Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति रचित गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड) भाग-२ सम्पादन-अनुवाद डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार जैन-धर्म के जीवतत्त्व और कर्मसिद्धान्त की विस्तार से व्याख्या करनेवाला महान् ग्रन्थ है 'गोम्मटसार' । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (दसवीं शताब्दी) ने इस वृहत्काय ग्रन्थ की रचना 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' और 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' के रूप में की थी। डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये और सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के सम्पादकत्व में यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से सन् 1978-1981 में प्राकृत मूल गाथा, श्रीमत् केशववर्णी विरचित कर्णाट-वृत्ति जीवतत्त्व-प्रदीपिका संस्कृत टीका तथा हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत प्रस्तावना के साथ पहली बार चार वृहत् जिल्दों (गोम्मटसार जीवकाण्ड, भाग 1,2 और गोम्मटसार कर्मकाण्ड, भाग 1,2) में प्रकाशित हुआ था। और अब जैन धर्म-दर्शन के अध्येताओं एवं स्वाध्याय-प्रेमियों को समर्मित है ग्रन्थ का यह एक और नया संस्करणा www.iainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : प्राकृत ग्रन्थांक १७ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति रचित गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड) भाग-२ [ श्रीमत्केशववर्णिविरचित कर्णाटवृत्ति, संस्कृत टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका, हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावना सहित ] सम्पादन एवं अनुवाद डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री क भारतीय ज्ञानपीठ तृतीय संस्करण : २००० ई. - मूल्य : २५० रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263-0168-6(Set) 81-263-0170-8 भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ; वीर नि. सं. २४७०; विक्रम सं. २०००; १८ फरवरी १६४४) पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। ग्रन्थमाला सम्पादक : (प्रथम संस्करण) सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ १८, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३ मुद्रक : नागरी प्रिण्टर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११० ०३२ © भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA : Prakrit Grantha No. 17 GOMMATASARA (KARMAKĀNDA) of ACHARYA NEMICHANDRA SIDDHANTACHAKRAVARTI VOL. II [With Karnāta-vrtti, Sanskrit Tīkā Jivatattvapradīpīkā, Hindi Translation & Introduction ] Edited and translated by · Dr. A. N. Upadhye Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri Grotech BHARATIYA JNANPITH Third Edition : 2000 o Price : Rs. 250 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263 - 0168 - 6 (Set) 81 - 263-0170 - 8 BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9; Vira N. Sam. 2470; Vikrama Sam. 2000; 18th Feb. 1944) MOORTIDEVI JAINA GRANTHAMALA FOUNDED BY Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his illustrious mother Smt. Moortidevi and promoted by his benevolent wife Smt. Rama Jain In this Granthamala critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc., are being published in original form with their translations in modern languages. Also being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by competent scholars and also popular Jain literature. General Editors : (First Edition) Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri Dr. Jyoti Prasad Jain Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110 003 Printed at : Nagri Printers, Naveen Shahdara, Delhi-110 032 © All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभजयन्ती संवत् २०३४ में गोम्मटसार जीवकाण्डका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था और ऋषभ निर्वाण चतुर्दशी वि. सं. २०३७ में कर्मकाण्डके दूसरे भाग के साथ गोम्मटसारका प्रकाशन कार्य पूर्ण हुआ है । जब मैंने इस महत्कार्यका भार वहन किया था तो मुझे यह सन्देह था कि यह कार्य पूर्ण कर सकूंगा कि नहीं ? क्योंकि मेरे सहयोगी डॉ. ए. एन. उपाध्ये आयुमें मुझसे तीन वर्ष छोटे होते हुए भी दिवंगत हो गये थे । किन्तु जिनभक्ति प्रसादसे मेरा स्वास्थ्य ठीक रहा और यह महत्कार्य ऐसे समय में पूर्ण हुआ जब श्रवणबेलगोला में अनेकोपाधि विभूषित चामुण्डरायके द्वारा स्थापित बाहुबलि स्वामीकी विशाल मूर्तिकी, जो चामुण्डराय के घरेलू नामपर गोम्मटेश्वर के नामसे विख्यात है, स्थापनाके एक हजार वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में २२ फरवरीके दिन महामस्तकाभिषेक निष्पन्न होने जा रहा है और समस्त विश्वमें उसीकी चर्चा प्रचरित है । तथा भारतके कोने-कोनेसे दर्शनार्थी भक्त जनता उमड़ी चली जा रही है । सम्पादकीय यह गोम्मटसार महाग्रन्थ भी सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रने चामुण्डरायके निमित्तसे ही रचा या इसीसे उन्होंने इसको गोम्मटसार नाम दिया है। इस तरह चामुण्डरायके द्वारा प्रस्थापित गोम्मटेश्वर और उनके ही निमित्तसे रचा गया गोम्मटसार ये दोनों अमूल्य कृतियाँ उसी तरहसे परस्पर में सम्बद्ध हैं जैसे भरत और बाहुबलि थे । एक जिनकी प्रतिकृति है तो दूसरी जिनवाणी की। गोम्मटसार दो भागों में विभक्त है - प्रथम भाग जीवकाण्डको समाप्तिपर ग्रन्थकार नेमिचन्द्रने अन्तिम गाथा द्वारा चामुण्डरायके गुरु अजितसेनका उल्लेख करते हुए गोम्मट नामसे चामुण्डरायका जयकार किया है । किन्तु गोम्मटसार कर्मकाण्डके अन्तमें चामुण्डराय के द्वारा निर्मापित गोम्मटस्वामीको मूर्तिका, उसके आगे निर्मापित ब्रह्म स्तम्भका तथा जिनभवनका उल्लेख विस्तारसे किया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जीवकाण्डकी बनाके पश्चात् ओर कर्मकाण्डको समाप्तिसे पूर्व चामुण्डरायने उक्त निर्माण कराया था । गोम्मटसार कर्मकाण्डकी अन्तिम प्रशस्ति एक तरहसे चामुण्डरायकी हो प्रशस्ति है । उसमें ग्रन्थकारने अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा । जयतु ।' उसकी अन्तिम गाथाके अर्थके सम्बन्धमें विद्वानोंको सन्देह है । वह गाथा इस रूपमें प्राप्त है गोम्मटसुत्त लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । सो राओ चिरकालं णामेण य वीर मत्तंडी ॥ ९७२ ॥ इसकी संस्कृत टीका इस प्रकार है 'गोम्मटसारसूत्रलेखने गोम्मटराजेन या देशीभाषा कृता स राजा नाम्ना वीरमार्तण्डश्चिरकालं पं. टोडरमलजी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है 'गोम्मटसार ग्रन्थके सूत्र लिखने विषै गोम्मट राजा करि जो देशी भाषा करी सो राजा नामकरि वीरमार्तण्ड चिरकाल पर्यन्त जीतिवंत प्रवृत्तो ।' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमीने चामुण्डराय शीर्षक अपने निबन्धके पादटिप्पण में लिखा है- 'इस गाथाका ठीक अन्वय नहीं बैठता । परन्तु यदि सचमुच ही चामुण्डरायकी कोई देसी या कनड़ी टीका हो, जिसका कि नाम वीरमतंडी था, तो वह केशववर्णीकी कर्नाटकी वृत्ति से जुदा ही होगी, यह निश्चित है । एक कल्पना यह भी होती है कि उन्होंने गोम्मटसारकी कोई देसी ( कनडी ) प्रतिलिपि की हो ।' - (जै. सा. इ., पृ. २६९ ) स्व. मुख्तार सा. जुगल किशोरजीने पुरातन जैन वाक्य सूचीकी प्रस्तावना में लिखा है - 'सचमुच में चामुण्डरायकी कर्नाटक वृत्ति अभी तक पहेलो ही बनी है । कर्मकाण्डको उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'देसी' पदपरसे की जानेवाली कल्पनाके सिवाय उसका अन्यत्र कहीं कोई पता नहीं चलता और उक्त गाथाकी शब्दरचना बहुत कुछ अस्पष्ट है ।' 'यहाँ देसीका अर्थ देशको कनडी भाषामें छायानुवाद रूपसे प्रस्तुत की गयी कृतिका ही संगत बैठता है न कि किसी वृत्ति अथवा टीकाका, क्योंकि ग्रन्थकी तैयारीके बाद उसकी पहली साफ़ कापीके अवसरपर, जिसका ग्रन्थकार स्वयं अपने ग्रन्थके अन्त में उल्लेख कर सके छायानुवाद जैसी कृतिकी ही कल्पना की जा सकती है, समयसाध्य तथा अधिक परिश्रमकी अपेक्षा रखनेवाली टीका जैसो वस्तुकी नहीं। यही वजह है कि वृत्ति रूपमें उस देशोका अन्यत्र कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता - वह संस्कृत छायाकी तरह कन्नड़ छाया रूपमें ही उस वक्तको कर्नाटक देशीय कुछ प्रतियोंमें रही जान पड़ती है ।' विचारणीय ही स्व. मुख्तार सा. का लिखना यथार्थ प्रतीत होता है फिर भी उक्त प्रश्न बना है । अस्तु, हमने कर्मकाण्डके प्रथम भागको प्रस्तावना में लिखा है कि हमें उसकी संस्कृत टीकाको हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त नहीं सकीं। जो एक प्रति दिल्लीके भण्डारसे प्राप्त हुई थी उससे प्रतीत हुआ कि उसमें कोई अन्य टीका मिश्रित है । कलकत्तासे जो गोम्मटसार कर्मकाण्डका बृहत् संस्करण प्रकाशित हुआ था, उसके पाद टिप्पण में कहीं अमुक पाठ अधिक मिलता है । हमने उस कहीं यह लिखा मिलता है कि अभयचन्द्र नामसे अंकित टीका पाठका मिलान केशववर्णीकी कन्नड़ टोकासे किया तो वह उसने हमने उन पाठोंके साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया जो पं. हमें ज्ञात हुआ कि नेमिचन्द्रको संस्कृत टीकाके भी दो रूप हैं और उसका समर्थन संस्कृत टोकाकी अन्तिम प्रशस्तियोंसे होता है । कलकत्ता संस्करणमें दोनों प्रशस्तियाँ मुद्रित हैं । उन दोनोंके अन्त में लिखा है बिल्कुल मिलता हुआ प्रतीत हुआ । इससे टोडरमलजोकी टीकामें नहीं है । इसपर से निर्ग्रन्थाचार्यवर्येण त्रैविद्य वक्रवर्तिना । संशोध्याभयचन्द्रेणा लेखि प्रथमपुस्तकः ॥ अर्थात् निर्ग्रन्थाचार्य त्रैविद्यचक्रवर्ती अभय वन्द्रने नेमिचन्द्रकी टीकाका संशोधन करके उसकी पहली पुस्तक लिखी । इस संशोधन में केशववर्णीकी टोकाके ऐसे कुछ अंश, अभयचन्द्रने सम्मिलित कर लिये । ये अंश प्रायः दार्शनिक हैं टीका भी दो रूप हो गये - एक नेमिचन्द्रकृत और दूसरा ऐसा प्रतीत होता है कि अभयचन्द्र भी अच्छे विद्वान् थे । टीकाकारोंके सम्बन्ध में जीवकाण्डके प्रथम भागको प्रस्तावना में लिखा गया है । जिन्हें नेमिचन्द्रने छोड़ दिया था, उन्हें भी या विशेष विस्तारको लिये हैं । इससे संस्कृत अभयचन्द्रके द्वारा संशोधित और परिवर्द्धित । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय कर्णाटवृत्तिके रचयिता केशववर्णीने अपनी टोकाके अन्तमें कुछ कन्नड़ पद्य भी दिये हैं। मूडविद्रीके श्री चारुकीर्तिजी महाराजने अपने शोधसंस्थानके विद्वान द्वारा उनका शोधनपूर्वक हिन्दी अर्थ कराकर भेजा इसके लिए हम स्वामीजी तथा उक्त विद्वानका आभार स्वीकार करते है। मेरी यह आन्तरिक भावना थी कि श्रवणवेलगोलामें महामस्तकाभिषेकके अवसरपर इस ग्रन्थराजका विमोचन हो । भारतीय ज्ञानपीठके वर्तमान अध्यक्ष साह श्रेयांसप्रसादजी आदिने भी मेरी इस भावनाको मान्य किया और ता. १. फरवरीको चामुण्डराय मण्डपमें विशाल मुनि संघ और जनसमुदायके समक्ष इस प्रन्थराजका विमोचन हुआ। यह मेरे लिये बड़े हर्ष की बात हुई। श्रवणवेलगोलासे लौटते हुए बाहुबली ( कुम्भोज ) में आवार्य समन्तभद्रजी महाराजके दर्शन किये । उन्हींके समक्ष इस ग्रन्थराजके प्रकाशनको योजना बनी थी और उसे भारतीय ज्ञानपीठके तत्कालीन अध्यक्ष साह शान्तिप्रसादजी तथा मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द जीने स्वीकार किया था। उन्हीं के शुभाशीर्वादसे यह महान् कार्य निर्विघ्न पूर्ण हुआ है। अतः उनके प्रति मैं नतमस्तक है। अन्तमें मैं भारतीय ज्ञानपीठके संचालक मण्डल तथा व्यवस्थापक मण्डलको तथा सन्मति मुद्रणालयके संचालकों और सुदक्ष कम्पोजीटर श्री महावीरजीको धन्यवाद देता हूँ जिनके सहयोगसे यह महान् कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो सका। स्व. साहू शान्तिप्रसादजी और उनकी स्व. धर्मपत्नी रमारानीजीका स्मरण बरबस हो आता है जो इस ज्ञानपीठके संस्थापक और संचालक रहे हैं और जिसके कारण जिनवाणीके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका प्रकाशन हो रहा है। साहूजोके बड़े भाई साहू श्रेयांसप्रसादजी तथा बड़े पुत्र साहू अशोककुमारजी उनके कार्यको संलग्नता के साथ कर रहे हैं यह सन्तोषकी बात है। श्री गोम्मटेश्वर सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक दिवस २२ फरवरी सन् १९८१ -कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. त्रिलिकाधिकार नव प्रश्न चूलिकाओं के नाम प्रथम तीन प्रश्नोंकी प्रकृतियाँ दूसरे तीन प्रश्नोंकी प्रकृतियाँ तीसरे तीन प्रश्नोंकी प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षा और अप्रतिपक्षा प्रकृतियाँ पाँच भागहार चूलिकाओंके नाम संक्रमणका स्वरूप पाँचों संक्रमणका स्वरूप उद्वेलन प्रकृतियाँ सर्व संक्रमणरूप प्रकृतियाँ प्रकृतियों में संक्रमणका नियम विध्यात और अधःप्रवृत्त संक्रमणकी प्रकृतियाँ स्थिति अनुभाग और प्रदेश बन्धके संक्रमणके गुणस्थानों की संख्या पाँच भागहारोंका अल्पबहुत्व दस करणोंके नाम दस करणोंका स्वरूप किन प्रकृतियों और गुणस्थानोंमें ये करण होते हैं उनमें भुजकारादि बन्धोंका कथन उत्तर प्रकृतियों में स्थानोंका कथन [क-२] विषय सूची ६४७-६८१ ५. स्थानसमुत्कीर्तनाधिकार नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा स्थानका स्वरूप गुणस्थानों में मूल प्रकृतियोंके बन्ध उदय उदीरणा और सत्वको लिये स्थानोंका कथन ૬૪૭ ६४८ ६५० ६५२ ६५४ ६५७ ६५७ ६५९ ६६१ ६६२ ६६३ ६६७ ६६८ ६६९ ६७३ ६७४ ६८२ - ११२१ विशेष भुजकारादिकी संख्या गुणस्थानोंमें भुजकार बन्धोंकी संख्या अल्पतर बन्धोंका कथन विशेष रूप से अवक्तव्य बन्ध मोहनीयके उदयस्थान उदयके कूटों की रचना ६७५ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें कूटोंकी संख्या गुणस्थानोंमें अपुनरुक्त उदयस्थान गुणस्थानों में उदयस्थानों और कूटोंका सूचक यन्त्र दो प्रकृतिरूप उदयस्थानके भंग ६८२ ६८३ दर्शनावरणके बन्धस्थान तथा उनमें भुजकारादि बन्ध दर्शनावरणके उदयस्थान दर्शनावरण के सत्त्वस्थान मोहनीयके बन्ध स्थान ६८३ ६८४ ६८८ तथा उनके गुणस्थान उन स्थानोंमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ उनके भंग गुणस्थानों में गुणस्थानों में मोहनीयके बन्धस्थानों में भंगों की संख्या भुजकारादि बन्धों का लक्षण अवक्तव्य बन्धोंकी संख्या भुजकार बन्धोंकी संख्या अल्पतर बन्धों की संख्या गुणस्थानों में मोहनीयके सब उदयस्थानोंकी और प्रकृतियोंकी संख्या अपुनरुक्त स्थानोंकी संख्या और प्रकृतियाँ उपयोग की अपेक्षा गुणस्थानों में मोहके उदय स्थानों और प्रकृतियोंका कथन योयकी अपेक्षा उक्त कथन ६८९ ६९२ ६९३ ६९३ ६९४ ६९४ ६९५ ६९९ ७०० ७०१ ७०२ ७०४ ७०५ ७०९ ७१० ७१४ ७१५ ७१६ ७२० ७२३ ७२६ ७२६ ७३० ७३१ ७३४ ७३९ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो. कर्मकाण्ड ८०९ ८११ ८१२ ८२२ ८२८ سه .. س لام .. الله " ८४४ मिश्रयोगवाले और केवलपर्याप्त योगवाले नाम कमके बन्ध स्थानोंका मार्गणाओंमें गुणस्थान ७४० कथन जुदे रखे योगोंका कथन ७४३ तिथंच गतिमें छह ही बन्ध स्थान ८०६ घटाये गये वेदोंका कथन ७४४ इन्द्रियादि मार्गणाओंमें कथन ८०७ योगके आश्रयसे मोहनीयकी सब उदय प्रमाण और नयका स्वरूप प्रकृतियोंकी संख्या ७५० नयाँ के भेद संयमकी अपेक्षा उक्त कथन ७५१ निश्चयनय गुणस्थानोंमें लेश्या ७५३ व्यवहारनय लेश्याके. आश्रयसे मोहके स्थानों और नंगम आदि नयोंका स्वरूप ८१५ प्रकृतियोंकी संख्या योगोंमें नामकर्मके बन्ध स्थान ८२१ सम्यक्त्वके आश्रयसे मोहके उदयस्थानों और वेदों और कषायों में बन्ध स्थान प्रकृतियोंकी संख्या ७५८ कषायोंके भावोंका सूचक यन्त्र मोहनीयके सत्त्वस्थानोंका कथन ७६२ ज्ञान मार्गणामें बन्ध स्थान गुणस्थानोंमें सत्त्वस्थान ९६४ संयम मार्गणामें बन्ध स्थान क्षपक श्रेणिपर आरोहण करनेवालोंके वेदके सामायिक संयमका स्वरूप उदय भेदसे भेद छेदोपस्थापना आदिका स्वरूप यन्त्र द्वारा स्पष्टीकरण देवगतिमें कौन कहाँ तक उत्पन्न होता है ८४१ मोहनीयके बन्धस्थानोंमें सस्वस्थाम देवोंमें मिथ्यादृष्टियोंमें बन्ध स्थान नामकर्म के स्थानोंके आधारभूत इकतालीस पद ७७५ तियंचोंमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति कैसे? नामकर्मके बन्धस्थान ७७८ दर्शन मार्गणामें नाम कर्मके बन्ध स्थान वे किन प्रकृतियोंके साथ बंधते है ७७९ लेण्या मार्गणामें नाम कर्मके बन्ध स्थान ८५० नरकोंमें उत्पन्न होने योग्य जीव ८५२ आतप और उद्योत प्रशस्त प्रकृति किस पदके लेण्याओंमें संक्रमणका कथन ८६२ साथ बँधती है लेण्यासहित तियंचोंमें नामकर्मके बन्ध स्थान ८६४ तेईस आदि स्थानोंको प्रकृतियोंको जाननेके लक्ष्यासहित मनुष्योंमें नामकर्मके बन्ध स्थान ८६७ लिए उन प्रकृतियोंका पाठक्रम लेश्या सहित देवोंमें नाम कर्मके बन्ध स्थान ८६८ नामकर्मके एक जीवके एक समयमें बन्ध योग्य देवों में तथा देवोंकी उत्पत्तिका कथन ८७३ बन्धस्थान भव्य मार्गणा बन्ध स्थान अठाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान सम्यक्त्व मार्गणामें बन्ध स्थान ८७७ उनतीस प्रकृतिरूप छह स्थान प्रसंगवश सम्यक्त्वकी उत्पत्ति आदिका कथन ८७७ तीस प्रकृतिरूप छह स्थान वेदक सम्यग्दृष्टिके क्षायिक सम्यग्दर्शन होनेका नामकर्मके बन्ध स्थानोंका यन्त्र ७९० विधान ८८५ नामकर्मके बन्ध स्थानोंके भंग ७९१ एक गुणस्थानसे दूसरेमें जानेके नियम ८९४ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें भंग ७९४ संशी और थाहार मार्गणामें नाम कर्मके सासादन गुणस्थानमें भंग बन्ध स्थान ८९८ मित्र गुणस्थान आदिमें भंग अपुनरुक्त भंगोंका कथन एक भवको छोड़कर दूसरे भव में उत्पन्न पूर्वोक्त भंगके भुजकार आदि प्रकार तथा होनेका नियम सम्बद्ध स्वस्थान आदिका लक्षण ८४८ ७८० ७८२ ८९९ ९०३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६९ ९७१ ९७४ ९७५ ९७९ ९८० ९८१ ९८२ ९१५ ९८३ ९८७ ९८९ ९८९ ९९० ९९० विषय-सूची मिथ्यादृष्टि आदि अपना गुणस्थान छोड़कर गणस्थानोंमें नाम कर्मके सत्वस्थानोंकी __किन गुणस्थानोंको प्राप्त होते हैं ९०३ योजना किन अवस्थाओं में मरण नहीं होता ९०४ इकतालीस पदोंमें सत्त्व स्थानोंका कथन नाम कर्म के बन्ध स्थानोंके तीन प्रकार ९०५ मूल प्रकृतियों में त्रिसंयोगी भंगोंका कथन इकतालीस पदों में भंग सहित उत्तर प्रकृतियोंमें उक्त कथन स्थानोंका कथन ९०६ गोत्र कर्मका बन्ध उदय सत्त्व उनमें भुजाकार बन्ध लानेका राशिक यन्त्र ९१० गुणस्थानोंमें गोत्रके भंग गुणस्थानों में गोत्रके भंगका यन्त्र उनमें अल्पतर भंगोंका कथन ९१० आयुके बन्ध उदय सत्त्वका कथन मिथ्यादृष्टिके भंग लानेकी लघु प्रक्रिया असंयतमें भंगोंका विधान बायु बन्धके नियम नाना जीवोंकी अपेक्षा आयु बन्धके भंग असंयतमें अल्पतर अप्रमत्त आदिमें भुजाकार गुणस्थानोंमें आयुके अपुनरुक्त भंग उनको उपपत्ति गुणस्थानोंमें आयुबन्धके भंगोंका जोड़ अप्रमत्तमें अल्पतर वेदनीय गोत्र आयुके सब भंगोंका जोड़ ९२३ नाम कर्मके सब भुजाकारादि बन्धोंका यन्त्र वेदनीय गोत्र आयुके मूल भंग ९२५ उन भंगोंकी उत्पत्तिका साधारण उपाय ९२६ मोहनीयके त्रिसंयोगी भंग अवक्तव्य भंगोंका कथन ९२७ गुणस्थानोंमें मोहनीयके स्थानोंकी संख्या वे स्थान कौन हैं, यह कथन नाम कर्मके उदयस्थान सम्बन्धी पाँच काल मोहनीयके त्रिसंयोगमें विशेष कथन तथा उनका प्रमाण ९२८ बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थान पाँच कालोंकी जीव समासोंमें योजना ९२९ उदयस्थानमें बन्ध और सत्त्वस्थान नाम कर्मके उदय स्थानोंकी उत्पत्तिका क्रम ९३१ सत्त्वस्थानमें बन्ध और उदयस्थान नाना जीवोंकी अपेक्षा उक्त कथन मोहनीयके बन्धादि तीनमें से दोको आधार उन स्थानोंके स्वामी ९३३ और एकको आधेय बनाकर कथन उन स्थानोंका कथन ९३४ बन्ध उदयमें सत्त्वका कथन नाम कर्मके उदय स्थानोंका यन्त्र ९४१ बन्ध सत्त्वमें उदयका कथन नाम कर्मके उदय स्थानोंमें भंग ९४२ उदय और सत्त्वमें बन्धका कथन इकतालीस जीवपदोंमें सम्भव भंग ९४६ नाम कर्मके स्थानोंके त्रिसंयोगी भंग पुनरुक्त भंगोंका कथन ९५४ नाम कर्मके स्थानोंके गुणस्थानोंमें , नाम कर्मके सत्त्वस्थान ९६१ नाम कर्मके स्थानोंके चौदह मार्गणामें ., उनकी उपपत्ति ९६२ नाम कर्मक स्थानोंके इन्द्रिय मार्गणामें .. दस और नौके स्थानोंकी प्रकृतियां ९६३ नाम कर्मक स्थानोंके कायमार्गणामें मद्वेलना स्थानोंका विशेष कथन ९६३ नाम कर्मके स्थानोंके योगमार्गणा में , उद्वेलनाके अवसरका काल ९६४ कषाय और ज्ञान मार्गणामें उनका लक्षण संयम मार्गणामें तेजकाय वायुकायमें उद्वेलन योग्य प्रकृतियाँ ९६५ दर्शन लेश्या मार्गणामें सम्यक्त्व आदिको विराधना जीव कितनी कर भव्य और सम्यक्त्व मार्गणामें करता है ७ मझर मार्गणा ९९१ ९९४ ९१६ ९९७ ९३३ १००४ १००४ १०१२ १.१६ १०२२ २०२२ १०३१ १०३४ १०३५ १०३८ १०४१ १०४२ १०॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे १०७१ ऊपर कहे त्रिसंयोगमें एकको आधार दोको उत्तर भावोंके भंगके दो प्रकार आधेय बनाकर कथन १०४८ औदायिक स्थानों के भंग ११७० बन्ध आधार उदय सत्त्व आधेय १०४८ भावोंमें गुण्य गुणाकार क्षेपका कथन ११७५ उदय आधार बन्ध सत्व आधेय पदभंगोंका कथन ११९० सत्त्व स्थान आधार बन्ध उदय आधेय १०९४ जातिपदकी अपेक्षा गुणस्थानोंमें भंगोंके बन्ध उदय आधार सत्त्व आधेय समुदायका कथन ११९२ बन्ध सत्त्व आधार उदय आधेय १११३ गुण्य आदि की संख्याका कथन ११९९ उदय सत्त्व आधार बन्ध आधेय १११५ पदोंका आश्रय लेकर भंगोंका कथन १२०२ भंगोंके मिलानेके लिए सूत्र १२०७ मिथ्यादृष्टिके सब पदभंगोंका प्रमाण १२१२ ६. आत्रवाधिकार ११२२-११५६ अन्य गुणस्थानोंमें उक्त कथन १२:३ नमस्कार पूर्वक प्रतिज्ञा ११२२ अन्य मतोंके भेदोंका कथन १२३८ आस्रवके मूल कारण ११२२ क्रियावादियोंके मूल भंग १२३८ मूल कारणोंका गुणस्थानोंमें कथन ११२३ कालवाद, ईश्वरवाद, आत्मवाद, उत्तर कारणोंका गुणस्थानोंमें कथन ११२५ नियतिवादका अर्थ १२४० गुणस्थानों में प्रत्ययोंकी व्युच्छित्ति और अक्रियावादके मूल भंग १२४१ अनुदयका कथन अज्ञानवादके भेद १२४२ प्रत्ययों के पाँच प्रकार ११२८ वैनयिकवादके मूल भंग १२४४ स्थानोंका गुणस्थानोंमें कथन ११२८ अन्य कानवाट १२४४ स्थानोंके प्रकार ११२९ कूटोंके प्रकार ११३० ८. त्रिकरणचूलिकाधिकार १२४९-१३८५ कूटोंके यन्त्र ११३२ कटोच्चारणके प्रकार ११३९ नमस्काररूप मंगल १२४९ भंगानयन प्रकार अधःप्रवृत्तकरण कौन करता है १२४९ भंगोंका कथन ११४७ अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण १२४२ द्विसंयोगो आदि भंगोंको लानेका उपाय ११४८ अधःप्रवृत्तकरणका अंकसंदृष्टि द्वारा कयन १२५० ज्ञानावरण आदिके बन्धके कारण अधःकरणके चयवन आदिका कथन १२५१ चयवन लानेका विधान १२५४ १२५५ ७. भावचूलिकाधिकार अनुकृष्टिके प्रथम खण्डका प्रमाण १९५७-१२४८ अर्थ संदष्टि द्वारा कथन १२५७ नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा १९५७ पट्स्थान वृद्धिका कथन पांच भाव तथा उनके लक्षण ११५८ अपूर्वकरणका कयन १२६७ पांच भावोंके उत्तर भेद ११५९ अनिवृत्तिकरणका कथन १२७२ गुणस्थानों में मल भाव ११६१ कर्मस्थिति रचना १२७२ गुणस्थानोंमें उत्तर भाव ११६१ नमस्कार पूर्वक प्रतिज्ञा १२७४ एक जीवके एक कालमें सम्भव भाव आबाधाका कथन १२७४ तथा उनके संयोगी भंग ११६३ बावुको आबाधाका कथन १२७७ मूल भावोंकी तरह संयोगी भंगोंकी संख्या ११६५ उदीरणाको अपेक्षा आबाधाका कथन १२७७ १२६३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोकी स्थिति रचनामें ज्ञातव्य राशियाँ सत्तर कोडाकोड़ीवाले मिथ्यात्व कर्मकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और गुणहानि गुणहानि आयामका प्रमाण गुणहानिका प्रमाण और प्रयोजन अंक संदृष्टि अपेक्षा निषेकोंका यन्त्र अर्थरूपमें कथन पल्यकी वर्गशलाका मूल आदिका कथन बीस कोडाकोड़ी आदिकी स्थितिकी नाना गुणहानि और अन्योन्याभ्यरत राशि आयु कर्मके स्थिति भेदोंमें विलक्षणता त्रिकोण रचनाका चित्रण सत्तारूप त्रिकोण यन्त्र के जोड़ देनेका विधान सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थितिके भेद सान्तर स्थितिके भेद कषायाध्यवसाय स्थानोंका कथन स्थिति बन्धाध्यवसायस्थानोंका प्रमाण विषय-सूची १२७९ आयु कर्मके स्थिति बन्धाध्यवसायोंमें विशेषता १३४८ १२८२ अंक संदृष्टि द्वारा कयन १३४९ १२८४ शेष कर्मोंके बन्धाध्यवसायोंका कथन १३५५ १२८४ अंक संदृष्टि द्वारा कथन १३६१ १२८८ अनुकृष्टि विधानका कथन १२८९ विशेष प्रमाणका कथन १३६४ १३०१ अनुकृष्टिके खण्डोंमें स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानों का प्रमाण १३०७ प्रथम गुणहानिमें अनुकृष्टि रचनाका कथन १३६९ १३२१ उसीका अंकसंदृष्टि द्वारा कथन १३७४ १३२४ आठों ही कर्मोकी उक्त रचना विशेषमें समानता है १३८० १३२७ अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोंका कथन १३८१ १३३८ ग्रन्थको प्रशस्ति १३८६ १३३९ कर्णाट वृत्तिकार की प्रशस्ति १३८९ १३४१ संस्कृत टीकाकारको प्रशस्ति १३९३ १३४४ परिशिष्ट १३९७-१४५४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार कर्मकाण्डे द्वितीयो भागः Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ त्रिचूलिका अधिकार ||४|| उहाइजिनवरिंदे असहायपरक्कमे महावीरे । पणमिय सिरसा बोच्छं तिचूलियं सुणुह एयमणो ।। ३९८ || वृषभादिजिनवरेंद्रान् असहायपराक्रमान् महावीरान् । प्रणम्य शिरसा वक्ष्यामि त्रिचूळिकां श्रुणुतैकमनसः ॥ असहायपराक्रमरुं महावीररुगळमप्प वृषभादिजिनवरेंद्ररुगळं तळेर्यरकदिवं नमस्करिसि नवप्रश्न | पंचभागहार । दशकरण भेवभिन्नमप्प त्रिचूलिकयं पेव्व केळिमेक चित्तमनुळळरागि एंबित शिष्यरुगळ संबोधिसत्पदृरु ॥ उक्तानुक्तदुरुक्तचिंतनं चूलिक ये बुबक्कुमल्लि प्रथमोद्दिष्ट नवप्रश्नचूलिकेयं पेव्वपर :किं बंधी उदयादो पुव्वं पच्छा समं विणस्सदि सो । सपरोभयोदयो वा निरंतरो सांत उभयो || ३९९ ॥ कि बंध: उदयात्पूव्वं पश्चात्समं विनश्यति सः । स्वपरोभयोदयो वा निरंतरः सांतर उभयः ॥ उदयव्युच्छित्तिर्थिदं मुन्नं बक्किं युगपदबंधच्युच्छित्ति यावुदु सः आबंधं स्वोदर्याववं परोदर्याददमुभयोदर्याददमाउदु वा मते निरंतरं सांतरमुभयबंधमुमाउदे वितु नव प्रश्नंगळप्पुवल्ल ५ असहायपराक्रमान् महावीरगुरून् वृषभादिजिनवरेंद्रांश्व शिरसा प्रणम्य नवप्रश्न- पंचभागहार- १५ दशकरणनामत्रिलिकां वक्ष्यामि शृणुतैकमनसः । उक्तानुक्तदुरुक्तचितनं चूलिका ।। ३९८ ।। तत्र तावन्नवप्रश्नचूलिकामाह १० उदयव्युच्छित्तेः पूर्वं पश्चात् युगपद्द्बन्धव्युच्छित्तिः का । स बंधः स्वोदयेन परोदयेनोभयोदयेन कः ? वा जिनका ज्ञानादि शक्तिरूप पराक्रम इन्द्रिय आदिकी सहायतासे रहित हैं उन भगवान् महावीर और ऋषभ आदि जिनेन्द्रदेवोंको सिरसे नमस्कार करके नवप्रश्न पंचभागहार २० और दसकरण नामक त्रिचूलिका अधिकारको कहूँगा । तुम एकचित्त होकर सुनो। जो अर्थ कहा गया है, या नहीं कहा गया, या ठीक रीतिसे नहीं कहा गया है उस सबके चिन्तन करने को चूलिका कहते हैं || ३९८ || प्रथम नवप्रश्न चूलिका कहते हैं पूर्व में कही प्रकृतियों में से उदय व्युच्छित्तिके पहले बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतिया २५ की होती है ? उदय व्युच्छित्तिके पीछे बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है ? तथा क-८२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ गो० कर्मकाण्डे उदयव्युच्छित्तिळिदं मुन्नं बंधन्युच्छित्तिगळप्प प्रकृतिगळावुवुवेंदोडे उदयव्युच्छित्तिर्गाळ बलियक बंधव्युच्छितिप्रकृतिगळुमं समंगळुमं पेन्दु पारिशेषिकन्यादिद मग्भोंदु ८१ प्रकृतिगळप्पुर्वेदु गाथाद्वयदिदं पेळदपरु : देवचउक्काहारदुगज्जसदेवाउगाण सो पच्छा । मिच्छत्तादावाणं णराणुथावरचउक्काणं ॥४०॥ देवचतुष्काहारद्विकायशस्कोत्तिदेवायुषां स पश्चात् मिथ्यात्वातपयोन्नरानुपूर्व्यस्थावरचतुष्काणां॥ पण्णरकषायमयदुगहस्सदु चउजाइपुरिमवेदाणं । सममेक्कत्तीसाणं सेसिगिसीदाण पुव्वं तु ॥४०१॥ पंचदशकषायभयद्विकहास्यद्विक वतुर्जातीनां सममेकत्रिंशतां शेषैकाशीतीनां पूर्व तु ॥ उदयदिदं मुन्नं बंधव्युच्छित्तिप्रकृतिगळु एभत्तोंदु ८१ । उदयव्युच्छित्तियिदं बळिक्कं बंधन्युच्छित्तिप्रकृतिगळेदु ८ । उदयदोडने बंधव्युच्छित्तिप्रकृतिगळु मूवत्तोंदु ३१ कूडि नूरिप्पत्तप्पुववावुर्व दोडे देवचतुष्कमुमाहारद्विकमुमयशस्कोत्तियं देवायुष्यभुम बटुं प्रकृतिगळगे उदय. व्युच्छित्तियिदं बळिक्कं बंधव्युच्छित्तियक्कुं। संदृष्टि : २। १ । १ १५ पुनः निरंतरः सांतरः उभयरूपः कः? इति नव प्रश्ना भवंति ॥३९९॥ तत्राद्यप्रश्नत्रयप्रकृतीयाद्वयेनाह देवचतुषामाहारकद्विकमयशस्कोतिर्देवायुरित्यष्टानामुदयव्युच्छित्तेः पश्चाबंधव्युच्छित्तिः । तथाहिदेवचतुष्कस्यासंयते उदयव्युच्छित्तिः, अपूर्वकरणषष्ठभागे बंधव्युच्छित्तिः । आहारकद्वयस्य प्रमत्ते उदयव्युच्छित्तिः, उदय व्युच्छित्ति के साथ बन्ध व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है। ये तीन प्रश्न हए। अपना उदय होते हुए जिनका बन्ध होता है वे प्रकृतियाँ कौन हैं ? अन्य प्रकृतियोंके उदयमें जो बँधती हैं वे प्रकृतियाँ कौन हैं ? तथा जिनका बन्ध अपने भी उदयमें होता है और अन्य प्रकृतियों के उदयमें भी होता है वे प्रकृतियाँ कौन हैं ? ये तीन प्रश्न हुए। जिनका निरन्तर बन्ध होता है वे प्रकृतियाँ कौन हैं ? जिनका सान्तर बन्ध होता है कभी होता है कभी नहीं होता, वे कौन है ? जिनका सान्तर-निरन्तर दोनों प्रकारका बन्ध होता है वे प्रकृतियाँ कौन हैं ? तीन प्रश्न ये हुए । सब नौ प्रश्न हुए ॥३९९।। २५ प्रथम तीन प्रश्नोंकी प्रकृतियाँ दो गाथाओंसे कहते हैं-.. देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग ये देवचतुष्क, आहारक शरीर व अंगोपांग, अयशःकीर्ति, देवायु इन आठ प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्तिके पीछे बन्ध व्युच्छित्ति होती है। वही कहते हैं देव चतुष्ककी उदय व्युच्छित्ति असंयत गुणस्थानमें होती है और अपूर्वकरणके छठे ३० भागमें बन्ध व्युच्छित्ति होती है। आहारकद्विक की उदयव्युच्छित्ति प्रमत्तमें और बन्धव्युच्छित्ति अपूर्वकरणके षष्ठ भागमें होती है । अयशःकीर्तिकी असंयतमें उदय व्युच्छित्ति होती है और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४९ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका अदेते दोर्ड देवचतुष्कमसंयतनो दयव्युच्छित्तियक्कुमपूर्वकरणन षष्ठभागदोळु बंधव्युच्छित्तियक्कुमाहारकद्वयक्के प्रमत्तसंयतनोळुदयव्युच्छित्तियककुमपूर्वकरणनोळु षष्ठभागदोळ बंधव्युच्छित्तियक्कं । अयशस्कोनिगसंयतनो दयव्युच्छित्तियक्कु। प्रमत्तनोळु बंधव्युच्छित्तियक्कुं। देवायुष्यक्कसंयतनोळुदयव्युच्छित्तियक्कुमप्रमत्तसंयतनोळु बंधव्युच्छित्तियक्कुमी प्रकार. दिदं शेषसमाधिगळोळं योजिसिको बुदु । मिथ्यात्वमुमातपमुं मनुष्यानुपूर्व्यमुं स्थावरसूक्ष्मा- ५ पर्याप्तसाधारणचतुष्कमुं संज्वलनलोभवज्जित पंचदशकषायंगळु भयद्विक, हास्यद्विकमुं एकेंद्रियादि जाति वतुष्कमुं पुरुषवेवमुमेंब मूवत्तोंदु प्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियुं बंधव्युच्छित्तियं सममक्कु । संदृष्टि : मि० आत० म० आनु० स्थावर कषाय भय हा० जाति पुंवे० |११ १ । ४ । १५ । । ४ | १ | शेषकाशीतिप्रकृतिगळगुदयव्युच्छित्तियिदं मुंनं बंधव्युच्छित्तियक्कु । संदृष्टिःज्ञा ! वेलोसीन अनि ति म नरक तिर्योग मनुष्य . औदारिक ! संत्र आ आ आ गति | गति गति शरीर नन अंगोपां. |५|९|२|१।११। २ । ११ १११। १। १ । ११। १ ।१।१।६। औ. सं| वनं ना ना । । आन आनु अगु° उद्यो. विहान अगु० उद्यो. विहा। त्र स्थि|श सू सू | आदे ६। ४। १। १ । ४ १ २ ४ २ २ २ । २ । २ जस नि ति गोत्र अंतराय अपूर्व करणषष्ठभागे बंधव्युच्छित्तिः । अयशस्कोर्तेरसंयते उदयव्युच्छित्तिः, प्रमत्ते बंधव्युच्छित्तिः । देवायुषोऽसंयते १० उदयव्युच्छित्तिः अप्रमत्ते बंधव्युच्छित्तिः । एवं शेषसमयादिष्वपि योज्यं । मिथ्यात्वमातपो मनुष्यानपूव्यं स्यावरसूक्ष्मापर्याप्त साधारणानि संज्वलनलोभवजितपंचदशकषायाः भयद्विकं हास्यद्विकमेकेंद्रियादिजातिचतुष्क पुंवेदः इत्येकत्रिंशत उदयव्युच्छित्तिबंधव्युच्छित्तिश्च द्वे समं स्तः । शेषाणां पंचज्ञानावरणनवदर्शनावरणद्विवेदप्रमत्तमें बन्ध व्युच्छित्ति होती है। देवायुकी असंयतमें उदय व्युच्छित्ति होती है और अप्रमत्तमें बन्धव्युच्छित्ति। इसी प्रकार जिनकी बन्ध व्युच्छित्ति और उदय व्युच्छित्ति एक १५ साथ होती है या बन्ध व्युच्छित्तिके पीछे उदय व्युच्छित्ति होती है उनका भी लगा लेना। मिथ्यात्व, आतप, मनुष्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, संज्वलन लोभ बिना पन्द्रह कषाय, भय-जुगुप्सा, हास्य-रति, एकेन्द्रिय आदि जाति चार, पुरुषवेद इन इकतीस प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति और उदयव्युच्छित्ति एक साथ होती है। शेष पाँच ज्ञानावरण, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे ज्ञानावरणपंचवर्क सूक्ष्मसांपरायनोळु बंधव्युच्छित्तियक्कुं । क्षीणकषायनोळु दयभ्युच्छित्तियक्कुमित्यादि सुगममवकुं ॥ अनंतरं परोवयबंबंगळु पन्नों दुं ११ स्वोवयबंधंग ळिष्पत्तेळ तु पेल्यु शेषंगळु स्वोदयपरोहयोमयबंधप्रकृतिगळे भत्ते र तु गायाद्वर्यादिद पेळदपर : २० ६५० एषां आवुवु केल प्रकृति परोदयदिदं बंधमककुर्म तु वेळल्पडुगुमव सुरनारकायुर्द्वयमुं १० तीर्थमुं वैक्रियिकषट्कमुमाहारकद्वयमुर्मबी पन्नों दुं प्रकृतिगळप्पुवु । संवृष्टि । सु १ । ना १ । १ | ६ | आ२ । कूडि ११ ॥ मिथ्यात्वप्रकृतियुं सूक्ष्म सांपरायन घातिगळु पविनालकुं ॥ तेजदुगं वण्णचऊ थिरसुहजुगल गुरुणिमिणधुवउदया । सोदबंधा सेसा बासीदा उभयबंधीओ || ४०३ ॥ सुरणिरयाऊ तित्थं वेगुव्वियछक्कहार मिदि एसिं । परउदयेण य बंधो मिच्छं सुहुमस्त घादीओ ॥ ४०२ ॥ सुरनारकायुषी तोत्थं वैक्रियिकषट्कमाहारकद्विकमिति येषां । परोदयेन च बंधः मिध्यात्वं सूक्ष्मस्य घातिनः ॥ तेजसद्वयं वर्ण चतुष्कं स्थिरशुभयुगळागुरुलघुनिम्र्माणध्रुवोदयाः । स्वोदयबंधाः शेषाः दूध१५ शीतिरुभयोदयबंधाः ॥ ३० नीयसंज्वलन लोभस्त्रोनपुंसकवेदार तिशोकना रकतिर्यग्मानुष्यायुर्ना र कतियंग्मनुष्यगतिपंचेंद्रिय जात्योदारिकतेजस कीमणिषट्संहननौदा रिकांगोपांगषट्संस्थान वर्ण चतुष्कन र कतियंगानुपूर्व्या गुरुलघुचतुष्कोच्छु वासविहायोगतिद्वयत्रस चतुष्कस्थिर द्विक शुभद्विक सुभगद्विक सुस्वर द्विकादेयद्विकयशस्कीर्ति निर्माणतीर्थ करगोत्र द्विकपंचांतरायाणामेकाशीतेः उदयव्युच्छित्तेः पूर्वं बंधव्युच्छित्तिः स्यात् ॥४०० - ४०१ ॥ द्वितीयप्रश्न त्रयप्रकृतीर्गाथाद्वयेनाह - यासां परोदयेन बंधः, ताः प्रकृतयः सुरनारकायुषी तीर्थं वैक्रियिकषट्कमाहारकद्वयं चेत्येकादश भवंति । मिथ्यात्वं सूक्ष्मां रायस्य चतुर्दशघातीनि ॥ ४०२ ॥ नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, संज्वलन लोभ, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकायु, मनुष्यायु, तियंचायु, नरकगति, मनुष्यगति, तियंचगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक तैजस कार्मण शरीर, छह संहनन, औदारिक अंगोपांग, छह संस्थान, वर्णादि चार, नरकानुपूर्वी, २५ तिर्यचानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, उच्छ्वास, विहायोगति दो, त्रसादि चार, स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय, यश: कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, गोत्र दो, पाँच अन्तराय इन इक्यासी प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति से पहले बन्धव्युच्छित्ति होती है || ४००-४०१॥ आगे दूसरे तीन प्रश्नों की प्रकृतियाँ दो गाथाओंसे कहते हैं देव, नरका, तीर्थकर, वैक्रियिक शरीर, अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, आहारक शरीर व अंगोपांग इन ग्यारह प्रकृतियोंका बन्ध अन्य प्रकृतियोंके Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६५१ तैजसद्विकमुं वर्णचतुष्कभुं स्थिरद्विकम् शुभद्विकमुं अगुरुलघुत्रं निर्माण नाममुमितु ई ध्रुवोदयंगळेल्लं कूडि स्वोदयबंधंग ळिप्पत्तेळ प्रकृतिगळप्पुविवक्के तलानुं बंघमक्कुमप्पोडे स्वोदयबोळेयक्कुमुदयं बंधमिल्लदेयुमक्कुं । संदृष्टि - मि १ । णा ५ । अं५ । ६४ । तैज २ । वनं ४ | थि २ । शु २ । अ १ । नि १ । कूडि २७ ॥ शेषदर्शनावरणपंचकमुं वेदनीय द्विकमुं मोहनीयपंचविशतिप्रकृतिगळं मनुष्यायुष्यमुं तियंगायुष्यमुं मनुष्यगतिनाममुं तिष्यंग्गतिनाममु मेकेंद्रियादि ५ जातिपंचकमुं औदारिकशरीरमुं औदारिकांगोपांगमुं संहननषट्कमुं संस्थानषट्कमुं मनुष्यानुपूर्व्यमुं तिम्यंगानुपूर्व्यमुं उपघातपरघातात पोद्योत चतुष्क मुमुच्छ्वासमुं विहायोगतिद्विकमुं सद्विकर्मु बादरद्विक पर्याप्तद्विकमु प्रत्येकसाधारणशरीरद्विकमुं सुभगद्विकमुं सुस्वर द्विक आवेयद्विकर्म यशस्कीर्त्तिद्विकमुं गोश्रद्विकमुर्म बी द्वयशीतिप्रकृतिगळु भयोदय बंधप्रकृतिगळवु ॥ संदृष्टि : द५ । वे २ । मो २५ । म १ । ति १ । म १ । ति १ । जा ५ । औ १ । औ अं १ । सं ६ । सं६ । म १ । ति १ । उ ४ । उ १ । वि २ । २ । बा २ ।१ २ । २ । सु २ । सु २ । आ २ । गो २ । कूडि ८२ ॥ --- २० अनंतरं निरंतरबंध प्रकृतिगळय्वत्तनात्कु ५४ । सांतरबंधप्रकृतिगळु मूवत्तनात्कु ३४ । सांतरनिरंतरोभवबंधप्रकृतिगळु मूवत्तरडे दु गाथाचतुष्टयविदं पेपर : तैजसद्विकं वर्णचतुष्कं स्थिरद्विकशुभद्विका गुरुलघुनिर्माणानीति ध्रुवोदयाश्च मिलित्वा सप्तविंशतिः १५ स्वोदयबंधा भवंति | आसां बंधः स्वोदयेनैव, उदयः अबंधेऽपि स्यात् । शेषाः पंचदर्शनावरणद्विवेदनीय पंचविश तिमोहनीयतिर्यग्मनुष्यायुस्तिर्यग्मनुष्यगतिपंच जात्यादारिकत दंगोपांगषट्संहननषट्संस्थानतियंग्मनुष्यानुपूर्व्योपधातपरघातातपोद्योतोच्छ्वास विहायोगति द्विकत्रसद्विकबादरद्विकपर्याप्तद्विकप्रत्येक साधारण सुभगद्विक सुस्वरद्विकादेय द्विकयशस्कीर्तिद्विकगोत्रद्विकानि द्वयशीतिप्रकृतयः उभयोदयबंधा भवंति ॥ ४०३ ॥ तृतीय प्रश्नत्रय प्रकृतीर्गाथा - २० ܕ चतुष्टयेनाह उदय में होता है, इनका उदय रहते इनका बन्ध नहीं होता । तथा मिध्यात्व, सूक्ष्म साम्पराय में जिनकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय ये घातिकर्मोंकी चौदह प्रकृतियाँ | तेजस, कार्माण, वर्णादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये बारह ध्रुवोदयी हैं इनका उदय निरन्तर पाया जाता है। इनमें पूर्वोक पन्द्रह मिलकर सत्ताईस प्रकृतियाँ स्वोदयबन्धी हैं अर्थात् इनका बन्ध अपने ही उदयमें होता २५ है किन्तु उदय इनके अबन्ध में भी होता है। शेष पाँच निद्रा, दो वेदनीय, पच्चीस मोहनीय, तिर्यचायु, मनुष्यायु, तियंचगति, मनुष्यगति, जाति पाँच, औदारिक शरीर व अंगोपांग, छह संहनन, छह संस्थान, तिर्यचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति दो, त्रस दो, बादर दो, पर्याप्त दो, प्रत्येक, साधारण, सुभग दो, सुस्वर दो, आदेय दो, यशस्कीर्ति दो, गोत्र दो, ये बयासी प्रकृतियाँ उभयबन्धी हैं, इनके उदय में भी इनका बन्ध होता है और इनका उदय न होते हुए भी इनका बन्ध होता है ।।४०२-४०३॥ तीसरे तीन प्रश्नोंकी प्रकृतियाँ चार गाथाओंसे कहते हैं ३० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे सत्ताधुवावि यतित्थाहाराउगा निरंतरगा । णिरयदुजाइचउक्कं संहदिसंठाण पण पणगं ॥ ४०४॥ सप्तचत्वारिंशदध्रुवा अपि च तीर्त्याहारायूंषि निरंतराणि । नरकद्विकजातिचतुष्कं संहननसंस्थानपंचकं ॥ ६५२ दुग्गमणादावदुगं थावर दसगं असादसंडित्थी । अरदीसोगं चेदे सांतरगा होंति चोत्तीसा ||४०५ || दुर्गमनातापद्विकं स्थावरदश कम सातषंडस्त्रियः । अरतिः शोकश्चैताः सांतरा भवंति चतुस्त्रिशत् ॥ ज्ञानावरण पंचकर्मु दर्शनावरणीयनवक मुमंतराय पंचकमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुं षोडशकषायंगळं १० भयद्विकमुं तैजसद्विकमुं अगुरुलघुद्विकमुं निर्माणमुं वर्णचतुष्क मुमितु ध्रुवोवयंगळु सप्तचत्वारिंशत् प्रकृतिगळं तीत्थं मुमाहारकद्विक मुमायुष्यचतुष्क मुमितय्वत्त नाल्कुं प्रकृतिगळु ध्रुवोदयबंधं गलप्पुषु । संहष्टिः - णा ५ । व ९ । अं५ । मि १ । क १६ । भय २ । ते २ । आ २ । णि १ । व ४ । ति १ । आ २ । आ ४ । हूडि ५४ ॥ नरकद्विकमुं एकेंद्रियादि जातिचनुष्कमुं पंचसंहनननं गळ' पंच संस्थानंगळु अप्रशस्तविहायोगतियुमातपोद्योतद्विकमुं स्थावर दशकमुं असातवेवनीयमुं षंडवेव स्त्रीव १५ अरतियुं शोकमुदितु मूवत्तनात्कुं प्रकृतिगळु सांतरोदय बंधंगळ ॥ संदृष्टि - णि २ । जा ४ । पंचज्ञानावरण नवदर्शनावरणपंचांतरायमिथ्यात्वषोडशकषायभयद्विकते जसद्विकागुरुलघुद्विक निर्माणवर्ण चतुष्काणोति सप्तचत्वारिशद् ध्रुवोदयाः । तीर्थमाहारकद्विकमायुश्चतुष्कं चेति चतुःपंचाशत्प्रकृतयो निरंतरबंधा भवति । नरकद्विकमेकेंद्रियादिजातिचतुष्कं पंचसंहननानि पंचसंस्थानान्यप्रशस्तविहायोगतिरातपोद्योती स्थावर पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, २० जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, अगुरुलघुद्विक, निर्माण, वर्णादि चार, ये सैंतालीस प्रकृतियाँ ध्रुवोदयी हैं, अपनी-अपनी व्युच्छित्ति पर्यन्त सदा इनका उदय पाया जाता है। तीर्थंकर, आहारकद्विक, आचार, ये सात और उक्त सैंतालीस ये चौवन प्रकृतियाँ निरन्तर बन्धी हैं इनमें से सैंतालीस प्रकृतियोंका तो व्युच्छित्तिके प्रथम समय तक सदा निरन्तर बन्ध होता है । और तीर्थंकर तथा आहारकका बन्ध प्रारम्भ होनेपर जिन गुणस्थानों में इनका बन्ध होता है उनमें २५ प्रति समय बन्ध होता है। आयुका जिस कालमें बन्ध होना योग्य है वहाँ आयुबन्ध होने के पश्चात् उस कालमें प्रति समय निरन्तर बन्ध होता है। इससे इनको निरन्तर बन्धी कहा है । - नरकगति, नरकानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि जाति चार, पाँच संहनन, पाँच संस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावर आदि दस, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, ३० नपुंसक वेद, अरति, शोक, ये चौंतीस सान्तरबन्धी हैं। जैसे किसी समय नरकगतिका बन्ध १. निरंतरबंधंगळ एंदु पाठांतरं । थावरसुहममपज्जतं साहरण सरीरमत्थिरं च असुहं दुम्भगदुस्सरणादेज्जं अज सकित्तित्ति ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सं ५। सं ५। दु १ । आ २ था २। सू१ । अ१। सा१। अ१।१। दु१दु १११ अ१। षं १ । स्त्री १।१ । शो १ कूडि मूवत्तनाल्कु ३४ ॥ सुरणरतिरियोरालिय-वेगुब्बियदुगपसत्थगदिवज्जं । परघाददुसमचउरं पंचेंदिय तसदसं सादं ॥४०६॥ सुरनरतिय॑गौदारिकवैक्रियिकद्विक प्रशस्त गतिवन । परघातद्विक समचतुरस्र पंचेंद्रिय ५ असदशसातं ॥ हस्सरदि पुरिसगोददु सप्पडिवक्खम्मि सांतरा होति । णढे पुण पडिवक्खे णिरंतरा होति बत्तीसा ॥४०७।। हास्यरतिपुरुषगोत्रद्विकं सप्रतिपक्षे सांतरा भवंति । नष्टे पुनः प्रतिपक्षे निरंतरा भवंति द्वात्रिंशत् ॥ ___ सुरद्विक, मनुष्यद्विकमु तिय्यंग्द्विक मुमौदारिकद्विक, वैक्रियिकद्विकमु प्रशस्तविहायोगतियुं वज्रऋषभनाराचसंहनन, परघातोच्छ्वासद्विकमुं समचतुरस्र संस्थान, पंचेंद्रियजातियु त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिर शुभ सुभग सुस्वरादेय यशस्कोति सातवेदनीय हास्यरतिद्विक पुंवेदगोत्रद्विकर्मब द्वात्रिंशत्प्रकृतिगळु सप्रतिपक्षदोळु सांतरंगळप्पुवु । मत्ते नष्ट प्रतिपक्षंगळागुत्तं विरलु निरंतरोदयबंधंगळप्पुषु । संदृष्टि-सु २ । म २। ति २। औ२।२।प्र १ व १ प २ स १ १५ पं.१ त्र १० सात १ हा १। र १। पुंवेद १ गो २ कूडि ३२ ॥ यिल्लि सुरद्विकक्के मिथ्यादृष्टि दशकमसातं स्त्रीषंढवेदो अरतिः शोकश्चेति चतुस्त्रिशत्सांतरबंधा भवंति ॥४०४-४०५।। सुरद्विकं मनुष्यद्विकं तिर्यद्विक औदारिकद्विकं वैक्रियिकद्विकं प्रशस्तविहायोगतिर्वज्रवृषभनाराचं परघातोच्छवासी समचतुरस्रसंस्थानं पंचेंद्रियं त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशस्कीर्तयः सातं हास्यरती वेदो गोत्रद्विकं चेति द्वात्रिंशत्प्रकृतयः सप्रतिपक्षे सांतरा भवंति । तस्मिन्नष्टे निरंतरोदयबंधा २० होता है किसी समय अन्य गतिका बन्ध होता है। किसी समय एकेन्द्रिय जातिका बन्ध होता है किसी समय अन्य जातिका बन्ध होता है। इस प्रकार ये प्रकृतियाँ सान्तर बन्धी हैं ॥४०४-४०५।। देवगति, देवानुपूर्वी, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, तियंचगति तिर्यंचानुपूर्वी, औदारिक शरीर व अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, वनवृषभनाराच संहनन, २५ परघात, उछ्वास, समचतुरस्रसंस्थान, पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, सातावेदनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, गोत्र दो ये बत्तीस प्रकृतियाँ प्रतिपक्षीके रहते हुए सान्तरबन्धी हैं। और प्रतिपक्षीके नष्ट होनेपर निरन्तर बन्धी हैं। जैसे अन्य गतिका जहाँ बन्ध पाया जाता है वहाँ तो देवगति सप्रतिपक्षी है। अतः वहाँ किसी समय देवगतिका बन्ध होता है और किसी समय अन्य गतिका बन्ध होता है। ३० जहाँ अन्य गतिका बन्ध नहीं पाया जाता केवल देवगतिका बन्ध है वहाँ देवगति अप्रतिपक्षा होनेसे प्रतिसमय देवगतिका ही बन्ध होता है । अतः देवगतिको उभयबन्धी कहा है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों में जानना। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ १० गो० कर्मकाण्डे योळ नरकद्विक, तिय्यंग्द्विक, मनुष्यद्विक, प्रतिपक्षमक्कु । सासादननोळु सरद्विकक्के तिर्यद्विक, मनुष्यद्विकममुं प्रतिपक्षमक्कु। मिश्रासंयतरोळु सुरद्विकक्के मनुष्यद्विकं प्रतिपक्षमक्कु। देशसंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निःप्रतिपक्षमक्कु । भोगभूमियं कुरुत्तु सुरद्विकरके निःप्रतिपक्षत्वमक्कु। मनुष्यद्विकक्कानताविकल्पंगळोळ निःप्रतिपक्षत्वमेक बोर्ड सवरसहस्सारगोत्ति ५ तिरियनुगमेंदु शतार सहस्रार कल्पपयंतमे तिर्यग्द्विकक्के बंधमुंटप्पुरिवं नोचैर्गोत्रक्कं तिर्य ग्द्विकक्कं सप्तम' पृथ्वियोळु निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। तेजस्कायिक वातकायिक जीवंगळोळ तिय॑ग्द्विकक्कं नोचैर्गोत्रक्कं निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं । औदारिकद्विकक्के नरकदेवगतिद्वयदोळ निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं वैक्रियिकद्विकक्के मनुष्यतिय्यंगसंयतादियोळं भोगभूमियोळ निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। प्रशस्तविहायोगति प्रकृतिप्रभूतिगळ्गे व्युच्छिन्नस्वप्रतिपक्षगुणस्थानोपरिणतनगुणस्थानमादियागि स्वबंधव्युच्छित्तिगुणस्थानपर्यंत निष्प्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं मदेबोरे सासावनगुणस्थानदोळप्रशस्तविहायोगतिर्ग बंधव्युच्छित्तियाबुबप्पुरिवं मिश्रगुणस्थानमोदलागि अपूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निष्प्रतिपक्षत्वमरियल्पड़गुं। वज्रवृषभनाराचसंहननक्कै मिथ्यादृष्टि योळं सासादननोळं सप्रतिपक्षत्वं मिश्रनोळं असंयतनोळं निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। परघातोच्छ्वास द्वयक्के पुण्णेण समं सम्वेणुस्सासो णियमसादु परघाओ एंबी नियममुंटप्पुरिदमपर्याप्तनामकर्ममे १५ भवंति । तत्र सुरद्विकं नरकतिर्यग्मनुष्यद्विमिथ्यादृष्टी, तिर्यग्मनुष्यद्विकाम्यां सासादने, मनुष्यद्विकेन मित्रासंयत. योश्च सप्रतिपक्ष, उपर्यपूर्वकरणषष्ठभागांतं भोगभमौ च निःप्रतिपक्षम् । मनुष्यद्विकं 'सदरसहस्सारगोत्तितिरियदुगं' इत्यानतादिकल्पेषु निःप्रतिपक्षम् । नीचर्गोत्रं तिर्यद्विकं च सप्तमपृथिव्यां तेजोवातकायिकयोश्च निःप्रतिपक्षम । औदारिकद्विकं नरकदेवगत्योनिष्प्रतिपक्षम् । वैक्रियिकद्विकं नरतियंगसंयतादी भोगभूमौ र निःप्रतिपक्षं । प्रशस्तविहायोगतिरप्रशस्तविहायोगतेः सासादने बंधच्छेदान्मिश्राद्यपूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निष्प्र२० तिपक्षा । वज्रवृषभनाराचं मिथ्यादृष्टिसासादनयोः सप्रतिपक्षं, मिश्रासंयतयोनिष्प्रतिपक्षं । परघातोच्छ्वासद्वयं अब ये प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षा कहाँ हैं और अप्रतिपक्षा कहाँ हैं यह कहते हैं देवगति और देवानुपूर्वी मिथ्यादृष्टिमें नरकद्विक, तियंचद्विक और मनुष्यद्विकका , होनेसे सप्रतिपक्षा हैं। सासादनमें तियंचद्विक, मनुष्यद्विकका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षा हैं। मिश्र और असंयतमें मनुष्यद्विकका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षा हैं। ऊपर अपूर्वकरणके छठे २५ भाग पर्यन्त तथा भोगभूमिमें देवद्विकका ही बन्ध होनेसे अप्रतिपक्षा हैं। मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी 'सदर सहस्सारगोत्ति तिरियदुर्ग' इस कथनके अनुसार आनत आदि कल्पोंमें अप्रतिपक्षा हैं। नीचगोत्र और तिर्यंचद्विक सातवीं पृथिवीमें और तेजकाय-वायुकायमें अप्रतिपक्षा हैं । औदारिकद्विक, नरकगति और देवगतिमें प्रतिपक्ष रहित है। वैक्रियिकद्विक असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तियेचमें और भोगभूमिमें अप्रतिपक्षी हैं। प्रशस्त विहायोगतिअप्रशस्त विहायोगतिकी सासादनमें बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे मिश्रसे अपूर्वकरणके षष्ठ भागपर्यन्त अप्रतिपक्षा है । वज्रवृषभनाराच संहनन मिथ्यादृष्टि और सासादनमें सप्रतिपक्षी १. मिस्साविरदे उच्चं मणुवदुगं सत्तमो हवे बंधो। मिच्छा मासणसम्मो मणुवदुगुच्चं ण बंधति ॥ एंवि इदरिदं मिथ्यादष्टि सासादनरोल निःप्रतिपक्षत्वं ॥ २. ब दृष्टिद्वये स । ३. मिश्रद्वये निः । ३० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका प्रतिपक्षमक्कुमें दरियल्पडुगुमा अपर्याप्तनाम कर्ममुं मिथ्यादृष्टियोळे व्युच्छित्तियादुदरिदं परघात. नामप्रकृतिगे अपूर्वकरणषष्ठभागपर्यंत निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पगुं आतैपनामकर्मक्के मिथ्यादृष्टियोळु अपर्याप्तनाममं कट्टिदागळ पर्याप्तनामदोडने निष्प्रतिपक्षत्वमरियाडुगुं । समचतुरस्त्रसंस्थानक्के मिश्रगुणस्थानमादियागि अपूर्वकरणषष्ठभागपय्यंतं निष्प्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं पंचेंद्रियजातिनामक्के मिथ्यादृष्टियोळ सप्रतिपक्षत्वं सासादनं मोदल्गोंडु अपूर्वकरणषष्ठभागपय्यंतं ५ निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकशरीरंगळगे मिथ्यादृष्टियोळु सप्रतिपक्षत्वमेके. दोडे स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरंगळणे बंधमुंटप्पुरिवं मेले सासादनं मोदलगोंडपूर्वकरणषष्ठभागपथ्यंत निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। स्थिरशुभयशस्कोत्तिनामंगळगे प्रमत्तसंयतपयंत सप्रतिपक्षत्वमेके दोडस्थिरमशुभमयशस्कोत्तिनामंगळगे बंधमुंटप्पुरिदै मेलणऽप्रमत्तसंयतं मोदल्गोंडपूर्वकरण षष्ठभागपथ्यंत निःप्रतिपक्षत्वमकुं। यशस्कोत्तिनामक्के सूक्ष्मसांपररायपय्यंतं निःप्रति- १० पक्षत्वमकुं। सुभगसुस्वरादेयंगळ्गे सासादनपर्यतं सप्रतिपक्षत्वमेके दोडे दुभंगत्रयक्के सासादननोळु बंधमुंटप्पुरिदं । मेले अपूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निःप्रतिपक्षत्वं सातवेदक्क प्रमतसंयतपयंतं सप्रतिपक्षत्वमेकेदोडऽसातक्के प्रमत्तसंयत पय्यंत बंधमुंटप्पुरदं । मेले सयोगकेवलिपय्यंतं निःप्रति अपर्याप्तनव सप्रतिपक्ष, अपर्याप्तस्य मिथ्यादृष्टी बंधच्छेदात् परघोतोच्छ्वासद्वयं सासादनाद्यपूर्वकरणषष्ठभागपर्यतं निःप्रतिपक्षं । आतपः मिथ्यादृष्टावपर्याप्तबंधे पर्याप्तेन निःप्रतिपक्षः। समचतुरस्र मिश्राद्यपूर्वकरणषष्ठभाग- १५ पर्यतं निःप्रतिपक्षं । पंचेंद्रियं मिथ्यादृष्टौ सप्रतिपक्षं, सासादनाद्य पूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निःप्रतिपक्षं । त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकानि मिथ्यादृष्टौ स्यावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीराणां बंधात्सप्रतिपक्षाणि, उपर्यपूर्वकरणषष्ठभार्गपयंतं निष्प्रतिपक्षाणि । स्थिरशुभयशस्कीर्तयः प्रमत्तपयंतमस्थिराशुभायशस्कीर्तीनां बंधात्सप्रतिपक्षाः, उपर्यपूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निष्प्रतिपक्षाः। यशस्कीर्तिस्तु सूक्ष्मसांपरायपयंतं निःप्रतिपक्षा। सुभगसुस्वरादेयानि सासादनपर्यतं दुर्भगत्रयबंधात् सप्रतिपक्षाणि उपर्यपूर्वकरणषष्ठभागपयंतं निःप्रतिपक्षाणि । सातवेदनीयं प्रमत्त- २० है और मिश्र तथा असंयतमें अप्रतिपक्षी है। परघात और उच्छ्वास अपर्याप्त अपेक्षा सानिपक्षो हैं, और अपर्याप्तकी मिथ्यादृष्टि में बन्धव्युच्छित्ति होनेपर सोसादनसे अपूर्वकरणके षष्ठ भाग पर्यन्त प्रतिपक्ष रहित हैं। आतप मिथ्यादष्टि में अपर्याप्तका बन्ध होते सप्रतिपक्षी है क्योंकि अपर्याप्तका बन्ध होनेपर इसका बन्ध नहीं होता। पर्याप्तके साथ अप्रतिपक्षी है। समचतुरस्रसंस्थान मिश्रसे अपूर्वकरणके षष्ठभाग पर्यन्त प्रतिपक्षरहित है। पंचेन्द्रिय जाति २५ मिध्यादृष्टीमें सप्रतिपक्षी है और सासादनसे अपूर्वकरणके षष्ठभाग पर्यन्त प्रतिपक्ष रहित है। त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येक मिथ्यादृष्टि में स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण शरीरका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी हैं। ऊपर अपूर्वकरणके षष्ठ भाग पर्यन्त प्रतिपक्षरहित हैं। स्थिर शुभ यशःकीर्ति प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त अस्थिर अशुभ अयशःकीर्तिका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी हैं। ऊपर अपूर्वकरणके षष्ठभाग पर्यन्त अप्रतिपक्षी है। किन्तु यश कीर्ति सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त ३० अप्रतिपक्षी है। सुभग सुस्वर आदेय सासादन पर्यन्त दुर्भग दुःस्वर अनादेयका बन्ध होनेसे १. आतपनामं सांतरप्रकृतिगळोल्पेळल्पट्दुदु ई सांतरनिरंतरप्रकृतिगळोळु उच्छ्वासनामक एंदु पेळबेकु विचारिसिको बुदु ।। २. ब परघातमपूर्व । ३. बमुपर्यपूर्व । ४. बगान्तं । क-८३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ गो० कर्मकाण्डे पक्षत्वमरियल्पडुगुं । हास्यरतिद्वयक्के प्रमत्तसंयतपर्यंतं सप्रतिपक्षत्वमेक बोडरतिशोकंगळ्गे प्रमत्तसंयतपय्यंतं बंधमुंटप्पुरिदं। मेलपूर्वकरणचरमसमयपथ्यंतं निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। पुंवेदक्के सासादनपथ्यंतं सप्रतिपक्षत्वमेके दोडे मिथ्यादृष्टियोळु षंडवेदमुं स्त्रीवेदमुं सासादननोळु स्त्रीवेदमु बंधमुटप्पुरिदं । मेले मिश्रं मोदल्गोंडनिवृत्तिकरण सवेदभागपयंतं निप्रतिपक्षत्वमरि५ यल्पडुगुं। उच्चैर्गोत्रक्क सासादनपयंतं सप्रतिपक्षत्वमेके दोडे सासावनपयंतं नोचैर्गोत्रके बंधमुटप्पुरिदं। मेले मिश्रं मोदल्गोंडु सूक्ष्मसांपरायपय॑तं निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। इंतु नवप्रश्न प्रथमचूळिकाधिकारं व्याख्यातमादुदु ॥ जत्थ वरणेमिचंदो महणेण विणा सुणिम्मलो जादो। सो अभयणंदि णिम्मलसुओवही हरउ पावमलं ॥४०८॥ यत्र वरनेमिचंद्रो मथनेन विना सुनिर्मलो जातः। सोऽभयनंदिनिर्मलश्रुतोवधिहरतु पापमलं॥ आवुदोंदु अभय विनिर्मलश्र तोदधियोळ वरनेमिचंद्रं मथनमिल्लदे सुनिर्मलनागि पुट्टि वनंतप्पऽभयनंदिश्रुतोदधि भव्यजनंगळ पापमलमं किडिसुगे। पयंतमसातबंधात्सप्रतिपक्षं, उपरि सयोगपर्यंतं निःप्रतिपक्षं । हास्यरतिद्वयं प्रमत्तपयंतमरतिशोकबंधात्सप्रतिपक्षं, १५ उपर्यपूर्वकरणचरमसमयपयंतं निष्प्रतिपक्षं। पुंवेदः सासादनपर्यतं सप्रतिपक्षः, मिथ्यादृष्टौ षंढस्त्रीवेदयोः सासादने स्य च बंधात उपर्यनिवत्तिकरणसवेदभागपयंतं निःप्रतिपक्षः। उच्चर्गोत्रं सासादनपर्यंतं नीचोंबंधात्सप्रतिपक्षं, उपरि सूक्ष्मसांपरायपयंतं निःप्रतिपक्षं ॥४०६-४०७॥ इति नवप्रश्नप्रथमचूलिका व्याख्याता । ___ वरनेमिचंद्रो मथनेन विनापि सुनिर्मलो जातः सोऽभयनंदिनिर्मलश्रुतोदधिर्भन्यजनानां पापमलं हरतु ॥४०८॥ २० सप्रतिपक्षी हैं। ऊपर अपूर्वकरणके षष्ठभाग पर्यन्त प्रतिपक्ष रहित हैं। सातावेदनीय प्रमत्तपर्यन्त असातावेदनीयका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी है। ऊपर सयोगीपर्यन्त अप्रतिपक्षी है। हास्य रति प्रमत्तपर्यन्त अरति शोकका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी है। ऊपर अपूर्वकरणके अन्तिम समय पर्यन्त अप्रतिपक्षी हैं। पुरुषवेद सासादन पर्यन्त सप्रतिपक्षी है क्योंकि मिथ्यादृष्टि में नपुंसकवेद स्त्रीवेदका और सासादनमें स्त्रीवेदका बन्ध होता है। ऊपर अनि२५ वृत्तिकरणके सवेदभाग पर्यन्त प्रतिपक्ष रहित है। उच्चगोत्र सासादन पर्यन्त नोचगोत्रका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी है। ऊपर सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त अप्रतिपक्षी है ॥४०६-४०७।। इस प्रकार नवप्रश्नचूलिका व्याख्यान समाप्त हुआ। पंच भागहारचूलिका जिस अभयनन्दि आचार्यरूपी निर्मल शास्त्र समुद्र में-से बिना ही मथन किये ३० नेमिचन्द्र आचार्यरूपी निर्मल चन्द्रमा प्रकट हुआ वह शास्त्रसमुद्र सब जीवोंके पापमलको दूर करे ॥४०८॥ १. विद्यागुरु । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका - उब्बेन्लणविज्झादो अद्धापवत्तो गुणो य सव्वो य । संकमदि जेहि कम्मं परिणामवसेण जीवाणं ॥४०९॥ उद्वेल्लनो विध्यातोऽथाप्रवृत्तो गुणश्च सर्वश्च संक्रमति यैः कम परिणामवशेन जीवानां ॥ यैर्भागहारैः उद्वेल्लनावि आउ केलउ भागहारंगळिद कर्म ज्ञानावरणाद्यशुभकर्ममुं आहारकद्वयाविशुभकम्मंगळू जीवानां संसारिजीवंगळ परिणामवशेन शुभाशुभपरिणामवदिदं ५ संकामति परप्रकृतिस्वरूपदिदं परिणमिसुगुमा भागहारंगळु उद्वेल्लनविष्यात अथाप्रवृत्त गुण सव्वंसंक्रमभागहारंगळे वितु पंचप्रकारंगळप्पुवु । संक्रमस्वरूपमं पेळ्वपरु : बंधे संकामिज्जदि गोबंधे णत्थि मूलपयडीणं । दसणचरित्तमोहे आउचउक्के ण संकमणं ।।४१०॥ बंधे संक्रामति नोऽबंधे नास्ति मूलप्रकृतीनां । दर्शनचरित्रमोहे आयुश्चतुष्के न संक्रमणं ॥ १० बंधे संक्रामति बध्यमानपात्रकोळ संक्रमिसुगुमे बुदिदुत्सर्गविधियक्कुमेके बोर्ड क्वचिदबध्यमानदोळं संक्रममुंटप्पुरवं नोबंधे अबंधो संक्रमणमिल्ले बुदनत्यंकवचनमप्पुरिद । वर्शनमोहनीयमं बिट्टन्यत्र बध्यमानपात्रदोळ एंदितु नियममरियल्पडुगुं। नास्ति मूलप्रकृतीनां शानावरणाविमूलप्रकृतिगळ्गे परस्परं संक्रमणमिल्लुत्तरप्रकृतिगळगे स्वस्थानसंक्रमणमुंटे बुदर्थमल्लियु वर्शनमोहनीयक्कं चारित्रमोहनीयक्कं संक्रमणमिल्ल। नारकतिय्यंग्मनुष्यदेवायुष्यंगळ्गेयु १५ यैः शुभाशुभं कर्म संसारिजीवानां परिणामवशेन संक्रामति परप्रकृतिरूपेण परिणमति, ते भागहाराः उदल्लनविध्यातापःप्रवृत्तगुणसर्वसंक्रमनामानः पंच संभवंति ॥४०९॥ संक्रमस्वरूपमाह बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमत्सर्गविधिः क्वचिदबध्यमानेऽपि संक्रमात. नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एव संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्यः । मूलप्रकृतीनां परस्परं संक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थः । तत्रापि दर्शन चारित्रमोहयोः चतुर्णामायुषां २० जिन भागहारोंके द्वारा शुभ और अशुभ कर्म संसारी जीवोंके परिणामोंके वश अन्य प्रकृतिरूप होकर परिणमन करते हैं वे भागहार पाँच हैं-उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम, सर्वसंक्रम ॥४०९॥ संक्रमणका स्वरूप कहते हैं जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उस प्रकृतिमें अन्य प्रकृति उस रूप होकर परिणमन २५ करती है। यह सामान्य कथन है क्योंकि कहीं-कहीं जिसका बन्ध नहीं है उसमें भी संक्रमण होता है। 'जिसका बन्ध नहीं है उसमें संक्रमण नहीं होता। इससे अभिप्राय यह है कि दर्शन मोहनीयके बिना शेष कर्म जिसका बन्ध हो रहा है उसीमें संक्रमित होते हैं ऐसा नियम जानना। किन्तु मूल प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण बादि रूप नहीं होता। उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। किन्तु दर्शनमोह और चारित्रमोहमें संक्रमण नहीं होता। दर्शनमोहकी प्रकृति चारित्रमोहकी प्रकृतिरूप नहीं परिणमन करती और चारित्र मोहकी प्रकृति दर्शनमोहरूप परिणमन नहीं करती। इसी तरह चारों Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ६५८ १० परस्परसंक्रमणमिल्ल । गो० कर्मकाण्डे सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेत्र संकमदि । सासण मिस्से णियमा दंसणतियसंकमो णत्थि ॥ ४११ ॥ सम्यक्त्व मिथ्यात्वमिश्रं स्वगुणस्थाने नैव संक्रामति । सासादन मिश्रयोन्नियमाद्दर्शनत्रयसंक्रमो नास्ति ॥ सम्यक्त्व प्रकृतियुं मिथ्यात्व प्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियुं स्वस्वगुणस्थानबोलु नैव संक्रामति परप्रकृतिस्त्ररूपविदं संक्रमिसुवुर्ब यिल्ल । सासादन मिश्ररुगकोळ नियर्मादिदं दर्शनमोहनीयत्रयसंक्रमणमिल्ल । असंयतादि नाल्कुं गुणस्थानंगळोळट बुदत्थं । मिच्छे सम्मिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्त अंतोति । उव्वेल्लणं तु ततो दुचरिमकंडोति नियमेण ॥४१२॥ मिथ्यात्वे सम्यक्त्वमिश्रयोरथाप्रवृत्तो मुहूर्तांतं यावत् । उद्वेल्लनस्तु ततो द्विचरमकांड - पय्यंतं नियमेन ॥ मियात्वे प्राप्ते मिथ्यात्वं पोलपडुत्तिरलागळु सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिगळे रडक्कमथा प्रवृत्तसंक्रममंत मुंहूत्तपर्यंतं प्रवृत्तिसुगुं । तुमचे उद्वेल्लनभागहारसंक्रमं द्विचरमकांडकपर्यंतं नियम१५ दिदं प्रवत्तसुगुमल्लि अथाप्रवृत्तसंक्रमं फालिरूपविदमुद्वेल्लन संक्रमं कांडकरूपदिदं प्रवत्तसुगुं । च परस्परं संक्रमणं नास्ति ॥४१० ॥ सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं मिश्रं च स्वस्वगुणस्थाने एव न संक्रामति, सासादन मिश्रयोनियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमणं नास्ति । असंयतादिचतुष्वंस्तीत्यर्थः ॥ ४११ ॥ मिथ्यात्व प्राप्ते सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्यो रषः प्रवृत्तं संक्रमोंतर्मुहूर्तपर्यंतं वर्तते । तु पुनः - उद्वेल्लनभागहार२० संक्रमो द्विवरमकांडपर्यंतं वर्तते नियमेन । तत्राधः प्रवृत्तसंक्रमः फालिरूपेण, उद्वेल्लनसंक्रमः कांडकरूपेण वर्तते ॥४१२ ॥ आयुकमों में भी परस्पर में संक्रमण नहीं होता, देवायु मनुष्यायु आदि अन्य आयुरूप परिणमन नहीं करती । यह संक्रमणका स्वरूप है ॥ ४१० ॥ सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय अपने-अपने गुणस्थान में संक्रमण २५ नहीं करते । अर्थात् सम्यक्त्व मोहनीयका संक्रमण असंयत आदि गुणस्थानों में नहीं होता । मिथ्यात्वका संक्रमण मिथ्यात्व गुणस्थानमें और मिश्र मोहनीयका मिश्र गुणस्थान में संक्रमण नहीं होता । तथा सासादन और मिश्रमें नियमसे दर्शनमोहकी इन तीन प्रकृतियोंका संक्रमण नहीं होता। असंयत आदि चार गुणस्थानों में होता है ॥ ४११ ॥ मिध्यात्वको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व प्रकृति और मिश्र प्रकृतिका अधःप्रवृत्त संक्रमण ३० अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है। तथा उद्वेलन भागहार संक्रमण नियमसे द्विचरमकाण्डक पर्यन्त होता है । उनमें से अधःप्रवृत्त संक्रम फालि रूपसे और उद्वेलन संक्रम काण्डकरूपसे होता है । एक समय में संक्रमण होनेको फालि कहते हैं। और बहुत समयों में संक्रमण हो तो उसे काण्डक कहते हैं । इनका विशेष वर्णन आगे करेंगे ||४१२ || Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उव्वेल्लणपयडीणं गुणं तु चरिमम्मि कंडये णियमा । चरिमे फालिम्मि पुणो सव्वं च य होदि संकमणं ॥४१३॥ उवेल्लनप्रकृतीनां गुणस्तु चरमे कांडके नियमाच्चरमे फालौ पुनः सव्वं च च भवति संक्रमणं॥ उद्वेलनप्रकृतिगळेलं द्विचरमकांडकपयंतमुवेल्लनसंक्रमणमक्कुं। चरमकांडदोळ तु ५ मत्त नियमदिदं गुणसंक्रमणमक्कुं। पुनः मत्ते चरमफाळियो सर्वसंक्रमणमक्कुमप्पुरिदं सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिगळुवेल्लनप्रकृतिगळप्पुरिदं चरमकांडकदोळु गुणसंक्रमणमुं चरमफाळियोळ सर्वसंक्रमणमुमक्कु । संदृष्टिः मि मि २१ सं २१ अधा अधा m II गु करणपरिणाममिल्ल देनेणिन तुदियिंदं पुरिबिच्चुवंते कर्मपरमाणुगळ्गे परप्रकृतिस्वरूपदिदं निक्षेपणमुवेल्लनसंक्रमणबुदु । विध्यातविशुद्धिकनप्पजीवंगस्थित्यनुभागकांडगुणश्रेण्यादि १० उद्वेलनप्रकृतीनां द्विचरमकांडकपयंतमुद्वेल्लनसंक्रमणं, चरमकांडके तु पुनः नियमेन गुणसंक्रमणं । चरमफालौ पुनः सर्वसंक्रमणं चास्ति तेन सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्योरुद्वेल्लनप्रकृतित्वाच्चरमकांडके गुणसंक्रमणं चरमफालो सर्वसंक्रमणं च सिद्धं । संदृष्टिः मिथ्या मिश्र २१ स २१ अधः अधः करणपरिणामेन विना कर्मपरमाणनां परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेल्लनसंक्रमणं नाम । विध्यातविशुद्धि जो उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं उनका द्विचरम काण्डक पर्यन्त तो उद्वेलन संक्रम होता है। १५ और अन्तके काण्डकमें नियमसे गुण संक्रम होता है। तथा अन्तिम फालिमें सर्व संक्रमण होता है। इससे चूँकि सम्यक्त्व प्रकृति और मिश्रप्रकृति भी उद्वेलन प्रकृति हैं अतः इनके भी चरम काण्डकमें गण संक्रमण और चरमफालिमें सर्वसंक्रमण सिद्ध है। यहाँ पाँचों संक्रमणका स्वरूप कहते हैंअधःप्रवृत्त आदि तीन करण रूप परिणामोंके बिना कर्म परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप २० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० गो० कर्मकाण्डे परिणामंगळु निलुत्तं विरलु प्रवत्तिसुगुमप्पुरिदं विध्यातसंक्रममें बुदक्कुं। बंधप्रकृतिगळ्ग स्वकबंधसंभवविषयवोलु आउदोंदु प्रदेशसंक्रमदधःप्रवृत्तसंक्रमणमें बुदक्कु। प्रतिसमयमसंख्येयगुणश्रेणिक्रमदिवमाउदोंदु प्रदेशसंक्रमणमदुगुणसंक्रमण बुदक्कं । चरमकांडकचरमफाळिय सर्वप्रदेशाग्रक्के आउदोंदु संक्रमणमदु सर्वसंक्रमणमें बुदक्कुं॥ अनंतरं सर्वसंक्रमणमनुळळ प्रकृतिगळं मुंदे पेपरल्लि तिर्यगेकादशप्रकृतिगळेदु पेन्दपरदु कारणमागि या तिर्यगेकादश प्रकृतिगळावावु बोडे पेळ्दपरु ॥ तिरियदु जाइचउक्कं आदावुज्जोवथावरं सुहमं । साहारणं च एदे तिरियेयारं मुणेदव्वा ॥४१४॥ तिर्यग्द्वयं जातिचतुष्कमातपोद्योतस्थावराः सूक्ष्मः। साधारणं चैतास्तिय॑गेकादश १० मंतव्याः ॥ तिर्यग्द्वयमुमोदलजातिचतुष्कममातपमुमुद्योतमुस्यावरमुसूक्ष्म, साधारणशरीरमुबी पनों दुं प्रकृतिग तिर्यग्गतियोळल्लवितरगतियोठ्वयमिल्लप्पुरिदं तिय्यंगेकादश में वितन्वर्थ संजयकुं॥ अनंतरं उद्वेल्लनप्रकृतिगळयाउर्व दोडे पेळ्दपरु । १५ कस्य जीवस्य स्थित्यनुभागकांडक-गुणश्रेण्यादिपरिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तनाद्विध्यातसंक्रमणं नाम । बंधप्रकृतीनां स्वबंधसंभवविषये यः प्रदेशसंक्रमः तदधःप्रवृत्तसंक्रमणं नाम । प्रतिसमयसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद् गुणसंक्रमणं नाम । चरमकांडकचरमफाले: सर्वप्रदेशाग्रस्य यत्संक्रमणं तत्सर्वसंक्रमणं नाम ॥४१३॥ सर्वसंक्रमणप्रकृतिस्थतिर्यगेकादशमाह तिर्यग्द्वयमाद्यजाति चतुष्कमातपः उद्योतः स्थावरः सूक्ष्मं साधारणं चेत्येतो एकादश तिर्यक्ष्वेवोदयात्तिर्य२० रोकादश इति संज्ञाः स्युः ॥४१४॥ अयोद्वेल्लनप्रकृतयः का: ? इति चेदाह परिणमना उद्वेलन संक्रमण है । मन्द विशुद्धिवाले जीवके स्थिति और अनुभागको घटानेरूप काण्डक अथवा गुणश्रेणि आदि परिणामोंके होनेके बाद जो होता है वह विध्यात संक्रमण है। बन्धरूप प्रकृतियोंके परमाणुओंका अपने बन्धके विषय में संभवती प्रकृतियोंमें जो संक्रमण होना है उसे अधःप्रवृत्त संक्रमण कहते हैं। प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणिके क्रमसे २५ परमाणुओंका जो अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होता है वह गुणसंक्रम है। अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालीके सर्वप्रदेशों में जो परमाणु अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए उनका अन्य प्रकृतिरूप सर्वसंक्रमण है ॥४१॥ आगे सर्वसंक्रमणकी प्रकृतियों में तिर्यक् एकादश आता है उसे स्पष्ट करते हैं तिथंचगति, तिथंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, ३. साधारण इन ग्यारह प्रकृतियोंका उदय तियच में ही होता है, इससे इन्हें तिर्यक् एकादश कहते हैं ॥४१४॥ १. तास्ततिर्यगेकादशमिति मन्तव्याः । तासां तिर्यक्ष्वेवोदयात् । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आहारदुगं सम्मं मिस्सं देवदुग णारय चउक्कं । उच्च मणुदुगमेदे तेरसमुब्बेलणा पयडी ॥४१॥ आहारद्विक सम्यक्त्वं मिश्रं देवद्विक नारकचतुष्कं । उच्चं मनुष्यद्विकमेतास्त्रयोदशोद्वेल्ल. नाप्रकृतयः॥ आहारद्विकमुं सम्यक्त्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियुं देवद्विकमुं नारकचतुष्टयमुमुच्चैग्र्गोत्रमुं मनुष्य- ५ द्विकमुबी त्रयोदशप्रकृतिगळुद्वेल्लनप्रकृतिगळे बुवककुं॥ बंधे अधापवत्तो विज्झादस्सत्तमोत्ति हु अबंधे । __ एत्तो गुणो अबंधे पयडीणं अप्पसत्थाणं ॥४१६॥ बंधे अधाप्रवृत्तो विध्यातः सप्तमपयंतं खल्वबंधे इतो गुणोऽबंधे प्रकृतीनामप्रशस्तानां ॥ बंधेऽधाप्रवृत्तः प्रकृतिबध्यमानवागुत्तं विरलु स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपयंतमधाप्रवृत्तसंक्रमणं १० प्रवत्तिसुगुं। मिथ्यात्वं बध्यमानवागुत्तं विरलुमधःप्रवृत्तसंक्रमणमिल्लेके दोडे-सम्म मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदि एंदिदु कारणमागि। विध्यातः सप्तमपथ्यंतमबधे बंधव्युच्छित्तियागुत्तं विरलु असंयताद्यप्रमत्तपय्यंतं विध्यातसंक्रमणमक्कुं । इतः ई अप्रमत्तगुणस्थानदिदं मेलपूर्वकरणाद्यपशांतकषायपथ्यंत बंधरहितमप्रशस्तप्रकृतिगळ्गे गुणसंक्रमणं प्रत्तिसुगुमन्यत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयमादियागंतम्मुहूर्तकालपर्यंत, मतं मिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिगळ पूरण- १५ कालदोळं गुणसंक्रमणमक्कुं। मिथ्यात्वक्षपणेयोळ मत्ते अपूर्वकरणपरिणामं मोदल्गोंडु मिथ्यात्व आहारकद्विकं सम्यक्त्वं मिश्रं देवद्विकं नारकचतुष्कमुच्चैर्गोत्रं मनुष्यद्विकं चेत्येतास्त्रयोदश उद्वेल्लनानामप्रकृतयः स्युः ॥४१५।। प्रकृतीनां बंधे सति स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपयंतमधःप्रवृत्तसंक्रमणः स्यात् न मिथ्यात्वस्य, सम्म मिच्छं मिस्सं सगुणदाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात् । बंधव्यच्छित्तौ सत्यामसंयताद्यप्रमत्तपर्यंतं विध्यातसंक्रमणं २० स्यात् । इतः अप्रमत्तगुणस्थानादुपर्युपशांतकषायपयंतं वंधरहिताप्रशस्तप्रकृतीनां गुणसंक्रमणं स्यात् । ततोऽन्यत्रापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयादतर्मुहूर्तपयंतं पुनः मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्योः पूरणकाले मिथ्यात्वक्षप आहारकद्विक, सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्रप्रकृति, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ये तेरह उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं ।।४१५।। प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर अपनी-अपनी बन्ध व्युच्छित्ति पर्यन्त अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है। किन्तु मिथ्यात्वका नहीं; क्योंकि मिथ्यात्वके संक्रमणका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें निषेध किया है, और मिथ्यात्वका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता है। बन्धकी व्युच्छित्ति होनेपर असंयतसे अप्रमत्त पर्यन्त विध्यात संक्रमण होता है। अप्रमत्त गुणस्थानसे ऊपर उपशान्त कषाय गुणस्थान पर्यन्त बन्धरहित अप्रशस्त प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण होता है। ३० इससे अन्यत्र भी प्रथमोपशम सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त गुणसंक्रमण होता है। पुनः मिश्र प्रकृति और सम्यक्त्व प्रकृतिके पूरणकालमें मिथ्यात्वकी १. ब नियमात् । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ गो० कर्मकाण्डे चरमकांडकद्विचरमफाळिपयंतमु गुणसंक्रमणभागहारमैयक्कुं। चरमफालियोल सव्वंसंक्रमणभागहारमक्कं ॥ अनंतरं सर्वसंक्रमणमुळ्ळ प्रकृतिगळं पेपरु : तिरिएयारुव्वेलण पयडी संजलणलोहसम्ममिस्सूणा । मोहा थोणतिगं च य बावण्णे सव्यसंकमणं ।।४१७|| तिर्यगेकादशोद्वेल्लनप्रकृतयः संज्वलनलोभसम्यक्त्वमिश्रोना मोहाः स्त्यानगृद्धित्रिकं च च द्विपंचाशत्स सर्वसक्रमणं ॥ ___ मुंपळद तिर्यगेकादशप्रकृतिगळु मुद्वेल्लनप्रकृतिगळु पदिमूरूं। संज्वलनलोभसम्यक्त्वप्रकतिमिश्रप्रकृतिळिदं विहोनमप्प पंचविंशति मोहनीयप्रकृतिगर्छ स्त्यानगृद्धि त्रयमुमें बो द्वापंचाशत्प्र१० कृतिगळोळु सर्वसंक्रमणमुटु । संदृष्टि |ति | उ मो| थि | कूडि | ११ |१३|२५| ३। ५२ । अनंतरं प्रकृतिगळगे संक्रमणनियममं पेळ्दपरु उगुदाल तीससत्तयवीसे एक्केक्कबारतिचउक्के । इगिचदुदुगतिगतिगचदुपणदुगदुगतिण्णि संकमणा ॥४१८॥ एकान्नचत्वारिंशस्त्रिंशत्सप्तविंशतावेकैक द्वादशत्रिचतुष्के । एक चतुर्दिकत्रिकत्रिकचतुःपंच १५ द्विक द्विक त्रीणि संक्रमणानि ॥ णायामपूर्वकरणपरिणामान्मिथ्यात्वचरमकांडकद्विचरमकालिपर्यंतं च गुणसंक्रमणं स्यात् । चरमफाली सर्वसंक्रमणं स्यात् ॥४१६॥ ताः सर्वसंक्रमणप्रकृतीराह प्रागुक्ततिर्यगकादशोद्वेल्लनत्रयोदशसंज्वलनलोभसम्यक्त्वमिथवजितमोहनीयानि स्थानगद्धित्रयं चेति द्वापंचाशत्प्रकृतिषु सर्वसंक्रमणं स्यात् ॥४१७॥ अथ प्रकृतीनां संक्रमणनियममाह२० क्षपणाके विषयमें अपूर्वकरण परिणामसे मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डककी द्विवरम फालि पर्यन्त गुणसंक्रमण होता है और अन्तिम फालीमें सर्वसंक्रमण होता है ।।४५६।। आगे सर्वसंक्रमण रूप प्रकृतियोंको कहते हैं पूर्वोक्त तिर्यक् एकादश, उद्वेलन प्रकृति १३, संज्वलन लोभ सम्यक्त्व मिश्रके बिना मोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियाँ और स्त्यानगृद्धि आदि तीन इन बावन प्रकृतियोंमें सर्वसंक्रमण २५ होता है ॥४१७॥ आगे प्रकृतियोंके संक्रमणका नियम कहते हैं १. ब मिश्रोवमो। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६६३ तो भवतु मे पित्तु मोदु मदु पन्नरडुं मूरेडेयोल नालकुगळुभागुत्तं विरली प्रकृतिगळोळु यथाक्रर्मादिदमों हुं नाल्कुमेरडुं मूरुं मूरुं नाल्कुमय्बु मेरडुमेरडुं मूरुं संक्रमणंगळप्पुवु ३० ७ २० ११ १२ ४ ४ ४ ३९ ४ २ ३ ३४ ५ २ २ ३ अनंतर मी प्रकृतिगळुमनिवर संक्रमणंगळमं क्रर्मादिदं गाथासप्तकदिदं पेदपरु :मस्स बंधवादी सादं संजल लोह पंचिंदी | तेजदुसमवण्णचऊ अगुरुगपरवाद उस्सासं ॥ ४१९ ॥ सूक्ष्मस्य बंधघाति सातं संज्वलनलोभपंचेंद्रिये । तैजसद्विकसमचतुरस्रवर्णचतुरगुरुलघुपरघातोच्छ्वासं ॥ सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगुदाले अधापवत्तो दु । थीण तिवारकसाया संदित्थी अरदिसोगो य ||४२०|| १ शस्तगतित्रसदशकं निर्माणमे कान्नचत्वारिंशत्सु । अधाप्रवृत्तस्तु स्त्यानगृद्धित्रिक द्वादश- १० कषायाः षंडस्त्र्यरतिशोकं च ॥ ज्ञानावरणपंचकमुं अंतरायपंचकमुं दर्शनावरणचतुष्कमुर्मव सूक्ष्मसांपरायन बंधघातिप्रकृतिगळप्प पदिनाकुं सातवेदमुं संज्वलनलोभमुं पंचेंद्रियजातियुं तैजसकामं णशरीरद्वय मुं समचतुरस्त्र संस्थानमुं वर्णचतुष्कमुमगुरुलघुकमुं परघातमुमुच्छ्वासमुं प्रशस्तविहायोगतिपुं त्रस - बादरपर्यात प्रत्येक स्थिरशुभसुभगसुस्वर आदेययशस्कीतियुमेंब त्रसदशकमुं निर्माणमुबी १५ एकान्तचत्वारिंशत्प्रकृतिगळुद्वेल्लन प्रकृतिगळल्लप्रदमुद्वेलन संक्रमण मिल्ल | विज्झाव सत्तमोत्ति हु अबंधे एंदितो प्रकृतिगण प्रमत्त गुणस्थानाभ्यंतरदोळु बंधव्युच्छित्ति यिल्लप्पुदरंद । क्रमेणैकचतुर्द्वित्रित्रिचतुः पंचद्विद्वित्रिसक्रमा एकान्नचत्वारिशत्त्रिशत्पतविंशत्येके कद्वादश त्रिचतुष्केषु भवति ॥ ४१८|| ताः प्रकृतीः तासां संक्रमणानि च क्रमशो गाथासप्तके नाह पंचचतुर्ज्ञानदर्शनावरणपंचांतरायाः सातं संज्वलनलोभः पंचेंद्रियं तेजसकार्मणे समचतुरस्रं वर्णचतुष्क- २० मगुरुलघुकं परघातः उच्छ्वासः प्रशस्तविहायोगतिस्त्रस बादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिरशु मसुभगसुस्वरादेययशस्कीर्तयो निर्माणं चेत्येकान्नचत्वारिंशत्प्रकृतिष्वनुद्वेल्लनप्रकृतित्वान्नोद्वेल्लनसंक्रमणं । 'विज्झादं सत्तमोत्ति हु अबंधे' उनतालीस, तीस, सात, बीस, एक, एक, बारह, चार, चार चार प्रकृतियोंमें क्रमसे एक, चार, दो, तीन, तीन, चार, पाँच, दो, दो, तीन संक्रमण होते हैं ||४१८ || आगे उन प्रकृतियोंको और उनके संक्रमणको सात गाथाओंके द्वारा कहते हैंपाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, सातावेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, वैजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, क- ८४ २५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वं बध्यमानमागुत्तिदोंडं मिथ्यादृष्टियोळु अधःप्रवृत्त संक्रमण मिल्ले के दोडे सगुण५ द्वाणम्मि णेव संकमदि एंदितु निषेधमुंटप्पुर्दारदं । संदृष्टिः १० ६६४ गो० कर्मकाण्डे विध्यात संक्रमण मल्ल ॥ एत्तो गुणो अबंधे एंदितु गुणसंक्रमणलक्षण रहितत्वदिवं गुण संक्रमणमिल्ल । मुपेन्द बावण्ण प्रकृतिगळोळ पाठियिसल्पडववप्पुदरिदं सर्व्वसंक्रमणमिल्लदु कारणमागि अष:प्रवृत्तसंक्रममो देयक्कु । इंर्तल्ला प्रकृतिगळा व्यतिरेकं विचारणीयमकुं । २५ सा सं पं तै स व अ प सू १४ १ उ प्र त्र नि कूडि १ | १ | २ | १ | ४ | १ | १ 11 | १ तुम स्त्यानगृद्धत्रिक द्वादशकषायंगळं षंढवेदमं स्त्रोवेदमुं अरतियुं शोकमं :तिरिएयारं तीसे उब्वेल्लणहीण चारि संकमणा । णिद्दापला असुहं वण्णचउक्कं च उवघादे ॥४२१ ॥ | १ | १० | १ | ३९ १ तिथ्यंगेकादश त्रिशत्सू वेल्लनहीन चत्वारि संक्रमणानि । निद्राप्रचलाशुभवर्णचतुष्कोपघाते ॥ सत्तण्हं गुणसंकममधापवतो य दुक्खमसुहगदी । संहदिसंठाणदसं णीचा पुण्ण थिरछक्कं च || ४२२॥ सप्तानां गुणसंक्रमोऽधः प्रवृत्तश्च दुःखमशुभगतिः । संहनन संस्थानदशकं नोचापूर्ण स्थिरषट्कं च ॥ इत्यप्रमत्तगुणाभ्यंतरे बंधच्छेदाभावान्न विष्यात संक्रमणं । 'एत्तो गुणो अबंधे' इति न गुणसंक्रमणं । प्रागुक्तवा१५ वण्णे पाठाभावान्न सर्वसंक्रमणं तेनाधः प्रवृत्तसंक्रमणमेकमेव स्यात् । एवं सर्वप्रकृतीनां व्यतिरेकं विचारयेत् । मिथ्यात्वे बध्यमाने मिथ्यादृष्टावषः प्रवृत्तसंक्रमणं न कुतः ? सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति निषेधात् । पुनः स्त्यानगृद्धित्रयं द्वादश कषायाः षंढस्त्रीवेदो अरतिः शोकः - ॥४१९-४२०॥ आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण इन उनतालीस प्रकृतियों में एक अधःप्रवृत्त संक्रमण ही होता है; क्योंकि ये उद्वेलन प्रकृतियाँ नहीं हैं इसलिए इनमें उद्वेलन संक्रमण नहीं होता । विध्यात २० संक्रमण अबन्ध दशा में सातवें गुणस्थान तक कहा है । अप्रमत्तगुणस्थान तक इनकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती । अतः विध्यात संक्रमण भी नहीं होता । इसींसे गुणसंक्रमण भी नहीं होता । वह भी अबन्धदशा में होता है । पूर्वमें कही गयीं सर्वसंक्रमणकी बावन प्रकृतियों में न होने से सर्वसंक्रमण भी नहीं होता । अतः एक अधःप्रवृत्त संक्रमण ही होता है । इसी प्रकार सभी प्रकृतियों में संक्रमणका विचार करना चाहिए । _शंका - मिथ्यात्वका बन्ध होनेपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अधःप्रवृत्त संक्रमण क्यों नहीं होता ? समाधान - अपने गुणस्थानमें इनके संक्रमणका निषेध किया है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तिर्यगेकावशप्रकृतिगळम दितु त्रिंशत्प्रकृतिगळोवेल्लन हीनमागि चतुःसंक्रमणंगळप्पुः । संदृष्टिः थिक स्त्री अर शोक ति | कूडि || २ १२ १२ १ १ १ ११ । ३० / मतं निद्रेयु प्रचलघु अशुभवर्णचतुष्क मुमुपघातमुमेंब सप्तप्रकृतिगळगे गुणसंक्रमणमुं अधःप्रवृत्तसंक्रमणमुमेरडकुं। संदृष्टिः | ११ १/४ | १/ ७ असातवेदनीयमुमप्रशस्तविहायोगतियु आद्यरहित संहनन पंचकर्म संस्थानपंचकमु नोचै ५ गर्गोत्रमुमपर्याप्त मुमस्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशस्कोत्तियें बऽस्थिरषट्कमुमेंब ॥ वीसण्हं विज्झादं अधापवत्तो गुणो य मिच्छत्ते । बिज्झादगुणं सव्वं सम्मे विज्झादपरिहीणा ॥४२३॥ विशतेम्विध्यातोऽधःप्रवृत्तो गुणश्च मिथ्यात्वे। विध्यातगुणः सर्ने सम्यक्त्वे विध्यातपरिहीनाः॥ विंशतिप्रकृतिगळ्गे विध्याताधाप्रवृत्तगुणसंक्रमण ब भागहारत्रयमक्कु । संदृष्टि : अ अ.वि सं सं नि अअअदुई आ अ कूडि १] १ । ५/५/१११११११११११११ २० मिथ्यारवप्रकृतियोळु विध्यातगुणसर्वसंक्रमणमें ब भागहारत्रयमक्कु मि सम्यक्त्वप्रकृति यो विध्यातपरिहीन भागहारचतुष्टयमुमक्कं । सम्य १॥ तिर्यगेकादशं चेति त्रिंशत्प्रकृतिषद्वेल्लनवजितचत्वारि संक्रमणानि स्युः । पुनः निद्रा प्रचला अशुभवर्णचतुष्कमुपघातश्चेति सप्तसु गुणसंक्रणमघःप्रवृत्तसंक्रमणं च । असातवेदनीयमप्रशस्तविहायोगतिः, आद्यं विना १५ पंच पंच संहननसंस्थानानि, नीचैर्गोत्रमपर्याप्तमस्थिरासुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशस्कीर्तय इति ।।४२१-४२२॥ विशती विध्यातापःप्रवृत्तगुणसंक्रमणानि, मिथ्यात्वे विध्यातगुणसर्वसंक्रमणानि, सम्यक्त्वप्रकृती स्त्यानगृद्धि आदि तीन, बारह कषाय, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, तिर्यक् एकादश, इन तीस प्रकृतियोंमें उद्वेलन बिना चार संक्रमण होते हैं। निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, उपघात इन सात प्रकृतियों में गुणसंक्रमण और अधःप्रवृत्त संक्रमण होते हैं । २० असाता वेदनीय, अप्रशस्त विहायोगति, अन्तके पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नीचगोत्र, अपयोप्त, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय अयशस्कीर्ति, इन बीसमें विध्यात, अधः Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे सम्मविवेल्ले पंचैव य तत्थ होंति संकमणा । संजणतिए पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य ||४२४|| सम्यक्त्वविहोनोवेल्लनप्रकृतिषु पंचैव च तत्र भवंति संक्रमणानि । संज्वलनत्रये पुरुषे अधाप्रवृत्तश्च सर्व्वश्च । सम्यक्त्व प्रकृतिरहित द्वादशो द्वेल्लनप्रकृतिगळोळु उद्वेल्लनप्रकृतिषळ५ पुर्दारदमुद्वेलन गुणसंक्रमण सर्व्वसंक्रमणहारत्रयं सिद्धमक्कुं । बंधे अधापवत्तो एंवितु स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपर्यंत मधः प्रवृत्तभागहारं सिद्धमकुं । विज्झादस्सत्तमोत्ति हु अबद्धे एंवितु विद्यातमुं सिद्धमपुरिदं भागहार पंचकं सिद्ध मक्कु । संदृष्टि :-- अ | मि | सु | ना | उ | म | कूडि २ | १ | ३ | ४ | १ | २ | १२ ५ ६६६ संज्वलनक्रोधमानमायापुरुषवेदंगळे व नालकरोल अथाप्रवृत्त सर्व्वसंक्रमणद्वयमक्कुमल्लि संज्वलनत्रयनवकबंधक्के बंधरहितत्वदोळ गुणसंक्रमण प्राप्ति यिल्लेके बोर्ड सूत्रोक्तहारद्वयनियम१० मंटप्युदरिदं संदृष्टि : ---- संक | पुं | कूडि ३ ४ | २ ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तो य । इस्सरदिभयजुगुच्छे अधापवत्तो गुणो सव्वो ||४२५ ॥ औदारिकद्विके व तीर्थे विध्याताथाप्रवृत्तौ च । हास्यरतिभयजुगुप्सास्त्रथाप्रवृत्तो गुणः सव्र्वः ॥ १५ विष्यातवर्जितानि चत्वारि ॥४२३॥ सम्यक्त्वं विना द्वादशोद्वेल्लनप्रकृतिषु पंचैव संक्रमणानि भवंति । संज्वलनक्रोधमानमाया पुंवेदेष्वधःप्रवृत्तः सर्वसंक्रमणं च । न चैषां बंधव्युच्छित्तो गुणसंक्रमणप्राप्तिः सूत्रे हारद्वयस्यैव नियमात् ॥४२४॥ दारिकद्विके वज्रवृषभनाराचे तोर्थे च विध्यातोऽधः प्रवृत्तश्च । तेषु प्रशस्तत्त्राद् गुणसंक्रमणं नास्ति । तीर्थस्य नारकाभिमुखे नारकापर्याप्ते च मिथ्यादृष्टौ विध्यातोऽस्ति । हास्यरतिभय जुगुप्सास्वधः प्रवृत्तसंक्रमणं २० गुणसंक्रमणं सर्वसंक्रमणं च ॥४२५ ॥ प्रवृत्त और गुणसंक्रमण होते हैं। मिध्यात्व में विध्यात गुण और सर्व संक्रमण होते हैं । सम्यक्त्व प्रकृति में विध्यात के बिना चार संक्रमण होते हैं ।।४१९-४२३॥ सम्यक्त्व मोहनीयके बिना बारह उद्वेलन प्रकृतियों में पाँचों संक्रमण होते हैं। संज्वलन क्रोध मान माया और पुरुषवेद में अधःप्रवृत्त और सर्वसंक्रमण होते हैं । इन प्रकृतियोंमें २५ बन्धव्युच्छित्ति के होनेपर भी गुणसंक्रमण सम्भव नहीं, क्योंकि गाथामें दो ही संक्रमणका विधान किया है || ४२४|| औदारिक शरीर व अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच, और तीर्थंकर में विध्यात और अधःप्रवृत्त दो संक्रमण ही होते हैं। ये प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं इससे इनमें गुणसंक्रमण नहीं होता । किन्तु नरक अभिमुख मिध्यादृष्टि मनुष्यके तथा उसके मरकर नरक में उत्पन्न होनेपर ३० अपर्याप्त अवस्था में तीर्थंकर प्रकृति में विध्यात संक्रमण कहा है। हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इनमें अधःप्रवृत्त संक्रमण, गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण होते हैं ||४२५ || Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६६७ मिल्ल | तीर्थंकर विध्यात संक्रमण मधाप्रवृत संक्रमणमुमे व संक्रमणद्वयमक्कुं । संदृष्टि : औदारिकद्विक वज्रवृषभनाराच तीर्थमुर्म व नालकुं प्रकृतिगलोळु प्रशस्तत्वदिदं गुणसंक्रमनरकाभिसनोलं नारकापर्य्याप्तकनोळं मिथ्यादृष्टियो विध्यातमकुं । -- औ । व । ती । कूडि २ । १ । १ । ४ २ हास्य भिजुगुप्से गळे 'ब नालकुं प्रकृतिगळोळाथाप्रवृत्तसंक्रमणमुं गुणसंक्रमणमुं सर्व संक्रमण मुमें 'ब संक्रमणत्रयमत्रकुं । संदृष्टि ह । १ । र १ । भ १ । जु १ कूडि ४ ३ सम्मत्तणुब्वेल्लणथोणति तीसं च दुक्खवीसं च । वज्जोराल तित्थं मिच्छं विज्झाद सत्तट्ठी ||४२६ ॥ सम्यक्त्वप्रकृतिरहितमाद पन्नेरडुमुद्वेल्लनप्रकृतिगळं स्त्यानगृद्धित्रयादि त्रिशत्प्रकृतिगमसातवेदादिविंशतिप्रकृतिगळं वज्रवृषभनाराचशरीरसंहननमुमोदारिकद्विकमुं तीर्त्यमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुमें ब सप्तषष्ठिप्रकृति : विध्यात संक्रमणमनु वक्कुं । उ१२ । थि ३० । अ २० । व १ । औ २ । ती १० १ | मि १ । कूडि विध्या ६७ ॥ मिच्छूणिवीस सयं अधापवत्तस्स होंति पयडीओ । सुहुमस्स बंधवादि पहुडो उगुदालदुगतित्थं ॥ ४२७॥ मिथ्यात्व प्रकृतिगाथाप्रवृत्त संक्रममिल्लप्पुर्दारदं मिथ्यात्वप्रकृतिरहित मागि युदयप्रकृतिगळु नूरपत्तों १२१ । अथाप्रवृत्तसंक्रमप्रकृतिगळप्पुवु । सूक्ष्मसांपरायन बंधघातिगळु मोदला दुगुदाळ- १५ प्रकृतिगळु मौदारिकद्विकमुं तीर्थमुं - नज्जं पुं संजलणत्तिऊणगुणसंकमस्स पयडीओ । पणत्तरि संखाओ पयडीणियमं विजाणाहि ||४२८|| वज्रवृषभनाराचशरीरसंहननमुं पुंवेदमुं संज्वलनत्रयमुमितु नात्वत्तेळु प्रकृतिर्गाळ दमूनमादुदयप्रकृतिगळु नूरिपत्तेरडुं १२२ । ४७ । गुणसंक्रमणप्रकृति गलप्पुवे प्पत्त बुदत्थं । ७५ ।। सम्यक्त्वोद्वादशो द्वेल्लनाः स्त्यानगृद्धित्रयादित्रिशत्, असातादिविंशतिः, वज्रर्षभनाराचमौदारिकद्विकं तोर्थंकरत्वं मिथ्यात्वं चेति सप्तषष्टिः विध्यातसंक्रमणाः स्युः || ४२६ ॥ मिथ्यात्वनाः एकविंशतिशतं अधःप्रवृत्तसंक्रमणप्रकृतयो भवंति । सूक्ष्मतां रायस्य बंधवातिप्रभृत्येकान्नचत्वारिंशत् औदारिकद्विकं तीर्थंकरत्वं ॥ ४२७ ॥ सम्यक्त्व प्रकृतिके बिना बारह उद्वेलना प्रकृति, स्त्यानगृद्धि तीन आदि तीस, २५ असातावेदनीय आदि बीस, वज्रवृषभनाराच, औदारिकद्विक, तीर्थंकर मिध्यात्व, ये सड़सठ प्रकृतियाँ विध्यात संक्रमणकी हैं || ४२६ || मिथ्यात्व बिना एक सौ इक्कीस प्रकृतियाँ अधःप्रवृत्त संक्रमणकी हैं। सूक्ष्म साम्प राय में जिनका बन्ध होता है वे घातिकर्मोंकी चौदह प्रकृति आदि उनतालीस, औदारिकद्विक, २० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ गो० कर्मकाण्डे पूर्वोक्तोद्वेल्लनप्रकृतिगळु पदिमूरु १३ । विध्यात ६७ । अथा १२१ । गुणसंक्रमप्रकृति. गळेप्पत्तग्दु ७५ । सर्वसंक्रम प्रकृतिगळय्वत्तरडु ५२ ॥ अनंतरं स्थित्यनुभागंगळ बंधक्कं प्रदेशसंक्रमणक्कं स्वामित्वगुणस्थान संख्ययं पेळ्दपरु : ठिदियणुभागाणं पुण बंधो सुहुमोत्ति होदि णियमेण । बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति ॥४२९।। स्थित्यनुभागानां पुनब्बं वः सूक्ष्मसांपरायपध्यंतं भवति नियमेन । बंधप्रदेशानां पुनः संक्रमणं सूक्ष्मसांपरायपय॑तं ॥ स्थित्यनुभागंगळबंधं मत्ते सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानपर्यंतमक्कुमेके दोडे ठिदि अगुभागा कसायदो होति यदु सूक्ष्मलोभकषायोदय मुल्लि पय्यंतं यथासंभवमागि स्थित्यनुभागबंधमक्कु१० मल्लिदं मेले कारणाभावे कार्य्यस्याप्य भावः यदितु स्थित्यनुभागबंधमिल्लप्पुरिंदमेकसमयस्थिति. कमप्प योगहेतुकसातबंधक्के प्रकृतिप्रदेशबंधमात्रमयक्कु नियमदिदं । मत्ते बंधप्रदेशंगळ संक्रमणमुं सूक्ष्मसांपरायपय्यंतं यथासंभवमागियक्कु मे दोडे बंधे अधापवत्तो ये दु स्थितिबंधमुळ्ळल्लिपर्यंतं प्रदेशसंक्रममुंटप्पुरिदं ॥ अनन्तरं पंचभागहारंगळगल्पबहुत्वमं गाथाषट्कदिदं पेब्दपरु : सव्वस्सेकं रूवं अमंखभागो दु पल्लछेदाणं । गुणसंकमो दु हारो ओकड्ढुक्कड्ढणं तत्तो ॥४३०॥ सर्वस्यैक रूपमसंख्यभागस्तु पल्यच्छेदानां । गुणसंक्रमस्तु हारोऽयकर्षणोत्कर्षणस्ततः ॥ वज्रर्षभनाराचं पुंवेदः संज्वलनत्रयं चेति सप्तचत्वारिंशदूनद्वाविंशतिशतं गुणसंक्रमप्रकृतयो भवंति, पंचसप्ततिरित्यर्थः ॥४२८॥ अथ स्थित्यनुभागबंधस्य प्रदेशबंधसंक्रमणस्य च गुणस्थानसंख्यामाह स्थित्यनुभागयोबंधः पुनः सूक्ष्मसांपरायपयंतमेव स्यात्, तयोः कषायहेतुत्वात् । सातस्य तदुपरि बंधेऽपि तस्य प्रकृतिप्रदेशमात्रत्वात् । पुनः प्रदेशबंधानां संक्रमणमपि सूक्ष्मसांपरायपयंतमेव 'बंधे अधापवत्तो' इति स्थितिबंधपर्यंतमेव तत्संभवात् ॥४२९॥ अथ पंचभागहाराणामल्पबहुत्वं गाथाषट्केनाहतीर्थकर, वनवृषभनाराच, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान माया, इन सैंतालीस प्रकृतियोंसे रहित एक सौ बाईस अर्थात् पिचहत्तर प्रकृतियों में गुणसंक्रमण होता है ।।४२७-४२८॥ आगे स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके संक्रमणके गुणस्थानोंकी संख्या कहते हैं स्थिति और अनुभागका बन्ध सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त ही होता है क्योंकि वे दोनों बन्ध कषायहेतुक होते हैं । यद्यपि सातावेदनीय सूक्ष्मसाम्परायके बाद भी बँधता है तथापि वहाँ उनका प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध ही होता है। पुनः बन्धको प्राप्त हुए परमाणुओंका संक्रमण ३० भी सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त ही होता है; क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथाके अनुसार जहाँ तक स्थितिबन्ध होता है वहीं तक संक्रमण होता है ।।४२९।। आगे पाँच भागहारोंका अल्प-बहुत्व छह गाथाओंसे कहते हैं १५ २० २५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका सत्यसंक्रमणभागहारं सर्वतः स्तोकमदक्के प्रमाणमेकरूपमक्कु। १ ।तु मत्त मदं नोडलुमसंख्यातगुणमप्प पल्यच्छेदासंख्यातेकभागं गुणसंक्रमभागहारप्रमाणमक्कु छ aaaa मदं नोडलपकर्षणोत्कर्षणभागहारमसंख्यातगुणितमागुत्तळं पल्यच्छेदाऽसंख्यातेकभागमात्रमेयक्कु छे मदं नोडलु :aaa हारं अधापवत्तं तत्तो जोगंमि जो दु गुणगारो । णाणागुणहाणिसला असंखगुणिदक्कमा होति ॥४३१॥ हारोऽधाप्रवृत्तस्ततो योगे यस्तु गुणकारो नानागुणहानिशलाका असंख्यगुणितकमा भवंति ॥ आ उत्कर्षणापकर्षणभागहारमं नोडलयाप्रवृतसंक्रमभागहारमसंख्यातगुणितमागुत्तछं पल्यच्छेदासंख्यातेकभागप्रमाणमयक्कु छ ततः अदं नोडलं योगदोळाउदोदु गुणकारमदुवुम- १० aa संख्यातगुणितमागुत्तलु पल्यच्छेदाऽसंख्यातेक भागमयक्कु छे तु मत्तदं नोडलु स्थितिय नानागुणहानिशलाकेगळुमसंख्यातगुणितंगळागुतळं पल्यवर्गशलाकाद्धच्छेदराशिविरहितपल्याच्छेदराशिप्रमितंगळप्पुवु । छ व छे ॥ सर्वसंक्रमणभागहारः सर्वतः स्तोकस्तस्य प्रमाणमेकरूपं १ । तु-पुनः ततोऽसंख्यातगुणः पल्यच्छेदासंख्याकभागो गणसंक्रमणभागहारः छे ततोऽपकर्षणोत्कर्षणभागहारावसंख्यातगुणावपि प्रत्येक पल्यच्छेदासंख्या- ५ aaaa तकभागः छे ततः अधःप्रवृत्तसंक्रमभागहारोऽसंख्यातगुणितोऽपि पल्यच्छेदासंख्यातकभागः छे ततो योगे მმმ aa सर्वसंक्रमण भागहार सबसे थोड़ा है। अतः उसका प्रमाण एक है। आशय यह है कि अन्तकी फालिमें जितने परमाणु शेष रहे थे; उनमें इस भागहारके प्रमाण एकसे भाग देनेपर सर्व ही परमाणु आये। वे सब अन्य प्रकृतिरूप परिणमे तो उसे सर्वसंक्रमण जानना । उससे असंख्यातगुणा गुणसंक्रमण भागहारं है, जिसका प्रमाण पल्यके अर्धच्छेदोंके २० असंख्यातवें भाग है । सो गुणसंक्रमण रूप प्रकृतियों के परमाणुओंमें इस भागहारके प्रमाणसे भाग देनेपर जो परिमाण आवे उतने परमाणु यथायोग्य काल में प्रतिसमय असंख्यात गुणे होकर अन्य प्रकृतिरूप परिणमन जब करें तो वह गुण संक्रमण है। उससे उत्कर्षण भागहार और अपकर्षण भागहार असंख्यात गुणे हैं। तथापि ये दोनों पृथक्-पृथक् पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । यद्यपि इन पाँच भागहारोंमें इनका कथन नहीं है तथापि जहाँ २५ उत्कषण भागहार या अपकर्षण भागहारका कथन आवे वहाँ ऐसा जानना । इनसे अधःप्रवृत्त संक्रमण भागहार असंख्यात गुणा है तथापि वह भी पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० गो० कर्मकाण्डे तत्तो पल्लसलायच्छेदहिया पल्लछेदणा होति । पल्लस्स पढममूलं गुणहाणोवि य असंखगुणिदकमा ॥४३२।। ततः पल्यशलाकाचछेदाधिकाः पल्यच्छेदना भवंति । पल्यस्य प्रथममूलं गुणहानिरपि चाऽसं. ख्यातगुणितक्रमाः॥ ततः आ स्थितिनानागुणहानिशलाकेगळं नोडलं पल्यवर्गशलाकार्द्धच्छेदाधिकंगळु पल्यार्द्धच्छेदशलाकेगळप्पुवु । छ । अदु कारणमागि नानागुणहानिशलाकेगळ पल्यवर्गशलाकार्द्धच्छेदराशिविरहितपल्यार्द्धच्छेदप्रमितंपळे दु पेळल्पटुवु। अपि आ पल्यच्छेदशलाकेगळं नोडलुं पल्याथम. मूलमसंख्यातगणितमक्कु मू १ मते दोडे द्विरूपवर्गधारयोळु पल्यच्छेदराशियिदं मेले पल्यप्रथ ममूलमसंख्यातवर्गस्थानंगळं नडेदु पुटिदुदप्पुरिदं । च अदं नोडलु स्थितिगुणहान्यायाममसंख्यात१. गुणितमक्कु ५१ मते दोडा प्रथममूलगणकार सप्ततिचतुर्वारकोटिपल्यप्रथममूलंगळं स्थितिनानागुणहानिशलार्केगळिदं भागिसिदेकभागमप्पुरदं। मू १। मू १।७० । को ४ गुणिसिदो. छे व छ डिदु। ११॥ यो गुणकारः सोऽसंख्यातगुणेऽपि पल्यच्छेदासंख्यातेकभागः छ । तु-पुनस्ततः स्थिते नागुणहानिशलाकाराशिर संख्यातगणोऽपि पल्यवर्गशलाकार्धच्छेदोनपल्यार्धच्छेदमात्रः छे-व-छे । ततः पल्यार्धच्छेदशलाकाराशिः १५ पल्यवर्गशलाकार्धच्छेदाधिकः छे अपि ततः पल्यप्रथममूलमसंख्यातगुणं मू १, द्विरूपवर्गधारायां तस्योपर्यसंख्यातवर्गस्थानान्यतीत्योत्पन्नत्वात् । च ततः स्थितिगुणहान्यायामोऽसंख्यातगुणः ११ स्थितिनानागण छे-व-छे हानिशलाकाभक्तसप्तति चतुर्वारकोटिगुणितपल्यप्रथममूल वर्गमात्रत्वात् मू १ मू १७० को ४ गुणिते सत्येवं । छे-व-छे भाग है। सो जो अधःप्रवृत्त संक्रमण रूप प्रकृतियाँ हैं उनके परमाणुओं में इसका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उतने परमाणु अन्य प्रकृतिरूप होकर जहाँ परिणमे वहाँ अधःप्रवृत्त संक्रमण २० जानना। इससे योगोंके कथनमें जो गुणकार कहा है वह असंख्यात गुणा है । तथापि वह भी पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवे भाग है। उससे जघन्य योगस्थानको गुणा करनेपर उत्कृष्ट योगम्थान होता है। इससे कर्मों की स्थितिको नानागुणहानि शलाकाका प्रमाण असंख्यात गणा है। सो पल्यके अर्धच्छेदोंमें-से पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंको घटानेपर जो प्रमाण रहे उतना है। उससे पल्यके अर्धच्छेदोंका प्रमाण अधिक है। सो पल्यकी वर्गशलाकाके २५ जितने अर्धच्छेद होते हैं उतना अधिक हैं। उससे पल्यका प्रथम वर्गमूल असंख्यातगुणा है। क्योंकि द्विरूपवर्गधारामें पल्यके अर्धच्छेदरूप स्थानसे असंख्पात स्थान जानेपर पल्यका प्रथम वर्गमूल होता है। उससे कर्मको स्थितिको एक गुणहानिके समयोंका प्रमाण असंख्यात गुणा है। क्योंकि सात सौ को चार बार एक कोटिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उससे गुणित पल्यको स्थितिकी नाना गुणहानिके प्रमाणका भाग देनेपर यही प्रमाण आता है। ३० १. इदर अभिप्राय मुदेव्यक्तमादपुदु । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अण्णोष्ण भत्थं पुण पल्लमसंखेज्जरूवगुणिदकमा । संखेज्जवगुणिदं कम्मुक्कस्सठिदी होदि || ४३३ ॥ अन्योन्याभ्यस्तः पुनः पत्यमसंख्येयरूप गुणितक्रमौ । संख्येयरूपगुणिता कम्र्मोत्कृष्टस्थितिब्र्भवति ॥ पुनरन्योन्याभ्यस्त राशिः मत्ता स्थितिगुणहान्यायाममं नोडलुमन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यात - गुणितमक्कु पदोवु नानागुणहानिशलाका मात्रद्विक संवर्ग संजनितमन्योन्याभ्यस्त राशि व पुर्दारवं । पल्यवर्गश लाकाराशिविभक्तपल्यत्र मितमक्कुम पुर्दारदम संख्यातगुणितत्वं सिद्धमक्कु मदं नोडलु पत्यमसंख्यातगुणितमवकुमन्योन्याभ्यस्त राशियं पल्यवर्गशलाकाराशिथिवं गुणिसिदोर्ड पत्यमक्कुमप्पुरिदं प आपल्य नोडलु कर्मोत्कृष्टस्थिति संख्यातरूपगुणितमक्कु प १ मा गुणकारभूत संख्यातप्रमानमनरियल्वेडि त्रैराशिकं माडल्पडुगुमदे तें दोर्ड एकसागरोपमवर्क पत्तु १० कोटी कोट पल्यंगळागुतं विरलेप्पत्तु कोटोकोटिसागरोपमंगळगेनितु पल्यंगळपुर्व दितु । प्र । सा १ । फप १० । को २ । इसा । ७० । को २ | बंद लब्धं सप्ततिचतुरकोटिपल्यंगपुवप्पुदरिवं गुणकारभूत संख्यात प्रमाणं सिद्धमादुदु ॥ 1 अंगुल असखभागं विज्झादुव्वेन्लणं असंखगुणं । अणुभागस्स य णाणागुणहाणिसला अनंताओ ||४३४|| अंगुला संख्यात भागो विध्यात उद्वेल्लनोऽसंख्यगुणोऽनुभागस्य अनंताः ॥ ६७१ नानागुणहा निशलाका प a १ ततोऽन्योन्याभ्यस्तराशिरसंख्यातगुणः प नानागुणहानिमात्र द्विक संवर्गसमुत्पन्नत्वात् । ततः पत्यमछे-व-छे संख्यातगुणं पल्यवर्गशलाकागुणितत्वात् प । ततः कर्मोकृष्टस्थितिः संख्यातगुणा प १ । यद्येकसागरोपमस्य दशकोटाको टिपल्यानि तदा सप्ततिकोटाकोटीनां कतीति सप्ततिचतुर्वारकोटिगुणकारसंभवात् । ततो विध्यातसंक्रम- २० १५ उससे कर्म की स्थितिकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण असंख्यातगुणा है; क्योंकि नाना गुणानि प्रमाण दोके अंक रखकर उन्हें परस्पर में गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण होता है। उससे पल्यका प्रमाण असंख्यातगुणा है; क्योंकि उस अन्योन्याभ्यस्त राशि के प्रमाणको पल्य की वर्गशलाकासे गुणा करनेपर पल्य होता है। उससे कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण संख्यातगुणा है, क्योंकि एक सागरके दस कोड़ाकोड़ी पल्य होते हैं तो २५ बहत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके कितने होंगे। चार बार एक कोटिसे सात सौको गुणा करे उतने पल्य हुए। उससे विध्यात संक्रमण भागहार असंख्यातगुणा है । वह सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सो विध्यात संक्रमणकी प्रकृतियोंके परमाणुओंको उसका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतने परमाणु जहाँ अन्य प्रकृतिरूपसे परिणमन करें वहाँ विध्यात संक्रम जानना । उससे उद्वेलन भागहार असंख्यातगुणा है । वह भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग ३० प्रमाण है । सो उद्वेलन प्रकृतिके परमाणुओंको उससे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतने क- ८५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे आ कम्र्मोत्कृष्ट स्थितियं नोडलु विध्यात संक्रमभागहारमसंख्यात गुणितमवकुमतुवं सूच्यंगलासंख्यातैकभाग प्रमितमक्कु २ मवं नोडलुद्वेल्लनभागहार मसंख्यातगुणितमव कुमदुकुं सूचयंगुला२ मनुभागविषयनाना गुणहानिशलाकेगळ अनंतंगळवु ल aa a ५ ६७२ संख्यातैकभागप्रमाणमक्कु गुणहाणि अनंतगुणं तस्स दिवडुं णिसेयहारो य । अहियकमा अण्णोणब्भत्थो रासी अनंतगुणो ॥ ४३५ ।। गुणहानिरनंतगुणा तस्या द्वयद्ध निषेकहारश्चाधिकक्रमौ । अन्योन्याभ्यस्त राशिरनंतगुणः ॥ अनुभागविषयनानागुणहानिशलाकेगळं नोडलनुभागविषयगुणहान्यायाममनंतगुणमक्कु । ख । ख । मदं नोडलनुभागविषयप्रथम वर्गणानयननिमित्तद्वर्द्धगुणहानि एक गुणहानि अर्द्धदिदमधिकमक्कु खख ३ । मदं नोडलु दोगुणहानियुमेकगुणहान्यर्द्ध दिवमधिकमक्कु । ख । ख । २ ॥ मा २ १० निषेकहारमं नोडल अनुभागविषयाऽन्योन्याभ्यस्त राशियुमनंतानंतगुणितमक्कु । ख । ख । २ । ख । मिल्लि समुच्चय संदृष्टि : : स गण अ । उ अथा यो. गु. नाना प प गुण अन्यो प क. उ १ छे छे छे 3მმმ მმმ aa छे a छेछे छे म पश् ख प छे व छे व ख ख 매 प १ अनु. नाना अनु. गु अनु. दिवा निषेक अन्योन्या ४ ५ विध्या उद्वे aa ख ख ३ ख । ख २ ख । ख ख २ भागहारो संख्यातगुणः । स च सूच्यंगुला संख्यातैकभागः २ तत उद्वेल्लनभागहारोऽसंख्यातगुणः सोऽपि तदालापः २ । ततोऽनुभागस्य नानागुणहानिशलाका अनंता ख । ततो नानागुणहान्यायामोऽनंतगुणः ख ख । ततो a a a द्वगुणहानिरर्घाधिका ख ख ३ । ततो दोगुणहानिरर्घाधिका ख ख २ । ततोऽन्योन्याभ्यस्त राशिरनंतगुणः ख ख २ २ a १५ परमाणु जहाँ अन्य प्रकृतिरूप परिणमन करें वहाँ उद्वेलन संक्रमण जानना । उससे कर्मोंके अनुभागके कथन में नाना गुणहानि शलाका अनन्त प्रमाण है। उससे उस अनुभागकी एक गुणान आयामका प्रमाण अनन्तगुणा है। उससे उसकी ही डेढ़ गुणहानिका प्रमाण उसके आधे प्रमाण अधिक है। उससे उसकी ही दो गुणहानिका प्रमाण आधे गुणहानिके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका [ इंतु भगवदर्हत्परमेश्वर चारुचरणारविंदद्वंद्व बंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुमंडलाचार्य्यं महावादवादीश्वररायवादिपितामह सकल विद्वज्जनचक्रवत्त श्रीमदभयसूरि सिद्धांतचक्रवत्तिश्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टे श्रीमत्केशवण्ण विरचितगोम्मटसार कर्णाटवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयो कर्मकांड पंचभागहार द्वितीयचूलिकाधिकारं निरूपिसल्पट्टुवु ॥ ] अनंतरं दशकरण तृतीयचूलिकेयं चतुर्द्दशगाथासूत्रंगलिंदं पेळलुपक्रमिसि तदादियो निजश्रुतगुरुगळं नमस्कारमं माडिदपं । जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिष्णो । वीरिंददिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं । । ४३६ । ६७३ यस्य च पादप्रसादेनानंतसंसारजलधिमुत्तीर्णो । वीरेंद्रणं दिवत्सो नमामि तमभयणंदिगुरुं ॥ आवनानो गुरुविन पादप्रसाददिदं वीरेंद्रणंविवत्सं संसारजलधियनुत्तरिसिवनं तप्प - १० भयनंदिगुरुवं नमस्करिसुर्वे । बंधुक्कड् ढणकरणं संकममोकड्दुदीरणा सत्तं । उदयुवामणिधत्ती णिकाचणा होंति पडिपयडी ॥४३७॥ बंधोत्कर्षण करणं संक्रमापकर्षणोदीरणासत्त्वमुदयोपशमनिधत्तिनिकाचना भवंति प्रति प्रकृति ॥ बंधकरण मुमुत्कर्षणकरण मं संक्रमणकरणम् अपकर्षणकरण मुमुदीरणाकरणम् सत्वकरणम्मुदयकरणमुमुपशमकरणम्' निधत्तिकरणम् निकाचनकरणमुर्म किंतु वशकरणंगळ प्रत्येकमेकैकप्रकृतिगळवु । २ ख ।।४३० - ४३५॥ इति पंचभागहाराख्या द्वितीयचूलिका व्याख्याता । अथ दशकरणचूलिकां चतुर्दशगाथासूत्रैर्वक्तुमुपक्रममाणस्तदादी निजश्रुतगुरुं नमस्यति - यस्य श्रुतगुरोः पादप्रसादेन वीरेंद्रनंदिवत्सः अनंतसंसारजलधिमुत्तीर्णः तमभयनंदिगुरुं नमामि ॥४३६ ॥ बंघः उत्कर्षंणं संक्रमोऽपकर्षणमुदीरणा सत्त्वमुदयः उपशमो निघत्तिनिष्का चनेति दश करणानि प्रकृति प्रकृति भवंति ॥४३७॥ ५ १५ आयाम प्रमाण अधिक है, उससे उस अनुभागकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण अनन्त- २५ गुण है। इस प्रकार पाँच भागहारोंके अल्पबहुत्व के प्रसंगसे दूसरोंके भी अल्पबहुत्वका कथन किया ||४३०-४३५॥ २० पंचभागहार चूलिका समाप्त | जिस शास्त्रगुरु के चरणोंके प्रसादसे वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिका शिष्य मैं नेमिचन्द्राचार्य अनन्त संसार समुद्रके पार हो गया उस अभयनन्दि गुरुको नमस्कार करता हूँ ||४३६ || बन्ध, उत्कर्षण, संक्रम, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति, निकाचना ये दस करण प्रत्येक प्रकृतिमें होते हैं ||४३७॥ ३० १. ब प्रति प्रकृति भ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ६७४ कर्म्मणां संबंधो बंध उत्कर्षणं भवेवृद्धिः । संक्रमोऽन्यत्रगतिर्हानिरपकर्षणं नाम ॥ आउदो जीवक्के मिथ्यात्वादिपरिणामंगळवमा उदोंदु पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिकर्म्म५ स्वरूपदिदं परिणमिसुगुमदु मत्ताजीवक्के ज्ञानाविगळं मरसुगुर्म वित्यादिसंबंधं बंधमें बुदक्कु । कम्मंगळ स्थित्यनुभागंगळ वृद्धियुत्कर्षण में बुदक्कु । परप्रकृतिस्वरूपपरिणमनं संक्रम में बुदु । स्थित्यनुभागंगळ हानि अपकर्षण में बुदक्कु ॥ १५ गो० कर्मकाण्डे कम्मार्ण संबंधो बंधो उक्कड्ढणं हवे वड्ढी । संकमण्णत्थगदी हाणी ओकड्ढणं णाम ||४३८|| संछुहणमुदीरणा हु अत्थित्तं । सत्तं सकालपत्तं उदओ होदिति णिद्दिट्ठो || ४३९ ॥ अन्यत्र स्थितस्योदये निक्षेपणमुदीरणं खलु अस्तित्वं । सत्त्वं स्वकालप्राप्तमुदयो भवतीति निर्दिष्टं ॥ उदयावलिबाह्यस्थितद्रव्यक्क पकर्षण दर्शादिव मुदयावलियो निक्षेपणमुदीरणर्म बुदक्कु । मस्तित्वमं सत्वर्भ बुदु । स्वस्थितियनेय्वल्पटट्टुवुदयमे व पेळपट्टुवु ॥ उदये संकमुदये चउसुवि दादु कमेण णो सक्कंं । उवसंतं च णिधत्ती णिकाचिदं होदि जं कम्मं ॥ ४४० ॥ उदये संक्रमोदये चतुर्ष्वपि दातुं क्रमेण नो शक्यं । उपशांतं च निघत्ति निकाचितं भवति यत्कर्म ॥ मिथ्यात्वादिपरिणामेर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबंधबंध: । स्थित्यनुभागयोर्वृद्धिः उत्कर्षणं । परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणं । स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणं २० नाम ॥ ४३८॥ उदयावलिबाह्यस्थित स्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु, अस्तित्वं सत्त्वं, स्वस्थिति प्राप्तमुदयो भवतीति निर्दिष्टः ॥ ४३९॥ मिथ्यात्व आदि परिणामोंसे जो पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिरूप परिणमता है और ज्ञानादिको ढाँकता है उसका सम्बन्ध होना बन्ध है । जो स्थिति अनुभाग पूर्व में था उसमें २५ वृद्धि होना उत्कर्षण है । जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उस प्रकृतिके परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप होना संक्रमण है । जो स्थिति अनुभाग पूर्व में था उसमें हानि होना अपकर्षण है || ४३८ || उदयावली के बाहर स्थित द्रव्यको अपकर्षणके द्वारा उदद्यावलीमें लाना उदीरणा है । अर्थात् जिन प्रकृतियोंके निषेकका उदयकाल नहीं है, उनकी स्थितिको घटाकर, जो निषेक आली मात्र कालमें उदयमें आते हैं उनमें उनके परमाणुओंको मिलाना, जिससे उनके ३० साथ ही उनका भी उदय हो वह उदीरणा है । अस्तित्वको अर्थात् पुद्गलोंका कर्मरूपसे रहना सत्त्व है। कर्मों की जितनी स्थिति है उस स्थितिका पूरा होना उदय है ।। ४३९ || Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका यत्कर्म आउदोंदु कर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलद्रव्यं उदयावलियोळिक्कलु बारददनुपशांतमें बुदु । उदयावलियोकिलुं संक्रमियिसलुं शक्यमल्लदुदं निषत्तिय बुदु । उदयावलियोळिक्कलं संक्रमिसलुमुत्कर्षिसलुं अपकर्षिसलुं शक्यमल्लदुदु निकाचितमें दु पेळल्पटुदु ॥ इंतु दशकरण लक्षणंगळं पेळ्व नंतरं प्रकृतिगळ्गेयुं गुणस्थानंगळ्गेयुं संभविसुव करणंगळं गाथाद्वयदिदं पेळ्दपरु : संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्वआऊणं । सेसाणं दसकरणा अपुव्वकरणोत्ति दसकरणा ॥४४१॥ संक्रमकरणोनानि नवकरणानि भवंति सर्वायुषां । शेषाणां वशकरणानि अपूर्वकरणपय्यंत वशकरणानि॥ संक्रमकरणरहितनवकरणंगळु नाल्कुमायुष्यंगळोळमक्कुं। शेषप्रकृतिगळेल्लं दशकरणंग- १० ळप्पुवु । मिथ्यादृष्टियावियागि अपूर्वकरणगुणस्थानपथ्यंतं दशकरणंगळप्पुवु ॥ आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसाओत्ति संकमेण विणा । छच्च सजोगित्ति तदो सत्तं उदयं अजोगित्ति ।।४४२॥ ___ आदिमसप्तव ततः सूक्ष्मसांपरायपथ्यंत संक्रमेण विना । षट् च सयोगपय्यंतं ततः सत्त्व. मुदयोऽयोगिपय्यंतं ।। ततः अपूर्वकरणगुणस्थानदिदं मेले सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानपय्यंतं मोदल सप्तकरणंगळप्पुववरोळु संक्रमकरणं पोरगागि षट्करणंगळु सयोगकेवलिगुणस्थानपय्यंतमप्पुल्लिदं मेले अयोगि यत्कर्म उदयावल्यां निक्षेप्तुमशक्यं तदुपशांतं नाम । उदयावल्यां निक्षेप्तुं संक्रमयितुं चाशक्यं तन्निधत्तिनम । उदयावल्यां निक्षेप्तं संक्रमयितुमुत्कर्षयितमपकर्षयितुं चाशक्यं तन्निकाचितं नाम भवति ॥४४०।। एवं दशकरणलक्षणं प्राप्य प्रकृतीनां गुणस्थानानां च संभवंति तानि गाथाद्वयेनाह- २ चतुर्णामायुषां संक्रमकरणं विना नव करणानि भवति । शेषसर्वप्रकृतीनां दशकरणानि भवति । मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरण यंतं दशकरणानि भवंति ॥४४१॥ ततः अपूर्वकरणगुणस्थानादुपरि सूक्ष्मसांपरायपयंतमाद्यान्येव बंधादीनि सप्त करणानि भवंति । तत्रापि कर्मको उदयावलीमें लाने में असमर्थ कर देना उपशम है। कर्मका उदयावलीमें लाने में या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करने में समर्थ न होना निधत्ति है। कर्मका उदयावलीमें २५ लाने में, अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेमें, उत्कर्षण या अपकर्षण करने में असमर्थ होना निकाचित है ॥४४०॥ ____इस प्रकार दस करणोंका निरूपण करके जिन प्रकृतियोंमें और गुणस्थानों में ये करण होते हैं उन्हें दो गाथाओंसे कहते हैं __चारों आयुमें संक्रमकरणके बिना नौ करण होते हैं। शेष सब प्रकृतियोंमें दस करण ३० होते हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ये दस करण होते हैं ।।४४१।। अपूर्वकरण गुणस्थानसे ऊपर सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त आदिके बन्ध आदि सात ही Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे केवलिगुणस्थानदोळु सत्वकरणमुमुदयकरणमुमेरडेयप्पुवु ॥ णवरि विसेसं जाणे संकममवि होदि संतमोहम्मि । मिच्छस्स य मिस्सस्स य सेसाणं णस्थि संकमणं ॥४४३॥ नविन विशेषं जानीहि संक्रमोपि भवत्युपशांतमोहे । मिथ्यात्वस्य च मिश्रस्य च शेषाणां ५ नास्ति संक्रमणं॥ उपशांतकषायगुणस्थानदोळ 'विशेषमुंटप्पुदवावुर्वे बोर्ड मिथ्यात्वमिश्रप्रकृतिगळे रउक्के संक्रमणकरणमंट ते दोडे मिथ्यात्वद्रव्य मुमं मिश्रप्रकृतिद्रव्यमुमं सम्यक्त्वप्रकृतिस्वरूपमागि मापनप्पुरिदं शेषप्रकृतिगळ्गे संक्रमणकरणं पोरगागि षट्करणंगळे यप्पुवु। संदृष्टि : मि | सामि व्युच्छि •••••• करण | १० १० १० १०| करण | असत्व ३ अपूर्वकरणनोळु उपशमनिपत्तिनिकाचनंगळं मूलं व्युच्छित्तियक्कु । अनिवृत्तिकरणनोळं १० सूक्ष्मसांपरायनोळं व्युच्छित्तिशून्यमक्कुं । उपशांतकषायनोळ मिथ्यात्वमिभंगळ्ये संकमणमंटप्पुसंक्रमकरणं बिना षडेव सयोगपयंतं भवति । तत उपर्ययोगे सत्त्वोदयकरणे द्वे एव ॥४४२।। उपशांतकषाये विशेषोऽस्ति । स कः ? मिथ्यात्वमिश्रयोरेव संक्रमणमस्ति तद्व्यस्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूपेण करणात् । शेषप्रकृतीनां संक्रमकारणं विना षडेव । अपूर्वकरणे उपशमनिपत्तिनिकाचनत्रयं व्युच्छित्तिः, करण होते हैं। उनमें से भी सयोगी पर्यन्त संक्रमके बिना छह ही करण होते हैं। उससे १५ ऊपर अयोगीमें सत्त्व और उदय दो ही करण होते हैं ।।४४२॥ किन्तु उक्त कथनमें विशेष यह है कि उपशान्त कषाय गुणस्थानमें मिथ्यात्व और मिश्र इन दोनोंका संक्रमण भी होता है, इनके परमाणुओंको सम्यक्त्व मोहनीयरूप परिणमाता है। शेष प्रकृतियों में संक्रमके बिना छह ही करण होते हैं। इस तरह अपूर्वकरणमें १. म मुंटदावुदें। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६७७ दरिदमा प्रकृतिद्वयमं कुर्त्तु संक्रमसहितमागि सप्तकरणंगळवु । शेषप्रकृतिगळं कुरुतु संक्रमणकरणव्युच्छित्ति सूक्ष्मसांपरायनोळेयक्कं अप्युर्दारदमुपशांतकषायनोळु षट्करणमेयक्कु । क्षीणकषायनो करगव्युच्छित्तिशून्यमक्कु । सयोगकेवलियोळ बंधोत्कर्षणापकर्षण उदीरणाकरणचतुष्कव्युच्छित्तिय कुमयोगिकेवलियोळु सत्वोदयकरणद्वय के व्युच्छित्तियक्कु । शेष सुगमं ॥ बंधुक्कड् ढणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि नियमेण । संक्रमणं करणं पुण सगसगजादीण बंधोति ||४४४ ॥ बंधोत्कर्षणकरणे स्वस्वबंधपय्र्यंतं भवतः नियमेन । संक्रमणं करणं पुनः स्वस्वजातीनां बंधतं ॥ बंधकरणमुत्कर्षणकरण बेरडुं स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपय्यंतमक्कु नियमविदं । संक्रमणकरणं मत्ते स्वस्वजातिगबंधव्युच्छित्तिपर्यंत मक्कु ॥ ओकड्ढणकरणं पुण अजोगिसचाण जोगिचरिमोत्ति । खीणं सुमंताणं खयदे सरसावलीयसमयोति || ४४५॥ अपकर्षणकरणं पुनरयोगिसत्वानां योगिचरमपय्र्यंतं क्षीणसूक्ष्मांतानां क्षयवेशः सावलिकसमयपर्यंतं ॥ बंधकरणमुत्कर्षण करणं च स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपर्यंतं स्यात् नियमेन । संक्रमणकरणं पुनः स्वस्वजातीनां बंधयुच्छित्तिपर्यंतं स्यात् ||४४४ ॥ निवृत्तिकरणे सूक्ष्मसांपराये च शून्यं, उपशांतकषाये मिथ्यात्वमिश्रप्रकृती प्रति सप्त करणानि स्युः, शेषप्रकृतीः १५ प्रति संक्रमणस्य सूक्ष्मसांपराये एव छेदात् षडेव । क्षोणकषाये व्युच्छित्तिः शून्यं, सयोगे बंघोत्कर्षणापकर्षणोदीरणकारणानि, अयोगे सत्त्वोदयौ । शेषं सुगमं ॥ ४४३ || ५ १० उपशम, निधत्ति, निकाचना इन तीनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। ये तीनों आगे नहीं होते । २० अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्पराय शून्य है अर्थात् इनमें किसी करणकी व्युच्छित्ति नहीं होती । उपशान्त कषाय में मिथ्यात्व और मिश्र प्रकृति में सातों करण होते हैं शेष प्रकृतियों में छह ही करण होते हैं; क्योंकि संक्रमकरणकी व्युच्छित्ति सूक्ष्म साम्पराय में ही हो जाती है । क्षीणकषाय में व्युच्छित्ति शून्य है । सयोगीमें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा करणकी व्युच्छित्ति होती है । तथा अयोगी में सत्व और उदयकी व्युच्छित्ति होती है। शेष कथन २५ सुगम है ||४४३॥ बन्धकरण और उत्कर्षण करण अपनी-अपनी बन्ध व्युच्छित्ति पर्यन्त ही नियमसे होते हैं । अर्थात् जिस-जिस प्रकृतिकी जहाँ-जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति होती है उस उस प्रकृतिमें वहीं तक बन्ध और उत्कर्षण करण होते हैं । किन्तु संक्रमकरण अपनी-अपनी सजातीय प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति पर्यन्त होता है। जैसे ज्ञानावरणकी पाँचों प्रकृतियाँ सजातीय हैं । ३० इनका संक्रमकरण जहाँ तक इनकी सजातीय प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वहाँ तक होता है ||४४४॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ गो० कर्मकाण्डे अपकर्षणकरणमुमत्त अयोगिकेवलियोळ पेळद सत्वप्रकृतिगळे भत्तय्दकं सयोगकेवलिचरमसमयपय्यंतमक्कु । ८५ ॥ क्षीणकषायगुणस्थानावसानमाद निद्राप्रचलाज्ञानावरणांतरायदशकवर्शनावरणचतुष्कमुमितु षोडशप्रकृतिगळ्गेयुं सूक्ष्मसांपरायगणस्थानावसानमाव संज्वलनलोभ प्रकृतिगेयुं मयदेशपयंतमपकर्षणकरणमक्कु । मिल्लि क्षयदेशमें बुवाउद दोडे परमुखोददिवं ५ किडुव प्रकृतिगळ्गे चरमकांडक चरम फाळियं क्षयदेश, बुदु। स्वमुखोवदिदं किडुवप्रकृतिगळ्गे समयाधिकावलियं क्षयदेशमें बुददु कारणमागि क्षीणकषायन सत्वव्युच्छित्तिप्रकृतिगळ पदिनारक्कं सूक्ष्मसांपरायन सत्वव्युच्छित्ति संज्वलनलोभक्कमु स्वमुखोददिदं किडुव प्रकृतिगळप्पुरिद समयाधिकावलिपयंतमपकर्षणकरणमय। संदृष्टि :-- लो अपकर्षणकरणं पुनरयोगोक्तपंचाशीतिसत्त्वस्य सयोगचरमसमययंतं भवति। क्षीणकषायसत्त्वव्युच्छि१० तिषोडशानां सूक्ष्मसांपरायसत्त्वव्युच्छित्तिसंज्वलनलोभस्य च क्षयदेशपयंतमपकर्षणं स्यात् । तत्र क्षयदेशो नाम परमुखोदयेन विनश्यतां चरमकांडकचरमफालिः, स्वमुखोदयेन विनश्यतां च समयाधिकावलिस्तेनैषां सप्तदशानां समयाधिकावलिपर्यंतमपकर्षणं स्यात् । संदृष्टिः १६ अयोगीमें जिन पिचासी प्रकृतियोंकी सत्ता कही है उनका अपकर्षणकरण सयोगीके अन्त समय पर्यन्त होता है। क्षीणकषायमें सत्त्वसे विच्छिन्न हुई सोलह और सूक्ष्मसाम्प१५ रायमें सत्त्वसे विच्छिन्न हुआ सूक्ष्मलोभ इनका अपकर्षण करण अपने क्षयदेश पर्यन्त होता है। शंका-क्षयदेश क्या है ? समाधान-जो प्रकृति अपने ही रूप उदय होकर नष्ट होती है उसे स्वमुखोदयी कहते हैं। स्वमुखोदयी प्रकृतियोंका एक समय अधिक आवली प्रमाण काल क्षयदेश है। जो २० प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देकर नष्ट होती हैं वे परमुखोदयी हैं, उनका क्षयदेश अन्तिम काण्डककी अन्तिम फाली है। अतः इन सतरह प्रकृतियोंमें एक समय अधिक आवलीकाल पर्यन्त अपकर्षण होता है ।।४४५।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका उवसंतोत्ति सुराऊ मिच्छत्तिय खवगसोलसाणं च । खयदेसोत्ति य खवगे अट्ठकसायादिवीसाणं ॥ ४४६ ॥ उपशांत कषायपर्यंतं सुरायुषो मिथ्यात्वत्रय क्षपकषोडशानां । क्षयदेशपय्र्यंतं क्षपकेऽष्टकषायादिविंशतीनां ॥ उपशांत कषायगुणस्थानपर्यंतं देवायुष्यक्कपकर्षणकरणमक्कु । मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्व प्रकृतित्रयक्कं - णिरयतिरिक्ख दु वियळं थोणतिगुज्जोव ताव एइंदी । साहरण सुहुमथावर सोळब क्षपकन षोडशप्रकृतिगळगं क्षयदेशपय्र्यंतं चरमकांडकचरमफाळिपर्यंतम बुदथं । क्षपकनोळष्टकषायादि 'संडित्थिछक्कसाया पुरिसो कोहो य माणमायं च 'एंब विशति प्रकृतिगळगंमिच्छत्तिय सोलसाणं उवसमसेडिम्म संतमोहोति । अट्ठकसायादीणं उवसमियट्ठाणगोत्ति हवे || ४४७ ॥ मिथ्यात्वत्रयषोडशानामुपशमश्रेण्यां शांतमोहपय्र्यंतं । अष्टुकषायादीनामुपशमितस्थान पय्यं तं भवेत् ॥ मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतित्रयक्कं नरकद्विकादिषोडशप्रकृतिगळगमुपशमश्रेणियो पशांत कषायपर्यंत मष्टकषायादिगगे स्वस्वोपशमितस्थानपर्यंत मपकर्षणकरण मक्कुं ॥ पढमकसायाणं च विसंजोजकओत्ति अगददेसोत्ति । णिरयतिरिआउगाणमुदीरणसत्तोदया सिद्धा || ४४८॥ प्रथमकषायाणां च विसंयोजक पथ्यं तमसंयत देश संयतपय्र्यंतं नरक तिर्य्यगायुषोदोरण सत्वोदयाः सिद्धाः ॥ ६७९ उपशांतकषायपर्यंतं देवायुषोऽपकर्षणकरणं स्यात् । मिध्यात्वसम्यक्मिथ्यात्व सम्यक्त्व प्रकृतीनां निरयतिरिक्खेत्यादिक्षपकषोडशानां च क्षयदेशपर्यंतं चरमकांडकचरमफालिपर्यंत मित्यर्थः । तथा क्षपकाष्टकषायादिविशति प्रकृतीनां स्वस्वक्ष व देशपर्यंत मपकर्षणं स्यात् ॥ ४४६ ॥ मिथ्यात्व मिश्र सम्यत्वप्रकृतीनां नरकद्विकादिषोडशानां चोपशमश्रेण्यामुपशांतकषायपर्यंतं अष्टकषायादीनां स्वस्वोपशमस्थानपर्यंतं चापकर्षणकरणं स्यात् ॥४४७॥ उपशमश्रेणिमें मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति और नरकद्विक आदि सोलहका अपर्षण करण उपशान्त कषाय पर्यन्त होता है। आठ कषाय आदिका अपकर्षण करण अपनेअपने उपशमन स्थान पर्यन्त होता है || ४४७৷৷ क-८६ देयायुका अपकर्षण करण उपशान्त कषाय पर्यन्त होता है। मिध्यात्व, सम्यक् मिध्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और 'णिरयतिरिक्ख' आदिमें कही अनिवृतिकरणमें क्षय हुई सोलह २५ प्रकृतियोंका अपकर्षण करण क्षयदेश पर्यन्त अर्थात् अन्त काण्डकके अन्तिम फालि पर्यन्त होता है । तथा अनिवृत्तिकरणमें क्षय हुई आठ कषाय आदि बीस प्रकृतियोंका अपकर्षण करण अपने-अपने क्षयदेश पर्यन्त होता है ||४४६ || १० ५ १५ २० ३० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० गो० कर्मकाण्डे अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभंगळगयं विसंयोजकपर्यंतमसंयतदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तरोळ यथासंभवावसानमागियं अपकर्षण करणमक्कुं। मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतपय्यंतं नरकायुष्यक्के मिथ्यादृष्टयादिदेशसंयतपथ्यंत तिर्यगायुष्यक्कयुमुदीरणकरणमुं सत्वकरणमुं उदयकरणमुं सिद्धं गळप्पुवु॥ मिच्छस्स य मिच्छोति य उदीरणाउवसमाहिमुहियस्स । समयाहियावलित्ति य सुहुमे सुहुमस्स लोहस्स ॥४४९॥ मिथ्यात्वस्य मिथ्यादृष्टिपर्यंतमुदीरणमुपशमाभिमुखस्य । समयाधिकावलिपय्यंतं च सूक्ष्मे सूक्ष्मस्य लोभस्य ॥ मिथ्यात्वप्रकृतिर्ग मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळयुदीरणाकरणमक्कुमुपशमसम्यक्त्वाभिमुखंगे समयाधिकावलिपर्यंतमुदीरणकरणमक्कुमेके दोडल्लि पय्यंतं मिथ्यात्वोदयमुटप्पुरिदं । सूक्ष्म१० सांपरायनोळे सूक्ष्मलोभक्कुदीरणमक्कु मेके दोडन्यगुणस्थानदोळु तदुदयमिल्लप्पुरिदं ॥ उदये संकमुदये चउसुवि दादु कमेण णोसक्कं । उवसंतं च णिधत्ती णिकाचिदं तं अप्पुव्वोत्ति ॥४५०॥ उदये संक्रमोदययोश्चतुर्वपि दातुं क्रमेण नो शक्यं । उपशातं च निर्धात्त निकाचितं तदपूर्वपयंतं ॥ आउदो'दुपशांतमाद द्रव्यमनुदयावळियोळिक्कलु शक्यमल्ल । आउदोदु नियत्तिकरणद्रव्यम संक्रमोदयंगळ्गे कुडल्बारदु । आउदोंदु निकाचितकरणद्रव्यमनुदयावळिगं संक्रमक्कुमुत्कर्षणापक अनंतानुबंधिनां विसंयोजकपयंतं असंयतदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तेषु यथासंभवावसानमपकर्षणं स्यात् । नरकायुषोऽसंयतपयंतं तिर्यगायुषो देशसंयतपयंतं चोदीरणासत्त्वोदयकरणानि सिद्धानि ॥४४८॥ मिथ्यात्वप्रकृतेमिथ्यादृष्टौ उपशमसम्यक्त्वाभिमुखस्य समयाधिकावलिपयंतं उदीरणाकरणं स्यात्, २० तावत्पर्यंतमेव तदुदयात् । सूक्ष्मलोभस्य च सूक्ष्मसांपराये एव अन्यत्र तदुदयाभावात् ।।४४९॥ यत् उपशांतद्रव्यं उदयावल्यां निक्षेप्तुमशक्यं यत् निधत्तिकरणद्रव्यं संक्रमणोदययोनिक्षेप्तुमशक्यं, यत् अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अपकर्षण करण असंयत, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्तमें यथासम्भव जहाँ विसंयोजन होता है वहाँ पर्यन्त होता है। नरकायुका असंयत पर्यन्त, तिर्यगायुका देशसंयत पर्यन्त, उदीरणा, सत्त्व और उदय करण प्रसिद्ध हैं ॥४४८॥ मिथ्यात्व प्रकृतिका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उपशम सम्यक्त्वके सम्मुख हुए जीवके एक समय अधिक आवली काल पर्यन्त उदीरणा करण होता है क्योंकि उतने पर्यन्त ही उसका उदय है। सूक्ष्मलोभका सूक्ष्मसाम्परायमें ही उदीरणा करण है क्योंकि उससे अन्यत्र उसका उदय नहीं है ।।४४९।। जो उदयावलीमें लाये जाने में समर्थ नहीं है वह उपशान्तद्रव्य है, जो संक्रम और ३० उदयमें लाने में समर्थ नहीं है वह निधत्तिकरण द्रव्य है, और जो उदयावली, संक्रम, उत्कर्षण, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६८१ र्षणंगळ्गं कुडल्बारदें बुददु अपूर्वकरणगुणस्थानपर्यंतमयक्कुल्लिदं मेलणगुणस्थानंगळोळु यथासंभवमागि शक्यमें बुदत्थं ॥ इंतु भगवदहत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदित पुण्यपुंजायमान श्रीमद्रायराजगुरुमंडलाचाय॑महावादवादीश्वररायवादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्तिश्रीमदभयसूरि सिद्धांतचक्रवत्ति श्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्ट श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति- ५ जीवतत्वप्रदीपिकयोळ कर्मकांड दशकरण तृतीयचूलिकाधिकारं व्याख्यातमादुदु ॥ निकाचितकरणद्रव्यं उदयावलिसंक्रमोत्कर्षणापकर्षणेषु निक्षेप्तुमशक्यं तत् अपूर्वकरणगुणस्थानपयंतमेव स्यात् । तदुपरि गुणस्थानेषु यथासंभवं शक्यमिथः ॥४५०।। इति दशकरणचूलिका । इत्याचार्यश्रीनेमिचंद्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां कर्मकांडे त्रिचूलिकानामचतुर्थोऽधिकारः ॥४॥ अपकर्षणरूप होनेमें समर्थ नहीं है वह निकाचितकरण द्रव्य है। ये तीनों करण अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ही होते हैं। उससे ऊपरके गुणस्थानोंमें यथासम्भव शक्यता जानना ।।४५०॥ १५ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत त्रिचूलिकानामक चतुर्थ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान समुत्कीर्तनाधिकार ॥५॥ इंतु त्रिचूलिकाधिकारनिरूपणानंतरं नेमिचंद्रसैद्धांतचक्रवतिगळु बंधोदयसत्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तनाधिकारमं पेळलुपकमिसुत्तं तदादियोळु निजेष्टदेवताविशेषमं नमस्कारमं माडिदपरु : णमिण णेमिणाहं सच्चजुइद्विरणमंसियंघिजुगं । बंधुदयसत्तजुत्तं ठाणसमुक्कित्तणं बोच्छं ।।४५१॥ नत्वा नेमिनाथं सत्ययुधिष्ठिरनम कृतांघ्रियुगं । बंधोदयसत्वयुक्तं स्थानसमुत्कीर्तनं वक्ष्यामि । प्रत्यक्षवंदकनप्प सत्ययुधिष्ठिरनमस्कृतांघ्रियुग्मनप्पनेमिनाथनं नमस्कारमं माडि बंधोदयसत्वयुक्तमप्प स्थानसमुत्कीर्तनम पेकदपेनिने दिताचार्य्यनप्रतिज्ञेयकुं॥ स्थानसमुत्कीर्तनमेनु निमित्तं बंदुदें दोडे मुन्न प्रकृतिस पुत्कीर्तनदिदमावुवु केलवु प्रकृतिगळु प्ररूपिसल्पटुववक्के १० बंधमेनु क्रमदिदमक्कमो मेगकदिदमकुमो ये दितु प्रश्नमागुत्तं विरलु ई प्रकारदिदमक्कु में दितरियल्वेडिबंदुदिल्लि। स्थानमें बुदेंते दोडे-एकस्य जीवस्य एकस्मिन् समये संभवंतीनां प्रकृतीनां समूहः स्थानमें दितेकजीवक्केकसमयदोळ संभविसुवंतप्प प्रकृतिगळ समूहं स्थानम बुदक्कु । मा स्थानसमुत्कोत्तनं बंधोदयसत्वभेददिवं त्रिविधमकुमल्लि मुन्नं गुणस्थानदोळु मूल एवं त्रिचूलिकाधिकारं निरूप्य श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्ती निजेष्टदेवताविशेषनमस्कारपुरस्सरमुत्तर१५ कृत्यामिधेयं प्रतिजानोते प्रत्यक्षवंदारुसत्ययुधिष्ठिरनमस्कृतांघ्रियुगं नेमिनाथं नत्वा बंधोदयसत्वयुक्त स्थानसमुत्कीर्तनं वक्ष्ये । तकिमर्थमागतं ? पूर्व प्रकृतिसमुत्कीर्तने याः प्रकृतयः उक्तास्तासां बंधः क्रमेणाक्रमेण वेति प्रश्ने एवं स्यादिति ज्ञापयितं । कि स्थानं ? एकस्य जीवस्यै कस्मिन् समये संभवंतीनां प्रकृतीनां समूहः ।।४५१॥ तत्स्थानसमुत्कीर्तनं इस प्रकार त्रिचूलिका अधिकारको कहकर श्रीमान् नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अपने २० इष्टदेवको नमस्कार करके आगेके कार्य करने की प्रतिज्ञा करते हैं प्रत्यक्ष वन्दना करनेवाले सत्यवादी युधिष्ठिरके द्वारा जिनके चरणयुगल नमस्कार किये गये हैं उन नेमिनाथको नमस्कार करके बन्ध, उदरा और सत्त्वसे युक्त स्थानसमुकीर्तनको कहूँगा। शंका-वह किस प्रयोजनसे कहेंगे? समाधान-पहले प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार में जो प्रकृत... कही हैं उनका बन्ध आदि क्रमसे होता है या बिना क्रमसे होता है ? ऐसा प्रश्न होनेपर इस प्रकारसे होता है यह बतलाने के लिए यह स्थानसमुत्कीतन अधिकार कहते हैं । शंका-स्थान किसे कहते हैं ? २५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६८३ प्रकृतिगळ्गे बंधोदयोदोरणासत्वंगळं गाथाषट्कदिदं पेळ्दपरु : छसु सगविहमढविहं कम्मं बंधंति तिसु य सत्तविहं । छव्विहमेक्कट्ठाणे तिसु येक्कमबंधगो एक्को ॥