इति नियमश्च न भवति । भागे चानुप्रतिपरिणा ||१|४|१२|| मागेऽर्थे वीप्सेत्थम्भूतलक्षणेषु च अनु प्रति परि इत्येतैर्योगे इब् भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । भागोऽत्रांशः । यदत्र मामनुस्यात् मां प्रति स्यात् मां परि स्यात् तद्दीयताम् । वसायाम् - वृक्ष वृक्षम् अनुसिञ्चति प्रतिसिञ्चति परिसिञ्चति । इत्थम्भूते - साधुर्देवदत्तः मातरम १. सु ब०, मु० । २. चाति अ०, स० । ३. येऽपि स० । ४. पर्यानतमिति ०, ब०, स० । ५. वृक्षमभिसजति अ०, ब०, स० ॥ For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ४ सू० १३-२२ ] महावृत्तिसहितम् नुस्थितः मातरं प्रति मातरं परि । लक्षणे-वृक्षमनुसिञ्चति प्रतिसिञ्चति परिसिञ्चति । वृतं प्रति विद्योतते। एतेष्विति किम् ? अोदनं परिषिञ्चति । अनुप्रतिपरिणति किम् ? यदत्र मामभिष्यात् । श्रभेर्भागे गितिसंज्ञा भवत्येव सगित्वात् सकर्मकत्व कर्मणीप षत्वं च भवति । हेतावनुना ॥१४॥१३॥ हेतावर्थे अनुना योगे इविभक्ती भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । जिनस्य ज्ञानोत्पत्तिमन्वागमन्सुराः । सुराणामागमनस्य जिनज्ञानोत्पत्तिहेतुः । एवं शान्ति चरितपट्टकप्रसारणमनु प्रावपन् पर्जन्यः ।) यदपि इत्थम्भूते लक्षणे वार्थेऽनुना योगे सिद्ध वेप तथापि येन नाप्राप्तन्यायेन शेषलक्षणायास्तायाः सोऽपवादः । हेत्वर्थे तु परत्वाद्भा प्रसज्येत तद्वाधनार्थमिदम् । भार्थे ॥१॥४॥१४|| भार्थः सहशब्दस्यार्थः। भार्थेऽनुना योगे इब् भवति गितिसंज्ञा प्रतिषेधश्च । नदीमन्ववसिता सेना । नदीमन्ववसिता नगरी । नद्या सह सम्बद्धेत्यर्थः । एवं पर्वतमन्व. वसिता सेना । ___ हीने ॥१३॥१५॥ अनुनेति वर्तते। हीनार्थे द्योत्ये अनुना योगे इब् भवति गितिसंज्ञाप्रतिषेधश्च । उत्कृष्टापेक्षया हीनो भवतीति सामर्थ्यादुत्कृष्टादिप । अनु शालिभद्रमाढ्याः । अनु समन्तभद्रं तार्किकाः ।) उपेन ।।१।४।१६।। हीनार्थे उपेन योगे इव् भवति न गितिसंज्ञा च । उपसिंहनन्दिनं कवयः । उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः। ईवधिके ॥१४॥१७॥ ईब्विभक्ती भवति अधिकार्थे द्योत्ये उपेन योगे। उप खार्या द्रोणः। उपनिष्के कार्षापणम् । यस्मादधिकं मृदातिरेकात्तत ईप । ईश्वरेऽधिना ॥४॥१८॥ ईश्वरशब्द ईश्वरेशितव्यसंबन्धमुपलक्षयति । ईश्वरे द्योत्ये अधिना योगे ईविभक्ती भवति न गितिसंज्ञा च । उत्तरसूत्राद्वेति विभाषाऽवलोकते । तत ईश्वरादीशितव्याच्च पर्यायेणेप् । अधि मेघेश्वरे कुरवः । अधि कुन्षु मेघेश्वरः। इह विभक्त्यर्थे हसः कस्मान्न भवति विभ कीशब्देन तत्र कारकं गृह्यते । ईश्वरेशितव्यसंबन्धश्चात्र न तु कारकम् । वा कृत्रधिः ॥१४॥२६॥ ईश्वर इति वर्तते । अधिशब्दः करोतौ वा गितिसंज्ञो भवति । तमधिकृत्य तमधिकृत्वा । ईश्वरं कृत्वेत्यर्थः । अत्र कर्मणीप् । पुनरधिग्रहणं गितिसंज्ञाप्रतिषेधार्थमेव न त्वीवर्थम् । काऽङा मर्यादावचने ॥१।४।२०॥ काविभक्ती भवति श्राडा योगे मर्यादावचने गितिसंज्ञाप्रतिपंधश्च । श्रा पाटलिपुत्रात् वृष्टो देवः । श्रा मथुरायाः। मर्यादायामिति सिद्धे वचनग्रहणमभिविधिसंग्रहार्थम् । श्रा कुमारेभ्यो यशः समन्तभद्रस्य । हैमर्यादावचन इति किम् ? ईषदर्थे क्रियायोगे च मा भूत् । आकडोरः । अाबद्धमाभरणम् । वजनेऽपपरिभ्याम् ॥१४॥२१॥ विवक्षितेनासंबन्धो वर्जनम् । वर्जनेऽर्थे अप परि इत्येताभ्यां योगे काविभक्ती भवति गितिसंज्ञाप्रतिषश्च । श्रप त्रिगतेभ्यो वृष्टो देवः । “परेवंजेने[१३] इति वा द्वित्वम् । परि परि त्रिगर्तेभ्यः। वर्जन इति किम् ? अोदनं परिषिञ्चति । यतः प्रतिदाप्रतिनिधी प्रतिना ॥१४॥२२॥ प्रतिदानं प्रतिदा प्रतिनिधीयत इति प्रतिनिधिः मुख्यस्य सदृशः। प्रतिना योगे यतः प्रतिदा यतश्च प्रतिनिधिस्ततः काविभक्ती भवति न गितिसंज्ञा च । प्रतिदायाम-माषानस्मै तिलेभ्यः प्रतियच्छति । तिलान् गृहीला माषान् ददातीत्यर्थ । एवं सर्पिषोऽस्मै तैलं प्रतिसिञ्चति । सर्पिषोऽस्मै तैलं प्रतिसिक्त्वा व्रजति-प्रतिनिधौ अर्ककोतिर्भरततः प्रति । अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति । प्रतियोगे "कायास्तसिः [स्तस् ]'' [४७३] इति तसिः । For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ४ सू संप्रदानेऽप ॥१४२३॥ संप्रदाने कारके अब्विभक्ती भवति । त्रिपृष्ठाय स्वयंप्रभामदात् । क्रिययाऽपि कर्मभूतया यदाप्यते तदपि संप्रदानमुक्तम् । देवदत्ताय रोचते । पत्ये शेते। श्वभ्यो वर्षति । भित्तुकेभ्यो वर्षति । तदर्थेन सविधिवचनं ज्ञापकं तादर्थेऽबू भवतीति। रथाय दारु । रन्धनाय स्थाली । अवहननायोलूखलम् । ध्वर्थवाचः कर्मणि स्थानिनः ॥१४॥२४॥ ध्वर्थः क्रिया । ध्वों वागस्य स ध्वर्थवाक् । तस्य स्थानिनोऽप्रयुज्यमानस्य धोः कर्मणि कारके अविभक्ती भवति । यत्र यस्यार्थः प्रयोगमन्तरेण प्रतीयते स तत्र स्थानी। एधेभ्यो व्रजति । अत्र अाहत्तु मित्येतत्तु मन्तं पदं स्थानि । तदेव च ध्वर्थवाक । कर्मणीपोऽपवादोऽयम् । तादयेन सिद्धमिति चेत् स्थानिनो यथा स्यात् प्रयुज्यमानस्य मा भूत् इत्येवमर्थमिदम् । ध्वर्थवाच इति किम् ? प्रविश पिण्डीम् । प्रविश तर्पणम् । अस्त्यत्र भक्षय सिञ्चेति च स्थानी न तु ध्वर्थवाक । कर्मणीति किम् ? एधेभ्यो व्रजति शकटेन । स्थानिन इति किम् ? एधानाहर्तुं व्रजति । तुमर्थाद्भावे ॥१४॥२५॥ तुमा समानाऽर्थस्तुमर्थः। तुमर्था भावे वर्तमानो यस्त्यस्तदन्तान्मृदोऽब् भवति । "वुण्तुमौ कियायाँ तदर्धायाम्" [२।३।८] इति वर्तमाने भावे "भाववाचिनः" [२।३।१] इति वक्ष्यति तेषां घनादीनामिह ग्रहणम् । पाकाय व्रजति । मतये व्रजति । पुष्टये व्रजति । अत्र तदर्थायां क्रियायां त्यस्य विधानात् तादर्थं तेनैवोक्तमिति तादर्थे अबू न प्राप्नोति । तुमर्थादिति किम् ? पाकः । त्यागः । भाव इति किम् ? कारको व्रजति । नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगे ॥१४॥२६॥ नमस् स्वस्ति स्वाहा स्वधा अलं वषट् इत्येतैयोंगे अविभक्ती भवति । नमो देवेभ्यः। स्वस्ति प्रजाभ्यः । श्राशीविवक्षायां कुशलाथै योगे ताडपो प्राप्त ताभ्यां पूर्वनिर्णयेनायमेव नित्यो विधिः । स्वस्त्यस्तु गोभ्यः। स्वरित प्रजाभ्यो भूयात् । स्वाहा इन्द्राय । स्वाहा अग्नये। स्वधा पितृभ्यः । अलं मल्लो मल्लाय । अलमिति पर्याप्त्यर्थानां ग्रहणम् । “तस्मै प्रभवति" [ ३ ५] इति निर्देशात् । प्रभुर्मल्लो मल्लाय । समर्थो मल्लो मल्लाय। अन्यत्राऽपि कस्मान्न भवतीति ? कन्यामलङ्क रुते । अलं रोदनेन । "वाग्विभक्नेः कारकविभक्ती' बलीयसी" इति कर्मणीप् | करणे च भा भवति । वषडग्नये। वडिन्द्राय । योगग्रहणं किम् ? नमो जिनानामायतनेभ्यः । ननु ड्याम्मृदः स्वादयो विदिताः। तदन्तविषयोऽयं नियमः पदविधिः। ततोऽसामर्थ्यादेव जिनशब्दान्न भविष्यति योगग्रहणमनर्थकम । अन्यैरपि योगे यथा स्यात् इत्येवमर्थम् । “हितशब्दयोगे उपसंख्यानम्" [वा०] अरोचकिने हितम् । "क्लुप्त्यर्थंधुप्रयोगेऽवक्तव्या" [वा०] मूत्राय प्रकल्पते यवागूः। भूत्राय संपद्यते । मूत्राय जायते । भिन्नविकारापत्तौ चेदं वक्तव्यम् । अभेदे मूत्र संपद्यते यवागूरिति वैव भवति । विकारग्रहणं किम् ? देवदत्तस्य संपद्यते यवागूः । मूत्र संपद्यते यवाग्वाः । “उत्पातेन ज्ञाप्यमानेऽवक्तव्या' [वा०] । (“वाताय कपिला विद्युदातपायातिलोहिनी । पीता वर्षाय विज्ञेया दुर्भिक्षाय भवेत्सिता ॥ तेनैतत् सर्व लब्धम् । प्रकृष्यगहें मन्यकर्मण्यजीवे वा ॥१॥४॥२७॥ प्रकृष्यगहोंऽतिशयतिरस्कारः। प्रकृष्यगहें गभ्ये मन्यतेः कर्मणि जीववर्जिते वा अविभक्ती भवति । न त्वा तृणं मन्ये । न त्वा तृणाय मन्ये । न त्वा बुसं मन्ये । न त्वा बुसाय मन्ये । प्रकृध्येति किम् ? काष्ठं त्वां मन्ये। लोष्ठं त्वा मन्ये । न त्वा नावं मन्ये । यावत्तीर्ण नाव्यम् । न त्वा अन्नं मन्ये । यावद भुक्तं श्राद्धम् । गह इति किम ? इन्द्रनीलात पद्मरागम 1.-क्तिबली-प्र०, ब., स.। . For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ..पा. १ सू० २८-३४] महावृत्तिसहितम् ६१ धिकगुणं मन्ये । प्रशंसेयम् । उभयग्रहणं किम् ? अश्मानं दृषदं मन्ये । स्वरूपकथनमेतत् । मन्यग्रहणं किम् ? न त्वा तणं चिन्तयामि। विकरणनिर्देशः किम ? न त्वा तणं मन्ये । अजीव इति किम ? न त्वा श्वानं मन्ये । न त्वा शृगालं मन्ये। अगहवाचित्वाद युष्मदस्मदादेरविभक्ती न भवति । __ संज्ञो भा ॥१४॥२८॥ कर्मणीति वर्तते । संपूर्वस्य जानातेः कर्मणि भा भवति । मात्रा संजानीते। मातरं संजानीते । पित्रा संजानीते । पितरं संजानीते । “संप्रतेरस्मृतौ इति दः। वेति व्यवस्थितविभाषाऽनुवर्तते । तेन दविषये भाविकल्पः। स्मृत्यर्थे मविधिः। तत्र मातुः संजानाति । मातरं संजानाति । "स्म्रदर्थदयेशा कर्मणि" [ १ ६] इत्यत्र ताविकल्पं वक्ष्यति । कृत्प्रयोगे परत्यात् "कतृ कर्मणोः कृति" [॥४॥६८] इति तैव भवति । मातुः संज्ञाता । ककरणे भा ॥१४ा२६॥ कर्तरि करणे च कारके भाविभक्ती भवति । देवदत्तेन भुक्तम् । जिनदत्तेन भुक्तम् । करणे-दात्रेण लुनाति । भेति वर्तमाने पुनर्भाग्रहणं किम् ? प्रकृत्यादिभ्यो यथा स्यात् । प्रकृत्याऽभिरूपः । प्रकृत्या दर्शनीयः। प्रायेण वैयाकरणः। काश्यपोऽस्ति गोत्रण | समेन धावति । विषमेण धावति । द्विद्रोणेन धान्यं क्रोणाति । पञ्चकेन पशून् क्रोणाति । सहस्रण अश्वान् क्रोणाति । सहार्थेन ॥१॥४॥३०॥ योग इति मण्डूकप्लुत्याऽनुवर्तते । सहशब्दार्थेन योगे भाविभक्ती भवति । प्रधानस्य मृदातिरेकाभावादप्रधाने भवति । पुत्रेण सहागतः । पुत्रेण सह पिङ्गलः । पुत्रेण सह धनवान् । अत्र प्रधानाप्रधानयोः क्रियागुणद्रव्यसम्बन्धे सति सहयोगः । अर्थग्रहणं किम् ? पुत्रेण सार्द्धमागतः । पुत्रेण समम् । पुत्रेण साकम् । पुत्रेणामा । "तस्य द्रोणस्य संग्रामः सारणेन गदेन च । युगपत् कोपकामाभ्यां मनीषिरण इवाभवत्" । विनाऽपि सहशब्देन तदर्थसंप्रत्ययमात्रे च भवति । “अन्त्येनेताऽदिः" [२॥११७३] अन्त्येन सह आदिरित्यर्थः । योग इत्येव । शिष्येण सहोपाध्यायस्य गोः। पुत्रेण सह स्थूलो ग्रामे । उपाध्यायशब्दस्य ग्रामशब्दस्य च नास्ति सहशब्देन योगः। येनाङ्गिविकारत्थम्भावो ॥१।४।३१॥ अङ्गिविकारः शरीरविकृतत्वम् । अनेन प्रकारेण भवनमित्यंभावः । क्वचिदेव छात्रादौ प्रकारे वृत्तिरित्यर्थः । येनाङ्गिनो विकार इत्थम्भावश्च लक्ष्यते ततो भाविभक्ती भवति । अक्षणा काणः। पाणिना कुणिः। पादेन खञ्जः । इत्थम्भावेऽपि-भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् । चलया परिव्राजकमद्राक्षीत् । सहार्थनेत्यस्याविवक्षायामिदं द्रष्टव्यम् । अङ्गिविकारेत्थम्भावाविति किम ? अति काणमस्य । वृक्ष प्रति विद्योतते । हतौ ॥१४॥३२॥ हेतावित्यर्थनिर्देशः। हेतावर्थे भा [च ] भवति तद्वाचिनः। अन्नेन वसति । धनेन कुलम् । विद्यया यशः । इह लौकिकफलसाधनयोग्यः पदार्थों हेतु ह्यते । "तद्योजको हेतुः'' [१।२।१२६] इत्यस्य पारिभाषिकस्य प्रयोगे सिद्धव भा। उत्तरसूत्रे लविशेषेण हेतोहणं द्रष्टव्यम् ।। कर्णेऽकर्तरि ॥१॥४।३३।। हेताविति वर्तते । कर्तृवर्जिते ऋणे हेतौ काविभक्ती भवति । भापवादोऽयम् । शतादद्धः। सहसावद्धः। उत्तमोऽत्र कर्ता । अकर्तरीति किम् ? बदस्त्वया देवदत्तः। नाऽहं बध्नामि । शतं मे धारयति । शतेन बद्धः । बन्धितस्त्वया देवदत्तः । नाऽहं बन्धयामि । शतं मे धारयति । रातेन बन्धितः । कथं देवदत्तेन शतेन बन्धितः। एकस्य हेतुकर्तृत्वमपरस्य प्रयोज्यकर्तृत्वमित्य दोषः। केति योगविभागः । तेन हेतौ काऽपि भवति । कृतकखादनित्यः । अनुपलब्धेर्नास्तीति । ( गुणे श्रीदत्तस्याऽस्त्रियाम् ।।१।४।३४॥ हेताविति वर्तते । अस्त्रीलिङ्ग गुणे हेतौ श्रीदत्तस्याचायस्य मतन काविभक्ती भवति । अन्येषां मतेन हेताविति भा। जाड्याद्वद्धः । जाड्येन बद्धः । पारिख्यात्यान्मुक्तः । १. स्वां मु०। २. त्वा मु०। ३. कृतम् अ०, ब०, स०। ४. -मन्यस्य अ०, ब०, स० । ५."-मिति न दोषः" अ०स०। For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ४ सू० ३५-३६ पारिख्यात्य न मुक्तः । गुण इति किम् ? धनेन कुलम् । अस्त्रियामिति किम् ? बुद्धया मुक्तः । ता हेतौ ॥१४॥३५॥ हेताविति शब्दनिर्देशोऽयं हेत्वर्थस्य तु प्रकृतत्वात् । हेतुशब्दे प्रयुक्त हेव ता भवति । अन्नस्य हेतोर्वसति । अध्ययनस्य हेतोर्वसति । भिक्षाया हेतोसति । हेतुशब्दोऽपि हेलर्थे वर्तते । तस्मादपि ता । सामानाधिकरण्याद्वा । सर्वनाम्नो भा च ॥१॥४॥३६॥ हेतुशब्दे प्रयुक्त सर्वनाम्नो भाविभक्ती ता च । केन हेतुना वसति । कस्य हेतोर्वसति । येन हेतुना वसति । यस्य हेतोर्वसति । पूर्वेण तायामेव प्राप्तायामयमारम्भः। अथवा चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन निमित्तकारणप्रयोजनहेतु प्रयुक्तेषु सर्वासां प्रायो दर्शनमित्येतल्लन्धम् । किं निमित्त वसति । केन निमित्तेन वसति | कस्मै निमित्ताय वसति। कस्मानिमित्तात् । कस्य निमित्तस्य । कस्मिन्निमित्ते वसति । एवं कारण प्रयोजनहेतुपूदाहार्यम् । प्रायोग्रहणादिम्न भवति । काऽपादाने ॥रा४३७॥ अपादाने कारके काविभक्ती भवति । ग्रामादागच्छति। प्राचार्यादधीते । रथात् पतितः । केति योगविभागादन्यत्राऽपि भवतीति । तेनेदं बह वक्तव्यं न भवति । "प्यखे कर्मणि कावक्तव्या" [वा०] प्रासादमारुह्य प्रेक्षते । प्रासादात् प्रेक्षते । प्रासादाच्छृणोति। "अधिकरणे प्यखे का वक्तव्या" [वा-श्रासने उपविश्य प्रक्षने । अासनात प्रेक्षते । शयनात प्रेक्षते । "प्रश्नाख्यानयोश्च का वक्तव्या" .] कि देवदत्तो व्याकरणात् कथयति ? आख्याने-व्याकरणात् कथयति । "यतश्चाध्यकालपरिच्छेदस्ततः का वक्तव्या' [वा.] गवेधुमतः साङ्कास्यं चत्वारि योजनानि । कार्तिक्या प्राग्रहायणी मासे । "कायुक्तात परादध्वनो वा वेप् च वक्तधे' [ वा० ] गवेवुमतः साकाश्यं चत्वारि योजनानि, चतुर्पु योजनेषु । ) दिक्छब्दाऽन्यारादितरतश्चध्वाहियुक्त ॥१४॥३८॥ दिक्छब्द अन्य पारात् इतर ऋते अञ्च धुश्रा आहि इत्येतैर्युक्त काविभक्ती भवति । दिक्छब्द-इयमस्याः पूर्वा । इयमस्या उत्तरा । शब्दग्रहणं किम् ? दिशि दृष्टो यः शब्दो देशकाल वृत्तिनाऽपि तेन योगे यथा स्यात् । पूर्वो प्रामात् । उत्तरों ग्रामात् । पूर्वो ग्रीष्माद्वसन्तः । अन्यदित्यर्थग्रहणम् । अन्यो देवदत्तात् । व्यतिरिक्तो देवदत्तात् । भिन्नो देवदत्तात् । अर्थान्तरं देवदत्तात् जिनदत्तः । देवदत्ते मृदातिरेकात् तायां प्राप्तायां का विधीयते । श्राराचशब्दो झिसंज्ञको दूरेऽन्तिके च वर्तते तद्योगे "दूरान्तिकार्थस्ता च १६४।४२] इति अस्मिन् प्राप्ते काविधिः । श्राराद् गृहात् क्षेत्रम् । श्रारादेवदत्तात् पीठम् | इतरो निर्दिश्यमानप्रतियोग्यर्थः । इतरो देवदत्तात् । ते इति झिसञ्ज्ञ पदम् । ऋते धर्मात् कुतः सुखम् । अञ्च द्य। प्राग्ग्रामात् । प्राची दिग्रमणीया। इत्येवमाद्यर्थे आगतस्य अस्तातः "अञ्चेरुप" [४।१।६६] इत्युप् । अस्य दिक्छब्दत्वेऽपि "ताऽतसर्थ त्येन"[१॥४॥३६] इति ता प्राप्ता तदपवादोऽयम् । श्रा दक्षिणा ग्रामात् । उत्तरा ग्रामात् । आहि । दक्षिणाहि ग्रामात् । उत्तराहि ग्रामात् । अस्तादर्थे “दक्षिणादा [।१।१०.] 'प्राहि च दूरे" [४।१।१०१] "उत्तराच्च [॥१॥१०२] इति अाभा.ित्यौ । अत्रापि "ताs तसर्थे त्येन [१४३६] इति ता प्राप्ता। "अवयवयोगे प्रतिषेधो वक्तव्यः' [ वा० ] पूर्वाञ्छात्राणामामन्त्रयस्व । ताऽतसर्थे त्येन ॥रा॥३६ ॥ वक्ष्यति दक्षिणोत्तराभ्यामतत् । तत्समानार्थेन त्येन युक्त ता विभक्ती भवति । दक्षिणतो ग्रामस्य । उत्तरतो ग्रामस्य । उपरि ग्रामस्य । उपरिष्टाद ग्रामस्य । उपर्युपरिष्टात्पश्चादिति अतसर्थे निपातितौ। पुरो ग्रामस्य । पुरस्ताद् ग्रामस्य । “पूर्वावराधराणां पुरवधोऽसि" [ ४।१।१०३] "अस्ताति' [ ४११।१०४ ] इति च पुरादेशः। १. “गवेधुमतः' इत्यारभ्य "गवेधुमतः' इत्यतःपूर्घम् प० पुस्तके नास्ति । २. पूर्वे ग्रामात् 4.। ३. उत्तरे ग्रामात् प० । For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ४ सू० ४०-४६] महावृत्तिसहितम् ७१ इबेनेन॥४॥४०॥ इब्विभक्ती भवति एनेन योगे। दक्षिणेन विजया वसति । "दक्षिणोत्तरा धरादात्" [१८] इत्यधिकृत्य । "नोऽदरेऽकायाः" [1१1१६] इति अस्तादर्थे एन इत्ययं त्यः । पूर्वसूत्रे नेति योगविभागादनेन योगे तापि भवति इति केचित् । दक्षिणेन ग्रामस्य । उत्तरेण ग्रामस्य । पृथग्विनानानाभिर्भा वा ॥ १।४।४१ ॥ पृथग्विना नाना इत्येतैर्युक्त वा भाविभक्ती भवति । प्रथग्देवदत्तेन । पृथग्देवदत्तात् । विना देवदत्तेन । विना देवदत्तात् । नाना देवदत्तेन । नाना देवदत्तात । पने अन्यार्थलात कापि भवति । अथ पृथगादयोऽसहायार्थे वर्तन्ते नान्यार्थे । एवं तहधिकारात का एष्टव्या । त्रयाणां ग्रहणं पर्यायनिवृत्त्यर्थम् । हिरुग्देवदत्तस्य । "करणे स्तोकाल्पकृच्छकतिपयेभ्योऽसत्ववचनेभ्यो भाके वकव्ये" [वा.1स्तोकेन मुक्तः। स्तोकान्मुक्तः । अल्पेन मुक्तः। अल्पान्मुक्तः । कृच्छेण मुक्तः । कृच्छान्मुक्तः। कतिपयन मुक्तः। कतिपयान्मुक्तः । असत्त्ववचनेभ्य इति किम् ? स्तोकेन विषेण हतः । नेदं चक्रव्यम । विवक्षातः कारकाणि भवन्ति इत्युभयं सिद्धम् । "क्रियाविशेषणविवक्षायां भाके न भवतःवा . स्तो चलति । अल्पं जल्पति । दूरान्तिकार्थस्ता च ॥१॥४२॥ केति वर्तते। दूराथै रन्तिकार्थश्च युक्त ताविभक्ती भवति का च । दूरं ग्रामस्य । दूरं ग्रामात् । विप्रकृष्टं ग्रामस्य । विप्रकृष्टेन ग्रामात् । अन्तिकं ग्रामस्य । अन्तिक ग्रामात् । अभ्यास ग्रामस्य । अभ्यासं ग्रामात् । तेभ्य इप् च ॥१४॥४३॥ तेभ्यो दूरान्तिकार्थेभ्य इब्विभक्ती भवति का च । दूरं ग्रामस्य । दाद ग्रामस्य । विप्रकृष्ट ग्रामस्य । विप्रकृष्टाद् ग्रामस्य । अन्तिकं ग्रामस्य । अन्तिकाद् ग्रामस्य । समीपं ग्रामस्य । समीपाद् ग्रामस्य । काऽनुवर्तनादेव सिद्धा। चकारोऽनुक्लसमुच्चयार्थः । तेन भापि भवति । दुरेण ग्रामस्य । अन्तिकेन ग्रामस्य । असत्त्ववचनेभ्य इति वक्तव्यम् । इह मा भूत् । दूरात् पथ अागतः । दूरस्य पथः शम्बलम् । अन्तिका ग्रामाः। यद्यसत्त्ववचनेभ्य इत्युच्यते इविधानमनर्थकम् । लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात् । नपुंसके सोरम्भावेन सिद्धम् । इदं प्रयोजनं "सपूर्वाया वायाः' [५।३।२३] इत्येष विकल्पो मा भूत् । ग्रामो दूरं त्वा पश्यति । ग्रामो दूरं मा पश्यति । ईबधिकरणे च ॥१॥४४४॥ ईविभक्ती भवति अधिकरणे कारके दूरान्तिकार्थभ्यश्च । कटे प्रास्ते । शयने शेते। दूरान्तिकार्थेभ्यः । दूरे ग्रामस्य । विप्रकृष्टे ग्रामस्य । अन्ति के ग्रामस्य | समीपे ग्रामस्य । "क्तस्येविषयस्य कर्मणीब वक्तव्या" [वा० ] अधीती व्याकरणे। अघीतमनेन व्याकरणमित्यस्मिन्नर्थ "इष्टादेः" [ २२], इत्तीन् । एवमाम्नाती छन्दसि । परिगणितो ज्योतिषि । “निमित्तात् कर्मसंयोगे ईब वक्तव्या" [वा०] 'चर्मणि दीपिनं हन्ति दन्तयोहन्ति कुञ्जरम् । केशेषु चमरी हन्ति सीम्नि पुष्कलको हतः ॥" नेदं बहु वक्तव्यम् । ईबिति योगविभागात् सिद्धम् । यद्भावाद्भावगतिः ॥२४॥४५॥ भावः क्रिया । ईबिति वर्तते । यस्य भावाद्भावान्तरगतिर्भवति तत्र ईबू भवति । गोषु दुह्यमानासु गतः। दुग्धास्वागतः । अत्र प्रसिद्धन गोदोहनभावन गमनक्रिया लक्ष्यते । एवं देवाचनायां क्रियमाणायां गतः। कृतायामागतः । इदं बदरमात्रेष्वाम्रषु गतः पक्केष्वागतः। सामर्थ्याजातेष्विति प्रतीयते । यद्भावादिति किम् ? यो जटाभिः स भुङ्क्ते । जटा द्रव्यम् । पुनर्भावग्रहणं किम् ? यो भुक्तवान् स देवदत्तः । ता चाऽनादरे ॥१॥४॥४६॥ अनादरोऽवज्ञा। यद्भावाद् भावान्तरगतिर्भवति तत्र ताविभक्तौ भवति ईप चानादरे गम्यमाने । देवदत्तस्य क्रोशतः प्राबाजीत् । देवदत्ते क्रोशति प्राबाजीत् । रुदतः प्राबाजीत् । रुदति प्राब्राजीत् । अत्रावज्ञानेन क्रोशनेन प्रव्रजनभावो लक्ष्यते । १. द्रष्टयाम २."प्रामो दुरं मा पश्यति" इति ब. पुस्तके मास्ति । For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ४ सू० ४७-५३ स्वामोश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैश्च ॥१॥४॥४७॥ खामिन् ईश्वर अधिपति दायाद साक्षिन् प्रतिभू प्रसूत इत्येतैर्युक्ते तेपौ विभक्त्यौ भवतः । गवां स्वामी । गोषु स्वामी। गवामीश्वरः । गोष्वीश्वरः । गवामधिपतिः । गोष्वधिपतिः । दायमादत्ते दायादः । “प्रे" [२।२।४] इति नियमादन्यस्मिन् गावप्राप्ते के अत एव निपातनात् कः । गवां दायादः । गोषु दायादः । गवां सादी। गोषु साक्षी। गवां प्रतिभूः । प्रतिभूः । गवां प्रसूतः । गोबु प्रसूतः। चकारः किमर्थः ? तेपोरनु वर्तनाथः। अन्यथा पूर्वत्र चानुकृष्टाया ईपोऽनुवृत्तिर्न स्यात् । उत्तरसूत्रयोरपि चकारस्येदमेव फलम् । प्रसूतयोगे ईवेव प्राप्ता इतरोगे ता प्राप्ता । कुशलायुक्त न चासेवायाम् ॥२४॥४८॥ श्रासेवा मुहुर्मुहुः सेवा तात्पर्य च' । कुशल श्रायुक्त इत्येताभ्यां युक्त श्रासेवायां गम्यमानायां तेपो विभत्त्यौ भवतः । कुशलो विद्याग्रहणस्य । कुशलो विद्याग्रहणे । अायुक्तस्तपश्चरणस्य श्रायुक्तस्तपश्चरणे। अासेवायामिति किम् ? अायुक्तो गौः शकटे। अाकृष्य यु इत्यर्थः। अधिकरणलक्षणेयमीप् । यतश्च निर्धारणम् ॥११॥४६॥ जातिगुणक्रियाभिः समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणम् । यतश्च निर्धारणं ततस्तेपी विभक्त यो भवतः । मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः । मनुष्येषु क्षत्रियः शूरतमः । नारीणां श्यामा दर्शनीयतमा । नारीषु श्यामा दर्शनीयतमा । अध्वगानां धावन्तः शीघ्रतमाः । अध्वगेषु धावन्तः शीघ्रतमाः। प्रपञ्चार्थमिदं समुदाये अवयवोऽन्तर्भूतः । अधिकरणविवक्षायामीप सिद्धा अवयवसम्बन्धविवक्षायां तापि सिद्धा अत एवापादाने कापि भवति । गोभ्यः कृष्णा निर्धार्यते इति । विभक्त का ॥१४॥५०॥ यतश्च निर्धारणमिति वर्तते । भिन्नजातीयात् समुदायाद्गणादिना पृथक्करणं विभक्रनिर्धारणं तत्र का विभक्ती भवति । पूर्वेण तेपोः प्राप्तयोरयमपवादः। माथराः पाटलिपत्रकेभ्य शाट्यतराः । दर्शनीयतराः। अयमस्मादधिकः । अयममाद्विलक्षणः । इदमपि प्रपञ्चार्थम् | पाटलिपुत्रकाणामवधिभावेन बुद्धि प्राप्तानामपादानत्वमस्ति । साधुनिपुणेनाचार्यामीवप्रतेः ॥१४॥५१॥ साधु निपुण इत्येताभ्यां युक्त अर्चायां गम्यमानायामीविभक्री भवति प्रतिशब्दस्याप्रयोगे । मातरि साधुः । पितरि साधुः । भ्रातरि निपुणः । पितरि निपुणः । तापवादोऽयम । अचीयामिति किम् ? साधुनिपुणो वाऽमात्यो राज्ञः। अप्रतेरिति किम् ? साधुर्देवदत्तो मातरं प्रति । प्रतिग्रहणमगितिसंज्ञानामभिपयन्तानामुपलक्षणम्। मातरमभि। मातरं परि। मातरमनु । कथमसाधुः पितरि । अनिपुणो मातरि । पूजापयुक्तसाधुनिपुणप्रतिषेधोऽयम् । असमर्थस्यापि नत्रः सविधिरस्ति । प्रसितोत्सुकाभ्यां भा च ॥१४॥५२॥ प्रसित उत्सुक इत्येताभ्यां युक्त भाविभक्ती भवति । ईप च । केशैः प्रसितः । केशेषु प्रसितः। प्रसक्त इत्यर्थः । केशैरुत्सुकः । केशेषूत्सुकः । पक्षे भार्थमिदम् । ईबधि त्वादेव सिद्धा। उसि भे ।।१।४।५३॥ ईबनुवर्तते भा च । उस्विषये भवाचिनि भेपो विभक्त्यौ भवतः। "भायु क्तः कालः', [३।२।४] इत्यागतस्याणः “उसभेदे" [ ३।२।५ ] इत्युसि कृते यदा भवाची शब्दः काले वर्तते तदा तस्माद्भा च ईप् च भवत इत्यर्थः । पुष्येण पायसमश्नीयात् । पुष्ये पायसमश्नीयात् । मघाभिः पललौदनम् । मघासु पललौदनम् । इसीति किम् ? मघासु ग्रहः । नात्र मघाशब्दः काले वर्तते । भ इति किम्? पञ्चालेषु वसति । पञ्चालस्यापत्यानि पञ्चालाः तेषां निवासः पञ्चालः। निवासार्थे आगतस्याणः "जनपद उस्" [शश६१ ] इत्युस् । इह कस्मान भवति १ अद्य पुष्यः । मिडेकार्थत्वात् । चानुकृष्टाया ईपः कथमनुवृत्तिः । अत्राधिकरणत्वादीप सिद्धा पक्षे भार्थं वचनम् । यद्यधिकरणस्यापि करणविवक्षा यथा स्थाल्या पचति तदेदं प्रपञ्चार्थम् । .. वा अ०, ब०, स०।२, निर्धायन्ते म०, ब०, स.। बधिकारे सूत्रारम्भसाम For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ४ सू० ५४-६१ ] महावृत्तिसहितम् ७३ ,, मिका वः ||१|४|५४ || मिङन्तेन पदेन एकार्थे वर्तमानान्मृदो वा विभक्तो भवति । गौश्वरति । कुमारी तिष्ठति । दनः पच्यते । खारी मीयते । एकः । द्वौ । बहवः । इत्यत्रोक्तेष्वप्येकत्वादिषु वा भवतीत्युक्तप्रायम् । च वा ह उच्चैरित्येवमादिषु अनर्थकेषु च प्रादिषु मिङन्तेनैकार्थत्वाभावेऽपि "सुपो झे:” [१|४| १५०] इति ज्ञापकाद्भवति । भावे वर्तमानेन मिङन्तेन स्वभावादन्येनैकार्थत्वं नास्ति । श्रास्यते देवदत्तेन । नन्वेकत्वादिविशिष्टेषु कर्मादिषु कर्मादिविशिष्टेषु वा एकत्वादिषु इवादिनां नियमात् परिशेषात् वृक्षः प्रक्ष इत्येवमादिषु वादिषु च “ङ चाम्मृदः " [३|१1१] इत्यनेनैव वायाः सिद्धत्वादनर्थकमिदम् १ नानर्थकम् । एकद्विबहुवचनानां व्यतिकरनिवृत्त्यर्थं वायास्तायाश्च विषयभेदार्थं चेदम् । विसर्जनोयो विभाषा सन्देहनिवृत्त्यर्थम् । सम्बोधने बोध्यम् ||५|४|५५|| सम्बोधनमभिमुखीकरणम् । सम्बोधने या वा तस्या बोध्यमित्येषा संज्ञा । सम्बोधनेऽपि मिङकार्थत्वमस्ति इति पूर्वेण वाविधानम् । हे देवदत्त श्रागच्छ । हे देवदत्तौ । हे देवदत्ताः । हे पचन् । हे पचमान । “सम्बोधने' [ २/२/१०३] इति शतृशानौ । बोध्यसंज्ञाप्रयोजनम् "बोध्यमसहूत्" [१।३।२४] इत्येवमादि । एकः क्रिः ||९|४|५६ || बोध्यसंज्ञायां वाया एकवचनं किसंज्ञं भवति । हे कन्ये । हे वटो । किप्रदेशाः “केरेङ : " [ ४ | ३ |२७ ] इत्येवमादयः । ता शेषे || १४|५७ ॥ कर्मादिकारकाणां विवक्षा कर्मादिभ्योऽन्यो वा मृदर्थातिरेकः स्वस्वामिसंबन्धादिः शेषः । ता विभक्तो भवति शेषे अर्थविशेषे । नटस्य शृणोति । ग्रन्थिकस्य शृणोति । स्वस्वामिसम्बन्धसमीपसमूहविकारावयवस्थानादयस्तार्थाः । राज्ञः स्वम् । मद्राणां राजा । देवदत्तस्य समीपम् । यवानां राशिः । यवानां धानाः । देवदत्तस्य हस्तः । गोः स्थानम् । शेषग्रहणं किम् ? इबादयो नियताः कर्मादयस्त्वनियतास्तेभ्यस्ता मा भूत् । शोsस्वार्थे करणे ॥ १४॥ ८ ॥ स्वार्थोऽवबोधनं तत्पर्युदस्यतो जाना तेरस्वार्थे वर्तमानस्य करणे ताविभक्ती भवति । सर्पिषो जानीते । पयसो जानीते । सर्पिषा करणभूतेन श्रवेक्षते प्रवर्तते वा इत्यर्थः । "ज्ञोऽपह्नवेः” [ १/२/४ ] इति दविधिः । करणस्य शेषत्वविवक्षायामविवक्षायां च तैव भवति । श्रस्वार्थ इति किम् ? स्वरेण पुत्रं जानाति । दशां कर्मणि ॥ १|४|५६ ॥ शेष इति वर्तते । स्मृ इत्यनेन समानार्थानां धूनां दय ईश इत्येतयोश्च कर्मणि षत्वेन विवक्षिते ता विभक्ती भवति । मातुः स्मरति । पितुरध्येति । सर्पिषो दयते । सर्पिष ईष्टे । कर्मणीति किम् ? मातुर्गुणैः स्मरति । शेष इत्येव । मातरं स्मरति । यद्येवं नार्थोऽनेन "ता शेषे " [१/४/२७ ] इत्येव सिद्धम् । लादेशे "न झि” [ १ । ४।७२ ] इति प्रतिषेधोऽपि "कर्तृकर्मणोः कृति" [१|४| ६८ ] इत्येतस्याः प्राप्तेरनन्तरत्वात् । नापि " प्रतिपदम्" इति सविधिप्रतिषेधार्थम् । नेयं प्रतिपदविधाना ता । वृत्तिरपि दृश्यते । श्रर्थानुस्मरणं धर्मानुचिन्तनम् । एवं तहिं कर्मणः शेषलेन विक्षितत्वादकर्मकत्वोपपत्तेर्लव्यक्तखार्थाः भावे सिद्धा भवन्ति । मातुः स्मर्यते । मातुः स्मर्तव्यम् । सकर्मकविवक्षायां कर्मणि भवन्ति । माता स्मयंते । माता स्मर्तव्या । प्रतियत्ने कृञः || १|४|६० ॥ करोतेः कर्मणि ताविभक्ती भवति प्रतियत्ने गम्यमाने । श्रसतोऽर्थस्य प्रादुर्भावाय सतो गुणान्तराधानाय समीहा प्रतियत्नः । एधो दकस्योपस्कुरुते । काण्डं गुणस्योपस्कुरुते । “गन्धनावक्षेप" [१२/२७] श्रादिना दः । प्रतियन इति किम् ? कटं करोति बुद्धया । शेष इत्येव । एधो दकमुपस्कुरते । रुजर्थस्य भाववाचिनोऽज्वरिसन्ताप्योः ॥ १|४|६१ ॥ रुजर्थानां धूनां भावकर्तृकाणां कर्मणि ताविभक्ती भवति ज्वरिसन्तापी वर्जयित्वा । चोरस्य रुजति रोगः । रुजर्थस्येति किम् ? एति जीवन्तमानन्दः । १. रोग: । वृषलस्यामयति रोगः । रुज - अ०, ब०, स० १० For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [भ० । पा० ४ सू० ६२-६८ गत्यर्थोऽसौ। भाववाचिन इति किम् ? श्लेष्मा मधुराशिनं रुजति । प्रज्वरिसन्ताप्योरिति किम् १ श्राद्यूनं ज्वरयति ज्वरः । घटादित्वात् प्रादेशः। अत्याशिनं सन्तापयति ज्वरः। शेष इत्येव । चोरं रु जति रोगः। आशिषि नाथः ॥१४॥६२॥ श्राशी:क्रियस्य नाथः कर्मणि ता विभक्ती भवति । सर्षिषो नाथते । पयसो नाथते । सर्पिमें भूयात् इत्यर्थः। 'आशिषि नाथः" इत्युपसंख्यानेन दविधिः। आशिषीति किम् ? माणवकमुपनाथति अङ्ग पुत्राधीष्वेति । शेष इत्येव । सर्पि थते । जासनिग्रहणनाटकाथपिषां हिंसायाम् ॥१४६३॥ जास निप्रहण नाट काथ पिष इत्येतेषां हिंसाक्रियाणां कर्मणि ता विभक्ती भवति । “जस ताडने" इति चौरादिकः । चोरस्योज्जासयति । वृषलस्योज्जासयति । 'जसु मोक्षण' इत्येतस्य देवादिकस्याहिंसार्थत्वादग्रहणम् | जास इति कृतदीत्वोच्चारणं किम् ? प्रादेशे मा भूत् । दस्युमजीजसम् । निप्रहण इति निप्रयोः समुदितयोः व्यस्तयोविपर्यस्तयोर्ग्रहणम् । चोरस्य निपहन्ति'। चोरस्य निहन्ति । चोरस्य प्रहन्ति | चोरस्य प्रणिहन्ति । नट अवस्यन्दने चुरादिः । चोरस्योन्नाटयति । दीत्योचारणं किम् ? दस्युमनोनयत् । “नथ क्रथ क्लथ हिंसार्धा:" "हेतुमति" २१/२५] इति णिच । चोरस्योत्क्राथयति । दीत्वं हि किम् ? दस्युमचिक्रथत् । घटादित्वेऽपि निपातनादुडः प्रादेशबाधनार्थं च । चोरस्य पिनष्टि | वृषलस्य पिनष्टि । हिंसायामिति किम् ? धानाः पिनष्टि । शेष इत्येव । चौरं निहन्ति । रुजर्थत्वादेतेषामपीति चेदभावकर्तृकार्थ वचनम् । चोरस्योजासयति राजा । व्यवहपणोः सामर्थ्य ॥११४.६४॥ सामर्थ्य समानार्थत्वं व्यवह "ण इत्येतयोः सामर्थे स्तुतिकर्मणि ता भवति क्रयविक्रये द्यूते च सामर्थ्यम् । शतस्य व्यवहरते । सहस्रस्य व्यवहरते । सहस्रत्य पणते । प्रायः कस्मान्न भवति गुपादिभिः साहचर्यात् भौवादिकस्य स्तुत्यर्थस्य तत्र ग्रहणम् । इह तु तोदादिकस्यानुदात्तेतः । सामर्थ्य इति किम ? शलाकां व्यवहरति । गण्यतीत्यर्थः । देवान् पणयति । शेष इत्येव । शतं व्यवहरति । सहस्र पणते। दियश्च ॥१४॥६५।। "व्यवहपणोः साम' [१४६४] इति वर्तते । दिवश्व व्यवहपणिसमानार्थस्य कर्मणि ता भवति । शतस्य दीव्याते । सहस्रस्य दीव्यति । चकारः किमर्थः ? सामर्थ्यानुकर्षणार्थः । ननु विकारादेव सामर्थ्यग्रहणमनुवर्ततेऽन्यथा चानुकृष्टमुत्तरत्र च नानुवर्तते "वा गौ" इत्यत्र सामर्थ्यानुवृत्तिन स्यात्, अनुक्तसमुच्चयार्थस्तहि क्वचिदन्यस्यापि प्रयोगे यथा स्यात् । सक्तूनां पूर्णः । श्रोदनस्य तृप्तः । सामर्थ्य इत्येव । साधून् दीव्यति । वा गौ ॥१४॥६६॥ सामर्थ्य इति वर्तते । गिपूर्वस्य दिवः कर्मणि वा ता विभक्ती भवति । शतस्य प्रदी' व्यति । शतं प्रदी व्यति । सहस्रस्य प्रदी व्यति । सहस्र प्रदीव्यति । इयं पूर्वण प्राप्ते विभाषा । ननु शेषविवनया तापि भविष्यति इति व्यर्थमिदम् । एवं तहिं इदमेव ज्ञापकमगिपूर्वस्य शेषविवक्षा नास्ति इति । शतस्य दीव्यति । सामर्थ्य इत्येव । शलाका प्रतिदीव्यति । कालेऽधिकरणे सुजणे ॥१।४।६७॥ कालेऽधिकरणे ता विभक्ती भवति सुजथे त्ये प्रयुक्ते । द्विरहोऽधीते । त्रिरह्नोऽधीते । पञ्चकृत्वोऽह्नो भुङ्क्ते । “संख्याया ध्वभ्यावृत्तौ कृत्वस्' २४ा इति कृत्वस् । द्वित्रिचतुभ्यः सुच्" [२।२५] इति सुच् । काल इति किम् ? द्विः कांसपात्र्यां भुंक्ते । अधिकरण इति किम् ? द्विरह्नो भुङ्क्ते । सुजर्थ इति किम ? अहनि भुङ्क्ते । रात्रौ भुङ्क्ते । नन्यत्रापि द्विः त्रिवेति सुजों गम्यते ? प्रयुक्तग्रहणं दूरादनुवर्तते तेन गम्यमाने सुजथे न भवति । शेष इत्येव । द्विरयधीते । कर्तृकर्मणोः कृति ॥१४॥६८॥ कृति प्रयुक्ते कर्तरि कर्मणि च ता विभक्ती भवति । अनुक्त इति वर्तते । भवत श्रासिका । भवतः शायिका । स्त्रीलिङ्गे भावे "पर्यायाहत्पत्तौ चुण्" [२।३।१२] इति वुण । १. चोरस्य निप्रहन्ति इति व. पुस्तके नास्ति । २. व्यवहपणेः समा-श्र० । ३.-प्रतिदीन्यति ब० । १. .। For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० 1 पा० ४ सू० ६९-७४] महावृत्तिसहितम् ७५ यवानां लावकः । श्रोदनस्य भोजकः । विश्वस्य ज्ञाता। तीर्थस्य कर्ता । कृतीति किम् ? श्रोदनं पचति । ननु "न झित." २] इत्यादिनाऽत्र प्रतिषेधो भविष्यति । एवं तर्हि हृति मा भूत् । कृतपूर्वी कटम् । कृतं पूर्वमनेन 'इन्" [१।१६] "पूर्वात्" [४।१।२०] "सपूर्वात्' [४।१।२१] इतीन् । पुनः कर्मग्रहणादिह शेषस्य ग्रहणं नाभिसंबध्यते । द्विप्राप्तौ परे ॥१॥४॥६६॥ पूर्वसूत्रविन्यासापेक्षया परशब्देन कर्माऽभिप्रेतम् । द्विप्राप्तौ कृति पर एव कर्मणि ता विभक्ती भवति न कर्तरि । आश्चयों गवां दोहोऽगोपालकेन । रोचते मे अोदनस्य भोजनं देवदत्तेन । साधु खलु पयसः पानं जिनदत्तेन । द्वयोः प्राभियस्मिन् कृतीति व्यधिकरणस्य बसस्याश्रयणाद' भिन्ने कृति नियमो न भवति । श्राश्चर्यमिदमतिथीनां प्रादुर्भावः श्रोदनस्य च नाम पाकः । "काकारयोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम्" [वा० भेदिका देवदत्तस्य काष्ठानाम् । चिकीर्षा जिनदत्तस्य काव्यानाम् । अकारग्रहणेन निरनुबन्धकस्य “अस्त्यात्" [२२३२८४] इत्यस्यैव ग्रहणम् । “शेषे विभाषा” |वा०] अकाकारापेक्षया शेषस्य स्त्रोत्यस्य ग्रहणम् । विचित्रा सूत्रस्य कृतिराचार्यस्य आचार्येण वा । केचिदविशेषणेच्छन्ति । विचित्र शब्दानुशासनमाचार्यस्य आचार्येण वा । स्याधिकरणे ॥१२७०॥अधिकरणे यः क्तस्तस्य प्रयोगे ता विभक्ती भवति । “अधिकरणे चायञ्चि''[२।४।२६]इति अद्यर्थेभ्यो घिभ्यो गत्यर्थेभ्यश्च क्लो वक्ष्यते तस्य प्रयोग कर्तृक णोः कृति''[१४६८ इति ता प्राप्ता "न झित'' [१।४।७२] इत्यादिना प्रतिषिद्धा पुनः प्रसूयते । इदमेषामशितम् । इदमेषा भुक्तम् । इदमेषामासितम् । इदमेषां शयितम् । इदमेषां तृतम् । इदमेषां पराक्रान्तम् । एषामिति कर्तरि ता। अधिकरणस्य क्तेनोक्तत्वादिदंशब्दादीम्न भवति । "अधिकरणे च' [२४।५६] इत्यत्र चकारण यथा प्रात. समुच्चीयते । करि-इहेमे आसिताः । भावे-इह एभिरासितम् । शेषविवक्षायामिह एषामासितम् । एवं सर्वत्र योज्यम् । भवति ॥१४७१॥ भवति काले विहितस्य क्तस्य प्रयोगे ता विभक्ती भवति । अयमपि प्रतिषेधापबादः। राज्ञां मतः । राज्ञां बुद्धः। सतां पूजितः । 'मतिबुद्धिपूजार्थाचच १६६] इति सम्प्रतिकाले क्तः। शेषविवक्षायां यद्यपि ता सिद्धा तथापि कर्तृविवक्षायां भावाधनार्थमिदम् । सम्प्रतिकाले चकारेण लब्धेषु शौलितादिषु प्रयुक्तेषु ता नेष्यते । देवदत्तेन शीलितः । कथं मयूरस्थ नृत्तं छात्रस्य हसितमिति ? शेषविवक्षायेदम् । कर्तरि तु मयूरेण नृत्तम् । छात्रेण हसितम् । नभितलोकखार्थतनाम॥१४॥७२॥ मि तल उ उक खार्थ तन इत्येतेषां प्रयोगे ता विभक्ती न भवति । "कर्तृकर्मणोः कृति" [१६] इति तायाः प्रातायाः प्रतिषेधोऽयम् । भि-कटं कृत्वा । कटं कर्तुम् । तसंज्ञा-देवदत्तेन कृतम् । देवदत्तः कटं कृतवान् । ल-कटं कुर्वन् । कटं कुर्वाणः। अनूषिवान् श्रीदत्तं धान्यसिंहः । कटं कारयामास । धर्मे दधिश्चित्तम् । “सहिवाहवलिपतीनामियङ” इत्यधिकृत्य धाञ्कृसृजनितनिभ्यो लिड्वदित्युपसंख्यानेन शीलादिष्वर्थेषु इरित्ययं त्यो भवति । कटं चिकीर्षुः। श्रोदनं बुभुक्षुः। कन्यामलङ्करिष्णुः। उक-श्रागामुको वाराणसीम् । उकप्रतिषेधे कमेरप्रतिषेधः। दास्याः कामुकः। खार्थ:-सुकरः कटो भवता । सुपानं पयो भवता । तृन्निति प्रत्याहारः शतृशानावित्यत आरभ्य तृनो नकारेण | धान्यं पवमानः। अधीयन जैनेन्द्रम् । “पूङ यजोः शान:"[२।२।१०६] इति शानः | "धारीङः शत्रकृच्छिणि'' [२।२।१०८]इति शतृत्यः । कर्ता कटान् । वदिता जनापवादान् । शीलाद्यर्थे तृन्निति तृन् । "द्विषः शतुर्वा वचनम्" [वा०] चोरं द्विषन् । चोरस्य द्विषन् । "द्विषोऽरौ'' [२।२।२०६] इति शतृत्यः । वस्य॑त्यकस्य ॥१॥४७३।। वय॑ति काले विहितस्याकस्य योगे ता विभक्ती न भवति । कटं कारको ब्रजति । श्रोदनं भोजको गच्छति । "वुण्तुमौ क्रियायाम" [२।३।८] इति वुण् । वर्त्यतीति किम् ? अोदनस्य भोजकः । वय॑तीति विहितस्याकस्य ग्रहणादिह न भवति । वर्षशतस्य पूरकः । पुत्रपौत्राणां दर्शकः। आघमण्यं चेनः ॥१।४७४॥ अाधमण्यें वर्त्यति च काले विहितस्येनः प्रयोगे ता विभक्ती न For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ जैनेन्द्र च्याकरणम् [अ० १ पा० ४ सू०७५-८० %Dance भवति । शतं दायी । सहस्र दायी। “आवश्यकाधमर्ययोर्णिन" [२।३।१४६] इति णिन् । वर्त्यति । गमी ग्रामम् । आगामी नगरम् । “गम्यादिवस्य॑ति'' [२।३।१] इति वर्त्यतिकाले साधुत्वम् । श्राधमण्र्ये चेन इति किम् ? अवश्यंकारी कटस्य । अावश्यकेऽर्थे कालसामान्ये णिन् । व्यस्य ४७॥ व्यसंशस्य प्रयोगे कर्तरि वा ता विभक्ती भवति । भवतः कटः कर्तव्यः । भवता कटः कर्तव्यः । कर्तकर्मणोः कृतीति ता प्राप्ता विभाष्यते । कर्तरीति किम् ? गेयो माणवको गाथानाम् । "भव्यगेय." [२॥४॥५३] श्रादि सूत्रे कर्तरि गेयशब्दो निपातितः । अत्र कर्मणि नित्यं ता भवति । इह कस्माता न भवति क्रष्टव्या ग्राम शाखा देवदत्तेन । नेतव्या ग्राममजा देवदत्तेन । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेन "द्विप्राप्तौ परे'' [१/४/६६] इत्यस्यास्ताया व्यप्रयोगे प्रतिषेध एव । __ भाऽतुलोपमाभ्यां तुल्यार्थैः ॥११४७६॥ वेति वर्तते । तुलोपमाशब्दाभ्यामन्यैस्तुल्यार्थैः शब्दैयुंक्त वा भाविभक्ती भवति । तुल्यो देवदत्ते न । तुल्यो देवदत्तस्य । पक्षे शेषलक्षणा ता । अतुलोपमाभ्यामिति किम् ? नास्ति तुला देवदत्तस्य । उपमा नास्ति सनत्कुमारस्य । __ अप चाशिष्यायुष्यमद्भद्रकुशलसुखहितार्थः ॥१:४७७॥ वेति वर्तते । वा अविभक्ती भवतिश्राशिषि गम्यमानायाम् | आयुषो निमित्तं संयोगः । "निमित्तं संयागोत्पादौ" [३।४।३७] "योऽसंख्या परिमाणाश्वादेः' [३।४।३८] इति यः । श्रायुष्य मद्र भद्र कुशल सुख हित इत्यवमथैर्युक्त । श्रायुष्यमिदमस्तु देवदत्ताय देवदत्तत्य वा। चिरमस्तु जोवितं देवदत्ताय देवदत्तस्य वा । मद्रं भवतु जिनशासनाय जिनशासनस्य वा । भद्र देवदत्ताय देवदत्तस्य वा । कुशलं साधुभ्यः । कुशलं साधूनाम् । निरामयं साधुभ्यः। निरामयं साधूनाम् । सुखं साधुभ्यः। सुखं साधूनाम् । शमस्तु साधुभ्यः। शमस्तु साधूनाम् । हितं देवदत्ताय । हितं देवदत्तस्य । पथ्यं देवदत्ताय । पथ्यं देवदत्तस्य । पक्षे शेषलक्षणा ता । चकारः किमर्थः ? अर्थाथैरपि योगे यथा स्यात् । अथों देवदत्ताय । अर्थो देवदत्तस्य । प्रयोजनं देवदत्ताय । प्रयोजनं देवदत्तस्य । तापक्षे वृत्तिर्न भवति अगमक वात् । न हि वृत्त्याऽऽयोगम्यते । आशिषीति किम् ? अायुष्यं देवदत्तस्य । अत्र नाप। प्राणितूर्य सेनाङ्गानां द्वन्द्व एकवत् ॥१४॥८॥ प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गानां सेनाङ्गानां च द्वन्द्व एकवद्भवति । एकार्थवद्वतीति अर्थनिर्देशाद्विशेषणानामपि तद्वत्ता। पाणी च पादौ च पाणिपादम् । दन्तौठम् । शिरोग्रीवम् । यदि प्राण्यङ्गं प्राणिग्रहणेन गृह्यते "अप्राणिजाते. [ १ २] इति प्रतिषेधे प्राप्ते अथ न गृह्यते तदा 'अप्राणिजातेः" इत्येव सिद्ध व्यतिकरनिवृत्यर्थं वचनं प्राण्यङ्गानामन्येन द्वन्द्रो मा भूत् । तूर्यम्-मार्दनिकाश्च पाणविकाश्च मार्दङ्गिकपाणविकम् । सेना-रथिकाश्च अश्वारोहाश्च रथिकाश्वारोहमा । रथिकपादातम् । "सेनाङ्गेषु बहुत्वे" वा०] इति तेन रथिकाश्वारोहो । हस्त्यश्वादिषु परत्वात पशु विभाषा | यद्यप्यभिधानवशादिह समाहारे द्वन्द्वः, दधिपयादिषु इतरेतरयोगे, तरमृगादिषु उभयत्र, तथापि तद्विषयविभागज्ञापनार्थमिदं प्रकरणम् । . चरणानामनूक्तौ ॥१॥४७॥ चरणं कठादिप्रोक्तोऽध्ययनविशेषः। तद्यदा पुरुषेष्वध्यतृषु वर्तते तदेह गृह्यते । अनूक्तिरनुवादः। चरणानां द्वन्द्व एकवद्भवति अनूक्तौ। स्थेणोलुंङन्तयोः प्रयोगे चेदमिष्यते। उदगात् कठकालापम् । प्रत्यष्ठात् कठकोथुमम् । अनूक्ताविति किम् ? उदगुः कठकालापाः । प्रथमोपदेशोऽयम् । कठेन प्रोक्तमधीयते कठाः। प्रोक्कार्थे “शौनकादिभ्यश्छन्दसि णिन् [२३/७७] इति णिन् । तस्य “कठचरणा का दुप्' इत्युप् । अध्येतृविषयस्याणः “उप प्रोक्तात्" [३।२।१४] इत्युप्। कलापिना प्रोतमधीयते कालापाः । प्रोक्लार्थे “कलापिनोऽण्"। टिखम् । परस्याणः "उप्प्रोकात्" [३।२।१४] इत्युप् । “छन्दो ब्राह्मणानि चात्रैव" [३।२।१६] इत्यध्येतृविषयता। - अध्वर्युक्रतुरनप् ॥२४८०॥ अध्वरमिच्छन्ति अध्वर्यवो यजुर्वेदविदः । अतएव निपातनात् क्यच्य For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प० । पा० ४ सू० ८१-८५] महावृत्तिसहितम् कारस्य खम् । क्यजन्तस्य उश्च त्यः । अध्वर्युक्रतुरनपुंसकलिङ्गो द्वन्द्व मेकवद्भवति । येषां ऋतूनां यजुर्वेदशाखासु लक्षणं प्रयोगश्च शिष्यते प्राधान्येन तेषामध्वयु कनूनामनपुंसकलिङ्गानां द्वन्द्व एकवद्भवति इत्यर्थः। अर्कश्च अश्वमेधश्च अर्काश्वमेधम् । सायाह्नातिरात्रम् । पौण्डरीकातिरात्रम् । अध्वर्युक्रतुरिति किम् ? पञ्चौदनदशोदनाः। इषुवज्रौ। उद्भिदलभिदौ । एते सामवेदविहिताः । अनबिति किम् ? राजसूर्य च वाजपेयं च राजसूयवाजपेये । इह कस्मान्न भवति दर्शपौर्णमासौ। दधिपयादिषु द्रष्टव्यः। . अधीत्याऽदूराख्यानाम् ॥१४॥ श्राख्या नामधेयम् । अधीत्या निमित्तभूतया अदूराख्यानां द्वन्द्व एकवद्भवति । पदमधीते पदकः । क्रममधीते क्रमकः । पदकक्रमकम् । क्रमकवात्तिकम् । पदाध्ययनस्यासन्नं क्रमाध्ययनम् । अधीत्येति किम् ? आढ्यदरिद्रौ। अदूराख्यानामिति किम् ! याज्ञिकवैयाकरणो। यशमधीते याज्ञिकः । अप्राणिजातेः ॥१४॥२|| अप्राणिजातिवाचिनो द्वन्द्व एकवद्भवति । पाराशस्त्रि । धानाशष्कलि । युगवरत्रम् | अप्राणिग्रहणं किम् ? गौपालिशालङ्कायनाः । गोत्रं चरणैः सहेति जातिः । जातेरिति किम् ? हिमवद्विन्ध्यौ। नन्दकपाञ्चजन्यौ। संशाशब्दा एते । नसदृशसम्प्रत्ययहेतुः। तेन द्रव्यजातीनामेकवदावादिह न भवति । रूपरसगन्धस्पर्शाः। गमनागमने। जातेरविवक्षायां न भवति । बदरामलकानि तिष्ठन्ति । भिन्नलिङ्गो नदीदेशोऽग्रामोऽपुरम् ॥२८॥ भिन्नलिङ्गानां नदीदेशवाचिनामग्रामाणामपुराणां द्वन्द्र एकवद्भवति । नदी-उद्धयश्चरावती च उद्धथे रावति । विपाट्चक्रभिदम् । गङ्गाशोणम् । देशा:-कुरवश्च कुरुक्षेत्रं च कुरुकुरुक्षेत्रम् । कुरुकुरुजाङ्गलम् । दार्वाश्च अभिसारं च दाभिसारम। काश्मीराभिसारम् । भिन्नलिङ्ग इति किम् ? गङ्गायमुने । मद्रकेकयाः। नदीदेश इति किम् ? कुक्कुटमयूयौं । अग्राम इति किम् ? जाम्बवश्च शालूकिनी च जाम्बवशालूकिन्यो । ननु नद्यपि देश इति पृथग्ग्रहणं किमर्थम् ? ज्ञापकार्थ जनपदो देशोऽभिप्रतो न नदीपर्वतादिः। तेनेह नैकवद्भावः । कैलासश्च गन्धमादनं च कैलासगन्धमादने । अपुरमिति किम् ? लोके ग्रामग्रहणेन पुरमपि गृह्यते ततोऽपुरमिति प्रतिषेधः। मथुरापाटलिपुत्रम् । अग्राम इति प्रसज्यप्रतिषेधः । तेन यत्र पुरग्रामयोर्द्वन्द्वस्तत्रापि नैकत्वम् । नासौर्यकैतवौ पुरग्रामौ । क्षुद्रजीवाः ॥१४ाच्४॥ इहाल्पशरीरः क्षुद्रः । क्षद्रजीवानां द्वन्द्व एकवद्भवति । क्षुद्रजीवाश्रयो द्वन्द्र उपचारात् क्षुद्रजीवा इति निर्देशः । यूकालिक्षम् । शतस्वश्च उत्पादकाश्च शतसूत्पादकम् । दंशमशकम् ।.. "इंद्रजीवा अकङ्काला येषां स्वं नास्ति शोणितम् । नाञ्जलिर्यत्सहस्रण केचिदानकुलादपि ॥") केचित् शब्दः प्रत्येकमभिसंचध्यते । क्षुद्र जीवा इति बहुवचननिर्देशात् द्वित्वविषये नेदमिति यूकालिदौ । दंशमशको । येषाञ्च द्वेषः शाश्वतिकः ॥शा॥ द्वेषोऽप्रीतिः। येषां च द्वेषः शाश्वतिकस्तद्वाचिनो द्वन्द्व एकवद्भवति । शश्वद्भवः शाश्वतिकः । “काला?" [३।२।१३] इति ठञ् । निपातनादिकादेशः । "झे माने टिखम्" इति खं च न भवति । अहिनकलम । श्ववराहम । “अन्यस्यापि' [॥३॥२३२] इति दीत्वम् । शाश्वतिक इति किम ? गौपालिशालङ्कायनाः। केनचिन्निमित्तेन कलहायन्ते । चकारोऽवधारणार्थः। अयमेव नित्य एकवद्भावो यथा स्यात् पश्वादिविभाषा मा भूत् । अश्वमहिषम् । काकोलूकम् । १.पा० महाभाष्ये-"क्षुदजन्तुरनस्थि: स्यादथ वा क्षुद्र एव यः । नाञ्जलियंसहखण केचिदानकुलादपि ।” शाम । २. श्ववाराहम् अ.। For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ४ सू० ८६-१२ वाईद्र पायोग्यानाम् || १ |४| ८६ ॥ वर्णेनार्हद्र पस्यायोग्यास्तेषां द्वन्द्व एकवद्भवति । येन रूपे - गार्हन्त्यमवाप्यते, तदिह नैन्ध्यमद्र पमभिप्रतम् । अतिशयोपेतस्यार्हद्र पस्य प्रातिहार्यसमन्वितस्य बहुतरमयोग्यमिति • नेह तद् गृह्यते । तक्षायस्कारम् । कुलालवरुढम् । रजकतन्तुवायम् । नन्वेतॆष्वप्येकवद्भावः प्राप्नोति । चण्डालमृतपाः । न दधिपय श्रादिष्वन्तर्भूतो द्वन्द्वो द्रष्टव्यः । वर्णेनेति किम् ? मूकवधिराः । एते करणदोषेणायोग्याः । श्रर्हद्र पायोग्यानामिति किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियौ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गवाश्वादीनि च ॥ १।४।६७॥ गवाश्वादीनि च गणपाठे द्वन्द्वरूपाणि च एकवद्भवन्ति । गवाश्वम् । गवैडकम् । गवाविकम् । श्रजाविकम् । पशुविभाषा प्राप्ता । कुब्जवामनम् । कुब्जकै कतम् । पुत्रपौत्रम् । श्वचाण्डालम् । द्वेषे - स्त्रीकुमारम् । दासीमाणवकम् । शाटीपिच्छिकम् । इदं जात्यविवक्षायाम् | उष्ट्रखरम् | उष्ट्रशशम् । पशु विभाषा प्राप्ता । मूत्रशकृत् । मूत्रपुरीषम् | यकृन्मेदः । मांसशोणितम् । इमानि जात्यविवक्षायाम् । दर्भशरम् । दर्भपूतीकम् । अर्जुनपुरुषम् । तृणोपलम् । एतैषां तृणविकल्पः प्राप्तः । दासीदासम् । कुटीकुटम् । भागवती भागवतम् । एषां सरूपाणां लिङ्गमात्रकृतविशेषाणां निपातनाद् द्वन्द्वः । चकारोऽवधारणार्थः । गवाश्वादीनि पठितान्येवैकवद्भवन्ति नान्यथा । गोऽवौ । गोऽश्वम् । वा तरुमृगतृणधान्यव्यञ्जनपश्वश्ववडव पूर्वापराधरोत्तरपक्षिणः || १ |४| ८८ ॥ तरु-मृग-तृणधान्य व्यञ्जन पशु बेवानामश्व वडव पूर्वापर श्रधरोत्तर इत्यषां पक्षिविशेषाणां च द्वन्द्वो वा एकवद्भवति । प्लक्षन्यग्रोधम् | 'लक्षन्यग्रोधाः । श्रारण्या मृगाः । रुरुपृषतम् । रुरुपृषताः । कुशकाशम् । कुशकाशाः । त्रीहियवम् । व्रीहियवाः । दधिघृतम् । दधिघृते । ग्राम्याः पशवः । वृष्णिस्तभम् । वृष्णिस्तभाः । श्रश्ववडवम् । अश्ववडवौ । पर्यायनिवृत्त्यर्थं च अश्ववडवग्रहणम् । पूर्वापरम् । पूर्वापरे । अधरोत्तरम् । अधरोत्तरे । तित्तिरिकापिञ्जलम् | तित्तिरिकापिञ्जलाः | अत्रेष्टिः । "सेनाङ्गफलक्षुद्र जीवतरुमृगतृणधान्यपक्षिणां प्रकृत्यर्थ बहुत्वे एकवद्भावः " [aro ] तेन रथिकाश्वारोहौ । बदरामलके । इदमेव ज्ञापकम् 'प्राणिजाते: " [91४1८२ ] इत्यत्र बहुवचनान्त एवं विप्रहोऽभिप्रेतः । यूकालिक्षे । तदन्यग्रोधौ । रुरुपृषतो । कुशकासौ । त्रीहियवौ । हंसचक्रवाकौ । वेति योगविभागोऽयम् । द्वन्द्वमात्रे कृतो भवेत् । पूर्वो विधिस्तु नित्यार्थः तुल्यजात्यर्थ उत्तरः । इह मा भूत् -- लक्षयवाः । हंसपृषताः । 1 विरोधि चानाश्रये ॥ ११४॥ ८६ ॥ वेति वर्तते । श्राश्रयो द्रव्यं विरोधो येषामस्ति तद्वाचिनामनाश्रयाभिधायिनां द्वन्द्व एकवद् भवति । विरोधीत्यामः खे कृते सौत्रो निर्देशः । सुखदुःखम् । सुखदुःखे । जननमर यम् । जननमरणे । शीतोष्णम् । शीतोष्णे । विरोधीति किम् ? कामक्रोधौ । अनाश्रय इति किम् ? सुखदुःखौ ग्रामौ । शीतोष्णें उदके । चकारादविरोधेऽपि । वधूवरम् । वधूवरौ । स्थावरजङ्गमम् । स्थावरजङ्गमे । न दधिपयदीति ॥ ९ ४ ९० ॥ दधिपत्रादीनि द्वन्द्वरूपाणि नैकवद्भवन्ति । येन केनचित् प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् । दधिपयसी । सर्पिर्मधुनी । मधुसर्पिषी । व्यञ्जनत्वात् प्राप्तिः । ब्रह्मप्रजापती । शिववैश्रवणौ । स्कन्दविशाखौ । परिवाजक कौशिकौ । प्रक्र्योपसदौ । वेतिप्राप्तिः । शुक्लकृष्णौ । इध्माबर्हिषी । निपातनात् पूर्वस्य दीत्वम् । योगानुव के । दीक्षातपसी । श्रद्धातपसी । अध्ययनतपसी । उलूखलमूसले । श्रावसाने । श्रद्धामेधे । ऋक्सामे । वाङ मनसे । वेति योगविभागात् प्राप्तिः । चण्डालमृतपादयश्च । तव च || १ |४| ६१ ॥ एतावत्वमियत्ता । वृत्त्यवयवार्थानामेतावत्त्वे च द्वन्द्वो नैकवद्भवति । द्वादश में मार्दङ्गिकपण विकाः । चकारः प्रतिषेधानुकर्षणार्थः । वा समीपे ॥११४॥ ६२ ॥ नेति निवृत्तम् | अर्थानामेतावत्त्वस्य समीपे वा द्वन्द्व एकवद्भवति । उपदर्श दन्तोष्ठम् । उपदशा दन्तोष्ठाः । एकवद्भावपक्षे हसोऽनुप्रयुज्यते अन्यत्र वसः । हसे “अनः " [४ |२| ११० ] इति श्रः सान्तः । असे तु ङः । १. अजुन शिरीषम् इति काशिका । २. शुक्लकृष्णे अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १ पा० ४ सू० ६३-१०.] महावृत्तिसहितम् सानप ॥१४॥३३॥ यस्यायमुक्त एकवद्भावः स नन्भवति । तथा चैवोदाहृतम् । समाहारे रसोनप भवतीति वक्तव्यम् । पञ्चाग्नि । पञ्चवायु। अकारान्तप्रकरणे "रात्" [३।१।२५] इति डीविधानं ज्ञापकम् । अकारान्तोत्तरपदो रः स्त्रियां वर्तत इति । पञ्चपूली । षण्णगरी । 'वाबन्त इति वक्तव्यम् [व] पञ्चखट्वी । पञ्चखट्वम् । “स्त्रीगोर्नीच:' [१।१।८] इति प्रादेशः। "अन्नन्तस्य नखं स्त्रियां वा वृत्तिः" [ वा० ] पञ्चतक्षम् । पञ्चतक्षी । “पात्रादिभ्यश्च प्रतिषेधः'' [ वा०] पञ्चपात्रम् । त्रिभुवनम्। चतुर्युगम् । पञ्चगवम् । दशगवम् । 'गोरहृदुपि' [।२।१५] इति टः सान्तः। हश्च ॥१॥४॥६४॥ हसंज्ञश्च नम्भवति । अधिस्त्रि । उन्मत्तगङ्गम् । द्विमुनीदम् । "प्रो नपि" [१७] हति प्रादेशार्थमन्प्रयोगार्थ च वचनम् । पूर्वपदार्थप्रधानस्यालिङ्गत्वं प्राप्तम्। अन्यत्राभिधेयवल्लिई प्रासम । चकारोऽनुक्समुच्चयार्थः । तेन क्रियाविशेषणानां नपुंसकत्वं सिद्धम्। शोभनं पचति'। षोऽनत्र यः॥१।४।६।। नञ्तं यसञ्च वर्जयित्वा न भवतीत्येतदधिकृतं वेदितव्यम् । ष इति पुंल्लिङ्गन निर्देशः सौत्रः। वाच्यप्रकरणादन्यत्र कामचारो वा वक्ष्यति । सेनासुराञ्छायाशालानिशा वेति । क्षत्रियसेना । क्षत्रियसेनम् । ष इति किम् ? महती सेनाऽस्य महासेनः । अनअिति किम् ? असेना । अय इति किम् ? परमसेना । खो कन्थोशीनरेषु ॥१॥४॥६६॥ खुविषये कन्थान्तः षसो नब्भवति उशीनगेषु चेत् सा कन्था । सौसमीना कन्था सौसमिकन्यम् । श्राहरकन्थम् । आसमिकन्थम् । चर्मकन्थम् । एते उशीनरेषु ग्रामाः। विग्रहवाक्य सादृश्यमात्रण | खाविति किम् ? वीरणकन्था। उशीनरेष्विति किम् ? दक्षिकन्था । अन्यत्र ग्रामसज्ञ यम्। उपचापक्रम तदाधुक्तो ॥१४६७।। हपज्ञायत इति उपज्ञा उपदेशः। उपक्रभ्यत इति उपक्रमः प्रारम्भः । उपज्ञोपक्रम इत्येवमन्तः षसो नन्भवति तयोरुपज्ञापक्रमयोगयुक्तो गम्यमानायाम् । स्वायम्भुवस्योपज्ञा स्वायम्भुवोपज्ञमाकालिकाचारध्ययनम् । देवोपज्ञमनकशेषव्याकरणम् | कुरुराजस्योपक्रमः झुम्सजोपक्रम दानम् । कम्पनापक्रमं स्वयंवरविधानम्। उपज्ञापक्रममिति किम् ? आदिदेवतपस्या तीवा । तदायकाविति किम् ? देवदत्तापज्ञा । देवदत्तोपक्रमो गणितम् । उत्तरपदस्य प्राधान्यल्लिङ्गम् । ष इत्येव । सम्यगुपज्ञो भगवान् स्वायम्भुवो यस्येदमाकालकाचाराध्ययनम् । वाक्येन तदायु क्तो गम्यमानायामिदं प्रत्युदाहरणम् । छाया बहूनाम् ॥१४८॥ बहूनां या छाया तदन्तः षसो नब्भवति । इक्षणां छाया इतुच्छायम् । सलभच्छायम्। बहूनामिति किम् ? कुड्यस्य छाया कुड्यच्छायम् । कुख्यच्छाया । "सेनासुराः"[१११०१] इत्यादिना विकल्पः । ष इत्येव । बवश्छाया अस्मिन्बहुच्छायो वनखण्डः । सभाऽराजामनुष्यात् ॥१।४।६६॥ अराज्ञः अमनुष्याच्च परा या सभा तदन्तः षो न भवति । अराज्ञः। इनस्य सभा इनसभम् । ईश्वरसभम् । इन्द्रसभम् । पार्थिवसभम् । राजशब्दपर्युदासात् तत्पर्यायाणामत्र ग्रहणं न विशेषाणाम्। तेनेह न भवतिसातवाहनसभा । चन्द्रगुप्तसभा। अमनुष्यात्-रक्षसां सभा रक्षःसभम्। पिशाचसभम् । अमनुष्यशब्दस्य चरक्षःप्रभृतिष्वेव रूढत्वादिह न भवति । काष्ठसभा... पाषाणसभा । पक्केष्टकासभा । यद्येवं "टगमनुष्ये' [२।२।१०] इत्यत्र कथम् । जायाघ्नस्तिलकः । पित्तन) घृतम्। "युव्या बहुलम् [२।३।१५] इति बहुलवचनात्तत्रान्यस्यापि ग्रहणम् । "राजामनुष्यात्' इति किम् ? राजसभा । देवदत्तसभा। ष इत्येव । ईश्वरा सभाऽस्य ईश्वरसभः । अशाला ॥१।४।१००।। अशाला च या सभा तदन्तः षो नन्भवति । गोपालसभम् । दासीसभम् । स्त्रीसमम् । अत्र समुदाये सभाशब्दः। अशालेति किम् १ देशिकसभा । १.-ति । मृदु पचति । १०। For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८० जैनेन्द्र-व्याकरणम् भ० १ पा० ४ सू० १०१-१०८ सेनासुराच्छायाशाला निशा वा ॥ ११४॥ १०१ ॥ सेना सुरा छाया शाला निशा इत्येवमन्तः षो वा नब्भवति । देवानां सेना देवसेनम् । देवसेना | पिष्टसुरम् । पिष्टसुरा । कुव्यच्छायम् । कुड्यच्छाया । गोशालम् । गोशाला । श्वनिशम् । श्वनिशा । चोरनिशम् । चोरनिशा । इत्येव । सूरसेनो राजा । नत्र्य इत्येव । सेना । परमसेना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वन्द्वे वल्लिङ्गम् ||१|४|१०२ ॥ द्वन्द्वे सेद्योरिव लिङ्गं भवति । इतरेतरयोगद्वन्द्वस्येह ग्रहणम् । तत्र सर्वेषामवयवानां प्राधान्यात् पर्यायेण समुदायलिङ्गे प्राप्ते वचनम् । कुक्कुटमयूर्याविमे रमणीये । मयूरीकुक्कुटाविमौ । यथा "हश्च" [१|४|१४] इति नपुंसकलिङ्गातिदेशः संघातस्य भवति न चावयवस्य निवर्तकः । अधित्रि । अधिकुमारीति । एवामहापि समुदाये लिङ्गातिदेशोऽनुप्रयोगार्थ क्रियमाणो नावयवस्य स्त्रीत्यस्य निवकः । सस्य वल्लिङ्गातिदेशो न वक्तव्यः । विशेष्यवल्लिङ्गवचनानि भवन्ति विशेषणानामित्यनेन सिद्धत्वात् । वर्थस्य तु विशेष्यत्वात् प्राधान्यम् । श्रर्द्धपिप्पली । अर्द्ध कौशातकी शोभना । यत्र पूर्वपदार्थ ः प्रधानं तत्र पूर्वलिङ्गमेव । यथा “प्राप्तापन्नालम् पूर्व तिसलक्षणेषु" । प्राप्तो जीविकां प्राप्तजीविकः । श्रापन्नजीविकः । अलं जीविकायै अलञ्जीविकः । "निरादयः क्रान्ताद्यर्थं कया " [वा०] निष्क्रान्ता कौशाम्ब्या निष्कौशाम्बिः । हृदर्थे रस्य न्यपदार्थप्राधान्यादभिधेयवल्लिङ्गम् । पञ्चसु कपालेषु संस्कृतः पञ्चकपालः पुरोडासः । अश्ववडवी पूर्ववत् ॥ १|४|१०३ ॥ श्रश्ववडवयोरितरेतरयोगे पूर्ववल्लिङ्गं भवति । श्रश्वश्च वडवा ववव । समुदाये लिङ्गातिदशेऽनुप्रयोगार्थं पूर्ववल्लङ्गनिवृत्तिर्नास्तीत्युक्तम् । कथं टापो निवृत्तिः । श्रश्ववडव इति निपातनात् । पूर्ववदिति किमथम् ? अर्थातिदशार्थम् । श्ववडवावित्युच्यमाने वचनान्तरे न स्यात् । अश्ववडवान् पश्य । श्ववडवैः कृतम् । (रात्रो पुसि ||१|४|१०४ ॥ रात्र शब्दौ कृतसान्तौ निर्दिष्टो एतौ पुंसि भवतः । द्वयो रात्र्योः समाहारः द्विरात्रः । “अहः सर्वेकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रेः " [ ४ २८६] इत्यः सान्तः । पूर्वमहः पूर्वाह्नः । अपराह्नः) "पूर्वापरप्रथम" [१ |३|१३] इत्यादिना प्रसः । " राजाहः सखिभ्यष्टः " [४ | २/६३] इति कृते " एभ्योऽहोऽह्नः" [४/२/६० ] इत्यादेशः । उत्तरपदप्राधान्यात् स्त्रीनपुंसके प्रास । अहः ||१|४|१०५|| अह इत्ययं शब्दः पुंसि भवति । द्वयोरहो समाहारः द्वयहः । त्र्यहः । “न समाहारे” [४।२।११] इत्यहादेशप्रतिषेधः । टिखम् । “अनुवाकादयश्चेति वक्तव्यम् [ वा० ] अनुवाकः । सम्प्रवाकः । सूक्लवाकः । पुण्यसुदिनाभ्यां नप ||१|४|१०६ ॥ पुण्यमुदिनाभ्यां परः श्रहशब्दो नब्भवति । पुण्यमहः पुण्याहम् | पुण्यग्रहणं सूत्र उपलक्षणम् । एकादमिति च भवति । विशेषणसविधिः । “पुण्यैकाभ्याम् " [४।२।१२] इति श्रह्लादेशप्रतिषेधः । सुदिन महः सुदिनाहम् । अपथम् ॥१४|१०७॥ अपथं शब्दो नब्भवति । न पन्थाः श्रपथम् | "पथो वा'" [ ४ २ ६८ ] इति प्रतिषेध विकल्पः । "ऋक्पूरुधू पथोऽनक्षे" [४/२/७० ] इति असान्तः । अस्मिन् पयो देशः | अपथा अटवी । "झिसंख्यादेरिति वक्तव्यम्" [ वा० ] [१३८१] इति सः । त्रिपथञ्चतुःपथमिति तासः । For Private And Personal Use Only इत्येव । न विद्यते पन्था उत्पथम् । 'तिकुप्रादयः ” पुंसि चर्चाः ||१|४|१०८ ॥ अर्धर्चादयः शब्दाः पुंसि नपि च वेदितव्याः । श्रर्ध च तत् ऋक् च सार्द्धर्चः । श्रद्ध चम् । गोमय कषाय कार्षापण कुतपकवाट शङ्खादिपाठादवगमः कर्त्तव्यः । " शब्दरूपाश्रया चेयं प्रणीतोभयलिङ्गता । क्वचिदप्यर्थभेदेन शब्देष व्यवतिष्ठते ॥ " पद्मशब्दौ निधिवचनौ पुंल्लिङ्गौ । जलजे द्विलिङ्गौ । भूतशब्दः प्राणिति द्विलिङ्गः । क्रियाशब्दस्याभिधेयवल्लिङ्गम् । सैन्धवशब्दो लवणे द्विलिङ्गोऽन्यत्रामिधेयवल्लिङ्गः । सारशब्दोऽन्याय्येऽर्थे नपुंसक - लिङ्गः । उत्कर्षेऽर्थे पुंल्लिङ्गः । धर्मशब्दोऽपूर्वे पुल्लिङ्गः । तत्साधने नपुंसकलिङ्गः । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.पा. सू० १०३-११६] महावृत्तिसहितम् अगे ॥ ११०६॥ अगे इत्ययमधिकारो वक्ष्यते। "हनो वध लिङि" [ १४] इति । वध्यात् । वध्यास्ताम् । वध्यासुः । "प्रतः खम्" [ ५०] इत्यकारस्य खम् । अग इति किम् ? हन्यात् । अग इति विषयनिर्देशः । श्रादेशे कृतै यो यतः प्राप्नोति स ततो यथा स्यादित्येवमर्थः । श्राख्ये. यम् । भव्यम् । प्रवेयम् । परनिर्देशे हि ण्यः प्रसज्येत । तिकित्येऽदो जन्धिः ॥१४॥११०॥ तकारादौ किति प्ये चागे परतोऽदेर्जग्धिरादेशो भवति । जग्ध्वा । जग्धिः। जग्धवान् । इकार उच्चारणार्थः । "तथोधोऽधः" [२०५६] इति तकारस्य धत्वम् । "झलां जश् झशि [ १२] इति धकारस्य दत्वम् । "झरो झरि स्वे' [शा१३६] इति दखम् । कथमन्नम् ? "प्रदोऽनन्ने" [२।२।६०] इति निपातनात् । प्ये-प्रजग्ध्य । “अनल्विधौ' [00१६] इति स्थानिवद्भावो नास्ति । इदमेव ज्ञापकम् “एकपदाप्रयत्वेनान्तरङ्गानपि जग्ध्यादिविधीन् बहिरङ्गः प्यादेशो बाधते" [१०] तेन प्रधायेत्यत्र हित्वं न भवति । प्रखन्येति "जनसनखनाम्" [१३] इति नित्यमात्वं न भवति । प्रदायेति "दो दोः " [२२११४८] इति दत्त्वं नास्ति । प्रस्थायेति यतिस्यतिमास्था"श२११४४] इत्यादिनेत्वं नास्ति । प्रशम्येति "स्य क्विझलो" [ १३] इति दीत्वं नास्ति । प्रपृच्छय प्रदीव्येति शूठो न भवतः । प्रपठ्येति इडभावः । घस्ल लुङ्घसनच ॥१४।१११॥ अदेघस्ल इत्ययमादेशो भवति लुङि घनि सनि अचि च परतः। लुङि-अघसत् । अघसताम् । अघसन् । घजि-घासः। सनि । जिघत्सति । अजिति पचायचः [२।३।१०६] "गावदः" [२२३६५३] इत्यस्य च सामान्येन ग्रहणम् । प्रात्तिः पावन वा प्रघसः । लिटि वा ॥२४११२॥ लिटि परतः अदेर्घस्लादेशो भवति वा । जघास । जक्षतुः । जक्षुः । श्राद । श्रादतुः। श्रादुः । वेञो वयिः ॥१४॥११३॥ वेञो वयिरादेशो लिटि वा भवति । इकार उच्चारणार्थः । उवाय । जयतुः। ऊयुः। णलि "चस्यैषां लिटि" [१॥३॥१३] इति वकारस्य जिः । “लिटि वेजो यः'' [३।३२] इति यकारस्य जिप्रतिषेधे "हलोऽनादेः" [५।२।१६३] इति खम् । अतुसि उसि च “वचिस्वपियजादीनां किलि" [ ] इति जिः प्राप्तः। 'प्ये च" [१।३।२५] इति प्रतिषिद्धिः। “वो वा किति" [॥३॥३३] इति विभाषया प्राप्तः । "अहिज्यावयि' [३।१२] इति नित्यो जिर्भवति । यदा न वयिस्तदा "प्ये च" [ ३४] इति जिप्रतिषेधे-ववौ। द्विबहोः “वो वा किति'' [ ३३] इति जिपक्षेऊवतुः । अवुः । जौ कृते द्वित्वे च "वार्णाद्गावं बलीयः" [प०] इति उवादेशे कृते "स्वेऽको" [२] दीत्वम् । अजिपने-ववतुः । ववुः । हनो वध लिङि ॥१।४।११४॥ हन्तर्वध इत्ययमादेशो भवति लिङ्यगे परतः । वध इत्यदन्तः उदात्तश्चादेशः। वध्यात् । वध्यास्ताम् । वध्यासुः। श्रखस्य स्थानिवद्भावादवधीरित्यत्र हलन्तलक्षणः "अतोऽनादे:" [२१॥८३] इत्यैप् न भवति । इह वेति न स्मर्यंते । वधक इति प्रकृत्यन्तरस्य । लुङि ॥१४१११५॥ जुङि परतो हन्तेर्वध इत्ययमादेशो भवति । अवधीत् । अवधिष्टाम् । अवधिषुः। उत्तरत्र वानिर्देशादिह नित्यो विधिः । वेजि ॥१।४।११६॥ इङि लुङि परतो हन्तेर्वधादेशो वा भवति । श्रावधिष्ट । श्रावधिषाताम् । श्रावधिषत । श्राहत । अाहसाताम् । श्राहसत । "आङो यमहन:' [ २३] इति दविधिः । "हन: सि" [१८] इति सेः कित्त्वम् । कर्मणि-अवधि । अवधिषाताम् । अवधिषत । भिवावे अघानि । अघानिषाताम् । अधानिषत। र For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ ० १ पा० ४ सू० ११७- १२५ लुङ ्मयेत्योर्गाः ||१|४|११७ ॥ लुङि परतः एत्योर्गा इत्ययमादेशो भवति । श्रगात् । श्रगाताम् । अगुः । श्रध्यगात् । श्रध्यगाताम् । अध्यगुः । "स्थेपित्र " [ १|४|१४६ ] इत्यादिना "इण्वदिकः" इति च सेरुप्। “आत:” [२|४|६०] इति झेर्जुस् । पुनर्लुङ्ग्रहणमिय्यपि नित्यार्थम् । अगायि भवता । श्रध्यगायि भवता । गात्रमिति गायतेः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir णौ गमज्ञाने ||१|४|११८ ॥ णौ परत एत्योर्गमित्ययमादेशो भवत्यज्ञानेऽर्थे । गमयति । गमयतः । गमयन्ति । अनेकार्थत्वादिकोऽप्यज्ञाने वृत्तिः । अधिगमयति । श्रधिगमयतः । अधिगमयन्ति । "उङोऽतः " [५/२।४] इत्यैप् । “जनीजुषक्न सुरज्जोऽमन्ताश्च" इति मित्वम् । " जिणमोर्दीर्मिताम् " [४|४|८६ ]":" [ ४/४/८७ ] इति प्रादेशः । श्रज्ञान इति किम् ? श्रर्थान् संप्रत्याययति । सनि ॥ १|४|११६ ॥ सनि च परत एत्योरज्ञानेऽर्थे गमित्ययमादेशो भवति । जिगमिषति । श्रधिजिगमिश्रति । “मेरिणमे ” [५/१/१०६ ] इतीट् । श्रज्ञान इत्येव । अर्थान् प्रतीविषति । श्रच इति वर्तमाने "सन्यङो:' [४|३|८] इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम् । योगविभाग उत्तरार्थः । इङः ||१|४|१२०॥ सनि परत इङो गमित्ययमादेशो भवति । अविजिगांसते । इङिकावधिगिं न व्यभिचरतः । “हनिङ्गम्यचा सनि" [४|४|१४ ] इति दीत्वम् । गाङ् लिटि ||१|४|१२१ ॥ इङो गाडित्ययमादेशो भवति लिटि परतः । श्रधिजगे । श्रधिजगाते । श्रधिजगिरे । “सेर्ह्यपिच्च” [२।४।७४] इति ज्ञापकादादेशस्य ङिले गाडी ङित्करणं किमर्थम् ? “गाङ्कुटादेरणिन्डित्” । [१।१।७५] इत्यत्र विशेषणार्थः । गायतेर्ग्रहणं मा भूत् । श्रासीद्राथकः इति ईत्वं प्रसज्येत । लुङ्लङोर्वा ||१|४|१२२ ॥ लुङ्लुङोः परत इङो वा गाङादेशो भवति । लुङि - श्रयगीष्ट । श्रध्यगीषाताम् । अध्यगीषत । "गाड् कुटादे::" [१1१/७५] इति ङिवं "भुमास्थागा" [ ४/४/६५ ] इत्यादिनेत्वम् । पक्षे श्रध्यैष्ट । ध्यैषाताम् | श्रध्यैषत । लुङि श्रध्यगीष्यत । श्रध्यगीष्येताम् | श्रध्यगीष्यन्त | पक्षे श्रध्येष्यत । श्रध्येष्येताम् | श्रध्यैष्यन्त । णौ सन्चोः ||१|४|१२३ ॥ णौ सन्परे कच्परे च परतः इङो वा गादेशो भवति । श्रध्यापयितुमिच्छति अधिनिगापयिषति । " प्रकल्ल्यापवादविषयं तत उत्सर्गोऽभिनिविशते " [प०] इति गाङादेशपक्षे “क्रीड्ज़ेर्णे” [ ४ | ३ | ४१ ] इत्यात्वं न भवति । अन्यत्र अध्यापिपविषति । “अच:" [४|३|२] इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम् । कच्परे - अध्यजीगपत् । अन्यत्र अध्यापिपत् । माङ्योगे - मा भवानध्यापिपदिति भत्रति । "णौ कच्युङ:” [२।२।११५] इति प्रादेशे कृते द्वित्वम् । कथं ज्ञायते १ श्रोणतेः ऋदित्करणं ज्ञापकं यदि द्वित्वं प्रागेव स्यात् श्रोण उकारस्यानुङ्भूतत्वात् प्रादेशप्रतिषेधार्थं ऋदित्करणमनर्थकं स्यात् । अस्ति भूवची ||१|४|१२४ ॥ अस्तित्रुजित्येतयोर्यथासंख्यं भूवचि इत्येतावादेशौ भवतः । भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । श्रस्तीति तिपा निर्देशः किमर्थः ? यस्य केवलस्य श्रस्तीति रूपं तस्य यथा 'स्यात् अनुप्रयोगस्य लिट्परस्य मा भूत् । ईहामास । ब्रूञ् - वक्ला । वक्तुम् । वक्तव्यम् । वचैरिकार उच्चारणार्थः । स्थानिवद्भावाद्दः । ऊचे । चक्षः खशाञ ॥१॥४|१२५॥ चक्षः ख्शाञित्ययमादेशो भवति श्रगे । श्राख्शाता । श्राख्याता । "खश: शो यो वा” [५|४|१२४] इति वा यकारादेशः । पर्याख्यानमित्यत्र यकारादेशस्यासिद्धत्वात् शकारेण व्यवहितत्वात् "कृत्यचः" [ ५।४।१०८ ] इति णत्वं न भवति । स्थानिवद्भावेन "अनुदातेतो दः" [११२२६] इति नित्यं दो मा भूत् इति ञित् क्रियते । For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. पा० ४ सू० १२६-१३२] महावृत्तिसहितम् न वर्जने ॥१२४१२६॥ वजनेऽर्थे चक्षः ख्शाआदेशो न भवति । गां संचक्ष्य । वर्जयित्वेत्यर्थः । कण्टकाः संचक्ष्याः। नेति योगविभागादसि युचि च प्रतिषेधः। नृचक्षाः राक्षसः। विचक्षणः। वालिटि ॥१४।१२७॥ लिटि परतो वा चक्षः ख्शात्रादेशो भवति । श्राचख्यो । श्राचख्ये । श्राचचक्षे । पूर्वेण निये प्राप्त ऽयमारम्भः । व्यजोऽघनचोः ॥१४॥१२८॥ अजे|ः वी इत्ययमादेशो भवति अघाचोः परतः । अनुदात्तोऽ यमादेशः। प्रवेता । प्रवायकः। अवनचोरिति किम् ? समाजः । उदाजः । समजः । उदजः । “पशुष्वजः समुदो:" [२।३।५६] इति पशुविषयेऽच । अन्यत्र घञ्। अजिति सामान्यग्रहणं तेन पचादिलक्षणेऽप्यचि प्रतिषेधः । अजतीत्यजः । बहुलं खौ ॥१।४।१२६॥ खुविषये बहुलमजेर्वीभावः । प्रवयणो दण्डः (प्राजनः ।) बहुलग्रहणाधवलादौ च विकल्पः। प्रवेता । प्राजिता। प्रवेतुम् । प्राजितुम् । प्रवयणम् । प्राजनम् । अजिरमित्यौणादिकः शब्दः । समस्या । “समजनिषद" [२।३।८३] इत्यादिना क्यप् । अत्र बहुलवचनान्न भवत्येव । त्रिण्यराजार्षाद्यन्युवणिजोः ॥१२॥१३०॥ भिदन्तात् ण्यन्तात् राजविशेषवाचिवृद्धात् ऋष्यणन्ताच परयोरणिोः यूनि उब. भवति । जितः-तिकस्यापत्वं वृद्धं तैकायनिः । तैकायनेरपत्यं प्राग्दोरण उपितैकायनिः पिता तैकायनिः पुत्रः । विदस्यापत्यं वैदः । वैदस्यापत्यं युवा इञ उपि वैदः पिता वैदः पुत्रः । एयः। कुरोरपत्य कौरव्यः । “कुर्वादेयः' [३।१।१३६] इति ण्यः । कौरव्यस्यापत्यं इत्र उपि कौरव्यः पुत्रोऽपि । इहोवचनसामर्थ्यात् कौरव्पराब्दादिन, । तिकादौ पाठात् फिजपि भवति । कौरव्यायरिणरिति । राज्ञः स्वफलकस्यापत्यं स्वाकल्कः । “कुर्वन्यन्धवृष्णे''[३।१।१०३] इत्यण् । तदन्तादिन उपि स्वाफल्कः पिता। स्वाफल्कः पुत्रः । एवं कलिङ्गत्यापत्यं कालिङ्गः । यजमगधकलिङ्गपूरमलादण' [३।१११५२] इत्यण् । तदन्तादिञ उपि कालिङ्गो युवाऽपि । इह पाञ्चालः पिता पाञ्चालः पुत्रः इति । "जितः" इति वा “राज्ञः' इति वा उप । आर्षात् । वशिष्ठत्यापत्यं "कुर्वृष्यन्धकवृष्णे:'" [३११।१०३] इत्यण् । वाशिष्ठः । तदन्तादिन उपि वाशिष्ठः पुत्रोऽपि । भिएण्यराजार्षादिति किम् ? कुहस्थापत्यं कौहडः। "शिवादिभ्योऽण" [१११०१] इत्यण। तस्याप्यात्यं को डिः । यूनीति किम् ? वामरयत्यापत्यं वामरथ्यः । “कुर्वादेर्यः" [३।१।१३६] । तस्य शिष्या वामस्थाः । वामरथ्यस्य "शकलादिवत्" इत्यतिदेशात् “शकलादिभ्यो वृद्ध" [१२।८७] हति शैषिकोऽण "क्यरच्यना' [४।४।१४१] इत्यादिना यखम् । अणिोरिति किम् ? दक्षस्यापत्यं दाक्षिः । दारपत्यं दाक्षायणः। पैलादेः ॥२४१३२॥ पैलादेः परस्य युक्त्यस्योब् भवति । पीलाया अपत्यं पैजः । "पीलाया वा' [३।१।१०७] इत्यण् । पैलस्थापत्यं 'द्वयवोऽणः'' [३।१।१४३] इति फिन । तस्योप् । पैलः पुत्रोऽपि । अन्य इअन्ताभ्यः परस्य फणः "प्राचामिजोऽतौल्वलिभ्यः'' [१।४।१३२] इति प्राप्ते उपि अप्रागर्थमिदम् । पैलः। सालङ्किः । सात्यकिः पिता | सात्यकिः पुत्रः । सात्य कामिः । औदञ्चिः। बाह्वादिबु उद शब्दः सनकारः पठ्यते । औदमज्जिः । श्रौदद्वाजः । औदमेधिः । औदशुद्धिः। देवस्थानिः । पैङ्गलायनिः। राणायनिः। रोहक्षितिः । भौलिङ्गिः । राजाऽयं शाल्वावयवः । सौमिनिः । श्रौद्वाहमानिः । श्रौज्जिहानिः। औज्जहायिनिः। द्रिसंज्ञाचाणः परस्य युवत्यस्योप। श्राङ्गः । “यचोऽणः" इति फित्र । तस्योप् । प्राकृतिगणोड यम् । तेन वौविजावालि प्रौदन्बरि एतेभ्यः साल्वावयवत्वादि । भाडीजधिः इत्यादि द्रष्टव्यम् । प्राचामिञोऽतौल्वलिभ्यः ॥१।४।१३२॥ प्राचां वृद्धे य इञ् तदन्तायुक्त्यस्योब् भवति तौल्वलि• प्रभूतीन वर्जयित्वा । पानागारिः पिता । पान्नागारिः पुत्रः। मान्थरेषणिः पिता । मान्थरेषणिः पुत्रः । १. "मौदगोहमानिः' म०, स०। For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org R जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ ० १ पा० ४ सू० १३१-१३५ कलम्भः पिता । क्षैरकलग्भिः पुत्रः । “यत्रिजो: " [ ३|१|१० ] इत्यस्य फण उप् । प्राचामिति किम् ? दाक्षिः पिता । दाक्षायणः पुत्रः । श्रतौल्वलिभ्य इति किम् । तौल्वलिः पिता । तौल्वलायनः पुत्रः । तौल्वलिः । धारणिः । स्वालिम्पिः । दैलीपिः । दैवतिः । दैवमित्रिः । दैवमतिः । दैवयज्ञिः । प्राडाइनिः । मांधातः । श्रानुराहतिः । बाह्रादिरयम् । श्रातुतिः । श्राहिसिः । श्रारिः । नैमषिः । श्रासिबन्धकिः । वैङ्कपौष्पिः । पौष्करसादिः । श्रयं बाह्रादौ वैरकिः । वैलकिः ( वैल्यकि: ) । वैहतिः । वैकर्णिः । कारेपालिः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुषु तेनैवास्त्रियाम् || १ |४| १३३ ॥ द्रिसञ्ज्ञकस्य त्यस्य बह्वर्थेषु वर्तमानस्य उबू भवति नैव द्विसञ्ज्ञकेन कृतं बहुत्वं भवति अस्त्रियाम् । श्रङ्गः । आङ्गौः । श्रङ्गाः । ऐक्ष्वाकः । ऐक्ष्वाकौ । इक्ष्वाकवः । अणः अञश्च द्रिरित्यधिकारेण द्रिसञ्ज्ञा स्वार्थिकानामपि " ते द्वय:" [४ | २|१] इति द्रिसञ्ज्ञा । लौहध्वज्यः । लौहध्वज्यौ । लोहध्वजाः । ब्रमित्यः । वैमित्यौ । त्रीहिमताः । “पूगान्म्योऽग्रामणीपूर्वात् [ ४/२/१] इति यः । द्वन्द्वेऽपि सामान्येन द्रिसञ्ज्ञा कृते बहुत्वे भवति श्रङ्गवङ्गसुझाः । देरिति किम् ? श्रौपगवाः । बहुत कम ? श्राङ्गः । श्राङ्गौ । तेनैवेति किम् १ प्रियो वाङ्ग एषामिति प्रियवाङ्गाः । श्रत्र वृत्त्या बहुत्वं गम्यते । श्रतोऽनुवईत्यान्तानामन्येषां च द्वन्द्वे तेनैव कृतं न बहुत्वमित्युम्न भवति । गार्ग्यवात्स्यौपगवाः । ज्ञापका दुबप्यत्र भवतीति केचित् । गर्गवत्सोपगवाः । किं ज्ञापकमिति चेत् "शरद्वच्छुमकदर्भाद् भृगुवसाग्रायणेषु” [३|१|११] इति वचनम् । भार्गव वात्स्याग्रायणेष्विति निर्देशः स्यात् । उभयथाऽपि साधुः प्रयोगः । अस्त्रियामिति किम् । श्राङ्गयः वाङ्मयः स्त्रियः । स्कादिभ्यो वृद्धे ||१|४ | १३४ ॥ यस्क इत्येवमादिभ्यः परस्य वृद्धत्यस्य बहुषु वर्तमानस्यो भवति स्त्रियां तेनैव चेत् कृतं बहुत्वम् । उभयगतिरिह शास्त्रे लौकिकमपि वृद्धं गृह्यते तेनानन्तरापत्ये ऽप्युब् भवति । यास्कः । यास्कौ । यस्काः । “शिवादिभ्योऽय्' [३।१।१०१] इत्यागतस्याण उप् । यस्क लुध द्रुह्य श्रयस्थ तृणकर्ण भलन्दन एतेषां शिवादिषु पाठः । कम्बलहार बहिर्योग कर्णाटक पर्णाटक सदामत्त पिएडीजङ्घ बकसक्थ रक्षोमुख जङ्घारथ उत्कास कटुक मन्थक पुष्करसत् । अस्य "न गोपवनादेः " [१|४|३१८ ] इति प्रतिषेधः प्राप्तः । विषपुट उपरिमेखल पदक भटक भडिल भण्डिल एतेभ्यः "अश्वादेः फल” [३|१|१] इति फञ् । कुद्रि वस्ति विश्रि मित्रयु एतेभ्यः "गृष्ट्यादेः " [३।१।१२४] इति ढय् । वृद्ध इति किम् ? यस्को देवता एषां यास्काः । बहुध्वित्येव । यास्कौ । तेनैव चेत्येव । प्रिययास्काः । अस्त्रियामित्येव । यास्क्यः । I यञञोः ||१|४|१३५|| यश्च श्रञश्च वृद्धे बहुषु वर्त्तमानस्योच् भवति तेनैव चेदूबहुत्वमस्त्रियाम् । गर्गाः । वत्साः । श्रञः । विदाः । ऊर्वाः । "विदादिभ्योऽमृध्यानन्तर्येऽज " [ ३|१|१३] इति श्रञ । बहुवित्येव । गार्ग्यः । वैदः । तेनैवेत्येव । प्रियगार्ग्याः । वृत्याऽत्र बहुत्वं गम्यते । यत्र वृत्यैकत्वं गम्यते यत्रा बहुत्वं तत्रापि भवति । गर्गानतिक्रान्तः प्रतिगर्गः । श्रस्त्रियामित्येव । गार्ग्यः स्त्रियः । " यञः " [ ३।३।१६ ] इति ङोविधिः । “यस्य ङयाच" [ ४|४|१३६ ] इति खम् । "हलो हृतो स्याम्" [ ४|४|१४० ] इति यकारस्य खम् । “यजादीनामेकत्व द्वित्वयोर्वा तासे इति वक्तव्यम्” [ वा० ] गार्ग्यस्य कुलं गार्ग्यकुलम् । गर्गकुलम् | गार्ग्ययोः कुलं गार्ग्यकुलम् । गर्गकुलम् । वैदस्य कुलं वैदकुलम् । विदकुलम् । वैदयोः कुलं वैदकुलम् । विदकुलम् । न वक्तव्यं यदा यञादयो न श्रूयन्ते तदा मूलप्रकृतेस्तासः नियतविषयत्वात् शब्दानां तत उभयं सिध्यति । भृग्वत्रिकुत्स वशिष्ठगोत्तमाङ्गिरोभ्यः ||१|४|१३६ ॥ वृद्ध इति वर्तते । भृग्वादिभ्यः परस्य वृद्धत्यस्य बहुषूभवति । भार्गवः । भार्गवौ । भृगवः । श्रात्रेयः । आत्रेयौ । श्रत्रयः । एवं कुत्साः वशिष्ठाः गौतमाः १. - हिः । तैरूवलिः । धार - ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० : पा० ४ सू० १३७-१४] महावृत्तिसहितम् अङ्गिरसः। अत्रिशब्दात् “इतोऽनिनः" [३११११११] इति ढण् । अन्येभ्य ऋष्यण् । बहुष्वित्येव । भार्गवः। आङ्गिरसः । तेनैवेत्येव प्रियभार्गवाः । अस्त्रियामित्येव । भार्गव्यः स्त्रियः । वृद्ध इत्येव । भृगुर्देवता एषामिति भार्गवाः। इओ बचःप्राच्यभरतेषु ॥१।४।१३७॥ ब्रह्मचो मृदो य इज, तस्य प्राच्यभरतेषु वृद्ध बहुधूमवति । प्रान्नागारिः। पानागारी । पन्नागाराः। एवं मान्थरेषणिः । मान्थरेषणी। मन्थरेषणाः । बहुच इति किम् १ पौष्पयः । प्राच्यभरतेष्विति किम् ? वालाकयः । हास्तिदासयः । ननु भरतः प्राच्य एव तेषां पृथग्रहणं किमर्थम् १ ज्ञापकार्थमन्यत्र प्राच्यग्रहणे भरतग्रहणं न भवतीति । तेन "प्राचामित्रोऽतौल्वलिभ्यः" [११३२] इति अत्र भरतानां युवत्यस्योम्न भवति । यौधिष्ठिरिः पिता यौधिष्ठियययः पुत्रः । ननु युधिष्ठिरादिभ्य इव नास्ति "कुर्वृष्यन्धकवृष्णे: [३।१११०३] इत्यणा भवितव्यम् । इह तहिं उम्न भवति श्रौद्दाल कः पिता प्रौद्दालकायनः पुत्रः। अत्र "प्राचामिजोऽतौल्वलिभ्यः” इति युक्त्यस्योप्प्रसज्येत । एतद्धि प्राच्यभरतगोत्रम् । न गोपवनादः ॥१।४।१३८॥ विदाद्यन्तर्गणो गोपवनादिः । गोपवन इत्येवमादेः परस्य वृद्धत्यस्यो न भवति । गोपवनस्यापत्यानि गौपवनाः । "यो,११३५] इत्यु प्राप्तः । गोपवन शिग्रबिन्दु भाजन अश्वावतान श्यामक श्यामाक श्यापर्ण एते गोपवनादयः। प्राग्धरितशब्दात् परत उभवति । हरिताः। किंदासाः । तौल्बलिप्रभृतयोऽत्र पठ्यन्त इति केचित् । तौल्वलयः । अनन्तरेण उम्प्राप्तः । वोपकादिभ्यः ।।१।४।१३६॥ उपक इत्येवमादिभ्य उत्तरस्य वृद्धत्यस्य वा बहुपून्भवति । उपकस्यापत्यानि उपकाः । श्रौपकायनाः । लमकाः । लामकायनाः । एतौ नडादी । भ्रष्टकाः । भ्राष्टकयः । कपिष्ठलाः। कापिष्ठलयः । कृष्णाजिनाः । कार्णाजिनयः । कृष्णासुन्दराः । कार्णसुन्दरयः । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेनैषामद्वन्द्वे विकल्पः । परिशिष्टानां द्वन्द्व चाद्वन्द्वे च । सुपिष्ट मयूरकण कर्णक पर्णक पिङ्गलक जटिलक बधिरक एतेषां शिवादिषु पाठः। अनुलोमप्रतिलोम एतौ बाहादी । वटारक श्राडारक अभुक्तक [अबन्धक ] उद्दक सुपर्चक सुवर्चक सुवर्मक खरीजङ्घ शलाजच शलायल पतञ्जल कमन्दक कण्ठेरणि कुषीतक काशकृत्स्न निदाघ कलशीकष्ठ दामकण्ठ कृष्णपिङ्गल जतुक अविरग्ध कपिलक प्रतान अनभिहित । तिककितवादिभ्यो द्वन्द्वे ॥१४१४०॥ वेति नानुवर्तते । कतिकितव इत्येवमादिभ्यो द्वन्द्व वृद्धस्य बहुषून् भवति । तैकायनयश्च कैतवायनयश्च तिककितवाः। तिकादिलक्षणस्य फिज उप् । वाङखरयश्व भाण्डीरथयश्व इञ उपि ववरभण्डारथाः। पाटकयश्च नारकयश्च पटकनरकाः। वाकनखयश्च श्वागुदपरिणद्धयश्च वकनखश्वगुदपरिणद्धाः। औब्जयश्च काकुभाश्च ककुभशब्दः शिवादिषु विदादिषु वास्ति उन्जककुमाः। लायश्च शान्तमुखयश्च लङ्कशान्तमुखाः। उरसशब्दस्तिकादो। औरसायनयश्च लाङ्कटयश्च उरसलङ्कटाः। अग्निवेशशब्दो गर्गादौ । अग्निवेशाश्व दाशेरकयश्च अग्निवेशदाशेरकाः। औपकायनाश्च लामकायनाश्च फण उपि उपकलमकाः। भ्राष्टकयश्च कापिठलयश्च भ्रष्टककपिष्ठलाः। कार्णाजिनयश्च कार्ष्णसौन्दरयश्च कृष्णाजिनकृष्णसुन्दराः। कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुण्डिनागस्ती ॥१॥४१४१॥ कौडिन्य श्रागस्त्य इत्येतयोवृद्धत्यस्य बहुषुब् भवति कुण्डिन अगस्ति इत्येतौ चादेशौ यथासङ्ख्यं भवतः। अगस्त्यशब्दात् ऋष्यण् । कुण्डमस्यास्तीति कुण्डिनी नाम काचित् गर्गादौ पठ्यते। कौण्डिन्य । कौण्डिन्यौः । कुण्डिनाः । श्रागस्त्यः । आगस्त्यौः । अगस्तयः । यद्यपि “यो:"[१।४।१३५] इति यत्र उप सिद्धस्तथापि कुण्डिनशब्दोऽकारान्त श्रादेशो विधीयमानो आधकः स्यादिति पुनर्वचनम् । अगस्तीनां छात्रा आगस्तीया इत्यत्र अगस्तिरादेशो भवति । प्राग्द्रवीविषये "वृद्धच्यनुपू' [३।१।७३] इति अनुपि सति “दोश्छः" [३।२।६०] इति छः सिद्धः । कौण्डिन्यशब्दा. च्छस्य बाधकः "शकलादिभ्यो वृद्धे' [३।२।८७] इति अण् भवति । कौण्डिनाश्छात्राः । For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० पा० ४ सू० ११२-११३ सुपो धुमृदोः ॥१।४।१४२॥ धुमृदोरन्तस्यावयवस्य सुप उन्भवति । पुत्रमिच्छत्यात्मनः पुत्रीयति । पटीयति । मृदः-राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः। धर्म श्रितो धर्मश्रितः । तदन्ता धवः'' [२१११२६] इति धुसं. ज्ञायां "कृवृद्धसा" १:११६] मृत्संज्ञायां च सुप उम् । एवं तस्मात्ततः। तस्मिन् तत्र | धुमृदोरिति किम् ? वृक्षः । अत्र “कृद्धत्साः" इति नियमात् विभक्त्या मृत्सञ्ज्ञा नास्ति । शपोऽदादिभ्यः ॥१।४।१४३॥ अदादिभ्यो धुभ्यः परस्य शप उन्भवति । अत्ति । हन्ति । दोग्धि । यङोऽचि ॥१२४१४४॥ यङ उन्भवति अचि परतः । लोलूय पोपूय मरीमृज्य इत्येतेभ्यः पचाद्यचि लोलुवः पोपुवः मरीमृजः । “न धुखेजो" [११।१८] इति एचैपोः प्रतिषेधः । “यङो वा" [५/२।१२] इत्यत्र वक्ष्यत्यविशेषेण यङ उब् भवति । तेन वावदीति इत्येवमादि सिध्यति । उज्जुहोत्यादिभ्यः ॥१।४।१४५॥ शप इति वर्तते । जुहोत्यादिभ्यः परस्य शप उज्भवति । जुहोति । नेनेति । बिभर्ति । उबिति वर्तमाने उज्यहणं द्वित्वाद्यर्थम् ।। स्थेण्पिबभुभूभ्यः सेमें ॥१॥४॥१४६॥ स्था इण् पिब भुसंज्ञक भू इत्येवमादिभ्यः परस्य सेरुन्भवति मे परतः । अस्थात् । अस्थाताम् । अस्थुः । “आत:"[२।४।६०] इति झर्जुस् । अगात् । इ इणिति प्रश्लेषनिर्देशात् इकोऽपि ग्रहणम् । अध्यगात् । अपात् । पित्र इति विकृतनिर्देशात् शोषणार्थस्य निवृत्तिः । प्रतिपदोक्लपरिभाषा चानित्या । तेन "गामादाग्रहणेष्वविशेषः' [१०] इतीदं लब्धम् । भु इति संज्ञानिर्देशः “दाधा स्वपित्। [१२७] इति । अदात् । अदाताम् । अदुः । भु इति भवतेरस्त्यादेशस्य च ग्रहणम् । अभूत् । “सूभवत्योमिडि" [५।२६] इत्येप्रतिषेधः । म इति किम् ? उपास्थिषाताम् । उपास्थिषत | "उपान्मन्त्रकरणे" [१२।२०] "धेः' [१२।२१] इति दविधिः । "भुस्थोरिः" [११११११] इत्याकारस्येव सेः कित्वम् । वानाधेछाशासः ॥१।४।१४७॥ ध्रा धेट छा शा सा इत्येतेभ्यः परस्य सेर्वा उम्भवति मे परतः । अघ्रात् । अनुप् पक्षे “यमरमनमातः स च [५/१।१३२] इति सगिटौ भवतः । “हल्यस्सेः" [५।२।१३] इतीट् । "इटीटः" [ २०] इति से खम् । अघ्रात् । अघासीत् । अधात् । अधासीत् । अदधत् । अच्छात् । अच्छासीत् । न्यशात् । न्यशासीत् । असात । श्रसासीत् । धेटो भुसंज्ञालात् पूर्वण प्राप्त इतरेषामप्राप्ते विकल्पः । म इत्येव । अवासाताम् । अनासत । "स्तुसुधूजो मे" [२१११३१] इत्यधिकाराद्दे सगिटौ न भवतः। तनादिभ्यस्तथासोः॥१४१४८॥ तनादिभ्य उत्तरस्य सेर्वा उन्भवति तथासोः परतः। थासा सहचरितो दसंशस्तो गृह्यते । अतत । अतनिष्ट । उपपदे 'अनुदात्तोपदेश" [४॥३७] इत्यादिना ङखम् । अतथाः। अतनिष्ठाः । षण् । असात । असनिष्ट । उपपक्षे “जनसनखनाम्" [४/७३] इत्यात्वम् । असाथाः । असनिष्ठाः। आमः ॥१।४।१४६॥ श्राम उत्तरस्य संभवाल्लकारस्यो भवति । ईहांचक्रे । ईक्षाञ्चक्रे । लकारस्य कृत्वात् मृत्त्वे सति स्वाद्युत्पत्तिः । “सुपो झे;" [१४१५०] इति सुप उप् । आमन्तस्य पदसंज्ञा | "वा पदान्तस्य" [२११३३] इत्येतत् प्रयोजनम् । सुपो मे ॥१२॥१५०॥ झिसंज्ञादुत्तरस्य सुप उम्भवति । च वा श्रह कृत्वा कत्तुम् । इदमेव ज्ञापकम् । असंख्यादपि सुपो भवन्ति । यदि वा "कर्मणीप्" [१२] इत्येवमादिषु अर्थनियमपने विभक्तीनामनियतत्वात् झिसंज्ञभ्योऽप्युत्पत्तिः । हात् ॥१।४।१५१॥ हसादुत्तरस्त्र सुप उन्भवति । अधिस्त्रि । अधिकुमारि । हसस्य झिसंज्ञा नास्तीत्युक्त तेनायमारम्भः। नातोऽम् त्वकायाः ॥१।४।१५२॥ हसस्य संख्यायोगात् कर्मादियोगाच सर्वासां विभक्तीनां सम्भवः । For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० । सू० १-३ ] महावृत्तिसहितम् हादकारान्तात् परस्य सुप उम्न भवति । अमादेशस्तु भवति सुपः कां विभक्ती वर्जयित्वा । उपकुम्भं तिष्ठति । उपकुम्भ पश्य । उपकुम्भं देहि । श्रत इति किम् ? उपाग्नि । अकाया इति किम् । उपकुम्भादानय । ईभयोर्विभाषा ॥२४॥१५३।। ईप भा इत्येतयोर्विभाषा अमादेशो भवति । उपकुम्भं कृतम् । उपकुम्मेन कृतम् । उपकुम्भं कृतम् । उपकुम्भाभ्यां कृतम् । उपकुम्भं निधेहि । उपकुम्मे निधेहि । व्यवस्थितविभाषेयम् । तेन ऋद्धिनदीससंख्यावयवेभ्यो नित्यममादेशः । ऋद्धौ। सुमद्र कृतम् । सुमगधं कृतम् । नदीसे"नदीभिश्च" [१३१७] इति हसः । उन्मत्तगङ्गम् । द्वियमुनम् । संख्यावयवः-"संख्या वंश्येन" [१॥३॥१६] इति हसः । द्विकौशलम् । त्रिकौशलम् । एकविंशति भारद्वाजम् । लुटोऽन्यस्य डारोरसः ॥१।४।१५४॥ लुटयेऽन्यसंज्ञस्य त्रिकस्य डा रौ रस् इत्येते श्रादेशा भवन्ति । अर्थद्वारकमत्र यथासंख्यम् । शेता। श्रोतारौ । श्रोतारः । अध्येता । अध्येतारौ। अध्येतारः । डा इत्यन्तादेशः। डा या इति प्रश्लेषनिर्देशाद्वानकाल सर्वादेशः। डित्यभस्यापि डिस्करणसामर्थ्याट्टिखम् । रौरसोः परतः "रि" [५।२।१५३] इति सखम् । इत्यभयनन्दिमुनिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥४॥ अध्यायश्च समाप्तः। द्वितीयोऽध्यायः त्यः ॥२१॥ अधिकारेण संज्ञयमा कपः । यदित ऊचमनुक्रमिष्यामः अपूर्व शब्दोपजननं प्रकृतिवाग्विशेषणविकारागमवर्ज यत् त्यसंज्ञ तद वेदितव्यम् । प्रकृतिपादिः। वाक् “कर्मण्यण् २१२१] इत्येवमादावीपा निर्दिष्टम् । विशेषणं "दृतिनाथयोः पशौ हुनः" [२।२।३०] इत्येवमादौ पश्वादि । विकारः सतो भावान्तरावाप्तिः। “दुही घश्च'' [२।२।१] इत्येवमादिषु धकारादिः । आगमः परतन्त्रः । "त्रपुजतुनोः पुक ३।३।१०६] इत्येवमादिः। युक्तिरुच्यते निमित्त कार्यन निमित्तिस्येति प्रकृतिवागुपाधीनामग्रहणम् । अथवा भाव्यमानविभक्तीनिर्दिष्टं सन्नादि प्रधानं भूतविभक्तीनिर्दिष्टं प्रकृत्याद्यप्रधानं प्रधाने च कार्यसम्प्रत्ययः । विकारागमयोस्तु “पर:"[१२] इत्यनेन निरासः; नहि तयोः परत्वसम्भवः । वक्ष्यति तव्यानीयौ । कर्तव्यः । करणीयः । प्रतियन्ति तेनार्थमिति प्रत्ययः। “पुखौघः प्रायेण" [२।३।१००] इति घः । एवं यद्यन्वर्था संज्ञा क्रियेत तदा प्रकृतेः सविभक्तिकस्य वा पदस्य त्यसंज्ञा स्यात् । त्यप्रदेशाः “यत्ये तदादि गुः" [ १०] इत्येवमादयः। परः ॥२॥२२॥ परिभाषेयं नियमार्था । पर एव भवति धोम दो वा यस्त्यसंज्ञः । कर्तव्यः । करणीयः । औपगवः । धोरित्येवमादौ दिग्योगलक्षणकानिर्देशेऽपि पूर्वशब्दस्याध्याहारः स्यादिति परत्वं न लभ्यते इप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः'' [१।११६०] इत्यत्र यदि कार्य परमुच्यते तत्तानिर्दिष्टस्येति । न च सनादयस्तानिर्दिष्टाः। अथासतः प्रादुर्भावः पर उच्यते एवं सति नियमार्थमिदं त्यपरैव प्रकृतिः प्रयोक्लव्या न केवला। गुप्तिजकिदभ्यः सन् ॥२॥१॥३॥ त्य इति वर्तते । गुप् तिज् कित् इत्येतेभ्यः परः सन् भवति । जगप्सते । तितिक्षते । चिकित्सति । धुसंशब्दनेनाविधानात् अगसंज्ञा नास्ति । तेन नेडागमः । "निन्दाक्षमारोगापनयेष यथाक्रम सन्निष्यते"वा.]। गोपननिशाननिवासादिषु न भवति । गोपनं गोपायति । तेजनं तेजयति । निकेतनं निकेतयति । भुवादिषु पाठः किमर्थः ? "अस्त्यात्' [२।३।८५] इत्यकारो यथा स्यात् । १. न्दिविर-म०, ब०, स० । २.-स्तीति ने-अ० । ३. जुगुप्स तितिक्ष चिकित्सेत्यादीनां भ्वादिषु पृथक् पाठाकरणम् अस्यादित्यर्थमित्याशयः कश्चिदुग्नेयः । For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पद जैनेन्द्र-व्याकरणम् जुगुप्सा । तितिक्षा | चिकित्सा । सनोऽकारोपदेशः प्रतीषिषतीत्यादौ श्रवणार्थः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [अ० २ पा० १ सू० ४-६ "एक देशकृतं किङ्ग समुदायविशेषणम् । अनुदात्तेत्वमाद्याभ्यां तेनायं दो विधीयते ।” मान्बधदानशानभ्यो दीश्वस्य || २|१|४|| मान् वध दान शान् इत्येतेभ्यः सन् भवति दीश्च चस्येकारस्य । मीमांसते । बीभत्सते । दीदांसते । शीशांसति । शीशांसते । श्राद्यावनुदात्तेतौ । परौ स्वरितैतौ । "वविकारेष्वपवादा उत्सर्गान्न बाधन्ते " [१०] इति कृतेकारस्य चस्य दीत्वम् । अत्रापि "जिज्ञासावैरूप्यार्जवनिशानेषु यथाक्रमं सन्निष्यते” [वा०] । पूजाबधनावखण्डनतेजनेषु न भवति । मानयति । बाधयति । दानयति । निशानयति । दान उत्तरत्र वेति व्यवस्थितविभाषा । तदवलोकनादयं विभागः । तुमच्छायां धोर्वो || २|१|५|| इच्छायां तुमि यो धुस्तस्मात् सन् वा भवति तुमश्चोन्भवति यदा सन् । कर्तुमिच्छति चिकीर्षति । बुभुक्षते । श्रयं 'हीच्छायां तुम् विहितः । हेतुफलयोरित्यधिकृत्य “इच्छार्थे लिलोटौ ” [२/३/१३३] "तुमेककर्तृके” [२।३।१३४] इति वचनात् । इहापि सामान्यविशेषभावेन हेतुफलभावोऽस्ति । एषितुमिच्छति एषिविषति । तुमिति किम् ? इच्छायामित्युच्यमाने इच्छार्थानामिषिवाञ्छ्यादीनां ग्रहणं स्यात् । तुम्ग्रहणे सति इच्छायामित्येतत्तुमो विशेषणम् । इच्छायामुपलक्षिते तुमीति । तेन यत्र तुमो निमित्तं हेतुफलभावो नास्ति तत्र न भवति । इच्छति कटं करोति चैनम् । भिन्नकर्तृ कत्वे च न भवति । इच्छति देवदत्तः कटं कुर्याजिनदत्तः । यत्र तुम् नास्ति तत्र च न भवति । इच्छायामिति किम् ? कत्तु गच्छति । अत्र "तुम क्रियायां तदर्थायाम्" [२३८] इति तुम् । धोरिति किम् १ प्रकर्तुमैच्छत् प्राचिकीर्षत् । सगेरुत्पतिर्मा भूत् । श्रगसंज्ञार्थं च धुग्रहणम् । वाग्रहणाद्वाक्यस्यापि साधुत्वम् । इहोपचारात् सिद्धम् । पिपतिषतीव पिपतिषति कूलम् । मुमूर्षतीव मुमूर्षति श्वा । वेति व्यवस्थितविभाषा । तैनेच्छासन्नन्तात् सन्न भवति । चिकीर्षितुमिच्छति । अनिच्छासन्नन्ताद्भवति । जुजुगुप्सिषते । "Haversary मत्वर्थः शैषिकस्तथा । सरूपत्यविर्धिष्टः सन्नन्तान सनिष्यते ॥" स्वेपः कयच् ||२||६|| स्वस्य यदिवन्तं तस्मादिच्छायां वा क्यज् भवति । श्रात्मनः पुत्रमिच्छति पुत्रीयति । पटीयति । ककारो "नः क्ये ' ' [ १|२|१०४ ] इत्यत्र सामान्यग्रहणार्थः । चकारः सामान्यग्रहणाविघातार्थः । तेन 'एकानुबन्धग्रहणे न द्वचनुबन्धकस्य'' [१०] इत्ययं विधातो नास्ति । स्वग्रहणं किम् ९ पुत्रमिच्छति ब्रह्मचारी मरणमिच्छति दुर्जनः । अत्र परस्येति गम्यते । इविति किम् ? पुत्र इच्छति । पुत्राय इच्छति । वाक्यात् कस्मान्न भवति । महान्तं पुत्रमिच्छति वाक्यस्यानिबन्तत्वात् । श्रवयवाद सामर्थ्यान्न भवति । कर्मोक्लमत्र क्यचा तेन कर्त्तरि भावे च प्रयोगः । पुत्रीयति । पुत्रीयते श्रनेन । वेत्यनुवृत्तेर्भमन्तेभ्यो न भवति । उच्चैरिच्छति । इदमिच्छति । किमिच्छति । || २|१|७|| स्वस्य यदिवन्तं तस्माद्वा काम्यो भवतीच्छायाम् । पुत्रमिच्छत्यात्मनः पुत्रकाम्यति । पटकाम्यति । ककारस्य प्रयोगार्हत्वादित्संज्ञा नास्ति । योगविभागादुत्तरत्र क्यच एवानुवृत्तिर्न काम्यस्य । गौणादाचारे ॥२|१|८|| गौणममुख्यमाचरण क्रियायामुपमानमित्यर्थः । गौणादिबन्तादाचारेऽर्थे वा क्यज् भवति । पुत्रमिवाचरति पुत्रीयति छात्रम् । प्रावारयति कम्बलम् । व्यवस्थितविभाषाधिकारादीप्यपि भवति । प्रासादीयति कुट्ये | कर्तुः काङ सखं विभाषा ॥ २१६ ॥ कत्तु गौणादाचारेऽर्थे वा क्यङ् भवति यद्यन्ते सकारस्तस्य च खं विभाषया । इह कर्तृग्रहणादिम्न सम्भवति सुबन्तात् क्यङ । श्येन इव श्राचरति काकः श्येनायते । कुमुदं पुष्करायते । व्यवस्थितविभाषेयम् । “ओजोऽप्सरसोर्नित्यं पयसस्तु विभाषया सखम् " [ वा० ] | For Private And Personal Use Only १. यदीच्छा - ० । २. पा० भाष्ये "शैषिकान्मतुवर्थीयाच्छेषिको मतुबर्थिकः । सरूपः प्रत्ययो नेष्टः सन्नन्ताच्च सनिष्यते ॥" इत्येवंरूपः । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० १ सू० १०-१५ ] महावृत्तिसहितम् ζε श्रोजस्वी वाचरति श्रजायते । वृत्तिविषये मत्वर्थीयः क्योक्तः । अप्सरायते । मथितं पयायते पयस्यते । श्रस खपक्षे “नः क्ये” [१।२/१०४ ] इति नियमात् पदत्वाभावे रित्वादिविधिर्न भवति । कर्त्तुरिति सखापेक्षया तया विपरिणम्यते तेनान्त्यस्य खम् । इह न भवति । सारसायते । " श्राचारे सर्वमृद्भ्यः किन्वा भवतीत्येके" [aro] अश्व इवाचरति श्रश्वति । श्रश्वायते । भृशादेश्च्वौ हलो भुवि ॥ २|१|१०॥ कर्तुरिति वर्तते । भृश इत्येवमादिभ्यः व्यर्थे वर्तमा नेभ्यो भवत्यर्थे वा क्यङः भवति यद्यन्ते हल् तस्य च नित्यं खम् । च्चिर्विकल्पेन विधीयते । यत्र नोत्पद्यते तत्रायं क्यङ् । श्रभृशो भृशो भवति भृशायते । भृश शीघ्र चपल पण्डित उत्सुक । नात्र गेर्बहिर्भावः । उन्मनस् सुमनस् दुर्मनस् अभिमनस् । संग्राम युद्ध इति ज्ञापकादुदादीनामडागमादिषु बहिर्भावः । हत् वेहत् शश्वत् तृपत् वर्चस् जस् त्राएडर शुचि मन्द नील मद्र फेन हरित । लोहितात् क्ष् ॥२|१|११|| डाजन्ताल्लोहितशब्दाच्च व्यर्थाद्भवत्यर्थे वा क्यष् भवति । व्यर्थग्रहणं लोहितस्य विशेषणं न डाजन्तस्याव्यभिचारात् । पटपटायति । पटपटायते । यदा न क्यष् तदा पटपटाभवतीति प्रयोगः । लोहितो लोहितो भवति लोहितायति । लोहितायते । एवं हि "नः क्ये" [१।२1१०४ ] इत्यत्र सामान्यग्रहणार्थ: ककारः शोभेत यदि चर्मादिभ्योऽपि स्यात् । चर्मायति । चर्मायते । निद्रायति । निद्रायते । करुणायति । करुणायते । कृपायति । कृपायते । वृत्तिविषये मत्वर्थीयः क्यषाऽभिहितः । कष्टाय || २|१|१२|| क्यङ् अनुवर्तते । कष्टायेति तादर्थ्य प् । कष्टाय ये शब्दा वर्तन्ते तेभ्यः क्य भवति । कष्टार्थादिति वक्तव्यम् । चन्तनिर्देशः समर्थविभक्त्युपादानार्थः । श्रभिधानवशात् क्रमणेऽनार्जवे क्यङ् द्रष्टव्यः । यथा “नमोवरिवश्चित्रङः क्यच्" [२।१।१६ ] इत्यत्र पूजाद्यर्थनियमः । कष्टाय कर्मणे क्रामति कष्टायते । नार्जवं पापं करोतीत्यर्थः । सत्राय कर्मणे क्रामति सत्रायते । कक्षायते । गहनायते । अनार्जव इति किम् १ श्रजः कष्टं क्रामति । नात्र पापं गम्यते । वाष्पमादुमे ॥ २|१|१३|| इप इति वर्तते । वाष्प ऊष्मन् फेन इत्येतेभ्यः उद्धम इत्यर्थे क्य भवति । वाष्पमुद्रमति वाष्पायते । ऊष्माणमुद्व मति ऊष्मायते । फेनायते । रोमन्थतपःशब्दवैरकलहायक एवमेघात् कृषि ||२| १|१४|| रोमन्य तपस् शब्द वैर कलह ara मेघ इत्येतेभ्यः करोत्यर्थे क्यङ् भवति । रोमन्थं करोति रोमन्थायते गौः । अत्र करोतिः क्रियासामान्ये वर्तमानोऽपि श्रभ्यवहृतचर्वणक्रियायां गृह्यते । तेनेह न भवति । कीटको रोमन्थं वर्तयति । "तपसो ति वक्ष्यम्" [ वा० ] तपः करोति तपस्यति । तपश्चरतीत्यर्थः । शब्दं करोति शब्दायते । वैरायते । कलहायते । श्रभ्रायते । कण्वायते । पापं करोतीत्यर्थः । मेघायते । तत्करोतीत्यस्मिन्नर्थे णिजपि भवति । शब्दयति । वैरयति । "सुदिनदुर्दिन नीहारेभ्यश्चेति वक्तव्यम्" [वा०] सुदिनायते । दुर्दिनायते । नीहारायते । “टाट्टाशीकाकोटपोटासोटाष्टाभ्योऽपीति केचित् ।" [ वा० ] टायते । श्रट्टायते । शीकायते । कोटायते । पोटायते । सोटायते । प्रुष्टायते । सुखादेः स्वभोगे || २|१|१५|| भोगोऽनुभवो वेदना वा । सुख इत्येवमादिभ्य इवन्तेभ्यः स्वभोगे क्यङ ू भवति । सुखमात्मनः करोति सुखायते । सुखं भुक्त अनुभवति वेदयतीत्यनर्थान्तरम् । एवं दुःखायते । सुख दुःख तृप्त कृच्छ्र अस अलीक करुण कृपण सोढ प्रतीप । स्वभोग इति किम् ? सुखं करोति प्रसाधको देवदत्तस्य । १. वस्य नित्यं खम् ब०, स० मु० । २. कुण्ठ अ०, ब०, स० । ३. कण्ठ अ०, ब०, स० । ४. कण्ठायते अ०, ब०, स० । १२ For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० १ सू० १६-२१ नमोवरिवश्चित्रङः क्यच ॥२॥१११६॥ कृतीति वर्तते । नमस् वरिवस् चित्रङ इत्येतेभ्यः क्यज भवति करोत्यर्थे । पूजापरिचर्याश्चर्यविशेषे । नमः करोति नमस्यति देवान् । अत्र नमःशब्दस्यानर्थकत्वात्तद्योगे नाब् भवति । वरिवः करोति वरिवस्यति गुरून् । चित्रङ् करोति चित्रीयते । ङित्वाद्दः । पूजादिभ्योऽन्यत्र नमः करोतीति भवति । पुच्छभाण्डचीवराणिङ ॥२।१।१७॥ पुच्छ भाण्ड चीवर इत्येतेभ्य इबन्तेभ्यो णिङ् भवति करोत्यर्थविशेषे। कोऽसौ विशेषः । "पुच्छादुदसने पयंसने वा" [वा०] उत्पुच्छयते । परिपुच्छयते । “भाण्डासञ्जयने परिचयने वा" [वा०] संभाण्डयते परिभाण्डयते । "चीवरावर्जने परिधाने वा" [वा.] संचीवरयते भिक्षुः । णकारः "णाविष्टवस्मृदः" [१४१४४] इत्यत्र सामान्यग्रहणाविघातार्थः । अर्थविशेषादन्यत्र शिजेव भवति । मुण्डमिश्रलक्षणलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्यो णिच् ॥२॥१॥१८॥ मुण्ड इत्येवमादिभ्य इबन्तेभ्यो णिज् भवति करोत्यर्थे । चुरादिषु "मृदो ध्वर्थ" इति णिचि सिद्धे अर्थविशेषपरिग्रहार्थमिदम् । च्च्यर्थे वायमिति केचित् । अमुण्डं मुण्डं करोति मुण्डयति । मिश्रयति । श्लक्ष्णयति । लवणयति । "व्रताशोजने तन्निवृत्तौ च [वा०] पयो व्रतयति । पयो भुते इत्यर्थः । सावधं व्रतयति । सावधं न भुङ्क्ते इत्यर्थः। 'वस्त्रात् समाच्छादने" [वा०] वस्त्रेण संच्छादयति संवस्त्रयति । हलिं गृह्णाति हलयति । कलिं गृहाति कलयति । "हलिकल्योरकारान्तता णिचा योगे निपात्यते" [वा.1 "धौ कच्यनक्खे सन्वत्" [श२११८१] इति सन्वद्भावप्रतिषेधार्थम् । कलिं गृहीतवानचकलत्। अजहलत् । अन्यथा परत्वादैपि कृते टिखं स्यात ततः सन्वद्भावः प्रसज्येत । यथा अलीलघत् अपीपटत् इति । कृतं गृह्णाति कृतयति । तस्तानि केशजटाः विहन्ति वितूस्तयति । धोर्य क्रियासमभिहारे ॥२।१।१६॥ पौनःपुन्यं भृशार्थी वा क्रियासमभिहारः । धोर्यङ् भवति क्रियासमभिहारे । पुनः पुनः पचति भृशं वा पापच्यते। बोभुज्यते । क्रियान्तरैरव्यवहितायाः प्रधानभूतविक्लेदनक्रियायाः पुनः पुनरारम्भः पोनःपुन्यम् । गुणभूताधिश्रयणादिक्रियाणां क्रियान्तरैरव्यवहितानां साकल्येन करणं भृशार्थता। सूचिसूत्रिमून्यट्यर्त्यशोंतीनां ग्रहणं नियमार्थ कर्त्तव्यम् । सोसूच्यते । सोसूच्यते । मोमत्र्यते । अनेकाऽभ्य एव नान्यस्मात् । अत्यर्थं जागीति । अटाट्यते । अरार्यते । “यङि" [१२।१३६] इत्येप् । अत्यर्थमश्नुते अशाश्यते । प्रोन्यते । अट्यादिग्रहणं किमर्थम् १ अन्यस्मादजादेर्मा भूत् । भृशमीक्षते । पुनः पुनरीहते। क्रियासमभिहारे सर्वस्य द्वित्वे वेति विभाषानुवर्तते । तेन यङन्तस्य द्वित्वं न भवति । तत एव क्रियासमभिहारे यो लोट् तदन्तस्य भवति । लोलूयस्व लोलूयस्व इत्येवायं लोलूयते । धोरिति किम् १ सगेरुत्पत्तिर्मा भूत् । अगसंज्ञार्थं च धुग्रहणम्। पेपीयते । "शुभिरुचिभ्यां प्रतिषेधो वक्तव्यः" [वा०] । अत्यर्थं शोभते । अत्यर्थ रोचते । नित्यं गतिविशेषे ।।२।१॥२०॥ नित्यं यङः भवति गतिविशेषे गम्यमाने । चक्रम्यते । दन्द्रम्यते । श्रावनीवच्यते । गतिविशेषो हि यडन्तवाच्यः । तेनास्वपदेनार्थमात्रकथनमिदं कुटिलं क्रामतीति । नित्यग्रहणं तु विषयनियमार्थम् । एतयोर्योगयोर्गतिविशेष एवं गहें 'व यङ् यथा स्यात् क्रियासमभिहारे मा भूत् । भृशं कामति । भृशं लुम्पति । लुपसदचरजपजभदहगृदशो गहें ॥२॥१॥२१॥ लुपादिभ्यो गहें गम्यमाने नित्यं यङ् भवति । प्रत्यासत्तेव॑र्थस्य गर्हो गृह्यते न साधनस्य । अनर्थकं लुम्पति लोलुप्यते । सासद्यते । चञ्चूर्यते । जञ्जप्यते । जजभ्यते। दन्दह्यते । निजेगिल्यते । दन्दश्यते । दशेः कृतनखस्य निर्देशाद्ययपि खं भवतीति केचित् । दंदशीति । तदयुक्तं सोत्रत्वान्निर्देशस्य । गहँ इति किम् ? सुखं सीदति स्वगृहे। For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० २ ० १ सू० २२-२७ ] महावृत्तिसहितम् पाशरूपवीणातूल श्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादेर्णिच ||२||२२|| पाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यश्च णिज् भवति । चुरादौ "मृदो ध्वर्थ" इति सिद्धेऽपि अर्थ विशेषपरिग्रहार्थं पाशादेः पृथग्ग्रहणम् । “पाशाद्विमोचने" ( वा०] पाशं विमोचयति विपाशयति । "रूपाद्दर्शने [बा०] रूपं दर्शयति रूपयति । वीणया उपगायति उपवीणयति । तूलैरनुकुष्णाति अनुतृलयति । श्लोकै: रुपस्तौति उपश्लोकयति । सेनया अभियाति श्रभिषेणयति । लोमान्यनुमार्ष्टि अनुलोमयति । त्वचं गृह्णाति त्वचयति । त्वच इति अकारान्तनिपातनात् परेऽचः पूर्वविधौ " [1111२७ ] इत्यखस्य स्थानिवद्भावात् “उङोऽतः” [५।२।४] इत्यैन्न भवति । वर्मणा सन्नह्यति संवर्मयति । वर्णान् गृह्णाति वर्णयति । चूर्णैरवकिरति श्रवध्वंसयति वा श्रवचूर्णयति । चुरादिभ्यः चोरयति । मन्त्रयते । ६१ श्रचार्थवेदसत्यानाम् |||२१|२३|| अर्थ वेद सत्य इत्येतेषां श्राकारश्चान्तादेशो भवति णिच्च । अर्थमा अर्थापयति । वेदापयति । सत्यापयति । तुम ||२||२४|| हेतुस्तद्योजकः । हेतुमति ध्वर्थेऽभिधेये णिज् भवति ग्रन्येषां दर्शनं प्रयोजकव्यापारः प्रेषणाध्येषणरूपों हेतुमान् तस्मिन्नभिधेये णिज् भवति । कटं कारयति । श्रोदनं पाचयति । वाग्विसों हेतुव्यापारः । क्वचित् समर्थाचरणम् । यथा भिक्षा वासयति । कारीषोऽग्निरध्यापयति । "माख्यानात् कृतस्तदाचष्ट इति कृदुपप्रत्यापत्तिः प्रकृतिवच्च कारकमिति" [वा०] श्राख्यायते यत्तदाख्यातं तस्मात् कृदन्तात् श्राचष्ट इत्यस्मिन्नर्थे णिज् वक्तव्यः कृदुष्प्रकृतिप्रत्यः पत्तिः, प्रकृतिवच्च कारकं भवतीति वक्त. व्यम् | कंसवधमाचष्टे कंसं घातयति । वलिबन्धमाचष्टे बलिं बन्धयति । राजागममाचष्टे राजानमागमयति । “श्याख्यानशहदात्प्रतिषेधो वक्तव्य:" [वा०] श्राख्यानमाचष्टे इति वाक्यमेव भवति । मृगरमणमाचष्टे मृगान् रमयति । यदा ग्रामे मृगरमणमाचष्टे तदा नेष्यते । "श्रानिवृत्तिश्च कालात्यन्तसंयोगे मर्यादायाम्" [वा०] कृदन्तात् णिच् तदाचष्टे इति कृदुप्प्रकृतिप्रत्यापत्तिः प्रकृतिवच्च कारकमिति वर्तते । श्रारात्रिविवासमाचष्टे रात्रिं विवासयति । "चित्रीकरणे च प्राप्त्यर्थे णिच् वक्तव्यः " [वा०] (उज्जयिन्याः प्रस्थितो माहिष्मत्यां सूर्योद्र मनं सम्भावयति सूर्यमुद्रमयति । "नक्षत्रयोगे ज्ञार्थे” [वा०] पुष्येण योग जानाति पुष्येण योजयति । चन्द्रमसा मघाभियोगं जानाति मानिर्योजयति । नेदं बहु वक्तव्यमत्रापि कथञ्चिद्धेतुव्यापारोऽस्ति बहुलग्रहणाद्वा सिद्धम् । कण्डवादेर्यक् ॥२|१|२५|| कण्डूञ् इत्येवमादिभ्यो यक् भवति । यकः कित्करणं प्रतिषेधार्थ ज्ञापकमिह कण्डवादयो धवो गृह्यन्ते न मृद्रूपाणि (मृद्रूपाः) । कण्डूञहणी अदिषु दीत्वोच्चारणं ज्ञापकं विकल्पेन धुरूपतैषामन्यथा "दोरकृद् गे" [११२११३४ ] इति दीत्वेनाप्येतत्सिद्धयेत । तेन मृत्पदे कण्डुः मन्तुः वल्गुः इत्यादिप्रयोगा ज्ञातव्याः कण्डूयति । कण्डूयते । कण्डूतिः । मन्तूयति । कण्डूञ् मन्तु वल्गु असङ हरणीङ महीङ् वेटलीङ् । ङकारो दविध्यर्थः । इयस् इरस् तिरस् मगधस् पम्पस् कुषुभ उपस् तन्तस् सुख दुःख भिषज् भिष्णुज् श्ररर चुरण तुरण तरण सरण (चरण) सपर इषुध इषुभ गद्गद एला वेला केला खेला लेट् लोट् उरस् । अकारान्तानाम् श्रतः खम् । गुपूधूपविच्छिणिपनेयः ||२| १|२६|| गुपू धूप विच्छि परिण पनि इत्येतेभ्यो धुभ्य ग्रायो भवति । गोपायति । धूपायति । विछेरन्तरङ्गत्वात्तुकि कृते श्रायः । विच्छायति । अनुदात्तेत्त्वं केवले चरितार्थमिति दो न भवति । गुपादिभिर्भीवादिकैः साहचर्यात्पणेभवादिकस्य ग्रहणं न तौदादिकस्य । शतस्य पणते । "व्यवह्नपणोः सामथ्र्यै'' [१।४।६४ ] इति कर्मणि ता । पनिरिहैव पणिना समानार्थः उपदिश्यते । पनयति । For Private And Personal Use Only वागे || २|१|२७|| गविषये गुपादिभ्यो वा श्रायेो भवति । गोपायिता । गोप्ता । गोपायांचकार । जुगोप । गोपाया । गुप्तिः । इत्येवमादि योज्यम् । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० । सू० २८-३६ कमृत्योर्णिङोयङ् ॥२१॥२८॥ सूत्रत्वात्कायाः स्थाने ता कृता । कम् ऋति इत्येताभ्यां णिङ् ईयङ् इत्येतो त्यौ भवतः। कामयते । णकारः ऐबर्थः। "न कम्यभिचमाम्" इत्यत्र कमेर्मित्संज्ञाप्रतिषेधः किमर्थः ? "अिणमोर्दीमिताम्'' [४।८६] इति वा प्रादेशो मा भूदित्येवमर्थः । अकामि । कामं कामम् । “वाऽगे" [२१२७] इति णिडोऽनुत्पत्तौ णिज्निमित्तस्यैपः प्रादेशनिवृत्यर्थश्च । डकारो दविध्यर्थः । क्तिीत्येप्रतिषेधार्थ न भवति इकस्तत्रानुवृत्तेः। ऋतिरिहैव घृणार्थमुपदिश्यते ऋतीयते । वाऽग इति च वर्तते । तेन कमिता। कामयिता । अर्तिता। ऋतीयिता। तदन्ता घवः ॥ २६|| येऽनुकान्ताः सनादयस्ते अन्ता येषां ते धुसम्शका भवन्ति । तथा चैवीदाहृतम् । पदसंज्ञायामन्तग्रहणं नियमार्थमुक्तम् । अन्यत्र "संज्ञाविधौ त्यग्रहणे तदन्तविधिर्नास्ति' [१०] इति एष प्रतिषेधो मा भूदित्यन्तग्रहणम् । स्यतासी ललुटोः ॥२॥१॥३०॥ न इति लुङ्लटोः सामान्येन ग्रहणम् । धोः स्यतासी इत्येतौ मध्ये त्यौ भवतः लुलुटोः परतः । शब्दापेक्षमत्र यथासंख्यम् । धोरधिकारात् पूर्वभवतानिवृत्तिः । अगा संज्ञा च । भावकर्मकर्तृषु लो विहितः । तत्र यशपावुत्सर्गौ स्यादयस्तदपवादाः । करिष्यति । अकरिष्यत् । कर्ता । तासेरिदित्करणं किम् ? "हलुङ : क्छित्यनिदितः'' [४।४।२३] इति नखप्रतिषेधार्थम् । हन्ता । मन्ता। कास्यनेकाच्याल्लिट्याम् ॥२॥१॥३१॥ कासेरनेकाचस्त्यान्ताच लिटि परतः श्राम्भवति । कासाञ्चक्रे । अनेकाभ्यः-चकासाञ्चकार । पुलुम्प इति सौत्रो धुः । चुलुम्पाञ्चकार । दरिद्राञ्चकार । त्यान्तात्-लोलूयाञ्चके । कारयाञ्चके । गवाञ्चकार । “आचारार्थं सर्वमृद्भ्यः" इति विप् । अनेकान्ग्रहणमत्यान्तार्थम् । श्रामिति नायमागमः। कासेर्विधानात् । सरोरिजादेः ॥२॥१॥३२॥ सह रुणा वर्तते इति सरुः । सरोरिजादेोः लिट्याम्भवति । ईहाञ्चक्ने । इन्दाञ्चकार । उपदेशावस्थायां नुम् । ऊ हाञ्चक्रे । उञ्छाञ्चकार । उदम्भाञ्चकार । सरोरिति किम् ? इयेष । अनोखा एपि कते सरुरिति चेत: "सन्निपातलक्षणो विधिरनिमिरी तद्विधातस्य [10] इति न भवति । इजादेरिति किम् ? ततक्ष । “ऋच्छत्यताम्" [५।२।२३] इति लिट्ये वचनं ज्ञापकं ऋच्छेराग्न भवति । श्रानर्छ । आनछुतुः । श्रानच्छुः । कथं प्रोणुनाव १ "वाच्य अर्णोर्णवद्भावो यङ्प्रसिद्धि प्रयोजनम् । आमश्च प्रति. षेधार्थमेकाचश्चेनिवृत्तये" । प्रोणुनूषति । “सनिग्रहश्चा' [शा११८] इतीट्पतिषेधः। __ दयायासः ॥२॥१॥३३॥ दय अय आस इत्येतेभ्यश्च लिटि आम्भवति । दवाञ्चके । पलायाञ्चक्रे । "गेरयतौ' [२३।३०] इति लखम् । अासाञ्चक्रे । वोषजागृविदात् ॥२॥१॥३४॥ उघ जाय विद् इत्येतेभ्यश्च लिटि परतो वा आम् भवति । श्रोषाञ्चकार । उवोष । जागराञ्चकार । जजागार । विदाञ्चकार । विवेद । विदेराम्यकारान्तत्वनिपातनात् एम्न भवति । जागृसाहचर्यादादादिकस्य ग्रहणम् । __ भोहो¥हुवामुज्वत् ॥२॥१॥३५॥ भी ह्री भृ हु इत्येतेभ्यो लिटि पाम् भवति उचीव कार्य भवत्येषाम् ,उचि कार्य द्वित्वमित्येव । तदतिदिश्यते । लिडपेक्षं द्वित्वमामा व्यवधानान प्राप्नोति । बिभयाञ्चकार । बिभाय । जिह्रयाञ्चकार । जिह्राय । बिभराञ्चकार। बभार । “भृतां त्रयाणाम्" [५।२।१७५] इति चस्ये. त्वम् । जुहवाञ्चकार । जुहाव । लिड्वत् कृमि ॥२१॥३६॥ कृत्रिति प्रत्याहारेण कृभ्वस्तीनां त्रयाणां ग्रहणम् । मण्डूकप्लुत्या वेति विभाषाऽपेक्षणीया । तेन सम्पदो बहिर्भावः । य उक्त अाम् स लिवकृषि प्रयुक्त साधुर्भवति । लिड्वत् कृत्रीतीनिर्देशात् अामन्तस्याव्यवहितस्य पूर्व प्रयोगः । ईहाञ्चक्रे । “अाम्वत् तत्कृषः" [२॥१६] इति दः। इहाम्बभूव । ईहामास । 'अस्तिो <वची'' [१/१२४] इत्यत्रोक्तमस्तेरनुप्रयोगस्य भूभावो न भवति । कृषि प्रत्याहारग्रहणसामर्थ्याद्वा । For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० १ सू० ३७-४४ ] महावृत्तिसहितम् विदार्थन्तु वा ||२||३७|| विदाङ्क ुर्वन्त्विति एतद्वा निपात्यते । किमत्र ं निपात्यते ? श्राम् भावो लोडन्तस्य करोतेरनुप्रयोगश्च निपात्यते । विदाङ्कुर्वन्तु । विदन्तु । सर्वेषु लोडवचनेषु निपातनमिदं प्रायेण । ल्यन्तस्य प्रयोगान्ते निर्देशः । विदाङ्करवाणि । वेदानि । विदाङ्करवाव । वेदाव । विदाङ्करवाम | वेदाम | विदारु | विद्धि । विदाङ्कुरुतम् । वित्तम् । विशङ्कुरुत | वित्त । विदाङ्करोतु । वेत्तु । विदाङ्कुरुताम् । वित्ताम् । (विदाङ्कुर्वन्तु । विदन्तु । ) ६३ सिलुङि || २|१|३८ ॥ धोः सिर्भवति लुङि परतः । श्रकार्षीत् । श्रभैत्सीत् । कृषातां कटौ देवदसेन । दित्करणं किम् ? श्रमंस्त । "अनिदितः " [ ४/४/२३] इति प्रतिषेधात् नोङः खं न भवति । स्पृशमृशपतृपडपो वा ॥ २/१/३६ ॥ सृश मृश कृष तृप दृप इत्येतेभ्यो लुङि वा सिर्भवति । तृपिप्योः पुषादित्वान्नित्यमङ् प्राप्तः । अन्यत्र "शल:" [ २/२/४० ] इति क्सः । श्रस्प्राक्षीत् । अस्पा र्क्षत् । “वाऽमुदात्तस्यर्दुङ: " [ ४ ३ २२ ] इति वामागमः । यणादेशे कृते "वदवजहल" [ ५१७६ ] इत्यैप् । पक्षे-अस्पृक्षत् । म्राक्षीत् । श्रमार्त्तीत् । श्रमृक्षत् । श्रक्राचीत् । श्रकाक्षत् । प्रकृक्षत् । अत्राप्सीत् । तात् । श्रपत् । श्रद्रासीत् । श्रदासत् । श्रहपत् । 7 इगुङः शलोऽनिटोऽदृशः क्सः || २|१|४०|| इगु शलन्तो यो धुः अनिट् तस्माद् दृशि वर्जितात् मे क्सो भवति । दिह - अधिक्षत् | दुह अधुक्षत् । लिह - अलिक्षत् । इगुङ इति किम् ? दह - श्रभाक्षीत् । इति किम् १ भैत्सीत् । श्रनिट इति किम् ? कोषीत् । " नेटि' [ २१८० ] इत्यैप्प्रतिषेधः । श्रदृश इति किम् ९ दर्शत् । श्रद्राक्षीत् । "वेति:" [ २/१/४९ ] इत्यङ् । श्लिषः |||२१|४१|| अनिट इत्यधिकारात् श्लिष दाहे इत्यस्य ग्रहणं न भवति । श्लिषः क्सो भवति लुङि परतः । श्रशिलक्षत् । पूर्वेण प्राप्तस्य बाधके पुषादित्वादङि प्राप श्रयमारम्भः । " पुरस्तादपवादा अनन्तराम् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्" [ प० ] इत्यङ एव बाधा न ञः । श्रश्लेषि । स्वार्थे ||२| १|४२|| स्वार्थः श्रालिङ्गनम् । श्लिषः स्वार्थ एव क्सो भवति । श्राश्लिक्षत् कन्यां देवदत्तः । स्वार्थ इति किम् ? समाश्लिषत् जतु च काउं च ( जतुकाष्ठम् ) । दवित्रये सिखे समाश्लिष्टस्त्वं धवखदिरेण । "झलो झलि” [ ५।३।४४ ] इति से: खम् । णिकः कर्त्तरि कच् || २ |१| ४३ ॥ णिजन्तेभ्यः श्रि द्रुश्रु कम इत्येतेभ्यः कर्तृवाचिनि भवति । ककार कि कार्यार्थः । चकारः " लुङि कचि घो:' [ लिडुचकचि धोः ] [ ४|३|७ ] इति विशेषणार्थः । अचीकथत् । अपीपचत् । "श्रोनयत्यादेः कच्प्रतिषेधो वक्रव्यः " [वा०] श्रनयीत्। श्रशिश्रियत् । श्रदुद्रुवत् | कमिग्रहणं " वागे " [ २शश२७ ] इति यदा णिङ् न भवति तदा प्रयोजयति । अचकमत् । कः खं यस्मिन् णाविति तत्र विग्रहात् सन्वद्भावो न भवति । खिङ्गपक्षे सन्वद्भावः । अचीकमत् । श्रात्मकर्मणापि च भवति । अचीकरत् कटः स्वयमेव । “णिश्रिश्रन्थिग्रन्थिब्रूनां दविधौ धीनाञ्च' [ वा० ] इति जियोः प्रतिषेधं वच्यति । For Private And Personal Use Only वयोः ||२|| ४४ ॥ धेट् शिव इत्येताभ्यां वा कन्भवति कर्तरि लुङि परतः । श्रदधत् । “sha " [१।१।२६] इत्यात्वस्य स्थानिवद्भावाद् द्वित्वं यदा सिस्तदा "वा घाधेट्च्छाशास : ' [ १ | ४ | १४७ ] इति वा रुप् । श्रधात् । अधासीत् । अनुपि "यमरमनमातः सक्च" [५|१|१३२] इति सगियौ । श्रशिश्वियत् । “न जो जि:' [४|३|३१] इत्यत्रेकारप्रश्लेषात् जिप्रतिषेधः । कचा मुक्त पक्षे "जूश्वि" [२११५० ] इत्यादिना विकल्पेनाङ् । श्वत् । श्रश्वयत् । "हाथक्षण" [ ३१/८१] इत्यादिना सावैप्प्रतिषेधः । कर्तरीत्येव । श्रधिषातां वत्सेन । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० । सू० ४५-५४ वक्त्यसु ॥२॥१४५ वक्ति असु ख्याति इत्येतेभ्यो लुङि परतः अभवति । इदमेव वक्तिवचनं ज्ञापकं गेऽपि जो वचिरादेशो भवतीति । अवोचत् । अवोचत । "श्व्यस्पद्वचोऽथुक् पुमुमोऽडि" [२२।१२८ ] इत्युमागमः । अस् । उदास्थत | उदास्थेताम् । उदास्थन्त । “अगेरत्यूस्यह्योर्वचनम्" [वा०] इति दः । मविषये पुषादित्वादेवाङ् सिद्धः । ख्यातिरिति ख्या प्रकथन हत्यस्य चक्षादेशस्य च कृतयकारस्याविशेषेण ग्रहणम् । श्राख्यत् । श्राख्यताम् । श्राख्यन् । हालिप्सिचः ॥२१॥४६॥ ह्या लिप सिच् इत्येतेभ्यश्चाए भवति लुडि परतः । श्राह्मत् । अलिपत् । असिचत् । पृथगारम्भ उत्तरार्थः । देवा ॥२॥४७॥ हा लिप सिचू इत्येतेभ्यो लुष्टि दे वा अङ् भवति । आहत । श्राहास्त । अलिपत । अलिप्त । असिचत । असिक्त । "सिलिङ्दे' [ १२।५ ] इति कित्त्वादेप्प्रतिषेधः । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पोऽयम् । द्युत्पुषादिलित्सर्तिशास्त्यतैम ॥ राश४८ ॥ द्युतादिभ्यः पुषादिभ्यः लुकारेभ्यः सर्ति शास्ति अति शा इत्येतेभ्यश्च लुङि मे परतः अझ भवति । वेति नानुवर्तते । यतादयः कृषपर्यन्ताः। व्यद्यतत् । व्यलुटत् । अश्वितत् । " यो लुङि७ ] इति वा मम् | पुषादयः आ गणपरिसमाप्तः। अपुषत् । अशुषत् । क्सः प्राप्तः लुकारेद्भयः । श्रापत् । अगमत् । अशकत् । असरत् । अशिषत् । भारत् । म इति किम् । व्यद्योतिष्ट । व्यत्यपुक्षत । अर्तेरपि दविषये -मा समृघातां मा समृषत । वेरितः ॥२१॥४६॥ म इति वर्त्तते । इरशब्देतो धोवाऽङ भवति लुङि मे परतः । अरुधत् । अरौत्सीत् । अभिदत् । अभैत्सीत् । म इत्येव । अरुद्ध । अभित्त । जश्विस्तम्भुम्रचम्लुचचग्लुचः ॥२॥१॥५०॥ वेति वर्तते । जश्वि स्तम्भु मृच् म्लुच ग्रुच् ग्लुच् इत्येतेभ्यः कर्तरि लुङि वाङ् भवति । जृष् । अजरत् । आजारीत् । अङि “दृशुरेप्" [ ५२।१२६] अश्वत् । अश्वयीत् । कपि विभाषितः । अशिश्चियत् । स्तम्भुरिहैवोपदिष्टः । अस्त भत् । अस्तम्भीत् । न्य चत् । न्यम्रोचीत् । न्यम्लुचत् । न्यम्लोचीत् । अग्रुचत् । अग्रोचीत् । अग्लुचत् । अग्लोचीत् । ग्लुञ्चेर्नोडो ग्रहणमनर्थकम् । श्रङ्पक्षे विशेषाभावात् नोङ्ग्रहणसामर्थ्यान्नखं न भवति इत्यपि न युक्तं न्यग्लुअदिति लङा सिद्धयति । भिस्ते पदः ॥२११३५१॥ वेति निवृत्तमुत्तरत्र वाग्रहणात् । कर्त्तरीति वर्तते । पदेा ङि ते परतः जिर्भवति । उदपादि भैक्षम् | समपादि शस्यम् । त इति किम् ? उदपत्साताम् । उदपत्सत । दीपजनबुधपूरितायिप्यायो वा ॥२१॥५२॥ दीपादिभ्यः लुङि ते परतः वा जिर्भवति । अदीपि । श्रदीपिष्ट । अजनि । अजनिष्ट । औ "जनिवध्योः" [५/२।४० ] इत्यैप्प्रतिषेधः । साहचर्याद् बुधेरनुदात्तेतो ग्रहणम । अबोधि । अबुद्ध। अपूरि । अपूरिष्ट | अतायि । अताविष्ट । अप्यायि। अप्यायिष्ट । अयं कर्तरि विकल्पः । अन्यत्र "जि.' [ २।१।६२ ] इत्यनेन नि यो ञिः । कमण्यात्मनि ॥२॥१॥५३॥ श्रात्मशब्देन कर्ताऽभिप्रेतः । यदा सौकर्यात् कर्म कर्तृत्वेन विवक्ष्यते तदा कर्मणि श्रात्मनि विहिते तशब्दे परतः वा जिर्भवति । अकारि कटः स्वयमेव । अकृत कटः स्वयमेव । ":" [ १११८६] इति सेः कित्त्वम् । अलावि केदारः स्वयमेव । अलविष्ट केदारः स्वयमेव । "जिङौं' [२।१।६२] इति नित्ये जो प्राप्ते विकल्पोऽयम् । श्रात्मकर्मणीति किम् ? अकारि कटो देवदत्तेन।। दुहश्च ॥२॥१॥५४॥ चशब्दो विकल्पानुकर्षणार्थः । दुहेर्वा जिर्भवति तशब्दे परतः कर्मण्यात्मनि । नियमोऽयं हलन्तेषु दुहेरेव विकल्पः, तेन पूर्वसूत्रेऽजन्तेषु विकल्पो द्रष्टव्यः । अदोहि गौः स्वयमेव । अदुग्ध गाः स्वयमेव । "वोप दुहदिहलिहगुहो दे दन्त्ये" [२२१७० ] इति क्सस्योप् । श्रात्मकर्मणीत्येव । अदोहि गोर्गोपालकेन। For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० । सू० ५५-६३ ] महावृत्तिसहितम् न रुधः ॥ २॥११५५ ॥ जिङविति प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् । भावे कर्मण्यात्मनि जिन भवति । अन्ववारुद्ध गौः स्वयमेव । तपोऽनुतापे च ॥ २॥१॥५६ ॥ तपतेरनुतापे च कर्मण्यात्मनि च जिन भवति । अनुतापः पश्चात्तापः तत्र तावत् भावकर्मणोरनुपि प्रतिषेधः । अन्ववातप्त पापेन कर्मणा । कर्मण्यात्मनि । अतप्त तपः स्वयमेव । साधुस्तावदुपवासादिलक्षणं तपस्तप्यते । तद्यदा तीव्रत्वात् कर्तृत्वेन विवक्षितं तदाऽयं प्रयोगः । यग् दुहः ॥ २१॥५७ ॥ नेति वर्तते । दुहेः कर्मण्यात्मनि यङ्न भवति । दुग्धे गौः स्वयमेव । लङि-अदुग्ध गौः स्वयमेव । नमः शप्तु ।। २।१३५८ ॥ नमः कर्मण्यात्मनि यङ् न भवति शप् तु भवति । नमते दण्डः स्वय. मेव । अनमत दण्डः स्वयमेव । कर्जाश्रयः शम्न स्यात् । स्नोरच भिश्च ॥२१११५९॥ स्नोश्च नमश्च कर्मण्यात्मनि जिर्यग, च न भवतः । प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव । प्रस्तुते गौः स्वयमेव । लङि प्रास्नुत गौः स्वयमेव । जिप्रतिषेधार्थ नमोऽनुकर्षणम् । यक् तु पूर्वेणैव प्रतिषिद्धः। अनंस्त दण्डः स्वयमेव । "जियकोः प्रतिषेधे णिश्रन्थिग्रन्थिब्रूजां दविधौ धीनां चोपसंख्यानं कर्तव्यम् वा०] णिरिति हेतुमएिणचोऽन्यस्य चाविशेषेण ग्रहणम् । अचीकरत कटः स्वयमेव । कारयते कटः स्वयमेव । अश्रन्थिष्ट मेखला स्वयमेव । श्रथ्नीते माला स्वयमेव । अग्रन्थिष्ट मेखलास्वयमेव । अनीते मेखला स्वयमेव । अवोचत वाक् स्वयमेव । ब्रूते वाक् स्वयमेव । दविधौ धीनाम् व्यकृषत सैन्धवाः स्वयमेव । व्यकुर्वत सैन्धवाः स्वयमेव । विकुर्वते सैन्धवाः स्वयमेव । भियकोः प्रतिषेधे कथं काश्रयाः कजादयः । “नमः शप्तु' [२१११] इत्यतस्तुशब्दोऽनुवर्तते तेन काश्रयविकरणसिद्धिः । अत इदमपि सिद्धम् । आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः । श्रारोहयते हस्ती स्वयमेव । सिञ्चन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः । सेचयते हत्ती स्वयमेव | "डौ' [॥२२७] इति दविधिः । यदान्यत्कर्म प्रति स्वातन्त्र्येण विवक्षा तदा काश्रया विधयो भवन्ति । श्रारोहयमाणे हस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यान् । यथा भिद्यमानः कुशूलः पात्राणि भिनत्ति । इह कस्माद्दो न भवति । स्मरति वनगुल्मस्य कोकिलः । स्मरयत्येनं वनगुल्मः खयमेव । कर्मस्थभावकानां कर्मस्थक्रियाणां चात्मकर्म विवक्षा । कर्तृस्वभावकं चाऽध्यानमिति दो न भवति । कुषिरजेः श्यो मेवा ॥२१॥६०॥ कुषिरञ्जीत्येताभ्यां कर्मण्यात्मनि वा श्यो भवति मे परतः । कथं मविधिः वृद्धकुमारीवरवाक्यन्यायेन यथा बहुक्षीरघृतमोदनं मम पुत्रा भुङ्क्षीरन्नित्यत्र वरादिलब्धिः । कुष्यति पादः स्वयमेव । रज्यति वस्त्रं स्वयमेव । यदा श्यो न भवति तदा यग दविधी भवतः । कुष्यते पादः स्वयमेव । रज्यते वस्त्रं स्वयमेव । यगनुवर्तते तदपवादोऽयं तेन लिलिडोः स्यादिविषये च नायं विधिः । तपस्तपःकर्मकस्य कर्मवत् ॥ २१॥६॥ तपतेस्तपःकर्मकस्य कर्ता कर्मवद्भवति । कर्मातिदेशस्य यग्दविधी प्रयोजनम् । तप्यते तपः साधुः। अर्जयतीत्यर्थः। अतप्यत तपः साधुः। शतप्त तपः साधुः । तपःकर्मकस्येति किम् ? उत्तपति सुवर्ण सुवणकारः । बिझै ॥२६२ ॥ मण्डूकप्लुत्याते इति वर्तते लुङीति च । भिरित्ययं त्यो भवति ङावर्थे लुङि ते परतः । भावे-श्रासि भवता । अशायि भवता । कर्मणि-अकारि कटो भवता । अलावि केदारो भवता । पुनभिग्रहणं किम् ? जिरेव यथा स्यात् । यदन्यत्प्राप्नोति तन्मा भूत् । उपाश्लेषि कन्या। "श्लिष" [२११४५] इति क्सो न भवति । गे यक ॥२१॥६॥ अविति वर्तते । ङिबाचिनि गे यक् भवति । श्राख्यातवाच्यस्य भावस्पैकलात् For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-च्याकरणम् [अ० २ पा० १ सू० ६५-७४ अस्मद्यष्मत्सज्ञाऽभावाच्च अन्यसञ्ज्ञक एक एव च भवति । प्रास्यते भवता । सुप्यते भवता । कर्मणि-क्रियते कटः । भुज्यते श्रोदनः । ऋकारस्य दीत्वे प्रासे "रिड्यग्लिशे" [२।२।१३७] इति रिङ् । कर्मसामान्यात श्रात्मकर्मण्यपि यग् भवति । क्रियते कटः स्वयमेव । भिद्यते कुशलः स्वयमेव । कथं भिद्यते कुशूलेन स्वयमेवेत्यत्र कर्तरि भा। अत्राकर्मकत्वविवक्षा । तेन भावे लकारः । लान्तस्यो (तस्यो) भयविवक्षा । व्यक्तखार्थेष्वकर्मकविवव (क्ष्यैव) । भेत्तव्यं कुशूलेन स्वयमेव । भिन्नं कुशूलेन स्वयमेव । ईषद्भदं कुशूलेन स्वयमेव । कर्तरि शप् ॥२॥६४॥ कर्तृवाचिनि गे परतो धोः शब्भवति । जयति । भवति । तरति । शकारः "मिशिद्गः" [२१११३] इति विशेषणार्थः । पकारः "गोऽपित्" [११७८] इति विशेषणार्थः । दिवादेः श्यः ॥२॥१६॥ दिव इत्येवमादिभ्यः श्यो भवति गे परतः। दीव्यति । सीव्यति । श्रीव्यति । "हल्यभकुच्छुः " [५।३।८६] इति उङो दीलम् । इमे श्यादय शपोऽपवादाः । वा भ्राशभ्लाशभ्रमुकमुत्रसित्रुटिलषः ॥२॥१॥६६॥ भ्राश लाश भ्रम् क्रम् त्रसि त्रुटि लष इत्येतेभ्यो धुभ्यो वा श्यो भवति । उभयत्र विभाषेयम् । भ्राशते । भ्राश्यते । भ्लाशते । म्लाश्यते । भ्रमति । भ्रम्यति । श्ये (शिति) भौवादिकस्याशमादित्वाद्दीत्वं नास्ति । देवादिकस्य दीखम् । भ्रमति । भ्राम्यति । क्रमति । काम्यति । "क्रमो मे" [१२२७४] इति दीत्वम् । त्रसति । त्रस्यति । त्रुटति । त्रुट्यति । लषति । लष्यति । क्लमिग्रहणं न कर्तव्यम् । दिवादिपाठात् श्ये सति “शमित्यामदो दी: [श२।७२] इति दीत्वं सिद्धम् । "ष्टिषुक्लम्वाच. मां शिति" [२२।७३] पुनर्दीत्ववचन ज्ञापकं शवपि भवतीति । यसः ॥२।१।६७॥ यसु प्रयत्न इत्यस्माद्वा श्यो भवति । यसति । यस्यति । समः ॥२॥श६८॥ संपूर्वाच्च यसः वा श्यो भवति । संयस्यति । संयसति । नियमोऽयं सम एव च गर्विकल्पो नान्यस्मात् । प्रायस्यति । प्रयस्यति | दिवादिपाठान्नित्यः श्यः । स्वादेनुः ।।२।१॥६६॥ षुञ् इत्येवमादिभ्यो धुभ्यः श्नुरित्ययं त्यो भवति । सुनोति । सिनोति । __ श्रुवः शू ॥२॥१॥७०॥ शृ इत्येतस्मात् भुर्भवति श्रृ इत्ययं चादेशः । भु इति भुवादौ स्वादौ च पठ्यते । शृणुतः। शृण्वन्ति । थाऽक्षः ॥२।१७१॥ अक्ष इत्येतस्माद्धोः वा भुर्भवति । अक्ष्णोति । अक्षति । भौवादिकोऽयम् । ततः स्वार्थे ॥२।१।७२॥ स्वार्थतनूकरणम् । तक्षु इत्यस्मात् स्वार्थे वा शुर्भवति । तक्ष्णोति काष्ठम् । तक्षति काष्ठम् । स्वार्थे इति किम् ? सन्तति वाग्भिर्दुर्जनः। रुधितुदादिभ्यां श्नम्शो ॥२।१।७३।। रुधादिभ्यस्तुदादिभ्यः श्नम्शौ त्यौ भवतः । शफारः "इनानखम्" [ २२] इति विशेषणार्थः । मकारः "परोऽचो मित्" [१११।५५] इति विशेषणार्थः । रुणद्धि । भिनत्ति । तुदादिभ्यः शः। तुदति । क्षिपति । कृषतनादेरुः ॥ २२१७४ ॥ कृञ् इत्येतस्मात्तनादिभ्यश्च उरित्ययं त्यो भवति । करोति । कुरुतः। कुर्वन्ति । तनादिभ्यः-तनोति । सनोति । क्षणोति । तनादित्वादेव सिद्ध पृथक कृतो ग्रहणं किम् १ अन्यत्तनादिकार्य करोतेर्मा भूत् । "सनादिभ्यस्तथासो:" [ १८] इति विभाषया सेरुम्न भवति । अकृत । अकृथाः। न चानुप्पक्षे "प्राद् गोः' [२३४५] इति खं सम्भवति । तस्मिन् प्राप्ते उप आरम्भात्सेः भवणं असचेत। For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० । सू० ७५-८४] महावृत्तिसहितम् धिन्विकृणव्योर च॥२॥१७॥ धिवि प्रीणने', 'कृवि हिंसाकरणयोः' इत्येताभ्यां उरित्ययं त्यो भवति अकारश्चान्तादेशः। धिनोति । कृणोति । अतः खम् | "न धुखेडगे" [१1१1१८] इति प्रतिषेधात् “परेऽचः पूर्वविधौ'' [१।११५७] इति स्थानिवद्भावाद्वा (एप् ) न भवति । सनुम्कोच्चारणं ज्ञापकं त्योत्पत्तेः प्रागेव नुम्भवतीति । तेन कुण्डा हुण्डेति सिद्धम् । क्यादेः श्ना ॥२२१७६।। क्री इत्येवमादिभ्यो धुभ्यः श्ना इत्ययं त्यो भवति । क्रीणाति । प्रीणाति । स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुञ भ्यः श्नुश्च ॥२।१७७॥ स्तम्भ्वादिभ्यः भर्भवति भा च । स्तनोति । स्तन्नाति । स्तुभ्नोति । स्तुम्नाति । स्कनोति । स्कनाति । स्कुम्नोति । स्कुनाति । स्कुनोति । स्कुनाति । स्कु त्र्यादिषु पठ्यते । इतरेषामिहैवोपदेशः। उदित्करणादन्यत्रापि प्रयोगः । हो हलः श्नः शानः ।।२।१।७८ हल उत्तरस्य ना इत्येतस्य शान इत्ययमादेशो भवति हौ परतः । अशान । पुषाण । हाविति किम् ? अभाति । हल इति किम् ? क्रोणीहि । भ इति स्थानिनिर्देशः किमर्थः ? स्तम्भादीनां यदा भुस्तदा मा भूत् । स्तन्नुहि । त्यान्तरं वा सर्वेभ्यः सम्भाव्यते । शानस्य शित्करणं ज्ञापकम्अनित्योऽनुबन्धस्य स्थानिवद्भाव इति । तेन लङादीनां मिबादिषु स्थानिवद्भावाहित्त्वं ङित्त्वं च न भवति । पचमाना स्त्री। श्रचिनवम् । असुनवम् । ईपाऽत्र वाक् ॥२॥१॥७६।। धोरिति वर्तते । अत्र धोरधिकारे ईपा निर्दिष्टं वाक्संज्ञ भवति । गम्यमानक्रियापेक्षया ईपेत्यस्य करणलम् । वक्ष्यति "कर्मण्यण्' [२।२।१] कुम्भकारः। शरलावः । मृद्रपस्येयं वाक्संज्ञा तेन "कर्तृकर्मणोः कृति'' [१॥४।६८] इति कर्मणि ता भवति । तासाद्वाक्सः परत्वेन । अत्रग्रहणं विस्पष्टार्थम् । वागितीयमन्वर्था संज्ञा । ब्रूतेऽर्थे वागिति तेनासामर्थ्य वाक्संज्ञा नास्ति । पश्य कुम्भं करोति कटम् । मृत्पिण्डं कुम्भं करोति । महान्तं कुम्भं करोति । सविशेषणानां च न भवति । हरतेः "हतिनाथयो: पशौ' [२।२।३०] इति पशुशब्दस्य न भवति । यत्र कृमि ॥२॥१८०॥ अत्र धोरधिकारे मिवर्जितात्याः कृत्संज्ञा भवन्ति । अत ऊध्द ये वक्ष्यन्ते तेषामधिकारेणेयं सज्ञा । वक्ष्यति 'तव्यानीयौ'' [२।११८३] । कर्तव्यः । करणीयः । अत्र मृत्सज्ञाप्रयोजनम् । इत्यः । स्तुत्यः। “पिति कृति" [४।३।१६] इति तुक् । अमिङिति किम् ? चीयात् । सूयात् । अकृद्यकाराहीत्वं सिद्धम् । प्राक्तेर्वाऽसमः ||शश८१॥ स्त्रियां क्तिरिति वक्ष्यते । प्रागेतस्मादसमो यस्त्यः कृत् स वा भवतीयेषोऽधिकारी वेदितव्यः । सरूपस्त्वपवादो बाधक एवेति भावः । विक्षेपकः । विक्षप्ता । विक्षिपः । इगुडलक्षणकविषये एवुढचावपि भवतः । प्राक्टेरिति किम् ? चिकीर्षा । “अस्त्यात्" [२१३१८४] इत्यकारः क्तबर्बाधकः । व्याक्रोशी। व्याऋष्टिरित्येवमादिषु यत्नो विधेयः। असम इति किम् ? गोदः । कम्बलदः । प्रात: का" [२।२।३] इति को भवति । अणोऽपवादः । अनुबन्धापाये रूपगतं समखमत्र । ण्वोाः ॥२॥१२॥ प्रागिति वर्तते "बुतृचौ" [२।१।१०६] इति वक्ष्यति । प्रागेतस्माद्य त्यास्ते व्यसंज्ञा वेदितव्याः । देवदत्तस्य कर्तव्यम् । देवदत्तेन कर्तव्यम् । व्यप्रदेशाः "व्यस्य वा कर्तरि" [१ ७५] इत्येवमादयः । तव्यानीयो ॥२॥१॥८३॥ तव्य अनीय इत्येतो त्यौ भवतः । कर्तव्यः । करणीयः । कथं वास्तव्यः ? वास्तु क्षेत्र तस्माद्भवाद्यर्थे दिगादित्वाद्यः । एवं वस्तुनि भवो वस्तव्यः ।। योऽचोऽरासुयुवः ॥२।१८४॥ य इत्ययं त्यो भवत्यजन्ताद्धोः सुवर्णान्त श्रासु यु इत्येतान् वर्जयित्वा । देयम् । गेयम् । “ईद्य"[४।४।६४] इति ईत्वम् । “गागयो:"[श२।८१] इति पुनरेप् । “देयमृणे" [२३२२] इति निर्देशादीत्वे गुकार्ये निवृत्ते पुनरेप् । दित्स्यं धित्स्यमित्यत्र अगे ये परतोऽतः खम् । अच इति किम् ? पाक्यम् । अरासुयुव इति किम् । कार्यम् ? हार्यम् । श्रासाव्यम् । याव्यम् । For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् अ० २ पा० १ सू० ८५-६२ पोरदुङो ऽपिवपिरपिलपिचमः || २|१२८५॥ पवर्गान्ताद्धोरदुङो य इत्ययं त्यो भवति त्रपिवपि रपिलपिचमीन् वर्जयित्वा । रभ्यम् । लभ्यम् । समत्वेन एयापवादोऽयम् । पोरिति किम् ? वाच्यम् । श्रदुङ इति किम् १ डेप्यम् । कुटादित्वादेन स्यात् । तपरकरणमसन्देहार्थम् । अत्रपिवपिरपिलपिन्चम इति किम् ? चाप्यम् । वाप्यम् । राप्यम् । लाप्यम् । श्रचाम्यम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शकसह ||२||११८६ ॥ शकि सह इत्येताभ्यां यो भवति । शक्यम् । सह्यम् । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन ससित किचतियतियजिजनीनां संग्रहः । सस्यम् । तक्यम् । चत्यम् । यत्यम् । यज्यम् | जन्यम् । "हनो वा वध इति च वक्तव्यम्" [वा०] वध्यम् । श्रात्यम् । दमदचरयमो गे || २|१| ८७ ॥ गद मद चर यम इत्येतेभ्योऽगि पूर्वेभ्यः यस्त्यो भवति । गद्यम् । मद्यम् । चर्यम् | यम्यम् । गेरिति किम् ? निगाद्यम् । प्रमाद्यम् । श्रभिचार्यम् । प्रयाम्यम् । यमः "पोरदुङ: " [२|१|८२] इति सिद्धे नियमार्थमिदम् । अगेरेव यथा स्यात् । इतरेषामप्राप्ते विधिः । "वरेराङि चागुराविति वक्तव्यम्" [वा०] श्राचर्य व्रतम् । गुराविति किम् ? श्राचार्यो गुरुः । परयाऽवद्यवर्यावह्याऽर्योपसर्याऽजर्याणि ॥ २२१८८॥ पश्य श्रवद्य वर्या वह्य श्रर्य उपसर्या ज इत्येतानि शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । पण्यमिति निपात्यते व्यवहर्तव्यं चेद्भवति । पण्यः कम्बलः । पण्या गौः । पाण्यमित्यन्यत्र । वयं भवति गर्ह्य चेत् । श्रवद्यं द्यूतम् । श्रवद्यं पापम् । न उद्यते इत्यनुद्यमन्यत् । वर्येति यो भवत्यनिरोधेऽर्थे । शतेन वर्या । सहस्रेण वर्या । स्त्रीलिङ्गादन्यत्र राय एव भवति । वार्या ऋषयः धनसंविभागरूपोऽत्राप्यनिरोधोऽस्ति । अनिरोध इति किम् ? वार्या गौः शस्येषु । वह्यमिति निपात्यते करणं चेद्रवति । वहति तेन वह्यं शकटम् । वाह्यमन्यत् । श्रर्य इति निपात्यते स्वामिनि वैश्ये च । अर्यः स्वामी । श्रर्यो वैश्यः । अन्यत्र एव एव । श्रार्य साधु । उपसर्येति निपात्यते काल्या प्रजने चेत् । प्रजनो गर्भग्रहणकाल : प्रातोऽस्याः काल्या | “तदस्य प्राप्तम्'' [३।४।१७ ] इति वर्तमाने "कालाद्यः " [ ३ | ४|१०० ] इति यः । उपसर्या गौः । उपसर्या वडवा । उपसार्या शरदि मथुरा श्रन्यत्र । श्रजयमिति न पूर्वाषः कर्तरि यो निपात्यते सङ्गतैर्थे । न जीर्यत इत्यर्यमर्थसङ्गतम् । श्रजरिता कम्बल इत्यन्यत्र । वदः सुपि क्यप् च ॥ २११८६॥ गेरिति वर्तते । वदतेः क्यब्भवति यश्च गिवर्जिते सुपि वाचि । सत्यमुद्यत इति सत्योद्यम् । सत्यवद्यम् । मिथ्योद्यम् । मिथ्या वद्यम् । "वागमिङ् ” [१ ८२] इति षसः । सुपीति किम् ? वाचम् । गेरित्येव । श्रनुवाद्यम् । भूत्ये ॥ २१६० ॥ सुप्यगेरिति वर्तते । भूय हृत्य इत्येते शब्दरूपे निपात्येते गिर्जिते सुपि वाचि । देवभूयं गतः । देवत्वं गत इत्यर्थः । साधुभूयं गतः । यत्र निपात्यते । दरिद्रहननं दरिद्रहत्या । चोरहत्या | हन्तेः स्त्रीलिङ्गे भावे क्यग्निपात्यते । सुपीत्येव । भव्यम् । घातो वर्तते । श्रगेरित्येव । प्रभव्यमुपवातः । स्तुशासिण्डजुषः क्यप् ॥ २२११६१ ॥ सुप्यगेरिति निवृत्तम् । सामान्येनायं विधिः । स्तु शास् इण वृणोति दृ जुष इत्येतेभ्यः क्यःभवति । स्तुत्यः । शिष्यः । इत्यः । श्रावृत्यः । श्राहत्यः । पुनः क्यब्ग्रहणं किमर्थम् ? 'ओरावश्यके” [२|१|१०२ ] इत्यस्यापि बाधनार्थम् । श्रवश्यस्तुत्यः । " शंसिदुहि गुहिभ्यो वेति वक्तव्यम्” [वा०] शस्यम् । दुह्यम् | शंस्यम् । दोह्यम् । गुह्यम् । गोह्यम् | "श्राङ्पूर्वादज्जेः सज्ञायां क्यब् वक्तव्यः " [वा०] श्राव्यम् । न वक्तव्यम् । पुनः क्यग्रहणाद्योगविभागाद्भविष्यति । उपेयमिति ईङ रूपम् । ऋदुङोऽक्लूपिचृतेः ||२| ११६२॥ ऋकारोङो धोः क्यान्भवति कृपिचुसी वर्जयिता । वृत्यम् । हृदयम् । श्यापवादोऽयम् । श्रकृपिचुतेरिति किम् ? कल्प्यम् । चर्त्यम् । “पाणौ समवशब्दे च सृजेण्य वक्त:" [वा०] पाणिस रज्जुः । समवसः करः । १. पद्यम् श्र० । For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ प ० १ सू० १३ - १०३ ] महावृत्तिसहितम् भृगोऽखौ ||२||६३॥ भृञः क्यग्भवति श्रखुविषये । भृत्याः कर्मकराः । भृत्याः शिशवः । भर्तव्या इत्यर्थः । श्रखाविति किम् ? भार्या नाम क्षत्रियाः केचित् । देवदत्तस्य भार्या । स्त्रियां "समजनिषद', [१] इत्यादिना भावे क्यप् । कर्मणि चायं भार्याशब्दः । 'संपूर्वाह्न ेति वक्तव्यम्" [वा०] सम्भृत्या सम्भार्याः कर्मकराः । ६६ खेराजसूय सूर्यमृषोद्यरुच्य कुप्यकृष्टपच्यान्यथ्याः || २|१|६४ ॥ खेयादयः शब्दा निपात्यन्ते । खेयमिति खनतेर्यो निपात्यते इकारश्चान्तादेशः । श्रादेप् । 'ये बा' [४|४|४५] इत्यात्वं नाशङ्कनीयं निपातनादेव । राजसूयभिति राजशब्दे वान्ते भान्ते सुनोतेः क्यपू दीत्वं च निपात्यते । राज्ञा सूयते राजा वा अस्मिन् सूयते इति राजसूयम् । सरति कर्माणि सुवतीति वा सूर्यः । सत्र्त्तेयत्वं सूवतेर्वा रुडागमः क्यप्च निपात्यते । मृत्रापूर्वस्य वदतेनित्यं क्यम्निपात्यते । मृषोद्यम् । रुच्यमिति कर्त्तरि क्यप् निपात्यते । कुप्यमिति संज्ञायां गुपेरादौ कत्वं क्यप्च निपात्यते । कुप्यं फल्गु भाण्डमित्यर्थः । गोप्यमन्यत् । कृष्ठे पच्यन्ते स्वयमेव कृष्टपच्या ब्रीहयः । ग्रात्मकर्मणि क्यप् । न व्यथतेऽसावव्यथ्यः । नञ्पूर्वाद्व्यथतेः कर्त्तरि क्यप् निपात्यते । 1 भिद्योद्ध्यो नदे || २|१| ६५॥ भिद्य उद्धय इत्येतौ निपात्येते नदेऽभिधेये । भिनत्ति कुलानि भिद्यः । उज्झत्युदकमिति उद्धयः । कर्तरि कारके क्यप् उज्र्धत्वं च निपात्यते । नद इति किम् ? भिदः । उज्झः । इगुङलक्षणः कः पचाद्यच्च यथाक्रमम् । पुष्यसिद्ध्यो मे ||२||६६ ॥ पुष्य सिध्य इत्येतौ निपात्येते ऽभिधेये । पुष्यन्यस्मिन्नर्थं श्रारभमाणानामिति पुष्यः । सिध्यन्त्यस्मिन्नर्था इति सिद्धयः । श्रधिकरणे क्यनिपात्यते नक्षत्रे वाच्ये । अन्यत्र पोषणः सेधन इति च भवति । विपूयविनीय जित्या मुञ्जकल्कहलिषु ॥ २१२६७ ॥ विपूय विनीय जित्या इत्येते शब्दा निपात्यन्ते यथासंख्यं मुञ्ज कल्क हलि इत्येतेषु वाच्येषु । विधूयते इति विपूयो मुञ्जः । पवतेः क्यनिपात्यते । विपव्यमन्यत् । विनीयतेऽसौ घृतादिना विनीयः । त्रिफलादिकल्कः । विनेयमन्यत् । जित्यो हलिः । जेयमन्यत् । पदास्वैरिबाह्यापच्येषु ग्रहः ॥ २१६८ ॥ पदे स्वैरिणि बाह्यायां पये चार्थे ग्रहेधः क्यमवति । प्रगृह्यते इति प्रगृह्यं पदम् । अवगृह्यं पदम् । श्रस्वैरी परवशः । गृह्यका इमे । अनुकम्पायां कः । परतन्त्रा इत्यर्थः । aftar बाह्या । गृह्यते इति गृह्या; ग्रामस्य गृह्या ग्रामगृह्या नगरगृह्या सेना । ताभ्यां बहिर्भूता इत्यर्थः । स्त्रीलिङ्गादन्यत्र न भवति । पक्षे भवः पयः । भरतगृह्यः । भुजबलिगृह्यः । तत्पक्ष्य इत्यर्थः । वृषां यशोभद्रस्य ॥२२२२६६॥ कार्थे ता । कृ वृषि मृज् इत्येतेभ्यः क्यच् भवति यशो - भद्राचार्य कृत्यम् | कार्यम् । नित्यं एयः प्राप्तः । वृष्यम् । वर्ण्यम् । परिमृज्यम् । परिमार्ग्यम् । "ऋदुङ:" [ २ ] इति नित्यं क्यप् प्राप्तः | युग्यं पत्रे ||२||१००॥ पतति श्रनेनेति पत्रं वाहनम् ; तस्मिन्नर्थं युग्यमिति निपात्यते । युज्यते इति युग्योऽश्वः । युग्यो गौः । क्यप् कुत्वं च निपात्यते । पत्रादन्यत्र योग्यमिति । ण्यः ॥२|१|१०१|| ण्य इत्ययं त्यो भवति घोः । श्रयमुत्सर्गः । श्रजन्ताद्यः क्यप् चास्यापवादो । कार्यम् | हार्यम् । पाक्यम् । पाठ्यम् । For Private And Personal Use Only ओरावश्यके || २|१|१०२ || उवार्णान्ताद्ध एयों भवत्यावश्यके द्योत्ये । श्रवश्यमित्यस्य भावः श्रवश्यकम् । मनोज्ञादित्वाद् वुञ । लाव्यम् । पाव्यम् । यद्यावश्यकेऽर्थेऽवश्यलाव्यमिति कथं सविधिः ? मयूर - व्यंसकादित्वाद्विभाषया । श्रावश्यक इति किम् १ लव्यम् | पव्यम् । अमावस्या वा || २|१|१०३ ॥ अमावस्य इति वा प्रादेशो निपात्यते । श्रमा वसतः सूर्याचन्द्रमसावस्या Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० । सू० ३०४-११० अमावस्या । अमावास्या। अमाशब्दे सहार्थे वाचि वसेरधिकरणेऽर्थे एयो विभाषया उङः प्रादेशश्च निपात्यते । प्रदेशेषु एकदेशविकृतस्य ग्रहणार्थम् । पाय्यसानाय्यनिकाय्यधाय्याऽऽनाय्यप्रणाय्या मानहविर्निवाससामिधेन्यनित्याऽसम्मतिषु ॥२॥११०४॥ पाय्य सान्नाय्य निकाय्य धाय्य श्रानाय्य प्रणाय्य इत्येते शब्दा निपात्यन्ते यथासंख्यं मान हविर्निवास सामिधेनी अनित्य असम्मति इत्येतेष्वर्थेषु । मीयतेऽनेनेति पाय्यं मानम् । माङः करणे एयः। आदिपत्वञ्च निपात्यते । मानमन्यत् । सन्नीयते इति सान्नाय्यं हविः। सम्पूर्वनियतेः एयः श्रआयादेशो गेदर्दीत्वं च निपात्यते । सन्नेयमन्यत् । निचीयते इति निकाय्यो निवासश्चेत् । निपूर्वाचित्रः एयावादेशावादिकत्वं च निपात्यते । निचेयमन्यत् । धोयते इति धाय्या सामिधेनी। दधातेयो निपात्यते। विशिष्टा ऋचः सामिधेन्यः । तत्र रूढिवशात्काचिदेवोच्यते । धेयमन्यत् । अानाय्य इति नयतेरापूर्वीएण्यायादेशौ निपात्यावनित्येऽर्थे । पानाथ्यो दक्षिणाग्निः । रूढिरेषा दक्षिणाग्निविशेषस्य । पानेयोऽन्यः । अविद्यमानसम्मतिरसम्मतिः प्रपूर्वानयतेयायादेशौ निपात्यो । प्रणाय्यश्चौरः । प्रणेयोऽन्यः । कुण्डपाय्यसंचाय्यपरिचाय्योपचाय्यचित्याग्निचित्याः ॥२२१०॥ कुण्डपाय्य सञ्चाय्य परिचाय्य उपचाय्य चित्य अग्निचित्या इत्येतानि शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । कुण्डेन पीयतेऽस्मिन्सोम इति कुण्डपाय्यः क्रतुः । कुण्डशब्द भान्ते एयोऽधिकरणे निपात्यते । कुण्डपानमन्यत् । सञ्चीयते इति सञ्चाय्यः क्रतुः । सञ्चेयमन्यत् (परिचाय्योपचाय्यौ निपात्येते अग्नावभिधेये । परिचेय उपचेय इत्यन्यत् । चित्याग्निचित्याशब्दौ निपात्येते अग्नावभिधेये । चीयतेऽसौ चित्योऽग्निः । अग्निचयनमग्निचित्या । ) अन्त्ये स्त्रीलिङ्गे भावे क्यग्निपात्यः। ण्वुतची ॥२।१।१०६॥ गवु तृच इत्येतो त्यौ भवतः । कारकः । कर्ता । भोजकः । भोक्ता । नन्दिग्रहिपचिभ्यो ल्युणिन्यचः ॥२।१।१०७॥ नन्द्यादिभ्यो ग्रहादिभ्यः पचादिभ्यश्च यथासंख्य ल्यु गिन् श्रच् इत्येते त्या भवन्ति । नन्दयतीति नन्दनः । लकारः “युवोरनाको' [शा१]इति सामान्यग्रहणाविधातार्थः। नन्दिवाशिमदिनर्दिभूषिसाधिशोभिवद्धिभ्यो एयन्तेभ्यः संज्ञायां सहितपिदमिज्वलिरुचिबल्पिदृपिरसिसन्दिसङ्कर्षिभ्यः संज्ञायामण्यन्तेभ्यः। जनार्दनः। मधुसूदनः । लवण इति निपातनाएणलम् । विभीषणः । पवनः । वित्तनाशनः । कुलदमन एतावणोऽपवादौ इति नन्यादिः । ग्रह उत्सह उद्दास स्था उद्भास मंत्र संमद निरक्षी निश्रावी निवापी निवेशी एतेभ्यः निपूर्वेभ्यः । अयाची अव्याहारी असंव्याहारी अवादी अवाजी श्रवासी एतेभ्यः प्रतिषिद्धभ्यः । अचामचित्तकर्तृकाणां प्रतिषिद्धानामिति वर्तते । अकारी अहारी अविनायी विशयी विषयीशब्दो देशे निपतनात् अद्रिभावी प्रविभावी भूते भवतः। अपराधी उपरोधी परिभवी परिभावी इति ग्रहादिः । पच पठ वप वद चल पत तथा चरिचलिपतिवदीनामच्याक्चस्येति वक्ष्यते । नदट प्लवट तरट् चरट् चारट् चेलट् गा हट् देवट टित्करणं स्त्रियां यर्थम् । जर मर घर सेच मेष कोष दर्भ सर्प नर्त प्रण डर । अर्णि विषयेऽपि । श्वपच चक्रधर । पचादिराकृतिगणः। शाकृतीगुङः कः ॥२।१।१०८॥ ज्ञा कृ प्री इत्येतेभ्यः इगुश्च धोः को भवति । जानातीति ज्ञः। श्राकारान्तलक्षणो णः प्राप्तः । इह अर्थ जानातीति अर्थज्ञः परत्वादातः के सति नित्यः सविधिः । उत्किरतीति उत्किरः। विकिरः । प्रोणातीति प्रियः । इगुङः । विक्षिपः। विबुधः । विनृतः । इह काष्ठभेदः इति परत्वादा। अातो गौ ॥२॥२१०६॥ आकारान्ताद्धोः को भवति गौ वाचि। णापवादोऽयम् । प्रस्थः । सुग्लः। इह वडवासन्दाय इति परत्वादण् । पाघ्रामाधेदृशःशः॥२२११०॥ गाविति वर्तते । पादिभ्यः शो भवति । पा इति साहचर्यादलाक्षणिकत्वाच्च पिबतेहगाम् । उत्पित्रः । विपित्र: उज्जितः । विजियः। संज्ञायां तु “व्याघ्ररुपमेयेऽतयोगे" १.इस्यन्यन्नम.,ब.स.। २. विषयेऽपि अ०.स. For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० १ सू० १११-१२३ ] महावृत्तिसहितम् ११३३५१] इति निर्देशात् कः। व्याघ्रः। उद्धमः । विधमः। उद्धयः। विधयः। उत्पश्यः। विपश्यः। गाविति केचिदिह नाभिसम्बध्नन्ति । तेन पश्यतीति पश्यः । जिघ्रः । लिम्पविन्दधारिपारिवेद्युदेजिचेतिसातिसाहिभ्योऽगेः ॥२।१।११॥ लिम्प विन्द धारि पारि वेदि उदेजि चेति साहि इत्येतेभ्यः अगिपूर्वभ्यः शो भवति । लिम्पतीति लिम्पः । कथं कस्यलेप इति। ॥ध्येऽपवादाः पूर्वान्विर्धन बाधन्ते नोसरान्" [१०] इति इगुङः कस्यायं शो बाधको नाणः। विन्दतीति विटालिम्पविन्द इति सानुषङ्गनिर्देशादन्यत्राप्ययं विधिर्भवति । संज्ञायां गावपि । निलिम्पा नाम देवाः। अरविन्दं पनिट इत्याविषयेऽपि शः सिद्धः। धारयतीति धारयः। पारयः । वेदयः । उदेजयः । निर्देशादेव गिपर्वस्य ग्रहणम् । चेतयः । सातं करोतीति णिच् । सातयः । साहयः । श्राद्याभ्यां के इतरेभ्योऽचि प्राप्ते वचनम् । दावधानोर्वा ॥१११२॥ कार्थे ताविभक्ती । दाम् धाज, इत्येताभ्यां अगिपूर्वाभ्यां वा शो भवति । ददः । इधः । दायः । धायः। अगावित्येव । प्रदः। प्रधः। अनुबन्धनिर्देशो यडुबन्तयोः शो मा भूदित्येवमर्थः। ज्वलितिकसन्ताण्णः ॥२।१।११३।। इतिः श्राद्यर्थे अविभक्तिकश्च निर्देशः । ज्वलादिभ्यः कस गतो इत्येवमन्तेभ्यो वाणो भवति । ज्वालः । ज्वलः। कासः । कसः । चालः। चलः। अगावित्येव । प्रज्वलः । श्याव्यधासंस्नुलिहश्लिषश्वसतीणः ॥२२११११४॥ श्यैङ् आकारान्त व्यध अास्नु संत्र लिह शिलष श्वस अतीण इत्येतेभ्यो यो भवति । वेति निवृत्तं अगाविति च। अवश्यायः। श्रादिति सिद्ध पनः श्याग्रहणम् "मातो गौ" [२।१।१०६] इत्यस्य बाधनार्थः। श्रात् । दायः । धायः । व्याधः । श्रास्तावः । संस्रावः । लेहः । श्लेषः । श्वासः । अत्यायः । “अवादिभ्यस्तनेरिति वक्तव्यम्" [वा०] अवतनोतीत्यवतानः ।। हृसोऽवे ॥२।११११५॥ हृ सा इत्येताभ्यामवपूर्वाभ्यां णे भवति । अवहारः । अवसायः। दुन्योरगो।।२।१।११६॥ दुनी इत्येताभ्यां णो भवति । दुनोतीति दावः । नायः । अगाविति किम् ? प्रदकः। प्रणयः। निभाया ग्रहः॥२११११७॥ ग्रहेविभाषया णो भवति। ग्राहः । ग्रहः। व्यवस्थितविभाषेयम। जलचरे ग्राह एव । ज्योतिषि ग्रह एव । विभाषेति योगविभागाद् भवतीति भावः । गेहे कः ॥२।१।११८॥ ग्रहे हेऽभिधेये को भवति । गेहं सद्म । तात्स्थ्याद्दारा अपि । गृहं गृहाः। शिल्पिनि ट्वुः ॥२।१११६॥ शिल्पिन्यभिधेये ट्वुर्भवति धोः। नर्तकः । खनकः । रजकः । रजकरजनरजसां नखं वक्ष्यति । एत एव धवः प्रयोजयन्तीति केचित् । गौ ण्युथको ॥२॥१२१२०॥ गायतेण्यु थक इत्येतौ त्यौ भवतः। शिल्पिनीति वर्तते । गायनः । गाथकः । हायनः ॥२।११२१॥ हायन इति निपात्यते ब्रीहिकालयोः कोः ( जहात्युदकमिति हायना नाम बीयः । जहाति सवृताः क्रियाः हायनः संवत्सरः ।) प्रसृल्वः साधुकारिणि वुन् ।।२।१।१२२॥ ग्रुस लू इत्येतेभ्यः धुभ्यः साधुकारिणि कर्तरि बुन् भयति । साधु प्रवते यः स प्रवकः । एवं सरकः । लवकः । साधुकारिणीति किम् ? प्रवः । आशिषि ॥२।१।१२।। आशिषि चार्थे बुन् भवति धोः । जीवतादिति य उच्यते स जीवकः । एवं नन्दकः । वर्धकः। इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः । For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा०२ सू० १-१० कर्मण्यण् ॥२२॥१॥ कर्मणि कारके वाचि धोरणित्ययं त्यो भवति । कुम्भकारः। शरलावः । चर्चापारः। कुम्भादिशब्दात् “कर्तृकर्मणोः कृति" [१६] इति ता। "वागमिङ" [११३८२] इति षसः । "शीलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमिभ्यो णो वक्तव्यः' [वा०] धर्मशीलः। धर्मशीला । धर्मकामः । वायुभक्षः। धर्माचारः। धर्मा पेक्षः । क्लेशक्षमः। नेदं वक्तव्यम् । घान्तेन बसे सति सिद्धम् । धर्म शीलमस्य धर्मशीलः। धर्मे कामोऽस्य धर्मकामः। धर्म शीलयतीत्येवमादिविग्रहे अनभिधानादण् न भवति यथा श्रादित्यं पश्यति हिमवन्तं शृणोतीत्येवमादौ न भवति । कुम्भकारादिष्वण घान्तेन च बस इत्युभयं भवति । हावामः ॥राश२॥ हा वा मा इत्येतेभ्यश्चाण् भवति कर्मणि वाचि । के प्राप्ते इदं वचनम् । स्वर्गहायः। तन्तुवायः। वातिवायत्योर्मातेश्वाकर्मकत्वादग्रहणम् । धान्यं मिमीते मयते वा धान्यमायः । मीनातिमिनोत्योः कप्राप्तेरभावात् पूर्वेणैवाए। आतः कः ॥२२॥३॥ श्राकारान्ताद्धोः कर्मणि वाचि क इत्ययं त्यो भवति । गोदः। अर्थज्ञः । पाणित्रम् । अङ्गलित्रम् । ज्या वयोहानावित्यस्य ब्रह्म जिनातीति ब्रह्मज्यः । के कृते परत्वादातः खं पश्चाजिः । "प्रसिद्धवदनाभात्" [४।४।२१] इत्यात्वस्यासिद्ध खादिया देशो न भवति । यणादेशः सिद्धः। जुहुवतुः जुहुबरित्यत्र ह्रअ श्राखमकृत्वा जिः क्रियते इत्यात्वं नास्तीत्युवादेशः सिद्धः। श्राह्वः। प्रहः। इत्याकारान्तात् "आतो गौ' [२।३।८] इति कः । प्रागाव पश्चाजिः । प्रेशरा४॥ प्रपूर्वादातः को भवति कर्मणि वाचि । तत्त्वप्रज्ञः । भोक्षप्रज्ञः । नियमार्थोऽयमारम्भः । प्र एव गौ नान्यस्मिन्नातः को भवति । गोसंदायः । वडवासंदायः । दाशः ॥२।२।५।। अयमपि नियमः। दा शा इत्येताभ्यामेव प्रपूर्वाभ्यां फर्मणि को भवति । धर्मप्रदः । धर्मप्रज्ञः। नियमादिह न भवति । पाणिप्रत्रायः । अङ्गुलिप्रत्रायः । कथं भाष्ये प्रयोगः "अभिज्ञश्च पुनरेकत्वादीनामर्थानाम्" इति । अत्राभिधानवशात् "प्रातो गौ' [२।३।८८] इति को भविष्यति । संख्यः ।।२।२६॥ प्र इति नियमेन निवर्तिते के पुनरारम्भः । सम्पूर्वात् ख्या इत्येतस्मात्कर्मणि वाचि को भवति । पशून् सञ्चष्टं पशुसंख्यः । अश्वसंख्यः । सुपि ॥२७॥ सुबन्ते वाचि धोरातः को भवति । पादैः पिबति पादपः । कच्छेन पिबति कच्छपः। द्वाभ्यां पिबति द्वीपः। समस्थः। विषमस्थः। धर्माय प्रददाति धर्मप्रदः। शास्त्रेण प्रजानाति शास्त्रप्रज्ञः। अकर्मण्यपि वाचि यथा स्यादिति सुग्रहणम् । इह केचिदात इति नानुवर्तयन्ति । तेन मूलविभुजादिष्वभिधानवशात् कः सिद्धः । मूलान् विभुजति मूलविभुजो रथः । जलरुहम् । नखमुचानि धनूंषि । काकगुहास्तिलाः। स्थः ॥८॥ सुपि वाचि तिष्ठतेः को भवति । करि पूर्वो योगः । अनिर्दिष्टार्थत्वात् भावेऽपि यथा स्यादित्यारम्भः । श्राखूनामुत्थानमाखूत्थः । शलमोत्थः। "स्थास्तभोः पूर्वस्योदः" [२४१३५] इति सकारस्य पूर्वस्वत्वम् । दुहो घश्च ॥२६॥ इतः प्रभृति कर्मणीति सुपीति च द्वयमनुवर्तते । कर्मणि वाचि दुहेः को भवति धकारश्चादेशः । कामान्दोग्धि कामदुधो धर्मः । कामदुधा धेनुः । तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः ॥२॥२॥१०॥ तुन्द शोक इत्येतयोः कर्मणोर्वाचोः परिमृज अपनुद इत्येताभ्यां को भवति । अविशेषेण "सुपि" [२७] इत्येतेनैव के सिद्धे बालस्यसुखाहरणयोरर्थयोर्यथा स्यादित्यारम्भः । तुन्दपरिमृजः अलसश्चेत् । शोकापनुदः पुत्रो जातः । पूर्व “तिकुप्रादयः" [३८] इति षसः पश्चाद्वाक्सः । श्रालस्यसुखाहरणयोरिति किम् ? तुन्दपरिमार्ज अातुरः । शोकापनोदो धर्माचार्यः । १. के कृते परत्वादेस्यारभ्य प्रागात्वं पश्चाज्जिः इत्यतः पाठश्चिभ्यः । For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० २१० २ सू० ११ - २१] महावृत्तिसहितम् १०३ ||२२|११|| गा इत्येतस्माद्वोः कर्मणि वाचि टगित्ययं त्यो भवति । वक्त्रगः । वक्त्रगी । "प्रे" [२४] "दाज्ञ:" [२२] इति नियमादगिपूर्वादातः कर्मणि को विहितस्तस्मिन्नेव विषये टक् । अन्यत्राणेव भवति । वक्त्रसंगायः । सुराशीध्वोः पिबः || २|२|१२|| सुरा शीधु इत्येतयोः कर्मणोः पितेः टग्भवति । सुरापः । सुरापी । शीपः । शीधुपी । श्रयमपि कापवादः । सुराशीध्वोरिति किम् ? क्षीरं पिवतीति क्षीरपा कन्या । पिइति विकृत निर्देशः किम् ? सुरां पातीति सुरापा । ग्रहेरः ॥२|२|१३॥ ग्रहेर्धोः कर्मणि वाचि इत्ययं त्यो भवति । शक्तिलाङ्गत्ताङ्कुशयष्टितो मरघटघटी धनुःषु वाक्षु प्रायेणाभिधानम् । शक्तिग्रहः । लाङ्गलग्रहः । श्रङ्कुशग्रहः । यष्टिग्रहः । तोमरग्रहः । घटग्रहः । घरग्रहः । धनुर्ग्रहः । सूत्रग्रहो भवति धारयति चेत् । सूत्रग्राहोऽन्यः । visनुत्सेधे ||२२|१४|| उत्सेध उत्क्षेपणम् । हृञोऽनुत्सेधे वर्तमानात् कर्मणि वाचि त्यौ भवति । श्रंशं हरति श्रंशहरः । भागहरः । रिक्थहरः । श्रनुत्सेधे इति किम् ? भारहारः । न केवलमुच्छ्राये उत्क्षेपणेऽप्युत्सेध इति शब्दो वर्तते तद्यथा नानाजातीया अनियता ( तवृत्तयः ) उत्सेधजीविन इति । वयसि ||२|२|१५|| शरीरिणां कालकृतावस्था वयः, तत्र त्यो भवति वयसि गये । श्रयमुत्सेधार्थ प्रारम्भः । कवचहरः क्षत्रियकुमारः । अस्थिरः श्वशिशुः । शोर ( दृश्यमानेन ) संभाव्यमानेन वा भारोक्षेपणेन वयो गम्यते । श्राङि शीले || २|२|१६|| शीलं स्वाभाविकी प्रवृत्तिः । श्रङि च वाचि हृञोऽत्यो भवति शीले गम्यमाने । पुष्पाहरः । फलाहरः । सुखाहरः । उत्सेधानुत्सेधयोरयं विधिरिष्यते । अनुत्सेधे पूर्वेण कस्मान्न भवति ? शीले परत्वान् स्यात् । शील इति किम् ? भारमाहरति भाराहारः । I श्रहः ॥ २२॥१७॥ श्रतेः कर्मणि वाचि त्यो भवति । पूजा प्रतिमा । स्तम्बेरमकर्णेपौ ||२||१८ ॥ स्तम्बेरम कर्णेज इत्येतौ शब्दौ हस्ति सूचकयोरर्थयोर्निपात्येते । स्तम्बेरमो हस्ती । कर्णेजयः सूचकः । स्तम्बकर्णयो रमिजपोरिति सूत्रं कर्त्तव्यं सुपीति वर्तते ।" वे कृति बहुलम् " [४।३।१३२ ] इत्यनुपा सिद्धम् । श्रर्थविशेषपरिग्रहार्थं निपातनम् । इह मा भूत् । स्तम्बे तृणस्तवके रन्ता गौः । कर्णे जपिता वैद्यः । शमि धोः खौ || २|२| १९ ॥ शमि वाचि धोः खुविषये त्यो भवति । शम्भवः । शंवदः । शङ्करः । ग्रहणेऽनुवर्तमाने पुनधु ग्रहणं बाधकबाधनार्थम् । शङ्करा नाम परिव्राजिका । खुविषये कृओ हेत्वादिषु परत्वाट्टो मा भूत् । खाविति किम् ? शङ्करी जिनविद्या । I शोङोऽधिकरणे ॥२|२|२०|| शेतैरधिकरणे सुत्रन्ते वाचि त्यो भवति । खे शेते खशयः । खेशयः । गर्तशयः । गर्तेशयः । " कृति बहुलम् ” [४।३।१३२] इति पक्षेऽनुप् । शीङ इति योगविभागात् पार्श्वादिषु सुबन्तेषु वा त्यो भवति । पार्श्वाभ्यां शेते पार्श्वशयः । पृष्ठशयः । उदरशयः । "उत्तानाविषु च कर्तृषु'' [वा०] उत्तानः शेते उत्तानशयः । श्रवमूर्द्ध शयः । "दिग्वसह पूर्वाच्च त्यो भवति" [वा०] दिग्धेन सह शेते दिग्धसदृशयः । कथं गिरिशः लोमादिपाठान्मत्वर्थीयः शः । यो हि गिरौ शेते गिरिस्तस्यास्ति । चरेष्टः || २|२|२१|| चरेर्घोरधिकरणे वाचि ये भवति । कुरुषु चरति कुरुचरः । मद्रचरः । मद्रचरी । अधिक इत्येव । कुरूंश्चरति कुरुचारा । १. वक्त्रं छन्दोविशेषः । २ शो सम्भा - अ०, स० । ३. प्रकृति: ब०, स०, मु० 1 For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० २ सू० २२-३१ भिक्षासेनादाये ॥२२२२२॥ अनधिकरणार्थमेतत् । भिक्षा सेना श्रादाय इत्येतेषु वाच चरेष्टो भवति । भिक्षाचरः । सेनाचरः । श्रादायशब्दः प्यान्तः । श्रादाय चरति श्रादायचरः। पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सुः ॥२।२।२३।। पुरस अग्रवस् अग्रे इत्येतेषु सुबन्तेषु वाक्षु सरतेष्टो भवति । पुरःसरः । “अग्रतस आधादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा०] इत्येचन्तात्तसिः । अग्रतःसरः। अग्रेसरः । अग्रेसरी। अनीबन्तत्वेऽप्येकारो निपातनात् । पूर्व कर्तरि ॥२२२४॥ कर्तृग्रहणं कर्मनिवृत्यर्थं पूर्वशब्दे कर्तृवाचिनि सुबन्ते वाचि सरतेष्टो भवति । पूर्वः सरति पूर्वसरः। क्रियाया विशेषणेऽपीष्यते । पूर्व प्रथमं सरति पूर्वसरः । कर्तरीति किम् ? पूर्व देशं सरति पूर्वसारः। कृमो हेतुशीलानुलोम्येऽशब्दश्लोककलहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदे ॥२॥२॥२५॥ शब्दश्लोकादिवर्जिते कर्मणि वाचि कृतःट इत्ययं त्यो भवति हेतौ शीले भानुलोम्ये च गम्यमाने । हेतुशब्दोपादानात् इह हेतुः प्रकृष्ट कारणम् । विद्या यशस्करी। धनं कुलकरम् । शीलं स्वभावः। समासकरः । अर्थकरः । श्रानुलोम्यमनुकूलता । प्रेषकरः । वचनकरः। एतेष्विति किम् ? कुम्भकारः। अशब्दादिष्विति किम् ? शब्दकारः । श्लोककारः। कलहकारः । गाथाकारः । वैरकारः । चाटुकारः। सूत्रकारः । मन्धकारः । पदकारः । दिवाविभानिशाप्रभाभास्करान्तानन्तादिनान्दीलिपिलिविवलिभक्तिकर्तृचित्रक्षेत्रसंख्याजङ्घाबाह्वद्धनुररुःषु ॥२।२।२६॥ अहेत्वाद्यर्थ प्रारम्भः । दिवाशब्दे सुबन्ते वाचि विभादिषु कर्मसु वाक्षु करोतेष्ट इत्ययं त्यो भवति । दिवेति मिसंज्ञ पदम् । दिवा करोतीति दिवाकरः। विभां करोतीति विभाकरः । निशाकरः । प्रभाकरः । भासनं भाः। भासं करोति भास्करः। सूत्रे भास्करान्तेति सकारस्य निपातनात् जिह्वामूलीयविसर्जनीयौ न भवतः । कारं करोतीति कारकरः । अन्तकरः। अनन्तकरः । अन्तकरस्य नसे अन्योऽर्थः प्रतीयते इत्यनन्तग्रहणम् । श्रादिकरः । नान्दीकरः । लिपिकरः। लिविकरः । बलिकरः । भक्तिकरः । कर्तृकरः। चित्रकरः । क्षेत्रकरः । संख्या एकत्वद्वित्वादिका । एककरः । बहुशब्दोऽपि नानाधिकरणवाची संख्याशब्दः । बहकरः । जंघाकरः। बाहुकरः। अहस्करः । "रोऽसुपि" [१३।७८] इति रेफः। तस्य "कृकमि" [१।३४ ] आदि सूत्रेण सत्वम् । धनुष्करः । अरुष्करः । “सस्सेऽद्य स्थस्य" [२४॥३३ ] इति सत्वम् । "इणः षः" [ २७] इति षत्वम् । २।२७॥ कर्मशब्दे वाचि कृअष्टो भवति भृतो गम्यमानायाम् । भृतिनियतं कर्ममूल्यम् । कर्म करोति कर्मकरः । भृताविति किम् ? कर्मकारः। किंयत्तद्वहुवः ॥२।२।२८॥ किम् यद् तद् बहु इत्येतेषु वाच कृतः श्र इत्ययं त्यो भवति । किङ्करः किङ्करा । यत्करः । यत्करा । तत्करः । तत्करा । चौर्ये तत्करः । बहुकरा । इह बहुशब्दो वैपुल्यवाची । हेत्वादिषु ट एव भवति । किङ्करणशीला किङ्करी। सकृत्स्तम्बे वत्सवीह्योरिः ॥२।२।२६॥ सकृत् स्तम्ब इत्येतयोः कर्मणोः का इरित्वयं त्यो भवति वत्सत्रीह्योः कत्रोंः । सकृत्करिवत्सः । स्तम्बकरिः ब्रोहिः । वत्सबीह्योरिति किम् ? सकृत्कारः । सम्बकारः । तिनाथयोः पशौ हजः ॥२२॥३०॥ दृति नाथ इत्येतयोर्वाचोः पशौ कर्तरि हुम इरित्ययं त्यो भवति । दृतिहरिः । नाथहरिः पशुः। पशाविति किम् ? दृतिहारः। नाथहारः। फलेग्रह्यात्मम्भरिकुतिम्भरयः ॥२॥२॥३१॥ फलेग्रहि श्रात्मम्भरि कुक्षिम्भरि इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । फलानि गृहाति फलेग्रहिः । वाच एत्वमिश्च निपात्यते। आत्मानं बिभर्ति श्रात्मम्भरिः । कुक्षिम्भरिः । वाचो मन्तत्वमिश्च निपात्यते । For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ० २ पा० २ सू० ३२-४१ ] महावृत्तिसहितम् १०५ एजेः खश् || २|२|३२|| एजतेपर्यन्तात्खशित्ययं त्यो भवति कर्मणि वाचि । खकारः “ खित्यझेः " [४/३/१७६ ] इति विशेषणार्थः । शकारो गसंज्ञार्थः । श्रङ्गान्येजयति श्रङ्गमेजयः । जनमेजयः । “वाततिलसार्धेषु अजतुदजहातिभ्यः खश्वक्तव्यः " [ वा० ] वातमजाः मृगाः । तिलन्तुदः काकः । सार्धं अहा मृगाः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नासिकादधेः ||२|२|३३|| नासिकादिषु कर्मसु धेट् ध्मा इत्येताभ्यां खश् भवति । नासि - कान्धयति नासिकन्धयः । नासिकान्धमः । स्वरिन्धयः । स्वरिन्धमः । नाडिन्धयः । नाडिन्धमः । मुष्टिन्धयः । मुष्टिन्धमः । घटिन्धयः । घटिन्धमः । वातन्धयः । वातन्धमः । शुनीस्तनयोर्भेट एव । शुनिन्धयः । स्तनन्धयः । श्रादिशब्दः प्रकारवाची । उदि कूले रुजिवहोः || २|२|३४|| उदीति कास्थाने ईपू । उत्पूर्वाभ्यां रुजि वहि इत्येताभ्यां कुले कर्मणि ख | कूलमुद्रजः । कूलमुद्रद्दः । वहाभ्रे लिहः ||२|२|३५|| वह अभ्र इत्येतयोः कर्मणोः लिहेर्धोः खश् भवति । वहं लेटि वह लिहो गौः । श्रभ्रं लिहः प्रासादः मितनखपरिमाणे पचः ॥२२२|३६|| मितशब्दस्य पृथग्निर्देशात् परिमाणं प्रस्थादि गृह्यते । मित नख परिमाण इत्येतेषु कर्मसु पचेर्धोः खश् भवति । मितं पचते मितम्पचा कन्या । नखम्पचा यवागूः । प्रस्थम्पचा । श्राढकम्पचा । द्रोणम्पचा । विध्वरुषोस्तुदः सखम् ||२|२|३७|| विधु अरुष इत्येतयोः कर्मणोः तुदेधः खशू भवति । सकारस्य च खम् । विधुन्तुदः । श्ररुन्तुदः । वाचंयमासूर्य पश्योग्रम्पश्य ललाटन्तपपरन्तपद्विषन्तपेरम्मदपुरन्दर सर्व सहाः || २|२|३८|| एते शब्दा निपात्यन्ते । वाक्छब्दे कर्मणि यमेधः खो निपात्यते व्रते । वाचं यच्छति वाचंयमस्तपस्वी । वाग्यामोऽन्यः । सूर्ये न पश्यति श्रसूर्यपश्यं मुखम् । सूर्य पश्या राजदाराः । निपातनादसामर्थ्येऽपि नञ्सः दृशेः खश् । उम्र पश्यति उग्रम्पश्यः । उग्रे कर्मणि दृशेः खश् निपात्यते । ललाटन्तपति ललाटन्तपो भास्वान् । खशु निपात्यः । परास्तापयति परन्तपः । द्विषतस्तापयति द्विषंस्तपः । परद्विषतोः कर्मणोस्तापेः खनिपात्यते । तकारस्य च खम् । "खचि" [ ४|४|८८ ] इति प्रादेशः । स्त्रियामनभिधानम् । द्विषतीतापः । इरया माद्यति इरम्मदम् । खन्निपात्यः । पुरो दारयति पुरन्दरः । खच् वाचो मन्तता च निपात्यते । सर्वं सहते इति सर्वं सहः । खश् निपात्यः । कथं पाणयो ध्यायन्ते एषु पाणिन्धमा पन्थान इति ? नासिकादौ पाणिशब्दः; तत्र पाणिन्धमाः पथिकाः तात्स्थ्यात्पन्थानोऽपीत्यधिकरणे खश् न वक्तव्यः । प्रियवशे वदः खच् ॥२२२|३६|| प्रिय वश् इत्येतयोः कर्मणोः वदतेः खजित्ययं त्यो भवति । प्रियंवदः । वशंवदः । खकारो वागर्थ : ( मुमर्थः ) । चकारः "खचि" [ ४|४|८८ ] इति विशेषणार्थः । त्यान्तरकरणं किमर्थम् ? खशि सति उत्तरत्र करोतेर्जिभर्तेश्च विकरणः स्यात् । धोरिहोङः प्रादेशश्च न स्यात् । सर्वकूला भ्रकरीषेषु कषः || २|२|४०|| सर्व कूल अभ्र करीष इत्येतेषु वातु कषतेः खज् भवति । सर्वंकष विप्रः । कूलङ्कषा नदी । श्रभ्रषो वायुः । करीषङ्कषा वात्या । “भगे दारेः खजू वक्तव्य:" [ वा० ] भगन्दरः । मेघर्तिभयेषु कृञः ||२/२/४१ || मेघ ऋति भय ऋतिङ्करा । भयङ्करः । “अभयाच्चेति वक्तव्यम्' [ वा० ] पोऽपवादोऽयम् | परत्वेन हेत्वादिटस्य च बाधकः । १४ इत्येतेषु कर्मसु करोतेः खज् भवति । मेघङ्करः । अभयङ्करो जिनः । नञ से श्रन्योऽर्थः प्रतीयते । For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० २ सू० ४२-१२ क्षेमप्रियमद्ऽ ण च ॥२।२।४२॥ क्षेम प्रिय मद्र इत्येतेषु कर्मसु करोतेरणित्ययं त्यो भवति खच्च । वेति सिद्धे को हेत्वादिष्वपि टप्रतिषेधार्थमणग्रहणम् । क्षेमकारः । क्षेमङ्करः । प्रियकारः। प्रियङ्करः । मद्रकारः । मद्रङ्करः। पाशितम्भवः ॥२॥२॥४३॥ श्राशितम्भव इति निपात्यते । श्राशितशब्दे सुबन्ते वाचि भवतेर्भावकरणयोः खा निपात्यते । आसित इति कर्तरि क्लो दीत्वं चात एव निपातनात् । अाशितस्य भवनमाशितम्भवो वर्तते । आशितो भवत्यनेनालमयमाशितम्भव श्रोदनः। प्रकरणान्तरविहितो युडपि भवति । भावे घनः समत्वादयं बाधकः। भृतवृजिधारिसहितपिदमः खौ ॥२२४४॥ भृ तृ वृ जि धारि सहि तपि दमि इत्येतेभ्यः खुविषये खज् भवति । कर्मणि सुपि वाचि यथासम्भवमयं विधिः। विश्वम्भरा । वसुन्धरा । रथन्तरो नाम राजा । वृद्धावृक्षोः-पतिवरा कन्या । अरिञ्जयः । युगं धारयति इति युगन्धरः । “खचि[१॥४॥८८] इत्युङः प्रादेशः । शत्रुसहः । शत्रुन्तपः । दमिरन्तर्गतण्यर्थः । अरिन्दमः। खाविति किम् ? कुटुम्बभारः। गमः ॥२२॥४५॥ खाविति वर्तते। सुबन्तवाचि गमेोः खज भवति । सुतङ्गमो नाम पश्चित । क्वचिदखावपीष्यते। मितंगमोऽश्वः। अमितङ्गमा हस्तिनी । “विहायसो विहादेशः खच्च वा डिद्वक्तव्यः" [वा०] विहायसा गच्छति विहङ्गः । विहङ्गमः। "तुरभुजयोश्च [ वा०] तुरङ्गः । तुरङ्गमः । भुजङ्गः । भुजङ्गमः। डः ॥२॥४६॥ खाविति निवृत्तं गम इति वर्तते । गमेझै भवति सुबन्ते वाचि । अन्तादिषु वाच प्रायेणाभिधानम् । अन्तगः । अत्यन्तगः । अध्वगः। दूरगः । पारगः । अनन्तगः । गुरुतल्पग; । स्त्रयागारगः । ग्रामगः । सर्वत्र गच्छति सर्वत्रगः । पन्नं गच्छति पन्नगः । 'उरसः सखञ्चति वक्तव्यम्" [वा०] "विहायसो विहं च" [वा०] उरसा गच्छति उरगः । विहायमा गच्छति विहगः । “सुदुरोरधिकरणे डो वक्तव्यः' [वा०] सुखेन गच्छति अस्मिन् सुगः । दुर्गः । "निसो देशे' [वा०] निर्गो देशः । डित्यभस्यापि डिस्करणसामर्थ्याह: खम् । ____ आशिषि हनः ॥२।२।४७॥ आशिष्यर्थे हन्ते? भवति कर्मणि वाचि । तिमि हन्ति तिमिहः । शापहः। अपे क्लेशतमसोः ॥२॥२॥४८॥ अप इति कास्थाने ईप । अपपूर्वात् हन्तेः क्लेशतमसोः कर्मणोर्वाचो? भवति । अनाशोरर्थोऽयमारम्भः । क्लेशापहः । तमोपहः । कुमारशोषयोर्णिन् ॥२।२।४९॥ कुमार शीर्ष इत्येतयोः कर्मणोहन्तेणिन् भवति । अशीलार्थोsयमारम्भः । कुमारघाती । शीर्षधाती। शीर्षशब्दोऽकारान्तः शिरःर्यायोऽस्ति । टगमनुष्ये ॥२२॥५॥ हन इति वर्तते । हन्तेः कर्मणि वाचि रंग भवति अमनुष्ये कर्तरि । पित्तं हन्ति पित्तघ्नं धृतम् । श्लेष्मनमौषधम् । जायाघ्नस्तिलकः । पतिघ्नी रेखा। अमनुष्य इति किम् ? पापघात. स्तपस्वी । चौरघातो हस्तीत्यत्र "युव्या बहुलम्' [२।३।६४] इति बहुलवचनादण् । जायापत्योर्लक्षणे ॥२२॥५१॥ लक्षणं चिह्न तदस्यास्तोति लक्षणः । अर्शश्रादिपाठादः । जाया पति इत्येतयोः कर्मणान्तर्ल वणवति कर्तरि टग्भवति । जायानो ब्राह्मणः। लक्षणमस्य तद्विधमस्ति । पतिप्नी कन्या । शकि हस्तिकवाटे ॥२॥२॥५२॥ शकनं शक् शक्तिरित्यर्थः । हस्ति कवाट इति एतयोः कर्मणोः हन्तेष्टग् भवति शकि गम्यमानायाम् । अयं पूर्वश्च गनुष्यक कार्य प्रारम्भः । हस्तिनं हन्ति हस्तिथ्नो मनुष्यः । इस्तिनं हन्तुं शक्त इत्यर्थः । कवाटप्नो मनुष्यः। शकीति किम् ? हस्तिघातो व्याधः उपायेन । For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० २ सू० ५३-५९] महावृत्तिसहितम् १०७ पाणिघताड घराजघाः ॥२२॥५३॥ एते शब्दा निपात्यन्ते । पाणिघताडवो शिल्पिनि निपात्यते । अन्यत्र पाणिघातः। ताडघातः । राजब इत्यविशेषेण । रग्यत्वं टिखं च निपात्यम् । सुभगाब्यस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेऽन्वो स्नुख्खुको भुवः ॥२॥५४॥ अच्वाविति व्यन्तप्रतिषेधात् नजिवयुक्तन्यायेन च्यर्थविज्ञानम् । अच्च्यन्तेषु च्च्यर्थे वर्तमानेषु सुभगादिषु वातु भवतेः स्नुख् खुक इत्येतौ त्यो भवतः । असुभगः सुभगो भवति सुभगम्भविष्णुः । सुभगम्भावुकः । श्राढ्यम्भविष्णुः । श्राढ्यम्भाधुकः । स्थूलम्भविष्णुः । स्थूलम्भावुकः । पलितम्भविष्णुः । पलितम्भावुकः । नग्नम्भविष्णुः । नग्नम्भावुकः । अन्धम्भविष्णुः । श्रन्धम्भावुकः। प्रियम्भविष्णुः । त्रियम्भावुकः । अत्र तदनविधिरिष्टः । श्रीसुभगम्भविष्णुः । श्रीसुभगम्भावुकः। श्रच्चाविति पिम् ? सुभगीभविता । श्राव्यीभविता। ननिर्दिष्टे सदृशसंप्रत्ययादिह न भवति-सुभगो भविता । कृतः करणे ख्युट ॥२॥२॥५५॥ कृजः करणे कारके ख्युट भवति अच्च्यन्तेषु च्व्यर्थे वर्तमानेषु सुभगादिषु वाच । असुभगं सुभगं कुर्वन्त्यनेन सुभगङ्करणम् । श्राव्यङ्करणम् । स्थूलङ्करणम् । पलितङ्करणम् । नग्नङ्करणम् । अन्धङ्करणम् । प्रियङ्करणम् । सुभगङ्करणी विद्या । अच्च्यन्तेषु इत्येव । सुभगीकुर्वन्त्यनेन । नन्वत्र ख्युटि युटि वा नास्ति विशेषः । सत्यम् । अव्यन्तानुवृत्तेस्तु युटोऽयंत्रार्थः प्रतिषेधः । च्च्यर्थे वर्तमानेवित्येव । प्राय कुर्वन्ति तैलेन । अभ्यञ्जयन्तीत्यर्थः । स्पृशोऽनुदके क्विः ॥२२॥५६॥ उदकवर्जिते सुपि वाचि स्पृशे|ः किर्भवति । ककारः कित्कार्यार्थः । वकारः सति साम्ये किपो बाधनार्थः । मन्त्रेण स्मृशति मन्त्रस्पृक् । दलं स्पृशति दलस्पृक् । 'प्रश्च" [५।३।५३] आदि सूत्रेण षत्वं जश्त्वं “कित्यस्य कुः'' [५।३।७५] इति कुत्वम् । अनुदक इति किम् ? उदकं स्पृशति उदकस्पर्शः। ऋत्विग्दधृगस्रग्दिगुष्णिगञ्चुयुजिकञ्चः ॥२।२१५७॥ ऋत्विक् दधृक स्रक् दिक् उष्णिक् इत्येते कव्यन्ता निपात्यन्ते । अञ्चु युजि कुञ्चि इत्येतेभ्यस्तु विर्भवति । भृतौ यजते ऋतुप्रयोजनो वा यजते ऋत्विक् । ऋतुशब्दे वाचि यः क्विर्निपात्यते । धृष्णोतोति दधृक् । धृषेः विर्द्वित्वं च निपात्यते । सृजन्ति तामिति सक् । सृजेः कर्मणि किरमागमश्च निपात्यः । दिशन्ति तामिति दिक् । दिशेः कर्मणि क्विः। उत्स्निह्यतीति उष्णिक् । उत्पूर्वा स्निहः ग्यन्त षत्वं च । उष्णीषेण नह्यतीति वा उष्णिक् । पनखं प्रश्च । अञ्चु । प्राङ् । दध्यङ् । सुबन्तमात्रे विभवति । युजेः केवलादेव किः । युङ् । युञ्जौ । युञ्जः । क्र छ । कुचौ । कुञ्चः । क्रुञ्चेरपि केवलात् क्विः । नखं न भवति । स एष विशेषो निपातनैः सह निर्देशाल्लभ्यते । त्यदादी दृशोऽनालोके टक् च ॥२।२।५८॥ त्यदादिषु वाच दृशेरिनालोकेऽर्थे टग् भवति विश्च । आलोकश्चतुर्विषयः पर्युदस्यो । त्यादृक् । त्यादृशः । “दृशदृग्दृक्षवती'' [५।३।१६५] इति निर्देशात्कोऽपि भवति । त्यादृक्षः। "अासर्वनाम्नः" [४।३।१९७] इत्यात्वम् । एवं तादृक् । तादृशः । ताक्षः । याहक । यादृशः । यादृक्षः। रुढिशब्दा एते तेन नैतेष्ववयवार्थोऽस्ति । तमिव पश्यति अथवा स इव दृश्यते इति यथा कथञ्चिद्वाक्यम् । 'समानान्ययोश्चेति वक्तव्यम्'' [वा० ] सदृशः । सदृक् । सदृक्षः । अन्यादृक् । अन्यादृशः । अन्यादृक्षः। "दृशहरहमवतौ'' [।३।१९५] इति समानस्य सभावः । अनालोक इति किम् ? यं पश्यति यद्दशः। तदर्शः। सत्सूद्विपदुहद्र हयुजविदभिदच्छिदजिनीराजो गावपि विप ॥२॥२॥५६॥ सदादिभ्यो धुभ्य किब भवति गौ वाचि अपिशब्दात् सुबन्तेऽपि । प्रसत् । दिवि सीदतीति शुषत् । अन्तरिक्षसत् । सू इति १. युटोऽप्यन्त्रार्थतः प्रति-अ. For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० २ सू० ६०-६६ द्विषा सहचरितः श्रादादिकः । प्रसूते प्रसूः । अण्डं सूते अण्डसूः । शतसूः । गर्भसूः । विद्वेष्टीति विद्विट् । मित्रद्विट । प्रद्र ह्यतीति प्रध्रुक् । मित्राय द्रुह्यति मित्रध्रुक् । प्रदोग्धि प्रधुक् । युजिर् योगे युज समाधाविति चाविशेषेण ग्रहणम् । प्रयुनक्ति प्रयुक् । अश्वयुक् । युजेय॑न्तस्याऽपि युज इति निपातनात् णेरुप् । प्रयोजयतीति प्रयुक् । अश्वान् योजयति-अश्वयुक् । विदेरविशेषेण ग्रहणम् । प्रवित् । धर्मवित् । प्रभित् । बलभित् । प्रच्छित् । रजुच्छित् । प्रजित् । कर्मजित् । प्रणीः। ग्रामणीः। विराजते विराट् । सम्राट् । 'मन्वन्वनिविचः क्वचित् [२।२।६२] "किपा [२२२२६३] इति क्विपि सिद्ध नियोगार्थमिदम् । सुपीति वर्तमाने गिग्रहणं किमर्थम् ? अन्यत्र सुग्रहणे गिग्रहणं नास्तीति ज्ञापनार्थम् । तेन "वदः सुपि क्यप च'' [२।१।१] इति गे क्यम्न भवति । प्रवाद्यमनुवाद्यम् । __ अदोऽनन्ने ॥२॥२॥६०॥ अदेोः किन्भवति अनन्ने सुबन्ते वाचि । श्राममत्ति प्रामात् । वृक्षात् । अनन्न इति किम् ? अन्नादः । क्रव्ये ॥२।२।६१॥ क्रव्यमाममासम् । क्रव्यशब्दे वाचि अदेः किन्भवति । क्रव्यमत्ति क्रव्यात् । पूर्वगव सिद्ध पुनरारम्भः असरूपस्याणो बाधकः । कथं तर्हि क्रव्यादः ? पृषोदरादिषु कृत्तविकृतादः क्रव्याद इति द्रष्टव्यम् । मन्वन्क्वनिविचः क्वचित् ॥२।२।६२॥ मन् वन् कनिप विच् इत्येते त्याः कचिद् दृश्यन्ते। गावपीत्यनुवर्तते । सुशर्मा । सुवर्मा । कचिदिति वचनात् केवलादपि । दामा । पामा । वामा। हेमा । वन् । विजावा । अग्रेगावा । "वन्या:" [१४/४२] इत्यात्वम् । क्वनिप् । प्रातरित्वा । प्रातरिवानौ । केवलादपि । कत्वा । कृखानौ । धीवा । पोवा । विन् । विशतीति वेट् । रेट् । वकारः कृत्कार्यार्थः। इकार उच्चारणार्थः। चकारः एबर्थः । जागर्ति जागः। विरित्युच्यमाने "जागुरविमिणल्ङिति" [५।२।२] इति एप्रतिषेधः शङ्ख्येत । विप् ॥२।०६३॥ क्विप् धोः क्वचिद् दृश्यते गावपि । उखेन ( उखायाः) सौंसते 'उखाशत् । वाहात् भ्रश्यति वाहाभ्रट् । “अन्यस्यापि' [।३।२३२] इति दीत्वम् । कचिदधिकारात्केवलादपि । याति याः। वाति वाः। स्थः कः ॥२२२।६४॥ गावपीति वर्तते । तिष्ठतेः को भवति । शन्तिष्ठति शंस्थः। सुस्थः । ननु "सुपि" [२॥२॥७] "स्थ:'' [२२ ] इत्यनेनैव कः सिद्ध: । न सिध्यति । “शमि धो: खौ'' [२।२।१६] इत्यत्र धुग्रहणस्य प्रयोजनमुक्तं समत्वेन पूर्वस्य कस्य बाधनमिति । यथा शङ्करा परिवाजिकत्यत्र हेवादिलक्षणस्य टस्य बाधात्कस्याकारस्य बाधनार्थ पुनः कविधानं किपोऽसमवादस्त्यो न बाधक इति पूर्वेण विप्सिद्धः । शंस्थाः। भजो ण्विः ॥२।६५॥ भजतेरिवर्भवति सुपि गावपि । अर्द्ध भाक् । प्रभाक् । णकार ऐबर्थः । वकारः सति साम्ये बाधार्थः । इकारः उच्चारणार्थः । समत्वेन किंविचोर्बाधकोऽस्ति शिवः । सुपि शीलेऽजातौ णिन् ॥२।२।६६॥ चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिरित्यस्मिन् दर्शने जातिप्रतिषेधोऽयम् । अजातिवाचिनि सुबन्ते वाचि शीले गम्यमाने घोणिन्भवति । सुपीति वर्तमाने पुनः सुग्रहणं सुम्मात्रार्थम् । अन्यथा अजाताविति सत्त्ववाचिनः प्रतिषेधादन्यस्यापि सत्त्ववाचिनो ग्रहणं न स्यात् । उष्ण भुक्त १. "पिठरस्थाल्युखाकुण्डम्" इत्यमरादिप्रामाण्यादुखाशब्दस्य नित्यस्त्रीत्वात् "उखायाः अंसते" इति वक्तुमुचितम् । मूले "खेन श्रंसते" इति करणतृतीयाऽस्त्रीस्वं च चिस्यम् । २' वहादू अ०, ब. । ३. बहाभट्-म०,०। For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० २ सू० ६७-७६ ] महावृत्तिसहितम् १०६ इत्येवंशीलः उष्णभोजी । उदासारिएयः । प्रत्यासारिण्यः । श्रजाताविति किम् ? शालीन् भुङ्क्ते इत्येवं शीलः शालि भोजः । साधूनामन्त्रयिता । शील इति किम् ? उष्णभोजः श्रातुरः । क्वचिदित्यनुवृत्तेः साधुकारिण्यप्यर्थे णिन् । साधुकारी । साधुदायी । "ब्रह्मणि वदेसिंन् वक्तव्यः " [ वा० ] समस्याणो बाधकः । ब्रह्मवादिनो वदन्ति । कर्त्तरी || २|२|६७|| कर्तरि वाचि इवार्थे धोर्णिन् भवति । उपमानभूते कर्तरीत्यर्थः । जात्यर्थमशीलार्थं चेदम् । उष्ट्र इव क्रोशते उष्ट्रकोशी । ध्वाङ्क्षरावी । खरनादी । सिंहनदीं । वृत्यैवार्थस्योक्तत्वादिवशब्दस्याप्रयोगः । कर्त्तरीति किम् ? तिलानिव भुङ्क्ते कोद्रवान् । इव इति किम् ? उष्ट्रः क्रोशति । व्रते ॥ २२६८ ॥ सुबन्ते वाचि धोर्णिन् भवति समुदायेन चेद् व्रतं गम्यते । शास्त्रपूर्वको नियमो व्रतम् । पार्श्वशायी । स्थण्डिलशायी । वृक्षमूलवासी । श्राद्ध न भुङ्क्ते व्रतमस्य श्राद्घभोजी । अलवणभोजी । सापेक्षस्यास्यापि नञो वृत्तिर्व्याख्याता । व्रत इति किम् ? स्थण्डिले शेते कामचारेण । प्रायो (य श्रा) भोदण्ये || २२|६६ ॥ सुबन्ते वाचि धोराभीक्ष्ण्ये गम्ये प्रायो णिन् भवति । शीलं गुणान्तरे द्वेषः । ततोऽन्यन्मुहुर्मुहुः सेवनमाभीक्ष्ण्यम् (कषायपायिणो गान्धारयः । सौवीरपायिणो इपिज्ञाः ' । तक्रपायियो अन्ध्राः । क्षीरपायिण उशीनराः । " मृदन्तनुम्विभक्त्याम् ' [ ५|४|११ ] इति णत्वम् । प्रायोग्रहणादिह न भवति (कुल्मात्रखादाश्चोलाः । ) मनः ॥२|२|७० ॥ मन्यतेः सुपि वाचि णिन् भवति । शीलाद्यर्थमेतत् । शोभनं मन्यते परं शोभनमानी । दर्शनीयमानी । मन इति श्यविकरणस्य ग्रहणं व्याख्यानात् । उत्तरत्र खशि विशेषो भविष्यति । खश्चात्मनः ||२/२/७९ ॥ श्रात्मनो यत्सुबन्तं तस्मिन् वाचि मन्यतेः खश् भवति णिश्च । शोभनमात्मानं मन्यते शोभनम्मन्यः । शोभनमानी । पण्डितम्मन्यः । पण्डितमानी । भूते ||२२|७२ ॥ भूत इत्यधिकारो वेदितव्यः । धोरिति वर्तते । अर्थवशाद् भूते ध्वर्थे वच्यमाणा विधयो भवन्तीत्यर्थः । वक्ष्यति दृशेः कनिप् । मेरुं दृष्टवान् मेरुदृश्वा । भूत इति किम् ? मेरुं द्रक्ष्यति । न च भूतशब्दस्येतरेतराश्रयत्वेनासिद्धिः, अनादित्वाच्छब्दव्यवहारस्य । भूत इति निसंज्ञको वा शब्दः । "इयत इति संख्यानं निसंज्ञानां न विद्यते । प्रयोजनवशादेते निपात्यन्ते पदे पदे ।।" करणे यजः || २|२|७३ ॥ णिन्निति वर्त्तते । करणे सुबन्ते वाचि यजेधर्भूते णिन् भवति । अग्निटोमेनेष्टवान् श्रग्निष्टोमयाजी । वाजपेययाजी । विशेषस्य करणत्वम् । यजनसामान्यं यजेरर्थः । कर्मणि नः || २|२|७४ || कर्मणि वाचि हन्तेर्णिन् भवति भूते । पितृव्यं हतवान् पितृव्यवाती । मातुलघाती । कुत्साविशेष इति वक्तव्यमिह मा भूत् । देवदत्तं हतवान् देवदत्तघातः । ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु विप् ॥ २१२|७५ ॥ ब्रह्म भ्रूण वृत्र इत्येतेषु कर्मसु हन्तेः किन्भवति । ब्रह्माणं हतवान् । ब्रह्महा । भ्रूणहा । वृत्रहा । सामान्येन किपि सिद्धे नियमार्थमिदम् । ब्रह्मादिष्वेव कर्मसु हन्तेः विम्नान्यस्मिन् । मित्रं हतवान् मित्रघातः । उभयथा नियमश्चायम् । ब्रह्मादिषु कर्मसु भूते विबेव नान्यस्त्यः । उभयथा शिष्यैः प्रतिपन्नत्वात् उभयथा नियमो लभ्यते । कथं मधुहा ? चिन्त्यमेतत् । हन इत्येव । ब्रह्माणं कृतवान् । भूत इत्येव । ब्रह्माणं हन्ति हनिष्यति वा । सुकर्मपापमन्त्रपुण्ये कृञः ||२||७६ ॥ क्विचिति वर्तते । सुशब्दे वाचि कर्मादिषु च करोतेः विभवति भूते । सुष्टु कृतवान् सुकृत् । कर्मकृत् । पापकृत् । मन्त्रकृत् । पुण्यकृत् । एषोऽप्युभयथा नियमः | 1. ATRET: STO For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० २ सू० ७७-८४ स्वादिष्वेव वातु कृत्रः किन्भवति नान्यस्मिन् । सूत्रं कृतवान् सूत्रकारः । स्वादिषु च भृते किबेव नान्यस्त्यः । कृत इति किम् ? पापं चितवान् । भूत इत्येव । कर्म करोतीति कर्मकारः। स्वादिष्वेव भूते किब्भवतीति नायमिह नियम इत्येके । तेन भाष्यकृत् शास्त्रकृत् तीर्थकृदित्येवमादि सिद्धम् । वर्तमानकालविवक्षा वा तेनानियमः। सोमे सुबः ॥२२७७॥ सोमे कर्मणि सुनोतेः क्विन्भवति भूते । सोमं सुतवान् सोमसुत् । सोमसतौ। सोमसतः। एषोऽप्युभयथा नियमः। सोम एव वाचि सुनोतेः किम्नान्यस्मिन् । सुरां सुतवान् सुरासावः। सोमे वाचि भूते किव नान्यस्त्यः । सुज इति किम् ? सोमं कृतवान् । भूत इत्येव । सोमं सुनोति सोमसावः । अग्नौ चेः॥२।७८॥ अग्नौ कर्मणि चिनोतेः किन्भवति भूते । अग्नि चितवान् अनिचित् । अमिचितो। अग्निचितः । अयमप्युभयथा नियमः । अग्नावेव वाचि नान्यस्मिन् । कुख्य चितवान् कुख्यचायः । अग्नो वाचि भूते विबेव नान्यस्त्यः। चेरिति किम् ? अग्निं कृतवान् । भूत इत्येव । अग्निं चिनोति अग्निचायः। कर्मण्यग्न्याख्यायाम् ॥२।२।७९॥ कर्मणीति प्रकृतं वर्तते । कर्मणि वाचि चिनोतेः कर्मणि कारके किन्भवति समुदायेन चेदग्न्याख्या गम्यते । श्येन इव चितः श्येनचित् । काक इव चितः काकचित् । रथचक्रचित् । श्राख्याग्रहणं किमर्थम् ? रूढ़ेः परिग्रहार्थम् । अग्न्यर्थ इष्टकाचयः श्येनचिदुच्यते । कर्मणोन्विक्रियः ॥२।२८०॥ कर्मणि वाचि इन्नित्ययं त्यो भवति । विपूर्वात् क्रोणातेः । कर्मणीति वर्तमाने पुनः कर्मग्रहणमभिधेयनिवृत्त्यर्थम् । कर्मणि वाचि कर्तरि कारके यथा स्यात् । तैलं विक्रीतवान् तैलविक्रयी । घृतविक्रयी । “कुरसायामिति वक्तव्यम्" [वा०] इह न भवति । धान्यविक्रायः। दृशः क्वनिप् ॥रा८१॥ भूते कर्मणीति च वर्तते । कर्मणि वाचि दृशेोः कनिन्भवति । मेरु दृष्टवान् मेरुदृश्वा । विश्व दृश्वा । पित्करणमुत्तरार्थम् । सामान्येन वनिपि सिद्ध पुनर्वचनं भूते मन्वन्विचा निवर्तकम् । राशि युधिकृतः ॥२॥५२॥ राजशब्दे कर्मणि युधि कृञ् इत्येताभ्यां कनिब्भवति । युधिरन्तर्भावितण्यर्थः सकर्मकः । राजयुध्वा । राजकृत्वा । अयमपि योगः मन्वन्विचा निवृत्त्यर्थः । कर्मणीत्येव । राज्ञा युद्धवान् । सहे ॥रारा॥ सहशब्दे वाचि युधिकृत्रित्येताभ्यां कनिब्भवति भूते । सह युद्धवान् सहयुध्वा । सहकृला । "वा नाचः ॥३॥180] इत्यत्र न्यगवयवस्य बसस्य ग्रहणात् सहशब्दस्य सभावा न भवति । योगविभागो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः । जनेर्डः ॥२।२।८४| सुपि शील इत्यतः सुपीति संबध्यते । जनेोः सुपि वाचि ड इत्ययं त्यो भवति । उपसरे जातः उपसरजः । मन्दुराया जातः मन्दुरजः । "वे ड्यापोः क्वचित् खौ च" [४/३१७३] इति प्रादेशः । बलभीजः । "कायामजाताभिधानम्" [वा०] जाल्याजातं जाव्यजं दुःखम् । सन्तोषजं सुखम् । सङ्कल्पजः कामः । बुद्धिजः संस्कारः। अजाताविति किम् ? मृगाज्जातः । हस्तिनो जातः । गौ वाचि खुविषये प्रजाताः प्रजाः। 'अनौ कमणि वाच्यभिधानम्वा०] पुमांसमनुजातः पुमनुजः । स्त्यनुजः । 'मन्यस्मिन्नपि वाचि दृश्यते कारकान्तरे पि[वा.] किजातेन किजः । अलं जातेन अलजः । द्विर्जातो द्विजः । न जातः अजः । “कायामजातौ" इत्युक्तम् । जातावपि दृश्यते ब्राहाणजः पशुबधः । क्षत्रियजं युद्धम् | गौ वाचि खावित्युक्तः अखावपि दृश्यते । अधिजातः । अधिजः । अभिजः। परिजः। अनौ कर्मणीत्युक्तम् । अकर्मण्यपि दृश्यते । अनुआत: अनुजः । यद्यपि विशेषेण सुपीत्युच्यते इहापि प्रा नोति सर्वाङ्गपरिपूर्णो जातः गृहस्थो जातः। अनभिधानान्न भवति । "युइव्या बहुलम्" [२३॥६४] इति बहुजयचनात् । कर्मणि कारके अन्यस्मादपि भवति । परिखाता परिखा। पुंसा अनुजातः पुंसानुप्रकरणे पुंसानुजो जनुषान्ध इत्यत्रानुब्बक्ष्यते । For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०२ पा० २ सू०८५-8] महावृत्तिसहितम् तः ॥शरा८५॥ तसंशस्त्यो भवति धोभूते। इह वाग्विशेषपरिग्रहो नास्ति । कृतः। कृतवान् । भुक्तः । भुक्तवान् । तक्तवत्वो विनोः तसंज्ञाश्रिता तेन संज्ञया त्यविधाने इतरेतराश्रयं नास्ति । श्रादिकर्मण्यपि कथञ्चित् भूतत्वमस्ति । प्रकृतः कटं देवदत्तः । प्रकृतवान् कटं देवदत्तः । सुयजोर्वनिए ॥रा८६॥ सुपीति निवृत्तम् । सु यजि इत्येताभ्यां वनिप् भवति भूते । सुतवान् । सुत्वा । इष्टवानिति यज्वा । जषोऽतृ ॥२२।८७॥ जीर्यतेरतृ इत्ययं त्यो भवति भूते। जरन् । जरन्तौ। जरन्तः। क्तक्तवत्वोरसमत्वादबाधकोऽयम् । र वस्सदिणो वसुर्लिएमम् ।।२।।८८॥ वस् सद् इण् इत्येतेभ्यः भूते वसुर्भवति लिड्वन्मसंज्ञश्च । अनूषिवान् श्रीदत्तं धान्यसिंहः । उपसेदिवान् उपाध्यायं शिष्यः । ईयिवान् उपेयिवान् उपाध्यायं शिष्यः । इणः - क्रादिनियमादिटि द्वित्वम् । धुरूपस्य "यणेत्योः" [१४७७ ] इति यणादेशः । चस्य "कितीणो दी: शि१९६] इति दीत्वम् । अथ क्रादिनियमलक्षणस्येटः “वशि" [१११११४] इति प्रतिषेधः कस्मान्न भवति ? उत्तरत्र "श्रुवोऽनिट' [ २१२१८६] इत्यनि-वचनं ज्ञापकं "वशि" [११११४] इति प्रतिषेधो न भवति । उदात्तस्य वा स प्रतिषेधः । लिड्वदतिदेशाद्वित्वम् । “न झितलोक" [१७२ ] इत्यादिना कर्मणि ताप्रतिषेधश्च भवति । मसंज्ञायाः कि प्रयोजनं कर्मव्यतिहारे मा भूत् । व्यत्यूषे जनपद इति । "प्राक्नेर्वाऽसमः''[२11८1] इति लुादयोऽपि भवन्ति । अन्ववात्सीत् । अन्ववसत् । अनूवास । उपासदत् । उपासीदत् । उपससाद । उपागात् । उपैत् । रपेयाय । कसुकानौ लिडादेशौ सर्वधुभ्य इत्येके । "क्वसुलों मम्" इति मसंज्ञकः । कानस्य "इङानं दः" [१॥२॥१५५] इति दसंज्ञा । भावकर्मकर्तृषु च सम्भवः । लिड.देशत्वादेव कित्त्वे सिद्ध स्फान्तार्थ कित्करणमनयोः । अञ्ज आजिवान् । स्वजेः सस्वज्वान् इति कित्त्वान्नखं सिद्धम् । कारान्तस्यैप्प्रतिषेधार्थ च कित्करणं तितीर्वानः । "ऋच्छत्यताम् [श२११२३] इत्यम्न भवति । कर्मणि ततिराणः । "ऋत इद्धोः" [५।११७४] इति इत्वस्य "द्विस्वेऽचि' [ ११११६] इति स्थानिवद्भावे तु इति द्वित्वम् । 'उरः' [२२।१६६ ] इति अखम् । तैरेवाचार्यः “वस्वेकाजाद्घसामिङ्' इति वसौ परतः एकाचामाकारान्तानां घसेश्चेविहितः । पेचिवान् । पपिवान् । जक्षिवान् । इह करमान्न भवति ? बिभिद्वान चिच्छिद्वान् । "हलमध्ये लि व्यत्तः" इत्यनेन एत्वचखयोः कृतयावसा य एकाच तयेड़ भवति । यद्यवं ययिवानित्यत्रापि "इटि चात् खम्"[४५/६३] इति खे कृते एकाच्त्वमस्तीति श्राद्ग्रहणमनर्थकम् । नियमार्थमेतत् । यथा इएिनमित्तमेकाच्वं तेषामाकारान्तानामेव [इड्भवति ] नान्येषां चखन्यानिति । अत्रापीटि कृते उङा से क्रियमाणे एकाच्वसम्भवोऽस्ति । अत एव नियमात् घसेरिट्यप्राप्त ग्रहणम् । तथा वा दृशिगमहनषिदविशाम् । ददृशिवान् । ददृश्वान् । जग्मिवान् । जगन्वान् । जन्निवान् । जघन्वान् । 'मो नः" [३३] 'म्वो:', [श३१८४] इति मकारस्य नत्वम् । दृशेरनेकाच्वात् गमहनोरात इति नियमात् इट्यप्राप्त विभाषा। बसौ परतो विदेः शविकरणस्य ग्रहणम् । विविदिवान् । विविद्वान् । ज्ञानार्थस्य ग्रहणे ते “यस्य वा" [११।१२१] इति प्रतिषेधः स्यात् । विविशिवान् । विविश्वान् । . श्रुवोऽनिट् ॥२।२।६॥ श्रु इत्येतस्माद्वसुर्भवत्यनिट् । उपशुश्रुवान् श्रीदत्त धान्यसिंहः । असमत्वाललुङादयोऽपि । उपाशृणोत् । उपशुश्राव । ___ अनाश्वाननूचानो ॥२।२।१०॥ अनाश्वान अनूचान इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । नपूर्वादश्नातेः वसुलिवदिडभावश्च निपात्यते । अनाश्वांस्तपश्चकार। असमत्वात् नाश्चात् नाश इत्यपि भवति । वचेरनुपूर्वात् कर्तरि कानो निपात्यते । अनूचानो व्रतोपपन्नः । असमखात् अनूक्तवान् अन्वोचत् अनूवाच इति च भवति । लुङ॥२।२।९१॥ लुङ् इत्ययं त्यो भवति भूते धोः। अकार्षीत् । अहार्षीत् । क भवानुषितः । अमुत्रावात्समिति । अत्र भूतमात्रस्य विवक्षा, अतएव लडून भवति । For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० २ सू० १२-१०० अनद्यतने लङ् । ||२२|९२ ॥ भूत इति वर्तते । श्रविद्यमानायतने भूतै घोर्लङ् भवति । श्रतीताया रात्रेः श्रा पश्चिमयामात् श्रागामिन्याश्च रात्रेराप्रथमयामात् अद्यतनकालः । तत्प्रतिषेधादनद्यतनः । अकरोत् । हरत् । अनद्यतनभूतविवक्षायाः समत्वाल्लुङो बाघको लङ् । अनद्यतन इति बसनिर्देशाद्यत्राद्यतनगन्धोऽप्यस्ति तत्र लङ् न भवति । श्रद्य चाभुमहि । यदि बसः अद्यतनेऽप्यद्यतनो नास्तीति लङ् प्राप्नोति । नायं दोषः । विशेषाद्यतने सामान्याद्यतनस्य विद्यमानत्वात् । इह भूतमात्रं विवक्षितम् । श्रागच्छाम घोषात् अपिबाम पय इति । 'परोक्षे लोकविज्ञाते प्रयोक्नुः शक्यदर्शनत्वेन दर्शनविषये लड् वक्तव्यः [वा०] [अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । अरुणद्यवनः साकेतम् । परोक्षे इति किम् ? उदगादादित्यः । लोकविज्ञात इति किम् ? जम्मम ग्रामं देवदत्तः । प्रयोक्कुः दर्शनविषय इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिज्ञो लुट् ||२२|९३ ॥ अभिशोक्तिः स्मृतिवचनम् । श्रविद्यमाने यच्छदे अभिज्ञावचने वाचि अनद्यतने लृड् भवति । अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः । मद्रेषु वत्स्यामः । उक्तिग्रहणं पर्यायार्थम् । स्मरसि बुध्यसे चेतयसे वा कश्मीरेषु वत्स्यामः । लङोऽपवादोऽयम् । यदीति किम् ? अभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेष्ववसामः । न वा साकाङ्क्षे ॥२/२६४ ॥ श्राकांक्षा सम्बन्धः । अनद्यतन इत्येव । साकाङ्क्ष अभिज्ञावचने वाचि धोर्न वा लृड् भवति । यद्यभिज्ञावचने पूर्वेण प्राप्तो लृट् नेति प्रतिषिध्यते । ततः केवले यच्छब्दसहिते चाभिज्ञावचने साकांक्षे वाचि । वेति सर्वत्र विभाषा । श्रभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः कश्मीरेष्वसाम तत्रदान भोक्ष्यामहे तत्रैौदनानभुञ्जमहि । यच्छन्दसहिते अभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेषु वत्स्यामः यत्तत्रौदनान् भोदयामहे यत्तत्रौदनानभुमहि । परोक्षे लिट् ॥२२२२९५॥ भूते अनद्यतने इति च वर्तते । परावृत्तोऽक्षेभ्यः परोक्षः इन्द्रियागोचर इत्यर्थः । परोक्ष शब्दस्य चेदमेव निपातनम् । भूतानद्यतनपरोक्षे ध्वर्थे लिड भवति । यद्यपि सर्वो ध्वर्थः साध्यत्वेनानुमेयत्वेन वा परोक्षस्तथापि यत्राश्रयद्वारेण प्रत्यक्षाभिमानो नास्ति लोकस्य स परोक्ष उक्तः । पपाच । चकार । श्रात्मनानुष्ठिता हि क्रिया सर्वस्य प्रत्यात्मं प्रत्यक्षेति सुप्तमत्तयोरस्मदः प्रयोगः । सुप्तोऽहं किल विललाप । मत्तोऽहं किल जघान । “अत्यन्तापह्नवे लिड् वक्तव्य:" [ वा० ] नाहं कलिङ्गं जगाम । कलिङ्गगमनस्य प्रत्यक्षत्वाल्लिडप्राप्तः । हशश्वतोर्लङ च ॥२२२६६ ॥ ह शश्वदित्येतयोर्वाचोर्लङ् भवति लिट् च भूतानद्यतनपरोक्षे । इतिहाकरोत् । इति द्द चकार । शश्वदकरोत् । शश्वचकार । प्रश्ने चान्तर्युगे ||२२|६७ ॥ प्रष्टव्य इति प्रश्नः । पञ्चवर्षे युगम्। युगाभ्यन्तरे प्रश्ने भूतानद्यतने परोक्षे ललिौ भवतः । चकारः किमर्थः १ पूर्वसूत्रे चानुकृष्टस्य लिटोऽनुकर्षणार्थः । किमगच्छस्त्वं पाटलि पुत्रम् | श्रददादौ दानम् । ददावसो दानम् । प्रश्न इति किम् ? देवदत्तो जगाम । श्रन्तर्युग इति किम् १ श्रहं त्वां पृच्छामि । जघान कंसं किल वासुदेवः । पुरि लुङ वा ॥ २६८ ॥ पुराशब्दो भूतानद्यतने वर्त्तते न भूतमात्रे । पुराशब्दे वाचि भूतानद्यतने वा लुङ, भवति पक्षे यथाप्राप्तं च । वात्सुरिह पुरा छात्राः । अवसन्निह पुरा छात्राः । लट् ॥२\२६६॥ वेति निवृत्तम् । लङ् भवति पुराशब्दे वाचि भूतानद्यतने । वसन्तीह पुरा छात्राः । योगविभाग उत्तरत्र लट एवानुवर्तनार्थः । स्मे ||२|२|१००॥ स्मशब्दोऽप्यनद्यतने परोक्षे च वर्तते न भूतमात्रे | स्मशब्दे वाचि श्रनयतने ड् भवति । इति स्मोपाध्यायः कथयति स्वयंप्रभार्थं युध्यन्ते स्म विद्याधराः । ललिटोरपवादोऽयम् । स्मपुराशब्दयोर्युगपत्प्रयोगे परत्वात् स्मलक्षणो लट् । सुलोचनार्थं पुरा युध्यन्ते स्म पार्थिवाः । हशश्वलक्षणादपि विधिः For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० २ सू० १०१-१०६ ] महावृत्तिसहितम् ११३ 1 परत्वेन स्मलक्षणः । इति हाधीयते स्म । शश्वदधीयते स्म । तथा हशश्वल्लक्षणात् परत्वेन पुरालक्षणो विधिः । इति ह पुरा श्रध्यगीषत । शश्वत्पुरा अध्यगीषत । "ननौ पृष्ठप्रतिवचने भूतमात्रे लट् वक्तव्य:" [ घा० ] श्रकार्षीः कटं देवदत्त ! ननु करोमि भोः । तथा "नशब्दे नुशब्दे च वाचि पृष्ठप्रतिवचने भूते वा छट् aro ] कार्षीः कटं देवदत्त ! न करोमि भोः नाकार्ष भोः । श्रहं नु करोमि श्रहं न्वकार्षम् । नेदं द्वयं वक्तव्यम् । पूर्वत्र क्रियाया अपरिसमाप्तेर्वर्तमानत्वम् । उतरत्रासमाप्तिः समाप्तिश्च क्रियाया विवक्षिता । वक्तव्य: " सम्प्रति || २ |२| १०१ ॥ सम्प्रति ध्वर्थे लट् भवति । श्रारम्भात्प्रभृत्याऽनुपरमाद्वर्तमानः कालः सम्प्रति इत्युच्यते । उक्तं च "आरम्भाय प्रसृता यस्मिन् काले भवन्ति कर्त्तारः । कार्यस्यानिष्ठातस्तन्मध्यं कालमिच्छन्ति ॥ तरति + नयति । याति । तस्य शत्रुशानववैकार्थे || २|२| १०२|| तस्य सम्प्रतिकाले विहितस्य लट: स्थाने शत्रु शान इत्येतावादेशौ भवतः न चेद्वान्तेनैकार्थ्यं भवति । पचन्तं पश्य । पचता कृतम् । पचमानेन कृतम् । तस्य ग्रहणं किम् १ श्रसम्प्रतिकाले विहितस्य लटः स्थाने मा भूत् । उष्यते इह पुरा छात्रैः । श्रधीयते स्म नटैः । कार्य इति किम् ? पचति देवदत्तः । श्रत्र तस्य शतृशानाविति योगविभागः कर्त्तव्यः । "न वा साकारूक्षे" [२/२/१४] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या नवाग्रहणं चाभिसम्बन्धनीयम् । ततो नेत्यनेन इतिशब्दयोगे प्रतिषेध एव भवति । वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेन इवादिभिर्योगे द्यौ भिन्नाधिकरणेषु च हृत्सु नित्यो विधिः । कुर्वती भक्तिः । कुर्वद्भक्तिः । कौर्वतः । पाचमानः । भक्तिशब्दः प्रियादौ पठ्यते । तेन ' पुंवद्यजातीयदेशीये” [ ४|३|१२४ ] इति पुंवद्भावः । समानाधिकरणेषु हृत्सु विकल्पः । कुर्वत्तरः | कुर्वद्र पः । कुर्वाणरूपः । करोतितराम् । करोतिरूपम् । तस्मात् द्युत्ययोरुपसंख्यानं न कर्तव्यम् । पुनरवैकार्थ इति द्वितीयो योगः । श्रत्रापि नवत्यधिकारात् कचिद्वान्तेन सामानाधिकरण्येऽपि शतृशानौ भवतः । सन् घटः । श्रस्ति घटः । विद्यमानो घटः । विद्यते घटः । जुह्वन् जुहोति वा देवदत्तः । श्रधीयानो मुनिः । श्रधी मुनिः । व्यवस्थितविभाषाबलात् माङयाक्रोशे लुङपि । मा पचन् । मा पचमानः । मा पाक्षीत् । संबोधने ॥ २/२/१०३ ॥ सम्बोधनमभिमुखीकरणम् । तद्विषये लटः शतृशानौ भवतः वैकार्थत्वे । नित्यार्थमिदम् । हे पचमान । उभयोद्यत्यं सम्बोधनमिति वाविभक्त्यपि भवति । 1 लक्षणहेत्वोः क्रियायाः || २ |२| १०४॥ लक्षणं ज्ञापकं चिह्नम् । हेतुर्जनकः । लक्षणं च या क्रिया क्रियाया हेतुश्च या क्रिया तत्र वर्तमानाद्धोः परस्य लटः शतृशानौ भवतः । शयाना भुज्जते यवनाः । तिष्ठन्तोऽनुशासति गणकाः । व्यभिचार्य्यपि लक्षणं दृश्यते यथा यत्रासौ काकस्तद्देवदत्तमिति । श्रन्यदेव स्यात् शयाना वर्द्धते दूर्वा । श्रासीनं वर्द्धते विसम् । हेतौ । श्रधोयान श्रास्ते । श्रर्जयन् वसति । नवेत्यनुवृत्तेरिह न भवति । वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । लक्षण हेत्वोरिति किम् ? यो वेपते सोऽश्वत्थः । यदुत्लवते तल्लघु । द्रव्यस्य गुणस्य च लक्षणे न भवतः । इह शास्त्रे अन्यत्र हेतुग्रहणे कारकग्रहणमिति लक्षणग्रहणे च ज्ञापकग्रहणमिति अन्यतरनिर्देशे नोभयप्रतिपत्तेर्द्वयोरुपादानं द्वन्द्वेषु श्रल्पान्तरमिति पूर्वनिपातव्यभि - चारार्थं [च] • तौ सत् || २|२| १०५ ॥ तौ शतृशानौ सत्संज्ञौ भवतः । शतृशानयोः प्रकृतत्वात् तौग्रहणं शतृशानरूपपरिग्रहार्थम् । तेन लृडादेशयोरपि सत्संज्ञा सिद्धा । देवदत्तस्य कुर्वन् करिष्यन् । “डड्महण ” [ १ ३७५] इत्यादिना तास प्रतिषेधः । पूङ जोः शानः ॥ २|२| १०६|| सम्प्रतीति वर्तते । पूङ् यज् इत्येताभ्यां शानस्त्यो भवति । श्रादेशोऽयं कर्त्तर्येव भवति । मभाग्भ्योऽपि धुभ्यो विधास्यते । सोमं पवमानः । यजमानः । “न मित्र" [१/४/७२ ] श्रादिसूत्रे शत्रू इत्यतः प्रभृति श्रा तुनो नकारात् तृभिति प्रत्याहार उक्तः । तेन कर्मणि प्रतिषेधः । १५ For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [२० २ पा० २ सू० १०७-१८ वयःशक्निशीले ॥२२१०७॥ वयस् शक्ति शील इत्येतेषु गम्यमानेषु धोः शानो भवति । शरीरावस्था वयः । कतीह शिखएडं वहमानाः। कतीह कवचं पर्यस्यमानाः। शक्तिः सामर्थ्यम् । कतीह भटं निघ्नानाः। कतीह भुञ्जानाः । शीलं गुणान्तरद्वेषः । कतोह मण्डयमानाः । कतीह मुएडयमानाः। - धारीः शत्रकृछिणि ॥२।२।१०८॥ अकृञ्छ्रमनायासो यस्यास्ति सोऽकृछौ । धारि इङ इत्येताभ्यां शतृत्यो भवति अकृद्धिणि कर्तरि । धारयन् धर्मशास्त्रम् । अधीयन् जैनेन्द्रम् । अकृच्छ्रिणीति किम् ? कृच्छ्रेण धारयति । कृच्छ्रेणाधीते। द्विषोऽरौ ॥२१०६॥ द्विषः शतृत्यो भवत्यरौ कर्तरि | चौरस्य द्विषन् । चौरं द्विषन् । "द्विषः शतुर्वा वचनम्" [चा०] इति कर्मणि वा ता । श्रराविति किम् । द्वेष्टि पति भार्या । असमा एते त्या लटं न बाधन्ते । सुञो यज्ञसंयोगे ॥२।२।११०।। संयुज्यते इति संयोगः संयुक्त इत्यर्थः । सुनोतेर्यज्ञसंयोगे कर्तरि शनृत्यो भवति । सर्वे सुन्वन्तः । यशस्वामिन इत्यर्थः । यज्ञसंयोग इति किम् ? सुनोति सुराम् । प्रशंसेऽहः ॥२।२।१११॥ अर्हतेः प्रशंसेऽर्थे शतृत्यो भवति । अर्हनिह भवान् पूजाम् । अहं निह भवान् विद्याम् । प्रशंस इति किम् १ अर्हति चोरो वधम् । आक्के शोलधर्मसाधुत्वे ॥२।२।११२॥ श्राङभिविधौ द्रष्टव्यः । वक्ष्यति ग्रावस्तुवः किम् । श्रा एतस्मात् क्विप्संशब्दनात् यानित ऊर्ध्व वक्ष्यामः शीलधर्मसाधुत्वेषु वेदितव्याः। शीलं व्याख्यातम् । धर्म आचारः । ध्वर्थस्य साधु करणं साधुत्वम् । तृन् ॥२।२।११३॥ तृन्नित्ययं त्यो भवति सर्वधुभ्यः शोलादिषु । शीले-कर्ता कटान् । वदिता जनापवादान् । धर्मे- मण्डयितारः श्राविष्टायना भवन्ति । वधूमुढाम् अन्नमपहर्तार अाह्वरका भवन्ति श्राद्ध सिद्ध । साधुत्वे । कर्ता कटम् । गन्ताऽखेटम् । गमेरुकवक्ष्यते । अधिकारात्तृनपि भवति । अलङ्कनिराकृञ्प्रजनोत्पचोत्पतोन्मदरुच्य-पत्रपवृतवृध्सहचर इष्णुः ॥२११४॥ अलङ्कभित्येवमादिभ्य इष्णुर्भवति शीलादिषु । अलङ्करिष्णुः । मण्डनार्थे पूर्वविप्रतिषेधेन युचोऽयं बाधकः । निराकरिष्णुः । प्रजनिष्णुः । उत्पचिष्णुः । उत्पतिष्णुः । उन्मदिष्णुः । रोचिष्णुः । अपत्रपिष्णुः । वर्तिष्णुः । सहिष्णुः । चरिष्णुः। ग्लाजिस्थः कस्नुः ॥२।२।११।। ग्ला भू जि स्था इत्येतेभ्यो धुभ्यः क्स्नुर्भवति शीलादिषु । ग्लास्नुः । भूष्णुः। जिष्णुः। स्थास्तुः । “कस्नोगित्वान्न स्थ ईकारः क्तिोरीत्वस्य शासनात् । एवभावस्त्रिषु स्मायः युकोऽनिटत्वङ्गकोरितोः ॥" सिगृषिधृषितिपःक्तः॥२११६॥ त्रसि गृधि धृषि क्षिप इत्येतेभ्यः न भवति शीलादिषु । त्रस्नुः । गृध्नुः । धृष्णुः । क्षिप्नु: । ध्युङः ए प्रतिषधार्थ कित्करणमिदं ज्ञापकं त्यादिहलपेक्षया रुसंज्ञायामपि "च्युतः" [ शरा८३] एम्भवतीति । वेत्ता । बोद्धा । शमित्यामदेघिणिन् ।।२।२।११७॥ इति श्राद्यर्थे श्राअभिविधौ । शमादिभ्य श्रा मदेधिनिण् भवति । अष्टौ च शमादयः-शमी। तमो । दमी। श्रमी। भ्रमी। क्षमी । क्लमी। प्रमादी । उन्मादी । "उडोऽतः" [A] इत्यैप्प्राप्तः “म सेटस्तासि मोऽवमिकमिचमः' [१२।३१] इति प्रतिषिद्धः । मदेस्तु भवति । कारः उत्तरत्र कुत्वार्थः । इकारः उच्चारणार्थः। श्रन्ये उकारमितं कुर्वन्ति तेषामिह शमिनितरा इति "उगितश्च" [४।३।१५७ ] इति वा प्रादेशः प्राप्नोति । श्रामदेरिति किम् ? यसिता। दुहानुरुधदुषद्विषद्रुह्युजत्यजरजभुजाभ्याहनः ॥२।२।११८॥ दुहादिभ्यो धिनिण् भवति शीलादिषु । दोही । अनुरोधी । दोषी । द्वेषी । द्रोही । योगी । त्यागी। रज इति सूत्रे निपातनान्नसम् । रागी। भोगी। अभ्याघाती। अकर्मकाणामिति वक्तव्यमिह मा भत् । गां दोग्धा । शत्रूनभ्याहन्ता। For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० २ सू० ।६-१३२] महावृत्तिसहितम् परेः सृदेविक्षिपरटवददहमुहः ॥२।२।११६॥ परिपूर्वेभ्यः सुप्रभृतिभ्यो धुभ्यः घिनिण् भवति । परिसारी । देव देवन इत्यस्य परिदेवी । क्षिपेरविशेषेण ग्रहणम् । परिक्षेपी । परिपाटी । परिवादी । परिदाही । परिमोही । वो कषविचलसकत्थस्रम्भः ॥२।२।१२०॥ विपूर्वेभ्यः कषादिभ्यो धुभ्यो घिनिण मवति । विकाषी। विवेकी । विलासी। विकत्थी। विस्रम्भी। अपे च लषः ॥२।२।१२१॥ अपे च वौ वाचि लषेधिनिण् भवति । अपलाषी। विलाषी। चरेः ।।२१२२॥ अप इति वर्तते । अपपूर्वाञ्चरेः घिनिए भवति । अपचारी। अतः ॥२।२।१२३॥ अतिपूर्वाञ्चरेपिनिण् भवति । अतिचारी। समि पृचिसृजिज्वरः ।।२।२।१२४॥ सम्पूर्वेभ्यः पृचि सृजि ज्वरि इत्येतेभ्यो चिनिण, भवति । सम्पर्की । संसर्गी । संज्वरी । अकर्मकाणामित्येव । संपृणक्ति साकम् । आङि यमियसिक्रीडिमुषः ॥२।२।१२५॥ आङ् पूर्वेभ्यः यमि यसि क्रीडि मुषि इत्येतेभ्यो घिनिण भवति । आयामी । तासाव 'निड्भावादैप्प्रतिषेधो न भवति । प्रायासी। श्राक्रोडी। आमोषी। प्रेलपसृद्र मथवदवसः ॥२।२।१२६॥ प्रशब्दे वाचि लप स द्रु मथ वद वस इत्येतेभ्यो घिनिण, भवति । प्रलापी । प्रसारी । प्रद्रावी । प्रमाथी । प्रवादी । वसेरनुबिकरणस्य प्रवासी। निन्दहिसक्तिशखादविनाशव्याभाषासूयो वुन ॥२।२।१२७॥ निन्दादिभ्यो वुञ् भवति शीलादिषु । निन्दकः। हिंसकः। क्लिशेरविशेषेण ग्रहणे युचोऽपि बाधा । क्ल शकः । खादकः । विनाशेय॑न्तस्य विनाशकः । असूय इति कण्वादिर्यगन्तः । असूयकः । एवुना सिद्ध वुग्रहणं ज्ञापकमन्येभ्यः शीलादिषु एम्वादयो न भवन्तीति। परौ वादितिपरटः ॥२२॥१२८॥ परिपूर्वेभ्यः वादि क्षिप रट् इत्येतेभ्यो वुञ् भवति । परिवादकः । परिक्षेपकः । परिराटकः । देविकुशो गौ ॥२।२।१२६॥ देवि क्रुश इत्येताभ्यां गौ वाचि बुञ् भवति । देवीति देवतेपर्यन्तस्य । परिदेवकः । श्रादेवकः । परिक्रोशकः । श्राक्रोशकः । गाविति किम् ? देवयिता। रुचलार्थाद्धयुच् ॥२।२।१३०॥ रौत्यर्थेभ्यश्चलत्यर्थेभ्यश्च घिसंज्ञकेभ्यो युज् भवति । रवणः । शब्दनः । कथनः । चलत्यर्थेभ्यः-चलनः। चोपनः । कम्पनः । धेरिति किम् ? पठिता शास्त्रम् । अनुदात्ततोऽयसूददीपदीक्षो हलादेः ॥रा२१३१॥ अनुदात्तेतो हलादे|युज्भवति यकारान्त-सूददीप दीक्ष इत्येतान्वर्जयित्वा । द्योतनः । रोटनः । अनुदात्तेत इति किम् ? यष्टा । अयसूददीपदीक्ष इति किम् ? का यिता । दमायिता । सूदेः सकर्मकस्यापि सूदिता । कथं मधुसूदनः । नन्यादिपाठाणण्युः । दीपिता । दीपेर्विशेषेण रो विधास्यते युचः प्राप्तिर्नास्ति । इदं प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं शीलादिकेषु असमविधिन भवतीत्यनित्यमेतत् । तेन कमनः । कम्रः । कम्पनः । कम्प्रः । विकत्थी विक्रथनः इति च भवति । दीक्षिता। हलादेरिति किम् ? एधते इत्येवं शील एधिता। आदिग्रहणं किम् ? हला तदन्तविधिमा भूत् । इह न स्यात् । जुगुप्सनः । मीमासनः। धेरेव । बसिता वस्त्रम् । सृजुज्वलगृधशुचलषपतपदः ॥२॥२१३२॥ सुप्रभृतिभ्यो युज्भवति । शरणः। जवनः । ज्वलनः । गर्धनः। शोचनः । लषणः । पतनः । पदनः । चल्यर्थानां पदेश्च ग्रहणं सकर्मकार्थम् । पदिग्रहणं १.-सावनिट्वादै- अ०। For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० २ सू० १३३-१४३ ज्ञापनार्थमित्यन्ये । शीलादिकेषु चासमविधिन भवतीति । पदेरुका विशेषविहितेन सामान्यविहितस्य युचो वाधितत्वात् पुनरनेन प्रत्यापत्तिः । क्रुधमण्डार्थात् ॥२।२।१३३।। क्रुध्यर्थेभ्यो मण्डार्थेभ्यश्च धुभ्यो युज्भवति । क्रोधनः । कोपनः । रोषणः । मण्डार्थेभ्यः-मण्डनः । रचनः । भूषणः। क्रमिद्रमो यकः ।।२।२।१३४॥ क्रमिद्रमिभ्यां यङन्ताभ्यां युजभवति । चक्रमणः । दन्द्रमणः। यजिजपिवददशामूकः ॥२।२।१३५॥ यङ इति वर्तते । यज्यादिभ्यो यङन्तेभ्यः ऊको भवति । यायजूकः । जजपूकः । वावदूकः । दन्दशूकः । जपिदंशिभ्यां "लुपसवचरजपजभवहगृदशो गहे" [२।१।२१] इति यङ् । “जपजभदहदशभञ्जपशाम्" [१२।१८४ ] इति चस्य नुमागमः । जागुः ॥२।२।१३६॥ जागुरूको भवति । जागरूकः । लषपतपदस्थाभूवृषहनशकमगम उकञ् ॥२२॥१३७॥ लषादिभ्यः उकञ् भवति । अपलाषुकं नीचसङ्गतम् । "अपे च लषः" [२।२।१२१] इति वचनात् घिनिणपि भवति । प्रपातुका गर्भाः। उपपादुकाः देवाः । उपस्थायुको गुरून् । प्रभावुकः । प्रवषुकः । श्राघातुकः । शृणोतेः शारुकः । कामुका वन्यस्य स्त्रियो भवन्ति । "न मित" [११४७२ ] इत्यादिना कर्मणि तायाः प्रतिषेधे प्राप्ते उकप्रतिषेधे कमेरप्रतिषेध इत्युक्लम् । श्रागामुकः स्वगृहम् । जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृङटाकः ॥२२१३८॥ जल्पादिभ्यो धुभ्यष्टाको भवति । जल्पाकः । जल्पाकी । अकर्मकविवक्षायां "रुचला(द्ध र्युच" [ २।२।१३० ] इति युच् प्राप्तः । भिक्षाकः । अनुदात्तेतो युच् प्राप्तः। कुट्टाकः । लुण्टाकः । बराकः । प्रे सूजोरिन् ॥२।२।१३६॥ प्रपूर्वाभ्यां सूजुभ्यां इन् भवति । प्रसवी । प्रजवी । परिभूजिद्दतिविश्रीण्वमाव्यथाभ्यमः ॥२।२१४०॥ इन्निति वर्तते । परिभू जि दक्षि विश्री इण वम अव्यथ अभ्यम इत्येतेभ्य इन् भवति । परिभावी । जयी। श्रादरी। क्षयी। विश्रयी | अत्ययी। वमी। अव्यथी । अभ्यमी। स्पृहिगृहिपतिदयिनिद्रातन्द्राश्रद्धाभ्य आलुः ॥२।२।१४१॥ स्मृहिप्रभृतिभ्यो धुभ्यः पालुर्भवति । स्पृहयालुः । गृहयालुः। पतयालुः। एते चुरादिष्वदन्ताः। दयालुः । निद्रालुः। तन्द्रालुः । तन्निति निपातनमालुविषये भवति । श्रद्धालुः । इह शीडो ग्रहणं कर्त्तव्यम् । शयालुः । दाधेट्रसिशदसदो रुः ॥२।२।१४२॥ दा धेट सि शद सद इत्येभ्यो रुर्भवति । दा इत्यविशेषेण ग्रहणम् । दाहः । धारः वत्सो मातरम् । “न झित' [१।४।७२] इत्यत्र उकारप्रश्लेषात् तदन्तविधिना तायाः प्रतिषेधः । सेकः । शद्रुः । सट्ठः। यत्त्वात्मकर्मणि द्यतेर्दारु काष्ठं तदुणादिषु द्रष्टव्यम् । सघस्यदः क्मरः ॥२२२२१४३॥ स घसि अद् इत्येतेभ्यः क्मरो भवति | समरः। घस्मरः। अमरः । अनेनैवादेः घस्भावो निपात्यते । भञ्जभासमिदो घुरः ॥२२२२१४४॥ भञादिभ्यो घुरो भवति । भजेरात्मकर्मण्यभिधानम् । भङ्गरं काष्ठम् । भासुरं ज्योतिः । मेदुर मुखम् । विद्भिच्छिदः कुरः ॥२।२।१४५॥ विद् भिद् छिद् इत्येतेभ्यः कुरो भवति । विदुरः इति ज्ञानार्थस्यैव । भिच्छिदोरात्मकर्मणि कुर इष्यते । भिदुरं काष्ठम् । छिदुरा रज्जुः । सृजीणनशः क्करप् ॥२२२२१४६॥ स जि इण् नश् इत्येतेभ्यः क्वरप् भवति । सत्वरः। जित्वरः । इत्वरः । नश्वरः। नश्वरी। For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०२ पा० २ सू० १४७ - १५६ ] महावृत्तिसहितम् ११७ गत्वरः || २|२| १४७॥ गत्वर इति निपात्यते गमेः करप, मकारस्य खं निपात्यते । गत्वरः । गत्वरी । नमिकम्पिरम्यजस्कमहिंसदीपो रः ||२|२| १४८ || नमि कम्पि स्मि जस कम हिंस दीप इत्येतेभ्यो रो भवति । नमेरात्मकर्मण्यपि । नम्रं काष्ठम् । नम्रो देवदत्तः । कम्प्रा शाखा । स्मेरं मुखम् । जस्यतेर्नञ्पूर्वात् सं ज्ञानं भावयामः । कम्रा युवतिः । हिंस्रः पापमेति । दीप्रो मणिः । कम्पेश्व कमदीप्योरनुदातेत्वाद्युच् प्राप्तः । सनाशंसभिक्ष उः ॥२|२| १४६ ॥ सन्नन्त श्राशंस भिक्षु इत्येतेभ्य उत्यो भवति । चिकीर्षुः । श्राङ: शसि इच्छायामित्यस्य श्राशंसुः । भिक्षुः । विन्द्विच्छ्र २|२| १५० || विन्दु इच्छु इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । वेत्तेरुकारः नुमागमश्च निपात्यते ! विन्दुः । इच्छतीत्येवंशील इच्छुः । उश्छत्वं च निपात्यते । स्वपितृषोर्नजिङ् ॥ २/२/१५१ ॥ स्वपितृषिभ्यां नजिङ भवति शीलादिषु । स्वप्नक् । स्वननौ । तृष्णक्रू। तृष्णजौ । शृवन्द्योरारुः ||२|२|१५२|| ट वन्दि इत्येताभ्यामारु इत्ययं त्यो भवति । शरारुः । बन्दाः जिनान् । भियः क्रुक्लुको || २|२| १५३॥ विभेतेः क्रु क्लक इत्येतौ भवतः । भीरुः । भीलुकः । क्रुकोऽपि वक्तव्यः । भीरुकः । स्थेशभासपिसकसो वरः || २|२| १५४ || स्था ईश भास पिस कस इत्येतेभ्यो वरो भवति । स्थावरः । ईश्वरः । भास्वरः । पेस्वरः । कस्वरः । यो यङः ||२| २|१५५॥ यातेर्यङन्ताद्वरो भवति । यायावरः । वरे श्रतः खम्, तस्य यखविधिं प्रति न स्थानिवद्भाव इति "बलि व्योः खम् ” [४ | ३ | ४५] इति यखम् । यखे कृते श्रतः खस्य स्थानिवद्भावात् "इटि चात्खम्' [ ४।४।६३ ] इति श्रात्खं प्राप्तम् । वरे पूर्वादेशस्य न स्थानिवद्भाव इति न भवति । "शीलादिप्रकरणे धान्कृसृजनिनभिभ्य इर्लिट् वक्तव्यः " [वा०] धानशीलो दधिः । करणशीलः चक्रिः । सरणशीलः सत्रिः । जननशीलः जज्ञिः । नमनशीलः नेमिः । “हरुमध्ये लिव्यतः" इति एत्वचखे । ग्रावस्तुवः क्विप || २|२|१५६ ॥ ग्रावपूर्वात् स्वौतेः किप् भवति शीलादिषु । प्रावाणं स्तौतीत्येवंशीलः श्रावस्तुत् । शीलादिषु वाऽसमविधिर्नास्तीति सामान्यलक्षणः क्विप् न प्राप्नोति पुनर्विधीयते । अन्येभ्योऽपि ॥ २|२| १५७ ॥ श्रन्येभ्योऽपि धुभ्यः शीलादिषु क्विबू भवति । श्रपिग्रहणं विकल्पार्थम् | अन्येभ्योऽपि धुभ्यः शीलादिष्वपि भवत्यशीलादिष्वपि तत्राभिधानवशात् । भ्राजभासधुर्विद्युतेर्जिपूजुभ्यः शीलादिषु क्विद्द् भवति । अन्येभ्योऽन्यत्र । विभ्राजनशीले विभ्राट् । विभ्राजौ । भाः । भासौ । धूर्वणाशीलः धूः । धूरौ । विद्युत् । विद्युतौ । ऊ । ऊर्जी । पूः । पुरौ । जूः । जुवौ । जुवः । "क्विपिवचित्रछतस्तु श्री दीरजिश्च" [ वा० ] इति दीलम् । श्रन्येभ्योऽशीलादिषु । पक् । पचौ । भित् । भदौ । छिन् । छिदौ । वाक् । प्रच्छेः प्रार् । श्रायतस्तूः । कटः । 1 भुवः स्वन्तरे ||२|२|१५८|| भवतेः क्विच् भवति खावन्तरे च गम्यमाने । मित्रभूः । मित्रभुवौ । मित्रभुवः । श्रन्तरे । प्रतिभूः । प्रतिभुवौ । प्रतिभुवः । पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमेतत् ख्वन्तरयोरेव भुवः शीलादिषु नान्यत्र । भविता । भावुकः । विप्रसमोऽखौ डुः ||२२|१५६ ॥ शीलादिष्विति निवृत्तम्। सम्प्रतीत्यनुवर्तते एव । विप्रसंपूर्वाद्धो For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ ० १ सू० १६० - १६७ र्भुवो डुर्भवत्यखौ | विभुः । प्रभुः । शम्भुः । श्रखाविति किम् ? विभुर्नाम कश्चित् । "हुप्रकरणे मितद्रुप्रभृतीना - मुपसंख्यानम्” वा० ] मितं द्रवति मितद्रुः । शम्भुः । दाम्नीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे त्रट् || २|२| १६०॥ दाप् लवन इत्येवमादिभ्यः करणे कारके त्रट् भवति । दान्ति तेन दात्रम् । नेत्रम् | शस्त्रम् । योत्रम् | योक्त्रम् । स्तोत्रम् । तोत्रम् । सेत्रम् । सेक्त्रम् । मेद्रम् । पत्रम् । दंष्ट्रा । अजादिषु पाठाट्टाप् । नी । दंशेः कृतनखस्य निर्देशो ज्ञापकः क्वचिदन्यत्रापि नखम् । दशनः । धात्रपोत्रे || २|२| १६१ ॥ धात्र पोत्र इत्येते शब्दरूपे निपात्येते । धेटः कर्मणि त्रट् निपात्यते । धयन्ति तामिति धात्री । पोत्रमिति पुनातेः पवतेर्वा करणे त्रट् निपात्यते । हलस्य सूकरस्य वा मुखं चेद्भवति हलस्य पोत्रम् | सूकरस्य पोत्रम् | 1 लूधूसूख नर्तिसहचर इत्रः || २|२| १६२ || करण इति वर्तते । ल्वादिभ्यो धुभ्यः करणे इत्रो भवति । लुनाति तेन लवित्रम् | धुवति तेन धवित्रम् । सुवति तेन सवित्रम् । खनित्रम् । श्ररित्रम् | सहित्रम् । चरित्रम् | पुवः खौ || २|२|१६३॥ करण इति वर्तते । पक्तैः पुनातेर्वा करणे इत्रो भवति खुविषये । पूयतेऽनेन पवित्रम् | पवित्रा नाम नदी । कर्तरि चर्षिदेवतयोः || २|२| १६४ ॥ पुत्र इत्रो भवति कर्तरि करणे च कारके ऋषिदेवतयोरभिधेययोः । भिन्नयोगनिर्दिष्टत्वाद्यथासंख्यं न भवति । पूयतेऽनेन पुनाति वा पवित्रोऽयमृषिः । देवतायां पवित्रोऽन् मां पुनातु । जीतः क्तः || २|२| १६५ ॥ संप्रतीति वर्तते । त्रिशब्देतो धोः संप्रति को भवति । ञिमिदा मिन्नः । ञिधृषा । धृष्टः । ञिदिवदा । दिवण्णः । मतिबुद्धिपूजार्थाच्च ॥ श२/१६६ ॥ मतिरनुमतिः । बुद्धिर्ज्ञानम् । पूजा अर्चा । मत्यर्थेभ्यो बुद्ध्यर्थेभ्यः पूजार्थेभ्यश्च धुभ्यः संप्रति क्लो भवति । राज्ञां मतः । राज्ञामिष्ठः । राज्ञां बुद्धः । राज्ञां ज्ञातः । राज्ञां पूजितः । राज्ञामर्चितः । क्तयोगे कर्तरि ता प्रासा "न मित” [ ११४१७२ ] इत्यादिना प्रतिषिद्धा भवतीत्यनेन पुनर्विधीयते । चकारो ऽनुक्तसमुच्चयार्थः । शीलितो रक्षितः क्षान्त यात्रुष्टो जुष्ट इत्यपि । रुष्टश्च रुषितश्चोभौ अभिव्याहृत इत्यपि ॥ egg तथा कान्तः दयितोऽन्यः संयतोद्यतौ । कष्टं भविष्यतीत्याहुरमृताः पूर्वकस्मृताः ॥ अमृतशब्दः संप्रति बहुत्वनिर्देशात् । सुप्तः शयितः स्थितः श्राशित इत्येवमादयोऽपि संप्रति बोद्धव्याः । उणादयो बहुलम् ||२|२|१६७॥ "पुवः खौ " [ २/२/१६३ ] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या खाव वर्तते । उ इत्येवमादयस्त्याः संप्रति ध्वर्थे बहुलं भवन्ति । खुविषये क्वचित्त्यसंज्ञा भवति । "कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण् ।” कारुः । वायुः । पायुः । जायुः । मायुः । स्वादुः । साधुः । श्राशुः । कचित्यसंज्ञा न भवति । कृधूभ्यां क्सरः । कृसरः । धूसरः । त्यसंज्ञाविरहात् " त्यादेशयोः " [ ५१४/३१] इति षत्वं न भवति । इह च शङ्खः शण्ट इण् न भवति । क्वचिदुभयथा । "वृतृवदिहनिकमिकाषिभ्यः सः ।" वर्सम् । तम् । एपम्प्रतित्यसंज्ञा षत्वं प्रति नास्ति । इह च षण्ड इति प्रकृतिकार्ये ध्वादिसत्वं न भवति उक्तं च १. मां, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प० २ पा० ३ सू. १-४] महावृतिसहितम् "क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । ‘विधेविधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥" तथा अनुक्ताभ्योऽपि प्रकृतिभ्यस्त्या भवन्ति । अण्डः । कृस्वृङः-जरण्डः । करण्डः । सरण्डः । वरण्डः । श्राङि ईर्तेरपीप्यते । एरण्डः । अनुक्ला अपि त्या भवन्ति ऋफिडः ऋफण्डः इत्येवमादिषु । तथा संप्रतिकाले उणादयो विहिताः क्वचिद्भूतेऽपि दृश्यन्ते । कषितोऽसौ कषिः । ततोऽसौ तन्तिः । भसितं भस्म । चरितं चर्म । वृत्तं तदिति वर्म । तदुक्लं (बाहुलकं प्रकृतेस्तनुदृष्टेः प्रायसमुच्चयनादपि तेषाम् । कार्यसशेषविधेश्च तदुक्तं नंगमरूढभवं हि सुसाधु ।' जात्यपेक्षयैकत्वं तनुदृष्टेरिति प्यखे कर्मणि का । वनुष्टि वीक्ष्य तनुदृष्टेः प्रकृतस्तनोर्गुणस्य दर्शनादित्यर्थः। तद्बाहुलकमुक्तम् । एवं हि नैगमाः गौरित्येवमादयः मदिभवाः पलाश इत्येवमादयः शब्दा सुसाधवो भवन्ति । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः। गम्यादिवय॑ति ।।२।३३१॥ उणादयो अन्यत्र च ये साधिता गम्यादयः शब्दास्ते च वय॑ति काले माधवो भवन्ति । वर्त्यतीत्यनागतस्य कालस्य सामान्येन ग्रहणम् । संप्रत्यादिकाले तेषां साधुत्वव्यवच्छेदार्थ श्रारम्भः । गमिष्यति गमी ग्रामम् । श्रागमिष्यति आगमी नगरम् । "आधमये चेनः"; [१५] इति कर्मणि तायाः प्रतिषेधात् "कर्मणीप्' [२] इतीबेव भवति । एवं भविष्यति भावी । प्रस्थास्यते प्रस्थायी। प्रतिभोत्स्यते प्रतिबोधी । प्रतियोक्ष्यते प्रतियोगी । प्रयास्यति प्रयायी। "गमेरिन्" इति इन् । स एव "आङि मित्" इति णित् । "मुवश्च' इति भवतेरपि गिन् । अन्येभ्यः "सुपि शीलेऽवातौ हिन्"शश६६] इति णिन् । कथं श्वो गमी ग्रामम् । "अनद्यतने लुङ्' इति लुङ्माप्तेः १ तदसत् । यतो वस्य॑तीत्यनेन सामान्य शब्देनानद्यतनविशेषोऽप्यत्र गृहीतो यथा गौरित्यनेन खण्डमुण्डोऽपि । अतो वय॑तीत्यविशेषेण वृत्तावप्यर्थकरणादेविशेषप्रतिपत्तिः । अथवा "अनद्यतने लुट्” [२।३।३४] इत्यत्र "गम्यादिवस्य॑ति'' इत्येतदनुवर्तिष्यते । तेनानद्यतनविषयेऽपि गम्यादयः सिद्धा भवन्ति । असमाद्वा अनद्यतने भवन्ति । लुड्लुटावपि भवतो गमिष्यति गन्तैति। पुरायावतोर्लट् ॥२॥३२॥ पुरा च यावच्च पुरायावतौ । तयोः पुरायाच्छन्दयोर्वाचोर्वत्स्यति धोर्लड् भवति । पुरा भुङ्क्ते । पुराधीते । यावद्भुतं । यावदधीते । भविष्यदनद्यतने लुटोऽयमपवादो लट् । लुर्मप लुडपवादः, तत्रापवादयोः स्पर्द्ध परत्वाल्लुट प्राप्तः पूर्वनिर्णयेन लड् भवति । श्वः पुराऽधीते । श्वो यावदधीते । लक्षणप्रतिपदोक्योः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहण न तु लाक्षणिकस्येत्यभिधानात् । तेनेह न भवति । यावद्दास्यति तावद्धोच्यते ।महत्या पुरा जेष्यति । घा कदाकोः ॥२॥३॥३॥ कदा कर्हि इत्येतयोर्वाचोर्वर्त्यति धोर्वा लड् भवति । कदा भुङ्क्ते । कदा भोक्ष्यते । कदा भोक्ला । कहि भुते । कर्हि भोक्ता । किंवृत्ते लिप्सायाम् ॥२॥३४॥ किमो वर्तनं किंवृत्तं तस्मिन् वाचि लिप्सायां गम्यमानायां वर्त्यति वा लड् भवति । लुटि लुटि च प्राप्त अयमारम्भः । लब्धुमिच्छा लिप्सा प्रार्थनाभिलाषः। को भवद्थो भिक्षा ददाति । को भवद्भयो भिक्षां दास्यति । को भवद्भयो भिक्षां दाता । इह कस्मान्न भवति । कदा भोजयिष्यसि भोजयितासि वा । किमो हि विभक्त्यन्तस्य डतरडतमान्तस्य च वर्तनं किंवृत्तमिति वैयाकरणानामभिप्रायः । तच्चेह नास्ति ततोऽत्र लटोऽभावात् लङलुटावेव भवतः । लिप्सायामिति किम् ? कः पाटलिपुत्र यास्यति ? For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू० ५-११ लिप्स्यसिद्धी || २|३|५|| वर्त्यतीत्यनुवर्तते । लिप्सति हि लिप्स्यो दाता श्रोदनादिश्च । तत्र दातरि तासः । लिप्स्यस्य सिद्धिः लिप्स्यसिद्धिः । याचकेन हि यो लिप्स्यते दाता तस्य सिद्धौ स्वर्गादिफलप्राप्तौ । श्रोदनादौ तु भासः । याचकेन हि यो लिप्स्यते श्रोदनादिना करणभूतेन सिद्धिः दातुः स्वर्गादिफलप्राप्तिः तस्यां गम्यमानायां वर्त्स्यति वा लड् भवति । यो भवद्भयो भिक्षां ददाति दास्यति दाता वा स स्वर्गलोकं गच्छति गमिष्यति गन्ता वा । दानाद्दातुः स्वर्गसिद्धिं ब्रुवाणी दातारमेवमुत्साहयति । ननु चात्र उभयत्रापि लिप्साया गम्यमानत्वात् " किंवृत्ते लिप्सायाम्" [२|३|४] इत्येव लविकल्पसिद्धेर्व्यर्थोऽयमारम्भः । न व्यर्थोऽकिंवृत्तार्थत्वादेतदारम्भस्य । पूर्वेण हि किंवृत्ते वाचि विकल्पो विहितः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोड लक्षणे ||२||३|६|| वर्त्यतीति वेति च वर्तते । लोडर्थ: प्रैषादिः, स लक्ष्यतेऽनेन लोडथंलक्षणम्, तस्मिन् लोडर्थलक्षणे ध्वर्थे वर्तमानात् घोर्यत्स्र्यति वा लड् भवति । उपाध्यायश्चेदागच्छति । उपाध्यायश्वेदागमिष्यति । उपाध्यायश्वेदागन्ता । अथ त्वं तर्कमधीष्व अथ गणितमधीष्व । अत्रोपाध्यायागमनेन प्रैषो लक्ष्यते । लिङ चोर्ध्वमौहूर्तिके ||२|३|७|| वेति वर्तते । लोडर्थलक्षण इति । ऊर्ध्वं मुहूर्ताद्भवः काल ऊर्ध्वमौहूर्तिकः । निपातनात्सविधिरुत्तरपदस्यैप् । ऊर्ध्वमौहूर्तिके वर्त्स्यति काले लोडर्थ लक्षणे वर्तमानाद्घोर्लिङ भवति लड् वा । ऊर्ध्व ं मुहूर्तादुपाध्यायश्चेदागच्छेत् उपाध्यायश्चेदागच्छति उपाध्यायश्चेदागमिष्यति उपाध्यायश्वेदागन्ता अथ त्वं तर्कमधीष्व अथ त्वं गणितमधीष्व । 'तुम क्रियायां तदर्थायाम् ॥ २३८ ॥ वर्त्यतीत्येव वर्तते । यस्माद्धोस्योत्पत्तिः प्रार्थ्यते तद्वाच्यक्रिया तच्छन्देनाभिप्रेत्ता सा क्रिया श्रर्थः प्रयोजनं यस्या वजनादिक्रियायाः सा तदर्था, तस्यां वाचि वर्त्स्यति - काले तुमी भवतः । कारको व्रजति । कर्तुं व्रजति । भोजको व्रजति । भोक्तु ं व्रजति । क्रियायामिति किम् ? भिक्षिष्ये इत्यस्य जटाः । श्रध्येष्ये इत्यस्य कमण्डलुः । द्रव्यमत्र तदर्थम् । तदर्थायामिति किम् ? धावतस्ते पतियति दण्डः । नात्र धावनं दण्डपतनार्थम् । ननु सामान्यविहितेन एवुना सिद्ध किमर्थं विधीयते भिकृतो भावे भवन्तीति भिन्नविषयत्वात्तुमपि न बाधकः । क्रियायां तदर्थायां वाचि लुडू वक्ष्यते स बाधकः स्यात् । वाऽसमविधिना एवुर्भविष्यतीति चेत्; एवं तर्हि नियमार्थं वुण्वचनम् । वर्त्स्यति क्रियायां तदर्थायां वाचि बुव यथा स्यात् तृजादयो मा भूवन् इति । कर्ता व्रजति विकिरो व्रजति इत्येवमादि न भवति । भाववाचिनः || २|३|६|| भाववाचिनो घञादयस्ते वर्त्स्यति काले क्रियायां तदर्थायां वाचि भवन्ति । यद्यपि सामान्येन विहिता घञादयस्तथापि वण्ग्रहणं ज्ञापकमुक्तम् सामान्यविहितास्त्या वर्त्स्यति काले क्रियाया तदर्थायां न भवन्तीति तुमा च ब ध्येरन् । तेनायं यत्नः । पाकाय व्रजति । त्यागाय व्रजति । मतये व्रजति । पुष्टये वज्रति । "तुमर्थाद् भावे " [ १।४।२५ ] इत्यप् । भाव इति विशेषणेन । वाचि ग्रहणं किमर्थम् ? यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो येन विशेषणेन त्या विहितास्ताभ्यः प्रकृतिभ्यस्तेन विशेषणेन क्रियायां तदर्थायां वाचि यथा स्युरित्येवमर्थम् । कर्मणि चाण् ||२|३|१० ॥ कर्मणि वाचि तदर्थायां च क्रियायामय् भवति । पूर्वेण वुप्राप्तः । वाऽसमविधिश्च नास्तीत्युक्तम् । श्रय् न स्यात् तेनायमारम्भः । कुम्भकारो व्रजति । काण्डलावो व्रजति । वाचिग्रहणानुवृत्तेर्यथाविहितमय् भवति इति कर्मण्येव वाचि भविष्यति । कर्मग्रहणं किमर्थम् १ अपवादविषयेऽ पि यथा स्यादित्येवमर्थम् । गोदायो व्रजति । तुषपायो व्रजति । क्रियायां तदर्थायामनुवर्तते । चकारः किमर्थः १ केवले कर्मणि केत्रलायां च क्रियायां वाचि मा भूत् । प्रत्येकमोपा निर्देशात् वाक्सः । ऌट् ॥२|३|११॥ ऌड् भवति क्रियायां तदर्थायां वाचि । करिष्यामीति व्रजति । हरिष्यामीति व्रजति । उदाहरणे इतिशब्दों हेतुहेतुमद्भावद्योतनार्थः । For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० ३ सू० १२- २० ] महावृत्तिसहितम् १२१ शेषे ||२||१२|| उक्कादन्यः शेषः शुद्धं वर्त्स्यत् कालमात्रम् शेषे वर्त्स्यति लृट् भवति । करिष्यति । हरिष्यति । विभाषा लुटः सत् ॥२/३/१३॥ वर्त्स्यति लृट् तस्य स्थाने सत्संज्ञौ शतृशानौ विभाषया भवतः । पक्ष्यन्तं पश्य । पक्ष्यमाणं पश्य । पक्ष्यता कृतम् । पक्ष्यमाणेन कृतम् । हे पक्ष्यन् । हे पक्ष्यमाण । श्रर्जयिष्यन् वसति । श्रध्येष्यमाणास्ते । देवदत्तः पच्यन् पक्ष्यति वा पक्ष्यमाणः पक्ष्यते वा । व्यवस्थितविभाषेयम् । तेन इबादिभिर्योगे सम्बोधने लक्षणहेत्वोः क्रियायामित्यत्र नित्यो विधिः । वान्तैकार्थत्वे विकल्पः । इतिशब्दयोगे तु न भवति । करिष्यामीति व्रजति । हरिष्यामीति व्रजति । लड्ग्रहणं किम् ? त्यान्तरत्वं मा विज्ञायि । नद्यतने लुट् ||२| ३ | १४ ॥ वर्त्स्यतीति वर्तते । वर्त्यत्यनद्यतने ध्वर्थे वर्तमानादोलुंड भवति । श्वः कर्ता । श्वोऽध्येता । श्रनद्यतन इति वसनिर्देशादद्य श्वो भोदयामहे इत्यत्र न भवति । विभाषानुवर्तनात् परिदेवने लृविषयेऽपि लुड् भवति । इयन्तु कदा गन्ता एवं निदधती पादौ । अयं तु कदाध्येता एवमनभियुक्तः । पदरुजविशस्पृशो घञ ॥२|३|१५|| पद रुज विश स्पृश इत्येतेभ्यो घञ भवति । पद्यतेऽसौ पादः । चोरयमपवादो न पचाद्यचः "सुम्मिङन्तं पदम् [१।२११०३] इति पदनिर्देशात् । रुजत्यसौ रोगः । विशत्यसौ वेशः । इगुङ्लक्षणस्यापवादः । स्पृश उपतापेऽभिघातम् । स्पृशतीति स्पर्शो रोगः । उपतापादन्यत्र स्पष्टा । स्पर्शकः । सृ स्थिरे ||२|३|१६|| सरतेः स्थिरे कर्तरि घञ् भवति । कालान्तरं सरतीति सारः । मधूकसारः । विभाषानुवर्तनात् स्थिरव्याधिमत्स्यवलेष्वभिधानम् । श्रतीसारो व्याधिः । विसारो मत्स्यः । सारो बलम् । एतैष्विति किम् ? सर्ता । सारकः । 1 भावे ||२|३|१७|| भावे धोत्र भवति । भाव इति क्रिया सामान्यं ध्वर्थः । तद्यद्यपि पूर्वापरीभूतमपरिनिष्पन्नमलिङ्गसंख्यं प्रकृत्यैवोच्यते, तथापि यस्त्वस्यासिद्धताधर्मः स लिङ्गसंख्यावानिति तत्र घञादयः । पाकः । त्यागः । रागः । कतरि || २|३|१८|| कर्तुरन्यस्मिन् कारके घञ् भवति । "नयुक्तमिवयुक्तं वा यत्कार्यं संप्रतीयते । तुल्याधिकरणेऽन्यस्मिन् लोकेऽप्यर्थं गतिस्तथा ।। " प्रास्यन्ति तं प्रासः । प्रसीव्यन्ति तं प्रसेवः । श्राहरन्ति तस्मादाहारः । 'संज्ञायामसंज्ञायामपि दृश्यते । को भवता दायो दत्तः । को भवता लाभो लब्धः । कर्तव्यः कटः इत्येवमादिषु अनभिधानात् भवति । परिमाणाख्यायां सर्वेभ्यः || २|३|१६|| श्रख्या ग्रहणात्परिमाणमिह संख्यादिकं गृह्यते । परिमाणस्याख्यायां गम्यमानायां सर्वेभ्यो घञ भवति । एकस्तण्डुलनिचायः । एकस्तण्डुलावचायः । द्वौ केदारलावौ । द्वौ बीजकारौ । "वृग्रहवृहगमोऽच्" [२|३|१२] इति अचि प्राप्ते इदम् । परिमाणाख्यायामिति किम् ? निश्चयः । सर्वग्रहणं बाधकबाधनार्थम् । एकस्तृणनिघासः । श्रन्यथा पुरस्तादपवादोऽयमिति श्रनन्तरमेवाचं बाध्येत न व्यवहितम् । नौ गश्चेति णम् । घञि घस्लृभावः सिद्धः । इहाकर्तरीत्येवाभिसंबध्यते । स्त्रीलिङ्गे भावे घञमा भवेत् । एका तिलोच्छ्रितः । द्वे श्रुती । सर्वग्रहणं बाधकबाधनार्थमुक्त क्लिरपि बाध्येत । इङः ||२|३|२०|| इत उत्तरं भावे कर्तरीति च वर्तते । इङश्च घोर्घञ् भवति । श्रधीयते इत्यध्यायः । उपेत्याधीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः । अपादाने यो घञ तदन्ताद्वा ङीर्वक्तव्यः । उपाध्यायी । उपा १. प्रायेण संज्ञाया -- श्र० । २ -स्तन्दुलनिश्चाय: ब०, स० । ३. लावक्षाय: अ०, ब०, स० १६ For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू० २१-३५ ध्याया। वृद्धकुमारीवरवाक्यन्यायेनास्मिन्विषये क्तिमपि घन बाधते । “शृणातेर्वायुवर्णयोर्धञ् वक्तव्यः" [वा०] शारो वायु: । शारो वर्णः ।। गौ रुवः ॥२३२२१॥ गिसंज्ञे वाचि रौतेर्घन भवति । विरावः । संरावः। श्रचोऽपवादोऽयम् । गाविति किम् ? रवः । समि युद्र दुवः ॥२॥३॥२२॥ संपूर्वेभ्यः यु द्रु दु इत्येतेभ्यो घम् भवति । संयाव । संद्रावः : संदावः । समीति किम् ? यवः। ॥२॥३॥२३॥ समीति वर्तते । सम्पूर्वात् स्तोतेघम् भवति यज्ञविषये। समेत्य स्तुवन्ति अस्मिन्निति संस्तावः छन्दोगानम् । यज्ञ इति किम् ? सतां संस्तवः । श्रिणीभुवोऽगौ ॥२॥३॥२४॥ अगिपूर्वेभ्यः श्री णी भू इत्येतेभ्यो धन भवति । श्रायः । नायः । भावः । अगाविति किम् ? प्रश्रयः । प्रभवः । कथं प्रभावो धर्मस्य । प्रकृष्टो भावः प्रभावः इति प्रादिसः । कथं षाड्गुण्यस्य यथावत्प्रयोगो यथावत्प्रयोगो नयः "पुंखौधः प्रायेण'' [२।३।१००] इति करणे धो द्रष्टव्यः । नियोऽवोदोः ॥२३॥२५॥ अव उद् इत्येतयोर्वाचोर्नयतेर्घन भवति । अवनायः । उन्नायः। कथमुन्नयः । शब्दानां पूर्ववत्करणे घो विधेयः ।। निरभ्योः पूल्वोः ॥२३॥२६॥ निस् अभि इत्येवंपूर्वाभ्यां पू लू इत्येतान्यां यथासंख्यं घा. भवति । पू इति सामान्येन ग्रहणम् । निष्पावः | अभिलावः । निरभ्योरिति किम् ? पवः । लवः । उन्न्योपः ॥।३।२७। उद नि इत्येवंपूर्वात् गृ इत्येतस्मात् घञ् भवति । गृ इति सामान्येन ग्रहणम् । उद्गारः । निगारः। कृ धान्ये ॥२६३।२८॥ उन्न्योरिति वर्तते । कृ इत्येतस्माद्धोरुनिपूर्वात् घञ् भवति धान्यविषये । उत्कारो धान्यस्य । निकारो धान्यस्य । धान्य इति किम् ? पुष्पोत्करः । पुष्पनिकरः । प्रेद्र स्तु श्रुवः ॥२।३।२६॥ प्रशब्दे याचि दु स्तु श्रु इत्येतेभ्यो घञ् भवति । प्रद्रावः । प्रस्तावः । प्रश्रावः । प्र इति किम् १ द्रवः । स्त्रोऽयज्ञे ॥२॥३॥३०॥ प्र इति वर्तते । प्रपूर्वात् स्त इत्येतस्मात् घञ् भवति अयशविषये । शङ्खप्रस्तारः । मणिप्रस्तारः । ऋकारान्तत्वादभि (चि) प्राप्ते इदम् । अयज्ञ इति किम् १ वर्हिष्प्रस्तरः । "इदुदुडोऽ स्यपुग्मुहुसः" [१२] इति षत्वम् । प्रथने वावशब्दे ॥२३॥३१॥ प्रथनं विस्तीर्णता । विपूर्वास्तु इत्येतस्मात् घन भवति अशब्दविषये प्रथने । पटस्य विस्तारः । गृहस्य विस्तारः । प्रथन इति किम् ? तृणविस्तरः । अशब्द इति किम् ? वाक्यविस्तरः । छन्दः खौ ।।२।३।३२॥ छन्दः पद्ये वर्णविन्यासः । छन्दःसंज्ञायां च विपूर्वांत् स्तृणातेः घन, भवति । विष्टारः पंक्तिच्छन्दः । विष्टारो वृहतीछन्दः । षत्वप्रकरणे विष्टार इति निपातनादेव सिद्ध छन्दःसंज्ञाज्ञापनार्थमिदम् । क्षुश्रुवः ॥२॥३॥३३॥ वाविति वर्तते । चु श्रु इत्येताभ्यां विपूर्वाभ्यां धन भवति । विक्षावः । विश्रावः । वावित्येव । क्षवः । श्रवः । उदि ग्रहः ॥२३॥३४|| उत्पूर्वाद् अहेर्घन भवति । उद्ग्राहः । अचोऽपवादोऽयम् । समि मुष्टौ ॥२॥३॥२५॥ संपूर्वाद् अहेर्घन भवति मुष्टिविषये । शाकमुष्टयादौ परिमाणवचनो मुष्टिशब्दः । तत्र परिमाणाख्यायामित्येव सिद्धं ततोऽन्यदुदाहरणम् । अहो मल्लस्य संग्राहः । अहो मौष्टिकस्य संग्राहः । मुष्टेदाव्यमित्यर्थः । मुष्टाविति किम् ? संग्रहः शास्त्रस्य । For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्र० २ पा० ३ सू० ३६-४७ ] महावृत्तिसहितम् १२३ घञ न्यायपरिणाय पर्यायः || २ | ३ | ३६ || न्यायादयः शब्दाः निपात्यन्ते । निपूर्वादिणः निपात्यते । भ्रेषो युक्तकरणमकुत्ता वा । एषोऽत्र न्यायः । भ्रेष इति किम् ? न्ययं गतश्चौरः । परिपूर्वात् नयतेविषये घञ निपात्यते । परिणायेन सारान् हन्ति । धूतविषयादन्यत्र परिणयः परिपूर्वादिणः श्रनुपात्यये गम्यमाने निपात्यते । श्रनुपात्ययः क्रमप्राप्तस्यानतिवृत्तिः । तव पर्यायो भोक्नुम् । मम पर्यायो भोक्तुम् । प्रनुपात्यय इति किम् ? स्वाध्यायकालस्य पर्य्ययः । श्रतिक्रम इत्यर्थः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्युपे शीङो ऽन्त्ये || २|३|३७|| अन्त्य इति पूर्वसूत्रे विन्यासापेक्षया पर्यायोऽभिप्रेतः । वि उप 'इत्येतयोर्वाचोः शीङो घत्र भवति पर्याये गये । तव विशायो मम विशायः । तव राजोपशायः । मम राजोपशायः । राजानमुपशाययितुमवसर इत्यर्थः । अन्त्य इति किम् ? विशयः । उपशयः । हस्तादाने चेरस्तेये || २|३|३८|| हस्तादाने गम्यमाने चिनोतेर्धं भवति न चेत्स्तेयं भवति । पुष्पप्रचायः । फलप्रच्चायः । हस्तादानशब्देन निकटस्य गुच्छादेर्ग्रहणं लक्ष्यते । हस्तादान इति किम् ? पुष्पप्रचयः । अस्तेय इति किम् ? पुष्पप्रचयं करोति चौर्येण । निवासचितिशरीरोप समाधाने चः कः ॥२॥३॥३६॥ चेरिति वर्तते । निवास चिति शरीर उपसमाधान इत्येतेष्वर्थेषु चिनोतेर्घञ भवति चकारस्य च ककारः । निवासे - साधुनिकायः । उत्कृष्टनिकायः । श्रधिकरणे घञ् । चीयतेऽसौ चितिः । यज्ञे श्रग्निविशेषः । कायमग्निं चिन्वीत । शरीरे चीयते इति कायः । उपसमाधानमुपर्युपरि राशीकरणम् । महान् गोमयनिकायः । उपर्युपरीति विशेषणादिह न भवति । महान् काष्ठनिचयः । एतेष्विति किम् ? चेयः । संघेऽनूर्ध्वं ||२३|४०|| संघः प्राणिविशेषसमुदायः । श्रनूर्ध्वे संघे वाच्ये चिनोतेर्घञ भवति चकारस्य चकत्वम् । निचीयते इति निकायः । साधुनिकाथः । पण्डितनिकायः । प्राणिविशेषस्य सङ्घस्य ग्रहणादिह न भवति । काष्ठचयः । पदसमुच्चयः । विशेषग्रहणं किम् ? प्राणिसमुच्चयः । सामान्येन समुदायोऽयम् । नूर्ध्व इति किम् ? उपर्युपरि सूकरनिचयः । कोशेऽवन्यो हः || २|३|४९ ॥ श्राक्रोशः शपनम् | श्रवनि इत्येतयोर्वाचो हेर्घञ भवति श्राक्रोशे गम्ये । श्रवग्राहो ह ते वृषल भूयात् । निग्राहो ह ते वृषल भूयात् । आक्रोश इति किम् ? अवग्रहः पदस्य | निग्रहो दुष्टस्य | लिप्सायाम् || २|३ | ४२ ॥ प्रशब्दे वाचि लिप्सायां गम्यमानायां ग्रहेधेन भवति । प्रग्राहेण चरति भिक्षुः । पात्रं प्रगृह्य अन्नं लिप्सुर्भ्रमतीत्यर्थः । लिप्सायामिति किम् ? प्रग्रहो देवदत्तस्य राज्ञा । परौ यज्ञे ||२|३|४३|| परिपूर्वाग्रहेर्घञ भवति यज्ञविषये । उत्तरः परिग्राहः । यज्ञ इति किम् ? परिग्रहो देवदत्तस्य । ܢ नौ वर्धा ||२| ३ | ४४ || निशब्दे वाचि वृ इत्येतस्मात् घञ भवति धान्यविशेषे वाच्ये । इति वृङ्ङ्कृञोर्ग्रहणम् । नीवारा नाम त्रीहयो भवन्ति । धान्य इति किम् ? निम्रियत इति निवरा कन्या । उदि पूत्र, यौतिथिनः ॥२|३|४५ || उत्पूर्वेभ्यः पू द्रु यौति श्रिञ इत्येतेभ्यो घञ् भवति । " उत्पावः । उद्भावः । उद्यावः । उच्छ्रायः । वाङि रुप्लुवोः ||२|३|४६ ॥ श्राङपूर्वाभ्यां रुलु इत्येताभ्यां वा घञ भवति । श्रवः । आरवः । “गौरुवः” [ २।३।२१ ] इति नित्यं घञ् प्राप्तः । श्राप्तावः । श्राप्लवः । प्रहोऽवे वर्ष प्रतिबन्धे ॥२|३|४७॥ वेति वर्त्तते । श्रवशब्दे वाचि ग्रहेर्वा घञ वाच्ये । श्रवग्राहो देवस्य । श्रवग्रहो देवस्य । वर्षप्रतिबन्ध इति किम् ? अवग्रहः पदस्य | For Private And Personal Use Only भवति वर्ष प्रतिबन्धे Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् प्रे वणिजाम् ||२|३२|४८ ॥ वेति वर्तत । प्रशब्दे वाचि ग्रहेर्वा घञ सम्बन्धि चेद्भवति । तुलाप्रग्राहेण चरति । तुलाप्रग्रहेण चरति । तुलासूत्रं वणिजामिति किम् ? प्रग्रहो देवदत्तस्य । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [अ० २प१० ३ सू० ४८-५१ भवति समुदायेनाभिधेयं वणिजां गृहीत्वा वणिक् चेष्टते इत्यर्थः । रश्मी ||२३|४६ ॥ प्र इति वेति च वर्तते । इह रश्मिशब्देन श्रश्वादिसंयमनरज्जुरेव गृह्यते । प्रशब्दे वाचि हे घञ भवति समुदायेन रश्मावभिधेयायाम् । प्रगृह्यते इति प्रग्राहः । प्रग्रहः । छादने वृञः || २|३|५० ॥ वेति वर्तते प्र इति च । प्रपूर्वाद्व गोर्वा घञ भवति श्राच्छादनविशेषे वाच्ये । प्रवृणोति तं प्रावारः । प्रवरः । आच्छादन इति किम् ? प्रवरः । परौ भुवोऽवज्ञाने || २|३|५१ || वेति वर्तते । श्रवज्ञानमवक्षेपः परिपूर्वाद्भू इत्येतस्माद्वा घञ भवति श्रवज्ञाने वाच्ये । परिभावः । परिभवः । श्रवज्ञान इति किम् १ सर्वतो भवः परिभवः । खुग्रहवृदृगमोऽच् ||२|३|५२ || भावे कर्तरीत्येवानुवर्तते । इवर्णान्तात् उवर्णान्तात् ऋवर्णान्तात् ग्रह वृ ष्ट गभि इत्येतेभ्यः वाजित्ययं त्यो भवति । घञोऽपवादोऽयम् । चयः । जयः । रयः । रवः । लवः । करः । गरः । शरः । ग्रहः । वरः । आदरः । गमः । चकारः “ व्यजोऽधन चोः [१|४|१२८ ] इत्यत्र विशेषणार्थः । “अज्विधौ भयादीनामुपसंख्यानं नपुंसके कादिनिवृत्यर्थम् " [वा ] भयम् । वर्षम् । “रणवशिभ्यामज्वक्तव्यः” [वा०] रणः । वशः । “घञर्थे कविधानं स्थास्नापाव्यविहनियुध्यर्थं कर्तव्यम्" [वा०] प्रतिष्ठतेऽस्मिन् प्रस्थः । प्रस्नात्यस्मिन् प्रस्नः । प्रपिवन्त्यस्यां प्रपा । श्राविध्यन्त्यनेन श्राविधम् । निहन्यते ऽनेनास्मिन्वा विघ्नः । श्रायुध्यन्तेऽनेनेति श्रायुधम् । गावदः || २|३|५३ || गिपूर्वाद् देरज् भवति । प्रादनं प्रघसः । विधसः । संघसः । “घस्लृलुङ्घञ्सनक्षु" [9181१११] इति प्रदेर्भलादेशः । गाविति किम् ? घासः । श्रस्मिन् प्रकरणे यत्रेपा गिर्निर्दिश्यते तत्र वाग्लक्षणः प्रादिलक्षणो वा सविधिः । नौ णश्च ||२|३ ५४ ॥ निपूर्वाददेर्णो भवति च । न्यादः । निघसः । पणः परिमाणे ||२|३|१५|| परोर्घञि ये वा नास्ति विशेषः इत्यारम्भसामर्थ्यादच एवानुवृत्तिः । षणः परिमाणे गम्यमाने श्रन् भवति । पण्यत इति परणः मूलकपणः । शाकपणः । 'परिमाणाख्यायां सर्वेभ्यः ' [२२३|११] इति घञ् प्राप्तः । परिमाण इति किम् ? पाणः । पशुध्वजः समुदोः ||२|३|५६|| सम उद् इत्येतयोर्वाचोरजेर्धीरज भवति पशुविषये । समजः । पशूनां समुदाय इत्यर्थः । उदजः । पशुनाममुञ्चालनमित्यर्थः । पशुष्विति किम् ? समाजः साधूनाम् । उदाजः शकुनीनाम् । "चजो: कुधिण्ण्यतोस्तेऽनिट: " [५/२/२६] कुत्वं विधीयते प्रजेस्तु वीभावेन भवितव्यमि - त्यत्वाद् विशेषणं नास्तीति कुत्वं न भवति । ग्लहोऽक्षे || २|३|२७|| ग्लह ग्रहणे इत्यस्मादज भवति श्रक्षविषये । श्रक्षेषु ग्लहः । श्रक्ष इति किम् ? ग्लाहः । प्रजने सुः || २|३|१८|| प्रजनो गर्भाधानम् । प्रजनविषये सृ इत्येतस्मादज् भवति । गवामुपसरः । गर्भाधानाय स्त्रीraig वृषाणामुपसरणमित्यर्थः । एवं पशूनामुपसरः । प्रजन इति किम् ? उपसारो भृत्यै राज्ञाम् । For Private And Personal Use Only हो जिश्च व्यभ्युपविषु ||२|३|५९ || नि अभि उप वि इत्येतेषु वातु हूयतैानर्भवत्यश । निह्नवः । श्रभिवः । उपहवः । विहवः । हुरादेशो वक्तव्य इति चेत् इह निजोहरः इति यङुबन्तस्य सचस्य प्रसज्येत । एतैष्विति किम् ? संहायः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२५ म. २ पा० ३ सू० ६०-६६] महावृत्तिसहितम् आङथाजौ ॥२॥३॥६०॥ प्राजिः संग्रामः । श्रापर्वात् हूयते आजावभिधेयायां जिर्भवत्यच्च । श्राहयन्तेऽस्मिन्निति अाहवः। श्राजाविति किम् ? श्राहायः। निपानमाहावः ।।२।३।६१॥ निपिबन्त्यस्मिन्निति निपानं जलस्थानम् । श्राहाव इति निपात्यते निपानं चेद्भवति । श्रापर्वस्य हयतेरधिकरणे घन निपात्यते । अाहूयन्तेऽस्मिन्निति अाहावः शकुनीनाम् । निपानमिति किम् ? अाह्वायः। भावेऽगौ ॥२॥३॥६२।। अगिपूर्वस्य ह्वयते वे जिर्भवत्यच्च । ह्वानं हवः । अगाविति किम् ? अाह्वायो वर्तते । कर्तरीत्यस्यानुप्रवेशो मा भूदिति पुनर्भावग्रहणम् । हनश्च वधः।।२।३।६३॥ हन्तेरगिपूर्वस्य भावे वधादेशो भवत्यच्च । हननं वधः । चकारो घन समु. चयार्थः । घातो वर्तते । व्यधमदजपोऽगौ ।।२।३।६४॥ अगाविति वर्तमाने पुनरगिग्रहणं भावनिवृत्त्यर्थम् । तेन भावे अकर्तरीति द्वयं संबध्यते । अगिपूर्वभ्यो व्यध मद जप इत्येतेभ्यः अज् भवति । व्यधः। मदः । श्रगाविति किम् ? प्रव्याधः | उन्मादः। उपजापः। स्वनहसोर्वा ।।२।३।६५|| अगाविति वर्तते । अगिपूर्वाभ्यां स्वन हस इत्येताभ्यामज भवति वा। स्वनः । स्वानः । हसः । हासः । अगावित्येव । प्रस्वानः । प्रहासः। यमः सन्निव्युपे च ॥२॥३॥६६॥ यमेोः सम् नि वि उप इत्येतेषु वाक्षु अगौ च अज् भवति । वेति वर्तते । संयमः। संयामः। नियमः। नियामः । वियमः । वियामः। उपयमः। उपयामः। अगौयमः । यामः। नौ गदनदपठस्वनः ॥२३॥६७॥ वेति वर्तते । निपूर्वेभ्यः गद नद पठ स्वन इत्येतेभ्यो वा अज भवति । निगदः । निगादः । निनदः । निनादः । निपठः । निपाठः। निस्वनः । निस्वानः। क्वणो वोणायां च ॥२३॥६८॥ नौ वा अगाविति त्रयं वर्तते । कणे!ः निपूर्वादगिपूर्वाच्च अधीणायां वीणायां च विषये अज भवति । निकणः । निकाणः। अगो-कणः। काणः। वीणाग्रहणं गावपि प्रापणार्थम् । कल्याणप्रकणा वीणा। कल्याणप्रकाणा वीणा । एतेष्विति किमी प्रतिकाणः। घनान्तर्घणप्रघणप्रघाणोद्धनापघनायोधनविघनद्र घणस्तम्बध्नस्तम्बधनपरिघोपनसंघोद्धनिघप्रमदसम्मदाः ॥२॥३॥६६॥ घनादयः शब्दा निपात्यन्ते। हन्तेरच् घनभावश्च मूर्तावभिधेयायां निपात्यते । मर्तिः काठिन्यम् । श्रभ्रधनः । दधिधनः। कर्मणि घनं दधीति भवति । अन्तःशब्दपर्वस्य हन्तेरधिकरणे घनभावोऽच्च निपात्यते देशाभिधाने अन्तर्हन्यतेऽस्मिन्निति अन्तर्घणो वाहीकेषु देशविशेषः । केचिन्नकारं पठन्ति । अन्तर्घातोऽन्यः । प्रपूर्वस्य हन्तः अचि पनि च धनभावो निपात्यते अगारैकदेशेऽमिधेय । प्रघणः । प्रघाणः । गृहद्वारदेश इत्यर्थः। प्रघातोऽन्यः। उत्पूर्वस्य हन्तेरधिकरणे घनभावोऽच निपात्यते अत्याधानं चेद्भवति । अत्याधीयतेऽस्मिन्नित्याधानम् । यत्र काष्ठानि लोहानि चाहन्यन्ते तदुच्यते । ऊर्च हन्यतेऽसिन्धनः। उद्घातोऽन्यः । अपघन हति निपात्यते अङ्ग चेद्भवति । अपघातोऽन्यः। अयोधनः । घणः स्तम्बघ्नः स्तम्बधनः परिघ इत्येते करणे कारके अजन्ता निपात्यन्ते। दुघणे केचिन्नकारं पठन्ति । स्तम्बटने कमात्रं निपात्यते । परिपूर्वस्य हन्तेघंभावश्च निपात्यः । उपपूर्वात् हन्तेराश्रयेऽभिधेये को निपात्यते । गुरूपनः । पर्वतोपनः । उपघातोऽन्यः । सम्पूर्वस्यु हन्तेर्घभावोऽच निपात्यते गणश्चेद्भवति । गणः प्राणिसमुदाय एव । पशूनां संघः । अन्यत्र संघातः । उत्पूर्वस्य हन्ते_देशोऽच निपात्यते प्रशंसायाम् । उद्धो मनुष्यः । उद्धाताऽन्यः। निघ इति निपात्यते निमित्तेऽर्थे । संमतादारोहपरिणाहाभ्यां मितंतुल्यन्निमित्तम् । निघाः शालयः। निघातोऽन्यः । प्रमदसंमदो हर्षे ऽभिधेये । अन्यत्र प्रमादः । सम्मादः। For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू०७०-७१ डिवतः वित्रः ॥२॥३॥७०॥ डुशब्देतो धोः स्त्रियो भवति । भावे अकर्तरीति वर्तते । डुपचष्पवित्रमम् । "भावादिमः'' [३।३।१४३], ":" [३।३।१४४] इति इमः। व्यन्तस्य केवलस्य प्रयोगो नास्तीत्यस्वपदेनार्थकथनम् । पाकेन निवृत्तमिति । एवं डुवप् उत्रिमम् । टुयाच याचित्रिमम् । टिवतोऽथुः ॥२॥३७१॥ टुब्देतो धोरथुस्त्यो भवति । टुवेतृ-वेपथुः । टुअोश्वि-श्वयथुः । टुक्षुक्षवथुः । यजयाच यतविच्छप्रच्छरक्षस्वपो नङ ॥२॥३॥७२॥ यजादिभ्यो नङ् भवति । भावे अकर्तरीति वर्तते । यज्ञः । “स्तो श्चुना श्चुः" [५।४।१११] इति चुत्वम् । या लिङ्ग लोकवशात् । यत्नः । विश्नः । नडो ङित्करणमेपप्रतिषेधार्थं शापकं प्रागेव तुकः । “छोः शूड् (D) च'' [४।४।१७] इति शत्वम् । प्रश्नः । प्रश्ने चान्तयुगे" [२।२।३७] इति निर्देशाजिनं भवति । रदणः । “हुना टुः” [शा१२०] इति टुत्वम् । खप्नः। गौ भोः किः ॥२॥३॥७३॥ गौ वाचि भुसंज्ञकेभ्यो धुभ्यः फिर्भवति । भावे अकर्तरीति वर्तते । प्रादीयते । अस्मात् प्रादिः । निधीयतेऽसौ निधिः। संधानं संधिः। कर्मण्यधिकरणे ॥२॥३॥७४!! कर्मणि वाचि अधिकरणे कारके गुसंज्ञकेभ्यः किर्भवति । जलं धीयते अस्मिन् जलधिः । वालधिः। अधिकरणग्रहणं कारकान्तरनिवृत्यर्थम् । स्त्रियां क्लिः ॥२३।७५॥ भावे अकर्तरीति वर्तते । स्त्रीलिङ्गे धोः क्तिभवति । घाचोरपवादोऽयम् । कृतिः । सृष्टिः। संपत्तिः । “संपदादिभ्यः क्विबपि वक्तव्यः" [वा. ] संपत् । विपत् । "ग्लाज्याहाभ्यो निः स्त्रिया वक्तव्यः" वा०] ग्लानिः । ज्यानिः। हानिः । "ऋकारान्तस्वादिभ्यः किस्तवद्वतीति वक्तव्यम्" [वा०] कोर्णिः । गीणिः । लूनिः । पूनिः । इत उत्तरः स्त्रियामित्यधिकारः। कर्मव्यतिहारे बः ॥२॥३॥७॥ इह कर्मव्यतिहारः क्रियाव्यतिहारो गृह्यते धोरधिकारात् । कर्मव्यतिहारे गम्यमाने घोत्रं इत्ययं त्यो भवति स्त्रियाम् । परस्परस्य व्याक्रोशनं व्याक्रोशी "जात् स्त्रियाम्।' [१२।२२] इति स्वार्थिकोऽण् । “कृद्ग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि" [परि०] सतिकाद्भवति । एवं व्यावलेखी व्यावहारी वर्तते । स्त्रियामित्येव । व्यतिपाको वर्तते । “मध्येऽपवादा: पूर्वान् विधीन्याधन्ते नोत्तरान्" परि०] इति "स्त्रियां क्तिः" [२३७५] इत्यस्यैव बाधको न "सरोहलः" [२।३।८५] इति अत्यस्य । व्यतीक्षा व्यतीहा वर्तते । कथं व्यात्युक्षी । “युड् व्या बहुलम् [२।३।६४] हात बहुलवचनात् । व्याऋ ष्टिरित्येवमादिषु क्लिरपि । णेः ॥२।३।७७॥ एयन्ताच कर्मव्यतिहारे ओ भवति । अस्य बाधके युचि प्राप्तेऽयमारम्भः । व्यावं. चोरी व्यावंचर्ची वर्तते । यूतिजूतिसातिहेतिकीतयः ॥२।३।७८॥ यूत्यादयः शब्दा निपात्यन्ते । यौतिजवत्योर्दीत्वं निपात्यते । यतिः । जूतिः । स्यतेः सुनोतेर्वा सातिः। इत्वाभावः श्रात्वं च निपात्यते । हिनोतेर्हन्तेर्वा हेतः। कीर्तयतेः युचि प्राप्ते कीर्तिः। स्थागापापचो भावे ॥२॥३॥७९॥ स्था गा पा पच् इत्येतेभ्यः स्त्रीलिङ्गे भावे तिर्भवति । मावग्रहणमकर्तरीत्यस्य निरासार्थम् । प्रस्थितिः । संस्थितिः । गा इत्यविशेषेण ग्रहणम् । उपगीतिः । उद्गीतिः । पिवतेः आदीयतेऽस्मादादिः १०, स०। २.स्पृष्टिः श्र.। ३. व्यापलेखी अ०, ब०, स० । ४. व्यापहारी अ, ब, स०। ५. यापचोरो अ, ब, स०। ६. व्यापवर्ची अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० २ पा० ३ सू० ७९-८६] महावृत्तिसहितम् १२७ प्रपीतिः । निपीतिः । पक्तिः। 'पातो गौ" [२।१।१०१] इति "षिद्ः" [२।३।२६] इति च अङ् प्राप्तः तद्वाधनार्थमिदम् । गणे “व्यवस्थायामसंज्ञायाम्'' इति निर्देशादपि भवति । संस्था । "श्रुयजोषिस्तुभ्यः स्त्रिया करणे युवाधनार्थ क्तिर्वक्तव्यः" [वा०] श्रूयतेऽनयेति श्रुतिः । इष्टिः । स्तुतिः । वजयजः क्यप् ॥२३।८०॥ भाव इति वर्तते । ब्रज यज इत्येतान्यां स्त्रीलिङ्गे भावे क्यप् । व्रज्या । प्रत्रज्या । इज्या । पित्करणमुत्तरार्थम् । समजनिषदनिपदमनविदषुशीङ भृषिणः खौ ॥२।३।८१॥भाव एवेति निवृत्तम् । द्वयमनुवर्तते । समजादिभ्यः स्त्रियां क्यपू भवति खुविषये । समजन्ति अस्यां समज्या । क्यपि वीभावः कस्मान्न भवति । "बहुलं खौ" [१।४।१२६] इति तत्रापेक्ष्यते । निषीदन्ति अस्यां निषद्या । निपद्यन्ते अस्यां निपद्या । केचित्पदिस्थाने पतिं पठन्ति । मन्यते अनया मन्या । विद्यते श्रनया विद्या । सुनोति तस्यां सुत्या । शेते अस्यां शय्या। भरणं भृत्या । भाव एवाभिधानं करणे वा । इत्या । कथं भार्या कर्मणि भविष्यति ? अथवा "तृव्याश्चा" [२१३१४५] इत्येवमादिषु विशेषेण विधानात् । व्यसज्ञानामिमे स्त्रीत्या न बाधकाः। 'मांतबुद्धिपूजार्थाच्च" [२।२।१६६] "कर्मणि भृतौ' [२।२।२७] "रजःकृष्यासुतिपरिषदो वल." [११३८] इति ज्ञापकात् कचित् क्तिरपि भवति । मतिः । वित्तिः । श्रासुतिः । भूतिः । कृत्रःश च ॥३२॥ करोतेः स्त्रियां शो भवति क्यप् च । यदा भावकर्मणोः शस्तदा मध्ये यक "रियग्लिशेश।१३७ ] इति रिङादेशः । यदापादानादिविवक्षा तदा यग्नास्तीति रिङादेशेयादेशौ। क्रिया । कृत्या । “गेरसेऽपि विकृतेः'' [ ५।४।६८] इति ज्ञापकात् क्विरपि भवति । कृतिः । इच्छा ॥२३८३॥ इच्छेति निपात्यते । इष इच्छायामित्यस्माद्भावे शः यगभावश्च निपात्यते । क्ले रपवादोऽयम् । “परिचर्यापरिसर्यामृगयाणां निपातनं वक्तव्यम्" [वा०] परिपूर्वाञ्चरेः शः सरतेरेप च निपात्यते । मृगयतेः शप् शो यगभावश्च निपात्यते । “जागर्तेरशौ वक्तव्यौ'' [ वा० ] जागरा । जागा । शे यक् । “जागुरविजिणङिति" [२२१२१८२ ] इत्येप् । अस्त्यात ॥२॥३४॥ अइत्ययं त्यो भवति त्यान्तेभ्यो धुभ्यः स्त्रियाम् । चिकीर्षा | लोलया। अटाट्या । पुत्रीया । पुत्रकाम्या । कण्डूया । सरोहलः ॥२॥३॥८५॥ सह रुणा वर्तत सरुः । सरुह लन्तो यो धुततः स्त्रियामस्त्यो भवति । कुण्डा । चुण्डा' । मेधा । ईहा । “पर्याप्तिवचनेऽलम|" [ ५१ । इति निर्देशाद ये सेटस्तेषामिह ग्रहणम् । तेनेह न भवति । श्राप्तिः। दीप्तिःराद्धिः। श्रस्तिः । प्रध्वस्तिः। प्रशस्तिः । 'प्रशंसायो रूपः"[४|१११२५] इति निर्देशात् । शरत्योऽपि भवति । सरोरिति किम् ? निपठिविः। हल इत्येव । नीतिः । षिद्भिदादिभ्योऽङ्॥२३॥८६॥ षिद्भयो धुभ्यो भिदादिषु च गणपठितेषु याः प्रकृतयस्ताभ्यश्चाङ भवति स्त्रियाम् । जब-जरा । त्रपुष-त्रपा। घटादयः षितः । घटा। व्यथा । "युड़ व्या बहुलम्" [२।३।१४] इति बहुलवचनात् लब्धिलभेति च भवति । भिदादिभ्यः खल्वपि । भिदा विदारणे । मित्तिरन्या। छिदा द्वैधीकरणे । छित्तिरन्या । विदा विचारणे । वित्तिरन्या । क्षिपा प्रेरण। क्षितिरन्या । गुहा गियोषध्योः । गूदिरन्या। कुहा । नद्याम् । कुहना अन्या। प्राय शस्त्र्याम् । श्रार्तिरन्या । श्राङि वाचि (अङि) कृत "पशुरेप [५।२।१२६] । लौ कृते "धावृति गेः"[४३१७६] इत्यैप् । कारा बन्धने । कृतिरन्या । तारा १. हुण्ड-म०, स०। For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [श्र०२ पा० ३ सू० ८७-१२ ज्योतिषि | तार्णिरन्या। एपि कृते दीवमनयोनिपातनात वपा मेदोविशेषे । उप्तिरन्या । वशा शरीरगतस्नेहे । उष्टिरन्या । मृजा शरीरसंस्कारे । मृष्टिरन्या । धारा वा धृतिरन्या । निपातनादात्वम् । "क्रपेर्जिश्च" [वा० ] कृपा । गोधा । होस । रेखा । लेखा । निपातनादेप् । चूडा । पीडा । चिन्तिपूजिकथिकुभिचर्चः ॥२॥३॥८॥ चिन्त्यादिन्यो धुभ्यः स्त्रियामङ् भवति । युचोऽपवादोऽयम् । चिन्ता । पूजा । कथा । कुम्भा । चर्चा । आतो गौ ॥२॥३८॥ आकारान्तेभ्यो धुभ्यो गौवाचि अङ् भवति । के रपवादः । प्रदा । प्रधा। प्रपिबन्त्यस्यां प्रपा । पिबतैर्भावे क्लिर्विहितः । 'प्रज्ञाश्रद्धा वृत्तिभ्यो णः'' [४१।२८] तिरोऽन्तद्धौं" [१२।१४० ] इति प्रयोगात् श्रदन्तरोनिववृत्तिः । श्रद्धा । अन्तर्धा । __ण्यासश्रन्थिघट्टिवन्दिविदो युच् ॥२॥३॥८६॥ ण्यन्तेभ्यः श्रास श्रन्थि घट्टि वन्दि विद् इत्येतेभ्यो धुभ्यः स्त्रियां युज् भवति । एयन्तात् “अस्त्यात्" [२।३।८४ ] इति इतरेभ्यः "सरोह ल." [२।३।८५] इत्यकारः प्राप्तः । विदेः क्तिः प्राप्तः। कारणा। गणना। कामना । अासना । श्रन्थना । घट्टना । वन्दना । वेदना । अनुभवे वेदनद्रष्टव्या । "इषोऽनिच्छायां युज़ वक्तव्यः"[वा.1 अन्वेषणा । "परेवावा .1 पर्येषणा । परीष्टिः । "युड्व्या बहुलम्" [२१३६४ ] इति वा भविष्यति । व्यानां स्त्रीत्याः अबाधका इत्युक्तम् । तेन पास्या उपास्या । खौ विभाषा वुण ॥२।३।६०॥ खुविषये विभाषया वुण भवति घोः। क्यादीनामपवादाः। प्रस्कन्दिका। प्रच्छर्दिका । प्रवाहिका । विचचिका । एता रोगसंज्ञाः । उद्दालकपुष्पभञ्जिका। वारणपुष्पप्रचायिका । श्रभ्यो. पखादिका । शालभञ्जिका । एताः क्रीडासंज्ञाकाः । कृल्लक्षणा कर्मणि ता । "क्रोडाजीविकयोनित्यम्" [३८] इति नित्यः सविधिः । उद्दालकपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां क्रीडायां इत्येवमादिरस्वपदविग्रहो बोदव्यः। विभाषाग्रहणादिह न भवति शीर्षसिः शीर्षाभितप्तिः । शिरोऽतिः । "धावृति गेः" [१३७६ ] इत्यैपा भवितव्यमिति चेत् ; न; अर्द हिसायामित्यस्य प्रयोगः । चन्दनतक्षिका । क्रीडेयम् । विभाषाग्रहणाद्ध्वर्थनिर्देशेऽपि वुण् भवति । आसिका । शायिका वर्तते । वेञ्च प्रश्नाख्याने ॥२॥३॥६१॥ प्रश्ने आख्याने च गम्यमाने धोरिज भवति वुण च वा । कां त्वं कारिमकार्षीः कां कारिका वा । वचनाद्यथाप्राप्तं च भवति । कां क्रियां कां कृत्यां का कृतिम् । आख्याने सर्वा कारिमकार्ष सर्वा कारिका सर्वा क्रियां सर्वा कृत्यां सर्वा कृतिम् । कां वं गणिमजीगणः कां गणिकां कां गणनाम् । सर्वा गणिर्मया गणिता। सर्वा गणिका सर्वा गणना। कां त्वं पाठिमपाठीः का पाठिकां कां पठितिम् । सर्वा मया पाठिः पठिता सर्वा पाठिका सर्वां पठितिः । प्रश्नाख्यान इति किम् ? कृतिः । पर्यायाहोत्पत्ती वुण ॥२।३।६२॥ पर्याय अह ऋण उत्पत्ति इत्येतेश्वर्थेषु गम्यमानेषु धोधूण भवति स्त्रियाम् । पर्यायोऽनुक्रमः तस्मिन् । भवतः शायिका। भवतोऽग्रगामिका । "कर्तृकर्मणोः कृति" [१ ६८ ] इति कर्तरि ता । "तृजकाभ्याम् [१॥३॥७८] इति तासप्रतिषेधः । अहणमह - योग्यता । तत्र अर्हति भवानिञ्जभक्षिकाम् । ओदनभोजिकाम् । पयःपायिकाम् ! "तृजकाभ्याम्" [१३७८] इत्यत्र कतरीत्यनुवर्तनात् कर्मणि या ता तत्र “कृति' [१॥३॥७१ ] इत्यनेन तासः । ऋणं यत्परस्य धार्यते । त्र इक्षभतिकां मे धारयसि । अोदनभोजिकाम । पयःपायिकाम । उत्पत्तो-इत्तुभक्षिका मे उदपादि । श्रोदनभोजिका । पयःपायिका । विभाषानुवर्तनात् कचिन्न भवति । घटचिकीर्षा मे उदपादि । ओदनबुभुक्षा मे उदपादि। १. कुभि-अ०, स०। For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. २ पा० ३ सू० ६३-१००] महावृत्तिसहितम् आक्रोशे नभ्यनिः ।।२।३।६३॥ श्राक्रोशे गम्यमाने नजि वाचि घोरनिस्त्यो भवति । क्त्यादीनामपवादः । अकरणिस्ते वृषल भूयात् । अप्रयाणिस्ते वृषल भूयात् । आक्रोश इति किम् १ अकृतिस्तस्य परस्य । नजीति किम् ? मृतिस्ते वृषल भूयात् । युड्व्या बहुलम् ॥२॥३॥९४॥ भावे अकर्तरि स्त्रियामिति च निवृत्तम् । युड्व्यसंज्ञाश्च बहुलं भवन्ति । भावकरणाधिकरणेष युड विहितोऽन्यत्रापि भवति । निरदन्ति तदिति निरदनम् । अवसेचनम् । अवस्त्रावणम् । राज्ञा भुज्यन्ते राजभोजनाः शालयः । क्षत्रियपानं मधु । राजाच्छादनानि वस्त्राणि । प्रयतते तस्मात् प्रयतनम् । प्रस्कन्दनम् । प्रच्छर्दनम् । भावकर्मणोळ उक्तास्ततोऽन्यत्रापि भवन्ति । नान्ति तेन स्नानीयं चूर्णम् ! दीयतेऽस्मै दानीयोऽतिथिः । ज्ञानमावृणोति श्राब्रियते वानेन ज्ञानावरणीयम् । दर्शनावरणीयम् । वेदनीयम् । मोहनीयम् ।बहुलवचनादन्येऽपि कृतः उक्तादन्यत्र भवन्ति । गले चोप्यते गलचोपकः । पादाभ्यां हियते पादहारकः । नप भावे लः ॥२॥३॥६५॥ नबिति ङिखं कृत्वा निर्देशः। नपि नपुंसकलिङ्गे भावे क्लो भवति । घचोरपवादः। हसितं छात्रस्य शोभनम् । जल्पितम् । आसितम् । शयितम् । नपुंसकलिने भावे क्लादिनिवृत्त्यर्थं भयादीनामज वक्तव्य इत्युक्तम् । तेन भयं वर्षमित्यादौ क्लो युनं भवति । येषां धनजन्तानां नपुंसकखमिष्टं तेऽर्द्धर्चादिषु द्रष्टव्याः । मिन्नभिविधौ ॥२॥३॥६६॥ नब्भावे इति वर्तते । अभिविधिः क्रियागुणाभ्यां कान्येन व्याप्तिः । नपि भावे धोजिन् भवति अभिविधौ गम्यमाने । तस्यायमपवादः। साकौटिनं सांमार्जिनं सांराविणं सान्द्राविणं वर्तते । “जिनोऽण" [ ४२।२१] इति स्वार्थिकोऽण् "नो पुंसोऽहृति" [ ३०] इति टिखं प्रासं "प्रायोऽनपत्येऽणीन:' [५१५५] इति न भवति । मध्येऽपवादोऽयं युटं न बाधते । संकुटनं संमार्जनम् । अभिविधाविति किम् ? संराकः । युट् ॥२॥३९७॥ नब्भाव इति वर्तते । नपि भावे युड् भवति धोः । हसनं छात्रस्य शोभनम् । जल्पनम् । आसनम् । शयनम् । कर्मणि यत्स्पकिङ्गसुखम् ॥२३॥६॥ युड् नब्भाव इति च वर्तते । येन संस्पर्शात् करृङ्गस्य सुखं भवति तस्मिन् कर्मणि वाचि नपुंसकलिङ्गे भावे युड् भवति । श्रोदनभोजनं सुखम् । पयः पानम् । चन्दनानुलेपनम् । पूर्वेण सिद्धेऽपि नित्यसविध्यर्थं प्रारम्भः । कर्मणीति किम् ? तूलिकाया उत्थानम् । युडन पूर्वेण सिद्धः। सविधिस्तु न भवति । यत्स्पर्शादिति किम् ? अग्निकुण्डस्योपासनं सुखम् । युट पूर्वेण । पाक्षिकः सविधिः । कर्तरीति किम् ? गुरोः स्नापनं सुखम् । नात्र स्नापयतेः कर्तुः शरीरसुखं किं तर्हि गुरोः कर्मणः । अङ्गग्रहणं किम् १ पुत्रस्य परिष्वञ्जनं सुखम् । मानसमिदम् । अन्यथा परपुत्रपरिष्वञ्चनेऽपि स्यात् । मुखमिति किम् ? कण्टकानां मर्दनम् । करणाधिकरणयोः ॥२॥३॥६॥ करणेऽधिकरणे च कारकेऽभिधेये युड् भवति । घनाद्यपवादः । करणे-इधमत्रश्चनः। पलाशशातनः । अविलवनः। कर्मणि ता। कृतीति तासः। अधिकरणे गोदोहनी। शक्कुधानी । तिलपीडनी । परत्वात् क्यादिकं स्त्रीत्वं बाधते । पुंखो घः प्रायेण ॥२३॥१००॥ करणाधिकरणयोरिति वर्तते । पुंलिङ्गसंज्ञायां गम्यमानायां धो? भवति प्रायेण । धकारः "छादेर्धे" [ ३०] इत्यत्र विशेषणार्थः। प्रच्छदः । उरच्छदः। प्लवः । श्राखनः । अधिकरणे-एत्य कुर्वन्त्यस्मिन्नाकरः । श्रालवः । श्रापवः । पुंग्रहणं किम् १ प्रधानम् । विचयनी । १. घटस्य अ०, ब०, स० । १७ For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू० १०१-१०६ नपुंसकलिंगा स्त्रीलिंगा चेयं संज्ञा । खाविति किम् ? हरणो दण्डः। प्रायेणेति किम् ? कचिन्न भवति । प्रसाधनः । दोहनः । तृस्रोऽवे घम् ।।२।३।१०१॥ तृ स्तू इत्येताभ्यामवशब्दे वाचि घञ् भवति करणाधिकरणयोः पुंखौ । अवतारः । अवस्तारः । कथमसंज्ञायामक्तारो नद्या इति ? चिन्त्यमेतत् । । हलः ॥२।३।१०२॥ हलन्ताद्धोर्घ भवति करणाधिकरणयोः पुखौ । घापवादोऽयम् । वेदः । नेगः । वेशः गन्धः । सङ्गः । विषङ्गः । तैलोदकम् । घृतोदकम् । नास्त्यत्र घभि घे वा विशेषः। इमानि तह दाहरणानि । खेलः । निमार्गः। अपामार्गः। प्रासादः। श्राखानः । प्रायेणेत्यनुवर्तनात् हलन्तेभ्यः केभ्यश्चित् घन न भवति घ एव भवति । श्रधिकरणे-कषः । निकषः। निगमः । गोचरः। श्रापणः। करणे-संचरः। वहः । ब्रजः । इह व्यजन्त्यस्मिन्निति व्यजः। घे कृते "बहुलं खौ" [४१२६] इति बहुलवचनादजेर्वीभावो न भवति | इह उदकोदञ्चनः । दोहनः । प्रसाधन इति घघौ न भवतः । श्राखनः श्राखानः इत्यत्रोभयं भवति । संहारोद्यावानायावहारावायाः ॥२।३१०३॥ संहारादयः शब्दा पनि निपात्यन्ते पुंखौ । अहलन्तत्वात् पूर्वेणाप्राप्तिः । संहरति तेन संहारः । करणेऽधिकरणे वा उद्यावः। आनयन्ति तेन अानायो जालं चेत् । अवहरन्ति तेन अवहारः । एत्य तस्मिन् वयन्ति श्रावायः। “अध्यायानुवाकयोर्वोप' [४१६४ ] 'आधारोऽधिकरणः" [१।२।११६] इति ज्ञापकात् उञ्छादिषु न्यायशब्दस्य निर्देशात् अधीयते अनेनाध्यायः । श्राधियते अस्मिन् अाधारः । नीयतेऽनेन न्यायः । एतेऽपि शब्दाः साधवः । स्वीषद्बुसि कृच्छाकृच्छे खः ॥२॥३॥१०४॥ सु ईबत् दुस् इत्येतेषु वातु कृच्छ्रे अकृच्छ्रे चार्थे खो भवति धोः। कृच्छ्राकृच्छ्रग्रहणं स्वादिविशेषणम् । सुकरः कटो भवता। ईषत्करः कटो भवता । दुष्करः कटो भवता। "तयोव्यक्तखार्थाः" [२।४।१५] इति कर्मणि खः। "न झित" [१२] इत्यादिना ताप्रतिषेधः । झित्वात्पूर्वपदस्य मुम्न भवति । कृच्छाकृच्छ्र इति किम् १ ईषत्कार्यः । मनाकार्य इत्यर्थः। ___ कर्तृकर्मणो कृम्भ्याम् ॥२॥३॥१०॥ स्वीषदुसि कृच्छ्राकृच्छ्रे ख इति वर्तते । कृञ्ग्रहणसामर्थ्यात् कर्तृकर्मग्रहणं वागविशेषणम् । कर्तरि कर्मणि च वाचि भू कृञ् इत्येताभ्यां यथासंख्यं खो भवति सु ईषत् दुस, इत्येतेषु वान्तु कृच्छ्रे अकृच्छ्रे चार्थे । त्यस्य खित्करणं मुमर्थमिति पूर्व कर्तृकर्मभ्यां योगः पश्चात्स्वादिभिः । प्रायेणेत्यनुवर्तनात् कर्तृकर्मणोश्च्यर्थयोर्ग्रहणम् । अनाढ्य न सुखमाढ्य न भूयते स्वाध्य भवं भवता । ईषदाय भवं भवता । दुराढ्यम्भवं भवता । सुखमनाढ्यमान्यति यते । स्वाट्यंकरो देवदत्तो भवता । ईषदाव्यङ्करः । सूत्रन्यासे परत्वात्कर्तृकर्मणोः वासं कृत्वा पश्चात्पूर्वस्य क्रियते । व्यर्थयोरिति किम् ? स्वाट्येन भूयते । स्वायेन क्रियते । यदा करोतिर्विकारार्थः तदा सुकटंकराणि वीरणानि । यदा निष्पत्तिवचना तदा सुकरः कटो वीरणैरिति । युजातः॥२३॥१०६॥ स्वीषद्दुसि कृच्छ्राकृच्छ्र इति वर्तते । आकारान्तेभ्यो धुभ्यो युज् भवति स्वादिषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु वातु । सुपानं पयो भवता । ईषत्पानम् । दुष्पानम् । सुग्लानम् । ईषद्ग्ला नम् । दुग्ानम् । खापवादोऽयम् । प्रायेणेति वर्तते। तेन "दुःशब्दे वाचि शासियुधिशिधषिमृषिभ्यः युज् भवति" [वा०] । दुःशासनः । दुर्योधनः । दुर्दर्शनः । दुर्धर्षणः । दुर्मर्षणः । सुदर्शनादिषु बसो द्रष्टव्यः । १. वेष्टः म०; ब०; स.। For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३१ ०२ पा० ३ सू० १०७-११३] महावृत्तिसहितम् भवद्वद्वा तत्सामीप्ये ॥२॥३३१०७॥ भवच्छब्दो वर्तमानपर्यायः । समीपमेव सामीप्यम् । भवतीव त्यविधिर्भवति वा तत्समीपे भूते भविष्यति च ध्वर्थे वर्तमानाद्धोः । संप्रतीत्यारभ्य ा पादपरिसमाप्तेर्विहितारस्या अतिदिश्यन्ते । कदा देवदत्त श्रागतोऽसि । एष आगच्छामि । आगन्छन्तमेव मां विद्धि । एष आगामुकोऽस्मि । बावचनाद्यथाप्राप्तम् । एष आगतोऽस्मि । कदा देवदत्त गमिष्यसि । एष गच्छामि। गच्छन्तमेव मां विद्धि । गन्तारमेव मां विद्धि । पक्षे एष गमिष्यामि । एषोऽस्मि गन्ता । वत्करणं किमर्थम ? प्रकृतिविशेषादिपरिग्रहार्थम । तत्सामीप्यग्रहणं व्यवहितनिरासार्थम् । कदा ग्राममगच्छत् । श्वः कारष्यति । इह मा भूत् । नन्वत्र लुटा भवितव्यं कथं लुट ? पदसंस्कारवेलायां श्वःप्रभृतिपदानामसंनिधानाददोषः । भूतवञ्चाशंसायाम् ॥२।३।१०८॥ आशंसनमाशंसा भविष्यत्कालविषया; तस्यां गम्यमानायां भूतवत्यविधिर्भवति भवद्वच्च वा । भूतग्रहणेन भूतसामान्ये विहितस्य त्यस्य परिग्रहः । उपाध्यायश्चेदागमिष्यति उपाध्यायश्चेदागमत् उपाध्यायश्चेदागतः तदा तर्कमधीमहे अध्येष्यामहे अध्यगीमहि एषोऽधीतस्तकः । आशंसायामिति किम् ? उपाध्याय आगमिष्यति । तिप्रवचने लट ॥२॥३३१०६॥ अाशंसायामिति वर्तते । क्षिप्रार्थे शब्दे वाचि लट् भवत्याशंसायां गम्यमानायाम् । भूतवच्चेत्यस्यापवादः । उपाध्यायश्चेदागमिष्यति क्षिप्रमध्येष्यामहे शीघ्रमध्येष्यामहे । नेति वक्तव्ये लुटग्रहणं लुट्विषयेऽपि यथा स्यात् इत्येवमर्थम् । श्वः क्षिप्रमध्येष्यामहे । लिकाशंसोकौ ॥२३।११०॥ आशंसा उच्यते येन शब्देन तस्मिन् वाचि लिङ् भवत्याशंसायां गम्यमानायाम् । अयमपि भूतवच्चेत्यस्यापवादः । उपाध्यायश्चेदागच्छेत् आशंसे युक्तोऽधीयीय । अवकल्पये युक्तोऽधीयीय । परत्वाल्लुटो बाधकोऽयम् । श्राशंसे क्षिप्रमधीयीय । न लङलुट सामीप्याव्युच्छित्त्योः ॥२।३।१११॥ सामीप्यं तुल्यजातीयेनाव्यवधानम् । अध्युच्छित्तिः क्रियाप्रबन्धः । लङ्लुटौ न भवतः सामीप्याव्युच्छित्त्योः गम्यमानयोः । अनद्यतनविहितयोलङलुटोस्यं प्रतिषेधः । (सामीप्ये-येयं पौर्णमास्यतिक्रान्ता एतस्यां देवानपुजामः। अतिथीनबुभुजामः । येयममावास्यागामिनी एतस्यां देवान् पूजयिष्यामः अतिथीन् भोजयिष्यामः ।) अव्युच्छित्तौ-यावदजीवीत् भृशमन्नमदात् । यावजीविष्यति भृशमन्नं दास्यति । __ वय॑त्यवरेऽवधेः ॥२।३।११२॥ यद्यपि लङ्लुडिति प्रकृतम्। तथापीह वयद्हणाल्लुट एव प्रतिषेधः । वयतिकाले अवरस्मिन् भागे लुणन भवति । असामीप्याव्युच्छ्रित्यर्थोऽयमारम्भः। कालविभाग उत्तरत्र वक्ष्यते । देशविभागेऽयं प्रतिषेधः। योऽयमध्वा गन्तव्य श्रा चित्रकूटात् तस्य यदवरं मथुरायाः तत्र द्विरोदनं भोदामहे द्विःसक्तन्पास्यामः) वय॑तीति किम् ? योऽयमध्वागत या चित्रकूटात् तस्य यदवरं मथुरायास्तत्र युक्ता द्विरध्यैमहि) अवर इति किम् ? योऽयमध्वा गन्तव्य या चित्रकूटात् तस्य यत्परं मथुरायास्तत्र युक्ता द्विरध्येतास्महे । अवधेरिति किम् ? योऽयमध्वा गन्तव्यो निरवधिकः तस्य यदवरं मथुरायास्तत्र युक्ता द्विरध्येतास्महे । कालविभागेऽनहोरात्राणाम् ॥२॥३॥११३॥ वय॑त्यवरेऽवधेरिति वर्तते । वय॑तिकाले अवरस्मिकालविभागेऽहोरात्रसंबंधविवर्जिते लुण्न भवति । पूर्वेण प्रतिषेधे सिद्धेऽप्यहोरात्रसंबन्धिविभागप्रतिषेधार्थ वचनम् । कालविभागग्रहणमिहार्थमुत्तार्थ च । योऽयं संवत्सर आगामी तस्य यदवरमाग्रहायण्यास्तत्रार्हत्पूजां करिष्यामहे अतिथिभ्यो दानं दास्यामहे । वर्त्यतीत्येव । योऽयं संवत्सरोऽतीतस्तस्य यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र यका द्विरध्यैमहि । अवर इति किम् ? "वा परे" [२।३।११७] इति वक्ष्यति । अवधेरित्येव । योऽयं निरवधिक: काल आगामी तस्य यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता द्विरध्यतास्महे । अनहोरात्राणामिति किम् ? योऽयं त्रिंशदात्र श्रागामी तस्य योऽवरः पञ्चदशरात्रस्तत्र युक्ता द्विरध्येतामहे । योऽयं त्रिंशदात्र अमीस्यागात For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू० ११४-१२० योऽवरोऽर्द्धमासस्तत्र द्विरध्येतास्महे । योऽयं मास आगामी तस्य योऽवरः पञ्चदशरात्रतत्र द्विरध्येतास्महे । प्रसज्य [इति ] प्रतिषेधात् त्रिविधमुदाहरणम् । वा परे ॥२३११४॥ कालविभाग इति वर्तते । परस्मिन्नवधेः कालविभागे वय॑ति लुण्न भवति न चेदहोरात्राणां विभागः योऽयं संवत्सरः श्रागामी तस्य यत्परमाग्रहायण्यास्तत्र द्विरध्येष्यामहे अध्येतास्महे वा । सामीप्याव्युच्छित्तिविवक्षायामपि परत्वादयं विकल्पः । अनहोरात्राणामित्येव । योऽयं त्रिंशदात्र आगामी तस्य यः परः पञ्चदशरात्रः तत्र द्विरध्येतास्महे | सामीप्याव्युच्छित्योर्लुटः प्रतिषेध एव । वय॑तीत्येव । योऽयं संवत्सरोऽतीतः तस्य यत्परमाग्रहायण्यास्तत्र द्विरध्यैमहि । अवधेरित्येव । योऽयं निरवधिःकाल श्रागामी तस्य यत्परमाग्रहायण्यास्तत्र द्विरध्येतास्महे । कालविभाग इत्येव । योऽयमध्वा गन्तव्यः श्रा चित्रकूटात् तस्य यत्परं मथुरायास्तत्र द्विरध्येतास्महे । सर्वत्र लुड् भवति न चेदव्युच्छित्तिविवक्षा । लिडहेतौ लुक क्रियाऽवृतो ॥२॥३॥११५॥ वय॑तीति वर्तते । हेतुर्निमित्तम् । लिङ्हेतौ वर्त्यति काले लङ् भवति क्रियाया अवृत्तौ सत्याम् “हेतुफलयोर्लिङ' [२।३।१३२] इत्येवमादि लिनिमित्तं वक्ष्यति । अतिथींश्चेदलिप्स्यत भृशमन्नमदास्यत् । अत्रान्नदानं फलं तद्धेतुभूतोऽतिथिलाभः तदनभिनिर्वृत्तिं प्रमाणादवगम्बेदं वाक्यं प्रयुक्तम् । एवमुपाध्यायं चेदुपासिष्यत शास्त्रान्तमगमिष्यत् । अभोक्ष्यत भवान् दध्ना यदि मत्समीपे आसिष्यत । इह दक्षिणेन चेदयास्यत् न पOभविष्यदिति यानमनिष्पन्नं पर्याभवनं तु निष्पन्नमिति कथमवृत्तिः क्रियायाः। एवं तर्हि प्रत्यासत्तेहें तुभूतायाः क्रियाया अवृत्ताविति द्रष्टव्यम् । क्रियायाः अवृत्तावपि शक्तिरूपेण क्रियामथ्यारोप्य कर्तृत्वेनाभिसंबन्धः क्रियते यथा भूतभविष्यत्कालविषयायाः कर्तृत्वेनामिसंबन्धः। भूते ।।२।३।११६॥ भूते च काले लिङ्हेतौ क्रियाया अवृत्तौ सत्यां लुङ् भवति । "उसाप्योः पृष्टोक्ती लिङ्' [२।३।१२८] इत्यतः प्रभृति कालसामान्ये यल्लिनिमित्तं विधानं तत्रानेन भूते लुङ् । ततः पूर्वं तु "वाऽशेषात्" [२३.११७] इत्येनेनैव विकल्पः सिद्धः | दृष्टो मया भवतः पुत्रोऽन्नार्थी चक्रम्यमाणः। इतरश्चातिथ्यर्थी यदि तेन दृष्टोऽभविष्यत् उताभोक्ष्यत । अप्यभोक्ष्यत अन्येन यथा स गतः नापि भुक्तवान् । इदं सर्व प्रतिवचनम् । वाऽशेषात् २।३।११७॥ वक्ष्यति "शेषेऽयदौ लुट् [२।३।१२७] इति श्रा एतस्मात्सूत्रावधेः यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः भूते काले लिङ्हेत्तौ क्रियायाः अवृतौ लुङ्वा भवतीत्येतदधिकृतं वेदितव्यम् । परस्तु लुडो विधिनित्य इति तत्रैवोदाहरिष्यामः। लड़ गहेऽपिजात्वोः ।।२।३।११८॥ अपि जातु इत्येतयोर्वाचोः लड् भवति गर्दै गम्यमाने । अयं कालसामान्ये विहितो लट कालविशेषे विहितान् लकारान् परत्वाबाधते । अपि तत्रभवान् प्राणिनो हन्ति । जातु तत्रभवान् प्राणिनो हन्ति । गर्हामहे । अन्याय्यमेतत् । लिङ्हेत्वभावात् भूते क्रियाऽवृत्तौ लङ न भवति । वा कथमि लिङ्च ॥२॥३॥११६॥ गई इति वर्तते । कथंशब्दे वाचि लिङ् भवति लड्वा । कथं नाम तत्र भवान् मांसं भक्षयेत् । मांस भक्षयति । गर्हामहे | अन्याय्यमेतत् । वावचनाद्यथाप्राप्तम् । अबभक्षत् । अभक्षयत् । भक्ष याञ्चकार । भक्षयिष्यति । भक्षयिता । अत्र लिहेतुरस्तीति भूते क्रियाऽवृत्तौ वा लुङ् भवति । अभक्षयिष्यत् । वस्यति नित्यं लुङ् । किंवत्त लिङ लटौ ॥२॥३॥१२०॥ गहें इति वर्तते । वेति नाधिकृतम् । विभक्त्यन्तस्य उत्तरडतमान्तस्य च किमो वर्तनं किंवृत्तम् । किंवृत्ते वाचि गहें गम्यमाने लिङ्लुटौ भवतः। सर्वलकाराणामयमपवादः। कि तत्रभवान् अनृतं ब्रूयात् । अनृतं वक्ष्यति । लिङ्हेतुरस्तीति भूते वा लुङ् भवति । वय॑ति तु नित्यः । For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २ पा० ३ सू० १२१-१२६] महावृत्तिसहितम् १३३ अनचक्लप्त्यम ॥२।३।१२१॥ गर्ह इति निवृत्तम् । लिङलुटाविति वर्तते । अनवक्लुप्त्यर्थे अवमर्षे च गम्यमाने लिङ्लृट् इत्येतो त्यौ भवतः । श्रथमपि सर्वलकाराणामपवादः । अनवक्लुप्तौ नावकल्पयामि न संभावयामि न वा श्रद्दधे किं तत्र भवानदत्तं गृह्णीयात् अदत्तं ग्रहीष्यति । अमर्षे । घिमिथ्या नैतदस्त्यमों मे किं तत्रभवानदत्तं गृह्णीयात् अदत्तं ग्रहीष्यति । किंवृत्तेऽकिंवृत्ते च वाचि सामान्येनायं विधिः । लिङ्हेतु. रस्तीति भूते क्रियावृत्तौ वा लुङ् । वय॑ति तु नित्यः । किंकिलास्त्यर्थे लूट ॥२।३।१२२॥ अनवक्लुप्त्यमर्ष इति वर्तते । किंकिलशब्दे अत्यर्थेषु च शब्देषु वातु अनवक्लुप्त्यमर्षयोलृट् भवति । लिङोऽपवादः । नावकल्पयामि किंकिल तत्र भवान् परदारान् प्रकरिष्यते । गंधनादिसूत्रेणान्याये दः। अस्त्यर्था अस्तिभवतिविद्यतयः । अस्ति नाम भवति नाम विद्यते नाम तत्रभवान् परदारान् प्रकरिष्यते। जातुयद्यदायदो लिङ ॥२।३।१२३॥ अनवक्तृप्त्यमर्ष इति वर्तते । जातुयद्यदायदीत्येतेषु वातु अनवक्लप्त्यमर्षयोर्लिङ् भवति । लुटोऽपवादः । नावकल्पयामि जातु तत्रभवान् सुरां पिबेत् , यत्तत्रभवान् सुरां पिबेत् , यदा तत्रभवान् सुरां पिबेत् , यदि तत्रभवान् सुरां पिबेत् । न मृष्यामि जातु तत्रभवान् सुरां पिबेत् इत्येवमादि योज्यम् । लिहेतुरस्तीति भूते वा लुङ् । वर्त्यति तु नित्यः। यच्चयत्रयोः ।।२।३।१२४॥ अनवक्लुप्त्यमर्ष इति वर्तते । यच्च यत्र इत्येतयोर्वाचोरनवक्लुप्त्यमर्षयोलिङ् भवति । लुटोऽपवादः । उत्तरार्थो योगविभाग । न संभावयामि यच्च तत्रभवान् परिवादं कथयेत् । न मृष्यामि यश्च तत्रभवान् परिवादं कथयेत् । यत्र तत्रभवान् परिवादं कथयेत् । क्रियाऽवृत्तौ भृते वा लुङ् । वय॑ति तु नित्यः । गर्हे ॥२॥३॥१२५॥ अनवक्लुप्त्यमर्ष इति निवृत्तम् । अर्थान्तरोपादानात् । यच्च यत्र इत्येतयोर्वाचोगहें गम्यमाने लिङ भवति । सर्वलकाराणमपवादः । यच्च तत्रभवान् अस्मानाक्रोशेत् विद्वान् वृद्धः सन्नुस्कृष्टः । गर्हामहे । अन्याय्यमेतत् । लिहेतुरस्तीति यथासंभवं लुङ वेदितव्यः । चित्रार्थे ॥२॥३॥१२६॥ चित्रशब्दस्यार्थे गम्यमाने यच्चयत्रयोर्वाचोर्लिङ् भवति । सर्वलकारापवादः । यच्च तत्रभवान् लोभं कुर्यात् यत्र तत्रभवान् लोभं कुर्यात् विद्वान् वृद्धः सन्नुत्कृष्टः । चित्रमाश्चर्यमद्भुतं विस्मयमित्येषामन्यतमप्रयोगः । लिहेतुरस्तीति भूते क्रियाऽवृत्तौ वा । वर्त्यति तु नित्यः। शेषेऽयदो लट् ॥२।३।१२७॥ यच्चयत्राभ्यामन्यश्चित्रार्थः शेषः । शेषे चित्रार्थे गम्यमाने लुड भवति यदिशब्दश्चेद्वान भवति । अयमपि सर्वलकारापवादः। चित्रमाश्चर्य्यमदभुतं विस्मयमित्ययमन्धो नाम पुस्तकं वाचयिष्यति मूको नाम जैनेन्द्रमध्येष्यते । लिङ्हेत्त्वभावात् लुङ् वा न भवति । श्रयदाविति किम् ? आश्चर्य यदि स भुञ्जीत । अत्रानवक्तृप्तिश्चित्रार्थश्च प्रतीयते । “जातुयद्यदायदो लिङ्" [२।३।१२३] इति लिभूते "वाशशेषाद्" [२।३।११७] इति लङधिकारो निवृत्तः । उताप्योः पृष्टोक्ती लिङ् ॥२॥३॥१२८॥उत अपि इत्येतयोर्वाचोः पृष्टस्योक्तो गम्यमानायां लिङ भवति । सर्वलकारापवादः । किमकार्षीः कटं देवदत्त । इति पृष्टः प्रत्याह उत कुर्यात् । अपि कुर्यात् । कटं कृतवानित्यर्थः। इतः प्रभृति यत्र लिहेतुरस्ति तत्र वय॑ति भूते च नित्यो लुङ् । उताकरिष्यत् । अप्याकरिध्यत् । पृष्टोक्लाविति किम् ? उत दण्डः पतिष्यति । अपि धास्यति द्वारम् । अत्र प्रश्नोद्घहनं च प्रतीयते । इच्छोरोधेऽकञ्चिति ॥२॥३॥१२६॥ इच्छोरोधः स्वाभिप्रायनिवेदनम् । इच्छोरोधे गम्यमाने लिङ् भवति कच्चिच्छब्दाप्रयोगे। सर्वलकारापवादः । कामो मे अधीयीत भवान् । अभिलाषो मे भुञ्जीत भवान् । 1-सौ लुवा भ.। For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू० १३०-१३७ अकच्चितीति किम् ? कच्चिजीवति मे माता। कचिनीवति मे पिता । माराविद खां पृच्छामि कच्चिजीवति पार्वती। संभावनेऽलमि स्थानिनि ॥१३॥१३०॥ लिडित वर्तते । संभावनं क्रियायां सामर्थ्यश्रद्धानम् । अलंशब्दश्चेह पर्याप्तिवचनः । यस्य यत्रार्थो गम्यते न चासौ प्रयुज्यते स तत्र स्थानीशब्दः। अलमर्थविशिष्टे संभावने लिङभवति अलंशब्दे स्थानिनि । सर्वलकारापवादः । शक्यसंभावने-अपि हस्तिनं हन्यात् । अपि स्तुयाद्राजानम् । अशक्यसंभावने-अपि पर्वतं शिरमा भिन्द्यात् । अपि श्वारीयकं भुञ्जीत | अपि समुद्रं दोर्ध्या तरेत् । अलमति किम् ? विदेशस्थायी मे देवदत्तो मन्ये गमिष्यति ग्रामम् । अत्राहमिति स्थानी । स्थानिनीति किम् ? (वसति चेत् सुराष्ट्रेषु वन्दिष्यते अलमूर्जयन्तम् । क्रियाऽवृत्तौ वय॑ति भूते लङ भवति । तद्वाचि धौ वाऽयदि ॥३।१३।। अलमीति वर्तते । तच्छब्देन संभावनं परामृश्यते अलमर्थविशिष्टे सम्भावनवाचिनि धौ वाचि वा लिङ् भवति । यच्छब्दाप्रयोगे पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पोऽयम् । सम्भावयामि भुञ्जीत भवान् । श्रद्दधे भुञ्जीत भवान् । पक्षे यो यतः प्राप्नोति स ततो भवति । अलमीति किम् ? सम्भावयामि यस भुञ्जीत । अत्रालमर्थे पूर्वेण नित्यो लिङ् । हेतुफलयोलिङ ॥२।३।१३२॥ हेतु: कारणम् फलं कार्यम् । हेतौ तत्कायें च ध्वर्थे वर्तमानाद्धोः लिङ् भवति । अतिथींश्चेल्लभेत भृशमन्नं ददीत । यदि गुरुपूजां कुर्वीत स्वर्गमारोहेत् । वेत्यनुवर्तनात्पक्षे लट् । अतियाश्चेल्लप्स्यते भृशमन्नं दास्यते । लिडिति वर्तमाने पुनर्लिङ्ग्रहणं वयति यथा स्यादिह मा भूत । वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । क्रियाऽवृत्ती वय॑ति भूते च नित्यो लुङ् । इच्छाथै लिङ लोटौ ॥२॥३॥१३३॥ इच्छार्थे धौ वाचि लिङ्लोटौ त्यौ भवतः । सर्वलकारापवादौ । वेति व्यवस्थितविभाषानुवर्तते । तेन कामप्रकाशने इदं विधानम् । इच्छामि भुञ्जीत भवान् । भुक्तां भवान् । प्रार्थये अधीयीत भवान् । अधीतां भवान् । कामप्रकाशन इति किम् ? इह मा भूत् । इच्छन् करोति । नात्र प्रयोक्तुः कामप्रवेदनम् । "उताप्योः पृष्टोक्तौ'' [२।३।१२८] इत्यत आरभ्य यत्र केवलो लिङ्हेतुः शिष्यते तत्र क्रियाऽवृत्तौ लुङ् नान्यत्रेति केचित् । तुमेककत के ॥२॥३॥१३४॥ इच्छार्थे एककर्तृके धौ वाचि तुम्भवति यस्मात्तुम् विधीयते प्रत्यासत्तेस्तदपेक्षयैकककत्वम् । लिङ्लोटोरपवादोऽयम् । इच्छति भोक्तुम् । वाञ्छति कर्तुम् । कामयते कर्तुम् । एककर्तृक इति किम् ? देवदत्तं भुखानमिच्छति परः। इह कस्मान्न भवति । इच्छति कटं करोति चैनम् । नात्र करोतिं प्रतीच्छतः सामर्थ्य किन्तु कटं प्रति तेनान्वर्थवासिंज्ञाविरहात्तम् न भवति । लिङ ॥२॥३॥१३५॥ इच्छार्थे एकक के धौ वाचि लिङ, भवति । पूर्व तुमा लिङ्लो बाधितो पुनर्लिप्रसवार्थमेतत् । योगविभाग उत्तरार्थः। अधीयीयेति इच्छति । भुज्जीयेति वाञ्छति । इतिशब्दः क्रियाशब्दसंबन्धद्यातनाथः। तेभ्यो भवति वा ॥२३१३६॥ तेभ्य इच्छार्थभ्यो धुभ्यः भवति काले वा लिङ् भवति । इच्छेत् । इच्छति । कामयेत । कामयते । उश्यात् । वष्टि । विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधोसंप्रश्नप्रार्थने लिङ ॥२।३।१३७॥ विधिराज्ञापनम् । निमन्त्रणं नियमेन करणम् । यदकरणे प्रत्यवाय हत्यर्थः। आमन्त्रणं स्वेच्छया करणम् | अधीष्टः सत्कारपूर्विका व्यापारणा । संप्रश्नः संप्रधारणा । प्रार्थनं याञा । विध्यादिष्वर्थेषु लिङ् भवति । सर्वत्यापवादः । विध्यादिविशिप्टेषु कादिषु त्यार्थेषु लिङ भवतीत्यर्थः । कटं भवान् कुर्यात् । प्राणिनो भवान्न हिंस्यात् । निमन्त्रणेसंध्यासु भवान् श्रावश्यकं कुर्यात् । श्राचारं भवानधीयीत । अामन्त्रणे-इह भवानासीत । इह भवान् For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. २ पा० ३ सू० १३८-१४४] महावृत्तिसहितम् १३५ शयीत । अधीष्टे-अधीच्छामो भवान् व्रतं रक्षत् । तत्त्वं भवान् गृह्णीयात् । संप्रश्ने-किन्नु खलु भोः जैनेन्द्रमधीयीय । प्रार्थने-भवति मे प्रार्थना व्याकरणमधीयीय । तर्कशास्त्रमधीयीय । यदि विध्यादिषु प्रकृत्युपाधिषु लिङ, विधीयेत; इह विदध्यात् निमन्त्रयेत अामन्त्रयेत अधीच्छेत् । प्रकृत्यैव विध्यादयोऽभिधीयन्ते इति (इहैव) लिङ् प्राप्नोति । तस्माद्विध्यादयः कर्तृकर्मभावानां विशेषणानि । तदभावादिह लिङ न भवति । विदधाति । निमन्त्रयते । आमन्त्रयते । अधीच्छति । अत्र क्रियाया अवृत्तौ परत्वाल्लटा लुङ बाध्यते । लोट् ॥२॥३॥१३८॥ लोड़ भवति विध्यादिविशिष्टेषु कादिषु विधौ । ग्राम भवान्नागच्छतु । प्राणिनो भवान्न हिनस्तु । निमन्त्रणे-संध्यासु भवानावश्यकं करोतु । श्राचारमधीताम् । श्रामन्त्रणे-रह भत्रानास्ताम् । इह शेताम् । अधीष्टे-अधीच्छामो भवान् व्रतं रक्षतु | तत्त्वं भवान् गृह्णातु । संप्रश्ने-किन्नु खलु भो काव्यमध्यौं । प्रार्थने-भवति मे प्रार्थना धर्मशास्त्रमध्ययै। योगविभाग उत्तरार्थः । प्रैषातिसर्गप्राप्तकाले व्याश्च ॥२॥३३१३९॥ प्रेषणं प्रैषः । अतिसर्गः कामचारानुज्ञा । प्राप्तकालः प्राप्तकालता, विशिष्टस्य कालस्यावसर इत्यर्थः । औषादिष्वर्थेषु कादिविशेषणत्वेन गम्यमानेषु व्यसंज्ञकास्त्या भवन्ति लोट् च । भवता खलु दानं दातव्यं दानीयं देयम् । करोतु कटो भवानिह प्रेषितः । भवानतिसृष्टः । भवतो हि प्राप्तः कालः। यद्यपि व्यसंज्ञा सामान्येन भावकर्मणोर्विहितास्तथापि सर्वापवादेषु प्रैषादिषु लोटा बाध्येरनिति पुनर्विधीयन्ते । लिङ चोर्ध्वमोहूर्तिके ॥२॥३१४०॥ प्रैषादयोऽनुवर्तन्ते । ऊर्ध्व मुहूर्ताद्भवः ऊर्ध्वमौहर्तिकः । निपातात्सविधिरुत्तरपदस्यैवैप। ऊर्ध्वमौहूर्तिकेऽर्थे वर्तमानाद्धोः प्रैषादौ गम्यमाने लिङ् भवति चकारावयाश्च । उपरि मुहूर्तस्य भवान् खलु दानं दद्यात् । भवता खलु दानं दातव्यं दानीयं देयम् । केचिच्चकारेण यथाप्राप्त समुच्चिन्वन्ति । तेषां लोडपि भवति । भवान् खलु दानं ददातु । भवान् हि प्रेषितः । भवानतिसृष्टः । भवतो हि प्राप्तः कालः । स्मे लोट ।।२।३३१४१॥ प्रैषादयोऽनुवर्तन्ते । ऊर्ध्व मौहूर्तिक इति च । स्मशब्दे वाचि प्रैषादिषु गम्यमानेषु ऊर्ध्वमौहूर्तिकेऽर्थे लोड भवति । व्यानां लिङश्चापवादः । ऊर्ध्वं मुहूर्ताद्भवान् दानं ददातु स्म। भवान् हि प्रेषितः । भवानतिसृष्टः । भवतो हि प्राप्तः कालः । अधीष्टे ॥२।३१४२॥ ऊर्ध्वमौहूर्तिक इति निवृत्तम् । अधीष्टे गम्यमाने स्मशब्दे वाचि लोड्भवति । लिङो बाधकः। अङ्ग स्म राजन् दानं देहि व्रतं रक्ष । कालसमयवेलासु तुम् वा ॥२॥३१४३॥ काल समय वेला इत्येतेषु वाच धोः तुम् भवति वा । कालो भोक्तम् । समयो भोक्तम् । वेला भोक्नुम् वा । वावचनाद्यथाप्राप्तं च भवति । कालो भोक्तव्यस्य । प्रेषादिग्रहणमनुवर्तते । तेनेह न भवति ।। "कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः॥" लिङ, यदि ॥२॥३१४४॥ यच्छब्दप्रयोगे कालादिषु वान धोर्लिङ भवति । तुमोऽपवादः । कालो यत्प्रजां कुर्वीत भवान् । समयो यद्भुञ्जीत भवान् । वेला यच्छयीत भवान् । केचिद्वेत्यनुवर्तयन्ति तेषां यथाप्राप्तमपि । तृजव्याश्चाहे ॥२॥३।१४५॥ अर्हतीत्यहः। अर्हे कर्तरि गम्यमाने तृजव्याश्च भवन्ति लिङ् च । भवान् खलु कन्यायाः वोदा। भवता कन्या वोढव्या वहनीया वाह्या। भवान् खलु कन्यां वहेत । भवान् योग्य इत्यर्थः। अhऽर्थे लिङा विधीयमानेन तृचो व्यानां च बाधा मा भूत् इति पुनर्विधानम् । For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र च्याकरणम् [अ० २ पा० ३ सू० १४५-१५२ आवश्यकाधमय॑योर्णिन् ॥२॥३॥१४६॥ अवश्यं भाव अावश्यकम् । मनोशादिपाठादुञ् । अधमम् ऋणमस्य अधमर्णः: तद्भाव श्राधमर्यम । श्रावश्यकाधमर्यविशिष्टे त्यार्थे कर्तरि णिन् भवति । अवश्यंहारी मयूरव्यंकादित्वात्सविधिः। शतंदायी। सहस्रदायो। निष्कदायो "आधमण्ये चेन:' [१४७४] इति कर्मणि तायाः प्रतिषेधः। व्याः ॥२॥३॥१४७॥ आवश्यकाधमर्ययोरिति वर्तते । अावश्यकाधमर्ययोप्संज्ञा भवन्ति । सर्वत्यापवादेन गिना व्यसंज्ञा बाधिता इति पुनर्विधीयन्ते । भवता खलु अवश्यं धर्मः कर्तव्यः । करणीयः । कृत्यः । कार्यः । श्राधमण्य भवता खलु निष्को दातव्यः । देयः । योगविभाग उत्तरार्थः । शकि लिङ् च ॥२॥३॥१४८॥ शकीत्यर्थनिर्देशः । शन्नोत्यर्थविशिष्टे ध्वथै लिङ भवति चकाराद् व्याश्च । भवता खलु विद्या अध्येतव्या । अध्ययनीया । श्रध्येया । भवान् खलु विद्यामधीयीत । भवान् हि समर्थः। लिङ, सर्वापवाद इति (चकारेण ) व्यानामनुकर्षणं क्रियते । यदि शकीति प्रकृत्यर्थविशेषणम् | शक्नुयादित्यत्र लिङ न प्राप्नोति प्रकृत्यैवाभिहितत्वात् शक्यर्थस्य । नैष दोषः । सामान्यविशेषभावेन भेदाभ्युपगमात् । यथा एषितुमिच्छति एषिषिषति । ___ आशिषि लिङ लोटौ ।।२।३।१४६॥ इष्टस्याशंसनमाशीः । अतएव निपातनादिह इकारः। श्राशीविशिष्टेऽर्थे वर्तमानाद्धोलिङलोटौ भवतः । जीव्यात् । जीव्यास्ताम् । जीव्यासुः । जीवतु । आशिषीति किम् ? जीवति यदि पथ्याशी। निचलौ खौ ॥२।३।१५०॥ आशिषीति वर्तते । आशिष्यर्थे क्लिचक्तौ त्यौ भवतः खुविषये। चकारः "न तिचि दीश्चा' [10/10] इति विशेषणार्थः । तनुतात् तन्तिः। सनुतात् सातिः। भवताद्भतिः । कृतः क्लिचा विशेषविहितेन बाध्येरन्निति पुनर्विधीयन्ते । देवा एनं देयासुरिति देवदत्तः। देवा एनंशृण्वन्तु देवश्रुतः। माङिलुङ ॥२॥३॥१५१॥ माङि वाचि लुङ, भवति । सर्वलकारापवादः । मा कार्षीरधर्मम् | मा हार्षीत्परस्वम् । ङ्कारः प्रतिषेधवाचिनो माङ शब्दस्य ग्रहणं यथा स्यादित्येवमर्थः ।। सस्मे लङ च॥२।३.१५२॥ सह स्मशब्देन वर्तते सस्मः । तस्मिन् माङि वाचि लङ् भवति लु च । मा स्म क्रुध्यत् । मा स्म हरत् । मा स्म हार्षीत् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः । -चिरं जीव्यात् मु०। For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.२ पा० १ ०१-३] महावृत्तिसहितम् १३७ धुयोगे त्याः ॥२॥४१॥ धुशब्देन ध्वर्थोऽत्र निर्दिष्टः । अभिधेये अभिधानस्योपचारात् । धूनां योगे सति अयथाकालोक्ता अपि त्याः साधवो भवन्ति । विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता । कृतः कटः श्वो भाविता। भाविकृत्यमासीत् । विश्व श्वेति भूतकालः जनितेत्यनेन भवि यतकालेन ( अभिसम्बध्यमान साधुर्भवति । इहोपसर्जनभूसं सुबन्तं प्रधानभूतस्य मिङन्तस्य कालमनुवर्तते । धोरिति वर्तमाने पुनधु ग्रहणं अस्तिभूजनिपरिग्रहार्थम् । त्य इति वर्तमाने पुनस्त्यग्रहणं त्यमात्रपरिग्रहार्थम् । गोमान् भवितेति मत्वन्तस्य वर्तमानकालस्य अयथाकालत्वेन साधुत्वम् । क्रियासमभिहारे लोट तस्य हिस्वौ वा तध्वमोः ॥४२॥ क्रियासमभिहारविशिष्टे ध्वर्थे वर्तमानाद्धोर्लोड भवति । सर्वलकारापवादः। तस्य लोये हि स्व इत्येतावादेशो भवतस्तध्वमोस्तु वा भवतः। क्रियासमभिहारे लोडिति योगविभागः कर्तव्यः । ततस्तस्य हिस्वौ भवतः। किमेवं सति लब्धम् ? अन्यत्र यो लोडादेशौ हिस्वी प्रसिद्धौ ताविह भवतः । तेन मविधिदविधिव्यतिकरो न भवति । वा तध्वमोरित्यत्र ध्वमा सह निर्देशात्तशब्दस्य थादेशस्य वहोर्ग्रहणम् । लुनीहि लुनीहि इत्येवाहं लुनामि । श्रावां लुनीवः। वयं लुनीमः । लुनीहि लुनीहि इत्येव त्वं लुनासि । युवां लुनीथः । यूयं लुनीथ । तशब्दस्य तु वा भवति । लुनीत लुनीत इत्येवं यूयं लुनीथ । लुनीहि लुनीहि इत्येवायं लुनाति । इमो लुनीतः । इमे लुनन्ति । भूते लुनीहि लुनीहि इत्येवाहमलाविषम् । आवामलाविष्व । वयमलाविष्म । एवं युष्मदन्ययोरपि । वय॑ति-लुनीहि लुनीहीत्येवाई लविष्यामि । श्रावां लविष्यावः । वयं लविष्यामः। एवं युष्मदन्ययोरपि । अधीष्व अधीष्व इत्येवाहमधीये । श्रावामधीवहे । वयमधीमहे । एवं युष्मदन्ययोरपि योज्यम् । ध्वमस्तु पक्षे श्रवणम् । अधीध्वमधीध्वमित्येवं यूयमधीचे। भते-अधीष्व अधीष्व इत्येवाहमध्यगीषि । श्रारामध्यगीष्वहि । वयमध्यगीष्महि । एवं सर्वत्र । वय॑ति-अधीष्व अधीष्व इत्येवाहमध्येष्ये। श्रावामध्येष्यावहे । वयमभ्येष्यामहे । एवं युष्मदन्ययोरपि । एवं शेषेष्वपि लकारेषु योज्यम् । द्वित्वमपेक्ष्य लोड क्रियासमभिहारस्य द्योतकः। धुयोग इति वर्तते । प्रत्यासत्तेर्यत एव लोट विधीयते तस्यैवानुप्रयोगः कालास्मदायकत्वादीनामभिव्यक्तये क्रियते । प्रचये वा ॥२४॥३॥ प्रचयः समुच्चयः । स चैकस्मिन् द्विप्रभृतेरध्यावायः। प्रचये उपाधो वा लोड भवति तस्य हिस्वावादेशौ भवतस्तध्वमोस्तु वा । अयं सर्वलकारप्राप्तौ विकल्पः। कर्मप्रचयो ग्राममट नगरमट गिरीमट इत्येवाहमटामि । श्रावामटावः । वयमटामः। ग्राममट नगरमट गिरिमट इत्येवं त्वमटसि । युवामटथः। यूयमटथ। तशब्दस्य तु वा-ग्राममटत नगरमत गिरिमटत इत्येव यूयमःथ। ग्राममट नगरमट गिरिमट इत्येवायमटति । इमो अटतः। इसे अटन्ति । वाचनात् ग्राममटामि नगरमठामि गिरिमटामि इत्येवाहमयामि । श्रावामटावः । वयमटामः। एवं युष्मदन्ययोरपि । एवं भूते वय॑ति सर्वलकारेषु योज्यम् । दभाग्भ्यः । जैनेन्द्रमधीष्व तर्कमधीष्व गणितमधीष्व इत्येवाहमधीये । श्रावामधीवहे । वयमधीमहे । जैनेन्द्रमधीष्व तर्कमधीष्व गणितमधीष्व इत्येव त्वमधीषे । युवामधीयाथे। यूयमधीध्वे : ध्वमस्तु वा-जैनेन्द्रमधीध्वं तर्कमधीध्वं गणितमधीध्वं इत्येव यूयमधीध्वे । जैनेन्द्रमधीष्व तर्कमधीष्व गणितमधीष्व इत्येवायमधीते । इमौ अधीयाते । इमे अधीयते । वावचनात् जैनेद्रमधीये गणितमधीये तर्कमधोये इत्येवाहमधीये । श्रावामधीवहे। वयमधीमहे । एवं भूते वय॑ति सर्वलकारेषु योज्यम् । कर्तृ समुच्चये देवदत्तोऽद्धि जिनदत्तोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव वयमोदनमः । देवदत्तोऽद्धि जिनदत्तोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव यूयमोदनमत्थ । देवदत्तोऽद्धि जिनदत्तोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि इत्येव इमे श्रोदनमदन्ति । कर्तृ समुच्चये द्विवचन बहुवचनं वा भवति एकस्य समुच्चयाभावात् । क्रियासमुच्चये। प्रोदनं भुत्व सक्लन् पिब धानाः खाद इत्येवाहमभ्यवहरामि । श्रावामभ्यवहरावः। वयमभ्यवहरामः । बहूनां क्रियाए समुच्चये सामान्यप्रयोगोऽभिधानवशात् । एवं सङ्करसमुच्चयोऽप्यूह्यः । 1योऽप्यभ्यूयः १०, ब०, स.। १८ For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ४ सू० ४-१२ निषेधेऽलं खल्वोः तवा ||२|४|४|| वेति वर्तते । श्रलं खलु इत्येतयोर्निषेधवाश्विनेर्वाचोर्धोः क्त्वात्यो भवति । अलं कृत्वा । श्रलं बाले रुदित्वा । “मिनाऽमैव” [१1३1८३] इति नियमात् वाक्सो न भवति । निषेध इति किम् ? अलंकारः । श्रलंखल्वोरिति किम् ? मा कार्षीः । वेत्येव । श्रलं रोदनेन । 'प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्" [ वा० ] इति भा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माङो व्यतिहारे || २|४|५|| माङो व्यतिहारेऽर्थे क्त्वा भवति वा । परकालत्वादप्राप्तः क्त्वा विभाष्यते । प्रमित्य याचते । श्रवमित्य हरति । "वेङ : " [ ४|४|६६ ] इतीत्वम् । वेत्यधिकारात् याचित्वा श्रपमयते । हृत्वा पयते । मेङः कृतात्वस्य निर्देशो ज्ञापकः -- "नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम्" [ परि० ] | I परावरयोगे || २|४|६ ॥ परावराभ्यां योगे गम्यमाने घोः तवा भवति । वेति वर्तते । संबन्धिशब्दवात् परेण पूर्वस्य योगे । अप्राप्य नदीं पर्वतः । परया नद्या युक्तः पर्वतः प्रतीयते । श्रवरेण योगे परस्य क्तत्वा । अतिक्रम्य पर्वतं नदी । श्रवरपर्वत योगविशिष्टा परा नदी प्रतीयते । वावच नाल्लडादयो भवन्ति । न प्राप्नोति नदी पर्वतः । श्रतिक्रामति पर्वतं नदी । परका ककर्तृकात् ॥२२४॥७॥ परः कालो यस्याः सेयं परकाला क्रिया, तया एककर्ता यस्य सामर्थ्यात् पूर्वकालक्रियाभिधायिनः स तथोक्तः । तस्माद्धोः क्त्वा भवति । स्नात्वा भुङ्क्ते । स्नात्वा भुक्त्वा पीला व्रजति । एककर्तृकादिति किम् ? भुक्तवति देवदत्ते गच्छति जिनदत्तः । परकालग्रहणं किम् ? सामर्थ्यात् पूर्वकाल क्रियाभिधायिनो यथा स्यादिह मा भूत् । भुङ्क्ते च पिवति च श्रास्ते च जल्पति च इहापि कथञ्चित् पूर्व कालत्वविवक्षास्ति । व्यादाय स्वपिति । संमील्य हसति इति । वेत्यधिकरात् । भुङ्क्ते शेते च । म चाभीक्ष्ये ॥ २४८ ॥ परकालैककर्तृकादिति वर्तते । मुहुर्मुहुर्वृत्तिराभीक्ष्ण्यम् । एतच्च प्रकृत्यर्थविशेषणम् । परकालैककर्तृकात् णमित्ययं त्यो भवति त्वात्यश्च । श्राभीक्ष्ण्ये - भोजंभोजं व्रजति । भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति । पायं पायं गच्छति । पीत्वा पीत्वा गच्छति । क्त्वाणमौ द्वित्वमपेक्ष्याभीक्ष्ण्यं द्योतयतः । पूर्वेण त्वात्ये सिद्धे णमर्थ वचनम् । इह वेति निवृत्तम् । उत्तरत्र वाग्रहणात् । I म यदनाका ||२४|६ ॥ यच्छन्दे वाचि तवाणमौ न भवतोऽनाकाङ्क्ष सति वाक्ये । अनन्तरव्यवहितभेदाभावात् पूर्वसूत्रविहितो अनन्तरश्च त्वा निषिध्यते णम् च । यदयं भुङ्क्ते ततो गच्छति । यदयं शेतॆ ततोऽधीते । अनाकाङ्क्ष इति किम् ? यदयं भुक्त्वा व्रजति । अधीत एव ततः परम् । अत्र पूर्वोत्तरक्रियाभ्यां अतिरिक्तमध्ययनं काङ्क्षते । वा प्रथमपूर्वे || २|४|१०|| श्रभीक्ष्ण्य इति निवृत्तम् । "परका लैककर्तृकातू" [२२४७] इत्यनेन त्वात् प्राप्ते विभाषेयम् । श्र प्रथम पूर्वं इत्येतेषु वातु क्त्वायमौ वा भवतः । अग्रे भोजं ततो ददाति । अग्रे भुक्त्वा ततो ददाति । प्रथमं भोजं ततो ददाति । प्रथमं भुक्त्वा ततो ददाति । पूर्व भोजं ततो ददाति । पूर्वे भुक्त्वा ततो ददाति । "झिनामैव" [११३८३] इत्यत्रैवकारोपादानात् केवलेनैवामा विहितेन बाक्सो भवति नान्यसहितेन । वावचनालादयोऽपि भवन्ति । श्रग्रे भुङ्क्ते ततो ददाति । प्रथमं भुङ्क ततो ददाति । भुङ्क्ते ततो ददाति । कर्मण्याक्रोशे कृञः खमुम् ||२|४|११|| कर्मणि वाचि आक्रोशे गम्यमाने कृञः खमुञ भवति । चोरोऽसीत्येवमाक्रोशति चोरङ्कारमाक्रोशति । दस्युङ्कारमाक्रोशति । क्त्वाऽपवादोऽयम् । श्राक्रोश इति किम् ? चोरं कृत्वा गच्छति । नात्राऽक्रोशसंपादनार्थ चोरग्रहणम् । स्वादुमि णम् ||२|४|१२|| स्वादुमीत्यर्थनिर्देशः । स्वाद्वर्थेषु वातु कृञो णम् भवति । परकालै कक - का दिति वर्तते । स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । सम्पन्नङ्कारं भुक्ते । लवणङ्कारं भुङ्क्ते । स्वादुमीति णमसन्नियोगे For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ २ पा० ४ सू० १३-११ ] महावृत्तिसहितम् १३६ मकारान्तता निपात्यते । खमुनि प्रकृतै । "खित्य केः " [४।३।१७६ ] “भुमच: " [४।३।१७७ ] इति मुमा सिद्धमिति चेत् व्यन्तविवक्षायां श्ररिति प्रतिषेधः प्रसज्येत । खमुञ्येव मान्तनिपातनं कर्तव्यमिति चेन्न च्व्यन्तार्थमेव तत्संभाव्येत । यमि पुनर्निपातनं ङीनिवृत्त्यर्थं "चौ" [ ५/२/१३५] दीत्वनिवृत्त्यर्थं च । स्वाद्वकृत्वा यवागू भुङ्क्ते | स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । च्विविवक्षायामस्वादुं स्वादुं कृत्वा भुङ्क्ते स्वादुंकारं भुङ्क्ते । "व" [२१२१३५] इति दीत्वं प्रसज्येत । उत्तरार्थं च दह रामग्रहणम् । विभाषाधिकारात् क्त्वापि भवति । क्त्वादयश्रातुमो विधीयमाना भावे भवन्ति । ननु स्वादुंकारं भुङ्क्ते देवदत्त इति णमा कर्तुरनुक्तत्वात् कर्तरि ता प्राप्ता "न ति" [१।४।७२] इत्यादिना ता कर्तरि न भवति । श्रन्यथैवं कथमित्थं स्वनर्थात् || २|४|१३|| अन्यथा एवं कथमित्थमित्येतेषु वाच्क्षु धुभ्यो णम् भवति श्रनर्थात् । येन विनापि यदर्थः प्रतीयते स तत्रानर्थस्तस्मिन्प्रयुज्यमाने त्यो भवति । तथाहि यावानेवार्थीऽन्यथा भुङ्क्त इति तावानेव कृञ्प्रयोगेऽपि अन्यथाकारं भुङ्क्ते । एवंकारं भुङ्क्ते । कथंकारं भुङ्क्ते । इत्यङ्कार भुङ्क्ते । श्रनर्थादिति किम् ? अन्यथा कृत्वा शिरो भुङ्क्ते । यथातथयोरसूयाप्रत्युक्तौ || २|४|१४|| कृञो ऽनर्थादिति वर्तते । यथा तथा इत्येतयोर्वाचोः कृञोऽनर्थात् राम् भवति श्रसूयाकृतायां प्रत्युक्तौ गम्यमानायाम् । कथं कृत्वा भवान् भुङ्क्ते इत्येवं पृष्टोऽसूयकस्तं प्रत्याह यथाकारमहं भोये तथाकारमहं भोक्ष्ये किं तवानेन । अनर्थादिति किम् ? यथा कृत्वाहं बलिं भोक्ष्ये किं तवानेन | मसूयाप्रत्युक्ताविति किम् ? यथाकृत्वाहं भोदये तथा द्रक्ष्यसि त्वम् । तथाकृत्वाऽहं भोये यदा द्रष्टव्यं भवता । कर्मण्यशेषे शिविदः || २|४|१५|| शेषः कः १ साकल्यम् । इदं कर्मणो विशेषणम् । श्रशेषविशिष्ट कर्मणि वाचि दृशिविदोवर्णम् भवति । साधुदर्श प्रणमति । सर्व साधुं प्रणमतीत्यर्थः । श्रतिथिवेदं भोजयति । यं यं विन्दति विन्ते वा तं सर्वं भोजयतीत्यर्थः । अशेष इति किम् ? अतिथिं दृष्ट्वा भोजयति । यावति विन्दजीवः ||२||४ | १६ ॥ यावच्छन्दे वाचि विन्दतिजीवत्योर्णम् भवति । यत्र पूर्वकालत्वं सम्भवति तत्र क्त्वाऽपवादः । यत्र न सम्भवति 'तत्रापूर्व एव विधिः । धुयोग इति वर्तते । यावद्वेदं भुङ्क्ते । यावल्लभते तावद्भुङ्क्ते इत्यर्थः । यावज्जीवमधीते । यावज्जीवति तावदधीते इत्यर्थः । - चर्मोदरयोः पूरेः ||२|४|१७|| कर्मणीति वर्तते । चर्म उदर इत्येतयोः कर्मणोर्वाचोः पूरयतेम् भवति । चर्मपूरं शेते । उदरपूरं भुङ्क्ते । वर्षप्रमाणे ॥२|४|१८ ॥ कर्मणीति वर्तते । कर्मणि वाचि पूरयतेर्णम् भवति समुदायेन वर्षप्रमाणे गम्यमाने । गोष्पदपूरं वृष्टो देवः । सीतापूरं वृष्टो देवः । कथं गोष्पदप्र वृष्टो देवः १ प्रातेरातः के कृते क्रियाविशेषणत्वेन नपुंसकलिङ्गम् । एतस्य कान्तस्यैव विभक्तयन्तच्व्यादिषु च प्रयोगः साधुः । गोष्पदप्रेण गोष्पदप्री भवति । गोष्पदप्रतरम् गोष्पदपूरं दृष्टो देव इत्येवमादावुभयथा प्रयोग इष्यते । णमन्तस्य घञन्तस्य च क्रियाविशेषणभावेन हृति विभक्त्यन्तरे च विशेषः । णमन्तस्य हि देश्यादिषु गोष्पदपूरं भवति गोष्पदपूरदेश्यम् गोष्पदपूरंदेशीयं गोष्पदपूरंकल्पं गोष्पदपूरंतराम् । घञन्तस्य गोष्पदपूरीभवति गोष्पदपूरदेश्यं गोष्पदपूरदेशीयम् गोष्पदपूरकल्पम् । गोष्पदपूरतराम् । चेलेषु क्रोपेः ॥ २|४|१६ ॥ कर्मणीति वर्तते । चेलार्थेषु कर्मसु वातु क्रोपयतेर्णम् भवति वर्ष प्रमाणे गम्ये । चेलनोपं दृष्टो देवः । एवं वस्त्रक्नोपं वसननोपम् । १. तत्रापूर्वी विधिवैदितव्यः श्र० । For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [भ० २ पा० पू० : ०-१० शुष्कचूर्णभक्षेषु पिषः ॥२।४।२०॥ कर्मणीति वर्तते । शुष्क चूर्ण भद इत्येतेषु कर्मसु वाच पिषोणंम् भवति । शुष्कपेषं पिनष्टि तगरम् । शुष्क पिनष्टीत्यर्थः। एवं चूण पेषं पिनष्टि । भक्षपेषं पिनष्टि । घनि सति क्रियाविशेषणे शुरुकस्य पेषं पिनष्टि इत्येवमादयः प्रयोगाः साधवः । इतः प्रभृति "उपदंशो भायाम्" [२।४।३३] इत्यतः प्राक् यत एव धोर्णम् भवति तस्यैवानुप्रयोगोऽपि भवत्यभिधानवशात् । __ जीवाकृते ग्रहिवः ॥२॥४॥२१॥ कर्मणीति वर्तते । जीव अकृत इत्येतयोः कर्मवाचिनोचिोर्यथासंख्यं ग्रहि कृञ् इत्येताभ्यां णम् भवति । जीवग्राहं गृहीतः । अकृतकारं करोति । निमूले कषः ॥२।४।२२॥ कर्मणीति वर्तते । निमूले कर्मणि वाचि कषेर्णम् भवति । निमूलका कति । घजि सति क्रियाविशेषणे निमूलस्य काषं कषति इत्यपि भवति । समूले हनश्च ॥१४२३॥ कर्मणीति वर्तते । समूले कर्मणि वाचि हन्तेः कषेश्च णम् भवति । समूलघातं हन्ति । समूलकाषं कषति । करणे ॥२॥४॥२४॥ हन इति वर्तते । करणे वाचि हन्तेर्णम् भवति । पाणिघातं कुडय हन्ति । पाणिना हन्तीत्यर्थः । पादघातं शिलां हन्ति । यदा हिंसार्थो 'हन्तेर्विवक्षितः तदा "हिंसार्थादेककर्मकात्" [२१३०] इतीममपि विधि पूर्वविप्रतिषेधेन बाधित्वाऽयमेव णम् । असिघातं हन्ति चौरान् । कोऽत्र विशेषः १ अनेन नित्यः सविधिः तस्यैव धोरनुप्रयोगश्च भवति । हस्ते वर्तिग्रहः ॥राठा२५॥ करण इति वर्तते । हस्त हति अर्थनिर्देशः। हस्तवाचिनि करणे वाचि वर्तयतिगृह्णातिभ्यां णम् भवति । हस्तवर्त वर्तयति । हस्तेन वर्तयतीत्यर्थः । एवं पाणिवर्तम् । करवर्तम् । हस्तग्राहं गृह्णाति । हस्तेन गृह्णातीत्यर्थः । एवं पाणिग्राहं करग्राहम् । स्वेषु पुषः ॥२४॥२६॥ करण इति वर्तते । स्व इति स्वरूपस्य तद्विशेषाणां च ग्रहणम् । बहुत्वनिर्देशात् । स्ववाचिकरणवाचिनि पुषेोणंम् भवति । अात्मात्मीयज्ञातिधनानि स्वशब्देनेष्यन्ते । स्वपोषं पष्टः । विद्यापीपं गोपोषं मातपोषं पितृपोषं रैपोषं पुष्णाति। सर्वत्र घान्तेन णमन्तस्यार्थकथनं द्रष्टव्यम। स्वेन पोषं पुष्ट इति स एव पुषिः कालसावनभेदादन्यत्वं गतः पुषिणा युज्यते । यथा एषितमिच्छति एषिषिषति । इपिरिषिणा युज्यते । स्नेहने पिषः ॥२४॥२७॥ करण इति वर्तते । स्निह्यतेऽनेनेति स्नेहनम् । स्नेहनवाचिनि करणे वाचि पिषे?णंम् भवति । घृतपेष पिनष्टि । घृतेन पिनष्टीत्यर्थः । एवं तैलपेषम् । उदपेषम् । “पेषमि'' [।३।१६६] इत्युदकस्योदादेशः। बन्धोऽधिकरणे ॥२॥४॥२८॥ अधिकरणे वाचि बनातेर्णम् भवति । चक्रबन्धं बद्धः। चक्रे बद्ध इत्यर्थः। एवं चारकबन्धम् । दृष्टिबन्धम् । गुप्तिबन्धम् । बध्यमानाधारे वाचि एम् भवति न बन्धाधारे । हस्ते वनातीति वेत्यधिकाराद्वा न भवति । खौ ॥२४॥२६॥ खुविषये च बनातेर्णम् भवति । चण्डालिकाबन्धं बद्धः। अट्टालिकाबन्धं बद्धः। महिषिकाबन्धं मयूरिकाबन्धं क्रौञ्चबन्धं बद्धाः। णमन्ताः बन्धविशेषाणां संज्ञा एताः। अर्थप्रदर्शनं तु यथाकथंवित्करणेन वाचा अन्यथा वा दर्शनीयम् । अन्ये तु व्याचदते खुभूतो यो बन्धः तस्मिन् करणवाचिनि वाचि बन्नातर्णम् भवति । कॉर्जावपुरुषयोर्नशिवहोः ॥२॥४॥३०॥ जीव पुरुष इत्येतयोः कर्तृवाचिनोर्वाचोर्यथाक्रम नशि३. हन्तिवि-अ०, ब०, स० । २. कूटबन्धम् अ० । For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . २ पा० ४ सू० ३१-३८] महावृत्तिसहितम् १४१ वहिभ्यां णम् भवति । जीवनाशं नश्यति । जीवो नश्यतीत्यर्थः । पुरुषवाहं वहति । पुरुषो भूत्वा वहतीत्यथः। कोरिति किम् १ जीवेन नष्टः । पुरुष' वहन्ति । अत्र करणं कर्म च वाक् । ऊर्ध्वं शुषिपुरोः ॥२४॥३१॥ कोरिति वर्तते । ऊर्ध्वशब्दे कर्तृवाचिनि वाचि शुषि पूरि हत्येताभ्यां एम् भवति । अवशोषं शुष्कः । ऊर्ध्वः इत्यर्थः । ऊर्ध्वपूरं पूर्यते । ऊर्ध्वः पूर्यत इत्यर्थः । कर्मणि चेवे ।।४।३२॥ शब्दे कार्यस्यासम्भवादिवार्थ उपमानं गृह्यते । इवशब्दार्थे वर्तमाने कर्मणि कर्तरि भूवादिधोर्णम् भवति कर्मणि । घृतनिधायं निहितः। घृतमिव निहित इत्यर्थः। एवं जीवितरक्षं रक्षितः । कर्तरि-अकरनाशं नष्टः । अक्रूर इव नष्ट इत्यर्थः । एवमजकनाशं नष्टः। चूडकनाशं नष्टः । पिषादिषु यथाविध्यनुप्रयोगो न वक्तव्यः। धुयोग इति वर्तते तत्र प्रत्यासत्तेरभिधानवशाद्वा यत एव धोर्णम् तस्यैवानुप्रयोगः। उपदंशोभायाम् ॥२॥४॥३३॥ उपपूर्वाशेर्भान्ते वाचि णम् भवति । धुयोग इति च वर्तते । एककर्तृ कादिति च पूर्वकालत्वं संभवतः संबन्धनीयम् । मूलकोपदंशं भुङ्क्ते । मूलकेनोपदंशं भुङ्क्ते । “वा भादि" [॥३॥८४] इति विभाषया वाक्सः । इत ऊर्ध्व यानि वाक्संज्ञकानि वक्ष्यन्ते तानि भादिग्रहणेन गृह्यन्ते । सर्वत्रास्मिन् प्रकरणे वेत्यनुवर्तते । तेन त्वाऽपि भवति । मूलकेनोपदंश्य भुङ्क्त । कर्मणः साधकतमत्वविवक्षायां भा भवति । अथवा उपदंशिगुणस्य भुजेरेतत्करणम् । हिंसाविककर्मकात् ॥२४॥३४॥ भायामिति वर्तते । हिंसार्थेभ्यो धुभ्योऽनुप्रयोगेणैककर्मकेभ्यो भान्ते वाचि णम् भवति । दण्डाघातं गाः सादयति । दण्डेनाघातम् । "करणे" [२।४।२५] इत्यनेन हन्तेयः पूर्वनिर्णयेन णम् विहितस्तस्यैवानुप्रयोगो द्रष्टव्यः। हन्तेरन्यदपीहोदाहरणम् । दण्डाताडं गाः कालयति । दण्डेनाताडम् । खड्गप्रहारं शत्रून् विजयते । खङ्गेन प्रहारम् । एककर्मकादिति किम् ? दण्डेनाहत्य भूमि गोपालको गाः सादयति। ईपि चोपपोडरुधकर्षः ॥२४॥३५॥ उपपूर्वेभ्यः पीडरुधकर्षेभ्य ईपि वाचि चकाराभान्ते वाचियम् भवति । उपशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । व्रजोपरोधम् । व्रजे उपरोधम् । ब्रजेनोपरोषम् । पाश्वोंपपीडं शेते । पार्वाभ्यामुपपीडम् । पार्श्वयोरुपपीडम् । पाण्युपकर्षे धानाः पिनष्टि । पाणावुपकर्षम् । पाणिनोपकर्षम् । प्रमाणासत्त्योः ॥२४॥३६॥ ईपि भायां चेति वर्तते । प्रमाणमायाममानम् । श्रासत्तिः सन्त्रिकर्षः । ईबन्ते मान्त वाचि धोर्णम् भवति प्रमाणासत्त्योर्गम्यमानयोः । द्वयङ्गुलोत्कर्ष गं एडकाश्छिनत्ति । व्यङ्गलोस्कर्षम् । व्यङ्गुलेनोत्कर्षम् । व्यङ्गुले उत्कर्षम् । आसत्तौ । केशग्राहं युध्यन्ते । केशेषु ग्राहं केशैाहम् । सन्निकृष्टं युध्यन्ते इत्यर्थः। एवमस्यपनोदं युध्यन्ते । असिष्वपनोदम् । असिभिरपनोदम् । हस्तग्राहम् । हस्तेषु ग्राहम् । हस्तैहिम् । त्वयंपादाने ॥२४॥३७॥ त्वरणं त्वरा त्वरीति सौत्रमात्खम् । त्वरायां गम्यमानायामपादाने वाचि घोर्णम् भवति । शय्योत्थायं धावति । शय्याया उत्थाय । मुखप्रक्षालनाद्यवश्यकार्यमकृत्वा त्वरत इत्यर्थः। एवं स्तनरन्ध्रापकर्ष पयः पिबति । स्तनरन्ध्रादपकर्षम् | भ्राष्टापकर्षमपूपान् भक्षयति । भ्राष्टादपकर्षम् । वेत्यनुवर्तनात् शय्याया उत्थाय धावति । त्वरीति किम् ? श्रासनादुत्थाय गच्छति । इपि ॥२४॥३८॥ त्वरीति वर्तते । इबन्ते वाचि त्वरायां गम्यमानायां धोर्णम् भवति। यष्टिग्राहं युध्यन्ते। यष्टिं ग्राहम् । त्वरया युद्धप्रहरणमनपेक्ष्य यष्टिमादाय युध्यते इत्यर्थः । एवं पटापकर्ष धावन्ति पटमपकर्षम् । त्वरीत्येव । खड्गे गृहीत्वा युध्यन्ते । For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. २ पा० ४ सू० ३४-१५ स्वाङ्गेऽध्रुवे ॥२४॥३९॥ इपीति वर्तते । यस्मिन्विनष्टेऽपि प्राणिनां मरणं न भवति तदध्रुवं स्वाङ्गम् । तस्मिन्निबन्ते वाचि धोर्णम् भवति । अक्षिनिकोचं जल्पति । अक्षणी निकोचम् । भूक्षेप जल्पति । भ्रुवं क्षेपम् । अंगलिनिकोटं जल्पति । अंगुलिं निकोटं जल्पति । अध्रुव इति किम् ? शिर उत्क्षिप्य जल्पति । (अद्रवं मूर्तिमत्स्वांगं प्राणिस्थमविकारकम् । अतत्स्थं तत्र दृष्टं च तेन चेत्तत्तथायुतम् । ) श्राद्यैश्चतुभिर्विशेषणैालाबुद्धिफलशोफादिरहितप्राणिस्थं वस्तु स्वाङ्गमुक्तम् । अतत्स्थं तत्रष्ट चेत्यनेन भूमिपतितकेशादिपरिग्रहः । तेन चेत्तत्तथायुतमित्यनेन काष्ठादिप्रतिमायां स्थितं पाण्यादि संगृहीतम् । सक्लेशे ।।२।४॥४०॥ इपीति वर्तते स्वाङ्ग इति वा । सह क्लेशेन दुःखेन वर्तते इति सलं शं विश्यमानमित्यर्थः । इबन्ते सक्लेशे स्वाने वाचि धोर्णम् भवति । ध्रुवार्थोऽयमारम्भः । उरःप्रतिपेषं युध्यन्ते । उरांसि प्रतिपेषम् । उरांसि पीडयन्तो युध्यन्ते इत्यर्थः । एवं शिरःप्रतिपेषम् । शिरांसि प्रतिपेषम् । विशिपतिपदिस्कन्दो व्याप्यासेव्ययोः ॥४॥४१॥ इपीति वर्तते । विश्यादिभिः कास्येन ध्यापनीयद्रव्यं व्याप्यम् । क्रियारूपं तात्पर्येण आसेवनीयमासेव्यम् । क्रियाधारभूतमुपचाराद्रव्यमप्यासेव्यम् । विशि पति पदि स्कन्द इत्येतेभ्यो धुभ्यः व्याप्य आसेव्ये च वाचि णम् भवति । गेहानुप्रवेशमास्ते । वृत्या व्यापनस्यासेवनस्य चोक्लत्वात् द्वित्वं न भवति । वाक्यपक्षे व्याप्यमानस्य द्रव्यस्य द्वित्वम् । श्रासेव्यविवदायां तु मुख्यस्यासेव्यस्य क्रियारूपस्य द्वित्वम् । गेहंगेहमनुप्रवेशमास्ते । गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्ते । गेहानुप्रपातमास्ते । गेहंगेहमनुप्रपातम् । गेहमनुप्रपातमनुप्रपातमास्ते । गेहमनुप्रपादमास्ते । गेहंगेहमनुप्रपादम् । गेहमनुप्रपादमनुप्रपादम् । गेहावस्कन्दमास्ते । गेहं गेहमवस्कन्दम् । गेहमवस्कन्दमवस्कन्दम् । वेत्यधिकारात् गेहं गेहमनुप्रविश्य गेहमनुप्रविश्यानुप्रविश्यास्ते । वीप्सायामाभीक्ष्ण्ये च द्वित्वम् । व्याप्यासेव्ययोरिति किम् । गेहमनुप्रविश्य भुङ्क्ते । “णम् चाभीक्ष्ण्ये'' [२४] इति यद्यप्यासेव्ये यम् सिद्धः, तथापि वाक्सक्किल्पार्थमिदम् । तृष्यस्वोः क्रियान्तरे काले ॥४॥४२॥ इपीति वर्तते । इबन्ते कालवाचिनि वाचि तृषि असु इत्येताभ्यां णम् भवति क्रियान्तरार्थे यद्यनुप्रयुज्यमानक्रियापेक्षया क्रियान्तरे वृत्तिरित्यर्थः । यहापतर्षे गाः पाययति । द्वथहमपतर्षम् । व्यहापतर्षम् । व्यहमपतम् । दुधहात्यासं गाः पाययति । द्वयहमत्यासम् । यहात्यासम् । व्यहमत्यासम् । कालाध्वन्यविच्छेद इतीप । तृ यस्वोरिति किम् ? यहमुपोष्य भुङ्क्त । क्रियान्तर इति किम् ? अहरत्यस्य गतः। अत्रास्यतिर्न क्रियान्तरे वर्तते किन्तु गताय । काल इति किम् ? पञ्च पूलान् त्यस्य तिलान् भक्ष्यति । नाम्न्यादिशिग्रहः ॥२४॥४३॥ इपीति वर्तते । इबन्ते नामशब्दे वाचि श्रादिशिग्राहभ्यां णम् भवति । नामादेशमाचष्टे । नामान्यादेशम् । नामग्राहमाकारयति । नामानि ग्राहम् । भावनिष्टोक्ती कृतः क्त्वाणमौ ॥२४॥४४॥ झिसंज्ञके वाचि अनिष्टोक्तो गम्यमानायां कृषः क्वाणमौ भवतः । वेत्यधिकारात् क्त्वात्ये सिद्धे पुनः क्त्वाग्रहणं क्त्वा इत्यनेन वृत्तिविकल्पार्थम् । मादीति तत्र वर्तते तेनोत्सर्गे क्त्वात्ये सविकल्यो न स्यात् । ब्राह्मण पुत्रस्ते जातः किं तर्हि वृषल नीचैःकृत्याचष्टे । नीचैः कृत्वा । नीचैःकारम् । उच्च र्नाम प्रयमाख्येयम् । नीचैराख्यायमानमनिष्टं भवति । ब्राह्मण कन्या ते गर्भिणी । तर्हि वृषल उच्च कृत्याऽचष्टे । उच्च कृत्वा । उच्चैः कारम् । कन्यागर्भः उच्चैराख्यायमानोऽनिष्ठः । अनिष्टोक्ताविति किम् ? उच्चैःकृत्याचष्टे पुत्रस्ते जातः । तिरश्च्यपवर्गे ॥२॥४॥४५॥ अपवर्गः समाप्तिः । तिर्यक्छन्दे वाचि अपवर्गे गम्यमाने कृषः क्त्वाणमौ ..-दिक्रियाभिः-प्र०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र० १ पा० १ सू० ४६-२१] महावृत्तिसहितम् भवतः । तिर्यक्कृत्य गतः । तिर्यकृत्वा । तिर्यकारम् । समाप्य गत इत्यर्थः । अपवर्ग इति किम् ? तिर्यक कृत्वा काष्ठं गतः। तिरश्चीति तिर्यक्छब्दानुकरणनिर्देशः । “प्रकृतिवदनुकरणं भवति" [ परि०] इति रूपसिद्धिः। स्वाङ्गे तस्त्ये कृभुवः ॥२॥४॥४६॥ तस्त्यो यस्मात्तत्तथोक्तम् । तस्त्ये स्वाङ्गे वाचि कृ भू इत्येताभ्यां क्वाणमो भवतः । मिन्नयोगनिर्दिष्टखाद्यथासंख्यमत्र न भवति । मुखतःकृत्य गतः। मुखतः कृखा। मुखत:कारम् । पृष्ठतःकृत्य । पृष्ठतः कृत्वा । पृष्ठतःकारम् । मुखतोभय । मुखतोभूत्वा । मुखतोभावम् । प्रष्ठतोभूय । पृष्ठतोभूला। पृष्ठतोभावम् । "अपादानेऽहीयरहोः" [२।१०] इति "आदिभ्य उपसंख्यानम्" वा०] इति वा तसिः । स्वाङ्ग इति किम् ? सर्वतःकृत्वा । तत्यग्रहणं किम् ? मुखीकृत्य गतः। त्यग्रहणं किम् १ मुखे तस्यति मुखतः। श्रमुखतसं मुखतसं कृत्वा मुखतःकृत्य । नाघार्थत्ये व्यर्थे ॥२४॥४७॥ नार्थो धार्थश्च त्यो यमात्स तथोक्तः । नार्थत्ये धार्थत्ये च शब्दे व्यर्थे वाचि कृ भू इत्येताभ्यां क्त्वाणमौ भवतः । नार्थत्ये-विनाकृत्य गतः । विनाकृत्वा । विनाकारम् । विनाभूय । विना भूत्वा । विनाभावम् । अनाना नाना कृत्य गतः। नानाकृला । नानाकारम् । नानाभय । नानाभवा । नानाभावम् । “विनभ्या नानाजी न सह" [ १४७] इति नानाजो भवतः । धार्थे त्ये-अद्विधा द्विधा कृत्य गतः । द्विधाकृत्वा । द्विधाकारम् | द्विधाभूय । द्विधाभूत्वा । द्विधाभावम् । अवैधं द्वैधं कृत्य गतः। द्वैधं कृत्वा । द्वैधंकारम् । द्वधं भूय । द्वैधं भृत्वा । द्वैधं भावम् । अवघा द्वधा कृत्य गतः । द्वधाकृत्वा । द्वेधाकारम् । द्वेषाभूय । द्वेधाभूत्वा । द्वधाभावम् । "संख्याया विधार्थे धा" [१1१०६] "द्विवेधंमुज" [ ८] एकधा । ऐकथ्यम् । "वैकादयमु" [130१0७] । अर्थग्रहणं स्वरूपमात्रनिरासार्थम् । त्यग्रहणं किम् ! नाधाय वाचीत्युच्यमाने इहापि स्यात् । अहिरुक् हिरुक्कृला पृथक्कृत्वा चिर्विकल्पेन विधास्यते । व्यर्थमात्रमत्र विवक्षितं न च्विः । अर्थ इति किम् ? नाना कृत्वा काष्ठानि गतः । तूष्णीमि भुवः ॥४॥४८॥ तूष्णीमशब्दे वाचि भू इत्येतस्मात् क्त्वाणमौ भवतः । तूष्णीभूयास्ते । तूष्णी भूत्वा । तूष्णीभावम् । . अन्वच्यानुलोम्ये ॥२४४९॥ श्रानुलोम्यमनुकूलता । अन्वक्छब्दे वाचि आनुलोम्ये गम्यमाने भुवः क्त्वाणमौ भवतः । अन्वग्भूत्वा । अन्वग्भावम् । आनुलोम्य इति किम् ? अन्वरभूत्वा प्रास्ते । पश्चाद् त्वेत्यर्थः । अन्वचीति निर्देशः प्रकृतिवदनुकरणमिति न्यायात् । शकधृषशाग्लाघटरभलभक्रमसहाहस्त्यिर्थे तुम् ॥२।४।५०॥ शकादिषु अस्त्यर्थेषु च धुषु वातु धोस्तुम् भवति । शक्नोति भोक्नुम् । धृष्णोति भोक्तुम् । जानाति भोक्तुम् । ग्लायति भोक्नुम् । घटते भोक्तुम् । श्रारभते भोक्तुम् । लभते भोक्तुम् । प्रक्रमते भोक्तुम् । सहते भोक्तुम् । अर्हति भोक्तुम् । अत्यर्थेषु-अस्ति भोक्तुम् । भवति भोक्तुम् । विद्यते भोक्तुम् । क्रियायां तदर्थायां वाचि तुम् विहितः । अतदर्थायामपि यथा स्यादित्यारम्भः । पर्याप्तिवचनेऽलमर्थे ॥२४॥५१॥ पर्याप्तिः प्रभूतत्वं सामर्थ्यं च अलमर्थेन विशेष्यमाणत्वात्सामर्थ्यमेवावतिष्ठते । पर्याप्तिवचनेष्वलमर्थविशिष्टेषु वाच धोस्तुम् भवति । पर्याप्तो भोक्तुम् । समर्थो भोक्तुम् । प्रभुभोक्तुम् । अलं भोक्तुम् । पारयति भोक्तुम् । इदमप्यस्योदाहरणम् । युक्तं पुनरिदं विचारयितुम् । "वा भादिर' [१३।४] इति षसो न भवति । अमैवेति तत्र वर्तते । पर्याप्तिवचन इति किम् १ अलकुरुते कन्याम् । अलं रुदित्वा । समष्विति वक्तव्ये गुरुकरणं किम् ? सामर्थ्यमात्रे मा भूत् । शक्त्या भुते । बल्लेन भुक्के । अलमर्थे इति किम् ? पर्यासं भुते । प्रभूतं भुङ्क्ते । अन्यूनं भुङ्क्ते । पूर्वसूत्रे शकिः सौकर्ये वर्तते नासमर्थे । For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ म० २ पा० ४ सू० ५२-५७ कर्तरि कृत् || २|४|५२ ॥ कर्तरि कारके कृत्संज्ञास्त्या भवन्ति । श्रनिर्दिष्टार्थास्त्याः स्वार्थे भावे प्राताः । कारकः । कर्ता । ये कृतः कर्तरि नेष्टाः तेषां करणाधिकरणयोर्युडित्येवमादिरपवाद उक्तः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यगेयप्रवचनीयोपस्थानोयजन्याप्लाव्यापात्या वा || २|४|५३ || भव्य इत्येवमादयः शब्दाः कर्तरि वा निपात्यन्ते । " तयोर्व्यतखार्थः " [२|४|५५ ] इत्यस्मिन् प्राप्ते पक्षे कर्तरि विधानम् । भवत्यस भव्यः । भव्यमनेनेति वा । गेयो माणवकः षडङ्गस्य । गेयो माणवकेन षङ्गः । प्रवचनीयो गुरुः शास्त्रस्य । प्रवचनीयं शास्त्रं गुरुणा । उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः । उपस्थानीयो गुरुः शिष्येण । जायते सौ जन्यः । जन्यमनेन । “जनिवध्योः” [ १ २ ४० ] इत्यैप्प्रतिषेधः । श्रथवा “शकिसहश्च" [२११८६] इति चकारेण जनेयः । श्राप्लवतेऽसौ श्राप्लाव्यः । श्रालाव्यमनेन । श्रापततीत्यापात्यः । श्रापात्यमनेन । 1 लः कर्मणि च भावे च धेः || २|४|५४ || ल इति लडादीनां नवानामुत्सृष्टानुबन्धानां सामान्येन ग्रहणं जसा च निर्देशः । लकाराः सकर्मकेभ्यो धुन्यः कर्मणि कर्तरि च कारके भवन्ति, भावे कर्तरि च धिसंज्ञेभ्यः । कर्मणि क्रियते कटः । गम्यते ग्रामः । कर्तरि - करोति कटम् । गच्छति ग्रामम् । घेर्भावे - श्रस्यते भवता । सुप्यते । कर्तरि - श्रास्ते भवान् । स्वपिति भवान् । लो ङौ चेति वक्तव्ये प्रपञ्चेन निर्देशः किमर्थः १ सकर्मकेभ्यो लो भावे मा भूवन् । तयोर्व्यक्कखार्थः ॥ २/४/५५ ॥ तयोर्भावकर्मणोः व्यसंज्ञाश्च क्तश्च खार्थाश्व भवन्ति । “कर्तरि कृत्' [ २।४|५२] इत्यस्यायमपवादः । कर्मणि -- कर्तव्यः कटो भवता । भोक्तव्य श्रोदनो भवता । भावे - सितव्यं भवता । शयितव्यं भवता । क्तः कर्मणि । कृतः कटो भवता । भुक्त श्रोदनो भवता । भावे — श्रासितं भवता । शयितं भवता । खार्थाः कर्मणि -- ईषत्करः कटो भवता । सुकरः कटो भवता । सुपानं पयो भवता | दुष्पानं पयो भवता । भावे - स्वासं भवता । दुरासं भवता । सुग्लानं भवता । दुग् भवता । श्रात्मकर्मविवक्षायां व्यक्तखार्थप्रयोगविषये सकर्मका अप्यविवचितकर्मकत्वेनाकर्मकाः । तेन भावे व्यादयः । भेत्तव्यं कुशूलेन स्वयमेव । भावकर्मग्रहणे तु वर्तमाने तयोरिति ग्रहणं यथाविधिप्रतिपादनार्थं सकर्मकेभ्यः कर्मण्यकर्मकेम्यो भाव इति । कतैरि चारम्भे क्लः || २|४|५६ || आरम्भः श्रायः क्रियाक्षणः । श्रारम्भे यो धुर्वर्तते तस्माद्यः कः स कर्तरि भवति यथाप्राप्तं च भावकर्मणोः । प्रकृतो भवान् कटम् । प्रकृतः कटो भवता । प्रकृतं भवता । प्रभुक्तो भवानोदनम् । प्रभुक्तः श्रोदनो भवता । प्रभुक्त ं भवता । धिभ्यस्तु "धिगत्यर्थाच्च ” [२|४|१८ ] इति वक्ष्यति । श्राद्य क्रियाक्षणकाले । कटो नाभिनिर्वृतः तस्योपचारात् भूतकालेन प्रकृतशब्देन सामानाधिकरण्यम् । श्लिषशीङ स्था सवसजन रुहनृषश्च || २|४|५७॥ श्लिषादिभ्यः कर्तरि क्तो भवति यथाप्राप्तं च भावकर्मणोः । “धिगत्यर्थाच्च" [२|४|१८ ] इति सिद्धे इह सकर्मकार्थमुपादानम् । इदमेव ज्ञापकम् । अकर्मका (सकर्मका) अपि भवन्ति । आश्लिष्टः कन्यां देवदत्तः । श्राश्लिष्टा कन्या देवदत्तेन । आश्लिष्टं देवदत्तस्य । श्रतिशयितो गुरुं भवान् । श्रतिशयितो भवता गुरुः । श्रतिशयितं भवतः । उपस्थितो गुरुं भवान् । उपस्थितो भवता गुरुः । उपस्थित भवतः । उपासितो गुरुं भवान् । उपासितो भवता गुरुः । उपासितं भवतः । श्रनूषितो गुरुं भवान् । अनूषितो भवता गुरुः । अनूषितं भवतः । अनुजातो माणवको माग - विकाम् | अनुजाता माविका माणवकेण । अनुजातं माणवकस्य । श्रारूढो वृक्ष देवदत्तः । श्रारूढ वृक्षो १. षड्जस्य ब०, स० । २ षड्जः ब०, स० । ३, चाधेः मु० । ४. खार्थेौ च श्र०, ब०, स० । खार्थी [अ०, ब०, स० । ५. For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० २ पा० ४ सू० ५८-६४] महावृत्तिसहितम् देवदत्तेन । श्रारूढं देवदत्तस्य । अनुजीर्णो वृषी देवदत्तः । अनुजीर्णा वृषली देवदत्तेन । अनुजीर्ण देवदत्तस्य । रुहेरगत्यर्थत्वादन्यदपि गत्यर्थकार्य न भवति । श्रारोहयति वृक्षं देवदत्तेन । कर्मसंज्ञा न भवति । धिगत्यर्थाच्च ॥२४॥५८॥ घिसंज्ञेभ्यः गत्यर्थेभ्यश्च धुभ्यः क्लस्त्यः कर्तरि भवति यथाप्राप्तं च । श्रासितो भवान् । श्रासितं भवता । शयितो भवान् । शयितं भवता । गत्यर्थेभ्यः-नातो मवान् ग्रामम् । गतो भवता ग्रामः । गतं भवता । यातो भवान् | यातो भवता ग्रामः। यातं भवता । "कालभावाध्वभिः कर्मभिः सकर्मकवद्भवति" [ वा०] वत्करणात् स्वाश्रयमपि भवति । अतस्त्रैरूप्यम् । सुप्तो भवान् मासम् । सुप्तो भवता मासः । सुप्तं भवता । श्रोदनपाकं सुप्तो भवान् । श्रोदनपाकः सुप्तो भवता । श्रोदनपाकं सुप्तं भवता । कोशं सुप्तो भवान् । कोशः सुप्तो भवता । कोशं सुप्तं भवता । अधिकरणे चाद्यर्थाच ॥रा४॥५६॥ त इति वर्तते । अद्यर्था अभ्यवहारार्थाः। अद्यर्थेभ्यो धिगत्यर्थेभ्यश्च क्तोऽधिकरणे भवति कर्तरि भावे कर्मणि च। यथाप्राप्तं कर्तृकर्मभावेषु । अद्यर्थेभ्यः अधिकरणकर्मभावेषु क्तः। अधिकरणे अस्मिन्निमे भुञ्जते स्म इदमेषां भुक्तम् । इदमेषां पीतम् । "कस्याधिकरणे"[ ७] इति कर्तरि ता। कर्मणि-एभिभुक्त अोदनः । एभिः पीतं मधु । भावे-भुक्तमेभिः । पीतमेभिः । धिभ्योऽधिकरणकत भावेषु कः। श्रधिकरणे-इदमेषामासितम् । आसितो भवान् । आसितं भवता । गत्यर्थेभ्यः अधिकरणकर्तृकर्मभावेषु क्तः । अधिकरणे-इदमेषां यातम् । यातो देवदत्तो ग्रामम् । यातो देवदत्तेन ग्रामः। यातं देवदत्तेन । इह विभुक्ताः भ्रातरः पीता गावः इति मत्वर्थीयोऽकारः । दासगोनौ संप्रदाने ||२४|६०॥ दास गोन इत्येतौ शब्दौ निपात्येते संप्रदाने कारके । दासतेऽस्मै पचाद्यचि दासः। गां हन्ति अस्मै श्रागताय गोनोऽतिथिः । टगत्र निपात्यः । स्त्रियां गोनी देवदत्ता । भीमादयोऽपादाने ॥२४॥६१॥ भीमादयः शब्दा अपादाने कारके ज्ञातव्याः। भीमादयः शब्दा अन्यत्र साधिताः कारकनियमार्थमिह तेषां पाठः। विभत्यस्मादिति भीमः। भीष्मः। भयानकः । चकः । प्रस्कन्दनम । प्रयतनम् । समुद्रवन्त्यस्मात् समुद्रः । स्तु वः । स क । भृष्टिः। रक्षा । संकसन्ति तस्मात् संकसुकः। खलिनः। उणादयोऽन्यत्राभ्याम् ॥२४.६२॥ उणादयस्त्या आभ्यां संप्रदानापादानाभ्यामन्येषु कारकेषु भवन्ति । करोतीति कारुः । वृश्चति तं वृक्षः। कषितोऽसौ कषिः । ततोऽसौ तन्तुः। वृत्तं तत्र वर्म । चरितं तत्रेति चर्म । भसितं तत्रेति भस्म । ऋचन्ति तया ऋक् । लस्य ॥२॥४.६३॥ अकार उच्चारणार्थः । लस्येत्ययमधिकारः । यदित अर्ध्वमनुक्रमिष्यामो लस्य स्थाने तद्वेदितव्यम् । नव लकाराः पञ्च टितश्चखारो ङितः-लट लिट् लुट लुट लोट् लङ् लिङ् लुङ् लुङ् । एषामनुबन्धापायेन लकारमात्र स्थानित्वेनाधिक्रियते । त्य इति वर्तते धोरिति च । धोविहितस्य त्यस्य लकारस्य ग्रहणात् लभते चूडाल इत्येवमादि परिहृतम् । मिध्वस्मस्सिप्थस्थतिप्तस्मोड्वहिमहिथासाथांध्वंतातांझङ, ॥२।४।६४॥ लस्य स्थाने मिबादयः अादेशा भवन्ति । पकारः "गोऽपित्' [ १७८ ] इति विशेषणार्थः। इटष्टकारो "रममेटः" [२४८६] इति विशेषणार्थः । झडो उकारः प्रत्याहारार्थः । पचामि । पचावः । पचामः। पचसि । पचथः । पचथ । पचति । पचतः । पचन्ति । टितां दविषये आदेशान्तराणि वक्ष्यन्ते । लिटो मानां णलादयः श्रादेशाः वक्ष्यन्ते । लुट । पक्कासि । पक्तास्वः। पलामः। इत्येवमादि शेयम् । लुट । पक्ष्यामि । पक्ष्यावः । पक्ष्यामः । लोट आदेशाः वक्ष्यन्ते । डितां लकाराणां मविषये च इह तानुदाहरिष्यामः । १.कः कर्त-अ०। For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् ०२ पा० ४ सू० ६५-७२ लङ् । श्रपचे । श्रपचावहि । श्रपचामहि । वक्ष्यते लिङ् । लुङ् । श्रपक्षि | अपवहि । श्रपक्ष्महि । लृङ । पदये । श्रपयावहि । श्रपयामहि । टिटेरे ||२|४| ६५ ॥ टितां लकाराणां ये दास्तेषां टेरेत्वं भवति । यत्र एक एवाच् तत्र व्यपदेशिवद्भावाददन्तत्वमुक्तम् | यत्र च तदादिरन्यो नास्ति तत्रापि व्यपदेशिवद्भावात्तदादित्वम् । पचे | पचावहे | पचामहे । “थासः से” [ २।४।६६ ] इति वक्ष्यति । पचसे । पचेथे । पचध्वे । पचते । पचेते । पचन्ते । लिट् । पेचे । पेचिव । पेचिमहे । लुट् । पक्का हे । पक्लास्वहे । पक्लास्महे । लृट् । पक्ष्ये । पक्ष्यावहे । पदयामहे । लोटो वक्ष्यति । प्रकृतानां मिङ दस्य टेरेत्वम् । तेनेह न भवति । पचमान इति । 1 थासः से ॥२|४|६६॥ टिद्ग्रहणमनुवर्तते । टितो लकारस्य थासः स इत्ययमादेशो भवति । पचसे । पेचिषे । पक्लासे पदयसे । "एशिरेसेविधानेषु किं स्यादेत्वे प्रयोजनम् । श्रादेशे तु कृते मा भूत् ज्ञापकं भवितादिषु ।” लिस्तयोरेशिरे || २|४|६७ || लिडादेशयोक्त भ इत्येतयोः एश् इरे इत्येतावादेशौ भवतः । शकारः सर्वादेशार्थः । परस्यादिर्मा भूत् । पेचे । पेचिरे । नेमे । नेमिरे । मानां ल्यमथाथुसणलतुसुसः || २|४|६८ ॥ लिट इति वर्तते । लिटो मानां स्थाने यथासंख्यं लादयो नव श्रादेशा भवन्ति । णकारः ऐबर्थः । लकारः सर्वादेशार्थः । न इति द्वयोरकारयोः प्रश्लेषनिर्देशः सर्वा देशार्थः । अन्त्यस्याकारस्याकारवचने प्रयोजनाभावात् सर्वादेश इति चेत् समसंख्यत्वं प्रयोजनं संभाव्येत । श्रथवा धोरिति कानिर्देशात् परस्यादेस्थकारस्याकारः । पपाच । पेचिव । पेचिम । पपक्थ । पेचिथः । पेचथुः । पेच । पपाच । पेचतुः । पेचुः । " बोपदेशे " [ ५/१/१०८ ] इत्यादिना वेट् । [ ४|४|१११ ] इति एत्वं च । वमयोः क्रादिनियमादिट् । "सेटि" विदो लटो वा || २|४|६६ ॥ मानामिति वर्तते । वेत्तेरुत्तरेषां लटो मानां स्थाने वा गलादयो भवन्ति । वेद । विद्व । विद्म । वेत्थ । विदधुः । विद । वेद । विदतुः । विदुः । न च भवन्ति । वेद्मि । विद्वः | विद्मः । वेत्सि । वित्थः । वित्थ । वेत्ति । वित्तः । विदन्ति । विद इति कानिर्देशात् ज्ञानार्थस्य ग्रहणम् । लाभार्थस्य शेन व्यवधानात् । I ब्रुच आहश्च ॥२|४|७० ॥ मानामिति वर्तते । लटो वेति वर्तते । ब्रुव उत्तरस्य लटो मानां वा लादयो भवन्ति । तत्सन्नियोगे ब्रुव श्राहादेशः । प्रकार उच्चारणार्थः । "न धास्मदः " [ २1४/७१ ] इत्युत्तरत्र प्रतिषेधादत्र पञ्चग्रहणम् । श्रात्थ । श्राहथुः । श्राह । श्राहतुः । श्राहुः । सिपस्थे कृतै “आहस्थः " [ ५५२] इति हकारस्य थकारः । " खरि ' [ ५ | ४ | १३० ] इति चर्त्यम् । यद्यत्र स्थानिवद्भावात् "ब्रुव ईट्' १ ] इति ईट् स्यात् झलादिप्रकरणे “श्राहस्थः " [ ५३५२ ] इति वचनमनर्थकं स्यात् । नच भवति । ब्रवीषि । ब्रूथः । ब्रवीति । ब्रूतः । ब्रुवन्ति । [ न थास्मदः ||२|४|७९॥ नृञः परस्य थस्यास्मदश्च पूर्वोक्ता आदेशा न भवन्ति । ब्रूथ । ब्रवीमि । ब्र ूवः । ब्र ूमः । लोटो लङवत् ||२|४|७२ ॥ लोटो लङ इव कार्यं भवति । लोडादेशानां लङादेशानामिव कार्य - मतिदिश्यते इत्यर्थः । पचाव । पचाम । ङितः सखं सिद्धम् । पचतम् । पचत । पचताम् । “मिप्यस्थतसो - मूतताम् ” [ २४८२ ] इत्येतत् सिद्धम् । एरुः " [ २।४।७१ ] इति उकारः पुरस्तादपवादन्यायेन "ए" [ २४८१ ] इति इखमेव बाधते न जुसादेशम् । एवं च यथा श्रदुः श्रधुरिति भवति तथा यान्तु पान्तु इत्यत्रापि जुसादेशः प्राप्नोति । नैष दोषः । वक्ष्यते "खाव:" [ २|४|१० ] "हहो वा " For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अं० २ पा० ४ सू०७३-८४ ] महावृत्तिसहितम् १४७ [ २|४|११ ] इत्यत्र लङ् ग्रहणस्य प्रयोजनं लङेव यो लङ् तस्य जुस् भवति अतिदेशेन यो लङ् तस्य मा भूत् । लवदिति तांताद्वत् ( श्रभूतताम्वत् ) तैनाडागमो न भवति । परुः || २|४|७३ || लोट इति वर्तते मानामिति च । लोटो मानामिकारस्य उकारादेशो भवति । इखस्यापवादः । पचतु । पचन्तु । करोतु । कुर्वन्तु । मिप्सिपोरादेशान्तरमुत्वस्य बाधकं वक्ष्यते । सेपिच्च || २|४|७४ || लोट इति वर्तते । सेर्हिरादेशो भवति श्रपिच्च । लुनीहि । पुनीहि । हि । राष्नुहि । मेनिः || २|४|७५ ॥ लोटो मेर्निरित्ययमादेशो भवति । पचानि । करवाणि । श्रमेतः || २|४|७६ ॥ लोट इति वर्तते । लोडादेशस्य य एकारस्तस्य श्रामित्ययमादेशो भवति । निर्दिश्यमानस्यादेशो भवति । पचेथाम् । पचताम् । पचेताम् । पचन्ताम् । स्वो वामौ ||२|४|७७॥ लोट इति वर्तते एव इति च । सकारवकाराभ्यां परस्य एतो व श्रम् इत्येतावादेशौ भवतः । पचस्व । पचध्वम् । वयस्व । वयध्वम् । पिच्चास्मदः ||२|४|७८ ॥ लोट इति वर्तते । लोटोऽस्मदः श्राडागमो भवति पिच । करवाणि । करवाव । करवाम | करवै । करवावहै । करवामहै । 1 एत ऐ ||२|४|७६॥ लोटोऽस्मद इति वर्तते । लोटोऽस्मदः एकारस्यैकारादेशो भवति । निर्दिश्यमानस्यादेशोऽयमामोऽपवादः । करवै । करवावहै । करवाम है । चिनवै । चिनवावहै । चिनवामहै । ङितः सखम् ||२|४|८०॥ अस्मद इत्येव । ङितो लकारस्य योऽस्मत्तस्य सखं भवति । लङअपचाव | पचाम | लिङ् - पचेव । लुङ - अपादव । श्रपादम । लुङ - अपक्ष्याव । श्रपयाम | ए || २|४|८१॥ ङित इति वर्तते । ङिल्लकारसम्बन्धिन इकारस्य खं भवति मविषये । लङ्श्रपचः । श्रपचत् । पचन् । लिङ- पचेरन् । पचेत् । लुङ् श्रपाक्षीः । श्रपाक्षीत् । लुङ् श्रपयः । अपश्यत् । श्रपक्ष्यन् | म इति किम् १ श्रपचावहि । श्रपचामहि । मिथस्थत सोऽमृततताम् ||२|४|८२|| ङितां लकाराणां मिप् थस्थ तम् इत्येतेषां यथासंख्यं श्रम् तं तताम् इत्येते देशा भवन्ति । पचम् । श्रपचतम् । श्रपचत । श्रपचताम् । लिङ - पचेयम् । पचेतम् । पचेत । पचेताम् । लुङ- श्रपाक्षम् । श्रपाक्तम् । अपाक्त । श्रपाक्लाम् । "वदब्रज ( ब्रजवद )" [21१1७ ] इत्यादिनैप् । "झलो झलि" [५।३।४४ ] इति सखम् । लुङ- श्रपच्यम् । अपक्ष्यतम् । पक्ष्यत । पच्यताम् । लिङः सीयुट् ||२४|८३ ॥ लिङादेशानां सीयुडागमो भवति । मे यासुटो विधानाद्दे सीयुड् द्रष्टव्यः । टकार: “टिदादिः” [११५३] इति विशेषणार्थः । उकार उच्चारणार्थः । पचेय । पचेवहि । पचेमहि | पचेथाः । पचेयाथाम् | पचेध्वम् । पचेत । पचेयाताम् । पचेरन् । “रुदादेगें" [५।१।१३५ ] इति वर्तमाने “लिङोऽनभ्यसखम्” [५।१।१३८ ] इति सीयुट्सकारस्य "सुट्तथो: " [ २४८७ ] इति सुट्सकारस्य च खम् । श्राशिषि लिङ्-पक्षीय । पक्षीवहि । पक्षीमहि । पक्षीष्ठाः । पक्षीयास्थाम् । पक्षीध्वम् । पक्षीष्ट । पक्षीयास्ताम् | पक्षी रन् । यासुण मो ङित् ||२|४|८४ ॥ लिङ इति वर्तते । लिङो मविषयस्य यासुडागमो भवति ङिच्च । सीयुटो ऽपवादोऽयम् । श्रत्र "किदाशिषि [२/४/६५ ] इति वचनात् विध्यादिलक्षणस्य लिङ इहोदाहरणम् । १. वति । अपात्र | अनवान | हिड् । पचेः । पचेत । अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ४ सू० ८५-६४ कुर्याम् । कुर्याव । कुर्याम । कुर्याः । कुर्यातम् । कुर्यात । कुर्यात् । कुर्याताम् । कुर्युः। "जो ये च" [४ ] इति विकरणस्य खम् | "झेजुस्" [२।४।८८] इति जुस् । 'उसि" [३३] इति पररूपम् । स्थानिषद्भावादेव लिङादेशस्य ङित्त्वे सिद्धे यासुटो डिद्वचनं ज्ञापकं लकाराश्रयमादेशानां ङित्त्वं च न भवति । तैन अचिनवमित्येपू सिद्धः। पचमाना स्त्री। टित इति डोत्यो न भवति । किदाशिषि ॥२४॥५॥ आशिषि लिङो यासुट किद्भवति । डित्त्व प्राप्त कित्त्वं विधीयते । ज्यर्थ जागर्तेरेबर्थ च । उह्यासम् | उह्यास्व । उह्यास्म । उह्याः। उह्यास्तम् । उपास्त । उह्यात् । उह्यास्ताम् । उह्यासुः । जागर्यासम् । जागर्यास्व । जागर्यास्स । “जागुरविजिणलङिति" [५१२८२] इत्येप् । रनभेटः ॥२॥४।६।। लिङादेशयोर्स इट इत्येतयोर्यथासंख्यं रन् अत् इत्येतावादेशौ भवतः । पचेरन् । पक्षीरन् । "झोऽन्तः" [२३] इत्यस्यापवादोऽयम् । पचेय । पक्षीय । "क्षीयाशी:प्रेषेषु मिडाकासम्" [२३।३०२] इत्येवमादिना प्राप्तस्य पस्य निवृत्यर्थं तपरकरणम् । सुट तथोः ॥रा४८७॥ लिङो यो तकारथकारौ तयोः सुडागमो भवति । श्रगविषये लिङ् प्रयोजयति । गे सखेन भवितव्यम् । पक्षीष्ठाः । पक्षीयास्थाम् । पक्षीष्ट । पक्षीयास्ताम् । भेर्जुस् ।।४।८८॥ लिङादेशस्य भे सित्ययमादेशो भवति । अन्तादेशापवादः । कुर्युः । क्रियासुः । निर्दिश्यमानस्यादेशो न यासुटः । थवित्सेः ॥२।४।८९॥ थसंज्ञक वेत्ति सि इत्येतेभ्यः परस्य भेर्जुसादेशो भवति । डित इति वर्तते । तत्र लिङ आदेश उक्तः । लूः स्येन व्यवधानमस्ति । लुङोऽपि सेरिति भविष्यति । पारिशेष्यात्थविद्ग्रहणं लङर्थम् । अविभः । अजागरुः । "उसि' (जुसि) [५।२।८०] इत्येप। विदेः। अविदुः । अकार्षुः । अहार्षुः। प्रातः ॥२।४।६०॥ सेरिति वर्तते । प्राकारान्तात्सेः परस्य झर्जुस् भवति । श्रुतिकृतं झेरातः परत्वं सेरुपि कृते त्याश्रयलक्षणेन सेः परत्वम् । अत उभयगतमानन्तर्य झरस्ति । श्रस्थुः। अगुः। अयुः। अदुः। अधुः । त्याश्रयलक्षणेन भेरिति पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थमेतत् । अत एव सेरुपि कृते नान्य स्मात् अभूवन्निति । लको वा ॥२९॥ प्रात इति वर्तते । प्राकारान्तात्परस्य लङादेशस्य झर्वा जुस् भवति । श्रयः। अयान् । अधुः। श्रधान् । ननु लङ्ग्रहणमनर्थकम । डित इति वर्तते । पारिशेप्यात लङ एव संप्रत्ययः । नानर्थकम् । इह लडेव यो लङ् तस्य झर्जुस् भवति । अतिदेशे मा भूत् । यान्तु । वान्तु । "धवित्सेः" [२।४।८६] इत्यनेनापि मुख्यस्य लङो ग्रहणादिह न भवति । बिभ्यतु । जाग्रतु । विदन्तु । द्विषः॥२४६२॥ लडो वेति वर्तते । द्विषः परस्य लडो झर्वा जुस भवति । अद्विषुः । अद्विषन् । अनिगन्तत्वात् "जुसि" [५/२।८०] इत्येम्न भवति । मिशिनः ॥२।४।६३॥ मिङः शितश्च त्या धोर्विहिताः गसंज्ञा भवन्ति । भूयते । नयति । रोदिति । शित् । पचमानः । यजमानः। गसंज्ञाश्रयो विकरण एन्भवति । शेषोऽग एव ॥२॥४९॥ मिशिद्भ्यामन्यः शेषः। धोरित्येवं विहितस्त्यः शेषोऽगसंज्ञ एव भवति । लविता । लवितुम् । लवितव्यम् । अगसंज्ञाकार्यमिडागम एप् च । धोरिति विशेषणं किम् ? जुगुप्सते | श्रीकाम्यति । लूभ्याम् । अग्निखम् । एवकार उत्तरार्थः। श्रगप्रदेशाः-"वलाद्यगस्येट" ५।१।८४] "गागयोः" [५८०] इत्येवमादयः । For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.३ पा० १ ० १-२] महावृत्तिसहितम् १४९ लिट २४६॥ एवशब्दोऽनुवर्तते । लिडादेशो मिङ अगसंज्ञ एव भवति । पेचिथ । शेकिथ । "वोपदेश" [५/१।१०८ इत्यादिनेट । "सेटि ११११] इत्येत्वचखे । गसंज्ञासमावेशनिवृत्त्यर्थमेवकारोऽभिसंबध्यते । तेरिम इत्यत्र गसंज्ञायामसत्यां तदाश्रयः शम्न भवति । लिडाशिषि ॥२॥४॥६६॥ एवेति वर्तते । श्राशिषि यो लिङ् तदादेशश्चागसंज्ञ एव भवति । भावे-जागरिषीष्ट । कर्मणि-लविषीष्ट । अगसंज्ञायां गाश्रयं “लिङोऽनन्त्यसखम्" [शा१३८ इति सखं न भवति । एवकाराधिकारात् गसंज्ञासमावेशो न भवति । यदि स्याद्यक् प्रसज्येत । आशिषीति किम् ? जागृयात् । जागृयाताम् । जागृयुः। इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्च द्वितीयोऽध्यायः। यत्किञ्चिद्वाङ्मयं लोके सान्वयं संप्रतीयते । तत् सर्व धातुभिर्व्याप्तं शरीरमिव भातुभिः ।। तृतीयोऽध्यायः उयान्मृदः ॥३॥११॥ ङी इति स्वरूपग्रहणम् । प्राविति गब्डापोः सामान्येन ग्रहणम् । मृदितिसंज्ञानिर्देशः "अधु मृत्" [14] "कृद्धत्साः" [ ११६] इति । यदित अर्ध्वमनुक्रमिष्यामः श्रा कपो विधानात् ङयन्तादाबन्तान्मृद्र पाच तद्भवतीत्येवं वेदितव्यम् । ननु वक्ष्यमाणास्त्याः “परः" [२।१।२] इति नियमन परे प्रयुज्यन्ते । घोः परत्वञ्च तव्यादिभिराक्रान्तम् । मिङन्तं च क्रियावाचि सुबन्तमपि पदं क्रियासापेनं क्रियात्वभूतमित्यतः पारिशेष्यान्ङयाम्मृद एव भविष्यन्ति । एवं तर्हि वाक्यान्मा भूवन् । वृद्धस्य उपगोरपत्यमिति । गुपदभसंज्ञाश्च प्रयोजनम् । द्वद्वकारद्वयजादिग्रहणानि च ड्याममूदो विशेषणानि न समर्थविभक्यन्तस्येत्यधिकारः क्रियते । दु इति मृद्र पम् । दु-ज्ञानामपत्यमित्यत्र मुद्रूपापेक्षया "वाऽवृद्धाद्दोः" (३२११४४] इति दुलक्षणः फिन न भवति । अदुलक्षण एव "फिरदोः" [३।११४७] इति फिर्भवति । दक्षाणामपत्यमिति मृद्र पापेक्षया अदन्तलक्षणः इञ् भवति । घटेन तरतीत्यत्र मृदपेक्षया “नौद्यचष्ठः" [२३।१३.] इति 'यजलक्षणष्ठः सिद्धः" वाचा तरतीत्यत्र न भवति । मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि प्रहणमिति सिद्ध ड्याग्रहणं किम् ? कालितरा । मालितरा। एनिका । हरणिका । परमपि हृतं बाधित्वा स्त्रीत्यो यथा स्यात् । अथ "झरूपकल्पचेलअवगोत्रमतहते प्रोऽनेकाच:" [४३।१५५] [करणे] इति प्रादेशवचनसामर्थ्यादेतल्लभ्यते । एवं तर्हि मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि परिभाषेयमनित्येति ज्ञाप्यते । तेन गोमतीति उगिल्लक्षणो नुम्न भवति । युवतीः पश्येति जिन भवति । सख्यौ । सख्यः । इति च णिन्न भवति । हे भवति भगवति अघवति इत्यत्र "भवद्भगवदघवतो वा रिः काववस्यौः [शा३] इत्येष विधिर्न भवति । इह त्यग्रहणं न कर्तव्यम् । कथं युवतितरा वामोरुतरा ? हृदन्तत्वाधुवतिशब्दस्य मृत्संज्ञा, वामोरु. शब्दस्यापि मृदमृदोरेकादेशो मृद्ग्रहणेन गृह्यते । अजादिषु हलन्ताहापं विधास्यति डापि च टिखेन भवितव्यमिति एकादेशो नास्ति तस्मात् ङ्याप्ग्रहणं कर्तव्यम् । . स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस्भ्यांभ्यसूङसिभ्यांभ्यस्ङसोसाम्ड्योस्सुप् ॥ ३१॥२॥ ख्या म्मृदः स्वादयो भवन्ति । उकाराद्यनुबन्धनाशः । अनेन विहितानां स्वादीनां "कर्मणीप्" [॥४।२] इत्येवमादिना विभक्तिनियमः "साधने स्वार्थे' [११२१११३] इति वचननियमश्च ज्ञातव्यः । ड्यन्तातु कुमारी । For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [१०३ पा. सू. ३-६ कुमायौं । कुमार्यः। कुमारीम् । कुमायौं । कुमारीः। कुमार्या । कुमारीभ्याम् । कुमारीभिः । कुमा। कुमारीभ्याम् । कुमारीभ्यः । कुमार्याः । कुमारीभ्याम् । कुमारीभ्यः । कुमार्याः । कुमार्योः । कुमारीणाम् । कुमार्याम् । कुमार्योः। कुमारीषु । श्रावन्तात्-माला। माले । मालाः। मालाम् । माले । मालाः । मालया । मालाभ्याम् । मालाभिः । मालायै । मालाभ्याम् । मालाभ्यः । मालायाः। मालाभ्याम् । मालाभ्यः । मालायाः। मालयोः। मालानाम् । मालायाम | मालयोः । मालासु । एवं डाबन्तात् । दामाबहुराजादयो नेयाः । मृदः--दृषद् । दृषदौ । दृषदः । दृपदम् । दृषदौ । दृषदः। दृषदा। दृषम्याम् । दृषद्भिः । दृषदे । दृषद्भ्याम् । दृषद्भ्यः । दृषदः । दृषद्भ्याम् । दृषद्भ्यः । दृषदः । दृषदोः। दृषदाम् । दृषदि । दृषदोः। दृषत्सु । स्त्रियाम् ॥३॥१॥३॥ स्त्रियामिति प्रकृतिविशेषणम् । यदित अर्ध्वमनुक्रमिष्यामः स्त्रियां वर्तमानान्मृदः स्वार्थे तद्वेदितव्यम् । यदि स्त्रियामभिधेयायामिति स्यात् द्विबहू न स्याताम् । कुमार्यो कुमार्य इति । एकत्वात् स्त्रीत्वस्य अनेकत्योत्पत्तिश्च न स्यात। कालितरा। भावप्रधानखात स्त्रियामिति निर्देशस्य कमारी देवदत्तेति सामानाधिकरण्यं च न स्यात् । अथापि स्त्रीसमानाधिकरणान्मृद इत्यभ्युपगम्येत एवमपि भूतमियं नारी। कारणमियं कन्या । श्रावपनमियमुष्ट्रिकेति । भूतशब्दादिषु स्त्रीत्याः प्रसज्येरन् । तस्मात् स्त्रियां वर्तमानान् मृद इत्येवाधिकृतम् । वक्ष्यति "मजायतष्टाप"। अजा । देवदत्ता । स्त्रियामिति किम् ? अजो देवदत्तः । शब्दजनितप्रत्ययवर्गाः स्त्रीवादय इहाभिप्रेता न वस्तुवर्गाः । अव्याप्तेः। शब्दो हि श्रोत्रपथं गतो लिङ्गसंख्यावन्तं स्वप्रत्ययं जनयति स प्रत्ययः । खट्वादिषु रसादिषु अभावादिषु च शब्देषु संभवति । अजाधतष्टाप् ॥३१॥४॥ अजादिभ्यः अकारान्तेभ्यश्च मृदः स्त्रियां वर्तमानेभ्यष्टाबित्ययं त्यो भवति । पकार: टाडापोः सामान्यग्रहणार्थः । टकारः सामान्यग्रहणाविघातार्थः। अन्यथा एकानुबन्धकग्रह द्वयनुबन्धकस्येति विघातः स्यात् । बाधकबाधनार्थमनकारान्तार्थ चाजादिग्रहणम् । अजा। एडका । अश्वा । चटका । मूषिका । "जातेरयोङ:' 1 इत्यस्यापवादः। बाला। होढा। पाका । वत्सा । मन्दा। विलाता । "वयस्यनन्त्ये' [३।१।२४] इत्यस्य प्राप्तिः । पूर्वापहाणा । अपरापहाणा । टिल्लक्षणस्यापवादः । निपातनाएणखम् । “संभस्त्राजिनशणपिण्डेभ्यः फलाट्टाप" [वा. संफला । भस्त्राफला । अजिनफला। शणफला । पिण्डफला । "सत्याकाण्डप्रान्तशतैकेभ्यः पुष्पाट्टाप्''[वा०] सत्पुष्पा । प्राकपुष्पा । काण्डपुष्पा। प्रान्तपुष्पा । शतपुष्पा । एकपुष्पा । “पाककर्णपर्णपुष्कफल मूलवालयोः' [३।११५४] इत्यस्यापवादः । "शूद्राच्चामहत्पूर्वात् जातिश्चेत्" [वा०] शूद्रा नाम जातिः । अमहत्पूर्वादिति किम् ? महाशदी। भाभीरजातिरियम् । अमहत्पूर्वादिति शब्दपरस्य महतः प्रात्वं न भवति । जातिरिति किम् ? शूद्रस्य भार्या शुद्री । पुंयोगादीकारः। त्पूर्वादिति प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं भवत्यत्र प्रकरणे तदन्तविधिरिति । तेन महाजा। धीवानमतिक्रान्ता अतिधीवरी। अतिभवती । अतिमहतीति सिद्धम् । क्रुश्चा । उष्णिहा । देवविशा । "हन्लताहाप्चा०] ज्येष्ठा । कनिष्ठा । मध्यमा । पुंयोगलक्षणा प्राप्तिः । कोकिला जातिः । "मूलान्ताच्च टापवा०] अमूला । षकाराद्यजष्टाप । शार्कराच्या । पौतिमाष्या । गौकक्ष्या । अतः खल्वपि खट्वा । देवदत्ता । तपरकरणं किम् चीरपाः स्त्री। आवट्यात् ॥३।१३।। श्रावस्यशब्दादाप् भवति । अवटस्यापत्यं स्त्री आवट्या । या इति डीविघेरपवादः । पुरस्तादपवादोऽयं फटो न बाधकः । श्रावट्यायनी । उगिहन्नान्डो ॥१६॥ उक् इत् यस्य त्यस्य मृदो वर्णस्य वा तदन्तात् अकारान्तेभ्यो नकारान्तेभ्यश्च मृदः स्त्रियां वर्तमानेभ्यो ङीत्यो भवति । डकारो "हल्ङ यापः" [३।२६] इत्यत्र विशेषणार्थः । 1. अन्ननिधानिकोष्ठिका उष्ट्रिकेत्युच्यते । For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० १ पा० । सू०७-11] महावृत्तिसहितम् गोमती । तत्रभवती । पचन्ती । उगिदिति यदीदं त्यग्रहणमेव स्यात् त्यग्रहणे यस्मात् तदादेरिति इह न स्यात् । अतिभवती । निर्गोमती । अथ मृद्विशेषणमेव स्यात् मृद्ग्रहणेन तदन्तविधिरिति तथापीह न स्यात् । अतिमहतीति । तस्मान्नेदं त्यग्रहणमेव; नापि मृद्ग्रहणमेव; अपि त्वेकदेशग्रहणमिदम् । उक् इत् यस्यैकदेशस्य तदन्तान्मृद इति । स चैकदेशः त्यो मृवर्णश्च संभवति । त्यः। श्रेयसीत्यादि । मृत्-तत्रभवतीत्यादि । वर्णः । पुमांसमतिक्रांता अतिपुंसीति । "पुनातेमुम्सुकौ प्रश्च' इति सकारो वर्ण उगित् । यद्यागमेषु वर्ण उगिदिति डीविधिर्विधीयते तुक्यपि प्राप्नोति अग्निचित कन्येति । उभयोरुकारयोग्रहणसामर्थ्य दिदेव भवति नान्यत्र । अञ्चतेरुपसंख्यानं नियमार्थ कर्तव्यम् । प्राची। प्रतीची। उदीची। धोगितः नान्यस्मात् । उखासत्कन्या । ऋकारान्तात् की । ही । नकारान्तात् । दण्डिनी । छत्रिणी। वनोऽहशो रश्च ॥३॥१७॥ वन इति वनः क्वनिपश्च ग्रहणम् । अहशन्ताद्यो विहितो वन् तदन्तात् स्त्रियां वर्तमानान्मृदो रेफश्चान्तादेशो भवति कीश्च । पूर्वेण सिद्ध रेफार्थमिदम् | धयतिपिबतिभ्यां कनि। धीवरी। पीवरी । मेरुदृश्वरी। कथं शर्वरी? शृणातेरजन्ताद वन् । कथमवावरी ? अत्र श्रोणतेरगविषय आत्वे कृते वन् । "अनीचः" [३।२।१७] इत्यत्र वक्ष्यति । पूर्वो विधिर्नीचोऽपि भवति । बहुधीवरी। अतिधीवरी । अथवा अमहत्पूर्वादित्यत्र तदन्तविधिऑपितः । अहश इति किम् ? सहयुवा स्त्री "राज्ञि युधि कृतः' [२।२।८२] "सहे" [२।२।३] इति क्वनिप् । “सन्नियोगशिष्टानामन्यत्तराभावे उभयोरप्यभावः [परि०] इति रेफादेशाभावे पूर्वेणाप्यत्र ङीत्यो न भवति । एवमर्थश्चकारः क्रियते । नेल्स्वनादेः ॥३१॥८॥ स्त्रियामिति वर्तते । इलसंज्ञकेभ्यः स्वस्रादिभ्यश्च मृद्भ्यः स्त्रियां यदुक्तं तन्न भवति । पञ्च कुमार्यः । सप्त रोहिण्यः । अथात्रानेन ङोप्रतिषेधे कृते नखे सति अत इति टाप कस्मान्न भवति । सुब्बिधौ नखस्यासिद्धत्वात्तदन्तत्वाभावान्न टाप् । कथमयं सुषिधिः १ तत्र टापः पकारेण सुपो ग्रहणात् । यद्येवं वहुचमिकेत्यत्र नखस्यासिद्धत्वात् “त्यस्थे क्यापी' [श२२५०] इति कात्पूर्वस्यात इत्वं न स्यात् । एवं तर्हि इहोभौ ङीटापौ प्रतिषिध्यते । उक्तं च-- "इलसंज्ञानामन्ते नष्टे टाबुरपत्तिः कस्मान स्यात् १ प्रत्याहारादापा सिद्धं दोषस्वित्वे तस्मानोभौ ।" स्वस्त्रादिभ्यः-स्वसा। दुहिता । स्वस, दुहित ननान्द यात मातृ तिस चतस् । मनो डाप च ॥३१॥ डी इति वर्तते नेति च । मन्नन्तान्मृदः स्त्रियां वर्तमानाड्डाब् भवति डीप्रतिषेधश्च । डकारः टिखार्थः। पकारः सामान्यग्रहणार्थः। पामे । पामाः। पामानौ । पामानः । “अनिनस्मन्ग्रहणवर्थवता चानकेन च तदन्तविधिः [परि० ] सीमे । सीमानौ । सुप्रथिमे । सुप्रथिमानौ । अतिमहिमे । अतिमहिमानौ । अनश्च बात् ॥३२१०॥ अन्नन्ताद् बसात् स्त्रियां वतमानाड्डाब भवति डोप्रतिषेधश्च । चकारो डीप्रतिषेधानुकर्षणार्थः। अर्थवतोऽनर्थकस्य चानो ग्रहणम् । अनुङ्खवतो बसस्येहोदाहरणम् । उलयतरूप्यं वक्ष्यति । सुपर्वे । सुपर्वाः । सुपर्वाणौ। सुपर्वाणः । नकारान्तत्वान्डो प्रसज्येत । बादिति किम् ? अतिक्रान्ता पर्वाणि अतिपर्वणी। वोडो ॥३॥१॥११॥ अन्नन्ताबसात् उङः खे वर्तमानात् डाम्डीप्रतिषेधौ वा भवतः। वावचनाद्यथाप्राप्ताः । नकारान्तान्डीविधिः "वनोऽहशो रश्च" [३।१०] इत्यभ्यनुज्ञायते । बहुराजे । बहुराजाः । बहुराजानौ । बहुराजानः । बहुराज्यौ । बहुराज्यः । बहुतः । बहुतक्षाः । बहुतक्षाणौ । बहुतक्षाणः । बहुतक्ष्णै। --- - 1. उगिदचा धेऽधोः [१४] इति सूत्र इति शेषः । For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा० । सू० १२-15 बहुतक्ष्णः । बहुधीवे । बहुधीवाः । बहुधीवानौ । बहुधीवानः । बहुधीवौं । बहुधीवर्यः। उङ्घ इति किम् ! सुपर्वा । सुपर्वाणौ। पूर्वेण द्वैरूप्यम् । अन इत्येव सुमत्स्या नदी। डी खौ ॥१॥१२॥ खुविषयेऽन्नताद् बसान्डी भवति । अधिराजी नाम ग्रामः। पुनर्जीग्रहणं नित्यार्थम् । ऊधसः ॥३१॥१३॥ बादिति वर्तते । ऊधःशब्दान्ताबसान्ङी भवति । कुण्डमिवोधो यस्याः कुण्डोध्नी । द्वे ऊधसी यस्या व्यूनी। निगंतमूघोऽस्या निरुनी “ऊधसोऽन' [४।२।१३२] इति अनङ्सान्तः । “वोङ्के' [३।१११] इति त्रैरूप्यं प्राप्तम् । स्त्रियामेवानङ । सान्त इत्येव । इह मा भूत् । महोधाः । पर्जन्यः । बादित्येव । प्राप्ता ऊधः प्राप्तोधा गौः। "इपा च प्राप्तापन्ने [१॥३॥२०] इति षसः । तत्रैव पूर्ववल्लिङ्गं व्याख्यातम् । दामहायनात्संख्यादेः ॥३१॥१४॥ संख्यादेबसात् दामान्तात् हायनान्ताच डी भवति । द्विदाग्नी। त्रिदाम्नी। “वोले" [३।११] इति त्रैरूप्यं प्राप्तम् । "हायनाद्वयसि स्मृतः" [वा०] विहायनी । त्रिहायणी । चतुर्हायणी वत्सा । "त्रिचतुर्ध्या हायनस्य णत्वमपि वयसीप्यते" [वा० ] तेनेह डीविधिर्णत्वं च न भवति । द्विहायना । त्रिहायना । चतुर्हायना शाला । संख्यादेरिति किम् ? उद्दामा वडवा । "वोझे" [३।१।११] इत्यनेन त्रैरूप्यं भवति । पादो वा ।।३।१।१५॥ पाच्छब्दान्तान्मृदः स्त्रियां वर्तमानाद्वा डी भवति । द्विपात् । द्विपदी । त्रिपात् । त्रिपदी । “सुसंख्यादेः" [१२।१४०] इति पादशब्दस्य खम् । पादयतेः किबन्तस्य प्रयोगो नास्ति। टाचि ॥३।१११६॥ पाद इति वर्तते । पाच्छब्दान्तान् मृदष्टाब् भवति अच्यभिधेयायाम् । द्विपदा ऋक् । त्रिपदा ऋक् । ऋचीति किम् ? द्विपदी देवदत्ता । अनीचः ॥३१॥१७॥ न्यक्छब्दोऽत्राप्रधानवचनो नअपूवः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामोऽनीच इत्येवं तद्वेदितव्यम् । नीचो ङ्यादयो न भवन्तीत्यर्थः । वक्ष्यति "टिड्डाण' [३।11८] इति । कुरुचरी । मद्रचरी । “जातेरयोङ' [३।११५३] । कुक्कुटी । शूकरी । अनीच इति किम् ? बहुकुरुचरा । बहुकुक्कुटा मथुरा । ननु पूर्वत्र समुदायः स्त्रियां वर्तते नावयवः । अवयव एव च टिन्न समुदायः। द्वितीयेऽपि बसे न समुदायो जातिवाची; किं त्ववयवः, तत्कथं प्राप्तिः ? इदमेव ज्ञापकं भवत्यत्र प्रकरणे तदन्तविधिरिति । तथाहि प्रधानभूतेन तदन्तविधिः कुम्भकारी देवदत्तकुक्कुटी। यद्येवं पूर्वमेवेदं सूत्रं वक्तव्यम् । इह करणात् पूर्वोक्तविधिर्नीचोऽपि भवतीति ज्ञाप्यते । बहुधीवरी बहुपीवरीति । टिड्ढाणठण्ठक्करपः ॥३।१।१८॥ अत इति वर्तते । टित् ढ अण् अञ् टण् ठ करप् इत्येवमन्तेभ्यः स्त्रियां डी भवति । टापोपवादः । “अनीच:" [३।१॥१५] इत्यधिकारात् प्रधानेन तदन्तविधिवक्तः । कुरुचरी । भद्रचरी । "कृद्ग्रहण तिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम्" [परि०] न मन्तव्यम् । इह कृदकृतो. ग्रहणात् । ढ-सौपर्णेयो । वैनतेयी । "शिलाया ढः" [११११५६] इत्यस्य निरनुबन्धकस्य स्त्रियामभिधानं नास्ति । अण्-कुम्भकारी । औपगवी । कथं चुराशीला चौरी । तपःशीला तापसी १ णेऽप्यणकृतं भवतीति वक्ष्यति । अञ्-ौत्सी। वैदी। ठण्-लाक्षिकी। रौचनिकी । ठञ्-पारायणं वर्तयति पारायणिकी । प्राग्वतेष्ठञ् । करप्-इत्वरी। नश्वरी । अनौच इत्येव । बहुकुरुचरा । ख्युट्प्रभृतीनां दूयनुबन्धकत्वेऽपि टित्करणसामर्थ्याद् ग्रहणम् । लकाराणां स्थानिवद्भावाहित्वं ङित्वं च न भवतीत्युक्तम् । पचमाना स्त्री। अचिनवम् । त्यसाहचर्यादागमस्य न ग्रहणम्। लिखिता विद्योति । For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० १ सू० ११-२३ ] महावृत्तिसहितम् १५३ यः ||३|१ | १६ ॥ यञन्तान्मृदः स्त्रियां ङी भवति । गार्गी । वात्सी । "हलो हृतो ड्याम्” [ ४|४|१४० ] इति यकारस्य खम् । " द्वीपादनुसमुद्रेऽयज्” [ ३३२।१३० ] इति श्रयञ् । द्वथनुबन्धकः । तस्येद्दाग्रहणम् । द्वीपे भवा द्वैप्या। योगविभाग उत्तरार्थः । फट् ||३|१|२०|| यत्र इति वर्तते । यञन्तान्मृदः स्त्रियां फडित्ययं त्यो भवति । टकारो ङयर्थः । अथ गार्ग्यायणी इति स्थिते फटो हृत्संज्ञा विरहात् " क्रुदुवत्साः " [91975 ] इति मृत्संज्ञा नास्ति । कथं ङोविधिः ? टित्करणसामर्थ्यात् भविष्यति । गार्ग्यायगी । वात्स्यायनी । श्रावट्यायनी । वचनात्पूर्वोऽपि विधिर्भवति । गार्गी । वात्सी । लोहितादिसकलान्तात् ||३|१|२१|| यत्र इति वर्तते । लोहितादिर्गर्गादिष्वन्तर्गणः । लोहितादिभ्यः सकलशब्दपर्यन्तेभ्यो यञन्तेभ्यः स्त्रियां फट् त्यो भवति । पुनरारम्भो नित्यार्थः । तेन फडेव भवति । "यजः " [2/198 ] इत्यनेन ङोः प्राप्तो निवर्त्यते । लौहित्यायनी । सांसित्यायनी' । बाभ्रव्यायणी । सौचव्यायणी । सांचव्यायनी । लान्तव्यायनी । जैगीषव्यायणी । मानव्यायनी । मांतव्यायनी । मनायीशब्दस्य पाठसामर्थ्यात् "भस्य हृत्यढे” [ वा० ] इति पुंवद्भावो न भवति । मानाय्यायनी । काव्यव्यायनी । रौक्ष्यायणी । तारुदयायणी । तालुयायणी । ताण्ड्यायनी । वातण्ड्यायनी । श्राङ्गिरसे तु वतण्डीत्येव भवति । काप्यायनी । कात्यायनी । शाकल्यायनी । कौरव्यासुरिमाराकात् ||३ | १|२२|| कौरव्य आसुरि माण्डूक इत्येतेभ्यः फट् भवति । कौरव्याret | प्राप्तः । श्रासुरीति प्रश्लेषनिर्देशात् अकारश्चान्तादेश श्रायनादेशो ( शे ) न स्वेको दीत्वार्थः । श्रहृत्त्वाद् “यस्य ङ च" [ ४|४|१३६ ] इति इखं प्राप्नोति । श्रासुरायणी । "इतो मनुष्यजाते:'" [३/ ११५५ ] इति ङीत्यः प्राप्तः । माण्डूकस्यापत्यं स्त्री माण्डूकायनी । "ढण्च मण्डूकात्' [३ | १|१०८] इत्यण् । ङी प्रसज्येत । "तस्येदम्' [ ३३८८) इत्यणि विवक्षिते कौरवीति भवति । शैषिकार्थविवक्षायां "इज: " [ ३२८८] इत्यणि प्राप्ते "दोश : " [३/२/१०] इष्यते । श्रासुरिया प्रोक्ता श्रासुरीया शिक्षा । " गौरादेः ||३|१|२३|| गौरादिभ्यः स्त्रियां ङी भवति । गौरी । वर्णत्वे बहुलं ङीप्राप्तेः संज्ञायामप्राप्तेः । गौर मत्स्य मनुष्य शृङ्ग गवय इय मुकय ऋष्य' "प्रयोङ: '' [३।१।५३ ] इति ङीप्रतिषेधः प्राप्तः । शृङ्गाट्टा प्राप्तः । एवमुत्तरत्राप्यूह्यम् । पुट पटें द्वरा द्रोण हरिण ककण अरीहण वरट उर्केण श्रामलक कुवल चदर बिल्व (वल्लक) बिम्ब कर तक्कर शर्कार शष्कराड शबल सुषव षाण्डशौ केषाञ्चित् । सालन्द (सलद ) गडुल पडु श्राढकानन्द स्पाट शष्कुल सूर्य पूष मूष घातक सल्लक मालक मालत साल्वक वेतस वृत ( वृस ) श्रतस उमा (उभय ) भृङ्ग मह मठ छेइ स्वन् तक्षन् श्रनडुही श्रनड्वाही । एषणात्करणे कारके । देहमेथ काकानगवादनादय । यान मे गौतम ( गोतम ) श्रयस्थूण भौरिकि भौलिकि मौलिङ्ग श्रद्गाहमानि श्रालम्ब श्रयामक श्रलब्धि श्रपाच्यांङ्क ( आपच्चिक) ऊपस्तश्च ( १ ) आरट टोट नट मूलाट सूरण (श्रास्तरण) अधिकार प्रत्येवारोहिणी श्राग्रहायणी । ग्रहायनस्य स्वार्थे ण णत्वं च निपात्यते । सेचनी । सुमंगलात्संज्ञायाम् । सुन्दर मण्डल मन्थर मन्दुल पेट (पट, पिट ( विट) पिण्ड ऊर्द गूर्द सूर्द । केषांचित् रेफापरो मकारः | सूर्म हर्द भाण्ड लोहाएड कदर कन्दर बदल कन्दल तरुण तलुन सौधर्म । रोहिणी रेवती च नक्षत्रे | विकल निष्कल पुष्कल । कटाच्छ्रोण्याम् । पिप्पल्यादयश्च । पिप्पली हरीतकी कोशातकी शमी करीरी १. सशिष्यायनी मु० । २. ऋश्य अ० । ३. त्राऽप्यभ्युह्यम् अ०, ब०, स० । ४ पद मु० । ५. उणक मु० । ६ पण्डुश घ० । पटुस ब० । ७. अपामक य० । श्रपामक स० । ८ उपतश्च ब० । १. प्रत्यवारोहिन् मु० । १०. प्राग्रहायण मु० | २० For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० १ सू." ४-३० . १५४ पृथिवी क्रोष्टु मातामह पितामही एही पर्येही श्राश्मरथ्यात्कट प्राप्तः । काव्या शैव्या एतौ ज्यान्तौ । श्रारोह चण्ड। “नॄनश्योरैप् च” [ वा० ] नारी । येऽत्रानडुहीप्रभृतय ईकारान्ताः पठ्यन्ते तेषां से पुंवद्भावो न भवति । श्रनडुद्दीभार्यः । प्रत्यवरोहिणीभार्यः । श्राग्रहायणीभार्यः । इति । वयस्यनन्स्ये ||१|१|२४|| प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था वयः । वयस्यनन्त्ये वर्तमानान्मृदः स्त्रियां ङीत्यो भवति । कुमारी | किशोरी । वर्करी । वधूटी । चिरण्टी । तरुणी । तलुनी । अनन्त्य इति किम् ? स्थविरा । वृद्धा । “कन्याया कनीन व ' ' [ ३|१|१०५ ] इति निपातनात् कन्या । श्रत इत्येव । शिशुः । उत्तानशया । लोहितपादिका । द्विवर्षा । नैते साक्षाद्वयोवाचिनः शब्दाः । अथवा द्विवर्षादिषु " परिमाणादधदुपि [३।१।२६] इत्येतस्मान्नियमान्न भविष्यतीति । रात् ||३|१|२५|| रसंज्ञकान्मृदः स्त्रियां ङीत्यो भवति । श्रकारान्तोत्तरपदो रः स्त्रियां भाष्यते । पञ्चानां पूलानां समाहारः पञ्चपूली । दशपूली । श्रन्नन्तस्य रसस्य खं स्त्रियां चेति पञ्चपक्षी दशतक्षी । पञ्चानी । जादिष्वजशब्दो जातिवचनोऽभिप्रेतः । कथं त्रिफला ? अजादिषु पाठात् । परिमाणादुपि ||३|१|२६|| सर्वतो मानं परिमाणम् परिमाणान्ताद् रात् हृदुपि सति ङीत्यो भवति । द्वाभ्यां कुडवाभ्यां क्रीता श्रायस्य त्यस्य "रादुबखौ " [ ३।४।२६ ] इत्युप् । द्विकुडवी । द्वयाढकी ।" रात्" [३।१।२१] इति सिद्धे नियमार्थोऽयम् । यतः परिमाणादेव हृदुपि नान्यतः । पञ्चभिरश्वैः क्रीता पञ्चाश्वा । दशाश्वा । तुल्यजातीयस्य नियमान्निवृत्तिः । समाहारे भवत्येव । पञ्चाश्वी । परिमाणादिति योगवियोगः कर्तव्यः । तत इष्टतोऽवधारणं लभ्यते परिमाणशब्देनेह रूढिवशात् प्रस्थादिर्गृह्यते । कालसंख्ययोग्ग्रहणम् । तेन द्विवर्षा । त्रिवर्षा । द्विशता । त्रिशता । द्वे वर्षे प्रमाणमस्याः "प्रमाणे ध्वंसनं राच्च" इति द्वयस डादीनामुप् । उक्तं च"ऊर्ध्वमानं किलोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः । श्रायामस्तु प्रमाणं स्यात् संख्या बाह्य तु सर्वतः " । न विस्ताचितकम्बल्यात् ||३|१|२७|| बिस्त प्राचित कम्बल्य इत्येवमन्ताद् रात् हृदुपि ङीत्यो न भवति । बिस्तादीनां परिमाणलात् सर्वेण प्राप्तिः- द्वाभ्यां बिस्ताभ्यां क्रीता द्विविस्ता । त्रिविस्ता । द्वयाचिता । च्याचिता । द्विकम्बल्या । त्रिकम्बल्या । कारखात् क्षेत्रे ||३|११२८ ॥ काण्डशब्दान्वात् शत् हृदुपि सति क्षेत्रेऽभिधेये ङीत्यो न भवति । द्वे काडे प्रमाणमस्या द्विकाराडा त्रिकाण्डा क्षेत्रभक्तिः । "प्रमाणेण्द्वयसन मात्र: " [३|४|५८ ] इत्यागतानां arasादीनां प्रमाणे ध्वंसनं राच्चेति वक्ष्यमाणया इष्टया उप् । काण्डं धनुः । तस्य परिमाणशब्देना संगृहीतमतः "परिमाणादुपि [ ३।१।२६ ] इत्यनेन नियमेन प्रतिषेधे सिद्धे नियमार्थमिदम् । क्षेत्र एव प्रतिषेधो भवति नान्यत्र । द्विकाण्डी । त्रिकाण्डी रज्जुः । " रात्” [ ३।११०५ ] इति ङीविधिः । पुरुषात्प्रमाणे वा ||३|१|२९|| हृदुपीति वर्तते । प्रमाणे यो वर्तते पुरुषशब्दस्तदन्ताद्राद् हृदुपि वा भवति । द्वौ पुरुषौ प्रमाणमस्याः खातायाः द्वयसडादीनां “प्रमाणे ध्वंसनं राच" इति उप् । द्विपुरुषा । द्विपुरुषी । त्रिपुरुषा | त्रिपुरुषी । परिमाणत्वात्पुरुषस्य " परिमाणादुपि" [ ३।१।२६] इति नियमान्निवर्तितो ङीत्यो विकल्पते । प्रमाण इति किम् ? द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां क्रीता द्विपुरुषा । हृदुपीत्येव । समाहारे पञ्चपुरुषी । गुणोक्तेरुतोsaveफोङः ॥ ३ | १३० ॥ वेति वर्तते । गुणोक्तेर्मृद उकारान्ताद् वा ङीत्यो भवति खरुशब्दं स्फोडं च वर्जयित्वा । यः शब्दो गुणे वर्तित्वा द्रव्ये वर्तते स गुणोक्तिरित्युच्यते । पटुः । पट्वी । मृदुः । मृद्वी । गुणोक्तेरिति किम् ? श्राखुः । जातिशब्दोऽयम् । उत इति किम् ? शुचिरियं कन्या । अखरुस्फोङ इति किम् ? खरुरियं कन्या । पाण्डुरियं कन्या । "सत्वे निविशतेऽपैति पृथग्जातिषु दृश्यते । For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० १ सू० ३१-३१ ] महावृत्तिसहितम् १५५ आधेयश्चाक्रियाजच सोऽसत्व प्रकृतिगुणः ।" सत्त्वं द्रव्यं तत्र निविशते उत्पद्यते श्राश्रयति वा स गुण इति संबंधः । द्रव्यादपैति अपगच्छति यथाम्रात् हरितता पीततायां उत्पन्नायाम् । पृथज्जातिषु दृश्यते, यथा सैव हरि - तता तरुतृषु । श्राधेयः उत्पाद्यः, यथा कुसुमयोगात् गन्धो वस्त्रे, यथा वा घटे रक्कता । श्रक्रियावश्च क्रियाजश्च क्रियातो नोत्पद्यते यथाऽऽकाशादिषु महत्त्वादि । चकारात् क्रियाजश्च यथा संयोगो विभागो वा श्रसवप्रकृतिद्रव्यस्वभावरहितो निर्गुण इत्यर्थः । 1 बह्वादेः ||३|१|३१|| वेति वर्तते । बहु इत्येवमादिभ्यश्च मृद्भ्यः स्त्रियां वा ङीत्यो भवति । बहुः । बह्री । पद्धतिः । पद्धती । बहु पद्धति श्रञ्चति श्रति श्रंहति शकटि शक्ति । केचिच्छस्त्रे ऽर्थे शक्तिं पठन्ति । सामर्थ्ये शक्तिरेव तेषाम् । शस्त्रि शारि राति राधि शाधि अहि कपि मुनि यष्टि । किमर्थमिकारान्ताः पय्यन्ते । यावता कृदिकारादक्लेरित्येव सिद्धे पद्धतिशब्दान्न स्यात् इतरेभ्यश्चाव्युत्पत्तिपक्षः "इत: प्राण्यङ्गात् " [ग० ] श्रोणि: श्रोणी । धमनिः । धमनी । इत इति किम् । ग्रीवा । प्राण्यङ्गादिति किम् ? कौणिः । साणिः । " कृदिकाशद: " [ग० ] भूमिः । भूमी । क्लेरिति किम् १ कृतिः । हृतिः । श्रत्यर्थावि (दि) त्येके । इहापि मा भूत् । चकरणिर्हन्त ते वृषल । कृदिकारादिति किम् ? सुगन्धिः । सुरभिगंधिः । स्त्रीहृतो न भवति । व्युत्पत्तिपक्षे कृदिकारस्यैचः पूर्वः प्रपञ्चः । चण्ड अगल कमल कृपण विकट विशाल विशङ्कट भरुज । चन्द्रभागानद्याम् । कल्याण उदार पुराण । श्रहः शब्दस्येह पाठोऽनर्थकः । केवलस्य स्त्रियामवृत्तेः । सविधौ तु उत्तरपदभूतस्य “वोठ्खे” [३।१।११] इत्यनेनैव त्रैरूप्यं सिद्धम् । बहुशब्दस्य गुणवाचित्वात्पूर्वेणैव विकल्पे सिद्धे द्विद्धं सुबद्धं भवतीति पुनर्ग्रहणम् । तेन सकृदुक्तो श्रणन्तान्ङीविधिः । क्वचिन्न भवति । कामिकेति । पतिम्यन्तर्वयो ||३|१|३२|| पतिवत्नी अन्तर्वत्नी इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । पतिमच्छन्दस्य ङीत्ये परतः मतोर्वत्वं नुमागमश्च निपात्यते । जीवति भर्तरि पतिवत्नी । जीवत्पतिरित्यर्थः । अन्यत्र पतिमती पृथिवी । श्रन्तः शब्दादधिकरणप्रधानात् श्रस्तिसामानाधिकरण्याभावात् विहितो मतुर्नुक् च निपात्यते गर्भिण्याम् । अन्तर्वनी गर्भिणी | अन्यत्र अन्तरस्यामस्ति शालायाम् । उक्तं च-- “ पतिवत्न्या नुका वश्वमन्तर्वत्यां मतुका । जीवत्य च गर्मियां यथासङ्ख्यं निपात्यते ॥" 1 पत्नी ||३|१|३३|| पत्नीति निपात्यते । पतिशब्दस्य स्त्रियां नकारोऽन्तादेशः पुंयोगे निपात्यते ङीत्यो नकारान्तत्वादेव भवति । इयमस्य पत्नी । अस्य पुंसः वित्तस्य स्वामिनीत्यर्थः । पुंयोगादन्यत्र पतिरियमस्य ग्रामस्य । सपत्न्यादौ ||३|१|३४॥ सपत्न्यादिषु पत्नीशब्दो निपात्यते "वा से" [३|१|३५] इति विभाषया पत्नीशब्दस्य निपातने प्राप्ते नित्यार्थं वचनम् । समानः पतिरस्याः सपत्नी । यद्येवं पत्नीति वर्तते समानादिभ्य इति वक्तव्ये सनकारेकारस्य समुदायस्योच्चारणं किमर्थम् ? समानशब्दस्य सभावार्थम् । इकारापायेऽपि नकारश्रवणार्थं च । सपत्न्याः श्रयं सापन्यः । कृतेकारस्योच्चारणं पुंवद्भावप्रतिषेधार्थमित्येके । सपत्नीभार्यः । एवं एकपत्नी । वीरपत्नी । पिण्डपत्नी । पुत्रपत्नी । भ्रातृपत्नी । वा से || ३|१|३५|| से पत्नी वा निपात्यते । पतिशब्दान्तस्य मृदः स्त्रियां वा नकारो ऽन्तादेशो निपात्यते । बसे बसे चेदं निपातनम्। नीच इति नाभिसम्बध्यते । गृह्यमाणस्य शब्दस्याभावात् । बसेदृढः पतिरस्या दृढपतिः । दृढपत्नी । स्थिरपतिः । स्थिरपत्नी । वृद्धपतिः । वृद्धपत्नी | स्थूलपतिः । स्थूलपत्नी । पसे ग्रामस्य पतिः ग्रामपतिः । ग्रामपत्नी । श्रप्राप्ते विकल्पोऽयम् । पुंसा योगे पत्नीति नित्यं निपातनम् । तेन पत्नीशब्देन ताले राजनीत्येव भवति । स इति किम् १ पतिरियमस्य ग्रामस्य । वर्णाद्बहुलं तो नस्तु ||३|१| ३६॥ वर्णवाचिनो मृदः स्त्रियां बहुलं ङीत्यो भवति तकारस्य तु नकारादेशः । तुशब्दः किमर्थः १ बहुलं ङोविधिर्भवति तकारस्य तु नकारो नित्यं यथा स्यादित्येवमर्थः । एता । For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० १ सू० ३७-४२ एनी । स्येता । स्येनी । रोहिता । रोहिणी । हरिता। हरिणी । शवली । पिशङ्गी । कल्माषी । सारङ्गी । काली संज्ञायां वर्णे च । काला अन्या । क्वचिदप्रवृत्तिरेव श्वेता। असिता। पलिता। कृष्णा | कपिला । क्वचिदुभयथा। शोणी । शोणा । वडवा । नीली औषधिः। प्राणिनि च नीली वडवा। नीली गौः । संज्ञायामुभयम् । नीली। नीला | आच्छादने न भवत्येव । नीला शाटी। नोला मेघसंहतिः । वर्णादिति किम् ? कृता । हृता । अत इत्येव । सितिः कन्या । कुण्डगोणस्थलभाजनागकुशकामुककबरादत्रमावपनाकृत्रिमााणास्थौल्यायोविकारमैथुनेच्छाकेशवेशेषु ॥३॥१॥३७॥ कुण्डादिभ्यः कवरशब्दपर्यन्तेभ्योऽमत्रादिष्वर्थेषु यथासंख्यं स्त्रियां डोत्यो भवति । कण्डी भवति अमत्रं चेत् । कुएडा अन्या। दाह इत्यर्थः। गोणी भवति श्रावपनं चेत् । गोणा अन्या। संज्ञषा । स्थली भवति अकृत्रिमा चेत् । स्थला अन्या । भाजी भवति श्राणा चेत् । भाजा श्रन्या । भाजयतेः स्त्रियां युचि प्राप्त अत एव निपातनादकारः। नागी भवति स्थौल्यं चेत् । नागा अन्या । तन्वी दीर्घा वा । संज्ञायां वा । जातिविवक्षायां तु नित्यं ङो। कुशी भवति अयोविकारश्चेत् । कुशा अन्या । काष्ठादिमयो तदाकृतिः। कामुकी भवति मैथुनेच्छा चेत् । कामुका अन्या। कबरी भवति केशवेशश्चेत् । कबरा अन्या। पुयोगात् खोरगोपालकादेः ॥३॥१॥३८॥ अत इति वर्तते । पुंयोगाद्धेतोर्यः शब्दः स्त्रियां वर्तते खुभूतस्तस्मान्डीत्यो भवति गोपालकादीन् वर्जयित्वा । उपाध्यायस्य स्त्री उपाध्यायी। गणकी। प्रष्ठी। महामात्री । एते संज्ञाशब्दा पुंयोगात् स्त्रियां वर्तन्ते । पुंयोगादिति किम् ? देवदत्ता । खोरिति किम् ? प्रसूता । प्रजाता। परिभ्रष्टा | पुंयोगादेते शब्दाः स्त्रियां वर्तन्ते; न तु पुंसि संज्ञाभूताः। अगोपालकादेरिति किम् ? गोपालिका । पशुपालिका । श्रादिशब्दः प्रकारवाची । तेन सूर्याद्देवतायां डोर्न भवति । सूर्यस्य भार्या सूर्या । देवतायामिति किम् ? सूर्यो नाम मनुष्यः तस्य सूरीति । पूतक्रतोरै च ॥॥३६॥ पुंगोगादिति वर्तते । पूतक्रतुशब्दान्छोत्यो' भवत्यैकारश्चान्तादेशः । पूतक्रतोः स्त्री पूतक्रतायी। पुंयोगादित्येव । पूताः क्रतवो यस्याः सा पूतक्रतुः । वृषाकप्यग्निकुसितकुसीदात् ॥३१॥४०॥ ऐ चेति वर्तते पुंयोगादिति च । वृषाकपि अग्नि कुसित कुसौद इत्येतेभ्यः स्त्रियां ङोत्यो भवति ऐकारश्चान्तादेशः। वृषाकपायी । अग्नायो । कुसितायो । कुसीदायी । कुसितकुसीदयोः संज्ञाशब्दत्वात् पूर्वेणैव सिद्धेऽप्यैकारार्थ वचनम्। पुंयोगादित्येव । वृषाकपिर्नाम काचित् । मनोरौ च ॥३॥१॥४१॥ पुंयोगादिति वर्तते । श्रीकारश्चान्तादेश ऐकारश्च । मनोः स्त्रो मनावी । मनायो । केषाञ्चिन्मनुरित्यपि । वरुणभवशवरुद्रेन्द्रमृडहिमारण्ययवयवनमातुलाचार्याणामानुक् ॥३।११४२॥ वरुणादिभ्यो मुद्भयो स्त्रियां ङीत्यो भवति भानुगागमः । अत्र केषाञ्चिच्छब्दानां पुंयोगादिति सिद्धेऽप्यानुगर्थ ग्रहणम् । वरुणानी । भवानी । शर्वाणी । रुद्राणी । इन्द्राणी । मृडानी । “हिमारण्ययोमहत्वे" [वा०] महद्धिमं हिमानी। महदरण्यमरण्यानी । “यवाहोणे" [वा०] सदोषो यवः यवानी । “यवनाल्लि प्याम्" [वा०] यवनानां लिपिः यवनानी । उपाध्यायमातुलाभ्यां वा । प्रानुक एवायं विकल्प उपाध्यायी। उपाध्यायानी। मातुली। मातुलानी। "प्राचार्यादणत्वं च" [वा०] आचार्यानी । प्राचार्या । "आर्यक्षत्रियाभ्यामपु'योगे वेति वक्तव्यम्" [वा०] १. उदात्तु कोल्यो मु०। For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र० ३ पा० । सू० ४६-४७] महावृत्तिसहितम् १५७ श्रार्याणी । आर्या । क्षत्रियाणी । क्षत्रिया । अपुंयोग इति किम् ? आर्यस्य भार्या आयीं । क्षत्रियस्य भार्या क्षत्रियो । भानुगिति द्विमात्रोच्चारणमिष्टिसंग्रहार्थम् । क्रीतात्करणादेः ॥३१॥४३॥ क्रीतशब्दान्तान्मृदः करणादेः स्त्रियां ङीत्यो भवति । वस्त्रेण क्रीयते या वस्त्रक्रीती। वसनक्रीती । "साधनं कृता बहुलम्"[१।३।२६] इत्यत्र बहुलवचनाल्लब्धम् । "तिवाकारकाणां कृभिः सविधिः प्राक्सुबुत्पत्त"[परि०] इति करणवाचिशब्दस्य क्रीतशब्देन सविधिः। पश्चादकारान्तलक्षणो डीविधिः । करणादेरिति किम् ? सुक्रीता । दुष्क्रीता । "इदुदुडोऽस्यपुग्मुहुसः' [शा२८] इति सत्वषत्वे । कथं "साहितस्य धनक्रीता प्राणेभ्योऽपि गरीयसी" बहुलवचनान्न । सुबन्तेन वृत्तिन कृदन्तेन । सुबत्पत्तिश्च बहिरङ्गा अन्तरङ्गे यपि कृते भवतीति सिद्धम् । क्रोतान्तान्मृद इति विशेषणात् वाक्ये न भवति, व्रत्येन (वित्तेन) क्रोता । तादल्पे ॥३१॥४४॥ करणादेरिति वर्तते । करणादेम॒दः क्लान्तादल्पे डोत्यो भवति । अत्रापि प्राफ सुबुत्पत्तेः सविधिः । अभ्रविलिप्ती द्यौः। अल्पान्यस्यामभ्राणीत्यर्थः । रूपविलिप्ती पात्री । अल्प इति किम् ? चन्दनानुलिप्ता। जातेर्बात् ॥३।११४५॥ क्लादिति वर्तते । जातिशब्दपूर्वः क्लान्तो यो बसस्तस्मान्डीत्यो भवति । अस्वाङ्गादेहत्तरत्र विकल्पो वक्ष्यते । स्वाङ्गे पूर्वपदमिहोदाहरणम् । शङ्खौ भिन्नौ यस्याः सा शङ्खभिन्नी । उच्छिन्नी । गलकोत्कृत्ती। केशलूनी । जातेरिति किम् ? मासजाता। बहुजाता । अजाता । सुखजाता । दुःखजाता । बादिति किम् ? सव्यजानुप्रतिष्ठिता। "जातान्तोत्प्रतिषेधो वक्तव्यः' [वा०] दन्तजाता । स्तनजाता। "पाणिगृहीत्यादीनां गुर्वनुज्ञातेन की वक्तव्यः" [वा.] पाणिग्रहीती भार्या । यस्यास्तु यथाकथञ्चित पाणि हीतः सा पाणिग्रहीता। त इति दतोक्तं ( त इत्यत्रोक्तं ) जातिकालसुखादिभ्यः परनिपातस्तान्तस्योत जातिरत्र सकृदाख्यातनि ह्या । वाऽस्वाङ्गादेः ॥३॥१॥४६॥ क्लादिति वर्तते बादिति च । अस्वाङ्गादेः क्वान्तारासाद् वा ङीत्यो भवति । सारङ्ग जग्धमनया सारङ्गजग्धी। सारङ्गजग्धा। पलाण्डुभक्षिती। पलाण्डुक्षिता। सुरापोती। सुरापोता । अस्वाङ्गादेरिति किम् १ शवभिन्नी । स्वाङ्गादेः पूर्वेण नित्यो विधिः । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेनेह न भवति । वस्त्रं छन्नमस्याः वस्त्रच्छना । वसनच्छन्ना । षसेऽपि संज्ञायां विकल्पः। प्रवद्धविलूनी । प्रवद्धविलूना। . स्वाजानोचोऽस्फोडः ॥३॥१॥४७॥ वेति वर्तते । स्वाङ्ग न्यक् अस्फोङ् यत् तदन्तान्मृदो वा डोत्यो भवति । दीर्घकेशी । दीर्घकेशा । गौरमुखी । गौरमुखा । स्वाङ्गादिति किम् ? बहुयवा । अस्फोङ इति किम् ? कल्याणगुल्का । कल्याणपाङ । वेति व्यवस्थितविभाषा व्याख्याता । तेन 'अङ्गगात्रकण्ठेभ्यो वा प्रतिषेधः" [वा०] मृदगी। मृदङ्गा । मृदुगात्री। मृदुगात्रा। स्निग्धकएठी। स्निग्धकएठा । बसाधिकारे पुनयंगग्रहणं पार्थम् । अतिकेशी । अतिकेशा । निष्केशी । निष्केशा माला। इह कस्मान्न भवति ? कल्याणं पाणिपादमस्याः कल्याणपाणिपादा। स्वाङ्गसमुदायः स्वाङ्गग्रहणेन न गृह्यते । किं स्वाङ्गम् ? "अदवं मूतिमत्स्वाङ्ग प्राणिस्थमविकारजम् । अतरस्थं तत्र दृष्टं चेत् तस्य चेत् तत् तथायुतम् ।"स्वाङ्ग मुखादि । अद्रमिति किम? बहुकफा । मूर्तिमदिति किम् ? बहुशाना । प्राणिस्थमिति किम् ? श्लएमुखा शाला | अविकारजमिति किम् ? बहुशोफा । श्रतस्थं तत्र दृष्टं च प्राक् प्राणिनि दृष्ट संप्रत्यप्राणिस्थमपि स्वाङ्गम् । दोधकेशी। दीर्घकेशा रथ्या । तस्य चेत् तत् तथायुतम् येन प्रकारेण प्राणिनो युतं दृष्ट तस्याप्राणिनोऽपि यदि तत्तथायुतं दृश्यते एवमपि स्वाङ्गम् । दीर्घमुखी दीर्घमुखा अर्चा । For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ३ पा० १ सू० ४८-५३ नासिकोदरौष्ठजङ्घादन्तकर्णशृङ्गात् ||३|||४८ || स्वाङ्गान्नीच इति वर्तते वेति च । नासिकादयो ये न्यञ्चस्तदन्तान्मृदो वा ङीत्यो भवति । दीर्घनासिकी। दीर्घनासिका । तनूदरी । तनूदरा । विम्बोष्ठी । बिम्बोष्ठा | “ओत्वोष्ठयोर्वा से पररूपमुपसंख्यास्यते" [वा०] समजङ्घी । समजङ्घा । समदन्ती । समदन्ता । चारुकर्णी । चारुकर्णा । तीक्ष्णशृङ्गी । तीक्ष्णशृङ्गा । नासिकोदरयोः ''बह्वच: " [ ३|१|४६ ] इत्यनन्त रे प्रतिषेधे प्राप्ते ग्रहणम् । सहनत्र विद्यमानलक्षणस्तु प्रतिषेधो भवत्येव । शेषाणामस्फोङ इति पूर्वस्मिन् प्रतिषेधे प्राप्ते उपादानम् । सहादिप्रतिषेधस्तु भवत्येव । 'पुच्छाच्चेति वक्तव्यम्" [वा०] दीर्घपुच्छी । दीर्घपुच्छा | "कमर मणि शरविषेभ्यो नित्यमिति वक्तव्यम्" [वा०] कबरं पुच्छमस्याः कबरपुच्छी । मणिः पुच्छेऽस्याः मणिपुच्छौ । विषं पुच्छेऽस्याः विषपुच्छो । “ईव्विशेषणे वे' [ १|३|१०१] इत्यत्र खङ्गादिभ्यः ईचन्तस्य परवचनमुक्तम् । “उपमानात् पक्षपुच्छ्राभ्यामिति वक्तव्यम्" वा०] उलूक इव पक्षावस्याः उलूकपक्षी शाला । उलूक इव पुच्छमस्या उलूकपुच्छी सेना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न क्रोडादिबह्वचः ॥ ३ १२४६ ॥ क्रोडादिर्गणः । क्रोडाद्यन्तात् बहुजन्ताच्च मृदो ङीत्यो न भवति । “श्वाङ्गानीचः” [३|१|४७ ] इति प्राप्तिः । क्रोडाशब्दः स्त्रीलिङ्गः । कल्याणी क्रोडा अस्याः कल्याणक्रोडा । कल्याणगोखा | कल्याणवाला । कल्याणखुरा । कल्याणशफा | कल्याणगुदा । क्रोडादिराकृतिगणः । सुभगा । सुगला । बह्वचः खल्वपि । पृथुजघना । दृढहृदया । महाललाटा | सहनविद्यमानात् ||३|१ | ५० ॥ सह नत्र विद्यमान इत्येतेभ्य उत्तरं यत्स्वाङ्गं तदन्तात् ङीत्यो न भवति । सकेशा । अकेशा विद्यमानकेशा । सनासिका । अनासिका । विद्यमाननासिका । सुदन्ता । अदन्ता । विद्यमानदन्ता । नखमुखाखौ ||३|१/५१ ॥ नख मुख इत्येवमन्तान्मृदः खुविषये ङोलो न भवति । शूर्पणखा । व्याघ्रणखा । वज्रणखा। “पूर्वपदात् खावगः " [ ५४८७ ] इति णत्वम् । गौरमुखा । श्लक्ष्णमुखा । कालमुखा । संज्ञाशब्दा एते । खाविति किम् ? शूर्पमिव नखा अस्या शूपणखी । शूर्पणखा । चन्द्रमुखी । चन्द्रमुखा । सख्यशिश्वी ||३|१|५२ ॥ सखी अशिश्वी इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । ङीविधिर्निपात्यते । सखयं कुमारी । नास्याः शिशुरस्ति शिखी । जातेरयोङः ||३|१|५३ ॥ श्रत इति वर्तते । जातिवाचिनः श्रयकारोऽङो मृदः स्त्रियां ङीत्यो भवति । "प्राकृतिग्रहणा जातिलिङ्गानां च न सर्वभाक् । सकृदाख्यातनिर्माह्या गोत्रं च चरणैः सह । " आकृतिः संस्थानम् । श्राकृतिग्रहणमस्याः श्राकृतिग्रहणा । ब्राह्मणत्वादीनां जातिविशेषाणां संस्थानविशेषाभावात् कथं संग्रह: १ लिङ्गानां च न सर्वभाक् । एकलिङ्गो द्विलिङ्गो वा भावो जातिः । ब्राह्मणत्वादिषु केवलमुपदेशमात्रं जातिव्यवहारस्य निर्बन्धनम् । जात्यभावेऽपि द्विलिङ्गतास्ति देवदत्तः देवदत्ता इति । अथ कथं त्रिलिङ्गेषु तटस्तटी तमित्येवमादिषु जातिवाचित्वम् : सकृदाख्यातनिर्ग्राह्या । श्रभिधानप्रत्यययोरनाकस्मिकत्वात्तन्निमित्तं जातिरिति । एवं सकृदाख्याता निश्चयेन ग्राह्या । ननु सर्वे शब्दा जातिवाचिनः इत्यस्मिन् दर्शने यहच्छाशब्दानां क्रियागुणशब्दानां च जातिशब्दत्वं देवदत्तादयोऽपि संज्ञाशब्दा बाल्यकौमारयौवनादिष्वन्ययिनीमाकृतिमवलस्वन्ते । एवं च देवदत्ता कारणा शुक्लत्यत्र ङीविधिः प्रसज्येत । यदीदं दर्शनमाश्रीयेत व्यावर्त्य नास्तीति ग्रहणमनर्थकं स्यात् । तस्माद्येषां जातिरेव प्रवृत्तेर्निमित्तं त छह जातिशब्दाः । गोत्र' च लौकिकमपत्य मात्र १. - दाख्याननि श्र० । २ दाख्याननि श्र० । For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० ३ पा० १ सू० १४-६० ] महावृत्तिसहितम् १५९ जातिः । नात्राकृतिः प्रतीयते नापि किञ्चिल्लिङ्गमस्ति येन सकृदाख्यायेत । लिङ्गानां च न सर्वभागित्यस्मिन् दर्शने गोत्रं चेति न वक्तव्यम् | चरणैः सहेति चरणमध्ययनवशात् क्रिया तदात्मकं ' जातिः । कुक्कुटी । ब्राह्मणी । तटी । नाडायनी । बह्वृची | कठी । कठेन प्रोक्तमधीते या "शौनकादिभ्यश्छन्दसि गिन्' [ ३ | ३ | ७७ ] इति णिन् । परस्याणः “उप्प्रोक्तात् " [ ३१२१५४ ] इत्युप् । शौनकादि वेव । "कठचरकात्” इति इन उप् । जातेरिति किम १ मुण्डा । प्रयोङ इति किम् ? श्रार्या । चत्रिया । पाककर्णपर्णपुष्पफलमूलवालद्योः || ३|१|५४ ॥ पाकादयो द्युभूता यस्य तस्माजातिवाचिनो मृदः स्त्रियां ङीत्यो भवति । श्रोदनपाकी । दणपाकी । मूषिककर्णी । शङ्कुकर्णी । पृष्टिपर्णी । शालिपर्णी । शङ्खपुष्पी | हिरण्यपुष्पी । दासीफली । पूगफली । दर्भमूली । शीर्यमूली । गोवाली । अश्ववाली । पुष्पफलमूलोत्तरपदाद्यतो ङीविधिर्नेष्यते तदजादिषु पठनीयम् । पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमेतत् । स्त्रियामेव ये • जातिवाचिनः शब्दास्तेषु एतेभ्य एव ङीविधिर्नान्यस्मात् । बलाका | मक्षिका । इतो मनुष्यजातेः ||३|१|५५॥ इकारान्तान्मनुष्य जातिवाचिनो मृदः स्त्रियां ङीत्यो भवति । कुन्ती । अवन्ती । श्रपत्यार्थे “द्वित कुरुनाद्यजाद कौशलाब्ज्य:" [३|१|१५३ ] इति ज्यः । तस्य "कुन्त्यवन्ति कुरुभ्यः स्त्रियाम्” [३।१।१५७] इत्युपू । एवं दाक्षी । लाक्षी । इत इति किम् ? विट् । दरत् । यथासंख्यमत्रणोः "तोऽप्राच्यभदेः " [३ | १|१५८ ] इत्युप् । मनुष्यग्रहणं किम् ? तित्तिरिः । जातेरिति वर्तमाने पुनर्जातिग्रहणं योङोऽपि यथा स्यात् । औदमेयी । “अयोङ: "” [ ३|१|५३ ] इति प्रतिषेधः उत्तरत्र त्रिसूत्र्यां च वर्तते । "इस उपसंख्यानमजात्यर्थं कर्तव्यम्" [ वा० ] सुतङ्गमेन निवृत्ता नगरी सौतङ्गमी । "वुच्छय्कठे " [३|२| ६०] इत्यादिना तङ्गमादिभ्य इञ् । ऊरुतः ||३|१|१६|| मनुष्यतेरिति वर्तते । उकारान्तान्मनुष्यजातिवाचिनो मृदः स्त्रियां ऊकारत्यो भवति । कुरूः । इक्ष्वाकुः । पर्सुः । अस्य “कुन्त्यबन्ति कुरुभ्यः स्त्रियाम् ' ' [ ३|१|११७] इति श्रमणोः “श्चतोऽप्राच्यभर्गादेः” [३।१।१५८ ] इत्युप् । द्विमात्रोच्चारणं “ शेषाद्वा'' [ ४|२| १५४ ] इति परस्यापि कपो बाधनार्थम् । तथाहि ब्रह्मा बन्धुर्यस्याः सा ब्रह्मबन्धूः । वीरबन्धूः । अत्र च समुदायो ब्राह्मणविशेषजातिः । यद्भावेन मृदमृदोरेकादेशी मृद्वद्भवतीति मृत्सशायां स्वाद्युत्पत्तिः । मनुष्यजातेरित्येव । रुरुः । कृकवाकुः । श्राखुः । नयोङ इत्येव । श्रध्वर्युः स्त्री । श्रलावूः । कर्कन्धूरित्येवमादय श्रौणादिकाः । कथं अलाबुकर्कन्धुफलमिति १ " इकः प्रोडया:' [ ४ | ३ | १७२] इति प्रादेशेन सिद्धम् । पङ्गोः ||३|१|५७॥ पङ्गुशब्दात् स्त्रियामूत्यो भवति । पङ्गः । श्वशुरशब्दस्योकाराकारयोः खमूश्च त्यो वक्तव्यः । श्वश्रूः । ऊरुद्योरिवे ||३|१|५८॥ ऊरुशब्दो द्युर्यस्य तस्मान्मृद इवार्थे गम्ये स्त्रियामूल्यो भवति । करभोरूः । कदलीस्तम्भोरूः । नागनासोरूः । इव इति किम् ? वृत्तोरुः कन्या । संहितशफलक्षणवामादेः || ३|१|५९ || संहितायादेर्मृदः ऊरुद्योः स्त्रियामूत्यो भवति । श्रनिवार्थोंSयमारम्भः । संहितोरूः । शफोरूः । लक्षणोरूः । वामोरूः । "सहितसहाभ्यां चेति वक्तव्यम्” [ वा० ] सहितोरूः । सहोरूः । बाह्रन्तकद्र कमण्डलुभ्यः ||३|१२६० ॥ बाहुशब्दान्तान्मृदः कद्रकमण्डलुशब्दाभ्यां खुविषये ऊत्यो भवति । मद्रबाहूः । भद्रबाहूः । कदुः । कमण्डलुः । कासाञ्चिदेताः संज्ञाः । खाविति किम् ? वृत्तौ बाहू अस्याः वृत्तत्राहू: । कदुः । कमण्डलुः । १. यदात्मकं जातिः अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. ३ पा० १ सू० ६१-६५ हृतः ॥३१२६१॥ अधिकारेणेयं संज्ञा। यानित अर्चमनुक्रमिष्याम श्राकपो हृत्संज्ञास्ते वेदितव्याः। वक्ष्यति ।' 'यूनस्तिः" [२॥१॥६२] युवतिः । "कृत्सा :" [१६] इति मृत्संज्ञाया स्वाद्युत्पत्तिः। बहुलनिर्देशोऽनुक्तपरिग्रहार्यः । मध्यान्म उक्तोऽन्यतोऽपि भवति । अन्तमः । श्रादिमः । धाडण विहितः। अधर्मादपि । श्राधर्मिकः । हृतामिह बहुत्वेन निर्देशे किं प्रयोजनम् ? अनुक्ताच हृदुत्पत्तिर्यथा स्यादन्तमादिषु । तथा अनुक्ता अपि हतो भवन्ति "अग्रपश्चाडिमः" [ वा] इत्येवमादयः । यूनस्तिः ॥३॥१॥६२॥ युवन्नित्येतस्मात्तिर्भवति स्त्रियाम् । युवतिः । यूनः स्त्रीविवक्षायां कुत्साद्यर्थविवक्षायां च परत्वात् कादयः प्राप्नुवन्ति तस्माद्यून इति योगविभागः । यूनो हृत्प्रसङ्ग स्त्रीत्य एव भवति ततः कादयः। युवतिकाः। व्योऽतु रूपान्त्ययोवृद्धेऽनार्षेऽणियोः ॥३॥श६३।। स्त्रियामिति वर्तते । अणिौ यो वृद्धेऽनार्षे विहितावतु रूपान्त्यौ तदन्तस्य मृदः ष्य इत्ययमादेशो भवति । निर्देश्यमानयोरणिोरेव व्यादेशः। "पौत्रादि वृद्धम् [३।१।७८] इति अपत्यविशेषस्य वृद्ध संज्ञा । ऋषेरिदमार्ष तद्रहिते वृद्ध इति । “फे रुः [A ] "दी:" [ २] इति अचां संजोक्ला । कः आन्त्यं सन्निहितं ययोरणिोस्तयोः ध्यादेशः। षकारः " प्यस्य पुत्रयत्योर्जि:" [३६] इत्यत्र विशेषणार्थः । करीषस्येव गन्धोऽस्य करीषगन्धिः। "उपमामात्" [२।१३८] इति वा इकारः सान्तः। करीषगन्धेरपत्यं स्त्री कारीषगन्ध्या । कौमुदगन्ध्या । वराहस्यापत्यं स्त्री वाराह्या । बालाक्या । जातिलक्षणस्य "अयोङः" [३।११५३] इति प्रतिषेधः । अनल्विधाविति स्थानिवद्भावप्रतिषेधादणिजलक्षणोऽपि ङीत्यो न भवति । ततः ष्यान्ताहाप । अदिवति हलामविवक्षार्थमचा निर्धारणं क्रियतेऽत्तुं रूपान्त्ययोरिति । अन्यथा येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपीति एकेन वर्णन व्यवधाने वाराह्यादिषु स्यात् । वर्णसङधाते व्यवधाने कारीषगन्ध्यादिषु न स्यात् । अदिवति बहुत्वनिर्देशः प्रधानभूतो यत्राचां बहुत्वमस्ति तत्रादेशः । तेनेह न भवति । दाक्षी । प्लादी। रूपान्त्ययोरिति किम् ? औपगवी । वृद्ध इति किम् । अहिच्छत्रे जाता आहिच्छत्री । अनार्ष इति किम् ? वाशिष्ठी । वैश्वामित्री। अणिमोरिति किम् ? आर्तभागी । ऋतभागाद्विदादिलक्षणोऽत्र | इह उडुलोम्नोऽपत्यं स्त्री श्रोडुलोम्या । बाह्लादित्वादिन टिखे कृते रूपान्त्यत्वं ततः ध्यादेश इति श्रानुपूर्व्यम् । गोत्रावयवात् ॥३२११६४॥ अणिओरिति वर्तते । गोत्रमिति पूर्वाचार्याणां वृद्धस्य संज्ञा । गोत्रावयवाः गोत्रामिमताः कुलाख्याः। गोत्रावयववाचिनो मृदः वृद्ध विहितयोरगिजोः स्त्रियां ष्यो भवति । अरूपान्यार्थोऽयमारम्भः । पुणिकस्पापत्यं स्त्री पौणिक्या । भुणिकस्य भौणिक्या । मुखरस्य मौखर्या । यत्रानन्तरापत्येऽपि ध्यो दृश्यते क्रौड्यादिषु तत्पठनीयम् । यथा अन्तकाम्या देवदत्ता । कौड्यादेः ॥३॥१॥६५॥ क्रौडीत्येवमादिभ्यश्च स्त्रियां ध्यो भवति यथासम्भवं डोटापोः प्राप्तयोः क्वचिदनन्तरापत्यार्थः । क्वचिदबह्वजर्थः। क्वचिदरूपाल्यार्थः श्रारम्भः । क्वचिदणिोरसन्तोरपि । त्य एवार्य ध्य इष्यते । क्रौडि | कौड्या । "इतो मनुष्यजातेः" शा५५] इति डीविधिः प्राप्तः। कौडि लाडि व्याडि आपिशलि प्रापक्षिति एते इअन्ताः । चौपयत चैटयत सैकयत एते तकारान्ता अणन्ताः । सौधातकिरिअन्तः । “सूतशब्दाच वत्या ध्यः" [ग. सू० सूत्या । सूता अन्यत्र । "भोजात् क्षत्रियजातौ" [ग० सू०] भोज्या। भोबा अन्या । भौरिकि शालास्थलि कापिष्ठलि एते इअन्ता । गौकक्ष्या । टावन्तोचारणं जित्वनिवृत्त्यर्थम् । गौकक्ष्यापुत्रः। १. आनुपूर्वी प० । २. पुराणिकस्यापत्यं पौराणिक्या ब० । For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० १ सू० ६६-७० ] महावृत्तिसहितम् १६१ देवयशिशौचिवृक्षिसात्य मुप्रिकाण्ठेविद्धिभ्यो वा ||३|१/६६ ॥ देवयशि शौचवृद्धि सात्यमु काठेविद्धि इत्येतेभ्यः वा ष्यो भवति । उभयत्र विभाषेयम् । वृद्धे प्राप्ते ऽनन्तरापत्ये चाप्राप्ते । दैवयज्ञया । दैवयज्ञो । शौचिवृक्ष्या । शौचिवृक्षी । सात्यमुग्र्या । सात्यमुग्री । काठेविद्ध्या । काण्ठेविद्धी । श्रनन्तरापत्ये "हूञ उपसंख्यानमजात्यर्थम् ” [ वा० ] इति ङी । वृद्धापत्ये “इतो मनुष्यजाते ” [३|१|१२] इति । समर्थात्प्रथमाद्वा ||३|१|६७ || समर्थादिति प्रथमादिति वेति च पत्रितयमधिकृतं वेदितव्यम् । “किंबहुसर्वनाम्नोऽद्वयादेः” [ ४।१।६८ ] इत्यतः प्रा. वक्ष्यति "तस्यापत्यम्" [३|१|७७] उपगोरपत्यं श्रौपगवः । तस्येत्येतत् तान्तं सूत्रे प्रथमं सन्निविष्टम् तस्मादपत्याभिधाने त्यः । समर्थादित्युच्यते सामर्थ्य च सुबन्तस्येति सुबन्ताच्योत्पत्तिः । द्वद्ववर्णादिति विशेषणार्थं तु ड्याम्मृद्ग्रहणमधिक्रियते । वृद्धस्य उपगोरपत्यमिति वाक्यस्यान्तत्वात् वाक्यावयवस्य चासामर्थ्यात् त्यानुत्पत्तिः । समर्थादिति किम् ? कम्बल उपगोरपत्यं देवदत्स्य। यद्येवं समर्थः पदविधिरिति समर्थादेव भविष्यति किमनेन ? कृतवर्णानुपूर्वकात् पदात् त्यो यथा स्यादित्येवमर्थम् । सुत्थितस्यापत्यं सौत्थितिः । वैज्ञमाणिरिति । "नेन्द्रस्य " [२१२२७ ] इत्यत्र वक्ष्यति समुदायकार्य' तावद्भवति पश्चादेकादेशः । एवं वा (चा) संहितात्योत्लत्तः वनिष्टं रूपं स्यात् । प्रथमादिति किम् ? तान्ताद्यथा स्यादपत्यशब्दान्मा भूत् । वाग्रहणं किम् ? उपगोरपत्यमिति वाक्यमपि साधु यथा स्यात् । श्रनन्तराद्वाग्रहणात् सविधिरपि । उपग्वपत्यम् । 1 प्राग्द्रोरण् ||३|१|६८|| “द्रो':' [३|३|१११] " माने वय:" [३|३|१२० ] इति वक्ष्यति । प्रागेतस्माद्येऽर्था वक्ष्यन्ते तेष्वय् भवतीति वेदितव्यम् । अधिकारो विधिर्वाऽयम् । अधिकारपक्षे "पीछाया बा" [३|१| १०७], "वोदश्वितः” [३।२।१४] इत्येवमादौ वावचनादपवादविषये नास्ति वृत्तिः । विधिपक्षेऽपि परिहृत्यापवादविषयं तत उत्सर्गोऽभिनिविशते । वक्ष्यति तस्यापत्यम् श्रौपगवः । कापटवः । अपवादेन बाधितोऽप्युत्तरत्रानुवर्ततामिति प्राग्वचनम् । 1 अश्वपत्यादेः ||३|१|६६॥ अश्वपति इत्येवमादिभ्यः समर्थविभक्त्यन्तेभ्यः श्रय् भवति प्राग् द्रोरर्थेषु । “पतिद्यो:' [३|१|७० ] इति एयो वक्ष्यते । तस्यायमपवादः । श्रश्वपतेरपत्यं श्राश्वतः । श्रश्वपति गणपति वनपति गजपति राष्ट्रपति कुलपति पशुपति धान्यपति बन्धु पति सभापति प्राणपति क्षेत्रपति येऽत्र दुसंज्ञास्तेभ्यो “दोश्छः” [३।२।१०] इतिच्छं बाधित्वा पूर्वनिर्णयेनायमे वाय् । दित्यदित्यादित्यपतिद्योर्ण्यः || ३|१| ७० ॥ प्राग् द्रोरिति वर्तते । दिति श्रदिति श्रादित्य पतिद्यु इत्येतेभ्यः समर्थविभक्त्यन्तेभ्यः प्राग् द्रोरर्थेषु एयो भवति । श्रपो ऽपवादः । दितेरपत्यं दैत्यः । "द्वयचः”, “इवोनिश: ” [ ३|१|११०, १११] इतीमं ढणं पूर्वनिर्णयेनायं बाधते । सर्वतो "अक्त्यर्थात् ' [ ३|१|३१ ग०सू० ] इति ङीविधौ कृते परत्वा च भवति । दैतेयः । लिङ्गविशिष्टपरिभाषा वा नित्या श्रदितेरपत्यं श्रादित्यः । श्रादित्यस्यापत्यमादित्यः । प्राक्क्रनस्य यकारस्य “क्यच्यनाधृत्या पत्यस्य '' [ ४|४|१४१ ] इति "हलो यर्मा यमि खम् ” [ ५|४|१३८ ] इति वा खम् । पतिद्योः खल्वपि । बार्हस्पत्यः । सैनापत्यः । प्राजापत्यः । एयादयोऽविशेषलक्षणादण (गोड) पवादात् पूर्वनिर्णयेन (इति) एय एव भवति । वनस्पतीनां समूहः वानस्पत्यम् । "यमाच्चेति वक्तव्यम्" [ वा० ] यमस्यापत्यं याम्यः । " पृथिव्या जानौ" [ वा० ] पार्थिवः । पार्थिवी । "देवस्य यजत्रौ” [वा०] | देव्यम् । दैवम् । “बहिषष्टिखं यच" [वा०] । बाह्यम् | "ईक च" [ वा० ] बाहीकः । झेर्ममात्रटिखमनित्यमारातीय इत्यादौ । स्थाम्नोऽकारः । श्रश्वत्थाम्नोऽपत्यम् श्रश्वत्थामः । " छोस्न श्चापत्येषु बहुषु'' [ वा० ] उडुलोमाः । शरलोमाः । बहुष्विति किम् ? श्रडुलोमिः । शारलोमिः । "सर्वत्र गोरजादिप्रसङ्ग े य:" [aro ] गव्यः । श्रनादिप्रसङ्ग इति किम् ? गोरूप्यम् । गोमयम् । १. प्रकल्प्य चापवादविषयं इति परिभाषेन्दुशेखरे । २ बन्धपति भ०, २१ For Private And Personal Use Only ब०, स० । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० १ सू० ७१-७४ उत्सादेरञ् ॥३|१|७१॥ प्राग्द्रोरिति वर्तते । उत्स इत्येवमादिभ्यः समर्थविभक्तयन्तेभ्यः प्राग्द्रोरर्थेष्वञ भवति । श्रणस्तदपवादानां च बाधकः । श्रमि सति “यजसोः " [१|४|१३३] इति बहुत्वे उन्भवति । उत्सस्यापत्यं श्रौत्सः । उदपानस्यापत्यमौदपानः । उत्स उदपान विकर विनद महानद महानस महाप्राण तरुण तलुन । वष्कयशब्दादसे । श्रसमास इत्यर्थः । धेनु पङक्ति जगती त्रिष्टुप् अनुष्टुप् जनपद भरत उशीनर पीलुकुण । उदस्थानशब्दाद्देशे । पृषदंश भल्लकीय रथन्तर मध्यन्दिन बृहत् महत् । सत्वतशब्दो सत्वन्तुशब्दो मत्वन्तः श्रागतनुङ्को गृह्यते । कुरु पञ्चाल इन्द्रावसान उष्णिह् ककुभ् सुवर्णं । ग्रीष्मादच्छन्दसीति वक्तव्यम् । छन्दश्चेह वृत्तजातिः । तरुणशब्दस्य लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणम् । तण्या अपत्यं तारुणः । ण्यादयोऽर्थविशेषलक्षणादण - (s) पवादात् पूर्वनिर्णयेन भवन्तीति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री सानुकत्वात् ॥ ३३९॥७२॥ वक्ष्यति " ब्रह्मणस्त्वः " ३ । ४ । १२६] एतस्मात्त्वसंशब्दनात् प्राग्योऽर्थो वक्ष्यते तेषु स्त्रीशब्दात् पुंशब्दाच्च श्रम् भवति नुगागमः । स्त्रीषु भवं स्त्रीणां समूहः स्त्रीभ्यः श्रागतम् स्त्रीभ्यो हितं स्त्रीणां भावो वा स्त्रैणम् । एवं पौंस्नम् । “नोऽपुंसो हृति' [ ४|४|१३० ] इति प्रतिषेधात् पुष्टिखं न भवति । स्लोशब्दस्य तु नुग्वचनसामर्थ्यात् । स्त्रैणाः पौंस्ना इत्यत्र " यञञोः ” [१|४ | १३५ ] इत्युप प्राप्नोति । इह च स्त्रैणानां संघ इति "संघाङ्गलक्षण" [ ३।३।१५ ] इत्यण प्राप्नोति चेत् नैतौ दोषौ । अपत्याधिकारात् प्रागूर्ध्वं च वृद्धग्रहणेषु लौकिक गोत्रग्रहणमिति वच्यते । न च स्त्रैणं पस्नमिति वा लौकिकं गोत्र' तस्मादुबणौ न भवतः । " पुंवद्यजातीयदेशीये" [ ४ | ३ | १२४ ] इति वचनं योगापेक्षं ज्ञापकम् । वतोऽर्थे नायं विधिरिति । स्त्रीवत् । पुम्वत् । वृद्धेऽनुप् ||३|१|७३ ॥ प्राग्द्रोरिति वर्तते । “यस्कादिभ्यो वृद्धे " [ १ | ४ | ३३४ ] इत्यत्र प्रकरणे वृद्धे यस्य त्यस्य उबुक्तः तस्यानुब्भवति प्राद्रवीयेऽजादावुत्पत्स्यमाने । गर्गाणां छात्राः गार्गीयाः । “यत्रञोः " [ २४|१३५] इति बहुत्वे उप् प्राप्तः । ईयविषये प्रतिषिध्यते । “यस्य ड्यां च” [४|४|१३६ ] इत्यखम् "क्यच्यनाद्ष्टत्यापत्यस्य " [ ४ | ४ | १४१ ] इति यखम् | त्याश्रयलक्षण ऐन्भवति । यास्कीयाः । शिवादिलक्षणस्याणः "यस्कादिभ्यो वृद्धे " [ १।४।१३४ ] इत्युप् प्राप्तः । श्रात्रेयीयाः । “द्वयचः " [३|१|११०] "इतोऽनिज:, [ ३ | १ | १११ ] इति ढण तस्य "भृग्वत्रिकुत्स वशिष्ठ गोतमाङ्गिरोभ्यः " [ १।४।१३६ ] इत्युप्प्राप्तः । खारपायणीयाः । “यस्कादिभ्यो वृद्धे " [१|४|१३४] इत्यनेन नडादिफण उप् प्राप्तः । वृद्ध इति किम् १ कुवलस्येदं कौवलम् । वादरम् । अवयवार्थे श्रागतस्याः “ उप्फले ” [ ३।३।१२१ ] इति उबेव भवति । अचीति किम् ? गर्गेभ्यः गर्गरूप्यम् । गर्गमयम् । प्राग्द्रोरित्येव गर्गेभ्यो हितं गार्गीयम् । वृद्धाद्वहन्तात् एकस्मिन् यूनि द्वयोर्वा यूनोर्यच्यः तस्मिन्नष्टेऽप्यनुभवति । विदानामपत्यं युवा वैदः । वैदौ । अन्तादत इञ । तस्य " जिण्यराज पद्य न्युत्रणिनो: " [118|१३० ] इत्युप् । “त्यखे त्याथयम्' [ १|१|६३ ] इत्यनादित्वमस्ति । वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयमिति न मन्तव्यम् । अचीति विषयनिर्देशः । एकद्वयन्ताच्च वृद्धात् युवबहुत्वविवक्षायां उपच वक्तव्यः । वैदस्य वैदयोरपत्यानि युवानः विदाः । रोये ||३|१|७४॥ प्राग्द्रोरिति वर्तते । रस्य निमित्तत्वेन संबन्धी यो हृत् श्रपत्यवर्जिते प्राग्द्रोरर्थे विद्दितस्तस्योब्भवति । पञ्चसु गुरुषु भवः पञ्चगुरुर्नमस्कारः दशसु धर्मेषु भवः दशधर्मः । द्वावनुयोगावधीते द्वनुयोगः । त्र्यनुयोगः । हृदर्थे पसः । संख्यादीरसंज्ञः । भवार्थे श्रागतस्याण उप । रस्येति निमित्तविशेषणं किम् ? उचन्ताद्यो हृत् तस्योम्मा भूत् । पञ्चगुरोर्नमस्कारस्येदं पाञ्चगुरवम् । यदि रस्य निमित्तं यो हृत् तस्योप् १. अत्रापि दिखं न भवतीत्यत्रापि योज्यम् । For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्र० ३ पा० १ सू० ७१-७६ ] महावृत्तिसहितम् १६३ इह तहिं न प्राप्नोति पञ्चानां कपालानां समाहारः पञ्चकपाली । पञ्चकपाल्यां संस्कृतः पञ्चकपालः । नैष दोषः । श्रव्यविकन्यायेन पञ्च पालशब्दात् त्योत्पत्तिः । यथा वेर्मासं श्राविकमिति श्रविकशब्दादेव त्यो नाविशब्दात् । श्रनपत्य इति किम् ? द्वयोर्देवदक्षयोरपत्यं द्वैदेवदत्तिः । जग्रहणमनुवर्तते । तेनेह न भवति । पञ्चभ्यो गर्गेभ्य श्रागतं पञ्चगर्गरूप्यम् । प्राग्द्रोरित्येव । द्वाभ्यामक्षाभ्यां दीव्यति द्व यक्षिकः । त्रैयक्षिकः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूनि || ३ | १|७५ ॥ प्राग्द्रोरिति वर्तते चीति च। यूनि यस्त्यस्तस्यो भवति प्राद्रवीयेऽजादौ त्य उत्पत्स्यमाने । फाण्टाहृतस्यापत्यं फाण्टाहृतिः । तस्यापत्यं युवा "फाण्टाहृतेः” [३।१।१३८ ] इति णः । फाण्टाहृतः । तस्य यूनश्छात्रा बुद्धिस्थ एवानुत्पन्नेऽजादौ त्ये रास्योपि कृते इञन्तमिदं जातम् । "इज" [३२२८८] इत्यण् भवति । फाण्टाहृताः । भगवित्तस्यापत्यं भागवित्तिः । तस्यापत्यं युवा "दोष्ठण सौवीरेषु प्राय:" [३ | १|१३६ ] इति ठण् । भागवित्तिकः । तस्य यूनश्छात्राः ठण उपि कृते " इञः” [३२२८८] इत्यण् । भागवित्ताः । तिकस्यापत्यं तैकायनिः । तस्यापत्यं युवा "फेरछ: " [ ३|१ | १३७] इति छः । तैकायनीयः । तस्य यूनश्छात्राः छस्योपि कृते "दोश्छ: " [३।२।१०] इति छः । तैकायनीया: । ग्लुचुकस्यापत्यं " फिरदो : " [ ३|१|१४७ ] इति फि: । ग्लुचुकायनिः । तस्यापत्यं युवा " प्राग्द्धोरण " [३|१|६८ ] ग्लौचुका - यनः । तस्य यूनश्छात्रा प्रण उपि तस्येदमित्यण । सौचुकायनाः । कपिञ्जलादस्यापत्यं कापिञ्जलादिः तस्यापत्यं युवा "कुचादेः " [ ३|१|१३६ ] इति एयः । कापिञ्जलाद्यः । तस्य यूनश्छात्रा रायस्थोपि कृतै “इञः’[३३२२८८] इत्यय् कापिलादाः । श्रचीत्येव । फाण्टाहृतरूप्यम् । फाण्टाहृतमयम् । प्राग्द्रोरित्येव । भागवित्तिकाय हितं भागवित्तिकीयम् । फफियोर्वा ||३|१| ७६ ॥ यूनीति वर्तते । यूनि यौ फफिञौ तयोर्वा उन्भवति प्राद्रवीयेऽजादौ त्ये विवक्षिते । पूर्वेण नित्ये उपि प्राप्ते विभाषेयम् । गार्ग्यस्यापत्यं युवा "य जिजो: " [ ३|१|१०] इति फण् । गार्ग्यायणः । तस्य यूनच्छात्राः गार्गीया गार्ग्या वा । फिञः खल्वपि । यस्कस्यापत्यं “ शिवादिभ्योऽण” [३।१।१०१] यारुकः । यास्कस्यापत्य' युवा "द्वचचोऽणः " [३ | १|१४३ ] इति फिञ् । यास्कायनिः । तस्य यूनच्छात्राः यास्कीयाः । यास्कायनीयाः । तस्यापत्यम् ||३|१|७७॥ तस्येति तासमर्थात् श्रपत्यमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । हृदर्थनिर्देशे लिङ्गवचनादिकमविवक्षितमप्राधान्यात् । उपगोरपत्यं श्रौपगवः । तान्तादण् । उक्तार्थस्यापत्यशब्दस्य निवृत्तिः । “सुपो धुमृदो:' [१।४।१४२] इति सुप उप् | ऐप्' । श्राश्वपतः । दैत्यः । सैनापत्यः । श्रौत्सः । स्त्रैणः । पौंस्नः । वृतौ स्वभावत एकार्थीभावः । प्रकृत्यर्थो विशेषणभूतोऽप्रधानम् । व्यार्थस्य सामान्येन प्रवृत्तस्य विशेषेऽवस्थापनात्त्यार्थः प्रधानम् । गुणप्रधानभावेन प्रकृतिस्त्यश्च त्यार्थे सह ब्रत इति । ननु च तस्येदं विशेषणं (सामान्यम् ) एते अपत्यं समूहो निवासो विकार इति । तस्येदमित्येव सिद्ध किमर्थमिदमुच्यते ! arasaraarर्थम् । भानोरपत्यं भानवः । श्यामगवः । दुलक्षणश्छो बाधितः । " तस्यापत्यम्” “अदुबाह्वादेरिन्” [३।११८५] इत्येव वक्तव्ये इह करणं पूर्वैदत्तरैश्च त्यैरभिसंबन्धो यथा स्यादित्येवमर्थम् । पोत्रादि वृद्धम् ||३|१| ७८ ॥ पुत्रस्यापत्यं पौत्रः । विदादित्वादञ् । प्रथमादिति वर्तमानमर्थवशात्तया विपरिणम्यते । प्रथमस्य पौत्रादि यदपत्यं तद् वृद्धसंज्ञ' भवति । संज्ञाविषयस्य प्रथमस्य गर्गस्थापत्यं गार्ग्यः । वात्स्यः । “वृद्ध े कुञ्जादिभ्यो व्फ: ” [३।१।८७ ] इति वर्तमाने “गर्गादिर्य" [३|१|१४ ] इति यञ् । पौत्रादीति किम् ? गार्गिः । श्रनन्तरमपत्यं वृद्धं मा भूत् । १. एनम् अ०, ब० । एकः ||३|१॥७६॥ वृद्धमिति वर्तते । वृद्धेऽपत्ये विवक्षिते एक एव त्यो भवति । स्वस्याः स्वस्याः प्रकृतैरपत्यभेदविवक्षायामनेकं त्यं बुद्ध्या समुदायीकृत्य नियमः क्रियते । यदिदं गर्गादिपितृकमपत्यजातं वृद्धं For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् १६४ [ अ० ३ पा० १ सू० ८०-८५ तस्मिन्नेक एव त्यो भवति । स च परमप्रकृतेर्भवति । यदपि व्यवहितेन जनितमपत्यं तदपि परमप्रकृतेः सामान्येनापत्यं भवत्येव । यदपि सर्वेऽप्यपत्येन युज्यन्ते तथापि प्रथमादित्यनुवर्तनात् परमप्रकृतैरेव भविष्यति गर्गस्यापत्यं गार्ग्यः । तत्सुतोऽपि गार्ग्यः । एवं व्यवहितेऽपि वृद्धापस्ये विवक्षिते गर्गशब्दाद् यमेव भवति । अथवा प्रकृतिनियमोऽयं वृद्धापत्ये विवक्षिते एक एव शब्दः प्रथमा प्रकृतिः त्यमुत्पादयति नान्येति प्रकृतिर्नियम्यते । एवं नस्यापत्यं नाडायनः । ततो यूनि ॥३|१|८० ॥ ततो वृद्धत्यान्ताद् यून्यपत्ये विवक्षिते एक एव त्यो भवति । गार्ग्यस्यापत्यं युवा गार्ग्यायणः । दाक्षायणः । श्रपगविः । नाडायनिः । जीवति तु वंश्ये युवाऽस्त्री ||३|१२८१ ॥ वंशः पितृपितामहादिप्रबन्धः; तत्र भवो वंश्यः पित्रादिः । पौत्रादीति वर्तते । तच्चार्थवशात् तान्तं संबध्यते । पौत्रादेर्यदपत्यं चतुर्थादिकं तद्वंशे जीवति युवसंज्ञ' भवति स्त्रियं वर्जयित्वा । गार्ग्यस्यापत्यं गार्ग्यायणः । दाक्षेर्दाक्षायणः । श्रस्त्रियामिति किम् ? गार्ग्यस्यापत्यं स्त्री गार्गी । दाक्षी । तु शब्दो वृद्धसंज्ञासमावेशनिवृत्त्यर्थम् । इह दोषः स्यात् । सालङ्केरपत्यं युवा " यजिलो:" [३|१|१०] इति फण् । पैलस्यापत्यं युवा "द्वयचोऽणः ” [३।१।१४३ ] इति फिञ् । तयोयूनि “पैलावे: " [१|४|१३१] इत्युन् भवति । वृद्धसंज्ञासमावेशे तु " वृद्ध ऽच्यनुप्" [३|१|७३ ] इति प्राद्रवीये अजादावनुप् प्रसज्येत । श्रस्तु "यूनि” [३।१।७२ ] इति भविष्यति । इह तर्हि दोषः । " फफिजो " [ ३ | ११७६] इति उब्धिभाष्यते । उपक्षेऽपि वृद्धसंज्ञासमावेशे “वृद्धो ऽध्यनुप्' [३।१।७३] इति श्रनुपस्यात् । श्रथासमावेशे कथं वृद्धलक्षणो वुञ गार्ग्यायणानां समूहः गार्ग्यायणकम् । वक्ष्यति "वृद्धोझोष्ट्रो' [३।२।३४ ] श्रादिसूत्रे वृद्धग्रहणेनैव सिद्धे राजन्यमनुष्यग्रहणं ज्ञापकमपत्याधिकारादन्यत्र वृद्धग्रहणे लौकिकं गोत्रग्रहणम् । तेन वृद्धयूनोः समावेशः । भ्रातरि व ज्यायसि ||३|१|८२ ॥ पौत्रादिरपत्यमिति वर्तते । भ्रातरि च ज्यायसि जीवति कनीयान् भ्राता युवसंज्ञो भवति । मृतेऽपि वंश्ये यथा स्यादित्यारम्भः । भ्राता वंश्यो न भवति साक्षात् परम्परया वा । कारणत्वाद्गार्ग्यस्य द्वौ पुत्रौ ज्यायसि जीवति कनीयान् गार्ग्यायणः । एवं दाक्षायणः । ज्यायांस्तु भ्राता गायों दाक्षिरिति । वान्यस्मिन् सपिण्डे स्थविरतरे जीवति ||३|१|२३|| पौत्रादेरपत्यमिति वर्तते । येषां सप्तमः पुरुष एकस्ते सपिण्डाः परस्परम् । बसे यसे वा सपिण्डशब्दः । समानस्य सभाव इहैव निपातितः । प्रकृतं जीवतीति शत्रन्तं स्थविरतरस्य विशेषणम् । इदं तु जीवतीति पदं तिङन्तं संज्ञिनो विशेषणम् । भ्रातुरन्यस्मिन् सपिण्डे स्थविरतरे जीवति पौत्रादेरपत्यं यज्जीवति तद्वा युवसंज्ञ भवति । गार्ग्यायो गार्ग्यः । दाक्षायणो दाक्षिः । श्रन्यग्रहणं किम् ? भ्रातरि इति वर्तते । तस्मिन्नेव सपिण्डे पितृव्यपुत्रे जीवति स्यात् । सपिण्डग्रहणमसम्बन्धान्यसम्बन्धनिरासार्थम् । ज्यायसीति वर्तमाने स्थविरतरग्रहणं किम् १ स्थानवयोभ्यां ज्येष्ठे सपिण्डे यथा स्यात् भ्रातृव्ये वयोज्येष्ठे पितृव्यः कनीयान् युवसंज्ञो न भवति । जीवतीति किम् ? मृते गार्ग्य एव । पूजाकुत्सयोर्व्यत्ययः ॥ ३१११८४ ॥ वेति वर्तते । परस्परविषयगमनं व्यत्ययः । वृद्धस्य युवसंज्ञा यूनश्च वृद्धसंज्ञेत्यर्थः । पूजायां कुत्सायां च गम्यमानायां यथासंख्यं वृद्धयूनोर्वा व्यत्ययो भवति । पूजायाम्तत्रभवान् गार्ग्यायणः, तत्रभवान् गायों वा । युवसंज्ञासामर्थ्यात् वृद्धत्यस्य युवत्येन योगः । कुत्सायां गार्ग्यस्त्वं जाल्म । गार्ग्यायणस्त्वं जाल्म । वृद्धसंज्ञासामर्थ्यात् युवत्यस्य निवृत्तिः । अद्बाह्वादेरिन् ॥३|१|८५ ॥ तस्यापत्यमिति वर्तते । अकारान्तेभ्यो मृद्भयः बाहु इत्येवमादिभ्यश्च अनन्तरे वृद्ध े युवसंज्ञके चाऽपत्ये इञ भवत्यणोऽपवादः । श्रकम्पनिः । दाक्षिः । श्रपगविः । अनकारा For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ ० १ सू० ८६-८ ] महावृत्तिसहितम् १६५ तार्थं बाधकबाधनार्थं च बाह्वादिग्रहणम् । बाह्रविः । श्रौपवाकविः । बाहु उपवाकु निवाकु वराकु उपबिन्दु एभ्योऽणू प्राप्तः । वला 'द्वचच: " [३ | १|११०] इति ढण् प्राप्तः । वृकला बलाका मूषिका भगला लगहा ध्रुवका सुमित्रा दुर्मिंत्रा एभ्यः "स्त्रीभ्यो ढण्" [३|१|१०१ ] इति ढण् । मानुषीलक्षणो वा ढणू स्यात् । पुष्करसत् अनुरदत्' अनुशतिकादित्वादनयोः पदद्वयस्यैप् । देवशन् अग्निशर्मन् इन्द्रशर्मन् कुनामन् पञ्चन् सप्तन् । “श्रमितौजसः सखं च" [वा०] सुधावत् उदञ्च चेर्निपातनात् नखाभावः । शिरस्- शिरोमात्रस्थापत्यं नास्ति इति तदन्तविधिः । हातिशीर्षिः । पैलुशीर्षिः । शिरसः शीर्षादेशो वक्ष्यते । माषशराविन् क्षेमवृत्विन् शृङ्खलतोदिन् खरनादिन् निपातनादणत्वम् । नगरमर्दिन् प्राकारमर्दिन् लोमन् लोग्ना तदन्तविधिः इत उत्तरं प्रागुदङकशब्दात् “कुर्वष्यन्धक" [३|१|१०३ ] श्रादिनाऽण् प्राप्तः । श्रजीगर्त कृष्ण युधिष्ठिर अर्जुन साम्ब गद प्रद्युम्न राम संकर्षण मध्यन्दिन सत्यक उदक। “संभूयोऽम्भसोः सखं च '[वा०] ख्याताख्यातयोः ख्याते संप्रत्यय इति । तेन बाह्रादिप्रभृतिषु येषां लौकिकगोत्रभावं प्रति प्रवर्तकत्वमस्ति तेभ्य एव इञादयः । इह माभूत् बाहुर्नाम कश्चित् तस्यापत्यं बाइवः । श्राकृतिगणत्वादस्याजबन्धविः । श्राजवेनविरिति । सुधातुरकङ च ॥३॥१८६॥ सुधातृशब्द दिन भवति तत्सन्नियोगेन कङादेशश्च । सुधारपत्यं सौधातकिः । “व्यास वरुडनिषाद चण्डाल बिम्बादीनामिति वक्तव्यम्” [ वा० ] | न वक्तव्यम् । श्रव्यविकन्यायेन कान्तेभ्य एव त्यविधिः । वैयासकिः । वारुडकिः । नैषादकिः । चाण्डालकिः । बैम्बकिः । कार्मारकिः । वृद्धे कुञ्जादिभ्यो ञ्फः || ३|१|८७॥ वृद्धसंज्ञके अपत्ये विवक्षिते कुञ्ज इत्येवमादिभ्यो फो भवति । इञोऽपवादः । श्रादौ ञकारः "त्रात फादस्त्रियाम्" [४/२/२] इति विशेषणार्थः । कुञ्जस्यापत्यं पौत्रादि ययः । कजान्यो । कौञ्जायनाः । "यातल्फादखियाम्" [ ४ |२| २] इति स्वार्थे त्र्यो भवति द्विसंज्ञः । कुञ्ज ब्रध्न शङ्ख गण लोमन् लोमशब्देन तदन्तविधिरिति केचित् । भस्मन् शट । श्रयं गर्गादिष्वपि । शाक शौण्ड शुभ विपास् । श्रयं शिवादिष्वपि । स्कन्द स्कम्भ । वृद्ध इति किम् ? कुञ्जस्यापत्यमनन्तरं कौञ्जिः । वृद्ध इत्ययमधिकारश्च “शिवादिभ्योऽय्' [ ३।१।१०१] इत्यतः प्राक् । नङादेः फण् ||३|१|८८॥ नड इत्येवमादिभ्यो वृद्धेऽपत्ये फय् भवति । नडस्यापत्य वृद्धं नाडायनः । वृद्ध इत्येव । श्रनन्तरो नाडि: । नड चर वक मुज्ज इतिक इतिश उपक लमक शलङ्कु शलङकवादेशं लभते । शालङ्कायनः । कथं शालङ्कायनः १ कथं सालङ किः पिता सालङ्किः पुत्रः [ सलङ्क ] शालङ्क इति प्रकृत्यन्तरमस्ति । अथवा पैलादिषु पाठसामर्थ्यात् इञपि भवति । पञ्चपूल वाजव्य तिक अग्निशर्मन् वृषगणे । गोत्रे अग्निशम्र्माणो भवति वार्षगणश्चेत् । श्राग्निशम्मिरन्यः । प्राण नर सायक दास मित्र द्वीप तगर पिङ्गल किङ्कर कथन कतर कतल काश्य काव्य सैव्य प्रजावाच्य स्तम्भ शिंशपा श्रमुष्य निपातनात् साधुः । कृष्णरणौ ब्राह्मणवाशिष्ठयोः । यथाक्रमं ब्राह्मणवाशिष्ठेऽर्थे । श्रजमित्र लिगु चित्र कुमार । क्रोष्टुरपत्यं क्रोष्टयं च । लोह दुर्ग श्रम तृण शकट सुमत मिमत ब्राह्मण चटक | ऐरोपीष्यते । चाटकैर बदर अश्वल स्वर कामुक ब्रह्मदत्त उदम्बर अलोह दण्डथा । श्रन्ये इमानपि पठन्ति वच्यमाणान् । यच् जत् इत्वत् जनवत् हिंसक दण्डिन् हस्तिन् पञ्चाल चमसिन् । लौकिक गोत्रमात्र इत्येव । नडो नाम कश्चित्तस्यापत्यं नाडि: । हरिताद्यञः ||३|१|८९ ॥ हरितादिर्विदाद्यन्तर्गणः । हरितादिभ्यो ऽञन्तेभ्यः फण् भवति । इञोऽपवादः । द्दह वृद्धग्रहणमनुवर्तमानमत्रो विशेषणम् । वृद्ध योऽन् विहितस्तदन्तात् फणू एक इति निय माद्यनिद्रष्टव्यः । हरितस्यापत्यं युवा हारितायनः । कैन्दासायनः । १. अनुरहत् श्र० । २. वरुट अ०, ब०, स० । ३. चारुट किः अ०, ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ३ पा० १ सू० १०-१५ यञिञोः ||३|१|१०|| अत्रापि वृद्धग्रहणं यञिञर्विशेषणम् । वृद्ध विहितौ यो यत्रौ तदन्ताफण भवति । सामर्थ्याद्य नीति ज्ञातव्यम् । गार्ग्यायणः । दाक्षायणः । इह गार्ग्या श्रपत्यं गार्गेय इति लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणेऽपि परत्वाद्ण् भवति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरद्वच्छुनकदर्भाद् भृगुवत्साप्राणेषु || ३ |१| १॥ वृद्ध इति वर्तते । शरद्वत् शुनक दर्भ इत्येतेभ्यः फण् भवति यथासंख्यं भार्गवे वात्स्ये श्रामायणे चापत्ये ऽभिधेये । शारद्वतायनो भवति भार्गव - श्चेत् । शारद्वतोऽन्यः । शौनकायनो भवति वात्स्यश्चेत् । शौनकोऽन्यः । दार्भायणो भवति श्राग्रायणश्चेत् । दार्भिरन्यः । शरद्वत् शुनकशब्दौ विदादिषु पठ्येते । 1 द्रोणपर्वतजीवन्ताद्वा ||३|१|१२|| द्रोण पर्वत जीवन्त इत्येतेभ्यो वृद्वापत्ये फण् च भवति । द्रौणायणः । द्रौणिः । पार्वतायनः । पार्वतिः । जैवन्तायनः । जैवन्तिः । वृद्ध इत्येव । द्रौणिः । विदादिभ्योऽनृष्यानन्तर्येऽत्र ॥३१॥९३॥ वृद्ध इति वर्तते । विद इत्येवमादिभ्यः श्रनृषीणामान न्तर्ये भवति । विदस्यापत्यं वैदः । विद उर्व कश्यप कुशिक भरद्वाज उपमन्यु किलात किन्दर्भ विश्वानर ऋष्टिषेण ऋतभाग हर्यश्व प्रियक श्रापस्तम्ब कूचवार शरद्वत् शुनक धेनु गोपवन शित्रु विन्दु भाजन तामन श्रश्वावतान श्यामाकश्यापर्ण गोपवनादिप्रतिषेधः प्राग्वरितादेः इत ऊर्ध्व बहुत्वेऽञ उबेव भवति । हरित किन्दास वह्यस्क कलूष वध्योग विष्णु वृद्ध प्रतिबोध रथन्तर गविष्ठिर निषाद निषादशब्दस्य "सुधातुरकङ च" [३।१८६] इत्यत्र नैषादकिरुक्तोऽनन्तरे वृद्धे परत्वादयमत्र । मठर। श्रयं गोपवनादिष्वपि मठराद्यत्रपि । एते इरितादय इत्याचार्यस्मृतिः । प्रदाक सदाक पुनर्ध्वादिष्वनन्तरेऽपत्ये पुनर्भू पुत्र दुहितृ ननान्ह परस्त्री परशुं च या तु सवर्णा परस्य स्त्री परस्त्री सा कल्याण्यादिषु पठ्यते पारस्त्रियेणः । वृद्ध इत्येव । श्रनन्तरो वैदिः । बाह्वादेराकृतिगणत्वाद् ऋष्यण् न भवति लौकिकगोत्रमात्र इत्येव । वैदो नाम कश्चित् तस्य वैदिः । श्रनुष्यानन्तर्य इति किमर्थम् ! पुनर्भूप्रभृतीनामनृषीणामानन्तर्ये श्रनन्तरेऽपत्ये श्रञ्वेदितव्यः । ये तु ऋष्यपत्यानां नैरन्तर्ये प्रतिषेधमाचक्षते । तेषां कौशिको विश्वामित्र इति न स्यात् । ऋष्यानन्तर्ये प्रतिषेधो नास्ति । इन्द्रभूः सप्तमः काश्यपानाम् भारद्वाजानां कतमोऽसीति "तस्येदम्" [३३८८] इत्यया भविष्यतीति । गर्गादेर्यत्र ॥ ३९ ॥ ६४ ॥ वृद्ध इति वर्तते । गर्ग इत्येवमादिभ्यः वृद्धापत्ये यत्र भवति । गर्गस्यापत्यं पौत्रादि गार्ग्यः । गर्ग वत्स "वाजादसे” [ सू० ग० ] स इति किम् १ सौवाजिः । संकृति अन व्याघ्रपात् विदभृत् पुलस्ति प्राचीनयोग पुलस्त्यशब्दात् ऋष्यरिण पौलस्त्यः । स्त्रियामणि पौलस्त्यी । यत्रि पौलस्त्यायनीति विशेषः । रेभ अग्निवेश शङ्ख शट धूम अवट मनस् धनञ्जय वृक्ष विश्वावसु बरमाण लोहित संशित बभ्रु मण्डु मनु सकु शङ्कुलि गुगुलु जिगीषु मनु मन्तु तन्तु मनायी ढण् प्राप्तः । " भस्य हृत्यढे" [ वा० इति पुंवद्भावः कस्मान्न भवति । कौडिन्यागस्ती इति निर्देशात् । यदि यत्रि पुंवद्भावः स्यात्, कुण्डिनी - शब्दस्य पुंवद्भावे टिखे च कृते कौण्डिन्य इति न स्यात् । सूनु कथक रुक्ष तलुन तणु वतण्ड कपि कत सकल कुरुकत । श्रयमनुशतिकादौ । श्रनडुह कण्ठ गोक्क्ष अगस्त्य कुण्डनी यज्ञवल्क अभयजात विरोहित वृषगण रहूगा शडिल मुद्गल मुसल पराशर जतूकर्ण मन्त्रित अश्मरथ शर्कराक्ष पूतिमाष स्थूरा अशक वामरथ पिङ्गल कृष्ण गोलुन्द उलूक तितम्भ तितव भिवज तिलज भण्डित चेकित देवहू इन्द्रहू एकहू एकलू पिप्पलु बृहदभि सुलाभिनू कुटीगु उक्थ । वृद्ध इत्येव । श्रानन्तरो गार्गिः । कथमनन्तरो जामदग्न्यो रामः पाराशर्यो व्यास इति ? गोत्राध्यारोपेण । श्रनन्तरापत्ये ऋष्यणा भवितव्यम् । लौकिकगोत्रमात्र इत्येव । यो गोत्रस्याप्रवर्तको गर्गस्तस्यापत्यं वृद्ध गार्गिः । भव मधुबभ्वोर्ब्राह्मणकौशिकयोः ||३|१|६५|| वृद्ध इति वर्तते । मधु बभ्रु इत्येताभ्यां यथासंख्यं ब्राह्मणे कौशिकेऽत्राभिधेये । माधव्यो ब्राह्मणश्चेत् । माधवोऽन्यः । बाभ्रव्यः कौशिकश्चेत् । बाम्न For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६७ पना। म०३ पा० । सू० १६-१०] महावृत्तिसहितम् वोऽन्यः । बभ्रुशब्दो गर्गादिषु पठ्यते । तस्येह नियमार्थ वचनम् । कौशिक एव यथा स्यात् । गर्गादिषु पाठो लोहितादिकार्यार्थः । बाभ्रव्यायणी । अथ गणे एव कौशिकग्रहणं कर्तव्यम् । इह करणं वृद्धार्थम् । ननु गणेऽपि वृद्धे यविहितः । इदमेव तर्हि ज्ञापकं गणपाठे क्वचिदनन्तरापत्येऽपि या भवति । जामदग्न्यो रामः । पाराशर्यो व्यास इति । , कपिबोधादाङ्गिरसे ॥३१॥६६॥ वृद्ध इति वर्तते । कपिबोधशब्दाभ्यां यत्र, भवति आङ्गिरसेऽ. पत्यविशेषे । काप्यः प्राङ्गिरसश्चेत् । अन्यत्र "इतोऽनिनः" [३।१।११] इति दणि कापेयः। बौध्य प्राङ्गिरसश्चेत् । बौधिरन्यः । इपि कपिशब्दस्य गर्गादिषु पाठः । तस्य नियमार्थ वचनम् । आङ्गिरस एव या । गर्गादिषु पाठो लोहिताद्यर्थः। काप्यायनी । मधुबोधयोस्तु यत्स (यत्रि) तयोरुभयम् । माधवी माधन्यायनी। बौधी बौध्यायनी। वतण्डात् ॥१७॥ आङ्गिरस इति वर्तते । वतण्डशब्दादाङ्गिरसेऽपत्यविशेषे वृद्ध यञ् भवति । वातण्ड्यः । अाङ्गिरस इत्येव । अनाङ्गिरसे शिवादिपाठादण वातण्ड इति । गर्गादिषु पाठादनाङ्गिरसे यत्र लोहितादिकार्यार्थः। वातण्ड्यायनी । स्त्रियामुप् ॥ ८॥ श्राङ्गिरस इति वर्तते । वतण्डशब्दादाङ्गिरस्यां स्त्रियां यत्र उम्भवति । वतएडस्यापत्यं वृद्धा स्त्री वतण्डी। यत्र उपि "जातेरयोङः" [३।१।५३] इति डीविधिः । श्राङ्गिरस इत्येव | वातएड्यायनी। शिवायणि वातण्डा। वृद्धादन्यत्र वातण्डी। अश्वादेः फा, ॥१६॥ वृद्ध इति वर्तते । श्राङ्गिरस इति निवृत्तम् । अश्व इत्येवमादिभ्यो वृद्धे फन भवति । अश्वस्यापत्यं श्राश्वायनः । अश्व अश्मन् शङ्ख शूद्रक कुादिषु गर्गादिषु च पठ्यते । विद पुट रोहिण खद्वार खजर खजूर वटिल भण्डिल भटल मडित भण्डित प्रहृत रामोद क्षत्र ग्रीवा काश काण वात गोलाक अर्क वन ध्वन पत पाद चक्र कुल अविष्ट पविन्द पवित्र गोमिन् श्याम धूम्रवाग्मिन् विश्वानर स्फुट कुट चुटि शपादात्रेये । शापिरन्यः । जनक सनक खनक ग्रीष्म अहं वीज रीक्ष विशम्प विशाल गिरि चपल चुप दासक । येऽत्र वृद्ध त्यान्तास्तेभ्यः सामर्थ्यात् यूनि फञ द्रष्टव्यः । वैश्य वैल्व वाद्य आनबुह्य धाप्य जात शब्दात् पुसि । जातेयोऽन्यः। अर्जुन । अस्य बह्वादिषु पाठोऽनन्तरार्थः । शूद्रक सुमनस् दुर्मनस् । आत्रेयाभारद्वाजे | आत्रेयिरन्यः । भारद्वाजादात्रेये । विदाद्यत्रि भारद्वाजोऽन्यः | उत्स उत्सादिषु पाठोऽनन्तरार्थः । पातव कितव किव शिव खदिर वृद्ध इत्येव । आश्विः । लौकिक गोत्र इत्येव । गोत्रस्या प्रवर्तको योऽश्वः तस्यापत्यमेकान्तरितमाश्विः । भर्गात् त्रैगर्ते ॥२२१००॥ वृद्ध इति वर्तते । भर्गशब्दात् फन भवति गर्तेऽपत्यविशेषे । भार्गायणो भवति त्रैगर्तश्चेद् । भार्गिरन्यः । शिवादिभ्योऽण ॥३१॥१०१॥ वृद्ध इति निवृत्तम् । इत उर्ध्वं सामान्येनापत्ये त्यविधानम् । शिव इत्येवमादिभ्योऽण भवत्यपत्यमा । हादीनामपवादः । शिवस्यापत्यं शैवः। शिव प्रोष्ठ प्रोष्ठिक चण्ड जम्भ भूरि । अस्मात् "इतोऽनिमः"[ 1] इति ढण् प्राप्तः । कुठार अनभिग्लान सन्धि मुनि ककुत्स्य कोहड कहूय रोवाविरल रोध विरल) वतण्ड । स्त्रियां वातण्डया । तृण कर्ण क्षीर हृदय परिषिक गोपिलका कपिलका जटिलका वधिरका मंजीरक वृष्णिक खजर खजल रेभ आलेखन विश्रवण खण । विश्रवसोऽपत्यमिति विगृह्य विश्रवणरवणादेशो। प्रकृत्यन्तरे वा । अव्यविकन्यायेन ताभ्यामेवाण । वर्तनाक्ष विकट पिटक तृक्षक विभाग नभाक तटाक ऊर्णनाभ जरत्कारू उत्कोयस्तु रोहितिका आर्यश्वेता । प्राभ्यां 'स्त्रीभ्यो ब्ण' 1. श्रुटि ब०, स० । २. वीक्षप० । ३. मनभिरकान अ०, मु. । For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० २ पा० ४ सू० १०२-१०६ [11] प्राप्तः । सुपिष्ट मयूरकर्ण खर्जुरकर्ण तक्षन् । अत्र कारिलक्षणस्य इञो बाधा । एयस्त्विष्यत एव । ताक्षण्य इति । ऋष्टिषेण । विदादिष्वस्य पाठो वृद्धार्थः। गङ्गा । अत्र नदीलक्षणस्यायो "दूधचः" [ १०] इति ढण् बाधकः तमपि बाधित्वा 'द्वथचो नद्याः" इत्यण् प्राप्तः। तस्यापि तिकादिषु पाठात् फिज बाधकः स्यात् । अयं गङ्गाशब्दः शुभ्रादिषु च पठ्यते । तेन त्रैरूप्यम् । गाङ्गः । गाङ्गायनिः । गाङ्गेयः । विपाश । अत्रापि नदीमानुषीलक्षणस्याणः “थचः" [३।१।११०] इति ढण बाधकः । तमपि "दूधचो नद्याः" इत्यण बाधते । तमपि बाधित्वा कुञ्जादिलक्षणो उफ एव स्यात् । रूप्यं चेष्यते । वैपाशः वैपाशायन्य इति । यस्क लह्य दुह्य अयस्थूण भलन्दन विरूपाक्ष विरूपा भूमि इला सपत्नी। “दूथचो नद्या" इति गणसूत्रम् । अन्यथा "यचः" [३।३।१०] इति ढण् प्रसज्येत । त्रिवेणी त्रिवेणं च । नदोमानुषीभ्योऽदुभ्यस्तदाख्याभ्यः ॥३।१।१०२॥ नदीमानुषीभ्य इत्यर्थनिर्देशः । नदीमानुषीवाचिप्रकृतिभ्योऽदुसंशाभ्यस्तदाख्याभ्योऽण् भवति । ढणोऽपवादः। यमुनाया अपत्यं यामुनः प्रणेता । इरावत्या अपत्यम् ऐरावतः । उद्धथः। वितस्तायाः पलालशिराः वैतस्तः । नर्मदाया नीतो नार्मदः । मानुषीभ्यःचिन्तितायाः चैन्तितः। सुदर्शनायाः सौदर्शनः। स्वयंप्रभायाः स्वायंप्रभः । नदीमानुषीभ्य इति किम् ? सौपर्णेयः। वैनतेयः । सुपर्णा विनता च देव्यौ । अन्येषां पक्षिण्यौ । अदुभ्य इति किम् ? चान्द्रभागायाः चान्द्रभागेयः । वायुवेगेयः । तदाख्याभ्य इति किम् ? या (भ्यः), काभ्यः। प्रकृतिभ्योऽण प्रार्थ्यते ता एवाख्या नामधेयानि नदीमानुषीणां यदि भवति । तेनेह न भवति । शोभनाया अपत्य शौभनेयः । पुरस्तादपवादोऽयमिति अनन्तरमणं बाधते न व्यवहितं "क्षुद्राभ्यो वा' [३।१।१२०] इति ढणम् । पुलिकायाः पौलिकेरः । कुवृष्यन्धकवृष्णेः ॥३।१।१०३॥ कुरवः अन्धकाः वृष्णयश्च क्षत्रियवंशाख्याः । ऋषयश्चेह ग्राम्या मठपतयो वशिष्ठाद्या गृह्यन्ते । महर्षीणामहिंसादिव्रतोपपन्नानामपत्यापत्यवत्सम्बन्धो नास्ति । कुर-ऋषिअन्धकवृष्णिवाचिभ्यो मुद्यः सामान्येनापत्येऽण् भवति । इञोऽपवादः। कुरुभ्यः-नाकुलः। साहदेवः । दौर्योधनः। ऋषिभ्यः वाशिष्ठः। वैश्वामित्रः। अन्धकेभ्यः-श्वाफल्कः। रान्धसः। श्वैत्रकः । वृष्णिभ्यःश्रदारः प्रातिवाहः । वासुदेवः । आनिरुद्धः । इह आत्रेयः इति परत्वाद्रण । यद्यपि भीमसेनः कुरुः, जातसेन ऋषिः । उग्रसेनोऽक्षक, विष्वक्सेनो वृष्णिस्तथापि परवात्सेनान्तलक्षणो एय इञ्च भवति । मध्येऽपवादोऽयं पूर्व जित्यं बाधते ।। । मातरुत्संख्यासंभद्रादेः ॥३।१।१०४॥ मातृशब्दस्य संख्यासंभद्रादेः उकारश्चान्तादेशो भवति श्रण चाधिकारात् । द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरो भरतः। शातमातुरः । सामातुरः । भाद्रमातुरः । अभिधानवशात् जननीपर्यायस्य मातृशब्दस्य ग्रहणम् । संख्यासंभद्रादेरिति किम् ? सौमात्रः । वैमात्रेयः । विमातृशब्दः शुभ्रादिषु पठ्यते ।। कन्यायाः कनीन च ॥३।१।१०५॥ कन्यायाः कनीन इत्ययमादेशो भवति । अण च तस्मात् । ढणोऽपवादः । कानीनः कर्णः । कानीनो हि नारका । विकर्णशुझछगतावत्सभरद्वाजात्रिषु ॥३।१।१०६॥ विकर्ण शुङ्ग छगल इत्येभ्यः अण् भवति यथासंख्यं वात्स्ये भारद्वाज श्रात्रेये चापत्यविशेषे । वत्सभरद्वाजानिष्वित्यत्र वत्सादयः शब्दा उपचारात् वृद्धत्यान्तेषु वर्तमाना गृह्यन्ते । वैकर्णो भवति वात्स्यश्चेत् । वैकर्णिरन्यः। काश्यपे वैकर्णेयः । शौङ्गो भवति मारद्वाजश्वेत् । शौङ्गिरन्यः । लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणे शुङ्गाया अपत्यं सौङ्गो भवति भारद्वाजश्वेत् । अन्यत्र सौङ्गेयः । छागलो भवति पात्रेयश्चेत् । छागलिरन्यः । १. मदन । For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ० ३ पा० १ सू० १०७ - ११६] महावृत्तिसहितम् १६६ पीलाया वा ॥ ३|१|१०७ ॥ पीला तदाख्या मानुषी । पीलाया अपत्ये वाऽण् भवति । पैलः । पैलेयः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढण् च मण्डूकात् ||३|१| १०८ ॥ मण्डूकशब्दाड्ढय् भवति चकारादण् च वा । तेन त्रैरूप्यम् । माण्डूकेयः । माण्डूकः । मण्डूकिः । स्त्रियां माण्डूकेयी । श्रणन्तस्य "कौरव्यासुरिमाण्डूकात्" [३|१|१२] इति फटि कृते माण्डू कायनी । ढञन्तस्य माण्डूक्या । स्त्रीभ्यो ढण् || ३|१| १०६ ॥ इह स्त्रीग्रहणेन स्त्रियामित्येवं विद्दिताष्टाबादयः स्त्रीत्या गृह्यन्ते । स्त्र्यर्थग्रहणं तु न भवति । शुभ्रादिषु मातृशब्दस्य पाठाज्ञायते । स्त्रीत्यान्तेभ्यो दण् भवत्यपत्ये । सौपर्णेयः । वैनतेयः । वायुवेगेयः । स्त्रीत्यग्रहणमिति विशेषणं किम् १ स्त्र्यर्थे मा भूत् । इडबिडः स्त्रिया श्रपत्यम् ; दरदः अपत्यम् ऐडबिडः, दारदः । "पीलाया वा " [३|१|१०७] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या वेति व्यवस्थितविभाषा वर्तते 1 तैन वडवायाः वृषे वाच्ये ढण भवति । वाडवेयो वृषः । श्रपत्ये वाडव इति । क्रुञ्चकोकिलाभ्याम भवति । क्रुञ्चाया श्रपत्यं क्रौञ्चः । कोकिलाया अपत्यं कौकिलः । द्वन्यचः ॥३|१|११० ॥ द्वयचश्च स्त्रीत्यान्तादपत्ये ढण् भवति । मानुषीलक्षणस्यापो ऽपवादः । दत्ताया दात्तेयः । गुप्ताया गौप्तेयः । इतोऽनित्रः || ३|१|१११ ॥ स्त्रीभ्य इति निवृत्तम् । श्रविशेषेण स्त्रियाश्च विधानाद द्वयच इति वर्तते । इकारान्तान्मृदो ऽनिमन्तादण् भवति । वलेरपत्यं वालेयः । नाभेयः । श्रात्रेयः । दौलेयः । इत इति किम् ? दाक्षि: । अनि इति किम् ? दाक्षायणः । द्वयच इत्येव । मरीचेरपत्यं मारीचः । / शुभ्रादेः || ३|१|११२ ॥ शुभ्र इत्येवमादिभ्यो ढण् भवति । इजादीनामपवादः । शुभ्रस्यापत्यं शौभ्रेयः शुभ्र विष्टपुर पिष्टपुर ब्रह्मकृत शतद्वार शतहार शलाथल शलाकाभ्रे लेखाभ्रू विधवा कृकसा रोहिणी रुक्मिणी विकचा विवसा इलिका दिशा शालूका श्रजवस्ति शवन्धि | लक्ष्मणश्यामयोर्वाशिष्ठे । लाक्ष्मणिरन्यः । श्यामायनोऽन्यः । "अश्वादेः " [३|१|१६] इति फञ । गोधा । कृकलास । प्राणि विकणाचि' प्रवाहण भरत भागर मष्ट्र मकुष्ट सुकराडु मृषण्डु कर्पूर इतर अन्यतर श्रालीढ सुदत्त सुदक्ष सुनामन् सुदामन कटु तुद कशाप कुमारिका कुवणिका ( किशोरिका ) जिह्माशिन् परिधि वायुदत्त शलाका सवला खड्वर अम्बिका अशोक गन्धपिङ्गला खरोन्मत्ता कुदत्ता कुसम्बा शुक्र वलीवर्दिन् विस्र वीजश्वन् श्रश्व अमिर विमातृ । श्राकृतिगणश्चायम् । तेन गाङ्ग ेयः पाण्डवेय इत्यादि सिद्धम् । विकर्ण कुषीत कात्काश्यपे || ३|१|११३ ॥ विकर्ण कुषीतकशब्दाभ्यां ढण भवति काश्ययेऽपत्यविशेषे । वैकर्णेयः काश्यपश्चेत् । वैकर्णिरन्यः । कौषीतकेयः काश्यपश्चेत् । कौषीतकिरन्यः । arga ||३|१|११४॥ शब्दादपत्ये ढय् भवति वुक् चागमः । भ्रौवेयः । कल्याण्यादीनामिनङ् ||३|१|११५॥ कल्याणी इत्येवमादीनां ढण भवति इनङादेशश्च । येऽत्र स्त्रीत्यान्ताः शब्दास्तेषामादेशार्थं वचनम् । ढण् पूर्वेण सिद्धः । अन्येषामुभयार्थं वचनम् । कल्याण्या अपत्यं काल्याणिनेयः । सौभागिनेयः । कल्याणी सुभगा दुर्भगा बन्धकी अनुकृष्टि जरती वलीवर्दी ज्येष्ठा कनिष्ठा मध्यमा परस्त्री रस्त्री । कुलटाया वा ॥ ३|१|११६ ॥ कुलान्ययतीति कुलटा । श्रत एव निपातनात् पररूपम् । कुलटाया वा इनङादेशो भवति । ढण स्त्रीभ्य इत्येव सिद्धः । कौलटिनेयः । कौलटेयः । श्रनियतपुस्कत्वविवक्षायां परत्वात् क्षुद्रालक्षणो द्रय् । कौलटेरः । १. विकरणान्चि ब० । २. भामण ब० । भामर स० । २२ For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [५०३ पा० १ सू० ११७-१२९ चटकाणणैरः ॥३॥११११७॥ चटकशब्दाणणैरो भवति । चटकस्यापत्यं चाटकरः । लिङ्गविशिष्टपि ग्रहणम् । चटकाया अपत्यं चाटकरः । स्त्रीढणः परसात् गरः । "खियामपत्ये उब्वतव्यः" [वा.] चटकस्य चटकाया वा अपत्य स्त्री चटका । "हृदुप्युप्' [11] इति स्त्रीत्यस्योप् । पुनष्टाप् । , गोधाया णारः ॥३३११११८॥ गोधाशब्दादपत्ये गारो भवति । गौधारः । रणा सिद्ध णारवचनं ज्ञापकम्, अन्येभ्योऽपि भवतीति । जडस्यापत्यं जाडारः । पण्डस्यापत्यं पाण्डारः । पक्षस्य पाक्षारः। ढणु ॥३१११११६॥ दण् च भवति गोधाशब्दात् । गौधेरः । शुभ्रादिषु पाठात् गौधेय इति च भवति । क्षुद्राभ्यो वा ॥३१॥१२०॥ अनियतस्का अङ्गहीना वा क्षुद्राः । क्षुद्राभ्य इत्यर्थनिर्देशः । क्षुद्रावाचिप्रकृतिभ्यः स्त्रीलिङ्गाभ्यः वा द्रण भवति । दास्या अपत्यं दासेरः । दासेयः । नट्या नाटेरः । नाटेयः । काणायाः काणेरः । काणेयः । "द्वयचः" [३।१111०] इत्ययं ढण् मध्येऽपवादः पूर्वस्य नदीमानुषीलक्षणस्थाणो बाधकः। वसुश्छणुः ॥२१॥१२१॥ ध्वसृशब्दाद् ऋकारान्तपूर्वान्तादपत्ये छण् भवति । अणोऽपवादः । मातृष्वतीयः । पैतृष्वतीयः। स्वसुरिति कृतषत्वग्रहणं किम् ? भ्रातृस्वसुरपत्यं भ्रातृस्वनः। उरिति किम् ? मातुःस्वसुरपत्यं मातुःश्वश्रः । “था स्वसृपत्योः" [॥३॥१३७] इत्यनुप् । दणि खम् ॥३॥१२१२२॥ दणि परतः ध्वसुवर्णपूर्वस्य खं भवति । अनेनैव ढनिपात्यते । मातृध्वस्रयः। पैतृष्वस्रयः। चतुष्पादभ्यो ढ ॥३।१।१२३॥ चत्वारः पादाः यासां ताश्चतुष्पादः। चतुष्पाद्वाचिप्रकृतिभ्यः स्त्रीलिङ्गाभ्यो ढा, भवति । अणादीनामपवादः । कामण्डलेयः। सैतिवाहेयः । माद्रवाइयः। जाम्बेयः । दनि सति तस्मादुत्पन्नस्य युवत्यस्योन्भवति न ढणि । गृष्ट्यादेः ॥३।१।१२४॥ गृष्टि इत्येवमादिभ्यः शन्देभ्यो ढा भवति । अणादीणामपवादः । गृष्टेरपत्यं गार्टेयः। अचतुष्पाद्वचनमिह गृष्टिशब्दो गृह्यते । गृष्टि हृष्टि हलि वालि विद्वक्रादि विधि कुद्रि) अजवस्ति मित्रयु मित्रयोरपत्यं मैत्रेयः । “भ्रौणहस्य" [४११६३] श्रादिना यकारादेः खं निपात्यते । बहुषु "यस्का. विभ्यो वृद्ध" [ १३४] इति उप् । मित्रयवः । क्षत्राद् घः ॥३।१।१२५॥ क्षत्रशब्दादपत्ये वा भवति । क्षत्रस्यापत्यं क्षत्रियः। बातावभिधानम् । अन्यत्र क्षात्रिः। राजश्वशराद्यः ॥३॥११२६॥ राजश्वशुरशब्दाभ्यामपत्ये यो भवति । राज्ञोऽपत्य' राजन्यः। इहापि जातावभिधानम् । राजनोऽन्यः । श्वशुरस्यापत्य श्वशुर्यः। ख्यातस्य सम्बन्धवचनस्य प्रेक्षणात संज्ञायां श्वाशुरिः। कुलाहकञ्च ॥३।१।१२७॥ कुलशब्दादपत्ये ढका भवति यश्च । कुलस्यापत्यं कौलेयकः। कुल्यः । इहापि भवति ईषदसिद्धं कुलं बहु कुलं "वा सुपो बहुःप्राक्त' [॥॥१२०] इति बहुत्यः। बहुकुलस्यापत्यं बाहु कुलेयकः । बहु कुल्यः । खः॥२१११२८॥ कुलशब्दात् खश्च भवति । कुलीनः। उत्तरत्र खस्यानुवृत्तिर्यथा स्यादिति योगविभागः। सादेः॥३।१।१२६॥ सह आदिना वर्तते इति सादिः। सादेः कुलशब्दात् खो भवति । श्राज्यकुलीनः । राजकुलोनः । क्षत्रियकुलीनः । स-त्यविधौ न तदन्तविधिरिति पूर्वेण न सिद्धयति । For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० ३ पा० १ सू० १३०-१३८ ] महावृत्तिसहितम् १७१ महतोऽखौ ||३|१|१३० ॥ महच्छब्दपूर्वात् कुलशब्दात् श्रखत्रौ इत्येतौ भवतः । महतः श्रावविषये श्रभिधानं माहाकुलः । माहाकुलीनः । केचित्खस्यानुवृत्तिमिच्छन्ति । महाकुलीनः । श्रालविषये इति किम् ? महर्ता कुलं महत्कुलं तस्मात् "खादेः " [३|१|१२8] इति खः । महत्कुलीनः । दुसो ढण् ||३|१| १३१॥ दुःशब्दपूर्वात् कुलादपत्ये ढण् भवति । पापं कुलं दुष्कुलम् " इदुदुहोस् - पुम्मुहुस:" [५/४/२८] इति सत्वषत्वे । दुष्कुलस्यापत्यं दौष्कुलेयः । केचित् खमप्यनुवर्तयन्ति । दुष्कुलीनः । स्वसुश्छः ॥३|१|१३२॥ स्वसृशब्दादपत्ये छो भवति । श्रणोऽपवादः । स्वस्त्रीयः । भ्रातुर्व्यश्व || ३|१| १३३ ॥ भ्रातृशब्दादपत्ये व्यो भवति छश्च । श्रणोऽपवादः । भ्रातुरपत्यं भ्रातृव्यः । भ्रात्रीयः । कथं लोके भ्रातृव्यशब्देन सपत्त्रोऽभिधीयते ? उपचारात् । एकद्रव्याभिलाषश्च उपचारनिमित्तम् । सपत्नी इव सपत्नः शक्तः । पृषोदरादिपाठादकारो निपात्यते । रेवत्यादेष्ठ ||३|१|१३४ ॥ रेवती इत्येवमादिभ्यो ऽपत्ये ठण भवति । श्ररणादीनामपवादः । रेवत्या अपत्यं रैवतिकः । रेवती अश्वपाली मणिपाली द्वारपाली वृकवञ्चिन् वृकप्राह कर्णग्राह दण्डग्राह कुक्कुटा । वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णश्च ||३ | १| १३५ ॥ पौत्राद्यपत्यं वृद्ध क्षेपः कुत्सा | वृद्धस्त्रीवाचिशब्दादपत्ये गो भवति ठण् च क्षेपे गभ्यमाने । गार्ग्या श्रपत्यं युवा गार्गो जाल्मः । गार्गिको जाल्मः | ग्लुचुकायन्या अपत्यं युवा ग्लोचुकायनो जाल्मः | ग्लौचुकायनिको जाल्मः । क्षेपश्चात्र प्रतिषिद्धाचरणेन पितुरज्ञानाद्वा गम्यते । वृद्ध इति किम् ? कारियो मः । स्त्रिया इति किम् । श्रपगविर्जाल्मः । क्षेप इति किम् ? गार्गेयो माणवकः । 1 दोष्ठण सौवीरेषु प्रायः || ३|१|१३६ ॥ वृद्धग्रहणं चानुवर्तते । सौवीरेष्विति वृद्ध विशेषणम् । सौवी - रेषु यद्वृद्ध वाचि दुसंज्ञ ं तस्मादपत्ये प्रायष्ठय् भवति क्षेपे गम्यमाने । वेति वक्तव्ये प्रायोग्रहणं परिगणनार्थम् । "भागपूर्वपदो विसिद्वितीयस्ता विदवः । तृतीयस्त्वाकशापेयो वृद्धाट्ठय् बहुलं ततः । " भागवित्तेरपत्यं युवा भागवित्तिकः । भागवित्तायनः । तार्णविंदवस्यापत्यं युवा तार्णविन्दविकः । ताविन्दविः । कशा इति शुभ्रादिषु । श्राकशापेयस्यापत्यं युवा श्राकशापेयिकः । श्राकशापेयिः । दुग्रहणं स्त्रीनिवृत्त्यर्थमविशेषेणेष्यते । सौवीरे। ध्वति किम् ? श्रौपगविर्जाल्मः । क्षेष इत्येव । भागवित्तायनो माणवकः । फेश् च ॥ ३|१| १३७॥ वृद्धग्रहणां सौवीरेष्विति च वर्तते । फिञन्तात् सौवीरेषु वृद्धादपत्ये छो भवति च क्षेपे गम्यमाने । दोरित्यधिकारात् फेरित्यत्र फित्र एव संप्रत्ययः । यमुन्द तिकादिः । यामुन्दायनीयः । यामुन्दायनिकः । प्राय इत्यनुवर्तनादणपि भवति । तस्य फिञन्तात् परस्य " भिण्यराजार्षायून्युब - णिश्रो:' [ १।४ | १३० ] इत्युप् । यामुन्दायनिर्जात्मः । सुयामन् — सौयामायनिः । तस्यापत्यं युवा सौयामायनीयः । सौयामायनिकः । श्रणि । सौयामायनिः । वृषस्य वार्षायण: । फिञः संनियोगे वृद्धयभावे वक्ष्यते वार्ष्यायणेरपत्यं वार्ष्यायणीयः । वार्ष्यायणिकः । ऋणि वार्ष्यायणिः । क्षेप इत्येव । यामुन्दायनिर्माणवकः । श्रणेव भवति । सौवीरेष्वित्येव । तैकायनेरपत्यं युवा श्रय् तस्योप् । तैकायनिर्जाल्मः । "यमुन्दश्च सुयामा च वार्याणि फिन : स्मृता: । सौवीरेषु च कुत्साय द्वौ योगौ शब्दवित्स्मरेत् ।। ” फाटाहृतेर्णः ||३|१|१३८ ॥ क्षेप इति निवृत्तम् । वृद्धग्रहणं सौवीरेष्विति च " निण्ण्यराजार्षात् " [ १४ । १३० ] इत्यत्र "श्रणिजोरुप्यब्राह्मण गोत्रमात्राद्य वत्यस्योपसंख्यानम्” [वा०] इति उम्मा भूदिति णित्करणम् । “फिञप्यत्र भवतीति वक्तव्यम् ।" [वा०] फाण्टाहृतायनिर्माणवकः । सौवीरेष्वित्येव । फाण्टा हृतायनः । "सौवीरेषु मिमतशब्दाय्याफिनौ वक्तव्यौ” [ बा०] मैमतः । मैमतायनिः । सौवीरेष्वित्येव । मैमतिः । For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ३ पा० १ सू० १३६-१४५ कुर्यादयः || ३|१ | १३६ ॥ सौवीरेष्विति निवृत्तम् । कुरु इत्येवमादिभ्योऽपत्ये ययो भवति । श्रादौ कारः “जिग्यराजार्षात्” [ १/४/१३० इत्यत्र विशेषणार्थः । कुरोरपत्यं कौरव्यः । राजार्षात् कुरुशब्दशञ्ज्यो वक्ष्यते । तस्य द्विसंज्ञकत्वाद्वहुषूप् । तिकादिषु कौरव्यायणिः । कुरु गरी संजय अतिमारक । रथकाराजातौ च । पट्टक । सम्राजः क्षत्रिये । कवि पितृमत् ऐन्द्रजालि धातुजि पेजि दामोष्णीषि । गणकारि कैसोरि कापिलादि ऐन्द्रजाल्यादिभ्यः ततो "यूनि” [ ३|१|७५ ] इति यूनि एयः । क्रोड कुट शलाका मुर खएडाक एमुक शुद्धरसी केशिनी । स्त्रीलिङ्गनिर्देशसामर्थ्यात् पुंवद्भावो न भवति । शूर्पणाय श्यावनाय श्यावरथ श्यावपुत्र सत्यङ्कार वडभीकार पथिकारिन् मूढ़ सीक्ष भूहेतु शकशालीन इनपिएडी वामरथ । वामरथ्यस्य सकलादिकार्य भवति । सकलादयो गर्गाद्यन्तःपातिनः । बहुत्वे उन्भवति वामरथाः । स्त्री वामरथी । वामरथ्यायनी । वामरध्यायनः । वामरथ्यस्य छात्राः वामरथाः “शकलादिभ्यो वृद्धे" [३ २८० ] इत्यण् भवतीति । वामरथानां संघः वामरथः । "संघाङ्क" [ ३ | ३ | १५ ] श्रादिनाऽण् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेनान्तलक्षणकारिभ्य इञ्च ॥ ३|१|१४० ॥ कारिशब्दः कारुवाचि । सेनान्तान्मृदो लक्षणशब्दात् कारिवाचिभ्यश्चापत्ये इम् भवति ण्यश्च । हारिषेण्यः । हारिषेणिः । भैमसेन्यः । भैमसेनिः । जातसेन्यः । जातसेनिः । लाक्षण्यः । लाक्षणिः । कारिभ्यः - कौम्मकार्यः । कौम्भकारिः । तान्तुवाय्यः तान्तुवायिः । तक्षन्शब्दात् शिवादिलक्षणोऽण् । स इञो बाघको न तु यस्य । तेन द्वैरूप्यम् | ताणः । ताक्षण्यः । तिकादेः फिञ ||३|१| १४१ ॥ तिक इत्येवमादिभ्योऽपत्ये फिञित्ययं त्यो भवति । तिकस्यापत्यं तैकायनिः । तिक कितव संज्ञा वाल शिखा उरस् शाढ्य सैन्धव यमुन्द रूप्य नाडी' सुमित्रा कुरु देवर देवरथ तितिलिन् सिलालिन् उरस । कौरव्य । द्रिसंज्ञस्येदं ग्रहणम् । श्ररसशब्देन राष्ट्रसमानशब्देन साहचर्यात् । कथं कौरव्यः पिता कौरव्यः पुत्रः १ श्रनु ( अत्र ) एयान्तादिञ् तस्योप् । लाङ्कव गौकक्ष्य भौरिकि चौपयत चैटयत सैकयत दौञ्जयत त्वजवत् चन्द्रमस् शुभ गङ्गा वरेण्य बन्ध आरद्ध वाह्यका खल्यका लोयका सुयामन् उदन्या यज्ञ | यदिहावृद्ध दुसंज्ञ पठ्यते तस्य नित्यार्थं वचनम् । कौशल्येभ्यः ||३|१|१४२ ॥ कौशल्यादिभ्योऽपत्ये फिञ् भवति । बहुवचनेन कर्मा रागवृषा गृह्यन्ते । कोशलस्यापत्यं कौशल्यायनिः । सर्वत्र मूलप्रकृतेः फिञ । तस्यायनादेशे कृते कौशल्य इति । विकृतनिर्देशात् यु निपात्यते । एवं दागव्यायनिः । कार्मार्यायणिः । छाग्यायनिः । वार्ष्यायणिः । राष्ट्रसमानशब्दात् कोशलात् ज्यो वक्ष्यते । कर्मारशब्दात् कारिलक्षणो योऽपि भवति । इञः प्रयोगो नोपलभ्यते । चोऽणः ||३|१|१४३॥ अणन्ताद् द्वयचो मृदोऽपत्ये फिञ् भवति । इत्रोऽपवादः । कर्तुररपत्यं कार्त्रायणिः । पोतुरपत्यं पौत्रः; तस्यापत्यं पौत्रायणिः । एवं शैवायनिः । द्वयच इति किम् । श्रपगविः । ऋण इति किम् ? दाक्षिः । " वा वृद्धाहोः ||३|१|१४४॥ पौत्राद्यपत्यं वृद्धम् अवृद्धं यदुसंज्ञं तस्मादपत्ये वा फिञ भवति । वायुरथायनिः । वायुरथिः । श्रादित्यगतायनिः । श्रादित्यगतिः । कारिशब्दात्परत्वादनेन भवितव्यम् । नापितायनिः । योऽपि भवति । नापित्यः । इञोऽभिधानं नास्ति । श्रवृद्धादिति किम् ९ श्राकम्पनायनः । श्रौपगविः । दोरिति किम् १ श्रश्वग्रीविः । वाकिनादेः कुक || ३|१|१४५ ॥ वेति वर्तते । वा किन इत्येवमादिभ्योऽपत्ये वा फिञ् भवति । यदा फिञ् तदा कुगागमः । वाकिनस्यापत्यं वाकिन कायनिः । वाकिनिः । गारेवस्यापत्यं गारेवकायनिः । १. नाडी नीडी सु- ब० । For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भे० ३ पा० । सू० १४६-१११] महावृत्तिसहितम् १७३ गारेविः । वाफिन गारेव कार्कद्य काक लङ्क । वर्मिचर्मिणोर्नखं च । यदिहावृद्धं संश तस्य कुगर्थ वचनम् । अन्यस्योभयार्थम् । पुत्रान्ताद्वा ॥३१४६॥ वा वृद्धादोरिति वर्तते । पुत्रान्तान्मृदो द्रुसंशकाद् वा कुगागमो भवति फिभि परतः । प्रकृतेन वामहणेन फिञ् विकल्प्यते अनेन कुक् । तेन त्रैरूप्यम् । वासवदत्तापुत्रस्यापत्यं वासवदत्तापुत्रकायणिः । वासवदत्तापुत्रायणिः । वासवदत्तापुत्रिः । गार्गीपुत्रकायरिणः । गार्गीपुत्रायणिः । गार्गीपुत्रिः। फिरदोः ॥३॥१११४७॥ त्यान्तरोपादानात् फिनि निवृत्ते तत्संबद्धः कुगपि निवृत्तः। वेति वर्तते । अदोर्मूदोऽपत्ये फिर्भवति वा । त्रिपृष्टायनिः । पृष्टिः । श्रीविजयायनिः। श्रेविजयिः । ग्लुचुकायनिः । ग्लौचुकिः। म्लौचुकाचनिः। म्लौचुकिः । वेति व्यवस्थितविभाषा । तेनेह न भवत्येव । दाक्षिः। प्लाक्षिः। अदोरिति किम् ? रामदत्तिः । मनोर्जातौ षुकचाऽज्यौ ॥३।११४८॥ मनुशब्दात् अत्र य इत्येतो त्यौ भवतः षुक् चागमः समुदायेन जातौ गम्यमानायाम् । मानुषः। मनुष्यः। अपत्यापत्यवत्संबन्धद्वारेण व्युत्पत्तिमात्र' क्रियते । परमार्थतस्तु रुटिशब्दावेतौ । अत एव "यजसोः" [१४।१३१] इति बहुधूम्न भवति । मानुषा इति । जाताविति किम् ? अपत्यमात्रेऽण (श्रौत्सर्गिकोऽणेव) भवति । लोहितादिपाठात् पौत्रादौ यत्रि तूब्भवति । मानव्यः। मानव्यौ । मनवः । स्त्री मनव्यायनी । [जाताविति किम् ? अपत्यमात्रे श्रौत्सर्गिकोऽणेव भवति । ] "पुरुदेवस्य पौत्रादा(म्रोऽसा)वर्ककीर्तिजिंता हतः । पाठयामास लक्ष्मीवान् मानवो मानवी: प्रजा।" वृद्ध पत्यविवक्षायां तु गर्गादित्याद्या भवितव्यम् । "अपत्ये कुत्सिते मूढे मनोरौत्सगिकः स्मृतः । नकारस्य च मूर्धन्यस्तेन सिथति माणवः ॥" नेदं णत्वार्थ बहु वक्तव्यम् । “माणवचरकात् ख" [३।४।१०] इति निपातनात् सिद्धम् । द्रिः ॥३।१।१४९॥ यानित ऊर्ध्वमापादपरिसमातेस्ल्यान्वक्ष्यामो द्रिसंशास्ते वेदितव्याः । वक्ष्यति "राष्ट्रशब्दादाज्ञोऽन" [३।११५०] पाञ्चालः । पाञ्चालौ । पञ्चालाः। सत्यां द्रिसंज्ञायां "बहुषु तेनैवाखियाम्" [ ३३] इत्युप् सिद्धः । राष्ट्रशब्दाद्राशोऽञ ॥२१११५०॥राष्ट्र बनपदः। राजशब्दश्चेह क्षत्रियपर्यायः । राष्ट्रशब्दाद्राजवा. चिनोऽपत्येऽञ् भवति । स्वभावतः पञ्चालादिशब्देन राष्ट्र राजा चाभिधीयते । अथवा पञ्चालानां निवासो जनपद इति निवासार्थ श्रागतस्याणो "जनपद उस्[३।२।३१] इति उसि कृते अवरकालेनापि पञ्चालशन्देन सत्रियशन्दो लक्ष्यते । यथा देवदत्तस्य पितेति । पञ्चालस्यापत्यं पाश्चालः। पाञ्चालौ। पञ्चालाः। ऐच्वाकः । ऐच्वाको । इक्ष्वाकवः। इक्ष्वाकुशब्दस्य अनि "श्रौणहत्य'' [10१६६] इत्यादिना उखं निपात्यते । राष्टशब्दादिति किम् ? श्रीविजयिः । द्वह्योः द्रोह्यवः । राज्ञ इति किम् ? पञ्चालो नाम ब्राह्मणस्तस्यापत्यं पाञ्चालिः । साल्वेयगान्धारिभ्याम् ॥३२१११५१॥ साल्वा नाम क्षत्रिया तस्माद्वयच इति दणि साल्वेयः । साल्वेय गान्धारि इत्येताभ्यां राजशब्दाभ्यामञ् भवति । अञोऽपवादे द्विस्कुरुनायजादकोशलाम्न्यः" [१३] इति ध्ये प्राप्त वचनम् । साल्वेयस्यापत्यं साल्वेयः । गान्धारेरपत्यं गान्धारः । गान्धारौ । बहुधूपि गान्धारयः। (वयमगधकलिङ्गसूरमसादण ॥३।१।१५२॥ राष्ट्र शब्दाद्राश इति वर्तते । द्वथचो मृदः मगध कलिङ्ग सूरमस इत्येतेभ्यश्च अण् भवति । अशोऽपवादः । श्राङ्गः । वाङ्गः। सोमः। पौण्ड्रः । मागधः। कालिङ्गः । सौरमसः । सर्वत्र बहुधूप । अजैव सिद्ध किमर्थमण विधीयते ? वयचोऽयः" [३।१११४३] For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ ० ३ पा० १ सू० १५३-१५८ इति फिञ यथा स्यात् । नास्त्यत्र विशेषः सर्वस्यैव युवत्यस्य द्र रुत्तरस्योबिष्यते । इह तर्हि विशेषः राजसमान-: शब्दराष्ट्रात् तस्य राजन्यपत्यवदिति वक्ष्यते । श्रङ्गानां राजा श्रङ्ग इति णि सति श्राङ्गस्यापत्यं श्राङ्गायनिः । "हुथचोऽणः" [३ | १|१४३] इति फिञ् । युवत्योऽयं न भवतीति उप् नास्ति । अपि च नि सति संघाद्यर्थविवक्षायामय् प्रसज्येत । आणि सति "वृद्धचरणाञित् ” [ ३।३।१४] इति वुन् भवति । श्राङ्गकः । वाङ्गकः । मागधकः । कालिङ्गकः । सौरमसकः । द्वित्कुरूनाद्यजाद कोशलाञ्यः || ३|१| १५३ ॥ दुसंज्ञान्मृद इकारान्तात् कुरुशब्दात् नकारादेः श्रजादकोशलशब्दाभ्यां च ज्यो भवति । श्रञोपवादः । दोः - ग्राम्बष्ठस्यापत्यं श्राम्बष्ठ्यः । सौवीरस्य सौवीर्यः । काम्बचस्य काम्बच्यः । दार्घस्य दायः । द्वयज्लक्षणोऽपि फित्र परत्वादेतेन बाध्यते । इकारान्तात् श्रवन्तेराव1 न्त्यः । कुन्तेः कौन्त्यः । वसन्तैर्वास॒न्त्यः । तपरकरणं किम् ( कुमारी नाम जनपदः क्षत्रियश्चास्ति । तस्यापत्यं कौमारः । कुरोः — कौरव्यः । नादेः - निचकम्य नैचक्यः । निषधस्य नैषध्यः । नीपस्य नैप्यः । श्रादस्य जोध: 1 कोशलस्य कौशल्यः । सर्वत्र बहुषूप् । सालवावयवप्रत्यग्रथकलकूटाश्मकादिन ||३|१|१५४ ॥ साल्वा नाम मानुषी चत्रिया तस्या अपत्यं द्वयचः” [३|१|११० ] इति ढणि साल्वेय इत्युसि कृते निपातनादपि भवति । साल्वः क्षत्रियः तस्य निवासो जनपदः साल्वः । तदवयवाः । "उदुम्बरास्तिलखला मद्रकारा युगन्धराः । भुलिङ्गाः शरदण्डाश्च साहवावयवसंशिताः ।" मावावयवेभ्यो राजवाचिभ्यः प्रत्यग्रथिः । कालकूटिः । श्राश्मकिः । सर्वत्र बहुषूप् योज्यः । पाण्डोय ण् ||३|१|१५५ ॥ राष्ट्र शब्दाद्राश इति वर्तते । पाण्डुशब्दाड्ज्यय् भवत्यपत्येऽर्थे । पाण्डोरपत्यं पाण्ड्यः । डकारो टिखार्थः । यकारः "न्णिदूष्टदरक विकारे'' [ ४|३|१५१] इति पुंवद्भावप्रतिषेधार्थः । पाढ्या भार्या श्रस्य पाण्ड्य भार्यः । कथमयं प्रयोगः श्रसिद्वितीयो न ससार पाण्डवः १ पाण्डवा यस्य दासाः इति १ येन जनपदेन समानशब्दो राजा तस्य जनपदस्य स्वामी यदि विवक्षितस्तदायं विधिर्वेदितव्यः । श्रन्यत्रोत्सर्ग एव भवति । 'इह प्रकरणे राजसमानशब्दात् राष्ट्रात् तस्य राजन्यपत्यवदिति वक्तव्यम्” [वा०] राजसमानशब्दात् राष्ट्रात् तस्येति तासमर्थात् राजन्यभिधेये अपत्य इव त्यविधिर्भवति । पञ्चालानां राजा पाञ्चाल | सावेयानां राजा साल्वेयः । एवं श्राङ्गः । श्राम्बष्ट्यः । श्रौदुम्बरिः । पाण्डवानां राजा पाण्ड्यः । सर्वत्र बहुभूप । श्रस्मादपत्यविवक्षायां व वृद्धा:" [ ३।१।१४४ ] इति फिञ् । पाञ्चालयनिः । उप चोलादेः || ३|१|१५६ ॥ राष्ट्रशब्दाद्राज्ञ इति वर्तते । चोलादेः परस्यो भवति । कस्य ९ सम्भवादयत्रोः । चोलस्यापत्यं चोलः । केरलः । कम्बोजः । शकः । यवनः । श्रादिशब्दः प्रकारवाची तस्य राजनीति वर्तते । चोलानां राजा चोलः । कुन्त्यवन्ति कुरुभ्यः स्त्रियाम् ||३|१|१५७ ॥ कुन्ति श्रवन्ति कुरु इत्येतेभ्यः उत्पन्नस्य द्रव् भवति स्त्रियामभिधेयायाम् । कुन्ती । अवन्ती । कुरूः । “द्वित्कुरुनाथ श्राद कोशळाज्य्य:" [३।१।१५३ ] इत्यस्य उपि कृते " इवो मनुष्यजाते: " [३|१|१५] इति ङीविधिः । कुरुशब्दात् " ऊरुव:" [ ३|१|५६ ] इति ऊत्यः । स्त्रियामिति किम् ? कौन्त्यः । श्रतोऽप्राच्यभर्गादेः ||३|१|१५८ ॥ स्त्रियामिति वर्तते । अतस्त्यस्य उन्भवति स्त्रियामभिधेयायां प्रायान् भर्गादश्च वर्जयित्वा । कुन्त्यादिभ्य उब्बचनं ज्ञापकम् - इह अत इति तदन्तविधिर्न भवति । साम दोरुग्भवतीति वेदितव्यम् । अपाच्यो नाम राष्ट्रसमानशब्दो राजा तस्यापत्यं स्त्री अपाच्या अञ उपि टापू । एवं सूरसेनी । मद्रस्यापत्यं स्त्री मद्री । अण उपि जातिलक्षणो ङीविधिः । दरदोऽपत्यं स्त्रीं दरद् । अत इति किम् ? श्रदुम्बरी । साल्वावयवत्वादिञ् । “इतो मनुष्यजाते : " [३।१।२५ ] इति ङीविधिः । श्रप्राच्य For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.३ पा.२सू०.१-] महावृत्तिसहितम् भर्गादेरिति किम् । प्राच्या ये राष्ट्राभिधाना राजानस्तेभ्य उप प्रतिषिध्यते । पाञ्चाली । वैदेही । पैप्पली । पानी। वाङ्गी । सौझी । पोएड्री। मागधी । कालिङ्गी। भर्गादेरमाच्यार्थ उप प्रतिषेधः । भर्गस्यापत्यं स्त्री मार्गी । करूषस्य कारूषी । भर्ग करूष केकय कश्मीर सेल्व (सुल्वा) सुस्थाल उरस कौरव्य । वचनाद्यर्थेण उपि कुरूः । अनेनानुपि कौरव्येति । यौधेयः । शौक्रेय शौभ्रेय घातय ग्रावाणेय नृगत भरत । उशीनर । कस्य पुनरकारस्य यौधेयादिभ्यः द्रुसंज्ञकेभ्यः परस्योप् प्राप्तः प्रतिषिध्यते १ उच्यते । "परवदेरण' [२६] इति द्रिसंज्ञकोऽण् स्वार्थिको वक्ष्यते । तस्यायं प्रतिविधिः' न तु राष्ट्र समानशब्दात् । श्रापत्यस्य उबुच्यमानः कथं स्वार्थिकस्य मिन्नप्रकरणस्य नेरुन्भवति । इदमेव यौधेयादिभ्यः प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं भिन्नप्रकरणस्यापि द्वेरुन्भवति । अपत्यग्रहणेन गृह्यते इति किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् । इह स्त्रियामुपू । पशुः रक्षाः असुरी इति पशु रक्षस् असुर इति राष्ट्र शब्दा राजानः एषामपत्यं संघः स्त्रीत्वविशिष्टो विवक्षित इति अणजोरागतयोः “उप् चोलादेः" [10१५६] इति उपि कृते पुनः "पर्वादेरण" [१२।१] इति स्वार्थिकोऽण् । तस्यापि स्त्रियामनेनोपू सिद्धः। इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः । रागात् ॥३॥२१॥ रज्यतेऽनेन शुक्लं वस्त्विति रागः; कुसुम्भादि द्रव्यम् । तेनेति भासमर्थात् रागविशेषवाचिनो मृदो रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । कषायेण रक्तं वस्त्र काषायम् । हारिद्रम् । कौसुम्भम् । माञ्जिष्ठम् । रागादिति किम् ? देवदत्तेन रक्तम् । "पुखौ घः प्रायेण" [२।३।..] इत्येतद् पश्चिधानेऽपेक्ष्यते । तेन वर्णविशेषस्य रागस्य ग्रहणादिह न भवति । पाणिना रक्तमिति । इहोपमानाद्भवति । काषायो गर्दभस्य कौँ । हारिद्रौ कुक्कुटस्य पादाविति । नीलपीतादकौ ॥२२।२।। नील पीत इत्येताभ्यां भान्ताम्यां रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे यथासंख्यम् अक इत्येतौ त्यौ भवतः । नीलेन रक्त नीलम् । लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् । नील्या रक्त नीलम् । पीतेन रक्त पीतकम् । लाक्षारोचनाशकलकर्दमाढण् ॥२२॥३॥ लाक्षादिभ्यो भासमर्थेभ्यो रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे ठण भवति । अणोऽपवादः । लाक्षया रक्त लाक्षिकम् । शाकलिकम् । शकलकदमाभ्यामणपीध्यते । ___ भायुक्तः कालः ॥२४॥ तेनेति वर्तते । भविशेषवाचिनो मृदो भासमर्थाद् युक्त इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । योऽसौ युक्तः कालश्चेत् स भवति । नित्ययुक्तौ हि भकालो न क्योः सन्निकर्षविप्रकर्षों स्तः। तत्कथं पुष्यादिना 'भेन युक्तः काल' इत्युच्यते । व्यभिचाराभावात् । नैष दोषः । इह पुष्यादिसमीपस्थे चन्द्रमसि पुष्यादयः शब्दाः वर्तमाना गृह्यन्ते । पुष्येण युक्तः कालः पुष्यसमीपगतेन चन्द्रमसा युक्त इत्यर्थः। पौषी रात्रिः । पौषमहः। "तिष्यपुष्ययोर्माणि" [ २०३६ ] इति यकारस्य खम् । माघी रात्रिः। माघमहः । भादिति किम् ? चन्द्रमसा युक्ता रात्रिः। काल इति किम् ? पुष्येण युक्तश्चन्द्रमाः। उसभेदे ॥३२॥५॥ अभेदो नामाविशेषः । पूर्वेण विहितस्योस् भवति न चन्द्रेण युक्तस्य कालस्य भेदो रात्र्यादिविशेषोऽभिधीयते । अद्य पुष्यः । अद्य कृत्तिकाः । अद्य रोहिण्यः । “युक्तवदुसि लिसंख्ये" [1986] इति युक्तवद्भावः । अत्र यावान् कालः त्रिंशन्मुहूर्तमात्रो भेन युक्तो न तस्य भेदोऽभिधीयते । अभेद इति किम् १ पौषी रात्रिः । पौषमहः । अभेद इति प्रसज्यप्रतिषेधः । तेनेहापि न भवति । पौषोऽहोरात्रः। १. प्रतिषेधः स.। For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० २ सू० ६-१३ पौषः कालः इति । श्रथेह कथमुस् न भवति श्रद्य दिवा पुष्यः । श्रद्य रात्रौ पुष्य इति । पूर्वमष्टप्रहरात्मकस्य समुदायस्याभेद उस विधाय पश्चाद्दिवारात्रिशब्दयोः प्रयोगः कृतः । खौ श्रवणश्वत्थाभ्याम् ||३२|६|| खौ भेदेऽपि उस यथा स्यादित्यारम्भः । श्रवण श्रश्वस्थ इत्येताभ्यामुतनस्य यस्योस् भवति खुविषये । श्रवणेन युक्ता श्रवणा रात्रिः । श्रश्वत्थेन युक्ता श्रश्वत्था रात्रिः । अश्वत्थ मुहूर्तः | "फाल्गुनीश्रवग्या का र्तिकी चैत्रीभ्यः " [ ३१२/१८ ] इति श्रवणाशब्दनिर्देशो शापक ह सूत्रे उसियुक्तवद्भावो न भवति । स्वाविति किम् ? श्रावणी रात्रिः । श्राश्वत्थो रात्रिः । द्वन्द्वाच्छः ||३|२|७॥ भद्वन्द्वाद्भासमर्थात् युक्तः काल इत्येतस्मिन्नर्थे छो भवति भेदे चामेदे च । अणोऽपवादः । राधानुराधीयम् । राधानुराधीयं तिष्यपुनर्वसवीयमहः । श्रद्य तिष्यपुनर्वसीयम् । श्रयं परत्वादुसो बाधकः । परिवृतो रथः ||३|२२८ ॥ तेनेति वर्तते । तेन परिवृत इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति यः परिवृतो रथश्चेत् स भवति । वस्त्रेण परिवृतो रथो वास्त्रः । काम्बलः । चार्मणः । " अनः " [ ४|४|११ ८ ] इति णि टिखाभावः । रथ इति किम् ? वस्त्रेण परिवृता शय्या । स इह कस्मान्न भवति छात्रः परिवृतो रथ इति १ अनभिधानात् । अथवा समन्तादुद्वृतः परिवृत इत्याश्रयणात् । रथैकदेशस्त्यमुत्पादयति न छात्रादिः । इह कस्मादण् न भवति । पाण्डुकम्बलैः परिवृतो रथ इति १ अनभिधानात् । कथं पाण्डुकम्बली रथ इति पाण्डुकम्बला अस्य संबृह्य ( सन्ति व्रीह्यादि) पाठात् यसे कृते इन्द्रष्टव्यः । ठस्याभिधानं नास्ति । "तीया - न्तात् स्वार्थं वा ईक वक्तव्यः " [वा०] द्वैतीयिकम् । द्वितीयम् । तार्तीयिकम् । तृतीयम् । “विद्याया अभिवाने नेष्यते” [वा०] द्वितीया विद्या । तृतीया विद्या । इह कथमय् भवति ? न विद्यते पूर्वः पतिर्यस्याः सा पूर्वा कुमारी । तादृशीं कुमारीमुपपन्नः कौमारः पतिरिति "तन्त्र भव:" [३३३३२८] इत्यण् भविष्यति । कुमार्यां भवः पतिः कौमारः पतिः । पुंयोगात् कौमारी भार्यां इत्यपि सिद्धम् । तत्रोद्धृतममत्रेभ्यः ॥३॥२९॥ भुक्तावशिष्टमुद्धृतमुच्यते इति केचित् । तत्तु नातिश्लिष्टम् अन्यत्रापि प्रयोगात् । उद्धृतं ब्राह्मणेन लब्धमिति । तत्रेति ईप्समर्थादमत्रवाचिनो मृदः उद्धृतमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सरावेषु उद्धृत श्रोदनः सारावः । माल्लवः ( माल्लिक: ) । श्रमत्रेभ्य इति किम् ? पाणावुद्धृत श्रोदनः । स्थाण्डिलः ||३|२|१०|| स्थाण्डिल इति निपात्यते । स्थण्डिलशब्दादीबन्ता च्छयितर्यभिधेयेऽणू निपात्यते समुदायेन व्रते गम्ये । स्थण्डिले शेते स्थाण्डिलो ब्रह्मचारी | व्रतादन्यत्र स्थण्डिले शेते देवदत्त इति । संस्कृतं भक्षाः ||३|२|११ ॥ सतो गुणान्तराधानं संस्कारः । खरविस (श) दमभ्यवहार्य भक्षः । तत्रेति ईप्समर्थात् संस्कृतमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तत् संस्कृतं भक्षाश्चेत्तद् भवति । भाष्ट्रे संस्कृताः भ्राष्ट्राः । एवं कैलासाः ( कालशाः ) पात्राः । भक्षा इति किम् ? फलके संस्कृतो मालागुणः । - शूलो खाद्यः ||३२|१२|| शूल उखा इत्येताभ्यां ईप्समर्थाभ्यां संस्कृतं भक्षा इत्येतस्मिन्नर्थे यो भवति । अणोऽपवादः । शूले संस्कृतं शूल्यम् । उखायां संस्कृतमुख्यम् । उपमानात् सिद्धम् । पिठरे शूले इव संस्कृतं पिठरशूल्यम् । मयूरव्यंसकादित्वात् सविधिः । दध्नष्ठण ॥३।२।१३॥ दधिशब्दादीप समर्थात् संस्कृतं भक्षा इत्येतस्मिन्नर्थे ठणू भवति । दधि संस्कृतं दाधिकम् । तत्र यद्दभि संस्कृतं तद्दध्ना संस्कृतमित्यपि भवति । एवं च " तेन संस्कृतम्' इति वक्ष्यमा - योन ठणा सिद्धं नार्थोऽनेन १ नैष दोषः । यदन्यत्रोत्पन्नं दधिकृतमेवोत्कर्षमपेक्षते तदिहोदाहरणम् । यस्य तु दध्ना लवणादिना च संस्कारस्तस्य वच्यमाणमुदाहरणम् । For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ३ पा० १ सू० १४-२३] महावृत्तिसहितम् वोदश्वितः ॥३२॥१४॥ उदश्वित्-शब्दादीपसमर्थात् संस्कृतं भक्षा इत्येतस्मिन्नर्थे ठण् भवति । उदश्विति संस्कृत श्रोदनः औदश्वित्कः । श्रौदश्वितः । अतोऽपि वावचनाज्ञायते तेन संस्कृतातत्र संस्कृतस्यार्थभेदः । अन्यथेवन्ताहण, भान्तादण इत्युभयं सिद्धं स्यात् । क्षोराड ढण् ॥३२॥१५॥ क्षीरशब्दादी समर्थात् संस्कृतं भक्षा हत्येतस्मिन्नर्थे ढण् भवति । श्रणोऽपवादः । दीरे संस्कृता बैरेयी यवागूः। सास्मिन् पौर्णमासीति खो ॥२२॥१६॥ सेति वासमर्थादस्मिन्निति ईबर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद्वानिर्दिष्टं पौर्णमासी सा चेद्भवति । इतिकरणाद्यदि लोके विवक्षा समुदायेन चेत् संज्ञा गम्यते । पूर्णमासा चन्द्रमसा युक्तः कालः पोर्णमासी। इदमेव ज्ञापकमत्राण भवतीति । माघी पौर्णमास्यस्मिन मासेऽद्धमासे संवत्सरे वा माधो मासोऽद्धमासः संवत्सरः। एवं पौषः । स्वाविति किम् ? माघी पौर्णमास्य स्मिन् पञ्चदशरात्रे । इतिशब्दः किमर्थः १ विद्यमानेऽपि लक्षणे लौकिकप्रयोगानुसारणार्थः । इह मा भूत् । माधी पौर्णमासी अस्मिन् हि भवति संवत्सरपर्वणि । अश्वत्थाग्रहायणीभ्यां ठन ॥२२॥१७॥ सास्मिन् पौर्णमासीति वर्तते । अश्वत्थ श्राग्रहायणी इत्येताभ्यां पौर्णमासीति वासमाभ्यामस्मिन्निति ईबर्थे ठञ् भवति । अणोऽपवादः । अश्वत्थेन युक्तः कालः अश्वत्था पोर्णमासी अस्मिन्मासे श्रद्धं मासे संवत्सरे वाऽश्वत्थिकः । अग्रहायणेन युक्तः काल श्राग्रहायणी श्राग्रहायणिकः। फाल्गुनोश्रवणाकार्तिकीचैत्रीभ्यो वा ॥३२॥१८॥ फाल्गुन्यादिभ्यो वा ठप भवति । सास्मिन् पौर्णमासीति वर्तते । फाल्गुनी पौर्णमासी अस्मिन् मासे संवत्सरे वा फाल्गुनिकः । फाल्गुनः । एवं श्रावणिकः। श्रावणः । कार्तिकिकः । कार्तिकः । चैत्रिकः । चैत्रः । ( सास्य देवता ॥ २२।१९ ॥ सेत्यत्र लिङगवचने अप्रधानभूते । सेति वासमर्थादस्येति ताऽथ यथाविहितं त्यो भवति, यत्तद्वानिर्दिष्टं देवता चेत्स भवति । अर्हन् देवता अस्य श्रार्हतः । भगवती देवता अस्य भागवतः । बार्हस्पत्यः। सेति वर्तमाने पुनः साग्रहणं संज्ञाविषयनिवृत्त्यर्थम् । तेन संज्ञायां वायं विधिः। देवतेति किम् ? कन्यो देवदत्तस्य । कस्यः ॥३२॥२०॥ कशब्देन प्रजापतिरभिधीयते । कस्य इकारोऽन्तादेशो भवत्यण च सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये । को देवताऽस्य कायं हविः । अणि पूर्वेण सिद्ध इत्वार्थं वचनम् । प्रारम्भसामर्थ्यात् "यस्य या च" [ ३५] इति खं न भवति । शुक्राद् घः ॥३२॥२१॥ शुक्रशब्दाद् घो भवति । अणोऽपवादः । सास्य देवतेति वर्तते। शुक्रो देवतास्य शुक्रियः। अपोनप्पान्नप्तृभ्याम् ॥३।२।२२।। घ इति वर्तते । अपोनप्तृ अपानप्त इत्येताभ्यां धो भवति । अशोऽपवादः । साऽस्य देवतेति वर्तते । अपोनपाद्देवताऽस्य अपोनष्त्रियः। अपानपाद्देवता अस्य अपानत्रियः। प्रत्यय (त्य) सन्नियोगेन प्रकृत्योः अपोनप्तृनपानप्तृभावो निपात्यते । संप्रेषे अपोनपाते ब्रूहि अपान्नपाते ब्रूहि इति भवति । छः ॥३२॥२३॥ अपोनप्त्रु अपान्नप्तृ इत्येताम्यां छश्च भवति सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये । अपोनप्त्रीयः । अपान्नपत्रीयः । योगविभाग उत्तरार्थः "पौशीपुत्रादिभ्यरको वक्तव्यः" [ वा०] पौगीपुत्रीयः । तार्णविन्दवीयः । "शतरुवातश्च" [वा०] शतरुद्रियः । शतरुद्रीयः । २३ For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म० ३ पा० २ सू० २४-३२ महेन्द्राद्घाऽणौ च ॥३२॥२४॥ सास्य देवतेति वर्तते । महेन्द्रशब्दाद्ध अण् इत्येतौ भवतश्छश्च । महेन्द्रो देवता अस्य महेन्द्रियः । माहेन्द्रः । महेन्द्रीयः। सोमाट्यण ॥३२॥२५॥ सोमशब्दाट्यण् भवति सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये । अणोऽपवादः । सोमो देवता अस्य सौम्यः । स्त्रियां सौमी । “हलो हतो ज्याम्" [ ...] इति यखम् । वाय्वृतुपित्रुषसो यः ॥३२॥२६॥ वायु ऋतु पितृ उषस् इत्येतेभ्यो यो भवति । अणोऽपवादः । माऽस्य देवता इति वर्तते । वायव्यः। ऋतव्यः । पित्र्यः । "परीकृतः' [५।२।१३६] इति रीडादेशः । उपस्यः । धावापृथिवीसुनाशोरमरुत्वदग्नीषोमवास्तोष्पतिगृहमेघाच्छु च ॥ शरा२७ ॥ द्यावापृथिवी इत्येवमादिभ्यश्लो भवति यश्च सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये। द्योश्च पृथिवी च द्यावापृथिव्यौ देवते अस्य द्यावापृथिवीयः। द्यावापृथिव्यः । सुनो वायुः शीर आदित्यः सुनश्च शीरश्च "देवताद्वन्द्व" [भश१३०] इत्यानङ्। सुनाशीरौ देवते अस्य सुनाशीरीयः। सुनाशीयः। मरुलान् देवता प्रस्य महत्वतीयः । मरुत्वत्यः । अग्निश्च सोमश्च देवते अस्य अग्नीप्रोमीयः। अग्नीषोम्यः । “सोमवरुणेऽग्नेरी:" । १४०] इतीत्वम् । "स्तुत्सोमो चाग्नेः" [१६५] इति षत्वम् । वास्तोष्पतीयः । वास्तोष्पत्यः । पुल्लिङ्गत्वं ताया अनुप्षत्वं च निपातनात् । गृहमेधीयः । गृहमेध्यः । सर्वत्राग्निकलिभ्यां ढण् ॥३२॥२८॥ साऽस्य देवतेति वर्तमाने सर्वत्रग्रहणं सर्वार्थसंग्रहार्थम् । अग्निकलिशब्दाभ्यां सर्वेष्वर्थेषु ढण् भवति प्राग्द्रोः । अग्निर्देवता अस्य अग्नौ भवः अग्नेरागतो आग्नेयः । एवं कालेयः। कालेभ्यो भववत् ॥३।२।२६॥ कालविशेषवाचिभ्यो भव हव त्यविधिर्भवति । वत्करणं सर्वविशेषपरिग्रहार्थम् । येभ्यः कालविशेषवाचिभ्यो मृदभ्यो भवे ये त्या विहिताः सास्य देवतेत्यस्मिन्विषये तेभ्य एव मृभ्यस्त एव त्या प्रतिदिश्यन्ते । यथा मासे भवं मासिकं सांवत्सरिकं वासन्तं प्रावृषेण्यम् । "काळाठम" [३।२।११] "भसंध्यात्य॒तुभ्यो वर्षाभ्योऽण् [३।२।१३७) "प्रावृष एण्यः" [ ३।२।१३६] एते त्या भवन्ति । तथा मासो देवता अस्य वसन्तो देवता अस्य प्रावृड् देवता अस्येति अत्रापि भवन्ति । ( महाराजप्रोष्ठपदाभ्यां ठण् ॥३|३०|| महाराजो वैश्रवणः । महाराज प्रोष्ठपदा इत्येताभ्यां ठण भवति तस्य देवतेत्यस्मिन्विषये । महाराजो देवताऽस्य माहारानिकः । प्रोष्ठपदा देवताऽस्य प्रोष्ठपदिकः । "ठणप्रकरणे तदस्मिन्वर्तते इति नवयज्ञादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा० ] नवयज्ञोऽस्मिन् वर्तते नावशिकः । पाकयज्ञिकः । "पूर्णमासादण वक्तव्यः" [वा०] पूर्णमासोऽस्यां वर्तते पौर्णमासी तिथिः ।) पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः ॥३२॥३१॥ पितृव्यादयः शब्दा निपात्यन्ते । समर्थविभक्तिस्त्योऽनुबन्धस्त्यार्थ इति सर्वमिदं निपात्यते। पितृमातृभ्यां तासमर्थाभ्यां भ्रातरि वाच्ये व्यडुलो निपात्येते पितुता पितृव्यः । मातुर्धाता मातुलः । डिवाट्टिखम् । "ताभ्यामेव पितरि डामहः" [वा०] मातुः पिता मातामहः । "स एव डामहो मातरि वाच्या टिच्च" [वा०] मातुर्माता मातामही । पितुर्माता पितामही । टिवान्डीविधिः। तस्य समूहः ॥३२॥३२॥ तस्येति तासमर्थात् समूह इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितस्त्यो भवति । चित्तवदवृद्धं यस्य न चान्यत्र प्रतिपदं ग्रहणं तदिहोदाहरणम् । अचित्तवतष्ठ वदणय ते । वृद्धावुन् । प्रति For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म० ३ पा० २ सू० ३३-३६] महावृत्तिसहितम् १७६ पदमुक्षादिभ्योऽपि वुआदि। । काकानां समूहः काकम् । शौकम् । वार्कम् । इह पञ्चानां पूलानां समूहः पञ्चपूला इति प्राप्नोति । समूहार्थेऽण् तस्य "रस्योगनपत्ये" [३।११७५] इत्युप् “परिमाणादुपि" [३।१।२५] इति नियमात् । असति डीविधौ टापा भवितव्यम् । नायं दोषः। समाहारलक्षण एवात्र रसः । हृदुत्पत्तिर्न भवत्यनभिधानात् । भिक्षादेः ॥३२॥३३॥ तस्य समूह इति वर्तते । भिक्षा इत्येवमादिभ्यः यथाविहितं त्यो भवति । पुनर्विधानं ठणो बाधनार्थम् । भिक्षाणां समूहः भैवम् । भिक्षा गर्भिणी क्षेत्र करीष अङ्गार चर्मन् सहस्र युवति पद्धति अथर्वन् दक्षिणा । इह पाठसामर्थ्यात् गर्भिणी-युवतिशब्दे न पुंवद्भावः । वृद्धोक्षोष्ट्रोरभ्रराजराजन्यराजपुत्रवत्समनुष्याजावुन ॥ ३२॥३४ ।। वृद्धादिभ्यो वुन भवति । तस्य समूह इति वर्तते । श्रौपगवानां समूह श्रौपगवकम् । कापटयकम् । श्रीक्षकम् । श्रौष्ट्रकम् । औरभ्रकम् । राजकम् । राजन्यकम् । राजपुत्रकम् । वात्सकम् । मानुष्यकम् । आजकम् ।' 'दाच्चेति वनम्यम्" [वा. ] वार्द्धकम् । “प्रकृत्या अके राजन्यमनुष्ययुवानः" इति "क्यच्यनाद्धृत्यापत्यस्य'[ १] इति यखं न भवति । इह वृद्धग्रहणात् सिद्धे राजन्यमनुष्ययोः पृथगग्रहणं ज्ञापकम् । अपत्याधिकारादन्यत्र वृद्धग्रहणेन लौकिकं गोत्रमपत्यमात्रमुच्यते न तु पौत्राद्यपत्यं वृद्धमिति । तथाहि लोके किङ्गोत्रो भवान् इति पृष्टः वात्स्यायनोऽस्मीत्याह । राजन्यमनुष्ययोस्तु जातिशब्दत्वात् लौकिकगोत्रग्रहणम् । केदारायश्च ॥३२॥३५॥ केदारशब्दाद्या भवति बुञ् च तस्य समूह इत्यस्मिन्विषये । ठणोऽ पवादः । केदाराणा समूहः कैदार्य्यम् । केदारकम् । "गणिकायाः यश्च वक्तव्यः' [वा०] गणिकाणां समूहः गाणिक्यम् । ठम् कवचिनश्च ॥३२॥३६॥ ठञ् भवति कवचिनश्च केदाराच्च तस्य समूह इत्यस्मिन्विषये । कवचिनां समूहः कावचिकम् । कैदारिकम् । ग्रामजनबन्धुसहायेभ्यस्तल् ॥३॥२॥३७॥ प्रामादिभ्यस्तल भवति तस्य समूह इति वर्तते । प्रामाणां समूहो ग्रामता । जनता । बन्धुता । सहायता । "गजाच्चेति वक्तव्यम्" [वा०] गजता । (घरणेभ्यो धर्मवत् ॥३॥२॥३८॥ चरणवाचिशब्देभ्यः समूह इत्येतस्मिन्नर्थे धर्म इव त्या भवन्ति । इदमेव शाकम् । अस्त्येतत् 'चरणाद्धर्माम्नाययोः" [वा०] इति "वृद्धचरणाम्मित् [३३] इत्यारभ्य चरणाद्धर्मे त्यविधिर्वक्ष्यते, स इहातिदिश्यते । वत्करणं सर्वविशेषपरिग्रहार्थम् । यथा कठानां धर्म काठकम । कालापकम् । मौदकम् । पैप्पलादकम् । श्राभिकम् । वाजसनेयकम् । छान्दोग्यम् । श्रोक्थिक्यम् । श्रावणः । "वृद्धचरणामित्" इति वुन् “छन्दोगौक्थिकयाज्ञिकबट्टचनटाळ्यः'' [१।३।१७] इति ज्यः । "पाथर्वणः' [३।३।१०] इति च निपात्यते पाथर्वणिकानां धर्म इत्यत्र वाक्ये । तथा कठानां समूहः काठकमित्येवमादि योग्यम् । ) अचित्तहस्तिधनीष्ठण ॥३॥२॥३६॥ अचित्तमचेतनम् । अचित्तार्थवाचिभ्यो हस्तिधेनुशब्दाभ्यां च ठण भवति तस्य समूह इत्यस्मिन् विषये । अपूपानां समूहः श्रापूपिकम् । शकुलीनां समूहः शाष्कुलिकम् । हास्तिकम् । धैनुकम् । “पर्वा णस् वक्तव्यः" [वा०] पशूनां स्त्रीणां समूहः पार्श्वम् । सित्वात्पदसंज्ञायां भलक्षणमोरोत्वं न भवति । खण्डिकादिभ्योऽअ वक्तव्य इति चेत् न वक्तव्यः । नास्ति विशेषोऽभि वा सत्यणि वा । खण्डिकादिषु ये चित्तवतस्तेभ्य श्रौत्सर्गिकोऽण् सिद्धः। ये त्वचित्तास्ते भिक्षादिषु पठनीयाः । खण्डिका अहन् वडवतुद्रकमालवाद्रिसंशाताः क्षत्रिया इत्यर्थः । तेषां समूह वृद्धलक्षणो वुन प्राप्तः। ननु च यथा "राष्ट्रावध्यो:" [२।०२] इत्यत्र राष्ट्रादुच्यमानो वुझ न राष्ट्रसमुदायाद्भवति । काशिकौशलेषु भवा For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८० जैनेन्द्र-व्याकरणम् श्र० ३ पा० २ सू० ४०-५७ काशिकोशलीया इति छ एव भवति । तथेह वृद्धादुच्यमानस्त्यः कथं वृद्ध समुदायादिति । एवं तर्हि तदन्तविविना भविष्यति । इदमेव ज्ञापकं सामूहिके त्ये तदन्तविधिर्भवति । क्षौद्रकमालवी सेना | क्षौद्रकमालवकमन्यत् । भिक्षुक शुक उल्लूक । श्रयं यजन्तः बहुत्वेऽणं प्रयोजयति । स्वन् ( श्वन्) युग वरत्र हंस इति खण्डिकादिसामूहिके तदन्तविधिर्ज्ञापितः । तेन श्रपगवकापटवानां समूहः श्रौपगवकापटवकम् । ब्राह्राणराजन्यकम् । दम्यहस्तिनां समूहः दाम्यहस्तिकम् । गौधेनुकम् । "धेनोर्नत्र पूर्वांया नेध्यते " [वा०] अधेनूनां समूहः श्राधेनवम् । केशाश्वाभ्यां यच्छो वा || ३ |२|४०|| केश श्रश्व इत्येताभ्यां यथासंख्यं यञ्छ इत्येतौ त्यौ वा भवतः । केशानां समूहः कैश्यम् । कैशिकम् । श्रश्वानां समूह श्रश्वीयम् । श्राश्वम् । पाशादेर्यः ||३|२| ४१ || पाश इत्येवमादिभ्यो यो भवति । पाश्या । तृण तृण्या। धूम्या । वात वाल्या । लिङ्गं लोकतो ज्ञेयम् । पिटल पिटाक शकल हल नल वन पृस्व । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्य समूह इति वर्तते । पाशानां समूहः पाश तृण धूम वात गार पालव ब्राह्मणमाणववाडवात् ॥ ३२॥४२॥ य इति वर्तते । ब्राह्मण माणव वाडव इत्येतेभ्यो यो भवति तस्य समूह इत्यस्मिन्विषये । ब्राह्मणानां समूहो ब्राह्मण्यम् । माणव्यम् । वाडव्यम् । ne गोखलरथात् ॥३,२|४३॥ गो खल रथ इत्येतेभ्यस्तान्तेभ्यो यो भवति समूहे । गवां समूहः गव्या । खल्या । रथ्या । योगविभाग उत्तरार्थः । धेनुकट्याः ||३ | २|४४ ॥ गो खल रथ इत्येतेभ्यो यथासंख्यं त्र इन् कट्य इत्येते प्रत्यया (त्या ) भवन्ति । तस्य समूह इति वर्तते । गवां समूहः गोत्रा । खलिनी । रथकट्या । "खतादिभ्य इन् वक्तव्यः " [ वा०] डाकिनी । कुटुम्बिनी । लोकतो लिङ्गव्यवस्था । ; राष्ट्र ||३२|४५|| समूह इति निवृत्तम् अर्थान्तरोपादानात् । तस्येति वर्तते । राष्ट्रं जनपदः । तस्येति सामर्थात् राष्ट्रेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति । शिवानां राष्ट्रं शैवम् । जनपदापेक्षया पुंलिङ्गता प्रयोक्लव्या । शैवः । युष्टः ( श्रष्ट्र : ) । श्रभिसारः । "राष्ट्राभिधाने बहुत्वे उस्वक्तव्यः " [ वा० ] श्रङ्गानां राष्ट्रम् श्रङ्गाः । वङ्गाः । सुझाः । “गान्धार्यादिभ्यो वेति वक्रव्यम्" [वा०] गुन्धारीणां राष्ट्रं गान्धारयः । वासातः । वसातयः । शैवः । शिवाः । ' 'राजन्यादिभ्यो वा वुञ उस्वक्तव्यः” [ वा०] राजन्यानां राष्ट्र राजन्याः । राजन्यकः । दैवयातवः । दैवयातवकाः । “बिश्ववनादिभ्यो नित्यमुस् न भवतीति वक्तव्यम्' [ वा० ] बैल्ववनकः । आम्बरीषपुत्रकः । श्रात्मकामेयकः । नेदं बहु वक्तव्यम् । राष्ट्रविवक्षाया निवासविवक्षायाश्च प्रतिनियमात्सिद्धम् । बहुत्वविषये जनपदस्य निवासविवक्षायैव तत्र “जनपद उस” [ ३|२|६१] इति उस् भवति । गान्धार्यादीनां राजन्यादीनां च उभयी विवक्षा बिल्ववनादीनां राष्ट्रविवक्षैव । राजन्यादेषु ॥३|२|४६ ॥ राजन्य इत्येवमादिभ्यस्तासमर्थेभ्यो भव । राजन्यान राष्ट्रं राजन्यकः । राजन्यः । श्रभृति वात्सक ( बाभ्रव्य ) शालङ्कायन दैवयातव जालन्धरायण कौन्तल आत्मकामे आम्बरीषपुत्र घसाति बिल्वधन शैलूष उदुम्बर वैल्वल श्रर्जुनायन संप्रिय दाक्षि ऊर्णनाभ । श्राकृतिगणश्चायम् । मालवत्रिगर्तबिराटादीनां ग्रहणम् । भौरिया कार्यादिभ्यो विधभक्तौ ||३|२| ४७|| आदिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । भौरिक्यादिभ्यः ऐषुकार्यादिभ्यश्च यथासंख्यं विध भक्त इत्येतौ त्यो भवति राष्ट्रेऽर्थे । भौरिकीणां राष्ट्र भौरिभिविधः ॥ भौलिकिविधः । भौरिकि भौलिकि चौपयत चैटयत सैकयत कास्ये ( काणेय ) वाणेजक ( वाणिज्यक ) वालिकाज्यक वैकयत् । ऐषुकारिभक्ता । सारसायनभक्ता । ऐषुकारि सारसायन' चान्द्रायण द्वयाक्षायण व्याक्षायण १. सारस्यायन ब०, स० । For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ३ पा०२ सू०१८-५२) महावृत्तिसहितम् १८१ अलायन ताडायन खाडायन सौवीर ( सौवीरायण ) दासमित्रायण शौद्रायण स (श) यण्ड शौण्ड । वैश्वमाणव वैश्वधेनव तुण्डदेव सापिण्डि । तदस्मिन्यदधे योदधृप्रयोजनात् ॥४८॥ योद्धारश्च प्रयोजनं च योद्धृप्रयोजनम्, तदिति वासमर्थाद अस्मिन्निति ईबर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद्वानिर्दिष्ट योद्धारश्चेत् तद्भवन्ति । प्रयोजनं चेत् तद्भवति । यत्तस्मिन्निति निर्दिष्टं युद्धं चेद्भवति । विद्याधराः योद्धारोऽस्मिन् युद्धे वैद्याधर युद्धम् । कौरवम् । भारतम् । प्रयोजनात् खल्वपि । सुलोचना प्रयोजनमस्मिन् युद्धे सौलोचनम् । स्वायंप्रभम् । सौतारम् । संग्रामे खभिधेये पुलिङ्गता । वैद्याधरः संग्रामः । सौलोचनः संग्रामः । युद्ध इति किम् ? सुभद्रा प्रयोजनमस्मिन्वैरे । योद्धृप्रयोजनादिति किम् ? रथा वाइनमस्मिन् युद्धे । प्रहरणमिति क्रोडायां णः ॥३।२।४६॥ तदस्मिन्निति वर्तते । तदिति वासमर्थादस्मिन्निति ईबर्थे यो भवति यत्तद्वासमर्थ प्रहरणं चेत्तद्भवति यत्तदस्सिन्निति निर्दिष्ट क्रीडा सा चेद्भवति । इतिकरणस्ततश्चेतिवक्षा । श्रद्रोहेण यत्र घातः सा क्रीडा । दण्डः प्रहरणमस्यां क्रीडायां दाण्डा । मौष्टा । पादा । प्रहरणमिति किम् ? गन्धोदकसेचनमस्यां क्रीडायाम् । क्रीडायामिति किम् १ असिः प्रहरणमस्मिन् युद्ध । पातातलंपाता ॥३२॥५०॥ श्यैनंपाता तैलंपाता इत्येतौ शब्दौ निपात्यते । श्येनानामिव पातः श्येनपातोऽस्यां क्राडायां वर्तते श्यैनंपाता । तिलानामिव पातस्तिलपातीऽस्यां क्रीडायां तैलंपाता। अस्मिन्नर्थे यो निपात्यते पूर्वपदस्य च मुमागमः । कथं दण्डपातः क्रिया अस्यां तिथौ वर्तते दाण्डपाता तिथिः। मुशलपातोऽस्यां वर्तते मौशलपाता भूमिः । पूर्वसूत्रे इतिकरणादन्यत्रापि णो भवति । नत्यधीते ॥२२॥५१॥ तदिति इप्समर्थात् वेति अधीते इत्येतयोरर्थयोर्यथाविहितं त्यो भवति । तदिति प्रत्येकं सम्बद्धयते । तद्वेत्ति तदधीते इति । यथा "तेन दीव्यति खनति जयति जितम् ॥१७॥ इत्यत्र तेनेति । मुहूर्त वेत्ति मौहूर्तः । श्रौत्पातः । व्याकरणमधीते वैयाकरणः । सैद्धान्तः । ऋतूक्थादिसूत्रान्ताट्ठण ॥३॥२॥५२॥ सपूपा यज्ञाः क्रतवः । ऋतुविशेषवाचिभ्यो मृभ्य उक्यादिभ्यः सत्रान्ताच ठण भवति । तद्वत्यधीते इति वर्तते। अग्निष्टोमं वेत्यधीते वा श्राग्निष्टोमिकः। राजसयिकः । वाजपेयिकः । उक्थादिभ्यः उक्थशब्दः केषुचिदेव सामसु रूढः । स च ौस्थिक्ये वर्तमानस्त्यविधि लमते । उक्थमधीते श्रोक्थिकः । श्रोक्थिक्यमधीते इत्यर्थः । श्रोक्थिक्यशब्दात्तु न त्यावधिर्भवत्यनभिधानात् । एवं यज्ञशब्दोऽपि याज्ञिक्ये त्यविधि लभते । याशिकः । लोकायतमधीते लोकायतिकः । सूत्रान्तात् - वार्तिसूत्रिकः । सांग्रहसत्रिकः। "सूत्रान्तादकल्पादेरिष्यते' [वा०] । तेन काल्पसूत्र इत्यणेव भवति । सूत्रान्तग्रहणमुक्थादेः प्रपञ्चः । उक्थ लोकायत न्याय न्यास पुनरुक्त संज्ञा चर्चा कमेतर श्लक्ष्ण संहिता पद क्रम संघात वृत्ति संग्रह गण गुण आयुर्वेद वसन्त । सहचरितेऽध्ययने वसन्तात् । वर्षा शरद् । व्यस्तसमस्तात् । शिशिर हेमन्त प्रथमगुण अनुगुण प्रथमगण । अनुगण इति केचित् । अथर्वन् । "वद्यालक्षणकाल्पसूत्रान्तादकल्पादेः" [वा. वायसविद्यिकः। साविधिकः । हास्तिलक्षणिकः । श्राश्वलक्षणिक। मातृकल्पिकः। पेतृकल्पिकः । वातिसूत्रिकः । अकल्पादेरिति किम् ? काल्पसूत्रः। "विद्यामाननक्षत्र (विद्या च नाक्षेत्र) धर्मत्रिपूर्वा" वा०] इह विद्यान्ताहणुक्तस्तस्यायं प्रतिषेधः। अङ्गविद्यामधीते श्राङ्गविद्यः । क्षात्रविद्यः । धार्मविद्यः। विद्यः । व्यवयवा विद्या इति यसेऽयं प्रतिषेधः। रसे तु "रस्योबनपत्ये" [३।०७४] इत्युपा भवितव्यम् । वत्र नास्ति विशेषः । “आख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च" [वा० ] श्राख्यानाख्यायिकयोरर्थग्रहणमितिहासपुराणयोः स्वरूपग्रहणम् । श्राख्यानात्-यावक्रीतिकः । आधिभारिकः' । आख्यायिकायाः वासव .. श्राधिमारिक: ब०, स.। For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० २ सू० ५३ - १६ दत्तिकः । ऐतिहासिकः । पौराणिकः । " सर्वसादेरसाच्चोपू" [वा०] सर्वादेः सादेरसाच्चोन् भवति । सर्ववेदः । सर्वतन्त्रः । सादे :- सवार्त्तिकः । ससंग्रहः । सर्वत्र ठण उप् । रसात् । पञ्चकल्पः । त्रिलक्षणः । त्रिसूत्रः । विद्यालक्षण कल्पसूत्रागुक्तः । पदोत्तरपदादिकः । पूर्वपदिकः । उत्तरपदिकः । " ज्ञातषष्टिभ्यां पथष्टिकः " वा०] शतपथिकः । शतपथिकी । षष्टिपथिकः । षष्टिपथिकी । “अनुसूखच्यलक्षणेभ्यश्च ठय्' [वा०] अनुसूनम ग्रन्थः । अनुसूमधीते श्रानुसुकः । लाचियकः । लाक्षणिकः । द्विपद ज्योतिष प्रभुपद अनुकल्प । "इतिकरणं प्रयोगार्थं वर्तते । ततोऽयं विभागो लभ्यते । क्रमादेर्बुन् ||३|२|५३॥ तद्वेत्यधीते इति वर्तते । क्रम इत्येवमादिभ्यो वुन् भवति । क्रमं वेत्यधीते वा क्रमकः । क्रम पद शिक्षा मीमांसा सामन् । “अनुब्राह्मणादिन्वक्तव्यः " [ घाο ] ब्राह्मणसदृशो ग्रन्थो अनुब्राह्मणं तदधीते अनुब्राह्मणी । अनुब्राह्मणिनौ । श्रनुब्राह्मणिनः । मत्वर्थीयेन सिद्धेऽपि बाधनार्थमिदं वक्तव्यम् । उमात् ||३|२|५४॥प्रोऽर्थे विहितः प्रोक्तः । प्रोक्कत्यान्तादध्येतृवेदित्रोरुत्पन्नस्य त्यस्योबू भवति । (गोतमेनं प्रोक्तं गौतमं तद्वेत्यधीते वा गौतमः । भद्रबाहुना प्रोक्त भाद्रबाहवं तद्वेत्यधीते वा भाद्रबाद्दवः । परस्याण उपि कृते योऽवस्थितः प्रोक्तार्थविषयोऽय् तस्य न्यक्तित्वात् "अनीचः " [३१७] इत्यधिकारात् “टिड्ढाणन् ” [३।१।१८ ] इति ङीविधिर्न भवति तष्टापि गौतमा । भाद्रबाहवा स्त्री । सूत्रात्कोः ||३|२|५५|| सूत्रवाचिनः ककारोङः अध्येतृवेदित्रोरुत्पन्नस्य त्यस्योन्भवति । अप्रोक्ला - र्थोऽयमारम्भः । पञ्चाध्यायाः परिमाणमस्य पञ्चकं सूत्रम् । एवमष्टकं द्वादशकम् । पञ्चकमधीयते विदन्ति व पञ्चका जैनेन्द्राः । अष्टकाः पाणिनीयाः । द्वादशका आईताः । "संख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम्" [वा०] इह मा भूत् । तत्त्वार्थवार्तिकमधीते ताच्वार्थवार्त्तिकः । कलापकमधीयते कालापाः छन्दो ब्राह्मणानि चात्रेव ||३२|५६ ॥ प्रोक्क्रमणमनुवर्तमानं छन्दो ब्राह्मणानां विशेषणम् । श्रत्रेत्यनाध्येतृवेदितृत्यविषयों गृह्यते । छन्दोवाचीनि ब्राह्मणवाचीनि च प्रोक्त्यान्तान्यत्रैवाभ्येतृवेदितुत्यविषये वर्तन्ते । अध्येतृवेदितृत्यविषया वृत्तिरेव यथा स्यादित्यर्थः । उभयावधारणं चेदमेवकारोपादानाल्लभ्यते । श्रन्यथाऽ रम्भसामर्थ्यात् विषयावधारणे सिद्ध एवकारोऽनर्थकः स्यात् । प्रोक्कृत्यान्तस्यात्रैव वृत्तिर्नान्यत्र । तथा वृत्तिरेव न केवलावस्थानमित्युभयथा नियमः । अन्यत्रानियमात् क्वचित् स्वातन्त्र्यं भवति । श्रर्हता प्रोक्तं शास्त्रं क्वचिदुपान्यतरयोगः । श्रार्हतमईत्सु विहितमिति । कचिद्वाक्यमर्हितमधीते । कचिवृत्तिः श्रईत इति । इदं पुनर्नि यमाद्युगपदेव विग्रहः । कठेन प्रोक्तं छन्दोऽधीयते कठाः । शौनकादिषु "वैशम्पायनान्तेवासिभ्य:" [ग०सू० ||७७ ] इति वचनात् णिन् । तत्रैव "कठचर कादुप्'' [ग० सू० ३।३।०७ ] इति तस्योप् । ततः परस्याणः “उष्प्रोक्तात्” [३।२।१४] इत्युप् । नोदेन प्रोक्तमधीयते नोदाः । पैप्पलादाः । “कलापिनोऽय्' [ ३३७६ ] इत्यत्राण्यइणसामर्थ्यात् श्रन्यत्राप्यण । श्रार्चानिनः ( श्राचयिनः ) " वैशम्पायनान्तेवासिभ्य: [ ३।३।७७ ] इति णिन् । वाजसनेयिनः । शौनकादित्वात् णिन् । ब्राह्मणानि खल्वपि । ताण्डिना प्रोक्त ब्राह्मणमधीयते ताण्डिनः । शौनकादिषु " पुरायप्रोकेषु ब्राह्मण करूपेषु'' [ग०सू०३ | ३|०७] इति णिन् । भल्लवेन प्रोक्तमधीते पूर्ववरिन् । भाल्लविनः । एवं साय्यायनिनः । ऐतरेयिणः । छन्दोग्रहणेन सिद्ध पृथग् ब्राह्मणग्रहणं किम् १ पुराणोक्तत्वविशिष्टब्राह्मणपरिग्रहार्थम् । इह मा भूत् । याज्ञवल्केन प्रोक्तानि याज्ञवल्कानि ब्राह्मणानि । "शकलादिभ्यो वृद्धे" [श२२८७] इत्यण् । यत्खम् । सुलभेन प्रोक्तानि सौलमानि " कलापिनोऽयू" [ ३३७१] इत्यन्यत्राप्यण् । याज्ञवल्क्यादयोऽवरकाला इति व्यवहारः । चकारः किमर्थः ? ब्राह्मणसदृशब्राह्मणानां समुच्चयार्थः । काश्यपेन प्रोक्तं कल्पमधीयते काश्यपिनः । कौशिकेन प्रोक्कं कल्पमधीयते कौशिकिनः । शौनकादिषु "काश्यप कौशिकाभ्याम् ' [ग० सू० ३ | ३|७७ ] इति णिन् । गुणभूतछन्दसां च समुच्च For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०१ पा० २ सू० ५७-६०] महावृत्तिसहितम् यार्थम् । पाराशर्येण प्रोक्तं सूत्रमधीयते पाराशरिणो भिक्षवः। शिलालिना प्रोक्तमधीयते शैलालिनो नयाः । शौनकादिषु “पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः" [ग. सू० ३।३।७७ ] इति णिन् । कर्मन्देन प्रोक्तमधीयते कर्मन्दिनः । कृशाश्वेन प्रोक्तमधीयते कृशाश्विनः। शौनकादिष्वेव 'कर्मन्दकृशाश्वाभ्यामिन्" [ग० सू० ३।३७७ ] इति भिक्षुनटसूत्रयोरिति वर्तते । तदस्मिन्नस्तीति देशः खौ ॥३२॥५७॥ तदिति वासमर्थादस्मिन्नितीबर्थे यथाविहितं त्यो भवति । यत्तद्वासमर्थमस्ति चेत् तद्भवति । यत्तदस्मिन्निति निर्दिष्ट देशश्चेत्तद् भवति । समुदायेन खुविषये । इतिकरणाद् भूमादिविषये विवक्षा । औदुम्बरः । वाल्वजः । पार्वतः । मत्वर्थीयोऽनेन बाध्यते । तेन निवृत्तः ॥३२॥८॥ देशः खाविति वर्तते । तेनेति भासमर्थाद् निर्वृत्त इत्येतस्मिन्नथें यथाविहितं त्यो भवति देशः खौ। ककन्देन निर्वृत्ता काकन्दो। मकन्देन निर्वृत्ता माकन्दी। कुशाम्बेन निवृता कौशाम्बी । सहस्रण निर्वृत्ता साहस्री परिखा ) खावित्येव । वनेन निवृत्तम् । इह यदाऽकर्मका अपि धवः सगयः सकर्मका भवन्तीति कर्मणि निवृत्तशब्दी व्युत्पाद्यते, तदा तेनेति कर्तरि करणे वा भा। यदा वकर्मकविवक्षया कर्तरि निर्वृत्तशब्दस्तदा हेतौ भा । तस्य निवासादूरभवौ ।।३।२।५६॥ देशः खाविति वर्तते । तस्येति तासमर्थात् निवास अदूरभवइत्येतयोरर्थयोर्यथाविहितं त्यो भवति देशनाम्नि गम्यमाने । निवसन्त्यस्मिन्निति निवासः "हलः" [२२३३०२] इत्यधिकरणे धन । भवतीति भवः । पचाद्यच् । अदूरे भवः निपातनात्सविधिः । वसतेर्निवासः वासातम् । श्रौषुष्टम् । शलाकाया निवासः शालाकम् । वाराणस्या अदूरभवा वाराणसी। विदिशाया अदूरभवं वैदिशम् । ब्रीहीमत्या अदूरभवं हिमतं नगरम् । बुञ्छणकठेलसेनढणण्ययफरिफभिकण्ठणोऽरीहणकृशाश्वर्यकुमुदकाशतृणप्रेक्षाश्मसखिसकाशबलपक्षकर्णसुतङगमवराहकुमुदादिभ्यः ॥३।२।६०॥ धुआदयः षोडश त्या यथासंख्यमरीहणादिभ्यः षोडशभ्यो गणेभ्यो भवन्ति यथासंभवं प्रागुक्तेषु चतुरर्थेषु । अरीहणादिभ्यो वुञ् ! अरोहणेन निवृत्त श्रारोहणकम् । अरोहण द्रुघण द्रवण खदिर भगल उलुन्द साम्परायण क्रौष्ट्रायण चैत्रायण त्रैगर्तायन रायस्पोष विपथ विसाय उद्दण्ड उदजन शालायन खाण्डायन खण्डवीरण काशकृत्स्न जाम्बवत शिशपा किरण रैवत तैश्व वैमतायन सौमायन शाण्डिल्यायन सुयश विपाश वायस । कृशाश्वादिभ्यश्छण भवति । कशाश्वेन निर्वृत्तं काश्विी यम् । कृशाश्व अरिष्ट वेश्मन् वेप्य विशाल रोमक लोमक ववर शवल रोमश वर्वर सूकर पूतर सदृश सुख धूम अजिर विनत अवनत इरस श्रयस् विकुषास अनस् अवसाय मौद्गल्य । ऋश्यादिभ्यः को भवति । ऋश्या अस्सिन्देशे सन्ति ऋश्यकः । ऋश्य । न्यग्रोध । सर (शिरा)। निलीन । निवास' । निद्यास | वितान । विधान । निबद्ध । बिबुद्ध । परिगूढ । उपगूढ । उपगूह। उच्चराश्मन् । स्थूलबाहु। स्थूलवाह । खदिर। शर्करा । अनडुह् । परिवंश । वेणु । वीरण । कुमुदादिभ्यो भवति । कुमुदान्यस्मिन् देशे सन्ति कुमुदिकम् । कुमुद । शर्करा । न्यग्रोध । कर्कट । संकट। इत्कट । मन्तु। बीज । अश्वत्थ । बल्वज । अथक । गत । वरिवाप। अक्ष। पवाश । शिरीष। कृप । विकङ्कत । कासादिभ्य इलो भवति । काशा अस्मिन्देशे सन्ति काशिलम । प्राश । वास। अश्वत्थ । पलाश। पीलूष । विस । तृण । वधूल। कार्दम। नड । वन । कपर। कर्कट । गुहा । सा(शा)कटिक । तृणादिभ्यः सो भवति । तृणान्यस्यां सन्ति तृणसा । तृण । नड । १. निवात ब०, पू० । २. उत्तराश्मन् पू० । ३. परिवाय २०, ३०। ४. वाम पू०। ५. वधूल ब०। For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० १ सू० ६१-६२ प । वर्णं । मूल । वराण' । अर्जुन । जनक' । फल । प्रेक्षादिभ्य इन् भवति । प्रेक्षाऽस्मिन्नस्ति प्रेक्षी । फलक | वन्धुक । ध्रुवक । धुवका । क्षिपका । न्यग्रोध । इत्कट । कण्टक। संकट । कपि । अश्मादिभ्यो शे । भवति । अरमानोऽस्मिन् सन्ति, अश्मरम् | अश्मन् । यूथ । ऊथ । मीन । दर्भ | वृन्दा | गुडा | खण्ड । काण्ड । नग । शिखा । सख्यादिभ्यो ढय् भवति । सख्या निर्वृत्तं साखेयम् । दान्तेयम् । सखि । दन्त । वासवदत्त । श्रग्निदत्त । वायुदत्त । गोपिल । भल्ल । पाल । चक्रवाक । छगल । श्रशोक । सिनका | सरकापाल । संकाशादिभ्यो ण्यो भवति । संकाशेन निर्वृत्तं सांकाश्यम् । संकाश । कम्पिल । काश्मीर । शूरसेन । सुपथिन् । सुपथञ्च । मन्मथ । यूथ । श्रङ्गनाथ " । कुल । अश्मन् । कूटा । मलिन । तीर्थ । श्रगस्ति । सूर । विरत । विरह । विकर । नासिका । सादिन् । शादिन् । मगदिन् । कलिर । खदिर । गडिर | चूडार । मञ्जार। कोविदार । गोहल । चक्रवाक । अशोक । करवीरक। सीरक । सूरक। मुसल | मुखर । वलादिभ्यो यो भवति । वलेन निर्वृत्तं वल्यम् । वल । पूल । मूल । ऊल । तल । नल । वच । क्रल । पचादिभ्यः फण भवति । पक्षेण निर्वृत्तः पाक्षायणः । पक्ष । तुष' । श्रण्डक । मुण्ड । कम्बलिक । यका । चित्रा । श्रस्तिश्वन् । पथिन् पन्थ च । कुम्भ । सौरक । सरक। सरस । पङ्गल । रोमन् । लोमन् । लोमक । इंसक । सकर्णक । हस्त । विल । कर्णादिभ्यः फिल् भवति । कर्णेन निर्वृत्तः कार्णायनिः । कर्ण । वशिष्ठ । श्रर्क । लुस । द्रुपद । श्रनडुह्य । पाञ्चजन्य । स्फिग् । कुलिश । कुम्भ । जित्वन् । जीवन्त । श्रण्डीवत् । सुवङ्गमादिभ्य इम भवति । सुतङ्गमेन निवृत्तः सौतङ्गमिः । सुतङ्गम । मुतिचित्त । विप्रचिच । महाचित्त । महापुत्र । श्वेत । डिक । शुक्र । विग्र । बोजवापिन् । श्वन् । अर्जुन | अजिर । वराहादिभ्यः कण्भवति । वराहा अस्मिन्देशे सन्ति वाराहकम्। वराह । पलाश । शिरीष । विनद्ध । स्थल । निबद्ध । निदग्ध । विजग्ध । विभिन्न । विभग्न । बहु । खदिर । शर्कर । कुमुदादिभ्यः ठण भवति । कुमुदानि श्रस्मिन्देशे सन्ति कौमुदिकम् । कुमुद । गोमथ १० । रथकार । दशग्राम । श्रश्वत्थ । शाल्मली । मुनिस्थल । कूट । शुचुक । शुचिकर्णं । इति केचित् । श्ररीहणादिषु कुमुदादिषु पटितस्य शिरीषशब्दस्य वरणादिषु दर्शनात् तस्य पते उस् भवतीति वेदितव्यम् । उक्तञ्च भाष्यकृता शिरीषाणामदूरभवो ग्रामः शिरीषः । तस्य वनं शिरीषवनम् । जनपद उस् ||३||६१ ॥ चतुर्ष्वर्थेषु देशे खौ यस्त्यो विहितः तस्य जनपदे देशविशेषेऽभिधेये उस् भवति । पञ्चालस्यापत्यानि पञ्चालाः । पञ्चालानां निवासो जनपदः पञ्चालाः । कुरवः । श्रङ्गाः । उसन्तेन यत्र देशः खुविषयो भवति तत्रायमुस् । इद्द मा भूत् । उदुम्बरा अस्मिन्देशे सन्ति औदुम्बरो जनपदः । वरणादेः ||३|२|६२॥ वरण इत्येवमादिभ्यस्त्यस्योस् भवति चतुर्ष्वर्थेषु उत्पन्नस्य | जनपदार्थो यमारम्भः । वरणानामदूरभवं वरणा नगरम् । शृङ्गिशाल्मलयः । शिरीषा ग्रामः । गोदौ हदौ तयोरदूरभवो गोदौ ग्रामः । एवम् श्रालिङ्गयायन । पर्णी। सपाटी ११ । जालपदी | मथुरा । उज्जयनी । गया । तक्षशिला । उरस् । श्राकृतिगणोऽयम् । तेन वदरी । कटुबदरी । काञ्ची । समन्तपञ्चकस्यादूरभवं समन्तपञ्चकं कुरुक्षेत्रम् इत्येवमादीनां परिग्रहः । १. चरण इति काशिकायाम् । २. जन पू० । ३. ध्रुवका । ध्रुवका । पू० । धुवक । ध्रुवका | ब० । ४. कंकट पू० । ५ सखि दन्त पू० । ६. पिछ । गहिल । भ-पू० । ७. कश्मीर पू० । शच । कुलनाथ पू० । ८. रुष पू० । ६. तुष स० । १०, गोमठ ब०, स० । ११. सफाटी ब० । सम्फाटी । १२. जाळपड़ा ब० । For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म० ३ पा० २ सू० ६३-७२] महावृत्तिसहितम् शर्कराया वा ॥३।२।६३॥ शर्कराशब्दादुत्पन्नस्य चातुरर्थिकस्य वा उस्भवति । शर्कराशब्दः । कुमुदादिषु वराहादिषु च पाठसामर्थ्यात् पक्षे ठण कणोः श्रवणं भवति । शर्कराग्रामः । शर्करिकः । शारिकः । "केऽण :'' [ ५।२।१२५ ] इति प्रादेशः। अन्ते उत्सर्गस्येमं विकल्पमिच्छन्ति । तेषां शार्करेत्यपि भवति । अन्यथा विकल्पोऽनर्थकः स्यात् । ठणछौ ॥३।२।६४॥ ठण्छ इत्येतौ त्यौ भवतः शर्कराशब्दात् चतुर्वर्थेषु । शारिकम् शर्करीयम् । नद्या मतुः ॥३२॥६५॥ नद्यामभिधेयायां मृदो मतुर्भवति चतुर्वर्थेषु देशे खौ। उदुम्बरा अस्यां सन्ति, उदुम्बरावती । वीरणावती । पुष्करावती । इक्षुमती । द्रुमती। कथं भागीरथी भैमरथी जाह्नवी ! वेत्यनुवृत्तेर्व्यवस्था । मध्यादेः ॥३२॥६६॥ मधु इत्येवमादिभ्यो मतुर्भवति चतुर्वर्थेषु । अनद्यर्थोऽयमारम्भः। मधु अस्सिन्देशेऽस्ति, मधुमान् । मधु । विश । स्थाणु । पृर्थि । इक्षु । वेणु । कर्कन्धु । शमी । करीर । हिम । किसरा । सार्यण । उमस । बार्दाकी । वल्मीक । इष्टका । शुक्ति । आसुति । श्रासन्दी। शालाका । वेयवेण । कुमुदनडवेतसाड्डित् ॥३।२।६७॥ कुमुद नड वेतस इत्येतेभ्यश्चतुर्वर्थेषु मनुर्भवति डिच्च । कुमु • दान्यस्मिन्देशे सन्ति, कुमुद्वान् । वेतवान् । 'महिषाच्चेति वक्तव्यम्" [ वा०] | महिष्मान् । शिखाया वलः ॥३२॥६८॥ शिखाशब्दात् वलो भवति चातुरर्थिकः । शिखया निवृत्त शिखाया अदूरभवं वा शिखावलं नाम नगरम् । नडशादाडित् ॥३२॥६६॥ नडशादाभ्यां वलो भवति डिच्चतुर्वर्थेषु । नडा अस्मिन्देशे सन्ति नड्वलः । शाडवलः। उत्करादेश्छः ॥३।२।७०॥ उत्कर इत्येवमादिभ्यश्छो भवति चतुर्थेषु यथासम्भवम् । उत्करेण निवृत्तम्, उत्करीयम् । उत्कर । संकर । सम्फल । पिप्पल । मूल । अश्मन् । अर्क । पर्ण | खण्डाजिन। अग्नि । तिक । कितव। आतप । अंशक' । नडादेः कुक् ॥३।२७१॥ नड शब्द आदिर्यस्य नडादिः, तस्मात्, नड इत्येवमादिभ्यो यथासम्भवं चातुर्रार्थवश्छो भवति कुगागामश्च । नडा अस्मिन्देशे सन्ति नडकीयः । नड । लक्ष । विल्व । बेणु । वेत्र । वेतस । तृण । इत्तु । वाष्ठ । कपोत । क्रौञ्चः प्रादेशश्च । तक्षन् तखञ्च । शेषे ॥३२॥७२॥ अपत्यादयश्चतुरर्थपर्यन्ता येऽर्था उक्लासतोऽन्यः शेषः, शेषेऽर्थविशेषे यथाविहितं त्यो भवति । चतुर्भिरुह्यते चातुरं शकटम् । अश्वैरुह्यते श्राश्वो रथः। चक्षुषा गृह्यते चाक्षुषं रूपम् । श्रावणः शब्दः । दार्शनं स्पार्शनं च द्रव्यम् । दृषदि पिष्टाः दार्षदाः सक्तकः । उलूखले क्षुण्णः, औलूखलो यावकः । चतुर्दश्यां दृश्यते चातुर्दशं रक्षः। अनुष्टुबादिरस्य प्रगाथस्य, श्रानुष्टुभः । पाङ्क्तः । जागतः। स्वार्थेऽनुष्टुबेव आनुष्टुभम् । पाकम् | जागतम् । “तेन दृष्ट साम ।' क्रौञ्चेन दृष्टं साम, क्रौञ्चम् । वासिष्ठम् । वैश्वामित्रम् । मायूरम् । “वामदेवायो वक्तव्यः" [वा०] । वामदेवेन दृष्टं वामदेव्यम् । "क्वचिदृष्टे सामान जाते चाथै योऽन्योऽण विधीयते स च डिद्भवतीति बक्तव्यम् ।" उशनसा दृष्टं साम श्रौशनम् । श्रौशनसम् । शतभिषजि जातः शातभिषः शातभिषजः । “काकाटुनि" [३।२।१३१] प्राप्ते १. पृष्टि ब०, पृ० । २. सीर्यण ब० । ३, वार्दाका पू० । ४. पर्ण । सुपणं । ख-ब०, पू०। ५.-जिन । बलाजिन | अग्नि ब०, पृ०। ६. अशंक पू०। । २४ For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० २ सू० ७३.८० "भसन्ध्याथुतुभ्योऽवर्षाभ्योऽणू' [२११३०] इत्यण । "इष्टे सामनि वृद्धापक्वत् वक्तव्यम्" [वा.] औपगवेन दृष्टं साम, श्रौपगवकम् । कापटवकम् । "वृद्धचरणामित्'' [३।३।१४] इति वुन् । "दष्टे सामनि जाते च योऽन्योऽण् वा डिद्विधीयते । तीयादीकण् च विद्यायां वृद्धावकवदिष्यते ।" शेष इति लक्षणमधिकारश्चायम् । शेषभूतेषु जातादिष्वर्येषु घादयो वक्ष्यमाणा वेदितव्याः। तस्येदं विशेषेष्वर्येषु अपत्यसमूहादिषु मा भूवन्निति । राष्ट्रावारपाराद्घखौ ॥३।२७३।। राष्ट्र अवारपार इत्येताभ्यां यथासंख्यं घ ख इत्येतौ त्यौ भवतः । राष्टे नातः राष्टियः। अवारपारीणः। “विगृहीताक्षपीष्यते"। अवारीणाः। पारीणः। "विपरीतादपि" पारावारीणः । अवारस्य पारे ( रम् ) पारावारः समुद्रः, राजदन्तादित्वात् [१॥३॥६६] परनियमः । ग्रामाचखौ ॥३।२७४॥ ग्रामशब्दात् य खम् इत्येतौ भवतः शेषार्थाऽमिधाने । ग्राम्यः । ग्रामीणः। खो जित्करणं "णिद्धदरकविकारे' [॥३।१५१] इत्यत्र पुंवद्भावप्रतिषेधार्थम् । ग्रामीणभार्यः। करत्र्यादेदकम् ॥३।२।७५।। कत्त्रि इत्येवमादिभ्यो ढका भवति । कुत्सितायो यस्या यस्य वा असौ कत्तिः, तत्र जातो भवो वा कात्रेयकः । कृत्रि। उम्मि' पुष्कर । पुष्कल | पोदन । मौदन । उम्बि । कुण्डिनी' । नगरी । माहिष्मती। चर्मण्वती । कुड्या । कुल्या। अनयोर्यखं च "मामाच्चेति बनव्यम्" [वा०] मामेयकः । "कुछकुक्षिप्रीवाभ्यो यथासंख्यं श्वास्यलकारेविति वक्तव्यम्" [वा०] कौलेयको भवति श्वा चेत्, कौलोऽन्यः । कौडेयको भवत्यसिश्चेत्, कौक्षोऽन्यः। अवेयको भवत्यलङ्कारश्चेत्, प्रैवोऽन्यः। नद्यादेढण् ॥३२७६॥ नदी इत्येवमादिभ्यो ढण भवति शेषे । नद्यां जातो भवो वा नादेयः । नदी । मही। वाराणसी। श्रावस्ती। कौशाम्बी । काशफरी" । खादिरी । पूर्वनगरी। पावा । मावा । शील्वा । दार्वा । सैतव । वडवाया नृषे इति । अत्र केचित् पूर्वनगरीशब्दस्थाने पूर्वनगिरिशब्दं पठन्ति । छेदेन च त्यमुत्पादयन्ति । पुरि भवं पौरेयम् । वने भवं वानेयम् । गिरौ भवं गैरेयम् । दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण ॥३२७७॥ दक्षिणा पश्चात् पुरस् इत्येतेभ्यस्त्यण् भवति शेषे । दक्षिणस्यां दिशि वसति “दक्षिणादा" [१०] इति श्राकारे कृते दक्षिणा, तत्र भवो दाक्षिणात्यः । पाश्चात्यः। पौरस्त्यः। टफण कापिश्याः ॥३॥२७८॥ ट्मण भवति कापिशीशब्दात् शेषे । कापिश्याम्भवं कापिशायनं मधु । कापिशायनी द्राक्षा । "बाहृयु दिभ्यश्चेति वक्तव्यम्" बाह्रायनी । आयनी । रङकोः ॥४२१७६|| रङ्कुशब्दात् टफल् भवति शैषिकः। रङ कुषु जातः राङ्कवायणो गौः। "प्राणिनीति वक्तव्यम् । इह माभूत् । राङ्कवः कम्बलः । कथं राङ्कवो गौः ? शेषे कच्छादिपाठात् अणपि भवति । मनुष्ये त्वभिधेये परत्वात् "नृतस्त्थयोवू" [३।२।११३] इति वुञ् भवति । रावको मनुष्यः । धुप्रागपागुदप्रतीचो यः ॥२०॥ दिव प्राच अपाच उदच प्रतीच् इत्येतेभ्यो यो भवति शेषे । दिव्यः। प्राच्यः । अपाच्यः । उदीच्यः । प्रतीच्यः । यदा प्रागादयः शब्दाः झिसंज्ञकाः कालवाचिनस्तदा परत्वात् "सायंचिरम्प्राद्ध प्रगेमिभ्यस्सनट्" [३ ९० ] इति तनन् । प्राक्तनः । 1.सि पू० । २. पौदन ब०, स०। ३. कण्डिनी अ०, ब., पू०। १, -म्बी । बनकौशाम्बी । का-अ०, ब०, पू. ५. कासपशि । सफरी पू० । कासपारी | सफरी भ०। कासपारी खा- ब.। ६. शाल्वा भ०, पू० । .. बडवाया वषे इति काशि० । For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३. पा० २ सू० ८१ ८७ ] महावृत्तिसहितम् स्तुट् ॥ ३२२८१ ॥ भिसंज्ञकाद्यो भवति तुडागमः शेषे । श्रत्र परिगणनम् । “प्रमेहकतसि त्रेभ्य'' इति । श्रमात्यः । इहत्यः । वत्यः । ततस्त्यः । तत्रत्यः । परिगणनं किम् ? उपरिष्टात् जातः, श्रौपरिष्टः । झेर्भमात्रे टिखम् । परतो जातः पारतः । उत्तराहि जातः, श्रौत्तराहः । "दोश्छः " [ ३२० ] एव भवति । श्रारातीयः । " नेध्रुव इति वक्तव्यम्" [वा०] नियतं सर्वकालं भवं नित्यम् | "निसो गत इति वक्तव्यम्” [ वा० ] निर्गतो वर्णाश्रमेभ्यो निष्टयः श्वपचादिः । १८७ वैषमोह्यस्श्वतः ||३|२|८२ ॥ ऐषमस् ह्यस् श्वस इत्येतेभ्यो वा यो भवति । यदा यस्तदा तुट् । ऐषमस्त्यः । ऐषमस्तनः । ह्यस्त्यः । ह्यस्तनः । श्वस्त्यः । श्वस्तनः । “श्वसस्तुट् च” [३/२/१३५] इति पाक्षिके ठञ, शौवस्तिकः । " द्वारादेः " [ ५।२६] इत्यौच् । रूप्यद्योः || ३|२|८३ ॥ रूप्यशब्दो द्युर्यस्य तस्मात् णो भवति शैषिकः । वृकरूप्ये जातः वार्करूप्यः । दुसंज्ञायां परत्वात् "धन्वयोः " [ शशहर ] इति वुञ् भवति । माणिरूप्ये जातः, माणिरूप्यकः । दिगारख ||३|२| ८४ ॥ दिग्विशेषादेर्मृदः श्रखौ वर्त्तमानात् भवति । व्यणोऽपवादः । शेषे । पूर्वस्य शालायां भवः पौर्वशालः । "हृदयं" [११३४६ ] षसः । एवम् श्रापरशालः । दाक्षिणशालः । श्रखाविति किम् ? पूर्वेषुकामसम्यां जातः पूर्वैषुकामसमः । श्रपरैषुकामसमः । "दिक्संख्यं खौ” [१|३|४५] इति सः । “प्राचां ग्रामाणाम् ” [ ५/२/११] इति द्योरैप् । मद्रेभ्यो ऽण् ||३|२| - ५॥ दिगादेरिति वर्त्तते । दिगादेर्मद्रशब्दात् अय् भवति शैषिकः । "बहुस्वेऽदोरपि" [ ३/२/१०१] इति वुञ प्राप्तः । तदपवादे "वृजिम द्र एकः " [ ३।२/१०६ ] इति के प्राप्त पुनरनेनाय् । पौर्वमद्रः । श्रापरमद्रः । “दिशोऽमद्राणाम् " [ २१२ १ ८ ] इति पर्युदासादादेरैप् । दिगादेरित्येव । मद्रकः । श्रारम्भसामर्थ्यादेवाणि सिद्ध े श्रय्ग्रहणं राष्ट्रलक्षणस्यापि वुत्रो बाधनार्थम् । पलद्यादेः ||३|२|८६|| पलदी इत्येवमादिभ्योऽय् भवति शैषिकः । पलद्यां जातः, पालदः पारिषदः। "वा नाम्नः" [ १७१ ] इति दुसंज्ञायां छः प्रसज्येत । इह वाहीकशब्दश्छबाधार्थमुपात्तः । गोष्ठीनैकेतशब्दाभ्यां छः प्राप्तः । वाहीकशब्दत्वाच्च ठमिठौ प्राप्तौ । गोमतीशब्दात् “रोडीतोः प्राचाम्" [३|२|१०१] इति वुञ प्राप्तः । "ओ' र्देशे ठ" [२|१५] इत्यत्र ( इत्यतो ) देशग्रहणमनुवर्त्तते । गोमती च नदी । “भिन्नलिङ्गो नदीदेश” [१|४|८३] इत्यत्र ज्ञापितं नदीदेशग्रहणेन न गृह्यते । गोमत्यां भवा मत्स्या गौमता इति । तस्मादिह पाठोऽनर्थकः । एकीयमतमेतत् । श्रथवा इदमेव ज्ञापकम् नद्यपि देशग्रहणेन गृह्यते । “भिच लिङ्गो नदीदेश" [१|४|८३] इत्यत्र नदीग्रहणं जलाशयनियमार्थमुक्तम् । श्रवदुदकानां द्वद्व एकवद् भवति (न) स्थिरोदकानां कूपसरस्तडागानाम् । वैश्वामित्र ं च तडागं जरत्कूपश्च वैश्वामित्रजरत्कूपौ । शूरसेन शब्दात् "बहुस्वेऽदोरपि " [ ३।२।१०३ ] इति वुञ प्राप्तः । पलदी । परिषत् । यकृत् । लोमन् । नखञ्च । पटच्चर । वाहीक । कलकीक । बहुकीट । कमलभित् । गौष्ठी । नैकेती । परिखा । उदपान | रोमक । शूरसेन । गोमती । For Private And Personal Use Only शकलादिभ्यो वृद्धे ||३|२/८७ || शकल इत्येवमादिभ्यो वृद्धे यो विहितस्त्यस्तदन्तेभ्योऽण् भवति शेषे । शाकल्यस्य छात्राः शाकलाः । “क्यच्व्यना दूधृत्या पत्यस्य " [ ४|४|१४१] इति यखम् । कायवस्य छात्राः कारावाः । गौकदयस्य गौकक्षः । कौण्डिन्यस्य कौण्डिनः । वृद्ध इति किम् । शकलो देवताऽस्य शाकलः । शाकलस्येदम् शाकलीयम् । उत्तराय च वृद्धग्रहणम् । १. ननु " रोङोतो;" इत्यत्र देशमहणमनुवर्तते । अ० पू० । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० २ सू० ८८-१५ इजः ॥३२२८८॥ वृद्ध यो विहितः इञ् तदन्तादण भवति शेषे । दारिदं दाक्षम् । प्लाक्षम् । वृद्ध इत्येव । सौतङ्गमेरिदं सौतङ्गमीयम् । न द्वथचः प्राच्यभरतेषु ॥३।२।८९॥ यचो मृदः प्राच्यभरतात् वृद्धादिअन्तादण न भवति । पूर्वेण प्राप्तस्य प्रतिषिधः । प्राच्येषु चैदीयाः । पौषीयाः । भरतेषु काशीयाः । वासीयाः । द्वयच इति किम् ? पानागारेश्छात्राः पानागाराः । प्राच्यभरतेषु इति किम् ? दाक्षाः। प्लाक्षाः| "काश्यादेष्टमिजठौ" [ ३२] इत्यत्र चेदिशब्देन साहचर्याद्देशवाचिनः काशिशब्दस्य ग्रहणम् । इह वृद्ध त्यान्ताच्छ उदाहृतः। ननु भरताः प्राच्या एव तेषां किमर्थ पृथगुपादानम् । अन्यत्र प्राच्यग्रहणेन भरतग्रहणं मा भूदित्येवमर्थम् ।। दोश्छः ॥३।२६०॥ वृद्ध इति निवृत्तम् । सामान्येनोपादानात् । दोर्मुदश्छो भवति शेधे । सौतारोयम् । मालीयम् । "रूप्यद्योः" [३।२।३छं (छणं ) बाधित्वा परत्वात् "धन्वयोङः" [३।२।६६] इति वुज । माणिरूप्ये भवः माणिरूप्यकः । “उदीच्यग्रामात् प्रस्थद्योरण वक्तव्यः” [ वा. ] माषीप्रस्थम् । माहकीप्रस्थम् । भवतष्ठणछसौ ॥३।२।६१॥ दोरिति वर्तते । भवच्छब्दात् ठण् छस् इत्येतो त्यो भवतः शेपे । सकार: "सिति" इति पद संज्ञार्थः । भावत्कम् । भवदीयम् । "मृद्ग्रहणे हिङ्गविशिष्टस्य भवतीशब्दस्य ग्रहणे ठण्छसोः' [वा०] इति वक्ष्यमाणेनोपसंख्यातेन पुंवद्भावे तदेव रूपम् । यस्त्यदादिषु न पठ्यते शत्रन्तो भवच्छब्दः, तस्मादणि भावतमिति । __काश्यादेष्ठभिठौ ॥३।२१२॥ काशि इत्येवमादिभ्यः ठञ् मिठ इत्येतौ त्यो भवत शेषे । इचार उच्चारणार्थः। काशयो जनपदः तत्र जाता काशिको, काशिका | वैदिकी, वैदिका । काशि । वेदि । सांयाति । संवाह । श्रच्यत । मोदमान । संकुलाद । हस्तिकणं । कुनामन् । हिरण्य । करण । गोवासन | भोरिनि । भोलिनिअरिन्दम । शकमित्र । देवदत्त । दासमित्र । दासग्राम | गोवाहन । तरङ्ग। सौदावतामि। युवराज । उपराज | सिन्धुमित्र । देवराज । “मापदादिपूर्वपदात् कालान्ताद् ठनिठौ वक्तव्यौ" [वा०]। श्रापकालिकी । आपत्कालिका । श्रोर्ध्वकालिकी। और्वकालिका । श्रापद् । ऊर्ध्व । कूप । अनु । पूर्व । इत्यापदादिः। दोरिति वर्तते । यत्रादुसंज्ञास्तेषां वचनाद् ग्रहणम् । दोरधिकारस्य तु प्रयोजनं देवदत्तस्य प्रागदेशे वर्तमानस्य दुसंज्ञा न वाहीकग्रामे । दोरेव ठनिठौ । कथं भाष्ये प्रयोगः देवदत्तीयाः। देवदत्ताः इति । "वा नाम्नः" [११] इत्यत्र वेति व्यवस्थितविभाषा छे कर्तव्ये दुसंज्ञा भवति ठठियोर्न भवति। वाहोकमामेभ्यः ॥२२॥६३॥ दोरिति वर्त्तते । वाहीकग्रामेभ्यष्ठभिठौ भवतः शेषे । सकलाज्जाता, साकलि की, साकलिका । मान्थपिकी । मान्थपिका । कारतायिकी । कारतायिका । वोशीनरेषु ॥३।२।६४॥ दोरिति वर्तते । उशीनरेषु ये ग्रामाः, तद्वाचिभ्यष्ठबिठौ वा भवतः । पाहूजालिकी, श्राहू जालिका, आहूजालीया । सौदर्शनिको, सौदर्शनिका, सौदर्शनीया । ओदेशे ठन. ॥३।२।९५॥ इह दो रदोत्र विधिः। उत्तरसूत्रे पुनढुंग्रहणात् । उवर्णान्ताद्देशवाचिनो मृदष्ठञ् भवति देशे। निषादका जातः, नैषादकएकः । एदञ्चरवन्तुकः । छस्य परत्वादयं ठञ् बाधकः । दाक्षिकर्युकः। दोष्ठञिटयोरपि बाधकः। वाहीकग्राम, नापितवास्तौ जातः नापितवास्तुकः । देश इति किम् १ पटोश्छात्राः-पाटवाः। १.चेकीयाः श्र०, ब०, पृ०.। २.सौधावनानि अ०। सोधावतानि पृ० । ३. एपञ्चरजन्तुकः अ०, पू० । एयश्चरजन्तुक: ब०। For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ३ पा० २ सू० ६६-१०३ | महावृत्तिसहितम् १८६ दोः प्राचाम् ॥३।२।९६॥ उद्देश (ोदेशे)इति वर्तते । उवर्णान्ताद्दोः प्राग्देशवाचिनष्ठञ् भवति शेषे । दोरदोश्च पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमेतत् । दोरेव प्राचां नाप्यदोः । आढकजम्बुकः । नापितवास्तुकः । दोरिति किम् ? मल्लवास्तु माल्लवास्तवः । कन्यायाः ॥३२॥९७॥ कन्याशब्दाञ् भवति शेषे । कन्था प्रावरणम्, उपचागद् देशोऽपि । कान्थिको गौः। वर्णी वुज ॥३२६८॥ वौँ या कन्या तस्या बुञ् भवति शेषे | वर्णन म नदः, तस्य अदूरभवो जनपदो वणुः, तद्विषये या कन्थेत्यर्थः । कान्थको गौः । कान्यकोऽश्वः । धन्वयोङः ॥३।२।६६॥ दोरिति देश इति च वर्तते । बन्ध (धन्व )वाचिनो यकारोङश्च देशवाचिनो दोषु भवति शेपे । प्राचामिति निवृत्तम् । पारेबन्ध धन्व नि जातः, पारेवन्ध( धन्य कः । श्रापारेबन्ध धन्व)कः । पारावतकः । योङः । साङ्कास्यकः । काम्पिल्यकः । ठठिाभ्यां योङो वुज परत्वात् । वाहीकग्रामे। दासरूप्ये जातः, दासरूप्यकः। “श्रादेशे” [३।२।१५] ठञः परत्वाद्योडो वुञ भवति । आनौतमायौ जातः, याबीतमायवकः । प्रस्थपुरवहान्तात् ॥२।१००॥ दोरिति देश इति च वत्तते । प्रस्थ पुर वह इत्येवमन्ताद्देशवाचिनो दोषुञ् भवति । छस्यापवादः । दोरित्यधिकारात्तदन्तत्वे लब्धे अन्तग्रहणमनर्थकमिति चेत् ; असत्यन्तग्रहणे तदर्थवाचि दुसंज्ञ' गृह्येत । यथा पूर्वसूत्रे बन्धा (धन्वा ) थवाचि दुसंशं गृहीतम् । मालाप्रस्थे जातः । मालाप्रस्थकः । सौ (शौ) णाप्रस्थकः । शान्तिप्रस्थकः । नान्दीपुरकः । कान्धीपुरकः । पैलुवहकः । फाल्गुनीवहकः । पुरान्ताद् "रोडीतो: प्राचाम्।' [३।२।१०१] इति सिद्धेऽप्यप्रागर्थं वचनम् । प्रस्थायन्तात् ठजिनठाभ्यां परत्वेन बुझ् । पानप्रस्थकः । कौत्कुकीवहकः । एतेभ्यो वाहीकग्रामत्वात् ठठिौ प्राप्तौ। रोडीतोः प्राचाम् ॥३।२।१०१॥ दोरिति देश इति च वर्त्तते । प्राग्ग्रहणं देशविशेषणम् । रेफोङ इकारान्ताच्च दोः प्रागदेशवाचिनो वुञ भवति शेषे । छापवादः । पाटलिपुत्रकः । ऐकचक्रकः । ईतः खल्वपि । काकन्दी, काकन्दकः । माकन्दी, माकन्दकः । प्राचामिति किम् ? दात्तामित्रीयः । तपरकरणमसन्देहार्थम् । ' राष्ट्रावध्योः ॥३।२।१०२॥ दौरिति देश इति च वर्तते । देशविशेषणं राष्ट्राऽवधी । राष्ट्रवाचिनस्तदवधिवाचिनश्च दोर्बुज. भवति शेपे । छापवादः। श्राभिसारे जातः, श्राभिसारकः । राष्ट्रावधेः, श्रौषमकः । श्यामायनकः। अवधिग्रहणेनापि राष्ट्रं गृह्यते । किमर्थ तयु पादानम् १ बाधकबाधनार्थम् । “गरोद्यो:" [३।२।१०४] राष्ट्रावधेः परमण्छं बाधित्वा बुझेव भवत्युत्तरसूत्रेण । त्रैगर्तकः । इदं च प्रयोजनम्-मौञ्जिर्नाम वाहीकानामवधिग्रामः, तत्र भवो मौजीयः । ग्रामे अवधौ वुज न भवति । बहुत्वेऽदोरपि ॥३२॥१०॥ राष्ट्रावध्योरिति वर्तते । बहुत्वविषयान्मृदः अदोरपि दोरपि राष्ट्रवाचिनस्तदवधिवाचिनश्च बुञ् भवति शेषे । अण्छयोरपवादः। श्रदो राष्ट्रात्-अङ्गेषु जातः श्राङ्गकः । वाङ्गकः । श्रदो राष्ट्रावधेः । अजकुन्देषु जातः, आजकुन्दकः । दो राष्ट्रात्, दार्वेषु जातः, दार्वकः । काम्बधकः । दो राष्ट्रावधेः । कालअरेषु जातः, कालञ्जरकः । वैकुलिशेषु जातः, वैकुलिशकः । जळुषु जातः, जाह्नवकः। बहुत्वग्रहणं किम् ? जनपदैकदेशबहुत्वेन विवक्षिते बुञ् मा भूत् वर्तनीषु भव इति । दोः पूर्वेणैव सिद्ध अपिग्रहणं किमर्थम् ? उत्तरत्र द्वयोरनुवर्तनार्थम् वाधावाधि'ज्ञा (न्या)येत न)तक्रदानेनैव दधिदानस्य, तस्मादपीत्युक्तम् "मोष्ठजः" [३।२।१६] परत्वात् राष्ट्र लक्षणो वुञ् । जब षु जातः, जाह्नवकः । 1. क्षान्जिप्रस्थकः श्रा, पू० । २. कौकुजीवहकः पू० । कोक्रुजीवहकः अ.। कौस्कुजीवहकः ब० ।३. तर्हि पृथगुपादानम् अ०, ब०, पूछ। ४ धे। अजादे (ढे) षु जातः, प्राजमोद (ढ) कः पू० । .५ विज्ञायेत ब.। For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० २ सू० १०४ - १०६ कच्छाग्निवक्त्रवर्त्त' (गर्त द्योः || ३|२| १०४ ॥ कच्छ श्रग्नि वक्र वर्त्त' (गर्त ) इत्येवं द्योर्देशवाचिनो मृदो दोरदोश्च वुञ् भवति शेषे । छाणोऽपवादः । भरुकच्छे जातः, भारुकच्छकः । पैप्पलीयकच्छुकः । aresग्नौ जातः काडाग्नकः । वैभुजाग्नकः । तेन्दुवक्त्रकः । सैन्धुवक्त्रकः । बाहुवर्तकः । चाक्रवर्तकः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूमादेः ||३२|१०५ ॥ धूम इत्येवमादिभ्यो वुञ भवति शेषे । श्रणादीनामपवादः । धूमे बातः, धौमकः । धूम | षण्ड । शशादन । अर्जुनवा । दण्डायन । स्थली माणवस्थली । घोषस्थली । पोषस्थली । माइकस्थली | राजगृह | सत्रासाह । भक्षास्थली । समुद्रस्थली । मद्रस्थल । अञ्जलीकूल । द्वयाहाव | त्र्याहाव | संस्फीय | पर्वत | गर्भ | विदेह । श्रानर्त्त । श्रनयोरराष्ट्रार्थं ग्रहणम् । पादूर | पाथेय । योङोऽप्यदेशार्थं 1 ग्रहणम् । घोष । सव्य' । पल्लि । राज्ञी । श्राराज्ञकः । धार्त्तराशी । धार्तराज्ञकः । इत्येवमादिग्रहणमप्रागर्थम् । अभय । तीर्था । तीरकूलात्सौवीरेषु । कौलमन्यत् । समुद्रान्नावि मनुष्ये च । सामुद्रमन्यत् । कुक्षि । श्रन्तरीप | रुण | उज्जयिनी । दक्षिणापथ | साकेत | । नगरात्कुत्सादाच्ययोः ||३|२| १०६ ॥ कुत्सा निन्दा, दाक्ष्यं नैपुण्यम् । एते त्यार्थस्य जाता दे - विशेषणम् । नगरशब्दाद् वुञ् भवति शैषिक: कुत्स्यदा दययोर्गम्यमानयोः । तत्र कुत्सायां केनाऽयं मुषितः । इ नगरे मनुष्येण । सम्भाव्यत एतत् । नागरका चौरा हि जागरूका भवन्ति । केनेयं वीणा वादिता इह नगरे मनुष्येण । उपपद्यत एतन्नागरको (कैः ) निपुणा हि नागरका भवन्ति । कुत्सादाच्ययोरिति किम् १ नागरः पुरुषः । कत्र्यादिषु नगरीशब्दः पठ्यते । तस्मादृढकञि नागरेयक इति भवति । मनुष्यादिष्वरण्यात् ||३|२| १०७ ॥ अर(यशब्दान्मनुष्याभिधेये शैषिको वुञ् भवति । "अरण्याण्यो वक्तव्य:" [वा०] इत्युक्तम्, तस्यायमपवादः । श्रारण्यको मनुष्यो वा पन्था वा अध्यायो वा न्यायो वा विहारो बा हस्ती वा । एते मनुष्यादयः । "वा गोमयेष्विति वक्रव्यम्” [वा०] श्रारयका श्रारण्या गोमयाः । मनुष्यादिष्विति किम् ? श्रारण्या श्रोषधयः । कुरुयुगन्धरेभ्यो वा ||३|२|१०८ ॥ कुरु युगन्धर इत्येताभ्यां शैषिको वुञ भवति । 'राष्ट्रशब्दो वा (राष्ट्रवध्योः)" [३।२ । १०२] इति "बहुत्वेऽदोरपि” [३१२ १०३ ] इति नित्ये वुभि प्राप्त विकल्पोऽयम् । कुरुषु जातः कौरवकः । कच्छादिपाठादपि भवति । कौरवः । वाग्रहणं युगन्धरार्थमेव । युगन्धरेषु जातः यौगन्धरकः । यौगन्धरः । नृतत्स्थयोरभिधेययोः कुरुशब्दान्नित्यो वुञ भवति । कौरवको मानुष्यः । कौरव कमस्य जल्पितम् । " वृजिमद्वात् कः ||३|२| १०६ ॥ वृजिमद्रशब्दाभ्यां को भवति शेषे । राष्ट्रलक्षणस्य "बहुस्वेऽदोरपि " [३।२।१०३] इत्यस्य वुञोऽपवादः । वृजिक: । मद्रकः । यस्मिन्प्रकरणे जनपदास्तेषु "सस्यविधौ (म) तदन्तविधिरिति प्रतिषेधे प्राप्ते "सर्वार्द्धदिक्छब्देभ्यो जनपदस्य" [वा०] इति सर्वत्र तदन्तविधिः । सुमागधकः । सर्वमागधकः । अर्धमागधकः । पूर्वमामधकः । सुमद्रकः । सर्वमद्रकः । अर्धमद्रकः । दिक्शब्दपूर्वकत्वे तु मद्रशब्दस्य " दिगर (गा) देखो" [ ३२८४ ] "मद्रेभ्योऽ” [१९१८५ ] इत्यपि । पौर्वमद्रः । स० । १. अत्र गर्तयोरिति पाठः सुवचः । पूर्वत्र राष्ट्रावध्योरिति सूत्रवृत्तौ तुभेवोत्तरसूत्रेण त्रगर्तकः । इत्युक्तेः । बाहुवर्तकः । चाक्रवर्तकः । इत्युदाहरणमप्यन्त्रोक्तं चिन्त्यम् । २. शप अ०, ब०, ३. - व्यत एतन्नागरको (कै: ) निपुणा भवन्ति । केने- ब० । व एतनागर के ( कै: ) चौरा हि नागरका भवन्ति । केने - अ० पू० For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०३ पा० सू० ११० - ११४ ] महावृत्तिसहितम् १९१ कोडो ||३|२| ११० ॥ देश इति वर्त्तते । देशवाचिनो मृदः ककारोङोऽण् भवति । "बहुत्वेऽ दोरपि' [३|१|१०३ ] इति वुञोऽपवादः । ऋषिकेषु जातः प्रार्षिकः । माहिषिकः । श्राश्मकः । कथमिवाकुजात ऐवाक इति १ उच्यते, "ओदेशे" [३/२/१२] इति ठञ् प्राप्तः, तं बाधित्वा परत्वाद् "बहु दोरपि'' इति वुञ् प्राप्तः, तमपि परत्वादयमय् बाधते । “नौणहत्य" [४|४|१६६ ] इत्यादिना उखं निपात्यते । देश इति वर्त्तते । T कच्छादेः ||३|२|१११॥ कच्छ इत्येवमादिभ्यो देशवाचिभ्योऽय् भवति शेषे । वुञोऽपवादः । काच्छ---कच्छशब्दादबहुत्वविषयादुत्सर्ग एवाय् सिद्धः । तस्य नृतत्स्थयोर्बुञ् यथा स्यादित्येवमर्थः पाठः । कच्छ । सिन्धु । व । गन्धार । मधुर मधुरात् । श्रस्याप्युत्तरत्र वुञर्थः पाठः । द्वीप | अनूप । श्रजावह | विज्ञापक । श्रस्यापि कोङो वुञर्थः पाठः । कुलूत । रङ्कु । नृतत्स्थयो||३|२|११२ ॥ कच्छादेरिति वर्त्तते । नरि तत्स्थे चाभिधेये कच्छादेर्बुञ् भवति । श्रणोऽपवादः । काच्छको ना । काच्छकमस्य हसितं जल्पितम् । काच्छिका चूला । सैन्धवको मनुष्यः । सैन्धवकमस्य हसितं जल्पितम् । सैन्धविका चूला । नृतत्स्थयोरिति किम् ? काच्छो गौः । सैन्धवोऽश्वः) I गोयवाग्वपदाती सत्यात् || ३ |२| ११३॥ गवि यवाग्वामपदातौ च जातादौ सत्वशब्दाद् "बहुत्वेऽदोरपि" [ ३/२/१०३ ] इत्येव वुसिद्धः । नियमार्थमिदमुच्यते । एतस्मिन्नेव जातादिविशेषे वु यथा स्यात् । अन्यत्र उत्सर्गापवादोऽय् भवति । तद्विशेषणमपदातिग्रहणम् । कच्छादिष्वस्य पाठोऽ नर्थकः । खल्वेषु जातः साल्वको गौः । साल्विका यवागूः । नृतत्स्थयोरित्येतदत्र' वर्त्तमानमपदाति विशेषणम् । साल्वको मनुष्यः । साल्वकमस्य हसितं जल्पितम् । साल्विका चूला । एतेषु वुञो नियमादन्यत्र साल्वं वस्त्रम् । साल्वाः पदातयः । गर्त्तद्युगहादिभ्यश्छः ||३|२| ११४ ॥ गर्त्त इत्येवं द्योदेशवाचिनो गहादिभ्यश्च छो भवति । श्रणादेरपवादः । स्वाचिद्गतयः । वाहीकग्रामेभ्य इति ठञ्ञिठयोः प्राप्तयोरनेन पुनश्छः । वृकगतयः । शृगालगतयः । श्रय् प्राप्तः । देश इत्यधिकारोऽपि गद्दादीनां सम्भवापेक्षं विशेषणम् । गहे जातः, गहीयः । गइ | अन्तस्थ । सम । मध्य मध्यम चाणू चरणेत्यस्यायमर्थः । पृथिवीमध्यशब्दस्य मध्यमादेशः । पृथिवीमध्ये शब्दस्य वा मध्यमादेशो भवति । माध्यमीयः कठः । चरणसम्बन्धे निवासलक्षणे त्यार्थे श्रणु भवति । माध्यमा इति । उत्तम । श्रङ्ग । मगध । पूर्वपक्ष । श्रपरपक्ष । श्रवमसाख । उत्तमसाख । समानशील। एकप्राम । एकवृक्ष | इवग्र । इदवनीक । अवस्पन्द । कामप्रस्थ । श्रस्मात् "प्रस्थपुरवहान्तात् " [ ३|२| १०० ] इति बुर् प्राप्तः । खाडायनिः । काठोरणिः । लावंरणिः । शैशिरि । शौङ्गि । श्रासुरि । आहिंसि । श्रमित्रि । व्याडि । भौaि | प्रावि । श्राग्नि । शमि । देवशम्मि । यौगिकतरार्कि । वाल्मीकि । माल्नकि । सोमवृत्विन् । उत्तर । मुखपार्श्वतसोः खच्च । पार्श्वतीयम् । मुखतीयम् । जनपरयोः कुक्च । जनकीयम् । परकीयम् | देवस्य च (वा) । देवकीयम् । वेणुकायाश्छण् वक्तव्यः । श्राकृतिगणोऽयम् । वैणुकीयम् । श्रतरI पदीयम् । प्रास्थीयम् । माध्यमकीयम् । मातृकीयम् । चैत्रकीयम् । कृकणवर्णाद् भारद्वाजे देशविशेषे । कृकणीयः । पर्णीयः । 1 १. - दनुवर्त - पू० । - रित्येव तदनुवर्त - अ० । २ अन्तरपक्ष पू० । ३. लावेरणि अ० पू० । ४. आश्वि अ० । ५. ज्योति श्र० । श्रोति ( श्रौति ) पू० । ६. वाशकि पू० । वाटारकि अ० । ७. क्षेमवृत्तिन् अ० पू० । समवृत्तिम् ब० । For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् प्राचां कटादेः || ३|२| ११५ ॥ देश इति वर्तते । तद्विशेषणं प्राग्रहणम् । कटादेः शब्दात्प्राग्देशवाचिनश्को भवति शेषे । श्रणोऽपवादः । कटनगरीयः । क्टग्रामीयः । कटघोषीयः । कटपल्वलीयः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ १० २ ११५-१२३ राशः क च ||३|२|११६ ॥ श्रसम्भवाद् देश इति नाभिसम्बध्यते । राजशब्दस्य ककारो ऽन्तादेशो भवति छश्च । श्रादेशार्थमिदम् | "दोश्छः " [३ २ ६०] सिद्ध एव । राज्ञ इदम् राजकीयम् । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वाद “श्वनोऽखं” [ ४|४|१२० ] नाशङ्कनीयम् । तानिर्दिष्टस्यानन्यवद् भाव उक्तः । न चेहाऽनस्तानिर्देशः; कि तर्हि राजशब्दस्य । दोः कखोङः ||३|२| ११७ ॥ देश इति वर्त्तते । दोदेशवाचिनः ककारोङः खकारोङश्छो भवति शेषे । श्रारीणकीयः । द्रौघणकीयः । श्राश्वत्थिके जातः, आश्वस्थिकीयः । शाल्मलि के जातः शाल्मलिकीयः । कोङ इत्यणि प्राप्ते कः । सौसुके जातः, सौसुकीयः । वाहीकग्रामलक्षणौ ठनठी बाधित्वा को इत्य प्रातः ( आष्टकं नाम बन्धः तत्र जातः) श्राष्टकीयः । बन्धलक्षणं वुञ बाधित्वा कोङ इत्यण् प्राप्तः ब्राह्मणको नाम राष्ट्रम्, तत्र जातः, ब्राह्मणकीयः । "राष्ट्र" [३।२।१०२ ] वुञोऽपवादः "कोड: " [३।१।११० ] इत्यण् प्राप्तः । खोङः खल्वपि। कौटिशिखीयः । माटिशिखीयः । कोटिशिखादयो वाहीकग्रामः कन्थापलदनगर ग्राम हृदयोः || ३|२| ११८ || देश इति वर्त्तते दोश्छ इति च । द्य शब्दः प्रत्येकमभिसम्बद्धयते । कन्थादि द्योदेशवाचिनो दोश्छो भवति शेषे । वाहीकग्रामादिलक्षणस्य त्यस्यापवादः । दाक्षिकन्यायां जातः दाक्षिकन्थोयः । माहकिकन्थीयः । यदोशीनरेषु ग्रामस्तदा नपुंसकलिङ्गत्वम् । "वोशीनरेषु'' [ ३।२।१४ ] ठञिठयोः प्राप्तिः । यदा तु वाहीकग्रामः, तदा स्त्रीलिङ्गत्वम् । “वाहीक" ग्रामेभ्य:" [ ३ | २|३३] इति प्राप्तिः । दाक्षिपलदीयः । माहकिपलदीयः । दाक्षिनगरीयः । माहकिनगरीयः । दाक्षिग्रामीयः । माहकिग्रामीयः । दाक्षिहृदीयः । गोमयहृदीयः । पर्वतात् || ३ |२| ११६ ॥ पर्वतशब्दाच्छो भवति शेषे । अणोऽपवादः । उत्तरत्रामर्त्यविभाषा वक्ष्यते । मदोदाहरणम् । पर्वतीयो मनुष्यः । वामयें ||३२|१२० ॥ मर्त्त्यादन्यस्मिन्नभिधेये पर्वता वा छो भवति । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पोऽयम् । पर्वतीयं फलम् । पर्वतीयमुदकम् । पार्वतमुदकम् । श्रमर्त्य इति किम् ? पर्वतीयो ना । 1 युष्मदस्मदोऽकङ् खन् || ३ |२| १२१|| देश इति निवृत्तम् । वेति वर्त्तते । युष्मदस्मद्भ्यां वा खञ भवति, यदा खञ तदाऽकङादेशः । योष्माकीणः । श्रास्माकीनः | "ङित् " [ १३०] इति दकारस्याकङादेशः, कारोच्चारणसामर्थ्यात् "स्वेऽको दीखम्" [४३८] | वेत्याधिकाराच्छो भवति । युष्मदीयः । श्रस्मदीयः । अणि ॥३|२|१२२ ॥ अणि च परतो युष्मदस्मदोरकङादेशो भवति । इदमेव ज्ञापकम्, युष्मदस्मद्यामपि भवति । यौष्माकः । श्रास्माकः । 1 For Private And Personal Use Only तवकममकावेकार्थे ||३२|१२३ ॥ अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वेति परिभाषेयमनित्या । अणि खञि च परतो युष्मदस्मदोरेकार्थे वर्त्तमानयोस्तवक ममक इत्येतावादेशौ भवतः । स्थान्या देशयोर्यथासंख्यं न त्वादेशनिमित्तयोः । तावकीनो मामकीनः । तावको मामकः । युष्माकं युवयोर्वाऽयं यौष्माकीणः । एवम् श्रास्माकीनः । यौष्माकः । श्रास्माकः । श्रर्थग्रहणं किम् ? तवकममकावेक इत्युच्यमाने, एकवचने परत इति विज्ञायेत, तदाऽत्र को दोषः १ यौष्माकीण श्रस्माकीन इत्यत्राऽप्यादेशविधिः स्यात् । तावकीना मामकीना इत्यत्र च न स्यात् श्रतोऽर्थग्रहणं क्रियते । तेनैकार्थे वर्त्तमानयोर्युष्मदस्मदोरेकवचने बहुवचने वा परत आदेशविधिः सिद्धो भवति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. पा० २ सू० १२४-१३२ ] महावृत्तिसहितम् १९३ योऽर्धात् ॥२२१२४॥ वेति निवृत्तम् । अर्धशब्दाच्छैषिको यो भवति । अणोऽपवादः । अर्धे भवः, अर्ध्यः। परावराधमोत्तमादेः ॥३।२।१२५॥ पर अवर अधम उत्तम इत्येवमादेरर्धशब्दाद्यो भवति शैषिकः । परायः । अवरायः । अधमार्थ्यः । उत्तमार्यः । "इवथंधु समाहारे" [४६] इति षसः । परमर्द्धम्परार्द्धमिति "विशेषणं विशेष्येणेति" [१॥३५२] यसे कृते परार्धे जातः परार्ध्यः । यदा पराs वरादिशब्दौ दिग्वाचिनौ तदोत्तरसूत्रेण यठणौ प्राप्तौ । तदवाचित्वे त्वण प्राप्तः । अधमोत्तमादेरण प्राप्तः । प्रकृतिलमेतेषां मा विज्ञायोति श्रादिग्रहणम् । दिगादेष्ठण च ॥३।२।१२६॥ अर्धादिति वर्तते । दिगादेरर्घाच्छैषिकष्ठय् भवति चकाराद्यश्च । पूर्वार्द्ध बातः, पौर्द्धिकः । पूर्वाद्धर्थः । दाक्षिणार्द्धिकः । दाक्षिणायः । अपरमर्द्ध पश्चाद्धम् "उपय्युपरिष्टास्पश्चाद" [1988७] इत्यत्राद्धे परतोऽपरस्य पश्चभावो वक्ष्यते । पश्चाद्धे जातः, पाश्चार्दिकः । पश्चाद्धयः । "अन्यादेष्ण वक्तव्यः" [वा.] दिग्छब्दादन्यो यदाऽस्यादिर्भवति तदा ठण भवति । पौष्करार्द्धिकः । वैजयार्द्धिकः । वालेयार्द्धिकः । क्षेत्रार्दिकः । पराऽवरादेस्तु पूर्वेण य एव भवति । ___ ग्रामराष्ट्रयोरण्ठौ ॥३।२।१२७॥ दिगादेरर्धादण ठा इत्येतौ त्यौ भवतः शेषेऽर्थे ग्रामराष्ट्रयोश्चेदई भवति । ग्रामैकदेशवाची राष्ट्र कदेशवाची चेदईशब्दो भवतीत्यर्थः । ग्रामस्य राष्ट्रस्य वा पूर्वाद्धे भवः, पौर्वाद्धः । पौर्द्धि कः । दाक्षिणार्द्धः । दाक्षिणार्द्धिकः । पाश्चाद्धः । पाश्चार्द्धिकः । मध्यान्मः ॥३२॥१२८॥ मध्यशब्दाच्छैषिको म इत्ययं त्यो भवति । अणोऽपवादः । मध्यमः । "आदेश्चेति वक्तव्यम्"[घा. ] आदिमः। "अवाधयोः (अवोऽपसोः) सर्व चेति वक्तव्यम्"। अवमः | अधमः। सम्प्रत्यः ॥३।२।१२६॥ सम्प्रत्यर्थे जातादौ मध्यशब्दाद हत्ययं त्यो भवति । कः पुन इवार्थः वार्थः । सम्प्रतिकालो वर्तमानः, सोऽतीताऽनागतयो योरन्तराले वर्तते । एवमन्यदपि द्वयोरन्तराले वर्तमानं सम्प्रतीत्युच्यते । यन्नातिदीर्घ नातिहस्वं मध्यं काष्ठम् । नात्युत्कृष्टो नाप्यपकृष्टो मध्यो वैयाकरणः । मध्या स्त्री। द्वीपादनुसमुद्रे यत्र ॥३२॥१३०॥ समुद्रसमीपे यो द्वीपशब्दस्तस्माच्छैषिको यम, भवति । कच्छादिपाठादणो नृतत्स्थयोवुञश्चापवादः। द्वैप्यम् । द्वैप्या स्त्री। अनुसमुद्र इति किम् ? अनुनदि यो द्वीपः तस्माद्यमुनादिसम्बन्धे द्वीपे भवम्, द्वैपं तृणम् । “कच्छादि'' [३२२१११२] पाठादण । द्वैपको व्यासः । "नृवस्थयो:" [३।२।१३] इति वुन । ___कालाम् ॥२२॥१३१॥ कालविशेषवाचिनो मृदः शैषिकष्ठभ, भवति । अणोऽपवादः । वृद्धत्यं' परत्वाद् बाधते । मासिकः । सांवत्सरिकः । यथा (दा) कदम्बपुष्पयोगात्कालोऽपि कदम्बपुष्पवाच्यः, तत्राऽनेन ठञ् । कदम्बपुष्पे देयमृणं कादम्बपुष्पिकम् । हिपालालिकम् । “तत्र जातः" [३] प्रागितः कालोऽधिकारः। ( पाच शरदः ॥३।२।१३२॥ शरच्छब्दात्कालवाचिनः श्राद्ध ऽभिधेये शैषिकष्ठन भवति । शरदिति हि ऋतुविशेषः । तत्र "भसन्ध्यातुभ्योऽवर्षाभ्योऽण्" [१।२।१३८] प्रासः, तदपवादोऽयम् । शरदि जातं' शारदिकं श्राद्धम् । श्राद्ध इति किम् ? शारदं दधि । शारदं सस्यम् । श्रमशब्देन चात्र रूदिवशापितृकार्यमेवोच्यते, न तु श्रद्धावान् । तेनेह न भवति शारदः श्राद्धः। श्रद्धावानित्यर्थः । ) १. वृद्ध; ० ब०, पृ. । २. गत: का-म०, ब०, पू० । ३. भवं पूछ। For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० २ सू० १३३-१४० वा रोगातपयोः ॥२२।१३३॥ रोगे श्रातपे चाभिधेये शरच्छब्दाच्छैषिको वा ठा. भवति । शारदिकः । शारदो रोग भातपो वा। निशाप्रदोषाभ्याम् ॥३२॥१३४॥ वेति वर्तते । निशाप्रदोषशब्दाभ्यां वा ठत्र भवति शेषे । नित्ये कालाइभि प्राप्ते विकल्पोऽयम् । निशा सोढाऽस्य, नैशिकः । नैशः। प्रादोषिकः । प्रादोषः । निशाप्रदोषसहचरितमध्ययनमुपचारात्तथोच्यते । श्वसस्तटच ॥३२॥१३५॥ श्वसशब्दाहम भवति। तस्य च टन इकादेशे कृते तुडागमः। ठोऽपवादो भिलक्षणस्तुट प्राप्तः, तं बाधित्वा "वैषमोह्यश्वसः" [३।२।३] इति विभाषया ये प्राप्त अनेन ठा विभाष्यते । श्वो बातो भवो वा शौवस्तिकः, श्वस्त्य: । आभ्यां मुक्त तनप् श्वस्तनः । प्रावृष परायः॥३२१३६॥ प्रावृष शब्दात् एण्यो भवति शेषे। ऋत्खणोऽपवादः। प्रावृषेण्यो बलाहकः । गत्वं किमर्थम् ! प्रावृषेण्यमाचष्टे णिचि विपि अतः खे च कृते णकारस्य श्रवणार्थम् । भसन्ध्याधुतुभ्योऽवर्षाभ्योऽण ॥३।२।१३७॥ कालादिति वर्तते । “भाधु क्तः कालः'' [३।२।४] इत्यागतस्याणः "उसभेदे" शशश इत्युसि कृते कालवाचिभ्यो भेभ्यः सन्ध्यादिभ्य ऋतुभ्यो वर्षावर्जितेभ्योऽण् भवति शेषे। ठोऽपवादः। भेभ्यः-तैषः । पौषः । “तिष्यपुष्ययोर्माणि" [५४१३७] इति यखम् । सन्ध्यादिभ्यः-सन्ध्यायां भवो जातो वा सान्ध्यः । सन्ध्या सविखला ( सन्धिवेला)। श्रमावास्या । एकदेशविकृतस्य अमावस्याशब्दस्यापि ग्रहणम् । त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशी पौर्णमासी प्रतिपद् । “संवत्सराफरूपर्वणोः" [ग.सू.] सांवत्सरं फलम् । सांवत्सरं पर्व । अन्यत्र सांवत्सरिको रोगः । ऋतुभ्यः-शरद्धेमन्त शिशिरवसन्त गृष्मः। अवर्षाभ्य इति किम् ? वर्षासु साधु वार्षिकं वासः । अणग्रहणं छबाधनार्थम् । स्वातौ तदं ( भवं ) सौवातम् "पदे य्वोरैयौव" [५।२।८] इत्यौव् । हेमन्तात्तखम् ॥३२॥१३८॥ हेमन्तशब्दादणभवति तत्सन्नियोगेन चास्य तखम् । हेमन्ते साधुः हैमनम् । हैमन्तः। (हैमनमनुलेपनम् । हैमनं वासः । ठमपीष्यते ।) हैमन्तिकमिति । हेमन्ततखमिति वक्तव्यम् । कानिर्देशः किमर्थः १ केवलेऽप्यऽण (हेमन्ताद) यथा स्यात् । तेन सिद्धम् । हेमन्ती पक्तिः । सार्याचरम्पाहणेप्रगेमिभ्यस्तनट ॥३२॥१३६॥ कालादिति वर्तते । सायं चिरं प्राह्न प्रगे शब्दभ्या झिभ्यः कालवाचिभ्यस्तनड भवति शेषे । सायचिरंशब्दयोरभिसंज्ञयोस्त्यसन्नियोगेन मकारान्तता निपात्यते । सायन्तनम् । चिरन्तनम । प्राणप्रगयोस्त्वकारान्तता निपात्यते । प्राहः सोढोऽस्य, प्रातनः। प्रगः सोदोऽस्य, प्रगेतनः। ईबन्तात्तनटि "झकालतनेकालेभ्यो वा'" [४१३३] इत्यनुपा सिद्धम् । प्रातस्तनम् । दिवातनम् । दोषातनम् । “चिरपरस्परारिभ्यस्त्नो वक्तव्यः', [वा०] चिरत्नम् । परुत्नम् । परारिलम् । "अन्तादिमो वक्तव्यः'' [वा० ] अन्तिमम् । वा पूर्वापरादह्नात् ॥३२॥१४०॥ पूर्व अपर इत्येवंपूर्वादह्नशब्दाद् वा तनड् भवति शेषे । नित्ये कालाइञि प्राप्ते विभाषेयम् । पूर्वाह्न तनः । पूर्वाह्नतनः । अपराह्नतनः । अपराह्नतनः । पौर्वाह्निकम् । अापराह्निकम् । यदा पूर्वाह्नः सोढोऽस्य तदा पूर्वाह्नतनः, अपराहृतनः । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ तृतीयस्याऽध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः। १.प्रावट् प० । For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र.३ पा० ३ सू०१-१२] महावृत्तिसहितम् १६५ तत्र जातः ॥३॥३१॥ श्रणादयः परमोत्सर्गाद्यादयश्च शैषिकाः प्रकृताः, तेषामितः प्रभृति प्रकृत्यर्थाः समर्थविभक्त्युपादानं च वेदितव्यम् । तत्रेति ईप्समर्थाज्जात इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सुन्ने जातः स्रोधनः । श्रौत्सः । राष्ट्रियः । शाकलिकी । शाकलिका । सौत्रेयकः । प्रावृषष्ठः ॥३।३।२॥ प्रावृट्छब्दादीपसमर्थान्जात इत्येतस्मिन्नर्थे ठो भवति । एण्यस्यापवादः । प्रावृषिकः । प्रावृषिका स्त्री। खो शरदो वुल ॥३॥३॥३॥ शरच्छब्दाद् वुञ भवति खुविषये । तत्र जात इति वत्तं ते । शारदिका मुद्गा। संज्ञाशब्दानां व्युत्पत्तिमात्रमिदम् । खाविति किम् ? शारदं सस्यम्' । सिन्ध्वपकरादण् ॥३।३।४॥ सिन्धु अपकर इत्येताम्यामण् भवति तत्र जात इत्यस्मिन्विषये । सिन्धुषु जातः सैन्धवः । श्रापकरः। सिन्धुशब्दात् "कच्छादेः"[३।२।११२] इत्यण । "नृतत्स्थयोः" [ ३ ३ ] इति बुश च प्राप्तः । तयोरपवादे के अपकरशब्दादणोऽपवादे उत्तरसूत्रेण के प्राप्तेऽनेनाणपि विधीयते। पूर्वाहापराह्नामूलप्रदोषावस्कराच्च कः ॥३३॥५॥ पूर्वाह्न अपराह्न प्रार्द्रा मूल प्रदोष अवस्कर इत्येतेभ्यः सिन्ध्वपकराभ्याञ्च को भवति । तत्र जात इति वर्तते । पूर्वाह्न जातः पर्वाहका अपराह्नकः । “वा पूर्वापरादह्नात्' [३।२।१४०] इत्यस्यापवादः । आर्द्रकः । “केऽण:"[५।२।१२५] इति प्रादेशः । मुलकः। कालवाचित्वे सति भलक्षणस्याऽणोऽपवादः। प्रदोषक: । "निशाप्रदोषाभ्याम" [३/२/१३५] इत्यस्य बाधा। अवस्करकः । अयोऽपवादः। सिन्धुकः । अपकरकः । प्राभ्यां पर्वेशायपि भवति। पथः पन्थः ॥३३शक्षा पथिशब्दात्को भवति तत्सन्नियोगेन पथिशब्दस्य पन्थ इत्ययं चादेशः। तत्र जात इति वत्तेते । पथि जातः, पन्थकः । श्रणोऽपवादः। वाऽमावास्यायाः ॥३३७॥ अमावास्याशब्दाद् वा को भवति तत्र जात इत्यसिन् विषये। "भसन्ध्यादिना' [३।२।१३७] नित्येऽणि प्राप्ते को विभाष्यते । अमावास्यकः । एकदेशविकृतादमावस्याशब्दादपि । अमावस्यकः । पदेऽण । अमावास्यः । अमावस्यः । अषाढाच ॥३॥३८॥ अ इत्ययं त्यो भवति अषाढशब्दात् चकारादमावास्यायाश्च । तत्र जात इति वर्तते । अपाढाया इति प्राप्त अपादादिति सौत्रो निर्देशः। अषाढायां जाता, अषाढः । अषाढा स्त्री। अमावास्यः । अमावस्यः । "श्रविष्टाषाढाभ्यां छजिति२ वक्तव्यम्" [वा०] । श्राविष्ठीया भाषादीयः। फल्गुन्याष्टः ॥३॥३॥६॥ फल्गुनीशब्दाहो भवति तत्र जात इत्यस्मिन्विषये । नाणोऽपवादः । फल्गुन्या जातः फल्गुनः । फल्गुनी स्त्री। स्थानान्तादुप् ।।३।३।१०॥ स्थानान्तादुत्तरस्य जातार्थ आगतस्याण' उन्भवति । गोस्थाने जातः गोस्थानः । अश्वस्थानः। शालाद् गोखरात् ।।३।३।११।। गो खर इत्येवम्पूर्वाच्छालात्परस्य आतार्थे श्रागतस्य त्यस्योभवति । गवां शाला गोशालम् । खराए। शाला खरशालम् । “सनासुराच्छायाशालानिशा वा" [११] इति नम् । गोशाले जातः, गोशालः । खरशालः । लिङ्गविशिष्टस्य स्त्रीलिङ्गस्याऽपि "चुप्युप'' इति याप उपि सति तदेवोदाहरणम् । वत्साद् वा ।।४।३।१२।। वत्सपूर्वात् शालापरस्य जातार्थे आगतस्य त्यस्योन्भवात वा। वत्सशाले जातः, वत्सशालः । वात्स्यशालः। १. धान्यम् अ, ब०, पृ० । २. छण चेति अ०, ब०, पू० । ३.-स्य त्यस्यो-म०, ब०, ३० । For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ जैनेन्द्र च्याकरणम् [अ० ३ पा० ३ सू० १३.३१ भेभ्यो बहुलम् ॥३३१३॥ भशब्देभ्यः परस्य जावार्थे आगतस्य त्यस्य बहुलमुब् भवति । "श्रविष्टाऽनुराधास्वातिपुनर्वसुतिष्यहस्तविशाखाबहुलाभ्य उबेव भवति"। अविष्ठासु नातः भविष्ठः । भलक्षणस्याण उप् । “हतुप्युप्" [11] इति स्त्रीत्यत्योभवति । अनुराधः। स्वातिः। पुनर्वसुः । तिष्यः । तिष्यग्रहणे पर्यायग्रहणम् । पुष्यः । हस्तः। विशाखः । बहुलः । तथा “चित्रारेवतीरोहिणीभ्यः स्त्रियामुबेव भवति" चित्रायां जाता स्त्री अण उप् । हृदुप्युबिति उप । पुनष्टाप । डीप् । चित्रा। रेवती। रोहिणी । पंसि न भवत्येव । चैत्रः। रैवतः । रोहिणः। "अन्येभ्यो विभाषा"। अभिनित् । श्राभिजितः । अश्वयुक् । प्राश्वयुजः । (शतभिषक् )। शातभिषजः। कृत्तिकः । कार्तिकः । मृगशिरा । मार्गशीर्षः । शिरसः शीर्षादेशो वक्ष्यते । बहुलवचनादन्यदपि, अणो वा डित्वम् । शातभिषः । शातभिषवः । कृतलब्धकीतसम्भूताः ॥३३॥१४॥ तत्रेति वर्त्तते । जात इति निवृत्तम् । अर्थान्तरोपादानात् । तत्रेतीप्समर्थात् कृत लब्ध क्रीत सम्भूत इत्येतेष्वर्येषु यथाविहितं त्यो भवति । सुघ्ने कृतो वा लन्धो वा क्रीतो वा सम्भूतो वा स्रोप्नः। राष्ट्रियः | जातस्यैव विशेषोऽपेक्षितपरव्यापारः स्वभावनिष्पत्तौ भावः कृतजलस्याथः। सामान्येन प्राप्तं लब्धशब्दार्थः। मूल्येन प्राप्त क्रीतशब्दार्थः । विद्यमानस्य गुणान्तरयोगः सम्भतशब्दार्थः। उपचारेणेदं स्वयमुत्पादः सम्भूतत्वं जन्मेति चेत्, एवं तर्हि ज्ञापकमिदम् जन्मोपचारे तत्र लात इत्येष विधिन भवति । "प्रावृष एण्यः' [३।२।१३६] इति एण्यो भवति । प्रावृषि सम्भूतं हिरण्यम् । प्रामुषेण्यम् । "प्रावृषष्ठः" [३।३।२] इति ठोऽत्र न भवति । पथि सम्भूतं हिरण्यम् इत्यत्र "पथः पन्थः" [३६] इत्येष विधिन भवति । कशलः ॥२३१५॥ तत्रेतीपसमर्थात्कुशल इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सुघ्ने कुशलः सौनः। राष्ट्रियः । उत्तरोऽपवादविधिः । कुशलेऽर्थे यथा स्यादिति योगविभागः । पथो धुन् ॥३॥१६॥ पथिशब्दाद् छन् भवति तत्र कुशल इत्यस्मिन्विषये । पथि कुशलः पथकः । आकर्षादेः कः ॥३॥३॥१७॥ तत्र कुशल इति वर्तते । अाकर्ष इत्येवमादिभ्यः को भवति । आकर्षे कुशलः आकर्षकः । श्राकर्ष । सरु । पिशाच । पिचण्ड । अशनि | अस्मन् । निचयः । हादः । कालात्साधुपुष्प्यत्पच्यमाने ॥३॥३॥१८॥ कालविशेषवाचिभ्य ईपसमर्थेभ्यः सात्वादिष्वर्थेषु यथाविहितं त्यो भवति । हेमन्ते साधु, हैमन्तं वस्त्रम् । शैशिरं भोज्यम् । वसन्ते पुष्प्यन्ति, वासन्त्यो लताः । म्यो लताः । शरदि पच्यन्ते शारदाः शालयः। प्रष्मा यवाः । ऋतुलक्षणोऽण् सर्वत्र । ने ॥३३॥१९॥ तत्रेति ईपसमत्कालविशेषवाचिन उसेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति । शरदि उप्यन्ते शारदा यवाः । प्रेमाः शालयः । उत्तरार्थो योगविभागः । आश्वयुज्या वुन. ॥३॥३॥२०॥ आश्वयुजीशन्दादोपसमर्थाद् वुज, भवति उसेऽर्थे । आश्वयुज्यामुप्ता आश्वयुबका मुद्गाः । भित्करणमुत्तरार्थम् । ग्रीष्मवसन्ताद् वा ॥२३॥२१॥ ग्रीष्मवसन्तशब्दाभ्यामी समर्थाभ्यां वुत्र भवत्युप्तेऽर्थे वा । नित्यम ऋत्वणि प्राप्ते विकल्पः । ग्रीष्मे उताः ष्मका ग्रेष्मा वा शालयः। वासन्तका वासन्ता वा यवाः। देयमृणे ॥३३३३२२|| तत्रेति वर्तते । कालादिति च । कालविशेषवाचिनः ईप्समर्थाद् देयमित्येतस्मिमर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद्देयमुणं चेद्भवति । मासे देयमृणं मासिकम् । आर्धमासिकम् । सांवत्सरिकम् । अण इति किम् ? मासे देया भिक्षा । For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० ३ पा० ३ सू० २३-३१] महावृत्तिसहितम् कलाप्यवस्थयवसाद वुन् ॥३३॥२३॥ कालाद देयमृण इति च वर्तते । कलापिन् अश्वत्थ यववुस इत्येतेभ्य ईपसमर्थेभ्यो वुज भवति देयमृणमित्येतस्मिन्नथें । ठोऽपवादः । यस्मिन्काले मयूरा इतवो वा कलापिनो भवन्ति स कालः तत्साहचर्याकलापी । यस्सिन्नश्वत्थानां फलं सोऽश्वत्थः । यस्मिन्यववुस भवति, स: यववुसम् (सः)। कलापिनि काले देयमृणम्, कलापकम् । अश्वत्थकम् । यववुसकम् । ग्रीष्मावरसमाद वुम ॥३॥३२४॥ ग्रीष्म अवरसम इत्येताभ्यां बुआ भवति । तत्र देयमणमिति वर्तते । ग्रीष्मे देयमृणम् ; श्रेष्मकम् | ऋत्वणोऽपवादः । श्रावरसमकम् । ठोऽपवादः । अवरसमा, अवरसमम् । “तिष्ठद्ग्वादि" [२५] इति हस इत्येके । संवत्सराऽप्रहायणीभ्यां ठप च ॥३॥३२॥ संवत्सर-आग्रहायणीशब्दाम्यां ठन भवति वुञ् च । तत्र देयमृणमिति वर्तते । संवत्सरे देयमृणं सांवत्सरिकम् । सांवत्सरकम् । श्राग्रहायणिकम् । अाग्रहायणकम् | वेति वक्तव्ये ठग्रहणं सन्ध्यादिषु "संवत्सरात्फलपर्वणोः" [ग० सू० ३।२।१०] इत्यस्याणो बाधनार्थम् । रौति मृगः ॥३।३।२६॥ तत्रेति वर्तते कालादिति च । कालविशेषवाचिन ईपसमर्थाद् सैति मृग इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । निशायां रौति मृगः, नैशिकः । नैशः । प्रादोषिकः । प्रादोषः । "निशाप्रदोषाभ्याम्' [३।२।१३४] इति ठाणौ। मृग इति किम् ? निशायां रौति उलूकः । तदस्य सोढम् ॥३॥३॥२७॥ सोढमभ्यस्तम् । कालादिति वर्तमानमर्थाद् वान्तं सम्पद्यते । तदिति वासमर्थात्कालविशेषवाचिनो मृदोऽस्येति तार्थे यथाविहितं त्यो भवति । यत्तद्वासमर्थ सोढं चेत्तद् भवति । निशा सोढाऽस्य, नैशिकः । नैशः । प्रादोषिकः । प्रादोषः। साहचर्यान्निशादिशब्देनाध्ययनमढेष्टम् । तत्र भवः ॥३॥३॥२८॥ लब्धात्मलाभ उपलभ्यमानो भवः । तत्रेतीप्समर्थाद् भव इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सौनः । राष्ट्रियः । अनुवर्तते तत्रग्रहणं कालसम्बन्धम् ( सम्बद्धम् ), पुनस्तत्रग्रहणं कालनिवृत्त्यर्थम् । इह प्रायभवग्रहणं च कर्त्तव्यम् । अनित्यभवः प्रायभवः । सुध्ने प्रायभवाः स्रोप्नो मनुष्यः । नियतो भवस्तत्र भवः । यथा स्रौनः प्राकारः । न कर्त्तव्यम् । तत्र भव इति प्रकृत्य "जिह्वामूला. गुलेः" [१॥३।३८] छो विधीयते । स यथैव तस्मिन्दृष्टापचारे अङ्गलीयमित्यादौ भवति, एवं प्रायभवेऽपि भविष्यति । दिगादेयः ॥३॥३॥२६॥ दिश इत्येवमादिभ्यो यो भवति । तत्र भव इति वर्त्तते । अणवस्य चायमपवादः । दिशि भवो दिश्यः । दिश् । वर्ग । पूग । गण। पक्ष । वाप' । मित्र । मेघा । अन्तर । पथिन् । रहस् । अलीक । उखा । साक्षिन् । श्रादि । अन्त । मुखबघनग्रहणमदेहानार्थम् । सेनामुखम् । सेनाजघनमिति । मेघ । यूथ | "उदकात्संज्ञायाम्" [ग. सू.] उदक्या स्त्री । श्रौदकोऽन्यः । न्याय | वंश | अनुवंश । वेश । आकाश । देहानात् ॥३॥३॥३०॥ अङ्गमवयवः । देहाङ्गवाचिनो यो भवति तत्र भव इत्यस्मिन् विषये । श्रणोऽपवादः । तस्य तु परखादेव बाधकः। दन्तेषु भवः, दन्त्यः । ओष्ठ्यम् । मुख्यम् । तालव्यम् । इह तदन्तविधिर्वक्तव्यः । कण्ठतालव्यम् । दन्तोष्ठ्यम् । रतिकुक्षिकलसिवस्त्यनहेन ॥३॥३॥३१॥ इत्यादिभ्यो दम् भवति । तत्र भव इति वर्तते । हतो भवं दातेयम् । अणोऽपवादः। देहाङ्गत्वे यस्यापवादः । कलस्यां भवम् कालसेयम् । श्रणोऽपवादः। १.चाप म.। For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् १९८ [अ० ३ पा० १ सू० ३२-३६ वास्तेयम् । यस्यापवादः । सृजत्यसन्नियोगे ऽस्त्रिभावो निपात्यते । श्रसृजि भवम्, श्रास्त्रयम् । प्रकृत्यन्तरमस्त्रिशब्दः । श्राहेयं विषम् । श्रणोऽपवादः । प्रीवाभ्योऽण् ' च ||३|३|३२|| ग्रीवाः शिरोधमन्यः । ग्रीवाशब्दादण् भवति ढञ्च तत्र भव इत्यस्मिन् विषये । यस्यापवादः । ग्रीवासु भवं ग्रैवम् । ग्रैवेयम् । गम्भीरायः ||३|३|३३|| गम्भीरशब्दाञ्ज्यो भवति । गम्भीरे भवम् गाम्भीर्य्यम् । अत्यल्पमिदम् । “गम्भीरबहिर्देव पञ्चजनेभ्य इति वक्तव्यम्" [वा०] बाह्यम् । देव्यम् । पाञ्चजन्यम् । हात् ||३|३|३४|| तत्र भव इति वर्तते । हसंज्ञकान्मृदो ज्यो भवति । श्रयोऽपवादः । हसंज्ञकेभ्यः परिमुखादिभ्य प्रवेष्यते । परिमुखे भवम्, पारिमुख्यम् । परिमुख परिहन् पर्योष्ठ पर्युलूखल परिशाल परिशील अनुसीर उपसीर उपस्थूण उपवाल उपकपाल अनुपथ श्रनुरथ परिरथ अनुगङ्ग अनुतिल अनुमाष श्रनुयव अनुयूथ अनुवंशो येषु परिपूर्वेषु वर्जनार्थ प्रतीतिः तेषां "पर्यंपादहिरन्यवः कथा" [11३।१०] इति हसः । अन्यत्र “झि" [३१] इति योगविभागात् । परिमुखादेरिति किम् ? श्रपकूलम् | हादिति किम् १ परिगतं मुखं से य एव भवति । परिमुख्यम् । अन्तरादेष्ठञ ||३|३|३५|| हादिति वर्तते । अन्तःशब्दादेदृञ् भवति । श्रणोऽपवादः । श्रन्तःशब्दो भिसंज्ञको विभक्त्यर्थः । श्रन्तर्गेहे भवम् श्रान्तर्गेहिकम् । श्रान्तरगारिकम् । "पुरान्वात्प्रतिषेधो वक्तव्य: 22 [वा०] अन्तःपुरे भवम् श्रान्तःपुरम् । श्रत्रेष्टयः । 1 "समानाच्च तदादेश्व, अध्यात्मादिषु चेष्यते । ऊर्ध्वाद्विमाच्च देहाच्या लोकोत्तरपदादपि ॥ [वा०] समाने भवम् सामानिकम् । " तदादेश्च" सामानग्रामिकम् । सामानदेशिकम् । " अध्यात्मादिषु श्रध्यात्मिकम् । श्राधिदैविकम् । श्राध्यात्मादिराकृतिगणः । ऊर्ध्वदमात् श्रौर्ध्वदमिकम् । केचिदूर्ध्वशब्देन समानार्थमूर्ध्वं शब्दं मान्तं पठन्ति । तेषाम् श्रौर्ध्वन्दमिकम् । श्रौर्ध्वदेहिकम् । “छोकोशरपदादपि” । ऐहलौकिकम् । पारलौकिकम् । । ""मुखपाश्वत सोरीयः कुगूजनस्य परस्य च । ईयः कार्योऽथ मध्यस्य मण्मीयौ च हृतौ मतौ 1 ॥" [वा०] -मुखपाश्वभ्यां तसन्ताभ्यामीयो वक्तव्यः । मुखतीयम् । पार्श्वतीयम् । भेर्भमात्रे टिखम् इति टिम् T कुग्जनस्य परस्य च । जनकीयम् । परकीयम् । “मध्यादीयो वक्तव्यः” । मध्यीयः । “मम्मीयौ च हृतौ मतौ मध्यादेश्व" । माध्यमः । मध्यमीयः । " मध्यो मध्यन्दिनश्चास्मादुपू स्थाम्नो हाजिनाशथा" [वा०] । मध्यशब्दो मध्यं रूपमापद्यते । दिनश्चास्मात्त्यः । मध्ये भवम्, मध्यन्दिनम् । उप् स्थामान्ताद् जिनान्ताच्च वक्तव्यः । श्रश्वस्थाम्नि भवः, अश्वथामा | काजिने भवः, वृकाजिनः । ऋण उप् । उपाज्जानुनीविकर्णात् || ३ | ३ | ३६ ॥ उपपूर्वेभ्यो जानु नीवि कर्य इत्येतेभ्यष्ठञ् भवति । तत्र भव इति वर्तते हादिति च । उपजानु भवम् श्रपजानुकम् । श्रपनीविकम् । औपकर्णिकम् । देहाङ्गलक्षणस्य यस्यापवादः । इद्द कस्मान्न भवति, अपजानु भवं गडिवति । श्रनभिधानात् । ग्रामात्पर्यन्वोः ||३|३|३७|| द्वादिति वर्तते । परि अनु इत्येवंपूर्वाद् ग्रामशब्दाट्ठञ् भवति तत्र भव इत्यस्मिन्विषये । पारिग्रामिकः । श्रानुग्रामिकः । श्रयोऽपवादः । जिह्वामूलाङ्ग लेश्छः ||२/३/३० ॥ हादिति निवृत्तम् । तत्र भव इति वर्तते । जिह्वामूल-अङ्गुलिशब्दाभ्यां छो भवति । यस्यापवादः । जिह्वामूलीयः । श्रङ्गुलीयः । वर्गान्तात् ||३|३|३६|| वर्गशब्दान्ताच्च छो भवति तत्र भव इत्यस्मिन्विषये । अशब्देऽपवादो वक्ष्यते । शब्द इहोदाहरणम् । कवर्गीयां वर्णः । चवर्गीयः । १. यूवा । For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म० ३ पा० ३ सू० ४०-४७ ] महावृत्तिसहितम् यखो वाऽशब्दे ॥३॥४०॥ तत्र भव इति वर्तते । वर्गान्तात् य ख इत्येतौ त्यो वा भवतः शब्दादन्यस्मिंस्त्याथें । पूर्वेण नित्ये छे प्राप्ते विभाषेयम् । भरतवर्गे भवः, भरतवर्यः । भरतवर्गीणः । भरतवर्गीयः । बाहुबलिवर्यः । बाहुबलिवर्गीणः । बाहुबलिवर्गीयः । कर्णललाटभूषणे कः ॥३३॥४१॥ तत्र भव इत्यस्मिन्विषये कर्णललाटशब्दाभ्यां को भवति समुदायेन भूषणेऽभिधेये । कर्णिका । ललाटिका । स्वभावतः स्त्रीलिङ्गः। भूषण इति किम् ? कर्यम् । ललाट्यम् । तस्य व्याख्यान इति च व्याख्येयाख्यायाः ॥३३॥४२॥ व्याख्यायतेऽनेनेति व्याख्यानम् । व्याख्यातव्यं व्याख्येयम् । तस्याख्या नाम व्याख्येयाख्या। तस्येति तासमर्थाद् व्याख्येयाख्यारूपाद् मृदो व्याख्यानेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति चकारात्तत्र भव इत्यस्मिंश्च वाक्यार्थे । इतिशब्दः पर्ववाक्यपरिसमाप्त्यर्थः । सुपां व्याख्यानं सुप्सु भवं वा सौपम् । मिडां व्याख्यानं मिक्षु भवं वा मैङम् । एवं कार्तम् । हार्तम् । व्याख्येयाख्याया इति किम् ? पार्यलपुत्रस्य व्याख्यानं सुकौशला । पाटलिपुत्रं सुकौशलया व्याख्यायते सन्निवेशहारेण । न पुनलोके तद्व्याख्येयस्य ग्रन्थस्याख्याभूतम् । ननु च तस्य व्याख्याने अर्थे "तस्येदम्" [३८] इत्यनेनैव त्यविधिः सिद्धः। चकारानुकृष्टेऽपि तत्र भवेऽर्थे पूर्वमेव स्यविधिरुक्तः । तत्किमनयोर्युगपदुपादानम् ? वक्ष्यमाणोऽपवादविधिः । व्याख्येयाख्याया अनयोरर्थयोर्यथा स्यादित्येवमर्थम् । बढ्चो बहुलं ठव्य ॥३॥३॥४३॥ बल चो व्याख्येयाख्याभूतान्मृदो बहुलं ठञ् भवति तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे । अणादेरपवादः । बहुलग्रहणं बहुप्रपञ्चार्थम् । सविधौ ये बह्वचः तेभ्यः ऋकारान्तब्राह्मणप्रथमाध्वरपुरश्चरणनामाख्यातपौरोडाशेभ्यः क्रतुभ्यश्च गौणमुख्येभ्यष्ठा भवति । सविधौ - पखणखस्य व्याख्यानम्, षत्वणत्वे भवं षाखणविकम् । ऋकारान्तात् - चातु होतृकम् । पाश्चहोतृकम् । ब्राह्मणिकम् । प्राथमिकम् । आध्वरिकम् । पौरश्चरणिकम् । नामाख्यातिकम् । विगृहीतादपि । नामिकम् । श्राख्यातिकम् । पौरोडाशिकम् । मुख्येभ्यः ऋतुभ्यः - श्राग्निष्टोमिकम । राजयिकम् । वाजपेयिकम् । पाकयज्ञिकम् | भाव यज्ञिकम् । गौणेभ्यः - पाञ्चौदनिकम् । दाशौदनिकम् । ऋषिभ्योऽध्यायैर्भवति । वाशिष्ठकोऽध्यायः । वैश्वामित्रिकोऽध्यायः । अन्यत्र वाशिष्ठी ऋक् । तिसेषु न भवति । संहिताया व्याख्यानं तत्र भवं वा सांहितम् । बह्व॒च इति किम् ? कार्तम् । हार्तम् । व्याख्येयाख्याया इत्येव । मथुरायां भवः, माथुरः । द्वचजचः ॥३३॥४४॥ द्वयचो मृद ऋक्छब्दाच्च ठम भवति तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे । अण्णादेरपवादः । अङ्गस्य व्याख्यानम् , अङ्गे भवं वा आङ्गिकम् । पौर्विकम् । तार्किकम् । नामिकम् । ऋचां व्याख्यानं ऋतु भवं वा आर्चिकम् । पुरोडाशाहद् ॥३३॥४५॥ पुरोडाशशब्दादृद्र भवति तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे । पुरोडाशाः पिष्टपिण्डाः । साहचर्य्यात्तेषां संस्कारको मन्त्रोऽपि तथोक्तः। पौरोडाशिकी । छन्दसो यः ॥३॥३॥४६॥ छन्दःशब्दाद्यो भवति तस्य व्याख्यान इत्येवास्मिन्विषये । द्वयज्लवणठोऽपवादः । छन्दसो व्याख्यानं छन्दसि भवं वा छन्दस्यम् । गयनादेवाण ॥३॥३॥४७॥ ऋगयन इत्येवमादिभ्यो मृद्भ्यश्छन्दःशब्दाच्चाण् भवति तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे । ऋगयनस्य व्याख्यानः, ऋगयने भवो वा, आगयणः। अणि परत ऋगयनस्य For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा० ३ सू० ४.१४ णत्वमिष्यते/ ऋगयन । पदव्याख्यान । छन्दोव्याख्यान । छन्दोमान । छन्दोभाषा। छन्दोविचित । छन्दोविचिति । न्योक । पुनरुक्त । निरुक्त । व्याकरण । नियम । निगम । वास्तुविद्या । अविद्या । छत्रविद्या । उत्पात । उत्पाद । संवत्सर । मुहूतं । निमित्त । उपनिषत् । भिक्ष्य । इति ऋगयनादिः ।) छन्दस् । छन्दसः पृथगग्रहणं पूर्वेण यार्थम् । पुनरणग्रहणं बाधकस्य ठनः छस्य च बाधनार्यम् । ....... तत आगतः ॥३॥३॥४८॥ तत इति कायाम् अर्थात् प्रागत इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सुघ्नादागतः सोध्नः । राष्ट्रियः । मुख्यस्याऽपादानस्य सम्प्रत्ययः । स्नादागच्छन् वृक्ष्मूलादागत इति वृक्षमूलशब्दाच्यो न भवति । आयस्थानेभ्यष्ठण ॥३॥३॥४९॥ द्रव्यागमनमायः । स यस्मिस्तिष्ठत्युत्पत्तिद्वारेण तदायस्थानम् । तदवाचिभ्यष्ठण भवति तत आगत इत्यस्मिन्विषये। अणोऽपवादः । छस्य तु परत्वादेव बाधकः। शुल्कशालाया अागतं शौल्कशालिकम् । प्रातरिकम् । श्रापणिकम् । गौरिमकम् । दौवारिकम् । बहुत्वनिर्देशः स्वरूपनिरासार्थः । शुण्डिकादिभ्योऽण् ॥३३॥५०॥ शुण्डाशब्दो मद्यवचनः, तस्मान्मत्वर्षीये ते (त्ये) कृते शुण्डिक इति भवति । शुण्डिक इत्येवमादिभ्योऽण् भवति तत आगत इत्येतस्मिन्विषये । शुण्डिकादागतः शौण्डिकः । शुण्डिक । कृकण । स्थण्डिल | उदक । उपान । उपल । तीर्थ । पिप्पल । भूमि । तृण । पर्ण । पुनरणग्रहणं किम् । प्रायस्थाने ठणः, "गेहादियुक्तकणाद भारद्वाज" इति को विहितस्तस्याऽपि बाधनार्थम् । यौनमौखाद्या ॥२३॥५१॥ जन्मसम्बन्धेन योनेरिमे, योनेरागता वा, यौनाः शब्दा मातुलादयः । विद्यासम्बन्धेन मुखस्येमे, मुखादागता वा मौखा उपाध्यायादयः, ऋत्विगादयश्च । यौनमौखेभ्यः शब्देभ्यष्ठा भवति तत श्रागतेऽर्थे । श्रणोऽपवादः। छस्य तु परत्वाद बाधकः । मातुलादागतं मातुलकम् । मातामहकम् । पैतामहकम् । मौखेभ्यः - उपाध्यायादागतम् । श्रौपाध्यायकम् । श्राचार्यकम् । शैष्यकम् । श्राविकम् । ऋतष्ठा ॥३३॥५२।। ऋकारान्तेभ्यो यौनमुखे(मौखे)भ्यः शब्देभ्यष्ठन् भवति तत आगतेऽर्थे । यौनेभ्यो भ्रातुरागतं भ्रातृकम् । स्वासकम् । मातृकम् । मौखेभ्यः -- होतुरागतं होतृकम् । पौतृकम् । औद्गातृकम् । पूर्वस्य वुशोऽपवादः ।। पितुर्यश्च ॥३॥३॥५३॥ पितृशब्दाद् य इत्ययं त्यो भवति ठञ् च तत प्रागतेऽर्थे । पितुरागतं पित्र्यम् । “रीकृतः" [५।२।१३६] रीडादेशः “यस्य ल्यान्च" [४।१३१] इतीकारस्य खम् । पने पैतृकम् । वृद्धादकवत् ।।३।३।५४॥ वृद्धत्यान्तान्मृदः अङ्क इव यविधिर्भवति । वृद्ध मिहापत्यमात्रम् । यथेह भवति । गर्गाणामक, गार्गः। वैदः। "साकलक्षणघोषेऽज्यभिलामणि" [३।३।१५] हत्यण् तथा गर्गेभ्य आगतम् , गागंम् । वैदम् । अङ्कग्रहणे वृद्धान्तस्ये (द्धत्यान्तस्ये) दमर्थे तस्येदमर्थसामान्य लक्ष्यते । तेन वुशोऽप्यतिदेशः सिद्धः । श्रोपगवा (ना) मिदम् , "वृद्धचरणामित्" [३३३६४] इति वुनि कृते, औपगवकम् । नाडायनकम् । तथा श्रोपगवादागतम् औपगवकम् । नाडायनकम् । ..मासरिकम् ब०, स० । २. -द्धगतस्यैदमर्थ सामा-म० । धरयेदमर्थे तस्येदमर्थसामाब०।-दूतस्येदमर्थ सामा-पू० । For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०३ पा० ३ सू० ५५-५२] महावृत्तिसहितम् हेतुमनुष्याद् वा रूप्यः ॥३३॥५५॥ तत श्रागत इति वर्तते । हेतुभ्यो मनुष्येश्च वा रूप्य इत्ययं त्यो भवति । हेतुभ्यः कारणाद् , धेनोरागतं धेनुरूप्यम् । विश्वरूप्यम् । कररूप्यम् । पक्षे गेहादिलक्षणश्छः । समीयम् । विषमीयम् । पापीयम् । मनुष्येभ्यः-देवदत्तादागतं देवदत्तरूप्यम् । जिनदत्तरूप्यम् । पदे देवदत्तकम् । जिनदत्तकम् । देवदत्तकल्पकम् । हेतो का भवतीति मनुष्येभ्योऽपादानलक्षणा का। मयट् ॥३॥३॥५६॥ हेतुभ्यो मनुष्येभ्यश्च मयड् भवति तत श्रागतेऽर्थे । समाद्धेतोरागतं सममयम् । पापमयम् । मनुष्येभ्यः-देवदत्तादागतम् , देवदत्तमयम् । जिनदत्तमयम् । जिनदत्तमयी। योगविभागो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः। प्रभवति ॥३॥३॥५७॥ तत इत्येव वर्तते । तत इति कासामर्थ्यान्ड्याम्मृदो यथाविहितं त्यो भवति । प्रथमं भवति प्रभवति । भवतिरिहोपलब्धिक्रियः, अनेकार्थत्वाद् धूनाम् । सनात् प्रभवति, स्रौनः । राष्ट्रियः । हिमवतः प्रभवति, हैमवती गङ्गा । दारदी सिन्धुः । । विदुरायः ॥३३॥५८।। ततः प्रभवतीति अनुवर्तते । विदूरशब्दाच्यो भवति । अणोऽपवादः । विदूरीलाभवति, वैदूर्यो मणिः । यदि प्रथमं भवति प्रभवतीत्युच्यते वालवायागिरेरसौ प्रभवति न विदूरानगरात् । कथं ततस्त्योत्पत्तिः १ एवं तर्हि "वालवायो विदूरच प्रकृत्यन्तरमेव वा । नैवंतनेति चेद्व्याव जित्वरीवदुपाचरेत् ॥" वालवायस्त्यं लभते विदुरमादेशञ्च । यथा शिवादिषु विश्रवःशब्दो विश्रवणरवणादेशी अणं च लभते । प्रकृत्यन्तरमेव वा वालवायस्य विदुरशब्दः। अव्यविकन्यायेन विदूरादेव त्यः । नैवं तत्रेति चेयात् जित्वरीवदुपाचरेत् । यथा वाणिजाः वाराणसी जित्वरीति मङ्गलार्थमुपाचरन्ति । एवं वालवायोऽप्युपचाराद् विदूरशब्देनोक्लः । अथवा विदूरादेव मणित्वेन प्रभवति । ) तद्गच्छति पथिदूतयोः ॥३३॥५६॥ तदितीप्समाँद्गच्छतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति योऽसौ गच्छति पन्था दूतो वा चेद् भवति । खुघ्नं गच्छति, स्रौनः । राष्ट्रियः । पन्था दूतो वा । पथिस्येषु गच्छत्सु पन्था गच्छतीत्युच्यते । पथिदूतयोरिति किम् ? सुघ्नं गच्छति सार्थः।। अभिनिष्कामति द्वारम् ॥३३॥६०॥ तदिति वर्तते । तदितीप्समर्थादमिनिष्कामतीत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । अनभिनिष्क्रमण क्रियायां द्वारं करणं स्वातन्त्र्येण विवक्षितम् । यथा, असिश्छिनत्ति । धनुर्विध्यति । द्वारस्थेषु च निष्कामत्सु द्वारं निष्क्रामतीत्युच्यते । सुघ्नमभिनिष्कामति पाटलिपुत्रस्य द्वारम्, स्रोप्नम् । राष्ट्रियम् । द्वारमिति किम् ? 'मधुरामभिनिष्कामति वैदिस (श) स्य ग्रामः । सुघ्नममिनिष्कामति पुरुषः । ___ अधिकृत्य कृते ग्रन्थे ॥३३६१॥ तदितीप्समर्थादधिकृत्य कृतेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तत्कृतं अन्यश्चेत्स भवति । सुलोचनामधिकृत्य कृतो ग्रन्थः सौलोचनः । श्रौदयनः । ग्रन्थ इति किम् ? सुलोचनामधिकृत्य कृतः प्रासाद । "उसाऽख्यायिकासु बहुलमिति वक्तव्यम्" [वा०] वासवदत्तामभिकृत्य कृताऽख्यायिका, वासवदत्ता । । दोस्थ ( श्छ ) स्योस् । उर्वशी । सुमनोत्तरा । अण उस् । न च भवति भैमरथी । शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वन्द्रजननादिभ्यश्छः ॥३३॥६२॥ तदधिकृत्य कृते ग्रन्थ इति वर्तते । शिशुक्रन्द यमसभ इत्येताभ्यां द्वन्द्वादिन्द्र जननादिभ्यश्च छो. भवति । अणोऽपवादः ( शिशुकन्दमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः, शिशुक्रन्दीयः। मस्य सभा, यमसभम् । “सुभाऽराजाऽमनुष्यात्' [IMES] इति नम्। यमसभीयः । द्वन्द्वात् , त्रिपुर्विजयीयः । भरतबाहुबलीयः। वाक्यपदीयम् ।) "द्वन्द्व देवाऽसुरादिभ्यः प्रतिधो वक्तभ्यः" [वा० ] दैवासुरम् । राक्षोऽसुरम् । गौणमुख्यम् । इन्द्रजननादिभ्यः-इन्द्रजननीयम् । १. मथुराम-., स.। २० For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० १ पा० ३ सू. १५-1 प्रद्युम्नोदयनीयम् । प्रद्युम्नागमनीयम् । शी (सी) तान्वेषणीयम् । इन्द्रजननादिराकृतिगणः । शिशुक्रन्दादयोऽपि तत्रैव द्रष्टव्याः । देवासुरादिषु छस्यादर्शनात् प्रतिषेधश्च न वक्तव्यः । प्रपञ्चो बालावबोधनार्थः । सोऽस्य निवासः ॥३३॥६३॥ स इति वासमर्थादस्येति ताऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति यचद् वासमर्थ निवासश्चेत्स भवति । निवसन्त्यस्मिन्निति निवासः । सुघ्नं निवासोऽस्य स्रौनः । राष्ट्रियः । अभिजनः ॥३।३।६४॥ अभिजनः पूर्वे बान्धवाः । साहचर्यात्तैरुषितो देशोऽपि तथोक्तः । निवासो यत्र साम्प्रतमुच्य(ध्य )ते । स इति वासमर्थादभिजन इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सुघ्नमभिजनोऽस्य, स्रोघ्नः । राष्ट्रियः । गिरेश्छः शस्त्रजीविषु ॥३॥३॥६५॥ सोऽस्याभिजन इति वर्तते। गिरिवाचिनो वासमर्थादसिजनविशिष्टादस्येति ताऽर्थे छो भवति शस्त्रजीविष्वभिधेयेषु । हृद्गोलोऽभिजन एषां शस्त्रजीविनाम्, हृदगोलीयाः। श्रवर्म । अत्वर्मीयाः। वेल | वेलीयाः। रोहितगिरि । रोहितगिरीयाः गिरेरिति किम् ? साङ्कास्योऽभिजन एषां शस्त्रजीविनां साङ्कास्यकाः शस्त्रजीविनः। “बन्ध (धन्व) योङः" [३। इति बुञ्। शस्त्रजीविष्विति किम् ? ऋक्षोदो गिरिरभिजन एषां ब्राह्मणानामन्येषां वा, श्राझेदाः । पृथु । पार्थवाः। शण्डिकादेयंः ॥३॥३॥६६॥ सोऽस्याभिजन इति वर्तते । शण्डिक इत्येवमादिभ्यो यो भवति । अणादेरपवादः। शण्डिकोऽभिजनोऽस्य, शाण्डिक्यः [शाण्डिक:]। सर्वसेन । सर्वकेश । शक | शट । चणक । शङ्ख । बोध । गोध । अत्र कोभ्यः “कोकोऽणू" [३।२।११०] इत्यण् प्राप्तः । इतरेभ्यः "बहुत्वेऽदोरपि [३।२।१०३) इति वुञ् प्राप्तः । सिन्ध्वादेरण ॥३३॥६७॥ सोऽस्याभिजन इति वर्तते । सिन्धु इत्येवमादिभ्योऽण् भवति । सिन्धुरभिजनोऽस्य, सैन्धवः । सिन्धु । वर्ण । मधुमत् । कम्वोज । कश्मीर । सव । एतेभ्यः कच्छादित्वात् "नृतत्स्थयोः" [ ३।२।११२ ] इति चुभ प्राप्तः। गन्धार । पञ्चाल । किष्किन्ध । गब्दिक । उरस् । दरद् । एतेभ्यः “बहुत्वेऽदोरपि'' [३।२।१०२] इति चुञ, प्राप्तः । कैमेदुर । काण्डकार' । ग्रामणी । एतेभ्यश्छः प्राप्तः। तूदीवर्मतीभ्यां ढण ॥३॥३६८॥ सोऽत्याभिजन इति वर्तते । तूदीवर्मतीशब्दाभ्यां ढण् भवति । अणोऽपवादः । तूदी अभिजनोऽस्य, तौदेयः । वामतेयः । शालातुरकूचवाराच्छएण्यौ ॥ ३३॥६६ ॥ सोऽस्याऽभिजन इति वर्तते । शालातुरकूचवारशब्दाभ्यां छण्ण्य इत्येतो त्यौ भवतः । अण्णोऽपवादः । शालातुरोऽभिजनोऽस्य, शालावरीयः । कोचवार्यः। भक्तिः ॥३॥३१७०॥ सोऽस्येति वर्तते । अभिजन इति निवृत्तं विशेषणान्तरोपादानात् । स इति वासमर्थादस्येति ताऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद् वासमर्थ भक्ति श्वेत् सा भवति । भज्यत भक्तिः । सुनं भक्तिरस्य, स्रोनः । राष्ट्रियः । प्रदेशकालाढण् ॥३३१७१॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्तते । देशकालावचित्तौ। तत्पर्युदासादन्यस्याऽ चित्तस्य ग्रहणम् । अचित्तवाचिनो मृदष्ठणित्ययं त्यो भवति । अणोऽपवाद।। ठस्य परत्वाद् बाधकः। अपूपा भक्तिरस्य, आपूपिकः । शाष्कुलिकः। पायसिकः। अदेशादिति किम् ? स्रौनः । अकालादिति किम् ? शैशिरः। १. काण्डवार १०, पू० । २. -पवादौ पू० । For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० ३ सू० ७२-७७ ] महावृत्तिसहितम् २०३ महाराजात् ||३|३|७२॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्त्तते । महाराजशब्दाद्वय् भवति । महाराजो भक्तिरस्य, माहारानिकः । अर्जुनाद् वुन् ||३|३|७३ ॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्त्तते । श्रर्जुनशब्दाद् वुन् भवति । श्रर्जुनभक्तिरस्य, अर्जुनकः । उत्तरसूत्रेण राजाख्याद् वुञ् प्राप्तः । वृद्धराजाख्येभ्यो बुन प्रायः || ३|३|७४ ॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्त्तते । वृद्धाऽख्येभ्यो राजा ख्येभ्यश्च प्रायो वुञ् भवति । श्रणोऽपवादः । छस्य तु परत्वाबाधकः । वृद्धराजाख्येभ्य इत्यत्र “” [२४] इति नियमात्कर्मणि "प्रातः कः” [ २/२/३ ] न प्राप्नोति । मूलविभुजादिलात् " सुपि " [२२२०७ ] इति [ वा ] भविष्यति । वृद्धाख्येभ्यः, ग्लुचुकायनिर्भक्तिरस्य ग्लौचुकायनः । श्रौपगवो भक्तिरस्य, श्रौपगवकः । कापटवकः । राजाख्येभ्यः नकुलो भक्तिरस्य, नाकुलकः । साहदेवकः । वासुदेवो भक्तिरस्य, वासुदेवकः । श्रख्यामहं किमर्थम् ? श्रङ्गवङ्गकलिङ्गादिग्रहणार्थम् । दुर्योधननकुल सहदेवग्रहणार्थं च । यत्र सामान्येन विशेषेण वा प्रसिद्धा राजसंज्ञाऽस्ति तस्य सर्वस्य सङ्ग्रहार्थमित्यर्थः । प्रायोग्रहणात्कचिन्न भवति । पाणिनो भक्तिरस्य, पाणिनीयः । पौरवीयः । राष्ट्रवत्वतां सर्व बहुत्वे सरूपाणाम् ||३|३|७५॥ सोऽस्य भक्तिरिति वर्त्तते । राष्ट्रस्येव राष्ट्रवत् । बहुत्वे राष्ट्रेण समानशब्दानां तदूवतां राष्ट्रवत्सर्वं प्रकृतिस्त्यश्च भवति । "राष्ट्राऽवध्योः " [३।२।१०२ ] इत्यादिप्रकरणे विहितानामिहाऽतिदेशः । यथा, अङ्गा जनपदो भक्तिरस्य, श्राङ्गकः । वाङ्गकः । मौझकः । एवमङ्गाः क्षत्रिया भक्तिरस्य श्राङ्गकः । सौहाकः । तद्वतामिति किम् ? पञ्चाला ब्राह्मणा भक्तिरस्य पाञ्चालः । सर्वग्रहणं किम् ? प्रकृतैरप्यतिदेशो यथा स्यात् । स च द्वयेकयोः प्रकृत्यतिदेशः (शं) प्रयोजयति । यत्रै निमित्तभूतो हृदतिदेशो नास्ति । वृजेरपत्यं वार्ण्यः । “द्वित्कुरुनाथजाद कुरु कोशलाञ्यः” [ ३।३।१५३ ] इति यः । मद्रस्याऽपत्यं माद्रः । "ह्रयन्मगध' [ ३ | १|१५२] इत्यादिनाऽय् । वायों भक्तिरस्य, माद्रो भक्तिरस्य, त्र "वृजि [म] द्वारकः " [३।२।१०३] इति कोऽतिदिश्यते । प्रकृतिरप्यदुसंज्ञाऽ (रप्यत्रा) तिदिश्यते । वृजिकः । मद्रकः । वार्ज( ये ) को माद्रक इति मा भूत् । सरूपाणामिति किम् १ सराडो जनपदः, तस्य पौरवो राजा; स भक्तिरस्य पौरवीयः । बहुत्वग्रहणं सारूप्योपलक्षणार्थम् । यद्यपि द्वित्वैकत्वयोः सारूप्यं नास्ति तथाप्यतिदेशः सिद्धः । वाङ्गो वाङ्गौ वा भक्तिरस्य, वाङ्गकः । तेन प्रोक्तम् ||३|३| ७६ ॥ तेनेति भासमर्थात्प्रोक्तमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । व्याख्यादिना प्रकर्षेणोक्तं प्रोक्तमिति गृहाते, न तु कृतं यदन्येन कृतम् । गोतमेन प्रोक्तम् गौतमम् । श्रीदत्तीयम् । सामन्तभद्रम् । श्रपिशलम् । इनः " [३शरा८] इत्यण् । शौनकादिभ्यश्छन्दसि णिन् ||३|३|७७ || शौनक इत्येवमादिभ्यश्छन्दस्यभिधेये णिन् भवति न प्रोक्तमित्यस्मिन्विषये । दुभ्यश्छस्य इतरेभ्यश्चाणोऽपवादः । “छन्दो ब्राह्मणानि चात्रैव” [ ३।२।५६ ] इति नियमादेकवाक्यम् । शौनकेन प्राक्तं छन्दोऽधीयते शौनकिनः । " तदूवेश्यते” [२१] इत्यागतस्याण "उपप्रोक्तात्" [ ३/२/१४] इत्युप् । शनिक । वाजसनेय । साङ्गरव । सापेय। सा (शा) पेय । " ख्यादायन । स्कम्ब । स्कभ । स्तम्भ । देवदर्श । रज्जुभार। रज्जुकण्ठ । कठ । साठ । कौसायन । तल वकाल (र) | पुरुषांसक । "काश्यप की शिकाभ्यामृषिभ्यां कल्पस्थाभ्यां प्रोक्तः स्मयते" । तस्योपचारा १. स्वादायन पू० । वोदायम भ० । २. स्कंभ अ० पू० । ३. परुषसिक इव गारत्न महोदधौ । For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० ३ सू० ७८-७९ छन्दस्त्वम् । तेन तद्विषयतानियमः। काश्यपेन प्रोक्तं कल्पं विदन्ति काश्यपिनः । कौशिकिनः । ऋषिभ्यामिति किम् ? इदानीन्तनेन काश्यपेन प्रोक्तम् , काश्यपीयम् । कलापिवैशम्पायनान्तेवासिभ्यः"। कलाप्यन्तेवासिनश्चत्वारः। "हरिछरेषां प्रथमस्ततश्छगलितुम्बुरू। उसपेन चतुर्थेन कालापकमिहोच्यते ।" हरिद्र णा प्रोक्तं छन्दोऽधीयते, हारिद्रविणः । तौम्बुरविणः । श्रौलपिनः । छगलिनो ढिनिणं वक्ष्यति । वैशम्पायनान्तेवासिनो नव । "मालम्णिः प्रथमः प्राच पलिङ्गकमलावुभौ । ऋचभागारुणो ताण्ड्यो मध्यमीयास्ततोऽपरे ॥ श्यामायन उदीच्येषु तथा कठकलापिनौ।" श्रालम्विना प्रोक्तमधीयते, बालम्बिनः । पालिङ्गिनः। कामलिनः । श्रार्चभागिनः । श्रारुणिनः। ताण्डिनः । श्यामायनिनः। कठादत्रैवोपं वक्ष्यते । उत्तरत्र कलापिनोऽणं वक्ष्यति । अन्तेवासिग्रहणेन प्रत्यक्षशिष्यग्रहणम् । न तु व्यवहितानां शिष्यशिष्याणां ग्रहणं व्याख्यानात ।"पुराणप्रोक्तषु ब्राह्मणकल्पेषु" ग०सू० यत्तत्प्रोक्तं ( यत्प्रोक्तं तत् ) पुराणप्रोक्ताश्चेद् ब्राह्मणकल्पा भवन्ति । पुराणेन पुरातनेन ऋषिण प्रोक्ता, पुराणोक्ताः, ब्राह्मणानि च कल्पाश्च ब्राहाणकल्पाः। भाल्लवेन प्रोक्तं ब्राह्मणमधीयते भाल्लविनः । 'वासायनिनः । ऐतरेयिणः । पिङ्गेन प्रोक्तः कल्पः पैङ्गी। पारुणपराजी । कल्पस्य तद्विषयतानियमो नास्ति । पुराणप्रोक्लेष्विनि किन ? (याज्ञवल्कानि ब्राहाणानि । श्राश्मरथः कल्पः) "शकलादिभ्यो वृद्ध" [२।८७] इत्यण ( याज्ञवल्कादयोऽवरकाला इत्याख्यानेषु श्रुतिः। तद्विषयतानियमोऽपि प्रतिपदं ब्राह्मणेषु भवति इति इह सोऽपि नास्ति । "कठचरकादुप्" ग०सू०]। कठेन प्रोक्तं छन्दोऽधीयते, कठाः । वैशम्पायनान्तेवासित्वागिणन् , तस्योप् । चरक इति वैशम्पायनस्याख्या। चरकालन्दस्येवेष्यते । चरकेण प्रोक्ताश्चरकाः श्लोकाः। अण उप । सर्वप्रवचनाभिधाने ' वृद्धचरणाजित्" [३।३।६४] इति वुन् भवत्येव । शौनकिनामिदम्, शौनककम् , इत्येवमादि योज्यम् । "पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः।"पाराशर्येण प्रोक्तं भिक्षुसूत्रमधीयते, पाराशरिणो भिक्षवः । शिलालिनो नटाः । गुणकल्पनया चार छन्दस्त्वम् तेन तद्विषयता ( भवति । भिक्षु नटसूत्रयोरिति किम् ? पारा) शरम् । शैलालम् । “शकलादिभ्यो बृद्ध" [३२८७] इत्यण उत्सर्गश्च "कर्मन्दकृशाश्वाभ्यामिन्" । अत्रापि तद्विषयता, कर्मन्दिनो भिक्षवः । कृशाश्विनो नयः । भित्तुनटसूत्रयोरित्येव । कार्मन्दम् । कार्या (काश्विम् ) । छन्दसीति किम् ? शौनकीया शिक्षा ।। तित्तिरिवरतन्तुखण्डिकोखाच्छण् ॥३।३।७८॥ छन्दसीति वर्तते, तेन प्रोक्तमिति (च)। तित्तिरि वरतन्तु खण्डिका उख इत्येतेभ्यश्छण् भवति । अणोऽपवादः । तित्तिरिणा प्रोक्तं छन्दोऽधीयते विदन्ति वा तैत्तिरीयाः । खाण्डिकीयाः । श्रौखीयाः । छन्दसीत्येव । तित्तिरिणा प्रोक्ताः श्लोकाः, तैत्तिराः । कलापिनोऽण ॥३॥३७॥ छन्दसीति वर्तते । कलापिशब्दादण् भवति तेन प्रोक्तं इत्यस्मिविषये। वैशम्पायनान्तेवासित्वागिणन् प्राप्तः । कलापिना प्रोक्तं छन्दोऽधीयते, कालापाः। "नोऽपुंसो हृति' [ ३०] इति टिखं प्राप्तम् , "प्रायोऽनपत्येणीनः" [५४१५५] इति प्रतिषिद्धम् , "सब्रह्मपर्यादेः" [४१३१] इति पुनष्टिखम् । पुनरणग्रहणं किम् ? क्वचिच्छविषयेऽपि यया स्यात् । तेन सौलमानि ब्राह्मणानीत्येवमादि सिद्धम् । १. शाळ्यायनिनः अ०, ५०। २. चरकादच्छन्दस्येव इत्यत्र प्रच्छन्दसोति, चरकाः श्लोका इत्यत्रोविधान ब चिन्त्यम् । काशिकादौ छन्दसोत्येव । चारकाः श्लोका इत्यत्रानुदर्शनात् । For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ पा० ३ सू०८०-८] महावृत्तिसहितम् २०५ छगलिनो ढिनिण् ॥३३॥८॥ छन्दसीति वर्तते, तेन प्रोक्लमिति च । छगलिन्शब्दाविनिण भवति । नेरिकार उच्चारणार्थः। छगलिना प्रोक्तं छन्दोऽधीयते, छागलेयिनः। कलाप्यन्तेवासिलक्षणस्य णिनोऽपवादः। __ एकदिक ॥३३३३८१॥ छन्दसीति निवृत्तम् । तेन प्रोक्तमिति च निवृत्तमर्थान्तरग्रहणात् । एका दिग् यस्य तदेकदिक् , त्य (स) मानदिगित्यर्थः। भासमर्थादेकदिगित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । सुदाम्ना पर्वतेन एकदिक् , सौदामनी विद्यत् । “अनः" [ ५८] इति टिखाऽभावः । एवं हैमवती । त्रैककुदी। तस् ॥३॥३२॥ तसित्ययं त्यो भवति मृदः । तेनैकदिगित्यनुवर्तते । पूर्वसूत्रेणाणादयो घादयश्च भवन्ति । अयं च वचनाद् भवति । न तु बाध्यबाधकभावः। सुदाम्ना एकदिक् सुदामतः । हिमवतः । त्रिककुत्तः। तस्यान्तस्य स्वभावतो झिसंशा। यश्चोरसः ॥ ३३॥ तेनैकदिगिति वर्त्तते । उरःशब्दात् य इत्ययं त्यो भवति तश्च । अणोऽपवादः । उरसा एक दिक् , उरस्यः, उरस्तः । उपशाते ।।३।३।८४॥ तेनेति वर्तते । तेनेति भासमर्थादुपज्ञातेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति । विनोपदेशेन प्रथमं जातमुपज्ञातम् । (स्वायम्भुवेनोपज्ञातं स्वायम्भुवीयमाकालिकाऽचाराऽध्ययनम् । दैवन्दिनमनेकशेषं व्याकरणम् ।) - कृते प्रन्थे ॥३॥३८५॥ तेनेति भासमर्थात्कृतेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्कृतं ग्रन्थश्चेद् भवति । बलदेवेन कृताः, बालदेवाः श्लोकाः। वाररुचाः। सिंहनदीयाः) ग्रन्थ इति किम् ? तक्ष्णा कृतःप्रासदि। खौ ॥३॥३॥८६॥ तेनेति भासमर्थात्कृतेऽर्थे यथाविहितं त्यो भवति समुदायेन खुविषये । अग्रन्थेऽपि विधिरयम् । मक्षिकाभिः कृतं माक्षिक मधु । एवं गर्मुत्, गार्मुतम् । पुत्तिका, पौत्तिकम् । क्षुद्रा, क्षौद्रम् । सरघा, सारधम् । नर्मुक, नार्मुकम् । भ्रमर, भ्रामरम् । वटर, वाटरम् | वातप, वातपम् । छः कस्मान्न भवति । संज्ञाशब्दानां व्युत्पत्तिरियम् । न च छे कृते संज्ञा गम्यते । कुलालादेव॑म् ॥३३३३८७॥ खाविति वर्तते । कुलाल इत्येवमादिभ्यो धुन भवति तेन कृतेऽर्थे । अणोऽपवादः । कुलालेन कृतम्, कौलालकम् । धयदिसमुदायस्येयं संज्ञा | कुलाल । वरुट । कार । चण्डाल । निषाद । सेना । सिलिच्' । देवराजी । परिषत् । वधू । रुद्र | अस्य स्थाने शन्दं २केचित् पठन्ति । अनडुङ् । ब्रह्मन् । कार । कुलाल । कुम्भकार । श्वपाक । तस्येदम् ॥३।३।८८॥ तस्येति तासमर्थादिदमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । तस्येति सामान्येन ताऽर्थमात्र इदमिति ताऽर्थसम्बन्धिमानं विवक्षितम् । उभयत्र लिङ्गसंख्याप्रत्यक्षपरोक्षत्वादिकमविव. क्षितम् । उपगोरिदम्, श्रोपगवम् । श्रौत्सम् । राष्ट्रियम् । प्राङ्गकम् । अनन्तरादिष्वमिधानं नास्ति । देवदतस्यानन्तरम् , देवदत्तस्य समीपम् । विंशतेरवयव एका, शतस्य दो, सहस्रस्य पञ्चेति । "संवोदः संवहितृभावश्च स्वे वक्तव्यः" [वा०]। संवोढुः स्वं सांवहित्रम् । "अग्नीधः शरणे पाच्ये रण 1. सिलिम् अ.। मिलिवू ३० । सिरिध्र इति काशिकायाम् । २. केचित् काशिकाकारा इत्यर्थः । For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० ३ सू० ८१-१५ वक्तव्यो मसंज्ञा च" [वा०] अग्नीध इदम, अाग्नीध्रम् । 'समिधामाधाने टेन्यण् वक्तव्यः'' [वा०] । सामिधेनी ऋक् । रथाद्यः ॥३॥३॥८६॥ तस्येदमिति वर्तते । रथशब्दाद्यो भवति । अणोरपवादः । रथाङ्ग एवेष्यते । रथस्येदं चक्रं युगं वा रथ्यम् । "पथसीताहलेभ्यो यविधौ तदन्तविधिरुपसंख्यातः" [वा०]। परमरध्यम । रथाङ्ग इति किम् ? रथस्य स्थानम् । - पत्रादण् ॥३।३६०॥ पतन्ति तेनेति पत्र वाहनम् । तत्पूर्वाद्रथशब्दादण् भवति । पूर्वस्य यस्याऽपवादः । (अश्वरथस्येदं चक्रं युगं वाऽऽश्वरथम् । श्रौष्ट्ररथम् । )पुनरणग्रहणं छबाधनार्थम् ( रासभरथम् ) युगम् । स्थान इत्येव । श्रश्वरथस्य स्वामी । पत्रात् ॥३३॥९१॥ पत्रं वाहनम् । तद्वाचिशब्दादण् भवति, तस्येदमित्यस्मिन्विषये । "पनाद् वाद्य एवेष्यते" [वा०] । अश्वस्येदं वाह्यम्, आश्वम् । उत्सर्गेण सिद्धमिति चेदुसंज्ञेषु न सियति । (रासमस्येदं वहनीयम्, रासभम् ।) हलसोराटण् ॥३।३।९२।। तस्येदमिति वर्तते । हलसीरशब्दाभ्यां ठण् भवत्यणि प्राप्ते । हलस्येदं हालिकम् । सैरिकम् । वन्द्वान् वैरमैथुनिकयोः ॥३॥३९३॥ तस्येदमिति वर्तते । मैथुनिका विवाहनादिका क्रिया। दून्द्वाद वुन् भवति वैरे मैथुनिकायां च । अणोऽपवादः। छस्य तु परत्वादेव बाधकः। अहिनकुलिका । काकोलूकिका । वद्रवशालङ्कायनिका । वुन्नन्तस्य स्वभावतः स्त्रीलिङ्गम् । मैथुनिकायां च । कुक्कासि(शि)का । कुरुवृष्णिका । अत्रिभरद्वाजिका | भरद्वाजशब्दादन , तस्य वृद्ध बहुत्वे “योः " [ २५] इत्युप् कृतः । "बुद्ध ऽच्यनुप्'' [ ३।१७३] इति अनुप कस्मान्न भवति । प्रथमादित्यधिकाराद् द्वितीयस्य न भवति । अथ प्रथमस्या:त्रिशब्दस्य यो ठण तस्याऽनुप् कस्मान्न भवति । अजादावव्यवहिते अपु (नु) ब् भवति । भरद्वाजशब्देन चाऽत्र व्यवधानम् । अत्रेष्टिः । गर्गभृगूणामियं मैथुनिका गर्गभार्गवका। अत्र वोरकादेशे कृते भृगुशब्दाद् योऽण् तस्य बहुत्वे "भृग्वत्रिकुत्स" [१0४।१३६] इत्यनेनोप् प्राप्तः । "प्रथमा ऽधिकारे द्वितीयस्यापि वृद्ध ऽच्यनुन्धनान्यः" [वा.]| "देवासुरादिभ्यो वुनः प्रतिषेधो बक्कम्यः" [वा. ] । दैवासुरम् । राक्षासुरम् । वृद्धचरणाजित् ॥३॥३४॥ तस्येदमिति वर्तते । वृद्धवाचिनश्चरणवाचिनश्च जिदिव जिद्भवति वुन् । अनेनैव वुनो विधानम् । अयमणोऽपवादः । छस्य तु परत्वाद् बाधकः । त्रिपृष्टायनेरिदम्, त्रैदृष्टायनकम् । औषगवानामिदम, श्रोपगवकम् । चरणानि वेदशाखाः । तद्योगादध्येतारोऽपि कठादयश्चरणाख्याः। "चरणाद्धर्माम्नाययोरेवेष्यते'' [ वा०] । कठानामयं धर्म आम्नायो वा काठकम् । कालापकम् । मौदकम् । पैप्पलादकम् । अध्वर्युशब्दस्य समुदायवाचित्वाच्चरणशब्दत्वमिह नेष्टम् , तेनाणेव भवति । आध्वयंवम् । सघाङ्कलक्षणघोषयनिवामण ॥३३॥६५॥ तस्येदमिति वर्तते । सङ्घादिषु चतुर्षु इदमर्थविशेषणेषु अजन्ताद्यअन्तादिनन्ताचाम् भवति । पूर्वस्य चुनोऽपवादः ( विदानां सङ्घः, अकः, लक्षणं 1. वदवसायङ्कायनिका अ०,। बद्धवशालङ्कायनिका पू०। बाभ्रव्यशालकायनिका हति काहिकायाम् । For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ३ पा० ३ सू०६६-01] महावृत्तिसहितम् २०७ घोषो वा, वैदम् । अन्तात् । गर्गाणां सङ्घः, अङ्को लक्षणं घोषो वा, गार्गम् । "क्यच्व्यनाद्धल्यापत्यस्य" श ति यखम् । इञन्तात् । दाक्षम् । प्लादम् । अणो गित्करणं स्त्रियां ड्यर्थम् । " णिदरस्तविकारे" [२५] इत्यत्र पुंवद्भावप्रतिषेधार्थ च । वैदी स्थूणा अस्य, वैदीस्थूणः । लक्ष्म्या(क्ष्य)गतंचिह्न लक्षणं यथोपशमो मुनीनाम् । बाह्यसम्बन्धि गतं चिह्नमङ्कः, यथा गा रेखा । शाकला वा ॥३॥३६९६।। शाकलशब्दात्सङ्घादिषु इदमर्थविशिष्टेषु वाऽण् भवति चरणलक्षणे नित्ये वुनि प्राप्ते विभाषेयम् । कथं चरणत्वम् १ शाकल्येन प्रोक्तमधीयते शाकलाः । प्रोक्ताऽर्थे “शकलादिभ्यो वृक्ष" [ २ ७] इत्यण । "क्यच्व्यनाद्धृत्यापत्यस्य' [ ४|४|१४१] इति यखम् । "तवेत्त्यधीते" [३।२।१] इत्यागतस्याण "उप्प्रोक्तात्' [३।२।५४] इत्युप् । शाकलानां सङ्घः, अङ्कः, लक्षणं, घोषो वा, शाकलम् । छन्दोगौक्थिकयाक्षिकबहुचनटायः ॥३।३।९७।। सवादयो निवृत्ताः । सामान्येन तस्येदमिति वर्तते । छन्दोग ौक्थिक याज्ञिक बड़च नर इत्येभ्यो ओ भवति। वुनोऽपवादः। नटशब्दादोऽपवादः । छन्दोगानां धर्म अाम्नायो वा छान्दोग्यम् । श्रौथिकानां धर्म आम्नायो वा, ौक्थिक्यम् । याज्ञिक्यम् । बह्वीः ऋचोऽधीयते, बढचाः । अः सान्तः । “तवेत्त्यधीते" [ ५] इत्यागतस्यायो "रस्योबनपत्ये" [३।०७४] इत्युप् । तेषां धर्म अाम्नायो वा, बाढच्यम् । चरणसाहचर्यान्नटशब्दादपि धर्माम्नाययोरेव त्यः । नाट्यम् । न दण्डमाणवान्तवासिषु ॥३३॥६॥ दण्डप्रधाना माणवाः दण्डमाणवाः । श्राश्रमिणां रक्षापरिचरणविधायिन इत्यर्थः। अन्तेवासिनो विनेयाः। वृद्धग्रहणमनुवर्तते । दण्डमाणवेषु अन्तेवासिषु इदमर्थविशेषेषु तस्येदमित्यस्मिन्विषये वृद्धाद्यदुक्तं तन्न भवति । काराव्यस्येमे काण्ठाः । गौकक्ष्यस्येमे, गौकक्षाः । दण्डमाणवा अन्तेवासिनो वा । वुनि प्रतिषिद्ध "शकलादिभ्यो वृद्धे" [३।२।८७] इत्यण् । दादेरिमे दाक्षाः । प्लाक्षाः | "इन:' [३।२।८८] इत्यण् । रैवतिकादेश्छः ॥३।३।९।। तस्येदमिति वर्तते । वृद्धादिति च । रैवतिक इत्येवमादिभ्यो वृद्धभ्यालो भवति । वुनादेरपवादः । रैवतिकस्येदं रैवतिकीयम । बुनः प्रकृते प्रतिषेधे कृते सामर्थ्याद् दोश्छः सिद्धः। नैवं शक्यम् इञतात् "इम:'" [१२।८८] इति अण् प्राप्नोति सवादिषु चाणः प्रतिषेधे वुन् प्रसज्येत । रैवतिक । गौरग्रीवि । स्वापिशि । मवृत्लि । क्षैमवृद्धि इति केचित् ' । औदमेधि । औदवाहि । औदवापि । वैजवापि। कौपिञ्जलहास्तिपदादण् ॥३३३३१००॥ कौपिञ्जलहास्तिपद्शब्दाभ्यामण भवति तस्येदमित्यस्मिन्विषये । वृद्धलक्षणस्य वुनोऽपवादः । कुपिञ्जल हस्तिपादशब्दाभ्यामपत्येऽर्थे त एव निपातनादण् । पादस्य पद्भावश्च । कौपिजलस्येदं कौपिञ्चलं शकटम् । हास्तिपदं शकटम् । श्रारम्भसामर्थ्यादेवाणि सिद्ध पुनरणग्रहणं "म दण्डमाणवान्तेवासिषु" [३।३।२८] इति बुनि प्रतिषिद्धे "दो:"[ ३।२।१० इति छ प्राप्ते अण यथा स्यात् । कौपिक्षला अन्तेवासिनो दण्डमाणवा अन्तेवासिनो वा ।। पाथर्वणः ॥३३।१०१॥ तस्येदमिति वर्तते । श्रावण इति निपात्यते । आथर्वणिकशन्दादण निपात्यते इकस्य च खम् । चरणवाचि शब्दादस्माद् वुञ् प्राप्तः। अथर्वणा प्रोक्त छन्दोऽधीयते, श्रावणिकाः। प्रोक्तार्थेऽणि "नोऽपुसो हृति" [ ३०] इति टिखं प्राप्तम् ? "अनः" १. केचित् काशिकाकाराः । २. चरणशब्दत्वावस्मा खु-पू० । For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ३ पा० ३ सू० १०२ - १०५ [४|४|१५८ ] इति प्रतिषिद्धम् । श्राथर्वण इति स्थिते "छन्दो ब्राह्मणानि चात्रैव” [२६] इति नियमात् " तदुद्वेस्यधीते" [३/२/५१] इत्यपि प्राप्ते उक्थादिष्वाथर्वणशब्दस्य पाठात् ठण् । तत्र पाठसामर्थ्यादेव "डोक्तात्" [ ३।२।१४ ] इत्युग्न भवति । श्राथर्वणिकानां धर्म नाम्नायो वा प्राथर्वणः । यस्तुक्थादिष्वथर्वन् शब्दः पठ्यते स उपचाराच्छास्त्रवचनः श्रथर्वाणं वेत्यभीते वा श्राथर्वणिकः । टिखाभावश्चात्र वक्तव्यः । श्रस्याप्याथर्वणिकशब्दस्येदं निपातनमिष्यते । तस्य विकारः ||३|३|१०२ || प्रकृतेरवस्थान्तरं विकारः । तस्येति तासमर्थाद् विकार इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । श्रदु यस्य च नाम्पत्( न्यत्र ) प्रतिपदं ग्रहणं तदिहोदाहरणम् । अश्मनो विकार श्रश्मः । " श्वाश्म चर्मणां सङ्कोचविकारको शेषु" [४|४|१३२ ] इति टिलम् । भस्मनो विकारः, भास्मनः । मार्त्तिकः । तार्कवः । दैवदारवः । तैत्तिडीकः । वैल्वः । कापित्थः । पालाशः । प्रकृत्युपस(म) दैन यो विकारस्तत्रायं विधिः । तेनेह न भवति श्रानं पक्कमिति । भवति पक्रमाम्रस्य फलस्य विकारे न तु प्रकृत्युपमर्दि । तस्येति वर्त्तमाने पुनस्तस्य ग्रहणं शैषिकाणां घादीनां निवृत्त्यर्थम् । श्रतः परमोत्सर्ग एव भवति । श्रत्र केषाञ्चिय क्तिः पूर्वसूत्रादीति वर्त्तते स इह विधीयमानः परत्वेन शैषिकाणां बाधकः । प्राण्योषधिवृक्षेभ्योऽवयवे च || ३ | ३|१०३ ॥ प्राणिनश्चेतनावन्तः । फलपाकान्ता श्रोषधयः । पुष्पवन्तः फलवन्तश्च वृक्षाः । वृक्ष विशेषत्वा वनस्पतिवीरुधामपि वृक्षग्रहणेन ग्रहणम् । प्राणयोषधिवृक्षवाचिभ्यस्तासमर्थेभ्योऽवयवे विकारे च यथाविहितं त्यो भवति । श्रवयव एकदेशः । प्राणिभ्य उत्तरत्र वक्ष्यते । ओषधिभ्यः,मूर्वाया अवयवो विकारो वा मौर्वै काण्डम् । मौर्वे भस्म । वृक्षेभ्य कारीरं काण्डम् | कारीरं भस्म । पैप्पलं काण्डम् । शातपत्रिक काण्डं भस्म च । इह ओषधिवृक्षग्रहणं ज्ञापकम् । "अणौ धेः प्राणिकर्तृकात्" [१।२८५] इत्येवमादिषु प्राणिग्रहणे वृक्षादीनां प्राणित्वेऽपि ग्रहणं न भवति । तस्य विकार: प्राण्योषधिवृक्षेभ्योऽवयवे चेति द्वयमधिक्रियते । श्रयं तु विभागः । प्राणयोषधिवृक्षेभ्यः, श्रवयवविकारयोरुत्तरो विधिः । श्रन्येभ्यस्तु विकारमात्र एष्टव्यः । जातरूपेभ्यः परिमाणे || ३ | ३ | १०४ ॥ इहासम्भवादवयवार्थो न सम्बध्यते । जातरूपवाचिभ्यस्तान्तेभ्यो विकारविशेषे परिमाणे यथाविहितं त्यो भवति । बहुत्वनिर्देशात्स्वरूपस्य तत्पर्यायवाचिनां व ग्रहणम् । इह यूनि (दुनि) प्रयोजयन्ति । " नित्यं बुशरादेः " [३|३|१०१] इत्यनेन प्राप्तस्य मयटोऽपवादः । जातरूपस्य विकारो जातरूपो निष्कः । जातरूपं कार्षापणम् । छाटको निष्कः । हाटकं कार्षापणम् | परिमाण इति किम् ? हाटकमयी यष्टिः । प्राणितालादेः || ३ | ३|१०५ || तस्य विकार: प्राणयोषधिवृक्षेभ्योऽवयवे चेति वर्त्तते । प्राणिवाचिभ्यस्ताल इत्येवमादिभ्यश्च यथाविहितं त्यो भवति । " नित्यं दुशरादेः " [ ३ | ३ | १०६ ] इत्यस्य मयटोऽपवादः । सारस्य विकारोऽवयवो वा सारसं मांसम् । सारसं सक्थि। काकं मांसम् । काकं सक्थि । श्रदवोऽपि ये प्राणिवाचिनः तेभ्यो “मयड्वैतयोरभच्या च्छादनयोः " [ ३३/१०८ ] इति पक्षे मयट् प्राप्नोति । तदुद्याधनार्थञ्चेदम् । कपोतस्य विकारोऽवयवो वा कापोतम् । मायूरम् । तैत्तिरम् । पुरस्तादपवादोऽयमनन्तरस्य मयविकल्पस्य बाघको युक्तो नोत्तरस्य “नित्यमुद्र (स्थं पुश-) शरादेः " [३|३|१०४] इत्यस्य । तत्कथं (- थमु० : ) भयोर्बाधा १ श्रनन्तरव्यवधानाभावात् सामान्यापेक्षया । तालादिभ्यः, वालस्य विकारः तालं धनुः । “ताकादूधनुष्येवेष्यते " । श्रन्यत्र तालमयम् । तालाद्धनुषि । बर्हिण । इन्द्रालिश । इन्द्रदिश 1 इन्द्रायुध । चाप । श्यामाक । पीयुद्धन् । रब्त । सीस | लोह । उदुव (ग्ब) र । निइदारु ' ( नीच दारु ) | For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० ३ सू० १०६ - १११] महावृत्तिसहितम् २०९ रोहीतक । विभीतक । पीतदारु । त्रिकएटक । कण्टकार । कायड । गवेधुक' । पाटली । येऽत्रादवः, तेभ्यः "मयडूवैतयोरभचयाच्छादनयो:' [ ३।३।१०८] इति विकल्पेन मयटि प्राप्तेऽपवादः । पुजतुनोः षुक् ||३|३|१०६ ॥ त्रपुजतुशब्दाभ्यां यथाविहितमय् भवति तत्सन्नियोगेन च धुगागमः । त्रपुणो विकारः, त्रापुषम् । जातुषम् । शम्याः लज् ||३|३|१०७॥ शमीशब्दादृष्टलम् भवति विकारावयवयोरर्थयोः । श्रणोऽपवादः । शामीलं भस्म । शामीली स्रुक् । मडवैतयोरभक्षाच्छादनयोः ||३|३|१०८ ॥ भक्ष्यमभ्यवहार्यम् । श्राच्छादनं वसनम् । तासमर्था - मृदो वा मय भवति भक्ष्याच्छादनवर्जितयोर्विकारावयवयोरर्थयोः । श्रश्मनो विकारोऽश्ममयम् । श्रश्मम् । सिकतामयम् | सैकतम् । दूर्वामयम् । दौर्वम् । विकाराऽवयवी प्रकृतावेव तत्किमर्थमेतयोरिति ग्रहणम् ? श्रनन्तरयोरपि योगयोरपवादबाधनार्थम् । त्रपुमयम् । जतुमयम् । शमीमयमिति । श्रन्ये' कपोतमयम्, रजतमयम्, लोहमयमित्यादि इच्छन्ति । तत्तेषां "प्राणिरजतादिभ्योऽज" [४ |३|१० पा० सू० ] इत्यस्य सूत्रस्य व्याख्यानेन विरुध्यते । तस्मात्कपोतमयमिति चिन्त्यम् । श्रभक्ष्याच्छादनयोरिति किम् १ मौद्गः सूपः । कार्पासः प्रावारः । नित्यं दुरादेः || ३ | ३|१०६ ॥ श्रभयाच्छादनयोरिति वर्त्तते । दुम्यः शरादिभ्यश्च तासमर्थेभ्यो भयाच्छादनवर्जितयोर्विकारावयवयोर्नित्यं मयडू भवति । दुभ्यः श्राम्रस्य विकारोऽवयवो वा श्राम्रमयम् । शालमयम् । शरादिभ्यः, शरमयम् । शर। दर्भ । मृदु । कुटी । तृण । सोम । वल्वज । श्रारम्भान्नित्यत्वे लब्धे नित्यग्रहणं किम् ? एकाचो नित्यं मयट् यथा स्यात् । वाङ्मयम् । त्वङ्मयम् | त्ये नित्यं परङसंज्ञादेशः । अथ विकारावयवयोर्यस्त्यस्तदन्ताद्विकारावयवान्तरविवक्षायां मयट् कस्मान्न भवति । दैवदारवस्य विकारोऽवयवो वा दैवदारवम् । दावित्थस्य, दावित्थम् । पालाशस्य, पालाशम् । शामीलस्य, शामीलम् । कापोतस्य, कापोतम् । श्रौष्ट्रक, ट्रकम् । ऐणेयस्य, ऐणेयम् । कांसस्य, कांस्यम् । पारशवस्य, पारशवमिति । नैष दोषः, समुदायशब्दोऽवयवेऽपि दृष्टः । इति विकारान्तरे श्रवयवान्तरे च विवक्षिते मूलप्रकृतेरेव त्यः । तेन त्यान्तान्मयन भवति । श्रनभिधानाद्वा । यत्राभिधानमस्ति तत्र विकारान्तरेऽवयवान्तरे च त्यो भवत्येव । गोमयस्य विकारः, गौमयं भस्म । द्र ुवयस्य विकारः, द्रौवयम् । कपित्थस्य फलस्य विकारः, कापित्थम् । आमलकस्य फलस्य विकारः, आमलकमयम् । सर्वमयं मयट् दुसंज्ञकेभ्यः शरादिभ्यश्च नित्यं भवति । अन्येभ्योऽभक्ष्याच्छादनयोर्वा भवति । जातरूपेभ्यः, प्राणितालादिभ्यश्चाण् भवति । पिष्टात् ||३|३|११० ॥ पिष्टशब्दाद् विकारेऽर्थे नित्यं मयड् भवति । विष्टस्य विकारः, पिष्टमयम् । भक्ष्यत्वादव प्राप्तः, तदपवादोऽयम् । कः खौ ||३|३|१११ ॥ पिष्टशब्दात्को भवति खुविषये । अनन्तरस्य मयटोऽपवादः । पिष्टस्य विकारः पिष्टिका । १. गवेधुका अ०, पू० | २. अन्ये काशिकाकाराः । चिन्त्यमिदम् - कपोत्तमयम्, लोहमयमित्यादीनां प्राणिरजतादिसूत्र व्याख्यानविरोधाभावात् । रजतादिपठितस्यानुदात्तादिशब्दस्यैव मयड्बाधकत्वम् । उदात्तादेस्तु मयटोरुभयोरपि विधानस्य तत्रत्यन्यासग्रन्थे नियतत्वात्। रजसमयमिति काशिकाय नास्त्येव । विस्तरस्तु काशिकान्यासे द्रष्टव्यः । २७ For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २१० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० ३ सू० १११-१२२ तिलयवादखौ ||३|३|११२ ॥ तिलयवशब्दाभ्यामखुविषये नित्यं मयड भवति विकारावयवयोरर्थयोः । तिलानामवयवो विकारो वा, तिलमयम् । यवमयम् । श्रखाविति किम् ? तैलम् । यावकः । “कोऽवि या वादेः [४।२।१२] इति स्वार्थिकः कः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोव्रीहेः शकृत्पुरोडाशे ॥ ३|३|११३ ॥ गोत्रीहिशब्दाभ्यां यथासंख्यं शकृति पुरोडाशे च विकाtsभिधेये नित्यं मयड् भवति । गोमयं शकृत् । ब्रीहिमयः पुरोडाशः । शकृत्पुरोडाश इति किम् ? गव्यं पयः । ब्रैह श्रोदनः । I क्रीतवत्परिमाणात् ||३|३|११४ ॥ क्रीत इव परिमाणवाचिनः त्यविधिर्भवति विकारे । परिमीयतेऽनेनेति परिमाणं परिच्छेदहेतुः न तु रूढिपरिमाणमेव । तेन संख्यायाः प्रस्थादीनां च ग्रहणम् । क्रीतार्थे ये त्या यस्मात्परिमाणाद्विहिताः, ते विकारेऽप्यर्थे तस्मादेव परिमाणादतिदिश्यन्ते । यथा भवति "तेन क्रीतम्" [|४|३१] इत्यत्र । शतेन क्रीतः शतिकः, शत्यः । “शवादस्वार्थेऽसे ठयौ” [३७] १८] इति । सहस्रेण क्रीतं, साहस्रम् "शतमानविंशतिसहस्रवख नादण्" [३ | ४|२४ ] इति ठयायः । एवमिहापि शतस्य विकारः शत्यः, शतिकः, साहस्रः । यथा परिमाणात्क्रीतार्थे “मह” [ ३|४|१७] भवति । प्रस्थेन क्रोतः, प्रास्थिकः । क्रौडविकः । खार्या क्रीतः खारीकः । "खारी काकणीभ्यां कपू" [३|४|३०] इति कप् । एवं प्रस्थस्य विकार: प्रास्थिकः । कौडविकः । खारीकः । कोण्या ढम ||३|३|११५ ॥ कोश एणी इत्येताभ्यां ढञ भवति विकारावयवयोरर्थयोः । कोशाद्वस्त्रे प्रयोगः । कोशस्य विकारः, कौशेयं वस्त्रम् श्राच्छादनम् । मयट् नास्ति । योऽपवादः । एण्या विकारोऽवयवो वा, ऐणेयं मांसम् । ऐणेयं सक्थि । एणीति स्त्रीलिङ्गनिर्देशात्पुंस्यणेव भवति । ऐणं मृगम् ( मांसम् ) । भवति विकारावयवयोरर्थयोः । प्राणिलक्षणस्याऽणोऽ • वोमोर्णात् ||३|३|११७॥ उमा श्रतसी । उमाऊर्णाशब्दाभ्यां वा वुञ् भवति विकारावयवयोरर्थयोः । माया विकारोऽवयवो वा चौमकम् । पढ़ें अणमयो । श्रमम् । उमामयम् । ऊर्णाया विकारः, श्रकम् । पक्षे पूर्ववदण्मयौ । श्रौर्णम् । ऊर्णामयम् । उष्ट्राद्वुञ ||३|३|११६ ॥ उष्ट्रशब्दाद्वुञ पवादः । उष्ट्रस्य विकारोऽवयवो वा श्रौष्टकम् । गोपयोः ||३|३|११८ ॥ गो पयस् इत्येताभ्यां य इत्ययं त्यो भवति विकारावयवयोरर्थयोः । गोर्विsimsarat वा गव्यम् । पयसो विकारः पयस्यम् । द्रोः ||३|३|११६ ॥ द्रोः शब्दाद्यो भवति विकारावयवयोः । अण्मयटोरपवादः । द्रव्यम् "प्राग्दो!" [३।११६८ ] इत्यधिकार इत ऊर्ध्वं न प्रवर्त्तते । माने वयः || ३ | ३ | १२० || द्रु शब्दान्माने विकारविशेषे वय इत्ययं त्यो भवति । पूर्वस्य यस्यापवादः । मानम् । उपफले || ३ | ३|१२१|| फलमवयवविशेषो यथा पत्रम् । श्रवयवविशेषे फल उत्पन्नस्य त्यस्योब्भवति । आमलक्या श्रवयवः फलम्, आमलकम् । मयट उपू । कुवल्या अवयवः फलम् कुवलम् । वदरम् | अरामयटोऽप् । सर्वत्र “हृदुप्युप्’' [१|१|३] इति स्त्रीत्यस्योप् । लक्षादिभ्योऽण् || ३ | ३ |१२२|| लक्ष इत्येवमादिभ्योऽय् भवति फलेऽवयवे विवक्षिते । प्रस्याऽ वयवः फलं प्लाक्षम् । श्रण्मयौ प्राप्तौ तयोश्च पूर्वेणोप्प्राप्तः, तदपवादोऽयम् । न्यग्रोधस्याऽवयवः फलम् For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मे० ३ पा० ३ सू० १२३-१२६] महावृत्तिसहितम् २११ नैयग्रोधम् । "न्यप्रोधस्य केवलस्य' [५।२।१०] इत्यैप् । पक्ष । न्यग्रोध । अश्वत्य । इङ्गुदी । शिनु । किततन्तु । बृहती। जम्म्या वोश्च ।।३।३।१२३॥ फल इति वर्तते । जम्बूशब्दादवयवविशेषे फलेऽभिधेये वा उस् भवति अण् च । पक्षे उम्भवति । जग्ब्वा अवयवः फलम् , मयट उसि, जम्बूः फलम् । अणो वचनादुस् न भवति । जाम्बवं फलम् । उपि बम्बु फलम् । हरीतक्यादेः ॥३॥३।१२४॥ उसिति वर्तते फले इति च । हरीतक्यादिभ्यः फले अवयवे उस् भवति त्यस्य । हरीतक्या अवयवः फलम् , हरीतकी फलम् । हरीतकी । पिप्पली । कोशातकी । नखरजनी । चण्डी। दोडी । श्वेतपाकी । अर्जुनपाकी । शाला | काला । दादा | ऋक्षा । गङ्गडिका । कण्टकारिका | शेफालिका। "येषां च पाकनिमित्तः शोषः, तेभ्यश्च उस् फले" [चा. ] बीहयः। यवाः। माषाः। मुद्गाः। "पुष्पमूलेषु बहुलम्" [वा०] । मल्लिकायाः पुष्पम्, अवयवः, मल्लिका । नवल्लिकाः । जाती । बृहत्या मूलमवयवः, बृहती । विटारी । अंशुमती । न च भवति उस् उबेव भवति । पाटलानि पुष्पाणि । शाल्वानि मूलानि । करवीरं पुष्पम् । कदम्बम् । अशोकम् । क्वचिदुभयोरभावः । वैणवानि फलानि । “जम्डवा हरीत. क्यादिषु च उसि किङ्गमेव उक्तवद् भवति न वचनम्" [ वा०] । जम्बूः फलम् । नम्ब्वौ फले । जम्चः फलानि । हरीतकी फलम् । हरीतक्यौ फले । हरीतक्यः फलानि । कांस्यपारशयो ॥३।३१२५॥ कांस्य पारशव इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । कंसीय-परशव्यशब्दयो यमिणोः परतश्छययोस् निपात्यते विकारेऽर्थे । यअणोरणोरनेनैव विधानम् । कासार्थम्, कंसीयम् । परश्वर्थ परशव्यम् । "दर्थ विकृतेः प्रकृती" [ 1] इत्यनेन प्राठणश्छः। "उगवादेर्यः" [३ ] इति छयौ भवतः । कंसीयस्य विकारः, कांस्यम् । परशव्यस्य विकारः, पारशवम् । पाटण ॥३३३३१२६॥ "तद्वहति रथयुगप्रासाथः'' [ ३३।११] इति यो वक्ष्यते । प्रागेतस्माद्यसंशब्दनाद्येऽग्रे वक्ष्यन्ते तेषु ठणधिक्रियते । वक्ष्यति "तेन दीम्यति खनति जयति जितम्" { २२१२७ ] इति । अर्दीव्यति प्राक्षिकः । शालाकिकः । प्राग्वचनं किम् १ अर्थविशेषे त्यान्तरंग निवर्तितस्य उत्तरत्रोपस्थानं यथा स्यादित्येवमर्थम् । तेन दीव्यति खनति जयति जितम् ॥३३।१२७॥ तैनेति भासमर्थात् दीव्यति खनति जयति जितमित्येतेष्वर्थेषु ठण् भवति । श्रर्दीव्यति श्राक्षिकः । शालाकिकः । अभ्रया खनति, प्राधिकः । कौदालिकः । श्रजयति, पाक्षिकः । शालाकिकः । अन्तिम् , अाक्षिकम् । शालाकिकम् । सर्वत्र करणे भा दाव्या। तेनेह न भवति देवदत्तेन जितमिति । दीव्यत्यादिषु त्रिषु संख्याकालावविवक्षितो। जितशब्टे कालो विवक्षितः। क्रियाप्रधानत्वेऽप्याख्यातस्य हृत्स्वभावादेव कारकाभिधायी । प्राधिको दीव्यतीत्यनप्रयोगः सन्देहनिवृत्यर्थः। संस्कृतम ॥२३॥१२८॥ तेनेति वर्तते । भासमर्थान्मृदः संस्कृतमित्येतस्मिन्नर्थे ठण भवति । वक्ष्यमाणासंसृष्टात्संस्कृतस्य को भेदः। सतो गुणामिधानं संस्कारः। मिश्रणमात्रं संसर्गः। दधना संस्कृतं दाधिकम् । शाशवेरिकम् । मार्गचिकम् । "संस्कृतं भक्षाः" [३।२।१] हत्येतदाधारविवक्षायामुक्तम् | कुलत्थकोकोऽण ॥३॥३२१२६॥ तेनेति संस्कृतमिति च वर्तते । कुलत्थशब्दात्ककारोङन मृदोऽण भवति । ठणोऽपवादः । कुलत्थैः संस्कृतं कौलत्थम् । कोड, तैत्तिडीकम् । दादलकम् । १. कतन्तन्तु म०, ३० । कर्कन्धु इति काशिकायाम् । For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २१२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ३ पा० ३ सू० १३० १४१ तरति || ३|३|१३० ॥ तेनेति वर्तते । भासमर्थात्तरतीत्यस्मिन्नर्थे ठण् भर्वात । उडुपेन तरति डुपिकः । कालविकः । साराविकः । गौपुच्छिकः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नौह्रष्ठः ||३|३ | १३१|| तेनेति तरतीति च वर्त्तते । नौशब्दाद्वयचश्च मृदष्ठो भवति । ठणोऽपवादः । नावा तरति नाविकः । नावि स्त्री । द्वयचः, घटेन तरति घटिकः । विक: । बाहुकः । चरति || ३ | ३|१३२ ॥ तेनेति वर्त्तते । चरतिरिह भक्षणार्थो गत्यर्थश्वेष्टः । तेनेति भासमर्थाच्चरति इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । इह तु करणे भा । शकटेन चरति, शाकटिकः । हारितकः । पर्यादेष्ठ ||३|३|१३३ ॥ तेनेति चरतीति च वर्त्तते । पर्प इत्येवमादिभ्यष्ठट् भवति । ठणोऽपवादः । पर्पेण चरति, पर्पिकः । पर्पिकी । श्रश्विक: । श्रश्विकी । पर्प । श्रश्व । ऊपर। श्रश्वत्थ इति केचित् । रथ । जाल । व्यास । पादः पच्च । पदिकः । पदिकी । श्वगणाद्वा ||३|३|१३४॥ तेनेति चरतीति वर्त्तते । श्वगणशब्दाद् वा ठड्भवति । पक्षे ठण् । श्वगणेन चरति, श्वगणिकः । श्वगणिकी । वागणिकः । श्वागणिकी । ठणि श्वशब्दस्य द्वारादित्वादौवादेशः प्रातः " श्वादेरावत : " [ ५।२।१३ ] इति प्रतिषेधः । वेतनादेर्जीवति ||३|३|१३५ ॥ तेनेति वर्त्तते । वेतनादिभ्यो भान्तेभ्यो जीवतीत्यस्मिन्नथ यथा विहितं त्यो भर्वात । वेतनेन जीवति, वैतनिकः । वेतन । बाहु । श्रर्द्धबाहु । उस् । दण्ड । धनुर्दण्ड । धनुर्दण्डग्रणं सङ्घातविगृहीतार्थम् । वेश । उपवेश । प्रेषण । भृति । जाल । उपस्थ । सुख । शष्प | शक्ति । उपनिषत् । ष्फिक् ( स्रक् ) । पाठ । उपस्थान । वस्नक्रयविक्रयाः ||३|३|१३६ ॥ तेनेति जीवतीति च वर्त्तते । वस्न क्रयविक्रयशब्दाभ्यां ठो भवति । वस्नं मूल्यम् वस्नेन जीवति, वस्निकः । क्रयविक्रयेण जीवति, क्रयविक्रयिकः । उभयथा वाक्याश्रयणाक्रयविक्रयेण जीवति, क्रयिकः । विक्रयिकः । छश्चायुधात् ||३|३|१३७॥ श्रायुध्यतेऽनेनेत्यायुधम् । व्यव्यर्थ ( घञर्थे ) कविधानं स्थास्नापानियुध्यर्धमिति । श्रायुधशब्दाद् भासमर्थाच्छश्च भवति ठश्च जीवतीत्यर्थे । श्रायुधेन जीवति श्रायुधीयः । युधिकः । श्रायुधिका स्त्री । हरत्युत्सङ्गादेः ||३ | ३|१३८ ॥ तेनेति वर्त्तते । उत्सङ्ग इत्येवमादिभ्यो भासमर्थेभ्यो हरतीत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । उत्सङ्गेन हरति, श्रौत्सङ्गिकः । उत्सङ्ग । उडुप । उत्तप । उत्त उत्पुत ) । पिटक । पिटाक । ठडभस्त्रादेः ॥३|३|१३९ ॥ भस्त्रा इत्येवमादिभ्यो भासमर्थेभ्यष्ठड् भवति । भस्त्रया हरति, भस्त्रिकः । भत्रिकी । भस्त्रा । भरट भरण। शीर्षभार । सभार । अंसेभार । वा विधवीवघात् ||३|३|१९४० ॥ तेनेति हरतीति वर्तते । विवधवीवधशब्दाभ्यां वा ठड् भवति, तेन मुक्त ठ भवति । विवर्धन हरति, विवधिकः । वीवधिकः । ठणि । वैवधिकः । स्वदेशान्वाधति' ( बिवा - ध) वधूः पर्याहार इत्यर्थः । तद्योगात्पथा अपि तथोच्यते । विवधशब्दस्य पृषोदरादित्वाद्वा दीत्वम् । I I श्रण कुटिलिकायाः || ३ | ३ | १४१ ॥ कर्माराणामङ्गारापकर्षणी, मृद्गतां (त) पलालोत्देपणो दण्डः, परिव्राजकानां त्रिदण्डधारणम् । कुटिलिका । कुटिलिका शब्दाद् भासमर्थादय् भवति इरत्यस्मिन्नर्थे । कुटिलिका हरति, कौटिलिकः कर्मारः कर्षकः, परिवाजको वा । अन्यत्राऽपि प्रयोगोऽम्यूह्यः । १. शादन्व | यतिर्वी० पू० । - सान्वायतिवि - ब० । For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० ३ सू० १४२-१५१ ] महावृत्तिसहितम् निर्वृत्तेऽक्षघृतादेः ॥ ३|३|१४२ ॥ इरतीति निवृत्तम् । तेनेति वर्त्तते । श्रद्यूतादिभ्यो भासमर्थेभ्यो निर्वृत्तेऽर्थे ठण् भवति श्रद्यूतेन निर्वृत्तम् श्राद्यूतिकम् । श्रद्यूत । जङ्गाहत । जङ्घाप्रहृत । पादस्वेदन | कण्टकमर्द्दन । शर्करामर्दन । गतागत । यातोपयात । श्रनुगत । २१३ भावादिमः || ३|३ | १४३ ॥ तेनेति निर्वृत्त इति च वर्त्तते । भाववाचिनो मृदो भासमर्थान्निर्वृत्तेऽर्थे इम इत्ययं त्यो भवति । कुट्टेन निर्वृत्ता, कुट्टिमा भूमिः । से किमोऽसिः । पाकिम श्रोदनः । त्रेः ||३|३|१४४॥ त्र्यन्ताच्च इमो भवति तैनेति निर्वृत्तेऽर्थे । पूर्वेण सिद्धे पुनरारम्भो वाक्यनिवृत्त्यर्थः । अस्वपदेनार्थः प्रदर्श्यते । पाकेन निर्वृत्तम् पवित्रमम् । वापेन निर्वृत्तम्, उप्त्रिमम् । करणेन निर्वृत्तम्, कृत्रिमम् । भावे " ड्रिवत: क्त्रि: " [ २/३/७० ] इति क्त्रिः । 3 नित्यम् || ३ | ३ | १४५ ॥ त्र्यन्तं नित्यमिमविषयं वेदितव्यम् । यथाऽन्ये भाववाचिनो निर्वृत्तार्थादन्यत्रापि प्रयुज्यन्ते । पाको वर्त्तते । सेको वर्तते इति निर्वृत्तार्थे वाक्यं वृत्तिश्च भवति, तथा त्र्यन्तस्य त्रैरूप्यं मा भूत् इत्येवमर्थमिदमुच्यते । पूर्वेण वाक्यनिवृत्तिः कृताऽनेनेमविषयादन्यत्र प्रयोगो निषिध्यते । याचिताऽपमिश्यात्क || ३ | ३|१४६ ॥ तेनेति निवृत्तमिति च वर्तते । याचित- श्रपमित्यशब्दाभ्यां कण भवति । याचितेन निर्वृत्तं याचितकम् । श्रापमित्यकम् । "माङो व्यतिहारे" [२|४|५] इति त्वात्यः । "वेर्मेरुः " [ ४|४|६१ ] इत्वम् । अभान्तादपि वचनाच्यः । श्रपमित्य इत्यनेन निर्वृत्तम् इत्येवं विग्रहे शब्दान्तरेण करणत्वं व्यज्यते । , संसृष्टे ||३|३|१४७|| तैनेति वर्तते । भासमार्थान्मृदः संसृष्टेऽर्थं ठय् भवति । संसृष्टं मिश्रितम् । दध्ना संसृष्टम् दाधिकम् । मारीचिकम् । "चूर्णादिन् वक्तव्यः " [ वा० ] । चूर्णेन संसृष्टाः, चूर्णिनो धानाः । चूर्णिनोऽपूपाः । इह कस्मान्न भवति, लवणेन सैन्धवादिना संसृष्टमिति १ अनभिधानात् । कथं लवणः सूपः, लवणं शाकम्, लवणा यवागूरिति १ गुणवाचिनो लवणशब्दस्य तद्योगात् द्रव्ये वृत्तिरियम् । यथा कषायमुदकम् । कटुकमुदकमिति । मुद्गादण् || ३ | ३|१४८६|| मुद्गशब्दाद् भान्तादय् भवति संसृष्टेऽर्थे । ठणोऽपवादः । मौद्ग श्रोदनः । व्यञ्जनैरुपसते ||३|३|१४६ ॥ तेनेति वर्त्तते । समर्थविभक्त्युपादानं तस्यैव व्यक्तये । व्यञ्जनवाचिभ्यो भासमर्थेभ्य उपसिक्केऽर्थे ठ भवति । दध्ना उपसिक्कं दाधिकं भक्तम् । घार्तिकः सूपः । व्यञ्जनैरिति किम् ! उदकेन उपसिक्त श्रोदनः । बहुत्वनिर्देशः स्वरूपनिरासार्थः । श्रोजः सहोऽम्भसा वर्त्तते || ३ | ३ | १५० ॥ तेनेति वर्त्तते । निर्देशाद् वासमर्थविभक्त्युपादानम् । श्रोणःप्रभृतिम्यो भासमर्थेभ्यो वर्तते इत्यस्मिन्नर्थे ठणू भवति । श्रोनसा वर्तते श्रौजसिकः । साहसिकः । श्राम्भसिकः । For Private And Personal Use Only तत्प्रत्यनुपूर्व मी पलोमकूप्रात् || ३ | ३|१५९|| तदिति इप्समर्थेभ्यः प्रति श्रनु इत्येवंपूर्वेभ्यः ईपलो मकूलशब्देभ्यो वर्तत इत्यस्मिन्नर्थे ठण् भवति । वृत्तिः क्रियासामान्ये वर्तमानः सकर्मकः । वर्तते श्राचरतीत्यर्थः । श्रपः प्रति प्रतीपम् । "वीप्सेत्थंभूतलक्षणेऽभिने” [118|११] | "भागे चानुप्रतिपरिणा” [ १|४|१२] इति लक्षणेऽर्थे ईप् 'लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती [ १३ ११] इति हसः | "द्वथनगेरीदप:' [ ४३ । २०२ ] इति ईत्वम् । भावप्रधाना चेयं वृत्तिः । समुदायात्कर्मणीप् । प्रतीप वर्तते प्रातीपिकः । श्रनुर्यथार्थे वर्त्तमानः श्रप्शब्देन सह हसो भवति । श्रान्वीपिकः । प्रतिलोम वर्तते, प्रातिलोमिकः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. ३ पा० ३ सू० ११२-१५६ श्रानुलोमिकः । हसे कृते "प्रत्यन्ववात्सामोग्नः" [ ४२] इति श्रः सान्तः । प्रातिकूलिकः । श्रानुकूलिकः । अथवा प्रतिगता आपोऽस्मिन्निति प्रतीपम् इति । एवं सर्वत्र वसः कर्तव्यः । परिमुखम् ॥३॥३॥१५२।। तदिति वर्तते । परिमुखशब्दात् इप्समर्थाद् वर्तते इत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । मुखात्परि परिमुखम् । “वर्जनेऽपपरिभ्याम्" [ २] इति का । "पर्यपापहिरञ्चवः कया" [१॥३१.] इति हसः । परिमुखं वर्तते पारिमुखिकश्चौरः। सर्वतो मुखं वा परिमुखम् । प्रादिलक्षणः सः । पारिमुखिकः । “परिपावच्चेिति वक्तव्यम्' [ वा० ] । पारिपार्श्विकः । प्रयच्छति गाम् ॥३।३१५३।। तदिति वर्तते । तदिति इप्समर्थात्प्रयच्छति इत्यस्मिन्नथें ठण भवति यत्तदिप्समर्थ चेत्तद् भवति । द्विगुणं प्रयच्छति, दैराणिकः । त्रैगुणिकः । "(वृ) ष्ठणि वृधुषिभावो वक्तव्यः' [वा०] (वृद्धिं प्रयच्छति वार्धषिकः । यदि प्रकृत्यन्तरमस्ति, व्यविकन्यायेन तस्मादेव त्यः । गर्यमिति किम् ? द्विगुणं प्रयच्छत्यधमर्णः । ___ कुसीददशैकादशाह्रौ ॥३।३।१५४॥ तत्प्रयच्छति गर्यम् इति च वर्तते । कुसीद-दशैकादशशब्दाभ्यां प्रयच्छतीत्यस्मिन्नर्थे ययासंख्यं ठट् ठ इत्येतो त्यौ भवतः ठणोऽपवादो। कुसीदम् श्रृणं वृद्धिर्वा । कुसीदं प्रयच्छति, कुसीदिका । कुसीदिकी । एकादशार्था दश दशैकादश निपातनात्सः । तान् प्रयच्छति, दशैकादशिको । दशैकादशिका। रक्षत्युन्छति ॥३।३।१५५॥ तदिति इपसमर्थाद रक्षति उञ्छति इत्येतयोरर्थयोष्ठः भवति । समाज रक्षति, सामाजिकः । नागरिकः । वदराण्युञ्छति वादरिकः । नैवारिकः । शब्ददद्रं करोति ॥३॥३॥१५६।। इप्समर्थाभ्यां शब्ददर्दुरशब्दाभ्यां करोत्यस्मिन्नर्थे ठण् भवति । शब्दं करोति, शाब्दिकः । वैयाकरण इत्यर्थः । दादुरिकः कुम्भकारः) तदित्यधिकारे पुनः समर्थविभक्त्युपादानं लोकिकप्रयोगाऽनुसरणार्थम् । तेनेह न भवति । शब्दं करोति कासः । “अस्मिन्प्रकरणे तदाहेतिमाशब्दादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा०] माशब्द इत्याह माशब्दिकः । नैत्यशब्दिकः । कार्यशब्दिकः । वाक्यादिदं विधानम् । "प्रभूतादिभ्यश्च" [वा. ] तदाहेति वर्तते। प्रभूतमाह प्राभूतिकः । पार्याप्तिकः । "पृच्छतौ सस्नानादिभ्य इप्समर्थेभ्यः" [वा.]। सुस्नातं पृच्छति, सौस्नातिकः । सोखरात्रिकः । सौखशायनिकः । "गच्छत्तौ परदारादिभ्य इप्समर्थेभ्यः" । वा०] 1 परदारं गच्छति, पारदारिकः । गौरुतल्पिकः । पतिमत्स्यमृगान् हन्ति ॥३॥३॥१५७।। तदिति इप्समर्थेभ्यः पत्तिमत्स्यमृगेभ्यो हन्तीत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । स्वरूपस्य पर्यायाणां तद्विशेषाणा ग्रहणम् । पक्षिणो हन्ति, पाक्षिकः) नास्यस्यामिधानमित्येके । पर्यायशब्दस्य शकुनेरेव ग्रहणम् । शाकुनिकः । तैत्तिरिकः । मायूरिकः । मत्स्य, मात्स्यिकः। पर्यायस्य मीनशब्दस्यैव अनिमिषादिषु न भवति । शाफरिकः । रौहितिकः । मृग, मार्गिकः । हारिणिकः । सौकरिकः । साङ्गिकः । परिपन्थं तिष्ठति ॥३३१५८॥ परिपन्थशब्दादिपसमर्थात तिष्ठतीत्यस्मिन्नथें ठण भवति "काटभावाऽध्वगन्तव्याः कर्मसंज्ञा ह्यकर्मणाम्" [वा०] इति कर्मभावादिप् । परिपन्थं तिष्ठति पारिपन्थिकचौरः । पन्यानं वर्जयित्वा व्याप्य वा तिष्ठतीत्यथः । “हन्तीत्यपि वक्तव्यम्"वा.। परिपन्थं हन्ति, पारिपन्थिकः । परिपथपर्यायः परिपन्यशब्दोऽस्ति तस्यायं प्रयोगः । माथापदन्यनुपदाकन्दं धावति ॥३॥३३१५६।। तदिति वर्तते । माया पदवी अनुपद श्राक्रन्द इत्येतेभ्य इप्समर्थेभ्यो धावतीत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । माथशब्दो मार्गपर्यायः। दण्डमाथं धावति, दण्ड For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .०३ पा० ३ सू० १६०-१६] महावृत्तिसहितम् २१५ माथिकः। मौलमाथिकः । पदस्य वी पदवी । "वेनो डित्" इति इकारो डित् । "सर्वतोऽक्त्यर्थादित्ये" [ 1 ग. सू०] इति डीविधिः । तां धावति, पादविकः । पदस्य पश्चाद्धावतीति, अनुपदिकः । श्राक्रन्दिकः । पदद्योग हाति ॥३॥३॥१६०॥ तदिति वर्तते । पदाशब्दाद् इप्समर्थाद् गृह्णातीत्यस्मिन्नथें ठण भवति । श्रादिपदं गृह्णाति, आदिपदिकः । पौर्वपदिकः । श्रौत्तरपदिकः । प्रतिकण्ठलनामार्थात् ।।३।३।१६।। तदिति गृह्णातीति च वर्तते । प्रतिकण्ठ ललाम अर्थ इत्येतेभ्य इप्समर्थेभ्यो गृह्णातीत्यस्मिन्नर्थे ठण् भवति । कण्ठं प्रति, प्रतिकण्ठम् । “लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती' [1३11इति हसः । प्रतिकण्ठं गृह्णाति, प्रातिकण्ठिकः । प्रतिगतः कण्ठः, प्रतिकण्ठः इत्यत्राभिधानं नास्ति । "पुरुषध्यमऋषु हविभूषण लक्ष्मसु । वामश्रेष्टावनीन्द्रेषु ललामं नवसु स्मृतम् ॥' लालामिकः । आर्थिकः । धर्म चरति ॥३।३.१६२।। धर्मशब्दादिप्समर्थाच्चरतीत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । तदिति वर्तमाने पुनः समर्थविभक्त्युपादानं किम् ? श्रासेवायां यथा स्यात् । मुहुर्मुहुर्धर्मं चरति, धार्मिकः । "अधर्माच्चेति वक्तव्यम्" [वा०] । श्राधर्मिकः । प्रतिपथमेति ठश्च ॥३॥३॥१६३।। प्रतिपथशब्दादिप्समर्थादेतीत्यस्मिन्नर्थे ठो भवति ठण् च । प्रतिपथमेति, प्रतिपथिकः । प्रातिपथिकः। समवायात्समवैति ।।३।३।१६४॥ समवायवाचिभ्य इ'समर्थेभ्यः समवैती यस्मिन्नर्थे ठण भवति । बहुवनिर्देशात्तस्य तत्पर्यायाणां च ग्रहणम् । समवायं समवैति, सामवायिका। सामूहिकः । सामाजिकः । सांसदिकः । परिषदो ण्यः ॥३।३।१६५।। तदिति वर्तते । परिषच्छब्दादिप्समर्थात् समवैतीत्यस्मिन्नर्थे ण्यो भवति । ठणोऽपवादः । परिषदं समवैति, पारिषद्यः । सेनाया वा ॥३३॥१६६॥ सेनाशब्दादिपसमर्थाद्वा एयो भवति समवैतीत्यस्मिन्नथें । पक्षे ठण भवति । सेनां समवैति सैन्यः । सैनिकः । नानाटिककोक्कुटिकौ ॥३॥३॥१६७।। लालाटिफकोक्कुटिकशब्दौ निपात्येते । ललाटकुक्कुटीशब्दाभ्याम्पसमर्थाभ्यां पश्यतीत्यस्मिन्नर्थे ठण, निपात्यते । ललाटं पश्यति, लालाटिकः सेवकः । कुक्कुटीशब्देन कुक्कुरीपातमत्रो देशो लक्ष्यते । कुक्कुटौं पश्यति, कौक्कुटिको भित्तुः । पुरो युगमात्रदेशप्रेक्षीत्यर्थः । तस्य धर्म्यम् ॥३।३१६८।। धर्म्य न्याय्यम् । तस्येति तासमर्थाद् धर्म्यमित्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । शुल्कशालाया धर्म्यम्, शोल्कशालिकम् । श्रातरिकम् । आपणिकम् । ऋन्महिष्यादेरण ॥३॥३॥१६६।। तस्य धर्म्यमिति वर्तते । ऋकारान्तान्मृदः महिषी इत्येवमादिभ्यवाण् भवति । ठणोऽपवादः । मातुर्धर्म्य मात्रम् । पैत्रम् । होत्रम् । शास्त्रम् । महिण्यादिभ्यः । महिष्या धर्म्यम्, माहिषम् । महिषी । प्रजावती । केषाश्चित् प्रजापतीति पाठः। प्रलेपिका । विलेपिका । अनुलेपिका । वर्णकपेषिका । 'भस्य हृत्यढे" श१४७ वा०] इति पुंवद्भावः प्राप्तः "न वुहृत्कोड: ११ इति प्रतिषिध्यते । "विसितुस्टिः खं च" [वा.]। विशसितुर्धय॑ वैशस्त्रम् | "विभाजयितुर्णिखच" [वा.]। विभाजयितुर्धर्म्य वैभाजित्रम् । १. सो( शो )रकमाथिकः १० । सौ( शौ )ल्वमाथिकः अ० । For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म०३ पा० ३ सू० १७0-150 अवक्रयः ॥ ३३६१७० ॥ तस्येति वर्तते । तस्येति तासमर्थान्मृ दोऽवाय इत्यस्मिन्नथें ठण भवति । श्रवक्रीयतेऽनेनेत्यवक्रयः। श्रन्याय्यमपि स्वेच्छया परिकल्पितपरिमाणम् । द्रव्यमेकत्र पिण्डितमित्यर्थः । शुल्कशालायामवक्रयः शौल्कशालिकः । श्रातरिकः । अापणिकः । गौल्मिकः । सदस्य पण्यम् ॥३॥३३१७१॥ तदिति वासमर्थात् पण्यविशिष्टादस्येति तार्थे ठण भवति । अपूपाः पण्यमस्य, श्रापूपिकः । शाष्कुलिकः । किसरादेष्ठट् ॥३।३।१७२।। तदस्य परयमिति वर्तते । किसर इत्येवमादिभ्यष्ठड् भवति । ठणोऽपवादः । किसरं पण्यमस्य, किसरिको गन्धिकः । किसर । नलद। स्थगर तगर । उसी शीर गाल। हरिद्रा । हरिनुपर्णी । शलालनो वा ॥३॥३६१७३।। तदस्य पण्यमिति वर्तते । शलालुशब्दाद्वा ठड् भवति । पक्षे ठण भवति । शलालु पण्यमस्य, शलालुकः । शालालुकः । शिल्पम् ॥३।३१७४॥ तदस्येति वर्तते । शिल्प क्रियाविशेषे नैपुएम् । तदिति घासमर्थादस्येति तार्थे ठण भवति, यत्तद्वानिर्दिष्टं शिल्पं चेत्तद् भवति । (मृदङ्ग वादनं शिल्पमस्य, मादंङ्गिकः । ) मृदङ्गवादने मृदङ्गशब्द उपचयंते, तस्मादेव त्यः । एवं पाणविकः । वैणविकः । मडूकझमराद् वाऽण् ॥३।३।१७।। तदस्य शिल्यमिति वर्तते । मड्डुकझर्झरशब्दाभ्यां वाण भवति । अणाऽनुक्ते ठण् भवति । मड्ड कवादनं शिल्पमस्य, माडकः। माड्डुकिकः । झाझरः। झाझरिकः । प्रहरणम् ॥३३१७६।। तदस्येति वर्तते । वासमर्थात्प्रहरणोपाधिविशिष्टान्मृदः अस्येति तार्थे ठण भवति । असिः प्रहरणमस्य, श्रासिकः । त्सारकः । धानुष्कः । शक्तियष्टेष्टोकण ॥३।३।१७७॥ शक्लियष्टिशब्दाभ्यां टीकण भवति तदस्य प्रहरणमित्यस्मिन्विषये । ठयोऽपवादः । शक्तिः प्रहरणमस्य, शाक्तीकः । याष्टोकः । इकारोच्चारणसामर्थ्यात् "यस्य याब" [ ३६] इति खं न भविष्यति (इति) दीवोच्चारणं किम् १ अन्यत्रापि यथा स्यात् । अन्तः (श्रम्भः) प्रहरणमस्य, श्रान्तसीकः (प्राम्भसीक:)। इर्ष प्रहरणामस्य ऐषीकः । बहिर्भवः बाहीक इति । नास्तिकास्तिकदैष्टिकाः ।।३।३।१७।। नास्तिकादयः शब्दा निपात्यन्ते । नास्ति अस्ति दिष्ट इत्येतेभ्यः शब्देभ्यो मतिविशिष्टेभ्योऽस्येति तार्थे ठण निपात्यते । परलोको नास्तीति मतिरस्य, नास्तिकः । परलोकोऽस्तीति मतिरस्य, श्रास्तिकः। दिष्टं दैवतं तत्प्रमाणमस्य, दैष्टिकः । निपातनाद्वाक्यादपि त्यविधानम् । शीलम् ॥३३॥१७६।। तदस्येति वर्तते । वासमर्थादस्येति तार्थे ठण भवति वासमर्थ शीलं चेद भवति । अपूपभक्षणं शीलमस्य, आपूपिकः । तास्थ्याचाच्छब्यमिति अपूपशब्दात्यः । एवं शाष्कुलिकः । मौदकिकः। (छत्रादेर्णः ॥३३११८०॥ तस्य शोलमिति वर्तते । छत्र इत्येवमादिभ्यो णो भवति । ठणो अवादः । छत्रमावरणं तद्वद्गुरुकायेंष्ववहितखम् | छत्रं शीलमस्य, छात्रः । शिष्यः शीलमस्य' शैष्यः । छत्र | शिष्य । मुक्षा । मिक्षा । तितिक्षा | चुरा । उदस्थान । कृषि । कर्मन् । तपस् । पुरोड । आस्था । संस्था । अवस्था । विश्वधा । सत्य । अन्त । पिसिक (शिविका। शिक्षा (क्षा ) शीलमस्य शैक्षः अ०, पू० । २. शिक्ष (क्षा) म०, ५० । ३. मुक्षा (पुमुक्षा) म., पू.। For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ पा० ३ सू० १८१-१६१] महावृत्तिसहितम् २१७ कर्माध्ययने वृत्तम् ॥३।३।१८।। तदस्येति वर्तते । तदिति वासमर्थादस्येति तार्थे ठण भवति यत्तद् वासमर्थ कर्भ चेद्वृत्तमध्ययनविषयं तद्भवति । एकमन्यदध्ययने कर्म वृत्तमस्य, ऐकान्यिकः। किम्पुनस्तदेकमन्यदध्ययने कर्म ? अपपाटः । एवं द्वैयन्यिकः । त्रैयन्यिकः । सर्वत्र हृदर्थे रसः । ततष्ठण । खबजादेष्टः ॥३॥३।१८२॥ बह्वच पदमादिर्यस्य तस्मान्मृदष्ठो भवति । ठणोऽपवादः । तदस्य कर्माध्ययने वृत्तमिति वर्तते । द्वादश अन्यानि अपपाठलक्षणानि अध्ययने कर्माणि दत्तान्यस्य, द्वादशान्यिकः। हितमस्मै भक्ष्यः (क्षाः ॥३।३।१८३॥ तदिति वर्तते । तदिति वासमदस्मै इत्येतदर्थे ठण् भवति यत्तद् वासमर्थ हितं भक्षाश्चेत्तद् भवन्ति । अप्पभक्षणं हितमस्मै, आपूपिकः । शाकुलिकः । इदमेव ज्ञापकं हितयोगेऽप् भवति । तद्दीयते नियुक्तम् ।।३।३।१८४॥ अस्मै इति वर्तते । तदिति वासमर्थादस्मै इत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति यत्तद् वासमर्थ तच्चेद्दीयते । नियुक्त नियमेन युक्तं नियुक्तमित्थः। अग्रभोजनमस्मै दीयते नियुक्तम् , अाग्रभोजनिकः । श्रापृपिकः । श्राणाऽस्मै दीयते नियुक्तम् , भाणिकः । शाणो( को दनिकः । "मोदनशब्दाद् वक्तव्यः" [वा. ] श्रोदनिकः । श्रोदनिकी । भक्ताद् वाऽण ॥३॥३॥१८५॥ तदस्मै दीयते नियुक्तमिति वर्तते । भक्तशब्दान् वाऽण भवति । पक्षे ठण् भवति । भक्तमस्मै दीयते नियुक्तम्, भाक्तः । माक्तिकः । तत्र नियुक्तः ॥३।३।१८६॥ अधिकृतो नियुक्तः । तत्रेतीप्समर्थाद् नियुक्त इत्यस्मिन्नर्थे ठण भवति । शुल्कशालायां नियुक्तः, शोल्कशालिकः । श्राक्षपटलिकः । दौवारिकः । ठोऽगारान्तात् ॥३॥३१८७॥ तत्र नियुक्त इति वर्तते। अगारान्तान्मृदष्ठो भवति । ठणोऽ पवादः । भाण्डागारे नियुक्तः, भाण्डागारिकः । कोष्ठागारे नियुक्तः, कोष्ठागारिकः । अध्यायिन्यदेशकालात् ॥३३॥१८८॥ अध्येतुं शीलमस्येति, अध्यायी। ईप्समर्थाद्देशवाचिनोऽकालवाचिनश्च मृदोऽध्यायिन्यभिधेये ठण भवति । अध्यायिनीत्युक्तम्, तत्सम्बन्धात् अध्ययनस्य देशकालो पर्युदस्यते । अशुचावधीते, आशुचिकः । सान्ध्यावेलिकः । अानध्यायिकः । अदेशकालाविति किम् ? चैत्यालयेऽधीते । पूर्वाह्नऽधीते । कठिनान्तप्रस्तारसंस्थानेषु व्यवहरति ॥३॥३॥१८६॥ व्यवहरति, अनुतिष्ठति । तत्रेत्यनुवृत्तेनिर्देशाद् वासमथविभक्त्युपादानम् । कठिनशब्दान्तान्मृदः प्रस्तार-संस्थानशब्दाभ्यां च व्यवहरतीत्यस्मिन्नर्थ ठण भवति । वंशकठिने व्यवहरति, वांशकठिनिकः । पार्द्धकठिनिकः । प्रास्तारिकः । सांस्थानिकः। अन्तग्रहणं मध्ये कृतमपि केचिदुत्तरयोः सम्बध्नन्ति । निकटावसथे वसति ॥३।३।१६०॥ तत्रेति वर्तते । निकट-अवसथशब्दाभ्यामीसमर्थाभ्यां वसतीत्यस्मिन्नर्थे ठण् भवति । निकटमविदूरम् । निकटे वसति, नैकटिकः । श्रावसथिकः । तद् वहति रथयुगप्रसङगाद्यः ॥३३॥१६१॥ दम्यानां स्कन्धकाष्ठं प्रसङ्गः। तदितीप्समर्थेभ्यो स्थयुग-प्रसङ्गशब्देभ्यो वहतीत्यस्मिन्नर्थे यो भवति । य इत्ययं चाऽधिकार आपादपरिसमाप्तेर्वेदितव्यः । १. लक्ष्यानुरोधात् "मोदनशब्दाटुड् वक्तव्यः" इति प्रतिभाति । २८ For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [भ० ३ पा० ३ सू० ११२-११० रथं वहति, रथ्यः। युग्यः । प्रासङ्गयः । इहानभिधानान्न भवति । कालसंशिनं युगं वहति राजा । युगं वहति मनुष्यः । “शकटादण वक्तव्यः" [वा०] शकटं वहति शाकटो गौः । “हलसीरा?ण वक्तव्यः" [वा. ] हलं वहति हालिकः । सैरिकः। नेदं वक्तव्यम्; शकटस्य बोढा हलस्य वोढा इत्येवं विग्रहे शैषिकेणाणा "हलसीरा?ण्" [ १२] इति ठणा च सिद्धम् । तर्हि रथग्रहणमप्यनर्थकम् । “रथाद्यः" [३३६ ] इत्यनेन सिद्धत्वात् । तदन्तार्थमिह रथग्रहणम् । द्वौ रथो वहति, द्विरथः । अत्र प्रारद्रवीयस्य "रस्योबनपत्ये" [३।७४ ] इत्युप् प्रसज्यते । धुरो ढण वा ॥३।३।१६२॥ धूःशब्दाद् वहतीत्यस्मिन्नर्थे ढण भवति यश्च । प्रकृतिविशेषाहणा विधीयमानेन यस्य बाधने प्राप्तेऽनेन समुच्चयः क्रियते । न त्वनुकर्षः । उत्तरत्राऽप्यनुवृत्तेः । धुरं वदति, धौरेयः । धुर्म्यः। सर्वैकाभ्यां खः ॥३।३।१९३॥ तद्वहतीति वर्तते । सर्व एकशब्दाभ्यां परस्या धुरः खो भवति । सर्वा धूः, सर्वधुरा । “पूर्वकालैकसव" [२४] इत्यादिना पसः । सर्वधुरां वहति, सर्वधुरीणः । एक धुरीणः। 'एकधुराशब्दारखस्योस् वक्तव्यः" [वा०] एकधुरं वहति. एकधुरः । न वक्तव्यः । एकस्या धुरो बोढेभ्या ( त्या ) गतस्याणः "रस्योबनपत्ये" [३।११७४] इत्युपा सिद्धम् । इष्टसङ्ग्रहार्थश्चकारोऽनुवर्त्यः । उत्तरधुरीणः। विध्यत्यकरणेन ॥३३॥१९४॥ तदिति वर्तते । इप्समर्थान्मृदः विध्यतीत्यस्मिन्नर्थे यो भवति न चेत्करणेन विध्यति तदिति । पादं विध्यति पद्याः शकराः। "पद्य"[३/१६४] इति पादस्य पदादेशः। ऊरव्याः कण्टकाः। प्रकरणेनेति किम १ पादं विध्यति धनुषा । प्रतीयमानेऽपि धनुषः करणत्वेनानभिधानान्न भवति । शक्र विध्यति । चोरं विध्यति राजा। जन्यधेनुष्यान्नवश्यवन्यगण्यपद्यमूल्यहृद्यसतीर्थ्यगाहप-याः ॥३॥३॥१९५॥ जन्यादयः शब्दा निपात्यन्ते । जनी वधः, तां वहतीत्यत्रार्थे यः । जन्याः परिणेतसहायानामियं संज्ञा । 'धेनुष्येति संज्ञायां धेनुशब्दाद्यः षुक्चागमः" प्रकृष्टा धेनुर्धनुष्या । या गोपालाय दोहार्थे दीयते । अन्यत्र धेनुतरेति भवति । अन्नं लब्धेत्यस्मिन्वाक्ये अन्नापणो निपात्यते । श्रान्नः। वशं गत इत्यस्मिन्वाक्ये वशशब्दाद्यः । वश्यः । विनेय इत्यर्थः । धनगणशब्दाभ्यामिवन्ताभ्यां कब्धरि य: । वनं लब्धा वन्यः । गणं लब्धा गएयः । पदमस्मिन् दृश्यते अस्मिन्वाक्ये पादशब्दाद्यः । पद्य हिमम् । पद्यः कर्दमः । पदमस्मिन्द्रष्टुं शक्यमित्यर्थः । 'मूलमस्याबहि' इत्यस्मिन्वाक्ये मूलशब्दाद्यः। मूल्या मुद्गाः । मूल्या माषाः । मूलोत्पाटेन समाह्या इत्यर्थः । श्रथवा मूलेन समं मूल्यं वस्त्रम् । मूलेनानम्यं वा मूल्यम् । हृदयस्प प्रिय इत्यस्मिन् वाक्ये हृदयशब्दाद्यः। "हृदयस्थ हल्लेखयाण्लासेषु' [ १६] इति हृदादेशः। हृद्यो देशः। हृद्यमन्नम् । हृदयस्य बन्धनमृषिः हृद्यः। वशीकरणभूत इत्यर्थः। समाने तीर्थे वसतीत्यस्मिन्वाक्ये समानतीर्थशब्दाद्यः। समानस्य च सभावः । सतीर्थ्यः । गृहपतिना संयुक्त इत्यस्मिन्वाक्ये गृहपतिशब्दात् ज्ञायां न्यो निपात्यते । गाईपत्योऽग्निः। बयस्तुलाभ्यां सम्मिते ॥३३॥१६॥ निर्देशादेव भाया उपादानम् । वयस्तुला इत्येताभ्यां भासमर्थाभ्यां सम्मितेऽर्थे यो भवति । वयसा सम्मितः, वयस्यः । संज्ञायामभिधानम् । अन्यत्र वयसा सम्मितः शत्रुरित्येव । तुलया सम्मितं तुल्यम् । सदृशमित्यर्थः। नौधर्मविषसीताभ्यस्तार्यप्राप्तबध्यसमितेषु ॥३।३।१९७॥ त्यार्थवसाभासमर्थादिति लभ्यते । नावादिभ्यश्चतुर्यो भासमर्थेभ्यो यथासंख्यं तार्यादिषु यो भवति । नावा तायं नाव्यमुदकम् । “यि त्ये" [३।६७] इत्यावादेशः। प्राक्कनेन धर्मेण प्राप्तं धर्म्यम् । वयनाणं तु धर्मादनपेतं धर्म्य न्याय्यमुच्यते । For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ३ पा० ३ सू० १६८-२०८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् २१९ विषेण वध्यः, विष्यः । वध इति प्रकृत्यन्तरम् । वधमर्हति वध्यः । सीतया समितं सङ्गतं सीत्यं क्षेत्रम् | " रथसीताहलेभ्यो यविधौ तदन्तविधिरपीष्यते" [वा०] परमसीत्यम् । द्विसीत्यम् । धर्मपथ्यर्थ न्यायादनपेते || ३ | ३|१६८ || निर्देशादेव समर्थविभक्त्युपादानम् । धर्म पथिन् अर्थ न्याय इत्येतेभ्यः कासमर्थेभ्योऽनपेतेऽर्थे यो भवति । धर्मादनपेतं धर्म्यम् । पथ्यम् | अर्थ्यम् । न्याय्यम् | छन्द निर्मिते || ३ | ३|१६६॥ छन्द इच्छा । निर्मितमुत्पादितम् । निर्देशादेव भासमर्थाच्छन्दः शब्दात् निर्मितेऽर्थे यो भवति । छन्दसा निर्मितः, छन्दस्यः । उरसाऽः च ||३|३|२००|| निर्देशाद् भाया उपादानम् । उरः शब्दाद् भासमर्थान्निर्मितेऽर्थेऽण् भवति यश्च । उरसा निर्मितः, श्रौरसः । उरस्यः । मदजनहलात्करणजल्पकर्षेषु ||३|३|२०१ ॥ मद जन हल इत्येतेभ्यो यथासंख्यं करण जल्प कर्ष इत्येतेष्वर्थेषु यो भवति । करणादयः शब्दा भावे करणे वा व्युत्पादयितव्याः । तेन सामर्थ्यात्त्योत्पत्तिः । मदकस्य करणं मद्यम् । मदस्थाने केचिन्मतशब्दं पठन्ति तेषां मत्यमिति भवति । जनस्य जल्पः जन्यः । हलस्य कर्षः, इल्यः । द्विहल्यः । परमहल्यः । तत्र साधुः ||३|३|२०२॥ तत्रेतीसमर्थात्साधुरित्येतस्मिन्नर्थे यो भवति । सामनि साधुः, सामन्यः । कर्मण्यः । सभ्यः । शरण्यः । साधुरिह योग्यो निपुणो वा न तु हितः, तत्र हि प्राक्ठणीय एव त्यः । प्रतिजनादेः खम ||३|३|२०३|| तंत्र साधुरिह वर्तते । प्रतिजन इत्येवमादिभ्यः खञ भवति । यस्याऽपवादः । जनं जनं प्रति प्रतिजनम् । यथार्थे हसः । प्रतिजने साधुः प्रातिजनीनः । प्रतिजन । इदंयुग । संयुग । परयुग । परकुल । परस्यकुल । अमुष्यकुल । निपातनात्ताया अनुप् । सर्वजन । विश्वजन । पञ्चञ्चन । महाजन । योऽत्र हितार्थः साध्वर्थः, तत्र वचनात्प्राकूठणीयस्य बाधा । भक्ताण्णः ||३|३|२०४ || तत्र साधुरिह वर्तते । भक्तशब्दाणो भवति । यस्याऽपवादः । भक्ते साधुर्भाक्तस्तदुलः । परिषदो रयः || ३ | ३|२०५|| तत्र साधुरिति वर्तते । परिषच्छन्दा एण्यो भवति । यस्याऽपवादः । परिषदि साधुः पारिषद्यः । गोऽप्यत्राऽनुवृत्तिरिष्यते । परिषदि साधुः पारिषदः । कथादेष्टन् || ३ | ३| २०६ ॥ तत्र साधुरिति वर्तते । कथा इत्येवमादिभ्यष्ठय् भवति । यस्याऽपवादः । कथायां साधुः, काथिकः । कथा | विकथा । विश्वकथा | संकथा । वितन्द्रा । कुष्टिदा ( कुष्टचित् ) । जनवाद | जनेवाद | चित्रवृत्ति । सङग्रह । गण । गुण । श्रायुर्वेद । गुड । कुल्यास ( कुल्माष ) । सक्तु । पूप | मांसौदन | इक्षु | वेणु । संग्राम | संघात | प्रवास | निवास । उपवास । पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्ढन् ॥३ | ३|२०७ ॥ तत्र साधुरिति वर्तते । पथ्यादिभ्यो ढञ् भवति । यस्यापवादः । पथि साधु पाथेयम् । श्रातिथेयम् । वासतेयम् । स्वापतेयम् । समानोदरे शयितः ||३|३|२०८ ॥ तत्रेति वर्तते । निर्देशाद् वा ( ईप्समर्थात् ) समानोदरशब्दात् शयित इत्यस्मिन्नर्थे यो भवति । समानोदर्यः । सोन्दर्यः । "वोदयें " [ ४ | ३ | १३४ ] इति समानस्य सादेशः । कथं तर्हि सोदरशब्दस्य सिद्धि: ! " समानस्य'' [ ४ | ३|१३२ ] इति योगविभागात् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्र महावृत्ती तृतीयस्याऽध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः । १ - रिह व प्र० पू० For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा० ४ सू० ।प्राक्ठणश्छः ॥३१४।१॥ वक्ष्यन्ति (ति) "श्रा टण्" १३।४१७] प्रागेतस्मादृण संशब्दनायेऽर्था वक्ष्यते (न्ते) तेषु छोऽधिकृतो वेदितव्यः । वक्ष्यति "तस्मै हितम्' [३॥४॥४] । वत्सेभ्यो हितः, वत्सीयः । अवत्सीयः । करभीयः । प्राग्वचनं किम् ? अर्थविशेषेऽपवादेन निवर्त (र्ति ते पुनरर्थान्तर उपस्थानं यथा स्यात् । नन्ववि( धि )कारादेवापवादविषयेत्युपस्थानं प्राप्नोति । नैतदेवम् । तत्र तत्र वाग्रहणाचकारकरणाचापवादविषयपरिहारो गम्यते। उगवादेर्यः ॥३४॥२॥ प्राठण इति वर्तते । उवर्णान्तान्मृदो गवादिभ्यश्च यो भवति प्राक्ठणोड. र्थेषु । छाऽपवादः । शङ्कव्यं दारु । परशव्यमयः । पिचव्यः कार्पास: । गवादिभ्यः । गव्यम् । हविष्यम् । गो। हविष् । इह हविरिति स्वरूपग्रहणम् । अष्टका । वर्हिः । युग । मेधा । लु व् ( स क )। नाभि नभं वा । नभ्योऽक्षः। नभ्यम नम् । "सु (शु) नोजिर्वाचदीत्वम्" [वा०] सू शून्यम् । सु (शु) न्यम् । ऊधसो नश्च । ऊधन्यः । कूप । अक्षर । दर । खर । दवद । स्त्व (ख) द । विष । हविरपूपादेवी ॥३॥४॥३॥ हविःशब्दो गवादिषु पठितः । तद्विशेषाणामिह ग्रहणम् । हविर्विशेषवाचिभ्योऽपूपादिभ्यश्च प्राठणोऽर्थेषु वा यो भवति। नित्ये ठे प्राप्ते विभाषेयम् । आमीक्ष्यम् । आमीक्षीयं दधि । पुरोडाश्याः। पुरोडाशीयास्तन्दुलाः । अपूपादिभ्यः, अपूप्यम् । अपूपीयम् । अपूप । तन्दुल । पृथुक । अभ्योष । अवोष । किण्व । मुसल | कटक । कराणचेष्टक । द्रगल (श्रगल)। स्थूणा। यूप। सूप | दीप । प्रदीप | अश्वपत्र । “विगृहीतादपीप्यते ।" "अन्नविकारेभ्यश्च ।' उदन्याः । उदनीयाः । सूर्याः, सूरीयास्तन्दुलाः। अन्नविकारत्वादेव सिद्धे अपूपाऽभ्योषादीनां प्रपञ्चार्थ पृथग्रहणम् । अतो विकल्पात्पूर्वनिर्णयेन उवर्णान्तलक्षणो नित्यो विधिर्भवति । चरुरिति हविविशेषः । चरव्यास्तन्दुलाः । शक्नुरन्नविकारः, शक्तव्या धानाः । “कम्बलाश्चौना कृष्णोर्थे ( कम्बलाच्च प्राक्ठणोऽर्थे ) नित्यं यो वक्तव्यः" [वा०] । कम्बल्यमूर्णाशतम् । खुविषयादन्यत्र । कम्बलीया ऊर्णा । नेदं वक्तव्यम् । “न विस्ताचितकम्बल्यात्" [२॥१॥२७] इति निपातनात्सिद्धम् । तस्मै हितम् ॥३॥४४॥ तस्मै इति अपसमर्थांद् हितमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । वत्सेभ्यो हिता, वत्सीयः। करभीयः । पटव्यम् । गव्यम् । हविष्यम् । प्राण्यङ्गरथखलयवमाषवृषब्रह्मतिलाद्यः ॥३४॥५॥ प्राण्यनं शरीरावयवः, देहदेहिनीः कथञ्चिदभेदात् । प्राण्यङ्गवाचिभ्यो रथ खल यव माष वृष ब्राहाण तिल इत्येतेभ्यश्च यो भवति तस्मै हितमित्यस्मिन्नथे । छस्याऽपवादः । दन्तेभ्यो हितं दन्त्यम् । कर्ण्यम् । चक्षुष्यम् । नाभये हितं नाभ्यं तैलम् । "नाभि नभञ्च" [वा०] इति नभभावः। गवादिलक्षणो यो विहितः स इह न भवति । गवादिलक्षणो य इह करमान्न भवति ? प्राण्यङ्गलक्षणो यस्तस्य परत्वाद बाधकः। रथाय हिता भूमिः, रथ्या.। खलाय हितम् , खल्यम् । यव्यम् । माष्यम् । वृषाय हितम् , वृष्यम् । ब्रहाणे हितम् , ब्रह्मण्यम् । तिल्यम् । वृष्णे हितं ब्राझणाय हितमित्यत्रानभिधानाच्छो न भवति । प्रजाविभ्यां यः॥३४॥६॥ अज-अविशब्दाभ्यां थ्यो भवति तस्मै हितमित्यस्मिन्नर्थे । छस्याउ पवादः । श्रजे (जाय) हितम, अजथ्यम् । अविश्यम् । लिङ्गविशिष्टस्यानाशब्दस्य ग्रहणेऽपि "तसादौ" [३।१४७ ] इति पुंवद्भावे कृते तदेव रूपम् । विश्वजनात्मभोगान्ताखः ॥३॥४७॥ तस्मै हितमिति वर्तते । विश्वजन श्रात्मन् इत्येतान्यो भोगान्ताच्च मृदः खो भवति । छस्याऽपवादः । विश्वजनाय हितः, विश्वजनीनः जिनः। श्रन यसादेवेष्यते । For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ३ पा० ४ सू० ८-१२] महात्तिसहितम् २२१ तासाद ( ब ) साच्च छ एव भवति । विश्वजनीयम् । “पञ्चजनशब्दादुपसंख्यानम्" [वा.] पञ्चजनीनम् । अत्र "दिक्संख्यं खो" [११३१४५] इत्यनेन विहितात्समानाधिकरणाद् बसादेवेष्यते । पञ्चजनीयमन्यत् । 'सर्वजनाट्टण खश्च वक्तव्यः" [बा.] सार्वजनिकः । सर्वजनीनः । अत्रापि यहादेवेष्यते । सर्वजनीयमन्यत् । “महाजनाहज्वक्तव्यः" [वा०] महाजनिकम् । षसादयं विधिः । बसाच्छ एव भवति । महाजनीयम् । ईनादेशे कृते "नोऽपुंसो हृति" [४|१३० ] इति टिखं प्राप्तम् , सूत्रे नकारान्तनिपातनान्न भवति । भोगः शरीरम् । तदंसा( दन्तात् मातृभोगीणः। पितृभोगिणः। मात्रादिभ्यः केवले यश्छ एव भवति । मात्रीयः। पित्रीयः। "राजाऽचार्याभ्यां भोगान्ताभ्यां नित्यमिति वक्तव्यम्' [वा०] राजभोगीनम् । प्राचार्यभोगीनम् । आर्यभोगान् ( गीन) शब्दस्य "क्षुम्नादित्वात्" [११५१७ ] णत्वं ( न ) भवति । नित्यग्रहणं किम् ? केवलाभ्यां न भवति । राज्ञे हितम् । प्राचार्याय हितमिति । सर्वाण्णो वा ॥ ३८॥ तस्मै हितमिति वर्तते । सर्वशब्दाद् वा णो भवति पक्षे छो भवति । सर्वस्मै हितम् , सार्वम् । सर्वीयम् । पुरुषाढण् ॥३।४।९॥ पुरुषशब्दाड्डण भवति तस्मै हितमित्यस्मिन्विषये। छस्याऽपवादः । पुरुषाय हितं पौरुषेयम् । अल्प ( त्य) ल्पमिदम् । "पुरुषाद् वधविकारसमूहतेनकृतेष्विति वक्तव्यम्"। पौरुषेयो वधः । "तस्येदम्" [३३८] इत्यण प्राप्तः । पौरुषेयो विकारः। "प्राणिवालादेः" [ ३।३।३०५ ] इत्यण प्राप्तः । पौरुषेयं स्यमागतं ( यः समूहः ) "तस्त्र समूहः" इत्यण प्राप्तः । पौरुषेयः प्रासादः । पौरुषेयो ग्रन्थः । तेन कृते "नि ग्रन्थे ( कृते अन्थे ) [२३५] "खौ” [ ३।२६] हत्यण प्राप्तः। मारणवचरकात्खा ॥३॥४.१०॥ तस्मै हितमिति वर्तते। माणव-चरक-शब्दाभ्यां खज भवति । छस्याऽपवादः । माणवाय हितं माणवीनम् । चारकीणम् । तदर्थ विकृतेः प्रकृती ॥३।४११॥ हितमिति निवृत्तम् । तस्मै इति वर्तते । तस्मै इदं तदर्थ समानजातीयमभिन्नसन्तानवर्ति कारणम् , प्रकृतिः। तस्या एवाऽवस्थान्तरं विकृतिः । तदर्थमित्येतत्प्रकृतेर्विशेषणम् । तदर्थायां प्रकृताविति । यद्येवं स्त्रीलिङ्गमीप च प्राप्नोति । "सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्टः" [५।२१११४] इने पा ( इतीपो) वाया एकेन च निर्देशः। विकृतिवाचिोऽबन्तान्मृदस्तदायां प्रकृतावनि भि)धेयायां यथाविहितं त्यो भवति । विकृत्यर्थायां प्रकृती त्यो भवतीत्यर्थः । अङ्गारेभ्यः, अङ्गारीयाणि काष्ठानि । प्राकारीया इष्टकाः। शङ्कव्यं दारू । पिचव्यः कर्पासः। अपूप्याः। श्रपूपीयास्तन्दुलाः। विग्रहे तादयलक्षणाऽप् द्रष्टव्या। तदर्थमिति किम् ? मूत्राय यवागूः। उच्चाराय यवान्नम् । पादरोगाय नड़व. लोदकं कल्पते । योग्यतामात्रेण विकृतिप्रकृत्यभिसम्बन्धो मा भूत् । अत्र केचित्तस्मै ग्रहणं नानुवर्त्तयन्ति । तादयं तयाऽपि व्यज्यते । यथा गुरोरिदम् , गुर्वर्थम् इति । विकृतिवाचिनस्तान्तात्तदर्थायां प्रकृतावभिधेयायां त्यमुत्पादयति । एवमङ्गाराणामिमानि अङ्गारानि काष्ठानि, अङ्गारीयाणि । तदर्थमिति किम् ? यवानां धानाः धानानां शक्लवः। नात्र प्रकृतेरनन्यार्थया गम्यते। अपि तु प्रकृत्यन्तरनिवृत्तिमात्रम् । नान्येषां धाना नान्येषां शक्लवः । अत एव विकारप्रकृतिसम्बन्धमात्रेऽपि त्यो न भवति । धानानां यवाः, शक्तूनां धानाः इति । विकृतैरिति किम् ? उदकार्थः कूपः। नात्र पार्थिवस्य कूपस्य विकृतिरुदकम् । प्रकृताविति किम् ? अस्या कोशी । असिरयसो विकृतिर्भवति । तन्न कोशी तस्य प्रकृतिः।। छदिरूपधिवलेढा. ॥१४॥१२॥ तदर्थ विकृतेः प्रकृताविति वर्तते । छदिस् उपधि वलि इत्ये. तेभ्यो ढम् भवति । छदिरानि छादिषेयाणि तृणानि । इह छदिरथ चर्मेति परत्वात् "धर्मणोऽ" For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा० ४ सू०१३-१४ [ 1] इति अनि प्राप्त पूर्वनिर्णयेन ढञ् भवति । छादिषेयं चर्म । उपधीयत इत्युपधिः, रथाङ्गं गुणान्तरयोगाद् विकृतिरियम् । उपध्यर्थम् , औपधेयं दारु । वालेयास्तन्दुलाः। ऋषभोपानहो ज्यः ॥३१४:१३|| तदर्थ विकृतेः प्रकृताविति वर्तते । ऋषभ उपानह इत्येताभ्यां ज्यो भवति । ठस्यापवादः । गुणान्तरयोगादपि विकारो मवति । तद्यथा बैभीतकोऽपूपः इति । ऋषभार्थेभ्यो वत्सः ( श्राभ्यो वत्सः ) । प्रौपानह्यो मञ्जः । "चर्मणोऽन" (३१५] इत्यतः पूर्वनिर्णयेनायमेवेष्यते । औपाना चम। चर्मणोऽञ् ॥३।४।१४।। तदर्थ विकृतेः प्रकृताविति वर्तते । चर्मण इति विकारसम्बन्धे ता। चर्मणो या विकृतिस्तदवाचिनोऽञ भवति । छस्याऽपवादः। वदर्धयर्थ वाद,म । वळ (वरत्रा) - वात्र (वारत्र) चर्म । सनङ्गुर्नाम चर्मविकारः, ततः पूर्वनिर्णयेन उवर्णान्तलक्षणो यो भवति । सनङ्गव्यं चर्म । तदस्यास्मिन्निति ॥३४१५॥ प्रकृतिविकृतिभावस्तादर्थ्य वेह न विवक्षितं योग्यतामा विवक्षितम् । तदिति वासमर्थादस्य अस्मिन्नित्येतयोरर्थयोर्यथाविहितं त्यो भवति । इतिकरणस्ततश्चेद विवक्षा। श्रस्य सम्भावने ऽभिधानम् । तेन मख याद भेदः। प्रासादोऽस्य स्यात् प्रासादीयं दारू । प्राकारीया इष्टकाः। प्रासादोऽस्मिन् देशे स्यात् प्रासादीयो देशः। प्राकारीया देशः। इह कस्मान भवति, प्रासादो देवदत्तस्य स्यात् । इति करणादविवक्षाऽत्र । परिखाया ढञ ॥३॥४॥१६॥ तदस्याऽस्मिन्निति वर्तते । परिखाशब्दावन भवति । छस्यापवादः । परिखाऽस्मिन्देशे सम्भाव्यते पारिखेयो देशः । पारिखेयो भूमिः । इत ऊर्ध्व छयो नानुवर्तेते । आर्हाट्टण ॥३।४।१७॥ तदहतीति निवृत्तम् । प्रागेतस्मादह संशब्दनाद्यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः, तेषु ठणधिकृतो वेदितव्यः। प्रागिति वर्तमाने अभिविष्यर्थमाद्ग्रहणम् । अर्हतीत्यस्मिन्नप्यथें ठण् भवति । वक्ष्यति "तेन क्रीतम्" |३३५ । वस्त्रेण क्रोतं वास्त्रिकम् । गोपुच्छिकम् । शतादस्वार्थेऽसेठयो ॥३॥४॥१८॥ आदिति वर्तते । स्वार्थे शतमेव । शतशब्दादस्वार्थेऽसेठय इत्येतो त्यौ भक्त अाहीयेष्वथेषु । कस्यापवादः। शतेन क्रीतम्, शतिकम् । शत्यम् । अवार्थ इति किम् ? शतं परिमाणमस्य शतकं स्तोत्रम् । नात्र प्रकृत्यर्थादर्थान्तरभृतस्त्यार्थः समुदायः किन्तु शतमेव । यत्र खर्थान्तरभावस्तत्र विधिरेव न प्रतिषेधः । शतेन क्रोतं शतिकं पटशतम् । शत्यं पटशतम् । वाक्येन ह्यत्र त्यार्थस्य शतत्वं गम्यते न श्रुत्या । अस इति किम् ? द्वौ च शतं च द्विशतम् । तेन क्रोतं द्विशतकम् । द्वाभ्यां शताभ्यां क्रीतमिति रसे "राहुबखौ" [१२६] इत्युपि नास्ति विशेषः । ननु स-त्यविधौ तदन्तविधिर्नास्तीति असग्रहणमनर्थकम् ? नाप्युत्तरत्र तदन्तविधेआपकम् । “प्राग्वतः सख्यापूर्वपदानां तदन्तग्रहणमनुपीति उपसंख्यानमवश्यं कर्तव्यम् ।' पारायणं वर्तयति पारायणिकः । द्विपारायणिकः । असंख्यापूर्वपदस्य न भवति । सहस्रण क्रीतम् , साहस्रम् । सुवर्णसहस्रेण क्रीतमित्यत्राण न भवति । तथा उनन्तायाः प्रकृतेनेष्यते । द्वाम्यां सूर्याभ्यां क्रीतम् , द्विसूण क्रीतम् तदन्तविधेरभावात् 'सूर्पाद्वा" [ २५] इत्ययं विधिन भवति । सामान्येन ठण , द्विसौपिकम् । “परिमाणमस्याखुशाणे'' [१२।२२] इति धोरैम् । एवं तर्हि पूर्वत्र तदन्तविधिरपि भवतीति ज्ञाप्यते । गव्यम् । अगव्यम् । हवि यम् । प्रसूरहविष्यम् । अपूप्यम् । यवापूप्यम् । अष्टक्यम् । एकाष्टक्यम् । राजदन्त्यम् । माष्यम् । तिल्यम् । कृष्णतिल्यम् । संख्यायाः कोऽतिशतः ॥३४१९॥ श्रादिति वर्तते । संख्याया अतिशदन्तायाः को भवति । आहादर्थेषु ठणोऽपवादः । संख्याशब्दः “कति: संख्या" [११॥३३] इति कतिशब्दं प्रत्याययति । तत्र For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प०३ पा० ४ सू०२०-२६ ] महावृत्तिसहितम् २२३ चाऽन्वर्थसंशाग्रहणाद् यैरेकत्वादिभिः संख्यायते तेषां च ग्रहणे प्राप्तेऽतिशत इति प्रतिषेधः । त्यन्तां शदन्तां च संख्यां वर्जयित्वेत्यर्थः । पञ्चभिः क्रीतः पञ्चकः। सप्तकः। “संख्या बाड़डोऽबहुगणात्" [ ३६] इति पय्युदासादबहुगणयोः संख्यात्वम् । बहुकः। गणकः । श्रतिशत इति किम् ? षाष्टिकः । साप्ततिकः । चत्वारिंशत्कः । पञ्चाशत्कः। अर्थवतस्तिशब्दस्येह ग्रहणाडडतेर ति] प्रतिषेधः। कतिभिः क्रीतः, कतिकः। वतोर्वेट ॥३।४।२०॥ वतुरिति त्यः पञ्चप्रकृतिः । “यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुः" [ 1] "इदमो यो घः” [३।५।१६१] "किमः'' [३।४।१६२] इति वतोः परस्य कस्य च इड्भवति । ननु च अज्ञाते यत्तेषु कतिशब्दस्यैव संख्यात्वमुक्तम् । तत्कथं ववन्तात्संख्यालक्षणः कः १ इदमेव वलन्तात्परस्य कस्य वेडवचनं ज्ञापकं भवति बत्वन्तस्य संख्या संज्ञेति । यावता क्रीतः, यावतिकः, यावत्कः । तावतिकः । तावत्कः। विशतित्रिशद्भ्यांड्वुरखौ ॥३।४।२१॥ विंशतित्रिंशच्छब्दाभ्यां ड्युर्भवत्यखुविषये । विंशत्या क्रीतः, विशकः। तेः खे कृते "प्रसिद्ध वदवाभात्' [१२] इति टिखे प्रतिषिद्धे "एप्यतोऽपदे" [३८] इति पररूपम् । त्रिंशता क्रोतः, त्रिंशकः। श्रखाविति किम् ? विंशतिः परिमाणमस्य, "परिमाणारसंख्यायाः सङ्घसूत्राऽध्ययने' [३४५६] 'खौ" [३२११५७] इति कः। विंशतिक परिमाणनामधेयम् । अनर्थकवादस्य तिशब्दस्य त्यन्तल क्षणः प्रतिषेधो न भवति । द्वयोर्दशतोर्वि (न्) भावः शतिश्चात्र त्यो निपातयिष्यते । त्रिशत्परिमाणमेषां त्रिंशत्काः। शदन्तान्नेति प्रतिषेधः कस्मान्न भवति १ विंशति त्रिंशतभ्यामिति योगविभागाको भवति । कंसाहन् ॥३।४।२२॥ कंसशब्दान् भवति श्राह्यदर्थेषु । ढणोऽपवादः । कसेन क्रान्तः (क्रीतः) कसिकः । कंसिकी । "अर्धाच्चेति वक्तव्यम्" [वा०] अर्द्धिकी । कार्षापणाद्वा प्रतिश्च ॥३।४।२३।। आर्हादिति वर्तते । कार्षापणशब्दात् ठड् भवति तस्य प्रतिरय पादेशो वा भवति । कार्षापणेन क्रीतः, कार्षापणिकः । कार्षापणिकी । प्रतिकः । प्रतिकी। शतमानविंशति( क )सहस्रवसनादण ॥३॥४॥२४॥ शतमानादिभ्योऽण् भवति । श्रादिर्थे । ठणोऽपवादः । शतमानेन क्रोतम्, शातमानम् । वैशतिकम् । साहस्रम् । वासनम् । ___ सूर्पाद्वा ॥३।४।२५॥ श्राह्यदिति वर्तते । सूर्पशब्दाद्वाऽण् भवति । नित्ये ठाण प्राप्ते विकल्पोऽयम् । सूर्प परिमाणनाम | सूर्पण क्रीतम् , सौर्पम् । सौपिकः । राबखौ ॥३।४।२६॥ श्रार्दादिति वर्तते । रादुत्तरस्य श्राहीयस्य त्यस्योब्भवस्यखौ। द्वाभ्यां कंसाम्यां क्रीतम् , द्विकंसम् । त्रिसम् | हृदथे रसे कृते संख्यापूर्वपदानां तदन्तविधिना कंसाहट , तस्योप। अधिकमर्धमस्मिन्नित्यध्यर्धम् , संख्यासंज्ञाविधानेऽध्यर्धग्रहणं सकविध्यर्थमित्युपसंख्यासंज्ञा । अध्यर्धेन कंसेन कीतं ठट उपि अध्यर्धकसम् | द्वाभ्यां कंसान्यां क्रीतम् इत्यागतयोरण्ठयोरुब्भवति । द्विसूर्पम् । त्रिसूर्पम् । अध्यर्धसूर्पम् । रादिति हेत्वर्थे का। रस्य हेतुनिमित्तं यो हृत् तस्योग्न भवति । द्विसूर्पण पटेन क्रीतम् , दिसौपिकम। "तनिमित्तादपि समाहारलक्षणादादुवक्तव्यः" [वा.]। द्वयोः सूर्पयोः समाहार: दिस। द्विसूत क्रीतम् द्विसूर्पमिति । न वक्तव्यः। अभिधानवशात् समाहारे वाक्यमेव भवति । न त्योत्पत्तिः । अखाविति किम् ? पाञ्चलोहितिकम् । पाश्चकलापिकम् । परिमाणनामधेये इमे। पञ्च लोहितानि परिमाणमस्य पश्चकपाला: परिमाणमस्येति "परिमाणासंख्यायाः सधसूत्राऽध्ययने" [ १ ] "ख" [१७] । इति ठण् । परिमाणस्य द्योरादरैपि प्राप्ते “अखुशाणे" इति प्रतिषिद्धे श्रादेरैप । अन्ये पञ्चलोहित्यः परिमाणमस्येति विगृह्य "तस्य हृत्यढे' [ वा० ] इति पुंवद्भावं विदधाति । For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ जैनेन्द्र याकरणम् [.३ पा० ४ सू० २०-३४ ___ कार्षापणसहस्रसुवर्णशतमानाद्वा ॥३।४।२७॥ कार्षापण सहस्र सुवर्ण शतमान इत्येवमन्ता. त्परस्याहीयस्य त्यस्य वोब् भवति । पूर्वेण नित्य उपि प्राप्ते विभाषेयम् । द्वाभ्यां कार्षापणान्यां क्रीतं द्विकार्षापणं द्विकार्षापणिकम् । त्रिकार्षापणं त्रिकार्षापणिकम् । अध्यर्धकार्षापणम् । अध्यर्धकार्षापणिकम् । "प्राग्वतः संख्यापूर्वपदानां तदन्तग्रहणमनुपीति कार्षापाणाद्वा प्रतिश्च" (२४॥२३] इति ठट् । अनुप्पक्षे च प्रतिरादेशो विकल्पितः। द्विप्रतिकम् । त्रिप्रतिकम् । अध्यधप्रतिकम् । द्वाभ्यां सहस्राभ्यां क्रीतं द्विसहस्रम् । द्विसाहनम् । त्रिसहस्रम् | त्रिसाहस्रम् । अध्यर्धसहस्रम् । अध्यर्धसाहस्रम् । "संख्यायाः संख्यासंवत्सरस्य" शिश२] इति घोरेप । द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतं द्विसुवर्णम् द्विसौवर्णिकम् । त्रिसुवर्णम् , त्रिसौवर्णिकम् । अध्यर्धसुवर्णम् , अध्यर्धसोवर्णिकम् । “परिमाणस्याखुशाणे" [१२।२२ ] इति द्योरैप् । सुवर्णमुन्मानं कथं परिमाणम् ! अशाण इति प्रतिषेधात् । उन्मानस्यापि द्यौरभवति द्वाभ्यां शतमानाभ्यां क्रीतं द्विशतमानम् । द्विशातमानम् । त्रिशतमानम् । त्रिशातमानम् । अध्यर्धशातमानम् । द्वित्रिबहोनिष्कबिस्तात् ॥३।४।२८ ॥ द्वि त्रि बहु इत्येतेभ्यः परौ यो निष्कविस्तशब्दौ तदन्तादात्परस्या यस्य त्यस्य वोभवति । द्विनिष्कम् । द्वि नैष्किकम् | त्रिनिष्कम् । त्रिनैष्किकम् । बहुनिष्कम् । बहुनैष्किकम् । द्विबिस्तम् । द्विस्तिकम् । त्रिबिस्तम् । त्रिबैस्तिकम् । बहुबिस्तम् । बहुबैस्तिकम् । विंशतिकारखः ॥२४॥२९॥ वेति निवृत्तम् । यदिति वर्वते । विंशतिकशब्दान्तात् रात् श्रादिथेषु खो भवति । द्वाभ्यां विंशतिकाभ्यां क्रीतम् , द्विविंशतिकीनम् । त्रिविंशतिकीनम् । अध्यर्धविंशतिकीनम् । वचनात्खस्योम्न भवति । खारीकाकणोभ्यां कप् ॥३॥४॥३०॥ रादिति वर्तते । खारी काकणीशब्दान्तात् आह्रदर्थेषु कब् भवति । दाभ्यां खारीभ्यां क्रीतम् , द्विखारीकम् । त्रिखारीकम् । अध्यर्धखारीकम् । द्विकाकणीकम् | त्रिकाकणीकम् । अध्यर्धकाकणीकम् । "केवलाभ्यां चेति वक्तव्यम्" [चा०] । खार्या क्रीतं, खारीकम् । काकणीकम् । पणपादमाषाद्यः ॥३४॥३१॥ रादिति वर्तते । पण-पाद-माषशब्दान्ताद् रादाह्रदर्थेषु यो भवति । द्वाभ्यां पणाभ्यां क्रीतम् , द्विपण्यम् । त्रिपण्यम् । अध्यर्धपण्यम् । द्विपाद्यम् । त्रिपाद्यम्। अध्यर्धपाद्यम् । "असिवन्नाऽभात् [४।४।२१] इत्यखस्याऽसिद्धत्वात्पाच्छब्दस्य पद्भावो न भवति । "पधे"[३३।१६४] इति पदादेशोऽपि पादस्य केवलस्योक्तम् (क्तः)। द्विमाष्यम् । त्रिमाष्यम्। अध्यर्धमाष्यम् । शताद् वा ॥३४॥३२॥ रादिति वर्तते । शतशब्दान्ताद् गदाह्रदर्थे वा यो भवति । द्वाभ्यां शता-यां क्रीतं द्विशत्यम् । त्रिशत्यम् । अध्यर्धशत्यम् । पक्षे ठण् । तस्य "रादुबखौ' [ ३०२६] इत्युप् । द्विशतं त्रिशतम् । अध्यधशतम् । शाणात् ॥३।४।३३॥ रादिति वर्तते वेति च । शाणशब्दान्तादादिर्थेषु वा यो भवति । पक्षे ठण। तस्य चोप् । पञ्चभिः शाणैः क्रीतं पञ्चशाण्यम् । पञ्चशाणम् | अध्यर्धशाण्यम् । अध्यर्धशाणम् । योगविभाग उत्तरार्थः। द्वित्रिभ्यामण च ॥३४॥३४॥ शाणादिति वर्तते। द्वित्रिशब्दाभ्या परो यः शाणशब्दस्तदन्ताद् रादाहीयेष्वर्थेष्वण भवति यश्च वा । तेन त्रैरूप्यम् । द्वाभ्यां शाणाभ्यां क्रीतम, द्वैशाणम्। त्रैशाणम् । त्रिशाण्यम् । त्रिशाणम् । अणि परतः "खुशाण" इति प्रतिषेधादादेरैप । For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ पा०४ सू.३५-४३] महा २२५ तेन क्रीतम् ॥३॥४॥३५॥ तेनेति भासमर्थात् क्रीतमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठणादयो भवन्ति । निष्केण क्रीतम् , नैष्किकम् । शतिकम् । शत्यम् । साहस्रम् | द्विकम् । त्रिकम् । इह करणादिति वक्तव्यम् । कर्तरि माभूत् । देवदत्तेन क्रीतम् । "मूल्यादिति च वक्तव्यम्' [वा०] । इह मा भूत् पाणिना क्रीतमिति । "द्विबह्वन्ताच्च करणाप्रतिषेधो वक्तव्यः'' [वा०] । द्रोणाभ्यां क्रीतम् । द्रोणैः क्रीतम् इति । नेदं बहु वक्तव्यम् । अभिधानतो व्यवस्था भविष्यति । यत्र प्रकृत्यर्थस्य संख्याभेदावगतिरस्ति तत्र द्विबहत्वविषयेऽपि भवति । द्वाभ्यां क्रोतम् , द्विकम् । मुद्गैः क्रोतम् , मौगिकम् । तस्य वापः ॥३४३६॥ उन्यतेऽस्मिन्निति वापः क्षेत्रम् । तस्येति तासमर्थात् वाप इत्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । प्रस्थस्य वापः, प्रास्थिकः। कोद्रविकः । खारीकः । "यस्य प्रकरणे वातपित्तश्लेष्मपक्षिपातेभ्यः शमनकोपनयोरुपसंख्यानम्" [वा०] वातस्य शमनं कोपनं वातिकं द्रव्यम् । एवं पैत्तिकम् । श्लैष्मिकम् । सान्निपातिकम् । निमित्तं संयोगोत्पादौ ॥१४॥३७॥ बुद्धिपूर्विका व्याप्तिः संयोगः। शुभाशुभयोः सूचकः उत्पादः । उत्पात इत्यर्थः । तस्येति तासमानिमित्तमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तन्निमित्तं संयोग उत्पादो वा स चेद् भवति । शतस्य निमित्तमीश्वरेण संयोगः शतिकः, शत्यः। साहस्तः। शतस्य निमित्तं दक्षिणाक्षिस्यन्दनमुत्पादः शतिकः । शत्यः। साहस्रः। सोमग्रहणस्य निमित्तमुत्पादो भमिकम्पः । सौमग्रहणिकः । योऽसंख्यापरिमाणावादेः ॥३४॥३०॥ तस्येति तासमाद्यो भवति संख्यापरिमाणावादीन वर्जयित्वा निमित्तं संयोगोत्पादावित्यस्मिन् विषये। ठणादीनामपवादः। वनं निमित्तं संयोग उत्पादो वा वन्यः । यशस्यः । स्वयः। श्रायुष्यः । असंख्यापरिमाणावादेरिति किम् ? पञ्चानां निमित्तं संयोग उत्पादो वा. पञ्चकः । सप्तकः । परिमाणात् । प्रस्थस्य निमित्तं संयोग उत्पादो वा प्रास्थिकः । द्रौशिकः । खारीकः। अश्वादिर्गणः। अश्वस्य निमित्तं संयोग उत्पादो वा श्राश्विकः । अश्व । अश्मन् । गण । ऊ । उमा। भड़ा। वर्षा । वस्त्र । वसु । संख्यापरिमाणयोरर्थभेदोऽस्ति । "उर्वमानं किलोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः । मायामं तु प्रमाण स्यात् संख्या तु गुणनास्मिका।" गोब्रह्मवर्चसात् ॥३४॥३६॥ तस्य निमित्तं संयोगोत्पादाविति वर्तते । गोब्रह्मवर्चस्शब्दाभ्यां यो भवति । गोनिमित्तं संयोग उत्पादो वा गव्यः । ब्रह्मणो वर्च, ब्रह्मवर्चसम्, अत एव निपातनात्सान्तः। ब्रह्मवर्चसस्य निमित्तं संयोग उत्पादो वा ब्रहावर्चस्यः । पूर्वेण ये सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय । एकाचो गोशब्दादेव बचो ब्रह्मवर्चसशब्दादेव यः । इह न भवति । नावो निमित्तं संयोगः नाविकः । वास्तुयुगिकः। द्वयच एव पूर्वेण यो वेदितव्यः । पुत्राच्छ वा ॥३।४।४०॥ तस्य निमित्तं संयोगोत्पादाविति वर्तते । पुत्रशब्दाच्छो यश्च । पुत्रस्य निमित्तं संयोग उत्पादो वा पुत्रीयः । पुत्र्यः । सर्वभूमिपृथिवीभ्यामण ॥३।४।४१॥ तस्य निमित्तं संयोगत्पादाविति वर्तते । सर्वभूमि-पृथिवीशब्दा यामण भवति । ठणोऽपवादः । सर्वभूमेनिमित्तं संयोग उत्पादो वा, सार्वभौमः । अनुशतिकादित्वादुभयत्रैप । पृथिव्या निमित्तं संयोग उत्पादो वा, पार्थिवः । ईश्वरः ॥४॥४२॥ तस्येति वर्तते । तासमर्थाभ्यां सर्वभूमिपृथिवीशब्दा यामीश्वर इत्यस्मिन्नर्थेऽण् भवति । ठणोऽपवादः । सर्वभूमेरीश्वरः, सार्वभौमः । पार्थिवः । तत्र विदितः ॥३॥४॥४३॥ तत्रेतीप्समर्थाभ्यां सर्वभूभिपृथिवीशब्दाभ्यां विदित इत्यस्मिन्नर्थेऽण भवति । सर्वभूमौ विदितः सार्वभौमः। पार्थिवः । २६ For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म० ३ पा० ४ सू० ४-५२ लोकात् ॥३॥४॥४४॥ तत्र विदित इति वर्तते । लोकशब्दादीप्समर्थाद्विदित इत्येतस्मिन्नर्थे ठण भवति । लोके विदितः, लौकिकः । सर्वात् ॥३।४।४५।। सर्वशब्दात्परो यो लोकशब्दः, तदन्तान्मृदष्ठण भवति तत्र विदित इत्यस्मिन्नर्थे । सर्वलोके विदितः, सावलौकिकः । अनुशतिकादित्वादुभयौप् । तदस्मिन्वृद्धद्यायलाभशुल्कोपदा दीयते ॥३॥४॥४६॥ तदिति वासमर्थाद् वृद्धयादिविशिष्टादस्मिन्नितीबर्थे यथाविहितं त्यो भवति । यत्तद्वासमर्थ वृद्धयादिविशिष्टं दीयते चेत्तद् भवति । वृद्धि : कालान्तरादिवा । नियनिबद्धा प्राप्तिरायः। पटादीनां मूल्यातिरेको लाभः । वा ( वणिजां रक्षाकारितो राजभाग: शुल्कः। उत्कोटः उपदा। दीयते इत्येकवचनान्तं वृद्धथादिभिः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । पञ्चास्मिवृद्धिर्वा आयो वा लामो वा शुल्को वा उपदा वा दीयते, पञ्चकः । प्रास्थिकः । कौडविकः । "इह तदस्मै दीयते इति वक्तव्यम् " [वा० ] पञ्चाऽस्मै वृद्धयादि दीयते, पञ्चकः । सप्तकः । न वक्तव्यम् । सम्प्रदानस्याधिकरणविवक्षया सिद्धम् । डडर्धाः ॥३४॥४७॥ इडिति प्रत्याहारग्रहणम् । 'तस्य पूरणे ब्र" [१३] इत्यारभ्य आ तमाकागत् । डडन्तान्मृदः अर्धशब्दाच्च ठो भवति तदस्मिन्वृद्धधायलाभशुल्कोपदा दीयते इत्यस्मिन्नथें । ठणः "अर्धाच्च" [४।२।१०३ (वा० ] इत्यौपसंख्यानिकस्य च ठटोऽपवादः। पञ्चमः दीयते वृद्धिर्वा आयो वा लाभो वा शुल्को वा उपदा वा, पञ्चमिकः । द्वितीयिकः । अधिकः । स्त्रियाम्-अधिका। भागाद्यश्च ॥३४४८॥ भागशब्दोऽधवाची । तदस्मिन्वृद्धथायलाभशुल्कोपदा दीयते इति च वर्तते । भागशब्दाद्यो भवति ठश्च । भागो वृद्धयादिरस्सिन्दीयते भाग्यं शतम् । भागिकं शतम् । तद्धरति वहत्यावहति भाराद् वंशादेः ॥३॥४॥४६॥ वंशादिभ्यः परो यो भारशब्दः तदन्तान्मृदः ई (इ) समर्थाद् हरत्यादिश्वर्थेषु यथाविहितं त्यो भवति । हरति नयतीत्यर्थः । वदति उत्क्षिपतीत्यर्थः । श्रावहति उत्पादयतीत्यर्थः । वंशभारं हरति वहति श्रावहति वा, वांशभारिकः। वाल्वभारिकः। भारादिति किम् । वत्सं हरति । वंशादेरिति किम् ? भारं हरति । केवलान्न भवति । अन्ये पुनरन्यथा सूत्रार्थ ग्राहिताः। वत्सा (वंशा) दिभ्यो भारभूतेभ्यस्त्यो भवति । अथद्वारेण भारो वंशादेविशेषणम् । भारभूतात् (न् ) हरति, वाशिकः। वाल्वजिकः। भारादिति किम् ? एकं वंशं हरति । वत्सा(वंशादेरिति किम् ? भारभूतान् यवान् हरति । सूत्रार्थद्वयमपि प्रमाणम् । वंश । वल्बज । कूट । मूल । स्थूल । खट्वा । अश्व । इत्तु । __ वस्नद्रव्याभ्यां ठको ॥३॥७॥५०॥ वस्नद्रव्यशब्दाभ्यामिपसमर्थाभ्यां हरत्यादिध्वर्थेषु यथासंख्यं ठ क इत्येतो त्यौ भवतः। वस्नं हरति वहति आवहति वा, वस्तिकः । द्रव्यकः । सम्भवत्यवहरति पचति ॥३॥४॥५१॥ तदिति वर्तते । इप्समर्थान्मृदः सम्भवत्यादिष्वर्थेषु यथा. विहितं त्यो भवति । सम्भवति गृह्णातीत्यर्थः। अवहरति तयं नयतीत्यर्थः । पचति विक्लदनं करोतीत्यर्थः। प्रस्थं सम्भवत्यहरति पचति वा, प्रास्थिकी स्थाली। एवं कौडविकी। खारीकी । ननु या प्रस्थं सम्भवति सा पचत्यपि, तत्कथं भेदः १ इदं तर्हि पचतेदाहरणम् । प्रस्थं पचति ब्राह्मणो. प्रास्थिकी। तत्पचतीति गोवादण च वक्तव्यः" [वा०] । द्रोणं पचति द्रौणी, द्रौणिकी। बाऽऽढकाचितपात्रात्खः ॥२४॥५२॥ आढक-आचितपात्रशब्देभ्य इप्समर्थेभ्यः सम्भवत्यादिध्वर्थेषु वा खो भवति । पूर्वेण नित्ये ठणि प्राप्ते विभाषेयम् । आढकं सम्भवति अवहरति पचति वा, आढकीना, अाढकीकी । श्राचिताना, आचितिकी। पात्रोणा. पात्रिको । अाढकादोनि परिमाणानि । For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ३ पा० ४ सू० ५३०५८ ] महावृत्तिसहितम् २२७ राष्ट् च ||३|४|५३|| ढकाचितपात्रान्तात् गत् इप्समर्थात्सम्भवत्यादिष्वर्थेषु ठट् भवति खश्व वा । तेन त्रैरूप्यं भवति । द्वे ग्राहके सम्भवति श्रवहरति पचति वा द्वयाढकिकी । द्वयादकीना । श्राभ्यां मुक्ते तस्य " राखौ " [ ३।४१२६ ] इत्युप् । व्याढकी । “परिमाणादृष्टदृषि" [३ | ११३६ ] इति ङीविधिः । टट्खयोर्वचनादवम् ( दुम्न ) भवति । द्वयाचितीना, द्वयाचिता । "न विस्ताचितकम्बल्यात् " [३।१।२७] इति ङीप्रतिषेधः । द्विपात्रिको । द्विपात्रीणा । द्विपात्री । कुलिजाच्च ||३|४|१४|| चकारस्त्रिका अनुकर्षणार्थः । रादिति वर्तते । कुलिजशब्दान्तात् रात् इप्सम - र्थात् सम्भवत्यादिष्वर्थेषु भवति खश्व वा । तेन त्रैरूप्यम् । कुलिजं परिमाणविशेषः । द्वे कुलिजे सम्भवत्यवहरति पचति वा द्विकुलिजिकी, द्विकुलिजीना, द्विकुलिनी । केचिदुपोऽपि विकल्पमिच्छन्ति । पक्षे टणः श्रवणम् । द्वैकुलिजिकीति । त एव " अशा " [ ५/१/२२] इत्यत्र कुलिजस्यापि प्रतिषेधमिच्छन्ति । तदस्यांशवस्नभृतयः ||३|४|५५|| तदिति वासमर्थात् श्रस्येति तार्थे यथाविहितं त्यो भवति यत्तद्वासमर्थम् श्रंशवस्नभृतयश्चेत्तद् भवन्ति । पञ्च श्रंशा वा वस्नो वा भृतिर्वाऽस्य, पञ्चकः । सप्तकः । शतिकः, शत्यः । साहस्रः । खारीकः । परिमाणत्सङ्ख्यायाः सङ्घसूत्राऽध्ययने ||३||४|५६ || तदस्येति वर्तते । परिमीयते परिच्छिद्यतेऽनेन परिमाणम् । परिच्छेदकमिह तत् पारिभाषिकम् । तदिति वासमर्थात् संख्यावाचिनः परिमाणे वाधिकादस्येति तार्थे यथाविहितं त्यो भवति । यत्तदस्येति सङ्घसूत्राऽध्ययनानि चेद् भवन्ति । सङ्घे पञ्च परिमा णमस्य सङ्चस्य पञ्चकः । सप्तकः । सूत्रे ग्रन्थ इत्यर्थः । पञ्चाऽध्यायाः परिमाणमस्य पञ्चकं जैनेन्द्रम् । श्रष्टकं पाणिनीयम् । शतकं स्तोत्रम् । श्रधीतिरध्ययनं तस्मिन् । पञ्च रूपाण्यस्याध्ययनस्य पञ्चकम् । सप्तकम् । कर्मणि यद्यध्ययन शब्दो व्युत्पाद्येत सूत्रान्न भेदः स्यात् । "स्वोमे दो वक्तव्यः " [ वा० ] पञ्चदशाद्यर्थः पञ्चदश मन्त्राः परिमाणमस्य स्तोमस्य पञ्चदशः स्तोमः । एवं सप्तदशः। एकविंशः । परिमाणादिति योगविभागः कर्तव्यः । तदस्येति वर्तते । पञ्चकलापः परिमाणमस्य पञ्चकला पिकम् । पाञ्चलोहितिकम् । प्रस्थः परिमाणमस्य प्रास्थिको राशिः । कौतिकः । खारीशतिकः । वर्षशतं परिमाणमस्य वार्षशतिकः । "जीवित परिणाम इति च वक्तव्यम्" [ वा० ] षष्टिः संवत्सरा जीवितपरिमाणमस्थ, षाष्टिकः । साप्ततिकः । श्राशीतिकः । नेदं वक्तव्यम् । “ तमवी ( घी ) ष्टो भू ( भृ, तो भूतो भावी ” [ ३।४।७६ ] इत्येव सिद्धम् । षष्टिं भूतो (तः ) पाष्टिकः । एवञ्चानुवपि सिद्धः । द्वे षष्टी भूतो द्विषाष्टिकः । इह विधानो ( ने ) "शदुबस्तौ” [ ३३४॥२६ ] इत्युपू प्रसज्येत । खौ ||३|४|५७ || खुविषये च परिमाणविशिष्टायाः संख्याया यथाविहितं त्यो भवति । विंशतिः परिमाणमस्य विंशतिकं परिमाणनामधेयम् । स्वार्थे चाऽत्र त्यो द्रष्टव्यः । पञ्चैव पञ्चकाः शकुनयः । त्रय एव त्रिका: सा ( शा ) लङ्कायनाः । पक्तिविशत्त्रिशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत् षष्टिसप्तत्यशीतिनवतिशतम् ||३|४|५८ ॥ पङ्क्त्यादयः शब्दा निपात्यन्ते । यदत्र लक्षणेनानुपपन्नं तत्सर्वे निपातनात्सिद्धम् । तदस्य परिमाणमिति वर्तते । पञ्चपादा. परिमाणमस्य पङ्क्तिस्तच्छब्दः क्रमसन्निवेशोऽपि । पञ्चशब्दात्तिरित्ययं व्यष्टिखं च निपात्यते । द्वौ दश तौ परिमाणमस्य वर्गस्य विंशतिः । द्वविभावः शतिश्च त्यः । त्रिचतुःपञ्चानाम् इमारिमाश्रान्तादेशाः शच्च त्यः । त्रयो दशतः परिमाणमस्य वर्गस्य त्रिंशत् । चत्वारो दशतः परिमाणमस्य चलारिंशत् । पञ्च दशतः परिमाणमस्य पञ्चाशत् । षड्दशतः परिमाणमस्य षष्टिः । षषस्तिरित्ययं त्योऽपदत्वं च । सप्त दशतः परिमाणमस्य सप्ततिः । ससनस्तिरित्ययं त्यः । अष्टौ दशतः परिमाणमस्य श्रशीतिः । अष्टमः अशीभावः विश्व For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० ४ सू० ५६-६७ त्यः । नव दशतः परिमाणमस्य नवतिः । नवशब्दात्तिः । दश दशतः परिमाणमस्य शतम् । दशानो शभावः तश्च त्यः । विंशत्यादीनां क्वचित्संख्यानप्रधानत्वम्, कचित्संख्येयप्रधानत्वम् । लिङ्गवचनं च स्वाभाविकत्वादेव सिद्धम् । इह यथाकथञ्चिद्व्युत्पत्तिः क्रियते । सहस्रादयोऽप्यनयैव दिशाऽनुगन्तव्याः । दशशतानि परिमाणमस्य, सहस्रम् । दशसहस्राणि परिमाणमस्य, अयुतम् । पञ्चदशती वर्ग वा ॥३॥४॥५९॥ पञ्चन् दशन् इत्येतौ शब्दो वर्गेऽभिधेये वा निपात्यते । तदस्य परिमाणमित्यस्मिन्विषये नित्ये के प्राप्ते पक्षे डदित्ययं त्यो निपात्यते । पञ्च परिमाणमस्य पञ्चद्वर्गः । दशद्वर्गः । दशको वर्गः। तदर्हति ॥४॥६०॥ तदितीप्समर्थादर्ह तीत्यस्सिन्नथें यथाविहितं त्यो भवति । श्वेतच्छत्रमर्हति श्वतच्छत्रिकः । श्राभिषेचनिकः । वास्त्रयुगिकः । दाध्योदनिकः । शतिकः । शत्यः । इह भोजनमहतीत्यनभिधानान्न भवति । "स्त्रीपुंसान्नुक्त्वात्' [ ३३७२ ] इत्येषोऽपि विधिरनभिधानान्नावतरति । ठणादय इमं योगं प्राप्य निवृत्ताः। प्राग्वतष्ठम् ॥३।४।६१॥ तदहें वदिति वक्ष्यते । प्रागेतस्मादवत्संशब्दनाद्यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः तेष ठअधिकृतो वेदितव्यः । वक्ष्यति "पारायणतुरायण चान्द्रायणं वतयति" [१५] पारायणिकः। "प्राग्वतः संख्यापूर्वपदानां तदन्तग्रहणमनुपि" इति द्वैपारायणिकः । इह ( ठणि ) प्रकृते तस्योप् प्रसज्येत तेन ठअधिकृतः । छेदादेनित्यम् ॥३॥४/६२॥ नित्यग्रहणमर्हतीत्यस्य विशेषणम् । छेदादिभ्यो नित्यमहतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं त्यो भवति । छेदं नित्यमर्हति छैदिकः । छेद । भेद । होह । द्रोह । तस्कर । नर्त । कर्ष । विकर्ष । विप्रकर्ष । प्रयोग । संप्रयोग । विप्रयोग । सम्प्रश्न । प्रेषण | विरागः विरङ्गं च । शीर्षच्छेदाद्यश्च ।।३।४।६३॥ नित्यमिति वर्तते । शीर्षच्छेदशब्दात् इप्समर्थात् नित्यमहतीत्य. स्मिन्नर्थे यो भवति ठञ् च । शीर्षच्छेदं नित्यमर्हति शीर्षच्छेदिकः । अन्ये शिरश्छेदं नित्यमहतीति त्यसन्नियोगे शिरसः शीर्षभावं वर्णयन्ति । तदयुक्तं यत्नाभावात् । तस्मान्नियतविषयः शिरःपर्यायः शीर्षशब्दोsस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् । दण्डादेः ॥३।४।६४॥ नित्यमिति निवृत्तम् । दण्ड इत्येवमादिभ्योऽहतीत्यस्मिन्नर्थे यो भवति । ठोडपवादः । दण्डमर्हति दण्ड्यः । दण्ड । मुशल । मधुपर्क | कशा । अर्घ । मेघा । मेघ । वध । उदक । युग। इरु (भ)। पात्राद्धश्च ॥३४॥६५॥ तदहंतीति वर्तते । पात्रशब्दाद्धो भवति चकाराद्यश्च । ठोऽपवादः । पात्रमिति परिमाणं च गृह्यते । पात्रमहं ति पात्रियः । पात्र्यः । कडङ्गरदक्षिणास्थालीबिलाच्छश्च ॥२४॥६६॥ तदहतीति वर्तते । कडङ्गर दक्षिणा स्थालीबिल इत्येतेभ्यश्लो भवति यश्च । ठोऽपवादः । मुद्गादि काष्ठं कडङ्गरम् । कडङ्गरमर्हति कडङ्गरीयो गौः। दक्षिणामहति दक्षिणीयः । दक्षिण्यः । स्थालीविलमर्हति स्थालीविलीयाः स्थालीविल्यास्तण्डुलाः। पाकाई इत्यर्थः । यविग्भ्यां घखबौ ॥३।४।६७॥ तदहतीति वर्तते । यश-ऋत्विक्शब्दाभ्यां यथासंख्यं घभित्येतो त्यौ भवतः । ठोऽपवादः । यज्ञमहं ति यज्ञियः । आविजीनः। उपचायत्तत्कापि तथोक्तम् । यज्ञकर्माहति, यशियो देशः । ऋत्विक्कर्माहति, पाविजीनं कुलम् । For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra म० ३ पा० ४ सू० ६८०७६ ] www.kobatirth.org महावृत्तिसहितम् २२९ पारायण तुरायणचान्द्रायणं वर्तयति || ३ | ४ | ६८ ॥ तदिति वर्त्तते । पारायणतुरायण चान्द्रायणशब्देभ्य इप्समर्थेभ्यो वर्तयतीत्यस्मिन्नर्थे ठञ् भवति । पारायणं वर्तयति पारायणिकः । शिष्य एवाभिधानं नाध्यापके । तुरायणं यज्ञ' वर्तयति तौरायणिकः । यजमान एव न योजके । चान्द्रायणिकः । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयमापन्नः || ३|४|६९ ॥ संशयशब्दादिप्समर्थादापन्न इत्यस्मिन्नर्थे ठञ् भवति । सशीतिः संशयः, तमापन्ने कर्तृकर्मणी भवतः । तत्र कर्त्तरि पुरुषेऽभिधानं नास्ति । संशयं विषयभावेनापन्नः सांशयिकः । स्थावादि । योजनं याति || ३ | ४|७० || योजनशब्दादिप्समर्थाद्यातीत्यस्मिन्नर्थे ठञ् भवति । योजनं याति यौननिकः । संख्यापूर्वपदादपि । द्वैयोजनिक: । "क्रोशशतयोजन झतयोरुपसंख्यानम् [वा०] । क्रोशशतं याति क्रौशशतिकः । यौजनशतिकः । " ततोऽभिगमनमर्हति च वक्तव्यम्" [वा०] क्रोशशतादभिगमनमर्हति कौशशतिकः । यौवनशतिको गुरुः । पथः कट् ||३|४|७१ ॥ तदिति वर्तते । पथिशब्दादिप्समर्थाद्यातीत्यस्मिन्नर्थे कट् इत्ययं त्यो भवति । पन्थानं याति पथिकः, पथिकी । द्वौ पन्थानौ याति द्विपथिकः, द्विपथिकी। हृदर्थे रसे कृते सान्तात्पूर्वनिर्णयेनायमिष्यते । पन्थो ण नित्यम् ||४|४|७२ || नित्यग्रहणं यातीत्यस्य विशेषणम् । पथिशब्दादि समर्थान्नित्यं यातीत्यस्मिन्नर्थे णो भवति तत्सन्नियोगे पन्थ इत्ययञ्चादेशः । पन्थानं याति पान्थः । नित्यमिति किम् ? पथिकः । उत्तरपथेनाहृतं च ||३|४|७३ || निर्देशादेव भाया उपादानम् । उत्तरपथशब्दाद् भासमर्यादाहृतं यातीति चानयोरर्थयोष्ठञ् भत्रति । उत्तरपथेनाहृतम्, श्रौत्तरपथिकम् । उत्तरपथेन याति श्रौत्तरपथिकः । "वारिजङ्गकस्थळकान्ताराजशङ्कुपूर्वपदादिति वक्तव्यम्” [ वा० ] वारिपथेनाहृतं वारिपथिकः वारिपथेन याति वारिपथिकः । एवमर्थद्वयोऽपि । जाङ्गलपथिकः । स्थालपथिकः । कान्तारपथिकः । श्राजपथिकः । शाङ्कु पथिकः । “मधुकमरिचयो: स्थलपूर्वादय् वक्तव्यः " । स्थलपथेनाहृतं स्थालपथं मधुकं मरिचं वा । कालेभ्यः ||३|४|७४ || बहुत्वनिर्देशः स्वरूपनिरासार्थः । अधिकारोऽयम् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः कालवाचिभ्य इत्येवं तद्वेदितव्यम् । वक्ष्यति तेन निर्वृच: " [ ३।४।७५ ] । मासेन निर्वृतम् मासिकम् । श्रार्द्धमासिकम् । तेन निर्वृत्तः ||३ | ४ | ७५ ॥ तेनेति भासमर्थेभ्यः कालवाचिभ्यो निवृत्त इत्यस्मिन्नर्थे ठञ् भवति । मासेन निर्वृत्तः, मासिकः । साँव्वत्सरिकः प्रासादः । तमवी ( घो ष्टो भृतो भूतो भावी ||३|४|७६ ॥ तमितीप्समर्थात् कालवाचिशब्दात् श्रवी(घी) टो भृतो भूता भावीति एतेष्वर्थेषु ठञ् भवति । सत्कृत्य नियुक्तोऽवी ( घी )ष्टः । वेतनेन क्रीता भू (भृतः । माखमवो (धी ) ष्टों भृता भूतो भावो वा मासिकः । श्रर्द्धमासिकः । साँव्वत्सरिकः । "कालाध्वन्यविच्छेदे " [१४(४] इतोप् । अवी ( घी )ष्टभू ( द ) तयोरर्थयोर्मासैकदेशे मुहूर्ते पासशब्दो वर्तते । तस्याऽध्येषण भरणक्रियाभ्यां व्याप्तेरविच्छेदः । भूतभाविभ्यां तु खुसन्तया ( स्वसत्तया ) कालस्य व्याप्तेरविच्छेदः सिद्ध एव । इह षष्टिं भूतः षाष्टिकः । साप्ततिकः । इति कथं कालवाचित्वम् १ कालस्य संख्येयत्वात् कालविषयत्वाद्वा । रमणीयं काल भूत इत्यत्राऽनभिधानान्न भवति । १. याजकः अ० पू० । २. ख सन्तया अ० पू० । For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ३ पा० ४ सू० ७७-८० मासाद वयसि खञ || ३ | ४|७७ ॥ तमवी ( धी )ष्टो भृतो भूतो भावीति वर्तते । मासशब्दाद्वयस्यभिधेये खन भवति । ठञोऽपवादः । वयसीति वचनात् । श्रवी ( धी ) प्रभृतग्रहणं नाभिसम्बध्यते । मासं भूतो भावी वा, मासीनः । कथं भावि वयो विगमः इति चेत् अरिष्टदर्शनात् । अकार: "जिदुष्टदरकविकारे " [ ४ | ३ | १५१] इत्यत्र पुंवद्भावप्रतिषेधार्थः । मासीनो दुहितृकः । वयसोति किम् ? मासिकः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यः ||३|४| ७८ || मासशब्दाद् वयस्यमिधेये यश्च भवति । मासं भूतो भावी वा मास्यः । योगविभाग उत्तरार्थः । रात् || ३ | ४ |७९ ॥ मासाद् वयसीति वर्तते । मासान्ताद राद वयस्यभिधेये यो भवति । द्वौ मासौ भूतो भावी वा द्विमात्यः । प्राग्वतः संख्यापूर्वपदानामनुपीति ठञपवादयोर्यखत्रोः प्राप्तयोरनेन यो विधीयते । परामासारख्यश्च ||३|४|८०|| परमासशब्दाद् वयस्यभिधेये यो भवति यश्च । षण्मासाद् भूतो भावी वा पारमास्य । षण्मास्यः । अन्ये चशब्देन टयं समुच्चिन्वन्ति । यस्त्वनुवर्त्तनादेव भवति तेषां पाएमासिक इत्यपि । ठश्चार्यास || ३ | ४|८|| षण्मासशब्दादवयस्यभिधेये टो भवति एयश्चानन्तरः । षाएमासिको नायकः । षाण्मास्यः । समायाः खः ||३|४|८२॥ श्रवी ( धीष्टादयश्चत्वारोऽर्था अनुवर्त्तन्ते । समाशब्दादिप्समर्थादीष्टादिष्वर्थेषु खो भवति । नोऽपवादः । समामवी (घी) ष्टो भूतो भावी वा समीना | I [ राद् भूतबलेः || ३|४|८३ || समाशब्दान्ताद् निर्वृत्तादिषु पञ्चस्वर्थेषु खो भवति भूतबलेराचार्यस्य मतेन । नान्येषाम् । प्रातः संख्यापूर्वपदानां तदन्तग्रहणमनुपीति पूर्वेण नित्ये खे प्राप्ते विभाषेयम् । द्वे समे भृते भूतो भावी द्विसमीनः । द्वैसमिकः । त्रिसमीनः । चैमिकः । कालः परिमाणग्रहणेन न गृह्यते । तेन "रिम (स्याखुशाणे [ ५।२।२२ ] इति थोरैग्न भवति । रात्र्यहः संवत्सरात् || ३ |४| ८४ ॥ रादिति वर्त्तते । श्रहन् संवत्सर इत्येवमन्ताद्रान्निर्वृत्तादिष्वर्थेषु भूतबलेराचार्यस्य मतेन खो भवति । श्रहन् । द्वयहीनः । द्वैयह्निकः । श्रत्रापि श्रहरन्तादिति वचनात् "राजाहः सखिभ्यष्टः " [ ४।२।१३ ] इति सान्तो न भवति । श्रन्यथा “एभ्योऽह्वोऽह्नः " [ ४।२1१०] इत्यादेशे सति द्वह्नीन इत्यनिष्टं रूपं स्यात् । द्वैयह्निरु इति चेष्यते । तत्कथं सिध्यति १ द्वयोरहोः समाहारः टे सान्ते "न समाहारे" [ ४/२/६१ ] इत्यह्नादेशप्रतिषेधे च सति सिद्ध्यति । संवत्सर, द्विसंवत्सरीणः । द्विसांवत्सरिकः । “संख्यायाः (संख्या) संवत्सरस्यं " [ २२० ] इति द्योरादेरै । 1 वर्षा दुप्च ||३|४| ८५|| रादिति वर्त्तते । वर्षशब्दान्तान्निर्वृत्तादिष्वर्थेषु भूतबलेराचार्यस्य मतैन ठञ उब्भवति खश्च । श्रन्येषां ठञेव । तेन त्रैरूप्यम् । द्वेवर्षे भूतः, द्विवर्षः, द्विवर्षणः, द्विवार्षिकः । " वर्षस्वाभाविनि " [ ५।२।२१] इति द्योरादेरै । भाविनि द्वैवार्षिक इति भवति । प्राणिन्युप् ||३|४|८६६ ॥ पुनरुग्रहणं नित्यार्थम् । वर्षशब्दान्तादूरात्प्राणिनित्यार्थेऽभिधेये नित्यं त्यस्यो भवति । पूर्वेण विकल्पेन पक्षे ठञः श्रवणं खश्च न भवति । द्वे वर्षे भूतो भावी वा द्विवर्षो दारकः । भूतभाविनोरेवार्थयोरयं नित्यमुविष्यते नान्यत्र । द्वे वर्षे श्रधीष्टो भू (भृ ) तो वा कर्म करिष्यति, द्विवार्षिको मनुष्यः । तदस्य ब्रह्मचर्यम् ||३|४|८७॥ तदिती समर्थात् कालवाचिनो मृदोऽस्येति तार्थे ठञ् भवति यत्तदिसमर्थ तस्य व्यापकं त्यार्थस्य च स्वं ब्रह्मचर्यं चेद् भवति । मासं ब्रह्मचर्य्यमस्य मासिको ब्रहाचारी | सम्बन्ध वृत्तावन्तर्भूत इति पुरुषोऽभिधेयः । एवम्, अर्धमासिकः । सांवत्सरिकः । "संख्यापूर्वपदाच्च " For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३१ अ. ३ पा० ४ सू. 4-11] महावृत्तिसहितम् द्वादशवार्षिकः । “ब्रह्मचर्यमित्यस्मिार्थे महानाम्न्यादिभ्य उपख्यानम्" वा०] । महानाग्न्यो नाम ऋचः । महानाम्नीनां ब्रह्मचर्यम् , माहानाम्निकम् । श्रादित्यवतिकम् । गोदानिकम् । तच्चरतीति च महानाम्न्या. दिभ्य उपसख्यानम् [वा० । महानाम्नीश्चरति माहानाम्नि । महानाम्नीसहचरितं व्रतं चरतीत्यर्थः । एवम्, श्रादित्यवतिकः । गौदानिकः । "अवान्तरदीक्षादिभ्यो दिन् वक्तव्यः" वा०] । अवान्तरदीक्षां चरति अवान्तरसीसीटेववती तिलवती। “अष्टाचत्वारिंशतो डवुडिनौ च बक्तव्योगवा०]। अष्टाचत्वारिंशदवर्षाणि व्रतं चरति, श्रष्टाचत्वारिंशत्कः । श्रष्टाचत्वारिंशी। 'चातुर्मास्याना यखं च बुडिनौ च वक्तव्यौ" [वा । चातुर्मास्यानि चरति चातुर्मासकः। चातुर्मासो। अथ किमिदं चातुर्मास्यानी त ? 'चतुर्मासापण्यो यज्ञे तत्रभवे वक्तव्यः" [वा. ] । चतुर्यु मासेषु भवन्ति चातुर्मास्यानि । “सज्ञायामण वक्तव्यः" [वा.11 चतुर्यु मासेषु भवा पौर्णमासी चातुर्मासी । कार्तिकी । फाल्गुनी । अाषाढी चेति । अथ मासोऽस्य ब्रह्मचर्यस्य मासिकं ब्रह्मचर्यम् । आर्धमासिकम् । सांवत्सरिकमित्यत्य सिद्धये यत्नः कर्तव्यः। न कर्तव्यः । मासं भतं भावि वा ब्रह्मचर्य मासिकमिति भविष्यति । तस्य दक्षिणा यशाख्यात् ॥३४८॥ तस्येति तासमर्थात् यज्ञाख्यान्मृदो दक्षिणेत्यस्मिन्नर्थे ठञ् भवति । यज्ञमाचष्टे यज्ञाऽख्यः। प्रकरणे उषीति ( सुपि [ २०१७] इति ) योग विभागे "भूलविमुजादिभ्यः' [वा०] इति (वा ) कः। अग्निष्टोमस्य दक्षिणा अाग्निष्टोमिकी । 'तस्येवम्" [ 1] इत्यस्याऽणोऽपवादः। एवं राजसूयिकी। दासौदनिकी । श्रकालार्थ चाऽख्यग्रहणम । अन्यथा कालाधिकारात एकाहद्वादशाहप्रभृतिभ्य एव यज्ञेभ्यः स्यात् । प्राग्वतः संख्यापूर्वपदाना सदन्तग्रहण. मनुपीति कालावि (घि) कारेऽपि द्वादशाहादिश्वस्ति प्राप्तिः। तत्र दोयते भववत् ॥३।४।८६।। तत्रेतीपसमर्थात् कालवाचिनो मृदो दीयते इत्यस्मिन्नर्थे भव इव त्यविधिदितव्यः । यथा मासे भवं मासिकम् । श्रार्धमासिकम् । “कालाटुज" [३।२।१३१] इत्येवमादिविधिः । एवं मासे दीयते मासिकम् । पार्द्धमासिकम् । प्रावृषेण्यम् । हैमनम् । शैशिरम् । वद्ग्रहणं सर्वसादृश्यार्थम् । इह कार्यग्रहगामपि कर्त्तव्यम् । मासिकम् । वासन्तम् । हैमनम् । कर्त्तव्यम् , यन्मासे कार्य तन्मासे भवमित्यपि भवति । ततः "तत्र भवः' [ ३।३।२८ ] इत्येव सिद्धम् । रादनुवर्थ तहीह कार्यग्रहणं सार्थकम् । द्वयोर्मास्योः कार्य द्वैमासिकम् । भवार्थलक्षणस्य ठनः "रस्योबनपत्ये" [३।७४इत्यप प्रसज्येत । नेदं युक्तम् । उबेवात्रेभ्यते । यदन्यैरप्युक्तम् । कार्यग्रहणमप्यनर्थकम् | तत्र भवेन कृतत्वादिति । अथापि कार्यमनुपः प्रयोगो दृश्यते । एवं तहि "तेन कार्य" मित्यत्र स द्रष्टव्यः । द्वाभ्यां मासा यां कार्य द्वैमासिकम् । "जय्यसभ्यकार्यसुकरम्" [३।४।६२ ] इति ठम् । तत्र दीयते इति योगविभागः कर्त्तव्यः । यज्ञाख्यादित्यनुवर्तते । अग्निष्टोमे दीयते श्राग्निष्टोमिकमन्नम् । राजसूयिकम् । वाजपोयकम् । द्वयोर्वाजपेययोर्दीयते द्वैवाजपेयिकम् । ब्युष्टादेरण ॥३।४।६०॥ इह कलिभ्य इति नापेक्ष्यते । सामान्येन विधानात् । तत्रेति वर्तते । व्युष्ठ इत्येवमादि य ईप्समर्थ यो दीयते इत्यस्मिन्नर्थेऽण् भवति । उछी विवास इत्यस्य के व्युष्टमिति कालवाचि । व्युष्टे दीयते वैयुष्टम् । नित्यशब्दादोचन्तादपि वचनाद् भवति । तीर्थ । निष्क्रमण | उपसंक्रमण। प्रवेशन । संग्राम । संघात । प्रवास । उपवास । अग्निपदी। पीलुमूल । "प्रणप्रकरणे अग्निपदादिभ्य उपसंख्यानम" [वा० ] न कर्तव्यमिह पाठात् । तेन यथाकथाचहस्ताभ्यां णयौ ॥३।४।६१॥ अत्रापि कालेभ्य इति नापेक्ष (क्ष्य) ते। दीयते इति वतते । तेनेति भासमाभ्यां यथाकथाच-हस्तशब्दाभ्यां दीयत इत्यस्मिन्नथें यथासंख्यं णयौ भवतः । यथाक्याच दीयते याथाकथाचम् । अनादरदत्तमित्यर्थः । हस्तेन दीयते इस्त्यम् । For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा० ४ सू० १२.१०५ जय्यलभ्यकार्यसुकरम् ॥३||२|| कालेभ्य इति वर्तते । तेनेति भासमर्थात् कालवाचिनो मृदो जय्य लभ्य कार्य सुकर इत्येतेष्वर्थेषु ठा भवति । मासेन वय्यो मासिको हस्ती । मासेन शक्यते जेतुमित्यर्थः । मासेन लभ्यो मासिकः पटः। मासेन कार्य मासिकं गृहम । मासेन सुकरो मासिकः प्रासादः। सम्पादिनि ।।३।४।१३।। कालेम्य इति निवृत्तम् । भासमर्थान्मृदः सम्पादिन्यर्थे ठञ् भवति । कर्णवेष्टाम्यां सम्पादि शोभते कार्णवेष्टिकं मुखम् । वस्त्रयुगेन सम्पद्यते वास्त्रयुगिकं शरीरम् ।। कर्मवेषाद्यः॥४६॥ तेन सम्पादिनीति च वर्तते । कर्मवेषशब्दा यां यो भवति । ठोऽपवादः । फर्मण सम्पद्यते कर्मण्यं शौर्यम् । वेषेण सम्पद्यते वेष्या नर्तकी । नेपथ्येन शोभते इत्यर्थः । तस्मै प्रभवति सन्तापादेः ॥ ५॥ तस्मै इति अपसमर्थेभ्यः सन्तापादिभ्यः प्रभवतीत्यस्मिनर्थे ठञ् भवति । अलमर्थेऽप् । सन्तापाय प्रभवति मान्तापिकः । सन्ताप | सन्नाह । संयोग । संग्राम । सम्पराय । सम्पेष । निष्पेष । निसर्ग। उपसर्ग । विसर्ग । प्रवास । उपवास । संघात । संमोहन । शक्तुमांसौदनाद् विग्रहीतादपि । शाक्तुमांसौदनिकम् । शाक्तुकम् । मासिकम् । औदनिकम् । योगाद्यश्च ॥३४९६॥ तस्मै प्रभवतीति वर्तते । योगशब्दाद्यो भवति ठञ् च । योगाय प्रभवति, योग्यः । यौगिकः । कर्मण उका. ॥३४॥६५॥ तस्मै प्रभवतीति वर्तते । कर्मशब्दादुका, भवति । कर्मणे प्रभवति कार्मुकं धनुः। समयस्तदस्य प्राप्तम् ॥३।४।६८।। तदिति वासमर्थात्समयादस्येति ताऽर्थे ठम् भवति यत्तद्वासमर्थ प्राप्तं चेत्तद्भवति । समयः प्राप्तोऽस्य सामयिकम् । प्राप्तकालमित्यर्थः । ऋतोरण ॥३।४।९९।। ऋतुशब्दात् वासमर्थात्प्राप्तोपाधिकादस्येति ताऽर्थेऽण् भवति । ऋतुः प्राप्तोऽस्य, आर्तवं पुष्पम् । "उपवस्त्रादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा० ] | उपवस्ता प्राप्तोऽस्य औपवस्त्रम् । प्राशिता प्राप्तोऽस्य प्राशितम् । कर्मनामधेयम् । कालाद्यः ॥३४॥१००॥ तदस्य प्राप्तमिति वर्तते । कालशब्दाद्यो भवति । कालः प्राप्तोऽस्य, काल्यं शीतम् । रात्रावृषितायामहरादिः कालोऽपि काल्यः । प्रकृष्टे ठः ॥३।४।१०१।। तदस्येति वर्तते कालादिति च । प्रकृष्टे प्रकर्षे वर्तमानादस्येति ताऽर्थे ठो भवति । प्रकृष्टः दीर्घः कालोऽस्य कालिकम् ऋणम्। कालिकं सख्यम् । अन्ये प्रकृष्ट ठअिति पठन्ति । कालिका मैची। (प्रयोजनम् ॥३४११०२कालादिति निवृत्तम् । तदस्येति वर्तते । प्रयोजयतीति प्रयोजनम् । नन्द्यादिपाठाल्ल्युः । बहुलवचनाद्वा कर्तरि युट । तदिति वासमर्थात्प्रयोजनोपाधिकादस्येति ताऽर्थे ठञ् भवति । अहत्पूजाप्रयोजनमस्य आईत्पूजिकः । ऐन्द्रमहिकः ।) वैशाखाषाढषाष्टिकैकागारिकडाकालिकट ॥३।४।१०॥ वैशाखादयः शब्दा निपात्यन्ते । यदत्र लचोनानुपपन्नं तत्सर्व निपातनासिद्धं तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन्विषये। "विशाखाषाढाभ्यां यथासंख्यं मन्थदण्डयोरग्निपात्यते ।" विशाखा प्रयोजनमस्य वैशाखो मन्थः। अाषाढो दण्डः । "षष्टिरात्रेण पच्यन्ते इत्यस्मिन्वाक्ये कः । रात्रशब्दस्य च खम् ।" षष्टिका नाम ब्रीडयः । असंज्ञायां वाक्यमेव भवति । षष्टिरात्रेण पच्यन्ते मुद्गा इति । "एकागारशब्दात्तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन्नथै चौरेऽभिधेये ठज ।" एकागारं प्रयोजनमस्य ऐकागारिकश्योर। चोरादन्यत्र वाक्यमेव । एकागार प्रयोजनमस्य मिलोरिति । श्रथया "एक: समर्थः भगारमोषि For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भ० ३ पा० ४ सू० १०४ - १०६ ] महावृत्तिसहितम् २३३ तुमिति वाक्ये एक शब्दाण्यागारिकडित्ययं त्यो निपात्यते । ऐकागारिकचौरः । ऐकागारिकी चौरी । समान कालशब्दादाद्यन्तोपाधिविशिष्ट । दस्येति ताऽर्थे इकनिपात्यते समानकालस्य च श्राकाल श्रादेशः । समानकालवाद्यन्तावस्य श्राकालिकः स्तनयित्नुः । श्राकालिकी विद्युत् । यस्तु प्रादिलक्षणे से श्राकाल इष्टः । श्रावृत्तः काल ईषत्कालो वा ाकाल इति । तस्मात् ठञ् च ठश्चेष्यते । श्राकालिकी नाकालिका विद्युत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छोऽनुप्रवचनादेः || ३ | ४ | १०४|| तदस्य प्रयोजनमिति वर्तते । अनुप्रवचनादिभ्यश्छो भवति । ठञोऽपवादः । श्रनुप्रवचनं प्रयोजनमस्य, अनुप्रवचनीयम् । श्रनुप्रवचन । उत्थापन । उपस्थान । संवेशन । प्रवेशन | अनुवाचन | अनुवचन । अनुपान | अनुवादन | अनुवासन । श्रन्वारोहण । प्रारोहण । श्रारोहण । श्राभरण | "विशिपूरिपादिरुहिप्रकृतेरनारख पूर्वपदादुपसंख्यानम्" [ वा० ]। गृहप्रवेशनीयम् । प्रपापूरणीयम् । श्रश्वप्रपदनीयम् । प्रासादरोहणीयम् । एतस्मिंश्च वक्तव्ये सति यानि गणे विश्यादिप्रकृतीत्यनान्तानि पठ्यन्ते तेषां पाठोऽनर्थकः प्रपञ्चाऽर्थो वा । समापनात्सादेः ||३|४|१०५ ॥ तदस्य प्रयोजनमिति वर्तते । समापनशब्दात्सादेशको भवति । ठञोऽपवादः । जैनेन्द्रसमापनं प्रयोजनमस्य जैनेन्द्र समापनीयम् । तर्कसमापनीयम् । "स्वर्गादिभ्यो यो travr: " [ वा० ] | स्वर्गः प्रयोजनमस्य स्वर्ग्यम् । वन्यम् | यशस्यम् । श्रायुष्यम् । काम्यम् | "पुण्याहवाचनादिभ्य उच्च व्य:" [ वा० ] | पुण्याहवाचनं प्रयोजनमस्य पुण्याहवाचनम् । शान्तिवाचनम् । स्वस्तिबाचनम् । श्रक्षतपात्रम् । नेदं वक्तव्यम् । तादर्थ्यात्ताच्छन्द्यं भविष्यति । श्रनभिधानाट्ठञ् भवति । "श्रद्धादिभ्योऽय् वक्तव्य:' [ बा० ] | श्रद्धा प्रयोजनमस्य श्राद्धम् | चूडा प्रयोजनमस्य चौडम् । तवत् ॥ ३४.१०६ ॥ श्रतीत्यर्हः तदितीप्समर्थाद् श्रतीत्यर्थे वद् भवति । राजानम राजानं ( राजवद् ) वृत्तम् । कुलीनवत् । इह कस्मान्न भवति शतमर्हति देवदत्तः । राजानमर्हति मणिः । उत्तरत्र क्रियाग्रहणं गुणभूतमपि सिंहावलोकनेन सम्बध्यते तेन क्रिया यत्रार्हतैः कर्तृत्वेन विवक्षिता तत्राऽयं विधिः । तेन क्रिया तुल्ये || ३ | ४|१०७॥ वदिति वर्तते । क्रिया तुल्या श्रस्य क्रियातुल्यम् । इच्छातो विशेषणविशेष्यभाव इति क्रियाशब्दस्य पूर्वनिपातः । तेनेति भासमर्थात्क्रियातुल्येऽर्थे वद् भवति । क्षत्रियेण तुल्यं युध्यते क्षत्रियवद्युध्यते । "भातुलोपमाय तुल्यार्थै:" [ १।४।७६ ] इति भा । शिष्येण तुल्यं वर्तते, शिष्यवद् वर्तते । श्रश्ववद्धावति । साधुवद् ब्रूते । इह कस्मान्न भवति । तैलपाकेन तुल्योऽष्टत पाक इति ? इह सूत्रे वर्थः (द्वर्था ) क्रिया सा च साध्या पूर्वापरीभूताऽवयवा श्रसाध्यभूता' च । घञाद्यन्तेन पुनर्व(द्वय) सव (ध) म्र्मः सिद्ध तालक्षणो द्रव्यभूत उच्यते इति नास्ति प्राप्तिः । यदि घञाद्यन्तेन क्रिया नामिधीयते कथं भोक्तुं पाकः भोजकस्य पाकः इति १ नैष दोषः ? " तु यादि ( वुण्तुमादि ) " [ २३८ ] सूत्रे घञाद्यन्तायाः प्रकृतैरर्थः क्रियाऽऽश्रीयते । क्रियाग्रहणं किमर्थम् १ ब्राह्मणेन तुल्यः पिङ्गलः । गुणतुल्ये मा भूत् । तत्रेव || ३ | ४|१०८ ॥ तत्रेतीप्समर्थात् इवार्थे वद् भवति । मथुरायामिव मथुरावत् स्रुध्ने प्रासादाः । मथुरावद् रमणीयता । मथुरावद् वर्षति । तस्य ||३|४|१०९ || इवशब्दोऽनुवर्तते । तस्येति तासमर्थादिवार्थे वद् भवति । देवदत्तस्य इव देवदत्तस्य वनम् । राज्ञ इव राजबद् देवदत्तस्याश्वाः । वव्प्रकरणे "स्त्रीपुंसान्नुकूत्वात्” [ ३०११७२] १. "असत्वभूताश्च" इत्यपि पाठः । २. प्रतुमादि पू० । ३० For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म० ३ पा० ४ सू०.१०.१ इत्येष विधिन भवति । "भादौ योक्तपुंस्कं वत्" [५११५३ ] इति निर्देशात् । योगापेक्षं चेदं शापकम् । तेन स्रीवदित्यपि सिद्धम् । योगविभाग उत्तरार्थः । भावे त्वन्तलौ' ॥२४११०॥ तस्येति वर्तते । तासमर्थाद् भावेऽर्थे त्यन्' तल इत्येतो त्यो भवतः । नकारः "सीसान्नुक्त्वात्" [ ३१७२] इत्यत्राऽस्यावधिरूपेण ग्रहणं मा भूत् इत्येवमर्थः । लकारस्तलन्तः स्त्रियामिति विशेषणार्थः । भावः शब्दप्रत्ययप्रवृत्तिकारणम् । तद्यथा भवतोऽस्माच्छुब्दप्रत्ययाविति भावः । उक्तं च "यस्य गुणस्य हि भाषावाव्ये शब्दविनिवेश:, तदभिधाने स्वतको [पा० महा० ५/११९] इति । इह गुण इति विशेषणमात्रम्, द्रव्यमिति विशेष्यमात्रम् इष्टम् । श्रश्वस्य भावः, अश्वत्वम् । अश्वता । शुक्लत्वम् । शुक्लता। अत्र जातिगुणयोरभिधाने त्वन्तलो। सम्बन्धस्तु गम्यो नाभिधेयः । इह पाचकत्वमिति क्रियाऽभिधाने । अथवा सम्बन्धप्रधानाः । सम्बन्धे चाभिधेये त्वन्तलौ । कारकत्वम् । श्रोपगवत्वम् । राजपुरुषत्वमिति । एतेऽपि ये जातिगुणशब्दाः, तेभ्यो जातिगुणस्य चाभिधाने । कुम्भकारत्वम् । हस्तित्वम् । राजवृतत्वम् । ये गुणमात्रवचना रूपं रसो गन्ध इति, तेभ्यः सामान्याभिधाने रूपत्वम् , रसत्वम् । उपचारशब्देषूपचारनिमित्तेऽभिधेये गोत्वं वाहीकस्य । अग्नित्वं माणवकस्य । पृथक्त्वं नानात्वमित्येवमादौ असत्त्वभूतत्वेऽपि शब्दान्तरेण तासमर्थता पृथगित्यस्य भाव इति । यदृच्छाशन्देषु डित्यादिषु संज्ञासम्बन्धामिधाने सर्वावस्थाव्याप्याकृतिसामान्याभिधाने च डिस्थत्वम् । उत्क्षेपणादिषु सामान्येऽभिधेये उत्क्षेपणत्वम् । आ च त्वात् ॥३।४।११२॥ वक्ष्यति "ब्रह्मणस्पः" [२४/१२६ ] इति । प्रा एतस्मात् त्व संशब्दनाद्यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्त्वन्तलो तत्राऽधिकृतौ वेदितव्यौ। अपवादविषये समावेशार्थ कर्मणि च विधानार्थमेव तावधिक्रियेते । वक्ष्यति "पृथ्वादेमन्[३२११२] प्रथिमा। पृथुता। ननु वावचनात् त्वन्तलौ स्वयमेव भविप्यतः १ नैतदेवम्, "ल्यादेरिकः" [११२१] इत्येवमादिसमावेशार्थ तद् वावचनम् । चकारकरण किमर्थम् ? "स्त्रीपुंसान्नुक्त्वात्" [११७२] इत्यस्मिन्नाप विषये प्रापणार्थम् । स्त्रीत्वम् । स्त्रीता। पुंस्त्वम् । पुंस्ता । प्राक्त्वादिति मर्यादाकरणसामर्थ्यादपि सिद्धः । स्त्रिया मावः स्त्रैणम् । पौंस्नम् । पृथ्वादेर्वमन् ॥३।४।११२॥ पृथु इत्येवमादिभ्यो वा इमन् भवति तस्य भाव इत्यस्मिन्विषये । वावचनं यादेरिकः" [३।१११२१] इत्यस्याणः, गुणवचनेभ्यष्ट्यणः, वयोवाचिभ्यस्त्वाः समावेशार्थम् । पृथोर्भावः, प्रथिमा, पार्थवम्, पृथुत्वम्, पृथुता । पृथु । मृदु । महि । पटु । तनु । लघु । बहु । बासु । ऊरू । बहुल । दण्ड । खण्ड । चण्ड । अकिञ्चन । बाल । होड । पाक । वत्स । मन्द । स्वादु । ऋजु । वृष । हस्व । दीर्घ | क्षिप्र । तुद्र । प्रिय । वर्णदृढादेष्टयण च ॥३।४।११।। वर्णशब्देन वर्णविशेषा गुणोपसर्जने द्रव्ये ये वर्तन्ते, तेषामिह ग्रहणम् । तादृशैरेव दृढादिभिर्गुणवचनैः साहचर्याद् वर्णविशेषवाचिभ्यो दृढादि यश्च ट्यण भवति संवा तस्य भाव इत्यस्मिन्विषये । शुक्लस्य भावः शौक्ल्यम् , शुक्लिमा, शुक्लखम् , शुक्लता । कार्यम् । कृष्णिमा । शैत्यम् । शितिमा, शितित्वम् । विभाषाऽनुकर्षणादन( ण )पि भवति । शैतम् । दृढादिभ्यः । दृढस्य भावः, दार्यम् , द्रढिमा, दृढत्वम्, दृढता । दृढशब्दस्य तुन्धादिषु अनिट्त्वं ढखं च निपात्यते । दृद्ध । बर। परिवृढ । कृश । भृश । चुक्र । अम्ल । लवण । "वेर्यातकातरसमतिमन:शारवानाम्" 1. स्वत्तलौ म०, पू० । २. स्वत् अ०, पू० । ३. -ब्दनिवेशः पा• महा० । ५. त्वतको पा. महा० । स्वत्तको घ० पू०।५. स्वत्तली म०, पूछ। For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ०३ पा० ४ सू० ११४- ११५ ] महावृचिसहितम् २३५ [No सू०] वैयात्यम् । वैल | त्यम् । वैरस्यम् ।। वैशारद्यम् । "समो मतिमनसोः " [ग० सू०] । साम्मत्यम् । साभ्मनस्यम् । शीत । उष्ण । जड । बधिर । मूक । मूर्ख । पण्डित | मधुर इति । किमर्थमिदमुच्यते ? एषां गुणक्तित्वादेव "गुणोति ब्राह्मण दिभ्यः " [ ३|४|११४ ] इत्येव व्यण् सिद्धः इमप्रापणार्थम् । एतत् ट्यण्ग्रहणमुत्तरत्राऽवश्यकर्तव्यमिहैव कृतम् । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणेब्रिाह्मणादिभ्यः कर्मणि च || ३ | ४ | ११४ || गुणोक्तिभ्यः शब्देभ्यो ब्राह्मणादिभ्यश्च तामभ्यष्ट्य भवति कर्मणि भावे चाभिधेये । उच्यते इत्युक्तिः, गुण उक्तिर्यस्य स गुणेोक्तिः । प्रागगुणमुक्त्वा गुणद्वारेण द्रव्ये यो वर्तत इत्यर्थः । जडस्य कर्म भावो जाड्यम् । मोढ्यम् । ब्राह्मणादिराकृतिगणः । श्रादिशब्दस्य प्रकारवाचिलात् । एवं च गुणोक्तिग्रहणं गणे च ब्राह्मणादीनामनुक्रमणं स्वार्थेऽपि भवतीति प्रपञ्चार्थम् बाधकबाधनार्थं च । ब्राह्मणस्य कर्म भावो वा ब्राह्मण्यम् । वाडव्यम् । ब्राह्मणात् प्राणिनातिलक्षणोऽञ् प्राप्तः । माणव वाडव वृद्धलक्षणो वुञ् प्राप्तः । "अर्हतो नुरच " [ वा० ] पाठः । चोर / धू । मनोज्ञादित्वाद् वुञ् प्राप्तः । श्राराव (ध) य | विराव (ध) य । उपराव (ध) य । अपराव (ध) य । एते "उपचोलादे : " [३|१|१२६ ] इत्युबन्ताः । ततो वृद्धलक्षणो वुञ् प्राप्तः । प्राणिजातिलक्षणो वाऽञ् । एकभाव । द्विभाव । त्रिभाव । अन्यभाव । एतेभ्यः स्वार्थे । श्रक्षेत्रज्ञनञ् पूर्वार्थं ग्रहणम् । संवादिन् । संवेशिन् । संभाषिन् । बहुभाषिन् । शीर्षघातिन् । समस्थ | परस्थ । प्रस्थ ' । श्राव्यस्थ । विषमस्य । विशाल । एवं नञ्पूर्वार्थे ग्रहणम् । अनीश्वर नञ् पूर्वार्थपाठः । कुशल । चपल । निपुण पिशुन । एभ्यो युवादिलादण् प्राप्तः । वालिस (श) बालवयोवाधि ( चि ) त्वाद प्राप्तः । श्रलस । बसोऽयम् । इष । रुष । कापुरुष । अनयोर्नञ्पूर्वार्थम् । राजनपुरोहितादित्वा एयः प्राप्तः । गणपति । अधिपति । पत्यन्तलक्षणो गयः प्राप्तः । गण्डुल । दायाद । विशस्ति । विशाप । विधान | निघात । एभ्यस्त्वत्तलोर्निवृत्त्यर्थम् । "सर्ववेदादिभ्यः स्वार्थे” [ वा० ] | सार्ववैद्यम् । सर्वलोक्यम् । धानुर्वेद्यम् । श्रनुशतिकादित्वादुभयत्रैप् । त्रैलोक्यम् । चातुर्वशर्यम् | "वीरात्तेजसि य:" [ वा० ]। वीरस्य तेजः वीर्यम् । “विरोधेऽण् वक्तव्यः " [वा०] । वैरम् | ट्याष्टिकरणं व्यर्थम् । श्राचिती । सामग्री । "हलो हृतो ड्याम्' [ ४|४|१४० ] इति यखम् । नम सेचतुरसंगतलक्ष ( ब ) वड बुधकतरसल सेभ्यः || ३|४|११५ ॥ प्रतिपदोक्ते नसे कृते चतुर संगत लक्षण ( लवण ) वड बुध कत रस लस इत्येतेभ्य एव भावकर्माभिधायिनस्त्या भवन्ति । ननु ग्रहणवद्द्भ्यो विहिताः कथं तदन्तेभ्यः प्राप्नुवन्ति १ येनायं नियम उच्यते । ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वान्नञ्पूर्वादपि यण् (ट्यण् ) प्राप्नोति । पत्यन्ताद्विहितो एयः, हायनान्तादण्, योङो वुञ् - पूर्वादपि प्राप्नोति । न चतुरः चतुरः, तस्य भावः कर्म वा श्राचतुर्य्यम् । श्रासंगत्यम् । श्रालवण्यम् । श्रावड्यम् । श्नाबुध्यम् । आकत्यम् । श्रारस्यम् । श्रालस्यम् । एतेभ्य एव नसे कृते यथा स्युर्नान्येभ्य इति । अपटुत्वम् । श्रपटुता । श्रपतित्वम् । अपत्तिता । ( ) हायनत्वम् । (ख) तलोर्नियमान्निर्वृत्तिर्न भवति, श्रा चत्वादिति वचनात् । प्रतिपदग्रहणं किमर्थम् ? नञ्पूर्वाद् बसात् भाववचनो यः प्राप्नोति स भवत्येव । न विद्यते पटुरस्य, पटुः, पटोर्भावः श्रापटवम् । श्रपतेर्भावः श्रापत्यम् । श्राहायनम् । श्चारमणीयकम् । अथ यत्र नत्र सस्य हृद्वृत्तेश्चैकमेव वाक्यं तत्र कथं भवितव्यम् न पटोर्भाव इति ! हृवत्या प्राग्भवितव्यं पश्चान्नञ्सः । श्रपाटवमिति । न कर्णवेष्टाऽभ्यासपादिमुखम् श्राणवेष्टिकम् । चतुरादिष्वभिधानवशान्नञ्सः । पश्चाद् भावे त्यः । न चतुरस्य भाव श्राचतुर्य्यम् । १. परमस्थ अ० पू० । २. अप्रस । वसोऽयम् ब०, स० ! For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ३ पा० ४ सू० ११६ - १२१ 1 स्तेयसख्ये || ३ | ४|११६ ॥ स्तेय मुख्य इत्येते शब्दरूपे निपात्येते स्तेनशब्दात्तासमर्थात् भावकर्मणोर्यः, नशब्दस्य च खं निपात्यते । स्तेनस्य भावः कर्म वा स्तेयम् । यण् ( ट्यण् ) चात्रेष्यते । स्तैन्यम् । सखिशब्दाद् भावकर्मणोर्यः । सख्युर्भावः कर्म वा सख्यम् । “दूतवणिगय यो वक्तव्यः " [वा० ] दूतस्य भावः कर्म वा दूत्या । वणिज्या । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपिज्ञाते ||३|४|११७॥ कपि ज्ञातिशब्दाभ्यां तासमर्थाभ्यां दञ् भवति भावे कर्मणि चाभिधेये । कपेर्भावः कर्म वा कापेयम् । इगन्तत्वादण् प्राप्तः । ज्ञातेर्भावः कर्म वा ज्ञातेयम् । प्राणिजातित्वादत्र प्राप्तः । त्वत्तलावपि भवतः । कपित्वम् । कपिता । ज्ञातित्वम् । ज्ञातिता । पत्यन्त पुरोहितादेयः ||३ | ४ | ११८ ॥ पत्यन्तात्पुरोहितादेश्च रयो भवति । तस्य भावे कर्मणि चेति वर्तते । बृहस्पतैर्भावः कर्म वा बार्हस्पत्यम् । सैनापत्यम् । इगन्तत्वाद प्राप्तः । पुरोहितादिभ्यः । पुरोहितस्य भावः कर्म वा पौरोहित्य म् । राज्यम् । पुरोहित । "राजन से" [ ग० सू० ] । स इति किम् ? सौराज्यम् । ब्राह्मणादित्वाट्यण् । ग्रामिक । खण्डिक । दण्डिक । कर्मिक । वस्तिक' | शिलिक । सूचिक | अञ्जलिक । छत्रिक । वर्षिक । प्रतिक। सारथिक । सांजनिक । श्राजनिक । साराक्षसूचक । ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वाट्यणि सिद्धे स्त्रियां टार्थे वचनम् । 1 वयोवाक्प्राणिजात्युद्गात्रादिभ्योऽन || ३|४|११६ ॥ वयसो वाग्भ्यः प्राणिमातिवाचिभ्य उद्गात्रादिभ्यश्चाञ भवति । तस्य भावे कर्मणि चेति वर्तते । कुमारस्य भावः कर्म वा कौमारम् । कैशारम् । कालभम् । प्राणिजातिभ्यः । श्राश्वम् । श्रष्टुम् । माहिषम् । उद्गातुर्भावः कर्म वा श्रौद्गात्रम् । उद्गातृ । उन्नेतृ । प्रतिहन्तृ । प्रशास्तृ । होतृ । भर्तृ । रथगणक । पक्लिगणक । सुष्ठु । दुष्ठु । श्रव । वधू । हायनान्तयुवादिभ्योऽण् ॥३|४|१२० ॥ हायनान्तेभ्यो युवादिभ्यश्चाण् भवति । तस्य भावे कर्मणि चेति वर्तते । श्रवयोवाचित्वे हायनान्ताः प्रयोजयन्ति । द्विहायनस्य युवादेर्भावः कर्म वा, द्वैहायनम् । त्रैहायनम् । युवादिभ्यः - यूनो भावः कर्म वा यौवनम् । मनोज्ञादित्वाद् वुञ प्राप्तः; श्रनेनाण् । ": अम आणि [ ४ । ४ । १५८ ] इति टिखप्रतिषेधः । पूर्वे सूत्रे यद्यग्रहणं क्रियेत हस्तिनो भावः कर्म वा हास्त - मित्यत्र “प्रायोऽनपत्ये ऽणीनः " [ ४ । ४ । १५५ ] इति टिखप्रतिषेधः प्रसज्येत । मृद्द्महणे लिङ्गविशिष्टस्यापि, युवतेर्भावः “मस्य हृत्यढे "[वा०] इति पुंवद्भावे कृते यौवनम् । युवन् । यजमान । "पुरुषादसे " [ग०सू०] अस इति किम् ? राजपौरुष्यम् । पुरुषत्वम् । कर्तृ । ऋत्विक् । कन्दुक । श्रवण । कुस्त्री । दुःखी । सुस्त्री । सुहृदय । सुहृत् । दुर्हत् । सुभ्रातृ । दुर्भ्रातृ । वृषल । परित्राजक । सब्रह्मचारिन् । श्रनृशंस | "हृदयाद से " [ग०सू०] स इति किम् ? अहृदयत्वम् । चपल । निपुण । पिशुन । कुतूहल । क्षेत्रज्ञ | भो त्रियस्य भावः कर्म वा श्रौत्रम् | उद्गात्रादिरत्रैव पठितव्य इति चेत्; न; श्रस्याऽनित्यत्वात् । तेनानृशंस्यमिति सिद्धम् । 4 ध्यादेरिकः ||३|४|१२१ ॥ ध्यादिग्रहणमिको विशेषणम् । धि श्रादिर्यस्येकः स ध्यादिः, ध्यादिर्य इक् तदन्तान्मृदोऽय् भवति । तस्य भावकर्म्मणोरिति वर्तते । शुचेर्भावः कर्म वा शौचम् । नखरजनि । नाखरजनम् । हरीतकी । हारीतकम् । पृथु । पार्थवम् । वधू । वाधवम् । पितृ । पैत्रम् । ध्यादिग्रहणं मृत्समुदायस्य विशेषणमित्यन्ये । घ्यादेर्मृद इगन्तात् । कृशानु । कार्शा नवम् । प्रतिहर्तृ । प्रातिहार्त्रम् | १. वल्लिक अ० पू० । २. प्रमातृ अ० । ३. सूत्रम् "अनः" इत्येव । अणीत्यनुवृत्त्यभिप्रायेण "अनः अणि " इति । For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० ३ पा० ४ सू० १२२-१२७ ] महावृत्तिसहितम् २३७ इह (विश्च )ना च विनरौ। चित्रे ( विनु ) र्भावः कर्म वा परत्वाद्द्वन्द्वलक्षणो वुझ् । चैत्र ( वैन )कमिति । कथं काव्यम् १ कविशब्दो ब्राह्मणादिषु पठनीयः । ध्यादेरिति किम् ? पाण्डुत्वम् । पाण्डुता । इक इति किम् १ बकुलत्वम् । योडो रूपोत्तमाद् वुन ॥१४१२२॥ त्रिप्रभृतीनामन्त्यम् उत्तमम् , उत्तमस्य समीपमुपोत्तमम्। रुरुपोत्तमं यस्य मृदः, तद्रूपोत्तमम् । योङो मृदो रूपोत्तमाद् वुञ् भवति । तस्य भावकर्मणोरिति वर्तते । रमणीयस्य भावः कर्म वा, रामणीयकम् । श्रोपाध्यायकम् । योङ इति किम् ? कापोतम् । रूपोत्तमादिति किम क्षात्रियम् । कुवलयत्वम् । रूपान्त्यादिति वक्तव्ये उत्तमग्रहणं त्रिप्रभृतिनामचां परिग्रहार्थम । तेनेह न भवति । कायत्वम् , कायता । कथं ज्ञायते तमशब्दोऽयमातिशयिकः। अयमेतेषामतिशयेन उद्गततम इति, "सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टम्" [१॥३॥५६] इति निपातनात् । "किमेमिझिमझादामध्ये" [१२।२० ] इति अाम्न भवति । अव्युत्पन्न वा मृद्रूपम् । त्रिप्रभृत्यन्तवाचि धुपोत्तमादिति सिद्ध रुग्रहणंमनेकहल्व्यवधानेऽपि प्रापणार्थम् । आचार्यकम् इति । “सहायाति पक्तव्यम्" [वा०] । साहायकम् । साहाय्यम् । द्वन्द्वमनोक्षादेः ॥३।४।१२॥ द्वन्द्वमनोज्ञादिभ्यश्च वुञ् भवति । तस्य भावकर्मणोरिति वर्तते । कुरुकाशीनां भावः कर्म वा कोरुकाशिका । भारतबाहुबलिका । अपालवसुपालिका । मनोज्ञादिभ्यः । मनोजस्य भावः कर्म वा, मानोशः । प्रियरूप । श्रादो (अभि) रूप । कल्याण । मेधाविन् । श्राद्य (व्य)। सुकुमार। कुलपुत्र । छान्दस । छात्र । श्रोत्रिय । चौर । धूर्त । वैश्वदेव । युवन् । यौवनिका । "प्रकृत्या के राजन्यमनुष्ययुवानः" [वा०] इति प्रकृतिभावः । ग्रामपुत्र | ग्रामखएड | ग्रामकुमार । अमुष्यपुत्र अमुष्यकल । शरपुत्र । गोत्र । वृद्धचरणाच्छलाघाऽत्याकारावेते ॥३६४१२४॥ वृद्धवाचिनश्चरणवाचिनश्च मृदो वुञ् भवति भावकर्मणोरर्थयोः श्लाघादिषु विषयभूतेषु द्योत्येषु वा । श्लाघो विकत्थनं स्मय इत्यर्थः । अत्याकारः परावि(घि) क्षेपः । अवेतः अवगतः। गार्गिकया श्लाघते । गार्गिकया अत्याकुरुते । गार्गिकामवेतः । चरणात् । काठिकया श्लाघते । काठिकया श्रत्याकुरुते । काठिकामवेतः । श्लाघादिष्विति किम् ? काष्ठेन प्रसिद्धः । प्राणिजातिलक्षणोऽन् । होत्राभ्यश्छः ॥३।४।१२५॥ होत्राशब्द ऋत्विजां वाचकः । बहुखनिर्देशः स्वरूपनिरासार्थः । होत्राभ्य विग्विशेषवाचिभ्यः शब्देभ्यश्छो भवति मावकर्मणोरथयो। अच्छावाकस्य भावः कर्म वा, श्राच्छावाकीयम। मैत्रावरुणीयम् । ब्राह्मणाच्छंसीयम् । श्रच्छावाक्त्वम् । अच्छावाकता। अथवा होत्रा कठः। अच्छावाकशब्दसहचरिता ऋक अच्छावाक् । मैत्रावरुणीशब्दसाहचर्याद् मैत्रावरुणी। ब्राह्मणाच्छंसिशब्दसहचरिता क ब्राह्मणाच्छंसी । "होत्रायाः स्वार्थे को (छो) वक्लव्या' [वा०] । होत्रैव होत्रीयः । ब्रह्मणस्त्वः ॥३।४।१२६॥ ब्रह्मशब्दात् होत्रावाचिनस्त्वो भवति भावकर्मणोरर्थयोः । ब्रह्मणे भावः कर्म वा ब्रह्मत्वम् । पुनरारम्भः तलादिनिवृत्यर्थः। यस्तु जातिवाची ब्रह्मशब्दः ब्राह्मणपर्यायः, ततस्त्वतली भवतः। ब्रह्मलम् । ब्रह्माता। धान्यप्ररोहणे खन्न ।।४।१२७॥ भावकर्मग्रहणं निवृत्तम् । तस्येति वर्तते । प्रकर्षेण रोहन्ति धान्यान्यस्मिन् प्ररोहणं क्षेत्रमित्यर्थः । धान्यविशेषवाचिभ्यः प्ररोहणेऽभिधेये खञ् भवति । प्रियङ्गए प्ररोहणं क्षेत्रं प्रैयङ्गवीणम् । मौद्गीनम् । गोधूमीनम् । धान्यानामिति किम् ? तृणानां प्ररोहणं चत्वरम् । प्रग्रहण For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०३ पा०४ सू० १२.३४ किम् ? रोहणमित्युच्यमाने मुद्गानां रोहणः कुशूल इत्यत्रापि प्राप्नोति । प्रग्रहणे पुनः सति प्रकर्षेण रोहत्यसिन् प्ररोहणं केदारादि क्षेत्रमित्युक्तं भवति । ब्रीहिशाले.॥३॥४।१२८॥ नीहिशालिशब्दाभ्यां तासमर्थाभ्यां प्ररोहणेऽर्थे ढञ् भवति । खोऽपवादः । ब्रोहीणां प्ररोहणं क्षेत्रं हेयम् । शालेयम् । यवयवकषष्टिकाधः ॥३।४।१२६॥ यवादिभ्यतासमर्थेभ्यः प्ररोहणेऽर्थे खा भवति यश्च । उमाभङ्गयोरघान्यत्वेऽपि वचनाद्भवति । धान्यानि लोके प्रसिद्धानि मुद्गादीनि । “यवाश्च मे तिलाच' इत्यादी पठितानीत्यपरे । तिलानां प्ररोहणं तैलीनम , तिल्यम् । माषीणम् । माष्यम् । श्रीमीनम्, उम्यम् । भाङ्गीनम, भङ्गयम् । प्राणवीनम, अणव्यम् । सर्वचर्मणः कृतः खश्च ॥३।४।१३०॥ कृतशब्दः कर्मणि । तदपेक्षया तासमर्था प्रकृतिः। सर्वचर्मशब्दात् कृत इत्यस्मिन्नर्थे खो भवति खञ् च । सर्वचर्मणा कृतः सर्वचक्षणः, सार्वचर्मीणः । यद्येवं सर्वशब्दस्य कृत इति त्याथमपेक्षमाणस्य चर्मणा सह सो न प्राप्नोति । अतएव निपातनाद् भवति । यथामख सम्मुखत्य दर्शनः खः ॥३।४।१३१॥ दृश्यतेऽस्मिन्निति दर्शनो दर्पणादिः। यथामखसम्मुखशब्दाभ्यां तासमथोभ्यां दर्शन इत्यस्मिन्नर्थ खो भवति । मुखस्य सदृशोऽर्थो यथामखम् । प्रतएव निपातनात् "असादृश्ये' [ ॥३॥६] इति हसप्रतिषेधो न भवति । समं मुखमस्य प्रतिबिम्बस्य सम्मुखम् । समं वा मुखम्, सम्मुखम् । निपातनात्समशब्दान्तखम्। यथामुखं दर्शनः, यथामुखीनः । सम्मुखस्य दर्शनः सम्मुखीनः । कर्मणि ता। पथ्यकर्मपत्रपात्रमाप्नोति सर्वाः ॥३।४।१३२॥ निर्देशात्समर्थविभक्त्युपादानम्। पथिन् अङ्ग कर्मन् पत्र पात्र इत्येवमन्तात् सर्वशब्दादेर्मूद इप्समर्थादाप्नोतीत्यस्मिन्नर्थे खो भवति । सर्वपथानाप्नोति सर्वपयीनमुदकम् । सान्तस्तग्रहणेन गृह्यते । सर्वाङ्गीणः परः । सर्वकर्मीणः पुरुषः । सर्वपत्रीणः सारथिः । सर्वपात्रीण अोदनः । सर्वादेरिति किम् १ पन्थानमाप्नोति । श्राप्रपदम ॥३॥४॥१३३॥ प्राप्रपदशब्दादाप्नोतीत्यस्मिन्नर्थे सो भवति । प्रवद्ध पट | पदस्योपरि गुल्फः, पदाग्रं वा । श्रा प्रपदादाप्रपदम् । “पर्यपाड्बहिरचयः कया" [ १०] इति इसः । क्रियाविशेषणमिदं वान्तम् । ततो वचनात्यः । श्राप्रपदमाप्नोति प्राप्रपदीनः कम्बलः। सर्वानीनानुपदीनायानयोनागवीनाद्यश्वीनाः ॥३॥४।१३४॥ सर्वान्नोन, अनुपदीन, अयानयीन श्रावोन, अद्यश्वीन इत्येते शब्दा निपात्यन्ते। सर्वानशब्दादिबन्ताद् भक्षयतीत्यस्मिन्नर्थे खो निपास्यते । सर्वान्नानि भक्षयति सर्वान्नीनो मितुः। पदसदृशमनुपदम् , यथार्थे हसः। अनुपद शब्दाद् वान्तादपद्धेश्यस्मिन्नर्थ खः । अनुपदं बद्धा अनुपदीना उपानत् । पदप्रमाणेत्यर्थः। अयः प्रदक्षिणम्, अनयः प्रसव्यम् । प्रदक्षिणसप्रसव्यमागामिना यस्मिन् परैः पदानामसमावेशः सोऽयानयः । अयादप्रवृत्तोऽनया, अयानयः । मयूरध्यसकादित्वात् [ ॥३६६ ] सविधिः । अयानयशब्दादिचन्ताद् नेय इत्यस्मिन्नर्थे खः। भयानयं नेयः शारोऽयानयीनः। स्वस्यां दिशि फलकशिरोगत इत्यर्थः। गोरापृादागोः प्रतिदानारकर्म करोतीत्यस्मिन्नर्थ खः । श्रागवीनः कर्मकरः। यो गवां भूतः कर्म करोति या तस्य गोः प्रत्यर्पणास एवमुच्यते । अयश्वःशब्दादासन्ने विजनने खो निपात्यते। अद्य श्वो वा विजनिष्यते अद्यश्वीना गौः। अद्यश्वीना वडवा । केचिद् विजनन इति विशेषणं नेच्छन्ति । आसन्नमात्रे निपातयन्ति । अद्यश्वीनो वियोगः। अद्यश्वीनं मरणम्। For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir #. ३ फा० ४ सू० १३५-१४१] महावृत्तिसहितम् २३९ परोवरपरम्परपुत्रपौत्रमनुभवति ॥३४॥१३॥ निर्देशादेव समर्थविभक्त्युपादानम् । परोवर परम्पर पुत्रपौत्र इत्येते य इप्समर्थेभ्योऽनुभवतीत्यस्मिन्नर्थे खो भवति । पराँश्च श्रवराँश्च अनुभवति परोवरीणः । त्यसभियोगे परोवरभावो निपात्यते । पराँश्च परतराँश्च अनुभवति परम्परीणः । त्यसन्नियोगे परपस्तरयो: परमरभावः । कथं मन्त्रिपरम्परा मन्त्रं भिनत्तीति प्रयोगः ? शब्दान्तरमप्यस्ति । पुत्रपौत्राननुभवति पुत्रपौत्रीणः। अवारपारात्यन्तानुकामंगामी ॥३।४।१३६॥ अवारपारं अत्यन्त अनुकाम इत्येतेभ्य इप्समर्थेभ्यो गामीत्यस्मिन्नथें खो भवति । गमिष्यतीति गामी । "आवश्यकाऽधमर्णयोणिन्" [२।३।१४६] इति श्राव: श्यकायें गिन । वय॑त्कालभावस्य "म्यादिर्वस्यति २।३१] इति वचनात् । अवारपार गामी श्रवारपारीणः पोतः। विगृहीतादपि भवति । अवारीणः । पारीणः। "विपरीताच्चेति वक्तव्यम्" [वा.] पारावारीणः । अतएव निपातनात्पारस्य वा पूर्वनिपातः। अन्तस्याभावोऽत्यन्तम् । “मि" [ ॥३॥५] इति अर्थाभावे हसः । अथवा अन्तमतिक्रान्तः अत्यन्तः । “तिकुप्रादयः' [ १३१८१] इति षसः । हसपने वान्तादपि वचनात्खः । अत्यन्तं गामी अत्यन्तीनः । कामस्याऽनुरूपमनुकामम् । यथार्थे हसः। अनुगतो वा कामः, अनुकामः । श्रनुकामं गामी अनुकामीनः । समां समां विजायते ॥४।१३७॥ समा संवत्सरः । तदेकदेशे समाशब्द उपचरितः । विजननक्रियायाऽवश्याविच्छेदात् “कालावन्यविस्छेदे' [ ५] इतीप् । वीप्सायां द्वित्वम् । समां समां शब्दाद्विजायते इत्यस्मिन्नर्थे खो भवति । मृदवि (धि) कारेऽपि सुबन्तसमुदायाद् वचनात्यः । समां समां विजायते समांसमीना गौः। समांसमीना वडवा । त्ये कृते "सुपो धुमृदोः" [111१४२] इति सुप उप् । पूर्वपदे सुपोऽनुब्वक्तव्यः। यदा संवत्सरे समाशब्दः प्रवर्तते तदा समायां समायामिति विग्रहेऽपि समांसमीना गौः। त्यविषये पूर्वपदस्य समां भावो निपात्यते, उत्तरपदस्य च पादः खम् । परिशिष्टस्य तु सुपः "सुपो धुमृदोः" [४१४२] इत्युप् । अनुग्वलंगामी ॥३।४।१३८॥ अनुग्विति क्रियाविशेषणम्। अनुगुशब्दात् अलङ्गामी इत्येतसि. नर्थे खो भवति । गवां पश्चात् अनुगु । पश्चादर्थे हसः । अनुगु अलङ्गच्छति अनुगवीनः । यखावध्वनः ॥३।४।१३६॥ इबत्र समर्था संभवति अध्वशब्दादिप्समर्थादलङ्गामीत्यस्मिन यखो त्यौ भवतः। अध्वानमलङ्गच्छति अध्वन्यः, अध्वनीनः यदा यस्तदा "येऽहौ" [५१५६] इति टिखप्रतिषेधः। अन्यत्र "खेऽध्वनः" [ १६०] इति टिखाभावः । छश्चाऽभ्यमित्रात् ॥३।४।१४०॥ अमित्रममि अभ्यमित्रम् । “वीप्सेत्थंभूतलक्षणेऽभिनेप' [ १५] इतीपू "लक्षणेनाभिमुस्येऽभिप्रती" [ १] इति हसः। क्रियाविशेषणमेतत् । अभ्यमित्रशब्दाद् वासमर्थादलङ्गामीत्यस्मिन्नर्थे छो भवति यखौ च । अभ्यमित्रमलङ्गच्छति, अभ्यमित्रीयः, अभ्यमित्या, अभ्यमित्रीणः। गोष्ठीनाश्वीन कौपीनशालीनवातीनसातपदोनहैयङ्गवीनम् ।।३।४।१४१।। गोष्ठीनादयः शब्दा निपात्यन्ते । गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति गोष्ठः। "सुपि" [२७] "स्थः कः'' [२८] इति कः । गोष्टशब्दाद् भूतपूर्वोपाधिकात् स्वार्थे खम निपात्यते । गोष्ठो भूतपूर्वो गोष्ठीनो देशः। चरटोऽपवादः । अश्व 1." स्थ' इत्येव सूत्रम् । अनुवृत्त्यभिप्रायेण "स्थः कः' इति वृत्तौ । For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ३ पा० ४ सू० १४२ - १४७ sare तामर्थादेकाहगम इत्यस्मिञ्चर्थे खल । गम्यते गमः । एकमहः, एकाहः । एकाहेन गमः, एकाह गमः । “साधनं कृष" [१|३|२१] इति सः । श्रश्वस्य एकाइगम श्राश्वीनोऽध्वा । श्राश्वीनानि पञ्चदशयोजनानि । पाचतरणशब्दा दिप्समर्था दई वीत्यस्मिन्नर्थे खञ चुखं च निपात्यतेऽकार्येऽभिधे । कूपावतरणमर्हति कोपनं पापम् । करोतिः क्रियासामान्येन वर्तते । तेनाऽद्रष्टव्यमप्यकार्यम् । कौपीनमिन्द्रियम् । तात्स्थ्याद् वस्त्रमपि ॥ शाळाप्रवेशशब्दा दिप्सम दर्हतीत्यस्मिन्नर्थे खन् निपात्यते चुखं चानुष्टेऽभिधेये । शालाप्रवेशमर्हति शालीनः । श्रप्रगल्भ इत्यर्थः । व्रातकर्मशब्दाद् भासमर्थाज्जीवतीत्यस्मिन्नर्थे खञ, खं च । नानाजातीया अनियतवृत्तय उत्सेधजीविनः संघा व्राताः । उत्सेधः शरीरम्, तदायासेन ये जीवन्ति ते उत्सेधजीविनः । त्रातकर्मणा जीवति प्रातीनः । तेषामेव व्रातानामन्यतमो यस्त्वन्यो वातकर्मणा भारोद्वहन जीवति स त्रातीन इति नेष्यते । सप्तपदशब्दाद् भासमर्थादवाप्यते इत्यस्मिन्नर्थे खम् निपात्यते सख्येऽभिधेये । सप्तभिः पदैरवाप्यते साप्तपदीनं सख्यम् । कथं साप्तपदीनं मित्रमिति सामानाधिकरण्यम् । श्रर्शश्रादिपाठादकारो मत्वर्थयो द्रष्टव्यः । ह्योगोदोहशब्दात्तासमर्थाद्विकार इत्यस्मिन्नर्थे खम निपात्यते प्रकृतेश्च हियभावः । संज्ञायां ह्योगोदोहस्य विकारः हैयङ्गवीनम् । अभिनवष्टतस्य संज्ञेषा । अन्यत्र ह्यो गोदोहस्य विकारः, श्रणि, ह्योगोदो क्रम् | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूतपूर्वे वरट् ||३|४|१४२ ॥ पूर्वं भूतो भूतपूर्वः । “काला:" [१।३।२५ ] इति क्लान्तेन षसः । श्रतएव निपातनादेवं जातीयेषु पूर्वंशब्दस्य परनिपातो द्रष्टव्यः । भूतपूर्वे यन्ड्याम्मृद्रूपं वर्तते तस्मात्स्वार्थे भवति । श्राढ्यो भूतपूर्व श्राढ्यचरः । श्राढ्या भूतपूर्वा श्राव्यचरी । "तसादौ” [४|३|१४७ ] इति पुंवद् - भावः । यद्यपि भूतशब्दः पूर्वशब्दश्च अतीत कालवाचिनौ तथापि विशेषणविशेष्यभाव उपपद्यते । किञ्चित्कालं भूत वेनावस्थाय दर्शनविषयतां नेदानीमस्तोत्ययं विशेषः पूर्वशब्दविशेषणात्प्रतीयते । ताया रूप्यश्च ||३|४|१४३ ॥ भूतपूर्व इति वर्तते । तान्वान्ङयाम्मृदो भूतपूर्वेऽर्थे रूप्यो भवति चर च । देवदत्तस्य भूतपूर्वो गौः, देवदत्तरूप्यः, देवदत्तचरः । इहासामर्थ्यान्न भवति । कम्बलो देवदत्तस्य गौर्भूतः पूर्वो जिनदत्तश्येति । इह ऋद्धस्य देवदत्तस्य भूतपूर्वी गौरिति समुदायस्यातान्तत्वादवयवस्य चामन्न भवति । पाकमूले पीलुकर्णादिभ्यः कुणजा हो ||३|४|१४४ ॥ ताया इति वर्तते । तासमर्थेभ्यः पील्वादिभ्यः कर्णादिभ्यश्च यथासंख्यं पाकमूलयोरर्थयोः कुण जाह इत्येतौ भवतः । पीलूनां पाकः पीलुकुणः । पोलु । कर्कन्धु । शमी । करीर । बदर | कुवत । श्रश्वत्थ । खदिर । कर्णादिभ्यो जाहः । कर्णस्य मूलं कर्णजाहम् । कर्यं । अक्षि | मुख नख । पाद । गुल्फ । भ्रू । दन्त । श्रोष्ठ । केश । शृङ्ग । पुष्प । 1 पक्षाप्तिः ॥ ३४ | १४५|| ताया इति वर्तते । पदशब्दान्तान्मूलेऽर्ये तिर्भवति । द्वयोः पीलुपाकयोरनुवर्तनेऽपि पाकस्याऽसम्भवान्मूलग्रहण मेवाभिसम्बध्यते । पक्षस्य मूलं पक्षतिः । तेन वित्तश्णो ||३२|४|१४६ ॥ | वित्तः प्रतीत इत्यर्थः । तैनेति भासमर्थावित्त इत्येतस्मिन्नर्थे चुञ्चु चणइत्येतौ त्यौ भवतः । न्यायेन वित्तो न्यायचुञ्चुः । न्यायचणः । केशैर्वित्तः केशचुञ्चुः । केशचणः । विनञ्भ्यां नानावो न सह || ३ | ४ | १४७ || न सहेति प्रकृतिविशेषणम् । कर्मादियोगाऽसम्भवाद् वाविभक्त्यत्र समर्था । असहायें वर्तमानाभ्यां विनञ्भ्यां यथासंख्यं नानात्रौ भवतः । स्वार्थे । न सह, विना । न सह, नाना । For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ पा० ४ सू० १४८-१५५ ] महावृत्तिसहितम् २४१ घेः शालशङ्कटो ॥३४॥१४॥ प्रादयः पुनरेवमात्मका यत्र क्रियावाची शब्दः प्रयुज्यते तत्र क्रियाविशेषमाहः। यत्र न प्रयुज्यते तत्र ससाधनां क्रियामाहुरिति । वेः ससाधनक्रियावचनाच्छालशङ्कट इत्येतौ त्यो भवतः स्वार्थे । विसृषे ( विगते ) शृङ्गे विशाले । विशङ्कटे । तद्योगात्ताच्छब्दो (च्छन्दयम् ) विशालो मौः। विशङ्कटो गौरिति । अथवा विशालादयः परमार्थतो गुणशब्दाः, ते यथाकथञ्चिद् व्युत्पाद्यन्ते । तेन विशालः पटः, विशाल यशः इत्येवमादि सिद्धम् । सम्प्रोदश्च कटः ॥३।४।१४६॥ सम् प्र उद् इत्येतेभ्यो वेश्च कट इत्ययं त्यो भवति । अत्रापि ससाव(ध )नक्रियावचनेभ्यस्त्यो वेदितव्यः। सङकृष्टं सङ्कटम् । प्रकटम् । उत्कटम् । विकटम । विकटदन्तयोगाद् विकटो हस्ती "अलाबूतिलोमाभनाभ्यो रजस्युपसंख्यामम्" [4. ] अलाबूनां रवः अलाबूकटम् । तिलकटम् । उमाकेटम् । भङ्गाकटम् ।) __ कुटारश्चावात् ॥३।४।१५०॥ अवात् ससाव(ध)नक्रियावचनात् कुटार इत्ययं त्यो भवति कटश्च स्वार्थे । अवकृष्टः, अवकुटारः । श्रवकटः । “गोष्टादयस्त्याः स्थानादिषु पशूनामिति वक्तव्यम्' [वा०] गवां स्थानं गोगोष्ठम् । महिषीगोष्ठम् | अजागोष्ठम् | "समूहे कट:" [वा०] अवीनां समूहः, अविकटः । पशुकरः । "विस्तारे पट:" [वा.] अवीनां विस्तारः, अविपटः । “द्वित्वे गोयुगः" [वा०] उष्ट्रगोयुगम् । अश्वगोयुगम् । महिषगोयुगम् । "प्रकृत्यर्थस्य षटत्वे षड्गवः" [वा० ] हस्तिनां षट्त्वं हस्तिषड्गवम् । "संस्कृते शुक्ष्यः" [वा० ] पिठरे संस्कृतं पिठरशूल्यम् । “विकारे स्नेहे तैल':' [वा०] इनुदीनां स्नेहः इङगुदीतैलम् । "प्ररोहणे झाकटशाकिनो” [ वा० ] इक्षणां प्ररोहणं क्षेत्रम्, इक्षुशाकटम् । मूलशाकरम् । इत्तुशाकिनम् । मूलशाकिनम् । नते नासिकायाः खौ टीटनाटभ्रटाः ॥३॥४॥१५॥ अवादिति वर्तते । नमनं नतम् । नासिका नतवाचिनोऽवशब्दाधीट नाट भ्रट इत्येते त्याः स्वार्थ भवन्ति खुविषये। नासिकाया इति सम्बन्धसामान्ये ता। तत्र यदा नासिकायाः कर्तृत्वविवक्षा, तदा सामानाधिकरण्येन विग्रहः। अवनता नासिका अवटीटा। अवनाटा । अवघंटा । यदा सम्बन्धित्वविवक्षा तदा वैयधिकरण्येन, नासिकाया अवनतम, श्रवटीटम् । अवनाटम् । अवभ्रटम् । एवमुत्तरत्रापि विग्रहद्वयं ज्ञातव्यम् । तद्योगात्पुरुषेऽपि तथोच्यते । अवटीटः नेबिडबिरीसौ ॥२४१५२॥ नते नासिकायाः खाविति वर्तते । निशब्दान्नासिकानतार्थवचनाद बिड बिरीस इत्येतो त्यौ भवतः। निनता नासिका निबिडा। निबिरीसा। निबिडम् निबिरीसमिति वा । तद्योगात्पुरुषोऽपि निबिडः । निबिरीसः । कथं निबिडं वस्त्रं निरिडाः केशा इति । उपमानात्सिद्धम् । केनौ वि(चिक ॥३।४।१५३॥ नते नासिकायाः खाविति वर्तते निरिति च । नासिकानतार्थवाचिनो नेः क इन इत्येतौ त्यो भवतः वि(चि)क इत्ययञ्चादेशः प्रकृतेः। निनता नासिका विचि)का । वि(चि) किना । तद्योगाद् वि(चि)क्को देवदत्तः । वि(चि)किनः । पिटे चिः ॥३।४।१५४॥ नासिकानतार्थवाचिनो ने पिटे त्ये परतश्चिरित्ययमादेशो भवति । अनेनैव पिटस्य विधानम् । निनता नासिका चिपिय । तद्योगाञ्चिपिटो देवदत्तः । “क्लिनस्य चिपिली लरक्षक्षुषीति वक्तव्यम्" [वा] क्लिन्नं चक्षुः चिल्लम् , पिल्लम् । तद्योगादेवदत्तोऽपि चिल्लः । “चुनादेशश्च वकन्यः" [वा० ] क्लिन्नं चक्षुः चुल्लम् । तद्योगाद्देवदत्तोऽपि चुल्लः । उपत्यकाऽधित्यके ॥२४।१५५।। उपत्यका अधित्यका इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । उपशब्दात्पर्यतासन्ने देशे वर्तमानात्स्वार्थे त्यक इत्ययं त्यो निपात्यते इत्वाभावश्च स्त्रीलिङ्गे खुविषये । पर्वतमुपासन्नो देश ३१ For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ३ पा० ४ सू० १५६-११३ उपत्यका । श्रधीत्येतस्मात्पर्वतमारूढे देशे वर्तमानात्त्यक इत्त्वाभावश्च स्त्रीलिङ्गे खुविषये । पर्वतमध्यारूढो देशो ऽधित्यका । कर्मठः || ३ | ४ | १५६ || कर्मठ इति निपात्यते । कर्मशब्दादीप्समर्थादूघटते इत्यस्मिन्नर्थेऽठो निपात्यते । कर्मणि घटते कर्मठः । तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतः || ३|४|१५७ ॥ तदिति वासमर्थे यः सञ्जातोपादि ( धि )'भ्यस्तारकादिभ्योऽस्येति ताऽर्थे इतो भवति । तारकः संजाता श्रस्य तारकितं नमः । पुष्पिता लता । तारका । पुष्प । कर्णक । ऋजीष । सूत्र । निष्क्रमण । पुरीष । उच्चार। प्रचार । कुड्मल | मुकुल | कुसुम | स्तवक । किसलय | वेग । वेश । निद्रा । बुभुक्षा | पिपासा । श्रद्धा । स्वन ( श्वभ्र ) । श्रन्न । रोग । अङ्गारक । वर्णक । द्रोह । सुख । दुःख | उत्कण्ठा | भर । व्याधि | "गर्भादप्राणि नि" [ग० सू०] गर्भिताः शालयः । श्रप्राणिनीति किम् ? गर्भिणी गौः । प्रमाणे द्वयस दुघ्नरमात्रटः || ३|४|१५८ ॥ तदस्येति वर्तते । तदिति वासमर्थात्प्रमाणेऽर्थे वर्तमानादस्येति ताऽर्थे द्वयसट् दध्नट् मात्रट् इत्येते त्या भवन्ति । प्रमाणस्य प्रमेयापेक्षत्वात्प्रमेयस्त्यार्थः । कः प्रमाणमस्य ऊरुद्वयसम् । ऊरुमात्रम् । यद्यप्यायामः प्रमाणत्वेन प्रसिद्धस्तथाप्यभिधानवशाद् द्वयसड् - दावूर्ध्वमाने, मात्र पुनरविशेषेण । कर्षमात्रं घृतम् । प्रस्थमात्रं धान्यम् । धनुर्मात्री भूमिः । " प्रमाण शब्दा ये प्रसिद्धास्तेभ्यो द्वयसाद्दीन ध्वंसनं चक्तम्" [ वा० ] समः प्रमाणमस्य समः । दिष्टिः प्रमाणमस्य दिष्टिः । वितस्तिः । “राञ्च ध्वंसनं वक्तव्यम्" [वा० ] द्वौ सम प्रमाणमस्य द्विसमम् । त्रिसमम् । द्विदिष्टिः । द्विवितस्तिः । तदन्तविध्यभावात्पूर्वेणाप्राप्तिः । चकारः किमर्थः ? संशये स्थायिनं मात्रटं वक्ष्यति | तत्राऽपि राध्वंसनमेव यथा स्यात् । "ढटू स्तोमे वक्तव्य:" [वा०] पञ्चदशाहानि परिमाणमस्य यज्ञस्य पञ्चदशः स्तोमः । सप्तदशः । पञ्चदशी रात्रिः । छन्दसि पूर्वमेव सिद्धमछन्दोविषयार्थमेतत् । " शन्शतो डिंनिकव्यः''[वा०] पञ्चदशाहोरात्रा: परिमाणमेषां पञ्चदशिनाऽर्द्धमासाः । त्रिंशिनो मासाः (द्वात्रिंशिनो देवेन्द्राः । त्रयस्त्रिंश इत्यपीष्यते । “विंशतेश्चेति वक्तव्यम्” [ वा० ] विंशिनो भवनेन्द्राः । विंशिनो रसः । ' माय 1 परिमाणाभ्यां संख्यायाश्चापि संशये मात्रड् वक्तव्यः" [वा०] समः प्रमाणमस्य स्यात् सममात्रम् । वितस्तिमात्रम् | प्रस्थः परिमाणमस्य स्यात् प्रस्थमात्रम् । कुडवमात्रम् । पञ्च संख्याः प्रथां स्यात् पञ्चमात्राः । पुरुषाः दशमात्राः । उक्तं च "प्रमाणध्वंसनं राच्च ढट्स्तोमे शनूशतोर्णिनिः । प्रमाणपरिमाणाभ्यां संख्यायाश्चापि संशये ।। " “स्वार्थे द्वयलण्मान्नटौ बहुलं वक्तव्यौ " [ वा० ] तावदेव तावद्द्द्वयसम् । तावन्मात्रम् । यावदेव यावद्द्द्वयसम्, यावन्मात्रम् । पुरुषहस्तिनोऽण् च ॥३ | ४ | १५६ ॥ तदस्येति वर्तते प्रमाण इति च । पुरुष - हस्तिशब्दाभ्यामय् च भवति, द्वयसादयश्च भवन्ति । पुरुषः प्रमाणमस्य पौरुषम् । पुरुषद्वयसम् । पुरुषदध्नम् । पुरुषमात्रम् । हस्ती प्रमाणमस्य हास्तिनम् | "प्रायोऽनपत्येऽणोनः " [ ४|४|१५५ ] इति टिखप्रतिषेधः । हस्तिद्वयसम् । हस्तिदघ्नम् । हस्तिमात्रम् । प्रमाणशब्दाच्च प्रसिद्धौ " प्रमाणादध्वसनमिति " च भवति । पुरुषः प्रमाणमस्य पुरुषः । “अणादोर्ना ध्वंसनवचनाच्छ्रवणोच्चाराच्चेति ध्वंसनं द्वयसडादीनामेव द्रष्टव्यम् ।” अण् तदन्तान्न सम्भवति । द्वौ पुरुषौ प्रमाणमस्य द्विपुरुषं जलम् । द्विपुरुषी द्विपुरुषा वा खाता । द्विहस्ति जलम् । द्विहस्तिनी नदी । नान्तखान्ङीविधिः । For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *० ३ पा० ४ सू० १६०-१६७] महावृत्तिसहितम् २४३ यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुः ॥श४।१६०॥ तदस्येति वर्तते । यद् तद् एतद् एतेभ्यः परिमाणोपाधिभ्योऽस्येति ताऽर्थे वतुर्भवति । यत्परिमाणमस्य यावान् । तावान् । एतावान् । "आ सर्वनाम्नः" [१३।११७] इति दकारस्यात्वम् । प्रमाणे ग्रहणेऽनुवर्तमाने परिमाणग्रहणं किम् ? प्रमाणे द्वयसडादीनां बाधा मा भूत् । यद्वयसम् । प्रमाणपरिमाणयो दाद्वत्वं तदपि (पत्वन्तादपि ) द्वयसडादयः सिद्धाः। यावन्मात्रम् । इदमो वो घः ॥३।४।१६१॥ इदमित्येतस्मादुत्तरस्य वतोर्वकारस्य घकार श्रादेशो भवति । इदमेव ज्ञापकम् । इदमो वतुर्भवतीति | इदम्परिमाणमस्य इयान् । घस्य इयादेशः । "किमिदमोः की ।३।११६] इति इदमः ईशादेशः । “यस्य याञ्च" [११३६] इति खः । त्यमात्रमेवावशिष्टम् । तस्य व्यपदेशिवदभावात् मृत्संज्ञा "परस्यादेः [११] इत्येव सिद्धे व इति स्थानिनिर्देशः किमर्थः १ घस्य त्यान्तरत्वं मा भूत् । किमः ॥३।४।१६२॥ किम इत्येतसात्परस्य वतीर्वकारस्य षकार श्रादेशो भवति । अनेनैव वतोविधानम् । किम्परिमाणमस्य कियान् । सख्यापरिमाणे डतिश्च ॥३।४।१६३॥ किम इति वर्तते तदस्येति च । परिमितिः परिमाणमा सङ्ख्यायाः परिमाणं परिच्छित्तिः । सङ्ख्यापरिमाणे वर्तमानात् किमो वासमर्थादस्येति ताऽर्थे डती'त्ययं त्यो भवति वतुश्च । वतोर्वकारस्य च घकारादेशः। का संख्या एषां कतीमे पुरुषाः। द्वित्वैकत्वयोः सम्परिप्रश्नस्याभावात । बह्वन्तमेवोदाहरणम् । अथवा परिमीयतेऽनेनेति परिमाणम् , सङ्ख्यैव परिमाणं सङख्यापरिमाणमिति यसः। अस्मिन्पचे परिमाणग्रहणं सङ्ख्याविशेषणं किमर्थम् । तथाहि का संख्या एषाम. किम्परिमाणमेषामिति एक पवार्थः । एवं तर्हि यत्र सङख्याऽक्षेपविषया तत्र मा भूत् । केयमेषां संख्या पञ्चानामिति । परिमाणग्रहणेऽत्र वर्तमाने पुनः परिमाणग्रहणं विस्पष्टार्थम् । सख्याया अवयवे तयट् ॥३।४।१६४॥ तदस्येति वर्तते । तदिति वासमर्थायाः सङ्ख्यायाः अवयवोपाधिकाया अस्येति तार्थे तयड् भवति । सामर्थ्यादवयविनि तयड वेदितव्यः। पञ्च अवयवा यस्य पश्चतयो यमः । दशतयो धर्मः । सप्ततयी नयष्टतिः। उभाखम् ॥३।४।१६५|| उभशब्दादुत्तरस्य तयटः खं भवति । इदमेव ज्ञापकं भवत्युभशब्दात्तयटि । उभाववयवावस्य उभयो मणिः | उभये देवमनुष्याः। उभयशब्दः सर्वादिषु पठ्यते। द्वित्रिभ्यां वा ॥३।४।१६६।। द्वित्रिभ्यामुत्तरस्य तयटो वा खं भवति । "परस्यादेः" [ 04.1 इति तकारस्य खम् । द्वयम् , द्वितयम् । त्रयम् , त्रितयम् । द्वये, द्वयाः । खेपनेष्याः (त्रये । त्रया:) एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् "प्रथमचरम" [909001] इत्यादिना जसि वा सर्वनामसंज्ञा । तदस्मिन्नधिकमिति शदशान्ताः ॥३४।१६७। तदिति वासमर्थात्शद्दशान्तान्मृदोऽधिकोपाधिविशिष्टादस्मिन्नितीवर्थे डो भवति । इतिकरणस्ततश्चेद विवक्षा। सङ्ख्या इति वर्तते । त्रिंशदधिका अस्मिन शते त्रिंशं शतम । चत्वारिंशं शतम् । ननु शदिति त्यग्रहणे "त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेग्रहणमित्यन्तप्रहणमनर्थकम् । एवं तन्तिग्रहणसामर्थ्यादेकत्रिंशदादीनामपि सङ्ख्याशब्दानां ग्रहणम् । एकत्रिंशदधिका अस्मिन् शते एकत्रिंशं शतम् । द्वात्रिंशम् । त्रयस्त्रिंशम् । दशार्थ वाऽन्तग्रहणम् । एकादश अधिका अस्मिन् शते एकादशं शतम् । एवं द्वादशम् , त्रयोदशम् । इह कस्मान्न भवति । एकादश माषा अधिका अस्मिन् कार्षापणशते इति १ यजातीयत्यार्थस्तजातीय एव प्रकृत्यर्थे सति 1.विरिति पूछ। For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् ० ३ पा० ४ सू० १६८-१६॥ त्य इष्यते । इह तर्हि प्राप्नोति । एकादश कार्षापणा अधिका अस्मिन् कार्षापणशते, गोत्रिंशदधिका अस्मिन् गोशत इति सङ्ख्याया इत्यनुवृत्तेन भवति । इतिकरणः किमर्थः १ शतसहस्रयोरेवाभिधानमिति ज्ञापनार्थः। तेनेह न भवति । एRAT अधिका अस्यां त्रिंशति, एकत्रिशदधिका श्रस्या षष्टाविति । कथम् एकादशं शतसहस्रमिति १ अनाऽपि शतसहस्रयोरन्यतरप्राधान्यमस्ति । उक्तञ्च"भधिके समानजाताविष्टः शतसहस्रयोः । यस्य सख्या तदाधिक्ये डः कर्तव्यो मतो मम ॥" [पा० म० ५।२।४४ ]। विशतेश्च ॥३४१६८॥ सङ्ख्याया इति वर्तते। विंशतिशब्दाद वासमर्थादधिकोपाधिविशिष्टादस्मिन्नितीबथै डो भवति । चशब्दात् विंशत्यन्तादपि भवति । विशतिरधिका अस्मिन् शते विशं शतं सहस्तम । तदन्तात् । एकविंश शतम् । इकर्विशं सहस्रम् । "ते विशतेडिति[१४।१२1 इति खे कृते "एप्यतोऽपदे" [४॥३८४] इति पररूपत्वम् । संख्याया इत्येव । गोविंशतिरधिका अस्मिन् गोशते इति । सङ्ख्याया गुणस्य निमाने मयट् ॥ ३।४।१६९ ॥ “तदस्य सक्षातम्" [३।११५७ ] इत्यतः तदस्येत्यनुवर्तते । गुणो भाग इत्यर्थः । गुणो निमीयते परिवर्त्यते विक्रीयते वा येन तन्निमानं मूल्यमित्यर्थः । तदपि सामर्थ्याद् भाग एव । यतो गुणै रेव गुणो निमीयते । तदिति वासमर्थायाः संख्याया गुणस्य निमाने वर्तमानाया अस्येति ताऽर्थे निमेयेऽभिधेये मयड भवति । गणस्येति कर्मणि ता। यवानां दो भागो निमानमस्योदश्विदग्रहणस्य द्विमयमुदश्वित् यवानाम् । द्विगुणं मूल्यमित्यर्थः । एवं त्रिमयं चतुर्मयम् । यथा अरणादयः शब्दशक्तिस्वामान्यादपत्यापत्यवत्सम्बन्धे विधीयमाना अपि प्राधान्येन सम्बन्धमाचक्षते। अपगवोदरक्षि( प्रौपगवोदाक्षि )रिति । तथा मयडभागो विधीयमानो भागवन्तमाचष्टे तेन द्विमयमुदश्वित् इति सामानाधिकरण्यम् । टित्करणं द्वौ गुडस्य एवं शर्करायाः द्विमयी शर्करा । गुणनिमान इति वक्तव्ये गुणस्येत्येकत्वं विवदितम् । तेनेह न भवति । यवानां त्रयो भागा निमानमुदश्वितः । द्वयोर्भागयोरिति अधिकायाश्च संख्यायास्त्य इष्यते । तेनेह न भवति । एको भागो निमानमस्योदश्विदभागस्येति । इह तर्हि प्राप्नोति द्वौ यवानामध्यर्ध उदश्वित इति । अत्रापि गुणस्येति समर्थनिर्देशादेव न भवति । तदपेक्षया प्रकृतेरपि निरंशसंख्यानं द्रष्टव्यम् । तेनेह न भवति अध्य? यवानाम् एकस्योदश्वित इति । न च सकविधेरन्यत्र अध्यर्धशब्दस्य संख्यात्वमिष्टम् । गुणस्येति किम् ? द्वो ब्रीहियवौ निमानमस्योदश्वितः। अत्र भागस्येति न प्रयुक्तम् । निमान इति किम् ? द्वौ गुणो चारस्य एकस्तैलस्य द्विगणं क्षीरेण तैलपक्कम् । नात्र वासमर्थ गुणं निमाने वर्तते । श्रन्ये अन्यथा सूत्रार्थ वर्णयन्ति । निमीयते इति निमानं निनातव्यम् । बहुलवचनात्कर्मणि युट । गुणस्येति कर्तरि ता । करणस्यापि कर्तृत्वेन विवक्षितत्वात् । "वासमर्थायाः संख्याया गुणस्य निमेये वर्तमानयोः" [वा. ] निमानेऽभिधेये मयड् भवति । उदश्वितो वो भागो निमेयस्य यवभागस्य द्विमया यवा उदश्वितः। त्रिमयाः । चतुर्मया यवाः । अत्र व्याख्याने समर्थमुदश्वित्, यवास्तु त्यार्थः । पूर्वत्र महार्घमुदश्वित् , तदेव च त्यार्थः । मतद्वयमपि प्रमाणाम् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः। समाप्तश्च तृतीयोऽध्यायः। For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः तस्य पुरणे डट ॥४॥११॥ सङ्ख्यामा इति वर्तते । पूर्यतेऽनेनेति पूरणः । तस्येति तासमर्थात्सङ्ख्यावाचिनः पूरण इत्येतस्मिन्नर्थे डड. भवति । एकादशानां पूरण एकादशः। द्वादशः। द्वादशी। द्वितीयमपि सङ्ख्याग्रहणमनुवर्तते । तत्सङ्ख्यानप्रधानं सत् त्यार्थविशेषणम् | सङ्ख्याया डड् भवति सङ्ख्यानपूरण इति न सङ्ख्येयपूरणे डट भवति । एकादशानामुष्ट्रिकाणां ( मुष्टिकानां) पूरणो घट इति । ननु नात्र एकादशभ्यः प्रकृत्यर्थभूतेभ्योऽन्यः पूरण इत्यर्थ उपलभ्यते । अतो वृत्तिनं प्राप्नोति । नैष दोषः । समुदायस्य चावयवानां च कथञ्चिद् भेद इति । यथा वृक्षान्त ताऽपि शाखा वृक्षस्येति व्यवह्रियते । उक्तञ्च"बहूनां वाचिका (पाचिका ) सङ्ख्या पूरणं स्वैक इष्यते । अन्यत्वादुभयोवृत्तिवाक्षी शाखानिदर्शनम् ॥ [पा० म०५२।४८] । नोऽसे मट् ॥४।१।२॥ न इति वर्णनिर्देशः । वर्णग्रहणं सर्वत्र तदन्तविधि प्रयोजयति । नकारान्तात्सङ्ख्यावाचिनो मृदो मड्भवत्यसे तस्य पूरण इत्यस्मिन्विषये । डटोऽपवादः । पञ्चानां पूरणः पञ्चमः । सप्तमः । सप्तमी । अस इति किम् ? एकादशानां पूरण एकादशः। षटकतिकतिपयचतुरां थुक् ॥४।१।३।। मूलसूत्रे विहितो यो डट् तस्येहानुवर्तमानस्यार्थवशादीबन्तात्पट कति कतिपय चतुर इत्येतेषां डटि परतस्थुगागमो भवति । इदमेव डटि थुग्वचनं शापकं भवति । कतिपयशब्दादपि डट् । षण्णां पूरणः षष्ठः । कतिथः । कतिपयथः । चतुर्थः । थुग्वचनसामर्थ्याट्टिखं न भवति । पूर्वान्तकरणं पदकार्यनिवृत्यर्थम् । इह कतिपयानां स्त्रीणां पूरणी कतिपयथी। "तस्य हुत्यदे"वा०] इति विषयनिर्देशात्प्रागेव थुकः पुंवद्भावः । “चतुरश्छयावाद्यक्षरशु (स्य ) खं चेति वक्तव्यम्" चतुर्गा पूरणः, तुरीयः, तुर्यः। ___ यापूगगणसञ्जस्य तिथुक ॥३॥१४॥ डाडति वर्तते । बहु पूग गण · व इत्येतेषां डटि परतस्तिथुगागमो भवति । डडि (टि) ति थुग्वचनं ज्ञापकं भवति पुगसङ्घाभ्यां डट । बहूनां पुरणः बहुतिथः । पगतिथः । सङ्घतिथः । गणतिथः । इह बह्वीनां पूरणी बहुतिथी। "तस्य हस्यो" [घा० ] पुंवद्भावे कृते तिथुग्वेदितव्यः । वतोरिथुक् ॥४१॥५॥ डडिति वर्तते । वत्वन्तस्य डटि परत इथुगागमो भवति । "पतोट" [ २०] इत्यत्र वत्वन्तस्य संख्यासंज्ञा प्रतिपादिता । यावतां पूरणः यावतिथः । तावतिथः । एतावतिथ । इयतिथः । कियतिथः। देस्तीयः॥४।१६।। तस्य पूरण इति वर्तते । द्विशब्दात्तीय इत्ययं त्यो भवति । डोऽपवादः । द्वयोः पूरणः द्वितीयः। स्त च ॥४॥णा तस्य पूरण इति वर्तते । त्रिशब्दात्तीयो भवति तु इत्ययं चादेशः । अयमपि डटोऽपवादः । त्रयाणां पूरणः तृतीयः । शतादिमासार्धमाससंवत्सरात्तमट् ॥१॥ शतादिभ्यो मासाधमास सवत्सर इत्येतेभ्यश्च समड् भवति तस्य पूरण इत्यस्मिन्विषये । डयोऽपवादः । शतस्य पूरणः शततमः । सहसतमः । लक्षतमः । "विंशत्यादेवा" [ 10] इत्येषा विभाषा शतात् पूर्वी सङ्ख्यामवगाहते । मासार्धमाससंवत्सराणामसङ्ख्याशब्दत्वात् डटाऽप्राप्ते तमट् । मासस्य पूरणो मासतमो दिवसः। अर्धमास्तमः। संकसरतमः । संवत्सरतमी तिथिः। For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प्र. ४ पा० । सू० १-२ तेरसङ्ख्यादेः ॥४।१।९॥ तस्य पूरण इति वर्तते । “पवत्यादि' श५८] सूत्रे तिरिति त्यो निपातितः । त्यन्तात्सङ्ख्यावाचिनो मृदोऽसङ्ख्यापूर्वोत्तम भवति । "विंशत्यादेवा' [१०] इति विकल्पे प्राप्त नित्यार्थोऽयमारम्भः । षष्टे: पूरणः षष्टितमः । सप्ततितमः । अशीतितमः । नवतितमः । श्रसङख्यादेरिति प्रतिषेधः किमर्थः १ यावता तिरिति त्यः, त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेहमिति षष्ट्यादीनामेव ग्रहणम् , तदन्तानां ग्रहणं नास्तीत्यस ङ्ख्यादेरिति प्रतिषेधोऽनर्थकः । इदमेव ज्ञापकं भवति । इह सङ्ख्यापूर्वपदानामपि ग्रहणम् । तेन एकषष्टेः पूरणः एकषष्टः एकषष्टितमः इत्येवमादिषु "विंशत्यादेवा" [४।१।१०] इति वा तमड् भवति । पूर्वसूत्रेऽपि शतादेरुच्यमानस्तमट् तदन्तादपि भवति । एकशततमः । एकसहस्रतमः । शतसहस्रतमः । विंशत्यादेर्वा ॥४।११०॥ तस्य पूरण इति वर्तते । विंशत्यादिभ्यो वा तमड भवति । तमटा मुक्ते डट् भवति । विंशतः पूरणः विंशतितमः, विंशः । एकविंशतितमः, एकविंशः। त्रिंशत्तमः, त्रिंशः । सङ्ख्यापूर्वपदादपि भवतीति ज्ञापितम् । अथवा व्याप्तेायात् । विंशत्यादयो लोकप्रसिद्धाः सङ्ख्याशब्दा गृह्यन्ते न "पङ्कस्यादि" [३।४।५८] सूत्रे व्यवस्थिताः। डटो ग्रहणे कः ॥४॥११॥ डडिति प्रत्याहारः । गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणम् । डडन्तान्मृदो ग्रहणोपाधिविशिष्टात्स्वार्थे क इत्ययं त्यो भवति । द्वितीयं ग्रहणं द्वितीयकम् । तृतीयकम् । व्याकरणस्य ग्रन्थ एवाऽभिधानम् । अन्यत्र द्वितीयं ग्रहणं धान्यस्येति वाक्यमेव भवति । "डटो वा उब्वक्तव्यः" वा०] द्विकं द्वितीयकम् । तृकम् । तृतीयकम् व्याकरणस्य । तेन "गृहास्युपचेति वक्तव्यम्" वा०]। डडन्ताद् भासमर्थाद् गृह्णाति इत्यस्मिन्नर्थे को भवति डटश्च नित्यमुप् । द्वितीयेन रूपेण गृह्णाति । कः। तीयस्य च उप् । द्विको देवदत्तः । एवं त्रिकः । "सनियोगशिष्टानामन्यतरापाये उभयोरप्यभावः" इति तीये निवृत्ते प्रकृत्यादेशोऽपि निवर्तते । चतुर्थेन गृह्णाति चतुष्कः । डटि निवृत्ते थुगपि निवर्तते । “इदुदुङोऽत्यप्रमुहुसः" [५।४।२८) इति रेफस्य सत्त्वम् । "हणः षः' (५।४।२७) इति षत्वम् । षष्ठेन गृह्णाति षटकः । ग्रन्थ एवाभिधानम् । इह न भवति । द्वितीयेन गृह्णाति पुस्तकम् । स एषां ग्रामणीः ॥४।१।१२ ग्रामणीर्मुख्य इत्यर्थः। स इति वासमर्थान्मृद् एषामिति चतुर्थे को भवति । यत्तद् वासमर्थ ग्रामणीश्चेत्स भवति । देवदत्तो ग्रामणीरेषां देवदत्तकाः । जिनदत्तकाः । सधेपीष्यते । देवदत्तो ग्रामणीरस्य सङ्घस्य देवदत्तकः । स्वाङ्गेषु प्रसिते ॥४।१।१३॥ अद्रवं मूर्तिमत्स्वाङ्गमित्यादिना परिभाषितमिह स्वाङ्गम् । निर्देशादेव समर्थविभक्त्युपादानम् । स्वाङ्गवाचिभ्य ईप्समर्थेभ्यः प्रसित इत्यस्मिन्नर्थे को भवति । प्रसितः प्रसक्तः । केशेषु प्रसितः केशकः । “प्रसितोत्सुकाभ्यां भा च" [१४१५२] इतीप्। एवं दन्तकः । नखकः । केशादिसंस्कारे केशादिशब्दा वर्तन्ते । बहुत्वनिर्देशः किमर्थः १ स्वाङ्गसमुदायादपि यथा स्यात् । नखकेशकः । मुखदन्तकः । तदस्मिन्नन्न प्राये खौ ॥४१॥१४॥ तदिति वासमर्थादस्मिन्नितीबर्थे को भवति । यत्तद् वासमर्थमन्नं चेप्रायविषयं तद् भवति । त्यान्तं चेत्संज्ञायां वर्तते । नृपुटाः प्रायेणान्नमस्यां नृपुटिका पौर्णमासी। प्राय इति सूत्रे उपाधिलक्षणो वा विषयत्वलक्षणो वा ईग्निर्देशः। विग्रहे तु करणत्वविवक्षायां भा। अन्नविशेषणत्वविवक्षायां वाऽपि भवति । नूपुटाः प्रायोऽन्नमस्यामिति । एवं गुडाप्पाः प्रायेणान्नमस्यां गुडापूपिका । तिलापूपिका । कृतशरिका । "वटकेभ्य इन्वक्तव्यः" [ वा०] वटकिनी। खाविति किम् ? अपूपाः प्रायेयान(म) वन्तिषु । कुल्माषादण ॥४१।१५।। कुल्माषशब्दादण भवति तदस्मिन्नन्नं प्रायेण खावित्यस्मिन्विषये । कस्यापवादः। कुल्माषाः प्रायेणान्नमस्यां कोल्माषी पौर्णमासी । For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [अ० ४ पा० १ सू० १६ - १८ महावृत्तिसहितम् २४७ कालप्रयोजनाद्रोगस्य ||४|१|१६|| तदिति वर्तते खाविति च । तदिति वासमर्थान्मृदः कालप्रयोजनोपाधिकाद् रोगस्येति ताऽर्थे को भवति संज्ञायां गम्यमानायाम् । सततं कालोऽस्य सततकः । द्वितीयं कालोऽस्य द्वितीयको ज्वरः । तृतीयकः । चतुर्थकः । प्रयोजनाद् - विपपुष्पप्रयोजनमस्य विषपुष्पको ज्वरः । काशपुष्पकः । पर्वतकः । काळ निमित्ताद्रोगस्येति च वक्तव्ये प्रयोजनम्र हास्यैतत्प्रयोजनम् । फलेऽपि प्रयोजने यथा स्यात् । उष्ण कार्यमस्य उष्णकः । शीतको ज्वरः । शृङखलकौदरिक सस्यकांशकतन्त्रकब्राह्मण को ष्णिको ध्मक शीत काऽधिकाऽनुकाऽभिकाऽ भीकाऽनुपदि पार्श्वकाय शूलिका दाण्डाजिनिकोत्कश्श्रोत्रियसाक्षीन्द्रियक्षेत्रियाः || ४|१|१७ ॥ शृङ्खलक इत्येवमादयः शब्दा निपात्यन्ते । शृङखलशब्दाद् वासमर्थाद् बन्धनोपाधिकादस्येति ताइë को निपात्यते करभे । शृङ्खलं बन्धनमस्य गोरिति वाक्यमेव भवति । उदरशब्दादीसमर्थात् प्रति इत्यस्मिन्नर्थे ठ निपात्यते श्राथ ने गम्यमाने । श्राधून उदरे अविजिगीषुरुच्यते । उदरे प्रसित श्रौदरिकः । श्राद्यून इत्यर्थः । उक्तं च " मिताशिनं षट् सुगुणा रुजन्ते ( भजन्ते ) धारोग्यमायुश्च वपुर्बलन्च । नाबिन्धास्य भवस्यपत्यं न चनमाद्य नमिति क्षिपन्ति ॥" 1 श्रन्यत्र उदरे प्रसित उदरकः । स्वाङ्गेषु प्रसित इति कः । सस्यशब्दाद् भासमर्थोत्परिजात इस्येतस्मिन्नर्थे कः । सस्येन परिजातः सस्यकः शालिः । सस्यको देशः । सस्यको वत्सः । वैगुण्यरहित इत्यर्थः । सस्यमिव सस्यम्, तेन परिजातः सस्यको मणिः । श्राका (क) शुद्ध इत्यर्थ: । ' "विग्रहे ( अंश) शब्दादप्लमर्थात् हरतीत्यरिमन कः । " अंशं हरति श्रंशको दायादः । " तन्त्रशब्दारकासमर्थादचिरापहृत इत्यस्मिन्नर्थे कः । तन्त्रादचिरापहृतः तन्त्रकः पटः । “ब्राह्मणक उष्णिक इत्येतौ शब्दौ खुविषये कस्यान्तौ निपात्येते ।” ब्राह्मणको देशः । यत्रायुधजीविनो ब्राह्मणास्तस्य देशस्येयं संज्ञा । उष्णाने । उष्णिका श्रपान्ना यवागूरुच्यते । "उष्णशीतशब्दाभ्यां क्रियाविशेषणाभ्यां वासमर्थाभ्यां करोतीत्यस्मिन्नर्थे कः ।" उष्णं करोतीति उष्णुकः । शीघ्रकारीत्यर्थः । शीतं करोति शीतकः । जड इत्यर्थः । "अधिकमित्यन्न अध्यारूढशब्दात्स्वार्थे के खं च निपात्यते ।" "श्लिषशीस्थास" [२|४|५७ ] इत्यादिना यदाऽध्यारूढशब्दः कर्त्तरि व्युत्पाद्यते तदाऽधिको द्रोणः खार्यामित्युदाहरणम् । यदा कर्मणि व्युत्पाद्यते तदा श्रधिका खारी द्रोणेनेत्युदाहरणम् । "अनुक श्रमिक अभी इत्येते शब्दाः कस्यान्ताः कमिता इत्यस्मिन्नर्थे निपात्यन्ते " । श्रनुकामयतेऽनुकः । श्रमिकामयतेऽभिकः । श्रभेर्वा दीत्वं निपात्यते । “अनुपदशब्दादन्वेटर इन्निपात्यते ।” पदस्य पश्चादनुपदम् । (प) श्चादर्थे इसो भावप्रधानः । श्रनुपदमन्वेष्टा अनुपदी गवाम् । “पार्श्वशब्दाद् भासमर्थादन्विच्छ्रतीत्यस्मिन्नर्थे कः ।" अनृजुरुपायः पार्श्व पार्श्वेनान्विच्छति पार्श्वकः । " अयः शूलदण्डाजिन शब्दाभ्यां भासम र्थाभ्यामन्विच्छतीत्यस्मिन्नर्थे ठ ।” तीक्ष्ण उपायोऽयः शूलम् श्रयः शूलेनान्विच्छति श्रयः शूलिकः । दण्डाजिनेनान्विच्छति दाण्ड जिनिकः । दम्भप्रधान इत्यर्थः । "उत्क उन्मनसि को निपात्यते ।” उत्कः प्रवासी । उत्कण्ठित इत्यर्थः । “छन्दः शब्दादिप्स मर्यादधीते इत्येतस्मिन्नर्थे घो निपात्यते प्रकृतेश्व श्रोत्रभावः । " छन्दोऽधीते श्रोत्रियः । मनोज्ञादिपाठा छान्दस इत्यपि भवति । " साक्षात् शब्दाद् द्रष्टरि इन् खुविषये । " साक्षाद्रष्टा साक्षी । दातृप्रतिग्रहीतृभ्यां योऽन्य उपद्रष्टा तस्येयं संज्ञा । " इन्द्रशब्दात्तासमर्थालिङ्ग इत्यस्मिन्नर्थे घः ।" इन्द्रस्य लिङ्गम् इन्द्रियम् । इन्द्र श्रात्मा । अथवा इन्द्रं कर्म । इन्द्रेण जुष्टं सृष्टं दृष्टं दत्तं वा इन्द्रियम् । तान्ताद् वः । “परक्षेत्रशब्दादी समर्थाच्चिकित्स्य इत्यस्मिन्नर्थे ण्यः परशब्दस्य व खम् ।" परक्षेत्रे चिकित्स्यः क्षेत्रियो व्याधिः । परक्षेत्रं जन्मान्तरशरीरमुच्यते । श्रद्धं भुक्त' ठोऽनेन ||४|१|१८|| तदिति वर्तते । श्राद्धशब्दाद् वासमर्थाद् भुक्लोपाधिकादनेनेति For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ जैनेन्द्र-ध्याकरणम् [म०१ पा० । सू० १६-२३ कर्तरि ठो भवति । श्राद्ध कर्मनामधेयम् । श्रद्धा प्रयोजनमस्य श्राद्धम् । "अणप्रकरणे अग्निपदादिप उपसंख्यानम्"[वा०] इत्यण । "प्रज्ञाश्रद्धाऽचा" [४॥1॥१८] श्रादिना मत्वर्थीयो वाण् । श्राद्धं भुक्तमनेन श्राद्धिको देवदत्तः । इन ॥४॥१॥१९॥ श्राद्धं भुक्तमनेनेति वर्तते । इन् भवति श्राद्धशब्दात् । श्राद्धं भुक्तमनेनेति श्रादी. देवदत्तः। योगविभाग उत्तरार्थः। “ठेनोः समानकालग्रहणं वक्तव्यम्"। यस्मिन्नहनि श्राद्धमनेन भुक्तं तस्मिन्नेव श्राद्धिकः भाद्री वा ऽभिधीयते । अद्य भुक्ते श्राद्धे श्वः प्राद्धिकः श्राद्धीति च न भवति । पूर्वात् ॥४१॥२०॥ तदिति वर्तते अनेनेति च । पूर्वशब्दाद वासमर्थात् अनेनेति कर्तरि इन् भवति । कर्ता क्रियामन्तरेण न भवतीति पाकादिक्रिया व्याहर्तव्या। पूर्वशब्दः क्रियाविशेषणमिह गृह्यते । पूर्वमनेन भुक्तं पीतं गतं वा पूर्वी । प्रतीयमानस्य कर्मणोऽनुप्रयोगः । श्रोदनं सुरां ग्रामं वा । सपूर्वात् ॥४।१।२१।। सपूर्वाञ्च मृदः पूर्वशब्दान्ताद् वासमर्थादनेनेत्यस्मिन्नर्थे इन् भवति । पूर्वसूत्रे यत् क्रियापदमव्याहृतं तत्पूर्वात् पूर्वशब्दादिह त्यः। पूर्व कृतमनेन कृतपूर्वी कटम् । भुक्तपूर्वी श्रोदनम् । पीतपूर्वी सुराम् । त्योत्पत्तेः प्राक् मयूरव्यंसकादित्वात् [ ॥३६६ ] सविधिः । “भूतपूर्व चरट् [३।४।१४२] इति ज्ञापकात्पूर्वशब्दस्य परनिपातः। क्लान्तं भावे व्युत्पादनीयम् । अथापि कर्मणि व्युत्पाद्यते । इत्युत्पन्ने क्रियाकर्म सम्बन्धं त्यक्ला कर्ता सह वर्तते । इति कर्मण्यनुक्ते इबेव भवति । कर्मसम्बग्धामावादेव टापो निवृत्तिः । ननु “पूर्वात्'' [ ४१२०] इत्युक्तं तत्र तदन्तविधिना संपूर्वाद् भविष्यति, व्यपदेशिवभावेन केवलाच्च भविष्यति, किमर्थ योगान्तरम ! एवं तहीदमेव योगद्वयं ज्ञापकम् । श्रस्तीदं परिभाषाद्वयम, मृग्रहणे न तदन्तविधिः, व्यपदेशिवभावो न मृदेति । इष्टादेः ॥४।१।२२॥ तदिति अनेनेति च वर्तते । इष्ट इत्येवमादि यो मुद्यो वासमर्थेभ्योऽनेनेत्यस्मिन्नर्थे हन् भवति । इष्टमनेन इष्टी यज्ञे । कस्येविषयस्य कर्मणीव्वक्तव्येति ईप । इष्ट । पूर्त । उपपादित । निगदित। परिविदित । निकथित । निपतित । सङ्कलित | परिकलित । संरक्षित । परिरक्षित। गणित । अवकीर्ण । श्रायुक्त । निगृहीत । अाभत । श्रत । श्रासेवित । अवधारित । अवकम्पित । निराकृत । उपाकृत | अनुयुक्त । अनुगणित । अनुपठित । व्याकुलित । तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः ।।४।१।२३ ॥ तदिति वासमर्थादस्य अस्मिन्नित्येतयोरर्थयोर्मतुभवति । यत्तद् वासमर्थमस्त्युपाधिकं चेत्तद् भवति । इति करण सूत( गस्तत श्चेद्विवक्षा । प्रायो भूमादिषु विवक्षा। "भूमनिन्दाप्रशंसास नित्ययोगेऽतिशायने । संसर्गेऽस्तिविवक्षायां मत्वादिविधिरिष्यते ।" भूम्नि-गावोऽस्य सन्ति गोमान् । निन्दायाम-शङ्खादकोऽस्याऽस्ति शङ्खादकी। ककुदावर्ती । प्रशं. सायाम-रूपमस्यास्ति रूपवान् । नित्ययोगे-क्षीरमेषां सन्ति क्षीरिणो वृक्षाः । अतिशायने-उदरिणी कन्या । संसर्ग-दण्डी । भूमाद्यभावेऽपि विवक्षा । व्याघवान् पर्वतः । स्पर्शवान् वायुः । हस्तिमती शाला। "मस्वच्छ षिकाच्चापि मस्वधः शैषिकस्तया । सरूपस्स्यविधिर्नेष्टः समन्तान्न सनिष्यते ॥" "गुणवचनेभ्यो मत्वर्थीयस्या वक्तव्यः" (वा०] । शुक्लो गुणोऽस्यास्तीति शुक्लः पटः । कृष्णः । "रसादिभ्यो मतुवैक्लन्यः" [वा. ]। रसवान् । रस । रूप । वर्ण । गन्ध । स्पर्श । शब्द । स्नेह । एते गुणशब्दाः । 'एकाचः' खवान् । स्ववान् । अन्यनिवृत्यर्थमिदं वक्तव्यम् । कथं रूपिणी कन्या । रूपिको दारकः । रसिको नटः । इति ? इतिकरणाद् भवति, अगुणार्थत्वाद् वा । अस्यास्मिमिति द्वयोरुपादानं किम् ? नानयो. For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ प १ सू० १४-३० ] महावृत्तिसहितम् नियतः समावेशः । देशान्तरे राज्ञो हस्तिनः । न वैते राशि भवन्ति । कूपे गर्गाः । न च ते तस्य भवन्ति । अस्तिग्रहणं वर्तमानकाल सत्ताप्रतिपत्त्यर्थम् । इह मा भूत् । गावोऽस्याऽसन् । गावोऽस्य भवितारः इति । कथं गोमानासीत्, गोमान् भविता इति ? “घुयोगे त्या : " [२|४|१] इत्यत्रोपपत्तिर्वक्तव्या । २४६ प्राण्यङ्गादातो वा लः || ४ | १ | २४ ॥ प्राण्यङ्गवाचिन श्राकारान्ताद्वा ल इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । चूडालः । चूडावान् । घाटालः । घाटावान् । कथं तर्हि कर्णिकालः । कर्णिकावान् ? प्राणिनि श्रङ्गं प्राण्यङ्गमिति विग्रहाल्लभ्यते । श्रथवा कर्णिका प्राण्यङ्गमप्यस्ति नाभरणविशेष एव । प्राणिग्रहणं (किम् ) १ शिखावान् प्रदीपः । श्रङ्गग्रहणं किम् ? धर्मान्मा भूत् । चिकीर्षावान् । श्रात इति किम् ? इस्तवान् । सिमादेः || ४|१|२५|| सिध्म इत्येवमादिभ्यश्च वा लो भवति मत्वर्थे । वाग्रहणमिह मतोः समुच्चयार्थम् । न विकल्पार्थम् । उत्तरत्र वाग्रहणात् । तेन येऽत्राकारान्तास्तेभ्यष्ठेनौ न भवतः । सिध्मान्यस्य सन्ति सिध्मलम् । सिध्म । वर्म । गडु । तुण्डि । मणि । नाभि । बीज । निष्पाव । सुयात । दत्त | सक्तु । पशुं । पांशु । मांस । पाणिधमन्योर्दीत्वं च । "वा तदन्तवाल ललाटानामूङ च" [ वा० ] "जटा. घटाकालेभ्यः क्षेपे" । वा० ] पर्णं । उदक । प्रश " क्षुद्रजन्तूपतापायां चेष्यते" [ वा० ] यूकालःः । मक्षिकालः । उपतापात् विचर्चिकालः । विपादिकालः । मूर्च्छालः । फेनादिल || ४|१|२६|| फेनशब्दादिलो भवति लश्च मत्वर्थे । वाग्रहणं मतुसमुच्चयार्थमनुवर्तते । फेनिलम् । फेनलम् | फेनवदुदकम् । “पिच्छादेश्चेति वक्तव्यम्" [ वा०] पिच्छिलः । पिच्छलः । पिच्छवान् । पिच्छ । उरस् । ध्रुवक' । ध्रुवक । “जटा घटा काला त्रिभ्यः क्षेपे” [ वा० ] पर्ण । उदक । प्रज्ञा । स्तोमपामादिभ्यां शनौ ||४|१|२७|| लोमादिभ्यः पामादिभ्यश्च यथासंख्यं श न इत्येतौ त्यौ भवतो मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतोः समुच्चयः । लोमान्यस्य सन्ति लोमशः । लोमवान् । लोमन् । रोमन् । । बल्लु (बलगु) । हरि । कपि । मुनि । तरु । पामादिभ्यः । पामन: । पामवान् । पामन् । क्षमन् | हेमन् ! श्लेष्मन् । बलि । सामन् । अङ्गः कल्याणे । श्रङ्गानि कल्याणान्यस्याः सन्ति श्रङ्गना । अङ्गवती अन्यत्र | लक्ष्म्या अच्च । लक्ष्मणः । दद्रुशाकी पळाली प्रश्च । दद्रुणः । शाकिनः । पलालिनः । "विष्यगिति घुखं चाकृतसन्धेः " । विष्वञ्चोऽस्य सन्ति विषुणः । विषुशब्दो निसंज्ञः । प्रशाश्रद्धाsaवृत्तिभ्यो णः || ४|११२८ ॥ प्रज्ञा श्रद्धा श्रर्चा वृत्ति इत्येतेभ्यो णो भवति मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतोः समुच्चयः । प्रशाऽस्यास्तीति प्राज्ञः । प्रज्ञावान् । श्राद्धः । श्रद्धावान् । श्रार्चः । श्रर्चावान् । वार्त्तः । वृत्तिमान् । तपःसहस्राभ्यां विनिनो || ४|१/२६ ॥ तपस् सहस्र इत्येताभ्यां यथासङ्ख्यं विन् इन् इत्येतौ त्यौ भवतो मत्वर्थे । तपस्वी । सहस्रो वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि । तपस्वान् सहस्रवान् । तपसोऽसन्तत्वादेव विनि सिद्धे वक्ष्यमाणेनाणा बाघा माभूदिति पुनर्वचनम् | अण् ॥४|१|३०॥ अण च भवति तपः सहस्राभ्यां मत्वर्थे । तापसः । साहस्रः । " अय्प्रकरणे ज्योत्स्नादिभ्य उपसंख्यानम्" [ वा० ] । ज्योत्स्ना श्रस्मिन्नस्ति ज्योत्स्नः पक्षः । तमिस्रा । तामिस्रः । कुण्डल | कौण्डलः । कुण्डलाई इत्यर्थः । कुतप । कौतुपः । विसर्प । वैसर्पः । विपादिका । वैपादिकः । For Private And Personal Use Only १. धवका । ध्रुवका प्र० । ध्रुवका ध्रुवका पू० । ध्रुवका । ध्रुवका इति काशिकायाम् । २. भरु प्र० पू० । ३२ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [.४ पा० । सू० ११-॥ सिकताशर्कराभ्याम् ॥४॥१॥३१॥ सिकता शर्करा इत्येताभ्यामण भवति मत्वर्थे । सैकतः । शार्करः । प्रदेशार्य प्रारम्भः। उसिलो च देशे ॥४॥१॥३२॥ सिकताशर्कराभ्यामुस् इल् इत्येतो त्यौ भवतः, चकारादण् मतुश्च देशेऽभिधेये । तदस्यास्त्यस्मिन्निति वर्तते । कस्योस् ? मतोः । तेन चत्वारा शब्दाः । सिकता देशः । सिकतिलः । सैकतः । सिकतावान् । शर्करा देशः । शरिलः । शार्करः । शर्करावान् । देश इति किम् ? सैकतो घटः । शार्करो घटः । मधूषशुषिमुष्काद्रः ॥४॥३३॥ मधु ऊष शुषि मुष्क इत्येतेभ्यो रो भवति मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । इइ मधुशब्दो रसवाची गृह्यते न द्रव्यवाची। मधु अस्मिन्नस्ति मधुरो गुडः । रसवाचिनि मधुशब्दे कथं मधुरो रसः ? इति चेत्, उपचारात् । रसवाचिनो मधुशब्दान्मतोरभिधानं नास्ति । अपरं क्षेत्रम् । शुषिरो वंशः । मुष्करः पशुः। रप्रकरणे खमुखकुम्जेम्य उपसंख्यानम्" [वा०](खं महत्कण्ठविवरमस्यास्ति खरः । मुखमस्यास्ति मुखरः । कुञ्जोऽस्यास्ति कुञ्जरः । “विधिनंगपाशुभ्याम्" [वा०] । (नगरः। पांशुः ।। धंद्रभ्यां मः ॥४।१।३४|| युद्र शब्दाभ्यां मो भवति मत्वर्थे । द्यौरस्यास्तीति घुमः | "दिव उत्" [४।३।१०८) इति उत् । धुशब्दो वा प्रकृत्यन्तरम् । द्रूण्यस्य सन्ति द्रुमः । रूढिशब्दावेतौ । यदा रूढि स्ति तदा मतुरेव भवति । युमान् । द्वमान् । केशाद्वो वा ॥४।१॥३५॥ केशशब्दाद् व इत्ययं त्यो भवति वा मत्वर्थे । प्रकृतं वाग्रहणं मतुसमुच्च यार्थम् । इदं तु सर्वविकल्पार्थम् । तेन ठेनावपि भवतः । केशवः। केशवान् । केशिकः। केशी। "मणिप्रभृतिभ्य इति वक्तव्यम्" [वा०] । मणिवः। हिरण्यवः । कुररावम् । इष्टकावम् । गजीवम् । "अर्णसः खं च" [चा०] | अर्णवः । गाण्ड्यजगात्खो ॥४॥१॥३६॥ गाण्डी अजग इत्येतान्यां वो भवति मत्वर्थखुविषये । गाण्डीवं धनुः । अजगवं धनुः । प्रादपि भवति । गाण्डिवं धनुः। मत्वन्तैन संज्ञा न गम्यते इति मतुर्न भवति । खाविति किम् ? गाएडीमान् दण्डः। काण्डाएडादोरः॥४॥१॥३७॥ काण्ड-अण्डशब्दाभ्यामीर इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । ठेनोरपवादः। काण्डीरः। एडीरः । वेति मतुसमुच्चयार्थ वर्तते । काण्डवान् । अण्डवान् । रजाकृष्यासुतिपरिषदो वलः ॥४१॥३८॥ रजः कृषि आसुति परिषद् इत्येतेभ्यो चलो भवति मत्वर्थे । रजसो विनि प्राप्ते इतरेभ्यो मतो वचनम । रजस्वला नारी। कृषीवलः कुटुम्बी। श्रासुतीवलः कल्पपालः । 'बले' [४।२२२१] इति दीत्वम् । परिषद्वलो नृपः। इतिशब्दः प्रयोगनियमार्थमनुवर्तते । परिषदः सामान्येन । इतरेभ्यः संज्ञायां प्रयोगः। तेनेह वलो न भवति । रजोऽस्मिन् ग्रामेऽस्ति, श्रासुतिरसिन् भाण्डेऽस्ति । "वलप्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते इति वक्तव्यम्" [वा०] । पुत्रवलः । भ्रातृवलः । उत्सङ्गवलः । “यले" [॥३॥२२१] इत्यत्र खावित्यनुवर्तनादखौ दीत्वं न भवति । आन्तशिखात्खौ ॥११॥३९॥ दन्त-शिखाशब्दाद वलो भवति मत्वर्थे खुविषये। दन्तक्लो नाम कश्चित् । शिखावलं नाम नगरम् । यत्र तदन्तेन संज्ञा गम्यते तत्र मतुरपि भवति । शिखावान्नाम ऋषिः । ननु देशः खावित्युच्यमाने "शिखाया वल" शि६८] इत्यनेन चातुरर्थिकेन सिद्ध किमर्थमिदं वक्तव्यम् ? अदेशार्थमिदं वक्तव्यम् । तदपि निर्वृत्ताद्यर्थ वक्तव्यम् । For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. पा. १ सू०१०-१४] २५१ ____ ज्योत्स्नातमिनाङ्गिणोर्जस्विन्नूर्जस्वलवत्सलांशलवन्तुरहम्तिन्गोमिनस्वामिन्वर्णिन् मलिनमलीमसाः ॥४॥१॥४०॥ ज्योत्स्नादयः शब्दा निपात्यन्ते मत्वर्थे । "ज्योतिष उडः खं नश्च सुविषये निपात्यते।" ज्योत्स्नेति चन्द्रप्रकाशस्याख्या। अन्यत्र ज्योतिष्मती रात्रिः। तमसः खं च सबरच इवं निपात्यते ।" तमिस्रा रात्रिः। स्त्रीत्वमतन्त्रम् । तेन तमिस्र नभः। मतुरपि भवति । तमस्वती रात्रिः। "शृङ्गादिनो निपास्यते ।" शृङ्गिणः। शृङ्गवान् । “ऊर्जस्विन् ऊर्जस्वल इत्येतो निपात्येते " वी. अस्वलः, ऊर्जस्वान। "वत्सशिशब्दाभ्यां यथासङ्गय कामवति बसवति चलो निपात्यते ।" वत्सलः साधुः । स्नेहवान् इत्यर्थः। अंशलः पुरुषः । बलवानिस्यर्थः। रूढिशब्दावेतौ। रूढिश्च मत्वन्तेन न गम्यते इति रूढेरन्यत्र मतुर्वेदितव्यः । “इन्तशब्दादुचतोपाधिकादुरः।" दन्ता उन्नता अस्य सन्ति दन्तुरः। उन्नतविशेषणादन्यत्र दन्तवान् । “हस्तशब्दाज्जातावभिधेयायामिन"। इस्ती। शयन हस्तवान् पुरुषः । "गोशब्दान्मिन्"। गावोऽस्य सन्ति गोमी। गोमानिवि भवति "स्वशब्दान्मिन् दीत्वं च निपात्यत ऐश्वर्य गम्ये" स्वमस्यास्ति स्वामी । अन्यत्र स्ववान् । वर्णादिन् ब्रह्मचारिणि" । वर्णी । ब्राचारीत्यर्थः । “मलशब्दादिन ईमस इत्येतौ निपात्येते" । मलिनः । मलीमसः ।) ठेनावतः॥४१॥४१॥ अकारान्तान्मृदष्ठ इन् इत्येतो त्यौ भवतो मत्वर्थे । दण्डिकः । दण्डी। छत्रिकः । छत्री । वेत्यनुवृत्तमतोः समुच्चयः । दण्डवान् । अत इति किम् ? खट्वावान् । अत्रेष्टिः । "एकाक्षरात् कृतो जारीबर्थे ' च न सौ स्मृतौ [पा. म. १०२११४५] । एकाक्षरात्-खवान् । स्ववान् । कृदन्तात् । कारकवान् । हारकवान् । जाते: । व्याघ्रवान् । सिंघवान् । ईबर्थे । दण्डा श्रस्या सन्ति दण्डवती शाला। नेदं वक्तव्यम् । अनभिधानादेवान ठेनो न भवतः। यत्राभिधानं तत्रभवत एव । कार्यो । हारीं । तन्दुलिकः । तन्दुली । ईबर्थे । खलिनी भूमिः । सा(शा)लिनी भूमिः। ब्रीह्यादेः ॥४॥४२॥ ब्रोहि इत्येवमादिभ्यष्ठेनौ भवतो मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । बोहयोऽस्य सन्ति ब्रीहिकः, ब्रीही, ब्रीहिमान् । मायिकः, मायी, मायावान् । इतिशब्दः प्रयोगनियमार्थोऽनवर्तते । न ग्रीह्यादिषु ये शिखादयः पठ्यन्ते तेभ्य इन् भवति । यवखडादिभ्यष्ठो भवति । परिशिष्टेभ्य उभयं भवति । सर्वत्र श्रादिशब्दः प्रकारवाची। शिखाऽस्यास्ति शिखी। शिखावान् । शिखा। माला । मेखला। शाखा। वीणा | संज्ञा । वडवा | अष्टका । बलाका । पताका । कर्मन् । धर्मन् । चर्मन् । यव । खड। नौ । कुमारी। एतेभ्य इन्नेष्यते । परिशिष्टे यो द्वावपि भवतः । "शीर्षानमः" [वा.] अशीर्षिकः । अशीर्षी । अशीर्षवान् । शीर्षशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति । तुन्दादेरिलः ॥४१॥४३॥ तुन्द इत्येवमादिभ्य इलो भवति ठेनौ च मत्वर्थे । उत्तरान्नित्यग्रहणादिह ठेनोः समावेशो लभ्यते । मतोस्तु वेत्य नुवृत्ते रेव समुच्चयः । तुन्दमस्यास्ति तुन्दिलः । तुन्दिकः । तुन्दी। तुन्दवान् । तुन्द । उदर । पिचण्ड । चय । प्रोहिग्रहणं सरूपार्थम्, अर्थनिर्देशार्थ च । बोहिलः, बोहिकः, बीहिमान् । शालिलः, शालिकः, शालिमान् । स्वाङ्गविवृद्धौ । कर्णी विवृद्धावस्य कर्णिलः, कर्णिकः, कर्णा, कर्णवान् । पिच्छादयोऽपि पठनीयाः। तेभ्यष्ठेनोरभिधानं नास्ति । पिन्छा । उरस् । ध्रुवका । जटाघाटा काला त्रिभ्यः क्षेपे। पर्ण । उदक । प्रशा। पकगोपूर्वाटठन्नित्यम् ॥४१॥४४॥ एकपूर्वाद् गोपूर्वाञ्च नित्यं ठञ् भवति मखर्थे । एकपूर्वात्समानाधिकरणाबसादेव विधिः । एकहलमस्यास्ति ऐकहलिकः । "हृदथै" [॥३॥४६] इति रसे कृते ठन । ननु लघुस्वात् परवाच बसे कृते वसेनोलखान्मत्वथीयो न प्राप्नोति यथा चित्रगरिति । सत्यम। 1.-ते समभ्यां च इति महाभाष्ये। For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [० ४ पा० १ सू०१५-१३ इह तु वचनाद् भवति । एकस्य हलम्, एकहलम्, इत्यत्रानभिधानान्नेष्यते । एवम् ऐकशतिकः । ऐकसहनिकः। गवां शतं गोशतं तदस्यास्ति गौशतिकः । गौसहस्रिकः। यदि अत इति वर्तते इह न भवति । एकविंशतिरस्यास्ति, गोविंशतिरस्यास्ति । इदं तु न सिद्ध्यति । ऐकगविक इति सान्ते कृते भविष्यति । कथमेका शकटिरस्यास्ति, ऐकशकटिकः । गौशकटिक इति ? श्रव्यविकन्यायेन शकटान्ता इत्यन्ति (न्तादुत्पत्तिः)। नित्यग्रहणं ठेनोर्मतोश्च बाधनार्थम् । कथमेकद्रव्यखादिति ? चिन्त्यमेतत् । निष्काच्छतसहस्रान्तात् ॥१४॥ निष्कात्परौ यो शत-सहस्रशब्दौ तदन्तान्मृदो नित्यं ठत्र भवति मत्वर्थे । निष्काणां शतम् , निष्कशतम् , तदस्यास्ति नैष्कशतिकः । नैष्कसहस्रिकः । सुवर्णनिष्कशतमस्यास्तीत्येवमादिष्वनभिधानान्न भविष्यति । रुप्यहिम्यगुण्याः ॥४१॥४६॥ रूप्य हिम्य गुण्य इत्येते शब्दाः निपात्यन्ते मत्वर्थे । रूपशब्दादाहतविशिधाच्च यत्यो निपात्यते । श्राहतं रूपमस्यास्ति रूप्यः कार्षापणः । प्रशस्तं रूपमस्यास्ति रूप्यो गौः। रूप्या कन्या । अाहतप्रशंसान्यामन्यत्र रूपवान् । हिममस्यास्तीति हिम्यः पर्वतः। गुणा अस्य सन्ति गुण्यस्तपस्वी। नित्यग्रहणं ठआ सह निवृत्तम् । वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । रूपवान् । हिमवान् । गुणवान् । विन्नस्मायामेघास्रजः ॥४।१४७।। असन्तान्मृदो माया मेधा सज् इत्येतेभ्यश्च विन् भवति । मत्वर्थे । वेत्यनुवृत्तेर्मतुरपि भवति । ओजस्वी। तेजस्वी । मायावी। मेधावी। स्रग्वी। तेजस्वान । मेधावान् । स्रग्वान् । मायाशब्दस्य ब्रीह्यादिपाठान्मतुठेनो भवन्ति | वाचो ग्मिन् ॥४॥१॥४८॥ वाक्शब्दाग्मिन् भवति मत्वर्थे । वाग्मी । "स्वादावधे" [१२।१०६] इति पदत्वात् पूर्वस्य कुत्वजस्त्वे । वाग्वान् । "मयः" [५।३।३.] इति मतोवत्वम् । बहुलापिन्यालाटौ ॥४।१।४६॥ वाच पाल श्राट इत्येतो त्यौ भवतो मत्वर्थे बहुलापिन्यभिधेये । वाचालः । वाचाटः। "कुत्सायामयं योगो वक्तव्यः ।" यो हि समीचीनं बहु संलपति वाग्मीति भवति । अर्शप्रादेरः ॥४१॥५०॥ अर्शस् इत्येवमादिभ्यः, श्र इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । श्रादिशब्दः प्रकारवाची। प्रशास्यस्य सन्ति, अर्शसः । अर्शस् । उरस् । तुन्द । मुण्ड | चतुर । पलित । जटा । घाटा । श्राभ्यां सिध्मादित्वात् लमतू श्रपि भवतः। तुन्दादित्वादिलोऽपि भवति । श्रभ्र। अम्ल । लवण | स्वाक्षादुधीनात् । खञ्जः पादोऽस्याऽस्तीति खञ्जः। काणं चतुरस्य काणः । कथं कुणिः पुरुषः कुणिहस्तः । तद्योगात्तथोक्तः । यथा पङ्गुः। वर्णात् । शुक्लं हरितम् । ननु शुक्लादीनां भेदोपचारादेव भविष्यति । एवं तर्हि द्रव्यवाचिभ्यो भविष्यति । शुक्लगुणयुक्ताः प्रासादाः शुक्लाः अस्मिन् सन्ति शुक्लं नगरम् । "ज्योत्स्नातमिस्राभ्यां णिद् भवति पक्षे [वा. ] ज्योत्स्नः पक्षः । तामिस्रः पक्षः । नेदं वक्तव्यम् । "अप्रकरणे ज्योत्स्नादिभ्य उपसंख्यानमितिः' सिद्धम् । एवं च ज्योत्स्नी रात्रिः, तामिस्त्री रात्रिरिति डीविधेरपि लाभः । द्वन्दोपतापगात्प्राणिनीन् ||४|११५॥ उपतापो व्याधिः, गर्दा कुत्स्यम् । अत इति वर्तते । द्वन्द्वशब्दादुपतापवाचिनो गर्दवाचिनश्च मृदः प्राणिनि वर्तमानादिन् भवति मत्वर्थे । शङ्खनू पुरिणी। पटककेयूरिणी । "अप्राण्यङ्गादिति वक्तव्यम्" [वा. ] इह मा भूत् । पाणिपादवती । उपतापात् । कुष्ठी। किलासी। गात् । ककुदावर्ती । काकतालकी । प्राणिनीति किम् ? पुष्पफलवान् वृक्षः। अत हत्येव । कटुकण्ठिकावती । ठमत्वोर्वचनार्थ ( वाधनार्थे ) सूत्रम् । वातातीसाराभ्यां कुक् ॥४॥१॥५२॥ वात अतीसारशब्दाभ्यां मत्वर्थे इन् भवति, तत्सन्नियोगेन कुगागमः । उपतापलात्पूर्वेणेनि सिद्धे कुगर्थ श्रारम्भः । वातकी । अतीसारकी । "पिशाचाच्चेति वक्तव्यम्" | वा.] पिशाचकी। For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ ० १ सू० २३ - ६१ ] महावृत्तिसहितम् ३५३ टो वयसि ||४|१|५३ ॥ इन्निति वर्तते । डडन्तान्मुद इन्नेव भवति वयसि गम्यमाने । पञ्चमोऽ स्यास्ति सर्वत्सरो मासो वा पञ्चमी उष्ट्रः । एवं नवमी । दशमी । सुखाः ||४|१|५४ ॥ सुख इत्येवमादिभ्य इन्नेव भवति मत्वर्थे । सुखमस्यास्ति सुखी । सुख । दुःख । तृप्र । कृच्छ्र । श्रभ्र । श्राव । अलीक । करुण । कृपण । सोढ । सोफ । प्रतीप । शील । इल । फल । माला क्षेपे । माली । अन्यत्र मालावान् माली च । व्रीह्यादिषु शिखादिमालाशब्दाः पठ्यन्ते, क्षेपे मतुबाधनार्थस्तस्येह पाठः । धर्मशीलवर्णान्तात् ||४|१|५|| धर्मान्तात् शीलान्तात् वर्णान्ताच्च मृद इन्नेव भवति मत्वर्थे । तपस्विनां धर्मः तपस्विधर्मः, सोऽस्यास्तीति तपस्विधर्मी । तपस्विशीली । क्षत्रियवर्णी । 1 पुष्करादेर्दे ||४|१|५६ ॥ पुष्कर इत्येवमादिभ्य इन्नेव भवति मत्वर्थे देशेऽभिधेये । पुष्पकरिणी । पद्मिनी । देश इति किम् । पुष्करवान् हस्ती । पुष्कर । पद्म । उत्पल । कुमुद । तमाल । नड । कपित्थ । कर्दम । बिस | मृणाल । साल्वक । विगई । करीष । शिरीष । यवास । हिरण्य । श्रष्टयः - "इन्प्रकरणे बलाद् बाहूरुपूर्वादुपसंख्यानम् ' [ वा०] । बाहुबली । ऊरुबली । “सर्वादेव ेति वक्तव्यम्" [बा०] । सर्ववनी । सर्ववाजी । सर्वकेशी । “अर्थादूवाऽसच्चिहिते वर्तमानादिन् वक्तव्य:" [वा०] । सन्निहितस्यास्तित्वेन विरोध इति चेद्, एवं तहिं तद्विषयाभिलाषस्याविरोधः । अर्थो । अर्थाभिलाषवानित्यर्थः । श्रसन्निहित इति किम् १ अर्थवान् । " तदन्ताद्वेति वक्तव्यम्' [वा०] धान्यार्थी । हिरण्यार्थी । “शृङ्गवृन्दाभ्यामारको वक्तव्य:' [वा०] शृङ्गे श्रस्य स्तः शृङ्गारकः । वृन्दारकः । "फळबहुभ्यामिनः " [वा०] फलिनो वृक्षः । बर्हिणो मयूरः । "हृदयाच्चालुर्वा वक्तव्य:" [T]| हृदयालुः । हृदयिकः । हृदयी । हृदयवान् । शीतोष्ण तृप्तेभ्यस्तन्न सहत इत्यालुर्वकम्यः " [वा०] शीतं न सहते शीतालुः । उष्णालुः । तृप्तालुः । "हिमाच्चै लुः " [वा०] । हिमं न सहते हिमेलुः । "बलादूल : ' ' [ वा०] । बलं न सहते बलूलः । वातात्समूहे तन्न सहते इति च'' [वा०] । वातसमूहो वातूलः । वातं न सहते वातूलः । "तः पर्वमरुद्भ्यां मत्वर्थे" [वा०] । पर्वाण्यस्य सन्ति पर्वतः । मरुतः । बलादेमतुर्वा ||४|१|५७ || बल इत्येवमादिभ्यो मतुर्भवति । वावचनेन पदे इन् प्रकृतः समुच्चीयते । ठोऽत्र न भवति । बलमस्यास्ति बलवान् । बली । इदमेव मतुवचनं ज्ञापकम्, इन्विषये मतुर्न भवतीति । बल ! उत्साह । उद्दास । उद्भास । वुल । दुष । पुल । दल । कुल । श्रायाम । व्यायाम । प्रयाम | उपयाम । श्रारोह । श्रवरोह । परिणाह । शिखादेराकृतिगणत्वात्सिद्धे प्रपञ्चार्थमिदम् । मन्माभ्यां खौ || ४ | १|५८ ॥ मन्नन्तान्मशब्दान्ताच्च मृद इन् भवति मत्वर्थे खुविषये । धर्मिणी । चार्मणी । चर्मवतीति निपातनं वक्ष्यति । तत एव मतुः । मान्तात् । भामिनी । कामिनी । तुडविलेर्भः ||४|१|५९ ॥ तुडि वटि वलि इत्येतेभ्यो भ इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । विवृद्धा नाभिस्तुण्डिः, सोऽस्यास्ति तुण्डिभः । तुन्दादिषु स्वाङ्गविवृद्धाविति इलमतुठेनः प्राप्ताः । वटिभः । मतुः प्राप्तः । वलिभः । श्रस्मात्पामादिषु पाठात् नमतू च भवतः । वलिनः । वलिमान् । कंशम्भ्याम् ||४|१|६०॥ कशंशब्दौ मकारान्तौ जलसुखयोर्वाचकौ । कं शं शब्दाभ्यां भत्यो भवति मत्वर्थे । कम्भः । शम्भः । षयस्तितुताः ||४|१|६१ ॥ शम्भ्यां व यख वि तु ता इत्येते त्या भवन्ति मत्वर्थे । कम्बः, शम्बः, कंयः, शंयः । सकारः "सिवि” [१।२1१०५] इति पदसंज्ञाऽर्थः । पदस्येत्यधिकृत्य यकारस्यानुस्वारपरस्वत्वे सिद्धे For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० । सू०१२-६॥ भसंशायां हि कम्यः शम्यः इत्यनिष्टं प्रसज्येत । कन्तिः, शन्तिः, कन्तुः, शन्तुः, कन्तः, शन्ता, । सर्वत्र पूर्वस्य पदत्वात् "मोऽनुस्वारः" [२७] इत्यनुस्वारः । तस्य "वा पदान्तस्य' [शा१३३] इति परस्वत्वम् । ऊर्णाऽहशुभंभ्यश्च युस् ॥४२६२।। ऊर्णा, अहम्, शुभम् , इत्येतेभ्यः कंशम्न्यां च युस् इत्ययं त्यो भवति मत्वर्थे । सकारः “सिति" [१॥२१०५] इति पदसंज्ञार्थः । ऊर्णायुः । अहमित्यहकारवाचि शब्दान्सरम् | अहंयुः । शुभमिति मकारान्तः शुभपर्यायः । शुभंयुः । क्युः । शंयुः। नासिक्यस्य योरनादेशो वक्ष्यते इत्यस्य न भवति । सूक्तसाम्नोश्छः ॥४।९।६३।। मृदश्छो भवति मत्वर्थे सूक्ते साम्नि चाभिधेये । वेदे वाक्यसमूहः सक्कम, सामेति च संज्ञा । मतुठेनामपवादः। अच्छावाकशब्दोऽस्मिन्नति अच्छावाकीयं सूक्तम् । मैत्रावरुणीयं सूक्तम् । यज्ञशब्दोऽस्मिन्नस्ति यज्ञीयं साम। वारतन्तवीयं साम । अनुकरणशब्दा एतेऽनुकार्यशब्दैरर्थवन्त इति मृत्संज्ञा सिद्धा। तेऽन्यपदसङधातादपि अनुकरणात्यो न भवति । अस्यवामशब्दोऽस्मिन्नस्त्यस्यवामीयम् । कयाशुभशब्दोऽस्मिन्नस्ति कयाशुभीयम् । अध्यायाऽनुवाकयोर्वोप श६४।। अध्यायाऽनुवाकयोरभिधेययोम॒दश्छो भवति मत्वर्थे तस्य च वा उन्भवति । गर्दभाण्डशब्दोऽस्मिन्न स्ति गर्दभाण्डीयः । गर्दभाण्डः। कूर्चमुखः । उच्छिष्टीयः। उच्छिष्टः। दीर्घजीवितीयः । दीर्घजीवितः। पदसमुदायाच्यः। वलितस्कम्भीयः । वलितस्कम्भः। विमुक्तादिभ्योऽण् ॥ ४५॥ विमुक्त इत्येवमादिभ्योऽण् भवति मत्वर्थेऽध्यायानुवाकयोरभिधेययोः। विमुक्तशब्दोऽस्मिन्नस्ति वैमुक्तोऽध्यायोऽनुवाको वा। विमुक्त । देवासुर । रक्षोऽसुर । उपसत् । परिसारक । वसु । मरुत् । सखन्तु( त् )। पत्नीवन्तु( त्)। दशाह । वयस् । हविर्धाता। महित्री । सोमापूषन् । ईडा । श्राम्नाविषु (अग्नाविष्णू)। वृत्र । हर्तृ । घोषदादेवन् ॥४॥६६॥ अध्यायानुवाकयोरिति वर्तते । घोषदादिभ्यो मृद्-यो वुन् भवति मखर्थे । घोषच्छब्दोऽस्मिन्नर्थे (स्मिन्नस्तीत्यर्थे ) वुन् भवति । घोषदकोऽध्यायोऽनुवाको वा। द्योषदिति केषाञ्चित्पाठः। घोषद् । ईषेखा। मातरिश्वन् । देवस्य खा। देवीराया (रापः)। देवीस्या। कृष्णो स्याखरेखा (खरेष्ट)। देवीन्विया ( देवी घियम् )। रक्षोहण । अर्जत । प्रतूर्त । दृशान । अधार । अञ्जन । प्रभूता ( प्रभृत) । कृशानु । वनहिरण्ये कामे ॥४१॥६७॥ वनहिरण्यशब्दाभ्यामीप्समर्थाभ्यां काम इत्येतस्मिन्नर्थे युन् भवति । कामोऽभिलाषः । वने कामः, वनको देवदत्तस्य । हिरण्यको देवदत्तस्य । किंबहुसर्वनाम्नोद्ध्यादेः ॥४१.६८॥ किमः, बहुशब्दात्, सर्वनाम्नश्च यादिवर्णिताद् वक्ष्यमाणात्या भवन्तीत्येषोऽधिकारो वेदितव्यः । "ते विभक्त्यः" [१६१] इति वक्ष्यति । प्रागेतस्मादयमधिकारः। यादिपर्युदासेन प्रतिषेधे प्राप्ते किमः पृथग्रहणम् । वक्ष्यमाणास्तसादयः स्वार्थिकाः । तेषुः समर्थग्रहणं प्रथमग्रहणं च प्रतियोगिनो द्वितीयस्याऽभावान्न सम्भवति । वाग्रहणं खनुवर्तत एव । कुतः । कस्मात् । बहुतः । बहुभ्यः। बहुशब्दश्चेह सख्यावाची गृह्यते, न वैपुल्यवाची । तेनेह (न) भवति बहोः सूपात् । यतः । यस्मात् । ततः । तस्मात् । इदम इशू ॥४।१।६९॥ इदम इश् भवति वक्ष्यमाणेषु तसादिषु परतः। शकारः सर्वादेशार्थः । इतः । इह । इदानीम्। For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. पा. १०.०-८०] महावृत्तिसहितम् एसेतो र्थोः ॥४।१७०॥ इदम एत इत् इत्येतावादेशौ भवतो यथासङ्ख्यं रेफथकारादौ तसादौ परतः । शोऽपवादः । अस्मिन् काले एतहि । अनेन प्रकारेण इत्यम् | "इदमो हि" [ २] "किमिदभ्यो थम्" [1980] इति हिथमौ । एतवः ॥४॥२७॥ एतदश्च एत इत् इत्येतावादेशौ भवतो यथासङ्ख्यं रेफथकारादौ परतः । एतस्मिन्काले, एतर्हि । "वाऽनद्यतने हिं'' [१६] इति हिः। इदमो यो रेफथकारादिः, तस्मिन्परत इतीदं विशेषणम् । एतदोऽपि प्रकारे थं भवति । एतेन प्रकारेण इत्थम् । अश ॥१॥७२॥ एतदोऽशित्ययमादेशो भवति वक्ष्यमाणेषु तसादिषु परतः । शकारः सर्वादेशार्थः । प्रतः। अत्र। कायास्तस ॥१॥११७३॥ किंबहुसर्वनाम्नोऽद्वयादेरिति वर्तते । कान्तात्तस् भवति । कस्मात् कुतः । बहुभ्यो बहुतः । यस्माद् यतः। तसि कृते पूर्वस्य सुपः 'सुपो धुमृदोः" [10१४२] इत्युप् । अद्वथादेरित्येव । द्वाभ्याम् । युष्मत् । अस्मत् । तसे ॥४।१।७४॥ "प्रतियोगे कायास्तसिः'। [१६] "अपादानेऽहीयरुहो" [ १०] इत्येवमादिना विहितस्य तसेरिह ग्रहणम् । एतदर्थमेव च तत्रेकारेत्करणम् । किम्बहुसर्वनाम्नः परस्य तसेस्तसादेशो भवति । कुत श्रागतः। बहुत आगतः। यत श्रागत । विभक्तीसंज्ञार्थ तसेस्तसादेशः। पूर्वेणैव ससा सिद्धमिति चेत्, नैवं शक्यम् , होयरहोः प्रयोगे कुतो हीनः यतो हीन इत्यत्र तसं पूर्व सावकाशं बाधित्वा हीयहोरप्रयोगे (१) अपादाने किंबहुसर्वनामन्यः परत्वात्तसिर्भवति । पर्यभिभ्याम् ॥४॥११७५।। परि अभि इत्येताभ्यां तस् भवति । परितः । अभितः । यथासङ्ख्यं सर्वोभयार्थे वर्तमाना यामिष्यते । इह मा भूत् । परिभवति । अभ्येति । ईपनः॥४।१।७६॥ किम्बहुसर्वनामभ्यो द्वधादिवर्जिते य ईबन्तेभ्यस्त्र इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । बहुषु बहुत्र । यस्मिन् यत्र । किमिदम्भ्यामपवादो वक्ष्यति । इदमो हः ॥४।१।७७॥ इदम ईबन्तात् ह इत्ययं त्यो भवति । त्रस्यापवादः । अस्मिन् , इह । किमोड ४१७८॥ किम ईबन्तात् अ इत्ययं त्यो भवति । त्रस्यापवादः । कस्मिन् कः । "क्षो वयोः (कुक्वौ तयोः )" [१३] इति किमः कशब्दादेशः । कथं कुत्रचित् इति ? चिन्त्यमेतत् । दृश्यन्तेऽन्यतोऽपि ॥४।१७६॥ कामीपं च विहाय अन्यविभक्त्यन्तेभ्योऽपि दृश्यन्ते तसादयः । किंबहसर्वनाम्मोऽद्वथादेरिति वर्तते । क पुनह श्यन्ते १ भवदादिशब्दस्य प्रयोगे । के पुनर्भवदादयः १ भवान् दीर्घायुदेवानां प्रियः। श्रायुष्मानिति । स भवान् । ततो भवान् । तत्र भवान् । तं भवन्तम् । ततो भवन्तम् । तत्र भवन्तम् । तेन भवता । ततो भवता । तत्र भवता । तस्मै भवते । ततो भवते । तत्र भवते । तस्माद भवतः। सो भवतः । तत्र भवतः। तस्य भवतः । ततो भवतः। तत्र भवतः। तस्मिन् भवति । तत्र भवति । ततो भवति । एवमन्यत्राप्युदाहरणानि योज्यानि । भवदादिभ्योऽन्यत्रापि प्रयोगवशात्तसादयो वेदितव्याः। तो गतः । अनेन गतः । इत श्रास्यताम् । इह प्रास्यताम् । दैकान्यक्रियत्तवः काले ॥४.१८०॥ ईप् इति वर्तते । एक अन्य किं यचद् इत्येतेभ्य ईपसमर्थेभ्यः काले वर्तमानेभ्यो दा इत्ययं त्यो भवति । त्रादेरपवादः। एकस्मिन् काले एकदा । अन्यदा। कदा । तदा । यदा। काल इति किम् ! एकस्मिन् देशे एकत्र । For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ४ पा० १ सू० ८१-११ सर्वस्य सोवादि ||४|११ ८१ ॥ सर्वशब्दस्य स इत्ययमादेशो भवति वा दा इत्येतस्मिन्परतः । ईप इति वर्तते । काल इति च । वृद्धकुमारीवरवाक्यन्यायेन इदमेव लक्षणं दाविधानस्य । सर्वस्मिन् काले सदा । सर्वदा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दमोह ||४|१८२॥ इदम ईबन्तात् काले वर्तमानात् हिंत्यो भवति । हस्याऽपवादः । अस्मिन् काले एतर्हि । काल इत्येव । इह देशे । अधुना ||४|१| ८३ ॥ अधुनेति निपात्यते । श्रस्मिन्काले अधुना । इदमः श्रशुभावो धुना त्यः । अथवा अधुना इति त्यो निपात्यते । इदम इशादेश: । "यस्य हयाच" [४|४|१३६ ] इति तस्य खम् । दामीम् ||४|११८४|| इदम ईप्समर्थात्काले दानीमित्ययं त्यो भवति । श्रस्मिन्काले इदानीम् । तदः || ४ | १|८५|| तद ईबन्तात्काले दान भवति । तस्मिन्काले तदानीम् । तदः पूर्वे दाविहितः सोऽपि भवति । तदा । नतने हिं ||४|१|८६ ॥ किंबहु सर्वनामभ्योऽद्वयादिभ्य ईबन्तेभ्योऽनद्यतने काले हित्यो वा भवति । पक्षे यो यतो विहितः स च भवति । कहिं, कदा । यहि, यदा । तर्हि तदा । श्रमुर्हि, श्रमुत्र । पूर्वान्यान्येतरेतरापरावरो भयोत्तरेभ्योऽहन्येद्युस् ||४|११८७॥ पूर्वादिभ्य ईप्समर्थेभ्यो ऽहनि वर्त मानेभ्यद्युस् भवति । पूर्वस्मिन्नहनि पूर्वेद्युः । श्रन्येद्युः । श्रन्यतरेद्युः । इतरेद्युः । श्रपरेद्युः । श्रवरेद्युः । उभयस्मिन्नहनि उभयेद्युः । उत्तरेद्युः । " श्वोभयाद्वक्तव्यः” [वा०] | उभयद्यः । सद्योऽधैषमः परेद्यविपत्परारि ||४|११८८५|| सद्य इत्येवमादयः शब्दा निपात्यन्ते । ईप इति वर्तते काल इति च । समानस्य सभावो द्यश्वाहनि निपात्यते । समानेऽहनि सद्यः प्राणकरं जलपानम् । इदमोऽ मू) भावोऽहनि द्य इत्ययं च त्यः । अस्मिन्नहनि श्रद्य । इदमः समसण संवत्सरे । श्रस्मिन् संवत्सरे ऐषमः । अकार उच्चारणार्थः । इदम इशादेशः । श्रादे रैप् । “त्यादेशयोः " [ ५।४।३६ ] इति षत्वम् | परशब्दादहनि द्यवि । परस्मिन्नहनि परेद्यवि । पूर्वपूर्वतरयो : परभावः उदारी च त्यौ संवत्सरे । पूर्वस्मिन् संवत्सरे पत् । पूर्वतरे संवत्सरे परारि । कथं परुद्दास्यामि, परारि दास्यामि इति । एवं तर्हि परपरतरयोरपि प्रकृत्योः परिग्रहः कर्तव्यः । I प्रकारे था || ४|१|८६ ॥ ईप् इति निवृत्तं काल इति च । किंबहुसर्वनामभ्योऽद्वयादिभ्यो यथा सम्भवं सर्वविभक्तयन्तेभ्यः प्रकारे वर्तमानेभ्यस्था इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । सामान्यस्य भेदको विशेषनिर्देशः प्रकारः । गच्छतीति सामान्यम् । तस्य विशेषनिर्देश: रथेन श्वेन पादाभ्यामित्यादिः । पुरुष इति सामान्यम् । तस्य विशेषनिर्देशः बुद्धिमान् दक्षः शूर इत्यादि । वर्तते इति सामान्यम् । तस्य विशेषा अध्यापनादयः । सर्वेण प्रकारेण सर्वथा । यथा । तथा । श्रद्वयादेरिति किम् ? द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां गच्छति । श्रयं प्रकारमात्रे भवति । जातीयः पुनः प्रकारवति । यज्जातीयः । तजातीयः । किमिदम्याथम् ||४|१|६० ॥ किम् इदम् इत्येताभ्यां प्रकारे वर्तमानाभ्यां थमित्ययं त्यो भवति । था इत्यस्यापवादः । केन प्रकारेण कथम् । श्रनेन प्रकारेण इत्थम् । ते विभक्त्यः || ४ | १|११|| ते तसादयस्त्या विभक्तीसंज्ञा वेदितव्याः । विभक्तीकार्यं कृत्वोदाहरणानि दत्तानि । “तसादिषुभशब्दस्य उभयादेशो वक्तव्यः " [वा०] । उभाभ्यामुभयतः उभयोरुभयत्र । उभाभ्यां प्रकाराभ्यामुभयथा । नेदं वक्तव्यम् । उभशब्दस्य तसादिविषयेऽभिधानं नास्ति । यथा उभयपुत्र इत्येवमादौ । For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० ४ पा० । सू० १२-१८] महावृत्तिसहितम् २५७ दिक्छन्देभ्यो वाकेभ्योऽस्ताहिगदेशयोः ॥४|१६|| दिशां शब्देभ्यः वा का ईप इत्येवमन्तेभ्यो दिग्देशयोर्वतमानेभ्योऽस्तादित्ययं त्यो भवति स्वार्थे । पूर्वा दिग् रमणीया । पूर्वा दिशो रमणीयाः । पुरस्ताद रमणीयम् । "मस्ताति'' [१1१०४) इति पूर्वावराधराणां पुरवध आदेशाः । अस्ताद्यन्ताः शब्दा अलिक सतथा अनुप्रयोगाणां नपुंसकलिङ्गहेतुर्भवति । पूर्वस्या दिश आगत; पूर्वस्माद्देशादागतः, पुरस्तादागतः। पूर्वस्यां दिशि वसति, पूर्वस्मिन्देशे वसति, पुरस्ताद् वसति । एवमवस्ताद्रमणीयम् । अवस्तादागतः। अवस्ताद वसति । दिक्छब्देभ्य इति किम् ? ऐन्द्री दिग रमणीया। ऐन्दीशब्द इन्द्रसम्बन्धिनः स्त्रीलिङ्गस्य वस्तुनो वाचको न तु दिक्छब्दः। वाकेन्भ्य इति किम् ? पूर्वी दिशं गतः। दिग्देश इति किम् ? पूर्वस्मिन् गुरो वसति । अत्र दिगाद्युपलक्षिते गुरौ पूर्वशब्दः प्रयुक्तः । काले ||४|१३| काले वर्तमानेभ्यो दिग्शब्देभ्यो वाकेबन्तेयोऽस्ताद् भवति । विभाकीनां दिगादिभिर्यथासङ्ख्यं मा भूदित्येवमर्थ पृथक् सूत्रकरणम् । पूर्वकाले रमणीयः । पुरस्ताद् रमणीयः । पुरस्तादागतः । पुरस्ताद् वसति । दक्षिणोत्तराभ्यामतस् ॥४।१६।। दक्षिणोत्तरशब्दाभ्यां दिग्देशकालेषु वर्तमानाभ्यां वाकेबन्ताभ्यामतस भवति । अस्तातोऽपवादः। दक्षिणशब्दस्य काले वृत्तिर्न सम्भवति । दक्षिातो रमणीयम् । दक्षिणत श्रागतः। दक्षिातो वसति । उत्तरतो रमणीयम् । उत्तरत आगतः। उत्तरतो वसति । किमर्थमतस्यकारः क्रियते १ स्त्रीलिङ्गेऽपि नास्ति विशेषः। “सर्वनाम्चो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः” इति पुंवद्भावो भविष्यति । एवं तर्हि "osतसर्थे त्येन" [१॥४॥३६] इति विशेषणार्थः । वा परावराभ्याम् ॥४।१।९५।। पर-अवरशब्दाभ्यामतस् वा भवति अस्तादर्थे । परतो रमणीयम् । परस्ताद्रमणीयम् । परत आगतः। परस्तादागतः। परतो वसति । परस्तावसति । अवरतो रमणीयम | अवरस्ताद्रमणीयम् । अवरत आगतः। अवरस्तादागतः । अवरतो वसति । अवरस्तावसति । अवरशब्दो वाक्चनं न प्रयोजयति । “पूर्वापराधराणां पुरवधोऽसि' [10.०३] "अस्ताति" [ १ ] इति च वचनादसस्तावपि भवतः । अञ्चेरुप ॥६६॥ अञ्च्यन्तेभ्यो दिक्छब्देभ्यः परस्यास्तात उन्भवति । प्राची दिग रमणीया । प्राग्रमणीयम् । प्रागागतः । प्राग्वसति । अस्तात उपि "हृदुप्युप्" [ 1] इति स्त्रीत्यस्योप । एवं प्रत्यग्रमणीयम् । प्रत्यगागतः । प्रत्यग्वसति । देशकालयोरप्युदाहरणानि नेयानि । उपय्युपरिष्टात्पश्चात् ।।४।११९७॥ उपरि उपरिष्टात् पश्चात् इत्येते शब्दा निपात्यन्ते अस्तादथें । ऊवंशब्दस्य उपभावो रिरस्तातौ च त्यो निपात्यते । ऊर्ध्वा दिग् रमणीया । उपरि रमणीयम् । उपरिष्टाद्रमणीयम् । उपर्यागतः । उपरिष्टादागतः । उपरि वसति । उपरिष्टाद् वसति । अपरशब्दस्य पश्चभाव आश्च त्यः। अपरो देशो रमणीयः । पश्चाद्रमणीयम् । पश्चादागतः। पश्चाद्वसति । केचित्परशब्दस्येदं निपातनमिच्छन्ति । विकपूर्वपदस्य चापरस्य पश्चभावो वक्तव्यः" [वा०] | आच्च त्यः। दक्षिणा परा दिगरमणीया। दक्षिणपश्चाद्रमणीयम् । उत्तरपश्चाद्रमणीयम् । "प्रर्धात्तरपदस्य च दिक्छब्दस्य पश्चभावो वक्तव्यः"वा.11 दक्षिणापरमर्द्धम् । दक्षिणपश्चार्द्धम् । उत्तगपरमर्द्धम् , उत्तरपश्चार्द्धम् । “मधे चोत्तरपदे केवलस्यास्य पश्च. भावो वक्तव्यः' [वा०] । अपरमर्द्ध पश्चार्धम् । दक्षिणोत्तराऽव(ध)रादात् ॥ ४ ८॥ दक्षिण, उत्तर, अवर (अधर) इत्येतेभ्य श्रादित्ययं त्यो भवति श्रस्तादथें । दक्षिणाद्रमणीयम् | दक्षिणादागतः । दक्षिणाद् वसति । उत्तराद्रमणीयम् । उत्तरादागतः। उत्तराद्वसति । अव(ध)राद्रमणीयम् । अव(ध)रादागतः। अव(ध)राद् वसति । दक्षिणोत्तराभ्यामतसपि वचनाद भवति । अस्तातः पुनरपवादोऽयम् । अवर (अधर शब्दाद् वक्ष्यमाणावसस्तातावपि भवतः । ३३ For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० । सू० ११-१०० वैनोऽदूरेऽकायाः ॥४श६९॥ दक्षिण, उत्तर, अवर (अधर) शब्देभ्यो वा एनो भवति अस्तादर्थेऽ दूरे गम्येऽकायाः। कायाः पर्युदासेन वेपौ गृह्यते । दक्षिणेन रमणीयम् । दक्षिणेनं वसति ग्रामम् । उत्तरेण रमणीयम् । उत्तरेण वसति । अवरेण (अधरेण) रमणीयम् | अवरेण (अधरेण) वसति । वावचनाद्यो यतो विहितः स च भवति । अदूर इति किम् ? हिमवतो दक्षिणाद वसति । अत्रावरे रखविमादरे (अत्रावधिलधिमान् दूरे ) विवक्षितः । अकाया इति किम् ? दक्षिणादागतः । “दिक्छन्दमात्रादयमेनो वक्तव्यः' [वा०] दक्षिणोत्तरावर (घर) ग्रहणं नानुवर्तनीयमिति केचित । श्रच्यन्ता दिक्छब्दादनभिधानान्न भवति । दक्षिणादा ॥४।१।१००॥ अकाया इति वर्तते । दक्षिणशब्दादा इत्ययं त्यो भवति अस्तादर्थे । दक्षिणा रमणीयम् । दक्षिणा वसति । सामान्येन दूरादूरयोरिहोदाहरणम् । उत्तरत्र दूरग्रहणात् । अकाया इत्येव । दक्षिणत श्रागतः। आहि च दूरे ॥४।११०१॥ अकाया इति वर्तते । दक्षिणशब्दादाहित्यो भवति आभ्रा ( चादा) अस्तादर्थे दूरे गम्यमाने । दक्षिणाहि रमणीयम् । दक्षिणाहि वसति । दक्षिणा वसति काञ्चीपुरात् । अकाया इत्येव । दक्षिणत आगतः । उत्तराञ्च ॥४११०२॥ अकाया इति वर्तते दूर इति च । उत्तरशब्दादाहि श्रा इत्येतो त्यौ भवतो अस्तादर्थे । श्रा इत्यनुकर्षणार्थश्चकारः। उत्तराहि रमणीयम् । उत्तरा रमणीयम् । उत्तराहि वसति । उत्तरा वसति । अकाया इत्येव । उत्तरत अागतः । दूर इत्येव । मार्गमुत्तरेण प्रया (पा)। पूर्वावराधराणां पुरवधोऽसि ॥४॥॥१०॥ अकाया इति निवृत्तम् दूर इति च । पूर्व, अवर, अधर, इत्येतेषां यथासङ्ख्यं पुर अव अध इत्येते श्रादेशा भवन्ति अस्तादर्थ असि परतः । अनेनैवासो विधानम् । पुरो रमणीयम् । पुर पागतः। पुरो वसति । अवो रमणीयम् । अव अागतः । श्रवो वसति । अधो रमणीयम् । अघ श्रागतः । अधो वसति । अस्ताति ॥४।१।१०४॥ अस्ताति च परतः पूर्वादीनां पुरादयः श्रादेशा भवन्ति । इदमेव शापकम् । अस्तादपि भवतीति । अन्यथा विशेषविहितेनासा बाधा स्यात् । पुरस्ताद्रमणीयम् । पुरस्तादागतः। पुरस्ताद् वसति । अधस्ताद् रमणीयम् । अधस्तादागतः । अधस्तावसति । वाऽवरस्य ॥४११०५॥ अस्ताति परतोऽवरस्यावादेशः । अवस्ताद्रमणीयम् । अवस्तादागतः । अवस्ताद् वसति । सङख्याया विधाऽर्थे धा॥४॥१११०६॥ यथासम्भवं विभक्तीयोगः। सङख्याशब्देश्यो विधाऽर्थे वर्तमानेभ्यो धा इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । अर्थग्रहणसामर्थ्याद विधाशब्द इह प्रकारवाची गृह्यते । स च प्रकारः द्रव्यगुणक्रियाविषयः । षभिः प्रकारैः षोढा द्रव्यम् । बहुधा गुणाः । पञ्चधा करोति रक्तम् । द्वाभ्यां प्रकारा'यां द्विधा करोति । त्रिधा। चतुर्धा । “अधिकरणविचाले चेति वक्तव्यम्" वा]। अधिकरणं द्रव्यम् । तस्य विचालः सख्यान्तरापादनम् । एकस्य नानात्वापादनम् । अनेकस्य वा एकत्वापादनमित्यर्थः। तस्मिन् गम्यमाने सङ्ख्याया धात्यो वक्तव्यः । एक राशिं पञ्चधा कुरु । सप्तधा । नवधा । अनेकमेकधा कुरु । न वक्तव्यः। द्रव्यगुणक्रियाभेदेन त्रिविधो विधार्थ इत्युक्तम् । तत्र वान्तर्भावात । प्रकारोक्तौ जातीयः" [११२८] इत्यस्यापवादः । वैकाध्यमुब् ॥४।१।१०७॥ एकशब्दाध्यमुञ भवति । पक्षे घा भवति । एकं राशिं कुरु, ऐकध्यं कुरु । ऐकध्यं भुङ्क्ते । एकधा भुङ्क्ते । For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10. पा० । सू० १०-१५] महावृत्तिसहितम् २५९ ॥४।१।१०८ वेति वर्तते । द्वित्रिभ्यां वा धमुज भवति विधार्थे । द्वैध द्विधा । त्रैधं त्रिधा । "अमुमन्तात् स्वार्थे डो वक्तव्यः"वा०] । मतिद्वैधानि। पथिद्वैधानि । एधा ॥४२१०६॥ द्वित्रिभ्यामेधा भवति विधार्थे । द्वेधा । त्रेधा। यथासंख्यनिवृत्यों योगविभागः। याप्ये पाशः ।।४।१।११०।। याप्य इह कुत्सितोभप्रेतः। याप्यन्ते अपनीयन्तेऽस्माद् गुणा इति याप्यः। बहूल वचनादपादाने व्यसंज्ञः । याप्येऽर्थे वर्तमानान्मृदः पाश इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । वैयाकरणो याप्यः, वैयाकरणपाशः । यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दविनिवेशः, तत्कुत्सने भवति । इह मा भूत् । चौ ये (रो) वैयाकरणः । इह याप्या कुमारी, कुमारपाशा। "तसादो" [1३।१४७] इति पुंवदभावः । "वयस्यनन्रये" [ २४] इत्यस्य काविधेः कृतलात्पाशान्ताट्टाप् भवति । उक्तं च "स्वार्थमभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यमाह समवेतम् । समवेतस्य तु वचने लिङ्ग संख्या विभक्तीश्च ।। अभिधाय तान्विशेषानपेक्षमाणस्तु कृत्स्नमात्मानम् । प्रियकुत्सनादिषु पुनः प्रवर्ततेऽसौ विभक्त्यन्तः" ।। [१३७४ पातं. भा०] षष्ठाऽष्टमाद् भागे बः ॥४|१११११॥ षष्ठ-अष्टमशब्दाभ्यां भागे वर्तमानाभ्यां स इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । षष्ठो भागः, बाष्ठः। श्राष्टमः। विकल्पाधिकारादनुत्पत्तिरपि भवति । षष्ठः। श्रष्टमः। भाग इति किम् १ षष्ठः पुरुषः। मानपश्वङ्गयोः कोपौ च ॥४।९।११२॥ भाग इति वर्तते । षष्ठाष्टमशब्दाभ्यां मानपश्वङ्गयोर्भागविशेषयोरभिधेययोः क उप इत्येतो भवतः पूर्वेण विहितस्य अस्य उप द्रष्टव्यः । षष्ठशब्दान्माने भागविशेषे को भवति । अष्टमशब्दात्पश्वङ्गभागविशेषे अस्य उन्भवति । षष्ठको भागो मानं चेत्तद् भवति । अष्टमो भागः पश्वङ्गं चेत्तद् भवति । विहितस्य अस्योविधानसामर्थ्याद वा ओऽपि भवति । पाष्ठः । षष्ठः। श्राष्टमः । श्रष्टमः। एकादाकिश्वासहाये ॥४।१।११३|| एकशब्दादसहायवाचिन श्राकिन्नित्ययं त्यो भवति कोपों च स्वार्थे । कस्योप १ काकिनोः । एकाकी । एककः। एकः । असहाय इति किम् ? यदैकशब्दः सख्यायामन्यार्थे वा वर्तते तदा मा भूत् । अत एव द्विबहू अपि भवतः । एकाकिनो। एकाकिनः। सख्यावाचिते (त्वे) एकवचनमेव स्यात् । अन्यार्थत्वे बहुवचनमेव स्यात् । नमेषासतिशायरे ॥४२११४॥ अतिशायनं प्रकर्षः। "श्रन्यस्यापि" [३२३२ इति दीलम । दं च प्रत्यर्थविशेषणं सर्वेषां स्वाथिकानां द्योत्यम् । अतिशायनविशिष्टेऽर्थे वर्तमानान्मदः स्वायें तम इष्ठ इत्येतो त्यौ भवतः अतिशायने द्योत्ये । वान्तात्योत्पत्तिः । सर्व इमे श्राद्याः, अयमेषामायतमः । सकमारतमः । सर्व इमे पटवः, श्रयमेषां पटुतमः । कथं गोतमः। कारकतमः इति ? श्रत्रापि क्रियागुणद्वारेण प्रकर्षापकर्षयोगोऽस्ति । “शेषौ गुणवचनादेव" [११११८] इति नियमो वक्ष्यते । सर्व इमे पटवः, अयमेषा पटिष्टः । यदा प्रकर्षवतां पुनः प्रकर्षविवक्षा, तदा श्रातिशायिकान्तादपरः श्रातिशायिकः । श्रेष्ठतमः । अदूरविप्रकर्षिणां समानकक्षाणां स्पर्दा । तेनेह न भवति । सर्षपाणां महतामतिशायने महान् हिमवान् इति । For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [म. १ पा० १ सू० १११-१२२ मिङः ॥४॥१॥११॥ यद्यपि मिडन्ते साधनप्रधाने अभिधानरूपेण गुणीभूता क्रिया, तथापि तस्याः साध्यमानत्वात्प्राधान्यम् । तदपेक्षायां साधनप्रकर्षेऽयं विधिर्वेदितव्यः। मिडन्तादतिशायने तम इत्ययं त्यो भवति । ड्याम्मृदधिकारात् पूर्वेण प्राप्तिर्नास्ति । सर्व इमे पचन्ति, अयमेषां पतितमाम् । पठतितमाम् । 'किमेन्मिमिमादामद्रव्ये" [ २०] इत्याम् । इष्टो "गुणवचनादेव" [ 1] इति नियमादिह न सम्भवति । द्विविभज्यतरेयसू ॥४११११६॥ द्वौ च विभज्यं च, द्विविभज्यम् । द्विग्रहणमर्थनिर्देशपरम् । विभक्तव्यं विभज्यं पृथककर्तव्यमित्यर्थः । इदमेव निपातनं यविधेः । द्वयर्थे विभज्ये च प्रयुक्त सति ङ्याम्मूदो मिश्च अतिशायने द्योत्ये तर इयसु इत्येतो त्यो भवतः। तमष्ठयोरपवादः। यथासङख्यमवरितखादिह नेष्यते । उभाविमावाट्यौ, अयमनयोराढ्यतरः । कारकतरः। द्वाविमौ पचतः। अयमनयोः पचतितराम् । ईयसुर्गुणवचनादेव । द्वाविमौ पटू, अयमनयोः पटीयान् । सूत्रे द्विशब्देन यद्यर्थग्रहणं द्वयोरर्थयोरेकतरस्यातिशायने इति तदा सिद्धमिदम् । अस्माकं देवदत्तस्य च देवदत्तोऽभिरूपतर इति व्यर्थवादस्य । इदं तु न सिद्धयति । दन्तौष्ठस्य दन्ताः स्निग्धतराः । पाणिपादस्य पाणी सुकुमारतराविति । अत्रापि जात्यपेक्षयाsद्विखोपपत्तेः। विभज्ये। सांकाश्यका माथुरेभ्य श्रादयतरा: ।। पटीयांसः। अत्र जात्यभावाद्वयर्थता नास्ति । तथापि नासौ शब्दोपाता। अत एव बहन्तमदाहरणम् तादी झः ॥४॥॥११७॥ अतिशायने चत्वारस्त्या विहितास्तेषु तकारादी झसंज्ञौ भवतः । कुमारितरा । कुमारितमा। "झरूपकल्पचेलबवगोत्रमतहते प्रोऽनेकाच;" [४।३।१५५इति पूर्वस्य प्रादेशः । झान्तादतष्टाप् । शेषौ गुणवचनादेव ॥४।१।११८॥ तादी मुक्त्वा इष्ठेयसू शेषौ । शैषो गुणवचनादेव भवतो नान्यः स्मादिति नियमोऽयम् । सर्व इमे पटवः अयमेषां परिष्ठः । द्वाविमो पटू, अयमनयोः पटीयान् । अयमस्मात्पटीयान् । शेषग्रहणं प्रकृततादिनिवृत्त्यर्थम् । गुणवचनादिति किम् ? गोतमः । एवकार इष्टतोऽवधारणार्थः । मैवं विज्ञायि, शेषावेव गुणवचनादिति । एवं द्विपटुतम इति न स्यात् । प्रशस्यस्य श्रः ।।४।१।११९।। शेषग्रहणं प्रकृतम् । तदर्थवशादीपा विपरिणम्यते । प्रशस्यशब्दस्य श्र इत्ययमादेशो भवति शेषयोः परतः । प्रशंसनीयः, प्रशस्यः। "शसिद्धहि गुहिभ्यो वेति वक्तव्यम" [10 वा०] इत्युपसङ्ख्यानाक्यप् । इदमेव ज्ञापकम् । इह शेषो गुणवचनादेवेति नियमो न प्रवर्तते । सर्व इमे प्रशस्याः । अयमेषां श्रेष्ठः। द्वाविमो प्रशस्यौ अयमनयोः श्रेयान् । “नैकाच" [४।४।१५४] इति शेषे टिखं न । तरतमौ भवत एव । प्रशस्यतमः । प्रशस्यतरः । ज्यः ॥४।१।१२०॥ प्रशस्यशब्दस्य ज्य इत्ययमादेशो भवति शेषयोः परतः। सर्व इमे प्रशस्याः, अयमेषां ज्येष्ठः । द्वाविमौ प्रशस्यौ, अयमनयोायान् । अयमस्मात् ज्यायान् । “ज्यादेयसः" [IRIK२] इति परस्यादेराकारः यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थ योगान्तरम् । वृद्धस्य ॥४।१।१२१॥ वृद्धशब्दस्य च ज्य इत्ययमादेशो भवति शेषयोः परतः । सर्व इमे वृद्धाः, अयमेषां ज्येष्ठः । द्वाविमो वृद्धो अयमनयोायान् । अयमस्मात् ज्यायान् । श्रादेशार्थ वचनम् । तरतमो सिद्धावेव । वृद्धतरः । वृद्धतमः । “बहुलगुरूरवृद्धादि" [ १४६] सूत्रेण वृद्धशब्दस्य वर्षादेशोऽपि भवति । वर्षिष्ठः । वर्षीयान् । वाढान्तिकयोः साधनेदौ ॥४।१।१२२॥ वाढान्तिकशब्दयोः यथासङ्ख्यं साध नेद इत्येतावादेशी भवतः शेषयोः परतः । निमित्ततो यथासङ्ख्यं नेष्यते, भिन्नयोगनिर्दिष्टत्वात् । सर्व इमे वाढं जल्पन्ति, अयमेषां For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org म.पा., सू० १२३-१२७] महावृत्तिसहितम् २६१ साधिष्ट जल्पति । अयमनयोः साधीयो जल्पति । यदि वाढशब्दो द्रव्यवचनः साधीयानिति । सर्वाणीमानि अन्तिकानि, इदमेषां नेदिष्ठम् । इदमेनयोर्नेदीयः । इदमस्मान्नेदीयः । तस्तमौ भवत एव । वाढतरम् । वाढतमम् । युवाऽल्पयोः कन्वा ॥४॥१११२३॥ युव अल्प इत्येतयोः कन्नित्ययमादेशो भवति वा शेषयोः परतः । शेषयोर्विधानं पूर्ववद्व्याख्येयम् । सर्व इमे युवानः, अयमेषां कनिष्ठः । कनीयान् । यदा युवशब्दस्य कन्नादेशो न भवति तदा "स्थूल दूरेत्यादिना'' [४।४।१४०] यणः खमिक एप । यविष्ठः । यवीयान् । सर्व इमेऽल्पा श्रयमेषां कनिष्ठः । कनीयान् । अल्पिष्ठः । अल्पीयान् । तरतमौ भवत एव । विन्मतोरुप ॥४।१।१२४|| विन् मतु इत्येतयोरुन्भवति शेषयोः परतः। इदमेव ज्ञापकम् । शेषयोविधानस्य यथासङ्ख्यमत्र नेष्यते । सर्व इमे स्रग्विणः, अयमेषां स्रजिष्ठः । सजीयान् । सव इमे त्वग्वन्तः, अयमेषां त्वचिष्ठः, स्वचीयान् । प्रशंसायां रूपः ॥४।१।१२५॥ ड्याम्मृद इति वर्तते मिङ इति च । प्रशंसायां वर्तमानान्ड्याम्मृदो मिडश्च रूप इत्ययं त्यो भवति प्रशंसायां धोत्यायाम् । स्वार्थिकानां प्रकृत्यर्थविशेषणं द्योत्यं भवति | वाच्यं पुनस्तत्प्रकृतेरेव । वैयाकरणः प्रशस्तः, वैयाकरणरूपः । पटुरूपः। प्रशस्ता कुमारी कुमारिरूपा । "तसादौ" [४/३१३७ इति पुंवद्भावे प्राप्ते "झरूपेत्यादिना" [३।१५५) प्रादेशः। वयोलक्षण्डीविधेः कृतत्वाद्रुपान्ताट्टाप् । कथं निन्दायां प्रयोगः १ वृषलरूपोऽयं यो मांसेन सुरां पिबेत् । चौररूपोऽयं योऽक्षिस्थमजनमपि हरेत् । अत्रापि प्रकृत्यर्थस्य वैस्पष्टयम् । प्रशंसायां मिङः खल्वपि । पचति रूपम् । पचतो रूपम् । पचन्ति रूपम् । लोकाश्रयमिह नपुंसकलिङ्गम् । क्रियाप्रधानमाख्यातम् । एका च क्रियेति रूपान्तादेकवचनमेव भवति । प्रसिद्धो देश्यदेशीयकल्पाः ॥४।१।१२६॥ सिद्धिः परिपूर्णता, न सिद्धि रसिद्धिः । ईषदसिद्धिरासिद्धिः। तद्विशिष्टेऽर्थे वर्तमानान्ड्याम्मृदो मिङन्ताच्च देश्य देशीय कल्प इत्येते त्या भवन्ति स्वार्थे । ईषदसिद्ध ः पतुः, पटुदेश्यः। पटुदेशीयः। पटुकल्पः । स्त्रियां पट्विदेश्या तसादिष्वपरिगणनात् पुंवद्भावो नास्ति । पटुदेशीया। "पुवद्यजातीय" ३१५५] इति पंवदभावः । पटविकल्पा कल्पस्य तस्यातसादित्वात "तसादौ" [१॥३॥१४७] इति पुंवद्भावे प्राप्ते "झरूप" [१।३।१५५] इत्यादिनेकारान्तस्य प्रः। "जात् स्त्रियाम्" श२२] इत्यत्र वक्ष्यते । अतिवर्तते च स्वार्थिकाः प्रकृति लिङ्गसङ्ख्ये इति । तेन गुडकल्पा द्राक्षा । तैलकल्पा प्रसन्ना । पयस्कल्पा यवागूः । मिङः। ईषदसिद्धं पचति, पचतिदेशीयम् । पचतिकल्पम् । पचतःकल्पम् । पचन्तिकल्पम् । राक्त ॥४२१२७॥ श्रासिद्धाविति वर्तते। ईषदसिद्धिविशिष्टेऽथे वर्तमानान्मदः सुबन्ताद् बहुत्यो वा भवति । स तु प्राग्भवति । विभाषया त्योत्पत्तिर्यथा स्यात् प्राग्भावस्तु नित्यः । इत्यस्य व्यतिरेकस्य दर्शनार्थस्तुशब्दः। ईषदसिद्धं कृतं बहुकृतम् । त्ये कृते मृत्संज्ञायां पुनः सुप् । "कृद्धत्साः" [11] इत्ययं नियमस्तुल्यजातीयस्य सुबन्तसमुदायस्यान्यत्यान्तस्य च मृत्संज्ञां निवर्तयति । तेन बहकृतशब्दात्सुबुत्पत्तिः । एवं बहुपटुः। बहुगुडः। यदा द्राक्षाविशेषणं भवति तदा टाप् । बहुगुडा द्राक्षा'। वाग्रहणं देश्यादिसमावेशार्थम् । अन्यथा मिङन्ते सावकाशान् देश्यादीनयं बाधेत | सुप इति किमर्थ यावता "प्रियकुत्सनादिषु पुनः प्रवर्ततेऽसौ विभक्त्यन्त" इत्युक्त पुनः सुग्रहणं मिनिवृत्त्यर्थम् । परत्वाद्देश्यादिष कृतेषु तमादयः। पटुदेश्यतमः । बहुपटुतमः। ईषदसिद्धेः प्रकर्षों नास्तीति प्रकृत्यर्थप्रकर्षे तमादयः। For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् (भ० ४ पा० । सू० १२८-२५ प्रकारोक्को जातीयः॥४।११२८।। प्रकारोक्तो सुबन्ताजातीय इत्ययं त्यो भवति स्वार्थे । पटुप्रकारः पटुजातीयः । पण्डितजातीयः । यज्जातीयः । तजातीयः । प्रकारवति चायं वेदितव्यः । प्रकारमात्रे थाथमौ । तेन तदन्तादपि । यथाजातीयः । कथंजातीयः । एवमर्थ वेहोक्तिग्रहणम् । एवात्कः ॥४।११२९|| "इवे प्रतिकृतौ कः" [१।१।१५०] इति वक्ष्यति । श्रा एतस्मादिव संशब्दनात् यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिध्यामः, तत्र क इत्ययमधिकृतो वेदितव्यः। श्राडिह मर्यादावचनः। वक्ष्यति "कुत्साऽज्ञातयोः'' [ ||१३६ ] । कुत्सितोऽश्वोऽश्वः । गर्दभकः । इह सुप इत्यनुवर्तनान्मिङन्ताको नेष्यते । झिसर्वनाम्नोऽप्राक्टेः को दः ॥४॥१११३०॥ मिङ इति च वर्तते । झेः सर्वनाम्नश्च अगित्ययं त्यः टेः प्राग्भवति ककारस्य च दकारः एवादर्थेषु । कस्यापवादः। मृदः सुप इति च वर्तते । तत्राभिधानवशाद् व्यवस्था । भिसंशाके नास्ति विशेषः । उचकैः । नीचकैः। यदि ककारोऽस्ति तस्य दकारः। हिरुक, हिरकुत् । पृथक पृथकत् । सर्वनाम्नो मृदवस्थायामक् । सर्वके । विश्वके। उभको। उभयके । युष्मकाभिः । श्रमकाभिः । युष्मकासु । अस्मकासु। युवकयोः। आवकयोः। इह सुबन्तादेव। त्वयका । स्वयकि । मयकि । सुप इत्यादिसम्बन्धादेव "सुपो धुमृदोः" [१1१।१४२] इत्युम्नेष्यते । मिङः खल्वपि । पचकति । पठतकि । "तन्मध्यपतितास्तग्रहणेन गृह्यन्ते' इति मिङन्तमेवैतत् । "अप्रकरणे तूष्णीमः काम् वक्तव्यः' वा०] मकारः "परोऽचो मिद्" [11३५५] विशेषणार्थः । तूष्णीकामास्ते । “शीले को मखं च" [वा०] तूष्णी शीलस्तूष्णीकः । कुत्साऽज्ञातयोः ॥४।१।१३१।। कुत्साऽज्ञातत्वोपाधिकेऽर्थे वर्तमानान्मृदः स्वार्थे यथाविहितं त्यो भवति । कुत्सितोऽश्वः कस्यायमश्व इति वाऽश्वकः । उष्ट्रकः । उच्चकैः । सर्वके । पचतकि । इह कुत्सितक इत्यज्ञातार्थे । अज्ञातक इति कुत्सितेऽर्थे कः । अतः कविधेस्तमादयो भवन्ति । पूर्वनिर्णयेन, पश्चात्कादिविधिः । पटुतरकः । मृदुतरकः । पचतितरकाम् । छिन्नकादिषु के कृते तमादयः । छिन्नकतरः । भिन्नकतरः । अनुकम्पायाम् ॥४।१।१३२॥ सौहृदेन कारुण्येन वा परस्यानुग्रहोऽनुकम्पा तत्र वर्तमानान्मृदः सुबन्तान्मिङश्च यथाविहितं त्यो भवति । अनुकम्पितो माणवो माणवकः । बुभुक्षितक । नोचकैः । याचतके । नीतौ च तद्युक्तात् ।।४।१।१३३॥ अनुकम्पाविषयायां नीतो गम्यमानायां तयुक्तादनुकम्पायुक्तायथाविहितं त्यो भवति । चकारोऽनुकम्पाऽनुकर्षणार्थः । तेन सामोपप्रदानलक्षणा नीतिरिह गृह्यते, न भेदः दण्डलक्षणा । पूर्वसूत्रेणानुकम्प्यमानवाचिनस्त्यो विहितोऽनेन पुनस्तयुक्ताद्विधीयते । पुत्रक उत्संगक। उपविश कर्दमकेनासि दिग्धकः । हन्त ते तिलकाः । हन्त ते गुडकाः। एहकि । अद्धकि । उपविश, असि, ते, हन्त इत्येवमादिषु अनभिधानान्न भवति । बचो नृखोर्वा ठः ॥४।१।१३४|| अनुकम्पायां नोतौ च तद्युक्लादिति सर्वमनुवर्तते । बहुचो मृदो नृनामधेयाद् वा ठ इत्ययं त्यो भवति । अनुकम्पायां "नोतौ च तद्युक्तात्" [११३३] इति नित्ये के प्राप्ते वा ठः । अनुकम्पितो देवदत्तो देविकः । देवदत्तकः। जिनिक । जिनदत्तकः । "ठाऽचि द्वितीयारपरोऽचः" [११११३६] इति दत्तशब्दस्य खं ठस्येकादेशश्च । बह्वच इति किम् ? रामकः । दत्तकः । ऋग्रहणं किम् ? देवदत्तको हस्ती। खुग्रहणं किम् । माणवकः । घेलो ॥४।१३१३५॥ अनुकम्पायां नीतौ च तद्युक्तादिति वर्तते । बढ़चो नृखोर्घ इल इत्येतो त्यौ भवतः । अनुकम्मितो देवदत्ता देवियः, देवितः । पूर्वेण वा ठाऽपि भवति देविकः, देवदत्तकः । For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० १ सू० १३६ - १४० ] महावृत्तिसहितम् २६३ अडबू वोपादेः ||४|१|१३६॥ श्रनुकम्पायां नीतौ च तद्युक्तादिति वर्तते । उपशब्दादेर्मृदो बहुचो खोः श्रड व इत्येतौ त्यौ भवतो घेलो च वा । अनुकम्पितो उपेन्द्रदत्तः उपडः, उपकः, उपियः, उपिलः, उपकः, उपेन्द्र दत्तकः । यादिर्बुशब्दो यकारस्य खं कृत्वा निर्दिष्टः । तेन वोरकादेशः सिद्धः । जातिनाम्नः कः || ४|१|१३७ || जातेर्नाम जातिनाम जातिशब्द इत्यर्थः । बहवृचोऽबद्द् वृचश्च सायान्येनायं विधिः । जातिशब्दान्नृखो: अनुकम्पायां नीतौ च गम्यमानायां क इत्ययं त्यो भवति । अनुकम्पितो महिषो महिषकः । वराहकः । शरभकः । व्याघ्रकः । सिंहकः । इह केचिद्वाग्रहणमनुवर्त्य व्याप्रिलः, सिंहिलः इत्युदाहरन्ति तत्तु नातिश्लिष्टम् अस्य सूत्रस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । तस्माद् घादीनां वाधैव युक्ता । , खं वाजिनस्य ||४|१|१३८ ॥ नृखोरिति वर्तते । श्रजिनशब्दान्तान्मृदो नृखोः अनुकम्पायां tataौ च गम्यमानायां क इत्ययं त्यो भवति तस्य च द्योः खं भवति । अनुकम्पितस्तुलाजिनस्तुलकः । व्याघ्रकः । मृगकः । द्युग्रहणं किमर्थम् १ श्रजिनशब्दान्तस्य द्योः खं यथा स्यात् । अनुकम्पितो व्याघ्रमष्टाजिनो व्याघ्रकः । Bisfa द्वितीयात्परोऽचः ||४|१| १३६ ॥ खमिति वर्तते । प्रकृते ठेऽजादौ च परतः । प्रकृतेद्वितीयादचः परशब्दो नाश्यते । परग्रहणं सर्वनाशार्थम् । अनुकम्पितो देवदत्तो देविकः, देवियः, देविलः । अनुकम्पित उपेन्द्रदत्त उपडः, उपकः । श्रथाजातित्वादेव सिद्धे पृथक ठग्रहणं किमर्थम् ? खे कृते इकादेशो यथा स्यादित्येवमर्थः । श्रन्यथा अनुकम्पितो भानुदत्तः भानुकः । पित्तृकः इत्येवमः दि न सिद्धयेत् । इकस्य स्थानिवद्भावाग्रहणेन ग्रहणकादेशा भविष्यतीति चेन्न; "सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य " श्रीजादिसन्निपातकृत मुगन्तत्वम् । "चतुर्थादचः परस्य खं वक्तव्यम्" [ वा० ] बृहस्पतिदत्तः । बृहस्पतियः। बृहस्पतिलः । बृहस्पतिकः । “अनजादौ द्वितीयादचः परस्य वा खं वक्तव्यम्”[वाऽ] देवदत्तकः । देवकः । जिनदत्तकः । जिनकः । "पूर्वपदस्य च ठाजादौ अनजादौ च खं वक्तव्यम् [वा०] दत्तिकः । दत्तियः । दत्तिलः । दत्तकः । “विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम्” [वा०] । सत्यभामा । भामा । सत्या वा । विष्णुगुप्तः । गुप्तः । विष्णुर्वा । "उवर्णादिलस्य च खं वक्तव्यम्" [वा०] । परस्यादेरितीकारस्य । भानुदत्तः, भानुलः । वसुलः । उक्तञ्च " "चतुर्थादनजादौ च नाशः पूर्वपदस्य च । अनिमित्त े तथैवेष्टः उवर्णान्तादिकस्य च ॥" "उगता दियेतयोः खं वक्तव्यम्" [ वा० ]। प्रकृते ठाचि द्वितीयात्परत्य खे कृते इयेलयोश्च परस्यादेः खे कृते भवादोकारो ये दीत्वं रीङ्भावः इत्येते विधयो न भवन्ति । भानुयः । मातृयः । भानुलः । "एचो द्वितोयत्वे तदादेः खं वक्तव्यम्" वा० | लोड: । लहिकः । कहोडः । कहिकः | कपोतरोम । कपिकः । कपिलः । श्रमो जिह्नः । श्रमिकः । श्रमिलः । " एकाक्षरपूर्वपदान धोः खं वक्तव्यमषषः " [ चा० ] अनुकम्पितो वागाशी ( दत्तः ) वाचिकः । त्वचिकः । श्रुचिकः । पूर्वस्य पदकार्यनिवृत्त्यर्थमेतत् । श्रषष इति किम् । षडङ्गुलिः षडिकः । शेवल सुपरिविशाल वरुणार्यमादेस्तृतीयात् ||४|१|१४०|| शेवल सुपरि विशाल वरुण अर्यमन् इत्येवमादेखो दस्तृतीयादचः परो नाश्यते ठाचि परतः । द्वितीयादचः परस्य खे प्राप्ते वचनम् । अनुकम्पितः शेवलदत्तः शेवलिकः । शेवलियः । शेवलिलः । सुपरिकः । सुपरियः । सुपरिलः । । वशालिकः । विशालियः । विशालिलः । वरुणिकः । वरुणियः । वरुणिलः । श्रर्थमिकः । श्रर्यमियः । श्रर्यमिलः । "अकृत सन्धीनां शेवलादीनामिति वक्तव्यम्” [वा०] । शेवलेन्द्रदत्तः शेवलिकः । सुपर्याशोदत्तः सुपरिकः । शेवलयिकः सुपर्यिक इति च माभूत् । नेदं वक्तव्यम् । श्रकृतवद्व्यूहेन सिद्धम् । प्रकृतवद्व्यूहो नाम अन्तरङ्गपरिभाषाया श्रव्यापारः । For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० । सू० १५१-१४१ अल्पे ॥४॥२१४१|| समन्ततों हीनं महत्प्रतिपक्ष भूतमल्पम् । अल्पत्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानाद यथाविहितं त्यो भवति । सुप इति वर्तते । ड्याम्मृदो झि। सर्वनाम्नो मिङ इति च । अल्पमन्नमन्नकम् । घृतकम् । उच्चकैः । सर्वके । पचतकि । द्रव्यद्वारेण क्रियाया अल्पत्वमहत्त्वे । हस्वे ॥४।१।१४२॥ आयामतो हीन दीर्घप्रतिपक्षभूतम् ( ह्रस्वम ) । ह्रस्वत्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानाद् यथाविहितं त्यो भवति । ह्रस्व पटः पटक । वृक्षकः । उच्चकैः । सर्वके । पचतकि । कुटीशमीशुण्डाभ्यो रः ॥४।१।१४३॥ ह्रस्व इति वर्तते। कुटी शमी शुण्डा इत्येतेभ्यो र इत्ययं त्यो भवति । कस्यापवादः । हवा कुटी कुटीरः । शमोरः । शुण्डारः। लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्येति पुँल्लिनता। कुत्वा डुपः ॥४।१।१४४॥ कुतूः श्रावपनम् । कुतूशब्दाड्डुप इत्ययं त्यो भवति । कस्यापवादः । ह्रस्वा कुत्ः कुतुपः स्नेहभाजनविशेषश्चर्ममयः । कासूगोणीभ्यां तरट् ॥४।१।१४५॥ कासूः शक्तिः श्रायुधविशेष इत्यर्थः । गोणीत्यावपनमुच्यते । कासूगोणीशब्दाम्यां तरट भवति । कस्यापवादः । ह्रस्वा कासूः कासूतरी । ह्रस्वा गोणी गोणीतरी । वत्सोताश्वर्षभेभ्यस्तनुत्वे ॥४।१।१४६॥ ह्रस्व इति निवृत्तं विशेषणान्तरोपादानात् । वत्स, उक्षन् , अश्व, ऋषभ इत्येते यस्तनुत्वोपाधिकेऽर्थे वर्तमाने यस्तरड भवति स्वार्थे । यस्य गुणस्य भावाद द्रव्ये शब्दविनिवेशस्तस्य तनुत्वे तरट् । तनुर्वत्सो वत्सतरः। उक्षतरः । अश्वतरः । ऋषभतरः । वत्सस्य तनुत्वं यौवनप्रातिः। यौवन उपचीयमाने वत्सत्वं तनुर्भवति । उक्षा तरुण उच्यते तस्य तनुत्वं तस्मात्परस्य वयसः प्राप्तिः। अश्वनाश्वायामुत्पन्नोऽश्वः । तस्य तनुत्वं विजातीयादुत्पत्तिः । ऋषभो भारवहस्तस्य तनुत्व. मसमर्थता। कियत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरः ॥४।१।१४७॥ किं यत् तद् इत्येतेभ्यो द्वयोरेकस्य निर्धारणे गम्यमाने डतर इत्ययं त्यो भवति । सामर्थ्यान्निर्धार्यमाणवाचिभ्यः किमादिभ्यस्त्यः। समुदायाजातिगुणक्रियासंज्ञाभिरेकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणम् । को भवतोः कठः । कतरो भवतोः पटुः । कतरो भवतोः कारकः । कतरो भवतोदेवदत्तः। एवं यतरः । ततरः । महाविकल्पाधिकाराद्वाक्यमपि साधु । निर्धारणे इति किम् ? द्वयोमियोः कः स्वामी । द्वयोरेकस्य स्वामित्वे मा भूत् । द्वयोरिति किम् ? यस्मिन् कुले यः प्रधानं च (स) आगच्छत । एकस्येति किम् ! एकग्रहणेऽक्रियमाणे बहुषु एकत्र वा द्वयोर्निर्धारणं सम्भाव्येत । तेनेहापि प्रसज्येत । को भवतां काञ्चीपुरको। को एतस्मिन् ग्राम देवदत्तगुरुदत्ताविति । Pापात वा बहूनां जातिप्रश्ने डतमः ॥४।१।१४८॥ एकस्य निर्धारण इति वर्तते । जातिश्च प्रश्नश्च जातिप्रश्नम् । बहूनामेकस्य निर्धारणे गम्यमाने किमादिभ्यो वा डतम इत्ययं त्यो भवति जातिप्रश्नविषये। किमो जातिविषये प्रश्नविषये च त्यः । इतरेभ्यो जातिविषये । वावचनमुत्सर्गस्याकः प्रापणार्थम् । को भवतां कठः। कतमो भवतां कठः। अकि साकः किमः कादेशे को भवतां कठः । यतमो भवतां कठः। यको भवतां कठः। कतमो भवतां कठः । अत्र वृत्त्यन्तरे पाठः । वा बहूनां परिप्रश्न इति । तेन को भवतां वैयाकरणस्तार्किको नैयायिको वा । कतम इति भवति । बहूनामिति किम् १ द्वयोरेकस्य निर्धारणे जातिप्रश्ने पूर्वेण डतर एव भवति । कतरो भक्तोः कठ इति । जातिप्रश्न इति किम् ? को भवतां देवदत्तः। किमोऽस्मिन् विषये डतरमपीच्छन्ति केचित् । कतरो भवतां कठः। तमो भवतां कलाप इति ।। एकाच ॥४॥२१४९।। एकशब्दाडतरडतमौ यथोपाधिविशिष्टौ भवतः । चकारो डतरानुवर्षणार्थः । For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० १ सू० १५०-११६ ] महावृत्तिसहितम् २६५ जातिप्रश्न इति नानुवर्तते । सामान्येन विधानम् । एक्तरो भवतोर्देवदत्तः । एकतमो भवतां देवदत्तः । किमा - दिष्वेकग्रहणं कर्तव्यमिति केचित् । न जातिप्रश्न एव डतमः स्यात् । उत्सर्गस्याको निवृत्यर्थं च योगविभागः । महाविकल्पोऽनुवर्तत एव । प्रतिकृतौ कः || ४|१ | १५० || इवार्थः सादृश्यम् । प्रतिकृतिः प्रतिबिम्बम् । विषयद्वारेण इवार्थविशेषणमेतत् | प्रतिकृतिविषये य इवार्थस्तस्मिन् वर्तमानान्मृदः को भवति स्वार्थे । श्रश्व इवायम् अश्वकः । श्रश्वप्रतिकृतिरित्यर्थः । एवम् उष्ट्रकः । गर्दभकः । प्रतिकृताविति किम् ? गौरिव गवयः । श्रश्व इवायं शीघ्रो गौः । खौ ||४|१|१५१ ॥ इवार्थमात्रे गम्यमाने मृदः को भवति खुविषये । प्रतिकृत्य र्थोऽयमारम्भः । अश्व इवायमश्वकः । उष्ट्रकः । गर्दभकः । संज्ञाशब्दा एते । संज्ञाशब्देषु च इवार्थो न गम्यते । केवलं वस्तुधर्मेण सादृश्येनान्वाख्यानं क्रियते, तेनेदमपि सिद्धम् । वंशकः । वेणुकः । नडकः । ह्रस्वत्वोपाधिका एताः संज्ञाः । कथं शूद्रक । रावकः । पूर्वकः । एता श्रपि कुत्थितत्वोपाधिकाः संज्ञाः । उस्मनुष्ये उपमेये ||४|१|१५२ ॥ मनुष्य उपमेयत्वेनाभिधेये खौ वाऽखौ च विहितस्य भवति । कुक्कुट इव कुक्कुटो मनुष्यः । चञ्चेव चञ्चा | वर्द्धिका । खरकुटी । दासी । "युक्तवदुखि लिङ्गसंख्ये" [ ६८ ] इति युक्तवद्भावः । मनुष्य इति किम् १ अश्वकः पाषाणः । देवपथादेराकृतिगणस्यायं प्रपञ्चः । जीविका ||४|१|१५३ || विक्रीयते यत्तत्पण्यम् । न पश्यमपश्यम् । जीविकार्थं यदपश्यं तस्मिन्नुपमेयत्वेनाभिधेये कस्यास्भवति । वासुदेव इवाय देवलकानां वासुदेवः । “इवे प्रतिकृतौ " [४|१|१५०] इत्यनेनागतस्य कस्योस् । शिवः । स्कन्दः । विशाखः । जीविकार्थादेव प्रतिकृतय एवमुच्यन्ते । जीविकार्थे इति किम् ? क्रोडायें हस्तीव हस्तिकः । श्रपश्य इति किम् ? यक्षकं विक्रीणीते । हस्तिकं विक्रीणीते । एषोऽपि देवपथादेः प्रपञ्चः । देवपथादिभ्यः ||४|१|१५४|| "इवे प्रतिकृतो " [ ४|१|१५० ] "खौ', [४।१।१२१] इति चागतस्य कस्योस् भवति देवपथादिभ्यः परस्य । देवपथ द्रव देवपथः । इंसपथः । वारिपथः । श्रनापथः । राजपथः । शतपथः । सिद्धगतिः । उष्ट्रगीवः । वाम । रज्जु । हस्त । इन्द्र । दण्ड । पुष्प । मत्स्य । श्राकृतिगणोऽयम् । "अर्थातु पूजनार्थासु चित्रकर्मध्वजेषु च । इवे प्रतिकृतौ नाशः कृतो देवपथादिषु ।। " अर्वासु-अर्हन् । शिवः । स्कन्दः । विष्णुः । चित्रकर्मणि दुर्योधनः । भीमसेनः । श्रर्जुनः । ध्वजेषु चताल इवायं ध्वजतालः । कपिः । गरुडः । श्राकृतिगणत्वादेवेदमपि सिद्धम् । "मत्स्याश्वपुष्पाणि च तारकाश्च चण्डार्धचन्द्राश्च पतत्त्रियश्च । तस्मिन्नर्थो रुक्ममयाश्चरेज्ञः ( (निवार्थे समाचरेज्ज्ञः ) प्रसार ( प्रासाद ) गुरुमाकमया मृगाश्च || इइ दुर्योधन इवायं नटी दुर्योधनः । "उस्मनुष्ये" [ ४/१/१५२ ] "जी विकार्थेऽपण्ये" [४/१/१५३ ] इति वा उस् । बस्तेर्ढम् ||४|१|१५५॥ इव इत्यनुवर्तते । बस्तिशब्दादिवार्थे ढम् भवति । यस्मिन् प्रदेशे मलसम्प्राप्तं बहिर्निष्क्रमति स प्रदेशो बस्तिः । बस्तिरिवार्यं वास्तेयः वास्तेयी प्रणालिका । इत ऊर्ध्वं सामान्येन विधानमिवार्थमात्रे | देवप्रतिकृतौ खौ च के प्राप्तेऽन्यत्राप्राप्ते ढञ् । शिलाया ढः || ४|१|१५६ || शिलाशब्दादिवार्थे ढो भवति । शिलेव शिलेयं दधि । शिलाया इति योगविभागात्रमपि केचिदिच्छन्ति । शैलेयम् । ३४ For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पा० १ सू० १ शाखादेर्यः || ४१|१५७ ॥ शाखा इत्येवमादिभ्य इवार्थे यो भवति । शाखेव शाख्यः । मुखमिव मुख्यः । शाखा । मुख । जघन ! स्कन्ध । मेघ । चरण । शृंग । उरस् । श्रग्र । शरण । द्रव्यं भव्ये ||४|१|१५८ || द्रव्यमिति निपात्यते भव्येऽर्थे । भव्यविशेषे इवार्थे वर्तमानाद् दुशब्दाद् य इत्ययं त्यो निपात्यते । दुरिव द्रव्यम् कार्षापणम् । इष्टार्थक्रिया हेतुरित्यर्थः । द्रव्यमयं राजा श्रात्मवानि त्यर्थः । भव्य इति किम् १ दुरिवायं न चेतयते पुरुषः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुशाग्राच्छः ॥४|१|१५९॥ कुशाग्रशब्दादिवायें छो भवति । सूक्ष्मत्वेन कुशाग्रमिव कुशाग्रीया बुद्धिः । कुशाग्रीयं शास्त्रम् । सातद्विषयात् ||४|१|१६० ॥ इवशब्दः सादृश्यार्थस्तच्छब्देन परामृश्यते । इवार्थविषयात् सात् छो भवति । इवार्थविषयस्य च सस्यैटमेव ज्ञापकम् । यदृच्छया अतर्कितोपनते चित्रीकरणे इवार्थविषये सो भवति । सुप्सुपेति सविधानमेवंविषयमेव द्रष्टव्यम् । काकतालीयम् । तालशाखाग्रे काकः प्राप्तः, तालं च पतितं तेन च पतता तालेन स काको हतः । इदं चित्रीकरणम् । तथा देवदत्तश्च वृक्षं श्रितः । तत्राशनिश्च पतितः । तत्र देवदत्तस्याशनेश्च समागमः काकतालसमागमसदृशः । काकवधसदृशश्व देवदत्तवधः इति समागमसादृश्ये सविधानम् । वध सादृश्ये त्यविधिः । एवमन्धकवर्तकीयम् । श्राकृपाणीयम् । इह शस्त्रीश्यामा । पुरुषव्याघ्र इति समुदाय इवार्थविषयो न भवति । किन्तु पूर्वपदमुत्तरपदं वा । तेन छो न भवति । शर्करादिभ्योऽण ||४|१|१६१ ॥ शर्करा इत्येवमादिभ्यो हवार्थेऽण भवति । शर्करेव शार्करम् । कपालिकेव कापालिकम् । " भस्य हृत्यढे" [ ४।३।१४७ वा० ] इति पुंवद्भावे प्राप्ते "न बुहकोड: " [४] १४१] इति प्रतिषेधः । शर्करा । कपालिका । कपिष्ठिका | गौमत् । गोपुच्छ । पुण्डरीक । शतपत्र | नराची । नकुल । सिकता । श्रृङ्गुल्यादेष्टण् ||४|१|१६२|| अङ्गुली इत्येवमादिभ्य इवार्थे ठण भवति । श्रङ्गुलीव श्रङ्गुनिकम् । अङ्गुलि | भरुन । वभ्रु । वल्गु । रुष् । खल । उदश्वित् । गोणी । उरस् । मण्डर । मण्डल । शष्कुल । कुलिश | हरि । कपि । मुनि | I वैकशालायाष्ठः ||४|१|१६३॥ एकशालाशब्दादिवार्थे वा ठो भवति । वावचनेनानन्तरस्य णः समुच्चयः । एकशाले एकशालिकः । ऐकशालिकः । कर्कलोहिताट्टीकण् ||४|१|१६४ ॥ कर्कलोहितशब्दाभ्यामिवार्थे टीकण् भवति । कर्क: शुक्लाश्वः । कर्क व कार्कीकः । लौहितीकः । टकारः स्त्रियां ङयर्थः । इत्यभयनन्दिविरचितायां महावृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः । पूयोऽग्रामणीपूर्वात् ||४ |२| १ || इव इति निवृत्तम् । पूगवाचिनो मृदोऽग्रामणीपूर्वात् स्वार्थे यो भवति । नानाजातीया श्रनियतवृत्तयोऽधर्म ( ऽर्थ ) कामपराः संघाः पूगाः । पूगशब्दः समुदायवचनस्तस्यैकत्वेन निर्देशः । यथा यूथं वनमिति । ये त्वस्य विशेषवाचिनः शब्दास्तेषां भेदवाचित्वात् एकद्विबहवो भवन्ति । लोहध्वजा इति पूगः । लौहध्वज्यः । लौहध्वज्यौ । लोहध्वजाः । शैव्यः । शैव्यौ । शिवयः । वातक्यः । वातक्यौ | वाताः । " बहुषु तेवास्त्रियाम्" [१ |४| १३५ ] इति बहुषूप् । ग्रामणीरित्यर्थनिर्देशः । पूर्वशब्दोऽवयववाची । ग्रामण्यर्थः पूर्वोऽवयवो यस्य स ग्रामणीपूर्वः । अथवा ग्रामण्यर्थविषयो यस्त्यः स साहचर्याद् ग्रामणीरित्युच्यते । स पूर्वमुत्पन्नो यस्य पूगस्य स ग्रामणीपूर्वः । न ग्रामणीपूर्वोऽग्रामणीपूर्वः । ग्रामणीपूर्वात्पूगान्यो न भवति । देवदत्तो ग्रामणीरेषां देवदत्तकाः । स एर्षा ग्रामणीः ''[४ | १|१२]इति कः । १. जैनेन्द्रमहावृत्तौ ब० । For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० पा० २ ० २-६ ] महावृत्तिसहितम् २६७ बात फादस्त्रियाम् ||४|२|२|| नानाजातीया श्रनियतवृत्तय उत्सेधजीविनः संघाः व्राताः । ष्फ इति "वृद्ध े कुआदिभ्यो व्फा' [३।१३८७] इत्यापत्यस्त्यो गृह्यते । व्रातविशेषवाचिभ्यो उफान्तेभ्यश्च स्वार्थे यो भवत्यस्त्रियाम् । कापोतपाक्यः । कापोतपाक्यो । कपोतपाकाः । त्रैमित्यः । त्रैमित्यौ । व्रीहिमताः । फान्तात् कुञ्जस्यापत्यं यन् । कौञ्जायन्यौ । कुञ्जायनाः । ब्राघ्नायन्यः । ब्राध्नायन्यौ । बाध्नायनाः । स्त्रियामिति किम् ? कपोतपाका । व्रीहिमता । कौआयनी । "वृद्ध' च चरणैः सह" इति कान्तस्य जातिवाचि वाडी विधिः । 1 • शस्त्र जीविसङ्घाञ्यड् वाहीकेष्वविप्रराजन्यात् ||४|२|३|| वाहीकेषु यः शस्त्रजीविसङ्घस्तद्वाचिनो मे विराजन्यवजितात् स्वार्थे त्र्यड् भवति । टित्करणं स्त्रियां ङयर्थम् | कौण्डीवृस्यः । कौडीवृस्यौ । कुडीसाः । क्षौद्रक्यः । दौद्रक्यौ । क्षुद्रकाः । मालव्यः । मालव्यो । मालवाः । कौराडीवृसी । क्षौद्रकी । मालवी स्त्री "हलो हृवो ङाम्” [४|४|१३८ ] इति यकारस्य खम् । शस्त्रजीविग्रहणं किम् ? मल्लाः । सङ्घग्रहणं किम् ? वागुरः । सम्राट् । वाहीकेष्विति किम् १ शबराः । पुलिन्दाः । विप्रराजन्यादिति किम् ? गोपालयः (ब्राह्मण: ) । शालङ्कायनाः राजन्याः । विप्रप्रतिषेधे विप्रविशेषप्रतिषेधः । नहि विप्रशब्दवाच्यो वाकेषु शस्त्रजीविनां सङ्घोऽस्ति । राजन्यप्रतिषेधे तु स्वरूप इति प्रतिषेधः । राजन्यविशेषस्यापि प्रतिषेधं केचि - दिच्छन्ति । कांवच्य | कांवच्यौ । कांवच्याः । ञ्यटि सति स्त्रियां ङी प्रसज्येत । शस्त्रजीविसङ्घादिति योगविभागादन्यत्रापि केचिदिच्छन्ति । शात्रर्यः । शाबय । शबराः । पौलिन्यः । पोलिन्द्यौ । पुलिन्दाः। योगविभागकृतमनित्यम् ? तेन शबर: पुलिन्द इत्यपि भवति । कारण || ४|२| ४ || शस्त्र जीविसङ्घवाचिनो वृकशब्दात् स्वार्थे टेण्यम् भवति । वार्केण्यः । वार्केण्यौ । वृकाः । स्त्रियां वार्केणी । “हलो हृतो ब्धाम्” [ ४|४|१४० ] इति यखम् । हल् उत्तरस्य यकारस्य खं भवति स चेद्यकारो गोरवयवभूत इति । बाहीकेषु ञ्यटि प्राप्ते, अन्यत्राप्राप्ते विधानम् । शस्त्रबीविसङ्घविशेषणं किम् ? मति ( जाति ) शब्दान्माभूत् । १ "कामक्रोधी मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव । तस्मात्क्रोधं च कामं च परित्यक्तु बुधोऽईति ।। " दामन्यादेछः ||४/२/५|| शस्त्रजीविषङ्घादिति वर्तते । दामनि इत्येवमादिभ्यः शस्त्रजीविषङ्घवाचि यश्छो भवति स्वार्थे । दामनोयः । दामनोयो । दामनयः । दार्मान । श्रलाप । वैजवापि । श्रदकि । श्राच्युतन्ति । शाकुन्तकि । सार्वसेनि । विन्दु । तुलभ । मोञ्जायन । सावित्रीपुत्र | त्रिगर्तषष्ठाः दामन्यादौ पठ्यन्ते शस्त्रजीविनां षड्वर्गाः । तत्र त्रिगर्तवर्गः षष्ठो येषां ते त्रिगर्तषष्ठाः । कोएडापरथीयः । कौएडापरथीयो । कोण्डोपरथाः । दाण्डकिः । क्रोष्टुकिः । जालमाली । ब्रह्मगुप्तः । जानकिः । उक्तं च "ज्ञेयात्रिगर्तषष्ठाः षट् कौण्डो परथदाण्डकी । क्रोष्टुकिकमाली च ब्रह्मगुप्ठोऽथ जानकिः ॥ " पर्खादेर ||४|२|६|| शस्त्रजीविसङ्घादिति वर्तते । पर्शु इत्येवमादिभ्यः शस्त्रजीविसङ्घवाचिभ्यो ऽय् भवति स्वार्थे | पाशवः | पाशवी । पर्शवः । पर्शु । रक्षस् । असुर । वाह्रीक । वयस् | वसु । मरुत् । सत्वत् । दशार्ह | पिशाच | शनि । कार्षापण । यौधेय । शोश्रेय । धार्तेय । ज्यावाणेय । त्रिगर्त । भरत । उशीनर । भर्गादिषु यौधेयादिभ्यः प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् श्रापत्यस्वार्थिकाः श्रापत्यग्रहणन गृह्यन्त इति । तेनास्याण उप् प्राप्तः प्रतिषेधार्थं वचनं तत्र सार्थम् । पर्वादिभ्यः पुनरुत्पन्नस्यायः स्वार्थिकस्य स्त्रीविवक्षायां "कुमत्यवन्तिकुरुभ्यः स्त्रियाम्" [ ३|१| १५७ ] इत्यधिकृत्य " अतोऽप्राच्यभर्गादिः " [ ३।३।१५८ ] इत्युप् । “कस्तः” [३।१।५६] इत्यूकारः । पर्श्वः । श्रसुरः (री) । रक्षः । For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६८ जैनेन्द्र व्याकरणम् [ अ० ४ पा० २ सू० ७-१३ अभिजिद्विदभृतोऽणो यम ||४|२|७|| शस्त्रजीविसङ्घादिति निवृत्तम् । अभिजित् विदभृत् इत्येता यामण्णन्ताभ्यां स्वार्थे यञ् भवति । "वृद्धाद् वृद्धवदिति वक्तव्यम्” [वा.] वृद्धापत्ये योऽ विहितः तदन्तादयं यञ् वृद्ध वच्च भवति । श्रभिजितोऽपत्यमण । श्रभिजितः । तदन्ताद्यञ श्रभिजित्यः । श्राभिजित्यौ । श्रभिजिताः । वैदभृत्यः । वैदभृत्यो । वैदभृताः । वृद्वादिति किम् ? अभिजिद् देवताऽस्य ग्राभिजितः । विदभृत इदं वैभृतम् । वृद्धवदिति किम् ? अभिजित्यस्यापत्यं युवाऽऽभिजित्यायनः । "यजिजो: " [ ३|१|१० ] इति फण् सिद्धः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिखाशालाशम्यूर्णाश्रियां मतोः ॥४२॥ शिखा, शाला, शमी, उर्णा, श्री, इत्येतेषां शब्दानां मतोर्योऽण् तदन्तात्स्वार्थे यञ् भवति । शिखावतोऽपत्यमित्यण । तदन्तादयं यञ् । शैखावत्यः । शैखावत्यौ । शैखावताः । शालावत्यः । शालावत्यौ । शालावताः । शामीवत्यः । शामीक्त्यौ । शामीवताः । श्रौर्णावत्यः । श्रीवत्यौ । श्रर्णावतः । श्रमत्यः । श्रमत्यौ । श्रमताः । वृद्वादित्येव शिखावत इदं शैखावतम् । “वृद्धवदिति वक्तव्यम्” [वा०] शैखावत्यायनः । नेदं वक्तव्यम् । श्रपत्यस्वार्थिकाः श्रापत्यग्रहणेन गृह्यन्त इत्येव सिद्धम् । ते द्रयः || ४|२|९|| ते ज्यादयो द्रिसंज्ञका भवन्ति । तथैवोदाहृतम् । ते ग्रहणम् श्रनुक्रान्तसंशिप्रतिपत्त्यर्थम् । संख्यायाः पादशतेभ्यो वीप्सादण्डत्यागे वुन् ||४|२| १०|| संख्यादेः पादशतान्तान्मृदः वीप्सात्यागेषु गम्यमानेषु वुन् भवति । तासन्निधानेऽन्त्यस्यालः खं च । "यस्य ङ छ” । [ ४।१।१३६ ] इति यदि खं क्रियते, तस्य परनिमित्तत्वात् "परेऽचः पूर्वविधौ ' (१|१|१७ ) इति स्थानिवद्भावात् " पादः पत्" [४|४|११६] इति पद्भावो न स्यात् । इदं पुनः खमनिमित्तमिति न स्थानिवद्भावः । द्वौ द्वौ पादौ भुङ्क्ते द्विपदिकां भुङ्क्ते । त्रिपदिकां भुङ्क्ते । हृदर्थे रसः । वुनैव वीप्सार्थस्य द्योतित्वात् वीप्सालक्षणं द्वित्वं निवर्तते । द्वे द्वे शते भुङ्क्ते द्विशतिकां भुङ्क्ते । त्रिशतिकां भुङ्क्ते । दराडे — द्वौ पादौ दण्डितः द्विपदिकां दण्डितः । त्रिपदिकां दण्डितः । त्यागे— द्वौ पादौ व्यवसृजति द्विपदिकां व्यवसृजति । त्रिपदिकां व्यवसृजति | त्रिशतिकां व्यवसृजति । वुन्नन्तं स्वभावतः स्त्रियां वर्तते । संख्याया इति किम् ? पादं पादं ददाति । पादशतेभ्य इति किम् ? द्वौ द्वौ प्रस्थौ ददाति । बहुत्वनिर्देशादन्यत्रापि भवति । द्वौ द्वौ मोदकौ ददाति द्विमोदकिकां ददाति । द्विहलिकां ददाति । बीप्सादिग्रहणं किम् ? द्वौ पादौ भुङ्क्ते । स्थूलादिभ्यः प्रकारोक्तौ कः ||४| २|११|| स्थूल इत्येवमादिभ्यः प्रकारोक्तौ गम्यमानायां को भवति । जातीयस्यापवादः । श्रत्रापि प्रकारवति त्यः स्थूला गुमाषेषु । स्थूलप्रकारः स्थूलकः । अणुकः । माषकः । इषुकः । श्रपरेषां व्याख्या । माषेष्वित्युपाधिः । स्थूलका माषाः । श्रणुका माषाः । स्थूलामाषेषु । कृष्णतिलेषु । पाद्यकालावदाताः सुरायाम् । गोमूत्र श्राच्छादने । समस्तव्यस्ते । यवब्रीहिषु । कुमारीपुत्र । कुमारी । श्वसुरः । पाठः कर्तव्यः । सुराया हौ । जीर्णशालिषु । पत्रमूले मणि इच्छु तिल । चञ्चवृहतोरप्यत्र क्कादनत्यन्ते ॥४|२|१२|| श्रनत्यन्तमकार्यम् । अनत्यन्ते वर्तमानात् क्वान्तान्मृदः को भवति । श्रत्यन्ते भिन्न भिन्नकम् । छिन्नकम् । अनत्यन्त इति किम् ? भिन्नम् । अत्र भेदनक्रियायाः कार्त्स्न्येन संबन्धः । न सामेः ||४|२| १३ ॥ सामिशब्दात्परं यक्क्तान्तं तस्मात् को न भवति । सामिकृतम् । सामिभुक्तम् । सामिपर्यायाणामपि ग्रहणमिति केचित् । अर्धकृतम् । नेमकृतम् । ननु चात्र पदान्वरेणानत्यन्तगतेरभिहि For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० २ सू. 11-10] महावृत्तिसहितम् २६६ तत्वात्को न प्राप्नोतीति प्रतिषेधवचनमनर्थकम् । एवं तहीदमेव प्रतिषेधवचनं ज्ञापकं स्वार्थेऽप्ययं को भवति । तेन सिद्धम् । भिन्नतरकम् । बहुतरकम् । अर्धच्छिन्नकम् | अर्धभिन्नकम् । वृहतिका ॥४।२।१४। बृहतिकेति निपात्यते । बृहत शब्दादाच्छादने वर्तमानात्स्वार्थे नित्यं को निपात्यते । बृहतिका साटी । आच्छादनादन्यत्र को न भवति । बृहती ओषधिः। खोऽलङ्कर्मपुरुषात् ॥४ा|१५|| अलङ्कर्मन् अलम्पुरुष इत्येताभ्यां स्वार्थे खो भवति । अलङ्कमणेऽलङ्कौणः । अलम्पुरुषायालम्पुरुषीणः । “नमस्स्वस्ति'' [ २६] इत्यादिनाऽप् । 'विकुप्रादयः" [11३८१] इत्यत्र "पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे अपा" [वा०] इति षसः । अषडक्षा सतवधिद्योः ४।२।१६॥ अषडद, अासितङ्ग, अधिद्य इत्येतेभ्यः स्वाथें खो भवति । अविद्यमानानि षडक्षोण्यस्मिन्निति अषडक्षीणो देवदत्तः । पितृपितामहपुत्राणामक्षीणि न पश्यतीत्यर्थः । मन्त्रोऽपि द्वाभ्यां यः क्रियते, येन वा कन्दुकेन द्वो क्रीड़तः सोऽप्येवमुक्तः । अथवाऽनशब्द इन्द्रियपर्यायोऽस्ति । अविद्यमानानि षडक्षाण्यस्य अषडक्षीणो मत्स्यः । गुणदोषविचारक्षम षष्ठमक्षमस्य नास्तीत्यर्थः । श्रासिता गावोऽस्मित्रित्यासितङ्गवीनमरण्यम् । अतएव निपातनात्कतरि क्तः। पूर्वपदस्य च मुगागमः ।रानि अधि राजाधीनम् । पुण्येऽधि पुण्याधीनम् । “ईश्वरेऽधिना" [10१८इति अधिना योगे ईप गिति संज्ञाप्रतिषेधश्च । अधिशब्दः शौण्डादिषु पठ्यते, तेन घसः । नित्यश्चेह ख इष्यते, उत्तरसूत्रे वाग्रहणात् । बाऽञ्चेरदिक् स्त्रियाम् ।।४।।१७॥ अञ्च्यन्तान्मृदोऽदिक् स्त्रियां वर्तमानात् खो भवति स्वार्थे वा । अदिकस्त्रियामिति प्रसज्यप्रतिषेधादिह तदन्तविधिलभ्यते । प्राश्चतीति प्राङ् (प्राक) प्राचीनम् । उदक उदीचीनम। अवाङ (क) श्रवाचीनम् । अदिक स्त्रियामिति किम् ? प्राची दिक। प्रतीची। दिगग्रहणं किम् ? प्राचीना शाला। तिरश्चीना स्थूणा । स्त्रीग्रहणं किम ? प्राचीनं दिग्रमणीयम् । प्राची दिग्रमणीयेति विगृह्य "दिक्छब्द' [४११९२] इत्यादिना श्रस्तात् । "अञ्चेरुप्" [३६] इति तस्योप् । स्वभावत उप्यस्तातेर्नपुंसकलिङ्गम् । वावचनात् स्वाथिकेषु निवृत्ता महाविकल्पाधिकार इति गम्यते । तेन पाशतमादयः प्राक। छदत्वा देशात् कल्पदशायात् । ध्यादयः प्राग्लुनः। श्रामादयः प्राङमयटः नित्या वेदितव्याः। याप्यो वैयाकरणः । अयमेषामतिशयेन परित्येवमादो वाक्येन प्रकृतिर्याप्येऽतिशायने वा वर्तते किन्त पदारमतस्त्यो न भवति । जातेछो वन्धुनि ।।४।२।१८। बध्यतेऽस्मिन् जातिरिति बन्धुद्रव्यमिह जात्यधिकरणभतं गृह्यते नपा निर्देशात् । जातिशब्दाद्वन्धुनि वर्तमानात् छो भवति । केवल जातिशब्दस्य बन्धुनि वृत्त्यसम्भवात्तदन्तविधिः । क्षत्रियो जातिरस्य क्षत्रियजातीयः। क्षत्रिय एवोच्यते । शोभना जातिरस्य शोभनजातीयः । दुष्टा जातिरस्य दुर्जातीयः । का जातिर्भवतः, किंजातीयो भवान् । द्वयोर्विकल्पयोर्मध्ये नित्योऽयं विधिः। "प्रकारोक्तो जातीयः" [1१1१२८] इत्येव सिद्ध किमर्थमिदं जात्यन्तस्य बसस्य केवलस्य च प्रयोगो माभूत इत्येवमर्थम् । कथं दुर्जातेः सूतपुत्रस्येति प्रयोगः । चिन्त्यमेतत् । बन्धुनीति किम् ? ब्राह्मणजातिरदृश्यपापा। वेवे स्थानान्तात् ॥४।२।१६॥ स्थानान्तान्मृद इवार्थे वा छो भवति । पितुः स्थानमिव स्थानमस्य पितृस्थानः ।"