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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण १--शब्दार्णव-चन्द्रिकाके अन्तिम पद्यमें सुप्रसिद्ध गुणनन्दि आचार्यके शब्दार्णवमें प्रवेश करनेके लिए सोमदेवकृत वृत्तिको नौकाके समान बतलाया है। इससे जान पड़ता है कि प्राचार्य गुणनन्दिके बनाये हुए व्याकरण ग्रन्थकी यह टीका है और उसका नाम शब्दार्णव है। इस टोकाका 'शब्दार्णव चन्द्रिका' नाम भी तभी अन्वर्थक होता है, जब मूल सूत्र-ग्रन्थका नाम शब्दार्णव हो। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि प्रक्रियाके अन्तिम श्लोकसे और भी अच्छी तरहसे हो जाती हैं जिसका आशय यह है कि गुणनन्दिने जिसके शरीरको विस्तृत किया है, उस शब्दार्णवको जाननेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए तथा आश्रय लेनेवालोंके लिए यह प्रक्रिया साक्षात् नाक्के समान काम देगी। इसमें 'शब्दार्णव' को जो 'गुणनन्दितानितवपुः' विशेषण दिया है, वह विशेष ध्यान देने योग्य है। उससे साफ समझमें बात है कि गुणनन्दिके जिस व्याकरणपर ये दोनों टीकाएँ-शब्दार्णवचन्द्रिका और प्रक्रिया-लिखी गई हैं उसका नाम 'शब्दार्णव' है और वह मूल (असली ) जैनेन्द्र व्याकरणके संक्षिप्त शरीरको तानित या विस्तृत करके बनाया गया है।
शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रारम्भका मंगलाचरण भी इस विषयमें ध्यान देने योग्य है। जिसमें ग्रन्थकर्ताने भगवान् महावीरके विशेषणरूपमें क्रमसे पूज्यपादका, गुणनन्दिका और अपना ( सोमामर या सोमदेवका) उल्लेख किया है, और इससे वे निस्सन्देह यही ध्वनित करते हैं कि मुख्य व्याकरणके कर्ता पूज्यपाद हैं, उसको विस्तृत करनेवाले गुणनन्दि हैं और फिर उसकी टीका करनेवाले सोमदेव ( स्वयं ) हैं। यदि यह चन्द्रिका टीका
पूज्यपादके व्याकरणकी ही होती, तो मंगलाचरणमैं गुणनन्दिका नाम लानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। गुण • नन्दि उनकी गुरु-परम्परामें भी नहीं हैं, जो उनका उल्लेख करना आवश्यक होता! अतः यह सिद्ध है कि
चन्द्रिका और प्रक्रिया दोनोंके ही कर्ता यह समझते थे कि हमारी टीकाएँ असली जैनेन्द्र पर नहीं किन्तु उसके 'गुणनन्दितानितवपुः' शब्दार्णवपर बनी हैं।
२-शब्दार्णव-चन्द्रिका और जैनेन्द्र-प्रक्रिया इन दोनों ही टीकाश्रोंमें 'एकशेष' प्रकरण है। परन्तु अभयनन्दिकृत 'महावृत्ति' वाले सूत्रपाठमैं एकशेषको अनावश्यक बतलाया है-"स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः ।" [ १-१-६६ ] और इसीलिए देवनन्दि या पूज्यपादका व्याकरण 'अनेकशेष' कहलाता है। चन्द्रिका टीकाके कर्ता स्वयं ही "श्रादावुपज्ञोपक्रमम्' [१-४-१५४ ] सूत्रकी टीकामै उदाहरण देते हैं "देवोपज्ञमनेकशेषव्याकरणम् ।" यह उदाहरण अभयनन्दिकृत महावृत्तिमै भी दिया गया है। इससे सिद्ध है कि शब्दार्णव-चन्द्रिकाके कर्ता भी उसी व्याकरणको देवोपज्ञ या देवनन्दिकृत मानते हैं, जो अनेकशेष है, अर्थात् जिसमें 'एकशेष' प्रकरण नहीं है और ऐसा व्याकरण वही है जिसकी टीका अभयनन्दिने की है।
३-श्राचार्य विद्यानन्दि अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृष्ठ २६५ में 'नगमसंग्रह-' आदि सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं, “नयश्च नयौ च नयाश्च नया इत्येकशेषस्य स्वाभाविकस्याभिधाने दर्शनात् केषाञ्चित्तथा बचनोपलम्भाव न विरुद्ध्यते।" इसमें स्वाभाविकताके कारण, एकशेषकी अनावश्यकता प्रतिपादन की है और यह अनावश्यकता जैनेन्द्रके वास्तविक सूत्र पाठमें ही उपलब्ध होती है। “स्वाभाविकत्वादमिधानस्यैकशेषानारम्भः" [ १-१-६६ ] यह सूत्र शब्दार्णववाले पाठमैं नहीं है, अतः विद्यानन्द भी पूर्वोक्त सूत्रवाले
१. श्रीसोमदेवयतिनिर्मितिमादधाति या नौः प्रतीतगुणनन्दितशब्दवाधौं ।
सेयं सताममलचेतसि विस्फुरन्ती वृत्तिः सदा नुतपदा परिवर्तिषीष्ट ॥ २. सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनामोन्नतं, नितिं बहुतद्धितं कृतमिहाख्यातं यशःशालिनम् ।
सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णये, नावित्याश्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रक्रिया ॥ ३. श्रीपूज्यपादममलं गुणनमिददेवं सोमामरबतिपपूजितपादयुग्मम् ।
सिद्धं समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्रं सच्छब्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥ ४. इस प्रक्रियाका भी नाम 'शब्दार्णव-प्रक्रिया' होगा, जैनेन्द्र प्रक्रिया नहीं।
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