४५२॥ षट्सु सप्तविधमष्टविधं कम बनाति त्रिषु च सप्तविधं । षड्विधमेकस्थाने त्रिष्वेकमबंधक एकः ॥ मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि देशसंयत प्रमत्तसंयता प्रमत्तसंयतरेंबारुगुणस्थानत्तिगळायुज्जितमागि सप्तमूलप्रकृतिस्थानमुमनायुष्यसहितमागष्टमूल पकृतिस्थानमुमं कटुवरु । मिश्रापूर्वानिवृत्तिकरणरब मूलं गुणस्थानत्तिगळायुवज्जितम्प्रगिये सप्तमूलप्रकृतिस्थानमं कटुवरु । सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानवत्तियोवने आयुर्मोहज्जितषण्मूलप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। उपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवलिगळेब मूरु गुणस्थानतिगळो दे वेदनीयमूलप्रकृतिस्थानमं १० कटुगुं। मूलप्रकृतिगळबंधकनोवने अयोगिकेवलिगुणस्थानवत्तियमितष्टविधमूलप्रकृतिस्थानं. गळ्गे गुणस्थानसंदृष्टि : मि | सा | मि | अ | दे । प्र अ अ असू। उक्षी स| अ ।७८ । ७।८। ७८ | ७८ | ७८ ७८|७८/७/७/६/१|१|१| | बं चत्तारि तिणितियचउ पयडिहाणाणि मुलपयडीणं । भुजगारप्पदराणि य अवट्ठिदाणि वि कम होंति ॥४५३॥ चत्वारि त्रीणि त्रिक चतुः प्रकृतिस्थानानि मूलप्रकृतीनां । भुजाकाराल्पतरावस्थिता अपि १५ क्रमेण भवंति ॥ तावद् गुणस्थानेषु मूलप्रकृतीनां बंधोदयोदोरणसत्त्वभेदं गाथाषट्केनाह मिश्रवजिताप्रमत्तांतषड्गुणस्थानेषु विनायुः सप्तविधं तत्सहितमष्टविधं च कर्म बध्नति । मिश्रापूर्वानिवृत्तिकरणेषु तत्सप्तविधमेव । सूक्ष्मसांपराये आयुर्मोहवजितं षविधमेव । उपशांतक्षीणकषायसयोगेष्वेक वेदनीयमेव । अयोगे बंधो नास्ति ॥४५२॥ समाधान-एक जीवके एक समयमें जितनी प्रकृतियाँ सम्भव हैं उनके समूहका नाम स्थान है। उसका कथन इस अधिकारमें है ॥४५१।। गुणस्थानोंमें मूल प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्त्वको लिये स्थान समुकीर्तनको छह गाथाओंसे कहते हैं मिश्र गुणस्थानको छोड़कर अप्रमत्त पर्यन्त छह गुणस्थानोंमें आयु बिना सात प्रकार २५ अथवा आयु सहित आठ प्रकारका कर्मबन्ध होता है। मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें आयुके बिना सात प्रकारका ही कम बँधता है। सूक्ष्मसाम्परायमें आयु और मोहके बिना छह प्रकारका ही कम बँधता है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगीमें एक वेदनीय कर्म ही बँधता है । अयोगीमें कर्मबन्ध नहीं होता ॥४५२॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ गो० कर्मकाण्डे __प्रकृतीनां मूलप्रकृतिगळ सामान्यबंधस्थानंगळ चत्वारि नाल्कप्पुर्वते दोडष्टविधकम्मबंधस्थानमो दु. सप्तविधकर्मबंधस्थानमोंदु, षड्विधकर्मबंधस्थानमो दु, एकविधकर्मबंधस्थान. मोदितु मूलप्रकृतिगळ बंधस्थानंगळु नाल्कु । संदृष्टि १।६।७।८॥ यिवावाव गुणस्थानदोळे. वोडे अप्रमत्तपर्यंतमष्टविधबंधकरु मिश्रापूर्वानिवृत्तिकरणरायुज्जितसप्तविधकर्मबंधकर ५ सूक्ष्मसापरायनायुर्मोहज्जितषड्विधकर्मबंधकनु उपशांतकषायादित्रितयगुणस्थानत्तिगळु वेद. नोयमेकविधकर्मबंधकरु इंती नाल्कुं बंधस्थानंगळ्गे स्वामिगळप्परु । ई नाल्कुं सामान्यबंधस्थानंगळगुपशमश्रेण्यवतरणोळ भुजाकारबंधस्थानंगळु मूरप्पुवु । संदृष्टि १ | ६ | ७ | उपर्युपरिगुणस्थानारोहणदोळा सामान्यचतुब्बंधस्थानंगळगे अल्पतरबंधविकल्पंगळु मूरप्पुवु । संदृष्टि १८१७ | ६ | मत्तमा सामान्यचतुबंधस्थानंगळगे स्वस्थानदोळवस्थितबंधविकल्पंगळु नाल्कप्पुवु । १० संवृष्टि ! ८ | ७ | ६ | १ | यिल्लियुपशांतकषायंगवतरणदोळ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानमं पोईदे ८७६|१| अनिवृत्यादिगुणस्थानंगळगनाश्रयणत्वदिमितप्प | १ | १ | भुजाकारबंधमिल्ल । अप्रमत्ता ७८ मूलप्रकृतीनां सामान्यबंधस्थानान्यष्टप्रकृतिकं सप्तप्रकृतिकं षट्प्रकृतिकमेकप्रकृतिकमिति चत्वारि भवंति । १।६ । ७ । ८ । एषां च उपशमश्रेण्यवतरणे भुजाकारबंधास्त्रयः । । १ । ६ ७. उपर्युपरि गुणस्थानारोहणे अल्पतरास्त्रयः । ६. पुनस्तेषामेव स्व३ ७ ८ । इस प्रकार सामान्यसे मूल प्रकृतियोंके बन्ध स्थान आठ, सात, छह और एक प्रकृतिरूप चार हैं। इनमें उपशम श्रेणिसे उतरनेपर भुजकार बन्ध तीन हैं। ऊपर-ऊपर गुणस्थानोंपर आरोहण करनेपर अल्पतर बन्ध तीन हैं। पुनः उन्हींके स्वस्थानमें अवस्थित बन्ध चार हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उपशान्त कषायमें एकका बन्ध था। वहाँसे गिरकर सूक्ष्म साम्परायमें आया तो २० छहका बन्ध किया। एक भुजकार बन्ध यह हुआ। सूश्मसाम्परायमें छहका बन्ध था । वहाँसे अनिवृत्तिकरणमें आया तब सातका बन्ध हुआ। एक भुजकार बन्ध यह हुआ। अपूर्वकरणमें सातका बन्ध था, नीचेके गणस्थानमें आठका बन्ध हुआ। यह एक भुजकार बन्ध हुआ। इस प्रकार तीन भुजकार होते हैं । यथा १/६/७ तथा ऊपर-ऊपर गुणस्थान चढ़नेपर अल्पतर बन्ध तीन हैं। आठ कर्मको बाँधकर २५ ६/७/८ सातका बन्ध होनेपर एक अल्पतर होता है। सातसे छहका बन्ध होनेपर एक अल्पतर होता है । छहसे एकका बन्ध होनेपर एक अल्पतर होता है। इस प्रकार तीन अल्पतर हैं। यथा । । अपने ही स्थानमें पहले समय में जितने कर्मोका बन्ध होता है उतने ही कर्मोका बन्ध आगेके समयमें होनेपर अवस्थित बन्ध होता है। - वे बन्ध चार हैं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका निवृत्तिकरण साक्षादुपशांत कषाय गुणस्थानारोहणक्क भावमप्पुदरिदं | ८ | ७| | १ । १ । मितप्पल्पतर बंधविकल्पाभावमकुं । इलिचोदकर्न दपं । उपशांतकषायेंगे मरणमागतं विरलु देवासंयतप्रसंभव मदद | १|१ | मितप्प भुजाकारबंध में तिल्ले' दोडतल्लेक दोर्ड अबद्धायुष्यना७ |८ दोडातं मरणमिलदरि १ मितप्प भुजाकारककभावं सिद्धमकुं । बद्धायुष्यंगे मरणमुंटादोडं स्थानेऽवस्थित बंधाश्चत्वारः ८ ८ देवासंयतं स्वस्थितिषण्मासावशेषमादोडल्लदायुबंध योग्यर्तयिल्लप्पुर्दारद १ मितप्प भुजा ८ कारक्कमभावं सिद्धमकुं । अल्पमं कट्टुत्तं पिरिदं कट्टिदोर्ड भुजाकारबंध मक्कुं । पिरि निवृत्तिकरणादी गमनाभावादिमौ मेवोपशांतकषायेनारोहणादिमा | ८ १ १ e ८ 67 ७ ६ ७ ६ ८ ७ ६ ७ ६ ८ १ । १ ७ ८ १ भुजाकारबंधौ कुतो नोक्ती ? अवद्धायुष्कस्याऽमरणादस्या १ ७ १ १ देवासंयतस्य स्वस्वस्थितिषण्मासावशेषे एवायुबंधादस्या १ ८ ६८५ १ उपशांतकषायस्यावतरणे सूक्ष्मसांपरायं मुक्त्वा | १ भुजाकारौ न स्तः । नाप्यप्रमत्तानिवृत्तिकरणयोः समनंतर वल्पतरौ स्तः । उपशांतकषायस्य मरणे देवा संयत गुणप्राप्तेरीदृशो पहले आठ कर्मका बन्ध था पीछे भी आठका ही बन्ध होनेपर एक अवस्थित बन्ध हुआ । सातका बन्ध करके पीछे भी सातका बन्ध होनेपर एक हुआ। छहका बन्ध करके छहका बन्ध करनेपर एक हुआ । एकका बन्ध करके पीछे भी एकका बन्ध करनेपर एक हुआ । इस तरह अवस्थित बन्ध चार हुए । भावात् । अल्पं बध्वा बहु बनतो भुजाकारो भावात् । बद्धायुषो मरणे १० उपशान्त कषायसे उतरकर सूक्ष्म साम्परायको छोड़ अनिवृत्तिकरण में नहीं आ सकता । अतः एकका बन्ध करनेके पश्चात् सात या आठका बन्ध सम्भव नहीं है इससे ये दो भुजकार बन्ध नहीं होते। इसी प्रकार अप्रमत्त या अनिवृत्तिकरणके बीच के गुणस्थानों को छोड़ उपशान्तकषाय में आना सम्भव नहीं है । इससे आठके पश्चात् एकका बन्धरूप और सातके २० पश्चात् एकके बन्धरूप ये दो अल्पतर नहीं होते । शंका- जो उपशान्त कषायसे मरकर असंयत गुणस्थानवर्ती देव हुआ उसके एकसे सातके या आठके बन्धरूप जो भुजकार होते हैं वे क्यों नहीं कहे ? ५ १५ समाधान — अबद्धायुका तो मरण होता नहीं । अतः एकसे सात के बन्धरूप भुजकारका अभाव है । और बद्धायुका मरण होता है सो देव असंयत गुणस्थानवर्ती हुआ। वहाँ २५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ६८६ गो० कर्मकाण्डे कट्टुत्तं किरिदं कट्टिदोडल्पतरबंधनक्कुं । स्वस्थानदोळव स्थितबंधमक्कुं । एनुमं कट्टदे बहु पिरिदनागलि किरिदनागलु कट्टिदोडवक्तव्य बंधमक्कुमी मूलप्रकृतिबंधस्थानंगळोळवक्तव्यबंधभेदमिल्लेदोर्ड अवतरणदो वेदनीयमं आरोहणदोळु षट्कम्र्ममनुपशांतकषायनुं सूक्ष्मसांपरायनुं कट्टुतलुमवतरिसुगुमा रोहणमं माळकुमप्पुदरिदं । अट्ठदयो सुमोति य मोहेण विणा हु संतखीणेसु । घादिदठाणच उक्करसुदओ केवलिदुगे णियमा ||४५४ || अष्टोदयः सूक्ष्म सांप रायपय्र्यंतं च मोहेन विना खलूपशांतक्षीणकषाययोर्घातीतराणां चतुष्कस्योदयः केवलिद्वये नियमात् ॥ १० गळो सूक्ष्मसां पराय गुणस्थान पय्र्यंत मष्टमूलप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । उपशांतकषायक्षीणकषायरुमोहवज्जितसतमूलप्रकृतिस्थानोदयमक्कु । मघातिचतुष्कोदयं सयोगायोग के वलिद्वयदोळक्कु नियर्मादिदं । संदृष्टि : मि । सा | मि | अ उ ८ |८ ८ 1 ८ अ अ । सू | दे | प्र अ | ८ | ८ | ८ ८ | ८ | ८ उक्षी | स | अ ७ ४ ४ घाणं दुमट्ठा उदीरगा रागिणो य मोहस्स । तदिआऊण पत्ता जोगंता होंति दोहंपि ।। ४५५ || घातीनां छद्मस्थाः उदीरकाः रागिणश्च मोहस्य । तृतीयायुषोः प्रमत्ता योग्यताः भवंति १५ द्वयोरपि ॥ 6) बंध: । बहुपं घ्नतोऽल्पतरः । अल्पं बहु वा बध्वानंतरसमये तावदेव बनतोऽवस्थितः । किमप्यवध्वा पुनर्वघ्नतोऽवक्तव्यः, नायं भेदो मूलप्रकृतिबंधस्थानेष्वस्ति ॥ ४५३ ॥ सूक्ष्मसांपरायपर्यंतमष्टमूलप्रकृतीनामुदयः, उपशांतक्षीणकषाययोर्मोहेन विना सप्तानामेवोदयः । सयोगायोगयोरघातिनामेव चतुर्णामुदयो नियमेन ॥४५४॥ २० अपनी देवायुमें छह महीना शेष रहनेपर ही आयुका बन्ध होता । अतः एकसे आठके बन्धरूप भुजकार नहीं होता । पहले थोड़ी प्रकृतियों को बाँधकर पीछे बहुत प्रकृतियोंको बाँधनेका नाम भुजकार बन्ध है । पहले बहुत प्रकृतियोंको बाँध पीछे थोड़ीको बाँधनेका नाम अल्पतर है। पहले जितनी प्रकृति बाँधी हो उतनी ही पीछे अनन्तर समय में बाँधनेको अवस्थित बन्ध कहते हैं । और २५ कुछ भी न बाँधकर पीछे बाँधनेको अवक्तव्य बन्ध कहते हैं । यह अवक्तव्य बन्ध मूलक मोंमें सम्भव नहीं है, उत्तर प्रकृतियों में ही सम्भव है। यह इन चारों बन्धोंका स्वरूप है ||४५३ || सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त आठों मूल प्रकृतियोंका उदय रहता है । उपशान्तकषाय क्षीणकषाय में मोहके बिना सातका ही उदय रहता है । सयोगी और अयोगीमें चार अघाति कर्मोंका ही उदय नियमसे है ||४५४ || Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६८७ घातिकमंगल नाकक्कं मिथ्यादृष्ट्यादि क्षीणकषायावसानमाद छद्मस्थरुगळुदीरकप्परु । तत्रापि सूक्ष्मसां परायाव पानमाद रागिगळनिबरु मोहनीयककुदी र करप्परु | वेदनीयायुष्यंग प्रमत्तसंयतावसानमादप्रमादिगळुदीरकर परु । नामगोत्रंगळर्ग सयोगकेवलिपय्यं तमाद गुणस्थानवत्तगळदोरकप्परु ॥ मिस्सूणपमत्तंते आउस्सद्धा हु सुहुमखीणाणं । आवलिसिट्ठे कमसो सगपणदोच्चे उदीरणा होंति ॥ ४५६ ॥ मिश्रोनप्रमत्तांते आयुषोद्धा खलु सूक्ष्मक्षीणकषाययोरावलिशिष्टे क्रमशस्त्रप्रपंचद्विके उदीरणा भवंति ॥ मिश्रं पोरगागि प्रमत्तसंयत गुणस्थानावसानमाद गुणस्थानपंचकदोळ आयुःकर्माद्ध आवलिमात्रावशेषमागुत्तं विरेलु सूक्ष्मसांवरायंगं क्षीणकषायंगं स्वस्वगुणस्थानकालमावलिमात्रावशेषमागुत्तं १० विलु मितु मूरेर्डयो क्रर्मादिदमायुर्व्वज्जितसप्तकम्मंगळगमायुर्वेदनीय मोहनीयर्वाज्जित पंचकम् - गमायुर्वेदनीयमोहनीयज्ञानदर्शनावरणीयांत रायमेंब षट्कम्मंगळ्वज्जितमागि नामगोत्रंगळे रडे कमंगळगं उदीरकरपरु । सम्यग्मिथ्यादृष्टिगायुष्य कम्मं मुदीरितशेषमुच्छिष्टावलिमात्रावशेषमागुतं विरल नियर्मादिदं गुणस्थानांतरमं पोद्दि मृतनप्पनक्कुमप्युर्दारदमातंगे सप्तकदीरकत्व - मिल्ल । संदृष्टि - मि सा मि | अ | दे | प्र अ अ ८1७ ८1७ ८ ८१७/८७८७६ अ । सू उ | क्षी | स अ ६ | ६ | ६|५| ५ | ५।२ । २ । ० घातिकर्मणां चतुर्णां क्षीणकषायां ताश्छद्मस्या एवोदीरका भवंति । तत्रापि मोहनीयस्य सूक्ष्म सांवरायांता रागिण एव | वेदनीयायुषोः प्रमत्तांताः प्रमादिन एव । नामगोत्रयोः सयोगपर्यंता एव ॥ ४५५॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टेरायुष्यावलिमात्रेऽवशिष्टे सति नियमेन गुणस्थानांतराश्रयणात्तं विना प्रमत्तांतपंचा नामायुषि आवलिमात्रेऽवशिष्टे सति तथा सूक्ष्मसां परायक्षीणकषाययोः कालेऽपि तावत्यवशिष्टे सति क्रमेणायुर्वजितसप्तायुर्मो वेदनीयवजत पंचनामगोत्रद्वयानामेवोदीरका भवंति ॥ ४५६॥ चार घातिकर्मोंकी उदीरणा क्षीणकषाय पर्यन्त छद्मस्थ ही करते हैं । उनमें भी मोहनीय और आयुकी उदीरणा प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त प्रमादी जीव ही करते हैं। नाम और गोत्रकी उदीरणा सयोगी पर्यन्त होती है ।। ४५५॥ १. आयुः कर्म्माद्धे आवलिमात्रावशेषमादल्लि आयुर्व्वज्जित सप्तप्रकृतिगलगे उदीरण हिर्द अष्टकमंगल उदीरण मुंर्दयुमिते योग्यवागि योजिसिको बुदु । क-८७ सम्यग्मध्यादृष्टि आयु में आवली मात्र काल शेष रहनेपर नियमसे मिश्र गुणस्थानसे अन्य गुणस्थानमें चला जाता है। अतः मिश्रगुणस्थानके बिना प्रमत्त पर्यन्त पाँच गुणस्थानोंमें २५ आयु में आवलीमात्र काल शेष रहनेपर आयुको छोड़ सात कर्मोंकी उदीरणा होती है । सूक्ष्मसाम्पराय में उतना ही काल शेष रहनेपर आयु मोहनीय और वेदनीयके बिना पाँचकी उदीरणा होती है । क्षीणकषाय में उतना ही काल शेष रहनेपर नाम और गोत्रकी उदीरणा होती है ||४५६ || १५ २० ३० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे संतोति अटूसत्ता खीणे सत्तेव होंति सत्ताणि । जोगिम्मि अजोगिम्मि य चत्तारि हवंति सत्ताई ||४५७ ॥ शांतपय्र्यंतमष्टसत्त्वानि क्षीणकषाये सप्तैव भवंति सत्वानि । योगिन्ययोगिनि च चत्वारि भवंति सत्त्वानि ॥ ५ उपशांत कषायपर्यंत मष्ट मूलप्रकृतिसत्वमक्कुं । क्षीणकषायनोळु मोहनीयर्वाज्जतसप्तकम्मंसत्वमक्कुं । सयोगकेवलिभट्टारक नोऴमयोगिकेवलिभट्टारकनोळमघातिकम्मंगळ नाकं सत्वमक्कु । संदृष्टि: : ६८८ २५ मि | सा । मि अ दे Я अ अ अ | सू| उ | क्षी सत्व ८८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८।७ अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळ्ये बंधोदयसत्वस्थानंगळं पेळदपरल्लि भुजाकारबंधसंभवस्थानंगळं पेदपरु : तिणि दस अट्ठठाणाणि दंसणावरणमोहणामाणं । एत्थेव य भुजगारा सेसेसेयं हवे ठाणं || ४५८ || श्रीणि दशाष्टस्थानानि दर्शनावरणमोहनाम्नां । अत्रैव च भुजाकाराः शेषेष्वेकं भवेत्स्थानं ॥ दर्शनावरणीयमोहनीयनामकर्म्ममें बी मूरुं मूलप्रकृतिगळ उत्तरप्रकृतिगळोळु यथाक्रमविर्द मूरुं पत्तुर्म टु बंधस्थानंगळप्पुवल्लिये भुजाकारबंधविकल्पंगळ संभविसुववु । शेषज्ञानावरणीय१५ पंचकक्कं वेदनीयद्वयान्तरक्कं चतुव्विधायुरन्यतमक्कं गोत्रद्वयान्यतरक्कं अंतराय पंचक्कं ओ दो देस्थानमपुरिदं । भुजाकारबंधमिवरोळ संभविसदु । संदृष्टि : स्थान णा ५ १ दं वे | मो आ ना गो अ ९ । २ २६ । ४ ९३ २ ५ ३ १ १० १ ८ ।१ १ उपशांतकषायपर्यंतमष्टो मूलप्रकृतयः सत्त्वं भवंति । क्षीणकषाये मोहं विना सप्तैव सत्त्वं भवंति । योगायोगयोरघाति चतुष्टयमेव सत्वं भवति ॥४५७॥ अथोत्तरप्रकृतीनां तत्समुत्कीर्तनमाह- दर्शनावरण मोहनामकर्मणां बंघस्थानानि क्रमश: त्रीणि दशाष्टौ भवंति । तेन भुलाकारबंधा अप्येष्वेव २० नान्येषु । शेषेषु मध्ये ज्ञानावरणेंत्तराये च पंत्रात्मकं । गोत्रायुर्वेदनीयेष्वेकात्मकं चैकैकमेव बंघस्थानं भवेदिति कारणात् ॥४५८॥ स अ ४ ४ उपशान्त कषाय पर्यन्त आठों मूल प्रकृतियोंकी सत्ता है। क्षीणकषाय में मोहके बिना सातका ही सत्व है । सयोगी और अयोगीमें चार अघातिकमोंका ही सत्त्व है ||४५७॥ आगे उत्तर प्रकृतियोंमें स्थानोंका कथन करते हैं दर्शनावरण, मोह और नाम कर्मके बन्धस्थान क्रमसे तीन, दस और आठ होते हैं । इससे भुजकार बन्ध भी इन्हींमें होते हैं, अन्य में नहीं होते, क्योंकि शेषमें से ज्ञानावरण और अन्तराय में तो पाँच प्रकृतिरूप एक ही बन्ध स्थान है । गोत्र, आयु और वेदनीयमें एक प्रकृतिरूप एक-एक ही बन्ध स्थान है। इससे इनमें भुजकार बन्ध सम्भव नहीं हैं ||४५८ || Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं दर्शनावरणीय भुजाकारबंधं संभविसुव स्थानंगळर्ग प्रकृतिसंख्येयं पेळदपरु णव छक्क चउक्कं च य विदियावरणस्स बंधठाणाणि । भुजगारपदराणि य अवद्विदाणिवि य जाणाहि ॥ ४५९ ॥ नवषट्कचतुष्कं च च द्वितीयावरणस्य बंधस्थानानि । भुजाकाराल्पतराश्चावस्थिता अपि च जानीहि ॥ ६८९ नवषट्कचतुष्क प्रकृतिस्थानत्रयं द्वितीयावरणप्रकृतिबंधस्थानं गळप्पुवल्लि दर्शनावरणसर्ध्वोतर प्रकृतिगळो भत्तक्कम दु स्थानमक्कुमवरोळु स्त्यानगृद्धित्रयरहितमागि षट् प्रकृतिगळों बु स्थानमक्कुमवरो निद्राप्रचलोन चतुष्प्रकृतिगळगोंदु स्थानमक्कुमिती मूरुं स्थानंगळगे भुजाकार दर्शनावरणस्य बंधस्थानानि नवप्रकृतिकं, स्त्यानगृद्धित्रयेण विना षट् प्रकृतिकं, पुनर्निद्राप्रचले विना चतुःप्रकृतिकं चेति त्रीणि । तेषां भुजाकाराल्पतरावस्थितबंषाः, अपिशब्दादवक्तव्यबंधौ च स्युरिति जानीहि । १० तद्यथा--- उपशमश्रेण्यवरोहको पूर्वकरणद्वितीयभागे चतुःप्रकृतिकं बध्वा तत्प्रथमभागेऽवतीर्णः षट्प्रकृतिकं बध्नाति । प्रमत्तो देशसंयतोऽसंयतो मिश्रो वा षट्प्रकृतिकं बध्नन्मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा वा प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिः सासादनो भूत्वा नवप्रकृतिकं बध्नाति इति भुजाकारी द्वौ स्तः । प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिरनिवृत्तिकरणचरम समये नवप्रकृतिकं बघ्नन्ननंतरसमयेऽसंयतो देशसंयतोऽप्रमत्तो वा भूत्वा षट्प्रकृतिकं बध्नाति । १५ तथा तत उपशमकः क्षपको वाऽपूर्वकरणप्रथमभागचरमसमये षट्प्रकृतिकं बघ्नन् द्वितीय भाग्रप्रथमसमये चतुः प्रकृतिकं बघ्नातीत्यल्पतरौ द्वौ भवतः । मिध्यादृष्टिः सासादनो वा नवप्रकृतिकं मिश्राद्यपूर्वकरणप्रथमभागतः षट्कृतिकं अपूर्वकरणद्वितीय भागा दिसूक्ष्मसां परायांतः चतुःप्रकृतिकं च बध्नन् अनंत रसमये तदेव दर्शनावरण के बन्धस्थान नौ प्रकृतिरूप, स्त्यागृद्धि आदि तीनके बिना छह प्रकृतिरूप, निद्रा प्रचलाके बिना चार प्रकृतिरूप इस प्रकार तीन ही होते हैं। उनमें भुजकार बन्ध, अल्पतर बन्ध, अवस्थित बन्ध और अपि शब्दसे अवक्तव्यबन्ध होते हैं। वे इस प्रकार हैं उपशम श्रेणिसे उतरनेवाला अपूर्वकरणके दूसरे भाग में दर्शनावरणकी चार प्रकृतियोंका बन्ध करके पुनः उसीके प्रथम भागमें उतरनेपर छह प्रकृतियोंका बन्ध करता है । यह एक भुजकार हुआ। प्रमत्त, देशसंयत, असंयत अथवा मिश्र गुणस्थानवर्ती छह प्रकृतियोंका बन्ध करके मिथ्यादृष्टि होकर अथवा प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी सासादन गुणस्थानमें आकर it प्रकृतियों का बन्ध करता है। इस प्रकार दो भुजकार होते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख मिध्यादृष्टि अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके अन्तिम समय में नौ प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करके अन्तर समय में असंयत, देशसंयत, अथवा अप्रमत्त होकर छह प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करता है । यह एक अल्पतर हुआ । उपशमक अथवा क्षपक अपूर्वकरणके प्रथम भाग के अन्तिम समयमें छह प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करके दूसरे भागके प्रथम समयमें चार प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करता है। एक अल्पतर यह हुआ । इस तरह दो अल्पतर बन्ध होते हैं । ३० मिध्यादृष्टि अथवा सासादन नौ प्रकृतिरूप स्थानको बाँधकर मिश्रसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग पर्यन्त छह प्रकृतिरूप स्थानको बाँधकर तथा अपूर्वकरणके दूसरे भागसे २० २५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ६९० गो० कर्मकाण्डे बंधंगळे रडुमल्पतर बंधंगळे रडुमवस्थितबंधंगळ मूरुमवक्तव्यबंधंगळे रडुमपि शब्ददिदरियल्प डुवुवु । जानीहि एंदितु शिष्यं संबोधिसत्पट्टनु । ९८९ ९ ६ ६ ६ ६ ६ ६४ ૪ यिल्लि भुजाकाराल्पतरावस्थितावक्तव्य बंधविशेषं पेळल्पडुगुर्म तें दोडे उपशमश्रेण्यारोहक - नव्य सूक्ष्मकषायनुपशांत कषायगुणस्थानमं पोद्दि तद्गुणस्थानकालमंत मुहूर्त पय्र्यंत मिर्दु उपशमश्रेण्यवतरणदोळु सूक्ष्मसांपरायनागि तद्गुणस्थानप्रथमसमयं मोदगोंडु क्रमदिदमित्रि अपूर्वकरणषष्ठभागचरमसमयपय्र्यंतं चतुःप्रकृतिस्थानम कट्टुत्तं अपूर्व्वकरणावतरण सप्तमभाग प्रथमसमय दो निद्राप्रचलासहितमागि षट् प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडल्लि भुजाकारबंध विकल्पमा दक्कु । १५ मत्तं प्रमत्तनाग देशसंयतनागलुम संयतनागळे मिश्रनागलु षट्प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तमिदु मिथ्यादृष्टिगुणस्थान पोद्दि नवप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदो भुजाकारबंधविकल्पमक्कु-मथवा प्रथमो २० अनंतरं दर्शनावरणीयस्थानत्रयक्के बंधस्वामिगळं गुणस्थानदोळ वेळदपरु :णव सासणोत्ति बंधो छच्चेव अपुव्वपढमभागोत्ति । चत्तारि होंति तत्तो सहुमकसायस्स चरिमोति ॥ ४६० ॥ नव सासादनपर्यंत बंधाः षट्चैवापूर्व प्रथमभागपर्यंतं । चतस्रो भवंति ततः सूक्ष्मकषायस्य चरमपर्यंतं ॥ नवप्रकृतिकस्थानं सासादनपध्यतं बंधमक्कुं । षट्प्रकृतिकस्थानमपूर्वकरण प्रथमभागपय्यंतं बंधमक्कुं । चतुःप्रकृतिकस्थानं सूक्ष्मसांपराय चरमसमयपध्र्यंतं बंधमक्कुं । संदृष्टिःमि अ दे Я अ अ अ स उ क्षी स अ ४ ० ० बध्नातीत्यवस्थितबंधास्त्रयो भवंति । उपशांतकषायः दर्शनावरणं किमप्यबध्नन् अवतरणे सूक्ष्मकषायप्रथमसमये चतुःप्रकृतिकं वा सपदि बद्धायुष्को म्रियते तदा देवासंयतो भूत्वा षट्प्रकृतिकं च बध्नातीत्यवक्तव्यबंधौ द्वौ भवतः ॥ ४५९॥ इममुक्तार्थं द्योतयति - नवप्रकृतिकं सासादनपर्यंतमेव बध्नाति । उपर्यपूर्वकरणप्रथमभागपर्यंतं षट्प्रकृतिमेव । तत उपरि लेकर सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त चार प्रकृतिरूप स्थानको बाँधकर अन्तर समय में उतनी ही अर्थात् नौ, छह और चारको बाँधता है । इस तरह अवस्थितबन्ध तीन होते हैं । उपशान्तकषाय दर्शनावरणका किंचित् भी बन्ध न करके उतरनेपर सूक्ष्म साम्पराय प्रथम समय में चार प्रकृतिरूप स्थानको बाँधता है । अथवा बद्धायु अवस्था में मरकर असंयत गुणस्थानवर्ती देव होकर छह प्रकृतिरूप स्थानको बाँधता है, इस प्रकार दो अवक्तव्य बन्ध होते हैं ||४५९ || २५ इसी कहे अर्थको प्रकट करते हैं दर्शनावरणके नौ प्रकृतिरूप स्थानको सासादन पर्यन्त ही बाँधता है । ऊपर अपूर्व - o ० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पशमसम्यग्दृष्टिगळु मेणु सासादनगुणस्थानमं पोद्दिदोडल्लियु ६ मितप्प भुजाकारबंधविकल्प संभवमक्कुं। मितु भुजाकारबंधविकल्पंगळे रडप्युवु । २ । अल्पतरबंधविकल्पंगळु दर्शनावरणदोळेरडप्पुर्व ते दोडे प्रथमोपशम सम्यक्त्वाभिमुखनप्प मिथ्यादृष्टिकरणत्रयमं माडियनिवृत्तिकरणकालमंतर्मुहूर्त चरमसमयदोळु नवप्रकृतिस्थानसं कटुत्तिईनंतरसमयदोळु असंयतदेशसंयताप्रमत्त. गुणस्थानत्रयदोळन्यतमगुणस्थानममों दं पोद्दि षट्प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडल्लियों दल्पतरबंध- ५ विकल्पमक्कु-। मुपशमश्रेणियोळागलु क्षपकश्रेणियोगागलपूर्वकरण गुणस्थान प्रथमभागचरमसमयदोळु षट्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तिईनंतरसमयदोलु तन्न श्रेण्यारोहण द्वितीयभागप्रथमसमयदोळु निद्राप्रचलोन चतुःप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडल्लियुमो दल्पतरबंधविकल्पमफुमितल्पतर बंधविकल्पंगळ मरडप्पुवु । २॥ अवस्थितबंधविकल्पंगळु मूरप्पुर्व ते दोडे मिथ्यादृष्टियुं सासादनहुँ स्वस्थानंगळो नवप्रकृतिस्थानमं कटुतिपरल्लियो दवस्थितबंधविकल्पमक्कुं । मिश्रासंयत देश- १० संयतप्रमताप्रमत्तापूर्वकरणप्रथम भागवत्तिगळिवर्गळु स्वस्थानदोळ षट्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तं षट्प्रकृतिस्थानमने कटुत्तिरलिदोंदु अवस्थितबंधमक्कु-। मपूर्वकरणं तन्न द्वितीयतृतीयचतुर्थपंचमषष्ठसप्तमभागंगळोळमनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांवरायगुणस्थानत्तिगळु स्वस्थानदोळु चतुःप्रकृतिस्थानमं कट्टि चतुःप्रकृतिस्थानमने कटुत्तिोडिदो दवस्थितबंधविकल्पमक्कुमितवस्थितबंधविकल्पंगळु मूरप्पुवु । ३ ॥ अवक्तव्यबंधविकल्पंगळे रडप्पुर्व ते दोडे अबंधकबंधोऽवक्तव्यबंधः १५ एंदितवक्तव्यबंधलक्षणमप्पुरिदमुपशांतकषायं दर्शनावरणमनेनुमं कट्टदे बंदु अवतरणदि सूक्ष्मकषायनागि तद्गुणस्थानप्रथमसमयदोळु चतुःप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदो दवक्तव्यबंधभेदमक्कुं मत्तमुपशांतकषायगुणस्थानतिबद्घायुष्यं दर्शनावरणमनेनुमं कट्टदै मरणमादोडे देवासंयतनागि षट्प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदो दवक्तव्यबंधभेदमकुमितेरडवक्तव्यबंधविकल्पंगळप्पुवु । २॥ इवक्के यथाक्रमदिदं संदृष्टि : दर्शनावरणस्थानंगळ मूरु ९।६।४। इवक्के भुजाकारबंधंगळे रडु | ४ | ६ | अल्पतरबंधंगळे रडु | ९ | ६ | अवस्थितबंधंगळु मूरु | ९ | ६ | ४ | अवक्तव्यबंधंगळे रडु । | 0 | |९|६|४| उपशमश्रेण्यवतरणदोळं मिश्रासंयत देशसंयत प्रमत्तसंयतरुगळ सासादनगुगस्यानमुमं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं मेणु पोद्दिदोडं भुजाकारबंधमपुवु। उपर्युपरि गुणस्थानारोहणदोळल्पतरबंधमप्पुवु । स्वस्थानदोळवस्थितबंधमप्पुवुपशमश्रेण्यवतरणदोळं मरणदोळमवक्तव्यबंधंगळप्पुर्व दरिदु बंध २५ संभवासंभव प्रकारंगळनुक्तप्रकारदिदं विचारमं माडि मुंदयुं मोहादिगळोळु निश्चयिसुवुदु ॥ सूक्ष्मसांपरायचरमसमयपर्यंत चतुःप्रकृतिकमेव ॥४६०॥ करणके प्रथम भाग पर्यन्त छह प्रकृतिरूप स्थानको ही बाँधता है। उससे ऊपर सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समय पर्यन्त चार प्रकृतिरूप स्थानको ही बाँधता है ।।४६०॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं दर्शनावरणोदयस्थानमं गुणस्थानदोळु पेळदपरु :खीणोत्ति चारि उदया पंचसु णिद्दासु दोसु णिद्दासु । एक्के उदयं पत्ते खीणदुचरिमोत्ति पंचुया ||४६१॥ क्षीणकषायपर्यंत चतुरुदयाः पंचसु निद्रासु द्वयोन्निद्रयोरेकस्मिन्युदयं प्राप्ते क्षीणकषाय५ द्विचरमपय्र्यतं पंचोदयाः ॥ १५ मिथ्यादृष्टयादियागि क्षीणकषायचरमसमयपय्र्यंतं चक्षरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणीयम बचतुःप्रकृतिस्थानोदयमक्कु ं । सनिद्ररोळ स्त्यानगृद्धि निद्रानिद्राप्रचलाप्रचला निद्रा प्रचलेगळे ब पंचनिद्रा प्रकृतिगोळे प्रकृत्युदयमनेय्दुत्तं विरल प्रमत्तगुणस्थानपय्र्यंतं दर्शनावरण प्रकृति पंचकमुदयस्थानमक्कुमल्लि स्त्यानगृद्धित्रयोदयव्युच्छित्तियागुत्तं विरल अप्रमत्तादि क्षीणकषायाद्विचरम१० समयपर्यंतं निद्राप्रचलाद्वयदोळो दुदयमनेडुत्तं विरलुमध्धुं दर्शनावरणप्रकृत्युदयस्थानमव कुमल्लि निद्राप्रचलो ३यव्युच्छित्तियागुत्तं विरलु तत् क्षीणकषायचरमसमयदोळु निद्रारहितचतुः प्रकृत्युदयस्थानमक्कुमल्लिये तच्चतुः प्रकृतिगळगुदपव्युच्छित्तियत्पुर्वारंवं सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानद्वयदोळ दर्शनावरणोदयस्थान शून्यमक्कु । संदृष्टि -- | मि | सा अनिद्रा | ४ | ४ सनिद्रा | ५ | ५ अनंतरं दशनावरणप्रकृतिस्थानमं गुणस्थानदोळु पेव्वपरु । मिच्छादुवसंतोत्तिय अणियट्टीखवगपढमभागोत्ति । णवसत्ता खीणस्स दुचरिमोत्ति य छच्चदू चरिमे ||४६२ || मिथ्यादृष्टिरुपशांतपय्र्यंतं चानिवृत्तिक्षपक प्रथमभागपर्यंतं । नव सत्वानि क्षीणकषायस्थ द्विचरमसमयपर्यंतं च षट्चत्वारि चरमे ॥ मि अ दे प्र | अ अ ૪ ४ ५ ४ ४ ४ | ५ | ५/५ ५ अ ४ ४ ५ ५ सू ४ ५ उ | क्षी ४ | ૪ ० ५ ५।४०।० दर्शनावरणस्योदयस्थानं जाग्नज्जीवे मिथ्यादृष्ट्या दिक्षीणकषाय चरमसमयपर्यंतं चक्षुर्दर्शनावरणादिचतु२० रात्मकमेव, निद्रिते तु प्रमत्तपर्यंतं स्त्यानगृद्ध्यादिपंचस्वेकस्यां उपरि क्षीणकषायद्विचरमसमयपर्यंत निद्राप्रचलयोरेकस्यां चोदितायां पंवात्मकमेव । उपरि दर्शनावरणोदयो नास्ति ॥ ४६१ ॥ स अ o दर्शनावरणका उदयस्थान जाग्रत् जीवमें मिथ्यादृष्टिसे क्षीणकषायके अन्तिम समय पर्यन्त चक्षु दर्शनावरण आदि चार प्रकृतिरूप ही होता है। निद्रित जीव में प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त स्त्यानगृद्धि आदि पाँच में से एकका उदय रहते और ऊपर क्षीणकषायके द्विचरम समय पर्यन्त निद्रा और प्रचला में से एकका उदय रहते पाँच प्रकृतिरूप ही होता है । उससे ऊपर दर्शनावरणका उदय नहीं है ||४६१ || २५ १. चक्षुरादिचतुष्कदोलु स्त्यानगृध्यादिपंचकदों दं कूडुत्त विरल प्रमत्तपर्यंतं पंचप्रकृत्युदयं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६९३ मिथ्यादृष्टिमोदगो पशांतकषायगुणस्थानपय्र्यंतंमनिवृत्तिक्षपकन प्रथमभागपर्यंतमुं नववशनावरणप्रकृति सत्वस्थानमक्कुमा क्षपकानिवृत्तिप्रथमभागदोळ स्त्यानगृद्धित्रयं किडिसल्पदुदryदरिनलदत्त क्षीणकषायद्विच रमसमयपय्र्यंतं दर्शनावरणषट् प्रकृति सत्वस्थानमक्कुमा क्षीणकषाय द्विचरमसमयबोळ निद्राप्रचलाद्वयं किडिसल्पदुदरिना क्षीणकषायचरमसमयदोळु दर्शनावरणचतुःप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमा क्षीणकषायचरमसमयदोळा दर्शनावरणचतुष्कं किडिसल्पटुदप्पू- ५ afरवं सयोगायोगिकेवलिद्वयबोळु दर्शनावरणसत्वं शून्यमक्कुं । संदृष्टि : मि | सा | मि | अ दे | प्र | अ | अ | अ सू | उ | क्षी | स अ ९ ९ ९ ९ ९ ९ ९ ९ |उाक्ष | उाक्ष | ९| ६|४ | ० ० १९१६ | ९१६ | अनंतरं मोहनीयबंधस्यानं गळगे प्रकृतिसंख्येयं पेळदपर । arataraari सत्तारस तेरसेव णव पंच | चदुतिय दुगं च एक्कं बंधट्ठाणाणि मोहस्स || ४६३|| द्वाविंशतिरेकविंशतिः सप्तदश त्रयोदशैव नव पंच । चतुस्त्रिकद्विकं चैकं बंधस्थानानि १० मोहस्य || द्वाविंशत्येकविंशति सप्तदशत्रयोदश नव पंच चतुः त्रिद्वि एकप्रकृति संख्यास्थानंगळितु मोहनीयके वशस्थानंगळवु । ई पत्तुं बंधस्थानंग संदृष्टि :- २२ । २१ । १७ । १३ । ९ । ५ । ४ । ३ । २ । १ ॥ १५ दर्शनावरणीयस्य गुणस्थानेषु सत्स्वस्थानं मिथ्यादृष्ट्याद्युपशांत कषायपर्यंतं क्षपकानिवृत्तिप्रथमभागपर्यतं च नवात्मकमेव । उपरि क्षीणकषायद्विचरमसमयपर्यंतं षडात्मकमेव स्त्यानगृद्धित्रयस्य तत्प्रथमभागे एव विनष्टत्वात् तच्चरमसमये चतुरात्मकमेव निद्राप्रचलयोद्विचर मे एव क्षपितत्वात् । सयोगायोगयोः शून्यं ॥४६२ ॥ मोहस्य बंघस्थानानि द्वाविंशतिकं एकविंशतिकं सप्तदशकं त्रयोदशकं नवकं पंचकं चतुष्कं त्रिकं द्विकमेककं चेति दश ॥ ४६३ ॥ गुणस्थानों में दर्शनावरणीयका सत्त्वस्थान मिध्यादृष्टिसे लेकर उपशान्त कषाय पर्यन्त और क्षपकश्रेणिमें अनिवृत्तिकरणके प्रथम भाग पर्यन्त नौ प्रकृतिरूप ही है । ऊपर क्षीणकषायके द्विचरम समय पर्यन्त छह प्रकृतिरूप ही है; क्योंकि स्त्यानगृद्धि आदि तीन अनिवृत्तिकरणके प्रथम भाग में ही नष्ट हो जाती हैं । क्षीणकषायके अन्तिम समयमें चार प्रकृतिरूप ही हैं, क्योंकि निद्रा और प्रचलाका क्षय द्विचरम समय में ही हो जाता है । २५ सयोगी और अयोगी में दर्शनावरणका सत्व नहीं है ||४६२ || मोहनीय कर्म के बन्धस्थान बाईस, इक्कीस, सतरह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप दस हैं ||४६३ || २० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० ६९४ २० गो० कर्मकाण्डे ई मोहनीय दशबंधस्थानं गळगे स्वामिगळं गुणस्थानदोळु पेदपरु : बावीस मेक्कवीसं सत्तर सत्तार तेर तिसु णवयं । धूले पणचदुतियदुगमेक्कं मोहस्स ठाणाणि ॥४६४ ॥ द्वाविंशतिशतिः सप्तदश सप्तदश त्रयोदशैव त्रिषु नवकं । स्थूले पंचचतुस्त्रिकद्विकैकं मोहस्य स्थानानि ॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अपूर्वकरणपय्र्यंतं मोहनीयदंघस्थानंगळ क्रर्मादिदं द्वाविंशति, एकविंशति, सप्तदश, सप्तदश, त्रयोदश नव नव नवंगळु । मनिवृत्तिकरणनोळ पंचचतुः त्रिद्वि एक प्रकृतिस्थानं गळमवु । संदृष्टि : -- मि | सा | मि | अ | दे | प्र २२ | २१ | १७ | १० | १३ ९ अनंतरमुक्तस्थानप्रकृतिगळोळ ध्र ुवबंधिगळ संख्येयं पेव्वपरा : अ अ अ ९ | १ | ५|४१३१२११ उगुवीसं अट्ठारस चोइस चोइस य दस यतिसु छक्कं । थूले चदुतिदुगेक्कं मोहस् य होंति धुवबंधी || ४६५ ।। एकनवत्यष्टादश चतुर्द्दश चतुर्द्दश दश त्रिषु षटुकं स्थूले चतुस्त्रिद्वयेकं मोहस्य भवंति ध्रुवबंधिन्यः ॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अनिवृत्तिकरण भागभागेगळ पर्यंतमुक्त द्वाविंशत्यादि १५ प्रकृतिस्थानंगळोळ मोहनीयध्र ुवबंधि प्रकृतिगळ संख्ये यथाक्रर्मादिदं एकान्नविंशति अष्टादश चतुर्द्दश चतुर्दशदश षट् षट् षट् चतुः त्रि द्वि एकंगळप्पुवु । संदृष्टि : सू । उ | क्षी | स | अ O ० ० ० o मि सा मि | अ दे प्र अ अ अ १९ | १८ | १४ | १४ | १० | ६ | ६ ६ ४ ३ २ । १ मोहनबंधस्थानानि गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टो द्वाविंशतिकं । सासादने एकविंशतिकं । मिश्रासंयतयोः सप्तदशकं । देशसंयते त्रयोदशकं । प्रमत्तादित्रये प्रत्येकं नवकं । अनिवृत्तिकरणे पंचकं चतुष्कं द्विकमेककं च ॥४६४।। मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणभागांतमुक्तस्थानेषु क्रमेण मोहनीयस्य ध्र ुवबंधान्ये कान्नविंशतिरष्टादश चतुर्दश चतुर्दश दश षट् षट् षट् चत्वारि त्रीणि द्वे एकं भवंति ॥ ४६५॥ इनमें से मिध्यादृष्टि गुणस्थान में तो बाईस प्रकृतिरूप स्थान है । सासादनमें इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान है । मिश्र और असंयत गुणस्थानमें सतरह प्रकृतिरूप स्थान है । देशसंयत में तेरह प्रकृतिरूप स्थान है। प्रमत्त आदि तीनमें से प्रत्येक में नौ प्रकृतिरूप स्थान है । अनिवृत्ति२५ करण में पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप पाँच स्थान हैं || ४६४ || मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरणके भाग पर्यन्त जो स्थान कहे हैं उन स्थानों में क्रम से उन्नीस, अठारह, चौदह, चौदह, दस, छह, छह, छह, चार, तीन, दो एक तो मोहनीयकी ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं । जिनका बन्ध अवश्य होता है उन्हें ध्रुवबन्धी कहते हैं ||४६५ || Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ई ध्रुवबंधिगोडनध्रुवबंधिगळं कूडुतं विरलु गुणस्थानदो पूर्वोक्त मोहनीयस्थानप्रकृतिगळमवर भंगंगळुर्वदु पेदपरु : सगसंभवधुवबंधे वेदेवके दोजुगाणमेक्के य । ठाणा वेदजुगाणं भंगहदे होंति तब्भंगा ||४६६ ॥ स्वसंभवध्रुवबंधे वेदैकस्मिन्द्वियुगलयोरेकस्मिश्च स्थानानि वेदयुगलानां भंगहते भवंति तदुभंगाः ॥ आ गुणस्थानंगळो पेद स्वसंभवध्रुवबंधिप्रकृतिसंख्येगळोळ स्वयोग्य वेदमनों दं हास्यारतियुगलद्वयदोळोंदु युगळमुमं कूडुतं विरल स्थान प्रकृतिसंख्याप्रमाणमुं स्वसंभववेदसंख्येयं स्वसंभवयुगळ संख्ययदं गुणिसुतं विरल स्वस्वस्थानदोळु भंगंगळुमप्पुर्व ते दोर्ड मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदो मोहनीय बंधकूटमिदी दो ओदु मिथ्यात्वप्रकृतियुं १० भ २ हा २ । २ अ । १ । १ । १ । कषा १६ मि १ षोडशकषायंगळु भयद्विकमुं मितु एकान्नविंशति प्रकृतिगळु ध्रुवबंधिगळु इवरोळु वेदत्रयदोळों दं द्विकद्वयदलों द्विकमुमं कूडिदोर्ड द्वाविंशतिप्रकृतिगप्पुवी स्थानदोछु हास्यद्विकक्के मूरुं वेदंगलमरतिद्वय के मूरुं वेगळंतु षड्भंगंगळवु २२ सासादननोळु मोहनीयबंधप्रकृति कूटमिदी ६ ६९५ उक्तस्वस्वध्र ुवबंधिषु पुनर्वेदेष्वेकस्मिन् हास्यर तियुग्मयोरेकस्मिश्च मिलिते तानि स्थानानि तद्वेदयुग्मभंगे च हते तदूंगा भवंति । तद्यथा — मिथ्यादृष्टिबंधकूटे मिथ्यात्व षोडशकषायभयद्विकध्रुव २ भ २ । २ १ । १ । १ १६ १ बंधिषु वेदत्रये युग्मयोश्चैकैकस्मिन् मिलिते द्वाविंशतिकं । तदूंगा हास्यरतिद्विकाभ्यां वेदत्रये हते षट् २२ । ६ अपने-अपने स्थानों में कहीं इन ध्रुवबन्धी प्रकृतियों में यथा सम्भव तीन वेदों में से एक वेद और हास्य - शोकके युगल और रति- अरतिके युगल में से एक मिलानेपर स्थान होता है। तथा वेदोंके प्रमाणको युगलके प्रमाणसे गुणा करनेपर भंगोंका प्रमाण होता है। वही कहते हैं ५ २० मिथ्यादृष्टि के बन्धकूट में एक मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा ये उन्नीस तो ध्रुवबन्धी हैं। और तीन वेदों में से एक वेद तथा दो युगलों में से एक युगल मिलकर बाईस प्रकृतिरूप स्थान होता है । यहाँ कूटके आकार रचना है इससे इसे कूट कहा है। तीन वेदोंको हास्य रतिके युगलसे गुणा करनेपर छह होते हैं । सो इस स्थान में छह भंग होते हैं । क- ८८ १५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोकर्मकाण्डे ६९६ ___भ २ . कूटबोळ षोडशकषायंगळु भयद्विकमंतुमष्टादशमोहब्रुवबंधगळप्पु ववरोळ हा २।२ अ ०।१।१। वेदद्वयदोलों दं द्विकद्वयदोळोदु द्विकर्म कूडिदोर्डकविंशतिप्रकृतिस्थानदोळ, वेवद्वयक्कं युगलद्विकक्कं नाल्कु भंगंगळप्पुवु २१ मिश्रंगे मोहनीयबंधकूटमिदी २ कूटदोळ द्वादशकषायंगळं भयद्विक २. २ मुमंतु ध्रुवबंधिगळु पविनाल्कप्पुववरोळ, पुंवेदमुं द्विकद्वयदोळोंदु द्विकमुमं कूडिदोडे सप्तदश प्रकृतिस्थानमक्कुमदरोळ हास्यद्विकक्कमरतिद्विकक्कर्मरडे भंगंगळप्पुवु १७ असंयतंगे मोहनीयबंधप्रकृतिकूटमिदी २ फूटदोळ द्वादशकषायंगळू भयद्विकमुमंतु ध्रुवबंधिगळु पविनाल्कप्पुवव २।२ १२ रोळ द्विकद्वयदोनोंदु द्विकमुमं पुंवेदमुमं कूडिदोडे सप्तदशप्रकृतिस्थानमक्कुमदरोळु द्विकद्वयदेरडे सासादने बंधकूटे । २ भ षोडशकषायभयद्विकध्र वबंधिषु वेदयोटिकयोश्चकैकस्मिन्मिलिते एक हा २।२। म विंशतिक, तद्भगाः वेदद्वययुग्मद्वय द्वादशकषायभयद्विकध्र वबंधिषु | मिश्रबंधकूटे। | २।२ १२ १. जो इस प्रकार हैं-उन्नीस ध्रुवबन्धी और पुरुषवेद हास्य रति इस प्रकार एक भंग हुआ। पुरुषवेदकी जगह स्त्रीवेद होनेपर दूसरा भंग हुआ । नपुंसकवेद होनेपर तीसरा भंग हुआ। तथा हास्य रतिकी जगह शोक अरति होनेपर भी उसी प्रकार तीन भंग होते हैं। इस प्रकार छह भंग होते हैं। इसका मतलब यह है कि बाईसका बन्ध छह प्रकारसे होता है। इसी प्रकार आगे भी प्रकृतियोंके बदलनेसे भंग जानना । सासादन बन्धकूटमें सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा ये अठारह तो ध्रुवबन्धी हैं । इनमें पुरुष-स्त्री दो वेदोंमें से एक वेद और दो युगलोंमें-से एक मिलानेपर इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होता है। इनमें से दो वेदोंको दो युगलोंसे गुणा करनेपर चार भंग होते हैं। __मिश्र बन्धकूटमें बारह कषाय, भय, जुगप्सा ये चौदह ध्रुवबन्धी, इनमें पुरुषवेद और दो युगलों में से एक मिलानेपर सतरह प्रकृतिरूप स्थान होता है। यहाँ एक वेदको दो युगलसे २० गुणा करनेपर दो भंग होते हैं। . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६९७ भंगंगळप्पुवु १७ देशसंयतर्ग मोहनीयबंधकूटमिदो २ कूटंदोळु अष्टकषायगळं भयद्विक, कूडि दश ध्रुवबंधिप्रकृतिगळप्पुववरोळु पुंवेवमुमं द्विकद्वयदोळो दु द्विकमं कूडुत्तं विरलु त्रयोदशमोहनीयप्रकृतिबंधस्थानमक्कुमदक्के द्विकद्वयकृतभंगद्वितयमेयकुं १३ प्रमतसंयतंगे मोहनीयबंधप्रकृति. कूटमिदी २ कूटदोळ कषायचतुष्कमु भयद्विकमुमितारं ध्रुवबंधिगळप्पुववरोळ पुंवेदमुमं द्विक यदोनोंदु द्विकमुमं कूडुत्तं विरलु नवप्रकृतिबंधस्थानमक्कुमदरोळु द्विकद्वितयकृतभंगद्वयमक्कु ९ ५ । मो प्रमत्तगुणस्थानदोळु अरतिद्विकं बंधव्युच्छित्तियादुदु अप्रमतसंयतंगे मोहनीयप्रकृतिबंधकूटमिदो भ२ फूटदोळ संज्वलनकषायचतुष्कनु भयद्विकमुमंतारुं प्रकृतिगळु ध्रुवबंधिगळप्पुववरोळु हा २ पुवेदे द्विकयोरेकैकस्मिश्च मिलिते सप्तदशकं, तद्भगाः हास्यरतिद्विको द्वौ | १७ असयतबघ८ । २ । १२ द्वादशकषायभय द्विकध्र वबंधिषु द्विकयोरेकस्मिन् पुंवेदे च मिलिते सप्तदशक, तद्भगा द्विकद्वयजौ द्वौ । १७ ॥ देशसंयतबंधकूटे अष्टकषायभयद्वयन वबंधिष पंवेदे द्विकद्वयोरेककस्मिश्च मिलिते त्रयोदशकं. तद्धंगाः द्विकद्वयजी द्वौ १३ । प्रमत्तबंधकूटे २ चतुष्कषायभयद्विकध्र वबंधिषु पुंवेदे द्विकयोरेकस्मिश्च मिलिते नवक २।२ x असंयतमें भी मिश्रको तरह सतरह प्रकृतिरूप स्थान जानना तथा भंग दो जानना। देशसंयत बन्धकूटमें आठ कषाय, भय, जुगुप्सा ये दस ध्रुवबन्धी हैं। इनमें पुरुषवेद और दो युगलों में से एकके मिलनेपर तेरह प्रकृतिरूप स्थान होता है। उसमें एक वेदको दो युगलसे गुणा करनेपर दो भंग होते हैं। प्रमत्त बन्धकूट में चार कषाय, भय, जुगुप्सा ये छह ध्रुवबन्धी हैं। इनमें पुरुषवेद और दो युगलों में से एक मिलानेपर नौ प्रकृतिरूप स्थान होता है । एक वेदको दो युगलसे गुणा करनेपर दो भंग होते हैं। यहाँ अरति और शोककी बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ गो० कर्मकाण्डे पुंवेदमुमं हास्यद्विकमुमं कूडिदोर्ड नवप्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लियों दं भंगमक्कु ९ अनु मोहनीयबंध प्रकृति कूटमिदो २ कूटदोळु कषायचतुष्कमं भयद्विकमुमंतु ध्रुवबंधितळारपुववरोळ १ २ १ ४ पुंवेदमुमं हास्यद्विकमुमं कूडिदोर्ड नवप्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लियुमो दे भंगमक्कु ९ मी यपूर्व १ करण गुणस्थानचरमसमयदोळ हास्यद्विकमुं भयद्विकमुं व्युच्छित्तियक्कुमनिवृत्तिकरण गुणस्थानदो ५ मोहनीय बंधकूटं प्रथमभागदोळिदी १ कूटदोळ ध्रुवबंधिगळु कषायंगल नाके यक्कुमवरोल ४ १ पुंवेदमं कूडिदोर्ड पंचप्रकृतिस्थानमव कुमदरोळो देभंग मक्कु ५ मिल्लि पुंवेदं व्युच्छित्तियक्कुं । अनिवृत्तिद्वितीयभागदो मोहनीयबंध प्रकृति कूटमिदी ४ कूटदोळी कषायचतुष्कं ध्रुवबंधिगळeg | भंगमों यक्कु ४ यिल्लि क्रोधं निदुदु | अनिवृत्तितृतीयभागदोळु मोहनीयबंधकूटमिदी ३ १ १ कूटदोळ ध्रुवबंधिगळी मूरुं कषायंगळेयध्वु स्थानमुमिदेयक्कुं । भंगमुमो वैयक्कुं ३ इल्लि मान१० कषायं निदुदु | अनिवृत्तिचतुर्थभागदो मोहनीयबंधकूटमिदी २ कूटदोळी कषायद्वयमे ध्रुवबंधिroga | स्थान द्विप्रकृतिकमक्कुं । भंगमों देयक्कुं २ इल्लि मायाकषायं निदुदु | अनिवृत्ति १ तद्भंगा : द्विकद्वयजी द्वौ ९ । अत्रातिद्विकं बंधव्युच्छिन्नं । अप्रमत्तेऽपूर्वकरणे च बंधकूटे २ चतुः संज्वलनभय २ २ ४ far as पुंवेदे हास्यद्विके च मिलिते नवकं तेन तद्भंग एक : ९ अत्र हास्यद्विकभयद्विके व्युच्छिन्ने । १ अनिवृत्तिकरणबंधकूटे १ चतुष्कषाय वबंधिषु पुंवेदे मिलिते पंचकं तद्भंग एक: ५ । अत्र पुंवेदो व्युच्छिन्नः । ४ १ १५ द्वितीयभागे कषाय चतुष्कं ध्रुवबंधिभंग एकः ४, क्रोधो व्युच्छिन्नः । तृतीयभागे कषायत्रयं भंग एक: ३ मानो १ १ अप्रमत्त और अपूर्वकरण बन्धकूट में चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा ये ध्रुवबन्धी हैं । इनमें पुरुषवेद, हास्य, रति मिलनेपर नौ प्रकृतिरूप स्थान होता है । यहाँ भंग एक ही है । यहाँ हास्य, रति, भय, जुगुप्साके बन्धकी व्युच्छित्ति हो जाती है । २० I अनिवृत्तिकरण के बन्धकूट में चार कषाय ध्रुवबन्धी हैं । उनमें पुरुषवेद मिलनेपर पाँच प्रकृतिरूप स्थान होता है । यहाँ भंग एक ही है । यहाँ पुरुषवेदके बन्धकी व्युच्छित्ति हो जाती है । उसीके दूसरे भाग में कषायचतुष्क ध्रुवबन्धीरूप स्थान है । भंग एक । यहाँ क्रोध की व्युच्छित्ति हो जाती है । उसीके तीसरे भाग में तीन कषाय ध्रुवबन्धीरूप स्थान है। भंग एक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पंचमभागदोळु मोहनीयबंधप्रकृति कूटमिदी १ कूटबोळी लोभकषायमोदे ध्रुवबंधियक्कुमिदे एक प्रकृतिबंधस्थानमव कुमल्लि यों दे भंगमक्कु १ इंतुक्त नवगुणस्थानंगळोळ संदृष्टि: -- १ मि २२ ६ ४ सा २१ मि अ दे प्र अ अ अ १७ | १७ | १३ | ९ |९|९| ५|४|३२|१| २ । २ । २ २ | १ | १ | १११|१|१|१| : मोहनीयद्वाविशत्या दिबंघस्थानंगळोळ, भंगसंख्येयं पेदपरु छन्त्रावीसे चदुइगिवीसे दोदो हवंति छट्ठोत्ति । एक्क्कमदो मंगा बंधट्ठाणेसु मोहस्स || ४६७ ॥ द्वाविंशत्यां चत्वार एकविंशतौ द्वौ द्वौ भवंति षष्ठपय्र्यंतं एकैकोऽतो भंगा: बंधस्थानेषु ६९९ मोहस्य || मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरण पय्र्यंत पेळद मोहनीयबंधस्थानंगळोळ, मोदल द्वाविंशतिप्रकृतिबंघस्थानदोळ षड्भंगंगळप्पुवु । एकविंशतिप्रकृतिबंधस्थानदोळ, नालकुभंगंगळवु । मेले प्रमत्तपथ्यंतमेरडेरडु भंगंगळष्णुवु । अतः अल्लिदं मेलेल्ला स्थानंगळोळोदो वे भंगंगळवु ॥ अनंतरं मोहनीयबंध सामान्यस्थानसमुच्चय संख्येयुमनवर्क संभविसुव भुजाकारादिबंधभेदसंख्येगळ मं पेळ्वपरु : दस वीसं एक्कारस तित्तीसं मोहबंधठाणाणि । भुजगारपदराणि य अवट्ठिदाणिवि य सामण्णे || ४६८॥ दश विंशतिरेकादश त्रयस्त्रिशन्मोहबंधस्थानि । भुजाकारात्पतरावस्थिता अपि च १५ सामान्ये ॥ व्युच्छिन्नः । चतुर्थभागे कषायद्वयं भंग एकः २ माया व्युच्छिन्ना, पंचमभागे लोभ एवं भंग एकः १ ॥ ४६६ || १ १ उक्तभंगसंख्यामाह— मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणांतेषूक्तमोहनीयबंघस्थानेषु भंगा द्वाविंशतिके षड् भवंति । एक विशतिके चत्वारः । उपरि प्रमत्तपर्यंतं द्वौ द्वौ । अत उपरि सर्वस्थानेष्वेकैकः ॥४६७ ॥ भंग एक | है । यहाँ मानकी व्युच्छित्ति हुई । चौथे भागमें दो कषाय ध्रुवबन्धीरूप स्थान है। यहाँ मायाकी छत हुई । पाँचवें भाग में लोभ ध्रुवबन्धीरूप स्थान है। भंग एक है ||४६६ || आगे भंगों की संख्या कहते हैं ५ १० मिध्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण पर्यन्त मोहनीयके बन्धस्थानोंमें भंग बाईस प्रकृतिरूप स्थान में छह, इक्कीस प्रकृतिरूपमें चार, ऊपर प्रमत्त पर्यन्त दो-दो तथा उससे २५ ऊपर सब स्थानों में एक-एक जानना ||४६७॥ २० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० गो० कर्मकाण्डे भंगविवक्षेयं माडदे सामान्यदोळ मोहनीयबंधस्थानंगळ भुनाकारंगळ मल्पतरंगळ मयस्थितंग यथाक्रमदिदं दश विंशति एकादश त्रयस्त्रिशत्संख्ये गळप्पुवु। संदृष्टि-स्था १० । भुजाकार २० । अल्प ११ । अव ३३ ॥ अनंतरं भुजाकार बंधादिगळ्गे लक्षणमं पेळ्वपरु : अप्पं बंधतो बहुबंधे बहुगा दु अप्पबंधेवि । उभयत्थ समे बंधे भुजकारादी कमे होति ॥४६९॥ अल्पं बध्नन्बहुबंधे बहुकात्तु अल्पबंधेपि । उभयत्र समे बंधे भुजाकारादयः क्रमे भवंति ॥ अल्पप्रकृतिस्थानमं कटुत्तमनंतरसमयदोळ बहुप्रकृतिस्थानमं कटुत्तं विरलु भुजाकारबंधमे बुदक्कुं। तु मते बहुकात् बहुप्रकृतिस्थानमं कटुत्तमनंतर समयदोळल्पप्रकृतिस्थानमं कट्टिद१० नादोडे अल्पतरबंध बुदक्कुं। उभयत्र समे दंधे भुजाकाराल्पतरप्रकृतिस्थानबंधकं द्वितीयादिसमयंग कोळ समबंधकनागुत्तं विरलवस्थितबंध बुदक्कु-। मपिशब्दविंदमवक्तव्यबंधमुमल्लियुमवस्थितबंधमुमुदरियल्पडुगुं ॥ अनंतरमव्यक्तबंधमं भंगविवक्षयं माडद सामान्यदिदं पेळ्दपरु: सामण्ण अवत्तव्वो ओदरमाणम्मि एक्कयं मरणे। एक्कं च होदि एत्थवि दो चेव अवन्दिा भंगा ॥४७०॥ सामान्यावक्तव्योऽवतीर्यमाणे एको मरणे । एकश्च भवत्यत्रापि द्वावेवावस्थितौ भंगौ ॥ प्राग्मोहनीयबंधस्थानानि दशोक्तानि तेषां भंगविवक्षामंतरेण भजाकारबंधाः विशतिः। अल्पतरबंधा एकादश । अवस्थितबंधास्त्रयस्त्रिशत् ॥४६८॥ एतान् लक्षयति अल्पप्रकृतिकं बघ्नन्ननंतरसमये बहप्रकृतिकं बध्नाति तदा भुजाकारबंधः स्यात् । पुनः बहुप्रकृतिक २० बघ्नन्ननंतरसमयेऽल्पप्रकृतिकं बध्नाति तदाल्पतरबंधः । तत्र उभयत्र अपिशब्दादवक्तव्यबंधद्वयऽपि च द्वितीया दिसमयेषु समानप्रकृतिकं बध्नाति तदावस्थितबंधः ॥४६९।। अथ सामान्यावक्तव्यभंगसंख्यामाह पहले मोहनीयके बन्धस्थान दस कहे हैं। उनके भंगोंकी विवक्षा बिना किये भुजकार बन्ध बीस हैं, अल्पतर बन्ध ग्यारह हैं। और अवस्थित बन्ध तैंतीस हैं ॥४६८|| भुजकारादिका लक्षण कहते हैं थोड़ी प्रकृतियोंका बन्ध करनेके अनन्तर समयमें बहुत प्रकृतियोंको बाँधे तो भुजाकार बन्ध होता है। बहुत प्रकृतियोंका बन्ध करनेके अनन्तर समयमें थोड़ी प्रकृतियोंको बाँधे तो अल्पतर बन्ध होता है। इन दोनों ही प्रकारके बन्धों में तथा 'च' शब्दसे दोनों अवक्तव्य बन्धों में भी जितनी प्रकृति पहले बाँधी थी पीछे द्वितीयादि समयोंमें उतनी ही बाँधे तो अवस्थित बन्ध होता है ।।४६९।। आगे सामान्य अवक्तव्य भंगोंकी संख्या कहते हैं १. अथ सामान्योक्तस्थानानि तद्भुजाकारादिबंधांश्च संख्याति' पाठोऽयमभयचंद्रनामांकितायां टोकायामधिकः। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७०१ भंगविवक्षारहितमागि सामान्यदिदमवक्तव्यबंधमुपशमश्रेणियनिळियुतिपतिनोळु एक भंगमकुं। मरण मुंटादोडल्लियो दु भंगमकुमंतवक्तव्यबंधमेरडप्पुवा येरडरोळं द्वितीयादिसमयदोळु समप्रकृतिस्थानबंधमागुत्तं विरलु भयदोळ्कूडि यरडुभंगंगळवस्थितंगळप्पुवंतागुत्तं विरलु सामान्य बंधस्थानंगळु हत्तक्कं वक्ष्यमाणप्रकारदि भुजाकारबंधंगळिप्पत्तु । अल्पतरबधंगळपन्नों दु । आ भुजाकाराल्पतरमुभयदोळमवस्थितबंधंगळु कूडि मूवत्तोंदु । अवक्तव्यबंधद्वयद द्वितीयावि ५ समयदोळ संभविसुव अवस्थितबंधंगळे रडंतु कूडि अवस्थितबंधंगळु मूवत्तमूरु। भुजाकाराल्पतरावस्थितदिदं निरूपिसल्पडदुदरणिंदमवक्तव्यबंधमे बुदक्कुमवक्के क्रमदिदं संदृष्टि :-- ठा २२ । २१ । १७ । १३ ।९।५।४।३।२।१। कूडि १०॥ भुजाकार संदृष्टि :। ११ । २।२ । ३।३ । ४।४ । ५।५ । ९९ । ९९ | १३।१३।१३ । १७३१७ | २१ । २०१७ । ३।१७ | ४|१७ | ५।१७ | ९।१७ ॥१३॥१७ रश२२ । १७२श२२ | २०२२ | २२ अल्पतर संदृष्टि: । २२।२२।२२ १७.१७ | १३| ९ | ५ | ४ | ३ | २ | १७।१३। ९ ।१३।९।९ । ५ । ४।३।२।१ । अवक्तव्यबंधंगळ संदृष्टि ० ० अवस्थितंगळ कूडि मूवत्तमूरु ३३ । यिन्नु भुजाकारावि १११७ बंगळु संभविसुव प्रकारं पेळल्पडुगुमदेते दोडे-उपशमश्रेण्यवतरणवोळु अनिवृत्तिकरणं संज्वलनलोभमं कटुतलिळिदनंतर समयदोळु संज्वलनमाये सहितमागवतरणद्वितीयंप्रथमभागवोळ १० सामान्येन भंगविवक्षामकृत्वा अवक्तव्यबंधः । उपशमश्रेण्यवरोहके एकः । तत्र मरणेऽप्येकः एवं दो भवतः । तथा तदद्वितीयादिसमये चावस्थितबंधावपि द्वौ भवतः । अमीषां भजाकारादीनां संभवप्रकार उच्यते-- १५ अवरोहकानिवृत्तिकरणः संज्वलनलोभं बघ्नन्नघस्तनभागेऽवतीर्य मायासहितं बध्नाति वा स यदि बद्धायुषको म्रियते तदा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश च बनातीत्येकबंधके भुजाकारी द्वौ। पुनः तवयं बनन्नवतोर्याधस्तनभागे मानसहितं बध्नाति । व। तथा देवासंयतो भत्वा सप्तदश बध्नातीति द्विबंधकेऽपि दो। पुनस्तत्त्रयं बघ्नन्नवतीर्याधस्तनभागे चतुःसंज्वलनान् वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश च बनातीति त्रिबंधके द्वौ। सामान्यसे अर्थात अंगोंकी विवक्षा न करके अवक्तव्य बन्ध दो होते हैं उपशमश्रेणिसे उतरनेपर एक और वहाँ मरनेपर एक । तथा उसके द्वितीय आदि समयमें अवस्थितबन्ध भी दो होते हैं । इन भुजाकार आदिके होनेको कहते हैं ___ उपशमश्रेणिसे उतरनेवाला अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती संज्वलन लोभका बन्ध करके नीचेके भागमें उतरकर माया-लोभ दोका बन्ध करता है। अथवा यदि वह बद्धायु वहाँ मरकर देव असंयत होकर सतरहका बन्ध करता है तो इस प्रकार एक प्रकृतिरूप बन्ध २५ स्थानमें दो भुजाकार होते हैं । पुनः उन दोनोंको बाँध नीचेके भागमें उतर मान सहित तीनका बन्ध करता है अथवा उक्त प्रकारसे असंयत देव होकर सतरहका बन्ध करता है तो दो प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें भी दो भुजाकार होते हैं। पुनः उन तीनोंको बाँध उतरकर नीचेके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ गो० कर्मकाण्डे येरडं कटुगुमिदो दु भुजाकारबंधमक्कुं। मत्तमा संज्वलनलोभमं कटुत्तिर्दु मरणमादोडे देवासंयतनागि पदिनेछु प्रकृतिस्थानमं कटुगुमिदो दु भुजाकारबंधमक्कुमितेरडु। मत्तमा संज्वलनलोभमायाद्वयमं कटुत्तिळिदनंतरसमयदो अवतरणद्वितीयभागदोळ संज्वलनलोभमायामान त्रयम कटुगुमिदों भुजाकारमा द्विबंधकंगे मरणामादोर्ड देवासंयतनागि पदिनेछु प्रकृति. ५ स्थानमं कटगुमिदोदु भुजाकारबंधमक्कुमंतु द्विबंधकनोळेरडु। मतमा संज्वलनलोभमायामान सहितमागि मूरं कटुत्तिद्दिळिदनिवृत्तिकरणावरणतृतीयचतुर्थभागोळु नाल्कुं संज्वलनकषायप्रकृतिस्थानमं कद्गुमिदोंदु भुजाकारबंधमक्कुमा त्रिबंधकंग मरणमादोडे देवासंयतनागिपदिने; कटुगुमिदोंदु भुजाकारबंधमक्कुमंतरडु। मत्तमवतरणचतुर्थभागवोळनिवृत्तिकरणं संज्वलनकषायचतुष्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तिळिदु पंचमभागदोछु पुंवेदसहितमागि पंचप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदोंदु भुजाकारबंधमक्कुमा चतुष्कषायबंधकंगे चतुत्थंभागदोळु मरणमादोडे देवासंयतनागि पदिनेछु प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिवोदु भजाकारबंधमक्कुमंतु चतुष्कषायबंधकनोळरडु। मत्तमा पंचप्रकृतिस्थानबंधकानिवृत्तिकरणनिळिदु अपूर्वकरण गुणस्थानमं पोद्दिद प्रथमसमयदो नवप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडे इदोंदु भुजाकारबंधमक्कुमा पंचप्रकृतिस्थानबंधकानिवृत्तिकरणंग मरणमादोडे देवासंयतनागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदो दु भुजाकारबंधमाकुमंत रडप्पुवु । १५ पुनस्तच्चतुष्कं बघ्नन्नवतीर्याधस्तनभागे पुंवेदसहितं बध्नाति । वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश बध्नातीति चतुबंधके द्वौ । पुनस्तत्पंच बध्नन्नवतीर्यापूर्वकरणो भूत्वा हास्यरतिभयजुगुप्साचतुष्केण सह नवकं बध्नाति । वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश च बध्नातीति पंचबंधके द्वो। पुनः अपूर्वकरणोऽप्रमत्तः प्रमत्तो वा नवबंधक: क्रमेणावतीर्य देशसंयतो भत्वा त्रयोदश, वा देवासंयतो भत्वा सप्तदश, वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वः भूत्वैकविंशति, वा वेदकसम्यक्त्वः स मिथ्यादृष्टिभूत्वा द्वाविंशतिं च बघ्नातीति नदबंधके चत्वारः । पुनः २० तत्त्रयोदशबंधकोऽसंयतो देवासंयतो वा भूत्वा सप्तदश वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वः स सासादनो भूत्वैकविंशति वा भागमें चार संज्वलन कषायोंको बाँधता है अथवा असंयत देव होकर सतरहको बाँधता है तो तीन प्रकृतिरूप स्थानमें भी दो मुजकार होते हैं। पुनः उन चारको बाँध उतरकर नीचेके भागमें पुरुषवेदके साथ पाँचको बाँधता है अथवा असंयतदेव हो सतरहको बाँधता है तो २५ इस प्रकार इस प्रकार चार प्रकृतिरूप स्थानमें भी दो भुजकार होते हैं। पुनः उन पाँचका बन्ध करके उतरकर अपूर्वकरण गुणस्थानमें हास्य, रति, भय, जुगुप्साके साथ नौका बन्ध करता है या असंयत देव होकर सतरहका बन्ध करता है इस प्रकार पाँचके बन्धस्थानमें भी दो भुजाकार होते हैं। पुनः अपूर्वकरण, अप्रमत्त या प्रमत्त नौका बन्ध करके क्रमसे उतरकर देशसंयत होकर तेरहका अथवा देव असंयत होकर सतरहका बन्ध करे। अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्वी सासादनमें जाकर इक्कीसका बन्ध करे अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्वी या वेदक सम्यग्दृष्टी मिध्यादष्टी होकर बाईसका बन्ध करे इस प्रकार नौ प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें चार भुजाकार होते हैं। पुनः तेरहको बाँधकर असंयत या देव असंयत हो सतरहको बांधे, अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्वी सासादन होकर इक्कीसको बांधे या प्रथमोपशम सम्यक्त्वी या वेदक Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मत्तमा नवबंधकावतारकापूर्व्वकरणं क्रमदिदमिलि प्रमत्तनागि नवबंध कनागुत्तिदूि देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदोंदु भुजाकारबंध मक्कुमथवा श्रेण्यवतारकनल्लद प्रमत्तसंयतं देश संयतनागि मेणु त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमा बद्धानुष्यं नवबंधकापू करणंगमप्रमत्तसंयतंगं प्रमत्तसंयतंगं मरणमादोर्ड देवासंयतनागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदो भुजाकारधमकुं । अवतारका पूर्वकरण चरमभागदो मरणमेतु घटिसुगुमवु मरणरहित ५ भागमेदितु शंसिल्वेडेक' दोडे उपशमश्र ण्यारोहणदोळे प्रथमभागदोलु मरणमिल्लवतरणदोळल्लि मरणटप्पूदरिदं । मत्तं प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियप्रमत्तसंयतं प्रमन संयतनागि नव प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं विराधिसि अनंतानुबंधि कम्र्म्मोदर्याददं सासादननागि एकविशतिप्रकृतिस्थान मं कट्टिदोडिदोदु भुजाकारबंधमक्कु । मत्तमा नवबंधकं प्रमत्तसंयतं मिथ्यादृष्टिगुणस्थान मं पोद्दिद्वाविंशतिप्रकृतिबंधस्थान मं कट्टिदोडिदो भुजाकारबंध मक्कुमंतु नवबंधकनो नाकु भुजाकारबंधंगळवु । त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुतिई देशसंयतनसंयतनागि मेण मरणमादोर्ड देवासंयतनागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुमिदोंढुं भुजाकारबंधमक्कु । मत्तं प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि देशसंयतं त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति सासादननागि एकविंशतिप्रकृतिस्थान मं कट्टिदोडिदोदु भुजाकारबंध मक्कु । प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियागळि वेदकसम्यग्दृष्टियागलि त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्द्द देशसंयतं मिथ्यात्वोदयदिदं मिथ्यादृष्टियागि द्वाविंशति १५ प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदोंदु भुजाकारबंध मक्कुमिंतु त्रयोदशप्रकृतिस्थानबंध कंगे भुजाकारबंधगळु मूरु संभविसुववु । सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्द्दसंयत सम्यग्दृष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालमावळिषट्कमवशेषमादागळ अनंतानुबंध्युदर्याददं सासादननागि एकविंशतिप्रकृतिस्थानमं 'कट्टिदोडिदोंदु भुजाकारबंध मक्कुमा सप्तदशप्रकृतिस्थानबंधकनसंयतं प्रथमोपामसम्यग्दृष्टि मे वेदकसम्यग्दृष्टियागलि मेणु मिश्रनागलि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति मिथ्यात्वोदर्याददं २० मिथ्यादृष्टियागि द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिदों दु भुजाकारबंध मक्कुमितु प्रकृतिस्थानबंध कनोल भुजाकारबंधंगळे रडप्पुवु । मत्तमेकविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्द्द सासादनं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमनों दनं नियमदिदं पोद्दि तद्भवदोळं मेणु परभवदोळं द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुमिदोंदे प्रकारबंधमक्कु । मितु भुजाकारबंधंगळिष्पत्तुं पेळपट्टु विन्न सप्तदश ७०३ प्रथमोपशमसम्यक्त्वो वेदकसम्यक्त्वश्च मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा द्वाविंशति च बध्नातीति त्रयोदशबंघ के त्रयः । तत्सप्त- २५ दशबंधक: प्रथमोपशमसम्यक्त्वः सासादनो भूत्वकविशति वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वो वेदकसम्यक्त्वो मिश्रश्च स मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा द्वाविंशति च बघ्नातोति सप्तदशबंधके द्वौ । पुनस्तदेकविंशति बघ्नन् मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा तस्मिन्न १० सम्यग्दृष्टी मिथ्यादृष्टी होकर बाईसको बाँधे तो इस प्रकार तेरह प्रकृतिरूप बन्ध स्थान में तीन भुजाकार होते हैं । सतरह प्रकृतिको बाँधकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वी सासादन होकर इक्कीसको बांधे या प्रथमोपशम सम्यक्त्वी वेदक सम्यग्दृष्टी और मिश्रगुणस्थानवर्ती मिथ्या- ३० दृष्टि हो बाईसको बाँधता है तो इस प्रकार सतरह के बन्धस्थान में दो भुजाकार होते हैं । क- ८९ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे ल्पतरबंधंगळु विचारिसल्पडुगु मर्द' ते ' दोर्ड -- अनादिमिथ्यादृष्टिमेणु सादिमिथ्यादृष्टिमेणु करणत्रयमं माडि अनिवृत्तिकरणच रमसमयदोळ द्वाविंशतिप्रकृति मोहनीयस्थान में कट्टुत्तमनंतरसमयवोळु असंयत प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोर्ड यिदों वल्पतरबंधभेद मक्कुमथवा सादिमिथ्यादृष्टिसम्यक्त्व प्रकृत्युदर्यादद वेदकसम्यग्दृष्टियागि अप्रत्याख्यान५ कषायोदर्याददमसंयतनागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमा मिथ्यादृष्टिकरणत्रयमं माडि अनिवृत्तिकरण चरमसमयदोळ द्वाविंशतिमोहनीयबंधत्थानमं कट्टि तदनंतर समयवो प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियागि प्रत्याख्यानावरणोदर्याददं देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टु । अथवा सादिमिथ्यादृष्टि द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिदु तदनंतरसमयदोळु सम्यक्त्व प्रकृतिप्रत्याख्यानावरणोदयंगळदं वेदकसम्यग्दृष्टि देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिबंधस्थानमं कट्टुगुं । १० मत्तमा साधनादिमिथ्यादृष्टिगळु द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्द्दनंतरसमयदोळ प्रमत्तनागि नव प्रकृतिस्थानमं कट्टुगुमितपुनरुक्ताल्पत रबंधभेदंगळु द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानबंधदत्तणिदं मूरप्पुवु । मत्तमसंयतवेदकसम्यग्दृष्टि मेणु क्षायिकसम्मदृष्टि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्दु तदनंतरसमयदो प्रत्याख्यानवरणोदर्याद देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमसंयतं सप्तदशप्रकृतिस्थान मं कट्टुत्ति अनंतरसमयदोळु महाव्रतियप्रमत्त संयतनागि नवप्रकृतिस्थानमं कट्टु । १५ यितु सप्तदशप्रकृतिस्थानबंधकं गल्पतरबंधभेदंगळे रडप्पुवु । सप्तदशप्रकृतिबंधकं सम्यग्मिथ्यादृष्टिमेले असंयतगुणस्थानमं पोद्दिसप्तवाप्रकृतिस्थानमनल्लियं. कट्टुगुमप्पुदरिदमा मिश्र अल्पतरबंधभेदं संभविसदु । मत्तं त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति देशसंयतं महाव्रतियप्रमत्तसंयतनागि नवप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमपूवं करणं नवप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्दनिवृत्तिकरणप्रथमभागमं पोद्दि तत्प्रथमसमयवोळ पंचप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमा प्रथमभागानिवृत्ति २० ७०४ २५ न्यस्मिन्वा भवे द्वाविंशति बनातीत्येकः । एवं भुजाकारा विंशतिः । अथाल्पतरबंधा उच्यंते अनादिः सादिव मिध्यादृष्टिः करणत्रयं कुर्वन्ननिवृत्तिकरणचरमसमये द्वाविंशति बघ्नन्ननंतरसमये प्रथमोपमसम्यग्दृष्टिभूत्वा वा सादिमिध्यादृष्टिरेव सम्यक्त्वप्रकृत्युदये सति वेदकसम्यग्दृष्टिभूत्वा उभयोऽप्यप्रत्याख्यानोदयेऽसंयतो भूत्वा सप्तदश बध्नाति । वा प्रत्याख्यानोदये देशसंयतो भूत्वा त्रयोदश बध्नाति, वा संज्वलनोदयेऽप्रमत्तो भूत्वा नव बनातीति द्वाविंशतिबंधे त्रयः । पुनः वेदकसम्यग्दृष्टिः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्वा इक्कीसको बाँधकर मिध्यादृष्टि होकर उसी भव में या दूसरे भव में बाईसको बाँधे तो इक्कीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान में एक भुजाकार हुआ। इस प्रकार भुजाकार बन्ध बीस होते हैं । अब अल्पतर बन्ध कहते हैं - अनादि अथवा सादि मिथ्यादृष्टी तीन करण करते हुए अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में बाईसका बन्ध करके अनन्तर समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वी होकर अथवा सादि मिध्यादृष्टी सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे वेदक सम्यक्त्वी होकर, दोनों ही अप्रत्याख्यानका उदय होनेसे असंयत होते हुए सतरहको बाँधे, या ३० प्रत्याख्यानके उदय में देशसंयत हो तेरह बाँधे, या संज्वलनका उदय होनेसे अप्रमत्त हो नौ को बाँधे इस प्रकार बाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें तीन अल्पतर बन्ध होते हैं । वेदक सम्यग्दृष्टी या क्षायिक सम्यग्दृष्टी असंयत सतरहको बाँध देशसंयत हो तेरहको Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ७०५ करणं पंचप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु द्वितीयभागमं पोहि तत्प्रथमसमयदोळ चतुःप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। मत्तमा निजद्वितीयभागानिवृत्तिकरणं चतुःप्रकृतिस्थानमं कट्दुत्ति? निजतृतीयभागमं पोद्दि तत्प्रथमसमयदोळ त्रिप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। मत्तमा तृतीय भागानिवृत्तिकरणं त्रिप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु निजचतुर्थभागमं पोदि तत्प्रथमसमयदोद्विप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। मत्तमा चतुर्थभागानिवृत्तिकरणं द्विप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु निजपंचमभागमं पोद्दि एकप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। इंतल्पतरबंधंगळ पन्नोंदु संभविसुव प्रकारं पेळपट्टुदु । अवस्थितबंधभेदंगळु मूवत्तमूरप्पुर्वते दोडे भुजाकारबंधभेदंगळिप्पत्तमल्पतरबंधंगळु पन्नों दुमवक्तव्यबंधंगळे रडुमितु मूवत्तमूररोळं द्वितीयादिसमयंगळोळु समबंधसंभवंगळप्पुर्वेदु निश्चयिसुवुदु ॥ ई सामान्यभुजाकाराल्पतरावस्थितावक्तव्यमब चतुविधबंधगळं विशेषिसि पेन्दपरु : सत्तावीसहियसयं पणदालं पंचहत्तरहियसयं । भुजगारप्पदराणि य अवट्ठिदाणिवि विससेण ।।४७१॥ सप्तविंशत्युत्तरशतं पंचचत्वारिंशत्पंचसप्तत्यधिकशतं । भुजाकाराल्पतराश्चावस्थिता अपि विशेषेण ॥ विशेषदिदं भुजाकाराल्पतरावस्थितंगळ यथाक्रमदिदं सप्तविंशत्युत्तरशतं १२७ । पंचचत्वारिंशद् भेदमुं ४५। पंचसप्तत्यधिकशतमु १७५ । मप्पुवर्दै तेंदोडे सामान्यबंधस्थानंगळु पत्तु १०। १५ असंयतः सप्तदश बहनन् देशसंयतो भूत्वा त्रयोदश वा अप्रमत्तो भूत्वा नव च बध्नातीति सप्तदशबंधे द्वौ । पुनः तत्त्रयोदशबंधकोऽप्रमत्तो भूत्वा नव, नवबंधकोपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणप्रथमभागे पंच, पंचबंधकः द्वितीयभागे चत्वारि, चतुबंधकस्तृतीयभागे त्रीणि, त्रिबंधकश्चतुर्थभागे द्वे, द्विबंधकः पंचममागे एकं च बन्नातीत्यकैकः । एवमल्पतरबंधाः एकादश । उक्तभुजाकाराल्पतरावक्तव्यानां द्वितीयादिसमयेषु समबंधोऽव. स्थितबंधस्त्रयस्त्रिशत् ॥४७०॥ अथ विशेषभजाकारादीन संख्याति विशेषभुजाकाराः सप्तविंशतिशतं, अल्पतराः पंचचत्वारिंशत्, अवस्थिताः पंचसप्ततिशतं । तत्र २० बाँधे या अप्रमत्त होकर नौको बाँधे, इस तरह सतरहके बन्धस्थानमें दो अल्पतर होते हैं। तथा तेरहका बन्धक अप्रमत्त हो नौको बाँधे, नौका बन्धक अपूर्वकरण या अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें पाँच बाँधे, पाँचको बांधकर दूसरे भागमें चार बाँधे, चारको बाँध तीसरे भागमें तीन बाँधे, तीनको बाँध चौथे भागमें दो बाँधे, दोको बाँध पाँचवें भागमें एक बाँधे, २५ इस तरह इन स्थानोंमें एक-एक अल्पतर होता है। ऐसे सब अल्पतर ग्यारह होते हैं। तथा ऊपर कहे दो अवक्तव्य, बीस मजाकार. ग्यारह अल्पतर ये सब मिलकर तेतीस अवस्थित बन्ध होते हैं; क्योंकि इन बन्धोंमें जितनी प्रकृतियोंका बन्ध कहा है उतनी ही प्रकृतियोंका बन्ध द्वितीयादि समयोंमें जहाँ होता है वहाँ अवस्थित बन्ध कहा जाता है ।।४७०॥ आगे विशेष भुजाकारादिकी संख्या कहते हैं विशेष रूपसे भुजाकार एक सौ सत्ताईस, अल्पतर पैंतालीस, और अवस्थित एक सौ पिचहत्तर होते हैं । विशेष मुजाकार कहते हैं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ गो० कर्मकाण्डे विक्र्क संभविव विशेषभुजाकारंगळ रिप्पत्ते ळक्के संभवमं पेव्वल्लि साधनमप्य रचनाविशेषमिदु : -- सा १ मिश्र १ असं २ २१ ४ ام الما १७ १७ १७ २ २ २२ २२ २१ ६ ४ २४ २ १२ १ १ २ १ ४ १ १७ ८ २२ ६ अपू १ अनिवृत्तिको २ ९ १ १२ ५ १ १७ २ २ | देशसं । ३ ॥०॥ १३ |१३ १३ २ २ २ १७ २ * ४ १ ५ १ १ २१ ४ ८ ४ १ १७ २ २ २२ ६ १२ ३ १ ४ १ १ प्रमत्तको ४ ॥ ९ २ م مراسم २ १३ २ ४ ३ १ ४ २ २ १७ २ ४ २ १ ३ १ १ ९ २ x21. २१ ४ ሪ २ १ १७ २ २ २ २२ १७ ६ २ २ १२ १ १ (अप्र १ ९ २२ १ १ १ १७ २ २ ई विशेष भुजाकारंगळगाळापं माडल्पडुगुमदे ते बोर्ड इल्लि द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानम कटुत्ति मिथ्यादृष्टिबहुलं प्रकृतिस्थानमं कट्टुवडा बहुप्रकृतिस्थानांतरासंभवमप्युरिवं ५ भुजाकारबंधमा द्वाविंशतिप्रकृतिबंधदतणिदं शून्यमक्कुं । सासादनसम्यग्दृष्टि एक भंगयुतैकविशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तळ षड्भंगयुत द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिरलु चतुभंगयुतैकविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुवागळे नितु द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानबंध भुजाकारंगळपुर्व वितु त्रैराशिकमं माडुत्तिरलु प्र २१ | फ २२ | इ २१ | बंद लब्धं चतुविशति १ । ६ | ४ | भुजाकार बंधंगळg | २४ | सम्यग्मिथ्यादृष्टि एकभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तलु षड्भंग१० युत द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं क्रर्माददं कट्टुत्तिरलु द्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कटुवागलेनितु द्वाविंशतिप्रकृतिबंध स्थानभुजाकारंगळप्युर्वेदितु त्रैराशिकमं माडुत्तिरलु | प्र | फ इ १७ २२ १७ | १ | ६ |२ ↑ भुजाकारो यथा द्वाविंशतिकस्य मिथ्यादृष्टी शून्यं ततोऽधिकस्य मोहनीय बंधस्थानस्याभावात् । सासादनबन्धयोग्यच तु कविशति कस्यैकभंगस्य मिथ्यादृष्टिबंध योग्यषोढाद्वाविंशतिकस्येकैकभंगेन समबंधे चतुर्विंशतिः । एवं १५ मिथ्यादृष्टिमें बाईससे अधिकका बन्धस्थान मोहनीय का न होनेसे शून्य है । सासादनमैं बन्धयोग्य इक्कीसके चार भंग कहे हैं और मिथ्यादृष्टि में बन्धयोग्य बाईसके छह मंग कहे हैं । सासादनसे मिध्यादृष्टिमें आवे तो एक-एक भंगकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि में बाईसके बन्धके छह भागोंके भुजाकार ४४६ - चौबीस होते हैं । इसी प्रकार मिश्र में सतरह के बन्धके Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बंदलब्ध द्वादशभुजाकारबंधंगळप्पु १२ । असंयतसम्यग्दृष्टि एकप्रकार भंगयुत सप्तदश प्रकृतिस्थान कटुत्तलु चतुब्भंगयुतैकविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिरलु द्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुवागळे नितु एकविंशतिप्रकृतिस्थानबंधभुजाकार बंधंगळदपुवेंदु त्रैराशिकमं माडुत्तिरलु - बंदलब्धं भुजाकारंग एंटु । मत्तमा सप्तदश प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तलसंयतं प्रफ इ १७ २१ | १७ १ ४ २ षड्भंगयुतद्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुवागळ द्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तलेनि ५ द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानभुज (कारंगलं माळकुम दितिदो दु त्रैराशिकमं माडि । प्र |फ|इ १७ | २२ | १७ | १ | ६ | २ । बंद लब्धं भुजाकारंगळु पर्नरड १२ वंत संयतन सप्तदशप्रकृतिस्थानदत्तण भुजाका रंगळिप्पत्तप्पुवु २० ।' देशसंयतं एक भंगयुत त्रयोदश प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तलु द्विभंगयुत सप्तदश प्रकृतिस्थानमन संयतनागि मेणु मिश्रनागि मेणु देवासंयतनागि कट्टुवातं द्विभंगयुतत्रयोदश प्रकृतिस्थानम कट्टिबोर्डनितु भुजाकारंगळपुर्व दितु त्रैराशिकमं माडि मत्तमंत चतुर्भगयुतैकविंशतिप्रकृतिस्थान - १० षड्गतद्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं फलराशिगळं माडितु त्रैराशिकत्रितयमं माडि - - ७०७ Я फ इ लब्ध प्र फ इ लब्ध प्र फ १३ १७ १३ ४ १३ २१ १३ ८ १३ २२ १ २ २ १ ४ २ १ ६ २ लब्धत्रभुजाकर विशेषंगळु त्रयोदशप्रकृतिस्थानदत्तणदमिप्पत्तनात्कप्पवु २४ । प्रमत्तसंयतं एकभंग इ | लब्ध १३ १२ सम्यग्मिथ्यादृष्टिबंधयोग्यद्विधासप्तदशकस्य मिथ्यादृष्टिषोढाद्वाविंशतिकेन द्वादश । असंयतद्विधासप्तदशकस्य सासादनच तुकविंशतिकेनाष्टी मिध्यादृष्टिषोढाद्वाविंशतिकेन च द्वादशेति विंशतिः । देशसंयतद्विधात्रयोदशकस्य मिश्रा संयत देवासंयतानां द्विधासप्तदशंकेन चत्वारः । सासादन चतुर्वेकविंशतिकेन चाष्टौ मिध्यादृष्टिषोढा विंशतिकेन १५ दो भंग होते हैं । मिश्र से मिथ्यादृष्टि में आता है । अतः मिध्यादृष्टि के बाईसके बन्धमें छह भंगों की अपेक्षा भुजाकार २x६ = बारह होते हैं । असंयत में सतरह के बन्धके दो प्रकार हैं । वहाँसे सासादन में आनेपर वहाँ इक्कीसके बन्धके चार प्रकार होनेसे उनकी अपेक्षा आठ भुजाकार होते हैं। यदि सासादनसे मिध्यादृष्टिमें आवे तो वहां बाईसके बन्धके छह प्रकार होनेसे उनकी अपेक्षा बारह भुजाकार होते हैं । इस प्रकार बीस हुए । २० देशसंयत में तेरह का बन्ध दो प्रकारसे होता है। वहाँसे मिश्र में या असंयतमें या मरकर असंयत देव हो तो वहाँ सतरह के बन्धके दो प्रकार होनेसे उनकी अपेक्षा चार भुजाकार हैं । यदि सासादनमें आवे तो वहाँ इक्कीसके बन्धके चार प्रकार हैं, उनकी अपेक्षा आठ भुजाकार हुए। मिथ्यादृष्टिमें आवे तो वहां बाईसके बन्धके छह प्रकार हैं, उनकी अपेक्षा बारह भुजाकार हुए। इस प्रकार सब चौबीस भुजाकार हुए । १. असंयतं मित्रगुणस्थानमं पोद्दिदोडे अवस्थितमल्लदे भुजाकारबंध मिल्ल ॥ २५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० २० ७०८ गो० कर्मकाण्डे युन प्रकृतिस्थामं कट्टुत्ति द्विभंगयुतत्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुवागळु द्विभंगयुतनव प्रकृतिस्थानमं कट्टिबोर्डनितु भुजाकारंगळपुर्व दितु त्रैराशिकमं माडिमत्तमंते द्विभंगयुत सप्त दशप्रकृतिस्थानमुमं चतुभंगयुतैकविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं षड्भंगयुतद्वाविंशतिप्रकृतिस्थान मुमं फलराशिगळं तु त्रैराशिक चतुष्टयदिदं - २५ प्रफइ लब्ध ९ | १३ | ९ ४ १ / २ /२ |२| अनुकरणंगमंते एकभंगयुतनव प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति द्विभंगयुतसप्तदशप्रकृतिस्थानमं देवासंयतनागि कट्टिदोडेरड भुजाकारंगळप्पुवु । २ । अनिवृत्तिकरणं एकभंगयुतपंचप्रकृतिस्थान कट, टुत्तिद्दिदिपूर्ध्वकरणनागि एकभंगयुतनवप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडों तु भुजाकारमकुं । मत्तमायेकभंगयुत पंचप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति देवासंयतनागि द्विभंगयुत सप्त दशप्रकृतिस्थान मं कट्टुमंतु पंचबंधक नर्त्तार्णदं भुजाकारभंगंगळ मूरप्पुवु । मतं चतुब्बंध कनेकभंगयुत पंचप्रकृति स्थान कट्टिदोडों भुजाकारमा चतुब्बंधकं देवासंयतनागि द्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टि - दोडेर भुजाकारंगलंतु चतुब्बंधकन तणिदं भुजाकारंगळ सूरवु । मत्तं त्रिप्रकृतिस्थान कटुतमनिवृत्तिकरणंचतुःप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडों दु भुजाकारमक्कु । मत्तं त्रिप्रकृतिस्थानबंधकं देवासय१५ तनागिद्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोर्डरड भुजाकारंगळप्पुवंतु प्रकृतिस्थानबंधक ताण दं प्र फ | इ | लब्ध प्र फ इ ९ १७ ९ ४ ९ २१ ९ १ २ २ १ ४ २ लब्ध Я फ इ लब्ध ८ ९ २२ ९ १२ १ ६ २ बंद लब्ध भुजाकारंगळु इप्पत्ते दु २८ । अप्रमत्तसंयतनेकभंग युतनवप्रकृतिस्थानमं कट्टु - त्ति देवासंयतनागिद्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोर्ड भुजाकारंगळ त्रैराशिक सिद्धंगळे रेड च द्वादशेति चतुर्विंशतिः । प्रमत्तसंयतद्विधानवकस्य देशसंयतद्विधात्रयोदशकेन चत्वारः, मिश्रा संयत द्विविधसप्तदशकेन चत्वारः, सासादने चतुर्विधैकविंशतिकेनाष्टो मिथ्यादृष्टिषडुविषद्वाविंशतिकेन द्वादशेत्यष्टाविंशतिः । अप्रमत्तकविधनवकस्य देवासंयतद्विभंगसप्तदशकेन द्वो । अपूर्वकरणनवकस्यापि तथैव द्वौ । अनिवृत्तिकरणैकभंगपंचकस्यापूर्वकरणैकभंगनवकेनैकः, देवासंयतद्विभंगसप्तदशकेन द्वौ चतुष्कस्यैकभंगपंचकेनैकः, देवासंयतद्वि प्रमत्तमें नौके बन्धके दो प्रकार हैं । वहाँसे देशसंयत में आवे तो वहां तेरह के बन्धके दो प्रकार हैं । अतः चार भुजाकार हुए। यदि मिश्र में या असंयतमें आवे तो वहीं सतरह के बन्धके दो प्रकार हैं । अतः चार भुजाकार हुए। सासादनमें आवे तो वहाँ इक्कीस के बन्धके चार प्रकार अतः आठ भुजाकार हुए। मिध्यादृष्टिमें आवे तो वहां बाईसके बन्धके छह प्रकार हैं । अतः बारह भुजाकार हुए । इस तरह सब अट्ठाईस हुए । अप्रमत्तमें बन्धका एक ही प्रकार है । वहाँ से मरकर असंयत देव हो तो वहाँ सतरहके बन्धके दो प्रकार हैं। अतः दो भुजाकार हुए। प्रमत्तमें आवे तो वहां नौका ही बन्ध होता है अत: भुजाकार नहीं है । अपूर्वकरणमें नौका बन्ध है । वहाँ भी इसी प्रकार दो ही भुजाकार हुए। निवृत्तिकरण के प्रथम भागमें पांच के बन्धका एक प्रकार है। वहांसे अपूर्वकरण में आवे ३० तो वहाँ नौके बन्धका एक प्रकार है अतः एक भुजाकार है । यदि मरकर असंयत देव हो तो Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७०९ भुजाकारंगळ मूरवुवु । मत्तमा द्विप्रकृतिस्थानबंधक नप्पनिवृत्तिकरणं त्रिप्रकृतिस्थानमं कट्टिबोडों हु भुजाकारमक्कुमा द्विप्रकृतिस्थानबंधकं देवा संयतनागि द्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानम् कट्टिबोर्डर भुजाकारंगळ वितु द्विप्रकृतिस्थानबंधकनत्तणदं मूरु भुजाकारबंध भेवंगळप्पुवु । मत्तमेकप्रकृतिबंधकं द्विप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडों व भुजाकारमक्कु । मत्तमा एक प्रकृतिस्थानबंधकं मरणमादोर्ड देवासंयतनागि द्विभंगयुत सप्तदश प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोर्डरड भुजाकारंगळप्पुवितु एकप्रकृतिस्थानबंधकणव भुजाकार भेदंगळ मूरप्पुवितनिवृत्तिकरणंगे भुजाकारबंधभेदंगळु पदिनेय्ववु १५ । इंतु सर्व्वं विशेषभुजाकारंगळ नूरिप्पत्तेळ १२७ । यितु पेळल्पट्ट नूरिप्पत्तळं भुजाकारदंधविशेषंगळु मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानं गळोळ इनितिनितप्पुर्व व संख्येयं पेवपरु : ५ णभ चउवीसं बारस वीसं चउरट्ठवीस दो दो य । धूले पणगादीणं तिय तिय मिच्छादिभुजगारा || ४७२ ॥ नभश्चतुव्विशतिर्द्वादश विंशतिश्चतु रष्टविंशतिद्वद्वौ च । स्थूले पंचकादीनां त्रिक त्रिकं मिथ्यादृष्ट्यादि भुजाकाराः ॥ मिथ्यादृष्टघादियागनिवृत्तिकरणपर्यंत विशेषभुजाकारंगळ क्तंगळ क्रमदिदं पेळल्पडुबल्लि मिथ्यादृष्टियो शून्यमक्कुमेर्क दोडा मिथ्यादृष्टि कट्टुव मोहनीयप्रकृतिबंधस्थानं द्वाविंशति प्रकृतिस्थानमल्लदे मेलधिकप्रकृतिबंधस्थानमिल्लप्पुर्दारदं । सासादनंगे चतुव्विशतिभुजाकारं गळवु । २४ । मिश्र द्वादशभुजाकारंगळप्पु ॥ १२ ॥ असंयतंर्ग विशतिभुजाकारंगळवु २० । देश. १५ भंगसप्तदशकेन द्वौ, त्रिकस्य चतुष्केणैकः, देवा संयताद्विभंगसप्तदशकेन द्वौ द्विकस्यैकभंग त्रिवेणैकः देवासंयतद्विभंगस दशकेन द्वौ, एकस्यैकभंगद्विकेनैकः, देवासंयतद्विभंगससदशकेन द्वौ मिलित्वा सप्तविंशत्यग्रशतं ।।४७१ ।। तानेबाह— २० विशेष भुजाकाराः मिथ्यादृष्टौ शून्यं । सासादने चतुर्विंशतिः । मिश्र द्वादश । असंयते विशतिः । सतरहके बन्धके दो प्रकार हैं । अतः दो भुजाकार हुए। इस तरह तीन हुए। दूसरे भाग में चारका बन्ध | वहांसे प्रथम भाग में आकर पाँचका बन्ध करे तो उसकी अपेक्षा एक भुजाकार है । यदि मरकर देव असंयत हो तो वहां सतरह के बन्धके दो प्रकार हैं। अतः दो भुजाकार होनेसे सब तीन हुए । २५ इसी प्रकार तीसरे भाग में तीनका बन्ध । वहाँसे दूसरे भाग में आकर चारका बन्ध करे तो एक भुजाकार । मरकर देव असंयत हो तो उसकी अपेक्षा दो। इस प्रकार तीन हुए । चौथे भाग दोका बन्ध । वहाँसे तीसरे भाग में आकर तीनका बन्ध करनेपर एक भुजाकार | देव असंयत हो सतरहका बन्ध करनेपर दो, ऐसे तीन हुए । पाँचवें भाग में एकका बन्ध । वहाँसे चौथे भाग में आकर दोका बन्ध करनेपर एक । अथवा देव असंयत होकर सतरहका बन्ध करनेपर दो, इस प्रकार तीन भुजाकार हुए। सब मिलकर भुजाकार बन्ध एक सौ सत्ताईस होते हैं || ४७१।। ३० आगे उन्हीं को कहते हैं मंगों की अपेक्षा विशेष भुजाकार मिध्यादृष्टिमें शून्य, सासादन में चौबीस, १० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० गो० कर्मकाण्डे संयतंगे चतुव्विशति भुजाकारंगळवु । २४ । प्रमत्तसंयतंगे अष्टाविंशति भुजाकारंगळवु २८ ॥ अप्रमत्तं द्वयभुजाकारंगळप्पुवु । २ अपूर्वकरणगय द्विकभुजाकारंगळवु । २ । स्थूलनोळनिवृत्तिकरणनो पंचकादिप्रकृतिस्थानंगळोळ त्रिकत्रिकभुजाकारंगळप्पुव ३|३|३|३|३| संदृष्टि अल्पतर अल्पतर अनिवृत्ति प्रकृ. भंग बंध बंध अ | क क र क ९ ९ ९ १३ १७ मि १७ २१ २२ दे सा मि ५ ३ ४ ३ १ १ २ ال العالم २ २ २ ४ भजाकार संख्या ३ mm ३ २ २ २८ २४ २० १२ २४ ० २ १ ३ ३ १ स्थू o २ २ ६ o O ० ५ ४ १ १ अप्पदरा पुण तीसं णभ णभ छ द्दोणि णभ एक्कं । धूले पणगादीणं एक्केक्कं अंतिमे सुपणं ॥४७३ ॥ -: ३ २ १ १ O अल्पतराः पुनस्त्रशन्नभो नभः षड् द्वौ द्वौ नभ एकः । स्थूले पंचकादीनामेकैकोंऽतिमे शून्यं ॥ पुनः मत्तल्पतरंगळु मिथ्यादृष्टियोळु ३० । सासादननो नभमेयक्कुं शून्यमे बुदथं । मा सासादनं भुजाकारबंध संभविसुगुमल्लदल्पतरबंधं संभविसदेक दोर्ड पतनशीलन पुर्दारवं । मिथ्यादृष्टिगुणस्थान मनल्लदन्यगुणस्थानमं नियर्मादिदं पोद्दिनपुर्दारदं । मिश्रगेयुमल्पतरबंध विशेषं १० शून्यमेयक्कुमेकें दोडा मिश्रनुमेले असंयतगुणस्थानमल्लदन्यगुणस्थानांतरमं पोनप्रदं सम १ देशसंयते चतुर्विंशतिः । प्रमत्तेऽष्टाविंशतिः । अप्रमत्ते द्वौ । अपूर्वकरणेऽपि द्वौ । स्थूले अनिवृत्तिकरणे पंचकादिषु त्रयस्त्रयो भूत्वा पंचदश मिलित्वा तावंतः ॥४७२ ॥ पुनः अल्पतरा मिथ्यादृष्टो षोढाद्वाविंशतिकस्य मिश्रा संयत योद्विषा सप्तदशकेन द्वादश, देशसंयतद्विषात्रयोदशकेन द्वादश, अप्रमत्तकधानवकेन षडिति त्रिंशत् । तस्यैकविंशतिकेन द्विधानवकेन च बंधः 'सासणपमत्त १५ मिश्र में बारह, असंयत में बीस, देशसंयत में चौबीस, प्रमत्तमें अठाईस, अप्रमत्त में दो, अपूर्वकरण में दो, अनिवृत्तिकरणमें पांच आदिके बन्ध में तीन-तीन भुजकार होने से मिलकर पन्द्रह | इस तरह एक सौ सत्ताईस भुजाकार हुए ||४७२ ॥ अब अल्पतर बन्ध कहते हैं - मिध्यादृष्टि में बाईसका बन्ध, उसके छह प्रकार । वहाँ से मिश्र या असंयत में जानेपर सतरहका बन्ध दो प्रकार । सो एक-एक प्रकार में छह २० प्रकारके बाईसके बन्धकी अपेक्षा बारह अल्पतर होते हैं। यदि देशसंयतमें गया तो वहां तेरहका बन्ध दो प्रकार | अतः बारह अल्पतर होते हैं । यदि अप्रमत्तमें गया तो वहाँ नौका बन्ध एक प्रकार । अतः छह अल्पतर सब तीस हुए । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका बंघमक्कुमपुर्दारवमवस्थितबंधमेय व कुमल्पतरबंधविशेषं संभविसदु । केळगे मिथ्यादृष्टियप्पनल्लवे सासादननागन कारणमागि मिश्रंगल्पतरबंधविशेषं शून्यर्म बुदु सिद्धमक्कु ॥ असंयतनोळल्पतरंगळार । ६ । देशसंयतनोळे रडप्पुवु । २। प्रमत्त संयतनोळमेरर्डयल्पत रंगळवु । २ । शून्यक्कु र्व्वकरणनोळु ओ वेयल्पतरबंधविशेषमक्कु । स्थूलनोळ पंचकादिस्थानंगळगेकै काल्पतरं गळप्पुवंतिमबोल अल्पतरशून्यमक्कुमिदवर्क संदृष्टि : 59 역 भं मि | २२ २२२२ १७ १७१३ ६ ६ ६ २ २ २ १७१३ ९ १३ ९९ २ २ १ २ १ १ | १२ १२ ६ ४ २ २ अ । अनि ९९ ५ ४ ३ २ १ १ १ १ १ १ २ १ ५ ४ ३ १ १ १ १ १ १ ७११ ई पंचचत्वारिंशदल्पतरबंधंगळ स्वरूपनिरूपणं गय्यल्पडुगुमवे ते दोर्ड मिथ्यादृष्टिजी वं षट्प्रकार द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तलुं द्विप्रकार सप्तदशप्रकृतिस्थानम मिश्रनागि मेणसंयतनागि कट्टुत्तं विरलु द्वादशभंगंगळवु । १२ । मत्तमा मिथ्यादृष्टि षट्प्रकार द्वाविंशतिप्रकृति स्थानमं कट्टुत्तं देशसंयतनागि द्विप्रकारत्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोर्ड द्वादशाल्पतरबंधभेदगळegg | १२ ॥ मत्तमा मिथ्यादृष्टि षट्प्रकारद्वाविंशति प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तलुमप्रमत्तनागि १० एक प्रकार नव प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडल्पतरबंधविकल्पंगळार ६ । वितु मिथ्यादृष्टिगल्पतरबंगळु मूवत ३० । वज्जं अपमत्तं तं समल्लियइ मिच्छो' इति नियमात्, सासादनस्य पतनशीलत्वात् मिथ्यादृष्टावेव गमनादेकविंशतिकस्य भुजाकारा एव नाल्पतरमिति शून्यं । मिश्रस्यासंयते गमने बंघस्यावस्थितत्वान्मिथ्यादृष्टौ च गमने भुजाकारत्वादन्यत्रागमनाच्च सप्तदशकस्य नाल्पतरोऽस्तीति शून्यं । असंयते द्विधासप्तदशकस्य देशसंयतद्विघा १५ त्रयोदशकेन चत्वारः, अप्रमत्तैकभंगनवकेन च द्वाविति षट् । देशसंयते द्विघात्रयोदशकस्याप्रमत्तं कधानवकेन मिथ्यादृष्टि जीव सासादन और प्रमत्त गुणस्थानोंको छोड़ अप्रमत्त तक जाता है अतः सासादनके चार प्रकारवाले इक्कीसके बन्धकी अपेक्षा और प्रमत्तके दो प्रकारवाले नौके बन्धकी अपेक्षा अल्पतर बन्ध नहीं कहे । तथा सासादनसे गिर मिध्यादृष्टी ही होता है । इससे इक्कीसके बन्धके भुजकार बन्ध तो सम्भव हैं किन्तु ऊपर नहीं चढ़ता, इससे अल्पतरका अभाव है । इसीसे सासादनमें शून्य कहा है । ५ मिश्र से गिरे तो मिथ्यादृष्टि ही होता है अतः वहाँ भुजकार बन्ध ही होता है और ऊपर चढ़े तो असंयत में जाता है । वहाँ भी मिश्रकी ही तरह सतरहका बन्ध है । इससे मिश्र में अल्पतर बन्ध न होनेसे शून्य कहा है । असंयत में दो प्रकारसे सतरहका बन्ध होता है | वहाँसे देशसंयत में जावे तो वहां दो प्रकारसे तेरहका बन्ध । अतः चार अल्पतर हुए । यदि अप्रमत्तमें जावे तो वहाँ एक प्रकारसे नौका बन्ध है । अतः दो अल्पतर हुए। इस तरह छह हुए । २५ क - ९० २० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ गो० कर्मकाण्डे मिथ्या दृष्टिजीवं सासादन- प्रमत्तनुमागि एकविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं द्विप्रकार नवप्रकृतिस्थानमुमं कट्टनेकें दोडे-सासणपमतवज्ज अपमत्तं तं समल्लियइ मिच्छो एंबी नियममुंटप्पुदरिदं । सासादननोळं मिश्रनोळं शून्यमक्कु । द्विप्रकार सनदशप्रकृतिस्थानमनसंयतं कटुत्तमि? देशसंयतनागि द्विप्रकार त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडल्पतरबंधभेदंगळ नाल्कप्पुवु ४ । मत्तमा ५ असंयतं द्विप्रकारसप्तदशप्रकृतिस्थानमं कटुत्तमिदु अप्रमत्तनागि एकप्रकार नवप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडेरडल्पतरबंधभेदंगळप्पुवु २ । वितसंयतंगल्पतरबंधभेदंगळारप्पुवु । ६। सप्तदशप्रकृति. स्थानबंधकसम्यग्मिथ्यादृष्टि देशसंयतगुणस्थानमुमनप्रमत्तगुणस्थानमुमं साक्षात्पोर्दुवुदिल्लक्रमदिदमसंयतनाद बळिकं पोर्तुगुम बुदु मुंपेन्दंत ज्ञातव्यमक्कु । मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानवत्तिगळु साक्षादिनितिनितु गुणस्थानंगळं पोद्वरे दु मुंद चदुरेक्क दुपण पंच य इत्यादि सूत्रं पेळल्पडुगु१० मप्पुरिदं। मिश्रगुणस्थानवत्ति केळगे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमनल्लदे सासादनगुणस्थानमं पोर्दुवुदिल्ल। द्विप्रकार त्रयोदश प्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्द देशसंयतनेकप्रकारमप्प नवप्रकृतिस्थानमनप्रमत्तनागि कट्टिदोडेरडल्पतरबंध भेदंगळप्पुवु । २। द्विप्रकार नवप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिदै प्रमत्तसंयतनप्रमत्तसंयतनागि एकप्रकार नवप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडेरडेयल्पतरबंधविशेष गळप्पु । २। 'मिल्लि नवप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु प्रमतसंयतनप्रमत्तनागियल्लियु नवप्रकृति१५ स्थानमं कटुगुमंतु कट्टत्तं विरलु अवस्थितबंधविशेषमल्लदल्पतरबंधविशेषमें तक्कु दोडे प्रमत्तसंयतंगरतिद्विकबंधमुंदु । अप्रमत्तनोळु बंधमिल्लप्पुरदं । बहुप्रेकृतिबंधदत्तणिदमल्पतरप्रकृतिबंधमप्रमत्तसंयतनोळु सिद्धमप्पुरिदं । अप्रमतसंयतंगल्पतरबंधविशेषं संभविसदेके दोडप्रमत्तनपूर्वकरणनागियुमल्लियु समानभंगनवप्रकृतिस्थानमं कटुगुमप्पुरिदमल्पतरबंधं शून्यमक्कुं। अपूर्वकरणसंयतनेकप्रकारनवप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिदु अनिवृत्तिकरणनागि एकप्रकार २. द्वौ। प्रमत्तद्विधानवकस्य अप्रमत्तकभंगनवकेन द्वौ । कथं समसंख्याबंधेऽल्पतरत्वं ? प्रमत्ते अरतिद्विकबंधच्छेदेनाप्रमत्ते प्रकृतिबंधस्याल्पतरत्वसंभवात् । अप्रमत्तेऽपूर्वकरणसमानभंगनवकबंधाच्छून्यं । अपूर्वकरणे एकधानवक देशसंयतमें तेरहका बन्ध दो प्रकारसे । यहाँसे अप्रमत्तमें जावे तो वहाँ नौका बन्ध, प्रकार एक । अतः दो अल्पतर हुए। प्रमत्तमें नौका बन्ध, दो प्रकार । यहाँसे अप्रमत्तमें जावे तो वहां नौका बन्ध एक २५ प्रकार । अतः दो अल्पतर हुए। शंका-प्रमत्त और अप्रमत्तमें नौका ही बन्ध होता है। अतः समान संख्या होनेसे अवस्थित बन्ध ही सम्भव है । अल्पतर कैसे कहा? समाधान-प्रमत्तमें अरति और शोकके बन्धकी व्युच्छित्ति हुई है। उसकी अपेक्षा अकृतिबन्ध अल्पतर होनेसे अल्पतर बन्ध सम्भव है। अप्रमत्तसे अपूर्वकरणमें जानेपर दोनोंमें समान रूपसे नौका बन्ध होनेसे अल्पतर बन्ध सम्भव नहीं है। अतः शून्य कहा है। १. म विल्ली । २. इदरभिप्रायं मुंपेळ्व प्रमत्ताप्रमत्तनोळु अरिवुदु । . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७१३ पंचप्रकृतिस्थानमं कट्टिबोडो वयल्पतरबंधभेदमक्कु । १ । एकप्रकार पंचप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिनिवृत्तिकरण संयत नेकविधचतुः प्रकृतिस्थानमं दोडलमा दल्पतरबंधभेदमवकुं १ । त्रिप्रकृतिस्थानमनेकविधमं कट्टुत्तिनिवृत्तिकरणनेकविधद्विप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडो देयल्पतरबंघ विशेष मक्कु । १ । एकप्रकार द्विप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिनिवृत्तिकरणसंयतनेक प्रकारैकप्रकृतिस्थान मं कट्टिदोडों देयल्पतरबंधविशेषमक्कुं । १ । एकप्रकारे प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्द्दनिवृत्तिकरणनेनुमं 'कट्टर्द सूक्ष्मसां परायनादोर्ड अल्पतरबंधलक्षणमल्लदवक्तव्यलक्षणमप्पुरिदं मल्लि अल्पतरबंधं शून्यमक्कु । इंतल्पतरबंधविशेषंगळ पंचचत्वारिंशद्भेदंगळ ४५ ॥ विशेषावस्थितबंधभेदंगळे भुजाकाराल्पतरबंधंगळ द्वितीयादिसमयंगळोळ संभविसुवतप्पसमान प्रकृतिस्थानबंधंगळ नरेप्पत्तेरडवु १७२ । मुंदे पेळल्पडुव विशेषावक्तव्य बंध विशेषंगळु मूररोळं द्वितीयादिसमयंगळोळु समान प्रकृतिस्थानंगल मूरप्पुवंतु विशेषावस्थितबंधंग नूरप्पत्त- १० racy १७५ ववरोळाळापमं भुजाकाराल्पतरंगळ बंधविशेषंगळोळ सासादननिष्पत्तो दु प्रकृतिस्थानम चतुव्विधमं कट्टुत्तलु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोद्दि षट्प्रकारद्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टि द्वितीयादिसमयं पळोळमा चतुव्विशतिभेदयुतद्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमने कट्टुत्तिरलिप्पत्तनात्कु विशेषावस्थितबंधभेदंगळपुर्व दित्यादिबंधंगळं समंगळागि पेडुकोवुदु । संदृष्टि : +-- सा मि अ दे प्र ठा | २१ | १७|१७ १७१३ १३ १३ ९९९९९ ४ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ १ २२ २२ २१ २२१७ २१ २२ १३ १७ २१ २२१७ ६ ६ ४ ६ २ ४ ६ २ २ ४ ६ २ भं २४ १२ ८ १२ ४ ८१२ ४ ४ ८ १२ २ स्यानिवृत्तिकरणैकधापंचकेनैकः । अनिवृत्तिकरणे एका पंचकस्यैकधाचतुष्केणैकः । तच्चतुष्कस्यैकघात्रिकः । १५ तत्त्रिकस्यैकषाद्विकेनैकः । तद्विकस्यैकधैकेनैकः । चरमभागे एकं बध्वा सूक्ष्मसांवरायं गतस्य बंधादवक्तव्यत्वाद ठा अ अ अनि भुजाकारोत्पन्नावस्थितर रचनेय ९५५ ४ ४ ३ ३ २ २ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १७ ९ १७५ १७४१७ ३१७ २१७ २ १ २ १ २ १ २ १ २ १ २ २ १ २ १ २ | १ २ १ २ * ५ अपूर्वकरण में नौका बन्ध, एक प्रकार । और अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग में पाँचका बन्ध, एक प्रकार | अतः एक अल्पतर है । निवृत्तिकरण एक प्रकार पाँचके बन्धके एक प्रकार चारके बन्धकी अपेक्षा एक । एक प्रकार चारके बन्धके एक प्रकार तीन के बन्धकी अपेक्षा एक । एक प्रकार तीनके बन्धके २० एक प्रकार दोके बन्धकी अपेक्षा एक । और एक प्रकार दोके बन्धके एक प्रकार एकके बन्धकी अपेक्षा एक अल्पतर है । निवृत्तिकरण पंचम भागमें एकका बन्ध है । वहाँसे सूक्ष्मसाम्पराय में जावे तो १. सूक्ष्मसांपरायनु मोहनोयापेक्ष विदेनुमं कट्टुवुदिल्लॅबुदत्थं यी अवक्तव्यं । अवस्थित बंघशून्यम व कुमेर्क दोर्ड द्वितीयादिसमयदोळ ई अवक्तव्यबंधमं कट्टनप्पुर्दार ॥ अप्रमत्तः प्रमत्त एव भवति पश्चात् असंयतस्तद्भवापेक्षया देवासंयतत्वे सत्येवमित्यभिप्रायः । एवमपूर्व्वकरणादिसु । २५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ गो० कर्मकाण्डे मि मि मि अ दे प्र अ अनिव. अल्पतरो त्पन्नावस्थित २२२२२२१७/१७/१३ ९/९/५/४ ३ २ किडि अवस्थित "गळ १७५ १७१३ ९१३, ९ ९ ९, ५, ४ ३, २ १ १२१२ ६ ४ २ २ २ १ १ १ १ १ । अवरक्तअवरक्तव्यजावस्थित | इल्लि विशेषावक्तव्यंगळु मूरप्पुववे ते दोडे उपशमश्रेण्यवतरणदो पशांतकषायं क्रमविवं तम्मुंहूत्तकालं तन्न गुणस्थानयोळि१ तदनंतरसमयदोळ, सूक्ष्मसांपरायनागि तद्गुणस्थानकालमं. तम्मुहूर्त्तमात्रसमयंगळ क्रमदिदं कळिदनंतरसमयदोळनिवृत्तिकरणनागि तत्प्रथमसमयदोळ संज्वलनलोभमनोदने कट्टिदोडोंदवक्तव्यबंधविशेषमक्कुं १ मतमा उपशांतकषायनागलि मेणा रोहणावरोहणसूक्ष्मसांपरायनागलि प्राग्बद्धदेवायुष्यरुगळगे मरणमादोडे देवासंयतरागि द्विभंगयुत सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडिवेरडवक्तव्यबंधविशेषगळप्पुवंतवक्तव्यंगळ मूरप्पुववर द्वितीयादिसमयंगळोळ समबंधमादोडवस्थितंगळुमल्लि मूरप्पु ३ वेदितरियल्पडुवु दिदं मुंवण गाथासूत्रदिदं पेन्दपरु : भेदेण अवत्तव्वा ओदरमाणम्मि एक्कयं मरणे । दो चेव होंति एत्थवि तिण्णेव अवहिदा भंगा ॥४७४॥ भेदेनावक्तव्या अवतीय्यंमाणे एको मरणे द्वावेव भवतोऽत्रापि त्रय एवावस्थिता भंगाः॥ भेदेन विशेषदिदमवक्तव्यभंगंगळु मुंपेन्दंते उपशमश्रेण्यवरोहकोपशांतकषायं सूधमसांपरायनागि तद्गुणस्थानचरमसमयदोळु मोहनीयमनेनुमं कट्टदनिवृत्तिकरणनागि एकप्रकृतिस्थानमं ल्पतरशून्यं । एवमल्पतरबंधाः पंचचत्वारिंशत् । अवस्थितस्तु भुजाकाराल्पतरवक्ष्यमाणावक्तव्यानां द्वितीया१५ दिसमयेषु बंधे पंचसप्तत्यग्रशतं ॥४७३।। ते विशेषेणावक्तव्यास्तु सूक्ष्मसांपरायोऽस्तमोहबंधोऽवतरणेऽनिवृत्तिकरणो भूत्वा संज्वलनलोभं बध्ना wwwwwwwwww वहां मोहनीयका बन्ध नहीं है। अतः वहाँ अवक्तव्य बन्ध सम्भव है, अल्पतर नहीं। अतः शन्य है । इस प्रकार अल्पतर बन्ध पैतालीस हैं। एक सौ सत्ताईस भुजाकार, पैंतालीस अल्पतर कहे और तीन अवक्तव्य कहेंगे। इन २० सबमें पहले समयमें जितनी-जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उतनी-उतनी ही प्रकृतियोंका बन्ध द्वितीय समयमें जहाँ हो वहाँ अवस्थित बन्ध कहलाता है। अतः अवस्थित बन्ध एक सौ पिचहत्तर हैं ॥४७३॥ भंग विवक्षा होनेपर विशेषरूपसे अवक्तव्य बन्ध कहते हैं-- सूक्ष्म साम्परायमें मोहका बन्ध नहीं होता। वहाँसे उतरकर अनिवृत्तिकरणमें Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७१५ कट्टिदोडिदों दवक्तव्यबंधभेदमक्कुमा उपशांतकषायनागलि मेणारोहणावरोहणसूक्ष्मसांपरायनागलि मोहनीयमनेनुमं कट्टदे प्रारबद्धायुष्यंगे मरणमादोडे देवासंयतनागि विविधसप्तदशप्रकृति. स्थानमं कट्टिदोडेरडवक्तव्यंगळप्पुवितवक्तव्यबंधभेदंगळ मूरप्पु ३ ववर द्वितीयाविसमयंगळोळ सदृशप्रकृतिस्थानबंधमागुत्तं विरलवस्थितबंधंगळ मूरप्पुवु ३॥ इंतु मोहनीयक सामान्यविशेषभुजाकाराल्पतरावस्थितावक्तव्यमें ब चतुम्विघबंधंगळं पेळ्दनंतरं मोहनोयोग्यप्रकृतिस्थानंगळे नि- ५ ते दोडे पेळ्दपरु : दस णव अट्ठ य सत्त य छप्पण चत्तारि दोण्णि एक्कं च । उदयट्ठाणा मोहे णव चेव य होंति णियमेण ॥४७५॥ दश नवाष्ट च सप्त च षट् पंच चत्वारिद्वे एक चोदयस्थानानि मोहे नव चैव च भवंति . नियमेन ॥ दश नव अष्ट सप्त षट् पंच चतुः द्वि एकप्रकृतिसंख्यावच्छिन्नंगळप्पुवयस्थानंगळु मोहनीयदोळ नवस्थानंगळप्पुषु । संदृष्टि-१०।९।८।७।६।५।४।२।१॥ , अनंतरं मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळु मोहनीयोदयप्रकृतिसंभवासंभवंगळनुदयस्थानंगळ्गे पेळ्दपरु। मिच्छं मिस्सं सगुणे वेदगसम्मेव होदि सम्मतं । एका कसायजादी वेददुजुगलाणमेकं च ॥४७६।। मिथ्यात्वं मिश्र स्वगुणे वेदकसम्यग्दृष्टावेव भवति । सम्यक्त्वं एका कषायजातिवेदद्वियुगलयोरेकं च ॥ मिथ्यात्वप्रकृतिय मिश्रप्रकृतियं तंतम्मगुणस्थानदोळे उदयिसुवधु । वेदकसम्यग्दृष्टिगळप्प असंयतादिचतुग्गुणस्थानवत्तिगळोळे सम्यक्त्वप्रकृतित्युदयमक्कुमिती पेळल्पट्टप्रकृतिगळ्गे २० तीत्येकः । स एव च यदि बद्धायुष्कः आरोहणेऽवरोहणे वा म्रियते तदा देवासंयतो भूत्वा द्विधा सप्तदशक बध्नातीति द्वी एवं त्रयो भवंति । अत्रापि तद्वितीयादिसमयेषु समबंधे त्रय एवावस्थिताश्च भवंति ॥४७४॥ एवं मोहनीयस्य सामान्यविशेषभुजाकारादिचतुर्धाबंधानुक्त्वा इदानीमुदयस्थानान्याह दशनवाष्टसप्तषट्पंचचतुद्वर्येकप्रकृतिसंख्यान्युदयस्थानानि मोहनीये नवैव भवंति ॥४७५।। मोहनीयोदयप्रकृतिषु मिथ्यात्वं मिश्रं च स्वस्वगुणस्थाने एवोदेति । सम्यक्त्वप्रकृतिः वेदकसम्यग्दृष्टावे- २५ संज्वलन लोभका बन्ध करनेपर एक अवक्तव्य बन्ध होता है। और बद्धायु सूक्ष्म साम्पराय चढते या उतरते हए मरण करे तो देव असंयत होकर दो प्रकारसे सतरह प्रकृतियोंका ब करता है, उसकी अपेक्षा दो अवक्तव्य हुए। इस प्रकार तीन अवक्तव्य बन्ध हैं। यहाँ भी द्वितीयादि समयमें समान प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर तीन अवस्थित बन्ध सम्भव हैं ॥४७४।। ___ इस प्रकार मोहनीयके सामान्य विशेषरूप भुजाकार आदि चार प्रकारके बन्धोंको ३० कहकर अब मोहनीयके उदयस्थान कहते हैं दस, नौ, आठ, सात, छह, पाँच, चार, दो और एक प्रकृतिरूपसे नियमसे मोहनीयके नौ उदयस्थान होते हैं ।।४७५।। मोहनीयकी उदयप्रकृतियोंमें मिथ्यात्व और मिश्रका उदय अपने-अपने मिथ्यादृष्टि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ गो० कर्मकाण्डे पेळपट्ट गुणस्थानं गळोळेयुदयनियममरियल्पडुत्तं विरलुदयकूटं पेल्पडुगुमदे तें दोडे -- एककषाये जाति: ओंदु कषायजातियुं वेदस्त्रीपुंनपुंसक में ब वेदत्रयदोळोंदु वेदमुं हास्यद्विक मरतिद्रिक में ब युगलद्वयदोळोंदु युगलमुं : भयसहियं च जुगुंछासहियं दोहिवि जुदं च ठाणाणि । मिच्छादि अप्पुव्वते चत्तारि हवंति नियमेण ||४७७|| भयसहितं च जुगुप्सासहितं द्वाभ्यामपि युतं च स्थानानि । मिथ्यादृचाद्यपूर्वांत चत्वारि भवंति नियमेन ॥ मुंपेळ्द क्रोधादिकषायजातियोकोंडु कषायजातियुं वेदत्रयदोळोंदु वेदमुं युगलद्वयदोनों दु युगल मेंबी प्रकृतिगळोभयसहितमादोडो दु कूटमकुं । जुगुप्सासहितमादोडो दु कूटमक्कुमुभय१० सहितमादोर्ड वोदु कूटमक्कुं । उभयमुं रहितमादोडे च शब्ददिदमदों दु कूटमक्कु मिती नाल्कु कूटंगळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गो डपूर्वकरण गुणस्थानपर्यंतं नाल्कु नात्कु कूटंगळप्पु - ५ सा २ मा न्य १५ कूटमीषु - २ २ । २ १ । १ । १ ૪ ૪ ૪ ૪ मि १ २।२ १११ ४४४४ १ २।२ १ ११ ४४४४ वासंयतादिचतुर्षुदेति, आसां गुणस्थानेषूदयनियमं प्रदश्र्योदयकूटानि रचयति । चतसृष्वेका कषायजातिः, वेदत्रये एको वेदः, हास्यद्विकारतिद्विकार तिद्विकयोरेकं द्विकं चेतीदं ॥ ४७६ ॥ भयजुगुप्सासहित मे ककूटं, भयेन युतमेककूटं, जुगुप्सया युतमेककं कूटं चशब्दादुभयरहितमेकं १ २।२ १११ ४४४४ १ २ । २ १ । १ । १ ૪ ૪ ૪ ૪ १ १ २।२ १ । १ । १ ४ ४ ४ ४ १ ० २।२ १११ ४४४४ और मिश्र गुणस्थान में होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय वेदक सम्यग्दृष्टीके असंयत आदि चार गुणस्थानों में होता है। इन प्रकृतियोंका गुणस्थानोंमें उदयका नियम बतलाकर उदयके कूटोंकी रचना करते हैं । ० २ । २ १ । १ । १ ४ ४ ४ ४ १ अनन्तानुबन्धी आदि चार कषायों की क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार जातियों में से २० एक जातिका उदय होता है। तीन वेदोंमें से एक वेदका उदय होता है । हास्य, शोक और रति, अरतिके युगलों में से एक-एकका उदय होता है || ४७६ || एक जीवके एक कालमें या तो भयका ही उदय हो, या जुगुप्साका ही उदय हो, या दोनोंका उदय हो या दोनोंका उदय न हो, इस अपेक्षासे चार कूट किये जाते हैं । अर्थात् १. यिल्लि कषायजाति ये बुदने दोडे क्रोषचतुष्कं ओ दुजाति मानचतुष्कमोंदु जाति इत्यादि । इतश्चतुर्षु २५ गुणस्थानेषु वेदापेक्षया रचना द्रष्टव्या । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका ७१७ यो सामान्यमोहनीयोदयस्थानप्रकृतिसंख्या साधक चतुःकूटंगळोळु मिथ्यात्वप्रकृतियं कूडदोडे अनंतानुबंधित मिथ्यादृष्टिर्ग चतुः कूटंगळप्पुवृ । संदृष्टि : -- १ १ Food Bub २ २२ १११ २२ १११ २२ १११ ४४४४ २२ १११ ४४४४ ४४४४ १ . १ १ ई नाकु कू टंगळोळु मिथ्यात्वप्रकृतियं कळेबोर्ड सासादनंगे चतुरुदयकूटंगळवु । संदृष्टि मि थ्या २ २।२ १ । १ । १ ४४४४ मि १ ४४४४ १ २ २२ १११ ४४४४ यी नाकुं कूटंगळोल मिश्रप्रकृतियं कूडि मोहनीयोदय कूटंगळ नाकप्पुव । आ नाल्कुं स्थानंगळगे संदृष्टि १ २२ १११ ४४४४ मिथ्यात्वे युतेऽनंतानुबंधियुते मिथ्यादृष्टेर्भवंति - १ २ । २ १ । १ । १ ४४४४ १ एषु मिथ्यात्वेऽपनीते सासादनस्य २ २ । २ १ । १ । १ ४४४४ एषु मिश्रप्रकृति निक्षिप्यानं तानुबंधिचतुष्केऽपनीते मिश्रस्य १ २ २ १११ ४४४४ १ २।२ १ । १ । १ ४४४४ अनंतानुबंधिकषायचतुष्कमं कटदोर्ड मिश्र —— १ २ । २ १ । १ । १ ४४४४ १ १ २।२ १ । १ । १ ४४४४ o २२ १११ ४४४४ ० २।२ १ । १ । १ ४४४४ १ कूट के आकार रचना की जाती है। उसमें सबसे नीचे एक मिध्यात्वका अंक एक लिखा । उसके ऊपर अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार कषायोंके चार जगह चार-चारके अंक लिखे । १० इनमें से जहाँ जिसका उदय हो वहाँ उसका जानना । उसके ऊपर तीन वेदों में से तीन जगह एक-एक अंक लिखे । जिसका उदय जहाँ हो सो जानना । उसके ऊपर दो युगलों में से एकएक प्रकृतिका उदय, उनके दो जगह दो-दोके अंक लिखे । सो जिन हास्य रति, या अरति, शोकका उदय पाया जाये वहाँ वही जानना । उसके ऊपर प्रथम कूट में भय - जुगुप्सा । दूसरे कूट में केवल भय, तीसरे कूट में जुगुप्सा । और चौथे कूटमें दोनोंका अभावरूप शून्य १५ जानना । इसके लिए चारों कूटोंमें क्रमसे दो, एक, एक और शून्य लिखा। इस तरह चार कूट किये। प्रथम कूट में दस प्रकृतिरूप उदयस्थान जानना। दूसरे और तीसरे में नौ-नौ प्रकृतिरूप उदयस्थान है और चौथे कूट में आठ प्रकृतिरूप उदय स्थान है । सो ये चारों कूट तो अनन्तानुबन्धी सहित मिध्यादृष्टि गुणस्थानके जानना । इन चारोंमें-से मिध्यात्वको हटा देने पर सासादनके चार कूट होते हैं । [ कूटोंकी रचना ऊपर सं . टीका में देखें ] | o २ । २ १ । १ । १ ४४४४ २० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ ७१८ २ २२ १११ ३३३३ ३३३३ ३३३३ १ १ १ ई नाकं मिश्रकूटंगळोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदु सम्यक्त्वप्रकृतियं कूडिदोड संयतंगे नाल्कुमुदय कूटंगळप । संदृष्टि : —— २ २ । २ १ । १ । १ ३३३३ मि १ मि श्र २ २ । २ १ । १ । १ ३३३३ स १ अ २ सं २२ गो० कर्मकाण्डे १ २२ १११ १ २२ १.११ १११ ३३३३ ३३३३ १ १ -: २ ज्ञ २२ १११ २२२२ १ ई असंयतन नालकुमुदयकूटंगळोलु अप्रत्याख्यान कषायचतुष्कमं कळवोर्ड देशसंयतंगे नाकुमुदयकूटंगळप्पुव । संदृष्टि : दे ५ एषु मिश्रमपनीय सम्यक्त्वप्रकृतौ युतायामसंयतस्य - १ २ । २ १ । १ । १ ३ ३ ३ ३ १ १ २ । २ १ । १ । १ ३३३३ १ एष्व प्रत्याख्यान चतुष्केऽपनीते देशसंयत गुणस्थानस्य - २ २ । २ १ । १ । १ २२२२ १ १ २।२ १ । १ । १ १ २२ १११ २२२२ १ १ २२ १११ ३३३३ १ १ २२ २२ AA १११ १११ २२२२ २२२२ १ ३३३३ १ ० २२ १११ ३३३३ १ ० २२ १११ २२२२ १ १ २ । २ १ । १ । १ ३३३३ १ १ २।२ १ । १ । १ ३३३३ १ १ २।२ १ । १ । १ २२२२ १ ० २२ १११ ० २।२ १ । १ । १ ३३३३ १ ० २।२ १ । १ । १ ३३३३ १ मिश्र गुणस्थान सम्बन्धी कूट में मिथ्यात्वकी जगह मिश्रमोहनीय लिखा । और चारचार कषायोंके स्थान में तीन-तीन ही लिखे। क्योंकि ऊपरके कूट में एक कालमें एक जीवके जो क्रोधका उदय होता है वह अनन्तानुबन्धी आदि चारोंरूप होता है। किन्तु मिश्र और असंयत में अनन्तानुबन्धी बिना तीन रूप ही है। इस तरह मिश्र गुणस्थानके चार कूट जानना । ० २।२ १ । १ । १ २२२२ १ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७१९ ई नाल्कुं देशसंयतन कूटंगळोळु प्रत्याख्यानकषायचतुष्कर्म कळेवोडे प्रमत्तसंयतंगै मोहनीयोदयकूटंगल नाल्कुमप्पुववक्के संदृष्टि : प्र २ । १ २२ । २२ । २२ । २२ ११११ । १११११ १११ । ११११ ई प्रमतसंयतन नाल्कु मोहनीयोदयकूटंगळे अप्रमत्तसंयतंग नाल्कुमुदयकूटंगळप्पुष । संदृष्टि :-- प्र २२ १११ | २२ १११ । १११ ११११ । ११११ १११ ११११ ई नाल्कुमप्रमतसंयतन मोहनीयोदयकूटंगलोळ सम्यक्त्वप्रकृतियं कळेवोपूर्वकरणंगें . मोहनीयोदय कूटंगळु नाल्कुमप्परवक्के संदृष्टि : प २२ २२ २२ २२ १११ । १११ । १११ १११ ११११ । ११११ । ११११ । ११११ एषु प्रत्याख्यानचतुष्केअनीते प्रमत्ताप्रमत्तयो: २।२ २।२ २।२ १।१।१ १।१।१ प्रत्येकं । एषु सम्यक्त्वप्रकृती वियुतायामपूर्वकरणगुणस्थानस्य २।२ २।२ २।२ २।२ १।११ मिश्रमोहनीयके स्थानमें सम्यक्त्व मोहनीय रखनेपर वेदक सम्यक्त्व सहित अविरत सम्यग्दृष्टीके चार कूट होते हैं। देशसंयत सम्बन्धी कूट में तीन-तीन कषायके स्थानमें दो-दो कषाय लिखो; क्योंकि वहाँ अप्रत्याख्यानका भी उदय नहीं है। प्रमत्तसम्बन्धी कूटमें दो-दो कषायके स्थानपर एक-एक कषाय लिख । प्रमत्तकी ही तरह चार कूट अप्रमत्तके हैं। इन चारों कूटोंमें से सम्यक्त्व प्रकृतिको हटा देनेपर ये ही चार कूट अपूर्वकरणके होते हैं। क-९१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० गो० कर्मकाण्डे ई अपूर्व्वकरणननाकुं मोहनीयोदयकूटंगळोळु षण्नोकषायंगळ कर्लदोडे अनिवृत्तिकरणन प्रथमभागयोळोदे कूटमकुमदक्के संदृष्टि १११ ई कूटदो वेदत्रयमं कळेदोर्ड अनिवृत्तिय ११११ द्वितीयभागदोळोदे कूटमक्कु ११११ मल्लि संज्वलनक्रोधर हितमागि तृतीय भागदोळों दु कूटमक्कु १११ मिल्लि संज्वलन मान कषायमं कळेदोडे चतुर्थभागदोळु अनिवृत्तिकरणंगो दे कूटमक्कु ११ ५ मिल्लि संज्वलनमार्ययं कळेदोड निवृत्तिकरणन पंचमभागदोल संज्वलनबादरलोभप्रकृति कूटमोदयक्कुं १ । सूक्ष्मसांपरायंगे सूक्ष्मलोभोदयप्रकृतियों देयक्कुं १ ॥ ७२० २० अनंतरं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं असंयताद्यप्रमत्तसंयतांतमाद चतुर्गुणस्थानवत्तगळुपशमक्षायिक सम्यग्दृष्टिगळोळं मोहनीयोदयविशेषमं पेदपरु | अणसंजोजिदसम्म मिच्छं पत्ते ण आवलित्ति अणं । उवसमखयिए सम्मं ण हि तत्थवि चारि ठाणाणि ॥ ४७८ || अनंतानुबंधिवि संयोजित सम्यग्दृष्टौ मिथ्यात्वं प्राप्ते न आवलिपर्यंत मनंतानुबंधि । उपशमक्षायिके सम्यक्त्वं न हि तत्रापि चत्वारि स्थानानि ॥ अनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमनसंयतादिचतुर्गुणस्थानवत्तगळु वेदक सम्यग्दृष्टिगळ बिसंयोजिसि मिथ्यात्वकम्र्मोदयदिदं असंयतदेशसंयतप्रमत्तगुणस्थानवत्तगळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम १५ पोवदुतं विरला मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोदि प्रथमसमयं मोबल्गोड अनंतानुबंधिकषाय इतीमानि चत्वारि चत्वारि मिथ्यादृष्ट्याद्यपूर्वकरणांतमेव नियमेन । अत्र षष्णोकषायेष्वनिवृत्तिकरणप्रथमभागे एकं कूटं १ १ १ अत्र वेदत्रयेऽपनीते तद्वितीयभागे १ १ १ १ पुनः संज्वलनक्रोधेऽपनीते तृतीय११११ भागे १११ मानेऽपनीते चतुर्थभागे ११ मायायामपनीतायां पंचमभागे बादरलोभः १ सूक्ष्मसां पराये सूक्ष्मलोभः १ ।।४७७॥ अथ मिध्यादृष्टावसंयतादिचतुर्षु संभवद्विशेषमाह - अनंतानुबंधिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिध्यात्व कर्मोदयान्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं प्राप्ते आवलिपर्यंतमनं इस तरह मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण पर्यन्त नियमसे चार-चार कूट हैं । अपूर्व - करणमें हास्यादि छहकी व्युच्छित्ति होती है । अतः अनिवृत्तिकरणके प्रथम भाग में चार संज्वलन कषायों में से एक कषाय और तीन वेदों में से एक वेदके उदयरूप एक ही कूट है । इनमें से वेदके घटनेपर दूसरे भाग में चार संज्वलन कषायों में से एकके उदयरूप एक ही २५ कूट है । इनमें से क्रोधको घटानेपर तीसरे भाग में तीन संज्वलन कषायोंमें से एकके उदद्यरूप एक ही कूट है। इनमें से मानको घटानेपर चौथे भाग में दो संज्वलन कषायों में से एकके उदयरूप एक ही कूट है। इनमें से मायाको घटानेपर पाँचवें भाग में बादर संज्वलन लोभके उदयरूप एक ही कूट है । सूक्ष्मसाम्पराय में सूक्ष्म लोभके उदयरूप एक ही कूट है ||४७७|| आगे मिध्यादृष्टि तथा असंयत आदि चार गुणस्थानों में कुछ विशेष कथन है, वह ३० कहते हैं अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाला वेदक सम्यग्दृष्टी मिध्यात्व कर्मके उदयसे यदि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आता है तो उसके एक आवली काल तक अनन्तानुबन्धीका Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२१ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चतुष्टयम कटुत्तिर्परा प्रथमसमयदोळु कट्टिदनंतानुबंधिकषायसमयप्रबद्धमोदचलावलिकालपर्यंतमपकर्षणकरणदिदमपकृष्टद्रव्यमनुदयावलियोळिक्कियुदोरणयं माडल्बारदप्पुरिंदमोंदचलावलिपथ्यंतमनंतानुबंधिकषायोदयमिल्ल । अदरिना मिथ्यादृष्टियोळनंतानुबंधिरहितमोहनीयोदयचतुष्कूटंगळप्पुववक्के संदृष्टि :अनं. २ । १ । १ २२ रहि. १११ १११ मिथ्या. ३३३३ ३३३३ २२ २२ २२ ३३३३ । ३२ असंयताद्युपशमसम्यग्दृष्टिगळोळं क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळोळं सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमिल्लप्पु. ५ दरिना सम्यक्त्वप्रकृतिरहितमादऽसंयतंग देशसंयतंगं प्रभत्तसंयतंगमप्रमत्तसंयतंग प्रत्येक नाल्कु नाल्कु मोहनीयोदयकूटंगळप्पुववक्के क्रमदिदं संदृष्टि :| वेदकरहितासंयत॥ | वेदकरहित देशसंयत ॥ २ । १ । १ २ १ १ । ० २२ - २२ - २२ । २२ | २२ | २२ । २२ २२ १११ । १११ । १११ । १११ । १११ । १११ । १११ १११ | ३३३३ | ३३३३ ३३३३ | ३३३३ । २२२२ । २२२२ । २२२२ । २२२२ तानुबंध्युदयो नास्ति । तत्प्राप्तिप्रथमसमये बद्धतत्समयप्रबद्धस्यापकर्षणे कृते तावत्कालमुदयावल्यां निक्षेप्तुमशक्तः । तत्रानंतानुबंधितरहितचतुष्कूटानि २ २। २ २।२ १।१।१ २।२ १।१।१ २।२ १।१।१ उपशमसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्त्वे च सम्यक्त्वप्रकुत्युदयो नास्ति इति तद्रहितान्यसंयतचतुष्के तत्कूटानि संदृष्टि- १० वेदकरहितासंयते २।२ २।२ १।१।१ २।२ १।१।१ २।२ १।१।१ वेदकरहितदेशसंयते २२ २२ २२ २२ २२२२ २२२२ २२२२ २२२२ उदय नहीं होता; क्योंकि मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें जो समयप्रबद्ध बाँधा, उसका अपकर्षण करके एक आवली प्रमाण काल तक उदयावलीमें लाने में वह असमर्थ होता है । और अनन्तानुबन्धीका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता है। पूर्व में जो १५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ २० वेदकरहित प्रमत्त ॥ वेदरहित प्रमत्त ॥ १ १ ० १ १ ० २२ २२ २२ २२ २२ २२ १११ १११ १११ १११ १११ १११ १११ ११११ ११११ ११११ ११११ ११११ ११११ ११११ अपूर्व करणादिगळे ल्ल रुमुपशमकरुं क्षायिकरुप्पुर्दारवं सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमिल्ल । अनंतरं गुणस्थानंगळोळी विशेषकूटंगळु सहितमागि कूटसंख्येयं पेळदपरु : २ २२ १११ ११११ २ २।२ १ । १ । १ ११११ पुव्विल्लेसुवि मिलिदे अड चउ चत्तारि चदुसु अट्ठेव । चारि दोणि एक्कं ठाणा मिच्छादिसुमंते ||४७९ ॥ पूर्वोक्तेष्वपि मिलितेष्ट चतुश्चत्वारि चतुर्ध्वष्टेव । चत्वारि द्वयेकं स्थानानि मिथ्यादृष्ट्या दिसूक्ष्मांते ॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंड सुक्ष्मसांपरायगुणस्थानांतमाद गुणस्थानतळ पूर्वोक्तकूटंगळोळी विशेषकूटंगळं कूडुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टियोळेदु कूटंगळवु । सासादननोळ नाल्कु कूटंगळप्पुवु । मिश्रनोळु नालकु कूटंगळप्पुवु । असंयतनोळे टु कूटंगळप्पुवु । देशसंयत वेदरहितप्रमत्ते । २ २।२ १ । १ । १ ११११ गो० कर्मकाण्डे १ २।२ १ । १ । १ ११११ २ २२ १ २ । २ १ । १ । १ ११११ वेदकर हिताप्रमते । २।२ १ । १ । १ ११ ११ १ २।२ १ । १ । १ ११११ ० २।२ १ । १ । १ ११ ११ तेषु पूर्वटेषु मिलितेषु मिथ्यादृष्टावष्टौ । सासादने मिश्रे च चत्वारि । असंयतादिचतुष्केअनन्तानुबन्धी थी उसका विसंयोजन कर दिया । अतः उसके एक आवली तक अनन्तानुबन्धीका उदय न होनेसे उसकी अपेक्षा मिध्यादृष्टिमें अनन्तानुबन्धी रहित भी चार कूट होते हैं । उनमें से प्रथम कूट में नौ प्रकृतिरूप, दूसरे-तीसरे में आठ प्रकृतिरूप और चौथेमें सात प्रकृतिरूप उदयस्थान होता है । १५ तथा उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वमें सम्यक्त्व मोहनीयका उदय नहीं है | अतः असंयत, देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्तमें जो पहले चार चार कूट कहे हैं वे सब वेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा से कहे हैं। उन सब कूटोंमें सम्यक्त्व मोहनीयको घटानेपर उपशम और क्षायिककी अपेक्षा असंयत, देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्तमें चार-चार कूट होते हैं ||४७८|| पहले के कड़े कूटों में इन कूटोंको मिलानेपर मिथ्यादृष्टि में आठ, सासादन और मिश्र में o २।२ १ । १ । १ ११ ११ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७२३ | नोटु कूटंगळवु । प्रमत्तसंयतनोळेदु कूटंगळप्पुवु । अप्रमत्तसंयतनोळमेंदु कूटंगळ अपूठåकरणनोळु नाल्कु कूटंगळप्पुवु । अनिवृत्तिकरणनोळेरडु । सूक्ष्मसांपरायनोलों दक्कुं । संदष्टि : मि सा मि ८७ ७ ९४९ ८८ | ८२८ १० ९ ९ ७। ० ० दे Я ७ ६ ५ ८२८ | ७७ | ६ ६ ९ | ८ । ७ अ ४ | अ ६ । ५ | ८८ | ७|७ | ६६ | ५५ ९ ८ | ७| ६ 1 ८ । ४ । १ ८ । ४ ४ ८ ८ । ८ । २ । अनंतरं गुणस्थानंगळोळपुनरुक्तमोहनीयोदयस्थानंगळ पेदपरु : दस व णवादिचउतिय तिट्ठाण णवट्ट सग समादिचऊ | ठाणा छादितियं च य चदुवीसगदा अपुव्वोत्ति ||४८० || ५ ४ १ ६ ६ | ५१५ | २ ७ । ६ o अ अ स | १ ४ | ५५ | ० 'दश नव नवादि चतुस्त्रिक त्रिस्थाननवाष्ट सप्त सप्तकादि चतुः । स्थानानि षडादित्रयं च चतुव्विशतिगतान्यपूर्व्वं करणपर्यंतं ॥ ० गुणस्थानंगळोळ पूर्वोक्त अडचउ चत्तारि इत्याद्युक्तस्थानंगळोळपुनरुक्तस्थानंगळु मिथ्यादृष्टियोळु दशावि चतुःस्थानंगळप्पुवु । १० । ९ । ८ । ७ ॥ सासादननोळ नवादि त्रिस्थानं गळप्पु १० ९।८।७ ॥ मिश्रनोळं नवादि अपुनरुक्तस्थानंगळ मूरप्पुवु । ९ ।८।७ ॥ असंयतनोळं नवा दि मोहनीयोदयस्थानं गळपुनरुक्तंगळु नाल्कप्पवु । ९ । ८ । ७६ ॥ देशसंयतनोळु अष्टादि अपुनरुक्तस्थानंगळु नाल्कप्पवु ८ । ७ । ६।५ ॥ प्रमत्तसंयतनोलु सप्तादिचतुरपुनरुक्तस्थानंगळ | ७।६।५।४॥ अप्रमत्तसंयतनोळु सप्तप्रकृतिस्थानमादियागि चतुरपुनरुक्तमोहनीयोदयस्थानं ऽष्टावष्टौ । अपूर्वकरणे चत्वारि । अनिवृत्तिकरणे द्वे । सूक्ष्मयांपराये एकम् ||४७९ || अमीष्वपुनरुक्तोदयस्थानानि १५ गुणस्थानेष्वाह मिध्यादृष्टी दशकादीनि चत्वारि १०, ९, ८, ७ । सासादने मिश्रे च नवकादीनि त्रीणि ९, ८, ७ । असंयते तदादीनि चत्वारि ९, ८, ७, ६ । देशसंयतेऽष्टकादीनि चत्वारि ८, ७, ६, ५ । प्रमत्तेऽप्रमत्ते च चार-चार, असंयत आदि चारमें आठ-आठ, अपूर्वकरण में चार, अनिवृत्तिकरण में दो और सूक्ष्मसाम्पराय में एक कूट होता है || ४७९ || इनमें अपुनरुक्त उदय स्थान गुणस्थानोंमें कहते हैं मिथ्यादृष्टी में दस आदि चार उदयस्थान हैं जो दस प्रकृतिरूप, नौ प्रकृतिरूप, आठ प्रकृतिरूप और सात प्रकृतिरूप हैं । सासादन और मिश्र में नौ आदि तीन-तीन स्थान हैं, आठ और सात प्रकृतिरूप हैं। देशसंयत में आठ आदि चार उदयस्थान हैं, जो आठ, सात, छह और पाँव प्रकृतिरूप हैं । प्रमत्त और अप्रमत्तमें सात आदि चार हैं जो सात, २५ २० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ गो० कर्मकाण्डे गळप्पुवु ।७।६।५॥ ४ ॥ अपूर्वकरणनोळु षट्प्रकृतिस्थानमावियागि अपनरुक्तोवयस्थानंगळ मूरप्पुवु । ६।५।४॥ इंतोयपुनरुक्तस्थानंगळनितुं प्रत्येक चतुविशति भंगयुतंगळप्पवु। संदृष्टि मि १०।९।८।७। भं २४ ।। सासादननोछु ९ । ८।७। भं २४ ॥ मि ९ । ८।७। भं २४ ॥ अ । ९ । ८।७। ६ । ॐ २४॥ दे ८।७।६।५। भं २४ ॥ प्र७।६। ५ । ४ । भै २४ ॥ ५ अ७।६।५।४।२४ ॥ अ६।५।४। भं २४ ॥ इल्लि मिथ्यादष्टियादियागि पंचगुणस्थानंगळो संख्यापेक्षेयिवमपनरुक्तस्थानंगळोळ सादश्यमुंटादोडं प्रकृतिभेदमुंटप्परिदमपुनरुक्तंगळेयप्पुव ते दोडे मिथ्यादृष्टियवशादि चतु:स्थानंगोळं मिथ्यात्वप्रकृत्युदयमुटु । सासादनन मूरु स्थानंगळोळं मिथ्यात्वप्रकृत्युदयमिल्लदु कारण दिदमपुनरुक्तंगळपुवु । मिश्रन मूरु स्थानंगळोळ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युदयभेदमुंटप्परिदमपनरुक्तं१० गळप्पुवु। असंयतन नाल्कुं स्थानंगळोछ सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमुरिंदमपुनरुक्तंगळप्पुवु । देशसंयतन नालहुँ स्थानंगळोळप्रत्याख्यानावरणकषायोदयमिल्लप्पुरिदमपुनरुक्तंगळप्पवु ।। अनंतरं पुनरुक्तस्थानंगळ सहितमागि सर्वगुणस्थानंगळोलिई क्शाविप्रकृतिस्थानंगळ संख्येयुमनवर भंगंगळ संख्येयुमं पेन्दपरु : एक्क य छक्केयारं एयारेयारसेव णव तिण्णि । एदे चदुवीसगदा चदुवीसेयार दुगठाणे ॥४८१॥ एकं च षट्कमेकादशैकादशैकादशैव नव त्रीणि। एतानि चतुविशतिगतानि चतुम्विशतिरेकादश द्वचेकस्थाने ॥ सप्तकादीनि चत्वारि ७, ६, ५, ४ । अपूर्वकरणे षट्कादीनि त्रीणि ६, ५, ४ । अमूनि सर्वस्थानि प्रत्येक चतुर्विशतिभंगानि । अथ मिथ्यादृष्ट्यादिषु पंचस्त्रपुनरुक्तानां संख्यासादृश्येऽपि प्रकृतिभेदादपुनरुक्तता तद्भेदस्तु मिथ्यात्वात्सासादने तदभावात्, मिश्रे सम्यग्मिथ्यात्वात्, असंयते सम्यक्त्वप्रकृतेर्देशसंयतेऽप्रत्याख्यानाभावाच्च ज्ञातव्या ॥४८०॥ छह, पाँच और चार प्रकृतिरूप हैं। अपूर्वकरणमें छह आदि तीन स्थान हैं जो छह, पाँच और चार प्रकृतिरूप हैं। ये सब स्थान प्रत्येक चौबीस-चौबीस भंगवाला है। २५ इन मिध्यादृष्टि आदि पाँच गुणस्थानों में अपुनरुक्त स्थान कहे हैं उनमें से किसीकी संख्या समान होते हुए भी प्रकृति भेदकी अपेक्षा अपुनरुक्तपना जानना। जैसे नौ-नौ प्रकृतिरूप स्थान अनेक कहे हैं। किन्तु उनमें प्रकृतियाँ अन्य-अन्य हैं। जैसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मिथ्यात्व सहित है । सासादनमें मिथ्यात्व नहीं है । मिश्रमें सम्यक् मिथ्यात्व है, असंयतमें सम्यक्त्व मोहनीय है। देससंयतमें अप्रत्याख्यानका अभाव है आदि। अतः प्रकृतिभेद ३० होनेसे अपुनरुक्तता जानना ॥४८०॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७२५ सर्वगुणस्थानंगळोळं कूडि दशप्रकृतिस्थानमो देयक्कुं। नवप्रकृतिस्थानंगळु षट्प्रमितं. गळप्पुवु । अष्टप्रकृतिस्थानंगळेकादशप्रमितंग ठप्पुवु । समप्रकृतिस्थानंगळुमेकादशप्रमितंगळेयप्पुवु । षट्प्रकृतिस्थानंगळुमेकादशमात्रंगळेयप्पुवु। पंचप्रकृतिस्थानंगळु नवप्रमितंगळप्पुबु । चतुःप्रकृतिस्थानंगळु त्रिसंख्यातयुतंगळप्पुवितिनितुं स्थानंगळनितुं प्रत्येकं चतुग्विशति चतुविशति भंगयुतंगर्छ । द्विप्रकृतिस्थानमो दुं चतुविशतिभंगमनुकदु । एकप्रकृतिस्थानमा दु एकादशभंगयुतमक्कु। ५ संदृष्टि : २४ morrow सर्वगुणस्थानेषु मिलित्वा दशकं स्थानमेकं नवकानि षद्, अष्टकानि सप्तकानि षट्काणि चैकादशैकादश, पंचकानि नव, चतुष्काणि त्रीणि । एतानि प्रत्येकं चतुर्विशतिभंगगतानि द्विकमेकं भंगाश्चतुर्विंशतिः, एकैकमेकं सब गुणस्थानों में मिलकर दस प्रकृतिरूप स्थान तो एक ही है जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में है। नौ प्रकृतिरूप छह स्थान हैं-मिथ्यादृष्टि में तीन, दो प्रथम कूटोंमें और एक पिछले कूटोंमें। तथा सासादन मिश्र असंयतमें पहले कूटोंमें एक-एक । इस तरह १० छह हैं। तथा आठ प्रकृतिरूप, सात प्रकृतिरूप, छह प्रकृतिरूप ग्यारह-ग्यारह स्थान हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि में पहले कूटोंमें एक, पिछले कूटोंमें दो इस प्रकार तीन । सासादन और मिश्रमें दो-दो। असंयतमें पहले कूटोंमें दो, पिछले कूटोंमें एक, इस तरह तीन । देशसंयतमें पहले कूटोंमें एक । इस तरह आठ प्रकृतिरूप ग्यारह स्थान हैं। तथा पिछले कूटोंमें एक मिथ्यादृष्टिमें, एक-एक सासादन और मिश्रमें, तीन असंयतमें, एक १५ पहले और दो पिछले कूटोंमें । देशसंयतमें तीन-दो पहले और एक पिछले कूटोंमें । प्रमत्त और अप्रमत्तके पहले कूटोंमें एक-एक । इस तरह सात प्रकृतिरूप ग्यारह स्थान हैं। तथा असंयतके पिछले कूट में एक, देशसंयतके पहले कूट में एक, पिछले कूट में दो इस तरह तीन, प्रमत्त-अप्रमत्तमें दो पहले कट में एक पिछले कट में इस तरह तीन-तीन, एक अपर्वकर इस तरह छह प्रकृतिरूप ग्यारह स्थान होते हैं । पाँच प्रकृतिरूप नौ स्थान हैं। उनमें से एक देशसंयतके पिछले कूटमें, एक पहले दो पिछले कूट में इस तरह तीन-तीन प्रमत्त और अप्रमत्तमें और दो अपूर्वकरणमें है। चार प्रकृतिरूप तीन स्थान हैं। एक-एक प्रमत्त-अप्रमतके पिछले कूट में और एक अपूर्वकरणमें । ये सर्वस्थान जानना। इनमें से एक-एक स्थानमें चौबीस-चौबीस भंग हैं। जैसे दस प्रकृतिरूप स्थानमें चार क्रोधादि कषायोंका उदय एक-एक वेदमें होनेसे बारह भंग हुए । वे बारह २५ भंग हास्य-रति सहित और बारह भंग अरति-शोक सहित होनेसे चौबीस हुए। इसी प्रकार त Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ गो० कर्मकाण्डे अनंतरमी रचनयोळु द्वयेकप्रकृतिस्थानंगोळु पेळदचतुविशति भंगंगळ्गमेकादशभंगंगळा मुपपत्तिय तोरिदपरु : उदयट्ठाणं दोण्हं पणबंधे होदि दोण्हमेक्कस्स । चदुविहबंधट्ठाणे सेसेसेयं हवे ठाणं ॥४८२॥ उदयस्थान द्वयोः पंचबंधे भवति द्वयोरेकस्य । चतुविधबंधस्थाने शेषेण्वेकं भवेत्स्थानं ॥ पुंवेदमुं कषायचतुष्टयमुमंतु पंचबंधकनोळ द्वयोरुदयस्थानं भवति त्रिवेदंगळोळोदु वेदमुं चतुःकषायंगळोळोदु कषायमुमंतु द्विप्रकृत्युदयस्थानमक्कुं । केवलं चतुष्कषायबंधकनोळु द्वयोरेकस्य च येरडरुदयस्थानमुमोदरुदयस्थानमुमक्कु । शेषेष्वेकं भवेत् । स्थानं शेषत्रिकषायद्विकषाय एककषायबंधकनोळमबंधकनोळमेकप्रकृत्युदयस्थानमक्कुं। संदृष्टि : १. भंगा एकादश ॥४८१॥ एतत्स्थानद्वयभंगानामुपपत्तिमाह पंचबंधकचतुबंधकानिवृत्तिकरणभागयोस्त्रिवेदचतुःसंज्वलनानामेकैकोदयसंभवं द्विप्रकृत्युदयस्थानं स्यात् । तत्र भंगा द्वादश द्वादशेति चतुविशतिः । पक्षांतरापेक्षया चतुबंधकचरमसमये त्रिद्वयकबंधकेष्वबंधके च. क्रमेण चतुस्त्रिद्वयेककसंज्वलनाना मेकैकोदयभवमेकोदयभवमेकोदयस्थानं स्यात् । तेन तत्र भंगाः चतुस्त्रिद्वय कैके अन्य स्थानों में जानना । दो प्रकृतिरूप एक स्थान है उसके चौबीस भंग हैं। एक प्रकृतिरूप १५ एक स्थान है उसके ग्यारह भंग हैं ।।४८१॥ गुणस्थानोंमें उदयस्थानों और कूटोंका सूचक यन्त्रमि. सा. | मि. अ. | दे. प्र. अ. अ. अ.। सु.। | ६६ ६६ | ८८ .. 9 . . . ६ ५४४ | ० ७७/६६ ५।५/ ५।५, ० कूट | ८४ ४ ८८८८४ आगे दो प्रकृतिरूप स्थानोंके भंग कहते हैं अनिवृत्तिकरणमें जहाँ पाँच प्रकृतियोंका बन्ध होता है और जहाँ चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है वहाँ भी कुछ काल वेदोंका उदय रहता है। इन दोनों भागोंमें तीनों वेदों और २० चार कषायोंमें-से एक-एकका उदय होनेसे दो प्रकृतिरूप स्थान पाया जाता है । तो चार-चार कषाय एक-एक वेदमें होनेसे बारह भंग हुए। दोनों भागोंमें मिलाकर चौबीस भंग हुए। अन्य आचार्य (कनकनन्दि ) के मतसे जहाँ चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है उसके अन्तिम समयमें वेदोंका उदय नहीं है। अतः उसमें और जहाँ तीन, दो और एक प्रकृतिका बन्ध होता है उनमें और जहाँ बन्ध नहीं होता है उसमें क्रमसे चार, तीन, दो, एक-एक संज्वलन २५ १. चौरस्यासमंतभद्रायस्याद्वादवाग्वघूटी सन्निघाल तिलकोपमः । श्री चौंहरससंज्ञो मे वृत्तिमत्रांतमम्यधात् । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ब २ बं १ बं ० बं ५ बं ४ बं ४ | बं ३ उ २ उ २ उ १ | उ १ उ १ | उ १ | उ १ भं १२ | भं १२ | भं ४ | भं ३ | भं २ | भं १ भं १ अनंतरं चतुबंधनोळे तु द्विप्रकृतिस्थानोदयमक्कुमे दोडवक्कुपपत्तियं पेळपरु :अणिकरण पढमा संदित्थीणं च सरिसउदयद्धा । तत्तो मुहुत्तअंते कमसो पुरिसादिउदयद्धा || ४८३ ॥ अनिवृत्तिकरणप्रथमात् षंडस्त्रियोश्च सदृशोदयाद्धा । ततो मुहूर्तति क्रमश: पुरुषोदया द्वयुदयाऽद्धा ॥ अनिवृत्तिकरण प्रथमभागप्रथमसमयं मोवल्गोडु षंढस्त्रोवेदंगळेरडवकं सदृशोवयाद्वा समानोदयाद्धेयक्कुं । ततः आ षंडस्त्रीवेदंगल समानोदयाद्वेय मेले अंतर्मुहूर्त्ताधिकोदयाद्धे पुरुषवेदक्कक्कुमादिशब्ददिदं संज्वलनकोधादिगळगुदयार्द्धगळु मंतम्र्मुहूततिर्मुहूर्त्ताधिकंग ॥ ई द्वादश पुरुष संबंधिरचनेयिडु -- ४ २१ 30 ४ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २३ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ स्त्री | पुं क्रो मा या लो ४ २१ २१ २१ २१ ७२७ २१ भूत्वैकादश ||४८२ ॥ अमुमेवार्थं विशदयितुं सूत्रचतुष्टयमाह अनिवृत्तिकरणप्रथमभागप्रथमसमयमादि कृत्वा षंढस्त्रीवेदयोरुदयाद्धा सदृशी ततः पुंवेदस्य आदिशब्दात् संज्वलनक्रोघांदीनां च क्रमशोऽतर्मुहूर्ताधिका भवंति । द्वादशपुरुषसंबंधिनी रचनेयं । कषायों में से एक-एकका उदय होता है । वहाँ भंग क्रमसे चार, तीन, दो एक-एक जानना । इस प्रकार एक प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें ग्यारह भंग होते हैं || ४८२ ।। यही कथन चार गाथाओंसे करते हैं अनिवृत्तिकरण के प्रथम भागके प्रथम समय से लगाकर नपुंसक वेद और स्त्रीवेदके उदयका काल समान है। उससे पुरुषवेद, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभके उदयका काल क्रमसे यथासम्भव अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त अधिक है ||४८३ || क- ९२ ५ १५ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं पंचबंधकं गेयुं चतुब्बंधकं गेयं सर्वेदावेद विभागमं पेदपरु :--- पुरिसोदयेण चडिदे बंधुदयाणं च जुगवदुच्छित्ती । सेसोदयेण चडिदे उदयदु चरिमम्मि पुरिसबंध छिदी ||४८४ ॥ पुरुषोदयेन चटिते बंधोदययोर्युगपद्विच्छित्तिः । शेषोदयेन चटिते उदय द्विचरमे पुरुषबंध५ व्युच्छित्तिः ॥ ७२८ पुरुषवेदोदर्याददं श्रण्यारोहणं माडल्पडुत्तिरला पुरुषवेदोदयमुं तद्बंधमुमेरडुं युगपद्व्युच्छित्तियप्पुवु । च शब्ददिदमुदयद्विचरमसमयदोळु पुरुषवेदबंधव्युच्छित्तियक्कुर्मदु पक्षांतराचार्य्याभिप्रायं सूचिसल्पदा पक्षमुमंगीकृत मादुर्दर्त' दोर्ड चतुब्बंध कनोळ द्विप्रकृत्युदयस्थानं पेळपट्टुदप्पु - दरिदमल्लियुं द्वादश भंगंगळ पूर्व दु मुंक्ष्ण सूत्रदोळु पेदपरप्पुदरिदं । शेषषंडस्त्री वेदोदयंगळदं १० श्रेण्यारोहणं माडल्पडुगुमप्पोर्ड उदयद्विचरमसमयदोळु पुरुषवेदबंधव्युच्छित्तियक्कुमंतागुत्तं विरलु :--- १५ पणबंधगम्मि बारस भंगा दो चेव उदयपयडीओ । दो उदये चदुबंधे बारेव हवंति भंगा हु || ४८५ || पंचबंधे द्वादशभंगा द्वे एवोदयप्रकृती द्वयोरुदये चतुब्बंधे द्वादशैव भवंति भंगाः खलु ॥ ४ २१ २१ २१ २१ षं स्त्री पुं पुंवेदोदयेन श्रेण्यारूढे पुंवेदस्य बंधव्युच्छित्तिः उदयव्युच्छित्तिश्त्र द्वे युगपदेव । अथवा चशब्दाद्बंधव्युच्छित्तिः उदयद्विचरमसमये स्यात् । शेषस्त्रीषंढवेदोदयेन श्रेण्यारूढयोरुदयद्विचरमसमये एव पुंवेदबंघव्युच्छित्तिः ॥ ४८४ ॥ तत्र २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ क्रो मा मा लो ४ ४ २१ जो पुरुषवेदके उदय के साथ श्रेणि चढ़ते हैं उनके पुरुषवेदकी बन्ध व्युच्छित्ति और उदय व्युच्छिन्ति एक साथ होती है । अथवा 'च' शब्दसे बन्धकी व्युच्छिन्ति उदयके द्विचरम समय में होती है । शेष स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयके साथ जो श्रेणि चढ़ते हैं उनके उन २० वेदोंके उदयके द्विचरम समय में पुरुषवेदकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है ||४८४ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पुंवेदमुं चतुःसंज्वलनकषायमुमेब पंचबंधकानिवृत्तिकरणनोळु द्वादश भंगंगलप्पुवु । उदयप्रकृतिगळोदु वेदमुमोदु कषायमुमंतेरडयप्पुउ बं५ चतुबंधे केवल चतुःप्रकृतिबंधदोळु द्वयोरुदये दिप्रकृत्युदयमागुत्तं विरलु द्वादश भंगंगळप्पुबु बं४ पुरुषवेदोददिदं श्रेण्यारोहणंगे भंगः॥ दंगे पुरुषवेदोदयद्विचरमसमयदोळे पुरुषवेदबंधव्युच्छित्तियक्कु बुदक्के इदे ज्ञापकमक्कुं । द्विप्रकृ. त्युदयचतुब्बंधकनोळु अष्टभंगंगळल्ल द्वादशभंगंगळगन्यथानुपत्ति यप्पुरिदं ।। कोहस्स य माणस्स य मायालोहाणियट्टिभागम्मि । चदुतिदुगेक्क भंगा सुहुमे एक्को हवे भंगो ॥४८६।। ___क्रोधस्य च मानस्य च मायालोभानिवृत्तिभागे। चतुस्त्रिद्वयेको भंगाः सूक्ष्मे एको भवेद क्रोधद , मानद माय लोभदुदयदनिवृत्तिकरणभागेयोलु क्रमदिदं चतुब्बंधकनोळं १० त्रिबंधकनोळं द्विबंधकनोळमेकबंधकनो ठमबंधनोळं नाल्कुं मूरुमेरडुमोंदुमों, भंगंगळप्पुवु । इंतनिवृत्तिकरणन सवेदावेदभागेगलोळु पंचबंधचतुब्बंधभेददिदं द्वादशद्वादशभंगंगळगं अवेदभागेय चतुस्त्रिद्वकभंगंगळगं सूक्ष्मसांपरायनेकभंगक्कं संदृष्टि बं ५ | बं ४ । बं ४ । बं ३ | बं २। बं १ सू.बं. ० उ २ | उ२ | उ १ | उ१ | उ १ | उ१। उ१ भं १२ भं १२) भं४ | भं ३ | भं २ | भ१ | भं १ सू बं४ । बं३ बं ४ मा बं बं २ ३ ब१ :عن या ब३ ला पंचबंधकानिवृत्तिकरण द्व एवोदयप्रकृती। तत्र भंगा द्वादश भवति । चतुबंधकेऽपि द्वयुदये भंगा द्वादश खल ११११ ११११ ॥४८५।। क्रोधमानमायालोभोदयानिवृत्तिकरणभागेषु चतुस्त्रिद्वयकबंधकेषु क्रमेण चतुस्त्रिद्वयकभंगा भवंति । १६५ अनिवृत्तिकरणमें जहाँ पाँच प्रकृतियोंका बन्ध होता है वहाँ दो उदय प्रकृतियाँ हैं। तथा चार कषाय और तीन वेदोंके बारह भंग हैं। इसी प्रकार जहाँ चार प्रकृतियोंका बन्ध है वहाँ भी दोका उदय होनेसे बारह भंग हैं ।।४८५।। क्रोध, मान, माया, लोभके उदयरूप अनिवृत्तिकरणके चार भागोंमें चार, तीन, दो और एक प्रकृतिका बन्ध पाया जाता है। उनमें कषाय बदलने की अपेक्षा क्रमसे चार, तीन, २० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ७३० गो० कर्मकाण्डे अनंतरं सर्वोदयस्थान संख्ये युमनवर प्रकृतिसंख्येयुमं पेदपरःबारससयते सीदी ठाणवियप्पेहिं मोहिदा जीवा । पणसीदिसदसगेहिं पयडिवियप्पेहिं ओघम्मि || ४८७ || द्वादशशतत्रयशी तिस्थानविकल्पैम्मोहिताः जीवाः पंचाशीतिशत सप्तभिः प्रकृतिविकल्पैरोघे । ओघे गुणस्थानदोळु सर्व्वं मोहनीयोदयस्थानं गळ १० | ९ ८ ७ ६ | ५ १ ' ६ ११ | ११ | ११ | ९ यितु द्विपंचाशत्प्रमितंगळप्पुवु ५२ । इवक्के प्रत्येकं चतुव्विशतिस्थानं गळा गुत्तं विरल | ५२ । २४ । गुणिर्स सासिरदिन्नूर नावत्ते टप्पुववरोळ १२४८ । द्विप्रकृत्युदयभंगंगळ चतुव्विशतिप्रमितंगळ मनेक प्रकृत्युदय भंगंगळु मेकादश प्रमितंगळप्पुवंतु मूवत्तय्दु स्थानं गळं ३५ । प्रक्षेपिसुत्तिरलु सर्व्वमोहनीयोदयस्थानंगळु सासिरदिन्नू रणभत्तमूरु स्थानंगळप्पुवु १२८३ । इतनित मोहोदयस्थानं१० गळदं त्रिकालत्रिलोकोदरवत चराचरजीवंगळु मोहिसल्पटुवा स्थानंगळ सर्व्वं प्रकृतिगळ १० । ५४ । ८८ । ७७ । ६६ । ४५ । १२ । कूडि मूनूरध्वर्त्तरडु प्रकृतिगळप्पु ३५२ । विवक्के प्रत्येकं सूक्ष्मसां पराये मोहनीय बंधरहित एको भंगः || ४८६ ॥ अथ सर्वोदयस्थान संख्यास्तत्प्रतिसंख्याश्चाहओधे गुणस्थानेषु सर्वमोहनीयोदयस्थानानीमानि - १० १ २ ११ १ मिलित्वा त्रिपंचाशत् । प्रत्येकं चतुर्विंशतिभंगानीति तावता संगुण्यैकप्रकृतिकस्यैकादशभिर्युतानि त्र्यशी१५ त्यग्रद्वादशशतानि तत्प्रकृतयोऽमू: १० । ५४ । ८८ । ७७ । ६६ । ४५ । १२ । २ । मिलित्वा चतुःपंचाशत् ९ ८ ६ ११ ७ ६ ४ ११ ५ ९ दो और एक भंग होते हैं । और सूक्ष्म साम्पराय में मोहनीयका बन्ध नहीं होता । वहाँ सूक्ष्मलोभके उदयरूप स्थानमें एक भंग है । इस तरह ग्यारह भंग हैं ||४८६ || आगे सब उदयस्थानोंकी और उनकी प्रकृतियोंकी संख्या कहते हैं गुणस्थानों में मोहनीयके सब उदयस्थान दस प्रकृतिरूप एक, नौ रूप छह, आठ, सात, २० छह प्रकृतिरूप ग्यारह ग्यारह, पाँचरूप नौ, चार रूप तीन, दो रूप एक, सब मिलकर तिरपन हुए। एक-एक के चौबीस चौबीस भंग होनेसे चौबीससे तिरपनको गुणा करनेपर बारह सौ बहत्तर हुए। तथा एक प्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह भंग मिलाकर बारह सौ तिरासी हुए । अब उन स्थानोंकी प्रकृतियों की अपेक्षा कहते हैं ४ ३ दस प्रकृतिरूप एक स्थानकी प्रकृति दस | नौ रूप छह स्थानोंकी चौवन, आठरूप २५ ग्यारह स्थानों की अठासी, सातरूप ग्यारह स्थानोंकी सतहत्तर | छह रूप ग्यारह स्थानोंकी छियासठ । पाँचरूप नौ स्थानोंकी पैंतालीस । चार रूप तीन स्थानोंकी बारह । दोरूप एक १. दशसंख्यावच्छिन्नसामान्योदयकूटमों 'दु नव संख्यावच्छिन्नसामान्योदयकूट आरु इंतु मुंदेयुं ॥ २. हत्तु प्रकृत्युदयवनुळ्ळ स्थानमोदप्पुदरि प्रकृतियुहत्ते अभत्तु प्रकृत्युदयस्थानं गळारदरिवल्लि नवगुणितषद्स्थानप्रकृतिगळु ५४ मुंदयमित सामान्यस्थान ५२ इवं विशेषि १२४८ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चतुविशतिकल्पंगलागुत्तं विरलु ३५२ । २४ । गुणिसियेटु सासिरद नानूरनाल्वत्तेंदु प्रकृत्युदयप्रकृतिगळोळु ८४४८। द्विप्रकृत्युदयस्थानद नाल्वत्तं'टु प्रकृतिगळुमनेकप्रकृत्युदयस्थानद पन्नोंदु प्रकृतिगळुमनंतय्वत्तो भत्तु ५९ प्रकृतिगळं प्रक्षेपिसुत्तं विरलु एंटु सासिरदैनूरेलु प्रकृतिदिम ८५०७ । मोहिसल्पटुवु ॥ अनंतरमपुनरुक्तस्थानसंख्य युमनवरपुनरुक्तप्रकृतिगमं पेळदपरु : एक्क य छक्केयारं दस सग चदुरेक्कयं अपुणरुत्ता । एदे चदुवीसगदा बारदुगे पंच एक्कम्मि ।।४८८।। एकं च षट्कैकादश दश सप्त चतुरेकमपुनरुक्तानि एतानि चतुविशतिगतानि द्वादशद्विके पंचैकस्मिन ॥ __एकं च दश प्रकृतिस्थानमो देयककुं। षट्क नवप्रकृतिस्थानंगळारप्पुवु । एकादश १० अष्टप्रकृतिस्थानंगळु पन्नों दप्पुवु । दश सप्तप्रकृतिस्थानंगळु दशप्रमितंगळप्पवेक दोडे वेदकसम. वितरप्प प्रमत्ताप्रमत्तरुगळोलोंदु सप्तप्रकृतिस्थानं पुनरुक्तमेदु कळेदुदप्पुदरिंद। सप्त षट्प्रकृति. स्थानंगळेळे यप्पुवेक दोडे वेदकसमन्वितप्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळे रडु षट्प्रकृतिस्थानंगळगमवेवक प्रमत्ताऽप्रमत्तरुगळ षट्प्रकृतिस्थानद्व यवक मपूर्वकरणषट्प्रकृतिस्थान 'ओंदवकं पुनरुक्तत्वमप्पुदरिनवेरडुमंतु पुनरुक्तषट्प्रकृतिस्थानंगळ नाल्कु कळेदवप्पुरिदं। चतुः पंचप्रकृतिस्थानंगळु १५ नाल्कयप्पुवेक दोर्ड सवेदकरप्प प्रमताप्रमत्तरुगळोलो'दु पंचप्रकृतिस्थानमुमवेदकरोळेळ पंचप्रकृतिस्थानंगळोळु नाल्कु पंचप्रकृतिस्थानंगळ, पुनरुक्तंगळप्पुवंतु पुनरुक्त पंचप्रकृतिस्थानंगळेदुं कळेदु त्रिशतं चतुर्विशत्या संगुण्य ८४९६ एकप्रकृतिकस्यैकादशभिर्युताः सप्ताग्रपंचाशीतिशतानि । एतैः स्थानविकल्पैश्च त्रिकालत्रिलोकोदरवतिचराचरजीवा मोहिताः संति ॥४८७।। अथापुनरुक्तस्थानसंख्यां तत्प्रकृतीश्चाह दशकस्थानमेकं नवकानि षट् अष्टकान्येकादश सप्तकानि दशैव सवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदेकस्य पुनरुक्त- २० त्वात् । षटकानि सप्तव सवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोः षट्कद्वयस्य षट्कद्वयेन अवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोस्तु षट्कद्वयस्या २५ स्थानकी दो। सब मिलकर तीन सौ चौवन प्रकृतियाँ हुई। उन्हें चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर चौरासी सौ छियानबे, और एक प्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह भंग मिलानेपर पचासी सौ सात भेद सर्व प्रकृतियोंकी अपेक्षा हुए। इन स्थान-भेद और प्रकृति-भेदोंसे त्रिकाल और त्रिलोकमें वर्तमान जीव मोहित हैं ।।४८७॥ आगे अपुनरुक्त स्थानोंकी संख्या और उनकी प्रकृतियाँ कहते हैं दस प्रकृतिरूप एक स्थान, नौ रूप छह स्थान, आठरूप ग्यारह स्थान, किन्तु सातरूप दस स्थान हैं। पहले ग्यारह कहे थे। उनमें से पहलेके कूटोंमें सम्यक्त्व मोहनीय सहित वेदक सम्यग्दृष्टिके प्रमत्त-अप्रमत्तके सात प्रकृतिरूप दो स्थान कहे थे। वे दोनों समान हैं। अतः एक स्थान पुनरुक्त होनेसे दस कहे। छह प्रकृतिरूप सात ही हैं। पहले ग्यारह कहे थे ३० उनमें-से वेदक सहित पहले कूटोंमें छह प्रकृतिरूप दो कूट प्रमत्तके और दो कूट अप्रमत्तके । १. अंतु मूरु । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ गो० कर्मकाण्डे वपुर्दारवं एकं चतुःप्रकृतिस्थानमो देयक्कु में तें बोर्ड अवेदकरोळु चतुःप्रकृतिस्थानद्वयं पुनरुक्तंगळे दुकळे दुवप्पुरिदं । इंतु अपुनरुक्तस्थानंगळु नाल्वर्त्तयप्पु ४० वी नात्वत्तुं स्थानंगळं प्रत्येकं चतुव्विशतिभेवंगळप्पुवप्पुदरिदमा नात्वत्तनिष्पत्तनात्करिदं गुणिसिदो ४० । २४ । डो भइनूररुवत्त मोहनीयोदयस्थानंगळप्पु ९६० विवरोळ द्वादश द्विके द्विप्रकृत्युदयस्थानदोळु द्वादशस्थानभेदभंगं५ गळपुर्व ते बोर्ड पुनरुक्तद्वादशस्थानभेबंगळु कळेदु वपुर्दारदं पंचैकस्मिन् एकप्रकृत्यु वयस्थानदोळपुनरुक्तस्थानविकल्पंगळे देयपूर्व ते बोर्ड संज्वलनक्रोधाविचतुष्टयमुं ' सूक्ष्मलोभमुमिते स्थानंगळपवु । शेष षट्स्थानंगळु पुनरुक्तंगळे 'दु कळे दुवपुर्दारदं । इंतु द्वयेक प्रकृत्युदय स्थानंगळे रेडरोलं कूडि पदिनेछु स्थानंगळ १७ । विवं कूडिदोडे अपुनरुक्त सर्व्वस्थानंगळो' भैनूरप्पत्तेळप्पु ९७७ व दु मंदण सूत्रदो पेपर । संदृष्टि १० ९ १ ठा ६ १० प्र| ५४ ८ ७ ५ * ११ १० ७ ४ 1 १ ८८ | ७० | ४२ | २० | ४ १० पूर्वकरणषट्केन च पुनरुक्तत्वात् । पंचकानि चत्वार्येव सवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोस्तद्वये एकस्य अवेदकतत्सप्तसु चतुर्णां च पुनरुक्तत्वात् । चतुष्क्रमेकमेव अवेदकं तद्वयस्यापूर्वकरणस्य तेन पुनरुक्तत्वात् । एतानि चत्वारिंशत् प्रत्येकं चतुर्विंशतिभेदानीति तावता गुणयित्वा द्विप्रकृतिकस्य द्वादशभिरेक प्रकृतिकस्य पंचभिश्चापुनरुक्तैर्युतानि भूत्वा ॥४८८|| २ १ १ १ | १२ । ५ उनमें समानता होने से दो पुनरुक्त हुए । तथा वेदक रहित पिछले कूटों में छह प्रकृतिरूप १५ स्थानको लिये एक कूट प्रमत्तका और एक कूट अप्रमत्तका था । ये दोनों कूट अपूर्वकरणके छह प्रकृतिरूप कूट के समान हैं। अतः दो कूट पुनरुक्त हुए । इस प्रकार चार कूटोंके चार स्थान पुनरक्त होनेसे घटा दिये । पाँच प्रकृतिरूप चार ही स्थान हैं। पहले नौ कहे थे। उनमें वेदक सहित पहले कूटों में एक प्रमत्तका कहा था और एक अप्रमत्तका कहा था। वे दोनों समान हैं । अतः उनमें एक २० पुनरुक्त है । वेदक रहित पिछले कूटोंमें एक देशसंयतका, दो-दो प्रमत्त अप्रमत्त और अपूर्वकरणके, इन सात में से प्रमत्त, अप्रमत्त अपूर्वकरणके समान है । अत: चार पुनरुक्त हुए । इस प्रकार पाँच स्थान पुनरुक्त कम किये । चार प्रकृतिरूप एक ही स्थान है। पहले तीन कहे थे । वे तीनों ही समान होने से दो पुनरुक्त घटा दिये । इस प्रकार जिनमें प्रकृतियोंकी समानता है ऐसे पुनरुक्त स्थान घटाने२५ पर चालीस शेष रहते हैं। एक-एक स्थानके चौबीस चौबीस भंग होनेसे चौबीससे गुणा करनेपर नौ सौ साठ हुए । पहले दो प्रकृतिरूप स्थानके चौबीस भंग कहे थे । उनमें से बारह पुनरुक्त छोड़े बारह रहे। और एक प्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह भंग कहे थे । उनमें से छह पुनरुक्त छोड़े पाँच रहे । इन सतरहको नौ सौ साठ में जोड़नेपर नौ सौ सत्तहत्तर हुए ||४८८|| ३० १. क्रोधमानमायाबादर लोभसूक्ष्मलोभ अंतु ५ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णवसयसत्तत्तरिहि ठाणवियप्पेहि मोहिदा जीवा । गदात्त रिस पडिवियप्पेहि णायव्वा ||४८९ ॥ नवशतसतसप्ततिभिः स्थानविकल्पै म्मोहिता जीवाः । एकचत्वारिंशदेकान्न' सप्ततिशतप्रकृतिविकल्पैर्ज्ञातव्याः ॥ अपुनरुक्तसर्व्वं मोहनीयोदयस्थान विकल्पंगळो भैमूरप्पत्तेळरिदं त्रिकालत्रिलोकोदरवत्तचराचर संसारि जीवंगळ मोहिसल्पटुववर प्रकृतिविकल्पंगळ, मारुसासिरको भैनूर नाल्वतों दरिंदमुं मोहिसल्पटुवु । संदृष्टि स्थान । ९७७ । प्रकृतिगळ, कूडि ६९४१ ॥ २४ अनंतरं मोहनीयोदयस्थानमुमनवर प्रकृतिगळ मं पेदपरु | १० ३५४ ८८ so ४२ २० ४ २४ २४ | २४ | २४ | २४ २४ ७३३ ५ o २४ lo गुणस्थानदोळ, पयोगयोगादिगळोळ. उदयद्वाणं पयडं सगसगउवजोगजोग आदीहिं । गुणवत्ता मेलविदे पदसंखा पयडिसंखा च || ४९०॥ उदयस्थानं प्रकृति स्वस्वोपयोगयोगादिभिर्गुणयित्वा मिलिते पदसंख्या प्रकृतिसंख्या च ॥ उदयस्थानं, पव्विल्लेसु वि मिळिदे अडचउ चत्तारि इत्यादिगाथासूत्रदि गुणस्थानोक्तोदयस्थानसंयेयुमं प्रकृतिं स्वस्वगुणस्थानसंबंधि कूटंगळ दशाद्यंकंगळ मेळनदोळाद प्रकृति संख्येयमं नवशतानि सप्तसप्तत्यग्राणि तत्प्रकृतयोऽमूः -- १० । ५४ । ८८ । ७० । ४२ । २० । ४ । मिलित्वा- १५ ऽष्टाशीतिद्विशतं चतुर्विंशत्या गुणयित्वा द्विप्रकृतिकस्य चतुर्विंशत्या एकप्रकृतित्रस्य पंचभिश्च युताः एकचत्वारिशदग्रे कोनसप्ततिशतानि । एतैः स्थानविकल्पैः प्रकृतिविकल्पैश्च त्रिकालत्रिलोकोदरवर्तिचरा व रसंसारिजीवाः मोहिताः संति ॥ ४८९ ।। अथ मोहोदयस्थानतत्प्रकृतीर्गुणस्थानेषूपयोगादीनाश्रित्याह 'पुब्विल्लेसुवि मिलिदे' इति सूत्रोक्तस्थानसंख्यां तत्प्रकृतिसंख्यां च संस्थाप्य स्वस्वगुणस्थाने संभव्यु 'पुव्विल्लेसुवि मिलिदे' इत्यादि गाथा में कही स्थानोंकी संख्या और उन स्थानोंकी १. एकचत्वारिंशदधिकान्येकोनसप्तति ६९ मितानि शतानि प्रकृतयः ॥ ५ इस प्रकार नौ सौ सतहत्तर हुए। इनकी प्रकृतियाँ कहते हैं दसरूप एक स्थानकी दस प्रकृति । नौरूप छह स्थानोंकी चौवन प्रकृतियाँ । आठरूप ग्यारह स्थानोंकी अठासी । सातरूप दस स्थानोंकी सत्तर । छहरूप सात स्थानोंकी बयालीस । पाँचरूप चार स्थानोंकी बोस । चार रूप एक स्थानकी चार । ये सब मिलकर दो सौ अठासी हुईं। इनको चौबीस भंगसे गुणा करनेपर उनहत्तर सौ बारह हुए । उनमें दो प्रकृतिरूपके चौबीस भंग ( एक-एक के बारह-बारह ) और एक प्रकृतिरूपके पाँच मिलानेपर उनहत्तर सौ २५ इकतालीस भेद हुए । इन स्थानभेद और प्रकृतिभेदसे त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती चराचर संसारी जीव मोहित हैं || ४८९ || आगे मोहके उदयस्थान और उनकी प्रकृतियोंको गुणस्थानों में उपयोग आदिकी अपेक्षा कहते हैं १० २० ३० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ गो० कर्मकाण्डे मिथ्यादृष्टयादिस्वस्वगुणस्थानसंभवोपयोगयोगंगळिंदमुमादिशब्ददिदं संयमलेश्यासम्यक्त्वंगळिवमुं गुणिसि कूडुत्तं विरलु स्थानसंख्ययं तत्प्रकृतिसंख्ययुमक्कुमदु पेवनंतरं स्वस्वगुणस्थानदोळ संभविसुव उपयोगंगळ पेन्दपरु: मिच्छदुगे मिस्सतिये पमत्तसत्ते जिणे य सिद्धे य । पणछस्सत्त दुगं च य उवजोगा होति दोच्चेव ॥४९१॥ मिथ्यादृष्टिद्वये मिश्रत्रये प्रमत्तसप्तसु जिनयोश्च सिद्ध च । पंच षट् सप्त द्विकं च चोपयोगा भवंति द्वौ चैव ॥ मिथ्यादृष्टिद्वये पंच मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोमिती गुणस्थानद्वयदोळ प्रत्येक कुमतिकुश्रुतविभंगमेब ज्ञानोपयोगंगळु मूरुं चक्षुद्देशनमचक्षुद्देनमें ब दर्शनो. १० पयोगद्वयमंतुपयोगपंचकमक्कु । मिश्रश्रये षट् मिश्रनोळमसंयतनोळं देशसंयतनोळं मतिश्रुतावधि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनमें बुपयोगषट्कं प्रत्येकमक्कुं । प्रमत्तसप्तसु सप्त प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशांतकषाय क्षीणकषायरेब सप्तगुणस्थानंगळोळु मतिश्रुतावधिमनःपर्य्ययज्ञानोपयोगंगळु नाल्कुं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनमुमेब दर्शनोपयोगंगळु मूरुमंतु प्रत्येकं सप्तसप्तोपयोगंगळप्पुवु । जिने द्विकं च.सिद्धे च द्वौ चैव ये दुपयोगंगळप्पुवु __गु । | मि | सा | मि | दे। प्र अ अ अ । सू ठा ।८ ।४ । ४ । ८ ८ ।८८|४|११|१ प्रकृ । ६८| ३२ | ३२ । ६० ५२ ४४| ४४| २०| २०११ उप । ५। ५। ६।६।६ | ७ | ७ | ७ | ७७७ ठा वि | ४०। २० २४|४८|४८५६ ५६/२८ | ७७ ७ प्रवि | ३४०/ १६०/ १९२/३६०/३१२/३०८/३०८/१४०११४७७ | गुणका | २४ | २४ | २४ | २४| २४ | २४| २४| २४/१२।४१ १५ पयोगयोगैः. आदिशब्दात्संयमदेशसंयमलेश्यासम्यक्त्वेश्च संगुण्य मेलने स्थानसंख्या प्रकृतिसंख्या च स्यात ॥४९॥ तद्यथा उपयोगा मिथ्यादृष्टयादिद्वये व्यज्ञानं द्विदर्शन मिति पंच । मिश्रादित्रये श्यज्ञानं त्रिदर्शनमिति षट् । प्रकृतियोंकी संख्याको अपने-अपने गुणस्थानोंमें सम्भव उपयोग योग और आदि शब्दसे संयम, देशसंयम, लेश्या, सम्यक्त्वसे गुणा करके सबको जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतनी २० वहां मोहकी स्थान संख्या और प्रकृति संख्या जानना ॥४९०॥ वही कहते हैं मिध्यादृष्टि आदि दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान, दो दर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं । मिश्र आदि तीनमें तीन ज्ञान तीन दर्शन ये छह उपयोग होते हैं। प्रमत्त आदि सातमें चार ज्ञान तीन दर्शन ये सात उपयोग होते हैं। सयोगी और अयोगी जिनमें तथा सिद्धोंमें २५ केवलज्ञान, केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं। | Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७३५ इंतुपयोगंगळदं गुणिसल्पवयस्थानंगळमं तत्प्रकृतिगळमं तंतम्मगुणस्थानदोळु स्थापिस - पटुवं भाविसिवातंगनंतरमवरोळालापं पेळल्पडुगुमर्द र्त दोडे मिथ्यादृष्टियोळु कूटद्वयवो दशादिचतुःस्थानंगळं तत्रादिचतुःस्थानंगळ मंतुदयस्थानं गळे दुमं तन्नुपयोगंगळदरिदं गुणिदोडुदयस्थानंगळु नाल्वत्तप्पुववर प्रकृतिगळं प्रथमकूटदो मुवत्तारु ३६ । द्वितीयकूटदोळ ६८ वयंत तुपयोगपंचकदिदं गुणिसिदोडे मूनूरनाल्वत्तु प्रकृति मूत्रतरुवते. टप्पु ८ ७ ९१९ ८1८ १० ९ ३६ ३२ विकल्पंगळवा स्थानविकल्पंगळामी प्रकृतिविकल्पंगळां प्रत्येकं चतुविंशति भेदंगळप्युवदरिवं गुणका रंगळु मिप्पत्तनात्कधुवु । सासादननो नवाद्ये रुकट दोछु चतुःस्थानंगळप्प | प्रकृतिगळ मूवतेरडपु ७ वयं ८८ ९ ३२ तन्नुपयोग पंचकविदं गुणिसिवोर्ड उदयस्थानंगळ विशतिप्रमितंगळप्पूवु । प्रकृतिगळु नूररुवतप्पुववक्कं चतुव्विशतिगुणकारमक्कु । मिश्रनोळु नवायेककूटवळ चतुरुवयस्थानंगळं द्वात्रिंशत् - १० प्रकृतिगळ मप्पुवि ७ वं तन्नुपयोगं गळार गुणिसुतं विरलुदवस्था विकल्पंग लिप्यत्तनालकुं टाट ९ ३२ प्रमत्ता दिसप्तके चतुर्ज्ञानं त्रिदर्शन मिति सप्त । जिने सिद्धे च केवलज्ञानदर्शने इति द्वौ द्वौ । तत्र मिथ्यादृष्टी स्थानानि प्रकृतयश्च अ ८ ७ स्वोपयोगैर्गुणिते सति स्थानानि चत्वारिंशत्, प्रकृतयश्चत्वारिशदग्रत्रिश ९९ ८८ १० ९ ३६ ३२ तानि । सासादने स्थानप्रकृतयः ७ स्वयोर्गुणिताविंशतिः षष्टयुत्तरशतं । मिश्र ረረ ९ ३२ 60 ८८ ९ ३२ ५ स्वोप १५ मिथ्यादृष्टि में पहले कूट में एक दस प्रकृतिरूप, दो नौ-नौ प्रकृतिरूप, एक आठरूप ये चार स्थान हैं। इनकी प्रकृतियोंका जोड़ छत्तीस हुआ। पिछले कूट में एक नौरूप, दो आठआठ रूप, और एक सातरूप ये चार स्थान हैं। इनका जोड़ बत्तीस । दोनोंको मिलानेपर आठ स्थान और अड़सठ प्रकृतियाँ हुई । उनको पाँच उपयोगसे गुणा करनेपर चालीस स्थान और तीन सौ चालीस प्रकृतियाँ हुई । सासाद्दनमें एक नौरूप, दो आठ-आठरूप और एक सातरूप ये चार स्थान और बत्तीस प्रकृतियाँ हैं । उनको पाँच उपयोगोंसे गुणा करनेपर बीस स्थान और एक सौ साठ प्रकृतियाँ होती हैं । क - ९३ २० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे प्रकृतिगळ नूरतों भत्तेरडुमप्पुवु । गुणकारंगळं चतुविशतिप्रमितंगळप्पुवु । असंयतनोळ नवाद्यष्टादिकूटद्वयवोळ । ७ । ६ । वयस्थानंगळेदु प्रकृतिगळरुवत्तमप्पुवु । अव तन्नुपयोगषट्कदिवं गुणिसिदोडे नाल्वतेंट स्थानंगळ मूनूररवत्तु प्रकृतिगळप्पुवु । गुणकारंगळुमिप्पत्तनाल्कप्पुवु । देशसंयतंर्ग अष्टाविसमावि कूटद्वयवोळे टु स्थानंगळुमय्वत्त रडु प्रकृतिगळप्पु । ६ [ ५ | ववं |२८२४ ५ तन्नुपयोगषट्कवि गुणिसिदोर्ड नाल्वत दुदयस्थानंगळं मूनूरहन्नेरहु प्रकृतिविकल्पंगळुमप्पु वल्लियुं गुणकारंगळिप्पत्तनाल्कप्पुवु । प्रमत्तसंयतंगे सप्तादिषडादिकूटद्वयवोळेट स्थानंगळ नाल्वत्तनाल्कुप्रकृतिगळप्पुवु५.४इवं तन्नुपयोगसप्तकविवं गुणिसिवोडवयस्थानंगळवत्तार. प्पुवु । प्रकृतिगर्छ मूनूरेंटप्पुवु । गुणकारंगळ मिप्पत्तनाल्कुमप्पुवु । अप्रमत्तंगेयुं प्रमत्तनत सप्तादियोगर्गुणिताश्चतुर्विंशतिः, द्वानवत्यग्रशतं । असंयते | ७ | ६ | अष्टचत्वारिंशत् षष्टयनत्रिशती। देशसंयते ८८ ७७ | ३२ । २८ ६ । ५ । अष्टचत्वारिंशत् द्वादशाग्रत्रिशती । प्रमत्तेप्रमत्ते च | ५ । ४ षट्पंचाशत् अष्टाग्रत्रिशती १० ७७६६ २८२४ १४ २० मिश्रमें एक नौरूप, दो आठ-आठ रूप, और एक सातरूप ये चार स्थान हैं। उनकी बत्तीस प्रकृतियां हैं। उन्हें छह उपयोगोंसे गुणा करनेपर चौबीस स्थान और एक सौ बानबे प्रकृतियां होती हैं। असंयतमें पहले कूटोंमें नौरूप एक, आठरूप दो और सातरूप एक स्थान है। उनकी १५ प्रकृतियां बत्तीस । पिछले कूटोंमें आठरूप एक, सातरूप दो और छहरूप एक, ये चार स्थान हैं। उनकी प्रकृतियां अट्ठाईस । दोनोंको मिलानेपर आठ स्थान और साठ प्रकृतियाँ होती हैं। उनको छह उपयोगोंसे गुणा करनेपर अड़तालीस स्थान और तीन सौ साठ प्रकृतियां होती हैं। देशसंयतमें पहले कूटोंमें एक आठरूप, दो सातरूप, एक छहरूप ऐसे चार स्थान हैं, २० प्रकृतियां अठाईस । पिछले कूटोंमें एक सातरूप, दो छहरूप और एक पांचरूप ये चार स्थान हैं। चौबीस प्रकृतियां हैं। दोनोंको मिलाकर आठ स्थान बावन प्रकृतियां होती हैं । उनको ह उपयोगोंसे गुणा करनेपर अड़तालीस स्थान और तीन सौ बारह प्रकृतियाँ हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका षडादिकूटद्वयदोळेट स्थानंगळं नाल्वत्तनाल्कुं प्रकृतिगळप्पुवु | ५ ४ इवं तन्नुपयोगसप्तकविदं २४ २०० गुणिसिदोडय्वत्तारुदयस्थानंगळ मूनूरेंटु प्रकृतिगळुमप्पुवु गुणकारंगळमिप्पत्तनाल्कुम पुत् ॥ अपूर्वकरणंगे षडादिचतुःस्थानंगळं विंशतिप्रकृतिगळुमप्पुव । अवं तन्नुपयोगसप्तकदि गुणिसिदोडे मोहनीयोदयस्थानंगळिप्पत्ते टु प्रकृतिविकल्पंगळ्नूरनाल्वत्तुमप्पुव । गुणकारंगळुमिप्पत्तनाल्कप्पुषु । इंतिल्लिगे चतुविशतिगुणकारमनुळ्ळ मोहनीयोदयस्थानंगळ पयोगाश्रितंगळ मूनूरिप्पत ३२०। ५ प्पुवु । प्रकृतिविकल्पंगळ येरडुसासिरद नूरिप्पत्तप्पुव २१२०॥ इवं चतुम्विशतिगुणकारविवं गुणिसिदोडे स्थानविकल्पंगळ येळ सासिरदरुनूरेभत्तप्पुवु ७६८०। प्रकृतिविकल्पंगळुमय्वत सासिरदेण्टुनूरेभत्तप्पुवु ५०८८० । अनिवृत्तिकरणंगे उदयस्थानमो दु प्रकृतिगळेरडवं तन्नुपयोगसप्तदिदं गुणिसिदोडे स्थानविकल्पंगळेळु प्रकृतिविकल्पंगळ पदिनाल्कप्पुवु। अवं द्वादश विकल्पदिदं गुणिसिदोंडुदयस्थानंगळे भत्तनाल्कु ८४ । प्रकृतिविकल्पंगळु नूररुवत्तेंदु १६८ । मतम- १० निवृत्तिकरणन अवेंदभागयोळुदयस्थानमो दु प्रकृतियुमोंदु । अवं तन्नुपयोगसमकदिदं गुणिसिवोर्ड अपूर्वकरणे । ४ । अष्टाविंशतिः चत्वारिंशदाशतं । अनिवृत्तिकरणस्य स्थान प्रकृती, १ उपयोगैगुंगिते ६ २० । सप्त चतुर्दश पुनर्वादश भंगैर्गुणिते चतुरशांतिः अष्टपष्टय प्रशतं । अवेदभागे स्थान प्रकृतिः १ उपयोगैर्गुणिते प्रमत्त और अप्रमत्तमें पहले कूटोंमें एक सातरूप, दो छहरूप, एक पांचरूप ये चार स्थान हैं, चौबीस प्रकृतियां हैं। पिछले कुटोंमें एक-एक छहरूप, दो पांच-पांच रूप, एक चार- १५ रूप ये चार-चार स्थान और बीस-बीस प्रकृतियां हैं। दोनोंको मिलानेपर दोनोंमें आठ-आठ स्थान और चवालीस-चवालीस प्रकृतियां हैं। उनको सात उपयोगसे गुणा करनेपर छप्पनछप्पन स्थान और तीन सौ आठ-तीन सौ आठ प्रकृतियां होती हैं। ____ अपूर्वकरणमें छह रूप एक, पांचरूप दो और चाररूप एक ये चार स्थान और बीस प्रकृतियाँ हैं। उनको सात उपयोगोंसे गुणा करनेपर अठाईस स्थान और एक सौ चालीस २० प्रकृतियां होती हैं। इन सब गुणस्थानोंको जोड़नेपर ४०+२० + २४+४८+ ४८+५६ + ५६ + २८= तीन सौ बीस स्थान हुए । और सबकी प्रकृतियोंको जोड़नेपर ३४० + १६० + १९२ + ३५० + ३१२ + ३०८ + ३०८+१४० = इक्कीस सौ बीस प्रकृतियां हुई। उनको चौबीस भागोंसे गुणा करनेपर पचास हजार आठ सौ अस्सी प्रकृतियां हुई। ___ अनिवृत्तिकरणमें दो प्रकृतिरूप एक स्थान है। ननको सात उपयोगोंसे गुणा करनेपर २५ सात स्थान चौदह प्रकृतियाँ हुई। उनको बारह भंगोंसे गुणा करनेपर चौरासी स्थान, एक सौ अड़सठ प्रकृतियाँ होती हैं। अनिवृत्तिकरणके अवेद भागमें एक प्रकृतिरूप एक स्थान । उनको सात उपयोगोंसे गुणा करनेपर सात स्थान सात प्रकृतियाँ हुई। उनको चार भंगोंसे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ गो० कर्मकाण्डे स्थानविकल्पंगळ ७ प्रकृतिविकल्पंगळुमेळप्पुव ७ वं चतुष्कषाय भेवदिदं गुणिसिदोर्ड स्थानविकल्पं. गळ इप्पत्तै टु २८। प्रकृतिविकल्पंगळुमिप्पत्तें टप्पुवु २८। अंतनिवृत्तिकरणन सवेदावेदभार्गगळोळु स्थानविकल्पंगळ, नूरहन्नरडु ११२ । प्रकृतिविकल्पंगळ नूरतोंभत्तारु १९६ । सूक्ष्म सांपरायनोळ सूक्ष्मलोभस्थानमोंदु । प्रकृतियुमदों देयक्कुमवं तन्नुपयोगसप्तकदिदं गुणिसिदोडे उदयस्थानविकल्पंगळ एळ ७ । प्रकृतिगळ मेळ ७ मवेकविकल्पमप्पुरिंदमनितयप्पुवु । अनि वृत्तिकरणनुदयस्थानविकल्पंगळ नूरहन्नेरडरोळी सूक्ष्मसांपरायनुदयस्थानंगळेळं कूडिदोडे उपयोगाश्रितस्थानंगळ नूरहत्तो भत्तुं क्षेपंगळेबुवक्कुं । ११९ । अनिवृत्तिकरणन नूरतो भत्तारु प्रकृतिगळोळी सूक्ष्मसांपरायनेळं प्रकृतिविकल्पंगळं कूडिदोडे इन्नूर मूरु २०३ प्रकृतिगळ क्षेपंगळे बुवक्कु । मी स्थानक्षेपंगळुमं प्रकृतिक्षेपंगळुमं मुन्निन स्थानविकल्पंगळ येळ सासिरवरुनूरेभत्तरोळ ७६८० प्रकृतिविकल्पंगळस्वत्तु सासिरदेटु नूरेभत्तरोळ क्रमदिदं कूडतं विरलु गुणस्थानदोळ पयोगाश्रितमोहनीयोदयस्थानंगळ सर्वमुमेळ सासिरदेळ नूरतोंभत्तोंभत्तप्पुवु ७७९९ । प्रकृतिविकल्पंगळ मम्वत्तोंदु सासिरवेभित्तमूरप्पु ५१०८३ । वेंदु मुंदण गाथाद्वयदिदं पेळदपरु: णवणउदिसगसयाहिय सत्तसहस्सप्पमाणमुदयस्स । ठाणवियप्पे जाणसु उवजोगे मोहणीयस्स ॥४९२।। नव नवतिसप्तशताधिकसप्तसहस्रप्रमाणमुक्यस्य । स्थानविकल्पान् जानीहि उपयोगे मोहनोयस्य॥ सप्त सप्त । पुनश्चतुभंगैर्गुणितेऽष्टाविंशतिरष्टाविंशतिः सूक्ष्मसापराये स्थान प्रकृतिः १ उपयोगगुणिते सप्त सप्त । अत्रापूर्वकरणांतं स्थानानि प्रकृतीश्च कोकृत्य चतुर्विशत्या संगुण्य तत्र च स्थानेष्वनिवृत्तिकरणाद्येकान२० विशत्यग्रशतस्थानानि प्रकृतिषु व्यग्रद्विशतं प्रकृतीश्च क्षेपं कुर्यात । गुणा करनेपर अठाईस स्थान अठाईस प्रकृतियाँ हुई। सूक्ष्म साम्परायमें एक प्रकृतिरूप एक स्थान । सात उपयोगसे गुणा करनेपर सात स्थान सात प्रकृतियां होती हैं। यहाँ भंग एक हो है। इनको जोड़नेपर ८४ + २८+७ एक सौ उन्नीस स्थान और १६८ +२८+७ दो सौ तीन प्रकृतियां होती हैं । इनको अपूर्वकरण पर्यन्त कहे स्थानों और प्रकृतियों में मिलाइए ।।४९१।। | गुण. मि. | ४सा. ४मि. ८अ. ८दे. | ८प्र. ८अप्र. ४अ.| १अ.। १अ. १सू. | प्रकृति ६८ | ३२ | ३२ | ६० ५२ | ४४ ४४ | २० २ उपयोग ५ ५ ६ ६ ६ ७ ७ ७ ७ ७ ७ स्थान | ४० | २० | २४ ४८ ४८ ५६ ५६ | २८ ७ ७ ७ | प्रकृति | ३४० १६०/ १९२ ३६० ३१२ ३०८/३०८, १४० १४ | ७ ७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ १० कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नवनवतिसप्तशताधिक सप्तसहस्रप्रमाणमं ७७९९ । मोहनीयोदयदुपयोगस्थानविकल्पंगळनरियेंदु शिष्यं संबोधिसल्पट्टनु ॥ एक्कावण्णसहस्सं तेसोदिसमण्णियं वियाणाहि । पयडीणं परिमाणं उवजोगे मोहणीयस्स ॥४९३॥ एकपंचाशत्सहस्रं यशोतिसमन्वितं विजानीहि । प्रकृतीनां प्रमाणं उपयोगे मोहनीयस्य ॥ ५ त्र्यशीतिसमन्वितमप्प एकपंचाशत्सहस्रमनुपयोगदोळु मोहनीयद प्रकृतिगळ परिमाणमनरियेदितु शिष्यं संबोधिसल्पढें । ५१०८३ । अनंतरं गुणस्थानदोळु मोहनीयोदयस्थानमं प्रकृतिगळ योगमनायिसि पेन्दपरु : तिसुतेरं दस मिस्से णव सत्तसुछट्टयम्मि एक्कारा । जोगिम्मि सत्तजोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥४९४॥ त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे नव सप्तसु षष्ठे एकादश । योगिनि सप्तयोगा अयोगिस्थानं भवेच्छून्यं ॥ त्रिषु त्रयोदश मिथ्यादृष्टियोळं सासादननोळ असंयतनोळ प्रत्येकं त्रयोदशत्रयोदशंगळप्पुवु। दश मिश्रे मिश्रगुणस्थानदोळ वशयोगंगळप्पुर । नव सप्तसु देशसंयताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशांतकषायक्षोगकषायरेंब सप्तगुणस्थानंगळोळ प्रत्येकं नव नव १५ योगंगळप्पुवु । षष्ठे एकादश प्रमत्तसंयतनोळे कादशयोयंगळप्पुषु । योगिनि सप्त योगाः सयोगकेवलिभट्टारकनोळ, सप्तयोगंगळप्पुवु। अयोगिस्थानं भवेच्छून्यं अयोगिकेवलि भट्टारकगुणस्थानदोळु योगशून्यमक्कुं। संदृष्टि : तत्रोपयोगाश्रितमोहनीयोदयस्थानविकल्पा नवनवत्यग्रसप्तशताधिकसप्तसहस्राणि जानीहि ७७९९ ॥४९२॥ २० उपयोगाश्रितमोहनीयप्रकृतिपरिमाणं च यशीतिसमन्वितैकपंचाशत्सहस्राणि जानीहि ५१०८३ ॥४९३॥ अथ योगमाश्रित्याह योगाः मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतेषु त्रयोदश त्रयोदश । मिश्रे दश । देशसंयतादिषु सप्तसु नव नव । प्रमत्त एकादश । सयोगे सप्त । अयोगे शुन्यं भवेत् ॥४९४॥ इस प्रकार उपयोगके आश्रयसे मोहनीयके उदयस्थानके भेद सात हजार सात सौ २५ नन्यानबे ७७९९ होते हैं ।।४९२।। तथा उपयोगके आश्रयसे मोहनीयकी प्रकृतियोंका प्रमाण ५१०८३ इक्यावन हजार तिरासी जानना ॥४९३॥ आगे योगके आश्रयसे कथन करते हैं योग मिथ्यादृष्टि, असंयत और सासादनमें तेरह-तेरह, मिश्रमें दस, देशसंयत आदि ३० सात गुणस्थानोंमें नौ-नौ, प्रमतमें ग्यारह, सयोगीमें सात होते हैं। अयोगीमें योग नहीं होता ॥४९४॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० १५ मि सा | मि १३ १३ १० गो० कर्मकाण्डे अ दे प्र अ अ १३ | ९ ११ ९ ९ अनंतरमी गुणस्थानं गळोळ, मिश्रयोगंगळुळ्ळ गुणस्थानंगळ मं केवलं पर्य्या प्रयोगंगळुळ्ळ गुणस्थानंगळ मं विवरिसि पेदपरु : मिच्छे सासण अयदे पमत्तविरदे अपुण्णजोगगदं पुण्णगदं च य सेसे पुण्णगदे मेलिदं होदि ||४९५ ॥ मिथ्यादृष्टौ सासादने असंयते प्रमत्तविरते अपूर्ण योगं पूर्णगतं च च शेषे पूर्णगते मिलितं भवति ॥ मिथ्यादृष्टौ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं, सासादने सासादनगुणस्थानदोळं, असंयते असंयतगुणस्थानदोळ, प्रमत्तविरत प्रमत्तविरत गुणस्थानदोळुमितु चतुर्गुणस्थानं गळोळ अपूर्णयोगमुं पूर्णयोगमुमोळवा अपूर्णयोगगतं च अपर्थ्याप्तयोगगतस्थानमुमं । पूर्णगतं च पय्र्याप्तकयोगगतस्थानमुमं १० मिलितं कूडिदुदं । शेषे पूर्णगते शेषगुणस्थानंगळ पूर्णयोगगतस्थानदोळ, मिलितं कूडल्पट्टुवु । योगाश्रित सर्व्वस्थानप्रमाणमु प्रकृतिप्रमाणमुं भवति अक्कुमदतें दोडे मिथ्यादृष्टियोळनंतानुबंधिकषायोदययुत चतुःस्थानंगळ मवर प्रकृतिगळ, ८ मनोयोगचतुष्कमुं वारयोग चतुष्क मुमौदारिक ९८९ अ । सू । उ । क्षी | स | अ ९ ९ ९ ९ ७० १० ३६ काययोगमुमौदारिक मिश्रयोगमुं वैक्रियिककाययोगमुं वैक्रियिकमिश्रयोगमुं काम्मँणकाययोगमुमेंब अथ मिश्रयोगयुक्त केवल पर्याप्त योगयुक्त गुणस्थानानि विशेषयति मिध्यादृष्टो सासादने असंयते प्रमत्तविरते चेति चतुर्गुणस्थानेषु अपर्याप्तयोगगतं पर्याप्तयोगगतं च मिलितं स्थानप्रमाणं प्रकृतिप्रमाणं च भवति । शेषगुणस्थानेषु केवलपर्याप्तयोगगतमेव तद्वयं भवति । तद्यथा८ | स्वयोर्गुणिता द्वापंचाशत्, अष्टषष्टयप्रचतुःशतानि । विसंयोजिता मिथ्यादृष्टौ स्थानप्रकृतयः ९।९ १० ३६ आगे मिश्रयोगवाले और केवल पर्याप्त योगवाले गुणस्थानोंको कहते हैं • मिध्यादृष्टि, सासादन, असंयत तथा प्रमत्त विरत इन चार गुणस्थानों में अपर्याप्त योग २० भी होते हैं और पर्याप्त योग भी होते हैं । अतः इनमें इन दोनोंको मिलाकर स्थानों और प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। शेष गुणस्थानों में केवल पर्याप्त योग ही होते हैं अतः उन्हीं को लेकर स्थान प्रमाण और प्रकृति प्रमाण होता है। वही कहते हैं - मिथ्यादृष्टि के पहले कूटोंमें चार स्थान और १० +९+९+८ = छत्तीस प्रकृति हैं । उनको तेरह योगों से गुणा करनेपर बावन स्थान और चार सौ अड़सठ प्रकृति होती हैं । २५ अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनरूप अन्तर्मुहूर्त में मरण नहीं होता इसलिए पिछले चार कटोंके चार स्थान और बत्तीस प्रकृतियोंको ९+८+८+७ = दस योगोंसे गुणा करनेपर चालीस Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७४१ पर्याप्तापर्याप्तयोगंगळ त्रयोदशंगळक्कुमदु। १३ । ४ । १३ । ३६ । गुणिसुत्तं विरलु द्विपंचाशत्स्थानंगळ ५२ मष्टषष्टयुत्तर चतुःशतप्रकृतिगळमप्पुवु । ४६८। मत्तमा मिथ्यादृष्टियोळ अनंतानुबंधिकषायोदयरहित चतुःस्थानंगळुमं द्वात्रिंशत्प्रकृतिगळुमं ७ मनोयोग चतुष्क, वाग्योग चतुष्क मुमौवारिककाययोग, वैक्रियिककाययोगमुमेंब पर्याप्तदशयोगंगळप्पुवेंदु गुणिसुतं विरलु। नुबंधिन्यंतर्मुहुर्ते मरणाभावात्तत्पर्याप्तदशयोगर्गुणिताः स्थानप्रकृतयः | ७ | चत्वारिंशत् विंशत्यत्रिशती ५ | ३२ मिलित्वा स्यानानि द्वानवतिः प्रकृतयोऽष्टाशोत्यग्रसप्तशती । सासादने स्थानप्रकृतयः |४वैक्रियिकमिश्रस्य ३२/ पयग्वक्ष्यतीति द्वादशभिर्गणिता अष्टचत्वारिंशत चतुरशीत्यत्रिशतो। मित्र। दशभिर्गुणिताश्चत्वारिंशत् ८८ ३२ विंशत्यनत्रिशती । असंयते । ७ । ६ । कार्मणौदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्राणां पृथग्वक्ष्यतीति दशभिर्गुणिता ८.८] ७७ ३२ | २८ अशीतिः षट्छती । देशसंयते |८| नवभिर्गुणिता द्वासप्ततिरष्टषव्यग्रचतुःशती । प्रमत्तेऽप्रमत्ते च | ५ | ४ | आहारकद्वयस्य पृषग्वक्ष्यतीति नवभिर्गुणिता द्वासप्ततिः षण्णवत्यपत्रिशती। अपूर्वकरणे १० स्थान और तीन सौ बत्तीस प्रकृतियाँ हैं। सब मिलकर बानबे स्थान और सात सौ अठासी प्रकृतियाँ होती हैं । सासादनमें चार स्थान, बत्तीस प्रकृति ९+८+८+ ७ हैं । चूंकि वैक्रियिक मिश्रयोगको अलगसे कहेंगे, इसलिए बारह योगोंसे गुणा करनेपर अड़तालीस स्थान और तीन सौ चौरासी प्रकृतियाँ होती हैं। मिश्रमें स्थान चार और प्रकृति ९+८+८+७== बत्तीस । उनको दस योगोंसे गुणा । करनेपर चालीस स्थान और तीन सौ बीस प्रकृतियाँ होती हैं। असंयतमें आठ स्थान और ९+ ८+ ८+७=३२ । ८+७+७+ ६ = २८ । साठ प्रकृतियाँ हैं । चूंकि कार्माण, औदारिक मिश्र और वैक्रियिक मिश्रका कथन पृथक करेंगे अतः दस पर्याप्त योगोंसे गुणा करनेपर स्थान अस्सी और प्रकृतियाँ छह सौ होती हैं। देशसंयतमें स्थान आठ और प्रकृतियाँ ८+७+७+६=२८ । ७+६+६+५% २४ २. बावन । उनको नौ योगोंसे गुणा करनेपर बहत्तर स्थान और प्रकृति चार सौ अड़सठ होती हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ गो० कर्मकाण्डे ४।१०। ३२। १०। चत्वारिंशत्स्थानंगळं ४० । विंशत्युत्तरत्रिशतप्रकृतिगठ मप्पु ३२०। वेकें दोडे अनंतानुबंधिकषायोदयरहितमिथ्यादृष्टिगंतम्र्मुहूत्र्तकालपर्यतं मरणमिल्लप्पुरिदेमपर्याप्तयोगंगळ, संभविसुवप्पुरिदं । अंतु सिथ्यादृष्टियोळभयस्थानंगळु द्वानवतिप्रमितंगळप्पुवु ९२ । प्रकृतिगळ मष्टाशोत्युत्तरसप्तशतप्रमितंगळप्पुवु ७८८ ॥ चतुःकषायत्रिवेदद्विकद्वयभेददिवं चतु५ विशतिगुणकारंगळप्पुवु २४ ॥ अनंतर सासादनासंयतप्रमत्तगुणस्थानत्रयो मिश्रयोगंगळोळु विशेषमं गाथाद्वदिवं पेदपरु: सासण अयदपमत्ते वेगुम्वियमिस्स तच्च कम्मइयं । ओरालमिस्सहारे अडसोलडवग्ग अट्ठवीससयं ॥४९६॥ ____सासादनासंयतप्रमत्तेषु वैक्रियिकमिश्रं तच्च काम्म॑णं औदारिकमिश्रे आहारे अष्ट षोडशा. __ष्टवर्गाष्टाविंशतिशतं ॥ । ४ । नवभिर्गुणिताः षट्त्रिंशदशोत्यग्रशतं । एतावत्पयतं सर्वत्र स्थानप्रकृतोनां गुणकारश्वतुर्विंशतिः । । २० अनिवृत्तिकरणसवेदभागे | १ नवभिर्गुणिता नवाष्टादश । गुणकारो द्वादश । अवेदभागे । १। तथा नव नव गुणकारश्चत्वारः । सूक्ष्मसांपरायेऽपि | १ तथा नव नव गुणकार एकः ॥४९१॥ अथापनोतयोगानां विशेष गाथाद्वयेनाह प्रमत्त और अप्रमत्तमें स्थान आठ, प्रकृति ७+६+६+५ % २४।६+५+५+ ४ = २०। चवालीस स । आहारकाद्वंकका कथन पृथक करंगे इसलिए नौ योगोंसे गुणा करनेपर प्रत्येकमें बहत्तर स्थान और तीन सौ छियानबे प्रकृतियां हैं। ___ अपूर्वकरणमें चार स्थान और प्रकृति ६+५+५+४= बीस हैं । उनको नौ योगोंसे गुणा करनेपर छत्तीस स्थान और एक सौ अस्सी प्रकृति हैं। यहाँ तक इन स्थानों और . प्रकृतियोंको चौबीस भंगोंसे गुणा करें। __ अनिवृत्तिकरणके सवेद भागमें एक स्थान और दो प्रकृति । इनको नौ योगोंसे गुणा करनेपर नौ स्थान और अठारह प्रकृति होती हैं। इनको बारह भंगोंसे गुणा करें। और अवेद भागमें एक स्थान एक प्रकृति । इन को नौ योगोंसे गुणा करनेपर नौ स्थान नौ प्रकृति होते हैं। इनको चार भंगोंसे गुणा करें। सूक्ष्मसाम्परायमें एक स्थान एक प्रकृति, इनको नौ योगोंसे गुणा करनेपर नौ स्थान नौ प्रकृति होती हैं । इनको एक भंगसे गुणा करें ॥४९५।। आगे पृथक् रखे योगोंका कथन दो गाथाओंसे करते हैं१. अण संजोजिदसम्मे मिच्छं संते ण आवलित्ति अणं । अण संजोजिद मिच्छे मुहुत्त अंतेत्ति णत्थि मरणं तु १० । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सासादन गुणस्थानदोलम संयत गुणस्थानदोळं प्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळमल्लि सासादनवैक्रिfrefमश्रका योगदष्टवर्गमात्रस्थानविकल्पंगळप्पु । ६४ । असंयतन वैक्रियिक मिश्रकाणकाययोगदो षोडशवर्गप्रमितस्थानविकल्पंगळप्पु । २५६ । मत्तमसंयतनौदारिकमिश्रकायसासादनस्य वैक्रियिकमिश्रयोगे स्थानान्यष्टवर्गमात्राणि प्रकृतयो द्वादशाग्रपंचशती । कुतः ? षंढवेदवर्जित कूटस्थ २ २ । २ ० । १ । १ ४४४४ संजातचतुः स्थानद्वात्रिंशत्प्रकृतीनां ७ ८८ ९ ३२ १ २ । २ ०११ ४४४४ १ २ । २ ० । १ । १ ४ ४ ४ ४ ७४३ २ । २ ० ।१ ।१ ४ ४ ४ ४ षोडशभंगेर्गुणितत्वात् । असंयतस्य वैक्रियिकमिश्रकार्मणयोगयोः स्यानानि षोडशवर्गमात्राणि प्रकृतयो विंशत्यग्रे कानविंशतिशती । कुतः ? स्त्री वेदवजिततत्कूटसं जाताष्टस्थानषष्टिप्रकृतीनां | ७ ६ षोडशभंगयोंगयुग्मेन च गुणितत्वात् । पुनः असंयतस्यौदारिकमिश्रयोगे स्थाना ८८ ७/७ ९ ८ ३२ २८ यष्टवर्गमात्राणि प्रकृतयोऽशीत्यग्रचतुःशतो, कुतः ? स्त्रीपंढवेदवजितासंयताष्टकूटसं जाताष्टस्थानषष्टिप्रकृतीनां ७ ६ अष्टभंगेर्गुणितत्वात् । प्रमत्तसंयतस्याहारकद्वये स्थानान्यष्टाविंशत्यग्रशतं प्रकृतयश्चतुरग्रसप्त- १० टाट ७/७ ९ ८ ३२ २८ सासादनके वैक्रियिक मिश्रयोग में स्थान आठका वर्ग चौंसठ प्रमाण और प्रकृति पांच सौ बारह हैं । ये कैसे हैं ? इसका कथन करते हैं सासादनमें चार कूट किये थे । उनमें तीन वेदों में से एकका उदय कहा था । किन्तु यहाँ नपुंसकवेदके बिना दो वेदों में से एकका उदय जानना । सो नौरूप एक, आठरूप दो और सातरूप एक ये चार स्थान और बत्तीस प्रकृति । उनको चार कषाय, दो वेद और दो युगलोंसे हुए सोलह भंगों से गुणा करनेपर चौंसठ स्थान और पांच सौ बारह प्रकृति हुई । १५ असंयत के वैक्रियिक मिश्र और कार्मण योगमें पूर्वोक्त आठ कूटों में स्त्रीवेदके बिना दो वेदों में से एकका उदय जानना । इससे उन कूटोंमें आठ स्थान और साठ प्रकृतियोंको चार कपाय, दो वेद और दो युगलोंके सोलह भंगों से तथा दो योगोंसे गुणा करनेपर सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन प्रमाण स्थान और उन्नीस सौ बीस प्रकृतियाँ होती हैं । असंयत के औदारिक मिश्रमें स्त्रीवेद-नपुंसक वेद दोनोंका उदय नहीं होता । अतः पूर्वोक्त आठ कूटोंमें तीन वेदोंके स्थान में एक वेद लिखना । आठ कूटोंके आठ स्थान और साठ प्रकृतियोंको चार कषाय, एक वेद, दो युगलके आठ भंगोंसे और एक योगसे गुणा करनेपर आका वर्ग चौंसठ प्रमाण स्थान और चार सौ अस्सी प्रकृतियां होती हैं । क - ९४ २० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ गो० कर्मकाण्डे योगदोळष्टवर्गमात्रस्थानविकल्पंगळप्पुवु । ६४ ॥ प्रमत्तसंयतनाहारकयोगद्वयवोळष्टाविंशतिशतस्थानंगळप्पुवु । १२८॥ ई स्थानंगळं प्रकृतिगळ्गमुपपत्तियं पेन्दपरु :-- णत्थि णउसयवेदो इत्थीवेदो णउंसइत्थिदुगे । पुव्वुत्तपुण्णजोगगचउसु ठाणेसु जाणेज्जो ॥४९७॥ नास्ति नपुंसकवेवः स्त्रीवेदो नपुंसकस्त्रियो द्वये। पूर्वोक्ताऽपूर्णयोगगतचतुर्षु स्थानेषु ज्ञातव्यः॥ ____ पूर्वोक्ताऽपूर्णयोगगचतुर्दा स्थानेषु पेरगण सूत्रदोळु पेळल्पट्ट सासा वनासंयतप्रमत्तरुगळ अपर्याप्तयोगगतचतुःस्थानयोगंगळोळ क्रमदिदं मोदल सासादनवैक्रियिकमिश्रकाययोगदोळु नास्ति १. नपंसकवेवः नपुंसकवेदोदयमिल्लेके दोर्ड-"णिरयं सासणसम्मो ण गच्छवित्ति" एंबु सासादनसम्यग्दृष्टि नरकदोळु पुट्टनरिदं २ असंयतन वैक्रियिकमिश्रकार्मणयोगद्वयवोल स्त्रीवेदो २०२ ०११ ४।४।४।४ नास्ति स्त्रीवेदोदयमिल्लेके दोडे असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यग्मनुष्यदेवगतिगळोळ पुरुषनागि पुटुगुमप्पुरिदं । घम्योछु नपुंसकनुमागि पुटुगुमप्पुरिदं २ मत्तमसंयतनौवारिकमिश्र २।२ १०१ ३३३३ काययोगदोळं प्रमत्तसंयतनाहारकयोगद्वयदोळमंतु द्वये येरडेडयोळं नपुंसकस्त्रियो न भवतः नपुंसक १५ वेदमुं स्त्रीवेदमुमिल्ले दु ज्ञातव्यः अरियल्पडुगुमे ते दोडसंयतं तिग्मनुष्यरोळ पुरुषनागि पुटुगुम. शती । कुतः ? स्त्रीषंढवजिततत्कूटजाताष्टस्थानचतुश्चत्वारिंशत्प्रकृतीनां-। ५ । ४ । अष्टभंगर्योग ६६५५ | २४३ युग्मेन च गुणितत्वात् ॥४१६॥ अथ तमपनीतवेदं स्वयं निषेषयति पूर्वोक्तापूर्णयोगगतचतुःस्थानेषु प्रथमे सासादने वैक्रियिकमिश्रकाययोगे नपुंसकवेदोदयो नास्ति; प्रमत्तसंयतके आहारक-आहारक मिश्ररूप दो योगोंमें भी स्त्री नपुंसक वेदरहित २० आठ कूटोंके आठ स्थान और चवालीस प्रकृतियोंको आठ भंगोंसे और दो योगोंसे गुणा करनेपर एक सौ अठाईस स्थान और सात सौ चार प्रकृतियाँ होती हैं ।।४९६।। आगे उन घटाये गये वेदोंको ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं पूर्वोक्त अपर्याप्त योगगत चार स्थानों में से प्रथम सासादनमें वैक्रियिक मिश्रकाय योगमें नपंसक वेदका उदय नहीं है। क्योंकि सासादन मरकर नरकमें उत्पन्न नहीं होता। २५ असंयतमें वैक्रियिक मिश्र और कामण योगमें स्त्रीवेदका उदय नहीं है, क्योंकि असंयत . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका प्रमत्तसंयतं षंडस्त्रीवेदोदयमुळ्ळनादोडा संक्लिष्टनोळाहारकवृद्धिगुत्पत्तियि प्पुरिदं २ २२ ०१०११ ३३३३ ल्लप्पुरिदं । संदृष्टि--- २२ ०1०११ ११११ o ho ६४ १२८ न। सासादन। | असंयत। । असंयत। । प्रमत्तसंयत। ठा।वि। ६४ २५६ स्थानविशेष प्र०वि ५१२ १९२० ४८० ७०४ प्रकृतिविशेष ठा०सा ४ स्थानसामान्य प्र०सा ७० प्रकृतिसामान्य यो । १ यो॥ भं । १६ भंग १६ ई रचनातात्पत्थिं पेळल्पडुगुमवेत दोर्ड वैक्रियिकमिश्रकाययोगि सासादनंगे मोहनीयोदयकूटंगळु नाल्कक्कं नाल्कु स्थानंगळप्पुवु । | । ८८ २२ ०११।१ २१२ ०११११ २१२ ०११११ २१२ ०११११ ४४४४ प्रकृतिगळ मूवत्तेरडप्पुवु । ३२ । इल्लि क्रोधचतुष्कादि चतुष्क दोळोदु चतुष्क, स्त्रीवेवमुं ५ पुंवेदमुमें बेरडररोळोंदु वेदमुं द्विकद्वयदोनोंदु द्विकमु भयद्विकमुमंतु नवादिस्थानंगळ नाल्कक्कं चतुष्कषायमुं वेदद्विकमुं द्विकद्वयमुमें दिवर गुणितदिदाद भंगंगळु षोडशप्रमितंगळप्पु १६ वा नाल्कुं स्थानंगळ्गे प्रत्येकमी षोडश भंगंगळप्पुर्व दु गुणिसिदोडे । ४।१६। चतुःषष्टिस्थानंगळप्पुवु ।६४॥ आ द्वात्रिंशत्प्रकृतिगळुमनी षोडशभंगंगाळदं गुणिसिदोडे ३२ । १६ । द्वादशाधिकपंचशतप्रकृतिगळप्पुवु । ५१२ । ई सासादनंगुत्कृष्टदिदं षडावलिकालमक्कुं। जघन्यदिदमेकसमयमक्कुमातं १० स्त्रीवेदोददिदं देवियक्कुं। पुंवेदोददिव देवनक्कु-मातंगाकालदोळु क्रोधचतुष्कमुं मानचतुष्कमुं मायाचतुष्कर्मु लोभचतुष्कमु बिवरोळोंदु चतुष्कमुं स्त्रीवेदमुं पुंवेदमुम बेरडं वेदंगळोळोदोंदु सासादनस्य नरकेऽनुत्पत्तेः । असंयते वैक्रियिकमिश्रकार्मणयोगयोः स्त्रीवेदोदयो नास्ति असंयतस्य स्त्रीष्वनुत्पत्तेः । स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता। पुनः असंयतके औदारिक-मिश्रयोगमें और प्रमत्त संयतके आहारक-आहारक मिश्रयोगमें स्त्रीवेद-नपुंसक वेद नहीं हैं। ऐसा जानना। यहाँ मिथ्या- १५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ गो० कर्मकाण्डे वेदमुं हास्यद्विकमुमरतिद्विकमुमे बेरडुं द्विकदोळोदु द्विकमुं, भयद्वितय मुमंतु नवप्रकृतिगलुदयस्थानमो मतमा प्रकृतिगळोळ जुगुप्सेयं कळेदोडेटु प्रकृतिस्थानोदु मत्तमा प्रकृतिगळोळ भयमं कळे दो टु प्रकृतिस्थानमिदों दुभयमुं जुगुप्सेजु रहितसप्तप्रकृतिस्थानमदों दंतु स्थानचतुष्टयमुं द्वात्रिंशत्प्रकृतिगळ्गे षोडशभंगंगळककुम बुदत्थं । असंयतंग वैक्रियिक मिश्रकाययोगदोळु मोहनी५ योदयकूटंगळु सवेदकंगळु नाल्कुमवेदकंगळु नाल्कुमप्पुवु । संदृष्टि : १ । १ । ० कटस्थान प्रकृति २२ । २ २ । २२ । २२ । २२ । २ ।२२ श०१ १०१ १२०१ १०१ १०१ १०१ ११०१ २०१८ ३३३३ / ३३३३ | ३३३३ | ३३३३ ३३३३ | ३३३३ | ३३३३ | ३३३३ ! । १ । १ । १ । १ | भं १६ भिं १६ ई कूटंगळे टक्कं कषायवेदद्वय द्विकद्वयकृत भंगंगळु प्रत्येको दोंदु कूटक्के षोडशप्रमितंगप्पुवु । ८ । १६ । प्रकृति ६० । १६ । गुणिसिदोडे नूरिप्पते टु स्थानंगळु १२८ । ओ भयिनूररुवत्त प्रकृतिगळु ९६० । मप्पुवु। असंयतंगे कार्मणकाययोगदोळमिनित स्थानंगळु प्रकृतिगळ मागुत्तं विरलु द्विगुणिसिदोडे बेसदछप्पण्ण प्रमितस्थानंगळु २५६ । सासिरदों भैनूरिप्पत्तु प्रकृतिगळप्पुवु । १९२०॥ मत्तमौदारिकमिश्रकाययोगियसंयतंगे सवेदकावेदकगतोदयकूटंगळे टक्कमे टुं स्थानंगळप्पुवु ६ कडि स्थान ८८ ७७ / ८ ३२ । २८ । प्र।६० प्रकृतिगळरुवत्तप्पूवु। भंगंगळे टेयप्पुवेके दोडौदारिकमिश्रकाययोगि असंयततियंचन मनुष्यनुमप्पुरदं पुंवेदोदयमो देयप्पुरिदमा एंटुं भंगंळिंदर्मटुं स्थानंगळं गुणिसिदो ८।८। डरुवत्तनाल्कुस्थानंगळ ६४ । प्रकृतिगळ६०। ८। नानूरेभत्तप्पुवु ४८० ॥ प्रमत्तसंयतंगाहारकमिश्रकाययोगदोळं सवेदकावेदकगतोदयकूटर्म टक्कमेंटु स्थानंगळप्पुवु । १५ प्रकृतिगळुनाल्वत्तनाल्कप्पुवु। ६४ । २ । ३५२।२। संवृष्टि : २।२ । २२ । २२ । २ ॥२ । २।२ - २२ २।२ 01018 | ०1०1१ | 010११ | ०१०१/ ० १ / ०1०1१ । ०1०1१1 ०1०1१।। ११११११११॥शशशशशशशशशशश११११११११११११११११११११ पुनः असंयतीदारिकमिश्रयोगे प्रमत्ताहारकयोश्च स्त्रीषंढवेदी न स्तः, इति ज्ञातव्यं । अत्र मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्व दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण पर्यन्त स्थानोंको एकत्र कर चौबीस भंगोंसे गुणा करो। जो प्रमाण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Я यो ३२ १२ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७ द्वात्रिंशत्प्रकृतंगळुमप्पवु १०1४ |१०|३२ ८1८ ९ ३२ ५ ४ ६६ ५५ ६ २४ २० ← ७ ६४२ इव वेदोदययपुर्वारदमेटे भंगंगळप्पुवु । ८ । ८ । ई स्थानंगळुमं प्रकृतिगळुमने टरिंद गुणिसिवोडे ४ । ४ । ८ । स्थानंगळरुवत्तनात्कुं ६४ प्रकृतिगळु मूनूरध्वत्तेरडप्पु ३५२ । ई आहामिश्रकाययोग वोळे तंर्त आहारककाययोगियोळप्पु दरिदं स्थानंगळुमं प्रकृतिगळमं द्विगुणिसिवोर्ड नूरिप्पते दु स्थानंगळं १२८ । एळ नूर नाल्गु प्रकृतिगळुमप्पुवेंदु ७०४ । निश्चैसुवुदी ३५२२ मूरुं गुणस्थानंगळ विशेषस्थान प्रकृतिगळं मुंदे सम्बंस्थानप्रकृतिगळोळ क्षेपमं माडि कोडाचाय्यं मुंदण सूत्रदोळु पेळदप नंतागुत्तं विरलु सासादनंर्ग वैक्रियिकमिश्रकाययोगं पोरतागि मुंपेव पर्नरडुं योगंगळगे योगं प्रति नाल्कु नाल्कुं स्थानंगळं मूवर्त्त रडु मूवत्तेरडु प्रकृतिगळागुत्तं विरलु-स्थान यो नात्वते' टुं स्थानंगळे, ४८ सूनरेण्भतनात्कु प्रकृतिगळप्पु । ३८४ ॥ भंगं ४ १२ कूडि स्थान ८ भंग - ८ प्रकृति ४४ ८ गळु चतुविशतिप्रमितंगळप्पुवु २४ । मिश्रंग पर्याप्रयोगंगळु पत्तक्कं योगमेकैकं प्रति चतुःस्थानंगळ गुणिसिबोर्ड नावत्तु स्थानंगळु ४० । मूनूरिपत्तु १० प्रकृतिगळपवु । ३२० । भंगंगळ चतुविशतिप्रमितंगळवु २४ । असंयतंगे वैक्रियिकमिश्रका - योगमुं काम्मँणकाययोगमुमौवारिक मिश्र काययोगमुमंतु योगत्रितयमं वज्जिसि पर्याप्तयोगंगळु हत्तक्कं योगमेकैकं प्रति सवेदका वेदकसम्यक्त्व संबंधि मोहनीयोवयकू टंगळे टक्कमे टुं स्थानंगळ मरुवत्तु प्रकृतिगळप्पु - ७ ६ | उभ ८ १० गुणिसिदोर्ड भत्तु स्थानंगळ, मरुनूरु प्रकृतिंगळुमप्पुवु ८८ ७७ ९ ८ ७४७ ८ ९ ५२ ९ ३२ | २८ | प्र ६० १० प्रत्येकं चतुविशतिभंगंगळप्पुव २४ ॥ देशसंयतंगे पर्य्याप्त योगंगळ, मनोवाग्योगंगळे दुमौदारिक- १५ काययोगमुमितो भत्तु योगंगळप्पुवेकैकयोगं प्रति सवेदका वेवक सम्यक्त्व संबंधिमोहनीयोवयकूटंगळे - टक्कर्म स्थानंगळ, मध्वत्तेरडुं प्रकृतिगळप्पुवु गुणिसिवोर्ड पत्ते रडु स्थानंगळ ८० ६०० करणपर्यंतानि स्थान । न्येकीकृत्य चतुर्विंशतिगुणकारेण संगुण्य तत्र सवेदानिवृत्तिकरणादीनां त्रिपंचाशदुत्तरशतं आवे उसमें अनिवृत्तिके सवेद-अवेद भागके तथा सूक्ष्म साम्परायके एक सौ तरेपन स्थान ५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ गो० कर्मकाण्डे ७२ | नानूररुवत्ते'टु ४६८ । प्रकृतिगळप्पुवु । भंगगुणाकारंगळिप्पत्तनात्कप्पवु । २४ । प्रमत्तसंयतंगाहारक योगद्वयरहितमागि नव पर्य्याप्त योगंगळ व वक्के केक योगं प्रति सवेदवावेदकसम्यक्त्वसंबंधि मोहनीयोंदयकूटंगळे टक्कमे टुं स्थानंगळ नाल्वत्त नाकुं प्रकृतिगळप्पुवु उभ ८ ९ गुणिसिदोर्डप्पत्तेरडु स्थानंगळ मूनूरतों भत्तारं प्रकृतिगळपुबु ७४८ ५ | ४ ६६ | ५५ | ७ । ६ । २४ |२० ४४ ९ ७२ | २४ गुणकारंगळु मिप्पत्तनात्कप्पवु । २४ । अप्रमत्त संयतंगे पर्याप्तयोगंगळ प्रमत्तसंयत ३९६ | २४ नो पेदो भर्तवेकैकयोगं प्रति सवेदकावेदकसम्यक्त्व संबंधिमोहनीयोदयकू टंगळे टक्कमे टुं स्थानंगळं नात्वत्तनात्कु प्रकृतिगळप्पुवु ४ उभ १८ ९ गुणिसिवोडेप्पर ५५ ६ ५ ६६ ७ २४ प्र । ४४ ९ स्थानंगळ, ७२ । मूनूरतों भत्ता रुप्रकृतिगळवु ३९६ । भंगगुणका रंग ळिप्पत्तनात्क २४ ॥ अपूर्व्यं करणंगे पर्याप्त योगंगळो भत्तपुवु । प्रतियोगं नाकुं स्थानंगळुमिप्पत्तुप्रकृति१० गळप्पुवु ४ ४९ गुणिसिदोर्ड मूवत्तारु स्थानंगळ ३६ नरेण्भत्तु प्रकृतिगळवु १८० । ५५ ६ २० २०९ O २० गुणकारंगळिप्पत्तनात्कवु २४ । अनिवृत्तिकरणंगे पर्थ्यामयोगंगळो भत्तपुवु । प्रतियोगमों दुदय कूटदोळोदे स्थानमुमेरडु प्रकृतिगळागुत्तं विरलु १ । १ । १ । स्था १ ।९ गुणिसिदोडो भत्त १ । १ । १ । १ । प्र २ ।९ स्थानंगलं पविर्न 'टु प्रकृतिगळप्पुवु । स्था ९ । प्र १८ । गुणकारंगळ पनेरडप्पुडु १२ । मत्तमनिवृत्तिकरणंगे अवेदभार्गयोळों बुदयकूटदो १ । १ । १ । १ । को बेस्थानमुं ओ दे प्रकृत्युदयमक्कु१५ मदनों भत्तु योगंगळवं गुणिसुत्तं विरल ओ भत्र्त्तस्थानं गळप्पुवु । ९ । प्रकृतिगळुमनिर्त विकल्पंगळ १। ९। मप्पुवु । गुणकारंगळु क्रोधादिभेदविदं नालकेयप्पुवु । ४ । सूक्ष्म सांपरायंगेयुं सूक्ष्मलोभोदयस्थानमो देवदवर्क योगंगळमो भत्तप्पुवदरिदमों भत्ते स्थानंगळमो भत्ते प्रकृतिगळु मप्पुवु । स्था९ । ९ । गुणकारमो दे सूक्ष्मलोभमक्कुं । १ । संदृष्टि : :1 क्षेपं कृत्वा पुनः अपर्याप्तसासादनासंयतप्रमत्तानां द्वादशाग्रपंचशते मिलिते २० मिलाओ । तथा अपर्याप्त सासादन, असंयत और प्रमत्तके पांच सौ बारह स्थानोंको मिला Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका | ه امام | * | मि सा | मि अवे | प्र अ | अ अनिव. | योग | १३ | १२ | १० | १०९ ९ ९ ९ ९ ९ २ | ठाण | ९२ ४८ ४० । ८० ७२ ७२ ७२ ३६ ९ ९ २ प्रकृ ७८८ ३८४ ३२० ६०० | ४६८, ३९६, ३९६१८० १८९९ गुण २४ । २४ | २४ २४ २४ | २४ २४ २४ | यिल्लि मिथ्यावृष्टियादियागि अपूर्वकरणपण्यंतमिदं स्थानंगळु चतुविशतिगुणकारंगळनुळळवप्पुरिदं कूडिदोडप्नूरहन्नेरडु स्थानंगळप्पु ५१२ । २४ । ववनिप्पत्तनाल्करिवं गुणिसिबोडे पन्नेरडुसासिरदिन्नूरे भत्ते टप्पुवु । १२२८८। अनिवृत्तिकरणादिगळ स्थानंगळू नूरवत्तमूरप्पुवु १५३। उभयमुं कूडि पन्नेरडु सासिरद नानूर नाल्वत्तोंदु स्थानंगळप्पुवु १२४४१ । इवरोळ मुंपेळ्द अपर्याप्तसासादनासंयतप्रमत्तरुगळ अडसोळडवग्ग अट्ठवीससयमें ब स्थानंगळय्नूर हन्ने- ५ रडुमं ५१२ कूडिदडे हन्नेरडु सासिरदो भैनूरस्वत्तमूर १२९५३ । योगाश्रितसबमोहनीयोदयस्थानंगळप्पविवनाचाय्यं मुंदणगाथा सूत्रदिदं पेळ्दपरु: तेवण्णणवसयाहियबारसहस्सप्पमाणमुदयस्स । ठाणवियप्पे जाणसु जोगं पडि मोहनीयस्स ॥४९८।। त्रिपंचाशनवशताधिक द्वादशसहस्रप्रमाणमुदयस्य । स्थानविकल्पान्जानीहि योंग प्रति १० मोहनीयस्य ॥ एंवितु सर्वमोहनीयोदयस्थानंगळु योगाश्रितंग पन्नेरडु सासिरवो भनूरवत्तमूरप्पुववं शिष्य नीनरिये दिताचार्यनिवं संबोधिसल्पढें । आ स्थानंगळ प्रकृतिविकल्पंगळं मिथ्यादृष्टियादि अपूर्वकरणगुणस्थानावसानमागि चतुधिशतिगुणकारंगळनुळ्ळुवु । द्वात्रिंशदुत्तर पंचशताधिकत्रिसहस्रप्रमाणंगळप्पु । ३५३२॥२४ । ववं गुणिसिदोडे अष्टषष्टयुत्तर सप्तशताधिकचतुरशीतिसहस्रप्रमितंगळप्प ८४७६८ । ववरोळु अनिवृत्तिकरणादिगळेकषष्टघुतरद्विशतप्रकृतिगळं २६१ । ' प्रक्षेपिसुत्तं विरलु एकान्नत्रिंशदुत्तरपंचाशीतिसहस्रप्रकृतिविकल्पंगठप्पु ८५०२९ । ववरोळ कूडल्पडुव वैक्रियिकमिश्रकाययोगाविसासादनासंयतप्रमत्तरुगळ प्रकृतिविकल्पंगळं पेळ्वपरु ॥ योगाश्रितसर्वमोहनीयोदयस्थानानि त्रिपंचाशदग्रनवशताधिकद्वादशसहस्राणीति जानीहि १२९५३ । प्रकृतयोऽपि मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणांता एकीकृत्य चतुर्विशत्या गुणयित्वाऽनिवृत्ति करणादीनामेकषष्ट्यप्रद्विशती क्षेपं कृत्वा (एकान्नत्रिंशदुत्तरपंचाशीतिसहस्राणि भवंति । ८५०२९।।४९८॥अथ तेषु निक्षेपयन्नाह)पुनस्तत्र कर सबको जोड़ो ।।४९७॥ ऐसा करनेपर योगके आश्रयसे मोहनीय के सब उदयस्थान बारह हजार नौ सौ तरेपन होते हैं। और प्रकृतियां भी मिथ्यादृष्टिसे अपूर्वकरण पर्यन्त एकत्र कर उनको चौबीस Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० गो० कर्मकाण्डे बिदिए बिगि पणगयदे खदु णव एक्कं ख अट्ठ चउरो य । छठे चउ सुण्ण सगं पयडिवियप्पा अपुण्णम्मि ॥४९९।। द्वितीये द्वयं क पंचासंयते खद्विनवैकं खाष्टचत्वारि च। षष्ठे चतुः शून्यसप्तप्रकृतिविकल्प अपूर्णे ॥ ५ द्वितीये अपूर्णे क्रियिकमिश्रकाययोगिसासादननोळ अंकक्रमदिदं प्रकृतिविकल्पंगळु द्वयेकपंच द्वादशोतरपंचशतप्रकृतिगळ ५१२ । असंयतेऽपूर्णे वैक्रियिकमिश्र कार्मणकाययोगियोळु द्विनवैक विंशत्युत्तरनवशताधिकसहस्रप्रकृतिविकल्पंगळ १९२० । च शब्ददिदमौदारिकमिश्रा. संयतनोळ, खाष्टचत्वारि अशोत्युत्तर चतुःश रंगळ ४८० । षष्ठे प्रमत्तसंयतनोळ आहारकाहारक मिश्रकाययोंगद्वपदोळ चतुःशून्यसप्त चतुरुत्तरसप्तशतप्रकृतिपिकल्पंगळप्पुवु ७०४ । कूडि नाल्कुं १० स्थानदोछ षोडशोत्तर षट्छताधिकत्रिसहस्रप्रकृतिविकल्पंगळप्पु ३६१६ । ववं कूडिदोडे योगा श्रितमोहनीयोदयसर्वप्रकृतिविकलांग पंचचत्वारिंशदुत्तर षट्छताधिकाष्टाशीतिसहस्रप्रमितंगळप्प ८८६४५ । वो संख्ययुमनाचायं मुंदण गाथा सूत्रदिदं पेळ्दपरु : पणदालछस्सयाहिय अट्ठासीदीसहस्समुदयस्स। पयडीणं परिसंखा जोगं पडि मोहणीयस्स ।।५००। १५ पंचचत्वारिंशत् षट्छताधिकाष्टाशीतिसहस्र मुदयस्य । प्रकृतीनां परिसंख्या योग प्रति मोहनीयस्य ॥ योगमं कर्तुं मोहनीयोदय प्रकृति विकल्पंगळु पंचचत्वारिंशदधिकषट्छताधिकाष्टाशीतिसहस्रप्रमितंगळप्पुर्वेदितु पेळल्पटुवु ॥ सासादने वैक्रियिकमिधे क्रमेण प्रकृतिविकल्पाः द्वचेकपंच ५१२। असंयते वैक्रियिकमिश्रकाभणयोः २० खद्विनवैकं १९२० । चशब्दादौदारिकमिश्रे खाष्टचत्वारि ४८० । प्रमत्त आहारकद्वये चतुःशन्यसप्त ७०४ चकीकृत्य निक्षिप्तेषु ___ योगाश्रितमोहनीयोदयप्रकृतिविकल्पाः पंचचत्वारिंशदग्रषट्छताधिकाष्टाशीतिसहस्राणि ८८६४५ ॥५०॥ भंगोंसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उसमें अनिवृत्तिकरणके सवेद-अवेद भाग तथा सूक्ष्म२५ साम्परायकी दो सौ इकसठ प्रकृति मिलानेपर पिचासी हजार उन्तीस होती हैं ॥४९८॥ इसी बातको ग्रन्थकार आगे स्वयं कहते हैं सासादनके वैक्रियिक मिश्रमें प्रकृति विकल्प पाँच सौ बारह हैं। असंयत में वैक्रियिक मिश्र और कार्माणके प्रकृति विकल्प उन्नीस सौ बीस हैं। 'च' शब्दसे औदारिक मिश्रमें चार सौ अस्सी हैं । प्रमत्तमें आहारक-आहारक मिश्रमें सात सौ चार हैं। इन्हें ३० एक करके मिलानेपर-॥४९९।। योगके आश्रयसे मोहनीयके सब उदय प्रकृतियोंके भेद अठासी हजार छह सौ पैंतालीस होते हैं ॥५००॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं संयममनाश्रयिसि मोहनीयोदयस्थानप्रकृतिसंख्येगळं पेळदपरु : तेरस सयाणि सत्तरि सत्तेव य मेलिदे हवंति त्ति । ठाणवियप्पे जाणसु संजमलंवेण मोहस्स ||५०१ ॥ त्रयोदशशतानि सप्तति सप्तैव च मिलिते भवतीति । स्थानविकल्पान् जानीहि संयमावलंबेन मोहस्य ॥ संयमावलंबनदिदं मोहनीयदुदयस्थानविकल्पंगळं, त्रयोदशशतंगळं सप्ततिय सप्तकमुं कूडियपुर्व दितरि १३७७ । र्यदु संबोधिसत्पटुददे ते दोर्ड प्रमत्तसंयतनोळु सामायिकमुं छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिसंयममुर्म व मूरुं संयमंगळप्पुवंतागुत्तं विरलेकैकसंयमक्क टु मोहनीयोदयस्थानंगळागुत्तं विरल मूहं संयमंगळगे चतुव्विशतिस्थानंगळवु २४ । प्रकृतिविकल्पंगळु ४४ । ३ गुणिसिदोडे नूर मूवत्तेरडप्पुवु । १३२ । गुणकारंगळु चतुव्विशतिप्रमितमक्कु । २४ ॥ अप्रमत्त- १० संयतनोळमंते मूरुं संघमंगलिंगप्पत्तनात्कुं स्थानंगळं २४ । नूरमूवत्तेरडु प्रकृतिविकल्पंगळ १३२ । चतुव्विशतिगुणकारंगळवु । २४ ॥ अपूर्वं करणनो सामायिकच्छेदोपस्थापन संयमद्वयव के प्रत्येकं नाकु नाल्कुदयस्थानंगळागुतं विरले टुदयस्थानंगळ ८ प्रकृतिविकल्पंगळिष्पत्तु २० । २। गुणितं विरल नावत्तप्पुवु । ४० । गुणकारंगळं चतुव्विशतिप्रमितंगळप्पु । २४ । अनिवृत्तिकरणनो सामायिकछेदोपस्थापना संयमद्वयक्के प्रत्येकं मोहनीयोदयस्थानमो दो दागळे रडुं संयमंग- १५ गेरडे स्थानंगळप्पुवु । २ । प्रकृतिगळुमो दो दु संयमक्करडेर डागलेरडुं संयमंगळगे नाल्कु प्रकृतिगळप्पुवु ४ । गुणकारंगळ हन्नेरडवु । १२ । मत्तमवेदभाग योळनिवृत्तिकरणंगे संयमद्वयगुणितमुदयस्थानमोदकर्क रडुस्थानंगळप्पुवु । २ । प्रकृतिगळु मेरडेयध्वु । २ । गुणकारंगळ क्रोधादि ७५१ अथ संयममाश्रित्याह संयमावलंबन मोहनीयस्योदयस्थानविकल्पास्त्रयोदशशतानि सप्तसप्तत्यग्राणि मिलित्वा भवतीति जानीहि १३७७ ।। तद्यया - प्रमत्तेऽप्रमते च सामायिकादित्रयं प्रति स्थानानि चतुविंशतिः । प्रकृतयो द्वात्रिंशदशतं । अपूर्व करणे सामायिकादिद्वयं प्रति स्थानान्यष्टी । प्रकृतयश्चत्वारिंशत् । एतेषु त्रिषु गुणकारश्च - तुविंशतिः । अनिवृत्ति करणेऽपि तद्वयं प्रति सवेदभागे स्वाने द्वे । प्रकृतयश्चतस्रः । गुणकारो द्वादश । अवेदभागे आगे संयम के आश्रयसे कथन करते हैं संयमके अवलम्बनसे मोहनीयके उदयस्थानके भेद मिलकर तेरह सौ सतहत्तर होते २५ हैं। उन्हें कहते हैं— २० प्रमत्त और अप्रमत्तमें सामायिक आदि तीन संयम होते हैं। उनके द्वारा आठ-आठ स्थानोंको गुणा करने पर चौबीस चौबीस स्थान होते हैं । और उन स्थानोंकी प्रकृतियाँ चवालीस हैं । उनको तीनसे गुणा करनेपर एक सौ बत्तीस एक सौ बत्तीस प्रकृतियाँ होती हैं । अपूर्वकरण में सामायिक आदि दो संयम होते हैं । उन दोसे चार स्थानोंको गुणा ३० करनेपर आठ स्थान होते हैं और बीस प्रकृतियोंको गुणा करनेपर चालीस प्रकृतियां होती हैं । इनको चौबीस भंगों से गुणा करो । अनिवृत्तिकरण के सवेद भागमें एक स्थान और दो प्रकृति हैं । उनको दो संयमोंसे गुणा करनेपर दो स्थान चार प्रकृति होती हैं । इनको बारह क - १५ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ गो० कर्मकाण्डे भेददिदं नाल्कप्पुवु । ४ । सूक्ष्मसांपरायनोल सूक्ष्मसांपरायसयममा देयक्कुमदक्कुदयस्थानमा हुँ प्रकृतियुमो दप्पुदु । गुणकारमुं सूक्ष्मलोभसंबंधियुमो देयक्कुमिदक्क संदृष्टि : | प्रमत्त अप्रमत्त अपू / अनिवृत्तिकर । सू स्था प्र | १३२ १३२ | ४० ४ । २ । १ |गु । २४ । २४ । २४ । १२ । ४ इल्लि मोदल प्रमताप्रमत्तापूर्वकरणस्थानंगळिगे चतुविशतिगुणकारंगळुटप्पुरिद कुडि अय्वत्तार ५६ निप्पत्तनाल्करिदं २४ गुणिसिदोडे ५६ । २४ । लब्धं सासिरद मूनूरनाल्वत्तनाल्कप्पु ५ १३४४ । ववरोळु अनिवृत्तिकरणादिगळ मूवत्तमूरुं स्थानंगळं ३३। कूडिदोडे पूर्वोक्तसासिरद मूनूरप्पत्तल स्थानविकल्पंगळप्पुवु । १३७७ । प्रकृतिविकल्पंगळुमा मूलं गुणस्थानंगळोळ चतुविश. तिगुणकारंगळनुळळुवापुरिदं कूडि गुणिसुत्तं विरलु । ३०४ । २४ । ये सासिरदिन्नूर तो भत्तारप्पुवु । ७२९६ । इवरोळनिवृत्तिकरणादिगळवत्तेलु ५७ प्रकृतिगळं कूडिकोळत्तं विरलु येळु सासिरद मूनूरय्वत्तमूरप्पु ७३५३ । वो संख्येयं मुंदण गाथासूत्रदिदं पेळ्दपरु : तेवण्ण तिसदसमहिय सत्तसहस्सप्पमाणमुदयस्स । पयडिवियप्पे जाणसु संजमलंबेण मोहस्स ॥५०२॥ त्रिपंचाशत्रिशताधिक सप्तसहस्रप्रमाणमुदयस्य । प्रकृतिविकल्पान्जानीहि संयमावलंबेन मोहस्य ॥ स्थाने द्वे । प्रकृती अपि द्वे । गुणकारश्चत्वारः । सूक्ष्मसापराये तत्संयम प्रति स्थानमेकं, प्रकृतिरेका, गुणकारोऽप्येकः । अत्र तावत्प्रमत्तादित्रयस्य स्थानान्येकीकृत्य चविशत्या संगण्य तत्रानिवृत्ति करणादीनां त्रयस्त्रिशत्ततः प्रक्षेपे कृते पूर्वोक्तसंख्यानि भवंति १३७७ ॥५०१॥ भंगोंसे गुणा करो। अवेद भागमें एक स्थान एक प्रकृति । इनको दो संयमोंसे गुणा करनेपर दो स्थान, दो प्रकृति होती हैं । इनको चार भंगोंसे गुणा करो। सूक्ष्मसाम्परायमें एक संयम और वहाँ एक स्थान एक प्रकृति और भंग भी एक। यहाँ प्रमत्त आदि तीनके छप्पन स्थानोंको चौबीससे गुणा करनेपर तेरह सौ चवालीस होते हैं। उनमें अनिवृत्तिकरण आदिके तैतीस मिलानेपर तेरह सौ सतहत्तर उदयस्थान होते हैं ॥५०१॥ १. तिसदसहियं-मु०। | Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संयमावलंबनदिदं मोहनीयोदयद त्रिपंचाशदुत्तरत्रिशताधिकसप्तसहस्रप्रमितप्रकृतिविकल्पंगळनरिय दु शिष्यनाचार्यानिंदं संबोधिसल्पढें ॥ अनंतरं गुणस्थानदोळ संभविसुव लेश्यगळं पेळ्दपरु : मिच्छचउक्के छक्कं देसतिये तिण्णि होंति सुहलेस्सा। जोगित्ति सुक्कलेस्सा अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥५०३ ॥ मिथ्यादृष्टिचतुष्के षट्कं देशवतित्रये तिस्रो भवंति शुभलेश्याः। योगिपयंतं शुक्ललेश्या अयोगिस्थानमलेश्यं तु ॥ मिथ्यादृष्टिचतुष्के षट्कं मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टिगळेब गुणस्थानचतुष्कोळ प्रत्येक लेश्याषट्कमक्कुं। देशवतित्रये तिस्रो भवंति शुभलेश्याः देशसंयतप्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयतरेंब गुणस्थानत्रयदोछु प्रत्येकं शुभलेश्यात्रयमक्कुं। योगिपर्यंतं १० शुक्ललेश्यामेलपूर्वकरणादिसयोगकेवलिगुणस्थानपय॑तं शुक्ललेश्ययों देयकुं। तु मते अयोगिस्थानमलेश्यं अयोगिगुणस्थानं लेश्यारहितमकुं। इंतु गुणस्थानदोळ पेळल्पट्ट लेश्यगळनाश्रयिसि मोहनीयोदयस्थानविकल्पंगळ संख्येयुमं प्रकृतिविकल्पंगळ संख्ययुमं गाथाद्वदिदं पेळ्दपरु : पंचसहस्सा बेसय सत्ताणउदी हवंति उदयस्स । ठाणवियप्पे जाणसु लेस्सं पडि मोहणीयस्स ॥५०४॥ पंचसहस्राणि द्विशतसप्तनवतिभवंति उदयस्य। स्थानविकल्पान्जानीहि लेश्यां प्रतिमोहनीयस्य ॥ संयमावलंबेन मोहनीयोदयप्रकृतयोऽपि स्थानवदेकीकृते त्रिपंचाशदप्रत्रिशताधिकसप्तसहस्राणोति जानीहि ॥५०२॥ अथ गुणस्थानेषु संभवल्लेश्याः प्राह मिथ्यादृष्टयादिचतुर्गुणस्थानेषु प्रत्येकं लेश्याः षड् भवति । देशसंयतादित्रये शुभा एव तिस्रः । उपर्य- २० पूर्वकरणादिसयोगपयंतमेका शुभलेश्यैव । तु-पुनः अयोगिगुणस्थानं लेश्यारहितं ॥५०३॥ उक्तलेश्यामाश्रित्य तत्संस्थानप्रकृतिसंस्थे गाथाद्वयेनाह संयमका अवलम्बन लेकर मोहनीयकी उदय प्रकृतियोंको भी स्थानोंकी तरह एकत्र करके अर्थात प्रमत्त आदि तीनकी तीन सौ चारको चौबीससे गणा करके उनमें अ करण आदिके सत्तावन मिलानेपर सात हजार तीन सौ तिरपन प्रकृतियां होती हैं ।।५०२॥ २५ अब गुणस्थानोंमें लेश्या कहते हैं मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येकमें छह लेश्या होती हैं। देशसंयत आदि तीनमें तीन शुभलेश्या ही होती हैं। ऊपर अपूर्वकरणसे सयोगी पर्यन्त शुक्ललेश्या ही है। और अयोगी गुणस्थान लेश्यासे रहित है ।।५०३॥ उक्त लेश्याओंका आश्रय लेकर मोहके स्थानों और प्रकृतियोंकी संख्या दो गाथाओंसे ३० कहते हैं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ गो० कर्मकाण्डे सप्तनवत्युत्तरद्विशताधिक पंचसहस्रप्रमितंगळवु । ५२९७ । लेश्येयं कुरुत्तु मोहनीयदुदयस्थान विकल्पंगळनरियेंदु शिष्यं संबोधिसत्पट्ट् ॥ अट्ठत्तीस सहसा वेण्णिसया होंति सत्ततीसा य । पडणं परिमाणं लेस्सं पडि मोहणीयस्य ||५०५ || अष्टात्रिंशत्सहस्राणि द्विशतानि भवंति सप्तत्रिंशच्च । प्रकृतीनां परिमाणं लेश्यां प्रति मोहनीयस्य ॥ इयं कुरुतु मोहनीयदुदयप्रकृतिगळ परिमाणं सप्तत्रिंशदुत्तरद्विशताधिकाष्टात्रिंशत्सहलंगळप्पुवु ३८२३७ । वर्द तें दोर्ड संदृष्टि : : मि ७५४ २० ६ । ८ गु ले ६ । ६ | ३ ३ ठाण ४ | ४ । ८ ८ ८ | ठाण वि४८ २४ | २४ | ४८ | २४ | २४ प्र वि | ४०८ | १९२ | १९२ | ३६० | १५६ | १३२ गुणका २४ | २४ | २४ | २४ | २४ | २४ ई रचनाभिप्रायं चिसपडुगुमदे र्त दोडे मिथ्यादृष्टियोळ, दशकादि चतुस्थानंगळ ८ ९९ १० १० नवकादिचतुस्थानंगळ ७ मंतें दुं स्थानंगळारुं लेश्यंगळदं गुणिसुत्तं विरलु ८ । ६ नाव तेंदु ૮૮ सा | मि अ दे ६ । Я अ ३ । ८ | अ अनिवृत्तिकर सू १ १ । | १ ४ | १ । १ । १ ૪ १ । १ १ २० २ । १ |१ २४ ४ १ २४ १३२ २४ स्थानंगळप्पूवु ४८। प्रकृतिगळरुवर्त्त 'टनाएं लेइयेगळिवं गुणिसुतं विरल ६८ । ६ । नानूरेंटु इमा गुणस्थानेषूक्तलेश्या माश्रित्य तावत्सर्वमोहनीयोदयस्थानानि सप्तनवत्यग्रद्विशताषिकपंच सहत्राणीति जानीहि ॥ ५२९७ ॥ लेश्यां प्रति मोहनीयोदय प्रकृतिपरिमाणं सप्तत्रिंशदग्रद्विशताधिकाष्टात्रिंशत्सहस्राणि भवंति ३८२३७ ॥ १५ तद्यथा - मिथ्यादृष्टो स्थानानि दशादीनि चत्वारि ८ नवादीनि चत्वारि ७ मिलित्वाष्टी, षड् ९९ १० ८1८ ९ १२ गुणस्थानों में कहीं लेश्याओंके आश्रयसे मोहनीयके सब उदयस्थान पाँच हजार दो सौ सत्तानवे जानो ||५०४|| तथा लेश्याओंके आश्रयसे मोहनीयकी उदय प्रकृतियोंका परिमाण अड़तीस हजार दो सौ सैंतीस हैं। उन्हें कहते हैं मिथ्यादृष्टि स्थान दस आदि चार तथा नौ आदि चार। इन आठ स्थानोंको छह श्यासे गुणा करनेपर अड़तालीस स्थान हुए । उनकी अड़सठ प्रकृतियों को छह लेश्याओंसे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७५५ प्रकृतिगळप्पु ४०८ । गुणका रंगळिप्पत्तनात्कप्पवु २४ । सासादननोळ नवकादि चतुस्थानंगल ७ ८८ ९ aatre लेश्येर्गाळदं गुणिसुत्तं विरलु ४ । ६ । चतुव्विशति स्थानंगळप्पुवु । २४ । प्रकृतिगळु मूवत्तेरडनारु ं लेश्येगळिदं गुणिसुत्तं विरलु ३२ । ६ । नूरतों भत्तेरडुदय प्रकृतिगळवु १९२ । गुणकारंगळिप्पनात्कु २४ ॥ मिश्रनोळु नवकादिचतुःस्थानंगळप्पु ७ daare लेगळिंबं गुणिसुत्तं ८८ ९ विरलु ४ । ६ । इप्पत्तनात्कुं स्थानंगळप्पु । २४ । प्रकृतिगळु मूवत्तेरडनारु' लेश्येगळिदं गुणि- ५ सुत्तं विरलु। ३२ । ६ । नूरतो भत्तेरडु प्रकृतिगळप्पुवु । १९२ गुणका रंग ळिप्पत्तनात्कप्पवु । २४ । असंयतनोळु नवकादिचतुःस्थानंगळु मष्टकादिचतुःस्थानंगळं ६ कूडिये टुं स्थानं गळनारु' । ७७ ረ लेइयेगळदं गुणिसुत्तं विरलु । ८ । ६ । नाल्वर्त्ततुं स्थानंगळप्पुवु । ४८ । प्रकृतिगळु मरुवत्तनारु श्येदं गुणितं विरलु ६० । ६ । मूनूरवत्तु प्रकृतिगळप्पुवु । ३६० । गुणका रंगळिप्पत्तनात्क - वु ॥ देशसंयतनोळष्टकादिचतुःस्थानंगळं ६ सप्तकादि चतुःस्थानंगळं ५ कूडि टु स्थानं - १० ७७ ८ ६६ ७ लेश्यागुणितान्यष्टचत्वारिंशत्, प्रकृतयोऽष्टषष्टिः षड्लेश्यागुणितान्यष्टाग्रचतुःशती । सासादने स्थानानि नवादीनि चत्वारि ७ षड्लेश्यागुणितानि चतुर्विंशतिः प्रकृतयो द्वात्रिंशत्, षड्लेश्यागुणिता द्वानवत्य ८1८ ९ प्रशतं । मिश्र स्थानानि नवादीनि चत्वारि षड्लेश्यागुणिता द्वानवत्यग्रशतं । असंयते स्थानानि नवादीनि चत्वारि ७ ७ षडुलेश्यागुणितानि चतुर्विंशतिः प्रकृतयो द्वात्रिंशत्, ८1८ ९ ७ ८1८ ९ अष्टादीनि चत्वारि ६ ७७ ሪ गुणितान्यष्टाचत्वारिंशत् प्रकृतयः षष्टिः, षड्लेश्यागुणिताः षष्ट्यत्रिशती । देशसंयते स्थानान्यष्टादीनि • गुणा करनेपर चार सौ आठ प्रकृतियाँ हुई । सासादनमें नौ आदि चार स्थानोंको छह लेश्या से गुणा करने पर चौबीस स्थान हुए । उनकी बत्तीस प्रकृतियोंको छहसे गुणा करनेपर एक सौ बान प्रकृतियां हुई । मिश्र में स्थान नौ आदि चार, प्रकृति बत्तीस | छह लेश्या से गुणा करने पर स्थान चौबीस और प्रकृतियां एक सौ बानवे हुई । असंयत में स्थान नौ आदि चार और आठ आदि चार इस तरह आठ । उनकी प्रकृति साठः । उनको छह लेश्या से २० गुणा करने पर स्थान अड़तालीस, प्रकृति तीन सौ साठ हुईं। देशसंयत में स्थान आठ आदि चार और सात आदि चार मिलकर आठ । प्रकृति बावन । तीन लेश्यासे गुणा करनेपर मिलित्वाष्टौ पड्लेश्या - १५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ गो० कर्मकाण्डे गळना मूरु शुभलेश्यगळिदं गुणिसुत्तं विरलिप्पत्तनाल्कु स्थानंगळप्पुवु । २४ । प्रकृतिगळुमय्वत्तर मूरु शुभलेश्यलिदं गुणिसुत्तं विरलु ५२।३। नूरस्वत्तारु प्रकृतिगळप्पुवु । १५६ । गुणकारगाळप्पत्तनाल्कप्पुवु। २४ ॥ प्रमत्तसंयतनोळु सप्तकादिचतुःस्थानंगळु ५ षटकादिचतुःस्थानंगळं ४ कूडि येटु स्थानंगळं मूरु लेश्यळिदं गुणिसूतं विर ८।३। लिप्पत्त नाकुं स्थानंगळप्पुष ५ २४ । प्रकृतिगळु नाल्वत्तनाल्क मूरु लेश्याळदं गुणिसुत्तं विरलु ४४ । ३ । नूरमूवत रहु १३२ । प्रकृतिगळप्पुवु । गुणकारंगळिप्पत्तनाल्कप्पुवु २४॥ अप्रमत्तसंयतनोळमा प्रकारदिदं सप्तकादि चतुःस्थानंगळु ५ षटकादिचतुस्थानंगळं ४ कूडि पॅटुंस्थानंगळं मूरु ळेश्यळिदं गुणिसुत विर ८।३। लिप्पत्तनाल्कु स्थानंगळप्पुवु । २४ । प्रकृतिगळु नाल्वत्तनाल्कुमशुभलेश्यात्रयदिदं गुणिसुत्तं विरलु ४४ । ३। नूरमूवत्र्तरडु प्रकृति१. गळप्पुवु। १३२। गुणकारंगळिप्पत्तनाल्कप्पुवु २४ ॥ अपूर्वकरणनोळु षटकादिचतुस्थानंगळं ४ शुक्ललेश्ययों दरिद गुणिसुतं विरलु ४ । १ । नाल्के स्थानंगळप्पुवु । ४। प्रकृतिगळिप्पत्त मनोद शुक्ललेश्र्योयदं गुणिसुत्तं विरलु २० । १ । इप्पर्त प्रकृतिगळप्पुवु । २०। गुणकारंगळिचत्वारि | ६ | सप्तादीनि चत्वारि | ५ | मिलित्वाष्टौ शुभलेश्यात्रयगुणितानि चतुर्विशतिः, प्रकृतयो द्वापंचाशत्, तत्त्रयगुणिताः षट्पंचाशदनशतं । प्रमत्तेप्रमत्ते च स्थानानि सप्तादीनि चत्वारि ६६ १५ षट्कादीनि चत्वारि | ४ | मिलित्वाष्टो, तत्त्रयगुणितानि चतुर्विंशतिः । प्रकृतयश्चतुश्चत्वारिंशत्, तत्त्रय गुणिता द्वात्रिंशदप्रशतं । अपूर्वकरणे स्थानानि षट्कादोनि चत्वारि | ४ | शुक्ललेश्यागुणितानि चत्वार्येव, wwwwwwwwwww स्थान चौबीस, प्रकृति एक सौ छप्पन हुई। प्रमत्त और अप्रमत्तमें स्थान सात आदि चार और छह आदि चार मिलकर आठ । प्रकृति चवालीस । तीन लेश्यासे गुणा करनेपर स्थान चौबीस, प्रकृति एक सौ बत्तीस हुई। अपूर्वकरणमें स्थान छह आदि चार, प्रकृति बीस । २० शुक्ललेश्यासे गुणा करनेपर उतने ही रहे। यहां तक स्थानों और प्रकृतियोंको चौबोस भंगोंसे गुणा करें। अनिवृत्तिकरणके सवेद भागमें स्थान एक, प्रकृति दो। शुक्ललेश्यासे a Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७५७ प्पत्तनाल्कप्पुवु । २४॥ अनिवृत्तिकरणनोनु द्विप्रकृतिस्थानमो दनोंदे शुक्ललेश्यिदं गुणिसिदोडों दे स्थानमक्कु । १। प्रकृतिगळे रडुमनों द शुक्ललेश्यिदं गुणिसिदो २।१ डेरडे प्रकृति: गळप्पुवु । २। गुणकारंगळं चतुष्कषायत्रिवेदोदयकृतंगळ पन्नेरडप्पुवु । १२। मत्तमनिवृत्तिकरणन वेदरहितभागेयोल एकप्रकृतिस्थानमनेकशुक्ललेश्यायदं गुणिसुत्तं विरलु एकस्थानमक्कुं। १। प्रकृतियुमोदनो दे शुक्ललेयर्यायदं गुणिसुत्तं विरलु ओंदे प्रकृतियक्कुं। १ । गुणकारंगळ संज्वलनक्रोधादिभेददिदं नाल्कप्पुवु । ४॥ सूक्ष्मसांपरायनोळु सूक्ष्मलोभोदयस्थानमा देयककुं १ । प्रकृति यु सूक्ष्मलोभमो देयक्कु १ । गुणकारमुमदों देयककुमंतागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणगुणस्थानपथ्यंतमाद गुणस्थानंगळोळ मोहनीयोदयस्थानंगळ लेश्याश्रितंगळ चतुम्विशतिगुणकारं. गळनु दप्पुरिदं कूडिदोडिन्नूरप्पत्तप्पुववनिप्पत्तनाल्करिदं गुणिसुत्तं विरलु । २२० । २४ । अय्दु सासिरदिन्नूरेभनप्पुवु । ५२८० । इवरोनिवृत्यादिगळस्थानंगळु पदिने] १७ । कूडिदोडे १० मुंपेन्दग्दु सासिरदिनूर तो भने प्वुवु । ५२९७ । प्रकृतिगर्छ सासिरदप्नूर तो भत्त रडप्पुवव. निप्पत्तनाल्करिदं गुणिसुत विरलु। १५९२ । २४ । मूवत्तें टु सासिरदिन्नरें'टु प्रकृतिगळप्पु । ३८२०८। ववरोळनिवृत्यादिळ प्रकृतिमझिप्पत्तो भत्तप्पुववं २९ कूडिदोडे मुंपेव मूवत्तें टु सासिरदिन्नूरमूवत छ प्रकृतिगळप्पुवु । ३८२३७ ॥ - अनंतरं सम्यक्त्व गुणमनायिसि असंयतादिगुणस्थानंगलोल संभविसुव सर्वमोहनीयो- १५ दयस्थानंगळसंख्यायुतियं पेळदपरु : अट्टत्तरीहि सहिया तेरसयसया हवंति उदयस्स। ठाणवियप्पे जाणसु सम्मत्तगुणेण मोहस्स ॥५०६॥ अष्टासप्ततिभिः सहितानि त्रयोदशशतानि भवंत्युदयस्य । स्थानविकल्पान् जानीहि सम्यक्त्व. गुणेन मोहस्य ॥ anAN प्रकृतयो विंशतिः, तया गुणिता विंशतिरेव । एतावत्सयंत सर्वत्र गुणकारश्चविंशतिः । अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे स्यानं तय। गुणितमेकं प्रकृती द्वे तया गुणिते द्वे एव । गुणहारो द्वादश । अवेदभागे स्थानं तया गुणितमेकं प्रकृतिस्तया गुणित का, गुणकारश्चतुष्कं । सूक्ष्मसापराये स्यानमेकं, प्रकृतिरेका गुणकारोऽप्येकः । अत्रापूर्वकरणपयंतं स्थानानि प्रकृतोश्च मेलयित्वा चतुर्विशत्या संगुण्य तत्र स्थानेष्वनिवृत्तिकरणादीनां स्थानदशके प्रकृतिषु तत्वकृत्येकानत्रिशके च प्रक्षिप्ते प्रागक्तलेश्याश्रितमोहनीयस्थानप्रकृतिप्रमाणे स्यातां २५ ।।५०५।। अथ सम्यक्त्वमाश्रित्याहगुणा करनेपर उतने ही रहे। इनको बारह भंगोंसे गुगा करो। अवेदभागमें स्थान एक प्रकृति एक । शुक्ललेश्यासे गगा करनेपर भी उतने ही। इनको चार भंगोंसे गुणा करो। सूक्ष्मसाम्परायमें स्थान एक, प्रकृति एक । शुक्ललेश्यासे गुणा करनेपर भी उतने ही। भंग भी एक । अपूर्वकरण पर्यन्त स्थानों और प्रकृतियोंको जोड़कर चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर ३० तथा अनिवृत्तिकरणके सतरह स्थानोंको स्थानोंको संख्यामें और उनतीस प्रकृतियों को प्रकृतियोंकी संख्यामें मिलानेपर पूर्वोक्त स्थानभेद और प्रकृतिभेदका प्रमाण आता है ।।५०५।। आगे सम्यक्त्व के आश्रयसे कहते हैं Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १५ २० गो० कर्मकाण्डे सम्यक्त्वगुणदोडने मोहनीयदुदयस्थान विकल्पंगळष्टास प्रत्युत्तरत्रयोदशशतंगळप्पुववं नोनरिदु शिष्यं संबोधिसत्पटं । १३७८ ॥ अट्ठेव सहस्साइं छब्बीसा तह य होंति णादव्वा । पयडीणं परिमाणं सम्मत्तगुणेण मोहस्स || ५०७॥ मोहनीयदुदयप्रकृतिगळ परिमाणमुं सम्यक्त्वगुगदोडर्न दु सासिरंगनुमंत षड्वशतिगळुमप्पुर्व 'दु ज्ञातव्यंगळप्पुवु । ८०२६ । अदेतें बोर्ड - असंयतसम्यग्दृष्टियोल क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमुमोपशमिकसम्यक्त्वयुं क्षायिक सम्यक्त्व मुब सम्यक्त्वत्रितयमक्कुमव रोल क्षायोपशमिकसम्य१० क्त्वदोळु नवकादि चतुःस्थानं गळप्पु ७ ववर प्रकृतिगळु मूर्त्तरडप्पु |३२| औपशमिकदोळं ૮૮ २५ ७५८ अष्टैव सहस्राणि षड्वशतिस्तथैव भवंति ज्ञातव्याः । प्रकृतीनां परिमाणं सम्यक्त्वगुणेन मोहस्य ॥ ९ क्षायिकदोळं प्रत्येकमष्टकादिचतुर चतुस्थानंगळुम पुर्वारदं ६ | ६ कूडि एंडु स्थानंगळमवर ७७ | ७७ ८८ प्रकृतिगळ प्रत्येक मिप्प - तेंदु मिप्पर्त 'टु मागुतं विरल | २८ । २८ । कूडि अध्वत्तारु प्रकृतिगळप्पुवु । ५६ । गुणका रंगळिष्पत्तनाहकप्पुवु । २४ | देशसंयतनोलुमंत क्षायोपशमिकादि सम्यक्त्वत्रयमक्कुमल्लि क्षायोपशमिकसम्यक्त्वदोळु अष्टकादिचतुःस्थानंगळ ६ ववर प्रकृतिगळिप्प ७७ ८ सम्यक्त्वगुणेन सह मोहनीयोदयस्थानविकल्पा अष्टसप्तत्यग्रत्रयोदशशतानि १३७८ भवतीति सम्यक्त्वगुणेन सह मोहनीयोदयप्रकृतिपरिमाणं अष्टैव सहस्राणि तथा च षड्विंशतिः ८०२६ ज्ञातव्या भवंति । तद्यथा - असंयते क्षायोपशमिकस्य स्थानानि नवकादीनि चत्वारि ७ प्रकृतयो द्वात्रि ረረ ९ जानीहि ||५०६ ॥ शत् । औशमिकक्षायोपशमिकयोः स्थानान्यष्टकादीनि चत्वारि चत्वारि ६ ७/७ ६ ७/७ ८ ८ सम्यक्त्व गुणके साथ मोहनीयके उदयस्थानके भेद तेरह सौ अठत्तर जानो || ५०६ || सम्यक्त्वगुण के साथ मोहनीयकी उदय प्रकृतियोंका परिमाण आठ हजार छब्बीस जानना चाहिए। उसे कहते हैं असंयत में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के स्थान नौ आदि चार । उनकी प्रकृतियाँ बत्तीस । औपशमिक क्षायिकके स्थान आठ आदि चार । प्रकृति अठाईस । दोनों सम्यक्त्वोंको मिलाने पर स्थान आठ, प्रकृति छप्पन । देशसंयत में क्षायोपशमिक सम्यक्त्वके स्थान आठ आदि चार । प्रकृति अठाईस । औपशमिक और क्षायिकके पृथक-पृथक् स्थान सात आदि प्रकृतयः षट्पंचा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तेंटप्पुषु । २८ । औपशमिकक्षायिकंगळगे प्रत्येक सप्तकाविचतुःस्थानंगळुमागलु ५ । ५ कूरि ६६।६६ स्थानंगळे टुं ८ प्रकृतिगळु प्रत्येकमिप्पत्तनाल्कुमिप्पत्त नाल्कागुत्तं विरलु। २४ । २४ । नाल्वतंदु प्रकृतिगळप्पुवु । ४८ । गुणकारंगळुमिप्पत्तनाल्कप्पुवु २४ । प्रमत्तसंयतनोळ क्षायोपशमिकादिसम्यक्त्वत्रयमक्कुमल्लि झायोपशमिकसम्यक्त्वदोलु सप्तकादिचतुस्थानंगळु ५ मवर प्रकृतिगळ मिप्पत्तनाल्कप्पुवु । २४ । औपशमिकक्षायिकंगळणे प्रत्येकं षट्कादि चतुःस्थानंगळु ४ । ४ मिप्पत्तुमिप्पत्तुं प्रकृतिगळुमागळु कूडिये दुस्थानंगळु ८ नाल्वत्तु प्रकृतिगळुमप्पुवु ४० । गुणकारंगलिप्पत्तनाल्कप्पुषु । २४ ॥ अप्रमत्तसंयतनोळ क्षायोपशमिकादि सम्यक्त्वत्रयमक्कुमल्लि झायोपशमिकसम्यक्त्वदो सप्तकादिचतुःस्थानंगळु ५ चतुर्विशति प्रकृतिगळुमप्पुव । २४ । औपशमिक सायिकंगोळु प्रत्येकं षट्कादिचतुःचतुस्थानंगळं विंशतिविंशति प्रकृतिगळुमागुत्तं विरलु ४ । ४ ५१५/५१५ कूडि येदु स्थानंगळु ८। नाल्बत्तुप्रकृतिगळु ४० मिप्पत्तनाल्कु गुणकारंगलमप्पु । २४ ।। अपूर्व- १० शत् । देश संयते क्षायोपशमिकस्य स्थानान्यष्टकादीनि चत्वारि | ६ | प्रकृतयोऽष्टाविंशतिः। औपशमिक ८ क्षायिकयोः स्थानानि प्रत्येकं सप्तकादोनि चत्वारि | ५ | ५ | प्रकृतयोऽष्टचत्वारिंशत् । प्रमत्तेप्रमत्ते च ६।६ । क्षायोपशपिके स्थानानि सप्तकादीनि चत्वारि । ५ । ५ | प्रकृतयश्चतुर्विंशतिः । औपशमिकक्षायिकयोः ६६ । ७ स्थानानि प्रत्येकं षट्कादीनि चत्वारि | ४ | ४ | प्रकृतयश्चत्वारिंशत् । अपूर्वकरणे तु न क्षायोपशमिकं । कादीनि चत्वारि ५५ ५५ चार, प्रकृति चौबीस । दोनोंके मिलकर स्थान आठ, प्रकृति अड़तालीस । प्रमत्त और अप्रमत्त- १५ में भायो प्रशमिकके स्थान सात आदि चार-चार । प्रकृति चौबीस-चौबीस । औपशमिक और क्षायिकमें स्थान छह आदि चार-चार। प्रकृति बीस-बीस । दोनों सम्यक्त्वोंके स्थान आठआठ। प्रकृति चालीस-चालीस । अपूर्वकरणमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता। औपशमिक क्षायिकमें स्थान छह आदि चार, प्रकृति बीस। दोनों मम्यक्त्वोंके मिलकर स्थान आठ, प्रकृति चालीस। यहां तकके स्थानों और प्रकृवियोंको चौबीस भंगोंसे | Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० गो० कर्मकाण्डे करणनोळु क्षायोपशमिकं पोरगागियोपशमिकमुं क्षायिकमुर्म बेरेर्ड सम्यक्त्वमक्कुमल्लि प्रत्येकं षट्कादि चतुश्चतुःस्थानंगळं विंशतिविंशति प्रकृतिगळमागुत्तं विरल ४ । ४ कूडिये दुस्था ५/५ ५1५ ६ ६ २० | २० गळं ८ नावत्तु प्रकृतिगळुमप्पुवु ४० । गुणकारंगळ मिप्पत्तनात्कप्पवु । २४ ॥ अनिवृत्तिकरणनोळु औपशमिक सम्यक्त्वभुं क्षायिक सम्यक्त्वमुमप्पुवल्लि प्रत्येकं द्विप्रकृतिस्थानंगळो दो देयप्पुव । ५ प्रकृतिगळु मेरर्डरडेयपुवंतागुत्तं विरलु कूडि स्थानंगळेरडं २ प्रकृतिगळु नाल्कुम । ४ । गुणकारंगळ चतुः कषाय त्रिवेदकृतंगळु ११ । १ १२ । मत्तमनिवृत्तिकरणन अवेदभार्गयोळु औपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वंगळ प्रत्येकमेकप्रकृतिमों दोबे स्थानंगळागुत्तं विरले - रडु स्थानंगळप्पुषु । २ । प्रकृतियुं प्रत्येकमो वो वागुत्तं विरलेरडे प्रकृतिगळप्पुवु २ । गुणकारंगळ संज्वलनक्रोधादि भेर्दाददं नात्कप्पवु । ४ ॥ १ । १ । १ । १ सूक्ष्मसांपरायनोळु औपशमिक क्षायिकंगळगे प्रत्येकं सूक्ष्मलोभोदयस्थानमों को बागुतं विरलेरड स्थानंगळवु । २ । प्रकृतिगळुमेरडवु । २ । गुणकारमुं सूक्ष्मलो भविन्दो वैयक्कुं १ । संदृष्टि : -- २० औपशमिक क्षायिकयोः स्थानानि प्रत्येकं षट्कादीनि चत्वारि ४ ५५ ६ त्पर्यंतं सर्वत्र गुणकारश्वतुर्विंशतिः । अनिवृत्तिकरणे भोपशमिकक्षायिक योः स्थानमेकैकं प्रकृती द्वे द्वे । गुणकारी १५ १ १ १ द्वादश । अवेदभागे तयोः स्थानप्रकृती एकैके इति द्वे द्वे गुणकारश्चतुष्कं । सूक्ष्मस परायेऽपि तथा ४ प्रकृतयश्चत्वारिंशत् । एताव ५1५ ६ २० २० ११११ स्थानप्रकृती द्वे द्वे गुणकारः सूक्ष्मलोभः । अत्रापूर्वकरणांत स्थानानि प्रकृतीश्चैकीकृत्य चतुर्विंशत्या गुणयित्वा तत्रानिवृत्तिकरणादेस्तद्गुणकारगुणितस्थानप्रकृतीनां प्रक्षेपे कृते तत्तदुक्तप्रमाणं स्यात् । अत्र प्रकरणे यथा गुणा करें। अनिवृत्तिकरणके सवेद भाग में एक स्थान एक ओपशमिक क्षायिक में, प्रकृति दो दो । दो सम्यक्त्वोंके मिलकर स्थान दो, प्रकृति चार। इनको बारह भंगों से गुणा करें । अवेद भाग में स्थान एक, प्रकृति एक । दोनों सम्यक्त्वोंके मिलकर स्थान दो, प्रकृति दो | इनको चार भंगों से गुणा करें। सूक्ष्म साम्पराय में एक स्थान, एक प्रकृति । दोनों सम्यक्त्वोंके दो स्थान, दो प्रकृति । इनको एक भंगसे गुणा करें । अपूर्वकरण पर्यन्त स्थानों और प्रकृतियोंको जोड़कर चौबीससे गुणा करें। और उनमें अनिवृत्तिकरण आदिके अपने गुणकारसे गुणित स्थानों और प्रकृतियोंको मिलानेपर २५ स्थानों और प्रकृतियोंका जो प्रमाण गाथामें कहा है वह आ जाता है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गुणस्थान असं | वेश प्रमत्त अप्रमत अपू | अनि सू सम्यक्त्व | ३ ३ ३ ३ । २२ | २ वेदकस्थान ४ ४ ४ ४ ० ० ० औपश० क्षायिक स्थान | ८ ८ ८ ८ ८२२२ वेदक प्रकृति ३२ | २८ २४ | २४ / • 100 • औपश० क्षायिक प्रकृति | ५६ ४८ ४० | ४० । ४० ४।२/ २ गुणकार । २४ | २४ / २४ २४ । २४ १४१ ई रचनेयोळसंयतादि गुणस्थानंगळोळपूर्वकरणावसानमागि स्थानंगळं प्रकृतिगळं चतुविशतिचतुविशति गुणकारंगळतुळ्ळुवापुरि स्थानंगळु प्रकृतिगळं बेरवेरे कूडुत्तं विरलु स्थानंगळय्वत्तारप्पुवु । ५६ । अवं चतुविशतिगुणकारंगाळदं गुणिसुत्तं विरलु । ५६ । २४ । सासिरद मूनूरनाल्वत्तनाल्कप्पुवु । १३४४ । इवरोळनिवृत्तिकरणाविगळ स्थानंगळं मूवत्तनाल्कं ३४ । कूडिकोळ्ळुत्तं विरलु मुंपेळ्द सम्यक्त्वाश्रित सर्वमोहनीयोदयस्थानंगळ सासिरद मूनूरप्पत्ते टप्पुवु। ५ १३७८ । प्रकृतिगळु कूडिवोर्ड मूनूर मूवत्तेरडप्पु । ३३२ । ववनिप्पत्तनाल्करिदं गुणिसुत्तं विरल ३३२ । २४ । येळु सासिरदों भैनूररवत्ते टप्पु ७९६८ । ववरोळनिवृत्तिकरणाविगळय्वत्ते टुं ५८ प्रकृतिगळं कूडिकोळछत्तं विरलु मुं पेन्द ये टुसासिरविप्पत्तारु प्रकृतिगळु ८०२६ सम्यक्त्वाश्रितसर्ध्वमोहनीयोदयप्रकृतिगळे बुदत्थं । ई मोहनीयस्थानोदय प्रकरणदोळितु गुणस्थानोपयोग योगसंयमलेश्यासम्यक्त्वंगळनाश्रयिसि मोहनीयोदयस्थानंगळं प्रकृतिगळं पेळल्पटुवी प्रकारदिवं १० जीवसमासेगळोळं गत्यादिशेषमागणेगळोळमागमानुसारदिदं मोहनीयोदयस्थानंगळं प्रकृतिगळं योजिसिकोळल्पडुवुवु । मुंदेयुं येकचत्वारिंशज्जीवपदंगळोळमी युदयस्थानंगळं प्रकृतिगळं योजिसल्प. * अनंतरं मोहनीयसत्वस्थानप्रकरणमनेकादशगाथासूत्रंगाळवं पेन्दपर :गुणस्थानेषपयोगयोगसंयमलेश्यासम्यक्त्वान्याश्रित्य मोहनीयोदयस्थानतत्प्रकृतय उक्तास्तथा जीवसमासेषु १५ गत्यादिविशेषमार्गणासु वक्ष्यमाणकचत्वारिंशज्जीवपदेषु चागमानुसारेण वक्तव्याः ॥५०७॥ अथ तत्सत्त्वप्रकरणमेकादशगाथासूत्रराह इस प्रकरणमें जैसे गुणस्थानों में उपयोग, योग, संयम, लेश्या और सम्यक्त्वके आश्रयसे मोहनीयके उदयस्थान और प्रकृतियोंकी संख्या कही है उसी प्रकार जीव समासोंमें गति आदि मार्गणाओंमें और आगे कहे गये इकतालीस जीव पदोंमें आगमके अनुसार २० कहना चाहिए ॥५०७|| आगे मोहनीयके सत्त्वका प्रकरण ग्यारह गाथाओंसे कहते हैं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ गो० कर्मकाण्डे अट्ठ य सत्त य छक्क य चदु तिदुगेगाधिगाणि वीसाणि । तेरस बारेयारं पणादिएगूणयं सत्तं ॥५०८॥ अष्ट च सप्त च षट् च चतुस्त्रिद्वयेकाधिका विंशतिः। त्रयोदशद्वादशैकादश पंचायेकोनकं सत्वं ॥ ये टुर्मळुमूलं नाल्कु मूरुमेरडुमो दुमधिकमादविंशतिगळं त्रयोदशभु द्वादशमुं एकादशमुं पंचायेकोनमादुईं सत्वमक्कुं ॥ संदृष्टि। २८ । २७ । २६ । २४ । २३ । २२ । २१ । १३ । १२ । ११ । ५।४।३।२।१॥ यिल्लि दर्शनमोहनीयत्रयमुं ३। पंचविंशति चारित्रमोहनीयमु २५ मंतष्टाविंशति प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियनुद्वेल्लनमं माडिदोडे सप्तविंशति प्रकृतिस्थानमक्कुमवरोळु सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृतियतुद्वेल्लनमं माडिवोर्ड ड्विशतिप्रकृतिसत्वस्थान१० मक्कुं मत्तमा इप्पतंटर स्थानदोळनंतानुबंधिचतुष्टयम विसंयोजनमं माडिदोर्ड चतुविशतिप्रकृति सत्वस्थानमक्कुमवरोळ मिथ्यात्वप्रकृतियं क्षपिसिदोडे त्रयोविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळु सम्यभिथ्यात्वप्रकृतियं अपिसिदोडे द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमक्कुमवरो सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपिसिदोडकविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ मध्यमाष्टकषायंगळं क्षपिसिदोर्ड त्रयोदश प्रकृतिस्थान भक्कुमवरोळ पंढवेदमनागलि स्त्रोवेदमनागलि क्षपिसिदोर्ड द्वादश प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ १५ स्त्रीवेदमनागलि षंढवेदमनागलि क्षपियिसिदोडेकादशप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ षण्णोकषा यंगळं क्षपियिसिदोर्ड पंचप्रकृतिस्थानमक्कुमवरोळ पुंवेदमं क्षपियिसिदोडे चतुःप्रकृतिसत्वस्थान अष्टसप्तषटचस्त्रिद्वयकाधिकविंशतयस्त्रयोदशद्वादशैकादशपंचायेकोनं च सत्त्वं स्यात । अत्र त्रिदर्शनमोहपंचविंशतिचारित्रमोहमष्टाविंशतिकं । तत्र सम्यक्त्वप्रकृताद्वेल्लितायां सप्तविंशतिकं । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे उद्वेल्लिते षड्विंशतिकं । पुनः अष्टाविंशतिकेऽनंतानुबंधिचतुष्के विसंयोजिते चविंशतिक । पुनः मिथ्यात्वे क्षपिते २० त्रयोविंशतिकं । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिक। पुनः सम्यक्त्वे क्षपिते एकविंशतिकं । पुनः मध्यम कषायाष्टके क्षपिते त्रयोदशकं । पुनः षंढे स्त्रीवेदे वा क्षपिते द्वादशकं । पुनः स्त्रीवेदे वा षंढे क्षपिते एकादशकं । आठ, सात, छह, चार, तीन, दो और एक अधिक बीस अर्थात् अठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस तथा तेरह, बारह, ग्यारह और पाँच आदि एक एक हीन प्रकृतिरूप सत्त्व स्थान हैं-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, २५ ३, २, १ । इन्हें कहते हैं तीन दर्शन मोह और पचीस चारित्रमोह ये अठाईस प्रकृतिरूप सत्त्व स्थान हैं। इनमें-से सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईस प्रकृतिरूप सत्त्व होता है । पुनः सम्यकमिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेपर छब्बीस प्रकृतिक सत्त्व होता है। पुनः अट्ठाईसमें-से अनन्तानबन्धीका विसंयोजन होनेपर चौबीस प्रकृति सत्त्व होता है। उनमें से मिध्यात्वका ३० क्षय होनेपर तेईस प्रकृतिक सत्त्व होता है। मिश्र मोहनीयका क्षय होनेपर बाईस प्रकृतिक सत्व होता है। सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय होनेपर इक्कीस प्रकतिक सत्त्व होता है। अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानरूप मध्यम कषायोंका क्षय होनेपर तेरह प्रकतिरूप सत्त्व होता है। स्त्रीवेद और नपुंसक वेदमें से एकका क्षय होनेपर बारह प्रकृतिरूप सत्त्व होता है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७६३ मक्कुमवरोळ संज्वलनक्रोधर्म क्षपियिसिदोडे त्रिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ संज्वलनमानमं क्षपियिसिदोर्ड द्विप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळु संज्वलनमार्ययं क्षपियिसिदोडकादशप्रकृतिसत्वस्थानमक्कु । मा बादरलोभमं क्षपियिसिदोडेकसूक्ष्मलोभप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि लोभसामान्यदिदमों दे प्रकृतिसत्वस्थानं पेळल्पद्रुदु। इंतु मोहनीयसत्वस्थानंगळु पदिनैय्वप्पुर्वेदु निर्देशि. सल्पटुवु । १५॥ अनंतरमी पदिनय्य, मोहनीयसत्वस्थानंगळं मिथ्यादृष्टयाद्युपशांतकषायगुणस्थानपर्यंतमावगुणस्थानंगळोळु संभविसुव सत्वस्थानंगळं संख्येयं मुंदणगाथासूत्रदिं पेन्दपरु : तिण्णेगे एगेगं दो मिस्से चदुसु पणणियट्ठीए । तिणि य थूलेक्कारं सुहुमे चत्तारि तिण्णि उवसंते ॥५०९॥ श्रोग्येकस्मिन् एकस्मिन्नेकं द्वे मिश्रे चतुर्दू पंचनिवृत्तौ। त्रीणि च स्थूले एकादश सूक्ष्मे १० चत्वारि त्रीण्युपशांते ॥ त्रीण्येकस्मिन् मूरु सत्वस्थानंगळो, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळप्पुवु ३॥ एकस्मिन्नेक सासावनगुणस्थानमो दरोळोदे सत्वस्थानमक्कु १॥ द्वे मिश्रे मिश्रगुणस्थानदोळ रडु सत्वस्थान गळप्पुवु २। चतुर्यु पंच असंयतादि नाल्कुगुणस्थानंगळोळ प्रत्येक पंच अय्दप्दु सत्वस्थानंगळप्पुव ५॥ निवृत्तौ अपूर्वकरणनोळ त्रीणि च मूरु सत्वस्थानंगळप्पुवु । ३॥ स्थूले अनिवृत्तिकरणनोळु १५ एकादश पन्नोंदु सत्वस्थानंगळप्पुवु ११ ॥ सूक्ष्मे सूक्ष्मसांपरायनोळु चत्वारि नाल्कु सत्व स्थानंगळप्पुवु ४ ॥ उपशांते उपशांतकषायनोळु त्रीणि मूरु सत्वस्थानंगळप्पुवु ३॥ अनंतरमीस्थानंगळवाउवे बडे पेळ्दपरु : पुनः षण्णोकषाये क्षपिते पंचकं । पुनः वेदे क्षपिते चतुष्कं । पुनः संज्वलनक्रोधे क्षपिते त्रिकं । पुनः संज्वलनमाने क्षपिते द्विकं । पुनः संज्वलनमायायां क्षपितायामेककं । पुनः बादरलोभे क्षपिते सूक्ष्मलोभरूपमेककं । २० उभयत्र लोभसामान्येनैक्यं ॥ ५०८ अमीषां पंचदशानां गुणस्थानसंभवमाह मिथ्यादृष्टी त्रीणि सासादने एक मिश्रे द्वे असंयतादिचतुर्ष पंच पंच अपूर्वकरणे त्रीणि अनिवृत्तिकरणे एकादश सूक्ष्मसांपराये चत्वारि उपशांतकषाये त्रीणि ॥५०९॥ तानि कानीति चेदाहतथा उनमें-से शेष दूसरेका क्षय होनेपर ग्यारह प्रकृतिरूप सत्त्व होता है। छह हास्यादि नोकषायोंका क्षय होनेपर पाँच प्रकृतिरूप सत्त्व होता है। पुरुषवेदका क्षय होनेपर चार २५ प्रकृतिरूप सत्त्व होता है। संज्वलन क्रोधका क्षय होनेपर तीन प्रकृतिरूप सत्त्व होता है। संज्वलन मानका क्षय होनेपर दो प्रकृतिरूप सत्त्व होता है। संज्वलन मायाका क्षय होनेपर एक बादर लोभरूप सत्त्व होता है। बादर लोभका क्षय होनेपर सूक्ष्म लोभरूप सत्त्व होता है। बादर और सूक्ष्म लोभ एक ही प्रकृति है। इससे दोनोंका एक ही स्थान कहा है। इस प्रकार पन्द्रह सत्व स्थान हैं ॥५०८॥ इन पन्द्रह स्थानोंका गुणस्थानोंमें सत्त्व बतलाते हैं - मिथ्यादृष्टि में तीन, सासादनमें एक, मिश्रमें दो, असंयत आदि चारमें पाँच-पाँच, अपूर्वकरणमें तीन, अनिवृत्तिकरणमें ग्यारह, सूक्ष्म साम्परायमें चार और उपशान्त कषायमें तीन सत्त्व स्थान होते हैं ॥५०९।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७६४ गो० कर्मकाण्डे पढमतियं च य पढमं पढमच्चवुवीसयं च मिस्सम्मि । पढमं चउवीस चऊ अविरददेसे पमत्तिदरें ॥५१०॥ प्रथमत्रिकं च प्रथमं प्रथमं चतुविशतिकं च मिश्रे प्रथमं चतुविशति चत्वारि अविरत देशसंयत प्रमत्तेतरेषु ॥ प्रथमत्रिकं च अष्टविंशत्यादि प्रथमत्रिस्थानंगळु मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु । २८।२७।२६ । एके दोर्ड चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टिजीवंगळु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं मिश्रप्रकृतियुमनुवेल्लनमं माळ्पनप्पुरिवं प्रथमं सासादननोळु प्रथममष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमो दे सत्वमक्कुं । २८॥ प्रथमं चतुम्विंशतिक च मिश्रे मिश्रनोळमष्टाविंशति प्रकृतिसत्वस्थानमुं चतुविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमुमेरडेयप्पुवु। २८ । २४ । एते दोडनंतानुबंधिचतुष्टयमं विसंयोजिसिव असंयतादिगळु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्यु. ददिदं मिश्रपरिणामगळप्पुरिदं प्रथमं चतुग्विंशति चत्वारि असंयतदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तरोळ प्रत्येकमष्टाविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमु चतुर्तिवंशत्यादि चतुःसत्वस्थानंगळप्पुवु । २८।२४।२३।२२।२१॥ एके दोडा नाल्कुं गुणस्थानतिगळे अनंतानुबंधिचतुष्टयमं विसंयोजिसुवरु । मिथ्यात्वमुमं मिश्रममं सम्यक्त्वप्रकृतियुमं क्रमदिदं क्षपियिसुवरुमप्पुरिदं मेले अपूर्वकरणाधुपशमश्रेणिय चतुग्र्गुण. स्थानत्तिाळो क्षपकश्रेणियोळष्टकषायानिवृत्तिपय॑तं संभविसव सत्वस्थानंगळं पेळ्दपरु : अडचउरेक्कावीसं उवसमसेढिम्मि खवगसेढिम्मि । एक्कावीसं सत्ता अट्ठकसायाणियट्टित्ति ॥५११॥ अष्ट चतुरेकविंशतिरुपशम श्रेण्यां क्षकश्रेण्यामेकैक विंशतिः सत्वान्यष्टकषायानिवृत्तिपथ्यंतं ॥ मिथ्यादृष्टी त्रीण्यष्टाविंशतिकादीनि सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्युद्वेल्लनयोश्चतुर्गतिजीवानां यत्र करणात् । २० सासादनेऽष्टाविंशतिकं । मिश्रे द्वे अष्टाविंशतिक तुर्विशतिके, विसंयोजितानंतानुबंधिनोऽपि सम्यमिथ्यात्वोदये तत्र गमनात् । असंयतादिवतुषु पंच प्रत्येक अष्टाविंशतिकं चत्वारि चतुर्विशतिकादीनि, विसंयोजितानंतानुबंधिनः क्षपितमिथ्यात्वादित्रयाणां च तेषु संभवात् ॥५१०॥ वे कौन हैं ? यह कहते हैं मिथ्यादृष्टिमें अठाईस, सत्ताईस और छब्बीस रूप तीन सत्त्व स्थान हैं; क्योंकि २५ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों गतिके जीव सम्यक्त्व प्रकृति और मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलना करते हैं । सासादनमें अठाईस प्रकृतिरूप एक ही सत्त्व होता है। मिश्रमें अठाईस और चौबीस प्रकृतिरूप दो सत्वस्थान हैं; क्योंकि अनन्तानुबन्धीको विसंयोजन करनेवाले भी सम्यक् मिथ्यात्वके उदयमें मिश्र गुणस्थानमें जाते हैं । असंयत आदि चार गुणस्थानोंमें-से प्रत्येकमें पाँच-पाँच स्थान होते हैं-अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस प्रकृतिरूप । ३० क्योंकि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और मिथ्यात्व आदि तीनका क्षय इन गुणस्थानोंमें होता है ।।५१०॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७६५ उपशमश्रेणियोळु अपूर्वकरणाद्युपशांतकषायपय्यंतमाद नाल्कुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येकमष्ट चतुरेकविंशतिः अष्टाविंशति प्रकृतिसत्वस्थानमुं चतुविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमुमेकविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमुमप्पुवु । २८१२४।२१। एते दोडुपशमणियनंतानुबंधिचतुष्टयमुं विसंयोजिसवेयु विसंयोजिसियं दर्शनमोहनीयम क्षपियिसियुं मेणु क्षपियिसदेयुमारोहणमं माळपरप्पुरिद, क्षपकश्रेण्यां क्षपकणियोळु अपूर्वकरणनोळमष्टकषायानिवृत्तिकरणपथ्यंतं नियमदिवमेकविंशति ५ प्रकृतिसत्वस्थानमक्कु २१॥ ___ अनंतरं क्षपकाष्टकषायानिवृत्तिकरणभायदं मेले अनिवृत्तिकरणंगे सत्वस्थानंगळं पेळ्दपरु : तेरसबारेयारं तेरसबारं च तेरसं कमसो। पुरिसित्थिसढंवेदोदयेण गदपणगबंधम्मि ॥५१२॥ त्रयोदश द्वादशैकादशत्रयोदश द्वादश च त्रयोदश क्रमशः। पुरुषस्त्रीषंडवेदोदयेन गतपंचकबंधे॥ . अष्टकषायक्षपणानंतरं पुवेदोददिदं क्षपकण्यारोहणं गेद पंचप्रकृतिबंधकानिवृत्तिकरणंगे त्रयोदश द्वादशैकादश प्रकृतिसत्वस्थानंगळप्पुवु । १३ । १२ । ११ । स्त्रीवेदोददिदं क्षपकण्यारोहणं गेय्द पंचबंधकानिवृत्तिकरणनोळ त्रयोदश द्वादशत्रयोदशप्रकृतिसत्वस्थानमुं द्वादशप्रकृति- १५ सत्वस्थानमक्कु १३ । १२ । नपुंसकवेदोददि क्षपकण्यारोहणं गेम्द पंचबंधकानिवृत्तिकरणनोळ त्रयोदश त्रयोदश प्रकृतिसत्वस्थानमक्कु । १३ । मदते दोडे पुवेदिपंचबंधकानिवृत्तिकरणनोळष्ट. कषायंगळु क्षपियिसल्पडुत्तिरलु पदिमूरु षंडवेदं क्षपियिसल्पडुत्तिरलु पन्नेरडं स्त्रीवेदं क्षपियिसल्प उपशमश्रेण्यां चतुर्गुणस्थानेषु प्रत्येकमष्टाविंशतिकचतुर्विशतिककविंशतिकानि त्रीणि विसंयोजितानंतानुबंधिनः क्षपितदर्शनमोहसप्तकस्य तत्सत्त्वस्य तत्रारोहणात । क्षपकश्रेण्यामपूर्वकरणे अष्टकषायानिवृत्तिकरणे २० चैकविंशतिकमेव ॥५११॥ तत उपरि पुंवेदोदयारूढस्य पंचबंधकानिवृत्तिकरणे त्रयोदशकद्वादशक कादशकानि । अष्टकषायक्षपणा उपशम श्रेणिके अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येकमें अठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले और अनन्तानुबन्धी तथा तीन दर्शनमोहका झपण करनेवालेके चौबीस और इक्कीस २५ प्रकृतिक सत्त्व होता है और ऐसे जीव उपशम श्रेणिपर आरोहण करते हैं। क्षपकश्रेणिमें अपूर्वकरणमें और अनिवृत्तिकरणमें आठ कषायोंका क्षय करनेसे पूर्व इक्कीस प्रकृतिक ही सत्त्वस्थान होता है ॥५११॥ __उससे ऊपर जो पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उसके जहाँ अनिवृत्तिकरणमें पुरुषवेद और संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभका बन्ध होता है उस भागमें तेरह, बारह और ३० ग्यारह प्रकृतिरूप तीन सत्त्वस्थान हैं। क्योंकि आठ कषायोंके क्षयके अनन्तर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका क्रमसे क्षय होता है। जो स्त्रीवेदके उदयके साथ श्रेणि चढ़ता है उसके wwwwwwww Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे डुत्तिरलु पन्नों दुं प्रकृतिसत्वस्थानंगळप्पुबु । स्त्रीवेदिपंचबंधकानिवृत्तिकरणनोळमते अष्टकषायंगळ क्षपियिसल्पडुत्तिरलु पदिमूलं षंढवेदं क्षपियिसल्पडुत्तिरलु पन्नेरडं प्रकृतितत्वस्थानंगळप्पुवु । षंडवेदिपंचबंधकानिवृत्ति अष्टकषायक्षपणानंतरं स्त्रीवेदक्कं पुंवेदक्कं युगपत्क्षपणाप्रारंभमकुमप्पु. दरिदं त्रयोदशप्रकृतिसत्वस्थानमेयक्कु । संदृष्टि रचना विशेषमिदु : इदर विवरणं मोहनीयत्रिसंयोगदोलु द्वयाधिकरण एकादेय त्रिप्रकारदोलुयोजिसिको बुदुबंधोदयसत्व ام لم له » Www هله لله مه له لسه » | स ४ ४११ नों ७ नो ७ ४|१३ ४१२ स १३ १३/१३ २२।२१. / ५/१२ सं १३ २१ पुरिसोदयेण चडिदे अंतिमखंडंतिमोत्ति पुरिसुदओ। तप्पणिधिम्मिदराणं अवगदवेदोदयं होदि ॥५१३॥ पुरुषोदयेन चटिते चरमखंडचरमसमयपर्यंतं पुरुषोदयः । तत्प्रणिधावितरयोरपगतवेदोदयो भवति ॥ पुरुषोंदयेन पुंवेदोददिदं चडिदे क्षपकण्यारूढनो अंतिमखंडंतिमोत्ति चरमखंड चरम१. समयपयंतं पुंवेदोदयप्रथमस्थित्यायामदाळ नपुंसकवेदक्षपणाखंडमुं स्त्रीवेदक्षपणाखंडमुं पुंवेद क्षपणाखंडमुमेंब त्रिखंडंगळोळु चरमपुंवेदक्षपणाखंडचरमसमयपयंतं पुरुषोदयः पुवेदोंदयमुं नंतरं तत्र पंढस्त्रीवेदयोः क्रमशः क्षपणात् । स्त्रीवेदोदयारूढस्य तत्र त्रयोदशकं षंढे क्षपिते च द्वादशकं पंढोदयारूढस्य तत्र त्रयोदशकमेव स्त्रोवेदयोर्युगपत्क्षपणाप्रारंभात् ॥ संदृष्टिः तो तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान हैं और नपुंसक वेदका क्षय होनेपर बारह प्रकृतिरूप सत्त्व १. स्थान हैं। जो जीव नपुंसकवेदके उदयके साथ श्रेणि चढ़ता है उसके तेरह प्रकृतिरूप ही सत्त्वस्थान हैं। क्योंकि वह नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका क्षपण एक साथ प्रारम्भ करता है ॥५१२॥ जो पुरुषवेदसे झपकश्रेणिपर चढ़ता है उसके अन्तिम खण्डके अन्तिम समय पर्यन्त पुरुषवेदके उदयकी प्रथम स्थितिके कालमें नपुंसक वेद क्षपणाखण्ड, स्त्रीवेद क्षपणाखण्ड और पुरुषवेद क्षपणाखण्डोंमें-से अन्तिम खण्डके अन्तिम समय पर्यन्त पुरुषवेदका उदय और . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७६७ पुंवेदबंध, निरंतरमक्कु । तत्प्रणिधौ आसैवळियोल इतरयोः इतरंगळप्प स्त्रीषंडवेदंगळगे अपगत. वेदोक्यो भवति । वेदोदयरहितमकुमंतागुत्तं विरलु : तट्ठाणे एक्कारस सत्ता तिण्होदयेण चडिदाणं । सत्तण्हं समगंछिदी पुरिसे छण्हं च णवगमस्थिति ॥५१४।। तत्स्थाने येकादशसत्वं त्रयाणामुदयेन चटितानां सप्तानां समच्छित्तिः पुरुषे षण्णां च नवक- ५ मस्तीति॥ ___ तत्स्थाने आ पुंवेदोदयारूढानिवृत्तिसवेदचरमखंडदोळमा सैवळिय स्त्रोषंडवेदोदयारूढरगळु वेदोंदयरहितस्थानद्वयदोळं एकादशसत्वं नोकषायसनकमु संज्वलनकषायचतुष्कमुभेब पन्नों, प्रकृतिगळं प्रत्येकं सत्वमक्कुमवरोळु त्रयाणामुदयेनारूढानां मूझवेदोदयंगळिदं क्षपकण्यारूढर Mr mr बं ४ | स ३ ४ १२ । इ ५ । १२ सं पंवेदोदयेन क्षपकण्यारूढे चरमसमयपयतं वेदोदयप्रयमस्थित्यायामे षंढक्षपणाखंडस्त्रीक्षपणाखंड- पुंक्षपणाखंडेषु चरमे खंडे चरमसमय पर्यंत पुंवेदस्योदयो बंधश्च निरंतरो भवति । तत्प्रणिधी चेतरवेदयोरपगतबेदोदयो भवति ॥५१३॥ एवं सति तस्मिन् पुंवेदोदयारूढानिवृत्तिसवेदवरमखंडे तत्प्रणिधौ स्त्रीषंढोदयारूढयोरवेदोदयस्थानद्वये च सप्तनोबन्ध निरन्तर होता है । उस पुरुषवेदकी क्षपणाके अन्तिम खण्डके निकट शेष नपुंसक वेद और स्त्रीवेदके उदयका अभाव हो जाता है ।।५१३॥ ऐसा होनेपर पुरुषवेदके उदय सहित श्रेणि चढ़नेवालेके अनिवृत्तिकरणके सवेदभागके अन्तिम खण्डमें, उसी खण्डके निकट अनिवृत्तिकरणके उस अन्तिम खण्डके कालमें और स्त्रीवेद और क-९७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ गो० कर्मकाण्डे गर्ग सप्तानां समच्छित्तिः सप्तनोकषायंगळगे युगपत्क्षपणा प्रारंभ मुमवक्के तच्चरमखंड चरमसमय दो युगपत्सत्यव्युच्छित्तियुमक्कुमल्लि पुरुषे पुरुषवेदोदयारूढनोलु षण्णां च षष्णोकषायंपर्य 'सत्वच्छित्तियककुमेके दोर्ड नवकमस्तीति पुंवेदनवकबंध समयप्रबद्धंगळ क्षपितावशेषंगळु समयोनावळ प्रमितंगळं संपूर्ण समयबद्धंग संपूर्णावलिप्रमितंगळमंतु समयोनद्वयावलिमात्र५ नवकबंधसमयप्रबद्धंगळु सत्वमंटप्युर्दारदम देतें दोडे पुंवेदनवप्रश्नाधिकारदोलु समानबंधोदयव्युच्छिति प्रकृति मुत्तों वरो पठितमप्पुदरिदमद के बंधोदयंग युगपदव्युच्छित्तिगळप्पुवपुर्दारदं पुंवेदोदयचरमसमयदो समयोनद्वयावळिमात्रंगळप्पुववक्के संदृष्टि ४१४ ४|११ ४ ४|४ ४|११ ४ १३ १२ १३ ५ १२ કાજ ५ ५ ११ १२ ११२|३|४|४|४|४|४ आ००००बाधा O ० ० कषायचतुस्संज्वलना इत्येकादश सत्त्वमस्ति । त्रिवेदोदयारूढानां समनोकषायक्षपणाप्रारंभः चरमखंड, चरमसमये सत्त्वव्युच्छित्तिश्च युगपदेव । तत्र पुंवेदोदवाल्दे तु समयोनावलिमात्रक्षपितावशेषा आवलीमात्र संपूर्णाश्त्र १० पुंवेदस्य नवकबंध समयप्रबद्धाः संतीति पण्णोकषायाणामेव सत्त्वव्युच्छित्तिः । ते च नवकसमयप्रबद्धाः स्वस्वबंधसमयादचलावली गतायां प्रतिसमयमेकैककालि परमुखेनवोदयंतः, आवलिकाले क्षीयमाणाः समयोनद्वयावलिकाले सर्वे उच्छिष्टावलिमात्रनिषेकैः सह क्षीयते । गलितावशेषास्तु समयप्रबद्धांशत्वात्समय प्रवद्धा इत्युच्यते । o ० ० नपुंसक वेदके उदय के साथ श्रेणि चढ़नेवाले के स्त्रीवेद नपुंसकवेद के उदयका अभावरूप दो स्थानों में पुरुषवेद सहित छह नोकषाय और चार संजलन इन ग्यारह प्रकृतिरूप स्थान होता १५ है । तीनों में से किसी भी एक वेदके उदय के साथ श्रेणि चढ़नेवालोंके सात नोकषायों की क्षपणाका प्रारम्भ और अन्तिम खण्डके अन्तिम समय में उन सात कषायोंकी सत्त्व व्युच्छित्ति एक साथ होती है । उसके होनेपर चारका हो सत्व रहता है । किन्तु इतना विशेष हैजो पुरुषवेद के उदय के साथ श्रेणी चढ़ा है उसके एक समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबद्धों में से एक समय कम आवली प्रमाण क्षय होनेके पश्चात् सम्पूर्ण शावली प्रमाण २० पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्ध पाये जाते हैं । अतः उसके छह नोकषायों की ही सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। इससे पुरुषवेद सहित श्रेणि चढ़नेवाले के पाँचका सत्त्व रहता है । जिनका बन्ध हुए थोड़ा समय हुआ हो और जो संक्रमण आदि करनेके योग्य न हों ऐसे नूतन समयबद्ध के निषेकोंको नवक समयप्रबद्ध कहा है। वे नवक समयबद्ध अपने-अपने बन्धके प्रथम समय से लेकर आवली प्रमाण कालमें अन्य अवस्थाको प्राप्त नहीं होते, इससे २५ इस आवलीकाको अचलावली कहते हैं । उस अचलावलीके बीतने पर प्रति समय वे नवक समयबद्ध एक-एक फालि परमुखरूपसे उदय होकर आवलीकालमें क्षय होते हुए एक समय कम दो आवली कालमें सब उच्छिष्टावली मात्र निषेकोंके साथ क्षयको प्राप्त होते हैं । 'गलितावशेष' अर्थात् गलनेके पश्चात् अवशेष समयप्रबद्ध के जो निषेक रहते हैं वे समयप्रबद्ध के अंश हैं, इससे उनको भी समयप्रबद्ध कहा है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६९ कर्णाटवृति जीवतत्त्वप्रदीपिका इल्लि नवकसमयप्रबद्धक्क अंकसंदृष्टि नाल्कु ४। अदक्कचलावलिकालमाबाधेयक्कुमायचलालिगेयुं नाल्कु शून्यं संदृष्टियक्कं । आ नवकसमयप्रबद्धमचलावलिकालमं कळियलोडनावलिमात्रपाळिगळप्पुबु । ४ । अवरोळु समयं प्रत्येकैकपालिगळिकडुत्तं विरलावळिमात्रकालक्कुदयिसि पोपुवंतु पोगुत्तं विरलु गळितावशेषसमयप्रबद्धंगळु एकद्वियादिपाळिगळ्गं समयप्रबद्धांशत्वदिवं समयप्रबद्ध मेंदु पेळल्पद्रुदी समयोनद्वयावलिमात्रनवकबंधसमयप्रबद्धंगल पुंवेदोदयारूढचतुब्बंधका- ५ निवृत्तिकरणवेदरहितभागदोळु सत्वमक्कुमवक्के स्वमुखोदयमिल्लदे परमुखोदयदोळु समयोनद्वयावळिमात्रकालक्कुच्छिष्टावलिमात्रनिषेकंगळु सहितमागि केडुवुदे दरिवुदु । उच्छिष्टावलिये बुदेन दोडे उदयमुळळ प्रकृतिगळ्गावलिमात्रनिषेकंगळवशिष्टमादागळवक्के स्वमुखोदयमिल्लदे परमुखोदयदिदमेयावळिमात्रकालक्के प्रतिसमयमेकैकनिषेकक्रमदिदं किडुवुवु । मत्तमुदयरहित प्रकृतिगळगावलिमात्रनिषेकंगळं कळेदु लक्षिसल्पट्ट चरमस्थितिकांडकचरमपाळि किडुत्तं विरलु १० शेषोच्छिष्टावलिमात्रनिषेकंगळ्णे क्षपणे इल्लप्पुरदं स्थितोत्कसंक्रमविधानदिदं परमुखोददिंदमावलिमात्रकालक्के प्रतिसमयमेकैकनिषेकंगळु संक्रमिसि केटु पोपुर्वेदरिवुदु । ___उक्तार्थानुवादपुरस्सरमागियानिवृत्तिकरणनोळु सत्वस्थानविशेषंगळं पेळ्दपरु । ~ ~ संदृष्टिः बं४। स४। ५ ।१।२।३।४।४।४।४।४। ५ । ११ । आ ०।०।०।०। बाधा अत्र नवकसमयप्रबद्धस्यांकसंदृष्टिश्चतुष्कं । तस्याचलावलिराबाधा । तस्याः संदृष्टिश्चतुःशून्यं । उच्छिष्टावलिस्तु उदयागतानामावलिमात्रका अनदयागतानामावलिमात्रनिषेकानतीत्य लक्षितचरमस्थितिकांडकचरम- १५ फालिपतनेऽवशिष्टावलिमात्रनिषेकाश्च क्षपणां विना स्थितोक्तसंक्रमविधानेन परमुखोदयेनैव प्रतिसमयमेकैकनिषेकगलनक्रमेण विनश्यंतीति ॥५१४॥ उक्तार्थानवादपुरस्सरमनिवृत्तिकरणे सत्त्वस्थानविशेषानाह ___ संदृष्टि में नवक समयप्रबद्धकी पहचान चारका अंक है। उस समयप्रबद्धकी अबाधा अचलावली प्रमाण है। उसमें उसका उदयादि नहीं होता। उसकी पहचान चार बिन्दी हैं। उच्छिष्टावलीका अभिप्राय-जो कर्म उदयको प्राप्त हैं उनके आवली मात्र शेष रहे निषेक २० और जो कर्म उदयको प्राप्त नहीं हुए उनके आवली मात्र निषेकोंको लाँधकर स्थितिके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालीके पतनमें आवलीकाल मात्र शेष रहे निषेक, वे क्षपणा बिना सक्रम विधानके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप हो परमुख उदय द्वारा प्रति समय एक-एक निषेक क्रमसे गलकर नष्ट होते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वेदके क्षपणा कालमें जो पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धका सत्त्व शेष रहता है वह क्रोध झपणाकालमें क्रोधरूप परिणमन करके नष्ट २५ होता है। इससे वहाँ पाँचका भी सत्त्व जानना ॥५१४। इस अर्थको कहकर अनिवृत्तिकरणमें सत्त्वस्थानोंका विशेष कहते हैं Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० गो० कर्मकाण्डे इदि चदुबंधं खवगे तेरस वारस एगार चउसत्ता । तिदु इगिबंधे तिदु इगि णवगुच्छिट्ठाणवविवक्खा ॥५१५॥ इति चतुब्बंधक्षपके त्रयोदशद्वादशैकादशचत्वारि सत्वानि । त्रिद्वचेकबंधे त्रिद्वयेकं नवको च्छिष्टानामविवक्षा॥ ५ इंतुक्तप्रकारदिदं चतुब्बंधक्षपके नपुंसकवेदोदयारूढ सवेदानिवृत्तिकरणचरमसमयचतुबंध. कनोळ त्रयोदशत्रयोदशप्रकृतिसत्वस्थानमक्क द्वादशस्त्रीवेदोदयारूढसवेदानिवृत्तिकरणचरमसमयचतुबंधकनोळु द्वादशप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुं। एकादशषंडवेदस्त्रीवेदोदयारूढापगतवेदोदयानिवृत्ति. करणक्षपकचतुब्बंधकरोळेकादशप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । चत्वारि सत्वानि मत्तमा पंडवेद स्त्रीवेद पुंवेदोदयारूढापगतवेदोदयानिवृत्तिकरण चतुबंधकक्षपकरोळु चतुःप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लिये १० मत्तमा पुवेदोदयारूढापगतवेदोदयानिवत्तिकरणप्रथमभागचतुब्बंधकनोळु पंचप्रकृतिस्थानमुं सत्व मक्कुमेके दोडे गुणस्थानविषयसत्वस्थानसंख्याप्ररूपणयोळनिवृत्तिकरगनोळु सत्वस्थानंगळु पन्नों दु। पुवेदनवकबंधसत्वं चतुब्बंधकानिवृत्तिकरणनोळु विवक्षिसल्पटुरिदं। अल्लिदं मेले नपुंसकवेदस्त्रीवेदपुंवेदत्रितयोदयारूढापगतवेदोदयानिवृत्तिकरणक्षपकरुगछु त्रिद्वयेकबंधे त्रिबंध द्विबंध एकबादरलोभकषायबंधभागेगळोळु यथाक्रमदिदं त्रिद्वयेकं त्रिबंधकनोळु १५ त्रिप्रकृतिसत्वस्थानमुं द्विबंधकनोळु द्विप्रकृतिसत्वस्थानमुं संज्वलनलोभैकप्रकृतिबंधकनोळु संज्वलनलोभैकप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमा त्रिद्वये कबंधकस्थानकंगळोळु पुंवेदबंधदोळ्पेळदंते नवको. च्छिष्टानां नवकबंधसमयोनद्वयावळिमात्रसमयप्रबद्धंगळ सत्वमुं उच्छिष्टावळिमात्रोदयावशेषप्रथम इति उक्तप्रकारेण षंढोदयारूढस्य सवेदानिवृत्तिकरणचरमसमयचतुबंधके सत्त्वं त्रयोदशकं । स्त्रीवेदोदयारूढस्य द्वादशकं । षंढस्त्रीवेदोदयारूढापगतवेदोदयचतुबंधके एकादशक। पुनः षंढस्त्रीवेदोदयानां तत्र २० चतुष्कं पुंवेदोदयारूढस्य पंचकमपि तदेकादशस्थानेषु पुंवेदनवकसत्त्वस्य विवक्षितत्वात् । तत उपरि त्रिवेदो इस कहे विधानके अनुसार जो नपुंसक वेद सहित श्रेणि चढ़ता है उसके वेद सहित अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें, जिसमें मोहनीयकी चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है, तेरह प्रकृतियोंका सत्त्व है। जो स्त्रीवेदके उदय सहित श्रेणी चढ़ता है उसके उसी समयमें बारह प्रकृतियोंका सत्त्व है। जो नपुंसकवेद या स्त्रीवेदके उदयके साथ श्रेणी चढ़ता है उसके वेदके २५ उदयसे रहित तथा चार प्रकृतियोंके बन्धवाले भागमें ग्यारहका सत्त्व है। पुनः नपुंसकवेद या स्त्रीवेद सहित श्रेणि चढ़नेवालेके सात नोकषायोंका क्षय होनेपर चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होता है। पुरुषवेदके उदयके साथ श्रेणि चढ़नेवालेके पाँच प्रकृतिरूप भी सत्त्वस्थान होता है। क्योंकि उसके ग्यारहके सत्त्वस्थानमें पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धकी विवक्षा है। उससे ऊपर तीनों ही वेदोंके उदय सहित श्रेणी चढ़नेवालोंके.जहाँ तीन, दो और एक ३० प्रकृतिका बन्ध पाया जाता है ऐसे तीन भागोंमें क्रमसे तीनरूप, दोरूप और एकरूप सत्त्व स्थान होता है । यहाँ पूर्ववत् नवक बन्धके एक समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबद्ध और उच्छिष्टावली मात्र उदयसे अवशेष प्रथम स्थितिके निषेक यद्यपि हैं तथापि यहाँ उनकी विवक्षा नहीं है। जैसे पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धका सत्व अवशेष रहनेपर वह क्रोध Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका स्थितिनिषेकंगळं सत्वमुंटागुत्तमिद्दडमवक्के अविवक्षा स्यात् अविवक्षेयक्कुं । इंतनिवृत्तिकरणनोळुपशमश्रेणियोळष्टाविंशतिचतुव्विशत्येकविंशति ॥ त्रिस्थानगळ त्रिस्थानंगळोळु । २८ । २४ । २१ । क्षपकश्रेणिय एकविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमुं त्रयोदशद्वादशैकादश पंचचतुस्त्रिद्वधेकप्रकृतिसत्व स्थानंगळो भत्तप्पुव वरोळेकविंशतिस्थानं पुनरुक्तर्म दु बिट्टेकादशसत्वस्थानंगळे दु पेळल्पट्टुवु । क्षपक । १३ । १२ । ११ । ५ । ४ । ३ । २ । १ । उप । २८ । २४ । २१ । कूडि ११ ।। सूक्ष्मसांप- ५ रायनोळु अष्टाविंशति चतुव्विशत्येकविंशति त्रिस्थानंगळ पशमश्रेणियोळवु । क्षपकश्रेणियोळु सूक्ष्मलोभप्रकृतिस्थानं सत्वमों देयक्कुं । १ । कूडि चतुःस्थानंगळवु । २८ । २४ । २१ । १ । इल्लि सूक्ष्मपरायंगे सूक्ष्मलोभसत्वर्म ते बोर्ड बादर संज्वलनलोभक्कश्वकर्णकरणसहचारितापूर्ध्वस्पर्द्धककरणमुमवर्क बादरकृष्टिकरणमुमवर्क मर्त्त सूक्ष्मकृष्टिकरणमुमनिवृत्तिकरणनोळनंतैकभागानुभागक्रर्मादिदं माडल्पटुवपुर्दार ना सूक्ष्म कृष्टिगळ्गनिवृत्तिकरणनोळनुदयसत्वमक्कुमी १० सूक्ष्मसांपराय संयमियोदयसत्वमक्कुमी सूक्ष्मलोभकषायोदयानुरंजित संयमं सूक्ष्म सांप रायसंयमदन्वर्थं नाममक्कुमदे ते दोडे सूक्ष्मः सांपरायः कषायो यस्याऽसौ सूक्ष्मसां परायः एंदितु । दयारूढानां त्रिद्वयेकबंषभागेषु यथाक्रमं त्रिकं द्विकमेककमस्ति । अत्र प्राग्वन्नव कबंध समयोनद्वय । वलिमात्रसमयप्रबद्धा उच्छिष्टावलिमात्रोदयावशेष प्रथम स्थितिनिषेकाश्न संत्यपि ते न विवक्षिताः । एवमनिवृत्तिकरणे उपशमश्रेण्यामष्टाविंशतिचतुर्विंशतिकैकविंशतिकानि क्षपकश्रेण्यामेकविंशतिकत्रयोदशकका दशकपंचकचतुष्कत्रिद्विकैकानि । एतेषु एकमेकविंशतिकं पुनरुक्तमित्येकादशेत्युक्तं । सूक्ष्मसांपराये उपशमश्रेण्यामष्टाविशति चतुर्विंशतिकै कविंशतिकानि । क्षपकश्रेण्यां सूक्ष्मलोभरूपकमिति चत्वारि । तल्लोभसत्त्वं कीदृशं ? अनंतैकभागानुभागक्रमेणानिवृत्तिकरणे बादरसंज्वलन लोभस्याश्वकर्णकरण सहचरितापूर्वस्पर्धककरणं तेषां च बादरकुष्टिकरणं तासां च सूक्ष्मकृष्टिकरणमिति तत्र सूक्ष्मकृष्टिरूपमनुदयगतमत्रोदयगतमिति ज्ञातव्यं । ७७१ क्षपणाकाल में क्रोधरूप होकर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार क्रोध, मान, मायाके भी अवशेष २० रहे नवक समयप्रबद्धका सत्त्व क्रमसे मान, माया, लोभके क्षपणाकालमें परमुख होकर नष्ट हो जाता है । परन्तु उनकी विवक्षा नहीं की। यदि उनकी विवक्षा होती तो जैसे चार के सत्त्वके स्थान में पाँचका सत्त्व कहा उसी प्रकार तीन, दो, एकके स्थानमें चार, तीन, दोका भी सत्त्व कहते । किन्तु विवक्षा न होनेसे तीन, दो, एकका ही सत्त्व कहा । २५ इस प्रकार अनिवृत्तिकरण में उपशम श्रेणिमें तो अठाईस, चौबीस, इक्कीसरूप तीन सत्त्वस्थान हैं । क्षपक श्रेणिमें इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एकरूप नौ स्थान हैं । इनमें इक्कीसरूप स्थान उपशमक और क्षपक दोनोंमें कहा है इससे पुनरुक्त है । इसीसे ग्यारह सन्त्वस्थान कहे हैं । १५ सूक्ष्म साम्परायमें उपशमश्रेणिमें अठाईस, चौबीस, इक्कीस तीन स्थान हैं। क्षपकश्रेणिमें सूक्ष्म लोभरूप एक स्थान है। इस तरह चार स्थान हैं । वह लोभका सत्व किस रूप ३० है यह कहते हैं - अनिवृत्तिकरण में क्रम से अनन्तवें - अनन्तवें भाग बादर संज्वलन लोभका अश्वकर्णकरण सहित अपूर्वस्पर्धक करण होता है । फिर उन स्पर्धकोंका स्थूलखण्डरूप बादरकृष्टिकरण होता है । फिर उन बादरकृष्टियोंका सूक्ष्मखण्डरूप सूक्ष्मकृष्टिकरण होता है । उन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ गो० कर्मकाण्डे उपशांतकषायनोळमष्टाविंशति चतुर्विशति एकविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानत्रितयमक्कु । २८ । २४ । २१ । मितु गुणस्थानदोळुक्तसत्वस्थानंगळ्ग संदृष्टि :-- मि३ । सा १ मि २ अ ५ | २८।२७।२६। २८ (२८१२४ २८।२४।२३।२२।२१।२८।२४।२३।२२।२१।२८।२४।२३।२२।२१ / । अ३ . अ ११ है। | २८।२४।२३।२२।२१ २८।२४।२१ । क्षप २१ ।२८।२४।२१।क्ष२१।१३।१२।११।५।४ ३।२।१। |सू ४ उ३क्षी स अ सि २८।२४।२१।१३।२८।२४।२१।। ० । ० ० ० । अनंतरं मोहनीयबंधस्थानंगळोळ सत्वस्थानंगळनाधाराधेयभावदिदं पेळ्दपरु : तिण्णेव दु बावीसे इगिवीसे अट्ठवीस कम्मंसा । सत्तर तेरे णवबंधगेसु पंचेव ठाणाणि ॥५१६॥ त्रीण्येव तु द्वाविंशत्यां एकविंशतावष्टाविंशतिः कांशाः। सप्तदश त्रयोदशसु नवबंधकेषु पंचैव स्थानानि ॥ पंचविधचदुविधेसु य छसत्त सेसेसु जाण चत्तारि । उच्छिट्ठावलिनवकं अविवक्खिय सत्तठाणाणि ।।५१७॥ १० पंचविधचतुविधयोः षट्सप्त शेषेषु विद्धि चत्वारि । उच्छिष्टावलिनवकमनपेक्ष्य सत्वस्था नानि । गाथाद्वितयं ॥ उपशांतकषायेऽष्टाविंशतिकचतुविंशतिककविंशतिकानि ॥५१५॥ अथ मोहनीयबंधस्थानेषु सत्त्वस्थानान्यायभावेन गाथाद्वयेनाह सूक्ष्मकृष्टियोंका उदय अनिवृत्तिकरणमें नहीं होता किन्तु सूक्ष्मसाम्परायमें होता है। अश्व१५ कर्णादिका स्वरूप आगे लिखेंगे। उपशान्तकषायमें अठाईस, चौबीस, इक्कीस तीन स्थान होते हैं। उससे ऊपर मोहनीयका सत्त्व नहीं है ॥५१५॥ क्षपक अनिवृत्तिकरणके सत्त्वस्थानोंका यन्त्र नपुंसक वेदसहित श्रेणिमें | स्त्रीवेद सहित श्रेणिमें पुरुषवेद सहित श्रेणिमें बन्ध बन्ध सत्त्व सत्त्व बन्ध सत्त्व -r م له سه » م ل سه ocwww 00 ४वा ५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७७३ त्रीण्येव द्वाविंशत्यां द्वाविंशति प्रकृतिबंधस्थानमं कट्टुबागळा जीवनोळ, २८ । २७ । २६ । मूरे मोहनीयसत्वस्थानंगळ, संभत्रिसुववु । तु मत्ते एकत्रिंशतात्रष्टाविंशतिकर्मांशाः एकत्रिंशति - मोहनीयप्रकृतिसत्वस्थानमं कट्टुवागळ जीवनोळष्टाविंशति प्रकृतिगळ, अंशाः सत्वंगळवु । सप्तदशत्रयोदशसु नवबंधकेषु पंचैव स्थानानि सप्तदश प्रकृतिबंधस्थान में कट्टुवागळा जीवनोळ त्रयोदशप्रकृति मोहनीय बंधस्थानमं कट्टुवागळा जीवनोल' नवबंधकेषु नव प्रकृतिमोहनीय बंध - ५ स्थानमं 'कट्टुवागळा 'जीवनोळ' पंचैत्र स्थानानि प्रत्येकं पंचपंचमोहनीयसत्वस्थानं गळ संभविसुववु । २८ । २४ । २३ । २२ । २१ । पंचविधचतुविधयोः षट्सप्त पंच प्रकृतिबंधस्थानमं कट्टुवागळा जीवनोळ, षण्मोहनीयसत्वस्थानंगळ, संभविसुववु । २८ । २४ । २१ । १३ । १२ । ११ । चतुःप्रकृतिमोहनीयबंधस्यानमं कट्टुवागळा जीवंगे सप्तमोहनीयसत्वस्थानंगळ, संभविसुववु । २८ ॥ २४ ॥ २१ ॥ १३ ॥ १२ । ११ । ४ । इल्लि चतुब्बंधकनोळ, पंचप्रकृतिसत्वस्थानमेर्क पेल्प- १० डर्व दोर्ड नवकोच्छिष्टं गगिल्लि सत्वविवक्षे इल्लप्पु कारणमागि। शेषेषु चत्वारि शेषत्रिप्रकृति द्विप्रकृत्येक प्रकृतिमोहनीयबंधस्थानंगळ कट्टुवागळा जीवंगळ प्रत्येकं त्रिप्रकृतिबंधकनोळ चत्वारि ई नाकं मोहनीयसत्वस्थानंगळ, संभविसु । २८ । २४ । २१ । ३ । द्विप्रकृतिमोहनीयस्थानबंधकनोळे, नाकु मोहनीय सत्वस्थानंगळ, संभविसुववु । २८ । २४ । २१ । २ । एकप्रकृतिमोहनीयबंधस्थानमं कट्टुवागळा जीवनोळ, मोहनीयसत्वस्थानंगळिवु नात्कु संभविसु । २८ । १५ द्वाविंशतिबंधे कर्माशाः सत्त्वस्थानानि अष्टाविंशतिकसप्तविंशतिषविंशतिकानि त्रीणि । एकविंशतिबंधेऽष्टाविंशतिकमेव । सप्तदशबंधे त्रयोदशबंधे नवबंधे चाष्टाविंशतिकचतुर्विंशतिकत्रयोविंशतिक द्वाविंशतिकैकविशतिकानि पंच पंच | पंचबंधे तान्येव पंचकादशाग्राणि । चतुबंधे तान्येव षट्चतुष्काग्राणि । अत्र पंचकसत्त्वं व्युच्छित्ति बन्ध सत्त्व | व्युच्छित्ति बन्ध सत्त्व | व्युच्छित्ति बन्ध सत्त्व नोकषाय ७ ४ ११ नोक. ७ ११ नोक. ७ ५ ११ ४ बन्ध सत्व ४ १२ बन्ध सत्त्व ४ १३ बन्ध | सत्त्व ५ १३ बन्ध सत्व ५ १३ सत्व २१ बन्ध सत्त्व ५ १२ वन्ध सत्त्व ५ १३ -- सत्त्व २१ आगे मोहनीय बन्धस्थानों में सत्त्वस्थान दो गाथा द्वारा कहते हैं जहाँ बाईसका बन्ध है वहाँ सत्त्वस्थान अठाईस, सत्ताईस, छब्बीस प्रकृति तीन हैं । २० इक्कीसका जहाँ बन्ध है वहाँ अट्ठाईस रूप सत्त्व स्थान है । सतरह, तेरह और नौके बन्धस्थानों में अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीसरूप पाँच-पाँच सत्त्वस्थान हैं । पाँचके बन्ध स्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह प्रकृतिरूप छह सत्त्वस्थान हैं । चारके बन्धस्थान में छह पूर्वोक्त और एक चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान है । यहाँ पाँच ५ बन्ध सत्त्व १२ बन्ध सत्त्व १३ ५ बन्ध सत्त्व १३ सत्व ५ २१ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे २४ । २१ । १ । उच्छिष्टाव लिनवकमनपेक्ष्य चतुब्बंधक मोदलागि एक बंधकावसानमावबंधकरोल, पेद सत्वस्थानंगल, उच्छिष्टाव लिन व कबंधंगळ सत्वमनवज्ञेयं माडि पेळपट्ट्र्व वितु त्वं विद्धि नीनरि शिष्य ये दितावार्थ्यानिदं संबोधिसत्पटं । उक्तार्थोपयोगियक्कुमी रचने । १३ ९ ७७४ बंध २० सत्व २२ ३ २८ २७ २६ २१ १ २८ १७ ५ ५ ५ २८ २८ २४ २४ m २३ | २३ x ✓ २२ । २२ २१ २१ ५ २४ २३ २२ २१ ६ ४ ३ १२ ११ 6) १३ | १३ । १२ ११ ४ २८ २८ २८ २८ २८ २८ २४ २४ २४ २४ २४ २१ २१ २१ २१ २१ ३ । २ । १ ४ दस णव पण्णरसाई बंधोदयसत्तपयडिठाणाणि । भणिदाणि मोहणिज्जे एत्तो णामं परं वोच्छं ॥५१८ ॥ ४ अनंतराम मोहनीयदोळु पेळपट्ट बंधोदय सत्वस्थान संख्येयननुवदिसुत्त लुमुपसंहरिसि मुंद ५ मते नामकर्ममं पेदपेमेंदु मंदण सूत्रदो प्रतिज्ञेयं माडिदपरु । १ ४ दश नव पंचदशबंधोदय सत्व प्रकृतिस्थानानि । भणितानि मोहनीये इतो नाम परं वक्ष्यामि ॥ मोहनीये मोहनीयदोळु बंधोदयसत्व प्रकृतिस्थानानि बंधप्रकृतिस्थानंगळु मुदयप्रकृतिस्थानं१० गळं सत्व प्रकृतिस्थानंगळु क्रर्मादिदं दश पत्तु । नव ओ भत्तु । पंचदश पदिनदु भणितानि पेळल्पट्टुवु । इतः परं इल्लिदं मुंदे नाम वक्ष्यामि नामकर्म्मबंधोदय सत्वस्थान मं पेद ॥ इंतु मोहनीय बंधोदय सत्व प्रकृतिस्थानप्ररूपणा निरूपणं परिसमाप्तमादुदु ॥ तु नवकोच्छिष्टयोरविवक्षितत्वान्नोक्तं । त्रिबंधे द्विबंधे एकबंधे चाष्टाविंशतिक चतुर्विंशतेकै विशतिकानि क्रमशः त्रिद्विकाप्राणीति चत्वारि चत्वारि जानीहि । इमान्यदि सत्त्वस्थानानि उच्छिष्टावलिन वकबंधाविवक्षयै१५ वोक्तानि ॥५१६ ॥ ५१७॥ प्रकृतिरूप स्थान नहीं कहा; क्योंकि नवकरूप समयप्रबद्ध और उच्छिष्टावलीकी यहाँ विवक्षा नहीं है। तीन बन्धस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस और तीन प्रकृतिरूप चार सत्त्व स्थान हैं । दोके बन्धस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस और दो प्रकृतिरूप ये चार सत्त्वस्थान हैं। एकके बन्धस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस और एक प्रकृतिरूप चार सत्वस्थान है । ये सत्त्वस्थान भी उच्छिष्टावली तथा नवक समयप्रबद्धकी विवक्षाके बिना कहे हैं ।।५१६-५१७।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७७५ एक जिनोक्तागममं नोकरिसुविरणगळिर परसमयिगळं-। तेक परिभाविसिन्निमगेकांतमे जीवितं हृषीकसुखंगळु ॥ ____ आरिमोहनीयकर्मद बिरुवोय्यि सत्त नरकदुःखणंदोळ । गुरियप्पनारकार्गळगरिगट्टिव सायकक्के मरदिईरनं ॥ अरने बुदाउददनानरिवंदमदाउदेंदु चितिसुतिरदों। मरमा तनमनुळिनीनरि रुचिवेरसादिजिनमुखाजोदितमं ॥ तत्वरुचितत्वदरितं सत्वंगळनोउवंदमादोडे दानं। ५ सत्वदोळ पूजे जिननोळु स्वत्वं स्पर्शावलंबिगेउदो म॥ __ अनंतरमेकचत्वारिंशज्जोवस्थानंगळोळु नामकर्मबंधोदयसत्वस्थानंगळं पेळल्वेडि नामनिर्देशमं गाथाद्वदिदं माडिदपरु : णिरया पुण्णा पण्हं बादरसुहमा तहेव पत्तेया । वियलासण्णी सण्णी मणुवा पुण्णा अपुण्णा य ॥५१९॥ सामण्णतित्थकेवलि उहय समुग्यादगा य आहारा । देवावि य पज्जत्ता इदि जीवपदा हु इगिदाला ॥२०॥ नारकाः पूर्णाः पंचानां बादरसूक्ष्माः तथैव प्रत्येकाः। विकला असंज्ञो संज्ञी मानवाः पूर्णा अपूर्णाश्च ॥ सामान्यतीर्थकेवलिनौ उभयसमुद्घातकौ च आहाराः । देवा अपि च पर्याप्ता इति जीव- १५ पदानि खल्वेकचत्वारिंशत् ॥ नारकाः पूर्णाः नारकरुगळेल्लरं पर्याप्तकरुगळु । पंचानां बादरसूक्ष्माः पृथ्विकायिकाप्कायिकतेजस्कायिकवायुकायिकसाधारणवनस्पतिकायिकमें ब पंचस्थावरंगळ बादरसूक्ष्मंगळु तथैव प्रत्येका प्रत्येकवनस्पतिगळं विकलाः द्वौद्रियमुं त्रोंद्रियमं चतुरिद्रिय मुमसंज्ञिपंचेंद्रियमुं संज्ञिपंचेंद्रियमुं मानवाः मानवरुम दितु तिय्यंग्मनुष्यरुगळ भेदद पृथ्वीकायिक बादरादिपदंगळु पदिने पूर्णा. २० पूर्णाश्च पर्याप्तरुगळुमपर्याप्तरुगळुमोळरप्पुरिदं मूवत्तनाल्कु पदंगळप्पुवु । ३४। सामान्यतीर्थकेवलिनी सामान्यकेवलिगळु तीर्थकेवलिगळु उभयसमुद्घातकौ च सामान्यसमुद्घात मोहनीये बंधोदयसत्त्वप्रकृतिस्थानानि क्रमेण दश नव पंचदश भणितानि । इतः परं नामकर्मणस्तानि वक्ष्यामि ॥५१८॥ तदाधारत्वादेकचत्वारिंशत्पदानि तावद्गाथाद्वयेन निर्दिशति नारकाः सर्वे पर्याप्ता एव, पृथ्व्यादयः पंच वादराः सूक्ष्माश्च, तथा प्रत्येकं वनस्पतयः, द्वित्रिचतुरिंद्रियाः २५ इस प्रकार मोहनीयमें दस बन्ध स्थान, नौ उदयस्थान और पन्द्रह सत्त्वस्थान कहे। आगे नामकर्म के कहेंगे ॥५१८।। प्रथम ही नामकर्मके स्थानों के आधारभूत इकतालीस पदोंको दो गाथाओंसे कहते हैं ___ सब नारकी पर्याप्त ही होते हैं । पृथ्वी, अप् , तेज, वायु, साधारण वनस्पतिकायिक ३० ये पाँच बादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक वनस्पति, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी, और मनुष्य ये सतरह पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अतः चौंतीस हुए। सामान्य केवली, क-९८ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ गो० कर्मकाण्डे केवलियुं तीत्यसमुद्घात केवलियुमाहाराः आहारकरुं देवा अपि च देवकळुम बी षट्पदंगळ पर्याप्ताः पर्याप्त रुगळु इति यितु पर्याप्तनारकपदयुतमागि एकचत्वारिंशत् नाल्वत्तोंदु खलु स्फुटमागि जीवपदानि नामकर्मबंधस्थानविवक्षयो कर्मपदंगळप्पुवु । उदयसत्वविवक्षयो जीवपदंगळप्पुवु । अदंते दोर्ड नरकगतिनामकर्ममुं पृथ्वीकायस्थावरविशिष्टबादरैकेंद्रियनाम५ कर्ममुं पृथ्वीकायस्थावरविशिष्ट सूक्ष्मैकेंद्रियनामकर्ममुं अकायस्थावरविशिष्टबादरैकेंद्रिय नामकर्ममुं अप्कायस्थावरविशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियनामकर्ममुं तेजस्कायस्थावर विशिष्टबादरैकेंद्रियनामकर्ममुं तेजस्कायस्थावरविशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियनामकर्ममु वायुकायस्थावर विशिष्टबादरैकेंद्रिय. नामकर्ममुं वायुकायस्थावरविशिष्ट सूक्ष्मैकेंद्रियनामकम्ममुं साधारणस्यावर विशिष्टबादरैकेंद्रिय नामकर्ममुं साधारणस्थावरविशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियनामकर्ममुं अहंगे स्थावरबादरविशिष्टप्रत्येक१० वनस्पत्येकेंद्रियनामकर्ममुमितिवेकेंद्रियत्वनिमित्तकम्मभेदंगळप्पुवु । त्रसविशिष्टद्वींद्रियजातिनामकर्ममुं त्रसविशिष्टत्रोंद्रियजातिनामकम्ममुं त्रसविशिष्टचतुरिद्रियजातिनामकर्ममुं त्रसविशिष्टासंज्ञिपंचेंद्रियजातिनामकर्ममुं त्रसविशिष्टसंजिपंचेंद्रियजातिनामकर्ममुं त्रसविशिष्टमनुष्यगतिनामकर्ममुमें दिनितु पर्याप्तविशिष्टंगळु पृथ्वीकायस्थावरवि. शिष्टबादरैकेंद्रियकर्मपदं मोदल्गो डु पदिनेळं कर्मपदंगळुमपर्याप्तनामकर्मविशिष्टंगळं पदिने छं १५ कर्मपदंगळप्पुवु । १७ ॥ उभयकर्मपदंगळं मूवत्तनाल्कप्पुवु । ३४। केवलिपदचतुष्टयं केवलं असंज्ञिन: संजिनो मानवाश्चैते सप्तदशापि पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, सामान्यकेवलिनस्तीर्थ केवलिनः एते उभये समुद्घातवंतश्च आहारका देवाश्चामी षट् पर्याप्ता एवेत्येकचत्वारिंशत्खलु स्फुटं जीवदानि, नामकर्मबंधस्थानविवक्षया कर्मपदान्युदयसत्त्वविवक्षया जीवपदानि च भवंति । तद्यथा ___ नरकगतिनाम पृथ्वीकायस्थावरविशिष्टबादरैकेंद्रियं तद्विशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियं अप्कायस्थावरविशिष्टवादरैकेंद्रियं तद्विशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियं तेजस्कायस्थावरविशिष्टबादरैकेंद्रियं तद्विशिष्टसूक्ष्मकेंद्रियं वायुकायस्थावरविशिष्टबादरैकेंद्रियं तद्विशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियं, साधारणस्थावरविशिष्टबादरैकेंद्रियं तद्विशिष्टसूक्ष्मैकेंद्रियं स्थावरबादरविशिष्टप्रत्येकवनस्पत्यकेंद्रियमित्येकादश नामकर्माण्यकेंद्रियत्वनिमितानि । त्रसविशिष्टद्वीन्द्रियं, तद्विशिष्टत्रीन्द्रियं, तीर्थकर केवली, और समुद्घातगत सामान्य केवली, समुद्घातगत तीथंकर केवली ये चार, तथा आहारक और देव ये छह पर्याप्त ही हैं। ये इकतालीस जीवपद होते हैं। नामकर्मके २५ बन्धस्थानोंकी विवक्षा होनेपर ये कर्मपद हैं क्योंकि इन प्रकृतिरूप नामकर्मका बन्ध होता है। और उदय तथा सत्त्वकी विवक्षामें ये जीवपद हैं क्योंकि इनका उदय और सत्त्व जीवमें पाया जाता है । वही कहते हैं नरकगति नाम, पृथ्वीकाय स्थावर विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय, पृथ्वीकाय स्थावर विशिष्ट सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अप्काय स्थावर विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय, अप्काय स्थावर विशिष्ट सूक्ष्म ३. एकेन्द्रिय, तेजस्काय स्थावर विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय, तेजस्काय स्थावर विशिष्ट सूक्ष्म एकेन्द्रिय, वायुकाय स्थावर विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय, वायुकाय स्थावर विशिष्ट सूक्ष्म एकेन्द्रिय, साधारण स्थावर विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय, साधारण स्थावर विशिष्ट सूक्ष्म एकेन्द्रिय, स्थावर बादर विशिष्ट प्रत्येक वनस्पति एकेन्द्रिय, ये ग्यारह नामक एकेन्द्रिय निमित्तक हैं, त्रस विशिष्ट दोइन्द्रिय, त्रस विशिष्ट तेइन्द्रिय, त्रस विशिष्ट चौइन्द्रिय, त्रस २० कार4 disi Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिका जोवपदंगळेयप्पुवु । आहारपदमुं जीवपदमेयक्कुपर्व ते बोर्ड -अ - आहारकद्वयं देवगतिनामकम्मंदोडनल्लदन्यगतित्रितयदोडने नियर्मादिदं बंधमागदप्पुवरिदं तद्देवगत्यंतर्भावियक्कुं । पर्याप्तविशिष्टदेवगतिनाम मुमितु पर्याप्त विशिष्टनारकदेवगतिनामकम्र्मद्वयमुं २ ॥ तिथ्यंग्मनुष्यगतिद्वय पर्याप्तापर्याप्त विशिष्टचतुस्त्रिशत्कर्मपदंगळु ३४ । जीवपदं गळु मण्डु कूडि एकचत्वारिंशत्पदं गळवु १४१ | ई नात्वत्तों व पदंगळगे संदृष्टि कूडि षट्त्रिंशत्कम्मंपदंगळप्पुवु । केवलं प अ नि पृबा पू सू आबा | असू | ते। बा ते सू वा बावा सूसा बासासू प्र पृबा पू सू आबा असू ते बा ते सू वा बाबा सूसा बासा।सुप्र ० त्रीं त्रीं अ सं म च अ सं मं साकेत के सास के ति । स के o o अनंतरं नामकर्मप्रकृतिबंधस्थानंगळं पेवपरु : o o तेवीसं पणुवीसं छब्वीसं अट्ठवीसमुगुतीसं । तीसेक्aतीस मेवं एक्को बंधो दु सेढिम्मि ||५२१ ॥ अ ० -: ७७७ २४ त्रयोविंशतिः पंचविंशतिः षड्विशतिरष्टाविंशतिरेकान्नत्रिशस्त्रिशदेकत्रिंशदेवमेको बंधो द्विश्रेण्यां ॥ १७ तद्विशिष्टचतुरिद्रियं तद्विशिष्टासंज्ञिपंचेंद्रियं तद्विशिष्टसंज्ञिपंचेंद्रियं मनुष्यगतिनामेमानि सप्तदशापि पर्याप्तनामविशिष्टानि पर्याप्तपदानि अपर्याप्तनामविशिष्टान्यपर्याप्तपदानि । चत्वारः केवलिनः केवलजीवपदानि आहारकमपि जीवपदं देवगति विनान्यगत्या सह बंधाभावात् तस्यामेव तदंतर्भावात् पर्याप्तविशिष्ट देव गतिनाम | नारदेवगती पदे तिर्यग्मनुष्य गत्योश्चतुस्त्रिशत्पदानि च कर्मपदानि केवलजीवपदानि पंच मिलित्वैकचत्वा रिशत् ।।५१९-५२० ॥ १० विशिष्ट असंज्ञी पंचेन्द्रिय, त्रसविशिष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय और मनुष्यगति नाम । ये सतरह भी पर्यातनाम विशिष्ट होने से पर्याप्तपद हैं और अपर्याप्तनाम विशिष्ट होनेसे अपर्याप्त पद हैं। ये चौंतीस हुए । सामान्य केवली, तीर्थंकर केवली, समुद्घातगत सामान्य केवली, समुद्घातगत तीर्थंकर केवली, ये चार केवली, ये केवल जीवपद हैं। आहारक भी जीवपद हैं; क्योंकि देवगतिके बिना अन्यगति के साथ उसका बन्ध नहीं होता । उसीमें उसका २० अन्तर्भाव होने से पर्याप्त देवगति नाम है । इस तरह नरक देवगति पद दो और तियंच मनुष्यगति चौंतीस पद ये छत्तीस कर्मपद हैं और केवल जीवपद पाँच हैं-चार केवली और आहारक । सब मिलकर इकतालीस पद हैं ।।५१९-५२०।। १५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ गो० कर्मकाण्डे प्रयोविंशतिः त्रयोविंशति प्रकृतिबंधस्थानमुं पंचविंशतिः पंचविशतिप्रकृतिबंधस्थान, पविशतिः षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं अष्टाविंशतिः अष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं एकान्नत्रिंशत् एकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमुं त्रिंशत् त्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमुं एकत्रिंशत् एकत्रिंशत् प्रकृतिबंधस्थानमुं एवं यितेलु नामकर्मप्रकृतिबंधस्थानंगळप्पुवु ।७। एको बंधः एकप्रकृति ६ स्थानबंधं द्विश्रेण्या उभयत्र णियोळे अपूर्वकरणचरमभागप्रथमसमयं मोदल्गोंडु सूक्ष्मसांपराय चरमसमयपय्यंत बंधमकुं। त्रयोविंशत्यादिसप्तबंधस्थानंगळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदगोड पूर्वकरणषष्ठभागपय॑तं यथासंभवमागि मुंदे पेळ्व क्रमदिदं बंधमप्पुवु। ई त्रयोविंशत्यादिबंधस्थानंगळु। अत उद्यो २३ अ अनंतरं ई ये टुं स्थावंगाळतप्पितप्प प्रकृतिगळोडने बंधंगळप्पुवेंदु मुंदण गाथाद्वर्याददं पेळदपरु : नामकर्मबंधस्थानानि त्रयोविंशतिकं पंचविंशतिक षर्विशतिकमष्टाविंशतिकमेकान्नत्रिंशत्कं त्रिंशत्कमेकत्रिशकमेककमित्यष्टौ । आद्यानि सप्तापूर्वकरणषष्ठभागपूयंतं यथासंभवमेककमुभयश्रेण्योरपूर्वकरणसप्तमभागप्रथमसमयात् सूक्ष्मसापरायचरमसमयपयंतं च बध्यते ॥५२॥ तानि केन केन कर्मपदेन यतानि बध्यते इति सूत्रद्वयेनाह नामकर्मके बन्धस्थान तेईस, पच्चीस बीस, ' अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिरूप आठ हैं। उनमें से आदिकै सात अपूर्वकरणके छठे भाग पर्यन्त यथासम्भव होते हैं। एक प्रकृतिरूप स्थान दोनों श्रेणियों में अपूर्वकरणके सातवें भाग प्रथम समयसे. सूक्ष्म साम्परायके अन्त समय पर्यन्त धता है ॥५२१।। ये बन्धस्थान किस-किस कर्मपद सहित बधते हैं। यह दो गाथाओंसे कहते हैं . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७७९ ठाणमपुण्णेण जुदं पुण्णेण य उवरि पुण्णगणेव । तावदुगाणण्णदरेणण्णदरेणमरणिरयाणं ॥५२२॥ णिरयेण विणा तिण्हं एक्कदरेणेवमेव सुरगइणा। बंधति विणा गइणा जीवा तज्जोग्गपरिणामा ॥५२३॥ स्थानमपूर्णेन युतं पूर्णेन च उपरि पूर्णकेनैव । जातपद्विकयोरन्यतरेणान्यतरेणामरनरकयोः॥ ९ नरकेण विमा त्रयाणामेकतरेणैवमेव सुरगत्या। बघ्नति विना गत्या जीवास्तद्योग्य. परिणामाः॥ त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमं अपूर्णेन युतं अपर्याप्तनामकर्मयुतमागियुं पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमा पूर्णेन च पर्याप्तनामकम्प्रंयुतमागियुच शब्ददिवं अपर्याप्तनामकर्मयुतमागियु उपरिपूर्णकेनैव षड्विंशतिप्रकृतिस्थानं मोदगोडु मेलेल्ला बंधस्थानंगळुमं पर्याप्तनामकर्मदोडनेयु १० पविशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं आतपद्विकयोरन्यतरेण आतपोद्योतंगळे रडरोळन्यतरप्रकृतियुमागियु अष्टाविंशति प्रकृतिबंधस्थानमं अन्यतरेणामरनरकयोः देवगतिनरकगतिनामकम्मंगळे रडरोळन्यतर' . प्रकृतियुतमागियु एकात्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमं नरकेण विना त्रयाणामेकतरेण नरकगतिनामकम्मरहितमागि शेषतिर्यग्मनुष्यदेवगतित्रयंगळोळगेकतरप्रकृतियुतमागियु त्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानम एवमेव मुंपळवंत नरकगतिनामकम्म पोरमागि तिर्यग्मनुष्यदेवगतिप्रकृतित्रितयंगळोळे. १५ . कतरप्रकृतियुतमागियु एकत्रिंशत्प्रकृतिबंधश्थानमं सुरगत्या देवगतिनामकर्मयुतमागियु विना गत्या एकप्रकृतिबंधस्थानमनाव गतियुतमल्लवेयु जीवाः जोवंगळु तद्योग्यपरिणामाः तत्तद्योग्याः तधोग्याः तद्योग्या परिणामाः येषां ते जीवास्तद्योग्यपरिणामाः तत्तत्प्रकृतिबंधकारणयोग्य. परिणामंगळनुवु बध्नति कटुवउ। संदृष्टि मुंपेन्दुदेयकुं। प्रयोविंशतिक अपर्याप्तेन युतं । पंचविंशतिक पर्याप्तेन युतं । चशब्दादपर्याप्तेन युतं च । उपरितनानि २० षड्विंशतिकादीनि पर्याप्तेन युतान्यपि षड्विंशतिक आतपोद्योतान्यतरेण युतं । अष्टाविंशतिकं देवगतिनरकगत्यन्यतरेण युतं । एकान्नविंशत्कं त्रिंशत्कं च तिर्यगादिगतित्रयान्यतमेन युतं । एकत्रिंशत्कं देवगत्या युतं । एकैकं कयापि गत्या युतं न भवति । एतानि स्थानानि जीवाः तत्तत्स्थानबंधयोग्यपरिणामाः संतो बंध्नंति ॥५२२-५२३॥ तो चातपोद्योती प्रशस्तत्वात्केन पदेन सह बघ्नंतीति चेदाह तेईस प्रकृतिरूप स्थान अपर्याप्त प्रकृतिके साथ बँधता है। पच्चीसरूप स्थान पर्याप्त- २५ प्रकृति के साथं बँधता है।"च' शब्दसे अपर्याप्त सहित भी बँधता है। ऊपरके छब्बीस आदि स्थान पर्याप्त सहित बँधते हैं। उच्चीसरूप स्थान आतप और उद्योतमें से किसी एक प्रकृति सहित बँधता है। अठाईस प्रकृतिक स्थान देवगति, नरकगतिमें-से किसी एक गतिके साथ बंधता है। उनतीस और तीस प्रकृतिरूप स्थान तियंचगति आदि तीन गतियों में से किसी एक गतिके साथ बँधता है। इकतीस प्रकृतिरूप स्थान देवगतिके साथ बंधता है। एक ३० प्रकृतिरूप स्थान किसी भी गतिके साथ नहीं बँधतां। इन स्थानोंको जीव उस-उस स्थानके योग्य परिणाम होनेपर बांधते हैं ॥५२९-५२३॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० गो० कर्मकाण्डे अनंतरमातपनामकम्ममुद्योतनामकर्ममुं प्रशस्तविशेषप्रकृतिगळप्पुरिदं बंधकालदोळावाव कर्मपदयुतमागि बंधमकुम दोडे पेळ्दपरु : भूबादरपज्जत्तेणादावं बंधजोग्गमुज्जोवं । तेउतिगूणतिरिक्खपसत्थाणं एगदरगेण ॥२४॥ भूबादरपर्याप्तेनातपो बंधयोग्यः उद्योतः। तेजस्त्रिकोनतिर्यक्प्रशस्तानामेकतरेण ॥ भूबादरपर्याप्तेन पृथ्विकायबादरपर्याप्तकम्मपददोडने आतपो बंधयोग्यः आतपनामकर्म बंधयोग्यम। मन्य कर्मपदंगळोळेल्लियं बंधमिल्लेंब नियम मुंटप्पुदरिदं । उद्योतः उद्योतनाम. कर्म तेजस्त्रिकोनतिर्यक्प्रशस्तानामेकतरेण बंधयोग्यः तेजस्कायवायुकायसाधारणवनस्पतिकायं. गळ बादरमुमं सूक्ष्मममनन्य कर्मपदंगळ सूक्ष्मंगळुमप्रशस्तंग ठप्पुदरिंदमउ सहितमागि बिटु १. शेषतिग्यचरुगळ संबंधि बादरपर्याप्ताविप्रशस्तकर्मपदंगळ मध्यदोळेकतर कर्मपददोडने बंष. योग्यमक्कुमदु कारणमागि पृथ्वीकायबावरपर्याप्तकर्मपददोडने आतपनामकर्मयुत षड्विशति प्रकृतिबंधस्थानमुमुद्योतनामकर्मयुत ड्वशतिप्रकृतिबंधास्थानंगळे रडुं संभविसुववु । अप्कायबावरपर्याप्तकर्मपददोडनुद्योतनामकर्मयुतड्विशतिप्रकृतिबंधस्थान, संभविसुवुदु । प्रत्येकवनस्पति कायपर्याप्तकर्मपददोडनेयुमुद्योतनामकर्मयुत षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थानसंभवमकुं। द्वींद्रिय. १५ त्रीद्रियचतुरिद्रिय असंजिपंचेंद्रिय संशिपंचेंद्रिय कर्मबंधपदंगळोडनुयोतयुतत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थान संभवमक्कुमितु तिर्यक्प्रशस्तकर्मपदंगळ मध्यदोळे कतरकर्मपददोडने बंधमागुत्तिरछेटु कर्मपदंगळोळुद्योतनामकम्म बंधयोग्यमक्कु ।। पृथ्वीकायबादरपर्याप्तनातपः बंधयोग्यो नान्येन । उद्योतस्तेजोवातसाधारणवनस्पतिसंबंधिबादरसूक्ष्माण्यन्यसंबंधिसूक्ष्माणि च अप्रशस्तत्वात् त्यक्त्वा शेषतिर्यसंबंधिबादरपर्याप्तादिप्रशस्तानामन्यतरेण बंधयोग्यः, २. ततः पृथ्वी कायबादरपर्याप्तेनातपोद्योतान्यतरयुतं, बादराकायपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयोरन्यतरेणोद्योतयुतं च षड्विंशतिक, द्वींद्रियत्रींद्रियचरिद्रियासंज्ञिपंचेद्रियासंज्ञिपंचेद्रियकर्मान्यतरेणोद्योतयतं त्रिशत्कं च भवति ॥५२४॥ आतप और उद्योत प्रशस्त प्रकृति होनेसे किस पदके साथ बँधती हैं यह कहते हैं आतप प्रकृति पृथ्वीकाय बादर पर्याप्त के साथ ही बन्धयोग्य है, अन्यके साथ उसका २५ बन्ध नहीं होता। तेजस्काय, वायुकाय और साधारण वनस्पति सम्बन्धी बादर सूक्ष्म तथा अन्य सम्बन्धी सूक्ष्म ये सब अप्रशस्त हैं। अतः इन्हें छोड़कर शेष तिर्यच सम्बन्धी बादर पर्याप्त आदि प्रशस्त प्रकृतियों में से किसी एकके साथ उद्योत प्रकृति बन्धयोग्य है। अत: पृथ्वीकाय बादर पर्याप्त सहित आतप उद्योतमें-से किसी एकके साथ छब्बीस प्रकृतिरूप स्थान होता है। अथवा बादर अप्कायिक पर्याप्त, प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त में से किसी एकके १. साथ उद्योत प्रकृति सहित छब्बीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान होता है। दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय में से किसी एक प्रकृति सहित तथा उद्योत प्रकृति सहित तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान होता है ॥५२४॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७८१ अनंतरं तीर्थकरनाममुमाहारकद्वय, प्रशस्तविशेषप्रकृतिगळप्पुरिदमिवावकर्मपददोडनेबंधंगळप्पुव दोडे पेळ्दपरु : णरगइणामरगइणा तित्थं देवेण हारमुभयं च । संजदबंधट्ठाणं इदराहि गईहि णत्थि त्ति ॥५२५॥ नरकगत्यामरगत्या तीत्यं देवेनाहारमुभयं च। संयतबंधस्थानमितराभिगतिभिन्नाः ५ स्तीति ॥ नरगत्या सह मनुष्यगतिनामकर्म पददोडनयुं अमरगत्या सह देवगतिनामकर्मपददोडनयुं तीर्थ केवलं तोत्थंकरनामकम्ममं बध्नति जोवाः एंबिदध्याहार्यमक्कुं। असंयताविचतुर्गुणस्थानवत्तिगळु देवक्र्कळं नारकरूं मनुष्यगतिनामकर्मपददोडने कटुवरु । मनुष्यरुगळु देवगतिनामकर्मपददोडने कटुवरु। देवेन देवगत्या सहैव देवगतिनामकर्मपददोडनेये तीर्थरहितमागि १० केवलमाहारकद्वयमनप्रमत्तसंयतरे कटुवरु। उभयं च तीर्थकरनामकम्ममुमनाहारकद्वयमुमनंतुभयमुमं देवगत्या सहैव देवगतिनामकर्मपददोडनये बध्नंति अप्रमत्तसंयतरे कटुवरितरगतित्रयकर्मपददोडने केवलमाहारकद्वयमुमं तोहारकोभय मुमं कटुवरल्लरेक दोडे संयतबंधस्थानं अप्रमत्तसंयतरु कटुव केवलमाहारकद्वययुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थान मुमं तीर्थाहारोभययुतमेकत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानमुमं देवगतिनामकर्मपददोडनेये कटुवरप्पुरिदं । इतराभिगतिभिः इतरगति- १५ प्रयकर्मपददोडने नास्ति बंधमिल्ल दु इति यितु पेळल्पटुदु। अदु कारगमागि तीर्थयुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमं मनुष्यगतिनामकर्मपददोडनसंयतदेवनारकरगळ कटुवर दरियल्पडुगुं। तीर्था. हारद्वययुतैकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमनप्रमत्तापूर्वकरणषष्ठभागपय्यंतमावसंयतरुगळु देवगति नामकर्मपददोडनये कटुवरेंवरियल्पडुगु । मनंतरमा त्रयोविंशत्याधष्टनामकर्मप्रकृतिबंधस्थानंगळ प्रकृतिसंख्यानिमित्तमप्प नामकर्म प्रकृतिपाठक्रममं गाथात्रयदिदं पेळ्वपरु : २० तीर्थाहाराणां प्रशस्तविशेषत्वात् तीथं मनुष्यगत्यैवासंयतदेवनारकाः देवगत्यवासयतादिचतुर्गुणस्थानवतिमनुष्याश्च बध्नति । आहारकद्वयं तीर्थाहारकोभयं च देवगत्यैव बध्नति । कुतः? संयतबंधस्थानमितराभिर्गतिभिर्न बध्नातीति कारणात् । अनेन सूत्रेणैते देवनारका मनुष्यगतित्रिंशत्कमेते मनुष्याः देवगतिनवविशतिकं, अप्रमत्तापूर्वकरणषष्ठभागांतं देवगतियुते आहारकद्वयत्रिंशत्कतीर्थाहारोभयकत्रिंशत्के च बध्नंतीत्युक्तं तीर्थकर और आहारक विशेष प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। अतः तीर्थकरको असंयत देव नारकी तो मनुष्यगति सहित ही बाँधते हैं। और असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य देवगति सहित ही बाँधते हैं । आहारकद्विक तथा तीर्थकर और आहारकद्विक देवगतिके साथ ही बाँधते हैं। क्योंकि संयतके योग्य बन्धस्थान अन्य गतियों के साथ नहीं बँधते हैं। इसी गाथासूत्रसे यह बात कही गयी जानना कि असंयत देव नारकी मनुष्यगति सहित तीस प्रकतिरूप स्थानको और मनुष्य देवगति सहित उनतीस प्रकृतिरूप स्थानको तीर्थकर सहित ही बांधते हैं। तथा अप्रमत्तसे अपूर्वकरणके छठे भागपर्यन्त देवगतिके साथ आहारकद्विक सहित तीसको तथा तीर्थकर आहारकद्विक सहित इकतीस प्रकृतिक स्थानको बाँधते हैं ॥५२५॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ गो० कर्मकाण्डे णामस्स णव धुवाणि य सरूणतसजुम्मगाणमेक्कदरं। गइजाइदेहसंठाणाणूणेक्कं च सामण्णा ॥५२६॥ नाम्नो नवध्रुवाश्च स्वरोनत्रसयुग्मानामेकतरं । गतिजातिदेहसंस्थानानुपूठाणामेकतरं तु सामान्या:॥ तसबंधेण य संहदि अंगोवंगाणमेगदरगं तु । तप्पुण्णेण य सरगमणाणं पुण एगदरगं तु ॥५२७॥ असबंधेन च संहननांगोपांगानामेकतरं तु । तत्पूर्णेन च स्वरगमनानां पुनरेकतरं तु ॥ पुण्णेण समं सव्वेणुस्सासो णियमसा दु परघादो। जोग्गट्ठाणे तावं उज्जोवं तित्थमाहारं ॥५२८॥ पूर्णेन समं सर्वेणोच्छ्वासो नियमतस्तु परघातः। योग्यस्थाने आतपः उद्योतस्तीत्थंमाहाराः । यितु गाथात्रयं ॥ नाम्नो नव ध्रुवाः नामकर्मद तैजसकार्मणशरीरद्वयमुं अगुरुलघूपघातद्वयमुं निर्माणनामकम्ममुं वर्णचतुष्क मुमेब नत्र ध्रुवप्रकृतिगळं स्वरोंनत्रसयुग्मानामेकतरं सुस्वर दुःस्वरयुग्मरहित माद 'त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकशरीरस्थिरशुभपुभगादेययशस्कोतितदितरयुतनवयुग्मंगोलो टुं १५ गतिजातिदेहसंस्थानानुपूयाणामेकतरं तु गतिचतुष्कजातिपंचकदेहत्रयसंस्थानषट्क आनुपूठव्यं चतुष्कर्म बी पिंडप्रकृतिगळोळों दो दु। इंती त्रयोविंशति प्रकृतिगल सामान्याः सामान्याः साधारणप्रकृतिगठप्पुवु । ई त्रयोविंशतिप्रकृतिगळ मेले यथायोग्यमागियुत्तर वक्ष्यमाणप्रकृतिगळ भवति ॥५२५॥ अथ त्रयोविंशतिकादीनां प्रकृतिसंख्यानिमित्तं तत्पाठक्रम गाथात्रयेणाह __नामकर्मणः तैजसकार्मणागुरुलघूपधातनिर्माणवर्णचतुष्काणीति ध्र वप्रकृतयो नव । स्वरयुग्मोनत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगादेययशस्कोतियुग्मानामेकैकेत्यपि नव चतुर्गतिपंच जातिविदेहषट्संस्थानचतुरानुपूानामेकैकेति पंच मिलित्वा त्रयोविंशतिः सामान्याः साधारणाः । तु-पुनः चशब्दद्वयमत्रावधारणाथं तेन प्रसा २० पयसिप आगे तेईस आदि स्थानोंकी प्रकृतियाँ जानने के लिये तीन गाथाओंसे उन प्रकृतियोंका पाठक्रम कहते हैं नामकर्मकी तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्णादि चार ये नौ ध्रुवबन्धी, २५ इनका बन्ध सब जीवोंके निरन्तर होता रहता है, तथा स्वरके युगल बिना त्रस, बादर, 'पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, यश-कीर्तिके युगलोंमें-से एक-एक, ये भी नौ हुई। चार गति, पाँच जाति, तीन शरीर, छह संस्थान, चार आनुपूर्वी, इनमें से भी एक-एकका बन्ध १. मदो दु मु०। २. त्रयोविंशतिप्रकृत्यपेक्षेयिं स्थावर मेंबुदर्थ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७८३ पाञ्च पच्चि स्थानाष्टक प्रकृतिसंयेगळप्पुवपुर्दारवं । त्रसबंधेन च संहननांगोपांगानामेकतरं तु । तु मर्त्त त्रसनामकर्मबंध दोडने संहननषट्क अंगोपांगत्रयंगळो वो 'दुं तत्पूर्णेन च तत्त्रसपय्र्याप्तंगळोडने स्वरगमनानां पुनरेकतरं तु सुस्वरदुःस्वर प्रशस्ताप्तशस्तविहायोगतिगळे व द्विकद्वयंगळो वो बुं च शब्दंगळे रडुमवधारणात्थंगळप्पुवपुदरिदं त्रसापर्य्याप्तनामकर्म्मदोडनेयुं सपर्याप्तनामकदोडर्नयुं संहननांगोपांगंगळ बंधयोग्यंगळवु । त्रसपर्य्याप्तनामकम्र्म्मदोडनेये स्वरविहायोगतिनाम मंगळ बंधयोग्यंगळपुर्व बुदत्थं । पूर्णेन समं सर्व्वेणोच्छ्वासो नियमात्परघातः पर्याप्रनामकर्मदोडनेये सर्वेण सस्थावरंगळोडने नियमदिदमुच्छ्वासमुं परघातनामकर्ममुं बंषयोग्यमप्पुवु । योग्यस्थाने आतप उद्योतस्तीर्थमाहाराः योग्यमप्प नामकम्मैपददोळे आतपनामकम्मु मुद्योतनामकर्ममु तीर्थमुमाहार कंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । ई प्रकृति पाठक्के संदृष्टिरचनेः त्र । प २२११४ २ २ २ | आनिश्व बा प प्र शु सु|आज गाजा दे। संय आप परि २ २ २ २ २ ४/५/३/६४ सं|६|अं ३ स्व२ वि २ उप आ उ तो अ १११११ १ प ९ अ ना १ १ १ १ १ १ १११ स्था २८ २६ १ ८ पुबा पुसू आबा आसू ते। बा ते।सू बा बा वा | सूसा | बासा | सू प्र २५ ८ २५ २५ ४ २३ | २३ १ १ १११११ १ १ २५ १ १ बी २५ २५ | २५ | २५ | २५ २५ २६ ३० ८ ४ ८ ४ ४ ४ ८ ८ २३ २३ २३ २३ २३ २३ २३ १ १ १ १ १ १ १ २५ २३ | २३ १ १ १० पर्याप्तत्र सपर्याप्तयोरन्यतरबंधेनैव षट्संहननानां त्र्यंगोपांगानां चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन पुनः सपर्याप्त बंधेनैव सुस्वरदुःस्वरयोः प्रशस्ताप्रशस्त विहायोगत्योश्चैकतरं बंधयोग्यं नान्येन तु पुनः पर्याप्तेनैव समं वर्तमान सर्वत्र त्रस स्थावराभ्यां नियमादुच्छ्वासपरघाती बंधयोग्यो नान्येन, तु-पुनः योग्यनामपदे एवातपनामोद्योतनामतीर्थकर - १ होता है । ये पांच मिलकर तेईस प्रकृति सामान्य हैं । इनका बन्ध सब जीवोंके होता है । गाथा में आये दो 'च' शब्द अवधारण के लिए हैं । अतः त्रस अपर्याप्त और त्रस पर्याप्तमें- से किसी एक सहित छह संहनन और तीन अंगोपांगमें से एक-एक बन्धयोग्य है, अन्यके साथ नहीं । पुनः सपर्याप्तके बन्धके साथ ही सुस्वर, दुःस्वर और प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति में से एक-एक बन्ध योग्य है, अन्यके साथ नहीं । पुनः पर्याप्त के साथ ही वर्तमान सर्व त्रस-स्थावरके साथ नियमसे उच्छ्वास परघात बन्धयोग्य हैं अन्यके साथ नहीं । पुनः १५ क- ९९ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ गो० कर्मकाण्डे | असं म साके ती|के सास वीस अदे | २९ ३० ३०/----- ३०/३११२९/२८१ ११ १८८१ २९ २९ | २९ ४६०८४६०८ तित्थेणाहारदुर्ग एक्कसराहेण बंधमेदीदी । पक्खित्ते ठाणाणं पयडीणं होदि परिसंखा ।।५२९।। तोनाहारकद्विकं युगपबंधमेतीति । प्रक्षिप्ते स्थानानां प्रकृतीनां भवति परिसंख्या ॥ तीर्थदोडनाहारकद्वयं युगपबंधमनेय्दुगुम दितु सामान्यत्रयोविंशति प्रकृतिगळ मेले योग्य५ प्रकृतिगळं प्रक्षेपिसुत्तं विरलु स्थानंगळ संख्येयं प्रकृतिगळ संख्ययुमक्कुमदेतेंदोर्ड गाथाद्वर्यादिदं पेदपरु : एयक्ख अपज्जत्तं इगिपज्जत्तबितिचपणराऽपज्जत्तं । एइंदियपज्जत्तं सुरणिरयगईहि संजुत्तं ॥५३०॥ एकेंद्रियापर्याप्तं एकेन्द्रियपर्याप्त बिति च प नरापर्याप्नं । एकेंद्रियपर्याप्तं सुरनरक१० गतिभ्यां संयुक्तं ॥ पज्जत्तगबिदिचप-मणुस्स-देवगदिसंजुदाणि दोणि पुणो । सुरगइजुदमगइजुदं बंधट्टाणाणि णामस्स ॥५३१॥ पर्याप्तक बितिचप मनुष्यदेवगतिसंयते द्वे पुनः । सुरगतियुतमगतियुतं बंधस्थानानि नाम्नः॥ १५ माहारकद्वयं च बंधयोग्यं भवति ॥५२६-५२८॥ तीर्थेन सहाहारकद्वयं युगपद् बंधमेति तेन सामान्यत्रयोविंशती योग्यप्रकृतिप्रक्षेपे स्थानसंख्या प्रकृतिसंख्या च स्यात् ॥५२९॥ तामेव गाथाद्वयेनाहयोग्य नामपदमें ही आतपनाम, उद्योतनाम, तीर्थंकर और आहारकद्विक बन्धयोग्य हैं ।।५२६-५२८॥ तीर्थकरके साथ आहारद्विकका भी एक साथ बन्ध होता है। अतः पूर्वोक्त सामान्य तेईस प्रकृतियोंके बन्धमें यथायोग्य प्रकृतियाँ मिलानेपर स्थानोंकी और प्रकृतियोंकी संख्या होती है ।।५२९ोगाथाओंसे कहते हैं Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७८५ एकेंद्रियार्थ्याप्तं नामबंध स्थान प्रकृति संख्या हेतु पूर्वोक्त "णामस्स णव धुवाणि य" इत्यादि पाठक्रमवोळु नामकर्मनव ध्रुवप्रकृत्याद्यानुपूर्व्यावसानमाद यथायोग्यत्रयोविंशतिप्रकृतिबंघस्थानं स्थावरापर्याप्ततियंग्गत्ये केंद्रियचतुः प्रकृतियुतबंधस्थानमप्पुरमे केंद्रियापर्य्याप्तयुतबंधस्थानमेवकुं | २३ || अ | पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानं एकेंद्रियपय्यप्तिक | बितिच पनरापय्र्याप्तं । एकेद्रियपय्र्याप्तयुतमागियु द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय मनुष्यापर्य्याप्त युतबंधस्थानमु- ५ मक्कुम' तें दोर्ड एकेंद्रियापर्य्याप्तयुक्तत्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानदो अपर्याप्तनाममं कळवु पर्याप्तोच्छ्वासपरघातत्रयमं कूडिदोडी पंचविशतिप्रकृतिबंधस्थानमेकेंद्रियपर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । मत्तमा पंचविंशतिप्रकृतिस्थानवोळु स्थावरपर्याप्तैकेंद्रियोच्छ्वास परघातंगळे 'ब पंचप्रकृतिगळं कळेदु त्रसापर्य्याप्तद्वींद्रियसंहननांगोपांगंगळे व पंचप्रकृतिगळं कूडिदोडी पंचविशतिप्रकृतिबंधस्थानं द्वींद्रियापर्य्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । मल्लि द्वींद्रियजातिनाममं तेगदु त्रींद्रियजातिनाममं कूडिदोडी १० पंचविशति प्रकृतिबंध स्थानं त्रींद्रियापर्य्याप्त युतबंधस्थानमक्कु । मल्लि त्रींद्रियजातिनाममं कळेदु चतुरिद्रियजातिनाममं कूडिदोडी पंचविशति प्रकृतिबंधस्थानं चतुरिद्रियापर्य्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । मल्लि चतुरिद्रियजातिनाममं कळेदु पंचेंद्रियजातिनाममं कूडियोडी पंचविशति प्रकृतिबंधस्थानं पंचेंद्रियपर्याप्ततबंधस्थानमक्कु । मल्लि तिर्य्यग्गतिनाममं कळेटु मनुष्यगतिनाममं कूडिदोडी पंचविंशति तन्नवध वाद्यानुपूर्व्यातप्रकृतिबंध त्रयोविंशतिकं । स्थावरापर्याप्त तिर्यग्गत्ये केंद्रिययुतं तदेकेंद्रियापर्याप्तयुतं १५ २३ ए अ । तत्रापर्याप्तमपनीय पर्याप्तोच्छ्वासपरघातेषु निक्षिप्तेषु पंचविशतिकमेकेंद्रियपर्याप्तयुतं । पुनः १ स्थावरपर्याप्तैकेंद्रियोच्छ्वास वरघातान् पंचापनीय सपर्याप्तद्वींद्रियसंहननांगोपांगेषु पंचसु निक्षिप्तेषु तद्वद्रियापर्याप्तयुतं पुनः द्वींद्रियमपनीय श्रींद्रिये निक्षिप्ते तत्त्रींद्रियापर्याप्तयुतं पुनः त्रींद्रियमपनीय चतुरिद्रिये निक्षिप्ते तच्चतुरिद्रियापर्याप्तयुतं पुनः चतुरिंद्रियमपनीय पंचेंद्रिये निक्षिप्ते तत्पंचेंद्रियापर्याप्तयुतं । पुनः २० नामकर्म एक जीव एक समय में बन्धयोग्य बन्धस्थान कहते हैं पूर्वोक्त नौ ध्रुवबन्धी आदि आनुपूर्वी पर्यन्त तेईस प्रकृतियाँ। इनमें से स्थावर, अपर्याप्त, तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति सहित जो बन्ध है वह एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित तेईसका बन्धस्थान है । २३ ए. अ. । इसमें अपर्याप्त प्रकृति घटाकर पर्याप्त, उच्छ्वास, परघात १ मिलानेपर एकेन्द्रिय पर्याप्तयुत पच्चीसका बन्धस्थान होता है । इनमें से स्थावर, पर्याप्त, २५ एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, परघात इन पाँचको घटाकर त्रस अपर्याप्त, दो इन्द्रिय जाति, पाटिका संहनन, औदारिक अंगोपांग मिलानेपर दो-इन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान होता है । इनमें से दोइन्द्रिय जाति घटाकर तेइन्द्रिय जाति मिलानेपर तेइन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीसका बन्धस्थान होता है। इनमें से तेइन्द्रिय जाति घटाकर चौइन्द्रिय जाति मिलाने पर चौइन्द्रिय जाति सहित पच्चीसका स्थान होता है । इनमें से चौइन्द्रिय ३० जाति घटाकर पंचेन्द्रिय जाति मिलानेपर पंचेन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान होता है । इनमें से तियंचगवि घटाकर मनुष्यगति मिलानेपर मनुष्य अपर्याप्तयुत पच्चीसका स्थान होता है। ऐसे पच्चीस प्रकृतिरूप छह बन्धस्थान हुए । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे प्रकृतिबंधस्थानं मनुष्यापर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । २५ । ए। प | बिति च प म । अ । मी मनुष्या पर्याप्त पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानद मेलण षविशति प्रकृतिबंधस्थानं एकेंद्रियपर्याप्तं एकेंद्रियपर्याप्तयुतमे यक्कु में तें दोर्ड मनुष्यापर्याप्तयुत पंचविशति प्रकृतिस्थानदो त्रासापर्य्याप्त मनुष्यगतिपंचेंद्रिय जातिसंहननांगोपांगगळे व षट्प्रकृतिगळं कळेदु स्थावरपर्याप्ततियग्गति५ एकेंद्रियजाति उच्छ्वासपरघातगळेब षट्प्रकृतिगळुमनातपनाम मुमनतेचं प्रकृतिगळं कूडिदोडी षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थान मेकेंद्रियपर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । मल्लि आतपनाममं कळेदुद्योतनाममं कूडिदोडी षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थान मुमे केंद्रियपर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । २६ । ए । प । मी एकेंद्रियपर्याप्तयुत षड्वंशतिप्रकृतिबंधस्थानद मेलणष्टाविंशतिद्रकृतिबंधस्थानं सुरनरकगतिभ्यां संयुक्तं देवगतिनरकगतिगोळदं कूडि उदय कुमदें तें दोडे तैजसद्विकमुमगुरुलघुद्विकमुं १० वर्णचतुष्कर्मु निर्माणनाममुमें ब नव ध्रुवबंधप्रकृतिगळु त्रसबदरपर्याप्त प्रत्येकशरी रंगलं स्थिरास्थि रंगळोळेकतरमुमं शुभाशुभंगळोळेकतरमुं सुभगमुमादेयमुं यशस्कीर्त्ययशस्कीतिगोळेकतरमुं देवगतियुं पंचेंद्रियजातियुं वैक्रियिकशरीरमुं प्रथमसंस्थानमुं देवगत्यानुपूळ मुं वैशिरांगोपांग सुस्वरमं प्रशस्त विहायोगतियुमुच्छ्वासमु परघातमुमितु देवगतियुताष्टाविशतिप्रकृतिबंधस्थानमकुं । मत्तं नव ध्रुवबंधप्रकृतिगळे त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकशरीरास्थिरा १५ शुभदुब्र्भगानादेयायशस्कीत्तिनरकगतिपंचेंद्रियजातिवेक्रियिकशरी रहुंड संस्थान नरकगत्यानुपूव्यं ७८६ तिर्यग्गतिमपनीय मनुष्यगतौ निक्षिप्तायां तन्मनुष्यापर्याप्तयुतं २५ ए प विति च प म अ । तत्र सापर्याप्तमनुष्यगतिपंचेंद्रिय संहननांगोपांगानि षडपनीयस्थावर पर्याप्त तिर्यग्गत्ये केंद्रियोच्छ्वासपरघातेषु षट्स्वातपे च निक्षिप्तेषु षड्विंशतिक मे केंद्रियपर्याप्तयुतं । पुनः आतपमपनीयोद्योते निक्षिप्तेऽपि तदेव २६ ए प । अष्टाविशतिकं तु नवध्रुवत्रसवादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिर स्थिरैकतरशुभाशुभ कत र सुभगा देययशस्कीर्त्य यशस्कीर्त्ये कतर देव२० गतिपंचेंद्रियवै क्रियिकप्रथमसंस्थान देवगत्यानुपूर्व्यवैक्रियिकांगोपांग सुस्वरप्रशस्त विहायोगत्युच्छ्वास परघातं तद्देवगतियुतं नवध वत्र सबादरपर्याप्तप्रत्येकास्थिरा शुभदुर्भगानादेयायशस्कीतिनरकगतिपचेंद्रियवै क्रियिकशरीर हुंडर्सस्थाननरकगत्यानुपूर्व्यवैक्रियिकांगोपांगदुःस्व राप्रशस्त विहायोगत्युच्छ्वासपरघातं तन्नरकगतियुतं २८ देनि । फिर मनुष्यगति सहित पच्चीसके स्थानमें त्रस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, पाटिका संहनन, औदारिक अंगोपांग ये छह प्रकृतियाँ घटाकर स्थावर, पर्याप्त, २५ तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, उच्छवास, परघात, और आपको मिलानेपर एकेन्द्रिय पर्याप्तयुत छब्बीसका स्थान होता है । इनमें से आतप घटाकर उद्योत मिलानेपर भी एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित छब्बीसका बन्धस्थान होता है । इस तरह छब्बीस प्रकृतिरूप दो स्थान हुए । आगे अठाईस प्रकृतिरूप स्थान कहते हैं ध्रुवबन्धी, त्र, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर - अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से ३० एक, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, अयशःकीर्ति में से एक। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, प्रथम संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, परघात इन अट्ठाईसरूप देवगति सहित अठाईसका बन्धस्थान होता है । पुनः ध्रुवबन्धी, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका वैक्रियिकशरीरांगोपांग दुःस्वराप्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वास परघातगळेदी नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमक्कु । २८ । दे । नि॥ अल्लिद मेलण एकानत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमु त्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमुमबी द्वे येरडु स्थानंगळु पर्याप्तक बिति च प मनुष्यदेवगतिसंयुते पर्याप्तक द्वींद्रिय त्रौंद्रियचतुरिंद्रिय पंचेंद्रियजातिमनुष्यगतिदेवगतियुतबंधस्थानंगळप्पुवुदे ते दोडे नर्वध्र वबंधप्रकृतिगळु त्रसबादर- ५ पर्याप्त प्रत्येकशरीरं स्थिरास्थिरंगळोळेकतरमुं शुभाशुभंगळोळे कतर मुं दुर्भगमुमनादेय, यशस्कीय॑यशस्कीतिगळोळेकतर{ तिर्यग्गतियु द्वींद्रियजातियु औदारिकशरीरमु हुंडसंस्थानमुं तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यमुमसंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुमौदारिकांगोपांगमु दुःस्वरमुमप्रशस्तविहायोगतियुमुच्छ्वासमं परघातमुम बिवु पर्याप्तद्वींद्रिययुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लि द्वौद्रियजातिनाममं कळेदु त्रींद्रियजातियं कूडुत्तं विरलदु पर्याप्तत्रोंद्रियजातिनामयुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृति- १० बंधस्थानमक्कुमल्लि त्रींद्रियजातिनाममं कळेदु चतुरिंद्रियजातिनाममं कूडुत्तं विरलदु पर्याप्त. चतुरिंद्रियजातिनामकर्मयुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लि चतुरिंद्रियजातिनाममं कळेदु पंचेंद्रियजातिनाममं कूडुत्तं विरलदु पर्याप्तपंचेंद्रियजातियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमा एकान्नत्रिंशत्कं च नवध्र वत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरैकतरशुभाशुभै कतरदुर्भगानादेययशस्कीय॑यशस्कीत्यैकतरतिर्यग्गतिद्वींद्रियौदारिकशरीरहुंडसंस्थानतिर्यग्गत्यानु सिंप्राप्तासृपाटिकोदारिकांगोपांगदुःस्वराप्रशस्त - १५ विहायोगत्युच्छ्वासपरघातं तस्य द्वींद्रिययुतं । तत्र द्वीद्रियमपनीय त्रींद्रिये निक्षिप्ते तत्पर्याप्तत्रींद्रिययुतं । पुनः त्रींद्रियमपनीय चतुरिद्रिये निक्षिप्ते तत्पर्याप्त चतुरिंद्रिययुतं । पुनः चतुरिंद्रियमपनीय पंचेंद्रिये निक्षिप्ते तत्पर्याप्तपंचेंद्रिययुतं । अत्र स्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगदुर्भगादेयानादेययशस्कीय॑यशस्कोतिषट्संस्थानषट्संहननसुस्वरदुःस्वरप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्येकतरमिति विशेषः । तत्र तिर्यग्गतितदानुपूर्ये अपनीय मनुष्यगतितदानुनरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, हुण्डक संस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, वक्रियिक २, अंगोपांग, दुःस्वर, अप्रशस्त विहायोगति, उच्छवास, परघात ये नरकगति सहित अट्ठाईसका बन्धस्थान होता है। ये दो अट्राईसके बन्धस्थान हए। नौ ध्रवबन्धी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिरमें-से एक, शुभ-अशुभमें-से एक, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक, तिर्यंचगति, दोइन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्डक संस्थान, तियं चानुपूर्वी, सृपाटिका संहनन, औदारिक अंगोपांग, दुःस्वर, अप्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, २५ परघात, ये दो इन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीसका स्थान है। ___इनमें-से दोइन्द्रियजाति घटाकर तेइन्द्रिय जाति मिलानेसे तेइन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसका स्थान होता है। इनमें से तेइन्द्रिय जाति घटाकर चौइन्द्रिय जाति मिलानेपर चौइन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसका स्थान होता है। उनमें से चौइन्द्रिय जाति घटाकर पंचेन्द्रिय जाति मिलानेपर पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसका स्थान होता है। किन्तु यहाँ ३० स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यश-कीर्ति-अयशःकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति इनमें से कोई एक-एक प्रकृति ग्रहण करना। इन उनतीसमें-से तिर्यंचगति और तियंचानुपूर्वी घटाकर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी मिलानेपर पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीसका स्थान होता है । पुनः नौ ध्रुवबन्धी, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ गो० कर्मकाण्डे स्थानदोळु स्थिरास्थिर शुभाशुभ सुभगदुदर्भगादेयानादेययशस्कीय॑यशस्कोति संस्थानषट्क संहननषट्कसुस्वरदुःस्वर प्रशस्ताप्रशस्त विहायोगतिगळोकतरबंधमक्कुमदी विशेषमरियल्पडुगुं । ___अपर्याप्तपंचेंद्रियजातियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळु तिर्यग्गतितिर्यग्गत्यानुपूर्व्यमं कळेदु मनुष्यगति मनुष्यगत्यातृपूर्व्यमं कूडुत्तं विरलु पर्याप्तमनुष्यगतियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृति५ बंधस्थानमक्कुं। मत्तं नवध्रुवप्रकृतिगळं त्रसबादर-पर्याप्त-प्रत्येकशरीरंगळं स्थिरास्थिरदोळेकतरk शुभाशुभदोळेकतरम सुभगमुमादेवमुं यशस्कोत्ययशस्कोतिगळोळेकतरमुं देवगतियं पंचेंद्रियजातियु वैक्रियिकशरीरमुं प्रथमसंस्थानमुं देवगत्यानुपूर्व्यमुं वैक्रियिकांगोपांग, सुस्वरमुं प्रशस्तविहायोगतियमुच्छ्वासमुं परघातमुं तीर्थकर मुमेंबी देवगतियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमदं मनुष्या. संयतादिचतुग्गुणस्थानत्तिगळु यथायोग्यरु कटुवरु । २९ ॥ प। बि । ति । च । प । म । दे । अपर्याप्त द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रियजातियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोद्योत. नाममं कूडिकोलुत्तं विरलापर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रिययतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळ यथाक्रमदिनप्पुवु । मनुष्यगतियुतकान्नत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळु तीर्थमं कूडिकोळुत्तं विरलु देवनारकासंयतसम्यग्दृष्टिगछु कटुव मनुष्यगतियुत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लिस्थिरास्थिर शुभाशुभ यशस्को|यशकोत्तिसुभगदुर्भगंगळोळेकतरयतमें बी विशेषमरियल्पडुगुं। मत्तं देवगति१५ यतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळु तीर्थकर नाममं कळेदाहारकद्वयमं कूडिकोळळुत्तिरलु देवगति युत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमदनप्रमतसंयतन कटुगुं । ३०।प।बि । ति । च । प।म। दे। सुरगतियुतं एकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानं देवगतियुतबंधस्थानमेयककुमदे ते दोडे देवगतियं तीर्थकरपूर्व्यनिक्षेपे तत्पर्याप्तमनुष्यगतियुतं । पुनः नवध्र वत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरैकतरशुभाशुभकतरसुभगादेययशस्कीय॑यशस्कीत्यैकतरदेवगतिपंचेंद्रियवैक्रियिकशरीरप्रथमसंस्थानदेवगत्यानुपूर्व्यवक्रियिकांगोपांगसुस्वरप्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वासपरघाततीर्थकरं तद्देवगतियुतं मनुष्यासंयतादिवतुर्गुणस्थानवतिनो बध्नति प २९ वि ति च प म दे । एतेष्वाद्यानि चत्वार्युद्योतयुतानि पर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रिय चतुरिंद्रियपंचेंद्रिययुतं त्रिंशत्कानि । मनुष्यगत्येकान्नत्रिशत्कं तीर्थयुतं देवनारकासंयतबंधयोग्यं मनुष्यगतित्रिंशत्कं स्यात् । तच्च स्थिरास्थिरशुभाशुभयशस्कोर्त्ययशस्कोतिसुभगदुर्भगकतरयुतमिति विशेषः । पुनः देवगत्येकान्नत्रिंशत्कं तीर्थमपनीयाहारकद्वययुतं देव त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिरमें से एक, शुभ-अशुभमें से एक, सुभग, आदेय, २५ यशःकीर्ति-अयशकीर्तिमें से एक, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, प्रथम संस्थान, देवगत्यानपूर्वी, वैक्रियिक अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, उच्छ्वास, परघात, तीर्थकर, इनरूप देवगति तीर्थकर सहित उनतीसका स्थान होता है। इसका बन्ध असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही करता है । इस प्रकार उनतीस प्रकृतिरूप छह स्थान कहे। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीसके स्थानमें उद्योत प्रकृति ३५ तिलानेपर दोइन्द्रिय सहित तीसका, तेइन्द्रिय सहित तीसका, चौइन्द्रिय सहित तीसका और पंचेन्द्रिय सहित तीसका बन्धस्थान होता है। पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस के स्थानमें तीर्थकर प्रकृति मिलानेपर असंयत सम्यग्दृष्टी देव व नारकीके बन्धयोग्य मनुष्यगति सहित तोसका बन्धस्थान होता है। इतना विशेष है कि यहाँ स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशःकीर्ति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नाममुं युतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानो आहारकद्वयमं कूडिकोळुत्तं विरलदुवु मप्रमतसंयतं देवगतियुतमागि कटुव युगपत्तीहारयुतैकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुं। ३१ । सु । एक प्रकृतिबंधस्थानं अगतियतं आवगतियुतबंधस्थानमल्लेके दोडे अपूर्वकरणषष्ठभागपथ्यंतं गतियुतबंध. स्थानंगळप्पुवु। तद्गुणस्थानचरमभागमादियागि सूक्ष्मसांपराय चरमसमयपय्यंतं बंधमागुत्तिई यशस्कोत्तिनामप्रकृतियों दे गतियुतमल्लद बंधस्थानमकुं १ । उक्तात्थं समुच्चय संदृष्टि :-- ५ | तीर्थ- आहा उद्यो ती आहा| तिथ्य बि ति तिच पं बिति । च म तिऱ्या तीत्थं २५ | पए | अप बि ति चम अनंतरमी बंधस्थानंगळ्गे संभविसुव भंगंगळं पेळदपरु : संठाणे संघडणे विहायजुम्मे य चरिमछज्जुम्मे । अविरुद्धक्कदरादो बंधट्ठाणेसु भंगा हु ॥५३२॥ संस्थाने संहनने विहायो युग्मे च चरमषड्युग्मे । अविरुद्धकतरतो बंधस्थानेषु भंगाः खलु॥ १० गतित्रिंशत्कं स्यात् । तच्चाप्रमत्तो बध्नाति ३० प वि ति च प म दे। पुनः देवगतितीर्थयुतकान्नत्रिंशत्कं आहारकद्वययुतं अप्रमत्तबंधयोग्यं एकत्रिंशत्कं स्यात् ३१ सु। एककमगति अपूर्वकरणषष्ठभागादासूक्ष्मसांपरायांता बध्नति ॥५३ १॥ एवं नामबंधस्थानान्युक्त्वा तद्भगानाहअयशःकीर्ति, सुभग-दुर्भगमें-से कोई एक प्रकृति सहित स्थान होता है। देवगति सहित उनतीसके स्थानमें तीर्थंकर प्रकृति घटाकर आहारकद्विक मिलानेसे देवगति सहित तीसका १५ स्थान होता है। इसे अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती बांधता है। इस तरह तीस प्रकृतिरूप छह स्थान हुए। देवगति तीर्थकर सहित उनतीसके स्थानमें आहारकद्विक मिलानेपर अप्रमत्तके बन्धयोग्य देवगति सहित इकतीसका स्थान होता है। इस प्रकार अपूर्वकरणके छठे भाग पर्यन्त बन्धयोग्य इकतीस प्रकृतिरूप एक स्थान है। एक यश कीर्ति प्रकृतिरूप एक स्थान है। २० उसे अपूर्वकरणके सातवें भागसे सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त जीव बाँधते हैं। ऐसे नामकर्मके बन्धस्थान कहे ।।५३०-५३१॥ | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० गो० कर्मकाण्डे __संस्थानषट्कदोळं संहननषट्कोळं विहायोगतियग्मदोळं स्थिरशुभ सुभग आदेय यशस्कोतिस्वरनाममेब चरमषड्युग्मंगळोळमविरुद्धकतरप्रकृतिग्रहणदिदं बंधस्थानंगळो भंगंगळप्पुर्व द. क्षसंचारविधानमं कटाक्षिसि स्थानंगळोल भंगंगल्गुत्पत्तिक्रममं पे ब्दपरदेते दोडे : यशस्कीत्ययशस्कोति आदेयानादेय सुस्वरदुस्वर सुभगदुभंग शुभाशुभ स्थिरास्थिर प्रशस्ताप्रशस्त वि संहनन संस्थान ११ ११ | १ onlarlalarlaolali षट स्थानानि षट् संहननानि विहायोगतियुग्मं प्रत्येकस्थिरशुभसुभगादेययशस्कीतियग्मानि चोपर्यपरि नामकमके बन्धस्थानोंका यन्त्र तेईसका स्थान १ उनतीसके स्थान ६ १ दोइन्द्रिय पर्याप्तयुत एकेन्द्रिय अपर्याप्तयुत २ तेइन्द्रिय पर्याप्तयुत पच्चीसके स्थान ६ ३ चौइन्द्रिय पर्याप्तयुत १ एकेन्द्रिय पर्याप्तयुत ४ पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत २ दोइन्द्रिय अपर्याप्तयुत ५ मनुष्य पर्याप्तयुत ३ तेइन्द्रिय अपर्याप्तयुत ६ देवतीर्थयुत ४ चौइन्द्रिय अपर्याप्तयुत तीसके स्थान ६ ५ पंचेन्द्रिय अपर्याप्तयुत १ दोइन्द्रिय पर्याप्त उद्योतयुत ६ मनुष्य अपर्याप्तयुत २ तेइन्द्रिय पर्याप्त उद्योतयुत | ३ चौइन्द्रिय पर्याप्त उद्योतयुत छब्बीसके स्थान २ ४ पंचेन्द्रिय पर्याप्त उद्योतयुत १ एकेन्द्रिय पर्याप्त आतपयुत ५ मनुष्य तीर्थयुत २ एकेन्द्रिय पर्याप्त उद्योतयुत ६ देव आहारकयुत अठाईसके स्थान २ इकतीसका स्थान १ १ देव आहारक तीर्थयुत १ देवगतियुत एकका स्थान १ |२ नरकगतियुत । १ यशस्कीर्ति Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७९१ ई नवस्थानंगळोळक्षमं प्रत्येकमिरिसि "पढमक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदिक्खो । दोणि वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ।" एंदितु जीवकांडदोळ प्रमत्तसंयतंर्ग प्रमादविकल्पंगळं पेवल्लि पेदंते भयंगळु तरल्पडुववंतु तरल्पडुत्तिरलु संस्थानषट्कर्म संहनन कद गुणिसि । ६ । ६ । लब्धभूत षट्त्रिंशद् भंगंगळं ३६ । सप्तद्विकंगळदं । २ । २ । २ । २ । २ । २ । २ । गुणिसिदोर्ड । ३६ । १२८ । अष्टोत्तरषट्छताधिक चतुः सहस्रप्रमितभंगंगळ ४६०८ अप्पुवु । इवरो नरकगतियुतबंधस्थानवोळं सर्व्वापर्य्याप्त युतस्थानं गळोळसे निर्तनितु मंगळ संभविगुर्म बडे पेदपरु : तत्थासत्थो णारयसव्वापुण्णेण होदि बंधो दु । एक्कदराभावादो तत्थेक्को चैव भंगो दु || ५३३ ॥ तत्राशस्तो नारक सर्व्वापूर्णेन भवति बंधस्तु । एकतराभावात्तत्रे कश्चैव भंगस्तु ॥ तत्र तेषु मध्ये आ बंधस्थानंगळोळ नारकसर्व्वापूर्णेन नरकगतिनामकम्मंदोडर्नयुं तु म सस्थावरयुतसत्र पूर्णेन सर्व्वापर्याप्तिदोडर्नयुं बंधः बंध अशस्तो भवति अप्रशस्त मे यक्कुमेबोर्ड एकतराभावात् इतरप्रतिपक्षे प्रकृतिबंधाभावमत्रकुमपुर्दा रिदमदु कारणदिदं तत्रैकश्चैव भंगस्तु आ नरकगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिबंधस्थानदोळं सर्व्वत्र सस्थावरापर्य्याप्तयुत त्रयोविंशतिपंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं तु मते एकभंगमेयक्कुं २३ । २५ अ कारणमागि मुंपेल्वेक १५ चत्वारिंशज्जीवपवंगळोळ बंघविवक्षयवं भाविभवजातकम्मैपदंगळमूवत्तारप्पुवव रोळु नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमोवेयक्कु मदवर्क भंगमुमो देवकुं एकेंद्रियभेदंगळप्प १ १ २८ । १ १ इन नामकर्मके बन्धस्थानोंके भंग कहते हैं छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगति युगल, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, यश-कीर्ति के युगल, इन सबको ऊपर-ऊपर स्थापित करके अविरुद्ध एक-एकका ग्रहण करें; क्योंकि इनमें से एक एकका ही बन्ध होता है । अत: ६४६x२x२४२४२x२x२x२ इनको परस्परमें गुणा करनेपर चार हजार छह सौ आठ भंग होते हैं । संस्थाप्य अविरुद्धकतर ग्रहणाद् बंघस्थानेषु खल्वष्टा ग्रषट्छताधिकचतुः सहस्रीं भंगा भवंति ४६०८ ||५३२ ॥ अत्र नरकगतियुतस्य सर्वापर्याप्तयुतानां च कतीति चेदाह - तत्र प्रशस्ता प्रशस्त बंधमध्ये नरकगत्या प्रसस्थावरयुतसर्वा पर्याप्तेन च बंघः, अप्रशस्त एव स्यात् २० भावार्थ यह है कि प्रकृतिके बदलनेसे भंग होता है। जैसे प्रथम संस्थान सहित स्थान कहा। पीछे दूसरे सहित कहा। इस तरह एक-एक प्रकृतिके बदलने से भंग होते हैं ॥ ५३२॥ न प्रशस्त और अप्रशस्त बन्धरूप प्रकृतियों में से नरकगति के साथ हुण्डक संस्थान अप्रशस्त विहायोगति आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है । इसी प्रकार सस्थावर सहित अपर्याप्त के साथ दुभंग-अनादेय आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। क्योंकि इनमें बन्धयोग्य प्रकृतिकी प्रतिपक्षी प्रकृतिका बन्ध नहीं है । संस्थान आदिमें से १. पक्षप्रशस्त । क- १०० ५ १० २५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुभंगाः॥ ७९२ गो० कर्मकाण्डे कम्मपदंगळोळपर्याप्रयुतत्रयोविंशति प्रकृतिबंधस्थानं प्रत्येकमों दोवरोळेकेकभंगमेयक्कुं। त्रसापर्याप्तयत द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रियासंज्ञि संज्ञि मनुष्यगतियुतापामयुतषट्कर्मपदंगळोळं प्रत्येकं पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमक्कुं। भंगमुमेकमेयक्कुमें बुदत्थं ॥ तत्थासत्थं एदि हु साहारणथूलसव्वसुहुमाणं । पज्जत्तेण य थिरसुहजुम्मेक्कदरं तु चदुभंगा ॥५३४॥ तत्राशस्तमेति खलु साधारणस्थूलसर्वसूक्ष्माणां। पर्याप्तेन च स्थिरशुभयुग्मैकतरं तु तत्र मा एकेंद्रियभेदंगळोळु साधारणस्थूलसर्वसूक्ष्माणां पर्याप्तेन च साधारणवनस्पतिबादरपर्याप्तवोडनयं सर्वसूक्ष्मंगळपर्याप्तदोडनेयं बंधमप्प पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानपंचकं १० अशस्तमेति खलु अप्रशस्तप्रकृतिबंधमनेदुगुमंतैय्दुवडं तु मत्त विशेषमुंटवावुर्वेदोडे स्थिरशुभ युग्मैकतरं स्थिरास्थिरशुभाशुभयुरमंगळोळेकतरप्रकृतिबंधमनेटदुगुमदु कारणमागि चतुभंगाः नाल्कु भगंगळप्पुवु २५ यितु साधारणबादरवनस्पतिपर्याप्तयुत पंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानदोळं पृथ्व्यप्तेजोवायुधारणंगळ सूक्ष्मपर्याप्तयतपंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानपंचकदोळं नाल्कु नाल्कु भंसंगळप्पुबुदत्थं ॥ १५ कुतः ? एकतरप्रतिपक्षबंधाभावात् । तेन प्रागुक्त कचत्वारिंशत्सदेषु नरकगतियुताष्टाविंशतिकेषु एकेंद्रि यापर्याप्तयुतकादशत्रयोविंशतिकेषु, असापर्याप्तयुवषट्पंचविंशतिकेषु चैकक एवं भंगः स्यात् ॥५३३॥ तत्र तेषु एकेंद्रियभेदेषु साधारणवनस्पतिबादरपर्याप्तेन सर्वसूक्ष्माणां पर्याप्तेन च पंचविंशतिकं खल सप्रशस्तं बंधमेति तेन स्थिरशुभयुग्मयोरेकैकप्रकृतिबंधाच्चत्वारो भंगा भवंति २५ । साधारणबादरवनस्पति पर्याप्तयुतपंचविंशतिके पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणानां सूक्ष्मपर्याप्तयुतपंचविंशतिकपंचके च चत्वारो भंगा २० भवंतीत्यर्थः ॥५३४॥ जिसका बन्ध होता है उसी एक-एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है । अतः पूर्वमें कहे इकतालीस पदोंमें-से नरकगति सहित अट्ठाईसके स्थानमें और एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित ग्यारह पदोंके तेईस बन्धक स्थानोंमें तथा त्रस सहित छह पदोंके अपर्याप्त सहित पच्चीसके स्थानोंमें एक एक ही भंग होता है ॥५३३॥ २५ उन एकेन्द्रियके म्यारह भेदोंमें-से साधारण वनस्पति बादरपर्याप्त और सब सूक्ष्मोंके पर्याप्त सहित पच्चीसके बन्धस्थानमें अप्रशस्तका ही बन्ध होता है। किन्तु स्थिर और शुभके युगलमें से एक-एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है। अर्थात् स्थिर-अस्थिरमें-से या तो स्थिरका हो बन्ध होता है या अस्थिरका ही बन्ध होता है। इसी तरह शुभ-अशुभमें-से या तो शुभका ही बन्ध होता है या अशुभका ही बन्ध होता है। इससे साधारण, बादर, वनस्पति पर्याप्त ३० सहित पच्चीसके स्थानमें और पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारणके सूक्ष्म पर्याप्त सहित पच्चीसके पांच स्थानोंमें उक्त दो युगलोंके चार-चार भंग होते हैं ।।५३४॥ १. २३ २५ | Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पुढवी आऊ तेऊ वाऊ पत्तेय वियलसण्णीणं । सत्तेण असत्थं थिरसुहजसजुम्मट्ठभंगा हु ॥५३५।। पृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकविकलासंज्ञिनां । शस्तेनाशस्तं स्थिरशुभयशोयुग्माष्ट भंगाः खलु ॥ पृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पति द्वींद्रियत्रोंद्रिय चतुरिंद्रियासंजिपंचेंद्रियंगळ अविरुद्ध भावि भवजातंगळ पंचविंशति षड्विशत्येकान्नत्रिंशत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळ । २५ । २६ । २९ । ५ ३०। शस्तेनाशस्तं बंधमेति त्रसबादरपर्याप्तादि यथायोग्यप्रशस्तप्रकृतियोडने दुभंगानायाद्यप्रशस्तप्रकृतियुं बंधनेय्दुगुमंतैरिददोडं स्थिरशुभयशोयुग्माष्टभंगाः खलु स्थिरास्थिरशुभाशुभयश. स्कीय॑यशस्कीत्तियुग्मत्रयैकतरबंधकृतभंगंगळे टेटप्पुवु २५ / २६ | २९ | ३० यितु पृथ्वीकाय ८८८८ बादरपर्याप्तयुतपंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानमुं आतपयुतड्विशतिप्रकृतिबंधस्थानमुमुद्योतयुत षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुमप्कायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिप्रकृति-बंधस्थानमुमुद्योतयुत-षड्विंशति- १० प्रकृतिबंधस्थानमुं तेजस्कायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं वायुकायबावरपर्याप्तयुत पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं प्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयुत पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुमुद्योतयुत ड्वशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तयुतैकान्लत्रिशतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानद्वयंगळुमिविनितुमष्टाष्टभंगंगळनुळ्ळवप्पुबुदत्यं ॥ शेषतिथ्यंकपंचेंद्रियपर्याप्त युतसंज्ञियोळं मनुष्यगतिपर्याप्तयुतमनुष्यकर्मपददोळमेकान्नत्रिशत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळ १५ भंगंगळं पेळ्दा भंगंगळु मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थानंगळोळिनितिनितु भंगंगलेदु पेळ्दपरु : पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिद्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रियाणामविरुद्धभाविभवजातपंचविंशतिकषड्विंशतिकैकान्नत्रिंशत्त्रिशत्कानां त्रसबादरपर्याप्तादियथायोग्यप्रशस्तदुर्भगानादेयाद्यप्रशस्तन बंधमेति । तेन स्थिरशुभयशोयुग्मकृतभंगाः खल्वष्टावष्टौ भवंति २५ २६ २९ ३० । पृथ्वीकायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिकमातपयुत ८ ८ ८ ८ षड्विंशतिकं उद्योतयुतषड्विंशतिकं अप्कायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिकमुद्योतयुतषड्विंशतिक तेजस्कायबादर- २. पर्याप्तयुतपंचविंशतिकं वायुकायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिकं प्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयुतपंचविंशतिकं उद्योतयुत पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंक्षि पंचेन्द्रिय जीवके भविष्यमें जिन भवोंमें जन्म ले सकते हैं उनके अनुकूल पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीसके बन्धस्थानों में त्रस-बादर पर्याप्त आदि यथायोग्य प्रशस्त और दुर्भग २५ अनादेय आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। किन्तु स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश कीर्ति-अयशःकीर्ति इन तीन युगलोंमें-से एक-एकका बन्ध होता है। अतः इन तीन युगलोंकी प्रकृति बदलनेसे आठ-आठ भंग होते हैं। अर्थात् पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसमें से प्रत्येकके आठ भंग होते हैं। पृथ्वीकाय बादरपर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान, आतप अथवा उद्योत सहित छब्बीसका स्थान, अप्काय बादर पर्याप्त ३० सहित पच्चीसका स्थान अथवा उद्योत सहित छब्बीसका स्थान, तेजस्काय बादर पर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान, वायुकाय बादर पर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान, प्रत्येक वनस्पति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ७९४ गो० कर्मकाण्डे सणिस्स मणुस्सस्स य ओघेक्कदरं तु मिच्छभंगा हु | छादालसयं अट्ठय विदिये बत्तीससयभंगा || ५३६ ॥ संज्ञिनो मनुष्यस्य च ओघे एकतरं तु मिथ्यादृष्टिभंगाः खलु । षट्चत्वारिंशच्छतमष्टौ च द्वितीये द्वात्रिंशच्छतभंगाः ॥ तिर्यग्गतिपर्याप्तयुत संज्ञिय येकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंध स्थानदोळ मुद्योतयुत त्रिशत्प्रकृतिबंध - स्थानदोळं मनुष्यगतिपर्याप्त युतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थान में बिवरो । २९ ॥ ३० ॥ २९ ॥ ओघे सामान्यषट्संस्थान षट्संहनन युग्म सप्तकंगळोळ एकतरं बंधमेति एकतरप्रकृतिबंधमदुगु मपुदरिदं षट्चत्वारिंशच्छतमष्टौ च अष्टाधिक षट्छताधिक चतुःसहस्रमित भंगंगळप्पु - ४६०८ । ववुं मिथ्यादृष्टिय भंगंगळवु । खलु स्फुटमागि । मि । ति । २९ । ३० । ४६०८ । ४६०८ । १० मिम । २९ यितु तिर्व्यग्गतिपर्य्याप्त पंचेंद्रिययुतसंज्ञिकम्मपददोळुद्योतरहित सहितैकान्नत्रि ४६०८ शत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं मनुष्यगतिपय्र्याप्तयुतैकान्नत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळं अष्टोत्तरषट्छताधिकचतुःसहस्रप्रमितभरांगळप्पुववु । मिथ्यादृष्टियोळेयप्पु बुदत्थं । मनुष्यगतियुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानं देवनारका संयतसम्यग्दृष्टिगळु तीर्त्ययुतमागि कट्टुव स्थानमप्पुर्दारद मिथ्यादृष्टिस्थानभंरांग - को पेल्पड | मुंदे संयतसम्यादृष्टियो पेदपरु १५ षड्विंशतिकं द्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तयुतैकान्नत्रिंशत्कं त्रिशतकानि चेति सर्वाण्यष्टाष्टभंगानीत्यर्थः ॥५३५॥ शेषतिर्यक्पंचेंद्रियपर्याप्तयुत संज्ञिकर्मपदे मनुष्यगतिपर्याप्तयुतमनुष्यकर्मपदे चैकान्नत्रिंशत्कत्रिशतकयोगान् वक्तुं गुणस्थानेषु विभजयति तिर्यग्गतिपर्याप्तयुत संज्ञिनः एकान्नत्रिंशत्कोद्योतयुत त्रिंशत्कयोः मनुष्यगतिपर्याप्तयुतैकान्नत्रिंशत्के च सामान्य षट्संस्थानषट्संहनन सतयुग्मेष्वेकत रबंध मेतीति तेषु खल्वष्टाग्रषट्चत्वारिंशच्छतानि भंगा भवंति । ते २० च मिथ्यादृष्टेरेव – मिति २९ ३० मि म २९ | मनुष्यगतियुतत्रिंशत्कं तु तीर्थयुतमसंयत देवनाराकाणामेव ४६०८४६०८ ४६०८ पर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान अथवा उद्योत सहित छब्बीसका स्थान, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीस और तीसका स्थान, इन सबमें आठआठ भंग होते हैं || ५३५।। शेष तिथंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित संज्ञी कर्मपद में और मनुष्यगति पर्याप्तयुत मनुष्य२५ कर्मपद में उनतीस और तीसके स्थानोंके भंग कहने के लिए गुणस्थानों में विभाग करते हैं तिर्यंचगति पर्याप्त सहित संज्ञीके उनतीसके स्थान में और उद्योत सहित तीसके स्थान में तथा मनुष्यगति पर्याप्त सहित उनतीसके स्थान में सामान्य छह संस्थान, छह संहनन और विहायोगति आदि सात युगलों में से एक-एकका ही बन्ध होता है । अतः छह संस्थान आदिमें से एक-एक के बदलनेसे पूर्वोक्त एक-एक स्थान में ६ x ६x२×२×२x२×२×२४ ३० २ = ४६०८ छियालीस सौ आठ भंग होते हैं। ये भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७९५ सासादनंगुद्योतनामकर्मबंधमुटप्पुरिंदमुद्योतरहितसहितकान्नत्रिशत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानगोळं द्वात्रिंशच्छत प्रमितभंगंगळप्पुवे ते दोडे मिथ्यादृष्टियोळु हुंडसंस्थानमु मसंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुं बंधव्युच्छिन्नंगळादुवप्पुरिदं पंचपंचसंस्थानसंहननंगळिदं सप्तद्विकंगळिदं संजातभंगंगळु ५। ५। १२८ । गुणिसिदोडे तावन्मात्रंगळेयप्पुवप्पुरिदं । सा २९ । ३० मतमा सासा ३२०० । ३२०० दनन मनुष्यगति पंचेंद्रियपर्याप्तयुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळ तावन्मात्र भंगंगळयप्पुवु- ५ सा २९ ३२०० अनंतरं मिश्रगुणस्थानादिगळोळ पेळ्दप : मिस्साविरदमणुस्सट्ठाणे मिच्छादिदेवजुदठाणे । सत्थं तु पमत्तंते थिरसुहजसजुम्मगट्ठभंगा हु ।।५३७।। मिश्राविरतमनुष्यस्थाने मिथ्यादृष्टादिदेवयुतस्थाने। शस्तं तु प्रमत्तांते स्थिरशुभयशोयुगमाष्टभंगाःखलु ॥ देवनारकगतिजमिश्रासंयतगुणस्थानत्तिगळ पर्याप्तमनुष्यगतियुतेकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंध स्थानमं कटुवरंता स्थानदोळं मत्तं देवनारकगतिजाऽसंयतसम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतिपर्याप्ततीर्थयुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमं कटुवरन्ता स्थानवो स्थिरशुभयशोयुग्माष्टभंगंगळेयप्पुवेक दोडे सासादननोळ दुर्भगदुःस्वरानादेयाप्रशस्तविहायोगति चतुःप्रतिपक्षप्रकृतिगळ्गे बंधव्युच्छित्तियाबंधान्मिथ्यादृष्टिस्थानभंगेषु नोक्तं । सासादनस्योद्योतरहितकान्नत्रिंशत्के तद्युतत्रिंशत्के च पंचसंस्थानपंचसंहनन- १५ सप्तद्विककृताः द्वात्रिंशच्छतान्येव सा २९ ३०। सासादनस्य मनुष्यगतिपंचेंद्रियपर्याप्तयुतकान्नत्रिंशत्केऽपि ३२०० ३२०० तावंतः सा २९ ॥५३६॥ अथ मिश्रगुणस्थानादिष्वाह ३२०० देवनारकमिश्रासंयतयोः पर्याप्तमनुष्यगतियुतकान्नत्रिंशत्के तवयासंयतस्य मनुष्यगतिपर्याप्ततीर्थयुत मनुष्यगति सहित तीसका स्थान तीर्थकर सहित है। इसलिए उसका बन्ध असंयत सम्यग्दृष्टी देव नारकियोंमें ही होता है। इसलिए मिथ्यादृष्टिके बन्धस्थानके भंगोंमें इसे २० नहीं कहा। सासादनके उद्योत रहित उनतीसके स्थानमें और उद्योत सहित तीस के स्थानमें पाँच संस्थान, पांच संहनन और सात युगलों में से एक-एकका ही बन्ध होता है । अतः इनमेंसे एक-एक प्रकृति बदलनेसे बत्तीस सौ-बत्तीस सौ भंग होते हैं। सासादनके मनुष्यगति पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसके स्थानमें भी इसी प्रकार बत्तीस सौ भंग होते हैं ॥५३६।। आगे मिश्र गुणस्थान आदिमें कहते हैं २५ देव नारकी मिश्र और असंयत गुणस्थानवर्तीके पर्याप्त मनुष्यगति सहित उनतीसके स्थानमें तथा देव नारकी असंयत गुणस्थानवर्तीके मनुष्यगति पर्याप्त और तीर्थकर सहित तीसके स्थानमें स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशकीर्ति-अयशस्कीति इन तीन युगलों में से किसी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे तुवष्परिवं शस्तप्रकृतिये बंधमनप्दुगुमप्पुरिदं मि २९ असं २९ ३० तिर्यग्मनुष्यगतिजरप्प मिश्रासंयतरुगळ्गे मनुष्यगतियुतस्थानद्वयमेके पेळल्पड दोर्ड वज्ज ओराळमणुदु यित्याद्यसंयतबंधषट्प्रकृतिगळगं सासादननोळ बंधव्युच्छित्तियुटप्पुरिदं तद्गतिजग्र्ग तबंध स्थानंगळ्गऽभावमक्कुमप्पुरिदं । मिथ्यादृष्टयादिदेवयुतस्थाने प्रमत्तांते मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रा५ संयतरुगळ देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानदोळं मत्तमसंयतन देवगतितोत्थंयुप्तयिकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळं देशसंयतन देवगतियुत तीर्थरहित सहिताष्टाविंशत्येकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं प्रमत्तसंयतन देवगतियुत तीर्थरहित सहिताष्टाविंशत्येकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळमितु मिथ्यादृष्टयादि प्रमत्तसंयतावसानमाद गुणस्थानंगळोळु देवगतियुताष्टा विशति एकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं शस्तं बंधमेति प्रशस्तप्रकृतिबंधमक्कुमादोडं अस्थिरा१० शुभायशस्कोत्तिनामप्रकृतिगळ्गे प्रमत्तसंयतनोळ व्युच्छित्तियप्पुरिदं । प्रमत्तपय्यंतं स्थिरशुभयशोयुग्माष्टभंगंगळप्पुवु। खलु स्फुटमागि | मि २८ | सा २८ | मि २८ | अ २८ | २९ ! दे २८/२९ | प्र २८।२९ । ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ अप्रमत्तसंयतंगमपूर्वकरणंगं देवगतियुताष्टाविंशति तीर्थयतैकान्नत्रिंशत् । तीर्थरहिताहारकद्वययुतत्रिंशत् । तीहारयुतैकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळ एकैकभंगमेयषकुमेके दोर्ड १५ प्रमत्तसंयतनोळ अस्थिराशुभायशस्कोत्तिनामकर्मप्रकृतिगळ्गे बंधव्युच्छित्तियंटप्परिदमेकतर बंधाभावमप्पुरिदं प्रशस्तप्रकृतिबंधमेयककुमप्पुरिदं । त्रिंशत्के च स्थिरशुभयशोयुग्मकृतभंगा अष्टावष्टौ दुर्भगदुःस्वरानादेयाप्रशस्तविहायोगतिबंधस्य सासादने एव च्छेदात् । मि २९ असं २९ ३० । तियंग्मनुष्यमित्रासंयतयोस्तु मनुष्यगतियुतबंधस्य सासादने छेदात्तत्स्थानद्वयं न ८ ८८ बध्नाति । मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतांतानां देवगतियुताष्टाविंशतिके असंयतस्य देवगतितीर्थयुतकान्नत्रिशत्के देशसंयतस्य प्रमत्तस्य च देवगतियुततीर्थयुतवियुताष्टाविंशतिकैकान्नत्रिंशत्कयोश्च प्रशस्तं बंधमेत्यप्यस्थिराशुभायशस्कीर्तीनां प्रमत्तपयंतं बंधात् तस्त्रियुग्मकृत्या अष्टावष्टौ भंगा भवंति खलु स्फुटं मि २८ । सा २८ । मि २८ । अ २८, ८ ८ ८ ८ एक-एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है। दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अप्रशस्त विहायोगतिके बन्धका विच्छेद सासादनमें ही हो जाता है। अतः तीन युगलोंकी प्रकृतियां बदलनेसे आठ-आठ भंग होते हैं। तिर्यंच और मनुष्य मिश्र तथा असंयत गुणस्थानवर्तीके मनुष्यगतिके २५ बन्धका विच्छेद सासादनमें ही हो जाता है। इससे यहां उन दोनों स्थानोंका बन्ध नहीं होता। मिध्यादष्टि आदि असंयत गणस्थान पर्यन्त जीवोंके देवगति सहित अठाईसके स्थान में और असंयत सम्यग्दृष्टीके देवगति तीर्थ कर सहित उनतीसके स्थानमें तथा देशसंयत और प्रमत्तमें देवगतियुत अठाईसके स्थान और देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसके स्थानमें प्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। तथापि अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीतिका बन्ध प्रमत्त गुण३० स्थान तक ही होता है। इससे इन स्थानों में इन तीन युगलोंके आठ-आठ भंग होते हैं। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ कर्णाटवृत्ति वीक्तत्त्वप्रदीपिका अप्र २८ २९ ३० ३१ अपू २८ २९ ३० ३१ अपूर्वकरणचरमभागप्रथम. समयं मोदल्गोंडु मूक्ष्मसांपरायगुणस्थानचरमसमयपर्यंत यशस्कोत्तिनामकर्मबंधमेकप्रकृतिस्थानवोळेकभंगमेयक्कुमवावगतियुतमल्तु । अनंतरं भवच्यवनोत्पत्तिगळं पेन्दपर : रइयाणं गमणं सण्णीपज्जत्तकम्म तिरियणरे । चरिमचऊ तित्थूणे तेरिच्छे चेव सत्तमिया ॥५३८॥ नारकाणां गमनं संजिपंचेंद्रियकर्म तिय्यंग्नरे। चरमचतसृणां तीर्थोने तिरश्च्येव सप्तम्याः ॥ ___ नारकाणां गमनं घम्मे यं वंशेयं मेघेयुमें बी मूरुं पृश्विगळ नारकरगळ्गे स्वस्वायु:स्थितिक्षयवशदिदं मृतरागि नारकभवमं पत्तविटु बंदावेडयोळाव गतिजरोळु पुटुवर दोडया मूरु पृथ्विगळ नारकरुळगे गम्भंज पंचेंद्रियपर्याप्तसंज्ञिकर्मभूमितिय॑ग्मनुष्यरोल जननमक्कुम. १० ते दोड, मवरंगळ पूर्वापर पंचविदेहंगळं पंचभरतंगळं पंचैरावतंगळुमेंब पंचदशकर्म भूमिगळोळु यथायोग्यमल्लियादोडं तोत्थंकरुं चरमांगरु मा यिवरुमल्लद सामान्यपर्याप्तमनुष्यरागियं जनियिसुवरु। मत्तमा पंचवश कर्मभूमिगळोळं कर्मभूमिप्रतिबद्धस्वयंप्रभाचलापरभाग स्वयं भूरमण द्वीपादोळ स्वयंभूरमणसमुद्रवोळं गर्भजपंचेंद्रियपर्याप्त संजितिय॑ग्जीवंगळागियं जनियिसुवद । कम्मभूमिविशेषणत्वविवमा पंचमंवरंगळ दक्षिणोत्तरदिग्भागस्थित निषषनीलगजदंत पर्वत १५ द्वितयांतरितवेवकुहत्तरकुरुत्तम भोगभूमिगळ्पत्तरोळं (ळंतरित) हिमवन्निषधांतरित हरिक्षेत्र २९ । दे २८ । २९ । प्र २८ । २९ अप्रमत्तापूर्वकरणयोः देवगतियताष्टाविंशतिके तीर्थयतकान्नत्रिशके तीर्थ ८ ८ ८ ८ ८ वियुताहारकद्वययुतत्रिशत्के तीर्थाहारकयुतकत्रिशरके च भंग एकैक एव । अप्र २८ २९ ३० ३१ पपू २८ २९ ३० ३१ । अपूर्वकरणपरमभागप्रथमसमयादासूक्ष्मसांपरायचरमसमयं यशस्कोतिबंधकपैकके भग एकः ॥५३७॥ अथ भवच्यवनोत्पत्ती प्राह नारकाणां गमनं-मृत्वोत्पत्तिः, धर्मादित्रय जानां गर्भजपंचेंद्रियपर्याप्तसंज्ञिकर्मभूमितियंग्मनुष्ये देव, अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें देवगति सहित अठाईसका, तीर्थकर सहित उनतीस, तीर्थंकर रहित आहारकद्विक सहित तीस और तीर्थकर आहारकद्विक सहित इकतीस इन चारों स्थानोंमें प्रतिपक्षी अप्रशस्त प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। अतः एक-एक ही भंग होता है। अपूर्वकरणके अन्तिम भागके प्रथम समयसे सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समय पर्यन्त एक २५ यशस्कीर्तिका बन्धरूप ही स्थान है तथा एक ही भंग है ।।५३७॥ आगे एक भवको छोड़ने और दूसरे भवमें उत्पन्न होने का नियम कहते हैं नारकियोंका गमन अर्थात् मरकर उत्पन्न होना कहते हैं। धर्मा आदि तीन नरकोंके । नारकी मरकर गर्भज पंचेन्द्रिय पर्याप्त संज्ञी कर्मभूमिया तिथंच और मनुष्योंमें ही जन्म लेते Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ गो० कर्मकाण्डे २ पंचकभुं नीलरुग्मि कुलपर्व्वतांतरित रम्यकक्षेत्र पंचकमुमंतु पत्तुं मध्यमभोगभूमितलंगळोळं हिमवन्महाहिमवंत कुलपर्वतद्वयांतरित पंचहैमवत क्षेत्रंगळं रुक्मिशिखरि कुलपतघांतरित पंच हैरण्यवत क्षेत्रगळु मंतु पत्तुं जघन्य भोगभूतलंगळोळं बण्नवतिकुमानुष्य भोग भूतलंगळोळमा मनुष्यरुं तिध्यंचरागि पुट्टरु । मानुषोत्तरस्व यंत्र माचलद्वितयांतरितजघन्य तिय्यंग्भोगभूप्रतिबद्धं५ गळप्प जंबूद्वीप धातकीबंड पुष्कर स्वयंभूरमणमें ब नाकुं द्वीपशलाकापरिहो नंगळप्पे रडुवर युद्धार सागरोपमाद्धं प्रमित द्वीपंगळोळं पुष्करद्वीपोत्तरार्द्धदोळं स्वयंप्रभाचलार्वाचीनार्द्धबोळ स्थलचरखचरतिय्यंच रुगळुमागियं पुट्टरु । लवणोदकालोदस्वयंभूरमण में ब मूरुं समुद्रशलाका परिहीनंगळपेर डुवर युद्धारसागरोपमा प्रमितसमुद्रंगळु तिर्य्यग् नोगावनिप्रतिबद्धंगळादोडमा समुद्रंगळोळ जल मिक्षुरसस्वादुवुं जलचरंगळु मिल्ल । सर्व्वं भागभूतलंगळोळु जलमिक्षुरसस्वादुवु विकलॅब्रियजीवं१० गऴुत्पत्तियुमिल्ल | चरमचवसृणां अंजनेयुमरिष्टयं मघवियं माघवियु में व नाल्कुं पृथ्विगळ नारकरगळोळगे सप्तमपृथ्वियनारकरुगळं बिट्टु मूरुं पृथ्विगळ नारकरगळ स्वस्थायुः क्षितिक्षयवर्गाविवं मरणमादोडे जननमावेर्डयोळावावगतिगळोळक्कुर्म दोडे तोयोंने मुंपेळव पंचदश कम्र्म्मभूमिगळोळ तीर्थंकरल्लद यथायोग्य मागि क्वचिच्चरमांगरुं' साधारण मनुष्यरुगळ मागियुं गर्भजपर्याप्त पंचेंद्रिय संज्ञितिय्यंग्जीवंग मागियुं जनियिसुवरु । मुंपेन्द तिथ्यंककर्मभूमियोळ स्थलचरजलचर खचर १५ गब्भंज पर्याप्तपंचेंद्रिय संज्ञितिय्यंग्जीवंगळ मागियुं लवणकालोदक समुद्रंगळ जलचरगर्भजपर्य्याप्तपंचेंद्रियसंज्ञितिय्यंचरागियुं जनियि सुबरु । सप्तम्याः तिरश्चि चैव माघविय नारकरगळ स्वस्वायु कुतः ? अर्ध सकल चक्रिबलभद्रवजित पंच दशक मं भूमितिर्यग्मनुष्येषु लवणोदकालो दस्वयंप्रभा चलापरभागस्वयंभूरमणद्वीपपरार्ध वत्समुद्रतद्द्बहिश्चतुष्कोण जलस्थलखेचरेषु च तादृक् चैवोत्पत्तेः । त्रिंशत्षण्णवति भोगकुभोगभूमितिर्यग्मनुष्य मानुषोत्तर स्वयंप्रभाचलांतरालस्थलजघन्यतिर्यग्भोगभूमिजेषु चानुत्पत्तेः । अंजनजानां गमनं धर्मा २० हैं। क्योंकि उनकी उत्पत्ति अर्धचक्री, सकलचक्री और बलभद्र अवस्थाको छोड़कर पन्द्रह कर्मभूमिके तिर्यंच - मनुष्योंमें, लवणसमुद्र, कालोद समुद्र, स्वयंप्रभाचलके परे स्वयंभूरमणद्वीप के आधे भाग में, स्वयंभूरमण समुद्र में और उसके बाहर के चारों कोनों में जलचर, थलचर और नभचरोंमें होती है । विशेषार्थ - त्रस नाली चौकोर है और स्वयंभूरमण समुद्र गोल है । इससे उन चारों २५ कोनों में भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच हैं उनमें उत्पत्ति बतलायी है । तीस भोगभूमियों और छियानबे कुभोगभूमियोंके तिर्यंच मनुष्योंमें, मानुषोत्तर और स्वयंप्रभाचलके मध्य में असंख्यात द्वीप और समुद्रों में जघन्य भोगभूमि हैं वहाँके तिथंचोंमें वे १. तिर्यक् भोगभूमिस्थसमुद्रेषु जलचरजीवाभावात् । २. स्वयंप्रभाचलंद वोळ भागर्म बुदत्थं । बोळ भागमनेके पेळदर दोर्ड अपर भागं कम्र्मभूमिप्पुदरिदं वोळभागं भोगभूमियप्पुदरिनिल्लिगे प्रकृतं भोगभूमिपेयप्पुदरिदं स्वीकरिसल्पदु ॥ ३० ३. णिरयचरो णत्थि हरीबळचक्की तुरियपहुडि णिस्सरिदो । तित्यचरमग्गसंजुद मिस्सतियं ( मिश्रा संयतदेशसंयत ) णत्थि नियमेण ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ७९९ स्थितिक्षयवदिदं मृतरादोडावडयोळावगतियोळु जननमक्कु दोर्ड मुंपेन्द पंचदशकर्मभूमिगळं गर्भजपर्याप्तपंचेंद्रिय संजितिय्यंग्जीवंगळोळं कर्मभुप्रतिबद्धतिय॑क्कर्मभूमियोळं लवणोदकालोदसमुद्रंगळोठं यथायोग्यमागि स्थलचरखचरजलचरगर्भजपर्याप्तपंचेंद्रियसंज्ञितिर्यग्जीवंगळागिये नियमदिदं जनियिसुवरु। एक दोडा सप्तमपृथ्विय नारकरुगळनिबरु तिर्यगायुष्यमल्लदितरायुत्रितयमं नियदिदं कट्टरप्पुरिदं ॥ तत्थतणविरदसम्मो मिस्सा मणुवदुगमुच्चयं णियमा। बंधदि गुणपडिवण्णा मरंति मिच्छेव तत्थ भवा ।।५३९।। तत्रतनाविरतसम्यग्दृष्टिम्मिश्री मनुष्यद्विकमुच्चकं नियमाद् बध्नाति गुणप्रतिपन्नाः नियंते मिथ्यावृष्टावेव तत्र भत्राः॥ तत्रतनाविरतसम्यग्दृष्टिम्मिश्रः तत्सप्तमभूसंजातासंयतसम्यग्दृष्टियं मिथ्यादृष्टियं स्वस्वगुण- १० स्थानंगळोळे मनुष्यद्वितयमुमुच्चैग्र्गोत्रमुमं नियमदिदं कटुवरु । तत्र भवाः तत्सप्तमभूमिजरप्पनारकरुगळ गुणप्रतिपन्नाः सासादनमिश्रासंयतगळागिर्दवरुगळं स्वस्वायुःस्थितिक्षयवदि मृत. रप्पोडे मिथ्यादृष्टावेव नियमदिदं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोद्दिद बळिक्क नियंते मृतरप्परु । अंतु मृतरागि बंदु मुंपेन्द नियमस्थानदो तिय्यंचरागि जनिसुवरे बुदत्थं । नारकनुमागि तिर्यग्घोरमहादुःखयोनियोळपुट्टदे नीं। सारु श्रीजिनपदम बेरिदं कोळु दुरघवृक्षाटवियं ॥ अनंतरं तिर्यग्गतियोलु मृतरागिबंद जीवंगळावावडयोळावाव गतिगळोळु पुटुगुम दोर्ड पेन्दपरु : २० दित्रयोक्तजीवेष्वेव तीर्थकरोनेषु, अरिष्टाजानां पुनश्चरमांगोनेषु, मघवोजानां पुनः सकलसंयम्यूनेषु, माघवोजानां देशसंयतासंयतमिश्रसासादनजिततादमिथ्यादृष्टितिर्यवेव अन्यायुषस्तेषामबंधात् ॥५३८॥ तत्रतन:-सप्तमनरकोत्पन्न: असंयतसम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च स्वस्वगुणस्थाने मनुष्यद्विकमुच्चैर्गोत्रं च नियमेन बध्नाति तत्र भवाः सासादनमिश्रासंयतगुणप्रतिपन्नास्तु यदा म्रियते तदा मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने गत्वैव ॥५३९॥ नारकी मरकर उत्पन्न नहीं होते। अंजना नरकके नारकी तीर्थकर बिना, अरिष्टावाले चरमशरीरी बिना, और मघवीवाले सकल संयम बिना पूर्वोक्त तियेच या मष्नयों में उत्पन्न २५ होते हैं । माघवीवाले नारकी देशसंयत, असंयत, मिश्र और सासादन बिना पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि तियं चोंमें ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि सातवें नरकमें तिथंच आयुके सिवाय अन्य आयुका बन्ध नहीं होता ।।५३८।। सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ जीव असंयत सम्यग्दृष्टी और सम्यग्मिध्यादृष्टि होकर अपने-अपने गुणस्थानमें नियमसे मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध करता ३० है। किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् सासादन, मिश्र और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त हुए जीव जब मरते हैं तब मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जाकर ही मरते हैं ।।१३९।। क-१०१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कमकाण्डे उदुगं तेरिच्छे सेसेग अपुण्ण वियलगा य तहा । तित्थूणण रेवि तहाsसण्णी घम्मे य देवदुगे || ५४० ॥ तेजोद्विकं तिरश्चि शेषैका पूर्णविकलाश्च तथा । तीर्थोननरेपि तथाऽसंज्ञो घर्मायां देवद्विके ॥ ५ ८०० तेजोद्विकं तिरश्चि तेजस्कायिकबादर सूक्ष्मपर्धामार्थ्यामजीवंगळं वायुकायिक बादरसूक्ष्मपर्यामार्थ्याप्तजीवंगळु नियमदद तिर्य्यग्गतियोळे जायंते एंदध्याहारिसल्पडुगुं । जनियिसुवरु | एकेंदोडा जीवंग तद्भवदोलु तिर्घ्यंगायुष्यमनल्लदितरास्त्रितयमं कट्टरेंब नियम टप्पु दरिंद मंतादोडा जीवंगळावर्डयोलावाव तिर्यग्जीवंगळो जनियिसुवरे दोडेरडुवरे द्वीपंगळोळु मुंपेदुत्तममध्यम जघन्यत्रशद् भोगभूमितिर्य्यगर्भजपर्याप्ता पर्याप्तपंचेंद्रियसंज्ञितिर्यग्जीवंगळमं १० मत्तं तिर्यग्भोगावती प्रतिबद्धंगळप्प मुंपेद द्वीपंगळाद गर्भजपर्याप्त पंचेंद्रियसंज्ञिस्थलचरखचरतिग्जीवंगमं बिट्टु अशेषजगत्प्रदेशंगळोळिद्दं पृथ्वी कायिकबादर सूक्ष्मपर्याप्तापय्र्याप्त, अकायिकबादर सूक्ष्मपर्याप्तापय्र्याप्त, तेजस्कायिकबादरपर्याप्तापर्याप्त, सूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त वायुकायिकबादर सूक्ष्मपर्याप्तापर्य्याप्त, साधारण वनस्पतिबादर सूक्ष्मपर्याप्तावप्त, प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिपर्याप्तापर्याप्त अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिपर्याप्तापर्य्याप्त, चतुरद्रिये पर्याप्तापर्य्याप्त असंज्ञितिर्य्यग्जीवंगळो यथायोग्यचराचरतिर्य्यग्जीवं गळागि जनियिसुव बुदत्थं । शेषैकेंद्रियापूर्ण विकलाश्च तथा ई पेळल्पट्ट स्थावरतेजस्कायिक वायुकायिकबादर सूक्ष्मपर्याप्त तिर्य्यं केंद्रियजीवंगळल्लद शेषाशेषपर्याप्तपृथ्वी कायिक बादरसूक्ष्म अप्कायिकपर्याप्त२० बादरसूक्ष्म साधारण वनस्पतिनित्यनिगोंद पर्याप्तबादर सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोदपर्याप्तबादर सूक्ष्म १५ द्वींद्रियपर्याप्तापर्याप्त, चींद्रियपर्याप्ता पर्याप्त, पंचेंद्रियपर्याप्ता पर्याप्त, संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्त मेल्लियादोडं स्वस्वोपाज्जित कम्र्मोदय व शदिदं बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ततेजोवातकायिकाः नियमेन तिर्यग्गतावेवोत्पद्यते सर्वभोगभूमिजपंचेंद्रिय वर्जित - त्रिलोकोदरवति सर्वबादर सूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त पृथ्व्यप्तेजोवायु साधारणपर्याप्तापर्याप्तप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठित प्रत्येकद्वित्रि - चतुः संज्ञासंज्ञिपंचेंद्रियतिर्यगायुषामेव बंघात् । शेषाः बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त पृथ्व्यप्कायिक नित्यचतुर्गतिनिगोदाः बादर और सूक्ष्मपर्याप्त अपर्याप्त तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव मरकर नियम२५ से तियंचगतिमें ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उनके सर्वभोगभूमिज पंचेन्द्रियों को छोड़कर सर्व त्रिलोकवर्ती सर्व बादर सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारण तथा पर्याप्त अपर्याप्त प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन सर्व तिर्यंचोंकी ही आयुका बन्ध होता है ! इससे तेजकाय वायुकायके जीव मरकर इन सर्वं प्रकारके पंचेन्द्रिय तियंचों में ही उत्पन्न होते हैं किन्तु भोगभूमिके तिर्यंचों में ३० उत्पन्न नहीं होते । १. चतुग्र्ग तिनिगोद । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठित पय्र्याप्ततिघंगे केंद्रियजीवंगळं शेषाऽशेषाऽपूर्ण आ तेजस्कायिक वायुकायिकबादर सूक्ष्मापर्य्याप्ततिर्य्यगेकेंद्रियंगळल्लद पृथ्वीकायिकबादर सूक्ष्मापर्य्याप्त अप्कायिकबादरसूक्ष्मापय्र्याप्तरुं साधारण वनस्पतिकाधिक नित्य निगोदबादर सूक्ष्मापय्र्याप्तरुं चतुग्र्गतिनिगोदबावरसूक्ष्मापर्याप्त, प्रतिष्ठित प्रत्येकापर्य्याप्त अप्रतिष्ठित प्रत्येकापर्य्याप्त, द्वोंद्रियत्रींद्रियचतुरिप्रियापर्याप्त विकलाश्च द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपर्याप्तरुमितो तिर्य्यग्जीवंगळु स्वस्वायुःस्थिति- ५ क्षयवर्शाददं मृतरागि बंदु तथा तिरर्राश्च तथा शब्दं तिरश्चि एंदितु संबंधिसल्पडुगुम कारण तेजस्काfor वायुकायिक बादरसूक्ष्मपर्य्याप्तापर्य्याप्त जीवंगळिगे जननस्थानजी व भेदंगळम तु पेल्पट्टतयुमी जीवंगळगमा तिय्यंग्जोवंगळ तिर्य्यग्गतियोळं तीर्थोननरेपि तीर्थंकररुगळल्लव मनुष्यरोळं जनियिसुवरी जीवंगळनितु तिर्य्यग्मनुष्यायुष्यंगळोन्यतरायुष्यमं कट्टुवरे बागमोक्ति ॥ १० यिल्लि नित्यचतुर्गतिसूक्ष्मनि गोर्दादिदं पोरमदुत्तरानंतरभवबोळन्यत्रानुत्पन्ननागि बंदु मनुष्यनागि पुट्टिद मनुष्यं सम्यक्त्वमुं देशसंयममुं दोरेकोगुं । सकलसंयमं संभविसदेबी विशेषोपदेशमरियल्पडुगुं । नि नियमेन गां क्षेत्रं शरीरमनंतानंतजीवानां ददातीति निगोदंक । एकेंद्रियस्थावर विशिष्टसाधारणोत्तरोत्तर प्रकृति निगोदौदा रिकशरीरनामकम्र्म्मोदयाज्जातोपि निगोदजीव: एंदी निगोदजीवंर्ग नोकम्र्म्माहारं साधारणमादोडं कर्माहारमसाधारणमक्कुमा- १५ दोडमोदु निगोदशरीरदोळि जीवंगळु विवक्षितवर्त्तमानकालदिदं पेरगणनंतानंतातीतकालदोळाव सिद्धपरमेष्ठिगळु सर्वजीवराश्यनंतेक भागप्रमितरप्परंतादोडमभव्यसिद्धराधियं नोडलनंतगुणमप्परं तप्प सिद्धराशियं नोडलुमनंतगुणितमप्पुवी निगोदजी बंगळर्ग नोकर्माहारमुमुच्छ्वासनिश्वासमं साधारणमप्पुर्दारदं साधारणनिगोदंगळे दु संज्ञियक्कुमा निगोदजीवंगळो दु शरीरबोळ बादरंगळं सूक्ष्मंगळं । मिश्रमिल्ल । बादरशरीरंगळोळ बादरंगळे । सूक्ष्मशरीरबोळ २० सूक्ष्मंगळे थिर्पुर्व वरियल्प डुवुवु । आ बादर सूक्ष्मशरीरंगळोळिष्पनंतानंतजीवंगळोळो 'दु जीवं मृतमादोर्ड कनिगोदशरीरस्थानंतानंतजी वंगळनितक्कं मरणमक्कुमोदु शरीरदोळोंदु जीवक्कुत्पत्तियादोडनंतानंतजी वंगळगुत्पत्तियक्कु । मी निगोदजीवंगळ सर्व्वशरीरंगळु म संख्यात लोकप्रमितंगळप्पुवा शरीरंगळं साधारणवनस्पतिस्कंधंगळोळं प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीरस्कंधंगळोळि - पर्याप्तापर्याप्त प्रतिष्ठिता प्रतिष्ठित प्रत्येकाः पर्याप्तापर्याप्त द्वित्रिचतुरिंद्रियाश्च तेजोद्विकोक्ततिर्यक्षु त्रिषष्टिशलाका - २५ पुरुषवर्जितमनुष्येषु च । तत्र नित्यचतुर्गतिसूक्ष्मनिगोदागतमनुष्याः सम्यक्त्वं देशसंयमं व गृह्णीयुर्न सकलसंयम ८०१ शेष बादर सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, पृथ्वीकायिक, अष्कायिक, नित्य निगोदिया, चतुर्गतिनिगोदिया, पर्याप्त अपर्याप्त प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित प्रत्येक, पर्याप्त - अपर्याप्त दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, सब जीव मरकर तेजकाय वायुकायके समान उक्त सब तियंचोंमें और तरेसठ शलाका पुरुष रहित मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । किन्तु इतना विशेष है कि नित्य ३० और चतुर्गति सूक्ष्म निगोद से आकर मनुष्य हुए जीव सम्यक्त्व और देशसंयमको तो ग्रहण करते हैं किन्तु सकलसंयमको ग्रहण नहीं करते, ऐसा परम्परागत उपदेश है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ गो० कर्मकाण्डे प्वा प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरंगळुमवावुर्वेदोर्ड पृथिव्यादिचतुष्टयमुं केवल्याहार देवनारकांगंगळमें टुमप्रतिष्ठितंगळु । शेषाशेषजीवशरीरंगळनितुं प्रतिष्ठितंगळप्पुवु । असंज्ञि तथा तिरश्चि तीर्थोननरेपि असंज्ञिजीवनुं आ पृथ्व्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिप्रत्येकवनस्पति द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियसर्वबादरसूक्ष्मपर्याप्तापप्तिजीवंगळु स्वस्वायुःस्थितिक्षयवदिदं भोगभूपंचेंद्रियतियंचरं बिटु भुवनत्रयोदरवत्तिसकेंद्रियबादरसूक्ष्मविकलत्रयासंज्ञिसंज्ञि-पंचेंद्रिय-पर्याप्तापर्याप्त-तिथ्यचरोळेतु पुटुवरंता तिर्यग्गतियोळं तीर्थोनसामान्यमनुष्यरोळमसंज्ञिजीवं पुटुगुं। मत्तमाजीवंगळ्पुट्टल्नेरेयद प्रथमनरकदोळं भावनरोळं व्यतरोळं पुटुगुमे ते दोडे असंज्ञिजीवं नरकायुष्यक्कं देवायुष्यक्कमुत्कृष्टदिदं पल्योपमासंख्येयभागमने स्थितिबंधर्म माळकुमप्पुरदं ज्योतिरमर रोल्पुट्टनेके दोडा ज्योतिरमररुगळुत्कृष्टस्थिति पळितोपममक्कुं । जघन्यस्थिति पळितोपमाष्टम१० भागमक्कुमप्पुरिदं प्रथमनरकोळ पल्योपमासंख्येयभागमात्रस्थिति संभविसुगुमप्पुरिदमा प्रथमनरकदोळे पुटुगुं । द्वितीयपृश्चियोळसमयाधिकैकसागरोपमं जघन्यस्थितियप्पुरिदमा द्वितीयादिनरकंगळोळमसंज्ञिजोवं पुटुवनल्लं। स्वस्वायुःस्थितिक्षयवदिदं पूर्वभवत्यागमागुत्तिरलुत्तरानंतरभवोत्पत्तिनियममिल्लल्लेंडयोळप्पु दरियल्पडुगुमेके दोडनादिसंसारदोळु द्रव्यादि पंचपरावर्त्तनंगळिदं मेट्टद नेल, पुट्टद योनियुमिल्लप्पुरिदं॥ सण्णीवि तहा सेसे णिरये भोगेवि अच्चुदंतेवि । मणुवा जांति चउग्गदिपरियंतं सिद्धिठाणं च ॥५४१॥ संज्यपि तथा शेषे नरके भोगेऽप्यच्युतांतेऽपि । मनुष्या यांति चतुर्गतिपथ्यंतं सिद्धिस्थानं च ॥ संश्यपि तथा संजिपंचेंद्रिय तिय्यंचजीवनु मसंज्ञिजीवनंते भुवनत्रयोदरवत्ति सर्वैकेंद्रियः बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त विकलत्रयपर्याप्तापर्याप्त असंज्ञिसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्त जीवंगळोळु २० स्वायुःस्थितिक्षयवदिदं तिर्यग्गतियोळं पुटुगुं। तीर्थकरचक्रवत्तिबलदेववासुदेवप्रतिवासुदेव रहितपर्याप्तापर्याप्तमनुष्यरोळं प्रथमनरकदोळं भावनामरनिकायदोळं व्यंतरामरनिकायदोळं पुटुगु मसंज्ञिजीवं पुट्टल्नेरेयद शेषद्वितीयादिषट्पृथ्विगळोळं ज्योतिरमररोळं सौधम्मधिच्युताव. मित्युपदेशः । असंज्ञी पृथ्वीकायिकोक्ततिर्यग्मनुष्येषु प्रथमनरके भावनव्यंतरयोश्च न शेष देवनारकेषु । कुतः ? तदायुःस्थितिबंधस्योत्कृष्टेन पल्यासंख्येयभागमात्रत्वात् ।।५४०॥ २५ संज्ञितिर्यङप्यसंझ्युक्तसर्वजीवेषु सर्वनारकेषु सर्वभोगभूमिजेष्वच्युतांतसर्वदेवेषु च जायते। कर्मभूमि असंज्ञी पंचेन्द्रिय मरकर पृथिवीकायिकके समान तियंच मनुष्योंमें, प्रथम नरकमें और भवनवासी तथा व्यन्तरदेवोंमें उत्पन्न होता है, शेष देवों और शेष नारकियोंमें उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि असंज्ञीके आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है ।।५४०॥ संज्ञी तिथंच भी असंज्ञी पंचेन्द्रियवत् सब जीवों में तथा सब नारकियोंमें, सब भोगभूमियोंमें और अच्युत स्वर्ग पर्यन्त सब देवोंमें उत्पन्न होता है। कर्मभूमिया पर्याप्त मनष्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सानमाव कल्पजरोळं स्वायुःस्थितिपरिक्षयदिदमुत्तरानंतर भवदोम्पुटुगुं। मनुष्याः कर्मभूपर्याप्तमनुष्यरु स्वायुःस्थितिपरिक्षयवदिदं नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिगळोनितनितु जीव भेदंगळोळ वनितरोळं यथा प्रवचनं तथैव संहनन विशेषगळिदमेल्ला नरकंगळोळं त्रसस्थावरपर्याप्तापर्याप्त कर्मस्थित्यनुभागसंस्थानसंहननादिविशेषंगळिदं सर्वतियंचरोळं त्रसपर्याप्तापप्तिमनुष्यगति संस्थानसंहनन कर्मस्थित्यनुभागविशेषगाळदं तीर्थकरचक्रधरबलदेव वज्जित सर्वमनुष्यरोळं ५ असपर्याप्त देवगति देवायुर्वं क्रियिकशरीर संस्थानवर्णगंधरसस्पर्शकर्मस्थिति कर्मानुभागादिविशेषगळिदं भवनत्रयाविसर्वार्थसिद्धिपथ्यंतमाद सर्ववेदनिकायदोळं स्वायुःस्थितिक्षयवदिदं पोगि पुटुवरु-। मपर्याप्तमनुष्यं कर्मभूमिपर्याप्तापर्याप्तमनुष्य रोळं सर्वत्र सव्र्वतिर्यग्जीवंगळेनितोळवनितरोळं स्वायुःस्थितिक्षयवदिदमनंतरोत्तरभवदोळपुटुगुं। मुंपळदरडुवरे द्वीपद मूवत्तुं भोगभूसम्यग्दृष्टिमनुष्यरुगळं तिर्यग्जघन्य भोगावनिज सम्यग्दृष्टि तिव्यचरुगळं सौधर्म. १० कल्पद्वयदोळपुट्दुवरु । तत्रतनमिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टिमनुष्यरुगळं कुमानुष्यरुगळं स्वायुःस्थितिक्षयवदिद मनंतरोतरभवदोळु भवनत्रयामररागि पुटुवरु । सिद्धिट्ठाणं च पंचदशकर्मभूमिगळोळंरडुवर द्वीपद मनुष्यलोकदोकुळ मनुष्यरुगळोकेलंबरु तीर्थकर रुकेलंबरु चरमांगरु केलंबर सामान्यमनुष्यरप्परवाळोळु तीथंकरमनुष्यरुगळं चरमांगरुगळुमप्प मनुष्यरुगळु तिर्यक्संजि जीवनेय्दल्नेरेयव स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धिस्थानमुमनेय्दुवर ॥ आहारगा दु देवे देवाणं होदि कम्म तिरियणरे । पत्तेयपुढवि आऊ बादरपज्जत्तगे गमणं ॥५४२ ॥ आहारका तु देवे देवानां भवति कर्म तिर्यग्नरे । प्रत्येकपृथ्व्यब्बादरपर्याप्तके गमनं ॥ आहारकादेहान्मृतानां गमनं देवे भवतीति वाक्यसंबंधः स्यात् । प्रमत्तसंयतरुगळाहारक देहदिदं मृतरावरादोडे कल्पजरोळं कल्पातीतजरोळं जननमक्कुं। देवानां गमनं सौधर्मादिकल्पज. २० मनुष्याः पर्याप्ताः संयुक्तसर्वजीवेष कल्पातीतदेवेषु च, तदपर्याप्ताः पर्याप्तापर्याप्तकर्मभूमिसर्वतिर्यग्सामान्यमनुष्येषु, त्रिंशद्भोगभूमितियंग्मनुष्या जघन्यतिर्यग्भोगभूमितियंचश्च सम्यग्दृष्टयः सौधर्मद्वये तन्मिथ्यादृष्टिसासादनाः कुमनुष्याश्च भवनत्रये, चरमांगाः स्वात्मोपलब्धिलक्षणं सिद्धिस्थानमाप्नुवंति ॥५४१।। आहारकदेहेन मृतप्रमत्तसंयतानां गमनं वैमानिकेष्वेव भवति । देवानामुत्पत्तिः सर्वार्थसिद्धयंतानां पंचेन्दियवत सब जीवों में और कल्पातीत अहमिन्द्र देवोंमें उत्पन्न होता है। अपर्याप्त र मनष्य कर्मभूमिके पर्याप्त-अपर्याप्त सब तियंचोंमें और सामान्य मनष्यों में उत्पन्न होते हैं। तीस भोगभूमिके तियंच और मनुष्य तथा असंख्यात द्वीप समुद्र सम्बन्धी जघन्य तियंच भोगभूमिके नियंच यदि सम्यग्दृष्टी होते हैं तो सौधर्म ईशानमें उत्पन्न होते हैं। और मिथ्यादृष्टि या सासादन तथा कुभोगभूमिके मनुष्य भवनत्रिकके देवोंमें उत्पन्न होते हैं। और चरमशरीरी मनुष्य स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिस्थानको प्राप्त होते हैं ।।५४१॥ आहारकशरीर के साथ मरे प्रमत्त संयतोंका गमन वैमानिक देवोंमें ही होता है। १.णं सणिक-मु०। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ गो० कर्मकाण्डे रुगां कल्पातीतजरुगळगं स्वस्वायुस्थितिक्षयवर्शादिदं मृतरादरादोर्ड पंचदशकर्मभूमितिर्व्यचपंचेंद्रिय संज्ञिपय्र्यापरोळं स्वयंभूरम द्वीपार्द्धमुं स्वयंभूरमणसमुद्रमुर्म बिवरोळ पर्याप्ततिथ्यंक्पंचद्रियसंज्ञिस्थलचरखचरजलचर तिच रुगळुमागियुं यथायोग्यं पुटुवरु । नाल्वत्तय्यदुं लक्षयोजनप्रमाणमप्प मनुष्यलोकद कर्म्मभूमिगळपदिनदरोळु तीर्थंकररुं चक्रधररुं बलदेववासुदेव रुगळे ब ५ विशेष पुरुषरुं सामान्य मनुष्यरुमागियुं पुटुवरु । आकल्पजरुगळोळ सौधर्मद्वयदेवळ प्रत्येक वनस्पति पृथ्व्यब्बादरपर्य्याप्तजीवंगळोळं जननमक्कुं ॥ भवतियाणं एवं तित्थूणणरेसु चैव उपपत्ती । ईसाता' एगे सदरदुगंता हु सन्णीसु || ५४३ ॥ भवनत्रयाणामेवं तीर्थोननरेषु चैवोत्पत्तिः । ईशानांतादेकेंद्रिये शतारद्विकांतात्खलु संज्ञिषु ॥ भवनत्रयदेववर्कगळगं कल्पजह पेळदंते मनुष्यलोक तिर्य्यग्लोकंगळ प्रतिबद्धकर्मभूमिगळोल संजातपचेंद्रियसंज्ञिपतिर्ध्यक् जीवंगळलं कर्मभूमिप्रतिबद्ध म्लेच्छखंडाखंड - पर्याप्तमनुष्यरो तीर्थंकररुं बलदेव वासुदेवा दिगळल्लद मनुष्यरुगळुमागियुं जनिसुवरु | ईशानकल्पावसानादितो देवानां गमनं भवनत्रयं मोदलागीशानकल्पावसानमाद देवकर्कळ गळगेकेंद्रिय जीवंगळोळं जननमक्कुं । शतारद्विकांतादितो देवानां गमनं संज्ञिषु खलु भवनत्रयं मोदगोंडु १५ शतारसहस्रा रकल्पदिदमित्तलाद देवकर्कलुगळर्ग मनुष्यलोकप्रतिबद्ध पंचदशकर्मभूमिजपय्र्याप्तपंचेंद्रिय संज्ञितिग्जीवंगळोळं तिर्य्यग्लोककम्मं भूमिप्रतिबद्धस्वयंभूरमण द्वीपावर भागयुत स्वयंभूरमण चरमसमुद्रदोळं लवणोदकाळोदसमुद्रंगळोळं पर्याप्त पंचेंद्रियसंज्ञि स्थलचरखचरजलचर तिर्य्यग्जीवंगळोळं जननमक्कुं । यितु चतुग्र्गतिजोवंगळणे तद्भवपरित्यागमा गुत्तिरलनंतरभव. ग्रहणनियम लक्षणच्यवनोपपादंगल संक्षेपदिदं पेळपट्टवु ॥ क || नानाविधजीवंगळोळेनुं तोडळिल्लदंतु पुटुव दुःखं । नानागतिजग्गेर्दरिदेनुं तडदिरवे पिडि जिनश्रीपदमं ॥ १० २० पंचदशकर्मभूमि मनुष्येष्त्रेव नान्यत्र । सहस्रारांतानां तेषु च पंचदशकर्मभूमिलवणोदककालोदक स्वयंभू रमणद्वोपपरार्धतत्समुद्रसंज्ञिपर्याप्तजलस्थलखच रतिर्यक्षु च ईशानातानां तेषु च बादरपर्याप्त पृथ्व्यप्प्रत्येक वनस्पतिभेदैकेंद्रिये च । भवनत्रयाणां तेष्वपि मनुष्येषु तीर्थकरादित्रिषष्टिशलाकापुरुषवर्जितेष्वेव ।। ५४२-५४३ ।। २५ सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त देवोंकी उत्पत्ति पन्द्रह कर्मभूमियोंके मनुष्यों में ही होती है, अन्यत्र नहीं । सहस्रार पर्यन्त देवों की उत्पत्ति उन मनुष्यों में तथा पन्द्रह कर्मभूमि, लवण समुद्र, कालोदसमुद्र, स्वयंभूरमण द्वीपका अपरार्ध, स्वयंभूरमण समुद्र में संज्ञी पर्याप्त जलचर, थलचर, नभचर तियंचोंमें होती है । ईशान पर्यन्त देवोंकी उक्त मनुष्य तियंचोंमें और बादर पर्याप्त पृथ्वी, अप, प्रत्येक वनस्पति एकेन्द्रियों में होती है । भवनत्रिकके देवोंकी भी उत्पत्ति ईशान स्वर्गवत् जोनना । किन्तु मनुष्यों में वे तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका पुरुषोंमें उत्पन्न नहीं होते हैं ॥५४२-५४३॥ ३० १. ईसाणंताणेगे सदरदुगंत.ण सण्णीसु । मु० । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८०५ अनंतरं नामकर्मबंधस्थानंगळं चतुर्दश मार्गणगळोळ गाथाष्टकदिदं योजिसिदपरु : णामस्स बंधठाणा णिस्यादिसु णव य वीस तीसमदो । आदिमछक्कं सव्वं पण छण्णव वीस तीसं च ।।५४४।। नाम्नो बंधस्थानानि नारकादिषु नव विशतिस्त्रिशदत-। आदितनषट्कं सर्व पंच षड् नव विशतिस्त्रिशच्च॥ नामकर्मबंधस्थानंगळु नरकादिचतुर्गतिगळोळ क्रमदिदं नरकगतियोल नव विंशतिप्रकृतिस्थानमुं त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमेंबरडं स्थानंगळने हुं नरकंगळ नारकार्कळु कटुवरु । नारकगति २९ । ३० । अल्लि नवविंशतिप्रकृतिस्थानमं पंचेंद्रियपर्याप्ततिय॑ग्गतियुतमागियु पर्याप्तमनुष्यगतियुतमागियु माघविषय्यंतमाद नारकर कटुवरु। त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमं पंचेंद्रियपर्याप्ततियंग्गतियुमुद्योतनामयुतमागियु माघविपश्यंतमाद नारकरु कटुवरु । पर्याप्तमनुष्यगति- १० तीर्थयुतमागियु मेघे पर्यंतमाद नारकर कटुवरु । २९ । ति ।म। ३० । ति । उ।म। ति ॥ यिल्लि नरकगत्यादिमागणेगळोळ गुणस्थानविवक्षे इंदं बंधस्थानंग लु ग्रंथगौरवभयदिदं योजिसल्पडवा योजनिकयु सुगममेयककुमते दोडे गतींद्रियपर्याप्तादिविशेषंगळु प्रतिस्थानं पेळल्पडुगुमप्पुरिंदमंतु पेळल्पडुत्तिरलु मिथ्यादृष्टिनारकरुं सासादननारकरुंगळु तिर्यग्गतियुतमागियु मनुष्यातियुतमागियु नवविंशतिस्थानमं कटुवरु। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकरनिबरु मनुष्य. १५ गतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरेक दोडे सासादननोळु तिर्घग्गतिद्वयमुमुद्योतमुं एवं चतुर्गतिजानां च्यवनोपपादान् संक्षेपेणोक्त्वाधुना तानि बंघस्यानानि चतुर्दशमार्गणासु गाथाष्टके नाह नामबंधस्थानानि नरकादिगतिषु क्रमेण नरकगतो नवविंशतिकं त्रिंशत्कं च। तत्र नवविंशतिक पंचेंद्रियपर्याप्त तिर्यग्गतियुतं पर्याप्तमनुष्यगतियुतं च मववोपर्यंता बध्नति । त्रिंशत्कं पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियतमद्योतयतं च माधवीपयंताः बंध्नंति । पर्याप्तमनुष्यगतितीर्थयुतं मेघा यंता बघ्नंति । मार्गणासु गुणस्थान- २० विवक्षया तद्योजनिका सुगमा, गतींद्रियपर्याप्तादिविशेषाणां प्रतिस्थानं प्राक् प्रतिपादनात् । तत्र नारका मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्च तिर्यग्गतियुतं मनुष्यगतियुतं च नवविंशतिकं बघ्नंति । सम्यग्मिथ्यादृष्टयः मनुष्यगतियुतमेव । इस प्रकार चारों गति के जीवोंका जन्ममरण संक्षेपसे कहकर अब उन नामकर्मके बन्धस्थानोंको चौदह मार्गणाओंमें आठ गाथाओंसे कहते हैं नामकर्मके बन्धस्थान नरकादि गतियोंमें-से क्रमसे नरकगतिमें उनतीस और तीस दो ३० बँधते हैं। उनमें से पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियं चगति सहित और मनुष्यगति सहित उनतीसको मघवी पर्यन्त नारकी बाँधते हैं। और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित उनतीसको व उद्योत सहित तीसको माधवी पर्यन्त नारकी बाँधते हैं। और पर्याप्त मनष्यगति तीर्थकर सहित तीसके स्थानको मेघा पृथ्वी पर्यन्त ही बाँधते हैं। मार्गणाओंमें गुणस्थानोंकी विवक्षासे बन्धस्थानोंका लगाना सुगम है; क्योंकि गति, ३५ इन्द्रिय, पर्याप्त आदि विशेषोंको पहले प्रत्येक स्थानके साथ कहा है। उनमें से मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टी नारकी तिर्यंचगति सहित और मनुष्यगति सहित उनतीस के स्थानको बाँधते हैं। सम्यक् मिथ्यादृष्टि नारकी मनुष्यगति सहित ही उनतीसका स्थान बाँधते हैं। , Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ गो० कर्मकाण्डे व्युच्छित्तियागि पोदुदप्पुरिदं । असंयतसम्यग्दृष्टिनारकरनिबरु मनुष्यगतियुतमागि नविंशति. स्थानमं कटुवरु । केलंबरुग मोदल मूरु नरकंगळोळु मनुष्यगतिपर्याप्तदोडने तीर्थयुतमागि कटुवर दिदु मोदलाद योजनिक सुगममक्कुमें बुदर्थमदु कारणमागि यथा प्रवचनं तथा परमागम कोविदरिदं गुणस्थानविवयिंदमुमा नामकर्मबंधस्थानंगळु योजिसल्पडुवम्मिदं ग्रथगौरव५ भयदिदं योजिसल्पायु । अतः मुंदण तिर्यग्गतियोछु तिर्यग्जी बंगळ आदितनषट्स्थानंगळं कटुवरु । तिर्यग्गति । २३ । २५ । २६ । २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ यिलिल तिर्यग्गतियोगितर्यग्जीवं. गळु त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमं स्थावरबादरापर्याप्त केंद्रिययुतमागियु स्थावरसूक्ष्मापर्याप्ततिर्यग्गत्येकेंद्रिययुतमागियु कटुवा । पंचविंशतिप्रकृतिस्थानमनेकेंद्रियबादरपर्याप्तयुतमागियु मत्तमेकेंद्रियसूक्ष्मपर्याप्तयुतमागियु त्रसापर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रियतिर्यग्गतियुत१० मागियु त्रसापर्याप्तमनुष्यगतियुतमागियु कटुवरु । षड्विंशतिप्रकृतिस्थानमं पृथ्वीकाय विशिष्टबादरैकेंद्रियातपनाम तिर्यग्गतियुतमागियु मत्त तेजोवायुसाधारणवनस्पतिरहितशेषै. केंद्रियबादरपर्याप्तोद्योततिर्यग्गतियुतमागियु कटुवरु । अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं त्रसपर्याप्त. नरकगतियुतमागियु कटुवर । सपर्याप्तदेवगतियतमागियु कटुवरु । नविंशति स्थानमं त्रसपर्याप्त द्वींद्रियत्रींद्रिय [चतुरिंद्रिय] पंचेद्रियतिय॑ग्गतियुतमागियु कटुवर । त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं १५ तिर्यग्गतिद्वयोद्योतबंधस्य सासादने छेदात् । असंयता मनुष्यगतियुतं च नवविंशतिकं तत्केविदाद्यत्रिनरके मनुष्यगतिपर्याप्ततीर्थयुतं त्रिंशत्कं च । तिर्यग्गती आद्यान्येव षट् । तत्र त्रयोविंशतिक स्थावरबादरापर्यासकेंद्रिययुतं स्थावरसूक्ष्मापर्याप्ततिर्यग्गत्येकेंद्रिययुतं च । पंचविंशतिकमेकेंद्रियबादरपर्याप्तयुतमेकेंद्रियसूक्ष्मपर्याप्तयुतं, त्रसापर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रिययुतं असापर्याप्त मनुष्यगतियुतं च । षड्विंशतिकं पृथ्वीकायविशिष्ट बादरैकेंद्रियातपतिर्यग्गतियुतं तेजोवायुसाधारणोनद्रियं बादरापर्याप्तोद्योततियंग्गतियुतं च। अष्टाविंशतिक २० सपर्याप्सनरकगतियुतं पर्याप्तदेवगतियुतं च । नवविंशतिकं असपर्याप्तद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियतिर्यग्गतियुतं क्योंकि तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी और उद्योतके बन्धकी व्युच्छित्ति सासादनमें ही हो जाती है। असंयत सम्यग्दृष्टी नारकी मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध करते हैं। उनमें से आदिके तीन नरकोंमें कोई-कोई मनुष्यगति पर्याप्त तीर्थ कर सहित तीसका बन्ध करते हैं। तियंचगतिमें आदिके छह ही बन्धस्थान हैं। उनमें से तेईसका बन्धस्थान स्थावर २५ बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय सहित या स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त तियंचगति एकेन्द्रिय सहित बँधता है। पच्चीसका बन्धस्थान एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त सहित, या एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त सहित, या त्रस अपर्याप्त दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति सहित या त्रस अपर्याप्त मनुष्यगति सहित बँधता है। छब्बीसका बन्धस्थान पृथ्वीकाय विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय आतप तियंचगति सहित या तेजकाय, वायुकाय साधारण बिना अन्य एकेन्द्रिय ३० बादर अपर्याप्त तियंचगति उद्योत सहित बँधता है। अठाईसका स्थान त्रसपर्याप्त नरकगति सहित या त्रस पर्याप्त देवगति सहित बँधता है। उनतीसका स्थान असपर्याप्त दो-इन्द्रिय, १. म मागियु देव । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवंतत्वप्रदीपिका ४०७ असबादरपर्याप्त द्रोंदियोंद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रियतिथ्यगतियुनोचतंयुतमागिय कटुवर बुवर्ष। लब्ध्यपर्याप्ततिप्यंचरुगळ. अष्टाविंशतिस्थानं पोरंगागि शेषस्थानंगळदुर कटुवरु ।.२३ ॥ २५ ॥ २६ । २९ । ३०॥ मनुष्यगतियोळु मनुष्यजीवंगळु सव्वं सर्वस्थानंगळं कट्टुवर ! मनुष्यगतिज २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३११॥ देवरातियोळु देवक्क, पंचविंशति षड्विंशति नव. विशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानचतुष्टयमं कटुवरु । देवगति । १५ । ए प २६ । ए आ उ २९ । ति । म ३० । ति उ । म ति । यितु गतिमार्गयो नामबंधस्थानंगळं पेन्द्रनंतरमिंद्रियादिमागणेगळोळु नामबंधस्थानंगळं पेन्दपरु : पंचक्खतसे सव्वं अडवीसूणादि छक्कयं सेसे । चदुमणवयणोराले सड देवं वा विगुव्वदुगे ॥५४५॥ पंचाक्षत्रसयोः सर्वमष्टविंशत्यूनाद्यषट्ककं शेषे । चतुर्मनोवचनौदारिकेष्वष्टौ देववत् ।। वैक्रियिकद्विके॥ यिद्रियमारगणेयोळनेवरं पंचेंद्रियमागणयो पेन्दपरल्लि सव्वं सर्वनामबंधस्थानमक्कुं। संदृष्टि :-पंचेंद्रियबंध २३ । ए अ । २५ । ए पात्र । अ । २६ । ए अ। उ । २८ । न । दे । २९ । बि । ति । च । अ । सं। म । दे। ति । ३० । बि । ति । च । ।सं। ति । उ। म। ति । दे। आ।३१। दे। ति। आ। ७।१।अ गति ॥ ई.पंचेद्रियत्वं नारकरोळमसंज्ञिसंज्ञिपंचेद्रिय... तिय्यंचरोळं मनुष्यरोळं देवकरोळमक्कुमेके दोडे भवप्रथमसमयदोळु पंचेंद्रियजातिनामकर्मअसपर्याप्तमनुष्यगतियुतं च । त्रिंशत्कं त्रसबादरपर्याप्तद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियतिर्यग्गत्युद्योतयुतं। लब्ध्यपर्याप्तेषु तान्येवाष्टाविंशतिक विना पंच । मनुष्यगतौ सर्वाणि । देवगतौ पंचविंशतिकषविंशतिकनवविंशतिकत्रिंशत्कानि ॥५४४॥ अथेंद्रियादिमार्गणास्वाह इंद्रियमार्गणायां पंचेंद्रिये कायमार्गणायां त्रसे च सर्वाणि, शेषासु एकैद्रियादिषु चतसृषु पृथ्वीकायादिषु .. तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति तिर्यंचगति सहित या त्रसपर्याप्त मनुष्यगति सहित बंधता है। तीसका स्थान त्रस बादर पर्याप्त दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, तिर्यंचगति और उद्योत सहित बँधता है। लमध्यपर्याप्त तियच अठाईसके बिना पाँच स्थान बाँधता है। मनुष्यगतिमें सब ही स्थान बँधते हैं। देवगतिमें पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस चार ही स्थान बँधते हैं ॥५४४॥ . इन्द्रियादि मार्गणाओंमें कहते हैं- इन्द्रिय मार्गणामें पंचेन्द्रियमें, और कायमार्गणामें त्रसमें सब बन्धस्थान हैं। शेष एकेन्द्रिय आदि चारमें और पृथ्वीकायादि पाँचमें आदिके छह स्थानों में-से अठाईस बिना पाँच-पाँच स्थान हैं । चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाय योगमें सब बन्धस्थान हैं। वैक्रियिक योग और वैक्रियिक मिश्रमें देवगतिकी तरह चार बन्धस्थान हैं ॥५४५।। १५ ३० १. एतद्गाथायाष्टोका अभयचंद्रनामांकितायां टीकायां विभिन्नतयोपलब्धा। सा च यथा-इंद्रियमार्गणायां २३ । ए अ । २५ । एप । । २६ । एआ। उ । २८ । न । दे। २९ । वि ति पत्र संम दे ती. ३० विति च असं ति उ म ती दै आ। ३१दै ती आ१ अगति । इद पंचेंद्रियत्वं नारकेषु क-१०२ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० गो० कर्मकाण्डे विपाकजीवविपाकित्यदिनाविन्भूतंगळप्प पंचइंद्रियाणि एष्विति पंचेंद्रिया जीवा ये वितु पंचेंद्रियत्वसादृश्यसामान्यव्यापकदिदं व्याप्त नारकतिथ्यंग्मनुष्यदेववर्कलोळु व्याप्यत्व दिवं पंचेद्रियत्वं सिद्धमक्कुमेर्क दोर्ड— ८०८ "व्यापकं तवतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव हि । व्याप्यं तु गमकं प्रोक्तं व्यापकं गम्यमिष्यते ॥" एंदितु व्यापकमप्प पंचेंद्रियत्वं तन्निष्ठमुमतन्निष्ठमुमक्कुं । व्याप्यं तन्निष्ठ मेयपुर्वारदं पंचेंद्रियत्वं नारकरोळं तिय्यंचादिगळोळ मक्कुं । नारकत्वं नारकरोळेयक्कुं तिर्य्यंगादित्वं तिर्य्यगाविगळोळेयक्कुमेंबुवत्थं । मत्तं तद्भव - सामान्यपेक्षयदं ॥ "धर्मे धर्मेन्य एवात्थों धम्मिणोऽनंतधर्म्मणः । अंगित्वेन्यतमांतस्य शेषांतानां तदंगता ॥ " - आप्तमी० २२ का० । पंचसु च मार्गणासु तदादिषट्कमष्टाविंशतिकं विना, चतुश्चतुर्मनोवाग्येोगेऽददारिककाययोगे च सर्वाणि वैक्रियिकतन्मियोगयोर्देवगत्युक्तानि चत्वारि ॥ ५४५ ॥ विशेष – केशव वर्णी की कन्नड़ टीका गा. ५४५ में विस्तारसे नयोंकी चर्चा है । उसके १५ संस्कृत रूपान्तरकार नेमिचन्द्र टीकाकारने उसे अपनी संस्कृत टीकामें छोड़ दिया है । इसीसे पं. टोडरमलजीकी टीकामें भी उसका अनुवाद नहीं आ सका है। गोम्मटसारके कलकत्ता संस्करण में कर्मकाण्ड पृ. ७०४ पर टिप्पण रूपमें लिखा है कि अभयचन्द्र के नामसे अंकित इसकी टीकामें नीचे लिखा अधिक पाठ पाया जाता है । हमने उसे कन्नड़ टीकासे मिलाया तो वह अक्षरशः मिल गया । इससे यहाँ उसका हिन्दी २० अनुवाद दिया जाता है - सं. [ यह पंचेन्द्रियत्व नारकियों में, संज्ञी-असंज्ञी तियंचोंमें, मनुष्योंमें और देवोंमें होता है । भवके प्रथम समय में पंचेन्द्रिय नामकर्मके उदयसे प्रकट पाँच इन्द्रियाँ इनमें हैं, अत: पंचेन्द्रिय हैं । पंचेन्द्रियत्वरूप सादृश्य सामान्य व्यापक है और वह नारक, तियंच, मनुष्य और २५ देवोंमें व्याप्त है । कहा है 'जो व्यापक होता है वह तत् में भी रहता है और अततुमें भी रहता है, किन्तु जो व्याप्य होता है वह तत् में ही रहता है । अतः व्यापक गमक होता है और व्यापक गम्य होता है ।' अतः पंचेन्द्रियत्व व्यापक है क्योंकि वह नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव सबमें पाया जाता है । किन्तु नारकपना नारकियों में ही पाया जाता है, तियंचपना तियं चोंमें ही पाया ३० जाता है । यह तद्भव सामान्यकी अपेक्षा जानना । कहा है संजय संज्ञितिर्यक्षु मनुष्येषु देवेषु च स्यात् । भवप्रथमसमये पंचेंद्रियनामोदयाविर्भूत पंचेद्रियाण्येष्विति पंचेंद्रियाः, तस्य सादृश्यसामान्यत्वात् । धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनंतधर्मणः । अंगित्वेऽन्यतमांगस्य शेषांतानां तदंगता ॥१॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका वस्तुविन पूर्व्वोत्तरपर्य्यायरूप धम्मंगळ विवक्षयदमनंत धम्मंणः अनंतानंतधम्मंगळनुळळ धम्मणः धम्मियप्प वस्तुविन धर्मे धर्मे तत्पर्य्यायरूप धम्मं धम्मंदष्पदे अन्य एवात्यः परतों दु तो मर्त्यमेकुमा पृथग्भूतात्थंगळोळु अन्यतमांतस्यांगित्वे सति ओदानुमोदु विवक्षितमप्प धर्ममदक्कवयवित्वमागुत्तं विरल शेषातांनां शेषभूत भविष्यत्पर्य्यायरूपधम्मंगळेल्लं तदंगता तदवयवता अववकवयवत्व मक्कु में वितर्ध्वता सामान्य विवक्षयदमनंतानंतधम्मंगळ धम्मियप्प ५ जीवन विवक्षितपंचेंद्रियत्वे कधम्मंक्के कां तत्व मुमने कातत्वमुं समत्यसल्पट्ट्वा जीवविवक्षितपंचेद्रियत्व धर्मेकांतम नयविषयमें 'दु पेळपट्टुवर्द ते बोर्ड "अनेकांतात्मकादर्थादपोद्धृत्यांजसान्नयः । तत् प्राप्त्युपायमेकांतं तदंशं व्यावहारिकं ॥ " [ 1 अनेकांतात्मकावत् अनेकवम्मत्मिकमध्य वस्तुविनतणवं तत्प्राप्त्युपायमेकांतं वस्तु १० विननेकांप्राप्तिगुपायभूतनिश्चयनयविषयमेकांतमं तवंशं व्यावहारिकं आ निश्चय नयविषयैकान्तवस्तुविनअंशमदुव्यवहार नयविषयमक्कुमवं अपोद्धृत्य बेक्कय्विद्दोंडवु नयः नयविषयमप्पुर्दारवं नयमक्कुं ॥ "प्रकाशयन्न मिया स्याच्छन्दात्तच्छास्त्रवत्स हि । मिथ्याऽनपेक्षोनेकांतक्षेपान्नान्यस्तदत्ययात् ॥ [ ८०९ 1 सः आ प्रमाणविषयार्थदेकदेशग्राहियध्व निश्चयव्यवहारनयं तां पिडिदिद्देकांतमं स्याच्छ ब्वात् स्यात्पवदिवं प्रकाशयन् बेळगिसुतं न मिथ्या स्यात् सुनयमक्कुं । हि तथा हि अंतयककुमते । यत् आउदो स्याच्छब्दात्प्रकाशयच्छास्त्रं स्यास्पदविदं विजू भिसुतंवि शास्त्रं न मिथ्या स्यात् । 'धर्मी वस्तु अनन्त धर्मवाली होती है। उसके प्रत्येक धर्मका प्रयोजन भिन्न-भिन्न होता है । उनमें से एक धर्मके मुख्य होनेपर शेष धर्म गौण हो जाते हैं ।' २० इस प्रकार ऊर्ध्वता सामान्यकी विवक्षासे भी उनके पंचेन्द्रियत्वका समर्थन होता है । वही पंचेन्द्रियत्व नयका विषय भी होता है। कहा है 'अनेकान्तात्मक अर्थसे उस अनेकान्तात्मक अर्थकी प्राप्ति के उपायभूत उसके एक-एक अंशको पृथक करके कहना नय है, वह नयका विषय है ।' प्रमाणके विषयभूत पदार्थ के एकदेशको ग्रहण करनेवाला निश्चयनय अथवा व्यवहार २५ पूर्वोत्तरपर्यायरूपधर्माणां विवक्षयाऽनंतधर्मणो धर्मे धर्मे धर्म घमं प्रति अन्य एवार्थः पृथक् पृथगेवार्थः । तेषु पृथगर्थेष्वभ्यतमस्य कस्यचिद्विवक्षितस्य धर्मस्याक्यवित्वे सति शेषधर्माणां तदंगता तदवयवता इत्यवंता - सामान्यविवक्षयापि तत्पंचेंद्रियत्वं एकांतस्वाने कांताभ्यां समर्थितं । तदेव पंचेंद्रियत्वं पुनर्नयविषयमपि । तथाहि antarत्मादर्थादपोद्धृत्यां जसान्नयः । तत्प्राप्त्युपायमेकांतं तदंशं व्यावहारिकं ॥ १ ॥ अनेकांतात्मकादर्थात्सकाशात् तदनेकांतात्मकार्थस्य प्राप्त्युपायभूतं व्यावहारिकं प्रवृत्तिनिवृत्तिसाधकं तदंशं एकांत एकस्वभावं पृथक्कृत्योच्यते स परमार्थतो नयः स्यात् नयविषयत्वात् । प्रकाशयन्न मिथ्या स्याच्छन्दात्तच्छास्त्रवत्स हि । मिथ्याऽनपेक्षोऽनेकांतक्षेपान्नान्यस्तदत्ययात् ॥१॥ स प्रमाणविषयार्थस्यैकदेशग्राही निश्चयनयो व्यवहारनयो वा स्वगृहीतमेकांतं स्याच्छन्दात्प्रकाशयन् १५ ३० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ गो० कर्मकाण्ड़े यतु मिथ्यारूपमल्तंते फेळल्पटुदु। स्यात्कारः सत्यलांछनः एंदितु अनपेक्षो नयः स्यात्पद'निरपेक्षमप्प नयं मिथ्यः मिथ्येयतुळजुदक्कु। मिल्लि मिथ्यः एंदितु अभ्रावियाकृतिगणमप्पुरिदं मत्वर्थोयाऽप्रत्ययांतमकुं। स्याच्छब्दनिरपेक्षमादोडेके दुनयमक्कुमें दोडे अनेकांतक्षेपात् स्याच्छन्दनिरपेक्षमादोडा एकांतमनेकांतत्वदिदं तोलगुगुमंतनेकांसत्वदिदं तोलगिदोडेनाटुर्दै दोडे तदत्ययान्नान्यः अनेकांतातिक्रममायोडे वस्तु अनन्यमक्कुमा एकांतमो देयककुमंतागुत्तं विरलवस्तुवक्कुमदु जिनमतमल्तु । श्रीसमंतभद्रस्वामियिदं निरूपिसल्पदुदु । "सधर्मणैव साध्यस्य॑ साधादविरोधतः । स्यात्कारप्रविभक्तार्थविशेष व्यंजको नयः॥-[ आप्तमी० १०६ ] स्यादनेकांतं वस्तु स्यादेकांतं वस्तु एंदितु सधर्मणैव समानधर्ममनुदरिदमे प्रमाणनय. १० साधनंगळिदं साध्यस्य साध्यमप्पनेकांतद साधावविरोधतः सदृशयमत्वदणिदं विरोधमिल्लप्पु दरिदं स्यादनेकांतं वस्तु एंदितु स्यात्कारप्रविभक्तात्थं स्यात्कारदिदं बेर्पडिसल्पट्ट वस्तुविन विशेषः एकांतमदु व्यंज्यमक्कुमदक्के व्यंजक; व्यंजकमप्पुदु । नयः नयमेदु पेळल्पदुदु । "नयोपनौकांतानो त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राड्भाक्संबंधो द्रव्यमेकमनेकधा ॥" [ आममी० १०७ ] १५ नय अपने द्वारा गृहीत एकान्तको स्यात् शब्द पूर्वक प्रकाशित करतेसे मिथ्या नहीं है किन्तु सुनय है। क्योंकि निरपेक्षनय मिथ्या होता है । स्यात् सापेक्षनय सच्चा होता है । कहा हैस्यात्कार सत्यका चिह्न है । स्यात् निरपेक्षनय मिथ्या है, दुर्नय है; क्योंकि वह अनेकान्तका तिरस्कार करता है। अनेकान्तका तिरस्कार करनेपर तो अनेकान्त नहीं, एकान्त ही रहता है और वह अवस्तु है। स्वामी समन्तभद्रने कहा है, वस्तु स्यात् अनेकान्तात्मक है स्यात् एकान्तात्मक है इस प्रकार प्रमाण और नयरूप साधनसे साध्य अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धि होने में कोई विरोध नहीं है । वस्तु स्यात् अनेकान्तरूप है इस प्रकार स्यात्कारसे प्रविभक्त वस्तुके विशेष. का व्यंजक नय है । और भी कहा है न मिथ्या स्यात् सुनयः स्यात् हि यस्मात्कारणात्तनिरपेक्षो मिथ्यः । किंवत् ? स्याच्छब्दसापेक्षनिरपेक्षशास्त्रवत् २५ 'स्यात्कारा सत्यलांछनः' इति वचनात् । मिथ्य इत्यभ्राधाकृतिगणत्व मवर्णीयाऽप्रत्ययातः स्याच्छन्दनिरपेक्षः कर्थ दुर्नयः स्यात् ? अनेकांतक्षेपात् । तत्क्षेपाखानेकांतो न, एकांत एव स्यात् तपा सति अवस्तु, तन्न जिनमतं । श्रीसमंतभद्रस्वामिनोक्ता सधर्मणैव साध्यस्य साधयद्रिविरोषतः । स्यात्कारप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः ॥१॥ स्यादनेकांतं वस्तु स्यादेकांतं वस्तु इति सघर्मणैव समानधर्मणैव प्रमाणनयसाधनेन साध्यस्य अनेकांतस्य ३. साधादविरोधतः सदृशधर्मत्वादविरोधात् स्यादनेकांतं वस्त्विति स्यात्कारप्रविभक्तार्थस्य वस्तुनो विशेष एकांतः व्यंग्यः, तस्य. व्यंजको नयः । तथा चोक्तं नयोपनयैकरतानां त्रिकालाना समुच्चयः । अविभ्राड्भावसंबंधो द्रव्य मेकमनेकधा ॥१॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८११ त्रिकालानां मूलं कालंगळ नयोपनयैकांतानां नयाश्च उपनयाश्च नयानामंशा उपनयाः। नयोपनयास्त एवैकांतास्तेषां नयोपनयकांतानां निश्चयव्यवहारनयविषयंगळप्पेकांतंगळ समुच्चयः समुदयं अविभाड्भावसंबंधः अनश्वरवस्तुसंबंधमक्कुमदु कारणदिदं द्रव्यमेकमनेकधा द्रव्यमो दुमनेकप्रकारमकुं। "मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्र्यकांततास्ति न । अनपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽत्थंकृत् ॥--[ आप्तमी० १०८ ] नयोपनय विषय मनिनु मेकान्त मेयककुमप्पुदरिना त्रिकालगोचरंगळप्प एकांतंगळ समुच्चयं मिथ्यासमूहमागलेवेन्कु मा मिथ्यासमूहं अमिथ्येयककुमप्पोडे नयविषयवदिदमदेल्लमुं सत्यमकुमप्पोडे मिथ्यानयकांता नास्ति मिथ्यानयकांतत्व में बुदिल्लदे पोकुम दितु न न वाच्यं नुडियल्वेडेके दोर्ड अनपेक्षा नया मिथ्या स्यात्कारानपेक्षमप्प नयंगळनितुं मिथ्यानयंगळप्पुवु। १० स्यात्कारसापेक्षमप्प नयंगळनितुं वस्तुतोत्थंकृत वस्तुवृत्तियिदमिष्टप्रयोजनम माळ्कुं। यितु पेळल्पट्ट सामान्यनयं निश्चयव्यवहारनयभेददिदं द्विविधमक्कु-। मा निश्चयनयं शुद्धाशुद्धभेदविदं द्विविधमकुं। व्यवहारनयं सद्भूतासद्भूत भेददिदं द्विविधमक्कुमल्लि सदभूतनयं शुद्धमुमशुद्ध, मेणनुपचरितसमुद्भूतमुमुपचरितसमुद्भूतमुमेंदु द्विविधमक्कु-। मनुपचरितासभूतमुमुपचरितासभूतमुमें दसदभूतमुं द्विविधमक्कु मितु षण्नयंगळप्पुतेदोडे : त्रिकालगोचर नयकान्त और उपनयैकान्त अर्थात् निश्चय और व्यहारनयके विषयभूत अर्थोका समुदाय, जो सदा अविनाशी अभिन्न सम्बन्धरूप है वह द्रव्य है और वह एक तथा अनेकरूप है। शायद कोई कहें कि नय और उपनय तो एकान्त-एकधर्मको विषय करते हैं अतः उनका समुदाय भी मिथ्या एकान्तोंका समूह होनेसे मिथ्या है। किन्तु ऐसा कहना उचित २० नहीं है, क्योंकि स्यात् पदसे निरपेक्षनय मिथ्या होते हैं और स्यात् सापेक्ष नय वस्तुरूप होनेसे इष्टसाधक होते हैं। यह सामान्य नय निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है। निश्चयनय भी शुद्ध-अशुद्धके भेदसे दो प्रकार है तथा व्यवहारनय भी सद्भुत और असद्भूतके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से 'सद्भूत व्यवहारनय भी शुद्ध-अशुद्धके भेदसे अथवा उपचरित- २५ अनुपचरितके भेदसे दो प्रकारका है। असद्भूतनय भी अनुपचरित और उपचरितके भेदसे १५ त्रिकालानां त्रिकालगोचराणां नयोपनयकांतानां नयाश्च तदंशाः-उपनयाश्च नयोपनयाः त एव एकांता: निश्चयव्यवहारनयविषयधर्माः तेषां समुच्चयः समुदायः अविभ्राट् भावसंबंध. अनश्वरवस्तुसंबंधः स्यात् ततः कारणात् द्रव्यमेकमनेकधा अनेकप्रकारं स्यात् ।। मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्नः मिथ्र्यकांततास्ति न । अनपेक्षो नयो मिथ्या सापेक्षो वस्तुतोऽर्थकृत् ॥१॥ नयोपनयानामेकांतविषयत्वात् तदेकांतानां समुच्चयैः मिथ्यासमूहः स मिभ्यैव. चेत्तन्न, नयविषयत्वेन सस्यत्वात् तदा मिथ्यानयकांततास्ति तदपि न स्यात्कारानपेक्षो नयो मिथ्या सापेक्षस्तु वस्तुतः वस्तुवृत्त्या अर्थकृदिष्टसाधकः । सोऽयं सामान्यनयः निश्चयव्यवहारभेदाद् द्वधा । तत्र निश्चयनयोऽपि शुद्धाशुद्धभेदाद् द्वेषा व्यवहारनयोऽपि सद्भूतासद्भूतभेदाद् द्वेषा । तत्र सद्भूतनयोऽपि शुशुभेदादनुपचरितोपचरितभेदाद्वा द्वेषा । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ गो० कर्मकाण्डे कर्नाद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्यंते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥"-[ अन.ध. १११०२१] वस्तुविन कादिधम्मंगळु वस्तुविनतणिदं भिन्नंगळागि साधिसल्पडुवुवेक दोर्ड निश्चय. सिद्धिनिमित्तवागि येन आउदो दरिंदमदु व्यवहारनयम बुदक्कुं। निश्चयनयम बुदा कळविधम्म५ गळणे वस्तुविनोळभेदमं कागु ॥ "सर्वेऽपि शुद्धबुद्धक-स्वभावाश्चेतना इति । शुद्धोऽशुद्धश्च रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्चयः ॥"-[अन. ध. १३१०३।] सर्वेऽपि चेतनाः येल्ला जीवंगळं शक्तियोळं व्यक्तियोळं शुद्धबुद्धकस्वभावाः शुद्धंगळं बुद्धंगळुमें बेकस्वभावंगळेयप्पुवु । इति यतेंदु शुद्धः शुद्धनिश्चयनयमकुं। तु मत्तै रागाद्या १० एवात्मेति रागादिगळे आत्मनिंदितु अशुद्धः अशुद्धनिश्चयनयमक्कुं॥ सद्भूतेतरभेदाद्वयवहारः स्यात् द्विधा भिदुपचारः। गुणगुणिनोरभिधायामपि सद्भूतो विपर्ययादितरः॥-[अन, ध. १३१०४ ] सद्भूतेतरभेदात् सद्भूतमुमसद्भूतमुमेंब भेददणिदं व्यवहारः स्यादिद्वधा व्यवहारनयमरडु प्रकारमक्कुमल्लि गुणगुणिनोरभिधायामपि गुणगुणिगळे अभेदमुंटागुत्तं विरलु भिदुपचारः १५ भेदमनुपचरिसुउदु सद्भूतः सद्भूतव्यवहारनयमक्कुं। विपर्ययात् गुण, गुणियुमल्लदल्लि भेवमुंटा. गुत्तं विरलु अभेदमनुपचरिसुवुदु । इतरः असद्भूतव्यवहारनयमक्कुं॥ दो प्रकारका है । इस प्रकार छह नय हैं । कहा है जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिए कर्ता आदि धर्म वस्तुसे भिन्न साधे जाते हैं वह व्यवहारनय है । और जो वस्तुमें कर्ता आदिके अभेदको देखता है वह निश्चयनय है। सभी चेतन प्राणी शक्ति और व्यक्ति रूपसे (?) एक शुद्ध-बुद्ध स्वभाववाले हैं, यह शुद्ध निश्चयनयका उदाहरण है।, तथा आत्मा रागादिरूप है यह अशुद्ध निश्चयनयका उदाहरण है। सद्भूत और असद्भूतके भेदसे व्यवहारनयके भी दो भेद हैं । गुण और गुणीमें असद्भूतोऽप्यनुपचरितोपचरितभेदाद् द्वधा । इति षण्णयाः । तद्यथा काद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्यते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥१॥ कीदयो धर्मा वस्तुनः सकाशाद्भिन्नाः साध्यंते । किमर्थ ? निश्चयसिद्धये येनासौ व्यवहारनयः स्यात् । निश्चयनयस्तु तेषां कीदिधर्माणां वस्तुन्यभेददर्शनं । सर्वेऽपि शुद्धबुद्धकस्वभावाश्चेतना इति । शुद्धोऽशुद्धश्च रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्चयः ॥ सर्वेऽपि चेतनाः प्राणिनः शक्तितो व्यक्तितश्च शुद्धबुद्धकस्वभावाः इति शुद्धनिश्चयनयः स्यात् । ३० तु-पुनः रागाचा एवात्मेत्यशुद्धनिश्चयनयः स्यात् । सद्भूतेतर भेदाद् व्यवहारः स्याद् द्विधा भिदुपचारः । गुणगुणिनोरभिदायामपि सद्भूतो विपर्ययादितरः ।।१।। २० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सद्भूतः शुद्धेतरभेदात् द्वेधा तु चेतनस्य गुणः । केवलबोधादय इति शुद्धोनुपचरितसंज्ञो ऽसौ ॥ [ अन ध. १।१०५ ॥] तुमत्तमा सद्भूतः सभूतव्यवहारनयं शुद्धेतर भेदात् शुद्धाशुद्धभेददत्तणदं द्वेधा द्विप्रकारमक्कुमल्लि चेतनस्य गुणाः चेतनगुणंगळु केवलबोधादयः इति केवलज्ञानादिगले वितु शुद्धः शुद्धसद्भूतव्यवहारनयमक्कुं । असौ अदु अनुपचरितसंज्ञः अनुपचरितमें 'ब पेसरळ सद्भूतव्यवहारनयमक्कुं ॥ मत्यादिविभावगुणाश्चित इत्युपचरितकः स चाशुद्धः । देहो मदीय इत्यनुपचरितसंज्ञस्त्वसद्भूतः ॥ [ अन ध. ११०६ । ] मत्यादिविभावगुणाः मतिज्ञानादिगळ विभावगुणंगळववु । चित इति जीवन गुणंगळे - दितु उपचरितक: उपचरितसद्भूतव्यवहारनयमक्कुं स चाशुद्धः अवुवुमशुद्ध सद्भूतव्यवहारनयम- १० मक्कुं । तुमत्तं देहो मदीय इति देहमे नदे दितु अनुपचरितसंज्ञः अनुपचरितमें ब संज्ञेयनुक्रळअसद्भूतः असद्भूतव्यवहारनयमक्कुं ॥ ८१३ देशो मदीय इत्युपचरितसमाह्नः स एव चेत्युक्तं । नयचक्र मूलभूतं नयषट्कं प्रवचनपटिष्ठैः ॥ [ अन. ध. १।१०७ । ] मदीयो देश इति येन देशर्म दितु उपचरितसमाख्यः उपचरितमें ब पेसरनुछुवु । स एव १५ अभेद होनेपर भी भेदका उपचार सद्भूत व्यवहारनय है । और भेदमें अभेदका उपचार असद्भूत व्यवहार नय है । सद्भूत व्यवहारनय शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकार है । चेतनके गुण केवलज्ञानादि हैं यह शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है । इसीको अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहते हैं । मतिश्रुत आदि वैभाविक गुण जीवके हैं यह उपचरित नामक अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है । 'शरीर मेरा है' यह अनुपरित नामके असद्भूत व्यवहारनय है । 'यह देश मेरा है' यह उपचरित [असद्भूत व्यवहारनय है । इस प्रकार ये छह नय प्रवचनोपेदष्टा गणधर आदिने नयचक्रशास्त्र के मूलभूत कहे हैं । सद्भूता सद्भूतभेदाद् व्यवहारनयो द्विषा तत्र गुणगुणिनोरभेदे सत्यपि भेदोपचारः स सद्भूत- २५ व्यवहारनयः । भेदे चाभेदोपचारः स असद्भूतव्यवहारनयः स्यात् । सद्भूतः शुद्धेतरभेदाद् द्वेधा तु चेतनस्य गुणाः । केवलबोधादय इति शुद्धोऽनुचरितसंज्ञोऽसौ ॥१॥ तु - पुनः स सद्भूतव्यवहारनयः शुद्धाशुद्धभेदात् द्वेषा ॥ तत्र चेतनस्य गुणाः केवलज्ञानादयः इति शुद्धसद्भूतव्यवहारनयः । असौ पुनः अनुपचरितनामा स्यात् । मत्यादिविभावगुणाश्चित इत्युपचरितकः स चाशुद्धः । देहो मदीय इत्यनुपचरितसंज्ञस्त्वसद्भूतः ॥ १ ॥ मतिश्रुतादिविभावगुणा जीवस्येत्युपचरितनामा स चाशुद्धसद्भूतव्यवहारनयः स्यात् । तु पुनः देहो मदीय इत्यनुपचरितनामा असद्भूतव्यवहारनयः स्यात् । देशो मदीय इत्युपचरितसमाह्वः स एव चेत्युक्तं । नयचक्रमूलभूतं नयषट्कं प्रवचनपटिष्टः ॥१॥ २० ३० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे चेति आ असद्भूतव्यवहारनयमक्कुम दितु नयचक्रमूलभूतं नयचक्रशास्त्रक्क कारणमप्प नयषटकं पण्नयंगल प्रवचनपटिष्ठः परमागमपटुगळप्प गणधरादिमुनिमुख्यरिदं उक्तं पेळल्पद्रुदु ॥ व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकोर्षति । बीजादीनां विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति ॥-[अन. ध. १११००।] ५ व्यवहारनयक्के पराग्मुखनप्प मूढनावनानुमोनु निश्चयमने माडलिच्छयिसुगु मातं बोजादिसामग्रियिल्ला ससिगळं पुट्टिसलिच्छयिसुगुं ॥ व्यवहारमभूतात्थं प्रायो भूतार्थविमुख जनमोहात् । । केवलमुपयुंजानों व्यंजनवभ्रश्यति स्वार्थात् ॥-[अन. घ. ११९९] व्यवहारनयविषयमविद्यमानार्थमदं भुतार्थविमुख जनंगळ ज्ञानदणिदं निश्चयव्यतिरिक्त. १० व्यवहारमो वर्ष उपयोगिसुवेने बातनुपर्दशगठने मेल्दु स्वान्नादिगळतणिदं किडुगुं॥ भूतार्थे रज्जुवत्स्वैरं विहत्तु वंशवन्मुहुः। श्रेयो धीरैरभताथों हेयस्तद्विहतीश्वरैः ॥-[अन. प. १२१०१। ] भूतार्थे निश्चयनयविषयमप्पत्थंदोळु रज्जुवत् मिलियोळे तंते स्वैरं मुहुविहर्तुं तनियि मरळ मरळि विहरिसल्वेडि वंशवत् बिदिरने तु पिडिदोर्ड श्रेयः ओल्लित्तंते व्यवहारनयमोळि१५ तक्कू । घोरैस्तद्विहतीश्वरैयः भूतार्थदोळु स्वैरविहारपरिणतरप्प धीररुर्गाळदमा व्यवहारविषयमप्प अभूतात्थ हेयमक्कुं । त्याज्यमक्कुमें बुदत्थं । मुळिदवल्लं व्यवहारनयं हेयल्तें बुदत्थं ॥ जो मूढ़ व्यवहारसे विमुख होकर निश्चयको प्राप्त करना चाहता है वह बीज आदि सामग्रीके बिना धान्य उत्पन्न करना चाहता है। व्यवहार अभूतार्थ है। जो भतार्थसे विमुख जनोंके मोहवश केवल उसीका उपयोग करता है वह अन्नके बिना केवल दाल-शाक २० आदि व्यंजनोंका उपयोग करनेवाले पुरुषकी तरह स्वाथ-मोक्षसे भ्रष्ट होता है। जैसे न रस्सीपर स्वच्छन्दतापूर्वक विहार करनेके लिए बार-बार बाँसका सहारा लेता है और उसमें दक्ष हो जानेपर उसे छोड़ देता है, उसी प्रकार धीर मुमुक्षुको निश्चयनयमें निरालम्बनपूर्वक विहार करनेके लिए बार-बार व्यवहारनयका आलम्बन लेना चाहिए और उसमें समर्थ हो जानेपर उसे छोड़ देना चाहिए।] २५ मदीयो देश इत्युपचरितनामा असद्भूतव्यवहारनयः स्यात् । इत्येवं नयचक्रशास्त्रस्य मूलभूत नयषट्कं प्रवचमपटिष्ठगणधरादिभिरुक्तं । व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति । बोजादिना विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति ॥१॥ व्यवहारे पराङ्मुखो यो मुढो निश्चयमुत्तादयितुमिच्छति स बीजादिसामनों विना सस्यान्युत्पादयितुमिच्छति । ३० व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुख जनमोहात् । केवलमुपयुंजानो व्यंजनवद्भ्रश्यति स्वार्थात् ॥१॥ व्यवहारनयं-अविद्यमानेष्टविषयं निश्चयनयविमुखजनजनिताज्ञानान्निश्चयनिरपेक्षं व्यवहारमेवैकमुपयुंजानो विवक्षितार्थात्प्रच्यवते केवलं. शालीनमुपयुंजानोऽन्नादेर्यथा । भूतार्थे रज्जुवत्स्वैरं विहां वंशवन्मुहुः । श्रेयोधोररभूतार्थो हेयस्तद्विहृतीश्वरः ॥१॥ निश्चयनयविषये स्वरं मुहुविहाँ धीरः व्यवहारनयः श्रेयः रज्ज्व्यां यथा वारणैर्वेणुर्यथा भूतार्थे ३५ स्वरविहारपरिणतैस्तु हेयः न शेषरित्यर्थः । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मत्तमनेकांतात्मकमप्प वस्तुविनोळ विरोधविदं हेत्वपर्णयिवं साध्यविशेषयाथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगं नयमे वितु सामान्यलक्षणमनुळ्ळ नयं नैगमादिभेदविदं सप्तविधमक्कुमल्लि द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गमकुं । तद्विषयं द्रव्यात्थिकनयमक्कुं । पर्य्यायं विशेष में बुदत्थं मदुकुं व्यावृत्तिर्य बुबुवत्थं । तद्विषयं पर्य्यायात्थिकनयमक्कु । मा येरेडर भेदंगळ नैगमादिनयंगळक्कुमवर्क विशेषलक्षणं पेळल्पडुगुर्मतें बोडभिनिर्वृतात्थं संकल्पमात्रग्राही नैगमः । अनिष्पन्नात्थं संकल्पना हि नैगमनयम तर्न कैयो कोडलियं पिडिवु पोप पुरुषनोव्वं कंडु बेसगोळगु 'मेनुनिमित्तं पोपे' येदितु बेसगो डोडातं नां बळळमं तरल्पोंपेर्न गु मागळा बळम निष्पन्न मक्कुमादोडमदर निष्पत्तिनिमित्तं संकल्पमात्र बळळद व्यवहरणमक्कुमंते कट्टिर्गपुं नीरुमं कोड बप्पंननोयं बेसगोगु मेनं माडिदपे नी वितु बेसगो डोडातं पेगुमोगरमनदृपेने बितागळा ओगरव पर्य्यायमनिष्पन्नमादोर्ड तन्निमित्तमुद्युक्तनक्कुमी प्रकारदिवं लोकव्यवहारममनिष्यन्नार्थ संकल्पमात्रविषयं नैगमऩयगोचरमक्कुं ॥ स्वजात्यविशेषवंदं मेकत्वमनाश्रयिसि पर्य्यायंगळनु आक्रांत भेववर्त्तार्णवं । समस्तग्रहणात्संग्रहः । एंवितु संग्रहनयमवकुं । सत् द्रव्यं घट इति ये वितु संग्रहनयमक्कुं । मल्लि सत् अनेकान्तात्मक वस्तुमें विरोध के बिना हेतुकी अपेक्षासे साध्यविशेषके यथार्थ स्वरूपको प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोगको नय कहते हैं । यह नय सामान्यका लक्षण है । नैगम आदि के भेदसे उसके सात भेद हैं । द्रव्य अर्थात् सामान्य या उत्सर्गको विषय करनेवाला द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय अर्थात् विशेष या व्यावृत्तिको विषय करनेवाला पर्यायार्थिकनय है। उन दोनोंके भेद नैगम आदि हैं। उनका लक्षण कहते हैं ८१५ ५ १० अनिष्पन्न अर्थके संकल्प मात्रको ग्रहण करनेवाला नैगमनय है । जैसे हाथमें कुठार लेकर जाते हुए से किसीने पूछा- किस लिए जाते हो ? वह बोला - रस्सी लाने जाता हूँ । उस समय रस्सी बनी नहीं है फिर भी रस्सी बनानेके संकल्प मात्र में रस्सीका व्यवहार करता है । इसी प्रकार पानी लेकर आते हुए पुरुषसे किसीने पूछा- क्या करते हो ? वह बोलाभात पकाता हूँ । उस समय भात तैयार नहीं हुई है। फिर भी उसीके लिए उसका प्रयत्न है । इस प्रकार अनिष्पन्न अर्थके संकल्प मात्रको ग्रहण करनेवाला लोक व्यवहार नैगम नयका विषय है । अपनी जातिका अविरोधपूर्वक सब भेदसहित पर्यायों में एकत्व लाकर सबको ग्रहण करनेवाला संग्रहनय है। इसके तीन उदाहरण हैं-सत्, द्रव्य और घट । 