इवोपमानपूर्वस्य शुखं वा" वा०] इति । उपमानपूर्वस्य बसो भवति द्योश्च खम् । यथा उष्ट्रमुख इति । अयं स्थानान्तो बस इवाथें वर्तते । अस्माद्वा छो भवति । पितृस्थानीयः । पितृस्थानः। गुरुस्थानीयः । गुरुस्थानः । पुनर्वाग्रहणमनन्तरस्य नित्यतां ख्यापयति । इव इति किम् १ गवां स्थानम् गोस्थानम् । "मृग्रहणे तदन्तविधिनास्ति" इति अन्तग्रहणं कृतम् । इह कस्मान्न भवति । गोः स्थानमिति । नैष दोषः। इवग्रहणं १. रघपा-ब। For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० २ सू० २०-२७ स्थानविशेषणम् । इवार्थे यः स्थानशब्दो वर्तते, तदन्तादिति । बसे च स्थानशब्द इवार्थे वर्तते । बसे तु पदसङ्घात इवार्थे वर्तते इति न भवति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किमेडि भिदामद्रव्ये ||४ |२| २०|| किम एकारान्तस्य मिङः मिसंज्ञकस्य च अनन्तरो यो भस्तदन्तान्मृद श्रामित्ययं त्यो भवत्यद्रव्ये । लिङ्गसंख्यायुक्तप्रत्ययकारणं द्रव्यम् । द्वाविमौ किम्पचतंः, यमनयोः किंतरां पचति । किंतमाम् पचति । एतौ द्वाविमौ पूर्वाह्न भुञ्जाते । श्रयमनयोः पूर्वाह्न तर भुङले । एतद्ग्रहणसामर्थ्याद् द्रव्येऽपि काले विधिरयम् । इह कस्मान्न भवति । जयतेविंचि तरे च कृते जेतर इति । अनभिधानादत्र विजेव नास्ति । मिङ् - पचतितराम् । पचतितमाम् । द्वाविमौ उच्चैर्हतः । श्रयमनयोरुच्चैस्तरां इसति । अद्रव्य इति किम् ! उच्चैस्तरो वृक्षः । उच्चैस्तमो वृक्षः । त्रिनोऽण् ||४|२|२१|| ''निभिविधौ” [२२३१६] इति भावे जिन् विहितः । न्निन्ताद भवति स्वायें । “कृद्ग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम्' [प] सांकोटिनम् । सांगविणम् । सांमार्जिनम् । " प्रायोऽनपत्येणीन: " [४|४|१५५] इति टिखप्रतिषेधः । नास्त्रियाम् ||४|२|२२|| स्त्रियामित्यधिकृत्य 'कर्मव्यतिहारे जः " [२।३।७६ ] इति जो विहितस्तदन्तात्स्वार्थे ऽण् भवति स्त्रियाम् । व्यावक्रोशी | व्यात्युक्षी । व्यावर्ची वर्तते । "पदे खोरैयोव्" [ २८ ] इति तस्य विधेः “न जे” [५।२।११] इति प्रतिषेधे कृते । श्रादेरप् । स्त्रीग्रहणं किम् ? स्त्रियामेव हिजो विहितस्तस्मादयं स्वार्थिकः । स्वार्थिकाश्च प्रकृतिलिङ्गसंख्ये अनुवर्तन्त इति एवं तर्हि इदमेव ज्ञापकम् । कचित्स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गसंख्ये अतिवर्तन्तेऽपि । कुटीरः । देवता । गुडकल्पा द्राक्षा इत्येवमादि सिद्धम् । विसारिणो मत्स्ये ||४ | २|२३|| विसारिन्शब्दात्स्वार्थेऽण भवति मत्स्येऽभिधेये । विसारीति वैसारिणो मत्स्यः । ग्रहादिपाठारिन् । मत्स्य इति किम् ? विसारी तैलबिन्दुरिवाम्भसि । संख्याया ध्वभ्यावृत्तौ कृत्वस् ||४|२|२४|| ध्वर्थः क्रियारूपः साहचर्याद्धुशब्देनोक्तः । ध्वभ्यावृत्तिः अभिन्नकर्तृकायाः क्रियायाः पौनःपुन्यम् । ध्वभ्यावृत्तौ वर्तमानेभ्यः संख्याशब्देभ्यः स्वार्थे कृत्वखित्ययं त्यो भवति । श्रस्वपदेनात्र विग्रहः । पञ्चवारान् भुङ्क्ते पञ्चकृलोऽह्नो भुङ्क्ते । शतं वारान् भुङ्क्ते शतं वा वाराणां भुङ्क्ते शतकृत्वः । बहुकृत्वः । तावत्कृत्वः । कतिकृत्वः । संख्याया इति किंम् १ मुहुर्मुहुर्भुङ्क्ते । प्रभूतान् वारान् भुङ्क्ते । घुग्रहणं किम् ? द्रव्यस्य गुणस्य वा श्रभ्यावृत्तौ माभूत् । पञ्च कालेषु दण्डी । षट्सु कालेषु शुक्लः । श्रभ्यावृत्तिग्रहणं किम् ? पञ्च पाकाः । नात्राभिन्नस्य पाकस्य पौनःपुन्यं किन्त्वोदनमुद्गादोनां पाकाः । द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच् ||४ |२| २५ || द्वित्रिचतुर् इत्येतेभ्यो ध्वभ्यावृत्तौ सुन भवति । कृत्वो ऽपवादः । चकारः "कालेऽधिकरणे सुजधै" [१/४/६७ ] इत्यत्र विशेषणार्थः । उकार उच्चारणार्थः । द्विर्भुङ्क्क्ते । त्रिर्भुङ्क्ते । भुजिक्रिया सामान्येनैका । Bा कालभेदाद्भिद्यते । एकस्य सकृत् ||४|२|२६ ॥ एकशब्दस्य मकृदित्ययमादेशो भवति सुचत्यः । ध्वभ्यावृत्तिरत्र व्यपदे शिवद्भावेनाभिसंबध्यते । एकवारं भुङ्क्ते सकृद् भुङ्क्ते । एकः पाक इत्यत्राभिधानान्नास्ति । बहोर्घा वाऽऽसत्तौ || ४|२|२७|| श्रासत्तिरविप्रकृष्टकालता । विषयद्वारेण ध्वभ्यावृत्तिविशेषणमेतत् । श्रासतो या क्रियाया अभ्यावृत्तिस्तस्यां वर्तमानाद्वहुशब्दाद्धा इत्ययं त्यो भवति वा । बहुधा भुङ्क्ते । बहुकृत्वो भुङ्क्ते । श्रासत्ताविति किन् ? बहुकृत्वो भुङ्क्ते मासस्य । For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ४ पा० २ सू० २८-३६ ] महावृत्तिसहितम् तत्प्रकृतोक्लो मयट् ॥४॥२८॥ प्रकर्षेण कृतं प्रकृतं प्रचुरमित्यर्थः । तदिति वासमर्थात् प्रकृतोक्लो वर्तमानात् स्वार्थे मयड् भवति । अन्नं प्रकृतम् अन्नमयं पूजायाम् । दधिमयं पूजायाम् । यवागूः प्रकृता यवागमयी । पेयामयी। स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गसंख्ये अनुवर्तन्तेऽपि । अथवा नायं स्वार्थिकः। अधिकरणार्थेऽयं विधीयते । कथं ज्ञायते । उक्तिर्वचनम् । प्रकृतस्योक्तिः प्रकृतोक्तिः। तदिति वासमर्थात प्रकृतोक्तावर्थे मयड भवति । घृतं प्रकृतमुच्यतेऽस्मिन् घृतमय उत्सवः । घृतमयी पूजा। पुष्पमय उत्सवः । पुष्पायी पूजा । उक्तिग्रहणसामथ्यात् उभयोऽपि सूत्राथः प्रमाणम् । समूहवच्च बहुषु ॥४।२।२६।। तत्प्रकृतोक्ताविति वर्तते । समूहवत् त्यविधिर्भवति मयट च बहुषु प्रकृतेषु । यथेह भवति । अपूपानां समूहः अापूपिकम् । 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठ" [३।२।३६] इति ठण् । एवम् अपूपाः प्रकृता श्रापूपिकम् । पक्षे अपूपमयम् । एवं मौदकिकम् । मोदकमयम् । शाक. लिकम् । शकुलीमयम् । प्रकृतिलिङ्ग संख्यातिवर्तनम् । द्वितोयसूत्राथें अपूपाः प्रकृता अस्मिन्नुच्यन्ते अापूपिक उत्सवः) अपूपमयः । आपूपिको अपूपमयी पूजा । शाष्कुलिकः शकुलीमय उत्सवः । शाकुलिकी शष्कुलीमयी पूजा । भेषजानन्तावसथेतिहाभ्यः ॥४२॥३०॥ भेषजादिभ्यः स्वार्थे त्र्यो भवति । कण्डवादिषु भिषजिति पठ्यते औषधस्य करणम् । तस्य कर्तृत्वविवक्षायां भिषज्यतीति भेषजम् । पचादित्वादच । "हलो यः" [४ ] इति यखम् । अत एव निपातनादेप । भेषजमेव भैषज्यम् । अनन्तमेवानन्त्यम् । श्रावसथ एवावसथ्यम् । इतिहेत्यैतिह्यम् । विभाषेह सम्बद्ध यते । देवतान्तात्तायें यः॥४॥२॥३१॥ तस्मै इति तदर्थम् । तदेव तादर्थ्यम् । देवताशब्दान्तातादर्थं वाच्ये यो भवति । गुरुदेवतायै इदम् गुरुदेवत्यम् । पितृदेवत्यम् । पाद्यायें ॥४।२।३२।। पाद्यार्थ्यशब्दौ निपात्येते । पादशब्दात्तादर्थ्य यः पाच्छब्दस्य पदादेशाभावश्च निपात्यते । पादार्थमुदकम् पाद्यम् । अर्घशब्दात्तादर्थे यः । अर्घार्थमय॑म् । ण्योतिथेः ॥४ारा३३|| तादयें इति वर्तते । अतिथिशब्दात्तादयेऽभिधेये ण्यो भवति । अतिथ्यर्थमिदमातिथ्यम् । देवात्तल ॥४॥२॥३४॥ तादर्थ्य इति निवृत्तम् । देवशब्दात् स्वार्थे तल भवति । देव एव देवता। कोवियावादे ॥४२॥३५।। अविशब्दाद् याव इत्येवमादिभ्यश्च मुद्भधः स्वार्थे को भवति । अविरेव अविकः । यावादिष्वेव अविशब्दः पठितव्यः । पृथग्रहणं किमर्थम १ अवेर्विकार श्राविकमित्येवमादो के कृतेऽण्यथा स्यात् । यवानां विकारो यावः। याव एव यावकः। यान | मणि । अस्थि । लान्द्र । मडु। पीत । स्तम्ब । ऋतावुष्याशीते । पशौ लूनविपाते। अणु निपुणे । पुत्रात् कृत्रिमे । पुण्य । शात । अज्ञात । स्नात वेदसमाप्तौ । शून्य रिक्ते । तनु सूत्रे । ईयसश्च । भूयस्कम् । श्रेयस्कम् । कुमार क्रीड़कानि च । उत्कण्ठकः । कन्दुकः । वेत्यनुवर्तते। लोहितान्मणौ ॥४॥२॥३६।। लोहितशब्दान्मणौ वर्तमानात् स्वार्थे को भवति । लोहित एव लोहितको मणिः। “कोहितशब्दात् स्त्रीस्यस्य परत्वात् अनेन केन बाधनं वक्तव्यम्" [वा.। परवात के कृते सकद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एवेति नत्वङीविधावसति , अतष्टापि कृते लोहितका मणिरिति । यदावबाधनं तदा नत्वङीविधौ कृते पश्चात्कः। “केऽणः" [२२।१२५] इति प्रादेशः। लोहिनिका मणिः। मगाविति किम् ? लोहिता खदिरः। For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् वर्णेऽनित्ये ||४| २|३७|| श्रनित्ये वर्णे वर्तमानाल्लोहितशब्दात्को भवति । कोपेन लोहितकं चक्षुः । स्त्रियां पूर्ववदुभयं भवति । लोहितिका कन्या कोपेन लोहिनिका वा । अनित्य इति किम् ? लोहित इन्द्रगोपकः । लोहितं रुधिरम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ अ० अ० ४ पा० २ सू० ३७-४७ रक्ते ||४|२|३८|| लाक्षाकृमिरागादिना रक्ते वस्त्रादिके वर्तमानात् लोहितशब्दात्को भवति । लोहितक: पहाटकः । लोहितकः कम्बलः । अत्र योगवशात् यावद् द्रव्यमावि लोहितत्वमिति पूर्वेण प्राप्तिः । स्त्रियां पूववदुभयम् । लोहितिका पट्टसाटिका लोहिनिका वा । कालाच ||४|२|३९|| वर्णे नित्ये रक्ते इति द्वयस्यानुकर्षणार्थश्चकारः । श्रनित्ये वर्णे रक्ते च वर्तमानात् कालशब्दात् को भवति । कोपेन कालकं वस्त्रम् । कालिका साटी । श्रनुक्रान्तेषु चतुर्ष्वपि चेति वर्तते । विनयादेष्ठ ||४ | २|४०|| विनय इत्येवमादिभ्यः स्वार्थे ठण् भवति । विनय एव वैनयिकम् । विनयः । समय । उपायात्प्रश्च । सङ्गति । कथञ्चित् । अकस्मात् । उपचार। समाचार । व्यवहार | सम्प्रदान । समुत्कर्ष । समूह । विशेष । श्रत्यय । वेत्यनुवर्तत एव । अनुगादिशब्दोऽपीह पठनीयः । वाचस्तदर्थायाः ||४|२||४१॥ सा वाक् अर्थोऽभिधेयोऽस्या इति तदर्था । तदर्थाया वाचः स्वार्थे ठ भवति । देवदत्तेन सन्दिष्टा वाग् जिनदत्ते । सा यया वाचा जिनदत्तेन परस्य प्रकाश्यते सा वाक्तदर्था वागर्थेत्यर्थः । वागेव वाचिकम् । तदर्थाया इति किम् ? स्निग्धवाक् सुजनस्य च व्यवह्नियते । तद्युक्ता कर्मणो ||४|२|४२|| तया वाचा युक्तं यत्कर्म तदभिधायिन: स्वार्थेऽण् भवति । यदेव वाचा व्यवह्रियते इदं कर्म कुर्विति, तदेव क्रियमाणं कर्म वाग्युक्तमुच्यते । कर्मेव कार्मणाम् । तद्युक्तादिति किम् ? स्वयमेव देवदत्तेन कर्मकृतम् । श्रोषघेरजातो ||४|२|४३|| श्रोषधिशब्दादजातौ वर्तमानादण् भवति । श्रोषधिरेव श्रौषधं पीयते । प्रजाताविति किम् ? स्थिरोऽयमस्त्वोषधिः क्षेत्रे | प्रज्ञादेः || ४|२| ४४ || प्रज्ञ इत्येवमादिभ्यः स्वार्थेऽण् भवति । प्रजानातीति प्रज्ञः । प्रज्ञ एव प्राज्ञः । 'प्रज्ञाश्रद्धाऽर्चावृत्तिभ्यो णः [ ४।१।२८ ] इति मत्वर्थीयेन सिद्धेपि स्त्रियां विशेषः । ऋणि प्राज्ञी | खे प्राज्ञा । प्रश । वणिज् | उशिक् । उष्णिन् । प्रत्यक्ष । विद्वस् । विदन् । वशिक | द्विदश । षोडन् । विद्या । मनस् । श्रोत्र शरीरे । जुहृत् । कृष्ण मृगे। चिकीर्षत् । वसु । मस्त् । सत्वन्तु । दशार्ह | वयस् । क्रुट् । रक्षस् | असुर | शत्रु | चोर । योध । चक्षुष् । पिशाच । अशनि । कार्षापण । देवता । बन्धु । श्राकृतिगणोऽयम् । विकृतिरेव वैकृतम् । मृदस्तिकः || ४|२| ४५|| मृत्-शब्दात्स्वार्थे तिको भवति । मृदेव मृत्तिका । स्त्रीविषयत्वाद्यापि कृते "स्यस्थे क्यापीद” [५/२/५० ] इत्यादिना इत्वेन सिद्ध इकारोच्चारणं किम् ? द्वाभ्यां मृत्तिकाभ्यां क्रीतं द्विमृत्तिकम् । "हृप्युप्" [ १1१18 ] इति स्त्रीत्यस्यापि श्रवणार्थम् । सस्ना प्रशंसे ||४|२|४६|| प्रशंसे वर्तमानान्मृच्छन्दान्नित्यं स स्न इत्येतौ त्यौ भवतः । रूपापवादः । प्रशंत इति प्रकृत्यर्थविशेषणमेतत् । मृत्सा । मृत्स्ना । उत्तरत्र वाग्रहणादिह नित्यो विधिः । यक्ष मृच्छदेन प्रशंसो नाभिधीयते किन्तु शब्दान्तरेण गृह्यते तदा वाक्यतिकौ भवतः । मृत्प्रशस्ता । मृत्तिका प्रशस्ता । For Private And Personal Use Only बहल्यार्थाच्छस्कारकाद्वा ||४ |२| ४७॥ बह्वर्थादल्पार्थाच्च कारकविशेषणात् शस् भवति वा । इह बहुशब्दो नानाधिकरणवाची न वैपुल्यवाचो । अल्पशब्दोऽपि नानाधिकरणवाची नत्वीषदर्थवाची गृह्यते । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० १ सू० १८-५३ ] महावृतिसहितम् २७३ बहुभ्य श्रागतः । बहुश आगतः । भूरिश आगतः । बहुभ्यो देहि । भूरिशो देहि । बहुभिर्लुनाति । बहुशो लुनाति । भूरिशो लुनाति । बहुषु वसति । बहुशो वसति । भूरिशो वसति । बहून् देहि । बहुशो देहि । भूरिशो देहि । बहुभिर्भुक्तम् । बहुशो भुक्तम् । भूरिशो भुङ्क्ते । अल्पेभ्य श्रागतः । श्रल्पश श्रागतः । स्तोकश श्रागतः । इत्येवमादि ज्ञेयम् । बह्वल्पार्थादिति किम् ? ग्रामादागच्छति । कारकादिति किम् ? बहुभिः सह भुङ्क्ते । वाग्रहणेऽनुवर्तमाने पुनर्वाग्रहणं पूर्वस्य विधेर्नित्यार्थम् । प्रशंस इति वर्तते तदिह बह्वल्पार्थान्मङ्गले गम्यमाने शस् भवतीत्यर्थः । बहुशो ददाति श्राभ्युदयिकेषु कर्मसु । अल्पशो ददाति श्रनिष्टेषु कर्मसु । संख्यैकाद्वीप्सायाम् ||४||४८ ॥ कारकादिति वर्तते । संख्यावाचिनः एकान्ताच्च कारकाद्वीप्सायां वर्तमानाद्वा शस् भवति । वीप्साद्विस्यापवादः । अथवा शसैवोक्तत्वाद् द्वित्व निवर्तते । एकशो देहि । वाक्यपदे वीप्सायां द्वित्वम् | "एको बवत्" [५।३।७] इति वद्भावात् "सुपो धुमृदो: " [१|४|१४२ ] इति सुप उपि कृते समुदायादम् । एकैकं देहि । द्वौ द्वौ देहि द्विशो देहि । त्रिशो देहि । एकान्तात् । माषं माषं देहि माषशो देहि । कार्षापणशो देहि । प्रस्थशो देहि । संख्यैकादिति किम् ? माषो माषौ देहि । वीप्सायामिति किम् ? द्वौ ददाति । माघं ददाति । कारकादित्येव । द्वाभ्यां द्वाभ्यां सह भुङ्क्ते । प्रस्थस्य प्रस्थस्य स्वामी । कथमेकैकशो मन्त्रिणः पृच्छेदिति ? चिन्त्यमेतत् । यथा वा स्त्रीत्यान्तात् स्वार्थिके उत्पन्ने पुनः स्त्रीत्यः कुमारीतरेति । एवं द्वित्वे कृते पुनः शस् । प्रतियोगे कायास्तसिः || ४ |२| ४९ ॥ वेति वर्तत । यतः प्रतिदाप्रतिनिधी प्रतिना" [ १|४| २२ ] इति प्रतिना योगे का विहिता । तदन्तात्तसिर्भवति वा । इकारः "कायास्वस्” [४।१।७३ ] " तसे:" [४|१|७४] इति विशेषणार्थः । श्रभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति। श्रेणिकात् प्रति । प्रद्योतनो वृत्तिषेणतः प्रति । वृतिषेणात् प्रति । "तसिप्रकरणे आद्यादिभ्य उपसंख्यानम्” [ वा० ] | श्रादौ । श्रादितः । मध्यतः । अन्ततः । पृष्ठतः । श्राकृतिगणोऽयम् । अपादाने होरुहोः ||४| २|५० || "काऽपादाने " [१|४ | ३७ ] इति अपादाने का विहिता । तदन्तात्तसिर्वा भवति हीयरुहसंबन्धि न चेदपादानम् । स्रुघ्नादागतः । स्रुघ्न श्रागतः । चौरेभ्यो बिभेति चौरतो बिभेति । श्रपादान इति किम् ? अन्यो देवदत्तात् । श्रहीयरहोरिति किम् । सार्थाद्धीनः । कर्मण्ययं क्तः । पर्वतादवरोद्दति । हीय इति जहातेः कर्मणि यक् तस्यानुकरणम् । किमर्थम् ? जिहीतेः प्रतिषेधो माभूत् । उदधेरुज्जिहीते । उदधित उज्जिहीते । "मन्त्रो वर्णतो हीनः" इत्यत्र श्राद्यादित्वात् भान्तात्तसिः । क्षेपाव्यथाऽतिग्रहेष्वकर्तृभायाः ||४ | २|५१|| क्षेप, अव्यथा, प्रतिग्रह, इत्येतेषु विषयभूतेषु या कर्तुरन्यत्र विहिता भा तदन्ताद्वा तसिर्भवति । क्षेपे-वृत्तेन क्षिप्तः वृत्ततः क्षिप्तो निन्दित इत्यर्थः । श्रव्यथायाम् - वृत्तेन न व्यथते वृत्ततो न व्यथते न चलतीत्यर्थः । श्रतिग्रहे वृत्तेनातिगृह्यते वृत्ततोऽतिगृह्यते । श्रतिमात्रं गृह्यत इत्यर्थः । सर्वत्र करणे हेतौ वा भा । क्षेपादिष्विति किम् । दात्रेण लुनाति । श्रकर्तृग्रहणं किम् ? देवदत्तेन क्षिप्तः । भाया इति किम् ? वृत्तमस्य क्षिप्यते । I मानपायोगात् ||४ | २१५२ || कर्तृभाया इति वर्तते । हीयमानपापाभ्यां योगो यस्य तस्मादकर्तरि भान्ताद्वा तसिर्भवति । दीयमानयोगात् वृत्तेन हीयते । वृत्ततो हीयते । चारित्रेण हीयते । पापयोगात् वृत्तेन पापः । अत्रापि करणे हेतौ वा भा द्रष्टव्या । नन्वत्रापि क्षेपोऽस्तीति पूर्वेणैव तसिः सिद्धः । नैष दोषः । पूजाप्यत्र गम्यते । नीचवृत्ततो हीयते । पापवृत्ततो हीयते । यदि वा तत्त्वाख्यानमंत्र सूत्रे विवक्षितम् न निन्दा । श्रकर्तरीत्येव । देवदत्तेन हीयते । वाया व्याये ||४/२/५३॥ नानापक्षाश्रयो व्याश्रयः । तान्ताद्वा तसिभवति व्याश्रये गम्यमाने । ३५ For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [प्र.४ पा० २ सू०१४-५० जमिरकीर्तितोऽभवत् । अर्ककीर्तरभवत् । मेघप्रभो मेघेश्वरतोऽभवत् । गम्यमानपक्षापेक्षा ता । व्याश्रय इति किम् ? देवदत्तस्य हस्तः। रोगादपनये ॥४२॥५४॥ अपनयः चिकित्सेत्यर्थः। ताया इति वर्तते । रोगवाचिनस्तान्तात् वा तसिर्भवति अपनये गम्यमाने । प्रवाहिकायाः कुरु । प्रवाहिकातः अपनयमस्याः कुर्वित्यर्थः । अपनय इति किम् ? प्रवाहिकायाः करोति प्रकोपमित्यर्थः । कृम्वस्तियोगेऽतत्सत्त्वसम्पत्तरि च्विः ॥४॥५५॥ वेतीहानुवर्तते । न सः असः कारणमित्यर्थः । अतस्य तत्त्वम् विकाररूपापत्तिः श्रतत्तत्त्वम् । सम्पद्यते इति सम्पत्ता सम्पद्यतेः कर्तेत्यर्थः । श्रतत्तत्त्वे गम्यमाने सम्पद्यतेः कर्तरि वर्तमानात् सुबन्तात् उत्तरावस्थाभिधायिनश्चिर्भवति कृवस्तिभियोंगे। अल्पान्तरार्थेन शब्देन विग्रहः क्रियते । अशुक्लं शुक्लं करोति शुक्लीकरोति प्रासादम् । अत्र करोतेः कर्मभावमापन्नोऽपि प्रासादः सम्पद्यतेः कर्ता भवति अत एवं विग्रहः । अशुक्लः शुक्लः सम्पद्यते तं करोति शुक्लीकरोति । शुक्लीभवति । शक्तीस्यात् । शुक्लशब्दाच्च्विः । इकारः "वौ" [२/१३५] इति विशेषणार्थः। चकारोऽपि तत्रैव विशेषणार्थः । तत्र विरित्युच्यमाने दर्विः,बागृविरित्यत्र "रीङ ऋत:" [५।२।१३६] इति रीङ्भावः प्राप्नोति । वकारः "विडाजूर्यादिः" [१२।१३२] इति विशेषणार्थः । तत्र हि विग्रहणेऽक्रियमाणे चिनोतेस्तद्विकाराणां वा ग्रहणं प्रसज्येत । पूर्वस्य सुपः "सुपो धुमृदोः" [१॥४११४२] इत्युप् । "अस्य च्वौ" [५।२।१४१] इतीत्वम् । परस्य सुपः "सुपो मेः" [४|११०] इत्युप् । कर्मभावाभिधायिन्यपि कृत्रादौ चिर्भवति । शुक्लीक्रियते। अशुक्लस्य शुक्लस्य क्रिया शुक्लीभवनमिति द्रव्यस्य गुणक्रियाद्रव्यसमूह विकारयोगेऽतत्तत्त्वमुदाहार्य क्रियायोगे-कारकीभवति । कारकीकरोति । कारकीस्यात् । द्रव्ययोगे-दण्डीकरोति । दण्डीभवति । दण्डीस्यात् । “दीरकृद्गे' [श२।१३४] "च्चौ" [१२।१३५] इति दीलम् | समूहे-गा असङ्घ सङ्घ करोति सङ्घीकरोति । सङ्घीभवन्ति गावः । सङ्घीस्युः। विकारे-पटीकरोति तन्तून् । पटीभवन्ति । पटीस्युः । घटीकरोति मृदः । घटीस्यात् । अत्रायमर्थः । यत्र कारणाद्विकारस्याभेदो विवक्ष्यते तत्रायं च्विः । न तु यत्र कारणाकार्यस्य भेदः। यथा वीरणभ्यः कटं करोति । मृदो घटं करोति । कृम्वस्तियोगे इति किम् ? अशुक्लः शुक्लो जायते । अतत्तत्त्वे इति किम् ? शुक्लं करोति । घटं करोति । अत्र विकारस्यैव विवक्षा कारणस्याविवक्षितत्वा सम्पत्तग्रहणं किम् ? कर्तुरन्यस्मिन् कारके मा भूत् । अशुक्ले सत् शुक्ले सम्पद्यते । अदेवगृहे सत् देवगृहे सम्पद्यते । कथं समोपीभवति । दूरीभवति । अत्राप्युपचारात् । तस्थे द्रव्ये वर्तमानस्य कर्तृलम् । मनोरुश्चक्षुश्चेतोरहोरजसः खम् ॥४२॥५६॥ मनःप्रभृतीनां शब्दानामलोऽन्त्यस्य खं भवति च्वौ परतः। अविशेषेण पूर्वेणैव चिः सिद्धः । खमनेन विधीयते । न च खविधौ तदन्तविधिप्रतिषेधः । स-त्यविधौ तदन्तविधिप्रतिषेधात् । तदन्तानां केवलानां चेह ग्रहणम् । अनुन्मनसम् उन्मनसं करोति उन्मनीकरोति । उन्मनीभवति । उन्मनीस्यात् । अरूकरोति । अरूभवति । श्ररूस्यात् । “दीरकृद्गे' [१।२।१३४] "चौ" [५।२११३५] इति दीखम् । उच्चतूकरोति । उच्चतूभवति । उच्चतूस्यात् । विचेतीकरोति । विचेतीभवति । विचेतीस्यात् । विरहीकरोति । विरहीभवति । विरहीस्यात् । विरजीकरोति । विरजीमवति । विरजीस्यात् । साद्वा कात्स्न्य ॥४१२।५७॥ कृभ्वस्तियोगेऽतत्तत्त्वे सम्पत्तरीति वर्तते । अवत्तत्त्वविषये कास्न्य गम्यमाने सादित्ययं त्यो भवति वा । अनग्निम् कृत्स्नमस्त्रम् अग्निकरोति अग्निसातकरोति । अग्निसाद्भवति । अग्निसात्स्यात् । उदकसात्करोति । उदकसाद्भवति । उदकसात्स्यात् । वावचनाविरपि समुच्चीयते । अग्नीकरोति । उदकीकरोति । कात्स्यादन्यत्र विरेव भवति । सम्पदा चाभिविधौ ॥४॥२२५८॥ नानाद्रव्याणां सर्वात्मना एकदेशेन वा विकाररूपापत्तिरभिविधिः। एकद्रव्यस्य सर्वात्मना विकाररूपापत्तिः कात्यमिति भेदः। अभिषिधौ गम्यमाने विविषये साद्भवति सम्पदा For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०४ पा० २ ०११-६४ ] महावृत्तिसहितम् २७५ कृभ्वस्तिभिश्च योगे । वर्षासु सर्व लवणमनुदकमुदकं सम्पद्यते उदकसात्सम्पद्यते । उदकसात्करोति । उदकसाद्भवति । उदकसात्स्यात् । अस्मिन् कटके उत्पातेन सर्व शस्त्रमग्निः सम्पद्यते श्रग्निसात्सम्पद्यते । श्रग्निसात्करोति । श्रग्निसाद्भवति । अग्निसात्स्यात् । वेत्यनुवृत्तेः कृभ्वस्तिभिर्योगे चिचरपि भवति । उदकीकरोति । उदकीभवति । उदकीस्यात् । तदधीनोक्तौ ||४| २|५९॥ श्रतत्तत्वे इति निवृत्तम् अर्थान्तरोपादानात् । तदधीनेऽभिधेये साद्भवति । कृम्वस्तिभिः सम्पदा च योगे । उक्तिग्रहणसामर्थ्यात् यत्र तदायत्तं प्रतीयते, तस्मात्स्वामिविशेषवाचिनस्त्यः । राज्ञ श्रायत्तं राजाधीनं करोति । राजसात्करोति । राजसात्स्यात् । राजसात्सम्पद्यते । श्राचार्यसात्करोति । श्राचार्यसाद्भवति । श्राचार्यसात्स्यात् । श्राचार्यसात्सम्पद्यते । वेत्यनुवृत्तेर्वाक्यमपि साधु । देये त्रा ||४|२|६० ॥ तदधीनोक्लाविति वर्तते । देय दातव्यमित्यर्थः । तदधीने देयेऽभिधेये त्रा इत्ययं त्यो भवति साच्च कृम्वस्तिभिः सम्पदा च योगे । श्राचार्याधीनं देयं करोति श्राचार्यत्रा करोति । श्राचार्य सात्करोति । श्राचार्यसात्स्यात् । श्राचार्यत्रा सम्पद्यते । श्राचार्यसात्सम्पद्यते । वेत्यनुवृत्तेर्वाक्यमपि । देय इति किम् ? राजखाद्भवति राष्ट्रम् । अव्यक्तानुकरणाने काचोऽनितौ डाच् ||४|२/६१ ॥ शब्द इति सामान्येन व्यक्तोऽव्यक्तोsकारादिव विशेषेणाव्यक्तः । तस्यानुकरणं यत्तस्मादव्यक्तानुकरणादने काचोऽनितौ डाजित्ययं त्यो भवति कृभ्वस्तिभिर्योगे । पटत्करोति । पटपटाकरोति । पटद्भवति । पटपटाभवति । पटत्स्यात् । पटपटास्यात् । पटदिति क्रियाविशेषणम् । एतत् प्रादिवत् करोत्यर्थं विशिनष्टि न पुनः कारकत्वेनाभिसम्बध्यते । डकारः टिखार्थः । चकारो "ढाचि" इति विशेषणार्थः । डाचीति विशेष्यनिर्देशात् प्रागेव टिखाद् द्वित्वम् "म्रो हाचि " [ ४ | ३ |८७ ] इति पूर्वस्य तकारस्य पररूपम् । डाजन्तस्य " चिवडाजूर्यादिः " [ १।२।१३२ ] इति तिसंज्ञा । एवं दमदमाकरोति । दमदमाभवति । दमदमास्यात् । श्रव्यक्तानुकरणादिति किम् ? दृषत् करोति । श्रनेकाचं इति किम् ? खात् करोति । श्रनिताविति किम् । पटिति करोति । "ढाजहंस्येतावतः " [ ४|३|८५ ] इत्यच्छन्दस्य पररूपम् । श्रनिताविति प्रतिषेधार्थकः । कथमिति चेत् ? डाजन्तस्य तिसंज्ञा । तस्य "प्राग्घोस्ते" [ १।२।१४६ ] इति कृभ्वस्तिभ्यः प्राक्प्रयोगेऽनिति परतैव भवति । एवं तहि इतौ प्रतिषेधवचनम् श्रनिष्टशब्दनिवृत्त्यर्थम् । पटच्छब्दादिति शब्दप्रयोगे डाचि कृते इति पटपटाकरोतीत्यनिष्टः शब्दो मा भूत् । कृञो द्वितीयतृतीयशंवबोजात्कृषौ ||४/२/६२|| कृञो ग्रहणं स्वस्त्योर्निवृत्त्यर्थम् । कृञो योगे द्वितीय तृतीय शंव बीज इत्येतेभ्यः शब्देभ्यो डाज्भवति कृषिविषये । द्वितीयं विलेपनं करोति क्षेत्रस्य द्वितीयाकराति क्षेत्रम् | डाांच द्वित्वमनित्यमिति वक्ष्यते । योऽसौ करोतेः कर्मणश्च विग्रहे संबन्धः, स उत्पन्ने [डाचि निवर्तते । द्वितीयादयस्तु शब्दाः प्रादिवत् क्रियाविशेषणभूताः । क्षेत्रं कर्म भावमुपयाति । एवं तृतीयाकरोति क्षेत्रम् | शंयं करोति कुलिजस्य शंवाकरोति कुलिजम् । श्रन्ये तु शंवाकरोतीत्येव सार्थ दर्शयन्ति । अनुलोमविलोमाभ्यां कर्षतीत्यर्थः । बीजं करोति क्षेत्रस्य बीजाकरोति क्षेत्रम् । वपतीत्यर्थः । सह बीजेन विलेखनं करोतीत्यर्थः । कृषाविति किम् ? द्वितीयं विवरणं करोति सूत्राणाम् । गुणात्संख्यादेः ||४||६३ ॥ कृञ इति वर्तते । कृषाविति च । गुणशब्दान्तात्संख्यादेमृ दो डाभवति कृञो योगे । द्विगुणं विलेखनं करोति क्षेत्रस्य द्विगुणाकरोति क्षेत्रम् । श्रथवा द्वौ गुणौ विगृह्य हृदर्थे रसः । तस्मात्त्यः । गुणादिति किम् । द्वे परिवर्तने करोति क्षेत्रस्य । संख्यादेरिति किम् ? समगुणं करोति क्षेत्रम् | कृषावित्येव । द्विगुणं करोति वज्रम् । समयासपत्रानिष्पत्रा निष्कुला सुखाप्रिया दुःखाशूला सत्याभद्रा भद्राः ॥४/२/६४ ॥ समया For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ. ४ पा. २ सू०६५-६८ दयः शब्दा डाजन्ता निपात्यन्ते । सर्वत्र कृयोगे निपातनम् । समयशब्दाद्यापनायां गम्यमानायां डान्निपात्यते । कालकृता पुरुषकृता वा संस्था समयः। तस्यातिक्रमः कालक्षेपो यापना। समयं करोति पटस्य । श्वो दातास्मीति तस्यातिक्रमे समयाकरोति पटं कुविन्दः । यापनाया अन्यत्र डाज न भवति । समयं करोति विवाहस्य । सपत्रनिष्पत्रशब्दाभ्याम् अतिव्यथने गम्यमाने डाच । सपत्रशब्द इह विपरीतलक्षणतया निष्पन्नशब्दार्थे वर्तते। सपत्राकरोति मृगं व्याधः । अतिपीडयतीत्यर्थः। एवं निष्पत्राकरोति । अतिव्यथनादन्यत्र सपत्रं वृतं करोति जलसेचकः । निष्पत्रं वृक्षतत्त्वं करोति वाटिकापालः। निष्कुलशब्दान्निष्कोषणेऽर्थ डाच । प्रच्छन्नावयवाना बहिनिष्कासनं निष्कोषणम् । निष्कुलाकरोति पशुं चाण्डालः । निष्कोषणादन्यत्र निष्कलं करोति पुरुषम् । उच्छिनत्तीत्यर्थः। सुखप्रियशब्दाभ्यामानुलोम्येऽर्थे डाच । सुखाकरोति । प्रियाकरोति । स्वाध्यादेरानुकल्येन वर्तत इत्यर्थः। श्रानुकल्यादन्यत्र सुखं करोति धर्मः। दुःखशब्दात प्रातिलोभ्ये* दाच । दःखाकरोति । प्रातिकूल्येन वर्तत इत्यर्थः । प्रातिकूल्यादन्यत्र दुःखं करोति दुष्कृतम । शलशब्दात पाकार्थप्राये डाच । शुलाकरोति मांसम् । शूले मांसं पचतीत्यर्थः । पाकादन्यत्र शूलं करोति सिविलम (कदनम)। सत्यशब्दादशपथेऽर्थे डाच । सत्याकरोति वणिग भाण्डम् | अहमेतद्भाण्डं ऋष्यामीति । अन्तराले द्रव्यं सत्यंकार व्यवस्थाप्य तथ्यं करोति । (अशपथे किम् ? सत्यं करोति ब्राह्मणः) । शपथं करोतीत्यर्थः । अदमदशब्दाभ्यां परिवापणेऽथ डाच । भद्राकरोति नापितः शिशन् । मद्राकरोति नापितः शिशुन । परिवापणादन्यत्र भद्रं करोति साधुः । सान्ताः॥४२॥६५॥ सान्तमि(न्ता इ) त्ययमधिकारो वेदितव्यः । श्रापादपरिसमाप्तये विधयो वक्ष्यन्ते मयान्ता अवयवास्ते भवन्तीत्यर्थः । ननु वक्ष्यमाणेषु सूत्रेषु कचित्सविशेषाधिकारोऽस्ति कचित्पूर्वपदोत्तरपदनिर्देशः । ततः सामर्थ्यादेव सान्ता विधयो भविष्यन्तीति नार्थोऽनेन, यत्रार्थविभागोऽस्ति तदर्थोऽधिकारः । कपुरब्धःपयोऽनक्षे" [१२१७०] इति । अधचैम् । सग्रहणं किम् ? ऋक् । श्रन्तग्रहणं किमर्थम ? नग्रहणोन ग्रहणं यथा स्यात् । हर-द्वन्द्वस शाः प्रयोजयन्ति । उपराजम् । "हे शरदादेः" [ ११] २१११०] इति सान्ते कृतै हसंज्ञाश्रयाऽम्भावादिः सिद्धः। द्वेधुरो समाहृते द्विधुरी। त्रिधुरी | "रात" 1041 हत्यकारान्तलक्षणा डीविधिः सिद्धः। नूपुरोपानहिनी। 'द्वन्द्वाच्चुदहषो रार्थ" [ १० द्वन्द्वोपतापगडाखागनीन्" ११५१] इतीन्विधिः सिद्धः। खादेशी च प्रयोजयतः । याप्रपात । "खं पादस्याहस्त्यादेः" । ४।२।१३६ । इति परस्यादे भूत् । “गन्धस्येरुत्पूतिसुसुरभिभ्यः" [॥२॥१३६ ] इति परस्यादेरित्वम्मा भूत् ।। स्वतिकमः॥४॥२॥६६॥ सु अति किम् इत्येतेभ्यः परस्य सान्तो न भवति । वक्ष्यमाणेन समेत विहितः सर्वःसान्तः प्रतिषिध्यते । शोभना राजा सुराजा । सुसखा । सुगौः। अतिराजा। अतिसखा । गीता को राजा किंराजा यो न रक्षात । किसखा यो न स्निह्यति । किंगोर्यो न वहति । इह कस्माप्रतिषेधो न भवति शामने अक्षिणी यस्य स्वक्षः। "स्वानाद्वेऽक्षिसक्थन:' [२१११३] इत्यसान्तः । अत्रोच्यते-"स्वती पूजायाम्' इति विशिष्योक्तत्वात्प्रतिपदोक्लस्य षसस्यैव ग्रहणम् न वसस्य । पूषायामनयोसाहचर्यात । पूजार्थस्यातेहणम् , तेन "त्यादयः क्रान्ताय) इपा' इति प्रतिपदविधाने तिप्रतिषेधोन भवति । अतिक्रान्तो राजानम् अतिराजः इति । देपे किमिति प्रतिपदोक्लस्य ग्रहणात् इहापि प्रतिषेधो न भवति । को राजा किंराजः। किंसखः । किंगवः । नमः॥४।२।६७॥ नत्रः परस्याः प्रकृतेः सान्तो न भवति । अराजा । असखा । अगौः। इहापि नमिति प्रतिपदोक्तस्य षसस्य ग्रहणादन्यत्राप्रतिषेधः। अराजको देशः। अनृचो माणवकः। पथी वा ॥४।२।६८॥ नमः परो यः पथिशब्दस्तदन्ताद्वा सान्तो न भवति । पूर्वण नित्ये प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् । अपथम् । अपन्थाः। इह नत्रः सस्यानुवृत्तेरन्यत्र नित्यो विधिः। श्रपथं वनम । For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. पा०२ सू०६६-७३] महावृचिसहितम् संख्याषाडोऽबहुगणात् ॥४॥६६॥ "संख्येये संख्यया झ्यासन्ना" [१३१८७ ] इत्यादिना प्रतिपदोक्लो यः संख्याया बसस्तस्मादबहुगणान्ताः सान्तो भवति । समीपे दशानामिमे उपदशाः । आसन्ना विंशतेरिमे आसन्नविंशाः। अदरे त्रिंशतोऽदरत्रिंशाः। द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः । पञ्चषाः । संख्याग्रहणं किम् ? चित्रगुः। संख्याबसस्य प्रतिपदोक्लस्य ग्रहणादिह न भवति । द्विगुः। दशगुः । अबहुगणादिति किम् ? उपबहवः । इदमेव ज्ञापकं बहुगणयोः संख्या संज्ञा भवति । गणशब्दस्य डे सत्यसति च नास्ति विशेषस्तस्य प्रतिषेधोऽन्यसंख्याकार्यलाभार्थः। गणकृत्वः । गणधा। "प्रकरणे संख्याया षयस्योपसंख्यानं निस्त्रिशाद्यर्थम्"। निर्गतानि त्रिंशतो निस्त्रिशानि। निश्चलारिंशानि। निरशीतानि वर्षाणि वर्तन्ते । निर्गतस्त्रिंशतोऽङ्गुलिभ्यो निस्त्रिंशः खङ्गः।) आदिशब्दः प्रकारवाची तेन त्र्यादेनं भवति। ऋकपूरब्धःपथोऽनते ॥४२॥७०॥ ऋच, पुर , अप् , धूः , पथिन् इत्येवमन्तेभ्यः अ इत्ययं सान्तो भवति अक्षसंबन्धी चेःशब्दो न भवति । बादिति निवृत्तं सामान्येन विधानम् । सान्ताधिकारसामर्थ्यात्तदन्तग्रहयाम् । अकारस्यानक्षशब्दे परतः स्वेऽको दीत्वं कस्मान्न कृतम् ? शकन्भ्वादित्वात्पररूपं द्रष्टव्यम् | सौत्रो वा निर्देशः । अर्धर्चम् । अनुचो माणवकः। अबवचम् । ललाटस्य पूर्ललाटपुरम् । द्विर्गता प्रापोऽस्मिन् द्वीपः। समीपः । राज्यस्य धू राज्यधुरा । महाधुरा । मोक्षपथः । राजपथः। अनक्ष इति किम् १ अक्षस्य धूः अक्षधूः। दृढधूरक्षः। अत्र केषाश्चिदस्ति । "अनृचो माणवो ज्ञयो बहवृचरचरणे स्मृतः।" तेनेह न भवति । अनृक्क साम । बह्वृक्कं सूक्तम् । प्रत्यन्ववात्मामलोम्नः ॥४।७१ ॥ प्रति अनु अव इत्येव-पूर्वात्सामान्ताल्लोमान्ताच्च श्रः सान्तो भवति । प्रतिगतं साम प्रतिसामम् । श्रनुसामम् । अवसामम् । प्रतिलोमम् । अनुलोमम् । अवलोमम् । "तिकुमादयः" [११३८१] इति षसः। अन्यपदार्थे बपो वा कर्तव्यः । यदा तु हसः, तदा "अनः" [२।११०] "नपो वा" [१॥२॥१.१j इति परत्वाद्विकल्पः । प्रतिसामम् । प्रतिसाम । प्रतिलोमम् । प्रतिलोम। "कृष्णोदकपाण्डुपूर्वाया भूमेरत्योऽयमिष्यते । गोदावर्याश्च नाश्च संख्याया उत्तरे यदि ॥' [वा०] कृष्णाभूमः । पाण्डुभूमः । बसो यसो वा। द्वे गोदावयौं समाहृते द्विगोदावरम् । पञ्चनदम् । "नदोभिश्च" [॥३॥१७] इति इसः। चकाराद्भूमिरपि भवति । द्विभूमः । सप्तभूमः प्रासादः। कचिदन्यत्रापीष्यते । पद्मनाभः । ऊर्णनाभः । वर्षरात्रः। अजीवेऽक्ष्णः ॥॥२७२॥ अजीवे वर्तते योऽक्षिशब्दस्तदन्तात्सात् अ इत्ययं त्यो भवति । कमलस्याक्षि कमलाक्षम् । अथवा कमलमक्षीव कमलाक्षम् एवं लक्षणाक्षम् । पुष्कराक्षम् । कबरस्याक्षि कबरानम् । श्रश्वानां मुखाच्छादनं बहच्छिद्रकमित्यर्थः। अजीव इति किम् १ अजाक्षि । कथं प्रासादस्य गवाक्षम्। कटाक्ष इति । एवमादयोऽपि रूढिशब्दा इति न जीवेऽक्षिशब्दस्य वृत्तिः। स्त्रोधेनुवाग्दारात्पुंसनडुन्मनोगोभ्यः ॥४॥२१७३।। स्त्री, धेनु, वाक्, दार इत्येवम्पूर्वेभ्यो यथासंख्यं पुंस्, अनडुह् , मनस्, गो इत्येभ्यः श्रः सान्तो भवति । स्त्री च पुमांश्च स्त्रीपुंसौ । कचिद्यसेऽपि भवति । पूर्व स्त्री पश्चात्पुमान् स्त्रीपुंसं विद्धि राक्षसम् । स्त्रीपुंसः शिखण्डी। द्वन्द्वयसाभ्यामन्यत्र न भवति । खियाः पुमान् । परिशिष्टेभ्यो द्वन्द्व एव त्यो भवति । धेनुश्च अनड़वाश्च धेन्वनडुहो । वाक्च मनश्च वाङ्मनसम् १ दाराश्च गावश्च दारगवम् । १. कवणाक्षम् पू० । २. 'गोम्बा' इति बहुवचनान्तः पाठचिन्स्यः, ग्रन्थे सर्वत्रैकवचनस्यैव प्रयोगदर्शनात् । For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० २ सू०७४-८३ ऋचः सामयजुाम् ॥४।२७४|| ऋचः पराभ्यां सामयजुाम् अः सान्तो भवति द्वन्द्वएवाभिधानम् । क्च साम च ऋक्सामे । ऋक्च यजुश्च ऋग्यजुषम् । नविसूपत्रिभ्यश्चतुरः ॥४।२।७५।। नञ् , वि, सु, उप, त्रि इत्येतेभ्यः परश्चतुर्शब्दोऽत्यान्तो निपात्यते । अदृश्यानि चखारि अनेन अचतुरः। विगतानि चत्वार्यस्य विचतुरः। शोभनानि चत्वार्यस्य सुचतुरः । समीपे चतुर्णामयमुपचतुरः । त्रयो वा चत्वारो वा त्रिचतुराः। बस एवेदं निपातनम् , नान्यत्र । न चत्वारोऽचत्वार इति । नक्तंरात्रिमहोभ्यो दिवम्॥४।२७६|| नक्लम, रात्रिम् , अहन् इत्येतेभ्यः परो दिवशब्दो निपात्यते द्वन्द्वे । नक्तञ्च दिवा च नक्तन्दिवम् । अः सान्तो निपात्यते । रात्री च दिवा च रात्रिन्दिवम् । सूत्रे निपातनादेव रात्रिशब्दस्य मुम् । अहश्च दिवा च अहर्दिवम् । अहःशब्दसन्निधाने दिवाशब्दो रात्रिपर्यायः शक्तिस्वाभाव्यात् । द्वित्रिपुरुषादायुषः ॥४।२७७॥ द्वि, त्रि, पुरुषशब्देभ्यः पर अायुषशब्दो निपात्यते । द्वे आयुषी समाहृते व यायुषम् । व्यायुषम् । श्रस्सान्तो निपात्यते। रसादन्यत्र न भवति । द्वयोरायुर्यायुः। व्यायुः। पुरुषस्यायुर्वर्षाणि पुरुषायुषम् । तास एवेदं निपातनम्, द्वन्द्वे न भवति । पुरुषश्च श्रायुश्च पुरुषायुषी । जातमहद्वृद्धादुक्षः॥४२७८| जात, महत् , वृद्ध इत्येतेभ्यो पर उक्ष इति निपात्यते। सर्वत्र यसेऽकारः सान्तो निपात्यते । जातश्च मा उक्षा च जातोक्षः। महोक्षः। वृद्धोचः । यसादन्यत्र न भवति । जातस्य उक्षा जातोक्षा । मदुक्षा । वृद्धोक्षा। सरजसोर्वष्ठोवपदष्ठोवातिभ्रुवा(व दारगवो') पशनगोष्ठश्वाः ॥४२७९॥ सरवसादयः शब्दा अत्यान्ता निपात्यन्ते । सह रजसा सरजसमभ्यवहरति । साकल्ये हसः। हसादन्यत्र न भवति । सरन: सलिलम् । उरू च अष्ठीवन्तौ च उर्वष्ठीवम् । अकारस्त्यष्टिखं च निपात्यते । अष्ठीवन्तौ गुलकावुच्यते । प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः । पादौ च अष्टीवन्तौ च पदष्ठीवम् । द्वन्द्वेऽकारः सान्तष्टिखं पूर्वपदस्य पद्भावो निपात्यते । अक्षिणी च भ्रुवौ च अक्षिध्रुवम् । द्वन्द्व युवल्लिङ्गम् । दारगवमित्यवादेशश्च निपात्यते । शुनः समीपम् उपशुनम् । हसे श्रः सान्तष्टिखाभावो जिश्च निपात्यते । गोष्ठे श्वा गोष्ठश्वः । अः सान्तः । पल्यराजहस्तिभ्यो वर्चसः ॥४।२।८०॥ पल्य, राजन्, हस्तिन् इत्येतेभ्यः परो यो वर्चःशब्दस्तम्तादः सान्तो भवति । अत्र तासः सम्भवति । पल्यस्य वः पल्यवर्चसम् । राजवर्चसम् । हस्तिवर्चसम् । "ब्रह्मवर्चसादिभ्योऽपि वक्तव्यम्" [वा०] । तेनात् ( नात्ये ) ब्रह्मवर्चसमिति भवति । तमसोऽवसमन्धात् ॥४।२।८१॥ अव, सम् , अन्ध इत्येतेभ्यः परात्तमःशब्दादः सान्तो मवति । अवहीनं तमः, श्रवहीनं तमोऽस्मिन्वाऽवतमसम् | सन्तमसम् । अन्धतमसम् । षसो बसो वा । निसः श्रेयसः ॥४२८२॥ निःशब्दात् परो यः श्रेयःशब्दस्तदन्तदस्त्यो भवति । निश्चितं श्रेयः निःश्रेयसम् । अत्र ( यस एव ) विधानं न बस इति केचित् । निश्चितं श्रेयोऽनेन निःश्रेयस्कः । खसो वसीयसश्च ॥४२८३॥ श्वसः परात् वसीयसः श्रेयसश्च अः सान्तो भवति । वसुमच्छब्दात् "विन्मतोरुप" [४।१।१२४ ] इति ईयसो मतोश्वोपि कृते वीय इति भवति । श्वोवसीयसं कुलम् । श्व: श्रेयसमस्तु ते । उभयत्र मयूरव्यंसकादित्वात्सः । १. वृत्यनुरोधाददारगवशब्द सूत्रे सनिवेश्य एव । For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० २ सू० ८४.६] महावृत्तिसहितम् २७९ तप्तान्ववाद्रहसः ॥४२८४|| प्रच्छन्न उपशुप्रयोगो वा रहः । तप्त अनु अव इत्येतेभ्यः परो यो रहाशब्दस्तदन्तादस्त्यो भवति। सम्भवतः सस्य ग्रहणम् । तप्तं रहः तप्तरहसम् । अनुगत रहा अनुरहसम् । अनुगत रहोऽस्मिन्वाऽनुरहसम् । अवरहसम् । प्रतेकरस ईपः ॥४।२।८५॥ प्रतेः परात् उरःशब्दादीबर्थे वृत्ते अस्सान्तो भवति | उरसि वर्तते प्रत्युरसम् । विभक्त्यर्थे इसः। अथवा विग्रहवाक्ये ईवन्तादुरःशब्दादस्त्यो भवति । प्रतिष्ठितमुरसि प्रत्युरसम् । "विप्रादयः" [२८] इति षसः । ईप इति किम् ? प्रतिगतमुरः प्रत्युरः। द्विस्तावात्रिस्तावाऽनुगवम्॥४॥२॥८६॥ द्विस्तावा त्रिस्तावा, अनुगव इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । द्विस्तावतीति विगृह्य द्विस्तावा वेदिः। काचिदभिधीयते । मयूरव्यंसकादित्वात्सः। श्रः सान्तः पुंवद्भावष्टिखं च निपात्यते । एवं त्रिस्तावतो त्रिस्तावा वेदिः। वेद्यभिधानादन्यत्र न भवति द्विस्तावती त्रिस्तावती परिखा । अत्रापि अध्याहतक्रियापेक्षया क्रियाभ्यावृत्तिरस्ति । द्विस्तावती मीयते परिच्छिद्यते वा। तेन सुप सिद्धः। अनुगविऽभिधेय] वमिति [अस्सान्तो] अत्यान्तो निपात्यते श्रायामिन्यभिधेये। गामन्वायतम् अनुगवं यानम् । "प्रायामिना" [१३/१३] इति हसः । यथा गौरायतस्तथा यानमप्यायतमित्यर्थः। श्रायाम्यभिधानादन्यत्र न भवति । गवां पश्चादनुगु । गेरध्वनः ॥४।२।८७॥ गिसंज्ञोपलक्षितेभ्यः परादध्वशब्दादस्त्यो भवति । सम्भवतः सस्य ( षसस्य) ग्रहणम् । प्रगतोऽध्वानं प्राध्वो रथः । प्राध्वं शकटम् । षेऽङ्गुलेर्भिसंख्यादेः ॥४।२।८८॥ झिसंख्यादेरअलिशब्दादस्सान्तो भवति । अतिक्रान्तमङ्गलीरत्यङ्गुलम् । निर्गतमङ्गुलिभ्यो निरङ्गलम् । संख्यादेः-द्वयोरमुल्योः समाहारो द्वषङ्गुलम् । व्यङ्गलम् | चतुरगुलम् । तथा द्वे अङ्गुली प्रमाणमस्य द्वयङ्गुलम् । “हृदर्थ'' [१३।४६] इति रसः। प्रमाणेऽर्थे आगतस्य मात्रटः "रादुबखौ" (३२।२६] इत्युप् । बस इति किम् १ पञ्चाङ्गुलीहस्तः। अहस्सवैकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रे ॥४।२।८६॥ षे इति वर्तते । अहन् , सर्व, एकदेश, संख्यात, पुण्य इत्येतेभ्यः पराद्रात्रिशब्दाद् झिसंख्यादेश्च अस्त्यो भवति पसे । श्रहश्च रात्रिश्च अहोरात्रः । पस्यासम्भवात् अत्र द्वन्द्वो वेदितव्यः । "अहो रिविधौ रात्रि रूपरथन्तरेषु' [वा०] इति रित्वम् । सर्वा रात्रिः सर्वरात्रः । “पूर्वकालैक" [१॥३॥४४] इत्यादिना षसः । एकदेशात्-पूर्वा रात्रिः पूर्वरात्रः। अपरा रात्रिः अपररात्रः । उत्तरा रात्रिः उत्तररात्रः। गत्येकदेशे रात्रिशब्दो वर्तते । ततः सामानाधिकरण्यम् । “विशेषणं विशेष्येणेति" [१३२५२] इति षसः । संख्यातरात्रः। पुण्यरात्रः। भयादेः-अतिक्रान्तो रात्रिर्मातरात्रः। नीरात्रः । संख्यादा-द्वयो रात्र्योः समाहारो द्विरात्रम् । त्रिरात्रम् । एभ्योऽलोऽह्नः ॥४६॥ राजाऽहःसस्विभ्यष्टो विधास्यते, तस्मिन् सति अहनित्येतस्य अह्लादेशो भवति एभ्यः सर्वादिभ्यः परस्य । एभ्य इति निर्देशो झिसंख्यादेरपि ग्रहणार्थः । तत्संभवादहःशब्दपूर्वत्यं नाश्रीयते । सर्वमहः सर्वाह्नः। 'टखोरेवांत' [४॥४।१३३) इति टिखे प्राप्तेऽनेनाहादेशः। 'मतोहः" [५।] इति णलम् । पूर्वाह्नः। अपराह्नः। संख्याताह्नः । पुण्यशब्दात्प्रतिषेधं वक्ष्यति । झिसंख्यादेः-- निष्कान्ताऽहो निरही कथा । द्वयोरहो वा द्वयही पूजा । व्यही पूजा । हृदर्थे रसे कृते भवाथै आगतस्याणः "रस्योवनपत्ये' [१०] इत्युप् । द्यौ रसे संख्यादिः प्रयोजयति । द्वेऽहनी जातस्य द्वथहजातः । त्यह्नजातः । “काला मेथैः" [॥३॥६७) इति त्रिपदः षसः। एकशब्दात्प्रतिषेधं वक्ष्यति । न समाहारे ॥२६॥ समाहारलक्षणे षसे अहन्नित्येतस्याह्लादेशो न भवति । पूर्वसूत्रेण संख्यादेरिति प्राप्तः प्रतिषिध्यते । द्वयोरहोः समाहारो द्वथहः । यह । "टखो बाहः" [१।४।१३३] इति टिखम् । For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [00.पा.२सू० २३-१०० अत्र संख्यादेरिति वक्तव्यम् । इह मा भूत् । सङ्गतानि समाहृतान्यहानि समहा इति नैष दोषः । प्रतिपदं "डवर्था समाबारे" [१॥३२४६] इति समाहारे विहितस्य षसस्येह ग्रहणं न प्रादिलक्ष णस्य । समाहार इति किम् । द्वयोरहोर्भवो व यह्नः उत्सवः । हृदर्थे रसे कृतेऽण आगतस्य पस्योबनपत्ये" [३३१७४] इत्युप् । पुण्यैकाभ्याम् ।।४।२।२।। पुण्यैकशब्दाभ्यां परस्य अहन्नित्येतस्य अह्लादेशो न भवति । पुण्यमहः पुण्याहः । एकमहः एकाहः । “पूर्वकाखैक" [१३.४४] इत्यादिना षसः। राजाऽहासखिभ्यष्टः ॥४.२/६३ राजन् , अहन् , सखि, इत्येतदन्ताटो भवति । देवराजः । द्वयोरहोः समाहारो द्वथहः। परमाहः। राजसखः । स्त्रियाः पूर्वपदार्थप्राधान्येऽतिक्रान्ता राजानम् अतिराजी । नकारान्तलक्षणीविधेः परत्वादनेन टः। “मृग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्” प. इतीह कस्मान भवति ? मद्राणां राज्ञी मद्रराज्ञी । मद्रसखी । अनित्यैषा परिभाषेति न भवति । गोरहृदुपि ॥ ४।२।९४ ॥ गोशब्दाडो भवति अहृदुब्विषये । पञ्चानां गवां समाहारः पञ्चगवम् । महागवः । राजगवो । अतिगवी । पञ्चगवधनः। अहृदुपीति किम् ? पञ्चभिः क्रीतः पञ्चगुः । दशगुः । हृदर्थे "संख्यादी रश्च" [१।३।४७] इति रसे कृते क्रीतार्थे अागतस्य श्राीयस्य ठणो “रादुबखौ" [२६] इत्युप् । अत्रान्तरङ्गत्वात्प्रागेव सान्तो भविष्यतीति प्रतिषेधोऽनर्थकः । नैवं शक्यम् अनुपीति विषयनिर्देशाब्विषये प्रतिषेधः । हृदग्रहणं किम् ? सुबुन्विषये प्रतिषेधो मा भूत । पञ्चगवमिच्छति पञ्चगवीयति । उन्ग्रहण किम् ? हृतः श्रवणविषये प्रतिषेधो मा भूत् । पञ्चभ्यो गोभ्य श्रागतं पञ्चगवरूप्यम् । पञ्चगवमयम् । हृदर्थे रसे कृते टः सान्तः । “हेतुमनुष्याद्वा रूप्यः" । [३।३।५५] "मयट्" [ ३।३।५६] इति रूप्यमयटौ। उरसोऽये ।।४।२।९५।। अयं प्रधानम् । अग्रे वर्तते य उरःशब्दस्तदन्तात्याट्टो भवति । हस्तिनामुरः हस्त्युरसम् । अश्वोरसम् । रथोरसम् । समानाधिकरणे वा षसः । हस्तिन इवोरसः हस्त्युरसम् । यथा देहावयवानाम उरोऽयम् प्रधानम् एवमिहाप्युरःशब्देन प्रधानभूतं विवक्षितम् । अग्रे इति किम् १ पुरुषस्योरः पुरुषोरः। सरोऽनोऽश्मायसः खुजात्योः ॥४।२।९६॥ सरस् , अनस् , अश्मन् , अयस्, इत्येवमन्तात्षाहो भवति खुविषये जातो च। जलसरसमिति संज्ञा । मण्डूकसरसमिति जातिः संज्ञा वा। महानसमिति संज्ञा । उपानसमिति जातिः संज्ञा वा। स्थूलाश्मः। अमृताश्म इति जातिः। पिण्डाश्म इति संज्ञा जातिवर्वा । कनकाश्म इति जातिः। लोहितायस इति संज्ञा जातिर्वा । कालायसमिति जातिः । खुजात्यारिति किम् १ परमसरः। ग्रामकोटाभ्यां तक्ष्णः ॥४।२।९७॥ ग्राम कोट इत्येताभ्यां यस्तक्षशब्दस्तदन्तात्याट्टो भवति । ग्रामस्य तक्षा ग्रामतक्षः। कुट्यां भवः कौटः, कौटश्चासौ तक्षा कौटतक्षः । स्वायत्तकर्मजीवीत्यर्थः । ग्रामकौयभ्यामिति किम् ? राजस्तक्षा राजतक्षा। शुनोऽते ।।३२।९८॥ श्रतिशब्दात्परो यः श्वन्शब्दस्तदन्तात्याट्टो भवति । अतिक्रान्तः श्वानमतिश्वो वराहः । अतिश्वो नीचजनः। उपमानात् ॥ MIRREE॥ उपमीयतेऽनेनेत्युपमानम् । उपमानात्परो यः श्वन्शब्दस्तदत्ताट्टो भवति । ब्याघ्र इव श्वा व्याघ्रश्वः । सिंहश्वः । मयूख्यसकादित्वात्षसः । ___ अजोवे ॥॥२।१००।। पूर्वसूत्रे उपमानग्रहणं पूर्वपदविशेषणम् । इह शुनो विशेषणम् । अजीवे वर्तते यः श्वशब्द उपमानवाचो तदन्तात्षाट्टो भवति । श्राकर्षः श्वा इव श्राकर्षश्वः। फलकश्वः । “व्याप्रैरुपमेयोऽतयोगे" १५१] इति सः। अजीव इति किम् ? वानरोऽयं श्वा इव वानरश्वा । For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० २ सू० १०१-१११] महावृत्तिसहितम् मृगोत्तरपूर्वात्सक्थ्नः ॥४॥२१०१॥ मृग, उत्तर, पूर्व इत्येतेभ्यः परो यः सक्थिशब्दस्तदन्तात्बाटो भवति । मृगत्य सक्थि मृगसक्थम् । उत्तरसक्थम् । पूर्वसक्थम् । उपमानादिति वर्तते । फलकमिव सक्थि फलकसक्थम् । “विशेषणम्" [३३।५२] इत्यादिना पसः ।। नाचो रात् ॥४।२।१०२॥ नौशब्दान्ताद्राटो भवति । द्वयो वोः समाहारो द्विनावम् । पञ्चनावम् । पञ्चनावप्रियः । द्वाभ्यां नौम्यामागतं द्विनावरूप्यम् । द्विनावमयम् । अहृदुपीत्यनुवर्तते । पञ्चभिनौभिः क्रोतः पञ्चनौः । अाहीयत्य ठण: "रादुबखौ” [३।१२६] इत्युप् । रादिति किम् ? परमनौः । अर्धाच ॥४।२।१०३॥ अचि परो यो नौराब्दस्तदन्तात्याट्टो भवति । श्रद्धं च सा नौश्च अर्द्धनावी । "विशेषणम्" [१॥३॥५२] इत्यादिना सः । लोकाश्रयं नपुंसकलिङ्गमपि दृश्यते । अर्द्धनावमिति । खार्या वा ॥ ४॥२॥१०४॥ खारीशब्दान्ताद्राडो भवति । द्वे खायौं समाहृते द्विखारम् । यदा टो न भवति तदा "प्रो नपि" [90915] इति प्रादेशः । द्विखारि । केचिरपुंलिङ्गं पठन्ति । तेषां "स्त्रीगोर्नीचः" [१।१८] इति प्रादेशे द्विखारिरिति । पञ्चखारप्रियः । पञ्चखाररूप्यम् । पञ्चखारीरूप्यम् । पञ्चखारमयम् । पञ्चखारीमयम् । पञ्चसु खारी भवः पञ्चखारी। टपक्षे की सिद्ध एव । इहार्दादिति वर्तते। अशब्दात्परो यः खारीशब्दस्तदन्ताबाटो भवति । अर्द्धवारम् । अखारी। द्वित्रिभ्यामञ्जलेः ॥४।२।१०५॥ द्वित्रिभ्यां परो योऽञ्जलिशब्दस्तदन्ताहो भवति । द्वथोरञ्जल्योः समाहारो द्वबजलम् । व्यन्जलम् । द्वयजलं वनम् । यजलरूप्यम् । द्वयजलमयम् । केचिद् वेत्यनुवर्तयन्ति । तेन द्वयञ्जलिः । यजलप्रियः । इदाहृदुपीति वर्तते ! हृदुपि न भवति । द्वाभ्यामजलिभ्यां क्रीतो द्वयञ्जलिः । रादित्येव । द्वयोरञ्जलिः द्वयञ्जलिः। __ ब्रह्मणो राष्ट्रेभ्यः ॥धारा१०६॥ राष्ट्रेभ्यः परो यो ब्रह्मन्शब्दत्तदन्तात्बाटो भवति । रादिति निवृत्तम् । अवन्ति ब्रह्मा अपन्तिब्रह्मः । मुराष्ट्र ब्रह्मा मुराष्ट्रब्रह्मः । ईबिति योगविभागात्सः । राष्ट्रेभ्यः किम् ? देवब्रह्मा नारदः। कुमहद्भयां वा ॥१०॥ कुमहद्भ्यां परो यो ब्रह्मस्तदन्तात्याद्वा टो भवति। कुब्रह्मः । कुब्रह्मा । महाब्रह्मः | महाब्रह्मा । द्वन्द्वाच्चुदहषो रार्थ ॥४।२।१०८॥ रार्थः समाहारः। द्वन्द्वाद्रार्थे वर्तमानाच्चवर्गदकारहकारषकारान्ताटो भवति । वाक्च त्वक्च वाक्त्वचम् । श्रीलजम् । वागृपदम् । छनोपानम् । वाग्विधम् । द्वन्द्वादिति किम् ? पञ्चानां त्वां समाहारः पञ्चवक् । चुदय इति किम् ? वाक्तरित् । रार्थ इति किम् ? छत्रोपानही । हे शरदादेः ॥४।२।१०६॥ शरदाद्यन्ताटो भवति हमे। शरदादिषु ये झयन्तास्तेषां “गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीझयः" [४२११२] इति वा टः प्रातो नित्यार्थमिदं ग्रहणम् । हाधिकारः प्रागबसाधिकारात् । शरदः समीपमुपशरदम् । प्रतिशरदम् । “लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती" [1३।११] इति हसः । शरद् । विपाश् । अनन् । मनम् । उपानह । उपासद् । दिश । दिव । हिरुक् । कियत् । चतुर । हिमवत् । अनडुह । तद् । यद् । जराया जरस् च । दृश् च । प्रतिपरसमनुभ्योऽक्ष्णः । पथिन् । । अनः ॥४ारा११०॥ अन्नन्ताद्धाहो भवति । अध्यात्मम् । प्रत्यात्मम् । उपराजम् । परिराजम् । नपो वा ॥४।२।१११॥ अन इति वर्तते । अन्नन्तं यन्नम् तदन्ताद्धाट्टो भवति । पूर्वेण नित्ये प्राप्त विकल्पोऽयम् । उपचर्मम् । उपचर्म । उपकर्मम् । उपकर्म । For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ ० ४ पा० २ सू० ११२-११८ गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीयः || ४|२| ११२ ॥ वेति वर्तते । गिरि नदी पौर्णमासी श्राग्रहायणी य इत्येवमन्ताद्वाटो भवति । गिरेरन्तरन्तगिरम् । अन्तर्गिरि । तिष्ठद्वादित्वात्सविधिः । श्रथवा विभक्त्यथें हसः । बहिर्गिरम् । बहिर्गिरि । “पर्यपाङ बहिरन्ववः " [१।३।१०] । उपनदम् । उपनदि । नपि प्रः । उपपौर्णमासम् । उपपौर्णमासि । उपाग्रहायणम् । उपाग्रहायण । झत्रः - उपसमित्रम् । उपसमित् । उपदृपदम् । उपदृषत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाङ्गाद्वेऽक्षिसक्थनः || ४|२| ११३ ॥ स्वाङ्गशब्दाद् यौ अतिसक्थिशब्दौ तदन्तात् वाट्टो भवति । हइति वेति च निवृत्तम् । कल्याणेऽक्षिणी ग्रस्य कल्याणाक्षः । विशालाक्षी । गौरे सक्थिनी अस्य गौरसक्थः । स्वक्षः इत्यत्र " न स्वतिकिमः” [ ४ २२६६ ] इति प्रतिषेधः कस्मान्न भवति ? पतस्य ग्रहणं तत्र व्याख्यातमित्यदोषः । स्वाङ्गादिति किम् ? स्थूलाक्षिरिक्षुः । दीर्घसक्थि शकटम् । अप्रास्थिस्य स्वाङ्गत्य न भवति । व इति किम् ? उत्तमाक्षि । आपादपरिसमाप्तसाधिकारः प्रत्येतव्यः । यङ्गुलेः || ४|२||१४|| दारु । अङ्गुलिशब्दान्ताद्वाटो भवति दारुय्यमियेये । द्वे अङ्गुलीय दारु । हुलम् । चतुरङ्गुलम् । धान्यानां विक्षेपणम् ग्रग्रेऽकुलसदृशावयवं काठं दारु तदिह गृह्यते । यतु द्वे अङ्गुली प्रमाणमस्य द्व्यङ्गुलं दारु । तत्र हृदर्थे बसे कृते "अङ्गुलेर्भिसंख्यादेः” [४२]] इत्यः सान्तः । मात्र चोप् । द्रुणोति किम् ? पञ्चाङ्गुलिर्हस्तः । द्वित्रिभ्यां मूर्ध्नः || ४|२|१५|| द्वित्रिभ्यां परो यो मूर्धन् शब्दस्तदन्ताद्वाहो भवति । द्विमूर्धः । त्रिमूर्धः । सान्तो विधिरनित्य इति तेन द्विमूर्धा । त्रिमूर्धा । उत्स्त्रीप्रमारयोरः || ४|२| ११६ ॥ इति निवृत्तम्, त्यान्तरोपादानात् । इडन्ता ये श्रीशब्दाः प्रमाणीशब्दश्च तदन्ताद्वा त्यो भवति । कल्याणीपञ्चमी यासां रात्रीणां कल्याणीपञ्चमा रात्रयः । कल्याणीदशमा भार्या । स्त्री प्रमाणी येषां स्त्रीप्रमाणाः । कल्याणी प्रमाणी श्रातां कल्याणप्रमाणा भार्याः । डीग्रहणस्यावकाशः कल्याणीद्वितीया । कल्याणीतृतीया । कल्याणीपञ्चमा रात्रय इति । डस्त्रियां प्रधानस्त्रीग्रहणं कर्तव्यम् । अन्यपदार्थवाच्यानां डडन्ता स्त्री प्रधानं यदि भवति तदायं सान्तो भवतीत्यर्थः । ग्रड प्रियादाविति पुंवद्भावप्रतिषेधोऽप्यस्मिन्नेव विषये वक्ष्यते । तेनेह सान्तः पुंवद्भावप्रतिषेधश्च न भवति । कल्याणी पञ्चमी अस्मिन् पक्षे कल्याणपञ्चमीकः पक्ष इति । “नेतुर्नक्षत्रे उपसंख्यानम्" [वा०] । मृगो नेता श्राशां रात्रीणां मृगनेत्राः । पुष्यनेत्राः । नक्षत्रादन्यत्र न भवति । देवदत्तनेत्तृकं सैन्यम् । लोम्नोऽन्तर्बहिर्भ्याम् ||४|२| ११७॥ श्रन्तर बहिष् इत्येताभ्यां परो यो लोमशब्दस्तदन्ताद्वादस्यो भवति । श्रन्तर्गतानि लोमान्यस्य अन्तर्लोमः । बहिर्लोमः । "मासामृतित्यान्त पूर्वपदात् ठो वक्तव्यः " [वा०] पञ्च कार्षापणा भृतिरस्य मासस्य “तदस्यांशवस्नभृतयः” [३।४।५५ ] इत्यत्र “संख्यायाः कोऽतिशतः " [ ३।४।१६ ] इति कः । पञ्चको मासोऽस्येति बसे कृते ठः । पञ्चकमासिकः । दशकमासिकः । नासिकाया नश्चास्थूलात् खौ ||४|२| ११८ ॥ नासिकाशब्दान्ताद्वादस्त्यो भवति नश्चादेशी नासिकायाः खुविषये न चेत्स्थूलशब्दात्परो नासिकाशब्दः । दुरिव नासिकाऽस्य दुरासः । गौरिव नासिका अन्य गोनसः । व भावार्डी नासिका अस्य वासः । "न्दिरक्तविकारे” [ ४ | ३ | १५१ ] इति पुंवद्भावप्रतिषेधः । सर्वत्र "पूर्वपदात्खावगः " [ ५४८७ ] इति णत्वम् । स्थूलादिति किम् ? स्थूलनासिकः । खाविति किम् ? तुङ्गनासिकः । “खुरखराभ्यां वा न वक्तव्यः [वा०] खरस्येव नासिकाऽस्या अर्चनायाः खरणाः । खुरणाः । प त्यो भवति खरणसः । कथं शिति नासिकास्य शितिनाः । ग्रहिरिव नासिकाऽस्य अहिनाः । श्रचया इव नासिकास्य अर्चनाः । "वे ड्यायोः क्वचित् खौ च" [ ४।३।१७३ ] इति प्रः । पद्यछान्दसा एते शब्दास्तदयापि नसू वक्तव्यः । For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०४ पा० २ सू० ११९-१२८] महावृत्तिसहितम् २८३ गेः ॥४ा२११६॥ गेः परो यो नासिकाराब्दस्तदन्ताद्वादस्यो भवति । नश्चादेशः अयमविषये विधिः। उन्नता नासिकाऽस्य उन्नसः । प्रवृद्धा नासिकाऽस्य प्रणसः । “णत्वविधौ गेर्नस उपसंख्यानम्" [वा०] इति णत्वम् अत्ये । “वेः ख्वादेशो वक्तव्यः" [वा०] विगता नासिकाऽत्य विखुः । सोः प्रातर्दियाश्वसः ॥४॥२।१२०॥ सोः परे ये प्रातर् , दिवा, श्वस् शब्दास्तदन्ताद्वादल्यो भवति । शोभनं प्रातरस्य तुपातः । “झे मात्रे टिखम्" [वा०] इति टिखम् । विग्रहवाक्ये शोभनमिति नपुसकत्वं गम्यमानकर्मापेक्षम् । शोभनं प्रातःकाले कर्मास्येत्यर्थः । एवं शोभनं दिवा अस्येति सुदिवः । शोभनं श्वोऽ स्य सुश्यः । प्रोष्टेण्यजात्पदः ॥४।२।१२१॥ प्रोष्ठ, एणो, अज इत्येतेभ्यः परः पदशब्दो बसे निपात्यते । प्रवृद्धौष्ठः प्रोष्ठो गोरित्यर्थः। प्रोष्ठस्येव पादावस्य प्रोष्ठपदः । अस्सान्तः पादशब्दस्य च पद्भावो निपात्यते । एण्या इव पादावस्य एणीपदः । अजपदः । चतुश्शारेरनिकुनेः ॥४॥२२१२२॥ चतुश्शारिशब्दाभ्यां परौ यौ अखिकुक्षिशब्दौ तदन्ताद्वादल्यो भवति । चतस्रोऽत्रयोऽस्य चतुरस्त्रः । शारेवि कुक्षिरस्य शारिकुक्षः । नगद स्सोः सक्थिहलेर्वा ॥४ारा१२३।। नञ् , दुस् , सु इत्येतेभ्यः परौ यौ सक्थिहलिशब्दो तदन्तादल्यो वा भवति । अविद्यमानं सक्थि अस्य असक्थः । असक्थिः । दुस्सक्थः । दुस्सक्थिः। मुसक्थः । सुसक्थिः । महद्धल हलिः । अविद्यमानो हलिरस्य अलः । अइलिः । दुईलः । दुईलिः । सुहलः । सुहलिः । सक्थि शब्दस्थाने सक्तिशब्दं केचित्पठन्ति । सञ्जनं सक्तिः । प्रजामेधादस् ॥४।२।१२४॥ वेति नाधिकृतम् । नञ् , दुस् सु इत्येतेभ्यः परौ यौ प्रजामेधाशब्दो तदन्ताद्वादसित्ययं त्यो भवति। न विद्यते प्रजा श्रस्य अग्रजाः। दुधजाः । सुप्रजाः। न विद्यते मेधा अस्ट अमेधाः । दुर्मेधाः । “अल्पाञ्च मेवाया इति वक्तव्यम् ” [वा०] अल्पमेधाः । अल्पमेधसौ । अल्पमेध सः । धर्मात्केवलादन ॥४।२।१२५॥ केवलो धर्मशब्द एव यत्रोत्तरपदम् अन्यसा (म)ध्यपदं नास्ति तदन्ताद्वादन्नित्ययं त्यो भवति । साधूनामिव धर्मोऽस्य साधुधर्मा । प्रियधर्मा । केवलादिति किम् ? परमः स्वो धर्मोऽस्य परमस्वधर्मः । सन्दिग्धसाध्यधर्मः । सुहरिततृणसोमाजम्मात ॥४।१२६॥ जम्भशब्दो दन्तविशेषवाची अभ्यवहार्यवाची च । सु. हरित, तृण, सोम इत्येतेभ्यः परो यो जम्भराब्दस्तदन्तादनित्ययं त्यो भवति । शोभनो जम्भोऽस्य सुजम्भार शोभनदंष्ट्र: शोमनाहारो वा । हरितमिव जम्मोऽस्य हरितानि वा जम्भान्यस्य वा हरितजम्मा । तृणमिव जम्भोऽस्य तृणानि जम्भोऽस्य वा तृण जम्मा। एवं सोम जम्मा । स्वादिभ्य इति किम् ? स्थूलजम्भः ।। दक्षिणेमा लुब्धयोगे ॥४॥२॥१२७॥ ईममिति बहुनामवेयं वणनामधेयं वा । दक्षिणेर्मेति वसोऽन्नन्तो निपात्यते लुब्धयोगे। दक्षिणमीममस्य दक्षिा मृगः । ब्याधस्य हन्तुकामस्य दक्षिणमङ्गं बहुकृत्वा स्थितः । अथवा दक्षिणमङ्गं वारणतमस्य ब्याधेनेत्यर्थः । लुब्धयोग इति किम् ? दक्षिणेमः पशुः । . पशु अइच ॥४।१२८॥ शब्देन आर्थः कर्मव्यतिहारो ग्रहणप्रतिग्रहणादिलक्षणो गृह्यते । जार्थं यो बसस्तस्मादिजित्ययं त्यो भवति । चकारः तिष्ठद्ग्वादिषु इजिति पठ्यते तत्र विशेषणार्थः । “तत्रेदमिति सरूपे" [१॥३॥८६] "तेनेदम्" [१॥३॥६०] इति च अयं बसः कर्मव्यतिहारे वर्तते । केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा इदं युद्धं प्रवृत्त केशाकेशि । कचाकचि । इचस्तिष्टद्ग्वादिषु पाठात् हसंज्ञा | "अन्यस्यापि" [४।३।२३२] इति पूर्वपदस्य दील्वम् । दण्डैश्च दण्डैश्च इदं युद्धं दण्डादएिड । मुसलामुसलि युद्धं वर्तते । For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ४ पा० २ सू० १२६-१३६ द्विदण्ड्यादिः || ४|२|१२६ ॥ द्विदण्ड्यादयः शब्दा इजन्ता निपात्यन्ते । यथा गणे पठितास्तथैव साधवो वसेऽन्यत्र च भवन्तीत्यर्थः । द्वौ दण्डौ श्रस्मिन् प्रहरणे द्विदडि प्रहरति । द्विमुसलि प्रहरति । क्रियाविशेषणादन्यत्र न भवति । द्विदण्डा शालेति । षसेऽपि भवति । निकुच्य कर्णौ निकुच्यकणि धावति । याकुच्यपादौ श्राकुच्यपदि शेते । मयूरव्यंसकादित्वात्वतः । पादस्य च पद्भावो निपातनात् । प्रोह्य पादौ प्रोद्यपदि हस्तिनं वाहयति । द्विदशि । द्विमुसलि । उभाञ्जलि | उभयाञ्जलि । उभाकरी । उभयाकरिण । उभाहस्ति । उभयाहस्ति । उभावाणि । उभवापाणि । उभाचाहु । उभयाबाहु । निपातनादिचः खम् । एकपदि । प्रोपदि । कुच्यपदि । निकुच्यकणि । संहतपुच्छि । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राजानुनो ज्ञः || ४|२|१३०॥ सम्प्र इत्येताभ्यां परस्य जानुशब्दस्य ज्ञ इत्ययमादेशो भवति बसे । सङ्गते जानुनी अस्य संज्ञः । प्रकृते जानुनी अस्य प्रज्ञः । ज्ञ इत्युकारान्तः केषांचिदादेशः । मतद्वयमपि प्रमाणम् । वोऽर्ध्वात् ||४/२/१३१ ॥ ऊर्ध्वशब्दात्परस्य जानुशब्दस्य वा ज्ञ इत्ययादेशो भवति । ऊर्ध्वं जानुनी अस्य ऊर्ध्वशः, ऊर्ध्वजानुः ऊर्ध्वजानुको वा । ऊधसोऽनङ् ||४|२|१३२॥ ऊधः शब्दान्तस्य यस्य अनङादेशो भवति सान्तः । कुण्डमित्र ऊधोऽस्याः कुडोनी | परत्वात्सकारस्य श्रनङादेशे कृते पश्चात् " ऊधसः " [ ३|१|१३ ] इति ङोविधिः । एवं घट इव Galsस्या घटोनी । इह मा भूत् । महोधाः पर्जन्यः । अनङयकार उत्तरत्र सार्थकः । इह नङादेशेऽपि न दोषः । नङादेशो भवति । गाण्डीवं धनुरस्य गाण्डीवधन्वा । धनुषः ||४|२|१३३॥ धनुःशब्दान्तस्य बसस्य जगवधन्वा । शार्ङ्गधन्वा । वाखौ ||४|२|१३४॥ धनुः शब्दान्तस्य सस्य वा अनङादेशो भवति सान्तः खुविषये । पूर्वेण नित्ये प्राते विभाषेयम् । दृढं धनुरस्य दृढधन्वा । दृढधनुः । पुष्पधन्वा । पुष्पधनुः । जायाया निङ् ||४|२|१९३५|| जायाशब्दान्तस्य सस्य निङादेशो भवति । युवतिया यस्य युवजानिः । वधूजानिः । कारस्य निङादेशः । “वलि व्योः खम् " [ ४|३|५५ ] इति यकारस्य खम् । गन्धस्येरुत्पूतिसुसुरभिभ्यः || ४|२| १३६ ॥ उत्, पूति, सु, सुरभि इत्येतेभ्यः परस्य गन्धशब्दस्य इकारादेशो भवति सान्तो बसे । उद्गतो गन्वोऽस्य उद्गन्धिः । पूतिर्गन्धोऽस्य पूतिगन्धिः । सुगन्धिः | सुरभि गन्धिः । अयं गन्धशब्दोऽस्त्येव गुणवचनः । तद्यथा उत्पलगन्धः । चन्दनगन्ध इति । अस्ति द्रव्यवचनः । तद्यथा गन्धान् पिनष्टीति । तयो मुख्यो गुणवचनस्तस्य ग्रहणम् । तेनेह न भवति । शोभनो गन्धोऽस्य सुगन्ध श्रापणिकः । अल्पाख्यायाम् ||४|२| १३७ ॥ अल्पपर्यायो यो गन्धशब्दस्तदन्तस्य बसस्य वा इकारादेशो भवति सान्तः । श्रभिधानवशाद् व्यधिकरणोऽत्र सः । अन्नस्य गन्धोऽस्मिन् अन्नगन्धिः । ग्रन्नगन्धम् । घृतगन्धि | घृतगन्धम् भोजनम् । अथवा अन्नं गन्धोऽल्पमस्मिन्निति समानानिकरणो बलः । उपमानात् ||४|२|१३८ ॥ उपमानात्परो यो गन्धशब्दस्तदन्तस्य वत्येकारादेशो भवति । पद्मस्य गन्ध गन्धोऽस्य पद्मगन्धिः । पद्मगन्धः । उत्पगन्धः । उत्पलगन्धिः । . खं पादस्याहस्त्यादेः || ४|२| १३६ ॥ वेति निवृत्तम् । उपमानादिति वर्तते । हस्त्यादिवर्जितादुपमानात्वरस्य पादशब्दस्य खं भवति । बसे सान्त इत्यनुवर्तनात् इह "परस्यादेः " [11३1५१] इति एषा परिभाषा नोपतिष्ठते । व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपाद् । सिंहपाद् । ग्रहस्त्यादेरिति किम् ? हस्तिन इव पादावस्य हस्तिपादः । कपोत ( लक) पादः । हस्तिन् । कपोलक | गण्डोलक | गण्डके । महिला । दासी । गणिका । कुसूल । १. गण्डूक पू० । २. महेला ब०, पू० For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० २ सू० १४०-१५१ ] महावृत्तिसहितम् २८५ सुसंख्यादेः || ४|२| १४०॥ सुश्च संख्या च सुसंख्ये ते श्रादी यस्य तस्य स्वादेः संख्यादेश्च पादशब्दस्य खं भवति बसे ! शोभनौ पादावस्य सुपाद् । द्वौ पादावस्य द्विधाद् । त्रिपाद् । चतुष्पाद् । कुम्भपद्यादिः || ४|२|१४१ ॥ कुम्भपदीप्रभृतयः शब्दा निपात्यन्ते । क्वचिद्वेऽपि से कृते "पादो वा " [३|१|१५] इति विकल्पे प्राप्ते नित्यो ङीविधिर्निपात्यते । कुम्भ इव पादावस्या कुम्भपदी । एकः पादोऽस्या एकपदी । शितिपदी । सूत्रपदी । सूत्रसितपदी । सितसूत्रपदी । गोधापदी । जालपदी । जलपदी। कलशपदी । विपदी | सुपदी । निष्पदी । श्रार्द्रपदी । द्रोणपदी । कुटीपदी । कृष्णपदी । सूकरपदी । मुनिपदी । शकृत्पदी | ष्ट|पदी | are दन्तस्य तु ||४ |२| १४२|| सुसंख्यादेरिति वर्तते । स्वादेः संख्यादेश्व दन्तशब्दस्य दतृ इत्ययमादेशो भवति बसे वयसि गम्यमाने । शोभना दन्ता श्रस्य सुजाता वा सुदन् कुमारकः । द्वौ दन्तावस्य बालकस्य द्विदन् | त्रिदन् | चतुर्दन् । वयसोति किम् सुदन्तो दाक्षिणात्यः । चतुईन्त ऐरावतः । स्त्रियां खौ ॥४|२|१४३॥ स्त्रीलिङ्गेऽन्यपदार्थे दन्तशब्दस्य दतृ इत्ययमादेशो भवति सान्तः खुविषये । य इव दन्तास्था अयोदती । फालदती । स्त्रियामिति किम् ? नागस्येव दन्तास्य नागदन्तको नाम कश्चित् । खाविति किम् ? समदन्ती । "नासिकोदरोष्ठ” [ ३|१|४० ] इत्यादिना ङोविधिः । वा श्यावारोकात् ||४|२| १४४ ॥ स्त्रियामिति निवृत्तम् । खाविति वर्तते । श्याव अरोक इत्येताभ्यां परस्य दन्तशब्दस्य वा दतृ इत्ययमादेशो भवति सान्तो बसे । श्यावा दन्ता अस्य श्यावदन् । श्यावदन्तः । अरोका निश्छिद्राः निर्दीप्तयो वा दन्ता ग्रस्थ ग्ररोकदन् ग्ररोकदन्तः । शुद्धायान्तशुभ्रवृषवराहात् ||४|२| १४५ || खाविति निवृत्तम्। वेति वर्तते । शुद्ध, ग्रान्त, शुभ्र, वृष, वराह इत्येतेभ्यः परस्य दन्तशब्दस्य दतृ इत्ययमादेशो भवति बसे सान्तः । शुद्रा दन्ता ग्रस्य शुद्धदन्, शुद्धदन्तः । कुड्मलाग्रमिव दन्ता अस्य कुण्डमलाग्रदन् । कुड्मलाग्रदन्तः । शिखराग्रदन् । शिखराग्रदन्तः । शुभ्रदन् । शुभ्रदन्तः । वृपदन् । वृषदन्तः । वराहदन् । वराहृदन्तः । " अन्येभ्योऽपि भवतीति वक्तव्यम्" [aro] दिन् । अहिदन्तः । मूषिकादन् । मूषिकादन्तः । ककुदस्यावस्थायां खम् ||४ |२| १४६ || कालादिकृतो बालादिभावोऽवस्था । ककुदशब्दान्तस्य खं भवति सान्तः अवस्थायां गम्यमानायाम् । श्रसञ्जातं ककुदमस्य सञ्जातककुत् । पूर्णककुद् । वृद्ध इत्यर्थः । यष्टिककुद् । मध्यशरीर इत्यर्थः । अवस्थायामिति किम् ? श्वेतककुदः । कथं ककुद्मा निति ? यावादिपु हलन्तानिपातनात्सिद्धम् । अौ त्रिककुद् ||४|२| १४७॥ श्रावन्यपदार्थे खं निपात्यते । त्रीणि ककुदान्यस्य त्रिककुद् । श्रद्रेरियं संज्ञा । अन्यत्र त्रिककुद इति भवति । व्युदः काकुदान्तात् ॥ ४२॥१४८॥ वि उद् इत्येताभ्यां परस्य काकुदशब्दस्य खं भवति सान्तं बसे । विशिष्टं काकुदस्य विकाकुद् | उत्कृष्टं काकुदमस्य उत्काकुत् । पूर्णाद्वा ||४ |२| १४९ ॥ पूर्णशब्दात्परस्य काकुदस्य वा खं भवति सान्तं बसे । पूर्णकाकुत् । पूर्णकाकुदः । सुहृदददौ मित्रामित्रयोः ||४ |२| १५० || सुहृद् दुर्हृद् इत्येतौ शब्दौ निपात्येते यथासंख्यं मित्रामित्रयोरभिधेययोः । सुदुस्शब्दाभ्यां परस्य हृदयशब्दस्य बसे हृदादेशो निपात्यते । शोभनं हृदयमस्य सुहृद् मित्रम् | दुष्टं हृदयमस्य दुर्हृदमित्रम् । मित्रामित्रयोरिति किम् ? सुहृदयः साधुः । दुर्हृदयः खलः । उरःप्रभृतिभ्यः कप् ||४|२| १५१ ॥ उरःप्रभृत्यन्ताद् बात्कचित्ययं त्यो भवति सान्तः । व्यूढमुरोऽस्य व्यूहोरस्कः | "कुत्रस्ये” [ ५।४।२६ ] इति रेकस्य सत्वम् । प्रभूतसर्पिष्कः । " इणः षः " [५।४।२७] इति षत्यम् । For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० २ सू० १५२-१५६ चित्रोपानकः । उरस् । सर्पिष् । उपानह । पुमान् । अनड्वान् । पुमानित्येवमादयः पञ्चशब्दा विभक्त्यन्ताः पठ्यन्ते । एकवचनान्तानामेव यथा स्यात् । द्विवचनबहुवचनान्तानां मा भूत् । तत्र “शेषाद्वा" [४।२।१५४] इति विकल्प एव भवति । द्विपुंस्कः। द्विपुमान् । बहुपुंस्कः। बहुपुमान् । दरी। "ऋन्मोः" [४।२।१५३] इत्येव सिद्धः किमर्थ दरीशब्दः पठ्यते ? "सहेति तुल्ययोगे" [१॥३॥६१] इतीदं सूत्रं कबभावार्थमित्यस्मिन् पक्षे कग्रहणार्थमिदं वचनम् । दधि । मधु । शालि | अर्थान्नञः। कथमयं प्रयोगः । “अन्यथैवंकथमित्थंस्वनर्थात्" [२।४।१३] इति सौत्रोऽयम् । इनः स्त्रियाम् ॥४।२।१५२॥ इनन्ताद् वात् कत्रित्ययं त्यो भवति स्त्रियामन्यपदार्थे । बहवो दण्डिनोऽस्यां बहुदण्डिका । एवं बहुस्वामिका । बहुवाग्मिका । स्त्रियामिति किम् ? बहुदण्डी ग्रामः । बहुदण्डिको वा । ऋन्मोः ॥२॥१५३॥ ऋकारान्तान्मुसंज्ञान्ताच्च बात्कन् भवति सान्तः । बहुकर्तृकः । तकार उच्चारणार्थः । बहुकुमारिकः । बहुब्रह्मबन्धूकः । शेषाद वा ॥४२॥१५॥ यस्माद्वात्सान्तो न विहितः स शेषः। शेषाद्वात् वा कब भवति सान्तः । बह्वयः खट्वा यस्य सः बहुखट्वाकः । बहुखट्वः । “ऋकपूरब्धूः" [२१७०] इत्यादिना सूत्रेण विशेषो व्याख्यातः । "अनुचो माणवो ज्ञेयो बढचश्चरणे स्मृतः" ततोऽन्यत्रायं विकल्पः । अनृक्कम् साम । अनृक् साम । बढक्कं सूक्तम् । बहूवृक्सूक्तम् । शेषादिति किम् ? प्रियपुरः । प्रियपथः । न खौ ॥४।२।१५५॥ खुविषये बात् कर न भवति । येन केनचित्प्राप्तत्य कपोऽयं निषेधः नामग्र(ग्रा)मः ? ' ' | विश्वदेवः । विश्वयशाः । श्वेता अश्वतयो यस्य श्वेताश्वतिः । ईयसश्च ॥२।१५६॥ ईयसन्ताद्वात्क न भवति । येन केनचित्प्राप्तस्य प्रतिषेधः। बहवः श्रेयांसोऽनिन् बहुश्रेयान् । विद्यमानश्रेयान् । “शेषाद्वा" [४२।५४] इति प्राप्तस्य प्रतिषेधः । “मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्” [वा०] बह्वयः श्रेयस्योऽस्य बहुश्रेयसी पुरुषः । “ऋन्मोः" [१२।५३] इति प्राप्तस्य प्रतिषेधः । अत्र “स्वीगोर्नीचः" [१1१1८] इति प्रादेशोऽपि न भवति। उक्तं हि तत्र-"ईयसो बसे पुंचद्भाववचनम्" [वा०] | नात्र पुंवदूचनेन स्त्रीत्यस्य निवृत्तिरिष्टा किं तर्हि यथा पुंसि ईकारस्य प्रादेशो न भवति । ग्रामणी देवदत्त इति । एवमीयसः परस्यापि स्त्रोत्यस्य । अथवा प्रश्लेषनिर्देशात् ईकारः सिद्धः । ई ईयसः ईयस इति । चकारः स्त्रियामित्यस्यानुकर्षणार्थः । तेन स्त्रियामीकारो भवति । न प्रादेश इति । स्तुते भ्रातुः ॥४।२।१५७॥ स्तुतं पूजितमित्यर्थः । स्तुतेऽर्थ यो भ्रातृशब्दस्तदन्ताद्वात्कन भवति । शोभनो भ्राता यस्य सुभ्राता । दर्शनीयभ्राता । स्तुत इति किम् ? दुतृकः । मूर्खभ्रातृकः । नाड़ीतन्त्र्योः स्वाङ्गे ॥४।२।१५८॥ स्वाङ्गमिह पारिभाषिकम् । स्वाङ्गे यौ नाड़ीतन्त्रीशब्दौ वर्तते तदन्ताद्वात्कन्न भवति । बह्वयः नाड्योऽस्मिन् बहुनाडिदेहः । बहुनाडिजङ्घा । बहव्यः तन्यो धमन्योऽस्या बहुतन्त्रीगीवा । स्त्रीत्यो न भवतीति प्रादेशो नास्ति । स्वाङ्ग इति किम् ? बहुनाडीकः स्तम्भः । बहुतन्त्रीका वीणा । निष्प्रवाणिः ॥४।२।१५६॥ प्रकर्षण ऊयतेऽस्यामिति प्रवाणीति निपात्यते । निर्गता प्रवाणो अस्य निष्पवाणिः कम्बलः । प्रत्यग्र इत्यर्थः । “ऋन्मोः " [३१२१५३] इत्यस्य प्रतिषेधः । ये तु प्रवाणीशब्दमिकारान्तं पठन्ति तेषां “शेषाद्वा" [४।२।५४] इत्यस्य प्रतिषेधः । “त्यः" [२॥१॥१] “परः" [२।१।२] "ड्याम्मृदः” [३।१३] इत्योपामधिकाराणामिदमवसानम् । इत्यभयनन्दिविरचितायां महावृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः । For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्र० ४ पा० ३ सू० १–७ ] महावृत्तिसहितम् २८७ आरेकाचो द्वे ||३|३|१|| श्रादेरेकाचो द्वे भवत इत्येतदधिकृतं वेदितव्यम् । यदित ऊर्ध्व वक्ष्याम श्रादेरेकाचो द्वे भवत इत्येवं तद्वेदितव्यम् । वक्ष्यति “लिडुच्कचिधौंः " [४|३|७] धोगदेरवयवस्यैकाचो द्वे भवतः । पपाच । जुहोति । पीपठत् । एकोऽच अवयवोऽस्य सोऽयमेकाच् । श्रवयवेन विग्रहः, समुदायो वृत्त्यर्थः । तद्गुणविज्ञाने वसे समुदायान्तर्भूतोऽवयव इति साचकस्य द्वित्वम् । परत्वादैपि कृते पाच्छन्दस्य शब्दतोऽ तश्चान्तरतमो द्वो पाच्छन्दौ । द्विःप्रयोगश्च द्वित्वम् । स्थाने हि द्वित्वे जिघांसतीत्यत्र शब्दान्तरत्वाद्धन्तेः कुत्वं न स्यात् । श्रादेरिति किम् ? जजागार । इत्यनाद्यस्य माभूत् । एकाच इति किम् ? हल्मात्रस्य माभूत् । पपाचेत्यत्रादित्वं व्यपदेशिवद्भावेन यथा प्रथमगर्भेण हता नारी । इयाय ग्रारेत्यत्र एकाच्त्वमपि उपचारात् । यथा स्थूलशिरा राहुरिति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चः || ४|३|२|| हादेरित्यचो विशेषणम् । श्रादेः परस्यैकाचो द्वे भवत इत्यधिक्रियते । टिटिपति । टाटयते । श्रादित् । सत्यपि सम्भवे श्रादेर्द्वित्वस्य बाधकमिदम् । दधिदानस्येव तक्रदानम् । शास्त्रेऽपि द्वीप इत्यत्र " द्र्थनर्गेरीदपः” [४/३/२०२] इत्ययमादिविकारोऽन्त्यविकारस्य वाधकः । यथाऽयत्याचो द्वित्वं न भवति तथा व्यञ्जनस्यापीति न दोषः । नादौ न्द्रोऽ ||४ | ३ | ३ || इहादेरच इति वर्तते । श्रादेरचः परे स्फादौ वर्तमाना नकारदकाररेफा न द्विरुच्यन्ते श्रकारे । इन्दिदिषति । उन्दिदिषति । श्राड्डिडिषति । श्रचिचिपति । उव्जिजिषति । इत्यत्र दकारोडपक्षे चुना योगे च "उद्रेः" इति चत्वमुक्तम् । तस्यासिद्धत्वात्प्रतिषेधः । श्रभ्युद्ध इत्यत्र कुत्वस्य सिद्धत्वाद्वत्वं न भवति । " ईयतेस्तृतीयस्य द्व े भवत इति वक्तव्यम्" [ वा० ] केचिदाहस्तृतीयस्यैकाच इति । तेन सनोले ईयियिषति । परास्तृतीयस्य हल इति । ईष्वियिषति । "कण्ड्वादीनां तृतीयस्यैकाचो द्वित्वं भवति:" [ वा० ] कण्डूयियिषति । "सुब्धूनांच तृतीयस्यैकाचो द्वित्वं भवति" । [वा०] श्रश्वियियिषति । अपर आहुः । “यथेष्टं सुब्बुषु वक्तव्यम्” [ वा० ] पुपुत्रीयिषति । पुतित्रीयिषति । पुत्रीयियिषति । थः || ४ | ३ | ४ || द्वे इति वर्तते । तस्य संशित्वम् । ते द्विरुक्ते समुदिते थसंज्ञे भवतः । ददति । ददतु । श्रददुः । दधति । दधतु । श्रदधुः । थसंज्ञायां सत्याम् झस्य " अत्थात् " [ ५1१18 ] इत्यदादेशः | "थस्नोरातः” [ ४|४|१०० ] इत्याकारस्य खम् । लङो फेः "थवित्सेः " [२४] इति भस्योत् । समुदायस्य संज्ञा किं प्रयोजनम् ? चस्य खे मा भूत् । ईप्सन्ति । ऐप्सन् । प्रत्येकं पर्यायेण च माभूत् । थप्रदेशाः । “थवित्सेः " [२४] इत्येवमादयः । जतित्यादयः || ४ | ३ | ४ || जचित्यादयश्च पञ्च थसंज्ञका भवन्ति । जक्षति । जक्षतु । जतुः । जाग्रति । दरिद्रति । चकासति । शासति । जक्षितेस्तिपीटं कृत्वा गुरुनिर्देशः किम् ? " रुदादेर्ग" [ ५|१|१३५ ] इत्यत्र पञ्चग्रहणमनुवर्तते इति ज्ञापनार्थः । लिचि भवतः । पपाच । प्रो पूर्ववः || ४ | ३ | ६ || द्वितयोः पूर्वोऽवयवश्वसंज्ञो भवति । पपाच । पिपक्षति । पापच्यते । पीपचत् । चसंज्ञायां सत्यां प्रादेशः । “सम्यतः " [५।२।१७६ ] इत्वम् । “हलोऽनादेः " [५/२/१६१] खम् । “दीरकितः” [५/२/१८० ] इति "घेर्दी:” [ ५।२।१६० ] प्रकृतिचरां प्रकृतिचर इत्यादि कार्यम् । चप्रदेशाः " चस्यात्र खपू ' [ ५/२/१६० ] इत्येवमादयः । " || ४ | ३ |७ ॥ लिटि, उचि, कचि च परतः घोरादेरवयवस्यैकाचोऽचः परस्य द्वे नाव । उचि - जुहोति ! बिभेति । उचि बुद्धिकृतं पौर्वापर्यम् । उक्तं च" सर्वाश्चेष्टा बुद्धौ कृत्वा वक्ता धीरस्तन्वन्नीतिः । शुब्देनार्थान्वाच्यान् दृष्ट्रा बुद्धौ कुर्यात्पौर्वापर्यम् ॥” कचि—अपीपचत् । पचेिंचि लुङि कचि च कृते णिखमुङः प्रादेशो द्वित्वम् । एवं हि योऽनादिष्टादचः पूर्वस्तं For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पा० ३ सू० ८-११ प्रति स्थानिवद्भाव इति धौ कच्यनक्खे सन्वदिति धौ परतः सन्वद्भावो विधीयमानः प्रस्य स्थानिय [द्भावाने प्रतिषिध्यते । सन्यङोः || ४|३८|| पे प्यस्य पुत्रपत्योर्जिः || ४ | ३ || वन्धौ वे ||४३|१०|| वचिस्वपियजादीनां किति || ४ | ३ |११ ॥ ग्रहिज्यावयिव्यधिवशिव्यचित्रश्चिप्रच्छिभ्रजां ङिति च || ४ | ३|१२|| ] नर्थकः । यङुत्रन्तस्य प्रकृतिवद्भावो योऽन्यस्मिन्नेति तिपा निवर्त्यो यथास्तिभवत्योमिंङीति यङन्तस्य मिप्रतिषेधो मा भूत् । बोभवीति । इह तु यपि त्यखे त्याश्रयमिति प्राग् द्वित्वानिर्भवत्येव । वेवेक्ति । बर्भीष्ट । बर्भुजीति । चस्यैषां लिटि || ४|३|१३|| एषां वच्यादीनां लिटि परतश्चस्य जिर्भवति । उवाच । उवचिथ । इयाज । इयजिथ | उवाप | उवपिथ । सुष्वाप । सुष्वपिथ । जिज्यौ । जिज्याथ । वेनः स्थानिवद्भावेन उवाय । उवयिथ । उवास । उवसिथ । विव्याध । विव्यधिथ । विव्याच । विव्यचिथ । ग्रहिभ्रत्नप्रच्छामविशेषः । ब्रश्चेस्तु वनश्च वत्रश्चिथ "न जौ जि: [ ४|३|३१ ] वकारस्य न भवति । पिदर्थमिदम् । किन्तु परतः परत्वाज्जौ कृते द्वित्वम् । ऊचतुः । ऊचुः । अनन्तरपरिभाषा ह्यनित्या । अधिकाराद्वच्यादीनामेव ग्रहणे सिद्धे एषां ग्रहणं चखनिवृत्त्यर्थम् । I कचि स्वापः || ४|३|१४ ॥ कचि परतः स्वापेर्जिर्भवति । सूपत् । सुषुपताम् । तू पुन् । स्वपेरिंगचि लुङि कचि च कृते द्वित्वात्परत्वादनेन जिः । “युङ: " [ ५१२१८३ ] एप् । “खौ कच्युङ : " [ ५/२/११५ ] इति प्रादेशो द्वित्वम् । घेर्दीत्वम् । कचीति किम् ? स्वापितः । स्वाप्यते । स्वापेरिति किम् ? स्वपेरित्युच्यमाने वचनात्केवलादपि कच् स्यात् । स्वापं करोतीत्यत्रापि केचिदिच्छन्ति । केवलमक्तिः ( क्खतः ) सन्वद्भावाभावात् घेर्दीत्वं न भवति । सुषुपत् । स्वपिस्यमिवेत्रां यङि || ४ | ३|१५|| स्वपि स्यमि व्येञ् इत्येतेषां यङि जिर्भवति । सोसुन्यते । सेसिभ्यते । वेबीयते । स्वपिव्येञोः किति जिर्विहितः । यङि सर्वेषामप्राप्ते विधिः । “वशेर्यङि प्रतिषेधो वक्तव्यः " [ वा० ] वावश्यते । “ग्रहिज्यावशि” [ ४।३।१२] इति पाठे प्राप्तिः । यङीति किम् ? स्वप्नः । चायः कीः || ४ | ३ | १६ | चायः की इत्ययमादेशो भवति यङिः परतः । चेकीयते । चेकीयेते । चेकीयन्ते । दीत्वोच्चारणं किम् ? “दीरकृद्गे" [ ५।२।१३४ ] इति यत्र दीत्वं नास्ति तत्र यपि श्रवणार्थम् । चेकीतः । चेकीथः । स्फायः स्फीते ||४|३|१७|| स्फायः स्फी इत्ययमादेशो भवति तसंज्ञे परतः । स्फीतः । स्फीतवान् । तइति किम् ? स्फाय्यते । स्फातिः । स्फीतीभवतीति च्व्यन्तस्य रूपम् । पूर्वस्य स्त्यः || ४|३|१८|| ते इति वर्तते । प्रपूर्वस्य स्त्यायतेर्जिर्भवति ते परतः । प्रस्तीतः । प्रस्तीतवान् । “स्फादेः” [ ५।३।६० ] इत्यादिना नत्वस्यासिद्धत्वात्प्रागेव जिः पुनर्विहतनिमित्तत्त्वान्न भवति । "प्रस्त्यो वा " [५।३।६१] इति मत्वपक्षे प्रस्तीमः प्रस्तीमवान् । प्रपूर्वस्येति किम् ? संस्त्यानः । प्रहत्य इति सिद्धे पूर्वग्रहणं नियमार्थम् । श्रन्यपूर्वस्यापि मा भूत् । संप्रस्त्यानः । अथवा प्रपूर्वो यस्माद्गिसमुदायात्स प्रपूर्वः, तदवयवस्यापि स्यायतैर्यथा स्यादित्येवमर्थम् । प्रसंस्तीतः । प्रसंस्तोतवान् । इहान्ये ष्ट्यै स्त्यै इत्यनयोः सामान्येन निर्देशः । घनस्पर्शयोः श्यः || ४ | ३ | १६ | द्रवघने स्पर्शे च वर्तमानस्य श्यायतैर्निर्भवति ते परतः । शीनं घृतम् । शीनं मेदः । " श्याञ्चिदिवः " [ ५/३६५ ] इत्यादिना नत्वम् । द्रवावस्थायाम् घनभावमापन्नमित्यर्थः । स्पर्श शीतं वर्तते । गुणवत्यपि स्पर्शोऽस्ति शीतमुदकम् । शीतो वायुः । द्रवघनस्पर्शयोः किम् ? संश्यानो वृश्चिकः । 'स्फादेरातः' [५|३|६०] इत्यादिना नत्वम् । ३. प्रतिष्टु [ ] कोष्टकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिस्त्रुटिता । सूत्राणि तु जैनेन्द्रपञ्चाध्यायीमनुसृत्यात्र निर्दिष्टानि । For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० २०-२६] महावृत्तिसहितम् २८६ प्रतेः ॥४।३।२०॥ प्रतिपूर्वस्य श्यायतेर्भिवति ते परतः। प्रतिशोनः । प्रतिशीनवान् । अद्रवघनस्पर्शार्थोऽयमारम्भः । चाऽभ्यवात् ॥४।३२२|| अभि अब इत्येवंपूर्वस्य श्यायतेर्वा जिभवति ते परतः । अभिशीनः । अभिश्यानः। अवशीनः । अवश्यानः । अभ्यवशीनः। अभ्यवश्यानः। विपर्यासे प्रयोगो नास्ति । द्रवघनस्पर्शविवक्षायां प्राप्तेऽन्यत्राप्राप्त इत्युभयत्र विकल्यः । अन्यगियोगे केचिन्नेच्छन्ति । समभिश्यानम् । समवश्यानम् । अन्ये तु पूर्वमात्रेऽन्यगियोगेऽपिति विकल्पमिच्छन्ति । अभिसंशीनम् । अभिसंश्यानम् । अवसंशीनम् । अवसंश्यानम् । क्षीरहविषोः शतम् ॥४ २ ॥ शृतमिति निपात्यते क्षीरविषोः पाके । शृतं क्षीरम् | शृतं हविः स्वयमेव देवदत्तेन वा । त्रै पाके इति कृतात्वत्य भौवादिकस्य श्रा पाके इत्यादादिकस्य च ग्रहणम् । तथा श्रा पाके इति चौरादिकस्य णिचि पुकि च कृते श्रा पाक इति मित्सु पाठात्प्रादेशेश्रपिः । अनयोः श्राश्रयोः ते परतः शृभावो निपात्यते। क्षीरहविषोरिति किम् ? आश्राणा यवागूः । वेति व्यवस्थितविभाषानुवृत्त तुमति णिचि नेष्यते । अपितं हविर्देवदत्तेन जिनदत्तेन । प्यायः पी ॥३।२३॥ प्यायः पी इत्ययमादेशो भवति ते परतः । पीनौ स्तनौ। पीनावंसौ। “ोदितः" [५।३।६३] इति नत्वम् । प्रकृतो जिरुत्तरस्य यस्य प्रसज्येत । लिङाङोखलादौ च यखं नास्ति । तदर्थश्चादेशः। आङः ॥४॥३॥२४॥ श्राङः परस्य प्यायः पी इत्ययमादेशो भवति ते परतः । अापीनः । श्रापीनवान् । श्राङ एव प्यायः पी भवति नान्यस्माद् । प्रप्यानश्चन्द्रमाः। अन्धृधसोः ॥४।३।२५॥ अन्धूधमोरर्थयोः प्राङः परस्य प्यायः पी भवति ते परतः । अापीनोऽन्धुः । आपीनमूधः। अन्धुर्बणम् । ऊधः सनपर्यायः। अयमपि नियमः। अाङ् पूर्वात्याधुधसोरेव । नान्यस्मिन्नर्थे । अाप्यानश्चन्द्रमाः। लिड्योः ।।४।३।२६॥ त इति निवृत्तम् निमित्तान्तरोपादानात् । लिटि यङि च परतः प्यायः पी इत्ययमादेशो भवति । श्रापिप्ये । प्रापिप्याते | आपिप्यिरे। परत्वात्पीभावे कृते पुनः प्रसङ्गाद् द्वित्वम् । "एर्गिवाक्चादुङोऽसुधियः" [४७८] इति यणादेशः । यङि-यापेपीयते । आपेपीयेते। आपेपीयन्ते । यङपि "त्यखे त्याश्रयम्" [१११।६३] इति श्रापेपेति । आपेपीतः । अापेप्यति । न वा श्वेः ॥४॥२७॥ जिरिति वर्तते । श्वयतेन वा जिभवति लिड्योः परतः । शुशाव | शिश्वाय । शुशुवतुः । शिश्यिवतुः । शोशूयते । शेश्वीयते । लिटि किति यजादिप्राप्तिर्नेति प्रतिषिध्यते। ततः समीकृते विषये विकल्पः। पिति किति च लिटि यङि च प्रवर्तते । ननु शिश्वायत्यत्र जिना मुक्ते पक्षे "चस्यैषां लिटि" [४॥३॥१३] इति चस्य प्राप्नोति नायं दोषो नेत्यनेन श्वयतेर्यावती प्राप्तिः सा सर्वा प्रतिषिध्यते। ततो विकल्पः । यदि चत्य क्रियेत प्रतिषेधोऽनर्थकः स्यात् । __ सन्कचोरें ॥४।३।२८॥ सन्परे कच्परे च णौ परतः श्वयतेर्ने वा जिर्भवति । शुशावयिषति । अन्तरङ्गपरिभाषा ह्यनित्या । पूर्वविप्रतिषिद्धेन जौ कृते ऐपि "श्रो पुयणज्ये" [५।२।१७८] इति ज्ञापकात् स्थानिवद्भावेन द्वित्वम् । पक्षे शिश्वाययिषति । कचि अशुशवत् । अशिश्वियत् । हो जिः ॥४॥३॥२९॥ ह्वयतेजिर्भवति सन्परे कच्परे च णौ परतः । जुहावयिपति । जुहावयिषतः । जुहावयिषन्ति । कचि-अजूहवत् । अजूहवताम् । अजूहवन् । अनवकाशत्वाजिना सावकाशः "शाच्छासाह्वादि" [५११४२] सूत्रेण यक् वाध्यते । पुनर्जिग्रहणं नित्यार्थम् । ननु थस्येति वक्ष्यते तेनैवायं जिः सिद्धः। हयतेरेवायं य For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० ३०-३८ आदेरेकाच इत्यनुवर्तनात् । एवं तींदमेव ज्ञापकम् । थस्य निमित्तेऽन्येन व्यवहिते जिन भवति । तेन सिद्धम् । जिह्वायकीयिषति । हायकमिच्छति । ह्वायकीयतेः सन् । थस्य ॥४॥३॥३०॥ ह्वयतेस्थस्य जिर्भवति । जुहषति । जोहयते । जुहाव । सामर्थ्यात्थनिमित्ते परतो जिदितव्यः । अत्रोपचारात्थार्थो हृयतिस्थ: तस्य जौ कृते द्वित्वम् । न जौ जिः॥४॥३॥३१॥ जौ परतः पूर्वस्य जिन भवति । विद्धः । विचितः। संवीतः। बचेजिवचनं ज्ञापकम् । "अन्तेऽलः" [१॥१॥४६] इति नाश्रीयते । “अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" प०] इत्यनित्या । तत एकेनापि योगेनयावन्तो यणन्तेषां सर्वेषां जो प्राते प्रतिषेधोऽयम् । ननु तथाप्येकयोगेन युगपजे : पूर्वस्य परस्य च निवृत्तस्वात्सिद्धस्य कथं प्रतिषेधः १ अत्रोच्यते-न जौ जिरिति स्वाश्रयकार्यस्य जेः परपूर्वत्वस्य प्रतिषेधः । ततो यणादेशे सति सिध्यति रूपम् । पुनर्जिग्रहणं प्रकरणान्तरविहितस्यापि जेः प्रतिषेधार्थम् । यूना । यूने । “श्वयुवमघोनोऽहति" [४।४।१२१] इति जिः । अत्र स्वेऽको दीत्वस्य स्थानिवद्भावादुकारेण व्यवधानं न चिन्तनीयम् । "प्रपूर्वस्य स्त्यः” [।३।१८] इत्यत्र पूर्वस्येति वर्तते । तेन पूर्वमात्रस्य प्रतिषेधः । उपोषुषा । उपोषुषे इत्यत्र भिन्ननिमित्तत्वान्न प्रतिषेधः । जावित्यत्रेकारोऽपि प्रश्लिष्यते ततः श्वयतेः कचि न जिः । अशिश्वियत् । लिटि शो यः॥४॥३२॥न जिरिति वर्तते। लिटि परतो वेजो यकारस्य जिन भवति । वेजो यकारस्याभावात् वयेर्यकारस्य प्रतिषेधः । वेञ्ग्रहणस्योत्तरत्र प्रयोजनम् । ऊयतुः । ऊयुः । स्थानिवद्भावेन यजादित्वात् किति जिः प्राप्तः । लिड्ग्रहणमुत्तरार्थम् । वो वा किति ॥४॥३॥३३॥ लिटि किति परतो वो वकारस्य जिन भवति । ऊवतुः । ऊचुः । यजादित्याजिः प्राप्तः “प्ये च” [४।३।३४] इति वक्ष्यमाणेन प्रतिषद्धोऽनेन विकल्प्यते। परत्वाज्जौ कृते द्वित्वम्। "वार्णाद् गावं बलीयः" [परि०] इत्युवादेशे कृते स्वेऽको दीत्वम् | पने-ववतुः । वयुः। वेत्रग्रहणानुवृत्तेः स्थानिवद्भावेन वयि वकारस्य न प्रतिषेधः । कितीति किम् ? वविथ । प्य च ॥४॥३॥३४॥प्ये लिटि च वेजो जिन भवति । प्रवाय । उपवाय । ववौ । ववतुः । वत्रुः । बविथ । किद्ग्रहणं वाग्रहणं चानधिकृतम् । “चस्यैषां लिटि" [१।३।१३] इति यजादित्वाच्च जो प्राते प्रतिषेधोऽयम् । अस्मिन्नेव नित्ये प्राप्त कित्सु 'वो वा किति [३३३३] इति विकल्पः । वेग्रहणानुवृत्तरिह स्थानिवद्भावाभावाद् वयेरप्रतिषेधः । उवाय । ऊयतुः। ऊयुः । स्थानिवद्भावे हि "लिटि वेजो यः" [४३॥३२] इत्यनर्थकं स्यात् । अनेनैव यकारस्यापि प्रतिषेधः स्यात् । . ज्यः ॥४॥३॥३५॥ ज्या इत्येतस्य प्ये जिन भवति । प्रज्याय । उपज्याय । चानुकृष्टत्वाल्लिटीति निवृत्तः । व्यः ॥४॥३॥३६॥ व्या इत्येतस्य च प्ये जिन भवति । प्रत्याय । उपव्याघ । सूत्रान्तरमुत्तरार्थम् । परेवा ॥४॥३॥३७॥ परेरुत्तरस्य व्या इत्येतत्य प्ये वा जिभवति । परिवीय । परिव्याय । परत्वाद्दोत्वे कृते तुगभावः । एचोऽशित्याः ॥४३३८॥ धोरिति वर्तते। एजन्तस्य धोरशित्यात्वं भवति । ग्लै। ग्लाता । ग्लातुम् । शो-निशाता । निशातुम् । “अन्तेऽलः" [१३१४६] इत्येच आकारः । एच इति किम् ? कर्ता । कर्तुम् । अशितीति किम् ? ग्लायति । म्लायति । अशितीति प्रसज्यप्रतिषेधः शिति नेति । अनैमित्तिकमात्वम् । ग्लानीयम् । तेन आयाद्यभावः । सुत्रः । सुम्लः । “प्रातो गौ" [२।१1१०६] इति कः। सुग्लानम् । “युजातः” [२।३।१०६] इति युच्च सिद्धः । "मिष्मीब्दीड प्येच" [३४३] इति चकारादेविषये चात्ववचनं ज्ञापकम् । परनिमित्तस्यैच श्रात्वं न भवति । चेता। स्तोता। प्रतिपदोक्तपरिभाषा बनित्या तेन कापयतीत्यादौ पुक् सिद्धः। शकार इद्यस्य सोऽयं शित् तदादौ न भवति । न तु तदन्ते । जग्ले मम्ले इति । धोरित्येव । गोभिः । नौभिः। For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० ३६-४८] महावृत्तिसहितम् २६१ न व्यो लिटि ॥४॥३॥३६॥ व्ययतेलिट्यात्वं न भवति । संविव्याय । संविव्ययिथ । णलि “चस्यैषा लिटि" [।३।१३] इति जिः । “णित्यचः " [५।२।३] इत्यैप् । आयादेशः। थे "वोपदेशे” [५।१।१०८] इति सूत्रे "अव्याद्" इति प्रतिषेधात्कादिनियमादिट् । ॥४३॥४०॥ स्फुरि स्कुलि इत्येतयोरेच श्रात्वं भवति घत्रि परतः । विस्फारः । विस्फालः । “भावे" [२।३।१७] "अकर्तरि" [२।३।१८] "हलः" [२।३।१०२] इति “करणाधिकरणयोः" [२।३।१६] वा यत् । “स्फुरिस्कुयोनिनिवेः" [५/४/५८] इति वा षत्वम् । क्रीजेो ॥४॥३॥४१॥ की इङ् जि इत्येतेषामेच अात्वं भवति णी परतः । क्रापयति। अध्यापयति । जापयति । परनिमित्तस्याप्येच प्रात्वमनेन विधीयते । सिध्यतेरज्ञाने ॥४॥३॥४२॥ णाविति वर्तते । सिध्यतेरेच प्रात्वं भवति ज्ञानादन्यत्र णौ परतः । अन्नं साधयति । अर्थ साधयति । अज्ञान इति किम् ? प्राचारः कुलं सेधयति । क्षमा धर्म सेधयति । ज्ञापयतीत्यर्थः । श्यविकरणनिर्देशाविध गतावित्यस्य भौवादिकस्याग्रहणम् । मिमीन्दीङ प्ये च ॥४॥३॥४३॥ मिञ् मीत्र दीङ् इत्येतेषां प्ये च एचश्चात्वं भवति । प्ये प्रमाय । एद्विषये प्रमाता । प्रमातुम् । प्रमापयति । मिझो निमाय । निमाता । निमातुम् । निमापयति । दौड:अवदाय । अवदाता । अवदातुम् । अवदापयति । चकारो ज्ञापकः । परनिमित्तस्यैच श्रात्वं न भवति । तेन चेतादिष्वात्वाभावः । एच इत्यर्थवशाद्विशेषणलक्षणा •ता । एचो या प्रकृतिस्तस्याः प्राक्योत्पत्तेरात्वं भवति । एवं चाकाराएणधन्युचः सिद्धाः। अवदायः "श्याव्यध" [२११४] श्रादीति णः । अबदायो वर्तते । सुदानम् । “निमिमीलियां खाचोरात्वप्रतिषेधो वक्तव्यः" [वा०] सुनिमयः। निमीनाति निमानं वा निमयः। "अकर्तरि वाऽचि प्रतिषेधः । एवं मिनोतेरपि । लियो "विभाषा लियोः" [३।४४] इति व्यवस्थितविभाषा ज्ञापनादेव खाचोःप्रतिषेधः सिद्धः । विभाषा लियोः ॥४॥४४॥ लिनातेलीयतेश्च विभाषयाऽऽत्वं भवति प्ये एविषये च । विलाय विलीय । एज्विषये विलाता । विलेता। विभाषेति व्यवस्थितविभाषा । तेन धाष्टर्यसम्माननयोरात्वम् । श्येनो वर्तिकामपलापयते । णम्यपगुरो बा ॥४॥३॥४५॥ एच इति वर्तते । णमि परतः अपगुर एच प्रात्वं भवति वा । अपगारम् । अपगोरम् । अस्यपगारं युध्यन्ते । अस्यपगोरं युध्यन्ते । “प्रमाणासत्योः" [२१४६३६] इति णम् । “वा भादि" [११३८४] इति पसः । पुनर्वाग्रहणं पूर्वस्य व्यवस्थितविभाषाज्ञापनार्थम् । ॥४॥३॥४६॥ चिज स्फुर इत्येतयोगी परत एचो वाऽऽत्वं भवति । धर्म चापयति । धर्म चपयति । नयनं फारयति । नयनं स्कोरयति । प्रजने वातः॥४॥४७॥ प्रजनेऽर्थे वाते परतो वाऽऽत्वं भवति । पुरो वातो गाः प्रवापयति । पुरो वातो गाः प्रवपयति । लवणं गाः प्रवपयति । लवणं गाः प्रवापयति । प्रजनो गर्भाधानम् । वातेः प्रजनेऽर्थे वृत्तिास्ति तेनारम्भः। विभेतेर्हेतुभये ॥४॥३॥४८॥ बिभेतेहे तुभयेऽथे णौ परतो वाऽऽत्वं भवति । मुण्डो भापयते । जटिलो भापयते । मुण्डो भीषयते । जटिलो भीषयते । हेतुः स्वतन्त्रस्य कर्तुः प्रयोजकः । ततः साक्षाद्भयमत्र प्रतीयते । भयशब्दो भावसाधनोऽपादानसाधनो वा । नपुंसकलिङ्गे भावे "अज्विधौ भयादीनामुपसंख्यानम्" [वा०] कादिनिवृत्त्यर्थम् । भावे हेतोभयं हेतुभयम् । अपादाने हेतुरेव भयं हेतुभयमिति शेयम् । “णे स्मेर्हेतुभये" [१।२।६४] इति दविधिः । श्रात्वाभावपक्षे "ईतः पुनित्यम्" [॥३॥४६] इति षुक् । हेतुभय इति किम् ? कुञ्चिकयैनं भीषयति । नात्र प्रयोजकाद्धेतोभयं किन्तर्हि कुञ्चिकारूपात्कारणात् । तिपा निर्देशो यबन्तनिवृत्यर्थः बिभेति तमन्यः प्रयुङ्क्ते (भाययति पुनः पुनरतिशयेन भाययति,) बिभाययीति । For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० ४६-५७ ईतः षुङ् नित्यम् ॥४॥३॥४६॥ विभतेरीकारान्तस्य हेतुभयेऽर्थ नित्यं घुगागमो भवति णौ परतः । मुण्डो भीषयते । जटिलो भीषयते । ईत इति निर्देशादैपः प्रागेव षुक् । हेतुभय इत्येव । कुञ्चिकयैनं भाययति । नात्र साक्षात्प्रयोजको भयकारणम्; किन्तर्हि ? करणात् । दविधिश्च न भवति । स्मिङः ॥४॥३॥५०॥ हेतुभय इति वर्तते णाविति च । स्मिङ् इत्येतस्य णौ परत श्रात्वं भवति हेतुभयेऽथे । मुण्डो विस्मापयते । जटिलो विस्मापयते "णे स्मेर्हेतुभये" [१।२।६४] इति दः। हेतुभय इति किम् ? कुञ्चिकयैनं विस्माययति । स्मयत्यर्थ एव भयमित्युपचर्यते । नहि मुख्यवृत्या भये स्मयतेवृत्तिः । झल्यकिति सृजदृशोऽम् ॥४॥३॥५१॥ झलादावकिति परतः सृदृशोरमागमो भवति । स्रष्टा ।स्रष्टुम् । स्रष्टव्यम् । द्रष्टा । द्रष्टुम् । द्रष्टव्यम् । विशेषविहितत्वात्सामान्यविहितस्य "ध्युङः” [५।२।८३] एपो बाधकोऽयम् अनाक्षीत् इत्यत्र पूर्वममि कृते “व्रजवद" [५।११७६] इत्यादिनै । झलीति किम् ? सर्जनम् । दर्शनम् । अकितीति प्रसज्यप्रतिषेधादिह न भवति रज्जुसृड्भ्याम् । देवदृग्भ्याम् । धोः स्वरूपग्रहणे तत्यविज्ञानाद्वा । वाऽनुदात्तस्यर्दुङः ॥४॥३॥५२॥ अनुदात्तस्य धोः ऋदुङः वा अमागमो भवति झलादावकिति परतः । त्रप्ता । ता । द्रप्ता । दर्ता । तृपिपीरधादौ विकल्पितेटौ तत्रानुदात्तपाठोऽमागमार्थः । अनुदात्तत्येति किम् ? बर्दा तर्दा । वृढः । तृढः । उदित्वात्पक्षेऽनिटौ । ऋदुङः इति किम् ? भेत्ता । भेत्तुम् । झलीत्येव । तर्पणम् । दर्पणम् । अकितीत्येव । दृप्तः। ध्वादेः षस्सः ॥४॥३॥५३॥ धोरादेः षकारस्य सकारादेशो भवति । अज्दन्त्यपरा सादयः पोपदेशाः । सृपिसृजिसत्यास्तृसेकसृवर्जम् । स्वदिस्मिविदिस्वञिस्वपयस्तु मूर्धन्यादिपाठाः । उदाहरणम् । पह सहते । षिच सिञ्चति । भिष्वप् सुतः । “त्यादेशयोः” [५।४।३६] इति पवार्थ श्रादेशः । धोरिति किम् ? षोडन् । षडिकः । श्रादेरिति किम् ? लषति । धोरिति वर्तमाने पुनधुग्रहणं धुरखे यो युः तदादेः षकारस्य सत्वार्थम् । सुब्धोर्मा भूदिति | पोडोयते । पण्डी । “ष्टीवतिवष्कतिष्ठ्यायतीनां प्रतिषेधो वक्तव्यः" वा०] । टिव थकारपरः ठकारपरश्चेष्यते । तेन चविकारे तेष्ठीव्यते । टेष्ठोव्यते । यो नः ॥४॥३॥५४॥ धोरादेणकारस्य नकार आदेशो भवति । सर्व नादयो णोपदेशाः । नृतिनन्दिनक्कनदिनटिनार्धनाश्र्वर्जम् । णम्-नमति । णी-नयति । णह-नह्यति । “गेरसेऽपि विकृतेः" [५।१६८] इति णत्वार्थमादेशः । पुनर्धग्रहणात्सुब्धोएंकारस्य नत्वं न भवति । णकारीयति । वादेरित्येव । चणति | योगविभागः सत्वस्य श्रीवत्यादावनित्यत्वज्ञापनार्थः । वलि व्योः खम् ॥४॥३५॥ वलि परतो वकारयकारयोः खं भवति | धोरधोर्वा । देदिवः, सेसिवः । यजन्ताद्वसि वकारस्य खम्। जीवरदानुक् । जीरदानुः। यकारस्य,ऊपो-ऊत्तम् । क्नूयी-क्नूतम् । “असिद्धं वाहिरङ्गमन्तरङ्गे" प०] इत्यनिल्या तेन बहिरङ्गे इयादेशे एयादेशे च सत्यन्तरङ्गं यखम् । पचेत् । दासेरः । क्विपि कण्ड्रयतेः बोभूयतेश्च कण्डूः । बोभूः । अतः खे कृते "बलि व्योः खम्"नित्यत्वात्विपः खेऽपि क्वचिद्वर्णाश्रयेऽ त्याश्रयमिति त्यखे त्याश्रयाद्लादित्वम् । वलीति किम् ? दीव्यते । ताय्यते । हल्ङ यापो द्यः सुसिप्त्यनच् ॥४॥३॥५६॥हलन्तात् ङी च अाप च या दीः तदन्ताच्च परेषां सुलिप्तीनां खम् । व्यर्थ स्कान्तखेन सिद्धमिति चेत्, न सिध्यति । उखादित्यत्र कान्तखस्यासिद्धत्वे पदान्तत्वाभावाइत्वं न स्यात् । स्फादिसिखे वा विभक्तिसकारस्य रित्वविसर्जनीयौ स्याताम् । अभिनोऽत्रेति स्फान्तखस्यासिद्धत्वादेरुत्वं न स्यात् । अबिभर्भवानित्यत्र "रात्सः" [५।३।४२] इति नियमात्तिपः खं न स्यात् । केरेङः ॥४।३।५७॥ के खं भवति एङन्तादुत्तरस्य । हे अग्ने । हे वायो। प्रादिति खात्परत्वेन 'प्रस्यैप्" [५।२।१०३] इति एए । For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० ५८-६८ ] महावृत्तिसहितम् २६३ प्रात् ॥४॥३॥५८॥ प्रान्तात्परस्य केः खं भवति । हे देवदत्त । हे जिनदत्त । बसपक्षेऽनजिति वर्तते तच्च प्रादिति कानिर्देशात् तान्तं सम्पद्यते । ततः केरवयवस्यानचः खं भवति । एवं हे कुएडेत्यत्र हलो मकारस्य खं भवति । हे कतरदित्यत्र स्वमोः परतः किकृते "नपः स्वमोः" [५।१।२०] इत्युप् । पिति कृति तुक ॥४॥३५९।। प्रादित्यस्य तापक्लूप्तिः । पिति कृति तुगागमो भवति प्रान्तस्य । प्रकृत्य । प्रस्तुत्य । अग्निचित् । सोमसुत् । कृतीति वचनाद्धोरयं तुक | पितीति किम् ? चितम् । स्तुतम् । कृतीति किम् ? बहुकर्तृकः । प्रस्येति किम्? प्रलूय । ग्रामणीः । ग्रामणीकुलमित्यत्र बलाश्रयस्य प्रादेशस्यासिद्धत्वान्नान्तरङ्गस्तुक् । सन्धौ ॥४॥३॥६०॥सन्धावित्यधिकारो वेदितव्यः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः सन्धिविषये तद्वेदितव्यम् । लोकत एव संश्लेषः सन्निकर्षो वा सन्धिरिति ज्ञातव्यम् । यथा "एप्यतोऽपदे" [३४] अत्रेकारादिः । वक्ष्यति 'अचीको यण" [४३३६५] । दध्यशान । सन्धाविति किम् ? दधि अशान । छे॥४।३६१॥ छकारे परतः सन्धौ प्रस्य तुम्भवति । गच्छति । इच्छति । पृच्छति । प्रस्यात्र तुझ्न तदन्तस्य । यदि प्रान्तस्य स्याच्चिच्छिदुरित्यत्र "हलोऽनादेः" [५।२।१६ खं प्रसज्येत । नन्वक्यवावयवोऽपि समुदायावयव इति खं प्राप्नोति । एवं तर्हि पूर्वान्तकरणाधिकारात्वं न भवति ।। प्राङ्माङोः ॥४॥३६६२।। प्राङ् माङ् इत्येतयोश्छे परतस्तुग भवति । ("ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाऽभिविधौ च यः। एतमातं ङिन्तं विद्याद्वाक्यस्मरणयोरङित् ॥") ईपच्छाया आच्छाया। क्रियायोगे-आच्छिनत्ति । मर्यादाऽभिविध्योः । आच्छायायाः । माङमाच्छिदत् । माच्छासीत् । “वा पदस्य" [४।३।६४] इति विकल्पः प्राप्तः। अनूल (नुबन्ध) करणं किम् ? आच्छात्रमानय । श्राछात्रमानय । स्मरणे डित्त्वं नास्ति । उपमा छत्रमानयति । “गामादाग्रहणेष्वविशेषः" [प०] इति प्राप्तिः । अथवा नेदं प्रत्युदाहरणम् । श्राङा सहचरितस्य माङो निसंज्ञकस्य ग्रहणाद्धोरप्राप्तिः । द्यः ॥४।३।६३॥ दीसंशस्य छे तुम्भवति । होच्छति । म्लेच्छति । अपचाच्छाद्यते । वा पदस्य ॥४।३।६४॥ धन्तत्य पदस्य छे वा तुग्भवति । कुवलीच्छाया । कुवलीछाया । शमीच्छाया। शमीछाया । दीसंज्ञकस्य तुग्भवति स चेत्पदस्येति । तेनासामध्येऽपि तुग्विकल्पः सिद्धः। तिष्ठतु कुमारी छत्रं हर देवदत्त । अचीको यण ॥४।३।६५। अचि परत इको यणादेशो भवति । दद्वथशान । मद्ध्वपनय । “अनचि" [५/१२७ इति द्वित्वम् । भर्थः । लाकृतिः । “असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग" [प०] इति यादीनां न स्फान्तखम् । अचीति किम् ? दधि करोति । मधु कृतम् । इक इति किम् ? भवानन्त । हलो मा भूत् । स्वेऽचि दौत्वं वक्ष्यति । पारिंशेष्यादन्यत्र यण। --एचोऽयवाभावः ॥४॥३॥६६॥ एचः स्थाने अय् अव् आय् ाव इत्येते आदेशा भवन्ति अचि परतः । चयनम् । लवनम् । चायकः । लावकः । कयेते । पटविह । यि त्ये॥४।३।६७॥ यकारादौ त्वे अयादय आदेशा भवन्ति । बाभ्रव्यः । माण्डव्यः । गव्यः । नाव्यो हृदः । यीति किम् ? गोभ्याम् । नौभ्याम् । त्य इति किम् ? गोयानम् । नौयानम् । योति योगविभागः। तेन गोयंता. वध्वपरिमाणे अनादेशो भवति । गव्यूतिः । अयायादेशयोः केचित्प्रतिषेधमिच्छन्ति । तेन रायमिच्छति रैयति । क्षिज्योः ॥४॥३६॥ क्षि जि इत्येतयोरेचो यि त्येऽयादेशो भवति । क्षेतुं शक्यं क्षय्यम् पापम् । जेतु शक्यो जय्यः शत्रुः । “शकि लिङ च” [२।३।१४८] इति व्या भवन्ति । नियमार्थोऽयमारम्भः। धुषु क्षिज्योरेव नान्यस्य धोः। चेयम् । नेयम् । तत्रापि तुल्यजातीययोरेकारैकारयोनिवृतिः । धोरोकारौकारयोः पूर्वेणावावादेशौ भवतः । लव्यम् । पव्यम् । अवश्यलाव्यम् । अवश्यपाव्यम् । मयूरव्यंसकादित्वात्सः । व्यान्ते झवश्यमोनाश इति । For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू०६६-७४ शक्तौ ॥४॥३॥६९॥ अयमपि नियमः । शक्तावेव क्षिज्योरयादेशो नान्यस्मिन्नथें । क्षेयम् । धोस्तस्मिन्नेव ॥४॥३७०॥ धोस्तस्मिन्नेव यित्ये य एच तस्यायादयो भवन्ति । लज्यम् । अवश्यलाव्यम् । धोरिति किम् ? मृदो नियमो मा भूत् । माण्डव्यः । गव्यम् । तन्निमित्तस्यातन्निमित्तस्य च "यि त्ये" [३।६७] इत्यादेशः । तन्निमित्तस्येति किम् ? उपोयते । औयत । लौयमानिश्चैत्रः । कर्मणि लट् । यक जित्वम् । गिधोर्यकाय तदन्तरङ्गमिति "श्रादेप" [१।३.७५] । लटि लावस्थायामडागमोऽन्तरङ्ग इति “अटश्च” [४३.७८] इत्यैप् । अन्तरङ्गपरिभाषा ह्यनित्या तेन बहिरङ्गत्वेऽप्येप् । लोयमानिरिति प्रत्युदाहरणम् । एवकार इष्टतोऽवधारणार्थः। घोरेव तस्मिन्निति नियमो मा भूत् | एवं हि बाभ्रव्य इत्यत्र न स्यात् । क्रय्यः स्वार्थे ॥४॥७२॥ कय्य इति निपात्यते स्वार्थे गये । स्वार्थो द्रव्यविनिमयः। कय्यः कम्बलः। क्रव्या गौः । क्रयार्थ प्रसारितः। अन्यवस्तुसंग्रहार्थमिति यावत् । क्षिज्योरिति नियमादप्राप्तोऽयादेशो निपात्यते । स्वार्थ इति किम् ? क्रेयं धान्यं न चास्ति क्रय्यं स्वीकर्तव्यं धान्यं किं तर्हि परकीयम् । क्रयार्थ प्रसारितं नास्तीत्यर्थः । द्वयोरेकः ॥४॥३॥७२॥ "ख्यत्यादतः" [३६] इति वक्ष्यति । प्रागेतस्माद् द्वयोः पूर्वपरयोरेको भवतीत्येषोऽधिकारो वेदितव्यः । वक्ष्यति आदेषु । देवेन्द्रः । द्वयोग्रहणं किम् ? पूर्वपरयोयुगपदादेशप्रतिपत्त्यर्थम् । इतरथा हि यत्र कानिर्देशः सावकाशस्तत्र पूर्वस्य निर्देशः। यत्रेम्निर्देशः सावकाशस्तत्र परस्य । ततश्च पर्यायेण कार्य स्याद् यथा “सचस्योभौ" [५१०५] इत्यत्र णकारद्वयम् । एवमिहापि कार्यद्वयं माभूदित्येक ग्रहणं क्रियते। तद्वत् ॥४॥३॥७३॥ द्वयोरेक इति वर्तते । तयोरिव तद्वत् । तयोविद्यमानयोर्यत्कार्य तत्कृतेऽप्येकादेशे यथा स्यात् । यत्पूर्वमवयवमाश्रित्य कार्य क्रियते, यच्च परं तत् कृतेऽप्येकादेशे भवति । असति सूत्रेऽवयवग्रहणेन न गृह्येत । क्षोरोदकवत् । पूर्वावयवे प्रयोजनम् । वामोरूरिति मृद ऊरित्यमृदो मृदमृदोरेकादेशो मृद्वद्भवति । यथा शक्येत कर्तुं मृद इति स्वादिविधिः । अन्यथा वृक्षः प्लक्ष इत्यादावेव स्यात् । परावयवे प्रयोजनम्देवावित्यत्रोकारः सुम् । असुबकारः। सुबसुपोरेकादेशः सुब्बद् भवति । यथा शक्येत कर्तुम् “सुम्मिङन्तं पदम्" [१।१०३] इति । अन्यथा साधुः पूज्य इत्यादावेव स्यात् । अधोत्येत्यत्र द्वयोरेकादेशेऽपि प्राश्रयस्तुकू सिद्धः । "उभयत आश्रयणे न तद्वद्भावः” [वा०] । तेन उपोह्यते । प्रोह्यते इत्यत्र “गेरूहः प्रः" [५।२।१३२] इति उभयाश्रयः प्रादेशो न भवति । इह कार्यातिदेशोऽभिप्रेतो न रूपातिदेशः । तेन वर्णाश्रये विधौ तद्वद्भावो न भवति । मालाभिरित्यत्र पूर्वान्तत्वमाश्रित्य "भिसोऽत ऐस्" [५/११८८] इति न भवति । जुहावेत्यत्र "थस्य' [४।३।३०] इति ह्वयतेजौ कृते "जे:” [४।३।६५] परपूर्वत्वे च तस्य परवद्भावात् "जातो णलः औ" [५।२।३०] इति न भवति । अत्यै अङ्कः परवद्भावाभावात् । “एङोऽति पदान्तात्" [४१३१६६] इति न भवति । अस्या अंङ्क इति सिद्धम् । वत्कणात् स्वाश्रयमपि । तेन ङोटोस्तुकं प्रति परादित्याभावे "वा पदस्य" [ ६] इति विकल्पः सिद्धः । वृक्षेच्छत्रम् । वृछत्रम् । अपचेच्छत्रम् । अपचेछत्रम् । संवेञः क्वौ जिः । जेः पूर्वत्वम् । तस्य परादित्वाभावे प्राश्रयस्तुक सिद्धः। समुत् । षत्वेऽसद्वत् ॥४।३।७४॥ षत्वे कर्तव्ये एकादेशोऽसद्वद्भवति। त्यादेशलक्षणे प्राप्त प्रतिषेधार्थमिदम् । कोऽय । योऽस्य । कोऽस्मै। कोऽसिचत् । योऽसिचत् । "ह्वालिप्सिचः" [२११०४६] इत्यत् । “एडोऽति पदान्तात" [ १६] इत्येकादेशस्यासिद्धत्वादिण उत्तरस्य त्यादेशसकारस्य षत्वं प्रसक्तं न भवति । "नाद्यन्ते" [५/७६] इति षत्वप्रतिषेधो न सिध्यति तद्वद्भावेन परादित्वादेकादेशस्य । ननु चैकपदाश्रये पत्वेऽन्तरङ्गे एकादेशस्यासिद्धत्वम् | अनित्यैषा परिभाषा । ततोऽक्षधरित्यत्र बहिरङ्ग ऊठ यणादेशे नासिद्धः। घेऽसददिति सिद्ध षत्वे इति गुरुनिर्देशः किमर्थः ? पादान्तपदाचोरेकादेशः षत्वेऽसदद्भवति । नान्यत्रेति For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० ७५-८१] महावृत्तिसहितम् ज्ञापनार्थः । तेन उपसेदुषः पश्य । अनुषुषः पश्य । “वसोर्जिः" [।४।१२०] "जेः [३६५] पूर्वत्वम् । उकाराकारयोरेकादेशः षत्वेऽसद्वन्न भवति । आदेप् ॥४॥३।७५॥ अवर्णान्तादचि परत एब् भवति । देवेन्द्रः । गन्धोदकम् । महर्षिः । द्वयोः स्थाने एको भवति । “एङि पररूपम्" [४।३।८:] इत्यत्र परग्रहणं पूर्वापेक्षं तेन परत्यान्तरतमो एबू ऋवणे परतः प्रसज्यमान एव परस्यान्तरतमोऽकारः "रन्तोऽणुः" [११११४८] इति रन्तो भवति । एज्यप ॥४।३।७६। अवर्णान्तादेचि परतो द्वयोरेक ऐब् भवति । ("प्रसिद्ध कसुरैश्यस्य सर्वज्ञस्य महौजसः । व्यतीतौपम्यधर्मार्थ वचः पायान्महौषधम् ॥") "अक्षादहिन्यामैब्बक्तव्यः" [वा०] अक्षौहिणी। "प्रादूहोढोढ्य षैष्येषु" [वा०] प्रौदः। प्रोटिः । प्रैषः । प्रैष्यः । "स्वादीरेरिणोः" [वा०] स्वैरं । स्वैरी। लिङ्गविशिष्टस्य स्वैरिणी । “ऋते भासे" [वा०] दुःखातः । ऋत इति किम् ? सुखेतः । भास इति किम् ? परमतः। स इति किम् ? सुखेनतः । “ऋणदशप्रवत्सतरकम्बलवसनानामृणे" [वा०] ऋणार्णम् । दशार्णम् । प्राणम् । वत्सतराणम् । कम्बलार्णम् । वसनार्णम् । इत्येधत्यूट सु ॥४॥३७॥ एति एधति ऊठ इत्येतेषु परतोऽवर्णन्तादैब् भवति । एचीति वर्तमानमेते'विशेषणम । एधतेयभिचाराभावात् । ऊस्वरूपेण गृह्यते । उपैमि । उपैषि । उपैति । उपैधते । प्रैधते । एडिपररूपापवादः । पुरस्तादपवादोऽनन्तरस्य एङि पररूपत्य बाधकः नोत्तरस्य “श्रोमाङोः"[३२] इति प्राड पररूपस्य । तेन आ इतः । एतः । उपेतः । ऊठ-धौतः । धौतवान् । एचीत्येव । उपेतः । प्रेतः । __ अटश्च ॥४॥३७८॥ एचीति निवृत्तमचीति वर्तते । अटश्च अचि द्वयोरेक ऐब् भवति । ऐक्षिष्ट । ऐहिष्ट । श्रीब्जीत् । अौम्भीत् । ऐक्षत । ऐहत । आर्नोत् । ऐक्षिष्यत् । औम्भिष्यत् । चशब्दोऽवधारणार्थः। श्रट एवैचि यथा स्यात् । यदन्यत्प्राप्नोति तन्मा भूत् । अोङ्कारमैच्छत् । औङ्कारीयत् । “एप्यतोऽपदे" [१।३।४४ "श्रोमाङो" ८२] इति पररूपं प्राप्तम् । या उद अोढः अोढमैच्छत् प्रौढीयत् । “ोमाडोः" [ २] इति पररूपं प्राप्तम् । उस्रामैच्छत् श्रौत्रीयत् । प्रतिपदोक्तपरिभाषानाश्रयणे "उसि" [४।३।३] इति पररूपं प्राप्तम् । धावृति गेः ॥४॥३७६॥ आदिति वर्तते । अवर्णान्ताद्गः ऋकारादा धौ द्वयोरेक ऐब भवति । उपार्छति । प्रार्च्छति । उपाध्नाति । प्रार्नोति । प्रसज्यमान एवैप "रन्तोऽणुः” [॥१॥४८] इति रन्तो भवति । गेरिति किम् ? इहर्छति । प्रगता ऋच्छका अस्मिन् देशे प्रर्छको देशः। ऋतीति किम् ? प्रेक्षते । तपरकरणं किम् ? उप ऋकारीयति उपक यति । “वा सुपि" [४३८०] इति विकल्पः प्रसज्येत । गेरिति निर्देशाद् धुग्रहणे लब्धे धाविति किम् ? धावेव यथः स्यात "ऋत्यकः" [४।३।१०५] इति प्रकृतिभावो धोर्मा भूत् ।। वा सुपि ॥४।३।८०॥ ऋ! रादौ सुब्धौ गेरिवर्णान्तस्य वा ऐब् भवति । उपार्षभीयति । उपर्षभीयति । प्रार्षभीयति । प्रपंभीयति । “गेरध्वनः" [४।२।८७] इत्यत्र यथा गिसंज्ञोपलक्षितानां ग्रहणं तथेह मा भूदिति धुग्रहणमनुवर्तते । प्रर्षभं वनम् इत्य न भवति । - एङि पररूपम् ॥४॥३॥८१॥ आदिति वर्तते । गेर्धाविति च । अवर्णान्ताद्रेः एङादौ धौ पररूपमेकादेशो भवति । उपेलयति । प्रेलयति । उपरोषति । ऐषि प्राप्ते “वा सुपि" [४।३।८०] इत्यपि वर्तते । उपेलकीयते । उपैलकीयते । उपोदनीयति । उपौदनीयति । एङि परमिति सिद्ध रूपग्रहणादिष्टं लभ्यते । "एवे चानियोनेपाल वि० इहेव । अयेव । अनियोग इति किम् ? इहैव भव माऽद्य गाः। “शकन्ध्वादिषु पररूपम्" [वा०] शकअन्धुः शकन्धुः । कर्क अन्धुः कर्कन्धुः । कुलटा । सीमन्तः केशेषु । सीमान्तोऽन्यत्र । "प्रोत्वोष्ठयोः से वा पररूपम्' [वा०] स्थूलोतुः । स्थूलोतुः । विम्बोष्ठी । बिम्बौष्ठी । “नासिकोदरौष्ठ" [३।११४८] इत्यादिना की । स इति किम् ? वाक्ये मा भूत् । पश्योष्ठं देवदत्त । For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० ८२-६० श्रीमाङोः || ४|३|८२ ॥ गेरिति निवृत्तम् । श्रादिति वर्तते । श्रोम् श्राङ् इत्येतयोः परतोऽवर्णान्तात्पररूपं भवति । का श्रमित्यवोचत् कोमित्यवोचत् । योमित्यवोचत् । सोमित्यवोचत् स्त्री । श्राङि श्रा ऊदा प्रोढा । द्योढा । कदोढा । सोढा स्त्री । आा उता श्रोता । कदोप्ता । श्राङनाङोरेकादेशः तद्वदित्याङ्ग्रहणेन गृह्यते । गिध्वोर्यत्कार्यं तदन्तरङ्गमिति पूर्वमाङः परेण योगः । मर्यादाभिविध्योश्च परेण योगे सति पूर्वेण सह च्यै प्रसज्येत । ऋणात् श्रर्णात् । श्रवर्णात् । श्राङीति पररूपम् । ननु मध्येऽपवादोऽयमेच्यैपो बाधकः कथमुत्तरस्य स्वेऽको दीत्वस्य स्वेऽको दीत्वेऽपीदमनुवर्तत इति तस्यापि बाधा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसि ||४|३|८३॥ उसि परतोऽवर्णान्तात्पररूपं भवति । भिन्युः | छिन्धुः । श्रपुः । श्रुवुः । “श्रातः” [२२४६०] “लङो वा " [२|४|११ ] इति जुम् । लिङादेशे उति प्रयोजनं नास्तीति जुसो ग्रहणम् । कोष्टा । कोषिता इत्यत्र अनर्थकत्वाल्लाक्षणिकत्वाच्चाग्रहणम् । श्रादित्येव । विभयुः । एप्यतोऽपदे || ४ | ३ |८४ ॥ अकारस्य पररूपं भवति एयपदे परतः । पचन्ति । पचे । एपीति किम् ? अपचे । श्रादिति वर्तमाने यत इति तपरकरणं किम् ? यान्ति । वान्ति । श्रपद इति किम् ? दण्डाग्रम् । पदादिरयमे । डाजहंस्येताघतः ||४|३|८५|| डाजर्हस्य योऽच्छब्दस्तस्येतौ पररूपं भवति । पटत् इति पटिति | छपत् इति छपिति "नानर्थकेन्तेऽल्लोऽन्त्यविधिः " [१०] । इति सर्वस्यातः परत्वम् । डाजर्हस्येति किम् ? श्रदित्याह श्रदिति । श्रव्यक्तानुकरणैकाचौ डाजमुत्पादयतः । इताविति किम् ? पटदत्र । श्रत इति किम् ? छपिदिति न प्रेस्तो वा ||४३|८६ ॥ म्रिसंशकस्य योऽच्छन्दस्तस्येतौ पररूपं न भवति तकारस्य तु वा भवति । पटत् इति पटपटेति । पटत्-पटदिति । छपच्छपेति । छपच्छपदिति । "वीप्सा" [५/३/३ ] आदि सूत्रेण द्वित्वम् । समुदायानुकरणे भवत्येवातः पररूपम् । पटत्पटिति । safe नित्यम् ||४|३|८७ || डाजन्ते म्रौ परतो डाजर्हस्यातस्तकारस्य नित्यं पररूपं भवति । पटपटाकरोति । इदमेव ज्ञापकम् । टिखात्पूर्वे “डाचि" इति द्वित्वम् । स्वेको दीः ॥४३॥ कः स्वेऽचि परतो दीर्भवति । द्वयोरेक इति वर्तते । लोकाग्रम् । विद्यान्तः । कवीन्द्रः । मधूदकम् । पितृषभः । स्वे इति किम् ? दध्यत्र । अक इति किम् ? एप्यतोऽपदे इत्यनुवृत्तौ अग्नये । नावावित्यत्रकारौकारयोर्दीत्वे द्वयोरैक्यं प्रसज्येत । यथा सागता । चीत्येव । दधि शीतम् । दीत्ववचनं त्रिमात्राद्यादेशप्रतिषेधार्थम् । सुटि पूर्वस्वम् ||४|३|८६ ॥ श्रको दीरचीति वर्तते । अचि सुटि परतः पूर्वस्वं दीर्द्वयोरेको भवति । श्रग्नी । वायू | "एप्यतोऽपदे" [४/३/८४] इत्यनेन प्रकारे परतः पररूपविधिः स्वेऽको दीत्वमनन्तरं बाघते नोत्तरं सुटि पूर्वस्वदीत्वम् । पूर्वग्रहणम् अग्नीत्यादिषु परस्वदीत्वनिवृत्त्यर्थम् । श्रक इत्येव । रायौ । रायः । द्वयोरेकत्वं स्यात् । श्रचीत्येव । देवः । शसि ||४|३|१०|| शसि परतः पूर्वस्वं दीर्भवति । मालाः । बुद्धीः । कुमारीः । धेनूः पश्य । नश्च पुंसि || ४ | ३ | ६१ ॥ शसि परतः पूर्वस्वं दीर्भवति नकारश्चान्तादेशः पुंसि गम्यमाने । देवान् । कवीन् । पटून् । कर्तृन् । पुंसीति लिङ्गनिर्देशः । लिङ्गं च प्रत्ययधर्मः । वस्तुधर्मे सत्यसति वा यत्र शब्दः पुंलिङ्गाकारं प्रत्ययं जनयति तस्मिन् प्रत्ययवमें पुंसि गम्ये नकारो भवति । वस्तुनि नपुंसकेऽपि पष्ठान् पश्य । स्त्रीरूपेऽपि वस्तुनि दारान् पश्य । स्थूरान् पश्य । अररकान् पश्य । स्थूराया अररकाया अपत्यानि गर्गादित्वाद्य, तस्य बहुवे “यत्रोः " [१|४|१३५ ] इत्युप् । “हृदुप्युप्" [१1१18 ] इति स्त्रीत्यस्य टापोनिवृत्तौ शस्न ( शसो नः ) । इह च पुंलिङ्गाकारप्रत्ययाभावात् सत्यपि प्राणिधर्मे पुंस्त्वे न भवति । चञ्चाः पश्य । वर्धिकाः पश्य । चञ्चा इव चञ्चाः चञ्चासदृशान् पुरुषान् पश्येत्यर्थः । स्त्रीवस्तुन्यपि भवति भ्रकुंसान् पश्य । सत्यपि वस्तुधर्मे नत्वं वृक्षान् पश्य । For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १२-६६ ] महावृत्तिसहितम् २६७ नेच्यात् ||४|३|१२|| इचि मुटि परतोऽवर्णान्तात्पूर्वस्वं दीनं भवति । इन्द्रौ । चन्द्रौ । विद्ये । श्रद्ध े । इत्यत्र परत्वादुत्तरसूत्रेण प्रतिषेधो न्याय्यः । इचीति किम् ? देवाः । श्रादिति किम् ? अग्नी । सच || ४ | ३|१३|| श्रादिति नाधिकृतम् । ग्रन्ताज्जसिचि च परतः पूर्वस्वं दीनं भवति । कुमार्यौ । कुमार्यः । वामोचौं । वामोर्वः । विधे । शुद्धे । माला इत्यत्र “स्वेको दी : " [४३८८] इति दीत्वं द्रष्टव्यम् । द्य इति स्पष्टार्थ वचनम् । इचि प्रसंज्ञयाऽपि वर्णस्य यद्यनेन प्रतिषेधः स्यान्नेच्यादिति सूत्रमनर्थकं स्यात् । कवयः । पटव] इत्यत्र जसि परत्वादेया भवितव्यम् । देवाः । अग्नी । वायू इत्यत्र “सुटि पूर्वस्त्रम्" [४३] इति सुग्रहणसामर्थ्याद्दीत्वम् । पूर्वोऽमि ||४|३|१४|| कोऽमि परतो द्वयोरेकः पूर्वो भवति । देवम् । कविम् । मालाम् । भानुम् । पूर्वग्रहणं पूर्वस्य दीत्वप्रतिषेवार्थम् । पूर्वरूपं यथा स्यात् । यदि पूर्वः प्रो द्वयोरेकादेशः प्रो भवति अथ दीसंज्ञो दीर्भवति । श्रचीत्यनुवर्तनान्मकारस्य पूर्वस्वं न भवति । क इत्येव । रायम् । नावम् । सुटीत्येव । श्रचिनवम् । सुनवम् । जेः ||३६|| रचि परतः परः पूर्वा भवति । इष्टः । उतः । गृहीतः । जिविधानसामर्थ्याद्यणादेशो न स्यात् । पूर्व पुनर्लभ्येत । इदं शक शकदर्थमिति वोरधः (ओरचः) प्रत्यासन्नस्य पूर्व कृते पुनः पूर्वत्वं न भवति । एकोऽति पदान्तात् ||४|३|१६|| एङ: पदान्तादति परतो द्वयोरेकः पूर्वो भवति । मुनेऽनघ । सावोऽनव । एक इति किम् ? दध्यत्र । अतीति किम् ? पटवि । तपरकरणं किम् ? पटवायादि । पदान्तादिति किम् ? नयनम् । सुनयः । ङसिङसोः || ४|३|६७॥ एङझेऽति वति । एङो ङसिङसोरति परतो द्वयोरेक: पूर्वो भवति । ग्रपदान्तोऽयमारम्भः । कचेरागच्छति । कः स्वम् । पटोरागच्छति । पटोः स्वम् । ङसिङसोरेङश्च यथासंख्यं न भवति |. “ओरावश्यके” [२।१।१०२] “ओः पुत्रराज्ये" [५।२।१७८ ] इति ङसिना उसा च निर्देशात् । ऋत उत् ॥४३॥६८॥ ङसिङमोरति परत ऋत उद्भवति द्वयोरेक इत्येव । कर्तुरागच्छति । कर्तुः स्वम् । द्वयोः स्थान प्रदेशोऽन्यतरेण व्यपदेशं लभते इति "रन्तोऽणुः " [१|१|४८ ] इति रन्तत्वम् । "रात्सः " [ ५/३/४२ ] इति सखम् । ङसिङसोः सकारस्य वा रित्वविसर्जनीयौ रन्तत्वं दुरुपपादं चेत् । ऋत इति तपरकरणं किमर्थन् ? " प्रोऽवात् " [ ११२/४७ ] इत्यादावनुकरणस्य द्विमात्रस्य माभूत् । उदिति तपरकरणं स्वग्रहण निवृत्त्यर्थम् । ख्यत्यादतः ||४|३|६६ ॥ रूयत्यात्परयोङसिङसोरत उद्भवति । ख्यत्यादिति खीखिशब्दयोस्तीतिशब्दयोश्च यणादेशे कृते श्रागन्तुनाऽऽकारेणानुकरणनिर्देशः । सख्युरागच्छति । सख्युः स्वम् । पत्युरागच्छति । पत्युः स्वम् । श्रतीत्यनुवर्तमानेऽत इति स्थानिनिर्देशो द्वयोरेकस्य निवृत्त्यर्थः । ख्यत्यादिति विकृतनिर्देशः किम् ? या देशाभावे मा भूत् । अतिसखेरागच्छति । अतिसखेः स्वम् । प्रतिपतेरागच्छति । श्रतिपतेः स्वम् । "स्त्रसखि" [१||६७ ] इत्यत्र पर्युदास श्रभितः सखिशब्दादन्यः समुदायः सुमंज्ञो भवति । इदं च विकृतनिर्देशस्य प्रयोजनम् । सह खेन वर्तते इति सखः सखमिच्छतीति सखीयति सखीयतेः क्विप् । श्रतः खम् । “बलि व्योः खम्” [४|३|५५] इति यकारस्य खम् । यखविधिं प्रत्यखस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधः । ननु "वर्णाश्रये नास्ति स्याश्रयम्" [प० ] इति त्यखेत्याश्रयन्यायेनापि विपो नष्टस्य बलादित्वं नास्ति काबुपसंख्यानमित्यदोषः । ङसिङसोः परतो यादे सख्युरिति भवति । तथा लून्युः । पून्युः । लूनमिच्छति पूनमिच्छति । लूनीयतेः क्वित्रन्तस्य ङसिङसोर्यणादेशः । नत्वस्यासिद्धत्वादुत्वं भवति । ३८ For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० १००-१०७ रेरद्धसोः॥४॥३।१००॥ अत इत्यस्यार्थाकान्तता । अतः परस्य रेरुत्वं भवति प्रकारे हसि च परतः । इन्द्रोऽत्र । यशोऽत्र । इन्द्रो भवति । यशो भाति । रेराश्रयासिद्धत्वम् ।"ससजुषो रिः" [५।३१७६] इति रेरनुबन्धकरणादिह सक्तस्य (सकारस्य) रेस्त्वं न भवति । अरिनाशः। सानुबन्धकनिर्देशः किमर्थः ? स्वरत्र । प्रातर्भवति । अद्धसोरिति किम् ? इन्द्र इह । यशः शोभते । अदिति तपरकरणं किम् ? दीपयोः परतो मा भूत् । इन्द्र आयाति । तिष्ठतु पय-या३ स्वदत । "अनृतोऽनन्तस्य" [५।३।१४] इत्यादिना पः। "प्रकृत्याऽचि दिपाः" [३।१०३] इति प्रकृतिवचनं ज्ञापकं सन्धिकायें पः सिद्ध इति प्रग्रहणेनाग्रहणम् । अत इत्येव । मुनिरसौ। अनुवर्तमानस्यातः तपरकरणं किम् ? स्वग्रहणं माभूत् । देवा अत्र । आगच्छ स्थूलशिरा अत्र । गोरिन्द्रेऽवङ् ॥४॥३१०१॥ अचीति वर्तते । गोः इन्द्रस्थेऽचि परतोऽवङादेशो भवति । गवामिन्द्रः गवेन्द्रः । ङित्करणमन्त्यादेशार्थम् । अचीत्वप्राधान्यात्तदादावपि भवति । गवेन्द्रकुलम् । विभाषाऽन्यत्र॥४३१०२॥ इन्द्रशब्दादन्यत्र शब्दे योऽच तस्मिन् विभाषया गोरखङादेशो भवति । गवाग्रम् । गोऽयम् । गवाजिनम् । गोऽजिनम् । विभाषाग्रहणादिह नित्यं भवति । गवाक्षः। प्रकृत्याऽचि दिपाः॥४॥३१०३॥ दिसंज्ञाः पसंज्ञाश्च अचि परतः प्रकृत्या भवन्ति । मुनी इमौ । पट इह । अधीयते अागमम् । अमी अत्र । "ईदूदेदिदिः" [११२०] "मः" [११२१] इति च दिसंज्ञाः । पः खल्वपि देवदत्त ३ अत्र त्वमसि । जिनदत्त ३ इदमानय । पविधिराश्रयात्सिद्धः । नेति कर्तव्ये प्रकृतिग्रहणं कृत्स्नत्य स्वरसन्धेः प्रतिषेधार्थन् । अचीत्यनुवर्तमाने पुनरग्रहणं किम् ? परमचमाश्रित्य यत्कार्य क्रियते तत्र प्रकृतिभावो यथा स्यात् । पूर्वमचमाश्रित्य यत्क्रियते तत्र माभूदित्येवमर्थम् । जानु उ अस्य रुजति | जानू अस्य रुजति | जान्वस्य रुजति । “निरेकाजनाङ" [19२२] इत्युकारस्य दिसंज्ञा । पूर्वेण सह स्वेऽको दीत्वे कृते । एकादेशो दिग्रहणेन गृह्यते । इति यणादेशस्य प्रकृतिभावः प्राप्तः । “मयो वो" [५।४।३५] इति वकारादेशः । विभाषेकोऽस्वे प्रश्च ॥४॥३॥१०४॥ इकोऽत्वेऽचि परतो विभाषया प्रकृत्या भवन्ति प्रादेशश्च प्रकृतिभावे । दधि अत्र । दध्यत्र । कुमारि अत्र । कुमार्यत्र । विभाषाग्रहणं व्यवस्थितविभावार्थम् । तेन दिपानामत्वेऽचि अनेन प्रकृतिभावविकल्पः प्रादेशश्च न भवति । पटू अत्र । देवदत्ता ३ इहान्वमि । सविधौ च न भवति । व्याकरणम् | न्याय्यः । न्यासः । कुमार्यर्थः । अस्व इति किम् ? धीदम् । कुमारीयम् । ऋत्यकः॥४॥३।१०५॥ ऋकारे परतोऽको विभाषया प्रकृत्या भवन्ति पश्च भवति यदा प्रकृतिभावः । खट्व ऋश्यः । खट्वयः। माल ऋश्यः । मालीः। स्वेऽपि भवति । पितृ ऋश्यः । अन्यत्र पूर्वेणैव सिद्धम् । व्यवस्थितविभाषानुवर्तनादिह न भवति उपाध्नोति । प्राध्नोति । मृतीति किम् ? दण्डानम् । मालाग्रम् । तपरकरणं किम् ? देवदत्ताया ऋकारः देवदत्तारः । दीपयोः परतो मा भूत् । घाऽपवदितौ ॥४।३.१०६॥ अपवत्कार्य पसंज्ञकस्य वा भवति इतौ परतः । देवदत्त ३ इति देवदत्तेति । सुमंगल ३ इति सुमङ्गलेति । “दूराद्धृते" [५।३।१२] इति पः । “प्रकृत्याऽचि दिपाः" [।३।१०३] इति नित्यं प्रतिभावः प्राप्तो व्यवस्थितविभाषानुवर्तनाद्वाक्यादवच्छिद्य पदं येन शब्दपदार्थतया स्वरूपे व्यवस्थाप्यते तस्मिन्नितौ विकल्पोऽयम् । क्वचिदनितावपि । वशा३इयम् वशेयम् । वत्करणं पकार्यप्रतिषेधार्थम् । अप इत्युच्यमाने पस्यैव प्रतिषेधः स्यात् । ततश्च अग्नी३इति । वायू ३ इति । अत्र दिसंज्ञाश्रये प्रकृतिभावे सात त्रिमात्रतायाः श्रवणं न स्यात् । पसंज्ञाश्रयकार्यप्रतिषेधे हि दिसंज्ञाऽश्रयकार्यप्रतिषेधे हि प्रकृतिभावे सति “अनतोऽनन्त्यस्य" [५।३।१४] इत्यादिकृतायात्रिमात्रतायाः श्रवणं सिद्धम् । ई इत् ॥४॥३।१०७॥ ईदन्तस्य इद् वा भवति । अनितिपरार्थोऽयमारम्भः । लुनीहि ३इदम् । लुनीहीदम् । पुनीहि ३इदम् । पुनीहीदम् । “क्षि याशीःप्रेषेषु मिडाकांक्षम्" [५।३।१०२] इति पः । For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १०८ - ११४ ] महावृत्तिसहितम् २६६ दिघ उत् ||४|३|१०८ || “ एकोऽति पदान्तात् " [४/३/६६ ] इत्यतः पदग्रहणमनुवर्तते । दिवित्येतस्य पदस्योकारादेशो भवति । द्युभ्याम् | युभिः । पदस्येति किम् ? दिवा । दिवे । “निरनुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य " [१०] इति मृद एवं दिवेर्डिवित्यनन सिद्धस्य ग्रहणं न धोरुकारानुबन्धकस्य । अक्षद्युभ्याम् | अक्षयुभिः । दिव्यतेः किपू । "ः शूर् च " [ ४|४|१७३ ] इति ऊठ् | उदिति तपरकरणं किम् ? यावताऽर्धमात्रस्य हलः स्थाने आनन्तर्यामात्रिक एवं भविष्यति । " च्छ्वोः शूद् च" इत्यत्र कितीत्यनुवर्तनादूढोऽपि निवृत्त्यर्थं नोपपद्यते । इहाद्यौ भवतीति च्वावागते निवृत्ते झ (भि)संज्ञकस्य दिव उत्त्वे कृते छु भवतीति "व" [५/२/१३५ ] इति दीत्व निवृत्त्यर्थम् | हल्येतत्तदोरनसेकोः सुखम् ||४ | ३ | १०६ ॥ सन्धाविति वर्तते । एतत्तदोरककारयोर्हलि परतः सुखं भवत्यनसे । एष ददाति । स ददाति । हलीति किम् ? एषोऽत्र । सोऽत्र । एतत्तदोरिति किम् ? को दाता । यो धन्यः । ग्रनञ्च इति किम् ? अनेषो ददाति । असो ददाति । नञ्स इति प्रसज्यप्रतिषेधः । पर्युदासे हि उत्तरपदार्थप्रधानत्वन्तर एवं सुखं स्यात् । परमैष ददाति । परमस ददाति । केवलयोरनञ्स इति किम् ? वाक्ये भक्त्येव । नैष ददाति । नस ददाति । अकोरिति किम् ? एपको ददाति । सको ददाति । " तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते " [१०] इति प्राप्तिः । सग्रहणं किम् ? एतौ तौ चरतः । एतत्तदोरिति द्वित्वनिर्देशाद् वाया एक: सुते । ईपबहुत्वे हि एतत्तेषामिति ब्रूयात् । सुखमिति गमकत्वात्सः । सम्पर्युपात्कृञः सुभूषे ||४|३|११०॥ सम्, परि, उप इत्येतेभ्यः परस्य कृञः सुडागमो भवति भूपेऽर्थे | संस्करोति । समत्करोत् । संस्कारः । अन्तरङ्गत्वेन द्वित्वाडागमाभ्यां प्राक्सुट् । परिष्करोति । “सिबुसहसुद्स्तुस्वजाम्” [५१४/५२ ] इति षत्वम् । पर्यस्करोत् । परिचस्कार । उपस्करोति । उपास्करोत् । उपचस्कार | भूष इति किम् ? उपस्करोति । समाये ||४|३|१११ ॥ संसर्गः समुदायो वा समवायः । तस्मिन् समादिभ्यः कृञः सुड् भवति । तत्र न संस्कृतमनित्यम् अत्रापि कारणसमवायो गम्यते । उपात्प्रतियत्नवैकृतवाक्याध्याहारे ||३|३|११२|| उपात्परस्य कृञः प्रतियत्न वैकृत वाक्याध्याहार इत्येतेष्वर्थेषु भवति । विद्यमानस्य गुणाधानमपूर्वर्जनं वा प्रतियत्नः । तत्र एधोदकस्योपस्कुरुते । काण्डं शरस्योपस्कुरुते । " प्रतियत्ने कृञः " [ १।४।६०] इति कर्मणि ता । विकृतत्वं वैकृतम् । तत्र उपस्कृतं भुङ्क्ते । उपस्कृतं गच्छति । वाक्यैकदेशो वाक्यगभ्यमानार्थस्य वाक्यस्य वाक्यावयवस्य स्वरूपेणोपादानं वाक्याध्याहारः । तस्मिन् उपस्कृतं जल्पति । उपस्कृतमधीते । सोपस्कारं व्याचष्टे । पदान्तराण्यध्याहृतानि कथयतीत्यर्थः । एतेष्विति किम् ? उपकरोति । किरतेवे ||४|३|११३|| उपादिति वर्तते । उपात्परस्य किरतेर्लवविषये सुड् भवति । उपस्कीर्य मद्रका लुनन्ति । उपस्कारं मद्रा लुनन्ति । " ञ्चाभीच्ण्ये” [२।४८] इति राम् । “वा चेष्टिवेष्टयोः " [५/२/१६३ ] इत्यतो विकल्पानुवृत्तेराभीक्ष्ण्येऽपि द्वित्वाभावः “युव्या बहुलम् ” [ २|३|६४] इति बहुलवचनादनाभीक्ष्ण्ये वा गम् | लव इति किम् ? उपकिरति देवदत्तः । वधे प्रतेश्च || ४ | ३|११४ || प्रतेरुपाच्च परस्य किरतेः सुड् भवति वधेऽर्थं । प्रतिस्त्रीणं हि ते वृपल ब्रूयात् । उपस्कीर्ण हि ते वृषल भूयात् । अत्र वधः किरतेरभिधेयत्वेन विवक्षितो न विषयतया । तदुक्तम्टाच्छान्निधन बिभ्रता नृसिंह सैंहीमतनुं तनुं त्वया । "स मुग्धकान्तास्तनसङ्गभङ्गुरैरुरोनिदारं प्रतिचस्करे नखैः ॥ [ शिशु० १४७ D हतः इत्यर्थः । वध इति किम् ? प्रतिकीर्ण बीजम् । “हनश्च वधः " [२।३।६३ ] इति हन्तेरचि वध इति भवति । For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० ११५-११८ चतुष्पाच्छकुनिष्वपाद्धर्षादौ ॥४।३।११।। अपात्परस्य किरतेश्चतुष्पात्सु शकुनिषु च यो हर्पादिस्तस्मिन् विषये सुड् भवति । दविधिप्रकरणे "किरतेहपजीविकाकुलायकरणे" [१॥२॥३३] इत्यत्र स्थितो हादिगणो गृह्यते । हर्ष-अपस्किरते वृषभो हृष्टः । जीविकायाम्-अपस्किरते कुक्कुरो भक्षार्थी । कुलायकरणेअपस्किरते श्वा श्राश्रयार्थी । चतुष्याच्छकनिष्विति किम् ? अपकिरति देवदत्तो दृष्टः । हर्षादाविति किम् ? अपकिरति धान्यं काकश्चापलेन । कुस्तुम्बुरुगोष्पदास्पदाश्चर्यावस्करापस्करापरस्परविष्किरमस्करमस्करिप्रतिष्कशप्रस्करवहरिश्चन्द्रपारस्करप्रभृतीनि च ॥४३॥११६॥ कुस्तुम्बुरुप्रभृतीनि पारस्करप्रभृतीनि च शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । कुस्तुम्बुरुशब्दो जातौ निपात्यते । कुस्तुम्बुरुर्धान्यकं तृण जातिः । तत्फलान्यपि कुस्तुम्बुरूणि । जातेरन्यत्र कुत्सितानि तुम्बुरूणि । कुत्सितानि तिन्दुकीफलानीत्यर्थः । गोष्पदशब्दे सुडागमः पत्वं च निपात्यते सेविते। गवां पदमस्मिन् देशे। गावः पद्यन्ते वाऽस्मिन्निति गोष्पदो देशः। गोष्पदमरण्यम् । असेविते नब्यूर्वस्य निपात्यते । न विद्यते गवां पदमभ्याम् अगोष्पदा अरण्यानी । सेवितत्वप्रतिषेधे हि यत्र सेवितत्वसम्भवस्तत्रैव त्यादन्यत्रासम्भवे न स्यादिति पृथगसेवितग्रहणम् । न विद्यतेऽस्मिन्निति विग्रहात् । प्रमाणे गोष्पदमात्र क्षेत्रम् । गोष्यदपूरं वृष्टो देवः । एतेष्विति किम् ? गोपदम् । आस्पदमिति प्रतिष्टायाम् । प्रास्पदमनेन लब्धम् । अन्यत्र आपदापदम् । श्राश्चर्यमित्यद्भुतेऽर्थे । आश्चर्य यदि स भुजीत । आश्चर्यमाकाशेऽनिबन्धनानि नक्षत्राणि न पतन्ति । अाचर्य व्रतमन्यत्र । “चरेराडि चागुरौं” [वा०२।११८७] इति यः । अवस्कर इति वर्चस्के । अवपूर्वास्किरतेः कर्मणि "स्वग्रहवृगमोऽच्" [२।३।५२] इति अच् । कुत्सितं वर्ची वर्चस्कम् अन्नमलम् । तत्सम्बन्धाद्देशोऽपि तथोक्तः । अवकरोऽन्यत्र | अपस्कर इति रथाङ्गे। अपकीर्यतेऽसावित्यपस्करो रथावयवः । अपकर इत्यन्यत्र । अपरम्पर इति क्रियासातत्ये । अपरस्पराः सार्था गच्छन्ति । सततं गच्छन्तीत्यर्थः । अपरे परे चेति द्वन्द्वः । व्यान्तेऽह्मवश्यमोनाशस्तुमः कामे मनस्यपि । हिते तते समो वा खं मांसस्य पचि युड्घजोः ॥ इति समो मकारस्य खे। सतत शब्दास्यणि सातत्यम् । अपरपराः मार्थाः गच्छन्तीत्यन्यत्र । “विष्किर इति शकुनौ सुडागमो वा निपात्यते । विकिरतीति विष्किरः विकिरो वा शकुनिः । “ज्ञाकप्री" [1१1१0८ इत्यादिना कः । सुट पक्षे "सिवुसहसुट्स्तुस्वन्जाम्" [५।४।५२] इति पत्वम् । मस्करमस्करिणौ. वेणुपरिव्राजकयोः । मस्करो वेणुः दण्डो वा हस्तिदमनः । मस्करी भिक्षुः । मकरो ग्राहः मकरी समुद्रः इत्यत्र । अथवा "शमस्य करे शखमाङः करिशब्दे प्रादेशश्च निपात्यते वेणुपरिव्राजकयोः । प्रतिष्कश इति निपात्यते सहायश्चेत् ।" कश गतिशासनयोरित्यस्य प्रतिपूर्वस्य पचायचि सुडागमः षत्वं च निपात्यते । देशान्तरमहं व्रजामि भवने त्वं प्रतिष्कशः । प्रतिकशोऽन्यः । प्रस्तावहरिश्चन्द्रौ भवत ऋषी चेत । प्रकण्वो देशः। हरिचन्द्रो माणवक इत्यन्यत्र । पारस्करप्रभृतीनां च खौ सुडागमो निपात्यते । पारस्करो देशः । कारस्करो वृक्षः। वनस्पतिश्चैत्ररथं पातीति । रथस्या नदी। किष्कुः प्रमाणम् । किष्किन्धा गुहा । तबृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट तखं च । तस्करः । बृहस्पतिः । तत्करो बृहत्पतिरित्यन्यत्र । अजस्तुदम् । कात्तीरं च नगरम् । अजनुदम् कातीरमित्यन्यत्र । प्रात्तम्पती गवि कर्तरि । प्रस्तुम्पति गौः । अन्यत्र प्रतुम्पति स्त्री । पारस्करप्रभृतिराकृतिगणः । प्रायाञ्चित्तिचित्तयोः ॥४।३।११७।। प्रायात्परयोः चित्तिचित्तयोः सुड् भवति । प्रायस्य चित्तम् प्रायश्चित्तम् । प्रायश्चित्तिः । “स्तो श्चुना श्चुः" [५।४।११६] इति सुटः श्चुत्वम् । भादाविदमोऽन्वादेशेऽश् ।।४।३।११८॥ भादौ परत ३दमोऽशादेशो भवत्यन्वादेशे । यस्य पूर्व क्रियागणद्रव्यैः संबन्धः कृतस्तस्यैव पश्चाक्रियागुणद्रव्यान्तरेण संबन्धे क्रियमाणेऽन्वादेशोऽनुकथनं भवति । क्रियासंबन्धे इमकाभ्यां छात्राभ्यां रात्रिरुषिता । अथो अाभ्यां हिंसा च कृता । कुत्साऽज्ञातयोः "झिसर्वनाम्नोऽकप्राक्टेः For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० ११६ - १२४ ] महावृत्तिसहितम् २०१ को दः " [ ४ | १|१३० ] इत्यकि कृते साकइदमो हलि खं न भवति । "अनाप्यकः " [ ५/१/१७० ] इत्यत्र ककारस्येत्यनुवर्तनात् तेनादेशः । गुणसंबन्धे इमकस्य छात्रस्य कुलमशोभनम् अथो अस्य शीलमपि । द्रव्यसंबन्धे इमकस्य राज्ञो जनपदो दुर्विहितः थो अस्य भृत्याश्चावश्याः । टोसिन देतदश्च ||४|३|११६ ॥ टा ओोस् इप् इत्येतेषु परत एतद इदमश्च एनदित्ययमादेशो भवति न्वादेशे । एतेन छात्रेण रात्रिरधीता अथो एनेन निपुणमधीता । एनदादेशे कृते त्यदाद्यत्वम् । दकारान्तत्वं नपुंसके प्रयोजयति । एतयोरात्रयोश्शोभनं शीलम् अथो एनयो रूपमपि । एतं छात्र काव्यमध्यापय ग्रंथो एनं गणितमपि । एतं जैनेन्द्रमध्यापय ग्रंथो एनं तर्कमपि । एतमर्थिनः संबध्नते प्रथो एनं मित्राणि च । इदमः पिने छात्रे रात्रिरधीता अथ एनेन निपुणमधीता । श्रनयोश्छात्रयोः शोभनं शीलम् ग्रथो एनयो रूपमपि । इमं छात्र काव्यनध्याय श्री एनं गणितमपि । इदं सरो भ्रमराः सेवन्ते अथ एनद्विहङ्गाश्च । इदमस्तसोः परतः पूर्वेणाशादेशः प्राप्तोऽन्यत्राप्राप्त एनदादेशः । धावनु || ४ | ३ |१२० || द्याविति अनुत्रिति च एतद् द्वितयमधिकृतं वेदितव्यम् । “ज्योतिरुद्गतौ” [१/२/३६ ] इति निर्देशान्न सामान्येन धावनुप । प्राग्गोरधिकाराद् द्यावित्यधिकारः । अनुबधिकारः प्रागानङः । वक्ष्यति “कायाः स्तोकादेः " [ ४ | ३ | १२१ ] स्तोकान्मुक्तः । श्रल्पान्मुक्तः । " स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्र " [१|३|३४ ] इति सः । द्वित्वहुत्वयोरनभिधानान्न सः । अभिधानेन भवति । गोषुचरः । वर्षासुजः इति । धाविति किम् ? निष्कान्तः स्तोकान्निः स्तोकः । " ग्रनङ हुन्छ" [४|३|१३८ ] इति द्यावानङादेशः । होतापोतारौ । नेष्टोद्गातारौ । द्यावित्येव । होतारौ । होतृभ्याम् । सुपि माभूत् । "इक: प्रो ङया:" [ ४।३।१७२] इति प्रादेशो द्यौ । श्रामणिपुत्रः । सेनानिपुत्रः । सुपि माभूत् । ग्रामणीभ्याम् । कायाः स्तोकादेः || ४ | ३ | १२१ ॥ स्तोकादिभ्यः परस्याः काया अनुभवति द्यौ । “ स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्र क्तेन" [१|३| ३४ ] इत्यत्र स्थितः स्तोकादिर्गृह्यते । "स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्रं तेन" इति सः। श्रपादानलक्षणेयं का । काया इति किम् ? स्तोकेन मुक्तः स्तोकमुक्तः । स्तोकादेरिति किम् ? बृकाद्भयं वृकभयम् । कथं ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विग्विशेषः । उच्यते रूढशब्दोऽयं गोशब्दवदस्य व्युत्पत्तिः । ब्राह्मणादध्याहृत्यावयवमर्थ वा शंसतीत्येवंशीलः ब्राह्मणाच्छंसी । श्रपादाने का । "साधनं कृता " [ १।३।२६ ] इति सः । “वे कृति बहुलम् ” [ ४|३|१३२ ] इत्यनुप् । भाया ओजस्सहोऽम्भस्तपोऽञ्जसः || ४ | ३ | १२२|| श्रजत्, सहस, अम्भत् तपत् इत्येतेभ्यः परस्या भाया अनुभवति । अञ्जसा कृतम् । सहसा कृतम् । श्रम्भसा कृतम्। तपसा कृतम् | "साधनं कृता बहुलम् " [१|३|२६ ] इति सः । खौ मनसः || ४ | ३ | १२३ || खुविषये मनसः परस्या भाया अनुभवति । मनसा गुप्ता । मनसा गता । करभा । खाविति किम् ? मनोदत्ता । ज्ञायिनि || ४ | ३ | १२४ || श्राज्ञायिनि द्यौ मनसः परस्या भाया अब भवति । मनसा श्राजानातित्येवंशीलो मनसाऽज्ञायी । श्रखावपि यत्नोऽयम् । "पुंसाऽनुजो जनुषान्ध इत्यनुव्वक्तव्यः " [वा०] । अनुजातोऽनुजः । पुंसा हेतुना करणेन वा श्रनुजः पुंसाऽनुजः । “साधनं कृता” [ १।३।२६ ] इति प्रसः । यदा पुमांसमनुजातस्तदा पुमनुज इति । जनुषा जन्मनाऽन्धो जनुषान्धः । “प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम् " [वा०] इति भा । "भा गुणोच्याऽर्थेनोनैः” [ १।३।२७ ] इति सः । For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० १२५-१३१ डड्यात्मनः ॥४।३।१२।। डडन्ते द्यौ अात्मनः परस्या भाया अनुन् भवति । आत्मना पञ्चमः आत्मना षष्ठः। “प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्" [वा०] इति भा। डडन्तेन भान्तस्य सविधेरिदमेव ज्ञापकम् । गम्यमानक्रियापेक्षया करणे वा भा। आत्मना कृतः पञ्चमः अात्मना पञ्चमः कथमयं प्रयोगः। जनार्दनस्त्वास्मचतुर्थ एव । बसोऽयम् । श्रात्मा चतुर्थः । व्यपदेशिवद्भावादन्यपदार्थत्वम् । यथा चारुशरीरः शिलापुत्रक इति । खौ पराच्च ॥४।३।१२६॥ खुविषये पराच्चात्मनश्च परस्य डेरनुब् भवति । प्रतिपदोक्तस्य डेग्रहणम् । परस्मैभाषः । परस्मैपदम् । श्रात्मनेभाषः। आत्मनेपदम् । तादर्थेऽबुक्ता । आत्मार्थ पदमात्मनेपदम् । सविधेरिदमेव ज्ञापकम् । असदार्थ इति विकृतेः प्रकृत्या पस उक्तः । ईपोऽद्धलः ॥४।३।१२७॥ अदन्ताद्धलन्ताच्च सामर्थ्यान्मृदः परत्या ईपोऽनुब् भवति खुविषये । अरण्येतिलकाः। अरण्येमाषकाः। वनेकिंशुकाः। वनेवल्वजकाः। बनेहरिद्वकाः। पूर्वाह्वस्फोटकाः । कपपिशाचकाः। “खौ" [ ३८] इति षसः। हलन्तात । त्वचिसारः। दृपदिमाषकः। युधिष्ठिरः । निपातनाद्गविष्ठिरः । नन्ववादेशेऽन्तरङ्गे कृते हलन्तता न | "अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्ग उब्बाधते" [५०] । अन्यथा नदीकुकुटिकादिषु यणादेशे सत्यनुप प्रसज्येत । श्रद्धल इति किम् ? नद्यां कुक्कुटिका । भूमिशर्करा । भूमपाशः । "अखौ हृद्युभ्यामिवर्थे ईपू तस्याश्चानुब् वक्तव्यः” [प०] । हृदिस्पृक् । दिविस्मृक् । न वक्तव्यः । यो हि हृदयं स्पृशति । “षे कृति बहुलम्" [ ४।३।१३२] इत्यनुप् । स चानुप् हृदिति प्रकृत्यन्तरं यत्तस्माद्भवति । "अप्सुमति चाखौ वक्तव्यम्” [वा०] । अप्सुमान् "अप्सव्य इत्यादावपि वक्तव्यः" [वा०] | अप्सु भवोऽप्सव्यः । अप्सुयोनिः। कारे प्रायः ॥४॥३।१२८॥ यूथे गृहे क्षेत्रे धान्याद्यं वस्तु रक्षानिर्देशार्थं यदवश्यं राज्ञे देयं स कारः । तद्वाचिनि द्यौ ईपोऽनुन् भवति खौ प्रायः। खाविति वर्तते । श्रद्धल इति च । अदन्तात् । तूपे शाणः । मुकुटे कार्षापणः । हले द्विपदिका | हले त्रिपदिका । द्वौ द्वौ पादौ देयौ । “वीप्सादण्डत्यागे वुन्" [४।२।१०] इति वुन् । “खौं" [१॥३॥३८] इति षसः । हलन्ताद्-दृषदि माषकः । समिधि मापकः । खुविषये पूर्वणैव सिद्ध प्रायोग्रहणार्थमेतत् । तेन कारे वचिदनुम्न भवति । यूथे पशुः । यूथपशुः। यूथे वृपः । यूथवृषः । “खौ" [१॥३॥३८] इति पसः । कार इति किम् ? अभ्याहिते पशु: । कारादन्यस्य देयत्य नामैतत् । उ युपरि पशुस्य इत्यर्थः । “ईपोऽद्धलः" [५।३।१२७] इत्यनेनापि कारग्रहणादिहानुम्न भवति । अद्धल इत्येव जङ्घाकार्षापणः । मधीकार्षापणः। नदीदोहः । कारसंज्ञा एताः। ___ हलि ॥४॥३॥१२६॥ हलादौ कारे द्यौ ईपोऽनुन् भवति । स्तूपेशाणम् । नियमार्थमिदम् । हलादावेव नाजादौ । अविकटोरणः। मध्यान्ताहरौ ॥४।३।१३०॥ मध्य अन्त इत्येताभ्याम् ईपोऽनुब् भवति गुरौ यो । मध्येगुरुः । अन्ते गुरुः । सविधेरिदमेव ज्ञापकम् । असंज्ञाऽर्थोऽयं यत्नः । ___अकामेऽमूर्धमस्तकात्स्वाङ्गात् ॥४॥३॥१३१॥ मूर्धमस्तकवर्जितात्स्वाङ्गात्परस्या ईपोऽनुबु भवतिअकामे द्यो। कण्ठेकालः । उरसिलोमा। वहे गडुः । उदरे मणिः । व्यधिकरणनामपि कचिवसः । उरसिलोमश इत्यत्र मत्वर्थीये कृते उरसीत्यनेन योगः | अकाम इति किम् ? मुखे कामोऽस्याः मुखकामा स्त्री। अमूर्धमस्तकादिति किम् ? मूर्धशिखः। मस्तकशिखः ।। उभयप्रतिषेधात्स्वरूपग्रहणम् । तेन पर्यायादनुप् । शिरसिशिखः । स्वाङ्गादिति किम् ? पानशौण्डः । स्वाङ्गादिति कर्तुमशक्यम् । मूर्धमस्तकपर्युदासेन स्वङ्ग एव सात्ययात् । तक्रियते "अद्रवं मूर्तिमद्" इत्यादिपरिभाषिकवाङ्गसम्प्रत्ययार्थम् । तेनाप्राणिस्थादनुम्न भवति । मुखे पुरुषा अस्याः मुखपुरुषा शाला । अद्धल इत्येव । अडलिब्रणः । जङ्घावलिः । बसाविमौ । असंज्ञार्थमारम्भः । For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १३२-१३६ ] महावृत्तिसहितम् ३०३ कृति बहुलम् ||४|३|१३२ ॥ षे कृदन्ते द्यौ बहुलमीपोऽनु भवति । बहुलग्रहणं सर्वविकल्प संग्रहार्थम् । स्तम्बेरमः । कर्णेजपः । " प्रावृडू वर्षाशरत्कालदिवां जेऽनुप्” [वा०] प्रावृषिजः । वर्षासुजः । शरदिजः । कालेजः । दिविजः । न भवति कुरुचरः । मद्रचरः । " इन्सिढबध्नातिस्थेषु च न भवति " [वा०] स्थण्डिलशायी । स्थण्डिलवतीं । “व्रते”[रारा६८] इति णिन् । साङ्काश्यसिद्धः । काम्पिल्यसिद्धः । चक्रेबन्धनम् । चक्रबन्धनम् | समस्थः । विपमस्थः । कूटस्थः । पर्वतस्थः । समानाधिकरणे च नेष्यते । परमे कारके । “वर्षत्क्षरशरवराज्जे द्विधा ।” [वा०] वर्षजः । वर्षेजः । क्षरजः । क्षरेजः । शरजः । शरेजः । वरजः । वरेजः । “शयवासवासिष्वकालवाचिनो द्विधा " [वा०] खशयः । खेशयः । बिलशयः । बिलेशयः । वनवासः । बनेवासः । ग्रामवासः । ग्रामेवासः । नववासी । नवेवासी । ग्रामवासी । ग्रामेवासी । कालवाचिन इति किम् ? पूर्वाशयः । अपराह्नेशयः । " बन्धे द्विधा " [वा०] हस्तेबन्धः । हस्तबन्धः । स्वाङ्गादिति नित्यं प्रातिः । चक्रबन्धः । चक्रेबन्धः । बध्नात श्रनुप प्रतिषेधः प्राप्तः । श्रद्धल इत्येव । भूमिशयः । गुप्तिबन्धः । “कृदूग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि " [१०] श्रवतप्तेनकुलस्थितम् । उदके विशीर्णम् । “क्षेपे” [१।३।४१] इति सः । “क्वचिदन्यत्रापि " । ब्राह्मणाच्छंसी । पूर्वस्यैवायं प्रपञ्चः । कालतने कालेभ्यो वा || ४ | ३ | १३३ || झसंज्ञके कालशब्दे तनशब्दे च परतः कालिवाचिभ्यः परस्या ईपो वा भवति । इति तरतमौ । “ तादी झः " [ ४|१|११७ ] इति वचनात् । पूर्वाह्णेतराम् । पूर्वाह्णेतरे । श्रस्मिंश्च पूर्वाह्णे श्रस्मिन्नतिशयेन पूर्वाह्णे इति विगृह्यते । “द्विविभज्ये तरेयसू” [४|१|११६] इति । अहराश्रयस्य पूर्वस्य प्रकपतरः । श्रनुपक्षे "किमेन्मिङ भिमादा मद्रव्ये " [ ४।२।२० ] इति एतदन्तात्परो झ इत्याम् भवति । सर्वेषु पूर्वाश्रतिशयेन पूर्वाह्न इति विगृह्यते । "तमेष्ठावतिशायने ” [४|१|११४] इति तमः । पूर्वाह्नतमाम् | पूर्वाह्णतमे भुङ्क्ते । पूर्वाह्णेकाले “विशेषणं विशेष्येति” [ १।३।५२ ] षसे कृते । पूर्वाह्णेकाले पूर्वाह्न काले गतः । पूर्वी जातो भयो वा पूर्वाह्णेतनः । पूर्वाह्नतनः । " वा पूर्वापरादात् " [ ३।२।१४१ ] इति तनट् । इदमेव ज्ञापकं सुत्रन्ताद् हदुत्पत्तेः । कालेभ्य इति किम् ? शुक्लतरे । शुक्लतमे । श्रद्धल इत्येव । रात्रितरायां गतः । श्रस्यां च रात्रौ स्यामतिशयेन रात्राविति । " स्यग्रहणे चाकायः " [ ५० ] इति कान्तात्परौ झतनौ स्वरूपेण गृह्येते न तदन्तविधिना | अपि च "हृदयस्य हृल्लेखया चूलासेषु " [ ४ | ३ | १६१] इत्यत्राणग्रहणेन सिद्धे लेखग्रहणं ज्ञापकं “द्याविव्यधिकारे स्यग्रहणं स्वरूपग्रहणमेव" [१०] । ताया आक्रोशे | ४|३|१३४ ॥ ताया अनुव भवति यौ श्राक्रोशे गम्यमाने । चौरस्य कुलम् । दासस्य कुलम् । वृषलस्य भार्या । "ता" [ १।३।७० ] इति प्रसः । श्राक्रोश इति किम् ? मोक्षमार्गः । श्रसूयाविरहे दासकुलमिति भवति । ताया इति योगविभागः । " तेन वाक्दिक्पश्यद्भ्यो युक्तिदण्डहरेष्वनुप्” [वा०] वाचो युक्तिः । दिशोदण्डः । पश्यतोहरः । “ता चानादरे” [१।४।४६ ] इति ता । “देवानां प्रियादिष्वनुप्” [वा०] देवानां प्रियः । दिवोदासः | श्रमुष्यायणः । नडादित्वात्कण् । आमुष्यपुत्रिका । श्रामुष्यकुलिका । मनोज्ञादिपाठाद्वुञ् । “शुनः खौ शेफपुच्छलाङ्गूलेषु" [वा०] शुनःशेफः । शुनःपुच्छः । शुनोलाङ्गलः । पुत्रे वा || ४ | ३ | १३५ ॥ पुत्रे द्यौ ताया वाऽनुबू भवति श्राक्रोशे । दास्याः पुत्रः । दासीपुत्रः । चौर्याः पुत्रः । चौरीपुत्रः । पूर्वेण नित्यं प्राप्तः । ऋतो विद्यायोनिसंबन्धात् ||४|३|१३६ ॥ ऋकारान्तेभ्यो विधासंबन्धेभ्यो योनिसम्बन्धेभ्यश्च परस्यास्ताया अनुब् भवति । सामथ्याद्विद्यायोनिसंबन्धि यौ । होतुः पुत्रः । होतुरन्तेवासी । पोतुः पुत्रः । पोतुरन्तेवासी । योनिसम्बन्धात् । मातुः पुत्रः । मातुरन्तेवासी । पितुः पुत्रः । पितुरन्तेवासी । ऋत इति किम् ? उपाध्यायपुत्रः । मातुलपुत्रः । उपाध्यायशिष्यः । पुत्रशिष्यः । विद्यायोनिसम्बन्धादिति किम् ? कर्तृ पुत्रः । कर्तृ शिष्यः । विद्यायोनिसम्बन्धिद्याविति किम् ? होतृगृहम् । पितृधनम् । For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३०४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पा० ३ सू० १३७ - १४६ वा स्वसृपत्योः || ४|३|१३७ ॥ ऋकारान्तेभ्यो विद्यायोनिसंबन्धेभ्यः परस्यास्ताया वाऽनु भवति स्वसृपत्योः परतः । मातृष्वसा । मातुः स्वसा । मातुः ष्वसा । पितृष्वसा । पितुः स्वसा । पितुः ष्वसा । उपि "मातृपितृभ्यां स्वसुः " [५/४६६ ] इति षत्वम् । अन्यत्र “वानुपि [ ५/४/६७ ] इति वा पत्वम् । दुहितुः पतिः । दुहितृपतिः | स्वसुः पतिः । स्वसृपतिः । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रनङ् द्वन्द्वे ||४|३|१३८ ॥ ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धादिति वर्तमानम् अर्थात्तान्तं सम्पद्यते । ऋकारान्तानां विधिनां यो द्वन्द्वस्तत्र द्यौ पूर्वस्यानङादेशो भवति । होतापोतारौ । नेष्टांद्रातारौ । प्रशास्ताप्रति हर्तारौ । एककर्तृकर्मणि विद्याकृतः संबन्धोऽस्ति । योनिसम्बन्धे मातापितरौ । माताननान्दारौ । नकारोच्चारणं किम् ? श्रा इत्युच्यमाने "रन्तोऽणुः ” [१1१1४८ ] इति रन्तः स्यात् । ऋत इति किम् ? पितृपितामहौ । विद्यायोनिसंबंधादिति किम् ? कर्तृकारयितारौ । सम्बन्धग्रहण किम् ? पितृभ्रातरौ । नात्र विद्यातो योनितो वा परस्परसंबन्धोऽस्ति । मण्डूकप्लुत्या पुत्रग्रहणमनुवर्तते । तेन पुत्रेऽपि यौ ऋकारान्तस्य न भवति । पितापुत्रौ । मातापुत्रौ । देवताद्वन्द्वे||४|३|१३६॥ देवतावाचिनां च द्वन्द्वे द्यावानङादेशो भवति । इन्द्रावरुणौ । इन्द्रासोमौ । इन्द्रावृहस्पती । सूर्याचन्द्रमसौ । द्वन्द्व इति वर्तमाने पुनर्द्वन्द्वग्रहणं सहवापनिर्देशार्थम् । तेन ब्रह्मप्रजापती, शिववैश्रवण, स्कन्दविशाखौ इत्येवमादिषु शास्त्रे सहदाननिर्देशाभावान्न भवति । इष्टद्वन्द्वपरिग्रहार्थं वा पुनर्वचनम्। श्रत्यन्तसहचरिते लोकविज्ञाते द्वन्द्वशब्दो निपातितः । ततो लोकप्रसिद्ध साहचर्याणामानङ् भवति । " वायोरुभयत्र प्रतिषेधः इष्यते " [ वा० ] श्रग्निवायू । वाय्वग्नी । सोमवरुणेऽग्नेरीः ||४ | ३ | १४० ॥ सोमवरुणइत्येतयोः परतोऽग्नेरीकारादेशो भवति देवताद्वन्द्वे । अग्नीषोम | अग्नीवरुणौ । श्रन्तस्यालः स्थाने श्रनङोऽपवाद ईकारः । " स्तुत्सोमौ चाग्नेः " [५/४/६५ ] इति पत्वम् । द्वन्द्वे इत्येव । उपचारादग्निसोमौ माणवकौ । ऐपीत् ||४|३|१४१ ॥ साहचर्यादैच् भाजि द्यौ श्रग्नेरिकारादेशो भवति देवताद्वन्द्वे | अग्निश्च वरुणश्च देवते त्या श्राग्निवारुणी । श्रग्निमारुतम् । देवतार्थेऽणि उभयोः पदयोरैपि कृते ईत्वानङोरपवाद इकारः । "विष्णोः प्रतिषेधो वक्तव्यः [वा ] अग्निश्च विष्णुश्च देवतेऽस्य श्राग्नीवैष्णवम् । श्रानडेव भवति । ऐपीति किम् ? आग्नेन्द्रः । “नेन्द्रस्य” [ ५१२।०७ ] इतिद्यो रैष्प्रतिषेधः । "3 दिवो द्यावा ||४३|१४२|| दिवो यात्रा इयमादेशो भवति द्यौ देवताद्वन्द्वे । द्यौश्च भूमिश्च द्यावाभूमी | द्यावानते । द्यावाक्ष में । अनेकाल्त्वात्सर्वादेशः । दिवसश्च पृथिव्याम् ||४|३|१४३ || दिवो दिवस इत्ययमादेशो भवति द्यावा च पृथिव्यां द्यौ देवताद्वन्द्वे । दिवस्पृथिव्यो । द्यावाडथिव्यौ । उच्चारणार्थेनाकारेण निर्देशो रित्वबाधनार्थः । उपासोः || ४ | ३ | १४४ ॥ उषस उपासा इत्ययमादेशो भवति द्यौ देवताद्वन्द्वे । उपश्च नक्तम् च उषासानक्तम् | उषासानक्ते । नक्तं शब्दो मकारान्तो झिसंशकोऽकारान्तश्च नपुंसकलिङ्गोऽस्ति । मातरपितरौ वा || ४ | ३ | १४५ || मातरपितराविति वा निपात्यौ । मातरपितरौ । यौ ऋकारस्याभावो निपात्यते | पढ़ें “श्रनङ द्वन्द्व ” [४।३।१३८] इत्यानङि कृते मातापितरौ । स्त्रयुक्तपुंस्काद नूरेकार्थेऽडट् प्रियादौ स्त्रियां पुंवत् ||४| ३ | १४६ ॥ उक्तपुंस्कात्परो यः स्त्रीत्यः तदन्त एकार्थे यो स्त्रियां वर्तमाने डडन्तप्रियादिवर्जिते पुंवद्भवति । स्थानेऽन्तरतम इत्यन्तरतमतः पुं शब्देन तुल्यो भवतीत्यर्थः । दर्शनीया भार्या अस्य दर्शनीयभार्यः । शोभनभार्यः । चारजङ्घः । स्त्री इति किम् ? ग्रामणि कुलं दृष्टिरस्य ग्रामणिदृष्टिः । उक्तपुंस्कादिति किम् ? माला वृन्दारिकः । तथा द्वणीभार्यः कच्छपः । वरटाभाय For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १४७-१४६ ] महावृत्तिसहितम् ३०५ 1 हंसः । वडवाभार्योऽश्वः । तथा अङ्गारकाः शकुनयः । कालिकाश्चैषां स्त्रियः । कालिकाभार्या अङ्गारकाः । नहि दुण्यादयः शब्दाः समानायामाकृतौ पुंसि वृत्ताः । पुंवद्भावेऽर्थतः श्रान्तरतभ्ये कच्छपादिप्रयोगः प्रसज्येत । ग्रनूरिति किम् ? वामोरुभार्यः । अनूरिति स्त्रीत्यपर्युदासाद् ग्रन्योऽपि स्त्रीत्य एव गृह्यते इति स्त्रीग्रहणमनर्थकं तत्कृतमस्त्रीत्यान्तापि स्त्री पुंवद्भवतीति ज्ञापनार्थम् । ऐडिविडभार्यः । पार्थं भार्यः । दारदभार्यः । श्रसिजभार्य इति सिद्धम् । इडिविड पृथु नयो राष्ट्रसमानशब्दत्वादपत्यार्थेऽञ । दरद, उसिजा श्राभ्यां मगधेत्यादिनाऽण् । स्त्रियाम् " श्रतोऽप्राच्यभर्गादेः " [ ३|१|१५८ ] इत्यणोरुप | इडिविडभार्या अस्येति पुंवद्भावे ऐडिविडभार्य इत्यादि । एकार्थं इति किम् ? कल्याण्या माता कल्याणीमाता । श्रड प्रियादाविति किम् ? कल्याणी पञ्चमा रात्रयः । कल्याणीपञ्चमः । कल्याणीदशमः । " डट्स्त्रीप्रमाण्योरः " [४।२।११६] इत्यः सान्तः । यदि डडन्ता स्त्री संविज्ञानादिना प्रधानं तदा पुंवद्भावप्रतिषेधः सान्तश्चाकारो वेदितव्यः । इह माभूत् कल्याणपञ्चमीकः पक्षः । कल्याणीमनोज्ञः । प्रिया । मनोज्ञा । कल्याणी । सुभगा । दुर्भगा । भक्तिः । सचिवा | स्वा । कान्ता | समा । चपला । दुहिता । वामा इति प्रियादिः । दृढं भक्तिरस्य दृढभक्तिः । शोभनभक्तिरित्यादौ न पूर्वपदं स्त्रीलिङ्गमिति । तेन प्रियादौ धौ पूर्वस्य टावाशंका न कर्तव्या । स्त्रियामिति किम् ? कल्याणो प्रधानमेषां कल्याणं प्रधानाः । उक्तः पुमान् समानायामाकृतौ अभिन्ने प्रवृत्तिनिमित्ते जात्यादिके येन शब्देन स तथोक्तः । अथवा उक्तः पुमान् यस्मिन्नर्थेत्यादिके स तथोक्तः । तद्वाच्यपि शब्द उक्तपुंस्क इति व्युत्पादनं किमर्थम् । द्रोणीभार्यः । कुटीभार्यः । अत्र द्रोणकुटशब्दौ प्रकृत्यन्तरे पुंलिङ्गी । कथं गर्गभार्यः, प्रसूतभावः । प्रजातभार्यः इति । यत्राप्येकजात्यपेक्षया कथञ्चित्समानाकृतित्वमूह्यम् । I तसाद || ४ | ३ | १४७॥ तसादिषु परतः उक्तपुंस्कादनूः स्त्रीपुंवद्भवति । श्रादिशब्दः प्रकारवाची । तस् । त्र । तर । तम । चरट् । जातीय । देश्य । देशीय कल्प। पाश । रूप था। थम् । दा । हिं । थ्य | केषु परतः । तस्यास्ततः । तस्यां तत्र । श्राद्यतरा । श्रयतमा पट्टी भूतपूर्वा पटुचरी । पट्वीप्रकारा । पटुजातीया । ईपदसिद्धा पट्वी पटुदेश्या । पटुदेशीया । वृद्धकल्पा । याप्या वृद्धा वृद्वपाशा । प्रशस्ता वृद्धा वृद्धरूपा । तया प्रकृत्या तथा । कया प्रकृत्या कथम् । तस्यां वेलायां तदा । ग्रस्यां वेलायाम् एतर्हि । श्रजायें हितम् श्रजश्यम् | "अजाविभ्यां यः " [ ३|४|६ ] इति ध्यः । दरच्छब्दात् पुवद्भावे च कृते दारदिका । के पुंवद्भावात्परत्वेन प्रादेशः । परिवका । मृद्विका । बह्वल्पार्थाच्छसि बीभ्यो देहि बहुशो देहि । अल्पाभ्यो देहि अल्पशो देहि । “गुणवचनात्त्वतलोः” [वा०] पट्ट्ट्या भावः पदत्वम् । पटुता । गुणवचनादिति किम् ? क्षत्रियात्वम् | क्षत्रियाता | कठीत्वम् । कठीता । "भस्य हृत्यढे पुंवद्भावो वक्तव्यः " [वा०] हस्तिनीनां समूहो हास्तिकम् । ईखस्य स्थानिवद्भावाहिखं न स्यात् । श्रढ इति किम् ? श्यैन्याः अपत्यं श्यैनेयः । रौहिणेयः । कथम् अनायी देवता अस्य आग्नेयः ? " श्रग्निकलिभ्यां ढण्" [ ३२२८] इति । "ढेऽपि कचित्पु वद्भावो वक्तव्यः " [वा०] "ठण्छुसोश्च " [वा०] । भवत्या इदं भावत्कम् । भवदीयम् । श्रवस्थायां पु'वद्भावे "इसुसुक्तः कः " [ ५१२१५२ ] इति कादेशः । मानिनोः ॥ ४|३|१४८ ॥ यङि मानिनि च परत उक्तपुंस्कादनूः स्त्री पुंवद्भवति । एनीवाचरति एतायते । हरिणीवाचरति हरितायते । मानिनि द्यौ । इमां दर्शनीयां मन्यते दर्शनीयमानी देवदत्तः । " मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि " [ ५० ] । दर्शनीयां मन्यते देवदत्तां जिनदत्ता दर्शनीयमानिनी । एकार्थे स्त्रीलिङ्गे च पूर्वेणैव सिद्धः पुकद्भावः । दर्शनीयामात्मानं मन्यते दर्शनीयमानिनी स्त्री । नङः || ४|३|१४६ ॥ वो तश्व यः ककारस्तदुङः स्त्रिया न पुंवद्भावः । पात्रिकाभावः । कारिकाभार्यः । लाक्षिकीतः । लाक्षिकीपाशा । लाक्षिकीयते । लाक्षिकीमानिनी स्त्री । विलेपिकाया धर्म्ये 'वैलेपिकम् । “ऋन्महिष्यादेः” [ ३।३।१६६ ] इत्यणि कृते "भस्य हृत्यढे” [वा०] इति पुंवद्भावः प्राप्तः । पुंवद्भावे हृीत्वनिवृत्तिः स्यात् । सामान्येनायं प्रतिषेधः । वुहृद्ग्रहणं किम् ? मूकभार्यः । जागरूकमार्यः । वराकभार्यः । ३६ For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३०६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० १५०-१५४ डखोः || ४|३|१५०॥ डडिति प्रत्याहारेण डडन्ता खुश्च स्त्री न पुंवद्भवति । पञ्चमीभार्यः । दशमीभार्यः । पञ्चमीतमः । पञ्चमीपाशः । पञ्चमीयते । पञ्चमीमानिनी । खौ - दत्ताभार्यः । दानक्रिया व्युत्पत्तिद्वारेण संज्ञाशब्देऽप्युक्तपुंस्कत्वमस्ति । दत्तो माणवकः इति पुंवद्भावः प्राप्तः । एवं गुनाभार्यः । दत्तातः । गुप्तातः । दत्तिकामानिनी । दत्तिकायते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रक्तविकारे ४ | ३ | १५१ ॥ रक्तविकारवर्जितेऽर्थे यो हृत् ञ्णित् तदन्तस्त्री न पुंवद्भवति । जित्सभार्यः । त्-िसौनीभार्यः । माथुरीभार्यः । अर्धखाय भवा अर्धखारी । “परिमाणस्थानतोऽर्थाद्वा पूर्वस्य" [५।२।३२] नैप् । अर्धखारी भायी अस्य अर्धख भार्यः । वैयाकरणी भार्या अस्य वैयाकरणीभार्यः । सौनीतः । सौन्नीपाशा । सौन्नीयते । सौष्नीमानिनी । ञ्णिदिति किम् ? तावतीभार्या अस्य तावद्भार्यः । मध्ये भवा मध्यमा भर्या अस्य मध्यममार्यः । त्रिष्टष्टानिभार्यः । त्रिष्टस्यापत्यं स्त्री "फिरदो: " [ ३|१|१४७ ] इति फि: । “ इतो मनुष्यजातेः” [३।१।५५] इति ङी पुंवद्भावः । हृदिति किम् ? पुष्पलावी भार्या ग्रस्य पुष्पलावभार्यः । रक्तविकार इति किम् ? कषायेण रक्ता काषायी बृहतिकाऽस्य काषायवृत्तिकः । लोहस्य विकासे लौही ईमा अस्य लौहे रथः । श्रमानिनीत्स्वाङ्गात् ||४|३|१५२|| स्वाङ्गात्परो य ईत् तदन्ता स्त्री न पुंवद्भद्वैति मानिनि द्यौ । दीर्घकेशीभार्यः । श्लक्ष्णमुखीभार्यः । दीर्घकेशीतः । दीर्घकेशीपाशा । दीर्घकेशीयते । श्रमानिनीति किम् ? श्लक्ष्णमुखमानिनी। ईदिति किम् ? पृथुजघनभार्यः । अकेशभार्यः । “न क्रोडादिवह्नचः” [३|१|४६] “सहनञ् विद्यमानात् " [ ३|१|५० ] इति च ङीप्रतिषेधः । त्वाङ्गादिति किम् ? पटुभार्यः । जातिश्च ||४३|१९५३|| जातिच स्त्री न पुंवद्भवति श्रमानिनि द्यौ । कवीभार्यः । बहुचीभार्यः । कटीतः । कठीपाशा | कठीयते । " वृद्धं च चरणैः सः" इति वचनाज्जातिः । श्रमानिनीत्येव । कटमानी । कठमानिनी । चशब्दः किमर्थः ? "भस्य हत्यढे" [वा०] इति प्राप्तस्य पुंवद्भावस्य प्रतिषेधो न भवतीत्यनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन हस्तिनीनां समूहो हास्तिकम् | पुंवद्यजातीयदेशये || ४ | ३ | १५४ ॥ उक्तपुंस्कादनूः स्त्री पुकद्भवति यसंज्ञके से स्त्रीलिङ्गे द्यौ जातीय देशीय इत्येतयोश्च परतः । यसे श्रायसूत्रेण पुंवद्भावः सिद्धः । जातीयदेशीययोश्च तसादौ पाठात् । तस्माप्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं प्रारम्भः । " न वुहत्कोङः " [४।३।१४६ ] इत्युक्तं तत्रापि पुंवद्भवति । पाचकवृन्दारिका । पाचकजातीया । पाचकदेशीया । "डबो: " [ ४ | ३ | १५० ] इत्युक्तं तत्रापि भवति । पञ्चमवृन्दारिका । पञ्चमजातीया । पञ्चमदेशीया । दत्तवृन्दारिका । दत्तदेशीया । "ठिणद्ध दरक्तविकारे” [४|३|१५१] इत्युक्तं तत्रापि भवति श्रौत्सवृन्दारिका । श्रौत्सजातीया । श्रौत्सदेशीया । स्रौघ्नवृन्दारिका । सोध्नजातीया । " श्रमानिनीत्स्वाङ्गात् " [४|३|१५२] इत्युक्तं तत्रापि भवति । दीर्घकेशवृन्दारिका । दीर्घकेशजातीया । दीर्घकेशदेशीया । " जातिच” [४।३।१५३] इत्युक्तं तत्रापि भवति । कठवृन्दारिका । कठजातीया । कठदेशीया । पुंवद्भाववचनात्सर्वस्य प्रतिषेधस्य निवृत्तिः । उक्तपुंस्कादनूरित्यनुवर्तते । उक्तपुंस्कादिति किम् ? मालावृन्दारिका । मालाजातीया । मालादेशीया | कालिकाश्च ता वृन्दारिकाश्च कालिकावृन्दारिका । कालिका तया । कालिका देशीया । अनूरिति किम् ? वामोरूवृन्दारिका । वामोरूजातीया । वामोरूदेशीया । " अडप्रियादौ” [ ४।३।१४६ ] इत्युक्तम् । तत्राप्यनेन पुंवद्भवति । कल्याणी चासौ पञ्चमी कल्याणपञ्चमी । कल्याणी चासौ प्रिया कल्याणप्रिया । कल्याणमनोज्ञा । श्रथात्र कथं पुंवद्भावः, मृग्याः क्षीरम् मृगक्षीरम् कुक्कुटथा अण्डम् कुक्कुटाण्डम् । काक्याः शावः काकशावः ? स्त्रीलिङ्गस्य पूर्वपदस्य सामान्येन विवक्षितत्वाददोषः । स्त्रीत्यान्तापि स्त्री पुंवद्भवतीत्युक्तम् । इडिविट् चासौ वृन्दारिका च ऐडिविडवृन्दारिका इत्यादौ पुंवद्भाव श्रायसूत्रेणैव सिद्धः | For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १५५-१५8 ] महावृत्तिसहितम् ३०७ झरूपकल्पवेलबुवगोत्रमतहते प्रोऽनेकाचः || ४ | ३ | १५५ || ईदिति वर्तते । झ, रूप, कल्प, चेल, ब्रुव, गोत्र, मत, हृत इत्येतेषु परतः उक्तपुंस्कात्परो य ईकारः स्त्रीत्यस्तदन्तस्यानेकाचः प्रो भवति । कुमारितरा । कुमारितमा । कुमारिरूपा । कुमारिकल्पा । "तसादौ " इति पुंवद्भाव ईकारादन्यत्र सावकाशोऽनेन प्रादेशेन बाध्यते कुमारिचेली । कुमारिनुवा । कुमारिगोत्रा । कुमारिमता । कुमारिहता । चेलट्शब्दः पचादौ पठ्यते । ब्रूञः शे ब्रुव इहैव निपात्यते । चेलहू ब्रुवगोत्रशब्दाः कुत्सनशब्दाः । “कुत्स्यं कुत्सनैः” [१।३।४८ ] इति सः । मतहताभ्यां विशेषणलक्षणो यसः । श्रनेकाच इति किम् ? स्त्रीतरा । स्त्रितरा । “वा मोः " [ ४।३।१५६ ] इति विकल्पः । उक्तपुंस्कादिति किम् ? ग्रामलकीतरा । बदरीतरा । अनुक्तपुंस्कादपि कचित् इष्यते । लक्ष्मितरा । तन्त्रितरा । ईदिति किम् ? दत्तातरा । गुप्तातरा । स्त्रीत्य इति किम् ? ग्रामरणोतरा। सेनानीतरा । वा मोरिति विकल्पे प्राते पुरस्तादपवादोऽयम् । वा मोः || ४ | ३ | १५६ ॥ मुसंज्ञकस्य वा प्रो भवति झादिषु परतः । अनेन विशेषेण विकल्पे प्राप्ते पुरस्तादनेकाच ईकारस्य नित्यः प्रादेश उक्तः । ततोऽन्यदुदाहरणम् । एकाच् ईकारः ऊकारः सर्वः । तिरा । स्त्रीतरा । स्त्रितमा । स्त्रीतमा । वामोरुतरा । वामोरूतरा । एवं रूपादिष्वपि नेयम् । उक्तपुंस्कादनूरिति निवृत्तम् । एकार्थ इत्येतदनुवर्तते । तेन स्त्रिया हतः स्त्रीहत इत्यत्र न प्रादेशः । कृत्संज्ञकस्य मोर्न भवतीत्येके । लक्ष्मीतरा । लक्ष्मीतमा । उगितश्च ॥ ४३॥१५७॥ उगितश्च परस्य मोर्चा प्रादेशो भवति भादिषु परतः । श्रेयसितरा । श्रेयसीतरा । विदुषितरा । विदुषीतरा । चशब्दः पक्षे पुंवद्भावसमुच्चयार्थः । श्रेयस्तरा । विद्वत्तरा । “रूप” [४|३|१५५] आदिना नित्यः प्रादेशः प्राप्तः पूर्वसूत्राद्वेति व्यवस्थितविभाषाऽपेक्ष्यते । तेनाञ्चतेर्नित्यः प्रादेशः । प्राचितरा । श्रान्महतो जातीये च || ४ | ३ | १५८ ॥ श्राकारादेशो भवति महतो जातीये एकार्थे द्यौ च परतः । महाजातीयः । महापुरुषः । महतः सन्महत्परमेत्यादिना प्रतिपदोक्त द्यौ त्वं सिद्धम् । एकार्थावर्तन सेपि प्राणार्थम् । महाप्राणः । महाबाहुः । जातीये चेति किम् ? महतः पुत्रो महत्पुत्रः । श्रादिति द्विमात्रोच्चारणमुत्तरार्थम् । पुंवद्यजातीयादिसूत्रे पुंवदिति योगविभागात्पु वद्भावः । इहादिति योगविभागादात्वम् । तेन "महत्या घासकार विशिष्टेषु व्यधिकरणत्येऽपि पुंवद्भावात्वे भवतः " [वा०] महत्या घासो महाघासः । महत्याः कारो महाकारः । महत्या विशिष्टो महाविशिष्टः । श्रमहान् महान् सम्पन्नो महद्भूतश्चन्द्रमा इत्यत्र च निवृत्ते “ स्विडाजूर्यादि : " [ १ | २|१३२] इति तिसंज्ञा । भूतशब्देन “ तिकुप्रादयः " [ १३1८१] इति पसे कृते गौणत्वान्महदर्थस्यात्वाभावः । पूर्वोक्तयोगविभागात्त्विह महतीशब्दस्य पुंवद्भावः श्रमहती महती सम्पन्ना महद्भता कन्या । यटनः संख्यायामाशीत्योः प्राक्छतात्त्रेस्त्रयः ४ | ३ | १५६ ॥ द्विष्टन् इत्येतयोराकारादेशो भवति संख्यायां यौ प्राकू शतात् बसमशीतिं च वर्जयित्वा त्रेश्च त्रयसित्ययमादेशो भवति । द्वादश । द्वौ च विंशतिश्च द्वाविंशतिः । “लिङ्गम शिष्यं लोकाश्रयत्वात्" । अथवा द्वद्यधिका विंशतिः द्वाविंशतिः ! समानाधिकरणाधिकद्युखं शाकपार्थिवादिवद्द्रष्टव्यम् । अष्टादश । अष्टाविंशतिः । श्रष्टात्रिंशत् । त्रयोदश । त्रयोविंशतिः । त्रयस्त्रिंशत् । द्वष्टनरिति किम् ? चतुर्दश । संख्यायामिति किम् ? द्विमूली । श्रष्टमूली । त्रिमूली । समाहारे पसः । "संख्यादी रश्च” [ १।३।४७ ] इति रसंज्ञः | "रात्" [३।१।२५] इति ङीविधिः । श्रवाशीत्योरिति किम् ? द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः । श्रष्टदशाः । त्रिदशाः । “संख्याबाड्डोऽबहुगणात् " [४/२/६६] इति ङः सान्तः । द्वयशीतिः । व्यशीतिः । बसेऽशीतौ च न भवति । प्राक्शतादिति किम् ? द्वद्यधिकं शतं द्विशतम् । त्रिशतम् । त्रिसहस्रम् | For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३०८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् वाचत्वारिंशदादी || ४|३|१६० ॥ चत्वारिंशदादौ संख्यायां द्यौ अवाशीत्योद्वर्थादीनां यदुक्तं तद्वा भवति । द्वाचत्वारिंशत् । द्विचत्वारिंशत् । द्वापञ्चाशत् । द्विपञ्चाशत् । अष्टाचत्वारिंशत् । श्रष्टचत्वारिंशत् । श्रष्टाष्टिः । अष्टषष्टिः । त्रयश्चत्वारिंशत् । त्रिचत्वारिंशत् । अवाशीत्योरित्येव । द्विचत्वारिंशाः । द्वयशीतिः । श्रष्टचत्वारिंशाः । श्रष्टाशीतिः । त्रिचत्वारिंशाः । त्र्यशीतिः । प्राक्शतादित्येव । द्विशतम् । “अष्टनः कपाले हविष्यात्वं वक्तव्यम्" [वा०] अष्टाकपालं हविः । अष्टसु कपालेषु संस्कृतं हृदर्थे पसः । "संख्यादी रव " [१।३।४७ ] इति रसंश: । “ संस्कृतं भक्ष्याः ” [३|२| ११] इत्यण् । तस्य " रस्योबनपत्ये” [३|१|७४ ] इत्युप् । हविषोति किम् ? अष्टानां कपालानां समाहारः अष्टकपालं भिक्षोः । पात्रादित्वान्नपुंसकलिङ्गता । “गवे च युक्के श्रष्टनः श्रत्वं वक्तव्यम्” [वा०] अष्टागवेन शकटेन वहति । अष्टौ गावो युक्ता अस्मिन्निति । ग्रस्मादेव निपातनात् बसेऽपि टः सान्तः । युक्त इति किम् ? अष्टानां गवां समाहारः श्रष्टगवम् । नेदं वक्तव्यम् । श्रान्महत इति श्रादिति योगविभागादन्यस्यापीति दीत्वेन वा सिद्धेः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ श्र० श्र० ४ पा० ३ सू० १६० १६६ हृदयस्य हृल्लेखया लासेषु || ४|३|१६१ || हृदयस्य हृदित्ययमादेशो भवति लेख या लास इत्येतेषु परतः । हृदयं लिखतीति हृल्लेखः । हृदयाय हितं हृद्यम् । “प्राण्यङ्गरथ" [ ३ | ४|५ ] इत्यादिना यः । हृदयस्येदं हार्दम् । हृदयस्य भावो वा युवादिपु "हृदयादसे” [ ३|४|१२० ग० सू०] इति पाठादण | अणि घञि वा हल्लासः । लेख इत्य एणन्तस्य ग्रहणम् । घञि तु हृदादेशो नेप्यते । हृदयस्य लेखः हृदयलेखः । एवं च लेखग्रहणं ज्ञापकम् “य्वधिकारे त्यग्रहणे स्वरूपग्रहणं न तदन्तविधिः " [१०] "खित्यते : " [४|३|१७६ ] इत्यव खित्यनन्तरः प्रादेशभाग्नास्तीति तदन्तविधिरिष्टः । वा रोगोके || ४ | ३ | १६२ ॥ टणू रोग शोक इत्येतेषु परतो हृदयस्य वा हृदित्ययमादेशोभवति । सौहार्थम् । ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वाय्य्यण । "हृत्सिन्धुभगे द्वयोः " [ ५।२।२४] पदयोरैप । प सौहृदय्यम् । हृद्रोगः । हृदयरोगः । हृ-छोकः । हृदयशोकः । ननु हृदयशब्देन समानार्थी हृच्छन्दोऽस्ति तेनोभयं सिद्धम् । न सिद्ध्यति । अन्येवन्युत्तरपदेषु हृच्छन्दस्य प्रयोगः प्रसज्येत । पादस्य पदाज्यातिगोपहतेषु || ४|३|१६३ || पादस्य पद इत्ययमादेशो भवत्याजि श्रातिग उपहत इत्येतेषु परतः । पादाभ्यामजति पादाभ्यामतति । श्रजातिभ्यां पाद इणू । वाक्सः । केवलेन ग्राजिशब्देन “साधनं कृता” [१।३।२६] इति पसः । श्रतएव निपातनादजेर्विभावाभावः । पदाजिः । पदातिः । पादाभ्यां गच्छति पद्गः । गमेर्डः । पादाभ्यामुपहतः पदोपहतः । पदशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति तेन सिद्धेऽपि पादशब्दस्यास्मिन् विषये प्रयोगो मा भूदित्येवमर्थम् । ये || ४ | ३ | १६४ ॥ पादं विध्यन्ति पद्याः शर्कराः । “विध्यत्यकरणेन” [३।३।११४] इति यः । तादतु " पाद्याध्ये" [ ४।२।३२ ] इति निपातनमुक्तम् । पादार्थमुदकं पाद्यम् । कथं पादाभ्यां चरति पदिक इति ? “पर्यादी” [३।३।१३३] पादः पदिति पाठाहटा सिद्धम् । पूर्वसूत्रे पादस्येति संबन्धलक्षणा ता । तेन पादशब्दस्य यो यस्तस्मिन् पदित्ययमादेशो भवति । सामर्थ्यात्पादान्तस्य न भवति । द्वाभ्यां पादाभ्यां क्रीतं द्विपायम् । त्रिपाद्यम् । “पणपादमापायः " [ ३ | ४ | ३१ ] इति यः । हिमाहिती ||४|३|१६५ || हिम कापिन् हति इत्येतेषु परतः पादस्य पदित्ययमादेशो भवति । पादस्य हिमं पद्धिमम् । पत्काषी । वाक्सः । पादाभ्यां हृतिः पद्धतिः । "साधनं कृता " [ १३ २६ ] इति सः । रिनि तदन्तविधिरपि । परमपत्काषी । For Private And Personal Use Only ऋचः शे || ४|३|१६६ ॥ ऋचः पादस्य शे परतः पद्भवति । पादं पादं गायत्र्याः शंसति पच्छो गायत्री शंसति । "संख्यैकाद्वीप्सायाम्" [ ४।२।४८ ] इति शस् । ऋच इति किम् ? पादं पादं कार्षापणमस्य ददाति पादश: कारणं ददाति । " त्यात्य सभवे व्यस्य ग्रहणम्" [१०] इति शस एव ग्रहणादिह न भवति । पादशंसी गायत्र्याः । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० १६७-१७५] महावृत्तिसहितम् ३०६ वा निष्कघोषमिश्रशब्दे ॥४।४।१६७॥ निष्क घोष मिश्र शब्द इत्येतेषु परतः पादस्य वा पद्भवति । पादस्य निष्कः पन्निष्कः। पादनिष्कः । पद्धोषः । पादघोषः। पन्मिश्रः। पादमिश्रः । “पूर्वावरसदृश" [१३२८] इत्यादिना भासः। पच्छब्दः । पादशब्दः । उदकस्योद द्योश्च खौ ॥४॥३।१६८॥ उदकस्य उद इत्ययमादेशो भवति द्योश्च तस्योदकस्य खुविषये । उदकस्य मेघ उदमेघो नाम यस्यौदमेधिः पुत्रः । उदकं वड्तीत्युदवाहो नाम यस्यौदवाहिः पुत्रः। अपत्येन पिता लक्ष्यते । उदकस्य घोष उद्घोषः । लोहितोदा क्षीरोदा नदी । खाविति किम् ? उदकपर्वतः ।। पेषमि ॥४।३।१६६॥ पेषमि द्यौ उदकस्य उद इत्ययमादेशो भवति । उदकेन पिनष्टि उदपेषं पिनष्टि तगरम् । “स्नेहने पिषः" [२।४।२७] इति णम् । कथम् उदवास उदवाहनः उदधिरिति ? संज्ञाशब्दा अमी पूर्वेण सिद्धाः। कथमुदधिर्घटः ? उपमानाद्भविष्यति । वैकहलि पूर्ये ॥४।३.१७०॥ एकोऽसहायस्तुल्यजातीयेन यो हल तदादौ धौ पूर्ये उदकस्य वा उद इत्ययमादेशो भवति । उदकस्य कुम्भः उदकुम्भः । उदककुम्भः । उदघटः । उदकघटः । उदपात्रम् । उदकपात्रम् । एकलीति किम् ? उदकस्थालम् । पूर्य इति किम् ? उदकगिरिः । अखावपाते विभाषेयम् । मन्थौदनसक्तुबिन्दुवज्रभारहारवीवधगाहे ॥४॥३।१७१॥ मन्थ श्रोदन सक्तु बिन्दु वज्र भार हार वौवध गाह इत्येतेषु परत उदकस्य वा उद इत्ययमादेशो भवति । अपूर्यार्थोऽयं यत्नः । उदमन्थः । उदकमन्थः । उदकेनौदनः उदौदनः । उदकौदनः । उदकेन सक्तुः उदसक्तः। उदकसक्तः । “भच्यान्नाभ्यां मिश्रणव्यञ्जने" [१।३।३०] इति भासः। उदविन्दुः । उदकबिन्दुः। उदवज्रः । उदकवज्रः। उदभारः। उदकभारः। उदहारः। उदकहारः । उदवीवधः । उदकवीवधः । उदगाहः । उदकगाहः । मन्थभारहारा अण्णन्ता घनन्ता वा । इकः प्रोऽङल्याः ॥४।३.१७२॥ इगन्तस्य द्यौ वा प्रो भवत्ययाः । ग्रामणिपुत्रः । ग्रामणोपुत्रः । यवलुपुत्रः । यवनपुत्रः । अलानु कर्कन्धु इन्भु फलम् । अत्र पूर्वपूर्वस्य प्रादेशे सति उत्तरेण सविधिः । इक इति किम् ? खट्वापादः । मालापादः । अङग्या इति किम् ? गार्गीपुत्रः । दासीपुत्रः। वेति व्यवस्थितविभाषाश्रयणादिह न भवति । कारीषगन्धीपुत्रः । कारीषान्धीपतिः । झिपंज्ञेयुवां च न प्रादेशः। काण्डीभूतम् । कुख्यीभूतम् । श्रीकुलम् । भ्रुकुलम् । भ्रूकुंसादीनां तु प्रादेशो भवत्येव । भ्रकुंसः । क्वचिदन्यदेव । भ्रुकुसादीनामकाराश्चान्तादेश इध्यते । भ्रकुंसः । भ्रकुटिः । त्वे ड्यापो क्वचित्खौ च ॥४।३।१७३॥ त्वे परतो ड्यन्तस्य प्रायन्तस्य क्वचित्प्रो भवति खौ च द्यौ । अजत्वम् । अजात्वम् । रोहिणित्वम् । रोहिणीत्वम् । वे छान्दसः प्रयोग इति केचित् । खौ-रेवतिभित्रः । रोहिणिमित्रः । भरणिमित्रः । कचिन्न भवति । नान्दीकरः । नान्दीघोषः । श्राबन्तस्य शिलाया वहः शिलबाटः । शिलप्रस्थः । शिशपस्थलम् । न च भवति लोपिकागृहम् । लोपिकापण्डम् । क्वचिद् ग्रहणं बहुलार्थम् ।। हृति चैका ॥४।३।१७४॥ हृति परतो द्यौ च एका इत्येतस्य प्रो भवति । एकस्या आगतम् एकरूप्यम् । एकमयम् । “हेतुमनुष्याद्वा रूप्यः" [३।३।५५] “मयट्” [३।३।५६] इति च रूप्यमयटौ । एकत्याभाव एकत्वम् । एकता । गुणवचनत्वे "तसादौ” [।३।१४७] त्वतलोर्गुणवचनस्य इति पुंवद्भावेन सिद्धत्वादन्यत्रेदं द्रष्टव्यम् । द्यौ एकस्या क्षीरम् एकक्षीरम् । एकदुग्धम् । एका प्रिया अस्य एकप्रियः । एकमनोज्ञः । मालेषीकेष्टकानां भारितृलचिते ॥४॥३॥१७५॥ माला, इपीका, इष्टका इत्येतेषां प्रो भवति भारिन तूल चित इत्येतेषु परतः । मालभारी। मालभारिणी । इषीकतूलम् । इष्टकचितम् । क्वचिदित्यनुवृत्तालादिभिः स्तदन्तविधिरपि । उत्पलमालभारिणी। मुजेषीकतूलम् । पक्वेष्टकचितम् । For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पा० ३ सू० १७६ - १८३ खित्यः || ४|३|१७६ ॥ विदन्ते यो अजन्तस्य प्रो भवत्यः । कालीमात्मानं मन्यते कालिम्भन्या । रोहिणिम्मन्या । "खश्चात्मनः " [ २२२|७१] इति खरा । खित्यनन्तरः प्रादेशभाग्नास्तीत्युक्तम् । श्ररिति प्रतिषेधाच्च खिदन्ते द्यौ पूर्वस्य प्रपरोऽपि " मुमचः " [ ४।३।१७७ ] इति प्रादेशेन बाध्यते । श्ररिति किम् ? दोषामन्यमहः । दिवामन्या रात्रिः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुमचः || ४ | ३ | १७७ || पूर्वस्य पदस्याजन्तस्य खिदन्ते द्यौ मुम् भवत्यः । प्रियंवदः । वशंवदः । कालिम्मन्या । हरिणिम्मन्या । " विध्वरुपोस्तुदः सखम्” [२|२| ३७ ] इति सखे कृते मुम् । विधुन्तुदः । श्ररुन्तुदः । " द्विषन्तपेरम्मद" [३८] इति निपातनाद् द्विषन्तपः । च इति किम् ? विद्वन्मन्यः । श्रमेोऽम्वत् ||४|३|१७८ ॥ श्रच इति वर्तते । श्रजन्तस्य पूर्वपदस्यैकाचोऽम् भवति खिदन्ते द्यौ श्रमवास्मिन् कार्य ं भवति । श्रात्वपूर्वस्यैचि युवादिप्रयोजनम् । अवर्णान्तस्यामि नास्ति विशेषः । श्रनवर्णान्तमुदाहरणम् । गाम्मन्यः । स्त्रीम्मन्यः । स्त्रियम्मन्यः । नृशब्दस्य नरम्मन्यः । श्रियम्मन्यः । ध्रुवम्मन्यः । नावमात्मानं मन्यते नावम्मन्यः । प्रादेशमुमोरयमपवादः । एकाच इति किम् ? लेखाकं मन्यः । इत्येव द्विमन्यः । निपातनाद् वाचंयमपुरन्दरौ । श्रमित्यागमलिङ्गादपरोऽपि मकारः प्रयोगश्रवणार्थः स्फान्तखेन निर्दिष्टः । कथम्भवितव्यम्, श्रियमात्मानं कुलं मन्यते इति ? उच्यते - श्रीशब्द श्राविष्टलिङ्गः स्त्रियामेव वर्तत इति श्रियम्मन्यमिति भवितव्यम् । अन्ये मन्यन्ते स्वलिङ्गान्तरेऽपि वृत्तिदृष्टा । यथा प्रष्ठादिशब्दानां पुंयोगात् स्त्रियां वृत्तिः । प्रष्ठी । प्रचरी । गणकी। एवं श्रीशब्दस्य कुले वर्तमानस्य नपुंसकलिङ्गत्वं "प्रो नपि" [91१1७ ] इति प्रादेश: । श्रम्वदतिदेशात् “नपः स्वमा: " [ ५/११२० ] इत्युपू | "मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् " [ प ० ] इति “सुपो धुमृदोः " [ १।४।१४२ ] इत्यस्यैवोपोऽमागमो बाघको नोत्तरस्य तेन श्रिमन्यमिति भवितव्यम् । एतच्च नातिश्लिष्टम् । वेदः प्रमाणमित्यादौ लिङ्गान्तरं प्रसज्येत । सत्यागदास्तोः कारे ||४३|१७६ ॥ सत्य अगद, अस्तु इत्येतेषां कारे द्यौ मुमागमो भवति । सत्यङ्कारः । श्रगदङ्कारः । ऋणि वनि वा काररूपम् । अस्तुराब्दो निसंज्ञकोऽभ्युपगमे वर्तते । स्त्वित्यस्य करणम् अस्तुङ्कारः रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य ||४|३|१८०|| रात्रिशब्दस्य कृति द्यो मुमागमो भवति प्रभाचन्द्रस्याचार्यस्य मतेन । रात्रिञ्चरः । रात्रिचरः । रात्रिमाटः । रात्र्याः । ग्रहणसामर्थ्यादयमप्राप्ते विकल्पः । खिति पूर्वनिर्णयेन नित्य मुमागमः । रात्रिंमन्यमहः । रात्रेरनन्तरः कृन्नास्तीति कृदन्तग्रहणम् । ननु रात्रिरिवाचरतीति " आधारे सर्वस्म्रुद्भ्यः क्विपू” [२११३६ वा०] इति तदन्तात्कृत्क्विस्ति । यदि तदर्थं कृद्ग्रहणं स्यात् । रात्रेः किपीति निर्देशं कुर्यात् । क्वित्रन्तस्य तु रात्रिशब्दस्य अन्यस्मिन् कृदन्ते मुग्न स्यात् गौणत्वात् । नञोऽन् ||४|३|१८१ ॥ नमोऽनित्ययमादेशो भवति द्यो । न हिंसा अहिंसा "नन्" [१।३।६८ ] सुपा इति सः । अनेकाच्त्वात्सर्वादेशोऽन् । स्थानिवद्भावेन पदादेशः पदवद्भवति इति नखम् । एवम् क्रोधः । अस्तेयम् । सानुबन्धकनिर्देशः किमर्थः ? वामनपुत्रः पामनपुत्र इत्यत्र माभूत् । द्यावित्येव । न भुङ्क्ते । "नजोऽनुभात्रे क्षेपे मिङ्युपसंख्यानम्" [वा०] । श्रकरोषि त्वं जाल्म । पचसि त्वं जाल्म । अचि || ४|३|१८२ ॥ जादौ च द्यौ नञोऽन् भवति । अनन्तः । श्रनादिः । अनुपमो जिनः । पुनर्वचन नखनिवृत्त्यर्थम् | "दोऽनन्ने” [ २२२२६० ] इति ज्ञापकान्नञो नो ङमु न भवति । नवारनपान्नवेदानासत्यानमुचिनकुलनखनपुंसकनक्षत्रनक्रनाकनागाः ||४|३|१८३॥ नाट्नपात् नवेदा नासत्या नमुचि नकुल नख नपुंसक नक्षत्र नक नाक नाग इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । न भ्राजते न वा न भ्राजते किन्तु भ्राजत एवेति नभ्राट् । भ्राजतौ क्व्यन्ते द्यौ नञः प्रकृतिभावः । द्वयोर्वा नञोः एको For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १८४ - १८६ ] महावृत्तिसहितम् ३११ नशब्दो निपात्यते । न पाति न वा न पाति नपात् । नपुंसकलिङ्गे शत्रन्ते पातौ पूर्ववन्निपातनम् । न वेत्ति न वा न वेत्ति नवेदाः । " अस् सर्वम्यः " [ उ० सू०] इति विदेरस् | "अत्वसोऽधोः " [ ४|४|१२] इति दीत्वम् । सत्सु सार्वा सत्या नसत्या असत्या | पुनर्नसे नासत्या । नमः प्रकृतिभावः । पुंस्यपीदं निपातनम् । नासत्या नाम केचित् । न मुञ्चति न वा न मुञ्चति मुचेरौणादिके इकि नमुचिः । नास्य कुलमस्ति न वानकुलमस्ति नकुलम् । नास्य खमस्ति न वा न खमस्ति नखः । न स्त्री न पुमान् नपुंसकः । स्त्रीपुंसयोर्नपुंसकभावो नञश्च प्रकृतिभावः । न क्षरति न क्षोयते इति वा नक्षत्रम् । क्षरतेः क्षीयतेर्वा क्षद्भावो नञश्च प्रकृतिभावः । न क्रीणाति न क्रामतीति वा नकः । क्रौञः क्रमेर्वा डत्यो नञश्च प्रकृतिभावः । अग कुटिलायां गतावित्यनयोः पचायचि कागौ भवतः । नाकः । नागः । नञः प्रकृतिभावः अथवा नास्मिन् कं दुःखमस्ति नाकः । न गच्छतीत्यगः । एतेषां रूढिशब्दानां यथा कथञ्चिद् व्युत्पत्तिः । एकान्नः || ४|३|१८४|| एकान्न इति निपात्यते द्यो । एकेन न विंशतिः एकान्नविंशतिः । एकेन न त्रिंशत् । नत्रो विंशतिशब्देन " नञ् " [१|३|६८ ] इति सः । एकराब्दस्य भान्तस्य न विंशतिशब्देन "साधनं कृता बहुलम् " [११३३२६] इति बहुलवचनाद् भेति योगविभागात्पसे कृते एकशब्दस्यादुक् नत्रश्च प्रकृतिभावो निपात्यते । अदुकः पूर्वान्तकरणं "यरो ङो विभाषा " [५|४|१२५] इति विकल्पेन ङार्थम् । एकाद्नविंशतिः । एकाद्नत्रिंशत् । नगो वाऽजीवे || ४ | ३ | १८५ || नग इति वा निपात्यते जीवेऽर्थं । । नगा वृक्षाः । नगाः शालयः । नगाः पर्वताः । गा वृक्षाः । श्रगाः शालयः । श्रगाः पर्वताः । न गच्छन्तीति सुपि वाचि " गमेर्ड : " [२|२|४६ ] वाक्सः | अजीव इति किम् ? गो देवदत्तः शीतेन । सहस्य सः खौ || ४ | ३ | १८६ ॥ सहस्य स इत्ययमादेशो भवति खुविषये । द्याविति वर्तते । सहाश्वत्थेन वर्तते साश्वत्थम् । सपलाशम् । सशिंशपम् । वननामधेयम् । सरसा दूर्वा । " तेन" [१1३1०] " सहेति तुल्ययोगे" [११३६१] इति बसः । " वा नीचः " [४|३|१६०] इति विकल्पे प्राप्ते श्रयं विधिः । खाविति किम् ? सहयुवा । सहकृत्वा । सहयुद्धवान्। “राशि युधि कृञः " [ शराब२] "सहे" [राराद३] इति कंनिपू । ग्रन्थान्तेऽधिके ||४३|१८७ || ग्रन्थान्ते ग्रधिके च वर्तमानस्य सहस्य स इत्ययमादेशो भवति । ग्रन्थान्ते हसः । सकलं ज्यौतिषमधीते । समुहूर्तमधीते । कला कलावशेषः मुहूर्तच तत्सहचरितो ग्रन्थोऽपि तथोक्तः । कलामन्तं कृत्वा मुहूर्तमन्तं कृत्वा । साकल्यान्तोत्तौ हसः । “हेकाले ” [ ४।३।१८६ ] इति काले प्रतिपेधादनेन सादेशः । श्रधिके वसः । सह द्रोणेन वर्तते सद्रोणा खारी । समापः कार्षापणः । सकाकरणीको भाषः । " वा नीच: " [ ४|३|११०] इति विकल्पः प्राप्तः । द्वितीयेऽनुपाये || ४ | ३ | १८८ ॥ द्वितीयेऽनुपाख्यायमाने सहस्य स इत्ययमादेशो भवति । द्वयोः सहयुक्तयोर्न्यग्भूतो द्वितीयः । स एवाप्रत्यक्षोऽनुपाख्य उक्तः । साग्निः कपोतः । समूसलः व्रीहिकंसः । सपिशाचा वात्या । सराक्षसीका शाला । श्रग्न्यादयोऽप्रत्यक्षेणानुपलभ्यमानाः कपोतादिभिरनुमीयमानत्वादनुपाख्याः । अनुपाख्य इति किम् ? सच्छात्रः सहच्छात्र उपाध्यायः । उपाख्यायत इत्युपाख्यः । “युड्व्या बहुलम् ” [२|३|६४ ] इति बहुलवचनात् "आतो गौ” [२।१११०६ ] इति कर्मणि कः । हेऽकाले || ४|३|१८६ ॥ हसंज्ञके सहस्य स इत्ययमादेशो भवत्यकालवाचिनि द्यौ । सचकं देहि । सधुरं प्राज । युगपच्चके । युगपद्धरौ। “यौगपद्य” [ ३१३१५] इति हसः । "ऋक्पूरब्धूःपथोऽनन्ते” [४|२|७० ] इति धुरोऽकारः सान्तः । ग्रकाल इति किम १ सहपूर्वाह्नम् । सहापराहराम्। यौगपद्ये साकल्योक्तौ वा हसः | For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० १६० - १६७ वा नीचः || ४|३|१६०॥ नीचोऽवयवस्य सहशब्दस्य वा स इत्ययमादेशो भवति द्यौ । सशिष्यः सहशिष्य श्राचार्यः । सपुत्रः सहपुत्रः पिता । नीच इति किम् ? सहयुध्वा । सहकृत्वा । नात्र समुदायस्य नीचोऽवयवः सहशब्दः । नोच इति समुदायस्य विशेषणं सहशब्दस्य सर्वत्र विधौ व्यक्त्वात् । इह सहयुद्धप्रियः । प्रियसति च सदस्य सः कस्मान्न भवति । यदत्र द्यु तदपेक्षया न सहशब्दो नीचोऽवयव इति न भवति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ना शिष्य गोवत्सहले ||४|३|१६६ ॥ श्राशिषि सदस्य सादेशो न भवति गोवा सहल वर्जिते द्यौ । स्वस्ति सहशिष्याय गुरवे । स्वस्ति राजे सहपुत्राय । गोवत्सहल इति किम् ? स्वस्त्यस्तु सगवे सहगवे । सवत्साय सहवत्साय | सहलाय सहहलाय । समानस्य स ज्योतिर्जनपद रात्रिनाभिनामगोत्ररूपस्थानवर्णवयोवचनबन्धुषु ||३|१६|| समानस्य स इत्ययमादेशो भवति ज्योतिष, जनपद, रात्रि, नाभि, नाम, गोत्र, रूप, स्थान, वर्ण, वयस्' वचन, बन्धु इत्येतेषु परतः । समानं ज्योतिरस्य सज्योतिः । यदि वा समानं च तज्ज्योतिश्च सज्योतिः । "पूर्वापरप्रथम " [१|३|५३ ] इत्यादिना यसः । सजनपदः । सरात्रिः । सनाभिः । सनामः । सगोत्रः । सरूपः । सस्थानः | [सवर्णः । सवयाः ।] सवचनः । सबन्धुः | असेऽभिधेयवल्लिङ्गम् । यसे च परवल्लिङ्गम् । समानस्येति योगविभागादन्येष्वपि सादेशः । तेन सुधर्मा | सुपक्षः । सगन्धः । सदेशः । समानजातीयः । “जातेश्को बन्धुनि " [४/२/१८ ] इति स्वार्थे छः । समाने तीर्थं भवः सतीयः । दिगादित्वाय इत्येवमादि सिद्धम् । | सत्रह्मचारी ||४|३|१९३॥ सब्रह्मचारीति निपात्यते चरणे गम्यमाने । समानो ब्रह्मचारी समाने ब्रह्मणि व्रतं चरति वा सत्रह्मचारी । समाने ग्रागमे व्रतचारीत्यर्थः । घोदयें ||४|३|१६४ ॥ उदर्यशब्दे द्यौ समानस्य वा स इत्ययमादेशो भवति । समानोदरे शयितः सोदर्यः । समानोदर्यः । “समानोदरे शयितः " [३३२०८] इति यः । कथं युधिष्ठिरसोदरो वृकोदर इति । समानस्येति योगविभागात् । evere वतौ ||४|३|१६५ ॥ दृश दृक् दृक्ष वतु इत्येतेषु परतः समानस्य स इत्ययमादेशो भवति । समानो दृश्यते सदृशः । बहुलवचनात्कर्मणिगादिः । श्रन्यथा वा व्युत्पत्तिमात्रं कार्यम् । समानमात्मानं पश्यति सदृशः । सदृक् । सदृक्षः । “त्यदादौ दृशोऽनालोके टक् च" [२२२२५८] इत्यत्र “समानान्ययोश्च" [वा०] इति वचनाश्चि भवति । सोऽप्यस्मादेव निर्देशात् तत्र स्मर्तव्यः । वतुः समानशब्दात्परो न सम्भवतीति चतुग्रहणमुत्तरार्थम् । किमिदमोः कीश् ||४|३|१६६ ॥ किम् इदम् इत्येतयोः की ईश इत्येतावादेशौ भवतः दृशादिषु परतः । क इव दृश्यते कमिव पश्यति वा कीदृशः । कीदृक् । कीदृक्षः । किम्परिमाणमस्य कियानू । “किमः” [३।४।१६२ ] इति वतुर्वकारस्य च वः । श्रयमिव दृश्यते इममिव पश्यति वा ईदृशः । ई । ईदृक्षः । इदम्परिमाणमस्य इवान् । " इदमो वो घः " [३।४।१६१] इति वतुर्वकारस्य च वः । " या सर्वनाम्नः” [४/३/१६७ ] इत्यात्वत्यापवादोऽयम् । सर्वनाम्नः || ४ | ३ | १६७ || सर्वनाम्न आकारादेशो भवति दृशगृहक्षवतुषु परतः । स इव दृश्यते तमिव पश्यति वा तादृशः । तादृक् । तादृक्षः । तत्परिमाणमस्य तावान् । " यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुः” [३|४| १६०] इति वतुः । यादृक्षः । यादृशः । यावान् । श्रन्यादृशः । अन्यादृक् । श्रन्यादृक्षः । श्रा इति द्विमात्रोच्चारणम् “एप्यतोऽपदे" [४३८४ ] इति पररूपनिवृत्त्यर्थम् । ग्रकारोच्चारणं तु हल्निवृत्त्यर्थं स्यात् । अन्यशब्दे च दोषः प्रसज्येत । त्यदादेरिति सिद्ध सर्वनाम्न इति ग्रहणम् श्रन्यशब्दसंग्रहार्थमुत्तरार्थं च । For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ३ सू० १६८ - २०७] महावृत्तिसहितम् ३१३ विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्ची को || ४|३|१६८ ॥ विष्वग देव इत्येतयोः सर्वनाम्नश्च टेरद्रिरादेशो भवत्यञ्चतौ क्व्यन्ते परतः । विणुवतीति विदुः । विषुमञ्चतीति ऋत्विगादिसूत्रेण द्यौ कृते विष्वक् । विष्वञ्चमञ्च कावागतनिवृत्ते नखम् । वाक्ते सुः । “उगिचाम्" [ ५।४।४६ ] इति नुम् । हल्ङयादिखे । स्कान्तले । “क्वित्यस्य कु: "[ ५३७५ ] इति नकारस्य ङकारः । विश्वद्रयङ् । यद्रथङ । तद्रथङ् । कद्रयङ् । विष्वग्देवयोश्चेति किम् ? वृक्षमञ्चतीति वृक्षाङ् । ञ्चाविति किम् ? विष्वग्युक् । देवयुक् । क्वाविति किम् ? विष्वगञ्चनम् । देवाञ्चनम् । ननु कावेवाञ्चतिः केवलो धुर्भवति तत्किं विग्रहणेन । इदं विग्रहं ज्ञापकम् — “अन्यत्र धुग्रहणे ध्वादेः समुदायस्य ग्रहणम्" [प०] इति । तेन कृकम्यादिसूत्रे यत्कृतमयस्कार इत्यादी सत्वं सिद्धन । अन्यथे हैव स्यात् । यस्कृदिति । समः समि || ४ | ३ | १६६ ॥ समः समीत्ययमादेशो भवत्यञ्चतौ क्व्यन्ते परतः । सम्यङ् । सम्यञ्चौ सम्यञ्चः । इका सिद्धे समिरिति वचनम् "श्रनित्यमागमशासनम् " [प०] इति ज्ञापयति । तेनं वान्त इत्यादि सिद्धम् । तिरसस्तिर्यखे || ४|३|२००॥ तितस्तिरिरित्ययमादेशो भवत्यञ्चतौक्व्यन्ते परतो यत्राञ्चतेरकारस्य खंन भवति । तिर्यङ् । तिर्यञ्चौ । तिर्यञ्चः । तिर्यग्भ्याम्। तिर्यग्भिः । ख इति किम् ? तिरश्चः । तिरश्चा | अच इत्यकारस्य खम् । न विद्यते श्रञ्चतेर्विशेषविदितमकारत्य खं यस्मिन् । हलुङो नलं तु सर्वसाधारणं न तस्येह पर्युदासः । न त्वस्य खमिति तस्मिन् तिरिभावः " तिरश्च्यपवर्गे” [२|४|४५ ] इति निर्देशात् । ननु च ' "तिवाकारकाणां कृद्भिः सविधिः" [१०] इति कुदन्ते नैवाञ्चतिना वृत्तौ कृतायां सुबन्तत्वाभावात्कथमञ्चतेर्युसंज्ञा । नैष दोषः । भ्रविलिप्तीत्येवमादौ विषये तित्राकारकाणामित्यस्य व्यापारो न सर्वत्र । सहस्य सभिः || ४|३|२०१९ || सदस्य सधिरादेशो भवत्यञ्च क्व्यन्ते परतः । सयङ् । सत्रयञ्चौ । सभ् यञ्चः । सध्रीचः । सध्रीचा । " श्रचः " [ ४|४|१२५ ] इत्यखम् । “चौ” इति दीत्वम् । नगेरीपः || ४ | ३ | २०२ ॥ द्विरान्दानवान्ताच्च गेः परस्य अपशब्दस्य ईकारादेशो भवति । द्विगता आपो यस्मिन्निति द्वीपः । प्राक् "परस्यादेः " ईकारः पश्चात् "ऋक्पूरब्धूः" इत्यः सान्तः । “अन्तःशब्दस्य अ (सा)ङ्किविधिण वेषु गिसंज्ञोक्ता" [वा०] अन्तर्गता श्रापोऽस्मिन्नन्तरीपः । समीपम् । वीपम् । इह क्रियायोगाभावाद्विसंज्ञोपलक्षितानां प्रादीनां ग्रहणम् । अनगेरिति किम् ? प्रापम् । परापम् । समापम् । sat ||४|३|२०३ || देशाभिधानेऽनोः परस्यापः उकारादेशो भवति । अनुगता आपोऽस्मिन्नित्यनूपो देशः । देश इति किम् ? अन्वी वनम् । कथं कूपः सूपः अनूप इति ? प्रपोदरादिपाठात् । छकारकेऽन्यस्य टुक ||४|३|२०४ || छे कारके च परतोऽन्यस्य दुगागमो भवति । श्रन्यस्येदम् अन्यस्मिन् भवं वा ग्रन्यदीयम् । गहादिपाठाच्छः । अन्यस्य कारकम् अन्यत्कारकम् । अन्यः कारकः अन्यत्कारकः । श्रताभास्थस्याशीराशास्थास्थितोत्सुकोतिरागे ॥४|३|२०५॥ प्रतास्थस्यामास्थस्य चान्यस्य दुगागमो भवति श्राशिष् आशा आस्था ग्रास्थित उत्सुक ऊति राग इत्येतेषु परतः । ग्रन्या ग्राशीः श्रन्यदाशीः अन्या आशा अन्यदाशा | अन्या ग्रास्था अन्यास्था | अन्य स्थितः अन्यदास्थितः । श्रन्य उत्सुकः श्रन्यदुत्सुकः । अन्या ऊतिः श्रन्यदूतिः । श्रन्यो रागः अन्यद्वागः । “विशेषणं विशेष्येणेति" [ १।३।५२ ] यसः । श्रताभास्थ - स्येति किम् ? अन्यत्याशा अन्याशा । अन्येनास्थितः अन्यास्थितः । वार्थे द्यौ || ४|३|२०६ ॥ अन्यस्य वा दुग् भवति । अन्योऽर्थः अन्यस्मै अर्थः अन्यदर्थः । श्रताभास्थ स्येत्येव । श्रन्यस्यार्थोऽन्यार्थः । अन्येनार्थोऽन्यार्थः । कस्कोः पेऽचि || ४|३|२०७ ॥ कोः कद्भवति पसंज्ञके सेऽजादौ यौ । कुत्सितोऽजः । “तिकुप्रादयः " [१/३/८१ ] इति पसः । कदजः । कदवः । कदन्नम् । प इति किम् १ क्त्रिभो राजा । अचीति किम् ? कुब्राह्मणः । कुषलः | कल्कोरिति योगविभागात्त्रशब्देऽपि भविष्यति । कुत्सितास्त्रयः कत्त्रयः । " किमो वा त्रौकद्वयः " [वा०] के त्रयः कवयः । ४० For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ०४ पा० ३ २०२०८-२१५ रथवदयोः ॥४।३।२०८॥ रथ वद इत्येतयोः परतः कोः कद् भवति पसे। कुत्सितो रथः कद्रथः । कुत्सितो वदः कद्वदः। तृणे जातौ ॥४।३।२०६॥ तृणे द्यौ कोः कद्भवति समुदायेन जातावभिधेयायाम् । कत्तृ णा नाम जातिः । तस्या अवयवः कत्तृणम् । जाताविति किम् ? कुत्सितानि तृणानि कुत्तृणा न । का पथ्यक्षयोः ॥४॥३१२१०॥ कोः का इत्ययमादेशो भवति पथिन् अक्ष इत्येतयोः परतः । कुत्सितः पन्थाः कापथः। कुत्सितमक्षं काक्षम । अक्षशब्दस्य अकारान्तस्य कृतसान्तस्य चाविशेषेण ग्रहणम् । पस इति निवृत्तम् । कुलितेऽक्षिणी अस्य काक्षः । “स्वाङ्गादक्षिसक्नः" [४२११३] इति टः सान्तः । पथशब्दोऽकारान्तोऽप्यरित । तस्य कुपथमिति पे भवति । ईपदर्थे ॥४।३।२११॥ ईपदर्थे कोः का भवति । ईपत्कटुकं काकटुकम । कामधुरम् । कालवणम् । “तिकुप्रादयः" [३॥३॥८१] इति सः । “ककोः षेऽचि" [४।३।२०७] इति तत्रोपलक्षणमात्रम् । अजादावपि परत्वात्कादेश एव | काम्लम् । पुरुषे या ॥४।३।२१२॥ पुरुषशब्दे यी कोः का इत्ययमादेशो भवति वा। कुत्सितः पुरुषः कापुरुषः । कुपुरुषः । अपाते विकल्पोऽयम् । ईषदर्थ पूर्वनिर्णयेन नित्यं कादेशः । कवमुष्णे ॥४।३।२१३॥ कोः स्थाने कवरूपं भवति उष्णे परतः का च वा । कवशब्दो नपुंसकलिङ्गो निर्दिष्टः । कबोष्णम् । कोष्णम् । अाभ्यां मुक्ते कत्कोः पेऽचि" [४।३।२०७] इति कद्भावे कदुष्णम् । अनीषदथै कदुष्णमेव । पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् ॥३।३।२१४॥ पृषोदरप्रकाराणि शब्दरूपाणि यथोपदिष्टं साधुनि भवन्ति । यथा तेषु वर्णनाशागमवणविकाराः विशिष्टैः प्रयुक्ता दृश्यन्ते तथैव तेषां साधुत्वमित्यर्थः । उपदिष्टानतिक्रमेण यथोपदिष्टम् । ये ये उपदिष्टाः इति वी-सायां वा हसः । पृपदुदरमस्य पृषोदरः । प्रपोदरा कन्या । पृषत उद्रानं पृषोदानम् । तकारस्य खं निपात्यम् । अश्वत्थः। कपित्थः । महित्थः । दधित्थः । अश्व इव तिष्ठति कपिरिव तिष्ठति मह्यां तिष्ठति धीव तिष्ठति । “सुपि" [२।२।७] इति स्थः कः । सकारत्य तत्वं निपात्यम् । महीशब्दस्य "स्वे ड्यापोः क्वचित्खी च" [४१३।१७३] इति प्रादेशः । वारिवाहको बलाहकः । बारि शब्दस्य शब्दः परत्य चादेलत्वं निपात्यम् । जोवनस्य मूनं जीमूतम् । वनशब्दस्य खम् । मह्यां रौतीति मयूरः । रौतेरचि टिखं महीशब्दस्य च मयूभावः । शवस्य शयनं श्मशानम् । शवशब्दस्य श्मादेशः शयनस्य च शानम् । अवन्तोऽस्यां सीदन्तीति वृसी। व्र वच्छन्दत्य वृभावः सदेल डन्तस्य च सीभावः । “षष उत्वं दतृदशधासूत्तरपदादेः ष्टुत्वं च" "धाशब्दे तु वा षष उत्वम्"। षड् दन्ता अस्य पोडन् । "वयसि दन्तस्य दत" इति दत्रादेशः । षट् च दश चेति षोडश । भिः प्रकारैः पोटा । पड्यावा । इह पड् दधातीति स्त्री। ग्रातः के कृते टापि च पड्धा । लाक्षणिकत्वात्वाभावः “दिकछन्देभ्यस्तीरस्य तारभाव:"। दक्षिणस्य तीरम्, दक्षिणतारम् । उत्तरतारम् । “वाचो वादे डत्वं वलभावश्चोत्तरपदत्येति निपात्यते" । वाग्वादस्यापत्यं वावलिः । एवमन्येऽप्यूह्याः शब्दाः। पिशिताशः । पिशाचः । मुहः स्वनं लातीति मुसलः । ऊर्ध्वकर्ण उलकः । मेहनस्य खत्य माला मेखला । कौ जीयति कुञ्जरः । ऊर्ध्वं खमस्य उलू खलः । ( "वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशी ।। धूनां तदर्थोऽतिशयेन योगास्तदुच्यते वर्णविधौ निरुक्तम् ॥") संख्याविसायादेरहनस्याहन्वा डी ॥४॥३२१५॥ संख्या वि साय इत्येवमादरह नशब्दस्य अदन्नित्ययमादेशो वा भवति डौ परतः । द्वयोरहनोभवो व्यहनः । “हृदर्थ" [१३४६] इति पसः । “संख्यादी रश्च" [१॥३॥४७] इति रसंज्ञा । सान्तटः। “एभ्योऽहोऽहः" [४।२।६०] इत्यत्र झिसंख्यादेरित्यनुवर्तनादह्लादेशः । For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ३ सू० २१६-२२१] महावृत्तिसहितम् ३१५ भवार्थे अागतस्य कालाट टअः "रस्योबनपत्ये" [३।११७४] इत्युपि डौ कृते "वा डिश्योः [४।४।१२४] इति वाऽनोऽखम् । द्वयह्नि । द्वयहनि । द्वन्यह्ने । यावत्सु अहस्सु भवो यावदहः । “वतोर्वेट" [३।४।२०] इत्यत्र वत्यन्तस्य संख्यासंज्ञोक्ता। डौ यावदह्नि। यावदहनि ! यावदहे । विगतमहय॑ह्नः । “तिकुप्रादयः” [१३३८१] इति पसः । ङौ व्यह्नि । व्यहनि । व्यहे । सायमहः । सायाह्नः । विशेषणसविधिः। सायंशब्दस्य झिसंज्ञकस्यात एक निपातनान्मकारस्य खम् । अकारान्तस्य सम्भवेऽहनादेशो निपात्यः । सायाह्नि। सायाहनि । सायाः। संख्याविसायादेरिति किम् ? पूर्वाह्न गतः । पूर्वमहः पूर्वाह्नः। विशेषणसविधिः । “अतोऽह्नः" [५॥॥६१] इति णत्वम् । दखे पूर्वस्याणो दीः ॥३२१६॥ ढकाररेफयोः खं यस्मिन् वर्णे स दूखस्तस्मिन् पूर्वस्याणो दीर्भवति । पसेऽप्यदोषः । खस्याभावरूपत्वेऽपि पौर्वापर्य बुद्धिकृतम् । यथा वर्णयोरयोगपद्येऽपि अचीको यणित्येवमादौ । लीढमुपगूढं मूढेन । अग्नी रथम् । वायू रथम् । पुना रक्त वासः । दुख इतीनिर्देशात् पूर्वस्येति लब्धे पूर्वग्रहणं किम् ? पूर्वमात्रत्य यथा द्यावेव स्यात् । अन्यथा द्यावेव स्यात् । नीरक्तम् । दूरक्तम् । इह न स्याद् अजर्घाः इति । जर्ग धः लडः सिप एप् । भभावः । धकारस्य जश्त्वम् । “सिपि रिर्वा" [५।३।८१] “दः" [५।३।८२] इति रिः । अण इति किम् ? तृहू तृढः । वृहू वृढः । सहिषहोऽस्यौः ॥४॥३।२१७॥ सहिवहोरवर्णस्य अोकारादेशो भवति दूखे । सोटा। सोढुम् । सोढव्यम। वोढा। वोढम् । वोढव्यम् । अस्येत्यग्रहणादैपि कृतेऽपि भवति । उदवोढाम् उदवोद । उत्पूर्वाद्वहेर्लुङ । तसस्ताम् । थसस्तम् । थत्य तः । “झलो झलि" [५।३।४४] इति सेः खम् । ढत्वादेरसिद्धत्वाद् “व्रजवद" [५।११७६] इत्यादिना प्रागैप । अस्येति किम् ? ऊढवान् । कणे लनणस्याविष्टाष्टपञ्चभिन्नछिन्नछिद्रवस्वस्तिकस्य ॥४३२१८॥ कर्ण धौ लक्षणवाचिनो दीर्भवति विष्टादीन् वर्जयित्वा । दात्रमिव दात्राकर्णः । शंकूकर्णः । द्विगुणाकर्णः । द्वबहुलाकर्णः। द्वयोरगुल्योः समाहारो द्वघडलम् । “पेऽङ्गुलेर्भिसंख्यादेः" [४।२।८८] इति सान्तः । लक्षणस्येति किम् ? शोभनकर्णः। शोभनत्वं तत्त्वाख्यानं न तु लक्षणम् । अतएव तत्त्वाख्यानादिहापि न भवति । लम्बकर्णः। अविद्धकर्णः । अथवा लक्षणशब्देन चिह्नविशेषोऽभिप्रेतः स्वामिविशेषसंबन्धज्ञापनार्थम् । पशूनां यात्राकारादि चिहनं लक्षणम् । तदभावाल्लम्बकर्णादिषु न भवति । अविष्टादेरिति किम् ? विष्टकर्णः । अष्टकर्णः । पञ्चकर्णः । भिन्नकर्णः । छिन्नकर्णः । छिद्रकर्णः । स वकर्णः। स्वस्तिककर्णः। नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु क्वौ ॥४॥३।२१६॥ नहि वृति वृधि व्यधि रुचि सहि तनि इत्येतेषु किबन्तेषु परतः पूर्वपदस्य दीर्भवति । नहि-उपानत् । परीणत् । वृत्-नीवृत् । उपावृत् । वृषि-प्रावृट् । व्यधि-मर्मवित् । हृदयावित् । श्वावित् । रुचि-यतीरुक् । अभीरुक । कथं मलरुक् । श्वेतरुक ? सम्पदादिक्विपि न भवतीत्यदोषः। अथवा तिकारकदीत्वमिष्यते । सहि-जलासट । तुरासट् । तनि-परीतत् । “गमः क्वौ १४१४१] इत्यत्र “गमादीनां उखमिप्यते" [वा०] । क्वाविति किम ? उपननम् । गिरिवने किंशुलुककोटराद्योः खौ ॥४।३२२०॥ गिरि वन इत्येतयोः परतो यथासंख्यं किंशुलुकादीनां कोटरादीनां च दीर्भवति खौ । गिरौ-किंशुलुकागिरिः । अञ्जनागिरिः। नलागिरिः । वने-कोटरावणम् । मिश्रकावणम् । सिध्रकावणम् । किंशुलुककोटराद्योरिति किम् ? कृष्णगिरिः । भद्रसालवनम् । नन्दनवनम् । वले ॥४॥३२२१॥ वले त्ये परतः पूर्वस्य दीर्भवति । श्रासुतीवलम् । दन्तावलः । मत्वर्थ "रजःकृप्यासुतिपरिषदो बलः" [॥१॥३८] "दन्तशिखात् खौ” [४॥१॥३६] इति च वलः । For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ३ सू० २२२-२३१ मतो बह्वच्छरादेरनजिरादेः ॥४।३।२२२॥ मतौ परतः बह्वचः शरादीनां च दोर्भवति अजिरादीन् वजयित्वा खौ। उदुम्बरावती। मशकावती । वीरणावती । पुष्करावती । उदुम्बरा अस्मिन् देशे सन्ति 'तदस्मिन्नस्तीति देशः खो" [२१५७] इत्यणि प्राप्त “नद्यां मतुः" [३।६५] इति मतुः। शरादीनां शरावती । वंशावती । शर |] वंश । धूम । अहि । कपि । मणि । मुनि । शुचि । इति शरादिः । बच्छरादेरिति किम् ? इलुवती । मधुवती । “खौ" [५।३।३२] इति मतोर्वत्वम् । अनजिरादेरिति किम् ? अजिरवती । खदिरवती । अलिनवती । चक्रवाकवती । कारण्डवती । खाविति किम् ? बलयवती । इको चहेऽपीलोः ॥४॥३२२३॥ इगन्तस्य पीलुवर्जितस्य वहे द्यौ दीर्भवति । खाविति वर्तते । ऋषीवरम् । मुनीवहम् । पचाद्यजन्तेन वहशब्देन तसः। इक इति किम् ? पिएडवहम् । अपीलोरिति किम् ? पीलुवहम् । "अपील्वादेरिति वक्तव्यम्” [वा०] । दारुवहम् । गेः कासे ॥४॥३२२४॥ इक इति वर्तते । इगन्तस्य गेः कासे धो दीर्भवति । नाकासम् । वीकासम् । अनूकासम् । पचाद्यजन्तस्य कासस्येदं ग्रहणम् । इक इत्येव । प्रकाशते इति प्रकाशः।। दस्ति ॥४।३।२२५॥ दा इत्येतस्य यस्तकार आदेशस्तदादौ परत इगन्तस्य गेीर्भवति । नीत्तम् । वीत्तम् । परीत्तम् । “गेस्तोऽचः" [५।२।१४६] इत्याकारस्य तकारः । दकारचर्वस्यात एव दीत्ववचनात्सिदुत्वम् । “गेस्तोऽचः' इत्यत्र द्वितकारको वा निर्देशः इति सर्यादेशः । द इति किम् ? वितीर्णम् । तीति किम् ? निदत्तमिति वेष्यते । इक इत्येव । प्रत्तम् । आत्तम् । घञ्यमनुष्ये प्रायः ॥४।३।२२६॥ इक इति निवृत्तम् । घनन्ते द्यौ गेः प्रायो दीर्भवति अमनुष्येऽभिधेये । अपामार्गः । नीमार्गः । नीक्लेदः । प्रावारः । “आच्छादने वृजः" [२।३।५०] इति घज । नोवारः । “नौ वुर्धान्ये”[२॥३॥४४] इति घञ । प्राकारः कर्मणि । अधिकरणे प्रासादः । अमनुष्य इति किम् ? निपीदन्त्यस्मिनिति निषादः । “हलः" [२।३।१०२] इत्यधिकरणे घन । “सदोऽप्रतेः" [५।४।४७] इति पत्वम् । प्राय इति किम् ? प्रसदनं प्रसादः । निवेशः। प्रकासः । प्रकरणं प्रकारः । वेशादिषभयम् । प्रतिवेशः । प्रतीवेशः । प्रतिबोधः । प्रतीबोधः। गेरित्येव । चन्दनसारः । खावष्टनः ॥४॥३।२२७॥ खुविषयेऽष्टन्नित्येतस्य दीर्भवति यौ। अष्टापदः । अष्टावक्रः । अष्टावन्धनः। अाविटपः । खाविति किम् ? अष्टमहाप्रातिहार्यो जिनः। अष्टगुणः सिद्धः। “अष्टनः कपाले हविषि वक्तव्यम्" [वा०] । अष्टसु कपालेषु संस्कृतमष्टाकपालं हविः । संस्कृतार्थे अागतस्याण: "रस्योबनपत्ये" [३।१।७४] इत्युप् । “गवे च युक्ते" [वा०] । अष्टाभिगोभिर्युक्तम् अष्टागवं शकटम् । युक्तशब्दस्याप्रयोगः । यथा भीमसेनशब्दे सेनशब्दस्य । चितेः कपि ॥४॥३॥२२८॥ चितेर्दीभवति कपि परतः । एका चितिरस्य एकचितीकः । द्विचितीकः । त्रिचितीकः । विश्वस्य वसुराटोः ॥४।३।२२६॥ विश्वस्य दीर्भवति वसु राडित्येतयोः परतः । विश्वतो वस्वस्य विश्वावसुः । विश्वस्मिन् राजत इति विश्वाराट् । “सत्सूद्विष" [२॥२॥५६] श्रादिसूत्रेण क्वि । राडिति विकृतनिर्देशो यत्रात्यैतद्रूपं तत्र यथा स्यादिह मा भूत् । विश्वराजौ । विश्वराजः । नरे खौ ॥४।३।२३०॥ नरे द्यौ विश्वस्य दीर्भवति खुविषये विश्वा नरो यस्य विश्वानरः । वसेन यसेन वा व्युत्पत्तिः । खाविति किम् ? विश्वे नरा अस्य विश्वनरो राजा । ऋषी मित्रे ॥४॥३।२३१॥ ऋषावभिधेये मित्रे धौ विश्वस्य दीर्भवति । विश्वामित्रो नाम ऋषिः । ऋपाविति किम् ? विश्वमित्रः सुजनः । For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० १-१२] महावृत्तिसहितम् अन्यस्यापि ॥४॥२३२॥ अन्यस्यापिशब्दस्य द्यावयद्यावपि दीर्भवति । कस्यान्यस्य ? यस्य शिष्टर्दीत्वं प्रयुक्तम् । “शुनो दन्तदंष्ट्राकर्णकुन्दवराहपुच्छपदेषु दीर्भवति" । श्वादन्तः। श्वादंष्ट्रः । श्वाकर्णः । श्वाकुन्दः । श्वावराहः । श्वापुच्छः। श्वापदम् । श्वावराहमिति द्वन्द्वोऽन्यत्र पसो बसो वा । एकश्च दश चैकादश । केशाकेशि । केशेषु केशेषु च गृहीत्वेदं युद्धं वृत्तम् । “तत्रेद मिति सरूपे" [१॥३८६] इति असः । "म इच्” [४।२।१२८] इति इच्सान्तः । तिष्ठद्यादिषु इजन्तत्य हसंज्ञा । अद्यावपि पूरूषः । सादनम् । नारकः । न भवत्यपि पुरुषः । सदनम् । नरक इति । चि ॥४।३।२३३॥ अण इति इक इति च निवृत्तम् । च् इति अञ्चतिर्नष्ट नकाराकारो गृह्यते । तस्मिन् परतः पूर्वपदस्य दीर्भवति । प्राचः पश्य | प्राचा। प्राचे । दधीचः पश्य । दधीचा । दधीचे । मधूचः पश्य । मधूचा । मधूचे । कतृ चा । कर्तृचे । “अचश्व" [१1१।१२] इत्यचः स्थाने दीत्वम् । द धीच इत्यत्र यणादेशमन्तरङ्गमपि बाधित्वा "अचः" [४।४।१२५] इत्यकारस्य खं भवत्यस्मादेव वचनात् । जेः ॥४।३।२३४॥ जेीर्भवति द्यौ। कारीगन्धी पुत्रः । कारीपगन्धीपतिः। कौमुदगन्धीपुत्रः । कौमुदगन्धीपतिः । करीवस्येव गन्धो यस्य करीषगन्धिः । तस्यापत्यं स्त्री। अागतस्याणः “प्योऽक्षु रूपान्त्ययोः" [३।१।६३] इति ध्यादेशः। टाप । “पे प्यस्य पुत्रपत्योर्जिः" [४।३।६] इति जिः । जौ कृते अत्राकृते एव जेर्दीतो ग्रामणिकुलमित्यत्र सावकाशः “इकः प्रोऽड्याः" ३१७२] इत्ययं प्रादेशः प्राप्तः। प्रादेशाभावपक्षे सावकाशमिदं च दीत्वं प्रातम । परत्वाहीत्वं भवति । सकृद्गतन्यायेन पुनः प्रसङ्गान्न प्रादेशः। इत्यभयनन्दिविरचितायो महावृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः । गोः ॥४॥४१॥ हलः ॥४२॥ नाम्यतिसृचतसृ ॥४।४।३॥ नुवा ॥४।४।४॥ नोङः ॥४४॥५॥ धेऽकी ॥४॥४६॥ सन्तस्फमहतोः ॥४७॥ स्वसृनप्तनेष्ट त्वष्टक्षतहोतृपोतृप्रशास्तत्रपाम् ॥४४८। इन्हन्पूषार्यम्णाम् ॥४।४।९।।] शौ ॥४॥४॥१०॥ शौ परत इन् हन् पूषन् अर्यमन् इत्येवमन्तानां दीर्भवति । बहुदण्डीनि । बहुस्रग्वीणि । बहुपूषाणि । वह्वर्यमाणि । द्वितीयोऽयं नियमः । शावेवेन्नादीनां दीर्भवति नान्यत्र । दण्डिनौ । दण्डिनः । वृत्रहणौ । पृषणौ । अर्यमणौ । तदन्तस्यापि न भवति । परमदण्डिनौ । बहुदण्डिनौ । बहुदण्डिनः । सौ ॥४|४|११॥ सौ परत इन्नादीनामुङो दीर्भवति । दम्भी। वाग्मी । तपस्वी । वृत्रहा । पूषा । अर्यमा । पूर्वेण नियमेनाप्राप्तविध्यर्थमिदम् । अकावित्येव । हे दण्डिन् । हे पूषन् । हे अर्यमन् । अत्वसोऽधोः॥४॥४॥१२॥ साविति वर्तते । अत्यन्तस्य असन्तस्य च किवजिते सौ परतः उडः दीर्भवत्यधोः । गोमान् । धनवान् । भुक्तवान् । तत्परिमाणमस्य तावान् । अतोरर्थवतोऽनर्थकस्य च ग्रहणम् । अन्यथा भवग्रहणं कुर्यात् । असा साहचर्याद्वा। अतो रुङो दीत्ववचनसामर्थ्यादीत्वे कृते नुम् । अस्सुपयाः । सुस्रोताः । पिबतेरि चेति खुवस्तुडिति स्रोस्तुट् । अघोरिति किम् ? इधुमस्यति इष्वः । दृघदमस्यति दृषदः । यद्येवमधोरिति किमर्थम् ? अतस् इत्येवं वक्तव्यम् ? न । अन्येषां प्रतिषेधार्थम् । पिण्डग्रः । चर्मणः । ज्ञापनार्थ ]कोष्ठकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिस्त्रुटिता। सूत्राणि तु जैनेन्द्रपञ्चाध्यायीमनसृत्यात्र १. प्रतिषु[ निर्दिष्टानि । For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ४ पा० ४ सू० १३ - १६ चास्तीदम् । “अनिनस्मिन्ग्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन च " [१०] इति । अधोरित्यानन्तर्यादसन्तस्यैव प्रतिषेधः । तेनात्र दत्वम् । गोमन्तमिच्छति गोमत्यतेः किप् । गोमान् । अकावित्येव । हे गुणवन् । हे सुपयः । अस्य किलोः ङ्किति || ४|४|१३|| अन्तस्य गोरुङो दीर्भवति कौ झलादौ चकित परतः । प्रशान् । प्रतान् । प्रशान्भ्याम् । झलि किम् ? शान्तः । तान्तः । ङ्कितीति किम् ? शंशान्तः । ततान्तः । यडुपीदम् | ङस्येति किम् ? श्रोदनपक् । पक्तिः । किलोरिति किम् ? गम्यते । ङ्कितीति किम् ? यन्ता । यन्तुः | हनिङ्गम्यचां सनि ||४|४|१४|| हन्तेरिङ्गमेरजन्तानां च दीर्भवति सनि झलादौ परतः । जिघांसति । इङ्गमि-अधिजिगांसते । इङ् इति विशेषणं किम् ? संजिगंसते वत्सो मात्रा । अजन्तानां चिचीषति । सुखपति | चिकीर्षति । उङ इति निवृत्तम् । अचश्चेति हनिङ्गम्योर्योऽच् तस्य स्थाने दील्वे कृते द्वित्वम् । गोरित्येव । दधि सनोति । तो ||४|४|१५|| तनोतेः सनि झलादौ वा दीर्भवति । तितांसति । तितंसति । झलीत्येव । तितनिति । " सनीवन्त " [५।१।६७ ] श्रादिसूत्रे तनिपतिदरिद्राम् इविकल्पः । क्रमः क्त्व ||४:४९६ ॥ वेति वर्तते । क्रमो वा दीर्भवति झलादौ क्त्वात्ये परतः । क्रान्त्वा । कन्त्वा । श्रचश्चेत्यस्य गृह्यमाणेन विशेषणादचः स्थाने दीत्वम् । “ङस्य " [ ४|४|१३ ] इत्यादिना नित्यं प्राप्ते विकल्पः । लत्येव । क्रमित्वाऽकम्येत्यत्र “प्यादेशोऽन्तरङ्गस्यापि विधेर्बाधकः " [वा०] इति पूर्वे दीत्वस्याप्रवृत्तिः । श्रनत्विधाविति स्थानिवद्भावप्रतिषेधात्पश्चादपि झलादित्वं नास्ति । । लोः शृड्डेच ||४|४|१७|| वेति निवृत्तम् । छकारवकारयोः स्थाने शू ऊठ् इत्येतावादेशौ भवतोङसंज्ञके परतः क्वौ हलादौ च किति । प्रश्नः । विश्नः । " वाद् गायं बलीय:" [१०] इति छे तुकः परलान्नियत्वाद्वा शादेशः । अपि च विच्छे रेष्प्रतिषेधार्थं नङो ङित्करणं ज्ञापकं प्रागेव तुकश्छस्य पशावादेशाविति । " श् चान्तर्युगे” [२।२।६७] इति निपातनाजिर्न भवति वकारस्य । स्यो नः । सिवेरौगादिको नः । घेरुङ एपः पूर्वमूडादेशः । “असिद्धं बहिरङ्ग-मन्तरङ्गे” [१०] इत्यनित्यमेतत् । तेन यणादेशः । ऊठ् एप् । सिवेरौणादिके मकि स्यूमः । छस्य क्वौ वर्मप्राट् । गोविट् । वकारस्य छौ हिरण्यः । अक्षद्यूः । श्रद्युवौ । अक्षयुवः । छस्य भादौ पृष्टः । पृष्टवान् । पृष्ट्वा । पृष्टिः । वकारस्य द्यूतः । द्यूतवान् । कितीत्येव द्युभ्याम् । द्युभिः । त्रदिवित्यव्युत्पन्नं गृह्यते । ननुङ्कितिग्रहणं नानुव “दिव उत्” [४|३|१०८ ] इति ऊठ उदादेशे कृते सिद्धम् । एवं च "ब्रश्च" [५/३/५३] आदिसूत्रे छकारग्रहणं न कर्तव्यं स्यात् । न चावश्यमुत्तरार्थं द्ग्रिहणमनुवर्त्यम् । प्रपञ्चार्थस्तर्हि व्रश्चादौ छकारः । ब्रश्चादिसूत्रेण यत्र पत्वं नास्ति तत्र श्रवणार्थः शकारः । प्रश्नः । वांछेः क्विपि वान् । वांशौ । वांशः । गोविशौ । गोविशः । गोविशा । शकारसाहचर्यादूरस्यादेशः विद्वा | ज्वरज्वरस्त्रिव्यविमवां वोङोः ||४|४|१८|| ज्वर त्यर त्रिवि अवि मय इत्येतेषां धूनां वकारोङोः स्थाने ऊडत्ययमादेशो भवति ङे की फलादौ च परतः । जूः । जुरौ । जुरः । जूर्तिः । त्वरः- तूः । तुरौ । तुरः । तूर्तिः । तेन "न वा रुण्यमत्वर” [५|१|१२८] इत्यादिना अनिट्पक्षे तूर्णंः । तूर्णं वान् । अण्डं स्त्रीव्यतीति श्रण्डलूः । Arsaौ । ग्रण्डवः । स्रुत्वा । सूतः । सूतवान् । अवि-कः । उवौ । उवः । ऊतिः । मनि वर्तमाने वेष्टिखं चेति मनष्टिखे ङे परत ऊ च । श्रोम् । मव-भूः । मुवौ । मुवः । मूतिः । ङ्कितीति निवृत्तम् । तेन श्रोतुः । “सित निगमिमव्यविधाञ्कुसिभ्यस्तुः " [उ० सू०] इति तुः । ज्वरादीनामुङः वकारस्यानन्त्यस्य च ग्रहणम् । रः खम् ||४|४|१६|| रेफात्परयोः छोः खं भवति कौ फलादौ च परतः । हूर्छा - हूः । हुरौ । हुरः । हूर्तिः । हू वान् । मूर्छा-मूः । मुरौ । मुरः । मूर्तिः । “अष्टमूर्छिमदाम्” [५।३।५६ ] इति नत्वप्रतिषेधात् मूर्तः । मूर्तवान् । तुर्बी । तूः । तुरौ । तुरः । तूर्णंः । तूर्णंवान् । तूर्तिः । धुर्व । धूः । धुरौ । धुरः । घूर्णं । धूर्तिः । For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० २०-२७] महावृत्तिसहितम् ३१६ शूठोरयमपवादः । कितीति निवृत्तम् । यपि जोहोति । मोमोति। “न धुखेऽगे" [१1१1१८] इति गविषय एपप्रतिषेधो न भवति । इटीटः॥४४॥२०॥ इटि परत इट उत्तरस्य खं भवति । इडीटोमध्ये सामर्थ्यासेः खम् ।। अदेवीत् । अकोषीत् । अग्रहीदिल्यत्र "ग्रहोऽलिटि दीः” [५।१।८५] इति दीत्वे कृते इटः स्थानिवद्भावात्सेः खम् । असिद्धवदत्राभात् ॥४॥४॥२१॥ असिद्धवच्छास्त्रं भवति या भसंशब्दनात् । अत्र शास्त्रे कर्तव्य इत्यधिकारो वेदितव्यः । श्राङभिविधौ द्रष्टव्यः । एधि इत्यत्र नित्यत्वादस एत्वखभावयोः कृतयोभल्लक्षणं धित्वमप्राप्तमसिद्धत्वाद्भवति । जहीत्यत्र जादेशे कृते “श्रतो हेः” [४/४/६६] इत्युप् प्राप्नोति असिद्धत्वान्न भवति । गतमित्यत्र किति झलि रखे कृते अतः खं प्राप्तमसिद्ध त्वान्न भवति । एवं यथायोगमुत्सर्गलक्षणसमावेशः । श्रादेशलक्षणप्रतिषेधश्च वेदितव्यः । वत्करणं किम् ? स्वाश्रयमपि यथा स्यात् । देभतुः । देभुः । दम्भेरुपतख्यानेन लिट: कित्त्वे कृतेऽनु नखस्य सिद्धत्वात् “हलमध्ये लिख्यतः” [४।४।१०८] इत्येत्वं भवति । तथा चुगागने उवादेशो सिद्धः । बभूव । बभूवतुः । बभूवुः । युडागमः "एर्गिवाक्चादुङोऽसुधियः" [४७८] इति यणादेशे कर्तव्ये सिद्धः। उपदिदीये। उपदिदीयते । उपदिदीयिरे। अग्रहणं किम् ? अभाजि रागः । “उङोऽतः" [५।२।४] इत्यैपि कर्तव्ये नकारस्य खं नासिद्धम् । अाभादिति किम् ? रन्धिव । ररन्धिम । हल्मध्ये लिटयत इति एत्वे कर्तव्ये नुमशास्त्रं नासिद्धम। श्नान्नखम् ।।४।४।२२।। श्ना परस्य नकारस्य खं भवति । व्यनक्ति । हिनस्ति । सशकारस्य ब्रहणं किम् ? नन्दिता । नन्दकः । नैतदस्तिमगढ़का-लुत्या विद्ग्रहणानुवृत्तः। ङ्कितो नात्परस्य खमिष्टम् । इह तह मा भूत् । यज्ञानाम् । यत्नानाम् "नामि" [ ३] इति दीत्वात्परत्वेन नखमिदं स्यात् । “सुपि"पा।१७] इति तु दीत्वं सन्निपातपरिभाषया वार्यते । स्थानिवद्भावाद्वा नखं प्राप्नोति । प्रश्नानाम् , विश्नानाम् इत्यत्र लाक्षणिकत्वान्न भवति । श्नादिति श्नमो नष्टनकारस्थ ग्रहणम् । न इति सो नाशे अकारेणोच्चारणार्थेन निर्दशः । हलुङः वित्यनिदितः ॥४ाधा२३।। हल उङो नकारस्य खं भवत्यनिदितो गोः ङ्किति परतः। सस्तः । स्रस्यते । ध्वस्तः । ध्वस्यते । स्नाति । सनोस्रत्यते । भ्रश्नाति । बनीभ्रश्यते । हल इति जातिग्रहणमपि । मग्नः । मग्नवान् । हल इति किम् ? नीतम् । नेनीयते । उङ इति किम् ? नद्धम् । नानह्यते । कितीति किम् ? संसित्वा । मृडादिनियमादकित्त्वम् । अनिदित इति किम् ? शङ्कयते । मङ्कायते । तपर करणं किम् ? समिद्धम । हलुङ इति योगविभागः । तेन “लनिकाप्योः उपतापशरीरविकारयोनखम्'। विलगितः। विकपितः । विलङ्गितः । विकम्पितः इत्यन्यत्र । वंशसंजस्वजां शपि ॥४४॥२४॥ दंश सज स्वज इत्येतेषां शपि परत उडी नकारस्य खं भवति । दशति । सजति । परिष्वजते । रञ्जः ॥४ाधा२५॥ रञश्च शपि परत उडो नकारस्य खं भवति । रजति । रजतः । रजन्ति । योगविभाग उत्तरार्थः । णौ मृगरमणे ॥४ाधार६॥रजेणी परतो मृगरमणेऽथे नकारस्य खं भवति । रजयति मृगान् व्याधः । मृगान् रममाणान् दर्शयतीत्यर्थः । “जनीज़क्नसुरजोऽमन्ताश्च” इति मित्वादुङः प्रादेशः । मृगरमण इति किम् ? रञ्जयति बत्रम् । घत्रि भावकरणे ॥४॥२७॥ भावकरणाभिधायिनि घनि परतो रजे कारस्य खं भवति । अाश्चर्यो रागः । विचित्रो रागः । करणे रजति तेन रागः। भावकरण इति किम् ? रजत्यस्मिन्निति रङ्गः। करणेऽधिकरणे च "हलः" [२१३११०२इति घन । घिनुणि कथं नखम् । रागी । “दुहानुरुध" [१२।११८] For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० २८-३५ आदि सूत्रे त्यजरजादि निपातनासिद्धम् । “दशनहः करणे अट्" इति सूत्रे दशेति विकरणनिर्देशेन निपातनम् । अजादिषु पाटाद् दंष्ट्रेति “रजकरजनरजत्सु नखे यत्नः कर्तव्यः" [वा०] “शिल्पिनि वुः" । युः । औणादिकश्च "अस् सर्वधुम्यः” इत्यस् । स्यदाघोदधौद्मप्रश्रथहिमश्रथाः॥४॥४॥२८॥ स्यद, अबोद, एध, योद्मन् , प्रश्रथ, हिमश्रथ इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । स्यद इति स्पन्देघनि नखमैबभावश्च निपात्यते जवेऽभिधेये। गोस्यदः । अश्वस्यदः । कृद्योगे तासः । जवादन्यत्र तैलस्यन्दो घृतस्यन्दः । अवोद इति उन्देरवपूर्वस्य घनि नखं निपात्यते । एध इन्धेर्धनि नखमेप च निपात्यते । “न धुखेऽगे" [1111८] इति प्रतिषेधो मा भूत् । श्रोद्म इति उन्देरौणादिके मनि नखम् । प्रश्रयः हिमश्रथ इति श्रन्थेः प्रपूर्वत्य हिमपूर्वस्य च पनि नखमैबभावश्च निपात्यते । “न ध्रुखेऽगे" [१११।१८] इत्यत्र इकोऽनुवर्तनादेपः प्रतिषेधो न स्यात् । नाञ्चेः पूजे ॥४॥४॥२९॥ अञ्चतेः पूजेऽर्थे नकारस्य खं न भवति । अञ्चितोऽस्य गुरुः । समय जिनं गतः । “अञ्चेः पूजायाम्" [५।१।१०१] इति तक्त्वोरिट् । हलुङ इति नखप्राप्तिः । पूज इति किम् ? उदक्तमुदकं कुपात् । अक्वा रजुम् । “वोदितः" [५।१।१०४] इत्यनेनेट्पक्षे मृडादिनियमादकित्त्वम् । अञ्चित्वा । ते “यस्थ" [५।१।१२१] इति प्रतिषेधः । नाञ्चेरित्यनेनैव प्रतिषेधेन नकारः कृतचुत्वो निर्दिष्टः । क्त्वि स्कन्दस्यन्दोः ॥४४॥३०॥ क्त्वात्ये परतः स्कन्द स्यन्द इत्येतयो कारस्य खं न भवति । स्कन्ला । स्यन्त्वा । स्यन्देः “स्वरति" [५१६२ ] इत्यादिनाऽनिटपक्षे कित्वान्नखं प्राप्तम् । इट्पक्षे तु मृडादिनियमादेवाकिल्वे सति नखाभावः सिद्धः। क्त्वीति द्वितकारकनिर्देशः । तकारादौ क्त्वात्ये इति । तेन प्रस्कद्य प्रस्योत्पत्र "अनल्विधी"[१५६] इति स्थानिवद्भावप्रतिषेधान्नकारादित्वं नास्तीति खं भवत्येव । .. जनशोर्वा ॥४४॥३१॥ ज इति वर्णग्रहणम् । जान्तस्य गोनशेश्च वा नखं भवति क्त्यात्ये परतः । रक्त्या । रंकवा। भक्वा । भक्त्वा । नटा । नंवा । नशे "रधादेः" [५/१६३] इति विभाषितेटोऽनिट्पने "मस्जिनशोमलि" [५/१॥३६] इति नुम् । “हलुङः" [४।४।२३] इति नित्ये नखे प्राप्त विकल्पः । हल इति जातिग्रहणपते मस्जेरपि नित्यं नखे प्रासे मंक्त्या । अनवपक्षे द्वयोः स्फसंज्ञामाश्रित्य स्कादिसम्बन् । भजेौं ॥४॥४॥३२॥ भजेः औ परतो वा नखं भवति । श्रभाजि । अभजि पापं मुनिना । नम्खमप्राप्तमनेन पक्षे विधीयते । शास इत् ॥४॥४॥३३॥ गोरुङः कितीति वर्तते । शासेरुङ इदादेशो भवति किति परतः । कितिशिष्टा। शिष्टि: । शिष्टः । शिष्टवान् । शिष्यः | "स्तुशासिणवृहजुषः क्यप" [11] इति क्यप । डितिशिष्टः । शिष्यः । “शास्वसघसाम्' [५।४।४०] इति षत्वम् । अजादावङ्ये वेति नियमो भविष्यति । सामर्थ्यादयं हलादौ किति विधिः । हलीति यदि क्रियेत "वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयम्" [प०] इति क्वौ न स्यात् । मित्रं शास्तीति मित्रशीः । श्राय शास्तीति आर्यशीरिति । शासु अनुशिष्टावित्यस्येह ग्रहणम् । अन्यस्य दीत्वस्य विधेरसम्भवात्तेन पाङः शासु इच्छायामित्यस्येत्वं न भवति । श्राशास्यते। श्राशास्ते । “लिङाशिपि" [२।४।६५] इति निर्देशादन्यस्यापि क्वावित्वम् । अङि॥४॥४॥३४॥ अङि परतः शास उङ इद्भवति । अन्वशिषत् । अन्वशिषताम् । अन्वशिपन् । नियमाध्यमारम्भः । अजादावङ्येव किति नान्यस्मिन् । शशासुः। शासति । जनादित्वात्थसंज्ञा। “अस्थात्" [५/१४] इत्यदादेशः। शा हो ॥४॥४॥३५॥ शासः शा इत्ययमादेशो भवति हौ परतः। उङमपेक्ष्य पूर्व शास इदिव्यवयव योगलक्षणा ता। सामर्थ्यात् स्थानलक्षणा संपद्यते। अनुशाधि । प्रशाधि । श्राहाविति यदि सूत्रं क्रियेत For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०४ पा० ४ सू० ३६-४२] महावृत्तिसहितम् ३२१ अनेनान्त्यस्य सम्भवादाकारे कृते पूर्वेण उङ इत्वे चानिष्ट रूपं स्यात् । ननूङ आत्वे कृते "घि" [५।३।४३] इति सखे च सिद्धं शाधीति उङ इति तर्हि निवृत्तम् । अपि च प्रकृतिग्रहणे यबन्तस्यापि सचस्य यथा स्यादित्येवमर्थः शादेशः। हन्तेर्जः ॥४॥४॥३६॥ हन्तेर्ज इत्ययमादेशो भवति हौ परतः। जहि मन्युम् । जहि पापम् । तिपा निर्देशाद् यकुबन्तनिवृत्तिः । जंघहीति । अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनां ङखं झलि विति ॥४४॥३७॥ अनुदात्तोपदेशानां गूनां वनतेस्तनोत्यादीनां च ङस्य खं भवति झलादौ किति परतः । कितीति निर्देशात्पूर्वस्याव्यवहितस्य खम् । यत्वा । यतिः । यतः । यतवान् । इखे विहतनिमित्तत्वात् “ङस्य" [ १३] इति दीत्वं न भवति । अनुदात्तोपदेशाः यमिरमिनमिगमिहनिमन्यतयः पट् । वतिः। बनतेः स्त्रियां तौ । तनोत्यादीनां तत्वा । ततिः। ततः। ततवान् । सनोतेरात्वं वक्ष्यति । क्षतः । क्षतवान् । डिति। हतः। हथः । अतत । अतथाः। "तनादिभ्यस्तथासोः" [११४८] इति सेरुप् । एतेषां ग्रहणं किम् ? शान्तः। तान्तः । ङस्येति किम् ? पक्ववान् । भलीत्येव। गम्यते । कितीति किम् ? यन्ता। यन्तुम् । उपदेशग्रहणमुत्तरार्थम् । वनतेस्तिपा निर्देशाद्यडुबन्तस्य निवृत्तिः । वंवांतः। शपा तिपाऽनुबन्धेन निर्दिष्टं यद्गणेन च । यच्चैकाज्ग्रहणं किञ्चित्पञ्चैतानि न यङ् पि ॥) तनोतेर्गनिर्देशादेव याङ बन्तस्य न भवतीति सिद्धे तिपा निर्देशः “द्विर्बद्ध सुबद्धं भवति" [१०] इति निदर्शनार्थस्तेन सकृदुक्त ऐषु क्वचिन्न भवति । ज्योतीष्यधिकृत्य कृतो ग्रन्थो ज्यै तिषः। पुनः कितीति ग्रहणं विस्पष्टार्थम् । प्ये ॥४४॥३८॥ प्ये च परतोऽनुदात्तोपदेशादोनां खं भवति । प्रहत्य । प्रमत्य । प्रवत्य । प्रतत्य । प्रसत्य । प्रक्षत्य । अझलादावपि विध्यर्थमिदम् । वा मः ॥४॥३६॥ अनुदात्तोपदेशादिषु मकारान्तानां वा ङखं भवति प्ये परतः । प्रयत्य । प्रयम्य । प्ररत्य । प्ररम्य । प्रणत्य । प्रणम्य । प्रगत्य । प्रगम्य । पूर्वण नित्ये खे प्राप्ते विकल्पः । न क्तिचि दीश्च ॥४॥४॥४०॥ क्तिचि परतः अनुदात्तोपदेशादीनां ङखं दीश्च न भवति । यन्तिः । रन्तिः। नन्तिः । वन्तिः। तन्तिः । क्षन्तिः। अनुदात्तोपदेशादीनामित्येव । शान्तिः। दीत्वं भवत्येव । गमः क्वौ ॥ ॥४१॥ गमः क्वौ परतो ङस्य खं भवति । जनगत् । कलिगत् । मोक्षगतो मुनयः । "वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयम्" [प०] इति झलाद्यभावादप्राप्तं ङखमनेन विधीयते । पूर्वसूत्राच्चकारोऽनुवर्तते, सोऽत्रानुक्तसमुच्चयार्थः । तेन गमादीनां क्वौ ङखं द्रष्टव्यम् । संयत् । परीतत् । “वागमिङ" [१।३।८२] इति पसे कृते “नहिवृति" [४।३।२१६] इत्यादिना परेर्दीत्वम् । वन्याः ॥४|४|४२॥ अनुदात्तोपदेशादि निवृत्तम् । ङस्येति वर्तते । ङान्तस्य गोर्वनि परत यात्वं भवति । विजायत इति विजावा। "मन्वन्वनिब्विचः क्वचित्" [२।२।६२] इति वन् । “वशि" [५/११११४] इतीटप्रतिषेधः । अन्तेऽलः स्थाने आत्वम् । एवम् अग्रेगावा। दधिक्रावा। दीत्वोच्चारणं किमर्थम् ? ओण अपनयन इत्यस्माद्वनि अवावा । घुण घूर्ण भ्रमणे। घ्यावा । इवि व्याप्तौ-यावा । “इदिद्धोर्नुम्" [५।१।३७] "वलि व्योः खम्" [३३५५] इति वनि परतो नकारस्य खम् । एतच्च वर्णनिमित्तं नागनिमित्तमिति न धखेऽवात् "ध्युङः" [५।२।८३] इत्येप प्राप्तस्तमन्तरङ्गत्वाद्य णादेशो बाधते । For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पा० ४ सू० ४३-४८ अनसनखनाम् ||४|४|४३|| जन सन खन इत्येतेषां ङस्य झलादौ किति परत आकारादेशो भवति । जातः । जातवान् । जातिः । सातः । सातवान् । सातिः । खातः । खातवान् । खातिः । सनोतेस्तनादौ पाठस्य " तनादिभ्यस्तथासोः” [१।४।१४८ ] इत्यादिकार्यमवकाशः । इह पाठस्य च सनि परत श्रात्वमवकाशः । लादौ कितिङखादित्वं परत्वात् । ननूभयोः सिद्धत्वे स्पर्धः इह च “असिद्ध वदाभात् [ ४।४।२१] इत्युभयमसिद्ध तत्कथं परत्वम् । अत्रोच्यते "भुमास्थागा" [ ४/४/६५ ] श्रादिसूत्रे हलीति हल्ग्रहणं ज्ञापकं भवत्यत्र स्पर्धः । तथाहि तस्यैतत्प्रयोजनं हलादावीत्वं यथा स्यात् । श्रजादौ मा भूत् । । गोदः कम्बलदः इति । स्वत्रापीत्वं तस्यासिद्धत्वात् "इटि चात्" [ ४|४|६३ ] खेन सेत्स्यति नाथ हल्ग्रहणेन । तदेतत्स्पर्धे सति सार्थकम् । क्रियमाणे हल्ग्रहणे गोद इत्यत्र परत्वादीत्वे “ सकृद्गते परनिर्णये विधिर्वाधितो बाधित एव" [५० ] इत्याखं न स्यादिति मन्यमानो हलीत्याह । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सनि || ४|४|१४|| सनि च झलादौ परतो जनादीनां ङस्य श्राकारादेशो भवति । सिसासति । झलित्येव । जिजनिषते । सिसनिप्रति । चिखनिषति । " सनीवन्तर्ध” [ ५/१/६७ ] इत्यादिनाऽनिट्पचे सनोतेरेव सन् झलादिः सम्भवति । किद्ग्रहणमसम्भवादिह न संबध्यते । ये च ||४|४|१५|| ङ्कितीति वर्तते । ङ्किति यकारे त्ये परतो वा जनादीनामाकारादेशो भवति । जायते । जन्यते । जाजायते । जञ्जन्यते । श्ये परत्वाद् "ज्ञाजनोर्जा" [ ५१२७७ ] इति निल्यो जादेशः । सायते । सन्यते । सासायते । संसन्यते । खायते । खन्यते । चाखायते । चंखन्यते । श्रभलादावपि यथा स्यादित्यारम्भः । ङ्कितीत्येव । जन्यम् । “शकिसहश्च” [२।११८६] इति चशब्देनान्येभ्योऽपि यः । ये च सान्यम् । खान्यम् । य इति त्यनिर्देशो न वर्णनिर्देशः । तेनेह न भवति सन्यात् । खन्यात् । "किदाशिषि [ २४८५ ] इति कित्त्वम् । तनोकि ||४|४|१४६ ॥ तनोते कि परतो वा आकारादेशो भवति । तायते । तन्यते । यकीति किम् ? तन्तन्यते । प्राप्ते विकल्पः । सनः क्तिचि खं च ॥ ४४ ॥ ४७ ॥ सनः तिचि परतः खं भवत्याकारश्च वा । सतिः । सातिः । सन्तिः । " न क्तिचि दी ” [ ४४ ४०] इति ङखदीत्वयोः प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । I ||४|४|१४८ ॥ वेति निवृत्तम् । श्रग इत्ययमधिकारो वेदितव्यः । " लुङलङ लुङ, मट्” [४|४|७० ] इत्यतः प्राकू यदनुक्रमिष्यामः श्रग इत्येवं तद्वेदितव्यम् । वक्ष्यति “ श्रतः खम् " [ ४|४|५० ] चिकीर्षिता । इति किम् ? चिकीर्षति । ननु भवतु गेप्यतः खम् । शपोऽकारस्य श्रवणं भविष्यति । एवं तर्हि शपोऽकारस्यैव गे खं माभूत् । ननु “शपोऽदादिभ्यः " [ १|४|१४३] इत्युज्वचनं ज्ञापकम् । शपो गे खं न भवति । नैतदस्ति “नोमता गो : " [१|१|६४ ] इति त्याश्रयकार्यप्रतिषेधार्थं ता स्यात् । मृष्ट इति । "हल्यैबुप्युतः " [ ५ाश७] इत्यैपो विधानार्थं च । यौति । रौति । तत्वलोश्च खं मा भूत् । वृक्षतेति । “हलो यः " [ ४/४/५१ ] बेभिदिता । बेभिदितुम् । गे माभूत् । बेभिद्यते । " : " [ ४|४|५३ ] कारणा । हारणा । अग इति किम् ? कारयति । हारयति । "सिस्यसीयुट्तासौ ङौ ग्रहाज्कनदृशां निवदिट् च" [४|४|६१ ] इति श्रगे सीयुट् । कारिषीष्ट । गे मा भूत् । प्रस्नुवीत । "स्नोश्च ञिश्व" [ २२११५६ ] इति यक् प्रतिषिध्यते । इह च क्रियेत ह्रियेत । " णित्यचः " ' [५२/३ ] इति क ऐपि युक् प्रसज्येत । “इटि चात्खम् ” [४|४|६३ ] पपतुः । पपुः । ययतुः । ययुः । गे मा भूत् । पान्ति । वान्ति । " भुमास्थागापा" [ ४|४|६५ ] इत्यादिनेत्वम् । दीयते धीयते । गे मा भूत् । अदाताम् । धाताम् । "लिङ येत्" [ ४|४|६६ ] देयात् । गे मा भूत् । दद्यात् । दध्यात् । " वाऽस्थः स्फादेः " [४/४/६७ ] ग्लेयात् । ग्लायात् । अग इत्येव । विध्यादिलिङि - स्नायात् । For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० ४६-५४] महावृत्तिसहितम् ३२३ भ्रस्जोरसोरम्वा ॥ ४६॥ भ्रस्जो रेफसकारयोर्वा रमादेशो भवति । भट । भ्रष्टा। भष्टुम् । भ्रष्टुम् । भष्टव्यम् । भ्रष्टव्यम् । रसोरिति पुनस्ताया उपादानादादेशोऽयं रसोः स्थाने भवति मित्त्वोच्चारणसाम झंदचोऽन्त्यात्परो भवति । रमभावपक्षे स्फादेः सखम् । ननु रेफस्यैव रमादेशो वक्तव्यः । द्वयोः स्फसंज्ञामाश्रित्य सखेन सिद्धमिति चेदजादौ न सिध्यति । भर्जनम् । भ्रज्जनम् । भगः। भ्रद्गः । पक्षे "झलां जश् झशि" [५।४।१२८] इति सकारस्य दत्वम् । रमादेशस्यावकाशोऽङ्किति भ्रष्टा । भी । जेरवकाशो भृज्जति । इहोभयं प्राप्नोति भृष्टा । भृष्टवानिति । कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यो जिर्भवति । जौ कृते रमादेशो न भवति । उपदेश इत्यनुवर्तनात् । तेनेहापि न भवति बरीभृज्यते । अतः खम् ॥४॥४॥५०॥ अगेऽकारान्तस्य खं भवति । चिकोर्षिता। धिनोति । धिनुतः । कृणोति । कृणुतः । इवि दिवि विवि प्रीणने । कृवि हिंसाकरणयोश्च । “इदिदोर्नुम्" [५/१३७] । “धिन्विकृण्व्योर च" [२।११७५] इति उविकरणः । अकारश्चान्तादेशः। तस्य खे । तपरकरणं किम् ? याता। ऐपोऽवकाशः प्रियमाचष्टे प्रापयति । कारयति । अत्खस्यावकाशः चिकीर्षिता। इहोभयं प्राप्नोति चिकीर्षक इति । दीत्वस्यावकाशः पण्डितायते । स्तूयते। अत्खस्यावकाशः चिकीर्षिता । इहोभयं प्राप्नोति चिकीर्ण्यते इति । किमत्र तत्त्वम् ? "ऐब्दीत्वाभ्यासमतः खं पूर्वनिर्णयेन" [वा०] "लिप्स्यसिद्धौं" [२।३।५] इत्यत्र लिप्स्य इति विग्रहनिर्देशात् । हलो यः ॥४४॥५१॥ हलन्ताद्गोरुत्तमस्य यकारस्य खं भवत्यगे । बेभिदिता। बेभिदितुम् । बेभिदितव्यम् । पूर्वेणातः खे कृते यखविधि प्रति स्थानिवद्भावप्रतिषेधादनेन यखम् । तृचमपेक्ष्य "घ्युङः" [५।२।८३] एप्पा तोऽतः खस्य स्थानिवद्भावान्न भवति । “न धुखेऽगे" [१1१1१८] इत्ययं तु प्रतिषेधो हलचोः खे अल्मात्रस्य खे न प्रवर्तते । लोलुवः । देद्यः इति । अत्र “यङोऽचि" [१११११४४] इत्युन्छास्त्र' कृतप्रसङ्गेन नित्यम् । उपि तु कृतेऽतः खं शास्त्रं न प्रवर्तते इत्यनित्यम् । तेन हल चोरुपि कृते स्थानिवद्भावाभावात् "न धुखेडगे" [212196] इत्यनेन प्रतिषेधः। हल इति किम् ? लोलूयिता। पोपूयिता । गोनिमित्तत्वेन विशेषणादिह न भवति । ईयिता । समिध्यिता। अतः खे कृतेऽपि यकारमात्रस्य त्यस्य गुसंज्ञानिमित्तत्वमस्ति यथा अकरोदित्यत्र तिप इकाराभावेऽपि । वा क्यस्य ॥४॥४॥५२॥ क्यस्य हल उत्तरस्य वा खं भवत्यगे। समिधिता। समिध्यिता। हपदिता । दृषधिता। समिधमिच्छति प्रात्मनः "स्वेपः क्यच" [१६] समिधमिवाचरति "गौणादाचार" [१] इति वा क्यच । समिदिवाचरतीति “कर्तुः क्यङ स खं विभाषा" [२।१६] इति क्यङ् । तान्येवोदाहरणानि । हलन्तात् क्यखोऽसम्भवः । “नः क्ये" [१२।१०४] इति पूर्वपदत्वाभावः । णेः ॥४४॥५३॥ अगे णेः खं भवति । अततक्षत् । इयादेशः प्राप्तः । आटिटत् । इयादेशापवादः "एर्गिवाक् चादुङोऽसुधियः" [१८] इति यत्वं प्राप्तम् । कारणा। हारणा । ऐप प्राप्तः । शीप्स्यति सनि दीत्वं प्राप्तम् । कार्यते । हार्यते “दीरकृदगे" [५।२११३४] इति दीत्वं प्राप्तम् । कारको हारकः। ऐप प्राप्तः । णि कामनम् । कामकः । काभ्यते । इयादिभिः सर्वस्य विषयत्यावष्टब्धत्वात्सामान्यरूपेण तेषामयमपवादः। ते सेटि ॥४४॥५४॥ तसंज्ञके सेटि परतो णे: खं भवति । कारितम् । गणितम् । लक्षितम् । संज्ञपितः । ज्ञपेः सनि विकल्पितेटोऽपि “यस्य वा" [५/१/१२१] इत्यनेन प्रतिषेधः । एकाच इत्यपेक्षणात् । कथं तर्हि विज्ञप्तः प्रभुरिति विकल्पेन “छयज्ञप्ताः" [५।१११२५] इति निपातनात् । नियमार्थोऽयमारम्भः । त एव सेटि नान्यस्मिन् । कारयिता । हारयिता । ते सेट्ये वेत्यवधारणं न भवति णेः परस्यानिटस्तस्या व्यावय॑स्याभावात् । सेटीति वचनात्पूर्वमिडागमः पश्चारिणखम् । अन्यथा कृताकृतप्रसङ्गेन नित्ये णिखे कृते "एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात्" [प०] कारितमित्यत्र "एकाचोऽनुदात्तात्" [५।११११५] इतीप्रतिषेधः प्रसज्येत । For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एमगत ३२४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० ५५-६५ अयामन्ताल्वाय्येनुषु ॥४।४।५५॥ ऐरयादेशो भवति अाम् अन्त अालु अाय्य इत्नु इत्येतेषु परतः । अाम् । कारयांचकार । अन्त । गदयन्तः । मण्डयन्तः । “दृविशिभ्यां झः" [उ० सू०]। "गदिमदिमण्डिजिनदिभ्यश्च" [उ. सू०] इति झः । पालुः। स्पृहयालुः। श्राय्यः । स्पृहयाय्यः । “महिसूदतिस्पृहिभ्य आय्यः" [उ० सू०] इत्याय्यः । इत्नुः। स्तनयित्नुः । गदयित्नुः । “स्तनिहृदियुपिगदिमदिभ्यो णेरिनुः" [उ० सू०] । गिखस्यायमपवादः । नेति सिद्धेऽयादेश उत्तरार्थः । प्ये घिर्षात् ॥४४॥५६॥ प्ये परतो घिपूर्वद्वात्परस्य णेरयादेशो भवति । प्रशमय्य । प्रतमय्य | लवणं कृतवान् प्रलवणय्य । प्रस्तनय्य । यङन्तारिणचि प्रवेविदय्य गतः । ननु प्रादेशटिखात्खयखानामाभाच्छास्त्रत्वादसिद्ध त्वे कथं धिपूर्वाद्वर्णात्परो णिः । व्याश्रयत्वात्सिद्धत्वम् । प्रादेशादयो णो प्ये परतो ऐरयादेश इति वचनाद्वा सिद्ध त्वम् । घिपूर्वादिति किम् ? प्रहास्य प्रचिकीर्घ्य गतः । वाऽऽपः ॥४४५७॥ श्रापः परस्य णे: प्ये परतो वाध्यादेशो भवति । प्रापय्य प्राप्य गतः । स्वादिकस्य चौरादिकस्य चापेर्ग्रहणम् । सूत्रमध्याय गतः इत्यत्र लाक्षणिकत्वान्न भवति । अपजवस्ते प्रापय्य गतः इत्यत्रका देशस्यासिद्धत्वादयेव भवति । क्षियो दीः ॥४।४।५८॥ वेति नाधिकृतम् । क्षियो दीर्भवति प्ये परतः । अाक्षीय । तुकि प्राप्ते दीत्वम् । तेऽण्ये ॥४।४।५६॥ अण्यार्थे विहिते ते परतः क्षियो दीर्भवति । कः पुनार्थो यः पर्युदत्यते । भावकर्मणी "तयोर्व्यक्तखार्थः" [२।१५५] इति वचनात् अाक्षीणः । परिक्षीणः । “धिगत्यर्थाच्च" [२।४।५८] इति कर्तरि क्तः । दीत्वे कृते क्षीत इति तस्य नत्वम् । इदम् क्षीणं सार्थस्य । क्षीयतेऽस्मिन्निति “अधिकरणे चाद्यर्थाच्च" शि५६] इत्यधिकरणे क्तः। "क्तस्याधिकरणे" [ १ ०] इति कर्तरि ता । अण्य इति किम् ? ग्राक्षितमस्य । भावे दीवाभावान्नत्वं नास्ति । सगेः क्षियः सकर्मकत्वे कर्मण्यपि। वा दैन्याक्रोशे॥४ासा६०॥ अण्यार्थे ते परतो दैन्ये आक्रोशे च गम्ये दियो वा दीर्भवति । दैन्ये क्षितोऽयं क्षीणोऽयं वराकः । आक्रोशे क्षितोऽसि क्षीणोऽसि जाल्म । क्षितायुः । क्षीणायुः । कर्तरि क्तः। अण्य इत्येव । क्षितं वराकस्य । क्षितं जाल्मस्य । सिस्यसीयुटतासौ ङौ ग्रहाभन्दृशां त्रिवदिट च ॥४४६१॥ सि स्य सीयुट तासि इत्येतेषु परतो डावर्थे ग्रहेरजन्तानां हनि दृशि इत्येतयोश्च वा जिवत्कार्यं भवति । यदा जिवद्भावस्तदा इडागमश्च भवति स्यसिसी युट्तासीनाम् । अग्राहिषाताम् । अग्रहीषाताम् । “ग्रहोऽलिटि दीः" [५१५] इत्यत्र प्रकृतस्येटो दीत्वम् । ग्राहिष्यते । ग्रहीप्यते। ग्राहिषीष्ट । ग्रहीषीष्ट । ग्राहिता । ग्रहीता। इटो दीवाभाव ऐषु च प्रयोजनम् । अजन्तानाम्-अचायिषाताम् । अचेषाताम् । अग्लायिषाताम् । अग्लासाताम् । अकारिषाताम् । अकृषाताम् । “उ:" [१1१1८६] इति से: कित्त्वम् । चायिष्यते। चेष्यते । ग्लायिष्यते । कारिष्यते । करिष्यते । चायिपीष्ट | चेषीष्ट । ग्लायिषीष्ट । ग्लासीष्ट । कारिपीष्ट । कृषीष्ट । ":" [ १ ६] इति लिङः कित्त्वं च । चायिता । चेता। ग्लायिता । ग्लाता। कारिता । कर्ता। अनुदात्तादिडागमः | अातो युक्च प्रयोजनम् । अघानिषाताम् । अहसाताम् । अभिवद्भावे "वेङि" [१।४।११६] इति वधादेश उदात्तः । अवधिषाताम् । घानिष्यते । हनिष्यते। घानिषीष्ट । वधिषीष्ट । परत्वात् भिवद्भावे कृते "सकृद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एव" [प०] इति वधादेशो न भवति । द्यत्वं च प्रयोजनम् । अदर्शिषाताम् । अदृक्षाताम् । “सि लिङ्दे" [१1१८५] इति कित्त्वम् । दर्शिष्यते । द्रक्ष्यते । “झल्यकिति सृजदृशोऽम्" [४।३।५१] इत्यमागमः । दर्शिषीष्ट । दृक्षीष्ट । दर्शिता । द्रष्टा । सिस्यसीयुटतासाविति किम् ? दातव्यम् । दानम् । डाविति किम् ? लविष्यति । दास्यति । ग्रहाज्झन्हशामिति किम् ? पक्ष्यत प्रोदनम् । उपदेश इत्यनुवर्तनात् कारिष्यत इत्यत्र परत्वादेपि कृतेऽपि जिवद्भावः । शमयतेरजन्तस्य जिवद्भावपक्षे For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० ६२-६८], महावृत्तिसहितम् ३२५ "जिणमोदीर्मिताम्" [१६] इति वा दोत्वे कृते द्वे रूपे शामिष्यते । शमिध्यते। नित्यत्वादलाघगस्य] चाधित्वा त्रिवदिट् । तस्यासिद्धत्वापिणखम्। अन्यत्र शमयिष्यते। जौ दृष्ट कार्य सामान्येनातिदिश्यते । तेन घानिष्यते । यायिष्यते । अध्यापिष्यते इत्यत्र हनिणिङ निवद्भावे वधादय यादेशाः लुङि विहिता न भवन्ति । दीडोऽचि किति युट् ॥४२॥ दीडोऽजादौ किति परतो युडागमो भवति । उपदिदीये । उपदिदीयाते। उपदिीयिरे। दीङ इति कानिर्देशोऽचीत्यस्योत्तरत्र सावकाशस्य तां कल्पयति । वचनाघटः सिद्धत्वात "एगिवाक्चादुङोऽसुधियः" [ ८] इति यणादेशो न भवति । अतीति किम् ? उपदीयते । कितीति किम् ? उपादानम् । “गागयोः" [५।२८१] इत्येप् । “मिमीञ्दीङ प्ये च" [४।३१४३] इत्यात्वम् । यकुबन्तादामा भवितव्यमित्यनुबन्धनिर्देशो विस्पष्टार्थः । पूर्वान्तकरणे उपदिदीयिध्वे इत्यत्र इणन्ताद्गोरुत्तरस्य ढत्वं प्रसज्येत । इटि चात्खम् ॥४॥४॥६३॥ इटि अजादौ च किति परत आकारान्तस्य गोः खं भवति । पपिथ । जग्लिथ । “वोपदेश"५१०८] इत्यादिनेट । पपतुः । पपुः। तस्थतुः । तस्थुः । गोदः । कम्बलदः । डितिप्रपा । संस्था। अचीत्येव । दासीय । ग्लायते । “रन्नभेटः" [१४८६] इतीटोऽकारादेशः। अग इत्येष । यान्ति | व्यत्यत्ते । इटीति यद्यविशेषणग्रहणं तदा गेऽप्यातः खेन भवितव्यम् । व्यत्यस्तोति । एतच्च अगाधिकारेण विरुद्धमिव लक्ष्यते ।। ईद्ये ॥४॥४॥६४॥ श्राकारान्तस्य गोरीकारादेशो भवति ये परतः । देयम् । धेयम् । ग्लेयम् । "गुकार्ये निवृत्ते पुनर्न तन्निमित्तम्" [प०] इति अनित्यमेतत् । “देयमृणे" [३।३।२२] इत्येपो निर्देशात् । यद्येप क्रियते दीत्वोच्चारणं किमर्थम् ? पीतम् । हीनम् । य इति “निरनुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य" [१०] । ग्लायते । म्लायते । भुमास्थागापाहाक्सां हलि ॥४॥४॥६५॥ कितीति वर्तते । भुमा स्था गा पा हाक् सा इत्येतेषामीकारादेशो भवति हलादौ किति परतः । भुसंज्ञानाम् । दीयते। देदीयते । धीयते । देधीयते । पीतं वत्सेन । मा इत्यविशेषेण ग्रहणम् । “गामादाग्रहणेष्वविशेषः" [१०] इति । मीयते । स्था-स्थीयते। तेष्ठीयते । गा इल्यविशेषेण ग्रहणम् । गीयते । जेगीयते । अध्यगीष्ट । “लुङ्लुङोर्वा" [१॥४।१२२] इति ईङो गादेशः । पा इत्यनुब्विकरणपिबतेर्ग्रहणम् । पीयते । पेपीयते । पातेस्तु पायते । पानम् । हाक-अवहीयते । अवजेहीयते । जिहीतैस्तु हायते । हातम् । सा-श्रवसीयते । अवसेषीयते । हलीति किम् ? ददतुः । ददुः । कितीत्येव । दाता । लिङ्येत् ॥४४॥६६॥ लिङि परतो भुमादीनामेकारादेशो भवति । देयात् । धेयात् । मेयात् । स्थेयात् । गेयात् । पेयात् । अवहेयात् । अवसेयात् । कितीत्येव । दासीष्ट । वाऽस्थः स्फादेः ॥४।४।६७॥ श्राकारान्तस्य स्फादेः स्थावर्जितस्य गोरेकारादेशो भवति वा लिङि परतः । ग्लेयात् | ग्लायात् । म्लेयात् । म्लायात् | अस्थ इति किम् ? स्थेयात् । अन्यथोभयप्राप्तौ परत्वादेतेन विकल्पः स्यात् । स्फादेरिति किम् ? यायात् । कितीत्येव । ग्लासीष्ट । गोरित्वेव । निर्यायात् । न प्ये ॥४४॥६॥ वेति नाधिकृतमुत्तरत्र वाग्रहणात् । प्ये परतो भुमादीनां यदुक्तं तन्न भवति । प्रदाय । प्रधाय । प्रमाय । प्रगाय । प्रस्थाय। प्रपाय। अवहाय । अवसाय । ईत्वप्रतिषेधोऽयम् । वचनात् "अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्गः प्यादेशो बाधते" [१०] इति ज्ञापितम् । तेन "दो ददोः" [५/२११४८] इति दद्भावः । दधातेहि श्रादेशः । “हाकः क्वि" [५२।१४७] । मास्थास्यतीनामित्त्वं च न भवति । प्यादेशे कृतेऽनल्विधाविति स्थानिवद्भावाप्रतिपेधात्प्राप्तिः। For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० ६१-७६ वेङः || ४|४|६|| मेङ: प्ये परतो वा इकारादेशो भवति । अपमित्य । अपमात्र । " माङो व्यतीहारे " [ २|४|५] इति क्त्वा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लुङ्लङ्लृङ्कट् ||४|४|७० ॥ लुङि लङि लुङि च परतो गोरडागमो भवति । श्रकार्षीत् । अकरोत् । श्रकरिष्यत् । ऐक्षिष्ट । श्रौम्भीत् । ऐक्षत । श्रौम्भत् । ऐक्षिप्यत । श्रभिष्यत् " अ [मा३७८ ] इत्यै । श्रासन् श्रयन् इत्यत्र लावस्थायामडागमेऽन्तरङ्गत्वादै प्यायादेशे च कृतेऽत इत्यनुवृत्तेः "श्नसः खम्” [ ४|४|१०१] यणादेशश्च न भवतः । न माङ्योगे || ४|४|७१ ॥ माङ्योगेऽडागमो न भवति । मा कार्षीत् । मास्म करोत् । मानिरसीत् । मास्म निरस्ताम् । योगग्रहणं किम् ? मा भवान् कार्षीत् । इदमेव ज्ञापकं " माङि लुङ ” [२।३।१५१] इत्यत्र माङ्योगे लुङ् द्रष्टव्यः । gai खोरीची ||४|४|७२ || श्नु धु भ्रू इत्येतेषां गूनामिवर्णो वर्णयोरजादौ परत इयू उब इत्यादेशौ भवतः । श्नु । प्राप्नुवन्ति । राध्नुवन्ति । धु-चिक्षियतुः । चिक्षियुः । लुलुत्रतुः । लुलुवुः । नियौ । नियः । लुवौ । लुवः । भ्रू । भ्रुवौ । भ्रवः । निर्दिश्यमानयोरिवर्णोवयोरादेशः । यथा “पादः पद्” [ ४|४|११६ ] इति पाच्छब्दस्य पदादेशो न पादन्तस्य । नयति । भवति । नायकः । भावकः इत्यत्र परत्वादेवैपौ । श्रचीतीनिर्देशाद् व्यवधाने न भवति । विविदतुः । विविदुः । गोरित्येव । स्त्र्यर्थम् । भ्रूवर्थम् । चावे ||४|४|७३ ॥ चस्येवर्णो वर्णयोरत्वेऽचि परत इयुवौ भवतः । इयेष । इयर्ति । पूर्वेण गुनिमित्तेऽचि आदेश उक्त इति न प्राप्नोति । श्रस्व इति किम् ? ईपतुः । ईषुः । ऊषतुः । ऊषुः । श्रचीत्येव । याज | उवाय । स्त्रियाः || ४|४|७४ || स्त्रियाश्च इयादेशो भवति अचि परतः । स्त्रिया । स्त्रियः । परमस्त्रियौ । परमस्त्रियः । अलैवानर्थकेन तदन्तविधिः नारसंघातेन । तेन शस्त्रीशब्दस्य न भवति । स्त्रीणामित्यत्र परत्वान्नुट् । पृथक्करणमुत्तरार्थम् | वाम्शसोः || ४|४|७५ || अम्शसोः परतः स्त्रिया वा इयादेशो भवति । स्त्रियं पश्य । स्त्रीं पश्य । स्त्रियः पश्य । स्त्रीः पश्य । श्रतः || ४|४|७६ ॥ आकारादेशो भवति श्रतोऽमुशसोः परतः । वेति न स्वरितं गां गाः पश्य । द्यां यः पश्य च गोशब्दस्य श्रमि ऐप: पूर्वनिर्णयेनात्वम् । चित्रगुं पश्येत्यत्रान्तरङ्गत्वात्प्रदेशे सत्यात्वाभावः । शता सहचरितस्यामो ग्रहरणादिह न भवति । श्रचिनवम् । असुनवम् । यणेत्योः || ४|४|७७ ॥ यणादेशो भवति एत्योरचि परतः । यन्ति । यन्तु । श्रधियन्ति । अधियन्तु । " मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् ” [प०] इतीयादेशस्य बाधा नत्वेवैपोः । श्रयनम् । श्रायुवः । एर्गिवाक्चादुङोऽसुधियः || ४|४|७८ ॥ गिवाक्चात्परो य उङ् तस्मादुत्तरस्य इवर्णस्य यणादेशो भवत्यन्ति परतः सुधीशब्दं वर्जयित्वा । गिः-उन्न्यौ । उन्न्यः । परियौ । परिण्यः । वाचः - ग्रामण्यौ । ग्रामण्यः । सेनान्यौ | सेनान्यः । चात् - चिच्यतुः । चिच्युः । निन्यतुः । निन्युः । गिवाक्चादिति किम् ? नियौ । नियः । परमनियौ । परमनियः । उङ इति किम् ? यवक्रियौ । यवक्रियः । उङत्र गिवाक्चात्परो न भवति । ककारेण व्यवधानात् । सुधिय इति किम् ? सुधियौ । सुधियः । “ध्याप्योर्जिश्व" [उ०सू०] इति क्विप् जित्वं च । सुयोः || ४|४|७६ ॥ जादौ सुपि परतो गिवाक्चपूर्वादुङः परस्य उवस्य यणादेशो भवति । सुल्यौ । सुवः । सकृल्ल्यौ । सकृल्ल्वः । खलप्वौ । खलप्वः । शतस्वौ । शतस्वः । सुपीति किम् ? लुलुवतुः । एतदर्थं च योगान्तरम् । गिवाक्चादित्येव । भुवौ । भुवः । लुवौ । लुवः । परमलुवः । उङ इत्येव कवौ । कटवः । For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ४ पा० ४ सू० ८०-८७ ] महावृत्तिसहितम् ३२७ इन्का पुनर्वर्षाभ्यो भुवः || ४|४|८०|| हन् कारा पुनर् वर्षा इत्येतेभ्य उत्तरस्य भुवो यणादेशो भवत्यचि सुपि परतः । दृन्भ्वौ । दृन्भ्वः । काराभ्वौ । काराभ्वः । पुनव । पुनर्भ्यः। वर्षाभ्वौ । वर्षाभ्वः । नियमार्थोऽयमारम्भः । एतेभ्यः एव भुवो यण् नान्यस्मात् । प्रतिभुवौ । प्रतिभुवः । स्वयम्भुवौ । स्मयम्भुवः । त्रिभुवौ । मित्रभुवः । “भुवः स्वन्तरे” [२|२|१५२] इति क्विप् । लुलिटो || ४|४|१८६१ ॥ भुवो वुगागमो भवति लुलिटोरचि परतः । अभूवन् । अभूवम् । "स्थेरिपब" [ १।४।१४६ ] इत्यादिना सेरुप् । मिपोऽमादेशे “ सूभवत्योर्मिडि" [ ५१२२८६ ] इत्यपि प्रतिषिद्धे वुक् । लिटि -बभूव । बभूविथ । बभूवतुः । बभूवुः । गलि थे च पूर्वविप्रतिषेधेनैवैपोर्युका बाधा । लुङलिरिति किम् ? व्यतिभविषीष्ट । श्ररित्यनुवर्तते तेन यङुबन्तस्य परत्वादेपि कृते न भवति । अत्रभवम् । हुश्नुवोर्गे वः || ४|४|८|| हु श्नु इत्येतयोरकारस्य वकारादेशो भवत्यजादौ गे परतः । जुहुवति । जुहूवतु । चिन्वन्ति । " ग्रहाज्झन्दशाम्” [ ४|४|६१] इत्यतो मण्डूकगत्याऽज्ग्रहणमनुवर्तते । तेनाच उत्तरस्य नोर्वकारादेशः । इह मा भूत् प्राप्नुवन्ति । राध्नुवन्ति । हुश्नुवोरिति किम् ? योयुवति । रोरुवति । चादित्यनुवर्तनात्प्रसज्येत । ग इति किम् ? जुहुवतुः । जुहुवुः । जुहवानि चिनवानीत्यत्र परत्वादेषु । गोरुङः ||४|४|३|| गोह उङ ऊकारादेशो भवत्यचि परतः । निगृहयति । निगूहकः । साधु निगूही । निगूहन्ति । निगूहम् । निगूहो वर्तते । गोहेरित्येपं कृत्वा विकृतनिर्देशः किम् ? यत्रास्यैतद्वपं तत्र यथः स्यादिह माभूत् | निजुगुहतुः । निजुगुहुः । उङ इति किम् ? अन्त्यस्य मा भूत् । प्रकृतिग्रहणे यबन्तस्य घञि जोगूह इत्यत्र चस्य च मा भूत् । ओरित्यनुवृत्तेः तद्विकारस्य न्वस्यापि प्रसज्येत । चीत्येव । निगोहा । निगोढुम् । ऊ इत्यविभक्तिको निर्देशः । द्विमात्रश्चायमादेशः । अन्यथा एप्प्रतिषेधः क्रियेत । दो || ४|४|८६८४ ॥ दोष उङ: ऊकारादेशो भवति णौ परतः । दूषयति । दूपयते । दोप इति विकृतग्रहणं किम् ? एपि कृते ऊकारो यथा स्यात् । अन्यथा प्रदूष्य गत इत्यत्र ऊकारस्यासिद्धत्वारखेरयादेशः प्रसज्येत । एपि कृते धिपूर्वत्वं नास्तीत्यप्राप्तिः । णाविति किम् ? दोष दोषः । वा चित्तविकारे ||४|४|८५|| चित्तविकारे ऽर्थे दोषो णौ परत उङो वा ऊकारादेशो भवति । चित्तं दूषयति । चित्तं दोषयति । प्रज्ञां दूषयति । प्रज्ञां दोषयति । दोषमाचष्टे दोषयतीत्यत्र टिखस्यासिद्धत्वादुङः ओः स्थाने विकारो न भवतीत्यप्राप्तिः । चित्तविकार इति किम् ? एकान्तवादप्रयोगं दूषयति । णावित्येव । चित्तस्य दोषः । ञिणमोदर्मिताम् ||४|४|८६ ॥ ञिणम्परे णौ परतो मितां गूनामुङो वा दीर्भवति । घटि । घाटि । घटं घटम् | घाट घाटम् । श्रशमि । अशामि । शमं शमम् । शामं शामम् । घटते कश्चित् । शाम्यति कश्चित् । तमन्यः प्रयुङ्क्ते इति णिच् । उङ ऐप् । वक्ष्यमाणेन “प्रः " [ ४|४|८७ ] इत्यनेन प्रादेशः । ञौ णमि चानेनोङो त्वम् । ननु प्रादेश एव विकल्यः । दीरिति किमर्थम् १ न शक्यमेवम् । शमयतेर्णिचि कृते गौ णिखस्य स्थानिवद्भावात् उङः प्रादेशविकल्पो न स्यात् । दीत्वविधौ तु न स्थानिवद्भाव इति ञिपरो णिर्मितोऽनन्तर इति दीत्वविकल्पः सिद्धः । श्रशमि । अशामि । तथा अत्यर्थं शाम्यतीति यङ् । शंशम्यतेर्णिच् । “तः खम् " [४|४|५० ] । “हलो यः ” [ ४|४|५१ ] इति यखम् । अत्रापि यङोऽकारस्य दीत्वविधिं प्रति न स्थानिवद्भाव इति अशंशामि । नवाऽत्रासिद्धत्वं शंक्यम् व्याश्रयत्वात् । णौ हि विङोः खं ञिणम्परे णौ गोर्दत्वमिति । प्रः ॥४४॥८७॥ णाविति वर्तते । मितां गूनामुङ: प्रो भवति णौ परतः । घटयति । व्यथयति । जनयति । "जनिवध्योः” इति ञिकृतोः परत ऐप्प्रतिषेधः उक्तस्ततो जेरन्यदुदाहरणम् । मितामिति किम् ? कामयति । आमयति । चाममति । " न कस्यमिचमाम्” इति मित्संज्ञाप्रतिषेधः । प्रशमय्य गत इत्यत्र णावुङः प्रादेश: For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जधारि ३२८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० ८८-७ ध्ये परतो ऐरयादेश इति व्याश्रयत्वात्प्रादेशस्यासिद्धत्वं न भवति । कथं संक्रामयति । केचिद् वेत्यनुवर्तयन्ति । सा च व्यवस्थितविभाषा ततो न दोषः। खचि ॥४॥४८॥ खच्परे णौ परतो जोरुङः प्रो भवति । युगन्धरः । वसुन्धरः सहितपिदमः खौ" [२।२।४४] इति खच । “खित्यझेः” [४॥३॥१७६] "मुमचः" [१।३।१७७] इति मुमागमः। हादस्ते ॥४४८६॥ लादस्ते परत उङः प्रो भवति । प्रह्लन्नः । प्रह्लन्नवान् । त इति किम् ? प्रह्लादयति । हलाद इति योगविभागान्प्रह्लत्तिः । छादेर्घ ॥४|४|६०॥ छादेर्थे परत उङः प्रो भवति । प्रच्छदः । उपच्छदः । “तिकुप्रादयः” [१॥३॥८१] इति पसः । उरश्छदः । तनुच्छदः । कृयोगे तासः । छद अपवारणे इति चौरादिकः । अस्मात् "पुखौ घः प्रायेण" [२।३।१००] इति घे कृते णिखस्यासिद्धत्वम् “परेऽचः पूर्वविधौ" [१।१।५७] इति स्थानिवद्भावो वा वचनसामर्थ्यान्न भवति । ततः उङः प्रादेशः । घ इति किम् ? प्रच्छादनम् । तनुच्छादनम् । नानेकगेः॥४।४।६१॥ अनेको गिर्यस्य तस्य छादेरङः प्रो न भवति । समुपच्छादः। एकगिरगिश्च छादिः पूर्वेण प्रादेशं प्रयोजयति । मन्त्रेस्क्विषु ॥४॥४॥२॥ मन् त्र इस् कि इत्येतेषु परतश्छादेरुङः प्रो भवति । छद्म । छत्रम । छदिः • समुच्छन् । उपच्छत् । “सर्वधुभ्यो मन्त्रटौं” [उ० सू०] उणादिषु विहितौ । “अर्चिशुचिज़सृपिछादिदिभ्य इस्” [उ० सू०] इति इस् । “छादेर्धे" [४]६०] इत्यतः पृथक्करणमनेकगेरपि प्रादेशार्थम् । समुपच्छत् । समुपाचिच्छत् । सिवसिधसामि पत्वम् । गमहनजनखनघसां क्डित्यनङि ॥४॥४॥६३॥ गम हन जन खन घस इत्येतेषां कुङः खं भवति अनङि किति डिति परतः। अनीति किम् ? अगमत् । अघसत् । क्ङीति किम ? गमनम् । गमनीयम् । अचीत्येव । गम्यते। हन्यते। हुझल्भ्यो हेधिः ॥४॥९४॥ हु इत्येतस्मात् झलन्तेभ्यश्चोत्तरस्य हेर्धिरित्ययमादेशो भवति । जुधि । झलन्तेभ्यः-छिन्धि । भिन्धि । "श्नसः खम्" [१४१०१] इत्यखस्य अनुस्वारविधि प्रति न स्थानिवत्त्वम् इति अनुस्वारपरस्वत्वे। झल्भ्य इति किम् ? लुनीहि । हेरिति किम् ? युवां जुइतम । “भुमास्थागापाहाक्सां हलि" [ ५] इत्यतो मण्ट्रकगत्या हल ग्रहणमनुवर्तते । तेनाहलादेनं भवति । रुदिहि । स्वपिहि । अथवा अत्र परत्वादिटि कृते "सकृद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एवं" [प०] । जुहुतात्त्वं भिन्तात्त्वमित्यत्रापि परत्वात्तातङादेशः । अरुप ॥४॥४॥६५॥ जेरुत्तरस्य उब् भवति । अकारि । अलावि । लावस्थायामडागमः। पश्चादप । खमिति वर्तते । उबग्रहणे सर्वापहारार्थ परस्यादेर्मा भूत् । गोरित्यधिकारात् गोनिमित्तस्य त्यस्योविधानादिह भवति अपाठि ग्रन्थः। अकारितरामित्यत्र तखत्यासिद्धत्वान्न भवति । व्यक्तौ हि पदार्थे प्रतिव्यक्ति लक्षणं भिद्यते इति तदेव शास्त्रं तस्मिन् कथमसिद्धमिति नाशंकनीयम्।। अतो हेः॥४॥४॥६६।। अकान्ताद्गोरुत्तरस्य हेरुब्भवति । पच । कृष । गच्छ । अत इति किम् ? युहि । रुहि । तपरकरणं किम् ? याहि । लुनीहि । ईत्वस्यासिद्धत्वादाकारः । हेरिति वर्तमाने पुनहेरिति किम् ? हिरेव यो हिस्तस्योब यथा स्यात् इह माभूत् । जीवतात्त्वम् ।। उतस्त्यादस्फात् ॥४॥४॥३७॥ अस्फात्परो य उकारस्तदन्ताच्यादुत्तरस्य हेरुबू भवति । चिनु । सुनु । तनु । कुरु । तन्वादिषु व्यपदेशिवद्भावादुकारान्तत्वम् । उत इति किम् ? लुनीहि । जानीहि । त्यादिति किम् ? युहि । रुहि । अस्थादिति किम् ? आप्नुहि । तक्ष्णुहि । For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० १८-१०६] महावृत्तिसहितम् ३२६ वा म्बोः खम् ॥४॥४८॥ अस्फात्परो य उकारस्तदन्तस्य वा खं भवति मकारवकारादौ परतः । सुन्वः । सुनुवः । सुन्मः । सुनुमः । सुन्वहे । सुनुवहे । सुन्महे । सुनुमहे । तन्वः। तनुवः। तन्मः । तनुमः । उबिति वर्तमाने खग्रहणमन्तेऽलो नाशार्थम् । उत इत्येव । क्रीणीवः । क्रोणीमः । त्यस्येत्येव । युवः । रुवः । अस्फादित्येव । अाप्नुवः । तदणुवः । सुनोम्यादिषु परत्वादेप् । कृतो ये च ॥४४६६॥ कृत्र उत्तरस्य उतः खं भवति यकारादौ म्वोश्च परतः । कुर्यात् । कुर्याताम् । कुर्युः । कुर्वः । कुर्मः । कुर्वहे । कुर्महे । नित्यत्वात्खे कृते “त्यखे त्याश्रयम्" [१।१।६३] इत्येप् । म्बोरनुकर्षणार्थाच्चकारात् ज्ञायते वेति निवृत्तम् । गेऽत उत्॥४|४|१००॥ उत्त्यान्तस्य करोतेरकारस्य उकारादेशो भवति ङ्किति परतः । कुल्तः । कुर्वन्ति । कुरुथः । कुरुथ। कुर्वः। कुर्मः । उदिति तपरकरणाद्विकरणमपेक्ष्य ध्युकुम्न भवति । ग इति किम् ? भूतपूर्वेऽपि गे यथा स्यात् । अत इति तपरकरणमुत्तरार्थम् ? कितीत्येव । करोमि । करोषि । करोति । एपि कृते उकारान्तत्वाभावाद्वा न भवति । "अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य' [१०] इति अकुरुतामित्यत्राटो न भवति । श्नसः खम् ॥४ाटा२०१॥ श्नमः अस्तेश्च अतः खं भवति गे किति परतः । भिन्नः। भिन्दन्ति । छिन्नः । छिन्दन्ति । अत्खस्यासिद्धत्वाद्धलुङो नकारस्य खं न भवति । अस्तेः स्तः। सन्ति। कितीत्येव । भिनत्ति । अस्ति । श्नस इति श्नमो नष्टमकारस्य पररूपत्वं ज्ञापकं शकन्वादिषु पररूपं भवति तपरकरणस्यानुवृत्तिः किमर्था । यास्ताम् आसन्नित्यत्र लावस्थायामडागमे ऐपि च कृते माभत । नन्वटोऽसिद्धत्वादाकारखं न प्राप्तम् इदमेव तपरकरणं ज्ञा पकम् अभाच्छास्त्रस्य कचिसिद्धता । तेन देभतुः । देभुरित्यत्र नखस्य सिद्धत्वादेत्वचखे भवतः। थश्नोरातः॥४।४।१०२॥ थसंज्ञकस्य श्ना इत्येतस्य च य श्राकारस्तस्य खं भवति गे विति परतः । मिमते । मिमताम् । अमिमत । सजिहते । संजिहताम् । समजिहत । “देऽनतः [५१/५] इति भस्यादादेशः । लुनते । लुनताम् । अलुनत । पुनते । पुनताम् । अपुनत । हलीत्वं वक्ष्यते। तस्मादचि खम् । भुसंज्ञकानां हल्यपि दत्तः । दत्से | थश्नोरिति किम् ? यान्ति | वान्ति। आत इति किम् ? बिभ्रति । इयति। कितीत्येव । जहाति । लुनाति । ___हल्यभोरीः ॥४१०३॥ हलादौ किति परतः थश्नोरात ईकारादेशो भवत्यभोः। सञ्जिहीते । सजिहीर्य । सञ्जिहीवे । सञ्जिहीवहे । सञ्जिहीमहे । मिमीते। मिमीषे । मिमीध्वे । मिमीवहे। मिमीमहे । लुनीतः। लुनीथः। लुनीषे । लुनीध्वे । लुनीवहे । लुनीमहे । अभोरिति किम् ? दत्तः। द्वितीत्येव । जहाति । लुनाति। इद्दरिद्रः॥४।४।१०४॥ इकारादेशो भवति दरिद्रातेहलादौ गे किति परतः । दरिद्रितः । द्ररिद्रिथः । दरिद्रिवः । दरिद्रिमः। “जक्षित्यादयः" [३५] इति थसंज्ञायाम् पूर्वण हलादावीत्वं प्राप्तम् । हलीत्येव । दरिद्रति । कितीत्येव । दरिद्राति । “भियो वा" [४३०५] इत्यतः सिंहावलोकनेन वेति व्यवस्थितविभाषा संबध्यते ततो दरिदातेरगविषये ब्रहलं खं भवति । दरिद्रातीति दरिद्रः। अदरिद्रीत । खे सत्याकारान्तलक्षणौ "यमरमनमातः सक्च" [५।१।१३२] इति सगिटौ न । भियो वा ॥४|४|१०५॥ भी इत्येतस्य वा इकारादेशो भवति हलादौ गे किति परतः । बिभितः । विभीतः। विभिथः । बिभीथः । बिभिवः । बिभीवः । विभिमः । बिभीमः । हलीत्येव । बिभ्यति । ग इत्येव भोतः । भीयते । कित्येव । बिभेति । हाकः ॥४ाथा९०६॥ हाकश्च वा इकारादेशो भवति हलादौ गे किति परतः । जहितः । जहीतः । जहिथः। जहीथः । जविः । जहीवः । जहिमः । जहीमः। पक्षे "हल्यभोरीः" [११०३] इतीत्वम् । थस्ये. For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा ३३० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [श्र० ४ पा० ४ सू० १०७-११५ त्यनुवर्तनात् हित्वे कृते इत्वादिविधिः । अथवा अल्पाश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वात्प्रागेव द्वित्वम् । हलीत्येव । जहति । ग इत्येव । हीनः। हीयते । जेहीयते । योगविभाग उत्तरार्थः । आ४२०७॥ हाक आकारादेशो भवति इच्च वा हो परतः । जहाहि । जहिहि । जहीहि । यि खम् ॥४॥४॥२०८॥ यकारादौ गे किति परतो हाकः खं भवति । जह्यात् । जह्याताम् । ज्ह्यः। ग इत्येव । हीयते । जेहीयते । भ्वसोरेच्च खं हो ॥४॥१०६॥ भुसंज्ञकानाम् अस्तेश्च ही परत एकारादेशो भवति -चस्य च खम् । देहि । धेहि । एधि । खमिति वर्तमाने पुनः खग्रहणं सर्वस्य चस्य नाशार्थम् । अस्तेश्च खं न सम्भवति । "श्नसः खम्" [४।१०१] इत्यखम् । अनेन सकारस्यैत्वम् । हाविति वर्तमाने पुन विति किम् ? रूपान्तरापत्तौ माभूत् । दत्तात् । धत्तात् । स्तात् । । अतो हल्मध्येऽनादेशादेलिटि ॥४।४।११०॥ हलोमध्ये वर्तमानस्यात एकारादेशो भवति चस्य च खं लिटि डिति परतः । पेचतुः। पेचुः। शेकतुः। शेकुः। रेणतुः। रेणुः । हल्मभ्य इति किम् ? ग्राटदः । आटुः । त्रपिग्रहणं नियमार्थ वक्ष्यति । अनेक हल्मध्यगतस्य त्रपेरेव नान्यस्य । ततक्षतुः । पाथे। पप्रथाते । पप्रथिरे । लिटीति किम् ? पापच्यते । पापठ्यते। अत इति किम ? दिदिवतुः । दिदिवुः । तपरकरणं किम् ? शशासतुः। शशासुः । कितीत्येव । अहं पपच । “फलिभजोः" ४३३२] इति नियमो वक्ष्यते । एतयो रेव लिट्यादेशाद्योरेच्चखे भवतो नान्यस्य । बभणतुः । बभणुः । चकणतुः। चकाः । नमिसह्योस्तु लिडुत्पत्तेः प्रागेव नत्वसत्वे भवत इति नियमान्न निवृत्तिः । नेमतुः। नेमः । सेहे । सेहाते। सेहिरे। सेटि॥४|४|१११॥ सेटि च लिटि परतो हल्मध्येऽत एत्वं भवति चस्य च खम् । अविल्याप यथा स्यादिल्यारम्भः । पेचिथ । शेकिथ । नेमिथ । “वोपदेशे" [५।१।१०८] इत्यादिना वेट । सेटीति किम् ? पपक्थ । लिटोत्येव । पठितः । पठितवान् । अत इत्येव । दिदेविथ । फलिमजोः ॥४|४|११२॥ फलि भजि इत्येतयोरत एवं भवति चस्य च खं लिटि विति सेटि च परतः । फेलतुः । फेलुः । फेलिथ । भेजतुः। भेजुः । भेजिथ । भेजे । भेजाते । भेजिरे । नियमार्थोऽयमारम्भः । फलिभजोरेव लिटयादेशाद्यो न्यस्य । चकणतुः । चकणुः । चकणिथ। बभणतुः । बभणुः। वभणिथ । फलिभजोर्विकारलक्षण आदेशः अन्यस्यापि विकारादेशादेर्निवृत्तिः शशिदद्योः प्रतिषेधाच्च । तेन प्रकृतिचरां प्रकृतिचरः प्रकृतिजशां प्रकृतिजशो भवन्तीति । नात्र नियमानिवृत्तिः। तेनतुः। तेनुः । देभतुः। देभुः । तुत्रपोः ॥४|११३॥ तृ त्रपित्येतयोरत एत्वं भवति चस्य च खं लिटि किति सेटि थलि च परतः । तेरतुः । तेरुः । तेरिथ । “ऋच्छतृताम्" [५।२।१२३] इत्येषु । त्रेपाते । त्रेपिरे । “श्रन्थेश्चेति वक्तव्यम्" [वा०] श्रेयतुः। श्रेथुः । उपसंख्यानेन लिटः कित्वम् । इदमपि नियमार्थ सूत्रम् । एम्निवृत्तस्यातस्तरतेरेव नान्यस्य । विशशरतुः। विशशरुः । विशशरिथ । लुलविथ। अनेककहल्मध्यगतस्य त्रपेरेव नान्यस्य । ततक्षतुः। ततक्षिथ। मरन्थतुः । ममन्थुः । ममन्थिथ । षधे राधेः ॥४।४।११४॥ राधेर्वधेऽर्थे हल्मध्येऽवर्णस्यैत्वं भवति चस्य च खं लिटि तिति रोटि थलि च परतः। परिरेधे। परिरेधाते । परिरेधिरे। कर्मणि दविधिः। परिरेधतुः । परिरेधुः। परिरेधिथ । वध इति किम् ? आरराधतुः । आरराधुः। श्रारराधिथ । वा भ्रमत्रसाम् ॥४।४।११५॥ न भ्रम् त्रस् इत्येतेषामतो वा एत्वं भवति चस्य च खं लिटि विति सेटि च परतः । जेरतुः । जेरुः । जेरिथ । नेमतुः। भ्रमुः । भ्रमिथ । त्रेसतुः। त्रेसुः। सिथ । पक्षे जजरतुः। जजरुः । जजरिथ । बभ्रमतुः । बभ्रमुः । बभ्रमिथ । तत्रसतुः । तत्रसुः। तत्रसिथ । तृग्रहणादन्यस्यैम्निवृत्तस्य न भवतीति जषोऽप्राप्त । भ्रमेरादेशादित्वात् त्रसेरनेकहल्मध्यगतत्वादप्राते विकल्पः । For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० ११६-१२४ ] महावृत्तिसहितम् ३३१ फणां सप्तानाम् ॥४ाधा११६।। फणादीनां सप्तानां वा एत्वं भवति चस्य च खं लिटि विति सेटि च परतः । फेणतुः। फेणुः । फेरिणथ । पफणतुः। पफणुः। पफणिथ । रेजतुः। रेजुः । रेजिथ। रराजतुः । रराजुः । रराजिथ | भेजे । भेजाते । भ्रजिरे। बभ्राजे। बभ्राजाते। बभ्राजिरे। भ्रसे। बभ्रासे। भ्लेसे । बन्लासे । स्मतुः। स्येमुः। स्येमिथ । सस्थमुः। सस्थमिथ । स्वेनतुः। स्वेनुः । स्वेनिथ । सस्वनतुः । सस्वनुः । सस्वनिथ । सप्तानामिति किम् ? दध्वनतुः । दध्वनुः । जज्वलतुः। जज्वलुः । जज्वलिथ । न शसददवादीनाम् ॥४ाथा११७॥ शस दद इत्येतयोर्वादीनां च लिटि थिति सेटि च परत एत्वचखे न भवतः । विशशसतुः । विशशसिथ | दददे। दददाते । दददिरे । वादीनाम-बवणतुः । ववणुः। ववणिथ । ववले । ववलाते । ववलिरे । भस्य ॥४|४|११८॥ भत्येत्ययमधिकारो वेदितव्य आ पादपरिसमाप्तेः। वक्ष्यति “पादः पत्" [४।४।११६] इति । द्विपदा । द्विपदे । भस्येति किम् ? द्विपादौ । द्विपादः । धे भसंज्ञा न भवति । पादः पद् ॥४॥११६॥ पादन्तस्य गोर्भस्य पदित्ययमादेशो भवति । द्विपदः पश्य । द्विपदा । द्विपदे । द्वौ पादावस्येति बसे "सुसंख्यादेः” [४।२।१४०] इति पादस्यातः खम् । “निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति" [प०] इति पाच्छब्दस्य पदादेशः । द्वौ द्वौ पादौ ददाति द्विपदिकां ददाति । “संख्यायाः पादशतेभ्यो वीप्सादण्डत्यागे वुन्" [१२।१०] खं च । वैयाघ्रपद्यः । व्याघ्रस्येव पादौ यस्य "खं पादस्याहस्त्यादेः” [४।२।१३६] इति खम् । गर्गादित्वाद्यञ् । भस्येति किम् ? द्विपाद्याम् । द्विपाद्भिः । पादवतेः क्विबन्तस्य प्रयोगो नास्ति । क्सोर्जिः॥४ाथा१२०॥ वस्वन्तस्य गोर्भस्य जिर्भवति । उपसेदुषः पश्य । उपसेदुधा । उपसेतुपे । "वस्सदिणी वसुर्लिएमम्" [१।२।८८] इति वसुः । द्वित्वम् । हल्मध्ये लिख्यत इति एत्वचखे । क्रादिनियमादिट् । जौ कृते निमित्ताभावादिएिनवृत्तिः । भस्येत्येव । विद्वस्यति । विद्वस्यते। क्यचक्यङोः त्वादित्वाभावाद्भसंज्ञा नास्ति । "न: क्ये" [१।२।१०४] इति नियमात्पदसंज्ञाविरहेण रित्वाद्यभावः । श्वयुवमघोनोऽहति ॥४|४|१२१॥ श्वन् युवन् मघवन् इत्येतेषां जिर्भवति अहृति परतः । शुनः पश्य । शुना । शुने | यूनः पश्य । यूना । यूने । “अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" [प०] इति यकारस्य न भवति । मघोनः पश्य । मघोना । मघोने | अहतीति किम् ? शौवनं मांसम् । यौवनं वर्तते । माघवनम् । शुनो विकारः “प्राणितालादेः" [३।३।१०५] इत्यण् । “द्वारादेः" [५।२।६] इत्यौव् । यूनो भावः 'हायनान्तयुवादिभ्योऽण" | मघोन इदम् । उत्तरत्र अन इति योगविभागः । अन्नन्तानां श्‍वादीनां जिभवति । तेन युवतीः पश्येल्यत्र “मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्य” [प०] इति न भवति । अनोऽखमम्वस्फात् ॥४।४।१२२॥ अन्नन्तस्याखं भवति स चेदन् मकारवकारान्तस्मात्परो न भवति । राज्ञः पश्य । राज्ञे । “पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" इति चुत्वम् । तदशः पश्य । तक्ष्णा । तक्ष्णे | अन्नन्तस्येति वचनात् राजकीय इत्यत्र न भवति । अम्बस्फादिति किम् ? धर्मणः । धर्मणे। तत्वदृश्वनः पश्य । तत्त्वदृश्वना । तत्त्वदृश्वने । पादिहन्धृतराशोऽणि ॥४।४।१२३॥ पकारादेरनः हन् धृतराजन् इत्येतयोश्चाणि परतोऽकारस्य खं भवति । यादणः । तादणः । हन्-नौणघ्नः । वात्रघ्नः । धृतराजन्-धार्तराज्ञः । अपत्यार्थेऽण “अनः" [४।४ ।१५८] इति अखटिखयोः प्रतिषेधे प्राप्ते सूत्रम् । एतेषामिति किम् ? सामनो धौमनः । ताक्षण्यः। “सेनान्तलक्षण" [३११११४०] इत्यादिना एयः । वा ङिश्योः ॥॥४।४।१२४॥ अनोऽकारस्य वा खं भवति डौ शीशब्दे च परतः । राज्ञि । राजनि । लोम्नि । लोमनि । साम्नी। सामनी। दाम्नी । दामनी । भस्येत्यधिकारात् “नपः" [५/१६] इत्यनेनादिष्टः शीशब्दो गृह्यते। For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३३२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पो० ४ सू० १२५-१३२ अचः || ४|४|१२५ || च इत्यञ्चेष्टनकारो गृह्यते । तदन्तस्य गोरकारस्य खं भवति । प्रतीचः पश्य । प्रतीचा । प्रतीचे । मधूचः पश्य । मधूचा । मधूचे | भस्येत्येव । प्रत्यञ्चमिच्छति प्रत्यच्यति । क्यच् । स्वादिष्वभावात्पूर्वस्य भसंज्ञा नास्ति । च इति नष्ट नकारग्रहणं किम् ? प्रत्यञ्चः पश्य । प्रत्यञ्चा । प्रत्यन्वे । “नाञ्चेः पूजे " [ ४।४।२६ ] इति नखाभावः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईदुदः || ४|४|१२६ ॥ उद: परस्याच ईकारादेशो भवति भस्य । उदीचः पश्य । उदीचा । उदीचे | उदीच्यः । " प्रागपागुदक्प्रतीचो यः " [ ३२८० ] इति यः । श्रखापवादोऽयम् । तो धोः || ४|४|१२७ ॥ श्राकारान्तस्य धोर्मस्य खं भवति । कीलालपः पश्य । कीलालपा । कीलालपे । शुभंयः पश्य । शुभंया । शुभंये। आत इति किम् ? ग्रामस्या । ग्रामण्ये । घोरिति किम् ? मालाः पश्य । " जुब्रश्वः क्त्वः " [ ५|१|१०३] “थरनोरातः” [४|४|१०२] इत्यादयः सौत्रा निर्देशाः । भस्येत्येव । क्षीरपामिच्छति क्षीरपीयति । तेर्विशतेर्डिति || ४|४|१२८ || भस्य विंशतेर्डिति परतस्तिशब्दस्य खं भवति । विंशत्या कीतो विंशकः । "विंशतित्रिंशद्भ्यां ड्वुरखौ” [ ३ | ४ | २१ ] इति वुः । तिखे कृते "एप्यतोऽपदे" [४|३|८४ ] इति पररूपत्वम् । विंशतैः पूरणं विंशं शतम् । विंशतिरधिका अस्मिन्निति " तदस्मिन्नधिकमिति शद्दशान्ताड्डुः " [ ३|४|१६७ ] "विंशतेश्व” [३।४।१६८ ] इति डः । आसन्ना विंशतेरिमे श्रासन्नविंशाः । "संख्येये” [१३८७] इत्यादिना चसः । "संख्यात्राड्डोऽबहुगणात् " [ ४ २ ६९ ] इति डः सान्तः । डितीति किम् ? विंशत्या | टेः || ४|४|१२९|| टिसंज्ञकस्य डिति परतः खं भवति । त्रिंशता क्रीतः त्रिंशकः । त्रिंशं शतम् । श्रासन्नाश्चतुर्णामि श्रासन्नचताः । कुमुद्वान् । नडवान् । वेतस्वान् । कुमुदान्यस्मिन् देशे सन्ति “कुमुदनडवेतसाड्डित्” [३|२|६७ ] इति मनुः । नडवलम् । नडा अस्मिन् देशे सन्ति “ नडशादाड्डित्” [३।२२६६ ] इति चलः । डिल्करणसामर्थ्यादभस्यापि टेः खम् । अतएव उपसरे जात उपसरजः । मन्दुरायां जातः मन्दुरजः । “त्वे ङयापोः क्वचित्खौ च" [ ४।३।१७३ ] इति प्रः । नोऽपुंसो हृति || ४|४|१३० ॥ नकारान्तस्य भस्य हृति परतष्टिखं भवत्यपुंसः । श्राग्निशर्मिः । देवशमिः । औलोभिः । बाहूवादित्वादिञ् । न इति किम् ? वैद्युतोऽग्निः । पुंस इति किम् ? पुंस हृदं पौरनम । "स्त्रीपु ं सान्नुक्त्वात्” [३।१।७२] इति अनुकौ । हृतीति किम् ? शर्मणा । शर्मणे । भस्येव । शर्मण आगतं शर्मरूप्यम् । शर्ममयम् । “हेतुमनुष्याद्वा रूप्यः " [३३३।५५] इति रूप्यमययै । सब्रह्मचार्यादेः ||४|४|१३१ ॥ सब्रह्मचारिन्नित्येवमादीनां हृति देः खं भवति । सब्रह्मचारिणः शिष्यः साब्रह्मचारः । पीटसर्पिणोऽयं पैठसर्पः । कलापिनोऽयं कालापः । अथवा कलापिना प्रोक्तमधीते शौनकादिनु वैशम्पायनान्तेवासित्वाणिनि प्राप्ते " कलापिनोऽण” [३।३।७६] इत्यण् । “ तद्व स्वधीते” [३|२|५१] इत्यण् । "उष्प्रोक्तात्” [३।२।५४ ] इत्युप् । “छन्दो ब्राह्मणानि चात्र व" [३/२/५६ ] इति अध्येतृविषयता | कुथुमिनः शिष्यः कौथुमः । तितिलिनः तैतिलः । जजलिनः जाजलः । अन्येषां तैतिलिजाजलिशब्दावाचार्यवचनायुपचाराद्ग्रन्थोऽपि तयोरुक्तः । तमधीते तैतिलः । जाजलः । लाङ्गलिनः शिष्यः लाङ्गलिनमधीते वा लाङ्गलः । शिलालिनोऽयं शैलालः । शिखण्डिनोऽयं शैखण्डः । सूकरसद्मनोऽयं सौकरसद्मः । सुपर्वणः सौपर्वः ! इनन्तानां " प्रायोऽनपत्येऽणीनः” [४।३।९५५] इति टिखप्रतिषेधः प्राप्तः । श्वाश्चर्मणां सङ्कोचविकार कोशेषु ||४|४|१३२ ॥ श्वन् अश्मन् चर्मन् इत्येतेषां संकोच विकार कोश इत्येष्वर्थेषु हृति टेः खं भवति । शौवः संकोचः । शौवनोऽन्यत्र । कथं शौवं मांसम् | "ग्रनः " [४|४|१५८] ] इत्यत्र प्रायोग्रहणानुवृत्तेर्विकारे टिखप्रतिषेधो नेप्यते । ग्रश्मनो विकार यामः । श्राश्मनोऽन्यत्र । चार्मः कोशः । चार्मणोऽन्यः । For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० १३३-१४०] महावृत्तिसहितम् टखोरेवाह्नः ॥४|४|१३३॥ अहनित्येतस्य टखोः परतः टेः खां भवति । द्वयहः । व्यहः । द्वे अहनी समाहृते, त्रयाणामह्नां समाहारः रसे कृते "राजाहःसखिभ्यष्टः" [२६३] इति टः सान्तः । “न समाहारे" [४।२।११] इति अह्लादेशप्रतिषेधः । द्वे अहनी भूतो भावी वा द्वयहीनः । व्यहीणः । हृदय रसः । “समायाः खः" [३।४।८२] इत्यधिकारे "रात्र्यहःसंवत्सरात्" [३२४८४] इति खः। अह्नां समूहः अहीनः । हृत इति बहुवचननिर्देशात्खः । टखोरेवेति किम् ? अह्ना निवृत्तमाह्निकम् । “तेन निवृत्तः” [३।४।७५] इति प्राग्वतष्ठा । एवकार इष्टतोऽवधारणार्थः । अह्न एव टखोरिति मा भूत् । एवं हि मद्रराज इति न स्यात् । "खेऽध्वनः" [४।४।१६०] इति प्रतिषेधारम्भात् इष्टतोऽवधारणे प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् । कद्रघोरोऽस्वयम्भुवः॥४।४।१३४॥ कदशब्दस्य उवर्णान्तस्य च भस्य हृति परत अोकारादेशो भवति स्वयम्भूशब्दं वर्जयित्वा । कद्र वा अपत्यं काद्रवेयः। "स्त्रीभ्यो ढण" [३।१०६] इति ढरण । “ढे खम्" [४॥४१३५] इत्यस्यापवादार्थ कद्र ग्रहणम् । उवर्णान्तस्य माण्डव्यः । बाभ्रव्यः । औपगवः। कापटवः । अस्वयम्भुव इति किम् ? स्वायम्भुवं धाम स्वायम्भुवी प्रक्रिया। "तस्येदम्" [३।३।८८] इत्यण् । श्रोत्वे प्रतिपिद्धे उवादेशः। __ढे खम् ॥४।४।१३५॥ ढे परत उवर्णान्तस्य खं भवति । कामण्डलेयः । शैतिवाहेयः । जाम्बेयः । "बाह्वन्तकद्रकमण्डलुभ्यः खो" [३।१।६०] इति ऊत्ये कृते। अपत्यार्थे “चतुष्पाभ्यो ढ" [३।१।१२३] इति दृज । जान्वाः जानेय । "द्वयचः” [३।११११०] इति टण् । इयुवौ परत्वात् खं बाधते । वात्सप्रेयः । लैखाभ्रेयः । वत्सप्रीः चतुष्पाद । लेखाभ्र : शुभ्रादिः । ढ इति किम् ? कमण्डलवे हिता कमण्डलच्या मृत् । - यस्य उयां च ॥४|४|१३६॥ इवान्तस्यावान्तस्य च खं भवति ङीत्ये हृति च परतः । दाक्षी। प्लाक्षी। "इतो मनुष्यजातेः" [२११५५] इति डोः । स्वेको दीत्वे क्रियमाणे अतिसखेरागच्छतीत्यत्र दोषः स्यात । सखीमतिक्रान्तः अतिसखिः। “स्त्रीगोर्नीचः" [१1१1८] इति प्रादेशे कृते सख्यसख्योरेकादेशः सखिशब्दवद्भबतीति "स्वसखि” [११२।६७] इति सुसंज्ञाविरहादेम्न स्यात् । खे तु न दोषः। अवर्णान्तस्य-गौरी। कुमारी । हृति-नाभेयः । नैधेयः । “इतोऽनिमः" [३।१११११] “द्वयचः" [३।१।११०] इति ढण । श्रीमतः। अवर्णान्तस्य-दैवदत्तिः । वायुवेगेयः । मत्स्योङयो ड्याम् ॥४|४|१३७॥ मत्स्यशब्दस्य उडो यकारस्य ख भवति डोत्ये परतः। मत्सी । "गौरादेः" [३१२३] इति । मत्स्यस्यापत्यं स्त्री मात्सी । “द्वयमगध" [३/१1१५२] श्रादिसूत्रेणाण । तदन्तान्डीः । यामवर्णखस्यासिद्धत्वादुङो यकारस्य खम्। अणि परतोऽखस्य व्याश्रयत्वात्सिद्धत्वम् । उङ इति किम् ? मत्स्यचरी । यग्रहणमुत्तरार्थम् । ङ्यामिति किम् ? मत्स्यस्येदं मात्स्यम् । सूर्यागस्त्ययोश्छे च ॥४४॥१३८॥ सूर्य अगस्त्य इत्येतयोश्छे ङ्यां च परत उङो यकारस्य खं भवति । सौरीयः । सौरी । अागस्तीयः । अागस्ती । सूर्यागत्यशब्दो केवलौ डी न प्रयोजयत इत्यणन्तौ गृह्यते । सूर्यो देवता अय सौर्यः तस्यायं सौरीयः । सूर्यस्येयं सौरी | अगस्त्यस्यापत्यम् ऋषित्वादण् । आगस्त्यः । तस्यायमागस्तीयः । छे यां चाऽतः खस्यासिद्धत्वादुङ् यकारः। अणयखस्य व्याश्रयत्वादसिद्धत्वं नास्ति । सूर्याय हितः अगस्त्याय हित इति प्राक्ठणश्छो नास्त्यनभिधानात् । छे चेति किम् ? सौर्य तेजः । श्रागल्यं स्थानम् । उङ इत्येव । सूर्यमयी। तिष्यपुप्ययोर्भाणि ॥४|४|१३६॥ तिष्य पुष्य इत्येतयोणि परत उको यखं भवति । तिष्येण युक्तः काल : तैषः। पौषः । तिष्यपुष्ययोरिति किम् ? सिध्येन युक्तं सैध्यमहः । भाणीति किम् ? पुष्यो देवताऽस्येति पौष्यः । हलो हतो ड्याम् ॥४४|१४०॥ हल उत्तरस्य हृद्यकारस्य उङः खं भवति ङयां परतः। गार्गी । वात्सी । वाजी । “यनः" [३।१११६] इति डीः । यखविधिं प्रति न स्थानिषदिति हलः परत्वं यफारस्य । हल इत्य For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ याकरणम् [अ० ४ पा० ४ सू० १४१-१४७ विशेषेण ग्रहणम् । हृतोऽन्यस्य वा हलः परस्य हृद्यकारस्य खं भवति । तेन “वृकाहण्यण" [४।२।४] वाणी । हल इति किम् ? वायुवेगेयी। हृत इति किम् ? झष्याम् । गौरादित्वान्डीः । वैद्यस्य भार्या वैद्या। यामिति किम् ? श्रावटया। अवटस्यापत्यं स्त्री। काव्यनाद्धृत्यापत्यस्य ॥४।४।१४१॥ क्य चि इत्येतयोरनाकारादौ च हृति परत आपत्यस्य यकारस्य हलः परस्य खं भवति । गार्गीयति । वात्सीयति । गार्गायते । वात्सायते । च्चि । गार्गीभृतः । वात्सीभूतः। अनाति हृति-गर्गाणां समूहो गार्गकम् । वात्सकम् । “वृद्धोक्षोष्ट्रोरभ्र" [शरा३४] आदिना बुन । गर्गाणां सङ्घोऽङ्को वा गार्गः । वात्सः । अनातीति किम् ? गाायणः । हृतीति किम् ? सामान्येनापत्यस्य खं यथा स्यात् । श्रापत्यस्येति किम् ? साङ्काश्यकः । काम्पिल्यः । सङ्काशेन निर्वृत्तः । कम्पिलेन निर्वृत्तः । “वुच्छण्” [३।२।६०] आदिना एयः । ततो भवार्थे “बन्धयोङः" [३१२१६६] इति बुञ् । हल इत्येव । वायुवेगेयः । तस्यन्तिकस्य कादेः ॥४|४|१४२॥ तसि परतोऽन्तिकस्य ककारादेः खं भवति । अन्तिकात् अन्तितः अागतः । “तमे परतः तादेः कादेश्चान्तिकस्य खं वक्तव्यम्" वा०1। अतिशयेन अन्तिकः "तमेष्ठावतिशायने" [४११/११४] इति तमे कृते। अन्तमः । अन्तितमः । “झिसंज्ञकस्य भमात्रे टिखं च वक्तव्यं सायम्प्रातिकाद्यर्थम्' वा०] | सायम्प्रातर्भवः सायम्प्रातिकः । पौनःपुनिकः । आकस्मिकः । शाश्वतिक इत्यत्र "येषां च द्वेषः शाश्वतिकः" [ १ ५ ] इति निपातनान्न भवति । शश्वच्छब्दो लक्षणम् । श्रारातीयः । शाश्वत इत्यादिषु च न भवति । "कालाटुञ्” [३।२।१३१] इत्यतः कालादिति योगविभागः । तेन शश्वच्छब्दादण । विल्वकादेश्छस्य ४|४|१४३॥ विल्वकादीनां छस्य ख भवति हृति परतः । नडादिषु विल्वादयः पठ्यन्ते कृतकुगागमाः इह निर्दिष्टाः । विल्वा अस्मिन् देशे सन्ति “उत्करादेश्छः” [३१२१७०] “नडादेः कुक्" [३।२१७१] चागमः । विल्वकीयः । तत्र भवो वैल्वकः । सर्वस्य छस्य खम् । अन्यथा अनर्थकं स्यात् । वेणुकीयः वैत्रकीयः । वैकः। बेतसकीयः । वैतसकः । तृणकीयः । तार्णकः । इक्षुकीयः । ऐक्षुकः । कपिष्ठलकीयः । कापिष्ठलकः। कपोतकीयः। कापोतकः । "ऋञ्चायाः प्रश्च” । कञ्चकीयः । क्रौञ्चकः । कुक् छ एव सम्भवति । छत्येति किमर्थम् ? कुको निवृत्तिर्मा भृत् । अन्यथा “सन्नियोगशिष्टानामन्यतरापाये उभयोरप्यपायः" [प०] इति यथा पञ्च इन्द्राण्यो देवता अस्य "हृदर्थ" [१॥३॥४६] इति रसे कृते अागतस्याणो “रस्योबनपत्ये" [३।१।७४] हायुप् । "हृदुप्युप्" [२॥१॥६] इति स्त्रीत्यत्य निवृत्तौ श्रानुकोऽपि निवृत्तिः । पञ्चेन्द्रः । मेयस्तु ।।४।४।१४४॥ तृशब्दस्य खं भवति इष्टमेयरसु परतः । करिष्ठः । करीयान् । हरिष्टः । हरीयान् । सर्वे कर्तृमन्तोऽयमेषामतिशयेन कर्तृमान् "विन्मतोरुप्" [४।१।१२४] इत्यनेनोप् । “इष्ठेयसौ च सर्वस्य तुः खम्" । अन्त्यस्य “टेः" [१४११४५] इति सिद्धम् । इमन्ग्रहणमुत्तरार्थम् । टेः ॥४।४।१४५॥ टेश्च खं भवति इष्ठेमेयस्सु परतः । पटिष्ठः । पटिमा । पटीयान् । लघिष्ठः । लघिमा । लघीयान् । णाविष्ठवन्मृदः ॥४।४।१४६॥ णौ परत इष्ठे इव कार्य भवति मृदः । पटयति । लघयति । कर्तृ मन्तमाचष्टे करयति । प्रशस्यमाचष्टे "आदेप्" [४।३।७५] श्रयति । ज्ययति । वाढस्य साधयति । युवानं करोति कनयति । स्रग्विणः स्रजयति । सर्वत्र "नैकाचः" [४।१।१५४] इति प्रतिषेधः । गुकार्ये निवृत्ते नैफ् । एनीमाचष्टे एतयति । "तसादौ" [१३१४७] इति पुंवद्भावः । उत्तरत्रापि नियमाचाटे प्रापयति । स्थापयति । गुकायेंपरिभाषाया अनित्यत्वादै पुगागमौ । पृथु प्रथयति । स्थूलस्य स्थवयति । स्थूलदूरयुवह्रस्वक्षिप्रचुद्राणां यण इक एच ॥४|४|१४७॥ स्थूल दूर युवन् ह्रस्व क्षिप्र खुद्र इत्येतेषां यणः खं भवति इक एप् च इष्ठेमेयस्सु परतः । स्थविष्ठः । स्थवीयान् । दविष्ठः । दवीयान् । "युवाल्पयोः कन्वा" [४।१।१२३] इत्यनादेशपक्षे-यविष्ठः । यबीयान् । “अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" [प०] इति यकारस्य न भवति । हसिष्ठः । ह्रसीयान् । हसिमा । क्षेपिष्ठः । क्षेपीयान् । क्षेपिमा । क्षोदिष्ठः। For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४ पा० ४ सू० १४८-१५५] महावृतिसहितम् ३३५ क्षोदीयान् । क्षोदिमा । ह्रत्वादयः पृथ्वादौ पठयन्ते। यणः परस्य तु "टेः" [४॥४॥१४५] इति खम् । इक इति किमर्थम् ? क्षेपिष्ठ इत्यत्र अनन्त्यस्याप्येब् यथा स्यात् । णौ ह्रत्वमाचष्टे हृसयति । गुकार्यस्य निर्वृ त्तत्वात् उड एम्न भवति । प्रियस्थिरस्फिरयादेरः ॥४।४१४८॥ प्रिय स्थिर स्फिर इत्येतेषाम् इकारादेवसंघातस्य अकारादेशो भवति इमेयस्सु परतः । प्रेष्ठः । प्रेयान् । प्रेमा । स्थेष्ठः । स्थेयान् । स्थेमा। स्केष्टः । सेयान् । स्फेमा । नियमाचष्टे प्रापयति । स्थापयति । “देयमृणे" [३।३।२२] इति निर्देशात् गुकार्यपरिभाषाया अनित्यत्वम् । तेन णिचि "ब्णित्यचः" [५।२।३] इत्यैप् ।। बहुलगुरुवृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणां वंहिगर्वर्षित्रपद्राघवृन्दाः ॥४|४|१४९ ॥ बहुल गुरु वृद्ध तृन दीर्घ वृन्दारक इत्येतेषां बंहि गर वर वर्षि त्र द्वाघ वृन्द इत्येत आदेशा भवन्ति इप्टेमेयस्सु परतः। वंहिष्ठः । वंहीयान् । वंहिमा । गरिष्टः । गरीयान् । गरिमा । उरु-वरिष्ठः । वरीयान् । वरिमा । वृद्धस्य ज्यादेश उक्तः। वचनादयमपि भवति । वर्पिष्टः । वर्षीयान् । त्रपिष्टः । पीयान् । द्राघिष्ठः । द्राधीयान् । द्राधिमा। वृन्दिष्टः। वृन्दीयान् । णावपि वहयति । गरयतीत्यादि योज्यम् । स्फिरवृद्धतृप्रवृन्दारकर्जिताः पृथ्वादौ द्रष्टव्याः । श्रणवचनेभ्योऽपि अाएव वचनात् इष्ठेयसू । बहोर्चस्मात्खम् ॥४।४।१५०॥ अहोभू इत्ययमादेशो भवति अस्माञ्च परेपाम् इष्ठेमेयसां खं भवति । भूयान् । भूमा । “परस्यादेः” [१३१५१] खम् । भूभावस्यासिद्धत्वात् उकारस्यौत्वं न भवति । वहोः पृथ्वादित्वादिमन् । यिट चेष्ठस्य ॥४।४।१५३॥ इष्ठत्य यिडागमो भवति बहोश्च भूरादेशः । भूयिष्ठः । खापत्रादो यिडागमः । इकार उच्चारणार्थः । भूभावस्यासिद्धत्वादौवाभावः । ज्यादेयसः ॥१५२॥ ज्यादेशात्परस्य ईय आकारादेशो भवति । ज्यायान् । ज्यायांसौ । ज्यायांसः । "प्रशस्यस्य श्रः" [१1११६] "ज्यः" [१।१२०] इति ज्यादेशः । प्रकृते खे परस्यादौ कृते “दीरकृद्गे" [५।२।१३४] इति पूर्वस्य च दीत्वे सिद्धमिति चेत् "गुकार्ये निवृत्ते पुनर्न तन्निमित्तम्' [प] इति दीत्वं न स्यादित्याकारवचनम् । ऊरोऽनादेः ॥१५३॥ ऋकारस्य रेफादेशो भवत्यनादेघिसंज्ञकत्य इष्ठेमेयस्सु परतः । प्रथिष्ठः । प्रथीयान् । प्रथिमा । म्रदिष्ठः । म्रदीयान् । म्रदिमा । अकारान्तो रेफादेशः । उरिति किम् ? पटिष्ठः । अनादेरिति किम् ? अतिशयेन ऋतवान् ऋतीयान् “विन्मतोरुप्" [१।१११२४] इति मतोरुप् । ईयस्। घेरिति किम् ? कृष्णिष्टः । कृष्णीयान् । कृष्णिमा। पृथुमृद्वोः कृशभृशयो ढपरिवढयोश्चरो भवत्येव । सिंहावलोकतोऽग्रे प्रायोग्रहणादयं नियमः ॥ तेनेह न भवति । मातरमाचष्टे मातयति । परत्वाट्टिखस्यायमपवादः स्यात् । तथा कृतमाचष्टे कृतयति । नैकाचः ४|४|१५४॥ एकाचो भस्य यदुक्तं तत्र भवति । त्वचिष्ठः । त्वचीयान् । रचिष्ठः। सूचीयान् । “विन्मतोरुप" [४|११२४] इति मतोरुपि कृते “टे" [४४१४५] इति खं प्राप्तम् । णावषि त्वग्वन्तमाचण्टे त्वचयति । सूचयति । एकाच इति किम् ? अतिशयेन वसुमान् वसिष्ठः । वसीयान् । वसयति । नेति योगविभागः । तेन “राजन्यमनष्ययूनामके यदुक्तं तन्न भवति" राजन्यानां समूहो राजन्यकम् । मनुष्याणां समूहो मानुष्यकम् । “क्यव्यमाद्धृत्यापत्यस्य" [१।१४१] इति यखं प्राप्तम् । यूनो भावो यौवनिका । मनोज्ञादिपाठादुञ् “नोऽपुंसो हृति" [।४।१३०] इति टिखं प्राप्तम् । प्रायोऽनपत्येऽरणीनः ४|४|१५५॥ अनपत्यार्थेऽणि परत इन्नन्तस्य यदुक्तं तन्न भवति प्रायः । स्रग्विण इदं नाग्विणम् । तथा सांकोटिनम् । सांगविणम् । साम्मार्जिनम् । “भिन्नभिविधी" [२।३।१६] इति For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ४ पा० ४ सू० १५६-१६६ जिन् । तदन्तात् स्वार्थे “जिनोऽण्” [४।२।२१] इत्यण् । अनपत्य इति किम् ? बाहुबलिनोऽपत्यं बाहुबलः । गीति किम् ? मेधाविने हितं मेधावीयम् । प्रायोग्रहणात्क्वचित्प्रतिषेधो न भवति । दण्डिनां समूहो दाण्डम् | छात्रम् । श्रौम् ४|४|१५६ ॥ श्रौक्षमिति निपात्यतेऽनपत्ये । उण इदम् श्रदम् । अपत्ये औण इत्येव । "पादिन्टतराशोऽणि” [४|४|१२३] इत्यखम् । " श्रन: ” [ ४|४|१५८ ] इत्यस्यापवादोऽयं योगः । गाधिविदथिकेशिपरिणगणिस्फादेः || ४|४|१५७ ॥ गाथिन् विदथिन् केशिन् परिणन् गणिन् । इत्येतेषां स्फादेश्च इनो यदुक्तं तन्न भवति । गाथिनोऽपत्यं गाथिनः । वैदथिनः । कैशिनः । पाणिनः । गाणिनः । स्फादेः शाङ्खिनः । चाक्रिणः । भाद्रिणः । श्रपत्यार्थेऽप्यरिण प्रतिषेधार्थमिदम् । अनः || ४|४|१५८ ॥ श्रनपत्य इति निवृत्तम् । सामान्येनाणि परतोऽनो यदुक्तमखं टिखं च तन्न भवति । कर्मणा इदं कार्मणम् । साम देवता अस्य सामनः । हेम्नो विकारो हैमनः । यज्वनोऽपत्यं याज्वनः । प्राय इत्यनुवृत्तेरिकेऽपि टिखाभावः । उपचारादथव ग्रन्थोऽपि तमधीते आथर्वणिकः । येss || ४|४|१५९ ॥ सामन्यः । वेमन्यः । कर्मण्यः । [ ३|१|१४० ] श्रादिना तक्ष्णो एयः वर्थे यकारादौ हृति परतोऽनो यदुक्तं तन्न भवति । सामनि साधुः राज्ञोऽपत्यं राजन्यः । तदणोऽपत्यं ताक्षण्यः । “सेनान्तलक्षण" अङाविति किम् ? राज्यम् । “गुणोक्तिब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च " । [३|४|११४] इति ट्यण | खेऽध्वनः || ४|४|१६|| अध्वनः खे परतो यदुक्त तन्न भवति । श्रध्वानमलंगामी अध्वनीनः । “यखावध्वनः” [३।४।१३६ ] इति खः । खे इति किम् ? प्राध्वं कृत्वा गतः “गेरध्वनः" [४२८७] इत्य कारः सान्तः । न मादेरपत्येऽवर्मणः || ४|४|१६१ || मकारादेरनो ववर्जितस्यापत्यार्थेऽणि परतो यदुक्तं तन्न भवति । सुपाम्नोऽपत्यं सौपमः । भाद्रसामः | "नोऽपुसो हृति" [ ४|४|१३० ] इति टिख भवत्येव । मादेरिति किम् ? सौवनः । अपत्य इति किम् ? चर्मणा परिवृतश्चार्मणो रथः । “परिवृतो रथः " [ ३।२२८] इत्यण । श्रवण इति किम् ? हैरण्यवर्मणः । प्रायोग्रहणानुवृत्तेर्हितनाम्नो विकल्पः । हितनाम्नोऽपत्यं हैतनामः । हैतनामनः । ब्राह्मो जाती ||४|४|१६२ || अपत्य इति वर्तमानं जातेर्विशेषणम् । ब्राह्म इति निपात्यतेऽपत्यजातेरन्यत्र । ब्राह्मणो (ब्राह्मो) गर्भः । ब्राह्ममस्त्रम् | "तस्येदम् " [३३८८] इत्यण् । अजाताविति किम् ? ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः । अपव्यजातिरियम् । अजाताविति प्रसज्यप्रतिपेधोऽयम् । तेन अपव्यजातेरन्यत्र जातावपि निपातनमिष्यते । ब्रह्मण इयं ब्राह्मी श्रौषधिः । कार्मः शीले ||४|४|१६३ || कार्म इति निपात्यते शीलेऽथे । कर्मशीलः कार्मः । "छत्रादेशी " [३|३|१८०] इति णः । स तु "नोऽपु' सो हृति" [ ४|४|१३०] इत्येव से टिखे सिद्धः । " श्रनः " [ ४/४/१५८ ] इति व्यणि प्रतिषेधः । इदमेव ज्ञापकं “रोऽप्यण् कृतं भवति [१०] इति । तेन चुरा-शीला चौरी । सान्तान् ङी विधिः । शील इति किम् ? वाग्युक्तं कर्म कार्मणम् । “ तद्युक्तात्कर्मणोऽण्” [ ४१२।४२] इत्यण् । दsिहस्तिनोः फे ||४|४|१६४ || दण्डिन् हस्तिन् इत्येतयोः फकारादौ हृति यदुक्तं तन्न भवति । afusicsपत्यं दाण्डिनायनः । हास्तिनायनः । नडादित्वात्कण | वाशिजिह्माशिनोः फे ढे || ४|४|१६५ || वाशिन् जिहााशिन् इत्येतयोः फेदे च यदुक्तं तन्न भवति । वाशिनोऽपत्यं वाशिनायनिः । तिकादित्वात्किन । जिह्माशिनोऽपत्यं जैह्माशिनेयः । “शुभ्रादेः " [ ३|१|११२] इति दण् । “नोऽपुसो हृति" [ ४|४|१३० ] इति टिखं प्राप्तम् । भौणहत्य धैवत्यसारवैदवाकमैत्रेयहिरण्मयानि || ४|४|१६६ ॥ श्रौणहत्य धैवत्य सारव ऐदवाक मैत्र हिरमय इत्येतानि निपात्यन्ते । भ्रूणहन् धीवन् इत्येतयोष्टणि तत्वं निपात्यते । भृगुघ्नो भावो For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० १ सू० १-६ ] महावृत्तिसहितम् ३३७ हत्यम् । इदमेव ज्ञापकं " हनस्तोऽञिलोः [५/२/३६ ] इति धोस्त्य एव नान्यत्र हन्तेस्तत्वम् । तेनेह न भवति । वार्त्रघ्न इति । धन्नो भावो धैवत्यम् । सरयूशब्दस्य अणि परतो यखं निपात्यते । सारखं जलम् । इदवाकोरपत्यम् ऐवाकः । “राष्ट्र शब्दाद्राज्ञोऽञ्” [३|१|१५० ] इति अनि उकारस्य खं निपात्यते । "तस्येदम् [३श३८८] इति वा भवार्थे “कोड: " [३।२।११०] इति वाऽणि मित्रयोरपत्यं मैत्रेयः " गृष्ट्यादेः " [३|१|१२४ ] इति दृणि कृते “यादेरिय्” [५|२|७] यादो युशब्दस्य खं निपात्यते । वादेरियादेशस्तु विदादित्वादनि कृते द्रष्टव्यः । अञन्तस्य सङ्घादिविवक्षायां “सङ्गाङ्गलक्षणघोपेऽन्यत्रिजामण" [ ३।३।१५ ] इति णि कृते मैत्रेयः सङ्घः । दन्तस्य सङ्घादौ "वृद्धचरणाजित्" [ ३।३।१४] इति वुनि मैत्रेयकः सङ्घ इति भवति । हिरण्यस्य विकारः । “मयड्वैतयोरभयाच्छादनयोः ” [३|३|१०८ ] इति मयटि कृते यशब्दस्य खम् । हिरण्मयं जिनगृहम् | इत्यभयनन्दिविरचितायां महावृत्ती चतुर्थास्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । पञ्चमोऽध्यायः युवा || ५|१|१|| यु वु इत्येतयोर्गानिमित्तभूतयोः न क इत्येतावादेशौ भवतः । युवोरित्यु - त्सृष्टविशेषणयोः सामान्यग्रहणम् । योरनः । वोरकः । नन्यादेल्युः नन्दनो रमण: । " वुतृचौ” [२|१|१०६ ] कारको हारकः । एवमाङ्गको वाङ्गकः । श्रङ्गे जातो भवो वेति विगृह्य "बहुत्वेऽदोरपि " [३।२।१०३] इति वुञ । योः कृत एव ग्रहणं व्याख्यानात् । तेनेह न भवति । उर्णायुः । शुभंयुः । उणादीनां बहुलं त्यज्ञा तेनेह न भवति भुज्नुः । “भुजिमृद्भ्यां युक्त्युकौ" [उ० सू० ३।२१] इति युक् । श्रायनेयीनीयियः फढखछघां त्यादीनाम् ||५|१२|| द ख छत्र इत्येतेषां [त्यादी वर्तमानानां निरचाम् ग्रायन् एय् ईन् ईय् इह्य् इत्येते श्रादेशा यथासंख्यं भवन्ति । "नडादेः फण्” [३।१।८८] नाडायनः । चारायणः । “स्त्रीभ्यो ढण्” [३।१।१०६ ] वायुवेगेयः । वासवदत्तेयः । “प्रतिजनादेः खञ्” [ ३।३।२०३] । प्रतिजने साधुः प्रतिजनीनः । ऐदंयुगीनः । "दोश्छः " [ ३ २ ६०] वासवीयो ध्वजः । वैश्रवणीया शिबिका | क्षत्रस्यापत्यं क्षत्रियः | त्यग्रहणं किम् ? फक्वति । दौकते । श्रादिग्रहणं किम् ? जानुदध्नम् । पण्टः । शङ्खः इत्यादी "उणादयो बहुलम् ” [ २।२।१६७ ] इत्यादेशा न भवन्ति । भोऽन्तः ||५||३||त्य इत्यनुवर्तते । श्रादिग्रहणं निवृत्तम् । स्वरितलिङ्गाभावात् । इति ककारस्य त्यावयवस्य अन्त इत्ययमादेशो भवति । जानन्ति । पश्यन्ति । "जूविशिभ्यां झः " [उ० सू०] जरन्तः । वेरान्तः । त्यस्येति किम् ? उज्झितः । अत्थात् ||५|१|४|| यज्ञकात्परस्य भस्य ऋतू इत्ययमादेशो भवति । ददति । ददतु । मिमते । मिमताम् । अन्तादेशापवादोऽयम् । न तु झेर्जुसः । श्रदुः । श्रजतुः । देः ||५||५|| दविषये यो कारस्तस्यानकारान्ताद्गोरुत्तरस्य श्रदित्ययमादेशो भवति । लुनते | लुताम् । लुनत । पुनते । पुनताम् । अपुनत । द इति किम् ? लुनन्ति । पुनन्ति । अनत इति किम् ? च्यवन्ते । प्लवन्ते । नित्यत्वात् प्रागेव शप् । शीङ रुट || ५|१|६|| शोङो गोर्निमित्तभूतस्य भस्य रुडागमो भवति । शेरते । शेरताम् | शेरत । रुडयं परादिः क्रियते झग्रहणेन ग्रहणं यथा स्यात्तेन “शीङो गे” [ ५।३।१३० ] इत्येत् । परत्वेन रुटि कृते श्रादिग्रहणनिवृत्तेर्मध्येऽपि त्यावयवस्य भस्यादादेशः । सानुचन्भग्रहणं किम् ? यन्तस्य मा भूत् । व्यतिशेश्यते । ४३ For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३३८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् वेरोः सिद्धसेन्स् ||५|१|७|| वेत्तेगनिमित्तभूतस्य भस्य रुडागमो भवति सिद्धसेनस्याचार्यस्य ते संविद्रताम् । संविदताम् । समद्रित । समविन्दत । " समो गमप्रच्छि” [ १/२/२४] इत्यादिना विदेदः । तिषा-निर्देश उन्त्रिकरणार्थः । तेन “चिद विचारणे" [घा. ] इत्यस्य शैवादिकस्य ग्रहणं न भवति । विन्दते । न । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ० ५ ० १ सू० ७६८ भिसोऽत ऐस् ||५|१|८|| अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामः । श्रत इत्यकारान्ताद् गोरुत्तरस्य भिम ऐस भवति । सुरैः । श्रसुरैः । चत्र "बही झल्येत्" [५२८] इति परत्वादेत्वं कस्मान्न भवति । कृतेऽप्ये भूतपूर्वगत्या पुनः प्राप्नोतीति नित्यत्वादैस् । एसिति सिद्ध ऐस्ग्रहणं किम् ? अतिजरखैः । “तिकुप्रादयः " [१1३1८१] इति से “खीगोर्नीचः” [91१/८ ] इति प्रादेशे च कृते । " एकदेशविकृतमनन्यवत् " [१०] इति जरशब्दस्यासङादेशः । “सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य " [१०] इति परिभाषेयमनित्या " कष्टाय” [२२१११२ ] इति ज्ञापकात् । श्रत इति किम् ? साधुभिः । तपरकरणं किम् ? विद्याभिः । इदमदसोः सकोः ॥५॥१६॥ इदम् श्रदम् इत्येतयोः सककारयोरेव मिस ऐम् भवति । इमकैः । "सर्वनाम्नो प्राक्: को दः” [४।१।१३० ] इत्यक् “दः " [५३८२] इति तस्य मत्वम् । श्रदसः "दादु दमोsसोsसेः " [ ५८ ] इति दात्परस्य वर्णमात्रस्योत्वं दस्य च मत्वम् । सकोरिति किम् ? एभिः । " बहौ झल्येत्” [५।२।१८] इत्येवम् | "हलि खम्" [५/१११७१ ] इतीदम इदः खम् । ग्रमस्तु “बहावीरेतः" [३] इतीत्वम् । इदमदसोरेव सकोरित्येवमवधारणं मा विज्ञायीति ज्ञापनार्थः । स्पेनान्ङस्टाङसेः ||५|१|१०|| अकारान्ताद्गोः परेषां ङटाङमि इत्येतेषां स्य इन यात् इत्येत आदेशा भवन्ति | इन्द्रस्य | चन्द्रस्य । इन्द्रेण | चन्द्रेण । इन्द्रात् | चन्द्रात् । ग्रत इत्येव । कर्त्रा । कर्तुः | ङेर्यः || ५|१|११|| कान्ताद्गोरुत्तरस्य ङे इत्येतस्य य इत्ययमादेशो भवति । इन्दाय | चन्द्राय | अत इति किम् ? गवे । नावे । सर्वनाम्नः स्मै ॥ ५|१|१२|| क. रान्तात्सर्वनाम्नो गोरुत्तरस्य के इत्येतस्य स्मै इत्ययमादेशो भवति । सर्वस्मै । तस्मै । ग्रमुष्मै । ग्रत इति किम् ? भवते । ङसिङयोः स्मात्स्मिनौ || ५|१|१३|| अकारान्तात्सर्वनाम्नो गोरुत्तरयोङसिङ इत्येतयोः स्मात् स्मिन् इत्येतावादेशौ भवतः । सर्वस्मात् । सर्वस्मिन् । यस्मात् । यस्मिन् । अत इत्येव । भवतः । भवति । जसः शी || ५|१|१४|| अकारान्तात्सर्वनाम्नो गोः परस्य जसः शी इत्ययमादेशो भवति । सर्व । एते । के । दीत्वग्रहणमुत्तरार्थम् । पयसी । दधिनी । For Private And Personal Use Only ङ आपः || ५ | १|१५|| श्रावन्ताद्गोः श्रङः शीत्ययमादेशो भवति । यामिति टापूडापोः सामान्येन ग्रहणम् | औङिति बेपोरौकारस्य पूर्वाचार्याणां संज्ञा । माले लम्बेते । माले पश्य । बहुराजे तिष्ठतः । बहुराजे पश्य । “अनश्च बात्” [३।१।१०] इति डापू । "अधिपरी अनर्थकौ” [१|४|१०] इति निर्देशात् “सोङिति ” [५/१/१०६ ] इत्यादिषु स्वशास्त्रसंज्ञया ङिदाश्रीयते । नयः || ५|१|१६|| नमो गोरुत्तरस्य श्रङः शीत्ययमादेशो भवति । दधिनी तिष्ठतः । दधिनी पश्य । एवं वने । जले । “नेच्यात" [ ४ | ३ |६२ ] इति "सुटि पूर्वस्वम्" [४|३|८६ ] दीनं भवति । जश्शासोः शिः || ५|१|१७|| नपः परयोर्जस् शस् इत्येतयोः शिरित्ययमादेशो भवति । दधीनि तिष्ठन्ति । दधीनि पश्य । एवं मधूनि । वनानि । धनानि । जसा सहचरितस्य शसो ग्रहणादिह नेष्यते । पात्रशो ददाति । अष्टाभ्य औश् ||५|१|१८ ॥ श्रष्टन शब्दात्परयोर्जस्सोरौश भवति । श्रष्टौ तिष्ठन्ति । अष्टौ पश्य । अष्टन इति सिद्धे अष्टाभ्य इति कृतात्वस्योच्चारणं किम् ? कौवात्वं तत्रैवौश्भावो यथा स्यात् । ननु नित्यमात्यम् । इदमेवं ज्ञापकमात्यविकल्पस्य । अष्ट तिष्ठन्ति । ऋष्ट पश्य । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० १ सू० १६-२६] महावृत्तिसहितम् "अनुरक्तः शुचिर्दक्षः श्रुतवान् देशकालविद् । "वपुष्मान कान्तिमान् वाग्मी दूतः स्याद्यष्टभिर्गुणैः ॥” । "गोरधिकारे तदन्तस्य च" [१०] इति तदन्तादपि भवति । परमाष्टौ । प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययादुसे न भवति । प्रियाष्टान इति । "उबिलः" ५ि/१६] इति उपि प्राप्ते औशारभ्यते न "सुपो धुमृदोः" [११४१४२] इति । तेन अष्टौ गुणा यस्य सोऽष्टगुणः। ओशिति सिद्धे औशग्रहणं किम् ? अष्टावाचक्षते अष्टयन्तीति । क्वियागतनिवृत्ते अष्टाविति यथा स्यात् । उबिलः ॥११॥१६॥ इल्संज्ञकादुत्तरयोर्जश्शसोरुब्भवति । पट तिष्ठन्ति । षट् पश्य। एवं पञ्च । नव । परमपञ्च । प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययादिह न भवति । प्रियषषः । प्रियपञ्चानः । नपः स्वमोः ॥५॥१।२० नबिति नपुंसकलिङ्गं पूर्वाचार्यस्य संज्ञेयम् । तस्मादुत्तरयोः स्वमोरुब्भवति । दधि पश्य । मधु तिष्ठति। मधु पश्य। तत्कुलमित्यत्र त्यदाद्यत्वं बाधित्वा कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वादुम् । नन्वत्वे कृते लक्षणान्तरेणाम्भावे सत्यनित्य उप ? नैवम् । “यस्य च लक्षणान्तरेण निमित्त विहन्यते न तदनित्यम्” [प०] इति । अतोऽम् ॥११॥२१॥ अकारान्तान्नपः परयोः त्वमोरम्भवति । धनम् । वनम् । तपरकरणं मुखसुखाथम् | मादेशे क्रियमाणे सुपीति दीत्वं स्यात् । अतिजरसं कुलं पश्येति च न स्यात । “सन्निपातलचाणो विधिरनिमित्त तद्विघातस्य' [प०] इत्यम उम्न भवति । डतरादेः पञ्चकस्य दुक् ॥५॥१॥२२॥ डतरादेः पञ्चकस्य दुगागमो भवति स्वमोः परतः । कतरत्तिष्ठति । कतरत्पश्य। एवं कतमत् । इतरत् । अन्यत् । अन्यतरत् । पञ्चकस्येति किम् ? समम् । सिमम् । डतरेण सिद्ध अन्यतरग्रहणं किमर्थम् ? अन्यतमं वनम् । अनित्यमागमानुशासनमित्पेकतरस्य न भवति । एकतरं वनम् । - युष्मदस्मदो ङसोऽश् ॥५५२३॥ युष्मदस्मदित्येताभ्यामुत्तरस्य ङसोऽश भवति । तब स्वम् । मम स्वम् । शित्करणं सर्वादेशार्थम् । डेंसुटोरम् ॥५१॥२४॥ युष्मदस्मद्भयां परस्य ः इत्येतस्य सुटश्च अमित्ययमादेशो भवति । तुभ्यम् । मह्यम् । त्वम् | अहम् । युवाम् । आवाम् । यूयम् । वयम् । त्वाम् । माम् । युवाम् । आवाम् । “युवावी द्वौं" [५।१।१५१] । “आवि" [५।१।१४७] इति दस्यात्वम् । इपि पुनः “इपि" [५।१।१४६] इत्यात्वम् । शसो नः ॥५१॥२५॥ युष्मदस्मदित्येताभ्यां परस्य शसो नकारादेशो भवति । युष्मान् । अत्मान् पातु जिनः । “परस्यादेः” [११५१] इत्यकारस्य नकारः । “स्फान्तस्य खम् [५।३।४१] इति सकारस्य खम् । "इपि" [५।१।१४६] इत्यात्वम् । “नश्च पुसि" [४।३।६१] इति नत्यं न सिध्यत्यलिङ्गत्वायुप्मदरमदोः । भ्यसोऽभ्यम् ॥११॥२६॥ युष्मदस्मद्भ्यां परस्य भ्यसोऽभ्यमित्ययमादेशो भवति । युष्मभ्यं देयम् । अस्मभ्यं देयम् । “खमादेशे" [५।११४६] इति दखम् । "एप्यतोऽपदे" [४।३।८४] इति पररूपत्वम् । अत्कायाः ॥५॥१॥२७॥ युष्मदस्मद्भयां परस्य काया भ्यसोऽदित्ययमादेशो भवति । युष्मदधीते । अस्मदधीते । उसे ॥१॥२८॥ युष्मदरमद्भयाम् परस्य ङसेरदादेशो भवति । "त्वमावेके" [५/१११५६] । त्वत् । मत् । साम प्राकम् ॥५१२६॥ युष्मदस्मद्भ्याम् परस्य साम अाकमादेशो भवति । युष्माकम् । अस्माकम् । भाविनं सुटं भूतबदुपादाय साम इति निर्देशः कृतः। आकमि कृते सुणनिवृत्त्यर्थः। कमि क्रियमाणे For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ५ सू० ३०-३६ एत्वं स्यात् । अकम्यकारोच्चारणसामर्थ्यात्पररूपाभावे स्वेऽको दीत्वेन सिद्धमाकारवचनं किम् ? हलन्तादपि यथा स्यात् । युष्मानाचक्षते युष्मयन्ति । तेषां युष्माकम् । तुह्योस्तातङ काशिषि ॥५॥१॥३०॥ तु हि इत्येतयोराशिष्यर्थे तातडादेशो भवति वा । जीवताद्भवान् । जीवतु भवान् । जीवतात्वम् । जीव त्वम् । तातङि डिस्करणमेवैपोब्रुव ईटश्च प्रतिषेधार्थ नत्वन्तादेशार्थं व्याख्यानात् । तेन कुरुतात् । मृष्टात् ब्रूताद्भवानिति सिद्धम् । आशिषीति किम् ? किं करोतु भवान् । कुरु त्वम् । जीवतात्वमित्यत्र "श्रतो हेः" [४॥ १९६] इति स्थानिवद्भावादुप् प्राप्नोति । नैवं “हुझल्ल्यो हेधिः " [४॥४॥६४] इत्यत्राधिकारे अतो हेरिति पुनर्हिग्रहणाद् हिरूपस्यैव हेरुब्भवति । उक्तं च "तात िडिवं संक्रमकृत्स्यादन्त्यविधिश्चेत्तच्च तथा न । हेरधिकारे हेरधिकारो नाशविधौ तु ज्ञापकमाह ॥" प्यस्तिवाक्से क्वः ॥५॥३१॥ क्वा इत्येतस्य प्य इत्ययमादेशो भवति तिसे वाक्से च । तिसेप्रकृत्य । वाक्से-उच्चैःकृत्य। नीचैःकृत्याचष्टे । तिवाक्स इति किम् ? अकृत्वा । परमकृत्वा । ____यभेऽश्ववृषयोः काचि सुक् ॥॥३२॥ यमविषये अश्व वृष इत्येतयोः क्यचि परतः सुग्भवति । अश्वस्यति बड़वा। वृषस्यति गौः। यभ इति किम् ? अश्वीयति । वृषीयति देवदत्तः । क्षीरलवणयोलौल्ये ॥११॥३३॥ क्षीरलवणयोर्लोल्ये क्यचि परतः सुम् भवति । क्षीरस्यति माणवकः । लवणस्यति उष्टः । लौल्य इति किम ? नीरीयति। लवणीयति वातकी। यभेऽश्वता इति सिद्धे गुरुनिर्देशात् "कचिदन्यत्रापि सुगसुक्च सर्वमृद्भयो लौल्ये भवति" । दधिस्यति । मधुस्यति । दध्यस्यति । मध्वस्यति इत्यादि सिद्धम् ।। आम्यात्सर्वनाम्नः सुट् ॥५॥१॥३४॥ आवर्णान्तात्सर्वनाम्न आमि परतः सुद् भवति । सर्वेषाम् । येषाम् । तेषाम् । केपाम् । सर्वासाम् । यासाम् । तासाम् । कासाम् । श्रादिति कानिर्देशः आमीत्यस्योत्तरत्र सावकाशस्य तानिर्देश प्रकल्पयति । श्रादिति किम् ? भवताम् । सर्वनाम्न इत्येव । नराणाम् । वेस्त्रयः ॥५॥१॥३५॥ त्रि इत्येतस्य त्रय इत्ययमादेशो भवत्यामि परतः । त्रयाणाम् । परमत्रयाणाम् । प्रेल्वाप्चतुरो नुट् ॥११॥३६॥ प्र इल मु इत्येवंसंज्ञकेभ्य आवन्ताच्चतुःशब्दाच्च आमि परतो नुड् भवति । प्र-देवानाम् । कवीनाम् । साधूनाम् | इल-घण्णाम् । पञ्चानाम् । मु-नदीनाम् । वधूनाम् । अाप-विद्यानाम् । बहराजानाम् । चतुर-चतुएर्णाम् । “गोरधिकारे तस्य तदन्तस्य च" [१०] इति । परमपण्णाम् । परमपञ्चानाम् । मुख्य कार्यसंप्रत्ययादिह न भवति । प्रियषपाम् । प्रियपआम् । इदिद्धोर्नुम् ॥५॥१॥३७॥ इकारेतो धो मागमो भवति । नन्दिता । नन्दितुम् । कुण्डिता । कुण्डितुम् । इदिति किम् ? पचति । धोरिति किम् ? अभैत्सीत् । सिरयं त्यः । “घिन्विकृण्व्योर च" [२।११७५] इति सनुम्कनिर्देशात्त्योत्पत्ते : प्रागेव नुम् । तेन कुएडा। हुण्डा । “सरोहलः" [२।३।८५] इत्यः सिद्धः । "उबुन्दिर" [धा०] इति ज्ञापकादिरितो नुम्न भवति । भेदनम् ।। शे मुचाम् ॥५॥१॥३८॥ शे परतो मुचादीनां नुम् भवति आगणपरिसमाप्तः । मुञ्चति । लुम्पति । विन्दति । श इति किम् ? मोक्ता । मोक्तुम् । एकस्य बहूत्वानुपपत्रोच्चादीनामिति विज्ञेयम् । शे इति योगविभागात "तृम्फादीनां नकारोड नुम् भवति । तम्फति । दृम्फति । गम्फति । उम्भति । शुम्भति । "हलुङः कित्यनिदितः” [४।४।२३] इति नखम् । पश्चान्नुम् । मस्जिनशोभलि ॥२१॥३६॥ मस्जि नश् इत्येतयोर्नुम्भवति झलादौ परतः । मङ्क्ता । मङ्क्तम् । नंष्टा । नंष्टुम् । मस्जेर्नुमि कृते "हलोऽनन्तराः स्फः" [१३] इति द्वयोस्त्रयाणां वा स्फसंज्ञा । द्वयोः स्फसंज्ञामा For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० १ सू० ४०-४६) महावृत्तिसहितम् ३४१ श्रित्य स्फादेः सस्य खम् । नुमोऽनुस्वारपरस्वत्वे । झलीति किम् ? मजनम् । नशिता । मस्जेः "झलां जशु झशि" [५।४।१२८] इति सकारस्य दत्वम् । दस्य च चुत्वं जकारः । “रधादेः” [५।१।६३] वेट । रधिजभोरचि ॥५१॥४०॥ रधि जभ इत्येतयोः अजादौ परतो नुम् भवति । रन्धयति । रन्धकः । साधुरन्धी । रन्धं रन्धम् । रन्धो वर्तते । जम्भयति । जम्भकः । साधुजम्भी | जम्भो वर्तते । कृताकृतप्रसङ्गित्वेनैपः प्रागेव नुम् । अचीति किम् ? रद्धा । जभ्यम् । लिटीटि रधेः ॥१४॥ रधेर्नुम भवति इडादौ लिटि परतः । ररन्धिव । ररन्धिम । नुमविधानसामर्थ्यत् "हलुङः वित्यनिदितः" [४।४।२२] इति नखं न भवति । नित्यार्थोऽयं योगः। लिस्येव इडादौ नान्यस्मिन् । रधिता । रधितुम् । विपरीतो नियमः करमान्न भवति ? इडादावेव लिटीति । इह न स्यात् । ररन्धतुः। ररन्धुः। नैवं योगविभागादिष्टप्रसिद्धः। लिटीटीति योगः कर्तव्यः । तदनु रधेरिति । रधेलिटीटि नुम भवति । रधेरिति पृथकरणं किमर्थम ? लिटीटीत्यत्रेष्टनियमसिद्धिर्यथा स्यात् । लिट्यवेडादौ रधेनु मिति ।। रभोऽशब्लिटोः ॥१॥४२॥ रभो गोर्नुम् भवति अजादौ न तु शब्लिटोः । आरम्भयामि । आरम्भकः । साध्वारम्भी। प्रारम्भमारम्भम् । आरम्भो वर्तते। अशब्लिटोरिति किम् ? आरम्भते । आरेभे। अचीत्येव । आरम्भम् । अशब्लिटोरित्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः । नत्रः सापेक्षस्यापि गमकत्वादनुष्णभोज्यादिवत्सविधिः । लभेः ॥१४३॥ लभेः शब्लिड्वर्जितेऽजादौ नुम्भवति। आलम्भयति । आलम्भकः । साध्वालम्भी। आलम्भमालम्भम् । आलम्भो वर्तते । अशब्लिटोरित्येव । अालमते । आलेभे। अचीत्येव । लभ्यम् । पृथग्योगकरणमुत्तरार्थम् । प्राङो यि ॥५॥१॥४४॥ आङ्पर्वस्य लभेर्यकारादौ त्ये परतो नुम् भवति । पालम्भ्या गौब्राह्मणेन । श्राङ इति किम् ? लभ्यम् । यीति किम् ? आलब्धा । आलभ्य गत इत्यत्र कृतेऽपि नुमि "हलुङः नित्यनिदितः" [४।४।२३] इति नखम् । मुम्वचनं त्वन्यत्र सावकाशम् । उपात्प्रशंसायाम् ॥५॥१॥४५॥ उपात्परस्य लभेः प्रशंसायाम) नुम् भवति यकारादी। उपलम्भ्या भवता विद्या । उपलम्भ्यानि धनानि । प्रशंसायामिति किम् ? उपलभ्यमत्माद् वृषलात् किञ्चित् । गेः खघोः ॥॥॥४६|| गेरुत्तरस्य लभेर्नुम् भवति खघोः परतः । सुप्रलम्भः । दुष्प्रलम्भः । घञि-प्रलम्भः । उपलम्भः । गेरिति किम् ? ईपल्लभो लाभः । नियमार्थोऽयं योगः । गेरेव खघोः । अथ रोः खघोरेव कस्मान्न भवति 'शप उपलम्भने' [धा०] इत्यादिनिर्देशात् । ___न सुदुर्ध्या केवलाभ्याम् ॥५॥१॥४७॥ सु दुस् इत्येताभ्यां केवलाभ्यां परस्य लभेर्नु न भवति । सुलभो दुर्लभः । कृच्छाकृच्छार्थदन्यत्र घन । सुलाभो दुर्लाभः । केवलाभ्यामिति किम् ? सुप्रलम्भः । दुष्प्रलम्भः । अतिसुलम्भः । जिग्रहणानुवृत्तेः सुदुसोग्र्योर्ग्रहणम् । अतिसुलभमिति कथम् ? "अतिक्रमे चातिः" [1] इति अतेर्गिसंज्ञाऽभावात् सुः केवल एव गिः । केवलग्रहणं हि तुल्यजातीयस्य गेनिवर्तकम् । अक्रियमाणेऽपि केवलग्रहणे सुदुसोः सन्निधाने उच्यमानं कार्य कथमन्याधिकयोरपि । इदमेव ज्ञापकं क्वचित्केवलस्य सन्निधाने उच्यमानमन्याधिकस्यापि भवति । तेन "निविश" [६।२।११] इत्यत्र निविशते अभिनिविशत इति सिद्धम् । मिणमोऽगेः ॥५॥१॥४८॥ अगिपूर्वस्य लभेर्वा नुम् भवति भिणमोः परतः । अलम्भि। अलाभि । लम्भं लम्भम् । लाभ लाभम् । अगेरिति किम् ? प्रालम्भि । प्रलम्भं प्रलम्भम् । उगिदचा घेऽधोः ।।५।११४६॥ उगितां गूनाम् अञ्चतेश्च घे परतो नुम् भवत्यधोः । गोमान् । धनवान् । विद्वान् । श्रेयान् । भवान् । पचन् । पचन्तौ । पचन्तः । अञ्चतेः प्राङ् । प्राञ्चौ। प्राञ्चः। उगिदचामिति किम ? वाक । बाचौ । वाचः । धे इति किम् ? पचतः पश्य । गोमतः पश्य । अञ्चतिग्रहणं निय. For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० १ सू० ५०-५३ ३४२ मार्थम् । उगितकार्ये धुध्वस्यैव । तेनेह न भवति । उखास्रत् । पर्यध्वत् । अधोरिति ग्रहणं पर्युदासार्थम् । धोरन्यस्य अधुभूतपूर्वस्य यथा स्यात् । गोमत्यत इति गोमान् । गोमानिवाचरति "कर्तुः क्यङ सखं विभाषा" [२] इति क्यङि कृते क्विप्यागतनिवृत्ते अतः के यखे च कृते सौ नुम् “अत्वसोऽघोः " [४|४|१२] इति दीत्वम् । युजेरसे || ५|१|५० ॥ युजि इत्येतस्यासे नुम्भवति धे परतः । युङ् । युञ्जौ । युञ्जः । " ऋत्विग्दष्टकू” [ २२/५७ ] इत्यादिना | "विवत्यस्य कुः " [५/३२७५ ] | ऋत इति किम् ? अश्वयुक् । ग्रश्वयुजी । 'ससूद्विष" [ २/२/५६ ] इत्यादिना क्विप् । “वागमिङ ” [१।३८२] इति पसः । स इत्यनर्थकम् । युजेरुच्यमानः कथं तदन्तस्य नुम् । इदमेव ज्ञापकम् "धोरधिकारे तदन्तविधिरप्यस्ति" [प०] इति । युजेरितीकारनिर्देशः किम् ? "युज् समाधौ ” [धा०] इत्यन्य ग्रहणं मा भूत् । युजमिच्छति मोक्षाय । पोऽज्भः || ५ | ११५१ ॥ नपुंसकलिङ्गस्याजन्तस्य दन्तस्य च नुम् भवति धे परतः । वनानि । धनानि । दधीनि । मधूनि । उदश्विन्ति । सर्पषि । अज्झल इति किम् ? विमलदिवि । चत्वारि । बहुगिरि । अहानि । “उगिदवां घेघो: " [५/१/४६] इति नुमं बाधित्वा परत्वादनेन नुम् । ददन्ति । जाग्रन्ति । जगन्ति । सुपीकोऽचि || ५|१|५२ ॥ अजादौ सुपि परत इगन्तस्य नपो नुम् भवति । तुम्बुरु | पुणे | सुपीति किम् ? तुम्बुरुणो विकारः तौम्बुवं चूर्णम् । “कद्र वोरोऽस्वयम्भुवः” [४|४|१३४ ] इत्युकारस्योत्वम् । इक इति किम् ? वने । जले। अचीति किम् । जतुभ्याम् | अज्ग्रहणमनर्थकम् । हत्यपि नुमि नस्खे कृते सिध्यति जतुभ्यामिति । तथा श्रतिराभ्याम् प्रियतिसृभ्यां कुलाभ्यामित्यपि । रायमतिक्रान्ताभ्यां कुलाभ्याम् । “तिकुप्रादयः” [१|३|८३] इति पसे कृते । "प्रो नपि” [१/१/७ ] इति प्रादेशः । प्रियास्तिस्रो ययोः कुलयोरिति विग्रहे बस: । अत्र परत्वान्नुमं बाधित्वा "राम्रो हलि" [ ५|१|१४४ ] इत्यालं तिसृभावः । " सकृद्गते परनिर्णये बाधित एव" [प] इति तिसृशब्दस्य पुनर्नुम्न भवति । शुचिशब्दस्यापि नपुंसकलिङ्गविवक्षायामामि परतः पूर्वविप्रतिषेधेन नुटि कृते नुम् । मृदन्तस्य नुमः खम् । "लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम्' [प०] इति" इन्हन्पूषाणाम्” [ ४/४/६] "शौ” [४|४|१०] इत्यस्य नियमस्याभावात् “नोङः” [ ४/४/५ ] इति दीवे कृते सिद्धं शुचीनामिति । यत्र नखं नास्ति तत्र श्रवणं स्यात् । हे जानो । “नोमता गोः " [1११६४ ] इति प्रतिषेधात्कथन्नुम् ? इदमेवाज्ग्रहणं ज्ञापकम् । अनित्यः सप्रतिपेधः । तेन कौ प्रस्यैपि कृते सिद्धं हे पो इति । उत्तरार्थं च । भादौ वोक्तपुंस्कं पुंवत् ||५|१|२३|| अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामः । इगन्तं नप् उक्तपुंस्कं भादावजादी परतो वा पुंवद्भवति । शुचिः साधुः । शुचि साधुवृत्तम् । शुचये । शुचिने वस्त्राय । अग्रणी - दण्डश्चक्रिणः । अग्रणि दण्डरत्नम् । पुंवद्भावपचे " प्रो नपि" [9191७ ] इति प्रादेशाभावः । " एर्गिवाक्चादुङोsसुधियः" [४|४|७८ ] इति यणू च । अग्रण्या । अग्रणिना । अमण्ये । श्रप्रणिने । अग्रण्यः । अग्रणिनः । अग्रयोः । अग्रणिनोः । अग्रण्याम् । अग्रणीनाम् । पूर्वविप्रतिषेधेन नुट् । श्रभ्याम् । अग्रणिनि इत्यत्र कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वात् "ङ राम् म्वाम्नीभ्यः " [ ५/२/११० ] इत्याम् । मृदवे मृदुने वस्त्राय । कर्ता नरः । कर्तृ कुलम् । कर्त्रा कर्तृणा । कत्रे । कर्तृ । इक इत्येव । जलपाः पुरुषः । जलपं कुलम् । जलवेन । विचीदं रूपम् | अचीत्येव ग्रामणिभ्याम् । प्रादेशो भवत्येव । भादाविति किम् ? मणिनो दण्डचक्ररत्ने । उक्तपुंस्कमिति किम् ? त्रपुणे । भादावुक्तपुंस्काद्वेति सिद्धे नपो विकल्प पुंवद्ग्रहणसामर्थ्यादप्रकृतस्यापि प्रादेशस्य विकल्पः । उक्तः पुमान् येन तुल्ये प्रवृत्तिनिमित्तेऽर्थे तदुक्तपुंस्कं शब्दरूपं गृह्यते । तेन भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तस्य पुंसि नपुंसकशब्दस्य विकल्पो न भवति । पीलुने फलाय | पीलुशब्दस्य वृक्षे समुदायः प्रवृत्तिनिमित्त फले तु तदवयवः । 1 For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० १ सू० ५४ - ६१ ] महावृत्तिसहितम् सक्थ्यस्थिदध्य क्षणा मनङ || ५|१|५४ ॥ सक्थि अस्थि दधि यक्षि इत्येतेषां नपामनङादेशो भवति । सक्थना | सक्ने । अस्थमा । अस्थ्ने । दध्ना | दध्ने | अणा । अणे । भादावित्येव । श्रस्थिनी । अचीत्येव । अस्थिभ्याम् । प्रियसकथना व्याधेन । गोः प्राधान्यात्तदन्तविधिरपि सक्थ्यादीनां नपुंसकानाम् । तदन्तस्य नपुंसकस्यानपुंसकस्य च गोरनङादेशो भवति । केवलानां सक्ध्यादीनां व्यपदेशिवद्भावाद्गुत्वम् । " व्यपदेशो न मृदा" [प०] इतीयं परिभाषा त्यविषया नेहावतिष्ठते । नम इति किम् ? दधिनोंम कश्चित् तेन दधिना । लोकप्रसिद्धशब्दानुशासनं हृीदमिति लोकसिद्धेनानङा सूत्रनिर्देशः । सुरीकोऽचीत्येव । नप इति प्रकृतिविशेषमिह गृह्यमाणविशेषणमिति पुंलिङ्गः समुदायोऽनङोऽवकाशः प्रियक्धना पुरुषेण । विनी सक्थिनी । दत्यादौ परत्वादन | ३४३ विदेः शतुर्वसुः ||५|१|५५ || भादावजादौ सुपीति निवृत्तम् । विदेः परस्य शतुर्वसुरादेशो भवति । विद्वान् | विद्वांसौ | विद्वांसः । विद्वांसम् । विद्वांसौ । विदेरिति कानिर्देशाद्विन्दतेर्निवृत्तिः । वेत्यनुवर्तत इत्येके । विदन् । विदन्ती । नथात् ||५|१|५६ || मनुवर्तते प्रकृतत्वात् । थादुत्तरस्य शत्रुर्नुम्न भवति । ददत् । ददतौ । ददतः । ददतम् । ददतौ । जाग्रत् । जाग्रती । जाग्रतः । जाग्रतम् । जाग्रतौ । “उगिदचां घेऽधो: " [ ५1१1४६] इत्यस्य प्रतिषेधः | वा नः ||५||२७|| थादुत्तरस्य नपुंसकस्य शतुर्वा नुम् भवति । ददन्ति कुलानि । ददति कुलानि । जाग्रन्ति कुलानि । जाग्रति कुलानि । “नपोऽज्झल: " [५११५१] इति नुम्विकल्पितः । उगिल्लक्षणस्तु "सद्गते पर निर्णये बाधितो बाधित एव" [१०] इति । शीघोरात् ||५|१|५८ ॥ श्रवर्णान्ताद् गोः परस्य शतुर्वा नुम् भवति शी मु इत्येतयोः परतः । तुदती कुले । तुदन्ती कुले । तुदती स्त्री । तुदन्ती स्त्री । याती कुले । यान्ती कुले । याती बड़वा । यन्ती वड़वा । करिध्यती कुले । करिष्यन्ती कुले । करिष्यती स्त्री । करिष्यन्ती स्त्री । आदिति किम् ? ती स्त्री । घ्नती स्त्री । अवर्णमात्राश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वात्प्राङ्नुमः पररूपम्, “वाद् गावं बलीयः " [प०] इत्यपि नास्ति भिन्नकालत्वात् । समकाल हि बलाबलं चिन्त्यते । भिन्नकालता च पूर्वमेकादेशः पश्चान्नुम् । एकादेशे कृते व्यपवर्गाभावादवर्णान्ताद्गोदत्तरस्य शत्रुरिति न घटते । " श्राद्यन्तवदेकस्मिन्" [तद्वत् ४ | ३ |७३] इति तद्वद्भावोऽपि न सम्भवति । “उभयत आश्रयणे न तद्भावः " [प० ] इति वचनात् । उभयं ह्यत्राश्रीयतेऽवर्णान्तो गुः शता च । यद्येकादेशः पूर्व प्रत्यन्तद्भवति तदा शता न विद्यते । अथ परं प्रत्यादिवत्तदाऽवर्णान्तो गुर्नास्ति । भूतपूर्वगत्याऽवर्णान्तस्य गोराश्रयणे श्रतीत्यादिध्वपि स्यात् । अत्रापि भूतपूर्वगत्या शप् । एवं तर्हि सूत्रसामर्थ्याद्भूतपूर्वगतिराश्रयणीया । श्रतीत्यादिषु तु नुम्न भवति श्रादिति निर्देशात् । अन्यथा शीम्वोरित्येव वाच्येत अवस्थासम्भवात् । श्यपः || ५|१|५६ ॥ श्य शपू इत्येताभ्यां परस्य शतुर्नुम् भवति शीवोः परतः । दीव्यन्ती कुले । दीव्यन्ती स्त्री । पचन्ती कुले । पचन्ती स्त्री | पुनरारम्भो नित्यार्थः । सावनडुहः ||५|१|३०|| बेति निवृत्तम् । अनडुह इत्येतस्य नुम् भवति सौ परतः । अनड्वान् । हे नवन् । For Private And Personal Use Only दि त् ||५|१|६१ ॥ दिव् इत्येतस्य सौ परत औकारादेशो भवति । द्यौरारुह्यते पुण्येन । हे द्यौः । सुखे प्राते परत्वादकारादेशः । “अनल्विधौ” [१११/५६ ] इति स्थानिवद्भावप्रतिषेधात्पुनर्न सुखम् । अथेह कस्मान्न भवति अक्षद्यूरिति । अत्रान्तरङ्गत्वादृट् । अन्तरङ्गता च कौ वकारस्योट् क्यन्तस्य सावकारः । व्युत्पत्तिः “दिवेडिव्” [ उ० सू० ] इति दिव् ! Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३४४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० १ सू० ६२-७० पथिमध्यमुक्षामात् ||५|१ | ६२ || पथिन् मधिन् ऋभुक्षिन् इत्येतेषामाकारादेशो भवति सौ परतः । पन्थाः । मन्थाः । ऋभुक्षाः । " अन्तेऽलः " [१/१/४६ ] इति नकारस्यात्यम् | "ए" [ ५।११६३] इती कारस्यापि । “स्वेऽको दी : " [४|३८८ ] | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए || ५|११६३॥ पथ्यादीनामवयवस्येकारस्याकारादेशो भवति धे परतः । पन्थाः पन्थानौ । पन्थानः पन्थानम् । पन्थानौ । एवं मन्थाः । मन्थानौ । ऋभुक्षाः । ऋभुक्षाणौ । एरित्यत्र तपरत्वाभावादिह कस्मान्न भव त्यात्वं पथोरिति ? पन्थानमिच्छति । "स्वेपः क्यच् ” [२|१|६ ] | “नः क्ये" [१|२| १०४ ] इति पदत्वम् । मृन्त नखम् “दीरकृद्गे” [५/२/१३४] इति दीत्वम् | पथीयतेः क्विप् । “श्रतः खम् " [४ | ४|५० ] | "बलि ध्योः खम् [ ४ | ३ | ५५ ] इति यखम् । इदानीं धे परत आत्वं प्राप्नोति । "परेऽचः पूर्वविधौ” [१/१/५७ ] इति स्थानिवद्भा वादकारेण व्यवधानान्न भवति । "न पदान्तद्वित्व [१/३/५८ ] इत्यादिना तु यखविधिमेव प्रति स्थानिवद्भाव प्रतिषेधः । आत्वविधिश्चायम् । ईविधिं प्रति कस्मान्न स्थानिवद्भावप्रतिषेधः । ईकारे विधि विधिरिति तत्र विग्रहः । ये चायं विधिकारे । “कौ नष्टं न स्थानिवत्" [प०] इति कस्मान्न प्रतिषेधः । तत्रापि "कौ विधिं प्रति नष्टं न स्थानिवत्" [प०] । घे चायं विधिर्न कौ । श्रवश्यमेवं विज्ञेयम् । अन्यथा कौ निमित्तभूते नई न स्थानिवद्भवतीत्युच्यमाने लौरिति न सिध्यति । लवमाचष्टे णिच् । “श्रतः खम् " [४] ४/५० ] लवतेः किं । गेः खम् । अत्रापि णिखमेव क्विनिमित्तम् नातः रूम् । ततः " परेऽचः पूर्वविधौ " [१/१/५७] इति स्थानिवद्भावादकारेण व्यवधानादूण्न स्वात् । "क्वौ विधिं प्रति नष्टं न स्थानिवत्" [१०] इत्युच्य माने सर्वस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधाल्लरिति सिद्धम् । थो न्थः ॥ ५६॥६४॥ पथ्यादीनां थकारस्य न्थादेशो भवति धे परतः । उक्तान्येवोदाहरणानि । त्रयाणामप्यवृत्तौ सम्भवात्पथिमथोस्थस्य न्थादेशः । भस्य टेः खम् ||५|१|६५ ॥ पथ्यादीनां भसंज्ञकानां टेः खं भवति । पथः पश्य । पथा । पथे । मथः मथा । मथे । ऋभुक्षः पश्य । ऋभुक्षा । ऋभुक्षे । भस्येति किम् ? पथिभ्याम् । ध इत्यनुवर्तमानमपीह न सम्बध्यते । पुंसोऽसुङ || ५|१|६६ || पुंसोऽसुङ्ङादेशो भवति धे परतः । पुमान् । पुमांसौ । पुमांसः । पुमांसम् । पुमांसौ । ध इत्येव पुंसः पश्य । “पुनातेर्मुकसुकौ प्रश्च" [उ. सू. ] इति पुंस् । गोर्णित् ||५|१|६७ ॥ घस्य विभक्तिविपरिणामः । गोशब्दात्परं धं द्विद्भवति । णित्कार्य भवतीत्यर्थः । गौः । गच्छतीति “गमेडस्" [ उ. सू. ] । गावः । सुगौः । इह कस्मान्न भवति ? हे चित्रगो । हे चित्रगवः । विहितविशेषणाददोषः । गोरेकत्वादिष्वर्थेषु विहितं धं द्विद्भवति । चित्रगुशब्दात्त्यन्यपदार्थादेकत्वादिधम् । अतिदेशोऽयं विनापि वतं लभ्यते । यथा गौर्वाहीकः । गौरित्युक्ते गोवदिति गम्यते । एवमिहाप्यरिणतं त्यं रितमाह । द्विदिति गम्यते । गोराविति सिद्धे रिएदिति प्रतिपत्तिगौरवं किम् ? कचिदन्यत्राप्यतिदेशो यथा स्यात् । तेन योशब्दस्य द्यौः । यायौ । द्यावः । चास्मरणम् ||५|१|६८ ॥ श्रस्मदो वा गल् खिद्भवति । अहं पपच । अहं पपाच । अहं चकर । अहं चकार । अस्मदिति त्रिकस्य संज्ञा । “मिङविशोऽस्मद्युष्मदन्याः " [ १/२/१५२] इति । अस्मदिति किम् ? स पपाच । सख्युरकौ ||५|१|६६॥ वेति नानुवर्तते । श्रकौ यः सखिशब्दस्तस्मात्परं धं द्विद्भवति । सखायौ । सखायः । सखायम् । सखायौ । काविति किम् ? हे सखे । श्रनङ सौ || ५|१|७० ॥ सख्युरनङादेशो भवति कौ सौ परतः । सखा । श्रावित्येव । हे सखे । For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० ५ पा० १ सू०७१-८३ ] महावृत्तिसहितम् ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसाम् ॥५॥११७१।। ऋकारान्तानाम उशनस् , पुरुदेशस् , अनेहस इत्येतेषां चानङादेशो भवति सावको परतः । कर्ता। पिता । माता। उशना। पुरुदंशा। नेहा । अकाविति किम ! हे कर्तः। हे मातः । हे पितः । हे उशनः । हे पुरुदंशः। हे अनेहः । "उशनसः कौ रूप्यमेके वाञ्छन्ति । नान्तमदन्तं सान्तमिनि । कथं नान्तता । अकावित्यनुवर्तते। स च नीषदर्थ द्रष्टव्यः । तेन क्वचिकावयनङ् । हे उशनन् । तथा “नखं मृदन्तस्याको" [५/३।३०] इत्यत्रापि नत्रीषदर्थ एव । तेन कावपि नखम् । हे उरान । यदा अनङ् न भवति तदा हे उशनः । ऋदिति तपरकरणमसन्देहार्थम् । “ग निगरणे" [धा०] इत्याद्यनुकरगनिवृत्त्यर्थं च गृरिति मया श्रुतः । चतुरनडुहोची ॥१॥७२॥ चतुर् अनडुह् इत्येतयोरुकारस्य वा इत्ययमादेशो भवति धे परतः । अनडुह इत्यत्र "द्वन्द्वाच्चुदहपो रार्थे" [।१०८] इत्यः सान्तोऽन्यथाऽन्तर्वतिविभक्ति कृतपदाश्रयो हकारस्य दः स्यात् । चत्वारि । चत्वारः । अनड्वान् । अनड़वाहो । अनड्वाहः। गोः प्राधान्यात्तदन्तविधिरपि । चतुरडुहन्तस्य गोर्वाऽऽदेशो भवत्यभिसंबन्धात् । केवलयोस्तु व्यपदेशिवद्भावः । प्रियचत्वारि । प्रियचत्वारः । प्रियानड्वान् । प्रियान इबाही । प्रियानड्वाहः । अनडुह, अनड्वाह, इति गौरादावुभयग्रहणात् अनडुही। अनड्वाही । इद्द क्रोष्ट्र क्रोष्टुशब्दा एकार्थी ऋदुदन्तौ त्तस्तत्र धे स्त्रियां च क्रोष्टशब्दस्यैव प्रयोगः-क्रोष्टा । क्रोप्यरो । क्रोष्टारः । कोष्टारम् । क्रोप्टारौ । क्रोष्ट्री । भादिष्वजादिषूभयोः । क्रोष्ट्रा । क्रोष्टुना । क्रोष्ट्रे । क्रोप्टवे । क्रोप्टुः । क्रोटोः । क्रोष्ट्रोः । क्रोष्ट्योः । क्रोष्टरि । क्रोष्टौ । को शस्यामि हलादौ च कोटुशब्दस्यैव । हे कोप्टो । कोष्टून् । कोष्टुभ्याम् । क्रोष्टुभिः । क्रोष्टुभ्यः । क्रोष्ट्रनाम् । क्रोष्टषु । अभिधानलक्षणाः कृद्धत्साः । "सितनिगमिमसिशच्यविधाञ्क्रुशिभ्यस्तुः" [उ० सू०] । वः कौ ॥४७३॥ चतुरनडुहोरुकारस्य व इत्ययमादेशो भवति को परतः । हे अतिचत्वः । हे अनड्वन् । वाऽऽदेशापवादोऽयम् । __ ऋत इद्धोः ॥५॥१७॥ ऋकारान्तस्य धोर्गोरिकारादेशो भवति । किरति । गिरति । अास्तीर्णः । विस्तीर्णः । विकीर्यते । स्तृञः क्ते वृतः “सनीड़ वा" [५/१।८६] इति विभापित इट् । “यस्य वा" [५/१।१२१] इति प्रतिषेधः । घोरिति किम् ? मातृणाम् । पितृणाम् । ननु लाक्षणिकं तदत्र कथं प्राप्तिाक्षणिकस्याप्यत्र ग्रहणमिप्यते। चिकीर्पिता। [उंङः ॥५॥११७५॥ पुवादुप् ॥५११७६॥ सावेम्मे ॥१७॥ हलामचः ॥५॥१७॥ ब्रजवदल्नोऽतः ॥५॥१॥७६॥ नेटि ॥१८०॥ हम्यतणश्वसजागृणिश्व्येदिताम् ॥१॥८१॥ ] बोर्गुञः ॥५॥११८२॥ उणु इडाद सौ मपरे वा ऐन्भवति । प्राप्ते विकल्पोऽयम् । प्रौर्णावीत् । प्रोणबीन् । यदा तु "इड्विजः” [१।११७६] इत्यनुवर्तमाने “वोर्णोः” [१७] इति ङित्वम् , तदा एवैयौः प्रतिषेधः । प्रौणु बीत । अतोऽनादयः ॥५॥१॥३॥ अनादेरतो घेवां ऐब्भवति इडादौ सौ मपरे । अकणीत् । अकाणीत् । अरणीत् । अरागीत् । अत इति किम् ? अदेवीत् । असेवीत् । तथा न्यकुटीत् । न्यपुटीत । ननु चात्र कुटादित्यारित्वे सत्येप्प्रतिषेधो भविष्यति । इग्लक्षणस्य स प्रतिषः धिलक्षणश्चायम् । अनादेरिति किम् ? मा निरशीत | मा निरटीत् । घेरिति किम ? अतक्षीत् । अरक्षीत् । इडादावित्येव । श्रधान्नीत् । इह कस्मान्न भवति । अचकामीदिति चकारेऽकारस्य । यस्य न व्यवधानं तत्याकारत्य विकल्पः । अत्र तु कासशब्देन १. प्रतिषु [ मनुसृत्यात्र निर्दिष्टानि । ] कोष्टकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिस्थुटिता। सूत्राणि तु जैनेन्द्रपञ्चाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ५ पा० १ सू० ८४ - ६१ व्यवधानम् । नन्वराणीदित्यत्रापि राकारेण व्यवधानमस्ति नैवं “येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि " [१०] इति वचनप्रामाण्यात् । हलन्तानुवृत्तेरेकेण हला व्यवधानेऽप्यसङ्घातेन व्यवधाने न भवति । यद्येवं घेरिति व्यर्थम् । प्रतक्षीदित्यत्र समुदायेन व्यवधानात् वर्णसङ्घातेन व्यवधानं भवति । न च न भवतीति परिभाषाऽऽश्रयणाददोषः । वलाद्यगस्येट् ||५|११८४ ॥ वलादेगस्य इडागमो भवति । लविता । लवितम् । लवितव्यम् । वलादेरिति किम् ? लव्यम् । लवनीयम् । अगस्येति किम् ? श्रास्ते । शेते । ननु " 'ऋत इद्धोः " (५|१|७४) इत्यनुवर्तमाने धोः संशब्दनेन विहितस्य वलादेरिद्भवतीत्युच्यमाने " रुदादेगें" [५|१|१३५ ] इत्यत्र रुदादेरेव गे नान्यस्येति रुद्रादीनामुदात्त पाठसामर्थ्येनेष्यवधारणात् स्वयमेवागस्येद्भविष्यतीति व्यर्थमगग्रहणम् । नैत्रं प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् । जुगुप्सत इत्यादौ घोः संशब्दनेन सन्विहित इतीण न भवति । ग्रहो लिटि दी ||५|१८|| ग्रह उत्तरस्य इटोऽलिटि दीर्भवति । वान्त इडनुवर्तमानोऽर्थवशात्तया विपरिणमते । ग्रहीता । ग्रहीतुम् । ग्रहीतव्यम् । अलिटीति किम् ? जग्रहिम । " लिडस्फात्कित्" [१1१1७६] “प्रहिज्या” [४।२।१२] आादिना जिः । यङन्तस्य कस्माद्दीनं भवति । जरीग्रहिता । जरीग्रहितुम् । तन्न ग्रहेयों विहित इट् तस्य दीर्भवतीति विहितविशेषणात् । " प्रकृतिग्रहणे यबन्तस्य ग्रहणम्" [ ५० ] कस्मान्न भवति ? "एकाचोऽनुदात्तात् " [५/१/११५] इति सिंहावलोकनेनैकाग्रहणं सम्बध्यते । तेन ग्रहरेकाचः कार्य यन्तस्य न भवति । ईटि कृते महीदित्यादौ " ईटीटः " [ ४/४/२० ] इत्यादिकं दीवे कथमिद कार्यम ? स्थानिचद्भावात् । “अनल्विधौ” [ १|१|५६ ] इति कथं न प्रतिषेधः ? नायमविधिरागमविधिरयम् । श्रवकृतस्यैये ग्रहणाभावात् ग्राहिताग्राहियते इत्यादौ त्रिवदिटो दीर्न । [ 'वृतो वा || ५ | ११८६६ ॥ न लिङि || ५|१| ८७॥ ] सौ मे || मरे सो परतः वृत इये दीर्न भवति । प्रावारिष्टाम् । प्रावारिपुः । आस्तारिष्टाम् । आस्तारिपुः । “मिप्यस्थ" [ २४८२ ] इत्यादिना तसस्ताम् । " वलाद्यगस्येट् ” [ ४|१८४ ] मेइति किम् ? प्रारिष्ट । प्रावरीष्ट । “लिङ स्योदें" [५।११०] इतीट् । सनी वा ॥५१॥८६॥ सनि परत वृत इड् वा भवति । वर्धते । विवरिष । विवरीषते । प्रावृते । प्राविवरिषते । प्राविवरीपते । प्रावुवूषति । प्राविवरिषति । प्राचिवरीपति । श्रतितीर्षति । आतिस्तरिति । ग्रातिरतरीप्रति । "सनि ग्रहगुहश्व" [ ५।१।११८ ] इतीट् प्रतिषेधे प्राते पक्षे इट् । चिकीर्षतीत्यादौ दीवे ऋतो लाक्षणिकत्वादिडभावः । I लिङ्स्योदे ॥ ५६॥६०॥ वृतः परयोः लिङ सि इत्येतयोर्दे वा इड्भवति । द इति सेरेव विशेषणम् । लिङ मविषये यासुट सति वलादित्वादिडभावः । वृषीष्ट । वरिषीष्ट । प्रावृषीष्ट । प्रावरिपीष्ट । आस्तीपष्ट । प्रास्तरिषीष्ट । " न लिङि ” [ ५1१1८७ ] इति दीत्वाभावः । अनिट् पक्षे “उ: " [१|१|८६ ] इति कित्त्वम् । सो वृत | अवरिष्ट | अवरीष्ट । प्रावृत । प्रावरिष्ट । प्रावरीष्ट । श्रास्तीर्षाताम् । श्रास्तरिपाताम् । ग्रास्तरी पाताम् । इट" वृतो वा” [५|१|८६] इति दीत्वम् । प्रवृतेत्यादौ " प्राद्गो: [ ५।३।४५ ] इति सेः खम् । दइति किम् ? श्रास्तारिष्टाम् । श्रास्तारिषुः । "सौ मे” [५] इति दीत्वाभावः । बलाद्यगस्येटो विकल्पोऽयम् । स्फाहतोऽसुटः || ५|१|६१ ॥ स्फादसुटः परो य ऋकारस्तदन्तात् परयोर्लिङस्यो वा इड् भवति । स्मृषीष्ट । स्मरिषीष्ट । वृपीष्ट । ध्वरिपीष्ट । अस्मृषाताम् । अस्मरिपाताम् । “ङ” [ ११२२७ ] दः । स्फादिति किम् ? कृपीष्ट | अकृपत । ऋत इत इति किम् ? च्योषीष्ट । श्रच्योष्ट । असुर इति किम् ? संस्कृपीष्ट । १. प्रतिषु [ ] कोष्टकान्तर्गतयोः सूत्रयोर्वृतिर्नोपलब्धाऽतः जैनेन्द्रपञ्चाध्यायीमनुसृत्य सूत्र यमत्र निर्दिष्टम् । For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० १ सू० ६२-६७ ] महावृत्तिसहितम् ३४७ समस्कृत | सम्पूर्वस्य कृञः " सम्पर्युपात्कृनः " [ ४|३|११० ] इति मुर् | पूर्व बुगिंना युज्यते पश्चात्साधनवाचिना त्येनेत्यन्तरङ्गः सुट् । बहिरङ्ग समकृतेत्यत्र कात्पूर्वमट् स्यात् । स्वरतिषूङ्घसूत्यूदितः || ५|१|१२|| स्वरति पूङ् धूञ् सूति इत्येतेभ्यः ऊदिभ्यश्च वलयस्य वाइड भवति । “लिङ स्योदें" [ ४१६० ] इत्येतन्निवृत्तम् । वेत्यनुवर्तते । इष्टतोऽधिकाराणां प्रवृत्तिनिवृत्ती इति स्वरतेरप्राप्ते विकल्पोऽन्येषां प्राप्ते । स्वर्ती । स्वरिता ! स्वर्तुम् । स्वरितुम्। विसोता । विसविता | विधोता । विधविता | सोता । सविता । ऊदितः । विगाढा | विगाहिता । निगोढा । निगूहिता । स्वरतैस्तिपा निर्देशो यचन्तनिवृत्यर्थः । सरीस्वरिता । सूङ्ङ्घञरनुबन्धनिर्देशः सुवतिबुवत्योर्विकल्पनिवृत्त्यर्थः । सविष्यति । विष्यति । स्वरतेः स्थविषये "हनृतः स्ये” [ ५|१|१२६] इति परत्वादिट् । स्वरिष्यति । विद्विषयेऽपि परत्वात् "युकः किति" [५/१/११७] इति प्रतिषेधः । सृत्वा । धूत्वा । स्वरत्यादीनां प्रतिपदग्रहणं किम् ? ऊदित एव ते पठितव्याः ? पृथग्ग्रहणस्यैतत्प्रयोजनम् । अनुबन्धकृतमनित्यं भवति । तेन उपलब्धिः । दंष्ट्रा इत्यत्र पित्वादङ् टिवान्ङीर्न भवति । अनुबन्धनिर्दिष्टं यचन्तस्य न भवति । जोगूहिता | रधादेः || ५|२१|१३|| रध इत्येवमादिभ्यश्च वा इड् भवति । रद्धा । रविता | नंष्टा । नशिता । रधादयोऽष्टौ वृत्पर्यन्ताः । प्रकृतस्येटः स्याद्विकल्पः क्रादिनियमाल्लिटि कथम् ? रधादिषूदात्तानुदात्तपाठाभावात् "येन नाप्राप्ते तस्य तद्बाधनम्" इत्यस्य न्यायस्यासम्भवात् श्रविशेषेण विकल्पः । ररध्व । ररम | रन्धि | ररन्धिम | निष्कुषः || ५|१|१४|| निस्पूर्वात्कुषः बलाद्यगस्य वा इड् भवति । निष्कोष्टा । निष्कोष्टिता । “इदुदुङोऽत्यम्मुहुस:" [ ५४२८ ] इति रेफस्य सत्वम् । इणः षत्वम् । निस् इति किम् ? कोषिता । प्रकोषिता । इट् ते ||२||६५ ॥ निपूर्वीत् कुषः ते परतः इड् भवति । निस्कुषितः । निस्कुषितवान् । पुनरिग्रहणं नित्यार्थमन्यथा विकल्पः स्यात् । आरम्भो हि " यस्य वा " [ ५|१|१२१] इत्यस्य बाधनार्थो न नित्यार्थः । वेत्युत्तरत्रानुवर्तत एव । ती सहलु रूपरिषः || ५ | ११६६ ॥ तकारादावगे परतः इष सह लुभ रुप रिंप इत्येतेभ्यो वा इड् भवति । एष्टा । एपिता । सोटा । सहिता । लोग्धा । लोभिता । रोष्टा । रोपिता । रेष्टा । रेषिता । तकारादाविति किम् ? एषिष्यति । इभौवादिकस्य ग्रहणं सहिसाहचैर्यात् । तेनेतरयोर्विकल्पो न भवति । को विशेषः ते " यस्य वा " [ ५।१।१२१ ] इति प्रतिषेधो न भवति । इषितः । इषितवान् । लुभ इत्यविशेषण ग्रहणम् । सनीघन्तर्द्ध भ्रस्जदम्भुवृत्रिर्गुभरशपिसनाम् ॥१६७॥ इन्तानां धूनाम् ऋधू भ्रस्ज दम्भु स्वृ श्रि यु ऊर्णुळे भर ज्ञपि सन इत्येषां च सनि परतः वा इड् भवति । दुद्यूषति । दिदेविषति । सूस्यूपति । सिसेविषति । श्रनिट्पक्षे " हलन्तात् " [1111८४] इति सनः कित्त्वम् । “छो: शूड्डे च” [४|४|१७] इत्यूट् । यणादेशो द्वित्वं च "पणि चारिणस्तोरेव " [५/४/४१] इति नियमात् सिवेश्चात् परस्य पत्वं न भवति । ईति श्रर्दिधिपति । ऋधेः सन् । च इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम् । " श्राज्ञपृधामीत्" [५/२/१५७ ] इति ऋकारस्य ईत्वम् । रन्तत्वम् । " चस्यात्र खम् " [५१२/१६० ] | इटि सि इति । "न स्फादौ न्द्रोऽयि” [४|३|३] इति विशब्दस्य द्वित्वम् । " चे चर्व्वम्" [ ५|४|१२६] इति दः । बिभर्क्षति । विभ्रक्षति । बिभर्जिषति विभ्रज्जिप्रति । "भ्रस्जो रसोरम्बा " [ ४|४|१४६ ] इदि रेफसकारयोः वा परो रम् भवति । धिप्सति । धीप्सति । दिदम्भिषति । " दम्भ इच्च" [ ५|२/१५८ ] इति श्रस्य इत्वमी ईत्वम् | "चस्यात्र खम्" । " हलन्तात् " [ १११८६४ ] इति कित्त्वान्नै । " एकाचो वशः " [ ५/३/५४ ] इति धत्वम् । " खरि" [ ५|४|१३०] इति चर्व्वम् । सूस्वर्षति । For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ५ पा० १ सू० ६८-१०५ सिरवरिपति । शिश्रीपति । शिश्रविपति । संयुयूपति । संयियविपति । दृद्धि कृते "द्विवेऽचि " [ १/१/५६ ] इत्येववादेशः स्थानिवद्भावा इति द्वित्वम् । प्रो नूपति | प्रोणुनविपति। प्रोर्णुनुविषति । इट्पक्षे “वोर्णोः ” [१।१।७७ ] इति वा ङिच्यम् । बुभूषति । यचन्तनिवृत्त्यर्थः शपा निर्देशः । ज्ञीप्सति । जिज्ञापयिपति । "श्रावृधामीत्" [५/२/१५७ ] इतीच्चले । सिसासति । सिसनिपति । " जनसनखनाम्" [ ४/४/४३] “सनि” [४|४|१४ ] इत्यात्वम् | सनीति योगविभागात् " तनिपतिदरिद्रो ग्रहणम्" । तिवसति । तितंसति । तिर्नानिति । पित्सति । पिपतिपति । दिदरिद्रासति । दिदरिद्रिषति । सनीति किम् ? देविता । क्लिशस्तत्वोः ॥ १२॥६८॥ क्लिशः तक्त्वा इत्येतयोर्वा इड् भवति । क्लिष्टः । क्लिशितः । क्लिष्ट वान् । क्लिशितवान् । क्लिष्ट्वा । क्लिशिला । इट्पक्षे क्त्वात्यस्य " क्विशः " [91१1८१] इति कित्त्वम् । क्लिश् इत्येतस्य क्त्वात्ये स्वत्यादिना सिद्धो विकल्पः । ते " यस्य वा " [५।१।१२१] इति प्रतिषेधः प्राप्नोति । क्लिश उपताप इत्यस्य तु तत्वोर्नित्यमिटि प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् । पूङः ||५|१|६६॥ पूङश्च त क्त्वा इत्येतयोः परतः बेड् भवति । “युकः किति” [ ५।११११७] इति प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पः । घृतः । पत्रितः । पृतवान् । पवितवान् । पूत्वा । पवित्वा । इट्पक्षे ते “तः सेट् पूङ ” [91918२] इत्यादिना क्या ये तु "मृड" [११११८० ] आदिनियमेन कित्त्वाभावः । सानुबन्धनिर्देशः पूजो नित्रत्यर्थः । इटि सति पुचित इत्यनिष्ट ं स्यात् । क्षुद्रसरि ||५|१|१००॥ दुध वसति इत्येताभ्यां त क्त्वा इत्येतयोरिड भवति । क्षुधितः । क्षुधितवान् । क्षुधित्वा । दोषित्वा । उपितः । उषितवान् । उषित्वा । क्षुधेः क्लास्य "व्युङोऽवो हलः संश्च" [91818७ ] इति वा किलम्। तिपा निर्देशो यङन्तनिवृत्त्यर्थः । वावस्तः । वावस्तवान् । पुनरिग्रहणं नित्यार्थम् । चेः पूजायाम् ||५|१|१०१ ॥ ञ्चतेः पूजायामर्थं त क्त्वा इत्येतयोरिड भवति । वेति निवृत्तम् । अञ्चितः । श्रचितवान् । श्रश्चित्वा गुरून् गतः । " नाचेः पूजे" [४।४।२६] इति नखाभावः । क्लाये “वोदितः " [ ५|१|१०४ ] इति विकल्पे ते "यस्य वा " [ ५।१।१२१] इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । पूजायामिति किम ? उक्तमुदकं कृपात् । स्वार्थे लुभात् ||५|१|१०२ || स्वार्थे विमोहने वर्तमानात् लुभात् तक्त्वा इत्येतयोरिड् भवति । विलुभिताः केशाः । विलुभिता सीमन्ताः । विशुभितानि पदानि । लुभित्वा । लोभित्वा । क्ला त्ये "तीपसह " [५।१।६६ ] इति विकल्ये ते " यस्य वा" [५।१११२१] इति प्रतिषेधे वचनम् । स्वार्थं इति किम १ लुब्धो न लभते पुयम् । विविधं मोहनं विमोहनमाकुलीभवनमित्यर्थः । लुभादिति शविकरणनिर्देशात् " लुभ गायें" [घा०] इत्यस्य निवृत्तिः । चः क्त्वः ||५||१०३ || जू त्रश्च इत्येताभ्यां क्त्वा इत्येतस्येव भवति । तनिवृत्यर्थं क्वग्रह म् । जरित्या । जरीत्या । त्रश्चित्ला । “मृड" [११] ८० ] श्रादिनियमादकित्त्वम् ? नृ इत्येतस्य युकः प्रति येथे त्रश्चेरूदित्त्वात् विकल्पे प्राप्ते सूत्रम्। ज इति त्र्यादिकस्य ग्रहणं नृपः सानुबन्धकत्वात् । जीर्ला । वोदितः || ५|१|१०४॥ उकारेतो धोः क्त्वात्यस्य वा इड् भवति । शान्त्वा । शमिला | तांत्या | तमिला | अनिपक्षे "इस्य विझलोः ङ्किति” [ ४|४|१३] इति दील्यम् | त्यसौ कृतचूतच्छ्रददन्तः || ५|१|१०५ ॥ अगे सकारादावसौ परतः कृत चूत छुद तृद नृत इत्येतेभ्यो वा इड् भवति । कस्येति । श्रकत्र्त्स्यत् । चिकृत्सति । कर्तिष्यति । अकर्तिष्यन् । चिकर्तिपति । चति । श्रचत् । चित्सति । चर्तिष्यति । अवर्तिष्यत् । चिचतिपति । छःस्र्यति । छत्स्र्यत् । चिलसति । छर्दियति । द्विध्यत् । चिछद्दिपति । तत्स्र्त्स्यति । अतत्स्र्यत् । तितृत्स्सति । तर्द्दिष्यति । तद्दिप्यत् । तितर्दिपति । For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० । सू० १०६-१०६] महावृत्तिसहितम् ३४६ नय॑ति । अनस्य॑त । निस्सति । नतिष्यति । अनतिष्यत । निनतिपति । सीति किम् ? कर्तिता । असाविति किम् ! अकर्तीत् । अप्राप्त विकल्पोऽयम् । गमेरिणमे ॥५२॥१०६॥ गमेरिड भवति सकादौ मे। इडग्रहणां नित्यार्थम् । गमेरिति मम् । "गस्ट रसृप्ल गती' [धा०] । “सनि" [१।४।११८] इति इणो गमादेशस्य "इण्वदिकः" [वा०] इति वक्तव्येन "इक् स्मरणे [धा०] इत्यस्य "इङः" [१।४।१२०] इति “इङ अध्ययने” [धा०] इत्यस्य चाविशेपेण ग्रहणम् । गमिप्यति । अगमिष्यत् । अनादेशस्येदम् । जिगमिष्यति । इणादेशस्यापीदम् । अधिजिगमिषति । "इण्वदिकः" [वा०] । गमेरिति किम् ? एष्यति । म इति किम् ? संगंसीष्ट । संगस्यते । संजिगंसते वत्सो मात्रा । अधिजिगांसते । “हनिङ्गम्यचां सनि" [४।४।१४] इति दीत्वम् । म इति विषयनिर्दशोऽयम् । मे यो.गमिरुपलब्धस्तस्य सकारादाविड़ भवतीति । तेन हेरुपि कृति चेट सिद्धः । जिगमिप त्वम् । जिगमिषिता । गमेरिति योगविभागो द्रष्टव्यः । तत्र वेति सम्बध्यते । कचिदन्यत्रापि वा सकाराविङ् भवति । संजिगमिपिता। संजिगसिता । अधिजिगांसिता व्याकरणस्य । न वृतादेः॥१२॥१०७॥ वृतादेमें इण न भवति । सकारादाविति निवृत्तम् । वय॑ति । अवय॑त । वृध् । वस्यति । अवय॑त् । विवृत्सति । शयति । अशय॑त् । शिशत्सति । स्यन्त्स्यति । अस्यन्स्यत् । सिस्यन्त्सति । कल्प्स्यति । अकल्प्स्यत् । चिक्लप्सति । कल्प्ता। कल्तारौ। कल्तारः । म इत्येव । वर्तिध्यते "स्यसनोवृद्भ्यः" [१।२।८८] "लुटि च क्लुपः" [१॥२।८६] इति वा मविधिः । वृतादयः पञ्च वृत्पर्यन्ताः । वृत्करणमिहार्थ छताद्यर्थ च । द्विगता अपि हेतवो भवन्तीति | इह कथं विवृत्सत्वम् । अत्रापि मे इति विषयनिर्देशान्मेनोपलक्षितानां वृतादीनां नेट् भवति । तेन हेरुपि कृति च इडभावः सिद्धः । विवृत्सिता । दविषये तु विवर्तिषस्व । विवर्तिषितुम् । घोपदेशेऽत्वदचसृजिदृशस्तासौ नित्यानिटस्थेऽव्यादः ॥५॥१॥१०८॥ उपदेशे अकारवद्भयः अजन्तेभ्यः सृजि दृशि इत्येताभ्यां च तासौ नित्यानिड्भ्यः थे वा इद् भवति व्या अद इत्येतौ वर्जयित्वा । कादिनियमादिटि प्राप्त विकल्पः । अत्वान्-पक्ता । पपक्थ । पेचिथ । शक्ता । शशक्थ । शेकिथ । अचयाता। ययाथ । ययिथ । चेता। चिचेथ । चिचयिथ । होता। जुहोथ । जुहविथ । सप्टा । सनष्ठ । ससजिथ । दृश-द्रष्टा। दद्रष्ट। ददर्शिथ । उपदेश इति किम् ? का। चकर्षिथ । एतेषामिति किम ? भेता । विभेदिथ । तासाविति किम् ? गन्ता । जगन्थ । जगमिथ । नित्यानिट एवोच्यमाने अयं गमिर्नित्यानिएन भवति । सकारादाविटत्वात् “गमेरिरामे" [५।१।१०६] इति । अतोऽस्य विकल्पो न स्यात् । तथा-जिघृक्षति । जग्रहिथ । लुत्ला । लुलविथ । “सनि ग्रहगुहश्च" [५।१।११८] "श्रू युकः किति" [५/१११७] इति सनि किति च नित्यानिटाविमौ न तु तासौ। नित्यग्रहणं किम् ? अङक्ता । अञ्जिता । यानजिथ । विधोता । विधविता । विदुधविथ । तासौ विभापितेऽटोऽनिटकार्य मा भूत् । असति तु नित्यग्रहणे पाक्षिकेणापि ही इभावे वाऽनिड्भवत्येव । यथा गुदो विभाषितेटोऽपि अनिट्कार्य "शलोऽनिटोऽदृशः क्सः” [२।१।४०] इति क्सः। अवक्षत । थ इति किम् ? पेचिम। यविव । ययिम । अव्याद इति किम ? व्याता। विव्ययिष। अत्ता। यादिथ । “तदादेशास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते" [प.] जघसिथ । अत्वदिति तपरकरणं किम् ? राद्धा। रराधिथ । - ऋतः ॥५॥१।२०६॥ उपदेशे ऋकारान्तात्तासौ नित्यानिटः थे नेड् भवति । कर्ता । चकर्थ । हर्ता । जहर्थ । स्मर्ता । सस्मर्थ । धर्ता । दधर्थ । तपरकरणमसन्देहार्थम् । यदि विकल्पः स्यादजन्तत्वात् पूर्वेणैव सिद्धः । यदि विधिरिष्टः स्यादव्याद इत्यत्रैव कारस्य पयुदासः क्रियेत पृथग्योगकरणमनर्थकम् । तस्मात्पारिशेष्यात् “न वृताः " [५/१११०७] इत्यतः प्रकृतः प्रतिषेध एवाभिसम्बध्यते । असुटः इत्यनुवर्तते । सञ्चस्करिथ । For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ५ सू० ५१०-११५ अतः ॥५२॥११०॥ अतः "ऋतः” इत्यनेन यदुक्तं तन्न भवति । अर्ता । आरिथ । प्रतिषेधस्तावनाभिसम्बध्यते । ऋत इत्येव सिद्धत्वात् । विकल्पोऽपि यदीष्टः स्यात् “अत्वदच्सृजिदृशः” इत्यत्रैवाःग्रहणं क्रियेत । ततः सूत्रारम्भसामर्थ्याद् विधिरभिसम्बध्यते ।। स्नोर्थात् ॥११॥२११॥ नेत्यनुवर्तते । स्नु इत्येतस्माद् दार्थाइनिमित्तादगे इएन भवति । प्रस्नोष्यते । प्रस्नोष्टीष्ट । प्रास्नोष्ट । "डौ" [१७] इति दः । "स्नोश्च त्रिश्च" [२१११५६] इति लुङिन जिः। सुस्नुषिष्यते इत्यत्र “सनि ग्रहगुहश्च" [५/१।११८] इत्यनेनैव प्रतिषेधः। इह कथं प्रस्नवितेवाचरति प्रनवित्रीयते । नात्र स्नोतिर्दार्थः । किं तर्हि ? क्यडन्तो धुः। “रोङ ऋतः [५।२।१३६] इति रीङ् । दोऽर्थो यस्य सोऽयं दार्थः । दप्रयोजन इत्यर्थः । कदा च स्तुर्दार्थः । यदा भावकर्मकर्मव्यतिहारा विवक्षिताः । सति च दे दार्थत्वं तेन कृति न भवति । प्रस्नवितुम् । यदि सति दे दार्थत्वं दे इति वक्तव्यम् । न दे परतः इत्यानन्तर्य विज्ञायेत । स्यादिव्यवधाने न स्यात् प्रतिषेधः । दार्थादिति किम् ? प्रनविता । प्रस्नवितुम् । क्रमः ॥५॥१११२॥ दार्थादिति वर्तते । क्रमश्च दार्थादिण न भवति । प्रकंस्यते । प्रक्रसीष्ट । प्रचिकंसते। प्रचिसिध्यते । सन्नन्तप्रयोगेऽपि क्रमिरेव दार्थः । “सनः पूर्ववत्" [२५८] इति क्रमिः सम्बन्धिनो दस्यातिदेशात् । अत्रापि दार्थत्वं भाषकर्मकर्मव्यतिहारा वृत्त्यादयोऽर्थाः “वाऽः” [॥२।३६] इति शेषयोगश्च । दार्थादित्येव । प्रक्रमितव्यम् । प्रक्रमितुम् । सति दे दार्थत्वमिति । "प्रादारम्भे" [११२।३८] इति दः । कर्तरि कृति ॥५॥११११३॥ क्रमेदार्थाद्दविषयात् कर्तरि कृति नेड् भवति । इह कृतीति वचनसमाहत्यासम्भवाद्दार्थादिति दविषयादित्यवगन्तव्यम् । अप्रयोगेऽपि दस्य दविषयत्वं पूर्व तु सत्येव दे दार्थत्वं व्याख्यातम् । प्रक्रन्ता । उपक्रन्ता। प्रचिक्रसिता। कर्तरि कृति । प्रक्रमितव्यम् । उपक्रमितव्यम् । प्रचिऋमिया । दार्थादिति किम् ? निष्क्रमिता । "इदुदुडोऽत्यपुम्मुहुसः" [५।४।२८] इति सत्वम् । “इणः पः" [५।४।२७] पत्वम् । वशि ॥५॥१।११४॥ कृतीत्येकदेशोऽनुवर्तते । वशादौ कृति नेड् भवति । प्राप्त प्रतिषेधः । ईश्वरः । दीप्रः । भस्म । यत्नः । वर-र-म ना एव प्रयोजयन्तीति केचित् । तदयुक्तम् । अन्यत्रापि दर्शनात् । “अमन्ताड्डः” [उ० सू०] । दण्डः । “मुदिनोर्गः" [उ० सू०] । मुद्गः । गर्गः। “दरिदलिभ्यां भः" [उ० सू०] । दर्भः । दल्भः। कृतीति किम् ? रुरुदिव । रुरुदिम । एकाचोऽनुदात्तात् ॥११५॥ उपदेशे एकाचो धोः अनुदाचादिण न भवति । याता। कर्ता । पक्ता । एकाचोऽजन्ताः । अदन्तमूदन्तमृदन्तं स्विश्रोडीशीङो डुक्रीऔ । युरुगृणु नुत्तु दणुवश्च वर्जयित्वा । ऊर्णोतेणु वद्भावादेकान्त्वम् । श्रावधिपीष्ट । “पाको यमहनः" [१।२।२३] इति दः। "हनो वध लिहि" [११११११४] इति बधादेशः । स चावधीदित्यत्र ऐप् मा भूदित्यन्त उदात्तश्चोपदिश्यते । स्थानिवद्भावेनानुदात्तो मा भूदित्येवमर्थम् । लविता । तरिता ! श्वयिता । इत्यादि योज्यम् । हलन्ता अनुदात्ता प्रदर्श्यन्ते । शकिघसिबमतयः। घसिः प्रकृत्यन्तरमन्यस्ति । घस्ता। वसतेस्तिपा निर्देशः अाच्छादनार्थे निवृत्त्यर्थः । वसिता पटस्य । यभिरभिलभयः । यमिरमिनमिगमयः हनिमन्यती। श्यनिर्देशो मनुतेर्निवृत्त्यर्थः । मनिता । दहिदिहिद्र हिरुहिनहिवहिलिहिपिहयोऽष्टौ ।। सहेतु "तीपसह" [५/११६६] इति विकल्पो मुहेरपि । रधादौ दिशिदशिमृशिस्मृशिरिशिरुशिविशिकु शिलिशिदंशयो दश १० राधिरुधिधिसाधियुधिव्याधिबन्धिसुधितुधिबुध्यतिसिध्यतय - श्चैकादश ।११। बुध्यतिसिध्यतोः स्यनिर्देशो भौवादिकयोनिवृत्त्यर्थः । बोधिता । सेधिता। अकारेतावेतौ । बुधितम् । सिधितम् । शिषिशुषितुषिदुषिपिषिविषिकृषित्विषिद्विपिश्लिपय एकादश ॥१३|| प्रापितपिस्वपिलिपिलुपिने क्षिपिशपिवपितिपिछपिसृपितृपिदृपयः त्रयोदश ॥१३॥ तृपिहपी रधादिपाटाद्विकल्पितेटी इहानुदात्तपाट For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र० ५ पा० । सू० ३१६-११६] महावृत्तिसहितम् ३५१ झल्यकित्यमागमार्थः । ता | तप्ता । द्रसा। दर्ता । अदि (हदि)नुदितुदिस्कन्दिछिदिभिदिशदिक्षुदिपदिखिदिस्विद्यति(विद्यति)विन्तयः पञ्चदश ।१५। स्विद्यतीति स्यनिर्देशो जिस्त्रिदा स्नेहने इत्यस्य निवृत्त्यर्थः । विद्यतिविन्त्योर्विकरणनिर्देशोऽन्यविकरणनिवृत्यर्थः । वेदिता शास्त्रस्य । बेदिता वनस्य । केचित्तु विन्दतिमनिटमिच्छन्ति । वेत्ता वनस्य । पचिपचिविचिरिचिसिचिशुचयः पट् ।६। प्रच्छि ।१। युजिरुजिरजिभुजिभजिसृजिसजित्यजियजिमस्जिनिजिभ्रस्जिस्वजयश्चतुर्दश ।१४। एकाच इति किम् ? बेभिदिता। अस्ययमखे यखे च कृते उदात्तः । न त्वेकाच । नन्वयमप्युपदेशे एकाच । नैवं बेभियरूपेणोपदेशात् । यद्येवं बिभित्सतीत्यत्रापि स्यात् । सन्नतन्स्येभवत्येव । बिभित्सता। सनि तु परे न भवति । द्वित्वमिति स एवायं भिदिरेकाजदनुदात्तश्च । यदि वा उपदेशे अयमेकाच् ? अनुदात्तादिति किम् ? लविता | लवितुम् । उपदेश इति किम् ? पेचिव । पेचिम । कथमिदमुदाहरणं युक्तम् । असत्युपदेशाधिकारे एकाचोऽनुदात्तस्य यदि लिटि प्रतिषेधः सिद्धः स्यात्तदा नियमः स्याच्चकृवादौ। न च लिटि प्रतिषेधः प्राप्नोति, द्वित्वे कृतेऽनेकाच्यात् । सति तूपदेशाधिकारे उपदेशावस्थायामेकाजिति कृत्वा प्रतिषेधः सिद्धस्ततो नियमः । तितुत्रतथसिसुसरकसेऽग्रहादेः ॥५१॥११६॥ अवस्यापि प्रतिषेधोऽयम् । ति तु त्र त थ सि सु सर क स इत्येतेषु परतो नेड् भवति ग्रहादीन् वर्जयित्वा । तंतिः । क्तिच् । “न क्तिचि दीश्च" [१४|४०] इति नखदीत्वयोरभावः । सक्तः । "सितनिगमिमनिमसिसच्यविधाजथिभ्यस्तुः” उ० स०। पत्रम । "दाम्नीशसयुयुज" [२॥२॥१६०] इत्यादिना त्रट | हस्तः। “हसिमृगृण्वमिद मिलूपूर्विभ्यस्तुः" [उ. सू०] पौणादिकस्यैव तस्य ग्रहणं व्याख्यानात् । ते तु हसितमित्येव भवति । काष्ठम् । “हनिकुषिभीरमिकाशिभ्यस्धः" [उ० सू.]। कुक्षिः । " पिप्लुषिसुषिकुप्यशिभ्यः क्सिः" [उ० सू०] । इक्षुः । “इष्यशिभ्यां क्सुः" [उ० सू० "कृधूभ्यां क्सरः'। धूसरः । शल्कः। "इणमीकापाशल्यतिमचिभ्यः कः" [उ०सू०] । वत्सः । "वृतृवदिहनिकमिकषिमुचिभ्यः सः" [उ. सू.]। अग्रहादेरिति किम् ? निगृहीतिः। अपस्निहितिः। निकृचितिः । श्रयुकः किति ॥५॥१॥११७॥ श्रि इत्येतस्मादुगन्तेभ्यश्च कितीएन भवति । निपठितिः । "स्त्रियां ति" [२।३।७५] श्रित्वा । श्रितः । श्रितवान् । युत्वा । युतः । युतवान् । वृत्वा । वृतः । वृतवान् । उपदेश इत्येव । तीत्वा । तीर्णः। तीर्णवान् । युक इति किम् ? श्वयित्वा । श्वः क्त्वा । अत्र जिस्ट् िच युगपत्प्राप्नुतः । परत्वादिट । “मृडादि"010] नियमादकित्त्वम् । कितीति किम् ? श्रयिता। यविता। भूपणरित्यत्र गिति स्नौ कथं प्रतिषेधः कितीत्यत्र गकारोऽपि कृतचत्वों निर्दिष्टः । तस्य पूर्वत्रासिद्धत्वमाश्रित्य पूर्व विसर्जनीयः कृतो यथा रेस्त्वं स्यात् । एचभावोऽपि “किङति" [१।१।१६] इति गकारप्रश्लेषादेव । ऊणुओ णुबद्भावः । प्रोणु त । प्रोणुतवान् । एकाच इत्येव । जागरितः । जागरितवान् । सनि ग्रहगुहश्च ॥५५१११८॥ ग्रह गुह इत्येताभ्याम् उगन्तेभ्यश्च सनि नेड् भवति । जिघृशति । जुधुक्षति। रुरूपति। "मुषग्रहिरुदविदः संश्च" [१२] इति कित्वाजिः । गुहेरुदित्वादिकल्पः प्राप्तः । लूजस्सनि “झलिकः" [१३] इति कित्त्वं बाधित्वा परत्वादिट प्रातस्तस्यानेन प्रतिषेधे झलादित्वात् कित्त्वम् । श्रीग्रहणं न प्रयोजयति “श्रियूणु भर” [५।५।६७] विकल्पितेट्त्वात् ततोऽपि “सनीड़ वा” [५।१।६] इति विकल्पः। कृसृभृवृस्तुद्र लिटि॥५॥१२१६॥ कृ सभृ वृस्तु दन श्र इत्येभ्यो लिटीए न भवति । चकृव । चकृम । ससृव । सस्म । बभूव । बझम । वय । ववृम। ववव हे । ववृमहे । तुष्टोथ । तुष्टुव । तुष्टुम । दुद्रोथ । दुद्रुव । दुद्रम । सुस्रोथ । सुनुव । सुसुम । शुश्रोथ । शुश्रुव । शुश्रुम । सिद्ध सत्य रम्भो नियमार्थः। कादय एव लिट्यनिटस्ततोऽन्ये सेटः इति । न तु कादयो लिट्येवानिट इति विपरीतो नियमः । "स्वतन्त्रः कर्ता" [११२।१२५] इत्यादिनिर्देशात् । क स भृ इति प्रकृतिनियमोऽनुदात्ता एत एवानिटो नान्ये । For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३५२ [अ० १ पा० ५ सू० १२०-१२६ विभिदिव । विभिदिम | ददिव । दद्दिम । “श्रूयुकः किति” [५/१/११७ ] इति प्रतिषेधे सिद्धे वृग्रहणं व्यनियमार्थम् । ङोरेोदात्तेषु लिटि नेड् । तेन लुलुविव । लुलुविम । अथ ( प्रति ) पेधार्थं ग्रहणं कस्मान्न भवति ? यदि प्रतिषेधः इष्टः स्यात् याधिकारे वृत्रहणं क्रियेत न किधिकारे । इह करणं ज्ञापक थे प्रतिषेधाभावस्य । वरिथ | स्तुप्रभृतिग्रहणं तु प्रतिषेधार्थम् । (थे) "वोपदेशे" [५/१/१०६ ] इति प्राप्तः । बमयोस्तु कृसु नियमादूि ) प्रातः प्रतिषिध्यते । श्रसुट इत्यनुवर्तते । संचस्करिव । संचस्करिम | श्वीदितस्ते ||५|१|१२०॥ श्वयतेरीदिद्भश्च ते परतः इरान भवति । शूनः । शूनवान् । लग्नः । लग्नवान्नः । ग्रापीनवान् । श्विई ईदित ईकारोऽप्यत्र प्रश्लिष्यते । शीङः “तः सेट् पूङ शीङ:" [11] इति ज्ञापकादिट् । पारिशेष्यादीकारान्तस्य डीङो ग्रहणम् । उड्डीनः । उड्डीनवान् । " ओदितः " [५/३/६३ ] इति वत्वम् । स्वादय श्रदितः । यस्य वा ५|१|१२९ ॥ यस्य वाऽन्यस्मिन्निडुक्तस्तस्य ते परत इएन भघति । रद्ध: । रुद्धवान् । इः । इष्टवान् । द्यूतः । घृतवान् । " तनिपतिदरिद्राणाम्" [त्रा०] इति वेट्यपि पतित इत्यत्र "इतच्छ्रितातीतपतित" [१।३।२१] इति ज्ञापकादिट् । I श्रादितः || ५|१|१२२|| ग्राकारेतश्च धोस्ते परत इन भवति । भिन्नः । मिन्नवान् । विन्नः । स्विन्नवान् । दिवण्णः । दिवण्णवान् । धृष्णः । धृष्ण॒वान् । “समः समि” [४|३|१९६] इत्यत्र क्यन्ते इगागमवचनात्सद्धे आदेशवचनं ज्ञापकमनित्यमागमशासनमिति । तेन बान्तः । विश्वस्तः । वा भावारम्भयोः || ५|१|१२३|| भावे आरम्भे च दितो धोस्ते परतो वा इड् भवति । भिन्नमस्य । मेदितमस्य । प्रभिन्नः । प्रमेदितः । दिवएणमस्य । दोदितमस्य । प्रविणः । वेति योगविभागात् कर्मणि वा केरिट् । ग्रादित इति तु न सन्निधीयते । शकितो घटः कर्तुम् । शक्तो घटः कर्तुम् । भावो वर्थः । प्रायः क्रियावयवः प्रेत्यादिना बोल्या आरम्भः । भावग्रहं तस्य विशेषणम् ग्रारम्भो धोः 'नवभावे कः' [२|३|१५] इति भावे क्तः । " कर्तरि चारम्भे " [५|४|५६ ] इति कर्तरि क्तः । "" दान्तशान्तपूर्णदस्तस्पप्रछन्नप्ताः || ५ | १ | १२४ || दान्तादयः शब्दा यन्ताद् वा निपात्यन्ते । दान्तः । दमितः । शान्तः । शमितः । पूर्णः । पूरितः । दस्तः । दासितः । स्वष्टः । स्पाशितः । छन्नः । छादितः । ज्ञतः । ज्ञापितः । ते वाऽनित्वं निपात्यते । दस्तादेरुङः प्रादेशश्च । शमिदम्योगिखे दीत्वं प्रति न स्थानिवत् इति "स्य विवतो: क्ङिति " [४|४|१३] इति दीत्वम् । ग्रन्यत्र मितां प्रः । ज्ञपेस्तु " भरजपिसनाम्" [१७] इति विकल्पितेटो " यस्य वा" [ ५।१।१२१] इति प्रतिषेधे प्राते ग्रहणम् । चितौ ||२||१२|| टापचित इत्येतौ वा ते परतो निपात्येते । हृपेलीमविस्मितप्रतिवा ते वाऽनित्वम् । हृष्टानि लोमानि । हृषितानि लोमानि । हृष्टं लोमभिः । हृष्टो देवः । हृपितो देवदत्तः । हृय दन्ताः । हृषिता दन्ताः । होः “वोदितः " [ ५।१।१०४ ] इति विकल्पितेये “यस्य वा " [५|३|१२२] इति प्रतिषेधे प्राते वचनम् । श्रपचितोऽनेन गुरुः । अपचायितोऽनेन गुरुः । चायतैस्ते विभावोऽनित्वं च वा निपात्यते । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । तेन तं नित्यमपचितिः । 'जुब्धस्वान्तध्वान्तलग्न क्लिप्रविरिब्धफाण्टवाढ विशस्तधृष्टकष्टघुष्टदृढ परिवृढाभ्यवृत्ताः ||५|१|२६|| क्षुब्धादयः शब्दाः कान्ता अर्थविशेषे निपात्यन्ते । क्षुब्धो भवति मन्यश्चेत् । दध्यादिकं येन मध्यते स मन्थः । ननु द्रवद्रव्यसंप्रयुक्ताः सक्तवो मन्थ इह गृह्यते । तदुक्त' "शोभैव मन्दरक्षुब्धक्षुभिताम्भोधिवर्णना" इति । क्रियाभिधानेऽन्याभिधाने च न भवति । क्षुभितं मन्थेन । क्षुभिता सेना । स्वान्तमिति भवति मनश्चेत् | स्वनितमन्यत् । ध्वान्तमिति निपात्यते तमोऽभिधानं चेत् । ध्वनितमन्यत् । लग्नमिति भवति सतश्चेत् लगितमन्यत् । क्लिष्टमिति भवति विस्पष्टश्चेत् । म्लेच्छितमन्यत् । इत्वमेकारस्य निपातनादेव | विविध For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० १ सू० १२७-१३१ ] महावृत्तिसहितम् इति निपात्यते स्वरश्चेत् । विरेभितमन्यत । इत्वमेतो निपातनात् । फाण्टमिति निपात्यते अनायासे । फणितमन्यत्र । अग्निना तप्तं यत्कयोष्णं तत्फाएटम् । अथवा यदपक्वमचर्णितमनिष्यन्दितमदकादिसंयोगादिभक्तरसम् । वादमिति भवति नष्टं (भृशं) चेत वाहितमन्यत । वाह प्रयत्ने इत्यस्यानिटत्वम् । विशस्तधृष्याविति भवतः वियातौ चेत् । विशस्तो वादी धृष्टो वादी प्रगल्भोऽविनीतो वा शसुधृषोः “यस्य वा" [५।१।१२१] “आदितः" [५।१११२२] इति च प्रतिषेधे सिद्धे नियमार्थ वैयात्य एवेति । भावारम्भयोपेवैयात्येऽनभिधानम् । नियमादन्यत्रेट् । विशसितः पशुः । धर्षितः शत्रुणा | कष्टमिति भवति कृच्छे गहने च । कृन्छ दुःखं दुःखहेतुश्चोपचारात् । गह्न वनम् । धुपेरविशब्दनेऽनिटत्वं निपात्यते । घुष्टा रज्जुः। घुष्टी पादौ । अविशब्दने इति किम् ? अवघुषितं वाक्यमाह । शब्देनाभिप्रायनिवेदनं विशब्दनं तदपि घुपेरर्थः । अनेकार्थत्वादधनाम । दृद्ध इति स्थले बलवति च । हहिः तेऽनिटत्वं न दग्वं परस्य च ढलं दृहेवा नववर्जम् । ननु दृहेर्ह खं दत्वं च न निपात्यं ढत्वे टुत्वे च कृते सिध्यति। नैवम् । ददिमा । द्रदयति । परिद्रदृग्य गतः इत्यत्र पूर्वत्रासिद्धत्वात् “ऊ रोऽनादेर्धेः" [४।४।१५३] इति रत्वम् "प्ये घिपूर्वात्" [४॥४/५६] इति शेरयादेशश्च न स्यात् । इह च परिदृढस्यापत्यं पारिटी कन्येति "प्योऽक्षु रूपान्त्ययोः” [३।११६३ इति यः प्रमज्येत । स्थूलबलवतोरिति किम् ? हितम् । दृहितं वा । परिवृढ इति निपात्यते ! प्रभुश्चेत । परिपूर्वस्य वृहेव हेर्वा न हखन् । दुत्वे प्रयोजनं पूर्वोक्तम् । परिद्रढय्य गतः इत्यत्र संग्राम युद्धे इति सगेः पाठात् गिरहितस्य गिनुत्पद्यते । तेन “तिकुप्रादयः" [१॥३।८१] इति पसे क्वात्यस्य प्यादेशः। प्रभाविति किम् ? परिवृहितम् । परिवृहितम् । अभ्यर्ण इति निपात्ये प्राविदूर्ये । अभ्यर्ण शेते। अभ्यर्ण शरत् । विरं विप्रकृष्टं ततोऽन्यत्सर्वमविदूरं तस्य भाव आविर्यम् । “नसे चतुर" [३।४।११५] इत्यत्र न स इति योगविभागात्सापेक्षत्वेऽपि टयण । प्राविदर्य इति किम् ? अभ्यर्दितश्चौरः शीतेन । वृत्तमित्यध्ययनेऽथें निपात्यते। वृतेपर्यन्तादिडभावो पोरुप च क्ते निपात्यते । वृत्तं जैनेन्द्रम् । वृत्तस्तों देवदत्तेन । अध्ययन इति किम् ? वर्तितो घटः कुम्भकारेण । यदा वृत्तिरकर्म कस्तदाऽस्य एयन्तस्य वृत्तस्तर्क इति न भवति । यदा तु "तेन निवृत्तः” [३।२।५८] इति ज्ञापकादन्त वितार्थः सकर्मकस्तदा कर्मणि क्तः “यस्य वा" [५।१।१२१] इति प्रतिषेधावृत्तस्तकः । ण्यन्तस्य अध्ययने वर्तित इति भवति । सन्निविभ्योदें ॥५१॥१२७॥ सम् नि वि इत्येवंपूर्वाददरिएन भवति ते परतः । समर्णः। न्यर्णः । व्यर्णः । सन्निविभ्य इति किम् ? अदितः । प्रार्दितः। न वा रुप्यमत्वरसंघुषास्वनः ॥शश१२८॥ रुषि अम् त्वर संघुष आस्वन् इत्येतेभ्यः ते न वा इड् भवति । रुष्टः । रुषितः । अभ्यन्तः । अभ्यमितः । तूर्णः । त्वरितः। संघुष्टः पादः। संधुषितः पादः । संधुष्टं वाक्यम् । संघुपितं वाक्यम् । आस्वान्तो देवदत्तः । यास्वनितो देवदत्तः। श्रास्वान्तं मनः । अास्वनितं मनः । रूपः "तीषसहलुभरुषरिषः" [५।१।६६] इति विकल्पेटो “यस्य वा" [५।१।१२१] इति निषिद्धे अभ्यमः प्राप्ते त्वर "आदितः" [५।१।१२२] इति प्रतिषिद्ध सधुपास्वनोरविशब्दनमनसोरप्राप्त सतोटि प्राप्तौ नेति प्रतिषिद्धायां सर्वत्र वेति विकल्पः । हनृतः स्ये ॥१११२९॥ हन्तेः ऋकारान्तेभ्यश्च स्से परत इड भवति । हनिष्यति । अहनिष्यत् । करिष्यति । अकरिष्यत् । स्वरत्यादि विकल्प बाधित्वाऽनेन परत्वादिट् । स्वरिष्यति । न वेति नानुवर्तते । सावजेः ॥५॥१२१३०॥ अजेः सौ परतः इड् भवति । अाञ्जीत् । आञ्जिष्टाम् । आञ्जिपुः । नित्यार्थ प्रारम्भः । साविति किम् ? अजिता । स्तुसुधूमो मे ॥१२॥१३२॥ स्तु सु धूञ. इत्येतेभ्यः मपरे सौ परतः इङ् भवति । अस्तावीत् । असावीत् । अधावोत् । म इति किम् ? अस्तोष्ट । असोष्ट । अधोष्ट । अधविष्ट । धूलो विकल्पः प्राप्तः । अकारो धुवतिनिवृत्यर्थः । For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ ० ५ पा० १ सू० १३२ - १४० यमरमनमातः सकू च ॥५११११३२ || यम रम नम इत्येतेषाम् ग्राकारान्तानां च मपरे सौ परतः सगागमो भवति इट् च । अयंसीत् । श्रयंसिष्टाम् । अयंसिषुः । व्यरंसीत् । व्यरं सिष्टाम् । व्यरं सिधुः । अनंसोत् । अनंसिष्टाम् | अनंसिषुः । असतीटि हलन्तलक्षण ऐपू स्यात् । सति तु " नेटि" [ ५1१1८० ] इति प्रतिपिव्यते । श्रातः - श्रायासीत् । श्रायासिष्टाम् । आयासिः | म इत्येव । उपायंस्त । उपायाताम् । उपायंसत । अस्त | अरंसाताम् | अरंसत । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मिपूङरज्वशः सनि || ५|१|१३३ || स्मि पूङ् ऋ ऋजू अशृङ् इत्येतेभ्यः सनीड् भवति । सिस्मयिषते । पिपविपते । अरिरिपति । अजिजिषति । अशिशिपते । पूङः सन् । “सनि ग्रहगुहश्च " [५/१११८] इति प्रतिषिद्धेऽनेनेट् । द्वित्वात्पर एप् “ द्विवेऽचि” [११५६ ] इति स्थानिवद्भावेन द्विलम् । “श्रोः पुयराज्ये” [५।२।१७८ ] इति इत्वम् । ज्वशोरूदित्वाद्विकल्पः प्रातः प्रश्नातैरुदात्तस्य नेह ग्रहणम् । किरश्च पञ्चभ्यः || ५|१|१३४॥ किरादिभ्यः पञ्चभ्यः सनीड् भवति । उच्चिकरिपति । निजिगरिप्रति । दिदरिषते । दिवरिषते । पिच्छ्पिति । " प्रच्छेः " [४|३|१२] इति जिः । पञ्चभ्य इति किम् ? सिसृक्षति । किरतिगिरित्योः " सनीड् वा " [५/१८६] इति विकल्पः प्राप्तः । “वृतो वा" [५।१८६ ] इति व्यवस्थितविभापाश्रयणास्येटो दीर्न भवति । किर इति यादिशब्दस्य खे " सूत्रेऽस्मिन् सुव्विधिरिष्टः " [५/२/११४ ] इति भ्यसः स्थाने ङसिः । चकारः सनोऽनुकर्षणार्थ:, अन्यथा निमित्ते सन्देहः स्यात् सेरपि पूर्व श्रुतत्वात् अनुक्तसमुच्चयार्थं इति केचित् । तेन क्वचिदन्यत्रापीट् । “जुगू हिपन् मत्तगजोऽभ्यधावत्" । रुददे || ५|१|१३|| रुदादिभ्यः पञ्चभ्यः वलादौ गे इड् भवति । रोदिति । रुदितः । स्वपिति । निःश्वसिति ! प्राणिति । जक्षिति । "गोऽनितेः " [ ५|४|१०४ ] इति णत्वम् । पञ्चभ्य इत्येव शास्ति । ग इति किम् ? स्वता | स्वप्नुम् । श्रन्ये तूदात्ताः । वलादावित्येव । रुदन्ति । स्वपन्ति । रुदादेरित्येष कानिर्देशो इत्यस्येग्निर्देशस्योत्तरत्र सावकाशस्य तां प्रकल्पयति । ईडः स्ध्ये || ५|१|१३६ ॥ ईड: सकारादौ ध्येच गे परतः इद् भवति । ईडिव । ईडिये । ईध्वम् । ईशः || ५|१|१३७ || ईश इत्येतस्माच इड् भवति सकारादौ गे ये च । ईशिषे । ईशिष्व । ईशिध्वे । ईशिध्वम् । योगविभागो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः । लिङो ऽनन्त्यसखम् ||५|१|१३८ ॥ लिङोऽनन्त्यस्य सस्य खं भवति गे । कुर्याताम् । कुर्युः । कुर्वीत । " सुट् तथोः " [२२४८७ ] इति सुट् । सुट्या सुट्सीयुट् सखमनेन । तिपि रफादौ सखेन सिद्धम् । "कुजो ये च" [ ४४६] इत्युखम् । “उसि" [४|३|८३] इति पररूपम् । अनन्त्य इति किम् ? कुर्युः । कुर्याः । कुर्वीथाः । वस्सोः “ङितः सखम् " [ २४८० ] तसस्तां यसस्तमिति भवितव्यम् । ग इत्येव । क्रियासुः । कृषीष्ट । “रिङ्य लिङ शे” [ ५।२।१३७ ] इति यादौ रिङादेशः | "उ: " [११८६ ] इति लिङ दे किचम् । तो येय् ||५|१|१३६ ॥ श्रकारान्ताद् गोरुत्तरस्य या इत्येतस्य इयादेशो भवति । पचेत् । दीव्येत् | " वलि व्योः खम् " [ ४|३|५५ ] पचेयुः इत्यत्र “उसि " [४३२८३] इति परंरूपं न । “वाद्गावं दीत्वं सामान्येनोक्तमनवकाशोऽयं य:" [go] इति इयादेशो भवति । " यज्यतो दी:" [ राह६] इति विधि । इति किम् ? चिनुयात् । तपरकरणं किम् ? यायात् । पूर्वगत्या स्यात् । या इत्येतत्तु “ सूत्रेऽस्मिन् " [ ५।२1११४ ] इति ङसः खम् इत्येव । चिकीत् । श्रतः खे । ङिदातः ||१५|१|१४० ॥ अकारादुत्तरस्य ङिदवयवस्यात इयित्ययमादेशो भवति । पचेते । पत्रेथे । सचेताम् | पचेथाम् । ङकार इयस्य सोऽयं ङित् तस्यावयव यात् । "गाङ कुटादे: " [११२७५ ] इत्यत्र For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० १ सू० १४१-१५१] महावृत्तिसहितम् ३५५ डिदिति । डिन्तीव द्विदिति कार्यातिदेशः। तेन चुकटिषति इत्यत्र सनोऽङित्वाद्दो न भवति । “गोऽपित्" [१।११७८] इत्यत्र तु ङित इव डिदिति द्रष्टव्यम् । न कार्यातिदेशः । कार्यस्यावयवासम्भवात् । डिति किम् ? पचावहै । श्रात इति किम् ? पचन्ति । पाने मुक् ॥५॥२॥१४१॥ अत आने मुगागमो भवति । श्रान इति ईम्निर्देशो अत इति कानिर्देशस्य पूर्वसूत्रे कृतार्थस्य तापक्लूप्तिं करोतीति अकारान्तस्य मुक् । पचमानः । वपमानः । ईदासः ॥५११११४२॥ श्रास उत्तरस्य आनस्य ईकारादेशो भवति । आसीनोऽधीते । आस इति कानिर्देशोऽनवकाश अानस्य तां प्रकल्पयति । परस्यादेरीत् । विभक्त्थामाटनः॥२१४३॥ अष्टन अाकारादेशो भवति विभक्त्यां परतः। अष्टाभिः । अष्टाभ्यः । अष्टासु । अप्टानामित्याप्टन अाम्यात्वे च कृते नान्तत्वाभावादिलज्ञा नास्ति । कथं नुड्। “प्णान्तेल" [1||३४] इत्यत्रान्तग्रह्णमुपदेशार्थमुक्तमित्यदोपः । विभक्यामिति किम् ? अष्टमहाप्रातिहार्यो जिनः । "नोमता गोः" [१०९१६४] इति प्रतिषेधाच्याश्रयमात्वं न भवति । कथं "दूतः स्वादष्टभिर्गुणैः" इति ? "अष्टाभ्य औश्” [५1१1१८] इति कृतात्वोच्चारणं ज्ञापकम् , यौवात्वं तत्रैवौशभाव इति तेनानिल्यमात्वम् । श्रा इति विशेपनिर्देशो नकारस्य स्थाने उसकाकारनिवृत्त्यर्थः । प्रात्वमिति जातिनिर्देशे प्रसज्येत । गयो हलि ॥५॥१४४॥ इत्येतस्य हलादौ विभक्त्यामाकारादेशो भवति। राः। राभ्याम् । राभिः। गभ्यः । रातु । हीति किम् ? रायो । रायः । विभक्त्यामेव । रैत्वम् । रैता। युष्मदस्मदोः ॥५॥११४५॥ युष्मदस्मदित्येतथोर्ह लादौ विभक्त्यां परतः आत्वं भवति । युवाभ्याम् । श्रावाभ्यान । युगाभिः । अस्माभिः । युप्मासु । अस्मासु । “अन्तेऽलः" [३॥३॥४६] इति दकारस्य भवति । इपि ॥५॥२॥१४६॥ इपि च विभक्त्या परतः युष्मदस्मदोरात्वं भवति । त्वाम् । माम् । युवाम् । आवाम् । युष्मान् । अस्मान् । “खमादेशे" [५।१।१४६] इति खे प्राते पुरस्तादपवादोऽयम् । “ङसुटोरम्" [५/११२४] इत्यम । “शसो नः" [५।१।२५] इति नकारः । प्रावि ॥५॥११४७॥ औकारे परतः युग्मदत्मदोरात्वं भवति । युवां जैनेन्द्रमधीयाथे । आवाम् अधीवहे। यः॥५॥१॥२४८॥ यकारादेशो भवति युष्मदस्मदोविभक्त्यां परतः। त्वया । मया । त्वयि । मयि । युवयोः । श्रावयोः । उत्सर्गोऽयम् । अात्वं खं चापवादः । पारिशेप्यादच्यनादेशेऽवतिष्ठते । खमादेशे ॥५॥१।१४६॥ आदेशे विभक्त्यां युष्मदस्मदोः खं भवति । ग्रादिश्यत इत्यादेशो विभक्ती । त्वम् ! अहम् । यूयम् । वयम् । तुभ्यम् । मह्यम् । युस्मभ्यम् । अस्मभ्यम् । त्वत् । मत् । युष्मत् । अस्मत् । तव । मम । युष्माकम् । अस्माकम् । विभक्त्यामिति किम् ? युष्मदीयः । “त्यदादि" [1111६१] इति दुसज्ञा । “दोश्छः” [३।२।६०] इति छः । इदं खवचनं ज्ञापकम् । अत्वविधि प्रति द्विपर्यन्तास्त्यदादयः । तेन भवच्छब्दस्य भवानिति । मावधेः ॥१५०॥ युष्मदस्मदोर्मकारावधेः सङ्घातस्यादेशो भवतीत्येषोऽधिकारो वेदितव्यः । अवधिग्रहणं किम् ? मान्तस्येति वक्तव्यम् । नैवं शक्यम् । यत्र युष्मदस्मदो मान्तौ णिचि किप्यागतनिवृत्त तत्रैवादेशाः स्युः । ननु णे: “परेऽचः पूर्वविधौ" [१११५७] स्थानिवद्भावान्मान्तता नास्ति व्यवधानात् । वचनाच्छु तिकृतमानन्तर्य विभक्त्याः । अवधिग्रहणे सति दकारान्तयोरपि युष्मदस्मदोर्मावधेः समुदायावयवस्यादेशाः सिद्धा भवन्ति । युवाचौ द्वौ ॥५॥१६१५१॥ द्वावित्यन्वर्थग्रहणम् । “एकद्विबहवश्चैकशः" [१॥२॥१५५] इत्यत्रान्वर्थसज्ञाकरणात् । द्वित्वे वर्तमानयोर्युष्मदस्मदोर्युव श्राव इत्येतावादेशौ भवतः । युवाम् । आवाम् । युवाभ्याम् । For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ५ पा० १ सू० १५२ - १५७ ग्रावाभ्याम् । युवयोः । आवयोः । माधेरित्येव । युवकाम् | श्रावकाम् | अकसहितस्य न भवति । सेऽपि यदा युष्मदस्मदी द्वित्वे वर्तते समुदायः एकत्वे बहुत्वे वा तदापि युवावौ भवतः । न चेत् परत्वाद् " यूयवयौ जसि” [५।१।१५२] “वाहौ सौ” [ ५।३।१५३ ] “तुभ्यमझौ ङयि” [ ५|१|१५४ ] " तत्रममौ ङसि " [ ५|१|१५५ ] इत्यादेशान्तरेण बाध्येते । अतिक्रान्तं युवाम् श्रतियुवाम् । श्रत्यावाम् । अतिक्रान्तान् युवाम् श्रतियुवान् । श्रतिक्रांन्तेन युवाम् अतियुवना । अत्यावया । श्रतिक्रान्तैर्यु वाम् अतियुवाभिः । प्रत्यावाभिः । अतिक्रान्तेभ्यो युवां देह वा अतियुवभ्याम्। अत्यावभ्यम् । श्रतिक्रान्तात् युवां अतियुक्त् । अत्यावत् । श्रतिक्रान्तेभ्यो युवाम् अतियुवत् | त्यावत् । प्रतिक्रान्तानां युवाम् ग्रतियुवाकम् । श्रत्यावाकम् । प्रतिक्रान्ते युवाम् अतियुवयि । अत्यावयि । अतिक्रान्तेषु युवाम् श्रतियुवासु । श्रत्यावासु । यदा समुदायोऽपि द्वित्वे वर्तते तदा सुतरां भवतः । श्रुतिक्रान्तौ युवाम् अतियुवाम् । अत्यावामित्यादि । अपवादपि न भवतः । अतिक्रान्तो युवाम् श्रतित्वम् । अत्यहम् | अतिक्रान्ता युवाम् अतियूयम् । अतिवयम् । अतिक्रान्ताय युवाम् अतितुभ्यम् । श्रतिमह्यम् । श्रतिक्रान्तस्य युवाम् अतितव । प्रतिमम । यदा च युष्मदस्मदी एकत्वे बहुत्वे च वर्तते समुदायो द्वित्वे तदापि न भवतः । अतिक्रान्तौ त्वाम् अतित्वाम् । अतिमाम् । अतिक्रान्तौ युष्मान् प्रतियुष्मान् । अत्यस्मान् । इत्यये वम् । अतिक्रान्ताभ्यां त्वाम् अतित्वाभ्याम् । प्रतिमाभ्याम् । श्रतिक्रान्ताभ्यां युष्मान् अतियुष्माभ्याम् । अत्यस्माभ्यां कृतम् । अतिक्रान्ताभ्यां युष्मान् अतियुष्माभ्यां देहि । एवम् अतित्वाभ्याम् । अतियुष्माभ्यां विभेति । अतित्वयोः । श्रतियुष्नयोः स्वम् । श्रतित्वयोः । श्रतियुष्मयोर्निधेहि । arat जसि ||५|१|१५२ || युष्मदस्मदोर्जेस परतो यूय वय इत्येतावादेशौ भवतः । यूयम् । वयम् । गोः प्राधान्यात्तदन्तविधिरयत्र । श्रतिक्रान्तास्त्वां युवां युष्मान् वा अतियूयम् । श्रतिवयम् । परमयूयम । परमवयम् । वाह सौ || ५|१|१३|| युष्मदस्मदोर्मावः त्व श्रद् इत्येतावादेशौ भवतः सौ परतः । त्वम् । अहम् । परमलम् । परमाहम् । श्रतिक्रान्तस्त्वां युवां युष्मान् वा अतित्वम् । अत्यहम् । तुभ्यमी ङ || ५|१| ९५४ ॥ तुभ्य मह्य इत्येतावादेशौ भवतः युष्मदस्मदोर्डीये परतः । तुभ्यम् । मम् । तदन्तविधिना श्रतिक्रान्ताय त्वां युवां युष्मान् वा अतितुभ्यम् । अतिमह्यम् । परमतुभ्यम् । परममाम् । ममौ ङसि || ५ | १|१५५ ॥ युष्मदस्मदोङसि परतः तत्र मम इत्येतावादेशौ भवतः । तव स्वम् । मम स्वम् । अतिक्रान्तस्य त्वां युवाम् युष्मान् वा अतितव । श्रतिमम | परमतत्र । परममम । वावे || ५|१|१५६ || एक इत्ययमन्वर्थसञ्ज्ञानिर्देशस्तेन एकल्ले वर्तमानयोर्यु मदस्मदोर्मावः त्व म इत्येतावादेशौ भवतः । त्वाम् । माम् । त्वत् । मत् । त्वयि । मयि । अत्रापि यदा युष्मदस्मदावेकत्वे वर्तते समुदायो द्वित्वे बहुत्वे वा तदापि त्वमादेशौ भवतः यदि “ यूयवयौ जसि” [ ५।१।१५२] इत्यादिभिरादेशान्तरैर्न बाध्येते । कथं बाधा ? अतीताश्चत्वारो योगा इहानुवर्तन्ते । ततो बाधा तद्विषयादन्यत्रायं विधिः । अतिकान्तौ त्वां तिष्ठतः पश्येति वा अतित्वाम् । प्रतिमाम् । श्रतिक्रान्तांस्त्वाम् अतित्वान् । एवम् अतित्वाभ्याम् । अतितुभ्यं देहि | अतित्वत् । प्रतित्वयोः । अतित्वाकम् | अतित्वयोः । अतित्वामु । यदा समुदायोऽप्येकत्वे तदा सुतराम् । प्रतिक्रान्तं त्वाम् अतित्वाम् | त्यद्योश्व ||५|१|१५७॥ त्वमावेक इत्यनुवर्तते । एकार्थविषययोर्युष्मदस्मदोः त्वम इत्येतावादेशी भवतः त्ये द्यौ च परतः । त्वत्तरो मत्सरः । त्वदीयो मदीयः । त्वत्प्रधानाः । मत्प्रधानाः । त्वद्वितम् । मदतम् । त्वच्छिष्यो मच्छिप्यः । विभक्त्यां परतः पूर्वी योगस्तस्या उपि प्रापणार्थं वचनम् । ननु नानापदाश्रयत्वाद्वहिरङ्ग उप विभक्तीमात्राश्रयत्वादन्तरङ्गस्त्वामादेशः पूर्वं भविष्यतीत्यनर्थकमिदम् । नानर्थकम् । वाह तुभ्यमा For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ५ सू० १५८-१६२] महावृत्तिसहितम् तव मम विपये प्रापणार्थम् । चकारो मविध्यनुकर्षणार्थः । ननु तवममाद्यादेशापवादादेव मावधित्वं लब्धम् । नैवं शक्यम् । विभक्त्या उपि कृते तवममायादेशाभावात्कृत्स्नयोयुष्मदस्मदोः स्थाने स्यात्। ननु बहिरंग उत्रित्युक्तम् । इदमेव च शब्दोपादानं ज्ञापकम् “अन्तरङ्गानपि विधीन बहिरङ्ग उब् बाधते" [प०] तेन यूयं पुत्रा यस्य स युष्मत्पुत्रः यूयादेशाभावः । गोमान् प्रियो यस्येति गोमत्प्रियः इत्यादौ नुमादीनामभावः सिद्धः । त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृचतसृ ॥५॥१५८॥ गोर्विभक्त्यां परतः त्रि चतुर् इत्येतयोः स्त्रियां वर्तमानयोस्तिसृ चतस इत्येतावादेशौ भवतः। तिसृभिः । चतसृभिः । तिसृषु । चतसृषु | स्त्रियामित्येतत् त्रिचतुरोरेव श्रु तत्वाद्विशेषणं किमर्थम् ? यदा त्रिचतुरो स्त्रियां वर्तते समुदायः पुंसि नपुंसके वा तदापि तदन्तविधिना तिसुचतसृभावो यथा स्यात् । प्रियतिसा । प्रियतिस्रो। प्रियतिनः । प्रियतिसृ कुलम् । प्रियतिसृणी । प्रियतसणि । यदा तु त्रिचतुरौ पुंसि नपुंसके वा वतते समुदायः स्त्रियां तदा न भवति । प्रियाः त्रयः प्रियाणि त्रीणि वा यस्याः स प्रियत्रिः। एवं प्रियचत्वाः। स्त्रियामिति किम् ? त्रयश्चत्वारः । त्रीणि । चत्वारि । चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थोऽनुवर्तते । तेन "कचित्केऽपि खौ” । तिसृका ग्रामः । रोऽच्युः ॥५॥१५६॥ तिसृ चतसृ इत्येतयोः ऋकारस्य रेफादेशो भवत्यचि परतः । तिसस्तिष्ठन्ति । तिसः पश्य । चतरस्तिष्ठन्ति । चतस्रः पश्य । नियतिस्रो भयम् । “ऋतो डिधे" [५।२।१०५] इत्येप शसि "सुटि पूर्वस्वम्" [४।३।८६] दीत्वं इसिङसोः “ऋत उत्ः" [४।३।६८] इति उः प्रसज्येत । ननु मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्" [40]] इति ऋतो डिधे इत्येपः कथं बाधा "स्पर्द्ध परम् [११२।१०] इति परशब्दस्योष्टवाचित्वारे फादेशः इण्टा+आवेप । प्रियतिसरि । अथ प्रियतिस्त्र इत्यादी कासान्तः कस्मान्न भवति । समुदायविभक्त्यां तिसभाव इति तयाऽन्तो व्याप्त इति न कप । अचीति किम् ? तिसृभिः । तिसणी। नन्वामि परत्वाने फामाप्नोति । नैवम् । “नाम्यतिसूचतस्" [४] ४।३] इति शापकान्नुटि नुम्रभावी न स्तः । उरिति किम् ? “अन्तेऽलः" [२११४९] इत्येव सिद्धम् । उरित्यक्रियमाणे “येन नाप्राप्त" न्यायेन तिसृचतभभावस्थापवादो रेफः स्यात् । जराया चाऽसङ॥५१६०॥ जराया अचि परतो वा असङादेशो भवति । जरसौ। जरे । जरसः । जरसम । जरसा । जरया । आमि परत्वान्नुडोऽसङ। जरसाम् । जराणाम् । नुमः परत्वादसः। अतिजरांसि तपासीति । प्रादेशे "एकदेशविकृतमनन्यवद्" [१०] इति । अतिजरसं कुलं पश्येत्यात्रामं विभक्तीमपेक्ष्यासरः । अनकारान्तो जातः । स तस्योपो निमित्तं न भवति सन्निपातलक्षणत्वात् । अतिजरं तिष्ठति । अतिजरेरित्यत्र सन्निपातलक्षणावम्भावैत्भावौ। तेन नाऽसङ्। अनित्यैषा परिभाषेति केचित्ते न अतिजरसं तिष्ठति । अतिजरसैरिति । - त्यदादेरः ॥५॥१॥२६॥ अचीति निवृत्तम् । त्यदादीनामकारादेशो भवति विभक्त्याम् । स्यः । त्यौ । ये । सः । तौ । ते । यः । यौ। एषः । एतौ । इमौ । इमे । अमू । अमी । द्वौ। द्वाभ्याम् । त्यदादिषु स्त्रीत्वविवक्षायां "भाविनि भूतवदुपचारात्" इति स्वादिमपेक्ष्यात्वे कृते टाप् । तेन स्या सेत्यादिसिद्धम् । अत्यविधि प्रति द्विपयन्तास्त्यदादयः । “भवतष्ठएछसी" ||२|११|इति निदंशात् । तन भवान् । भवन्तौ । भवन्तः। गृह्यमाणेन त्यदादिना विभक्ती विशेष्यते । तेनाप्रधानानामत्त्वं न भवति । अतितदः । प्राधान्ये तु शोभनः सः सुसः । अतिसः । परमसः । सञ्ज्ञाशब्दानां तु त्यदादित्वाभावः सर्वनामान्तर्गणत्वात्त्यदादेः।। किमः कः ॥५॥१६१६२॥ किमित्येतस्य क इत्ययमादेशो भवति विभक्त्यां परतः । कः। की। के। किमोऽकार एवानुवर्त्यः । पूर्वेण मकारस्यानेन “अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य" [प०] इतीकारस्यात्ये पररूपत्वे च कृते सिद्धमिति चेत् न, पूर्वेण सत्यपि मकारस्यात्वसम्भवे इकारस्यात्वं बाधकमेव स्यात् । तदानमिव दधिदानस्य । किन्च कुत्साद्यर्थे साकेऽपि यथा स्यादिति कादेशः । विभक्त्यामित्येव । किं राजा योन रक्षति । For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० १-३ कुक्को तयोः ॥५१६॥ किमः कु क इत्येतावादेशौ भवतस्तकारादावकारे च परतः । कुतः । छ । "कुतसोः" इति सूत्रे सित्करणसामर्थ्यात्पदसज्ञया भसज्ञाकार्ये उत्वे बाधिते यणादेशेन सिद्ध करूपे साको यथा स्यादित्येवमर्थः कादेशः । तोः सः साधनन्त्ये ॥११॥१६४॥ त्यदादीनां तवर्गस्यानन्त्ये सकारादेशो भवति सौ परतः । स्यः । सः एषः । अनन्त्य इति किम् ? यः । सः । त्यदाद्यत्वस्येदमादयोऽवकाशाः । सत्वस्यानन्यस्तवर्गः। परत्वाद् दस्य सत्त्वं स्यात् । ननु सत्त्वेऽपि यखे सिध्यति । नैवम् “अनिनस्मिनग्रहणेऽनर्थकस्यापि ग्रहणात्" [५० ४।४१२] इति दीत्वं स्यात् । इह च स पुरुष इति हलि सुखे दोषः स्यात् । सा इत्यत्र "अतः" [३१११४] इति टाम्न स्यात् । तस्मादनन्त्य इत्युच्यते । अनेष इत्यत्र नकारस्य कस्मान्न भवति ? “नजोऽन्" [४३११८१] इति नकारस्य त्यदादिग्रहाऐनाग्रहणात् भिवानित्यत्र "स्फान्तस्य खम्" [५/३१४१] इति तखस्यासिद्धत्वात्तकारस्य प्राप्नोति । यद्यवं परस्वत्वस्याप्यसिद्धत्वानकारो नास्ति । ततोऽन्तरङ्गत्वादनुस्वार एव स्यात् । असौ ॥११।१६५॥ असाविति निपात्यते । अदसः सकारस्यौत्वं सौ सुखम् । अत्वचाधनार्थम् । “तोः" [५/११६४] इति दस्य च सत्वम् । असौ। हे असौ। स्त्रीपुसयोरिदम् । सावित्येव । अदः कुलम् । अदसः परस्य सोरौत्वमेव निपात्यमिति चेत् , न, कुत्साद्यर्थविवक्षायामकि त्यदाद्यत्वे टापि कृते "त्यस्थे क्यापीदतः" [५।२।५०] इति इत्वं स्यात् । तेन असको स्त्रीति न सिध्येत् । सकारस्य त्वौत्वे टाम्नास्तीति न दोषः इदमो मः॥५॥१२१६६॥ इदमित्येतस्य मकारादेशो भवति विभक्त्यां परतः। साविति निवृत्तम् । उत्तरत्र साविति निर्देशात् । इमौ । इमे । इमे । इमाः । इमे। इमानि । दः ॥५॥१॥१६७॥ यः सौ ॥५११६८॥ इदमो दस्य यकारादेशो भवति सौ परतः । उत्तरत्र पुसीति निर्देशात् स्त्रियामयं विधिः । इयं स्त्री । नपुंसके सुखे नास्ति ।। पुंसीदोऽय ॥५॥११६६॥ इदम इद्रूपत्य अयादेशो भवति सौ परतः पुंस्यभिधेये । अयम् । परभायम् । "पूर्वोत्तरपदयोस्तावत्कार्य पश्चादेकादेशः" । "नेन्द्रस्य' [५।२।२७] इति ज्ञापकात् । नाप्यकः ॥५॥११७०॥ इदम इद्रपस्याककारस्यान इत्ययमादेशो भवति श्रापि विभक्त्यां परतः । अनेन । परमानेन । श्रनयोः। अक इति किम् ? इमकेन । इमकयोः । प्राविति प्रत्याहारः टादिरासुपः पकारेण । हलि खम् ॥५॥२॥१७१॥ हलादावापि परतः अककारस्येदम इद्र पस्य खं भवति । ग्राभ्याम् । एभिः । एभ्यः । एषु । अक इत्येव । इमकेभ्यः । “अन्तेऽलः" [1111४६] कस्मान्न भवति । "नानर्थकेऽन्तेऽलो विधिः" [१०] । अथवा अर्थवशाद्विभक्तीपरिणाम इति पूर्वेण सिद्ध स्यानोऽन्तेऽल इति नखम् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः। मृजैरेप ॥२॥१॥ गोरित्येतदेवानुवर्तते । मृजेरिक ऐब्भवति । मार्टा । मृजेरितीग निर्देशः “धोः स्वरूपग्रहणात्तत्यविज्ञानम्" [40] भ्रौणहत्येति तत्वनिपातनाज्ज्ञायते । अन्यथा "हनस्तो अिणलोः" [५/३६] इत्येव तत्वं स्यात् । धोर्विहिते त्ये ऐब्भवति । न मृदस्त्ये तेन कंसपरिमृभिरिति । ननु “विङति" [1111१६] इति प्रतिषेधः सिद्धो नैवम् । किन्निमित्तयोरेबैपोः स प्रतिषेधः। विडत्यचि वा ॥२२॥ मृजेरजादौ क्ङिति वा ऐन्भवति । परिमृजन्ति । परिमार्जन्ति । परिमभूजतुः। परिममार्जतुः । विडतीति किम् ? परिमार्जनम् । अचीति किम् ? मृष्टः । ते तसि या द्रष्टव्यम् । १. प्रतिषु सूत्रस्यास्य वृत्तिस्त्रुटिता । For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ५ पा०२ सू०३-६ ] महावृत्तिसहितम् ३५६ ञ्णित्यचः ॥५॥३॥ जिति णिति च परतोऽजन्तस्य गोरैभवति । प्राकारः। अध्यायः। "अध्यायानुवाकयोर्वोप" [४/११६४] इति निपातनाद्घञ् । कारको हारकः। नायकः । लावकः । सखायौ। सखायः । अनर्थकमिदम् । एपिरन्नत्वे अयवीश्च कृतयोः "उङोऽतः" [५।१४] इत्यैपा सिद्धम् । मैवं शक्यम् । “गुकार्ये निवृत्ते पुनर्न तन्निमित्तम् [प०] इति असि च सख्युरेम्न विहितः गौत्रमित्यत्र चावयादेशाभावादैम्न सिद्ध्येत् । अज्ग्रहणमनिगर्थे गौरिति । णित्करणं तु गावौ गावः इत्यत्राबादेशे सति "उकोऽतः" [५।२।४] इलैपि चरितार्थ स्यात् । उडोऽतः॥५॥राठ॥ गोरकारस्य उडः ऐन भवति णिति परतः । पाकः। पाट: । पाचकः । पायकः । पाचयति । उद्ध इति किम् ? पिपटिपकः । 'पकाराकारस्य मा भूत् । अन्त्यस्य पूर्वेण प्राप्नोति । नैवम् । पूर्वविप्रतिषेधेनातः खं भवति । अतः इति किम् ? भेदकः । तपरकरणं मुखसुखार्थम् । हृत्यचामादेः ॥५॥२॥५॥ श्रच इत्यनुवर्तते । हृति णिति परतः अचामादेरच ऐव् भवति । श्राश्यग्रीविः। पृष्ठिः । सौलोचनः । सौतारः । “नदीमानुपी" [३1१1१०२] इत्यादिनाए । अचामिति किम् ? हला मविवक्षार्थमन्यथा अजादीनामेव स्यात् । अजन्तलनशास्यो लक्षणस्य चैपः परत्वादादरैप । त्वाष्ट्रः । जागतः। "तस्येदम्" [३।३।८८] इत्यण । “सकृद्गते परनिर्णये बाधितः एव" [१०] पुनः प्रसङ्गविज्ञानपक्षेऽपि न दोपः । अनुशतिकादिषु पुष्करसच्छब्दपाठात् पौष्करसादिः । बाह्रादेरिज् [३।१।८५] । अन्यथा तत्रोभयोः पदयोरैवर्थपाठोऽनर्थकः स्यात् । देविकाशिशपादीर्घसत्रश्रेयसामाः ॥६॥ देविकादिभिरायचो विशेषणात् कंवलानां तदादीनां च ग्रहगाम । देविकायां भवं दाविकमदकम्। आद्यविशेषणा विकुले भवा दाविकुलाः शालयः। शिशपाया विकारः शांशपं भन्म । शिशपास्थले भवं शांशपास्थलम् । दीर्घसत्रे भवं दार्पसत्रम् । श्रेयोऽधिकृत्य कृतो ग्रन्थः श्रेयसि भवो वा श्रायसः स्याहादः । देविकादीनामादेरच इति किम् ? सुदेविकायां भवा सौदेविकाः। पूर्वदविकायां भवः पूर्वदाविकः । पूर्वशांशपः । प्राचां ग्रामौ । "प्राचां ग्रामाणाम्" [५।२।१६] इति धोरैप्प्रसङ्गे अनेनाकारः । केकयमित्रयुप्रलयानां यादेरिय ॥राजा केकय मिनयु प्रलय इत्येतेषां यकारादेरियादेशो भवति हृति णिति परतः। केकयस्थापत्यम । “राष्ट्रशब्दादाज्ञोऽञ्" [३।१।१५०]। श्रादरैप । कैकेयः। मित्रयोर्भावः "वृद्धचरणाछलाघात्याकारावेते” [३१४१९२४] इति वुञ् । लौकिकं तत्र वृद्धं गृह्यते । मैत्रेयकमाश्लायते। प्रलयादागतं प्रालेयम् । पदे य्वोरै योय ॥२८॥ पदे परतः अचामादेरचः स्थाने कृतौ यौ यकारवकारी तयोरैयो इत्येतावादेशौ भवतः हृति निणति परतः । व्याकरणं वेत्त्यधीते वा वैयाकरणः । एवं नैयायिकः "क्रतक्थादिसूत्रान्ताहण्" [३।२।५२] इति ठण । शोभना अश्वा अत्येति स्वश्वः। तस्यापत्यं सौवश्विः । श्रादरैपः परत्वादैयौत्रो भवतः । अर्हता प्रोक्त माईतं तत्त्वम् । पद इति किम् ? इणः शतरि यत् । यतः छात्रा याता अन्त्यचामाटेरचः स्थाने "यणेत्योः ७७] इति यकारो न तु पदे परतः । योरिति किम? अाश्विः । अचामादेरचः इति किम् ? अभ्यञ्जनेन चरति अाभ्यञ्जनिकः । दाध्यश्विः। इह कस्मान्न भवति अशीती भृतो भावी वा द्वयाशीतिकः ? यौवादेश्च ऐप्राप्तिस्तत्रायं विधिः । अत्र च "संखायाः संख्यासंवत्सरस्य" [५।२।२०] इति योः प्राप्तिनं द्विशब्दस्य । द्योरैपोऽप्ययमपवादः । पूर्वव्यलिन्दे जातः पृर्वत्र यलिन्दः । "प्राचां प्रामाणाम्" [५।२।१६] इति प्राप्तिः । द्वारादेः ॥५२॥९॥ द्वार इत्येवमादीनां च धोरैयौवित्येताबादेशा भवतः णिति हृति परतः द्विारे नियुक्तः दौवारिकः । नायं पदेऽचः स्थाने वकारः इति पूर्वेणाप्राप्तिः । अत्र द्वारादिभिद्योर्विशेषणात्तदादि For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३६० [ श्र० ५ पा० २ सू० १० - १४ ग्रहणम् । द्वारपाल्या अपत्यं दौवारपालिकः । " रेवत्यादेष्टण ” [३।३।१३४] इति ठण | स्वरमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः सौवरः । तदादेरपि । स्वराध्याये भवः सौवराध्यायः । व्यल्कसे भवः वैयल्कसः । स्वस्तीत्याह सौवस्तिकः । तदाहेत्यस्मिन्नर्थ ठरणुक्तः । स्वर्भयं सौम् । “केर्ममात्रे टिखम्" [वा०] इति टिखम् । स्वर्गमनमाह सौवर्गमनिकः । स्वः अध्याय स्वाध्यायः । स्वाध्यायेन चरति सौवाध्यायिकः । श्रचामादेरित्यनुवर्तनादाद्यचः समीपस्य यौवादेशौ स्वशब्दस्यैव । तदादिविधिना सिद्धमिति चेत्, न "स्वशब्देन तदादिविधिरनित्यः " इतीदमेव ज्ञापकम् । तेन स्वपती साधु स्वापतेयमिति । स्पयकृतस्यापत्यं स्फेयकृतः । “कुर्वृष्यन्धकवृणे: " [३।१।१०३] इत्यण् । स्वादुष्यस्येदं सौवादुष्यम् । शुनो विकारः शौवः सङ्कोचः “श्वाश्मचर्मणां संकोचविकारकोशेषु" [ ४|४|१३२] इति टिखम् । शुनो दंष्ट्रा श्वादंष्ट्रा । " श्रन्यस्यापि " [४।३।२३२] इति दीत्वम् । तत्र भवः शौवादी मणिः । तथा शौवाहननम् । स्वस्येदं सौम् । तदादेः स्वग्रामे भवः सौवग्रामिकः । श्रव्यात्मादित्वाह । न्यग्रोधस्य केवलस्य || ५|२|१०|| न्यग्रोधस्य केवलस्य यो यकारस्तस्य ऐयित्ययमादेशो भवति हृति िित परतः । न्यग्रोधस्यायं नैयग्रोधो दण्डः । केवलस्येति किम् ? न्यग्रोधा अस्मिन्देशे सन्ति “बुन्छगुट" [३६] इत्यादि पाटात्कः । टापू “त्यस्थे क्यापी" [ ५|२|५० ] इत्यादित्यम् । न्यग्रोधिकायां भवः न्यायोधिकः ग्रत्र “भस्य हृत्यढे" [वा०] इति पुंवद्भावः प्राप्तः । " न वुहकोड: [४ | ३ | १४६ ] इति प्रतिषेधः तथा न्यग्रोधमूले भवं न्याग्रोधमूलं तृणम् । ऐबेव भवति । ननु न्यग्रोधस्योच्यमानं कथमन्याधिकस्य स्यात् १ तदन्तविधिना । स्येवं नार्थः केवलग्रहणेन न्यग्रोधस्य प्राधान्येनाश्रयणात्तदन्तविन्ध्यभावः । एवं तर्हि तदादिनिवृत्यर्थं केवलग्रहणम् । ग्रन्यत्रेह तदादिविधिरस्तीति ज्ञाप्यते । न्यग्रोधतीति व्युत्पत्तिपक्षे नियमार्थम् । केवलस्यैव । व्युत्पत्तिपक्षे विध्यर्थं सूत्रम् । न मे || ५|२| ११ || मे आयें कर्मव्यतिहारे विशति हृति यदुक्त तन्न भवति । व्यात्युची । व्याक्रोशी । व्यापचोरी वर्तते । "कर्मव्यतिहारे जः " [ २|३|७६ ] इति ञः । “जात् स्त्रियाम्" [४/२/२२] इत्यण् । तस्मिन् प्रतिषेधः । स्वागतादेः ||१२|| स्वागतादेश्च यदुक्तं तन्न भवति । स्वागतेन चरति स्वागतिकः । स्वध्वरस्यापत्यं स्वाधरिः । स्वङ्गः स्वाङ्गिः । व्यङ्गः व्याङ्गिः । व्यङः व्याडि । व्यवहारेण चरति व्यावहारिकः । व्यवहारशब्दो न कर्मव्यतिहार एव वर्तते किन्तर्हि लोकवृत्तेऽपि । ततः पाठः । स्वपतौ साधु स्वापतेयम् । श्वादेरावतः || २|१३|| श्वादेगौरिकादौ यदुक्त तन्न भवति । श्रतश्च य उत्पद्यते तस्मिंश्च । चकारमन्तरेणापि समुच्चयो गम्यते । यथा पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिति । श्वाभस्त्रिः । श्वादष्ट्रिः । श्वा करिणः । श्वाशीर्पिः । श्वागणिकः । श्वेव भस्त्रास्य, शुन इव दंष्ट्राऽस्य, शुन इव कर्णावस्य शुन इव शिरोऽस्य । स्वशिरसोऽपत्यं ब्राह्वादिपाठादिञ् । श्रजादौ हृति शिरसः शीर्पादेश उपसङ्ख्यानेन । इकारदीलं व्यपदेशवद्भावेन | तो य उत्पद्यते तत्रापि प्रतिषेधः । श्वामस्त्रेरिटं श्वाभस्त्रम् । श्वाकर्णम् | "इज: " [३] इत्यण् । श्वन्शब्दो द्वारादिषु पठ्यते । तस्य तदादिविधिः श्रस्तीति इदमेव प्रतिपेधवचनं ज्ञापकम् । श्वादेरिति किम् ? श्वभिश्चरति शौविकः । केवलस्य न प्रतिषेधः "नोऽषु सो हृति" [४|४|१३०] इति टिम् । आयत इति किम् ? श्वाभस्त्रस्येदं शौत्राभस्त्रम् । शौवादंष्ट्रो मणिः । वा पदान्तस्य || ५|२|१४|| श्वादेगः पदशब्दान्तस्य यदुक्त तन्न भवति वा । किमुक्तम् ? द्वारादौ श्वशब्दस्य तदादिविधिना श्रयुक्तः । श्वापदानां समूहः श्वापदम् । शौवापदम् । शुन इव पदस्य श्वापदः । “अन्यस्यापि” [४।३।२३२] इति दीत्वम् । इकारादौ पूर्वनिर्णयेन नित्यः प्रतिषेधः । श्वापदेन चरति श्वाप दिकः । ग्रन्तग्रहणं न कर्तव्यम् । “येनालि विधिस्तदन्तायोः " [३।११६७ ] इति स्वयमेव पदान्तस्य श्वादेरित्यनु For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० १५-१६] महावृत्तिसहितम् वर्तमानाच्च नान्यस्य कस्यचिद् भविष्यति । एवं तन्तग्रहणं ज्ञापकमनित्यस्तदन्तविधिः । तेन “स-त्य-विधौ न तदन्तविधिः" [प०] इति न वक्तव्यम् । द्योः॥१५॥ द्योरित्ययमधिकारो वेदितव्यः । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिप्यामः द्योरित्येवं तद् वेदितव्यम् । "हनस्तोऽभिणलोः [५।२।३६] इत्यतः प्राग्वक्ष्यति । "प्रोष्टपदानां जाते" [५।२।२३] प्रोष्ठपटासु जातः प्रोष्ठपादो माणवकः । द्योरै । पूर्वपदस्य तेन न भवति । “येन नाप्राप्ते तस्य तदाधनम्" [१०] इति न्यायात् । ननु "ईकेन्यव्यवाये पूर्वपरयोः" [११६०] इति न्यायेन "अवयवाहतोः" [५।२।१६] इत्यादौ कानिर्देशाद् द्योरेव भविष्यति नार्थोऽनेन ? "प्रोष्टपदानां जाते' इत्यादौ कानिर्देशो नास्ति तदर्थं वचनम्। अन्यथा प्रोष्ठपढाटौ नियमो न शक्येत । अवयवाहतोः ॥५॥२॥१६॥ अवयववाचिनः शब्दादुत्तरस्य ऋतो रचामादेरच ऐभवति । पूर्ववार्षिकः । अपरवार्पिकः । पूर्वासु वर्षासु जातः । हृदर्थविवक्षायां "हृदर्थयुसमाहारे" [१।३।४६] इति षसः । "काला?" [३।२।१३१] इति ठञ् । ननु कालाजुक्तः । “स-त्य-विधौ न तदन्तविधिः" [प०] । कथं कालान्तात् ? नव दोषः। “तोजिद्विधाववयवात्" इति तदन्तविधिरुपसङ्ख्यातः। एवं पूर्व हेमनः। अपरहेमनः। "भसन्ध्या' [३।२।१३७] इत्यादिनाए । “हेमन्तात्तखम्" [३।१।१३८] इति तखम् । अवयवादिति किम् ? पूर्वास्वतीतासु वर्षामु जातः पौर्ववर्षः । अापरवर्पः । “प्राग्दोरण' [३।१।६८] । पूर्वशब्दोऽत्र कालवाची नावयवधाची । अत एवावयवलक्षणतदन्तविध्यभावात् “कालाह" [३।२।१३१] नेप्यते । सुसर्या द्राष्ट्रस्य ॥५।२।१७॥ सु सर्व अर्धा इत्येवं पूर्वस्य राष्ट्रवाचिनः शब्दस्य गोरचामादेरच ऐब भवति । सुपाञ्चालकः । सर्वपाञ्चालकः । अर्द्ध पाञ्चालकः । शोभनाः पाञ्चालाः। प्रादिलक्षणः पसः । सर्वे पाञ्चालाः । “पूर्वकाल" [१॥३॥४४] इत्यादिना यसः । अर्द्धपाञ्चाला इति । “विशेषणं विशेष्येणेति" [१॥३॥५२] पसः । मुपञ्चालेगु जातः “राष्ट्रावध्योः" [३।२।१०२] "बहुत्वेऽदोरपि" [३।२।१०३] इति बुन । कथं राष्ट्रादुन्यमानस्तदन्ता[। “सुसर्या दिवशब्देभ्यो जनपदस्य” इति तदन्तविधिरुपसङ्ख्यातः । एवं मुमागधकः । सर्वमागधकः । अर्द्धमागधकः । दिशोऽमद्राणाम् ॥५॥२॥१८॥ राष्ट्रस्येत्यनुवर्तते । दिक्शब्दादुत्तरस्य राष्ट्रस्य मद्रवर्जितस्य धोरचामादेच ऐब् भवति । पूर्वपाञ्चालकः । अपरपाञ्चालकः । दक्षिणमागधकः । उत्तरमागधकः। पूर्वेषु पाञ्चालेषु जातः । हृदथै पसः । पूर्वोक्तेन तदन्तविधिना बुञ्। अमद्राणामिति किम् ? पौर्वमद्रः। “म भ्योऽण" [३।२८५] | दिश इति किम् ? पूर्वेप्ववयवभूतेषु पाञ्चालेषु भवः । अणि । पौर्वपञ्चालः। दिशि यः पूर्वशब्दो वर्तते स किशब्दोऽभिप्रेतो नावयवे वर्तमानः। अत एव तदन्तविध्यभावाद्वञ् नास्ति । योगविभाग उत्तरार्थः। प्राचां ग्रामाणाम् ॥५॥१६॥ दिश इत्यनुवर्तते। दिच्छब्दादुत्तरे प्राचां देशे ग्रामाणामचामादरच ऐभवति । राष्ट्रस्येत्यनुवर्तनात् प्राचामित्याचार्यग्रहणं नाशङ्कयम् । यदि पूर्वोत्तर पदसमुदायो ग्रामनामधेयस्तदा ग्रामवाचिनो गोरवयवस्य दिक्छब्दात परस्य ऐब्भवतीत्यभिसम्बन्धः । इतरत्र तु दिश उत्तरेषां ग्रामाणामिति । पूर्वा चासौ पुकामशमी च "दिक्सङ्ख्यौं खी" [१।३।४५] इति पसः । पूर्वेषुकामशम्यां जातः। अणि । पूर्वैपुकामशमः । अपरैपुकामशमः । “नेन्द्रस्य" [५।२।२७] इति प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् । प्राक्पूर्वोत्तरपदयोरैबादिकार्य पश्चादेकादेश इति । एवं पूर्वा चासौ कृष्णमृत्तिका च पूर्वकार्णमृत्तिकः । असज्ञापक्षे पूर्वस्यामिपुकामशम्यां जातः । "हृदर्थ" [१॥३।४६] इति पसः । “दिगादेरखौ' [३।२।८४] इति णः । शेषं पूर्ववत् । "अत्र ग्रामग्रहणे नगरस्यापि ग्रहणम्" [वा०] । यथा लोके अभक्ष्यो ग्रामकुक्कुट इति नागरोऽपि न भक्ष्यते । सज्ञापक्षे पूर्व च तत्पाटलिपुत्रं च । अन्यत्र पूर्वस्मिन् पाटलिपुत्रे जात इति “रोडीतो प्राचाम्" [३।२।१०१] For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० २०-२४ इति वुन । पूर्वपाटलिपुत्रकः । अपरपाटलिपुत्रकः । पूर्वकन्याकुब्जायां पूर्वस्यां कन्याकुब्जायां वा जातः अणि णे च कृते पूर्वकान्यकुब्जः । ननु चैकमेव पाटलिपुत्रम् । पाटलिपुत्रान्तरस्य व्यवच्छेद्यस्याभावाद् कथं पूर्वशब्देन विशेष्यते ? पाटलिपुत्रौकदेशे पाटलिपुत्रशब्दो वर्तते इत्यदोषः । __ सङ्ख्यायाः सङ्ख्यासंवत्सरस्य ॥२२२०॥ सङ्ख्यायाः परस्य सङ्ख्याशब्दस्य संवत्सरस्य च घोरचामादेरच ऐब्भवति णिति हृति परतः । द्विनावतिकम् । त्रिनावतिकम् । द्वाभ्यां नवतिभ्यां क्रीतम् । हृदर्थ रसः । “प्रार्हाटण" [३१४१७] । तस्य "रादुबखौ” [३।१२६] इत्युप् । द्विनवतिना द्रव्येण क्रीतं पुनष्ठण । अथवा द्वौ च नवतिश्च । “वा चत्वारिंशदादौ" [॥३।१६०] इत्यनात्वम् । “लिङ्गमशिप्यं लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्य" [१०] इति नैकवद्भावेऽपि नपुसकत्वम् । “द्वन्द्वे धुवल्लिङ्गम्" [१।४।१०२] द्विनवत्या क्रीतम । एवं द्वे षष्ठी भूतो भावी वा द्विषाष्ठिकः । द्विषष्ठयादिशब्दो वर्षेषु सङ्खये येषु वर्तमानः कालवाची । तेन कालाधिकारविहितष्ठत्र । द्वौ संवत्सरौ भूतो भावी वा द्विसांवत्सरिकः । त्रिसांवत्सरिकः। संवत्सरग्रहणं निरर्थकम् । "परिमाणस्याखुशाणे" [५।२।२२] इत्येव सिद्धम् । तत्र अशाण इति प्रतिषेधात् परिच्छेदमात्र गृह्यते नारोहपरिणाहलक्षणम् । तेन द्विवैतस्तिकम् , त्रिवैतस्तिकमिति सिद्धम् । एवं तर्हि संवत्सरग्रहणं ज्ञापकम् । "परिमाणग्रहणेन कालपरिमाणं गृह्यते"। तेन द्वे समे अधीष्टो द्वैसमिकः। द्योरैम्न भवति तथा द्विवर्ष माणविका । "परिमाणादपि ३११२६] "रात्" [ २५] इति डीनं भवति । द्वे वर्षे भूता प्राग्वतष्ठनः “वर्षादुप् च' [३।८५] “प्राणिन्युप” [३।४।८६] । वर्षस्याभाविनि ॥शश२१॥ सङ्घयाया इति वर्तते । सङ्ख्यायाः परस्य वर्षशब्दस्य अचामोदरच ऐन्भवति हति णिति परतः यद्यभाविन्य) हत्तदैव स्यात् । वे वर्षे भूतं द्विवार्षिकम । अभाविनीति किम् ? त्रीणि वर्षाणि भावि त्रैवर्षिकं धान्यम् । ननु द्वे वर्षे अधीष्टो भृतो वा कर्म करिष्यति द्विवार्पिको मनुष्य इति भाविता गम्यते कथं न प्रतिषेधः ? नैवम् ; करिष्यतीति प्रयोगे भाविता गम्यते न तु हृदों भावी । ननु मनुष्या भिधाने "प्राणिन्युप" [ ३८६] इति ठण उप कस्मान्न भवति । भूतविषये सोऽभ्युपगम्यते नाधीष्टादी। ततो “वर्षादुप्च” [३।४।८५] इति विकल्प उब् भवति । परिमाणस्याखुशाणे ॥ २२॥ सङ्ख्याया इति वर्तते । सङ्खथायाः परस्य परिमाणस्य समुदायेनाखो गम्यनानायामशाणे च द्योरचादेरचो ऐच भवति । अखुशाण इति विषयलक्षणेयमीप । द्विसोवर्णिकम् । द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रोतम् । अार्हाहणः “कार्षापणसहस्रसुवर्णशतमानाद्वा" [३।४।२५] इति वानुप् । एवं द्वि नैष्तिकम् । त्रिनष्किकम् । बहुनैष्किकम् । “द्वित्रिबहोर्निष्कविस्तात्" [३१२८] इति वोए । द्विकोडविकम् । द्वाभ्यां कुडवाभ्यां क्रीतम् । “रादुबखौ” [३।४।२६] इत्युप् । द्विकुड़वेन द्रव्येण क्रोतं पुनष्ठण । अखुशाग इति किम् ? पञ्च लोहितानि परिमाणमत्य, पञ्च कलापाः परिमाणमस्य पाञ्चलौहितिकम् , लोहिनीशब्दस्य "वा ठण छसोः" [ठक्छसोश्व] [ वा० ] इति पुंवद्भावे रूपम् । पाञ्चकालापिकम् । “परिमाणात्सङ्ख्यायाः सङ्घसूत्राध्ययने" [३।४।५६] इति ठणः “रादुबखौं" [३।४।२६] इति नोप । द्वैशाणम् । त्रैशाणम् । “द्वित्रिभ्यामण" [३।४१३४] इत्यम् । “कुलि- जस्यापि प्रतिषेधो वक्तव्यः” [वा०] । द्विकुलिजे प्रयोजनमस्य द्वैकुलिजिकम् । प्रोष्टपदानां जाते ॥५॥२।२३॥ योरिति वर्तते । प्रोष्ठपदानां द्योरचामादेरच ऐब् भवति जाताथै हृति ञ्णिति परतः । प्रोष्ठपदाभिर्युक्तः कालः । “भायुक्तः कालः" [३।२।४] इत्यण । तत्य "उसभेदे" [३।२।५] इत्युस् । उसि युक्तवल्लिङ्गसङ्ख्यातिदेशः । प्रोष्टपदासु जातः । अण । तस्य "भेभ्यो बहुलम्" [३।३।१३] इति बहुलवच नादिहानुप् । प्रोष्ठपादो माणवकः । जात इति किम् ? प्रोष्ठपदासु भवः प्रौष्ठपदो मेघः। हृत्सिन्धुभगे द्वयोः ॥॥॥२४॥ हृसिन्धु भग इस्येषु द्युष द्वयोः पदयोरचामादेरच ऐल्भवति । सुहृदयस्येदं सौहार्दम् । “हृदयस्य हृल्लेखयारलासेषु" [४।३।१६१] इति हृद्भावः । अथवा “सुहृदुहृदौ मित्रा For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० २५-३०] महावृत्तिसहितम् मित्रयोः" [४।२।१५०] इत्यनयोर्ग्रहणम् । महासिन्धौ भवः माहासैन्धवः । “कच्छादेः" [३।२।१११] इत्यण । सिन्धुशब्दस्य तत्र तदन्तविधिरपि । सौभाग्यम् । दौर्भाग्यम् । सुभगाया अपत्यं दणि "कल्याण्यादीनामिनङ" [३।१।१४५] सौभागिनेयः । अनुशतिकादेः ॥ २५॥ अनुशतिक इत्येवमादीनां शब्दानां द्वयोः पदयोरचामादेरच ऐब् भवति । अनुशतिकस्वेदम् आनुशातिकम् । श्रानुशातकिः । अनुहोड-प्रानुहौडिः । अनुसंवरण-आनुसांवरणिः । अगारवेणोरिदम् आगारवैणवम् । अमिहत्यायां भवम् प्रासिहात्यम् । अस्यहत्य इति कपाञ्चित् पाठः । अस्यहत्यशब्दोऽस्मिन्नस्ति आस्यहात्यम् । “विमुक्तादिभ्योऽण [४॥६५] अस्यहेतीति पाठान्तरम् ।। अस्यहेतिः प्रयोजनमस्य प्रास्यहैतिकम् । अध्ययः । श्राध्यायिः । वध्योगस्यापत्यं वाध्योगः । “विदादिभ्योऽनुष्यानन्तर्येऽञ्" [३।१।६३] । पुष्करसद्-पौष्करसादिः। अनुबाहुः-सान्वबाहुः। सान्वबाहविः । “बाह्वादेरिज्" [३।१।८५] । कुरुकत्-कौरुकात्यः । “गर्गादेर्यञ्” [३।१।६४] । कुरुपञ्चालेषु भवः कौरुपाञ्चालाः । “प्राग्दोरण्” [३।१।६८] । राष्ट्रसमुदायो राष्ट्र ग्रहणेन न गृह्यते । तेन "राष्ट्रावध्योः " [३।२।१०२] इति बुत्र नास्ति । उदकशुद्ध-प्रौदकशौद्धिः । इहलाक-ऐहलौकिकः । पारलौकिकः। प्रयोजनार्थे वुअ । सर्वलोकः-सर्वस्मिन् लोके विदितः सावलौकिकः । "लोकात्" [३१४१४४] "सर्वात्" [३॥४॥४५] इति ठण् । सर्वभूमेरीश्वरः सार्वभौमः । “सर्वभूमिपृथिवीभ्यामण" [३।४।४१] । सार्वपौरुषम् । तस्येदमर्थे प्रायोगिकम् । आधिदैविकम् । आधिभौतिकम् । भवार्थे अध्यास्मादिलाट्टण् । परस्त्री-पारस्त्रयः। ठणि "कल्याण्यादीनामिनट" [३।१।११५]। सूत्रनट-सौत्रनाटिः । अभिगममर्हति आभिगामिकः । राजपुरुषाफिज । राजपुरुषायरिणः। देवताद्वन्द्वे ॥५॥२।२६॥ देवताद्वन्द्वे च द्वयोः पदयोरचामादेरच ऐब् भवति । याग्निवारुणम् । अग्निश्च वरुणश्च देवते अस्य | ऐविषये "ऐपीत्" [३३१४१] इत्यग्नेरित्वम् । एवम् याग्निमारुतम् । अभिधानवशादानङ् विषयेऽयं विधिरन्यत्र न भवति । स्कान्दविशाखः । ब्राह्मप्रजापत्यः। तस्येदमर्थे अण । "दिति” [३।११७०] अादिना एयश्च । नेन्द्रस्य ॥२॥२७॥ द्योरिति वर्तते । इन्द्रत्य यौरैम्न भवति । आग्नेद्रः। “देवताद्वन्द्वे" [पा२।२६] इति पूर्वपदस्यान । इन्द्रस्य द्योरेकादेशे कृते “यस्य ड्यां च" [ १३६] इत्यखे च श्रादेरचो नाशात्कथमैपः प्राप्तिः । इदमेव ज्ञापकम् “पूर्वोत्तरपदयोः कार्यमन्तरङ्गमप्येकादेशं बाधते"। तेन पूर्वेषुकामशमादयः सिद्धाः भवन्ति । द्योरिति किम् ? ऐन्द्राग्नः । “अजायत्" [१॥३।६६] इत्यत्रेन्द्रस्य वा पूर्वनिपात इष्यते। द्यो वरुणस्य ॥५॥२॥२८॥ धन्तात्परस्य वरुणशब्दस्यै न भवति । ऐन्द्रावरुणः । द्य इति किम् ? आग्निवांरुणः । मैत्रावरुणः । ऐचिपये "ऐपीत्' [४।३।१४१] इत्यग्नेरित्वम् पश्चायोरेप । प्राचां नगरे ॥शरा२६॥ प्राप्त्यभावान्नेति न सम्बध्यते । द्वयोरिति वर्तते । अर्थवशाद्विभक्तीपरिणामः । प्राचां देशे नगरे द्यौर्द्वयोः पदयोरैब् भवति । सुहानगरे भवः सौहानागरः । पौण्ड्रनागरः। वैराटनागरः । दोरिति तत्रानुवर्तनाद्रोङन्तात् "प्राचाम्" [३।२।१०१] इति बुञ् भवति । प्राचामिति किम् ? मलनगरे भवो मालनगरः । जङ्गलधेनु वलजे ॥५२॥३०॥ जङ्गल धेनु वलज इत्येतेषु धुषु पूर्वपदस्य अचामादेरच ऐब् भवति । पूर्वपदस्येति कथं लभ्यत इति चेत् “वा चोः" [५।२।३.] इत्युत्तरत्र वक्ष्यमाणत्वात् । कुरुजङ्गले भवः कौलजङ्गलः । वैश्वधेनवः । सौवर्णवलजः । For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ३१-३७ वाद्योः ॥ ५२२२३१ ॥ जङ्गल धेनु वलज इत्येतस्य योरचामादेरच एभवति वा । कौरुजाङ्गलः । कौरुजङ्गलः । वैश्वधैनवः । वैश्वधेनवः । सौवर्णवालजः । सौवर्गुवलजः । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिमाणस्याऽनतोऽर्धाद्वा पूर्वस्य || ५|२|३२|| परिमाणस्यार्द्धादुत्तरस्य श्रनतः स्थाने एं भवति पूर्वपदस्य तु वा । श्रर्धद्रोणं पचति आर्द्धद्रौणिकः । श्रर्द्धद्रौणिकः । ग्रार्धकौडविकः । अर्द्ध कौडविकः । " पूर्वपदस्य वा " इति वचनाद् ध्रुविशेषणं वाग्रहणं नेहाभिसम्बध्यते । नत इति किम् ? आई प्रस्थिकः । अर्द्धप्रस्थिकः । अर्धचमसेन क्रीतम् श्रार्धचमसिकम् । अर्धचमसिकम् । प्रवाहणस्य ढे ढस्य ||५|२|३३|| प्रवाहणस्य दे परतः चोरैम् भवति पूर्वपदस्य तु वा दान्तस्य चान्यस्मिन् हृतित परतः । प्रवाहणस्यापत्यं प्रावाहणेयः । " शुभ्रादेः " [ ३१।११२] इति ढण । ढान्तस्य प्रावाहणेयस्यापत्यं प्रावाहयिः । प्रवाहणेयिः । प्रवाहणेयस्येदम् । “वृद्धचरणान्नित्" [३।३।६४ ] इति वुञ् । प्रावाहणेयकम् । द्योरैपि सत्यसति च नास्ति विशेषः । पूर्वपदस्य विकल्पार्थः । नञः शुचीश्वरक्षेत्रज्ञकुशलच पलनिपुणानाम् ||५|२|३४|| चोरे पूर्वस्य वेति वर्तते । नमः परेषां शुचि ईश्वर क्षेत्रज्ञ कुशल चपल निपुरा इत्येतेषामचामादेरच ऐन्भवति पूर्वपदस्य तु वा । न शुचिरशुचिः प्रयुचेरिदम् अशौचमाशौचम् । अथवा नास्य शुचिरस्ति श्रशुचिः । अशुचेर्भावः “ध्यादेरिकः " [ ३|४|१२१] इत्यण...। “नञ्सेऽचतुरसङ्गत” [ ३ | ४|११५ ] इत्यत्र व्याख्यातम् । चतुरादिम्यो नञ्स एव भावकर्महद्विधिः । अन्येभ्यस्तु नत्र सात्पूर्वमिति । न पटोर्भावः अपाटवम् । तेन नञ्सेभावाभिधायी त्यो नोक्तः । श्रनैश्वर्यमानैश्वर्यम् । श्रौत्रज्ञ्यम् । श्राक्षैत्रज्ञयम् । ब्राह्मणादिषु नसावेतौ । श्रकुशलस्टम् कौशलमाकौशलम् । अचपलस्येदम् चापलमाचापलम् । श्रनिपुणस्येदम् नैपुणमानैपुणम् । यद्यपि कुशलचपलनिपुणशब्दा ब्राह्मणादिषु युवादिषु च पश्यन्ते तथापि तत्र तदन्तविवेरभावान्न से बसे वा कृते व्यणावप्राप्तावाकृतिगणत्वाद्द्रष्टव्यौ । वति । यथातथयथापुरयोः क्रमेण || ५||३५|| यथातथ यथापुर इत्येतयोः नञ उत्तरयोः क्रमेण द्वयोरेमयाथातथ्यमायथातथ्यम् । श्रयाथापुर्यमांत्रथापुर्यम् । ब्राह्मणादिषु नसावेतौ । यथातथा यथापुरा " सुप्सुपा” [१|३ | ३] इति सविधिः । श्रयथातथाभावः श्रयथापुरा मावः इति विग्रह: । सौत्रत्वान्निर्देशस्येति प्रान्तौ पठितौ । यदि वा " यावद्यथावधृत्य सादृश्ये” [१|३|६ ] इति हसे कृते पश्चान्नञ्सः । नन्वेका नसात्पूर्वं त्यविधिः अन्यत्र नसे । तेनोभयं सिद्धमतो व्यर्थमिदम् । न व्यर्थम् । नञ्सात्पूर्व प्राप्नोतीत्युक्तम् । हनस्तो ञिलोः ||५||३६|| हृतीति निवृत्तम् । ञिणलोरिति प्रतिषेधात् सामान्येन नियतीति वर्तते । हनस्तकारादेशो भवति णिति परतः अञिलोः । घातयति । घातकः । " श्रन्तेऽल: " [१|१|४६ ] इति नकारस्य तत्त्वम् । देशघाती । सर्वघाती । "सुपि शीलेऽजातौ खिन्” [२२२२६६] घातंघातम् । “राम चाभीये" [ २४८ ] इति णम् । द्वित्वम् । घञि घातः । सर्वत्र " हो हन्तेर्णिनि” [ ५/२/५६ ] इति कुत्वम् । मिलोरिति किम् ? धानि । जघान । इह कस्मान् न भवति वृत्र हतवानिति वृत्रहा । तस्येदं वनम् । "पादिन्धृतराजोऽणि " [४|४|१२३] इत्यखम् | "धोः स्वरूपग्रहणे तत्यविज्ञानम्” [प०] इति धोरे भवति । तो एल श्रः || ५|२|३७|| आकारान्ताद्गोरुत्तरस्य गल चौकारादेशो भवति । पपौ । तस्थौ । पा इत्येतस्माण्णलि परतः युगपत्त्रीणि कार्याणि प्राप्नुवन्ति द्वित्वमेकादेश त्वं च । तत्रैकादेशादनवकाशत्वेन परमत्वम् । द्वित्वादपि परत्वादैन् । इदानीमैपि कृते निमित्तनिमित्तिनोर्विभागाभावात् लिटि परतो द्वित्वनुच्यमानं न स्यात् । "द्वित्वेऽचि " [१|१|५६ ] इति स्थानिवद्भविष्यति । ननु द्वित्वनिमित्ते चि स्थानिवद्भाव उच्यते For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ षा० २ ० ३८-४४] महावृत्तिसहितम् चात्राचो निमित्तत्वं भेदाभावात् । एवं तर्हि "द्वित्वेऽचि" [ ५६] इति सूत्रे द्वित्व इति योगविभागादिह स्थानिवद्भावः। निकृतोर्युक ॥२॥३८॥ आकारान्तस्य गोः औ कृति णिति च परतः युगागमो भवति । अदायि । अधायि । दायः । धायः । दायकः। धायकः । जिकृतोरिति किम् ? ययौ । बभौ। वी। ज्ञा देवता अस्य अणि ज्ञः। . न सेटस्तासि मोऽवमिकमिचमः ॥५॥२॥३९॥ मान्तस्य गोः तासि सेट: औ कृति निति च यदुक्त तन्न भवति । किञ्चोक्तम् ? णितीत्यनुवर्तनाद् "उङोऽतः" [५।२।४] इत्यैप । अशमि । अतमि । अदमि । शमकः । दमकः । तमकः । शमः । तमः । दमः । विश्रमः । कथं सूर्यविश्रामभूमिः ? प्रमादप्रयोग एषः । तासि सेट इति किम् ? यामकः । रामकः । म इति किम् ? चारकः । पाठकः । अवमिकमिचम इति किम् ? वामः । कामः । श्राचामः | जिकृतोरिति किम् ? शशाम | तताम। कथमुद्यमः । उपरमः ? “अड उद्यमे" [धा०] “यम उपरमे" [धा०] इति निपातनात् । जनिवध्योः ॥शरा४०|| जनि वधि इत्येतयोश्च निकृतोयदुक्तं तन्न भवति । अजनि । अवधि । जनकः । वधकः । जनः । वधः । वधिरिति प्रकृत्यन्तरं हलन्तमस्ति । तस्येदं ग्रहगाम् । न हनादेशस्यादन्तत्वात । तेन सिद्धम। "भक्षकश्चन्न विद्येत वधकोऽपि न विद्यते"। अर्तिहीब्लीरीक्नूयीमाय्यातां पुग्णावेप ॥५॥२॥४१॥ गोरिति वर्तते । अति ही ब्ली री स्नूयी क्ष्मायो इत्येपामाकारान्तानां च गूना णौ परतः पुग् भवति एच । अतिरिति तिपा निर्देशः प्रकारान्तनिवृत्त्यर्थः । इयति ऋच्छति वा कश्चित् तं प्रयुङकते अपयति । हेपयति । दिलनातेब्लॅपयति | रीयते रिणातेश्च रेपयति । निरनुबन्धपरिभाषा नाश्रीयते । क्नूयी क्नोपयति । “वलि व्योः खम्" [४।३।५५] इति यखम् । “न धु [91१11८] इत्येप्रतिषेधः प्राप्नोति अगनिमित्ते खे स प्रतिषेधः । वर्णनिमित्तं चेदम् । क्ष्मायी क्षमापयति । आकारान्तानाम् । दापयति । धापयति । लक्षणप्रतिपदोक्तपरिभालेह नाश्रीयते । ग्लापयति । अध्यापयति | "इकस्तो" [१1१1१७] इत्याश्रयणात् प्रातः एव न भवति । पुकः पूर्वान्तकरणं किम् ? दापयतेलुडि अदीदपदित्यत्र "णी कच्युङः” [५।२।११५] प्रादेशार्थः । शाच्छासाह्वाव्यावपां युक् ॥५॥४२॥ शा च्छा सा हा व्या वे पा इत्येतेषां णौ परतः युगागमो भवति । निशाययति । अपच्छाययति । अवसाययति । संह्वाययति । संवाययति । पाययति । शादीनां कृतात्वानां ग्रहणं लाक्षणिकस्यापि पूर्वेण पुकमाख्यातुम् । क्रापयति । जापयति । वेञ एकारान्तनिर्देश "औवै शोषणे" [धा०] इत्यस्य निवृत्त्यर्थः । वातेरुब्दिकरणादग्रहणम्: पाग्रहणे "पै ओवै शोषणे" [धा०] इत्यस्यापि ग्रहणम् । प्राकारान्तवर्गात् पृथक् पाठो लाक्षणिकल्यागार्थः इत्यन्ये । पातेलकं वक्ष्यति । युकः पूर्वान्तत्वं निशाययतेलुङि न्यशीशयदिति प्रादेशार्थम् । घो विधूनने जुक् ॥शरा४३।। वा इत्येतस्य विधूननेऽर्थे जुग्भवति णौ परतः । पक्षकेणोपवाजयति । गली" धिा. इत्यस्य ण्यन्तस्य किन्न रूपम् । नैवं वातेयुक स्यात् । विधूनन इति किम् ? अावापयति केशान् । "ओवै शोषणे" [धा०] इत्यस्येदं रूपम् । “धून्प्रीजोणों नुगिष्यते” इति विधूननवचनं ज्ञापकम् । ४४॥ पातेलुगागमो भवति णौ परतः । पालयति शीलं गुरुः । तिपा निर्देशोऽनव्यिकरणनिवृत्त्यर्थः । यङ अन्तनिवृत्त्यर्थश्च । ननु पाल रक्षण • इति चौरादिकस्य रूपं भविष्यति । नात्रापि युक्स्थात् । For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ४५-५१ लो वा स्नेहद्रवे ॥२४॥ला इत्येतस्य णौ परतः वा लुगागमो भवति स्नेहऽर्थे । घृतं विलालयति विलापयति । विलाययति । ला इति लिनातेः द्रवीकरणार्थस्य "विभाषा लियोः" [३।४४] इति कृतात्वस्य धूनामनेकार्थत्वाल्लातेश्च स्नेहद्रवे वृत्तिरित्युभयोर्ग्रहणम् । स्नेहद्रव इति किम् ? अयो विलापयति । जटाभिरालापयते । लीयतेः कृतात्वात् "लियोऽधाष्टय सन्मानने च" [१२६६] इति दः।। लियो नुक् ॥शरा४६॥ ली इत्येतस्य णौ परतः स्नेहद्रवेऽर्थे वा नुग्भवति । घृतं विलीनयति । घृतं विलापयति । लियोऽनात्वपक्षे स्नेहद्वार्थस्य ग्रहणम् । स्नेहद्रय इत्येव । अयो चिलाययति । णो ऐवयादेशौ । अथ "विभाषा लियोः" [३।४४] इत्यात्वपक्षे एकदेशविकृतस्यानन्यत्वान्नुक कस्मान्न भवति ? लिय इत्यत्र ली ई इतीकारप्रश्लेषादीकारान्तस्य नुक् । रुहः पः ॥शरा४७॥ रुहः णौ परतः पारादेशो भवति वा । अारोपयति । प्रारोहयति स्वर्ग जिनधर्मः । अथ "युप रुप लुप विमोहने" [धा०] इति रुप्यतेः रोपयति, रुहेः रोह्यतीति भविष्यति । न शक्यमेवम् , अारोपयतीति भविष्यति न शक्यमेवम् । ग्रारोपयतीत्यत्र रहेरर्थः प्रतीयते न रुप्यतेः । अनेकार्था धव इति पादप्रसारिकैषा । स्फायो वः ॥शरा४८॥ वेति निवृत्तम् । स्कायी इत्येतत्य वकारादेशो भवति णौ परतः । स्कावयति । स्फावयतः । स्फावयन्ति । “अन्तेऽलः” [9091४६] इत्यन्तस्य । शदोऽगतौ तः ॥॥२॥४६॥ शदेणों परतः अगतावथें तकारादेशो भवति । पुष्पाणि शातयति । फलानि शातयति । अगताविति किम् ? गाः शादयति यष्टया । "शद्ल शातने" [धा०] इति निपातनात् सिद्ध मिति चेत् ; निपातनंमबाधकमितरस्य शक्येत । यथा “पूर्वकालैक' [१॥३॥४४] इत्यत्र पुराणशब्दः पुरातनशब्दस्य । त्यस्थे क्यापीदतोऽसुपोऽयत्तदौ ॥१२॥५०॥ त्यस्थे ककारे परतः पूर्वस्य अकास्येकारादेशो भवति असुपो य श्राप तस्मिन् यत्तदित्येतौ वर्जयित्वा । कुत्सिता जटा जटिका । मुण्डिका । त्य इति किम् ? शक्नोतीति शका। तका। धोरयं कः। स्थग्रहणं किम् ? कारिका । हारिका । असति स्थग्रहणे ये कीत्युच्यमाने "येनाल विधिः" [१1१।६७] इति ककारादावेवं स्यात् । स्थग्रहणे सर्वत्र सिद्धम् । कीति किम् ? नन्दना । रमणा । कीतीनिर्देशः किम् ? "ईप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः" [१६०] इति परस्य मा भूत् । पटुका | मृदुका । अापीति किम् ? कारको हारकः । अत इति किम् ? गोका। नौका। तपरकरणं किम् ? बहुखवाका । वहुमालाका । “वाऽपः" [५/२।१२७] इत्यप्रादेशपथे। प्रपक्षे असुवः कपः परोऽयमाप । असुप इति किम् ? (बहवः परिव्राजका अस्यां बहुपरिव्राजका मथुरा ) "त्यखे त्याश्रयम्" [१०१।६३] इति सुबन्तात्परिव्राजकशब्दादयमाप । ननु च बसे समुदायादसुबन्तादावितीत्व प्राप्नोति, तदसत् , असुप इति प्रसज्यप्रतिषेधोऽयम् । न चाप सुबन्तादवयवान्परो भवति । पर्युदासे हि दोषः। सुपोऽन्यः असुप समुदायत्तस्मादाबितीत्वं स्यात् । बहूनि चर्माणि अस्यां बहुचर्मिकेत्यत्र असुबन्ताकपः परोऽयमावितीत्वम् । अयत्तदाविति किम् ? यका। सका। यकां यकां पश्यति तकां तकां वृणीते । इह कथं प्रतिषेधः, यातीति स्यतीति विचि या सा इति स्थिते के प्रादेशे च कृते यका सका । क्षिपकादावेतौ द्रष्टव्यौ। ननु कीति वर्णनिर्देशः तस्यापीति परत्वेन विशेषणं नोपपद्यते आकारेण व्यवधानात् । एकादेशे भविष्यति । एकादेशः पूर्वविधौ स्थानिवद्भवतीति व्यवधानमेव । एवं तर्हि वर्णेनैकेन व्यवधानेऽपि वचनप्रामाण्याद्भवति । सङ्घातेन पुनर्व्यवधानमिति । रथानां समूहो रथकट्या पुत्रकाम्यानं पुत्रकाम्या इत्यादौ न भवति । वाऽतोऽधोर्यकात् ॥१२॥५१॥ अधोर्यो यकारः ककारश्च ताभ्यामुत्तरस्यातः स्थाने यो अकारः तस्याप्यसुपः वा इन्द्रवति । कुत्सिता इभ्या इभ्यका । इभमहतीति "दण्डादेः" [३१४१६४] यः। एवं For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० ५२-५४ ] महावृत्तिसहितम् ३६७ क्षत्रियका | क्षत्रियका । अर्थका । अर्थिका । चटकका । चटकिका | मूषिकका । मूधिकिका | यात इति किम् ? साङ्काश्ये भवा साङ्काशियका । अधोरिति किम् ? सुनयिका । सुशयिका । सुशोचिका । पाकिका | शोभनो नयोऽस्या सुनया । " केऽण:" [ ५/२/१२५ ] इति प्रादेशे कृते धोरन्तौ यकारक - कारावमू ताभ्यां परस्य न विकल्पः । यकादिति किम् ? अश्वी । अश्विका । वेति योगविभागः । सा च व्यवस्थितविभाषा । तेन "तारका ज्योतिषि" । तारिकान्या । "आशिषि" जीवतादिति जीवका । नन्दका । जीविका नन्दिकाऽन्यत्र । अनुकम्पिता देवदत्ता । के कृते “अनजादौ वा सुखम् ” [वा०] उक्तम् – “देवका" देवदत्तकान्यत्र । " वर्णका तन्तुविकारे" । वर्णिकान्या । "वर्तका शकुनौ प्राचाम्" | वर्तिकाऽन्यत्र । “श्रष्टका कर्मविशेषे" । अष्टिका तुलान्यत्र । अष्टौ परिमाणमस्या इति । सूतका । सूतिका । पुत्रका | पुत्रिका । वृन्दारका | वृन्दारिका । "क्षिपकादौ न भवत्येव" "क्षिप प्रेरणे " [ धा० ] । ध्रु स्थैर्य । क्षिपतीति क्षिपा, के क्षिपका । ध्रुवा, ध्रुवका । यका | सका । इत्येवमादिः क्षिपकादिः दक्षिणात्यिका । इहत्यिका इत्यादावित्वमेव । भाजाज्ञाद्वास्वानां न सेऽपि || ५|२२५२ || भस्त्रा एसा श्रजा ज्ञा द्वा स्वा इत्येतेषां नसे असेsपि प्रातः स्थाने यो प्रकारः तस्य वा इद् भवति । भस्त्राशब्दस्य " श्रनुक्तपुंस्कादाच्च" [५२५३] इतीमं विधिं वक्ष्यति । इह नसादन्यत्रापि प्रतिपादयिष्यते । अभत्रका | भस्त्रिका | अविद्यमाना त्रा अस्या इति प्रभा । कुत्सार्थं कः । एषका । एपिका । एतदः सर्वनाम्नोऽकभाविनि सौ "त्यदादेरः” [५|१|१६१] इत्यत्वम् । प्राकू सुपः टाप् । एवेति विकृतनिर्देशाद्यत्र पत्वं तत्र विकल्पः । एतिकास्तिष्ठन्ति इत्यत्र नित्यमित्यम् । अजका । अजिका । अनजका । अनजिका । नञ्से कृते कः । जानातीति ज्ञा । शका | शिका | अज्ञिका । द्वके । द्विके । स्वका । स्विका । स्वका । यस्विका । एषा द्वे नपूर्व अनुदाहरणे | सुन्तादापो विहितत्वात् । नसात् पूर्वम्पश्वाद्वा अकि कृते " त्यखे व्याश्रयम्” [१|१|६३] इति अन्तर्वर्तिनीं विभक्तमाश्रित्य सुचन्तादाविति न प्राप्तिरित्वस्य । अनेपका । श्रद्वके इति भवति । स्वशब्दस्य तु ज्ञातिधनाख्यायां सर्वनामसाविरहादग्नास्ति । अकि हि सति तस्य : प्राग्भावात्सुचन्तग्रहणेन ग्रहणम् । सुबन्तादास्यात् । ज्ञातिविवक्षायां तु न स्वा अस्त्रा कुत्सार्थे कः । स्वका । अविका । अपिग्रहणं किम् ? नसे अस इत्येवास्तु | अन्यस्मिन्नपि से क्वचिद्भावार्थम् । बहवो भवा त्या इति के बहुमत्रका | बहुभस्त्रिका | निर्भत्रका | निर्भस्त्रिका | श्रनुक्त स्कादाच्च ॥ २५३ ॥ श्रनुक्तपुंस्काद्विहितस्यातः स्थाने योऽकारस्तस्य श्राच्च भवति इच्च वा । नसे असेऽपीति वर्तते । खट्वाका । खट्विका । खट्वका । मालाका | मालिका | मालका । भत्रका | भस्त्रिका | भस्त्रका | खट्वादिशब्दा नित्यं स्त्रियामेव वर्तन्ते इत्यनुक्तपुस्काः । नञ्सेऽपि । श्रभ स्त्राका । भस्त्रिका | अभत्रका | अखट्वाका अविका । अखट्वका । परमखट्वाका । परमखटिवका । परमखट्का | बसेऽपि यदा कपि परतः “ वापः " [ ५२।१२७ ] इति प्रादेशस्तदानुक्तपुंस्काद्विहितस्वातः स्थाने कार इत्ययमेव विधिः । विद्यमाना खट्वाऽस्या अखट्वाका | अखविका । यदा न कप् तदा "स्त्रीगोनींचः” [ ८ ] इति प्रादेशादुक्तपुंस्कल्यम् । अखविका । प्रतिकान्ता खटवाम् तिखटूविका । ठस्येकः || ५|२|२४|| गोर्निमित्तभूतस्य ठस्य इक इत्ययमादेशो भवति । ठस्येति त्यस्य ग्रहणम् । अक्षैदांव्यति आक्षिकः । शालाकिकः । " प्राग्यादृण्” [३|३|१२६ ] दध्नि संस्कृतं दाधिकम् । अपूपानां समूह: नूपिकम् । “कणेष्टः " [ उ० सू०] कण्ठ इत्यादिषु " उणादयो बहुलम्” [ २/२/१६७ ] इति न भवति । For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ५५-६० इसुसुक्तः कः ॥२२॥५५॥ इस् उस् उक् इत्येवमन्तात्तकारान्ताच्च गोः परस्य ठस्य क इत्ययमादेशो भवति । सर्पिः पण्यमस्य सार्पिकः । वाहिष्कः “कुप्वोस्स्ये" [५॥२६] इति रेफस्य सः । "इणः षः” [५।४।२७] इति पत्वम् । धनुः प्रहरणमस्य यजुः पण्यमस्य "प्राग्याहण" [३।३।१२६] धानुष्कः । याजुष्कः । उक्-निषाहको जातः नैषाहक'कः । शावरजम्बुकः । "श्रोर्देशे ठम्' [३।२।६६] । “केऽणः" [५।२।१२५] इति प्रादेशः । मातुरागतं मातृकम् । “ऋतष्टा" [३।१५२] । तान्तात्उदश्वित् पण्यमस्य श्रौदश्वित्कः। भवतोऽयं भावकः । ननु मथितं पण्यमस्य माथितिक इत्यत्र “यस्य यां च" [४॥४/१३६] इति खे कृते तान्तादिकस्य स्थानिवद्भावेन कादेशः प्राप्नोति । अजादिति निमित्तस्तकारो नाजादिं हन्ति । “सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्त तद्विघातस्य" [१०] "अनिशुचिहुसृपिच्छदिच्छदिभ्य इत्" [उ० सू०] इत्येवमादिना प्रतिपदोक्त योरिसुसोर्ग्रहणादिह न भवति । आशिषा तरति आशिषिकः । उपा चरति औषिकः। "श्राङः शासु इच्छायाम्" [धा०] "वस निवासे' [धा०] इत्येताभ्यां क्विपि “लिङाशिपि" [ १६] इति निपातनादित्वम् । “वसोजिः" [ २०] "शासिवसिघसाम्" [५।४।४०] इति पत्वं नसेऽपीत्यतोऽपिशब्दवृत्तेः “दोषोऽपीप्यते' [वा०] । दोा तरति दौष्कः । चजोः कुघिराण्ययोस्तेऽनिटः ॥२२॥५६॥ चकरजकारयोः कुत्यं भवति घिति ण्ये च परतः । पाकः । त्यागः । रागः । पाक्यम् । योग्यम् । भोग्यम् । न त्वत्र चकारस्य घिति जकारस्य णे साम्याद्यथासङ्घय प्राप्नोति "तेन रक्तं रागात् ॥२॥१] इति ज्ञापकात स्वरितलिङ्गाभावाद्वा न भवति । तेऽनिटः इति किम् ? कजः । खर्जः। गजः । समाजः। परिवाज्यम् । याच्यम् । अयम्। नन्यजेस्तेऽनिट इति कुल्वं प्राप्नोति । नैप दोषः । तेऽनिट इति विद्यमानस्य विशेषणम् । अजेल वीभावेनासत्त्वादविशेषणं तस्मात् समाज इति भवति । शुच्युज्योर्घमि ॥५॥२४५७॥ शुचि उब्जि इत्येतयोर्घजि परतः कुत्वं भवति । ते सेटाविमौ । शोकः । समदगः। उजेदंकारोङ्पक्षे कुत्वे कृते "उद्ग" इति । चुना योगे बत्यमुक्तं चुत्वाभावे न भवति । अथ समुद्गतः । समुद्ग इति । गमेडेन सिद्धम् । एवं तर्हि घञि उद्गेः जकारान्ततानिवृत्त्यर्थम् । न्य वादेः ॥२।५८॥ पूर्वेणाप्राते विधिः । न्यङ्कु इत्येवमादीनां च कुत्यं भवति । "नावञ्चेः” [उ० सू०] इत्युः । मद्गुः । मस्जेः “भृमृशीतृचरितनिमिमस्जिभ्य उः" [उ० सू०] जश्त्वम् । सस्य दः । भृगुः । भ्रस्जेः “प्रथिमृदिभ्रस्जां जिः सखं च" [उ० सू०] इति कुः। तक्रम् । चक्रम् । “स्फायितञ्चिवञ्चि" [उ० सू०] अादिसूत्रेण रक् । मेहतीति मेघः । इगङ्लक्षणः कः गणपाठादेप । शुनः पचतीति श्वपाकः । पचादिषु श्वपचशब्दोऽस्ति सोऽपि साधुः । अर्घअवदापनिदाघाः घनाः सज्ञाशब्दाः । अविहित लक्षणं कुत्वमिह ज्ञेयम् । हो हन्तेणिन्नि ॥५॥२॥५६॥ हन्तेह कारस्य कुत्वं भवति णिति त्ये नकारे घञि भावकरणे खपरतः । घातयति । घातकः । सर्वघाती । देशघाती | घाघातम् । घातो वर्तते। नकारे-ध्नन्ति । नन्नु। अनन् । ह इति किम् ? अलोऽन्त्यस्य मा भृत् । हन्तरिति किम् ? विहारः। णितीति किम् ? हतः। कथं यङयन्तस्य जनीति । अथ “चात् [५।२।६०] इति कुत्वमिष्यते । धुनिर्देशार्थस्तिप् । त्रिणद्ग्रहणं हन्तेविशेषणं जित्परस्य तेयों हकारस्तस्य । नकारो हकारस्य विशेपण म् । नकारे परतोऽनन्तरस्य हकारस्य स चेद्धन्तेरिति श्रीतं चानन्तर्य घ्नन्तीत्यादाविष्टं स्थानिवद्भावादेकेन व्यवधानं नाश्रितम् । वचनप्रामाण्यात् । सङ्घातेन पुनर्व्यवधानम् , हननमिच्छति हननीयति । तस्य ग्यौ हननीयकः । चात् ॥५॥२।६०॥ चादुत्तरस्य हन्तेह कारस्य कुत्वं भवति । अहं जघन। अणित्पने गलि । जवन्यते। जिघांसति । हन्तेर्यश्वः तस्मादत्परस्य कुत्वं च निमित्तत्वे तेनेह न भवति। हननीयितुमिच्छति जिननीयिपति । For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० ५ पा० २ सू० ६१-६८ ] महावृत्तिसहितम् ३६६ हेरकचि ॥शश६१॥ हिनोतेह कारस्य चात्परस्य अकचि कुत्वं भवति । प्रजिघाय । प्रजेघीयते । प्रजिघीषति । अकचीति किम् ? प्राजीहयत् । हेय॑न्ताल्लुङि “णिश्रिद्श्रु" [२।१।४३] इत्यादिना कच् । गिखम् "णौ कच्युङः" [५.२१११५] इति प्रादेशः । गौ कृतं स्थानिवद्भवतीति कचि हिशब्दस्य द्वित्वम् । ननु हेः स्वनिमित्ते त्ये चादुत्तरस्य कुत्वमुक्तम् । ण्यन्तं च प्रकृत्यन्तर कथं कचि प्राप्तिः। अयमेव प्रतिषेधो शापको एयधिकस्यापि भवति । प्रहाययितुमिच्छति प्रजिघाययिषति । सन्लिटोर्जः॥५॥२॥ सनि लिटि च यश्चस्तस्मात्परस्य जेः कुत्वं भवति । जिगीषति। जिगाय । संल्लिटोरिति किम् ? जेजीयते । जिनातेर्लिटि जित्वे कृते "हलः" [१४] इति दीत्वे कृते एकदेशपरिभाषया जिग्रहणेन ग्रहण नेप्यते लाक्षणिकत्वात् । “एर्गिवाक्चादुकोऽसुधियः [४७८] इति यत्वम् । जिज्यतुः। जिज्युः। या चेः॥शश६३॥ चिनोतेः सँल्लिटोः परतः चात्परस्य वा कुत्वं भवति । धर्म चिकीपति । धर्म चिचीषति | चिकाय । चिचाय । संल्लिटोरित्येव । चेचीयते । अप्राप्त विकल्पोऽयम् । न वञ्चेर्गतौ ॥५६४॥ वञ्चेर्गत्यर्थस्य कुत्वं न भवति । वयं वञ्चति वाणिजाः। गतौ किम् ? बङ्कय काष्ठम् । “यस्य वा" [५।१।१२१] इति "तेऽनिटः" [५।२।५६] कुत्वं प्राप्तम् । ननु गतावेव वञ्चिः पठ्यते । सत्यम् । अनेकार्था धव इत्यन्यत्र मा भूत् । राय आवश्यके ॥५॥२॥६५॥ आवश्यकेऽथें प्ये परतः कुत्वं न भवति । अवश्यपाच्यम् । अवश्यसेच्यम् । “आवश्यकाधमण्यंयोणिन्" [२।३।१४६] इत्यधिकृत्य "व्याः" [२।३।१४७] इति एयः । मयूख्यसकादित्वात्सविधिः। "व्यान्ते ह्यवश्यमो नाशः" इति मखम् । ग्रावश्यक इति किम् ? पाक्यम। सेक्यम् । यजित्यजिप्रवचाम ॥शश६६॥ यजि त्यजि प्रवच इत्येतेषां गये परतः कत्वं न भवति । याज्यम् । त्याज्यम् । प्रवाच्यम् । अनावश्यकार्थमिदम् । प्रवचिग्रहणं शब्दखावपि प्रतिषेधार्थम् । प्रवाच्यो नाम पाठविशेषः । अन्ये तु पुनराहुः-प्रपूर्वस्यैव वचेः अशब्दखे कुत्वप्रतिषेधो यथा स्यात् । अत्यगिपूर्वस्य मा भूत् । अधिवाक्यम् । वचोऽशब्दखौ ॥५॥२।६७॥ वचोऽशब्दखौ ण्ये परतः कुत्वं न भवति। वाच्यमाह । अशब्दखाविति किम् ? अवधुपितं वाक्यमाह । शब्दस्यैव सज्ञावाक्यमिति । तदुक्तम्-ग्राख्यातं सविशेषणमित्यादि वाक्यम् । भुजप्रयाजानुयाजोकप्रयोज्यनियोज्यभोज्यानि ॥शश६८॥ भुज प्रयाज अनुयाज श्रोक प्रयोज्य नियोज्य भोज्य इत्येतानि शब्दरूपाणि निपात्यन्ते । भुज इति पाणौ। भुज्यतेऽनेनेति भुजः । "हलः" [२।३।१०२] इति करणे पत्र । एकुत्वयोरभावो निपात्यते । भोगोऽन्यः । अथ “भुजो कौटिल्ये" [धा०] इत्यत्य इगुलक्षणे के रूपम् । न तस्याभ्यवहारार्था प्रतीतिः । रूढिशब्देऽप्यनुगमोऽस्ति । यथा गच्छनीति गौः । प्रया जानुयाजी यज्ञाङ्गे । “अकर्तरि" [२।३।१८] इति घन । प्रयागः । अनुयागः । इत्येवान्यत्र । योक इति भवति । उचः के उच्यतीत्योकः । इगुङलक्षणः कः । न्युच्यल्यस्मिन्निति न्योकः । "घअर्थे कविधानम्" [ वा० ] इति कः । एप् कुत्वं च निपात्यते । उचिस्ते सेट् तदर्थम् । के उच इत्यस्य रूपस्य निवृत्त्यर्थ वेदम् । दिवौकस इत्यादिषु “उणादयो बलम्" [२१२११६७] इति कुत्वम् । प्रयोज्यनि योज्यौ शक्याथें । प्रयोक्तुं शक्यः प्रयोज्यः । नियोक्तुं शक्यो नियोज्यः । “शकि लिङ च" [२।३।१४८] इति एयः। कुत्वाभावोऽनेन । प्रयोग्यो नियोग्य इत्येवान्यत्र । भोज्यमिति भुज पालनाभ्यवहारयोरित्यस्य भदयेऽभिधेये। भोज्य ग्रोदनः । भोज्या अपूपाः। ननु भक्षिरयं खरविशदे वर्तते न तु द्रवद्रव्ये तत्कथं For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ६६-७६ भोज्या यवागूरिति ? भक्षिरभ्यवहार्येऽपि वर्तते न खरविशद एव । अभक्षः । वायुभक्षः इति । अभ्यवहरणादन्यत्र न भवति । भोग्या अग्रिपाः पालनीयाः इत्यर्थः। भोग्यः कम्बलः । इष्टार्थसङ्ग्रहो निपातनात् । न्युज इति कथं सिध्यति ? न्युब्जिताः शेरतेऽस्मिन्निति न्युजो रोगः । “घजर्थ कविधानम्" [वा.] इति एयन्तस्य वाऽचि रूपम् । क्सस्याचि खम् ॥श।६६॥ क्सस्याजादौ परतः खं भवति । “अन्तेऽलः" [११॥४१] इत्यन्तस्य । अयुक्षि । अधुनाताम् । अधिक्षि। अधिक्षाताम् । दुहिदिही स्वरितेती। "इगुरुः शलोऽनिटोऽदृशः क्सः” [२११४०]। अचि किम् ? अधुक्षत् । अधिक्षत् । अधुक्षन्तेत्यत्र सस्य खे कृते “देऽनतः" [५/१५] इत्यन्तादेशस्य स्थानिवद्भावन झस्यादादेशः प्राप्नोति । "परेऽचः पूर्वविधौ" [१1१५७] इत्यकारस्य स्थानिवद्भावान्न भवति । पूर्वस्मादपि विधिः पूर्वविधिरित्युक्तम् । क्सस्य कितो ग्रहणं किम् ? इह मा भूत् । वत्सौ । वत्साः “वृतवदिहनिकमिकषिमुचिमाभ्यः सः" [ उ० सू० ] । बोब्दुहदिहलिहगुहो दे दन्त्ये ॥५॥७०॥ दुह दिह लिह गुह इत्येतेभ्यः क्सस्य वा उव् भवति दे दन्यादौ परतः । अदुग्ध । अदुग्धाः। अधुक्षत । अधुक्षथाः। अधुग्ध्वम् । अधुक्षवम् । अदुद्वहि ! अधुनावहि । दिद। अदिग्ध । अधिक्षत । अलोट । अलिक्षत । न्यगूढ । न्यधुक्षत । दुहादिभ्य इति किम् ? व्यत्यरूक्षत | द इति किम् ? अक्षत् । दन्त्य इति किम् ? अधुक्षामहि । स्वमिति बर्तमाने उग्रहणं सर्वापहारार्थम् । श्रोतः श्ये ॥२७१॥ श्रोकारान्तस्य गोः श्ये परतः खं भवति । निश्यति । अपछयति । अयद्यति । अवस्यति । बोब्ग्रहणमत्वरितत्वान्नाधिकृतम् । श्य इति शित्करणं किम् ? गव्यम् । शमित्यामदो दीः ॥ ७२॥ शमादीनामामदो दीर्भवति श्ये परतः। शाम्यति । ताम्यति । दाम्यति । श्रान्यति । भ्राम्यति । क्षाम्यति । क्लाम्यति । माद्यति । “अचश्च" [1111१२] इत्यचः स्थाने दीः । श्राम इति किम् ? अस्यति । श्य इत्येव । भ्रमति । "वा भ्राशभ्लाश" [२।१।६६] इत्यादिना वा शम् । ष्ठित्रुक्लम्बाचमां शिति ॥७३॥ ष्टिषु क्लमु अाचम इत्येतेषां दीर्भवति शिति परतः । ष्ठीवति । ष्टीवेत् । क्लामति । क्लामेत् । आचामति । आचामेत् । क्लमः शितीति दीत्ववचनं शवथम् । चमेराङपूर्वस्यैव । केवलस्यान्यपूर्वस्य च मा भूत् । चमति । विचमति । क्रमो मे ॥२७॥ क्रमो मपरे शिति दीभवति । क्रामति । क्रामेत् । म इति किम ? अाक्रमते आदित्यः । "ज्योतिरुद्गतावाङः" [१॥२॥३६] इति दः । शितीत्येव । क्रमिष्यति । ननु सर्वत्र गृह्यमाणेन शमादिना अविशेष्यते । तेनाटोऽपि दीत्वं स्यात् । अशाम्यत् । “अन्त्याभावेऽन्त्यसदेशस्य कार्यम्" [१०] इत्यदोषः । इह सङ्क्रामेति हेरुपि कृते "नोमता गोः" [११११६४] इति त्याश्रयकार्यप्रतिषेधाद् दीत्वं न प्राप्नोति । न दोषोऽयम् । उमता वचनेन नष्टे यो गुस्तस्य कार्य स प्रतिषेधः। तत्रायं क्रमिः हिवचने गुः । किं तर्हि शिति । गमिषुयमां छः ॥१७॥ गम् इषु यम् इत्येतेषां छो भवति शिति परतः । गच्छति । इच्छति । यच्छति। म इति नाधिकृतम् । संगच्छते। इप्रेरु दितः शब्धिकरणस्य ग्रहणम् । “इप गती' [ धा० ] इत्यस्य इश्यति । “इप भाभीचण्ये" [ धा० ] इष्णातीति ।। पाघ्राध्मास्थाम्नादाणद्रष्टयर्तिसतिशदसदां पिबजिनधमतिष्ठमनयच्छपश्यर्छधौशीयसीदाः ॥५॥७६॥ पा घ्रा ध्मा स्था म्ना दाण् द्रष्टि अर्ति सर्ति शद सद इत्येतेषां पिब जिघ्र धम तिष्ठ मन यच्छ पश्य ऋच्छ धौ शीय सीद इत्येते यादेशा शिति यथासङ्ग.यं भवन्ति । पा-पिबति । पित्रतः। For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० ७७-८२] महावृत्तिसहितम् ३७१ पिचन्ति । अत्र “युङ : " [ ५/२/८३] इति एप्प्राप्नोति । अकारान्तोऽयमादेशो अथवा गुकायें निवृत्ते पुनर्न तन्निमित्तमिति न भवति । प्रा-जिघ्रति । ध्मा-धमति । स्था- तिष्ठति । म्ना मनति । दाणू | प्रयच्छति । द्रष्टि इति दृशेस्तिपि “शपोऽदादिभ्यः " [ १।४।१४३ ] इत्यत्र शप इति योगविभागाच्छप उपि कृते " कल्यकिसि सृजिदृशोऽम्” [४/३/५१] इत्यमा निर्देशः । एवमर्तिसत्योंरपि ज्ञेयम् । पश्यति । पश्यतः । पश्यन्ति । अति-ऋच्छति । अनुब्विकरणस्य ग्रहणम् । सर्ति । धावति । सर्तेर्व्याख्यानात् शैत्र्ये धावादेशो नान्यत्र । संसरति । प्रसरतीत्यादि । शद् - शीयते । शीयेते । “सदेर्गात्” [११२/५५ ] इति: । सद् | सीदति । द्रष्ट्यादीनां तिपा निर्देशो यङ्चन्तनिवृत्त्यर्थः । शतरि शिति प्राप्तिः । दर्दर्शत् । अरियत् । सत् । श्रश्व रिक् । इतरय रुक् । शाजनोर्जा || ५|२|७७ ॥ ज्ञा जन इत्येतयोः जा इत्ययमादेशो भवति शिति । जानाति । जायते । जा इति दोच्चारणं किम् ? " यब्यतो दी: " [५/२/१६] इत्यत्र मिङीत्यनुवर्तनाद् दीत्वं न स्यात् । प्वादेः प्रः || २२|७८ ॥ पू इत्येवमादीनां प्रादेशो भवति शिति परतः । पुनाति । लुनाति । वाइयो लीवृदिति यावत् । ल्वादीनां समाप्त्यर्थं वृत्करणमेतदिति केचित् । आगणान्ताः प्वादयः । तदयुक्तम् । उभयगणपरिसमान्त्यर्थता वृत्करणस्य न विरुद्धयते । किञ्चागणान्तपक्षे श्रीणाति, श्रीणाति जानातीत्यत्र प्रः स्यात् । मिरे || ५|२|७६ || मिदेर्गो रेन्भवति शिति । मेव्यति । मेद्यतः । मेयन्ति । मिदेव इ तस्यायमे । मिदेरिति किम् ? क्लियति । शितीत्येव । मियते । जुसि ॥ २८० ॥ जुसि परतः इगन्तस्य गोरेप् भवति । कामचारेण विशेषणम् । इका सन्निहितेन गुर्विशेष्यते । तेन तदन्तविधिः । अजुहवुः । अविभयुः । श्रविभरुः । लङो भिः। शप उप् । “थवित्सेः” [२४] इति जुस् । भृजश्श्रत्येत्वम् । इगन्तस्येति विशेषणं किम् ? अनेनिजुः । जुसीति कारग्रहणं किम् ? लुलुवुः । अथ चिनुयु: सुनुयुरित्यत्र उसीति पररूपे कृते " तदागमास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते” [ ५० ] इति श्नोः कस्मान्न भवति । अत्र द्वे ङित्वे गाश्रयं यासुडाश्रयं च । तत्र नाप्राप्ते गाश्रये ङित्त्व निमित्ते प्रतिषेधे एन्त्रिहितस्तमेव बाधते । यामुडाश्रये ङित्वनिमित्ते तु प्रतिषेधे प्राप्ते चाप्राप्ते च । तस्तं न बाधते । गागयोः || ५|२२८१ ॥ गे चागे च परतः इगन्तस्य गोरेब्भवति । तरति । नयति । करोति । अगे कर्त्ता । भविता । चेता । स्तोता । गागयोरिति किम् ? अग्नित्वम् । अथ सङीति कर्तव्यम् । सनः सकारादारभ्य श्रा ग्राङो ङकारात्प्रत्याहारः । यदि सङीत्युच्येत अग्निकाम्यतीत्यत्रापि स्यात् । अथ यङीत्युच्येत । शिशयिषत इत्यत्र न स्यात् । 66 जागुरविञल्ङिति ॥ २८२॥ जाग इत्येतस्य गोरेव भवति श्रविजिगल्ति परतः । जागरयति । जागरकः । साधु जागरी । नागरं जागरम् । जागरो वर्तते । किति- जागरितः । जागरितवान् । ऐच्चिपये प्रतिषेधविषये च प्रापणार्थो जागुरेब्विहितोऽन्यत्र पूर्वेणैव सिद्धः । नायमे सावैपमन्तरङ्गं बाधते । तेन "ह्म्यम्यक्ष णश्वस्” [ ५1१1८१] इत्यादिना जागुरैष्प्रतिषेधः । जागरयतीत्यादौ " उङोऽतः " [ ५/२/४ ] इति पुनरैप् कस्मान्न भवति ? यदि स्याद्वचनमनर्थकं भवेत् । जागरित इत्यत्र सार्थकमिति चेत्; एवं तर्हि ञिणलोः प्रतिपेधोऽनर्थकः स्यात् । कृते एपि " उङोऽतः " [५२।४] ऐपा सिद्धवात् । अविभिखङितीति किम् ? जागृविः । "जशस्त जागृभ्यो कित " [ उ० सू०] इति विः । जागरि । जजागार । ङिति - जागृतः । जागृथः । अविञिणलिङतीति पर्युदासोऽयम् । विञिलिङद्भ्योऽन्यत्रायमेबू विधीयते तेन विञिणङिति प्रतिषिध्यते । यदि लक्षणान्तरमस्ति भवत्येव । जागरः । श्रहं जजागार । प्रसज्यप्रतिषेधे हि दोषः । विजिल्ङिति न भव For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० २ सू० ८३-८ तीति ततश्च जागरुरित्यत्र " जुसि " [ ५२८० ] इत्यस्य श्रहं जजागर । णित्पक्षे "गागयोः " [ ५८१] इत्यस्य च प्रतिषेधः स्यात् । अथवा जागुरित्यनेनानन्तराप्राप्तिः प्रतिषिध्यते न " जुसि" [ ५२८०] इत्यादि प्रातिः । अथ नञर्थः पर्युदासो नोपपद्यते अभावमात्रस्य वृत्यर्थत्वात् । न चोत्तरपदार्थाभावेन विधेर्निमित्तत्वमाश्रयितुं शक्यम् । तदयुक्तम्, यद्यभाव एव वृत्त्या गम्यते कथमब्राह्मणादिवाक्ये क्षत्रियादेरानयनम् । अथापि स्यात् । कथमुत्तरपदं सादृश्येन विपरीते वर्तते । वृत्तौ वा वर्त्तिपदार्थव्यतिरेकेणान्यपदार्थसम्प्रत्ययादुपसर्जनीभूतस्वार्थ सत्यवमन्त इत्यत्र "श्रीगोनीचः " [१/१८ ] इति प्रादेशः प्राप्नोति । श्रनेकमित्यत्र च द्विबहू स्यातामित्येव्यसारम् । यथोत्तरपदं स्वार्थे वर्तते । स्वभावतः तथानवृत्तौ परार्थि न वर्त्तिपदार्थकत्वे वर्तिष्यते । यथा च स्वार्थं वर्तमानं नोपसर्जनमेवं परार्थेऽपि सादृश्येन स्वार्थ एवेति कथमुपसर्जनत्वात् प्रादेशप्रातिः । श्रनेकमित्यत्र च एकशब्दः प्रधानभूत उपात्तस्वलिङ्गसंख्य एव परार्थे वर्तते इति द्वित्वबहुत्वयोरभावः । एवं तर्हि प्रसज्यप्रतिपेधो नञर्थो न युक्तो वृत्त्यभावप्रसङ्गात् । तथाहि क्रियामपेक्षमाणस्य नञः उत्तरपदेन सामर्थ्याभावाद्वृत्तिर्न प्राप्नोति । नैष दोषः, बचनाद् भविष्यति । देवदत्तस्य गौनास्तीत्यनभिधानान्न भवति । ततो द्वावपि नञर्थी युक्तौ । यदोत्तरपदं स्वार्थविपरीते वस्तुनि वर्तते तदा निवृत्त पदार्थकत्वं द्योतयन्न वृत्तिं लभते । यदा तूत्तरपदं स्वार्थ एव वर्तते तदा नञ् क्रियाप्रतिषेधद्वारेण सामर्थ्यमनुभवन् वृत्तिमाप्नोति । युङः ||२३|| सञ्ज्ञस्योङः एव भवति गागयोः । द्योतते । वर्षति । छेदनम् । भेदनम् । ननु च भेत्ता छेत्ता इत्यत्र त्यादेगोरवयवस्य च हलोरानन्तर्ये “ स्फेरु : ” [ |२| १०० ] इति दसञ्ज्ञया चिसा बाधिता कथमे । उच्यते " त्रसिगृधिष्टषिक्षिपः मनुः " [२।२।११६] इति " हलन्तात् [ ११८४ ] इति च नुनोः किरणं ज्ञापकम् | त्यादेर्गोत्तस्य च हलोरानन्तर्ये " ध्युङ" एत्र न व्यावर्तते । घि चासावुङ् च बुङिति यसः किम् ? भिनत्तीत्यत्र मा भूत् । इको ध्युङ एब्भवतीति सम्बन्धात् प्रसज्येत । नेटः ||२४|| इट एव न भवति । करिणम् । अरणियम् । कणिता । रणिता । श्रमं डादेशे टिखं चाश्रित्य पूर्वस्य गुसञ्ज्ञायां "ध्युङ : " [५२८३] इति एम्प्राप्तः । थस्य गे पित्यचि ॥ २२८॥ थसञ्जस्य गोर्यो युङ् तस्याजादी गे पित्ये न भवति । नेनिजानि । निजम् । विचानि । अवेविचम् । वेविषाणि । अवेविषम् । लोटि लङि च चस्य " निजामुच्येपू" [५।२।१७४] | एवं बोबुधीति । बोभुजीति । बेभिदीति । भस्येति किम् ? वेदानि । ग इति किम् ? निनेज । अनीति किम् ? नेनेक्ति । विग्रहणमुत्तरार्थम् । अपिति गे ङ्कितीति प्रतिषेधः सिद्धः । ध्युङ इत्येव । जुहवानि । सूभवत्योर्मिङि ॥|५|२२८६ ॥ सू भवति इत्येतयोर्मिंङि पिति गे एच् न भवति । सुवै । सुवावहै। सुवामहै । अभूवम् । अभूत् । सूग्रहणेन सूतिर्गृह्यते । सूयतिसुवत्योर्विकरणेन व्यवधानम् । विकरणस्य ङित्त्वादेव प्रतिषेधः सिद्धः । मिङीति किम् ? भवति । शत्रयम् । भवतैस्तिपा निर्देशो यङबन्तनिवृत्यर्थः । बोभवीति । सूत्रोपलक्षणं चेदं तिपा निर्देशेनं सूतेरपि यङन्तस्य निवृत्तिः । सोपवीति । हल्यैबुप्युतः ||५|२|८७||हलादौ पिति गे परतः उपि सति उकारान्तस्य गोरे भवति । एपोऽपवादोऽयम् | यौमि । यौषि । यौति । रौमि । रोषि । रौति । इदमेव ज्ञापकम् - पूर्वे विकरणः पश्चाद् गुकार्यम् । अन्यथा पूर्वमपि सति उकारान्तता न भवेत् । तरतः । तरन्तीत्यत्र ऋत इत्वं च स्यात् । अथवा नित्यः शप् । हीति किम् ? यवानि । उपीति किम् ? जुहोमि । सुनोमि । उत इति किम् ? एमि । एपि । एति । तपरकरणं किम् ? लोलोति । पितीत्येव । युतः । स्तः । हलि पितीनिर्देशादव्यवहितग्रहणम् । इह मा भूत् । अपि स्याद्राजानम् । थस्य नेत्येतदिहानुवर्त्यमिति केचित् । योयोति । रोरोतीत्यादिसिद्धये । वोऽणः ॥ २८८ ॥ उपतेर्वा एब्भवति हलादौ पिति गे । प्रोर्णोमि । प्रोणमि । प्रोणौषि । प्रोणोषि । प्रोति। प्रोर्णोति । हलीत्येव । प्रोर्णवानि । पितीत्येव । प्रोतिः । पूर्वेण प्राप्ते विकल्पः । For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०५ प० २ सू० ८६-६६ ] महावृत्तिसहितम् ३७३ हल्येषु ||५|२|८६॥ उर्णोतेर्हलि पिति गे एक्भवति । प्रौर्गाः । प्रौर्णात् । पुनर्हल्ग्रहणं केवलार्थम् । हलादौ मा भूत् । वेति नाधिकृतम् । तृणह इम् ||५|२२६०॥ तृणह इत्येतस्य गोरिमागमो भवति हलादौ पिति गे परतः तुहिरागतश्नको गृह्यते । श्नमि कृते इमागमो यथा स्यादिति । तृणेक्षि | तृणेढि | हलीत्येव । तुहानि । पितीत्येव । तृण्ढः । अतृडित्यत्र तिस्यो: “हल्ड्यापः " [४|३|५६] इत्यादिना से कृते हलायभावादिम्न प्राप्नोति । "त्यखे त्यायम्" [ ११११६३] अपि न सम्भवति । वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयमिति । यथा गये हितम् गोहितमित्यत्र अचीति वर्णाश्रये नास्त्यवादेशस्त्याश्रयः । नेदं वर्णाश्रयं कार्यम् । किं तर्हि मिङाश्रयम् । मेङि हलादौ परतः । तस्य च त्यले त्याश्रयमित्यवस्थानादिम् । ईट ||५२२२६१ ॥ ब्रुव ईडागमो भवति हलि पिति गे । ब्रुव इति कानिर्देशात्परादिरी | ब्रवीति । ब्रवीतु | अब्रवीदित्यत्र व्यपदेशिकद्भावेन हलादित्वम् । हलीत्येव । वारिण । पितीत्येव । ब्रतः । ग इत्येव । उवचिथ । इटं बाधित्वा परत्वादीट् स्यात् । श्रात्थ इत्यत्र स्थानिवद्भावात्प्राप्नोति "ब्रुव ग्राहश्च " [२|४|७०] इति ग्राहादेशः । सिपश्च थादेशः । " श्राहस्थः " [ ५|३|५२ ] इति हस्य थत्वम् । चर्व्वम् । नायं दोषः । अलि विधिरयम् । “अनल्विधौ” [ १।१।५६ ] इति प्रतिषेधः । यो वा || ५|२||२|| यङन्ताद्वा ईड् भवति हलि पिति गे । अत्रापि यङ इति कानिर्देशात् परस्य तया योगः । लालपीति । वावदीति । शाश्वसीति । चोक्रुशीति । “थस्य गे पित्यचि " [५|२८५ ] इत्युङ: एप्प्रतिषेधः । पक्षे लालति । वावत्ति । शाश्वत्ति । चोक्रोष्टि । यङन्तात्परस्य हलादेः पितो गस्याभावाद्वचनाद्यङअन्तस्य ग्रहणम् । इदमेव ज्ञापकं " यङोऽचि” [१|४|१४४ ] इत्यत्राविशेषेण यङ उबू भवति । “चर्करीतम्" इत्यादिषु पठितम् । तस्यादादिकार्यम् । “मम्” [१/२/७५ ] इति मविधिः । " चकंरीतम्" इति यङ बन्तस्य सञ्ज्ञा । हल्यस्सेः ॥५|२|६३|| हलि परत: अस्तेः स्यन्ताच्च ईड्भवति । श्रस्तिग्रहणं लङर्थम् । आसीत् । । स्यन्तात् । अकार्षीः । लावीत् । अलावीः । पुनर्हल्ग्रहणं केवलार्थम् । इह मा भूत् । अस्ति | वेति नाधिकृतम् । नन्वभूदित्यत्र स्तेः स्थानिवद्भावात्प्राप्नोति । ग्रस्सेरिति त्रिसकारको निर्देशः । तेन स्तः सकारान्तादीट् । रुद्भ्योऽड्वाऽजज्ञेः ॥५|२| ६४|| रुदादिभ्यो जक्षिपर्यन्तेभ्यः श्रड्वागमो भवति ईट्च हलि पिति गे । आजदेरित्याङभिविधौ द्रष्टव्यः । केवलहल ग्रहणमनुवर्तते । श्ररोदत् । श्ररोदीत् । अस्वपत् । श्रस्वपीत् । श्रश्वसत् । अश्वसीत् । प्राणत् । प्राणीत् । श्रजक्षत् । श्रजक्षीत् । सर्वत्र लङ् । “गोऽनितेः " [ ५|४|१०४ ] इति रणत्वम् । आजदेरिति किम् ? अजागर्भवान् । एपि रन्तत्वे च कृते “ हल्ङया" [ ४/३/५६ ] आदिना खम् । “रुदादेर्गे” [५।१।१३५] इतीटि प्राप्त तदपवादोऽयम् । 'दोऽय् ॥२६५॥ अदः अड् भवति हलि पिति गे । आदः । आदत् । केवलहलीति किम् ? श्रर्ति । पुनरग्रहणमीनिवृत्त्यर्थम् । यतो दीः || २६६ ॥ यत्रादौ मिङि अकारान्तस्य गोर्दीर्भवति । " सूभवत्योर्मिडिः " [ ५|२|८६ ] इत्यनुवर्तते । पचामि । पचावः । पक्ष्यामि । पक्ष्यावः । पक्ष्यामः । मिङीति किम् ? धनवान् । केशवः । केशा ग्रस्य सन्ति “केशाद्वो वा " [४।३।३५] इति वः । यञीति किम् ? पचति । श्रत इति किम् ? चिनुवः । चिनुमः । तपरकरणं किम् ? क्रीणीवः इत्यत्र माभूत् । नन्वीत्वेनात्र भवितव्यम् । नैवम् । क्रीणीथः । क्रोणीतः इत्यत्र सावकाशमीत्वं दीत्वेन बाध्येत । यत्रीतीनिर्देशादव्यवहितस्य गोरन्तस्य दीव्वम् । For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ६७-१०६ सुपि ॥५॥२६७॥ अकारान्तस्य गोः यत्रादौ सुपि दीर्भवति । देवाय । देवाभ्याम् । यजीत्येव | देवस्य । सुपीति सु इत्यतः प्रभृति पा सुपः पकारेण ।। बहौ भल्येत् ॥५॥रा८॥ झलादौ बहौ सुपि परतः अकारान्तस्य गोरेकारादेशो भवति । देवेभ्यः । देवेषु । बहाविति किम् ? देवाभ्याम् ! झलीति किम् ? देवानाम् । “नामि" [४॥४॥३] इति दीत्वम् अग्नीनाम् , वायूनामित्यत्र सावकाशम् , इहासति झल्ग्रहणे परत्वादेत्वं स्यात् । यत्रीत्यस्य निवृत्यर्थ च झल्ग्रहणम् । अन्यथा देवेष्विति न स्यात् । अत इत्येव । अग्निभ्यः । तपरकरणं किम् ? खट्वाभ्यः । सुपीत्येव । पचध्वम् ।। श्रोसि ॥५२॥६६॥ श्रोसि च परतः अकारान्तत्य गोरेकारादेशो भवति । देवयोः स्वम् । देवयोर्विधेहि । आङिचापः ॥२१००॥ आङिओसि च परतः श्रावन्तस्य गोरेकारादेशो भवति । आमिति टापडापोहणम् । विद्यया। विद्ययोः। बहुराजया । बहुराजयोः। "अनश्च बात्" [३४११०]। "वोड़ खे" [३११११] इति डा। आङिति टारूपस्य ग्रहणं पूर्षाचार्यसज्ञानिदेशेन । अाप इति पिदग्रहणं किम् ? कीलालपा नरेण । कीलालपोः । विच्यामतनिवृत्ते “भातो धोः" [४।४।१२७] इति खम् । अथातिखट्वेनेत्यत्र "स्त्रीगोर्नीचः" [१1१1८] इति प्रादेशे कृते स्थानिवद्भावादेत्वं कस्मान्न भवति ? उच्यते "हल्ङयाप" [४॥३॥५६] दृति सत्रे हल्डयापोद्य इति योगविभागस्तस्याओं ड्यापोर्यत्कार्य तद्दीत्वभाजोरेव । नन दीत्वमपि स्थानिवद्भावाद्भविष्यति । "ब्यापोर्दीत्वं न स्थानिवत्" [वा०] इति प्रतिषेधः । कौ ॥५॥२॥१०॥ कौ च परतः श्राप एत्वं भवति । हे कन्ये । हे बहुराजे । “केरेङः" [१३१५७] इति सोः खम् । प्रोऽम्बार्थम्वोः २१०२॥ अम्बार्थवाचकानां मुसञ्ज्ञस्य च प्रो भवति की परतः। अम्बार्थाः मातृशब्दपर्यायाः । हे अम्ब । हे अक्क । हे अल्ल । हे अत्त । मुसज्ञकस्य । हे गोरि । हे वामोरू । “यङो वा" [५१२] इत्यतः मण्डकप्लुल्या बहुलार्थो वाशब्दोऽत्र वर्तते । तेन बह्वचोऽम्बार्थस्य प्रो न भवति । हे अम्बाले। हे अम्बिके । हे अम्बाडे | “तलन्तस्य डिक्योरुभयम्” [वा०]। देवते भक्तिः। देवतायां भी हे देवत । हे देवते । छान्दसमेतदिति केचित् । “बसे कौ मातुरदन्तत्वं पुत्रश्लाघायाम्" [वा०]। गार्गी माता अस्येति श्लाघते। हे गार्गीमात | श्लाघाया अन्यत्र । हे गार्गीमातृक । “जातिश्च" [४।३।१५३] इति न पुंवद्भावः । प्रस्यैप् ॥२२१०३॥ प्रान्तस्य गोरैब् भवति कौ परतः । हे मुने। हे साधो । “अन्तेऽलः" [११४६] इति न्यायादनन्त्यस्य न भवति । हे युव (बुध)। हे नदि । हे वधु । इत्यत्र प्रादेशवचनसामर्थ्या देब् न भवति । जसि ॥५।२।१०४|| जसि परतः प्रान्तस्य सोरेन् भवति । मुनयः । साधवः । “अन्तेऽलः" [१।११४६] इति परिभाषया अनन्तस्येको न भवति बुधा इति । धे ॥१२१०५॥ ऋकारान्तस्य गोः ङौ धसज्ञके च परतः एव भवति । मातरि । पितरि । कर्तरि । धे। मातरौ। मातरः। मातरम् । मातरौ । पितरः। तपरकरणमसन्देहाथम् । कृरिति ऋकारान्तः सम्भवति तन्निवृत्त्यर्थम् । सोर्डिति ॥२।१०६॥ स्वन्तस्य गोर्डिति एब् भवति । मुनये । साधये । मुनेः । साधोः। सोरिति किम् ? सख्ये । पत्ये । असखीति पर्युदासात् “पतिः से" [१।२६] इति नियमाच्च सुसज्ञा नास्ति । ङितीति किम ? मुनिभ्याम् । सुपीत्येव । पटवी । कुरुतः । डोतसोडिंतोरपि मा भूत। कारश्चासाविच्च ङित् तस्मिन् कित्यव्यवहितस्य कार्यम् । तेन वृद्ध्यै धेन्वै । इत्येप (न) व्यवधाने। आङि औङि च न भवति। मत्या । मती । इति । For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० २ सू० १०७ - ११५ ] महावृत्तिसहितम् ३७५ अण मोः || ५|२| १०७ ॥ म्वन्तागोः परस्य ङितोऽडागमो भवति । मोरित्यकृतार्थः कानिर्देशो ङितीत्यस्य तां प्रकल्पयति । कुमायें । वामोर्वै । कुमार्याः । वामोर्वाः । परेण सह " अटश्च " [ ४|३|७८ ] इत्यैब् वचनात् “एप्यतोऽपदे” [४|३|८४] इति पररूपं न भवति । याडापः || ५|२| १०८ ॥ श्रान्तादुत्तरस्य ङितो यागमो भवति । विद्यायै । बहुजायै । विद्यायाः । “एच्यैष्" [४।३।७६ ] “स्वेको दी: ” [ ४३८८ ] इति दीत्वं वा । ड्याब ग्रहणेन दीत्वं न स्थानिवदिति । प्रतिखट्वाय । पुनर्दीत्वे लाक्षणिकत्वम् । सर्वनाम्नः स्याउ प्रश्च ॥ १२२१०६॥ आवन्तात् सर्वनाम्नः परस्य ङितः स्याडागमो भवति प्रश्च भवत्याः । सर्वस्यै । यस्यै । तस्यै । कस्यै । सर्वस्याः । यस्याः | तस्याः । एयैप स्वेको दीत्वे । आप इत्येव । भवत्यै । भवत्याः । डेराम् म्वाम्नीम्यः || ५|२| ११०|| "प्रे लिप्सायाम्" [२।३।४२ ] इति निर्देशात् देरिति ङिवचनस्य ग्रहणम् । डेरामादेशो भवति स्वन्तादावन्तान्नी इत्येतस्माच्च परस्य । कुमार्याम् । वामोर्वाम् । विद्यायाम् । बहुरा जायाम् । ग्रामण्याम । सेनान्याम् । “सत्सूद्विष" [२।२५६ ] इत्यादिना किप् । “अग्रग्रामाभ्यां नियो णत्वम्” [वा०] | "एर्गवाचादुङोऽसुधिय:" [४४७८ ] इति यत्वम् । अथ रामः नुटुकस्मान्न भवति । परत्वादडादिभिरागमैर्भवितव्यम् । कृतेष्वपि "सकृद्गते परनिर्णये बाधितो बाधित एव" [१०] । डयापोर्दीव्वभाजोः कार्यमुक्तम्" (ङयाप) " ग्रहणे दीवं न स्थानिवत्" इति च । तेन निष्कौशाम्यौ । श्रतिखट्वे निधेहि | इदुद्भयाम् ||५|२|१११॥ इकारोकाराभ्यां मुसकाभ्यां परस्य राम् भवति । क्रुद्धयाम् । धेन्वान् । ननु पूर्व वामसिद्धोऽपार्थक्रमिदम् । " श्रदच्च सोः " [५/२/११२ ] इत्यौलं स्यात् तच्चाविशेषेण वक्ष्यति । मुग्रहणमिहानुवर्तते तेनेदुतौ विशेष्येते । दच्च सोः || ५|२|११२|| मुसञ्ज्ञकाभ्यामिदुद्भ्यां परस्य ङेरौकारादेशो भवति सोश्चाकारादेशः । सख्यौ । पत्यौ । सोः मुनौ । साधौ । प्रधानशिष्टमियामोत्वम् । श्रन्वाचयशिष्ट सोरत्वम् । यथा भिक्षां चर गां चानय । गोनयनम् । शास्त्रेऽपि " कतु' : क्यङ सखं विभाषा" [२1१18 ] इति श्रन्वाचयशिष्ट सुखम् । तपरकरणं मुख सुखार्थम् । श्रचे कृते स्त्रियां यो निवृत्यर्थमित्यप्यन्ये । टापि को दोष इति चेत्, श्रौकारस्य ङिग्रहणेन ग्रहणादामादेशयाडागमौ स्याताम् । तदसत् । प्रागेव सुबुत्पत्तेः स्त्रीत्येन भाव्यम् अन्यथा मातेत्यत्र नान्तलक्षणो सीविधिः स्यात् । याङो नाऽस्त्रियाम् ||५|२| ११३ || सोरिति वर्तमानमर्थात् काविभक्त्यन्तं सम्पद्यते । सोरुत्तरस्याङ: ना इत्यादेशो भवत्यस्त्रियाम् । मुनिना । साधुना । सोरित्येव । सख्या । पत्या | स्त्रियामिति किम् ? बुद्धया । धन्वा । आङो ना पुंसीति कर्तव्यम् । त्रपुणा । जाननेत्यादि । "सुपीकोऽचि" [ ५१११५२] इति नुमैव सिद्धम् । नपुंसके यमुना कुलेनेति न सिद्ध्येत् । मुभावस्यासिद्धत्वान्नुम्न स्यात् । अस्त्रियामित्युच्यमाने नपुंसकेऽपि नाभावो भवति । ततश्च " न मु टाविधौ” [५।३।२६] इति नाभावे मुभावस्य नासिद्धत्वम् । सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्टः || ५ |२| ११४ || सूत्रेऽस्मिन् जैनेन्द्रेषु यो विधि: सुपि च विधिरिष्टो भवति । सूत्रावयवेषु सूत्रशब्दो द्रष्टव्यः । उदाहरणम् - "श्रीगोनच : " [1111८] स्त्रीगूनामिति प्राप्तं सुविधिरयम् । “मिङ कार्थे वाः” [१|४|५४ ] | हल्ङयादिना सुखं प्राप्तम् । सुपो विधिरयम् । अथ विति हलन्तात् कथं टापू । यमपि सुपो विधिरिष्टः । या कपः पकारेण सुपो ग्रहणात् । गौ कच्युङः प्रोऽशास्वक्ख्यदितः || ५|२|११५ ॥ णौ परतः कच्परे गोरुङ : भवति शामु अक्ख ऋदित् इत्येतान् वर्जयित्वा । ऋचीकरत् । श्रजीहरत् । अत्र “शिश्रिस्रु” [ २|१|४३ ] इत्यादिना कचि कृते द्विर्वचनोप्रादेशयोः प्राप्तयोः परत्वादुङ: प्रादेशः । तत्र कृते "श्रोः पुयण्ज्ये" [५/२/१७८ ] इति For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० ११६-११६ शापकात् णौ कृतं स्थानिवद्भवति । अथ वा “द्वित्वेऽचि" [१५] इति स्थानिवद्भावः । कृहशब्दयोद्वित्वम् । “घौ कच्यनङ खे सन्वत्" [५।२।१६०] इति सन्वद्भावेनेत्वम् । “धेर्दीः" [५।२।१५१] इति दीत्वमेवअलीलवत् । अपीपवत् । “प्रोः पुयएज्ये" [५।२।१७८] इति उकारस्येत्वम्। अथवा श्रोण, अपनयने इत्यस्य प्रतिषेधार्थम् । ऋदित्करण ज्ञापकं द्वित्वात्पूर्व प्रादेश इति । अन्यथा मा प्रोण्णिदित्यत्र द्वित्वे कृते परेण रूपेण व्यवधानात् प्रादेशस्याप्राप्तिः। अत एव मा भवानटिटत अत्र प्रादेशे सति "अचः" [ २] इति द्वित्वम् । णाविति किम् ? कच्युङः प्र इत्युच्यमाने अलीलवदित्यत्र प्रादेशो वचनसामादन्तरङ्गमैपमावादेशं बाधित्वा नित्यत्वेन गे: खं च बाधित्वा वकारस्य स्यात् । इह चापीपचदपीपटदिति अनुङ भूतत्वात् प्रो न स्यात् । किम् ? कारयति । हास्यति । ननु मितां गौ प्रादेशवचनं ज्ञापकमन्यत्र प्रादेशाभावस्य । यद्येवमचीकरदित्या न स्यात् । अथ प्रवचनाद् भवति । कारयतीत्यादावपि स्यात्तद्विशेषहेत्वभावात् । उङः इति किम ? अचकाक्षत् । अनुङ श्राकारस्य मा भूत् । अशावकत्यदित इति किम् ? अशशासत् । परस्य थेरभावान्न सन्वद्भावः । अकः स्वम् अक्वम् अक्वमस्यास्तीति अक्खी तस्य नेति । राजानमत्याख्यत् अन्यरराजत् । “तत्करोति तदाचष्टे" इति णिच् । यत्र केवलस्याचः खं तत्र “परेऽचः पूर्वविधौ" [११११५७] इति स्थानिवद्भावः । हल चोश्चायमादेशः । तदर्थमकिवप्रतिषेधः । ननु च अनकारिदं वं कथमनकः खम् । यदत्राकः खं तदाश्रयः प्रतिषेधः। स्थानिवद्भावस्तु नास्याश्रयः । ताधिकारस्तत्रानुवर्तते । तानिर्दिष्टश्याचः स्थानिवद्भावो न समुदायरूपेण टिव स्य । ऋदित् । अडुटौकत् । अतुत्रौकत । इह कथं एयन्तारिणचि प्रादेशः । वादितवन्तं प्रयोजितवान् अवीवदवीण परिवादकेन । णौ णि वस्य स्थानिवद्भावादनुडो न स्यात् । णावित्यत्र जातिग्रहणाददोषः । भ्राजभासभाषदीपजीवमोलपीडो वा ॥शश११६॥ भ्राज भास भाष दीप जीव मील पोड इत्येतेषां कच्परे णी उडः वा प्रो भवति । अबभ्राजत् । अबिभ्रजत् । अबभासत् । अबीमसत् । अयभाषत । अबीभपत् । अदिदीपत् । अदीदिपत् । अजिजीवत्। अजीजिवत् । अमीमिलत् । अमिमीलत्। अपिपीडत् । अपोपिडत् । पूर्वसूत्रेण प्रादेशे प्राते विकल्पः। यदा प्रः तदा पूर्ववत्सन्वद्भावेनेत्वं घेीत्वम् । वेति योगविभागात कणादीनां विकल्पः । अचमाणत् । अचीकणत् । अत्रमाणत । अत्रीभगत् इत्यादि । भ्राजग्रहणं किम् ? यावता फणादिषु नाज इत्यनुकारेदस्ति तस्य सिद्धः प्रः । एज़ भेजृ भ्राज दीतावस्य ऋदितो नेति सिद्धमुभयम् । एवं तहि ज्ञापकार्थम् । अन्यत्र “यजराजभ्राजच्छसां प" [५।३।५३ ] इत्यादौ भ्राजग्रहणेन राजिसहचरितस्य अदितो ग्रहणम् । ऋदितो भ्रागिति भवति । भास ऋदित्करणमनर्थकम् खं पिवश्चस्येत् ॥शरा११७॥ पिबतेरुङः णौ कच्परे खं भवति चस्य च ईकारादेशः। अपीप्यत् । अपीप्यताम् । अपीयन् । उङः खे कृते "द्वित्वेऽचि" [११५६] इति स्थानिवद्भावादृद्वित्वम् । पित्र इति शब्बिकरणान्तो विकृतनिर्देशः। पिचतेरेकदेशो यङ बन्तनिवृत्त्यर्थः । अपपायत् । घेरभावात्सन्वद्भावी न भवति । पातेरुचिकरणत्वात् "पै अोवै शोषणे" इत्यस्य च लाक्षणिकत्वादेव निवृत्तिः। स्थ इत् ॥शश११८॥ तिष्ठतेः कच्परे णावुङ इकारादेशो भवति । अतिष्ठिपत्। अतिष्टिपताम् । अतिष्ठिषन् । "लुइलिटोः प्रतिपदोक्तानि" इत्यादि वचनाद्यङ बन्तस्य न भवति । अततास्थपत् । ता स्था इति स्थिते णिचि पुक् कचि द्वित्वं घेरभावात् सन्वद्भावो नास्ति । घ्रो वा ॥शरा११६॥ जिघ्रतेः कच्चरे णावुङ इकारादेशो भवति वा । अजिघ्रिपत् । अजिधिपताम् । अजिध्रिपन् । अजिघ्रपत् । अजिघ्रपताम् । अजिघ्रपन् । चस्य सन्वद्भावेनेन्वम् । अत्रापि यङ बन्तस्य न भवति । अजजाघ्रपत् । उभयोर्विकल्पयोर्मध्ये योगा नित्या इति पूर्वी प्रापवादौ नित्यौ । For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० २ सू० १२० - १२७ ] . महावृत्तिसहितम् उर्ऋत् ||५|२|१२० ॥ कच्यरे णौ ऋवर्णस्य उङ: स्थाने ऋकारादेशो भवति वा । अनवकाशत्वादन्तरङ्गाणाम् इररारामपवादः । अचीकृतत् । श्रवीवृतत् । श्रमीमृजत् । पक्षे इर् । अचकीर्तत् । श्रर् अवर्तत् । आर । श्रममार्जत् । “उङ:" [ ५1१1७५ ] इति ऋकारस्येत्वम् । “युङः " [५२२८३] एप् । “मृजेरैप्” [२१] । ऋकारादेशस्य " रन्तोऽणुः " [१|१|४८ ] इति रन्तत्वं भवति । " अणुदित्स्वस्या- " [१1१/७२ ] इतीमं ग्राहकाणं मुक्त्वा सर्वमण्ग्रहणं पूर्वेण राकारेणेति व्याख्यानात् । ३७७ देो दिगि लिटि || ५|२| १२१|| देङो दिग्यादेशो भवति लिटि परतः । वेति निवृत्तम् । श्रवदिये । अवदिग्याते । वदिग्यिरे । चस्येत्यनुवर्तते । वचनाद्वित्वे कृते चस्य देङश्च यथासङ्ख्यं दिगी आदेशौ भवतः । "ऐगिंवाक्चादुङोऽनुधियः " [४|४ | ७८ ] इति यणादेशः सिद्धोऽन्यथा हीयादेशः स्यात् । ऋतः स्फादेरेषु |||२|१२२|| ऋकारान्तस्य गोः स्फादेरेषु भवति लिटि परतः । सस्मरतुः । सस्मरुः । दधरतुः । दधरुः । वचनात्प्रादित्वात्स्फादेरिति विशेषणम् । अन्यथा स्फादित्वासम्भवः । प्रतिषेधविषये लिटीदमारभ्यते । सस्मारेस्यादौ ऐव भवति पूर्वविप्रतिषेधेन । ऋत इति किम् ? चिक्षिपतुः । चिक्षिपुः । तपरकरणमसन्देहार्थम् | ऋकारास्याप्युत्तरसूत्रेण विधानात् । स्फादेरिति किम् ? चक्रतुः । चक्रुः । लियेत्येव । स्मृतवान् । ननु संचस्करतुः । संचस्कररित्यत्र द्विपदाश्रयस्य सुटो बहिरङ्गलक्षणस्यासिद्धत्वात्कथमेप् । नैष दोषः । "पूर्व धुर्गिना युज्यते पश्चात्साधनवाचिना त्येन" [प०] इत्यस्मिन् दर्शनेऽन्तरङ्गे सुटि कृते पश्चादेप् । अतएव " स्फाटतोऽसुरः [५1१1१] । “स्फाद्यर्योरस्कुरे प्” [५।२।१३८] इति प्रतिषेध उपपन्नो भवति । स्मृतः । ऋच्छत्यताम् ||५|२|१२३|| ऋच्छत ऋइत्येतस्य ऋकारान्तानां च लिटि एव भवति । श्रनच्छं । आनर्च्छतुः । आनच्छुः । ए द्वित्वम् । “आद्यतः " [ ५/२/१७० ] इति दीत्वम् । “ततो नुटु” [५।२।१७१] इति नुट् । ऋ । श्रातुः । श्रारुः । " अश्नोतेः ' [ ५२।१७२] इति नियमान्नु न भवति । ऋत् । विचकरतु विचकरुः । निजगरतुः । निजगरुः । वितस्तरतुः । वितस्तरुः । ऋच्छेरन्तरङ्गत्वात् " " [ ४|३|६१] इति तुकि कृते सर्वत्रप्राप्तः ऋतां तु लिटि किति प्रतिषिद्ध एब्विधीयते । निजगारेत्यादा प् पूर्वनिर्णयेन । प्रां प्रो वा ||२२|१२४ || शृह पृ इत्येषां लिटि वा प्रो भवति । विशश्रतुः । विशश्रुः । प पूर्वेणैप । विशशरतुः । विशशरुः । विदद्रतुः । विदद्रुः । विददरतुः । विददरुः । निपप्रतुः । निपः । निपपरतुः । निपपरुः | प्रादेशवचनादित्वोत्वे न भवतः । ये तु श्रा पाके, द्रा कुत्सायां गतौ द्रा पूरणे इत्येतेषामनेकार्थत्वात्प प्रयोगादनर्थकमिदमिति मन्यन्ते तेषां प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् । केऽणः ||५|२|१२५|| के परतोऽण्: प्रो भवति । नदिका । कुमारिका । वामोरुका । कुत्साद्यर्थविवक्षायाम् “एवाटकः” [४|१|१२६] इति कः । “स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गसङ्ख्यं श्रनुवर्तन्ते " [प०] इति टाप् । क इति साच्कनिर्देशात्त्यग्रहणम् । वर्णग्रहणे तदादिविधिः स्यात् । ततश्च नदीकल्पः परवाहः । कुमारी काम्यतीत्यत्रापि स्यात् । इति किम् ? गोका । नौका । पूर्वेण राकारेणाण व्याख्यातः । राका काक इत्यादिषु " उणादयो बहुलम् " [२।२११६७ ] इति न भवति “कृदाधाराचिकलिभ्यः कः " [उ० सू०] "इभीकापाशणतिमर्चिभ्यः कः " [ उ० सू०] इति कायतेः कः । “न कपि" [ ५।२।११६] इति प्रतिषेधादिहाननुबन्धकपरिभाषा नाश्रीयते । तेन निपाजात "ओदेशे ठज्" [३।२६५ ] तदादेशे के सानुबन्धकेऽपि प्रादेशः सिद्धो भवति । नैपाह कर्मुकः इति । For Private And Personal Use Only न कपि || ५|२२१२६ || कपि परतोऽणः प्रो न भवति । बहुकुमारीकः । बहुवामोरूकः | "ॠन्मोः” [४।२।१५३] इति कप् सान्तः । खार्या क्रीतं खारीकम् । काकणीकम् । “खारीकाकणीभ्यां कप्” [ ३|४|३०] । चाऽऽपः || ५|२| १२७ ॥ कपि परतः आवन्तस्य वा प्रो भवति । बहुखट्वकः । बहुखट्वाकः । बहुदा मकः । बहुदामाकः । “ शेषाद्वा" [ ४/२/१५४ ] इति कपू । ४८ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० १२८-१३६ श्व्यस्पद्वचोऽयुक् पुमुमोऽङि ॥५॥२॥१२८॥ श्वि असि पति वचि इत्येपामङि परतः अकार थुक पुम् उम् इत्येते यथासङ्ग्ये भवन्ति । अकार श्रादेशः थुगादय आगमाः । अश्वत् । “जश्वि" [२।१।५०] इत्यादिनाङ्। "अन्तेऽलः" [१1१1४६] स्थाने अकारस्तस्य पररूपम् । श्रास्थत् । आस्थताम् । श्रास्थन् । "वक्त्यसुख्यातेरङ [२।११४५]। “अटश्च" [॥३७८] इत्यैप् । अपप्सत् । अपप्तताम् । अपप्तन् । “द्युत्युषा" [२॥१॥४८] आदिनाऽङ् । अवोचत् । अवोचताम् । अवोचन् । “आदेप्" [४।३।७५] । दृशुरेप् ॥२१२६॥ दृशि इत्येतस्य गोः ऋवर्णान्तानां च अङि परतः एच भवति । अदर्शत् । अदर्शताम् । अदर्शन् । “वेरितः" [२१११४६] इत्युङ । पारत् । असरत् । “धु त्पुषा" [२॥१॥४८] अादिना अङ् । अजरत् । अजरताम् । अजरन् । “जश्वि" [२।११५०] इत्यादिनाङ् । जपः पित्करणमर्थम् । "जराया वा" [५।१।१६०] इति वचनं ज्ञापकमुरिति वर्णनिर्देशस्य । शीङो गे ॥५॥२॥१३०॥ शीडो गे परतः एव भवति । शेते। शयाते । शेरते । किति गे विधानमिदम् । शयावहै । शयामहै इत्यत्र सिद्धत्वात् । ग इति किम् ? शिश्ये। सानुबन्धकनिर्देशो यकुबन्तनिवृत्त्यर्थः। शेशीतः । शेश्यति । यि किङत्ययङ॥१२१३१॥ यकारादौ क्ङिति त्ये परतः शीडः अयह ङादेशो भवति । शय्यते । शाशव्यते। यङि परत्वेन च द्वित्वात्यागयङादेशः। उकारो “डित्" [११५०] इत्यन्तादेशार्थः। अकार: उच्चारणार्थः । शय्या । "समजनिषद" [२।३।८१] इत्यादिना क्यम् । प्रशय्य । क्वान्तम । यीति किम् ? शिश्ये। क्तिीति किम् ? शेयम् । गेरूहः प्रः॥२।१३२।। गेः परस्य ऊहतेः प्रो भवति यकारादौ विङति परतः । अभ्युह्यते । समु. ह्यते । “अचश्च" [११।१२] इत्युपपस्थानादूहेरचः प्रादेशः। गेरिति किम् ? ऊह्यते । ऊह इति किम् ? समीह्यते । यीत्येव । समूहितम् । विडत्येव । अभ्याः श्लोकः । “केण५२।१२५] इत्यतोऽग्रहण तेन श्रा ऊह्यते ओह्यते । समोधते इत्यत्र न भवति । प्रोह्यत इत्येकादेशे कृते व्यपवर्गाभावान्न भवति । तद्वद्भावेन व्यपवर्ग इति चेत् "उभयत आश्रये न तद्वद्भावः" [१०] इति गेः परत्वं नास्ति। लियतेः ॥२।१३३॥ एतेगेंरुत्तरस्य लिङि यकारादो डिति प्रो भवति । उदियात् । समियात् । आशिषि लिङ् । यासुट । “स्फादेः स्कोऽन्ते च" [५।३।४६] इति सखम् । “दीरकुद्नें" [५।२।१३४] इति दीत्वम। तस्यानेन प्रः। कति गे च दीत्वं न सम्भवति । न गे उदाहरणम । अभियादित्यत्र स्वेको दीवे कृते प्रादेशः। गेरित्येव । ईयात् । अण इत्येव । आ ईयात् एयात् । समेयात् । तिपा निर्देशो असन्देहाथः । दीरकृद्गे ॥२२॥१३४॥ अकृयकारे अगयकारे च विङति गोर्दीभवति । "अचश्च" [२॥१॥१२] इत्युपस्थानादचा विशेषणेन तदन्तविधिः । पण्डितायते। चीयते । चेचीयते । स्तूयते । तोस्तूयते । चीयात् । स्तूयात् । आशिषि लिङ्क। अकृदिति किम् ? प्रकृत्य । प्रस्तुत्य । परत्वाद्दीत्वे तुग्न स्यात् । अग इति किम् ? चिनुयात् । स्तुयात् । च्चौ ॥५।२।१३५॥ च्वौ च त्ये परतः गोर्दीर्भवति । शुचीभवति । पटूभवति । "कृम्वस्तियोगेऽतत्तत्वे सम्पत्तरि च्चिः" [४।२।५५] इति च्विः । अवयवनिवृत्तिः । “त्यख्ये त्याश्रयम्" [१॥१॥६३] इत्यजन्तस्य दीत्वम् । रीङ तः ॥२१३६॥ ऋकारान्तस्य गोः च्चौ अकृद्यकारे अगयकारे च परतः रीडादेशो भवति । मात्रीभवति । पित्रीभवति । मात्रीयति । पित्रीयति । "स्वेपः क्यच" [१६]। मात्रीयो । पित्रीयते । "कतु: क्यङ सखं विभाषा" [२१] इति क्यङ् । चेक्रीयते । जेहीयते । क्तिीत्येतदिह निवृत्तम् । तेन पिन्यम् । पितुरागतम् "पितुर्थश्च" [३॥३॥५३] ये रीङादेशः सन्निपातलक्षणस्यानित्यत्वात् “यस्य डयां च” [४।४।१३६] ग For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० १३७-१४५] महावृत्तिसहितम् ३७६ इति खम् । उत्तरसूत्रे रिडिहैव कर्तव्यः। तस्य दीत्वेन सिद्धमिति चेत् ; “गुकार्ये निवृत्ते पुनर्न तन्निमित्तम्" [१०] इति दीत्वं न स्यात् । ऋत इति तपरकरणं किम् ? कीर्यते । अन्यथा कीर्णमित्यादौ सावकाशम् ऋत इत्वं रीडा बाध्येत । उत्तरार्थमकृद्गे यि इत्येतदनुवर्तत इति ज्ञापनार्थ तपरकरणम् । अन्यथा अनन्तरे च्वाक्वायं विधिः स्यात् । न च मृदन्त ऋकारो निवोऽस्तीत्यनर्थकं भवेत् । रियलिशे ॥२।१३७॥ ऋकारान्तस्य गोर्यक् लिङश इत्येतेषु परतः रिङादेशो भवति । यीति अकृद् इति चानुवर्तमानं सम्भवाव्यभिचाराच्च लिङ एव विशेषणम् । यकारादावगे द्रष्टव्यम् । यक-क्रियते । ह्रियते । लिट्-क्रियात् । हियात् । यीत्येव । कृषीष्ट । हृषीष्ट । अग इत्येव । त्रिभृयात् । विध्यादिलिङयम् । शे-अाद्रियते। "श्नुधुभ्रुवाम्" [१।४।७२] इति यादेशः। ऋत इति तपरकरणं किम् ? किरति । गिरति । रीङिति वर्तमाने रिग्रहणं पुनीत्वनिवृत्त्यर्थम् । स्फाद्यारस्कुरेप ॥४२११३८॥ स्फादेरर्तश्च ऋतो यकि लिङि यकारादावगे च परतः एब्भवति स्कृशब्द वर्जयित्वा । श इत्यसम्भवान्नोक्तम् । स्मयते । स्मर्यात् । ध्वर्यते । ध्वर्यात् । अर्यते । अर्यात् । यासुटः "स्फादेः स्कोऽन्ते च" [५।३।४६] इति सखम् । यीत्येव । स्मृषीष्ट । अग इत्येव । इययात् । विध्यादिलिङ । शप उप । द्वित्वम् । “उरः" [५।२।१६६] इत्यत्वम् । “प्रोः" [५।२।१७६] इति चस्येत्वम् । “चस्यास्वे" [४।१७३] इतीम् । अस्कुरिति किम् ? संस्क्रियते । “पूर्व धुर्गिना युज्यते पश्चात् साधनवाचिना त्येन" [१०] इति पूर्व सुटि सति प्राप्नोति । अतिरिति ऋच्छतीयोर्ग्रहणम् । ___ यङि ॥५॥२॥१३९॥ यङि च परतः स्फादेरतश्च ऋत एबू भवति । सास्मयते । दाध्वर्यते । अरार्यते । अयङ् एप । “अचः" [४।३।२] इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम् । “हलोऽनादेः" [५।२।१६१] इति यखम् । "दीरकृद् गे" [५।२।१३४] इति दीत्वम् । “हन्तेहिंसायां नीभावो वक्तव्यः” [वा०] । जेध्नीयते । हिंसायामिति किम् ? गतौ जङ्घन्यते।। ई घ्राध्मोः ॥२१४०॥ प्राध्मा इत्येतयोर्यडि परतः ईकारादेशो भवति । जेघ्रीयते । देध्मीयते । नित्यत्वेन परत्वेन च प्राग द्वित्वादीकारः । ईकारत्य दीत्वं किम ? गुकार्यत्वात्पुनर्न स्यात् । उत्तरार्थञ्च । अस्य च्वौ ॥शरा१४१॥ अवर्णान्तस्य गोः च्वौ परत ईकारादेशो भवति । शुक्लीभवति । मालीभवति । “च्ची" [५।२।१३५] इति दीत्वस्यायमपवादः । ___ काचि ॥५।२।१४२॥ क्यचि परतः अवर्णान्तस्य गोरीकारादेशो भवति । पटीयति । मालीयति । "दीरकृद्गे" [५।२।१३४] इति दीत्वं प्राप्तम् । पृथक् सूत्रमुत्तरार्थम् । ___ चुत्त गर्धेऽशनायोदन्यधनायाः ॥५।२।१४३॥ क्षुत् तृड् गर्ध इत्येतेष्वर्थेषु अशनाय उदन्य धनाय इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । अशनायतीत्यात्वं क्यचि निपाल्यते सुच्चेद्गम्यते । अशनीयत्यन्यत्र । उदन्यतोत्यत्र उदकस्योदभावो निपात्यते तृट चेत् । उदकीयतीत्यन्यत्र । धनायतीत्यात्वं निपात्यते गर्द्धश्चेत् । धनीयतीत्यन्यत्र । द्यतिस्यतिमास्थां ति कितीत् ॥२॥१४४॥ द्यति स्यति मा स्था इत्येतेषां तकारादौ किति परत इकारादेशो भवति । निर्दितः । निर्दितवान् । अवसितः । अवसितवान् । मितः । मितवान् । “गामादाग्रहणेप्वविशेषः" [१०] इति मामाङ्मेडां ग्रहणम् । स्थितः । स्थितवान् । श्राद्यस्य "दो ददोः" [५।२।१४८] इति दद्भावे "भुमास्था" [४॥४॥६५] आदिना सूत्रेणान्येषामीत्वे च प्राप्ते इत्ववचनम् । तौति किम् ? दीयते । स्थीयते । कितीति किम् ? अवदाता । अवसाता । यतिस्यत्योस्तिपा निर्देशो यङयन्तनिवृत्त्यर्थः। निर्दादत्तः। निर्दादत्तवान् । अवसासीतः । अवसासीतवान् । दद्भाव ईत्वं च भवति । तपरकरणं सुखार्थम् । शाच्छोर्विभाषा ॥२॥१४५॥ शा छा इत्येतयोविभाषया इकारादेशो भवति तकारादौ किति परतः । निशितः। निशितवान् । निशातः । निशातवान् । अपच्छितः । अपच्छितवान् । अवच्छातः। अपच्छातवान् । For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० २ सू० १४६ - १५१ व्यवस्थितविभाषेयम् । तेन श्यतेरित्वं व्रतविषये नित्यमिष्यते । संशितव्रतः साधुः । संशितं यत्नेन सम्यक्सम्पादितं व्रतं यस्य येन वा स एवमुक्तः । संशितः साधुरित्यपि भवति । यः प्रकरणादिना व्रते यत्नवान् गम्यते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धाञो हि ||५|२| १४६ || धाञः हिरित्ययमादेशो भवति तकारादौ किति परतः । हितः । हितवान् । अनेकाल्त्वात् सर्वस्य स्थाने " भुमास्था” [ ४/४/६५ ] आदित्वे प्राते हिरादेशः । अनुबन्धनिर्देशो यङन्तनिवृत्त्यर्थः । देवीतः । देधीतवान् । धेटो लाक्षणिकत्वान्निवृत्तिः । हाकः क्त्व || २|१४७ ॥ हाकः क्त्वात्ये परतः हिरादेशो भवति । हित्वा गतः । हित्वा गच्छति कर्माणि । मोक्षम् । पूर्ववदीत्वे प्राप्ते हिरादेशः । अनुबन्धनिर्देशस्तु हाङो निवृत्त्यर्थः । यचन्तनवृत्त्यर्थश्च । ईत्वमपि यचन्तस्य नेष्यते । क्त्वोति सौत्रो निर्देशः । दो दोः || ५|२| १४८ ॥ दा इत्येतस्य भुसञ्ज्ञकस्य दद् इत्ययमादेशो भवति तकारादौ किति परतः । दत्तः । दत्तवान् । दत्त्वा । दत्तिः । द इति किम् ? धीतः । धीतवान् । धेट इदं रूपम् । धाञो हिरादेश उक्तः । भोरिति किम् ? दातम् बर्हिः । ते आदेशे सुदत्तमित्यत्र " दस्ति” [ ४।३।२२५ ] इत्यनेन इगन्तस्य गेर्दीत्वं स्यात् । दान्तो “ द्वान्तस्य तो नः " [ ५/३/५१] इति नत्वम् । धान्तै “ तथोर्धोऽधः" [५|३|५६ ] इति षः परस्य धत्वम् । थान्ते नास्ति दोषः । तान्तो वास्तु । " दस्ति” [ ४।३।२२५ ] इत्यत्र द्वौ पक्षौ । दाइत्येतस्मिन्कारादौ तकारान्ते वा दीत्वम् । तत्र तकारादौ नास्ति दोषः । थान्तपक्षे " खरि" [५/४/१३० ] इति चम् । भुसञ्ज्ञकस्य त इत्ययमादेशो भवति अवत्तम् । “ अन्तेऽलः ” [ १1१1४] गेस्तोऽचः ॥५|२|१४६॥ जन्ताद्गेरुत्तरस्य दा इत्येतस्य तकारादौ किति परतः । नीत्तम् । वीत्तम् । परीत्तम् । प्रत्तम् । इत्याकारस्य तकारः । अकार उच्चारणः । दकारस्य चर्त्यम् । गेरिति कानिर्देशात् “ परस्यादेः " [१|१|५१ ] इति चेददोषोऽयम् । “ अस्य चौ" [ ५/२/१४१] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या भविष्यति । द्वितकारको वा निर्देशोऽनेकाल्त्वात् सर्वस्य स्थाने भवति । गेरिति इति किम् ? संदत्तम् । द इत्येव । निधीता गौर्यत्सेन । भोरित्येव । श्रवदात्तं परत्वात् । अवत्तः । अवत्तवान् । ननु च- वर्णस्येति वर्तते । तैनाकारस्य किम् ? दधि दत्तम् | अच मुखम् । द्यतेरित्वात्तो भवति वदत्तं विदत्तञ्च प्रदत्तं चादिकर्मणि । सुदत्तमनुदत्तञ्च निदत्तमिति चेष्यते ॥ ) तत्कथं सिद्धयति । श्रवादीनां गम्यमानक्रियान्तरविषयत्वेन ददातिं प्रत्यगित्त्वात् सिद्धम् । "यत्क्रियायुक्तस्तं प्रति गीतिज्ञको भवति" इति वचनात् । श्रवहीनमवगतं वा दत्तमवदत्तमिति क्रियान्तरविषयत्वं योज्यम् । ग्रंथ वा “शाच्छोर्विभाषा” [५।२।१४५] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या व्यवस्थितविभाषानुवृत्तेः । भ्यपः || ५|२|१५० || भकारादौ परतः अपू इत्यस्य गोः तकारादेशो भवति । श्रद्भिः । श्रद्भ्यः । भौति किम् ? अप्सु । द्वितकारकनिर्देशपक्षे तु पूर्वस्यापि तकारस्य जश्त्वम् । अनेकाल्वात् सर्वादेश इति चेन्न । अच इति वर्तते । अचः परस्य भवति । गोरिति विशेषणाच्ये भादौ सम्प्रत्ययः । तेन पदे न भवति । अभारः । अभक्षः । स्य सः ५|२| १५१ ॥ सकारादावगे परतः सकारान्तस्य गोस्त इत्ययमादेशो भवति । वत्स्यति । वत्स्यत् । विवत्सति । " श्रन्तेऽलः " [ १1१1४९ ] इति वा । " निर्दिश्यमानस्यादेशा" [प०] इति वा सकारस्य तत्त्वम् । द्वितकारकपक्षे च इति काविभक्त्यन्तमनुवर्त्यम् ? सीति किम् ? प्रवासः । अगे इति For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० १५२-१६०] महावृत्तिसहितम् किम् ? श्रास्से । वस्से । स इति किम् ? पक्ष्यति । अशिष्यत इत्यत्र इटः सकारं प्रति भक्त त्वेऽपि सीति वचनान्न भवति । द्विसकारको वास्सीति निर्देशः। __तासस्त्योः खम् ॥१२।१५२॥ तासेः अस्तेश्च सकारस्य सकारादौ खं भवति । कर्तासि । कर्तासे । अस्ते:-असि । अग इति निवृत्तमसम्भवात् । तासिर्गे विहितः । अस्तेरप्यगे भूभावेन भवितव्यमिति । व्यतिषे इत्यत्र परत्वात्सखमेकदेशविकृतस्यानन्यात् “श्नसः खम्" [10] इत्यखम् । त्यमात्रमेव पदम् । षत्वं प्राप्तम् “नाद्यन्ते" [५।४।७६] इति प्रतिषिद्धम् । :"गिप्रादुर्ध्या' यच्यस्तेः" [५।४।६८] इति ! तत्र पदस्येति वर्तते । गिपूर्वस्यास्तेः पदस्य यकाराच्परस्य इति षत्वम् । रि ॥शरा१५३॥ रेफादौ त्ये परतः तासस्त्योः सखं भवति । कर्तारौ। कर्तारः। अस्ते रेफादिर्नास्ति। एति हः ॥२१५४॥ एकारे परतः तासस्त्योः सकारस्य हकारादेशो भवति । कर्ताहे । लविताहे । अस्तेः । ब्यतिहे । तपरत्वमसन्देहार्थम् “इटि ह" इति सूत्रे व्यत्यासीति न स्यात् । स्सनि मीमाभुरभलभशकपतपदोऽच इस ॥५।२।१५५॥ सनि सकारादौ परतः मी मा भुरभ लभ शक पत पद इत्येतेषामचः स्थाने इस् भवति । मी इति मीनातिमिनोत्योर्ग्रहणम् । “हनिङ्गम्यचां सनि" [ १४] इति दीत्वे कृते विशेषाभावात् । मिनाति । प्रमित्सति । मा इति "गामादाग्रहणेष्वविशेषः" [१०] इति प्रतिपदोक्तपरिभाषा नापेक्षिता । मित्सति । मेङ् । अपमित्सते । माइ-मित्सते । भदित्सति । धित्सति । अारिसते। आलिप्सते । शिक्षति । पित्सति । प्रपित्सते। अनेकाल्त्वात्सर्वादेशो मा भूदच इस विधीयते । द्वित्वम् । “चस्यात्र खम्" [५।२।१६०] इति चखम् । “स्यगे सः" [ इति सकारस्य तत्त्वम् । रभादिषु “स्फादेः स्कोन्ते च" [५॥३॥४६] इति इसः सखम् । सकारादाविति किम् ? पिपतिषति । "तनिपतिदरिद्रा बेट" [ वा] । सनीति किम् ? दास्यति । सीत्येतद्व्यवहितम् । सनीति द्विसकारको निर्देशः । राधोः वधे ॥।२।१५६॥ राधेः वधेऽर्थे वर्तमानस्य श्रच इस् भवति सनि सकारादौ । प्रतिरित्सति श्वानम् । वध इति किम् ? आरिरात्सति । आपाप्यधामीत् ॥५।२।१५७।। आप शपि ऋध इत्येतेषामच ईकारादेशो भवति सनि सकारादौ । ईप्सति । जीप्सति । ईर्सति । ज्ञपेः पूर्वनिर्णयेन णिखे श्राद्यच ईत्वम् । सकारादावित्येव । जिज्ञपयिषति । श्रर्दिधियति । “सनीवन्त" [५/१९७] इतीट्विकल्पः। दम्भ इच्च ॥१२।१५८॥ दश्भेरच इकारादेशो भवंति ईच्च सनि सकारादौ । धिप्सति । धीप्सति । दम्भेरनिट पक्षे इकारादेशे कृते "हलन्तात्" [१1१1८४] इत्यत्र हल्ग्रहणस्य जातिवचनत्वात् सनः कित्त्वे "हलुङः विडत्यनिदितः" [४।४।२३] इति नखं भ भावः । सकारादावित्येव । दिदम्भिवति । वा मुचो धेरेप ॥श२।१५६॥ मुचेर्धिसञ्ज्ञकस्य वा एप् भवति सनि सकारादौ। मोक्षते वत्सः स्वयमेव । मुमुक्षते वत्सः स्वयमेव । श्रात्मनो मोक्तुमिच्छतीति सन् । वत्सो हि मोक्तुमिष्यमाणो मक्तिक्रियां प्रत्यानुकल्यं यदा प्रतिपद्यते तदा सुमोचत्वात् कर्मैव कर्तृत्वेन विवक्षितमिति बाह्यकर्माभावात्मचिरकर्मकः । इक एप चस्य खम् । अच इत्येतन्निवृत्तम् । अन्यथा “चस्यात्र खम्" [५।२।१६०] इत्यत्र चस्याचः खं त्यात् । धेरिति किम् ? मुमुक्षति कर्माणि मुनिः । चस्यात्र खम् ॥१२।१६०॥ यदेतदनुकान्तं सनि सकारादौ मुचेरेप्पर्यन्तम् एतस्मिन् चस्य खं भवति । तथा चैवोदाहृतम् । यच्चेत अवमनुक्रमिष्यामः पादपरिसमाप्तेश्वस्येत्येतद्वेदितव्यम् । ननु सनि . सकारादाविल्यधिकारेणाभिसम्बन्धात् सिद्धम् अत्रग्रहणं किम् ? सर्वस्य चस्य खं यथा स्यादित्येवमर्थम् । For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० २ सू० १६१ - १७१ हलोऽनादेः || ५|२/१६१ ॥ अनादेईलः खं भवति चस्य । डुढौके । तुत्रौके । पपाच । आटतः । आट । श्रनादेलः अच उत्तरस्य चखम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरः खयि || ५|२| १६२ || शरः खं भवति खयि परतश्चस्य । चुश्च्योतिषति । तिष्ठासति । पिस्पंदिते । शर इति किम् ? पपाच । एकारो पकारेऽकारस्य मा भूत् । स्वयीति किम् ? सस्नौ । उचिच्छिषति । उच्छेरन्तरङ्गत्वात्तुक चुबे च कृते चुत्वस्यासिद्धत्वात् सतकारस्य छस द्वित्वे उचिच्छितीति प्राप्तम् । “पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे" इति वदयत्यतो द्वित्वे चुत्वं सिद्धम् । प्रः ||५२२१६३ ॥ प्रो भवति चस्य । पिपासति । निनीषति । इदौके । डुढौकिपते । [१।१।१२] इत्यचः प्रादेशः । । कुहोश्चुः ||५/२/१६४॥ चस्य कवर्गहकारयोः चवर्ग श्रादेशो भवति । चिकीर्षति जगाम । जिघत्सति । जुहुवे । जहास । जहार । नादवतो महाप्राणस्य हस्य चुत्वे तादृश एवं जश्वं जकारः । " अचश्च" वा कोर्यङि || ५|२|१६५ | | कोश्वस्य यङि वा चुर्भवति । कोरिति यस्य कस्यचिच्छन्दक्रियस्य ग्रहणे रूपद्वयं सिद्धयति । उष्ट्रश्चोकूयते । उष्ट्रः कोकूयते । यङीति किम् ? चुकुवे । चखान । कारः । उरः ||५|२|१६६|| ऋवर्णान्तस्य चस्य कारादेशो भवति । ववृते । ववृधे । चक्रे । जहे । ग्रथ नर्त्यादौ परत्वानुगादिषु कृतेषु ऋकारान्तत्वाभावाच्च स्यात्वं न प्राप्नोति । नैवं शङ्कम्, “चविकारे raपवादा उत्सर्गान बाधन्ते " [ प० ] इति उरत्वे कृते रुगादयः । तिस्वाप्योर्जिः ||२| १६७॥ द्युति स्वापीत्येतयोश्चस्य जिर्भवति । दिद्युते । दिद्युतत् । देद्युत्यते । दिद्योतिषसे । सनि “व्युङोsवो हलः संरच” [१1१1९७ ] इति विकल्पेन कित्त्वम् । यहा नास्ति तदा “युङ:" [ ५२२८३ ] इत्येवू । “स्वापि सुष्वापयिषति । सुष्वापयिषतः । मुध्यापयिपन्ति । स्वापर्यन्तस्य ग्रहणं किम् ? हेतुमति व्यन्तस्यैव यथा स्यादिह मा भूत् । स्वापं करोतीति णिच् । स्वापयितुमिच्छति । सिष्वापयिषति । व्यथो लिटि || ५|२| १६८ ॥ व्यथः लिटि परतश्चस्य जिर्भवति । विव्यथे । विव्यथाते । विव्यथिरे । ननु वकारस्यापि प्राप्नोति । अनादेरित्यनुवर्तनान्न भवति । । आद्यतः ||५|२|१७०|| श्रादेरतश्चस्य दीर्भवति लिटि परतः । लिटीति वर्तते । श्रातुः । श्रदुः । श्राथि | "एप्यतोऽपढे” [४|३|८४] इति पररूपत्वे प्राप्ते चस्य दीत्वम् दददे | दददाते | चान्तस्य न भवति । श्रत इति किम् ? इयेष | उवोप । तपरकरणं किम् ? स्तस्य प्रादेशे कृते अनेन दीत्वं मा भूत् । " आछि आयामे" [धा०] श्राच्छतुः । श्राकुरिति । “ ततो नुट् ” [५/२/१७१ ] इति नुट् प्रसज्येत । य स्यात् किती दीः || ५|१|१६|| लिटि किति परतः इणश्चस्य दीर्भवति । ईयतुः । ईयुः । परत्वात् “यणेत्योः” [४।४।७७] इति यणादेशः । तस्य " द्विस्वेऽचि” [१|१|५६ ] इति स्थानिवद्भावादिकारस्य द्वित्वम् । द्वित्वे एव स्थानिवद्भावो न तु स्वेऽको दीत्वे । कितीति किम् ? इयाय । इययिथ । ऐबेपोः । कृतयोः स्थानवद्भावाद्वित्वम् । " चस्यास्वे " [ ४।४।७३ ] इति यादेशः । For Private And Personal Use Only कितीति निवृत्तम् । श्रादेरिति किम् ? उपदेश प्रकारयद्यनेन दील्लं 1 ततो नुट् ||५|२|१७१ ॥ तस्मात् कृतदीत्वान्नुडागमो भवति । आनङ्ग । श्रनङ्गतुः । श्रानङ्गुः । श्रानञ्ज ! श्रानञ्जतुः । श्रानञ्जुः । नुगिति पूर्वान्तः कर्तव्यः । चस्येति वर्तते । चस्य कृतदीत्वस्य भविष्यति । एवं लघुना निर्देशेन सिद्धे परादिवचनं ज्ञापकम् "अस्मिन्प्रकरणे पूर्वान्तः श्रागमः स्वनिमित्तमन्तरेणषि क्रियते” तेनान्झलादावप्यनुस्वारः । यंयम्यते । रंरम्यते । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८३ अ० ५ पा० २ सू० १७२-१८०] महावृत्तिसहितम् प्रश्नोतः॥शरा१७२॥ अश्नोतेश्च कृतदीत्वान्नुडू भवति । व्यानशे। व्यानशाते । व्यानशिरे । नियमार्थोऽयमारम्भः । अश्नोतेरेवाकारोडो नुड भवति नान्यस्य । आटतुः। श्रादुः। तुल्यजातीयस्य नियमादिह भवत्येव । आनृचतुः । आनृचुः । अश्नोतेरिति विकरणनिर्देशादश्नातेनं भवति । श्राशतुः । श्राशुः। भवतेरः ॥५।२।१७३॥ भवतेश्चत्य अकारादेशो भवति लिटि परतः । बभूव । बभूवतुः । बभूवुः । व्यतिबभूवे । “लुङ लिटोवुक [४] इति युगागमः । लिटीत्येव । बुभूषति । बोभूयते। तिपा निर्देशो यवन्तनिवृत्त्यर्थः । बोभवाञ्चकर । नैतदस्ति "कास्यनेकाच्च्याल्लिट्याम्" [११३१] इति श्रामाव्यवहिते लिंटि कथं प्रातिः । “इकस्तिपौ धुनिर्देशे" इत्यस्य सूचनार्थस्तर्हि । निजामुच्येप ॥१२१७४॥ निजादीनामुचि चस्यैब् भवति । बहुत्वनिर्देशादायों गम्यते । नेनेक्ति । वेवेक्ति । वेवेष्टि । नेनिक्त इत्यत्र चत्य “क्ङिति" [1१1१६] इत्येप्रतिषेधो न भवति । धुरूपेण व्यवहितत्वात् । उचीति किम् ? निनेज । निजादयन्त्रयो वृत्पर्यन्ताः । भृञां त्रयाणामिः ॥शरा१७५॥ भृञादीनां त्रयाणामुचि चस्य इकारादेशो भवति । विभर्ति । मिमीते । सञ्जिहीते । “अन्तेऽलः" [३१।४६] इति अच इत्वम् । त्रयाणामिति किम् ? जहाति । उचीत्येव । बभार । प्रोः ॥शश१७६।। पिपति इयति इत्येतयोः उचि चस्येत्वं भवति । पिपर्ति । पिपृयात् । अपिपः । इयति । इययात् । ऐपः । अर्ते लट शप् । उच् एप द्वित्वमित्वं “चस्यास्वं' [४।४।७३] इतीय । “हल्यापः [४।३।५६] इति तिपः खम् । अडागमः । “अटश्च" [॥३॥७८] इत्यैप् । उचीस्यनुवर्तनम् । जुहोत्यायोः प्रोरिदं ग्रहणम् । अर्तेर्भाषायामपि प्रयोगः । सन्यतः॥शरा१७७॥ सनि परतश्चस्यात इत्वं भवति । पिपक्षति । पिपासति । सनीति किम् ? पपाच । अत इति किम् ? तुष्टपति । सनि यश्चस्तस्येत्वम् । पापच्यतेः सन् पिपापचिषते। तपरकरणं सुखार्थम् । प्रोः पुयणज्ये ॥१२ १७८॥ उवर्णान्तस्य पवर्गयण जकारेषु अवर्णपरेषु सनि परतः इत्वं भवति । पिपावयिषति । बिभावयिषति । यण । यियावयिषति । रिरावयिषति । लिलावयिषति । जु इति सौत्रो धुः । जिजावयिषति । प्वादिभ्यो एयतेभ्यः सन् । अोरिति वचनं ज्ञ पकम् "हिरवे कर्तव्ये णौ कृतं स्थानिवद्भवति" ननु वचनस्येदं प्रयोजनम् । पिपविषते यियविषतीति । "स्मिङ पूङ र ज्वशः सनि" [५।१।१३३] । “सनीवन्त भ्रस्ज" [५।१।१७] इत्यादिना वेट् । एबवादेशौ। “द्वित्वेऽचि" [१।१।५७] इति स्थानिवद्भावाद्वित्वमनेनेत्वम् । यद्येतावत् प्रयोजनं स्यात् । पकारयकारग्रहणमेव क्रियेत । पवर्गयण ग्रहणमनर्थकं स्यात् । पुयण जोति किम् ? नुनावयिषयिति । अवर्णपर इति किम् ? लुलूषति । ___ श्रद्र प्रप्लुञ्च्यु डो वा ॥५॥२॥१७६॥ सवत्यादीनां चस्य श्रोः अवर्णपरे यणि परतः सनि बा इकारादेशो भवति । सिस्तावयिषति । सुस्रावयिषति । शिश्रावयिषति | शुश्रावयिषति । दिद्रावयिषति । दुद्रावयिषति । पिप्रावयिषति । पुप्रावयिवति । पिप्लापयिषति । पुप्लावयिषति । चिच्यायिषति । चुच्यावयिषति । अवर्णपर इति वचनात् ण्यन्तात्सन् । बचनसामर्थ्यात् सकारादिनैकेन यणो व्यवधानमिहाश्रितम् । अवर्णपर इत्येव । शुश्रपति । अप्राप्त विकल्पोऽयम् । यङपोरेप् ॥१२१८०॥ यङि यद्यपि च परत इगन्तस्य चत्य एप भवति । नेनीयते । बोभूयते । नेनयीति । बोभवीति । न हि यङपोऽन्यत्रोपि चः सम्भवन्तीत्युप्छब्देन यङ्पसम्प्रत्ययः । “नोमता गोः" [१।११६४] इल्याश्रयकार्यप्रतिषेधाद्यपि विधानम् । For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८४ . जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० २ सू० १८१-१८७ दीरकितः ॥५।२।१८१॥ अकितश्चस्य पुडुपोदीभवति । पापच्यते । पापचीति । पापठ्यते । पापठीति । "यङो वा” [५।२।१२] वचनं ज्ञापकमविशेषेण यकपः। अकित इति किम् ? यंयम्यते । यंयमीति । ननु दीत्वापवादे परत्वान्नुकि कृते अनजन्तत्वात् कथं दीत्वप्राप्तिः । इदमेवाकित इति वचनं ज्ञापयति-"चविकारेप्वपवादा नोत्सर्गान् बोधन्ते"[प०] इति । तेन किं सिद्धम् ? मीमांसत इत्यादौ ईत्वं दीत्वेन न बाध्यते । डोढोक्यत इति दीत्वेन प्रादेशस्य न बाधा। अचीकरदित्यत्र "घेर्दीः" [५/२११६१] इत्यनेन “सन्यतः" [५।२।१७७] इत्वं न बाध्यते । अजीगणदिति “ईच्च गणः" [५।२।१६४] इत्यनेन "हलोऽनादेः" [५।१।१६१] खस्य न बाधा। नीग्वञ्चुलंसुध्वंसुभ्रंसुकसपतपदस्कन्दाम् ॥२।१८२॥ वञ्चु स्रंसु ध्वंसु भ्रंसु कस पत पद स्कन्द इत्येतेषां यङपोश्चस्य नीगागमो भवति । वनीवच्यते । वनीवञ्चीति । सनीस्रस्यते । सनीस्रंसीति । दनीध्वस्यते। दनीध्वंसीति । बनीभ्रश्यते । बनीभ्रंशीति । चनीकस्यते । चनीकसीति । पनीपत्यते । पनीपतीति । आपनीपद्यते । आपनीपदीति | चनीस्कद्यते । चनीस्कन्दीति । यपि "नोमता गोः" [१।१।६४] इति प्रतिषेधात् "हलुङः" [ २३] इति नखं न भवति । नौगिति दीत्वोच्चारणसामर्थ्यान्न प्रादेशः । अकित इति दीत्वप्रतिषेधार्थ पूर्वान्तकरणम् । ङस्यातो नुक् ॥२१८३॥ सज्ञान्तस्य गोयंश्चेऽकारान्तस्तस्य नुगागमो भवति यापोः परतः । बंभण्यते। बंभणीति । तन्तन्यते । तन्तनीति । जङ्गम्यते। जङ्गमीति । नुको "नश्चापदान्तस्य झलि" [५/४] इत्यनुस्वारस्य परस्वत्वम् । असत्यपि स्वनिमित्ते झलादौ अनुस्वारो भवतीत्युक्तम् । तेन यंयम्यते । रंरम्यते इत्यनुस्वारः । अत्रापि दीत्वप्रतिषेधार्थ पूर्वान्तत्वम् । ङस्येति किम् ? पापच्यते । अत इति किम् ? तेतिम्यते । तपरकरणं किम् ? आकारभूतपूर्वस्य मा भूत् । बाभाम्यते । जपजभदहदशभञ्जपशाम् ॥५।२।१८४॥ जप जभ दह दश भज पश इत्येतेषां चस्य तुगागमो मवति यङपोः परतः । जञ्जायते। जजपीति। जञ्जभ्यते । जञ्जभीति । दन्दह्यते । दन्दहीति । दंदश्यते । दंदशीति । बम्भज्यते । बम्भजीति । पम्पश्यते । पम्पशीति । पश इति सौत्रो धुः । जपादिषु दंशिपर्यन्तेषु "लुपसदचर" [२१११२१] इत्यादिना यङ । अन्यत्र क्रियासमभिहारे। दश इति सूत्रनिर्देशाद्ययपि नखं भवतीति केचित् । तदयुक्तम् । विकरणानिर्देशोऽयम् । यथा “पतदशनहः करणे ब्रट्" [२।२।१६०] इति । चरफलोरुच्चोङः॥शरा१८५॥ चर फल इत्येतयोश्चस्य नुग्भवति यङपोः उङश्च उकारादेशश्चरफलोः । चञ्चूर्यते । “हल्यभकुच्छुरः" [५।३।८६] इति दीत्वम् । चञ्चुरीति । पम्फुल्यते । पम्फुलीति । उदिति तपरकरणं किम् ? चञ्चूर्ति । पम्फुल्तीत्यत्र "घ्युङः" [५।२।८३] एम्निवृत्त्यर्थं दीत्वस्यासिद्धत्वादेप् प्राप्नोति । नन्वेप इव दीत्वस्यापि तपरकरणात् किन्न निवृत्तिः । अत्रोच्यते-यथा “गेऽत उत्" [४।४।१००] इति तपरकरणे न दीत्वमशक्यं निवर्तयितुम् अभकुच्छर इति प्रतिषेधारम्भात्तथाऽत्रापि । ति ॥५२।१८६॥ तकारादौ चपरतः चरफलोरुङः ऊकारादेशो भवति । देवचूर्तिः । “क्तिचक्तौखौ" [२।३।१५०] इति क्तिच् । एवं चरणं चूर्तिः । फलनं फुल्तिः । प्रफुल्ता लता। यडुपोश्चस्येति चानुवर्तमानमिह वचनसामर्थ्यात् नाभिसम्बध्यते । रीगृत्वतः ॥५।२।१८७॥ ऋत्वतो गोश्चस्य रीगागमो भवति यङि । वरीवृत्यते । नरीनृत्यते । यदि ऋदुङ इति क्रियेत । सरीसृज्यते इति न स्यात् । ऋमत इति तर्हि कर्तव्यम् । चिकीर्षत इत्यत्र तु कृताकृतप्रसङ्गित्वाहतः ईभविष्यति । एवं सिद्धे तपरकरणं लाक्षणिकस्यापि रीगधम् । तेन वरीवृश्च्यते । बरीभृज्यते । परीपच्छयते ? चेक्रीयते जेहीयते इत्यत्र कस्मान्न रोगिति चेत् : द्वित्वात् । परत्वेन रीडादेशे कृते ऋकाराभावान्न भवति । For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० २ सू० १८८-१६४] महावृत्तिसहितम् रुग्रिको चोपि ॥२।१८८॥ ऋत्वतो गोश्चस्य यपि रुग्रिको भवतः रीक् च । ननति । नरिनति । नरीनति । ऋतः ॥५॥२॥१८६॥ ऋकारान्तस्य गोर्यश्चस्तस्य यपि रुग्रिको भवतः रीक्च । तपरकरणसामर्थ्याहता गुर्विशेष्यते । चर्कति । चरिकर्ति । चरीकति । जर्हति । जरिहर्ति । जरीहति । “अदोऽट्" [५।२६५] इत्यत्रोक्तं चानुकृष्टमपि क्वचिदुत्तरत्रानुवर्तते तेन रीक् । तपरकरणं किम् ? कृ गृ । चाकर्ति । जागर्ति । ननु च "रुग्रिको चोपि" [५।२।१८७] इत्यनेनैव तृतयं सिद्धम् । तत्रापि "ऋत्वतः" [५।२।१८६] इति तपरकरणमस्ति तेन चाकयादौ न भविष्यतीति चेत् । तत्र तपरकरणं लाक्षणिकार्थमुक्तमिति किरत्यादेर्निवृत्तिन स्यात् । घौ कच्यनक्खे सन्वत् ॥१२।१९०॥ कपरे घिसज्ञके वर्णे यश्चस्तस्य सनीय कार्य भवति अनक्खे । “सन्यतः" [५।२।१७७] इतीत्वमुक्तम् । कच्यपि तथा अचीकरत् । अपीपचत् । "ओः पुयराज्ये" [५।२।१७८] कच्यपि तथा । अपीपठत् । अलीलवत् । अजीजवत् । वा स्रवत्यादीनां कच्यपि तथा । असिस्रवत् । असुस्रवत् । अदिद्रवत् । अदुद्रवत् । ननु हला व्यवधानात् कथं कच्परो पवर्णः ? वचनप्रामाण्यादेकेन व्यवधानमाश्रितम् । घाविति किम् ? अततक्षत् । अचभासत् । कचीति किम् ? अहं पपच । अनक्ख इति किम् ? स्तनमाख्यत् अतस्तनत् । वनमाख्यत् । अववनत् । “णाविष्ठन्मृदः” [४।४।१४६] इति इष्टद्भावः "तुरिटेमेयस्सु" [४।४।१४४] “टेः" [४।१४५] इति टिखम् । इह कस्मान् न भवति । अचकमतेति कज्विषये। “वागे" [२१११२७] इति णिडोऽनुत्पत्तिपक्षे कचि कृते । अत्रोच्यते-नैवं ज्ञातव्यम् । अकः खम् अक्खम् । अक्खेनेति । किं तर्हि ? अक् खं यस्मिन्निमित्तभूते सोऽयमक्खो न अक्खो अनक्खः तस्मिन् । पर्युदासवृत्त्या अनक्खनिमित्ते णौ मध्यगते सन्वद्भाव इत्यदोषः । तथा अकः खं यस्मिण्णिसामान्ये अन्यस्य । न तु णौ गिखमकः खम् । तेन वादितवन्तं प्रयोजितवान् अवीवदत् । ननु अजजागरदित्यत्र गकारऋकारे घिसज्ञामाश्रित्य प्राप्नोति सन्वद्भावः । वचनप्रामाण्याद् व्यवधानेऽपि सन्वद्भावेन भवितव्यम् । सर्वत्रापीपचदित्यादावपि चस्थानान्तर्य घिना नास्ति । नायं दोषः। वचनप्रामाण्यादिहेकवर्णेन व्यवधानमिष्टं सङ्घातेन पुनर्व्यवधाने भवति न भवति च । तत्र "त्वर" [५२।१६२] यादीनामित्त्वापवादार्थमत्ववचनं ज्ञापकम् । हल्लंघातेन व्यवधाने भवति । अचिकणत । अवित्रजत इति । अज्झल सङ्घातेन व्यवधाने तु न भवति । अमीमपदित्यादी "स्सनि मीमा" [५।२।३५५] इत्येष विधिः कस्मान्न भवति ? णिजन्तस्य प्रकृल्यन्तरत्वात् । घेर्दीः ॥५॥२॥१६॥ चस्य घेर्भवति घौ कच्परेऽनक्खे । अचीकरत् । अजीहरत् । अबूबुधत् । घेरिति किम् ? अविबजत् । घावित्येव । अध्यापिपत् । “द्वित्वेऽचि" [११५६] णिवस्य स्थानिवद्भावात् “अचः" [४॥३॥२] इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वम् । अत्र कच्परो घिवर्णो नास्ति । कचीत्येव | अहं पपच । यत्र सन्वद्भावो नास्ति तत्र दीत्वमिह मा भूत् । अचकमत । अनक्व इत्येव । अचकथत् । “श्राद्यतः" [५।२।१७०] इत्यतः श्रादेरिति वर्तते तेनादेश्वस्य दीर्भवति । न द्वितीयस्यैकाचो यश्चस्तस्येति । प्रौणु नवदिति । स्मृद त्वरप्रथम्रदस्तस्पशोऽत् ॥५॥२।१६२॥ स्मृ द त्वर प्रथ म्रद तृ स्पश इत्येतेषां चस्य अदा देशो भवति कच्परे द्यौ परतः । असस्मरत् । अददरत् । अतत्वरत्। अपप्रथत् । अमम्रदत् । अतस्तरत् । अपस्पशत् । सन्वद्भावादित्वे प्राप्त वचनम् । अदिति तपरकरणं घेर्दीत्वनिवृत्त्यर्थम् । अददरत । चा वेष्टिचेष्टयोः ॥५२।१६३॥ वेष्टि चेष्टि इत्येतयोश्चस्य वो अद्भवति कचि परतः । अववेष्टत् । अविवेष्टत् । अचचेष्टत् । अचिचेत् । इकारस्यानेनात्वम् । ईच्च गणः ॥शरा१६४|| गण्यतेश्चस्य ईकारादेशो भवति अच्च कचि परतः। अजीगणत् । अजगणत् । अनक्ख इति प्रतिषेधात् सन्वद्भावो नास्ति । तदर्थमिदम् । चकारोऽदनुकर्षणार्थः । ___ इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ पञ्चमाध्यायस्य द्वितीयः पादः समातः। For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३८६ www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० ३ सू० १-१२ [सर्वस्य द्वे || ५|३|१|| परो ब्रिः || ५|३|२|| नित्यवीप्सयोः ||५|३|३|| परेर्वर्जने || ५|३|४|| उपर्यध्यधसः सामीप्ये || ५|३|५|| वाक्यादेवध्यस्यासूयासम्मतिकोपकुत्सनभर्त्सनेषु || ५|३|६॥ एको वचत् ||५|३|७|| श्रावाधे च ॥ ५३८ ॥ ] 'कश्चिदेवं प्रयुङ्क्ते इत्याबाधः । प्रयोक्तव्या । ( ? ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वदुत्तरे ||३|१९|| उत्तरे द्वित्वे यस्येव कार्यं भवति । वक्ष्यति " प्रकारे गुणोक्तेः " [५|३|१० ] इति । पटुपटुः । पटुपट्वी । कालककालिका । सातिदेशे "न बुहृत्कोड:" [ ४|३|१४६ ] इति पुंवद्भावप्रतिषेधः स्यात् । यसे तु " पुंवद्यजातीयदेशीये” [ ४ | ३|१५४ ] इति भवति । श्रधिकारेणाऽप्येत सिद्धम् । उत्तरग्रहणं ज्ञापकार्थम् । अयमधिकारः । “एको बवत्" [ ५/३/७ ] इत्यादिलक्षणं चाधिकारश्च । तेन एष तवाञ्जलिरेष तवाञ्जलिः । अहो दर्शनीया ग्रहो दर्शनीया । आधिक्येऽनि द्वित्वमुक्तम् । " स्वार्थेऽवधार्य - मस्मिन् द्व े भवतः " [ वा० ] अस्मात्सुवर्णादिह भवद्भ्यां मात्रं माषं देहि । अत्र द्वावेव मात्रौ दीयेते न सर्वे माषाः । तेन वीप्सा नास्ति । श्रवधार्यमाण इति किम् ? इह भवद्भ्यां मात्रमेकं देहि । “पूर्वप्रथमयोरतिशयेद्व े भवतः " [ वा० ] पूर्वं पूर्वं पुष्यन्ति । प्रथमं प्रथमं पच्यते । वेत्यधिकारायदा न द्वित्वं तदाऽतिशायिकः । पूर्वतरं पुष्यन्ति । प्रथमतरं पच्यन्ते । “समसम्प्रधारणायां किम श्राक्षेपे द्व े भवतः " [ वा० ] । उभाविमावाहयौ कतरा कतराऽनयोस्तयोरायता । कतमा कतमानयोरायता । कीदृशी कीदृशी अनयोरायता । कतरः कतरोऽनयोविभवः । " कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो द्वित्वं सवच्च बहुलम् " [ वा० ] तत्र वेत्यधिकाराल्लभ्यते । सवत्पक्षे पूर्वपदस्यान्यशब्दस्य सुरेव | स‌द्भावे च मिभूतस्यादेरुत्वं परशब्दस्य सुट् । श्रन्योन्यमिमे ग्रामा भोजयन्ति । अन्योन्यस्य भोजयन्ति । पुत्रादीति गम्यते । एवमितरेतरेषाम् । इतरेतरस्य । परस्परं परस्परस्य भोजयन्ति । "स्त्रीनपुंसकयोर्विभक्त्या वाऽम्भावो द्योस्तु" [ वा० ] अन्योन्यं नार्यौ भोजयतः । अन्योन्यां वा । ग्रन्योन्यं कुले भोजयतः । ग्रन्योन्यं वा । अन्योन्यं नार्यो भोजयन्ति । अन्योन्यां वा । अन्योन्यं वा कुलानि भोजयन्ति । अन्योन्यं वा । इत्यादि सिद्धम् । प्रकारे गुणोक्तेः || ५|३|१०|| प्रकारे वर्तमानस्य गुणोक्तेद्वे भवतः । प्रकारः सादृश्यमिह गृह्यते । उच्यते इत्युक्तिरभिधेयं वस्तु । गुण उक्तिरभिधेयोऽस्येति गुणोक्तिः, तस्य द्वित्वम् । पहुपदः । परिडतपडितः । पटुपट्वी । पण्डितपण्डिता । उत्तरसूत्रे वाग्रहणमिह सिंहावलोकनेन सम्बध्यते । तेन जातीयोऽपि भवति । पटुजातीयः । मृदुजातीयः । द्वित्वजातीययोर्विधेयाभेदे मृदुमृदुजातीय इत्यनिष्टं स्यात् । प्रकार इति किम् ? शुल्को गुणः । अग्निर्माणवकः । गौर्वाहीकः । सदागुणवचनो यः प्रकारे वर्तते तस्य द्विम् । यं तूपमानात्सर्वद्रव्यवचनः । प्रियसुखयोर्वाsकृच्छ्रे || ५|३|११|| प्रिय सुख इत्येतयोरकृच्छे वा द्वे भवतः । प्रियप्रियेण ददाति । प्रियेण ददाति । सुखसुखेनाधीते । सुखेनाधीते जैनेन्द्रम् | प्रयासेनेत्यर्थः । कृच्छ इति किम् ? प्रियः पुत्रः । सुखो रथः । प्रीणातीति प्रियः । मुखयतीति सुखः । १. प्रतिषु [ सृत्यात्र निर्दिष्टानि । tered यथायथम् ||५|३|१२|| यथायथमिति निपात्यते यथास्वेऽर्थं । सर्वे ज्ञाता यथायथम् । यथास्वभावं यथाऽत्मीयं चेत्यर्थः । यथाशब्दस्य द्वित्वमम्भावश्चान्ते निपात्यते । यो य श्रात्मा यो य ग्रात्मीयो वा यथास्वम् | " यावद्यथा” [ ११३१६] इति वीप्सायां हसः । झिसंज्ञकं वा यथायथमिति शब्दान्तरमस्मिन्नर्थे साधुत्वेनान्वाख्यातम् । ] कोष्टकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिस्रुटिता । सूत्राणि तु जैमेन्द्रपञ्चाध्यायीमनु For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ० ५ पा० ३ सू० १३ -२० ] महावृत्तिसहितम् ३८७ द्वन्द्वं रहस्य |||३|१३|| द्वन्द्वमिति निपात्यते रहस्यादावर्थे । द्वि श्री इत्यस्य द्वित्वे सुबुपि पूर्वोत्तरपदयोरिकारस्याम्भावोऽत्वं च निपात्यते रहस्यप्रकारेऽर्थे रहस्याभिधाने । द्वन्द्वं मन्त्रयते । द्वन्द्वं मन्त्रयेते । द्वौ द्वौ रहसि मन्त्रयेते इत्यर्थः । मर्यादावचनादयो विषयत्वेनाश्रीयन्ते । मर्यादायाम् सप्तमनरकाद्धोऽधो द्वन्द्वं रपटलानि हीनानि व्युत्क्रमणं भेदः पृथक्स्थानम् । तत्र द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः । द्विवर्गसम्बन्धेन भिन्ना इत्यर्थः । यज्ञपात्रप्रयोगे, द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । अभिव्यक्तौ द्वन्द्वं नारदपर्वतौ । द्वन्द्वं सूर्याचन्द्रमसौ । विधिव्राह्मणौ द्वन्द्वम् । " वा वीप्सायां द्वन्द्वः " वीप्सायां द्वन्द्वं द्वौ द्वौ । वृत्तिविशेषे “चार्थे द्वन्द्वः” [११३।६२ ] अन्यत्रापि दृश्यते । द्वन्द्वानि सहते । द्वन्द्वं युद्धं कृतम् । अतएव च रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिरूपं परिगणनं न कृतम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदस्य || ५|३|१४|| पदस्येत्ययमधिकारो वेदितव्य या शास्त्रपरिसमाप्तेः । वक्ष्यति " नखं मृदन्तस्थाकी [ ५1३1३० ] इति । राजभ्याम् । राजभिः । तथा "स्फान्तस्य खम्” [ ५/३/४१ ] इति पतन् । यजन् । अत्रार्थवशात्पदस्येत्यवयवे ता द्रष्टव्या । पदस्येति किम् ? राज्ञे । राज्ञः । भसंज्ञया नपुंसकलिङ्गा पदसंज्ञा बाध्यते vairaat |||३|१५|| पदादिति श्रपादादाविति च एतद्वितयमधिकृतं वेदितव्यं प्रागसिद्धाधिकारात् । वक्ष्यति "बहोर्वस्नसौ” [ ५|३|१७ ] इति । ग्रामो वो दीयते । नगरं नो दीयते । पदादिति किम् ? युष्मभ्यं ग्रामो दीयते । अपादादाविति किम् ? 'शान्तिनाथो जिनः सोऽतु युष्माकमघशान्तये । "येन संसारताभीतिरस्माकमिह नाशिता || युष्मदस्मदोऽविप्तास्थस्य घनावी ||५|३|१६|| पदात्परयोरपादादौ वर्तमानयोर्युष्मदस्मदित्येतयोरइस्तासु स्थितयोर्याम्नी इत्येतावादेशौ भवतः । युष्मदस्मदिति इतरेतरयोगलक्षणो द्वन्द्वः । श्रोसः स्थाने उस्कृतः सौत्रत्वानिर्देशस्य । पदस्य सर्वस्येति च वर्तते । यदि वा पदस्येति स्थानलक्षणाऽत्र ता सम्पद्यते, सर्वस्य पदस्य स्थाने श्रादेशः । एकबहोरादेशान्तरं वक्ष्यति । तो द्विविषये विधिः । ज्ञानं वां दीयते । शीलं नौ दीयते । ज्ञानं वां रक्षतु । शीलं नौ रक्षतु । ज्ञानं वां स्वम् । शीलं नौ स्वम् । बिप्तास्थस्येति किम् ? दानं युवाभ्यां कृतम् । स्थग्रहणं किम् ? श्रूयमाणविभक्त्यां यथा स्यात् । इह मा भूत् । इति युष्मदुपाध्यायः । पदविधिरयम् । श्रसामर्थ्यं न भवति । आवाभ्यां भाव्यते ज्ञानम् । युवाभ्यां दीयते दानमिति । अथेह सामर्थ्येऽपि कस्मान्न भवति ? ओदनं पच तव भविष्यति मम भविष्यतीति । " समाने वाक्ये युष्मदस्मदादेशविधिरिष्यते" । इह तु ओदनं पचेत्येकं वाक्यं तव भविष्यतीति द्वितीयं वाक्यम् । श्रवश्यं समानवाक्याधिकार एष्टव्यः । शालीनां ते श्रोदनं ददातीत्यत्रापि यथा स्यात् । श्रन्यथा शालीनामित्यस्य ते इत्यनेन सामर्थ्याभावान्न स्यात् । बहोस्नसौ || ५|३|१७॥ बह्वन्तयोर्युध्मदस्मदोर्वस्नस् इत्येतावादेशौ भवतस्तास्वेव विभक्ती | ज्ञानं वो दीयते । शीलं नो दीयते । ज्ञानं वो रक्षतु । शीलं नो रक्षतु । ज्ञानं वः स्वम् । शीलं नः स्वम् । एकस्य ते मे || ५|३|१८|| एकान्तयोर्युष्मदस्मदोस्ते मे इत्येतावादेशौ भवतः । एक इति त्यः । “त्यग्रहणे यत्मात्स तदादेर्ग्रहणम्" [१०] । ज्ञानं ते दीयते । शीलं मे दीयते । इपो वक्ष्यति । ज्ञानं ते स्वम् । शीलं मे स्वम् । त्वामाविषः || ५|३|१६|| एकस्येति वर्तते । इबेकान्तयोर्युष्मदस्मदोस्त्वा मा इत्येतावादेशौ भवतः । ज्ञानं त्वा रक्षतु । शीलं मा रक्षतु । न चाहा हैवयोगे || ५|३|२०|| च वाह अह एव इत्येतैयोंगे युष्मदस्मदोर्वाम्नावादयो न भवन्ति । ज्ञानं तुभ्यं मह्यं च दीयते । युवाभ्यां आवाभ्यां च दीयते । युष्मभ्यं अस्मभ्यं च दीयते । ज्ञानं त्वां मां च रक्षतु । For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सु० २१-२७ युवां आवां च रक्षतु । युष्मान् अस्माश्च रक्षतु | ज्ञानं तव च स्वम् । ज्ञानं मम च स्वम् । युवयोः आवयोश्च स्वम् । युष्माकं अस्माकं च स्वम् । ज्ञानं तुभ्यं मह्य वा दीयते । ज्ञानं तुभ्यं महूयं ह दीयते। ज्ञानं तुभ्यं मह्यमह दीयते । ज्ञानं तुभ्यं मह्यमेव दीयते। इत्यादि योज्यम् । योग इति किम् ? ज्ञानं च मे स्वम् । नात्र चादिभिर्युप्मदस्मदोर्योगः । किन्तर्हि ? ज्ञानस्य । दृश्यर्थैश्चिन्तायाम् ॥३।२१॥ चिन्तायां वर्तमानैदृश्यर्थे(भियोगे युष्मदस्मदोर्वाम्नावादयो न भवन्ति । अत्र साक्षायोगे तद्युक्त योगे च प्रतिषेधः । ज्ञानं तुभ्यं दीयमानं समीक्ष्यागतो जनः । ज्ञानं महूयं दीयमानं समीक्ष्यागतः । साक्षायोगे ग्रामस्त्वां समीक्ष्यागतः । ग्रामो मां समीक्ष्यागतः । ज्ञानं तव स्वं समीक्ष्यागतः। शीलं मम स्वं समीक्ष्यागतः। सन्दृश्य संचिन्त्य निरूप्येति यावत् । दृश्यथैरिति किम् ? ग्रामस्त्वा मन्यते । अस्ति चिन्तार्थो मन् धर्न तु दृश्यर्थः । चिन्तायामिति किम् ? ग्रामस्त्वा पश्यति । अत्र चक्षदर्शने दृशिर्वर्तते । तेन न प्रतिषेधः । वाऽनन्वादेशे ॥५॥३॥२२॥ युष्मदस्मदोर्वाम्नावादयो वा भवन्ति अनन्वादेशे। ग्रादेशः कथनम् । अन्वादेशोऽनुकथनम् । नान्वादेशोऽनन्वादेशः। तत्र विकल्पोऽन्वादेशे नित्यो विधिः। ज्ञानं ते दीयते । ज्ञानं तुभ्यं दीयते । ज्ञानं मे दीयते । ज्ञानं महयं दीयते । इत्यादि योज्यम् । अनन्वादेश इति किम् ? अथो ज्ञानं ते दीयते । अथो ज्ञानं मे दीयते । पूर्व किञ्चिदादिश्य इदमादिश्यते इत्यन्वादेशोऽयम् । सपूर्वाया वायाः ॥२३॥ विद्यमानपूर्वाद् वान्तात्परयोयुष्मदस्मदोर्वा वाम्नावादयो भवन्ति । अनन्वादेशे सामान्येन सिद्धम् । अन्वादेशार्थमिदम् । अथो आचार्येण ज्ञानं ते दीयते । अथो आचार्येण ज्ञानं तुभ्यं दीयते । इत्यादि। बोध्यमसदवत् ॥५॥३॥२४॥ बीध्यान्तं पदमसदबद् भवति । बोध्यमिति सम्बोधनलक्षणाया वाया ग्रहणम् । असदद्वद्भावे प्रयोजनम् । बोध्यान्तात्परयोर्युष्मदस्मदोरादेशनिवृत्तिः। देवदत्त तुभ्यं दीयते । देवदत्त मादीयते । इत्यादि नेयम् । इह च देवदत्त ज्ञानं ते । देवदत्त ज्ञानं मे । “सपूर्वाया वायाः" [५/३१२३] इत्यन्वादेशे विकल्पो न भवति । वत्करणं स्वश्रुत्यनिवृत्त्यर्थं कार्य प्रत्यसद् भवति । कार्थे बोध्ये सामान्यवचनम् ॥५॥३॥२५॥ एकार्थे बोध्यान्ते परतः सामान्यवचनं बोध्यान्तं नासदभवति किन्तु सददेव भवति एकार्थः विशेषलक्षणो यस्य तदिदमेकार्थे विशेषवचनमित्यर्थः । कथं ज्ञायते ? सामान्यवचनम् इति निर्देशात् । परस्य विशेषवचनत्वमपेक्ष्य सामान्यवचनत्वं भवति । क्षत्रिय श्रेणिक ते धर्मो दीयते । क्षत्रिय श्रेणिक त्वाऽहनरक्षतु । क्षत्रिय श्रेणिक ते धर्मों वर्धताम् । एकार्थ इति किम् ? क्षत्रिय ब्राहाण युवाभ्यां धर्मो दीयते । बोध्य इति किम ? क्षत्रिय धनवान् मे त्वं देहि । पूर्वस्य सत्वे "सपूर्वाया वायाः" [५।३।२३] इत्येष विधिः प्रसज्येत । सामान्यवचनमिति किम् ? श्रेणिक क्षत्रिय तुभ्यं धर्मो दीयते । घा विशेषवचने वहौ ॥५॥३।२६।। विशेषवचने बोध्ये बह्वन्ते परतः सामान्यवचनं वा बोध्यान्तमसद् भवति । देवाः शरण्या वो दीयते । देवाः शरण्या युप्मभ्यं दीयते । “नकार्थे बोध्ये सामान्यवचनम्" [५।३।२५] इत्यस्यायं विकल्पः। सामान्यवचनमित्यनुवृत्तेः परस्य विशेषवचनमनुक्तं सिद्धम् । तत्कृतं स्पष्टार्थमुत्तरार्थ च । पूर्वत्रासिद्धम् ॥५॥३॥२७॥ पूर्वत्र इति असिद्धमिति च एतदधिकृतं वेदितव्यम् आ शास्त्रपरिसमाप्तः । येयं चतुरध्यायी सार्धद्विपादाऽतिक्रान्ता तस्यामयं सार्धद्विपादोऽसिद्धो भवति । इत उत्तरं च उत्तरोत्तरो योगः पूर्वत्र पूर्वत्रासिद्धो भवति । असिद्धवद्भवति । शास्त्रासिद्धत्वेन तदाश्रयं कार्य न भवतीत्यर्थः । अस्मा उद्धरति सिद्धा अत्र | असा आदित्यः। “व्योः खम्" [५४५] इत्यस्य यवखशास्त्रस्याऽसिद्धत्वात् “श्रादेप" For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अं० ५ पा० ३ सू० २८] महावृत्तिसहितम् [४।३।७५] "स्वेऽको दीः [४।३।८८] इति च न भवति । अमुष्मै। अमुष्मात् । अमुष्मिन् । उत्वशास्त्रस्यासिद्धत्वात्स्मायादयो भवन्ति । शुष्किका यन् सुशर्माणः क्षामिमानौजिढत् सुगीः । पक्वमाशीःषु गोलिएमान कुर्वन्ति पिपठीः सुभुत् ॥ शुकिकेति "शुपि पचेः क्वी" [५।३।६७] इति कादेशः। टाप् । कुत्साद्यर्थे कः । पुनप्टाप् । "केऽणः" [५१२५] प्रः । कत्वस्यासिद्धत्वात "वातोऽधोयंकात" ५/१५१] इति विकल्पो न भवति । "त्यस्थे क्यापी" [५।२।५०] इति नित्यमित्त्वम् । यन्निति स्फान्तखस्यासिद्धत्वान्मृदन्तनखं न भवति । सुशर्माण इति णस्यासिद्धत्वात् नोङः “धेऽकौ" [१६] इति दीत्वम् । बै जै सै क्षये क्तः। "क्ष मः" [५।३।६८] इति मत्वम् । क्षामोऽस्यास्तीति क्षामी । सोऽस्यास्तीति क्षामिमान् । मत्वस्यासिद्धत्वात् “ममोड झयो मतोर्वोऽयवादेः" [५।३।३१] इति मनोवत्वं न भवति । ऊढमाख्यत् णिचि लुङि कचि च कृते "अचः" [४।३।२] इति द्वितीयस्यैकाचो द्वित्वे कर्तव्ये ढत्वादेरसिद्धत्वात् हतिकारयोर्द्वित्वम् । “हलोऽनादेः" [५।२।१६१] इति तखम् । हकारस्य चुत्वम् । औजिदत् । ननु णौ च यहिखं तस्य स्थानिवद्भावाविरुच्यते । अनक्ख इति प्रतिषेधात् सनीत्वं नास्ति । तत औजढत् इति भवितव्यमिति केचित् । तदयुक्तम् । णो कृतं स्थानिवद् भवति । न च टिखं णौ कृतम् । किन्तहीष्ठ । ततो "द्वित्वेऽचि" [११५६] इति स्थानिवद्भावात् सणेर्द्वित्वम् । ननु च "पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे" इति वक्ष्यति । तत्कथमसिद्धत्वं ढत्वादेः। न। "सर्वस्य द्वे" [५।३।१] इत्येतद्वित्वं तत्र गृहयते । तेन गलो गल इति लत्यं सिद्धम् । सुगीरिति विसर्जनीयस्यासिद्धत्वात् “इको दी वोरुङः" [५।३८५] इति दीत्वम् । पकमिति वत्वस्यासिद्धत्वात् झलि चोः कुत्वम् । आशी:विति “रेश्व सुपि" [५।२।२४] इति सत्वस्यासिद्धत्वात् "इको दी वोरुङः" [५।३८५] इति दीत्वम् । गोलिएमान् इति ढत्वस्यासिद्धत्वात् “झयः" [५।३।३०] इति बत्वं न भवति । कुर्वन्ति इत्यनुस्वारपरस्वस्यासिद्धत्वाण्णत्वं नास्ति । पिपठीरिति षत्वस्यासिद्धत्वाद्रित्वम् “परेऽचः पूर्वविधौ” [१1१1१७] इति अतः खस्य स्थानिवद्भाव इति चेत् ; न; पूर्वत्रासिद्ध न स्थानिवत्" इति । सुभुदिति जश्त्वस्यासिद्धत्वात् भषन्तस्य बशो भष्भावः। वृक्षो हसतीति रेरसिद्धत्वेऽप्युत्वं वचनाद भवति । अपवादस्य परस्यापि वचनप्रामाण्यान्नासिद्ध त्वम् । वृक्ष इति जश्त्वापवादो रित्वम् । दोग्धा इति ढत्वापवादो घत्वम् । काष्ठतडिाते स्फान्तखापवादः स्फादिखम् । येऽत्र कानिर्देशास्तानिर्देशा ईनिर्देशाश्च "रात्सः" [५।३।४२] । “स्फान्तस्य खम्" [५।३।४१] "झलो झलि" [५।३।४४] इत्यादयस्तेषाम् “ईप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः" [1११६०] “तास्थाने' [११४६] इति च नियमे कर्तव्ये नासिद्धत्वम् । “कार्यकालं संज्ञापरिभाषम्" [१०] इति पूर्वत्वं नास्ति । इह विस्फोर्य्यम् अवगोर्यम् इत्येपं बाधित्वा परत्वेन "हल्यभकुर्छरः" [५।३।८६] इति दीत्वं नास्ति । "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति स्पर्दोऽसत्त्वादुत्तरस्य' । विशेषवचन इति वर्तते । विशेषे इदमसिद्धम् । तेन क्वचिदिष्टे विषये सिद्धत्वं भवति । तादेशः प्रत्वत्येड्विधिषु सिद्धेः । अन्यथा वृक्णः वृक्णवान् इति झलीति पत्वं स्यात् । क्षीबेण तरति क्षीविकः । द्वयज्लक्षणष्टो न स्यात् । क्षीर इति वलादित्वादिटू स्यात् । छे तुकि पविधिः सिद्धः अग्ना३ इ छत्रम् । पटा३ उ छत्रम् । छ इति किम् ? अग्निची ३त् । चस्य जश्वचर्वमेवतुकोः सिद्धम् । बभणतुः । बभणः । अादेशस्यासिद्धत्वादेत्वं प्राप्नोति । उचिच्छिषतीति चादेशस्यासिद्धत्वाच्छे तुक प्राप्नोति । यत्वेि परस्वत्वं सिद्धम् । सँय्यतः । सव्वत्सरः । यल्लोकम् । तल्लोकम् । यर इति द्वित्वं न स्यात् । “सर्वस्य द्व"५३ा इति द्वित्वे धत्वादयः सिद्धाः। द्रोग्धा द्रोग्धा । द्रोढा द्रोढा। गरोगरः। गलोगल इत्यादि । घत्वादीनामसिद्धत्वात । प्रारिद्वत्वे पश्चाद्वि कल्पे सति रूपवैषम्यं स्यात् । गरोगल इति । नखं सुविधिकृत्त कि ॥५॥२८॥ सुपः स्थाने विधि सुपि च विधिं कृति विहितं च तुक प्रति नखमसिद्धं भवति । विधीयते इति विधिः कार्यम् । ऐस्भावदौत्वादिः। सुपो विधिः सुब्विधिः एको विग्रहः सुवा For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सू० २६-३१ श्रयो विधिरित्यर्थः। कृतस्तुक् कृत्तु क् । कृदाश्रयो हि तुक् कृतस्तुगुच्यते। राजभ्याम् । राजभिः । “सुपि" [५/२।१७] इति दीलम् । "भिसोत ऐस" [५1१11] इति च न भवति । वृत्रहभ्याम् । वृत्रहभिः। "पिति कृति तुक्" [४॥३॥५६] इति तुङ्न भवति । कृतीति किम् ? वृत्रहच्छत्रम् । छे तुगयम्। "सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थः" [प०] । एतयोरेव नखमसिद्धनान्यत्र । हस्त्यश्वम् । राजीयति । राजाबला । कृत्तु कीति न कर्त्तव्यम् । "सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्त तद्विघातस्य" [40] इति तुग्न भविष्यति । तत् क्रियते ज्ञापकार्थम् । “अबयवनाशिनामतः खं न भवति' इति । अन्यथा तुकः प्राप्तिरत्र नास्ति। नखेऽतः खे च कृते प्रान्तत्वाभावात् । एवं च सुपमेति सिद्धम् । अय वय पय गतौ । पयतेर्मनि कृते "वशि" [५/१/११४] इतीटि प्रतिषिद्ध "वलि व्योः खम्" [४।३।५५] इति यस्खे कृतेऽतः खं न भवति । किं च सन्निपातपरिभाषाश्रयणे वृत्रहच्छत्रमिति तुग्न स्यात् । अथ "असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे" [१०] इत्येव सिद्धं कृत्तु कीति व्यर्थम् । अनित्यैषा परिभाषा। तेन एषा द्वे इति सिद्धम् । अत्राऽन्तरङ्गे टापि कर्तव्ये बहिरङ्गत्यदाद्यत्वं सिद्धम् । पञ्च नार्य इत्यत्र मृदवस्थायामिल्संज्ञा । एकया च संज्ञया अनेक कार्य क्रियते इति ङीप्रतिषेधो जश्शसोः “उबिलः" [५।१।१६] उपि कृते टापः प्राप्तिस्त्यिलिङ्गत्वात्पदार्थस्य । तेनेल्संज्ञाविधौ नखमसिद्धं न कर्तव्यम् । न म टाविधी ॥५॥३॥२६॥ मुभावो नासिद्धः सिद्ध एव टाविधौ कर्तव्ये । टा इत्येतस्य स्थाने टा इत्येतस्मिंश्च यो विधिः स टाविधिरुच्यते । अमुना । अदस् टा इति स्थिते त्यदाद्यत्वे “दादुर्दो मोऽदसोऽसेः” [५।३।८८] इति उत्वे मत्वे च कृते मुभावस्याऽसिद्धत्वात् "प्राङो नाऽस्त्रियाम्" [५।२।११३] इति सुलक्षणो नाभावो न स्यात । सिद्धत्वाद भवति । नाभावेऽपि कृते मुभावस्यासिद्धत्वात् । “यज्यतो दीः" [५२।१६] "सुपि" [५।२।] इति दीत्वं प्राप्नोति । तच्च न भवति । टाविधाविति किम् ? इह अमुना नपि "सुपीकोऽचि" [५.११५२] इगभावान्नुम्न भवति । नेति योगविभागादिष्ट सिद्धिः। तेन "हलुङ" [४॥४॥२३] इति नखे कर्तव्ये द्वयोः स्फसंज्ञामाश्रित्य स्फादिसखं सिद्धम् । मग्नः । मग्नवानिति । “धुटः प्राप्तौ श्चुत्वं सिद्धम्" । अट श्च्योतति । अटतीत्यट। जश्त्वं डकारः। सकारश्चुत्वस्यासिद्ध त्वात् । “ड्नाद् धुः सोऽश्वः" [५/४।१३] इति धुभ्याम् । श्योततिः सकारादिः पठ्यते । तथा "अहो नखे कर्तव्ये रिरेफो सिद्धौं"। अहोभ्याम् । अहोभिः । अहर्गच्छति । मृदन्तनखं स्यात् । नखं इति विशेषणादन्यत्रासिद्धत्वम् । दीर्घाहास्तत्रेति "नोड" [ren५] “धेऽकौ" [ ६] इति दीत्वम् । अहन् । "रोऽसुपि" [५।३।७८] इति वचनं किविषये सावकाशम् । हे दीर्घाहोऽत्रेति । हे अहः । नखं मृदन्तस्याको ॥५॥३।३०।। मृदन्तस्य नस्य खं भवत्यको परतः । पदस्येति वर्तते । किवजिते स्वादौ पदस्य योऽवयवो मृदन्तस्तस्य नस्य खं भवतीत्यर्थः । राजभ्याम् । राजभिः । राजत्वम् । राजता । राजतरः। राजतमः। मृदग्रहणं किम् ? जिनेन्द्रान् वन्देरन् । अस्ति पदस्य नकारोऽन्तश्च न तु मृदः। किन्तु विभक्त्याः । अन्तस्येति किम् ? नटाभ्याम् । वनाभ्याम् । अयं पदस्यावयवो नकारो न तु मृदन्तः । पदस्येति किम् ? राजानौ । राजानः । राज्ञे । अस्ति मृदन्तो नकारो न तु पदसंज्ञकस्य । अकाविति किम् ? हे राजन् । अकावितीपदर्थे नत्र । तेन "नपुसके वा प्रतिषेधः” । हे चर्मन् । हे चर्मेति । अकाविति नखप्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् । त्यखे त्यानयन्यावेन कृदधृन्नियमान्मृत्संज्ञा न निवर्तते । मसंज्ञा च न भवति । तेन राजेत्यत्र राज्ञः पुरुषो राजपुरुष नखं सिद्धम् । “अनोऽखमम्बस्फात्" [१४/१२२] इति भकार्य च न भवति । हे राजवृन्दारक इत्यादौ क्यन्तयोरनभिधानाद्य ससमुदायात्किः । तत उत्तरपदे नखं न वक्तव्यम् । ममोझयो मतोर्वोऽयवादेः ॥५॥३॥३१॥ मकारान्तात् अवर्णान्तात् मकारोङः अवर्णोडो झयन्ताच्च यवादिवर्जितात् उत्तरस्य मतोर्वकारादेशो भवति । मृदो हि मतुर्विहितस्ततः “परस्यादेः" [१।१।५१] इति वत्वम् । नुम्वान् । गुणवान् । विद्यावान् । मोङः । शमीवान् । दाडिमीवान् । यशस्वान् | भास्वान् । झयः। मरु For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० ३ सू० ३२-३६] महावृत्तिसहितम् ३६१ त्वान् । तडित्वान् । उदश्वित्वान् । "मत्वर्थे स्तौ” [ ११२२१०८ ] इति भसंज्ञा । ममोङ्क्षय इति किम् ? श्रग्निमान् । अयवादेरिति किम् ? यवमान् । ऊर्मिमान् । भूमिमान् । कृमिमान् । मोङ इति । ककुद्मान् । गरुत्मान् । हरित्मान् । भय इति । शिखिमान् । इक्षुमती । द्रुमती । मधुमान्नाम गिरिः । “खौ” [ ५३३२] इति प्राप्तेः प्रतिषेधः । श्राकृतिगणोऽयम् । नृमत इदं नार्मतमिति बहिरङ्ग आकारः । तेन वत्वाभावः । पदावयवस्य वत्वम् । ततः शीलवतः शीलवद्द्भ्य इति च सिद्धम् । खौ || ५|३|३२|| खुविषये च मतोर्यो भवति । कपीवती । ऋषीवती । मुनीवती । "नयां मतुः " [२६५] इति चातुरर्थिको मतुः । “मतौ बह्वच्छादेरनजिरादेः " [४।३।२२२] इति दीत्वम् । श्रासन्दीवान्नाम ग्रामः | आसन्दीवदहिस्थलम् । श्रासनपर्याय आसन्दी शब्दोऽस्ति । तदुक्तम् — श्रौदुम्बरी राज्ञ श्रासन्दी भवति । चर्मण्वदष्टीचच्चक्रीवत्कक्षीवद्र मण्वत् ||५|३|३३|| चर्मण्वत् अष्ठोचत् चकीवत् कक्षीवत् रुमण्वत् इत्येते शब्दा निपात्यन्ते खुविषये । चर्मणः परस्य मतोर्नुडागमो निपात्यते मृदन्तनखम् । "श्रट्कुप्वाङ व्यवाये" [ ५४८६ ] इति णत्वम् । चर्मण्वती नदी । चर्मवतीत्यन्यत्र । अस्नोलीभावो वत्वं च निपात्यते । श्रष्ठीवानिति कायैकदेशसंज्ञा । अस्थिमानित्यन्यत्र । चकस्य ईत्वम् । चक्रीवान् । चक्रवानित्यन्यत्र । कक्ष्याया जिर्निपात्यः । “हलः” [४/४/२ ] इति दीत्वम् । कक्षीवान् । कक्ष्यावानित्यन्यत्र । लवणस्य स्मणभावो निपात्यते । रुमण्वान्नाम पर्वतः । लवणवानित्यन्यत्र । रुमन् इति शब्दान्तरं वा मतोनु' इथं निपातनम् । उदन्वादधौ || ५|३|३४|| उदन्वानीति निपात्यते । उदकस्य उदभावो मतौ निपात्यते । यत्र प्रयोगो दृश्यते । उदन्वानुदधिः । उदन्वानाश्रमः । श्रयं तु विशेषः । यदा उदकमस्यास्तीति उदकसम्बन्धमात्रविवक्षा तदा उदकवान् घटः । यदा तु उदकं धेयमस्मिन्नस्ति तदा उदन्वान् घट इति । राजन्वान सौराज्ये || ५|३|३५|| राजन्वानिति निपात्यते सौराज्ये गम्ये । राजाऽस्मिन्नस्ति प्रशंसायाममतुस्तस्येदन्निपात्यते । राजन्वान्देशः । राजन्वती पृथिवी । सुराज्ञो भावः सौराज्यम् । शोभनेन राज्ञा सम्बन्धस्तदभावे राजवान् इति भवति । कृपो रो लोऽकृपादेः || ५ | ३ | ३६ || कृपेर्धो रेकस्य लकारादेशो भवति कृपादीन् वर्जयित्वा । र इति एपि कृते यः केवलोरेफः वर्णैकदेशा वर्णग्रहणेन गृह्यन्ते इति यश्च ऋकारस्थः तयोरिह सामान्येन ग्रहणम् । कल्ता | कल्पिष्यते । कल्प्स्यति । क्लृप्तः । क्लुप्तवान् । " लुटि च क्लृपः " [११२८] इत्यादि च ज्ञापकम् ऋकारस्थस्यापि रेफस्य लश्रुतिर्भवतीति । कृपादेरिति किम् ? कृपा । भिदादित्वादङ । कृपणः । कर्पूरादय श्रौणादिकाः । ये तु प्रतिषेधं नारभन्ते कपेः कृतजित्वस्य लाक्षणिकत्वादग्रहणमिति तेषां यत्नगौरवं स्यात् । रतौ || ५|३|३७|| गेर्यो रेफस्तस्यायतिपरस्य लत्वम् । प्लायते । पलायते । ननु चायतिपरत्वं रेफस्य न सम्भवति । " परेऽचः पूर्वविधौ” [91१/५७ ] इत्येकादेशस्य स्थानिवद्भावात् । वचनप्रामाण्यादेकेन व्यवधानमाश्रितम् । एवं च पल्ययते इत्यत्राऽप्यदोषः । सङ्घातेन पुनर्व्यवधानमेव प्रत्ययते इति । ननु वचनस्यावकाशो निलयनं दुलयनमिति भविष्यति । न शक्यमेवम् “पूर्वत्रासिद्धम् " [ ५।३।२७ ] इति रेफख्यासिद्धत्वाल्लत्वाभावः । निरयणम् । दुरयणमिति । यदि लवं दृश्यते कपिलकादिषु द्रष्टव्यम् । यो यङि || ५|३|३८|| गिरते रेकस्य लत्वं भवति । निजेगिल्यते । निजेगिल्येते । निजेगिल्यन्ते । " लुपसद" [२।१।२१] इत्यादिना यङ् । नित्यत्वाच्च । “इको दी वरुडः " [ ५३८५ ] इति दीत्यम् । विकरणान्तनिर्देशों गृणातेर्निवृच्यर्थः । जेगीर्यते । यङीति किम् ? निगीर्यते । विभाषाऽचि || ५|३|३६|| गिरते रेकस्य विभाषया लत्वं भवति श्रजादी परतः । गिरति । गिलति । निगरणम् | निगलनम् । व्यवस्थितविभाषेयम् । " प्राण्यङ्गे नित्यं लत्वम्” [ वा०] । गलः कण्ठः । “विषे न For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३६२ [अ० ५ पा० ३ सू० ४०-४५ भवत्येव” [वा०] । गरः । निगार्यते । निगाल्यते इत्यत्र "परेऽचः पूर्वविधौ” [१।१।५७] इति णेः स्थानिवद्भावादजादित्वम् । ननु "पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" [प०] इति प्रतिषेधः प्राप्नोति । " नेयं परिभाषास्फादिखलत्वगत्वेषु व्याप्रियते" । अथवा वर्णाश्रयमन्तरङ्गलत्वमगाश्रयं बहिरङ्गं णिखम् । इयमप्राप्ते विभाषा । प्राप्त नित्यो विधिः । निजेगिलः । “धोः स्वरूपग्रहणे तस्यविज्ञानम्” [ प ० ] इति मृदस्त्ये न भवति । गिरो गिर इति । विभाषेति योगविभागादिष्टे कपिलकादौ विकल्पः । कपिरकः । कपिलकः । तिथिरीकम् । तिथिलोकम् । रोमाणि । लोमानि । “संज्ञाछन्दसोः पूर्वो विधिः" [१०] । “डलयोः समानविषयत्वं स्मर्यते " [प०] । व्याङः । व्यालः । वारः । वालः । मूरम् । मूलम् । रघुः । लघुः । अरे । ले । सुरः । असुलः । अरिः । अङ्गुलिः । परेर्घायोगे || ५|३|४०|| परे रेफस्य विभाषया लत्वं भवति घशब्दे के योगे च परतः । परिघः । पलियः । “घनान्तर्घण” [ २।३।६६ ] इत्यादी परिघशब्दो निपातितः । पर्यङ्कः । पल्यङ्कः । परियोगः । पलियोगः । स्फान्तस्य खम् ||५|३ | ४१ || स्कान्तस्य पदस्य खं भवति । गोमान् । कृतवान् । इह श्रेयान् भूयान् इति रित्वस्यासिद्धत्वातूस्कान्तस्य खं भवति । इहापि तर्हि पयः शिर इति रित्वस्यासिद्धत्वाज्जश्त्वं प्राप्नोति । "येन नाप्राप्ते तस्य बाधनम् " [ प० ] इति रित्वं जश्त्वस्य बाधकमेव । स्फान्तखे पुनः प्राप्ते चाप्राप्ते च रित्यमारभ्यते । दध्यत्र । मध्वत्रेति बहिरङ्गस्य यणादेशस्यासिद्धत्वात्स्फान्तखं न भवति । एफ इति किम् ? वाक् । अन्तग्रहणं किमर्थम् ? श्रादौ मध्ये च पदावयवस्य स्कस्य खं मा भूत् । " येनालि विधिस्तदन्ताद्योः " [१|१|६७ ] इति सिद्धे सष्टार्थं चान्तग्रहणम् । पदस्येति किम् ? गोमन्तो । गोमन्तः । सकारस्य खं भवति । " श्रन्तेऽलः” त्वस्यासिद्धत्वात् सखम् । “पूर्वत्रासिद्धे रात्सः ||५||३|४२|| स्कान्तस्य पदस्य यो रेफस्तस्मादुत्तरस्य [ १|१|४६ ] इत्यन्तस्य । चिकीः । जिहीः । क्विपि श्रतः खे च कृते वन स्थानिवत्" [ प ० ] इत्यजादेशस्य न स्थानिवद्भावः । एवं मातुः । पितुः | "ऋत उत्" [ ४३८] इत्युत्वम् । द्वयोरेकत्वम् । रन्तत्वम् । “सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः " [प०] रेफनियमोऽयम् । रादुत्तरस्य सकारस्यैव तं नान्यस्य । न्यमार्ट । ऊर्क । लङि क्विपि च रूपम् । रादेव सकारस्येति कस्मान्न नियमः । व्याख्यानात् । उरःप्रभृतिषु पुमानित्यस्य कृतसत्रस्य निर्देशाद्वा । धि || ५|३|४३|| धकारादौ च परतः सस्य खं भवति । ग्राध्वम् । श्राशाध्वम् । सकारस्य जश्त्वेनाप्येतत्सिध्येत् । श्रुतिकृतविशेषाभावादिति चेत् १ इह दोपः स्यात् । श्रलविध्वम् । आलविदूवम् । "वेटः " [५४६४] इति वा धस्य टत्वम् । यद्यत्र सखं न स्यात् ; तदा से: पत्वे जश्त्वे च डकारे धस्य चढले दत्वाभावपक्षेऽपि धकारो न श्रयेत । चक्राधिपलितं शिरः इत्यत्रापि श्रविशेषेण सखं भवति । "दादेधोर्धः" [ ५३/४६ ] इत्यतो ग्रहणं सिंहावलोकनेन संबध्यते । तेन धोर्विहिते धीत्यभिसम्बन्धादिह न भवति । पयो धावति । झलो झलि || ५|३|४४ || झळ उत्तरस्य सकारस्य झलि परतः खं भवति । अभित्त । श्रभित्थाः | "सिलिङ दे” [1111८५ ] इति कित्त्वादेप्रतिषेधः । श्रवात्तामिति वसतेस्तसस्ताम् । सखस्यसिद्ध त्वात् "स्यगे सः” [५।२।१५१] इति तत्वम् । झल इति किम् ? अमंस्त । झलीति किम् ? भैत्सम् । प्राद्गोः || ५|३|४५ || प्रान्ताद्गोरुत्तरस्य सकारस्य खं भवति झलि परतः । अकृत अकृथाः । अत । हृथाः । प्रादिति किम् ? ग्रव्योष्ट । अप्लोष्ट | गोरिति किम् ? अलाविष्टाम् । अलाविष्टम् । स्ति प्रादिः परः सकारो न तु गोः । झलीति किम् ? अकृषाताम् । श्रकृपत । ": " [918|८६] इति For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ३ सू० ४६-५२] महावृत्तिसहितम् ३६३ कित्त्वादेप्रतिषेधः । सिंहावलोकनेन धोरिति किम् १ द्विष्टराम् । द्विष्टमाम् । “द्वित्रियनुयः सुच्" [१२।२५] तदन्तात् अतिशयिते तरतमौ “किमेम्मिङ झिमात्" [४।२।२० ] इत्यादिनाऽम् । "प्रात्यमिङस्ति" [५।४।७३] षत्वम् । स्फादेः कोऽन्तेच॥५३॥४६॥ सकारस्य ककारस्य च स्फादेः झलि परतः पदान्ते च खं भवति । झलि पदत्यावयवः पदान्ते च यः स्फस्तदाद्योः स्कोः खं भवतीत्यर्थः। लग्नः । लग्नवान् | साधुलक । तष्टः । तष्टवान् । काष्ठतट । श्राचाटे मुनिर्धम्मम् । वास्यर्थः । शक्यर्थः । इत्यत्राजादेशस्य स्थानिवद्भावान्न सादिखम् । “पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" [१०] इतीदं "स्फादिखलवणत्वेषु नास्ति" [प.] इत्युक्तम् । अथवा बहिरङ्गस्य यणादेशस्यासिद्धत्वान्न स्कादिखम् । काष्ठशक्स्थातत्यत्र गोरधिकारात सिंहावलोकनेन धोरिति वा न भवति । स्फादेरिति किम् ? न्यस्तः । शक्तः । झलीदं द्रष्टव्यम् । स्क इति किम् ? नर्ति । अन्ते चेति किम् ? तक्षिता। चोः कः ॥५॥३॥४७॥ चवर्गस्य कवगे श्रादेशो भवति झलि पदान्ते च । बक्ता। वक्तुम । वक्तव्यम् । वाक् । “क्विपि ववि [२२।१५७ वा०] इत्यादिना क्विपि दीत्वमजित्वं च। पक्ता । पक्तुम् । पक्तव्यम् । साधुपक । अञ्चेत्यत्र अनुस्वारस्य परस्वत्वस्य चासिद्धत्वात् ञकार एव नास्ति । चकारे झलि कुत्वं न भवति । "युजिक्रुः " [२।२।५७] इति निपातनान्नखं न भवति । रेफरहितस्य धोः कुञ्चिसमानार्थस्य नखं भवत्येव । निकुचितिरिति । हो ढः ॥५॥३॥४८॥ हकारस्य ढकारादेशो भवति झलि पदान्ते च । सोढा । सोढुम् । सोहव्यम् । ढत्वे कृते परस्य "तथो?ऽधः" [५।३।५६] इति धत्वम् । दृत्वम् । “ढो ढे खम्" [५।४।१७] "सहिवहोऽस्यौः " [४॥३॥२१७] इत्योत्वम् । अन्ते । परिषद् । सट् विचीदं रूपम् । अन्यथा “नहिवृतिवृषिन्यधिरुचिसहितनिषु कौ" [१॥३।२१६] इति दीत्वं स्यात् । एवं वोढा । वोढुम् । गुणवट । विचीदं क्विपि जित्वं स्यात् । पृथग योगकरणमुत्तरार्थम् । दादेोर्घः ॥५॥३।४६॥ दकारादेोहं कारस्य प्रकारादेशो भवति झलि पदान्ते च । दग्धा । दग्धुम् । दग्धव्यम् कर्मेन्धनम् । दोग्धा । दोग्धुम् । दोग्धव्यम् । गोधुक् । पदान्ते घत्वे कृते "एकाचो वशो" [५३३५४] इत्यादिना झपन्तस्य वशो भष्टवम् । धोरिति किम् ? दामलिट् । धुपाटे यो दादिः स दादेरित्यनेन गृह्यते । तेन अधोक इत्यत्र अडागमेऽपि सति दादित्वं सिद्धम् । इह च दामलिह्यतेः विपि घत्वं न भवति । दामलिडिति । वा द्र हमुहष्णुहष्णिहाम् ॥५॥३॥५०॥ द्रुह मुह ष्णुह ष्णिह इत्येतेषां कारस्य वा घत्वं भवति झलि पदान्ते च । द्रोग्धा । भित्रधक । द्रोढा । मित्रध्रुट । उन्मोग्धा। उन्मुक् । उन्मोढा । उन्मुट । स्नोग्धा । उत्स्नुक् । स्नोटा। उत्स्नुट् । स्नेग्धा । चेलस्निक । स्लेढा । चेलस्निट् । द्रुहे. पूर्वेण प्राप्ते इतरेषामप्राप्ते विकल्पः। नहो धः ॥॥३॥५१॥ नहेर्हकारस्य धकारादेशो भवति झलि पदान्ते च । नद्धम् । नद्धव्यम् । उपानत् । “नहिवृति" [४।३।२१६] इत्यादिना दीत्वम् । “तयो|ऽधः" [५।३।५६] परस्य धत्वं यथा स्यादिति धकारादेशः कृतः । ग्राहस्थः ॥५३॥५२॥ श्राहो हकारस्य थकारादेशो भवति झलि परतः । धर्ममात्थ । सुखमात्य । "ब्रुव आहश्च" [२।४७०] इति ब्रुव आहादेशो लडादेशस्य च सिपस्थादेशः । अनेन हस्य थत्वम् । "खरि" [५।४।१३०] इति चत्वम् । अाहस्तकारादेशेनैव सिद्धे थकारस्य "खरि" इति चर्व ज्ञापकम् । For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र व्याकरणम् . [अ० ५ पा० ३ ० ५३-६० आहो व्र अग्रहरणेन ग्रहणात् ब्रुव ईण्मा भूत् । झलादिवचनाद् वा न भवति । पदान्तत्वं नास्ति । झलीत्येव । आह्तुः। श्राहुः । व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजछशां षः ॥१३॥५३॥ वश्च भ्रस्ज सृज मृज यज राज भ्राज षां चकारशकारयोश्च वो भवति झलि पदान्ते च । ब्रष्टा । मलत्रट । स्फादिसखम । “अहिज्यावयि" [४॥३॥१२] इत्यादिना जित्वम् । भ्रष्टा । धानाभृट् । स्रष्टा । तीर्थस्ट । माय । कर्मपरिमृट । यष्टा । देवयट । विचीदं रूपम् । राजिभ्राजोः क्तिरेव झलादिः । राष्टिः । भ्राष्टिः । सुराट् । सुम्राट् । विभ्राट् । प्रष्टा । धर्मप्राट । “किपि वचिप्रच्छायतस्तु कटप्रजुप्रीणां दीरजिश्च" [११५७ वा इति किपि दीत्वाजित्वे । "छ वोः शूड् ङ च" [४४।१७] इत्ययं विधिरुक्तः । लिशि । लेष्टा । धर्मलिट् । विश । वेष्टा । स्वर्गविट् । एकाचो वशो भष् झषः सध्वोः ॥५॥३॥५४॥ धोरेकाची झपन्तस्य योऽवयवस्तस्य यथासङ्ख्यं भषभावो भवति झलि सकारे ध्वशब्दे च परतः पदान्ते च । भोत्स्यते । अभुद्ध्वम् । “सिलिङ दे" [१1८५] इति कित्वम् । धर्मभुत् । धोक्ष्यते । अधुग्धम् । गोधुक् । निघोक्ष्यते । न्यधुवम् । मन्त्रघुट । एकाच इति किम् ? दामलिहमिच्छति दामलिह्यतेः क्वि । दामलिट् । असत्येकाज्यहणे झपन्तस्य धोरवयवस्य वशो भा अत्रापि स्यात् । वश इति किम् ? क्रोत्स्यति । झपन्तस्येति किम् ? दास्यति । स्वोरिति किम् ? बोद्धां । बोदधुम् । धकारस्य बकारपरस्य ग्रहणं किम् ? दादद्धि । दध धारणे इत्यस्य यडपि लोटि "हझल्ल्यो हेर्धिः" [४॥४॥६४] इति धिभावे रूपम् । अबुद्ध । अबुद्धाः इत्यत्र "झलो झलि" [५।३।४४] इति सखे कृते "त्यखे त्याश्रयम्" [१1१६३] इति कस्मान्न भवति । "वर्णाश्रये नास्ति स्याश्रयम्" [प०] इत्यदोषः । धः॥५॥३॥५५॥ धो धातोझोपन्तस्य वशो भषु भवति झलि परतः । धत्से । धत्स्व । धध्वे । धदध्वम् । धत्तः । धत्थः । “पूर्वत्रासिद्ध न स्थानिवत्" [१०] इति अजादेशस्य न स्थानिवद्भावः । बचनसामर्थ्याद्वा श्रतिकृतमानन्तर्यमस्तीति भवन्तता । धस्यापि जश्त्वमाश्रयात्सिद्धम् । “प्रकृतिग्रहणे यङ बन्तस्यापि ग्रहणम्" [प०] । धात्तः। धास्थः । झषन्तस्येत्येव । दधाति । दधासि । झलीत्येव । दधे । दधते । तथोधोऽधः ॥५॥३॥५६॥ झषन्तादुत्तरयोः तकारथकारयोर्धकारादेशो भवत्यदधातेः । दोग्धा । दोग्धुम् । अदुग्ध । अदुग्धाः । बोद्धा । बोद्धम् । अबुद्ध । अबुद्धाः । अधः इति किम् ? धत्तः । धत्थः । झलो जश् ॥५॥३॥५७॥ झलो जश भवति पदान्ते वर्तमानस्य । पदमध्ये "झलां जश् झशि" [५।४।१२८] इति वक्ष्यति । झलीति निवृत्तम् । वागत्र । मधुलिडन । अग्निचिदत्र । झलीत्यस्य निवृत्तिः किम् ? यस्ता । वेष्टव्यम् । षढोः कः सि ॥५३॥५८॥ षकारटकारयोः वकारादेशो भवति सकारादौ परतः । वेक्ष्यति । तोक्ष्यति । दृस्य । लेक्ष्यति । वक्ष्यति । सीति किम् ? पिनष्टि । द्रात्तस्य तो नः पूर्वस्य दोऽपमूछिमदाम् ॥५॥३॥५६॥ दकाररेफाभ्यां परस्य तसञकस्य तकारस्य नकारादेशो भवति पूर्वस्य च दकारस्य पृमूछिमदो वर्जयित्वा । भिन्नः । भिन्नवान् । छिन्नः। छिन्नवान् । आस्तीर्णम् । अवगूर्णम् । द्रादिति किम् ? शक्तः । शक्तवान् । तसज्ञकस्येति किम् ? कर्ता । हर्ता । त इति किम् ? मुदितम् । चरितम् । द्रादित्यनेन तकारो विशेष्यते । स चेत्तसज्ञ इति । तेनेटा व्यवधाने न भवति । पूर्वस्येति किम ? परस्य मा भूत् । भिन्नवदृभ्याम् । भिन्नवदभिः । "अधिकृत्य कृते ग्रन्थे" ३२३१६ इत्यादि निर्देशात् “इह वर्णेकदेशा वर्णग्रहणेन न गृह्यन्ते"। तेन हृतम् कृतमित्यादि सिद्धम् । कृतस्यापत्य कार्तिरिति बहिरङ्गो रेफः । अप मूछिमदामिति किम् ? प्रपूतः । मूत्र्तः । मत्तः । स्फादरातो धोर्यरावतोऽध्यायः ॥५॥३॥६०॥ स्फादियों धुः आकारान्तः यण्वत् तस्मात्परस्य तत. कारस्य नो भवति ध्या ख्या इत्येतौ वर्जयित्वा । प्रद्राणः । प्रद्राणवान् । ग्लानः। म्लानः। ध्या इत्येतस्य For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ३ सू० ६१-६६] महावृत्तिसहितम् प्रतिधात् प्रतिपदोक्तपरिभाषा नाश्रिता। स्फादेरिति किम् ? यातः । यातवान् । श्रात इति किम् ? च्युतः। प्लुतः । धोरिति किम् ? निर्यातः । दुर्यातः । यण्वत इति किम् ? स्नातः । प्सातः । अध्याख्य इति किम् ? ध्यातः। ख्यातः। वादेः ॥शश६१॥ लू इत्येवमादिभ्य उत्तरस्य ततकारस्य नो भवति । लूनः। लूनवान् । लीनः । लीनवान् । लू इत्यतः प्रभृति बृदिति वृत्पर्यन्ता ल्वादयः । तत्र स्तृनित्येवमादिभ्यो नत्वं पूर्वेणैव सिद्धम् । ऋतश्च क्तः ॥१३॥२॥ ऋकारान्तेभ्यो ल्वादिभ्यश्च परस्य क्तेस्तकारस्य नो भवति । ल्वादिभ्यो अत्ये ऋद्ग्रहणं प्रयोजयन्ति । कोर्णिः । गीणिः । शीर्णिः । ल्वादिभ्यः । लूनिः। लीनिः । गृर्णिः । चूर्णिः । घर्णिः। इति त्रयं चिन्त्यम् । ओदितः ॥५॥३॥५३॥ श्रोकारेतश्च धोः परस्य ततकारस्य नो भवति । लग्नः । लग्नवान् । उद्विग्नः । उद्विग्नवान् | आपीनः । अापीनवान् “प्यायः पी" [४।३।२३] “प्राङः" [५३।२४] इति पीभावः। आतिदेशिकाः स्वादयः अोदितः । घङ प्राणिप्रसव इत्यादयो बीङ् वृणोत्यर्थे इत्येवमन्ता देवादिकाः । सूनः । सूनवान् । दूनः । दीनः । उड्डीनः इत्यादि । क्षीणः ॥१३॥६४॥ क्षी इत्येतस्मात् कृतदीत्वात्परस्य ततकारस्य नो भवति । तपरकरणमसन्देहार्थम् । प्रक्षीणः । प्रक्षीणवान् । “तेऽण्ये" [४।४५६] इति दीत्वम् । यदा दीत्वं तदाऽनेन नत्वम् । क्षीणोऽसि जाल्म । “वा दैन्याक्रोशे" [४।४।६०] इति दीत्वम् । दीत्वनिर्देशः किमर्थः ? क्षितोऽसि जाल्म । श्याञ्चिदिवोऽस्पर्शानपादानाजये ॥५॥३॥६५॥ श्या अञ्चि दिव इत्येतेभ्यः परस्य ततकारस्य नो भवत्यस्पर्श अनपादाने अजये यथासङ्खथम् । शीनं घृतम् । शीनं मेदः । “दवघनस्पर्शयोः श्यः" [४।३।१६] इति जित्वम् । “हलः” [१२] इति दीत्वम् । अजित्वपक्षे "स्फादेरातो" [५।३।६०] इति नत्वं सिद्धम् । अस्पर्श इति किम् ? शोतं वर्तते । शीतो वातः। शीतमुदकमित्यत्र स्पर्शाभिघानद्वारेणैव द्रव्ये वृत्तिः । तेन नत्वाभावी जित्वं च सिद्धम् । स्पशों गुणो गृह्यते । ननु "स्पृश उपतापे" इत्येतस्य स्पर्शो रोगः । तत्र प्रतिशीनः। कथं ज्ञायते "द्रवधनस्पर्शयोः" [३॥१६] इति जित्वे सिद्धे “प्रतेः" [४।३।२०] इति वचनात् । अञ्च । समक्नौ शकुनेः पक्षौ । अनपादान इति किम् ? उदक्तमुदकं कूपात् । व्यक्त इत्यजेः प्रयोगः । दिव । श्राद्यूनः । आद्य नवान् । “छोः शूण्ङ च" [४॥४/१५] इत्यूठ । अजय इति किम् ? द्यूतं वर्तते । क्रीडायामप्युपमानाद्विजि गीवा गम्यते । निर्वाणोऽवाते ॥१३॥६६॥ निर्वाण इति निपात्यते अवातेऽर्थे । यदि ध्वयों वाताधारो न भवतीत्यर्थः । निःपूर्वाद्वातेः परस्य ततकारस्य नत्वं निपात्यते । निर्वाणो मुनिः। निर्वाणो दीपः। “धिगत्यर्थाच" [१५] इति कर्तरि क्तः। अवात इति किम् ? निर्वातो वातः। निर्वातं वातेन । वातोऽत्र निर्वातिक्रियायाः आधारः । निर्वाणो दीपो वातेनेत्यत्र दीपाधारो ध्वर्थो वातस्तु करणं तेन नत्वम् । शुषिपचेः क्वौ ॥५॥३॥६७॥ शुषि पचि इत्येताभ्यां परस्य ततकारस्य ककारवकारादेशौ भवतः । शुष्कः । शुष्कवान् । पक्कः । पक्कवान् । मः ॥३६॥ इत्येतस्मात्परस्य ततकारस्य मकारादेशो भवति । क्षामः । क्षामवान् । प्रस्त्यो वा ॥५॥३॥६६॥ प्रपूर्वात्स्त्यायतेः परस्य ततकारस्य मकारादेशो वा भवति । प्रस्तीमः । प्रतीमवान् । प्रस्तीतः । प्रस्तीतवान् । “प्रपूर्वस्य स्त्यः' [॥३।१८] इति जिः । "हलः" [१२] इति दीत्वम् । यदा मत्वं न भवति तदा "स्फादेरातो धोर्यण्वतः" [५.३१६०] इत्यस्यासिद्धत्वात् पूर्व ज| कृते विहतनिमित्तत्वा For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ५ पा० ३ सू० ७०-७४ न्नत्वं न भवति । प्रग्रहणं किम् ? केवलादन्यगिपूर्वाच्च न भवति । स्त्यानः । संस्त्यानः । त्यै स्त्यै इन्यनयोः परस्य ग्रहणं पूर्वस्य सत्त्वाभावात् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फुल्लः || ५|३|७० ॥ फुल्ल इति निपात्यते । फुल्लः । फुल्लवान् । त्रिफला विशरण इत्यस्मात्परस्य ततकारस्य लत्वं निपात्यते । "ति" [५/२/१८६ ] इति उङ उत्त्वम् । कथं फलितः । फलान्यस्य सज्जातानीति द्रष्टव्यम् । अथवा फल निष्पत्तावित्यस्य इडभाव उङ उत्वं लत्वं च निपात्यते । फुल्ल विकसन इत्यस्य पचाद्यचि रूपमिति चेत्, नैवं फलेस्ते लत्वमन्तरेण प्रयोगः स्यात् ! समुदः || ५|३|७१ ॥ सम् उद् इत्येताभ्यां परः फुल्लो निपात्यते । सम्फुल्लः । सम्फुल्लवान् । उत्फुल्लः । उत्फुल्लवान् । " सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः " [प०] । समुद्रयामेव गेः । इह मा भूत् । प्रफुल्ला लता । क्षीर कृशोलाघाः || ५|३|७२ || क्षीत्र कृशः उल्लाघ इत्येते शब्दाः निपात्यन्ते । दीवादिभ्यः के कृते तकारस्य खं निपात्यते । इटि वा कृते इत्शब्दस्य । क्षीत्रः । कृशः। उल्लाघः । अचि इगुलक्षणे के च कृते रूपं सिद्ध्येत् । किं तु कृते के अनिष्टं स्यात् । लाघेर्गिपूर्वस्य ग्रहणं किम् ? अस्यैव गिपूर्वस्य निपातनमन्यत्य मा भूत् । प्रक्षीचितः । परिकृशितः । उदिति विशेषनिर्देशात् अन्यगिपूर्वस्य न भवति । प्रोल्लधितः । परिकृशः इत्यादिषु निपातितस्य शब्दस्य पश्चात् प्रादिसविधिः । परिगतः कृशः परिकृशः । प्रगतः क्षीत्रः प्रक्षीत्रः । नात्र गिसञ्ज्ञा । यत्क्रियायुक्तास्तं प्रति गिसञ्ज्ञा भवन्ति । वाग्राहीनुदोन्द विन्ते विभाषा || ५|३|७३ ॥ त्रा घ्रा ही नुद उन्द विन्ति इत्येतेभ्यः परस्य ततकारस्य विभाषया नत्वं भवति । त्रातः । त्राणः । घातः । प्राणः । ह्रीतः । ह्रीणः । नुत्तः । नुन्नः । समुत्तः । समुन्नः । वित्तः । विन्नः । ह्री इत्येतस्याप्राप्ते इतरेषां प्राप्ते नत्वं विकल्प्यते । विन्तेरिति श्नविकरणनिर्देशाद् "विद विचारणे" [धा०] इत्यस्य ग्रहणम् । तदुक्तम्- वेत्तेस्तु विदितो ज्ञ ेयो विद्यतेर्वित्त इष्यते । विन्तेर्विन्नश्च वित्तश्च वित्तं भोगे तु विन्दतेः ॥ विभाषेति व्यवस्थितविभाषाविज्ञानम् । तेन देवत्रातो गलो ग्राह इतियोगे च सद्विधिः । मिथस्तेन विभाष्यन्ते गवाक्षः संशितव्रतः ॥ इति सिद्धम् । देवैस्त्रातः देवत्रातः । सञ्ज्ञायामपि त्रातेति भवति । प्राण्यङ्गे गलः । विषे गर एव । नक्रे ग्राहः | "विभाषा ग्रहः " [ २।१।११७ ] इति णः । आदित्यादिषु पचाद्यजेव ग्रहः । इतियोगे च सद्विधिर्न भवति वर्षतीति धावति । हन्तीति पलायते । "लक्षणहेत्वोः क्रियायाः " [२।२।१०४ ] इति शतृशानौ न भवतः । "न वा साकाङक्षे" [२।२।१४ ] इत्यतो मण्डूकप्लुत्या विभाषाऽनुवर्तते । अनितियोगे नित्यं भवतः । श्रर्जयन् वसति । श्रधीयानो वसतीति । ननु चेतिशब्देनैव हेत्वर्थस्य द्योतितत्वात् वर्षतीत्यादौ कथं सद्विधिः ? इदं तर्युदाहरणम्, “विभाषा लृटः सत्" [ २|३|१३] इत्यनेन करिष्यामीति ब्रजति क्रियायां तदर्थायामितियोगे लृटः सद्विधिर्न भवति । श्रवान्तसमानाधिकरणे अनितियोगे च सद्विधिः । करिष्यन्तं पश्येति । वान्तसमानाधिकरणेऽपि विकल्प इति केचित् । करिष्यन् पुरुषः । करिष्यति पुरुषः । वातायने नित्यम् । गवाक्षः । प्राण्यङ्गे गोऽक्षम् । अन्यत्रोभयम् | गोग्रम् | गवाग्रम् । व्रतविषये नित्यमित्यम् । शंसितव्रतः । विधिप्रतिषेधयोरुभयरूपेण विविधमवस्थितया विभाषया सर्व लभ्यते । आकृतौ पदार्थे सर्व लक्ष्यराशिमेकत्वमुपनीय विधिः प्रतिषेधश्चेति द्वयमुपदिश्यते । व्यक्तौ पदार्थे उभयमत्र भवतीति प्रतिपाद्यते । वित्तभित्तदूनगुनपुनतिर्णानि ॥ ५४३/७४ || वित्त भित्त दून गून पून सित ऋण इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । वित्तमिति "विदुलृ लाभे" इत्यस्य भोगे प्रतीतौ च निपात्यते । भोगे वित्तमस्य । बहुवित्तः । For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ३ सू० ७५-७६] महावृत्तिसहितम् भुज्यत इति भोगो धनादिप्रतीतौ विचोऽयं पुरुषः। विनमन्यत् । भित्तमिति निपात्यते शकलं चेत् । भिन्न खण्डमित्यर्थः । उक्तञ्च-- तत्त्वमभिधायकं चेच्छकलस्यानर्थकः प्रयोगः स्यात् । सकलेनाप्यभिहिते न भवति तत्वं निगमयामः ॥ भिदि क्रिया शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तम् । प्रवृत्तिनिमित्तं तु शकलत्वजातिः । क्रियाभिधाने भिन्न शकलमित्यपि भवति । दूनः । गूनः । दुग्वोर्दीत्वं नत्वं च निपात्यते । पूजो विनाशे नत्वम् । पूना यवाः। विनाश इति किम् ? पूता यवाः । पूतं धान्यम् । सित इति सिनोते सकर्मकर्तृ कस्य भवति । सितो ग्रासः स्वयमेव । ग्रास इति किम् ? सिता पाशेन शकरी । कर्मकर्तृ कस्योति किम् ? सितो ग्रासो देवदत्तेन । ऋण इति ऋ इत्येतस्मात् उत्तमाधमर्ण योर्नत्वम् । ऋणं ददाति । ऋणं धारयति । ऋतमन्यत् । कित्यस्य कुः ॥५॥३७॥ क्विस्त्यो यस्य तस्य धोः कवर्गोऽन्तादेशः पदान्ते । घृतस्मृक् । "स्पृशोऽनुदके क्विः" [श१५६] इति क्विः । एवं यादृक् । ताहक । युङ। नस्य कुत्वम् । त्यग्रहणपरिभाषया “को कुः" इति सिद्धे किस्त्यो यस्येति बसनिर्देशात् असत्यपि क्वौ क्विविधानेनोपलक्षितस्य क्विवन्तस्यापि भवति । सहस्रगिति । इहापि तहि स्यात् । रज्जुसुभ्याम् । रज्जुसृभिः। स्रगिति निपातनात् क्यन्तोपलक्षणं नास्तीत्यदोषः । "नशा" वा०] । जीवनक । जीवनट । क्विपि विचि वा । अथवा जीवस्य नाशो जीवनडिति सम्पदादित्वाल्क्विप। ससजुषो रिः ॥५॥३१७६॥ सकारान्तस्य पदस्य सजुम् इत्येतस्य च रिर्भवति । "अन्तेऽलः" [१1१0४१] इत्यन्तस्य । जश्त्वापवादोऽयम् । सर्वशः साधुभिरासेव्यते । सजः । सह जुषा वर्तते “सहेति तुल्ययोगे" [१॥३॥६१] बसः । “वा नीचः" [४।३।१६०] इति सहस्य सो भवति । यदि वा सह जुषते इति सजः । अहन् ॥५३७॥ अहन्नित्यस्य पदस्य रिर्भवति । अहोभ्याम् । अहोभिः । दीर्घाहा कालः। हे दीर्घाहोऽत्र । अहन्निति विकृतनिर्देशात् रेरसिद्धत्वेन नखं न भवति । वचनं तु हे दीर्घाहोऽत्रेति सावकाशम् । हन्तेलडि ग्रहन्नित्यस्य लाक्षणिकत्वान्न भवति । “अहो रिविधी रूपराविरथन्तरेखूपसङ्ख्यानम्" [वा०इति । रोऽसुपीत्यस्य बाधनार्थम् अहोरूपम् । अहोरात्रिः। एकदेशविकृतत्वादिद्दापि भवति । अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रः । अहो रथन्तरम् अहोरथन्तरम् । रोऽसुपि ॥२३७८|| अहन्नित्येतस्य रेफादेशो भवत्यसुपि परतः । अहर्गच्छति । अहर्ददाति । असुपीति किम ? अहोभ्याम् | अहोभिः । ननु अहर्ददातीत्यत्रापि “त्यखे त्याश्रयम्" [११६७] इति सुअस्ति । एवं तर्हि रेफविधानसामर्थ्यात् अह्नो रविधौ उपि त्यलक्षणं न भवति । यत्र तु खं तत्र त्याश्रयेण रित्वम् । दीघाहा निदाघः । हे दीर्घाहोऽत्रेति । वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः ॥३७६॥ वत्वन्तस्य पदस्य उसु ध्यंसु अनडुङ् इत्येतेषां च दकारादेशो भवति । विद्वत्कुलम् । विद्वद्भयाम् । विद्वद्भिः । उखाया संसते उखासत् । उखासद्याम् । उखासद्भिः। पर्णध्वत् . पर्णध्वद्भिः । स्वनडुत्कुलम् । अनडुयाम् | अनडुद्भिः । पदस्येति किम् ? अनडुहा । वस्वादीनामिति किम ? पयोभ्याम् । अनडुहो दत्वप्राप्तिरितरेषां रित्वम् | “ससजुषो रिः" [५/३१७६] इत्यतः सकारान्तग्रहणमनवर्तते । तेन विद्वानिति नकारस्य न भवति । “येन नाप्राप्ते" इति न्यायेन रित्वस्य दत्वं बाधकम् । स्फान्तखे प्राप्त चाप्राप्ते च दत्वमतो विद्वानित्यत्र स्फान्तखस्य न बाधकम् । अनडुहो वचनसामथ्योद् ढल भवति । नुमो दत्वं वचनसामर्थ्यान्न भवति । पदाधिकारादिहापि भवति । विद्वकाम्यति । "नः क्ये' [१२।१०४] इति नियमाद् विद्वस्यतीत्यत्र भसज्ञा । For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सू०८०-८७ तिपि धोः॥५॥३८०॥ तिपि परतः धोः सकारान्तस्य पदस्य दकारादेशो भवति । अचकाद्भवान् । अन्वशाभवान् । लङ् । “हल्ङयापः" [४।३।५६] इति तिपः खम् । तिपीति किम् ? क्विपि चकाः । रित्वापवादो योगः। सिपि रिर्वा ॥५॥३८१॥ सिपि परतो धोः सकारान्तस्य पदस्य रिर्भवति दकारो वा । अचकास्त्वम् । अचकात्त्वम् । अन्वशास्त्वम् । अन्वशात्त्वम् । दकारस्य विकल्पपक्षे रित्वं सिद्धमेव । रिग्रहणमुत्तरार्थम् । "दः" [१३१८२] इत्यत्र पदे रिर्यथा स्यात् । तिपि सिपि च परतो धुरेव सम्भवति । धुग्रहणमप्युत्तरार्थम् । दः ॥५॥३८॥ धोर्दकारान्तस्य पदस्य सिपि परतो रिर्भवति दकारो वा। अभिनत्त्वम् । अभिनस्त्वम् । अजस्त्वम् । अजर्घत्त्वं । गृध इत्येतस्मात् यकुब्। द्वित्वादिकार्यम् । लङ सिप उङ एप “एकाचः" [५।३।५४] इत्यादिना भष्भावः । हल्यापः खम् । जश्त्वं दकारः। मो नः ॥५॥३८॥ धोर्मकारान्तस्य पदस्य नकारादेशो भवति । प्रताम्यतीति प्रतान् । प्रशान् । प्रदान् । नत्वस्यासिद्धत्वान्न मृदन्तनखम् । न इति किम् ? विद । भिद् । धोरित्येव । इदम् । किम् । अनयोर्मकारोच्चारणस्यावकाशः इदामतीत्यादौ "नः क्ये" [१२११०४] इति पदत्वाभावः। पदस्येत्येव । प्रशामौ । प्रशामः। म्योः ॥५॥३॥८४॥ धोर्मकारस्य मकारवकारयोश्च परतः नकारादेशो भवति । जङ्गन्वः । जङ्गन्मः । अपदान्तार्थ प्रारम्भः । । इको दी रुरुङः ॥५॥३।८५॥ रेफवकारान्तस्य धोः पदस्य उङः इको दीर्भवति । गीः। आशीः । श्राङ पूर्वस्य शासोऽनुदात्तेतो ग्रहणादप्रातमित्वम् । “आशिषि" [२१४१४६] इति निपातनाद्भवति । धुर्वी । धूः । धुर्वः पदान्तस्य वकारस्य ऊठा भवितव्यमिति वग्रहणमुत्तरार्थम् । इक इति किम् ? अबिभर्भवान् । मकारे अकारस्य मा भूत् । वोरिति किम् ? भिद् । छिद् । उङ् इति किम् ? अबिभर्भवान् । चस्य वेर्मा भूत् । धोरिति किम् ? साधुः । मुनिः । पदस्येत्येव । गिरी । गिरः ।। हल्यभकुर्छरः ॥५॥३॥८६॥ हल्परौ यौ रेफवकारी तदन्तस्य धोरुङ इको दीभवति भसंज्ञकं कुर्छरौ च वर्जयित्वा । आस्तीर्णम् । अवगूर्णम् । दीव्यति । सीव्यति । अभकुर्छर इति किम् ? भस्य धुरं वहतीति धुर्यः । दिवि भवो दिव्यः । क्विबन्तस्येदं ग्रहणम् । कुर् । कुर्यात् । कृञो विकृतनिर्देशात् चिकीर्घतीत्यत्र दीत्वं भवत्येव । छुर् । छुर्यात् । अाशिषि लिङ् । धोरित्येव । चतुर इच्छति चतुर्यति । दिवमिच्छति दिव्यति। त्यस्येमौ रेफवकारौ । इक इत्येव । गव्यति । “यि त्ये” [४।३।६७] इत्यवादेशः । हल्पराविति विशेषणं किम् ? मुर्मुरीयतीत्यत्र मा भूत् । अपदान्तार्थं वचनम् । उङि ॥५॥३८॥ धोरुभूतौ यौ रेफवकारौ तयोरुङ इकः दीर्भवति । कोर्तयति । हूर्छिता । मूर्छिता | तूर्विता । धूर्विता । “अचो रहाद् द्वे" [५।४।१२६] इत्यस्यासिद्धत्वादुङ्भूतत्वम् । प्रतिदीना। प्रतिपूर्वाद्दिवः "कन् युवृषितक्षि" [उ० सू०] इत्यादिना कन् । “अनोऽखमम्बस्फात्" [४|१२२] इत्यखम् । “न पदान्त" [१११।५८] इत्यादिना स्थानिवद्भावप्रतिषेधः। “असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे" [१०] इत्यस्यानित्यत्वाच्च दीत्वम् । अथ वाऽत्र “हलि" [४।३।१२६] इति दीत्वम् । तस्य नेति प्रतिषेधः कस्मान्न भवति । रेफवकारान्तस्य सस्य [भस्य] स प्रतिषेधः । इह कस्मान्न भवति । री गतिरमणयोः । वी गतिप्रजनकान्त्यशनेषु । रिर्यतुः । [रियुः । विव्यतुः । विव्युः । यणादेशस्य] स्थानिवद्भावात् बहिरङ्गलक्षणत्वाद्वा असिद्धत्वमिति न भवति । चतुर्यितेत्यत्र अतः खस्य बहिरङ्गत्वात् धोरुभूतो रेको नास्तीति न दीत्वम् । गुणादीनामव्युत्पन्नत्वात । जिविः। किर्यो। गिर्योरित्यादिषु "हलि” दीत्वं न भवति । व्युत्पन्नौ बहुलवचनात् । “जीर्यतेः किरच वः" [उ०] । इति क्रिः । "ऋत इद्वोः" [५११७४] इतीत्वम् । रन्तत्वम् । रेफस्य वकारः । ( कगृभ्यां ) “कृ ग प कुटि भिदिभ्यश्च" [उ०] इति इः। उकोरिति प्राप्ते उडीति सौत्रो निर्देशः । For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० ३ सू०८-१२] महावृत्तिसहितम् ३६६ 1 दादुर्दो मोऽदसोऽसेः || ३८८ ॥ अदसः सकारस्य दात्परस्य वर्णमात्रस्य उवणादेशो भवति दकारस्य च मकारः । श्रमुम् । अम् । श्रमून् । श्रमुना । श्रमूभ्याम् । उत्वस्यासिद्धत्वात्प्राक् सन्धिकार्यम् । भाव्यपि क्वचित्स्वं ग्रहणात्युक्तम् । ततः "स्थानेऽन्तरतमः " [१|१|४७ ] इति मात्रिका र्धमात्रिकयोर्मात्रिको द्वित्रस्य द्विमात्र उकारो भवति । सेरिति किम् ? अदस्यति । "स्वेपः क्यच् " [ २ | १|६ ] | सेरिति यद्यविद्यमान सकारस्येत्युच्यते । अदः कुलम् । श्रदोऽत्र इत्यत्रापि स्यात् । एवं तर्हि अः सिर्यस्मिन् सोऽयमसिः । अकारीभूतः सिर्यस्मिन्नित्यर्थः । तस्यासेरुत्वम् । तेन त्यदाद्यत्वविषये विधिः । “विश्वग्देवयोश्च टेरद्र्यन्त्रों को " [३|४|१६८ ] इति द्रयादेशे कृते दर्शनभेदः । “अन्त्य विकारेऽन्त्यसदेशस्य " [ ५० ] इति परिभाषा नाश्रिता तेषाम् " श्रदे सोsहौ” परतः उत्वं भवति । श्रमुद्रयङ् | "पृथङ मत्वं केचिदिच्छन्ति लत्ववत्" । चलीकृप्यते । क्लृप्तः । कल्पकः । इत्यत्र लाक्षणिकस्य रेफस्य ऋकारस्य च लत्वम् । एवमन्यत्रापि । मुमुयङ् । परिभाषाश्रयणे तु " केचिदन्त्यसदेशस्य" श्रदमुयङ् । त्यदाद्यत्र विषय एव मुल्यम् । “नेत्येकेऽसेहि दृश्यते" | यङिति चत्वारो भेदाः । दादिति किम् ? अमुया । श्रमुयोः । स्त्रियां सोः परतः त्यदाद्यत्वे अपि "श्राङि चाप: " [ ५/२/१०० ] इति एत्वे यादेशे च कृते " श्रन्तेऽल: " [11१1४६ ] इति यकारस्योत्वं मा भूत् । वहावीरेतः ॥५३॥८६॥ वही निमित्ते निष्पन्नस्य अदसः दात्परस्यः एतः ईकारादेशो भवति । अमी । अमोभिः | श्रमीभ्यः । श्रमीषाम् । श्रमीषु । अथवा चहाविद्यर्थनिर्देशः । बहाव वर्तमानस्य अदसः इति ज्ञेयम् । पारिभाषिके हि ग्रमी इत्यत्र परत्वासम्भवान्न स्यात् । वाक्यस्य टेः पः ॥ ३६० ॥ वाक्यस्य टेः पो भवतीत्येषोऽधिकारो वेदितव्यः । वक्ष्यति "दूराद्वते" [५/३/१२] श्रागच्छ भो देवदत्ता३ । वाक्यग्रहणं किम् ? अन्त्यस्य यथा स्यात् । पदाधिकारात् सर्वेषां पदानां मा भूत् । टेरिति किम् ? "अवश्च" [ १1१1१२] इति अनन्तस्याप्यचो यथा स्यात् । अन्यथा अचा वाक्ये विशेष्यमाणे हलन्तस्य न स्यात् । ऋचो विशेष्यत्वे सर्वेषामचां स्यात् । प्रत्यभिवादेऽद्रव्यसूयके || ५|३|११|| शूद्र स्त्री असूयक विपयवर्जिते प्रत्यभिवादे यद्वाक्यं वर्तते तस्य टेः पो भवति । अभिवादये देवदत्तोऽहं भो३: । श्रायुष्मानेधि देवदत्ता ३ । अत्राभिवाद्यमाने गुरुणा प्रयुक्तमाशीःपूर्वकं प्रियहितयुक्तं प्रतिवचनम् इत्यभिवादः । शूद्रस्त्र्यसूयक इति किम् ? अभिवादये तुपजकोऽहम् । भोश्रायुष्माने तुपजक । शुद्धे पो न विहितः । श्रभिवादये गार्ग्यहं भो । आयुष्मती भव गार्गि । स्त्रियां पो न भवति । श्रभिवादये स्थाल्यहं भो । आयुष्मानेधि स्थालिन् । अत्र दण्डिवदसञ्ज्ञाशब्दे पो न भवति । सञ्ज्ञाशब्दे भवत्येव । यदा तु विहेठयितुकामः सञ्ज्ञामसञ्ज्ञां च तस्य कथयति तदा श्रसूयकोऽयमिति ज्ञाते भिद्यस्व पलस्थालिन् न त्वं प्रत्यभिवादमर्हसीत्युच्यते । लोकव्यवहारात्प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययाद्वा नामान्तस्य गोत्रान्तस्य च पविधिः । इह न भवति देवदत्त कुशल्यसि । देवदत्त श्रायुष्मानेधि । इन्द्रधर्मन् कुशल्यसि । सर्वः पविवि भवतीति वक्ष्यति । सा च व्यवस्थितविभाषा । तेन "भोराजन्यविशां वा भवति" । श्रभिवादये देवदत्तोऽहं भोः । श्रायुष्मानेधि देवदत्त भो३ | आयुष्मानेधि देवदत्त भो । राजन्यः । श्रभिवादये इन्द्रवर्माऽहं भोः । श्रायुमाधि इन्द्रवर्मन् | आयुष्मानेधि इन्द्रवर्मन् । विशः । अभिवादये इन्द्रपलितोऽहं भोः । श्रायुष्मानेधि इन्द्रपालिता३ | आयुष्मानेधि इन्द्रपालित । भोशब्दस्याप्राप्ते राजन्यविशोगत्रत्वात्प्राप्ते विकल्पः । दूराद्यूते || ५|३|१२|| दूराद्भुते आह्वाने वर्तमानस्य वाक्यस्य : पो भवति । आगच्छ भो देवदत्ता३ । दूराद्घृत इति किम् ? श्रागच्छ भो जिनदत्त । प्रयत्नविशेषेण आह्नाने यत्र शब्दः श्रूयते तदूरमिह नास्ति । हूतग्रहणं सम्बोधनमात्रोपलक्षणम् । तेनेहापि पः सिद्धः । सक्तून् पित्र देवदत्ता ३ इति । सूत्रे दूरादिति " तेभ्य इप् च " [ १।४।४३ ] इति का | For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०० जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ३ सू० १३-१०१ हैप्रयोगे हैहयोः ॥२६॥ है हे इत्येतयोः प्रयोगे हैहयोः पो भवति दूराद्धृते । है३ जिनदत्त । जिनदत्त है३ । हे३ जिनदत्त । जिनदत्त हे३ । पुनहयोहणं किम् ? अन्यस्य मा भूत् । हैहयोरेव यथा स्यात् । प्रथमं हैहेग्रहणम् अनन्तयोरपि यथा स्यात् । अन्यथा वाक्यस्य टेः प्राप्नोति । सूत्रारम्भस्तु अनृतोऽनन्तस्येत्यादिबाधकः सम्भाव्येत । प्रयोगग्रहणादनर्थकयोरपि भवति । श्रागच्छ भो माणव हे३ देवदत्त इति । अनृतोऽनन्तस्याप्येकैकस्य रोः ॥२३॥४॥ ऋकारवर्जितस्य रोरनन्त्यस्यापि अन्त्यस्यापि टेः एकैकस्य पो भवति । हे३देवदत्त । हे देवदत्त३ । अन्त इति किम् ? कृष्णमित्रा३ । रोरिति किम् ? देवदत्तस्य वकारात्परत्र माभूत् । एकैकग्रहणं पर्यायार्थम् । ओमभ्यादाने ॥५॥३॥६५॥ अभ्यादानं प्रारम्भः । श्रोमित्येष शब्दः अभ्यादाने पो भवति । श्रो३. मृषभं पवित्रम् । अो३मृषभमृषभगामिनं प्रणमत । अभ्यादान इति किम् ? यो भो ददाति । अयमोमशब्दः प्रतिश्रवणे वर्तते । वा हेः पृटप्रत्युक्तौ ॥३६॥ पृष्टप्रत्युक्तौ हेः पो भवति वा। अकार्षीः कटं देवदत्त ! इति पृष्टः अकार्ष ही३ । अकार्ष हि । अलावीः केदारं देवदत्त ! अलाविषं ही३। अलाविषं हि । हेरिति किम् ? करोमि ननु । पृष्टप्रत्युक्ताविति किम् ? देवदत्तः कटं करिष्यति । प्रत्युक्ताविति किम् ? देवदत्त कटमकाहिं । वेति योगविभागः । तेन सर्व एव पविधिः साहसमनिछता वा प्रयोक्तव्यः । विचार्य पूर्वम् ॥५॥३॥६७॥ विचार्य पूर्व पविधिमापद्यते । अहिर्नु ३ रज्जुर्नु । स्थाणुर्नु ३ पुरुषो नु । द्वयोर्बहूनां वा वाक्यानां पूर्वस्य टेः पो भवति । प्रतिश्रवणे ॥५॥३८॥ प्रतिश्रवणे च वाक्यस्य टेः पो भवति । प्रतिश्रवणं श्रवणाभिमुख्यं प्रतिज्ञानम् अभ्युपगमश्चाविशेषेण गृह्यते । श्रवणाभिमुख्य देवदत्त भो किमात्थ३ इति । प्रतिज्ञाने कृतकः शब्दो भोः । एवं भवितुमर्हती३ । अभ्युपगमे भोज्यं मे देहि भोः । हन्त ते दास्यामी३ । पजिते ॥३॥पूजिते च वाक्यस्य टेः पो भवति । शोभनः खल्वसि अग्निभूता३३ । पटाउ। कावेपि च कृते "एचोऽदेः" [५।३।१०४] इत्यादिना श्राकार इदुतौ च । अथवा शोभनः खल्वसि देवदत्ता३ इत्युदाहरणम् । चिदित्युपमार्थे ॥५॥३१००॥ चिदित्येतस्मिन्नुपमार्थ प्रयुज्यमाने वाक्यस्य टेः पो भवति । अग्निश्चिद्भाया३त् । राजाचिद्व्या३त् । चिदिति किम् ? राजेव ब्रूयात् । अग्निर्माणवको भायात् । इवशब्दस्य प्रयोगाप्रयोगयोरुपमार्थोऽस्ति । न तु चिच्छब्दः । उपमार्थ इति किम् ? कथञ्चिद्ववीपि । कृच्छेत्र चिन्छब्दः । इतिकरणं किम् ? चिच्छन्दस्य मा भूत् । वाक्यस्य टेर्यथा स्यात् । कोपाऽसूयासम्मती म्रौ वा ॥१३॥१०१॥ कोपा असूया सम्मति इत्येतेष्वर्थेषु नौ परतः पो भवति वा । कोपे-माणवका३ । माणवक । अविनीतका३ । अविनीतक । इदानी ज्ञास्यसि जाल्मा३ । असूयायाम्-माणवका३ | माणवक । अभिरूपका३ । अभिरूपक । शोभनः खल्वसि माणवक । कुत्सनमसूयान्तभूतं तत्कार्यत्यात् । शाक्तीका३ । शाक्तीक । याप्टीका३ । याष्टीक रिक्ता ते शक्तिः। "वाक्यादे:ध्यस्य" [५।३।६] इत्यादिना द्वित्वम् । वेति व्यवस्थितविभाषा विज्ञानात् कोपकार्य भर्सने च पर्यायेण पः । चौर । चौरा३ । वृपल । वृषला३ । चौरा३ । चौर । वृषला३ । वृषल । घातयिष्यामि त्वाम् । बन्ध यिष्यामि त्वाम् । भर्सनेच मिङः साकाङ्क्षस्याङ्गयुक्तस्य टेः पविधिरद्वित्वं च । अङ्ग कुजा३ अङ्ग व्याहा३ इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म। मिङ इति किम् ? अङ्ग देवदत्त । साकाइतस्येति किम ? अङ्ग पच । नैतत्पर माकाङ्क्षति | भसैन इत्येव । अङ्ग पठ पुस्तकं ते दास्यामि । For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र०५पा०४ सू० १-३ ] महावृत्तिसहितम् ४०१ तियाशी प्रषेषु मिडाकाङ्क्षम् ॥३१०२॥ क्षिया क्षेपः। इष्टाशंसनमाशीः । असत्कारपूर्विका व्यापारणा ग्रैषः । क्षियादिषु मिङन्तमाकाक्षं पविधिं लभते । क्षियायाम्-स्वयं ह रथेन याती३ उपाध्यायं पदातिं गमयति । स्वयं ह श्रोदनं भुङ्क्ते३ उपाध्यायं सक्तून् पाययति । भुक्ता इति मिडन्तमाकाङ्क्षकम् । आकायमपि मिङन्तमाकाङ्क्षग्रहणसामर्थ्यात् । सुबन्ते सिद्धवाकाङ्क्षा । आशिषि-- पुत्रांश्च लप्सीष्ठाः३ धनं च । अत्र लप्सीष्ठा इत्यस्य गम्यमानमिङन्तापेक्षस्य पविधिः । तात तर्क चाध्येषोष्ठाः३ जैनेन्द्र च । प्रषे-त्वं ह पूर्वग्रामं गच्छा३ देवदत्तो दक्षिणं व्रजतु । आकाङ्क्षमिति किम् ? दीर्घमायुः रस्तु । प्रैप इत्यत्र "प्रादूहोढोल्य षैष्येषु" [३।७६ वा०] इत्यनेन एङि पररूपापवाद ऐप । अनन्तस्यापि प्रश्नाख्यानयोः ॥२३॥१०॥ प्रश्ने अाख्याने च अनन्तस्यापि मिङन्तस्य अन्त्यस्यापि यस्य कस्यचित् पदस्य टो पो भवति । प्रश्ने-आगमः३ पूर्वात् ग्रामान् अग्निभूता३ इ । पटा३ उ । आख्याने-आगमः३ पूर्वा ३न् ग्रामा३न् भो३: । अत्र सर्वेषामपि पदानां पदान्ते केचित् पमिच्छन्ति । एचोऽदेः पूर्वस्यात्परस्येदुतौ ॥१३।१०४॥ एचः अदिसञ्ज्ञकस्य पप्रसङ्गे पूर्वस्यास्य आकारः पो भवति परस्य चार्द्धस्य इदुतौ भवतः। “एचोऽदेरदिदुत्परः" इति सिद्धे गुरुसूत्रकरणं किम् ? इदुतोः पो न भवति । प्रश्नान्तपूजितप्रत्यभिवादेषु पदान्तस्य च एचः पो भवतीति ज्ञापनार्थम् । प्रश्नान्ते अगमः३ पूर्वान्यामान् अग्निभूता३३ । पटा३ उ। पूजिते-शोभनः खल्वसि अग्निभूता३३ । पटा३उ । प्रत्यभिवादे-आयुष्मानेधि अग्निभूता३६ | पटा३उ । परिगणनं किम् ? दस्यो३ दस्यो घातयिष्यामि त्वाम् । आगच्छ भो अग्निभूते३ । पदान्तस्येति वचनादिह न भवति । भद्रं करोमि गौरिति । पूजिते पः। श्रादिति किम् ? अपाक्ता३मोदनं कन्ये३ । प्रश्ने पविधिः। वार्वाच सन्धौ ॥५:३।१०५॥ अर्थवशाद्विभक्तीपरिणामः । इदुतोरचि परतः यकारवकारादेशी भवतः सन्धौ विवक्षिते । आ अध्यायपरिसमाप्तेः सन्धावित्यधिकारः । अग्नाश्विन्द्रम् । पटा३वुदकम् । सिद्धः पविधिः सन्धाविति ज्ञापितं पुरस्तात् । तेन "अचीको यण" [३१६५] इति यत्र यणादेशो नास्ति तदर्थमिदम् । अचीति किम् ? अग्ना३३ गतम् । पटा३उ गतम् । सन्धाविति किम् ? अग्ना३इ इन्द्रम् । पटा३उ उदकम् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रमहावृत्तौ पञ्चमाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः । पुमः खय्यम्परे सोऽनुस्वारपूर्वः ॥४१॥ पुमित्येतस्याम्परे खयि परतः सो भवत्यनुस्वारपूर्वः । पुमिति पुंसः स्फान्तखे कृतेऽनुकरणम् । खयीति प्रत्याहारसाहचर्यात् अमोऽपि प्रत्याहारग्रहणम् । पुंस्कामा । पुश्चली। पुस्पुत्रा । पुस्कोकिलः । पुसि कामोऽस्याः । पुमांसं चलयतीत्यादि ज्ञे यम् । सकारस्यासिद्ध त्वाद्रित्वं न । खयोति किम् ? पुदासः । पुंगवः । अम्पर इति किम् ? पुंक्षीरः । अनुस्वार इति बिन्दोः सञ्ज्ञा पूर्वः कृता । पुल इत्यत्र पुशब्दस्यानर्थकत्वादग्रहणम् । नश्छब्यप्रशान् ॥शा२॥ नकारान्तस्य पदस्य अम्परे छवि परतः सो भवत्यनुस्वारपूर्वः प्रशान्शब्द वर्जयित्वा । भवाश्छादयति । भवाँष्ठकारीयति । भवास्थुडति । भवाश्चरति । भवांष्टीकते । भवांस्तरति । छवीति किम् ? भवान् करोति । अप्रशानिति किम् ? प्रशान् चिनोति । “मो नः" [५।३।८३] इति नत्वस्यासिद्धत्वानखाभावः । अम्पर इत्येव । भवान् त्सरुकः । त्सरौ कुशलः । "अाकर्षादेः कः" [३।३।१७] इति कः । भवद्भगवदघवतो वा रिः काववस्यौः ॥१४॥३॥ भवत् भगवत् अघवत् इत्येतेषां को परतः वा रिभवति । यदा रिस्तदा अवशब्दस्यौकारः रित्वं प्रति भवदादीनां स्थानार्थस्तानिर्देशः सोऽर्थीदवशब्दापेक्षयाऽव For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ प्र० ५ पा० ४ सू० ४-१२ ४०२ यवार्थः सम्पद्यते । अवस्येति निर्देशात् "नानर्थकेऽन्तेऽलो विधिः" [१०] इति वा सर्वस्य स्थाने श्रोकारः । हे भोः । हे भवन् । हे भगोः । हे भगवन् । हे अघोः । हे अघवन् । भवच्छब्दो "भातेर्डवतुः " [उ० सू०] इति वत्वन्तः । तेन विशेषवाचित्वात्सम्बोधनम् । " मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्" [ प ० ] इतीयं परिभाषा विभक्तीविषये नेष्यत इति स्त्रियां विधिर्न भवति । हे भवति । हे भगवति । हे श्रघवति । भो इति झिसंज्ञकं शब्दान्तरमस्ति तस्यायं प्रयोगः । भो सुन्दरि । भो भो नरेन्द्राः सुखमाध्वम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वस्य योऽशि || ५|४| ४ || रिरिति वर्तमानो विपरिणम्यते । श्रोकारपूर्वस्थावर्णपूर्वस्य च रे: यकारादेशो भवति श्रशि परतः । भोयत्र । भगोयत्र । घोयत्र । भोयाहि । भगोयाहि । घोयाहि । अवर्णपूर्वस्य सर्वज्ञयास्ते । देवायासते । नरा गच्छन्ति । अनन्तरसूत्रेण निवर्तितस्य योकारस्य ग्रहणादिह न भवति । गोरत्र । पटोरत्र । ओदपूर्वस्येति किम् ? मुनिरत्र । अशीति किम् ? वृक्षस्तत्र । छवीति सत्वस्यासिद्धत्वाद्यत्वं प्रसज्येत । रेरित्येव । पुनरत्र । व्योः खं वा || ५|४|५|| वकारयकारयोरशि परतः स्वं भवति वा । पदस्येत्यनेन विशेषणात्पदान्तयोर्योः सञ्ज्ञातव्यम् । पट इह । पटविह । वृक्षा अत्र | वृक्षावत्र । वकारसाहचर्याद्यकारस्याविशेषेण खम् । भो त्र । भोयत्र । सर्वज्ञ श्रास्ते । सर्वज्ञयास्ते । देवा ग्रासते । देवायासते । ते आसते । तयासते । हलि || ५|४|६|| अशीति वर्तते । व्योः खं भवति अशि हलि परतः । नित्यार्थ आरम्भः । देवा यान्ति । वाता वान्ति । वकारादौ "वलि ग्योः खम् " [४|३|५५ ] इत्यनेन यखं नाशङ्कनीयम् । तस्मिन् यकारस्यासिद्धत्वात् । ग्रशीति हलो विशेषणं किम् ? वृक्षव् करोतीत्यत्र मा भूत् । वृक्षं वनतीति वृक्षवन् । वृक्षवनमाचष्टे णिच् । वृक्षवयतेः पुनः क्विप् । “पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत्" [१०] इति : स्थानिवद्भावो नास्ति । अशि तु हलि खं भवत्येव । वृक्ष हसति । मोऽनुस्वारः ||५||७|| अशीति निवृत्तम् । मकारान्तस्य पदस्य अनुस्वारो भवति हलि परतः । व्रतं रक्षति । धर्म शृणोति । अयं षडिकः । स्वर्गं साधयति । पाई हन्ति । हलीत्येव । इदमत्र । पदान्तस्येत्येव । रम्यते । नश्चापदान्तस्य झलि ||२४|८|| नकारस्य मकारस्य चापदान्तस्यानुस्वारो भवति झलि परतः । यशांसि । तितांसति । अनुस्वारस्यासिद्धत्वात् “सन्तस्फमहतो : " [४|४|७] इति दीत्वम् । मकारस्य - रंस्यते । अधिजिगांसते । “सनि” [१|४|११६ ] "इङ : " [ १|४|१२० ] इति गमादेशः । पदान्तस्येति किम् ? हे राजन् भवान् स्थास्यति । झलीति किम् ? राजन्यः । गम्यः । सम्राट् ||५|४|१|| सम्राडिति निपात्यते क्व्यन्ते राजतौ परतः । समो मकारस्य मकार एव निपात्यते । " सत्सूद्विष" [ २/२/५६ ] आदि सूत्रेण क्विप् । सम्राट् सगरः । हि म्परे घा || ५|४|१०|| म इति वर्तते । हकारे मकारपरे परतः मकारस्य वानुस्वारो भवति । किं लयति । किम्ालयति । कथं हालयति । कथम्ालयति । ज्वल ह्वल हाल चलन इत्यस्य णिचि "ज्वलल ालनमामगे वा" [ग० सू०] इति मित्सञ्ज्ञा । हीति किम् ? कथं स्मरति । म्पर इति किम् ? किं ज्वलयति ! प्राप्त विकल्पोऽयेम् । वाग्रहणं बहुलार्थम् । तेन " यवलपरे हकारे नकारस्य वा यवला भवन्ति " | किं ह्यः । किं ह्यः । किंवँ इलयति । किं हृलयति । किलँहूलादयति । किं ह्लादयति । नपरे नः || ५|४|११ ॥ नकारपरे हकारे परतः मकारस्य वा नकारादेशो भवति । किन् हृते । किं ह्नते । कथन्ते । कथं हृते । · ङोः कुटुक्aरि ||४|४|१२|| ङकारणकारयोः पदान्ते वर्तमानयोः वा कुकू टुकू इत्येतावागमौ भवतः शरि परतः । प्राङक छेते । प्राशेते । पदान्ताज्भयः परस्य छत्वार्थं पूर्वान्तकरणम् । प्राङ्क्षण्डे । प्राङ For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० ५ पा० ४ सू० १३- २१ ] महावृत्तिसहितम् ४०३ षण्डे' । प्राक्साये । प्राङ्साये । कुकः पूर्वान्तत्वात् परस्य " नाद्यन्ते " [ ५/४४७६ ] इति षत्वप्रतिषेधः | टुक्—सुपण्ट् शेते । सुपण शेते । सुपरट् पण्डे । सुपण घडे । सुपटू साये । सुपप्साये । टुकः पूर्वान्तत्वे परस्य " पदस्य टो: " [५/४/१२१] इत्यादिनियमात् ष्टुत्वाभावः । [ नां घुट् सोवः ||५|४|१३ ॥ ] नश्शि तुक् ||५|४|१४|| नकारस्य पदान्तस्य शकारे परतो वा तुगागमो भवति । त्रापि छत्वार्थ पूर्वान्तत्वम् । भवा । भवाञ्च्शेते । भवाञ्शेते । [ मयो वोsच्युञः || ५|४|१५|| ] ङमो नित्यं ङमुट् प्रात् ||५|४|१६|| प्रात्परो यो ङम् तदन्तात्परस्याचो नित्यं ङमुड् भवति | क्रुङ्ङास्ते । सुगणिगढ । कुर्वन्नास्ते । प्रादिति किम् ? प्राङास्ते । अचीत्येव । कुङ् शेते । ननु परमदण्डिनावित्यत्र कस्मान्न भवति । अत्र हि "त्यखे त्याश्रयम्” [१।११६३ ] इत्यवयवविभक्तीमाश्रित्य पदान्तत्वमस्तीति चेत् ; नायं दोषः-याश्रयलक्षणेन पदत्वमुत्तरपदे एव भवति नान्यत्र । कथमिति चेत्, “भवद्भगवदधवतः” [५।४।२] इति निर्देशात् । अन्यथा वत्तकारस्यापि जश्त्वं स्यात् । एवं च पीतपयसौ सुराजानावित्यत्र रित्वनखे न भवतः । ढो दे खम् ||५|४|१७|| ढकारस्य ढकारे परतः खं भवति । ऊदिः । गूढम् | लीढम् । पदान्ते ढकारस्यासम्भवात् वचनात्पदमध्ये विधिः । नन्विह सम्भवति मधुलिहौकत इति । ढत्वस्यासिद्धत्वात् जश्त्वमत्र भविष्यति । ननु मध्येऽपि त्वस्यासिद्धत्वात्रो ढकारो नास्ति तत्र यदि वचनाडूटखम् । पदान्तेऽपि स्यात् । पदमध्ये श्रुतिकृतमानन्तर्यमस्तीति भवति । पदान्ते न श्रुतिकृतं नापि शास्त्रकृतमानन्तर्यम् । जश्त्वस्य सिद्धत्वात् । रोरि ||४|४|१८|| रेफस्य रेफे परतः खं भवति । नीरक्तम् । दूरक्तम् । श्रग्नीरथः । इन्दूरथः । पुना रक्तं वासः । “निरनुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य " [१०] इतीयं परिभाषा नेहाश्रीयते " रेश्च सुपि" [ ५/४/२४] इति ज्ञापकात् । तत्र रेरेव सुपीति नियमो वक्ष्यते । इह यदि निरनुबन्धकस्य रेफस्य ग्रहणं स्यात् इदमेव तत्रानुवर्तते । इति रेः प्राप्त्यभावान्नियमोऽनर्थकः स्यात् । इह पदस्यावयवो यो रेफः तस्य खं भवतीत्याश्रयणादपदान्तरस्यापि रेफस्य खं भवति । अजर्घा इति जगृधू इत्यस्माद्यङवन्ताल्लङः सिपू । “हल्डचापः " [४/३/५६ ] इति सिपः खम् । “घ्युङ : " [ ५२८३] एप् । रन्तत्वम् । “झलो जश्” [ ५/३/५७ ] इति धकारस्य दत्वम् । “सिपि रिर्वा" [३१] “दः” [ ५३।८२ ] इति दकारस्य रित्वादेशः । अत्र से रीति पूर्वस्य खं परस्य विसर्जनीयः । एवं स्पर्द्धचन्तस्य अपास्पाः । रो रीति निर्देशात् "रादिकः " [उ० सू०] इति विधानमनित्यम् | "ढोढे खम्" [ ५|४|१७ ] इति निर्देशात् "वर्णात्कारः" [ उ० सू०] अप्यनिस्यः । विरामे विसर्जनीयः || ५|४|१६|| विरामविषये रेफान्तस्य पदस्य विसर्जनीयादेशो भवति । देवः । कविः । साधुः । स्वः । अत्तः । विराम इति किम् ? अग्निरत्र । प्रातरत्र । वायुवति । विरतिः वर्णस्यानुच्चारणं विरामः । विसर्जनीय इति प्रयोगवाहेषु चिन्दुद्वयस्य सञ्ज्ञा । शर्परे खरि ||५|४|२०|| शर्परे खरि परतः रेफान्तस्य विसर्जनीय आदेशो भवति । पुरुषः सरुकः । नरः सरति । " छवि" [ ५।४।२५ ] सत्वस्यायमपवादः । कुप्वोः ||५|४|२१|| शर्परे खरीति वर्तते । खरि यौ कुपू तयोः शर्परयोः परतः रेफस्य विसर्जनीय आदेशो भवति । वासः क्षौमम् । श्रद्भिः प्सातम् । ननु पूर्वेण सिद्धे किमर्थमिदम् । अस्मिन्ननुच्यमाने स पुरस्तादपवादः सन् ँक Xपयोरेव बाधकः स्यात् न छवि सत्त्वस्य । कुप्वोरित्यनेनारम्भेण पयोधा । पूर्वेण छवि सत्यस्येति । For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४०४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० सू० २२-२६ पौ ||५|४|२२|| शर्पर इति निवृत्तम् । खरीति वर्तते । इष्टत्वात् । खरि यो कुपू तयोः परतः रेफस्य इत्येतावादेशौ भवतः विसर्जनीयश्च । कX करोति । कः करोति । कः खनति । कः खनति । कः पचति । कः पचति । कः फलति । कः फलति । केवलौ जिह्वामूलीयोपध्यानीया बुच्चार - यितुमशक्यौ ककारपकारा उच्चारणार्थों । इह नृकुट्यां भवः नाकुट्यः । नृपतेरपत्यं नार्पत्य इति रेफस्य बहिरङ्गत्वान्नायं विधिः । ननु सति विसर्जनीये अन्तरङ्गेऽस्य प्रतिद्वन्द्वित्वाद्द्बह्रिङ्गत्वम् । विसर्जनीयश्चासिद्धः । कथं तन्मूलपरिभाषाव्यापारः । नैषः दोषः । ईषत्सिद्धमसिद्धं क्वचित् सिद्धमित्याश्रयणाद्विसर्जनीयः सिद्धः । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरि सच || ५|४|२३|| शरि परतः रेफस्य सकारादेशो भवति विसर्जनीयश्च । कश्शेते । कः शेते । कष्वष्कते । कः ष्वष्कते । कस्तरति । कः सरति । रेश्च सुपि || ५|४|२४|| सुपि परतः रेश्च सकारादेशो भवति विसर्जनीयश्च । चकारो विसर्जनीयानुकर्षणार्थः । शरीत्यनुवर्तते । सुपीति ईपो बहोर्ग्रहणम् । पयस्सु । पयःसु । सर्पिष्षु । सर्पिषु इत्यत्र सत्वपक्षे " नुमर्व्यवाये" [५|४|३८ ] इति परस्य षत्वे कृते पूर्वस्य पदान्तत्वात् "नाद्यन्ते” [ ५|४|७६ ] प्रतिषेधे सति त्वम् । विसर्जनीयपक्षे परस्य पत्वम् प्रयोगवाहस्य शर्ग्रहणेन ग्रहणात् पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमिदम् । रेरेव सुपि सत्यविसर्जनीयौ नान्यस्य । गीर्षु । धूर्षु । सुप्येव रेरिति कस्मान्न नियमः । " सस्सेच्युस्थस्य " [ ५|४ | ३ ३] इति सकारद्वयनिर्देशात् । छ || ५|४|२५|| रोरीत्यतो रेफमात्रमनुवर्तते । विसर्जनीय इति निवृत्तम् । छवि परतः रेफस्य सकारादेशो भवति । कश्छिनत्ति । कष्ठकारीयति । कस्थुडति । कश्चरति । कष्टीकते । कस्तरति । पुनश्चरति । कुवत् ||५|४|२६|| स इति वर्तते । पदान्तरेफस्य सकारादेशो भवति कवर्गवर्गादौ त्ये परतः । “पाशकल्पकाम्याः प्रयोजयन्ति” [वा०] । याप्यं पयः । पयस्पाशम् । यस्पाशम् । “याप्ये पाशः " [ ४|१|११० ] इति पाशः । ईषदसिद्ध ं पयः पयस्कल्पम् । यस्कल्पम् । " श्रसिद्धौ देश्यदेशीयकल्पाः " [४।१।१२६] इति कल्पः । महोरस्कः । पयस्कम् । पयस्काम्यति । कुप्वोरिति किम् ? पयोभ्याम् । नन्वत्रापि पवर्गत्वात् प्राप्नोति । खरीत्यनुवर्तनान्न भवति । त्य इति किम् ? यः करोति । पयः पिबति । “उब्ज आर्जवे" इत्यस्योपध्मानीयोङपक्षे कुत्वविषये "उपध्मानीयस्य सत्वं वक्तव्यम्, द्वित्वप्रतिषेधश्च" [वा०] श्रभ्युद्गः । समुद्गः । उब्जिजिप्रतीति । दकारोङ्पक्षे तु कुत्वादन्यत्र । असिद्ध काण्डे " व उद्गेः " [वा०] इति वचनात् वत्वस्यासिद्धत्वात् "न स्फादौ न्द्रोऽयि” [४।३।३] इति द्वित्वप्रतिषेधः । उब्जिजिषति । "अत्रासिकस्येति वक्तव्यम्" [वा०] इह मा भूत् । प्रातःकल्पम् । मुहुः काम्यति । " रेरेव काम्ये वक्तव्यम्" [वा०] इह मा भूत् । गीः काम्यति । धूः काम्यति । इणः षः ||५|४|२७|| इण उत्तरस्य सकारस्य षकारादेशो भवति कवर्गपवर्गादौ त्ये परतः । सर्पिष्कल्पम् । सर्पिष्कः । सर्पिष्काम्यति । “कुप्वोस्स्ये” [५।४।२६ ] इत्यनेन निर्वृत्तस्य सकारस्य त्वमनेन विधीयते इति लक्षणमिदमधिकारश्च । इत ऊर्ध्वं यत्सत्वं विधीयते तस्य इण उत्तरस्य पत्वं भवतीत्येतदधिक्रियते । इदुदुङोऽत्यपु मुहुसः || ५|४|२८|| त्ये हि पूर्वेण सिद्ध मत्यार्थोऽयमारम्भः । इकारोकारोङोः रेफस्य सकारादेशो भवति कुप्बोः परतः त्यम्मुहुसो वर्जयित्वा । " निदुर्ब हिरा विश्चतुः प्रादुषः प्रायः प्रयोजयन्ति ' निष्कृतम् । निष्पीतम् । बहिष्कृतम् | बहिष्पीतम् | आविष्कृतम् । श्रविप्पीतम् । चतुष्कुण्डिका । चतुष्कण्टकः । चतुर्षु कण्टकेषु भवः इत्यण् । हृदऽर्थे रसे कृते "रस्योबनपत्ये” [३।११७४] इत्यण् उप् । प्रादुष्कृतम् । प्रादुध्पीतम् । सर्बत्र “इणः ष” [५।४।२७] इत्यनुवर्तनात् पत्वम् । तपरकरणं किम् ? गीः करोति । अत्यपुम्मुहुस इति किम् ? मुनिः करोति तपम् । पटुः पठति । पुंस्कामा | मुहुःकामा । ननु पुंस्कामेत्यत्र रेफाभावात् प्रतिषेधोऽनर्थकः । लक्षणान्तरेण सत्वस्य विधानाच्च त्वप्रतिषेधोऽप्ययुक्तः । नैष दोषः । उक्त हि भाष्ये विशेषण सत्वमुक्त्वा For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अं० ५ पा० ४ सू०२१-३४] महावृत्तिसहितम् ४०५ "इणः षः" [५।४।३७] इति षत्वं विधीयते इति प्रातिरस्ति । इह मातुः करोति । पितुः करोतीति "रात्सः" [५।३१४२] इति सकारस्य खे कृते नायं त्यस्य रेफ इति कस्मान्न षत्वम् । कस्कादिषु भ्रातुष्पुत्रग्रहणं ज्ञापकमेकादेशनिमित्तकस्य न भवति । नैकुल्यम् । दौष्पुरुष्यम् । बही३कृतम् इत्यत्र बहिरङ्गत्वादै पविध्योरसिद्धस्वायत्वम् । नमःपुरसोस्त्योः ॥शहा२६॥ त्य इति निवृत्तम् । नमस् पुरस् इत्येतयोस्तिसंज्ञकयोः रेफस्य सकारादेशो भवति कुप्वोः परतः । नमस्कर्ता । नमस्कर्तुम् । नमस्कर्तव्यम् । पुरस्कर्ता । पुरस्कर्तुम् । पुरस्कर्तव्यम् । नमः शब्दस्य "साक्षादादिः” [॥२२१४३] इति तिसंज्ञा वर्तते । तिरसो वा ॥२४॥३०॥ तिरसो रेफस्य वा सकारादेशो भवति कुप्वोः परतः । तिरस्कर्ता । तिरस्कृत्य । तिरः कृत्य । :"तिरोऽन्तद्रौं" [१॥२॥१४०], “वा कृषि" [१२।१४१] इति तिसज्ञा । इह तिरस्तिसज्ञकस्येति विशेष विषयद्वारकम् । तेनान्तों विषये “वा कृषि" इति सज्ञाविरहेऽपि सत्वम् । तिरस्कृत्वा । तिरः कृत्वा । तिसञकस्यति किम् ? तिरः कृत्वा काएदं गतः । नात्रान्तर्द्धि: प्रतीयते । अन्तरेण कृत्वा गत इत्यर्थः। त्वमौदासीन्येन गच्छति । सुचः ॥४॥३१॥ सुजन्तस्य पदस्य यो रेफस्तस्य वा सकारादेशो भवति कुप्वोः परतः। द्विष्करोति । द्विष्पचति । त्रिष्करोति । त्रिष्पचति । चतुष्करोति । चतुष्पचति । अन्यस्मिन् पक्षे “ xक पौ च" [५।४।२२] इत्येष विधिः । द्वि करोति । द्विःकरोतीत्यादि योज्यम् । द्वौ वारौ करोतीति विगृह्य “द्वित्रिचतुभ्यः सुच्" [१२।२५] इति सुच् । द्वित्रिभ्यां परस्य अत्यपुम्मुहसः इति प्रतिषेधादप्राप्तं चतुःशब्दस्य तु “इदुदुः" [५।४।२८] इति प्राप्तं सत्वं विकल्प्यते । “इणः षः" [५।४।२७] इत्यधिकारात्यत्वम् । इसुसोः सामर्थ्य ॥४॥३२॥ इस् उस् इत्येतयो रेफस्य सकारादेशो भवति सामर्थ्य सति कुवादिना । सपिप्करोति । सर्पिः करोति । सपिप्पिबति । सर्पिः पिबति । धनुष्करोति । धनुःकरोति। धनुप्पतति । धनः पतति । सर्पिर्धनुःप्रभृतयः शब्दा इसुसन्ता व्युत्पाद्यन्ते इति दर्शने त्यस्य नेत्यप्राप्ते अव्युत्पत्तौ "इदुदुङः" [५।४।२८] इति प्राप्ते विकल्पः। सामथ्र्य इति किम् ? तिष्ठतु सर्पिः पिबतु पयः। ननु पदाधिकारे समर्थपरिभाषाव्यापारात सामर्थ्यग्रहणां किम् ? कवर्गपवर्गादिना धुना व्यपेक्षालक्षण एव सामर्थ्य यथा स्यादित्येवमर्थम् । इह मा भूत् । सर्पिःकालकम् । यजुः पीतकमिति । सापेक्षमसमर्थमिति नायं पक्षस्तत्र स्थितः । तेनेहापि गमकत्वात्सत्वम् । देवदत्तस्य सर्पिष्करोति । सस्सेऽद्य स्थस्य ॥१४॥३३॥ इसुसो रेफस्याास्थस्य सकारादेशो भवति । सर्पिष्कुण्डिका । सर्पिष्पात्रम् । धनुष्काण्डः । धनुष्पतिः । पुनः सग्रहणं नित्यार्थम् । अास्थस्येति किम् ? परमसर्पिःकुण्डिका । पूर्वेणाप्यत्रैकार्थीभावे विकल्पो न भवति । यदा तु व्यपेक्षा सामर्थ्यम् ; तदा द्युस्थस्यापि पूर्वेण विकल्पः । परमसर्पिष्करोति । परमसर्पिः करोति । इदमेवाास्थस्येति प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् “इसुसोः" [५॥४॥३२] इत्यत्र "त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेः" [१०] इति नियमाभावादधिकस्यापि ग्रहणम् । कृकमिकंसकुम्भकुशाकर्णीपात्रेऽतोऽझेः ॥२४॥३४॥ कृ कमि कंस कुम्भ कुशा कर्णी पात्र इत्येतेषु परतः अकारत उत्तरस्य रेफस्याद्युस्थस्य सकारादेशो भवति । कृकम्योः सर्वत्यान्तयोर्ग्रहणम् । अयस्कारः। यशस्कारः । तपस्कामः । यशस्कामः । अयस्कान्तः । अयस्कंसः । पयस्कंसः । कंस इति कमेरव्युत्पत्तिपते पृथग्ग्रहणम् । अयस्कुम्भः । “मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि" [१०] अयस्कुम्भी । पयस्कुम्भी । गौरादित्वान्डी । अयस्कुशा । पयस्कुशा। अय इव कर्णावस्याः “नासिकोदरौष्ट" [३।११४८] आदिना ङी । अयस्की । पयस्कर्णी । शुनस्कर्णस्तु “कस्कादौ" [५।४।३६] । अयस्पात्रम् । पयस्पात्रम् । अयस्पात्री। पयस्पात्री । For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ४ सू० ३५-४६ कृकम्यादिग्रहणं किम् ? पयःपानम् । अत इति किम् ? गीःकारः। धूःकारः । तपरकरणं किम् ? भाः कामः। भास्कर इति “कस्कादौ" । अझेरिति किम् ? प्रातःकारः। स इत्येव । यशः करोति । अद्यस्थ. स्येत्येव । परमयशःकारः । कमेरणिङन्तस्य सूत्रे निर्देशः किम् ? अयस्कान्तः। शिरोऽधसोः पदे ॥शा३५॥ शिरस् अधस् इत्येतयो रेफस्य सकारादेशो भवति पदशब्दे परतः। शिरस्पदम् | अधस्पदम् । मयूरव्यंसकादित्वात्सः । से इत्येव । शिरसः पदम् । अास्थस्येव । परमशिरःपदम् । कस्कादौ ॥४॥३६॥ कस्क इत्येवमादिषु रेफस्य सकारादेशो भवति । यथा ते तत्र पठ्यन्ते तथैव तेषां साधुत्वम् | कस्कः । किमः तसन्तस्य वीप्सायां द्वित्वम् । कौतस्कुतः। समुदायस्यामृत्त्वेऽपि वचनात् तत अागतेऽर्थेऽण् । भातुष्पुत्रः। सेऽपि "ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धात्" [१२।१३६] इत्यनुप् । “इणः षः" [५।४।२७] इति षत्वम् । शुनस्कर्णः ! असञ्ज्ञायां "ताया आक्रोशे" [४।३।१३४] इत्यनुप् । सज्ञायां तु श्वकर्ण इति । सद्यस्कालः। सद्यस्क्रीः। सम्पदादित्वात् क्विप। तत्र भवः साद्यस्क्रः । तमस्काण्डम् । अयस्काण्डम् । तपस्काण्डम् । मेदस्पिण्डः । श्राकृतिगणोऽयमविहितलक्षणं सत्वमिति द्रष्टव्यम् । इणकोः सः षः ॥५॥४॥३७॥ इणः कबर्गाच्चोत्तरस्य सकारस्य पत्वं भवतीत्वेषोऽधिकारो वेदितव्यः । वक्ष्यति "त्यादेशयोः" [पा४।३६] । मुनिषु । देवेषु । गीए । वाक्षु । प्राक्षु । उदङक्षु । सिपेव । सुष्वाप । इण्कोरिति किम् ? यास्यति । “क्षियाशीःप्रेषेषु" [५।३।१०२] इति निर्देशादिणपरेण णकारेण गृह्यते । स इति स्थानिनिर्देशो रेफस्य स्थानित्वनिवृत्त्यर्थः। पुनः धग्रहणं कुप्वोरित्यस्य निवृत्त्यर्थम् । उत्तरत्र "नाद्यन्ते" [५४७६] इति प्रतिषेधात् पदस्येत्येतदनुवर्तमानमिह विशेषणरूपेण सम्बन्ध्यते । नुम्शर्व्यवायेऽपि ॥५॥४॥३८॥ नुमव्यवाये शयवाये अव्यवायेऽपि इणकोरुत्तरस्य सकारस्य षकारादेशो भवति । सीषि । धनूंषि । अत्र नुमादेशो नुम् । तेनेह न भवति । पुंसु । शर्व्यवाये। सर्पिष्णु । धनुष्षु । रेः सत्त्वे कृते वरस्य पत्वम् । [त्यादेशयोः ॥२४॥३६॥ शास्वस्घसाम् ॥१४॥४०॥ षणि चारिणस्तोरेव ॥४४॥ सस्विदिस्खदिसहः ॥१४॥४२॥ प्राक् सितादटापि ॥५॥४॥४३॥ स्थादेश्वेन चस्य ॥४४॥ गेः सूत्रसूसोस्तुस्तुभः ॥२४॥४५॥] ..........'म इति पत्वे य.........'माश्रीयते। अभितष्ठावित्यत्र चस्य टवर्गः स्यात् । चस्य च गेः परस्य सत्त्वं भवतीदमपि नियमार्थवचनम् । अभिषिषिक्षति । परिषिषिक्षति। अत्र द्विः प्रयोगो द्वित्वं गोः सिच इत्येव षत्वं सिद्धम् । “सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय ।" स्थादीनामेव वक्ष्यमाणानां चस्य षत्वम् । चेन च व्यवायेनान्येषां सुनोत्यादीनाम् । अभिसुषूषति । अभिसिषासति । स्थादीनां चस्यैवेति न शङ्कयम्... 'ये विधानमनर्थ स्यात् । स्थासेनयसेधसिचसञ्जस्वजाम् ॥४६॥ गैरिति वर्तते । गेः परेषां स्था से नय सेध सिच सञ्ज स्वज इत्येतेषां सकारस्य पत्वं भवति । अभिष्ठास्यति । परिष्ठास्यति । अटा व्यवाये-अभ्यष्ठात् । पर्यष्टात् । चेन च व्यवाये-अभितष्ठौ । अभिषेणयति । अभ्यषेण्यत् । अतिषिषेणयिषति। अत्रादेशसकाराभावादप्राप्ते विधिः । सेध इति भौवादिकस्य ग्रहणम् । अभिषेधति । निषेधति । अभ्यषेधत् । न्यषेधत् । चस्य च । अभिषिषेध । निषिषेध । अभिषिञ्चति । अभ्यषिञ्चत् । चेन च व्यवाये-अभिषिषिक्षति। अभिषजति । १. प्रतिषु [ ] कोष्ठकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिस्त्रुटिता । सूत्राणि तु जैनेन्द्र पञ्चाध्यायीमनुसृत्यात्र निर्दिष्टानि । For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ४ सू० ४७-५५] महावृत्तिसहितम् अभ्यषजत् । चेन च व्यवाये-अभिषिषक्षति । अभिष्वजते । अभ्यध्वजत् । चेन च व्यवाये। अभिषिष्वङ्क्षते। गेरित्येव । दधि सिञ्चति । सदोऽप्रतः ॥ ४७॥ अप्रतेर्गः परस्य सदेः सकारस्य षत्वं भवति । अभिषीदति । निषीदति । अभ्याधीदत् । न्यषीदत् । चस्य । अभिविषत्सति । अभिषसादेत्यत्र "सदिस्वज्योः परस्य लिटि" [५।४।४] इति धोः पत्वप्रतिषेधः। अप्रतेरिति किम् ? प्रतिसीदति । स्तम्भः॥१४॥४८॥ गेरिणः परस्य स्तम्भेः सकारस्य षत्वं भवति । अभिष्टभ्नाति । प्रतिष्टभ्नाति । अभ्या: मनात । पर्यष्टभ्नात । चेन च व्यवाये-अभितष्टम्भ । प्रतिताष्टभ्यते । स्तम्भिः सौत्रो धः। तस्य अषोपदेशत्वादप्राते प्रतिषिद्ध वा षत्वे सूत्रं प्रतिसङ्ग्रहार्थम् । उत्तरार्थं च पृथक्करणम् । आलम्बनाविदूरेऽवात् ॥५॥४॥४६॥ अनिणर्थ आरम्भः । अवाद्गेरुत्तरस्य स्तम्भः सकारस्य पत्वं भवति पालम्बने अविदरे चार्थ । अवष्टभ्य श्रास्ते। अवष्टभ्नाति । अवाष्टभ्नात् । अवतष्टम्भ । अविदुरे-अवष्टव्धे सेने । अवष्टब्धा शरत् । श्रालम्बनाविदूरे किम् ? अवस्तब्धो वृषभः । विदूरप्रतिषेधान्नातिदूरमासन्नं च सङ्ग्रहीतम् । वेश्च स्वनोशने ॥२४॥५०॥ वेरवाच्चोत्तरस्य स्वनः सकारस्य पत्वं भवत्यशनेऽर्थे । विष्वणति । सशब्दमश्नातीत्यर्थः । अवष्वणति । व्यष्वणत् । अवावणत् । चेन च व्यवाये -विषप्वाण । अवषष्वाण । विषप्वण्यते । अशन इति किम् ? वित्वनति । अवस्वनति मृदङ्गः। नात्राभ्यवहारविशेषः । परिनिविभ्यः सेवसितसयाम ॥१४॥५२॥ परि नि वि इत्येतेभ्यः परेषां सेव सित सय इत्येतेषां सकारस्य पो भवति । सेव इति भौवादिकः सेवार्थो धुह्यते । परिषेवते । निषेवते । विषेवते । पर्यषेवत । न्याषेवत । व्यषेवत । चेन व्यवाये-परिषिषेविषते । परिषितः । निषितः । विषितः । परिषयः । निषयः। विषयः । पिन बन्धन इत्यस्य क्तान्तस्याजन्तस्य च ग्रहणम् । केचित्तु-सह (योगाकरणान्नियमार्थमेषों) ग्रहणमिच्छन्ति । एतेभ्य एव परस्य पत्वमिति । सेवादीनां स्वरितत्वाभावाद्यथासह ख्यं न भवति । सिवुसहसुट्स्तुस्वञ्जाम् ॥१४॥५२॥ परिनिविभ्यः परेषां सिव सह सुट् स्तु स्वज इत्येतेपी सकारस्य पो भवति । परिषीव्यति । निषीव्यति। विषीव्यति । परिषद्दते । विषहते । निषहते । सुट परिमेव प्रयोजयति । परिष्कर्ता । परिष्करोति । “संपर्युपात्कृतः सुट् भूषे" [१।३।११०] इति सुट् । तस्यानादेशत्वादप्राप्ते इतरयोर्नाद्यन्त इति प्रतिषिद्धे पल्वे वचनम् । गेः परयोः षत्वसिद्धेः स्तुस्वोर्ग्रहणमुत्तरार्थम् । अटो व्यवाये विकल्पो यथा स्यात् । वाटा ॥१४॥५३॥ सिवादीनामटा व्यवाये वा षो भवति । परिनिवेरिति वर्तते । पर्यषीव्यत । न्यपी. व्यत् । पर्यसीव्यत् । न्यसीव्यत् । व्यषीव्यत् । पर्यषहत। व्यसीव्यत् । न्यषहत । व्यषहत । पर्यसहत । न्यसहत । व्यसहत । पर्यष्टौत् । न्यष्टौत् । व्यष्टौत् । पर्यस्तौत् । न्यस्तौत । व्यस्तौत् । पर्यष्वजत । न्यप्वजत । व्यण्वजत । पर्यस्वजत । न्यस्खजत । व्यस्वजत । सिवुसहसयामप्राप्ते स्तुस्वञ्जः प्राप्ते विभाषा ।। निव्यभ्यनुपरेः स्यन्दोऽजीवे ॥१४॥५४॥ नि वि अभि अनु परि इत्येतेभ्यः परस्य स्यन्देः सकारस्य वा पत्वं भवत्यजीवे । परिष्यन्दते । निष्यन्दते । विष्यन्दते । अभिप्यन्दते। अनुष्यन्दते। विस्यन्दते। अभि. स्यन्दते। परिस्यन्दते जलम् । अजीव इति किम् ? अनुस्यन्दते मत्स्यः । अजोय इति पर्युदासोऽयम । जीवा जीवसमुदायो जीवादन्यो भवतीति विकल्पः सिद्धः । अनुष्यन्देते मत्स्योदके । अनुस्पन्देते । अप्राप्ते विकल्पः । वेः स्कन्दोऽते ॥१४॥५५॥ वेरुत्तरस्य स्कन्देः सकारस्य वा पत्वं भवत्यते परतः । विष्कन्ता । .विष्कन्तुम् । विस्कन्ता। विस्कन्तुम् । अत इति किम् ? विस्कन्नः । विस्कनवान् । For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४०८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० ४ सू० ५६-६५ परेः ||५||४|५६ || परेरुत्तरस्य स्कन्दः सकारस्य वा पत्वं भवति । परिष्कन्ता । परिस्कन्ता । तसकेsपि यथा स्यादिति योगविभागः । परिष्करणः । परिष्कन्नः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिस्कन्दः प्राच्यभरतेषु || ५|४|५७ || प्राच्यभरतेषु परिस्कन्द इति निपात्यते । पचाद्यचि पूर्वेण पक्षे प्राप्तस्य पत्वस्याभावो निपात्यते । परिस्कन्दो वहति । प्राच्यभरतेष्विति किम् ? परिष्कन्दः । परिस्कदः । स्फुरिस्फुल्योर्निनिवेः || ५|४|५८ || निस निवि इत्येतेभ्यः परयोः स्फुरि स्फुलि इत्येतयोः सकारस्य वा पकारो भवति । शर्व्यवायेऽपि त्वम् । निःष्फुरति । निःस्फुरति । निष्फुरति । निस्फुरति । विष्फुरति । विस्फुरति । निःष्फलति । निःस्फुलति । निष्फलति । निस्फुलति । विष्फुलति । विस्फुलति । वैः स्कम्भः षः ||५|४|५६ || वेरुत्तरस्य स्कम्नातेः सकारस्य षकारो भवति । विष्कम्नाति । विष्कम्भकः । पुनः ग्रहणं नित्यार्थम् । स्कम्भिः सौत्रो धुः षोपदेशः । इणः षीध्वं लुलियां धो गोर्टः || ५|४|६० ॥ इणन्ताद्गोरुत्तरेषां षीध्वंलुलियां धकारस्य ढकारादेशो भवति । च्योषीढवम् । प्लोवीवम् । श्रच्योदवम् । प्लोवम् । “घि” [ ५।३।४३ ] इति सखम् । चकृट्वे । वत्रृवे । “कृ” [ ५।१।१११] श्रादिनेट्प्रतिषेधः । ण इति किम् ? कवर्गान्मा भूत् । पक्षीध्वम् । यक्षीध्वम् । लुलियामिति किम् ? स्तुध्वे । स्तुध्वम् । लिङीति कर्तव्यं षीध्वमिति किम् ? श्रधीयीध्वम् । स्तुवीभ्वम् इत्यत्र मा भूत् । ध इति किम् ? व्योषी वमित्यत्र परस्यादेर्माभूत् । गोरिति किम् ? परिवेविषीध्वम् । अत्र वोः पकारस्य ईध्वंशब्दस्य च समुदायः षीध्वंशब्दो न तु गोः परः । श्रर्थवग्रहणपरिभाषा चानित्या । तेन "श्रनिनस्मन्प्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन" [१०] इति सिद्धम् । वेटः || ५|४|६१ ॥ इणन्तात् गोरुत्तरो यः इट् ततः परेषां पीध्वंलुलियां धकारस्य ढकारादेशो वा भवति । इट्पक्षे परत्वं श्रुतिकृतमाश्रीयते । लविषीदवम् । लविषीध्वम् । इट इरग्रहणेन ग्रहणात् । पूर्वेण नित्ये प्रा'ते । अलविदवम् । अलविध्वम् । सेरिडागमो न लुङ इति तद्ग्रहणाभावाद् व्यवधानमस्तीत्यप्राप्ते लुलुविट्वे । लुलुविध्वे । श्रत्र लिट एवेडागम इति प्राप्ते विकल्पः । इणन्ताद्गोरित्येव । श्रासिषीध्वम् । उपदिदीयिध्वे इत्यत्र “दीङोऽचि क्ङिति युट्” [४|४|६२ ] इति युटि कृते इणन्ताद्गोरानन्तर्यमिटरसमुदायभक्तेन युटा विहतमिति त्वं न भवति । तस्मान्न नित्यो विधिः । अस्ति त्रेणन्ताद्गोरुत्तरो लिट् तत्सम्बन्धी च यकारः । एवं तर्हि वेति व्यवस्थितविभाषा पूर्वमवलोकते । ततोऽत्रापि विकल्पः । सेऽङ्गलेः सङ्गः || ५|४|६२ ॥ अङ्गुलेरुत्तरस्य सङ्गसकारस्य पत्वं भवति से । सङ्ग इत्यत्र " सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्टः ” [ ५/२/११४ ] इति ङसः स्थाने सुः । अङ्गुलिषङ्गो दृढ़ः । अङ्गुलिषङ्गा यवागूः । । भावे कर्मणि च घञ । इत्येव अङ्गुलेः सङ्गः । श्रङ्गुलिपदात्परस्य पदस्य पत्वारम्भाद्विभक्त्या व्यवधानेऽपि प्रसज्यते । भीरोः स्थानम् ||५|४|६३॥ भीरोरुत्तरस्य स्थानसकारस्य पत्यं भवति से । भीरुष्ठानम् । स इत्येव । भीरोः स्थानम् । अधिकारणे युट् । पृथग्योगकरणं स्पष्टार्थम् । ज्योतिरायुषः स्तोमः || ५|४|६४ || ज्योतिष् श्रायुधू इत्येताभ्यामुत्तरस्य स्तोमसकारस्य पो भवति । ज्योतिष्टोमः | आयुःष्टोमः । " शरि सश्च" [ ५/४/२३] इति विसर्जनीयः सत्यं वा । तस्य ष्टुत्वम् । ज्योतिः स्तोमस्य दाहकम् । स्तुत्सोमौ चाग्नेः || ५|४|६५॥ अग्नेरुत्तरयोः स्तुत् सोम इत्येतयोः स्तोमस्य यः सकारस्तस्य से पो भवति । श्रग्निष्टुत् । क्विवन्तेन वाक्सः । श्रग्नीषोमौ । "गौणमुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् " [१०] इह न भवति । ग्निगुणसगुण अग्निसोमौ मनुष्यौ । श्रत एवाग्नेरीत्वाभावः । अग्निष्टोमः । व्युत्पत्तिपत्रे "नाद्यन्ते " [५/४/७६ ] इति प्रतिषेधः प्राप्तः । For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्र० ५ पा० १ सू० ६६-७१ ] महावृत्तिसहितम् मातृपितृभ्यां स्वसुः || ५|४|६६ ॥ मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृसकारस्य षो भवति । मातृष्वसा । पितृष्वसा । श्रनादेशकारोऽयम् । स इत्येव । वाक्ये न भवति । मातुः स्वसा । पितुःस्वसा । वानुपि || ५|४| ६७ || अनुपि से मातृपितृभ्यामुत्तरस्य स्वसृसकारस्य वा पो भवति । मातुःष्वसा । मातुः स्वसा । पितुःष्वसा । पितुः स्वसा । ताया अनुप् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 गिप्रादुर्भ्यां यच्यतेः || ५|४|६८ || स इति निवृत्तम् । गेरिणः प्रादुःशब्दाच्चोत्तरस्य ग्रस्तेः सकारस्य यकारादी अजादौ च षत्वं भवति । श्रभिष्यात् । निष्यात् । प्रादुःष्यात् । श्रभिषन्ति । निषन्ति । प्रादुःषन्ति । गिप्रादुर्भ्यामिति किम् ? दधि स्यात् । मधु स्यात् । यचोति किम् ? अनुस्वः । ग्रनुस्मः । स्तेरिति किम् ? केवलं सकारं क्रियावाचिनं प्रति गिसञ्ज्ञायां पत्वमत्र स्यात् । अनुसूते इति अनुसूः । श्रनुस्वः श्रपत्यम् ग्रानुसेयः । “चतुष्पाद्भ्यो ढञ् " [३।१।१२३] इति ढञ । “ढेः खम्” [४|४|१३५ ] इति ऊकारस्य खम् । प्रादुःशब्दस्य तु कृभ्वस्तिष्वेव प्रयोगात् प्रत्युदाहरणं नास्ति । निर्दुस्सुः सुपिसूतिसमाः || ५|४|६६ || निस् दुस् सुवि इत्येतेभ्यो गिभ्य उत्तरेषां सुपिसूतिसमानां सकारस्य पो भवति । निष्षुप्तः । दुष्षुप्तः । सुपुतः । विषुतः । निःषूतिः । दुःपूतिः । सुषूतिः । विषूतिः । निःषमः । दुःषमः । सुषमः । विषमः । “गिप्रकरणे सर्वत्र सुदुर्भ्यां योगे पत्वं नेष्यते" इति वचनम् । “सुदुसोः प्रतिषेधो नुंविधिनत्वषत्वणत्वेपु" इति वचनात् । सम इति सर्वादिषु पठ्यते । तस्य "सम ष्टम श्रवैकल्ये " [ धा० ] इत्यनेन व्युत्पत्तिपक्षेऽपि ग्रहणम् । सूतिरिति सूतेः सूयतैः सुवतेश्च क्यन्तमेव रूपं समशब्दसाहचर्याद्गृह्यते । तेन विसृतमित्यादौ पत्वं न । सुपीति विकृतनिर्देशादिह मा भूत् विस्वन इति । विवात् तर्हि कस्मान्न भवति । "हलोऽनादेः " [ ५/२/१६१] इति खे कृते पश्चाज्जिरिति सुपिरत्र नास्ति । नैष युक्तः समाधिः । हलोऽनादेः खात्प्राग्जिर्भवतीत्युक्तम् । एकदेशविकृतस्य चानन्यत्वात् सुपिरेवायमिति प्राप्नोति । स्थादीनामेव चस्य नान्येषामित्यपि नास्ति । सुनोत्यादिषु स नियमो निवर्तकः । एवमप्यनर्थकोऽयं सुपिः । द्विः प्रयोगेऽपि द्वित्वे समुदायस्यैवार्थवत्ता न केवलस्य धोर्नापि चस्य । विषुषुपतुर्विषुषुपुरित्यत्र "पूर्वत्रासिद्धीयमद्विवे" [ ५० ] इति सुपिः षत्वभूतो द्विरुच्यते । रोरित्येव । निर्गता सूतिः निःसूतिः । विकुशमीपरेः स्थलम् ||५|४|७०॥ विकु शमी परि इत्येतेभ्यः परस्य स्थल सकारस्य पत्वं भवति । विष्टलम् । कुष्ठलम् । विकू यदि तिसौ तदा स्थलशब्देनाजन्तेन "तिकुप्रादयः " [१1३1८१] इति सः | प्रतिसञ्ज्ञा चेत्तासः । शमिष्टलमिति सञ्ज्ञायां “त्वे डयापोः क्वचित् खौ च " [ ४।३।१७३ ] इति परिष्टलम् । स्थः श्रम्बाम्बगो भूमिसव्यापद्वित्रिकुशेकुशक्वगुमञ्जि पुञ्जिपरमेबहिर्दिव्यग्निभ्यः || ५|४|७१ ॥ अम्बा अम्ब गो भूमि सव्य ग्रुप द्वित्रि कु शेकु शकु श्र मञ्जि पुजि परमे बहिष् दिवि श्रग्नि इत्येतेभ्यः उत्तरस्य स्थासकारस्य पो भवति । अम्बाष्टः । सञ्ज्ञायां तु " त्वे ङयापोः क्वचित्खौ च" [४|३|१७३] इति प्रादेशे सत्यम्बाष्ठः | अम्बष्ठः । गोष्ठः । गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति घञर्थे कविधानम् । भूमिष्ठः । सव्येष्ठः सारथिः । ग्रपष्ठः । द्विष्ठः । त्रिष्टः । कौ कुत्सितं तिष्ठतीति कुष्ठः । शेकुष्ठः । शङ्कुष्टः । श्रष्टः । मञ्जिष्टः । पुञ्जिष्ठः । परमेष्ठः । बहिष्ठः । दिविष्ठः । श्रग्निष्ठः । सर्वत्र " सुपि " [ २२७] “स्थः " [रारा] इति कः । स्थ इत्यकारान्तो निर्देशः किम् ? गोस्थानम् । गोस्थितिः । अथ सव्येष्ठा सारथिः । परमेष्ठी विधिः । " परमे कित्" [ उ० सू० ] इति इनि च कथं पत्त्रम् ? सुषामादिष्वेतौ द्रष्टव्यौ । “पे कृति बहुलम्” [४।३।१३२] इतीपोऽनुप् । ५२ सुषामादिषु च || ५|४|७२ ॥ सकारस्य षो भवति । स्यतेर्मनि साम । शोभनं सामाऽस्य सुपामा | एवं निःपामा । दुःषामा । सुषेधः । निःषेधः । दुःषेधः | "सुः पूजायां न गिति” [ ११४१७ ] इति सोः निर्दुपोश्च क्रियान्तरविषयत्वादगित्वमिति गिलक्षणं प्रत्वं नास्ति । गित्वेऽपि सेघते: “सेधो गतौ” [५/४/७६ ] For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૦ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ श्र० ५ पा० ४ सू० ७३-७८ इति प्रतिषेधो मा भूत् । सुपन्धिः । निःषन्धिः । दुःषन्धिः । श्रयमनादेशसकारः । सुष्ठु | दुष्ठु । तिष्टतेरौणादिकः कुः | अत्र "नाद्यन्ते" [ ५|४|७६ ] इति प्रतिषेधः प्राप्तः । गौरिसक्थः । “असिसञ्जिभ्यां विधः" [ उ० सू० ] इति क्थिः । गौर्याः सक्थीव सक्त्थि यस्येति इसे “स्वाङ्गाद्वेऽति सक्थनः " [ ४/२/११३ ] इति टः सान्तः । अनङ् । “नोऽपुंसो हृति” [ ४|४|१३० ] इति टिखम् "वे स्थापोः " [४|३|१७३ ] इत्यादिना प्रादेशः । प्रतिष्णिका | प्रतिपूर्वात् स्नातेः "आतो गौ” [२३८८] इति कः । टाप् । तदन्तात् स्वार्थे कः । पुनष्टाप् “केऽणः” [५।२।१२५] इति । प्रत्ययस्थेत्यादिनेत्वम् । नौपेविका । दुन्दुभिसेवनम् । सज्ञैषा । " एति सजायामगकारात् " [ग० सू०] । हरिषेणः । साधुषेणः । एतीति किमर्थः ? हरिसन्धिः । सञ्ज्ञायामिति किम् ? पृथ्वी सेनाऽस्य पृथुसेनः । श्रगकारादिति किम् ? विष्वक्सेनः । इएकोरित्येवा सर्वसेनः । "नक्षत्राद्वा एतिसज्ञायामगकारात् " [ वा० सू० ] | रोहिणिषेणः । रोहिणिसेनः । भरणिषेणः । भरणिसेनः । अगकारादित्येव । शतभिषक्सेनः । श्रविहितलक्षणं षत्वमिह द्रष्टव्यम् । प्रात्यमिङस्ति || ५|४|७३ || प्रादुत्तरस्य अमिङः सकारस्य पो भवति तकारादौ हृति परतः । सर्पिष्टरम् । सर्पिष्टमम् । चतुष्टयम् । सर्पिष्ठा । सर्पिष्ट्वम् । सर्पिष्ठो त्रिभेति । पदान्तेऽपि त्वार्थमिदम् । प्रादिति किम् ? गीस्तरा । धूस्तरा । हृतीति किम् ? सर्पिस्तत्र । अमिङ इति किम् ? भिन्युस्तराम् । छिन्युस्तराम् । तकारादाविति किम् ? सर्पिरसाद् भवति । पूर्वस्य मा भूत् । परस्य "सात्" [ ५१४७७ ] इत्येव प्रतिषेधः सिद्धः । निस्तपतावनासेवने || ५|४|७४ ॥ निसः सकारस्य तपती परतः पो भवत्यनासेवनेऽर्थे । मुहुर्मुहुः क्रियायाः सेवनमासेवनम् । निष्टतं सुवर्णम् । निस्तता अरातयः । सकृत्तता इत्यर्थः । अनासेवन इति किम् ? निस्तपति सुवर्णं सुवर्णकारः । मुहुर्मुहुस्तपतीत्यर्थः । इदमन्यन्ते विधानार्थम् | बुनिर्देशार्थरितपा निर्देशः । निष्णात नदीष्णात प्रतिष्णाताभिनिष्टानकपिष्ठलप्रष्टषिष्टरविष्टारगविष्ठिर युधिष्टिराः || ५|४|७५ || निष्णात नदीष्णात प्रतिष्णात अभिनिष्टान कपिष्टल प्रष्ट विष्टर विष्टार गविष्टिर युधिष्टिर इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । “निनदीभ्यां स्नातस्य कौशले पत्वम्" । निष्णातः काव्यकरणे । नदीष्णातः । नदीनाने कुशल इत्यर्थः । निस्नातनदीस्नातावन्यत्र । योपि "सुपि" [२२७] "स्थः " [२२] इति योगविभागात्के कृते नदीष्ण इति । तस्य सुत्रामादिषु प्रत्वम् । प्रतिष्णातं भवति सूत्र चेत् । प्रतिस्नातमन्यत् । श्रभिनिःष्टानो भवति वर्णश्चेत् । अभिनिर्भ्यां परस्य स्तन ध्वन इत्यस्य कर्तरि घञि रूपम् | अभिनिःस्तन्यत इति श्रभिनिटानो विसर्जनीयः । अभिनिःस्तानोऽन्यः । कपिष्ठलो भवति गोत्रशब्दश्चेत् । कपिष्ठलोऽपत्यं यस्य कापिष्ठलिः । आद्यः पुमानपत्यसन्ततेः प्रवर्तयिता लोके गोत्रम् । ततोऽन्यः कपिस्थलम् । प्रष्ठ इति प्रात् स्थस्य त्वमग्रे ग्रामिरिण प्रतिष्ठते इति प्रष्टो देवदत्तः । प्रष्ठो गौः । प्रस्थ इत्यन्यत्र । अग्रेग्रामिणीत्यत्र " कुमति" [ ५|शह७ ] इति णत्वम् । “न भाभूपूञ्कमिगमि" [ ५|४|११३ ] इति गेः कृत्स्थस्य प्रतिषेधः । “वेः स्तरस्य वृक्षासनयोः पत्वम्" । विष्टरो वृक्षः । विष्टरमासनम् । विस्तर इत्यन्यत्र । “वेः स्तारस्य छन्दोनाम्नि त्वम्" । विष्टारः 1 पङक्तिछन्दः । विष्टारः बृहती छन्दः । "छन्दः खौ” [२१३१३२ ] इति घञ् । पदस्य विस्तार इत्यन्यत्र । “गवियुधिपूर्वस्य स्थिरस्य सञ्ज्ञायां षत्वम्” । गविष्ठिरो युधिष्ठिरो गोशब्दादहलन्तादपि निपातनादीपोऽनुप् । गविस्थिरो युधिस्थिर इत्यन्यत्र । । नान्ते ||५|| ६ || पदस्य आदावन्ते च षत्वं न भवति । दधि सिञ्चति । मधु सिञ्चति । अग्निस्तत्र । वायुस्तत्र । “इण्कोः” [५।४।३७] “त्यादेशयोः” [ ५।४।३१] इति षत्ये प्राप्तै प्रतिषेधः । सात् ||५|४|७७॥ सादित्येतस्य च पत्वं न भवति | अग्निसात् । मधुसात् । सिचो यङि || ५|४|७८ ॥ सिचो यङि परतः पत्वं न भवति । सेसिच्यते । “त्यादेशयोः " [५/४/३६ ] इति प्राप्तिः । अथामिसेसिच्यते परिसेसिच्यते इत्यत्र गिलक्षणं षत्वं कस्मान्न भवति ? "येन For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ४ सू० ७६-८६ ] महावृत्तिसहितम् नाप्राप्तन्यायेन" [५० ] "नाद्यन्ते" [५।४।७६] इत्यस्यैव प्रतिषेधस्य बाधकं गिलक्षणं न सिचो यीत्यस्य । अथवा "पुरस्तादपवादा अनन्तरान विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्" [५० ] इति यङि सर्वत्र प्रतिषेधः । यडीति किम् ? परिधिषिक्षति ।। सेधो गतौ ॥२७॥ सेधतेर्गत्यर्थस्य पत्वं न भवति । अभिसेधति । प्रतिसेधति गाः। “स्थासेन. यसेध" [५॥१४६] इत्यादिना प्राप्तस्य प्रतिषेधः । गताविति किम् ? प्रतिषेधति पापम् । निवारयतीत्यर्थः । निस्तब्धप्रतिस्तब्धौ ॥१०॥ निस्तब्ध प्रतिस्तब्ध इतीमौ शब्दौ निपात्येते । निस्तब्धः । प्रतिस्तब्धः। क्त परतः “स्तम्भः" [५।४।४८] इति प्राप्ते प्रतिषेधः । सोढः ॥२४८१॥ सहेः सोढभूतस्य पत्वं न भवति । परिसोढा। परिसोढुम् । एवं निसोढा । विसोढा । परिनिविभ्यः “सिवुसहसुट्स्तुस्वाम्" [५॥४५२] इत्यनेन प्राप्तिः। सोढभूतस्य ग्रहणं किम् ? परिषहते । निषहते । सोढ इति सहेः सोढभूतस्यानुकरणं ङसा निर्दिष्टः। । स्तम्भुसिवुसहां कचि ॥२४॥८२॥ स्तम्भु सिवु सह इत्येतेषां कचि परतः षत्वं न भवति । अभ्यतस्तम्भत् । पर्यतस्तम्भत् । “स्तम्भः" [५।४।४८] इन्यटा चेन च व्यवाये गिनिमित्तं प्रतिषिध्यते । सिवुसहोस्तु परिनिविभ्यः परयोः “वाटा" [५।४।५३] इति विकल्पः प्राप्तः। पर्यसीषिवत् । न्यसीषिवत् । पर्यसीषहत् । न्यसीषहत् । सर्वत्र गियुक्तापिणच क्रियते। गिलक्षणस्य षत्वस्यायं प्रतिषेधो न तु "त्यादेशयोः' [५/४॥३६] इत्यनेन चादुत्तरस्य व्यवहितत्वात् । सुत्रः स्यसनोः ॥२४॥३॥ सुनोतेः सकारस्य स्य सन् इत्येतयोः परतः पत्वं न भवति । अभिसोष्यते। परिसोष्यते । अभ्यसोष्यत । पर्यसोष्यत । सनि । सुसूषति। नैतयुक्तम् । “पणि चाणिस्तोरेव" [५४४१] इति नियमादत्राप्राप्तिः। इदं तर्हि अभिसुसूषति । अत्रापि “स्थादेश्चेन चस्य" [५।४।४४] इति नियमादप्राप्तिः । तत्रोक्तम् । गिनिमित्तं स्थादीनामेव षत्वं नान्यस्यति । क्विपि तह्य दाहरणम् । अभिसुसूः । रित्वे विसर्जनीये च कृते "पणि" [५॥४१४१] इति नियमाभावाच्चात्परत्य प्राप्तं षत्वं प्रतिषिध्यते । स्यसनोरिति किम् ? सुषाव । सदिस्वज्योः परस्य लिटि ॥४४॥ सदि स्वञ्जि इत्येतयोलिटि परत्य षत्वं न भवति । अभिषसाद | निषसाद । अभिषस्वजे। निषस्वजे। “लिटि स्वञ्जा न खं भवतीत्युपसंख्यातव्यम् वा अभिषष्वजे । विषष्वजे । सदेश्चेन व्यवाये “सदोऽप्रतेः" [५।४।४७] इति स्वजेस्तु "स्थासेनय" [५४४६] इत्यादिना पत्वे प्राप्त प्रतिषेधः।। षो नो रणः समाने ॥५॥४८॥ पदस्यति वर्तमानं समान इत्यनेन समानधिकरणं जायते । षकाररेफाभ्यामुत्तरस्य नकारस्य णकारादेशो भवति समाने पदे चेनिमित्तनिमित्तिनौ भवतः। कुष्णाति । मुष्णाति । आस्तीर्णम् । विस्तीर्णम् । समान इति किम् ? मुनि यति । साधु यति स्वर्गम् । “धिन्विकृण्व्योर च" [२१११७५] इत्यत्र णत्वनिर्देशात् ऋकारादपि परस्य णत्वं भवति । तिसृणाम् । मातृणाम् । षकारग्रहणमुत्तरार्थम् । अव्यवाये ष्टुत्वेनापि सिद्धमेतत् । अकुप्वाब्यवायेऽपि ॥४॥८६॥ अट् कु पु आङ इत्येतैव्य॑वाये अव्यवायेऽप्यनेन षकाररेफा. भ्यामुत्तरस्य नकारस्य णो भवति । अट । वर्षेण | वृषेण । गिरिणा । मेरुणा । कु । निष्केण । शुष्केण । अर्केण । मूर्खेण । वर्गेण । दीर्घण । पु। पुष्पेण । सर्पण । दर्पण । रेफेण । गर्भेण । दर्भेण । धर्मेण । अाङ । पर्याणद्धम् निराणीतम् । अडग्रहणेनैव सिद्धे आङ् ग्रहणं "पदव्यवायेऽपि" [५।४।११६] अस्य बाधनार्थम् । अडादिप्वेकेनाकेन च व्यवाये णत्वं ज्ञातव्यम् । उभयथा वाक्यपरिसमाप्तेराश्रयणात् । यथा गर्गः सह न भोक्तव्यमेकेनाकेनेन च सह न भुज्यते । इह कथं णत्वम् बृंहणम् । बृहणीयम् । “तृहू स्तृहू हू हिंसाः " । Bहणम् । तृहणीयमिति । अनुस्वारस्यायोगवाहत्वादडग्रहणेन ग्रहणमिति णत्वम् । तदुक्तम्-"अयोगवाहो यब्रेष्टस्तत्र तत्र For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ ० ५ पा० ४ सू० ८०-६० तदा भवेत्" इति । "रिवि रवि गतौ” इत्यस्य । रिश्वनम् । रिश्वनीयम् । झल्परत्वाभावादनुस्वारी नास्तीति गत्वाभावः । तुम्फणम् । तृम्फणीयमित्यत्र परस्वत्वस्यासिद्धत्वादनुस्वारोऽस्तीति णत्वं भवति । पूर्वपदात् खावगः ॥ ५२४८७|| खु इति वर्तते । षकाररेफवतः पूर्वपदात् श्रगकारान्तात् उत्तरस्य नकारस्य णो भवति खुविषये । पुष्पणन्दी । श्रीणन्दी । श्रीनन्दिशब्दस्य क्षुम्नादिषु णत्वं निषिद्धम् । खरसः । वासः । खाविति किम् ? शुष्कनासिकः । दीर्घनासिकः । श्रग इति किम् ? ऋगयनम् । क्षुम्नादिषु नृनमनतृप्नोतिशब्दयोः प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम् ऋकारस्था फादजंशेन व्यवहितत्वात् पदस्य णत्वं भवतीति गत्यप्राप्तिः । नियमार्थोऽयं योगः । पूर्वपदात्खावेव नान्यत्र । अथ पूर्वपदादेव खाविति कस्मान्न नियमो भवति । एवं सति खुनियमः स्यात् । अखुविषये पूर्वेण गत्वसिद्धेः " वाह्याद्वाहनम् " [ ५/४६२] इत्याद्यारम्भोऽनर्थकः स्यात् । त्र से कृते समुदायाद्या विभक्ती तया समुदायस्यैकपदत्वे पूर्वेण प्राप्तिरस्तीति नियमो घटते । पूर्वपदत्वं तु स्मर्यमाणाव यवापेक्षम् । पूर्वपदशब्दश्च सम्बन्धिशब्दः । तेनोत्तरपदस्थस्य नकारस्य णत्वं नियमो निवर्तयति न पूर्वपदस्थस्य नापि त्यस्थस्य । करणप्रियः । खारपायणः । करणं प्रियमस्य । खरपस्यापत्यमिति विग्रहः । श्रग इत्यनन्तरस्य प्रतिषेधः प्राप्नोतीति चेत् ; तत्र को दोपः ? खौ चाखौ च पूर्वेण णत्वं स्यात् । एवं तर्हि श्रग इति योगविभागः । तेन विधिनियमयोः प्रतिषेधः । ai पुरगामिश्रकासिद्ध काशारिकाकोटराग्रेभ्यः || ५|४|८८ || खाविति वर्तते । पुरगा मिश्रका सिद्धका शारिका कोटरा श्रम इत्येतेभ्यः परं वनं विनम्यते । विनाम इति पत्वगत्वयोः सञ्ज्ञा । पुरगावणम् । मिश्रकावणम् | सिद्धकावणम् । शारिकावणम् । कोटरावणम् । तासे कृते पूर्वपदस्य " गिरिवने किंशुलुककोटरायोः खौ” [४।३।२२०] इति दीत्वम् । वनस्याये वणम् | "राजदन्त” [१।३।६६ ] श्रादित्वात्पूर्वनिपातः । "ईपोल: ” [ ४ | ३|१२७] इत्यनुप् । “सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः " । एतेभ्य एव वनं विनम्यते नान्येभ्यः । मनोहरवनम् । अथ पुरगादिभ्यो वनमेव विनम्यते नान्यदिति कस्मान्न नियमः । एवं सति पुरगादिनियमः स्यात् । वनं त्वनियतं तस्य खौ पूर्वेणैव त्वं सिद्धमित्युत्तरसूत्रे खावपि प्रादिभ्यः परं वनं विनम्यत इत्यपिशब्दोऽनर्थकः स्यात् । ज्ञायते पुरगादिभ्य एव वनं विनम्यते इति नियमः । पुरगादीनां कृतदीत्वानामुच्चारणं किम् ? यत्र व त्वं तत्रैव त्वं यथा स्यात् । इदमेव ज्ञापकमनित्यं श्रौ दीत्वमिति तेन लम्बकर्ण: । विद्भकः । अलिरुक् । कमलरु इत्येवमादि सिद्धम् । प्रान्तर्निः शरे क्षुप्लताम्रकार्ण्यखदिरपीयूक्षाभ्योऽखावपि ॥ ५४८९ ॥ प्र अन्तर् निस् शर इतु लक्ष आम्र का खदिर पीयूक्षा इत्येतेभ्यः परं वनं विनम्यते श्रखावपि खावपि च । प्रवणम् । अन्तर्वणम् । निर्वणम् । शरवणम् । इक्षुवणम् | प्लक्षवणम् । कार्ण्यवरणम् । खदिरवणम् । पीयूक्षावरणम् । प्रगतं वनम्, अन्तर्गतं वनम् निर्गतं वनमिति विग्रहः । शरवणादिषु तासः । ये योषधिवनस्पतिशब्दा न भवन्ति तेभ्यः खौ सौ च पूर्वाभ्यामप्राप्ते विधिः । भोषधिवनस्पतिशब्देभ्यस्तु खावप्रासे विधिः । श्रखौ तूत्तरसूत्रेण विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थं वचनम् । अपिशब्दस्य पूर्वसूत्रे प्रयोजनमुक्तम् । विभाषौषधिवनस्पतिभ्यः || ५|४|१०|| ओषधिवनस्पतिशब्देभ्यः परं वनं विभाषा विनम्यते । पधिभ्यः- दूर्वावणम् । दूर्वावनम् | ब्रोहिवणम् | त्रीहिवनम् । वनस्पतिभ्यः - करीखणम् । करीवनम् । आरुकवणम् । श्रारुकवनम् । व्यवस्थितविभाषाऽऽश्रयणात् द्वयक्षरत्र्यक्षरयोविकल्पः । तेनेह न भवति । भद्रदारुवनम् | "ईरिकादिभ्यश्च न भवति" [वा०] । ईरिकावनम् । तिमिरवनम् । समीरवनम् । खौ पुरगादिभ्य एव वनं विनम्यते इत्यखावियं विभाषा । स्रौ त्वसिद्धत्वान्नियमेन बाध्यते । यदि खावपि प्रयोगोऽस्ति विभाषेति योगविभापान्नियमबाधा द्रष्टव्या । बहुत्वनिर्देश: पर्यायार्थः । इह वनस्पतिग्रहणे वृक्षाणामपि ग्रहणम् । यतः --- "फली वनस्पतिर्ज्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।” For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ४ सू० ६१-६६ 1 महावृत्तिसहितम् ४१३ वनस्पतिरिति वनस्पतिग्रहणं कृतम् । एतेभ्य इति वनम् । “वरणादेः " [३।२।६२] इत्युप् । उपि कृते सङ्ख्ययोरेवातिदेशो न वनस्पतित्वस्येति गत्वाभावः । पुष्पफले अन्यतरच्चोपगच्छन्ति ये ते वृक्षाः । तत्र यो वनस्पतिः स वृक्षो भवत्येव । वृक्षस्तु नावश्यं किम् ? शिरीपवनम् । शिरीषाणामदूरभवो ग्रामः तस्य "युक्तत्रदुसि लिङ्गसङख्ये" [919185 ] इत्यनेन लिङ्ग श्रतोऽह्नः ||५|४|६१॥ अकारान्तात्पूर्वपदादुत्तरस्य ग्रनो नकारस्य णत्वं भवति । पूर्वाह्णः । अपराह्णः । " पूर्वापर प्रथम " [ २|३|५३ ] आदि सूत्रेण पसः । " राजाहः सखिभ्यष्टः " [ ४/२/६३] इति टः । “एभ्योऽह्नोऽह्नः” [४।२।६० ] इत्यहूनादेशः । श्रत इति किम् ? निरह्नः । दुरह्नः । निर्गतमहः । दुष्टमहः । तपरकरणं किम् ? परावृत्तमहः पराहूनः । ग्रह्न इति सूत्रे वृत्तिघटितैकदेशो वान्तः । “सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्टः” [ ५/२/११४ ] इति तास्थाने वानिर्देशाद् व्याख्येयः । ग्रहून इति प्रकारान्तनिर्देशाद्दीर्घाहूना शरदित्यत्र न भवति । दीर्घाभ्यहान्यस्यामिति यसे " बोड्खे” [३|१|११] इति वा ङीविधिः । वाह्याद्वाहनम् ||५|४|१२|| कालसामान्ये वोढव्यं वाह्यम् । वाह्यादुत्तरस्य वाहनस्य त्वं भवति । ऊह्यतेऽनेनेति वहनम् । प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकोऽण् । अतो वा निपातनादुङो दीत्वम् । इक्षुवाहणम् । शरवाहम् । कर्मणि तासः । वाह्यादिति किम् ? सुवाहनम् । सुरस्वामिकमित्यर्थः । एवं नरवाहनः । नात्र वाह्यात्परं वाहनम्, किन्तु वाहनात् । वाह्यवाहकसम्बन्धे त्वं भवत्येव । सुवाणम् । नरवादण्म् । खौ पूर्वेण सिद्धं त्वं नरवाह इति । पानं देशे || ५|४|१३|| पाननकारस्य णत्वं भवति देशे गम्ये । सर्वत्र पूर्वपदस्थान्निमित्तादिति वर्तते । कृपायपोणाः गान्धारयः । क्षीरपाणाः आन्ध्राः । सौवीरपाणाः द्रमिणाः । सुरापाणाः प्राच्याः । अतिशयोऽत्र गम्यते । तात्स्थ्यात्ताच्छच्यमिति मनुष्याभिधाने देशाभिधानम् । पौयते इति पानम् । “बुढैया बहुलम्" [२|३|१४] इति कर्मणि युट् । कपायं पानमेषामिति कर्तरि ता । देश इति किम् ? दाक्षिपानम् । क्षीरपाना गोपालकाः । भावकर || ५|४|१४|| भावे करणे च यः पानशब्दस्तन्नकारस्य वा त्वं भवति । भावे-क्षीरपाणन् । क्षीरपानं वर्तते । करणे - पीयतेऽनेनेति पानः । वारिपाणः । वारिपानः कंसः । वेति योगविभागाद्द्विरिनद्यादि वा त्वम् । चक्रगदी । चक्रनदी । चक्ररिणतम्बा । चक्रनितन्त्रा । मृदन्तनुविभक्त्याम् ||५|४|१५|| मृदन्ते नुमि विभक्त्यां च यो नकारः तस्य पूर्व स्थान्निमित्ताद् वा णत्वं भवति । मृदन्ते - माप्रवापिणौ । माषवापिनौ । त्रीहिवापिणौ । त्रोहियापिनौ । “प्रायोऽभी चण्ये" [२|२| ६६ ] इति णिन् । नुमि । भाषवापाणि । मापवापानि । “ लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव " [५० ] इति नुमो मृदन्तग्रहणेनाग्रहणम् । विभक्त्याम् - मानवापेण । मापवापेन । व्रीहिवापेण । त्रीहिवापेन । नियमादप्राप्ते विकल्पः । पूर्वपदादिति वर्तते तेन सम्बन्धादुत्तरपदं यन्मृत्सञ्ज्ञं तदन्तस्य विकल्पः । तेनेह न भवति । गर्गाणां भगिनी गर्गभगिनीति | यदा यु गर्ग भगशब्दान्मत्वर्थीय इन् तदा त्वं भवत्येव । गर्गभगिणीति । "पूर्वपदात्खावगः” [५।४।८७] इत्यनेनोत्तरपदस्थस्य नकारस्य णत्वं निवर्त्यते । न त्यस्थस्येत्युक्तम् । यथा मातृभोगीण इत्यत्र समुदायस्य समान | पुरुवारिणी इत्यत्र विकल्पस्य बहिरङ्गत्वादसिद्धत्वाच्चादिसूत्रेण नत्वम् । मात्रवापिणा मापचापिना इत्यत्र पूर्वपदस्थान्निमित्तात्परस्य विधिरिति । मृदन्तत्वाद्विकल्पः । वेति व्यवस्थितविभाषाऽनुवर्तनादिह न भवति । श्राचार्ययूना | क्षत्रिययूना । प्रपक्कानि । परिपक्वानि । दीर्घाही शरदिति । एकाच्यौ गः ॥ ५२४|६६ || एकाचि यौ पूर्वपदस्थान्निमित्तात्परस्य मृदन्तनुविभक्तीन कारस्य कारो भवति । ब्रह्मणौ । वृत्रहणौ । क्षीरपाणि । सुरापाणि । चीरपेण । सुरापेण । "श्रातः कः " For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ४ सू० ६७-१०१ [२१२।३] इति कः। सुरायां वाचि पिचतेः “सुराशीध्वोः पिबः" [२।२।१२] इति टक् । पुनर्णग्रहण नित्यार्थम् । कुमति ॥१४॥७॥ कवर्गवति च द्यौ मृदन्तनुविभक्तीनकारस्य णत्वं भवति । इक्षुयुगिणौ । करयुगिणी । इक्षुयुगेण । अनेकाध्वर्थं वचनम् । काविति सिद्ध कुमतीति मत्वर्थीयः किम् ? अकवर्गादावपि घौ प्रापणार्थम् । अन्यथा “येनालि विधि" न्यायेन कवर्गादावेव स्यात् । गेरसेऽपि विकृतेः ॥२८॥ गेरुत्तरस्य सामर्थ्याद्धोर्विकारस्यासेऽपि णो भवति । असे । प्रणमति । परिणमति । से-प्रणायकः । परिणायकः । विक्रियते इति विकृतिः नकारः। अवयवविकारे समुदायस्य धोर्विकारो यथैकदेशाऽलङ्कारेऽलङ्कतो देवदत्त इति । ततो विकृातें प्रति क्रियायोगिस्वात् प्रादीनां गित्वम् । गेरिति किम् ? मुनिर्नयति स्वर्गम् । प्रगता नायका अस्माद्ग्रामात् प्रनायको ग्रामः । अपिग्रहणं किम् ? से पूर्वपदात् खाविति नियमात् णत्वं न स्यात् । ननु णत्वस्यासिद्धत्वान्न नियमप्राप्तिः। इदमेवापिग्रहणं ज्ञापकम् । "न योगे योगोऽसिद्धोऽपि तु प्रकरणे प्रकरणमसिद्ध' भवति"। तेन निष्कृतं दुष्कृतमित्यत्र “इणः षः" [५।१।२७] इति पत्वे क्रियमाणे "इडुदुङः" [पा४।२८] इति सत्वं नासिद्धम् । विकृतेरिति किम् ? प्रनृत्यति । प्रनर्तकः । अयमोपदेशिको नकारो न तु "णो नः" [४३३५४] इत्यनेन विकृतः । "नृतिनन्दिनक्किनानाथवजम्" इति वचनात् । नशेः शः ॥ ६६॥ नशेः शकारान्तस्य णत्वं भवति । प्रणश्यति । परिणश्यति । प्रणाशकः । परिणाशकः । श इति किम् ? प्रनष्टः । प्रनयति । शकारत्यैवेति नियमात् णत्वाभावः । नशेरेव शकारान्तस्येति कस्मान्न नियमः। अन्यस्य शकारान्तस्यासम्भवात् । सम्भवे वा णत्वोपदेशादेव व्यावृत्तिः । णत्वोपदेशो हि "णो नः" [४।३।५४] इति विकृतिद्वारेण णत्वार्थः । नेर्गदनदपतपदभुमास्यतिन्तियातिवातिद्रातिप्सातिवपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु ॥शा००॥ गिस्थानिमित्तात परस्य गे कारस्य णत्वं भवत्यसेऽपि गदादिष परतः ।। परिणिगदति । सेऽपि । प्रणिगदिता | परिणिगदिता । प्रणिनदति । प्ररिणिनदति । प्रणिनदिता। परिणिनदिता । प्रणिपतति । प्रणिपतिता । प्रणिपद्यते । प्रणिपत्ता | भुसज्ञे-प्रणिददाति । प्रणिदाता । प्रणिदधाति । प्रणिधाता। मा इति माङमेडोहणम् । प्रणिमिमीते। प्रणिमाता। मेङः कृतात्वस्यैव ग्रहणम् । प्रगिमास्यते। प्रणिमाता । "मी हिंसायाम्" । “दुमि प्रक्षेपणे" इत्यनयोः "मिम्मीग्दीडां प्ये च" [१३१४३] इति कृतात्वयोः “मा माने" इत्यस्य च न ग्रहणम् । अस्य शेषत्वेनोत्तरत्र वेति व्यवस्थितविभाषाऽत: सर्वमिदं लभ्यते । प्रणिष्यति । प्रणिपाता | प्रणिहन्ति । प्रणिहन्ता । प्रणियाति । प्रणियाता । प्रणिवाति । प्रणिवाता। प्रणिद्राति । प्रणिद्राता । प्रणिप्साति । प्रणिप्साता। प्रणिवपति । प्रणिवप्ता। प्रणिवहति । प्रणिवोढा । प्रणिशाम्यति । प्रणिशमिता । प्रणिचिनोति । प्रणिचेता । प्रणिदेग्धि । प्रणिदेग्धा । गदादिष्वीम्निर्देशादनन्तरत्य कार्यमित्यटा व्यवाये कथं णत्वम् । प्रण्यगदत् । परिण्यगददिति । अडागमश्च गोर्विहितो विकरणान्तश्च गुरशक्यो गदग्रहणेन ग्रहीतुमिति । नैष दोषः । अड्व्यवाये इति मण्डूकप्लुत्या सम्बध्यते । तिपा निर्देशा यकुबन्तनिवृत्त्याः । घाऽषान्तेऽकखादौ ॥५।४।१०१॥ गेरिति वर्तते । अषकारान्ते अककारखकारादौ धौ परतः गिस्थानिमित्ताद्वा नेो भवति । प्रणिपचति । प्रनिपचति । परिणिभिनत्ति । परिनिभिनत्ति । अषान्त इति किम् ? प्रनिपेष्टा । अन्तग्रहणामुपदेशार्थमिहापि न भवति । प्रनिपेक्ष्यति । प्रच्छेश्छकारान्तत्वाद भवति । प्रतिप्रप्टा। अकखादाविति किम् १ प्रनिकरोति । प्रनिखादति । अचापि अकखोरिति सिद्धे आदिग्रहणमुपदेशार्थम् । प्रनिचकार । प्रनिचखाद । For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ५ पा० ४ सू० १०२-११०] महावृत्तिसहितम् ४१५ हिम्योर्नुनोः ॥१४।१०२॥ हि मी इत्येतयो? नुनौ तयोर्णत्वं भवति गिस्थान्निमित्तात् । प्रहिणोति । प्रहिणुतः । प्रमीणाति । प्रमीणीतः । एबीत्वयोः कृतयोः एकदेशविकृतस्यानन्यत्वाएणत्वम् । प्रानि ॥१४।१०३॥ आनीत्येतस्य धोः परस्य णो भवति । आनि प्रति गित्वाभावादिह गिग्रहणं आदिमात्रोपलक्षणम् । प्रवपाणि । प्रापयाणि । अर्थवग्रहणपरिभाषयाऽर्थवत एव नेर्ग्रहणादिह न भवति । प्रवृद्धा वपा येषां तानि प्रवपानि मांसानि | आनीत्यविभक्तीको निर्देशः। __णोऽनितेः ॥१४॥१०४॥ गेः परस्यानितेनंकारस्य णो भवति । प्राणिति । पर्यणिति । अड्व्यवायेऽपि । पर्याणीत् । पुनर्णग्रहणमपवादविषयेऽपि णत्वार्थम् । हे प्राण ? इति । क्रथन्तस्य किः । “अन्तस्य" [५३१११५] इति प्रतिषेधः प्रातः । तिपा निर्देशो यकुबन्तनिवृत्त्यर्थः । __ सचस्योभौ ॥४॥१०५॥ सचस्यानितेरुभौ नकारौ विनम्यते । गेरिति वर्तते । प्राणिणिपति । पराणिणिपति ! पराणिणत् । अत्र द्वित्वे कृते चरूपेण व्यवधानाद्धो कारस्य न प्राप्नोतीत्येवमर्थं सूत्रम् । उभौग्रहण किमर्थम् ? यावता पूर्वनकारस्य पूर्वसूत्रेण णत्वं सिद्धम् । धोस्त्वारम्भसामर्थ्यान्नकारस्य व्यवधानेऽपि भविध्यति । नापि द्वितीयस्य णत्यमुच्यमानं पूर्वस्यापवादः । सचस्येति बसनिर्देशात् । अन्यथा चादित्येवोच्येत । नियमार्थं ता भौग्रहणम्-गेरनन्तरमुभयोरेव णत्वं न तृतीयस्य । प्राणिणिषयतेः लुङि कचि च कृते पुनः कचि द्वित्वे सति प्राणिणिनिषत् । ननु च "पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे" इति वचनात् कृतणत्वस्य द्वित्वे सति उभयोर्णत्वं लभ्यत इति नार्थोऽनेनेति उभौग्रहणार्थं तर्हि सूत्रं कर्तव्यम् । न च "पूर्वबासिद्धीयमद्वित्वे" इतीदं सर्वविषयम् अन्यथा श्रौजिढदित्यत्र ढत्वधत्वष्टुत्वढखानामसिद्धत्वाभावात् इति इत्येतस्य द्वित्वं न स्यात् । हन्तेरघः ॥२४॥१०६॥ घर्तिस्य हन्ते कारस्य णो भवति । गेरिति वर्तते । प्रहण्यते । परिहणनम् । अन्तःशब्दस्य गिसञोक्ता । अन्तर्ह एयते । अन्तहणनम् । उत्तरत्र वेति व्यवस्थितविभाषावलोकनात देशविषये न भवति । अन्तहेननो देशः । अघ इति किम् ? प्रघ्नन्ति । प्राधानि । “धनान्तर्धण" [२।३।६६] आदि सूत्रे अन्तर्पणादीनां निपातनाएणत्वम् । अघ इति योगविभागात् । हन्तेग्यपूर्वस्यैव णलम् । तेनेह न भवति । वृत्रन इति । सज्ञायां “पूर्वपदात्वावगः" [५४८५] इति णत्वं प्राप्तम् । असज्ञात्वे "एकाज द्यौ णः" [५।४।६६] इति । वा म्बोः ॥५।४।१०७॥ मकारवकारयोः परतः हन्ते कारस्थ वा णत्वं भवति । प्रहरवः । प्रहन्यः । प्रहएमः। प्रहन्मः । वाग्रहणं पूर्वविधीनां नित्यार्थम् । कृत्यचः॥१४|१०८॥ कृत्स्थो यो नकारः तस्याच उत्तरस्य णो भवति स चेन्नकारपरो भवति गिस्थान्निमित्तात | कृतीति नकारस्य विशेषणं नाचः । कृत्सज्ञकाच्चाचः परस्य नकारस्य णत्वं भवतीत्यर्थः। प्रयाणम् । प्रवहणम् । प्रयायमाणम्। प्रयाणीयम्। अप्रयाणिर्हन्त ते वृषल । प्रयायिणः । प्रहीणः । प्रहीणवान् । अन्तःशब्दस्य गित्त्वे अन्तर्याणम् । अन्तरयणम् । वेति व्यवस्थितविभाषाभिसम्बन्धादिह न भवति । अन्तरयनो देश इति । इहापि भवति । निर्विष्णः प्राबाजीदिति । अच इति किम् ? प्रभुग्नः । णे ॥१४।१०६॥ एयन्ताद्यो विहितः कृत्तत्स्थस्याच उत्तरस्य नकारस्य वा णत्यं भवति । गेरिति वर्तते । प्रयापणम् । प्रयापनम् । ननु प्रयाप्यमाण इत्यत्र यका व्यवहितत्वात् कथं कृतो णत्वम् ? अव्यवाय इति वर्तते । ण्यन्ताद्विहितस्य कृतो व्यवायेऽपि णत्वं भविष्यति । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पोऽयम् । हलश्चेजुङः ॥५४।११०॥ इजुङः सर्वस्य हलन्तत्वात् हल्ग्रहणमादिविशेषणम् । हजादेरिजुङो धोः परस्य कृति नकारस्य वा णत्वं भवति गेनिमित्तात् । प्रकोपणम् । प्रकोपनम् । प्रमोदणम् । प्रमोहनम् । "कृत्यचः [५।४।१०८] इति नित्ये प्राप्ते विकल्पः । For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् [अ० ५ पा० ४ सू० १११-१२३ [संनुम इजादः ॥२४|१११॥ निंसनिक्षनिन्दो वा ॥१४११२॥ न भाभूपूकमिगमिप्यायीवेपाम् ॥१४|११३॥ षात् पदान्तात् ॥श४।११४॥ अन्तस्य ॥४।११५॥ पदव्यवायेऽपि ॥५।४।११६॥ ] शुभ्नादिषु ॥४।११७॥ तुम्ना इत्येवमादिषु शब्देषु नकारत्य णकारादेशो न भवति । शुभ । तुभ्नाति । नृप । नृप्नोति । इदमेव ज्ञापकम् । नृपिः स्वादावयस्ति । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् तुम्नीतः । क्षुम्नन्ति । नृप्नुतः। नृप्नुवन्ति । विकरणान्तनिर्देशः किम् ? क्षोभणम् । तर्पणम् । नन्दिन् । नन्दन नगर इत्येतेषां "पूर्वपदात्वावगः" [५।४।८७] इति णत्वं प्राप्तम् । हरिनन्दी। हरिनन्दनः । गिरिनगरम् । नर्त्तन नदन गहन निवेश निवास अग्नि अनूप एतान्युत्तरपदानि सज्ञायामेव । परिनतनम् । परिनन्दनम् । भेरीनदनः । परिगहनम् । शरनिवेशः । शरनिवासः । शराग्निः । दर्भानूपम । प्राचार्यभोगीनः । “श्राचार्यादणत्वं च” [ग० सू०] । श्राचायोनी । “चतुहायनी वयसि द्रष्टव्या" [वा०] । “ईरिकादीनि च वनोत्तरपदानि सञ्ज्ञायाम्" [वा०] । ईरिका | तिमिर । समीर । कुवेर । हरि । कार । इति ईरिकादिः। प्राचार्ययूना। क्षत्रिययूना। दीर्घाहनी शरदिति । अविहितलक्षणो णत्वप्रतिषेधः क्षुभ्नादिषु द्रष्टव्यः । न नृतेर्यङि ॥५॥४।११८॥ नृतेर्यङि णचं न भवति । नरीनृत्यते । नरीनृत्येते । नरीनृत्यन्ते । त्यस्खे । त्याश्रयात् । नर्ति । नरिनर्ति । नरीनतिं । स्तोः श्चुना श्चुः ।।४।११६॥ सकारतवर्गयोः शकारचवर्गाभ्यां योगे शकारचवर्गों भवतः। अत्र स्थान्यादेशयोयथासंख्यम् , स्थानिनिमित्तयोस्तु नेष्यते । “शात्" [५/४/१२३] इति तवर्गस्य चत्वं प्रतिषेधाज्जायते । सकारस्य शकारेण । जिनालयश्शोभते । तस्यैव चवगेण | धन्यश्चिनोति पुण्यम् । श्रोबश्चू | वृश्चति पापम् । मुनिश्छिनन्ति कर्मबन्धम् । तवर्गस्य शकारेण । अग्निचिच्छेते। छत्वमसिद्धमिति शे चुत्वम् । पूर्वेण शकारेण । "शात्" [५।४।१२३] इति प्रतिषेधं वक्ष्यति । तवर्गस्य चवर्मेण । तत्त्वविच्चिनोति । तत्त्वविच्छादयति । तत्त्वविजयति । सरिज्झापः । भवाञकारीयति । श्चाविति सिद्धे श्चुनेति निर्देशः शादिति प्रतिषेधश्च ज्ञापकः। परेण पूर्वेण च चुना योगे चुत्वमिति । तेन राज्ञः । याआ। “मस्जिनशोझलि" [५/१॥३६] इति निर्देशात् मजति । भृज्जतीत्यत्र चुत्वे कर्तव्ये जश्त्वं नासिद्धम् । टुना ट्रः ॥५॥४।१२०॥ सकारतवर्गयोः षकारटवर्गाभ्यां योगे पकारटवर्गों भवतः । अत्रापि “न तोः पि" [५।४।१२२] इति प्रतिषेधात् स्थानिनिमित्तयोयथासङ्ख्याभावः। सकारस्य षकारेण । कष्षण्डे । तस्यैव टवर्गेण । अश्वष्टीकते । पुरुषष्टक्वयति । तवर्गस्य पकारेण परेण प्रतिषेधं वक्ष्यति । पूर्वेणा पेष्टा । पेष्टुम् । तवर्गस्य टवर्गेण | बृहट्टङ्कः । अट्ट अट्टते। तकारोपदेशः विपि स्फान्तखे च कृते श्रवणार्थः । मरुड्ढक्वयति। अड्ड । अड्डति । श्वाविद्वौकते । भवाण्याकारोयति । पदस्य टोर्नाम्नवतिनगरी ॥५॥४।१२१॥ पदस्य टोः परेषां नाम्नवति नगरी इत्येतेषां टुत्वं भवति । घण्णाम् । षएगावतिः । परणागर्यः । नियमार्थमिदम् । पदान्तटोः परस्य नाम्नवतिनगरीत्यस्यैव नान्यस्येति । तत्त्वामृतलिट् तरति दुःखम् । पदान्तस्यैव नियमादिहाप्रतिषेधः। ईड स्तुतौ । ई? । पदस्येति वर्तमाने पुनः पदस्येति ग्रहणमन्तार्थम् । ननु तथापि नाम्नवतिनगरीषु परतः पूर्वस्य पदान्तत्वसिद्धेः पदस्येति किमर्थम् ? अतुल्यजातीयस्य सकारस्यापि परस्य ष्टुत्वनिवृत्तिर्यथा स्यात् । मधुलिट् सीदति । न तो पि ॥५॥४।१२२॥ तवर्गस्य षकारे यदुक्तं तन्न भवति । टुत्वमुक्तम् । तीर्थकृत् पोडशः । भवान्पण्डः। १. प्रतिषु [ ] कोष्ठकान्तर्गतानां सूत्राणां वृत्तिः खण्डिता । सूत्राणि तु जैनेन्द्रपञ्चाध्यायीमनुसृत्यात्र निर्दिष्टानि । For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० ५ पा० ४ सू० १२३-१३३] महावृत्तिसहितम् शात् ॥५।४।१२३॥ शकारात् पररय तवर्गस्य यदुक्तं तन्न भवति । किमुक्तम् ! चुत्वम् । प्रश्नः । विश्नः । पदान्तस्य शकारस्याभावात् अपदान्ते प्रतिषेधः । खशः शो यो वा ॥१४।१२४॥ खुश इत्येतस्य शकारस्य यकारो भवति वा। आख्याता। श्राख्शाता । पर्याख्यानमिति यत्वस्यासिद्धत्वात् "कृत्यचः" [५।४।१०८] इति णत्वं नास्ति । वेति योगविभागः । तेन चुना योगे "व उठजेः" इति लब्धम् । उब्जिता । उब्जितुम् । उब्जितव्यम् । यरो ङो विभाषा में ॥५॥४१२५॥ पुनः पदस्येति सामर्थ्यात् पदान्त इति लभ्यते। यरः पदान्तस्य विभाषया ङादेशो भवति डे परतः । सुवाङ्नयति । सुवाग नयति । षण्मुखः । षड्मुखः । सन्नयनम् । सद्नयनम् । ककुम्मण्डलम् । ककुमण्डलम् । पदान्तस्येति किम् ? सम। स्तम्नाति । वेत्यनुवृत्तौ विभाषाग्रहणां व्यवस्थार्थम् । तेन त्ये नित्यं भवति । वाङ्मयम् । त्वङ्मयम् । षण्णाम् । वाचो विकारः । “नित्यं दुशरादेः" [३।३।१०६] इति मयड् । त्वचः अागतं “हेतुमनुष्याद्वा रूप्यः" [३।३।५५] । “मयट" [३।३।५६] इति मयट् । अचो रहाद् द्वे ॥२४|१२६॥ अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ ताभ्यामुत्तरस्य यरो विभाषया द्वे रूपे भवतः । अर्कः। अर्कः । तर्कः । तर्कः । ब्रह्मन् । ब्रह्मन् । सह्यम् । सहह्यम् । अच इति किम् ? हुनुते । विभाषेल्यनुवृत्तेर्व्यवस्था । शरोऽचि द्वित्वन्न भवत्येव । आदर्शः । वर्षति । तसंम् । “रहौ निमित्तभूतौ द्वित्वस्य न च निमित्तिकार्य निमित्तस्य" । तेनेह न भवति । भद्रहदः । अनचि ॥५॥४११२७|| रहादिति निवृत्तम् । अच इति वर्तते यर इति च । अच उत्तरत्य यरो विभाषया द्वे भवतः अनचि । दद्धयत्र । दध्यत्र । मद्ध वत्र । मध्यत्र । अत्र यकारवकारौ निमित्तम् । अनचीति यदि पर्यदासः हल्ग्रहणं कर्तव्यम । एवं तर्हि प्रसज्यप्रतिषेधोऽयम्। अचि नेति । तेन हल्यवसाने च द्वित्वम् । वाक्क । बाक । त्वक्कू । त्वक् । अच इत्येव । स्नातम् । प्सातम् । व्यवस्थितविभाषाधिकारात "त्रिप्रभृतिषु न भवति" [वा०] । इन्द्रः । राष्ट्रम् । “यणः परस्य मयोऽचि विकल्पः" [वा०] । उल्क्का । उल्का । वल्म्मीकः । वल्मीकः । “शर उत्तरस्य खयः" वा०] । स्थाली । स्थाली । "खय उत्तरस्य शरोऽपि" [वा०] । अप्सरः । अप्सरः । “पुत्रादिनी त्वमसि पापे इत्याक्रोशे नेष्यते" [वा०] । “द्विमात्रात्परस्यापि” [या०] । पात्रम् । सूत्रम् । भलां जश् झशि ॥शा१२८॥ झलां वर्णानां जशादेशो भवति झशि परतः। लब्धा । दोग्धा । अबुद्धाः । अपदान्तार्थ प्रारम्भः । भशीति किम् ? दध्महे । चे चर्वम् ॥१४।१२६॥ चे वर्तमानानां झलां चवं भवति जश्त्वं च । चिखनिषति । चिच्छेद । डिढक्काविषति । तिष्ठासति । पम्फुल्यते। जिघत्सति । बुभुत्सते । डुढौके । दधौ। प्रकृतिचरां प्रकृतिचरः प्रकृतिजशां प्रकृतिजशो भवन्ति । अभिन्नरूपा इत्यर्थः । चिचीपति । टिटीके । ततार | पपौ। जिजनिषते । बुबुधे । डिडेप । ददौ । सर्वत्र “स्थानेऽन्तरतमः" [१॥१॥४७] इति व्यवस्था । खरि ॥५॥४।१३०॥ झला खरि परतः चर्भवति । भेत्ता । भेत्तुम् । बिभित्सति । विरामे वा ॥१४॥१३१॥ विरामे वर्तमानानां झलां वा चत्वं भवति । वाक् । वाग। मधुलिट् । मधुलिइ । तत्त्वभुत् । तत्त्वभुद् । ककुम् । ककुब् । यय्यनुस्वारस्य परस्वम् ॥ १३२॥ ययि परतः अनुस्वारस्य परस्वं भवति । शङ्कितः । अञ्चितः । हिण्डितः । शान्तः । कृषन्तीत्यत्र णत्वप्राप्तेरसिद्धत्वादनुस्वारः । परस्वत्वम् । तस्यासिद्धत्वात्पश्चादपि णत्वाभावः। ययीति किम् ? रिरंसते। वा पदान्तस्य ॥५॥४॥१३३॥ पदान्तस्यानुस्वारस्य वा परस्वत्वं भवति ययि परतः। शुद्धं करोति । शुद्धङ्करोति । ययीत्येव । त्वं शेषे । For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४१८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् [ अ० ५ पा० ४ सू० १३४ - १४० तोर्लि || ५|४|१३४ ॥ तवर्गस्य लकारे परतः परस्वत्वं भवति । तडिल्लोला । भवाँल्लोकेशः । नकारस्य नासिक्यो लकारः । वेति नाधिकृतम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थास्तम्भोः पूर्वस्योदः || ५|४|१३|| स्था स्तम्भ इत्येतयोरुदः परयोः पूर्वस्य स्वं भवति । उत्थाता उत्थातुम् । उत्थातव्यम् । उत्ताम्भिता । उत्तम्भितुम् । उत्तम्भितव्यम् । उद इति कानिर्देशात् परस्यादेः अघोषस्य सकारस्य तकारः । स्थास्तम्भोरिति किम् ? उत्स्विन्नः । पूर्वस्येति किम् ? परस्वनिवृत्त्यर्थम् । उद इति किम् ? संस्थितिः ! उद इति योगविभागः कल्पनीयः । तेन स्कन्देरपि रोगे पूर्वस्वम् । उत्कन्दको नाम रोगः । झयो हः || ५|४|१३६ ॥ यः पदान्तादुत्तरस्य हकारस्य पूर्वस्वं भवति । सुवाग्घसति । मधुलिड्ढरति । धर्मविद्धितम् । ककुब्भसति । महाप्राणस्योष्मणः स्थाने तादृश एव पूर्वचतुर्थो भवति । "चतुष्टयं समन्तभद्वस्य” [५।४।१४०] इति वक्ष्यति तेन विकल्पः । सुवाग हसति । मधुलि हरति । धर्मविद हितम् । ककुच् हसति । य इति किम् । प्रा हसति शरछोटि || ५|४|१३७॥ शयः पदान्तादुत्तरस्य शकारस्य टि परतश्छकारो भवति । वाक्छोभते । धर्मविच्छेते । ककुप्छोभते । पक्षे न भवति । वाक् शोभते । धर्मवित् शेते । ककुपशोभते । केचित् शश्छो ऽमीति पठन्ति । तेन तच्छूलोकः । तच्छ्वसनमिति । हलो मां यमि खम् ||५|४|१३८ || हल उत्तरेषां यमां यमि परतः खं भवति । शय्या इत्यत्र " समज" [२३८१] आदिसूत्रेण क्यपि अयङि च कृते द्वौ यकारौ । क्रमजस्तृतीयः । मध्यमस्यानेन खम् । पक्षे न भवति । शय्या । आदित्य्य इत्यत्र अपत्यार्थे द्वौ यकारौ । “सास्य देवता” [३।२।१६] इति तृतीयः । क्रमजश्चतुर्थः । मध्यमस्य मध्यमयोर्वा खम् । हल इति किम् ? अन्नम् । यमामिति किम् ? अर्ध्यं मधु | अर्धमर्हति । श्रर्घार्थं वा । " पाद्यार्थ्ये” [ ४।२।३२ ] इति निपातनन् । यमीति किम् ? शार्ङ्गम् | यथासंख्यविज्ञानादिह न भवति । पित्र्यम् । झरो भरि स्वे ॥ ५२१३६॥ हल उत्तरस्य झरो भरि स्वे परतः खं भवति । प्रत्तमवत्तमित्यत्र “गे स्तोऽचः” [५|२| १४६ ] इत्याकारस्य तकारे कृते त्रयस्तकाराः । क्रमजश्चतुर्थः । मध्यमस्य मध्यमयोर्वा खं विकल्पावलोकनात् । मरुत्त इत्यत्र मरुच्छब्दस्य गित्वोपसंख्यानं सामर्थ्यादन जन्तादपि तकारे कृते चत्वा रस्तकाराः । क्रमजः पञ्चमः । मध्यमस्य मध्यमयोर्मध्यमानां वा खम् । झर इति किम् ? शार्ङ्गम् । झरीति किम् ? प्राप्नोति । स्वे इति किम् ? तप्त । याथासंख्यात्सिद्धमिति चेत् । उज्झिता । शिष्टि । पिण्टि इत्यत्र चतुर्थेऽपि स्वे तृतीयस्य खं यथा स्यात् । चतुष्टयं समन्तभद्रस्य || ५|४|१६० झयो ह इत्यादि चतुष्टयं समन्तभद्राचार्यस्य मतेन भवति नान्येषां ते । तथा चैवोदाहृतम् । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरण महावृत्तौ पञ्चमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्च पञ्चमोऽध्यायः । For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अथ प्रशस्तिः जिनमतं जयताज्जितदुर्मतं सकलसस्वहितं सुमतिप्रदम् । नयचयाक्तिमिष्टविशिष्टवाग्भवभयातपवारणवारिदम् ॥ १ ॥ पाणिनिना यदयुक्तं लपितं कृत्वाष्टकं मोहात् । तदिह निरस्तं निखिलं श्रीगुरुभिः पूज्यपादाख्यैः ॥ २ ॥ जगन्नाथनाम्ना द्वितीयाभिधानात्सतां वादिराजार्थमोपाख्यसाधोः । जनन्याः सुतेनापि वीराभिधायाः दयादानपूजादिसंशुद्धमूर्तेः ॥ ३ ॥ जैनेन्द्रशब्दशास्त्रं स्वोपक्रमतो नरेन्द्रकीर्तिसुगुरोः । अन्ते लिखितं पठितं पाठितमपि भारतीभक्त्या ॥४॥ जीवोsस्वगुरुत्वमेव मुशनाः काव्याह्वयं भास्करों मित्रत्वं च विचक्षणत्वमगमन्निन्दुः सुधाधामताम् । गीर्वाणत्वमनन्ततां सुरगणाः शेषो वृषा जिष्णुतां जैनेद्र समधीत्य शब्दविलयं श्रीपूज्यपादोदितम् ||५|| पूज्यपादापराख्याय नमः श्रीदेवनन्दिने । व्यधायि पञ्चकं येन सूत्रं जैनेन्द्रमूलकम् ॥ ६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महावृत्तिकृते तस्मै नमोऽस्त्वभयनन्दिने । यद्वाक्यादभया धीराः शब्द विद्यासु सन्ततम् ॥ ७॥ स्रष्टा दृष्ट्वा सुसृष्टिं स्तुतिमकृत मुखैश्चाथ जैनेन्द्रशाब्दों जिह्वाभूयस्त्वभावादुरगपतिरतोऽध्येति नाव्येति पारम् । tri दुःखावलीढां निजमदवशगाः प्रापुरिन्द्रादयोऽपि कृत्वेमां देवनन्दी विविधसुरगणैः पूज्यपादाह्वयोऽभूत् ॥८॥ प्रमाणमकलङ्कीयं पूज्यपादीयलक्षणम् । धानञ्जयं च सत्काव्यं रत्नत्रयमुदाहृतम् ॥ ६ ॥ כי इति प्रशस्तिः सम्पूर्णा शुभम्भवतु For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रगे श्रग्नौ चेः ग्रङि अङ्गल्यादेष्ठण अन्तः अचश्च अचि कथितञ्च १/२/१२१ श्रतेः कर्तर २३१८ श्रतोऽनादेर्घेः कर्मको धिः १२ कामे मूर्धमस्तकात् ४ | ३ | १३१ अक्षाद्यैन्दुः अ चित्तहस्तिधेनोष्ठकू चीको अचोरहाद् द्वे अजाद्यत् अञ्चः अरु ग्रटश्च जाद्यतष्ठाप अजाविभ्यां थः जीवे जीवेऽणः अण् अणि ५।१।८३ श्रतोऽप्राच्यभर्गादेः ३ २ १५८ ५।११२१ १|१|६८ ५।१।१३६ ११४|१०६; ४|४|४८ अतो हल्मध्येऽनादेशादे - ४|४|११० २२७८ श्रतो हे: ४|४|३४ अतोऽह्नः ४|१|१६२ प्रत्कायाः ४ | ३ |२; ४|४|१२५ श्रत्थात् पूजायाम् अडवू वोपादेः मोः जैनेन्द्रसूत्राणामकारादिक्रमः अतिक्रमे चातिः www.kobatirth.org अणू अतः खम् अताभास्यस्याशी १।१।१२ अत्वसोsधोः ४।३।१८२ | श्रदेङेप् ३३२ ३६ ४ | ३ |६५ ५।४।१२६ ३।३।७१ दो ५। २६५ २१२६० अदोऽनन्ने अद् बाह्रादेि ३११८५ द्रौ त्रिककुद् श्रधिकरणे चाद्यर्थच ४ |२| १४७ | अन्तराष्ठञ् २/४/५६ ४/२/१०० ३।३।६१ ४/२/७२ १|४|१० अधिकृत्य कृते ग्रन्थे अधिपरी अर्थको ५/१/१०१ | श्रधीत्याऽदूराख्यानाम् १/४/८१ ४|१|६६ अधीष्टे २|३|१४२ ४ | ३ |७८ अधुना ४|१८३ | अन्धूधसोः कुप्वाङ्व्यवायेऽपि ५।४।८६ अधु मृत् १/१५ अन्यथैवं कथमित्थं|४|१|१३६ श्रध्यायानुवाकयोर्योपू ४|१|६४ ४|११३० अध्यायिन्यदेशकालात् ३ | ३|१८८ ३२ १२२ अध्वर्युक्रतुरनप् १।१।७२ १।३।९९ अतोऽम् तो ये ३|११४ | ३।४।६ अदेशकालाढण् अनः श्रदित्स्वस्यात्मनो अणौ धेः प्राणिकर्तृकात्११२/८५ श्रनङ् सौ कुटिलिकायाः ३।३।१४१ ५/२/१०७ अनचि ४|४|१० ४/३/२०५. ११४/८८ | अनवक्लृप्त्यमर्षे अनश्च बात श्रनाप्यकः २/२/१२३ अनद्यतने लङ्क श्रनद्यतने लुट श्रनन्तरस्यापि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २।३।१२१ ३|१|१० ५/१/१७० अनाश्वाननूचानौ २२६० अनितावनुकरणम् १/२/१३३ ३|१|१७ अनीचः श्रनुकम्पायाम् ४|४|१६ अनुक्तपुंस्कादाच्च ५|४|११ | श्रनुक्ते ११४/१ ५।१।२७ अनुग्वलंगामी ३।४।१३८ ५/१/४ प्रनुदात्ततोऽपसूददीप- २/२/१३१ ४|४|१२ श्रनुदात्तोपदेशवनति ४/४/३७ १|१| १६ अनुपदेशेऽदः ११२/१३६ अनुशतिकादेः ५२२५ अनृतोऽनन्तस्याप्येकै- ५|४|६४ नोऽखमम्बस्फात् नोर्वैः ४|४|१२२ ११२१४५. ३/३/३५ ११४/३ ५|४|११५ १|१|४९ ११११६५ ११११७३ ४।३।२५ २|४|१३ ११३८६ ४/३/२३२ For Private And Personal Use Only अन्तरान्तरेण योगे श्रन्यपदार्थेऽनेकं बम् अन्यस्यापि ११४|८० अन्येभ्योऽपि ४|२| ११०; ४|४|१५८ अन्वच्यानुलोम्बे ५|१|७० ग्रपथम् अन्तस्य ग्रन्तेऽलः अन्त्यादचष्टिः अन्त्येनेतादिः ५।४।१२७ २२६२ २|३ | १४ |अपे च लभः ५|३|१०३ पादानेऽहीयरुहोः अपे क्लेशतमसोः ४|१|१३२ ५२/५३ २२ १५७ २२४१४६ ११४ | १०७ ४/२/५० २२४८ २२।१२१ पोनप्पान्नप्तृभ्याम् ३/२/१२ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अप् चाशिष्यायुष्यमद्र- १/४ /७७ तदर्थार्थ लिहित- १/३/३१ वाणिजातेः ३ अभिजनः ११४।८२ ३/३/६४ अभिजिद्विदभृतोऽणो यत्र ४१२।७ रेग्रभिनिविशश्च १।२।११९ अभिनिष्क्रामति द्वारम् ३/३/६० श्रमानिनीत्स्वाङ्गात् ४ | ३ | १५२ २/१/१०३ मेकाचोऽम्बत् ४ | ३ | १७= अमावस्या वा गोभूमिव्याप ५/४/७१ २२राहर यतः अथैतावत्त्वे च श्रर्धाच्च आदेर: २ श्रहः अल्पाख्यायाम् अल्पाच्तरम् अल्पे अवक्रयः अवयवातोः वारपारात्यन्तानु www.kobatirth.org अविच्छेदे जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः असंख्यं झः असिद्धवदत्राभात् ४|४|५५ अभिज्ञो लुट् यामन्ताल्वाय्येनुषु अर्जुनाद् वुन् ३।३।७३ | आकर्षादेः कः श्रर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीचमा ५/२/४१ | आकालोऽच् प्रदीपः ५।१।११० आक्रोशे नव्यनिः २१३६३ १|४|११ २१३४१ आक्रोशे ऽवन्योर्ग्रहः ४।२।१०३ | भक्तेः शीलधर्मसाधुत्वे २।२।११२ आमीयुत्रोः ४|१|५० ग्राङः २/२/१७ ४/३/२४ श्रामेतः श्राङ: स्पर्द्ध १।२।२६ आङि चापः ५/२/१०० श्राङि यमियसिक्रीडि- २१२/१२५ २।२।१६ व्यक्तानुकरणादनेका- ४/२/६१ ४|१।७२ ११४|१०० १ १/७४ | श्रतो धोः |४|४|२१|| श्रथर्वणः ५/१/१६५ श्रादितः ४११।१०४ दे १|४|१२४ श्रादेरेकाचो द्वे २३८४ प् ५|२|१४१ श्राद्यतः ५|४|४६ धम चेनः अहः १|४|१०५ अहस्सर्वैक देशसंख्यात ४/२२८६ ५।३।७७ ग्रहन् सौ अस्ताति अस्तित्रञोर्भू बची अलङ्कृनिराकृञ् २।२।११४ ४।२।१३७ १/३/१०० श्राङि शीले ४|१|१४१ श्रस्त्यात् अस्य चौ स्विदिस्वदिस हे ः आङ दोऽव्यसने ३।३।१७० आङो नाऽस्त्रियाम् ५/२/१६ श्री यमनः ३|४|१३६ श्राङो यि १।३।२६ श्राङ्माङोः श्राङयाजो च त्वात् श्रा आच हौ अश् प्रशाला ५. २/१७२ ३|१|६६ प्रश्नोतेः अश्वत्थामहायणीभ्यां ३।२।१७ श्रश्वपत्यादेः अश्ववडवौ पूर्ववत् ११४|१०३ श्रातः अश्वादेः पञ् ३१६६ षडक्षासितं स्वभिद्यः ४ |२| १६ श्रष्टाभ्यश ५।१।१८ प्रातः कः २/२/३ श्रतो गौ २ | १|१०६; २२३८८ आतो गल औः ५/२/३७ या चार्थवेदसत्यानाम् श्राच्छादने वृञः श्राज्ञायिनि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधारोऽधिकरणः श्रान द्वन्द्वे ग्रानि आने मुक् ३।३।१७ पूज्ञपुधामीत् १|१|११ ३|४|१११ ४|४|१०७ २।१।२३ २/३/५० ४ | ३ | १२४ २२४६० महतो जातीये च For Private And Personal Use Only श्रापपदम् प्रावाधे च ग्रामः २|४|७६ आम्यात् सर्वनाम्नः सुट् ५/१/३४ ग्राम्वत् तत्कृञः ११२१५६ आयनेयीनीयियः फटग्व- ५।११२ श्रयस्थानेभ्यष्ट ३/३/४९ आयामिना ११२/१४ १|३|१३ ३।४।१७ ५।२।११३ ग्रहण ११२।२३ श्रालम्बनाविदूरेऽवात् ५/४/४६ ५।११४४ श्रावट्यात् ३|१|५ ४|३|६२ | आवश्यकाधमर्ण्ययोः २।३।१४६ आवि २/३/६० ५।१।१४७ आशितम्भवः आशिषि आशिषि नाथः आशिषि लिङ्लो | आशिषि हनः ४२१ ४|४|१२७ ३।३।१०१ ५|१|१२२ _४|३ | ७५ ४।३।१ १|१|५ ५|२| १७० १/४ /७४ ११२/११६ ४/३/१३८ ५|४|१०३ ५|१|१४१ ४ | ३ | १५८ ५/२/१५७ ३/४/१३३ ५।३।८ १|४|१४९ ११२/९४ २१२/४३ २११११२३ ११४/६२ २२४१४६ २२|४७ प्राश्वयुज्या वुञ आषाढाच्च ४।३।१६७ सर्वनाम्नः आसिद्धौ देश्यदेशीय- ४|१|१२६ ३/३/२० ३३१८ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् ई ईद्य श्राहस्थः ५।३।५२ इपा च प्राप्तापन्ने १।३।२० । उगिदचां घेऽधोः ५।२।४९ श्राहि च दूरे ४।१।१०१ इपि ॥४॥३८%3 ५।९।१४६ । उगिद्वन्नान्डी ३॥श६ इप तच्छि तातीतपतित- ११३।२१ उङः । ५।११७५ इकः प्रोऽङ्याः ४।६।१७२ इभेनेन श४१४० उङि ५.३८७ इकस्तौ १।११७ इवे प्रतिकृतौ का ४१११५० उकोऽतः ५२।४ इको दी ोरुङः ५३८५ इष्टादेः ४|११२२ उच्चनीचावुदात्तानुदात्ती १।१।१३ इको वहेऽपीलोः ४।३।२२३ इसुसुक्तः कः ५।२।५२ उच्चरोऽधेः १।०४६ इगुङः शलोऽनिटो- २११४० इसुसोः सामर्थ ५/४/३२ उज्जुहोत्यादिभ्यः ११४११४५ इग्यणो जिः शश४५ उन १।१।२५ इङः १।४।१२०; २।३।२० ई उत् ४।३।१०७ उणादयोऽन्यत्राभ्याम् २।४।६२ इङानं दः १२।१५१/ ई घ्राध्मोः ५।२।१४० उणादयो बहुलम् २।२।१६७ इच्छा २।३१८३ ईच्च गणः ५।२।१६४ उतस्त्यादस्फात् ४।४।९७ इच्छाथै लिङ लोटौ २।३।१३३ / ईटीटः ४/४/२० उताप्योः पृष्टोक्तौ लिङ२।३।१२८ इच्छोद्बोधेऽकच्चिति २।३।१२६ ईडः स्वे ५।१।१३६ उत्करादेश्छः ३।२७० इञः ३।।८ ईतः षुङ् नित्यम् उत्तरपथेनाहृतं च ३।४।७३ इओ बहुचः प्राच्यभरतेषु।४।१३७ ईदासः ४।४।१२६ उत्तरपदं ध ११३।१०५ इटि चाखम् ४।४।६३ | ईदुदः ४|४|१२३ उत्तराच्च ४।१।१०२ इट ते ५११६५ ईदूदेद् द्विदिः १।१।२० । उत्सादे ३।१७१ इड्विजः ११११७६ ४।४।६४ उदः ११।६१ इण: षः ईपस्त्रः ४।११७६ श२।१९ इणः पीध्वंलुलिटां- ५/४६० ईपात्र वाक् २०६६ उदकस्योदयोश्च स्खौ ४।३।१६८ इणको सः ष: ५/४/३७ ईपि चोपपौडधकर्षः २।४३५ उदन्वानुद्धौ ५।३।३४ इतोऽनिमः ३।१११११ ईपोऽद्धलः ४।३।१२७ उदिकूले जिवहोः २।२।३४ इतो मनुष्यजातेः ३शश५५ । ईप्केत्यव्यवाये पूर्वपरयोः १११६० उदि ग्रहः २।३।३४ इदम इश ४।१।६६ ईप्छौण्डैः १।३।३५ उदि पुट्ठयोतिश्रिञः २।३।४५ इदमदसोः सकोः ५।शह ईबधिकरणे च १४४/४४ उन्न्योः २।३।२७ २इदमो मः ५।१।१६६ । ईबधिके १४/१७ उपज्ञाते इदमो वो घः ३।४।१६१ ईविशेषणे बे १।३।१०१ उपज्ञोपक्रम तदायुक्तौ ११४६७ इदमो हः ४।११७७ ईभयोर्विभाषा १/४/१५३ उपत्यकाधित्यके ३४१५५ इदमो हि ४।११२ ईयसश्च ४।२।१५६ उपदंशो भायाम् २।४।३३ इदिद्धोर्नुम् ५।११३७ ईशः ५।१।१३७ उपमानात् ४ाश६६ ४।२।१३८ इदुदुङोऽत्यपुमुहुसः ५।४।२८ ईश्वरः ३/४|४२ उपय॑ध्यधसः सामीप्ये ५३३५ इदुद्भ्याम् ५।२।१११ ईश्वरेऽधिना १।४।१८ | उपर्युपरिष्टात्पश्चात् ४।१।६७ इद्गोण्याः .१११११० ईपदर्थ ४।३।२११ | उपाजेऽन्वाजे १।२।१४२ ४|४|१०४ उपाज्जानुनीविकर्णात् ३३६३६ ४/२०१६ १।२४८६ bउपात् ।।८१ इनः स्त्रियाम् ४।२।१५२ उगवादेयः ३१४१२ उपात्प्रतियत्नवैकृत- ४।३।११२ इन्हन्पूषार्यम्णाम् ४।४६ | उगितश्च ४२१५७ ० उपात्प्रशंसायाम् ।।१।४५ ५।४।२७ इद्दरिद्रः For Private And Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपान्त्यालुङ् उपान्मन्त्रकरणे उपेन उपचोलादेः उप्ते उत् उरसोऽण् च उरसोऽग्रे उषा सोपसः उष्ट्राद् वुञ.. उसभेदे उसि उसि भे उसिलौ च देशे उस्मनुष्ये उपमेये ऊ ऊधसः ऊधसोऽनङ् ऊम् (ॐ) ऊरुतः ऊरुद्योरिवे उप्प्रोक्तात् उम्फले उविलः उबुजु उभात्खम् उरः उरःप्रभृतिभ्यः कप् ४/२/१५१ ऋदुङोऽक्लू पिचृतेः ॠ ऋक्पूरब्धूः पथोऽनक्षे ऋगयनादेश्चाण ऋचः शे ऋचः सामयजुर्भ्याम् १।१।६६ |ऋतः ११२ २० ऋच्छत्यताम् ऋणे व्यैः ११४/१६ ३|१|१५६ ऋतः स्फादेरेपू ऋत इद्धोः ऋत उत् દ ऋतश्च क्तः ऋतष्ठ ३।२।५४ ३।३।१२१ ऋतो ङि ५।१।१६ ऋतोरण ११११६२ ऋतो विद्यायोनि www.kobatirth.org जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः |५|१|१०६; ५|२| १८६ ५२१२२ ५/१/७४ ४ | ३ |९८ ५/३/६२ ३/३/५२ ५/२/१०५ ३/४ १९९ ४ |२| १३६ ३।४।१६५ ऋत्यकः ४ | ३ |१०५ ५/२/१६६ ऋत्विग्दधृक्सग्दिगुणि २२५७ ऊ रोडनादेः ४|४|१५३ ऊर्णाहं शुभंभ्यश्च युस् ४ | ११६२ ऊर्ध्वं शुषिपुरोः २|४|३१ ५/२/१२० | ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेह - ५/१/७१ ३ | ३ |२०० ऋन्महिष्यादेश्णू ३ | ३ | १६९ ४ । २ । ९५ ऋन्मोः ४|३|१४४ ऋषौ मित्रे ४।२।१५३ ४/३/२३१ ३।३।११६ ३|१|५८ एकाच्च ४/२/७० ३३ | ४७ ए एकाच द्यौः एकादा किंश्चासहाये ४।३।१६६ ४ | २|७४ ५।२।१२३ एचोऽयवायावः १।३।३७ | एचोऽशित्याः ४|१|१४९ ५।४।६६ ४।१।११३ २१६२ एगिंवाक्चादुङो ऐपीत् ३१/७६ श्रो ४ | ३८३ ओः पुणज्ये ५/२/१७८ ३/२/५ एकः एकः किः १|४|५६ ११४१५३ एकगोपूर्वाञ नित्यम् ४ १/४४ श्रजः सहोम्भसा वर्तते ३ | ३ | १५० |४|११३२ एकदि ३ ३ ८१ श्रोत् ११२।१५५ | ओतः श्ये १११/२३ ४|१|१५२ एकद्विद्दवश्चैकशः ५/२/७१ एकविभक्ति १।३।९४ ओदपूर्वस्य योऽशि ५/४/४ ३|१|१३ एकस्य ते में ५/३/१८ श्रोदितः ५/३/६३ ४।२।१३२ एकस्य सकृत् ४१२२६ ५/३/९५ १।१।२६ एकाचोऽनुदात्तात् ५।१।११५ ४१३८२ ३।११५६ एकाचो वशो भत्र् झषः ५। ३५४ २|१|१०२ ३/२/६५ ४/२/४३ ५२६६ एकान्नः एको बवत् एङि पररूपम् ४ | ३ |६६ एङोऽति पदान्तात् एड् प्राग्देशे ११११७० एचोऽदेः पूर्वस्यात् परस्ये५ । ३ । १०४ ४ | ३ |१८४ ५।३।७ ४ ३८१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च्यैप् एजेः खशः एत ऐ एतदः एति हः एतेतौ थः एत्येधत्यू सु For Private And Personal Use Only एधा एप्यतोऽपदे एम्योऽह्वोऽह्नः एरुः एवं एमें एवात्कः श्रीमभ्यादाने ओमाङोः श्रोरावश्यके देशे ठञ श्रोषधेरजाती ओसि श्रक्षम् चौङ श्रापः श्रतः श्रदच्च सोः ४ | ३ | ६६ कंशंभ्याम् ४ | ३ ३८ | कंसाइन् ४२३ क ४१३७६ २१२३२ २|४|७६ ४|१|७१ ५|२| १५४ ४/१/७० ४/३/७७ ४|१|१०६ ४ | ३ |८४ ४१२६० २।४।७३ ४|४|७८ ५।१।६३ २२४।८१ ४|१|१२६ ४|३|१४१ ४|४|१५६ ५११५ ४|४|७६ ५।२।११२ ४|१|६० ३/४/२२ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra "कण्डूवा करकतम समय ४२४ कः खौ ककुदस्यावस्थायां खम् ४। २ । १४६ कर्तृकरणे भा कचि स्वापेः कच्छाग्निवक्त्रवर्तयोः ३ |२| १०४ कच्छादेः ३।२।१११ कठिनान्तप्रस्तारसंस्थानेषु ३ | ३१८६ कर्त्राप्यम् कडङ्गरदक्षिणास्थाली- ३/४/६६ कमनःश्रद्धाघाते १।२।१३६ २११२५ १।३।५८ कतिः संख्या कको चि कन्यादेर्दक कन्यायाः कन्यायाः कनीन् च पौ च कपिज्ञा कपिबोधादाङ्गिरसे मृत्योगिङीय करणाधिकरणयोः करणे करणे यजः कर्क लोहिताहीक कर्ण ललाटभूषणे कः asar कर्तरि कृञ कर्तरि कृति कर्तरि क्तेन कर्तरि चर्षिदेवतयोः कर्तरि चारम्भे कः कर्तरि www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३|३|१११ | कर्तु : क्यङ् सखं विभाषा २२११६ | काण्डाण्डादीर: ११४/२६ ११४|६८ २३३१०५ ११२/३२ ११२।१२० २/४/३० ३।४/१५६ ११३ /७६ १११।३३ ४ | ३ | २०७ ३१२/७५ काष्ठ ३।३।२०६ कद्र वो रोsस्वयम्भुवः ४|४|१३४ कन्थापलदनगरग्राम- ३/२/११८ | कर्मणीप् ३ कर्तरि शप् कर्तरीवे ४|३|१४ | कर्तृकर्मणेः कृति कर्तृकर्मणोर्भूकृञ कर्तृस्थे कर्मण्यमूर्ती ३ | ४ | ११७ ३|१|६६ कर्त्रीर्जीव पुरुषयोर्न कर्मठः कर्मणि च कर्मणि चाण कर्मणि चेवे कर्मणि भृतौ कर्मणि यत्स्पर्शात्कङ्ग कर्मणि हनः ४ कर्मणीन् विक्रियः २११२८ २३६ कर्मण्यात्मनि २४ २४ २/२/७३ | १|१६४ ३।३।४१ |१| ४ | ३३ कर्णे लक्षणस्याविष्टा - ४/३/२१८ कर्तरि कर्मण्यण कर्मण्यधिकरणे कर्मण्यशेषे दृशिविदः कर्मण्याक्रोशे कृञः २|३|१० २४ ३२ २२२७ २३६८ २२|७४ शरा८० ११४/२ ३२६७ कर्मणोः सम्प्रदानम् १ |२| १११ ३|१|१०५ कर्मण्यग्न्याख्यायाम् २१२/७९ ५/४/२२ २२१ २/३।७४ २/४/१५ २|४|११ २११५३ ३|४|९४ | काले Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४।३।२१३ १३७६ कल्याण्यादीनामिनङ् ३|१|११५ २४|५२ कव उष्णे ५|१|११३ कष्टाय १।३।७७ २ कस्कादौ २ १/१२ ५/४/३६ ३।२१२० २।२।१६४ कस्येः २|४|५६ कांस्यपारशवौ ११२८ | काऽपादाने २ | ११६४ | काकिनादेः कुकू २।२।६७ काण्डात् क्षेत्रे कापथ्यक्षयोः का भीभिः ३ | ३ | १२५ ११४ ३७ ३|१|१४५ काङा मर्यादावचने ११४/२० काभ्यः कायाः स्तोकादेः For Private And Personal Use Only कायास्तस् कारके कारे प्रायः कार्मः शीले कार्यार्थोऽप्रयोगीत् ११२३ कार्षापणसहस्रसुवर्णशत- ३।४।२७ कार्षापणाद् वा प्रतिश्च ३।४।२३ कालप्रयोजनाद् रोगस्य ४ | १|१६ कालविभागेऽनहोरात्रा - २।३।११३ काल्समयवेलासु तुम् २/३ | १४३ १/३/२५. ४/२/३९ कालाः कालाच्च कालाज कर्मवेषाद्यः कर्मव्यतिहारे ञः कर्माध्ययने वृत्तम् कर्मैबाधिशीङ्स्थासः १|२| ११७ | कालेभ्यो भवत् कलापिनोऽण् ३।३।७६ काश्यादेष्ठञ्ञिठौ कलाप्यश्वत्थयवबुसाद् ३।३।२३ ४|११३७ ३|१|२८ ४/३/२१० ११३/३२ २११७ १|४|४ १।३।६७ ४/१/६३ २|३|७६ | कालेऽधिकरणे सुज १/४/६७ ३।३।१८१ | कालेभ्यः ३|४|७४ ३।२।२९ ३२६२ कासूगोणीभ्यां तर ४/१/१४५ कास्यनेकाच्त्याल्लिय्याम् २।१।३१ किंकिलास्त्यर्थं लृट्टू २।३।१२२ किंबहुनाम्नो ४|११६८ ४|१|१४७ किंयत्तदो निर्धारणे कियदत्तद्बहुष्वः २२२८ किंवृत्ते लिङ्ल, टौ २।३।१२० किंवृत्ते लिप्सायाम्, २/३३४ कितीखो दी: ५/२/१६९ किदन्तः १|१|५४ ४/३/१२१ ४/१/७३ १२११०६ ४|३|१२८ ४|४|१६३ ३।२।१३१ कालात्साधुपुष्यत् पच्य ३।३।१८ कालाद्यः ३२४|१०० कालाध्वन्यविच्छेदे काला मेयैः Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra किमोड: किरतेवे किदाशिपि किमः किमः कः किमियां थम् किमिदमोः की किमेभिझिझादामद्रव्ये ४।२।२० सुहोश्चः किरते जीविकाकुला ११२ ३३ किरश्च पञ्चभ्यः किस राष्ट् कुक्वौ तयोः कुमहद्भ्याम् कुमारः श्रमणादिभिः कुमारशीर्ष योगिन् . जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः २|४|८५ | कुशलायुक्तेन चासेवायाम् १|४|४८ ३|४|१६२ कुशाग्राच्छः ४११११५६ ५/ १११६२ कुशिरजेः श्यो मे बा २/१/६० ४|११६० कुसोददशैकादशाह ३।३।१५४ ४|३|१९६ | कुस्तुम्बुरुगोष्पदा ३|१|१४२ ३/३/११५ १११११६ ४ | ३ | ११६ ५/२/१६४ प्रारार ५/४/३४ ११११२८ २२५५ १|४|७० कृञः शच २३८२ ४/२/१२ ३|१|४४ २।३।१५० ११३/३६ कृञो द्वितीयतृतीयशम्ब - ४/२/६२ कृञो मिथ्यायोगेऽभ्यासे १/२/६७ कृञो ये च ४/४/६६ कृञो हेतुशीलानुलोम्ये २१२/२५ कृञतनादेः कृतलब्धक्रीतसम्भूताः ३/३/१४ | क्यङ्मानिनोः क्यचि ११३८५ २११७४ ४|४|१० ४|३|१४८ ५।२।१४२ १/२/७१ ३१३/८५ ५।१।११२ क्यच्यनादुद्धृत्यापत्यस्य ४|४|१४१ ५/४/१०८ यो वा ११२।८६ २११८० क्रतूयादिसूत्रान्तादृण ३१२/५२ ११११६ क्रमः ४/२/५५ क्रमः क्वि ५/४/२६ ५/३/३६ | क्रमादेर्बुन् ५|४|६७ ! कृवृषिभृजां यशोभद्रस्य २ ।१ ९९ ४/२/१०७ कृसृभृवृस्तद्र स्रुश्रुवो ५।१।११६ ११३/६५ क धान्ये ५/४/२१ ४|४|१६ ३/२/५.३ ३।२।१३४ क्रमिद्रमो यङः क्रमो मे ५/२/७४ ४ | ३ |७१ २२४६ केकयमित्रयुप्रलयानां २रारा६१ १/४/६ ४११७८ | कृकमिकंसकुम्भकुशा ४/३/११३ कृञः करणे ख्युट कुटारश्चावात ३|४|१५० कुटीशमीशुण्डाभ्यो रु ४। १ । १४३ कुण्डगोणस्थलभाजनाग ३ | १ | ३७ कुण्डपाय्यसंचाय्य २|१|१०५ ४|१|१४४ कुत्वा डुपः कुत्साऽज्ञातयोः कुत्स्यं कुत्सनैः कुव्यवन्ति कुरुभ्यः कुप्योः कुवत्ये कुमति www.kobatirth.org ५/१/१३४ ३।३।१७२ ५ । १ । १६३ ५४ कुमुदनडवेतसाहित् ३ २ ६७ ४|२| १४१ कृति कृते ग्रन्थे ४|१ | १३१ कृत्यचः ११३१४८ कृदमिङ ३|१|१५७ कृद्धृत्साः कृम्वस्तियोगेऽतत्तत्वेकृपो से लेकृपादेः २३२८ ५/२/७ केऽणः ५/२/१२५ ३/२/३५ ३।४।१५२ केदाराद्यञ्च ३।२।१०८ | केनौ वि (चि) कू ३|१|१३६ केरेड: केशाद्यो वा |३|१|११६ | केशाश्वाभ्यां यच्छौ वा ३ २ ४० ४ | ३ |५७ ४|१| ३५ ३ | १|१०३ ३।२।११० कुम्भपद्यादिः कुरुयुगन्धरेभ्यो वा कुर्वादेर्ण्यः कुवृष्यन्धकवृष्णेः कुलटाया वा कुलत्थकोऽङोऽण ३।३।१२६ कोङोऽण कुलाड्ढक च ३ | १ | १२७ कुलालादेर्बु ३/३/८७ कुलिजाच्च ३ | ४|५.४ कुल्मापादण ४|१|१५ कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुशलः ३।३।१५ कोपासूयासम्मतौ कोऽचियावादेः कौ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौरव्यासुरिमाराकात् ३३११२२ ११.११२४ कौवेतौ कौशल्येभ्यः कौशेण्या ह क्ङिति ङित्यचि वा For Private And Personal Use Only तक्तवतु तः तस्याधिकरणे तादनत्यन्ते तादल्पे तिच्क्तौ खौ केनाहोरात्रभेदाः क्त्वा क्त्व स्कन्दस्योः क्रय्यः स्वार्थ क्रव्ये क्रियामध्ये केपी क्रियायोगे गि ११२/१३० क्रियासमभिहारे लोट् तस्य २/४/२ क्रीजेण क्रीडाजीविकयोर्नित्यम् १३२८० ४ | ३ |४१ क्रीडोऽनुपर्याङ: ११२/१५. क्रीतवत्परिमाणात् ३।३।११४ ५/३/१०१ क्रीतात्करणादेः ४२३५ मण्डात् ५/२/१०१ क्रोडयादेः १|४|१४१ क्रूयादेः श्ना ४२५ कौपिञ्जल हास्तिपदादण ३|३ | १०० ! क्लिशः ३११४३ २/२/१३३ ३१११६५ २|१|७६ ११११८१ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् क्लिशस्तक्त्योः ५॥श६८ खावन्यपदार्थे ११३।१८ ] गाण्ड्य जगात्सो ४११३६ क्वणो वीणायां च २॥३॥६८ खावष्टनः ४।३।२२७ गाथिविदथिकेशिपणि ४१४/१५७ क्वित्यस्य कुः ५।३।७५ खित्यभेः ४।३।१७६ / गावदः २।३।५.३ क्विप २।२।६३ खेऽध्वनः ४|४|१६० गिप्रादुा याच्यऽस्तेः ५।४।६८ क्षत्राद् घः ३।१।१२५ खेयराजसूयसूर्यमृषोद्य २।१।६४ गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहा-४।२।११२ क्षिज्योः ४।३।६८ खोऽलं कर्मपुरुषात् ४।२।१५ | गिरिवने किंशुलुककोटरा ४।३।२२० क्षिप्रवचने लट् २।३।१०६ खौ ११३॥३८; २।४।२६; गिरेश्छः शस्त्रजीविषु ३।३।६५ क्षियाशीःश्रेषेषु ५।३।१०२ ३।३।८६; ३/४५७; | गुणात्संख्यादेः ४।२।६३ क्षियो दीः ४।४/५८ ४/२११५१, ५/३२३२ ।। गुणे श्रीदत्तत्यास्त्रियाम् ११४।३४ क्षीणः ५।३।६४ खौ कन्थोशीनरेषु १४६६ । गुणोक्तिब्राह्मणादिभ्यः ३।४।११४ क्षीकृशोल्लाघाः ५।३।७२ खौ मनसः ४१३।१२३ । गुणोक्त स्तोऽखरुस्फोङ:३३१३० क्षीणलवण योलोल्ये ५।१।३३ । खौ विभाषा वुण २।३।१० गुणोक्त्येषत् ११३६६ क्षीरविषो शृतम् ४।३।२२ खौ शरदो बुञ्ज ३।३।३ गुपूधूपविच्छिपणि- २।१।२६ क्षीराड्दण ३।२।१५ खौ श्रमणाश्वत्थाभ्याम् ३रा गुपतिकिझ्यः सन् २।१।३ जुत्तडगऽशनायो- ५।।१४३ ख्यत्यादतः ४.३९ | गृपयादेः ३३१११२४ खुद्रजीवाः ११४।८४ | ख्शः शो यो वा ५।४।१२४ गेः ४।२।११९ मुद्राभ्यो वा ३११११२० गेः काशे ४।३।२२४ क्षद्वसतेरिट ५।१११०० गत्यर्थवदेऽच्छः शरा१३८ गेः खद्यञोः ५१४६ लुब्धस्वान्तध्वान्तलग्न-५।१।१२६ । गत्वरः ।।१४७ गेः सुञ मुसोस्तुस्तुमः ५।४।४५ चुनादिपु ५४११७ गदमदचरयमोऽगेः २११८७ गेऽत उत् ४|४|१०० २।३।३३ । गन्धनावक्षेपसेवाऽन्याय- ११२।२७ | गे यक् २०६३ क्षेपाव्यथातिग्रहेष्यकर्तृ- ४/१५१ | गन्धस्येरुत्पूतिसुसुरभि. ४।१३६ | गेरध्वनः ४।२।८७ १३१४१ गमः २।२४५ गरयतौ ५३।३७ क्षेपे किमः ११३१५९ गमः क्वौ ४|४|४१ | गेरसेऽपि विकृतेः ५.४।६८ क्षेमप्रियमद्रेण च २।२।४२ सोमहनजनखन- ४।४।९३ गेरूहः प्रः ५ारा१३२ झे मः ५।३।६८ गमिषयमा छः પારા गे स्तोऽचः ५।२।१४९ क्सस्याचि खम् ५।२।६६ | | गमेरिण मे ५।११०६ गेहे कः २।१।११८ गमो वा १।११८७ गोः ४।४।१ खं पादस्याहत्यादेः ४।२।१३६ | गम्भीरायः ३३३३३ गोखलरथात् ३।२।४३ खं पिरश्चस्येत ५।२।११७ गम्यादिवर्त्यति २।३।१ गोत्रावयवात् ३११६४ खः ६।१।१२८ गर्गादेयं ३।१।१४ गोधाया गारः ३१११११८ खचि ४/४/८८ गर्तधुगहादिभ्यश्छः ३।२।११४ गोपयसोयः ३।३।११८ खट्वाऽक्रमे १।३।२३ २।३।१२५ । गोऽपित ११११७८ खमादेशे ५।१।१४६ गवारवादीनि च ११४/८७ गोब्रह्मवर्चसात् ३१४/३६ खरि ५/४/१३० गष्टक २।२।११ गोयवाग्वपदाती ३।२।११३ खश्चात्मनः २१७१ गाऽगयोः ५।८१ गोरहृदु पि ४।२।९४ खारीकाकणीभ्यां कप ३।४।३० गाङ्कुटादेरणिन्ङित् ११७५ गोरिन्द्र ऽव ४।३।१०१ खार्या वा ४।२।१०४ । गालिटि १।४।१२१ । गोर्णित ५ाश६७ तुश्रुषः क्षेपे For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-सूत्राणामकाराविक्रमः गोत्रीहेः शकृत्पुरोडाशे ३।३।११३ । प्रो वा ५।२११६ | चर्मणोऽज ३।४।१४ गोहे रूडः ४|४८३ चर्मण्वदष्ठीवच्चक्रीवद् ५।३।३३ गौणादाचारे २।१८ ङनुदात्ते तो दः ११६ चर्मोदस्योः पूरेः ० २।४।१७ गौरयुथको २१११२० ङमो नित्य ङमुट प्रात् ५।४।११६ चल्यद्यर्थात् शरा८४ गौ भोः कि सिडसोः ४/३६७ चरयात्र खम् ५।१६० गौरादेः ३११२३ ङसिड्योः स्मास्मिनौ ५।११३ . चस्याऽस्वे ४/४/७३ गौ रुवः ।।२१ इसेः ५।१।२८ चस्यैपां लिटि ४।३।१३ गोष्ठीनाश्वीनकौपीन. ३१४१४१ उस्य क्विझलोः क्ङिति ४।४।१३ चात् ५।२।६० ग्रन्थान्तेऽधिके ४।३।१७ इस्यातो नुक ५।२।१८३ चादिरसत्वे शरा१२८ ग्रहिज्यावयिव्यधिवशि ४।३।१२ ङिङस्योरतः श११४३ सायः कीः ग्रहेरः रा२।१३ १११५० चार्थ द्वन्द्वः १।३।६२ ग्रहोऽलिटि दीः डितः सखम् २।४/८० | चि ४।३।२३३ ग्रहोऽवे वर्षप्रतिबन्धे ३२४७ डिति प्रश्च १२।६६ चितेः कपि ४।३।२२८ ग्रामकोटाभ्यां तक्ष्णः ४।।६७ ङिदातः ५||१४० चित्रार्थे २।३।१२६ ग्रामजनबन्धुमहायेभ्य- ३।२।३७ डोखौ ३।१११२ चिदित्युपमार्थे ५।३।१०० ग्राभराष्ट्रयोरण ठौ ३।२।१२७ ऊः खौ पराच्च ४।३।१२६ चिन्तिपूजिकथिकुम्भ. १८७ ग्रामात्पर्यन्वोः ३।३१३७ डेराम म्वाम्नोभ्यः ५।२।११० चिस्फुरोरें ४१३४६ ग्रामाद्यखौ ३१२१७४ उर्थः ५.श११ चे चलम ५/४|१२६ ग्रामस्तुवः क्विम् ।।१५६ | डेसुटोरम् ५।१२४ | चेलेषु क्नोपेः २।४।१९ ग्रीवाभ्योऽण च ३।३।३२ शरा ५.३१४७ ग्रीप्मवसन्ताद्वा ३।३।२१ । णोः कुकटुक् शरि ५१४।१२ | बिडाजादिः १।२।१३२ प्रीष्मावरसमाद् वुन. १३।२४ याम्मृदः ३।११ | वो ५।१३५ ग्रो यङि ५।३।३८ ग्रोऽवात १।२।४७ रचक्षः ख्शात्र १।४।१२५ ३।२।२३ ग्लहोऽन्ने २।३१५७ चजोः कुधिएण्ययोते. ५ारा५६ | छकारकेऽन्यस्य दुक ४।३।२०४ ग्लाभृजिस्थः क्रतुः २।२।११५ चटकापौरः ३।१।११७ छगलिनो दिनिण.. ३।३।८० चतुरनडुहोळ ५११७२ | छत्रादेर्णः ३/३१८० चतुश्शारेरनिकुक्षेः ४।२।१२२ । छदिरुपधिवले. ३।१।१२ घभि भावकरणे ४४२७ चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ५।४।१४० छन्दः खो रा३३२ घयमनुष्ये प्रायः ४।३।२२६ चतुष्पाच्छकुनिप्वपाद- ४।३।११५ छन्दसा निमिते ३।३।१९९ घनान्तर्घणप्रघणप्रधाणो २।३।६९ चतुष्पाद गर्मिण्याः ॥३६१ छन्दसो यः ३।३।४६ घस्लुलुङ्घमनक्तु. १।४।१११ चतुष्पाभ्यो ढा ३।१।१२३ | छन्दोगौक्थिकयाज्ञिक- ३।३।६७ घेर्दीः ५।१६१ चरणानामनुक्तो १४/७६ छन्दोब्राह्मणानि चात्रैव ३४५६ घेलो ४|१११३५ चरगणेभ्यो धर्मवत् ३।३८ छवि ५/४/२५ घोषदादेवुन ४|११६६ चरति ३।३।१३२ ३।४।१४० घौ कच्यनक्खे सन्वत् ५।२११६० । चरफलोरुच्चोङः ५।२।१८५छश्चायुधात् ३।३।१३७ ध्यादेरिका ३।४।१२१ चरेः २।२।१२२ | छादेधे ४।४।९० घ्युङः ५ारा८३ ! चरेष्ट: २१२।२१ | छाया बहूनाम् १/४/९८ For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२८ जैनेन्द्र-व्याकरणम् ४।३।६१ जीविकोपनिषदाविये १।२।१४८ छेदादेनित्यम् ३।४।६२ । जुसि ५।२।८० । अ इच् ४।२।१२८ छोऽनुप्रवचनादेः ३।४।१०४जषोऽत राश८७ । अस्वरितेतः काप्ये फले ११२१६८ छ वोः गुडडेच ४।४।१७। जबश्च क्तः ५।१११०३ जात् स्त्रियाम् ४।।२२ । जश्विस्तम्भुभ्रचुम्लुचु- श५० जिकृतो मुक्५ ।२।३८ जक्षित्यादयः ४३१५ जेः ४३९५४।३।२३४ । जिणमोदींर्मिताम् ४।४८६ जङ्गलधेनुवलजे ५।।३० ज्ञः १२।५३ जिणमोवाडगे जनपद उस ३।२।६१ । ज्ञाकृषीगुङः कः २।१३१०८ | जिण्यराजा न्युबणि- १।४१३० जनशोध ४।४।३१ ज्ञागम्यद्यर्थधेरणि कर्ता णौश।१२२ जिनोपण। ४।२।२१ जनसनखनाम् ४।४।४३ शाजनोजा ५।।७७ जिन्नभिविधौ २।३।६६ जनिवथ्योः ५।४० जीप्सास्थेयोक्ती ११२११८ ञिों २११६२ जनेईः शरा८४ ज्ञोऽगेः १।२।७१ निस्ते पदः २११५१ जन्यधेनुप्यान्नवश्यवन्य-३।३।१६५ ज्ञोऽपह्नवे शरा४० जीतः क्तः २।२।१६५ जयजभदहदशभञ्जपशाम्५।२।१८४ जो स्वार्थे करणे ११४५८ | रुपः ४/४/६५ जम्ब्वा वोश्च ३।३।१२३ रज्यः ४।१।१२०:४।३।३५ णित्यचः ५।।३ जय्यलभ्यकार्यसुकरम् ३।४।९२ : ज्यादेयसः ४|४|१५२ निणहदरक्तविकारे ४।३।१५१ जराया वासङ् ५।१।१६० ज्योतिगयुपः स्तोमः ५।४।६४ | जल्पभिक्षकुलुएट- २।२।१३८ ज्योतिरुद्गतावाङः श१३६ टखोरेवाहः ४।४।१३३ 'जश्शसोः शिः ५.१।१७ ! ज्योत्स्नातमिस्राङ्गिणी-४४१४० टगमनुष्ये रास५० जसः शी ५।।१४ | ज्वरत्वरस्तिव्यविमवां वोटो:४१४११८ टाबृनि ३२११६ जसि ५।१०४ । ज्वलितिकसन्ताएगा: रा११११३ टिड्ढाणज टण्ट क्वरपः३।१११८ जागुः २।२।१३६ टिदादिः १११५३ जागुरविञिणल डिति ५१८२ टिहटेरे २२४६५ जातमहद्वृद्धादुक्षः ४।७८ मकालतनेकालेभ्यो वा ४।३।१३३ टे ४।४।१२६:४।४।१४५ जातरूपेभ्यः परिमाणे ३।३।१०४ | झयो हः ५।४।१३६ । टौसिम्येनदेतदश्च ४।३।११९ जातिनाम्नः कः ४।१।१३७ झरूपकल्पचेल इन वगोत्र४।३।१५५ टफरण कापिश्याः ३।२।७८ जातिश्च ४।३।१५३ झरो झरि स्वे ५।४।१३६ ट्वितोऽथुः २१३१७१ जातुयद्यदायदौ लिङ् २।३।१२३ झलां जश् झशि ५।४।१२८ । जातेरयोङः १११८३ ठ कवचिनश्च ३।२२६ जातेयंत् ३१११४५ झलो जश ५।३।५७ टड्भन्त्रादेः ३।३।१३९ जातेश्छो बन्धुनि ४२११८ झलो झलि ५।३।४४ टएछौ ३।२।६४ जायापत्योर्लक्षणे २।२।५१ झल्यकिति सृदृशोऽम् ४।३।५१ टश्चावयसि ३४८१ जायाया निङ् ४।१।१३५. झावनिष्टोक्ती कृतः ।४।४४ टस्येकः ५ारापू४ जासनिप्रणनाटकाथ- ११४/६३ झिविभक्त्यभ्यासद्धय- १५ टाऽचि द्वितीयात्परोऽच:४११११३६ जिह्वामूलाङ्गलेश्च्छः ३।३।३८ झिसर्वनाम्नोऽप्रायः४।१।१३० टनावतः ४|११४१ जीवति वंश्ये युवाऽस्त्री ३।१८१ झेर्नुस् २।४।८८ टोऽगारान्तात् ३।३।१८७ जीवाकृते ग्रहिकृतः २।४।२१ मेस्तुट ३।२।८१ जीविकार्थेऽपण्ये ४।१।१५३ : झोऽन्तः ।।४६ ३।१५३ मलिक For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ये ग्रहणे कः डटो वयसि डरन्वोः इत्यात्मनः डीप्रमाण्योर: sis: ३|४|४७ डड्गुणतृतार्थ ११३/७५ इतरादेः पञ्चकस्य टुकू ५।११२२ डनाद् बुट् सोचः ५|४|१३ डाजर्हस्येतावतः ४३८५ २/११११ २१३/७० लोहितात् क्याम् वितः त्रिः द जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिकमः चौ |४|११११ | ४|१|५३ एवोर्व्याः ४/३/१५० त ४/३/१२५. तः ३३ १०२ २२८५ तः सेट् पूशोखिन् ११६६२ ४/२/११६ २११७२ ३|१|१२२ दणि खम् दृण् च मण्डूकात् देः खम् ३|१|१०८ ४/४११३५ ५|४|१७ टोटे खम् दुखे पूर्वस्याणो दी: ४।३।२१६ हूण रण www.kobatirth.org २४८ ४ | ३ | ४५ तक्षः स्वार्थे ततः श्रागतः २।१।१०१ श्रावश्यके ५/२/६५ यासश्रन्थिविन्दि- २२३८९ ? प्योऽतिथेः ४/२/३३ ततो नु ततो यूनि तत्र तत्र जातः तत्र दोयते भववत् तत्र नियुक्तः तंत्र साधुः तत्रेदमिति रुरूपे तत्रेव ३|१|११६ | तत्रोतममत्रेभ्यः तत्र भवः तत्र विदितः २|१|१०६ राशदर तदर्थं विकृतेः प्रकृतौ ३|४|१५ तद्गच्छति पथिदूतयोः ३/३/५९ तद्दीयते नियुक्तम् ३।३।१८४ तद्धरति वहत्यावहति ३/४/४६ तद्युक्तात् कर्मणोऽण ४।२।४२ २।३।४८ तद्योजको हेतुः ११२/१२६ तद्वत् ५/२११७१ ४।३।७३ ३ | ४ |४३ ३।३।२०२ ११३८६ ३|४|१०८ ३१२१९ ४२२८ तत्प्रकृतोक्तौ मयट् तत्प्रत्यनुमीप लोमकुलात् ३।३।१५१ तथोर्धोऽवः ३१११८० १।३।४० ३।३।१ तद्वेच्यधीते Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२६ तदस्यास्त्यस्मिन्निति मनुः ४ |१| २३ तदस्यास्मिन्निति ३२४/८९ ३।३।१८६ तनोतेर्यकि ३।३।२८ तनोतेर्वा तद्वहतिरथ युगप्रासङ्गा-३।३।१६१ तद्वाचि धौ वाऽयदि २।३।१३१ ३/२/५१ १|४|१४८ तनादिभ्यस्तथासोः म चाभीदये गुरो वा ४|४|१४६ तदः णाविष्टवन्मृदः शिचः ११२७२ | तदधीनोक्ती मिश्रिद्र कमेः कर्तरि कच्२ । १ । ४३ । तदन्ता धवः णेः २|३|७७; ४|४|५.३ गेर्भीस्मेर्हेतुभये १/२/६४ तदर्हति ३/४/६० तस र्वा ५|४|१०९ तदहं त् ४/३/५४ ३|४|१०६ तसादौ तदस्मिन्नधिकमिति ३/४/१६७ तदस्मिन्नन्नं प्राये खौ ४। १ । १४ गौ कच्युङ : प्रोऽशा ५/२/११५ तदस्मिन्नस्तीति देश: खौ ३।२२५७ जो नः गोऽनितेः ५|४|१०४ रेणौ गमज्ञाने २ गौ मृगरमणे ११४|११८ तदस्मन् युद्धे योद्ध ३।२।४८ ४/४/२६ तदस्मिन् वृद्ध यायलाभ ३/४/४६ १|४|१२३ तदस्य पण्यम् णौ सन्कचोः ३।३।१७१ ३४८/८७ एयः तदस्य ब्रह्मचर्यम् तदस्य संजातं तारका- ३।४।१५७ तदस्य सोदम् तदस्यांशवस्नभृतयः ३।३।२७ ३/४/५५ For Private And Personal Use Only ४|४|४६ ४|४|१५ तपःसहस्राभ्यां विनिनौ ४|११२६ तपस्तपःकर्मकस्य कर्मवत् २।१।६१ सपोऽनुताने च २।११५६ तमेष्टावतिशायने ५। ३ ५६ | तयोर्व्यक्तखार्थः तप्तान्ववाद्रहसः ४/२/८४ तमधीष्टो भृतो भूतो भावी ३।४।७६ तमसो ऽवसमन्धात् ४१२ ८१ ४/१/८५ तरति ४ ३५९ ४/१/११४ २/४/५५ ३।३।१३० ३/२/१२३ ५/१/१५५ २११२८३ ३३८२ ४ | ३|१४७ ४/१/७४ तसे: तस्मै प्रभवति सन्तापादेः ३/४/६५ तस्मै हितम् तवकममकावेकार्थे १६ fe ३|४|११ तव्यानीयौ तस्य ३१४१४ ३|४|१०६ तस्य दक्षिणायज्ञाख्यात् ३१४८८ तस्य धर्म्यम् तस्य निवासादूभव तस्यन्तिकस्य कादेः तस्य पूरणे डट ३।३।१६८ ३२५६ ४|४|१४२ तस्य वापः ४|१११ ३|४|३६ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३० तस्यापत्यम् तस्येदम् तस्य विकारः तस्य व्याख्यान इति च ३।३।४२ तस्य शतृशानाववैकार्थे २।२।१०२ तस्य समूहः ३२३२ ३ | १|७७ ३३८८ तुरिमेयस्सु १।३।७० तुह्योस्तातङ्ङाशिपि १|४|४६ १/४/३९ ४|१|११७ ४|३|१३४ ३|४|१४३ ४/२/५३ ता शेपे १/४/५७ ५।२।१५.२ तासस्त्योः खम् तासामाप्परास्तद्धलचः १/२/१५८ तास्थाने १|१|४६ ता हेतौ ११४/३५ ति १/२/१३१; ५।२।१८६ तिककितवादिभ्यो द्वन्द्वे १|४|१४० 'तिकादेः फिञ् ३|१|१४१ तिकियेऽदो जग्धिः ११४/११० तिकुप्रादयः ११३३८१ तिकुत्रतथ सिसुसरकसे- ५।१।११६ तित्तिरिवरतन्तुखण्डि ३३३३७८ तिपि धोः ५३८० तिरश्च्यपवर्गे तिरसस्तिर्यखे ता ता चानादरे ताऽतसर्थे त्येन तादी झः ताया श्राक्रोशे ताया रूप्यश्च ताया व्याश्रये www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३।३।१०२ । तुन्दादेरिल: तिरसो वा तिरोऽन्तर्द्धां तिलयवादखौ ३|३|११२ तिष्ठद्वादीनि च १३ | १४ तिष्यपुनर्वसूनां भद्वन्द्वे १११६६ तिप्यपुष्ययोर्भाग तीयस्य ङिति ती सहलुभरुपरिषः तुण्डिवतिवलेर्भः तुन्दशोकयोः पीरमृजाप- २ २ १० ४१११५६ तुभ्यमयौ ङयि तुमर्थाद् भावे तुमीच्छायां धोर्वोपू तुमेककर्तृके तूदीवर्मतीभ्यां ट तूष्णीमि भुवः तुजकाभ्यां योगे तुज्याश् चाहे तृणद्द इम् तृणे जाती तुन् तृप्यस्वोः क्रियान्तरे तृतपोः तोरवे घञ तें ये ते द्रयः तेन तेन क्रियातुल्ये तेन क्रीतम् २४/४५ तेन वित्त ४|४|११३ २/३/१०१ ४/४/५९ ४/२/९ १२१३२ २० ३|४|१०७ ३१४/३५ तेन दीव्यति खनति ३।३।१२७ तेन निर्वृत्तः ३२५८ ३/४/७५ तेन प्रोक्तम् ३।३।७६ तेन यथाकथाचहस्ताभ्यां ३|४|११ तेन रक्तं रागात् ४/३/२०० तेभ्य इपू च ५/४/३० तेभ्यो भवति वा ११२/१४० तेरसंख्यादेः ते विभक्त्यः ते विंशतेडिति ते सेटि तोः सः सावनन्त्ये ४|४|१३९ १|१|४४ तोर्लि ५।१।९६ तौ सद् त्यः त्यखे त्याश्रयम् ४|११४३ ५/१/१५४ १/४ २५ २११५ २/३३१३४ ४|४|१४४ | त्यादेशयोः ५/११३० ३३।६८ २|४|४८ १।३।७८८ २/३/१४५ ५६० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११११६९ दादि त्यदादेर: ५|१|११६ त्यदादौ दृशोऽनलोके टक्चरा२५८ व्ययोश्च ५|१|१५७ त्यस्थे क्यापीदतोऽसुपो ५। २५० ५/४/३६ त्रपुजतुनोः षुकू ३।३।१०६ सिगृधिधृपिक्षिपः क्नुः २/२/११६ त्राघ्नाही नुदोन्द विन्ते- ५/३/७३ त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृ-५।१।१५८ त्रेः त्रेनू कट्याः For Private And Personal Use Only ४ ३ २०६ | त्रेस्तु च २२/११३ २|४|४२ ३।३।१४४ ३१२/४४ ४/१/७ ५/१/३५ ५|१|१५६ २१४/३७ ५।३।१६ रवाही सौ ५।१।१५.३ वेड्यापोः क्वचित्खौ ४ | ३ |१७३ श्र स्त्रयः त्वमावेके स्वपादाने त्वामाविपः थः थवित्तेः थस्नोरातः थस्य थस्य गे पित्याच ३/२/१ यासः से ३|४|१४६ थो न्थः ४ | ३ |४ २४८६ ४|४|१०२ ४/३/३० ११४|४३ २।३।१३६ दः ४|११६ _४|१|६१ ४|१|१०० दक्षिणादा ४|४|१२८ दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक् ३ २|७७ ४/४/५४ दक्षिणेर्मा लुब्धयोगे ४/२/१३७ ५|१|१६४ दक्षिणोत्तराधरादात् ४|११६८ दक्षिणोत्तराभ्यामतस् ५|४|१३४ ४ १ १६४ २३/४/६४ २१२/१०५ २११११ ४|४|१६४ १११।६३ श२/१३ ५/२/८५ २२४/६६ ५।११६४ दण्डादेः afuseस्तिनो स्के दघ्नष्टक द ढंशसंजस्वजां शपि ४/४/२४ ५३८२ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दन्तशिखात्खौ दम्भ इच्च दयायासः दस्ति दाज्ञः दानाजव दादुदमोsसोऽसेः खादेर्घः दाधा भ्वपित् दाट सिदसदो कः दानीम्, www.kobatirth.org दान्तशान्तपूर्ण दस्त दामन्यादेशल: जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः ५/२/१३४ २|१|११६ ३११ | १३१ राराह ४|१| ३६ | दौरकृद्गे २१५८ | दुन्योरगी २|१|३३|| दुसो ४।३।२२५ | दुहानुरुधदुपद्विपह- २१२/११८ २२५ दुहो घश्र २ १/११२ दूराद्भूते ५३८ दूरान्तिकार्थैस्ता च ११४।४२ ५३४६ दृतिकुक्षिकलमिवस्त्यस- ३/३/३१ १११।२७ दृतिनाथयोः पशौ हृञः १/२/३० २ २ १४२ हन्कारा पुनर्वर्षाभ्योऽभुवः ४/४/८० शक्ती ५।३२ ४|११८४ ५।१।१२४ |दृशुरेपू ४२५ दामहायनात् संख्यादेः ३ । १ । १४ दाम्नीशसयुयुजस्तुतुद- २/२/१६० दासगोनौ सम्प्रदाने २५/६० दिक्दाsन्यारादितर ११४ | ३८ दिक्छब्देभ्यो वाकेभ्योऽ ४। १ ६२ दिक्संख्यं खौ दिगादेखौ दिगादेर्यः दिग क्वनित्र दृश्यर्थै श्चिन्तायाम् दृश्यन्ते ऽन्यतोऽपि देङो दिगि लिटि देऽनतः देयमृणे ४१२/१६५ ५।३।१२६ २११८१ १।३।४५ देये त्राच ३१२१८४ | देवताद्वन्द्वे ४|३ | १३९ ३।३।२९ देवतान्तात्तादर्थं यः श२।१२६ देवपथादिभ्यः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थ तिस्यतिमास्यां ति ५/२/१४४ ४२११२० द्यावनुप् द्यावापृथिवीमुनाशीर- शरा२७ युतिस्वाप्यो जिः ५।२।१६७ द्युत्पुषादिलित्सति २|१|४८ द्युद्भ्यो लुङि ११२२८७ ४/१/३४ द्युभ्यां मः घुप्रागपागुदकप्रतीचो श२८० ५/३/२१ ४|११७६ ५।२।१२१ द्रिः For Private And Personal Use Only ४३१ योः ५रा१५ द्योः खं चाऽजिनस्य ४ ११३८ यो जसि च ४/३/६३ यो वरुणस्य ५२८ द्रव्यघनस्पर्शयोः श्यः ४ ३ १६ द्रव्यं भव्ये ४|१|१५८ ५११५ |छुण्यङ्गुलेः ४/२/११४ ३३२२ ४/२/६० द्रेषु तेनैवास्त्रियाम् १/४/१३३ द्रोः ३।३।११९ ५|२/२६ | द्रोण पर्वतजीवन्ताद् वा ३२१/६२ ४/२/३१ | द्वन्द्वं रहस्यादौ ४|१११५४ द्वन्द्वमनोज्ञादेः ५/३/१३. ३|४|१२३ दित्यदित्यादित्यपतिद्योः २ ११७० | देवा दिवः कर्म ३२/७ दिव उत् दिवौत् दिवश्च २११४७ | द्वन्द्वाच्पो रा ४ २ १०८ ११२ ११५ देवात्तल् ४१२३४ द्वन्द्वाच्छः ४ | ३ | १०८ देविकशिशपादीर्घसत्रश्रय- ५।२६ द्वन्द्वावन् वैरमैथुनकयोः ३।३।६३ ५।११६१ देविकुश गौ २/२/१२६ | द्वन्द्वे १|१|३६ १|४|६७ | देशेऽनोरुः ४ २ २०३ | द्वन्द्वे वल्लिङ्गम् १|४|१०२ दिवसश्च पृथिव्याम् ४१३/१४३ देहाङ्गात् ३।३।३० द्वन्द्वे सुः १३६८ दिवादेः श्यः २११६५ दैकान्यकिंयचः काले ४/१८० द्वन्द्वोपतापपाणि- ४१११५१ दिवाविभानिशाप्रभाभा - २२६ दैवयज्ञिशौचिवृक्षिसात्य. ३३११६६ द्वयोरेकः ४/३/७२ दिवो द्यावा ४/३/१४२ दोः कखोङः ३१२/११७ वाराह दिशोऽन्तराले ११३८८ दोः प्राचाम् श२६६ द्वितीयेऽनुपाख्ये ४१३१.८ ५/२/१८ दो दद्भोः ५/२/१४८ द्वित्कुरुनाद्यजादकोश- ३|१|१५३ दी: ११२/१०१ दोपो पौ ४|४|८४ द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच् दीङोऽचि क्ङिति युद्ध ४/४/६२ दोष्ठणू सौवीरेषु प्रायः ३|१| १३६ द्वित्रिपुरुपादायुपः दीपजनबुधपूरितायिप्या २/१/५२ दोश्छः ३२९० | द्वित्रिवहोनिष्कविस्तात् ३|४|२८ दीप्युपोक्तिज्ञाने हवि- १/२/४३ द्मः दीरकितः द्वारा: दिशोऽमद्राणाम् ४/२/२५ ४२२७७ ४/२/११५ ३|४|१६७ ५।२।१८१ यः द्रान्तस्य तो नः पूर्वस्य दो ५ ३५६ ३|१|१४६ १ १/२१ द्वित्रिभ्यां मूर्ध्नः ४१३३६ | द्वित्रिभ्यां वा Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३२ द्वित्रिभ्यामञ्जलेः द्वित्रिभ्यामच द्वि द्वित्वेऽचि द्विदण्ड्यादिः द्विप्राप्तौ परे द्विविभज्येतरेयसू द्विषः द्विषोऽरौ द्विस्तावास्त्रिस्तावानुगमम् ४ २८६ द्वीपाद समुद्रे द्वेस्तीयः द्वयचः चचोऽणः द्वयजचः धः धनुषः धन्वयोङः ध ४/२/१०५ धूमादेः ३२/१०५ ३|४|३४ ४|१|१०८ ! धेऽकौ केः ११२ २१; ११२ ३०३११२|४१ ४/४/६ १ १/५६ | धोर्यङ क्रियासमभिहारे २|१|१९ ४२११२६ धोस्तस्मिन्नेव ४१३७० १/४/६९ व्यपाये ध्रुवमपादानम् १ | २|११० ४|१|११६ ध्वर्थवाचः कर्मरिण २|४|६२ | ध्वाङ्क्षैः २२१०६ ध्वादेः परस ११४।२४ ११३४२ ४ ३ ५३ ३।२।१३० ३|३|४४ द्वयज्यगधकलिङ्गसूरम- ३।१।१५२ नगेरीदपः ४/३/२०२ चष्टनः संख्यायामवा७४ | ३ | १५६ धर्मात् केवलादन् धात्रीहिः धात्रपोत्रे ४|११ ६ नः क्ये ३।१।११० ३|१|१४३ www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् धर्मं चरति धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते ३ । ३ । १९८ धर्मशीलवर्णान्तात् ४|११५५ न जौ जिः न ५२।११६ न कपि नक्तंरात्रि महोम्यो दिवम् ४|२|७६ न क्तिचिदीश्व ४|४|४० नोडाविह्वचः ३|११४६ नवं मृदन्तस्याक ५।३।३० नखं सुविधिं कृत्तुकि ५३३२८ aagarat ३/१/५१ नख न च वाहवयोगे नद्यादेर्द नद्याम्मतुः ३/२/६५ नद्वयचः प्राच्यभरतेषु शरान्ह १|१|१८ न धुखेऽगे १ |२| १०४ नन्दिग्रहिपचिभ्यो ल्यु. २/१/१०७ नमः ५।१।१६ ५/१/२० नपः स्वमोः न पदान्तद्वित्ववरेयलोप- ११११५८ नपरे नः नपोऽज्भलः ५/४/११ ५/१/५१ ४।२।१११ ४|४|६८ ११३१७३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नज ५|२| १४६ २२ १६१ नत्रः ३/४/१२७ नत्रः शुचीश्वरक्षेत्रज्ञ- ५/२/३४ धान्यप्ररोहणे खञ धावृतिः धारीङः शत्रकृच्छणि २/२/१०८ | नत्रोऽन् ४ | ३ |७९ न ५।२।११ ४|३|१८१ धारेरुत्तमर्णः धि धिगत्यर्थाच्च ११२।११२ न दुलोः सक्थिहले ४/२/१२३ ५/३/४३ नञ विसूत्रिभ्यश्चतुरः ४/२/७५ २|४|५८ नत्र से चतुरसंगतलवण ३|४|११५. २१ | ७५ नडशादाडित् शरा६६ नादेः कुकू नादेः फण् धिन्विकृणभ्योर च २१४/१ धुयोगे त्याः रो ३।३।१६२ न ते नासिकायाः खौ ३/४/१५१ न थात् ५/१/५६ न थास्मदः २|४|७१ नदण्डमा वान्तेवासिषु ३३६८ न दधिपयग्रादीनि ११४१६० नदीभिश्व १।३।१७ नदीमानुपीभ्योऽदुभ्य- ३३१।१०२ .३/२/७६ ४|२| १५५ १२राह ५। ३ ५५ न गतिहिंसार्थेभ्यः ४।२।१३३ नगरात्कुत्सादादयोः ३।२।१०६ ३२६६ न गोपवनादेः ३।३।१६२ ११४/१३८ नगो वाऽजीवे ४ | ३|१८५ ५/३/२० ४/३/३१ ४१२१२५ न तिलोकखार्थनाम् ११४/७२ | नमःपुरसोल्योः नपो वा नये For Private And Personal Use Only न प्रतिपदम् न विस्ताचितकम्बल्यात् ३ । ११२७ न बे १|१|३७ ११२२६१ २१३९५ न भाभूकमगमिया ५|४|११३ नम्रान्नपान्नवेदानासत्य- ४ | ३|१८३ नब्बाध्य आसम् नव्भावे क्तः १/३/६८ | नमः शत्रु ४२१६७ ३।२।७१ न रुधः ३|१|८८ नरे लौ ५/४/२६ २११५८ नमः स्वस्तिस्वाहास्वधा१/४/२६ न माङ्योगे ४/४/७१ न माटेरपत्येऽवर्मणः ४|४|१६१ नमिकम्पिस्म्यजस्कमहिं- २।२।१४८ न मुटाविधौ नमोवरिवश्चित्रङः क्यच् २|१|१६ न तो वा ५/३/२९ ४१३८६ न यदनाका २२४१९ २११५५ ४|३१२३० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra न कोड: न वृतादेः न व्यो लिटि जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः न लङ्लु सामीप्यायु- २।३।१११ | नासिकाया नश्चात्स्थू- ४/२/११८ न लिङि ५। १ ८७ नासिकोदरौष्ठजङ्घादन्त- ३।१।४८ नवचेत ५/२/६४ नासिक्यो ङः ११११४ नुवा १/४ / १२६ नास्तिकास्तिकदैष्टिकाः ३।३।१७८ | नृतत्स्थयोर्युत्र निंसनिक्षनिन्दो वा न वर्जने न वा रुप्यमत्वरसंबुषा ५/१/१२८ नवाश्वेः ५/४/११२ नृतैर्यङि ४/३/२७ नवा साका २२६४ १।२११२७ | नेच्यात् ३।३।१९० नेटः ५/२/१७४ नेटि विस्ताचितकयात् ३|१| २७ ४|३|१४६ न शशदवादीनाम् नशेः श नश्च पुंसि नश्चापदान्तस्य झलि नश्छव्यप्रशान् www.kobatirth.org नहो धः नाञ्चैः पूजे नाडीयन्त्र्योः स्वाङ्गे नातोऽम् त्वकायाः नायन्ते नाधार्थत्ये च्व्यर्थे नानेकगे: नानोः नित्यवीप्सयोः निन्दहिंसक्लिशखादनिपानमाहावः ५४८ निमित्त संयोगोत्पादी ५४२ निमूले कषः ५|४|१४ नियोऽवोदोः नश्शि तुक न समाहारे ४२६१ निरभ्योः पूल्वोः निरेकाजनाङ न सामेः ४|२| १३ १११।२२ १।३।७४ न सुदुर्म्या केवलाभ्याम् ५|१|४७ निदुस्सुवेः सुपिसूतिसमाः ५/४/६६ न सेटस्तासि मोडवमि ५/२/३६ निर्धारणे न स्कादन्द्रोऽि ४ | ३ | ३ निर्वाणोऽवाते न स्वतिकिमः ४/२/६६ निवृत्तेऽद्यूतादेः ३ | ३ | १४२ नहिवृतिवृषिव्यधिरुचि-४।३।२१६ निवास चितिशरीरोपसमा २१३३३६ ५/३/६६ नान्याऽऽदिशिग्रहः नाम्यतिसुचतसृ नावो रात् नाशः खम् नाशिष्यगोवत्सद्दले नासिकादौ पेटमः ५५. निः निकटावसथे वसति निजामुच्येप् नित्यं गतिविशेषे ५/१/१०७ नित्यं दुशरादेः ४ | ३ | ३६ | नित्यम् ४|४|११७ ३/४ / ९९ ४ | ३ |६१ ११२/११ ५/३/५१ निविशः ४|४|२६ | निव्यभ्यनुपरेः स्यन्दोऽ- ५।४।५४ ४/२/१५८ निशाप्रदोषाभ्याम् ३।२।१३४ १/४/१५२ निषेधेऽलंखल्वोः क्त्वा २|४|४ ५/४/७६ निष्काच्छतसहस्रान्तात् ४/१/४५ २|४|४७ ४|४|११ १२१५४ २२४१४३ ४/४/३ ४|२| १०२ ११११६१ ५|४|८० ४ | ३ | १६१ नीग्वञ्च सुध्वंसुभ्रंसु ५।२।१८२ शरा३३ | नोतौ च तद्युक्तात् ४ १११३३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीलपीतादकौ नुमशर्व्यवायेऽपि २११२० नेन्द्रस्य ३३१०६ | दनदपतपदभुमा ३ | ३ | १४५ | नेर्विडचिरीसौ ५|३|३ | नेल स्वस्रादेः २/२/१२७ नैकाचः ४|४|१५४ २३६१ | नैकार्थ्यं बोध्ये सामान्य- ५/२/३५ ३/४/३७ | नोङ: ४/४/५ २४/२२ नोडस्फात् क्त्वा १११२६५ २३२५ ४|४|१३० २/३/२६ १|१|६४ ४|११२ २।३।६७ २/३/५४ नौ द्वयचष्टः ३।३।१३१ नौ धर्मविषसीताभ्यस्ता- ३।३।१६७ नौ बुर्धान्ये २/३/४४ न्यग्रोधस्य केवलस्य ५२१० ५/२५८ न्यङ्क्वादेः न्यायपरिणायपर्य्यायः २२३/३६ ५/४/७४ ११२/२५ For Private And Personal Use Only नोऽपुंसो हृति नोमता गोः नोडसे म नौ गदनदपठस्वनः नौ णश्च प ४१२/१५६ पङ्गोः ४२८२ पञ्चदशतौ वर्गे वा पणः परिमाणे ४३३ पक्षान्तिः ३|४|१४५ ५/१६४ पक्षिमत्स्यमृगान् हन्ति ३।३।१५७ निष्णात नदीष्णात प्रतिष्णा५/४/७५ | पंक्तिविंशतित्रिंशच्चत्वा ३|४|५८ निष्कुषः निष्प्रवारिणः ३।१।५७ निसः श्रेयसः ३|४|५८ निसस्तपता बनासेवने २३५५ निसंन्युपाद् हृः निस्तब्धप्रतिस्तब्धौ परणपादमाषाद्यः ३१४/३१ पण्यावद्यवर्यावह्यायोपस- २१८८ शहद ३|१|३१ ३२१२ ५१४/३८ ४|४|४ ३।२।११२ ५|४|११८ ४१३६२ ५/२/८४ पतिः से पतिवन्यन्त न्यौ ५|१८० धारा२७ ५|४|१०० ३|४|१५२ ३|११८ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३४ पथः कट पथः पन्थः पथिमथ्यभुक्षामात् पथो वा पथो बुन् पश्यङ्गकर्म पत्रपात्र- ३।४।१३२ पथ्यतिथिवसतिस्वपते- ३।३।२०७ पदयोर्गृह्णाति ३।३।१६० पदरुजविशस्पृशो घञ् २/२/१५ पदव्यवायेऽपि ३|१|३३ पत्नी पत्यन्त पुरोहितादेयः ३।३।११८ पत्रात् ३।३।६१ पत्रादण् ३|३|९० परिमुखम् ३।४।७१ ३|३|६ ५।११६२ ४/२/६८ ३।३।१६ www.kobatirth.org ५|४|११६ ५।३।१४ पद्ये पन्थो ण नित्यम् परः परकाले कर्तृत् परम् जैनेन्द्र-व्याकरणम् परिमाणाख्यायां सर्वेभ्यः २।३।१९ । पातेर्लुक परिमाणात्संख्यायाः सङ्घ- ३२४|५६ परिमाणाद्भुदुपि ३११/२६ ३।३।१५२ ३२८ ११२।१२ परिषदो ण्यः ३ । ३ । १६५;३।३।२०५८ पादो वा परिस्कन्दः प्राच्यभरतेषु ५/४/५७ परे: पाद्यायें परिवृतो रथः परिव्यवक्रियः • पदस्य परोक्षे लिट् पदस्य टोर्नाम्नवतिनगरी५|४|१२१ परोऽचो मित् पदादपादादौ परोपात् परो म्रिः ५४५६ परेः सृदेविक्षिपरटवद- २।२।११९ परेऽचः पूर्वविधौ परेर्घाङ्कयोगे १११४५७ परेर्वर्जने परेव ५।३।१५ १२४६ पदार्थसम्भावनानुज्ञा पदास्वैरिवाहूयवदयेषु २१११९८ परोवरपरंपरपुत्रपौत्रपदे यो यौ ५२८ परौ भुवोऽवज्ञाने ४ | ३ | १६४ परौ यज्ञे ३१४/७२ परौ वादिदिपरः पदेष्टट् २ १/२ २४/७ | पर्यपाश्चिवः कया १|३|१० १३ | १५ | पर्यभिभ्याम् ४|११७५ २|४|५१ २३२ ११२/१० पर्यासवचनेऽलम १ १/५१ पर्यायार्हणोत्पत्तौ बुण १२/७६ | पर्वतात् २|४|६|देर परस्परान्योन्येतरेतरे परस्यादेः परानुकृञः परावरयोगे परावराधमोत्तमादेः परिक्रयणम् परिखाया ह ३।४।१६ पशुष्वजः समुदोः २/३/५६ परिणाऽक्षशलाकासंख्याः १२३३८ पाककर्णपर्णपुष्पफलमूल ३ । १२५४ परिनिविभ्यः सेवसितसयाम्५।४।५१ पाकमूले पीलुकर्णा- ३/४/१४४ परिपन्थं तिष्ठति ३ | ३ | १५८ पाघ्राध्माधेटदृशः शः २ १ ११० परिभूजिदृतिविश्रीव- २/२/१४० पाघ्राध्मास्थाम्नादाण - ५/२/३६ परिमाणस्याखुशाणे ५।२।२२ पाणिघताडघराजघाः २/२/५३ परिमाणस्यानतोऽर्घाद्वा ५। २/३२ |पाण्डोडण ३|१|१५५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५/३/४० ५। ३/४ ४ | ३ | ३७ २२५ १११।५५ ११२।३५ पिटे चिः ५/३/२ ३।४।१३५ ५।२।४४ ३/४/६५ १।३।४३ ४|४|११६ पाद: पत् पादम्याङमा यस परि- १/२/७३ पादस्य पदाज्यातिगोप - ४।३।१६३ ३|१|१५ ४/२/३२ ५/४/६३ ३।२।४१ २२४ /७८ ३|४|१५४ ४३५६ ३।३।५३ २/३/५१ पितृव्यमातुलमातामह ३/२/३१ २३१४३ | पिष्टात् ३।३।११० २२ १२८ पीलाया वा ३|१|१०७ २१३३१०० ३ | ११३८ ४ | ३ | १५४ ११४/१०८ ५|१|१६९ ३२११ ५१६६ ४ २ ६ | पुच्छभाण्डचीवरारिग २ | १|१७ ३।२८६ पुण्यसुदिवाभ्यां नप् १/४/१०६ कम् ४राहर पुत्राच्छ वा ३|४|४० ३|१|१४६ ४/३/१३५ पुत्रान्ताद्वा पुत्रे वा पुमः खय्यम्परे सोऽनुस्वा - ५ | ४|१ पुरायावतोर्लट् २३२ राहद पुरि लुङ् वा पुरुषहस्तिनोण च ३ | ४ | १५९ ३।२।१२५ पलल्यादेः ११२ ११३ पल्यराजहस्तिभ्यो वर्चसः ४ | २८० पात्राद् घश्च पात्रेसमितादयश्च For Private And Personal Use Only पानं देशे ११३।४९ पापा के कुत्स्यैः पाय्यसान्नाय्यनिकाय्य- २|१|१०४ पारायण तुरायणचन्द्राय ३|४| ६८ पारे मध्ये तया वा १/३/१५ पाशरूपवीणातूल श्लोक-२१११२२ पाशादेर्यः पिच्चास्मदः |३|३|१३३ | पुंखौ घः प्रायेण पिति कृति तुक पितुर्यश्च पुंयोगात् खोरगोपालपुंवद्यजातीय देशीये पुंसि चार्द्धर्चाः पुंसीदोऽय पुंसो Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः पुरुषाढण ३।४६ | पौत्रादि वृद्धम् ३।११७८ प्रयच्छति गहूर्यम् ३।६।१५३ पुरुषात् प्रमाणे वा ३३११२९ | प्यस्तिवाक्से क्त्वः ५।१।३१ | प्रयोजनम् ३।४।१०२ पुरुषे वा ४/३१२१२ | प्यायः पी ४।३।२३ प्रवहः श२।७८ पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सुः २।२२३ प्ये ४/४/३८ प्रवाहणस्य ढे ढस्य ५।२।३३ पुरोडाशाह ३।३१४५ प्ये घिपूर्वात् ४/४/५६ प्रशंसायां रूपः ४।१।१२५ पुरोऽस्तं मिः १।२।१३७ | प्ये च ४।३।३४ प्रशंसेऽहे: २।२।१११ पुवः खौ ।।१६३ | प्रः ४४८७; ५२।१६३ | प्रशंसोक्त्या १३।६२ पुवादुत् ५।११७६ प्रकारे गुणोक्तेः ५३।१० प्रशस्यस्य श्रः ४१११११९ पुस्करादेशे ४/११५६ | प्रकारे था ४१८६ | प्रश्ने चान्तर्युगे श२९७ पुष्यसिद्ध्यौ मे २०१६ | प्रकारोक्तो जातीयः ४।११२८ प्रसहनेऽधेः १।२।२८ पूगाञ्ञ्योऽग्रामणीपूर्व त् ४।२।१ | प्रकृत्याऽचि दिपाः ४।३।१०३ प्रसितोत्सुकाभ्यां भा च १।४।५२ पूङः ५१।९६ | प्रकृष्टे ठः ३।४।१०१ प्रस्त्यो वा ५२६६ पूयजोः शानः २।२।१०६ । प्रकृष्यगर्दै मन्यकर्मण्य- ११४।२७ प्रस्थपुरवहान्तात् ३।२।१०० पूजाकुत्सयोर्व्यत्ययः ३११८४ | प्रचये वा २।४।३ प्रस्यैप ५।२।१०३ पूजिते ५।३६६ प्रजने वाते ४/३१४७ प्रहरणम् ३।३।१७६ प्रतक्रतोरै च ३।११३६ । प्रजने सुः २।३१५८ प्रहरणमिति क्रीडायां ण:३।२।४६ पूर्णाद् वा ४।२।१४६ | प्रजामेधादस् ४।२।१२४ प्रहासे मन्यवाचि युष्म-श।१५४ पूर्वकालै कसर्वजरत् पुराण १।३६४४ | प्रज्ञादेः ४।२।४४ प्रावणणश्छः ३।४।१ पूर्वत्रासिद्धम् ५।३।२७ प्रज्ञाश्रद्धार्चावृत्तिभ्यो णः४।१।२८ प्राक्तेर्वाऽसमः २।११८१ पूर्वपदात्वावगः ५।४।८७ प्रतिकण्ठललामार्थात् ३।३।१६१ प्राक्सितादटापि ५.४१४३ पूर्वम् ११३।६७ प्रतिजनादेः खञ् ३।३।२०३ प्रागद्रोरण ३।१।६८ पूर्वश्च ४।३६ प्रतिज्ञाने समः ।।४८ प्राग धोस्ते १२।१४६ पूर्वात् ४।१२० प्रतिपदमेति ठश्च ३३१६३ प्राग्याण ३।३।१२६ पूर्वादयो नव प्रतियत्ने कृतः श४/६० प्राग्वतष्ठा ३।४।६१ पूर्वान्यान्येतरेतरापरावरो ४११८७ प्रतियोगे कायास्तसिः ४।२।४६ | प्राचां कटादेः ३।२।११५ पूर्वापरप्रथमचरम- १४३३५३ प्रतिश्रवणे ५/३६६ प्राचां ग्रामाणाम् ५२।१६ पूर्वावरसदृशकलहनिपुण १।३।२८ प्रतेः ४।३।१०। प्राचां नगरे ५।२६ पूर्वावराधराणां पुरव- ४११०३ प्रतेरस ईपः ४।२८५ प्राचामिञोऽतौल्वलिभ्यः१४/१३२ पूर्वाहणापराहणाऽऽ मल-३।३५ प्रत्यन्ववात्सामलोम्नः ४।२१७१ | प्राणितालादेः ३।३।१०५ पूर्वे कर्तरि २।२।२४ प्रत्यभिवादेऽशूद्रस्त्र्यसूयके५।३।११ प्राणितूर्यसेनाङ्गानां द्वन्द्व ११४१७८ पूर्वोऽमि ४।३।६४ प्रत्यभ्यतिक्षिपः श२७७ प्राणिन्युप ३।४८६ पृथग्विनानानाभिर्वा १।४।४१ | प्रत्याश्रवः ।।५५ प्राण्यङ्गरथखलयवमाषवृध-३४५ पृथ्वादेर्वेमन् ३।४।११२ प्रथने वावशब्दे २।३।३१ प्राण्यङ्गादातो वाऽलः ४।१।२४ पृषोदरादीनि यथोपद-४।३।२१४ प्रथमचरमतयाल्पार्धकति-१।११४१ प्राण्योषधिवृक्षेभ्योऽवय३।३।१०३ पेषमि ४।३।१६६ प्रपूर्वस्य स्त्यः ४।३।१८ प्रात् ४।३।५८ १४।१३१ प्रभवति ३।३१५७ | प्रातर्निःशरेचप्लक्षान- ५/४/८६ पोटायुवतिस्तोक- शश६० प्रमाणासत्त्योः ।४।३६ | प्रादारम्भे ।२।३८ पोरदुङोऽपिपिरपि- २।१८५ प्रमाणे द्वयसड्दध्न- ३।४।१५८ । प्रादिः १।२।१२६ पैलादेः For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् नमो प्रादगो ५।३।४५ / फेनादिलश्च ४।१।२६ । भक्तिः ३।३।७० प्राद्धृत्यमिङस्ति ५।४।७३ ३।१।१३७ , भक्ष्यान्नाभ्यां मिश्रणव्य-११३।३० प्राध्वं बन्धे शरा१४७ भजो शिवः ।।६५ प्रायाच्चित्तिचित्तयोः ४/३१११७ बन्धोऽधिकरणे २।४।२८ भजभासमिदो घुरः ।।१४४ प्रायोऽनपत्येऽणीनः ४।४।१५५ । बन्धौ बे ४।३।१० भजेौं ४।४।३२ प्रायो (य आ) भीदण्ये राश६९ | बलादेमंतुळ ५।१५७ भर्गात् त्रैग: ३।१११०० प्रावृष एण्यः ३।२।१३६ बले ४।३।२२१ भवतष्ठणछसौ ३।२०६१ प्रावृषष्टः ३।३।२। बहावीरेतः ५.३८६ भवति ११४/७१ प्रियवशे बदः खच २।२।३६ बहुत्वेऽदोरपि ३।२।१०३ भवतेरः ५२।१७३ प्रियस्थिरस्फिरगदेरः ४।४।१४८ बहुपूगगणसङ्घस्य ४१२१४ भवद्भगवदघवतो वा रिः ५।४।३ पुसृल्वः साधुकारिणि २।१।१२२ | बहुलं खौ १।४।१२६ भवद्वद्वा तत्सामीप्ये २।३।१०७ २।२।४ | बहुल गुरुवृद्धतृप्रदीर्घ ४।४।१४९ भव्यगेयप्रवचनीयो- १४५३ प्रेद्वस्तु श्रवः २।३।२६ | बहुलापिन्यालाटौ ४।१।४६ भसन्ध्यातुभ्योऽवर्षा- ३।२।१३७ प्रेलपसमथवदवसः ।।१२६ । बहोर्धा वासत्तौ ४।२।२७ भस्यैषाजाज्ञाद्वास्वानां ५।२।५२ प्रेलिप्सायाम् ॥३॥४२ | बहोर्वस्नसौ ५/३।१७ भस्य ४|४|११८ प्रेल्वाचतुरो नुट ५११३६ | चहौ झल्येत् ५२६८ भस्य टेः खम् ५ाश६५ प्रे वणिजाम् २।३।४८ बचो नृम्खोवा ठः ४।१।१३४ भागाद्यश्च । ३।४।४८ प्रसूजोरिन् २।२।१३६ । बहजादेष्ठः ३।३।१८२ भा गुणोक्त्याऽर्थेनोनैः १।३।१७ प्रषातिसर्गप्राप्तकाले २।३।१३६ | बह्वल्पाच्छस्कारकाद्वा ४/२।४७ भागे चानुप्रतिपरिणा १।४।२२ ५२।१७६ | ब्रह्लादेः ३।२।३१ । भाऽतुलोपमाभ्यां तुल्यार्थः १४४/७६ प्रो घिच १।२।६३ बहूचा बहुल अ | बचो बहुलं ठज शा ३।३।४३ भादाविदमोऽन्वादेशे ४।३।११८ प्रो नपि ११७ बाढ़ान्तिकयोः साधनेदौ४।१।१२२ भादौ वोक्तपुरकं ५।१५३ प्रोऽम्बार्थम्वोः ५।।१०२ बान्तकद्कमण्डलुभ्यः ३।११३० भायुक्तः कालः ६।२।४ प्रोष्ठपदानां जाते ५।२।२३ विभेतेहेतुभये ४३४८ भाया श्रीजस्सहो ४।३।१२२ प्रोप्ठेण्यजात्पदः ४।२।१२१ | बिल्वकादेश्छस्य ४।४।१४३ भार्थे १।४।१४ 'लक्षादिभ्योऽण ३।३।१२२ | बुध्युनश्जनेमद्रस्रोणे:१।२।८३ भावकर्म डि०: १।११३० वादेः प्रः ५२|७८ | बृहतिका ४।२।१४ भाक्वाचिनः २।३।६ बोध्यमसद्वत् ५।३।२४ भावादिमः ३।३।१४३ ३॥श२० ब्रह्मणस्त्वः ३।४।१२६ - भावे २।३।१७ फणां सप्तानाम् ४।४।११६ / ब्रह्मणो राष्ट्रेभ्यः ४२११०६ भावेऽगौ २।२।६२ फण फिनोर्वा ११७६ . ब्रह्मभ्र णवत्रेषु क्विप् २।२।७५ | भावे त्वन्तलौ ३।४।११० फलिभजोः ४।४।११२ ब्राह्मणमाणववाडवात् ३।२१४२ | भासे ११११३८ फलेग्रह्मात्मम्भरिकुक्षि- २।।३१ । ब्राह्मोऽजाती ४।४।१६२ भिक्षादेः ३।२।३३ फलगुन्याष्टः शह ब्रुव आहश्च २२४७० भिक्षासेनादाये २।।२२ फाण्टाहृतेर्णः ३।१।१३८ ५।।६१ । भिद्योध्यौ नदे २।१।६५ फाल्गुनीश्रवणाकार्तिकी ३।२।१८ भिन्नलिङ्गो नदीदेशो- १।४।८३ फिरदोः ३।१११४७ भक्ताण्णः ३।३।२०४ भियः ऋक्लुको रा२।१५३ फुल्ल ५/३१७० भक्ताद्वाऽण ३।३।१८५ मियो वा ४/४/१०५ प्रोः For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः ४३७ भिसोऽत ऐस् ५११८ मदजनलात्करण- ३।३।२०१ । मानां एल्वमथाथुसण- २।४/६८ भोमादयोऽपादाने २।४६१ मद्रेभ्योऽण रा८५ माने क्यः ३।३।१२० भीरोः स्थानम् ५४६३ मधुबम्बोर्नाहाणकौशिकयोः३।१।६५ मान्वधदानशान्म्यो दीश्च२।१।४ भीहीभृहुवामुज्वत् २।११३५ । मधूषशुचिमुष्काद्रः ४।१।३३मालेषीकेष्ठकानां भारि- ४।३।१७५ भुजप्रयाजानुयाजौकप्रयोज्य-५।२।६८ मध्यान्ताद्गुगै ४।३।१३० मावधेः ५।११५० भुजोऽदौ १।२।६३ मध्यान्मः ३।२।१२८ मासाद् वयसि खत्र. ३।४।७७ भुमास्थागापाहाक्सां ४।४।६५ मध्ये पदे निवचने १।२।१४५ मिङः ४।१।११५ भुवः ख्यन्तरे ।।१५२ मध्यादेः ३॥रा६६ मिङस्त्रिशोऽस्मद्यध्म- शरा१५२ भुस्थोरिः ११११६१ मनः २।२।७० मिडैकार्थ वा ११४/५४ भूतपूर्व चरट ३।४।१४२ / मनस्युरनस्यनत्याधाने १।२।१४४ मिशिद्गः २१४/६३ भूतवच्चाशंसायाम् २।३।१०८ | मनुष्यादिष्वरण्यात् ३।२।१०७ मिमीत्र दीडां प्ये च ४१३।४३ भूते १७२२।३।११६ मनो डाप्च ३।१।६ मितनखपरिमाणे पचः ।।३६ भूयहत्ये २।१।९० मनोरुश्चक्षुश्चेतोरहोर- ४।२।५६ मिदेरेप ५।२१७६ भूवादयो धुः ११ मनोरौ च ३।१।४१ मिथस्थतसोऽम्तंतसाम् ।४।८२ भूपाऽपरिग्रहेऽलमन्तः १।२।१३५ मनोर्जातौ षुक चाऽौ ३।१।१४८ मिष्वस्मस्सिब्थस्थतिप्तम २।४।६४ भृग्वत्रिकुत्सवशिष्टगोत १।४।१३६ मन्त्रेस्क्विषु मुक्तापेतापोढपतितापत्र- ११३।३३ भृत्रां त्रयाणामिः ५।२।१७५ मन्थौदनसक्तुबिन्दुवज्र- ४१३॥१७१ मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवण २।१।१८ भृतोऽखौ २११४६३ मन्माभ्यां खौ ४११५८ मुद्गादण ३।३।१४८ भृत वृजिधारिसहि- २१४४ मन्वन्कनिविचः क्वचित् ।।६२ मुमचः ४।३।१७७ भृशादेश्वौ हलो भुवि ।।१० शरा७५ मुषग्रहिरुदविदः संश्च शश८२ भेभ्यो बहुलम् ३३।१३ ममोझयो मतोर्वोs- ५.३१३१ मृगोत्तरपूर्वात्सक्थ्नः ४।२।१०१ भेषजानन्तावसथेतिहाभ्यः४।२।३० मयट ३।३।५६ । मृजेरैप ५/२।१ दिभ्यो ३।४७ मयइवैतयोरभक्षाच्छा- ३।३।१०८ मृइमृदगुधकुथवदवस: १।१।८० भ्यपः ५।२।१५० मयुख्यसकादयश्च १।३।६६ मृदन्तनुविभक्त्याम् ५/४६५ भ्यसोऽभ्यम्यारा२६ । मयो वोऽच्युञः ५१४१५ मृदस्तिकः ४ारा४५ भ्रस्जोरसोरम्बा ४/४४६ मस्जिनशोभलि ५१।३६ मृदो लुलिङोश्च ११२।५७ भ्राजभासभाषदीपजीव-५।२।११६ महतोऽअ खनौ ३।१।१३० मृषः परेः १|७६ भ्रातरि च ज्यायसि ॥१८२ महाराजप्रोष्ठपदाभ्यां ठण ३१२।३० मृपः स्वार्थ १११४९३ भ्रातुर्व्यश्च ३१११३३ महाराजात् ॥३७२ मेघर्तिभयेषु कृतः ४१ भ्रुवो वुक् ३४११४ महेन्द्राद् घाणौ च ३।२।२४ मेनिः २।४/७५ भ्रौणहत्यधैवत्यसार- ४/४।१६६ माङि लुङ्रा३३१५१ । मो नः ५.३३ भ्वसोरेच्च खं हौ ४।४।१०६ माङो व्यतिहारे २४५ मोऽनुस्वारः ५/४/७ माणवचरकात् खत्रा ३।४।१०। म्रौ डाचि नित्यम् ४।३।८७ मड्डुकझर्भराद्वाऽण.३।३।१७५. मातरपितरौवा ४३।१४५ म्बोः ५।३।८४ मतिबुद्धिपूजार्थाच्च ।।१६६ मातुरुत्संख्यासम्भद्रादेः ३।११०४ मतो बच्छरादेर- ४।३।२२२ मातृपितृभ्यां स्वसुः ५।४।६६ । यः ३।४।७८ ५।१।१४८ मत्वर्थे स्तौ १।२।१०८ माथग्रुपदव्यनुपदाक्रन्दं ३।३।१५६ । यः सौ ५।१११६८ मत्स्योङ्यो ड्याम् ४|४|१३७ मानपश्वङ्गयोः कोपौ ४१११११२ । यखावध्वनः ३१४/१३९ For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३८ यत्र वाशब्दे यग् दुहः यङि डुङ asisfa यो वा यचि भः यच्चयत्रयोः यञः यञञोः यञिञोः यत्रयतो दी: यणेत्योः यतः प्रतिदाप्रतिनिधी यतश्च निर्धारणम् यत्तदेतेभ्यः परिमाणे यत्येतदादि गुः www.kobatirth.org ३|३|४० २ १/५७ यसः यस्कादिभ्यो वृद्धे यस्य यांच ४/४/१३६ ५/२/१३६ ५।२।१८० यस्य वा १|४|१४४ याचितापमित्यात्कणू ३।३।१४६ ५।१।१२१ ५। २९२ याजकादिभिः १।३।७२ ५/२/१०८ ११२/१०७ यो यङः २|३|१२४ |४|१|११० | योऽर्धात् २|४|१६ योऽसंख्यापरिमाणा यजयाचयतविच्छप्रच्छ २।३।७२ यजिजपिवददशामूकः २/२/१३५ यजितजिप्रवचाम् १।३।६ २४८४ ५|२|६६ या यज्ञर्विग्भ्यां घञ ३ | ४|६७ | यि ङित्ययङ्ग् - ५ |२| १३९ ४|४|१०८ यज्ञेः स्तुवः २/३३२३ यि खम् ४|४|१५१ जैनेन्द्र-व्याकरणम् याडापः याप्ये पाशः यावति विन्दजीवः यावद्यथावत्यसादृश्ये मोङित् यिट् चेष्ठस्य यित्ये ३|१|१६ |१|४|१३५ ३|१|९० युक्तवदुसि लिङ्गसंख्ये ५/२/६६ युग्यं पत्रे ४|४|७७ युजातः १/४/२२ | युजेरसे १/४ १४९ | युजोऽयज्ञपात्रे गेः ३/४/१६० १२११०२ यत्समयाऽनुः १।३।१२ यथातथयथा पुरयोः क्रमेण५ / २ / ३५ यातयोरसूयाप्रत्युक्तौ २।४।१४ ३ | ४|१३१ यथामुखसम्मुखस्य यथासंख्यं समाः १२१४ यथास्वे यथायथम् ५/३/१२ यद्भावाद् भावगतिः १/४/४५ यभेऽश्ववृषभयोः क्यचि ५ | १| ३२ यमः सन्निव्युपेच २/३/६६ यमः सूचने ११११८६ यमरमनमातः सकू च ५ | १|१३२ यय्यनुस्वारस्य परस्वम् ५|४|१३२ [ यूयवयौ जसि यरो ङो विभाषा डे ५/४/१२५ यूनस्तिः यूनि ये कडाराः यवदुत्तरे ५/३/६ येss aaraकषष्टिकाद्यः ३ | ४ | १२६ ये वा यश्चोरसः २११६७ १/४ /१३४ युवोरनाकौ युष्मदस्मदोः ४|३|६७ ११६८ २|१|१०० २|३|१०६ ५/१/५० ११२६० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir येनालि विधिस्तदन्ताद्यीः १|१|६७ येषां च द्वेषः शाश्वतिकः ११४१८५ योगाद्यश्च ३|४|१६ योङो रुपोत्तमाद् बुञ ३|४|१२२ योऽचोऽरासुयुवः २/११८४ योजनं याति ३|४|७० २२ १५५ ४|४|१५६ ४/४/४५ २३८२ येनाङ्गविकारेत्थम्भावौ १/४/३१ यौनमौखाद् वुञ् वावचि सन्धौ For Private And Personal Use Only खूग्रहवृहगमोऽच् वौ व्याख्यौ मुः र युटू युडव्या बहुलम् युवा खलति पलितवलि - १।३।६३ युवाल्पयोः कन् वा ४|१|१२३ युवावौ द्वौ ५/१/१५१ ५।१।१ ५|१|१४५ युष्मदस्मदोऽकखञ् ३१२।१२१ युष्मदस्मदो ङसोऽश् ५।१।२३ रश्मौ युष्मदस्मदोऽविप्तास्थस्य ५/३/१६ रस्योत्रनपत्ये यूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयः २२३७८८ राजदन्तादौ ३|१|६२ राजन्यादेवु ३|१|७५ रः खम् रक्ते २१३/६७ रज्जेः २|३|९४ रथवदयोः रक्षत्युञ्छति रङ्कोः रजःकृप्या सुतिपरिषदो रथाग्रः रघादेः राजन्वान् सौराज्ये ५/१/१५२ राजश्वशुराद्यः ११३११०४ राजाहः सखिभ्यष्टः रधिजभोरचि रन्तोऽणुः रन्नज्भेट: रभोऽशब्लिटोः राज्ञः क च राशि युधि कृञः राष्ट्र च ३/२/१२४ ३|४|३८ ३/३/५१ ५।३।१०५ २/३/५२ ११२।९२ ४/४/१६ ४।२।१८ ३।३।१५५ ३२७६ ४|११३८ ४/४/२५ ४/३/२०८ ३३८६ ५।१।९३ ५|१|४० १|१|४८ २|४|८६ ५|१|४२ २३१४६ ३/१/७४ ११३६६ ३|२|४६ ५।३।३५ ३|१|१२६ ४१२६३ ३।२।११६ २रारादर ३/४/५३ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रात् रात्राही पुसि रात्र्यहः संवत्सरात् रात्सः रादुचखौ ३|१|२५; ३|४|७६ | लक्षण हेत्वोः रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य ४ | ३ | १८० लङो वा राष्ट्र रि ३|४|८४ लट ५|३|४२ | लभेः ३।४।२६ राद् भूतबलेः ३४८३ राधो वधे ५२/१५६ ५|१|१४४ रायो हलि राष्ट्रवत्तद्वतां सर्व- ३।३/७५ राष्ट्र शब्दाद् राज्ञोऽग ३ | १ | १५० राष्ट्रावध्योः राष्ट्रावारपाराद्धखो रोङलिङ रीत्वतः रीतः रुकौ चोपि चलार्थाच् ५/१/४३ लभपतपदस्थाभूवृषदन- २/२/१३७ लुट २४/६३ | लोकात् लाक्षारोचनाशकलकईमा- ३ २/३ लोट् लालाटिककौक्कुटिको ३।३।१६७ २/३/१३५ २४ ८३ २/३/११० २|४|६६ लिङो ऽनन्त्यसखम् ५/१/१३८८ लिङ चौर्ध्व २|३|७:२|३ | १४० लिङ यदि २|३|१४४ ४|४|६६ ५/२/१३३ ५।१६० २/२/१३० लिड्स्योर्दे रुजर्थश्च भाववाचिनोऽ-११४१६२ लिङ हेतौ लृङक्रियावृत्ती २ । ३।११५ रुदादेगें ५/१/१३५ लिट् २४/६५ २|४|६७ रेश्च सुपि रैवतिकादेश्छः रोगादपनये रोङीतोः प्राचाम् रोऽयुः रोरि रोऽसुपि रौति मृगः १|४|१०४ लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती १ । ३ । ११ २|४|११ २२६६ ५|२/९४ रुद्भ्योऽड्वाजः रुधितुदादिभ्यां श्नम्शौ २/१/४७ रूहः पः ५।२।४७ रूययोर्यः रूप्यदम्यगुण्याः रेरद्धशोः रेवत्याष्ठ ३।२।१०२ ३/२/७३ ल लः कर्मणि च भावे जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः ३/१२/४५. ५२/५३ ५/२/१३७ www.kobatirth.org ३२२८३ ४|१|४६ ४ | ३|१०० ३ | १|१३४ रोमन्थतपः शब्दवैरकल- २/१/१४ ५/४/१८८ ५।३।७८ ३।३।२६ लस्य ५।२।१८८७ ५/२/१३६ | लियेत् ५/२/१८८ लिङ्येतैः लिङ् लिङः सीयुट् लिङाशंसोक्तौ लिङाशिषि लिटस्तयोरेशिरे लिटि वा लिटि वेञो यः लिटीटि रधेः लिडस्फात् कित् लिडुकचि धोः लिड्यङोः लिडबत् कृञि लिप्स्यसिद्धौ ५/४/२४ ३/३/९६ ४ |२| ५४ लिक्यविन्दधारिपारि २|१|१११ ३।२।१०१ लियोऽधार्यसम्मानने च१/२/६६ ५।१।१५६ ५।२।४६ २२९१ १/४/५१ १|४|११७ ४/४/७० ४|४|८१ लियोनुकू लुङ् लुङि लुङ्येत्योर्गाः लुङ्लङ्लङघट ११४/१२२ १२८६ २|२|१०४ ] लुङ्लङोर्वा लुटि च क्लुपः लुटोऽन्यस्य डारौरसः १४/१५४ लुपसदचरजमजमदह- २।१।२१ लूधूसूखनर्तिसहचर इत्रः २ । १ । १६२ २/३/११ ३|४|४४ २/३/१३८ २/४/७२ लोटो लङवत् लोड लक्षणे २/३/६ लोपामादिभ्यां शनौ ४/१/२७ लो मम् २४|५४ | लुलिटोकू Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ १/३६ २/३/५ वः कौ वक्त्यसुख्यातेरङ् १|४|११२ वचने गृधिवञ्चेः वाचिस्वपियजादीनां वचोऽशब्दखौ ४ | ३ | ३२ ५ | १/४१ | वञ्चिलुञ्च्यत्तृषि ११११७६ वितण्डात् ४ | ३|७ | तोरिक ४/३/२६ | For Private And Personal Use Only १।२।१५० लोम्नोऽन्तर्बहिभ्याम् ४/२/११७ लो वा स्नेहद्रवे १|१|४५ लोहितादिसकलान्तात् ३|१|२१ लोहितान्मणौ ४/२/३६ ल्वादेः ५/३/६१ य तो वत्साद्वा ४३६ १/२/६५ ४/३/११ ५।२।६७ १|१|६६ ३|१|९७ ४|१|५ ३/४/२० ३।३।१२ वत्सोक्षाश्वर्षमेभ्यस्त- ४|१|१४६ २१८६ ११२२६९ वदः सुपि क्यप् च वदोऽपात् वधे प्रतैश्च वधे राधेः ५/११७३ २/१/४५. ४|३|११४ ४|४|११४ वनं पुरगामिश्रका सिद्धका ५|४|८८ वनहिरण्ये कामे ४|११६७ वनाऽशो रश्च ३/१/७ वन्याः ४/४/४२ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૪૦ स्वयःशक्तिशीले वयसि वयसि दन्तस्य दतृ वयस्तितुताः वयस्तुलाभ्यां सम्मिते वयस्यनन्त्ये वयोवाक् प्राणिजात्यु वरणादेः www.kobatirth.org वलि व्योः खम् वशि जैनेन्द्र-व्याकरणम् वा कृञधिः वा कृषि वा कोर्यङि २/२/१०७ २/२/१५ ४।२।१४२ ४|१|६१ ३।३।१६६ ३|१|२४ ३२४|११६ वाडगे ३/२/६२ वाऽगेः वा क्यस्य वाक्यस्य टेः पः वाक्यादेर्बोध्यस्यासूर्या वरुणभवशर्वरुद्रेन्द्र ३|१|४२ वर्गान्तात् ३।३।३६ वाऽग्रेप्रथमपूर्व १/४/२१ वर्जनेऽपपरिभ्याम् वर्णदृदादेष्टयण च ३ | ४|११३ वर्णाद्बहुलं तो नस्तु ३।१।३६ वनापायेोग्यानाम् १।४।८६ व नित्ये वर्णों वर्त्यव्यस्य वर्त्यत्वरेऽवधे वर्षाप्रमाणे वस्याभावनि वर्षा दुप्च वलाद्यगस्ये वाऽक्षः वा खौ वागमिङ् २|४|१० ११४ | १४७ प्राकाशाः वाङिरुप्लुवोः वा डिश्योः २|३|४६ ४|४|१२४ वाचंयमासूर्य पश्योपश्य २/२/३८ वाचत्वारिंशदादौ ४|३|१६० ४/२१४१ ४/४/८५ ५/२/६३ ४|२|३७ ३।२८ | वाचस्तदर्थायाः १/४ ७३ वा चित्तविकारे वाचेः वाचो ग्मिन् ४/४/५२ वा निष्कघोष मिश्रशब्दे ४ | ३ | १६७ ५/३६० वा नीचः ४/३/१६० ४१३१५२ ५।३/६ वाऽनुदात्तस्यर्दुङ: २।१।७१ वाऽनुपि ५।४।६७ ४|२| १३४ वाऽन्यस्मिन् सपिण्डे स्थ-३|१|८३ ११३८२ वाऽऽपः ४/४/५७ ; ५।२।१२७ २११२७ ४|३|६४ ११२।३९ १|४|६६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only वा पदस्य वा पदान्तस्य५ | २| १४:५|४|१३३ वा परावराभ्याम् वा परे वाऽपवदितौ १।३।११२ २|४|१८ ४|१|४८ ५/२/२१ वा जसि १|१|४० ३/४/८५ वा जनमुत्रसाम् ५।१११४ वसुध्वंस्वनडुहांदः ५३७६ वसोऽनूपाध्याङः १/२/११८ वसोर्जिः ४|४|११५ ५/१८४ वाऽञ्चेरदिस्त्रियाम् ४/२/१७ ४/३/५५ वाइटा ५/४/५३ वाट्य रोगशोके ४।३।१६२ वाऽऽटकाचित पात्रात्खः वा तरुमृगतृणधान्यायवातातीसाराभ्यां कुकू ४/१/१५५ | वाऽतोऽघोर्यकात् ३।३।१३६ ३/४/५२ ११४ ८८ ४|११५२ ५/२/५१ ४|४|१२० वस्तैर्दज् वस्नक्रयविक्रयाः वस्नद्रव्याभ्यां ठकौ वा दिक्सवे १|१|३६ ३|४|५० वा दैन्याक्रोशे ४|४|६० वस्सदियो वसुलिगमम् २ वहाभ्रे लिहः २२ ३५ ११२/१५; १३/६ वा वा द्योः ५/२/३१ वाहमुहष्णुहणिहाम् ५। ३ ५० वा धेः वा वेट्व्योः वानद्यतने ११२२८२ वा कथमि लिङ् च २|३|११६ २|१|४४ वा कदाकयोः २/३/३ ४|१|८६ १/४/१६ वा नपः ५।१।५७ वाऽवृद्वाद्धोः १।२।१४१ वाऽनन्वादेशे ५।३।२२ ५/२/१६५ वा नाम्नः १११।७१ ४|११६५ २|३|११४ ४|३|१०६ वा पूर्वापरादनात् ३।२।१४० वा बहूनां जातिप्रश्ने ४|१|१४८ वाभादि ११३३८४ ५/४/९४ ५|१|१२३ वाऽभ्यवात् ४/३/२१ वाभ्राशभ्लाशभ्रमुक्रमु- २/१/६६ ४/४/३६ ३१२।१२० बा मावकरणे वा भावारम्भयोः वा मः वा मर्त्ये वाऽमावास्यायाः वा मुचो धेरेप् वा मोः वा म्वोः वा स्वोः खम् वाम्शसोः वास्तुपिनुषसो यः वा रोगात प्रयोः वाद्य वालिटि ३३/७ ५/२/१५६ ४ | ३ | १५६ ५/४/१०७ ४/४/६८ ४/४/७५ ३२/२६ ३/२/१३३ ४/३/२०६ १|४|१२७ ४|१|१०५ १/२/७४ वाडवरस्य वा वाग्गम्ये या विधवधात् ३|३|१४० वा विषादे ११२।४६ वा विशेषवचने महौ ५/३/२६ ३|१|१४४ ५/२/१६३ ५|१|११४ वावेष्टिचेष्टयोः वाशि Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेट: जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः ४४१ वाशिजिलाशिनोः फे दे४।४।१६५ विनस्मायामेधास्त्रजः ४।११४७ । वृद्ध कुञ्जादिभ्यो ऽकः ३।११८७ वाऽशेषात् २।३।११७ | विन्मतोरुप् ५।१।१२४ वृद्धऽच्यनुप ३११७३ वाश्यावारोकात् ४२११४४ विपराजेः १।।१३ वृद्धोक्षोष्ट्रोरभ्रराजन्य- ३।२।३४ वाऽषान्तेऽकखादौ ५।४।१०१ | | विपूयविनीयजित्या- २।१६७ वृन्दारकनागकुञ्जरैस्तत् ११३५७ वाष्पोष्मफेनादुद्वमे २।१।१३ | विप्रसमोऽखौ डुः २।२।१५६ | बृषभोपनहो व्यः ३।४।१३ वा समीपे १।४।६२ विभक्ती श१५७ | वृषाकप्यग्निकुसित- ३३११४० वाऽसुपि ४/३१८० विभक्त का १।४।५० वतो वा ५.१८६ वा सुपो बहुः प्राक्तु ४|१११२७ विभक्त्यामाष्टन: ५।१।१४३ | वेः शालशङ्कटौ ३।४।१४८ वा से ३।१।३५ | विभाषा ग्रहः २।११११७ वेः स्कन्दोऽते ५४/५५ वाऽस्थः स्फादेः ४।४।६७ विभाषाऽचि ५।३।३६ | वे स्कम्भेषः ५.४५९ वा स्वसृपत्योः ४।३।१३७ | विभाषाऽन्यत्र ४।३।१०२ | वेः स्वार्थे १।३७ वाऽस्वाङ्गादेः ३।१४६ | विभाषा लियोः ४।३।४४ | वेङि १।४।११६ वा स्मरणल ५१६८ | विभाषा लुटः सत् २।३।१३ / वेओ वयिः १।४।११३ वाऽऽहिताग्न्यादौ २३।१०३ | विभाषेकोऽस्वे प्रश्च ४।३।१०४ | वेश्च प्रश्नाख्याने २।३।६१ वाहीकग्रामेभ्यः ३।११३ विभाषौषधिवनस्पतिभ्यः ५/४/६० ५।४।६१ वा हेः पृष्टप्रत्युक्तौ ५।३।१६ | विमुक्तादिभ्योऽण् ४।१६५ वेतनादेर्जीवति ३।३।१३५ वाह्याद् वाहनम् ५.४९२ विरामे वा ५४।१३१ वेत्तेः सिद्धसेनस्य ५११७ विशंतिकात्खः ३।४।२९ । विरामे विसर्जनीयः ५/४।१६ वेरितः २।१९४९ विशतित्रिंशद्भ्यां ड्वुरखौ ३।४।२१ विरोधि चानाश्रये १४८६ वेमेंङः ४/४/६९ विंशतेश्च ३।४।१६८ विशिपतिपदिस्कन्दो- २।४।४१ वेवे स्थानान्तात् ४।२।११ विंशत्यादेर्वा ४।१।१० विशेषणं विशेष्येणेति ११३।५२ वेश्च स्वनोऽशने ५४।५० विकर्ण कुषीतकात्का- ३१।११३ | विश्वग्देवयोश्च टेर. ४।३।१६८ वैकशालायाष्ठः ४।११६३ विकणशुङ्गछगलात्- ३।१।१०६ | विश्वजनात्मभोगान्तात् ३।४७ वैकहलि पूर्य ४।३।१७० विकुशमीपरेः स्थलम् ५।४।७० | विश्वस्य वसुराटोः ४।३।२२६ वैकाद्धयमुञ् ४।१।१०७ विचार्य पूर्वम् ५।३।९७ विसमाप्तौ तोऽनञ् १।३।५५ वैनोऽदूरेऽकायाः ४।१।६६ वित्तभित्तदूनगून- ५।३।७४ | | विसारिणो मत्स्ये ४।२।२३ वैशाखाषाढषष्टिकैका- ३।४।१०३ विदांकुर्वन्तु वा २।१३७ । वीप्सेत्थम्भूतलक्षणे- १।४।११ वैषमोह्यस्श्वसः ३।।८२ विदाभ्योऽनृष्यानन्तर्य- ३।१।६३ | बुञ्छणकठेनढरण्य- ३।२।६० वोक्तं न्यक् १३।६३ विदूराळ्यः ३३५८ वुणतुमौ क्रियायां तदर्थाया २।३८। वोके ३।१।११ विदेः शतुर्वसुः ५।१।५५ बृकाट्टेण्यण् ४।२।४ वोदर्ये ४।३।१०४ विदो लटो वा २१४६९ वृजिमद्रात्कः ३।२।१०६ । वोदश्वित: ३।२।१४ विद्भिच्छिदः कुरः ।।१४५ वृत्तिसर्गतायने क्रमः १।२।३४ | वोदितः ५१।१०४ विधिनिमन्त्रणामन्त्र- २।३।१३७ वृद्धचरणाक्च्छलाघाs-३।४।१२४ | वोदुङो भावारभ्भयोःशपः१।१।१४ विध्यत्यकरणेन ३।३।१६४ वृद्धचरणाञित् ३।३।९४ | वोपकादिभ्यः १।४।१३९ विध्वरुषोस्तुदः सखम् ।२।३७ वृद्धराजाख्येभ्यो- ३१३।७४ | वोपदेशेऽत्वदचसृजि-५/१।१०८ विनञ्भ्यां नामौ न सह ३।४।१४७ वृद्धस्त्रिया क्षेपे गश्च ३।११४५ वोपयमे श १४९० विनयादेष्ठण ४/२/४० वृद्धस्य ४।१।१२१ | वोब्दुहदिहलिहगुहो दे ५।२०७० २।२।१५० वृद्धादकवत् ३।३५४ वोमोर्णात ३।३।११७ विन्दिच्छू For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् वोञः ५।१।८२ शकि सहश्च शश८६ | शास इत् ४।४।३३ वोः ११७७ ; ५।२।८८ | शकि हस्तिकवाटे २।२५२ | शास्वस्थसाम् ५४/४० वोर्वात ४/२।१३१ शक्तियष्टष्टीकण ३।३।१७७ शाही ४|४|३५ वो वा किति ४।३।३३ / शक्तौ ४।३।६६ शिखाया बलः ३।२।६८ वो विधूनने जुक् ५।२।४३ शएिडकादेयः ३/३१६६ शिखाशालाशम्यूर्णाश्रियां ४।२।८ वोषजागृविदात् २।११३४ शतमानविंशतिसहस्रवस ३।४।२४ शित्सर्वस्य १।१।५२ वोशीनरेषु ३।२।६४ शतादस्वार्थेऽसे ठयौ ३१४/१८ शि धम् १११।३१ वो कषविचलसकत्थ- २।२।१२० शतादिमासार्धमाससंवत्स- ४११८ शिरोऽधसे पदे ५.४/३५ व्यः ४।३।३६ शताद्वा ३।४/३२ । शिलाया ढः ४|१११५६ व्यक्तवाक्समुक्ती १।२।४४ शदेर्गात् शरा५६ शिल्पम् ३।३।१७४ ब्यजोऽघनचोः ११४/१२८ शदोऽगतौ तः ५।२।४६ । शिल्पिनि ट्वुः २।१।११९ व्यञ्जनैरुपसिक्ते ३।३।१४६ | शपोऽदादिभ्यः १४।१४३ | शिवादिभ्योऽण, ३।१।१०१ व्यतुल्याख्या अजात्या १३।६४ शब्दकर्मणो वेः श२।२६ शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वेन्द्र-३।३।६२ व्यथो लिटि ५।१६८ शब्दददुरं करोति ३।३।१५६ शीडो गे ५।३।१३० व्यधमदजपोऽगौ २।३०६४ शब्दे च श२।१२३ शीडोऽधिकरणे २।२।२० व्यवहपणोः सामर्थ्य १।४।६४ शमित्यामदेर्षिणिन् २।२।११७ शीङोरुट ५शि६ व्यस्य वा कर्तरि ११४/७५ शमित्यामदो दीः ५।२७२ । शीम्बोरात् ५१५८ व्याः २।३।१४७ । शमि धोः खौ २।२।१६ शीर्षच्छेदाद्यश्च ३।४।६३ व्याङश्च रमः श२।८० शम्याष्ट्र लज ३।३।१०७ शीलम् ३।३।१७६ व्याघैरुपमेयोऽतद्योगे ११३१५१ | शरः खयि ५।२।१६२ शुक्राद् घः ३।२।२१ व्यामिश्रः स्वरितः १११।१४ | शरद्वच्छुनकदर्भाद् ३।११९१ | शुच्युब्ज्योर्घमि ५।२।५७ व्युडोऽवो इल: संश्च श१९७ | शरि सश्च ५/४/२३ । शुण्डिकादिभ्योऽण ३।३५० व्युत्तपः १।२।२२ | शर्करादिभ्योऽण ४।१।१६१ । शुद्धाग्रान्तशुभवृषव- ४।२।१४५ व्युदः काकुदान्तात् ४।२।१४८ शर्कराया वा ३।२।६३ ४ारा६८ व्युपेशीडोऽन्त्ये २।३।३७ शर्परे खरि ५/४/२० ३।१।११२ व्युष्टादेरण. ३।४।६० शलालुनो वा ३।३।१७३ शुषिपचेः क्वी ५।३।६७ व्यो खं वा ५.४५ शश्छोऽटि ५।४।१३७ शुष्कचूर्णभक्षेषु पिषः २।४।२० बजयजः क्यप २०३८० शसि ५।१।२५ शूलोखाद्यः ३।२।१२ ब्रजवदलोऽतः ५।११७६ | शसो नः ५।१।२५ शृङ्खलकोदरिकसस्यका- ४।१।१७ ब्रते रा२।६८ | शस्त्रजीविसङ्घायऽवाही ४।२।३ | शृवन्योरारुः ।।१५२ वश्चभ्रस्जसृजमृजयजरा- ५।३।५३ शाकलाद्वा ३३६६ शप्रां प्रो वा ५२।१२४ वातस्फादस्त्रियाम् ४।२।२ शाखादेर्यः ४१११५७ शे मुचाम् ५ .१।२८ बीहिशालेढंग ३।४।१२८ | शाच्छासालाव्यावेषां युक् ५।२।४२ शेवलसुपरिविशाल- ४।१।१४० व्रीह्यादेः ।१४२ शाच्छोर्विभाषा ५।२।१४५ शेषाद्वा ४।२।१५४ शाणात् ३/४/३३ शेषे २।३।१२ ; ३२।७२ शकलादिभ्यो वृद्ध ३।२।८७ | ५।४।१२३ शेषेऽयदौ लुट २।३।१२७ शकवृषशाग्लाभटरभ- २।४५० | शालातुरकूचवार शेषोऽग एव २।४/९४ शकि लिङ् च २।३।१४८ | शालाद् गोखरात् ३।३।११ , शेषौ गुणवचनादेव ४।११११८ शुनोऽतेः शुभ्रादेः शात् 11६६ पाना For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जैनेन्द्र- सूत्राणामकारादिक्रमः ४|४|१० पे कृति बहुलम् शौनकादिभ्यश्छन्दसि ३।३।७७ पेऽङ्गलेर्भिसंख्यादेः श्नसः खम् ४|४|१०१ ४|४|२२ धुवां स्वोरचीयुवौ ४/४/७२ शो श्नान्नखम् ५/६/५९ श्याऽञ्चिदिवोऽस्पर्शापा- ५/३/६५ श्याद्व्यधातुसंसुलिह- २११/११४ श्यैनं पातातलं पाता श्राद्धं भुक्तं ठोऽनेन श्राद्धे शरदः श्रिणीभुवोsit श्यशपः श्रुवः श्र श्रुवोऽनि श्रुस्मृदृशः सनः श्रेण्यादि कृतैः प * पट्कतिकतिपयचतुरां श्रुक् ४। १ । ३ षटोः कः सिः ५/३५८ र्षाणि चारिणस्तोरेव ष्टुना ष्टुः ठिक्लम्वाचमां शिति ५।२।७३ ष्णान्तेल् १।११३४ यो रूपान्त्ययो वृद्धे ३/१/६३ ३१२/५० प्रो नो णः समाने ५/४/८५ ४|१|१८ स ३/२/१३२ २१३२४ २ १/७० २१२८९ ११२५२ १/३/५४ श्रयुकः किति ५/१/११७ शिलपः संख्यादी रश्च १/३/४७ संख्यापरिमाणे डतिश्च३|४|१६३ संख्यात्राड्डोऽबहुगणात् ४/२/६६ संख्यायाः कोऽतिशतः ३|४|१६ संख्यायाः पादशतेभ्यो ४/२/१० २।१।४१ संख्यायाः संख्यासंवत्स ५/२/२० श्लिषशी स्थासवसज- २/४/५७ संख्याया श्रवयवे तयट् ३/४ / १६४ श्वगणाद्वा ३/३११३४ संख्याया गुणस्य नि. ३/४/१६६ श्वयुवमघोनोऽहृति ४|४|१२१ संख्याया ध्वभ्यावृत्तौ कृत्व४।२।२४ श्वसस्तुट् च ३१२/१३५ संख्याया विधार्थे धा ४|१|१०६ श्वसो वसीयतश्च ४२८२ संख्या वंश्येन १।३।१६ श्वादेरावतः ५/२/१३ | संख्या विसायादेरहन् ४/३/२१५ श्वाश्चर्मणां संकोच - ४|४|१३२ संख्ये संख्यया भयासन्ना १३३८८७ श्वीदितस्ते ५|१|१२० | संख्यैकाद्वीप्सायाम् ४/२/४८ सन्धौ व्यस्पद्वचोऽथुकू ५/२/१२८ संज्ञा खुः ४२४/७ ४|३|६० १।१।२६ सन्निविभ्योऽदे ५।१।१२७ संज्ञो भा संवत्सराग्रहायणीभ्यां संशयमापन्नः १।४।२८ | सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं १।३।५६ ३।३।२५ सन्यङोः ४|३|८ ३।४।६९ सन्यतः संसृष्टे सन्लिटोर्जेः संस्कृतं भक्षाः ३ | ३ | १४७ ३।२।११ ३ | ३ | १२८ सपत्न्यादौ संस्कृतम् सपूर्वात् २। ३ । १०३ पूर्वाया वायाः सब्रह्मचारी सत्रह्मचर्यादेः सभाऽराजामनुष्यात् घणमासागण्यश्च पत्वेऽसद्वत् www.kobatirth.org यस्य पुत्रपत्योजिः पोsनत्र्यः संक्ष्णोः "संख्यः ४ | ३ | १३२ | सक्थ्यक्षिदध्यणामनङ् ५।११५४ सक्लेशे ४१२८८ २|४|४० ४ | ३ ६ सख्यशिश्वी ११४/६५ सख्युरको ५|४|१२० | साङ्ङ्घाङ्कलक्षण घोषे सङ्घेऽनूर्द्धे सचस्यो भौ ११२/६२ २२२६ ५/४/४१ ३|४|८८० ४ | ३ |७४ १३ | १६ | संहारोद्यावानाया ४|१|१११ | संहितशफलक्षणवामादेः ३|१|५६ पम् षष्ठाष्टमाद् भागे ञः घात् पदान्तात् ५|४|११४ सः १/३/२ पादिन्धृतराज्ञोऽणि ४|४|१२३ स एषां ग्रामणीः ४|१|१२ षिद्भिदादिभ्योऽङ २३१८६ सकृत्स्तम्बे वत्सब्रीह्योरिः २ २१२९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ४४३ ३/१/५२ ५/१/६६ ३/३/६५ २।३।४० ५/४/१०५ सत्यागतास्तोः कारे सत्सूद्विषद्युजविद - | ३ | १७९ २/२/५६ सदादरानादरयोः १।२।१३४ सदिस्वञ्ज्योः परस्य लिटि५|४ |८४ ५२४/४७ सदोsप्रतेः सद्योषमः परेद्यविपरु- ४११८८ सनः क्तिचि खं च सनः पूर्ववत् सनपू समः ४ ४ |४| ४७ ११२५८ ११४/९३ सनाशंसमिक्ष उः २२१४६ सनि १|४|११६; ४|४|४४ सहिग्रहगुहश्च ५।१।११८ सनिमीमाघुरभलभ- ५/२/१५५ सनीड वा सनीवन्तर्द्ध भ्रस्जदम्भु- ५।१।९७ सनुमः इजादेः ५ ५|४|१११ ४३३२८ सन्कचोर्णी सन्तस्फमहतोः ५/२/१७७ ५/२/६२ २|१|२४ ४/१/२१ ५।३।२३ ४/३/१६३ ४|४|१३१ ११४१६९ २|१|६८ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् समः समि ४ | ३|१६६ | सरजसोवंष्टीवपदष्ठीवा- ४।२।७६ | साधुनिपुणेनार्चामीचते १।४।५१ समजनिषदनिपदमन- २।३।८१ सरोरिजादेः २/१३२ ४/२/६५ ५. ११२९ ३ | ४|९७ |सरोऽनोऽश्यामायसः ४ |२| ६४ | सरोलः ४ / २ / ९६ २३८५ १३ | १ सर्वकुला करीषेषु कषः २।२।४० ३|१|६७ || सर्वचर्मणः कृतः ३/३/१६४ ३ | ४ | १३० सर्वत्राग्निकलिभ्यां दण ३/२/२८ सर्वनाम्नः स्मै सर्वनाम्नः स्याट् प्रश्च५ | २|१०९ सर्वनाम्नो भा च ११४/३६ सर्वभूमिपृथिवीभ्यामण ३/४/४१ ५/३/१ समयस्तदस्य प्राप्तम् समयासपत्रानिष्पत्रा समर्थः पदविधिः समर्थात् प्रथमाद् वा समवायात् समवैति समवाये ४।३।१११ समां समां विजायते ३ | ४ | १३७ समानस्य स ज्योतिर्ज- ४।३।१६२ समानोदरे शयितः समापनात्सादेः समायाः खः समिपृचिसृजिवरः समि मुष्टौ समियुद्रुवः समुदः समुदाय मोग्रन्थे समूले हनश्च समूहवच्च बहुषु समोडकूजे २४/२३ ४/२/२६ १२/१६ समो गम्प्रच्छस्वृच्छ १ २ २४ समो भया १२५० सम्पदा चाभिविध ४२५८८ सम्पर्युपात्कृञः सुड्भूत्रे ४!३|११० सम्पादिनि सम्प्रति सम्प्रतेरस्मृतौ सम्प्रत्यः प्रदा सम्प्राज्जानुनो ज्ञः सम्प्रोदश्च कटः ३।३।२०८ ३४८२ ३/४ | १०५ २।२।१२४ सर्वाणो वा www.kobatirth.org २/३/३५ सर्वात् २।३।२२ सर्वादिः सर्वनाम ५/३/७१ ११२/७० सर्वस्य द्वे सर्वस्य सो वा दि सम्बोधने सम्बोधने बोध्यम् सम्भवत्यवहरति पचति ३/४/५१ सम्भावनेऽलमि स्थानि २/३ १३० सम्माननो सञ्जनोपनयन १ । २ । ३१ सम्राट ५/४/९ सर्वे काभ्यां खः समजुषो रिः संस्थानक्रियं स्वम् सनौ प्रशंसे सस्मे लङ् च सस्सेऽद्युस्थस्य सहन विद्यमानाद् सदस्य सः खौ ३|४|१३ सदस्य सप्रि: २/२/१०१ सहार्थेन १२१४२ सहिवोऽस्यौः ३|१|१२६ सहे १।४।२३ सहेति तुल्ययोगे ४/२/१३० साक्षादादिः १|१|३५ सर्वान्नीनानुपदीनायान ३|४|१३४ | | ३ | ३ | १६३ ५/३/७६ १/१/२ ३१४१४६ | सात् २।२।१०३ सात्तद्विषयात् १/४/५५ सादेः साद्वा कान्ये साधकतमं करणम् साधनं कृता बहुलम् साधने स्वार्थे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सान्ताः साम श्राकम् सामान्येनोपमानम् सामि सायश्चिरं प्राहूणेप्रगे साल्वावयव प्रत्यग्रथ ३/१/१५४ ५/१/१२ | साल्वेयगान्धारिभ्याम् ३ | १|१५१ सावञ्जेः ५|१|१३० सावनडुहः ५/१/६० सावैम्मे ५।१।७७ साऽस्मिन् पौर्णमासीति ३।२।१६ ३/२/१९ ४|११३१ ४|११८१ साऽस्य देवता ३|४|८ (सिकता शर्कराभ्याम् ३२४/४५ सिचो यङि सिति सिद्ध शुष्क पक्वत्रन्धैः सिद्धिरने कान्तात् सिद्धौ भा सिधमादे: ४|२|४६ सिध्यतेरज्ञाते २|३|१५२ | सिन्ध्वपक ५/४/३३ सिन्धवादेर सिपि निर्वा सिलुङ सिलिङ दे For Private And Personal Use Only ११३५० १।३।२४ ३।२।१३६ ४/२/५७ सुञः स्यसनोः १।२।११४ सुत्रो यज्ञसंयोगे १३२६ सुटि पूर्वस्वम् १।२।१५३ सुट् तथोः ५४७८ १२/१०५ १।३।३६ १११११ १ / ४/५ ४|१|२५ ४१३४२ ३ | १/५० ४ | ३ | १८६ ४|३|२०१ | १११८५ १/४/३० ४ | ३ | २१७ २२८३ सिवुसह सुट् स्तुस्वञ्जाम् ५/४/५२ सिस्यसीयुट्तासौ ङौ ४|४|६१ १/४/७ सुः पूजायां न गिति १३/६१ | सुकर्मपापमन्त्रपुण्ये कृञ् २।२।७६ १ | २|१४३ | सुखदुःखयोर्वा कृच्छे ५/३/११ ५/४/७७ सुखादेः ४|११५४ ४|१|१६० | सुखादेः स्वभोगे २|१|१५ ३|१|१२६ सुचः ५।४।२१ ५/४/८३ २२/११० ४३८६ २४|८७ ३|३|४ ३।३।६७ ५।३।८१ २१११३८ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-सूत्राणामकारादिक्रमः ४४५ सुडनपः १११।३२ | सोढः ५४/८१ | स्थानीवादेशोऽनल्विधौ शश५६ सुधातुरकङ्च ३११८६ | सोमवरुणोऽग्नेरीः ४।३।१४० स्थानेऽन्तरतमः शश४७ सुपश्च ११२।१५६ सोमाट्यण ३।२।२५ | स्थादेश्चेन चस्य ५४४४ सुपि २।२।७:५।२।६७ | सोमे सुञः २।२७७ स्थासेनयसेघसिचसञ्ज- ४।४।४६ सुपि शीलेऽजातौ णिन् २।२।६६ | सोडिंति ५।२।१०६ स्थास्तम्भोः पूर्वस्योदः ५।४।१३५ सुपीकोऽचि ५शि५२ | सोऽस्य निवासः ३।३।६३ स्थूलदूरयुवह्रस्वक्षिप्र- ४।४।१४७ सुपो झेः ११४१५० ४।४।११ | स्थूलादिभ्यः प्रकारोक्तौ ४।२।११ सुपो धुमृदोः |४|१४२ सौ मे ५। स्थेण पिबभुभूभ्यः सेमें ११४१४६ सुप्योः ४।४/७६ स्तम्बरमकर्णेजपोश ।१८ स्थेशभासपिसकसो वरः२।२।१५४ सुप् सुपा श३।३ स्तन्मुसिवुसहां कचि ५।४।८२ स्थोऽवविप्राच्च ।।१७ सुभगाट्यस्थूलपलित- २।२५४ स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कु- २।१७७ स्नेहने पिषः २।४/२७ सुम्मिङन्तं पदम् १।२।१०३ स्तम्भेः ५।४।४८ | स्नोर्थात् ५.१११११ सुयजोर्वनिप् २२८६ स्तते भ्रातुः ४।२।१५७ स्नोश्च निश्च २।११५६ सुराशीध्वोः पिबः २।२।१२ | स्तुत् सोमौ चाग्नेः ५।४।६५ स्पर्द्ध परम् शरा६० सुषामादिषु च ५।४।७२ स्तुशासिणवृटुजुषाक्यप२।१।१९१ स्पृशमृशकृषतृपडपो वा २१११३९ सुसंख्यादेः स्तुसुधूत्रो मे ५१।१३१ स्पृशोऽनुदके क्विः ।।५६ सुसर्वााद्राष्ट्रस्य ५।२।१७ स्तेयसख्ये ३।४।११६ स्मृहिगृहिपतिदय- २।२।१४१ सुहरिततृणसोमाज- ४।२।१२६ स्तोः श्चुना श्चुः ५।४।११६ | स्फाहतोऽसुटः ५.१६१ सुहृदुहृदौ मित्रा- ४।२।१५० स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ १।३।३४ स्फादेः स्कोऽन्ते च ५।३।४६ सूक्तसाम्नोश्छः ४।१।६३ स्तोके प्रतिना | स्फादेरातो धोर्यण्वतोऽ ५।३।६० सूत्रारकोङः स्त्रियाः ४।४।७४ | स्काद्ययोरस्फुरेप ५।।१३८ सूत्रेऽस्मिन् सुब्बिधि- ५।११४ स्त्रियां क्तिः २।३।७५ स्फान्तस्य खम् ५।३।४१ सूभवत्योर्मिङि ५२८६ स्त्रियां खौ ४।२।१४३ | स्फायः स्फीस्ते ४।३।१७ सूर्पाद्वा ३।४।२५ स्त्रियाम् ३।१३ स्कायो वः ५।४८ सूर्यागस्त्ययोश्छे च ४।४।१३८ स्त्रियामुप् ३।१।१८ स्फुरिस्फुल्योपनि ४।३।४० सृघस्यदः क्मरः ।।१४३ स्त्री १।२।६३ । स्फुरिस्फुल्योर्निर्निवेः ५४१५८ सजीवनशः क्वरम् ।।१४६ स्त्रीगोर्नीचः शशः स्फेसः श२।१०० सृजुज्वलगृधशुचलष- २।२।१३२ | स्त्रीधेनुवारदारात्पुंसनई- ४।२।७३ स्मिङ: ४/३१५० सृस्थिरे २।३।१६ / स्त्रीपुंसान्नुकत्वात् ३।११७२ स्मिपूर्व शः सनि ५/१।१३३ सेऽङ्गले सङ्गः ५/४६२ स्त्रीभ्यो ढण ३१११०६ स्मृदृत्वरप्रथम्रस्तृस्पशो-५।२।१६२ सेटि ४।४।१११ स्त्रोऽयज्ञे २।३।३०। स्मे २।२।१०० सेधो गतौ ५.४/७९ रुयुक्त पुस्कादनूरेथार्थे ४।३।१४६ । स्मे लोट २।३।१४१ सेनान्तलक्षणकारिभ्य ३।६१४० स्थः २।२।८ स्म्रदर्थदयेशां कर्मणि ११४५६ सेनाया वा ३३।१६६ स्थः कः २।२।६४ | स्यगे सः ५२।१५१ सेनोसुराच्छायाशाला-११४१०१ स्थ इत् ५।२।११८ स्यतासी लुलुटोः २।११३० सेह्य पिच्च २४७४ स्थागापापचो भावे २१३७८ स्यदावोदैधौद्मप्रश्रयहिम- ४।४।२८ सेवलसुपरिविशाल- ४११४० स्थाण्डिल: ३।२।१० । स्यसनोवू द्भ्यः ।।८८ सोः प्रातर्दिवाश्वसः ४।२।१२० | स्थानान्तादुप् ३।३।१० ' स्यसौ कृतचूतच्छद- ५।१।१०५ For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुस्नुवोर्गेवः ४४६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् स्येनान्डस्टाङसेः ५.१।१० | हनो वध लिङि १।४।११४ । हिमकाविहती ४।३।१६५ नु श्रुद्र प्लुङ्ग्युङो वा ५।२।१७६ | हन्तेरघः ५४/१०६ हिम्परे वा ५।४।१० स्वतन्त्रः कर्ता १।२।१२५ । हन्तेजः ४/४/३६ हिम्योर्नुनोः ५/४/१०२ स्वनहसोर्षा २।३।६५ हरत्युत्सङ्गादेः ३।३।१३८ हीने १।४।१५ स्वपितृपोर्नजिङ् २।२।१५१ | हरिताद्यञः ३।१८९ हीयमानपापयोगात् ४ारा५२ स्वपिस्यमिव्येञां यङि ४।३।१५। हरीतक्यादेः २।३।१२४ हुझल्भ्यो हेर्थिः ४/४/६४ स्वयं क्तेन १।३।२२ हलः २।३।१०२, ४।४।२ ४/४/८२ स्वरतिषूङधूसूत्यूदितः ५.११६२ हलन्तात् ११११८४ हक्रोन वा ०२।१२४ स्वरितेनाधिकारः १२।५ हलश्चेजुङ: ५.४११० होऽनुत्सेधे २।२।१४ स्वसखि १।।६७ हलसीराहण ३।३।६२ हृतः ३१६१ स्वसुश्छः ३।१।१३२ हलामचः ५११७८ हृति चैका ४/३११७४ स्वसुश्छणुः ३२१११२१ हलि ४।३।१२६, ५४६ हृत्यचामादेः ५।२।५ स्वसृनप्तनेष्टत्वष्टक्षत ४।४।८६ हलि खम् ५।१।१७१ हृसिन्धुभगे द्वयोः ५।।२४ स्वागतादेः ५।२।१२ हलुङः क्ङित्यनिदितः ४।४।२३ हृदयस्य हल्लेखयाण ४।३।१६१ स्वाङ्गाद्वक्षिसक्नः ४।२।११३ इलोऽनन्तराः स्फः १११।३ हृदर्थयुसमाहारे स्वाङ्गान्नीचोऽस्फोङः ३११४७ ११३।४६ हलोऽनादेः ५।२।१६१ हृदुप्युप् शक्ष स्वाङ्गोतस्त्ये कृभुवः २।४।४६ हलो यः ४/४/५१ हृष्टापचितौ ५.१/१२५ स्वाङ्गेऽध्रुवे २१४१३९ हलो यमा यमि खम् ५।४।१३८ हसोऽवे २।१।११५ स्वाङ्गेषु प्रसिते ४|११२३ हलो हृतो ड्याम् ४१४।१४० हेऽकाले ४।३।१८६ स्वादावधे श।१०६ हल्ङथापो धः सुसिप्त्य ४।३।५६ | हेतावनुना २१४४१३ स्वादुमि णम् २।४।१२ हल्यभकुछुरः हेतुफलयोलिङ् स्वादेः श्नुः ५।३।८६ २।३।१३२ २१११६६ हल्यभोरी: ४।४।१०३ हेतुमति राश२४ स्वाभाविकत्वाभिधान-१११११०० हल्यस्सेः ५२।६३ हेतुमनुष्याद् वा रूप्यः ३।३।५५ स्वामीश्वराधिपति- १४/४७ हेती २११४२ । हल्येतत्तदोरनसेऽकोः ४।३।१०६ १।४।३२ हल्ये हेमन्तात्तखम् ल्वार्थे लुभात् પૂરાહ ३।२।१३८ ५।१।१०२ हल्यैबुप्युतः हेरकचि स्वीकृतावुपाद्यमः પૂરા ૭ ५।।६१ शरा५१ हविरपूपादेर्वा स्वीषद् दुसिकृच्छाकृ- २३११०३ ३।४।३ हे शरदादेः ४२११०६ रा१९६ हैदेप्रयोगे हैहयोः स्वेको दीः हशश्वतोर्लङ् ५.३६३ ४|शब्द हश्च १/४/६४ हो दः ५३१४८ स्वेपः क्यच २।१।६ स्वेषु पुषः होत्राभ्यश्छः हस्तादाने चेरस्तेये २।४।२६ ३।४।१२५ २।३।३८ हो हन्तोणिन्नि स्वोवामौ हस्ते पाणी स्वीकृतौ ११२।१४६ ५।२।५९ રા૪૭૭ हस्ते वतिम्रहः हो हलः श्नः शानः स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस् ३०२ २।४।२५ ॥१७८८ हाकः ४|४|१०६ शक्षणश्वसजागृणिश्व्ये ५११८१ शहाकः क्वि५२११४७ हस्वे ४।१।१४२ हनः सिः १११८८ हात् १।४।१५१, ३।३।३४ ४/४/८६ हनश्च वधः २।३।६३ हायनः २।१।१२१ हालिप्सिचः २।११४६ हनस्तोऽभिणलोः ५।३६ हायनान्तयुवादिभ्योऽण -३।४।१२०० हावामः २।२।२ हनिगम्यचां सनि ४१४।१४ | हिंसार्थादेककर्मकात् २।३।३४ हो जिः ४।३।२९ हनृतः स्ये ५।१।१२९ हितमस्मै भक्षाः ३।३।१८३ / हो जिश्च न्यभ्युपविषु २।३।५९ स्वार्थे हलादस्ते For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जैनेन्द्रवार्तिकानामकारादिक्रमः अ काकारयोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम् प्रकृतसन्धीनां शेवलादीनामिति वक्तव्यम् प्रकरणे तूष्णीमः काम् वक्तव्यः अक्षादूहिन्यामैव्वक्तव्यः रस्त्यस्यत्योर्वचनम् अग्नीधः शरणे वाच्ये रण वक्तव्यो भसञ्ज्ञा च३ | ३८८ अग्रग्रामाभ्यां नियो णत्वम् तस्याद्यादिभ्य उपसंख्यानम् पश्चाड्डिमः अङ्गात्रठेभ्यो वा प्रतिषेधः www.kobatirth.org प्रकरणे अग्निपदादिभ्य उपसंख्यानम् जातेरिति वक्तव्यम् विधौ भयादीनामुपसंख्यानं नपुंसके क्तादिनि १।४।७९ ४|१|१४० | अन्तादिमो वक्तव्यः अप्रकरणे ज्योत्स्नादिभ्य उपसंख्यानम् अत्यन्तापह्नवे लिङ् वक्तव्यः अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे इपा ५/२१११० २।२।२३ ३|१|६१ वृत्यर्थम् २३५२ टाशी का कोटपोटासोटाष्टाभ्योऽपीति केचित् २।१।१४ अणिञोरप्यब्राह्मणगोत्रमात्राद्यवत्यस्योपसंख्यानम् ३ | १|१३ ४|१|१३० अन्नन्तस्य नखं स्त्रियां वा वृत्तिः ४ | ३ |७५ | अन्यत्रापि दृश्यते २|१|४५ ३|१|४७ ११११९८ नौ कर्मणि वाच्यभिधानम् २२८४ अन्तशब्दस्य (सा) ङ्किविधिणत्वेषु गिसञ्ज्ञोक्ता४ | ३ २०२ ३१२/१३६ ११४/६३ ११४/३ अन्यस्मिन्नपि वाचि दृश्यते कारकान्तरेऽपि च २२८४ श्रन्यादेष्ठण वक्तव्यः ३१२११२६ अन्येभ्योऽपि भवतीति वक्तव्यम् पुरोति वक्तव्यम् प्राण्यङ्गादिति वक्तव्यम् |४|१|३०४|१|५० अतन्निमित्तादपि समाहारलक्षणाद् रादुब् वक्तव्यः ३ | ४|२६| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपसव्य इत्यादावपि वक्तव्यः अप्सुमति चाखौ वक्तव्यम् |३|४|९० ४ |१| १८ |सः खं च श्रभ्यर्हितस्य च अरण्याणो वक्तव्यः अभयाच्चेति वक्तव्यम् अभितः परितः समया निकषाहाप्रतियोगेषूपसंख्यानम् अर्थातिदेशाद्विशेषणानामपि तद्वत्ता सिद्धा अर्थाऽसन्निहिते वर्त्तमानादिन्वक्तव्यः अर्धाच्चेति वक्तव्यम् ३/४/२२ २२५ श्रर्धे चोत्तरपदे केवलस्यार्धस्य पश्चभावो वक्तव्यः ४|१|९७ १३८१ अर्धोत्तरपदस्य च दिक्छब्दस्य पश्चभावो वक्तव्यः४ । ११६७ ५|२| १६ | तो नुम् च ५/४/२६ १।२।१२२ अत्र ग्रामग्रहणे नगरस्यापि ग्रहणम् श्रत्राज्ञिकस्येति वक्तव्यम् श्रर्थेषु दिखाद्योः प्रतिषेधो वक्तव्यः श्रधर्माच्चेति वक्तव्यम् अधिकरणविचाले चेति वक्तव्यम् श्रधिकरणे प्यखे का वक्तव्या ३।३।१६२ ४|१|१०६ १/४/३७ नादौ द्वितीयादचः परस्य वा खं वक्तव्यम्४ | १|१३६ नादौ वा खम् श्रनुब्राह्मणादिन्वक्तव्यः नुवाकादयश्चेति वक्तव्यम् अनुसूलक्ष्यलक्षणेभ्यश्च ठण ४|२| १४५ ४|१|४२ ४|१|५१ ४/३/१२७ ४|३|१२७ २।२१४१ अलाबूतिलोमाभङ्गाभ्यो रजस्युपसंख्यानम् ल्पाच्च मेधाया इति वक्तव्यम् श्रल्पील्वादेरिति वक्तव्यम् अवयवयोगे प्रतिषेधो वक्तव्यः श्रवादयः कुष्टाद्यर्थे भया अवादिभ्यस्तनेरिति वक्तव्यम् For Private And Personal Use Only ११४/३ १|३|१०० ३।२.१०७ ४/१/३५ ११६८ ४|१|५६ ३|४|११४ ३|४|१४६ ४२१२४ ४/३/२२२ ११४३८ ११३३८१ २|१|११४ ५/२/५१ श्रवाधयोः (अवोऽधसोः) सखञ्चेति वक्तव्यम् ३।२।१२८ ३/२/५३ श्रवान्तरदीक्षादिभ्यो डिन्वक्तव्यः ३।३।८७ ३.२/५२ अष्टनः कपाले हविष्यात्वं वक्तव्यम् ष्टः कपाले हविषि वक्तव्यम् १|१|१६५ ४/३/१६० ४/३/२२७ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ जैनेन्द्र-व्याकरणम् अष्टाचत्वारिंशतो डबुडिनौ च वक्तव्यौ ३४८७ उगित्कार्य वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति अस्मिन्प्रकरणे तदाहेति माशब्दादिभ्य वक्तव्यम् १११६७ उपसंख्यानम् ३।३।१५६ उत्तानादिषु च कर्तृषु २।२।२० अह्नो रिविधौ रूपरात्रिरथन्तरेषूपसंख्यानम् उत्पातेन ज्ञायमानेऽन्वक्तव्या ११४/२६ ४२२८६ ५।३१७७) । उदीच्यग्रामात् प्रस्थद्योरण वक्तव्यः ३।२।९० उपध्मानीयस्य सत्त्वं वक्तव्यं द्वित्वप्रतिषेधश्च ५।४।२६ अाख्यातमाख्यातेन सातत्ये १।३।६६ / उपमानात् पक्षपुच्छाभ्यामिति वक्तव्यम् ३॥श४८ श्राख्यानशब्दात्प्रतिषेधो वक्तव्यः राश२४ उपवस्त्रादिभ्य उपसंख्यानम् ३।४।९९ श्राख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च ३।२५२ उप स्थामान्तादजिनान्ताच्च वक्तव्यः ३।३।३५ श्राख्यानात् कृतस्तदाचष्ट इति कृदुष्प्रत्यापत्तिः उभयत आश्रयणे न तद्वद्भावः ४/३१७३ प्रकृतिवच्च कारकमिति २।१।२४ | उभसर्वतसोः कार्यो धिगुपर्यादिषु त्रिषु । कृतद्वित्वेष्यिश्रानिवृत्तिश्च कालात्यन्तसंयोगे मर्यादयाम् २।१।२४ | पायोगस्ततोऽन्यत्रापि दृश्यते ।। ११४३ श्राङ्पूर्वादजे: सज्ञायां क्यब्वक्तव्यः २।१।६१ उवर्णादिलस्य च खं वक्तव्यम् ४|११३९ प्राचारे सर्वमृद्भयः क्विब्बा भवतीत्येके उसाख्यायिकासु बहुलमिति वक्तव्यम् ३।३।६१ २।१।६, ४१३।१८० आचार्यादणत्वं च ३।११४२ ऋकारलकारयोः स्वसञ्ज्ञा वक्तव्या शश२ आदिभ्य उपसंख्यानम् २।४/४६ ऋकारान्तल्वादिभ्यः क्तिस्तवद्भवतीति वक्तव्यम् २।३७५ आदेश्चेति वक्तव्यम् __३।२।१२८ ऋणदशप्रवत्सतरकम्बलवसनानामृणे ४१३।७६ श्रापदादिपूर्वपदाकालान्ताद् ठञ्चिठौ वक्तव्यौ ३।२।६२ ऋतुनक्षत्राणां समानाक्षराणामानुपूर्येण आर्यक्षत्रियाभ्यामपुंयोगे वेति वक्तव्यम् ३११४२ वक्तव्यम् १।३।१०० ऋते भासे ४।३।७६ इस उपसंख्यानमजात्यर्थ कर्त्तव्यम् ३५५:३।१६६ इण्वदिकः ५११०६ एकधुराशब्दात्खस्योस्वक्तव्यः ३।३।१६३ इन्प्रकरणे बलाबाहूरुपूर्वादुपसंख्यानम् ४११५६ एकाक्षरपूर्वपदानां द्योः खं वक्तव्यमषषः ४।१।१३९ इन्सिद्धबन्धातिस्थेषु च न भवति ४।३।१३२ | एचो द्वितीयत्वे तदादेः खं वक्तव्यम् ४।१।१३६ इवोपमानपूर्वस्य धुखं वा ४/२०१६ एवे चानियोगे पररूपम् ४/३१८१ इषोऽनिच्छायां युज वक्तव्यः २।३८६ इह तदस्मै दीयते इति वक्तव्यम् १।३६६ एहीडादयोऽन्यपदार्थे ३।४।४६ इह प्रकरणे राजसमानशब्दात् राष्ट्रात् तस्य राजन्य ऐब्दीत्वाभ्यासमतः खं पूर्वनिर्ण येन ४।४।५० पत्यवदिति वक्तव्यम् ३।१।१५५ ओ ईकण च ईबुपमानपूर्वस्य ग्रुखं वक्तव्यम् ईयसो बसे पुंवद्भाववचनम् ईयसो बसे प्रतिषेधो वक्तव्यः ईय॑तेस्तृतीयस्य द्वे भवत इति वक्तव्यम् ३।११७० ओजोऽप्सरसोनित्यं पयसस्तु विभाषया सत्रम् २०१६ ११३८६ ओत्वोष्ठयोर्वा से पररूपमुपसंख्यास्यते ३।११४८;४/३२८१ ४/२।१५६ श्रोदनशब्दाद्वक्तव्यः ३।३।१८२ शश८ ओनयत्यादेः कच्प्रतिषेधो वक्तव्यः २।११४३ ४।३।३ क . कण्वादीनां तृतीयस्यैकाचो द्वित्वं भवति ४।३।३ ४।१।१३६ | कवरमणिशरविषेभ्यो नित्यमिति वक्तव्यम् ३११।४८ उगन्तादियेलयोः खं वक्तव्यम् For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कम्बलश्चोप्रा कृणोऽर्थ (कम्बलाच्च प्राक्ठणोऽर्थे ) नित्यं यो वक्तव्यम् करणादिति वक्तव्यम्. करणेस्तो काल्पकृच्छ, कतिपयेभ्योऽसत्त्ववचनेभ्यो भाके वक्तव्ये कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नोद्वित्वं सवच्च बहुलम् कायामजातावभिधानम् कायुक्तात्परादध्वनो वा वेप्च वक्तव्ये कालभावाध्वगन्तव्याः कर्मसञ्शा ह्यकर्मणाम् कालभावाध्वभिः कर्मभिः सकर्मकवद्भवति किमो वा त्रौ कवक्तव्यः कुत्सायामयं योगो वक्तव्यः कुत्सायामिति वक्तव्यम् कुलकुक्षिग्रीवाभ्यो यथासमयं श्वास्यलङ्कारेष्विति वक्तव्यम् ख खय उत्तरस्य शरोऽपि खलादिभ्य इन् वक्तव्यः खुरखराभ्यां वा न वक्तव्यः जैनेन्द्रवार्तिकानामकारादिक्रमः ग गच्छतौ परदारादिभ्य इप्समर्थेभ्यः गजाच्चेति वक्तव्यम् www.kobatirth.org कुलिजस्यापि प्रतिषेधो वक्तव्यः केवलाभ्याञ्चेति वक्तव्यम् कृष्णोदक्पा पूर्वाया भूमेरत्योऽयमिष्यते । गोदावर्याश्च नद्याश्च संख्याया उत्तरे यदि || क्लृप्त्यर्थं प्रयोगेऽवक्तव्या क्तस्येन्विषयस्य कर्मणीच् वक्तव्या क्रियाविशेषविवक्षायां भाके न भवतः कोशशतयोजनशतयोरुपसंख्यानम् ४/२/७१ ११४/२६ ११४ |४४ ११४/४४ ३|४|७० क्लिन्नस्य चिल्पिलौ लश्चक्षुषीति वक्तव्यम् ३/४/१५४ क्वचिद्दष्टे सामनि जाते चार्थे योऽन्योऽण विधीयते स च द्भिवतीति वक्तव्यम् ३२|७२ क्विपिवचिप्रच्छायतस्तुकटमुजुश्रीणां दीरजिश्च२ |२| १५७ क्षुद्रजन्तूपतापाभ्यां चेष्यते ४|१|२५ गणिकायाः यञ्च वक्तव्यः गत्यर्थानां चेष्टायामसम्प्रातावुभे ५७ ३/४ ३ ३।४।३५ | गम्भीरबहिर्देवपञ्चजनेभ्य इति वक्तव्यम् वे च युक् ११४/४१ गवे च युक्ते अष्टनः प्रात्वं वक्तव्यम् गान्धार्यादिभ्यो वेति वक्तव्यम् યાદ २२८४ गुण क्रियाछायासादृश्ये हसो वक्तव्यः ११४|३७ गुणवचनात्त्वतलोः ३/३/१५८ | गुणवचनेभ्यो मत्वर्थीयस्यो वक्तव्यः २|४|५८ गृह्णात्युचेति वक्तव्यम् ४।३।२०७ गेरस्यत्यूह्योर्वेति वक्तव्यम् ४|१|४९ २८० ३/२/७५ ५।२।२२ ३१४/३० गमयतेः कालहरणे गमादीनां ङखमिष्यते | ३|३|१५६ ३/२/३७ ારારૂપ १/२/१११ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कविधानम् कविधानं स्थास्नापाव्यधिनियुध्यर्थं कर्त्तव्यम् गोष्ठादयस्त्या स्थानादिषु पशूनामिति वक्तव्यम् ३ | ४ | १५० ग्रामाच्चेति वक्तव्यम्, ३/२/७५ ग्लाज्याहाभ्यो निः स्त्रियां वक्तव्यः २/३/७५ घ यापोर्दीत्वं न स्थानिवत् च चतुरश्छयावाद्यक्ष रशु (स्य) खं चेति वक्तव्यम् चतुर्थादचः परस्य खं वक्तव्यम् चतुर्मासारख्यो यज्ञे तत्रभवे वक्तव्यः चतुयनी वयसि द्रष्टव्या चरणाद्धर्माम्नाययोः चरणाद्धर्माम्नाययो रे वेष्यते ५|४|१२७ રારા૪૪ ४।२।११८ | चीवरादर्जने परिधाने वा चुलादेशश्च वक्तव्यः चूर्णादिन्वक्तव्यः ङ चरेराङि चागुराविति वक्तव्यम् चातुर्मास्यानां यखं च ड्वुडिनौ च वक्तव्यौ चित्रीकरणे च प्राप्त्यर्थं शिव वक्तव्यः चिरपरुत्परारिभ्यस्नो वक्तव्यः For Private And Personal Use Only ज ર ११२/१४ ४।३।२१९ ३/३/३३ ४/३/२२७ ४ | ३ | १६० ३।२।४५ ११३/६ ४/३/१४७ ४|१|२३ ४|१|११ १२/२४ ५|२|६८ २१३५२ ५|२|१०० ४/१/३ ४|१|१३६ ३|४|८७ ५/४/११७ ३१२/३८ ३/३/६४ २११८७ ३२४/८० २/११२४ ३।२।१३६ २|१|१७ जटाघटा कालेभ्यः क्षेपे जम्ब्वा हरीतक्यादिषु च उसिलिङ्गमेव उक्तवद्भवति न वचनम् ३१४/१५४ ३।३।१४७ ४|११२५ ३|३|१२४ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् जहि कर्मणा बहुलमाभीदण्ये कर्तारं चाभिदधाति१।३।६६ | तमे परतः तादेः कादेश्चान्तिकस्य खं वक्तव्यम्४।४।१४२ जागर्तेरशी वक्तव्यौ २।३।८३ | तलन्तस्य डिक्योरुभयम् ५।२।१०२ जातान्तात्प्रतिषेधो वक्तव्यः ३।११४५. तसादिषूभशब्दस्य उभयादेशो वक्तव्यः ४१११९१ जिज्ञासावैरूप्याजवनिशानेषु यथाक्रमं सन्निष्यते २१४ | तसिप्रकरणे आद्यादिभ्य उपसंख्यानम् ४।२।४६ जिह्वाकात्यहरितकात्ययो भवत्येव श१/७१ तस्य हृत्यढे ३।४।२६, ३।११४ जीवितपरिणाम इति च वक्तव्यम् ३४५६ ताभ्यामेव पितरि डामहः ३।।३१ ज्योत्स्नातमिस्राभ्यां णिद भवति पक्षे ४|११५० तीयान्तास्वार्थे वा ईकण वक्तव्यः ३)राम तुरभुजयोश्च २।२।४५ झिसंख्यादेरिति वक्तव्यम् १४।१०७ तृप्त्यर्थे तूपसंख्यानम् झिसंज्ञकस्य भमात्र टिखं च वक्तव्यं सायम्प्राति तृप्त्यर्थे योगे उपसंख्यानम् श।३० काद्यर्थम् ४।४।१४२ तेन वाक्दिपश्यद्भयो युक्तिदण्डहरेष्वनुप् ४।३।१३३ झर्भमा टिखम् १।४८५४।२।१२०, ५ाराह त्रिचतुभ्यां हायनस्य णत्वमपि वयसीष्यते ३।१।१४ त्रिप्रभृतिषु न भवति ५/४/१२७ जियकोः प्रतिषेधे णिश्रन्थिग्रन्थिब्रूनां दविधौ धीनां चोपसंख्यानं कर्त्तव्यम् २५० दाणश्च सा चेदवर्थेऽशिष्टव्यवहारे इति वक्तव्यम् १।२१५० दिक्छब्दमात्रादयमेनो वक्तव्यः ४।१।६६ दिक्पूर्वपदस्य चापरस्य पश्चभावो वक्तव्यः ४।१।९७ ठण छ सोश्च ४।३।१४७ दिग्धसहपूर्वाञ्च अत्यो भवति ।।२० ठण प्रकरणे तदस्मिन्वतते इति नवयज्ञादिभ्य उप दुःशब्दे वाचि शासियुधिहशिधृषिमृषिभ्यः युज संख्यानम् ३।२।३० भवन्ति २।३।१०६ ठेनोः समानकालग्रहणं बक्तव्यम् ४।१।१९ दूतकणिग्भ्यां यो वक्तव्यः ३।४।११६ दृष्टे सामनि वृद्धादकवद्वक्तव्यम् ३।२/७३ डटो वा उब्वक्तव्यः ४।१।११। देवस्य यत्रो ३२११७० डट् स्तोमे वक्तव्यः ३।४।२५८. देवानां प्रियादिष्वनुप ४।३।१३४ डुप्रकरणे मितद्रुप्रभृतीनामुपसंख्यानम् २।२।१५६ देवासुरादिभ्यो वुनः प्रतिषेधो वक्तव्यः ३।३।६३ धुश्चोभयाद्वक्तव्यः ४।११८७ देऽपि क्वचिद् पुंवद्भावो वक्तव्यः ४।३।१४७ द्वन्द्वे देवासुरादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तव्यः ३३६२ द्वित्वे गोयुगः ३।४।१५० ण णत्वविधौ गेर्नस उपसंख्यानम् द्विबह्वन्ताच्च करणात्प्रतिषेधो वक्तव्यः ३।४।३५ ४।२।११९ णिश्रिश्रन्थिग्रन्थिब्रूनां दविधौ धीनाञ्च २।१।४३ द्विमात्रात्परस्यापि ५/४/१२७ द्विषः शतुर्वा वचनम् ११३।७५% ११४/७२,३।२।१०६ द्वयक्षरस्य पूर्वनिपातो वक्तव्यः १।३।१०० तः पर्वमरुद्भ्यां मत्वर्थे ४१११५६ तच्चरतीति च महानाम्न्यादिभ्य उपसंख्यानम् ३।४।८७ ततोऽभिगमनमर्हति च वक्तव्यम् धमुञन्तात् स्वार्थे डो वक्तव्यः ४|११०८. ३४/७० धेनोर्न-पूर्वाया नेष्यते ३।२।३६ तदन्ताद्वेति वक्तव्यम् ४।२५६ तनिपतिदरिद्रां वेट ५२।१५५ तपसो मञ्चेति वक्तव्यम् २।१।१४ नक्षत्रयोगे ज्ञार्थे २।१।२४ For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नमोऽनुभावे क्षेपे मिङ्युपसंख्यानम् ननौ पृष्ठप्रतिवचने भूतमात्रे लट् वक्तव्यः भोऽङ्गिरोमनुषां वत्युपसंख्यानम् नशब्दे नुशब्दे च वाचि पृष्ठप्रतिवचने भूते वा लट् वक्तव्यः नुप्रच्छिभ्यां च नृनरयो रैच नाभि नभञ्च निन्दाक्षमा रोगापनयेषु यथाक्रमं सन्निष्यते निमित्तात्कर्मसंयोगे ईव्वक्तव्या निमिमीलियां खाचोरात्वप्रतिषेधो वक्तव्यः निरादयः कान्ताद्यर्थे कया निसो गत इति वक्तव्यम् निसो देशे नेतुर्नक्षत्रे उपसंख्यानम् ध्रुव इति वक्तव्यम् पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे अपा परेर्वा परोक्षे लोकविज्ञाते प्रयोक्तुः शक्यदर्शनत्वेन दर्शनविषये लड्वक्तव्यः जैनेन्द्रवार्तिकानामकाराविक्रमः ४ | ३ | १८१ २२/१०० १ २ १०७ | पुष्पमूलेषु बहुलम् पञ्चजन शब्दादुपसंख्यानम् ३।४।७ पद्यछान्दसा एते शब्दास्तदत्रापि नस् वक्तव्यः ४ । २ । ११८ परिचर्यापरि सर्यामृगयाणां निपातनं वक्तव्यम् २३१८३ परिपार्थ्याच्चेति वक्तव्यम् ३/३/१५२ २३८९ पाशकल्पकाम्याः प्रयोजयन्ति पाशाद्विमोचने पिच्छादेश्चेति वक्तव्यम् पिशाचाच्चेति वक्तव्यम् पर्वा रासू वक्तव्यः पाणिगृहीत्यादीनां गुर्वनुज्ञातेन ङी वक्तव्यः पाणौ समवशब्दे च सृजेण्यौ वक्तव्यः पात्रादिभ्यश्व प्रतिषेधः www.kobatirth.org २१२/१०० ३।४।२ | पूर्वप्रथमयोरतिशये द्वे भवतः पूर्वमासादण् वक्तव्यः २/११३ १|४|४४ ४ | ३ | ४३ ११३८१; ११४ १०२ पुंसाऽनुजो जनुषान्ध इत्यनुब्वक्तव्यः पुच्छाच्चेति वक्तव्यम् पुच्छादसने पर्यसने वा ४५१. ३/३/३५ पुरान्तात्प्रतिषेधो वक्तव्यः पुरुषाद् वधविकारसमूहतेन कृतेष्विति वक्तव्यम् ३३४ ९ ३।३।१२४ पुण्याहवाचनादिभ्य उब्वक्तव्यः पुत्रादिनी त्वमसि पापे इत्याक्रोशे नेष्यते Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वपदस्य च ठाजादौ अनजादौ च खं वक्तव्यम् पृच्छतौ सुनातादिभ्य इरासमर्थेभ्यः पृथिव्या त्रात्रौ ३२८१ पौङ्गीपुत्रादिभ्यश्छो वक्तव्यः प्यखे कर्मणि का वक्तव्या २२४६ | प्यादेशोऽन्तरङ्गस्यापि विधेर्बाधकः १।२।१४ प्रकृत्यर्थस्य षट्त्वे षड्गवः ३|१| २३ | प्रकृत्याके राजन्यमनुष्ययुवानः ४|२| ११६ | प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम् ३१२१८१ २२ ११३८१ ४/२/१५ ३२ ३६ ३ | ११४५ २ १/६२ ११४/९३ ५|४|२६ २११२२ ४|११२६ ४/१/५२ ४ | ३ |१२४ ३|१|४८ | बन्धे द्विधा २।१।१७ ३ | ४ | १०५ ५|४|१२७ प्रादूहोढोढ्ये षैष्येषु प्रावृड् वर्षाशरत्कालदिवां जेऽनुप् फ २|४|४; ४।३।१२४; ४/३/१२५ प्रथमाधिकारे द्वितीयस्यापि वृद्धेऽच्यनुब्वक्तव्यः ३ ३ ६ ३ प्रभूतादिभ्यश्च ३१३/१५६ प्रमाणपरिमाणाभ्यां संख्यायाश्चापि संशये मात्रड वक्तव्यः ३|४|१५८ प्रमाणशब्दा ये प्रसिद्धास्तेभ्यो द्वयसडादीनां ध्वंसनंवक्तव्यम् प्ररोहणे शाकटशाकिनौ ३।४।१५८८ ३|४|१५० प्रश्नाख्यातयोश्च का वक्तव्या १/४/३७ प्राणिनीति वक्तव्यम् ४१२७६ प्राण्यङ्गे नित्यं त्वम् ५।३।३६ प्रादयो गताद्यर्थे च वया १३८१ ११३३८६ ४ | ३ |७५ : ५/३/१०२ ४/३/१३२ फलनहभ्यामिनः फिञप्यत्र भवतीति वक्तव्यम् For Private And Personal Use Only ब बलादूलः बसे कौ मातुरदन्तत्वं पुत्रश्लाघायाम् बहिषष्टिखं यञ्च ४|१|१३६ ३/२/३० ३।३।१५६ ३|१|७० ३।२।२३ ११४/३७ ४|४|१६ ३|४|१५० ३|४|१२३ ४|१|५६ ३|१|१३८ ४।३।१३२ ४|११५६ ५। २/१०२ ३ ११७० Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् बहुष्वनियमः १।३।१०० बाहृयुर्दिभ्यश्चेति वक्तव्यम् शरा७८ यादीनामेकत्वद्वित्वयोर्वा तासे इति वक्तव्यम्।४।१३५ बिल्ववनादिभ्यो नित्यमुस न भवतीति वक्तव्यम् ३।२।४५ यणः परस्य मयोऽचि विकल्पः ५४।१२७ ब्रह्मचर्यमित्यस्मिन्नर्थे महानाम्न्यादिभ्य उप यतश्चाध्वकालपरिच्छेदस्ततः का वक्तव्या १४/३७ संख्यानम् ३/४/८७ यथेष्टं सुब्धुषु वक्तव्यम् ४/३१३ ब्रह्मणि बदेगिन् वक्तव्यः २।०६६ यमाच्चेति वक्तव्यम् ३।१७० ब्रह्मवर्चसादिभ्योऽपि वक्तव्यम् । ૪૨૦ यवनाल्लिप्याम् ३।११४२ यवादोघे ३।१४२ यस्य प्रकरणे वातपित्तश्लेष्मसन्निपातेभ्यः शमनकोपभक्षिरहिंसार्थः कर्मसंज्ञो न भवतीति वक्तव्यम् १।३।१२२ । नयोरुपसंख्यानम् ३/४/३६ भगे दारः खज वक्तव्यः ૨ારા૪૦ येषां च पाकनिमित्तः शोषः तेभ्यश्च उस् फले ३३।१२४ भस्य हृत्यढे ३२११२१; ३३१४९४; ४।१।१६१; ४।३।१४७; ४/३।१५३, ५/२।१० रजकरजनरजत्सु नखे यत्नः कर्त्तव्यः ४।४।२७ भाण्डात्सञ्चयने परिचयने वा २।११७ रणिवशिभ्यामज्वक्तव्यः २।३५२ भ्रातुश्च ज्यायसः १।३।१०० भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितृभ्यां शिष्यत इति न रथसीतालेभ्यो यविधौ तदन्तविधिरुषसंख्यातः ३।३।८६ रथसीताहलेभ्यो यविधौ तदन्तविधिरपीष्यते ३।३।१९७ वक्तव्यम् १११११०० रप्रकरणे खमुखकुञ्जभ्य उपसंख्यानम् ४।११३३ रविधिनंगपांशुभ्याम् ४।१।३३ मणिप्रभृतिभ्य इति वक्तव्यम् रसादिभ्यो मतुर्वक्तव्यः ४।१२३ मणीवादिषु नेष्यते ११११२० राच्च ध्वसनं वक्तव्यम् ३/४/१५८ मधुकमरिचयोः स्थलपूर्वादण वक्तव्यः ३४१७३ राजन्यादिभ्यो वा बुञ् उत्वक्तव्यः ३।२।४५ मध्यादीयो वक्तव्यः ३।३।३५ | राजाचार्याभ्यां भोगान्ताभ्यां नित्यमिति वक्तव्यम् ३/४/८ मध्यो मध्यन्दिनश्चास्मादुप् स्थाम्नो ह्यजि राष्ट्राभिधाने बहुत्वे उस्वक्तव्यः ३।३।४५ नात्तथा ३।३।३५ । रूपाद्दर्शने २।११२२ मरुच्छब्दस्योपसंख्यानम् श।१३० रेरेव काम्ये वक्तव्यम् ५।४।३६ महत्या घासकारविशिष्टेषु व्यधिकरणत्येऽपि पुंवद्भावात्वे भवतः ४।३।१५८ लिटि स्वजेर्वा न खं भवतीत्युपसंख्यानम् ५/४/८४ महाजनाठवक्तव्यः ___३।४।७ | लोम्नथापत्येषु बहुषु ३२११७० महिषाच्चेति वक्तव्यम् ३।२।६७ । लोहितशब्दास्त्रीत्यत्य परत्वादनेन केन बाधनं मासाभृतित्यान्तपूर्वपदाहो वक्तव्यः ४।२।११७ । वक्तव्यम् ४।२।३६ मुखपावंतसोरीयः कुग्जनस्य परस्य च । ईयः कार्योऽथ मध्यस्य मण्मीयौ च हृती मतौ ।।३।३।३५ व उद्गेः ५।४।२६ मूलविभुजादिभ्यः ३।४।८८ वटकेभ्य इन्वक्तव्यः ४।१।१४ मूलान्ताच्च टाप् ३११४ | वर्णानामानुपूर्येण ११३।१०० मूल्यादिति च वक्तव्यम् ३।४।३५ वर्षक्षरशरबराज्जे द्विधा ४।३।१३२ मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्य भवतीशब्दस्य ग्रहणे- वलप्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते इति वक्तव्यम् ४।११२८ ठणछसोः ३२।११ | वशेर्यङि प्रतिषेधो वक्तव्यः ४।३।१५ मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् ४।२।१५६ । वस्त्रात् समाच्छादने २११११८ For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रवार्तिकानामकारादिक्रमः ४५३ वा गोमयेग्विति वक्तव्यम् शरा१०७ व्यासवरुद्धनिषादचण्डालबिम्बादीनामिति वा ठण, छसोः [ठक्छसोश्व] ५।२२ वक्तव्यम् ३।१८६ वाततिलसार्धेष अजतुदजहातिभ्यः खश्वक्तव्यः ।।३२ घतादभोजने तन्निवृत्तीच २१११८ वा तदन्तवालललाटानामूङच ४|१२५ वातात्समूहे तन्न सहते इति च ४|११५६ शंसिदुहिगुहिभ्यो वेति वक्तव्यम् शश६१ वा प्रियस्य ११३।१०१ शकटादण बक्तव्यः ३।३।१६१ वाबन्त इति वक्तव्यम् १।४।९३ शकन्ध्वादिषु पररूपम् ४।३२८१ वामदेवाद्यो बक्तव्यः ३१२|७२ शतरुद्राद्घश्च ३।।२३ वायोरुभयत्र प्रतिषेधः इष्यते ४।३।१३६ शतषष्टिम्यां पथष्टिकः ३२५२ वारिजङ्गलस्थलकान्ताराजशङ्कपूर्वपदादिति शन्शतोर्डिनिर्वक्तव्यः ३/४/१५७ वक्तव्यम् ३/४/७३ शप उपलम्भन इति च वक्तव्यम् १२।१५ वा लिप्सायामिति वक्तव्यम् १।२।२० शयवासवासिष्वकालवाचिनो द्विधा ४।३।१३३ वा समर्थायाः संख्याया गुणस्य निमेये शर उत्तरस्य खयः ५/४/१२७ वर्तमानयोः ३।४।१६९ शसिदुहिगुहिन्यो वेति वक्तव्यम् ४।१।११६ विकारे स्नेहे तैल: ३२४।१५० शिक्षेर्जिज्ञासायां दो वक्तव्यः १२।१५ विद्यामाननक्षत्र (विद्या च नाङ्गक्षेत्र) शीतोष्णतृप्तेभ्यस्तन्न सहत इत्यालुर्वक्तव्यः ४।१५६ धर्मत्रिपूर्वा ३॥रापूर शीर्षान्नञः ४/११४२ विद्यालक्षणकाल्पसूत्रान्तादकल्पादेः ३।५२ शीलादिप्रकरणे धात्र कृसृजनिनदिभ्य इर्लिट विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम् ४।१।१३६ वक्तव्यः रारा१५५ विपरीताच्चेति वक्तव्यम् ३/४।१३६ शोलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमिभ्यो णो वक्तव्यः ।।१ विभाजयितुर्णिखञ्च ३।३।११६ शीले को मखं च ४।१।१३० विरोधेऽण वक्तव्यः ३।४।११४ शुनः खौ शेफपुच्छलाङ्गलेषु ४।३।१३४ विशतेश्चेति वक्तव्यम् ३।४।१५८ शुभिरुचिभ्यां प्रतिषेधो वक्तव्यः २।११९ विशसितुरिटः खञ्च ३।३।१६६ शूद्राच्चामहत्पूर्वात् जातिश्चेत् ३।१।१४ विशिपूरिपादिरुहिप्रकृतेरनात्सपूर्वपदादुप. शृंगबृंदाभ्यामारको वक्तव्यः ४|११५६ संख्यानम् ३।४।१०४ शृणातेर्वायुवर्षयोर्घन वक्तव्यः २।३।२० विषेन भवत्येव ५।३।३६ शेषे विभाषा १।४/६९ विष्णोः प्रतिषेधो वक्तव्यः ४।३।१४१ श्रद्धादिभ्योऽण, वक्तव्यः ३१४/१०५ विस्तारे पटः ३।४।१५० श्रन्थेश्चेति वक्तव्यम् ४|४|११३ विहायसो विहं च ।।४६ श्रविष्टाषाढाभ्यां छञिति वक्तव्यम् विहायसो विहादेशः खच्च वा डिद्वक्तव्यः रा२।४५ श्रयजीषिस्तुभ्यः स्त्रियां करणे युडबाधनार्थ वीप्सायां वा हसो वक्तव्यः १३१५ क्तिर्वक्तव्यः २।३।७९ वीरात्तेजसि यः ३।४।११४ वृद्धवदिति वक्तव्यम् ४/२७ | ष्ठीवतिप्वष्कतिष्टचायतीनां प्रतिषेधो वक्तव्यः ४५३ वृद्धाच्चेति वक्तव्यम् ३।।३४ वृद्धावृद्धवदिति वक्तव्यम् ४/२७ स (वृ) द्वेष्टणि वृधुषिभावो वक्तव्यः ३।३।१५३ | संवोढुः संवहितृभावश्च स्वे वक्तव्यः वेः ख्वादेशो वक्तव्यः ४।२।११६ । संस्कृते शूल्यः ३१४/१५० ३।३१८८ For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५४ स एव डामहो मातरि वाच्यायां टिच्च सकर्मकादिति वक्तव्यम् सग्योश्च क्रुधदुह्योः सङ्ख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम् सङ्ख्याया अल्पीयसो वाचिकायाः सञ्ज्ञायामण वक्तव्यः सत्प्राक्काण्डप्रान्तशतैकेभ्यः पुष्पाट्टाप् समसम्प्रधारणायां किम क्षेपे द्वे भवतः समानाच्च तदादेश्च श्रध्यात्मादिषु चेष्यते । ऊर्ध्वाद्दमाच्च देहाच्च लोकोत्तरपदादपि || समानान्ययोश्चेति वक्तव्यम् समिधामाधाने टेन्या वक्तव्यः समूहे कट: तविधं मुक्त्वा सर्ववेदादिभ्यः स्वार्थे सर्वसारसाच्चप् सर्वादेश्चेति वक्तव्यम् सम्पदादिभ्यः क्विपि वक्तव्यः सम्पूर्वाद्वति वक्तव्यम् सम्भवाजिनशणपिण्डेभ्यः फलाट्टापू सम्भूयोऽम्भसोः सखं च सर्वजनाट्ठण खश्च वक्तव्यः सर्वत्र गोरजादिप्रसंगे यः सर्वनामसंख्ययोः पूर्वनिपातो वक्तव्यः सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पूर्वपदस्य पुंवद्भावः सर्वमद्यर्थ कार्य मदेर्न भवतीति वक्तव्यमधिकरणे www.kobatirth.org सवच्च बहुलम् सहायाद्वेति वक्तव्यम् सहितसहाभ्याञ्चेति वक्तव्यम् सुदिनदुर्दिननीहारेभ्यश्चेति वक्तव्यम् जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३|२|३१ | सुदुरोरधिकरणे डो वक्तव्यः ११२।५४ [ [] नजिर्वाचीत्वम् ११२।११२ सुब्धूनाञ्च तृतीयस्यैकाचो द्वित्वं भवति ३२५५ | सुर्वार्द्ध दिक्छब्देभ्यो जनपदस्य सूत्रान्तादकल्पादेरिष्यते १|३|१०० ३|४|८७ | सेनाङ्गफलक्षुद्रजीवितरुमृगतृणधान्यपक्षिणां प्रकृत्यर्थबहुत्वे एकवद्भावः ३|१|४ ५३ ३।३।३५ २/२/५८ ४/३/१९५ ३३८८ ३|४|१५० २३ ७५ २|१|९३ ३|१|४ | स्वार्थेऽवधार्यमाणेऽनेकस्मिन् द्वे भवतः ३१८५ | स्वार्थे द्वयसन्मात्रौ बहुलं वक्तव्यौ ३/४/७ ३/१/७० ११३ | १०१ १।१।३६ १३८८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ १२२ ३ | ४ | ११४ ३२५२ ४/१/५६ ११२/१० सौवीरेषु मिमतशब्दारण फिञौ वक्तव्यौ स्तोमे डो वक्तव्यः स्त्रियामपत्ये उब्वक्तव्यः स्त्रीनपुंसकयोर्विभक्त्या वाऽम्भावो द्योऽस्तु स्वर्गादिभ्यो यो वक्तव्यः स्वाङ्गकर्मकादिति वक्तव्यम् स्वादीरेरिणोः ह हनो वा वध इति च वक्तव्यम् हन्तीत्यपि वक्तव्यम् हन्तेर्हिसायां घ्नीभावो वक्तव्यः हरतेर्गतिताच्छील्ये हलसीराट्ठण वक्तव्यः हटिकल्योर कारान्तता णिचा योगे निपात्यते हायनाद्वयसि स्मृतः हितशब्दयोगे उपसंख्यानम् हिमाच्चैलुः हिमारण्ययोर्महवे ३|४|१२२ हृदयाच्चालुर्वा वक्तव्यः ३|११५६ हृवह्योरप्रतिषेधो वक्तव्यः २|१|१४ ११४|८८ ११४|७८ ३|१|१३८ ३|४|५६ ३|१|११७ ५/३/९ ३|४|१०५ ११२/१४; ११२।२२ ४|३|७६ ५।३१९ ३|४| १५८ होत्रायाः स्वार्थी को [छो] वक्तव्यः For Private And Personal Use Only २२/४६ ३४१२ ४/३/३ शरा५२ २११८६ ३।३।१५८ ५|२| १३९ १/२/१५ ३।३।१६१ २१११८ ३|१|१४ ११४/२६ ४१ १/५६ ३।११४२ ४|११५६ शराह ३/४/१२५ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रपरिभाषाणामकारादिक्रमः अखौ हृद्युभ्यामिबर्थे ईप तस्याश्चानुब्बक्तव्यः | गुकार्ये निवृत्त पुनर्न तन्निमित्तम् ४।४।६४; ४।४।१५२; ४।३।१२७ ५।२।३; ५।२।१३६ अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य ४।३।३१; ४|४|१०० गोरधिकारे तदन्तस्य च ५ाश१८ ५१।३६ ४।४।१२१, ४।४।१४७; ५।१।१६२, ५।३।८८ | गौणमुख्ययोर्मुख्य सम्प्रत्ययात् ५/४/६५ अनित्यमागमशासनम् ४।३।१६९ श्रनिनस्मिन्ग्रहणेष्वथेवता चानथकन च तदन्तावाधाचविकारेष्वपवादा प्र उत्सर्गान्न बाधन्ते ५।२।१६६; ३।। ४।४।१२,५१।१६४, ५/४/६० ५।२।१८१ अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्ग उब्बाधते ४।३।१२७; ५।१।१५७ डलयोः समानविषयत्वं स्मयते ५।३।३९ अन्तरद्वानपि विधीन् बहिरङ्गः प्यादेशो बाधते णेऽप्यण कृतं भवति ४|४|१६३ अन्त्याभावेऽन्त्यसदेशस्य कार्यम ५।२।७४ अन्यत्र धुग्रहणे ध्वादेः समुदायस्य ग्रहणम् ४।३।१९८ तदागमास्तदग्रहणेन गृहृयन्ते असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे १४१५८; ४।३१५५, ४।३।६५ ५।२८० तदादेशास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते ५१११०८ ४/४|१७; ५/३।२८ ५/३८७ तन्मध्यपतितास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते ४३।१०९ तिवाक्कारकाणां प्राक्सुबुत्पत्तेः कृभिः उभयत श्राश्रयणे न तद्वद्भावः ५।११५८ ५।२।१३२ सविधिः १।३१-८२, ३।१।४३, ४।३।१६६ त्यग्रहणे यस्मात्स तदादेः १।१।८; ५।३।१८; एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् ४/४५४; ५।१८; त्यग्रहणे चाकायः ४।३।१३३ ५।१।१६०; त्यात्यसंभवे त्यस्य ग्रहणम् ४।३१६६ एकपदाश्रयत्वेनान्तरङ्गानपि जग्ध्यादिविधीन् बहिरंगः प्यादेशो बाधते ११४/११० | धावित्यधिकारे त्यग्रहणं स्वरूपग्रहणमेव ४।३।१३३ एकानुबन्धग्रहणे न द्वथनुबन्धकस्य २।१६ | धवधिकारे त्यग्रहणं स्वरूपग्रहणं न तदन्तविधिः ४।३।१६१ कार्यकालं सज्ञापरिभाषम् ११११४५, शरा६०; | द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति ४।४।३७ ५।३।२७ कृद्ग्रहणे तिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम् १।१।६; १।२।२२; | घोरधिकार तदन्तविधिरप्यस्ति ५/११५० १।।२६; १।३।४१; २।३।७६; ३।१।१८ | धोः स्वरूपग्रहणात्तत्यविज्ञानम् ५।२।१; ५।२।३६; क्दौ नष्टं न स्थानिवत् ५.श६३ ५।३।२६ ग्रामादाग्रहणेष्वविशेषः १२४१४६; ४।३।६२,४।४/६५; ५२।१४४:५।२११५५ । नजिवयुक्तमन्यसहशाधिकरणे तथा यथंगतिः २।३।६८ For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् ४ | ३ |८५; ५ | १|१७१; येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि ५/४/३ २|४|५ १|१|१३ निरनुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य ४ | ३ | १०८ : ४|४|६४ ५|४|१८ निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ४|४|११६; ५/२/१५१ वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयम् प पुरस्तादपवादा अनन्तरान्विर्धीन् बाधन्ते नोत्तरान् पूर्व घुर्गिना युज्यते पश्चात्साधनवाचिना त्येन ५।२।१२२; ५।२।१३८ ५/४/६६ नानर्थकेऽन्तेऽलोऽन्त्यविधिः नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम् नित्याः शब्दार्थसम्बन्धाः पूर्वत्रासिद्धीयद्वित्वे पूर्वत्रासिद्धे न स्थानिवत् म मध्येऽपवादः पूर्वान् विधीन्बाधन्ते नोत्तरान् २|१|१११; २|३|७६; ४ | ३ | १७८ www.kobatirth.org य यस्य च लक्षणान्तरेण निमित्तं विहन्यते न २|१|४१ तदनित्यम् येन नाप्राप्ते तस्य तद्वाधनम् स ५।३।३६;५।३।४६; | सकृद्गते परनिर्णये विधिर्वाधितो बाधित एव ५। ३५५ ५/४/६ प्रकल्प्यापवादविषयं तत् उत्सर्गोऽभिनिविशते ११४।१२३ प्रकृतिग्रहणे यबन्तस्य ग्रहणम् ५/१/८८५; ५। ३ ५५ प्रकृतिवदनुकरणं भवति २/४/४६ मृद्ग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् ४|२/६३; ४ | ३ | १४८; ४|४|१२१; ५/४/३; ५/४/३४ १११/५२; ४१४ /७७; ५|१|१५६ १/३/६३; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५/१/२० ५।२।१५ ५।३।४१ ल लक्षण प्रतिपदोक्तयोः प्रपिपदोक्तस्यैव ५।१।५२९५/४/९५ लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वालिङ्गस्य ५२१२० व ४ | ३ |९९; ४/४/३३; ४ |४| ४१; ५।३।५४ वार्णाद्गावं बलीयः १/१/७८; १/४/२१३ ४ ३ ३२९ ४|४|१७; ५ | १|१३६ १५/१/५४ व्यपदेशिकद्भावो न मृदा ५।१८३ १।२/९० ४/४/४ २ ४/४/६४; ४|४|९४; ५|१|५५; ५/१/५७ ५/२/५ ५/२/११० सञ्ज्ञाछन्दसो: पूर्वो विधिः सञ्ज्ञाविधौ त्यग्रहणात्तदन्तविधिर्नास्ति For Private And Personal Use Only ५।३।३९ १|११६; १११ २० २१ २६ स-त्यविधौ न तदन्तविधिः १|१|६७; ५|२| १६ सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य १ १ १ १६४ ; २ ।११३२; ५ | ११८ ५११२१ ५२ ५५ ५/३/२८ सन्नियोगशिष्टानामन्यतरापाये उभयोरप्यभावः १ १ १ १६; सिद्धे सत्यारम्मो नियमार्थः ३|१|७; ४ । ४ । १४३ १|१|६; ३ | ३ |२८; ५/३/४२; ५।३।७१ स्फादिखलत्वगत्वेषु नास्ति स्वार्थिका प्रकृतिलिङ्गसङ्ख्ये अनुवर्तन्ते ५/३/४६ ५/२/१२५ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अक्षद्यूतादिः श्रङ्गुल्यादिः अजादिः अपूपादि: श्रहणादिः अर्धर्चादिः अर्शश्रादिः 'अश्मादिः अश्वपत्यादिः अश्वादि: उगवादिः उणादिः उत्करादिः उत्सङ्गादिः उत्सादिः उद्गात्रादिः उपकादिः उरः प्रभृति अ श्राहिताग्न्यादिः इन्द्रजननादिः इष्टादि: ऊर्यादिः ऋश्यादिः कच्छादिः कडारादिः कल्यादिः कथादिः श्रा इ उ ऊ 老 क ३|३|१४८ ४|१|१६२ कर्णादिः कल्याण्यादिः कस्कादिः ३|११४ काशादिः ३/४/३ काश्यादिः ३१२२६० किसरादिः १/४ | १०८ | कुञ्जादिः ४|१|५० कुमुदादिः ३२/६० ३|१|६६ ३।१।९६ १।३।१०३ ३।३/६२ ४|१|२२ ३१४/२ २/२/१६७ १/२/१३२ www.kobatirth.org ३१२१६० जैनेन्द्र-गणपाठसूची ३।२।१११ ११३ १०४ ३१२/७५ ३।३।२०६ कुम्भपद्यादिः कुर्वादिः ३/२/७० गहादिः ३/३/१३८ ! गृष्टयादिः ३|१|७१ गोपवनादिः ३|४|११६ गोपालकादिः १/४ | १३९ गौरादिः ४/२/१५१ कुलालादिः कृशाश्वादिः कौशल्यादिः क्रोडादिः क्रौड्यादिः क्षुम्नादिः गर्गादिः गवाश्वादिः घोषदादिः चादिः छेदादिः तारकादिः तालादिः तिरुकितवादिः ग घ च छ त ३।२।६० तिकादिः तुन्दादिः ३ | १|११५ ५/४/३६ तृणादिः ३।२/६० तौल्बल्यादिः १|४|१३२ शहर त्यदादिः १|१/६९; ५|१|१६१ ३/३/१७२ द ५|४|११७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३|१|८८७ ३२ ६० ३२८७ ३|१|१३९ ३।३८८७ ३।२/६० द्वारादिः ३|१|१४२ द्विदण्ड्यादिः ३।११४६. ३ | ११६५ धूमादिः दण्डादिः दधिपयन्त्रादिः दामन्यादिः दृढादिः देवपथादिः नडादिः ३|१|६३ नद्यादिः ११४|८७ ३|२| ११४ पक्षादिः ३|१|१२४ | पर्यादिः १|४|१३९ | पर्वादिः ४|११६६ ३।११३८ पलयादिः ३।१।२३ पात्रेसमितादिः पामादिः पारस्करादिः पाशादि: १२ १२८ | पुरोहितादिः पुष्करादिः ३।४/६२ पूर्वादिः For Private And Personal Use Only पृथ्वादिः ३|४|१५७ पैलादिः ३/३/१०५ प्रज्ञादिः १|४|१४० प्रादिः ध ३|१|१४१ ४|१|४३ ३१२|६० प ३ | ४|६४ ११४६० ३।३।२६ ३|४|११३ ४|१|१५४ ५/२/९ ४/२/१२६ न ३१११८८ ३१२१७१ ३|२|७६ ३।२।१०५ ३/२/६० _३/३/१३३ ४/२/६ ३२२८६ १।३।४३ ४|१|२७ ४|३|११६ ३।२।४१ ३|४|११८ ४|११५६ १।१।४२ ३|४|११२ १।४।१३१ ४|२|४४ १३१८१ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५८ प्रेक्षादिः प्लक्षादिः बह्वादिः बाह्वादिः ब्राह्मणादिः बीह्यादिः भर्गादिः भस्त्रादिः भिक्षादिः भीमादिः मनोज्ञादिः मयूरव्यंसकादिः महिष्यादिः यवादिः यस्कादिः याजकादिः यावादिः युवादिः राजदन्तादिः राजन्यादिः ब भ म य र ३|१|३१ ३|१८५ ३|४|११४ ४|१|४२ www.kobatirth.org ३२/६० | रेवत्यादिः |३|३|१२२ | रैवतिकादिः जैनेन्द्र-व्याकरणम् ३|४|१२३ १|३|६६ ३।३।१६९ लोमादिः लोहितादिः वरणादिः वराहादि: ३|१|१५८ ३ | ३|१३६ | वलादिः ३२/३३ वाकिनादिः २/४/६१ विदादिः विनयादिः विमुक्तादिः वेतनादिः व्याघ्रादिः ५/३/३१ १।४।१३४ ११३/७२ शरदादिः ४।२/३५ शरादिः ३|४|१२० शर्करादिः शकलादिः शडिकादिः शाखादि: १।३।९६ शिवादिः ३।२।४६ शुण्डिकादिः ल घ श ३|१|१३४ | शुभ्रादिः शौण्डादिः ३३ / ९९ शौनकादिः ४|१|२७ ३।१।२१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सख्यादिः ३२/६२ | सङ्काशादिः ३२२६० सन्तापादिः ३/२/६९; ४/२/५७ सपत्न्यादिः ३|१|१४५. सब्रह्मचार्यादिः श्वादिः श्रेण्यादिः ३|१|६२ सर्वादिः ४१२१४० ४|१|६५ ३ | ३ | १३५ १३/५१ ३।३।१०६ ४|१|१६१ साक्षादादिः सिध्मादिः सिन्ध्यादिः सुखादिः सुतङ्गमादिः सुषामादिः स्थूलादिः ३२८७ ३।३।६६ स्वस्रादिः ४ २ २०६ स्वागतादिः For Private And Personal Use Only ४/१/१५७ हरितादिः ३|१|१०१ | हरीतक्यादिः ३/३/५० हत्यादिः स ह ३|१|११२ १/३/३५ ३/३/७७ ५।२।१३ १/३/५४ ३१२२६० ३।२१६० ३/४/६५ ३|१|३४ ४|४|१३१ १/१/३५ १/२/१४३ ४/१/२५ २।३।६७ ४|१|५४ ३२२६० ५/४/७२ ४/२/११ ३|१|८ ५/२/१२ २११८६ ३।३।१२४ ४/२/१३६ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-संज्ञासूची निष्ठा थः पद जैनेन्द्रसंज्ञा पाणिनिसंज्ञा । जेनेन्द्रसंज्ञा पाणिनिसंज्ञा । जैनेन्द्रसंज्ञा पाणिनिसंज्ञा अधिकरणः अधिकरणम् । करणम् [१।२।११४] करणम् । तः शिशरा [१।२।११६] कर्ता [१।२।१२४] कर्त्ता ता [१।२।१५८] षष्ठी अनुदात्तः अनुदात्तः कर्म [१।२।१२०] कर्म | ति [१।२।१३१] गतिः [११११११३] का [१।२।१५८] पञ्चमी | त्यः [२।१।१] प्रत्ययः अन्यः [१।२।१५२] प्रथमपुरुषः किः [१।४।५६] सम्बुद्धिः अप [शरा१५८ चतुर्थी ख थः [४।३।३] अभ्यस्तम् अपादानम् अपादानम [१।२।११०] खम् [१।१।६१] लोपः संज्ञा अस्मद् [१।२।१५२] उत्तमपुरुषः खुः [१।१।२६] दः [१।२११५१] श्रात्मनेपदम् दिः [१।१।२०] प्रगृह्यम् दोः [१११।११] दीर्घः इत् [१।२।३] इत गि [१।२।१३०] उपसर्गः दुः [२१४६८] वृद्धम् इप् [१।२।१५८] द्वितीया गुः [१।२।१०२] अङ्गम् घ [१।३।१०५] उत्तरपदम् इल [१।१।३४] द्रिः [४।२।६] तद्राजः | घि [१।२।९९] लवु | द्वन्द्वः [१।२।६२] द्वन्द्वः ईप् [१।२।१५८] । द्विः [११२।१५५] द्विवचनम् ङः [१।१।४] अनुनासिकः उङ [१।१।६६] | धम् [१।१।३१] सर्वनामस्थानम् उपधा ङिः [१।११३०] भावकर्म धिः [१।२।२] अकर्मकः उज् [१।१।६२] उदात्तः [१।१।१३] घुः [१।२।१] धातुः उदात्तः चः [४।३।६] उदात्त: अभ्यासः | उप् [१।१।६२] उस् [१।११६२] नप् [नपुंसकलिङ्गस्य संज्ञा प्राचाम्] | जिः [१।१।४५] सम्प्रसारणम् निः [ २२] निपातः न्यक् [१।३।६२] उपसर्जनम् एकः [१।१।१५५] एकवचनम् एप् [१।१।१६] गुणः : झिः [१।१।७४] श्रव्ययम् पः [१।१।११] पदम् [१।२।१०३] पदम् ऐप [१॥ ॥१५] वृद्धिः टिः [१।१६५] टिः | प्रः [१।१।११] सतमी लुप हस्वः For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६० जैनेन्द्र-व्याकरणम् संख्या स बम् [१।३।८६] बहुव्रीहिः । यः [१।३।४४] कर्मधारयः संख्या [१।१।३३] समाप्तः बहुः [१।२।१५५] बहुवचनम् सः [१।३।२] युष्मद् [१।२।१५२] मध्यमपुरुषः बोध्यम् [१।४।५५] सम्बोधनम् सत् [२।२।१०५] सत् सम्प्रदानम् सम्प्रदानम् रः [१।३।४७] द्विगुः __ [१।२।१११] भः [१।२।१०७] भम् । रुः [१।१००] गुरु सर्वनाम [१।११३५] सर्वनाम भा [१।२।१५८] तृतीया व | सुः [१।२।९७] भु [१।१।२७] घु वा [१।२।१५८] प्रथमा स्फः [१।१।३] संयोगः वाक् [२।१।७६] उपपदम् स्वम् [१।१।२] सवर्णम् | विभक्ती [१।२।१५७] विभक्तिः स्वरितः [१११११४] स्वरितः मम् [१।२२१५०] परस्मैपदम् । मुः [१।२।९२] नदी हः [१।३।४] अब्ययीभावः मृत् [१।१।५] प्रातिपदिकम् । पम् [१।३।१६] तत्पुरुषः । हृत् [३।१।६१] तद्धितम् घि For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र और पाणिनि-व्याकरणकी तुलनात्मक सूत्र-सूची जैनेन्द्र-सूत्र- पाणिनि-सूत्र- | जैनेन्द्र-सूत्र- पाणिनि-सूत्र- जैनेन्द्र-सूत्र- पाणिनि-सूत्र संख्या संख्या । संख्या संख्या संख्या संख्या १।१।१ ११११३३ ११११२३ ११११६५ ११६४ श१२ १।११३४ ११।२४ १११६६ ११६५ ११३ ११११७ २११३५ ११११२७ (११५२ १४१४६७ ११।४ १११८ ।१।१।७२ १।१।३६ राशर १।२।४५ १।११७३ १।१।६८ १।१५ १।१।२६ १।३।३७ ११११६ २।२।४६ श१३८ १।११७४ १।१।६६ १११।३० १।२।४७ ११११७० १।१७ ११७५ ११।३६ १।१३१ ११११८ X १२/४८ श१७१ १।१।४० १११।३२ ११११६६ १११९ १२।४६ १४१४१ ११।३३ १।१।७२ । १।११७० २१।१० ११।५० शश४२ १।१।३४-३६ ११११७३ ११७१ ११११११ १।२।२७ ११११४३ ७।१।१६ १११।७४ ११।१२ १।२।२८ ११११४४ १।१७५ १।२।१ ११।१३ श२।२६,३० ११११४५ १।१।४५ ११११७६ शरा२ १११।१४ १।२।३१ ११११४६ ११११४६ शश७७ १।२।३ १।१।१५ १११११ श११४७ १।११५० १।११७८ शश।४ २१४१६ १११२ ११११४८ १४१५१ १।११७६ शरा५ १११११७ ११११३ १११४६ ११५२ ११११८०। १।२१७ ११।२८ १।१४ १४१५० शश५३ १२११८१ १।१।१६ १।११५ ११११५१ ११८२ शराब १।१।२० १।१११ श१५२ १११५५ १।१।८३ शराब ११२१ १११११२ १।११५३। १।१८४ १।२।१० १।११४६ शश२२ १।१।१४ ११११५४ १।१८५ १।२।११ श१४२३ ११११५ १४१५५ २१११४७ १।१।८६ श२।१२ १।१।२४ १।१।१६ १११५६ शश५६ शश८७ १।२।१३ शश२५ १११।१७ ११५७ १११५७ १११८८ १०२।१४ १।१२६ १११११८ १११५८ १४१५८ १।११८६ १।२।१५ १।१।२७ शश२० १।११५६ १।११५९ १।१४६० १२।१६ २।१२८ शश६० ११११६६,६७ ११११६१ १।२।१७ १११।२६ १११।६१ शश६० १११६२ ।२।१८,१६ १११।३० X १४६२ १११६३ १।२।२० शश३१ ११।४२ १११६३ १४१४६२ १।१६४ ११।२१ ११।३२ १११४३ शश६४ ११।६३ ११।६५ १२।२२, २३ ५९ For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ जैनेन्द्र-व्याकरणम् १।११९६ १।२।२४, २६ ११२।३३ शश६७ श।२५ शरा३४ १|श६८ श|५१ १।।३५ शश६६ शरा६३ १।२।३६ १।१११०० १।२।३७ अध्याय १ पाद २ ११३८ १२।१ ११३।१ १२।३९ शरा२ १।२।४० १।२।३ शरा४१ श।४ १।३।१० १।२।४२ ११२५ ११३।११ १।२।४३ १।२।६ १।३।१२ १४२१४४ शरा १३।१३ १२।४५ १८ १।३।१४ २।४६ १/३/१५ १।२।४७ १२।१० १।३।१६ १।२।४८ १।२।११ ११३।१७ १।२।४६ १।२।१२ ११३।१८ १।२।५० शरा१३ १।३।१९ १।२।५१ १।१४ १।३।२० १२।१५ १।३।२१ शरा५३॥ १।२।१६। ||५४ १।३।२२ १।२।१७। १।।५५ १।२।१८ ११३।२३ १२ ५६ १।२।१६ १।३।२४ शरा५७ १।२।२० १।३।२५ १।२५८ श२।२१ ।३।२६ श२५६ १।२।२२ १।३।२७ १।२।६० श२।२३ १।३।२८ १।२।६१ १।२।२४ १।३।२६ १।२।६२ १।२।२५ १।३।३० १।२।६३ १।२।२६ ११३१३१ शश६४ श२२७ १३।३२ १।२।६५ शरार १।३।३३ शश६६ श२।२६ १।३।३४ १२।६७ १।२।३० ११३।३५ १।६८ ११२।३१ १।३।३६ १।६९ १।२।३२ १।३।३७ । शरा७० १।३।३८ १।३।३६ १।३।४० १३.४१ ११३४२ १।३।४३ १३४४ १।३।४५ १।३।४६ १।३।४७ ११३१४८ ११३।४९ ११३५० १३३५१ १।३।५२ ११३५३ श३२५४ १।२५६ ११३५७ शरा७१ १।७२ शरा७३ १२/७४ श।७५ शरा७६ १२।७७ ११।७८ १।२१७६ शरा८० १२।८१ ११।८२ शरा८३ १।२।८४ ११८५ १।८६ रा शरामद १।२।८६ १।२।६० श।९१ १।२।९२ ફા૨ા ११२७६ १३१७४ ११३८९ १३१७७ ११३७८ ११३७६ ११३८० १|श८१ ११३८२ ११३८३ ११३८४ ११३८५ १।३।८६ ११३८७ १।३।८८ ११३९० १।३।६१ १।३।१२ १।३।९३ १९४२ x १।३१५८ ११४/३ ११४४ १४५ ११३२५६ श३६० ११३६१ १३।६२ १।३।६३ १॥३॥६४ १३।६५ १।२।६६ १।३।६८ १।३।६६ १।३७० ११३७१ ११३७२ ११३७३ ११३७५ १२६५ १।२।९६ शश६७ शरा९८ शश६६ १।।१०० १।२।१०१ १।१०२ श।१०३ श२।१०४ १।२।१०५ ।२।१०६ श।१०७ १।२।१०८ १४।६ ११४७ ११४८ १।४।१० १।४।११ ११४१२ १।४।१३ ११४|१४ १।४।१५ ।४।१६ १।४।१७ श४|१८ ११४/१९ For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १।२।१०६ १।२।११० १।२।१११ १।२।११२ १।२।११३ १।२१११४ ११२/११५ १।२।११६ १।२।११७ ११२१११८ १/२/११६ ११२।१२० ११२।१२१ १।४।२३ १/४/२४ ११२।३२ ११४/३५ ११४ |४४ १ |४ |४२ ११४/४३ १/४ |४५ ११४ |४६ १ |४| ४८ ११४/४७ ११४/४६ ११४|५१ १।२।१२२ ११२।१२३ । १।२।१२४ १/२/१२५ ११२।१२६ ११२।१२७ ११२।१२८ ११२।१२६ ११२/१३० १|४|५६ १।२।१३१ १।४।६० १।२।१३२ ११४/६१ ११२/१३३ ११४/६२ ११२/१३४ ११४/६३ १/२/१३५ ११४/६४, ६५ १।२।१३६ १।४।६६ १।२।१३७ १४/६७, ६८ ११२।१३८ ११४/६६ ११२/१३९ १/४ /७० १।२।१४० १/४ /७१ ११२।१४१ ११४/७२ १२/१४२ ११४/७३ १।२।१४३ ११४/७४ १।२।१४४ १/४/७५ १/२/१४५ १८४/७६ ११२/१४६ ११४।७७ १/४/५२ १/४/५३ ११४|५४ ११४/५५ ११४|५६ १।४।५७ १/४ | ५८८ www.kobatirth.org तुलनात्मक सूत्र- सूची ११२/१४७ १२४|७८ ११२।१४८ १८४/७६ ११२/१४६ ११४/८० १।२।१५० ११४१६६ ११२।१५१ १|४|१०० १।२।१५२ १|४|१०१ १।४।१०५, ११२/१५३ १२/१५४ ११२/१५५ ११२।१५६ १२।१५७ १२१५८ १।३।१ ११३२ १।३।३ १।३।४ १/३/५ १।३।६ १।३।७ ११३३८ १/३/९ ११३|१० १।३।११ १।३।१२ १।३।१३ १।३।१४ १/३/१५ १।३।१६ १०७, १०८ ११३१७ १।३।१८ १।३।१६ ११३/२० १।३।२१ । १।३।२२ १।३।२३ १।३।२४ १।४।१०६ ११४|१०२ अध्याय १ पाद ३ २|१|१ २|१|३ २|११४ २ १/५ २१११६ २११७,८ २१६ २|१|१० २|१|११ ११४११०३ १|४|१०४ X २|१|१२ २|१|१४ २|१|१५ २|१|१६ २|१|१७ २|१|१८ २|१|१६ २११२० २।१।२१ २११२२ २ १/२४ २११२५ २।१।२६ २११२७ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १/३/२५ १/३/२६ १।३।२७ ११३२८ १/३/२९ १।३।३० १।३।३१ १।३।३२ १।३।३३ १/३/३४ १।३।३५ १।३।३६ १।३।३७ ११३३८ १।३।३६ १|३|४० १।३।४१ १।३।४२ १।३।४३ १/३/४४ १ | ३ | ४५ १/३/४६ १।३।४७ १।३।४८ ११३/४६ १/३/५० १/३/५१ १/३/५२ ११३।५३ १/३/५४ १/३/५५ १/३/५६ ११३/५७ १३५८ १ / ३ / ५९ ११३३६० १/३/६१ ११३/६२ २१११२८ २|१|२६ २|१|३० २।१।३१ २|१|३२ २|१|३४, ३५ २|१|३६ २।१।३७ २१११३८ २।१।३९ २|१|४० २|१|४१ २|१|४३ __२।१।४४ २ १/४५ २१११४६ __२|१|४७ २ १/४२ २|११४८ २१२४६ २१५० २ १/५१ २/१/५२ २११५३ २।१।५४ ४६३ २।१।५५ २१११५६ २।१।५७ २|१|५८ २११/५६ २|११६० २|१|६१ २ १/६२ २|१|६३ २।१।६४ २|१|६५ २११७१ २|११६६ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૩૬૪ १।३।६३ १/३/६४ १/३/६५ ११३।६६ १/३/६७ १|३|६८ १।३।६९ १८३/७० १।३।७१ १।३।७२ १।३।७३ ११३/७४ १/३/७५ १।३/७६ १।३।७७ १ १।३।७८ । १८३२७६ १३८० ११३३८१ ११३८२ ११३८३ ११३१८४ ११३८५ ११३८६ १८३/८७ ११३८८ १/३/८९ १ ३ ६० १ ३ ६१ । १।३।६२ १।३।६३ १/३/९४ १।३।९५ २|३|१६ १/३/९७ १।३।६८ ११३६६ १।३।१०० २/११६७ २११६८ २|१|७० २/१/७२ २/२/५ २।२३६ २२२७ રામાન X २१२१९ X २१२११० २/२/११ २।२।१४ २२/१५ २।२।१६ २२/१७ रारा१८ २/२/१६ २१२/२० २/२/२१ २१२/२२ २१२/२४ २१२/२५ २।२।२६ २।२।२७ २१२१२८ राशरह ११२/४३ ११२/४४ X २।२।३१ २/२/३० २।२।३२ २/२/३३ २१२३४ www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् १।३।१०१ २/२/३५ १।३।१०२ २/२/३६ २२१३७ २१३३८ X १।३।१०३ १।३।१०४ ११३/१०५ अध्याय १ पाद ४ २/३/१ २।३।२ २३३४ २/३/५ રસાય २।३।७ १२१४१६४ १/४ / ९५. ११४/६६ ११४/६३ X ११४/१ १।४।२ १|४|३ १/४/४ १ | ४|५ १।४।६ १/४/७ ११४१८ ११४६ १।४।१० १|४|११ १|४|१२ १।४।१३ ११४/१४ ११४/१५ १।४।१६ १।४।१७ १|४|१८ ११४|१६ ११४/२० १।४।२१ १/४/२२ १/४/२३ ११४/२४ ११४/२५ ११४/२६ ११४/२७ १।४।२८ १/४/२६ ११४/३० १/४/३१ १/४/३२ X X X २३६ २/३/१० २/३/११ २|३|१३ २/३/१४ २|३|१५ २।३।१६ २।३।१७ २।३।२२ २।३।१८ २।३।१९ २/३/२०,२१ २/३/२३ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १|४|३३ ११४/३४ १|४|३५ ११४|३६ १/४/३७ ११४|३८ १/४/३९ ११४|४० १।४।४१ १|४|४२ ११४|४३ ११४/४४ १/४ | ४५ ११४/४६ १ |४| ४७ ११४|४८ १ । ४ । ४९ ११४/५० १/४/५१ ११४/५२ १/४ / ५३ ११४५४ १/४/५५ १/४ / ५६ ११४/५७ ११४|५८ १/४ /५६ १/४/६० १।४।६१ १/४/६२ ११४/६३ १|४|६४ ११४/६५ ११४|६६ १।४।६७ ११४/६८ ११४|६६ १४ /७० १/४ /७१ २/३/२४ २३३२५ २/३/२६ २३।२७ २।३।२८ રાશરદ २।३।३० २।३।३१ २।३।३२ २/३/३४ २।३।३५ २|३|३६ २।३।३७ २।३।३८ २।३।३६ २|३|४० २/३/४१ २।३।४२ २|३|४३ २|३|४४ નારાજપૂ २।३।४६ २३१४८ २१३ ४९ २३५० २।३।५१ २३५२ २/३/५३ २/३/५४ २/३/५५ २३५६ २१३/५७ २१३५८ २३५६ २१३/६४ २/३/६५ २।३।६६ २|३|६७,६८ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलनात्मक सूत्र-सूची ४६५ २।३।६६ १४/११० १।४।१११ २०३७० ११४७२ १/४७३ । १।४।७४ १/४/७५ ११४७६ १/४/७७ १/४/७८ १४४१७९ १४/८० १४१८१ ११४/८२ १।४।८३ १/४/८४ १४८५ ११४८६ १/४/८७ १४ ११४/८६ 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रारा १३१, १३२ ३|१|१३३ ३|१|१३४ २११/१२१ ३|१|१४८ २।१।१२२ ३|१|१४६ २|१|१२३ ३|१|१५० अध्याय २ पाद २ ३।२।१ ३१२/२ ફ્રાર ३१२/६ ३/२/७ शह २२।१० २।२।११ २१२।१२ ३|१|१४५ ३|१|१४६, १४७ ३१२१४ X ३/२/५ ३२२८ ३२८ [ वा० ] Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलनात्मक सूत्र-सूची २।२।१३ । ३।२।१०४ ३।२।१०७, १०८ ३।२।१०९ ३।२।११० ३।२।१११ ३।२।११२, २।२।१४ २।२।१५ २।२।१६ २।२।१७ રારા २।२।१६ ।२।२० रारा२१ २।२।२२ २।२३ २।२।२४ २।२।२५ २।२।२६ રારા ૨૭ રાચાર २।२।२६ २।२।३० २।२।३१ २।२।३२ ३।२।११४ ३।२।११५ ३।२।११६ ३।२।११७ ३।२।१२२ ३।२।११८ ३।२।९ ।२।४६ [वा०] रारा५० । ३।२।९ शरा५१ । ३।२।१० २।२५२ ३।२।११ २।२।५३ ३।१२ २।२।५४ । ३।२।१३ २।२।५५। ३।२।१४ २१५६ ३।२।१५ ૨ા૨ ૭ ३।२।१६ २।२५८ ३।२।१७ २।२।५९ ३।२।१८ श२६० ३।२।१६ रा२।६१ ३।२।२० राश६२ ३२१ ।२।६३ ३।२।२२ २।२।६४ x २२।६५ ३।२।२४ २।२।६६ ३।२५ २।।६७ ३।२।२६ २।२।६८ રાચાર २।२।६६ ३।२।२६ २।२१७० ।३।२।३० २।२१७१ ३।२।३१ २।२।७२ ३।२।३२ २।२७३ ३।२।३३,३४ २।२।७४ 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www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलनात्मक सूत्र-सूची ४६६ २।३०६८ २।३।६६ १५ ३।३।१२१ ३।३।१२२ ३।३।१२६ ३।३।१२७ ३।३।१२८ ३।३।१३१ ३।३।१३२ ३।३।१३३ ३।३।१३४ ३।३।१३५ २।३।७० २।३।७१ २।३।७२ २।३/७३ २।३/७४ २।३।७५ २।३७६ २।३१७७ २।३७८ २।३७९ २।३।८० २।३।८१ २।३८२ २।३।८३ २१३८४ २।३८५ २।३८६ २।३।८७ २।३।८८ २।३।८६ २।३।१० २।३।११ २।२।९२ ।३।६३ २।३।६४ २।३।६५ २।३।६६ २।३।९७ २।३।६८ २।३।६६ २।३।१०० २।३।१०१ ३।३।६५ २।३।१०२ ३।३।६८,७७, २।३।१०३ ७८, ७६, ८०, २।३।१०४ ८१,८२,८३, २।३।१०५ ८४, ८५,८६, २।३।१०६ २।३।१०७ ३३८८ २।३।१०८ ३।३८९ २।३।१०६ ३।३।६०,६१ २।३।११० ३१३१६२ २१३।१११ ३।३।९३ २।३।११२ ३।३।६४ २।३।११३ २।३।११४ ३१३४२ २।३।११५ ३१३३९७ २।३।११६ ३।३।९५ २।३।११७ ३३६८ २।३।११८ ३।३।६६ २।३१११९ ३।३।१०० २।३।१२० ३।३।१०१ २।३।१२१ ३।३।१०२ ।३।१२२ ३।३।१०३ २।३।१२३ ३।३।१०४ २।३।१२४ ३।३।१०५ ३।३।१२५ ३।३।१०६ २।३।१२६ ३।३।१०७ २।३।१२७ ३।३।१०६ २।३।१२८ ३।३।११० २।३।१२६ ३।३।१११ २।३।१३० ३।३।११२ २।३।१३१ ३।३।११३ २।३।१३२ ३।३।११४ २।३।१३३ २।३।१३४ ३।३।११५ २।३।१३५ ३।३।११६ २।३।१३६ ३।३।११७ २।३।१३७ ३।३।११८ २।३।१३८ ३।३।१२० । २।३।१३६ ३।३।१३७ ३।३।१३८ 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३।४७६ ३।४120 ३।४।८१ ३/४/८२ ३४८३ ३।४/८४ ३/४/३६ ३।४।४० ३।४।३८ ३।४/४१ ३।४।४२ ३/४/४३ ३/४/४४ ३/४/४५ ३।४/४६ ३।४/४८ ३।४।४६ ३।४।५०,५१ ३।४/५२ ३/४/५३ ३४५४ ३/४/५५ ३।४५६ ३।४/५७ ३१४५८ ३४५६ ३/४/६० ३।४।६१ ३।४/६२ ३१४/६३ ३।४।६४ ३।४।६५. ३।४।६६ ३।४।६७ ३१४/६८ ३/४/६६ ३१४/७० ३१४/७१ २।३६३ ।४।६४ २।४/६५ २।४।६६ २।४।६७ २।४।६८ २१४६६ २।४।७० २।४७१। रा४।७२ २१४/७३ २१४/७४ २।४/७५. २।४७६ २१४/७७ २१४७८ २१४/७६ २/४/८० २४/२५ २।४/२६ २।४२७ २।४।२८ २।४।२६ २।४।३० २।४।३१ २।४।३२ २।४।३३ રાજા ૨૪ २।४।३५ २।४।३६ २।४।३७ २।४।३८ २।४।३६ २।४/४० २१४|४१ २।४|४२ २१४|४३ २१४/४४ २।४।४५ २१४४६ २१४४७ २।४/४८ २४४६ २।४५० |४|५१ २।४/५२ २।४।५३ २१४/५४ २१४५५ २१४१५६ २।४५७ २।४।५८ रा४।५९ २।४/६० २१४।६१ २४६२ ३४८५ ३१४८६ ३/४/८७ ३४१८९ ३१४/९० ३।४।९१ ३।४।९२ ३/४/९३ ३२४/६६ ३४११०० ३।४।१०१ ३१४।१०२ ३।४।१०३ ३/४/१०४ ३।४।१०५, ३।१।३ ३।१४ ३३१५ ३।११६ ३।१७ ३।१०८ ३।११९ ३।१।१० ३।१।११ ३३११२ ३।१।१३ ३।१।१४ ३।१।१५ ३।१।१६ ३२१११७ ३११।१८ ३।१११६ ३।१।२० ३११२१ ३।१।२२ ३।१२३ ३।१।२४ ३॥श२५ ३।१।२६। ३१॥२७॥ ३१११२८ ३।१।२६ ३।११३० ३।१।३१ ३१११३२ ३१११३३ ३।११३४ ३१११३५ ४।१।७५ ४|११५,६ ४।१७ ४|१११० ४।१।११ 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४/२/३१ ४२३२ ४।२।३३ www.kobatirth.org जैनेन्द्र-व्याकरणम् शरारह ३/२/३० ३/२/३१ ३१२/३२ ३।२।३३ ३।२।३४ ३।२।३५ ३।२।३६ ३।२/३७ ३२२३८ ३।२।३६ ३/२/४० ३।२।४१ ३।२।४२ ३।२।४३ ३।२।४४ ३२४५ ३|२|४६ ३|२|४७ ३१२१४८ ३१२२४६ ३२५० ३।२।५१ ३/२/५२ ३/२/५३ ३/२/५४ ३/२/५५ ३/२/५६ ३/२/५७ ३/२/५८ ३/२/५९ ३१२१६० ३।२।६१ ३।२१६२ ३।२/६३ ३ २ ६४ ३/२/६५. ३/२/६६ ४/२/३४ ४/२/३५ ४/२/३६ ४२।३७ ४१२३८ ४/२/३६ ४१२४० ४/२/४१ ४/२/४३ ४|२|४६ ४।२।४७ ४२४८ ४/२/४६ ४/२/४२ ४/२/५० ४/२/५१ ४/२/५२ ४/२/५३ ४|२१५४ ४/२/५६ ४/२/५७ ४२५८ ४/२/५.६ ४१२६० ४२६१ ४/२/६४ ४/२/६५ ४/२/६६ ४१२/६७ ४१२६८ ४२२६६,७० ४ २८० ४२१८१ ४८२ ४२८३ ४/२/७४ ४२८५ ४१२ ८६ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३।२।६७ ३।२/६८ ३/२/६६ ३।२।७० ३।२।७१ ३२२७२ ३२/७३ ३/२/७४ ३।२२७५ ३|२|७६ ३।२।७७ ३२७८ ३२७६ ३१२८० ३२८१ शरार ३१२८३ ३८४ ३२८५ शराब्६ ३।२१८७ ३२८८ ३१२८९ ३२६० ३।२।६.१ ३२शहर ३२/६३ ३/२/९४ ३/२/६५ शराह६ ३।२।९७ ३।२२९८ ३/२/९९ ३२ १०० ३।२।१०१ ३।२।१०२ ३।२।१०३ ३।२।१०४ ४१२८७ ४२१८६ ४राद ४२६० ४१२६१ ४/२/१२ ४/२/६३ ૪||૨૪ ४१२६५ ४/२/६७ ४/२/६८ ४२६६ ४|२|१०० ४२१०१ ४/२/१०४ ४ |२| १०५ ४।२।१०६ 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४/४/७२ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलनात्मक सूत्र-सूची ४७ ५११५६ ५।१५७,५८ ५।१११८ ५१।२१ ५।१।२२ ५।१।२३ पूाश२४ ५ोश२५ X ५।११२७ ५।१।२६ ५शिर८ ५.श२९, ५।१।३०,३१ ५११३२ ५/११३३ ३४५५ ३२४५६ ३।४।५७ ३/४/५८ ३१४१५६ ३।४।६० ३।४।६१ ३/४/६२ ३।४।६३ ३।३।६४ ३।४।६५ ५।१५६ ५।१६० ५।१।६१ ५.११३४ ३।३।१९० ४।४।७३,७४ । ३।४।१७ ३।३।१६१ ४|४१७६ ३।४१८ ३।३।१६२ ४|२७७ ३।४।१६ ३।३।१६३ ४।४।७५,७६ ३।४।२० ३।३।१६४ ४४८३ ३।४।२१ ३।३।१९५ ४/४/८२,८४ ३४२२ ८५८६,८७ ३४२३ ८८,८६, ६० ३।४।२४ ३।३।१६६। ३।४।२५ ४/४/६१ ३।३।२९७ ३।४।२६ ३।३।१९८ ૪૫૪૬૨ ३।४।२७ ३।३।१६९ ४।४।६३ ३/४/२८ ३१३१२०० ४/४/६४ ३।४।२६ ३।३।२०१ ४।४।६७ ३१४३० ३।३।२०२ ४|४.९८ ३।३।२०३ ४।४।६६ ३।४।३२ । ३।३।२०४ ४|४|१०० ३।३।२०५ ४।४।१०१ ३।४।३४ १३।२०६ ४।४।१०२ ३।४।३५ ३।३।२०७ ४.४।१०४ ३।४।३६ ३।३।२०८ ४।४।१०५ ३१४।३७ अध्याय ३पाद ४ ३।४॥३८॥ ३४।१ ५११ ३।४।३९ । ३।४।२ ५।११२ ३।४।४० ३।४।३ ५।१४ ३।४।४१ ३।४।४ ५।११५ ३१४१४२ ३२४५ ५।१६,७ ३।४।४३ ३।४।६ ५।१८ 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Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलनात्मक सूत्र-सूची ६।३१८४,८५ ६।३।८६ ६॥३॥ ६।३।८६ ६/३१६० ६।३६१ ६.३६२ ६।३।६३ ६।३।६४ ६।३।६५ ६।३१७ ।९८ ६।३।१६ ४।६।१५४६।३।४२ ४।३।१५५ ६।३।४३ ४।३।१५६ ६।३।४४ ४।३।१५७ ६।३।४५ ४।३।१५८ ४।३।१५६ ६।३।४७, ४८ ४।३।१६० ६।३।४६ ४।३।१६१ ६।३५० ४।३।१६२ ६।३५१ ४।३।१६३ ६३५२ ४।३।१६४ ६।३१५३ ४।३।१६५ ६।३।५४ ४।३।१६६ ६१३५५ ४।३।१६७ ६।३।५६ ४।३।१६८ ६।३।५७ ४।३।१६६ ६३५८ ४/३२१७० ६।३१५६ ४।३।१७१ ६।३।६० ४।३।१७२ ४।३।१७३ ४।३।१७४ ६।३।६२ ४।३।१७५ ४/३११७६ ६।३।६६ ४।३।१७७ ६।३।६७ ४।३।१७८ ६।३१६८ ४।३।१७६ ६।३१७० ४।३।१८० ६।३।७२ ४।३।१८१ ।। ६।३।७३, ७४ ४।३।१८२ । ४।३।१८३ ६।३७५ ४।३।१८४ ६।३७६ ४।३।१८५ ६३।७७ ४।३।१८६ ६।३१७८ ४।३।१८७ ६।३१७६ ४।३।१८८ ६।३।८० ४।३।१८६ ६।३।८१ ४।३।१६० ६३८२ ४।३।१६१ ६३८३ ४।३।१६२ ४।३१६३ ४।३२१६४ ४।३।१६५ ४।३।१६६ ४।३।१६७ ४।३।१६८ ४।३।१९६ ४।३।२०० ४।३।२०१ ४।३।२०२ ४।३।२०३६ ४।३।२०४। ४।३।२०५। ४।३।२०६ ४।३।२०७ ४।३।२०८ ४।३।२०९ ४।३।२१० ४।३।२११ ४।३।२१२ ४/३२१३ ४।३।२१४ ४।३।२१५ ४/३।२१६ ४।३।२१७ ४।३।२१८ ४।३।२१९ ४।३।२२० ४।३२२२१ ४/३१२२२ ६।३।१०० ६।३।१०१ ६।३।१०२ ६३।१०४ 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५१।१२५ ५२।१२६ For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलनात्मक सूत्र-सूची ४८५ ७।३।२४ ५।६७ ५।२।६८ ७।३।२५ ७।३।८५ ५।२६ ५।२।३०। ५ा२।३१। ५।२।३२ ५।२।३३ ५।२१३४ ५।३५ ५ारा३६ ५।२।३७ ५।२।३८ ५।२।३९ ५।२।४० ५।।४१ ५२।४२ ५।।४३ ५।२।४४ ५२४५। ५२१४६ ५ारा४७ ५२।४८ પૂરિ૪૬ पू।ि५० पूरा५१ ૨ા૨ ५ारा५३ ५।।५४ દ્વારા ५।।५६ ५ारा५७ ५।५८ ५।२।५६ ५।२।६० ५शि६१ या।६२ ५२।६३ ५।२।६४ ५/२।६५ ५।६६ ७।३।२६, २७ । ५।२।६६ ७।३।२८, २९ ५।२७० ७।३।३० ५ ।७१ ७/३।३१ प्रा२।७२ ७।३।३२ ५।२।७३ ७/३।३४ ५।२।७४ ५२/७५ ७३।३४ ५।२।७६ ७/३।३५ ५२।७७ ७३।३६ ५।२।७८ ७।३।३७ ५ारा७६ ७/६।३८ ५ारा८० ७।३।३८ वा० धारा८१ પૂ.રાકર ७।३।३६ ५।२८३ ७१३४३ ५ारा८४ ७३.४१ પીરા ७।३।४२ ५।२८६ ७३।४३ ५।२।८७ ७/३४६ ५रामद ७/३१४७ ५ारा८६ ७।३।४८, ४६ ५२।१० ७/३५० ५।२।६१ ७३५१ ५।।६२ ७।३५२ ५।६३ ५।२।६४ ७३५३ પૂરા ७/३५४ ५।२।९६ ७/३५५ ५/२।९७ ७।३३५६ ५।२।६८ ७/३५७ या।६६ ७/३२५८ ५२।१०० ५।२।१०१ ७.३६५ ५२।१०२ ७५३२६६ ५।।१०३ 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जैनेन्द्र-व्याकरणम् ८२५ ५।२।१४० ५।१४१ ५।२।१४२ ५।२।१४३ ५।।१४४ ५।।१४५ ५.२।१४६ ५।२।१४७ ५/२।१४८ ५।२।१४९ ५।१५० ५।२।१५१ ५।२।१५२ ५।२।१५३ પૂરા૫૪ ५।२।१५५ ५।२।१५६ ५।२।१५७ ५।२।१५८ ५।१५९ ५।२।१६० ५।२।१६१ ५२।१६२ ५।२।१६३ ५२।१६४ ५ा२।१६५ ५।२।१६६ ५।२।१६७ ५||१६८ ५।२।१६९ ५२।१७० ५।२।१७१ पूा२।१७२ ५२।१७३ ५।२।१७४ ५।२।१७५ ५२।१७६ पू।ि१७७ ७/४/३१ ५।२।१७८ ७४८० | ५।३।२१ ७/४/३२ ५२।१७९ ७४/८१ | ५।३।२२ ७/४/३३ ५।२।१८० ७४/८२ ५।३।२३ ७/४/३४ ५।२।१८१ ૭૪ls ५।३।२४ ७/४/४० ५.२।१८२ ७४/८४ ५३।२५ ७/४/४१ ५२।१८३ ७४/८५ ५।३।२६ ૭] ૪૨ ५।२।१८४ ७/४/८६ ५।३।२७ ७४|४३ ५२११८५ ७४८७,८८५३२८ ७/४/४६ ५।।१८६ ७/४/48 ५.३२२९ ७४|४७ ५।२।१८७ ७४।६० ५/३।३० ७/४/४८ ५२।१८८ ७/४/६१ ५.३।३१ ७/४/४६ ५।२।१८९ ७/४/६२ ५।३।३२ ७/४/५० ५ारा१९० ७४६३ ५।३।३३ ७/४/५१ ५२।१६१ ७/४/६४ ५।३।३४ ७४/५२ ५२।१६२ ७/४/६५ ५.३।३५ ७/४/५४ ५।२।१६३ ७४।९६ ५/३।३६ ७/४/५४ वा० । | ५२।१९४ ७/४/६७ ५.३१३७ ७/४/५५ अध्याय ५ पाद ३ ५।३।३८ ७/४/५६ ५।३।१ ८१४१ ५।३।३६ ७४/५७ ५।३२ दाशर ५।३।४० ७४।५८ ५।३।३ ८४ ५।३।४१ ७.४१६० ५।३।४ ८११५ ५।३।४२ ७/४/६१ ५।३५ ८१७ ५।३।४३ ७/४/५६ चारास ५.३१४४ ७/४/६२ ५/३१७ ८११९ ५।३।४५ ५.३८ ८११० ५.३।४६ ७/४/६६ ५।३।६ ८१११ ५।३।४७ ૭/૪૬ ૭. ५.३११० ८।१।१२ पू४ि८ ७/४/६८ ५।३।११ ८।१।१३ ५/३२४९ ७/४।६६ ५।३।१२ ८११४ ७।३।५० ७४/७० ५।३।१३ पाश१५ ५।३।५१ ७/४/७१ ५।३।१४ ८।१।१६ ५।३३५२ ७/४/७२ ५।३।१५ श१७ ५.३१५३ ७४/७३ ५।३।१६ ८श२० ५/३५४ ७४/७५ ५।३।१७ ८११२१ ५.३५५ ७४/७६ ५।३।१८ ८०२२ ५.३१५६ ७/४/७७ ५३।१९ पाश२३ ५.३.५७ ७४/७४ ५।३।२० वाश२४ ५/३ ५८ ८.१२६ बा७२ ८१/७३ ८७४ चारा१ ८ ।२ पा।३ चारा७८ घारा६,१० ८/२।११ ८२।१२ दा२।१३ दा२।१४ दा२।१८ बा२।१९ नारा२० बारा२१ ८२१२२ दारा२३ सारा२४ सारा२५ दारा२६ ८।२७ चारा२६ चारा३० चा।३१ सारा३२ बा२।३३ दा।३४ घा२।३५ दारा३६ दारा३७ घा३८ ८२।४० चारा३६ ८||४१ For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५। ३५६ ५।३।६० ५।३।६१ ५/३/६२ ५/३/६३ ५।३/६४ ५|३|६५ ५/३/६६ ५।३।६७ ३/३/६८ ५./३/६९ ५/३/७० ५/३/७१ ५/३/७२ ५/३/७३ ५/३/७४ ५।३।७५ ५/३ / ७६ ५।३।७७ ५३७८ ५।३/७६ ५/३/८० ५|३|८१ ५३८८२ ५।३।८३ ५३८४ ५।३८५ ५।३।८६ ५।३।८७ ५३८८ ५३८ ५/३३९० ५/३/६१ ५३६२ ५/३/९३ ५/३/९४ ८२१४२ ८२४३ ८|२|४४ ८ २/४४ वा० ८।२।४५ ८२१४६ ८२२४७ ४८, ४६ ८२५० ८२५१, ५२ ८२५३ ८|२|५४ ८८२५५ ८२५६ ८२५७, ५८, ५६, ६० ८६२ ८२/६६ ८६८ रा६६ ८२२२७२ ८२/७३ ८|२|७४ दारा७५ ८२/६४ www.kobatirth.org ५|४|१ ५/४/२ ५।४।३ ५/४/४ ५।४।५ ५/४/६ ५/४/७ ५४/८ ५४६ ५/४/१० ५|४|११ ५/४/१२ ५/४/१३ ५|४|१४ ५/४/१५ ५|४|१६ ७१४/१७ ८२७७,७६ ५|४|१८ दारा७८ ५|४|१६ चरा८० ५/४/२० ३२२८१ ५।४।२१ चारादर ५।४।२२ ८८३ ५/४/२३ ८२८४ ५/४/२४ ८२८५ ५/४/२५ ८२८६ ५।४।२६ ८२६५ ८२|७६ तुलनात्मक सूत्र - सूची ८२८७ ८२६३ राहद ८२१९९ ८|२|१०० ८२ ११०१ ५/३/९५ ५/३/६६ ५/३/९७ ५।३।९८ ५/३/१९ ५/३/१०० ५।३।१०१ ५।३।१०२ ५।३।१०३ ५।३।१०४ ५१३/१०५ ८२|१०३ ८|२|१०४ २/१०५ ८/२/१०७ २|१०८ अध्याय ५ पाद ४ ८३४, ६ ८३३७ X ८|३|१७ ८३२० ८३२२ ८३ २३ ८ ३ २४ ८१३२५ ८१३१२६ ६।३।२७ ८३१२८ ८|३|२९ ८ ३/३०, ३१ ८|३|३३ ८३३२ ८|३|१३ ८|३|१४ दा३|१५ ८|३ | ३५ ८३ ३७ ८|३|३६ ८|३|१६ X ८१३३८ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५/४/२७ ५/४/२८८ ५/४/२६ ५/४/३० ५/४/३१ ५|४|३२ ५/४/३३ ५|४|३४ ५/४/३५ ५/४/३६ ५/४/३७ १/४/३८ ५/४/३६ ५/४/४० ५।४।४१ ५/४/४२ ५।४।४३ ५/४/४४ ५|४|४५ । ५।४।४६ ५/४/४७ ५४४८ ५/४/४६ ५|४|५० ५/४/५१ ५/४/५२ ५/४/५३ ५/४/५४ ५/४/५५ ५।४/५६ ५/४/५७ ५|४|५८ ५/४/५६ ५।४।६० ५|४|६१ ५/४६२ ५/४/६३ ५|४|६४ ८३३६ ८१३१४१ ८ ३४० ८/३४२ ८|३|४३ ૨૧૪૪ ८८३४५ ८|३|४६ ८२३|४७ ८|३|४= ८/३/५७ ८|३|५८ ८३५६ ८|३|६० ८|३|६१ ८३३६२ ८/३/६३ ८/३/६४ ८१३/६५ ८/३/६६ ८/३/६७ ાશન ८३६६ ८|३|७० ८|३|७१ ५/४,७२. ८।३।७३ ८/३।७४ ८८।३।७५ ८|३|७६ ८८|३|७७ ८३७८ ८२३७६ ८३८० ८३८१ ८|३|-३ ४८७ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ८८ जैनेन्द्र न्याकरणम् ८४१३७ ८।४।३८ ८४१३६ ५/४/६५ ५।४।६६ ५/४/६७ ५/४/६८ ५.४।६९ ५/४/७० ५.४/७१ ५/४/७२ ૫૪૭૩ ५४/७४ ५.४/७५ ८/४/४० ८|४|४१ ८/४/४२ ८४/४३ ८/४/४४ ८३८२ ५।४।८६ ८८४ ५.४६० ८३८५ ५।४।६१ ८३८७ પૂજા૨ ८३८८ ५।४।६३ ८।३।६६ ૪૬૪ ८३६७ ५/४/६५ ८३६८ ५/४६६ ८।३।१०१ ५.४/६७ ८३।१०२ ५।४।६८ ८३८६,८६, ५४/९६ १०,९१,९२, ५/४११०० ९३, ६४,६५ ५.४/१०१ ५।४।१०२ पो३११११ ५।४।१०३ ८।३।११२ ५/४/१०४ ८।३।११३ ५।४।१०५ ८।३।११४ ५।४।१०६ ८३।११५ ५.४११०७ ८।३।११६ ५.४।१०८ ८३।११७ ५।४।१०६ ८।३।११८ ५४।११० ८/४/१ ५४।१११ ८४२ ५।४।११२ ८४/३ ५।४।११३ ८/४/४ ५४११४ . ८४.५ ८४६ ४७ ८४८ ८३६ ८४|१० ८४|११ ८४१२ ८४१३ ८४१४ ८४१३६ ८४.१७ ८४१८ ८४१५ ८४१६ ८४/१९ ८/४।२१ ८४२२ ८४/२३ ८४२६ ८४/३० ८४१३१ ८४/३२ ८४३३ ८/४/३४ ८४१३५ ५/४/११५ ५।४।११६ ५/४/११७ । ५४११८ ५।४।११६ ५।४।१२० ५४/१२१ ५/४/१२२ ५.४१२३ ५/४/१२४ ५.४/१२५ ५.४१२६ ५.४११२७ ५।४।१२८ ५।४।१२९ ५।४।१३० ५/४/१३२ ५४।१३२ ५।४।१३३ ५।४।१३४ ५/४।१३५ ५।४।१३६ ५।१३७ ५.४१३८ ५/४/१३६ ५।४।१४० ५।४/७६ । ५४/७७) ५/४/७८ ५।४।७६ ५४८० ५४/८१ ५/४/८२ ५।४/८३ ५।४।८४ ५.४८५ ५.४८६ ५.४/८७ ५४८८ ८४/४५ ८/४/४६ ८४४७ ८४१५३ ८४५४ ८४५५ ८४/५६ ८४५८ ८४५६ ८४६० ८४६१ ८४१६२ ८।४।६३ ८४६४ ८४६५. For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धुः गार्दै गार्दै बाधृङ् नाधृङ नाथुङ् बातें स्कुदि शिवदिङ् दिङ् भदिङ् मदिङ् स्पदिड् क्लिदिङ मुदै ददै दहौङ् कुर्द षूदै हा ह्लादीङ वदै स्व स्वादै श्रर्थः सत्तायाम् वृद्धी संघर्षे प्रतिष्ठालिप्सा ग्रन्थेषु प्रतीघाते याच्याशीरुप तापैश्वर्येषु धारणे बन्धने श्रावणे शैत्ये स्तुत्यभिवादनयोः प्रियसुखयोः गतिषु किंचिच्चलने परिदेवने हर्ष दाने पुरीषोत्स क्रीडायाम् माने अथ जैनेन्द्रधुपाठः प्रणम्य जिनं भक्त्या संसंश्रित्याभिधागमम् । उपोपपद्यते धूनामुदुत्कृष्टा मया स्थितिः ॥ १ ॥ श्रर्थः 特製食飯 घ्रेकृङ् स्तुतिमोदमदस्वप्न रेकुड् शकि अकिङ वकि मकि ककै चरणे शब्दे सुखे आस्वादे धुः पर्दे www.kobatirth.org यतीङ् युतृङ् जुतुङ् त्रिवृङ् बेथुङ् श्रथि प्रथिङ् कत्थै शीकृ लोकडू श्लोकृङ् ट्रेकङ् कुकै वृकै चकै सेकृङ स्रे लृङ् शेकृङ् श्लेकङ् श्रकिङ् श्लेकिङ् ककिङ श्वकि त्रकिङ् अर्थः कुत्सिते शब्दे प्रयत्ने दीप्तौ याचने शैथिल्ये कौटिल्ये श्लाघायाम्, सेचने लोचने संत्राते शब्दोत्साहे शंकायाम् लक्षणे कौटिल्ये मण्डने लौल्ये गृहीतौ तृप्तिप्रतिघातयोः गतौ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only धुः चौकङ् चौकृङ् वस्कै वकै मस्कै तिकै टिकै टीकडू रवि लघिङ अधिङ् वधिङ् मचिङ् राघृङ् लाटङ् द्रावृङ् श्लाधृङ् चै लोच शचै श्वचै श्वचिङ् कचै कचिङ् मचै मचिङ् पचिङ् ष्टुचै तिजौङ् ईजै ਕੈ गतौ गत्याक्षेपे कैतवे च सामर्थ्य आयासे च कत्थने सेवायाम् दर्शने व्यक्तायां वाचि गतौ बन्धने दीप्तौ च कल्कने धारणोच्छ्राय पूजासु च व्यक्तीकरणे प्रसादे क्षमानिशानयोः गतिकुत्सनयोः गतिस्थानो जनेषु Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४६० ऋजिङ् भृजीङ एजुङ् भ्रेजुङ् भ्राजै वर्चें श्र स्फुटै चेष्ट गोष्टै लो हुड पिडिङ् शडिङ हिंडि कुडिङ् बडिङ मडिङ् ay } भर्जने अठिङ् बठिङ् दी हिंसातिक्रमयोः चलने विकसने चेष्टायाम् संघाते रुजायां च गत्यनादरयोः दाहे वेष्टने भडिङ् मडिङ् शुद्धी तुडिङ् तोडने मुडिङ मृतौ चडिङ् कोपे तडिङ् ताड़ने कडिङ् मदे afse मंथे हेड् वाडुङ् द्रा घाडङ श्लाडङ पडि परिभाषायाम्, अनादरे आप्लाव्ये विशरणे श्लाघायाम् गतौ एकचर्यायाम् www.kobatirth.org मठिङ कटिङ् मुठिङ् एटै } हे गुपौ तिप्रुङ् जैनेन्द्र-व्याकरणम् } शोके टेषृङ् तैपुङ् ग्लेटङ् डुङ् केदृङ् खेटझ गेडू ग्लेटङ् कपिङ् B 5'7 त्रपूषै रेभृङ् रभिङ् अभिङ् अचिङ् लबिङ कवड् क्लीवृङ् श्रीवृङ् शीवृङ् चीभृङ् शलभै वल्मै गल्भै जभिर्ज् नृभिङ् ष्टभिङ् स्कभिङ् ष्टुभुङ् } गुप्तौ स्तुतौ कम्पे च पलायने (पालने) पण श्रुणै विद्याधायाम् घूर्णं घिणिङ दैन्ये चलने गतौ लजायाम् शब्दे श्रवसंसे वर्णे अघाट च मदे कथने भोजने गात्रविनामे स्तंभे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only मानै 查 घुणिङ् घृणिङ् भामै क्ष कमुङ् अयै रयै पवै रेशृङ् यी पूयीङ् दमायीड् स्फायीङ् श्रप्यायी तायृङ् क्नूयी कले कल्लै बल्लै गलै मलै मल्लै पूजायाम् स्तुतौ व्यवहारे च भ्रमणे ग्रहणे क्रोधे सहने कान्तौ गतौ रक्षायां च गतिदानदहन हिंसासु च तन्तुसन्ताने दुर्गन्धिविशरणयो विधूनने वृद्धौ सन्तानपालनयोः संवृतौ कंपे धारणे Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रधुपाठः गुङ् अव्यक्त शब्दे | भासै । च्युङ भल्ले कल्लै तेवृङ् देवृङ् देबृङ वृङ शेवृङ् डयुङ प्रङ्ग । गतौ काशृङ ) कासृङ् शब्दकुत्सायाम् दानहिंसापारभाषणेषु णासुङ् शब्दे संख्याशब्दयोः रासृङ्दीप्तौ देवने सै कौटिल्ये भ्यसै भये आङःशसुङ् इच्छायाम् श्रसुङ् प्रमादे सेवने ग्रसुङ । हड.. केवृङ् धृङ् रोच अविध्वंसने प्रतिदाने रक्षणे मिङ खेवृङ् ग्लसुङ । अदने गेवृ ग्लेवृङ चेष्टायाम् पालने वहिङ । बदौ पवने महिङ । वृद्धौ प्लेङ वृद्धौ बन्धने विहायसा गतौ बहे दीप्तौ । धिक्ष शुभै वृक्ष रुचै अभिप्रीतौ च वर्ण श्विताङ् अिमिङ् निविदाङ् | वैहृङ् । स्नेहे मोक्षे च परिवृतौ च रुटै पेबुङ । दक्ष शैघ्रथ च मेवृङ् सेवने म्लेवृछ कुत्सायाम् । संदीपनजीवनक्लेशेषु प्राधान्ये वृत्तौ परिभाषणाच्छादशिक्ष विद्योपादाने भिः नहिंसासु याआयाम् मौड्योपनयननिय मत्रतादेशेज्यासु जेहक दृष्टौ वाहृङ् । प्रयत्ने गतिहिंसयोश्च एक क्लेश | वेश्रृङ् व्यक्तायां वाचि द्राहृङ् निक्षेपे वर्षे ऊहै वितकें गेषङ अन्विच्छायाम् गाहृङ् विलोडने ग्रहणे क्षतौ स्मि ईषद्धसने हेषङ् । अहिङ् लिहै । रेषङ् अव्यक्ते शब्दे तुङ् ) पतिघाते भाषै स्नेहे गमै संक्षोभे हिंसायाम् अवनसे स्रंसुङ जेङ भ्रंसुङ् घषिङ् ध्वंसुङ् संभुङ् वृतुङ् गतौ च विश्वासे णेषङ् एषङ । गतौ वृधुङ् वृत्ती वृद्धौ by 10 शृधुङ् स्यंदूङ शब्दकुत्सायाम् स्वे सामर्थे पूछ वृत् For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४६२ घटैष् व्यथैष् प्रथैष् प्रसैष् मुदै स्खदैष ञित्वरा क्रदैघू क्लदैषु ऋदिङ् चजिङ् दक्षै कृपै ज्वर गड वट भट नट ष्टक चक कखे रगे लगे गे ष टगे क श्रग करण रण चण वण श्रण } चेष्टायाम् चलभीत्योः प्रख्यातौ विस्तारे मदे खनने संभ्रमे वैक्लव्ये गतिदानयोः गतिहिंसायाम् कृपायाम् जैदितोऽमी रोगे सेचने वेष्टने परिभाषणे नृत्तौ लोटने तृप्तौ च हसने शंकने संजने संवरणे कुटिलायां गतौ गतौ दाने मथ क्नथ क्रथ क्लथ चण हल हाल ज्वल स्मृ श्रा चलि छदिर् लडि मदी स्वनिर् ध्वन फल ज्वल चल ཨྠ ཤྲཱ ཝཾ ལྕ ླ མི་ལ་ स्यभु स्वन राजुङ् दुम्राश टुभ्लाशृङ् भ्राजै जल टल जैनेन्द्र-व्याकरणम् टूवल बुल हल www.kobatirth.org चल पुल कुल हिंसायाम् चलने दीती श्राध्याने भये नये पाके कम्पने ऊर्जने जिह्वोन्मथने हर्षग्पलेनयोः अवतंसने शब्दे गतौ वृत् घटादिः } शब्दे दोसौ वृत् पुणादिः दोस कम्पने धान्ये वैक्लव्ये स्थाने विलेखने महत्त्व संस्त्यान संतानयोः For Private And Personal Use Only फल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ཝེ ཟླ ཨཱ སྠཽ ཀླྀ शल पेत्लृ हुल कथे टुवमु क्षर wha प रमुङ् शल पल क्रुशौ कुच रुहौ कस भू बुधञ् अत चिती कितौ कृत मंथ प्राणधान्यावरोधयोः विधू षिधु ज्यु तर् च्युतिर् श्च्युतिर् स्रुतिर् कुथि पुथि लुथि मथि खाद् गमने हिंसा संवरणयोश्च निष्पचने उद्गरणे संचलने मर्पणे क्रीडायाम् शातने गतिविशरण योश्च रोदनाह्वानयोः संवर्चन कौटिल्य प्रतिस्तंभविलेखनेषु जनने गमने भुवि बोधने वृत् ज्वलादिः सातत्यगमने संज्ञाने निवासे गतिघृणास्पर्धेषु विभासे क्षरणे हिंसासंक्लेशयोः शास्त्रमाङ्गल्ययोः तौ भक्षणे Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वद खद गद रद ञिविदा पद अदि इदि विदि गिदि नदि चदि त्रदि कदि ऋदि लदि क्लिदि स्कंदरौ शुध उख गाख वख मल रख लख रखि लखि इखि ईखि वल्ग रगि ६३ स्थैर्ये हिंसायां च व्यक्तायां वाचि विलेखने अव्यक्ते शब्दे गतियाचनयोः शब्दे हिंसायाम् कुत्सिते शब्दे दशने बन्धने परमैश्वर्ये अवयवे कुत्सने समृद्धौ दीघ लीघ शिधि ग्रो राखु लाख श्राह्नानरोदनयोः द्रा दीतिह्लादनयोः चेष्टायाम् परिदेवने गतिशोषणयोः शुद्धौ लगि अगि तगि वगि मगि स्वगि इगि रिगि लिगि त्वगि गती भ्राखु शाख लाख फक तक कक्क गग्घ तकि वक लघ लज लजि तर्ज लज लाजि जज जजि www.kobatirth.org जैनेन्द्रधुपाठः गत कम्पने च वर्जने पालने शोषणे नाणे शोषणालमर्थयोः व्याप्तौ नीचैर्गतौ हसने कृच्छ्रजीवने भर्त्सने भर्जने युद्ध तुज तुजि पिजि གླ ཝཱ ཡྻཾ ཡཾ ཡྻཾ, ཡྻཾ རྀd ཪྻཞཱལཡ།ལྤ་ ླ་ལ་གཡྻཾ, ཡྻཾཡཾ, ཡཾ ཝཱ, ཝཱ ཝཿ སྠཽ ནྲྀ ཨཱཿ गज गुजि गृज गुजि मृज For Private And Personal Use Only रुज चीज गर्ज गज त्यजौ शुच कुच कंच अंच वंचु चंचु तंचु त्वं चु मंच मुचु ग्लुचु ग्रुचु ग्लुचु पंच ध्वजि धृज वृजि वज व्रजि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसने पालने च शब्दे मदने च त्यागे पाके उच्चैः शब्दे कौटिल्याल्पीभावयोः अपनयने गतिपूजनयोः गतौ गतौ ४६३ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् गुचु स्तेयकरणे ग्लुचु कुजु खुजु ) उठ | कठ परिभाषणे रठ मारमाषण लट बाल्ये च शट . रुजाविशरणगत्यवसादनेषु पिटि वट उत्रासने षिट शुठ अनादरे झूठ कृच्छ जीवे स्तुतिशठत्वयोः उपधाते हिसासंक्लेशयोः कैतवे वेष्टने अर्च पूजायाम् अव्यक्तायां वाचि खिट शठ गतिप्रतिघाते म्लेच्छ लछ । लाछि। वाछि लछणे शिट ह्रीच्छ संघाते आलस्ये शोषणे आक्रोशे उद्यमे विलासे इच्छायाम् अायामे च लजायाम् कौटिल्ये मोहसमुलाययोः विस्तृतौ प्रमोदे उञ्छने हुर्वा मुर्छा स्फूर्छा युच्छ उछि शब्दे च भृतौ मदे उच्छाये नृत्ती गुज मडि गुजि अव्यक्ते शब्दे कार्कश्ये भावकरणे अभियोगे भूषायाम् प्रमर्दने अल्पीभावे खण्डने विभाजने कूज कांक्षायाम् दोतो अवयवे विलोडने परप्रेष्ये विशरणे विबाधायाम् वैकल्ये घुडि चुडि लुट अज चिट स्फुटिर खर्ज स्तेये मुडि वडि रुटि । लुटि । गडि क्रीड सर्जने सर्ज व्यथने मार्जने च अज गतिक्षेपणयोः पालने खज मंथने खजि गतिवैकल्ये कंपने टुओस्फूर्जा वज्रनि?षे षजौ संगे कुटि अट पट तेज मुखैकदेशे विहारे तोडने इट किट गतो किटी कठि रक्षणे तपःसंतापे S जल्प शौट गर्व लुठि रप > व्यक्तायां वाचि बंधे uw to उन्मादे व्यक्तायां वाचि स्थौल्ये चप lo मानसे च सांत्वने समवाये मन्दायां गतौ पच मदनिवासयोः वर्षावरण योः भद । For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रधुपाठः ४१५ शूल तूल भ्रण हिंसायाम् रुजायाम् निष्कर्ष संधाते प्रतिष्ठायाम् निध्यत्तौ विकसने भावकरणे शैथिल्ये त्रुप # # % ཟླ ཟླ # # ཡྻ – # % @ स्तन वन मूल फल फुल्ल चुल्ल चिल्ल वेल्ल ) त्रुफ @फ षिभु किंभु ) EEEEEEEEEEEFLETIT षण ) संभक्तो वेलू प्रोण शुंभ भाषणेच यभी खेल चलने मैथुने क्नेल. जभ अपनयने शोण वर्णगत्योः श्रोण संघाते श्लोण । गीतप्रेरणश्लेषणेषु कनी दीप्तिकांतिगतिषु अम गीतभक्तिशब्देषु णमो प्रहन्वे क्रम पादविक्षेपे पैण वेल रफि स्खल स्वल गल । संवये चर्व अदने श्वल । आशुगमने खर्च बंधने गतो मन्य सन्य श्वल्ल खोल धोई त्सर क्मर पेलू गतिप्रतिघाते गतिचातुर्ये छद्मगती इक्ष्य ईर्ष्यार्थाः सूर्य हय । गमलू गतिक्लांत्योः शेत शल वक्त्रसंयोगे चल्ल चुचि अण रण तिल्ल व्यभ्र गतो मभ्र वण मण चुच्यी अभिषवे अल भूषणपर्याप्तवारणे दल ञिफल । विशरणे मील निमेषणे क्ष्मील पील प्रतिष्टंभे नील वर्णे समाधौ. श्रावरणे स्मील शब्दे अभ्र कण शिवि बण भण शील रवि भ्रण धवि For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४६६ चर दिव ष्ठिवु जीव पीव मीव णीव तीव तुर्वी थुर्वी धुर्वी जुर्वी भर्वी शर्व श्रव गुत्र हिवि दिवि धिवि कृवि श्रव मक्ष अक्ष तक्ष त्वत् रक्ष शिक्ष वृक्ष स्तृक्ष राक्ष शव रहि पिसृ पेसृ भक्षणे निरसने प्राणधारणे स्थौल्ये हिंसने संघाते व्याप्तौ च } तनूकरणे उद्यमने प्रीणने झष हिंसा विकरणयोः मष गतिप्रीतितृष्टिदीप्तिवृ वर्ष द्विकांत्यवस्यवगमन प्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थ- रुप याचनक्रियेच्छालिंग - नहिंसादनभावरक्षणेषु रिष पालने चुम्बने गतौ जैनेन्द्र-व्याकरणम् रोपे त्वचने अनादरे वक्ष तक्ष सूक्ष काक्षि वाक्षि माक्षि द्राक्षि ध्वाक्षि चूष तूष लूप मूघ शूष भूष ऊष शिष धष www.kobatirth.org जू शष शसु यूप भृषु भष जिपु विषु मिषु पृधु बृधु उक्ष कांक्षायाम् घोरवासितेच पाने तुष्टौ } स्वैचे प्रसवे अलंकारे रुजायाम् उच्छे हिसायाम् संघाते च भत्सने सेचने For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मृषु पुष तुषु श्रिषु श्लिषु प्रुषु प्लुषु घृषु हृषु कृषौ लस ਯ चर्च झर्भ इसे त्रुस हस हस रस षिर मिश मश सि शश हशिरौ दशौ शंसु दहौ मिहौ वह रद्द हर हि वृह पूष ह सहने च पुष्टौ च दा संघर्ष अलीके विलिखितौ श्लेपक्रीडनयोः परिभाषा हिंसातर्जनेषु हसने शब्दे } रोत्रकृते च समाधौ प्लुतिगतौ प्रेक्षणे दशने स्तुतौ भस्मीकरणे से चने परिकल्कने त्यागे वृद्धौ शब्दे च Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तुहिर उहिर अहं 4) ho has a ba? तूक व nx six of बড় ए ल नह गृह र शु द्र ज्रि पा धेटू घ्रा ध्मा க म्ना दारण दैप - अर्दने पूजने प्रसवैश्वर्ययोः गतौ स्थैर्ये च अभिभावे पाने गंधोपादाने शब्दाग्निसंयोगयोः गतिनिवृत्तौ अभ्यासे दाने शोधने हक्ष गात्रविनामे न्यक्करणे स्वप्ने तृप्तौ शब्दे संघाते खदेन क्षये पाके शेषणे स्मृ टुट धृ fruit tree bott स्व गृ वोवि वसौ वद जैनेन्द्र धुपाठः वेष्टने चितायाम् वरणे कौटिल्ये शब्दोपतापयोः गतौ प्रापणे च } खेचने www.kobatirth.org यजौञ् पौञ् हौज् वेञ् व्येञ भौञ् टुयाचञ् चञ् चदेञ् रेहञ् पोशृञ् मिटञ मेधृञ् हिञ् दृञ् लवनतरणयोः गतिवृद्धयोः निवासे व्यक्तायां वाचि एते मवंतः दानदेवपूजा संगत करणे बीजसंताने प्रापणे तनुसताने पाके सेवायाम् रागे याचने परिभाषणे पर्यातौ मेघा हिंसायाम् संगमे च उन्दे बुधुञ बोधने बुंदिरुञ् निशामने चायञ् पूजायां च वेणञ् For Private And Personal Use Only खनुज् दानञ् शानञ् भेञ् अव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छषञ् चषञ् चुषञ् घासृञ दासृञ् माहृञ् गुहूञ भञ् जी श्रिञ् हृञ भृञ् धृञ् डुकृञ् णीञ् हु जिमी पृ ऋ अवदारणे खंडने तेजने आक्रोशे दीप्तौ भुक्तौ } दाने माने संवरणे ओहाकू श्रोहाङ् माङ् डुभृञ दा गतिचिन्ताज्ञाननि डुधाञ् शामनवादिग्रहणेषु | गिजिय पूर्वोपादानरसनयोश्व हिंसायाम् } आदाने च सेवायाम् हरणे एते मवंतः इति ६४६ भूवादयो न्याय्य विकरणाः धवः । दानादनयोः भये भरणे धारणे करणे प्रापणे ४६७ लज्जायाम् पालनपूरणे गतौ त्यागे गतौ माने धारण पोषणयोः दाने धारणे च शौचपोषणयोः Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४६८ विजिय विविय इति १४ ह्रादयः उज्विकरणा धवः । दो विद हनौ अस मृजू वचो रुदिर् ञिष्वपो अन श्वस जक्ष जागृ दरिद्रा चकासृ शासु सस्ति ཐྭ ཨྠ ལ༹ྷཱ ཡ — ལ ཤྲཱ ལྐ " ཤ ཡ ལ ཡ ཤྲཱ ཤྲཱ ཟླ टुनु णु इणु वी या पृथक भावे व्याप्तौ } भक्षणे ज्ञाने हिंसागत्योः भुवि शुद्धौ शये } प्राणने परिभाषणे अश्रुविमोचने भक्षहसनयोः वृत् निन्दाक्षये दुर्गती दीसौ अनुशिष्टौ वृत् स्वप्ने कान्तौ अभिगमने ऐश्वर्य प्रसवयोः वृत्तिहिंसापूरणेषु शब्दे तेजने क्षरणे स्तुतौ मिश्रणे गतौ स्मरणे वा भा श्रा द्रा www.kobatirth.org प्सा पा रा ला दापू ख्या प्रा मा जैनेन्द्र-व्याकरणम् गतिगंधनयोः दौ शौचे पाके चक्षौ ई ई ईशै श्रासे व ऊषूङ् शी इङ् ह्रुङ् द्विपौञ् कुत्सायां गतौ भक्षणे रक्षणे दाने श्रादाने लवने प्रकथने पूरणे माने चर्करीतं च श्राङ:- शासुङ् इच्छायाम् कासिङ् गतिसंतानयोः णिसिङ् चुंचने णिजिङ् शुद्धौ शिजिङ् अव्यक्ते शब्दे पिजिङ् पृजिङ् पृची व्यक्तायां वाचि गतौ 'स्तुतौ ऐश्वर्ये उपवेशने श्राच्छादने गतिप्रजनकांत्यशनेषु लिहौञ् प्रापणे ऊर्णुञ् } संपर्चने स्वप्ने श्रध्ययने अपनयने प्रीतौ दुह चरणे दिहौञ् लेपे आस्वादने श्राच्छादने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लिषौ विदा ॠध्यै क्षुध्यै शुध्यै प्राणिगर्भविमोचने विधु For Private And Personal Use Only स्तुतौ व्यक्तायां वाचि इत्यदादयः ७० उब्विकरणाः धवः ष्टुञ ब्रूञ EEEEEEEEEEEEEEEEEE व्यधौ गुह ष्णिह क्रीडाजयेच्छा परिण द्युतिगतिषु तंतुसंताने परिवेष्टने प्रेरणी विकसने श्रार्द्रभावे लजायाम् गत्याम् शकने वृद्धावेव ताडने पुष्टौ शोषणे तोषणे वितत्ये आलिंगने मर्षणे गात्रप्रक्ष रणे कोपे बुभुक्षणे शोधने संराध्ये हिंसने च प्रदर्शने प्रीणने मोहने च जिघांसायाम् वैचित्ये उदगिर प्रीतौ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रधुपाठः ४६६ असु क्षेपणे | शमु । उपशमने यसु प्रयत्ने । दमु तमु मोक्षणे जसु तसु ) श्रम प्राणने अनो रुधौङ् कामे युजौङ् समाधौ सुजौङ् विसमें अल्पे च प्राणिप्रसवे दूङौ परितापे कांक्षायाम् क्लेशने चलने सहने ग्लाने स्तंभे लिगोर पृष । क्षम क्लमु उषूडौ दाहे मदी हर्ष दीडो क्षये वृत् गतौ धोडो कुस वुस मुस विभागे प्रेरणे श्लेषणे उत्सगें खंडने परिमारणे विलोडने समवाये मसी लुट दो । उच भ्रशु अधःपतने | प्रीङ् प्रीती वरणे भ्रंशु वृश कृश जितष हृष रुष तनूकरणे पिपासायाम् दीपीङ । दीप्तौ रोषे क्षेपे डोडो अनादरे वयोहानौ मीडो हिंसायाम् तनूकरणे रीको श्रवणे लीडो श्लेषणे छेदे वीडो वृणोत्यर्थे अंतकर्माणि पीङ् पाने गतो एते मवंतः शनीङ् प्रादुर्भावे | माङ् माने काशै । इंदितः | मृषौञ् तितिक्षायाम् पूरी आप्यायने | शुचिरीञ् पूतिभावे तूरीङ् हिंसागतित्वरणयोः हौञ् बंधने थूरीङ् । रजौञ् रागे हिंसावयोहान्योः जूरी | शपौत्र आक्रोशे धूरीङ् एते जितः गतिहिंसयोः गूरीङ् इति १२८ दिवादयः श्यविकरणाः शूरी हिंसास्तंभयोः धवः चूरीङ् दाहे अभिषवे ऐश्वर्ये वा पिज बंधने वृतुङ् वरणे श्रिञ् निशाने क्लिशै उपतापे प्रक्षेपणे वाशै शब्दे चयने पादोङ आच्छादने विदौड सत्तायाम् कृञ हिंसायाम् दैन्ये वृञ् वरणे युधौङ् संप्रहारे धुन बुधौङ् कंपने एते त्रितः क्रोधे व्याकुले च. विमोहने घुञ् लुभ शुभ गाये संचलने डुमिञ् चिञ् गतौ स्तृज हिंसने तुभ क्लिदू आईमावे अिभिदा स्नेहे शिक्ष्विदा मोक्षे च धु गृधु अभिकांक्षायाम् खिदौ वर्धने For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० जैनेन्द्र-व्याकरणम् गृ तृफ । तृप्तौ दृ उपतापे श्रवणे गतिवृद्धयोः प्रीती चलने च व्याप्ती शक्ती निगरणे एते मवंतः अनादरे स्थाने डितावेतो ज्ञीप्सने तृम्फ हफ । दृम्फ उत्क्लेशे गुफ प्रच्छो ग्रंथने गुम्फ। अाप्लु शक्ल राधे वृत् पूरणे संसिद्धौ साथै विसर्गे शुद्धो भंगे कौटिल्ये टोमस्जौ ऊरुजौ ऊभुजौ शोभार्थ तिक तिग हिंसायाम् तुभ ) तुम्भ शुभ शुंभ दृभी चूती झषी जुन ग्रंथे हिंसायां च हिंसने रिशो छुपौ । दंभु स्पर्श गतौ स्पृशौ। शुन , जिधृषा प्रागल्भ्ये दंभे ऋधु वर्द्धने एते मवंत अशू च्याप्ती ष्टिघङ श्रास्कंदने ङितावेती इति २७ इनुविकरणाः धवः । विधाने विध लिशौ । विच्छौ मृशौ विशौ गुदो पृड । सुखने मृड पृण षद्ल गतौ आमर्श प्रवेशे क्षोदे अवसातने छेदने विवासे इंद्रियप्रलयमूर्ति भावयोः उक्लेशे श्रोत्रश्चू उच्छी ऋच्छ मृण तुण पुण प्रीणने हिंसायाम् कौटिल्ये कर्मणि शुभे प्रतिज्ञाने शब्दोपकरणयोः हिंसागतिकौटिल्येषु मुण कुण मिच्छ तुदौन व्यथने दिशौत्र अतिसर्जने भ्रस्जौज पाके क्षिवौत्र प्रेरणे एते जितः छेदने खिदौ परितापे पिश अवयवे घुण कृती जर्ज परिभाषणे घूर्ण कुर वृत् } गतौ त्वच ऋच उब्ज उज्झ लुभ रिफ संवरणे स्तुती आर्जवे उपसर्गे विमोहने कत्थनयुद्धनिंदाहिंसादानेषु भ्रमणे दीप्तैश्वर्ययोः शब्दे विलेखने छेदने च संवेष्टने भीमार्थशब्दयोः उद्यमने उद्यमने धारणे निवासगत्योः प्रेरणे प्राणत्यागे विक्षेपणे ऋफ ऋम्फ हिंसाः हिंस:याम् तृन्हू For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इषु मित्र किल तिल चल बिल इल विल 阿丽丽丽丽姬丽丽丽阿B两邸丽丽平邪邪邪邪 निल हिल सिल शिल उछि लिख कुट पुट कुच व्यच गुज गुड लिप छुर चुट छुट त्रुट स्फुट मुट तुट जुड कड लुट तड कुड } घुट तुड थुड स्थुड इच्छायाम् स्पर्धायाम् शैत्यक्रीडनयोः स्नेहने विलसने संवरणे स्वप्नक्षेपणयोः भेदने गहने भावकरणे उच्छे रविन्यासे कौटिल्ये संश्लेषणे संकोचने व्याजीकरणे शब्दे रक्षणे क्षेपणे छेदने विकसने आक्षेपप्रमर्दनयोः कलहकर्मणि बंधे मदे संश्लेषणे घसने बाल्ये च प्रतिघाते तोडने } संवरणे ६४ स्फर स्फुर ब्रड 19 वृड मृड ह्ड तृड रुफल स्तुल by boy bag bag णू कुङ् कू गुरीङ् www.kobatirth.org जैनेन्द्र धुपाठः स्फुरणे उत्सर्गे पृ जुत्रीङ् विजीङो लजीङो लसुजीङो जौ रमौ संघाते रुधि भिदिनों छिदिनों रिचित्र निमज्जने चलने संचये च स्तवने विधूनने पुरीषोत्स गतिस्थैर्ययोः विचित्र क्षुदित्र युजि पते मवंतः शब्दे संगे राभस्ये उप्लतौड़ प्रीतो ङितः उद्यमने वृत् व्यायामे प्रीतिसेवनयोः भय चलनयोः वीडे इति १४६ तुदादयः शविकरणाः धवः आवरणे विदारणे द्वैधीकरणे विरचने पृथग्भावे संप्रेक्षयो योगे For Private And Personal Use Only हृद तृदि ञिइन्धी खिदौङ् विदोङ् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृती शिष्लृ पिष्लु उभंजो भुजो तृह हिसि उन्दी अंजू तंचू ऊविजी वृजी पृची तनुञ पञ क्ष क्षिणुञ् ऋणुञ् तृणुञ घृणुञ दीप्तिदेवनयोः हिंसानादरयोः एते ञितः दीप्तौ चनुङ् मनुङ् दैन्ये विचारे ङितः वेष्ट ने संपर्चने एते भवंतः इति २५ रुधादयः श्नम् विकरणाः धवः विशेषणे संचूर्णने श्रमर्दने रक्षाशनयोः हिंसने क्लेदने गतिव्यक्तिम्रक्षणेषु संकोचने भये वर्जने ५०१ विस्तारे दाने हिसायाम् गतौ अदने दीप्तौ ञितः याचने बोधने ङितः इति तनादय उबिकरणाः धवः Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५०२ डुक्रीञ् प्रीञ् श्रीञ् मीञ् षिञ् स्कुज् क्नू दृञ् गृह पूञ् स्तुञ् कृञ वृञ् wwwtowww.tewwwww धूञ् प्रीञ् ज्या व्लो प्ली री ली बी श्री द्रव्यविनिमये तृप्तिदीप्योः पाके हिंसायाम् बन्धने ग्राप्रवणे शब्दे गतौ उपादाने पवने श्राच्छादने हिंसायाम् वरणे ञितः हिंसायाम् पालनपूरणयोः वरणे भर्त्सने भये नये वयोहान गतौ शब्दे एते मवन्तः कंपने तर्पणे जिती हान बरणे गत रेषणे श्लेषणे वृत् वरणे भये www.kobatirth.org क्षीषु ज्ञा बंधो श्रंथ मंथ ग्रंथ कुंथ मृद मृड गुध कुष तुभ गभ तुभ क्लिशू श्रश भ्रस इष् विष पुष प्लुष मुष पुष खच श्रृङ् जैनेन्द्र-व्याकरणम् हिंसायाम् अवबोधने बंधने चुर लुंठ चिति यत्रि स्फुट कुद्रि लड मिदि तिल स्निह विलोडने संदर्भ संक्लेशे चोदे डुल जल प्रतिहर्षविमोचनयोः | पीड सुखने रोषे निष्कर्षे संचलने हिंसायाम् विबंधने भोजने उंछे श्राभीक्ष्णे विप्रयोगे स्तेये पुष्टौ भूतप्रादुर्भावे ङित् इति ५६ क्यादयः श्नाविकरणाः धवः एते मवंतः भक्तौ स्तेये स्मरणे चूर्णसंकोचने परिहासे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनृतभाषणे उपसेवायाम् स्नेहने ओलडि For Private And Personal Use Only कब ये नट श्रथ वध वर्द्ध चुट स्नेहन सेचन सेवन पूरणेषु लुट कुट्ट चुट्ट अट्ट जै इल जुड चूर्ण पृथ संब भक्ष चुटि घुट्ट वठ वठि तुज पिजि पिश सांत्व वल्क वल्क श्लिष पथि पिच्च छद श्रण तड } उत्क्षेपे } } पवारणे गहने श्रवत्यंदने प्रीतिहर्षे संयमने पूरणे छेदने च बलप्राणनयोः प्रेरणे प्रक्षेपे संबंध अदने छेदने कुत्सने च अल्पीभावे अनादरे गतिसंस्कारयोः हिंसाबलिदान निकेतनेषु सामप्रयोगे } भाषणे श्लेषणे गतौ कुट्टने संवरणे दाने आघाते Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्रधुपाठः ५०३ घट्ट चलने संवरणे खाडि खट्ट क्षये कडि वडि व्यय मुस्त डयि डिपि पिडि बुक्क संघाते विभाजने भूषायाम् कल्याणे वमने आदरानादरयोः संचोदने भडि छर्द स्तुती रोषणे अध्ययने भाषणे सगिराविष्करणे निमीलने नाशने श्राश्रवणे ताडने बंधने पुस्त चुद शब्द कण जमि सूद जस पश अम । टकि नक धक्क नाशने अभिवर्द्धने बंधने कांतिकरणे वर्णने पूजने बालस्ये शोषणे रणशि रोगे कीट चर्क । पूज चट व्यथने शुठ हत्यर्थाः क्षल शुठि घट । तल शौचकर्मणि प्रतिष्ठाकरणे उन्माने मार्ज दिव मर्दने शब्दे तुल अर्ज प्रतियत्ने विशब्दे पुल समुच्चये पचि रोहणे स्रवणे विस्तारे निशाने श्राख्याने तिज मूल डिप ) घुष आङः लस भूष मोक्ष शिल्पयोगे अलंकारे क्षेपे . कल छादने असने विल लुबि । पूजने अईने ज्ञा तुबि । हृप नियोगे निकारोपस्कारयोः यत व्यक्तायां वाचि कुडि रक्षणे म्रक्ष । प्रसहने पल म्लेछने निसश्व धृष भज वस म्रछ । शठ । शुल्व माने शूर्प विश्राणने स्नेहछेदापहरणेषु संचये सहने चर मुट जस हिंसायाम् वज 1 व्रज शुल्क भावकरणे संचूर्णने मार्गणसंस्कारयोः संजने गत्याम् क्षांत्याम् कृच्छ जीवने गमने च कृप रक छवि । प्रास्वादने श्वपि क्षजि श्वत गर्द्ध | गुर्द अभिकांक्षणे पूर्वनिकेतने अंच लिगि विशेषणे चित्रकरणे For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५०४ मुद त्रस मुच पुष दल पट संसर्गे वारणे प्रमोचने आस्वदः सकर्मकात् ) पुट लुट लुजि तुजि पिजि भजि पिसि कुसि दसि लसि ལླཱ ཤྲཱ ཡྻ ཝཿ ལྦ པླ ཝཱ ཝཱ ཤཱ 1 , ལ ཡཱཾ ཤྲཱ ཝཱ བྷ ཝཱ, ཟླ ྂ कुशि विच्छ लोक लोचृ त्रुप धारणे विदारणे भाषार्थाः आप्यायने संवरणे जैनेन्द्र-व्याकरणम् श्रवमोचने प्रस्रवणे पारुष्ये www.kobatirth.org सूत्र मूत्र रूक्ष बष्क कच्छ चित्र अंस मिश्र छिद्र अंध दंड अंक अंग प वर्ण कथ वर गण शठ श्वठ पट वट मृष रह स्तन सर कृप ♦ श्रथ दर्शने शैथिल्ये चित्रकरणे कदाचिद्दर्शने च } समाघाते संपर्चने कर्णभेदे दृष्ट्युपसंहारे दण्डनिपाते लक्षणे पदलक्षणे च हरितभावे वर्णक्रियाविस्तार गुणवचनेषु वदने म् संख्याने सम्यगव भाषणे पत पत्र ( अगिः ) स्वर रच कल चह मह ग्रंथे तितिक्षायाम् त्यागे देवशब्दे गतौ वा " आक्षेपे प्रतियत्ने गतौ परिकल्कने पूजायाम् शैथिल्ये For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्पृह भाम सूच खेट खोट गोम कुमार शील साम वेल पल्यूल वास गवेष वास निवास भाज सभाज ऊन 粥 鞀 丽 觋舸卵鹂 啾永丽丽丽西丽 丽家丽 कूट केत ग्राम कुण स्तेन वत्रि लजि पार तीर सुख स्तोम दुःख रस व्यय रूप छेद } लाभ व्रण सम् क्रोधे पैशुन्ये भक्षणे क्षेपे उपक्षेपे क्रीडने उपधारणे सां कालोपदेशे लवनपवनयोः गतिसुख सेवन योः मार्गणे उपसेवायाम्, आच्छादने पृथक्करणे प्रीतिदर्शनयोः परिहाने दा आमंत्रणे चौर्य विभाजने प्रकाशने } कर्मसमातौ श्लाघायाम् तत्क्रियायाम् आस्वादस्नेहयोः वित्तसमुत्सर्गे रूपक्रियायाम् द्वैधीकरणे प्रेरणे गात्रविचूर्णने एते मवंतः Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व सत्रै माने संग्रामै आष्ट्र तनु युङ् शोके जैनेन्द्रधुपाटः ५०५ गतो | स्यम्यै वितर्कणे श्रथ ग्रहो उद्यमने क्रथ हिंसायाम् अन्वेषणे कुस्मै कुस्मृती हिसि ) विस्मापने समै । ग्रथ बंधने च श्रालोचने चीक । विक्रांती आमर्षणे कुस्यै अवक्षेपे शीक परिवृहणे प्रतापने श्राङः सद गती वृत् भले आभंडने जुष परितर्पणे अर्थ उपयाज्ञायाम् प्रलंभने अंथ संदानक्रियायाम शक्तिबंधने ग्रंथ । संदर्भ तृप्ति योगे लंभने परिकूजे श्रद्धोपर्हिसायाम् चित संवित्तौ विषै ख्याननिवासेषु | गेः (गिपूर्वस्तनुः) दैर्ये संवरणे स्तभे वच संदेशवचने दशने जुगुप्सायाम् मान पूजायाम् दर्शने च गृङ् विज्ञापने गई विनिन्दने दिता मार्ग अन्वेषणे संघाते লন্স दर्शनांकनयोः कठि कुटुम्बधारणे शौचालंकारयोः युजौ गुप्तभाषणे संयमने प्रसहने : पिच ग्रहणश्लेषणयोः एते मवंतः मर्षणे तितिक्षायाम् संतर्जने क्षेपणे दाहे ली द्रवीकरणे भाषणे वर्जने वृजी श्रर्दने पूजायाम् ग्रंथै । वयोहानी हिंसायाम् हिंसायाम् रिच वियोजनसंपर्चनयोः शोधने निष्कै परिमाणे शिष असर्वोपयोगे ऐदितः विपूर्वो (वि-शिष) ऽतिशये वरणे संकोचने तृप प्रीणने कंपने पूरणे संदीपने | प्री तपणे श्राशायाम् अपवारणे जितः হাট श्लाघायाम् भये इति ३५१ चुरादयो धवः यक्ष पूजायाम् समाप्ताः । पाठप्रयोजनमनिण्विमनिड्विकल्पे द्वेच्छप्रभृत्तिरव्योनिडवागनैश्च । दोनत्वमिड्विकलता च यथाक्रमेण धूनां सुधीभिरधिगम्यमिता स्वराणाम् (?)॥ पादाम्भोजानमन्मानवपतिमकुटानय॑मागिणक्यतारानीकासंसेविताद्यद्युतिललितनखानीकशीतांशुबिम्बः । दुर्वासनङ्गयाणाम्बुरुहहिमकरोद्ध्वस्तमिथ्यान्धकारः शब्दब्रह्मा स जीयाद् गुगनिधिगुणनन्दिवतीशस्सुसौख्यः ।। जित् मृजू मंत्र स्परी पह मसे वस्तै । अच प्रद किष्कै चलै ईप्सायाम् वृष कणै धू हमी मी गतो For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भारतीय ज्ञानपीठ के सांस्कृतिक प्रकाशन [ प्राकृत, संस्कृत ग्रन्थ ] १. महाबन्ध महाधवल सिद्धान्त शास्त्र ] [ भाग १ - ५ ] हिन्दी अनुवाद सहित २. करलक्खण [ सामुद्रिक शास्त्र ]-हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ ३. मदनपराजय-- भाषानुवाद तथा ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना ४. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची ५. न्यायविनिश्चय विवरण [ भाग १-२ ] ६. तत्त्वार्थवृत्ति - श्रुतसागर सूरिरचित टीका । हिन्दी सार सहित - ७. आदिपुराण भाग [१] - भगवान् ऋषभदेवका पुण्य चरित्र ८. आदिपुराण भाग [२] - भगवान् ऋषभदेवका पुण्य चरित्र ६. उत्तर पुराण [ २३ तीर्थंकरों का पुण्य चरित्र ] १०. नाममाला सभाप्य ११. केवलज्ञानप्रश्नचूडमणि - ज्योतिष ग्रंथ १२. सभाष्यरत्नमंजूषा - छन्दशास्त्र १३. वसुनन्दि-श्रावकाचार १४. जिनसहस्रनाम www.kobatirth.org १८. पुराणसार संग्रह [ भाग १-२ ] १६. व्रततिथिनिर्णय १५. समयसार - [ अंग्रेजी ] १६. कुरलकाव्य -- तामिल भाषाटीका पञ्चमवेद [ तामिल लिपि ] १७. तत्त्वार्थराजवार्तिक [ भाग १-२] ➖➖➖ [ हिन्दी जैन ग्रन्थ ] २०. मुक्तिदूत [ उपन्यास ] - श्रञ्जना पवनञ्जयकी पुण्यगाथा २१. भारतीय विचार धारा २२. वर्द्धमान [ महाकाव्य ] २३. जैन-जागरण के अग्रदूत २४. आधुनिक जैन कवि २५. जैनशासन - जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करानेवाली सुन्दर रचना ३०. खण्डहरोंका वैभव ३१. खोजकी पगडंडियाँ ३२. अध्यात्म-पदावली ३३. चौलुक्य कुमारपाल २६. कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न २७. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास २८. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन [ भाग १-२ ] २६. धर्मशर्माभ्युदय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-५ For Private And Personal Use Only ५६) (1) १३) ३०) १६) १०) १०) १०) ३॥) ডি স २४) ३|| ) २) २||1=) $$$**! Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.orgAcharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only