'सत्' कहने पर 'सत्' इस प्रकार वचन और विज्ञानकी प्रवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित सत्ताके आधारभूत सब २५ १५ पुनः - अनेकांतात्मके वस्तुन्यविरोधेन हेत्वर्पणया साध्यविशेषयाथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो नय इति सामान्यलक्षणम् । स च नेगमादिभेदात्सप्तधा । तत्र द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः तद्विषयः द्रव्यार्थिकः । पर्यायः विशेषः व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विषय: पर्यायार्थिकः । तयोर्भेदा नैगमादयः तेषां लक्षणमुच्यते । तद्यथा— अभिनिर्वृतार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः, यथा हस्ते कुठारं गृहीत्वा गच्छन् केनचिद् दृष्ट्वा पृष्टः - 'किमर्थं यासि ? रज्जुमानेतुं' ३० तदा रज्जुरनिष्पन्ना तथापि रज्जुनिष्पत्तिनिमित्तं संकल्पमात्र रज्जोर्व्यवहरणम् । तथा एवं नीरं च गृहीत्वा समागच्छन् कश्चित्पृष्टः 'कि करोषि ?' ओदनं पचामीत्युक्तवांस्तदौदनपर्यायोऽनिष्पन्नस्तथापि तन्निमित्तमुद्युक्तो भवेत् । एवं लोकस्य व्यवहारः अनिष्पन्नार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमनयगोचरः स्यात् । स्वजात्य विरोधेनैकत्वमाश्रित्य पर्यायाक्रांतभेदात्समस्तग्रहणात्संग्रहः । सत् द्रव्यं घटः इति । अत्र क- १०३ २० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ गो० कर्मकाण्डे ये 'बिंतु पेळल्पडुत्तिरलु सर्त्त 'ब वाग्विज्ञान अनुप्रवृत्ति लिंगानुमितसत्ताधार भूतंगळ विशेषरहितदिल्लवर संग्रहमक्कुमंतं द्रव्यमेदितु नुडियल्पत्तिरलु द्रवति गच्छति तांस्तान्यपर्यायानिति द्रव्य में वितुपलक्षित जीवाजीवतद्भेदप्रभेदंगळ संग्रहमक्कु मंते घटयक्तुि नुडियल्पत्ति रलु घटबुद्धि अभिधानानुगमलिगानुमित सकलार्थसंग्रहमक्कुमी प्रकारमन्यमुं संग्रहनयविषयमक्कुं ॥ संग्रहनयदोळिषकल्पदृत्थंग विधिपूर्वकम व हरणं व्यवहार में वितु भवग्रहणं व्यवहारनयमक्कुं । विधिर्य बुदाउदे दोडं आउदो दु संग्रहनय गृहोतात्थं तवनुपूर्व्वंविदमे व्यवहारं प्रवत्तिसुगुTags बुक्कुं अदे ते दोर्ड पेळल्पडुगुं । सर्व्वसंग्रहदिदमाउदो दु सत्संग्रहिसल्पट्टुवुवुमनपेक्षितविशेषं संव्यवहारक्क योग्य मते दु यत्सत्तद्द्रव्यं गुणो वा ये वितु व्यवहारनयमनाश्रयिसल्पडुगुं । संग्रह नयविषयद्रयददमुं संग्रहाक्षिप्तजीवाजीव विशेषानपेक्षमप्पुदरिदं संव्यवहारं शक्य१० मते दु यद्द्रव्यं तज्जीवमजीवद्रव्यमे दितु व्यवहारनयमनाश्रयिसल्पडुगुं । मत्तमा जीवाजीवंगळेरडुं संग्रहाक्षिमंगळादोडं संव्यवहार योग्यंगळते दु प्रत्येकं देवनारकादियुं घटावियुं व्यवहारनयविदमाश्रयिस पडुगु- । मिती नयमन्नवरेगं वत्तिसुगुमेन्नेवरं पुर्नाव भागमिल्लं ॥ ५ पदार्थोंका ग्रहण होता है । तथा द्रव्य कहनेपर - जो उन उन पर्यायोंको द्रवति-प्राप्त करता है वह द्रव्य है. अत: उससे उपलक्षित जीव-अजीव और उसके भेद-प्रभेदोंका प्रहण होता है । १५ तथा घट कहनेपर घट बुद्धि और घट शब्दके अनुगम लिंगसे अनुमित सब पदार्थों का ग्रहण होता है। इसी प्रकार अन्य भी संग्रहनयका विषय होता है । संग्रहन के द्वारा संगृहीत पदार्थोंका विधिपूर्वक भेदं ग्रहण करना व्यवहारनय है । संप्रनय में जिस क्रमसे ग्रहण किया गया हो उसी क्रमसे भेद करना यह विधि है । जैसे सर्व संग्रहके द्वारा जिस सत्का ग्रहण किया है जबतक उसके भेद न किये जायें वह २० व्यवहारके योग्य नहीं होता है। अतः जो सत् है वह द्रव्य या गुण है ऐसा व्यवहार नयका आश्रय लिया जाता है । संग्रहनयके विषय द्रव्यसे भी जीव- अजीब भेदोंकी अपेक्षा किये बिना व्यवहार शक्य नहीं हैं, अतः जो द्रव्य है वह जीव अजीवके भेदसे दो प्रकारका है ऐसा व्यवहारनयका आश्रय लेना चाहिए । संग्रहसे आक्षिप्त जीव और अजीवसे भी व्यवहार नहीं चलता । प्रत्येकके भेद देव नारकी आदि और घट-पट आदिका आश्रय लेना होता है । २५ इस प्रकार यह नय तबतक चलता है जबतक भेदकी गुंजाइश नहीं रहती । सदित्युक्ते सन्तेति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रहः स्यात् । तथा द्रव्यमित्युक्ते द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यमित्युपलक्षितजीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां ग्रहणं स्यात् । तथा घट इत्युक्ते घटबुद्धयभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थं संग्रहः स्यात् । एवमन्योऽपि संग्रहनयविषयो भवेत् । संग्रहे निक्षिप्तार्थानां विधिपूर्वकमवहरणं भेदग्रहणं व्यवहारः । यः संग्रहनय गृहीतार्थस्तदनुपूर्वेणैद ३. व्यवहारः प्रवर्तते इति विधिः । स कथं ? उच्यते - सर्वसंग्रहेण यत्सत् संगृहीतं तदनपेक्षितविशेषाणां संव्यवहारायोग्यत्वात् यत्सत् तद् द्रव्यं गुणो वेति व्यवहारनय आधेयः । संग्रहनयविषयद्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तजीबाजीवविशेषानपेक्षत्वेन संव्यवहाराशक्यत्वात् यद् द्रव्यं तज्जीवोऽजीव इति व्यवहारमय आश्रयः । पुनः तो जीवाजीवी द्वावपि संग्रहाक्षिप्तौ तदापि संव्यवहारायोग्यो इति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिर्व्यवहारनयेनाश्रेयौ । इत्ययं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनविभागो न स्यात् । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तंत्रयति स्वीकरोतीति ऋजुसूत्रः पूर्व्वापरंगळप्प त्रिकालविषयंगळं त्यजिसि वर्तमान विषयंगळं स्वीकरिसुगु मतीतानागतंग त्रिनष्टानुत्पन्न मागुत्तं विरलु संव्यवहाराभावदत् णिनदुवुं वर्त्तमानसमयमात्रमक्कुं । तद्विषयपर्थ्यायमात्र ग्राहियक्कुमी ऋजुसूत्रनयमंतादोडे संव्यवहारलोपप्रसंगमक्कु में बेनल्वे के बोर्ड नयवके विषयमात्रप्रदर्शनं माडपट्ट्टु दावुदो'दु सर्व्वनयसमूह साध्यमदु लोकव्यवहारमक्कुमप्पुदरिवं । लिंग संख्या सार्वनादि व्यभिचार निर्वृत्तिप्रधानं शब्दनयमक्कुं । अल्लि पुष्यस्तारका नक्षत्रमे 'तिदु लिंगव्यभिचार में बुदु । जलमापो वर्षाः एंदितिदु संख्याव्यभिचारमें बुदु | सेना वनमध्यास्ते ये दितिदु साधनव्यभिचार में बुबु कारकव्यभिचारमक्कुं । आदिशब्दददं एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता एंबुदु पुरुषव्यभिचारमकुं । विश्वेदृश्वाऽस्यां पुत्रो जनिता एंबिदु कालव्यभिचारमवकुं । संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमति उपरमति एंबिदुपग्रहव्यभिचारमक्कुमिती प्रकार व्यवहारमनी शब्दनयमन्याय्यमें दुबर्गगुमेर्क दोर्ड अन्यात्थंवकन्यात्थंदोडर्न संबंध भावमप्पुरिदं । यितादोडीनयं लोकसमयविरोध १० १५ ऋजु अर्थात् सीधे सरलको जो स्वीकार करता है वह ऋजुसूत्रनय है । यह नय भूत और भावको छोड़कर वर्तमान विषयोंको ही ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत तो नष्ट हो गये और जो भावि है वे उत्पन्न नहीं हुए अतः उनसे व्यवहार नहीं चलता । इस तरह वर्तमान समय मात्रको ग्रहण करनेवाला ऋजुसूत्रनय है । ऐसा होनेसे व्यवहारका लोप हो जायेगा ऐसा न कहना । यहाँ तो नयका विषय मात्र दिखलाते हैं, लोक व्यवहार तो सब नयोंके समूह द्वारा ही साधा जाता है। लिंग, संख्या साधन आदिके व्यभिचारकी निवृत्ति करने में तत्पर शब्दन है । पुष्य, तारका, नक्षत्र ये शब्द भिन्न लिंगवाले है । इनका समान रूपसे प्रयोग लिंग व्यभिचार है । 'जलं आपो वर्षाः' ये तीनों शब्द भिन्न वचनवाले हैं इनका समान रूपसे प्रयोग संख्या व्यभिचार है। सेना वनमें है, यह कारक व्यभिचार है । आदि शब्दसे उत्तम पुरुषके स्थान में मध्यम पुरुषका और मध्यमके स्थान में उत्तम पुरुषका प्रयोग : व्यभिचार है । इसका पुत्र विश्वद्रष्टा - जिसने विश्वको देख लिया है - होगा यह काल व्यभिचार है । स तिष्ठते-प्रतिष्ठते, विरमति-उपरमतिका संस्कृत प्रयोग उपग्रह व्यभिचार है । इस प्रकारके व्यवहारको शब्दनय उचित नहीं मानता। क्योंकि इसके मतसे अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ विरोध है । पुरुष ८१७ ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तंत्रयति स्वीकरोतीति ऋजुसूत्रः । पूर्वापरान् त्रिकालविषयान् त्यक्त्वा वर्तमानविषयानेव स्वीकरोति । अतीतानागतानां विनष्टानुत्पन्नत्वेन संव्यवहाराभावात् । सोऽपि वर्तमानः समयमात्रः तद्विषयपर्यायमात्रग्राही स्यादयं ऋजुसूत्रनयः । तथा सति संव्यवहारलोपप्रसंग इति न वाच्यं नयस्य विषयमात्रप्रदर्शकत्वात् लोकव्यवहारस्य च सर्वनयसमूहसाध्यत्वात् । २० ३० लिंगसंख्यासाधन। दिव्यभिचारनिवृत्तिप्रधानः शब्दनयः । तत्र पुष्यस्तारका नक्षत्रमिति लिंगव्यभिचारः । जलमापो वर्षाः इति संख्याव्यभिचारः । सेना वनमध्यास्ते इति साधनव्यभिचारः - कारकव्यभिचारः । आदिशब्दात् एहि मन्ये रथेन यास्यसि यातस्ते पिता इति पुरुषव्यभिचारः । विश्वदृश्वास्यां पुत्रो जनिता इति १. कारकादि - कारक । २. वनिप् प्रत्यय - उपसर्ग - लौकिकशास्त्रविरोधमक्कुं । हृदंनात् — विश्वर्थ्यात् - सामर्थ्यात् — ग्रामादिभेदनात् । २५ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ गो० कर्मकाण्डे ९.८. मक्कु व बोर्ड विरोधमादोडमक्कुं । तत्वविचारमितुटेयक्कुं । न भैषज्यमातुरेच्छानुयत्तादो प्रयोगस पडुगुं ॥ नानार्थं समभिरोहणात्समभिरूढः । आउदो दु कारणविदं नानात्थंगळं परिस्यजिसि ओदत्थंमनभिमुखत्वदिदं रूढमदु समभिरूढमवकुं । गौ: एंदितो शब्दं गवाविगलोल वर्त्तमानं पशुविनो रूढमकुं । अथवा अत्यंज्ञप्त्यर्थमागि शब्दप्रयोग मक्कुमल्लिएकाक्केक५ शब्दविवं ज्ञातार्थत्वदर्त्ताणदं पर्य्यायशब्दप्रयोग मनथंक मत्रकुं । शब्दभेद मुंटक्कुमप्पोडत्थं भेव टप्पु दु । मा यत्थं भेर्दाददमवश्यं संभविसल्पडदे दितु नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः एंवितु पेळपट्टुवु । इंदनादिद्रः शकनाच्छक्रः पूर्दारणात्पुरंदरः एंदिती प्रकारविंदं सर्व्वत्रमरियल्पडुगुं । अथवा शब्दमल्लि अभिरूढमदल्लि बंदभिमुखत्वदिदमभिरोहणदत्तणिदमुं समभिरूढमक्कु । में तीगळु क्व भवानास्ते आत्मनि एंवितेके बोडे वस्त्वंतरदोळ वृत्यभावमप्पुवरिवं । पितल्लवेत्तलानुमन्यक्क१० न्यत्रवृत्तियक्कुमप्पोर्ड ज्ञानादिगळ रूपादिगळग मुमाकाशदो वृत्तियक्कु ॥ किन्तु इससे लोक और शास्त्रका विरोध होनेका भय नहीं करना चाहिए। यह तत्त्व विचार है । औषधि रोगीकी इच्छा के अनुसार नहीं दी जाती। नाना अर्थोंका समभिरोहण करने से समभिरूढ़ नय है - अर्थात् नाना अर्थोंको त्यागकर एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ होने वाला समभिरूढ़ नय है, जैसे गौ शब्द गाय आदि अर्थों में वर्तमान रहते हुए भी पशुओंके १५ अर्थ में रूढ है । अथवा अर्थका ज्ञाता ज्ञाप्य अर्थके अनुरूप शब्दका प्रयोग करता है । एक अर्थका बोध एक शब्दसे होनेपर पर्याय शब्दका प्रयोग व्यर्थ है । यदि शब्द भिन्न है तो अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। इस प्रकार नाना शब्दोंके नाना अर्थ माननेवाला समभिरूढ है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर तीन शब्द एकार्थवाचक माने जाते हैं किन्तु उनके अर्थ भिन्न हैं । इन्दन करने से इन्द्र, शक्तिशाली होनेसे शक्र और नगरोंको दारण करनेसे पुरन्दर कहा २० जाता है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना । अथवा जो जहाँ अधिरूढ़ है वह मुख्य रूपसे वहीं अधिरूढ़ है । जैसे इस समय आप कहाँ स्थित हैं ? उत्तर है-आत्मामें । क्योंकि एक वस्तु दूसरी वस्तुमें नहीं रहती। यदि ऐसा न हो तो जीवके ज्ञानादि और पुद्गलके रूपादि आकाश में रहने लगें । कालव्यभिचारः । संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमते उपरमति इत्ययं प्रग्रहव्यभिचारः । एवंप्रकारः शब्दनयन्यायः २५ ( ? ) । कुतः ? मन्यार्थस्यान्यार्थेनासंबंधात् । एवं चेदयं नयः लोकसमयविरोधः इति न वाच्यं तत्त्वविचार एवं स्यात् भैषज्यमातुरेच्छानुवति न तथापि प्रयोक्तव्यम् । नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढः । यतः कारणात् नानार्थान् हि परित्यज्यैकार्थमभिमुखत्वेन रूढः । गौ इति शब्दः गवादिषु वर्तमानः पशुषु रूढः । अथवा अर्थज्ञ: ज्ञाप्यार्थानुरूपं शब्दं प्रयुक्ते तत्रैकार्थस्यैकशब्देन ज्ञातत्वात् पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदोऽस्ति चेदर्थभेदो भवेत्तेनार्थभेदेनावश्यं न संभवतीति नानार्थ३० समभिरोहणात्समाभिरूढः, इंदनानिद्रः, शक नाच्छक्रः, पूर्वारणात्पुरंदरः इत्येवंप्रकारेण सर्वत्र ज्ञातव्यं । अथवा यः शब्दो यत्राभिरूढः स तत्रागत्याभिमुखत्वे नाभिरोहणात्समभिरूढः । इदानीं वव भवानास्ते ? आत्मनि, वस्त्वंतरे वृत्यभावात् । अभ्यथा ज्ञानादोनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८१९ येनात्मना भूतस्तेने वाध्यवसाययतीत्येवंभूतः । स्वाभिधेयक्रियापरिणतिक्षणबोळे तच्छवं युक्तमक्कुमन्यकालदोळु युक्तमल्तु । एते दोर्डयदैवें दति तदैवेंद्र: नाभिषेचको नापि पूजकः दितु । यदैव गच्छति तदैव गौः न स्थितो न शयितः एंदितु । अथवा एनात्मना येन ज्ञानेन भूतः परिणतः तेनैवाध्यवसाययति । यर्थेद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मा इंद्रोऽग्निः एंवितु एवंभूतनयमरियल्प ॥ इंतु पेल्पट्ट नैगमादिनयंगळुत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयत्वदिदमी क्रमं पूव्वं पूर्वहेतुकत्वविवमरियल डुवुविति नयंगळ पूर्वपूर्व्वं विरुद्ध महाविषयंगळ मुत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषयंगळुमपूर्व तेदोर्ड douria क्तिणिदं प्रतिशक्तिभिद्यमानंगळागि बहुविकल्पंगळप्पुवु । अविवेल्ला नयंगळ गौणमुख्यते यदं परस्परतंत्रंगळ पुरुषार्थंक्रियासाधनसामर्थ्यवर्त्तार्णवं सम्यग्दर्शनहेतुगळु । इंतु तद्भवसामान्य सादृश्यसामान्यंगळनाश्रयिसि जीववर्क पंचेंद्रियत्वदोळु प्रमाणनयविषयत्वदिदमनेकांतत्वमुमेकांतत्वमं सिद्धमादुदिदुपलक्षणमते सर्व्वमुक्तजीवद्रथ्यंगळगे सव्वं कम्विप्रमोक्षलक्षणमोक्षदोळु संसारिजीवंगळगमेकेंद्रियादिजातिनामकम्र्मोदयजनित एकेंद्रियादि- १० पर्य्यायंगळोळं तत्सामान्यद्वयविवक्षेयवं प्रमाणनयविषयत्वदिवमनेकांतत्व मुमेकांतत्वमुमरि पडुगुं । १५ जो जिस रूप है उसको उसी रूप जानना एवंभूत है, शब्दका जो वाच्यार्थ है उस क्रियारूप परिणमनके समय ही उस शब्दका प्रयोग युक्त है, अन्य समय में नहीं । जैसे जिस समय इन्दन क्रियाशील है उसी समय इन्द्र है अभिषेक या पूजा करते समय नहीं । जब तभी गो है बैठा या सोते हुए नहीं । अथवा जिस आत्मा अर्थात् ज्ञानरूपसे परिणत हो उसी रूप जानना एवंभूतं नय है जैसे 'इन्द्रके ज्ञानरूप परिणत आत्मा इन्द्र है' आगको जाननेवाला आत्मा आग है । गम आदि नयका विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता है इसीसे उनका यह क्रम रखा गया है । इनका विषय पूर्व-पूर्व में महान है और विरुद्ध है किन्तु उत्तरोत्तर अनुकूल और अल्प विषय है । क्योंकि द्रव्य अनन्त शक्तिवाला है अतः प्रत्येक शक्तिके भेदसे बहुत विकल्प होते हैं । ये सब नय गौणता और मुख्यता में परस्परसे सम्बद्ध हैं, उनमें पुरुषार्थ की क्रियाको साधनेकी सामर्थ्य है तभी वे सम्यग्दर्शनमें निमित्त होते हैं । इस प्रकार तद्भव सामान्य और सादृश्य सामान्य को लेकर जीवका पंचेन्द्रियत्व २० येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीत्येवंभूतः । स्वाभिधेयक्रियापरिणतिक्षणे एव तच्छब्दो युक्ता नान्यकाले यदा इदंति तदैवेंद्र: नाभिषेत्रको नाभिपूजकः । यदैव गच्छति तदैव गौः न स्थितो न शयित इति । अथवा येनात्मना ज्ञानेन भूतः परिणतस्तेनैवाभ्यवसाययति यर्थेद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मा इंद्राग्निः । नैगमादीनामुत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वेनायं क्रमः । पूर्वपूर्वहेतुका अमी पूर्वपूर्वविरुद्ध महाविषया उत्तरोत्तरानुकूलालयविषयाः स्युः । कुतः ? द्रव्यस्यानंतशक्तितः प्रतिशक्तिभिद्यमानत्वे बहुविकल्पाः स्युः । ते सर्वे नया गौणमुख्यतया परस्परतंत्रा : ३० पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्सम्यग्दर्शन हेतवः । एवं तद्भवसामान्यसादृश्यसामान्ये आश्रित्य जीवस्य पंचेंद्रियत्वे प्रमाणनयविषयत्वेनानेकांतत्वमेकां तत्वं २५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० गो० कर्मकाण्डे "अडवीसूणाविछक्कयं सेसे" शेषैकेंद्रियादिचतुरिंद्रिय पयंतं बंध नामस्थापनंगळुमष्टाविंशत्यूनादिषट्कमक्कुं। ए। बि । ति । च । बंध । २३ । ए अ । २५ । एप। त्र अ।२६ । ए प । आ उ।२९ । बि । ति । च । पं। म ३० । बि । ति । च ।पं । ति उत्रसंगळोळ बंध २३ । ए अ २५ । एप । त्रअ २६ । ए प । आ । उ २८ । न । सु । २९ । बि । ति । च । पं। ति। म । दे। ति । ६ ३० । बि । ति । च । पं । ति । उ । म । ति । दे । अ । ३१ । दे। ति । आ । ०। १। अगति । शेष पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिगळ्गे बंध । २३ । ए अ २५ । ए पत्रअ । २६ । एप । अ उ । २९ । बि । ति । च ।पं ति। म । ३० । बि । ति । च। पं। ति । उ। चतुम्मनोवचनौदारिकेप्यष्टौ ८ । सत्यासत्योभयानुभयमनोवचनौदारिककाययोगंगळे बोभत्तुं योगंगळोलु नामबंधस्थानंगळु त्रयो विशत्यादियागि एकप्रकृतिस्थानपय्यंतमादवेंटुं ८ बंधयोग्यंगळप्पुवु। संदृष्टिः-म ४। व ४। १० औ १ बंध २३ । ए अ २५ । ए पात्र अ २६ । ए प । आ उ २८ । न । दे। २९ । बि । ति । च । पं। ति । म। दे। ति । ३० । बि। ति । च । पं। ति । उ। म ति। दे। आ ३१ । दे। तो। आ।१। अग ति। देववक्रियिकद्विके वैक्रियिककाययोगद्दोळं वैक्रियिकमिश्रकाययोगदोळं देवगतियोळ्पेन्दंत पंचविंशतिषड्विशेति नविंशति त्रिंशदेब चतुःस्थानंगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । वै मि । बंध २५ । ए ५। २६ । ए प । आ उ । २९ । ति । म ३० । ति उ।मति ॥ अडवीसदु हारदुगे सेसदुजोगेसु छक्कमादिल्लं । वेदकसाए सव्वं पढमिल्लं छक्कमण्णाणे ॥५४६॥ अष्टाविंशति द्विकमाहारद्विके शेषद्वियोगयोः षट्कमाद्यतनं । वेदकषायेषु सर्व प्रथमतनषट्कमज्ञाने ॥ प्रमाण और नयका विषय होनेसे अनेकान्त और एकान्तरूप सिद्ध होता है, अतः सर्व मुक्त २० जीवोंके सब कर्म बन्धनसे छूटने रूप मोक्षमें और संसारी जीवोंके एकेन्द्रिय आदि जाति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न एकेन्द्रियादि पदार्थों में भी जीवपना जानना। च सिद्धं । तदुपलक्षणं तेन सर्वमुक्तानां सर्वकर्मविप्रमोक्षलक्षणे मोक्षे संसारिणां चैकेंन्यिादिजातिनामोदयजनितकेंद्रियत्वादिपर्यायेष्वपि ज्ञातव्यं । 'अडवीसूणादिछक्कयं सेसे ।' शेषकेंद्रियादिचतुरिंद्रियपर्यंतं चतुरिंद्रियमार्गणासु पृथ्वीकायादिपंचकायमार्गणासु च बंधस्थानान्यष्टाविंशतिकोनाद्यानि षट् २३ ए अ । २५ ए पत्र अ। २६ ए प आ उ । २९ वि ति च प म । ३० वि ति च पं ति उ । सत्यासत्योभयानुभयमनोवाग्योगेष्वौदारिककाययोगे चाष्टौ २३ ए अ । २५ एप त्रअ । २६ ए प आउ। २८ न दे । २९ वि ति च पंति म देती। ३० वि ति च पं ति उ म ती दे आ। ३१ दे ती आ। १ अगति । देवगतिवक्रियिकतन्मिधयोः २५ए । २६ ए पवा उ । २९ ति म ३० तिर म ती। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका ८२१ ५ आहारकाहारक मिश्र काययोगद्विकदोळु अष्टाविंशत्यादिस्थानद्विकमक्कुं । संदृष्टि । आ । आ मि । बंध । २८ । दे २९ । देति । शेषद्वियोगयोः षट्कमाद्यतनं काम्मँणकाययोगदोळं औदारिकमिश्रकाययोगदोळं त्रयोविंशत्यादि स्थानषट्कंबंध मक्कुं ॥ संदृष्टि : औदारिमिश्रकाम्मँणकायबंधः । २३ । ए अ २५ । एप । त्र अ २६ । ए प । आ उ २८ । दे । २९ । बि । ति । च । पं। म देति । ३० । बि । ति च । पंति । उ । मति । देवगतियुतमुमाहारकद्वय युतस्थानमप्रमत्तापूयं - करणरोळल्लवे संभविसदवगंळोळी योगं संभविसदु । काम्मँणकाययोगर्म बुटु काम्मणशरीरनामकर्मोदय दिनाद कार्म्मणशरीरं कामँणकायम बुदक्कु । मा काम्मंणकायवर्गणा संयोगदिदं पुट्टिद जीवप्रवेशप्रचय कर्मा दानशक्तिजीव प्रदेश परिस्पंदलक्षणमदु कार्मणकाययोगमा योगं नारकावि चतुग्र्गतिजरुगळ विग्रहगतियोळेक द्वित्रि समयंगळोळक्कुमंत उक्तं । एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः एंदितु पूर्वभवशरीरपरित्याग मागुत्तं विरलुत्तर भत्र शरीरग्रहण मिल्लदवर्गे नारकादिकत्वमी विग्रहगति १० योळे 'तक्कु र्मदोर्ड गतिनामकम्र्मोदयदिदं नारकाविपर्य्यायंगळु आनुपूर्योदयदिदं तत्तत्क्षेत्र संबंधमायुष्कर्म्मादर्याददं तत्तद्भवनारकादित्वमुं संभविसुगुप्पुर्दारदं । तंनारकादित्वमा कालदोल सिद्धमक्कुं । यो योगद्वयबोळु मिथ्यादृष्टिसासादनासंयत गुणस्थानत्रयमुं सयोगगुणस्थानमुं संभवसुगं । अल्लि नरकगतिजरोळु मिथ्यादृष्ट्यसंयत गुणस्थानद्वेयमे संभविसुगुं । देवगतियो मिथ्यादृष्टि सासादना संयत गुणस्थानत्रयं संभविसुगुं । अष्टाविंशति बंधस्थानं मनुष्यकार्म्मणिकाय- १५ योगिगळप्प मिथ्यादृष्टियोळं मिथ्यादृष्टि तिय्यंचरोळं बंधमिल्लं ते बोर्ड कम्मे बुराळमिस्सं व एंदितु कामंणकाय योगंगळोळ औदारिकमिश्रकाययोगिगलोळु पेळदंते नरकद्विकं देवद्विकं बंध आहारकतन्मिश्र योगयोः अष्टाविंशतिकनवविंशतिके द्वे । शेषयोः कार्मणीदारिकमिश्रयोस्तान्याद्यानि षट्, नात्र देवगत्याहारकद्वययुतं अप्रमत्तापूर्व करणयोरेव तद्बंधसंभवात् । नापि तिर्यग्मनुष्य मिथ्यादृष्टावष्टाविंशतिकं 'कम्मे उरालमिस्सं' वेति देवनारकद्विकयोरबंधात् तिर्यग्मनुष्यकार्मणयोगसासादने सर्वे केंद्रियबादर सूक्ष्मपर्याप्ता २० पर्याप्तत्रयोविंशतिक पंचविंशतिकषड्विंशतिकनरकगतिदेवगतियुताष्टाविशतिक विकलत्रययुतनवविंशतिकत्रिंशत्क आहारक आहारक मिश्रयोगमें अट्ठाईस उनतीस ये दो बन्धस्थान हैं। शेष कार्माण और औदारिक मिश्र में आदिके छह बन्धस्थान हैं । यहाँ देवगति और आहारकद्विक सहित स्थान सम्भव नहीं है; क्योंकि इनका बन्ध अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें ही होता है । कार्माण व औदारिक मिश्र सहित तियंच या मनुष्य मिध्यादृष्टिमें अठाईसका बन्धस्थान नहीं होता; २५ क्योंकि 'कम्मे उरालमिस्संवा' इस गाथाके अनुसार उनमें देवद्विक और नरकद्विकका बन्ध नहीं होता । कार्माण योग सहित तिथंच और मनुष्य सासादन गुणस्थानवर्ती के सब एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त सहित तेईस, पच्चीस, छब्बीस और नरकगति देवगति सहित १. निरयं सासणसम्मो गच्छदित्ति - मिश्र गुणस्थाने मरणाभावात् -- मिथ्यादृष्ट्यसंयतो संभवतः - उराळमिस्सं वेत्युक्तं तहि ओदारिकमिश्रे कथमिति चेत्, ओराळं वा मिस्से ण हि सुरणिरयाउहारणिरय दुगं । मिच्छदुगे देव चऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि । इत्यत्र नरकद्विक देवद्विकयोरबंधः । ३० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ गो० कर्मकाण्डे मिल्ले' ब नियममुं टप्पुर्दारवं । तिय्यंग्मनुष्यकार्म्मण काययोगिगळध्य सासादनरु सवें केंद्रियबावरसूक्ष्मपर्याप्तापर्य्याप्रयुतंगळप्प त्रयोविंशति पंचविशति षड्वशति नरकगतिदेवगतियुताष्टात्र अति द्वींद्रियादिविकलत्रयत नवविंशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळं पोरगागि शेषतिथ्यंवपंचेंद्रियमनुष्यगतितंगळप्प नववंशतित्रिंशत् स्थानद्वयमने कट्टुबरु । सासादनंगे देवगतियुताष्टाविंशतिबंधस्थानं ५ विशेषमल्लप्पुरमेर्क सासादननोळु तदुबंघस्थानं निषेधिसल्पटुवेंदोडे मिच्छ्रगे देवचऊ तित्यं ण हि एंदितु कार्म्मण काययोगिगळप्प मिथ्यादृष्टि सासादनरुगळगे औवारिक निकाययोगिगळो पेवं ते निषेधमुंटपुर्दारवं तद्बंधमिल्ल । तिर्य्यग्मनुष्य काणकाययोना संयतसम्यग्दृष्टि. गळ देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुं मनुष्यकाम्मंण काययोगासंयत सम्यग्दृष्टियोळे देवगतितीर्थयुत नववंशतिस्थानबंधमक्कु । मितु पंचदशयोगंगळोळु नामकर्म्मबंधस्थानंगल योजितल्पदृवु ॥ वेदकषायेषु सव्वं पुंवेदस्त्रीवेदषंढवेव त्रितयदोळं क्रोधमानमाय लोभकषायचतुष्टयबोळं त्रयोविंशतिस्थानमादियागि सर्व्वनामकर्म्मप्रकृतिस्थानंगळे टुं बंधंगळप्पुवु । वे ३ । क ४ | बंध २३ । ए अ । २५ । एप । त्र अ । २६ । एप । अ । उ । २८ । न । दे । २९ । बि । ति । च । पति । म । देति । ३० । बि । ति । च । पति । उ । मति । दे आ । ३१ । दे ति आ । १ । १० वजितशेष तिर्यक्पंचेंद्रिय मनुष्यगदियुतनवविंशतिकत्रिशतके द्वे । देवगत्यष्टाविंशतिकाभावस्तु 'मिच्छदुगे देवचऊ १५ तित्यं णहीति वचनात् । तिर्यग्मनुष्यकार्मणयोगासंयते तच्च तन्मनुष्ये देवगतितीर्थयुतनवविंशतिकं च । त्रिषु वेदेषु चतुर्षु क्रोधादिषु च सर्वाणि षंढे नवविंशतिकद्वयं त्वाद्यनरकं प्रति तिर्यग्गतौ एकेंद्रिय बादरसूक्ष्मा पर्याप्ततत्रयोविंशतिकं एकेंद्रियबादर सूक्ष्मपर्याप्तयुतत्र सापर्यातद्वित्रिचतुः पंचेंद्रिय तिर्यग्गतिमनुष्यगतियुत पंचविशतिकं एकेंद्रियबादरपर्याप्तातपोद्योतयुतषडविंशतिकं तिर्यग्मनुष्यगतिपर्याप्तनवविंशतिकं, तिर्यग्गतिपर्याप्तोद्योतयुतत्रिंशत्कं अठाईस तथा विकलत्रय सहित उनतीस तीसको छोड़ शेष तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्यगति २० सहित उनतीस और तीसके दो बन्धस्थान होते हैं । यहाँ देवगति सहित अठाईसके स्थानका अभाव है क्योंकि 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थंणहि ' ऐसा कथन है । कार्माण सहित तिर्यच मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टिके देवगति सहित अठाईसका स्थान और कार्माण सहित मनुष्य असंयतमें देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसका भी स्थान होता है । २५ तीनों वेदों और चारों कषायोंमें सब बन्धस्थान होते हैं । विशेष इस प्रकार हैनपुंसकवेदमें उनतीस और तीसके स्थान आदिके तीन नरकों में होते हैं । नपुंसक वेद सहित तियंचगतिमें एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म अपर्याप्त सहित तेईसका, एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्मपर्याप्त सहित पच्चीसका, त्रस अपर्याप्त दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तियंचगति मनुष्यगति सहित पच्चीसका एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त आतप उद्योत सहित छब्बीसका ३० तिर्यंच या मनुष्यगति पर्याप्तयुत उनतीसका, तियंचगति पर्याप्त उद्योत सहित तीसका स्थान होते हैं । तियंच पंचेन्द्रिय नपुंसक वेदीके नरक देवगति युत अठाईसका भी स्थान होता है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ८२३ अगति । इल्लि षंड वेदमोदे नारकरोलक्कुं । तिय्यंचरोळं मनुष्यरोळं पुंवेदमुं स्त्रीवेदमुं षंडवेदमं संभविसुवउ । देवगतिजरोळ पुंवेदं पुरुषदेवकर्कलो, स्त्रोवेदं देवियरोलक्कुमेके दोडे देवगतियो द्रव्यदिदं भावदिदं समानं वेदिगळप्परप्पुर्दारवं । नारकषंडवेदिगळोळ नरकगतियोळु पेल्द नववंशतिद्विकं बंध मक्कुं । नारकषंड बंध २९ । ति म ३० । ति उ । मति । तिरियंचरोळेकेंद्रियबादर सूक्ष्मद्वित्रिचतुरिद्रिय पर्याप्तापर्य्याप्त जीवंगळनितुं षंडरप्पुदरिनवक्केल्लं यथाप्रवचनं तथा एकेंद्रियबाद र सूक्ष्मापर्याप्तयुत त्रयोविंशति प्रकृतिस्थानमुं एकेंद्रियबाद र सूक्ष्मपर्याप्तयुत पंचशतिस्थान सपर्याप्तद्वित्रिचतुः पंचेंद्रिय तिर्भ्यग्गतियुतभुं । मनुष्यगतियुतमागियुं पंचविंशतिस्थानमुमेकेंद्रिय बादरयुत पर्याप्तात पोद्योतयुक्तषड्वशतिस्थानमुं तिय्यं मनुष्यगतिपर्याप्तयुत नवविंशतिस्थानमुं तिर्य्यग्गतिपर्य्याप्तोद्योतयुतत्रिंशत्स्थानमुं बंधमुमप्पुवु । तिर्यक्पंचेंद्रियषंडवेदिगळोळु ई पेळद पंचस्थानंगळं नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुं बंधमप्पु दु । तिय्यं पंचेंद्रिय १० पुंवेदिगळोळं स्त्रीवेदि गळोळमंते षड्बंधस्थानंगळं बंधमप्पुवु । मनुष्यलब्ध्यपर्य्याप्तरनिबरं षंडवेदि - गळेयप्परा जीवंगळ नितुं नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिस्थानं पोरगागि शेषबावर सूक्ष्मेकेंद्रियापर्याप्त त्रयोविंशतिस्थानमुमं । एकेंद्रियबादरसूक्ष्मपर्थ्याप्तयुत पंचविशतिस्थानमुमं । त्रसापर्याप्तद्वद्वियत्रींद्रिय चतुरिद्रिय पंचेंद्रियतिय्यग्गतियुतमागियुं मनुष्यगतियुतमागियुं पंचविंशतिस्थान कटुवरु | मत्तमा जीवंगळ बादरैकेंद्रिय पृथ्वीकाय पर्य्याप्तातपयुतमागियं षड्वशति- १५ स्थानमुमं मत्तमेकेंद्रिय तेजोवायु साधारणवनस्पतिबादर सूक्ष्मपर्य्याप्ता पर्य्याप्त वज्जित शेषैकेंद्रियपर्य्यामोद्योतयुतमागियं षड्वशतिस्थानमं तिग्मनुष्यगतिपर्य्याप्तयुत नर्वावशति स्थानमुमं तिर्यग्गतिपर्य्याद्योतयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवरु | मनुष्यपर्य्याप्त रु के लंबरु द्रव्यषंडरगळ । पुरुष स्त्रीषंढ वेदोदयंगळवं भावपुरुषस्त्रीषंडरप्परु | केलंबरु द्रव्यस्त्रीयरु भावपुरुष स्त्रीषंडरुगळुमप्परु | केलंबरु द्रव्यपुरुषरु । भावषंडस्त्रीपुरुष रुगळुमपरंतु षंडस्त्रीपुंवेदोदयंगळ वं षंडरं स्त्रीयसं २० पुरुषरुगळं भावदिदं प्रत्येकं त्रिविधमप्परल्लि संदृष्टि : - द्रव्यखंड भावषंड । द्रव्यखंड भावत्री । द्रव्यखंड भावपुरुष । द्रव्यस्त्री भावत्री । द्रव्यस्त्री भावषंड । द्रव्यस्त्री भावपुरुष । द्रव्यपुरुष च तत्पंचेंद्रियषंढे तानि च नरकगतिदेवगतियुताष्टविंशतिकं च । तत्स्त्रीपुंवेदयोस्तानि षट् । मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ते एक विकलेंद्रियोक्तानि पंच । पर्याप्तमनुष्याः द्रव्यषंढस्त्रीपुंवेदाः पुंस्त्रीषंढ वेदोदयेन भावपुंस्त्रोषंढा भवंति विना तीर्थंकरं । तत्र भावतः षंढे स्त्रियां पुंसि च गुणस्थानानि तत्तत्सवेदानिवृत्तिकरणांतानि । नव नव बंधस्थानानि २५ तिथंच स्त्रीवेदी पुरुषवेदीके छह स्थान होते हैं। मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकके एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय में कहे पाँच स्थान होते हैं । ५ पर्याप्त मनुष्य जो द्रव्यसे नपुंसकवेदी, स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी हैं वे पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदके उदयसे भाव पुरुष, भावस्त्री, भावनपुंसकवेदी होते हैं तीर्थंकर बिना | भाव से नपुंसक वेदी, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदीमें गुणस्थान अपने-अपने सवेद अनिवृत्तिकरण पर्यन्त ३० होते हैं । उनमें नौ-नौ बन्धस्थान होते हैं । किन्तु भावस्त्रीवेदी और भाव नपुंसक वेदी क - १०४ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ गो० कर्मकाण्डे भावपुरुष। द्रव्यपुरुष भावस्त्री। द्रव्यपुरुष भावपंड एंदितु नवविधमप्परल्लि । तीर्थकर परम देवरुगळनिबरुं यदिदं भावदिदं पुवेदिगळेयप्परु। शेषमनुष्यरुगळु यथासंभवमप्पर । पर्याप्तमनुष्य भावपंडवेदिगळोळु मिथ्यादृष्टियादियागि अनिवृत्तिकरणषंडवेदभागे पथ्यंतमोभत्तं गुणस्थानंगळप्पुवु। अल्लि यथाप्रवचनं तथा सर्वनामबंधस्थानंगळप्पुवु। भावस्त्रीवेविगळोळुमंते सर्वबंधस्थानंगळुमप्पुवु । ई षंडस्लोवेदि क्षपकरोळु देवगतितीर्थयुत नवविंशतियुमेकत्रिंशत्स्थानमुं बंधमिल्लेके दोडिल्लि चोदने-तीर्थकरपरमदेवरुगळ्गे द्रदिदं भावदिदं पुंवेदमेयक्कुमप्पुरिंद। मी क्षपकश्रेण्यारूढरप्प षंढस्त्रीवेदिगळोळेतु तीर्थदेवगतियुत नवविंशतिस्थानमुं देवगति तोत्थं आहारकद्वययुतकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमुमितो तो|युतस्थानद्वयबंधाबंधविचारमेणिंदमें दोडे पेळ्वं। सौधर्मकल्पमादियागि सर्वार्थसिद्धिपय्यंतमाद कल्पजकल्पातीतज तीर्थसत्कर्मरुगळ्गं धर्मादिमेघावसानमाद पृथ्विज तीर्थसत्कर्मरुगळ्गं गर्भावतरणादिपंचकल्याणंगळ द्रव्यभावपुंवेबंगळुमप्पुवु। चरमांगरागि तीर्थरहितरागिद्रव्यपुरुषभावषंडस्त्रीवेदिगळ केवलिश्रुतकेवलिद्वय श्रीपादोपांतदोलिर्दु षोडश भावनाबलदिदं तीर्थबंधमं प्रारंभिसि' तीर्थसत्कर्मरागिई असंयत. देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवत्तिगळोळ असंयतदेशसंयतरुगळ्गे परिनिष्क्रमणकल्याणसमन्वित१५ मागि विकल्याणमक्कुं। प्रमत्ताप्रमत्ततोत्थं सत्कर्मरुगळ्गे दीक्षाकल्याण मिल्ल । केवलज्ञानकल्या णादिकल्याणद्वितयमक्कु-। मंतवग्गंळु क्षपकश्रेण्यारोहणं माळ्पागल षंडस्त्रीवेदंगळवमं पत्तविटु पुंवेदोदयदिदमे क्षपकश्रेण्यारोहणमं माळपरे वितुपेवेमेकेंदोडे 'वेदादाहारोत्ति य सगुणट्ठाणाणमोघंतु" एंदितु षंढवेददोळं स्त्रीवेददोळं तीर्थबंधमुंटप्पुरिदं । भावपुवेदिगळोळमंत मिथ्यादृष्टयादिपुवेदोदयभागानिवृत्तिकरणपरियंतमाद गुणस्थानंगळो भत्तुमप्पुवु । आ गुणस्थानंगळोळ यथाप्रवचनं तथाऽष्ट नामकर्मबंधस्थानंगळप्पुर्व बुदत्थं ॥ सर्वाणि, न च स्त्रीषंढक्षपके देवगतितीर्थयुतनवविंशतिकैकत्रिंशत्के, चरमांगाणां केषांचित्तत्र तीर्थबंधसंभवेऽपि क्षपकश्रेण्यां पंवेदोदयेनैवारोहणात् । तीर्थबंधप्रारंभश्चरमांगाणामसंयतदेशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि श्रोणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे, प्राग्भवे तदा गर्भावतरादोनि पंचेत्यवसेयम् । क्षपक श्रेणिवालेके देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसका और इकतीसका स्थान नहीं होता। २५ यद्यपि किन्हीं चरम शरीरियोंके वहाँ तीर्थकरका बन्ध सम्भव भी है किन्तु वे पुरुषवेदके उदयसे हो श्रेणि चढ़ते हैं। यदि चरमशरीरियोंके तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ असंयत और देशसंयत गुणस्थानोंमें होता है तब उनके तप आदि तीन ही कल्याणक होते हैं। यदि प्रमत्त अप्रमत्तमें तीर्थकरका बन्ध होता है तो उनके ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याणक होते हैं। यदि पूर्वभवमें तीर्थकरका बन्ध किया है तो गर्भावतरण आदि पांचों कल्याणक होते हैं, इतना ३० विशेष जानना। १. "तित्वयरसत्यकम्मा तदियभवे तब्भवे हु सिज्झेह।" Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका कषायमार्गणेयो क्रोधचतुष्टयक्कं मानचतुष्टयक्कं मायाचतुष्टयक्कं लोभचतुष्टयक्क ग्रहणमक्कु । मंतादोडनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभादिषोडशकषायंगळगे जात्याश्रयणदिदमभेदविवयिदमेतु साधारणक्रोधमानमायालोभचतुष्टयकथनमक्कुमें दोडे शक्तिपधानकथनमप्पुदरिंदमभेदविवयिद फेळल्पद्रुददे तेदोर्ड द्वादशकषायंगलगे देशघातिस्पर्द्धकंगळिल्ल। सर्वमुं सव्वं. घातिस्पर्द्धकंगळेयप्पुवु। संज्वलनकषायचतुष्टयक्का सर्वघातिस्पद्धकंगळं देशघातिस्पर्द्धकंगळु- ५ मप्पुवदु कारणमनंतानुबंधिक्रोधोदयमुळ्ळ जोवनोळु नियमदिमितर क्रोधकषायत्रयोदयमुटु । मत्तमनंतानुबंधिमानोदयमुळ्ळ जीवनोळु नियमदिद मितरमानकषायत्रयोदयमुंदु । मत्तमनंतानुबंधिमायोदयमुळ्ळ जीवनोळु नियमदिदमितरमायाकषायत्रयोदयमुटु । मत्तमनंतानुबंधिलोभोदयमुळ्ळ जोवनोळु नियमदिदमितरलोभकषायत्रयोदयमुटु । अदु कारणदिदमनंतानुबंधिकषायोव्यक्के तु जीवगुण सम्यक्त्वसंयमोभयघातनशक्तिसिद्धमंतितर कषायत्रयोदयक्क मुंटप्पुरिदं । १० मत्तमंते अप्रत्याख्यान क्रोधमानमायालोभोदयंगळुझळ जीवंगळोनियमदिदमितर प्रत्याख्यानसंज्वलनद्वय क्रोधमानमायालोभोदयंगळ क्रमदिनुटेके दोर्ड प्रत्याख्यानक्रोधादिगळुदयंगळ्गे जोवगुणसंयमासंयमघातनशक्तियेता। प्रत्याख्यानसंज्वलनद्वयक्रोधादिकषायोदयंगळ्गमा शक्तियुटप्पु. दरिदं । मत्तमंत प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयंगळुझळ जोवंगळोळ नियमदिदं संज्वलनक्रोधमानमायालोभोदयंगळं क्रमदिनुटेके दोडे प्रत्याख्यानक्रोधोदयक्के जोवगुण सकलसंयमघातनशक्ति- १५ कषायमार्गणायां क्रोषादीनामनंतानुबंध्यादिभेदेन चतुरात्मकत्वेऽधि जात्याश्रयेणेकत्वमम्युपगतं शक्तिप्राधान्येन भेदस्याविवक्षितत्वात् । तद्यथा-द्वादशकषायाणां स्पर्धकानि सर्वघातीन्येव न देशघातीनि । संज्वलनानामुभयानि तेनानंतानुबंध्यन्यतमोदये इतरेषामुदयोऽस्त्येव तदुदयसहचरितेतरोदयस्यापि सम्यक्त्वसंयमगुणधातकत्वात् । तथा-अप्रत्याख्यानान्यतमोदये प्रत्याख्यानायुदयोऽस्त्येव तदुदयेन समं तवयोदयस्यापि देशसंयमघातकत्वात् तथा प्रत्याख्यानान्यतमोदये संज्वलनोदयोऽस्त्येव प्रत्याख्यानवत्तस्यापि सकलसंयमघातकत्वात् । न २० कषाय मार्गणामें क्रोधादिके अनन्तानुबन्धी आदिके भेदसे यद्यपि चार-चार भेद होते हैं तथापि जातिके आश्रयसे एकपना स्वीकार किया है क्योंकि यहाँ शक्तिकी प्रधानतासे भेदोंकी विवक्षा नहीं है। वही कहते हैं-बारह कषायोंके स्पर्धक सर्वघाती ही होते हैं, देशघाती नहीं। संज्वलनके स्पर्धक देशघाती भी हैं और सर्वघाती भी हैं। अतः अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभमें से किसी एकका उदय होनेपर अप्रत्याख्यान आदि तीनोंका २५ भी उदय है ही, क्योंकि अनन्तानुबन्धीके उदय सहित अन्य कषायोंके उदयके भी सम्यक्त्व और संयमगुणका घातकपना है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यान क्रोधादिमें-से किसी एकका उदय होनेपर प्रत्याख्यानादि दोका भी उदय है ही क्योंकि अप्रत्याख्यानके उदयके साथ उन दोनोंका भी उदय देशसंयमको घातता है। तथा प्रत्याख्यान क्रोधादिमें से किसी एकका उदय होनेपर संज्वलनका उदय है ही; क्योंकि प्रत्याख्यान कषायकी तरह संज्वलन कषाय ३० भी सकलसंयमकी घातक है। किन्तु केवल संज्वलन कषायका उदय होनेपर प्रत्याख्यान आदि तीन कषायोंका उदय नहीं है, क्योंकि उनके स्पर्धक सकलसंयम घाती हैं, केवल Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ गो० कर्मकाण्डे येता संज्वलनक्रोधमानमायालो भोदयंगामा शक्तियुमुंटप्पुर्दारवं । मत्तं केवलमा देशघातिशक्ति संज्वलनक्रोधमानमायालोभोदयमेकैकंगळळ्ळ जीवंधलोळ क्रमदिदं नियमदिदमितरप्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानानंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभोवयंगळ संभविस वेकें दोडी संज्वलनकषाय चतुष्टय के देशघातिस्पर्द्धकंगळुळं तितर द्वादशकषायंगळिगलमा द्वादशकषायंगळगे सकलसंयमविघातन५ समर्थं सम्बंघातिस्पर्द्धकंगळे यक्कुमप्पुदरिवं । अहंगे केवलं प्रत्याख्यानसंज्वलन कषायद्वयोदयमुळ जीबनोळ नियमवदमित राप्तत्याख्यानानंतानुबंधिकषायोदयमिल्लेर्क दोर्ड अवक्काऽऽजीवगुणसंयमासंयम सकलसंयम निम्मूलनकरण समत्थं सर्व्वधातिस्पद्धं कं गळल्लदितरशक्तिसंभविसवप्पुवरदं । मत्तमंत केवलमप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनकषायोदयंगळुल्ल जीवंगळोळ नियमविदमनंतानुबंधिकषायोदय मिल्लेक 'वोडदक्का जीवगुणसम्यक्त्व संयमासंयमसकल संयम सर्व्वविघातन समर्त्य १० सव्वंधातिस्पद्धकंगळल्लवितरशक्ति संभविसदप्पुरिव । मवु कारणमागियनंतानुबंधिकषायवर्क सम्यक्त्वसंयमोभयविधातनशक्तियक्कु । मप्रत्याख्यानावरणं चारित्रमोहनीयमे यप्पुवावोङमनंतानुबंधियोडननंतानुबंधिकाय्यंमं माडुगु मेर्क बोडवस्वयबोडने तनरोयु मा शक्तियुक्यमुं टप्पु - बरिदं । प्रत्याख्यानसंज्वलन कषायद्वय मुमंतेयनंतानुबंधियुदयदोडनुदयिसि तामुमनंतानुबंषि कार्यमं मावुवेकें बोडवय्वयदोडने तमयेयुमा शक्तियुदयमुंटप्पुर्वारवं । अनंतानुबंध्युवयरहितमागि अप्रत्या१५ ख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनत्रयंगळं संयमासंयमप्रतिघातमं माळ्पुवु । अप्रत्याख्यानोदयरहितमागि प्रत्याख्यान संज्वलनकषायोदयंगळ सकलसंयमप्रतिघातकंगलप्पुवु । प्रत्याख्यानावरणोदयरहित च केवलं संज्वलनोदये प्रत्याख्यानादीनामुदयोऽस्ति तत्स्पर्धकानां सकलसंयमविरोधित्वात् । नापि केवलप्रत्याख्यानसंज्वलनोदये शेषकषायोदयः तत्स्पर्धकानां देश सकलसंयमघातित्वात् । नापि केवलाप्रत्याख्यानादित्रयोदयेनंतानुबंध्युदयः तत्स्पर्धकानां सम्यक्त्वदेशसकलसंयमघातकत्वात् इत्यनंतानुबंधिनां तदुदयसहचरिताप्रत्या२० रुपानादीनां च चारित्रमोहत्वेऽपि सम्यक्त्वसंयमघातकत्वमुक्तं तेषां तदा तच्छक्तेरेवोदयात् । अनंतानुबंध्युदयरहिताप्रत्याख्यानाद्युदयाः देशसंयमं घ्नंति । अप्रत्याख्यानोदयरहितप्रत्याख्यान संज्वलनोदयाः सकलसंयमं प्रत्याख्यानोदयरहित संज्वलनदेशघात्युदयाः यथाख्यातमिति शक्तिसाधारणविवक्षया षोडशकषायाणां क्रोधादि प्रत्याख्यान और संज्वलनका उदय होते हुए शेष दो कषायका उदय नहीं है; क्योंकि उनके स्पर्धक देशसंयम और सकलसंयमके घाती हैं। २५ केवल अप्रत्याख्यान आदि तीन कषायका उदय रहते अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं है क्योंकि अनन्तानुबन्धीके स्पर्धक सम्यक्त्व, देशसंयम और सकलसंयमके घातक हैं । इस प्रकार अनन्तानुबन्धीके और उसके उदयके साथ सहचारी अप्रत्याख्यानादिके चारित्रमोहपना होते हुए भी सम्यक्त्व संयमका घातकपना कहा। क्योंकि उस समय में उनमें उसी शक्तिका ही उदय होता है । अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित अप्रत्याख्यान आदिके उदय देश३० संयमको घातते हैं । अप्रत्याख्यानके उदयसे रहित प्रत्याख्यान और संज्वलन के उदय सकलसंयमको घातते हैं । प्रत्याख्यान के उदयसे रहित संज्वलनका उदय यथाख्यातको घातता Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मागि संज्वलनदेशघातिकषायोदयं यथाख्यात चारित्रप्रतिघातियक्कु । मी शक्ति साधारणविवक्षयदं षोडशकषायंगळर्गे जात्याश्रयण क्रोधमानमायाळोभ साधारण चतुव्विधत्वमंगोक रिसल्पट्टुपुर्दारद सम्यक्त्वसंयमासंयमसकलसंयमंगलाऽसंयत देशसंयत प्रमत्तसंयतादिगळोळ संभवं सिद्धमक्कु । मनंतानुबंधिकषायचतुष्टयशक्तियोडनित रकषायशक्तिसमानर्म' तक्कुर्मदोर्ड आवरणदेसघादंतराय संजळण पुरिस सत्तरसं । चविह भावपरिणदा तिविहा भावा हु सेसाणं ॥ देशघात ज्ञानावरणचतुष्क दर्शनावरणत्रय अंतराय पंचक संज्वलन चतुष्क पुंवेदमें ब सप्तदशप्रकृतिगळु चतुविधानुभागपरिणतंगळु शेषमिश्रोन केवळणाणावरणं दंसगछक्कमित्यादिविंशति सघातिगळं नोकषायाष्टकमुं पंचसप्तत्यघातिगळं त्रिविध भावपरिणतंगळप्पुवु । ये दितु मिथ्यात्वमनंतानुबंधिचतुष्कम प्रत्याख्यानचतुष्कं प्रत्याख्यानचतुष्कं संज्वलनचतुष्क सव्र्व्वधातिशक्तियुं १० समानमक्कुमवक्के संदृष्टि - ८२७ भेदेन चतुर्षात्वमंगीकृतं तेन सम्यक्त्वदेशसंयम सकलसंयमान असंयतदेशसंयतप्रमत्तादिषु संभवः सिद्धः । कथमनं तानु बंघिशक्त्येतरकषायशक्ते सादृश्यं उच्यते ? आवरणदेसघादंतरायसं जलणपुरिससत्तरसं । चदुविधभावपरिणदा तिविहा भावा हु से साणं ||१|| देशघातिचतुस्त्रिज्ञान दर्शनावरणपंचांतरायचतुः संज्वलनपुंवेदाः सप्तदशापि चतुर्षानुभागपरिणताः १५ शैषमिश्रोन केवलज्ञानावरणादिसर्व घातिविंशतिः नोकषायाष्टकमघातिपंचसप्ततिश्च त्रिधा भावपरिणता भवंति । दृष्टि: है । इस प्रकार शक्ति सामान्यकी विवक्षासे सोलह कषायको क्रोधादिके भेदसे चार प्रकारका स्वीकार किया है । इससे सम्यक्त्व, देशसंयम और सकलसंयमका असंयत, देशसंयत, प्रमत्त आदि में होना सिद्ध होता है । शंका- अनन्तानुबन्धी शक्ति और अन्य कषायोंकी शक्ति में समानता कैसे होती है ? ५ समाधान - पहले अनुभागबन्धके कथनमें कहा है कि देशघाती चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, चार संज्वलन, एक पुरुषवेद ये सतरह प्रकृतियाँ तो चार प्रकारके अनुभागरूप परिणमती हैं। शेष मिश्र मोहनीय बिना केवलज्ञानावरण आदि बीस, आठ नोकषाय, पिचहत्तर अघातिया ये तीन प्रकारके अनुभागरूप परिणमती हैं। अतः अनुभाग २५ शक्तिकी विशेषतासे अनन्तानुबन्धीकी तरह अन्य कषायके भी सम्यक्त्व आदिका घात करनेसे समानता होती है । सो मिध्यात्व सहित उदयप्राप्त कषाय सम्यक्त्वको घातती है । अनन्तानुबन्धीके साथ उद्यागत कषाय सम्यक्त्व और संयमको घातती है । अप्रत्याख्यानके साथ उद्यागत कषाय देशसंयम सकलसंयमको धातती है । प्रत्याख्यान सहित उदयागत कषाय सकलसंयमको घातती है । संज्वलनके देशघाती स्पर्धकोंका उदय यथाख्यातको ३० धाता है । इस तरह बारह कषाय सर्वघाती और संज्वलनोंमें कथंचित् भेद होनेपर भी शक्तिकी समानतासे और समान कार्य करनेसे क्रोधादिके भेदसे चार भेद जानना । २० Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ मि १ अ दा ख ख अनं ४ ० दा ख ख श्र मि १ अ 우리 दा ख ख अप्र ४ अ दाख ख ← प्र ४ दा ख ख गो० कर्मकाण्डे अ मि ० दा ख अप्र ४ दा ख ख सं ४ 색 अ 4. दाख स दा १ अब अनं ४ शै अ ख ज दा ख ख अप्र ४ दाख सं ४ अ दा ख ख F ० वा १ ख प्र ४ शे अ दा ख ख सं ४ दाख ख ० दा १ ख ल अनं ४ अ दाख ख प्र ४ अ दाख यिल्लि मिध्यात्वकम्बोडनुदयिसुवनंतानुबंध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन सम्बंधाति. शक्तिगळसमानंगळप्पुर्दारवं मिथ्यात्व कम्र्म्मदंते सम्यक्त्वघातंगळप्पुवु । मिथ्यात्वरहितमागि अनंतानुबंधिकर्म्मदोडनुदयिव अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन सब्र्व्वधाति स्पर्द्धकंगळ शक्ति समान मप्पुर्दारवमनंतानुबंधिकषायदंते सम्यक्त्व संयमोभयघातंगळप्पुवु । अनंतानुबंधि रहिताप्रत्याख्याना - देशधाति A Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका वरणोदयदोडनुदयिसुव प्रत्याख्यानसंज्वलन सर्वघातिस्पर्द्धकंगळ शक्ति समानमप्पुरिदमप्रत्याख्यानकषायदंते देशसकलसंयमघातकंगळप्पुव प्रत्याख्यानावरणरहितमागि प्रत्याख्यानावरणदोडनुदयिसुव संज्वलनसवंघातिस्पर्द्धकोदयं सकलसंयममं प्रत्याख्यानावरणदंते धातिसुगुं। संज्वलनदेशघातिस्पर्द्धकोवयं यथाख्यातचारित्रमं घातिसुगुम बुदु सुसिद्धमादुदु । अप्र४ अनं ४ मनं दाख दाख दाख दाख दाख दाख स४ - - दाख दाखा दाख दाख दा अत्र मिथ्यात्वेन सहोदीयमानाः कषायाः सम्यक्त्वं नंति । अनंतानुबंधिना च सम्यक्त्वसंयमौ । ५ अप्रत्याख्यानेन देशसकलसंयमौ । प्रत्याख्यानेन सकलसंयमं संज्वलनदेशघात्युदयो यथाख्यातमिति सिद्धम् । एवं द्वादशकषायाणां सर्वघातिसंज्वलनानां च कथंचिद्धेदेऽपि शक्तिसादृश्यात्समानकायंकरणाच्च क्रोधादिभेदाच्चातुविध्यं ज्ञातव्यम् । तत्र क्रोधे नामबंधस्थानानि नारकेषु द्वे २९।३०। तिर्यग्गतावाद्यानि षट् । मनुष्येषु सर्वाणि, देवगती चत्वारि २५ २६ २९ ३० । एवं मानादित्रयेऽपि ज्ञातव्यं ज्ञानमार्गणायामज्ञानत्रये आधानि षट् । क्रोधकषायमें नामके बन्धस्थान नारकियोंमें उनतीस और तीस दो हैं। तियंचगतिमें १० आदिके छह हैं। मनुष्योंमें सब हैं । देवगतिमें चार हैं-पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० गो० कर्मकाण्डे यितु द्वादश कषायंगळगं संज्वलन सर्वघातिशक्तिगं कथंचिच्छक्तिभेददिदं भेदमिल्ल । सदृशशक्तित्वदिदं समानकायंत्वदिदं समानंगळप्पुरि ॥ जात्याश्रयणदिदं क्रोधमानमायालोभभेददिदं कषायमाग्गणे चतुर्भेदमेब प्रकृतार्थमुं सुसिद्धमादुदल्लि क्रोधकषायोदय जीवंगळ चतुर्गतिगळोळ मोळरप्पुरिदं नारकरोळु द्विस्थानबंधमक्कुं। २९ । ३० । तिय्यंग्गतियोळाद्य षट्स्थानंगळु बंधमप्पुवु । मनुष्यरोळु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणपश्यंतं सर्वस्थानंगळु बंधमप्पुवु । देवगतियो चतुस्थानंगलिवु बंधमप्पुवु। २५ । २६ । २९ । ३०। ज्ञानमार्गणयोळ प्रथमतन षट्कमज्ञाने कुमति कुश्रुतविभंग ब अज्ञानत्रयदोळ मोदल षट्स्थानंगळु बंधमक्कु २३।२५।२६। कु।कु। वि २८ । २९ । ३० मते दोडे नारकरोळं तिय्यंचरोळं मनुष्यरोळं देवकळोळं मिथ्यादृष्टिसासा. दनरुगळु कुमतिकुश्रुत ज्ञानिगळं । कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानिगळ मोळरप्पुरिदं । तत्तदुपयोगविवक्ष१० यिदं नारककुमतिकुश्रुत विभंगज्ञानिगळु संजिपंचेंद्रिय पर्याप्त तियंगतियुत नवविंशति प्रकृति स्थानमुमनुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं । मनुष्यगतिपर्याप्तयुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवरु । तिय्यचरोळेकेंद्रिय बादरसूक्ष्म विकलत्रयबादरपर्याप्तापर्याप्त कुमतिकुश्रुत ज्ञानिजोवं. गळु नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिस्थानं पोरगागि यथायोग्यतिर्यग्मनुष्यगतियुत त्रयोविंशत्यादि पंचनामकर्मस्थानंगळं कटुवरु। पंचेंद्रियतिर्यग्मनुष्यापर्याप्त कुमतिकुश्रुतज्ञानि मिथ्यादृष्टि१५ गळुमा पंचस्थानंगळं कटुवरु । पंचेंद्रियपर्याप्ततिय॑क्कुमतिकुश्रुतविभंग ज्ञानि मिथ्यादृष्टि सासा दनरुगळु यथायोग्यमागि चतुर्गतियुत नामकर्मबंधस्थानंगळारुमं कटुवरु। मनुष्यकुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानि मिथ्यादृष्टिसासादनरुगळं यथायोग्यचतुर्गतियुत षट्स्थानंगळं कटुवरु । देवक्कळोळ भवनत्रय सौधर्मकल्पद्वय कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानि मिथ्यादृष्टि सासादनरुगळु यथायोग्य पंचविंशति षड्विशति नवविंशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळं तिय्यंग्गतियुतमागि नवविंशतिस्थानमं मनुष्यगति२० युतमागि कटुवरु । शेष सानत्कुमारादि शतारसहस्रारावसानमाद देवक्कळोळ कुमतिकुश्रुतविभंग तत्र नारकेषु तिर्यग्गतिमनुष्यगतिपर्याप्तयुतनवविंशतिकोद्योतयुतत्रिंशत्के द्वे । एकविकलेंद्रिये कुमतिकुश्रुते नरकदेवगतियुताष्टाविंशतिकवजितयोग्यतिर्यग्मनुष्यगतियुतत्रयोविंशतिकादीनि पंच । पंचेंद्रियतिर्यग्मनुष्यापर्याप्तकुमतिकुश्रुतिमिथ्यादृष्टावपि तानि पंच, कुज्ञानत्रये मिथ्यादृष्टिसासादने पर्याप्तपंचेंद्रियतिर्यग्मनुष्ये योग्यचतुर्गतियुतानि षट् । भवनत्रयसोधर्मद्वये तिर्यग्गतियुतयोग्यपंचविंशतिकषड्विंशतिकनवविंशतिकत्रिंशत्कमनुष्यगति २५ इसी तरह मानादि तीनमें जानना । ज्ञानमार्गणामें तीन अज्ञानोंमें आदिके छह हैं। उनमें से नारकोंमें तियंचगति, मनष्यगति पर्याप्त सहित उनतीस और उद्योत सहित तीस ये दो हैं । एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियमें कुमति-कुश्रुतमें नरकगति देवगति सहित अठाईसको छोड़ तियंचगति मनुष्यगति सहित तेईस आदि पांच हैं। पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य अपर्याप्त कुमति कुश्रुत सहित मिथ्यादृष्टि में भी वे ही पाँच हैं। तीन कुज्ञान सहित मिथ्यादृष्टि सासादनमें और ३० पर्याप्त पंचेन्द्रिय तियच और मनुष्योंमें यथायोग्य चतुर्गतियुत छह स्थान हैं। भवनत्रिक और सौधर्म युगलमें तियंचगति सहित यथायोग्य पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस तथा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिका ज्ञानिमिथ्यादृष्टिसासादनरुगळु संज्ञिपंचेंद्रियपर्थ्याप्ततिर्य्यग्गतियुत नवविंशतिस्थानमुमं त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुद्योततमं मनुष्यगतियुत नर्वावशति प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवर । मेलान ताविकल्पजरोळं नवग्रैवेयकंगळोळं कुमतिकुश्रुतविभंग ज्ञानिमिध्यादृष्टिसासादनरुगळु मनुष्यगतियुत नववंशतिप्रकृतिस्थानमा दने कट्टुवरेक' दोडे तदो णत्यि सदरचऊ एंब नियममुंटत्युर्वारदं ॥ सणाणे चरिमपणं केवलजहखादसंजमे सुण्णं । सुदमिव संजमतिदये परिहारे णत्थि चरिमपदं ॥ ५४७ || संज्ञाने चरमपंच केवलयथाख्यात संयमे शून्यं । श्रुतमिव संयमत्रितये परिहारे नास्ति चरमपदं ॥ ८३१ मतिश्रुतावधिमनःपय सत् ज्ञानचतुष्टयदोळु त्रयोविंशति षड्वशति प्रकृतिनामकम्मंबंधस्थानंगळ कळेदु शेषाष्टाविंशत्यादि पंचस्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । म । श्रु । अ । म । २८ । १० २९ । ३० । ३१ । १ । मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयंगळु नारकरोळं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततिय्यं चरोळं मनुष्यपर्याप्त रोळं भवनत्रयादि सव्वार्थसिद्धि पर्यवसानमाद देवर्कळोळमप्पुवल्लि सप्तपृथ्विगळ नारकासंयत सम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतियुतनर्वाविंशतिस्थानमं कटुवर मेघे पय्र्यंतमाद मूरुं पृथ्विगळ असंयतसम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतितीत्थंयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवर । सौधर्मादिदेवक्कंळु गळा मनुष्यगतियुतनर्वाविंशति प्रकृतिस्थानमुमं तो थंमनुष्यगतियुत त्रिंशत्प्रकृति- १५ स्थानमुमं कट्टुवरु । भवनत्रयत्रिज्ञानिगळ मनुष्यगतियुत नववंशतिस्थानमों दने कट्टुवरु | तनवविंशतिकानि । सानत्कुमारादिसहस्रारांते संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततियंग्मनुष्य गतियुतनर्वाविंशतिकोद्योतयुतत्रिशतके द्वे । आनतादिनवग्रैवेयके मनुष्यगतियुतनर्वाविंशतिकमेव 'तदो णत्थि सदरचऊ' इति नियमात् ॥ ५४६ ॥ मतिश्रुतावषिमन:पर्ययज्ञानेष्वष्टाविंशतिकादीनि पंच त्रयोविंशतिकपंचविंशतिषवैिशतिकाभावात्, मतिज्ञानादित्रयं पर्याप्तापर्याप्तनारकसंज्ञितियंग्मनुष्यदेवेषु । तत्र नारके मनुष्यगतियुत नवविंशतिकमाद्य पृथ्वीत्रये २० तु मनुष्यगतितीर्थ युतत्रिशत्कमपि, सौधर्मादिदेवे ते एव द्वे, भवनत्रये मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव, तिरश्चि मनुष्यगति सहित उनतीस ये पांच स्थान हैं । सानत्कुमारसे सहस्रार पर्यन्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच और मनुष्यगति सहित उनतीस, तथा उद्योत सहित तीस ये दो स्थान हैं । आनतादि नौ ग्रैवेयक पर्यन्त मनुष्यगति सहित उनतीसका ही स्थान है; क्योंकि 'तदोत्थ सदरचऊ' इस वचनके अनुसार वहाँ तियंचगति सहित स्थान नहीं होता ।। ५४६ || ति श्रुत, अवधि और मन:पर्ययज्ञानमें अठाईस आदि पाँच स्थान हैं, उनमें तेईस, - पच्चीस और छब्बीसके स्थान नहीं होते । मतिज्ञान आदि तीन पर्याप्त अपर्याप्त नारकी, संज्ञीतियंच तथा मनुष्यों और देवों में 1 होते हैं । उनमें से नारकियोंमें मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान होता है । प्रथम तीन नरकों में मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीस भी होता है । सौधर्म आदिके देवोंमें भी वे ही दो ३० स्थान होते हैं । भवनत्रिक में मनुष्यगति सहित उनतीसका ही स्थान होता है । तियंचमें देवगति सहित अठाईसका स्थान होता है। मनुष्य में देवगति सहित अठाईस और देवगति तीर्थंकर सहित उनतीस ये दो स्थान होते हैं । क- १०५ २५ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे तिय्यंचमतिश्रुतावधिज्ञानिगळप्प असंयतसम्यग्दृष्टिगळं देशसंयतरुगळं देवगतियुताष्टाविंशति स्थानमनोंदने कट्टुवरु | मनुष्यगतिय मनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टिगळं देशसंयतरुगळप्प मतिश्रुतावषि - ज्ञानिगळं देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुमं देवगतितोत्थंयुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवरु | मतिश्रुतावधिमनः पय्य ज्ञानिगळप्प प्रमत्तसंयतरुगळं देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुमं देवगति५ तोत्थंयुतनवविशति प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवरु । अप्रमत्तापूर्व्यकरणषष्ठभागपय्र्यंतमाद चतुर्ज्ञानधररुगळु देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुमं देवगतितीर्थयुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं देवगत्याहारकत्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं देवगतितीर्थाहारकद्वय युतै कत्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवरु । अपूर्वकरणसप्तमभागं मोदलागि अपूव्र्वकरणानिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपरायचतुर्ज्ञान दिव्यसंयमिगळु यशस्कीत्तिनामकम्र्मबंधस्थानमनो 'दने कट्टुव रेंबुदत्थं । केवलज्ञानिगळोळु नामकम्मंबंध शून्यमक्कुं । के । ० ॥ सामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिगळे व संयमत्रितये संयमत्रितयवोळ श्रुतमिव श्रुतज्ञानदोळ तक्कुमेदितु चरमपंचस्थानंगळप्पुवल्लि परिहारे नास्ति चरमपदं एंदितु परिहारविशुद्धि संयमिगळोळ चरमपदमेकप्रकृति नामकम्भंबंधस्थानमिल्ल । सा । छे । २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । परिहार । २८ । २९ । ३० । ३१ । अदे तें दोडिल्लि सम् एंदितु सम् शब्दमेकी भावार्थगुमदेते बोडे घृतसंगतं तैलर्म वितेकोभूतमाडुर्द बुवत्थं मंते सम् एकत्वेन अयोगमन १५ समयः समय एव सामायिकं समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकं ये दिती निरुक्ति सिद्धमध्य सामायिक मिनितु क्षेत्रदोळिनितु कालदोळे दितु नियमिसल्पडुत्तिरलु सामायिकसंय मदोलिरुत्तिर्द्द १० ८३२ देवगतियुताष्टाविंशतिकं, मनुष्ये तच्च देवगतितीर्थयुतनवविंशतिकं च । चतुर्ज्ञानप्रमत्ते ते द्वे, तदप्रमत्तापूर्वकरणषष्ठभागांते तद्द्वयं च, देवगत्याहारकद्वययुतत्रिंशत्क देवगतितीर्थाहारयुतैकत्रिशतके च । तत्सप्तमभागादिसूक्ष्मसाम्परायांते यशस्कीर्तिरूपैकं । केवलज्ञाने नामबंधशून्यं । सामायिकादिसंयमत्रये श्रुतमिव पंच स्थानानि । तत्र २० परिहारविशुद्धौ न चरमपदं नैककं स्थानमस्ति । तत्र सम्- एकीभावेन अय: नामनं समयः, समय एव सामायिकं । समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकं । एतावति क्षेत्रे काले च नियमिते सति स्थितस्य मुनेर्महाव्रतं स्यात्, न केवलं कृतस्थूलसूक्ष्म जीवहिंसादिनिवृत्तेः तस्यास्तद्घा त्युदयेऽर्हच्छ्रतलिंगवन्मिथ्यादृष्टावपि संभवात्कुल राज चार ज्ञान सहित प्रमत्तमें अठाईस, उनतीस दो स्थान हैं । अप्रमत्त और अपूर्वकरण के षष्ठभाग पर्यन्त भी वे दो तथा देवगति आहारकद्विक सहित तीस और देवगति तीर्थंकर आहारद्विक सहित इकतीस ये चार स्थान होते हैं । अपूर्वकरणके सप्तम भागसे सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त एक यशस्कीर्तिरूप एक स्थान है । केवलज्ञानमें नामकर्मका बन्ध नहीं होता । २५ ३० सामायिक आदि तीन संयम में श्रुतज्ञानकी तरह पाँच स्थान हैं । किन्तु परिहारविशुद्धिमें एक प्रकृतिक बन्धस्थान नहीं होता | 'सम्' अर्थात् एकीभाव से 'अय:' अर्थात् गमनको समय कहते हैं । और समय ही सामायिक है । अथवा समय जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । इतने क्षेत्र और इतने कालका नियम लेकर स्थित मुनिके महाव्रत होता है केवल स्थूल और सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा आदिका त्याग करने से महाव्रत नहीं होता क्योंकि ऐसी क्रिया तो चारित्रमोहके उदय होते हुए अर्हन्तलिंग धारी मिध्यादृष्टिके भी होती है। जैसे राजकुलमें सर्वत्र गतिवाले चैत्र Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८३३ मुनिगे महाव्रतत्वमरियल्पडुगुं । स्थूलसूक्ष्मजीवंगळोळ माडल्पट्ट हिंसादिनिवृत्तियिदमा संयममक्कुमेनलवडे दोडदक्कै मिथ्यादृष्टिगळोळईच्छुतमर्हलिंगवंतराळ' घातिकम्र्म्मोदयसद्भावमप्युदरिदं । अंतादोडवर्क महाव्रतत्वाभावमक्कुर्म दोडागदेकें दोडदक्कुचार महाव्रतत्वमक्कु में तीगळ 'राजकुलसदवंगत चैत्रं तदभिधानमें तंते । यितु देशकालंगळ इयत्ता परिच्छित्तियिदमेकत्व वृत्तिवर्त्तनं सामायिक में बुदा सकलसावद्याद्विरतोस्मि येदितु के यिक्किई सामायिक संयमियोळु पंचमहाव्रतंगळं पंचसमितिगळु त्रिगुप्तिगळु में ब त्रयोदशविधचारित्रं पडेयल्बव ल्लि पंचमहाव्रतंगळे बबु प्रमादयोगंगळदं प्राणव्यपरोपणलक्षण हिसानिवृत्तिलक्षणा हिसाव्रतपरिपालनाथंमनृतस्तेयाब्रह्म परिग्रह निवृत्तिलक्षण सत्यादिमहाव्रतं गप्पुवु । पंचसमितिगळे बुवु सम्यगोय्यैयु ं सम्यग्भाबेयुं सम्यगेषर्णयुं सम्यगादाननिक्षेपणंगळं सम्यगुत्सर्ग्यमुं विदितजीवस्थानादिविधियनुळ मुनिर्ग प्राणिपीडापरिहाराभ्युपायंगळप्पुदरिनो पंचसमितिगळ ं गुप्तित्रयमें बवु । सम्यग्योगनिग्रहो १० गुप्तिः ये दितिल्लिकायवाङ्मनोव्यापारमं योगमें बुदु । आकायवाग्मनोव्यापारक्के स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्त्तनमं निग्रह बुदु । अदुवुं विषयसुखाभिलाषावृत्ति निषेधात्थं मादुवादोडे सम्यक् बुदक्कु -1 मा संक्लेशप्रादुर्भाव कारणमल्लद कायवाग्मनोव्यापार निग्रहलक्षण गुमियुमिविनितु महिसाव्रतपरि पालन सम्यगुपायंगळप्पुर्दारदमी त्रदोदशविधचारित्रमुमा सामायिकसंयमांतर्भावियप्तुर्दारवं । श्रीवर्द्धमानस्वामियिदं पेरगण चिरंतनोत्तम संहननयुतजिनकल्पाचरण परिणतरोळेकविध १५ सामायिकसंयममक्कुं । श्रीवीरवर्द्धमानस्वामियिद यो पंचमकाल स्थविरकल्पाल्प संहननयुत ง सर्व गत चैत्रस्य राजाभिधानवत्तस्योपचारेणैव तदभिधानात् । तत एव देशकालयोरियत्तापरिच्छित्यैकत्ववृत्तिरेव सामायिकं सिद्धं । ' प्रमादयोगेः प्राणव्यपरोपणं हिंसा' तन्निवृत्तिरहिंसा महाव्रतं । अनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तयः सत्यादिमहाव्रतानि । सम्यगोर्याभाषैषणादाननिक्षेपणोत्सर्गाः पंच समितयः । सम्यग्योगनिग्रहास्तिस्रो गुप्तयः । कायवाङ्मनोव्यापारा योगाः । तेषां स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवृत्तयः निग्रहास्ते च विषयसुखाभिलाषानु- २० वृत्तिनिषेधार्थजाताः सम्यगित्युच्यते । सत्यादयोऽहिसाव्रतपरिपालनसम्यगुपायाः । ते चामा त्रयोदश सर्व नामक व्यक्तिको उपचारसे राजा कह देते हैं उसी प्रकार उस क्रियाको उपचारले महाव्रत कहते हैं । इसीसे देश और कालकी मर्यादा करके एकत्वरूप वृत्ति हो सामायिक है यह सिद्ध होता है । प्रमादयोग द्वारा प्राणोंके घातको हिंसा कहते हैं और उसकी निवृत्ति अहिंसा महा- २५ व्रत है । असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे निवृत्ति सत्यादि महाव्रत है । सम्यक् ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समिति हैं । सम्यक् योगनिग्रहरूप तीन गुप्ति हैं । मन-वचन-कायके व्यापारको योग कहते हैं। उनकी स्वेच्छाचारपूर्वक प्रवृत्तिसे निवृत्तिको निग्रह कहते हैं । वे गुप्तियाँ विषयसुखकी अभिलाषाकी अनुवृत्तिका निषेध करनेके लिए होनेसे सम्यकू कही जाती हैं । सत्य आदि अहिंसा व्रतका परिपालन करनेके समीचीन ३५ उपायरूप हैं । ये तेरह 'मैं सर्वसावद्यसे विरत हूँ' इस प्रकार स्वीकार किये गये सामायिक १. संयमघाति । २. राजालय । ३. सर्व्वस्थानमनैदिद कश्चित्पुरुषंगे यिदेनेंबुदेंदोडे राजालयदोळस लिगेयुळळ पुरुषनोगे स्थितियोंदेडेयोळप्पोडं राजालयदोळेल्लियु मितगे थेंब सर्व्वगतत्ममेंतंते एंबुदत्थं । कोर्त्य । ५ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे संयमिगळोळु त्रयोदशविधत्वदिदं पेळल्पटुवु। तत्सामायिक संयमनियतक्षेत्रद्विविषकालप्रमादकृतानत्यंप्रबंधविलोपनदोळ सम्यक्प्रतिक्रिये च्छेदोपस्थापनमें बुलु विकल्पनिवृत्ति मेणु छेवोपस्थापनमक्कुं। परिहरणं परिहारः। प्राणिवध निवृत्ति यबुदथं । परिहारेण विशिष्टा विशुद्धिप्यस्मिन्स ५ परिहारविशुद्धिस्संयमः। एंदितु प्राणिपोडानिवृत्ति विशिष्ट विशुद्धियुताचरणं परिहारविशुद्धि संयममें बुदक्कुं॥ मूक्ष्मः सांपरायः कषायो यस्मिन्स सूक्ष्मसांपरायस्संयमः एंदितु संज्वलन लोभ सूक्ष्मकृष्टयनुभागानुभवयुताचरणं सूक्ष्मसांपरायसंयम, बुदु ॥ मोहनीयस्य निरवशेषस्योपामात क्षयाच्चात्मस्वभावावस्थोपेक्षालक्षणं यथाख्यातं चारित्रमित्याख्यायते। पूवंचारित्रानुष्ठायिभिर्मोहक्षयोपशमाभ्यां प्राप्तं यधाख्यातं । न तथाख्यातं। यथाशब्दस्यानंताय॑वृत्तित्वान्निखशेषमोहक्षयोपशमानंतरमाविर्भवतीत्यर्थः । तथाख्यातमिति वा। यथात्मस्वभावोऽवस्थितः तथैवाख्यातत्वात् । एंदितु प्रमत्तसंयताउनुष्ठातृळिदं दर्शनचारित्रमोहक्षयोपशमंगळिंदमनुष्ठिसल्पदुदेंतु पेळल्पद्रुदंतल्लिदु मोहनीयनिरवशेषोपशम झयंगळवमाचरिताचरणं यथाख्यातचारित्रमें बुदक्कुं। यथाशब्दक्कांतर्यात्थंवृत्तित्वमुंटप्पुरिवं । न तथाख्यातं यथाख्यातं ये वितिल्लिन तथाख्यातमें बुदे तु पडेयल्बक्कुम दोर्ड यथाख्यातशब्दसामर्थ्यदिदं पडेयल्बक्कुं। तथाख्यातमें वितु मेणु १५ यथात्मस्वभावमवस्थितमंत पेळल्पटुवरत्तमिदं । ये वितु सिद्धस्वरूपंगळप्प पंचसंयमंगळोळु www सावधाद्विरतोऽस्मीति स्वीकृतसामायिकेंऽतर्भवंति । तत एव श्रीवर्धमानस्वामिना प्रोक्तमोत्तमसंहनन जनकल्पाचरणपरिणतेषु तदेकधा चरित्रं । पंचमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं । तन्नियतक्षेत्रद्विषाकालप्रमादकृतानर्थप्रबंधविलोपने सम्यकप्रतिक्रिया विकल्पनिवृत्तिर्वा छेदोपस्थापनं। परिहरणं परिहारः प्राणि वघनिवृत्तिरित्यर्थः । तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन्म परिहारविशुद्धिः । सूक्ष्मः सांपरायः कषायो यस्मिन् स २० सूक्ष्मसांपरायः। मोहनीयस्य निरवशेषोपशमात् क्षयाद्वात्मस्वभावावस्थोपेक्षालक्षणः यथाख्यातः । पूर्वचारित्रा नुष्ठायिभिर्मोहक्षयोपशमाभ्यां प्राप्तं यथाख्यातं न तथाख्यातं यथाशब्दस्यानंतर्यार्थवृत्तित्वान्निरवशेषमोहक्षयोप चारित्रमें गर्भित हैं । इसीसे श्रीवर्धमान स्वामीने पूर्व में उत्तम संहननके धारी जिनकल्प आचरण परिणत मुनियोंके चारित्र सामायिकरूपमें एक प्रकारका कहा है। और पंचमकालके हीन संहननवाले स्थविरकल्पियोंमें वही चारित्र तेरह प्रकारका कहा है। सामायिक संयममें निर्धारित क्षेत्र और नियत-अनियत कालमें प्रमादवश किये गये अनर्थको दूर करने के लिए जो सम्यक प्रतिक्रिया है अर्थात् उस दोषकी शुद्धिका उपाय वह छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा सर्वसावद्यके भेद करके त्याग करनेको छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। प्राणिहिंसासे निवृत्ति परिहारका अर्थ है। उससे विशिष्ट शुद्धि जिसमें हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। जिसमें सूक्ष्म कषाय है वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र ३० है। समस्त मोहनीय कर्मके उपशमसे या क्षयसे आत्मस्वभावमें अवस्थिति, उपेक्षालक्षण वाला यथाख्यात चारित्र है। पूर्वचारित्रके धारियोंने मोहका उपशम या क्षय करके जिसे प्राप्त किया वह यथाख्यात चारित्र है। यथा ( अथ) शब्द अनन्तरवाची है। सो समस्त Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सामायिकच्छेदोपस्थापन संयमद्वयं प्रमत्ताप्रमतापूर्व्वानिवृत्तिकरणगुणस्थान चतुष्टयदोळमक्कुमल्लि प्रमत्तगुणस्थानदो देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमुं देवगतितीयुत नवविंशति प्रकृतिस्थानमुं बंधमक्कुमप्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळ मपूर्व्वं करणषष्ठभाग पय्र्यंतं देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगतितीयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगत्याहारकयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं देवगतितीर्थहारयुतै कत्रिशत्प्रकृतिस्थानमुं नालकुं बंधमप्पुवु । अपूर्वकरणचरमभागं मोदगोंडु अनिवृत्ति- ५ करणनोलमेकप्रकृतिस्थानं बंधमक्कुं । यथाख्यात संयमदोळं सूक्ष्मसां पराय संयमदोळं सुंद पेदपरु | परिहारविशुद्धिसंयमं प्रमत्ताप्रमत्तसंयत रोळेयक्कुमप्युदरिदं परिहारे नास्ति चरमपदं पेप | अल्लि देवगतियुताष्टाविशति प्रकृतिस्थानमुं । देवगतितोर्थयुतनर्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमुं । परिहारविशुद्धिसंयमि प्रमत्तनोळक्कुं । देवगतियुताष्टाविशत्यादि चतुःस्थानंगळ - १० प्रमपरिहारविशुद्धि संयमियोळक्कुं । २८ । २९ । ३० ॥ ३१ ॥ परिहारविशुद्धि संयमदोळु श्रेण्यारोहणमिल्लप्पुदरिदं । चरमपदमेकप्रकृतिस्थानं बंधमिल्ल || ८३५ अंतिमठाणं सुहुमे देसाविरदीसु हारकम्मं वा । चक्खूजुगले सव्वं सगसग णाणं व ओहिदुगे || ५४८ ॥ अंतिमस्थानं सूक्ष्मे देशाविरत्योराहारकार्म्मणवत् । चक्षुर्युगळे सर्व्वं स्वस्वज्ञानवदद्वि ॥ शमानंतरमाविर्भवतीत्यर्थः । तथाख्यातमिति वा यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात् । तत्राद्यसंयमद्वये प्रमत्ते देवगतियुताष्टाविंशतिक देव गतितोर्थयुत विशति द्वे । अनमत्तापूर्वकरण षष्ठभागांते तद्वयं च देवगत्याहारकद्विकद्वययुतत्रिंशत्क देवगतितीर्थाहारयुतै कत्रिंशत्के च सप्तमभागेऽनिवृत्तिकरणे चैककं । परिहारविशुद्धी २० प्रमत्ताप्रमत्तयोः सामायिकोक्तानि द्वे चत्वारि, नात्र श्रेण्यारोहणाभावादेकैकमस्ति ॥५४७॥ १५ मोहका उपशम या क्षय होनेके अनन्तर प्रकट होनेसे उसे अथाख्यात कहते हैं । अथवा उसे तथाख्यात भी कहते हैं। क्योंकि जैसा आत्माका स्वभाव है वैसा ही इसका स्वरूप कहा है । इनमें से सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में प्रमत्त गुणस्थान में देवगति सहित अठाईस और देवगति तीर्थंकर सहित उनतीस ये दो बन्धस्थान हैं । अप्रमत्त और अपूर्व- २५ करणके षष्ठ भाग पर्यन्त उक्त दोनों तथा देवगति आहारकद्विक सहित तीस और देवगति, तीर्थकर आहारकद्विक सहित इकतीस ये चार स्थान होते हैं । अपूर्वकरणके सातवें भाग और अनिवृत्तिकरण में एक प्रकृतिक एक ही बन्धस्थान है इस तरह प्रथम दो संयमों में पाँच बन्ध स्थान हैं । परिहारविशुद्धि में प्रमत्त और अप्रमत्तमें सामायिक में कहे दो और चार स्थान हैं । ३० यहाँ एकबन्धक स्थान नहीं है क्योंकि परिहारविशुद्धिवाला श्रेणिपर आरोहण नहीं कर सकता ||५४७॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ गा० कर्मकाण्डे __ सूक्ष्मसांपरायसंयमदोळु अंतिमस्थानमो देबंधमक्कुं। सू १ । य ।सं। यथाख्यातचारित्रदोळु केवलज्ञानदोळ पेळ्दत नामकर्मबंधं शून्यमक्कुं । देशविरत्यविरत्योराहारककाम्र्मणवत् देशविरतियोळाहारकदोळ्षेळ्दत देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगतितीर्थयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुं बंधमप्पुवु । देश । २८ ॥ २९ ॥ तिर्यक्संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तकर्मभूमिजदेशसंयतनोळ ५ देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमो देयक्कुं । दे। तिर्य्य । २८॥ अविरतियोळु कार्मणकाय योगदोळु पेन्दत अद्यतन षट्स्थानंगळु बंधमप्पुबु । अविरति । २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ई अविरति चतुर्गतिजरोळमक्कुमप्पुरिदं । नारकमिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतरोळं तिय्यंच. मिथ्यादृष्टि सासादन मिश्रासंयतरोळं मनुष्यमिथ्यादृष्टि सासावनमिश्रासंयतरोळं देवमिथ्यावृष्टि सासादन मिश्रासंयतरोळमसंयममेयप्पुरिदमल्लि नारकमिथ्यादृष्टियोळु पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्ग१० तियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं। मनुष्यगतियुत नवविंशति प्रकृति स्थानमुं बंधमप्पुवु । सासादननारकासंयमियोलु मिथ्यादृष्टियोळे तंता स्थानद्वयमुं बंधमप्पुवु। मिश्रनारकासंयमियोछु मनुष्यगतियुत नविंशति प्रकृतिस्थानमोंदे बंधमप्पुदु । नारकासंयतासंयमियोळु घादिमेघावसानसाद त्रिभूमिजरोळ मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुं मनुष्यगति तीर्थयुर्तात्रशत्प्रकृतिस्थानमुं बंधमप्पुवु। शेषपृथ्वीज नारकासंयतासंयमिगळोळ मनुष्यगतियुत १५ नवविशतिप्रकृतिस्थानमो दे बंधमकुं। तिर्यग्गतिय मिथ्यादृष्टि सर्वतिय्यंचासंयमिगळोळु त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगल बंधमप्पुवल्लि विशेषगुंटदाउदोडे पृथ्वीकायैकेंद्रियबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तंगळु मोदलागि सर्वैकेंद्रियंगळु विकलत्रयपर्याप्तापर्याप्तरं पंचेंद्रियापर्याप्तजीवंगळु नरकगतिदेवातियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानभं कट्टरेके दोर्ड पुण्णिदरं इगिविगळे ये दितेकेंद्रिय सूक्ष्मसांपरायसंयमे अंतिपस्थानं बध्यते । यद्याख्याते केवलज्ञानवन्नामबंधशून्यं । देशविरते आहारक२० वद्देवतियुताष्टाविंशतिकदेवगति तीर्थयुतनवविशक्षिके द्वे । तत्तिरश्चि देवगतियुताष्टाविंशतिकमेव । अविरती कार्मणवदाद्यानि षट् । अत्र नारके मिथ्यादृष्टौ सासादने व पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुतत्रिशत्के द्वे । मिश्रे मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव । असंयते धर्मादित्रये तच्च मनुष्यगतितीर्थयुतत्रिंशत्कं च । शेषपृथ्वीषु मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव । तिर्यग्गतो मिथ्यादृष्टी त्रयोविंशतिकादोनि षट् । तत्र पर्याप्तापर्याप्तसर्वेकविकलेंद्रियेष्वपर्याप्तपंचेंद्रिये च, न च नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिक 'पुण्णिदरं विगि २५ सूक्ष्मसाम्पराय संयममें अन्तका ही स्थान बँधता है। यथाख्यातमें केवलज्ञानकी तरह नामकर्मके बन्धका अभाव है । देशविरतमें आहारकवत् देवगति सहित अठाईस और देवगति तीर्थकर सहित उनतीस ये दो स्थान हैं। देशसंयमी तियंच में देवगति सहित: का ही बन्ध स्थान है । अविरत में कार्माणकी तरह आदिके छह स्थान हैं । नारकी मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टीके पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित या मनुष्यगति सहित उनतीस, ३० उद्योत सहित तीस ये दो स्थान हैं। मिश्रमें मनुष्यगति सहित उनतीसका ही बन्धस्थान है। असंयतमें धर्मादि तीनमें मनुष्यगति सहित उनतोस और मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीस ये दो हैं । शेष नरकोंमें मनुष्यगति सहित उनतीसका ही स्थान है। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि में तेईस आदि छह हैं। किन्तु वहाँ पर्याप्त-अपर्याप्त सब एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियोंमें और अपर्याप्त Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ८३७ विकलत्रयस+जीवंगळोळं बंधयोग्यमन्तप्पुरिदं। तेजोवायुकायिकबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तजोवंगळु मनुष्यगत्यपर्याप्तपंचविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कट्टरु। पर्याप्तमनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कट्टरु । कारणमेने दोडे "मणुवदुगं मणुवाऊ उच्च ण हि तेउवाउम्मि" एंदितु जिनदृष्टमप्पुरिदं । शेषमिथ्यादृष्टयसंयमितिय्यंचरुगळु तिर्यग्गति मनुष्यगतियुतमागि यथायोग्य षट्स्थानंगळं कटुवरु। तिय्यंचसासादनासंयमिगळु नियमदिवं संजिपंचेंद्रिय पर्याप्ततियंच नेयक्कुमा जीवं प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि असंयतनक्कुमथवा देशव्रतमुमं प्रथमोपशम सम्यक्त्वमुमं युगपत्स्वीकरिसि देशवतियक्कुमागियुमा ईटरुमनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सासावननक्कुमा जीवनोळ तियेग्गतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं मनुष्यगतियुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमुं बंधमप्पुवु। मी सासादनासंयमिजोवंग मरणमादोर्ड नरकगतिवज्जितमागि शेषतिय॑ग्गतियोळं मनुष्यगतियोळं देवातियोळं १० सासादनासंयमियुत्कृष्टदिदं समयोनषडावलिकालपथ्यंतमुं जघन्यदिमेकसमयं सासादनासंयमिगळप्परल्लि तिय्यंचसासादनरप्पोडे 'ण हि सासणो अपुण्णे साहारण सुहुमगेसु तेउदुर्ग में दितिनितुं स्थानंगळोळु पुटुवरल्लं। शेषैकेंद्रियविकलत्रयपंचेंद्रियसंस्यसंज्ञिजीवंगळोन्मुटुj-। मलि एकेद्रियविकलत्रय पंचेंद्रियसंज्यसंज्ञिजीवंगळोळु पुट्टिदसासादननुं नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमं कटुवनल्लं। शरीरपर्याप्ति नेरेयद मुन्नमा सासादनत्वं पोगि नियमदि मिथ्या- १५ दृष्टियेयक्कु । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु पर्याप्तियिदं मेलल्लदे नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानं बंधमिल्ल। विगले' इति तेषु तदबंधात् । नापि बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ततेजोवायुषु मनुष्यगत्यपर्याप्तयुतपंचविंशतिकपर्याप्तमनुष्यगतियुतनवविंशतिके 'मणुवदुगं मणुवाऊ उच्च णहि तेउ वाउम्मीति तेषु तबंधनिषेधात् । प्रथमो. पशमसम्यक्त्वं तद्युतदेशव्रतं वा विराध्य जातसासादनस्तिर्य तिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुत- २० त्रिंशत्कदेवगतियुताष्टाविंशतिकानि बध्नाति । मरणे नरकवजितगतिषत्कृष्टेन समयोनषडावलिकालं जघन्येनैकसमयं सासादनस्तिर्य तदा णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगे य तेउदुगे' इति शेष केंद्रियविकलत्रयसंश्यसंश्येव नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिकमबध्नन् शरीरपर्याप्तः प्राक् सासादनत्वं त्यक्त्वा नियमेन मिथ्याष्टिपंचेन्द्रियमें नरकगति, देवगति सहित अट्ठाईसका स्थान नहीं है, क्योंकि 'पुण्णिदरं विगिविगले' के अनुसार वहाँ उसका बन्ध नहीं होता। तथा बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त- २५ तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यगति अपर्याप्त सहित पच्चीसका और पर्याप्त मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध नहीं होता। क्योंकि उनमें उनके बन्धका निषेध है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व और उससे युक्त देशव्रतकी विराधना करके सासादन हुआ तिर्यच, तियेचगति या मनुष्यगति सहित उनतीस और उद्योत सहित तीसका तथा देवगति सहित अठाईसका बन्ध करता है। मरण होनेपर नरकगतिके बिना अन्य गतियों में उत्कृष्टसे ३० एक समय हीन छह आवली और जघन्यसे एक समय पर्यन्त अपर्याप्तदशामें सासादन होता है। अतः सासादन तिर्यंच 'ण हि सासणो अपण्णे साहारणसहमगे य तेउदगे इस वचनके अनुसार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी जीव ही अपर्याप्त सासादन होता है। सो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे असंज्ञिसंज्ञिजीवंगळ देवगतियुताष्टाविशतिप्रकृतिस्थानमे के बंधमिल्लेंदु पेवरेर्क दोर्ड "मिच्छ दुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि एंदिता असंज्ञिसंज्ञितिथ्यंचसासादननोळं देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुं बंधमिल्ले दितु निश्चइसुबुदु । संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततियंचने मिश्र - तिम्यंचा संयमयप्पुरिदं । देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमनोंदने कट्टुगुमेकें दोडे सासादन५ गुणस्थानदोळे तिर्य्यग्गतिगं मनुष्यगतिगं बंधव्युच्छित्तियक्कुर्म' ते 'दोडे "उवरिमछष्णं च छिदी सास सम्मे हवे नियमा” एंदितु पेळल्पट्टुदरिदं । असंयततिय्यंचासंयमियोळु देवगतियुताष्टाविशति प्रकृतिस्थानमोदे बंधमक्कुमेके दोडे 'तिरिये ओघो तित्थाहारूणा' येंदु तोर्त्याहारकद्वयबंधं निषेधिसल्पट्टुपुर्दारदं । मिथ्यादृष्टिमनुष्याऽसंयमियोळु अपर्याप्तमनुष्या संयमिये ढुं पर्याप्तमनुष्यासंयमियेदितु मनुष्य मिथ्यादृष्टयसंयमिगळु द्विविधमप्परल्लि लब्ध्यपर्याप्त मिथ्या१० दृष्टयसंयमिगळु नरकगतिदेवगतियुताटाविशति प्रकृतिस्थानं पोरगाति शेषतिर्य्यग्मनुष्यगतियुत त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगलं कट्टुवरु । पर्याप्तमनुष्य मिथ्यादृष्टय संयमिगळुमा अटाविंशति प्रकृतिस्थानयुतमागि यथायोग्यं त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळं चतुरगं तियुतमागि कट्टुवरु । सासादनमनुष्यासंयमिगळेबवरुगछु “ चदुर्गादिमिच्छो सण्णी पुण्णो गब्भजविसुद्धसागारो । पढमुव १५ ८३८ र्भूत्वा पर्याप्तेरुपरि बध्नाति । संयसंज्ञिनावपि तत्कथं न बघ्नतः ? 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं नहीति अस्मिन् सासादने तयोरपि तदघटनात् । तिर्यग्मिनोऽसंयतो वा संज्ञिपर्याप्त एव तन्मिश्रे देवगतियुताष्टाविंशतिकमेव 'उवरिमछहं च छिदी सासणसम्मे' इति तिर्यग्मनुष्यगत्योरस्य बंधाभावात् । तदसंयतेऽपि तदेव तिर्यग्जीवे तीर्थाहाराणामबंधात् । मनुष्ये मिथ्यादृष्टी लब्ध्यपर्याप्त नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिकवर्जिततिर्यग्मनुष्यगतितत्रयोविंशतिकादीनि षट् । पर्याप्ते चतुर्गतियुतानि तानि षट् चदुर्गादिमिच्छो सण्णीत्यादिसामग्री संपन्नः नरकगति या देवगति सहित अट्ठाईसका बन्ध न करके शरीर पर्याप्तिके पूर्व ही सासादनपनेको छोड़ नियमसे मिध्यादृष्टि होकर पर्याप्त होनेपर ही नरकगति अथवा देवगति सहित अट्ठाईसके स्थानको बाँधता है । २० शंका- संज्ञी और असंज्ञी भी अठाईसके स्थानको क्यों नहीं बाँधते ? समाधान- "मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि' इस आगम वचन के अनुसार सासादन में संज्ञी असंज्ञीके भी अठाईसका बन्ध नहीं होता । २५ मिश्र और असंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच संज्ञी पर्याप्त ही होता है । सो मिश्र में तो देवगति सहित अठाईसको ही बाँधता है। क्योंकि 'उवरिम छण्हं च छिदी' इत्यादि वचनके अनुसार तियंचगति और मनुष्यगति में उसके बन्धका अभाव है । तथा असंयतमें भी वही स्थान बँधता है क्योंकि तिर्यंचके तीर्थंकर और आहारकका बन्ध नहीं होता । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यके तो नरकगति देवगति सहित अठाईसके बिना तेईस ३० आदि छह स्थानोंका बन्ध होता है । और पर्याप्त मनुष्यके चारों गति सहित छहों स्थान बँधते हैं। तथा 'चदुगतिमिच्छो सण्णी' इत्यादि सामग्री से सम्पन्न जीव करणलब्धि अन्तिम समय में दर्शनमोहका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वी हुआ या प्रथमोपशम सम्यक्त्व Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सम्मं गेण्हदि पंचमवरलद्धि चरिमम्हि ॥" एंदितो सामग्री विशेष विशिष्ट मनुष्यमिथ्यादृष्टिकरणत्रयस्वरूपपंचम लब्धिपरिणतननिवृत्तिकरणचरमसमयदोळु दर्शनमोहनीयमनुपशमिसि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमनसंयतादि चतुर्गुणस्थानंगळोळाउदानुमोदु गुणस्थानदोळु यथायोग्यमप्पुदरोळ स्वीकरिसि कथंचिदनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वमुमं सम्यक्त्वदेशव्रतमुमं सम्यक्त्वमहासतमुमं कैडिसि सासादनसम्यग्दृष्टयसंयमियक्कु मे दोडनंतानुबंधिकषायक्के दर्शनमोहक्कं तु प्रशस्तोपशम विधानमुंटतदक्किल्लप्पुरिदं प्रशस्तोपशमदिनिरुत्तिनंतानुबंधिकषायोदयमुभयप्रतिबंधियप्पुदरिदं । अंतप्प मनुष्यसासादनासंयमि पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमागि नवविंशति प्रकृतिस्थानमुमनुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमनितु तिर्यग्गतियुतमागि द्विस्थानमनेकटुगुमेकें दोडे मिथ्यादृष्टियोळेकेंद्रियविकलत्रयंगळगे बंधव्युच्छित्तियादुदप्पुदरिदं । मत्तमा मनुष्यसासादनासंयमिमनुष्यगति पर्याप्तयुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं देवगतियुताष्टाविंशति १० प्रकृतिस्थानमुमं कटुगुमी मनुष्यसासादनासंयमिर्ग मरणमादुदादोडे नरकगति पोरगागि मुरु गतिगळोळु पुटुगुमल्लि तिय्यंग्मनुष्यगतिगळोळु पुटुवर्ड "ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगे य तेउदुगे" एंदितिनितुं स्थानंमळोळ पुट्टनप्पुदरिमवं बिटु शेष तिय्यंग्मनुष्य गतिगळोलु पुटुगुमा तिय्यंग्मनुष्यसासादनासंयमिगळ नरकगतियुताष्टाविंशतिस्थानमं "मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अत्थि" एंदितु देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुमं कट्टरप्पुरिदमा स्थानं पोर- १५ गागि स्वगुणस्थान कालमन्नेवर मनेवरं नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळने कटुवरु। मनुष्यतिथ्यंचसासादनासंयमिगळिगे मरगमागि देवगतियोळपुट्टिवरादोडमल्लियुमा नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळने कटुवरु । स्वगुणस्थानकालं पोदि बळिक्क मिथ्यादृष्टिगळागि शेषमिश्रकालदोळु अष्टाविंशति करणलब्धिचरमसमये दर्शनमोहमुपशमय्य प्रथमोपशमसम्यक्त्वं तत्सहितदेशवतं तत्सहितमहावतं वा प्राप्य तत्कालांतर्महर्ते एकसमयतः षडावल्यंतेषु कालेब्वेकस्मिन्नवशिष्टेऽनंतानुबंधिनामप्रशस्तोपशांतानामन्यतमोदयेन २० लब्धगुणं हत्वा जातसासादनः एकविकलेंद्रियाणां मिथ्यादृष्टावेव बंधात् पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्मनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुतत्रिंशत्कदेवगतियुताष्टाविंशतिकानि बध्नाति । मरणे तिर्यङ् मनुष्यो देवो वा सासादनकाले नवविंशतिकादिद्वयं, न च नरकगतिदेवगत्यष्टाविंशतिकं । तत्काले परिसमाप्ते मिथ्यादृष्टिभूत्वा शेषमिश्रकाले सहित देशव्रती या महाव्रती हुआ। उसके उपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमें एक समयसे लेकर छह आवली काल शेष रहते अनन्तानुबन्धी कषायका अप्रशस्त उपशम हुआ था सो उसमें से किसी एक क्रोधादि कषायका उदय होनेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वका घात करके सासादन गुणस्थानवर्ती हुए मनुष्यके एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियका बन्ध तो मिथ्यादृष्टिमें ही होता है अतः पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति अथवा मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान या उद्योत सहित तीसका स्थान या देवगति सहित अठाईसका स्थान बंधता है। मरनेपर तिर्यंच, या मनष्य या देव जबतक अपर्याप्त दशामें सासादन रहते हैं तबतक तो उनतीस या १० तीस दोका ही बन्ध करते हैं, नरकगति या देवगति सहित अठाईसको नहीं बाँधते । सासादनका काल पूर्ण होनेपर मिथ्यादृष्टि होकर जबतक निवृत्यपर्याप्त रहते हैं तबतक अठाईसके बिना पच्चीस आदि पाँच स्थानोंको बाँधते हैं। और पर्याप्त होनेपर अठाईस Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० गो० कर्मकाण्डे प्रकृतिस्थानं पोरगागि पंचविंशत्यादिपंचस्थानंगळं पर्याप्तियोळमंत कटुवरु । मनुष्यगतिय मिश्रासंयमि देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनों दने कटुगु मे दोडुवरिम "छण्हं च छिदी सासण सम्मे हवे णियमा" एंदितु मनुष्यद्विकमुं सासादनासंयमियोळे बंधव्यच्छित्तियादुदप्पुदरिदं । मनुष्यासंयतासंयमिगळोळु देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं सामान्यमनुष्यासंयतासंय५ मिगळप्प कर्मभूमिजमनुष्यरूं चरमांगरुगळं भोगभूमिजा संयतासंयमिगळं कटुवरु। देवतियुत तोयंयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमं गर्भावतरण जन्माभिषेककल्याणद्वययुततीर्थकर कुमारसगळं तृतीयभवदोळ तीत्थंकररुगळप्प मनुष्यासंयतरुगळ केवलिद्वय श्रीपादोपांतदोळु षोडशभावनाबलदिदं तोयंकरनामकर्म बंधमं प्रारंभिसिई बद्धनरकायुदे॒वायुष्यरुगळं मत्तं गर्भावतरण कल्याणमुं जन्माभिषेककल्याण, रहितमागि तद्भवदोळे तीर्थकरागल्वेडिई चरमांगरु गळप्प १० तोर्थसत्कर्मासंयतासंयमिगळं कटुवरु । गर्भावतरणकल्याणपुरःसरं नरकगति देवगतिमिदं बरुत्तिई तीर्थसत्कर्मरुगळु विग्रहगतियोळं मिश्रकालदोळं देवगतियुत नवविंशतिस्थानमं कटुवरु । तीर्थसत्कर्मगळप्प नारकदेवासंयतरुगळु स्वायः क्षयमागुतं विरलु तीर्थकरल्लदन्यमनुष्यरल्ल. रप्पुरिदं । देवासंयमिगळु चतुर्गुणस्थानत्तिगळप्परल्लि मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळु पर्याप्त. मिथ्यादृष्टिदेवासंयमिगळे दु निर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळे दुं द्विविधमप्परल्लि १५ भवनत्रयसौधर्मद्वयपर्याप्तमिथ्यादृष्टयसंयमिगळ एकेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुत पंचविंशतिस्थान मुमं आतपोद्योतयुतषड्विंशतिप्रकृतिस्थानमुमं पंचेंद्रियपर्याप्ततियेागतियुतमुं मनुष्यगतियुत गुमप्प नवविंशति प्रकृतिस्थानमुमं तिर्यग्गतियुद्योतयुत मागि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवरु। सानत्कुविनाष्टाविंशतिकं पञ्चविंशतिकादीनि पंच । पर्याप्तौ तु अशविंशतिकमपि । कर्मभोगमिमिश्रासंयती देवगत्वष्टा विंशतिकमेव नरकतिर्यग्गत्योः सासादने बंधच्छेदात् । विग्रहगतितीर्थकृत् मिश्रतीर्थकृत् गर्भतीर्थकृत् जन्म२० तीर्थकृत् कुमारतीर्थकृत् बद्धदेवनरकायुः प्रारब्धतद्वंघः तत्त्व वरमांगश्च देवगतितीर्थयुतनवविंशतिक, देवः पर्याप्तो मिथ्यादृष्टिः भवनत्रयसोधर्मद्वयजः एकेन्द्रियपर्याप्ततियंगतियतपंचविंशतिकातपोद्योतयतषविंशतिकपंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यग्मनुष्यगतियुतनवविंशतिकतिर्यग्गत्युद्योतयुतत्रिंशत्कानि, सानत्कुमारादिदशकल्पनः मनुष्यसहित छह स्थानोंको बांधते हैं । कर्मभूमिका मनुष्य मिश्र और असंयत गुणस्थानमें देवगति सहित अठाईसका ही बन्ध करता है क्योंकि नरकगति और तियंचगति के बन्धकी व्युच्छित्ति २५ सासादनमें ही हो जाती है। तीर्थकर यदि विग्रहगतिमें हों, या निर्वृत्यपर्याप्त अवस्थामें हों, या गर्भावस्थामें हों, या जन्म अवस्थामें हों या कुमार अवस्थामें हों, या जिसके पूर्व में नरकायु या देवायुका बन्ध हुआ है और पीछे तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ किया है ऐसा जीव, या तीर्थकरकी सत्ताका धारी चरम शरीरी मनुष्य असंयत गुणस्थानमें देवगति तीर्थकर सहित उनतीसका ३. ही स्थान बाँधता है। देवगतिमें भवनत्रिक और सौधर्म युगलका पर्याप्त मिथ्यादृष्टि देव एकेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित पचीसका या आतप उद्योत सहित छब्बीसका या पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच या मनुष्यगति सहित उनतीसका या तियंच उद्योत सहित तीसका, इस प्रकार चार स्थानों - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मारादि दशकल्पज मिथ्यादृष्टिदेवासंयमिगळ नवविंशतियं मनुष्यतिर्यग्गतियुतमागियुं त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं तिर्यग्गत्युद्योतयुतमागि कटुवरु । आनतादिकल्पज मिथ्यादृष्टिगळं नवग्रैवेयक मिथ्यादृष्टिगळ मनुष्यगतियुत नवविंशतिस्थानमनों दने कटुवरु। निर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिदेवर्कळगे पेळल्पडुगुमे ते दोड-मनुष्यलोकप्रतिबद्धजघन्यमध्यमोत्कृष्ट त्रिंशद्भोगभूमिसमुद्भूत. तिर्यग्मनुष्यमिथ्यादृष्टिगळ मानुषोत्तराचलापरभागार्द्धपुष्करद्वीपमादियागि स्वयंप्रभाचलाा - ५ चीनभागस्वयंभूरमणद्वीपार्द्धपय्यंतमाव जघन्यतिर्यग्भोगभूमिसंज्ञिपंचेंद्रिय तिर्यग्मिथ्यादृष्टिजोवंगळु षण्णवतिकुमानुष्यद्वीपंगळ कुमानुष्यरुगळ नियमदिदं देवायुष्यमं स्वस्थितिनवमासावशेषमादागळष्टापकषंगळोळे येल्लियानुमो दुत्रि भागावशेषमादागळ कट्टि भुज्यमानायुःस्थितिक्षयवशदिदं भवनत्रयदेवर्कळोळ कल्पस्त्रीयरोळ मिथ्यादृष्टिगळागि पुट्टि यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालं निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिदेवासंयमिगळप्परु । इल्लिगे प्रस्तुतगाथासूत्रमिदु:- १० ___ सम्वट्ठोत्ति सुविट्ठी महव्वई भोगभूमिजा सम्मा। सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवतियं तावसा य वरं ॥-त्रि० सा० ५४६ गा० । एंदितु भोगभूमिजमिथ्यादृष्टिगतापसरुगळे वरमुत्कृष्टदिदं भवनत्रयदोळ, पुटुबरप्पुदरिदं शेषत्रिगतिजरागरें बुदत्थं । मत्तं मनुष्यक्षेत्रप्रतिबद्धकर्मभूमिभरतैरावतविदेहंगळ संजितिर्यग्गतियुतनवविंशतिकतिर्यग्गत्युद्योतयुतत्रिंशत्के । नतादिकल्पनववेयकजः मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव। १५ मनुष्यलोकप्रतिबद्धत्रिंशद्भोगभूमितिर्यग्मनुष्यः मानुषोत्तरात्स्वयंप्रभाचलांतरालवर्तिजघन्यतिर्यग्भोगभूमिसंज्ञितिर्यअण्णवतिकुमानुष्यद्वीपकुमानुष्यश्च नियमेन देवायुष्यं स्वस्थितिनवमासावशेषेऽष्टापकर्षेषु क्वचिरित्रभागावशेषे बद्ध्वा भुज्यमानायुःस्थितिक्षयवशेन भवनत्रये कल्पस्त्रीषु वा मिथ्यादृष्टिभूत्वोत्पद्य यावच्छरीरमपूर्ण तावत् निर्वृत्त्यपर्याप्तो भवति । अत्र प्रस्तुतगाथा ___ सव्वट्ठोत्ति सुदिट्ठी महन्वई भोगभूमिजा सम्मा । सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवणतियं तावसा य वरं ॥१॥ २० को बाँधते हैं। और सानत्कुमार आदि दस स्वर्गोंके देव मनुष्य या तिथंचगति सहित उनतीसका या तियंचगति उद्योत सहित तीसका बन्ध करते हैं। आनतादि स्वर्ग और नौ प्रैवेयकोंके देव मनुष्यगति सहित उनतीसके स्थानको बाँधते हैं। ___आगे देवोंके निवृत्यपर्याप्त अवस्थामें बन्ध कहते हैं। अतः देवोंमें कौन कैसे उत्पन्न होता है यह कहते हैं मनुष्यलोक सम्बन्धी तीस भोगभूमियोंके तिर्यंच और मनुष्य तथा मानुषोत्तर और स्वयंप्रभ पर्वतके मध्यवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्र सम्बन्धी जघन्य तियंच. भोगभूमिके संज्ञी तिथंच तथा लवण और कालोद समुद्रोंके छियानबे द्वीपवासी कुमनुष्य नियमसे अपनी आयुके नौ महीने शेष रहनेपर आठ अपकर्षों में से किसी एकमें त्रिभाग शेष रहनेपर देवायुको बाँधकर भुज्यमान आयकी स्थितिका क्षय होनेसे भवनत्रिकमें अथवा कल्पवासी स्त्रियों में ३० मिथ्यादृष्टि होकर उत्पन्न होते हैं और जबतक शरीर पर्याप्तिपूर्ण नहीं होती तबतक निवृत्यपर्याप्त रहते हैं । इस विषयमें प्रासंगिक गाथा कहते हैं महावती सम्यग्दृष्टी सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं। भोगभूमिया सम्यग्दृष्टी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ गो० कर्मकाण्डे पंचेंद्रियपर्याप्ततिय्यंच भद्रमिथ्यादृष्टि जीवंगळं स्वयंभूरमणद्वीप स्वयंप्रभाचलापरभागार्द्धद्वीपवोळ स्वयंभूरमणसमुद्रदोळ लवणकाळोदसमुद्रंगळोळ केलवु संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तस्थलचरखचर जलचरभद्र मिथ्यादृष्टितिय्यंचरुगळ मत्तं मनुष्यक्षेत्रप्रतिबद्धकर्मभूमिभरतैरावतविदेहंगळोळ. पशमब्रह्मचर्यसमन्वितरप्प वानप्रस्थरुगळे क जटिशतजटि सहस्रजटि नग्नांड कांजिभिक्षु कंदमूल पत्रपुष्पफलभोजिगळ मकामनिर्जराबालपांसि देवस्य "एंवितेकदंडि त्रिदंडि मिथ्यातपश्चरणपरिणतरुग कायक्लेशाचरणंगळिदं केलंबरु स्वस्व विशुध्यनुसारविदं देवायुष्यमं कट्टि भुज्यमानमनुष्यायुष्यक्षयवशदिदं मृतरागि भवनत्रयं मोदल्गोंडुत्कृष्टदिदमच्युतकल्पपयंतं पुट्टि यावच्छरीरमपूणं तावत्कालपर्यंत मिथ्यादृष्टिनित्यपर्याप्तदेवासंयमिगळप्पर । इल्लि अकाम नि रे ये बुदु बंधनदिदं चार निरोधमकामम बुदु । बंधनंगळोळ क्षुत्पिपासानिरोधब्रह्मचर्य १० भूशयन मलधारणपरितापादिगळे बुदर्जमदरिदं बयसुव वेदनाविपाकलक्षणनि रणमल्तप्पु. दरिंदमकामनिर्जरयेदु पेळल्पटुडु । बालपंगळे बुवु मिथ्यादर्शनोपेतंगळ - मनुपायकायक्लेशप्रचुरंगळु निष्कृतिबहुलव्रतधारणंगळुमप्पुवी बालतपंगळेतप्परोळे दोडिल्लिगे प्रस्तुतगाथासूत्रंगळ : चरया य परिव्वाजा बलोंतच्चुदपदोंत्ति आजोवा । अणुविस अणुत्तरादों चुदा ण केसवपदं जांति ॥-[त्रि. सा. ५४७ गा.] मिथ्यादृष्टयो भोगभूमिजास्तापसाश्च वरमुत्कृष्टेन भवनत्रये उत्पद्यते नान्यत्र । भरतैरावतविदेहजाः स्वयंभूरमणद्वीपापरार्धतत्समुद्रलवणोदकालोदजाश्च केचित् जलस्थलखचरसंशिपर्याप्तभद्रमिथ्यादृष्टयः उपशमब्रह्मचाँकितवानप्रस्थाः एकजटिशतजटिसहस्रजटिनग्नांडकांजीभिक्षुकंदमूलपत्रपुष्पफलभुजः अकामनिर्जरा एकदंडि त्रिदंडिमिथ्यातपश्चरणपरिणताश्च कायक्लेशाचरणैः केचित् स्वस्वविशुद्धयनुसारेण भवनत्रयाद्यच्युतांत२० मुत्पद्यते । अकामैः अनभिलषितः बंधनेन क्षुत्पिपासानिरोधब्रह्मचर्यभूशयनमलधारणपरितापादिभिनिर्जरा अकामनिर्जरेत्युच्यते । मिथ्यादर्शनोपेताः अनुपायकायक्लेशप्रचुराः निकृतिबहुलव्रतधराः बालतपसः । तदुत्पत्ति. प्रस्तुतगाथासूत्रसौधर्मयुगलमें उत्पन्न होते हैं। और मिथ्यादृष्टि भोगभूमिया तथा उत्कृष्ट तापसी भवनत्रिकमें उत्पन्न होते हैं। अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते। भरत-ऐरावत-विदेहमें उत्पन्न हुए, तथा स्वयंभूरमण द्वीपके अपराध, स्वयंभूरमण, लवणोद कालोद समुद्रोंके वासी कोई जीव थलचर, नभचर, संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि, तथा उपशम ब्रह्मचर्य सहित वानप्रस्थ, तथा एकजटी, शतजटी, सहस्रजटी, नग्नाण्डक, कांजी भक्षण करनेवाले, कन्दमूल पत्र पुष्प फलके खानेवाले, अकामनिर्जरा करनेवाले, एकदण्डी, त्रिदण्डी, मिथ्यातपश्चरण करनेवाले कायक्लेशरूप आचरणके द्वारा अपनी-अपनी विशुद्धि के अनुसार भवनत्रयसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। अकाम अर्थात् अपनी ३० इच्छाके बिना बन्धनमें पड़नेपर भूख-प्यासको सहना, ब्रह्मचर्य धारण करना, पृथ्वीपर सोना, मलधारण, परिताप आदिके द्वारा जो निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है। मिथ्यादर्शन सहित और मोक्ष उपायरहित, बहुत कायक्लेश पूर्वक कपटरूप व्रत धारण करना बालतप है। इनसे भी देवगतिमें जन्म होता है। इस विषयमें प्रासंगिक गाथा कहते हैं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चरकर दडे नग्नांडरु। परिवाजकरें दोडकदंडित्रिदंडिगठिवर्गळ त्कृष्टदिदं भवनत्रयं मोदल्गोंडु ब्रह्मकल्पपरियंतं पुटुबरु । आजोवा कांजिभिक्षुगळ त्कृष्टदिदं भवनत्रयं मोदल्गोंडु अच्युतकल्पपथ्यंतं पुटुबरु । अनुदिशानुतरविमानंगळिदं बंदवर्गळ नव वासुदेव प्रतिवासुदेवरागि पुट्टरेके दोडवर्गळु द्विचरमांगरप्पुरिदमी नरकगामिगळागि पुहरे बुदत्थं । मत्तं सादि अनादि अभव्यरेब त्रिविधमिथ्यादृष्टिळु अर्हच्छ्तनहल्लिगवंतग अनशनावनोदर्यवृत्तिपरिसंख्यान ५ रसपरित्याग विविक्तशयनासन कायक्लेशम ब ब्राह्यविधतपश्चरणनिरतरं त्रिकालदेववंदनादि समेतरुगळप्परुं दर्शनमोहचारित्रमोहपातिकम्र्मोदयसद्भावमुझळवर्गाळ उपशमब्रह्मचर्यादि समेतरुमळु कलंबरु मनुष्यरुगळु मिथ्यादृष्टि द्रव्य महावतिगपरिमणैत्रेयकपर्यंतमुत्कृष्टदिद मेकत्रिंशत्सागरोपमदेवायुःस्थितिबंधमं माडि भुज्यमानमनुष्यायुःक्षयवदिदं मृतरागि पोगि नवप्रैवेयकंगळोळ यथायोग्याहमिद्ररुगळ मागियुं पुट्टि यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालं निर्वृत्यपर्याप्त १० मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळप्पल्लिदं मेलणनुदिशानुत्तरविमानंगळोळ मिथ्यादृष्टिगळ पोगि पुटु वरु मिल्लल्लियु मिथ्यात्वकर्मोदयमुमिल्ल मिल्लिगुपयोगिगाथासूत्रमिदु : णरतिरिय देसअयदा-उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। ण अयददेस मिच्छा गेवेज्जतोति गच्छंति ॥-[त्रि. सा. ५४५ गा.] चरया य परिबाजा बह्मोत्तच्नुदपदोत्ति आजीवा । अणुदिसअणुत्तरादो चुदा ण केसवपदं जंति ॥१॥ चरकाः नग्नांडाः परिव्राजकाः एकत्रिदंडिनः एते उत्कृष्टेन भवनत्रयादिब्रह्मकल्पांतमुत्पद्यते । आजीवाः कांजीभिक्षवः उत्कृष्टेन भवनत्र याद्यच्युतांतमुत्पद्यते । अनुदिशानुत्तरविमानागताः द्विचरमांगत्वात् वासुदेवप्रतिवासुदेवेषु नरकगामिषु नोत्पद्यते । साधनाद्य भव्यमिथ्यादृष्टयः अर्हच्छ्रतलिंगधराः बाह्यषड्विधतपोनिरतास्त्रिकालदेववंदनादिसमेताः दर्शनचारित्रमोहघातिकर्मोदयाः उपशमब्रह्मचर्यादिसमेताः केचिद् द्रव्यमहा-.. व्रताः उपरिमवेयकांतमत्पद्यते न तत उपरि । अत्रोपयोगिगाथा सूत्र णरतिरियदेसअयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। णरअयददेसमिच्छा गेवजंतोत्ति गच्छंति ॥१॥ चरक अर्थात् नग्नाण्डक, परिव्राजक अर्थात् एकदण्डी त्रिदण्डी संन्यासी, ये उत्कृष्टसे ब्रह्मोत्तर स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। आजोवक अर्थात् कांजीका आहार करनेवाले भिक्षु २५ उत्कृष्ट से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्सन्न होते हैं। अनुदिश अनु तर विमानवासी देव द्वि चरम शरीरी होते हैं अतः मरकर नरकगामी नारायण प्रतिनारायण आदि नहीं होते। सादि वा अनादि अभव्य मिथ्यादृष्टि जो अर्हन्तके द्रव्यलिंगके धारी होते हैं, छह प्रकारके बाह्य तपमें मग्न रहते हैं, त्रिकाल देववन्दना आदि क्रिया करते हैं, किन्तु जिनके दर्शनमोह चारित्रमोह ना मक घातिकमका उदय रहता है, उपशम ब्रह्मचर्य आदि सहित होते हैं ऐसे द्रव्यलिंगी उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं उससे ऊपर नहीं। यहाँ उपयोगी गाथा कहते हैं देशसंयत अथवा असंयत तियंच मनुष्य उत्कृष्टसे अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। ३० , Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ गो० कर्मकाण्डे मनुष्यतिव्यंचरुगळप्प देशसंयतरु गळुमसंयतरुगळ मुत्कृष्टविंदमच्युतकल्पपयंतं पुटुवरु। अध्यधिदं जिनरूप महाव्रतिगळ भावविदमसंयतदेशसंयतरं मिथ्यादृष्टिजीवंगळ मुपरिमप्रैवेयकपथ्यंत पोगि पुटुवरु । इंतप्प निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळोळ भवनत्रय कल्पजस्त्री सौधर्माद्वय निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळुमेकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशति प्रकृतिस्थान५ मुमनातपोद्योतयत पर्याप्त तिय्यंग्गत्येकेंद्रिययुत षड्विशतिस्थानमुमं पंचेंद्रियपर्याप्ततियंग्गति युतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुमं उद्योतयुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं. कटुवर । सानत्कुमारादि वशकल्पज मिथ्यादृष्टि निर्वृत्यपर्याप्त वेवासंयमिगळ पंचेंद्रियपर्याप्त तिय्यंगतियुतनविंशति प्रकृतिस्थानमुमं मनुष्यगतियुत नविंशति प्रकृतिस्थान मुमनुद्योतयुततिर्यरूपंचेंद्रिययुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवरेके दोडे "आईसाणोत्ति सत्त वाम १० छिदी" एंविल्लि येकेंद्रियपर्याप्तयुतादि बंधस्थानंगळिल्लप्पुरिदं । आनतायुपरिमवेयकावसान माव कल्पजरुगळु कल्पातीतजरुगळप्प निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळु मनुष्यगतियुत नवविशति प्रकृतिस्थान मनों वने कटुवरेक दोडे "सदरसहस्सारगोत्ति तिरियदुगं। तिरियाऊ उज्जोमओ अत्यि तवो पत्थि सदरचऊ।" एंदितु तिर्यग्गतियुत नवविंशतित्रिशत्प्रकृतिस्थानंगळ बंधमिल्लप्पुरिवं ॥ यितु संक्षेपविवं देवगत्यसंयमिमिथ्यादृष्टिगळ्णे नामकर्मबंध तिर्यग्मनुष्या देशसंयता असंयताश्चोत्कृष्टेनाच्युतांतमुत्पद्यते। द्रव्यतो जिनरूपमहाव्रताः भावतोऽसंयतपेशसंयतमिथ्यादृष्टयः उपरिमौवेयकांतमुत्पद्यते। सोऽयं नित्यपर्याप्तमिथ्याष्टिः भवनत्रयकल्पस्त्रीसौधर्म यजः तदा एकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशतिकातपोद्योतयुतपर्याप्ततिर्यग्गत्येकेंद्रिययुतषड्विंशतिकपंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयत्रिशकानि बध्नाति । सानत्कुमारादि दशकल्पजस्तदा पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुततिर्यवपंचेंद्रिययुतत्रिंशत्के एव, २० आईसाणोत्ति सत्तवामछिदीत्येकेंद्रियपर्याप्तादियुतस्थानानामबंधात् । आनताद्युपरिमवेयकांतजस्तदा मनुष्य गतियुतनवविंशतिकमेव । तिरियदुर्ग तिरियाऊ उज्जोओ पस्थीति तिर्यग्गतियुतनवविंशतिकत्रिंशत्कयोरबंधात् । तथा द्रव्यसे जिनरूप महाव्रतके धारी और भावसे असंयत अथवा देशसंयत अथवा मिथ्यादृष्टि उपरिम अवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं । इन उत्पन्न हुए देवोंमें निवृत्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक देव, वा कल्पवासिनी २५ स्त्री और सौधर्म युगलके देव, एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पच्चीसका, आतप उद्योतके साथ पर्याप्त तियंचगति एकेन्द्रिय सहित छब्बीसका, अथवा पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित या मनुष्यगति सहित उनतीसका अथवा उद्योत सहित तीसका बन्ध करते हैं; सानत्कुमार आदि दस कल्पोंमें उत्पन्न हुए देव पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति या मनुष्यगति सहित उनतीसका अथवा उद्योत तियंचगति पंचेन्द्रिय सहित तीसका बन्ध करते हैं। क्योंकि ३. 'आईसाणोत्ति सत्तवामछिदी' इस कथनके अनुसार एकेन्द्रिय पर्याप्त आदि सहित स्थानोंका बन्ध उनके नहीं होता। आनतादि उपरिम अवेयकोंमें उत्पन्न हुए देव मनष्यगति सहित उनतीसका ही बन्ध करते हैं। क्योंकि इनमें तियंचगति सहित उनतीस और तीसका बन्ध नहीं होता। इस प्रकार संक्षेपसे देवगतिमें असंयमी मिध्यादृष्टियोंके नामकर्मके बन्धस्थान कहे। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८४५ स्थानंगळ योजिसपर्ट्सविल्लि जीयसमासपर्याप्तिप्राणादिगळ विवक्षितमागि बंधस्थानंगळु योजिसल्पडवे बोर्ड ग्रंथगौरवभय मुंटप्पुरिदं । परमागम प्रवीणरुगळु योजिसि को बुदबुदत्थं ॥ यिनु देवासंयमिसासादनरुगळ्गे नामकर्मबंधस्थानंगल योजिसल्पङगुमल्लि सासादनदेवासंयमिगळु द्विविधमप्परल्लि तिर्यग्गालमनुष्यगतिगळोपशमसम्यक्त्वमननंतानुबंधिकषायोदयविवं केडिसि सासावनरागि स्वस्वभुज्यमानायुःस्थितिक्षयवशवत्तणिदं मृतरागि बंदिल्लि सासादन- ५ निवृत्यपप्तिदेवासंयमिगळप्परतेंदोडे संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तगर्भजविशुद्धसाकारोपयोगयुत. तिव्यंचमिश्यादृष्टि तिर्यग्जघन्यभोगभूमिजनादनादोडे जातिस्मरणदिदं मेणु देवप्रतिबोधनदिवं गृहीतप्रथमोपशमसम्यक्त्वनसंयतनेयकुं। मत्तं मनुष्यलोकभोगभूमिप्रतिबद्ध त्रिंशज्जघन्यमध्यमोत्तमभोगभूमिगळोळ मिथ्यादृष्टितियंचरुगळु केळंबरु जातिस्मरणंविदं कलंबद्देवप्रतिबोधदिदं कलंबरिण प्रतिबोदिदं मिथ्यात्वमं पत्तविटु प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसियसंयतसम्यग् १० दृष्टिगळप्पर । मतं मनुष्यलोकदिदं पोरगण चरमस्वयंभूरमणद्वीपार्धापरभागकर्मभूमिप्रतिबद्ध द्वोपदोळं स्वयंभूरमणसमुद्रदोळं यथासंभवमागि केलंवत्तिय्यंचरुगळु जातिस्मरणदिदं केलंबर्देवप्रतिबोधनदिदं मिथ्यात्वमं पत्त विटु प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि असंयतरु केलंबर प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं देशवतमुमं युगपत्केको डु देशसंयतरप्परु। मत्तं मनुष्यलोकप्रतिबद्धकर्मभूभरतैरावतविदेहंगळोळु संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्त गर्भजविशुद्धि साकारोपयोगयुततिय॑ग्मिथ्यादृष्टि: १५ गळ कलंबऑतिस्मरणदिवं केलंबम्मनुष्यदेवप्रतिबोधनदिदं केलंबजिनबिबदर्शनदिदं मिथ्यात्वम पत्तविटु केलंबप्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि असंयतरप्परु । केलंबर प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुर्म एवं संक्षेपाद् देवगत्यसंयमि मिथ्यादृष्टोनां नामबंषस्थानानि योजितानि । अत्र जीवसमासपर्याप्तिप्राणादिविवक्षया ग्रंथगौरवभयान्न योजितानि परमागमप्रवीणैर्योजयितव्यानि । अथ संज्ञिपर्याप्तो गर्भजो विशुद्धः साकारोपयोगो मिथ्यादृष्टिः तिर्यग्भोगभूमिजस्तदा जातिस्मरणाद्देव- २. प्रतिबोधनाद्वा त्रिशद्धोगभूमिजस्तदा तवयाच्चारणप्रतिबोधनाद्वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वं गृहीत्वा संयतः स्यात् । स्वयंप्रभाचलबाह्यकर्मभूमिजस्तदा तद्द्वयात्तथा स्यात् । कश्चिच्च प्रथमोपशमसम्यक्त्वेन समं देशव्रतं गृहीत्वा देशसंयतः स्यात् । पंचदशकर्मभूमिजस्तदा जातिस्मरणादेवमनुष्यप्रतिबोधनाज्जिनविबदर्शनाद्वा तथा यहां प्रन्थके विस्तारके भयसे जीवसमास, पर्याप्ति प्राणादिकी विवक्षासे बन्धस्थान नहीं कहे हैं। परमागममें प्रवीण पाठकोंको स्वयं लगा लेना चाहिए। संझी पर्याप्तक गर्भज विशुद्धता सहित साकार उपयोगवाला मिथ्यादृष्टि तिर्यच भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ जीव जातिस्मरण या देवोंके सम्बोधनेसे, और तीस भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुआ तियेच जातिस्मरण, देव सम्बोधन अथवा चारणऋद्धिके धारक मुनियोंके सम्बोधनसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके असंयत सम्यग्दृष्टी होता है। स्वयं प्रभाचल पर्वतके बाहरकी कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ, तिथंच जातिस्मरण या देवसम्बोधनसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके असंयत सम्यग्दृष्टि होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ देशव्रत ग्रहण करके देशसंयत होता है। पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुआ तिथंच जातिस्मरणसे अथवा देव और मनुष्यके सम्बोधनसे अथवा जिनबिम्बके दर्शनसे असंयत सम्यग्दृष्टी ३० Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे देशव्रतमुमं युगपत्स्वीकरिसि देशसंयतरप्पर। मतं मनुष्यलोकप्रतिबद्धत्रिंशद्भोगभूमिगळोळु केलंबम्मिथ्यादृष्टिमनुष्यरुगळु जातिस्मरणदिदं केलंबर्चारणदेवप्रतिबोधनदिदं मिथ्यात्वमं पत्तविटु प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि असंयतरप्पर। मत्तं मनुष्यलोंककर्मभूमिभरतैरावतविदेहंगळोळु चरमांगरल्लद केलंबम्मिथ्यादृष्टिगळु जातिस्मरणदिदं केनचित्स्वसंभवसाधनदिदं मिथ्यात्वमं पत्तविटु केलंबप्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि असंयतरप्परु। कलंबत्प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुमं देशव्रतमुमं युगपत्स्वीकरिसि देशसंयतरप्परु । केलंबरु प्रथमोपशमसम्यक्त्वम महाव्रतमुमं युगपत्स्वीकरिसि अप्रमत्तरप्परु। बळिक्कलवर्धमत्तरप्परु। केलंबढेण्यारोहणमं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमं कैको डुमाडि बळिक्कवतरणदोळ क्रमदिनिळिदु अप्रमत्तप्रमत्त देश. संयतासंयतगुणस्थानंगळं चारित्रमोहोदयंगळिदं पोद्दिदवर्गळु केलंबरु द्वितीयोपशमसम्यत्क्वयुतासंयतरं केलंबरु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वयुतदेशसंयतरु। केलबद्वितीयोपशमसम्यक्त्वयुतप्रमत्तरुगळप्परु । अप्रमत्तरनिल्लि ग्रहियिसल्वेडेकेदोडवस्सम्यक्त्वमं विराधिसि सासादनरागरप्पुरिदं । ये दिनितुं प्रकारद प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळं द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिगळं तंतम्म भवचरमकालदोळादवर्गळु केलकेलंबरुगळु । अनंतानुबंधिकषायोददिदं प्राग्बद्धदेवायुष्यरादोडे केलंब म्भृतरागि अनंतरसमयदोळुत्तरभवदेवसासादनासंयमिगळप्परा सासादननिर्वृत्यपर्याप्तकर काल१५ मुत्कृष्टदिदं षडावलिप्रमितमक्कुं। कलंबरुगळनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वम केडिसि सासादनरागि भुज्यमानायुः स्थितिक्षयवदिदं मृतरागि पोगि निर्वृत्यपर्याप्तसासावनदेवासंयमिगळप्परु । कलंबरबद्धायुष्यरुगळनंतानुबंधिकषायोददिदं तद्भवदोळ सासादनरागि देवायुष्यम कट्टि मृतरागि सासादननिर्वृत्यपर्याप्तदेवासंयमिगळप्परु । अंतागुत्तं केलंबरु भवनत्रयदोळं २० द्विविधः स्यात् । तादृक्मनुष्यस्तदा तथा द्विविधः, कश्चित्प्रथमोपशमसम्यक्त्वेन समं महाव्रतं स्वीकृत्याप्रमत्तोऽपि स्यात् । अयमप्रमत्तः कश्चित्प्रमत्तः स्यात् । कश्चिच्च द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं स्वीकृत्य श्रेणिमारुह्य क्रमणावतरन्नसंयतः देशसंयतः प्रमत्तो वा स्यात् । अमी प्रथमद्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टयः स्वभवचरमे स्वसम्यकत्वकाले जघन्येनैकसमये उत्कृष्टेन षडावलिमात्रेऽवशिष्टेऽनंतानुबंध्यन्यतमोदयेन सासादना भूत्वा प्रारबद्धदेवायुष्का मृत्वा अबद्धायुष्काः केचिदेवायुर्बध्वा च देवनिर्वृत्त्यपर्याप्तसासादनाः स्युः । ते च भवनत्रयकल्पस्त्रीसौधर्म अथवा देशसंयत होता है । इसी प्रकार मनुष्य भी असंयत अथवा देशसंयत होता है। कोई २५ मनुष्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वके साथ महाव्रत धारण करके अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती भी होता है। यह अप्रमत्त उतरकर प्रमत्त गुणस्थानवर्ती होता है। कोई मनुष्य द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको धारण करके श्रेणीपर चढ़ तथा क्रमसे उतरकर असंयत या देशसंयत या प्रमत्त गुणस्थानवर्ती होता है। ये प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके धारी जीव अपने भवके अन्तमें ३० जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे छह आवली शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे सासादन गुणस्थानवर्ती होकर जिन्होंने पूर्व में देवायुका बन्ध किया है वे मरकर और जिन्होंने पूर्व में देवायुका बन्ध नहीं किया वे अन्त समयमें देवायुका बन्ध करके मरकर सासादन गुणस्थानवर्ती निवृंत्यपर्याप्त देव होते हैं। वे यदि भवनत्रिक या कल्पवासी स्त्री | Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८४७ केलंबकल्पजस्त्रीयरोळं केलंबस्सौंधर्मकल्पद्वयदोळं केलंबनित्कुमारादिवशकल्पदोळं केलंबरा. नतादिकल्पंगळोळं नवग्रेवेयकंगळोळं नित्यपर्याप्तसासादनदेवासंयमिगळप्परल्लि । भवनत्रयकल्पजस्त्रोसौधर्मद्वयनिवृत्यपर्याप्तसासादनदेवासंयमिगळु एकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशतिप्रकृति. स्थानमुमं उद्योतातपैकेंद्रियपर्याप्तयुतषड्विंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कटुवुदिल्लेके दोडे सासादनकालं परिसमाप्नियागुत्तं विरलु नियमदिदं मिथ्यावृष्टिगळागि तत्प्रथमसमयं मोवल्गोंडु यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालं नित्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिदेवासंयमियागि कटुगुमप्पुदरिंदमा सासादनं पंचेंद्रियतिय्यंग्गतिपर्याप्तयुतनविंशतिस्थानमुमं पर्याप्तमनुष्यगतियुतनविंशतिप्रकृतिस्थानमुमनुद्योतपर्याप्ततिर्यग्गतियुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुगुं । सानत्कुमारादिदशकल्पंगळ सासादनरुगळमंत द्विस्थानंगळं कटुवरु । आनताविकल्पजरं नवप्रैवेयकंगळहमिवसासावनरुगळं मनुष्यगतियुत नविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । सासादनत्वं पोगुत्तिरलु मिथ्यादृष्टिगळागि १० यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालपय्यंत मिथ्यादृष्टिनिवृत्यपर्याप्तमिथ्यावृष्टिगळ्गे पेन्दंते नामकर्मबंधस्थानंगळं कटुवरु। भवनत्रयं मोदल्गोंडुपरिमप्रैवेयकावसानमावकल्पजरुं कल्पातीतजरगळप्पमिश्ररुचिगळप्पऽसंयमिगळु मनुष्यगतिपर्याप्तयुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमनोदने कटुवरु । देवासंयतासंयमिगळु द्विविधमप्परतेंदोडे निर्वृत्यपर्याप्तासंयतदेवासंयमिगळेदुं पर्याप्तासंयतदेवासंयमिगळे दितल्लि भवनत्रयकल्पजस्त्रोयरोळं तोय॑सत्कर्मरुगळ पुट्टरप्पुरिदं निर्वृत्यपा- १५ तकालदोळं पर्याप्तकालदोळं तीर्थमनुष्यगतियुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानं बंधमिल्ल । केवलं मनुष्य गतियुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमनोंदने पर्याप्तकर कटुवरु । सौधर्मकल्पद्वयादि सर्वार्थसिद्धिपथ्यंतमाद कल्पजरुं कल्पातीत जरुगळं निर्वृत्यपातकालदोळं पर्याप्तकाळदोलं मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं तीर्थसत्कर्मरल्लववर्गळल्लरुगळु मोवने कटुवरु। तीर्थसत्कर्मरद्वयजास्तदा पंचेंद्रियतिर्यग्मनुष्यगतिपर्याप्तयुतनवविंशतिकतिर्यग्गत्युद्योतपर्याप्तयुतत्रिंशत्के बध्नंति । सासादन- २० कालमतीत्य मिथ्यादृष्टय एव भूत्वा तवयं यावच्छरीरमपूर्ण तावदेकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशतिकोद्योतातपैकेंद्रियपर्याप्तयुतषड्विंशतिके च सानत्कुमारादिदेशकल्पजास्तदा तद्वयमेव आनतादिकल्पनवग्रैवेयकजास्तदा मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । सासादनत्वेऽतीते तन्निच्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिवद्वघ्नंति । भवनत्रयाद्युपरिमप्रैवेय या सौधर्म युगलमें उत्पन्न हुए हैं तो पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति या मनुष्यगति सहित उनतीसका या तिथंचगति उद्योत सहित तीसका बन्ध करते हैं। सासादनका काल पूरा २५ होनेपर मिथ्यादृष्टि होकर उन दोनों स्थानोंको और जबतक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पचीसको अथवा उद्योत आतप एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित छब्बीसको बाँधते हैं। सानत्कुमार आदि दस कल्पवाले उन उनतीस और तीस दो ही स्थानोंको बाँधते हैं। आनतादि स्वर्ग और नौ अवेयकोंके देव मनुष्यगति सहित उनतीसका ही बन्ध करते हैं। ३० सासादनका काल बीतनेपर नित्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिके समान स्थान बांधते हैं । भवनत्रिकसे लेकर उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त मिश्रगुणस्थानवर्ती और पर्याप्त भवनत्रिक तथा कल्पवासी क-१०७ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ गो० कर्मकाण्डे गळादवाळल्लरुगळं तीर्थमनुष्यगतियुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनोदने कटुवरेक बोर्ड सम्यक्त्वयुतमागि देवगतियोंळं नरकगतियोळं पुटुव तीर्थसत्कर्मरुगळेल्लं तीर्थयुतमनुष्यगतिपर्याप्तदोडने कटुव त्रिंशत्प्रकृतिस्थानं तत्तद्भवचरमसमयपर्यंतं बंधमप्पुदु । एके बोर्ड अंतर्मुहूर्त्ताधिकाष्टवर्षन्यू नपूर्वकोटि द्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालं तीर्थबंध निरंतराद्धयप्पुरिदं। चक्खूजुगळे सव्वं ५ चक्षुर्दर्शनदोळमचक्षुद्देर्शनदोळं सर्वनामकर्मबंधस्थानंगळं बंधमप्पुवु । संवृष्टि । चक्षु । अच। २३ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥३१।१। यिल्लि चक्षुद्देर्शनं सर्वनारकरोळं चतुरिंद्रियादि सर्वतियंचरोळं सर्वमनुष्यरोळं सर्वदेवरोळमक्कु-। मल्लि नारकरुगळ्गे नवविंशति त्रिंशत्प्रकृति बंधस्थानद्वयं यथायोग्यं बंधमप्पुवु। तिय्यंचचतुरिंद्रियादिगळोळु चतुरिंद्रियंगळ्गष्टाविंशति स्थानं पोरगागि शेषतिर्यग्गतिमनुष्यगतियुत त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळ बंधमप्पुवु । शेष १० पंचेंद्रिय चक्षुद्देशनिगळोळ त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंग बंधमप्पुवु। मनुष्यचक्षुर्दशनिगळोळ सर्वमुमष्टस्थानंगळं बंधमप्पुवु। देवचक्षुद्देर्शनिगळोळ यथायोग्यं पंचविंशति षड्विशति नवविंशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळ, नाल्कुं बंधयोग्यंगळप्पुवु। अचक्षुदर्शनं शेफेंद्रियोपयोगमप्पुरिद नारकरेल्लरोळ एकेंद्रियादिसर्वतिय्यंचरोळ सर्वमनुष्यरोळ सर्वदेवर्कळोळमक्कुमप्पुरिंद मल्लिनारकरोळ चक्षुद्देर्शनिगळ्गे पेळ्दंते बंधस्थानद्वयं बंधमक्कु । तिय्यंचरोळ येकेंद्रियं मोदल्गोंडु १५ चतुरिंद्रियतिथ्यचरु पय्यंतं नरकगति देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानं पोरगागि त्रयोविंशत्यादि तियंग्गतिमनुष्यगति युतमागि यथायोग्यं षट्स्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । पंचेंद्रियंगळोळ नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिस्थानयुतमागि त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । मनुष्याचक्षुद्देशनिगळगे सर्वत्रयोविंशत्यादि यष्टस्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु। देवर्कळ गळोळ कांतमिश्ररुचयः पर्याप्तभवनत्रयकल्पस्यसंयताश्च मनुष्यगतियुतनवविंशतिकं वैमानिकास्तीर्थरहितास्तदेव २० सतीर्थाः मनुष्यगतितीर्थयुतत्रिंशत्कमेव । चक्षुदर्शनेऽचक्षुर्दर्शने च सर्वाणि । तत्र चक्षुर्दर्शने नारकाः नवविंशतिकत्रिंशत्के द्वे । चतुरिद्रिया विनाष्टाविंशतिकं तिर्यग्गतिमनुष्यगतियुतत्रयोविंशतिकादीनि षट् । पंचेंद्रियाःत्रयोविंशतिकादीनि षट् । मनुष्याः सर्वाणि । देवा यथायोग्यपंचविंशतिकषड्विंशतिकनवविंशतिकत्रिंशत्कानि । अचक्षुर्दर्शने नारकाः चक्षुर्दर्शनोक्ते स्त्री असंयत गुणस्थानवी मनुष्यगति सहित उनतीसके स्थानको बांधते हैं। तीथंकर प्रकृति२५ से रहित वैमानिक देव उसी उनतीसके स्थानको बाँधते हैं, और तीर्थंकर सहित वैमानिकदेव मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीसके स्थानको बाँधते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनमें सब बन्धस्थान हैं । चक्षुदर्शन सहित नारकी उनतीस और तीस दो स्थानोंको बांधता है। चौइन्द्रिय जीव अठाईसके बिना तियंचगति या मनुष्यगति सहित तेईस आदि छह स्थानोंको बांधते हैं। पंचेन्द्रिय तेईस आदि छह स्थानोंको बाँधते हैं। मनुष्य सब स्थानोंको बाँधते हैं। देव यथायोग्य पच्चीस, छब्बीस, उनतीस २° तीस चार स्थानोंको बाँधते हैं। अचक्षुदर्शन सहित नारकी चक्षुदर्शनमें कहे दो स्थानोंको बांधते हैं। एकेन्द्रिय आदि Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चक्षुर्द्दर्शनिगळप्प भवनत्रयादि सम्र्व्वार्थसिद्धिपय्र्यंतं तत्तद्योग्यंगळप्प पंचविशति षड्वशति नववशति त्रिशत्प्रकृतिस्थानंगळ बंधंगळप्पु । २५ । ए प । २६ । ए प । अ उ । २९ । ति । म । ३० । ति । उ । म । ति । "सग सग गाणं व ओहिदुगे" अवधिदर्शनदोळं केवलदर्शनवोळं क्रमविदवषिज्ञानवोळं केवलज्ञानदोळं पेदते चरमपंचस्थानंगळं शून्यमुमप्पुवु । अव । दर्शनं । २८ । बे ॥ २९ ॥ म । देति । ३० । मति । आ । २ । दे ३१ । दे । आ २ । ति । १ । के ० । दर्शं । ० । इल्लि अवधिज्ञानदोळु पेळवंत वधिदर्शन दोळे 'दु पेदुदरिवं देशावधि परमावधि सर्व्वावधि भेददि नवविज्ञानं त्रिविधमक्कुमल्ल देशावधिज्ञानं नारकासंयतसम्यग्दृष्टिगळोळं पंचेंद्रियसंज्ञिपर्याप्तासंयत देश संयत तिप्यंचरोळं वेवासंयतरोळं असंयतादि क्षीणकषायावसानमाद मनुष्यरोळं देशावधिज्ञानमक्कुं । प्रमत्तसंयतादि क्षीणकषायावसानमाद चरमांगररोळे परमावषि सर्व्वावधिज्ञानं गळप्पुवप्पुवरिवं मिवरोळे ल्लमवधिदर्शन मक्कुर्म बुदत्थं । अल्लि घम्मे वंशे मेघेगळ नारकासंयतावधिवर्शनिगळु १० तीर्थसत्कर्म्मरुगळल्लद सम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतियुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमनों बने कट्टुवर । तीर्थसत्कर्म्मरप्प सम्यग्दृष्टघवधिवर्शनिगळ तीत्थं मनुष्यगतियुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमनों वने कट्टुवरु | अंजने मोदलाव चतुःप्पृथ्विगळ नाटकासंयतायधिवर्श निगळ मनुष्यगतियुक्त नवविंशतिप्रकृतिस्थानम नो बने कट्टुवरु । संशिपंचेंद्रिय तिय्यंगसंयत देशसंयतरुमवधिवर्शनिगळु देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुमनों वने कट्टुवरु | मनुष्यगतियोळ तोत्थंकर कुमार चक्रवतगळ त्रिकल्याणभाजनरप्प तीत्यंसत्कम्मरु चरमांगरुं केळंबरचर मांगरुगळप्प असंयत वैशसंयतर प्रमत्तावि महाव्रतिगळ देशावधिज्ञानिदर्शनिगळु यथायोग्यं देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुमं देवगतितीत्थंयुत नर्वावशति प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवरु । २८ । दे । २९ । वे ति । परमावधि ૮૪૬ २० द्वे । एकेंद्रियादिचतुरिद्रियांता: नरकदेवगत्यष्टाविंशतिकं विना योग्यत्रयोविंशतिकादोनि षट् । पंचेंद्रियास्तसुतानि षट् । मनुष्याः सर्वाणि । देवाः चक्षुर्दर्शनोक्तानि चत्वारि । अवधिदर्शनेऽवधिज्ञानवच्चरमाणि पंच । असंयतदेवनारके असंयतदेशसंयत संज्ञिपर्याप्ततिरश्च्य संयता दिक्षीणकषायांत मनुष्ये च देशावधिः प्रमत्तादिक्षीणकषायांतचरमांगे च परमावधिसर्वावषी, तथावधिदर्शनमपि । तत्र धर्मादित्रयजाः सतीर्थाः तीर्थमनुष्यगतित्रिशत्कं तत्रातीर्थाः अंजनादिजाश्च मनुष्यगतिनवविंशतिकं । वियंचः देवगतियुताष्टाविंशतिकं । मनुष्यास्तदा अवधिदर्शनवाले घर्माआदि तीन नरकोंके नारकी, जिनके तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध हुआ है, तीर्थंकर मनुष्यगति सहित तीसके स्थानको बाँधते हैं । तथा तीर्थंकरकी सत्तासे रहित धर्मादि तीन नरकोंके नारकी और अंजना आदिके नारकी मनुष्यगति सहित उनतीस ५ चौइन्द्रिय पर्यन्त जीव नरकगति देवगति सहित अठाईसके बिना अपने योग्य तेईस आदि छह स्थानों को बांधते हैं । पञ्चेन्द्रिय अठाईस सहित छह स्थानोंको बांधते हैं। मनुष्य सथ २५ स्थानों को बांधते हैं । देव चक्षुदर्शनमें कहे चार स्थानोंको बांधते हैं । अवधिदर्शनमें अवधिज्ञानकी तरह अन्तके पांच स्थानोंका बन्ध होता है । असंयत देव नारकियों में असंयत, देश संयत संज्ञी पर्याप्त तिर्यञ्चोंमें और असंयतादि क्षीणकषाय पर्यन्त मनुष्यों में देशावधि ज्ञान होता है । प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त चरम शरीरी मनुष्यों में परमावध सर्वावधि ज्ञान होते हैं । तथा इनमें अवधिदर्शन भी होता है । १५ ३० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे सर्वाविधिज्ञानिगळप्प चरमांग महाव्रतिगळु पंचकल्याण द्विकल्याण भाजन तीर्थंकर महाव्रतिगळु गणधरदेवळे केळंब श्रुतकेवलि चरमांगरुळप्प एल्ला महाव्रत्यवधिदर्श निगळ प्रमत्ताप्रमत्तरुगळ मुपशमक्षपकण्यारूढापूर्व्वानिर्वृत्तिकरण सूक्ष्मसत्पराय संयमिगळ ययायोग्यमागि देवगतियुताष्टाविशत्यादि पंचस्थानंगळं कट्टुवरु । २८ । दे । २९ । देति । ३० । आ । २ । दे । ३१ । ५ वे आ २ । ति १ । सौधर्मकल्पादि सर्व्वार्थसिद्धिपथ्यतमाद देवाऽसंयतावधिदर्शनिगळु तीर्थसत्कम्मंरेल्लं त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं मनुष्यगतितोत्थंयुतमादुदनों वने कटुबरु । ३० । म । ति । भवनत्रयादि सर्व्वार्थसिद्धि पय्यंतमाद तोत्थंरहितासंयतसम्यग्दृष्टयवषि दर्शनिगळेल्लं मनुष्यगतियुत नर्वावशतिप्रकृतिस्थानमनों बने कट्टुबरु । २९ । म । उपज्ञांतादिचतुर्गुणस्थानवोळु नामकर्मबंधमिल्ल || १० ८५० २५ कम्मं वा हितिये पणवीसा छक्कमट्ठवीस चऊ । कमसो तेऊजुगले सुक्काए ओहिणाणव्वा ||५४९ ॥ काणवत् कृष्ण तिसृषु पंचविशतिषट्कमष्टाविंशति चत्वारि क्रमशस्तेजोयुगळे शुक्लाया. मवधिज्ञानवत् ॥ कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयदोळ काम्मँणकाययोगदोळ पेल्दाद्यतनषट्स्थानंगळ, बंधयोग्यं१५ गळवु । कृ । नो । क । २३ । ए अ । २५ । ए १ । बि । ति । च । अ सं । म । अप । २६ ॥ ए प । आ उ । २८ । न । दे । २९ । म । ति । देति । ३० । ति उ । तेजोलेश्येयोळ पंचविंशति षट्कं बंध योग्यमप्पु | तेजों ले । २५ । ए प । २६ । एप । आ उ । २८ । न । दे । २९ । ति । | देति । ३० । तिउ । म ति । दे । आ । २ । ३१ । दें । आ २ । ती । अष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळ, पद्मलेश्येयोळ, बंधयोग्यंगळप्पुवु । पद्म २८ । दे २९ ॥ वेति । मति । ३० । ति छ । २० मति वे । अ २ । ३१ । दे आ २ । ति । शुक्ललेश्येयोळवधिज्ञानदोळ, पेळवंत चरमपंचस्थानंगळ. बंषयोग्यंगळवु । शु । ले । २८ । दे | २९ | देति । म ३० । वे आ २ । म ती । ३१ । दे आ २ । ती । १ । यिल्लि : - दीनि पंच । सौधर्मादयस्तीर्थसत्त्वा मनुष्यगतितोर्थयुतत्रिंशत्कं । भवनत्रयादयस्तदसत्त्वाः मनुष्यगतिनवविंशतिकं । केवलदर्शने केवलज्ञानवच्छून्यं ॥ ५४८॥ कृष्णाद्य शुभलेश्यात्रये बंघस्थानानि कार्मणयोगवदाद्यानि षट् । तेजोलेश्यायां पंचविंशतिकादीनि षट् । के स्थानको बांधते हैं । तियंच देवगति सहित अठाईसके स्थानको बाँधते हैं। मनुष्य देवगति सहित अठाईस से लेकर एक पर्यन्त पाँच स्थानोंको बांधते हैं। तीर्थंकरकी सत्तावाले सौधर्मादि देव मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीसका स्थान बांधते हैं। तीर्थंकरकी सत्तासे रहित भवनादिदेव मनुष्यगति सहित उनतीसके स्थानको बाँधते हैं । केवलदर्शनमें केवल - ३० ज्ञानकी तरह नामकर्मके बन्धस्थान नहीं हैं || ५४८ || कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में कार्मणयोगकी तरह आदिके छह बन्धस्थान हैं । तेजोलेश्या में पच्चीस आदि छह हैं । पद्मलेश्या में अठाईस आदि चार हैं । शुक्ललेश्या में अवधिज्ञानकी तरह अन्तके पाँच बन्धस्थान होते हैं । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णामोदय संपादिद सरीरवण्णो दु दव्त्रदो लेस्सा । मोहुदखओवसमोवस मक्खयजजीवफंदणं भाओ ॥ र्य'दिंतु मोहोदय मोह्क्षयोपशम मोहोपशम मोहक्षयज जीवस्पंदन लक्षण भावलेइये विवक्षिसल्पदुदु । वर्णनामकम्र्मोदयजनित शरीरवर्णमविवक्षितमपुर्दारदमी भावलेश्य यशुभलेश्यात्रयमेंदु शुभलेश्यात्रयदित्र्त्तरनप्पुदल्लि कृष्णनीलकपोतभेद दिदमित शुभलेश त्रिविधमक्कुं । तेजः पद्मशुक्ल लेश्याभेददिदं शुभलेश्येयुं त्रिविधमवकुम संयतांतच तुग्र्गुणस्थानंगळोळार लेश्येगळं देशविरतत्रयवो शुभलेश्यात्रयमुमपूथ्वं करणादिषट्स्थानं गळोळ शुक्लश्येयक्कुम पुर्वारंदं नारकरोळं तिथ्यंचरोळं मनुष्यरोळं देवषर्कळोळमसंयतांत चतुर्गुणस्थानंगळोळं कृष्णनीलकपोतंगळु संभविसु मल्लि नारकरोळ 'काऊ काऊ तह काऊ णीळणीळा य णीळ किव्हा य । किन्हा य परमकिव्हा ळेस्सा पढमादिपुढवीणं ॥” एंवितु प्रथमनरकदोळु सीमंत । नरक । रौरव । भ्रांत । १० उद्भ्रांत । संभ्रांत । तप्त । असंभ्रांत । विभ्रांत । त्रसित । वक्रांत । अवक्रांत । विक्रांत में दितु पदिरिद्र कंगळवु । १३ ॥ द्वितीयपृथ्वियोळु ततक । स्तनक | वनक । मनक | खडा । खडिग । जिह्वा । जिह्विका । लोलिक । लोलवत्स । स्तनलोले ये दितु पन्नों विद्रकंगळप्पु । ११ ॥ तृतीयनरकबो तप्त । तपित । तपन | तान । दाघ । उज्वलित । प्रज्वलित । संज्वलित । संप्रज्वलितमें 'दितिंद्रकनवकमक्कुं । ९ ॥ चतुर्त्यनरकदोळ आरा। मारा । तारा। चर्चा । तमकी | घाटा । १५ घटा एंदिवे मित्र कंगळवु । ७ ॥ पंचमनरकदो तमका । भ्रमका । झषक । अंधेंद्रक | तिमिश्र एंविदिद्रकंगळवु । ५ ॥ षष्ठनरकदोळ हिम । वद्दल | लल्लकि यदितिवु मुद्रिकंगळcg | ३ ॥ सप्तमनरकदो अवधिस्थानमें बुदो दे द्रिकमप्पु । १ । ८५१ प्रथम नरक सीमंतेंद्रकोळ कपोतलेश्याजघन्यमक्कु । मुत्कृष्टं तृतीयनरकद संज्वलि - तेंद्रकदोळक्कुं । नीललेश्याजघन्यमदर केळगण संप्रज्वलितेंद्रकदोळक्कुं । तदुत्कृष्ट पंचमनरक - २० ५ पद्मलेश्यायामष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि । शुक्ललेश्यायामवधिज्ञानवच्चरमाणि पंच । वर्णनामोदय संपादितशरीरवर्णो द्रव्यलेश्या सा नात्र विवक्षिता । मोहोदयोपशमक्षपक्षयोपशमजनितजीवस्पंदनं भावलेश्या, साव कृष्णादिभेदेन षोढा । प्रथमनरकप्रथमेंद्र के कपोतजघन्यांशः । तृतीयनरकद्विच रमेंद्र के तदुत्कृष्टांशः । तच्चरमेंद्र के नीलजघन्यांशः । पंचमनरकद्विचरमेंद्र के तदुत्कृष्टांशः । तच्चरमेंद्र के कृष्णजघन्यांशः । सप्तमनरकावधिस्थानेंद्र के तदुत्कृष्टांशः । तयोस्तयोर्मध्ये स्वस्वमध्यमांशो भवति । तत्रोत्पत्तियोग्यमिध्यादृष्टिजीवाः घर्मायां कर्मभूमिषट्- २५ वर्णनाम कर्मके उदयसे उत्पन्न शरीरका वर्ण द्रव्यलेश्या है उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। मोहके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे उत्पन्न जीवकी चंचलता भावलेश्या है । वह कृष्ण आदिके भेदसे छह प्रकारकी है। प्रथम नरकके प्रथम इन्द्रकमें कपोत लेश्याका जघन्य अंश है । तीसरे नरकके द्विचरम इन्द्रकमें कपोतका उत्कृष्ट ३० अंश है। तीसरे नरकके अन्तिम इन्द्रकमें नीलका जघन्य अंश है। पंचम नरकके द्विचरम इन्द्रकमें नीलका उत्कृष्ट अंश है। पंचम नरकके अन्तिम इन्द्रकमें कृष्णका जघन्य अंश है । सप्तम नरकके अवधिस्थान इन्द्रकमें कृष्णका उत्कृष्ट अंश है । इन जघन्य उत्कृष्ट Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ गो. कर्मकाण्डे द्रकदोळक्कु । मदर केळगण तिमिवेद्रकदोळु कृष्णलेश्याजघन्यमक्कु । मबरुत्कृष्टमवधिस्थानेंद्रकदोळक्कु । मी कपोतनीलकृष्णलेश्या मध्यंगळु तंतम्म जघन्योत्कृष्टंगळ मध्यंगळोळप्पुवु। अल्लि घमय निर्वत्यपर्याप्तरोळ मिथ्यादृष्टिगळुमसंयतसम्यग्दृष्टिगळुमोळरुळिदारुं नरकंगळोळं नित्यपर्याप्तनारकरेल्लरुं मिथ्यावृष्टिगळेयप्परुं । घम्म य निर्वृत्यपर्याप्तनारकमिथ्यादृष्टिगळोळु कर्मभूमिजषट्संहनन युतासंज्ञिपंचेंद्रियंगळं सरीसृपंगळं पक्षिगळ भुजंगमंगळं सिहंगळं वनितयरुगळं मत्स्यमनुष्यरुगळं पुटुबरु । वंशेय निवृत्यपर्याप्तनारकमिथ्यादृष्टिगळोळु असंजिजोगळ्पोरगागि सरोसृपंगळं पक्षिगळु भुजंगमंगळु सिहंगळु स्त्रीयरुं मत्स्यमानुषरुगळ षट्संहननरुगळ, पुटुवरु। मेघय नारकनिर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यावृष्टिगळोळ. असंजिगळं सरीसृपंगळ, पोरगागि पक्षिगळ, भुजंगमंगळ, केसरिगळ वामेयरु मत्स्यमनुष्यरुगळ १० षट्संहननरुगळ पुटुवरु । अंजनेयोळ निवृत्यपर्याप्तमिथ्यावृष्टिनारकरोल असंझिगळ सरीसृपंगळं पक्षिगळं पोरगागि शेषभुजंगमंगळु केसरिगळं नितंबिनियरुं मत्स्यमनुष्यरुगळं असंप्राप्तसृपाटिकासंहनहीनप्रथमपंचसंहननजीवंगळ पुटुंवरु । अरिष्टय नारकनित्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळोळ असं जिगळं. सरीसृपंगळं पक्षिगळं भुजंगमंगळ, पोरगागि शेषकेसरिगळं वनितयरुं मत्स्यमय॑रुगळं चरमसंहननहीन प्रथमपंचसंहननजीवंगळ पुटुवरु। १५ मघविय नित्यपर्याप्त नारकमिथ्यादृष्टिगळोळ असंज्ञिग सरीसृपंगळुपक्षिगळुभुजंगमंगळं. केसरिगळं पोरगागि शेषवनितेयर मत्स्यमनुष्यरुगळं को लितासंप्राप्तसृपाटिकासंहननद्वयरहिताद्य. चतुःसंहननजीवंगळं पुटुबरु । सप्तममाघवियोल निम्त्यपर्याप्तमिण्यादृष्टिनारकरोळ असंज्ञिगळं सरीसृपंगळं पक्षिगळं भुजंगमंग केसरिगळु स्त्रीयरुगळं पोरगागि बज्रऋषभ नाराचसंहननतिर्यग्मत्स्यमनुष्यरुगळं पुटुवरंतु पुट्टियावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालं तिय॑ग्मनुष्य२० गतियुतद्विस्थानंगळने कटुवरु ॥ २९ । ति म ३० । ति उ॥ शरीरपाप्तिविंदं मेलेयुं मिथ्यादृष्टिगळा द्विस्थानमने कटुवरु । २९ । ति । म । ३० । ति उ॥ संहननाः असंज्ञिसरीसृपपक्षिभुजंगसिंहवनितामत्स्यमनुष्या एव। तत्रापि वंशायां सरीसृपादय एव । मेधाय पक्ष्यादय एव । अंजनायो आद्यपंचसंहनना एव भुजंगादय एव । अरिष्टायो केसर्यादय एव । मघव्यां आद्यचतु:२५ संहनना एव वनितादय एव । माघव्यामाद्यसंहनना एव मत्स्यमनुष्या एव । ते च तत्रोत्पन्नाः शरीरे पूर्णपूर्णे अंशोंके मध्यमें उन-उन लेश्याओंका मध्यम अंश होता है। उन नरकोंमें उत्पन्न होनेके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार जानना-धर्मामें कर्मभूमिया छहो संहननधारी असंज्ञी सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह, स्त्री, मच्छ और मनुष्य ही मरकर उत्पन्न होते हैं। उनमेंसे भी वंशामें सरीसृप आदि ही जन्म लेते हैं, असंज्ञी जन्म नहीं लेते। मेघामें पक्षी आदि ही ३० जन्म लेते हैं । अंजनामें आदिके पाँच संहननके धारी सर्प सादि ही मरकर उत्पन्न होते हैं। अरिष्टामें सिंह आदि ही मरकर उत्पन्न होते हैं। मघवीमें आदिके चार संहननके धारी स्त्री आदि ही जन्म लेते हैं। माघवीमें प्रथम संहननके धारी मच्छ और मनुष्य Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८५३ - अपर्याप्तसप्तमपृथ्विय नारकर पर्याप्तनारकरु मिथ्यादृष्टिगळ तिर्यग्गतियुत नवविशतिप्रकृतिस्थानमुमं त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवर । २९ । ति । ३० । ति उ॥ सर्वपृथ्विगळ सासादनरु तिय्यंग्मनुष्यगतियुतद्विस्थानंगळं कटुवरु। २९ । ति। म ३० । ति उ॥ मिश्ररुगळेल्लं मनुष्यगतियुतस्थानमनोंदने कटुवरु । २९ । म ॥ सर्वपृथ्विगळ पर्याप्ता ५ संयतनारकरुगळु मनुष्यगतियुतस्थामनोंदने कटुवरु । असं। २९ । म ॥ घम्म य निव्व॒त्य पर्याप्तासंयतरु क्षायिकसम्यग्दृष्टिग वेदकसम्यग्दृष्टिगळ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिगळ नव. विंशतिस्थानमं मनुष्यगतियुतमनों दने कटुवरु । २९ । म । सतीत्थंरुगळु मनुष्यगतितीर्थयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनों दने कटुवक ३० । म ति ॥ शरीरपर्याप्तियोळमी प्रकारदिदमे कटुवरु । घना २९ । म ३० म ती। वंशे मेधेगळोळु मिथ्यादृष्टिगळागिईऽपर्याप्तसतीर्थनारकरुगळ १० च तिय॑मनुष्यगतिनवविंशतिकत्रिशके द्वे बध्नति । सप्तम्यां ते द्वे तिर्यग्गतियुते एव। तत्सासादनाः ते तिर्यग्मनुष्यगतियुते । मिश्रा असंयताश्च मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । घर्मायां नित्यपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च क्षायिक वेदककृतकृत्यवेदकास्तदेव, सतीर्थाः मनुष्यगतितीर्थयतत्रिंशत्कमेव । वंशामेघयोः सतीर्थाः पर्याप्तत्वे ही मरकर उत्पन्न होते हैं। उन नरकोंमें उत्पन्न हुए वे नारकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने या पूर्ण न होनेपर तियेच १५ या मनुष्यगति सहित उनतीस और तीस दो ही स्थान बांधते हैं। किन्तु सातव नरकमें ये दोनों स्थान तियंचगति सहित ही बँधते हैं। वहाँ सासादन गुणस्थानवाले भी तिथंच या मनुष्यगति सहित दो स्थानोंको बाँधते हैं। मिश्र और असंयत गुणस्थानवाले मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बांधते हैं। धर्मामें नित्यपर्याप्त या पर्याप्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टी तथा कृतकृत्य वेदक मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान बाँधते हैं। जिनके तीथकरकी सत्ता होती है वे मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीसको बाँधते हैं। वंशा और मेघामें उत्पन्न हुए नारकी जिनके तीर्थकरकी सत्ता होती है वे पर्याप्ति पूर्ण होनेपर नियमसे मिथ्यात्वको त्याग सम्यग्दृष्टी होकर तीसका ही बन्ध करते हैं। १. यिल्ली घम्म य नारकापर्याप्तनोळ दकसम्यत्स्वं घटिसदु । "उत्पद्यते हि वेदक दृष्टिः स्वभरेषु कर्म । भूमिनृषु ।” एंदाराधनासारदोळ नियम पेळल्पटुंदपुरि यिल्लि आगमकोविदरु विवारिसिको बुदु, वेदकसम्यग्दृष्टिगळोळ येदादरू पठिसूदु ॥ ( इतरटिप्पण):-लब्ध्यपर्याप्त लब्ध्यरर्याप्तपर्याप्तनिवृत्यपर्याप्त-अपर्याप्तासंयतत्वं भोगभूम्यपेक्ष यिदल्लदे कर्मभूपियोळ घटियिसदु । अल्लि कपोतरे.श्याजघन्यमब नियमं षड्लेश्यासंभबं घटियिसदागि विचारिसिको बुदु ॥ मुंपेळ्द एकचत्वारिंशज्जीवपदंगळोळु तिर्यग्गतिसंबंध्यपर्याप्तपदंगळु पदिनारु । अवरोळु साधारणबादरसूक्ष्मप्रत्येकपदंगळमूळं कळदोड पदिमूरू । अवरोल आ कळेद मूरं नित्यचतुर्गतिनिगोदप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठित प्रत्येक भेददि भेदिसि आर ६ कूडुत्तिरलु १९- पृथ्व्यप्तेजोवायुशदरसूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तंगळ कूडियटु ८ द्वोंद्रिय बोद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रिया संज्ञि संज्ञि अंतु १३ साधारणबादरसूक्ष्म प्रत्येक १६ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ गो० कर्मकाण्डे मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु नियर्मादिदं सम्यग्दृष्टिगळागि तीरथं युतस्थानमनोंदने कट्टुवरु । ३० । म ती । तिग्गतियोऴ ॥ " णरतिरियाणं ओघो यिगिविगळे तिष्णि चउ असण्णिस्स । सपिण अपुण्णगमिच्छे सासणसम्मे वि असुहतियं ॥" तिरियंचरोळु षड्लेश्येगळवादोडमेकेंद्रिय भेदंगळोळं विकलत्रयंगळोळेला लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त पर्याप्तरोळ मशुभलेश्यात्रय५ मक्कुं । संयपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळोळं नरकगत्यादिगबिंदु पुट्टिद सासादनरोळ मशुभलेश्यात्रयमेयक्कुं । अपर्थ्याप्तासंयतरोळं पर्याप्तासंयतरोळं पर्याप्तसासादनरोळं षड्लेश्येगळप्पु । असंज्ञिपंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तनिवृत्यपर्य्याप्तजीवंगळोळमशुभलेश्यात्रितयमेयक्कुं । पर्याप्तासंज्ञिमिथ्यादृष्टियोळ कृष्णादि चतुर्लेश्येगळपुवु । भोगा पुण्णग सम्मे काउस्स जहण्णयं हवे णियमा । सम्मे वा मिच्छे वा पज्जत्ते तिणि सुहलेस्सा ॥ एंदितु भोगभूमिनिष्व त्यपर्याप्तासंयत सम्यादृष्टिगळोळ. कपोत लेश्या जघन्यमेयक्कुं । नियमदिदं । मत्तमा भोगभूमिजमिथ्यादृष्टिगळोळ मेणु- सम्यग्दृष्टिगळोळ शरीर पर्याप्त परिपूर्णमागुत्तं विरलेला जीवंगळं तेजः पद्मशुक्लंगळे व शुभलेश्यात्रयमेयक्कु । मिल्लि एकान्नविशतिविधतिध्यंचलब्ध्यपर्य्याप्तरोपुटुव जीवंगळवावुर्वि दोडे पृथ्व्यप्तेजोवायुनित्य चतुर्गति१५ निगोदबादर सूक्ष्मजीवंगळु प्रतिष्ठितप्रत्येक अप्रतिष्ठितप्रत्येक द्वोंद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रिया संज्ञि संज्ञि लब्ध्यपर्याप्त पर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यलब्ध्यपर्थ्याप्तपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळु मितु १० नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा तस्त्रिशत्कमेव । तिर्यग्गतो पर्याप्तादित्रिविध सर्वेक द्वित्रिचतुरिद्रियेषु लब्ध्यपर्याप्त निर्वृत्त्य पर्याप्त संज्ञिनि मिथ्यादृष्टिनरकाद्यागत सासादनापर्याप्त संज्ञिनि च लेश्या अशुभा एव तिस्रः । पर्याप्त मिथ्यादृष्टयसंज्ञिनि कृष्णाद्याश्चतस्रः । पर्याप्त सासादन मिश्र पर्याप्तापर्याप्तासंयत संज्ञिनि षट् भोगभूमी २० निर्वृत्यपर्याप्ता संयते कापोतजघन्यं । मिथ्यादृष्टी सम्यग्दृष्टौ वा तत्पर्याप्ते शुभा एव तिस्रः । तत्रत्यानां शरीरपपूर्णाय तत्त्रये एवागमनात् । एषामुक्ततिर्यग्जीवानां मध्ये ये बादर सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदप्रतिष्ठिता प्रतिष्ठित प्रत्येक द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञि पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तास्ते च तेभ्यो वा तदेकान्नविंशतिविधपर्याप्तेभ्यो वा २५ ३० तिर्यंचगति में पर्याप्त आदि तीन प्रकारके सब एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रियोंमें तथा लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त असंज्ञीमें, नरकसे आये मिध्यादृष्टियोंमें और सासादन अपर्याप्त संज्ञी में तीन अशुभलेश्या ही होती है । पर्याप्त मिध्यादृष्टि असंज्ञीमें कृष्ण आदि चार लेश्या होती हैं। पर्याप्त सासादन और मिश्र तथा पर्याप्त अपर्याप्त असंयत संज्ञीमें छह लेश्या होती हैं । भोगभूमि में निर्वृत्यपर्याप्त असंयत में कापोतका जघन्य होता है । और पर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टीके तीन शुभलेश्या होती हैं। क्योंकि भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर तीन शुभलेश्याओं में ही आते हैं । I इन ऊपर कहे तिथंच जीवों में से बादर, सूक्ष्म, पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद, चतुर्गति निगोद, प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित, प्रत्येक, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञ पंचेन्द्रिय उन्नीस प्रकारके तियंच लब्ध्यपर्याप्तक और इन उन्नीस प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकों से अथवा तिथंच पर्याप्तकोंसे और पर्याप्त अथवा अपर्याप्त कर्मभूमियोंसे, इन सब मिथ्या Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका 1 नात्वत्तुं तेरद मिथ्यादृष्टिगळु यथायोग्य तिय्यंगायुष्यंगळं कट्टि मृतरागि बंदु एकाशविंशतिविष. तिथ्यंचलब्ध्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजीवंगळागि नरकगति देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानं पोरगागि त्रयोविंशत्यादिस्वस्वयोग्य पंचस्थानंगळं कट्टुवरु। २३ । ए अ २५ । एप । मिति च । अ । सं । म । अप २६ । ए प । आ । उ२९ । बि । ति । च । पं । म । पति । ३० । बि ति च । असं पति । उ ॥ तेजोवायुकायिकंगळ तिथ्यंग्गतियुतमागिये कट्टुवरु । मत्तमी एकान्नविशतिविधमप्प तिय्यंचलब्ध्यपर्य्याप्त मिथ्यादृष्टि जोवंगळं मत्तमेकान्नविंशति विधपर्याप्त तियंचमिथ्यादृष्टिगळु लब्ध्यपर्याप्तमनुष्यरूं पर्याप्तकर्मभूमि मनुष्यरुगळं मिथ्यादृष्टिगळु तिय्यंगा युष्यमं स्वयोग्यंगळं कट्टि भृतरागि बंदी एकान्नविंशतिविधमिध्यादृष्टि निव्र्वृत्यपर्याप्ततिथ्यंचरप्परु । अल्लि विशेष मुंटदावुर्द वोर्ड तेजोवायुकायंगळोळ पुटुव जीवंगळ अशुभत्रयलेश्या मध्यमांर्गादिदं पुटुव । मत्तं भवनत्रयादि सौधर्मकल्पद्वय पय्र्यंत मादमिथ्यादृष्टिदेव कळो केलंबरु १० लियंगायुष्य मने केंद्रिय संबंधियं कट्टि तेजोलेश्या मध्यमांशदिदं मृतरागि बंदु पृथ्व्यन्बादर प्रतिष्ठितप्रत्येक वनस्पतिनिर्वृत्यपर्य्याप्तरोळ मिथ्यादृष्टिगळागि पुटुवरु | तिय्यंग्मनुष्य रुगळा त्रिस्थानकंगोल पुटुवर्ड कृष्णादि चतुर्म्मध्यम लेश्यांशंगळिदं पुट्टुवरु । मत्तं भवनत्रयं मोवल्गोंड सहस्त्रारकल्पपर्यंतमाद मिथ्यादृष्टिदेववकं मत्तं प्रथमनरकं मोवल्गोंड सप्तमनरक पय्र्यंतमाद नारकमिथ्यादृष्टिगळं तिर्य्यगायुष्यमं स्वस्वयोग्यमं कट्टि मृतरागि बंदी कर्मभूमिसंज्ञिगन्भंजनि- १५ त्यपर्याप्त स्वस्व लेगळिदं मिथ्यादृष्टितिथ्यंचराणि पुटुवरु । यितेकान्नविंशतिविधनिर्वृत्यपर्याप्ततियंचरुगळु मिथ्यादृष्टिगळु सासादनरुमसंयतसम्यग्दृष्टिगळर्म वितु त्रिविधमप्परल्लि पर्याप्त पर्याप्तकर्मभूमि मनुष्येभ्यश्च मिथ्यादृष्टिभ्य एवागत्याशुभलेश्या त्रयेणोत्पद्यंते ते च विनाष्टाविंशतिकं त्रयोविशतिकादीनि पंचबनंति । तेजोवायुकायिकास्तु तिर्यग्गतियुतान्येव । ते चत्वारिंशद्विष मिथ्यादृष्टयः, अशुभलेश्याश्रयेण मृतास्तदेकान्नविंशतिविधपर्याप्ततिर्यग्मिथ्यादृष्टिषूत्पद्यते । तत्र तेजोवायुषु श्रशुभलेश्या मध्यमांशैरेव, २० भवनत्रय सौधर्मद्वय मिध्यादृष्टयः तेजोमध्यमांशेन तिर्यग्मनुष्या अशुभत्रयमध्यमांशेन च मृताः केचिद्वादरपुव्यप्रतिष्ठित प्रत्येकेषूत्पद्यते । भवनत्रयादिसहस्रारांतदेव सर्वनारक मिथ्यादृष्टयः बद्धतिर्यगायुषः स्वस्वलेश्याभिर्मृताः दृष्टियोंसे आकर जो तीन अशुभ लेश्या सहित तिर्यंच जीव उत्पन्न होते हैं वे अठाईसके बिना तेईस आदि पांच स्थानोंका बन्ध करते हैं। तेजकाय, वायुकायके जीव तो तियंचगतिके साथ ही उन पाँच स्थानोंको बाँधते हैं । उन्नीस प्रकारके लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच, उन्नीस २५ प्रकार के पर्याप्त तिर्यंच और दो प्रकारके मनुष्य ये सब चालीस प्रकारके मिध्यादृष्टि तीन अशुभ लेश्याओंसे मरकर पूर्वोक्त उन्नीस प्रकारके पर्याप्त तियंच मिथ्यादृष्टियों में उत्पन्न होते हैं । इतना विशेष है कि तेजकाय, वायुकाय में तो अशुभ लेश्याओंके मध्यम अंशसे ही उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलके मिथ्यादृष्टि देव तेजोलेश्याके मध्यम अंशसे तथा तिथंच और मनुष्य तीन अशुभलेश्याओंके मध्यम अंशसे मरकर कोई बादर पृथ्वी, ३० अप्रतिष्ठित प्रत्येकों में उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिकसे लेकर सहस्रार पर्यन्त देव और सब नारकी मिध्यादृष्टि जिन्होंने तिचायुका बन्ध किया है वे सब अपनी-अपनी लेश्यासे मरकर कर्मभूमिया गर्भज संज्ञी क - १०८ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५६ गो० कर्मकाण्डे नाकुं गतिर्गाळवं बंद पुटुव निव्र्व्वत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टितिय्यंचरुगळु पेळल्पदृरु- 1 मवगळल्लरुमष्टाविंशतिस्थानं पोरगागि शेषत्रयोविंशत्यादि पंचस्थानंगलं कट्टुवरु | २३ | ए अ । २५ । एप । बिति च प म । अ प २६ । एप । आ उ । २९ । बि ति च प म । अप । ३० । बिति चप । प उ ॥ सासादनरुगळावाव गतिर्गाळद बंदी कम्मं भूमिय एकान्नविंशतिविधनिर्वृत्यपर्य्याप्त रोळेल्लेल्लि पुटुव दोडे तिय्यंग्गतियोळ, संज्ञिपर्य्याप्तगब्भंजकम्मं भूमितिय्यंग्मिथ्या दृष्टियुं मनुष्यपर्याप्तकर्मभूमि मिथ्यादृष्टियं तिष्यंयायुष्यंगळ कट्टि मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसियनंतानुबंधिकषायोदयविद सम्यक्त्वमं केडिसि मृतरागि बंदी पृथ्व्यब्बादर प्रत्येक वनस्प तिविकलत्रयासंज्ञिसंज्ञिनिर्वृत्यपर्य्याप्त जीवंगळोळ, सासादनरागि पुटुवरु । मत्तमा तिर्य्यग्मनुष्य१० प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळम्बद्धायुष्यरुगळाद पक्षदोळ मरणकालदोळनंतानुबंधिकषायोवर्याददं सम्यक्त्वमं के डिसि सासादनरागि तिर्य्यगायुष्यंगळ कट्टि मृतरागि बंदी निव्वृ त्य पर्याप्त तिर्य्यग्जीबंगलोळ. मुंपेदे टुं स्थानंगळोळ निवृत्यपर्य्याप्त सासादनरप्पर । मत्तमीशानकल्पावसानमाद देवळ. मिथ्यात्वपरिणामददं तिर्य्यगायुष्य मुमुनुपाज्जिसि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि अनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वमं केडिसि सासादनरागि मृतरागि बंदी पृथ्व्यध्वा दर प्रत्येक१५ वनस्पतिगळोळु निर्वृत्य पर्थ्याप्तसासादनरप्पक । बद्धायुष्यरल्लद पक्षवोळवर्गळं सासादनरागि तिगायुष्यमं कट्टि मृतरागि बंदु मुंपेदेकेंद्रियंगळोळु किरिदुपातु निर्वृत्यपर्याप्त सासादन. पe । मत्तमा भवनत्रयादि सहस्रार कल्पावसानमाद सुररुं प्रथमनरकमादियागि षष्ठनरकपय्र्यंतनारकरुगळु मिथ्यात्व परिणामंगळदं तिर्य्यगायुष्यमनुपाज्जिसि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वोरिसि अनंतानुबंधिकषायोदर्याददं सम्यक्त्वमं केडिसि स्वस्वलेश्येगळिदं मृतरागि बंदु यो कम्मभूमि २० कर्मभूमिगर्भसंज्ञितिर्यक्षत्पद्यते । ते च एकान्नविंशतिधाचतुर्गत्यागत निर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टयः सर्वाण्यष्टाविंशतिकोनत्रयोविंशतिकादीनि पंच बघ्नंति । अनंतानुबंध्यन्यतमोदयेन प्रथमोपशमसम्यक्त्वं विराध्य सासादना भूत्वा प्राग्बद्ध तिर्यगायुष्का मृत्वा अबद्धायुष्काः केचित्तदैव तिर्यगायुर्बध्वा मृत्वा च कर्मभूमितिर्यग्मनुष्यास्तदा बादरपृथ्व्य प्रत्येक विकलत्रयसंश्यसंज्ञिषु देवास्तदा स्वस्वलेश्याभिरीशानांता बादरपृथ्व्यप्प्रत्येकेषु भवनत्रयादिसहस्रारांता षष्ठनरकांतनारकाश्च कर्मभूमिगभंजसंज्ञितिर्यक्षु च सासादना भूत्वा तिर्यग्मनुष्यगतिपर्याप्तनवविंश तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं । वे चारों गतिसे आकर उत्पन्न हुए उन्नीस प्रकारके तिर्यंच निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि सब अठाईसके बिना तेईस आदि पाँचका बन्ध करते हैं । अनन्तानुबन्ध में से किसी एक कषायके उदयसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी विराधना करके सासादन होकर जिन्होंने पूर्व में तिर्यंचायुका बन्ध किया है वे जीव मरकर, और जिनके पूर्व में आयुबन्ध नहीं हुआ वे अन्त समय में तियंचायुको बाँध मरकर तिर्यंच में उत्पन्न ३० होते हैं । कर्मभूमिया तियंच मनुष्य तो बादर, पृथ्वी, अप्, प्रत्येक वनस्पति, विकलत्रय, और संज्ञी असंज्ञीमें उत्पन्न होते हैं । ईशान पर्यन्त देव अपनी-अपनी लेश्याके साथ मरकर बादर, पृथ्वी, अपू, प्रत्येक वनस्पतिमें उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिकसे लेकर सहस्रार पर्यन्त देव तथा छठे नरक तक नारकी कर्मभूमिया गर्भज संज्ञी तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं । वे सासादन २५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८५७ पंचेंद्रिय संजिग जनित्यपर्याप्तसासादनरागि पुटुवरु। बतायुष्यरल्लद पक्षदोळल्लिये सासादनरागि तिय्यंगायुष्यंगळं कट्टि मृतरागि बंदु किरिदु पोळ्तु मुंपेळ्व संज्ञिनिर्वृत्यपर्याप्त तिय्यंचरोळ सासावनरप्परु । यो सासावनरुगळं तिय्यंग्गतिमनुष्यगतिपर्याप्त नवविंशत्यादिद्विस्थानंगळं कटुवरु । २९ । बि ति च प । ति । म।३०। बि। ति। च।प। ति।प। रि। उ॥ यो सासावनगळेल्लरुगळं तंतम्म सासावनकालं पोदि बळिक्कल्लरुगळं नियमदिवं मिथ्यादृष्टि- ५ गळागि यावच्छरीरमपूणं तावत्कालं मिथ्यादृष्टिनिवृत्यपर्याप्तरागि मिथ्यादृष्टिगळोळ पेन्दत प्रयोविंशत्यावि यथायोग्यमागि नामप्रकृतिबंधस्थानंगळं कटुवरु । इल्लि चोदकने दपं-सासादनकालमुत्कृष्टदिदं षडावलिकालमक्कु-मायुबंधाद्ध जघन्यदिनुत्कृष्टविनंतम्र्मुहर्तप्रमितमक्कु मदरिने ती सासावनतिर्यग्मनुष्यदेवनारकरोळमुत्तरभववोळं सासादनत्व संभवमें वोर्ड विरोधमिल्लें. ते दोडे जघन्यदिदमंतर्मुहूर्तमेकावलि कालप्रमितमक्कुमवर मेले समयोत्तर क्रमदिदमंतर्मुहूर्त- १. विकल्पंगळागुत्तं पोगि समयोनैकमुहूर्तमुत्कृष्टांतर्मुहूर्तमक्कुमप्पुरिवमंतर्मुहूत्तंगळसंख्यात विकल्पंगळप्पुवापुरिद २११/२ विक २१ | २७-२।२७-१ मत्तमी नित्यपर्याप्त संजि पंचेंद्रियगर्भजासंयत सम्यग्दृष्टिगोळावाव गतिर्गाळदं बंदु पुटुवरदोर्ड नरकगतिदेवगतिद्वयदिदमे बंदु सम्यग्दृष्टिगळ्पुटुवरेक दोडितरतिर्यग्मनुष्यगतिजरुगळप्प बद्धतिर्यगायुष्यसम्यग्दृष्टिगळी तिर्य- १५ ग्गतियोळपुट्टरवर्गळ्गे भोगभूमिजतियंचरोळे जनन नियममुंटप्पुरिदं । आ नारकामरवेदकसम्यग्दृष्टिगळ बद्धतिर्यगायुष्यरुगळ मरणकालदोळ सम्यक्त्वमं पत्तविडवे स्वस्वलेश्यगलिदं मृतरागि बंदी कर्मभूमि संजिपंचेंद्रिय गर्भज निवृत्यपर्याप्त तिय्यंचासंयतसम्यग्दृष्टिगळोळे तिकत्रिंशत्के बध्नति । स्वस्वसासादनकालमतीत्य नियमन मिध्यादृष्टयो भूत्वा यावच्छरीरमपूर्ण तावन्नित्यपर्याप्ता: मिथ्यादृष्टयुक्तत्रयोविंशतिकादीनि पंच बहनंति । ननुत्कृष्टः सासादनकालः षडावलिः आयुबंधाद्धा २० जघन्याप्यंतर्महर्तमात्री तहि पूर्वोत्तरभवयोः कथं सासादनत्वमिति ? तन्न, आवलितः समयाधिकक्रमेण सा मुहूर्तपयंतानां कालविशेषाणां अंतर्मुहूर्तत्वेन विरोधाभावात् । तिर्यगसंयते प्रारबद्धतिर्यगायुर्देवनारकवेदकसम्यग अवस्थामें तियेच या मनुष्यगति पर्याप्त सहित उनतीस अथवा तीसका बन्ध करते हैं। और अपना-अपना सासादन काल पूरा होनेपर नियमसे मिथ्यादृष्टि होकर जबतक शरीर. पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक निर्वृत्यपर्याप्त रहकर मिथ्यादृष्टि में कहे तेईस आदि पाँच २५ स्थानोंको बाँधते हैं। शंका-सासादनका उत्कृष्ट काल छह आवली है और आयुबन्धका जघन्य भी काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । तब पूर्व और उत्तर दो भवोंमें सासादनपना कैसे सम्भव है ? ___ समाधान-एक आवलीसे लगाकर एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते, एक समयहीन मुहूर्त पर्यन्त जितने कालभेद हैं वे सब अन्तर्मुहूर्त हैं। इससे कोई विरोध नहीं है। तिर्यच असंयतमें जिन्होंने पहले तिर्यंचायुका बन्ध किया है, ऐसे देव नारकी वेदक Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ गो० कर्मकाण्डे पुटुवरप्पुरिदं मूरुं लेश्यगळप्पुवु । आ देवनारकरुगळु क्षायिक सम्यहाष्टगळिल्लि पुट्ट दोडवर्गळ तिर्यगायुष्यमं कटुवुदुमिल्ल । मनुष्यायुष्यमं कट्टि मृतरागि बंदी पंचदशमनुष्यलोक प्रतिबद्धार्याखंडंगळोळु चरमांगरागि पुट्टि घातिकमंगळं केडिसुवरप्पुरिदं । सप्तमपृथ्विय नारकासंयत सम्यग्दृष्टिगळं बंदिल्लि पुट्टरेके दडवर्गा सम्यग्दृष्टि गुणस्थानदोळु मरणमिल्लप्पु. ५ दरिदं । मरणकालदोळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोद्दि मृतरप्परु मंते सासादन, मिश्रनुमागिई नारकरुं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमने पोद्दि मृतरप्परु। तिय्यंचनिर्वृत्यपर्याप्तासंयतरिगे देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमो दे बंधमप्पुदु । ई तिय्यंचनिवृत्यपर्याप्तरल्लरुगळं. पर्याप्तिथिदं मेले मिथ्यादृष्टिगळं सासादन मिश्रलं असंयतसम्यग्दृष्टिगळं देशसंयतरुगळु मेंब पंचगुणस्थानत्ति गळप्परा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपर्यंत षड्लेश्यगळु मप्पुवु । १० देशसंयतरोळु शुभलेश्यात्रयमेयक्कु मो शुभाशुभलेश्यगळु मेकजीवनोळ क्रमदिदं संभविसुगुमो मेणक्रमदिदं संभविसुगुमो येदितु प्रश्नमादोर्ड क्रमदिदं संभविसुगुमदत दोडे असुहाणं वरमझिम अवरंसे किण्हणीळ काउतिये । परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किळेसस्स ॥ काऊ णीळ किण्हं परिणमदि किळेसवड्ढिदो अप्पा। एवं किळे सहाणीवड्ढीदो होदि असुहतियं ॥ येदितु कृष्णनीलकपोतमेंब मूरु लेश्यगळ कषायानुभागस्थानोदयानुरंजित काथवाग्मनस्कर्मलक्षणंगळु कृष्णलेश्योत्कृष्टं मोदल्गोंडु संक्लेशहानियिंदं कपोतलेश्याजघन्यपथ्यंतमप्पुववरोळ जोवंक्रमदिदमसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानपतित लेश्यास्थानंगळोळ परिणमिसुगुं। मत्तं संक्लेशवृद्धियिदं क्रमदिदं कपोतलेश्याजघन्य मोदल्गोंडुत्कृष्ट कृष्णलेश्यास्थानपयंतमसंख्यात. १५ २० दृष्टयः स्वस्वलेश्याभिरुताद्यते । तेऽपि न सप्तमेपृथ्वीजाः मिथ्यादृष्टित्वे एवैषां मरणात् । ते चोत्पन्नतिर्यगसंयता देवगत्यष्टाविंशतिकं बघ्नंति । पर्याप्तरुपरि देशसंयतांतगुणस्याना भवंति । तत्र असंयतांतं षड्लेश्याः, देशसंयते शुभत्रिलेश्याः । ___ ननु शुभाशुभलेश्यास्वेकजीवः क्रमेण परिणमेदक्रमेण वा ? उच्यते-आत्मा संक्लेशहान्या कृष्णोत्कृष्टादाक सम्यग्दृष्टी अपनी-अपनी लेश्याके साथ मरकर उत्पन्न होते हैं। किन्तु सातवें नरकके नारकी २५ तियच असंयतमें उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि वे मिथ्यादृष्टि अवस्था में ही मरते हैं । वे उत्पन्न हुए असंयत सम्यग्दृष्टी तिथंच देवगति सहित अठाईसका बन्ध करते हैं। पर्याप्ति पूर्ण होनेपर देशसंयत गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। उनमें असंयत पर्यन्त छह लेश्या होती हैं और देशसंयतमें तीन शुभलेश्या होती हैं । शंका-शुभ और अशुभ लेश्यामें एक जीव क्रमसे परिणमन करता है या एक साथ ? समाधान-संक्लेशकी हानिसे आत्मा कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे लेकर कपोत लेश्याके जघन्य अंश तक और संक्लेशकी वृद्धिसे कपोतके जघन्य अंशसे लेकर कृष्णके Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका लोकमात्रषट्स्थानपतित लेश्यास्थानंगळोळ, परिणमिसुगुं । मत्तमंते : ऊ पम्मे सुक्के सुहाण अवरादि अंसगे अप्पा | सुद्धिस्य वढोदो हाणीदो अष्णहा होदि ॥ तेजोलेश्येयोळ पद्मलेश्येयोळ शुक्ललेश्ययोळमिवरजघन्याद्यंशंगळोळु विशुद्धिवृद्धिदिं जीवंगे परिणमनमकुं । विशुद्धिहानियिदमन्यथा परिणमनमक्कुमदर विपरीत परिणमनमक्कुमबुदथं । मी शुभाशुभलेइथे गळनितुं भावलेश्येगळप्पुवी भावलेश्यासाधनमुं मोहोदय मोहक्षयोपशम मोहोपशम मोहक्षयजनितजीव प्रदेश परिस्पंद मक्कुमा मोहमुं दर्शनमोह में दुं चारित्रमोहमे ढुं द्विविधमक्कुमा दर्शन मोहोदर्याददमुं चारित्रमोहोदर्याददमुं दर्शनचारित्र मोहक्षयोपशर्मादिदमु दर्शनचारित्र मोहोपशमनददमुं दर्शनचारित्रमोहर्यादिदमुं यथायोग्यमागि संभविसुव मिथ्यादृष्ट्यादि पत्तुंगुणस्थानं गळोळ पुटुव शुभाशुभलेश्येगळगे मूलकारणं । कषायानुभागस्थानोद १० मंगळदमनुरंजिस पट्ट योगप्रवृत्तियक्कुमप्पुर्दारमा कषायं चतुव्विधंगळप्पुवगरोळु विवक्षित क्रोधकषायानुभागस्थानोदयं जीवनं नरकति मनुष्यदेवगतिगळोळुत्पादकमक्कुमा शक्तियुं शिलाभेदपृथ्वीभेद धूलीराजि जलराजिस मानमप्पुदल्लि :― सर्व्वधातिशक्तियुतोदयस्थानंगळिदं केळगण प्रमत्ताप्रमत्तादिसंयमिगळोळे संभविसुव देशघातिस्पर्द्धकंगळगे पूर्वस्पर्द्धकंगळे व पेसंरक्कुमा पूर्वस्पर्द्धकंगळिदं केळगे केळगे अपूर्व्वस्पर्द्धक बादरकृष्टिपथ्यं तमप्पुवु । लोभकषायदो सूक्ष्मसांपरायंगे सूक्ष्मकृष्टिगळप्पुवित शेष क्रोधकषायानुभागोदयस्थानंगळमसंख्यात लोकमात्रं षड्ढानि षड्बुद्धिपतितासंख्यात लोकमात्रानुभागोदयस्थानं गळप्पुववरोळ १५ ८५९ पोतजघन्यं संक्लेवृद्धया कपोतजघन्यादाकृष्णोत्कृष्टं चासंख्यात लोकमात्रषद्स्यानपतित लेश्यास्थानेषु क्रमेण परिणमति । विशुद्धवृद्धया तेजःपद्म शुक्लजघन्याद्यंशेषु विशुद्धिहान्या तेष्वन्यया च परिणमति । तासां च लेश्यानां मूलकारणं कषायोदयानुभागस्थानानुरंजित योगप्रवृत्तिः । ते कषायाश्चत्वारः । तेषु विवक्षितक्रोधकषाया- २० नुभाग स्थानोदयः जीवनरकतिर्यग्मनुष्य देवगतिषूत्पादकः । तच्छक्तिः शिलाभेदपृथ्वी भेदधूलिराजिजलराजिसमाना । तत्र सर्वघातिशक्तियुतोदयस्थानेभ्योऽधस्तनी प्रमत्तादिसंयमिष्वेव संभविनो देशघातिनी पूर्वस्पर्धकनामा । तदघोषः अपूर्वस्पर्धकनामा बादरकृष्टिनामा लोभकषाये सूक्ष्मसां पराये सूक्ष्मकृष्टिनामापि । तान्यशेषक्रोधकषायानुभागोदयस्यानान्यसंख्यात लोकमात्रषड्ढा निवृद्धि पतिता संख्यात लोकमात्राणि तेष्वसंख्यातलोकभक्तबहुभागमा ५ उत्कृष्ट अंश तक असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानपतित वृद्धि-हानिको लिये लेश्यास्थानों में २५ क्रमसे परिणमन करता है। तथा विशुद्धताकी वृद्धिसे तेज-पद्म-शुक्लके जघन्यादि अंशों में और विशुद्धताकी हानिसे शुक्ल- पद्म तेजोलेश्याके उत्कृष्ट आदि अंशोंमें क्रमसे परिणमन करता है । उन लेश्याओंका मूल कारण कषायोंके उदयरूप अनुभागस्थानोंसे अनुरंजित योगोंकी प्रवृत्ति है । वे कषाय चार हैं। उनमें से विवक्षित क्रोधकषायके अनुभाग स्थानका उदय जीवको नरक, तियंच, मनुष्य और देवगति में उत्पन्न कराता है । उस क्रोधकी शक्ति शिलाभेद, ३० पृथ्वीभेद, धूलरेखा और जलरेखाके समान है । उनमें से सर्वघाती शक्तिसे युक्त उदयस्थानोंसे नीचे, प्रमत्त आदि संयमियों में ही होनेवाली देशघाती शक्तिको पूर्वस्पर्धक कहते हैं । उसके नीचे-नीचे अपूर्वस्पर्द्धक नामवाली, बादरकृष्टि नामवाली, लोभकषाय में सूक्ष्मसाम्पराय, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० गो० कर्मकाण्डे संक्लेशस्थानं गळु मसंख्यातलोकभक्तासंख्यातबहुभागं गलप्पुवेक भागमाचंगळ विशुद्धिकषायोदयस्थानंगलप्पुवा संक्लेशविशुद्धिसम्वंक्रोधकषायोदयस्थानंगोळ पविनालकुं लेश्यापदंगळवा पविनाकु लेश्यापवंगळोळ लेश्यांशंगळिप्पत्तारप्वु । अवरोळु मध्यमाष्टशिंगळा पुर्वधनिबंधनंगळवकुं । संदृष्टि : २८ । शि मे तीव्रतर नरक पुं भे । २८ तीव्र तिर्य्यग्गति । । । । ९ ९९ कृ ११११११११ उ उ मंद । मनुष्यगतिनिबंधनंगळु ६ ५ ४ ३ कृ नी ००० न ११११ उ० कृ उ ܘ ܘ |ܘܘܘܘܘ ܐܘܘܘܘܗܘܘܘܘܘܘܘܐܘܘܘܘܗܘܘܘܗܘܘܘܘܘܘܘܘܘ ०००००० ४४४१ ३३३३।२२२२११११११।००००००० ज उ ० ६६६६६६६६६।५५५/४४४४।३३३३३३३।२२२२१११११ १११११११११११ ज १ ०००ज १ ११११११११ धू । रा । २ ३ ४ ५ ६ नी क ते प ११११।२२२२।३३३३३३३३३३ ४४४४/५५५५/६६६६|| २ का ते प ज ०० ११११ ܘܘܘܘ ܘܘܘܘ ܘܘܘܘ ܘܘܘܘܘܘܘܘܘܘܐܘܘܘܘ ܘܘܘܘ उ उ ११११।११११।११११।३३३।४४४४४४४४४४४४४ ज उ ५ पाणि संक्लेशस्थानानि तदेकमात्र भागमात्राणि विशुद्धिस्थानानि तेषु लेश्यापदानि चतुर्दश लेश्यांशाः चविंशतिः । तत्र मध्यमा अष्टो आयुबंध निबंधनाः । संदृष्टिः क्र०८ शि । भे । तीव्रतर । नर पू। ९ १ ते ०८ जल। रा । देव । मंदतर। १ ९९९ ९९९ १ । ९१९ २ क उ २ १ ४ ५ प शु | ११११२२२२३३३३३३३३३३३३४४४४५५५५६६६६ ८ तीव्र तिर्य्यग्गतिनिबंधनानि 1 धू । रा । मंद | मनुष्यगतिनिबंधनानि = ८ ९।९।९ ते प १ ३ ११११११११११११२२२२३३३३४४४४४४४४४४४ उ ५ ૪ ३ कृ नी क ६६६६६६६६६६६६५५५५४४४४३३३३२२२२११११ ११११११११ ०००००००० १२२११११११११११११०००००००० ज ज ज उ उ नी १ शु उ उ ६ ज ज ज जल = रा देव मंदतर १ ९।९।९ शु ०० शु ज Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका इल्लि चतुर्गत्यायुबंधनिबंधनंगळप्प लेश्यामध्यमाष्टांशंगळाउर्व बोर्ड तेजोजघन्यस्थानानंतर स्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानं मोदल्गोंडु कपोतलेश्याजघन्यस्थानानंतर स्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानपयंतमथवा कपोतलेश्याजघन्यस्थानानंतर स्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानं मोदल्गोंड तेजोलेश्याजघन्यस्थानानंतर स्वमध्यमानंत गुणवृद्धिस्थानपय्यंतमप्प पाशुक्लकृष्णनीललेश्याजघन्यांशंगळु नाल्बु शेषचतुर्गत्यायुबंधनिबंधनंगळप्प मध्यमांशंगळ नरकायुजितायुस्त्रितयबंधनिबंधनंगळप्प मध्यमांशंगळ नरकतिर्म्यगायुद्धज्जितायुद्वयबंधनंगळप्पमध्यमांशंगळ केवलं देवायुबंधनिबंधनंगळप्प मध्यमांशंगळ मितु मध्यमांशंगळ नाल्कुंकूडियष्टांशंगळप्पुव । यिल्लि पद्मशुक्लकृष्णनोलजघन्यांशंगळगे मध्यमत्वमे ते बोर्ड शुभाशुभलेश्यगळविभागापेोइनवाके मध्यमांशत्वं पेळल्पटुदु। शेषाष्टादशांशंगळ चतुर्गतिगमनकारणंगळप्पुववरोळ अशुभलेश्यात्रयनवांशंगळु नरकगतियोळं तिय॑ग्गतियोळमुत्पादकंगळु पेळल्पटुवु । मुंद तिय्यंग्मनुष्य- १० देवगतिगमनकारण शुभाशुभांशंगळ पेळल्पट्टवु । इल्लि लेश्यासंक्रमणं पेळल्पडुगुमेके दोडे मोहो ते मध्यमांशास्तु तेजोलेश्याजघन्यस्थानानंतरस्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानमादि कृत्वा कपोतलेश्याजघन्यस्थानानंतरस्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानपर्यतं वा कपोतलेश्याजघन्यस्यानानंतरस्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानमाचं कृत्वा तेजोलेश्याजघन्यस्थानानंतरस्वमध्यमानंतगुणवृद्धिस्थानपयंतं पद्मशुक्लकृष्णनोलजघन्यांशाश्चत्वारः चतुगंत्यायुबंधनिबंधननरकवर्जितव्यायुबंधनिबंधननरकतिर्यग्वजिततवयायुबंधनिबंधनकेवलदेवायुबंधनाश्चत्वारः १५ एवमष्टौ । अत्र पद्मशुक्लकृष्णनीलजघन्यांशानां मध्यमत्वं तु शुभाशुभलेश्याविभागापेक्षं शेषाष्टादशांशाः चतुर्गति गुणस्थानमें सूक्ष्मकृष्टि नामवाली शक्तियाँ हैं । इस प्रकार समस्त क्रोधकषायके अनुभागरूप उदयस्थान असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धि हानिको लिये असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण तो संक्लेश स्थान हैं और एक भाग प्रमाण विशुद्धिस्थान हैं। उनमें लेश्यापद चौदह हैं और लेश्याके अंश २० छब्बीस हैं। उनमेंसे मध्यके आठ अंश आयुके बन्धके कारण हैं । ( यहाँ संदृष्टि आदि जीवकाण्डके कषायमार्गणा अधिकार में पहले कहा है वही जानना।) __ वे मध्यम अंश तेजोलेश्याके जघन्यस्थानके अनन्तर अपने अनन्त गुणवृद्धिरूप मध्यमस्थानसे लगाकर कपोतलेश्याके जघन्यस्थानके अनन्तर अनन्तगणवृद्रियक्त उसीके स्थान पर्यन्त जानना । अथवा कपोतलेश्याके जघन्यस्थानके अनन्तर उसीके अनन्तगुणवृद्धि- २५ रूप मध्यमस्थानसे लगाकर तेजोलेश्याके जघन्यस्थानके अनन्तर उसीके अनन्तगुणवृद्धिरूप मध्यमस्थान पर्यन्त पद्म, शुक्ल, कृष्ण, नीलके जघन्य अंश चार और चार गति सम्बन्धी आयुके कारण अथवा नरक बिना तीन आयुके अथवा नरकतियंच बिना दो आयुके या केवल देवायुके बन्धके कारण चार अंश इस प्रकार आठ मध्यम अंश आयुबन्धके कारण हैं। ___ यहाँ जो पद्म, शुक्ल, कृष्ण, नील लेश्याके जघन्य अंशोंको मध्यम अंश कहा है उसका कारण यह है कि शुभ-अशुभ लेश्याके भेदकी अपेक्षा ये बीचके अंश हैं इसलिए इन्हें मध्यम अंश कहा है। शेष अठारह अंश, जो कृष्णादिके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदरूप हैं, चारों गतियोंमें गमनके कारण हैं। इन अठारह अंशोंमें मरण होता है। उनमेंसे तीन अशुभ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ गो० कर्मकाण्डे वयाविजनितगुणस्थानंगळोळ चतुर्गतिजोवंगळोळ संभविसुव शुभाशुभलेश्यगळं साधिसल्बक्कुमप्पुरिदं । संकमणं संठाण परढाणं होदि किण्हसुक्काणं। बढोसु हि संठाणं उभयं हाणिम्मि सेसउभयेवि ।। यिल्लि लेश्यगळ्गे स्वस्थानपरस्थानसंक्रमणमें दुं संक्रमणमरडुप्रकारमप्पुदल्लि कृष्णलेश्यगं शुक्ललेश्यगं वृद्धिगळोळु स्वस्थानसंक्रमणमयक्कुं। स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमुंमेंबुभयसंक्रमणमा कृष्णलेश्यगं शुक्ललेश्यगं हानियोलक्कुं। शेषनीलकपोततेजःपगंगळ स्वजघन्यमादियागि स्वस्वोत्कृष्टपथ्यंतमप्प वृद्धियोळं स्वोत्कृष्टं मोदल्गोंडु स्वजघन्यपथ्यंतमप्प हानियोळ स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमक्कुमदेते दोडे कृष्णशुक्लंगळगे स्वजघन्यं मोदल्गोंडु १० स्वोत्कृष्टपय्य॑तं स्वस्थानसंक्रमणमयक्कुमेके दोर्ड शुक्लपनतेजःकपोतनोलंगळोळ कृष्णनील कपोततेजः पनंगळोळ संकरमिल्लेके दोड लक्षणतः सिद्धंगळप्पुरिदं। मत्तं हानियोळमा कृष्णशुक्लंगळ्गे स्वोत्कृष्टं मोदल्गोंडु स्वजघन्यपयंतं स्वस्थानसंक्रमणमुं मुंदण नीलकपोततेजः- . पद्मशुक्ललेश्योत्कृष्टपथ्यंतमुं पातेजःकपोतनीलकृष्णोत्कृष्टपथ्यंतसुं परस्थानसंक्रमणमुमाकुं शेषनीलकपोतंगळ पनतेजंगळ स्वस्वोत्कृष्टं मोदल्गोंडु स्वस्वजघन्यपय्यंतहानियोलु स्वस्थान१५ संक्रमणमुं स्वस्वजघन्यंगळिदं मुंदण लेश्यगळोळ शुक्ललेश्योत्कृष्टपथ्यंतमुं कृष्णलेश्योत्कृष्ट पथ्यंतमुं परस्थानसंक्रमणमुमक्कुं । मत्तमा नाल्कर वृद्धियोळ, स्वस्वजघन्यं मोदल्गोंडु स्वस्वोत्कृष्टपय्यंतं स्वस्थानसंक्रमणमुं स्वस्वोत्कृष्टंगळ मुंदण कृष्णोत्कृष्ट पय्यंत, शुक्ललेश्योत्कृष्टपथ्यंतमुं परस्थानसंक्रमणमुमक्कुं। सर्वत्र परस्थानसंक्रमणंगळोळ परलेश्यापरिणमनमप्पंतु गमनकारणानि तेषु सुभगत्रयस्य नवांशाः नरकगतौ तिर्यग्गतो चोत्पादकाः । अग्रतनाः शुभाशुभलेश्यांशास्तु तिर्यग्मनुष्यदेवगतिगमनकारणानि । लेश्यासंक्रमणं तु कृष्णशुक्लयोवृद्धावग्रेऽन्यलेश्याभावात्स्वस्थाने एव हानी स्वोत्कृष्टात्स्वजघन्यपयंतं स्वस्थाने कृष्णायाः नीलकपोततेजःपद्मशुक्लोत्कृष्टपर्यतं शुक्लायाः पमतेजःकपोतनीलकृष्णोत्कृष्टपयंतं च परस्थाने स्यात् । शेषाणां हानो स्वस्वोत्कृष्टादास्वस्वजघन्यं स्वस्थाने परस्थाने तु नील २५ लेश्याओंके नौ अंश तो नरकगति और तियंचगतिमें उत्पन्न कराते हैं। आगेके शुभ-अशुभ लेश्याओंके अंश तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिमें गमनके कारण हैं। आगे लेश्याओंका संक्रमण कहते हैं एक स्थानसे दूसरे स्थानको प्राप्त होनेका नाम संक्रमण है। वृद्धि में कृष्ण और शुक्ललेश्याका संक्रमण स्वस्थानमें ही है क्योंकि संक्लेश या विशुद्धिकी वृद्धि होनेपर कृष्ण या शुक्लको छोड़ अन्य लेश्याको प्राप्त नहीं होता। हानिमें अपने-अपने उत्कृष्टसे अपने-अपने जघन्य अंश पर्यन्त स्वस्थानमें और कृष्णका नील, कपोत, तेज, पद्म, शुक्लके उत्कृष्ट पर्यन्त ३० तथा शुक्लका पन, तेज, कपोत, नील, कृष्णके उत्कृष्ट पर्यन्त परस्थानमें संक्रमण होता है। शेष लेश्याओंका संक्लेश या विशुद्धताकी हानि होनेपर अपने-अपने उत्कृष्टसे अपने-अपने जघन्य पर्यन्त तो स्वस्थान संक्रमण है । और नील तथा कपोतका अपने-अपने जघन्यसे Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८६३ स्वस्थानसंक्रमणवोळ, परलेश्यासदृशशक्तिस्थानगळोळ, संक्रमणमिल्लेके बोडे स्वस्वलेश्यालक्षणत्याज्यमिल्लप्पुरतं । लेस्साणुक्कस्सादोंवरहाणो अवरगादवरवड्ढी । सटाणे अवरादो हाणो णियमा परट्ठाणे ॥ सर्वलेश्यगळ स्वस्थानदोळ त्कृष्टदिदमनंतरस्वस्वमध्यमस्थानदोळ अवरहानियक्कुमेक- ५ दोडे उत्कृष्टलेश्यास्थानंगळनितुं वुवकंगळप्पुदरिंदमनंतभागहानियेयकुं। सर्वलेश्यगळ जघन्यस्थानानंतरमध्यमस्थानदोळु वृद्धियुमनंतभागवृद्धियेयक्कुमेके दोडेल्ला लेश्यगळ जघन्यंगळादिगळष्टांकंगळप्पुरिदमनंतरमध्यमवृद्धिस्थानदोळमवरवृद्धियक्कुमप्पुरिदं। सर्वलेश्येगळजघन्यवत्तणिदं परस्थानसंक्रमणदोळ नियमदिदं अनंतगुणहानियेक्कुमेके दोडितरलेश्यापेक्षेयिवमा जघन्यंगळेल्लमष्टांकंगळेयप्पुवप्पुरिदं । “छट्ठाणाणं आदी अटुंक होदि चरिममुव्वंक" ऐंवित- १० दरिदं लेश्येगळेल्लव उत्कृष्टदत्तमिदं हानियुं जघन्यदत्तणिदं वृद्धियुं स्वस्थानसंक्रमणबोळमनंतभागहानियुमनंतभागवृद्धियुमक्कुमल्ला लेश्यगळ जघन्यस्थानदत्तणिवं परस्थानसंक्रमणदोळमनंतगुणहानियेयक्कुमें बुदु तात्पर्य ॥ यितु तिर्यग्गति पर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळोळु मिथ्यात्वमनंतानुबंध्यप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानसंज्वलन सम्वंघातिकोषचतुष्क, मानचतुष्कमुं मायाचतुष्क, लोभचतुष्कमुमें बी कषायचतुष्ट- १५ कपोतयोः स्वस्वजन्यादाशुक्लोत्कृष्टं पद्मतेजसोराकृष्णोत्कृष्टं च स्यात् । वृद्धौ स्वस्थाने स्वस्वजघन्यादास्वस्वोत्कृष्टं। परस्थाने तु नीलकपोतयोः स्वस्वोत्कृष्टादाकृष्णोत्कृष्टं पद्यतेजसोराशुक्लोत्कृष्टं च स्यात् । न च स्वस्थाने परस्थानवत्परलेश्यासदृशशक्तिस्यानं संक्रामति स्वस्वलक्षणस्यात्यजनात् । स्वस्थानसंक्रमणे सर्वलेश्यानामुत्कृष्टानंतरस्वमध्यमस्थाने हानिरनंतभागातिका तदुत्कृष्टस्योध्वं कृत्वा च तासां जघन्यादनंतरस्वमध्यमस्थाने वृद्धिरपि सैव तज्जघन्यस्याष्टांकत्वात् । परस्थानसंक्रमणे तासां जघन्याद्धानिरनंतगुणा इतरलेश्या- २० शुक्लके उत्कृष्ट पर्यन्त तथा पद्म और तेजका अपने-अपने जघन्यसे कृष्णके उत्कृष्ट पर्यन्त परस्थान संक्रमण है। वृद्धिमें अपने-अपने जघन्यसे अपने-अपने उत्कृष्ट पर्यन्त तो स्वस्थान संक्रमण है । नील और कपोतका अपने-अपने उत्कृष्ट से कृष्णके उत्कृष्ट पर्यन्त तथा पद्म और तेजका अपने-अपने उत्कृष्टसे शक्लके उत्कृष्ट पर्यन्त परस्थान संक्रमण है। स्वस्थानमें संक्रमण होनेपर परस्थानकी तरह अन्य लेश्याके समान शक्तिरूप स्थानको प्राप्त नहीं होते; २५ क्योंकि अपने-अपने लक्षणको नहीं छोड़ते। स्वस्थान संक्रमण में सब लेश्याओंके उत्कृष्टसे अनन्तर अपने-अपने मध्यमस्थान में कृष्णादि तीनमें संक्लेशकी और पीतादि तीनमें विशुद्धताकी हानि अनन्तभागरूप है क्योंकि लेश्याओंका उत्कृष्ट स्थान अपने अनन्तरवर्ती मध्यमस्थानसे उर्वक अर्थात् अनन्तभागरूप कहा है। तथा उन लेश्याओंके जघन्यके अनन्तर अपने मध्यम स्थानमें वृद्धि भी अनन्त- ३० भागरूप है; क्योंकि उन लेश्याओंका जघन्य स्थान अष्टांकरूप है अर्थात् अपने अनन्तरवर्ती स्थानसे अनन्तगुणरूप है। परस्थान संक्रमण में उन लेश्याओंके जघन्यसे अनन्तगुणहानि पायी जाती है क्योंकि अन्य लेश्याकी अपेक्षा उनका जघन्य अष्टाकरूप है। क-१०९ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे योदयमक्कुं ॥ सासावननोळु मिथ्यात्वोदयरहितमागि अनंतानुबंध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनसर्व्वघाति क्रोधमानमायालोभचतुष्टयोदयमक्कुं ॥ मिधनोळु मिथ्यात्वानंतानुबंधिकषायरहिताप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलन सर्व्वंघातिक्रोधत्रितयादि कषायचतुष्टयोदयमुं जात्यंतर सधंघाति दर्शनमोह सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युदय मुमक्कुं ॥ असंयत सम्यग्दृष्टियोलु मिथ्यात्वानं तानुबंधि ५ कषायोदय रहितमागि दर्शनमोहक्षयोपशमदोळाद देशघातिसम्यक्त्व प्रकृत्युदय बोडनप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनसर्व्वधातिक्रोधत्रितयादिकषाय चतुष्कोदयमुं मेणु वर्शन मोहोपशमनमुं क्षयमुमप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनसयंघातिक्रोधत्रिययादि चतुः कषायोदयमुमक्कुं । तिप्यग्वेश संयतनोळु मिथ्यात्वानंतानुबंधि अप्रत्याख्यानरहितमागि दर्शनमोहक्षयोपशमवेशघातिसम्यक्त्वप्रकृत्यु - वयमुं प्रत्याख्यान संज्वलनसर्व्वघातिक्रोधद्वितयादि चतुः कषायोदयमुं मेणु दर्शनमोहोपशमयुत १० प्रत्याख्यान संज्वलन सर्व्वघातिक्रोधद्वयादि चतुष्कषायोदयमुमक्कुमादोडमी तिथ्यंग्देशसंयतनोळ संक्लेशहानियोळाव शुभलेश्यान्त्रयकारणंगळप्प कषायोदयस्थानं गळ संख्यातेक भागमात्रं गळागियुमसंख्यात लोकमात्रंगळप्पुवु । ई साधनंगळिनुपलक्षिसल्पट्ट षड्लेश्यो वयस्थानंगळ मिध्यावृष्टियोळं सासादननोळं मिश्रनोळमसंयतनोळमध्वा पर्याप्ततिर्यंच सामान्य मिध्यादृष्टियोळ यथायोग्यं नामकर्म्मबंघस्थानंगळोळु त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळु बंघमप्पुवु । २३ । ए अ । २५ । ८६४ १५ पेक्षया तज्जघन्यानामष्टांकत्वात् । तत्तिर्यग्मिथ्यादृष्टो मिथ्यात्वेन सहानंतानुबंध्यादिसर्वधातिक्रोध चतुष्कं वा मानचतुष्कं वा माया चतुष्कं वा लोभचतुष्कमुदेति । सासादने तदेव बिना मिथ्यात्वं । मिश्र पुनरनंतानुबंध्यूनं तं जात्यंतर सर्वघातिसम्यग्मिथ्यात्वेन । असंयते सम्यग्मिथ्यात्वोनं दर्शनमोहस्य क्षयोपशमे युतं देशघातिसम्यक्त्वप्रकृत्या वियुतमुपशमे क्षये च । देशसंयते पुनरप्रत्याख्यानोनं युतं दर्शनमोहस्य क्षयोपशमे तथा वियुतमुपशमे तथापि तिर्यग्देशसंयते संक्लेशहानी जातानि (त्रिशुभ - ) लेश्या कारणकषायोदयस्थानान्यसंख्यातै कभागत्वेऽप्यसंख्या२० तलोकमात्राणि शेषबहुभागाः षड्लेश्योदयस्थानानि मिध्यादृष्ट्यादिचतुष्के भवंति । तत्र मिथ्यादृष्टी त्रयो तियंच मिध्यादृष्टि में मिध्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धी आदि सर्वघाती क्रोधचतुष्क, मानचतुष्क, मायाचतुष्क अथवा लोभचतुष्कका उदय होता है । सासादनमें मिथ्यात्व के बिना अनन्तानुबन्धी चतुष्कों का उदय होता है । मिश्रमें अनन्तानुबन्धी बिना जात्यन्तर सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कषायका उदय होता है। असंयत में सम्यग्२५ मिथ्यात्व के बिना दर्शनमोहके क्षयोपशम में देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिके साथ और दर्शन मोहके उपशम और क्षयमें सम्यक्त्व मोहनीयके बिना कषायका उदय होता है। देशसंयत में अप्रत्याख्यान रहित तथा दर्शनमोहके क्षयोपशम में सम्यक्त्व मोहनीय सहित और उपशममें उससे रहित उदय होता है । किन्तु तिथंच देशसंयत में संक्लेशकी हानिसे हुए तीन शुभ लेश्याओंके कारण कषायोंके उदयस्थान सब कषायके उदयस्थानोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेपर भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं। शेष बहुभाग प्रमाण कषायोंके उदयस्थान, जो छह लेश्याओंके कारण हैं, मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों में होते हैं । ३० मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तेईस आदि छह स्थान बँधते हैं । सासादनमें अठाईस आदि तीन बँधते हैं। मिश्र आदि तीन गुणस्थानों में एक अट्ठाईसका ही स्थान बँधता है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ८६५ एप । बि । ति । च । अ । सं।म। अप।२६ । ए प । आ उ । २८ । न । दे। २९ । बि । ति । च । अ । सं। म। परि । ३०। बि। ति। च । अ।सं। परि। उ॥ पर्याप्तसासादनरोळु त्रिस्थानंगळु बंगधमप्पुवु । २८ । दे । २९ । पं ति।म। परि । ३०।सं। परि । उ। मिश्रनोल देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमो दे बंधमप्पुबु । २८ । दे। एके दोडुवरिमछण्णं च छिदी सासणसम्मे हवे णियमा एंदितिदरिनरियल्पडुगुमप्पुरिदं ॥ असंयतनोळु देवगतियुताष्टाविंशति ५ प्रकृतिस्थानमो दे बंधमक्कुं। २८ । दे॥ देशसंयतनोळमष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमुमदे बंधमक्कुं। २८ । दे ॥ भोगभूमिसंजिपंचेंद्रिय गर्भजतिथ्यंचरुगळ निर्वृत्यपर्याप्तरगळ मेंदु द्विविधमप्परल्लि निर्वृत्यपर्याप्ततिय्यंचरुगळं मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतरुगळेदु त्रिविधमप्परल्लि निवृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिजीवंगळावाव गतिळिदं बंदु पुट्टिदवर्गळे दोडे मनुष्यगतिय मिथ्यादृष्टिजीवंगळु विधिपूर्वकमागि योग्यद्रव्यंगळं दातृगुणसमन्वितरागियुत्तममध्यमजघन्य पात्रंगळाहारदानदानानु- १० मोदंगळिदं। तिय्यंचरुगळु दानानुमोदंगाळदं बद्धतिय॑ग्मनुष्यायुष्यरुगळु मेणबद्धायुष्यरुगळ तिर्यगायुष्यक्के त्रिद्वोकपल्योपमस्थितिबंधमं माडि मृतरागि बंदुत्तममध्यमजघन्य भोगभूमिगळोळु त्रिद्वधेकपल्योपमायुष्यन्निवृत्यपर्याप्तशुभलेश्यात्रितयमिथ्यादृष्टितिय्यचरागि पुटुवरेके दोर्ड "सण्णि अपुण्णगमिच्छे सासणसम्मे वि अहतियमेदु संज्ञिलब्ध्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टितियंचनोळे अशुभलेश्यात्रयमल्लदे नित्यपर्याप्तनोळ शुभाशुभलेश्यगळु संभविसुगु मप्पुरिवं नरकाविगतिगळिदं बंदु पुट्टिव संजिनिव्वृत्यपर्याप्तसासादननोळमशुभलेश्यगळेयक्कुमा मिथ्यादृष्टिगे भोगेसुरटुवीसं सम्मो मिच्छो य मिच्छगअपुण्णो। तिरिउगुतीसं तीसं गरउगुतीसं च बंधदि हु॥ २० विंशतिकादीनि षट् बध्यते । सासादनेऽष्टाविंशतिकादीनि श्रीणि मिश्रादित्रये उवरिमछण्हं च छिदी सासणसम्मे इत्यष्टाविंशतिकमेव । मनुष्यपूर्वभवे योग्यद्रव्यदातृगुणस्त्रिधा पात्रदानेन तदनुमोदेन वा तिर्यङ् दानानुमोदेनैव : मिथ्यादृष्टित्वेन तिर्यगायुबंध्वा अशुभलेश्याभिर्भोगभूमितिर्यग्मिथ्यादृष्टिभूत्वा अपुण्णे तिरियुगुतोसं तीसं गरउ. गुतीसं च बंधदि । बद्धतिर्यगायुर्मरणे प्रथमोपशमसम्यक्त्वमनंतानुबंध्युदयेन बिराध्य तिर्यग्मनुष्यो वा भोगभूमी नारकादिकर्मभूमो च यशुभलेश्याभिस्तियक्सासादनो भूत्वा तद्वयमेव । मिच्छदुगे देव चऊ तित्थं गेति मनुष्य पूर्वभवमें योग्यद्रव्य दाताके गुणसहित तीन प्रकारके पात्रोंको दान देकर अथवा उसकी अनुमोदना करके और तिथंच दानकी अनुमोदना ही करके मिध्यादृष्टि होनेके कारण . तिर्यंचायुको बाँध, तीन अशुभ लेश्याओंके साथ मरकर भोगभूमिमें तिथंच मिथ्यादृष्टि । २५ . उत्पन्न होता है । वह अपर्याप्त दशामें तियंचगति सहित उनतीस या तीसका और मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान बाँधता है। जिसके तियंचायुका बन्ध हुआ है और मरते समय अनन्तानुबन्धीके उदयसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी विराधना करके तिथंच और मनुष्य तो भोगभूमिमें और नारक आदि कर्मभूमिमें तीन अशुभ लेश्याओंके साथ सासादन तिर्यच उत्पन्न होकर उनतीस और तीसको ही बाँधते हैं। क्योंकि 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि' . इस आगम वचनके अनुसार देवगति सहित अट्ठाईसका बन्ध पर्याप्तदशामें ही होता है। कर्मभूमिका वेदक सम्यग्दृष्टी तियंच या मनुष्य वा क्षायिक सम्यग्दृष्टी मनुष्य, जिसने Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ येदि भोगभूमि निव्वत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टियोळ नवविंशत्यादिद्विस्थानंगळु बंधम । २९ । ति । म । ३० । ति । उ ॥ भोगभूमिनिर्ऋत्यपय्र्याप्तसासादन तिष्यंचरुगं मनुष्यतिर्यग्गतिगोल, बद्धतिय्यग्मनुष्यायुष्यरुगळ गृहीत प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळु मरणकालदोळे अनंतानुबंधिकषायोदर्यादिदं सम्यक्त्वमं केडिसि बंदु भागभूमिसासादननिववृ त्यपय्र्य्याप्त तिय्यंचरुमशुभलेश्यात्रि५ गिलक्कु । मवर्गयुं नवविंशत्यादिद्विस्थानंगळे बंधमक्कु २९ । ति म ३० । ति उ । मर्क 'दोडे “मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि" ये ब नियममुंटप्पुदरिदं । सुराष्टाविशतिस्थानं पर्य्याप्तरोळे बंधमवकुम बुदत्थं । भोग भूमितिथ्यं च निवृत्यपर्याप्त वेदक सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यग्दृष्टिगळाव गतियिदं बंदु पुट्टिदवर्गळप्परे दोर्ड कर्मभूमिय तिर्य्यग्मनुष्यरु वेदकक्षायिक सम्यग्दृष्टिगळु प्राग्बद्ध तिर्य्यग्मनुष्यायुष्यरुगळ त्तममध्यमजधन्यपात्रदान दानानुमोदंगळदं १० तिर्य्यग्मनुष्यायुष्यंगळगे त्रिद्वयेकपल्योपमस्थितिगळं माडि मृतरागि बंदी उत्तममध्यमजधन्य भोगभूमिगळो कपोत लेश्या जघन्यांशदिदं पुष्टिवर्ग्यले बुदत्थं । मिल्लि कृतकृत्यवेदकरुं वेदकरुगळं क्षायिकरुगळं देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनों दने कट्टुवरेक 'दोडे 'भोगे सुरट्ठवीसं सम्मो' ये दितु निर्व्वत्यपर्याप्तरुं पय्र्याप्तरुं कट्टुगुमप्पुदरिदं । पर्य्याप्तिमिदं मेलेल्लहगलुं चतुर्गुणस्थानवत्तिगळं शुभलेश्यात्रित यिगळु मक्कुमल्लि मिथ्यादृष्टिगळगे सुराष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळु बंध१५ योग्यंगळवु । २८ । दे । २९ । ति म । ३० । ति उ ॥ सासादनरुगयुमष्टाविशत्यादि त्रिस्थानंगळं बंघयोग्यंगळवु । २८ । वे । २९ । ति । म । ३० । ति । उ ॥ मिश्ररुगळगे देवगतियुताटाविंशतिस्थानमो'दे बंधयोग्यमक्कुं । २८ । दे । एक दोडे तिर्य्यमनुष्यगतिगोळ, “उवरिमछण्हं च छिदी सासणसम्मो हवे नियमा" ये दितु तिर्य्यग्गतियुत स्थानबंधंगळु सासादननोळे बंधव्युच्छित्तिगळावपुदरिदं ॥ २० गो० कर्मकाण्डे सुराष्टाविंशतिकं पर्याप्तेष्वेत्यर्थः । कर्मभूमेस्तिर्यग्मनुष्य वेदकसम्यग्दृष्टिः मनुष्यक्षायिकसम्यग्दृष्टिर्वा प्राग्बद्धतिर्यगास्त्रिधापात्रदान तदनुमोदन त्रिद्वयेकपल्यप्रमाणं कृत्वा त्रिधाभोगभूमी कपोतलेश्याजघन्यांशेनोद्य वेदकसम्यग्दृष्टिः कृत्यकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्वा देवगत्यष्टाविंशतिक्रमेव । भागे सुगट्ठवीसं सम्मो इति नियमात् । पर्याप्तेरुपरि चतुर्गुणस्थानवर्ती शुभत्रिलेश्य एव । तत्र मिथ्यादृष्टिः सासादनश्च सुराष्टाविंशतिकादित्रयं २८ दे २९ ति म ३० ति उ । मिश्रोऽसंयतश्च देवगत्यष्टाविंशतिकमेव तिर्यग्मनुष्यगतियुतस्थान २५ पहले तिचायुका बन्ध किया है, तीन प्रकारके पात्रोंको दान देकर या उसकी अनुमोदना करके तीन भोगभूमियोंमें तीन दो-एक पल्यकी आयु धारण करके कपोतलेश्याके जघन्य अंशके साथ उत्पन्न हुआ। उस अपर्याप्त दशा में वेदक सम्यग्दृष्टी, कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टी देवगति सहित अट्ठाईसके ही स्थानको बाँधते हैं। क्योंकि कहा है कि ३० भोगभूमि में सम्यग्दृष्टी देवगति सहित अट्ठाईसका स्थान बांधता है । पर्याप्त होनेपर चारों गुणस्थानवर्ती भोगभूमिया तीन शुभलेश्यायुक्त होते हैं । उनमें से मिथ्यादृष्टी और सासादन देवगति सहित अठाईसका अथवा तिथंच या मनुष्यगति सहित उनतीसका या उद्योत सहित तीसका स्थान बांधते हैं। तथा मिश्र और असंयत देवगति सहित अठाईसका ही स्थान Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८६७ असंयतंगमित मनुष्यगतियोळु लब्ध्यपर्य्यामरुगळेल्लमशुभलेश्या त्रितथिगळप्परु । निर्वृत्यपर्यात मिध्यादृष्टिसासादना संयत रुगळोळु बड्लेश्येगळपुर्व ते दोडे चतुर्गतिजरं मिथ्यादृष्टिसासादनरोळं नरकदेवगतिजवेदकसम्यग्दृष्टिगळमसंयत निर्वृत्यपर्याप्तरोळ पुट्टुवरप्पुवरिवं । यिल्लि बंधस्थानंगळ मिथ्या २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । सासादन । २९ । ३० । असंय । २८ । दे २९ । देति । पर्य्याप्तियिदं मेलेयुमसंयत गुणस्थानपर्यन्तं षड्लेश्यायुतरप्परल्लि मिध्यादृष्टि - ५ योळुत्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । २३ । ए अ २५ । एप । बि । ति । च । पं । म । अप । २६ । एप । आ । उ । २८ । न । दे । २९ । ति । बि । ति । च । पं । म । ३० । बि । ति । च । पं । ति । उ । सासादननोळु अष्टाविंशत्यावि त्रिस्थानंगळ बंघयोग्यंगळवु । २८ । १० । २९ । ति । म । ३० । ति उ ॥ मिश्रनो देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमोदे बंधयोग्यमदु । २८ । दे | असंयतनोळु देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानद्वयं बंधयोग्यमध्वु । २८ । वे । २९ । देति ॥ देशसंयतन शुभलेश्यात्रयदोळ देवगतियुताष्टाविंशतिद्विस्थानंगळ, बंधयोग्यंगळवु । २८ । दे । २९ । देति । प्रमत्तरोळं द्विस्थानंगळ बंघयोग्यंगळप्पुवु । २८ । दे । २९ | देति । अप्रमत्तरुगळ शुभलेश्यात्रयदोळ, अष्टाविगत्यादि चतुःस्थानंगळ बंधयोग्यंगळवु । २८ । दे । २९ । देति । ३० । दे आ ३१ । दे । आ । ति ॥ अपूर्वकरणन शुक्ललेश्ययोळ, अष्टाविंशत्यादि पंचस्थानंगळ बंधयोग्यंगळवु । २८ । दे । २९ । वेति । ३० । १५ योस्सासादने एवच्छेदात् । मनुष्यगती लब्ध्यपर्याप्त त्र्यशुभलेश्ये निर्वृत्यपर्याप्ते च षड्लेश्ये मिथ्या दृष्टो २३, २५, २६, २९, ३० । सासादने २९, ३० । असंयते २८, २९ दे ति । पर्याप्तेरुपरि षड्लेश्ये मिथ्यादृष्टौ त्रयोविंशतिकादीनि षट्, सासादनेऽष्टाविंशतिकादीनि त्रीणि २८, दे २९तिम ३० ति उ । मिश्रे देवगत्यष्टाविंशतिकमेव । असंयते शुभलेश्यात्रये देशसंयतादिद्वये च तदादिद्वयं २८ दे २९ दे ती । अप्रमत्ते ते चेमे च ३० दे आ २३१ दे आ २ बाँधते हैं । क्योंकि तियंचगति और मनुष्यगति सहित स्थानोंके बन्धकी व्युच्छित्ति सासादनमें ही हो जाती है। २० इस प्रकार लेश्यासहित तिर्यंचों में नामकर्मके बन्धस्थान कहे, अब मनुष्यगति में कहते हैं— २५ i लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य में तीन अशुभ लेश्या होती है । और निर्वृत्यपर्याप्तकमें छह लेश्या होती है । सो मिध्यादृष्टि में तो तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीसके स्थान बँधते हैं । सासादनमें उनतीस, तीस के स्थान बँधते हैं । असंयत में देवगति सहित अठाईस या देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसके स्थान बँधते हैं। पर्याप्तदशा में छहों लेश्या होती हैं । वहाँ मिथ्यादृष्टि में तेईस आदि छह स्थान बँधते हैं । सासादन में अठाईस आदि तीन स्थान बँधते हैं - देवगति सहित २८, तिर्यञ्चगति या मनुष्यगति सहित २९ और तिर्यन गति उद्योत सहित तीस । मिश्र में देवगति सहित अठाईसका ही स्थान बँधता है । असंयत में और तीन शुभलेश्या सहित देशसंयत तथा प्रमत्त में देवसहित अठाईस और देव तीर्थ सहित उनतीस के स्थान बँधते हैं । अप्रमत्तमें वे दोनों तथा आहारक सहित तीस, इकतीसके स्थान ३० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ गो० कर्मकाण्ड आ ३१ । देति । १ ॥ बादरा निवृत्तिकरणनोळ सूक्ष्मसांपरायनोळ शुक्ललेइयेयोळ, अगतिस्थानमोदे बंधमप्पुदु । १ । केवलं मोहोपशमक्षयजनितयोग प्रवृत्तिलक्षणशुक्ल लेश्य योळ नामबंधमिल्लप्पु दरिंदमुपशांतकषायक्षीणकषाय सयोगभट्टारकरोछु नामबंधमिल्ल | मोगभूमिज - मनुष्यरुगर्ग भोगभूमितिर्य्यगतियोळे पेळल्पट्टुवु । देवगतियो निब्बू स्यपय्यप्तिरु पर्याप्त रु ५ मप्परल्लि निवृत्यर्थ्यातरुगळोळु मिथ्यादृष्टिसासादना संयत गुणस्थानत्रयमक्कुं । पर्याप्तरोळ मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टयम क्कुमल्लि “तिन्हं दोण्हं दोहं छण्हं दोन्हं च तेरसहं च । एत्तो य चोद्दसन्हं लेस्सा भवणादि देवाणं ॥" "तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्म पम्माय मक्का । सुक्काय परमसुक्का भवणतिया पुण्णगे असुहा ।" ये दितु भवनत्रयदोळ कृष्णादि चतुर्लेश्ये गळक्कुं । सौधम्मैशान कल्पद्वयद ऋतु । विमल । चंद्र । वल्गु । वीर । अरुण । नंदन । १० नलिन । कांचन । रोहित । चंचत् । मरुत् । ऋद्धीश । वैडूर्य्यं । रुचक । रुचिर । अंक । स्फटिक । तपनीय | मेघ । अभ्र । हारिद्र । पद्म । लोहित । वज्र । नंद्यावत्तं । प्रभंकर । पृष्ठक। गज । मित्रक । प्रभाविमान में बेक त्रिशदिद्रकंगळोळु ऋत्विद्रकदोळमदर दिक्चतुष्टय श्रेणिबद्ध विमानंगळोळं प्रकीर्णकविमानंगळोळं समुद्भूत दिविजरुगळ निबग्गं तेजोलेश्याजघन्यांशमेयवकुं । विमल विमानं मोदगडु सानत्कुमार माहेंद्र कल्पद्वयदोळु संभविसुव नंवन । वनमाला । नाग । गरुड । १५ लांगल | बलभद्र । चक्रमें ब सप्तपटलमध्यस्थितंगळप्प सप्तेंद्र कंगळोळु बलभद्रविमानपय्र्यंतं तेजोलेश्यामध्यमांशंगळवु । आ चरमचक्रेंद्रक श्रेणीवद्धंगळोळ तेजोलेश्योत्कृष्टांगमक्कुमा चक्रेंद्रकदो पद्मलेश्याजघन्यांशमक्कुं । ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पद्वयद अरिष्ट । सुर+समिति । ब्रह्मब्रह्मोत्तर ब नाकुमिद्रकंगळोळं लांतवकापिष्ठद्वयदब्रह्महृदय । लांतवर्म बिद्रकद्वयदोळं शुक्रमहाशुक्र में ब २० ती । अपूर्वकरणे शुक्ललेश्ये तानि चेदं च । बादरानिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसांपराये चैककमेव । नोपशांतादिषु नामबंध: । भोगभूमौ तत्तिर्यग्वक्तव्यं । देवगतौ भवनत्रये अपर्याप्त त्र्यशुभलेश्याः । पर्याप्त तेजोजघन्यांशः । पर्याप्ता पर्याप्तवैमानिकेषु सौधर्मद्वयस्या चेंद्र कश्रेणीबद्धप्रकीर्णकेषु तेजोजघन्यांशः । द्वितीयेंद्रकादासनत्कुमारद्वयस्य षष्ठेंद्रकं तेजोमध्यमांशः सप्तमेंद्र कश्रेणीबद्धेषु तदुत्कृष्टपद्मजघन्यांशी ब्रह्मद्वयस्येंद्रकेषु चतुर्षु लांतवद्वयस्य द्वयोः बँधते हैं। अपूर्वकरण में शुक्ल लेश्या ही होती हैं। वहाँ उक्त चारों तथा अन्त में एक इस प्रकार पांचका बन्ध है । बादर अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्पराय में एकका ही बन्ध है । उपशान्त २५ आदि में नामकर्म के बन्धका अभाव है । भोगभूमि में भोगभूमियाँ तिर्यश्ववत् जानना । देवगति में कहते हैं— देवगति में भवनत्रिक में अपर्याप्तदशामें तीन अशुभ लेश्या होती हैं। पर्याप्तदशा में तेजोलेश्याका जघन्य अंश होता है। पर्याप्त अपर्याप्त वैमानिकोंमें सौधर्मयुगल के प्रथम इन्द्र श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णकोंमें तेजोलेश्याका जघन्य अंश होता है । दूसरे इन्द्रकसे ३० सानत्कुमारयुगल के षष्ठम इन्द्रक पर्यन्त तेजोलेश्याका मध्यम अंश है । सप्तम इन्द्र और श्रेणीबद्धोंमें तेजोलेश्याका उत्कृष्ट अंश और पद्मश्याका जघन्य अंश है । ब्रह्मयुगलके चार १. निरवशेष । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८६९ कल्पद्वयद शुक्रद्रकमो देयक्कुमल्लियं पद्मलेश्या मध्यमांशमक्कुं । शतारसहस्रार कल्पद्वयद ओंदेशतारेंद्र मक्कुमरोळ पद्मलेश्योत्कृष्टभुं शुक्ललेश्याजघन्यांशमुमक्कु । आनतप्राणतारणाच्युत कल्पचतुष्टयद आनत । प्राणत । पुष्पक। सातक । आरण | अच्युतमें बीया रुमिंद्र कंगळोळं अधोग्रैवेयकद सुदर्शन । अमोघ । सुप्रबुद्ध में ब मूरुभिद्रकंगळोळं मध्यमग्रैवेयकवयशोधर । सुभद्र । सुविशाल ब मूरु मिद्रकंगळोळु उपरिमग्रैवेयद सुमनस । सौमनस । प्रीतिकरमें ब मूरुमद्रकंगळोळं अनुविशविमानंगळ आदित्येंद्रकमो दरोळं अनुत्तरविमानंगळादियागि६ विजयादिश्रेणीबद्धंगळोळं शुक्यलेश्या मध्यमांशमक्कु । अनुत्तरविमानंगळ सर्व्वार्थसिद्धींतकदोळु शुक्ललेश्योत्कृष्टांशमक्कु' । "भवणतियापुण्णगे असुहा" अशुभलेश्यात्रयं भवनत्रयापर्य्याप्त रोळेयक्कुमन्यत्र देवगत्य पर्याप्तरोळं पर्याप्तरोळ तंतम्म लेइयेगळे यक्कु बुदु तात्पर्यं ॥ 1 fing पूर्णा पूर्ण वैमानिक रुगळगे जन्मावा संगळरुवत्त मूरु पटलंगळप्पुवु । भावनरुगळावा- १० संगळु रत्नप्रभावनियखर भागदोळगेछु कोटियुमेप्पत्तेरडु लक्षभवनंगळप्पुवु । व्यंतरवासंगळुमसंख्यातद्वीपसागरंगळोळ यथायोग्यंगळप्पुवु । ज्योतिष्करावासंगळु मनुष्यलोकद सुदर्शनमेवं सासिरद नूरित्तो योजनमं तोलगि चित्रावनियग्रभागदिदं मेलेकुनूरतों भत्तु योजनमं नेगेवु नूरपत्त योजनबाहयदिदं संख्यातपण्णट्ठि प्रतरांगुल भक्तप्रत र प्रमितचंद्रसूर्य्य ग्रहनक्षत्रतारकाविमानंग लोकांपर्यंतमिवी भवनत्रयंगळ निवृत्यपर्याप्तरोळु कर्मभूमि मनुष्यरुं संज्ञिगभंजतिय्यंचरुगळं कृष्णादिचतुर्लेश्या मिथ्यादृष्टिजीवंगळ मृतरागि पोगि भवनत्रयनिर्वृत्यपतरोळ. मिथ्यादृष्टिगळागि पुटुवरु । मत्तमा कर्म्मभूमि गर्भजपर्याप्त पंचेंद्रियासंज्ञि मिथ्यादृष्टिजीवं तेजो ५ शुक्रद्वयस्येकस्मिश्च पद्ममध्यमांशः । शतारद्वयस्यै कस्मिस्तदुत्कृष्टशुक्लजघन्यांशी । आनतचतुष्कस्य षट्सु नवग्रेवेयकानां नवस्वनुदिशानामेकस्मिन्ननुत्तरश्रेणीबद्धेषु च शुक्लमध्यमांशः सर्वार्थसिद्ध । वुत्कृष्टांशः । जन्मावासास्तु वैमानिकानां त्रिषष्टिपटलानि । भावनानां रत्नप्रभावरभागे द्वासप्ततिलक्षाधिकसप्तकोटिभवनानि । व्यंतराणाम- २० संख्यातद्वीपसमुद्राः । ज्योतिष्काणां सुदर्शनमेरुं तिर्यगेकविंशत्येकादशशतयोजनानि मुक्त्वा चित्रात उपरि नवत्यग्र सप्तशतयोजनानि गत्वा दशाग्रशतयोजनबाहुल्येन लोकांतं स्थितानि संख्यातपष्णद्वितरांगुलभक्तजगत्तरमात्र विमानानि । मिथ्यादृष्टीनामुत्पत्तिः कर्मभूमि मनुष्य संज्ञिगर्भजतिरश्चोः कृष्णादिचतुर्लेश्ययोर्भवनत्रये १५ इन्द्रक में लान्तव युगलके दो इन्द्रकों में और शुक्रयुगलके एक इन्द्रक में पद्मलेश्याका मध्यम अंश है । शतारयुगल के एक इन्द्रक में पद्मका उत्कृष्ट और शुक्लका जघन्य अंश है। आनतादि २५ चार स्वर्गोंके छह इन्द्रकोंमें नौ ग्रैवेयकों और अनुदिशोंके एक इन्द्रकमें तथा अनुत्तरोंके श्रेणीबद्ध विमानों में शुक्लका मध्यम अंश है । सर्वार्थसिद्धिमें शुक्लका उत्कृष्ट अंश है । वैमानिक देवोंके जन्मावास -- जहाँ उनका जन्म होता है ऐसे आवास-तरेसठ पटल हैं । भवनवासियों रत्नप्रभा पृथिवीके खर पंक भागमें सात कोटि बहत्तर लाख भवन हैं । व्यन्तरोंके असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । ज्योतिषियोंके सुदर्शन मेरुसे तियँक ग्यारह सौ इक्कीस योजन ३० छोड़कर चित्रासे ऊपर सात सौ नब्बे योजन जाकर एक सौ दस योजनकी मोटाईमें लोकपर्यन्त संख्यात पण्णी प्रमाण प्रतरांगुलोंसे भाजित जगत प्रतर प्रमाण विमान है। मिथ्यादृष्टी कर्मभूमिया मनुष्य और संज्ञी गर्भज तिर्यञ्च, जिनके कृष्णादि चार लेश्या होती हैं, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे लेश्यापरिणतनागि देवायुष्यमं पल्यासंख्यातेकभागस्थितिबंधयुतम कट्टि मृतनागि बंदु भावनव्यंतरिगरुगळोळ निवृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टियक्कुमेके ज्योतिष्करोळ पुट्टने दोडसंजिजीवंगळ - स्कृष्टविंद देवायुष्यक्के स्थितिवंधमं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमने कटुगुमदु कारणमागि “तदष्ट भागोऽपरा" एंदितु ज्योतिष्करोळ सर्वजघन्यायुष्यं पल्याष्टमभागदिदं किरिदिल्लप्पुरिदमा ५ ज्योतिष्करोळसंजिजीवंगळ्पुट्टरेबुदु सिद्धमक्कु। मत्तमा भवनत्रयनिवृत्यपर्याप्तरोळ तिर्यगजघन्यभोगभूमिजरुगळं मनुष्यलोकस्थितोत्तममध्यमजघन्यभोगभूमितेजोलेश्यामिथ्यादृष्टि तिर्यग्मनुष्यरुगळु कुमानुष्यरुगळु देवायुष्यमं तद्योग्यमं कट्टि “भवणतिगामी मिच्छा" एंदितु मृतरागि बंदी भवनत्रयनित्यपर्याप्तरप्परागि मिथ्यादृष्टिगळ पंचविंशत्यादिचतुःस्थानंगळु कटुवरु । २५ । ए प २६ । ए प । मा उ । २९ । ति । म । ३० । ति । उ ॥ भवनत्रयनिवृत्यपर्याप्तसासादनरुगळावाव गतियिदं बंदु पुट्टिदवर्गळे दोडे तिर्यग्मनुष्यगतिगळ बद्धदेवायुष्यरुगळप्प प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिजीवंगळनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वम केडिसि कृष्णादिचतुर्लेश्याजीवंगळु मृतरागि बंदु पुटुवरु । सम्यग्दृष्टिगळारुं भवनत्रयदोळ पुट्टरु । अदु कारणमागि निव्व॒त्यपर्याप्तरोळु सम्यग्दृष्टिगळिल्ल। आ सासादनरुगळु द्विस्थानमने कटुवरु । २९ । ति म । ३० । ति उ । वैमानिकरोळं नित्यपर्याप्तरु पर्याप्तरुगळुमप्परल्लि निव्वृंत्यपर्याप्तरु. १५ गर्भजासंज्ञिनस्तेजोलेश्यस्य भावनव्यंतरयोरेव तद्देवायुरुत्कृष्टस्थितिबंधस्य पत्यासंख्ययभागमात्रत्वात् । तिर्य ग्जघन्यभोगभूमित्रिविधमनुष्यभोगभूमिषण्णवतिकुभोगभूमिजानां तेजोलेश्यानां भवनत्रये, न च सम्यग्दृष्टीनां बद्धदेवायुस्तिर्यग्मनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टरप्यनंतानुबंध्यन्यतमोदयेन तत्सम्यक्त्वं हत्वैव कृष्णादिचतुर्लेश्याभिस्तत्रोत्पत्तेः । तेन निर्वृत्त्यपर्याप्ता मिथ्यादृष्टयोऽष्टाविंशतिकं विना पंचविंशतिकादीनि चत्वारि बध्नंति २५ ए प२६ एप आ उ २९ ति म ३० ति उ । सासादने द्वे २९ ति म ३० ति उ । सौधर्मद्वयमिथ्यादष्टिष मरकर भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। गर्भज असंज्ञी तेजोलेश्यावाले भवनवासी और व्यन्तरोंमें ही जन्म लेते हैं, क्योंकि असंज्ञीके उत्कृष्ट देवायुका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भाग ही होता है। तियंच सम्बन्धी जघन्य भोगभूमि, जो मानुषोत्तर और स्वयंप्रभाचलके मध्यमें हैं, तीन प्रकारकी मनुष्य भोगभमि, और छियानवे कुभोग भमिमें उत्पन्न हए तेज लेश्यावाले जीव मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि भवनत्रिकमें जन्म नहीं लेते हैं । क्योंकि जिसने देवायुका बन्ध किया है ऐसा प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी तिर्यंच या मनुष्य भी अनन्तानुबन्धी कषायमें से किसी एकके उदयके द्वारा उस सम्यक्त्वका घात करके ही अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टी होकर कृष्ण आदि चार लेश्याओं के साथ भवनत्रिकमें उत्पन्न होता है। ___ अतः भवनत्रिकके निवृत्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि देव अठाईसके बिना पच्चीस आदि चारका बन्ध करते हैं-एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित २५ एकेन्द्रिय पर्याप्त आतप उद्यात सहित २६, तियंच या मनुष्यगति सहित २९, तिर्यंचगति उद्योत सहित ३० । सासादन उनतीस-तीस दोको बाँधता है। सौधर्मयुगल सम्बन्धी मिथ्यादृष्टियोंमें मनुष्य अथवा तिर्यग्लोक सम्बन्धी कर्मभूमियां तियंच, चरक, परिव्राजक आदि तथा द्रव्य जिनलिंगी आदि तेजोलेश्याके साथ मरकर उत्पन्न होते हैं। वे निवृत्यपर्याप्तक अवस्था में पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८७१ गळोळु मिथ्यादृष्टिगळ सासादनलं असंयतसम्यग्दृष्टिगळुमोळरल्लि सौधर्मकल्पद्वयद ऋतु. विमानमावियागि प्रभाविमानावसानमाद मूवत्तों दुं पटलंगळोळिंद्रकश्रेणिबद्धप्रकीर्णकविमानगळोळमादल उत्तरद क्षीणकल्पजदिविजग्गें तेजोलेश्ययेयककुमप्पुरिदं । तत्रत्य नित्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिजीवंगळोळावावगतिळिदं बंदु पुटुवरे बोर्ड तिर्यग्लोकसंबंधिकर्मभूमितिथ्यंचमिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यलोककर्मभूमितिय्यंचमिथ्यादृष्टिगळं चरकपरिव्राजादिमिथ्या- ५ दृष्टिगळं द्रव्यजिनलिंगधारिगळुमादियागि तेजोलेश्यामिथ्यादृष्टिगळु बद्धदेवायुष्यम्मतरागि बंदो सौधर्मकल्पद्वयनिवृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळागि पुटुवरवर्गळं पंचविंशतिषड्विंशतिनवविंशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळं कटुवरु । २५ । ए प । २६ । ए प। आ। उ। २९ । ति म। ३० । ति। उ॥ ___आ सौधर्मकल्पद्वयसासादनरोळु तिर्यग्मनुष्यासंयतादिगुणस्थानत्रितयत्तिगळु प्रथमोप- १० शम द्वितीयोपशम सम्यक्त्वंगळननंतानुबंधि कषायोदयदिदं किडिपि बद्धदेवापुष्यरुगळ मृतरागि. बंदिल्लि सासादनरागि पुट्टवरवर्गळु स्वयोग्यनवविंशत्यावि द्विस्थानमं कटुवरु । २९ । ति । म । ३०। ति उ॥ आ सौधर्मकल्पद्वयनिर्वत्यपर्याप्तासंयत सम्यग्दृष्टिगोळु सर्वभोगभूमिगळवेदकसम्यग्दृष्टिगळु कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिगळागि? क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्प जोवंगळं क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळं कर्मभूमितीर्थरहिततिर्यग्मनुष्यासंयतवेशसंयतरुगर्छ मनुष्यप्रमत्ताप्रमत्तसंयतरुगळं १५ सतीर्थासंयतादिचतुर्गुणस्थानवत्तिगळ बद्धदेवायुस्तेजोलेश्यासम्यग्दृष्टिगळु मृतरागि बंदी सौधर्मकल्पद्वयद निवृत्यपर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळागि पुटुवर-अवगंळु सतोयरादवर्गळेल्लं मनुष्यगतितीर्थयुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । ३०।म। ती। तीर्थरहितरल्लं मनुष्य. नरतिर्यग्लोककर्मभमितियंचः चरकपरिव्राजादयः द्रव्यजिनलिंग्यादयश्व तेजोलेश्ययोत्पद्यते। ते निर्वत्यपर्याप्तकपंचविंशतिकषड्विंशतिकनवविंशतिकत्रिशत्कानि २५ ए प २६ ए प आ उ २९ ति म ३० ति उ । तत्सासा- २० दनेषु देशसंयतांततियंचः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं प्रमत्तांतमनुष्या उभयोपशमसम्यक्त्वे च विराध्य बद्ध देवायुषः तेजोलेश्ययोत्पद्यते ते स्वयोग्य नवविंशतिकादिद्वयं ९ति म ३० ति उ । तदसंयतेषु सर्वभोगभूमिवेद क्षायिकसम्यग्दृष्टयः कर्मभूम्यसंयततियंचः सतीर्थातीर्थासंयताद्यप्रमत्तांतमनुष्याश्च बद्धदेवायुष्कास्तेजोलेश्ययोत्पद्यन्ते का बन्ध करते हैं। जिनके देवायुका बन्ध हुआ है ऐसे देशसंयत पर्यन्त तिर्यश्च प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी और प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त मनष्य प्रथम और द्वितीय उपशमसम्यक्त्वकी २५ विराधना करके तेजोलेश्याके साथ सौधर्मयुगलमें सासादन सम्यग्दृष्टी होकर उत्पन्न होते हैं। वे नित्यपर्याप्तक दशामें उनतीस और तीसका बन्ध करते हैं। जिन्होंने देवायुका बन्ध किया है ऐसे सब भोग-भूमियोंके वेदक और क्षायिक सम्यग्दृष्टी, कर्मभूमिके देशसंयत पर्यन्त तियेच, तीर्थकर प्रकृतिकी सत्तासे सहित और रहित असंयतसे लेकर अप्रमत्त पर्यन्त मनुष्य तेजोलेश्याके साथ सौधर्मयुगलमें असंयत सम्यग्दृष्टी होकर उत्पन्न होते हैं। उनमें जिनके तीर्थंकरकी सत्ता होती है वे मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीसका बन्ध करते हैं और जिनके नहीं होती वे मनुष्यगति सहित उनतोसका बन्ध करते हैं। पद्म-शुक्ललेश्या सहित भोगभूमिया असंयत भी मरते समय तेजोलेश्यावाले होकर सौधर्मयुगलमें उत्पन्न क-११० Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ गो० कर्मकाण्डे गतित नववशति प्रकृतिस्थानमनों दने कट्टुवरु । २९ । म ॥ भोगभूमिजरोळ, पद्मशुक्ललेश्या - संयत रुगळे ल्लमेल्लि पुट्टुवरें दोर्ड अवर्गळ मी सौधर्मकल्पद्वय निर्वृत्यपर्याप्तासंयतसम्यदृष्टिगळागिये पुटुवरेक दोर्ड “सोहम्मदु जाइगो सम्मा" ये दु त्रिलोकसारवोळ, अव युमिल्लिये जनननियमं पेळपट्टुदपुदरिदमा पद्मशुक्ललेश्या जीवंगळ, मरणकालदोळ, पद्मशुक्लं५ गळ परिहरिसि परस्थान संक्रमर्णादिदं तेजोलेश्ययोळ, परिणमिसि मृतरागि बंदु पुटुवरपुरिदं । पद्मशुक्ललेश्या संयतादिचतुर्गुणस्थानवत्तगळ्गम पूर्व करणादि शुक्ललेश्या संयमिगळ्गमिल्लि जननमिल्लेर्क दोडिल्लितल्लेश्येगळऽभावमपुरिदं । परस्थान लेश्या संक्रमणदिदं तेजोलेश्या परिणतोडे वरु । यिल्लि सौधम्मैशानकल्पविभाग ते दोडे 'उत्तर सेढीबद्धा वायव्वीसाण कोणगपइण्णा । १० १५ गते बंधमक्कुं । २९ । ति । म । ३० । ति उ ॥ तत्रत्या संयतसम्यग्दृष्टिनिर्वृत्यपर्याप्त रुगळ मनुष्यगति मनुष्यगतितीत्ययुतद्विस्थानंगळ कट्टुवरु । २९ । म ३० । म ति । आ सानत्कुमारकल्पद्वय चरमचक्रेंद्र मोदगोंडु शतारेंद्रकावसानमाद हूं पटलंगळोळे टुं कल्पंगळ नित्य २० उत्तरइंदणिबद्धा सेसा दक्खिणदिसिदपडिबद्धा ॥ ' - त्रि. सा. ४७६ गा. । एंदिर्तल्ला उत्तरदक्षिणेंद्र प्रतिबद्धकल्पविभागमरियल्पडुगुं । सानत्कुमार कल्पद्वयद नंदनेंद्र कं मोदगडु सप्तमच केंद्रक श्रेणीबद्ध विमानादिगळोळ' तेजोलेश्यासंभत्र मुंटादोडं भोगभूमिजरुगळगा कल्पद्वय निर्वृत्य पर्याप्तरोळ, जननमिल्ल । शेषरुगळगे जननमुंटु । आ निर्ऋत्यपर्याप्त मिथ्या दृष्टिग तिर्य्यग्मनुष्यगतियुतस्थानद्वयमे बंधमध्वु । २९ । ति । म । ३० । ति उ ॥ सासादनरु ३० ते सतीर्था: मनुष्यगतितीर्थंयुतत्रिंशत्कं अतीर्थाः मनुष्यगतिनवविंशतिकं, भोगभूमिपद्मशुक्ललेश्यासंयता अपि सोहम्मदुजाइणो सम्मेति मरणे तेजोलेश्यां प्राप्य तत्रोत्पद्यन्ते । असंयतादिपद्म शुक्ललेश्या अपूर्वकरणादिशुक्ललेश्या अपि तामेव प्राप्य तत्रोत्पद्यन्ते उत्तरसेडीबद्धा वायव्वीसाणकोणगपइण्णा । उत्तर इंदणिबद्धा सेसा दक्खिणदिसिद पडिबद्धा ॥१॥ इति सौधर्मेशान विभाग: । सानत्कुमारद्वये चक्रेंद्रकश्रेणीबद्धादिपर्यंतं तेजोलेश्यास्वपि न भोगभूमिजानां तत्रत्वत्तः शेषाणां स्यात् । तन्निर्वृत्यपर्याप्ताः मिथ्यादृष्टिसासादनाः तिर्यग्मनुष्यगतियुते द्वे २९ तिम ३० ति उ । असंयताः मनुष्यगतियुतमनुष्यगतितीर्थयुते द्वे २९ म ३० म ति । उपर्यष्टकल्पेषु चरकादिकर्म २५ होते हैं। पद्म शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टी और शुक्ललेश्यावाले अपूर्वकरण आदि भी मरते समय तेजोलेश्यावाले होकर ही सौधर्मयुगल में उत्पन्न होते हैं । उत्तर दिशाके श्रेणीबद्ध और वायव्य तथा ईशान कोनेके प्रकीर्णक त्रिमान तो उत्तरेन्द्र के अधीन होते हैं। और शेष दक्षिणेन्द्र सौधर्म के अधीन होते हैं । यह सौधर्म और ईशानका विभाग है । सानत्कुमारयुगल में चन्द्र इन्द्रक श्रेणिबद्ध पर्यन्त तेजोलेश्या है फिर भी वहाँ भोगभूमि की उत्पत्ति नहीं है, शेष जीवोंकी उत्पत्ति हैं । वहाँ निर्वृत्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि और सासादन तिर्यञ्च या मनुष्यगति सहित उनतीस और तीसके स्थानको बाँधते हैं। असंयत Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ८७३ पर्याप्तदिविजरोळल्लं पद्मलेश्ययेयककुमप्पुरिदं । तत्रत्य नित्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजीवंगलोळु पूर्वोक्तचरकादि पालेश्यामिथ्यादृष्टिगळे कर्मभूमितिय॑ग्मनुष्यपद्मलेश्याजीवंगळे बद्धदेवायुष्यम्म॒तरागि बंदु पुटुवरु। पुटि तिर्यग्गतिमनुष्यगतियुतद्विस्थानंगळ कटुवरु । २९ ति । म । ३० । ति । उ । तत्रत्यसासादनरुगळुमाद्विस्थानंगळने कटुवरु । २९ । ति । म। ३०॥ ति उ॥ तत्रत्यासंयतनिर्वृत्यपर्याप्तरुगळं स्वयोग्यनवविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कटुवरु । २९ । ५ म। ३० । म ति ॥ शतारेंद्रकं मोदल्गोंडु प्रीतिकरविमानावसानमाद पविनय्यदुं पटलंगळ चतुष्कल्पजरुगळं नवनवेयकसमुद्भूतरुगळप्पहमिद्ररुगळं शुक्ललेश्यरुगळेयप्पुरदं मिथ्यावृष्टिगळु मनुष्यगतियुतनविंशतिप्रकृतिस्थाननोंदने कटुवरु । २९ । म। तत्रत्य सासावनरुगळ मा स्थानमनोंदने कटुवरु । २९ । म। तत्रत्यासंयतसम्यग्दृष्टिगळं मनुष्यगतियुतनवविंशतिस्थानमुमं नोत्थं मनुष्यगतियुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थामुम कटुवरु। २९ । म। ३० । म ती॥ आदित्येंद्रकं मोदलगोंडु सर्वार्थसिद्धिपय्यंतमाद दिविजरोळेल्लग्गं शुक्ललेश्ययेयक्कुमसंयतसम्यग्दृष्टिगळेयप्परवगळोल नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळु बंधमपुवु । २९ । म । ३० । म ति ॥ इल्लिगे प्रस्तुतगाथासूत्रंगळ - 'णरतिरिय देस अयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। गर अयददेसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छति ॥ सम्वट्ठोंत्ति सुविट्ठी महत्वई भोगभूमिजा सम्मा। सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवणतियं तावसा य वरं ॥ भूमितिर्यग्मनुष्या बद्ध देवायुषः पपलेश्ययोत्पद्यते। तम्भिध्यादष्टिसासादनाः तियंग्मनुष्यगतियुते द्वे २९ ति म ३० ति उ । असंयताः स्वयोग्ये द्वे २९ म ३० मती। आनतादिचतःकल्पनववेयकशुक्ललेश्यामिथ्यादृष्टिसासादनाः मनुष्यगतिनवविंशतिकं । तदसंयताः नवानुदिशपंचानुत्तरशुक्ललेश्यासंयताश्च तच्च तीर्थमनुष्यगति त्रिंशत्कं च । अत्र प्रस्तुतगाथा णरतिरिय देसअयदा उक्कस्सेणच्चदोत्ति णिग्गंथा। णर अयददेसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छति ॥५४५।। सम्यग्दृष्टि मनुष्यगति सहित उनतीस और मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीसका बन्ध करते हैं। ऊपरके आठ कल्पोंमें जिन्होंने देवायुका बन्ध किया है ऐसे चरक आदि कर्मभूमिया तियंच मनुष्य पद्मलेश्याके साथ उत्पन्न होते हैं। वे मिथ्यादृष्टि और सासादन तिथंच या २५ मनुष्यगति सहित उनतीस-तीसका बन्ध करते हैं। और असंयत मनुष्यगति सहित उनतीस या मनुष्यगति तीर्थ सहित तीस का बन्ध करते हैं। आनत आदि चार कल्प, और नौ अवेयकोंमें शुक्ललेश्या है। वहां मिथ्यादृष्टि और सासादन मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध करते हैं। तथा वहांके असंयत और नौ अनुदिश पाँच अनुत्तरवासो असंयत मनुष्यगति सहित उनतीस और मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसको बाँधते हैं। यहाँ प्रासंगिक गाथा ३० कहते हैं देशवती और असंयत मनुष्य तथा तिर्यश्च उत्कृष्ट से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। द्रव्यसे निर्ग्रन्थ और भावसे असंयत, देशसंयत या मिथ्यादृष्टि अवेयक पर्यन्त उत्पन्न Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ गो० कर्मकाण्डे चरया य परिव्वाजा बम्मों तच्चुद पदोत्ति आजीवा । अणुदिस अणुत्तरादो चुदा ण केसवपदं जांति ॥ सोहम्मो वर देवी सलोगवाला य दक्षिणमरिंदा । लोयंतियसव्वट्ठा तदो चुदा णिब्बुदि जांति ॥ णरतिरियगदोहितो भवतियादो य णिग्गया जीवा । ण लहंते ते पदवि तेसट्टि सलागपुरिसाणं ॥ सुहसयणग्गे देवा जायंते दिणयरोव्व पुवणगे। अंतोमुहत्तपुण्णा सुगंधि सुहफास सुचिदेहा ॥ आणंदतूर जयथुदिरवेण जम्मं विबुज्झ संपत्तं । दटठण सपरिवारं गयजम्मं ओहिणा णच्चा ॥ धम्मं पसस्सिदूण ण्हादूण दहेभिसेयलंकारं। लद्धा जिणाभिसेयं पूजं कुव्वंति सद्दिट्ठी ॥ सव्वट्ठोत्ति सुदिट्ठी महव्वई भोगभूमिजा सम्मा । सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवणतियं तावसा य वरं ॥५४६॥ चरया य परिव्वाजा बह्मोत्तरचुदपदोत्ति आजीवा । अणुदिसमणुत्तरादो चुदा ण केसवपदं जंति ।। सोहम्मो वरदेवो सलोगवाला य दक्षिणमरिंदा । लोयंतिय सम्वट्ठा तदो चुदा णिव्वुदि जति ॥ णरतिरियगदीहितो भवणतियादो य णिग्गया जीवा । ण लहंते ते पदवि तेसठिसलागपुरिसाणं ॥ सुहसयणग्गे देवा जायते दिणयरोव्व पुव्वणगे । अंतोमुहत्तपुण्णा सुगंधिसुहफाससुचिदेहा ॥ आणंदतूरजयथुदिरवेण जम्म विबुज्झ संपत्तं । दळूण सपरिवारं गयजम्मं ओहिणा णच्चा ॥ धम्मं पसंसिदूर्ण पहादूण दहेभिसेयलंकारं । लद्धा जिणाभिसेयं पुज्जं कुव्वंति सुद्दिट्ठी ॥८॥ २० होते हैं । सम्यग्दृष्टी महाव्रती सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। भोगभूमिया सम्यग्दृष्टी ठमें और मिथ्यादष्टी भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं। उत्कृष्ट तापसी भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं । चरक और परिव्राजक ब्रह्मोत्तर पर्यन्त जन्म लेते हैं। आजीवक अच्युतपर्यन्त जन्म लेते हैं । अनुदिस अनुत्तरसे च्युत हुए जीव नारायण-प्रतिनारायण नहीं होते। . सौधर्मदेवकी इन्द्राणी शची, लोकपाल सहित दक्षिण दिशाके सौधर्म आदि इन्द्र, २५ लौकान्तिक देव और सर्वार्थ सिद्धिके देव च्युत होनेपर मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। मनुष्यगति, तियंचगति, और भवनत्रिकसे निकले हुए जीव तरेसठ शलाका पुरुषोंकी पदवीको प्राप्त नहीं करते। सुख शय्या पर-उपपाद शय्याको प्राप्त हुए देव ऐसे जन्म लेते हैं जैसे पूर्व दिशामें उदयाचलपर सूर्य उगता है। अन्तर्मुहूर्तमें ही उनका शरीर पूर्ण होकर सुगन्ध, शुभ स्पर्शसे ३० पवित्र हो जाता है। आनन्दके वादित्र और जयकारकी ध्वनिके शब्दसे अपने प्राप्त जन्मको जान परिवार सहित सबको देख अवधिज्ञानके द्वारा अपने विगत जन्मको जानता है। तब धर्मकी प्रशंसा करके सरोवरमें स्नान कर और वस्त्राभूषणसे भूषित हो सम्यग्दृष्टी देव जिनदेवके Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सुरबोहिया विमिच्छा पच्छा जिणपूजणं पकुव्वंति । सुहसायर मज्झ गया देवा ण विदंति गयकालं ।। महपूजासु जिणाणं कल्लाणेसु य पंजांति कप्पसुरा । अहमिदा तत्थ ठिया णमंति मणि मौलिघडिदकरा ॥ विहितवरणभूसा णाणसुची सीलवत्य सोम्मंगा । जे ते सिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ॥ ' - त्रि. सा. ५४५-५५४ गा । ई सूत्रात्थंगळेल्लं सुगमंगळ । यिल्लि चतुर्गतिसाधारण मिथ्यादृष्टचादि चतुर्गुणस्थानंगळु । अयदोत्तिछलेस्साओ सुहुतियलेस्सा हु देसविरदतिये | तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगिठाणं अलेस्संतु ॥ एंदितु मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळु षड्लेश्येगळं सासादनमिश्रा संयतर गळोळं षड्लेश्येगळं १० तिग्मनुष्यापेक्षेदिं देशसंयतनोल, त्रिलेश्येगळं शेषगुणस्थानंगळोळल्लं मनुष्यापेक्षेयिदं शुक्ललेश्येयुं पेळल्पट्टुवितु अशुभलेश्यात्रयदोळु त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळं तेजोलेश्यॆयोळु पंचविशत्यादिषट्स्थानंगलंं पद्मलेश्येयोल अष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळं शुक्ललेश्येयोल अष्टाविंशत्या - दिपंचस्थानंगळं, मिथ्यादृष्ट्यादि सूक्ष्मसांपरायपध्र्यंतं यथासंभवंगळप्पुवंते पेल्पट्टुवु ॥ ८७५ सुरबोहियाविमिच्छा पच्छा जिणपूजणं पकुव्वंति । सुहसायरमज्झगया देवा ण विदंति गयकालं ॥ महपूजासु जिणाणं कल्लाणेसु य पंजांति कप्पसुरा । अभिदा तत्य ठिया णमंति मणिमौलिघडिदकरा ॥ विहितवरयणभूसा णाणसुची सीलवत्थसोम्मंगा । जे तेसिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ॥ अत्र - अपदोत्ति छल्लेस्साओ सुहतियलेस्सा हु देसविरदतिये । तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगठाणं अलेस्सं तु ॥ १ ॥ इत्यशुभलेश्याश्रये बंघस्थानानि त्रयोविंशतिकादीनि षट् तेजोलेश्यायां पंचविंशतिकादीनि षट्, पद्मलेश्यायामष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि, शुक्ललेश्यायां तदादीनि पंच, सूक्ष्मसांपरायांतं यथासंभवं ॥ ५४९ ।। २० अभिषेकपूर्वक पूजन करते हैं । जो मिध्यादृष्टि देव होते हैं वे भी अन्य देवोंके द्वारा समझाये जानेपर जिनपूजन करते हैं । सुख- सागर में निमग्न देव बीते कालको नहीं जान पाते -: - इतना समय कैसे बीत गया यह उन्हें पता नहीं चलता । कल्पवासी देव जिन-भगवान्‌की महापूजाओंमें तथा तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सव- २५ में सम्मिलित होते हैं । किन्तु अहमिन्द्र देव अपने स्थानपर रहकर ही दोनों हाथ मणिजटित शिरोमुकटसे लगाकर नमस्कार करते हैं । जो विविध प्रकार के तपश्चरण से भूषित हैं, ज्ञानसे पवित्र हैं, शोलरूपी वस्त्रसे जिनके सौम्य अंग वेष्टित हैं, देवलक्ष्मी और मुक्तिलक्ष्मी उन्हीं के वश में होती है । अस्तु । १५ चतुर्थ असंयत गुणस्थान तक छह लेश्या तथा देशविरत आदि तीन गुणस्थानों में तीन ३० शुभलं. या होती है । उसके पश्चात् शुक्ललेश्या होती है। अयोगी लेश्यारहित हैं । 1 तीन अशुभ लेश्याओं में तेईस आदि छह बन्धस्थान होते हैं । तेजोलेश्या में पचीस आदि छह बन्धस्थान होते हैं । पद्मलेश्या में अठाईस आदि चार बन्धस्थान होते हैं। शुक्लमें अठाईस आदि पांच बन्धस्थान होते हैं । ये बन्धस्थान सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त यथायोग्य जानना ॥५४९ ॥ ३५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ गो० कर्मकाण्डे भव्वे सव्वमभव्वे किण्हं वा उवसमम्मि खइए य । सुक्कं वा पम्मं वा दगसम्मत्त ठाणाणि ॥५५०॥ भव्ये सर्वमभव्ये कृष्णवत् उपशमे क्षायिके च । शुक्लवत् पद्मवद्वेदकसम्यक्त्वस्थानानि ॥ भव्यमार्गयोळु सर्वमुं बंधयोग्यंगळप्पुवेक दोड चतुर्गतिसाधारणमप्पुरिदं। मिथ्या५ दृष्टियोळ । २३ । ए अ। २५ । एप। बि ति च। अ।सं। म । अ प २६ । एप। आ । २८।न। दे। २९ । बि ति च अ । सं । म ३० । बि ति च अ । सं। प उ॥ सासादननोळ २८ । दे। २९ । म । ति । ३० । ति उ॥मिश्रनोछ । २८ । दे २९ । म ॥ असंयतनोळ । २८ ॥ दे । २९ । दे ति । म ३० । मति ॥ देशसंयतनोळु । २८ । दे २९ । दे। ति ॥ प्रमत्तनोळ २८ । दे २९ । दे ति ॥ अप्रमत्तनोळु २८ । दे २९ । दे। ति ।३०। दे। आ।२।३१ । दे आ ति ॥ अपूर्वकरण१० नोळ २८ दे। २९ । वेति । ३०।दे आ।२।३१। दे। आ। ती।१॥ अनिवृत्तिकरणनोळु । १॥ सूक्ष्मसांपरायनोळ । १॥ अभव्यनोलु कृष्णलेश्ययोळ पेन्द चतुर्गतियुतत्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळप्पुवु । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमा देयकुं। २३ । ए आ २५ । एप। बि ति । च । अ ।सं। म । अ प । २६ । एप।आ। उ । २८ । न । दे। २९ । म । ति । ३० । ति । उ ॥ सम्यक्त्व मार्गणेयोळू उपशमसम्यक्त्वदोळं क्षायिकसम्यक्त्वदोळं शुक्ललेश्ययोळु १५ पेन्दत अष्टविंशत्यादि पंचस्थानंगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । उपशमदोळु २८ । दे । २९ । दे ति ।म। ३० । दे। आ । म। ती।३१। दे। आ। ति।१॥ क्षायिकसम्यक्त्वदो २८ । दो २९ । म । दे। ति । ३० । दे आ।म। ति । ३१ । दे आ तो। १॥ वेदकसम्यक्त्वदोळ पालेश्ययोळ पेन्द अष्टाविंशत्यादिचतुःस्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । २८ । दे । २९ । दे । ति । म ३० । दे आ। मति । ३१ । दे आ ती ॥ इल्लि सम्यक्त्वम बुते दोर्ड सम्यग्भावः सम्यक्त्वमें दितु संसारविच्छेद. २० कारणजीवादिपदार्थयाथात्म्यप्रतिपत्तिश्रद्धानलक्षणभव्यजीवपरिणामविशेषमें बुदत्थं । अंतप्प सम्यक्त्वमुपशमक्षायिकवेदकभेददिवं त्रिविधमक्कुमल्लियुपशमसम्यक्त्वं प्रथमोपशम-द्वितीयोपशम भेददिदं द्विविधमक्कुमल्लिप्रथमोपशमसम्यक्त्वं चतुर्गतिजपर्याप्त रोळल्लद अपर्याप्तरोळ संभविसदेके दोडे :-- भव्यमार्गणायां सर्वाणि सर्वगुणस्यानसंभवात । अभव्ये कृष्णलेश्यावच्चतुगंतियुतत्रयोविंशतिकादोनि २५ षट् मिथ्यादृष्टिसंबंधोन्येव । सम्यक्त्वमागंणायामुपशमक्षायिकयोः शुक्ललेश्यावदष्टाविंशतिकादोनि पंच । वेदके पालेश्यावत्तदादीनि चत्वारि । सम्यक्त्वं सम्यग्भावः, संसारछेदकारणजीवादिपदार्थयाथात्म्यप्रतिपत्तिश्रद्धा भव्यमार्गणामें सब बन्धस्थान हैं क्योंकि उसमें सब गुणस्थान होते हैं। अभव्य में कृष्णलेश्याकी तरह चार गति सहित तेईस आदि छह बन्धस्थान मिध्यादृष्टि सम्बन्धो ही होते हैं । सम्यक्त्व मार्गणामें उपशम और क्षायिकमें शुक्ललेश्याकी तरह अठाईस आदि ३. पाँच बन्धस्थान होते हैं । वेदकमें पद्मलेश्याकी तरह अठाईस आदि चार होते हैं । सम्यक् भावको सम्यक्त्व कहते हैं । वह संसारके छेदका कारण है। जीवादि पदार्थोंकी यथार्थ प्रतिपत्तिपूर्वक श्रद्धान उसका लक्षण है । वह भन्यजीवका परिणाम विशेष है। उसके तीन Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दसणमोहक्खवणा खवगा चढमाण पढमपुवा य । पढमुवसम्मा तमतम गुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥ येदितु प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळु मरणमिल्लप्पुरिदं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं मनुष्यपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तदिविजरोळं संभविसुगुं। क्षायिकसम्यक्त्वं चतुर्गतिजपर्याप्तरोळं धम्म य निर्वृत्यपर्याप्तरोळं भोगभूमितिर्यग्मनुष्यनिर्वृत्यपर्याप्नरोळं सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धि- ५ पर्यंतमाद दिविजरोळमक्कुं। वेदकसम्यक्त्वं चतुर्गतिजपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तरोळमक्कुमल्लि प्रथमोपशमसम्यक्त्व में तप्प पर्याप्त रोळमक्कु में दोडे : चदुगदिमिच्छो सण्णी पुण्णो गन्भजविसुद्धसागारो। पढमुवसम्मं गैण्हदि पंचमवरलद्धिचरिमम्मि ॥ एंदितु नारकतिर्यग्मनुष्य देव पर्याप्तरो ठमकुमल्लि । तिप्यंवरोळसंज्ञिजीवव्यवच्छेदार्थ १० संजिजीबंगळेदु पेठल्पटुवा संजि जीवा ठोठु लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्तरं व्यवच्छेदिसल्वेडि पूर्ण अपर्याप्तरो संपूच्छिमंगळं कळयल्वेडि गब्भजरुमा गर्भजरोळु संक्लिष्टरं परिहरिसल्वेडि विशुद्धरु मा विशुद्धरोळु अनाकारोपयोगरं परिहरिसल्वेडि साकारोपयोगयुक्तरुमप्प नलक्षणभव्यजीवपरिणामविशेषः। तच्चौपशमिकं क्षायिक वेदकमिति श्रेया। तत्राद्यं प्रथम द्वितीयभेद्दाद्वधा । तत्र प्रथमं दंसणमोहक्खवणा खवगा चडमाणपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ।। इति चतुर्गतिपर्याप्तेष्वेव नापर्याप्तेषु । द्वितीयं पर्याप्तमनुष्यनिर्वृत्त्यपर्याप्तवैमानिकयोरेव । क्षायिक घर्मानारक भोगभूमितिर्यग्भोगकर्मभूमिमनुष्यवैमानिकेष्वेव पर्याप्तापर्याप्तेषु । वेदकं चातुर्गतिपर्याप्त निर्वृत्त्यपर्याप्तेषु । तत्र तत्प्रथमं कीदृग्जीवो गृह्णीयात् ? २० चदुगदिमिच्छो सण्णी पुण्णो गब्भज विसुद्धसागारो । पढमुवसम्मं गेण्हदि पंचवरलद्धिचरिमम्मि ।। भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक और वेदक । औपशमिकके दो भेद हैं- प्रथम और द्वितीय । 'दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले, क्षपकश्रेणीवाले, चढ़ते अपूर्वकरणके प्रथम भागवाले, प्रथमोपशम सम्यक्त्ववाले, और सातवें नरकमें सासादन आदि गुणस्थानोंमें चढ़े जीव मरते नहीं २५ हैं। अतः उन दोनों में से प्रथमोपशम सम्यक्त्व चारों गतिमें पर्याप्त जीवोंमें ही होता है, अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होता। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य और निवत्यपर्याप्त वैमानिक देवों में होता है। क्षायिक सम्यक्त्व धर्मापृथिवीके नारकी, भोगभूमिया तिर्यश्व, भोगभूमि और कर्मभूमिके मनुष्य और वैमानिक देवोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त दशामें होता है। वेदक सम्यक्त्व ३० चारों गतिके पर्याप्तक और निवृत्यपर्याप्तक जीवोंके होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वको कैसा जीव ग्रहण करता है, यह कहते हैं१. मिस्सा आहारस्सय इति पूर्बपाठः । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७८ चतुतिय सादिमिथ्यादृष्टिजीबंगा मिथ्यात्वानंतानुबंधिकषायोदयंगळवं जिनोक्तजीवादिपदार्थयाथात्म्यप्रतिपत्तिश्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वपराग्मुखग्गे दोरेकोंड क्षयोपशम विशुद्धिदेशनाप्रायोग्यताकरणलब्धि प्रभावं गळिदं सम्यक्त्वपराग्मुखत्वहेतु मिथ्यात्वानंतानुबंधिधातिकमंगळगुदयमागदंतु प्रशस्तोपशमनविधानदिदमुपशमिसि एकचत्वारिंशदुरितंगळ बंधमं के डिसुत्तमसंयत वेश५ संयताप्रमत्तरोदयिसिद प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालांत मुहूर्तं प्रमाणदोळप्रमत्त संयतंगे प्रमत्ताप्रमत्तपरावर्त्तसहस्रंगळक्कुमप्पुर्दारदं प्रमत्तसंयतनोळं प्रथमोपामसम्यक्त्वमक्कु बुदत्थं ॥ मेणी प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं सम्यक्त्व प्रकृतियुमं मिश्रप्रकृतियुमनुद्वेलन मं माडिद चतुर्गतिय सादिमिध्यादृष्टियुमनादिमिथ्यादृष्टि मेणा करणत्रयपरिणामंगळद मनंतानुबंधिकषायंगळनु मिथ्यात्वप्रकृतियुमनेयुपामिसि स्वीकरिसि सम्यक्त्वग्रहण प्रथमसमयं मोवल्गोंडु सादिमिथ्यादृष्टिचरने तु गुणसंक्रमण१० दिदं प्रथमोपशमसम्यक्त्वपरिणामयंत्रदिदं कोद्रवदोळे तंते मिथ्यात्वद्रव्यक्के त्रिधाकरणमक्कुमदरिदं सम्यक्त्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतिषु सत्वमप्पुवु । अल्लि नारका धर्म वर्श' मेघेगळोळ नववंशत्यादि द्विस्थानं गळु बंधमप्पुवु । २९ । म । ३० । म तो । शेष पृथ्विगळ नारकरुगळोळ मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमो दे बंधमक्कु । २९ । म । मो पर्थ्योप्तविषयप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगलोळ तीर्थंयुतबंधस्थान में तु संभविसुतुमेदोर्ड : गो० कर्मकाण्डे १५ पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादि चत्तारि । तित्थयरबंधपारंभया णरा केवळिदुगंते ॥ एंदितु केवलिद्वयश्री पादोपांतदोळिद मनुष्यं षोडशभावना प्रभार्वादिदं तीत्थंबंधमं प्रारंभिसुगुमल्लदी पर्थ्यामनारकप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियोळ तीर्त्ययुतनामदंधस्थानं विरुद्ध मक्कुम के बोर्ड विरुद्ध मिल्लेके दोडे नीने दंत केवलिद्वय श्रीपादोपांतदोळ तीर्थंकर पुण्यबंधमं प्रारंभिसिद वेवक२० प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिमनुष्यरुगळु प्राग्बद्धनरकायुष्यरुगळु मरणकालदोळु मिथ्यात्वकम्र्मोदय दिदं सम्यक्त्वमं केडिसि धर्मादित्रयदोळ पुट्टिशरीरपर्य्यामिगळवं मेलेषु प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि तत्तीत्थं युतस्थानमं नियमदिदं कट्टुवरप्पुदरिवं । सम्यक्त्वग्रहणकालदो से कारोपयोगयुक्त नागवेकु नियमनुंदरपुदरिनिल्लि नारकत्वबोधर्म' तक्कुर्म बोर्ड तृतीय पृथ्वीवरं इति चतुर्गतिमिथ्यादृष्टिरेव सोऽपि नासंज्ञी ततः संज्ञयेव, सोऽपि न लब्ध्यपर्याप्तः निर्वृत्त्यपर्याप्तश्च २५ ततः पूर्ण एव । सोऽपि न संमूहिमस्ततो गर्भज उपादजो वा । सोऽपि न संक्लिष्टस्ततो विशुद्ध एव सोऽपि न चारों गतिका मिथ्यादृष्टि ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । वह भी असंज्ञी नहीं ग्रहण करता । अतः संज्ञी ही ग्रहण करता है । संज्ञी भी लब्ध्यपर्याप्त या निर्वृत्यपर्याप्त ग्रहण नहीं करता । अतः पर्याप्तक ही ग्रहण करता है। पर्याप्तक भी सम्मूर्छन १. ज्ञानोपयोगः । २. तत्त्वज्ञानं नैसगिक सम्यक्त्वमपि तत्वबोधपूर्वकमेव तथापि सम्यक्त्वग्रहणकाले परोप३५ देशाभावात्तस्य सम्यक्त्वस्य व्यपदेशः तदुक्तं विना परोपदेशेन सम्यक्त्वग्रहणक्षणे । तत्त्रबोधो निसर्गः स्यात्तद्धृतोधिगमश्च सः ॥ इति ॥ जिनबिबावलोकादिनिसर्गोऽल्पप्रयासतः । ज्ञेयश्वाधिगमस्तत्वविचारचतुरा मतिः ॥ इत्याचारसारे ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ८७९ देवप्रतिबोधनप्रदं । अथवा तन्निसर्गादधिगमाद्वा सम्यक्त्वमुत्पद्यते एंदितु पेळल्पटु दिल्लि निसर्ग बुदु स्वभावमक्कुमधिगम में 'बुदर्थावबोधमत्रकुमल्लि निसर्गजवळत्यबोधमुंटो मेणिल्लो तलातुमर्थावबोध मुंटक कुमप्पोडदुवुमधिगमजमक्कु मत्यतिर मल्ते त्तलातुमर्त्या व बोधरहितमक्कुमप्पोर्ड तनवबुद्धतत्वं गर्त्यश्रद्धान में दिते वोडदु वोषमल्लेर्क बोर्ड निसर्गजदोळमधिगमजदोळमंतरंगकारणं समानमक्कुमदाउदे दोर्ड दर्शनमोहोपशममुं दर्शनमोहक्षयमुं दर्शनमोहक्षयोपशममु- ५ मेंदीयंत रंगकारण मुंटागुत्तिरलावुदो बाचार्य्यादिगळुपदेशमिल्लदेयुं सम्यक्त्वं पुदुगुमदु नैसगिकमक्कु मावुदोदाचार्य्यादिगळिनर्थोपदेश पूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तमवधिगमजर्म दिर्त रडरोळमिदु भेवमक्कुमकारणविंदं । दर्शन मोहोपशमविनादुदुपशमसम्यक्त्वमक्कुम पुर्वारिदं । नैसग्गिकं देशनानिरपेक्षकमुमकुम' बुदत्थं ॥ तिथ्यंचरो संज्ञिपंचेद्रियपर्थ्याप्त गर्भजविशुद्धसाकारोपयोगयुक्तं मिथ्यादृष्टिप्रथमोपशम- १० सम्यक्त्वमं स्वीकरिसुत्तमप्रत्याख्यानावरणोदर्यादिदमसंयतन कुं । प्रत्याख्यानावरणोदर्यादिदं देशसंयतनुमक्कुमा प्रथमोपशमसम्यक्त्व कालांतर्मुहूतं पय्र्यंतं देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कट्टुबरु ॥ २८ ॥ दे ॥ मनुष्यगतियोऴ प्रथमोपशमसम्यक्त्वमक्कुमप्पोडं : चत्तारि विछेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहम्वदाई ण लहइ देवाउगं मोतुं ॥ एंदितु मनुष्यरुगळं नाकुं गतिगन् बद्धायुष्यरादोडं सम्यक्त्वमं स्वीकरिसुवरु । तत्रापि देवायुष्यमल्ल दितरायुस्त्रितयं सत्वमुळ्ळ जीवनोळ अणुव्रत महाव्रतंगळागवु । एंदितु चतुर्गातिबद्धायुष्यरुमबद्धायुष्यरुगळुमप्प विशुद्धसाकारोपयोगयुक्त मिथ्यादृष्टिजी बंगळु सप्तप्रकृतिगळनुपशमिति अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानावरणसंज्वलन- देश वातिस्पर्द्धकोदयंगळदमसंयतनुं देश संघतनुमअनाकारोपयोगस्ततः साकारोपयोग एव, सोऽपि चत्तारि विखेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहदाई ण लहद्द देवाउगं मोत्तुं ॥ इत्यबद्धायुको बद्धायुष्को वा, सोऽपि सादिरनादिर्वा । तत्र सादिर्यदि सम्यक्त्व मिश्रप्रकृतिसत्त्वस्तदा सप्तप्रकृतीः तदसत्त्वस्तदा सोऽप्यनादिरपि मिथ्यात्वानंतानुबंधिनः पंचैव क्षयोपशमविशुद्धि देशनाप्रायोग्यताजन्मवाला ग्रहण नहीं करता । अतः गर्भज या उपपाद जन्मवाला होना चाहिए। वह भी क्लेशी न हो, अतः विशुद्ध परिणामी होना चाहिए। वह भी दर्शनोपयोग अवस्था में न हो, ज्ञानोपयोगकी अवस्था में हो। कहा है २५ 'पूर्व में चारों गतिको आयु बाँधी हो फिर भी सम्यक्त्व हो सकता है । किन्तु अणुव्रत और महाव्रत देवायुको छोड़ अन्य आयुका बन्ध जिसके हुआ है उसके नहीं होते।' -: १५ इस वचनसे वह बद्धायुष्क हो या अबद्धायुष्क हो, सादि मिध्यादृष्टि हो या अनादि ३० मिध्यादृष्टि हो । यदि वह सादि मिध्यादृष्टि है और उसके सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीका सत्व है तो उसके तीन दर्शनमोह और चार अनन्तानुबन्धी ये सात प्रकृतियां हैं । क- १११ २० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० गो० कर्मकाण्डे प्रमत्तप्रमत्तरगळमप्परल्लि असंयतदेशसंयतप्रमत्तसंयतरगळ देवगतियुताष्टाविंशत्यादि विस्थानंगळ कटुवरेके दोडे २८ २९ । वे ती। प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळं तीर्थबंध प्रारंभमुंटप्पुरिद । अप्रमत्तसंयतनोळु अष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळं बंधमप्पुवु । २८ । दे। २९ । ति। ३० । आ। ३१ । वे आ तो। देवतियोळु भवनत्रयं मोदलागियुपरिमवेयकावसानमावदिविजमिष्यादृष्टिगळं विशुद्धसाकारोपयोगयुक्तरुगळं प्रथमोपशमसम्यक्त्वम स्वीकरिसि तत्कालांतम्मुंहतपय्यंतं मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । २९ । म। यिल्लि तोत्वंयुतस्थानबंधमिल्लेके बोर्ड विविजमिथ्यादृष्टिगळोळु तीर्थसत्वं खपुष्पोपमानमक्कुमदे ते दोडे तोर्वबंधप्रारंभकमनुष्यं बद्धवायुष्यनादोडमबद्धायुष्यनादोडं सम्यक्त्वविराषकनल्लप्पुरिद तदबंध स्थानाभावमक्कुं। द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं मनुष्यपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तदिविजरोळं संभव १० सुगुमवेत बोर्ड: इगिवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहि । पढमं अधापवत्तं करणं तु करेवि अपमत्तो॥ mammmmmmmmmmmmmwwwm mamawwammam करणलब्धिपरिणामैः प्रशस्तोपशमनविधानेन युगपदेवोपशमय्यांतर्मुहूर्तकालं प्रथमोपशमसम्यक्त्वं स्वोकुर्वन् कश्चिदप्रत्याख्यानकषायोदयादेकचत्वारिंशदुरितबंध निवारयन्नसंयतः, कश्चित्प्रत्याख्यानकषायोदयादेकपंचाशद्बन्धमपाकुर्वन् देशसंयतः, कश्चित्संज्वलनोदयादेकषष्टिबंधं निराकूर्वन्नप्रमत्तसंयतो वा स्यात् । सोऽप्रमत्तः प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसंख्यातसहस्राणि करोति । तत्सम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयाद्गुणसंक्रमणेन तत्परिमाणेन यंत्रण कोद्रववन्मिथ्यात्वद्रव्यं त्रिधा करोति । तेत्र नारकस्तदा असंयत एव भूत्वा धर्मादित्रये नवविंशतिकादिद्वयं बध्नाति २९ म ३० म ती । शेषपृथ्वीषु मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । नन्वविरदादिचत्तारितित्थयरबंधपारंमया और यदि सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयका सत्त्व नहीं है तो पाँच प्रकृतियाँ हैं। अनादिमिथ्यादृष्टिके भी पांच ही प्रकृतियाँ होती हैं। इन प्रकृतियोंको क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धिरूप परिणामोंके द्वारा प्रशस्तोपशम विधानसे एक साथ उपशमाकर अन्तर्मुहूर्त कालके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके कोई जीव अप्रत्याख्यान कषायके उदय होनेसे इकतालीस पाप प्रकृतियोंके बन्धको रोकता हुआ असंयत सम्यग्दृष्टी होता है। अथवा कोई जीव प्रत्याख्यान कषायके उदयसे इकावन प्रकृतियोंके बन्धको रोककर देशसंयत होता है। कोई संज्वलनके उदयसे इकसठ प्रकृतियोंके बन्धको रोकता हुआ अप्रमत्त संयत होता है। वह अप्रमत्त संख्यात हजार बार अप्रमत्तसे प्रमत्त और प्रमत्तसे अप्रमत्तमें आवागमन करता है। उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वके ग्रहणके प्रथम समयसे गुणसंक्रमणके द्वारा उस सम्यक्त्वरूप परिणामसे मिथ्यात्वके द्रव्यको तीन रूप करता है। जैसे चाकीसे दलनेपर कोदोंके तीन रूप हो जाते हैं। नारकी तो असंयत ही रहकर धर्मा आदि तीन नरकोंमें उनतीस और तीसका बन्ध करता है। शेष नरकोंमें मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध होता है। शंका-आगममें कहा है कि अविरत आदि चार गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली १. गुडखंडशर्करामृत-विषहालाहलशक्तियं निंबकांजीरंगळ सदृशमप्पंतु । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ८८१ एंदितु एकविंशतिचारित्रमोहोपशमननिमित्तमागि वेदकसम्यग्दृष्टियप्प महाव्रत्य प्रमत्तसंयतं मुंनं करणत्रयपरिणामदिदं सप्तप्रकृतिगळनुपशमिसि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व स्वीकारमं विहितं प्रमितमप्य तद्वितीयोपशमसम्यक्त्व कालप्रथमसमयदोळ देवगतियुताष्टाविशत्यादिचतुःस्थानंगळं कट्टुगुं । २८ । दे । २९ । वेति । ३० । वें आ । ३१ । दे आती । यितु कट्टुत्तमुपशमश्रेण्या रोहणनिमित्तमागि माप करणत्रयंगळोळु मोवल अधःप्रवृत्तकरणमनी सातिशयाप्रमत्तसंयतं माळकुमा करणवोळु नाल्कावश्यकंगळं माळकुमवावुर्वे बोर्ड प्रतिसमय मनंतगुण विशुद्धि वृद्धि साता विप्रशस्त प्रकृतिगणे प्रतिसनयमनंत गुणवृद्धियि चतुःस्थानानुबंधसाताद्य प्रशस्त प्रकृतिगळगे प्रतिसमय मनंतगुणहानिय द्विस्थानानुभागबंध स्थितिबंधापसरण विं प्रवत्तिमुत्तमपूर्वकरणगुणस्थानमं पोर्दुगुमा गुणस्थानप्रथमसमयं मोवल्गोंडु तद्गुणस्थानषष्ठभागपय्र्यंतमा चतुःस्थानंगळं कटुवरु | २८ । दे । २९ । देति ३० । दे । आ ३१ । वे १० आती ॥ सप्तमचरमभागदोळु एकप्रकृतिस्थानमनो रौंदने कटुटुवरु ॥१॥ तदनंतरसमयवोळनिवृत्ति रा केवलिदुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युतस्थानं कथं बध्नाति ? तन । प्राग्बद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्षतीर्थंबंधानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यंतं गतानां शरीरपर्याप्तेरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वानां तद्बंधस्यावश्यंभावात् । तत्प्राप्तो खलु साकारोपयोगेन भाव्यं तत्र स कथं संभवेत् ? तन्न, तृतीय पृथ्व्यं तं देवप्रतिबोधनान्निसर्गाद्वा तत्रापि तत्संभवात् । तहि निसर्गजेऽर्थावबोधः स्यान्न वा ? यदि १५ स्यात्तदा तदप्यधिगम जमेव । यदि न स्यात्तदानवगततत्त्वः श्रद्दधीतेति ? तन्न । उभयत्रांत रंगकारणे दर्शनमोहस्योपशमें क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्याद्युपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात् । स चायं प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिर्यदि तिर्यङ् तदा असंयतो देशसंयतो वा भूत्वा देवगत्यष्टाविंशतिकं द्विकके निकट तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करते हैं, तब नरकमें तीर्थंकरसहित स्थानका बन्ध कैसे सम्भव है ? होता है ? समाधान - तीसरी पृथ्वी पर्यन्त देवोंके सम्बोधनेसे अथवा सहज स्वभाव से साकारोयोग होता है। ५ समाधान - जिस मनुष्यके पूर्व में नरकायुका बन्ध हुआ, पीछे प्रथमोपशम सम्यक्त्व अथवा वेदक सम्यक्त्व में तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करे तो मरते समय मिध्यादृष्टि होकर तीसरे नरक तक जाता है वहाँ शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर दोनों सम्यक्त्वों में से एक सम्यक्त्व प्राप्त करके तीर्थंकरका भी बन्ध करने लगता है । शंका-सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए साकारोपयोग होना चाहिए। वह वहाँ कैसे २५ २० शंका- निसर्गज सम्यग्दर्शन में पदार्थों का ज्ञान होता है या नहीं ? यदि होता है तो वह भी अधिगम ही हुआ । यदि पदार्थोंका ज्ञान नहीं है तो तत्त्वोंके ज्ञानके बिना श्रद्धान कैसा ? ३० समाधान - निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनमें अन्तरंग कारण दर्शनमोहका उपशम, क्षय, क्षयोपशम समान है। उसके होते हुए जहाँ आचार्यादिके उपदेशसे तत्वज्ञान होता है वह अधिगमज है और जहाँ उसके बिना तत्त्वज्ञान होता है वह निसर्गज है । यह इन दोनों में भेद है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ गो० कर्मकाण्डे करणगुणस्थानप्रथमसमयं मोवल्गोंडु चरमसमयपथ्यंतमा येकप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । १। तदनंतर समयदोळु सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानमं पोद्दि तद्गुणस्थानचरमसमयपथ्यं तमा एकप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु।१। तदनंतरसमयदोळुपशांतकषायगुणस्थानमं पोद्दि तद्गुण स्थानचरमसमयपथ्यंतमा एकप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । १ । तदनंतरसमयदोळुपशांत कषाय५ गुणस्थानमं पोदि तद्गुणस्थानचरमसमयपथ्यंतं नामकर्मबंधरहितरागिद्ध मत्तमवतरणदोळं क्रमदिवमिळिदु अप्रमत्तगुणस्थानमं पोद्दि मुंनिनंते अष्टाविंशत्यादि चतुस्थानंगळं कटुवरु । अंतु कटुत्तलुं प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्रगळं माडुत्तं प्रमत्तगुणस्थानदोळ प्रमताष्टाविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कटुत्तं । २८ । २९ । वे ति । संक्लेशवशदिदं प्रत्याख्यानावरणोददिवं देशसंयत गुणस्थानमं पोद्दि प्रमत्तसंयतनंते द्विस्थानंगळं कटुत्तं । २८ । दे। २९ । वे तो ॥ अप्रत्याख्याना१. वरणोदयविमसंयतसम्यग्दृष्टिगळागियुं देशसंयतनंते द्विस्थानंगळं कटुवरितु । २८ दे । २९ ॥ वे ती ॥ उपशमण्यारोहणावरोहणविवर्तयिदं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळसंयताविगुणस्थानाष्टकं संभविसुववु। बद्धदेवायुष्यरुगळोत्तलानुमपूर्वकरणारोहकप्रथमभागमं बिटटु शेषभागशेषगुणस्थानंगळोळेल्लियादोडं मरणं संभविसुगु । मंतु मरणमागुत्तं विरलु सौधम्मकल्पं मोवल्गोंडु बध्नाति । मनुष्यस्तदा असंयतः देशसंयतः प्रमत्तश्च तदादिद्वयं । अस्मिन सम्यक्त्वेऽपि तीर्थबंधप्रारंभात् । अप्रमत्तस्तदादीनि चत्वारि २८ दे २९ दे ती ३० दे आ ३१ दे आ ती। देवस्तदा असंयत ,एव भूत्वा उपरिमप्रैवेयकावसानः मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव न तीर्थयुतं प्रारब्धतीर्थबंधस्य बद्धदेवायुष्कवदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्यभावात् । तद्वितीयोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यग्दृष्टयप्रमत्त एव करणत्रयपरिणामैः सप्तप्रकृतीरुपशमय्य गृह्णाति । तत्कालांतर्मुहुर्तप्रथमसमये देवगत्यष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि बध्नाति । अयं चोपशमश्रेणिमारोळ करणत्रयं कुर्वनषःप्रवृत्तकरणं सातिशयाप्रमत्त एव करोति । तत्र प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धवृद्धि सातादि. वह प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी यदि तिर्यश्च है तो असंयत या देशसंयत होकर देवगति सहित अठाईसका बन्ध करता है। यदि मनुष्य है तो असंयत, देशसंयत या प्रमत्त होकर देवगति सहित अठाईसका या देवगति तीर्थसहित उनतीसका बन्ध करता है। इस सम्यक्त्वमें भी तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ होता है। यदि अप्रमत्त है तो अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस चारका बन्ध करता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वी देव असंयत ही होता है और वह उपरिमन वेयक पर्यन्त ही होता है। वह मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बाँधता है, तीर्थकर सहित तीसको नहीं, क्योंकि जिसने देवायका बन्ध करके तीर्थंकरका बन्ध प्रारम्भ किया है जैसे वह सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता वैसे ही जिसने देवायुका बन्ध नहीं किया है वह भी तीथंकरका बन्ध प्रारम्भ करके देवायुका बन्ध करनेपर मरते समय सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता। और सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें आये बिना प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं होता। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व वेदक सम्यग्दृष्टी अप्रमत्तके ही तीन करणरूप परिणामोंके द्वारा सारें प्रकृतियोंका उपशम होनेपर होता है। उसका फाल अन्तर्मुहूत है। उसके प्रथम समयमें देवगति सहित अठाईस आदि चारका बन्ध होता है। यह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणिपर आरोहण करने के लिए तीन करण करता Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८८३ सर्वार्थसिद्धिपतं यथासंभवमागि निर्वृत्यपर्थ्याप्त दिविजासंयतसम्यग्दृष्टिगळागि मनुष्यगतियुत नववज्ञत्यादिद्विस्थानंगळं कट्टुवरु । २९ । म ३० । म ती ॥ इल्लियु भयोपशमसम्यक्त्वदो एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानम सत्वमुळ्ळ प्रमत्तसंयतनोलु मिथ्यात्व कर्मोदय मिल्ले । तीर्त्यकरसत्वमुमाहारकसत्वमुमुळ्ळ प्रमत्तदेश संयतासंयतरोळनंतानुबंधिकषायोदय मिल्ल | तीर्थसत्व मुळळरोळ मिश्रप्रकृत्युदय मिल्लेक बोर्ड : तित्थाहारं जुगवं सव्यं तित्थं ण मिच्छ्गादितिये । तं सत्तम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संभवइ ॥ - गो. क. ३३३ गा. एंदितु निषेधिसल्पटुदप्युरिदं । क्षायिकसम्यक्त्वग्रहणकालवोळ सामग्रीविशेष मुंटतावुर्ददो :― प्रशस्तप्रकृतीनां प्रतिसमयमनंतगुणवृद्धया चतुःस्थानानुभागबंधं असाताद्यप्रशस्त प्रकृतीनां प्रतिसमयमनंतगुणहान्या १० द्विस्थानानुभागबंधं स्थितिबंधापसरणं च कुर्वन्नपूर्वकरणगुणस्थानं गतः । तत्प्रथमसमयादाषष्ठभागं तान्येव चत्वारि बध्नन् सप्तमभागेऽनिवृत्ति करणे सूक्ष्मसांपराये चैककमेव बध्नाति । उपशांतकषाये आ तच्चरमसमयं नामकर्मावघ्नं क्रमेणावतरन् प्राग्वद्बघ्नन् अप्रमत्तगुणस्थानं गतः । प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि कुर्वन् संक्लेशवशेन प्रत्याख्यानावरणोदयाद्देशसंयतो भूत्वा पुनः अप्रत्याख्यानावरणोदयादसंयतो भूत्वा च प्रमत्तोक्ते द्वे बध्नाति इत्यसावसंयताद्यष्टगुणस्थानः स्यात् । स च बद्धदेवायुष्क १५ ५ हुआ सातिशय अप्रमत्त अवस्थामें ही अधःकरण करता है । वहाँ प्रतिसमय अनन्तगुण विशुद्धिको करता हुआ साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका गुड़, खण्ड, शर्करा, अमृतरूप चार प्रकारके अनुभागबन्धको प्रतिसमय अनन्तगुणा बढ़ाता है और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग बन्धको प्रतिसमय घटाते हुए नीम और कांजीरूप दो प्रकारका बाँधता है । तथा सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धको घटाता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होता २० | अपूर्व करणके प्रथम समयसे लगाकर छठा भाग पर्यन्त उन्हीं चार स्थानोंको बांधता है। सातवें भाग में अनिवृत्तिकरण में और सूक्ष्मसाम्पराय में एक प्रकृतिक बन्धस्थानको बांधता है। उपशान्तकषाय गुणस्थान में अन्तिम समय पर्यन्त नामकमको नहीं बांधता । क्रमसे उतरते हुए पहले की तरह नामकर्मके बन्धस्थानोंका बन्ध करते हुए अप्रमत्त गुणस्थानको २५ प्राप्त होता है । फिर अप्रमत्तसे प्रमत्तमें और प्रमत्तसे अप्रमत्तमें हजारों बार आवागमन करता हुआ संक्लेशवश प्रमत्तसे प्रत्याख्यानावरणके उदयसे देशसंयत होकर पुनः अप्रत्याख्यानावरण के उदयसे असंयत होकर प्रमत्तकी तरह दो स्थानोंका बन्ध करता है । इस प्रकार द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें असंयत आदि आठ गुणस्थान होते हैं। उसने यदि पूर्व में १. एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानसत्वमुळ्ळ प्रमत्तंर्ग मिथ्यात्वोदर्याद मिथ्यादृष्टिगुणस्थानप्राप्तियागर्द बुदर्त्य । येक'दोर्ड तो समं प्राग्वद्धनरकायुष्यं गल्लदे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानप्राप्तियिल्ल । बद्धक अप्रमत्तगुणस्थानप्राप्तिपूर्व्वकाहारक द्वयबंधमु प्रमत्तगुणस्थानप्राप्तियु घटियिसद् एक दोडे "चत्तारि विखेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्त ं । अणुवदमहम्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तु ॥" एंबागमवचनमुंदर | मिध्यात्वोदय र हितानं तानुबंधिकषायोदयो नास्ति । सासादनगुणस्थानप्राप्तिन्नस्तीत्यर्थः ॥ ३० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ गो० कर्मकाण्डे दंसणमोहक्खवणा पट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुजो। तित्थयरपादमूळे केवळिसुदकेवळीमूळे ।। णिट्ठवगो तहाणे विमाण भोगावणीसु घम्मे य । कदकरणिज्जो चदुसु वि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ।।-लब्धि. ५१०-१११ गा. एंदिती सामग्रीविशेषयुतप्रस्थापक मनुष्यासंयतदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तचतुर्गुणस्थानत्तिगर्छ मुंनमनंतानुबंधिकषायमं विसंयोजिसुवल्लि उदयावलिबाह्योपरितनस्थितियोळिर्द निषेकंगळेल्लमनपर्षिसि विसंयोजिसुत्तमनिवृत्तिकरणचरमसमयदोळु निरवशेषमागि विसंयोजिसुगुं। द्वादशकषाय नव नोकषायस्वरूपदिदं परिणमनमप्पंतु माळकुम बुदत्थं । इंतप्प विसंयोजनमं वेदकसम्यग्दृष्टि असंयतनुं देशसंयतनुं प्रमत्तसंयतनुमप्रमत्तसंयतनुमघःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयं मोदल्गोंडु प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धिवृद्धियिदं वर्द्धमानरागुत्तं सातादिप्रशस्तप्रकृतिगळगे प्रति. समयमनंतगुणवृद्धियि चतुःस्थानानुभागबंधमनसाताद्यप्रशस्तप्रकृतिगळ्गे प्रतिसमयमनंतगुणहानिय आरोहणेपूर्वकरणप्रथमभागादन्यत्रावतरणे सर्वत्र क्वचिद्यदि म्रियते तदा वैमानिकेषु यथासंभवं निवृत्त्यपर्याप्तो भूत्वा मनुष्यगतिनवविंशतिकादिद्वयं बध्नाति २९ म ३० म ती। उभयोपशमसम्यक्त्वे एकत्रिशकसत्त्वप्रमत्ते मिथ्यात्वं तीर्थसत्त्वाहारकसत्त्वासंयतादिश्येऽनंतानुबंधी तीर्थसत्त्वे मिश्रं च नोदेति, तत्तत्कर्मसत्त्वजीवानां १५ तत्तद्गुणस्थानस्य संभवाभावात् । दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुजो। तित्थयरपादमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥ णिट्ठवगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । कदकरणिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ॥ देवायका बन्ध किया है तो वह चढ़ते अपूर्वकरणके प्रथम भाग बिना अन्यत्र और उतरते गर्वत्र यदि कहीं मरण करता है तो यथासम्भव वैमानिक देव होता है। वहाँ निवृत्यपर्याप्त २. अवस्था में मनुष्यगति सहित उनतीस और तीसका बन्ध करता है। दोनों ही प्रकार के उपशम सम्यक्त्वमें इकतीस प्रकृतिरूप नामकर्मके बन्धस्थानका सत्त्ववाला प्रमत्तगणस्थानवर्ती प्रमत्तसे मिथ्यात्वमें नहीं आता। तीर्थकर और आहारककी सत्तावाले असंयत आदि तीनमें अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता। अतः वे उन गणस्थानों से च्युत होकर सासादनमें नहीं आते। तथा तीर्थंकरके सत्त्वमें मिश्र मोहनीयका उदय २५ नहीं होता। अतः वह तीसरे गुणस्थानमें नहीं आता। क्योंकि उस उस कर्मकी सत्तावाले जीवोंक वह वह गुणस्थान नहीं होता। - विशेष.थ-एक जीवके तीर्थंकर और आहारकका सत्त्व होनेपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नहीं होता। आहारकका सत्त्व होते सासादन गुणस्थान नहीं होता और तीर्थंकरका सत्त्व होते मिश्रगुणस्थान नहीं होता। अब क्षायिक सम्यक्त्वमें कहते हैं। यहां प्रासंगिक कहते हैं "दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ तो कर्मभूमिया मनुष्य तीर्थंकर केवली या श्रुतकेवलीके पादमूलमें करता है। और निष्ठापक वहीं, या वैमानिक देवोंमें या भोगभूमिमें या प्रथम नरकमें होता है क्योंकि कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी चारों गतिमें जन्म लेता है।" वही कहते हैं ३. ३५ १. प्रारंभक इत्यर्थः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८८५ विस्थानानुभागबंधमं शुभाशुभकभंगळ्गे स्थितिबंधापसरणमं प्रवत्तिसुतलुमधःप्रवृत्तकरणपरिणतियं मोरि तदनंतरसमयदोळपूर्वकरणपरिणाम-परिणतरागियुमा नाल्कु मावश्यकंगळवेरसु गुणश्रेणीगुणसंक्रमस्थितिकांडकघातानुभागकांडकघातंगळुमं प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तिगुणश्रेणिद्रध्यमं नोडलं देशसंयतगुणश्रेणिद्रव्यमसंख्यातगुणमदं नोडलं सकलसंयतगुणश्रेणीद्रव्यमसंख्यातगुणमदं नोंडलुमसंख्यातगुणद्रव्यमनीयनंतानुबंधिकषायविसंयोजकनपकर्षिसि अपूर्वकरणानिवृत्ति- ५ करणकालद्वयमं नोडल साधिकमागियुं संयतरगुणश्रेण्यायाममं नोडलु संख्यातगुणहीनमुं समयं. प्रतिगलितावशेषमुमप्प गुणश्रेण्यायामदोळु द्रव्यनिक्षेपणमुमननुभागकांडकायाममं पूर्वमं नोडलनंतगुणमुमं स्थितिकांडकायाममुमं पूर्वमं नोडलं संख्यातगुणायाममुमं अनंतानुबंधिगळ्गे गुणसंक्रममुंटप्पुरिदं गुणसंक्रमद्रव्यमुम पूर्वमं नोडलुमसंख्यातगुणमुमनितु संख्यातसहस्रस्थितिकांडकंगळिवं तावन्मात्रस्थितिबंधापसरणंगळिवमुमोदु स्थितिकांडकं बीळ्व कालदोळु संख्यात- १० सहस्त्रानुभागकांडकंगळ प्रमाणविंद संख्यातसहस्रानुभागकांडकघातंगळं प्रत्तिसुत्तमपूर्वकरण इति सामग्रीविशेषविशिष्टोऽसंयतादिचतुर्गुणस्थानान्यतमवेदकसम्यग्दृष्टिरधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रागुक्तचतुरावश्यकानि कुर्वन् तं करणं नीत्वानंतरसमयेऽपूर्वकरणं गतः तैः समं प्रतिसमयं प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तिदेशसंयतसकलसंपतगुणश्रेणिद्रव्येभ्यः असंख्यातासंख्यातगुणमनंतानुबंधिद्रव्यमनंतानुबंधिविसंयोजकः, अपकृष्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणकालद्वयात्साधिकेपि संयतगुणश्रेण्यायामात संख्यातगुणहोने गलितावशेषगुणश्रेण्या- १५ यामे निक्षिपन् अनंतानुबंधिनः गुणसंक्रमणसद्भावात् पूर्वतोऽसंख्यातगुणं गुणसंक्रमणद्रव्यं संक्रामन् पूर्वतः सामग्रीविशेषसे विशिष्ट वेदक सम्यग्दृष्टी असंयत आदि चार गुणस्थानोंमें-से किसीमें तीन करण करता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर पूर्वोक्त चार आवश्यक करता है-विशद्धताका बढाना, साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध बढ़ाना, असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभागबन्ध घटाना, सब प्रकृतियोंका स्थिति- २० बन्ध घटाना। अधःप्रवृत्तको पूर्ण करके अनन्तर समयमें अपूर्वकरणको करता है। वहाँ पूर्वोक्त चार आवश्यकोंके साथ प्रतिसमय जो प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें, देशसंयत में, वा सकलसंयतमें असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा गुणश्रेणीरूप द्रव्य है उससे असंख्यातगुणा अनन्तानुबन्धीका द्रव्य अपकर्षण करके पृथक् रखता है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे यहाँ गुणश्रेणी आयामका काल कुछ अधिक है तथापि सकलसंयमके गुणश्रेणीके । कालसे संख्यातगुणा हीन है। गलितावशेष उस गुणश्रेणीके कालमें उस अपकर्षण किये हुए द्रव्यको देता है। विशेषार्थ-सत्तारूप मोहनीय कर्मके परमाणुओंमें जितने अनन्तानुबन्धीके परमाणु हैं, उनमें से पूर्वोक्त गुणश्रेणीमें देनेके लिए अपकर्षण करके जितने परमाणु पृथक किये, उतने परमाणु पूर्वोक्त गुणश्रेणी कालके जितने समय हों, उनमें प्रतिसमय असंख्यात-असंख्यात गुणे होकर निर्जरारूप परिणत करता है। . _अनन्तानुबन्धीमें गुणसक्रम होनेसे पूर्वसे असंख्यात गुणे संक्रम द्रव्यको संक्रमाता है । अर्थात् अनन्तानुबन्धीके द्रव्यको अन्य कषायरूप परिणमाता है । १. मसंज्ञिजीवमिथ्यात्वकर्मक्के स्थितियनिष्टुप्रमाणमं सा १००० माळ्पनप्पुरि तप्रमितमकुम बुदत्यं । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणियट्टी अद्धाए अणस्स चत्तारि होंति पव्वाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टि उच्छिट्टं ॥-लब्धि . ११३ गा. अनिवृत्तिकरण प्रथमसमयवोळनंतानुबंधिग स्थितिसत्वं सागरोपमलक्ष पृथक्त्वमकुं । स्थितिकांडकायायाममुं स्थित्यनुसारमपुर्दारव पृथ्वमं नोडलु संख्यातगुणहीनमागियुं पल्या संख्यातैक भागमागि लक्षिस पडुमित स्थितिकांडकंगळ निवृतिकरणदोळु संख्यातबहुभागकालं पोगुत्तं विरलेकभागावशेषमादागळ संख्यात सहस्रं गळप्पुवर्वारिदं कुंदि स्थितिसत्वमसंज्ञिजीवस्थितिबंध समानमप्प सागरोपमसहस्त्रप्रमितमक्कुमल्लिदं मेलेयु पल्यसंख्यातैकभागमात्रायामस्थितिकांडक१० संख्यातगुणायामानि संख्यातसहस्राणि स्थितिकांडकानि घातयन् तावंति स्थितिबंधापसरणानि कुर्वन् एकैकस्मिन् स्थितिकांडकघातकाले पूर्वतोऽनंतगुणायामानि तावत्यनुभाग कांडकानि घातयं वा पूर्वकरणं नीत्वानंतरसमयेऽनिवृत्तिकरणं गच्छति । ५ ૮૮૬ गो० कर्मकाण्डे परिणाममं मोरि तदनंतरसमयदोळ निवृत्तिकरणपरिणाममं पोद्दि तत्प्रथमसमयं मोवल्गोंड क्रियमाणविशेष सुंटदाउद दोर्ड : : अणिट्टे अद्धाए अणस्स चत्तारि होंति पव्वाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टिउच्छिट्ठ ॥ १५ तत्प्रथमसमयेऽनंतानुबंधिनां स्थितिसत्त्वं सागरोपमलक्षपृथक्त्वमात्रं । तत उपरि तत्कालसंख्यातबहुभागे गते पल्यसंख्यातैकभागायामैः संख्यातसहस्र स्थितिकांड कैर्हीनमसंज्ञिस्थितिबंध समं सहस्रसागरोपममात्रं । तत उपरि तदायामस्तावद्भिस्तैर्हीनं चतुरिद्रियस्थितिबन्धसमं शतसागरोपममात्रं । तत उपरि तदायामैस्तावदिद्मस्तैर्हीनं त्रोंद्रियं स्थितिबन्धसमं पंचाशत्सागरोपममात्रं । तत उपरि तदाया मैस्तावद्भिस्तैर्हीनं द्वींद्रियस्थितिबन्धसमं पंचविशतिसागरोपममात्रं । तत उपरि तदायामस्तावद्भिस्तैर्हीन मेकेंद्रिय स्थितिबन्धसममेकसागरोपममात्रं । २० पूर्व से असंख्यातगुणे आयाम -- समयका प्रमाण - को लेकर संख्यात हजार स्थिति काण्डकोंका घात करता है अर्थात् जो पूर्व में कर्मोकी स्थिति सत्ता में थी उसको घटाता है । उतने ही नये कर्मो स्थितिबन्धका अपसरण करता है-स्थितिबन्धको घटाता है। एकएक स्थितिकाण्डक के घात करनेके कालमें पूर्व से अनन्तगुणे अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदादि रूप आयामको लिये अनुभागकाण्डकोंका नाश करता है। ऐसा करते हुए अपूर्वकरणको पूर्ण २५ करता है । उसके अनन्तर समय में अनिवृत्तिकरण करता है । अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व या सत्त्वरूप स्थिति पृथक्त्व लाख सागर प्रमाण है । उसके ऊपर उस अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यातका भाग देकर, एक भाग बिना शेष बहुभाग प्रमाण काल बीतनेपर - पल्यके संख्यातवें भाग प्रमाण एक-एक काण्डक - एक-एक बार इतनी स्थिति घटाना, ऐसे संख्यात हजार स्थितिके काण्डकों३० के द्वारा एक हजार सागर प्रमाण स्थिति रहती है जो असंज्ञीके स्थितिबन्ध जितनी है । उसके ऊपर उतने ही प्रमाण उतने ही काण्डकोंके द्वारा चौइन्द्रियके बन्धके समान सौ सागरकी स्थिति रहती है। उससे ऊपर उतने ही प्रमाणवाले उतने ही काण्डकों द्वारा तेइन्द्रियके स्थितिबन्धके समान पचास सागरकी स्थिति रहती है । उसके ऊपर उतने ही प्रमाणवाले उतने ही काण्डकोंके द्वारा दोइन्द्रियके स्थितिबन्धके समान पच्चीस सागरकी स्थिति रहती ३५ है | उसके ऊपर उतने ही आयामको लिये काण्डकोंके घटानेपर एकेन्द्रियके बन्धके समान Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८८७ सहस्रगलिदं कुंदि चतुरिद्रियजीवस्थितिबंधसमानशतसागरोपमस्थितिसत्वमकुमल्लिदं मेलेयु पल्यासंख्यातेकभागायामस्थितिकांडक सहस्रायामंगळिंदं कुंदित्रोंद्रियजीवस्थितिबंध समान पंचाशत् सागरोपमप्रमितस्थितिसत्वमक्कुल्लिदं मेलयु पल्यासंख्यातेकभागायामस्थितिकांडकसहस्रगळिवं कुंदि द्वौद्रियजीवस्थितिबंधसमानपंचविंशतिसागरोपमस्थितिसत्वमक्कुल्लिदं मेले यु पल्यासंख्यातैकभागायामस्थितिकांडकसहस्रगळिदं कुंदि एकेंद्रियजीवस्थितिबंधतमानैकसागरोपमस्थितिसत्वमक्कुमल्लिदं मेलेयुं तावन्मात्रायामसंख्यातसहस्रस्थितिकांडकंगळिदं कुंदि पल्यप्रमितस्थितिसत्वमक्कुमो द्वितीयपर्वपल्यप्रमितस्थितिसत्वदिदं मेले पल्यासंख्यातेकभागमात्रदूरापकृष्टिस्थितिपयंतं पल्यासंख्यातबहुभागायामस्थितिकांडकसहस्रंगळिवं कुंदि दूरापकृष्टि येब तृतीयपर्वस्थितिमितपल्यासंख्यातेकभागमात्रस्थितिसत्वमक्कुमल्लिदं मेले उच्छिष्टावलिपय्यंत पल्यासंख्यातबहभागायामस्थितिकांडकंगळु संख्यातसहस्रंगळिवं कुंवि १० अनंतानुबंधिस्थितिसत्वमावलिप्रमितमक्कुमिदुच्छिष्टावलिये बुदक्कुमिवक्के सरेंतपकुम दोडा. तत उपरि तदायामैस्तावद्धिस्तीनं पल्यमात्र । ( अत उपरि पल्यमात्र) अत उपरि पल्यासंख्यातबहभागायामैस्तावद्भिस्तैहीनं दुरापकृष्टिसंज्ञं पल्यासंख्यातकभागमा । तत उपर्येतदायामस्तावद्भि-नमुच्छिष्टावलिसंज्ञमावलिमात्र । एतावस्थिताववशिष्टायां विसंयोजनोपशमनक्षपणाक्रिया नेतोदमच्छिष्टावलिनाम । ते निषेकाः आवलिकाले परप्रकृतिरूपेण भूत्वा गलंति इत्येवं तच्चतुष्क तच्चरमसमये सर्व विसंयोजितं द्वादशकषायनवनोकषायरूपं १५ नीतं। अंतो मुहुत्तकालं विस्सभिय पुणोवि तिकरणं करिय । अणयट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेई ।। तदनंतरमंतर्मुहतं विश्रम्यानंतानुबंधिचतुष्कं विसंयोज्यांतर्मुहूर्तानंतरं करणत्रयं कृत्वानिवृत्तिकरणकाले संख्यातबहुभागे गते शेषैकभागे मिथ्यात्वं ततः सम्यग्मिध्यात्वं ततः सम्यक्त्वप्रकृति च क्रमेण क्षपयति, दर्शन- २० एक सागरकी स्थिति रहती है । उसके ऊपर उतने ही आयामको लिये उतने ही काण्डकोंके घटानेपर पल्यप्रमाण स्थिति रहती है । उसके ऊपर पल्यके असंख्यात भागमें-से एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण आयामको लिये उतने ही काण्डकोंके द्वारा स्थितिको घटानेपर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति रहती है उसे दूरापकृष्टि कहते हैं। उसके ऊपर उतने ही आयामको लिये उतने ही काण्डकोंके द्वारा आवली प्रमाण स्थिति रहती है । उसे ही उद्दिष्टा- २५ वली कहते हैं; क्योंकि उतनी स्थिति शेष रहनेपर विसंयोजन या उपशमन या क्षपणा क्रिया नहीं हो सकती। ये शेष रहे आवलीकालके निषेक उस आवलीकालमें एक-एक निषेक रूपसे अन्य प्रकृति रूप परिणमन करके गल जाते हैं। इस प्रकार अनन्तानुवन्धीचतुष्क उस उच्दिष्टावलीके अन्तिम समयमें विसंयोजनरूप होकर अन्य बारह कषाय और नव नोकषाय रूप हो जाता है। उसके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम लेता है। अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करने के बाद एक अन्तर्मुहूत बीतनेपर पुनः तीन करण करता है। उनमें से अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात भागोंमें-से बहुभाग बीतकर एक भाग शेष रहनेपर पहले मिथ्यात्वका, फिर सम्यग्मिथ्यात्वका, फिर सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करता है । दर्शनभोहकी क्षपणाके प्रारम्भके प्रथम समयसे लेकर सम्यक्त्वमोहनीयकी प्रथम स्थितिके कालमें अन्तमुहूर्त शेष रहने तक तो .. क-११२ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८८ गो० कर्मकाण्डे वलिमात्रायशिष्टमावागळाव कम्मंगळगावोडं विसंयोजनक्रियेयुमुपशमनक्रियेयु क्षपणेयुमिल्लप्पुवरिवच्छिष्टावलिये दु सरक्कुमा उच्छिष्टावलिमात्र निषेकंगळं तावन्मात्रकालक्के परप्रकृतिस्वरूपविदं परिणमिसि पोपुववक्क स्वमुखोवयमिल्लप्पुदरिवं। यितनंतानुबंधिविसंयोजनमनिवृत्तिकरणपरिणामचरमसमयदोळु क्रोधमानमायालोभंमळनक्रमविदं विसंयोजिसि किरिसियंतम्महतं. ५ कालमं विश्रमिसि कळेदु : अंतोमुहत्तकाळं विस्समिय पुणोवितिकरणं करिय । अणियट्टीए मिच्छ मिस्सं सम्मं कमेण णासेदो॥ ऐवितु करणत्रयमं माडि अनिवृत्तिकरणकालदोळ संख्यातबहुभारं पोगि एकभागावशेषमावागळु मिथ्यात्वप्रकृतियुमं बळिक्कं सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुमं बळिक्कं सम्यक्त्वप्रकृतियुमं १० क्रमविंद केडिसि दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभप्रथमसमयदोळु सम्यक्त्वप्रकृतियोळ स्थापिसिव प्रथम स्थित्याममंतम्मुंहतमात्रावशेषमावागळु चरमसमयप्रस्थापकनक्कुमनंतरसमयं मोदल्गोंडु आ प्रथमस्थितिचरमनिषेकपथ्यंतं निष्ठापकनक्कुमीदर्शनमोहक्षपकरुगळु, प्रस्थापकरुगळं निष्ठापकरुगळुमेंदु द्विविधरप्परल्लि । प्रस्थापकर्मनुष्यासंयतादि चतुर्गुणस्थानत्तिगळक्कुं। निष्ठापकरुगळ बद्घायुष्यरुगळपेक्षेयिदं वैमानिकनिर्वृत्यपर्याप्त सत्ती.तीर्थकृतकृत्यवेवकसम्यग्दृष्टिगळं भोग१५ भूमिजनिर्वृत्यपर्याप्ताऽतीर्थकृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यतिथ्यचरुगळु। घमें य निर्वृत्य मोहक्षपणाप्रारंभप्रथमसमयस्थापितसम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थित्यायामांतर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापकः । अनंतरसमयादाप्रथमस्थितिचरमनिषेकं निष्ठापकः, प्रस्थापकोऽयमसंयतादिचतुर्वन्यतमो मनुष्य एव । निष्ठापकस्तु बद्धायुष्कापेक्षया वैमानिकषर्मानारकभोगभूमितिर्यग्मनुष्यनिर्वृत्त्यपर्याप्तः । अबद्घायुष्कापेक्षया मनुष्य एव स च निष्ठापकः । कृतकृत्यवेदककालांतरमहर्ते गते क्षायिकसम्यग्दष्टिः स्यात् । अयं कश्चित्कर्मभूमिमनुष्यः तीर्थबंधं प्रारभ्य न प्रारभ्य वा चरमांगः तस्मिन्नेव भवे क्षपकश्रेणिमारुह्य घातीनि हत्वा सातिशयनिरतिशयकेवली २० प्रस्थापक कहाता है। उसके अनन्तर समयसे लेकर प्रथम स्थितिके अन्तिम निषेक पर्यन्त निष्ठापक कहाता है। सो प्रस्थापक तो असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानवी मनुष्य होता है। निष्ठापक बद्धायुकी अपेक्षा वैमानिक देव या प्रथम नरकका नारकी या भोगभूमिका मनुष्य या तिथंच निवृत्यपर्याप्तक भी होता है। किन्तु अबद्धायुकी २५ अपेक्षा मनुष्य ही निष्ठापक होता है । कृतकृत्यवेदकका काल अन्तर्मुहूर्त बीतनेपर क्षायिक सम्यग्दृष्टी होता है। ___ यह क्षायिक सम्यग्दृष्टी कोई कमभूमिका मनुष्य तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ कर अथवा न प्रारम्भ कर चरमशरीरी उसी भवमें क्षपकश्रेणि चढ़ घातिया कर्मोको नष्ट कर सातिशय या निरतिशय केवली होता है। और जो तीसरे भवमें मुक्त होना होता है तो देवायुको बाँध ३० १. तित्थयरसत्तकम्मा तदियभवे तन्भवे हु सिज्ञई। खायियसम्मत्तो पुण उक्कस्सेण चउत्थभवे । देवेसु देवमणुवे सुरणरतिरिये चउग्गईसुपि। कदकरणिज्जष्पत्ति कमेण अन्तोमहत्तण ॥ अस्या गाथाया विवरण-कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वकाले चतुर्भागीकृते प्रथमसमयादारभ्यांतमुहूत्त'प्रथमभागे मृतो देवेषूत्पद्यते । नान्यगतिजेषु । तत्कालमितरगतित्रयगमनकारणसंक्लेशपरिणामामावात् ॥ | Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतत्त्वप्रदीपिका ८८९ पर्याप्त सतीर्थ तीर्थकृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिगळमप्पुरिदं चतुर्गतिजरुगळप्परु । आ चतुर्गतिजरुगळेल्लरुगळु तंतम्म कृतकृत्यवेदक कालमंतर्मुहर्त्तमात्रं पोगुत्त विरलु क्षायिकसभ्यग्दृष्टिगळप्परु । अबद्धायुष्कापेक्षयिदं मनुष्यासंयतादिचतुर्गुणस्थानतिगळु निष्ठापकरुगळु तंतम्म कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वकालं पोगुत्त विरलु असंयतादि नाल्कु गुणस्थानवत्तिगळ सतीत्थंरुमतीर्थरुगळु क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्परंता अतीबद्घायुष्करुगळु तीर्थकरश्रीपादमूलदोळमितर. ५ केवलिश्रुतकेवलिद्वयश्रीपादोपांतदोळु षोडश भावनाबलदिदं तीत्थंबंधप्रस्थापकरप्परंतप्प क्षायिक सम्यग्दृष्टि सतीर्थातीत्यरुगळु केलंबचरगांगरादोडा भवदोळे क्षपकरण्यारोहणं गेय्दु घातिगळं किडिसुवक्र्केडिसि अतिशयकेवलिगळू निरतिशयकेवलिगलमप्पर्केलबर्तृतीयभवदोळ घातिगळं किडिसुव पक्षदोळ देवायुष्यमनों दने कट्टि सौधर्मकल्पं मोदल्गोंडु सर्वार्थसिद्धिपर्यंत पुट्टि दिव्यभोगंगळननुभविसि बंदु पंचदशकर्मभूमिगळोळुत्तमसंहननरुगळागि पुट्टि केलंबप्पंचकल्याण- १० युतरुं कलंबऑयिक सम्यग्दृष्टिगळु चरमांगरुगळागिए घातिगळं किडिसुवरा क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळल्लं बंधयोग्यमप्प नामकम्मं बंधस्थानंगळु यथासंभवंगळु अष्टाविंशत्यादि पंचस्थानंगळप्पुर्वेदु पेळल्पटुदु सुघटमक्कुं २८ । दे। २९ । दे ति म ३० । दे आ २। म तो ३१ । दे आ २। तो। १॥ वेदकसम्यक्त्वं द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिगळप्प असंयतादि नाल्कु गुणस्थानत्तिगळप्प मनुष्यरुगळोळ तत्सम्यक्त्वकालांतर्मुहूर्त चरमसमयानंतरसमयदोळु सम्यक्त्वप्रकृत्युदयदिदं १५ वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि तत्सम्यक्त्वप्रथमसमयं मोदल्गोंडु मनुष्यासंयतनष्टाविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कटुगु। २८। दे २९ । वे ति। मनुष्यवेशसंयतनं प्रमत्तसंयतनुं द्विस्थानंगळं कटुवरु । २८ । वे २९ । वे ति । अप्रमत्तसंयतनुमा द्विस्थानंगळमं देवगत्याहारद्विकयुतमागि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं देवगत्याहारकतीत्थंयुत एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवरु। २८ । दे। २९ । वे ति । स्यात् । तृतीयभवे सेत्स्यन् देवायुरेव बध्वा वैमानिकेष्वेवावतीर्य दिव्यभोगाननुभूयागत्य पंचदशकर्मभूमिषूतम- २० संहननो भूत्वा घातीनि हंति । एते क्षायिकसम्यग्दृष्टयो यथा संभवमष्टाविंशतिकादीनि पंच बध्नति. असंयतादिचतुर्गुणस्थानवर्तिमनुष्यद्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टयः केचिन्मृत्वा वैमानिकासयतेषूत्पन्नास्ते च कर्मभूमिमनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयश्च स्वस्वांतर्मुहूर्तकाले गते सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो जायते । कर्मभूमिमनुष्यसादिमिथ्यादृष्टयः सम्यक्त्वप्रकृत्युदयेन मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्यासंयतादिचतुर्गुणस्थानवेदकसम्यग्द बध्नीयुः । केचिन्न बध्नीयुः । वैमानिक देवोंमें उत्पन्न हो दिव्य भोगोंको भोग, वहाँसे चयकर पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्तम संहननका धारी होकर घातिकोको नष्ट करता है। ये क्षायिकसम्यग्दृष्टी यथासम्भव अठाईस आदि पाँचका बन्ध करते हैं । आगे वेदकमें कहते हैं___असंयतादि चार गुणस्थानवी मनुष्य द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टी कोई मरकर वैमानिक देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टी रूपमें जन्म लेते हैं वे वेदकसम्यग्दृष्टी होते हैं। तथा कर्मभूमिया ३० मनुष्य प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी अपने उपशम सम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्तकाल बीतनेपर सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे वेदकसम्यग्दृष्टी होता है। तथा कर्मभूमिया मनुष्य सादिमिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे मिथ्यात्वके उदयरूप निषेकोंका अभाव कर असंयतादि चार गणस्थानोंमें वेदक सम्यग्दृष्टी होकर तीर्थंकर प्रकृतिको बाँधता है, कोई नहीं बाँधता है । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे ३० । दे आ २। ३१ दे आ तो ॥ आ द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिगळ मरणमाद पक्षदोलु सौधर्मावि सर्व्वार्थसिद्धिपध्यवसानमाद देवासंयतरुगळोळ तदुपशमसम्यक्त्वकाल चरमसमयानंतर समयदोळु सम्यक्त्वप्रकृत्युदयदिदं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि तत्प्रथमसमयं मोवल्गोंडु मनुष्यगतितीत्थंयुतद्विस्थानंगळं कट्टुवरु । २९ । म ३० । म ती ॥ अथवा मनुष्यगतिय कम्र्म्मभूमि साबि ५ मिथ्यादृष्टिजीवंगळु मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु सम्यक्त्वप्रकृत्युदर्यादिदं मिथ्यात्व प्रकृत्युदय निषेकं गळनुकर्षसि वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि असंयतादि नाल्कु गुणस्थानमं पोदवरवर्गळं केवलिद्वयश्रीपादोपांतदोळ षोडशभावनेगळं भाविसि तीर्थंकरपुण्यवंधमं प्रारंभिसिदव गंगळोळ संयतनोळ देशसंयतनोळं प्रमत्तसंयतनोळमष्टाविंशत्यादि द्विस्थानंगळु बंधमप्पुवु । २८ । वे २९ । देति ॥ अप्रमत्तसंयतनोळु अष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळ बंधमप्पुवु । २८ । दे २९ । वे ती । ३० । दे १० आ २ । ३१ । दे आ ती ॥ प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळप्प नाकु गुणस्थानवत्तिकम्र्मभूमिमनुष्य रुगळोळसंयतं तत्प्रथमोपशमसम्यक्त्व कालमंत मुहूर्त मात्रमदु पोगुत्तिरलु सम्यक्त्व प्रकृत्युदर्याविवं वेदकसम्यग्दृष्टियक्कुमा प्रकारविंद देशसंयतनुं प्रमत्तनुं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि देवगतियुताष्टाविंशत्यादिद्विस्थानंगळं कट्टुबरु । २८ । दे २९ । देती ॥ अप्रमत्तप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियु तत्सम्यक्त्वकालं पोंदि बळिषके सम्यक्त्वप्रकृत्युदर्याददं वेदकसम्यग्दृष्टियागियुं तद्विस्थानंगळ मं १५ देवगत्याहार देवगत्या हा रतीत्थंयुतस्थानमनंतु नाल्कु स्थानमं कट्टुवं । २८ । वे २९ । दे तो । ३० । वे आ ३१ । वे आ ती ॥ मत्तमी मनुष्यगतिय कृतकृत्यवेदकरुगळं नाकु गुणस्थानवत्तगळं मी प्रकादिदं कट्टुवर । नरकगतियोळ नारकप्रथमोपशमसम्यक्त्वकाल चरमसभ यानंतर समयदोळु सम्यक्त्वप्रकृत्युदर्याददं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि मोबल मूरुं नरकंगळोळ असंयतरुगळु सतीर्थातीर्थमनुष्यगतियुतनर्वाविशति आदि द्विस्थानंगळ कट्टुवरु । २९ । म । ३० । म ती ॥ ८९० २० एते वेदकाः कृतकृत्यवेदकाश्चाष्टाविंशतिकादीन्यसंयतादित्रयो द्वे अप्रमत्तश्चत्वारि बध्नंति । नरकगती प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयः स्वकालानंतरसमयं प्राप्य सम्यग्मिथ्यादृष्टिसादिमिध्यादृष्टयः मिश्रमिध्यात्व प्रकृत्युदयनिकानुत्कृष्य च सम्यक्त्व प्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा धर्मादित्रये सतीर्थातीर्थ नवविंशतिकादिद्वयं बघ्नंति । शेष पृथ्वीषु मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । कर्मभोगभूमितिर्यंचो भोगभूमिमनुष्याश्च प्रथमोपशमसम्यक्त्वं त्यक्त्वा सादिमिथ्यादृष्टितियंचो मिथ्यात्वोदय निषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाद्वेदकसम्यग्दृष्टयो जायंते ते च भोग२५ भूमिकृतकृत्यवेदकाश्च देवगत्यष्टाविंशतिकं बध्नंति देवकृतकृत्यवेदका नवविंशतिकादिद्वयं २९ म ३० मती । ये वेदकसम्यक्त्वी और कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी असंयत आदि तीन तो अठाईस, उनतीस दोको और अप्रमत्त अठाईस आदि चारको बाँधते हैं । नरकगति में प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टी अपने कालके अनन्तर समयको प्राप्त होकर जो मिश्रगुणस्थानी या सादि मिध्यादृष्टी होते हैं वे मिश्रप्रकृति वा मिध्यात्व प्रकृतिके उदय ३० निषेकों को मिटाकर सम्यक्त्त प्रकृतिके उदयसे वेदकसम्यग्दृष्टी होकर घर्मा आदि तीन नरकोंमैं तो तीर्थंकर सहित या तीर्थंकर रहित उनतीस और तीसके स्थानको बाँधते हैं। शेष नरकोंमनुष्यगति सहित उनतीसको ही बाँधते हैं। कर्मभूमिया या भोगभूमिया तिथंच और Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८९१ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिगळ, धर्म्म पोळे संभविसुगुमप्युदरमा जीवंगळोळमा द्विस्थानंगळ बंघमप्पुवु । २९ । म ३० । म ती ॥ शेषचतुः पृथ्विगळोळु प्रथमोपशमसम्यक्त्वचरमसमयानंतर समयवोळु सम्यक्त्व प्रकृत्युदर्यावदं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि मनुष्यगतियुत नवविंशति प्रकृतिस्थानमनोद कटुवरु । २९ । म ॥ सर्व्वपृथ्विगळ नारकरुगळोळ मिश्ररुगळे सादिमिथ्यादृष्टिगळु मिश्रमिथ्यात्वप्रकृत्युदयनिषेकं गळ नुस्कबिसि सम्यक्त्व प्रकृत्युदयदिदं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि मोदल मूरुं नरकंगळ नारकरगळ, सतीर्थातोत्थं नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कट्टुवरु । २९ । म ३० । म ती || शेष पृथ्विगळ मिश्ररुं सादिमिथ्यादृष्टिजीवंगळं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि मनुष्यगतियुतनवविशतिप्रकृतिस्थानमनों वने कट्टुवरु । २९ म ॥ तिर्य्यचप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळ तत्सम्यक्त्वकाल चरमसमयानंतरसमयदोळ सम्यक्त्वप्रकृत्युदर्याददं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि तत्सम्यक्त्वप्रथमसमयं मोदंगों डु मुनिनंते देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कट्टुवरु ॥ २८ ॥ दे ॥ १० सादिमिथ्यादृष्टिगळप्प तिय्यंचरुगळं मिथ्यात्व प्रकृत्युदयनिषेकं गळनुकर्षसि सम्यक्त्व प्रकृत्युदय - दिवं वेदसम्यग्दृष्टिगळागियुमा स्थानमने कट्टुवरु । २८ । दे ॥ भोगभूमितियग्मनुष्य रुगळ प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळ, तत्सम्यक्त्वचरमसमयानंतर समयदोळ सम्यक्त्वप्रकृत्युदर्यादिदं वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनों दने कट्टुवर । २८ दे ॥ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिगळुमा स्थानमनोंदने कट्टुवरु। २८ । वे ॥ दिविजनिर्वृत्य पय्र्य्याप्त कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिगळ नवविंशत्यादिद्विस्थानंगळं कट्टुवरु । २९ । म । ३० ॥ म तो । प्रथमोपशमसम्यदृष्टिसुरगळ तत्सम्यक्त्वकाल चरमसमयपय्र्यंतं मनुष्यगतियुतनर्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमनों दने कट्टुत्ति अनंत रसमयदोळ [सम्यक्त्वप्रकृत्युदयदिदं वेवकसम्यग्दृष्टिगळागियुमा स्थानमनो दने कट्टुवर । २९ म ।। सादिमिध्यादृष्टिदिविजरुगळ भवनत्रयाद्युपरिम ग्रैवेयकावसानमादवर्गळ करणत्रयमं माडियुं मेण्माडदेयु यथासंभवमागि सम्यक्त्वप्रकृत्युदर्याददं मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु २० वेदकसम्यग्दृष्टिगळागि मनुष्यगतियुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमनों दने कट्टुवरु । २९ । म ॥ 0 प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयस्तत्र जातवेदकसम्यग्दृष्टयश्च तन्नवविंशतिकमेव । भवनत्रयाद्युपरिमग्रैवेयकांतसादिमिथ्यादृष्टयः करणत्रयमकृत्वा कृत्वा वा यथासंभवं सम्यक्त्व प्रकृत्युदयान्मिथ्यात्वं त्यक्त्वा वेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा तदेव बनंति ॥ ५५० ॥ ५ २५ भोगभूमिया मनुष्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वको छोड़ सादिमिध्यादृष्टि होकर मिथ्यात्व के उदय निषेकोंको मिटाकर सम्यक्त्वमोहनीयके उदयसे वेदकसम्यग्दृष्टी होते हैं । वे जीव और भोगभूमिया कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टी देवगति सहित अठाईसको ही बांधते हैं । देव कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टी उनतीस और तीसको बांधते हैं । प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टी देव तथा देवपर्याय में ही जिन्हें वेदकसम्यक्त्व हुआ है ऐसे देव मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बाँधते हैं । भवनत्रिक से लेकर उपरिम मैवेयक पर्यन्त सादिमिध्यादृष्टि जीव तीन करणों को ( करके ) या न करके यथासम्भव सम्यक्त्वमोहनीयके उदयसे मिध्यात्वको त्याग सम्यग्दृष्टी होकर मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बांधते हैं ।। ५५० ॥ ३० १५ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९२ गो० कर्मकाण्डे अडवीसतिय दु साणे मिस्से मिच्छे दु किण्हुलेस्सं वा। सण्णी आहारिदरे सव्वं तेवीसछक्कं तु ॥५५१॥ अष्टाविंशतित्रिकं द्वे सासादने मित्रे मिथ्यादृष्टौ तु कृष्णलेश्येव। संज्याहारयोरितरयोः सव्वं त्रयोविंशतिषट्कं तु ॥ सासावनरुचिगळगेल्लमष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पु । २८ । दे । २९ । ति । म। ३० । ति उ॥ मिश्ररुचिगळ्गल्ल मष्टाविंशत्यादि द्विस्थानंगळे बंधयोग्यंगळप्पुवु । २८ । दे। २९ । म ॥ मिथ्यारुचिगळोळ मत्ते कृष्णलेश्ययोळ पेळ्द त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुबु । २३ ए अ २५ । ए प । बि ति च अ।सं। म। अप। २६ । एप। आ उ। २८न दे। २९ । बि । ति । च । अ । सं। म।३०। बि। ति । च । ।सं। प उ ॥ पिल्लि सासादनरुगळ निर्वृत्यपर्याप्तपर्याप्तरुमेंदु द्विविधमप्परल्लि नरकगतियोळ निर्वृत्यपर्याप्तसासादनरुगळ खपुष्पोपमानतेंदोडे "णिरयं सासणसम्मो ण गच्छदि" एंदितु नरकगतियोळ, सासादनक पुट्टरप्पुदरिदं । पर्याप्तसासादननारकरगळ नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळ' कटुवर । २९ । ति। म। ३० । ति उ ॥ तिर्यग्गतियोळ पृथ्व्यब्बादरप्रत्येकवनस्पति द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिव्रियासंशि संज्ञि पंचेंद्रियनिर्वृत्यपर्याप्तसासावनरुगळ मष्टाविंशति प्रकृतिस्थानं पोरगागि नवविंशति द्विस्थानं१५ गळं कटुवरु । २९ । ति म । ३० । ति उ ॥ पृथ्वीकायादि असंज्ञिपय्यंतं पर्याप्तसासावनरुगळ शशशृंगोपमानरप्परु । संजिपंचेंद्रियपर्याप्तसासादनं देवगतियुताष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळं कटुगुं सासादनरुचावष्टाविंशतिकादित्रयमेव । तत्र निर्वृत्त्यपर्याप्तवादरपृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिद्वित्रिचतुरिंद्रि यासंशिसंज्ञितिर्यग्मनुष्येषु पर्याप्तनारकोभयभवनत्रया दिसहस्रारांतदेवेषु च नवविशतिफादिद्वयमेव । २९ ति म ३० ति उ । पर्याप्तसंजितिर्यग्मनुष्ययोर्देवगत्यष्टाविंशतिकादित्रयं २८ दे २९ ति म ३० ति उ। उभयानताद्युपरिमग्रैवेयकांतेषु मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । अनुदिशानुतरयोः सासादनो नास्ति । मिश्ररुचावष्टाविंशतिकादिद्वयं बध्नाति । तत्र पर्याप्तयोर्देवनारकयोर्मनुष्यगतिनवविंशतिक । तिर्यग्मनुष्ययोश्च देवगत्यष्टाविंशतिक । अनुदिशानुत्तरयोमिश्रो नास्ति । मिथ्यारुची कृष्णलेश्यावत्त्रयोविंशतिकादीनि षट् बध्नति । तत्र निर्वत्त्यपर्याप्तपर्याप्त सासादन सम्यक्त्वमें अठाईस आदि तीनका ही बन्ध होता है। वहां निवृत्यपर्याप्तक बादर, पृथ्वी, अप् , प्रत्येक वनस्पति, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञी तियंच मनुष्योंमें, पर्याप्त नारकियोंमें, और पर्याप्त-अपर्याप्त भवनत्रिकसे लेकर सहस्रार पर्यन्त देवोंमें उनतीस आदि दोका ही बन्ध होता है-तियंच या मनुष्यगति सहित उनतीस अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका । पर्याप्त संज्ञी तियंच मनुष्योंमें देवगतिसहित अठाईस आदि तीनका बन्ध होता है। पर्याप्त अपर्याप्त आनतादि उपरिम वेयक पर्यन्त मनुष्यगति सहित उनतीसका ही बन्ध होता है। अनुदिश और अनुत्तर विमानोंमें सासादन नहीं होता। मिश्ररुचि अर्थात् सम्यकमिथ्यादृष्टि अवस्थामें अठाईस आदि दोका ही बन्ध होता है। वहां पर्याप्त देव नारकी मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बांधते हैं । तिर्यच और मनुष्य देवगति सहित अठाईसको ही बाँधते हैं। अनुदिश अनुत्तरों में मिश्र गुणस्थान नहीं होता। मिथ्यारुचि अर्थात् मिथ्यात्वमें कृष्णलेश्याकी तरह तेईस आदि छह स्थानोंको बाँधते हैं । वहाँ नित्यपर्याप्त और पर्याप्त नारकी छह नरकोंमें तियंच या मनुष्यगतिसहित Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८९३ २८। वे २९ । ति म। ३०। ति उ॥ मनुष्यगतिनिर्वृत्यपर्याप्तसासादनरगळं नविंशत्यादि द्विस्थानंगळने कटुवरु । २९ । ति। म। ३०। ति उ॥ मनुष्यपर्याप्तसासादनरुगळ मष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळं कटुवर । २८ । दे। २९ । ति म । ३० । ति उ॥ एके दोर्ड नित्यपर्याप्ततिर्यग्मनुष्यमिथ्यादृष्टिसासावनरुगळोळ 'मिच्छदुगेदेवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि' एंवितु पर्याप्तरोळ देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानबंधमक्कुमप्पुरिदं। देवगतिय भवनत्रयादिसहस्रार- ५ कल्पावसानमाद निर्वृत्यपर्याप्तसासादनरोळं पर्याप्तसासावनरोळं नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळं बंधमप्पुवु। २९ । ति म। ३०। ति उ॥ आनताशुपरिमौवेयकावसानमाद निवृत्यपर्याप्तसासावनसुररुगळं पर्याप्तसुरसासादनरुगळं मनुष्यगतियुतनवविंशतिस्थानमनों वने कटुबरु । २९ । म ॥ अनुविशानुत्तर विमानंगळोळ सासादनरिल्ल । चतुग्गतिय मिश्ररगळल्लं पर्याप्त रुगळेयप्पर । निर्वृत्यपर्याप्तरुगळिल्लल्लि । नरकदेवगतिद्वयद मिधरुगळेल्लं मनुष्यगतियुतनवविंशति- १० प्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । अनुविशानुत्तरविमानंगळोळ मिश्ररुगळिल्ल । तिय॑ग्मनुष्यगतिय मिश्ररुगळ देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । २८॥ ॥ मिथ्यारचिगळोळ नरकगतिय निर्वृत्यपर्याप्तरं पर्याप्तरु मिथ्यादृष्टिगळ नवविंशतिद्विस्थानंगळं सप्तमपग्विय मिथ्यादृष्टिगळ्पोरगागि शेषनारकरेल्लं कटुवरु । २९ । ति म। ३० । ति उ ॥ सप्तमपच्चिय नित्यपर्याप्त6 पर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळ तिर्यग्गतियुतद्विस्थानंगळने कटुवरु । २९ । ति ३०। १५ ति उ॥ तिर्यग्गतिय पृथ्व्यप्तेजोवायु साधारणवनस्पतिबादरसूक्ष्मप्रत्येकवनस्पति द्वौद्रियत्रोंद्रियचतुरिंद्रियासंज्ञिसंजिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्त नित्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिजीवंगळ मष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानं पोरगागि! शेषत्रयोविंशत्यादि पंचस्थानंगळं कटुवरु । २३ । ए म । २५ । एप।वि। ति । च । असं म । अ५ २६ । एप । आ उ । २९ । वि। ति च ।। सं।म। ३०।बि। नारकेषु नवविंशतिकादिद्वयं । षट्पृथ्वीषु तिर्यग्मनुष्यगतियुतं । २९ ति म ३० ति । सप्तम्यां तिर्यग्गतियतमेव २९ ति म ३० ति उ। तिर्यग्गतौ लब्धिनित्यपर्याप्तबादरसूक्ष्मपृथ्व्यतेजोवायुसाधारणप्रत्येकवनस्पतिद्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिसंज्ञितिर्यग्मनुष्येष्वष्टाविंशतिकं विना त्रयोविंशतिकादीनि पंच । तेजोवायुषु तु-'मणुवदुर्ग मणुवाऊ उच्च णेति मनुष्यगतियुतपंचविंशतिकनवविंशतिके न स्तः । पर्याप्तासंज्ञिसंशितिर्यग्मनुष्येषु त्रयोविंशउनतीस और तीसको ही बाँधते हैं। सातवें नरकमें तिर्यचगतिसहित ही उनतीस, तीसको बाँधते हैं। तियंचगतिमें लब्ध्यपर्याप्तक, नित्यपर्याप्तक, बादर, सूक्ष्म, पृथ्वी, अप, तेज, .. वायु, साधारण, प्रत्येक वनस्पति, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी, तिथंच और मनुष्योंमें अठाईसके बिना तेईस आदि पाँच स्थान बँधते हैं। इतना विशेष है कि तेजकाय और वायुकायमें मनुष्यगति सहित पचीस और उनतीसका बन्ध नहीं होता। पर्याप्त, संज्ञी, असंज्ञी, तिर्यंच मनुष्योंमें तेईस आदि छहका बन्ध होता है । लब्ध्यपर्याप्त, नित्यपर्याप्त मनुष्योंमें अठाईसके बिना पाँचका ही बन्ध है। १. ओराळे वा मिस्से ण हि सुरणिरयाउ हारणिरय दुगं । मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अत्यी ॥ कम्मे उराळमिस्सं वेत्युक्तत्वात् । मनुष्य तिर्यन्नित्यपर्याप्तसासादने अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानं नास्ति। ३० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९४ गो० कर्मकाण्डे ति। च । असं। प उ॥ इल्लि विशेषमुंटदाउदोडे तेजोवायुकायिकंगळोळ मनुष्यगतियुतपंचविंशति नवविंशतिस्थानद्वितयमा बादरसूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्त नित्यपर्याप्तरोळं संभविसवेके दोर्ड "मणुवदुगं मणुवाऊ उच्चं ण हि तेउवाउम्मि" एंदितु बंधयोग्यंगळल्लेप्पुरिदं । पंचेद्रियासंज्ञिसंज्ञिपर्याप्तमिथ्या दृष्टिगळ त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळं कटुवरु । २३। ए ५ अ । २५ । ए प । बि। ति । च । अ।सं। म । अप।२६ । ए प । आ उ। २८ । न दे । २९ । बि । ति । च । अ । सं। म। ३० । बि। ति । च । अ । सं। १ उ॥ मनुष्यगतिय लब्ध्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिजीवंगळमष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानं पोरगागि शेषपंचत्रयोविंशत्यादि स्थानंगळं कटुवरु । २३ । ए अ । २५ । एप।बि । ति । च । अ। सं। म। अप । २६ । ए प । आ उ । २९ । बि। ति । च । ।सं। म । ३० । बि । ति । च । अ। सं। प उ । निर्वृत्यपप्तिमनुष्यमिथ्यादृष्टि१० गळुमा पंचस्थानंगळने कटुवरु । पर्याप्तमनुष्यमिथ्यादृष्टिजोवंगळ त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळं कटुवरु । २३ । ए। अ । २५ । एप। बि । ति । च ।। म । अप। २६ । ए प । आ उ । २८ । न दे । २९ । बि । ति । च। पं । म। ३० । बि । ति । च ।। ५ उ॥ देवगतियोळु भवनत्रयादि सौधर्मकल्पद्वयपथ्यंतमाद निवृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळं पर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळं पंचविंशति षड्विंशति नवविंशतित्रिंशत्प्रकृतिस्थानचतुष्टयमं कटुवरु । २५ । ए प । २६ । एप। आ। १५ उ। २९ । ति । म। ३०। ति । उ॥ मतं सानत्कुमारादिदशकल्पनिर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टि. जीवंगळं पर्याप्तमिथ्यादृष्टिजोवंगळं नवविंशत्यादिद्विस्थानंगळ कटुवरु । २९ । ति । म। ३०। ति उ ॥ आनताद्युपरिमप्रैवेयकावसानमादनियंत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळं पर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यगतियुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमनोदने कटुवरु। २९ । म॥ अनुदिशानुत्तर विमानंगळोळ मिथ्यादृष्टिगळिल्ल। यितु सम्यक्त्वमार्गणयोळ नामकम्मंबंधस्थानंगळ योजि. २० सल्पट्टवु ॥ इल्लिगे प्रस्तुतमप्प गाथासूत्रमिदु : तिकादीनि षट् । लब्धिनित्यपर्याप्तमनुष्येष तान्यष्टाविंशतिक विना पंच । देवगतो नित्यपर्याप्तापर्याप्तयोर्भवनत्रयादीशानांतेषु पंचविंशतिकड्विशतिकनवविंशतिकत्रिंशत्कानि चत्वारि । सानत्कुमारादिदशकल्पेषु नवविंशतिकादिद्वयं । आनताद्युपरिमप्रैवेयकांतेषु मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । अनुदिशानुत्तरेषु मिथ्यादृष्टिास्ति । २५ अत्र प्रस्तुतगाथासूत्रं देवगतिमें निवृत्यपर्याप्त और पर्याप्त में भवनत्रिकसे ईशानपर्यन्त तो पचीस, छब्बीस, उनतीस, तीस ये चार स्थान बँधते हैं। और सानत्कुमार आदि दस स्वर्गों में उनतीस, तीस दो स्थान बँधते हैं। आनतादि उपरिम अवेयक पर्यन्त मनुष्यगति सहित उनतीसका ही बन्ध होता है। अनुदिश अनुत्तरोंमें मिथ्यादृष्टि नहीं होते । यहाँ प्रासंगिक गाथा-अपना गुणस्थान ३० त्यागकर अनन्तर समयमें किस-किस गुणस्थानको जीव प्राप्त होता है, यह कहते हैं१. पृथ्वीकायादिचतुरिद्रियावसानमाद पर्याप्तजीवंगळ्गयु तदपर्याप्तजीवंगळ्गे पेळ्द त्रयोविंशत्यादि पंचस्थानंगळे बंधयोग्यंगळप्पुरि बेर पेळल्पटुंदिल्ल ।। . Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदोपिका चदुक्क पण पंच य छत्तिगठाणाणि अप्पमत्तंता । तिष्णुवसमगा सत्ता तियतियतिप्रदोणि गच्छति ॥ • मिथ्यादृष्टिजीवंगळ, त्रयोविंशत्यादि मिथ्यात्वमं बिट्टनंतरसमयदोळ, नाल्कुं गुणस्थानं पोद्रवरे ते दोडे मिश्ररुम संयतरुं देश संयत हम प्रम तरुगमपरपुरदं ॥ सासादनरुगळ सासादनकालावसानदनंतरसमयदोळ, नियर्मादिदं मिथ्यात्वगुणस्थानमनोंदने पोददु वरु ॥ मित्ररुगळ, मिश्रपरिणामदिदं परिच्युतरादनंतरसमयदोळ, असंयतरुगळ, मेणु मिथ्यादृष्टिगळक कुमर्दा गुणस्थानद्वयप्राप्तरप्परु || असंयतसम्पादृष्टिगळ, मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्र देशसंयताप्रमत्तगुणस्थानपंचकमं पोददु वरपुदरिदं पंचगुणस्थानप्राप्तरपरु ॥ देशसंयतरुगळ मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्र असंयताप्रम तरुगळप्परप्पुवरदं पंचगुणस्थान प्राप्तरपरु ॥ प्रमत्तसंयतरुळ, मिथ्यादृष्टिगळं सासादनरुगळं मित्ररुगम संयत रुगळु देशसंयत रुगळुम- १० प्रमत्तसंयत रुगळ मक्कुमप्युदरिदं । षड्गुणस्थानप्राप्तरप्परु | अप्रमत्तसंयत रुगळ, प्रमत्तरुम पूर्वकरणरुगळं मरणमादोडे देवासंयत रुगळु मप्परपुर्दार । गुणस्थानत्रयप्राप्तरप्परु ॥ अपूवकरणरुळुमनिवृत्तिकरणरुगळं सूक्ष्मसां परायसंयमिगळ मुपशमश्रेण्यारोहणावरोहणदो क्रमदिदमारोहण मुमवरोहण मुमप्पुदरिदं । गुणस्थानद्वयमं मरगमादोर्ड देवासंयतरुगळप्परपुदरिनसंयत- १५ गुणस्थानमनितु मूरुं गुणस्थानंगळ' पोददु गुमप्पुदरिवं गुणस्थानत्रयप्राप्तरप्परु ।। उपशांतकषायरुगळ, गुणस्थानद्वयप्राप्त रुगळेयप्पर तें दोडे अवरवतरणदोळ, सूक्ष्मतां परायरुं मरणमादोर्ड देवासंघतरुगळेयप्परप्पुर्दारदं ॥ गत्यनुवाददोळ, नारकमिथ्यादृष्टिगळ, मिश्ररुमसंयत हम परु । चतुरेक्कदुपण पंच य छत्तिगठाणाणि अप्पमत्तंता । तिष्णुवसमगे संतेत्ति य तियतियदोणि गच्छति ॥ १ ॥ स्वगुणस्थानं त्यक्त्वानंतरसमये मिथ्यादृष्टयः सासादनप्रमत्तं वर्जित्वा मिश्राद्यप्रमत्तांतानि चत्वारि गुणस्थानानि गच्छति । सासादना : मिथ्यात्वमेव । मिश्रा मिथ्यात्वासंयताख्ये द्वे । असंयता देशसंयताश्व प्रमत्तहीनान्यप्रमत्तांतानि पंच पंच । प्रमत्ताः अप्रमत्तांतानि षट् । अप्रमत्ताः प्रमत्तापूर्वकरणे मरणे देवासंयतं च । अपूर्वकरणादित्र्यु शमकाः आरोहंत्यवरोहंति मरणे देवासंयतं चेति त्रीणि त्रीणि त्रीणि । उपशांत कषाया अवतरणे सूक्ष्मसां परायं मरणे देवासंयतं चेति द्वे । ८९५ य २० मिथ्यादृष्टी सासादन और प्रमत्त गुणस्थानको छोड़ अप्रमत्त पर्यन्त चार गुणस्थानोंको प्राप्त होता है । सासादन एक मिध्यादृष्टि गुणस्थानको ही प्राप्त होता है । मिश्र मिथ्यादृष्टि और असंयत इन दोको प्राप्त होता है । असंयत और देशसंयत प्रमत्तको छोड़ अप्रमत्त पर्यन्त पाँच गुणस्थानों को प्राप्त होते हैं । प्रमत्त अप्रमत्त पर्यन्त छहको प्राप्त होता है । अप्रमत्त प्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है । मरण होनेपर असंयत देव होता है । ३० अपूर्वकरण आदि तीन उपशमश्र णिवाले ऊपर के गुणस्थान में चढ़ते हैं, नीचेके गुणस्थानमें उतरते हैं और मरनेपर देव असंयत होते हैं। इस तरह तीनों तीन-तीन गुणस्थानों को प्राप्त होते हैं। उपशान्तकषाय गिरनेपर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको और मरने पर देव असंयत होता है । क - ११३ २५ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९६ गो० कर्मकाण्डे सासादनरु मिथ्यादृष्टिगळेयप्परु | मिश्ररुगळ, मिथ्यादृष्टिगळ, मसंयत रुगळ मध्रु । असंयतरु मिश्ररुं सासादनरुं मिथ्यादृष्टिगळ मध्यरु । तिथ्यंचरुगळोळ, मिथ्यादृष्टिगळ, मिश्ररुम संयतरु देश संयतरुमप्परु | सासादन रु मिथ्यादृष्टिगळे' यप्परु । मिश्ररुगळ, मिथ्यादृष्टिगळ, मसंयतरुमप्परु । असंयतरुगळ, मिथ्यादृष्टिगळ सासादन मिश्ररुं देशसंयतरुमप्परु | देशसयतरुगळ, मिथ्या५ दृष्टिगळ सासादनरुं मिश्ररुम संयत रुम परु | मनुष्यगतिजरुगोळ, मिथ्यादृष्टिगळ मिश्ररुम १० संयतरं देशसंयत रुमप्रमत्तगळ मव्वरु । सासादन रुगळ, मिथ्यादृष्टिगळे यप्परु | मित्ररुगळ मिथ्यादृष्टिगम संयत रुमप्परु | असंयतरुतळ, मिथ्यादृष्टिग सासादनरुं मिश्ररु देशसंयतरुमप्रमत्तरपरु || देशसंयतरु मिथ्यादृष्टिगळ सासादनरुं मिश्ररुम संयत रुमप्रमत्तरुमप्परु ॥ प्रमत्तसंयत रुगळ, मिथ्यादृष्टिगळं सासादनरुमिश्ररुम संयतरुं देशसंयतरुमप्रमत्तरुमध्वरु | अप्रमत्तसंयतरु कळ प्रमत्तरुं मेले अपूर्व्यकरणरुं मरणमादोर्ड देवासंयतरुमप्परु | अपूर्व्वकरणरु आरोहणदोळ निवृत्तिकरण रुमवरोहणदोळ प्रमतसंयतरुं मरणरहितारोहणप्रथम भागमल्ल दतम्म गुणस्थानदोळारोहणावरोहणदोळे लियानुं मरणमादोडे देवासंयतरस्वरु ॥ अनिवृत्तिकरण रारोहणदोळ, सूक्ष्मसांपरायनुमवरोहण दोळपूर्वकरणनुं मरणमादोडे देवा संयतनुमप्परु | सूक्ष्म सांपरायनु आरोहणदोळपशांतकषायनुमवरोहणदोळ निवृत्तिकरणनुं मरणमादोर्ड देवासंयतनुमः ॥ उप१५ शांतकषायनु अवरोहणदोल सूक्ष्म सांपरायनुं मरणमादोर्ड देवासंयतनुमक्कुं ॥ क्षपक नियोळारोहकरल्लदवरोहकरिल्लप्पुर्दारदं । मरणरहित र पुर्दा रिदमुपूर्व्वकरणननिर्वृत्तिकरणनक्कु । मनि गत्यनुवादे तु नारक मिथ्यादृष्टयः मिश्रमसंयतं च । सासादना : मिध्यादृष्टिगुणस्थानमेव । मिश्रा मिथ्यादृष्टयसंयतं च । असंयता मिश्रांतानि त्रीणि । तिर्यग्मिथ्यादृष्टयः मिश्रादिदेशसंयतांतानि । सासादना मिथ्यादृष्टि | मिश्रा मिध्यादृष्टयसंयतं च । असंयतांता देशसंयतांतानि । देशसंयता असंयतांतानि । मनुष्य२० मिथ्यादृष्टयः विना सासादनप्रमत्तमप्रमत्तांतानि । सासादना मिध्यादृष्टि । मिश्रा मिथ्यादृष्टयसंयतं च । असंयता विना प्रमत्तमप्रमत्तांतानि पंच | देशसंयताश्च तथा । प्रमत्ता अप्रमत्तांतानि । अप्रमत्ताः प्रमत्तमपूर्वकरणं मरणे देवासंयतं च । अपूर्वकरणाः आरोहणेऽनिवृत्तिकरणमवरोहणे अप्रमत्तं, आरोहका पूर्वकरणप्रथमभागादन्यत्र मरणे देवासंयतं च । अनिवृत्तिकरणा आरोहणे सूक्ष्मसां परायमवरोहणेऽपूर्वकरणं मरणे देवासंयतं च । सूक्ष्मसांपराया आरोहणे उपशांतकषाय मवरोणेऽनिवृत्तिकरणं मरणे देवासंयतं च । उपशांत एक गतिकी अपेक्षा नारकी मिध्यादृष्टि मिश्र और असंयतको, सासादन मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको, मिश्र मिध्यादृष्टि और असंयत गुणस्थानको, असंयत मिश्र पर्यन्त तीन गुणस्थानोंको प्राप्त होता है । तिर्यंच मिध्यादृष्टि मिश्र से लेकर देशसंयत गुणस्थान तक प्राप्त होता है । सासादन मिध्यादृष्टिको, मिश्र मिध्यादृष्टि और असंयतको, असंयत देशसंयतपर्यन्त चारको, देशसंगत असंयत पर्यन्त चार गुणस्थानोंको प्राप्त होता है । मनुष्य मिध्यादृष्टि सासादन और प्रमत्तको छोड़ अप्रमत्तपर्यन्त चारको सासादन मिध्यादृष्टिको, मिश्र मिथ्यादृष्टि और असंयतको, असंयत प्रमत्त बिना अप्रमत्त पर्यन्त पाँचको, देशसंयत प्रमत्त विना अप्रमत्त पर्यन्त पाँचको, प्रमत्त अप्रमत्त पर्यन्त छहको, अप्रमत्त प्रमत्त और अपूर्वकरणको तथा मरण होनेपर देवअसंयतको, अपूर्वकरण चढ़ने पर अनिवृत्तिकरण, ३० २५ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८९७ वृत्तिकरणं सूक्ष्मसांपरायनक्कुं । सूक्ष्मसांपरायं क्षीणकषायनक्कुं। क्षीणकषायं सयोगकेवलियर्छ। सयोगिकेवलि अयोगिकेवलियक्कुमयोगकेवलि सिद्धपरमेष्ठियक्कुं॥ देवगतिजरोल मिथ्यादृष्टिग मिथरुमसंयतरुमप्परु । सासादनरु मिथ्यादृष्टिगळेयप्परु । मिश्ररुगळु मिथ्यादृष्टिगळुमसंयतरुगळुमप्परु । असंयतरुगळ मिथ्यादृष्टिगळं सासादनलं मिश्ररुमप्परु ॥ संज्ञिमाग्गयोळमाहारमार्गणयोळं सर्वनामकर्मबंधस्थानंगळु बंधयोग्यंळप्पुवु ॥ असंय- ५ नाहारमार्गणेगळोळ त्रयोविंशत्यादिषट् स्थानंगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । अल्लि सर्वपृथ्वीगळ नारकर संज्ञिपंचेंद्रिय तियंचरुं सर्वमनुष्यरूं सम्वदिविजरूं संजिगळप्परल्लि नरकगतियोळु नवविंशत्यादिद्विस्थानंगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । २९ । ति म।३०। ति । उ । म ति । तिर्यग्गतियोळ तोहारयुतबंधविकल्पस्थानंगळं कळेदु शेषतिर्यग्मनुष्यगतियुतबंधस्थानंगळ त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पूव । २३ । ए अ । २५ । एप।बि। ति । च।।म। अप। २६ । एप। उ। २८ । न दे । २९ । बि । ति । च ।। म । ३० । बि । ति । च । पं । प उ ॥ मनुष्यगतियोळु सर्वस्थानंगळं बंधयोग्यंगळप्पुवु । २३ । ए अ। २५ । ए प । बि । ति । च । । म । अप। २६ । एप । आ उ । २८ । न । दे। २९ । वि। ति । च ।। मदे। ति । ३० । बि। ति । च ।। पउ। म ति। दे। आ२।३१। दे। आति । १॥ देवगतियोल पंचविंशत्यादि चतु:स्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । २५ । एप। २६ । ए प। आ उ । २९ । ति म।३०। ति उ।म ती। असंज्ञि- १५ मार्गणे तिर्यग्गतियोळेयक्कुमल्लि । पृथ्व्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिबादरसूक्ष्मप्रत्येकवनस्पतिद्वोंद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियासंजिपंचेंद्रियमिनितुमसंजिजीवंगळप्पुरिदमी असंज्ञिलब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपातपर्याप्तजीवंगळ्गे बंधयोग्यंगळ अयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळप्पुवु । २३ । ए अ। २५ । एप। कषायमवरोहणेऽनिवृत्तिकरणं मरणे देवासंयतं च । उपशांतकषाया अवरोहणे सूक्ष्मसांपरायं मरणे देवासंयतं च । क्षपकश्रेण्यामारोहणमेव नावरोहणमरणे तेनापूर्वकरणोऽनिवृत्तिकरणमनिवृत्तिकरणः सूक्ष्मसापरायं, सूक्ष्म- २० सांपरायः क्षीणकषायं, क्षीणकषायः सयोगकेवलिनं, सयोगकेवली अयोगकेवलिनं, अयोगकेवली सिद्धं । देवमिथ्यादृष्टयः मिश्रमसयतं च, सासादनाः मिथ्यादृष्टि, मिश्रा मिथ्यादृष्टयसंयतं च, असंयता मिश्रांतानि, संश्याहारमागंणयोर्नामबंधस्थानानि सर्वाणि, असंश्यनाहारयोस्त्रयोविंशतिकादीनि षट् । तत्र को उतरनेपर अप्रमत्तको और मरनेपर देवअसंयतको, अनिवृत्तिकरण चढ़नेपर सूक्ष्मसाम्पराय को, उतरनेपर अपूर्वकरणको, मरनेपर देवअसंयतको, सूक्ष्मसाम्पराय २५ चढ़नेपर उपशान्तकषायको, उतरनेपर अनिवृत्तिकरणको मरनेपर देव असंयतको, उपशान्तकषाय उतरनेपर सूक्ष्मसाम्परायको और मरनेपर देवअसंयतको प्राप्त होता है। क्षपकश्रेणिमें चढ़ना ही है, उतरना या मरण नहीं होता। अतः अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणको, अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्परायको, सूक्ष्मसाम्पराय क्षीणकषायको, क्षीणकषाय सयोगीको, सयोगी अयोगीको और अयोगी सिद्धपदको प्राप्त होता है। देवमिथ्यादृष्टि मिश्र और असंयतको, सासादन मिथ्यादृष्टिको, मिश्र मिथ्यादृष्टि और असंयतको, असंयत मिश्र पर्यन्त तीनको प्राप्त होता है। संज्ञी और आहारमार्गणामें नामकर्म के सब बन्धस्थान होते हैं। असंज्ञी और अनाहारकमें तेईस आदि छह होते हैं । ३० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९८ गो० कर्मकाण्डे बि । ति । च । ।म । अ प । २६ । ए प। आ। उ । २८ । न । दे । २९ । बि । ति । च । । म। ३०। बि। ति। च। पं। प उ॥ आहारमार्गणे नोकर्महारविवक्षेयिनप्पुदरिदं चतुर्गतिसाधारणमक्कुमल्लि । नारकरोळु नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळुबंधयोग्यंगळप्पुवु । २९ । ति। म। ३०। ति उ। म तो ॥ तिर्यग्गतियोळु पृथ्व्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतिबादरसूक्ष्मप्रत्येकवनस्पतिविफलत्रयपंचेंद्रियासंज्ञिसंज्ञिगळिविनितुमाहारिगळप्पुरिदं त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळं बंधयोग्यंगळप्पुवु । २३ । ए अ। २५ । एप। बि। ति। च। पं।म। अप । २६ एप। आ। उ । २८ । न । दे। २२ । बि । ति । च ।प। म।३०। बि । ति । च । पं। उ॥ मनुष्यगतियो मनुष्यरेल्लरुगळुमाहारिंगळु यथायोग्यमागि त्रयोविंशत्यादि सर्वस्थानंगळं कटुवरु । २३ । ए अ । २५ । एप। बि । ति । च ।। म। अप। २६ । एप। १० आ उ । २८ । न । दे। २९ । बि । ति । च । ।म। दे तो। ३०। बि। ति । च। पं। प उ। दे आ। ३१ । दे आ।२। तो । १॥ देवगतियोळ नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कटुवर । २९ । ति । म । ३० । ति । उ । म ती॥ अनाहारमार्गणे चतुर्गगतिसाधारणमप्पुरिदं विग्रहगतिय नारकानाहारकरोळ नवविशत्यादिद्विस्थानंगळु बंधयोग्यंगळप्पुवु । २९ । ति।म । ३० । ति उ। म तो। एकानविंशतिविधतिय्यंचानाहारकरोळुत्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु। २३ । १५ ए अ । २५ । एप। बि । ति। च । ।म । अप।२६ । ए प । आ उ । २८ । दे। इदु असंयता संज्ञिनि नारके नवविशतिकादिद्वयं २९ ति म ३०ति उ म ती। तिरश्चि तीर्थाहारजिताद्यानि षट्, मनुष्ये सर्वाणि, देवेऽष्टाविंशतिक विना पंचविंशतिकादीनि चत्वारि २५ ए प २६ ए प आउ २९ ति म ३० ति उ म तो। असंज्ञिमार्गणायां लब्धिनित्यपर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मपृथ्व्यप्तेजोवायुसाधारणप्रत्येकद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियेषु तीर्थाहारजिताद्यानि षट् । आहारमार्गणायां देवनारकेषु तन्नवविंशतिकादिद्वयं २९ ति म ३० ति उ म ती । २० तिर्यक्षु प्रयोविंशतिकादीनि षट् । मनुष्येषु सर्वाणि । अनाहारमार्गणायां विग्रहगती देवनारकेषु ते द्वे २९ ति म ३० ति उ म ती । एकान्नविंशतिविधतिर्यक्ष त्रयोविंशतिकादीनि षट् २३ ए अ, २५ ए प वि तिच पं म संज्ञी मार्गणामें नारकीमें उनतीस, तीस दो बन्धस्थान हैं। तिर्यंच में तीर्थंकर और आहारकसे रहित छह बन्धस्थान हैं। मनुष्यमें सब बन्धस्थान हैं । देवोंमें अठाईसके बिना पच्चीस आदि चार बन्धस्थान हैं-एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पच्चीस और छब्बीस, तिर्यच २५ मनुष्यगति सहित उनतीस, तिथंच उद्योत सहित या मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीस । असंज्ञो मार्गणामें लब्ध्यपर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त, पर्याप्त, बादर, सूक्ष्म, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारण, प्रत्येक, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियमें तीर्थंकर आहारक रहित आदिके छह स्थान होते हैं। आहारमार्गणामें देवों और नारकियोंमें उनतीस और तीस दो स्थान हैं। तियंचोंमें ३० तेईस आदि छह हैं । मनुष्योंमें सब हैं । अनाहारमार्गणामें, विग्रहगतिमें, देवों और नारकियों में उनतीस और तीस दो स्थान हैं । उन्नीस प्रकारके तियंचोंमें तेईस आदि छह हैं। उनमें से १.काहार। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका 1 पेर्क्षयदक्कुं । २९ । बि । ति । च ।। म । ३० | बिति । च । पं । प उ ॥ मनुष्यानाहारकरोळ त्रयोविंशत्यादिषट् स्थानंगळ बंधयोग्यंगळवु । २३ । एअ। २५ । ए प । बि । ति । च । पं । म । अ । प । २६ । ए प । आ उ । २८ । दे । २९ । बि । ति । च । पं । म । देती । ३० । बि । ति । च। पं । प उ ॥ देवानाहारकरोल नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । २९ । ति । म । ३० । ति । उ । म ती । यितु नामकर्म्मबंधस्थानंगळु गत्यादिमार्गणे गोळ योजिसलपट्टुवु ॥ तत्वरुचि सम्यक्त्वं तत्वंगळनोळिळतागियरिउद् बोधं । तत्वं तन्नोछु नरदिरं सत्वंगळ नोविर्नगळडदुवे चरित्रं ॥ ५. अनंतरं नामबंधस्थानंगळोळ पुनरुक्त भंगंगळं तोरिदपरु :णिरयादिजुदट्ठाणे भंगेणप्पप्पणम्मि ठाणम्मि । ठविण मिच्छभंगे सासणभंगा हु अस्थिति || ५५२॥ नरका विद्युतस्थानानि भंगेनात्मात्मनि स्थाने स्थापयित्वा मिथ्यादृष्टि भंगे सासादन भंगा: खलु संतति ॥ ८९९ नरकगत्यादियुतस्थानंगळनु तंतम्म भंगगळु सहितमागि तंतम्म गुणस्थानदोलु स्थापिसि नोडुतं विरल मिथ्यादृष्टिय बंधस्थानंगळ भंगंगळोळसासादनबंधस्थानंगळ भंगंगळु टेदितु मत्तं :अविरदभंगे मिस्स य देसपमत्ताण सव्वभंगा हु । अथिति ते दु अवणिय मिच्छाविरदापमादेसु ||५५३॥ अविरतभंगे मिश्र देशसंयत प्रमत्तानां सर्व्वभंगाः खलु संतोति तान् स्वपनीय मिथ्यादृष्ट्यविराप्रमादेषु ॥ । अ, २६ ए प आउ, २८ दे । इदमेकसंयतं प्रति २९ विति च पंम ३० विति च पंप उ । मनुष्येषु त्रयोविंशतिकादीनि षट् २३ ए अ २५ ए अ २५ ए पविति च पंम अ २६ ए प आउ २८ दे २९ विति २० च पंम देती ३० विति च पं उ । तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं । तत्त्वानां सम्यग्ज्ञानं बोधः । तद्वयपूर्वकं जीवाविराधनं चारित्रं ॥ ५५१ ॥ अथापुनरुक्तभंगानाह आगे अपुनरुक्क भंग कहते हैं नरक आदि गति सहित स्थानोंको अपने-अपने भंगोंके साथ अपने - अपने गुणस्थान में स्थापित करो। तो मिध्यादृष्टिके बन्धस्थानोंके भंगमें सासादनके बन्धस्थानोंके भंग आ १० नारकादिगतियुतस्थानानि स्वस्वभंगैः सह स्वस्वगुणस्थाने संस्थाप्य तन्मिथ्या दृष्टिबंधस्थानभंगेषु अठाईस ( देवगति सहित ) असंयतमें ही होता है । मनुष्यों में तेईस आदि छह हैं । तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है । तत्त्वोंका सम्यक्ज्ञान बोध है। उन दोनोंके साथ जीवोंकी विराधना न २५ करना चारित्र है || ५५१ ॥ १५ १. बिल्लियनाहारदोळु काम्मँणकाययोगमक्कुं । कम्मे उराळा नस्सं वा ॥ ओराळे वा मिस्से ण हि सुरगिर- ३० या उहारणिरयदुगं । मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अत्थी | एंदु पेळवुर्दार ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ गो० कर्मकाण्डे असंयतनभंगंगळोळ मिश्र देशसंयत प्रमत्तरुगळ बंधस्थानंगळ सर्व्वभंगंगळ मुंटे दितु तान् आ सासादन मिश्र देशसंयत प्रमत्तरुगळ बंधस्थानंगळ भंगंगळं कळेदु मिथ्यादृष्टि अविरताप्रमादरुगळ बंधस्थानं गळोळ भुजाकारादिबंधंगळ पुर्व दरियल्पडुगुं । संदृष्टि :- मिथ्यादृष्टिय नरकगतियुतस्थानं २८ न तिर्यग्गतियुतस्थानंगळु २३ २५ २६ २९ ३० मनुष्यगतियुतस्थानंगळु - ४६०८ ४६०८ १ १ ८ ८ सासादनंगे नरकगतियुतस्थानबंधं शून्यमक्कुं । ९०० २९ २५ ४६०८ १ देवगतियुतस्थानं २८ ८ तिर्य्यग्गतियुतस्थानं गळु २९ ३० ३२०० ३२०० तबंधस्थानं २८ यितु सासादनन मूरुं गतियुतबंधस्थानंगळोळु संभविसुव भंगंगळनितुं मिथ्या ८ मनुष्यगतियुतबंधस्थानं २९ म देवगति ३२०० दृष्टि चतुर्गतिय बंघस्थानंगळ भंगंगळोळ संभविसुववु । मत्तमसंयतंगे नरकगतियुतबंधस्थानमुं तिथ्यंगतियुतबंधस्थानंगळ ं संभविसवु । मनुष्यगतियुतबंधस्यानं गळु २९ ३० देवगतियुत ሪ ८ १० स्थानंगळ २८ २९ मिवरोळ मिश्रं नरकगतियुतबंधस्थानंगळं शून्यंगळु | मनुष्यगतियुतबंधस्थानं २९ म देवगतियुतबंधस्थानं २८ ई मिश्रनगतिद्वययुतद्विस्थानंगळ भंगगळं ८ ८ ८ ८ देशसंयतंगे नरकगतियुतबंघस्थानंगलं तिर्यग्गतियुतबंधस्थानंगलं मनुष्यगतियुतबंधस्थानं गळु सासादनबंधस्थानभंगाः खलु संतीति कारणात् । पुनः असंयतबंधस्थानभंगेषु मिश्र देशसंयतप्रमत्तबंध स्थान सर्वभंगाः खलु संतीति कारणाच्च तान् सासादनभंगान् मिथ्या दृष्टिभंगेषु मिश्रदेशसंयतप्रमत्तभंगान् असंयतभंगेषु १५ चापनीय मिथ्यादृष्टयविरताप्रमत्तेषु बंधस्थानभंगा भवति । संदृष्टि:- मिथ्यादृष्टेर्नरक २८ तिर्यग् २३ २५ २६ २९ ३० मनुष्य २९ २५ देवगति १ १ ८ ८ ४६०८ ४६०८ ४६०८ १ युतानि २८ । सासादनस्य नरकगतियुतं नास्ति । तिर्यग् २९ ३० मनुष्य २९ देवगतियुतानि ८ ३२०० ३२०० ३२०० 1 जाते हैं । और असंयत के बन्धस्थानोंके भंगों में मिश्र, देशसंयत और प्रमत्तके भंग आ जाते हैं। क्योंकि उनमें परस्परमें समानता है । अतः मिध्यादृष्टि के भंगोंमें सासादनके भंगों को २० और असंयतके भंगों में मिश्र, देशसंयत और प्रमत्तके भंगोंको घटाकर मिध्यादृष्टि अविरत और अप्रमत्तमें बन्धस्थानोंके भंग होते हैं । मिथ्यादृष्टि में नरकगतियुक्त अठाईसके स्थानका भंग एक है । तियंचगतियुक्त तेईसका एक, पचीसके आठ, छब्बीसके आठ, उनतीस के छियालीस सौ आठ और तीसके छियालीस सौ आठ भंग हैं। मनुष्यगतियुक्त पच्चीस में एक और उन्तीस में छियालीस सौ आठ भंग हैं। देवगति सहित अठाईसमें आठ भंग हैं । २५ सासादन में नरकगति सहित भंग नहीं हैं । तियंचगति सहित उनतीस में बत्तीस सौ, तीस में बत्तीस सौ मनुष्यगति सहित उनतीस में बत्तीस सौ देवगति सहित अठाईसमें आठ भंग Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका शून्यमक्कुं । देवगतियुतबंधंगळु ८ ८ २८ २९ ई देशसंयतन देवगतियुतबंध द्विस्थानंगळ भंगंगळु प्रमत्तसंयतंगमा देशसंयतनंते नरकगत्यादि गतित्रययुतबंधस्थानंग शून्यमक्कुं । देवगतितबंधस्थानंगळ २८ २९ ई प्रमत्त देवगतियुत द्विस्थानभंगंगळमसंयतन बंधस्थानंगळोळु ८ ८ संभव कारणमागिवासासादन बंधस्थानंगळ भंगंगळ मनी मिश्र देश संयतत्रमत्तरुगळ बंधस्थानभंगळमं कदु मिथ्यादृष्टिय असंयतन प्रमादरहितर बंधस्थानंगळोळ भुजाकारादि चतुब्बंध- ५ स्थानंगको भंगंगळवे बुदत्यं ॥ आ भुजाकारादिबंधंगळ स्वस्थानपरस्थान सर्व्वपरस्थानंगळोळ संभविमुगुमेंदु पेळदपरु :भुजगारा अप्पदरा अवट्ठिदावि य सभंगसंजुत्ता । सव्वपराणेण य णेदव्वा ठाणबंधम्मि || ५५४ ॥ भुजाकारा अल्पतरा अवस्थिता अपि च स्वभंगसंयुक्ताः । सर्व्वपरस्थानेन च नेतव्याः १० स्थानबंधे ॥ ९०१ भुजाकारबंधंगळ अल्पतरबंधंगळ अवस्थितबंधंगळ चशब्ददिदमवक्तव्य बंधं गळु स्वस्वभंगसंयुक्तंगळागिये नामस्थानबंधदो स्वस्थानबंधदोडनेयुं परस्थानबंधदोडनेयं सर्व्वपरस्थानबंधदोडनेयुं नडेसल्पडुववु ॥ स्वस्थानपरस्थान सर्व्वपरस्थानं गळे 'बुर्व र्त दोडे पेळदपरु -- २८ | मिश्रा संयतयोर्न च नरकतिर्यग्गतियुतानि । मिश्रस्य मनुष्य २९ देवगतियुते २८ असंयतस्य मनुष्य ८ ८ ८ २९ ३० देव २८ २९ गतियुतानि । देशसंयतस्य प्रमत्तस्य च केवलदेवगतियुते २८ २९ ॥५५२-५५३॥ ८८ ८ ८ ८८ तद्धा भुजाकारा अल्पतरा अवस्थिताः, चशब्दादवक्तव्याश्चेति चत्वारः, स्वस्वभंगसंयुक्ता नामस्थानबंधविषये स्वस्थानेन परस्थानेन सर्वपरस्थानेन च सह नेतव्याः || ५५४ ॥ तानि स्वस्थानादीनि लक्षयति- हैं। मिश्र और असंयत में नरकगति और तिर्यञ्चगति सहित स्थान नहीं हैं। मिश्र में मनुष्य- २० गति सहित उनतीस और देवगति सहित अठाईसके आठ-आठ भंग हैं। असंयंत में मनुष्यगति सहित उनतीस, तीस और देवगति सहित अठाईस, उनतीसके आठ-आठ भंग हैं। देशसंयत और प्रमत्त में केवल देवगति सहित अठाईस, उनतीसके आठ-आठ भंग हैं ।। ५५२-५५३ ।। विशेष - पं. टोडरमलजीने अपनी टीका में मिश्र में मनुष्यगतियुत् उनतीसके तथा असंयत में मनुष्ययुत् उनतीस-तीसके और देवगतियुत् अठाईस - उनतोसके चार-चार भंग २५ लिखे हैं । और देवगतियुत् अठाईस, उनतीस, उनतीस, तीस इन चारोंके आठ-आठ भंग लिखे हैं । कलकत्ता से मुद्रित संस्करण में इसपर टिप्पणी भी है कि कुछ पाठ संस्कृत टीकाके पाठसे अधिक प्रतीत होता है । १५ पूर्वोक्त बन्धके भुजकार अल्पतर अवस्थित और 'च' शब्दसे अवक्तव्य इस तरह चार प्रकार हैं। अपने-अपने भंगोंसे संयुक्त नामकर्मके बन्धस्थानों में स्वस्थान, परस्थान ३० और सर्वपरस्थानके साथ लाने चाहिए ।। ५५४।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ गो० कर्मकाण्डे अप्पपरोभयठाणे बंधट्टाणाण जो दु बंधस्स । सट्ठाण परहाणं सव्वपरट्ठाणमिदि सण्णा ॥५५५॥ आत्मपरोभयस्थाने बंधस्थानानां यस्तु बंधस्य । स्वस्थानपरस्थान सर्वपरस्थान मिति संज्ञा ॥ आत्मपरोभयस्थाने मिथ्यादृष्टयसंयताप्रमादरुगळ आत्म स्वस्वगुणस्थानदल्लियुं, पर स्वस्व. ५ गुणस्थानमं त्यजिसि परगुणस्थानदल्लियुं, उभयस्थाने परगति परगुणस्थानदल्लियुमितु त्रिस्थानदोळमा मिथ्यादृष्ट्यसंयताप्रमादरुगळ त्रयोविंशत्यादिबंधस्थानंगळसंबंधि भुजाकाराल्पतरावस्थि. तावक्तव्यरूपमप्प यस्तु बंधस्तस्य आउदोंदु बंधमा बंधक्कक्रमदिदं स्वस्थान भुजाकाराविबंध, परस्थानभुजाकारादिबंधदुं सर्वपरस्थानभुजाकारादिबंध, संजयकुं॥ अनंतरं मिथ्यादृष्टयादि स्वस्वगुणस्थानस्थित जीवंगळगे स्वस्वगुणस्थानच्युतियागुत्तं १. विरले नितं नितु गुणस्थानप्राप्तियक्कुम दोडे पेळ्दपरु : चदुरेक्कदुपण पंच य छत्तिगठाणाणि अप्पमत्ता । तिसु उवसमगे संतेति य तिय तिय दोणि गच्छंति ॥५५६॥ चतुरेकद्वि पंच पंच च षट् त्रिक स्थानान्यप्रमत्तांतानि। त्रिषूपशमकेषु शांते त्रिक त्रिक त्रिक द्वि गच्छंति ॥ मिथ्यादृष्टि जीवं नाल्कु गुणस्थानंगळं पोदुगुं। सासादननो दे गुणस्थानमनेन्दुगुं। मिश्रनरडे गुणस्थानमनेय्दुगुं। असंयतनुं देशसंयतनुमय्दु मम्दु गुणस्थानंगळनेय्दुवर । प्रमत्तनार गुणस्थानंगळनेम्दुगुं। अप्रमत्तं मूलं गुणस्थाननंगळनेप्दुगुं। अपूर्वकरणादि मूवरुमुपशमकरं प्रत्येक मूरुं मूलं गुणस्थानंगळ पोद्गुं । उपशांतकषायनेरडे गुणस्थानंगळं पोदर्दुगुं ॥ आत्मस्थानं स्वगुणस्थानं, परस्थानं परगणस्थानं, उभयस्थान परगतिपरगणस्थानं । अस्मिंस्त्रये यस्त मिथ्यादृष्टयसंयताप्रमत्तबंधस्थानसंबंधी भुजाकारादिबंधः स क्रमेण स्वस्थानभुजाकारादिः परस्थानभुजाकारादिः सर्वपरस्थानभुजाकारादिरितिसंज्ञः स्यात् ॥५५५॥ मिथ्यादृष्टयः स्वस्वगुणस्थानं त्यक्त्वा अप्रमत्तांताः क्रमेण चत्वार्येक द्वे पंच पंच षट् त्रीणि गुण-स्थानानि गच्छंति । अपूर्वकरणादित्र्युपशमकास्त्रीणि त्रीणि, उपशांतकषाया द्वे । ॥५५६॥ स्वस्थान आदिका लक्षण कहते हैं आत्मस्थान अर्थात् विवक्षित अपना गुणस्थान और परस्थान अर्थात् विवक्षित गुणस्थानसे अन्य गणस्थान तथा उभयस्थान अर्थात् अन्यगति और अन्यगुणस्थान, इन तीनोंमें जो मिथ्यादृष्टि, असंयत और अप्रमत्तके बन्धस्थान सम्बन्धी मुजकारादि बन्ध हैं उनकी क्रमसे स्वस्थान मुजकार आदि परस्थान भुजकार आदि और सर्वपरस्थ न मुजकारादि संज्ञा है ।।५५५॥ मिथ्यादृष्टि आदि अपने-अपने गुणस्थानको छोड़कर अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त क्रमसे चार, एक, दो, पाँच, पांच, छह और तीन गुणस्थानोंको प्राप्त होते हैं। अपूर्वकरण आदि तीन उपशमश्रेणिवाले तीन-तीनको और उपशान्त कषायवाले दो गुणस्थानों को प्राप्त होते हैं ॥५५६॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संख्याविषयगुणस्थानंगळं पेदपरु : सासणमत्तवज्जं अपमत्तंतं समल्लियइ मिच्छो । मिच्छत्तं विदियगुणो मिस्सो पढमं चउत्थं च ॥ ५५७ ॥ सासादनप्रमत्तवर्ज्याप्रमत्तांतं समाश्रयति । मिथ्यादृष्टिम्मिथ्यात्वं द्वितीयगुणः मिश्रः प्रथमं ९०३ चतुथं च ॥ सासादनप्रमत्त गुणस्थानद्वपर्वाज्जतमप्प मिश्राद्यप्रमत्तांतगुणस्थानचतुष्टयमं मिध्यादृष्टिजीवं समाश्रयिसुगुं । द्वितीयो गुणो यस्य स द्वितीयगुणः सासादनः सासादनं मिथ्यात्वमं समाश्रयिसुगं । मिश्रः मिश्रपरिणामिजीवं प्रथमं मिथ्यात्वमं चतुत्थं असंयतगुणस्थानमुमं समाश्रयितुं ॥ अविरदसम्मो देसो पमत्तपरिहीणमध्यमत्तंतं 1 छट्टाणाणि पमत्तो छट्टगुणं अप्पमत्तो दु ॥ ५५८ ॥ अविरतसम्यग्दृष्टिर्देश विरतः प्रमत्तपरिहीनमप्रमत्तांतं । षट्स्थानानि प्रमत्तः षष्ठगुणम तानि गुणस्थानानि कानीति चेदाह - मिथ्यादृष्टि: सासादनप्रमत्तं वजित्वा मिश्राद्यप्रमत्तांतानि चत्वारि गुणस्थानानि समाश्रयति । द्वितीयगुणः सासादनः मिथ्यात्वं । मिश्रः प्रथमं चतुथं च । अविरतो देशविरतश्च प्रमत्तपरिहीना प्रमत्तांतानि पंच । प्रमत्तः - अप्रमत्तांतानि षट् । अप्रमत्तः षष्ठं । तुशब्दात् उपशमकक्षपकापूर्वकरणं देवासंयतं च ॥ ५५७ - ५५८॥ प्रमत्तस्तु ॥ अविरतनुं देशविरतनुं प्रमत्तपरिहीनमप्रमत्तांतं पंचगुणस्थानंगळं समाश्रयिसुवरु । प्रमत्तसंयतनप्रमत्तांतं षट्स्थानंगळं समाश्रयिसुगुं । अप्रमत्तस्तु अप्रमत्तनुं षष्ठगुणस्थाननुमंतु शब्ददिदमुपशमक्षपकश्रेण्यारोहणवोळ पूर्वकरणगुणस्थानमुमं मरणमादोर्ड देवा संयत गुणस्थान- १५ मनंतु गुणस्थानत्रितयमं समाश्रयिसुगुं ॥ उवसामगा दु सेटिं आरोहंति य पडंति य कमेण । उवसामसु मरिदो देवतमत्तं समल्लियइ ॥ ५५९ ॥ उपशमकास्तु श्रेणिमारोहंति च पतंति च क्रमेण । उपशमकेषु मृतो देवतमत्वं समाश्रयति ॥ ५ १० २० उन गुणस्थानोंको कहते हैं मिथ्यादृष्टि सासादन और प्रमत्तको छोड़ मिश्र से अप्रमत्त पर्यन्त गुणस्थानोंको प्राप्त होता है। दूसरे सासादन गुणस्थानवर्ती मिध्यादृष्टि गुणस्थानको ही प्राप्त होता है । मिश्र पहले और चौथे गुण स्थानको प्राप्त होता है। असंयत और देशसंयत प्रमत्त बिना अप्रमत्त पर्यन्त पाँच-पाँच ही गुणस्थानोंको प्राप्त होते हैं। प्रमत्त अप्रमत्त पर्यन्त छह गुण- ३० स्थानोंको प्राप्त होता है । अप्रमत्त छठेको और 'तु' शब्दसे उपशमक क्षपक अपूर्वकरणको और मरण होनेपर देव असंयतको प्राप्त होता है ।। ५५७-५५८ ।। क- ११४ २५ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०४ गो० कर्मकाण्डे अपूर्वकरणाद्युपशमकरुगळ पशमधेणियनारोहणमुमनवरोहणमुमं क्रमविवं माळपरु । उपशमकरोळ मृतनादातं देवमहद्धिकत्वमं समाश्रयिसुगुमंतादोडे मरणमुपशमश्रेणियोळेल्लेडयोळं संभविसुगुम पेंदोर्ड पेळ्दपरु : मिस्सा आहारस्स य खवगा चडमाण पढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥५६०॥ मिधा आहारस्य च क्षपका आरुह्यमाण प्रथमाऽपूर्वाश्च । प्रथमोपशमसम्यक्त्वास्तमस्तमोगुणप्रतिपन्नाश्च न म्रियते ॥ मिश्राः मिश्रगुणस्थानवत्तिगळं आहारस्य च नोकाहार मिश्रकाययोगिगळं भपकाः क्षपकरुगळं आरोहत्प्रथमापुर्वाश्च उपशमश्रेण्यारूढप्रथमभागापूर्वकरणरुं प्रथमोपशमसम्यक्त्वाः १० प्रथमोपशमसम्यक्त्वमनुळ्ळवलं तमस्तमोगुणप्रतिपन्नाश्च महातमःप्रभेयोलाद सासावनमिश्रासंयतरेंब गुणप्रतिपन्नरुगळं न म्रियते सायरु। अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्त अंतोत्ति णत्थि मरणं तु । कदकरणिज्जं जाव दु सव्वपरट्ठाण अत्थपदा ॥५६१॥ अनंतानुबंधीनि विसंयोज्य मिथ्यात्वं गते अंतर्मुहर्तपथ्यंतं नास्ति मरणं तु। कृतकरणीयं १५ यावत्सर्वपरस्थानार्थपदानि ॥ अनंतानुबंधिकषायंगळं विसंयोजिसि मिथ्यात्वमं पोहिदगंतम्मुहर्तपथ्यंतं मरणमिल्ल । दर्शनमोहक्षपकंगमन्नेवरं कृतकृत्यनल्तन्नेवरं मरणमिल्ल। कृतकृत्यंगे बद्धायुष्यगपेयिदं सर्वपर अपूर्वकरणाद्युपशामका उपशमश्रेणि क्रमेणारोहंत्यवरोहंति च । उपशामकेषु मृता देवमहर्षिकत्वं समाश्रयंति ॥५५९॥ उपशमश्रेण्यां क्व म्रियते ? इति चेदाह मिश्रगुणस्थानवतिन आहारकमिश्रकाययोगिनः क्षपका आरुह्यमाणोपशमकापूर्वकरणप्रथमभागाः प्रथमोपशमसम्यक्त्वाः महातमःप्रभोत्पन्नसासादनमिधासंयताश्च न म्रियन्ते ॥५६०॥ विसंयोज्यानन्तानुबन्धिचतुष्कं मिथ्यात्वं प्राप्तोऽन्तर्मुहूतं यावत् दर्शनमोहक्षपकश्च कृतकृत्यत्वं यावत्तावन्न अपूर्वकरण आदि उपशमश्रेणिवाले उपशमश्रेणिपर क्रमसे चढ़ते हैं और क्रमसे उतरते हैं । उपशमश्रेणिमें मरे हुए महर्द्धिक देव होते हैं ।।५५९।। उपशमश्रेणिमें कहाँ मरण होता है, यह कहते हैं-- मिश्रगुणस्थानवर्ती, निवृत्यपर्याप्त अवस्थारूप मिश्रकाययोगी, क्षपक श्रेणिवाले, चढ़ते अपूर्वकरणके उपशमकके प्रथम भागवाले और प्रथमोपशम सम्यक्त्वके धारी तथा सातव नरकमें सासादन, मिश्र और असंयत नारकी मरणको प्राप्त नहीं होते ॥५६०॥ अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन कर जो मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसका एक अन्तमुहूर्त पर्यन्त मरण नहीं होता। दर्शनमोहका क्षय करनेवाला जबतक कृतकृत्य नहीं होता तबतक मरण नहीं होता ॥५६॥ १. नोकर्मवेनिसिद आहारकमिश्रकाययोगिगळेबुदर्थं । २० २५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका स्थानार्थपदंगळु सर्वपरस्थानप्रयोजनस्थानंगळ पेळल्पडुगुमवावु दोडे : देवेसु देवमणुवे सुरणरतिरिये चउग्गईसुपि । कदकरणिज्जुप्पत्ती कमसो अंतोमुहुत्तेण ॥५६२॥ देवेषु देवमनुष्ययोः सुरनरतिय॑क्षु चतुर्गतिष्वपि । कृतकरणोयोत्पत्तिः क्रमशोऽतर्मुहूर्तेन॥ कृतकृत्यवेदककालमंतर्मुहूर्तप्रमितमक्कुमा कालमं चतुर्भागमं माडिदल्लि क्रमदिदं प्रथम- ५ भागांतर्मुहूर्तदिदं मरणमादोडे दिविजरोळुत्पत्तियक्कुं। द्वितीयभागांतर्मुहूर्त्तदिदं मरणमादोडे दिविजरोळुत्पत्तियक्कुं। द्वितीयभागांतर्मुहूर्तीददंमरणमादोडे देवमनुष्ययोः देवमनुष्यरोळपुटुगुं। तृतीयभागांतर्मुहूर्तदोळु मरणमादोडे देवमनुष्यतिय॑क्षु देवमनुष्यतिर्यग्गतिगळोळु पुटुगुं । चतुर्थभागांतर्मुहूर्तस्थानदोळमरणमादोड चतुर्गतिगळोळमुत्पत्तियक्कुं॥ अनंतरं भुजाकारादिस्थानबंधमं पेळ्दपरु : तिविहो दु ठाणबंधो भुजगारप्पदरवट्ठिदो पढमो। अप्पं बंधतो बहुबंधे बिदियो दु विवरीयो ॥५६३॥ त्रिविधस्तु स्थानबंधो भुजाकाराल्पतरावस्थितः प्रथमः । अल्पं बध्नन् बहुबंधे द्वितीयस्तु विपरीतः॥ तु मत्त स्थानबंधः नामकर्मप्रकृतिस्थानबंधं त्रिविधः त्रिविधमक्कु ते दोडे भुजाकारा- १५ ल्पतरावस्थितात् भेवात् भुजाकारादिगळ बंधभेदवतणिदमल्लि प्रथमः मोदल भुजाकारबंधमाव प्रकारविंदमें दोडे अल्पं बध्नन् बहुबंधे अल्पप्रकृतिगळं कटुत्तं बहुप्रकृतिबंधमागुत्तं विरलु संभविसुगुं। नियते ॥५६१।। कृतकृत्यं बद्धायुष्कं प्रति सर्वपरस्थानानामर्थवन्ति पदान्याह कृतकृत्यवेदककालोऽन्तर्महर्तः । तस्मिंश्चतुर्भागीकृते क्रमेण प्रथमभागान्तर्महर्तेन मतो दिविजे जायते । द्वितीयभागान्तर्मुहूर्तेन मृतो देवमनुष्ययोः, तृतीयभागान्तर्मुहुर्तेन मृतो देवमनुष्यतिर्यक्षु, चतुर्थभागान्तर्मुहूर्तेन २० मृतश्चतुगंतिष्वप्येकत्र ॥६२॥ तु-पुनः नामस्थानबन्धस्त्रिधा। भुजाकारोऽल्पतरोऽवस्थितश्चेति । तत्र प्रथमोऽल्पप्रकृतिकं बघ्नतो . कृतकृत्य होनेके पश्चात् मरता है सो बद्धायु कृतकृत्यके प्रति पूर्वोक्त तीन स्थानोंमें सर्व परस्थानोंके अर्थवान पद कहते हैं - कृतकृत्यवेदकका काल अन्तर्मुहूर्त है। उसके चार भाग करें। क्रमसे अन्तर्मुहूर्तके प्रथम भागमें मरकर देवगतिमें उत्पन्न होता है। दूसरे भागमें मरा देवों या मनुष्योंमें । उत्पन्न होता है। तीसरे भागमें मरा देव, मनुष्य या तियंचोंमें उत्पन्न होता है। चौथे भागमें मरा देव, मनुष्य, तिथंच या नारकी होता है ॥५६२।। नामकर्मके बन्धस्थानके तीन प्रकार हैं-मुजाकार, अल्पतर, अवस्थित । पहले थोड़ी प्रकृतियोंको बाँधकर बहुत प्रकृतियोंको बाँधनेपर भुजकार बन्ध होता है। पहले बहुत है १. नाल्कु गतिगल सर्चपरस्थानंगळे बुदु । कृयकृत्यवेदककालचतुर्भागंगळु अवने प्रयोजनंगळागुळ्ळ पर्द गळे बुदर्थ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० ९०६ गो० कर्मकाण्डे द्वितीयः अल्पतरबंधर्म बुदुमवर विपरीतमक्कुमवें तें बोर्ड त्रिंशत्प्रकृतिस्थानावित्रयोविंशतिपत बहुप्रकृतिगळं कट्टुत्तमल्पप्रकृतिगळं कट्टुवेडयाळ वकुमप्पुरिवं २० : तदियो सणामसिद्धो सव्वे अविरुद्ध ठाणबंधभवा । ताणुपत्ति कमसो भंगेण समं तु बोच्छामि ॥५६४॥ तृतीयः स्वनामसिद्धः सर्व्वेऽविरुद्धस्थानबंधभवाः । तेषामुत्पत्ति क्रमशो भंगेन समं तु वक्ष्यामि ॥ तृतीयं अवस्थितबंधं स्वनामसिद्ध मक्कुमवस्थितरूपबंधनप्पुर्दारद । सर्व्वभुजाकार विबंधगळुमविरुद्धस्थानबंध संभूतंगळप्पुववरुत्पत्तियं क्रर्मादिदं भंगवोडने कूडि तु मर्त्त वक्ष्यामि पेव्वपेनु । अते दोर्ड : भूबादर त्रयोविंशति बध्नन् सर्व्वमेव पंचविशति । बध्नाति मिथ्यादृष्टिरेवं शेषाणामानेतव्यः ॥ पृथ्वी कायिकबादरादिबंधना मकम्मैपदंगळे कचत्वारिंशत्प्रमितंगळोळ मुंनं स्थापिसल्पट्ट त्रयोविशत्यादिस्थानंगळु भंगंगळु बेरसिद्द पवल्लि त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानंगळ पन्नों दु ११ । अष्ट १५ भंगयुत पंचविंशतिगळय्वु ५ । चतुब्भंगयुतंगळमारु ६ एकभंगयुतंगळमारु ६ अन्तु १७ स्थानंगळगं भूवादर तेवीसं बंधतो सव्वमेव पणुवीसं । बंदि मिच्छाइट्ठी एवं सेसाणमाणेज्जो || ५६५ ॥ बहुप्रकृति कबन्धे स्यात् । तु-पुनः द्वितीयः बहुप्रकृतिकं बघ्नतोऽल्पप्रकृतिकबन्धे स्यात् । तृतीयः स्वनामतः सिद्धः स्यात् अवस्थितरूपत्वात् । ते सर्वे भुजाकारादयः अविरुद्धस्थानसंभूता भवन्ति ॥५६३ - ५६४ ॥ तदुत्पत्ति पुनः पुनः क्रमेण भंगैः सह वक्ष्यामि तद्यथा I भूबादराद्येकचत्वारिंशन्नामपदयुतस्थानेषु त्रयोविंशतिकान्येकादश । २३ पंचविंशतिकान्यष्टषापंचचतु ११ प्रकृतियोंको बाँधकर थोड़ी प्रकृति बाँधनेपर दूसरा अल्पतर बन्ध होता है। तीसरा अपने नामसे ही सिद्ध है । जितनी प्रकृति पूर्वसमय में बांधी उतनी ही दूसरे समयमें बाँधे तो उसे अवस्थित कहते हैं । ये सब भुजकार आदि अविरुद्ध बन्धस्थान द्वारा होते हैं। आगे उनकी उत्पत्तिको क्रमसे भंगों के साथ कहते हैं ॥५६३–५६४॥ पूर्व में बादर पृथ्वीकायादिक इकतालीस पद कहे थे। उनमें भंगसहित स्थान २५ कहते हैं अपर्याप्त पृथ्वी, आप, तेज, वायु, साधारण ये बादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक वनस्पति, इन एकेन्द्रियके ग्यारह भेदोंके द्वारा तेईसका बन्धस्थान ग्यारह प्रकारका है। उनमें भंग एकएक होनेसे ग्यारह हुए । पचीसके स्थान में बादर पर्याप्त, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येकके भेदसे पाँच प्रकार हुए। इनमें स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश-अयशके विकल्पसे आठ-आठ भंग पाये जाते हैं । अतः चालीस हुए। तथा पर्याप्त साधारण, बादर और सूक्ष्म, पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, साधारण इन छह में स्थिर और शुभके युगलसे चार-चार भंग होनेसे चौबीस हुए । तथा अपर्याप्त दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी, पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य इन छहमें अप्रशस्तका ही बन्ध होने से एक-एक ही भंग होता है । अतः उनके छह भंग हुए । ३० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९०७ भंगंगळु ७० । षड्विंशतिप्रकृतिस्थानंगळु मष्टभंगयुतंगळ २६ । ४ नात्करोळं सुवर्तर भंगंगळु अष्टाविंशतिस्थानंगळे रडरोळ २ भंगंगळ अभत्तु २८ नवविंशतिस्थानंगळष्टभंगयुतंगळ नाल्कु ८ ९ २९ । ४ नाल्कु साविरबरु नरेंद्र भंगंगळ स्थानंगळे रडु २९ । २ अंतु नववंशतिप्रकृतिस्थानंगळा ८ ४६०८ ररोळं भंगंगळ ९२४८ । अप्पुवु । त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळु मष्टभंगयुतगळ नाल्कु ३०|४ नाल्कु ፡ सासिरदरुनूर'टु भंगंगळ स्थानमोदु १ अंतु ३०|५ त्रिशत्प्रकृतिस्थानंगळोळध्वरोळ भंगंगळ ५ ४६०८ ४६४० घोडे घाषडिति सप्ततिः २५ षविंशतिकान्यष्टधा चत्वारीति द्वात्रिंशत् २६ अष्टाविंशतिकादीन्यष्टकमिति ७० ३२ नव २८ नवविंशतिकान्यष्टवाचत्वारि चतुःसहस्रषट्शताष्टधा द्वे इत्येतावन्ति २९ त्रिंशत्कान्यष्टषा चत्वारि ९ ९२४८ इस प्रकार पचीसके बन्धस्थान में सत्तर भंग होते हैं । छब्बीसके स्थान में बादर, पृथ्वीकाय, आतप और उद्योत सहित दो और उद्योत सहित अप्काय, वनस्पतिकाय इन चारोंमें स्थिर शुभ और यशके युगलसे आठ-आठ भंग होते हैं। इस तरह छब्बीसके स्थान में बत्तीस भंग होते हैं । अठाईसके स्थान में देवगति सहितमें तीन युगलोंके आठ भंग होते हैं। और नरकगति सहित में अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होनेसे एक ही भंग होता है अतः अठाईस के स्थान में नौ भंग होते हैं । १० उनतीस के स्थान में पर्याप्त दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में तीन युगलों के आठ-आठ भंग होनेसे बत्तीस हुए। और तिर्यंचगति सहित तथा मनुष्यगति सहित दो स्थानों में प्रत्येकके छह संस्थान, छह संहनन और सात युगलोंसे ( ६×६×२×२×२× २x२x२x२) छियालीस सौ आठ भंग होनेसे बानबे सौ सोलह हुए। सब मिलाकर उनतीस के स्थान में बानबे सौ अड़तालीस भेद हुए । २० तीस के स्थान में उद्योत सहित पर्याप्त दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारोंमें उन ही तीन युगलोंके आठ-आठ भंग होनेसे बत्तीस हुए। और संज्ञी तिथंच उद्योत सहित में छियालीस सौ आठ भंग हुए। सब मिलाकर तीसके स्थान में छियालीस सौ चालीस भेद हुए | ये बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके हैं। इनके भुजकार आदि कहते हैंतेईस स्थानको बांधने के अनन्तर पचीस आदिको बांधनेपर भुजकार बन्ध होता है । सो बादर पृथ्वीकाय सहित तेईसको बाँधकर पीछे पचीस आदि स्थानोंके सब भेदों २५ बाँधे तो तेईस ग्यारह भेदोंको बांधते हुए कितने भेदोंको बाँधता है ? इस प्रकार पाँच त्रैराशिक करना । उन पांच त्रैराशिकों में प्रमाणराशि तो सर्वत्र तेईसका एक भंग ही है । फलराशि क्रमसे पचीस के सत्तर भंग, छब्बीस के बत्तीस भंग, अठाईसके नौ भंग, उनतीसके सौ अड़तालीस, और तीसके छियालीस सौ चालीस भंग हुए। इच्छाराशि सर्वत्र तेईस के ग्यारह भंग । सो फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर सब भंगों का प्रमाण होता है । सर्वत्र इच्छाराशि ग्यारह ही है । अतः सर्व फलराशियोंको ७० + ३२ + ९ + ९२४८ + ४६४० जोड़नेपर तेरह हजार नौ सौ निन्यानबे १३९९९ हुए । ३० १५ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ९०८ गो० कर्मकाण्डै नाल्कु सासिरदरुनूरनात्वत्तप्पुविर्वल्लमुं मिथ्यादृष्टि बंधयोग्यस्थानभंगंगळप्पुवल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुदोडे - भूबादरयुतत्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमनेकविधमं कट्टुवातं सप्ततिविध सर्व्वपंचविशतिस्थानंगळं कट्टुगुमा मिथ्यादृष्टि पन्नों हुं तेरव त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानंगळ नितु पंचविशतिस्थानंगळं कट्टुगुर्म दितो प्रकादिदं शेषषड्विंशत्याविस्थानंगळोळमानेतथ्यमक्कुं । त्रैराशिकंगळगे संदृष्टि : २५ १ १ २३ ३० २३/२५ ३० २५ २६ ३० २६ २८ १ ४६४० ११ १ ४६४०७० १४६४० ३२ २३२२ २३ २५ २९ २५ २६ २९ २६ २८ १९२४८ ११ १९२४८७० १९२४८ ३२ २३ २८ २३ २५ २८ २५ २६ २८ २६ १ ९ ११ १ ९ ७०१ ९ ३२ २३ २६ २३२५ २६ २५ १३२ ११ १ । ३२ ७० प्र я फ इ २३ २५ २३, १७० ११ я फ Я फ इ चतुः सहस्रषट्छताष्टाधिकमित्येतावन्ति ३० अमूनि मिथ्यादृष्टिबन्धस्थानानि अत्रैकं भूत्वा बादरयुतत्रयोविंशतिकं ४६४० बघ्नन् सप्तति पंचविंशतिकानि बध्नाति तदैकादशत्रयोविंशतिकानि बध्नन् कति पंचविशतिकानि बध्नाति ? 1 एवं शेषषड्विशतिकादिष्वप्यानेतव्यं । तत्संदृष्टि: २३ २८ २३ २५ २८ २५ २६ २८ २६ प्र १ ९ ११ १ ९ ७० १ ९ ३२ फ ६ ३० २८ २९ ३० २९ ४६४० ९ १ ४६४० ९२४८ प्रफ इ २३ ३० २३ २५ ३० २५ २६ ३० २६ २८ ३० २८ २९ ३० २९ १ ४६४० ११ १४६४०७० १ ४६४० ३२ १ ४६४०९१ ४३४० ९२४८ २३ २९ २३ २५ २९ २५ २६ २९ २६ २८ २९ २८ प्र फ इ १९२४८११ १९२४८७० १ ९२४८ ३२ १९२४८९ फ २३ २६ २३ २५ १३२ ११ १ २३ २५ २३ प्र १७० ११ प्र फ इ २९ २८ ९२४८ ९ फ २६ ३२ फ २५ प्र ७० अत्र पञ्चस्थानेषु पृथक्पृथक्स्वस्वफल भूतभंग राशी नेकीकृत्य स्वस्वैकैकेच्छाराक्षिभंगसंख्यया गुणिते १० आद्यत्र राशिकपंचके गुणिते आद्यत्रैराशिकपंचके गुण्यं त्रयोदशसहस्रनवरातनवनवतयः, गुणकारः एकादश १३९९९ |११| तदनन्तर त्रैराशिकचतुष्के गुण्यं त्रयोदशसहस्रनवशतकान्नत्रिंशतः, गुणकारः सप्ततिः इनको इच्छाराशि ग्यारह से गुणा करनेपर एक लाख तरेपन हजार नौ सौ नवासी १५३९८९ भंग हुए। इसे प्रमाणराशि एकसे भाग देनेपर उतने ही रहे। अतः तेईसके भुजाकार इतने हुए । तथा पचीसका बन्ध करके छब्बीस आदि सब स्थानोंके सब भेदोंको बाँधनेपर Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९०९ यिल्लि त्रयोविंशत्यादि भुजाकारंगळ त्रैराशिषंगळोळु प्रथमत्रयोविंशतिस्थान भुजाकार यंग पंचविशतिस्थानं मोदल्गोंडु मेले मेले त्रिशत्प्रकृतिस्थानपर्यंतमाद फलभूतस्थानं गळोळ सप्तत्यादि भंगंगळं कूडिदोर्ड पदिमूरु सासिरदोंदु गुंदे सासिरमक्कुमल्लि गुणकारं पन्नों दक्कुं । १३९९९ । ११ । पंचविंशतिभुजाकारगुण्यंगळु फलभूतभंरांग पदिमूहसा सिरदो भैनरिष्यत्तो भत्तक्कु• मल्लि गुणकारंगल एप्प तप्पुवु । १३९२९ । ७० । षड्वशतिस्थान भुजाकारगुण्यंगळु । पविमूरु- ५ सासिर नूरतो भत्तेक्कु मल्लि । गुणकारंगळ मूर्त्तरडक्कुं । १३८९७ । ३२ ॥ अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानद भुजाकारंगळ गुण्यंगळ पविमूरुसासिरखे टु नूरेण्भर्त्त टक्कुमल्लि गुणकारंगळमोंभतक्कुं । १३८८८ । ९ ॥ नवविंशतिस्थानव भुजाकारंगळ गुण्यंगळ नाल्कु सासिरदरुनूर नाव्यत्तक्कुमल्लि गुणकारंगळ मोभत्तु सासिरदिन्नूरनात्वत्त टक्कुं । ४६४० । ९२४८ । आ गुण्यगुणकारंगळं गुणिसिदोर्ड त्रयोविंशति प्रकृतिस्थानव भुजाकारंगळु लक्षमुमय्वत्तमूरु सासिरवो भैतूर भत्तो भत्त- १० १३९२९ ॥७०1 तदनन्तरत्रैराशिकत्रये त्रयोदश सहस्राष्टशतसप्तनवतयः । गुणकारो द्वात्रिंशत् । १३८९७ |३२| तदनन्तर राशिकद्वये गुण्यं त्रयोदशसहस्राष्टशताष्टाशीतयः । गुणकारो नव । १३८८८ |९| नवविंशति के गुण्यं चतुःसहस्रषट्छतचत्वारिंशतः । गुणकारी नवसहस्रद्विशताष्टचत्वारिंशतः ४६४० | ९२४८ । गुण्यगुणकारे गुणिते भुजाकार होता है । सो एक भेदरूप पच्चीसका बन्ध करके छब्बीस आदि सब स्थानोंके सब भेदों को बांधे तो पच्चीसके सत्तर भंगोंके कितने भंग होंगे। इस प्रकार चार त्रैराशिक १५ करो । यहाँ प्रमाणराशि सर्वत्र पच्चीसका एक भेद । फलराशि छब्बीसके बत्तीस भेद, अठाईसके नौ भेद, उनतीसके बानबे सौ अड़तालीस, तीसके छियालीस सौ चालीस । इच्छाराशि सर्वत्र पच्चीस के सत्तर भेद । सब फलराशियोंको जोड़नेपर ३२+९+ ९२४८ + ४६४० = तेरह हजार नौ सौ उनतीस १३९२९ हुए । उसको इच्छाराशि सत्तरसे गुणा करनेपर नौ लाख पिचहत्तर हजार तीस ९७५०३० हुए। इतने पच्चीसके मुजाकार होते हैं । छब्बीसका बन्ध करके अठाईस आदिका बन्ध करनेपर भुजाकार होता है । सो छब्बीस एक भेदका बन्ध करके सब अठाईस आदिके सब भेदोंका बन्ध करे तो छब्बीसके बत्तीस भेदोंके द्वारा कितने बन्धभेद हों, इस प्रकार यहाँ तीन त्रैराशिक करना । उनमें प्रमाणराशि तो सर्वत्र छब्बीसका एक भेद । फलराशि क्रमसे अठाईसके नौ भेद, उनतीस के बानबे सौ अड़तालीस भेद, तीसके छियालीस सौ चालीस भेद । इच्छाराशि सर्वत्र छब्बीस - २५ के बत्तीस भेद । सर्व फलराशिको जोड़नेपर ९+ ९२४८ + ४६४० = तेरह हजार आठ सौ सतानबे हुए । उनको इच्छाराशि बत्तीससे गुणा करनेपर चार लाख चवालीस हजार सात सौ चार ४४४७०४ होते हैं। इतने छब्बीसके मुजाकार जानना । अठाईसका बन्ध करके उनतीस-तीसका बन्ध करनेपर भुजाकार होता है । सो एक प्रकार अठाईसका बन्ध कर उनतीस-तीस के सब भेदोंका बन्ध करे तब नौ प्रकार अठाईसका ३० बन्ध करनेपर कितने भेद हों, इस प्रकार दो त्रैराशिक करना । उनमें सर्वत्र प्रमाणराशि अठाईसका एक भेद । फलराशि क्रमसे उनतीसके बानबे सौ अड़तालीस भेद और तीस के छियालीस सौ चालीस भेद । इच्छाराशि सर्वत्र अठाईसके नौ भेद । फलराशिको जोड़नेपर ९२४८ - ४६४० = १३८८८ तेरह हजार आठ सौ अठासी हुए । उसे इच्छाराशि नौसे गुणा करनेपर एक लाख चौबीस हजार नौ सौ बानबे १२४९९२ हुए। इतने अठाईसके स्थान- ३५ २० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३९८९ ९७५०३० गो. कर्मकाण्डे प्पुवु। २३... पंचविंशतिस्थानद भुजाकारंगळ मो भत्तलक्षमुमप्पत्तटदु सासिरद मूवतप्पुवु२५. षड्विंशतिप्रकृतिस्थानद भुजाकारंगळ नाल्कुलक्षमुं नाल्वत्त नाल्कुसासिरदे नूरनाल्कप्पुबु २६ अष्टाविंशतिस्थानद भुजाकारंगळुमकलक्षमुमिप्पत्तनाल्कु सासिरद ओ भैनूर * ४४४७०४ तो भत्तेरडहुँ २८ नविंशतिस्थानद भुनाकारंगल नाल्कु कोटियुमिप्यतोभत्तु लक्षy १२४९९२ ५ पत्तुसासिरदेनु नूरिप्पत्तु अक्कुं २९ ई भुजाकारवंधंगळेल्लं मिथ्याष्टिगळाप्पुवेंदु पेळदपरु : ४२९१०७२० त्रयोविंशकस्यै कलक्षत्रिपंचाशत्सहस्रनवशतकान्ननवतयः २३ पंचविंशतिकस्य नवलक्ष चसप्ततिसह १५३९८९ स्रत्रिंशतः २५ षड्विंशतिकस्य चतुर्लक्ष चतुश्चत्वारिंशत्सहस्र सप्तशतचत्वारि २६ अष्टाविंशतिकस्य९७५०३० ४४४७०४ कलक्षचविशतिसहस्रनवशतद्वानवतयः २८ नवविंशतिकस्य चतुष्कायकान्तत्रिशल्लक्षदशसहस्रसप्तशत १२४९९२ विशतयः २९ ॥५६५॥ ४२९१०७२० । के मुजाकार होते हैं। उनतीसका बन्ध करके तीसका बन्ध करनेपर मुजाकार होता है। सो उनतीसके एक भेदको बन्ध करके तीसके सब भेदोंको बन्ध करे तो उनतीसके बानबे सौ अड़तालीस भेदोंका बन्ध करनेके साथ कितने भेद हों। इस प्रकार एक त्रैराशिक हुआ। उसमें प्रमाणराशि उनतीसका एक भेद, फलराशि तीसके छियालीस सौ चालीस भेद । इच्छाराशि उनतीसके बानबे सौ अड़तालीस भेद । सो फलराशि छियालीस सौ चालीसको इच्छाराशि बानबेसौ अड़तालीससे गुणा करनेपर चार कोटि उनतीस लाख दस हजार सात सौ बीस भेद होते हैं। इतने उनतीसके मुजकार हुए ।।५६५।। नामकर्मके स्थानोंके भुजाकार बन्ध लानेका त्रैराशिक यन्त्र ०२ २९/३० २९ ४६४० १११४६४० ७० ४६४०, ९ १४६४०९२४८ ।२५ १ ४६४० casinsar प्रमा. फल इच्छा Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तेवीसट्ठाणादो मिच्छत्तीसोत्ति बंधगो मिच्छो । णवरि हु अट्ठावीसं पंचिंदियपुण्णगो चेव ॥५६६।। त्रयोविंशतिस्थानात्प्रभृति मिथ्याण्टि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानपथ्यंतं बंधको मिथ्यादृष्टिनवमस्ति खल्वष्टाविंशति पंचेंद्रिय पूर्णकश्चैव ॥ त्रयोविंशतिस्थानमोवल्गोंडु मिथ्यादृष्टिय त्रिशत्प्रकृति स्थानपथ्यंतं मिथ्यादृष्टिजीवं ५ भुजाकारबंधबंधकनवक्कु-मल्लि विशेषमुंटदाउदेदोडे अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं पंचेंद्रिय पर्याप्तकने कटुगुं खलु स्फुटमागि । मिथ्यादृष्टिय भुजाकारंगळु संदृष्टि- |२३१५३९८९ २५९७५०३० २६४४४७०४ २८१२४९९२ २९/४२९१०७२० मत्तं भोगभूमियमिथ्यादृष्टिगे भुजाकारबंधविशेषमुमं सम्यग्दृष्टिगं पेन्दपरु : भोगे सुरट्ठवीसं सम्मो मिच्छो य मिच्छगअपुण्णो । तिरि उगुतीसं तीसं जर उगुतीसं च बंधदि हु॥५६७॥ भोगभूमौ सुराष्टाविंशति सम्यग्दृष्टिम्मिथ्यावृष्टिश्च मिथ्यादृष्टिरपूर्णः तिय्यंगेकान्न त्रिंशतं त्रिंशतं मनुष्यैकान्नत्रिशतं च बध्नाति खलु ॥ भोगभूमियोल पंचेंद्रियपर्याप्त सम्यग्दृष्टियु मिथ्यादृष्टियु सुराष्टाविंशतिस्थानमं कटुवरु । च शब्दविदं भोगभूमिजसम्यग्दृष्टि निर्वृत्यपर्याप्तनु कटुगुं । भोगभूमिनिवृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजोवं तिर्यग्गतियुतनवविंशतिस्थानमुमं त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं मनुष्यगतियुतनविंशति प्रकृति- १५ स्थानमुमं कटुगुं स्फुटमागि। एतान् त्रयोविंशतिकादितः मिथ्यादृष्टि त्रिशत्कान्तं उक्तभुजाकरान्मिथ्यादृष्टिबध्नाति, किन्तु खल तत्राष्टाविंशतिक पर्याप्तपंचेन्द्रिय एव बध्नाति ॥५६६॥ तथा भोगभमेस्तानाह भोगभूमौ पर्याप्तपंचेन्द्रियः सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिश्च चशब्दानिवृत्त्यपर्याप्तसम्यग्दृष्टिश्च सुराष्टाविंशतिकं बध्नाति । निर्वृत्त्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिः खलु तियंग्गतिनवविंशतिकत्रिंशत्के मनुष्यगतिनवविंशतिकं च , २० बध्नाति ॥५६७॥ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तेतीससे लेकर तीस पर्यन्त कहे मुजाकारोंको मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है। किन्तु उनमें से अट्ठाईसको पर्याप्त पंचेन्द्रिय ही बाँधता है ।।५६६।। भोगभूमियोंमें कहते हैं भोगभूमिमें पर्याप्त पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टी अथवा मिथ्यादृष्टि और 'च' शब्दसे ॥ निवृत्यपर्याप्त सम्यग्दृष्टी देवगति सहित अठाईसको ही बाँधता है। और नित्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि तिर्यंचगतिसहित उनतीस या तीसको और मनुष्यगतिसहित उनतीसको बांधता है ।।५६७॥ क-११५ . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं मिथ्यादृष्टिय स्थानंगळ भंगंगळं पेळदपरु : मिच्छस्स ठाणभंगा एयारं सदरि दुगुण सोल णवं । अडदालं बाणउदी सदाल छादाल चत्तधियं ॥५६८॥ मिथ्यादृष्टेः स्थानभंगा एकादश सप्तति द्विगुण षोडश नवाष्टचत्वारिंशद् द्वानवतिशतानां ५ षट्चत्वारिंशच्चत्वारिंशदधिकाः॥ मिथ्यादृष्टिय त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळ सर्वभंगंगळ क्रमविदं एकादश । २३ । ११ । सप्ततिः । २५ । ७०। द्विगुण षोडश। २६ । ३२ । नव । २८ । ९ । अष्टचत्वारिंशद्वानवति । २९ । ९२१४८। शतानां षट्चत्वारिंशच्चत्वारिंशदधिका ३० । ४६४० । यदिती संख्याप्रमितंगळप्पुवु । मिथ्यादृष्टिगे ३० E अनंतरमल्पतर भंगंगळं पेब्दपरु : विवरीयेणप्पदरा होति हु तेरासिएण भंगा हु। पुव्वपरट्ठाणाणं भंगा इच्छा फलं कमसो ॥५६९॥ विपरीतेनाल्पतरा भवंति खलु त्रैराशिकेन भंगाः खलु । पूर्वपरस्थानानां भंगाः इच्छा फलं क्रमशः॥ अल्पतरा भंगाः अल्पतरबंधस्थानभंगंगळु भुजाकारबंधभंगंगळ्गे माडिद त्रैराशिकंगळगे विपरीतौराशिकंगळिंदमप्पुर्व ते दोडल्लि त्रयोविंशत्यादि मिथ्यादृष्टिबंधस्थानंगळोळु पूर्वस्थान प्रागुक्ता मिथ्यादृष्टेः स्थानभेदाः-त्रयोविंशतिकस्यैकादश, पंचविंशतिकस्य सप्ततिः, षड्विंशतिकस्य द्विगुणषोडश, अष्टाविंशतिकस्य नव, नवविंशतिकस्य द्वानवतिशताष्टचत्वारिंशः, त्रिंशत्कस्य षट्चत्वारिंशच्छतचत्वारिंशतः ॥५६८॥ अथाल्पतरभंगानाह अल्पतरभंगाः खलु भुजाकारभंगाथंकृतत्रैराशिकेभ्यो विपरीतत्रैराशिकर्भवन्ति । कुतः ? तत्पूर्वस्थान पूर्वोक्त प्रकारसे मिथ्यादृष्टि के स्थानभेद तेईसके ग्यारह, पचीसके सत्तर, छब्बीसके बत्तीस, अठाईसके नौ, उनतीसके बानबे सौ अड़तालीस और तीसके छियालीस सौ चालीस होते हैं ॥५६८॥ आगे अल्पतर भंगोंको कहते हैं मुजाकार भंग लानेके लिए जो त्रैराशिक किये थे उनको विपरीत करनेसे अल्पतर १. यी संदृष्टियोळु फलराशिगळ भंगंगळं ९३७० । इवक्क इच्छाराशिगळ भंगंगळं ४६४० गुणकारंगळं माळपुदेल्लडयोमित तत्तद्योग्यमागि योजिसिकोंबुदु ॥ जसमा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ९१३ भंगंगळ इच्छाराशिगळागि परस्थानभंगंगळु फलराशिगळागि क्रमदिदं त्रैराशिकंगळु माडल्पडुववप्पुरिवं । संदृष्टि |१७०४६४०१११९२४८ ३० २६ / ३० २९/२५/ २९ २८२३२८... ०० ३० २८ ३० २९२६, २९ २८२५/२८/२६/२३२६/२२४६४० १ ३२९२४८ १७० ११ ११३२ कर २० २९ ३० २९२८ २९ २८२६/२८/२६/२५/२६/२५/२३/२५ |१९२४८४६४०१.९९२४८१३२९१७०३२/१११/७० भंगानामिच्छाराशित्वेन परस्थानभंगानां फलराशित्वेन च क्रमशो विधानात् । संदृष्टिः २३ । ३० प्र0 ३० २५ । ३० २९२३/ २९ । प्रफ ३०/ २६ | ३० २९/२५/ २९ २८/२३२८ प्र| फ| 5 | १ ३२ ४६४० १७०९२४८ १११ ९ ३०/ २८ | ३० २९२६/२९ २८२५/२८/२६२३/२६/ प्र | फ|5| १ ९ ४६४० १ ३२९२४८४१७० ११ ११३२ || ३० २९ ३० २९२८ २९ २८२६/२८/२६/२५/२६/२५/२३/२५) 1१ ९२४८/४६४० १९९२४८ १३२ ९ १७०३२१ १ ११७०) भंग होते हैं । अर्थात् पहले स्थान रूप भंगोंको इच्छाराशि और पिछले स्थानके भंगोंको फलराशि करनेपर क्रमसे अल्पतर भंग होते हैं । यथा तीसका बन्ध करके उनतीस आदिका बन्ध करनेपर अल्पतर होता है। सो तीसके एक भेदका बन्ध करके उनतीस आदिके सब भेदोंका बन्ध करे तो तीसके छियालीस सौ चालीस भेदोंका बन्ध करके उनका बन्ध करनेपर कितने अल्पतर बन्ध होंगे। यहाँ पाँच राशिक करना । उनमें सर्वत्र प्रमाणराशि तीसका एक भेद। फलराशि क्रमसे उनतीसके १. भुजाकारबंधनराशिकस्य प्र २३ । फ २५ । । २३ । चरमराशि प्रति पूर्वभूतफलराशि २५ रल्पतरबंधे १० १ ७० ११ इच्छाराशिः स्यात् । तत्फलराशि प्रति परभूते २३ च्छाराशिरल्पतरबंधे फलराशिः स्यात् । तदेवमल्पतरबंधे प्र २५ । फ २३ । इ २५ ।। ( चतुर्थपंक्ती ) मेले मेले मिलितंगळु । १ ११ ७० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४ गो० कर्मकाण्डे इल्लि त्रिशत्प्रकृतिस्थान वोळल्पतर गुण्यंगळ ९३७० | गुणकारंगळ ४६४० । नवविंशतिस्थानाल्पतरगुण्यंगळ १२२ । गुणकारंगळ ९२४८ । अष्टाविंशतिस्थानबोळु गुण्यंगळ ११३ । गुणकारंगळ ९ । षड्वंशतिस्थानदोळ गुण्यंगळ ८१ । गुणकारंगळ ३२ | पंचविशतिस्थानवोळ गुण्यंगळ ११ । गुणकारंगळ ७० । गुण्यगुणकारंगळं गुणिसिद लब्धं त्रिशत्प्रकृत्यादिगळोळ क्रर्मादिदं संदृष्टि ५ भंगंगळ मिथ्यादृष्टघल्पतर भंगंगळ ३०४३४७६८०० २९११२८२५६ २८ २६ २५ १०१७ २५९२ ७७० ar free गुण्यं ९३७० । गुणकारः ४६४० । नवविंशतिके गुष्यं १२२ गुणकारः ९२४८ । अष्टाविंशतिके गुण्यं ११३ गुणकारी ९ । षविशति के गुण्यं ८१ गुणकारः ३२ । पंचविशति के गुष्टं ११ गुणकारः ७० गुण्यगुणकारे गुणिते त्रिंशत्कादिषु क्रमेण संदृष्टि: |३० | ४३४७६८०० २९ ११२८२५६ | १०१७ २८ २६ २५९२ १२५ । ७७० ४६४० ९४३५ न सौ अड़तालीस भेद, अठाईसके नौ, छब्बीसके बत्तीस, पचीसके सत्तर तेईसके १० ग्यारह । इच्छाराशि सर्वत्र तीसके छियालीस सौ चालीस भेद । फलराशिको जोड़ने पर रानवे सौ सत्तर हुआ । उसको इच्छारूप छियालीस सौ चालीससे गुणा करनेपर चार कोटि चौतीस लाख छियत्तर हजार आठ सौ हुए । सो इतने तीसके स्थान के अल्पतर हुए । उनतीसका बन्ध करनेके पश्चात् अठाईस आदिका बन्ध करने पर अल्पतर होता है । सो उनतीस के एक भेदका बन्ध करके सब अठाईस आदिके भेद बाँधे तो बानवे सौ १५ अड़तालीस भेदरूप उनतीसका बन्ध करके सबको बाँधे तो कितने भेद हुए इस प्रकार यहाँ चार त्रैराशिक करना । उनमें प्रमाणराशि सर्वत्र उनतीसका एक भेद, फलराशि क्रमसे अठाईसके नौ, छब्बीसके बत्तीस, पचीसके सत्तर तेईसके ग्यारह । इच्छाराशि सर्वत्र उनतीसके बानवे सौ अड़तालीस भेद | फलराशिको जोड़नेपर एक सौ बाईस हुए। उसको इच्छाराशि बानवै सौ अड़तालीस से गुणा करनेपर ग्यारह लाख अठाईस हजार दो सौ २० छप्पन हुए। इतने उनतीसके अल्पतर हैं । अठाईसका बन्ध करके छब्बीस आदिका बन्ध करनेपर अल्पतर होता है । सो अठाईसके एक भेदका बन्ध करके सब छब्बीस आदिके भेदोंका बन्ध करे तो अठाईसके भेदों द्वारा कितना बन्ध हो इस प्रकार यहाँ तीन त्रैराशिक करना । उनमें प्रमाणराशि सर्वत्र अठाईसका एक भेद, फलराशि क्रमसे छब्बीसके बत्तीस, पचीसके सत्तर, तेईसके २५ ग्यारह | इच्छाराशि सर्वत्र अठाईसके नौ । फलराशिको जोड़नेपर एक सौ तेरह हुए । इच्छाराशि नौसे गुणा करनेपर एक हजार सतरह हुए। इतने अठाईसके अल्पतर भंग होते हैं । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं भुजाकाराल्पतरादि भंगंगळं मिथ्यादृष्टिगे लघुकरणदिदं पेळ्दपरु : लहुकरणं इच्छंतो एयारादीहि उवरिमं जोग्गं । संगुणिदे भुजगारा उवरीदो होति अप्पदरा ॥५७०॥ लघुकरणमिच्छत एकादशादिभिरुपरिमं योगं, संगुणिते भुजाकारा उपरितो भवंत्यल्पतराः॥ मिथ्यादृष्टिय भुजाकारबंधभंगंगळुमनल्पतरबंधभंगंगनुमंतरल्पडुवल्लि लघुकरणमनिच्छ- ५ यिपंगे एकादशाद्यंकंगळिदमुपरिमांकंगळ योगमं संगुणं माडुत्तिरलु भुजाकारबंधभंगंगळप्पुवु । मेगणिदं केळगण अंकयोगमं संगुणं माडुत्तं विरलल्पतरबंधभंगंगळुमप्पुवु । अदेते दोडे संदृष्टि : ३०४६४० यिल्लि त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानभंगंगळेकादश प्रमितंगळप्पुववर मेगण सप्तत्याधुकंगळ२९९२४८ २६ ३२ २५/ ७० २३ ११ २८९ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww इयत्प्रमाणका अल्पतरभंगाः सर्वे ॥५६९।। अथ भुजाकाराल्पतरादिभंगान् मिथ्यादृष्टेलघुकरणेनाह लघुकरणमिच्छन् एकादशााकैरुपरितनांकयोगे संगुणिते भुजाकारबन्धभंगा भवन्ति । तद्यथा १० संदृष्टिः ३० । ४६४० २९ ९२४८ २८ । २६ । २३ । १ छब्बीसका बन्ध करके पश्चात् पचीस आदिका बन्ध करनेपर अल्पतर होता है । सो छब्बीसके एक भेदका बन्ध करके पचीस-तेईसके सब भेदोंको बाँधे तो छब्बीसके बत्तीस भेदोंके द्वारा कितने बन्धके भेद होंगे। इस तरह यहाँ दो राशिक करना। उनमें सर्वत्र प्रमाणराशि छब्बीसका एक भेद, फलराशि क्रमसे पचीसके सत्तर और तेईसके ग्यारह भेद। १५ इच्छाराशि सर्वत्र छब्बीसके बत्तीस भेद । फलराशिके जोड़ इक्यासीको इच्छाराशि बत्तीससे गणा करनेपर पचीस सौ बानब हुए। इतने छब्बीसके अल्पतर है। पचीसको बाँधकर तेईस बाँधनेपर अल्पतर होता है। सो पचीसके एक भेदको • बाँधकर तेईसके ग्यारह भेदोंको बाँधे तो पचोसके सत्तर भेदोंके द्वारा कितने बन्धके भेद होंगे। यहाँ एक ही राशिक है। उसमें प्रमाणराशि पचीसका एक भेद । फलराशि तेईसके २० ग्यारह भेद । इच्छाराशि पचीसके सत्तर भेद । सो फल ग्यारहको इच्छा सत्तरसे गुणा करनेपर सात सौ सत्तर हुए। इतने पचीसके अल्पतर जानना ॥५६९।। आगे मिथ्यादृष्टि के मुजाकार अल्पतर आदि भंगोंको लघु प्रक्रियाके द्वारा कहते हैं थोड़ेमें जानने की इच्छावालेको ग्यारह आदि अंकोंके द्वारा ऊपरके अंकोंके जोड़को गुणा करनेपर भुजाकार होते हैं। सो सत्तर, बत्तीस, नौ, बानबेसौ अड़तालीस, छियालीस २५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो कर्मकाण्डे नय्दुं राशिगळं कूडि पन्नों दरिद गुणिसिदोड १३९९९।११। लब्धमिदु । २३३१५३९८९ ॥ मत्तं पंचविंशतिस्थानभंगंगळु सप्ततिप्रमितंगळप्पुववर मेगण द्वात्रिंशदादि चतुःस्थानांकंगळ योगमं सप्तत्यदिदं संगुणं माडुत्तिरलु १३९२९।७० । लब्धमिदु २५।९७५०३० । मत्तं षड्विंशतिप्रकृतिस्थान भंगंगळु द्वात्रिंशत्प्रमितंगळप्पुववर मेगण नवादि त्रिस्थानोकंगळ योगमं द्वात्रिंशद्गुणकारदिदं ५ गुणिसुत्तं विरलु १३८९७१३२ । लब्धमिदु । २६।४४४७०४ । मत्तमष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानभंगंगळ नवप्रमितंगळप्पुववर मेलण अष्टचत्वारिंशदुत्तरद्वानवतिशतादि द्विस्थानांकंगळ योगमं नवांकदिदं संगुणं माडुत्तं विरलु १३८८८।९ । लब्धमिदु । २८११२४९९२॥ मत्तं नवविंशतिस्थानभंगंगळुमष्टचत्वारिंशदुत्तरद्वानवतिशतप्रमितंगळप्पुवरि मेलण चत्वारिंशदुत्तरषट्चत्वारिंशच्छतमंगुणिसुत्तं विरलु । ४६४०।९२४८ । लब्धमिदु । २९।४२९१०७२० ॥ यिंतीयग्दुं राशिगळयुति मिथ्यादृष्टिय सर्वभुजाकार भंगंगळप्पुवु । ४४६०९४३५ । अल्पतरंगळमंते मेणिदं त्रिंशत्प्रकृत्यादिगळ भंगगळिदमघस्तनाधस्तनांकंगळ युतियं गुणिसुत्तं विरलु लब्धराशिगळ मिथ्यादृष्टिय साल्पतरभगंगळप्पुवु । संदृष्टि : गुण्य ९३७० ४६४० लब्ध ३० ४३४७६८०० लब्ध २९ ११२८२५६ लब्ध २८ १०१७ लब्ध २६ २५९२ लब्ध २५ गुणकार १२२ |९२२८ ११२ ७७० एकादशभिः सप्तत्यादीनेकीकृत्य १३९९९ गुणिते त्रयोविंशतिकस्य २३ । १५३९८९ । द्वात्रिंशदादीनेकोकृत्य १३९२९ सप्तत्या गुणिते पंचविंशतिकस्य २५ । ९७५०३० । नवादोनेकीकृत्य १३८९७ द्वात्रिंशता १५ गणिते षड्विंशतिकस्य २६।४४४७०४ । उपरिमस्थानद्वयभंगानेकीकृत्य १३८८८ नवभिगुणितेऽष्टाविंशतिकस्य २८।१२४९९२ । अष्टचत्वारिंशदाद्वानवतिशतरुपरितनचत्वारिंशदप्रषट्चत्वारिंशच्छतेषु गुणितेषु नवविंशति सौ चालीसको ७०+३२+९+९२४८+ ४६४० =जोड़नेपर १३९९९ तेरह हजार नौ सौ निन्यानबे हुए। उसे ग्यारहसे गुणा करनेपर तेबीसके मुजाकार एक लाख तरेपन हजार नौ सौ नवासी १५३९८९ होते हैं। बत्तीस आदि ३२+१+९२४८+ ४६४० को २० जोड़नेपर तेरह हजार नौ सौ उनतीस १३९२९ होते हैं। उसे सत्तरसे गुणा करने पचीस के नौ लाख पिचहत्तर हजार तीस ९७५०३० भंग होते हैं। नौ आदि ९+ ९२४८ + ४६४० को जोड़नेपर तेरह हजार आठ सौ सतानबे होते हैं, उसे बत्तीससे गुणा करनेपर छब्बीसके चार लाख चवालीस हजार सात सौ चार होते ४४४७०४ हैं। ऊपरके दो स्थानोंके भंगों ९२४८+४६४० को जोड़ने पर १३८८८ तेरह हजार आठ सौ अठासी होते हैं। उसे नौ से ५२ गुणा करनेपर अठाईसके एक लाख चौबीस हजार नौ सौ बानबे होते हैं १२४९९२ । ऊपरके छियालीस सौ चालीसको बानवे सौ अड़तालीससे गुणा करनेपर उनतीसके चार करोड़ उनतीस लाख दस हजार सात सौ बीस ४२९१०७२० होते हैं । ये सब मिलकर मिथ्यादृष्टिके Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९१७ यतीय राशिगळं कूडुत्तं विरल मिध्यावृष्टिय सर्व्वाल्पतर बंधभंगंगळवु । ४४६०९४३५ । उभययोगं मिध्यादृष्टिय सर्व्वावस्थितबंधभंगप्रमाणमवकुं । ८९२१८८७० ॥ अनंत मंतु साधितंगळप्प मिथ्यादृष्टिय भुजाकाराल्पतरभंगसमासमं पेळदपरु :भुजगारपदराणं भंगसमासो समो हु मिच्छस्स । पणतीसं चउणवदी सट्ठी चोदालमंककमे || ५७१ ॥ भुजाकाराल्पतराणां भंगसमासः समोहमिथ्यादृष्टेः । पंचत्रिशच्चतुन्नवतिः षष्टिश्चश्चत्वारिशवंकक्रमे ॥ मिथ्यादृष्टिय सव्वंभुजाकाराल्पतरंगळ भंगयुतिसदृशमवकुं स्फुटमांगि। एनितु प्रमाणंगळे - बोर्ड अंकक्रमबोळ पंचत्रिंशच्चतुन्नवतियं षष्टियुं चतुश्चत्वारिंशत्प्रमितंगळप्पुवु । ४४६०९४३५ ॥ अनंतरमसंयतन भुजाकाराविगळं पेव्वपरा : कस्य २९।४२९१०७२० । मिलित्वा मिथ्यादृष्टेः सर्वभूजाकारभंगा भवन्ति ४४६०९४३५ । तदल्पतरभंगास्तु उपरितः त्रिशत्कादिभंगरघस्तनाघस्तनां कसंयोगैर्गुणिते सति भवन्ति । संदृष्टिः लब्धं गुष्यं गुणकार: ९३७० १२२ ११३ ८१ ११ ४६४० ३० ९२४८ २९ ९ २८ ३२ २६ २५ । ७० ४३४७६८०० ११२८२५६ १०१७ २५९२ ७७० अमो पंच राशयो मिलिताः ४४६०९४३५ उभययोगः मिथ्यादृष्टेः सर्वावस्थितबन्धभंगाः ८९२१८८७० ॥५७० ॥ मिथ्यादृष्टेरुक्तो भुजाकारभंग समासो ऽल्पतरभंग समासश्च खलु सदृशः । तहि किसंख्यः ? अंकक्रमेण पंचत्रिचतुर्नवतिषष्टिचतुश्चत्वारिंशन्मात्रः ४४६०९४३५ ।। ५७१ ।। असंयतस्य तानाह १० भुजाकार भंग ४४६०९४३५ होते हैं। उसके अल्पतर भंग लानेके लिये ऊपर के तीस आदि स्थानोंके भंगों से नीचे के सब भंगको जोड़-गुणा करनेपर अल्पतर होते हैं। यह कथन ऊपर कर आये हैं । उसकी संदृष्टि ऊपर संस्कृत टीकासे जानना । उसका जोड़ भी ४४६०९४३५ होता है । भुजाकार और अल्पतर दोनोंको जोड़नेपर मिध्यादृष्टिके अवस्थित भंग २० ८९२१८८७० होते हैं ।। ५७० ।। १५ मिथ्यादृष्टिके कहे मुजाकार और अल्पतर भंगोकी संख्या समान है उसकी संख्या अंकोके क्रमसे पैतीस चौरानवे साठ चवालीस है । इन्हें क्रमसे लिखने पर चार करोड़ छियालीस लाख नौ हजार चार सौ पैतीस ४४६०९४३५ होती है । इतने भुजाकार है और इतने ही अल्पतर हैं । इन दोनोंको मिलानेपर आठ करोड़ बानवे लाख अठारह हजार २५ आठ सौ सत्तर ८९२१८८७० होते हैं इतने ही अवस्थित भंग हैं; क्योंकि मुजाकार या अल्पतर भंगो में जिस जिस प्रकृति भंगका बन्ध होता है उस ही का बन्ध द्वितीयादि समय में होनेपर अवस्थित बन्ध होता है ।।५७१ ॥ आगे असंयत में कहते हैं Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ गो० कर्मकाण्डे देववीस णरदेउगुतीस मणुस्स तीस बंधयदे | ति छ णव णव दुग भंगा तित्थविहीणा हु पुणरुत्ता ॥५७२ || देवाष्टाविंशति नरदेवैकान्नत्रिंशन्मनुष्य त्रिशद्बंधासंयते । त्रिषनवनवद्विभंगास्तोत्र्त्य विहीनाः खलु पुनरुक्ताः ॥ देवाष्टाविशति नरदेवैकान्नत्रिंशत् मनुष्यत्रिंशद्बंधा संयतनोळ २८ २९ २९ ३० त्रिषड्दे म दे म ९१८ नव नवद्वि ३६९९२ । प्रमित भुजाकारंगळप्पुवर्द ते दोर्ड :देवgarसबंधे देउगुती संमि भंग चउसट्ठी । देउगुती से बंधे मणुवत्तीसे वि चउसट्ठी ||५७३ ॥ देवाष्टाविशति बंधे देवैकाशत्प्रकृतौ भंग चतुःषष्टिः । देवैकासत्रिशद्बंधे मनुष्य १० त्रिशत्प्रकृतावपि चतुःषष्टिः ॥ देवाष्टाविंशति प्रकृतिस्थानबंधमं माडुत्ति मनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टि तीर्थकर पुण्यबंध मं प्रारंभिसि तोर्थयुत देवैकान्न त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिरलल्लि चतुःषष्टि भंगंगळप्पुवु । मत्तं मनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टितीर्थयुत देवैकान्नत्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्बु मरणमाबोर्ड देवासंयतं मे नारकासंयतनुमागि तीथंयुतमनुष्य त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कट्टुतं विरलल्लियुं चतुष्वष्टि १५ भंगंगळप्पुवु । मत्तं : देवाष्टाविंशतिकनरदेव कान्नत्रिंशत्क मनुष्यत्रिशत्कबन्धासंयते २८|२९|२९| ३० त्रिषट्नवनवद्वि ३६९९२ दे म दे म मात्रभुजाकारा भवन्ति ॥ ५७२ ॥ तद्यथा - देवाष्टाविंशतिकं बध्वा मनुष्यासंयतः तीथंबन्धं प्रारभ्य तद्युतदेवैकान्नत्रिशत्कं बध्नाति तदा चतुःषष्टिः । पुनः तीर्थयुतदेवं कान्नत्रिंशत्कं बध्वा मनुष्यासंयतो देवासंयतो नरकासंयतो वा भूत्वा तीर्थंयुतमनुष्यत्रिंशत्कं २० बध्नाति तदापि चतुष्षष्टिः ||५७३ ॥ पुनः देवगति सहित अठाईस, मनुष्यगति सहित उनतीस, देवगति सहित उनतीस और मनुष्यगति सहित तीस में तीन छह नौ नौ दो इन अंकोके अनुसार छत्तीस हजार नौ सौ Marna भुजाकार होते हैं ||५७२ || इनमें तीर्थंकर रहित भंग पुनरुक्त हैं वे मिथ्यादृष्टिके भंगोंमें आ जाते हैं। यही आगे कहते हैं २५ देवगति सहित अठाईसको बाँधकर असंयत मनुष्य तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करे तो तीर्थंकर सहित उनतीसको बाँधता है। तब दोनोंके आठ आठ भंगको परस्पर में गुणा करने पर चौसठ भंग हुए । पुनः तीर्थंकर और देवगति सहित उनतीसको बांधकर मनुष्य असंयत पीछे देव या नारकी असंयत होकर वहाँ तीर्थंकर और मनुष्यगति सहित तीसको बांधता ३० है । वहाँ भी दोनोंके आठ आठ भंगोको परस्पर में गुणा करनेपर चौसठ होते हैं ॥५७३ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तित्थयरसत्तणारयमिच्छ णरऊण तीसबंधो जो । सम्मम्म तीसबंध तियछक्कडछक्कच उभंगा ||५७४ ॥ तीत्थंकरसत्त्व नारक मिथ्यादृष्टिर्न रैकान्नत्रिंशदुबंधको यः । सम्यग्दृष्टिः त्रिशत्प्रकृतिबंधक त्रिकटुकाष्टषट्कचतुब्भंगाः || यः आवनानोव्वं तीर्थंकरसत्वनारक मिथ्यादृष्टि जीवन्नन्नेवरं शरीरपर्य्याप्तिरहित नन्नेवरमष्टोत्तरषट्चत्वारिंशच्छतभंगयुत नर नवविंशति प्रकृतिस्थानबंधक नवकुमातं शरीरपर्थ्याप्तियिवं मेले सम्यक्त्व स्वीकार मागुत्तं विरल तीत्थंयुतमनुष्यत्रिशत्प्रकृतिस्थानबंधक नक्कुमल्लि । भुजाकार भंगळु चतुःषष्टयुत्तराष्टशतयुत षट्त्रिंशत्सहस्रप्रमितंगळप्पुवु । ३६८६४ ।। १२८ कूडि असंयतन भुजाकार भंगंगळ पूर्वोक्त त्रिक षट्क नव नव द्वि प्रमितंगळप्पुवु । ३६९९२ ॥ अनंतरमसंयतंगल्पतर बंधभंगंगळं पेदपरु : बावर अप्पदरा देउगुतीसा दु णिरय अडवीसं । बंधंत मिच्छुभंगणवगयतित्था हु पुणरुत्ता ||५७५ ।। द्वासप्ततिरल्पतरा वेवैकान्नत्रिंशत्प्रकृतेस्तु नारकाष्टाविंशति । बध्नतो मिथ्यात्व भंगेनापगततीर्थाः खलु पुनरुक्ताः ॥ प्राग्बद्ध नरकायुर्मनुष्यासंयतं तीर्थंकर देवगतियुतनर्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तं नरकगतिगमनाभिमुखं मिथ्यात्व कम्र्मोदर्यादिदमंत म्हत्तं कालपर्यंतं मनुष्यमिध्यादृष्टियागि नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थान बंधमं माडुतमितंगे अष्टभंगंगळप्पुवा अष्टभंगसहितमागि मत्तं ९१९ यस्तीर्थं सत्त्वनारकमिध्यादृष्टिः यावदपूर्णशरीरस्तावदष्टाग्रषट्चत्वारिंशच्छतषान रनवविंशतिक बन्धकः स शरीरपर्याप्तेरुपरि सम्यक्त्वं प्राप्य तीर्थंयुतमनुष्यत्रिशत्कं बघ्नाति तदा चतुःषष्टयग्राष्टशतषट्त्रिंशत्सहस्री ३६८६४ मिलित्वा संयत भुजाकारभंगास्तावन्तो भवन्ति । ३६९९२ ॥ ५७४॥ अथासंयतस्याल्पतरबन्धभंगानाह - प्राग्वद्धनरकायुर्मनुष्यासंयतः तीर्थबन्धं प्रारभ्य तीर्थंकरदेवगतिनवविंशतिकं बध्नन्, नरकगतिगमनाभिमुखोऽन्तर्मुहूतं मनुष्य मिथ्यादृष्टिः सन् नरकगत्यष्टाविंशतिकं बध्नाति तदाष्टो । पुनः देवो नारको वाऽसंयतः आगे असंयत में अल्पतर कहते हैं जिसने पहले नरकायुका बन्ध किया है ऐसा असंयत मनुष्य तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करके तीर्थंकर और देवगति सहित उनतीसको बाँधता है। उसके आठ भंग हैं। पीछे क- ११६ ५ १० तीर्थंकरको सत्तावाला नारकी मिध्यादृष्टी अपर्याप्त अवस्था में छियालीस सौ आठ भंगके साथ मनुष्यगति सहित उनतीसको बाँधता है । पीछे शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेपर २५ सम्यक्त्वको पाकर तीर्थंकर और मनुष्यगति सहित तीसको बाँधता है । तब उसके आठ भंगोंसे पूर्वके छियालीस सौ आठ भंगोंको गुणा करनेपर छत्तीस हजार आठ सौ चौंसठ भंग ३६८६४ होते हैं । इनमें पूर्वोक्त एक सौ अठाईसको मिलानेपर छत्तीस हजार नौ सौ नवे असंयत में भुजाकार भंग होते हैं || ५७४ || १५ २० ३० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२० गो० कर्मकाण्डै देवनारकासंयतसम्यग्दृष्टिगळु तीर्थयुतमनुष्यत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तलु मृतरागि पंचकल्याणभाजन तोत्थंकर परमदेवासंयतसम्यग्दृष्टिगळु जिनजननीगर्भक्कवतरिसुत्तं तीर्थयुतदेव नवविंशतिप्रकृतिस्थानमं कटुवरल्लि अल्पतरभंगंगळरुवत्त नाल्कप्पुवंतु द्वासप्तत्यल्पतर भंगंगळ संपतरोळप्पुवु । ७२। तीर्थरहितमनुष्यगतियुत नविंशति प्रकृतिस्थानमं कटुत्तं देवगतियुताष्टा. विशति प्रकृतिस्थानमुमं कटुगुमल्लि चतुःषष्टियल्पतर भंगंगळप्पुवा भंगंगळ पुनरुक्तंगळप्पुर्वते. वोडालन अल्पतरंगळोलु पेळल्पटुवप्पुरिदं । संदृष्टि :असंयतन भुजाकारंगळु असंयतन अल्पतरंगळ असंयत पुनरुक्तं | असंयत युति ३६८६४ भु ३६९९२ म ३० अल्पतर ७२ दे २९ अवस्थि ३७०६४ du । म ३० to du म २१ म ४६०० अनंतरं प्रमादरहितरोळु भुजाकारबंधभंगंगळं पेळ्दपर : देवजुदेक्कट्ठाणे णरतीसे अप्पमत्त भुजगारा। पणदालिगिहारुमये भंगा पुणरुत्तगा होति ।।५७६॥ देवयुतकस्थाने नरत्रिंशत् स्थाने अप्रमत्त भुजाकाराः। पंचचत्वारिंशदेकहारोभये भंगाः पुनरुक्ता भवंति ॥ तीर्थयुतमनुष्यत्रिशत्कं बध्नन्मृत्वा तीर्थकरत्वेन जननीगर्भेऽवतीर्य तीर्थयुतदेवनविंशतिकं बध्नाति तदा चतु:षष्टिः। एवं द्वासप्ततिरल्पतरभंगा असंयते भवन्ति । तोर्थोनमनुष्यगतिनवविंशतिक बध्वा देवगत्यष्टाविंशतिक बघ्नतः चतुःषष्टिरल्पतरभंगास्ते पुनरुक्ताः प्राग्मिथ्यादृष्टावुक्तत्वात् ॥५७५॥ अथाप्रमतादिषु भुजाकारबन्ध१५ भंगानाह मरते समय जब नरक गतिमें जानेके अभिमुख हुआ तो एक अन्तर्मुहूर्त के लिए मिथ्यादृष्टि होकर नरकगति सहित अठाईसका बन्ध करता है उसका एक भंग है। दोनोंको परस्परमें गुणा करनेपर आठ भंग हुए । पुनः देव या नारकी असंयत तीर्थकर मनुष्यगति सहित तीस को बाँधे तो उसके आठ भंग हुए। पीछे मरकर तीर्थंकरके रूपमें माताके गर्भ में अवतरण २० करके तीर्थंकर देवसहित उनतीसको बांधता है उसके भी आठ भंग हुए। इनको परस्परमें गुणा करनेपर चौंसठ हुए। दोनोंको जोड़नेपर बहत्तर अल्पतर भंग असंयतमें होते हैं। तथा तीर्थकर रहित मनुष्यगति सहित उनतीसको बाँधकर पीछे देवगति सहित अठाईसको बाँधनेपर चौंसठ भंग पुनरुक्त है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके भंगोंमें आ जाते हैं । इससे यहाँ नहीं कहा ॥५७५॥ आगे अप्रमत्त आदिमें मुजाकार कहते हैं : Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका देवगति युतैकभंगस्थानदोळं मनुष्यगतितोर्थयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळमप्रमादरुगळ भुजाकारभंगंगळु नात्वत्तध्दुवु । ४५ । यिगिहारुभये तीर्त्ययुत तोथंरहिताहारयुत तीर्थाहारोभय युतस्थानत्रयदोळ भंगंगळु पुनरुक्तंगळप्पुवु । संदृष्टिः प्र २९ ८ अ २८ १ १. अ ३० अ ३१ १ १ प्र २८ ८ प्र २८ ८ म ३० अ ३१ ८ १ अ २९ प्र २९ १ ८ अ ३१ २८ २९ १ १ अ ३० १ प्र प्र प्र अ प्र अ २८२८२८२९२९ ३० १ ८ ८ |१| ८ |१ Я अ ठा म अ अ २९ ३० ३१ ३० ३१ ३१ २८ २९ ३० ८ |१| १ | ८ | १ १ १ १ १ १ - ११ १ १ १ १ १ ३० अ अ अ २८ २८ २८ १ १ १ अ २८ १ १ १ ३० अनंतरमा नाल्वत्तदुं भुजाकारंगळपपत्तियं पेदपरु : अट्ठगिभेदड अट्ठड दु णव य वीस तीसेक्के । of अ अ अडिगगि अडिगिगिविह उण खिगि खिगि इगितीस देवचउ कमसो ॥ ५७७ ।। एकटा काटेकभेदे अष्टाष्टाष्ट द्विनर्वाविंशति त्रिशदेकस्मिन्नष्टकै काष्टकेकविधैकान्न चैक चैकैकत्रिंशद्देवचत्वारि क्रमशः ॥ २ देवगतियुतकस्थाने मनुष्यगतितीर्थयुत त्रिशत्कस्थाने चाप्रमत्तभुजाकारबन्धभंगा पंचचत्वारिंशत्स्युः ४५ । तीर्थेनाहारकद्वयेन तदुभयेन च युतस्थानत्रये भंगास्ते पुनरुक्ताः ॥ ५७६॥ तत्पंचचत्वारिंशत उपपत्तिमाह- १० देवगति सहित एक स्थान में और मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीसके स्थान में अप्रमत्त गुणस्थान में पैंतालीस मुजाकार होते हैं। तथा तीर्थंकर सहित, आहारकद्वय सहित और र्थंकर आहारक दोनों सहित तीन स्थानों में जो भंग हैं वे पुनरुक्त हैं ॥ ५७६ ॥ उन पैंतालीस भुजाकारोंकी उपपत्ति कहते हैं— ३१ १ १ १ १ अ १ अ पुन पुन पुन अ अ अ अप्रमादानां ११ २९ ३० ३१ भुजाकाराः ४५ १ १ १ ३१ पुन अप्रमादरुगळ भुजाकारंग १ अ ळ ४५ २८ | अल्पतर ३६ ९२१ पुन २९ १ अ→ २८ १ अ ५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे अस्तनपंक्ति एक अष्ट अष्ट एक अष्ट एक एक एक एक एकभेदे भेदंगळतुळ भंगंगळमुळ अष्ट अष्ट अष्ट नव नव विंशतिगळं त्रिशत् एक एक एक एक स्थानंगळो परितन पंक्तिय अ एक एक अष्ट एक एक एक एक एक एक भयंगळमुळ ओ दुर्गादियुं ख एक ख एक त त्रिशत्प्रकृतिस्थानं गळं एकत्रिशत्प्रकृतिस्थानमुं देवचतुःस्थानंगळं क्रमदिदमप्पुवप्पु दरिवमप्रमादरु५ गोळ नालवत्तरदे भुजाकारबंधभंगंगळवु । ई भुजाकारंगळभिप्रायं पेळल्पडुगुमदे ते बोडे अप्रमत्त भंगयुत देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमं कट्टुत्तं प्रमत्तनागि तोथंबंधमं प्रारंभिसि सतीर्थदेवगतियुत स्थानमनष्टभंगयुतमागि कट्टुगुं । ८ । मत्तं पमत्तसंयतनष्टभंगयुताष्टाविंशतिस्थानमं कट्टुत्तमप्रमत्तनागि देव गत्याहारद्वय युत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमागि कट्टुगुं । ८ ॥ मत्तं प्रमत्तगुणस्थानदो देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमं कट्टुत्तमप्रमत्तनागि तोर्त्याहार१० द्वययुतैकत्रशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमागि कट्टुगुं । ८ ॥ मत्तमप्रमत्तसंयतं तीर्थदेवगतिश्रुतनवविंशतिस्थानमं कटुत्तं मरणमादोडे देवासंयतनागि मनुष्यगतितीर्थंयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कट्टुगुं । ८ ॥ मत्तं प्रमत्तगुणस्थानदोळ तीर्थदेवगतियुतनर्वाविंशतिस्थानमनष्टभंगत कट्टुत्तमप्रमत्तगुणस्थानमं पोद्दि तोर्त्याहारद्वययुतै कत्रिशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमागि ९२२ अघस्तनपंक्तेरेकाष्टाष्टकाष्टकै कै कै कै कभंगाष्टाष्टाष्टन जनवविंशतित्रिंशदेकै कै कै क प्रकृतिकेषु उपरितनपंके१५ रष्टे के काष्टके के केके के कध को नख कखे कयुतत्रिंशत्कान्येकत्रिशत्कं देवचतुःस्थानानि च क्रमेणेति पंचचत्वारिंश द्भवन्ति । तद्यथा - अप्रमत्तः देवगत्येकधाष्टाविंशतिकं बध्नन् प्रमत्ते गत्वा तीर्थबन्धं प्रारभ्य सतीर्थाष्टघादेवगतिनवविंशतिकं नातीत्यष्टी । पुनः प्रमत्तोऽष्टषाष्टाविंशतिकं बध्नन्नप्रमत्तो भूत्वा देवगत्याहारकद्वययुतकधात्रिंशत्कं बनातीत्यष्टौ । पुनः प्रमत्तोऽष्टधाष्टाविंशतिकं बध्नन्नप्रमत्ता भूत्वैकधातीर्थाहारैकत्रिशत्कं बध्नातीत्यष्टौ । पुनरप्रमत्तः २० तीर्थदेवगतिनवविंशतिकं बध्नन्मृत्वा देवासंयतो भूत्वाष्टषा मनुष्यगतितीर्थत्रिशत्कं बध्नातीत्यष्टौ । पुनः प्रमत्तः नीचेकी पंक्तिके एक आठ आठ एक आठ एक एक एक एक एक भंग सहित अठाईस अठाईस अठाईस उनतीस उनतीस तीस इकतीस इकतीस इकतीस इकतीस रूप स्थानों को बाँधकर ऊपरकी पंक्तिके आठ एक एक आठ एक एक एक एक एक एक भंग सहित उनतीस तीस इकतीस तीस इकतीस इकतीस और देवगति सहित चार स्थानोंको क्रमसे बाँधे । तो २५ एक एक ऊपर की पंक्तिके स्थान भंगोंसे एक एक नीचेकी पंक्तिके स्थान भंगोंको गुणा करनेपर सब पैंतालीस भुजाकार होते हैं । वही कहते हैं अप्रमत्त गुणस्थानवाला एक भंग सहित देवगतियुक्त अठाईसका बन्ध करके, प्रमत्त गुणस्थान में जाकर तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करके, तीर्थंकर देवगति सहित उनतीसको आठ भंग सहित बांधे तो उन दोनोंके भंगोंको परस्पर में गुणा करनेपर आठ हुए। पुनः प्रमत्त ३० गुणस्थानवर्ती आठ भंग सहित देवगतियुत अठाईसको बांधकर अप्रमत्त होकर देवगति आहारक द्विक सहित तीसको एक भंगके साथ बाँधे तो आठ भंग हुए। पुनः प्रमत्त आठ भंग सहित अठाईसको बाँध अप्रमत्त होकर तीर्थंकर आहारक सहित इकतीसको एक भंगके साथ बाँधे तो आठ भंग हुए। पुनः अप्रमत्त तीर्थंकर देवगति सहित उनतीसको एक भंगके साथ बाँधकर मरकर देव असंयत होकर आठ भंग सहित मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीसको बाँधे Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९२३ कटुगुं। ८॥ मत्तमप्रमत्तसंयतनाहारयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमं कटुत्तखें तीथंबंधर्म प्रारंभिसि एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनेक भंगयुतमागि कटुगुं। मत्तमुपशमश्रेण्यवतरणदोल अपूर्वकरणनेकभंगयुतकप्रकृतिस्थानमं कटुत्तं देवगतियुतमागियुं देवगतितीर्थयुतमागियुं देवगत्याहारद्वययुतमागियुं देवगत्याहारद्वयतीत्थंयुतमागियु कटुगुमप्पुवरिंदमवु नाल्कु भंगंगळमप्पुवु । ४ ॥ कूडि पंचचत्वारिंशद् भंगंगळप्पुर्वे बुदत्यं ॥ अनंतरं प्रमावरहितरुगळ अल्पतरभंगंगळं पेळ्दपरु :-- इगिविहिगिगिखखतीसे दस णव णवडधियवीसमट्टविहं । देवचउक्केक्केक्कं अपमत्तप्पदरछत्तीसा ॥५७८॥ एकविधे एकेक खखाधिकत्रिंशत्के दशनव नवाष्टाधिकविंशतिरष्टविधा देवचतुष्के एकस्मिन्नेकोप्रमत्ताल्पतर षट्त्रिंशत् ॥ एकैकभंगंगळगुळ्ळ एक एक खखाधिक त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळोळ वश नव नव अष्टाधिकविशतिप्रकृतिस्थानंगळ प्रत्येकमष्टाष्टभंगयुतंगळप्पुवु । देवचतुष्कदोळोदरोळोंदु भंगमागुत्तं विरलु नाल्कक्कं नाल्कु भंगंगळप्पु ४ वितप्रमत्ताल्पतर षट्त्रिंशद भंगंगळप्पुवु । ३६ ॥ संदृष्टि :देवगत्यष्टधानवविंशतिकं बघ्नन्नप्रमत्तो भूत्वा तोहारकर्यकत्रिंशत्कं बघ्नातीत्यष्टौ । पुनरप्रमत्तः एकघाहारविशत्कं बघ्नस्तीर्थबन्धं प्रारभ्यकत्रिशत्कं बनातीत्येकः । पनरवरोहकापूर्वकरणः एकधक बनन देवगतियतं १५ देवतीर्थयुतं देवगत्याहारकयुतं देवगत्याहारकतीर्थयुतं च बध्नातीति चत्वारः। एवं पंचचत्वारिंशदित्यर्थः ॥५७७।। अथाप्रमत्तादीनामल्पतरभंगानाह एकैक_कै रुखखाषित्रिंशत्केष्वष्टाष्टवादशनवनवाष्टाधिकविंशतिकान्येकैकधादेवचतुष्कं चेत्यप्रमत्ताल्पतराः षत्रिंशत् । तद्यथातो आठ भंग होते हैं। पुनः प्रमत्त देवगति तीर्थसहित उनतीसको आठ भंगोंके साथ बाँध २० अप्रमत्त होकर तीर्थ आहारक सहित इकतीसको एक भंगके साथ बाँधे तो आठ भंग हुए। पुनः अप्रमत्त आहारक सहित तीसको एक भंगके साथ बाँध तीर्थकरके बन्धको प्रारम्भ कर एक भंग सहित इकतीसको बाँधे तो एक भंग हुआ। पुनः उतरता हुआ अपूर्वकरण एक भंग सहित एकको बाँधकर नीचे आकर देवगतियुत अठाईसको या देवगति तीर्थ सहित उनतीस को या देवगति आहारक सहित तीसको या देवगति आहारक तीर्थ सहित इकतीसको एक २५ भंगके साथ बांधनेपर चार भंग होते हैं। इस प्रकार पैंतालीस भुजाकार होते हैं ॥५७७।। आगे अप्रमत्तमें अल्पतर भंग कहते हैं एक एक भंगसहित एक एक शून्य शून्य अधिक तीस प्रकृतिरूप स्थानोंको बाँधकर आठ आठ भंग सहित दस नौ नौ आठ अधिक बीस प्रकृतिरूप स्थान और एक एक भंगके साथ देवगति सहित चार स्थानोंको बाँधनेपर अप्रमत्तमें छत्तीस अल्पतर होते हैं । वही ३० कहते हैं Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२४ गो० कर्मकाण्डे अप्रमादाल्पतर म ३० । अवक्तव्य भंग म २९ 1म३० अल्पतर ३६ ८प्र ८प्र८प्र ११ । १ ३१ | ३१ ३० | ३० २८ २९ ३ ११ अवक्तव्य १७ इल्लि रचनाभिप्रायं सूचिसल्पडुगुमे ते दोडे अप्रमत्तसंयतं देवगतितोहारयुत एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमागि कटुत्तं मरणमादोड देवासंयतनागि मनुष्यगतितीफ्युत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं।८। मत्तमप्रमत्तसंयत नेकभंगयुतकत्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तं प्रमत्तसंयतनागि देवगतितोत्थयुतनवविंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं। ८॥ मत्तमप्रमतसंयत नेकभंगयुत देवगत्याहारयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तं प्रमत्तसंयतनागि तोय. बंधप्रारंभमं माडि देवगतितीर्थयुत नविंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं । ८॥ मत्तमप्रमत्तसंयतनाहार देवगतियुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमं कटुत्तं प्रमत्तसंयतनागि देवगतियुताष्टा. विंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं। ८॥ मत्तमपूर्वकरणनारोहणकोळेक भंगयुत देवगतियुत चतुःस्थानंगळं कटुत्तं स्वसप्तम भागमं पोद्दि एकभंगयुतैकप्रकृतिस्थानमं कटुत्तं विरलु नाल्कुं १० स्थानंगळोळु नाल्कु भंगळप्पु-४ वितु प्रमादरहितगळल्पतरभंगंगळु षट्त्रिशत्प्रमितंगळ प्पुबुदथं ॥ अप्रमत्तः एकधा देवगतितीर्थाहारकत्रिंशत्कं बघ्नन् मृत्वा देवासंयतो भूत्वाष्टधा मनुष्यगतितीर्थत्रिंशत्कं बध्नातीत्यष्टौ । पुनः अप्रमत्तः एकधैकत्रिशत्कं बघ्नन् प्रमत्तो भूत्वा देवगतितीर्थनवविंशतिकं बनातीत्यष्टौ। पुनरप्रमत्त एकधा देवगत्याहारकत्रिशत्कं बघ्नन् प्रमत्तोभूत्वा तीर्थबन्धं प्रारम्याष्टवा देवगति तीर्थनवविंशतिकं १५ बध्नातीत्यष्टौ । पुनरप्रमत्तः एकधाहारदेवगतित्रिंशत्कं बहनन् प्रमत्तो भूत्वा अष्टषा देवगत्याष्टविंशतिकं बना तीत्यष्टो । पुनः अपूर्वकरणआरोहण एकैकषादेवगतिचतुःस्थानानि बध्नन् सप्तमभागं गत्वा एकधैककं बघ्नातीति देवगति आहारक तीर्थ सहित इकतीसको एक भंगके साथ बाँधकर अप्रमत्त मरकर देव असंयत होकर आठ भंगके साथ मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसको बाँधे तो आठ भंग हुए । तथा अप्रमत्त एक भंगके साथ इकतीसको बाँध प्रमत्त होकर आठ भंगके साथ देवगति २० तीर्थ सहित उनतीसको बाँधे तो आठ हुए। अप्रमत्त एक भंगके साथ देवगति आहारक सहित तीसको बाँधकर तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ करके आठ भंगके साथ देवगति तीर्थ सहित उनतीसको बाँधे तो आठ हुए। अप्रमत्त एक भंगके साथ आहारक देवयुत तीसको बाँध प्रमत्त होकर आठ भंगके साथ देवगति सहित अठाईसको बाँधे तो आठ हुए। अपूर्व करण चढ़ता हुआ एक एक भंग सहित देवगति सहित अठाईस, देवगति तीर्थ सहित २५ उनतीस, देवगति आहारक सहित तीस, देवगति आहारक तीर्थ सहित इकतीसके स्थानको बाँधकर सातवें भागमें एक भंग सहित एक प्रकृति रूप स्थानको बाँधे तो चार भंग होते हैं, इस प्रकार छत्तीस अल्पतर होते हैं ।।५७८।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अनंतरं मिथ्यावृष्टयसंयताप्रमावरुगळ भुजाकाराविगळं कूडिवोडे सर्वभुजाकारादिगळपुवंदु पेळ्दपरु: सव्वपरट्ठाणेण य अयदपमत्तिदरसव्वभंगा हु। मिच्छस्स भंगमज्झे मिलिदे सव्वे हवे भंगा ॥५७९॥ सर्वपरस्थानेन च असंयतप्रमत्तेतर सर्वभंगाः खलु। मिथ्यावृष्टेन्भगमध्ये मिलिते सबै ५ भवेयुभंगाः॥ सर्वपरस्थानदोडनयुं च शब्दविदं स्वस्थानदोडनेयं परस्थानदोडनेयं कूडिव असंयता। प्रमादरुगळसर्वभुजाकारादिभंगंग मिथ्यादृष्टिय भुजाकारादिभंगमध्यदोळ कूडुत्तविरलु नामकम्मसव्वंभुजाकाराविभंगंगळप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टयसंयतादिगळ भुजाकाराविगळ्गे संदृष्टि : | मि अवस्थि ८९२१८८७० | उपशांतकषायामि४४६०९४३५ मि अल्पतर ४४६०१४३५ असंयताव ३७०६४ वक्तव्य भंग असं भुजा ३६९९२ | असंयताल्पतर ७२ अप्रमादावस्थितं ८१ अप्रमाद भुजा ४५ अप्रमावाल्पतर ३६ उपशांतावस्थित १७ युति ४४६४६४७२ । युति ४४६०९५ ४३ युति ८९२५६० ३२ अनंतरं भुजाकारादि भंगंगळुत्पत्तिसाधारणोपायम गाथाद्वदिवं पेळ्वपरु : भुजगारा अप्पदरा हवंति पुव्ववरठाणसंताणे । पयडिसमोऽसंताणोऽपुणरुत्तोत्ति य समुट्ठिो ॥५८०॥ भुजाकाराल्पतरा भवंति पूर्वापरस्थानसंताने। प्रकृतिसमोऽसंतानोऽपुनरुक्त इति समुद्दिष्टः॥ चत्वारः । एवं षत्रिंशत् ।।५७८।। अथ भुजाकारादीनेकीकरोति सर्वपरस्थानः चशब्दात्स्वस्थानः स्वपरस्थानश्चाश्रिताः असंयताप्रमत्तादिसर्वभुजाकारादिभंगाः खलु १५ मिथ्यादष्टिभजाकारादिभंगेषु मिलंति तदा नामकर्मणः सर्वे भुजाकारादिभंगाः स्युः संदष्टिःभजाकार अल्पतर अवस्थित मि ४४६०९४३५ .मि ४४६.९४३५ मि ८९२१८८७० असं० ३६९९२ असं० ३७०६४ उपशान्त अप्र० अप्र०३६ अप्र० ८१ कषायावक्तयुति ६४६४६४७२ | युति ४४६०७५४३ उपशां० १७ व्यभंगा: युति ८९२५६०३२ । १७ ५७९ । अथ तेषामुत्पत्तिसाधरणोपायं गाथाद्वयेनाह असं आगे मुजाकार आदिको एकत्र करते हैं सर्व परस्थान, स्वस्थान और स्व-परस्थानके आश्रयसे जो असंयत अप्रमत्त आदिके सब भुजकारादि बन्ध होते हैं उनको मिथ्यादृष्टिके मुजकारादि भंगोंमें मिलानेपर नामकमके सब मुजकारादि बन्ध होते हैं उनकी संदृष्टि ऊपर दी है ॥५७९॥ आगे उन भंगोंकी उत्पत्तिका साधारण उपाय दो गाथाओंसे कहते हैं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे पूर्व्वा परस्थानसंताने पूर्व्वापराऽपरपूर्व्वस्थानसमुदायदोलु २३ २५ २६ २८ २९ ३० ३१॥१॥ अनुसंधानकरणमागुत्तं विरल भुजाकारंगळ मल्पत रंगळु मप्पुवु । प्रकृतितमोऽसन्तानः सदृशाक्षापेक्ष इंदं प्रकृति संख्या समम तुळुदादोडं असंतानः प्रकृतिसमुदाय भेदमुळ अपुनरुक्त इति निद्दिष्ट: अपुनरुक्तमें दु पेळपट्टुवु । अदें तें दोडे नववंशतिप्रकृतिस्थानदोल संहननभेदविदं तीर्थभेददिदं ५ प्रकृति समुदाय के समत्वमादोडम पुनरुक्तत्वं सिद्धर्मतं ॥ १० १५ २० २५ ३० ९२६ भजगारे अप्पदरेऽवत्तव्ये ठाइदूण समबंधे । होदि अदिबंधो तब्भंगा तस्स भंगा हु || ५८१ ॥ भुजाकारान् अल्पतरानवक्तव्यान् स्थापयित्वा समबंधे भवत्यवस्थितबंधः तदभंगास्तस्य भंगाः खलु ॥ भुजाकारंगळनू अल्पतरंगळनू अवक्तव्यंगळनू बेरे बेरं स्थापिसि द्वितीयादि समयंगळोल समानबंधमागुत्तं विरल अवस्थितबंध मक्कुमद् कारणमागि तद्भंगाः तेषां भुजाकारादीनां भंगास्तभंगाः । आ भुजाकाराकारादिगळ भंगंगळु तस्य भंगाः खलु अवस्थितभंगगळप्पुवु । स्फुटमागि॥ अनंतरमवक्तव्य भंगंगळं पेळदपरु : पडिय मरिएक्मेक्कूणतीस तीसं च बंधगुवसंते । बंधो दु अवतव्वो अवद्विदो विदियसमयादी ||५८२ | पतित मृतैकैकोनत्रिशत्रिशच्च बंधकोपशांते । बंधस्त्ववक्तव्योऽवस्थितो द्वितीयसमयादिः ॥ पूर्वस्थानस्यात्पप्रकृतिकस्य बहुप्रकृति के नानुसंधाने भुजाकारा भवंति । परस्थानस्य बहुप्रकृतिकस्याप प्रकृति के नानुसंधानेऽल्लतरा भवंति । प्रकृतिसंख्पासमानोऽपि यः असंतानः प्रकृतिसमुदाय भेदयुक् सोऽपुनरुक्त इति निर्दिष्टः यथा - संहननेन तीर्थेन वा युते नवविंशति के प्रकृतिसमुदायस्य समत्वेऽप्यपुनरुक्तत्वं ॥ ५८० ॥ भुजकारानल्पत रानवक्तव्यांश्च संस्थाप्य द्वितीयादिसमयेषु समानं बध्नाति तदावस्थितबन्धः स्यात् । ततस्तेषां भंगा यावंतस्तावन्तः खल्ववस्थितभंगा भवन्ति ॥ ५८१ ।। अथ तानवक्तव्यभंगानाह है थोड़ी प्रकृतिरूप पूर्व स्थानको बहु प्रकृति रूप स्थानके साथ लगानेपर मुजाकार होता है । बहु प्रकृति रूप पिछले स्थानको थोड़ी प्रकृति रूप स्थानके साथ लगाने पर अल्पतर होता है। प्रकृतियोंकी संख्या समान होते हुए भी जो असन्तान है अर्थात् प्रकृति भेदयुक्त वह अपुनरुक्त कहा है। जैसे तीर्थ बिना संहनन सहित भी उनतीसका बन्ध है और तीर्थ सहित संहनन बिना भी उनतीसका बन्ध है । इन दोनोंमें उनतीसकी संख्या समान होते हुए भी तीर्थंकर और संहनन प्रकृतिका भेद होनेसे अपुनरुक्तपना कहा है ||५८०|| भुजकार अल्पतर और अवक्तव्य भंगोंको स्थापित करके द्वितीयादि समयों में जब समान बन्ध होता है तब अवस्थित बन्ध होता है। अतः उन तीनोंके जितने भंग होते हैं उतने ही अवस्थित भंग होते हैं ||५८१ ॥ आगे अवक्तव्य भंगोंको कहते हैं Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९२७ अवरोहणपतितकबंधकोपशांतकषायनोळं मृतकोनविंशत्त्रिशत्प्रकृतिबंधकोपशांतकषाय. नोळुमवक्तव्यबंधमक्कुं। तु मत्त द्वितीयसमयादियागुळ्ळ बंधमवस्थितबंधमक्कुमदरियल्पडुगुं । भुजाकारादिगळेदु पेळल्पडदववक्तव्यंगळप्पुवु । एते दोडे उपशांतकषायनवतरणदोळु नामकर्मबंधकनल्लदिकप्रकृतिस्थानमं सूक्ष्मसांपरायनागि कट्टिदोडोंदु भंगमुं मरणमादोडे देवासंयतनागि मनुष्यगतियुताष्टभंगयुतनविंशतिस्थानमं कट्टिदोडेंटु भंगंगळं सतीर्थाष्टभंगयुतमनुष्य- ५ गतियुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडेंटु भंगंगळुमंतु पदिनेछ भंगंगळप्पुवु १७॥ द्वितीयादिसमयंगळवस्थित भंगंगळोळवस्थित भंगंगळुमितुपदिनेळप्पुबुदत्थं ॥१७॥ घोरसंसारवाराशितरंगनिकरोपमैः। नामबंधपदैर्जीवा वेष्टितास्त्रिजगद्भवाः॥ अनंतरं नामकर्मोदयस्थानप्ररूपणप्रकरणमं द्वाविंशतिगाथासूत्रंगळिंद पेळलुपक्रमिसुतं नामकर्मोदयस्थानंगळ्गे पंचकालंगळप्प दु पेळ्दपरु : विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते । आणावचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला ॥५८३॥ विग्रहकार्मणशरीरे शरीरमिश्रे शरीरपर्याप्तौ। आनापानवाक्पर्याप्त्योः क्रमेण पंचोदये कालाः॥ विग्रहगतिय कार्मणशरीरदोळं शरीरमिश्रदोळं शरीरपर्याप्तियोळं आनापानपर्याप्तियोळं १५ भाषापानियोळंमिती क्रमदिदं नामकर्मप्रकृतिस्थानोदयंगळगवसरकालंगळदप्पुवु। यिल्लि विग्रहगतियोळे दोडे साल्गुं। विग्रहगतिय कार्मणशरीरदोळे देनलेके दोडे विग्रहगतियोळल्लदे अवक्तव्यास्तु उपशान्तकषाये किमपि नामाबघ्नन् पतितः सूक्ष्मसांपरायं गत एककं बध्नाति वा मरणे देवासंयतो भूत्वा मनुष्यगतिनवविंशतिकं मनुष्यगतितीर्थत्रिशत्कं चाष्टाष्टधा बध्नातीति सप्तदश भवन्ति । पुनः तद्वितीयादिसमयेष्ववस्थितबन्धः स्यात्तेन तेऽपि तावन्तः । धोरसंसारवाराशितरंगनिकरोपमैः । नामबन्धपदैर्जीवा वेष्टितास्त्रिजगद्भवाः ॥१॥ ५८२। अथ नामोदयस्थानानि द्वाविंशतिगाथाभिराहतेषां स्थानानामुदयस्य नियतकालत्वात्ते कालाः विग्रहगतिकार्मणशरीरे शरीरमित्रे शरीरपर्याप्ती उपशान्त कषायमें किसी भी नामकर्म प्रकृतिको न बाँधकर पीछे सूक्ष्म साम्परायमें २५ आकर एकको बाँधता है । अथवा मरनेपर देव असंयत होकर मनुष्यगति सहित उनतीस या मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसको आठ-आठ भंग सहित बाँधता है। इस तरह सतरह अवक्तव्य बन्धके भंग होते हैं। द्वितीयादि समयमें भी उतना ही बन्ध होनेपर अवस्थित बन्ध भी उतने ही जानना ॥५८२।। अब नामकर्मके उदयस्थान बाईस गाथाओंसे कहते हैं नामकर्मके उदय स्थानोंका काल नियत है। जिस-जिस कालमें उदय योग्य हैं वहाँ ही उनका उदय होता है वे काल पाँच हैं-विग्रहगति या कार्मण शरीर, मिश्रशरीर, शरीर पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, और भाषापर्याप्ति काल । कार्मण शरीर जब पाया जाये वह क-११७ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ गो० कर्मकाण्डे कार्मणकायावसरं समुद्घातकेवलियोळुटप्पुदरिदं तत्कालावसरग्रहणनिमित्तमागि विग्रहकार्मणशरीरग्रहणमक्कु दरियल्पडुगुमल्लि विग्रहगत्यादिगळ कालप्रमाणमं क्रमदिदं पेन्दपरु : एक्कं व दो व तिण्णि व समया अंतोमुहुत्त यं तिसुवि । हेट्ठिमकालूणाओ चरिमस्स य उदयकालो दु ॥५८४।। एको वा द्वौ वा त्रयो वा समया अंतर्मुहुर्तस्त्रिष्वपि । अधस्तनकालोनायुश्चरमस्य चोदयकालस्तु॥ ___विग्रहगतिय कार्मणशरीरदोळ उदयकालमेकद्वित्रिसमयंगळप्पुवु । १। २।३। शरीर मिश्रदोळुदयकालमंतर्मुहर्तप्रमितमक्कुमंते शरीरपर्याप्तियोळं उच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोळमक्कुं । २१ । भाषापर्याप्तियोळमा नाल्कुं कालंगळ युतियुमंतर्मुहूत्तंप्रमितमक्कु प ३२ मरिंद २१३ १० मूनमप्प भुज्यमानायुष्पमाणमेनितनितुमुदयकालप्रमाणमक्कुं। विग्रहगतिशरीरमिश्रशरीरपर्याप्ति उच्छ्वासनिश्वासपर्याप्ति भाषापय्यर्यामिगळोळु नियतोदयनामस्थानंगळोळवप्पुदरिनी कालप्रमाणं पेळल्पटुदु। ई पंचकालंगळं जीवसमासेयोळु योजिसिदपरु : आनपानपर्याप्तौ भाषापर्याप्तौ च क्रमेण पंच भवन्ति । अत्र विग्रहगतावित्येतावत एव ग्रहणं समुद्धातकेवलिनः १५ कार्मणकायस्य ग्रहणार्थं ॥५८३॥ तेषां कालानां प्रमाणं क्रमेण विग्रहगतेः कार्मणशरीरे एको वा द्वौ वा त्रयो वा समयाः, शरीरमिश्रे शरीरपर्याप्ती उच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तौ च प्रत्येकमन्तर्महतः, भाषापर्याप्ती उक्तचतुःकालोनं सर्व भुज्यमानायुः प ३॥५८४॥ तान् पंचकालान् जीवसमासेषु योजयति स ३ २१३ कार्मण शरीरकाल है। जबतक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक मिश्रशरीर काल है। शरीर २० पर्याप्ति पूर्ण होनेपर जबतक श्वासोच्छवास पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक शरीर पर्याप्तिकाल है। श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति पूर्ण होनेपर जबतक भाषा पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिकाल है। भाषा पर्याप्ति पूर्ण होनेपर सब आयु प्रमाण काल भाषापर्याप्तिकाल है। यहाँ विग्रहगति और कार्माण दोका ग्रहण समुद्घात केवलीके कार्माणको ग्रहण करनेके लिए किया है ॥५८३।। २५ उन पाँच कालोंका प्रमाण क्रमसे विग्रहगतिके कार्मणशरीरमें एक समय, दो समय या तीन समय है । मिश्र शरीर, शरीर पर्याप्ति, और उच्छ्वास-निश्वास पर्याप्तिमें प्रत्येकका अन्तर्मुहूत काल है । भाषापर्याप्तिमें उक्त चार कालोंका प्रमाण घटानेपर शेष सम्पूर्ण भुज्यमान आयु प्रमाण काल जानना ।।५८४।। उन पाँच कालोंको जीव समासोंमें लगाते हैं। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सव्वापज्जत्ताणं दोणिवि काला चउक्कमेयक्खे | पंच वि होंति तसाणं आहारस्सुवरिमचउक्कं ॥ ५८५ ।। सपर्याप्तानां द्वावपि कालौ चतुष्कमेकाक्षे | पंचापि भवंति त्रसानामाहार शरीरस्योपरितनचतुष्कं ॥ सध्या पर्याप्तजीवंग विग्रहगतिय काम्मणशरीरकाल मुमौवारिकशरीर मिश्रकालमु- ५ मरडेय । एकेंद्रियंगळगे विग्रहगतिशरीर मिश्रशरीरपर्य्याप्ति उच्छ्वासनिश्वासपर्य्यामिगळे ब नाल्कुं कालंगळप्पुवु । श्रसजीवंगळगे पंचकालंगळमप्पुवु । आहारकशरीरदोळु विग्रहगतिर्वाज्जतोपरितन चतुःकालंगळप्पुवु । अनंतरं समुद्घातकेवलियोऴ संभविसुव कालंगळं पेदपरु : कम्मोरालियमिस्सं ओरालुस्सा समास इदि कमसो । काला हु समुग्धादे उवसंहरमाणगे पंच ॥५८६ ॥ कार्म्मणौवारिक मिश्रमौदारिकोच्छ्वास भाषा इति क्रमशः । कालाः खलु समुद्घाते उपहरमाणे पंच ॥ कार्म्मणशरीरकाल मौवारिक मिश्रकाल मुमौदारिकशरीरपर्य्याप्तिकाल मुमुच्छ्वासनिश्वास - पर्याप्तिकालमुं भाषा पर्य्याप्तिकाल में ब पंचकालंगळोळ समुद्घातोपसर्पणोपसंहरमाणरोळु क्रम- १५ विवं सूक्ष्मवं कालंगळप्पुववाउवे दोर्ड : ९२९ ओरालं दंडदुगे कवाडजुगले य तस्स मीसंतु । पदरे य लोगपुरे कम्मे व य होदि णायव्वो ॥५८७ ॥ औदारिक शरीरपर्याप्तकालं दंडद्वयदोळक्कुं । कवाटयुगळदोळु तदौदारिकमिश्रकाल मक्कुं । ते कालाः सर्वलब्ध्यपर्याप्तेष्वाद्यौ द्वौ । एकेन्द्रियेषु आद्याश्चत्वारः । त्रसेषु पंच | आहारकशरीरे माद्यं २० विनोपरितनाश्चत्वारो भवन्ति ॥ ८८५ ॥ समुद्वातकेवलिनि खलु कालाः कार्मणः औदारिक मिश्रः औदारिकशरीरपर्याप्तिः उच्छास निश्वासपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिवचेति क्रमेण पंच । अमी उपसंहरमाणके एव उपसर्पमाणके त्रयस्यैव संभवात् ॥ ५८६ ॥ तद्यथा- tosद्वये कालः मोदारिकशरीरपर्याप्तिः, कवाटयुगले तन्मिश्रः प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति २५ वे काल सब लब्ध्यपर्याप्तकों में आदिके दो ही हैं। एकेन्द्रियोंमें आदिके चार हैं । समें पाँचों हैं। आहारक शरीर में पहले के बिना ऊपरके चार काल हैं । ५८५ ॥ समुद्घात केवली में कार्मण, औदारिक मिश्र, औदारिक शरीर पर्याप्ति, उच्छ्वासनिःश्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति ये क्रमसे पांच काल होते हैं । ये पाँचों काल प्रदेशोंको संकोचते समय होते हैं। फैलाते समय तीन ही होते हैं ||५८६ ॥ वही कहते हैं दण्ड रूप करने तथा समेटने रूप दोमें औदारिक शरीर पर्याप्तिकाल है। कपाट १० ३० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे प्रतरद्वयलोकपूरणंगळोळु काम्मैणशरीरकालमक्कुर्म दरिवल्पडुगुं मूलशरीरप्रवेशप्रथमसमयं मोडगोंडु संज्ञिपंचेंद्रियपर्य्याप्तनोळे तंते पर्य्याप्तिगळे परिपूर्णंगळवु । १० ९३० दंड कवाट ३० ३१ २६ प्रतर २० लोकपू. २० २७ २१ २१ भाषा उच्छ्वा इंद्रि शरीर आहा मूलश प्रका क। मि दं औ ज्ञातव्यः । मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तयः पूर्यन्ते - दं ३० ३१ क २६ २७ प्र २० २१ लो २० २१ ३० ३१ २९ ३० २८ २९ २८ २८ २८ लो १ क दं औ अनंतरं नामकर्मोदयस्थानंगळगुत्पत्तिक्रममं गाथाचतुष्टर्याददं पेदपरु : भा उ ६ श मू xf Я क २९ २९ ३० २९ २८ २८ २८ लो १ ३१ ३० ५ ||५८७ ॥ अथ नामोदयस्थानानामुलत्तिक्रमं गाथाचतुष्टयेनाह रूप करने तथा समेटने रूप दोमें औदारिक मिश्रशरीर काल है । प्रतर रूप करने और समेटने में तथा लोकपूरणमें कार्मणकाल है । इस तरह फैलाते समय तो तीन ही काल हैं और समेटते में मूलशरीर में प्रवेश करनेके प्रथम समयसे लगाकर संज्ञी पंचेन्द्रियकी तरह क्रम से पर्याप्त पूर्ण करता है अतः पाँचों काल होते हैं ||५८७ || आगे नामकर्मके उदय स्थानोंका क्रमसे उत्पन्न होनेका विधान चार गाथाओंसे कहते हैं २९ २९ २९ प्र Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका ९३१ णाम धुओदय बारस गइजाईणं च तसतिजुम्माणं । सुभगादेज्जजसाणं जुम्मेक्कं विग्गहे वाणू ।।५८८॥ नाम ध्रुवोदया द्वादश गतिजातीनां च त्रसत्रियुग्मानां सुभगादेययशसां युग्मैकं विग्रह एवानुपूव्यं ॥ "तेजदुगं वण्णचऊ थिरसुहजुगळ गुरुणिमिण धुवउदया" एंब नाम ध्रुवोदयप्रकृतिगळु ५ पन्नेरडुं चतुर्गतिगळोळं पंचजातिगोळं त्रसस्थावरबादरसूक्ष्मपर्याप्रापर्याप्तत्रियामंगळोळं सुभगदुर्भगादेयानादेययशस्कोर्त्ययशस्कोत्तिगळेब युग्मत्रयदोळो दो दुगळु विग्रहगतियोळे आनुपूय॑चतुष्कबोळो दुदयक्केबक्कुं। विग्रहगतियोळल्लदे ऋजुपतियोळानुपूर्योदयमिल्ले बुदयंमा ऋजुगतियोळु चतुविशत्यादिगळक्कुं ॥ मिस्सम्मि तिअंगाणं संठाणाणं च एगदरगं तु । पत्तेयदुगाणेक्को उवघादो होदि उदयगदो ॥५८९।। मिधे व्यंगानां संस्थानानां चैकतरं तु । प्रत्येकद्वयोरेकमुपघातो भवत्युदयगतः॥ त्रसस्थावरंगळ शरीरमिश्रकालदोळौदारिकवैक्रियिकाहारकगळेब शरीरत्रयदोळं षट्संस्थानंगळोळमेकतरमुं तु मत्ते प्रत्येक साधारणद्वयदोळेक प्रकृतियुमुदयागतोपघातनामकर्ममुं तेजदुगं वण्ण चऊ थिरसुहजुगलागुरुणिमिणेति नामध्रुवोदयाः द्वादश, चतुर्गतिषु पंचजातिषु त्रस- १५ स्थावरयो दरसूक्ष्मयोः पर्याप्तापर्याप्तयोः सुभगदुर्भगयोरादेयानादेययोर्यशस्कीय॑यशस्कीयोः चतुरानुपूर्येषु चकैकमित्येकविंशतिकं तदानुपूर्व्ययुतत्वाद्विग्रहगतावेवोदेति न जुगतो तस्यां चतुविशतिकादीनामेवोदयात् ॥५८८॥ पुनस्तस्मिन्नेकविंशतिके यानुपुर्व्यमपनीय औदारिकादित्रिशरीराणां षटसंस्थानानां चैकतरं प्रत्येकसाधारणयोरेकं उपघातश्चेति चतुष्क मुदयगतं मिलितं तदा चविंशतिक भवति । तच्च सस्थावरमिश्रकाले २० एवोदेति ॥५८९॥ तैजस, कार्मण, वर्णादि चार, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये बारह नाशकर्मकी ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ हैं। इनका उदय सबके निरन्तर पाया जाता है। चार गतियोंमें, पाँच जातियोंमें, बसस्थावरमें, बादरसूक्ष्ममें, पर्याप्तअपर्याप्तमें, सुभगदुर्भगमें, आदेयअनादेयमें, यशःकीर्ति अयशःकीर्तिमें और चार आनुपूर्वीमें-से एक-एकका ही उदय २५ होता है। ऐसे इक्कीस प्रकृति रूप स्थानका विग्रहगतिमें ही उदय होता हैं क्योंकि आनुपूर्वीका उदय विग्रह गतिमें ही होता है । ऋजुगतिमें इक्कीसके स्थानका उदय नहीं है उसमें चौबीस आदिका ही उदय है ।।५८८।। उस इक्कीसके स्थानमें आनुपर्वीको घटाकर औदारिक आदि तीन शरीरों में से एक, छह संस्थानों में से एक, प्रत्येक और साधारणमें से एक, तथा उपघात ये चार मिलानेपर ३० चौबीसका उदयस्थान होता है । यह त्रस और स्थावरके शरीरमिश्रकालमें उदय होता है ।।५८९।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ गो० कर्मकाण्डे तसमिस्से ताणि पुणो अंगोवंगाणमेगदरगं तु । छण्हं संहडणाणं एगदरो उदयगो होदि ॥५९०॥ त्रसमिश्रे तानि पुनरंगोपांगानामेकतरं तु । षण्णां संहननानामेक्तर उदयगो भवति ॥ त्रसमिश्रदोळु पूर्वोक्तप्रकृतिगळं मत्ते अंगोपांगंगल्गकतरमुं षट्संहननंगळोळेकतरमुमु ५ दयागतमक्कुं॥ परघादमंगपुण्णे आदावदुगं विहायमविरुद्धे । सासवची तप्पुण्णे कमेण तित्थं च केवलिणि ॥५९१॥ परघातोगपूणे आतपद्वयं विहायोगतिरविरुद्ध । उच्छ्वासवाची तत्पूर्णे क्रमेण तीथं च केवलिनि ॥ परघातनाम प्रसस्थावरंगळ शरीरपर्याप्तियोळुदयक्के बक्कुं। आतपोद्योतंगळं प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिगळं यथायोग्यं स्थावरत्रसंगळ पर्याप्तियोळविरुद्धमागुदयिसुगुं। उच्छ्वासमुं स्वरद्वय, स्वस्वपर्याप्तियोळुदयमनेनुगुं । तीर्थकरनामकर्ममुं केवलज्ञानियोदइसुगु मी प्रकृतिगळुदयक्रममुं कालक्रममुमी रचनाविशेषदोळरियल्पडुगु मप्पुरिदमदक्के संदृष्टि :विग्रह | शरीरमिश्र ते।व।थि। सु। अणि ग। जाति ।बा।पासू। आ । ज।आ श।सं। प्र। उ→ २।४।२।२।१।१ ४।५।२।२।२।२।२।२।४ ३।६।२।१ १।१।१।१।१।१ १ ।१।१ ।१।१।१।१ १२ स्वर | त्रसमिथ । शरीरपाप्ति | उच्छ्वा . पा. | भा. प. | केवळियोळु म।संह। पाा । वि। उच्छवास तीर्थ ॥ ३।६। १।२।२। । १। १।११ । अन्तरमेकजीवनोळेकसमयदोळु नामकर्मप्रकृत्युदयस्थानंगळं नानापेयिवं पेळदपरु:१५ तानि पूर्वोक्तानि चत्वारि, पुनः व्यंगोपांगेष्वेकतरं षट्संहननेष्वेकतरं चेति षटकं त्रसमिश्रे उदयगतं तानि पूषा स्यात् । परघातः सस्थावराणां शरीरपर्याप्तादेति । आतपोद्योती प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती चाबिरुद्धं योग्यत्रसस्थावराणां पर्याप्ती, उच्छवासः स्वरद्वयं च स्वस्वपर्याप्ती, तीर्थ केवलिनि ॥५९०-५९१॥ अर्थककस्मिन् जीवे एकैकसमये सम्भवन्ति नामोदयस्थानानि नानाजीवं प्रत्युक्तानि तान्येवाह पूर्वोक्त चार, तीन अंगोपांगमें से एक, छह संहननमें से एक, ये छह मिश्रशरीर २. त्रसमें उदय योग्य हैं । परघात त्रस और स्थावरोंमें शरीर पर्याप्तिकालमें उदय योग्य है। आतप-उद्योत और प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति अविरुद्ध योग्य त्रस-स्थावरोंके पर्याप्त कालमें ही उदययोग्य हैं । उच्छ्वास और स्वरद्विक अपने-अपने पर्याप्तिकालमें ही उदययोग्य हैं। तीर्थकरका उदय केवलीमें ही होता है ।।५९०-५९१॥ आगे एक-एक जीवमें एक-एक समयमें सम्भव नामकर्मके उदयस्थान नाना जीवोंके २५ प्रति कहे, उन्हींको कहते हैं Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका वीसं इगि चवीसं तत्तो इगितीसओत्ति एयधियं । उदयाणा एवं णव अट्ठ य होंति णामस्स ॥ ५९२ ॥ विशतिरेक चतुविशतिस्तत एकत्रिशत्पय्र्यंतमेकाधिकान्युदयस्थानान्येवं नवाष्ट च भवंति नाम्नः ॥ वितिविंशतियं चतुव्विशतियुमल्लिदत्तमे कत्रिशत्प्रकृतिस्थानपय्र्यंत मेकाधिकक्रमदिदं नामकर्मोदयस्थानं गळवु । मतमंते नवाष्टप्रकृतिस्थानद्वय मुमक्कुं । २० । २१ । २४ ॥ २५ ॥ २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९ ॥ ८ ॥ ९३३ ई पन्नेरडुं नामकम्र्मोदयम्थानंगळगे यथाक्रर्मादिदं स्वामिगळं पेळदपरु :चदुगदिया एइंदी विसेसमणुदेवणिरय एइंदी | इगिविचिपसामण्णा विसेससुरणारगेहंदी || ५९३ ॥ चातुर्गतिकाः एकेंद्रियाः विशेष मनुष्यदेवनारकै केंद्रियाः । एकद्वित्रिचपसामान्या विशेषसुरनार कैकेंद्रियाः ॥ सामण्णसयलवियलविसेसमणुस्ससुरणारया दोन्हं । सयलवियलसामण्णा सजोगपंच्चक्खवियलया सामी || ५९४ || सामान्य सकल विकल विशेषमनुष्यसुरनारका द्वयोः । सकलविकलसामान्याः सयोग- १५ पंचाक्षविकलकाः स्वामिनः ॥ विशतिकमेकविंशतिकं चतुर्विंशतिकं ततः पंचविशतिकायेकैकाधिकमेकत्रिंशत्कान्तं पुनः नवकमष्टकं चेति द्वादश नामोदयस्थानानि भवन्ति ॥ ५९२ ॥ एकविंशतिप्रकृतिर्ग चतुर्गतिजरुं स्वामिगळप्परु । चतुव्विशतिप्रकृत्युदयस्थानक् के केंद्रिथंगळे स्वामिगळवरु | पंचविशतिस्थानक्के विशेषमनुष्यदेवनारकैकेंद्रियजीवंगळु स्वामिकळप्परु । षड्विंशतिस्थानक्के एकेंद्रिय द्वींद्रिय श्रींद्रिय चतुरिद्रिय पंचेंद्रिय सामान्यरुं स्वामिगळप्परु । सप्तशतिस्थान विशेषपुरुषरुं सुररुं नारकरुमेकेंद्रियंगळं स्वामिगळप्परु | अष्टाविंशतिस्थान. २० नवविंशति प्रकृत्युदय स्थानक्केयुं सामान्य पुरुषरुं सकलंगळं विकलंगळं विशेष पुरुषरु ५ बीसका, इक्कीसका, चौबीसका आगे एक-एक अधिक इकतीस पर्यन्त तथा नौका, आठका ये बारह नामकर्मके उदय स्थान हैं || ५९२ || १० तेषां स्थानानां स्वामिनः एकविंशतिकस्य चतुर्गतिजाः । चतुर्विंशतिकस्यै केन्द्रियाः । पंचविशतिकस्य विशेष मनुष्य देवना एकै केन्द्रियाः । षड्विंशतिकस्यैकद्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियसामान्यजीवाः । सप्तविंशतिकस्य विशेष- २५ उन स्थानोंके स्वामी इस प्रकार है - इक्कीसके स्थानके स्वामी चारों गतिके जीव हैं। चौबीसके स्वामी एकेन्द्रिय हैं । पच्चीसके स्वामी विशेष मनुष्य, देव, नारकी और एकेन्द्रिय हैं । छब्बीसके एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय सामान्य जीव ३० स्वामी हैं । सत्ताईसके विशेष मनुष्य, देव, नारकी और एकेन्द्रिय स्वामी हैं । अट्ठाईस - उनतीस के सामान्य पुरुष, सकलेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, विशेष पुरुष, देव, नारकी स्वामी हैं । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे सुररुं नारकरुं स्वामिगळप्परु । त्रिशत्प्रकृत्यवयस्थानक्के सकलंगळं विकलंगळं सामान्यपुरुषरुगळं स्वामिगळप्पर । एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानक्के सयोगिकेवलिगळं पंचेंद्रियंगळु द्वौंद्रिय त्रोंद्रिय चतुरितियजीवंगळ स्वामिगळप्पहनवाष्टस्थानंगळगे अयोगिकेवलिगळ स्वामिगळप्पर ॥ संदृष्टि : ति | के अयोगि | ९ |ति के अयो | ३ | १ | के बिति च | | ३ १ स | बितिच | सा | २९ । सा | स | २८ सा سه सूना सास विवि सा ه ه ه ه ه इल्लि नामध्रवोदय द्वादशप्रकृतिगळं १२ । गतिचतुष्टयदोनोंदु १ । जातिपंचकदोळोंदु १। ५ त्रसद्वयदोळोदु १ । बादरद्वयदोनोंदु १। पर्याप्तद्वयदोनोंदु १। सुभगद्वयदोठोंदु १। आवेय. द्वयवोलोंदु १ । यशस्कोत्तिद्वयदोळोदु १ । आनुपूठय॑चतुष्टयदोळु स्वस्वगतिसंबंधियों को दुदयिसुत्तं पुरुषाः सुरनारकैकेन्द्रियाश्च । अष्टाविंशतिकनवविंशतिकयोः सामान्यपुरुषाः सकला विकला विशेषपुरुषाः सुरा नारकाश्च । त्रिंशत्कस्य सकला विकला सामान्यपुरुषाश्च । एकत्रिशकस्य सयोगकेवलिनः पंचद्वित्रिच. तुरिन्द्रियाश्च, नवकाष्टकयोरयोगकेवलिनः । अत्र नामध्रुवोदया द्वादश, चतुर्गतिपंचजातिद्वित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशस्कीतिचतुरानुपूर्योदयेष्वेककः मिलित्वैकविंशतिकं । तत्तु । कार्मणशरीरचतुर्गतिजविग्रहगत्योरेवोदेति नान्यत्र आनुपूर्व्ययुतत्वात् । तत्र तीसके सकलेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सामान्य पुरुष स्वामी हैं। इकतीसके सयोग केवली, पंचेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय स्वामी हैं। नौके और आठके स्वामी अयोगकेवली हैं। जिस स्थानका जो स्वामी है उसके उस स्थान सम्बन्धी प्रकृतियोंका उदय होता है। १५ आगे उन स्थानोंका कथन करते हैं नामकर्मकी ध्रुवोदयी १२, चार गतियों में से एक, पाँच जातियों में से एक, त्रस बादर पर्याप्त सुभग आदेय यश-कीर्ति और इनके प्रतिपक्षी छह युगल, उनमें से एक-एक तथा चार अत्रनाम Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका विरलितु विग्रहगतियकार्म्मणशरीरदोळे एकजीवनोळेकसमयदोळु युगपदेकविंशतिप्रकृतिगळुदयितं विरलु नारकतिर्य्यग्मनुष्यदेवगतिजहगळ प्रत्येकमेकविंशतिप्रकृत्युदयस्थान नक्कुम विग्रहगतियोळल्लवेल्लियुं संभविसदे के दोडानुपूर्व्य नामकम्र्मोदययुतमप्युदरिदं । २१ । न । ति । | दे ॥ मत्तमनुपूर्व्यादयरहितमाद विशतिप्रकृतिगळु मौदारिकवैक्रियिकाहारकशरी रंगळोन्यतरमुं संस्थानबटुकदोळन्यतममुं प्रत्येक साधारणशरी रहयद्वयदोळन्यतरमुं उपघातमुमितु चतुव्विशति- ५ प्रकृतिगळे केंद्रियजीवन शरीरमिश्रकाल दोळल्लदेल्लियुमुदय मिल्लेके बोर्ड एकेंद्रियं गल्लंगोपांगसंहननोदयंगळिल्लपुरिदं । मत्तमेकेंद्रियजीवन शरीरपर्य्याप्तियोल परघातमं कूडिदोर्ड पंचविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २५ ए । मत्तमा चतुविशतिप्रकृतिगळोल आहारकशरीरं विवक्षितमादोर्डआहारकांगोपांगमं कूडिदोडाहारकशरीर मिश्र दोळं पंचविशति प्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २५ । विशेष मनुष्यमत्तमा चतुव्विशतिप्रकृतिगळोळ वैक्रिधिकशरीरं विवक्षितमादोर्ड वैक्रियिकांगोपांग १० कूडुत्तं विरल देवनारकरुगो शरीर मिश्रकालदोळु पंचविशति प्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २५ ॥ दे। ना । शरी० मिश्र । मत्तमेकेंद्रियंगळ शरीरपर्थ्याप्तिय पंचविंशतिप्रकृत्युदयस्थानवो आतपनाम मेनुद्योतनाममं कुडुत्तं विरलेकेंद्रियंगळ शरीरपर्थ्याप्तियोल षड्विंशति प्रकृतिस्थानोदय मुमक्कं । २६ । ए । प । आ । उ । अथवा आतपोद्योतंगळं बिट्टुच्छ्वासमं कूडुत्तं विरले केंद्रियंगळ्गुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियो ं षड्विंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कं । २६ । ए । प । उ । मत्तमा चतुव्विशति- १५ वानुपूर्व्यमपनोयोदारिकादित्रिशरीरेषु षट्संस्थानेषु प्रत्येकसाधारण पोश्च कैकस्मिन्नुपघाते च निक्षिप्ते चतुर्विंशतिकं तत्तु एकेन्द्रियाणां शरीरमिश्रयोगे एवोदेति नान्यत्र तेषामंगोपांग संहननोदयाभावात् । पुनः एकेन्द्रियस्य शरीरपर्याप्तौ तत्र परघाते युते इदं २५ वा विशेष मनुष्यस्याहारकशरीर मिश्रकाले तदंगोपांगे युते इदं २५ । वा देवनारकयोः शरीर मिश्रकाले वैकियिकांगोपांगे युते इदं २५ । पुनः एकेन्द्रियस्य पंचविशति के तच्छरीरपर्याप्तौ आतपे उद्योते वा युते इदं २६ । वा तस्यैत्रोच्छ्वा २० ९३५ आनुपूर्वियों में से एक इस तरह इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होता है । इसका उदय कार्मणशरीर सहित चारों गति सम्बन्धी विग्रह गतिमें होता है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि यह स्थान आनुपूर्वी सहित है । इसमें से आनुपूर्वीको घटाकर औदारिक आदि तीन शरीरों में से एक, छह संस्थानों में से एक, प्रत्येक साधारण में से एक और उपघात इन चारोंको मिलानेपर चौबीस प्रकृतिरूप स्थान होता है। इस स्थानका उदय एकेन्द्रियोंके अपर्याप्त दशामें शरीर मिश्र २५ योगमें ही होता है, अन्यत्र नहीं; क्योंकि एकेन्द्रियों में अंगोपांग और संहननका उदय नहीं होता। इसमें परघात मिलानेपर एकेन्द्रियके शरीरपर्याप्तिकालमें उदययोग्य पच्चीसका स्थान होता है । अथवा इसमें आहारक अंगोपांग मिलानेपर विशेष मनुष्य के आहारक शरीरके मिश्रकाल में उदययोग्य पच्चीसका स्थान होता है । अथवा वैक्रियिक अंगोपांग मिलानेपर देव नारकीके शरीर मिश्रकालमें उदययोग्य पच्चीसका स्थान होता है। इस तरह ३० पच्चीसके तीन स्थान होते हैं । I एकेन्द्रियके उदययोग्य पच्चीसके स्थान में आतप या उद्योत मिलानेपर एकेन्द्रियके शरीरपर्याप्तिकालमें उदययोग्य छब्बीसका स्थान होता है । अथवा एकेन्द्रियके पच्चीसके क- ११८ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३६ गो० कर्मकाण्डे प्रकृतिगळोळु त्रसौदारिकशरीरविवक्षयादोडौदारिकांगोपांगं संहननं सहितमावोर्ड द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेंद्रियंगळ्गे शरीरमिथकालदोळु षड्विंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं। २६ । बि । ति । च।प। मिश्र । मत्तमा चतुविशतिप्रकृतिगळोळु मनुष्यगति विवक्षितमादोडयुमंगोपांगसंहनन युतमागि सामान्यमनुष्यसंसारिजोवनशरीरमिश्रदोळं निरतिशयकेवलिकवाटसमुद्घातद्वयवोवारिक५ शरीरमिश्रदोळं षड्विंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २६ । सा । म । सा के । औ। मिश्र। मत्तमा चतुविशतिप्रकृतिगळोळु आहारकशरीरं विवक्षितमादोडे अंगोपांगपरघातप्रशस्तविहायोगतिगळं कूडिदोडे आहारकशरीरपर्याप्तप्रमत्तनोळ सप्तविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २७ । प्र । आ. शप। मतमा सामान्यकेवलिय औदारिकमिध षड्विंशतिप्रकृतिगळोळ तीर्थयुतमावुवावोडमा कवाटय समुद्घातविशेषमनुष्यौवारिकमिधदोळं सप्तविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं। २७। ती के । श.मि । १० मतमा चतुविशतिप्रकृतिगळोळु नरकसुरगतिगळु विवक्षितमावोर्ड वैक्रियिकांगोपांगपरघाता विरुद्धविहायोगतियुतमादोर्ड देवनारकशरीरपर्याप्तियोळ सप्तविंशतिप्रकृतिस्थानोवयमक्कुं २७ । दे। ना। श. परि। मत्तमा चतुविशतिप्रकृतिगळोळ एकेंद्रियजातिनाममुं विवक्षितमादोर्ड परघातमुमातपमुं मेणुद्योतमुमुच्छ्वासमुं युतमागि एकेंद्रियोच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोल सप्तविंशति प्रकृतिस्थानोदयमक्कं । २७ । ए उ. प। मत्तमा चतुविशतिप्रकृतिगलोळु मनुष्यगतिविवक्षितमा१५ दोडे. अंगोपांगसंहननपरघाताविरुद्धविहायोगतियुतमागि सामान्यमनुष्यशरीरपर्याप्तियोळ अष्टा विंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कं । २८ । सा । म । श । परि। मूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातसामान्य. सनिःश्वासपर्याप्ती उच्छ्वासे युते इदं २६ । वा चतुविशतिके द्वित्रिचतुष्पंचेन्द्रियाणां सामान्यमनुष्यस्य निरतिशयकेवलिकवाटद्वयस्य च औदारिकमिश्रकाले तदंगोपांगसंहनने युते इदं २६ । तत्रवाहारकांगोपांगपरपातप्रशस्तविहायोगत्याहारकशरीरपर्याप्तिप्रमते इदं २७। सामान्य केवल्यो२. दारिकमिश्रषड्विंशतिके तीर्थे युते कवाटद्वयसमुद्घातविशेषमनुष्यौदारिकमिश्रे इदं २७ । पुनः चतुविशतिके प्रमत्तस्य शरीरपर्याप्ती वैक्रियिकांगोपांगपरघाताविरुद्धविहायोगतिषु युतास्विदं । २७ । वा तत्रैवैकेन्द्रिय २५ स्थानमें श्वासोच्छवास मिलानेपर एकेन्द्रियके उच्छ्वास निःश्वास पर्याप्तिमें उदय योग्य छब्बीसका स्थान होता है । अथवा चौबीसके स्थानमें औदारिक अंगोपांग और एक संहनन मिलानेपर दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सामान्य मनुष्य, निरतिशय केवलीका कपाटयुगल, इनके औदारिक मिश्रकालमें उदय योग्य छब्बीसका स्थान होता है। इस प्रकार छब्बीसके तीन स्थान हुए। चौबीसके स्थानमें आहारक अंगोपांग, परघात, प्रशस्त विहायोगति ये तीन मिलानेपर प्रमत्त गुणस्थानीके आहारक शरीर पर्याप्तिकालमें उदययोग्य सत्ताईसका स्थान होता है। अथवा पूर्वोक्त समुद्घातगत केवलीके छब्बीसके स्थानमें तीर्थकर प्रकृति मिलनेपर तीर्थकर समुद्घात केवलीके उदय योग्य सत्ताईसका स्थान होता है। अथवा पूर्वोक्त चौबीसके स्थानमें वैक्रियिक अंगोपांग, परघात तथा नारकीके अप्रशस्त विहायोगति और देवके प्रशस्त विहायोगति ये तीन मिलनेपर देव नारकीके शरीर पर्याप्तिकालमें उदय योग्य सत्ताईसका स्थान होता है। अथवा पूर्वोक्त चौबीसके स्थानमें परघात, और आतप उद्योतमें से एक Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका केवलिय शरीरपर्याप्तियोळमा अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कं । २८ । सा। के।। परि। मत्तमा चतुविशति प्रकृतिगळोळु तिर्यग्गतित्रसंगळु विवक्षितमागुत्तं विरलु अंगोपांगसंहननपरघातविहायोगतिगलं कूडुत्तं विरलु द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेंद्रियजीवंगळ शरीरपाप्तियोळष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमकं । २८ ॥ द्वि । त्रि। च । पं। श. उ. परि ॥ मत्तमा चतुर्विशतिप्रकृतिगळोळु आहारकांगोपांगपरघातप्रशस्तविहायोगतियुच्छ्वासगळं कूडुत्तं विरलु आहारक ५ ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तनोळु आहारकशरीरोच्छ्वासपर्याप्तियोळष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कु २८ । प्र. आ. श. उ परि। मत्तमा चतुविशतिप्रकृतिगळोळ नरकदेवगतिगळ विवक्षितंगळादोडे वैक्रि. यिकांगोपांगपरघाताविरुद्धविहायोगतियुच्छ्वासमुमं कूडुत्तं विरलु देवनारकोच्छ्वासपर्याप्तियोळ अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २८ । दे । ना। उ. परि ॥ मत्तमा सामान्यमनुष्यन शरीरपर्याप्तिय अष्टाविंशतिप्रकृतिगळोच्छ्वासमं कूडुत्तं विरलुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोळु सामान्य- १० स्योच्छवासपी परवाते आतपोद्यातकतरस्मिन्नच्छवासे च यते इदं २७ ॥ पुनः तत्रैव सामान्यमनुष्यस्य मूलशरीरप्रविष्टसमद्घातसामान्यकेवलिनः द्वित्रिचतुष्पंचेन्द्रियाणां च शरीरपर्याप्ती अंगोपांगसंहननपरधानाविरुद्धविहायोगतिषु युतास्विदं ॥२८॥ वा प्राप्ताहारकर्धेस्तच्छरीरोच्छवासपर्याप्त्योस्तदंगोपांगारघातप्रशस्तविहायोगत्युच्छवासेषु युतेष्विदं ॥२८॥ वा देवनारकयोहच्छ्वासपर्याप्ती वैक्रियिकांगोपांगपरघाताविरुद्ध विहायोगत्युच्छ्वासेषु युतेष्विदं ॥२८॥ पुनः तत्सामान्यमनुष्याष्टा- १५ विशतिके तस्य च मूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातसामान्यकेवलिनश्चोच्छ्वासपर्याप्ती उच्छ्वासे युते इदं ॥२९॥ वा तच्चतुर्विशतिके द्वित्रिचतुष्पंचेन्द्रियाणां शरीरपर्याप्तावुद्योतेन सम, उच्छवासपर्याप्ती च उच्छवासेन समं अंगोपांगसंहननपरघातविहायोगतिषु युतास्विदं ॥२९॥ वा समुद्घातकेवलिनः शरीरपर्याप्तावंगोपांगसंहननतथा उच्छवास ये तीन मिलनेपर एकेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्तिमें उदययोग्य सत्ताईसका स्थान होता है । ऐसे सत्ताईसके चार स्थान होते हैं। चौबीसके स्थानमें औदारिक अंगोपांग, एक संहनन, परघात, यथायोग्य विहायोगति ये चार मिलनेपर सामान्य मनुष्य या मूल शरीरमें प्रवेश करता समुद्घातगत सामान्य केवलो या दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके शरीर पर्याप्तिमें उदययोग्य अठाईसका स्थान होता है। अथवा चौबीसमें आहारक अंगोपांग, परघात, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास ये चार मिलनेपर आहारक ऋद्धिसे सम्पन्न प्रमत्तके आहारक शरीरकी उच्छ्वास २५ पर्याप्तिमें उदययोग्य अठाईसका स्थान होता है। अथवा चौबीसमें वैक्रियिक अंगोपांग, परघात, यथायोग्य विहायोगति, उच्छ्वास ये चार मिलानेपर देव नारकीके उच्छ्वास पर्याप्ति में उदययोग्य अठाईसका स्थान होता है। ऐसे तीन अठाईसके स्थान हुए।। सामान्य मनुष्य या समुद्घात केवलीके अठाईसके स्थानमें उच्छ्वास प्रकृति मिलनेपर सामान्य मनुष्य या मल शरीरमें प्रवेश करते समदघात केवलीके उच्छवास पर्याप्ति में उदय- ३० योग्य उनतीसका स्थान होता है। अथवा चौबीसमें औदारिक अंगोपांग, एक संहनन, परवात, एक विहायोगति, उद्योत मिलानेपर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के शरीर पर्याप्तिमें उदययोग्य उनतीसका स्थान होता है। अथवा चौबीसमें एक अंगोपांग, एक संहनन, परघात, एक विहायोगति और उच्छ्वास मिलनेपर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्तिमें उदययोग्य उनतीसका स्थान होता है। अथवा ३५ २० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३८ गो० कर्मकाण्डे मनुष्यं नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । सा म । उ परि । समुद्घात सामान्य केवलिय मूलशरीरप्रविष्टोच्छ्वास निश्वासपर्य्याप्तियोळं नववंशतिप्रकृतिस्थानोदय मक्कुं । २९ । सा के | उ. परि । मत्तमा तिर्य्यग्गतित्रसंगळ विवक्षिसल्पडुत्तिरला चतुव्विशतिप्रकृतिगळोळु अंगोपांगसंहननपरघातोद्योतविहायोगतिगळं कूतं विरलू द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेंद्रियंगळ शरीर५ पर्य्याप्तियोळु नर्वावशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २२ । बि । ति । च । प । श परि । उ । मत्तः मल्लियुद्योत र हितोच्छ्वासयुतमागियुच्छ्वास निश्वासपर्याप्तियोलु नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । बि । ति । च । प । उ. परि । मत्तमा चतुव्विशतिप्रकृतिगलोळ मनुष्यगति विवक्षितमागुतं विरल अंगोपांग संहननपरघातप्रशस्त विहायोगतितीत्थंयुतमागि समुद्घातके वलियो पतियो नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । ती के । श. परि । मत्तमा चतु१० व्विशति प्रकृतिगोळाहारकशरीरं विवक्षितमागुत्तं विरलु आहारकांगोपांगपरघातप्रशस्तविहायोगति उच्छ्वास सुस्वरयुतमागि विशेषमनुष्यप्रमत्तनोळाहारकशरीरभाषापर्याप्तियोळु नववंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । प्र । आ. भा. परि । मत्तं सुरनारकरुगळ भाषापर्य्याप्तियो अविरुद्ध स्वरमोदं कूडिदोर्ड देवनारकरुगळ भाषापर्य्याप्तियोळ नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । दे। ना । भा. परि । मत्तमा चतुव्विशतिप्रकृतिगोळु अंगोपांग संहननपरघातोद्योत१५ विहायोगति उच्छ्वासमं कूडिवोर्ड द्वीद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेद्रियंगळ उच्छ्वासपर्व्याप्तियोळ २० २५ ३० परघातप्रशस्त विहायोगतितीर्थेषु युतेष्विदं ॥ २९ ॥ वा प्रमत्तस्याहारकशरीरभाषापर्याप्त्यिास्तदंगोपांगपरघातप्रशस्त विहायोगत्युच्छ्वास सुस्वरेषु युतेष्विदं ॥ २९ ॥ वा देवनारकयोर्भाषापर्याप्तो अविरुद्धकस्वरे युते इदम् ॥ २९ ॥ पुनः तत्रैव द्वित्रिचतुष्पं चेन्द्रियाणामुच्छ्वासपर्याप्तावुद्योतेन समं सामान्य मनुष्य सकल विकलानां भाषापर्याप्तौ स्वरद्वयान्यतरेण समं चांगोपांग संहननपरघातविहायोगत्युच्छ्वासेषु युतेष्विदं ॥ ३०॥ वा समुद्घाततीर्थंकर के वलिनः उच्छ्वासपर्याप्तौ तीर्थेन समं, सामान्यसमुद्घातकेवलिनो भाषापर्याप्तो स्वरद्वयाचौबीस में औदारिक अंगोपांग, संहनन, परघात, प्रशस्त विहायोगति, तीर्थंकर मिलने पर समुद्घात तीर्थंकर केवलीके शरीर पर्याप्ति में उदययोग्य उनतीसका स्थान होता है । अथवा चौबीसमें आहारक अंगोपांग, परघात, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, सुस्वर मिलनेपर प्रमत्तके आहार शरीरकी भाषापर्याप्ति में उदययोग्य उनतीसका स्थान होता है । अथवा देव की अठाईसके स्थान में देवके सुस्वर, नारकीके दुःस्वर मिलानेपर देव नारकी के भाषा पर्याप्ति में उदय योग्य उनतीसका स्थान होता है । इस तरह उनतीस के छह स्थान होते हैं । चौबीसके स्थानमें अंगोपांग, संहनन, परघात, विहायोगति, उच्छ्वास मिलने पर उनतीस हुए। इनमें उद्योत मिलनेपर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्ति में उदययोग्य तीसका स्थान होता है । अथवा दो स्वरोंमें से एक मिलनेपर सामान्य मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय अथवा विकलत्रय में भाषा पर्याप्तिमें उदययोग्य तीसका स्थान होता है । अथवा चौबीस में औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ नाराच संहनन, परघात, प्रशस्त विहायोगति और उच्छ्वास मिलनेपर उनतीस होते हैं, उसमें तीर्थंकर प्रकृति मिलानेपर Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका त्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कं । ३० । बि । ति । च ।। उ। परि। उद्यो। मत्तमा चतुविशति प्रकृतिगळोळु सामान्यमनुष्यगतिविवक्षितमागुत्तं विरलु अंगोपांगसंहननपरघातविहायोगत्युच्छ्वासस्वरद्वितयदोळन्यतरमं कूडुत्तं विरलु सामान्यमनुष्यरुगळ भाषापर्याप्तियोळ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कु । ३० । साम । भा. परि। मत्तमुद्योतरहित सकलविकलंगळोळ स्वरद्वयदोलोदं कूडिदोडे सकलविकलंगळ भाषा- ५ पर्याप्तियोळु त्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कु । ३० । बि । ति । च ।। भा.परि । मतं चतुविशतिप्रकृतिगळोळ अंगोपांगसंहननपरघातप्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वासतीर्थमुमं कूडुत्तं विरलु तीर्थसमुद्घातकेवलियुच्छ्वासपर्याप्तियोळ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानम। ३८ । ती के। उ. परि। मतं सामान्यसमुद्घातकेवलिय भाषापर्याप्तियोळु स्वायदोळन्यतरमं कूडुन विरलु भाषापाप्तिकेवलियोळु त्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कु । ३० । सा के भा. परि। सयोगकेवलिय भाषापर्याप्त. १० स्थानदोळ तीर्थमं कूडुत्तं विरलु भाषापर्याप्तियुततीर्थकेवलियोळ एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कु । ३१ । तो के। भा. परि । मतं चतुविशतिप्रकृतिगळोळु अंगोपांगसंहननपरघातोद्योतविहायोगतियुच्छ्वासस्वरद्वितयदोळन्यतरमं कूडुत्तं विरलु द्वीवियत्रोंद्रिय चतुरिंद्रियपंचेंद्रिय जीवंगळ भाषापर्याप्तियोटेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कु । ३१ । बि । ति । च ।। भा. परि । उद्यो। एगे इगिवीस पणं इगिछन्वीसटठवीस तिणि गरे । सयले वियलेवि तहा इगितीसं चावि वचिठाणे ||५९५।। सुरणिरयविसेसणरे इगि पण सगवीस तिण्णि समुघादे । मणुसं वा इगिवीसे वीसं रूवाहियं तित्थं ॥५९६।। वीस दु चउवीसचऊ पण छव्वीसादि पंचयं दोसु । उगुतीस तिपण काले गयजोगे होति णव अट्ठ ॥५९७।। एकेंद्रियंगळोळय्, कालदोळ क्रमदिदमेकविंशत्यादिपंचस्थानंगळप्पुवु । २१ । २४ । २५ । २६॥ २७॥ न्यतरेण समं चांगोपांगसंहननपरघातप्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वासेषु युतेष्विदं ॥३०॥ पुनः तत्सयोगकेवलिस्थाने भाषापर्याप्ती तीर्थे युते इदं ॥३१॥ वा चतुर्विशतिके द्वित्रिचतुष्पंचेन्द्रियाणां भाषापर्याप्तावंगोपांगसंहननपरघातोद्योतविहायोगत्युच्छ्वासस्वरद्वयान्यतरेषु युवेष्विदं ॥३१॥५९३-५९४॥ २५ समुद्घात तीर्थकर केवलीके उच्छ्वास पर्याप्ति में उदयोग्य तीसका स्थान होता है। अथवा दो स्वरोंमें से एक मिलनेपर सामान्य समुद्घात केवलीके भाषा पर्याप्तिमें उदययोग्य तीसका स्थान होता है। ऐसे तीसके चार स्थान हुए। सामान्य सयोग केवलीके भाषा पर्याप्ति सम्बन्धी तीसके स्थानमें तीर्थकर प्रकृति मिलानेपर तीर्थंकर केवलीके भाषा पर्याप्तिमें उदययोग्य इकतीसका स्थान होता है। अथवा ३० पूर्वोक्त चौबीसमें अंगोपांग, संहनन, परघात, उद्योत, विहायोगति, उच्छवास, सुस्वर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० कर्मकाण्डे मनुष्यरोळ एकविंशति षड्वशत्यष्टविंशत्यादि त्रितम । २१ । २६ । २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ सकलेंद्रिय विकलेंद्रियंगलोमा प्रकादिदमेकविंशति षड्वशत्यष्टाविंशत्यादित्रितयः वाचि २९ ३१ २५ ३० २९ २७ २१ मनु सा केव तीर्थ के ९४० आणा o २७ २६ शरी समी २४ विका २१ २६ २५ २८ २९ 224 २८ २७ २५ २१ एकेंद्रि देव नरक २७ २५ २१ ३१ ३० ३० ३० २९ २९ ३० २९ २९ २८ २६ २१ तिर्ध्य २८ २६ २१ २८ २६ २७ २८ २७ त्रिशत्प्रकृतिस्थान भाषापर्य्याप्तियोळप्पू । २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ सुरनारकविशेषमनुष्यरोळु एकविंशति पंचविशति सप्तविंशत्या दित्रयमक्कुं । २१ । २५ ॥ २७ ॥ ५ २८ । २९ ॥ समुद्घातकेवलियो तीर्थरहितरो मनुष्यनोळे तंतक्कुमल्लि विशेषटदावुदे दोडे इगिवीसे वीसं एकविंशतियोळ विशतियक्कुं । २० । २६ । २८ । २९ । ३० । तीर्थसमुद्घातकेवलियोळु रूपाधिकस्थानं गळप्पु । २१ । २७ । २९ । ३० । ३१ । इंतागुत्तं विरल केवल कामंणंगकोळं विग्रहकाम्मणशरीरदोळं | २० | २१ ॥ २२ ॥ विशत्येकविंशतिगळु मेकविंशतिगळु मप्पुवु । शरीरमिश्रकालदोळु चउवीसचऊ चतुव्विशति पंचविशति षड्वशतिगळवु । २४ । २५ । २६ ॥ १० २७ । शरीरपर्थ्याप्तिकालदोळं आनापानपर्य्याप्तियोळं यथासंख्ययिदं पंचविंशत्यादि पंचस्थानंनळं २५ ० विशेष मनु पंचकालेषु क्रमेणै केन्द्रियेष्वेकविंशतिकादीनि पंच । मनुष्येष्वेकविशतिकं षड्विंशतिकमष्टाविंशतिकादित्रयं च । सकलेन्द्रिये विकलेन्द्रियेऽपि तथैवैकविंशतिकषट्विंशतिकाष्टाविंशतिकत्रयं । एकत्रिंशत्कं तु भाषापर्याप्तो । सुरनारकविशेषमनुष्येष्वेकविंशतिकं पंचविशतिकं सप्तविंशतिकादित्रयं च । समुद्घातके वलिनि तीर्थोने मनुष्यवदप्येकोनविंशतिकस्थाने विशतिकं स्यात् । तीर्थ समुद्घातकेवलिनि तान्येव रूपाधिकानि । एवं १५ सति केवलिकार्मणे विशतिकैकविंशति के द्वे । विग्रहकाले एकविंशतिकं शरीरमिश्रकाले चतुर्विंशतिकादि दुःस्वरमें से एक ये सात मिलनेपर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके भाषा पर्याप्ति में उदययोग्य इकतीसका स्थान होता है । ऐसे इकतीसके दो स्थान होते हैं ।। ५९३ - ५९४ ।। पूर्वोक्त पाँच कालोंमें क्रमसे एकेन्द्रियोंमें उदययोग्य इक्कीस आदि पाँच स्थान हैं । मनुष्यों में इक्कीसका, छब्बीसका और अठाईस आदि तीन उदययोग्य हैं । सकलेन्द्रिय २० विकलेन्द्रिय तिर्यंचों में भी उसी प्रकार इक्कीस, छब्बीस, अठाईस आदि तीन उदययोग्य हैं । किन्तु इकतीसका स्थान भाषा पर्याप्ति में उदययोग्य है । देव, नारकी और आहारक या केवल सहित विशेष मनुष्यों में इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस आदि तीन उदययोग्य हैं । तीर्थरहित समुद्घात केवली में मनुष्यकी तरह इक्कीसके स्थान में आनुपूर्वी बिना बीसका ही उदय स्थान होता है, तीर्थंकर समुद्घात केवलीके तीर्थंकर सहित इक्कीसका उदयस्थान है । २५ इस तरह केवल के कार्माणमें बीस-इक्कीस दो उदयस्थान है । और त्रिग्रहगति सम्बन्धी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९४१ षड्वशत्यादि पंचस्थानंगळमप्पुवु । शरीर प० २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । आनापान प २६ । २७ । २८।२९ ॥ ३० ॥ भाषापर्य्याप्तिकालदोळु उगुतोसति नव विशत्यादित्रिस्थानंगळप्पुवु । २९ । ३० । ३१ ॥ यितु पंचकालंगळरियल्पडुगुं ॥ गयजोगे अयोगिकेवलियोळ तीर्थयुतमागि नवप्रकृतिस्थानमुं तीर्थरहित मागि अष्टप्रकृतिस्थानमुमक्कुं । तो । अयोगि । के ९ । अति । अयोगि । के ॥ ८ ॥ चतुष्कं । शरीरपर्याप्तिकाले पंचविशतिकादि पंचकं । आनापानपर्याप्तौ षड्विंशतिकादिपंचकं, भाषापर्याप्तिकाले नवविंशतिकादित्रयं, अयोगे सतीर्थे नवकमतीर्थेऽष्टकं ॥५९५ - ५९७ ॥ वचि आणु. शरी शमि विका o २७ २६ २६ २५ २४ | २९ २९ २८ २७ २५ २१ । २१ २८ २७ २५ २१ एकेन्द्रिय देव नारक 37 इक्कीसके स्थान २ दो चारों "तिके विग्रहगति में उदययोग्य | २१ | तीर्थंकर केवली कार्माणामें ॥२१॥ ३० ३१ ३० २९ २९ २८ २६ २१ ३० २९ २६ २८ । २८ २१ ३० २९ २६ २० तिर्यग् | मनुष्य साके ३१ ३० २९ २७ २१ तीर्थ केव २९ २८ २७ अस्यायोगस्थानद्वयस्योपपत्तिमाह कर्माणमें इक्कीसका ही उदयस्थान है । शरीर मिश्रकालमें चौबीस आदि चार हैं। शरीर पर्याप्तकाल में पचीस आदि पाँच हैं। इवासोच्छ्वासपर्याप्तिकाल में छब्बीस आदि पाँच हैं । भाषा पर्याप्तिकालमें उनतीस आदि तीन हैं। अयोगो में तीर्थंकरके नौ और सामान्यके आठका उदय होता है ।।५९५ - ५९७।। अयोगीगुणस्थानके दो स्थानोंकी उपपत्ति कहते हैंनामकर्मके उदयस्थानोंका मन्त्र २५ बीसका स्थान एक १ चौबीसका स्थान एक ॥१॥ समुद्घात केवलीके कार्माण में उदययोग्य | २०| एकेन्द्रियके मिश्र शरीर में उदययोग्य ||२४|| ० विशेष मनुष्य ५ १० पच्चीसके स्थान तीन ॥३॥ एकेन्द्रियके शरीर पर्याप्ति में उदययोग्य ||२५|| १५ आहारक के मिश्रकालमें उदययोग्य ||२५|| देव नारकके शरीर मिश्रकालमें उदय ||२५|| Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४२ १० गो० कर्मकाण्डे अनंतरमयोगिक्रेवलिय नामस्थानद्वयक्कुपपत्तियं पेवपरु :गयजोगस्स य बारे तदियाउगगोद इदि विहीणेसु । नामस्स य व उदया अट्ठेव य तित्थहीणेस ||५९८ ।। तयोगिनो द्वादशसु तृतीयायुग्गोत्रमिति विहोनेषु । नाम्नो नवोदया अष्टैव च तोत्थंहीनेषु ॥ अयोगकेवलि भट्टारकनुदयप्रकृतिगळु पर्नरडरोळ वेदनीयायुग्गश्रत्रयमं कळबोर्ड नामकर्म्मप्रकृतिगळु नवप्रमितंगळप्पुवु । ९ । तीत्थं रहितरोळे टे प्रकृतिगळवु । ८ ॥ अयोगकेवलिनः द्वादशोदय प्रकृतिषु वेदनीयायुर्गोत्रे ऽपनीतेषु नाम्नो नव भवन्ति । पुनः तीर्थेऽपनीतेऽष्टौ भवन्ति ।। ५९८ ।। अथ नामोदयस्थानेषु भंगानाह छब्बीसके स्थान तीन ॥ ३ ॥ एकेन्द्रिय के शरीर पर्याप्ति काल में ||२६|| एकेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्ति काल में ||२६|| दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सामान्य मनुष्य, निरतिशय केवलीके औदारिक मिश्रकालमें उदययोग्य ||२६|| १५ सत्ताईसके स्थान चार ||४|| आहारक शरीर पर्याप्ति में उदययोग्य ॥२७॥ तीर्थंकर समु. केवलीके उदययोग्य ||२७|| देव नारकीके शरीर पर्याप्तिकाल में ||२७|| एकेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्ति में ||२७|| २० अठाईसके स्थान तीन ॥३॥ सामान्य मनुष्य, सामान्य केवली, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके शरीर पर्याप्ति में उदययोग्य ||२८|| आहारक में उच्छ्वास पर्याप्ति में उ. ॥ ८२ ॥ २५ देव नारकी के उच्छ्वास पर्याप्तिमैं ||२८|| उनतीसके स्थान छह ॥ ६ ॥ समुद्घातकेवलीके उच्छ्वास पर्याप्ति में ||२९|| दोइन्द्रिय आदिके शरीर पर्याप्ति में ||२९|| दोइन्द्रिय आदिके उच्छ्वास पर्याप्ति में ||२९|| समुद्घात तीर्थंकर के शरीर पर्याप्ति में ||२९|| आहारक शरीरके भाषा पर्याप्ति में ||२९| देव नारकीके भाषा पर्याप्ति में ||२९|| तीसके स्थान चार ||४|| दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्ति में ||३०|| सामान्य मनुष्य, पंचेन्द्रिय, विकलत्रयके भाषा पर्याप्ति में ||३०|| तीर्थं. समु. केवली उच्छ्वास पर्याप्ति में ||३०|| सामान्य समु. केवलीके भाषा पर्याप्ति में उदय ||३०|| एकतीस के स्थान दो ॥२॥ तीर्थंकर केवली भाषा पर्याप्ति में ॥ ३१ ॥ दोइन्द्रिय, आदि पंचेन्द्रिय के भाषा पर्याप्ति में ||३१|| नौका स्थान एक || १॥ अयोग केवली के आठका स्थान एक || १॥ अयोग केवलीके अयोग केवलीके उदय प्रकृतियाँ बारह हैं। उनमें से वेदनीय, आयु, गोत्र तीन प्रकृतियाँ घटानेपर नामकर्मका नौ प्रकृतिरूप उदय स्थान होता है । और तीर्थकर बिना आठका ३० उदयस्थान होता है ।।५९८|| Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अनंतरं नामकर्म्म प्रकृत्युदयस्थानंगळोळ भंगंगळं पेदपरु : ठाणे संदडणे विहायजुम्मेव चरिमचदुजुम्मे । अविरुद्धेकदरादो उदयट्ठाणेसु भंगा हु ।। ५९९|| संस्थाने संहनने विहायोयुग्मे च चरम चतुर्युग्मे । अविरुद्धैकतरादुदयस्थानेषु भंगाः खलु ॥ संस्थानषट्कदोळं संहननषट्कदोळं विहायोगतिद्वयबोळं सुभगसुस्वरादेय यशस्कीत्ति' चरम- ५ चतुर्युग्मदोळं अविरुद्धैकतर ग्रहण दिवमुदयस्थानदोळु भंरांगळप्पुवु । स्फुटमागि । अल्लि संस्थानषट्कमुमं संहननषट्कमुमं गुणिसिदोर्ड मूवत्तारुपंचयुगळं गुणिसिबोर्ड मूर्त्तर । ३२ । ३६ । आ येडुं गुण्य गुणकारंगळं गुणिसिदोर्ड सासिरद नूरध्वत्र्त्तरडुं : :― सं सं युति य । अ ११ आ । अ ११ ११ ११ ११ सुदु सु । दु प्र । अ ११ ११ ११ ११ ११ ११ ११५२ ॥ ई भंगलो नारकायें कचत्वारिंशज्जीवपदंगळो संभविसुव उदयस्थानंगळ भंगगळं गाथात्रयदिदं पेव्वपरु : तत्थासत्या णारयसाहारणसुहुमगे अपुण्णे य । सेसेगविलसणिजुदठाणे जसजुगे भंगा || ६००॥ तत्राशस्ता नारकसाधारणसूक्ष्मेव पूर्णे च । शेष कवि कला संज्ञियुतस्थाने यशोयुग्मे भंगाः ॥ संस्थान षट्के संहनन षट् के विहायोगतिद्वये सुभगद्वये सुस्वरद्वये आदेमद्वये यशस्कीर्तिद्वये च अविरुद्धकरग्रहणेन भंगा भवन्ति । ते खलु द्वापंचाशदधिकं का दशशतानि । ११५१ । ।। ५९९।। तेषु नारकाद्येकचस्वारिशज्जीवसम्भविनो गाथात्रयेणाह -- ९४३ उनमें से नारक आदि इकतालीस जीवपदोंमें सम्भव कहते हैं— क- ११९ नामकर्मके उदय स्थानोंमें भंग कहते हैं छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, सुभग- दुभंग, सुस्वर - दुःस्वर, आयअनादेय, यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति इनमें से अविरुद्ध एक-एक ग्रहण करनेसे भंग होते हैं । सो ६×६×२x२×२x२x२ को परस्परमें गुणा करनेसे ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं ॥५९९ ॥ २० भंगोंको तीन गाथाओंसे १० १५. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४४ गो० कर्मकाण्डे आ स्थानोदय प्रकृतिगळोळु अप्रशस्तंगळु नारकरोळं साधारणवनस्पतिगळोळं सर्वसूक्ष्-मं गळोळ सव्वलब्ध्यपर्याप्तरुगळोळमक्कुमप्पुरिवमवर पंचकालंगळ सर्वोदयस्थानंगळोळेल्लमेकैकभंगमेयप्पुवु । शेषैकविकलासं जिजीवंगळुदयस्थानंगळोळ यशस्कोत्तिद्वयोदयकृतद्विभंगगळप्पुवु ॥ सण्णिम्मि मणुस्सम्मि य ओघेक्कदरं तु केवले वज्जं । सुभगादेज्जजसाणि य तित्थजुदे सत्थमेदीदि ॥६०१॥ संज्ञिनि मनुष्ये च ओघेष्वेकतरस्तु केवले वनं । सुभगादेययशांसि च तीर्थयुते शस्तमेतीति ॥ संजिपंचेंद्रियदोळं मनुष्यनोळं संस्थानाविसामान्यभंगंगळेल्लमप्पुवु । केवलज्ञानदोलु वज्र१० ऋषभनाराचसंहननमो देयकुं। सुभगादेययशस्कोत्तित्रयोदयमेयवकुमेके बोर्ड असंयतनोळु दुभंगत्रयक्के व्युच्छित्ति यादुवप्पुरिद । तीर्थयुतकेवलज्ञानदोळ प्रशस्तप्रकृतिगल्गुदयमेयप्पुदरिदमल्लिय स्थानंगळोळेकैकभंगमेयक्कु मे दोडे चरमपंचसंस्थानमुमप्रशस्तविहायोगतियु दुःस्वरमुमिल्लप्पुरिवं ॥ १८ तत्रोदयप्रकृतिषु नारके साधारणवनस्पती सर्वलब्ध्यपर्याप्ते वाऽप्रशस्ता एवोद्यन्तीति तत्पंचकालसर्वोदयस्थानेषु भंग एकैकः । शेषकेन्द्रियविकलासंझ्युदयस्थानेषु यशस्कोतिद्वयकृती द्वौ द्वो भंगो भवतः ॥६००॥ संज्ञिजीवे मनुष्ये च संस्थानादिसामान्यकृताः सर्वे भंगा भवन्ति । केवलज्ञाने वज्रवृषभनाराचसंहननं सुभगादेययशस्कोर्तय एवोद्यन्ति, "दुर्भगत्रयादेयस्यासंयते छेदात् ।" सतीर्थे च प्रशस्तमेव तेन तत्स्थानेष्वेकैकः, चरमपंचसंस्थानाप्रशस्तविहायोगतिदुःस्वराणां तत्रानुदयात् ॥६०१॥ २० उन उदय प्रकृतियों में-से नारकी, साधारण वनस्पति, सब सूक्ष्म और सब लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय होता है। अतः उनके पाँच काल सम्बन्धी सब उदयस्थानोंमें एक-एक भंग है। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंझी पंचेन्द्रियमें भी अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय है। किन्तु यश कीर्ति और अयश-कीर्ति में से किसी एकका उदय होता है अतः उनके उदयस्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं एक यशःकीर्ति सहित और एक अयशःकीर्ति सहित उदयस्थान ॥६००॥ ___संज्ञी जीव और मनुष्यमें छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगति आदि. पाँच युगलों में से एक-एकका ही उदय होनेसे सामान्यकी तरह सब ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं। केवलज्ञान सम्बन्धी स्थानोंमें वजवृषभनाराचसंहनन, सुभग, आदेय, यश कीर्तिका ही उदय होता है अतः उनमें छह संस्थान और दो युगलों में से एक-एकका उदय होनेसे चौबीस भंग होते हैं। तीथकर केवलीके अन्तके पाँच संस्थान, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उदय भी नहीं होता। सब प्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय होता है। अतः उनके उदयस्थानोंमें एक-एक ही भंग होता है ॥६०१।। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाहारे शस्ताः कालविकल्पेषु भंगा आनेयाः । व्युच्छिन्नां ज्ञात्वा गुणप्रतिपन्नेषु सर्व्वेषु ॥ चतुतिकायदेव कळोळं आहारकऋद्धिप्राप्तप्रमत्त संयतरोळं प्रशस्त प्रकृत्युदयंगळप्पुदरिदमा देवाहारकरुगळ सåकालोदयस्थानं गळोळु प्रशस्तप्रकृत्युदयं गळप्पुर्दारदमेकैकभंगंगळेयध्वु । सासादनादिगुणप्रतिपन्नरुगळोळु विग्रहकार्म्मणशरीरादिकालविकल्पंगळोळु व्युच्छिन्नप्रकृतिगळनरिदु भंगंगळु तरहपडुवुवु । एकचत्वारिंशज्जीव पदंगळोळुदयस्थानभंगंगळ संदृष्टिरचने : ० नि २९ १ भाष आ. प श. प श. मि विका लब्ध प. पर्या प्तक २८ १ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका देवाहारे सत्थं कालवियप्पेसु भंगमाणेज्जो | बोच्छिण्णं जाणित्ता गुणपडिवण्णेसु सव्वेसु ||६०२|| २७ १ २५ १ बा सू भं २ २७ २६ १ २१ २१ १ श. मि विका २७ २६ २७ २६ २४ २४ बा २६ उ २५ २६ २६ अ २५ २६ २१ १ ال २१ २ २४ २१ २४ २४ २४ १ १ १ २१ २१ १ १ अ सु बा १ २५ २४ २१ २४ १ 12 २१ १ २ २६ | २६ | २६ २६ २६ २६ २६ २७३० ३० ३० ३० २६ २९ २९ २९ २९/ ते सु बाधा सु बा सासु प्रबिति चअ २ २ २ २ ३१३१३१३१ |३०३०३०३० you १ २ १ १ १ २४ २५ २५ २५ २५ २५ २५ २६ २९ २९ २९ २९ २५ २८२८ २४ २४ २४ २४ २४ २६ २६ २६ २६ २१ २४ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २४ | २४ | २४ २४ २४ २४ २४ २६ २६ २६ २६ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ २१ २१२१२१ २१२१२१२१ २१ १ १ १ १ १ १ १ १ ९४५ २१ २१ २१ १ १ तुका देवेष्वाहाकविप्राप्तप्रमत्ते च प्रशस्त मेवोदेतीति तत्सर्वं कालोदयस्थानेष्वेकैको भंगः । सासादनादिगुणप्रतिपन्नेषु विग्रहकार्मणशरीरादिकाल विकल्पेषु व्युच्छिन्नप्रकृतीर्ज्ञात्वा भंगा मानेतव्याः ||६०२ || चार निकाय के देवों में, आहारक ऋद्धि प्राप्त प्रमत्तमें, प्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय १० होता है । अतः उनके सर्वकाल सम्बन्धी उदयस्थानों में एक-एक ही भंग है । सासादन आदि गुणस्थानों को प्राप्त हुए जीवोंमें तथा विग्रहगतिके कार्मण शरीर आदि कालोंमें व्युच्छिन्न हुई प्रकृतियोंको जानकर शेष प्रकृतियोंके भंग लाने चाहिए ||६०२ || ५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४६ गो० कर्मकाण्डे स के सके! | सा ती ५१५ Easam भं ३१ । २९ ३१ ३० ५७६ २८ । . . . . . . . २८4 २६ २१ २९ । २१ ई एकचत्वारिंशज्जीवपदंगळोळ विंशत्यानिस्थानोदयभंगंगळं गाथात्रयदिदं पेळ्दपरु : वीसादीणं भंगा इगिदालपदेसु संभवा कमसो । एक सर्द्वि चेव य सत्तावीसं च उगुवीसं ॥६०३॥ विंशत्यादिनां भंगा एकचत्वारिंशत्पदेषु संभवाः क्रमशः। एकः षष्टिश्चैव सप्तविंशतिरेकान५ विंशतिः॥ वीसुत्तरछच्चसया बारसपण्णत्तरीहिं संजुत्ता । एक्कारससयसंखा सत्तरससयाहिया सट्ठी ॥६०४॥ विंशत्युत्तरषट् च शतं द्वादश पंचसप्ततिभिः संयुक्तकादशशतसंख्यासप्तदशशतसमधिकषष्टिः॥ ऊणत्तीससयाहिय एक्कावीसा तदो वि एकट्ठी। एक्कारससयसहिया एक्केक्कविसरिसगा भंगा ॥६०५॥ एकान्नत्रिशच्छताधिकैकविंशति ततोप्येकषष्टिरेकादशशतसहिता एकैकविसदृशा भंगाः॥ एंवितु विशत्यादिस्थानंगळ भगंगळ एकचत्वारिंशज्जीवपदंगळोळ संभविसुर्वतप्पुवु । www विंशतिकादीनां स्थानानामेकचत्वारिंशज्जीवपदेषु सम्भवन्तो भंगाः क्रमेण विंशतिकं सामान्यसमुद् बीस आदि जो स्थान कहे हैं उनमें इकतालीस जीवपदोंकी अपेक्षा जो भंग होते हैं उन्हें क्रमसे कहते हैं बीसका उदय सामान्य समुद्घात केवलीके प्रतर और लोकपूरणके कार्माणकालमें | Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका क्रमशः क्रमदिदं पेळल्पडुगुमल्लि। विशतिप्रकृतिस्थानं सामान्यसमुद्घातकेवलिय प्रतरलोकपूरगंगळोळ सामान्य समुद्घातकेवलिय प्रतरलोकपूरणंगळो काम्र्मणकायदोळ दयिसुव तीत्यरहिमोदेयक्कुं । २०॥ मत्तमेकविंशतिप्रकृत्युदयस्थानंगळ, देवगतिय विग्रहकार्मणदोनोंदु २१ तोर्थसमुद्घात केवलियोळोंदु २१ मनुष्यगतिविग्रहगतियोळ सुभगादेययशस्कोत्तियुग्मत्रयदोळे : टप्पुवु २१ संक्षिपंचेंद्रियबोळमत एंटप्पुवु २१ [विकलासंज्ञिजीवंगळोळ. प्रत्येकयशोयुग्मकृत ५ भंगंगाळदमेरउरडागल्वे टप्पत् वि २१ पृथ्व्यप्तेजोबादरवायुप्रत्येकवनस्पतिगळोळमा प्रकारदिवमेरडेरड भंगंगळागळ मवरीळ पत्तप्पुवु २१ मतं पृथ्व्यप्तेजोवायुसूक्ष्मंगळोळ साधारणवनस्पतिबादरसूक्ष्मंगळोळं प्रत्येकमेकैक भंगमपुरिदमवरोज आरु भंगंगळप्पुवु २१ नारकरोगोंदु २१ अंतु पर्याप्तरोळ नाल्वत्तमूरु २१ लब्ध्यपर्याप्तजीवंगळोळ, पदिनेळ, २१ कूडि एकविशतिस्थानदोन भंगंगळरुवत्तप्पुवु २१ पर्याप्तजीवंगळ शरीरमिश्रकालदोळ पृथिव्यप्तेजोवायु- १० ५. घातकेवलिनः प्रतरलोकपूरणकार्मणकाये उदययोग्यमतीर्थमेकं २०। एकविंशतिकानि पर्याप्तानां देवगति विग्रहकार्मणे एक, तीर्थसमुद्घाते एकं, मनुष्यगतिविग्रहगती सुभगादेययशस्कीतियुग्मकृतान्यष्टौ । संज्ञिन्यपि तथवाष्टौ । विकलासंजिषु प्रत्येकं यशोयुग्मकृते द्वे द्वे भूत्वाष्टौ । बादरपृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकेष्वपि तथा दश । सूक्ष्मपृथ्व्यप्तेजोवायुषूभयसाधारणयोश्चककं भूत्वा षट् । नारकेष्वेकं । लख्यपर्याप्त सप्तदशेति षष्टिः २१ । होता है। उसमें एक ही भंग है । इक्कीसके भंग कहते हैं-देवगतिमें विग्रहगतिरूप कार्माण- १५ में एक ही भंग है । तीर्थंकरके समुद्घात सम्बन्धी कार्माणमें एक ही भंग है। मनुष्यगतिमें विग्रहगति सम्बन्धी कार्माणमें सुभग, आदेय, यश-कीर्ति इन तीन युगलों में से एक-एकका उदय होनेसे आठ भंग हैं। संझी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी कार्माणमें भी उसी प्रकार आठ भंग हैं। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंझीके कार्माणमें यश-कीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे आठ भंग होते हैं। बादर पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक बनस्पति इन पांचोंके भी कामोणमें २० यश कीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे दस भंग होते हैं। सूक्ष्म पृथ्वी, अप , तेज, वायु, सूक्ष्म बादर साधारण इन छहोंके कार्माणमें एक-एक ही भंग होनेसे छह भंग होते हैं । नारकीके कार्माणमें एक ही भंग है। लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायादिके भेदसे सतरह प्रकार है । उनके कार्माणमें एक-एक ही भंग होनेसे सतरह हुए। इस प्रकार इक्कीसके स्थानमें १+१+2+८+ ८+१०+६+१+१७%६० भंग होते हैं। १. अत्र पर्याप्तशब्देन नित्यपर्याप्ता एव गृह्यते । कथमिति चेत् पर्याप्तनामकम्मोदय सद्भावात् । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४८ गो० कर्मकाण्डे प्रत्येकबादरंगळोळ, २४ पृथ्व्यप्तेजोवायुसूक्ष्मंगळोळ साधारणवनस्पतिवादरसूलमंगलोळमेकैकभंगंगळप्पुरिंदनारु २४ लब्ध्यपर्याप्तकजीवंगळोळ पन्नो दु २४ कूडि चतुविशतिप्रकृतिस्थानदोळ सप्तविंशति भंगंगळप्पुवु २४ पंचविंशति स्थानदोळ, देवाहारकनारकरुगळ शरीरमिश्रकाळदोळ प्रत्येकमेकैकभंगंगळप्पुरिदं मूरु २५ पृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिगळ शरीर. ५ पर्याप्तियोळ बादरंगळोळ रडरडु भंगंगळप्पुरिद पत्तु २५ मत्तं पृथ्व्यप्तेजोवायुगळ सूक्ष्मंगळ शरीरपर्याप्तियोळं साधारणवनस्पतिबादर सूक्ष्मंगळ शरीरपर्याप्तियोळमेकैकभंगंगळप्पुदरिंदमारु २५ कूडि पंचविंशतिस्थानदोळ भगंगळकानविंशतिप्रमितंगळप्पुवु २५ षड्विशतिस्थानदोळ होंद्रियत्रोंद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिजीवंगळ शरीरमिश्रकालदोछ प्रत्येकमेरडेरडु भंगंगळप्पुरिव नाल्क रोळुमेंटु २६ संजिपंचेंद्रियदोळं मनुष्यनोळं शरीरमिश्रकालवोळु प्रत्येकं षट् संहनन षट्संस्थान१० सुभगादेवयशस्कोतियुग्मत्रयकृत भंगंगळु ३६ । ८। इन्नूरे भत्ते टागुतं विरळेरडरोळ मैनूरप्पत्तार चतुर्विंशतिकानि पर्याप्तानां शरीरमिश्रकाले बादरपृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकेषु द्वे द्वे भूत्वा दश । सूक्ष्मपृथ्व्यप्ते जोवायुषभयसाधारणयोश्चैकैकं भूत्वा षट् । लब्ध्यपर्याप्तेष्वेकादशेति सप्तविंशतिः २४ । २७ पंचविंशतिकानि देवाहारकनारकाणां शरीरमिश्रकाले एक भूत्वा त्रीणि, शरीरपर्याप्तो बादरपृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकानां द्वे द्वे भूत्वा दश । सूक्ष्मपृथ्व्यप्तेजोवायूनामुभयसाधारणयोश्चकैकं भूत्वा षडित्येकान१५ विंशतिः २५ । षड्विंशतिकानि शरीरमिश्रकाले द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंजिनां द्वे द्वे भत्वाष्टो। संज्ञिनि मनुष्ये च प्रत्येक षट्संहननषट्संस्थानसुभगादेययशस्कीतियुग्मकृताष्टाशीत्याद्विशती भूत्वा षट्सप्तत्यग्रपंचशती, अतीर्थसमुद्घात अब चौबीसके स्थानमें भंग कहते हैं-चौबीसका उदय मिश्रकालमें है सो बादर, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक इन पांच में यशःकीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे दस हुए । २० सूक्ष्म पृथ्वी अप तेज वायु बादर सूक्ष्म साधारण इनमें एक-एक भंग होनेसे छह हुए । ग्यारह लब्ध्यपर्याप्तकोंके शरीर मिश्रकालमें एक-एक भंग होनेसे ग्यारह हुए। इस प्रकार चौबीसके स्थानमें १०+६+ ११ = सत्ताईस भंग होते हैं। पच्चीसके स्थान में देव, आहारक नारकीके एक-एक भंग होनेसे तीन हुए। शरीर पर्याप्तिमें बादर, पृथ्वी, अप् , तेज, वायु, सूक्ष्म बादर साधारणके एक-एक भंग होनेसे छह ... हुए । इस प्रकार पच्चीसके स्थानमें ३+१०+६= उन्नीस भंग होते हैं । छब्बीसके स्थानमें शरीर मिश्रकालमें दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीके यशःकीति के युगलसे दो-दो भंग होनेसे आठ हुए। संज्ञी तिथंच और मनुष्योंमें छह संहनन, छह संस्थान, सुभग, आदेय, यशःकीर्तिके युगल द्वारा दो सौ अठासी, दो सौ अठासी भंग Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ६ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका २६ तीर्थरहितसमुद्घातकेवळिय शरीरमिश्रकालबोळु संस्थानषट्कदिंदमारु २६ लब्ध्यपर्याप्त रुगळ शरीरमिश्रकालदोळारु २६ पृथ्वीकायबादरशरीरपथ्याप्तियोळ आतपोद्योतयुतद्विस्थानंगकोळु प्रत्येकमरडेरडु भंगंगळप्पुरिदं नाल्कप्पुवु २६ अप्कायप्रत्येकवनस्पतिगळ बावरंगळ शरीरपर्याप्तियोलं प्रत्येकमेरडरडु भंगंगळप्पुरिवं नाल्कु २६ पृथ्व्यप्तेजोवायुबादरोच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तियोळ प्रत्येकवनस्पतियोळप्रत्येकमेरडेरडु भंगंगळप्पुरिदं पत्तु .२६ पृथ्व्यप्तेजोवायुगळ ५ सूक्ष्मंगळोळानापानपर्याप्तियोळ साधारणवनस्पतिबादरसूक्ष्मंगळोळनापान पर्याप्तियोळ प्रत्येकमेकैकभंगंगळप्पुरिंदमारु २६ अंतु षड्विशति प्रकृतिस्थानदोळु सर्वभंगंगळ मरुनूरिप्पतप्पुवु । २६ सप्तविंशत्युदयस्यानदोळ भंगंगळ पेळल्पडुगुं : सतीर्थसमुद्घातकेवलिय शरीरमिश्रकालदोनोंदु २७ देवाहार नारकरगळ शरीरपर्याप्तियोळ प्रत्येकमेकैकमागलु मूरु २७ पृथ्वीकायबादरदोज़ानापानपर्याप्तियोळातपोद्योतयुतस्थान- १० द्वयदोळ नाल्कु २७ अप्कायिकप्रत्येकवनस्पतिगळ बादरंगळोळानापानपर्याप्तियोल प्रत्येकमेरडे ६२० केवलिनः संस्थानषटकेन षट् । लब्ध्यपर्याप्तेष्वपि षट् । शरीरपर्याप्ती वादर पृथ्वीकायस्यातपोद्योतस्यानद्वये द्वे द्वे भूत्वा चत्वारि । बादराकायप्रत्येकयो? द्वे भूत्वा चत्वारि । उच्छ्वासपर्याप्ती बादरपृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकेषु द्वे द्वे भूत्वा दश । सूक्ष्मपृथ्व्यप्तेजोवायूभयसाधारणेष्वेकैकं भूत्वा षडिति विंशत्यग्रषट्छती २६ । ६२० सप्तविंशतिकानि सतीर्थसमुद्घातशरीरमिश्रकाले एक देवाहारकनारकशरीरपर्याप्तावेककं भूत्वा १५ वीणि । आनापानपर्याप्ती बादर पृथ्वीकायस्यातपोद्योतस्थानयो· द्वे भूत्वा चत्वारि । बादरा प्रत्येकयो द्वे होते हैं। मिलकर पांच सौ छिहत्तर हुए । तीर्थरहित सामान्य समुद्घात केवलीके छह संस्थानोंके बदलनेसे छह भंग होते हैं। छह लब्ध्यपर्याप्तकोंके एक-एक भंग होनेसे छह होते हैं । शरीर पर्याप्ति कालमें बादर-पृथ्वीकायके आतप या उद्योतपनेसे दो स्थान हैं। उनमें यशःकीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे चार होते हैं। बादर, अपकाय, प्रत्येक वनस्पतिमें २० भी दो-दो भंग होनेसे चार हुए। उच्छ्वास पर्याप्तिकालमें बादर पृथ्वी, अप, तेज, वायु प्रत्येकमें यशःकीर्तिके युगल द्वारा दो दो भंग होनेसे दस होते हैं । सूक्ष्म पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सूक्ष्म बादर साधारणमें एक-एक भंग होनेसे छह हुए । इस प्रकार छब्बीसके स्थानमें ८+ ५७६ +६+६+४+४+१०+६= ६२० छह सौ बीस भंग होते हैं। सत्ताईसके स्थानमें तीर्थंकर समुद्घात केवलीके शरीर मिश्रकालमें एक भंग होता है। २५ देवनारक आहारकके शरीर पर्याप्तिकालमें एक-एक भंग होनेसे तीन भंग होते हैं । उच्छ्वास पर्याप्तिकालमें बादर-पृथ्वीकायके आतप-उद्योतसे दो स्थान, उनमें दो-दो भंगसे चार भंग Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५० गो० कर्मकाण्डे रड्डु भंगंगळप्पुर्वारं वं नालकु २७ अंतु सप्तविंशति प्रकृत्युवयस्थानवोळ पन्नेरडे भंगंगळप्पुवु २७ * १२ १५ अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानबोळ, भंगंगळ पेळल्पडुगुं : निरतिशयसमुद्घातकेवलियशरीरपर्याप्तियोळ विहायोगतिद्वय गुणित संस्थान १२ ३६ । १६ । ११५२ षट्कमरिवं पनेर २८ मनुष्यनो संज्ञिपंचंद्रियदोळ प्रत्येकं शरीरपर्थ्याप्तिकालबोट, ५ सुभगादेययशस्कीतिविहायोगतिचतुर्द्वय गुणितसंस्थान संहननषट्कमरि अप्तुरप्प तालु मेरडरोळ सासिरद नूरय्वर्त्तरडवु २८ द्वींद्रियत्रींद्रियचं तुरिद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियंगळोळ, शरीरपर्य्याप्तियोळ, प्रत्येकर्म रड रडुभंरांगळे यप्पुर्वारखमा नाल्करोळ मेंदु २८ मत्तं देवाहारक नारकरुगळोळानापानपर्य्याप्तियोळ. प्रत्येकमेकैकभंगंगळप्पुदरिदं मूरु २८ कूडि अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानदोळ सभंगंगळ, सासिरव नूरप्पत्तय्ववु । २८ नववंशतिप्रकृति१० स्थानवोळ भंगंगळ पेळल्पडुगुं । ८ ३ ११७५ भूत्वा चत्वारीति द्वादश २७ । १२ अष्टाविंशतिकानि शरीरपर्याप्तौ निरतिशयसमुद्धात केवलिनः द्विविहायोगतिषट् संस्थानकृतानि द्वादश । मनुष्ये संज्ञिनि च प्रत्येकं सुभगादेययशस्कीर्ति विहायोगतियुग्मषट्संस्थानषट्संहननकृतानि षट्सप्तत्यग्रपंचशती भूत्वा द्वापंचाशदकादशशती । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिषु द्वे द्वे भूत्वाष्टी । देवाहार कनारकानापानपर्याता वेकैकं भूत्वा श्रीणीति पंचसप्तत्यग्रेकादशशती २८ I ११७५ हुए। बादर- अप् प्रत्येकके दो दो भंग होनेसे चार हुए। इस तरह सत्ताईसके स्थान में १ + ३+४+ ४ = १२ बारह भंग होते हैं। अठाईसके स्थान में शरीर पर्याप्तिकालमें निरतिशय समुद्घात केवलीके विहायोगति युगल और छह संस्थानके बदलने से बारह भंग होते हैं। मनुष्य और संज्ञी तियंच में सुभग, २० आदेय, यशःकीर्ति और विहायोगति युगल, छह संस्थान, छह संहनन द्वारा प्रत्येकके पाँच सौ छिहत्तर भंग होने से दोनोंके ग्यारह सौ बावन हुए । दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीमें यशःकीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे आठ हुए । देव नारकी आहार कमें श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिकाल में एक-एक भंग होनेसे तीन हुए । इस प्रकार अठाईसके स्थान में १२ + ११५२ + ८ + ३ = ११७५ ग्यारह सौ पचहत्तर भंग होते हैं । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 ५७६ रस कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९५१ तीर्थसमुद्घातकेवलिय शरीरपाप्तियोलो तु २९ संज्ञिपंचेंद्रियोल योतयुतशरीरपाप्रियोळ मुंपळवंतय्नूरप्पतारु २९ द्वौद्वियत्रींद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिगळोळ. शरीरपर्याप्तियोळ - द्योतयुतदोळ प्रत्येकमेरडे रडु भंगंगळप्पुरिदर्भ टु २९ मत्तं निरतिशयसमुद्घातकेवलियोलानापानपर्याप्तियोळ, संस्थानविहायोगतिकृत भंगंगळ, २९ मनुष्यसंज्ञिपंचेंद्रियंगळोळ प्रत्येकमानापानपर्याप्तियोळ संहननसंस्थानसुभगादेययशस्कोतिविहायोगतिकृत-३६ । १६ । अय्नूरेप्पत्तारु ५ भंगंगळागुत्तं विरलु एरडरोळ सासिरदनूरय्वतरडु २९ द्वीवियत्रींद्रियचतुरिंद्रियासंशिगळोळानापान पर्याप्तियो द्योतरहित स्थानदोळ, प्रत्येकमेरडेरडु भंगंगळप्पुरिदमे टु २९ मत्तं देवाहारकनारकरुगळ भाषापर्याप्तियोळ, प्रत्येकमेकैकस्थानमप्पुरिवं मूरु। २९ अंतु नवविंशतिप्रकृतिस्थानदोळ सर्वभंगंगळु सासिरदेळ. नूररुवतु भंगंगळप्पुवु २९ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानदोळ भंगंगळ पेळल्पडुगुं : ११५२ १७६० १० A NAVANA नवविंशतिकानि शरीरपर्याप्ती तीर्थसमुदपातकेवलिन्येकं । संज्ञिनि प्राग्वत सोद्योतषट्सप्तत्यग्रपंचशती। द्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिषु सोद्योते द्वे द्वे भूत्वाष्टो । उच्छ्वासपर्याप्तो निरतिशयसमुद्घातकेवलिनः संस्थानविहायोगतिकृतानि द्वादश । मनुष्ये संज्ञिनि प्रत्येकं प्राग्वत् षट्सप्तत्यधिकपंचशती भूत्वा द्वापंचाशदकादशशती। द्वित्रिचतुरिद्रियासंज्ञिष्वनुद्योते द्वे द्वे भूत्वाष्टो। भाषापर्याप्ती देवाहारकनारकाणामेकैकं भूत्वा पीणोति षष्टयग्रसप्तदशशती २९ । १७६० ___ उनतीसके स्थानमें शरीर पर्याप्तिकालमें तीर्थकर समुद्घात केवलीके एक भंग है। संज्ञी तिथंच उद्योत सहितके पूर्वोक्त प्रकारसे पाँच सौ छिहत्तर भंग हैं। उद्योत सहित दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, 'चौइन्द्रिय, असंज्ञीके दो-दो भंग होनेसे आठ भंग हैं। उच्छ्वास पर्याप्तिमें निरतिशय समुद्घात केवलीके छह संस्थान और विहायोगति युगलके बदलनेसे बारह भंग होते हैं। मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रियमें पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्येकके पांच सौ छिहत्तर २० भंग होनेसे ग्यारह सौ बावन होते हैं। उद्योत रहित दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीके दो-दो भंग होनेसे आठ भंग होते हैं । भाषा पर्याप्तिकालमें देव आहारक नारकीके एक-एक भंग होनेसे तीन भंग होते हैं। इस प्रकार उनतीसके स्थानमें १+५७६+८ + १२+ ११५२+८+३= १७६० सतरह सौ साठ भंग होते हैं। क-१२० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे १ ५७६ ८ तीर्थसमुद्घातकेवलिय आनापानपर्य्याप्तियोळु ओदु ३० संज्ञिपंचेंद्रियतिष्यंचरोळयोतयुतानापानपर्य्याप्तियोळ संस्थान संहननसुभगावेययशस्कीत्तिविहायोगतियुग्मचतुष्टयकृत ३६ । १६ भंगंगळु - मय्नूरप्पत्तारु ३० द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिगळोळानापानपर्याप्तियोळुद्योत. युतस्थानदोळु प्रत्येकमेरडेरडु भंगंगळागुत्तं विरलू नाल्करोळमें टु भंगंगळवु ३० तीथं रहितकेवलिय भाषापर्य्याप्तियोळ संस्थानषट्क विहायोगतिद्वयस्वरद्वयकृत ६ । ४ । भंगंगळिष्पत्तनात्कु३० मत्तं मनुष्य भाषापर्य्याप्तियोळु संस्थानषट्क- संहननषट्क-सुभगादेययशस्कीतिविहायोगति स्वरमे 'ब युग्मपंचकर्म बिवर ३६ । ३२ । भंगंगळु सासिरद नरवर्तर ३० संज्ञिपंचेंद्रिय ३० दोळुद्योतरहित भाषापर्य्याप्रियोळु मनुष्यनोळे तंते सासिर नूरवर ३० द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञि जीवंगळो भाषापर्य्याप्तियो प्रत्येकमेरर्डरड भंगंग‌ळागल नाल्कोळमें दु १० भंगंगळवु ३० अंतु कूडि त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ सर्व्वभंगंगळमेरडु सासिरदो भैनू रिप्पत्तों दप्gg तीर्थरहितसमुद्घातकेवलिय भाषापर्य्याप्तियोलु चतुविशति भंगंगळु पुनरुक्तंगळप्पुवु । २४ ११५२ ११५२ ८ ९५२ ३० २९२१ त्रिशतकान्युच्छ्वास पर्याप्तौ तोर्थसमुद्घातकेवलिन्येकं संज्ञिनि प्राग्वत्सोद्योत षट्सप्तत्यग्रपंचशती । द्वित्रिचतुरिद्रियासंज्ञिषु सोद्योते द्वे द्वे भूत्वाष्टौ । भाषापर्याप्तौ तीर्थोन केवलिनः संस्थानविहायोगतिस्वर कृतानि चतुर्विंशतिः । मनुष्ये संस्थानसंह तन सुभगादेययशस्कीर्ति विहायोगतिस्वरकृतानि द्वापंचाशदकादशशती । संज्ञि१५ नोऽपि तथा उद्योतरहितानि भवन्ति । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिषु ते द्वे द्वे भूत्वाष्टावित्येकविंशत्य कान्नत्रिशच्छतो ३० तीर्थोनसमुद्घातकेवलिभाषापर्याप्तो चतुर्विंशतिभंगास्ते पुनरुक्ताः । २९२१ तीसके स्थान में उच्छवास पर्याप्ति कालमें तीर्थंकर समुद्घात केवलीके एक भंग है । उद्योत सहित संज्ञीके पूर्वोक्त पाँच सौ छिहत्तर भंग हैं। उद्योत सहित दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके दो-दो भंग होनेसे आठ भंग हैं । भाषापर्याप्तिकाल में तीर्थरहित २० सामान्य केवलीके छह संस्थान, विहायोगति युगल, स्वरं युगलके चौबीस भंग हैं। मनुष्य में छह संस्थान, छह संहनन, सुभग आदेय, यशःकीर्ति, विहायोगति और स्वरके युगल द्वारा ग्यारह सौ बावन भंग हैं। उद्योत सहित संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचमें भी उसी प्रकार ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं । दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीके दो-दो भंग होनेसे आठ भंग होते हैं। ऐसे तीसके स्थान में १+५७६+८+२४+११५२+११५२+८ = २९२१ २५ उनतीस सौ इक्कीस भंग होते हैं । तीर्थरहित समुद्घात केवलीके भाषा पर्याप्ति काल में चौबीस भंग हैं। वे पुनरुक्त हैं क्योंकि पूर्व में कहे भंगोंसे इनमें भेद नहीं है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १ ११५२ एकत्रिशत्प्रकृतिस्थानदोछु सतीर्थकेवलिय भाषापर्य्याप्तियोळओंदु ३१ संज्ञिपंचेंद्रिय भाषापप्रियोळुद्योतसहितस्थानदो षट्संस्थानषट्संहननयुग्म पंचककृत ३६ । ३२ भंगंगळु सासिरद नूरय्वर्त्तरङ ३१डींद्रियत्रींद्रिय चतुरिन्द्रियासंज्ञि जीवंगलोद्योतयुतस्थानंगळोळ प्रत्येकमेरर्डरडु भंगंगळ संभविसुत्तं विरलु नारकरोळ मेंदु भंगंगळवु ३१ अंतु कूडि एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानवो भाषापर्य्यातियोळ सासिरद नूरखत्तों दु भंगंगळप्पूवु ३१ तीर्थसमुद्यात केव लियोकोदु भंगं पुनरुक्तभंगमक्कुमयोगिके वलियो सतीत्थंरों भत्तरोको दुमतीत्थं रे टरोळोदु भंगंगलप्पु ९८ इंतुक्तस्थानभंगंगळगे संदृष्टि : ११६१ :― १ १ २० २१ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ९। ८ १ ६० २७ १९ ६२० / १२ ११७५ १७६० २९२१|११६१/ १ १ इंति वेल्ल मुमपुनरुक्तभंगंगळप्पुवु । सर्व्वभंगंगळ ७७५८ अनंतरं समुद्घातकेवलिय तीर्थरहितरुगळ भाषापर्य्याप्तियोळ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानद चतुविवंशतिभंगंगळं तीर्त्ययुतरोळे कत्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळोढुं स्थानमुं पुनरुक्तर्म दु पेदपरु :सामण्णकेवलिस समुग्धादगदस्स तस्स वचि भंगा । तित्थस्सवि सगभंगा समेदि तत्थेक्कमवणिज्जो || ६०६ ॥ सामान्ये केवलिनः समुद्घातगतस्य तस्य वाग्भंगास्तोत्थंस्यापि स्वकभंगौ समाविति तत्रैकमपनेयः ॥ ९५३ एकत्रिशतकानि भाषापर्याप्त सतीर्थ के वलिन्येकं । संज्ञिनि सोद्योतानि तथा द्वापंचाशद ग्रेकादशशती । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिषु सोद्योते द्वे द्वे भूत्वाष्टा वित्येक षष्टयग्रैकादशशती ३१ | तीर्थसमुद्वातकेवलिन्येकं १५ ११६१ पुनरुक्तं । अयोग के वलिनि सतीर्थं नवकमेकं अतीर्थाष्टकमेकं ९ । ८ मिलित्वा सर्वाणि ७७५८ ।। ६०३-६०५ ।। तानि पुनरुक्तान्याह — १ । १ तीर्थ सहित समुद्घात केवलीका एक भंग पुनरुक्त है। अयोग केवली में तीर्थंकर सहित नौका एक भंग है। तीर्थंकर रहित आठका एक भंग है। इस प्रकार सब मिलकर सात हजार सात सौ अठावन भंग होते हैं ||६०३ - ६०५ ॥ पुनरुक्त भंगोंको कहते हैं ५ इकतीस के स्थान में भाषा पर्याप्ति में तीर्थंकर केवलीके एक है। उद्योत सहित संज्ञी पंचेन्द्रिय के पूर्वोक्त प्रकारसे ग्यारह सौ बावन भंग हैं। उद्योत सहित दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रियके दो-दो भंग होनेसे आठ होते हैं। इस प्रकार इकतीसके स्थान में १+११५२+८=११६१ ग्यारह सौ इकसठ भंग होते हैं । २० १० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ गो० कर्मकाण्डे सामान्यकेवलियोळं समुद्घातसामान्यकेवलियोळं भाषापर्य्याप्तिय त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ चतुव्विंशतिभंगंगळं तीर्त्यके वलियोळं समुद्याततीत्यके वलियोळमेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानद्वयमुं समदोदो'दं पुनरुक्तम'दु बिडुतं विरलिप्प २५ तम्वु भंगंगळ कळेल्पडुवुवु । अनंतरं गुणस्थानदमेले नामोदयस्थानभंगंगळं योजि सिवपरु : णारयसण्णि मणुससुराणं उवरिमगुणाण भंगा जे । पुणरुत्ता इदि अवणिय भणिया मिच्छस्स भंगेसु ||६०७|| नारकसंज्ञि मनुष्य सुराणामपरितनगुणानां भंगा ये । पुनरुक्ता इत्यपनीय भणिताः मिथ्यादुभंगेषु ॥ नारुकरुगळ संज्ञिपंचेंद्रिय जीबंगळ मनुष्यरुगल सुररुगळ उपरितनगुणस्थानंगळोळावुवु केलवु १० भंगंगळपु पुनरुक्तंगळे दितु मिथ्यादृष्टिय भंगंगळोळ कळेदु पेळल्पट्टुवु । अवें तें बोर्ड संदृष्टि २१ २४ | २५ | २६ । १ ५९ / २७ | १८ | ६१० | १० | २८ | २२ ३० ३१ ६१४ | १० | ११६२ १७४६ | २८९६ / ११६०/ २० ९५४ मिथ्यादृष्टिगे | २१ | २४| २५ | २६ २९ ३० ३१ सासादनंगे | असंयतंगे |३१| ६| १| ५८४ | २|२३०४/११५२/ ३० ३१ | २ | २३०४१११५२ मिगे २९ | २१|२५|२६|२७|२८|२९| ३० ३१ वैश ३० ३१ संयतंगे २/०५/०६/१०/२ ४| २|३७| २७५/७६/२३९५/११५२ | २८८ | १४४ भाषापर्याप्त सामान्यके व लिसमुद्घातसामान्यकेवलिन स्त्रिशतकस्य चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिः । तीर्थकेवलसमुद्वाततीर्थ केवलिनोरेकत्रिशत्कस्यैकैकश्च भंगाः समाना इति पंचविंशतिरपनेतव्याः ॥ ६०६ ॥ अथ गुणस्थानेषु तान् भंगानाह नारकसंज्ञितिर्यग्मनुष्य सुराणामुपरितनगुणस्थानेषु ये भंगास्ते पुनरुक्ता इति मिथ्यादृष्टिभंगेष्वपनीय भणिताः । तद्यथा भाषापर्याप्तिकाल में सामान्य केवली और समुद्घात सहित सामान्य केवलीके तीसके स्थानके चौबीस-चौबीस भंग समान हैं। तथा तीर्थंकर केवली और समुद्घात तीर्थंकर केवलीके इकतीसके स्थान में एक-एक भंग समान है । अतः ये पच्चीस भंग पुनरुक्त होनेसे नहीं लेना चाहिए ||६०६|| आगे गुणस्थानों में उन अंगोंको कहते हैं नारकी, संज्ञी तिथंच मनुष्य, देव इनके ऊपरके सासादन आदि गुणस्थानोंमें जो भंग हैं वे पुनरुक्त हैं क्योंकि मिध्यादृष्टिके भंगोंके समान हैं । अतः उन पुनरुक्त भंगोंको दूर कर मिध्यादृष्टिके भंगोंसे ही उन्हें भी कहा है । वही कहते हैं Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ... २५/२७/२८/२९| ३० । । ३० अपूर्व ३०/३० अनिवृत्ति- ३० । प्रमत्तंगे। । । । अप्रमत्तंगे | १) ११/१११४४ । १४४ करणंगे ७२/२४ करणंगे | सूक्ष्म- । ३० | ३० / उपशांत-| ३० | क्षीण- ३० सयोग |२०|२१|२६/२७/ २८| सांपरायंगे ७२ २४ कषायंगे ७२ कषायंगे केवलिगे ६) ११२ ५९ १८ इंतागुत्तं विरलेकविंशतिस्थानसर्वभंगंगळरुवत्तरोळु तीर्थयुतभंगमोदं कळेदु शेषमो दु[विवरुवत्तुभंगंगळ मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु २१ चतुविंशतिप्रकृत्युक्यस्थानवोळिप्पत्तेळ भंगंगळप्पुववनितुं मिथ्यावृष्टियोळप्पुवु २४ पंचविंशतिस्थानभंगंगळु पत्तोंभत्तरोळ आहारकशरीरमिश्रभंगमों व कळेलु शेषपविनंटु भंगंगळ मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु २५ षड्विंशतिस्थानभंगंगळुमरुनूरिप्पत्तरोनु सामान्यसमुद्घातकेवलिय संस्थानभेवषड्भंगंगळं कळेदु शेषमरुनूर पदिनाल्कु भंगंगळ मिथ्यावृष्टियोळप्पुवु २६ सप्तविंशतिस्थानंगळ पन्नेरडु भंगंगळोळु आहारतीत्यंसंबंधिभंगंगळेरकं कळेदु शेषपत्त भंगंगळं मिथ्यावृष्टियोळप्पुवु २७ अष्टाविंशतिस्थानभंगंगळ साविरद नूर येपत्तय्वरोळु ११७५ सामान्यसमघातकेवलिय पन्नेरडुमनाहारको दुमनंतु पदिमूरं कळेदु शेष सासिरव नूररवत्तेर भंगंगळु मिथ्यावृष्टियोळप्पुवु २८ नवविंशतिस्थानभंगंगळु साविरवेळ ६१४ . ११६२ एकविंशतिकस्य षष्टी तीर्थजो नेत्येकानषष्टिः । चतुर्विशतिकस्य सप्तविंशतिः । पंचविंशतिकस्यैकानविंशतावाहारकशरीरमिश्रजो नेत्यष्टादश। षड्विंशतिकस्य विंशत्यप्रषट्छरयां सामान्यसमुद्घातके वलिसंस्थानजाः षडनेति चतुर्दशाप्रषट्छती । सप्तविंशतिकस्य द्वादशस्वाहारकतीर्थजो नेति दश । अष्टाविंशतिकस्य पंचसप्तत्यप्रैकादशशत्यां सामान्यसमुद्घातकेवलिनो द्वादश, पाहारकस्यैकश्च नेति द्वाषष्टयकादशशती । wwwwwwwx मिथ्यादृष्टिमें इक्कीसके साठ भंगोंमें तीर्थंकर सम्बन्धी एक भंगके बिना उनसठ भंग हैं। चौबीसके सत्ताईस भंग हैं। पच्चीसके उन्नीस भंगोंमें-से आहारक शरीरमित्र सम्बन्धी ।। एक भंगके बिना अठारह हैं। छब्बीसके छह सौ बीसमें-से सामान्य समुद्घात केवलीके संस्थानजन्य छह भंग बिना छह सौ चौदह हैं। सत्ताईसके बारह भंगोंमें आहारक और तीर्थकरके दो बिना दस भग हैं। अठाईसके ग्यारह सौ पचहत्तरमें-से सामान्य समुद्घात Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे १७४६ AN ११६० ९५६ नूररुवत्तरोनु सामान्यसमुद्घातकेवलिय पन्नेरडुमं तीर्थसमुद्घातकेवलियोलो दुमं आहारकदो दुमनंतु पदिनाल्कुमं कळेदु शेष सासिरदेळुनूर नाल्वत्तारु भंगंगळुमिथ्यादृष्टियोळप्पुवु २९ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानभंगंगळु एरडुसासिरदोंभैनूरिप्पत्तोंद २९२१ रोळु सामान्यकेवलियं चतुविंशतिभंगंगळुमं तीर्थंकेवलियदोंदुमनंतु पंचविंशतिभंगंगळं कळेदु शेषमेरडु सासिरटुनूर तो भत्तारभंगंगळु मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु ३०. एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानभंगंगळु ११६१ रोळु तीयभंगमो दं कलेंदु शेषमेकसासिरद नूररुवत्तु भंगंगळु मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु ३१ सासावनगुणस्थानदोळ एकविंशतिस्थानभंगंगळ, बादरपृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिगोळारं द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियाऽसंनिगळोळे टुं संज्ञिपंचेंद्रियंगळोळे टुं मनुष्यरो टुं देवगतियों दुमंतु सासादनंगेकविंशतिस्थान भंगंगळ मूवत्तो दप्पुवु २१ सासादनंगे चतुविंशतिस्थानंगळ, पृथ्व्य प्रत्येकवनस्पतिगळ बावरं१० गोळारेयप्पुवु २४ सासादनंगे पंचविंशतिस्थानंकोळ देवगतियदो देयक्षु २५ सासादनंगे षड्विंशतिस्थानंगळोळु द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिगळोळे९ २६ संजिपंचेंद्रियवोळिनूरेभत्ते'टु २६ मनुष्यनोळिनूरे भत्ते ९ २६ कूडि षड्विंशतिप्रकृत्युदयस्थानभंगंगळेनूरे भतनाल्क ૨૮૮ प्पुवु २६ सासादनंग सप्तविंशतिस्थानमुमष्टाविंशतिस्थानमुमिल्लेके बोडे भरीरमिक्षकालबोळल्ल १३ ५८४ १५ नवविंशतिकस्य षष्टय ग्रसप्तदशशत्यां सामान्यसमुद्घात केवलिनो द्वादश, तीर्थसमुद्घात केवलिन एकः, आहारकस्यैकश्च नेति षट्चत्वारिंशदग्रसप्तदशशती । त्रिंशत्कस्यकविंशत्यकान्नत्रिशच्छत्यां सामान्यकेवलिनश्चतुविंशतिः तीर्थकेवलिन एकश्च नेति षण्णवत्यग्राष्टविंशतिशती । एकत्रिंशत्कस्यामीषु ११६१ तीर्थजो नेति षष्टयग्रैकादशशती। सासादने एकविंशतिकस्य बादर पृथ्व्यप्प्रोकेषु षट् । द्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिष्वष्टौ। संजिन्यष्टौ । मनुष्येऽष्टौ । देवगतावेकः इत्येकत्रिंशत् । चतुर्विशतिकस्य बादरपृथ्व्यप्प्रत्येकेषु षट् । पंचविंशतिकस्य देवगतेरेकः। षविंशतिकस्य द्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिष्वष्टो । संज्ञिमनुष्ययोः प्रत्येकमष्टाशीत्यग्रद्विशती इति चतुरशीत्यग्रपंचशती। केवलीके बारह, आहारकका एक, इन तेरह के बिना ग्यारह सौ बासठ भंग हैं । उनतीसके सतरह सौ साठ भंगोंमें-से सामान्य समुद्घात केवलीके बारह, तीर्थकर समुद्घात केवली. का एक, आहारकका एक, इन चौदहके बिना सतरह सौ छियालीस भंग हैं। तीसके उनतीस सौ इक्कीस भंगोंमें सामान्य केवलीके चौबीस, तीर्थकर केवलीका एक, इन पच्चीस बिना अठाईस सौ छियानबे भंग हैं। इकतीसके ग्यारह सौ इकसठ भंगोंमें तीर्थकरका १ एक बिना ग्यारह सौ साठ भंग हैं। - सासादन गुणस्थानमें इक्कीसके बादर, पृथ्वी, अप् प्रत्येकके छह, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीके आठ, संज्ञोके आठ, मनुष्य के आठ, देवका एक इस प्रकार इकतीस भंग हैं। चौबीसके बादर, पृथ्वी, अप प्रत्येकके ही छह भंग होते हैं। पच्चीसका देवगतिका एक भंग है। छब्बीसके दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीके आठ, संझी पंचेन्द्रियके दो सौ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९५७ दन्यशरीरपर्य्याप्त्यादिकालंगळोळ सासादनरुगळु मिध्यादृष्टिगळागि पोपरपुर्दारवमातं शरीरपर्याप्त्यादिकालस्थानंगळु संभविसवु । सासादनंर्ग नवविंशतिप्रकृतिस्थानंगळ देवनारकसगळोकोदो दागलेरडे भंगंगळपुवु २९ सासादनंर्ग त्रिशत्प्रकृतिस्थानबोळ तिर्य्यग्मनुष्यरुगळ भाषा २ २३०४ पर्य्याप्तिस्थानभंगंगळु प्रत्येकं सासिरदनूरय्व तेरडागलेरडरोळमेरड सासिरद मूनूर नाकुं ३० सासादनंगे एकत्रिशत्प्रकृत्युदयस्थानदोळ संज्ञिजीवनुद्योतयुतभाषापर्व्याप्तियोळ सासिरदनूरव ५ तेरडु भंगंगळप्पु ३१ मिग वेवनारकरुगळ भाषापर्य्याप्तियोळु नवविंशतिस्थानंगळे रडेयपूवु १५५२ २ २३०४ २९ दे । नां । मिश्र त्रिपत्प्रकृतिस्थानवोळु संज्ञिपंचेद्रियमनुष्यरुगळोळेरड सासिरव नूनूर नाकु भंगंगळवु ३० मिश्रंगे एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळु संज्ञिपंचेंद्रियतिय्यंचनोळुद्योतयुतस्थानभंगळ, सासिरव नूरय्वर्त्तरडवु ३१ असंयतनोळ, चतुग्र्गतिजरोळ प्रत्येकमो वो दु स्थानमागलु नाल्कुगतिगळगमेकविंशतिस्थाननंगळ, नाल्कपुत्र २१ मत्तमसंयततंगे पंचविशति १० स्थानदोळ, धम्र्मेयनारक सौधर्मादिदेवकर्कळ संबंधिद्विभंगंगळप्पुवु २५ असंयतं षड्वशतिस्थानदोलु संज्ञिभोगभूमितिय्यं चंगे सर्व्वमुं शुभप्रकृत्युदयमप्पुवरिवल्लियों दुं २६ कर्मभूमिसंज्ञि ११५२ ४ २ १ नात्र सप्तविंशतिकाष्टविंशतिकोदयः शरीरपर्याप्त्यादिकालेषु मिथ्यादृष्टित्वसंभवात् । नवविंशतिकस्य देवनारकयोरेकैक इति द्वौ । त्रिशतकस्य तिर्यग्मनुष्ययोर्भाषापर्याप्तो प्रत्येकं द्वापंचाशद का दशशतीति चतुरप्रत्रयोविंशतिशती । एकत्रिंशत्कस्य संज्ञिनो भाषापर्याप्तावुद्योतयुतद्वापंचाशदग्रे का दशशती । मिश्र देवनारकयोर्भाषापर्याप्तौं नव- १५ विशति के द्वी । त्रिंशत्कस्य संज्ञिमनुष्ययोदवतुरग्रत्रिशतद्विसहस्रो । एकत्रिंशत्कस्य संज्ञिनि सोद्योतद्वापंचाशदग्रैकादशशती । असंयते एकविंशतिकस्य चतुर्गतिजेष्वेकैको भूत्वा चत्वारः । पंचविंशतिकस्य घर्माना रकवैमाअठासी, मनुष्यके दो सौ अठासी इस प्रकार पाँच सौ चौरासी भंग होते हैं। इस गुणस्थान सत्ताईस अठाईसके उदयस्थान नहीं होते। क्योंकि शरीरपर्याप्ति आदि कालोंमें एकेन्द्रिय आदि में मिध्यादृष्टिपना ही सम्भव है । उनतीसके देवनारकीके एक-एक मिलकर दो भंग २० हैं। तीसके भाषापर्याप्तिमें संज्ञी तियंचके ग्यारह सौ बावन, मनुष्यके ग्यारह सौ बावन इस तरह तेईस सौ चार भंग हैं। इकतीसके संज्ञीके भाषापर्याप्ति में उद्योत सहित स्थानके ग्यारह सौ बावन भंग हैं । मिश्र गुणस्थानमें उनतीसके देवनारकीके भाषापर्याप्ति में एक-एक मिलकर दो भंग हैं। तीसके संज्ञी और मनुष्यके मिलाकर तेईस सौ चार भंग हैं। इकतीसके उद्योत सहित २५ संज्ञके ग्यारह सौ बावन भंग हैं। असंयत गुणस्थान में इक्कीसके चारों गतिकी अपेक्षा चार भंग हैं। पच्चीसके घर्मानारक और वैमानिक देवके एक-एक मिलकर दो भंग हैं। छब्बीसके भोगभूनि तियंचके छह Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे पंचेंद्रियंगल संस्थान संहनन भेदयुत षट्त्रिशद्भंगंगलु मंतु सप्तत्रिंशदुभंगंगलप्पुवु २६ मत्तमसंयतंर्ग सप्तविंशतिस्थानदोलु धर्म्मय नारक सोधम्र्मादिकल्पचरगल संबंधि द्विभंगंगलप्पु २७ मत्तम ३७ २ संयतंगे अष्टाविंशति प्रकृत्युवयस्थानदोलु भोगभूमि संज्ञिपंचेंद्रियजीव संबंधि शरीरपर्य्याप्तियोलु धर्म्मय नारक सौधर्मादिकल्प कल्पातीतजरुगल संबंध्यानापान पर्य्याप्तियोलु त्रिभंगंगल २८ ५ मनुष्यरो संस्थान संहननविहायोगति कृत भंगंगलेप्पत्तेरडुं २८ कूडि २८ मत्तमसंयतंर्ग ३ ७२ ७५ ९५८ २० नवविंशतिस्थानवोल भोगभूमिसंज्ञिपंचेंद्रिय मनुष्यरुगलानापानपर्य्याप्तियोलु द्विभंगंगलुं देवनारकरुगळ भाषापर्याप्रियोळु द्विभंगंगळ कर्मभूमिमनुष्य संस्थान संहनन विहायोगतिकृतानापानपर्व्याप्तियो एप्पतेरडु भंगंगळं कूडि एप्पत्तारु भंगंगळवु २९ मत्तमसंयतन त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोल ७६ भोगभूमिसंज्ञिपंचेंद्रियोद्योतयुतानापानपर्य्याप्तियोळों दुं भाषापर्थ्याप्तियुत संज्ञिपंचेंद्रियतिय्यंग्मनुष्य१० रुगळ भरांगळु मेरडु सासिरव मूनूर नाल्कु कूडि रडु सासिरव मूनूरम्बवु ३० मत्तमसंयत२३०५ कत्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ, संज्ञिपंचेंद्रिय तिय्यंचन सासिरव नूरय्वत्तेरडु भंगंगळवु । ३१ ११५२ देशसंयतंगे त्रिशत्प्रकृतिस्थानवोळु संजिपंचेंद्रियतिग्मनुष्यरुगल संस्थान संहननविहायोगतिस्वरकृत निकदेवयोरेकैक इति द्वौ । षडविंशतिकस्य भोगभूमितिरश्चां शुभोदयादेकः । कर्मभूमि संज्ञिनां संस्थान संहननजाः षट्त्रिंशदिति सप्तत्रिंशत् । सप्तविंशतिकस्य धर्माज वैमानिकयो । अष्टाविंशतिकस्य भोगभूमिजधर्माजिवैमा - १५ निकानामुच्छ्वासपर्याप्तौ त्रयः । मनुष्ये संस्थानसंहननविहायोगतिजा द्वासप्ततिरिति पंचसप्ततिः । नवविंशतिकस्य भोगभूमितिर्यग्मनुष्ययोरानापानपर्याप्तौ द्वौ । देवनारकयोर्भाषापर्याप्तौ द्वौ । कर्मभूमिमनुष्यस्यानापानपर्याप्तौ प्राग्वद्वासप्ततिरिति षट्सप्ततिः । त्रिशतकस्य भोगभूमितियंश्वानापानपर्याप्तौ सोद्योत एकः । संज्ञितिर्यग्मनुष्ययोर्भाषापर्याप्तौ चतुरग्रत्रयोविंशतिशती पंचाग्रत्रिशतद्विसहस्री । एकत्रिशतकस्य संज्ञिनो शुभका ही उदय होनेसे एक और कर्मभूमियाँ संज्ञी तियंचके छह संस्थान, छह संहननके बदलने से छत्तीस, इस प्रकार सैंतीस भंग हैं । सत्ताईसके और धर्मानारक वैमानिक देवका एक-एक भंग मिलाकर दो भंग हैं। २५ भोगभूमिया तिर्यंच, धर्मा नारकी, वैमानिक देवोंमें उच्छ्वास पर्याप्ति में एक-एक भंग मिलकर तीन, मनुष्यके छह संस्थान छह संहनन विहायोगति युगलसे बहत्तर, इस प्रकार पचहत्तर भंग हैं। उनतीसके भोगभूमिया तिथंच मनुष्य के प्रशस्तका ही उदय होनेसे एक-एक, उनके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में दो, देव नारकीके भाषापर्याप्ति में एक-एक भंग मिलकर दो, और कर्मभूमिया मनुष्यके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में पूर्वोक्त प्रकारसे बहत्तर इस तरह छिहत्तर भंग हैं। तीसके भोगभूमियाँ तिर्यंच उद्योत सहितके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में एक संज्ञीतिर्यंच व कर्मभूमिया 'मनुष्य इन दोनोंके मिलाकर तेईस सौ चार इस तरह तेईस सौ पाँच मंग हैं । इकतीसके संज्ञीतियंच के ही ग्यारह सौ बावन भंग हैं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगंगळ नूरे भत्ते टु ३० २८८ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संज्ञिपंचेंद्रियोद्योतयुतैकत्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ नूर नाल्व त्तनालकु मप्पुवु । ३१ प्रमत्तसंयतनोळाहारक शरीरमिश्रदोळ पंचविशति प्रकृतिस्थानमोदु २५ आशरीरपर्य्याप्तियोछु सप्त विशति प्रकृतिस्थानमोदु २७ आनापानपर्य्याप्तियोळष्टाविंशतिप्रकृति १४४ १ १ स्थानमा दु २८ आ भाषापर्य्याप्रियोळ नववंशति प्रकृत्युदयस्थानमों व २९ औबारिकशरीर १ १ १४४ भाषापर्य्याप्तियोळु संस्थानसंहननविहायोगतिस्वरभेदसंजनितचतुश्चत्वारिंवुत्तरैकशतभंगयुतत्रिंशत्प्र - १ कृतिस्थानमुकुं ३० अप्रमत्तसंयतनोळ चतुश्चत्वारिंशदुत्तरेकशतभंग युत्रशत्कृतिस्थानमुवयमक्कु । ३० मपूर्वकरणोपशमंर्ग संस्थानषट्क संहननत्रय विहायोगतिस्वरभेव संजनित द्विसप्ततिभंगत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमक्कु ३० मा क्षपकंगे संस्थानषट्क संहनने कविहायोगतिद्वयस्वरद्वयसं जनितचतुव्विशतिभंग युत्रशत्प्रकृत्युदयस्थानमक्कु १४४ ७२ उ मनिवृत्तिकरणनोळं सूक्ष्मसांपरायनोळमक्कुं । अनि ३० ७२ ९५९ उ क्ष क्ष ३० सूक्ष्म - ३० ३० २४ ७२ २४ ३० मी प्रकारविंद२४ उपातिकषायनो द्वासप्ततिभंगयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमक्कुं । ३० क्षीणकषायनोळ, चतुव्विशति ७२ द्वापंचाशदग्रेकादशशती । देशसंयते त्रिशत्कस्य संज्ञितिर्यग्मनुष्ययोः संस्थान संहननविहायोगतिस्वरप्रकृता अष्टाशीत्यग्रशती । सोद्योतकत्रिंशत्कस्य संज्ञिनः चतुश्चत्वारिंशदग्रशतं । प्रमत्ते आहारकशरीरमिश्रपंचविशतिकस्यैकः । शरीपर्याप्तौ सप्तविंशतिकस्यैकः । आनापानपर्यासावष्टाविंशतिकस्यैकः, भाषापर्याप्तौ नवविंशतिकस्यैकः । त्रिंशत्कस्यौदारिक शरीरभाषापर्याप्तौ संस्थानसंहननविहायोगतिस्वर आश्चतुश्चत्वारिंशदक १५ शतं । अप्रमत्ते त्रिंशत्कस्य तथा तावंतः । उपशमकेषु चतुर्षु प्रत्येकं संस्थानत्रिसंहननस्वरविहायोगतिजा देश संयत गुणस्थान में तीसके संज्ञीतियंचके संस्थान छह, संहनन छह, विहायोगतियुगल और स्वरयुगल से एक सौ चवालीस, इसी प्रकार मनुष्यके एक सौ चवालीस मिलकर दो सौ अठासी भंग हैं। उद्योत सहित इकतीसके संज्ञी पंचेन्द्रियके पूर्वोक्त प्रकार एक सौ चवालीस भंग हैं। प्रमत्त आहारकके शरीर मिश्र में पच्चीसका एक, शरीर पर्याप्ति में सत्ताईसका एक, श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिमें अठाईसका एक, भाषापर्याप्ति में उनतीसका एक भंग है । औदारिक शरीरके भाषा पर्याप्ति सम्बन्धी तीस के छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगति युगल, स्वरयुगलसे एक सौ चवालीस भंग हैं । १० अप्रमत्तमें तीसके उसी प्रकार एक सौ चवालीस भंग हैं। उपशम श्रेणिके चार गुण- २५ स्थानोंमेंसे प्रत्येकके छह संस्थान, तीन संहनन, स्वरयुगल, विहायोगति युगलसे बहत्तर - क- १२१ २० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे भंगयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कुं ३० सयोगकेवलि भट्टारक तीर्थर हितसमुद्घातके वलियोळु काणशरीरदोळेक भंगयुत विशति प्रकृतिस्थानभुं तीर्त्ययुतैकविंशतिस्थानमकुं २० २१ २४ १ १ ६ तीर्थरहित कवाटसमुद्घातके वलियो, औदारिकशरीर मिश्रकालदो संस्थानषट्कसंजनित षड्भगत षड्वशति प्रकृतिस्थानोदयमक्कु - २६ मा कालदतीर्त्ययुतरोळ सप्तविंशति प्रकृतिस्थानो५ दयमक्कु २७ मूलशरीरप्रवेशदोळु तोत्थंरहितशरीरपर्याप्रियोळ संस्थानषट्कविहायोगतिद्वयजनितद्वादशभंगत (टाविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कु २८ आ शरीरपर्थ्याप्तियोळ तीर्त्ययुतमागि नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं २९ तोर्थरहित रोळानापानपर्थ्याप्तियोलु द्वादश भंगयुत नवविंशति १ १२ १ १२ १३ प्रकृतिस्थानोदय मुमक्कु २९ मंतु त्रयोदशभंगयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमक्कुं २९ मत्तमानापानपर्व्याप्तियोळु तीर्थयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमोदक्कुं ३० तीर्थरहित भाषापर्य्याप्तियोळ संस्थान१० षट्कविहायो गतिद्वयस्वरद्वय संजनितचतुव्विशतिभंगयुक्तत्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदय मुमक्कु ३० मंतु त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ पंचविशति भंगंगळप्पुवु ३० मत्तं तीर्थयुतैकत्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयं भाषा १ २४ २५ पर्य्याप्तियोक्कु ३१ मयोगिकेवलि भट्टारकरोळ तोत्थं युतन वप्रकृतिस्थानोदयमो दक्कुं ९ १ १ ९६० तोत्थं रहिताष्टप्रकृतिस्थानोदयमुमोदक्कु ८ १ द्वासप्ततिः । क्षपकेषु चतुर्षु तथा संस्थानकसंहननविहायोगतिस्वरजाः चतुर्विंशतिः । सयोगे समुद्घाते कार्मणे १५ विंशतिकस्यैकः । सतीर्थे एकविंशतिकस्यैकः । औदारिकमिश्रे षड्विंशतिकस्य संस्थानजाः षट् । सतीर्थे सप्तविंशतिकस्यैकः । अष्टविंशतिकस्य मूलशरीरप्रवेशे पर्याप्तो संस्थानविहायोगविना द्वादश, सतीर्थे नवविंशतिकस्यैकः, आनापानपर्याप्तो द्वादशेति त्रयोदश । सतीर्थे त्रिशत्कस्यैकः । भाषापर्याप्तौ संस्थानस्वरविहायोगतिजाश्चतुर्विंशतिरिति पंचविंशतिः । सतीर्थे एकत्रिशत्कस्यैकः । अयोगे नवकस्यैकोऽष्टकस्यैकः || ६०७ || २० / बहत्तर भंग हैं । क्षपणश्रेणिके चार गुणस्थानों में छह संस्थान, एक संहनन, विहायोगति युगल, स्वरयुगलसे चौबीस चौबीस भंग हैं। सयोगीमें समुद्धात रूप कार्माण में बीसका एक ही भंग है । तीर्थ सहित इक्कीसका एक भंग है । औदारिक मिश्र में छब्बीसके छह संस्थानोंके छह भंग हैं । तीर्थ सहित सत्ताईसका एक ही भंग है । अठाईसका मूल शरीर में प्रवेश करते हुए शरीर पर्याप्ति में छह संस्थान और विहायोगति युगलसे बारह भंग हैं । तीर्थ सहित उनतीसका एक तथा सामान्य केवलीके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में बारह ऐसे तेरह भंग हैं । २५ तीर्थं सहित तीसका एक, भाषापर्याप्ति में सामान्य केवलीके छह संस्थान, स्वरयुगल, विहायोगति युगल के चौबीस इस तरह पच्चीस भंग हैं । तीर्थ सहित इकतीसका एक भंग है । अयोगी में नौका एक और आठका एक भंग है || ६०७ || Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतरं विंशत्यादिनामकम्र्मोदयस्थानंगळु पेव्वपरु : कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अडवण्णा सत्तसया सत्तसहस्सा य होंति पिंडेण । उदट्ठाणे भंगा असहायपरक्कमुद्दिट्ठा || ६०८ || अष्टपंचायत्सप्तशतानि सप्तसहस्राणि च भवंति पिंडेन । उदयस्थाने भंगा असहायपरा क्रमोद्दिष्टाः ॥ ९६१ पन्नेरडरोळमपुनरुक्तभंगंगळे नितेंदु युतियं नामकम्र्म्मोदयस्थानंगळोळु सर्व्वसंयोगदिदं मसहायपराक्रमनु श्रीवीरवर्द्धमानस्वामिगळ पेळल्पट्ट भंगंगळेळ सासिरमुमेळनूरुमय्वत्ते टप्पु । ७७५८ यिल्लि नारक संज्ञि पंचेंद्रियतिष्यंचमनुष्यदेववर्कंऴगळोळ तंतम्म मिध्यादृष्टिय भंगंगळोळ तंतम्म गुणप्रतिपन्नरुगळ भंगंगळ पडेय - बक्कुमप्पुदरिदमा गुणप्रतिपन्नरुगळ भंगंगळ पुनरुक्तंगळ पुर्व दरियल्पडुवुवु । १० कं । येनितक्कुं भंगंगळ मनितुदयस्थान संख्येयक्कुम मोघं । इनितेनवेडिदु चित्रमवनितुं त्रिजगच्छरोरिनिवहान मिगळु । अनंतरं नामसत्त्वस्थानप्रकरणमनेकान्नविंशति गाया सूत्रंगळदं पेळलुपक्रमिसि मोक्लोळ नामकर्मसत्त्वस्थानंगळु पदिमूरप्पुर्व दु पेदपरु : तिदुगिउदी णउदी अडचउदो अहियसीदि सीदी य । ऊणासीदट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस य णव सत्ता ॥ ६०९॥ त्रिद्वयेक नवन्निव तिरष्टचतुद्वधिकाशीतिरशीतिश्च । दशनवसत्त्वानि ॥ -: ऊनाशीत्यष्टसप्ततिसप्तसप्तति नवति द्विनवत्येकनवति नवतिगळ मष्टाधिकाशीतियं चतुरधिकाशीतियं द्वयाधिकाशीतिथुमशीतियुमे कोनाशीतियुमष्टसप्ततियं सप्तसप्ततियं वशकभुं नवकमुमिंतु नामकर्मसत्वस्थानंगळु २० पविमूरवु । संदृष्टि | ९३ | ९२ | ९१ | ९० | ८८ | ८४ | ८२ | ८० | ७९ | ७८ | ७७ | १० | ९| असहायपराक्रमेण श्रीवर्धमानस्वामिना विंशतिकादिद्वादशनामोदयस्थानेष्वपुनरुक्तभंगाः विडेनाष्टपंचाशदग्रसतशत सप्तसहस्री समुद्दिष्टा भवंति । ७७५८ । अत्र नारकसंज्ञितिर्यग्मनुष्य देव मिध्यादृष्टिभंगेषु स्वस्वगुणप्रतिपन्नभंगोपलब्धेः पुनरुक्तत्वं ज्ञातव्यं ॥ ६०८ ।। अथ नामसत्त्वस्थानप्रकरणमे कान्नविंशतिगायाभिराहत्रिनवतिद्वनवतिरेकन वतिनंवतिरष्टाशीतिश्चतुरशीतिद्वशी तिरशी तिरेकोनाशीतिरष्टसप्ततिः सहायरहित पराक्रमवाले वर्धमान स्वामीने बीस आदि बारह नामकर्मके उदयस्थानोंमें अपुनरुक्त भंग मिलकर सात हजार सात सौ अठावन कहे हैं ७७५८ । यहाँ नारकी, संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य, देवोंके मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें जो भंग कहे हैं उनमें अपनेअपने सासादन आदि में कहे भंगोंके जो समान हैं उन्हें पुनरुक्त जानना ||६०८ || सप्त आगे नामकर्मके सवस्थानका प्रकरण उन्नीस गाथाओंसे कहते हैं तिरानवे, बानबे, इक्यानबे, नब्बे, अठासी, चौरासी, बयासी, अस्सी, उन्यासी, अठहत्तर, सतहत्तर, दस और नौ प्रकृतिरूप तेरह सत्त्वस्थान नामकर्मके हैं || ६०९ || ५ १५ २५ ३० Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६२ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं नामसत्वस्थानंगळ्गे प्रकृतिसंख्योपपत्तियं तोरिदपर :-- सव्वं तित्थाहारुभऊणं सुरणिरयणरदुचारिदुगे। उज्वेन्लिदे हदे चउ तेरेऽजोगिस्स दस णवयं ॥६१०॥ सवं तोहारोभयोनं सुरनारकनरद्विचतुद्धिके । उद्वेल्लिते हते चत्वारि त्रयोदशसु ५ अयोगिनो दशनवकं ॥ सव्वं समस्तनामप्रकृतिस्थान मोवलवक्कुं। मतं क्रमदिवं तीर्त्यहीनमादोडे तो भत्तेरसर स्थानमक्कुं । तीर्थयुतमाहारकहीनमागि तो भत्तोवर स्थानमक्कुं। तोहारोभयहीनमादोरे तो भत्तरस्थानमक्कुं । अल्लि सुरद्विकमनवेल्लनमं माडिवोडे अष्टाशीतिस्थानमक्कुं। अल्लि नारकचतुष्टयमनुल्लमं माडिवोडेण्भत्तनाल्कर स्थानमक्कु । मल्लि मनुष्यतिकमनुढेल्लनमं माडि. दोडण्भत्तेरडर स्थानमक्कु । मतमा त्रिनवतिस्थानदोळ णिरयतिरिक्ख दु विपळ मित्यादि प्रयो. दशप्रकृतिगळु क्षपितंगळागुत्तं विरलशोतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । द्वानवतिस्थानदोळमा त्रयोदशप्रकृतिगढ़ क्षपितंगळागुत्तं विरलेकोनाशीति प्रकृतिसत्वस्थानमक्क। मत्तमेक नवतिस्थानदोळमा त्रयोदशप्रकृतिगळ क्षपितंगळागुत्तं विरलु अष्टसप्ततिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । मत्तं नवतिस्थान बोळमा त्रयोदशप्रकृतिगळ क्षपितंगळागुत्तं विरल सप्तसप्रतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । ७७। मत्तम१५ योगिकेवलियोळ क्शनवप्रकृतिसत्वस्थानद्वयमक्कं । अनंतरमयोगिय सत्वस्थानद्वयप्रकृतिगळपेळवपरु: सप्ततिर्दश नव च प्रकृतयः नामकर्मसत्त्वस्थानानि त्रयोदश भवंति ॥६०९॥ तेषामपपत्तिमाह सर्वनामप्रकृतयःप्रथमं तदेव तीर्याहारकद्वयतदुभयः क्रमेणोनितं द्वानवतिकैकनवतिकनवतिकत्वं प्राप्नोति। तन्त्रवतिक पुनः सुरद्विके पुनः नारकचतुष्के पुनः मनुष्यद्विके चोद्वेल्लितेऽष्टाशीतिकचतुरशीतिकद्वयशीतिकत्वं । पुनः तानि विनवतिकादीनि चत्वारि 'णिरयतिरिक्खदूवियलमित्यादित्रयोदशस क्षपितेषु अशीतिकैकानशीतिकाष्टासप्ततिकसप्तसप्ततिकत्वं दशकं, नवकं चायोगकेवलिनि ॥६१०॥ तयोः प्रकृतीराह उनकी उपपत्ति कहते हैं सब नामकर्मकी प्रकृतिरूप प्रथम तिरानबेका स्थान है। सब प्रकृतियोंमें-से तीथंकर घटानेपर बानबेका स्थान होता है। आहारकद्विक घटानेपर. इक्यानबेका स्थान है। तीर्थकर, २५ आहारकद्विक दोनों घटानेपर नब्बेका है। उस नब्बेके स्थानमें देवगति और आनुपूर्वीकी उद्वेलना होनेपर अठासीका स्थान होता है। उसमें से नारक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर चौरासीका स्थान होता है। उसमेंसे मनुष्यद्विककी उद्वेलना होनेपर बयासीका स्थान होता है। पनः तिरानबेमें-से 'णिरयतिरिक्खदावियलं' इत्यादि गाथामें अनिवृत्ति करण गुणस्थानमें भय हुई तेरह प्रकृति घटानेपर अस्सीका स्थान होता है। उन्हें बानबेमें-से घटानेपर ३० उन्यासीका स्थान होता है। इक्यानबेमें-से घटानेपर अठहत्तरका स्थान होता है । नब्बेमें से घटानेपर सतहत्तरका स्थान होता है। अयोग केवलीमें दस और नौका स्थान है। इस प्रकार नामकर्मके सब सत्त्वस्थान है ॥६१०॥ . आगे दस और नौके स्थानकी प्रकृतियां कहते हैं Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गयजोगस्स दु तेरे तदियाउगगोद इदि विहीणेसु । दस णामस्स य सत्ता णव चेव य तित्थहीणेसु ॥६११॥ गतयोगस्यतु त्रयोदशसु तृतीयायुग्र्गोत्रमिति विहीनेषु । दशनाम्नः सत्वानि नव चैव च तीर्थहीनेषु ॥ तु मत्ते गतयोगकेवलिय सत्वप्रकृतिगळ, "उदयगतबारणराणू" एंब त्रयोदशप्रकृतिगोळ ५ तृतीयवेदनीयमो दुं आयुः मनुष्यायुष्यमुं गोत्र उच्चैर्गोत्रमुमितु मूरुं प्रकृतिगळ होनमागुत्तं विरलु शेषदशप्रकृतिगळ स्थानमयोगिकेवलियोळक्कुमल्लि तीर्थरहितमादोडे नवप्रकृतिस्थानमक्क । अनंतरमुद्वेल्लितस्थानविशेषमं पेन्दपरु : गुणसंजादं पयडि मिच्छे बंधुदयगंधहीणम्मि । सेसुव्वेन्लणपयडि णियमेणुव्वेल्लदे जीवो ॥६१२॥ गुणसंजाता प्रकृतिम्मिथ्यादृष्टौ बंधोदयगंधहीने । शेषोद्वेल्लनप्रकृतिन्नियमेनोवेल्लयति जीवः॥ मिथ्यादृष्टियोलु सव्वकालमुद्वेल्लनप्रकृतिगळ बंधोदयगंधमुमिल्लप्पुरिदमा गुणसंजाता. हारसम्यक्त्वप्रकृतिसम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुमं शेषोद्वेल्लनप्रकृतिगळमं मिथ्यादृष्टिजीवनुद्वेल्लनमं माडि किडिसुगुं नियमदिद। अनंतरमुल्लनप्रशस्तप्रकृति मोदल्गोंडु क्रमदिवमुद्वेल्लनमं माळकुमेंदु पेळ्दपरु : सत्थत्तादाहारं पुव्वं उव्वेल्लदे तदो सम्म । सम्मामिच्छं तु तदो एगो विगलो य सयलो य ॥६१३॥ प्रशस्तत्वादाहारं पूर्वमुद्वेल्लयति ततः सम्यक्त्वं । सम्यरिमथ्यात्वं तु तत एको विकलश्च सकलश्च। तु-पुनः अयोगिवलिसत्त्वप्रकृतयः 'उदयगवारणराण' इति त्रयोदशसु वेदनीयमनुष्यायुरुच्चैर्गोष्वपनोते दश स्युः । तत्र तीर्थे अनीते नव स्युः ॥६११॥ अथोद्वेल्लितस्थानविशेषमाह मिथ्यादृष्टो सर्वदापि बन्धोदयगन्धो नेति सम्यग्दर्शनादिगुणसंजातसम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्वाहारकद्वय. प्रकृतीः शेषोद्वेलनप्रकृतीश्च नियमेन मिथ्यादृष्टिरेवोद्वेल्लयति ॥६१२॥ तत्क्रममाह अयोग केवलीकी सत्त्व प्रकृतियाँ 'उदयगवारणराण' इत्यादि गाथाके द्वारा तेरह कही २५ हैं। उनमें से वेदनीय, मनुष्यायु और उच्चगोत्र घटानेपर दस प्रकृतिका सत्त्वस्थान होता है। तथा उन दसमें से तीथंकर घटानेपर नौ प्रकृतिरूप सत्त्व स्थान होता है ।।६११॥ आगे उद्वेलना स्थानोंका विशेष कहते हैं मिथ्यादृष्टि में जिनके बन्ध और उदयकी गन्ध भी सर्वदा नहीं होती और जो सम्यक्दर्शन आदि गुणों के कारण उत्पन्न होती हैं ऐसी सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, ३० आहारद्विक प्रकृतियोंकी तथा शेष उद्वेलन प्रकृतियोंकी उद्वेलना नियमसे मिथ्यादृष्टि ही करता है ॥६१२॥ उनका क्रम कहते हैं Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५ गो० कर्मकाण्डे प्रशस्त प्रकृतिर्त्वादिदमाहारकमं मुन्नं चतुर्गतियमिथ्यादृष्टिजीवनुद्वेल्लनमं माळ्कुं । ततः पश्चात् सम्यक्त्वं सम्यक्त्व प्रकृतियनुद्वेल्लनमं माळ्कुं । तु बळिक्कं सम्यग्मिथ्यात्वं मिश्रप्रकृतियनुद्वेल्लन माडि किडि । ततः बळिक्कं शेषसुरद्विकाद्युद्वेल्लनप्रकृतिगळुद्वेल्लनमनेकः एकेंद्रियमुं विकलश्च विकलेंद्रियंगळं सकलश्च सकर्लेन्द्रियंगळं माळकुं ॥ अनंतर मुद्वेल्लनप्रकृतिगळगुद्द्वेल्लनावसरकालमं पेव्वपरा :arratri काले आहारं उवसमस्स सम्मत्तं । सम्ममिच्छं वेगे वियले वेगुव्वछक्कं तु ॥ ६१४ ॥ वेदrयोग्ये काले आहारमुपशमस्य सम्यक्त्वं । सम्यग्मिथ्यात्वं चैकेंब्रियविकले वैक्रियिकषट्कं तु ॥ ९६४ वेदकयोग्यकालदोळाहारकममुद्वेल्लनमं माडुगुमुपशमकालदोळु सम्यक्त्व प्रकृतियुमं सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियुमनुर्व ल्लनमं माळकुं । एकेंद्रियदोळं विकलत्रयवोळं वैक्रियिकषट्क मुद्द्वेल्लनमक्कुं ॥ अनंतरं वेद योग्यकालमुमनुपशमकालमुमं पेळदपर : उदधिपुधत्तं तु तसे पल्ला संखूण मेगमेयक्खे | जावय सम्मं मिस्तं वेदगजोग्गो य उवसमस्स तदो || ६१५ || उदधिपृथक्त्वं च त्रसे पल्यासंख्योनमेकमेकाक्षे । यावत्सम्यक्त्वं मिश्रं वेवकयोगश्चोपश मस्य ततः ॥ प्रशस्तत्वादाहारकद्वयं पूर्वं चतुर्गतिकमिध्यादृष्टि: उद्वेल्लयति, ततः पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृति, ततः पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, ततः पश्चात् शेषसुरद्विकादीन्ये केन्द्रियो विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रियश्च ॥६१३॥ २० तदुद्वेल्लनाव सरकालमाह- वेदकयोग्यकाले आहारकद्वयमुद्वेल्लयति । उपशमकाले सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति च । एक विकलेन्द्रियेषु वैक्रियिकषटुकं ॥ ६१४ ॥ तो कालौ लक्षयति आहारकद्विक प्रशस्त प्रकृति है अतः चारों गतिके मिध्यादृष्टि पहले आहारकद्विककी उद्वेलना करते हैं। उसके पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृतिकी, उसके पश्चात् सम्यक मिध्यात्व २५ प्रकृतिको उद्वेलना करते हैं। उसके पश्चात् शेष देवद्विक आदिको उद्वेलना एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय करते हैं || ६१३ ॥ उस उद्वेलनाके अवसरका काल कहते हैं वेदकयोग्यकाल में आहारकद्विककी उद्वेलना करता है । और उपशम कालमें सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यकू मिध्यात्व प्रकृतिको उद्वेलना करता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव ३० वैक्रियिकषटककी उद्वेलना करते हैं ||६१४॥ उन दोनों कालोंके लक्षण कहते हैं १. म Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६५ कर्णाटवृत्ति बीवतत्त्वप्रदीपिका से त्रसजीवनादोड सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिगळ्गे स्थितिसत्वमन्नेवरमुदधिपृथक्त्वमवशिष्टमक्कुमन्नेवरं वेदकयोग्यकालमें बुदक्कु । मेकाक्षे सति एकेंद्रियजीवमादोडे तत्सम्यक्त्वमिश्रप्रकृति. गळगे स्थितिसत्वमेन्नेवर पल्यासंख्यातेकभागोनैकसागरोपममवशिष्टमक्कुमन्नेवरं वेदकयोग्यकालं मबुदक्कुं । ततः अल्लिदं मेले उपशमस्य कालः। आ त्रसैकेंद्रियंगळगे उपशमकालंगळदु पेळलपटुतु। अनंतरं तेजोद्वयक्कुवेल्लनयोग्यप्रकृतियं पेन्दपरु: तेउदुगे मणुवदुगं उच्चं उव्वेल्लदे जहण्णिदरं । पल्लासंखेज्जदिमं उव्वेन्लणकालपरिमाणं ॥६१६॥ तेजोद्विके मनुष्यद्विकमुच्चर्गोत्रमुवेल्यते जघन्येतरं। पल्यासंख्यातेकभागमुवेल्लनकाल प्रमाणं॥ तेजोवायुकायिकजोवंगळोळु मनुष्यद्विकमुमुच्चग्र्गोत्रमुमुवेल्लनमं माडल्पडुवुवु । उद्वेल्लनमं माळ्पकालमुं जघन्योत्कृष्टदिदं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमेयक्कुमदं पेब्दपरु : पन्लासंखेज्जदिमं ठिदिमुव्वेन्लदि मुहुत्तअंतेण । संखेज्जसायरठिदि पल्लासंखेज्जकालेण ॥६१७॥ पल्यासंख्यातकभागां स्थितिमुवेल्लयत्यंतर्मुहत्तंकालेन । संख्येयसागरस्थिति पल्यासंख्या- तेकभागेन । सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्याः स्थितिसत्वं यावत्रसे उदधिपृथक्त्वं एकाक्षे च पल्यासंख्यातकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते । तत उपर्युपशमकाल इति ॥६१५॥ तेजोद्वयस्योद्वेल्लनप्रकृतीराह तेजोवातकायिकयोर्मनुष्यद्विकमुच्चैर्गोत्रं चोद्वेल्ल्यते। जघन्यमुत्कृष्टं चोद्वेल्लनकारणकालप्रमाणं पल्यासंख्यातेकभागः ॥६१६॥ तदेवाह सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीयका स्थिति सत्त्व अर्थात् पूर्व में जो स्थिति बँधी थी वह सत्तारूप स्थिति जबतक त्रसके तो पृथक्त्व सागर प्रमाण शेष रहती है और एकेन्द्रियके पल्यके असंख्यातवें भाग हीन एक सागर प्रमाण शेष रहती है तबतकके कालको वेदक योग्य काल कहते हैं। उससे ऊपर उससे भी हीन स्थिति सत्त्व होनेपर उपशमयोग्य काल । होता है ।।६१५॥ २५ आगे तेजकाय, वायुकायके उद्वेलन योग्य प्रकृतियाँ कहते हैं तेजकाय, वायकायमें मनुष्य द्विक और उच्चगोत्र ये तीन उद्वेलन रूप होती हैं। उस उद्वेलनमें कारण कालका प्रमाण जघन्य और उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। इतने कालमें उनकी सब स्थितिके निषेकोंको उद्वेलनारूप करता है ॥६१६।। वही कहते हैं। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे अंतर्मुहूर्त कालवर्क पल्यासंख्यातैकभागमं स्थितियनुवेल्लनमं माळकु । मार्तं संख्यातसागरोपमस्थितियर्ननितु कालक्कुद्वेल्लनमं माळकुम वितु त्रैराशिकसिद्धमध्य पत्यासंख्यातेक भागमात्रकालदिदमाळकुर्म' बुदत्थं । आ त्रैराशिकमं माप क्रममे ते वोर्ड उद्वेल्लनकालवोळ संख्यातसागर स्थितिय अग्रभागदोळ पल्यच्छेदासंख्यातैकभागं कांडकरूप केळगघोगलनरूपमं तम्मुंहतं५ मंतरडं कूडि प्रमाणराशियक्कुमंतागुत्तंविरलु फलराशियंत मुहूर्त कालमव कुमिच्छाराशियं संस्थातसागरम पुर्दारदं संख्यात पल्यप्रमितमक्कुमा त्रैराशिकमिदु : :- प्र२१। फ२१ इप १ लब्ध प a ९६६ १० फ १ २१ २१ शन्तर्मुहूर्त कालेन पल्या संख्यातै कभागस्थितिमुद्वेल्लयति । स संख्यातसागरोपमस्थिति कियत्कालेनेति प्रश्ने पत्यासंख्या तकभागेनेत्युत्तरं । तद्यथा- A अस्याः स्थितेरप्रतनभागे पल्यच्छेदा संख्यातेकभागकांडक अघोगलनरूपान्तर्मुहूर्तेनाषिकं प्रमाणं २१ छे a შ २१ २१ पूर्व में बँधी सत्तारूप स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाणको उद्वेलना एक अन्तर्मुहूर्त में करता है तो वह संख्यात सागर प्रमाण मनुष्यद्विक आदिको सत्तारूप स्थितिकी ना कितने कालमें करेगा ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि पल्यके असंख्यातवें भागकाल में उस सब स्थितिकी उद्वेलना करता है । उसका विवरण इस प्रकार है इस स्थितिके अप्रतन भागमें पल्य के अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण काण्डक १५ अघोगलनरूप अन्तर्मुहूर्त से अधिक प्रमाण है । उसको प्रमाणराशि करो। उस काण्डकका Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६७ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं सम्यक्त्वादि विराषनावारंगळं पेळ्वपरु : सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजणविहिं च उक्कस्सं । पल्लासंखेज्जदिमं वारं पडिवज्जदे जीवो ॥६१८॥ सम्यक्त्वं देशयममनंतानुबंधिविसंयोजनविधि चोत्कृष्टं पल्यासंख्यातैकभागान्धारान्प्रतिपद्यते जीवः॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुमं वेदकसम्यक्त्वमुमं देशसंयमुमननंतानुबंधिविसंयोजनविधियुमनुत्कृष्टदि पल्यासंख्यातकभागवारंगळं जोवं पोर्दुगुं। मेले नियमविवं सिद्धियनेय्दुगुं। चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो । बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिव्वादि ॥६१९॥ चतुरो वारानुपशमश्रेणिमारोहति क्षपितकमांशः । द्वात्रिंशद्वारान्संयममुपलभ्य निर्वाति ॥ १० उत्कृष्टदिदमुपशमश्रेणियं नाल्कुवारमारोहणं माकुं क्षपितकाशनप्प जीवं मेले नियमविदं क्षपकणियनल्लदेरनु द्वात्रिंशद्वारंगळं संयममनुत्कृष्ट दिवं पोद्दिनियमदिदं मेले निर्वाणमनयदुगुं। तत्कांडकपतनकालोंतमुहर्तः फलं २१ स्थितिः संख्यातसागरत्वात्संख्यातपल्यानि इच्छा ५१। लब्धं प ॥६१७॥ अथ सम्यक्त्वादिविराधनावारानाह प्रथमोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यक्त्वं देशसंयममनंतानुबन्धिविसंयोजनविधि चोत्कृष्टेन पल्यासंख्यातकभागवारान प्रतिपद्यते जीवः । उपरि नियमेन सियत्येव ॥६१८॥ उपशमश्रेणिमुत्कृष्टेन चतुर्वारानेवारोहति । क्षपितकर्माशो जीवः, उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवारोहति । संयममुत्कृष्टेन द्वात्रिंशद्वारान् प्राप्य ततो निर्वात्येव ॥६१९॥ पतनकाल अर्थात् उद्वेलनारूप होनेका काल अन्तर्मुहूर्त है। इसको फलराशि करो। सब २० स्थिति संख्यात सागर प्रमाणको इच्छाराशि करो। फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर पल्यका असंख्यातवाँ भाग लब्धराशिका प्रमाण होता है। यहाँ अन्तर्मुहूर्तमें जितने स्थितिके निषेक उद्वेलनारूप किये उसका ही नाम काण्डक जानना ॥६१७॥ • आगे सम्यक्त्व आदिकी विराधनाके बार कहते हैं कि कितनी बार विराधना २५ होती है प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन विधान इन चारको एक जीव उत्कृष्ट रूपसे पल्यके असंख्यातवें भागमें जितने समय होते हैं उतनी बार छोड़कर ग्रहण करता है। उसके पश्चात् नियमसे मोक्ष प्राप्त करता है ।।६१८।। उपशमश्रेणिपर उत्कृष्टसे चार बार ही चढ़ता है। पीछे क्षपितकमांश होकर अर्थात् कर्मोका अंश क्षय करके नियमसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है। सकल संयमको उत्कृष्टसे बत्तीस बार ही धारण करता है। पश्चात् मोक्षको प्राप्त करता है॥६१९।। क-१२२ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६८ गो० कर्मकाण्डे तित्थाहाराणुभयं सव्वं तित्यं ण मिच्छगादितिये। तस्सत्तकम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संभवइ ॥ तोहाराणामुभयं सव्वं तीत्थं न मिथ्यादृष्टित्रितये। तत्सत्वकर्मणां तद्गुणस्थानं न संभवति ॥ तोहारकोभयसत्वयुतस्थानं मिथ्यादृष्टियोळु सत्वमिल्ल । तोत्थंयुतस्थानमुमाहारकयुतसत्वस्थानमुं नानामिथ्यावृष्टियोळ संभविसुगुं । सासादननोळ नानाजीवापेक्षेयिंदमुमाहारक, तोत्थसत्वस्थानंगळं संभविसंवु। मिश्रगुणस्थानदोळ तोत्ययुतसत्वस्थानं संभविसदु । आहारयुतस्थानं संभविसुगुमेके दोडे तत्सत्वकम्मरुगळप्प जोवंगळ्गे तद्गुणस्थानंगळ संभविसुववल्लेके. बोर्ड तीर्त्याहारोभयसत्वयुतनोळु मिथ्यात्वकर्मोदयमिल्ल । तोर्थ, मेणाहारकसत्वमुमुळ्ळ १. जीवनोळनंतानुबंधिगुदयमिल्ल । तीत्यसत्वमुळनोळ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युदयमिल्लप्पुरिदं ॥ अनंतरं चतुर्गतिविवक्षितमागि गुणस्थानंगळोळ नामकर्मसत्वस्थानंगळं योजिसिदपरः सुरणरसम्मे पढमो सासणहीणेसु होदि बाणउदी । सुरसम्मे परणारयसम्मे मिच्छे य इगिणद्धी ॥६२०॥ सुरनरसम्यग्दृष्टौ प्रथम सासादनहीनेषु भवति द्वानवतिः। सुरसम्यग्दृष्टो नरनारकसम्यग्दृष्टौ १५ मिथ्यादृष्टौ चैकनवतिः॥ -तीहारकयोरुभयेन यतं सच्चस्थान मिथ्यादष्टौ नास्ति । तीर्थयतमाहारकद्वययतं च नानाजीवापेक्षयास्ति । सासादने नानाजीवापेक्षयाप्याहारकतीर्थयुतानि न सन्ति । मिश्रगुणस्थाने तीर्थयुतं नाहारयुतं चास्ति । तत्र कारणमाह । तत्तत्कर्मसत्त्वजीवानां तत्तद्गुणस्थानं न सम्भवति। कुतः ? तीर्याहारोभयसत्वे मिथ्या त्वस्य तीर्थाहारयोरन्यतरसत्त्वेऽनंतानुबन्धिनां तीर्थसत्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वस्य चानुदयात् । १। अथ चतुर्गति२० विवक्षया गुणस्थानेषु नानासत्त्वस्थानानि योजयति ___ मिध्यादृष्टिमें एक जीवकी अपेक्षा तीर्थकर और आहारकद्विक सहित स्थान नहीं है । एक मिथ्यादृष्टि जीवके या तो तीथंकरका ही सत्त्व होता है या आहारकद्विकका ही सत्त्व होता है। नाना जीवोंकी अपेक्षा तो दोनोंका सत्त्व होता है। सासादनमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भी आहारक और तीथंकर सहित सत्त्वस्थान नहीं है। मिश्र गुणस्थानमें तीर्थकर २५ सहित सत्वस्थान है, आहारक सहित नहीं है। इसका कारण यह है कि जिन जीवोंके इन कोंकी सत्ता होती है वे जीव इन गुणस्थानों में नहीं जाते । अर्थात् तीर्थंकर आहारकद्विककी सत्ता जिसके हैं उसके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। तीर्थकर या आहारकद्विकमें-से एकका भी सत्त्व होते हुए मिथ्यात्वरहित अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता। तीर्थंकरकी सत्ता रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्वका उदय नहीं होता ।।६१९।। ___आगे चार गतिकी विवक्षा करके गुणस्थानों में नामकर्मके सत्त्वस्थानोंकी योजना करते हैं१. केवल० अदु कारणदि सासादननोळ नानाजीवैकजीवापेक्षेगळिंदमुं सत्वमिल्ल बुदर्थ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ९६९ सुरसम्यग्दृष्टियोळं मनुष्यासंयतादिसम्यग्दृष्टिगळोळं त्रिनवतिसत्वस्थानं संभविसुगुं । सासादनगुणस्थानरहितमाद चतुर्गतिजरोळं द्वानवतिसत्वस्थानं संभविसुगुं । सुरसम्यग्दृष्टियोळ मनुष्यनारकसम्यग्दृष्टियोळं मिथ्यादृष्टिगळोळमेक नव तिसत्वस्थानं संभविसुगुं । उदीचदुग्गदम्मि य तेरस खवगोत्ति तिरियणरमिच्छे | अडचसीदी सत्ता तिरिक्खमिच्छम्मि बासीदी ॥ ६२१ ॥ नवतिचतुर्गतिजेषु च त्रयोदश क्षपकपर्यंतं तिर्य्यग्नरमिथ्यादृष्टावष्टचतुरशीतिसत्त्वे तिर्य्यग्मिथ्यादृष्टौ द्वघशीतिः ॥ चतुग्र्गतिजरोलं मनुष्यरोत्रयोदेश क्षपकानिवृत्तिकरणपध्यंतं सर्व्वत्र नवतिसत्त्वस्थानं संभविसु । तिग्मनुष्यमिध्यादृष्टिगळोळे अष्टाशीतिसत्त्वस्थानमुं चतुरशीतिसत्त्वस्थानमुं संभविसुगुर्म' ते 'बोर्ड 'सपदे उप्पण्णट्ठाणेवि' एंदु संभवमंटपुर्दारदं । तिर्य्यग्मिथ्यादृष्टिजीवनोळे १० द्वयशीतिसस्वस्थानं संभविसुगुमेकें दोर्ड मनुष्यद्विकमुद्वेल्लनमं माडुव जीवंगळु तेजोवायुकायिकंगळप्पुदरिना जीवंगळगे तिर्य्यग्गतियोळल्लदन्यगतियोळु जननमिल्लप्पुदरिदं । सुरसम्यग्दृष्टी मनुष्यासंयतादिसम्यग्दृष्टौ च त्रिनवतिकं सम्भवति । सासादनवजितचातुर्गतिकेषु द्वानवतिकं । सुरसम्यग्दृष्टौ मनुष्यनारकसम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टी चैकनवतिकं ॥ ६२० ॥ चतुर्गतिकेष्वात्रयोदशक्षपकानिवृत्तिकरणांतं सर्वत्र नवतिकं सम्भवति । तिर्यग्मनुष्य मिथ्यादृष्टावेवाष्टा- १५ शीतिकं चतुरशीतिकं च सपदे उप्पण्णठाणेवीत्युक्तत्वात् । तिर्यग्मिथ्यादृष्टौ द्वयशीतिकं । मनुष्यद्विकोद्वेल्लकतेजोवाय्वोस्तिर्यग्गतेरन्यत्रानुत्पत्तेः ॥ ६२१ ॥ तिरानबेका सत्त्वस्थान देव असंयत सम्यग्दृष्टि और मनुष्य असंयत आदि सम्यग्दृष्टि में होता है । बानबेका सत्त्वस्थान सासादन रहित चारों गतिके जीवों में होता है । इक्यानबेका सत्त्वस्थान देव सम्यग्दृष्टी में और मनुष्य नारकी सम्यग्दृष्टी या मिध्यादृष्टिमें होता है ।। ६२० || २० नब्बेका सत्त्वस्थान चारों गतिके जीवोंमें, क्षपक अनिवृत्तिकरण में जहाँ तेरह प्रकृतियों का क्षय होता है वहाँ तक सर्वत्र होता । अठासी और चौरासीके सत्त्वस्थान तियंच और मनुष्य मिध्यादृष्टि में ही होते हैं। क्योंकि 'सपदे उप्पणठाणेवि' के अनुसार एकेन्द्रिय आदिमें जहाँ देवद्विक आदिकी उद्वेलना होती है वहां भी वैसी सत्ता पायी जाती है और वह जीव मरकर तिर्यच या मनुष्य में जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ भी वैसी सत्ता पायी २५ जाती है । बयासीका सत्त्वस्थान मिध्यादृष्टि तिर्यंचमें ही होता है क्योंकि मनुष्यद्विककी उद्वेलना तेजकाय वायुकाय में होती है अतः वहाँ बयासीकी सत्ता पायी जाती है। तथा वह मरकर भी तियंचमें ही उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं, अतः वहाँ भी बयासीकी सत्ता पायी जाती है ॥६२१|| १. नामकम्मं संबंधित्रयोदशप्रकृतयः साधारणचतुर्जात्यादय अनिवृत्तिकरणप्रथमभागे क्षपणायोग्या भवत्यतः तत्प्रथमभागपर्य्यन्तमित्यर्थः । चदुर्गादिमिच्छे चउरो इगिविगळे छप्पि तिष्णि ते उदगे । सिय अत्थि णत्थि सत्तं सपदे उप्पण्णठाणेवि ॥ ते उदुगं तेरिच्छे इत्युक्तत्वात् ॥ ( ताड पंचम पंक्ति ) – मनुष्यनारक | ३० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७० गो० कर्मकाण्डे सीदादि चउट्ठाणा तेरस खवगादु अणुवसमगेसु । गयजोगस्स दुचरिमं जाव य चरिमम्मि दसणवयं ॥६२२॥ अशोत्यादि चतुःस्थानानि त्रयोदश क्षपकादनुपपामकेषु । गतयोगस्य द्विचरमं यावच्चरमेदशनवकं॥ त्रयोदशक्षपकाशोत्यादि चतुस्थानंगळा त्रयोदशक्षपकानिवृत्तिकरणं मोवल्गोंडु क्षपकश्रेण्यारूढरुगळोळयोगिद्विचरमसमयपथ्यंतं संभविसुववयोगि चरमसमयदोळु दशनवकंगळप्पुवितु गुणस्थानदोळु नामसत्वस्थानंगळ पेळल्पटुवु । चतुर्गतिगळगुणस्थानसंदृष्टि : नरकगतिय मिथ्यादृष्टियोळ ९२ १९१ ॥९० ॥ सासादननोळु ९० ॥ मिश्रनोळु ९२।९० ॥ असंयतनोळ ९० । ९१ । ९० ॥ नियंग्गतिय मिथ्यादृष्टियोळु ९२।१०। ८८। ८४। ८२॥ १० सासादननोळु ९० ।। मिश्रनोळु ९२ १९० ॥ असंयतनोळु ९२।९० ॥ देशसंयतनोळु ९२ । ९०॥ मनुष्यगतिय मिथ्यादृष्टियोळ ९२ ॥ ९१ । ९०। ८८। ८४ ॥ सासादननोळु ९० ॥ मिश्रनोळ ९२ । ९० ॥ असंयतनोळ ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ देशसंयतनोळ ९३ ॥ ९२ । ९१ । ९०॥ प्रमत्तसंयत. नोळु ९३ । ९२।११।९०॥ अप्रमत्तसंयतनोळ ९३ । ९२। ९१ ॥ ९०॥ अपूर्वकरणोपशमक नोळ ९३ ९२ ॥ ९१ । ९०॥ अनुपशमकनोळ ९३ । ९२ ॥ ९१।९०॥ अनिवृत्तिकरणोपशमक. १५ नोळ ९३ । ९२ ॥९१ ॥९० ॥ अनुपशम कनोळ ९३ ९२।९१ । ९०। ८०। ७९ ॥ ७८ । ७७॥ सूक्ष्मसांपरायोपशमकनोज ९३ । ९२ । ९१ । ९०॥ अनुपशमकनोळ ८० । ७९ । ७८ । ७७॥ उपशांतकषायनोळ ९३ । ९२ । ९१ । ९० : क्षीणकषायनोळु ८० ॥ ७९ ॥ ७८ ॥ ७७ ॥ सयोगिकेवलियोळ ८० ॥ ७९ ॥ ७८ । ७७॥ अयोगिद्विचरमसमयदोळ ८० ॥ ७९ ॥ ७८ । ७७ ॥ चरम समयदोळ १०॥९॥ देवगतिय मिथ्यादृष्टियोळ ९२।९०॥ सासादननोळ ९०॥ मिश्रनोळ २० ९२।९०॥ असंयतनोळ ९३ । ९२ । ९१ । ९०॥ अन्तरं नामप्रकृतिसत्त्वस्थानंगळं एकचत्वारिंशज्जीवपदंगळोळ योजिसिदपर : णिरए बाइगिणउदी णउदी भवादिसव्वतिरिए । बाणउदी णउदी अडचउबासीदी य होंति सत्ताणि ॥६२३।। नारके द्वयेकनवतिनवतिर्भूवादिसर्वतिर्यक्षु । द्वानवतिन्नवतिरष्ट चतुर्थशोतिश्च भवंति २५ सत्त्वानि ॥ अशीतिकादीनि चत्वारि तत्त्रयोदशक्षपकानिवृत्तिकरणादा अयोगद्विचरमसमयं, चरमसमये दशकं नवकं च ॥६२२॥ अथैकचत्वारिंशज्जीवपदेष्वाह अस्सी आदि चार सत्वस्थान तेरह प्रकृतियोंके क्षयसहित अनिवृत्तिकरणसे लगाकर अयोगीके द्विचरम समय पर्यन्त होते हैं । तथा दस और नौका सत्त्वस्थान अयोगीके अन्त ३० समयमें होता है ॥६२२॥ आगे इकतालीस जीव पदोंमें कहते हैं Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९७१ नारकरोळु द्वानवतियुमेकनवतियुं नवतियं सत्वंगळप्पुवु । ९२। ९१ । ९०॥ पृथ्वी. कायिकादि सर्वतिर्यग्जीवंगळोळु द्वानवतिनवतियष्टाशो तिचतुरशीतिद्वयशीतिपंचसत्वस्थानंगळप्पुवु । ९२ । ९०। ८८।८४। ८२॥ बासीदि वज्जित्ता बारस ठाणाणि होति मणुएस । सीदादि चउढाणा छट्ठाणा केवलिदुगेसु ॥६२४।। द्वपशोति वर्जयित्वा द्वादशस्थानानि भवंति मनुष्येषु । अशोत्यादिचतुःस्थानानि षट्स्थानानि केवलिद्वयोः॥ मनुष्यरोळ द्वघशोतिस्थानमं वज्जिसि शेषद्वादशस्थानंगळनितुं सत्वंगळप्पुवु ९३ ॥ ९२ ९१।९०। ८८।८४। ८०। ७९ । ७८ । ७७॥ १०॥९॥ अल्लि सयोगकेवलियोळशीत्यादि चतुःस्थानंगळप्पुवु ८० ॥ ७९ ॥७८॥ ७७॥ अयोगिकेवलियोळशीत्यादि षट्स्थानंगळु सत्वंगळप्पुवु १० ८०॥७९७८ ॥ ७७।१०।९॥ अनंतरमा सयोगायोगिकेवलिगळ सत्वस्थानंगळोळु तीर्थकरकेवलिगळ्गमतिरकेवलिगळ्गं संभवस्थानंगळं पेळ्वपरु : समविसमट्ठाणाणि य कमेण तिथिदरकेवलीसु हवे । तिदुणउदी आहारे देवे आदिमचउक्कं तु ॥६२५।। समविषमस्थानानि क्रमेण तोत्थेतरकेवलिनोभवेयुः। त्रिद्विनवतिराहारे देवे आद्यतन चतुष्कं तु॥ सयोगायोगिगळोल पेळ्द चतुःस्थानषट्स्यानंगळोल समस्थानंगळु तीर्थकेवलियोळप्पुवु । ८०७८ ॥ अतीर्थकेवलियोळु विषमस्थानंगळप्पुवु। ७९ ७७॥ अयोगितीर्थकेवलियोळ समस्थानंगळु । ८०७८ ॥ १०॥ अतीायोगियोळु विषमस्थानंगळु मूरु ७९ । ७७।१॥ २० सत्त्वस्थानानि नारकेषु द्वानवतिकैकनवतिकमवतिकानि त्रीणि भवन्ति । पृथ्वीकायिकादिसर्वतिर्यक्ष द्वानवतिकनवतिकाष्टशीतिकचतुरशीतिकद्वयशीतिकानि पंच ॥६२३॥ सत्त्वस्थानानि मनुष्ये द्वघशीतिकं वजित्वा शेषाणि द्वादश भवन्ति । सयोगे अशीतिकादीनि चत्वारि । अयोगे च षट् ॥६२४॥ __ केवल्युक्तस्थानेषु सयोगायोगयोः चतुःषट्सु सतीर्षातीर्थयोः क्रमेण समविषमाणि स्युः । आहारके २५ नामकर्मके सत्त्वस्थान नारकियोंमें बानबे, इक्यानबे, नब्बे ये तीन होते हैं। पृथ्वीकाय आदि सब तियंचोंमें बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासी, बयासी ये पाँच होते हैं ।।६२३।। मनुष्यों में बयासीको छोड़कर शेष बारह सत्त्वस्थान होते हैं । सयोग केवलीमें अस्सी आदि चार स्थान होते हैं । अयोगीमें अस्सी आदि छह स्थान होते हैं ॥६२४॥ केवलीमें कहे सयोगीमें चार अयोगीमें छह स्थानों में से तीर्थकर सहितमें समरूप ३० स्थान होते हैं और तीर्थंकर रहितमें विषमरूप स्थान होते हैं। अर्थात् तीर्थकर सहित सयोगीमें अस्सी और अठहत्तर तथा तीर्थकर सहित अयोगीमें वे दोनों और दस ये सत्त्व Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७२ गो० कर्मकाण्डे आहारकदोळु त्रिद्विनवतिस्थानद्वयंगळप्पुवु। आ ९३ ॥ ९२ ॥ देवकळोळु सौधर्माविगळोळु प्रथमतन चतुःस्थानंगळप्पुवु ।९३३९२१९११९० । अनंतरं भवनत्रयभोगभूमिजरोळं सत्वस्थानंगळं पेळदपरु : बाणउदि णउदिसत्ता भवणतियाणं च भोगभमीणं । हेट्ठिमपुढविचउक्कभवाणं च य सासणे णउदी ॥६२६॥ द्वानवति नवतिसत्वं भवनत्रयाणां च भोगभूमिजानामधस्तनपत्थ्यिचतुष्कभवानां च च सासादने नवतिः॥ भवनत्रयविविजरुगळ्गे द्वानवतियं नवतियं सत्वमक्कुं। सर्वभोगभूमिगळ मनुष्यतिय्यंचरुगळ्गेयुं द्वानवति नवति द्विस्थानसत्वमक्कुं। भवन ३ । ९२। ९०॥ भो ९२ । ९०॥ अंजने१० मोदल्गोंडु केळगण नाल्कं पृथ्विगळोळाद नारकरुगळ्गेयं द्वानवति नवतिद्वय सत्वमक्कं । ९२ । ९०॥ सर्वसासादनरुगळ्गेल्लं नवतिसत्वस्थानमो देयकुं। सा ९० ॥ संदृष्टि : पृथि अप् तेज वायु साधारण । | पनि बा| सू वा सूबा | सू बा सू बास || प्रबिति च अ |सं | ा ९०८२८२ | E ISISM । | KI 8|2|3| || KI 8 | 30 31 FIRI | | । । | FIRTB | 8| FIR ISI | | | । । । । । । । । । । * | * | * | * | * | * | * | SIR || IM IS ६|3|| FIR | 8 | 8|2|5| KI B | 8 | | | ( |5| 8 | ७| । । । 13।। | 8 | ४| । । | | 23 IAIRIDICIAILI 2 | | | | IA|2|| 36IA | RIDICIN IRI | DISI AIRI DICTIA|2|2| 3II AIRIL 36IAIRI | | | 8 | १| |F ISI B | 3|2|5|| 3 | 31IM | | S8 | 3 | IF ISI | 3 | FIR |5| |2| | | */- ८२/८२८२८२८२८२८२८२८२८२८२८२८२८२८२८२ 079 Fleckckcclcliceclected eccelleclececlclecize प्र्या* ९०९०९०९०९० | H +९२९२९२९२९२९२९२९२९२९२ ९२९२९२/९२९२/९२/ त्रिनवतिकद्विनवतिके द्वे । वैमानिकेष्वाद्यानि चत्वारि ॥६२५॥ सस्वस्थानानि भवनत्रयदेवानां सर्वभोगभूमितिर्यग्मनुष्याणामंजनाद्यधस्तनचतुःपृथ्वीनारकाणां च स्थान होते हैं। और तीर्थंकर रहित अयोगीमें उन्न्यासी, सत्तहत्तर तथा तीर्थकर रहित १५ अयोगीमें वे दोनों और नब्बे स्थान होते हैं। आहारकमें तिरानबे, बानबे दो सत्त्वस्थान हैं। वैमानिक देवोंमें आदिके चार सत्त्वस्थान हैं ॥६२५॥ भवनत्रिक देवोंके सब भोगभूमिया मनुष्य तियं चोंके और अंजना आदि नीचेकी Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९७३ ति ससा तिस १०७ ७८ । tal |७९ ८ - ९२९ HTTARGETRIANSalt अं अनादि ४ | ९२ | ९० ९२ ४ ९० मि । ९२ ९० अनंतरं बंधोदय सत्व संयोगदोळ भंगंगळं पेब्दपरु : मूलुत्तरपयडीणं बंधोदयसत्तठाणभंगा हु । मणिदा हु तिसंजोगे एत्तो भंगे परूवेमो ॥६२७।। मूलोत्तरप्रकृतीनां बंधोदयसत्वस्थानभंगाः खलु । भणिताः खलु त्रिसंयोगे इतो भंगान् प्ररूपयामः॥ मूलोतरप्रकृतिगळ बंधोदयसत्वस्थानभंगंगळु पेळल्पटुवु। स्फुटमागि। इतः प्रति यिल्लिदं मेले त्रिसंयोगे बंधोदयसत्वसंयोगदोळु भंगान् भंगंगळं प्ररूपिसिदपेवदेत दोड: द्वानवतिकनवतिके द्वे । सर्वसासादनानां नवतिकमेव ॥६२६।। मलोत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्त्वस्थानभंगाः खलु भणिताः । इतोऽग्रे त्रिसंयोगे भंगान प्ररूपयामः खलु ॥६२७॥ तद्यथा चार पृथिवियोंके नारकीके बानबे और नब्बे दो ही सत्त्वस्थान हैं। सब सासादन गुणस्थानवी जीवोंके एक नब्बेका ही सत्त्वस्थान होता है ॥६२६।। मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके बन्ध उदय और सत्त्वरूप स्थान तथा भंग कहे। यहाँसे आगे बन्ध, उदय, सत्त्वके त्रिसंयोगमें स्थान और भंगोंको कहेंगे ॥६२७॥ वही कहते हैं Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७४ गो० कर्मकाण्डे अट्ठविहसत्तछब्बंधगेसु अद्वैव उदयकम्मंसा । एयविहे तिवियप्पो-एयवियप्पो अबंधम्मि ॥६२८।। अष्टविध सप्त षड् बंधकेष्वष्टैवोदयकमांशाः । एकविधे त्रिविकल्पः एकविकल्पोऽबंधे ॥ अष्टविध सप्तविधषड्विधबंधकरुगळोळु उदयमुं सत्वमुमष्टाष्टविधंगळप्पुवु । एकविधबंधक५ नोळ, त्रिविकल्पमक्कु ते दोडे-एकविधबंध सप्ताष्टविधोदयसत्वमुमेकविधबंध चतुश्चचतुरुदय सत्वमुमितु त्रिविधमक्कु । म बंधदोळु चतुश्चतुरुदयसत्वमेकविकल्पमेयककुं। ई त्रिसंयोगभंगंगळ गुणस्थानदोळ योजिसिदपरु।:-- मिस्से अपव्वजुगले बिदियं अपमत्तवोत्ति पढमजुगं । सुहमादिसु तदियादी बंधोदयसत्तभंगेसु ॥६२९॥ मिश्रे अपूर्वयुगळे द्वितीयमप्रमत्तपयंतं । प्रथमद्विकं सूक्ष्मादिषु तृतीयोवयो बंधोदयसत्व. भंगेषु ॥ बंधोदयसत्वभंगंगळोट द्वितीयविकल्पं मिश्रनोळमपूर्वकरणनोलमनिवृत्तिकरणनोळमक्कु मप्रमत्तपय्यंतं प्रथमद्विविकल्पंगळप्पुवु । सूक्ष्मसांपरायं मोवल्गोंडयोगिकेवलिभट्टारकपर्यंत क्रमादिदं तृतीयादिविकल्पंगळप्पुवु । संदृष्टिः अष्टविधसप्तविधषड्विधबंधकेषु उदयसत्त्वे अष्टाष्टविधे स्तः । एकविधबन्धके तु सप्ताष्टविधे सप्तसप्तविधे चतुश्चतुर्विधे च स्तः । अबन्धके चतुश्चत विधे स्तः ॥६२८॥ अथ तत्त्रिसंयोगभंगान् गुणस्थानेषु योजयति तेषु बन्धोदयसत्त्वभंगेषु गुणस्थानं प्रति मिश्रेऽपूर्वानिवृत्तिकरणयोश्च सप्ताष्टाष्टबन्धोदयसत्त्वो द्वितीयभंगः स्यात् । शेषाप्रमत्तांतेषु षट्सु अष्टाष्टबन्धोदयसत्त्वप्रथमभंगो द्वितीयभंगश्च स्यात् । सूक्ष्मसापरायाद्ययोगांतेषु जिस जीवके मूल प्रकृतियोंका आठ प्रकार, सात प्रकार या छह प्रकारका बन्ध होता २० है उसके उदय और सत्त्व आठ प्रकारका ही होता है। जिसके एक प्रकारका मूल प्रकृति बन्ध होता है उसके उदय सात प्रकार, सत्व आठ प्रकार अथवा उदय और सत्त्व दोनों सात-सात प्रकार अथवा उदय और सत्त्व दोनों चार-चार प्रकार होते हैं। जिसके एक भी मूलप्रकृतिका बन्ध नहीं है उसके उदय और सत्त्व दोनों चार-चार प्रकारके होते हैं ॥२८॥ ब. ८७६ १ १ १ | उ.८८७४४ स. ८८८८७४४ आगे त्रिसंयोगी भंगोंको गुणस्थानोंमें जोड़ते हैं उन बन्ध, उदय और सत्त्वके भंगोंमें गुणस्थानोंके प्रति मिश्रमें और अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणमें सातका बन्ध, आठका उदय और आठका सत्वरूप दूसरा भंग पाया जाता है। मिश्रके बिना शेष मिथ्यादृष्टि आदि अप्रमत्त पर्यन्त छह गुणस्थानोंमें आठका बन्ध, उदय सत्त्वरूप प्रथम भंग और सातका बन्ध, आठका उदय, आठका सत्त्वरूप दूसरा भंग पाया है। सूक्ष्म साम्परायसे अयोगीपर्यन्त गुणस्थानोंमें तीसरे आदि छहका बन्ध, आठका २५ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि बं ८७ उ ८१८ स ८1८ सासा बं ८७ उ ८८ स ८1८ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मि बं ॥७ उ८ स 1८ अपू अनिवृ बं ७ बं ७ उ ८ उ ८ स ८ स ८ सूक्ष्म बं ६ ८ स ८ 6117 उ ब. उ. स. ८८ असंय बं ८७ उ ८1८ स८८ मि. सा. मि असं | देश ८!७७ ८ ८ ८ ८ ८ टाट ८८ ८८ ८ टाट | टाट उपशां बं १ उ ७ स ८ देश सं बं ८१७ उ ८८ स ८८ बंधोदकम्मंसा णाणावरणंतराइये पंच । धोवरमे वि तहा उदयंसा होंति पंचैव ॥ ६३०॥ यिल्लि आयुष्यकसहित मागियष्टबंधकर आयुव्वज्जितमागि सप्तविधबंधकर आयुम्मह कम्र्म्मवज्जितमागि षट्कम्मं बंधकर वेदनीयम दरबंधमुमबंधस्थानमुमप्पुवु । अनंतरमुत्तरप्रकृतिगळगे त्रिसंयोगदोळ भंगंगळं पेदपरः प्रमत्त बं ८1७ उ ८८ स ८1८ क्षीणक सयो बं १ बं १ उ ७ उ ४ स ७ स ४ 617617 avtare ofशा ज्ञानावरणांतराययोः पंच । बंधोपरमे पि तथा उदयांशा भवंति पंचैव ॥ बंघोदयसत्वंगळ ज्ञानावरणांतरायंगळगे पंच पंच प्रकृतिगळेयप्पु । तद्बंधोपरतरोळं तथा पंचसु क्रमेण तृतीयादयः षडष्टाष्टबन्धोदय सत्वेक सप्ताष्टबन्धोदय सत्त्वैकसप्त सप्तबन्धोदय सत्त्वैकच तुश्चतुर्बन्धोदयसत्वशून्य चतुश्चतुविषोदयसत्वभंगाः स्युः ॥ ६२९॥ अथोत्तरप्रकृतिष्वाह ज्ञानावरणान्तराययोः सूक्ष्मसाम्परायपयंतं बन्धोदयसत्वानि पंच पंच प्रकृतयो भवन्ति । बन्धोपर- १० अप्रम बं ८७ उ ८८ स ८1८ उदय, आठका सत्व, एकका बन्ध, सातका उदय, आठका सत्त्व, एकका बन्ध, सातका उदय, सातका सत्त्व, एकका बन्ध, चारका उदय, चारका सत्त्व तथा बन्धका अभाव, चारका उदय, चारका सत्व ये भंग पाये जाते हैं ||६२९|| अयोगि बं ० उ. ४ स ४ ९७५ प्र. अप्र. | अप. अनि. सू. उ. ८1७ ८/७ ७ ८८ ८८ ८ ८८ ટીટ ८ क्षी. १ ७ ६ १ ८ ८७ ८ ८ ८ ७ ७ स. अ. १ ० आगे उत्तरे प्रकृतियों में कहते हैं सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त ज्ञानावरण और अन्तरायकी पाँच-पाँच प्रकृतियाँ बन्ध, उदय १५ क- १२३ ४ ४ ४ ४ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७६ गो० कर्मकाण्डे अहंगे उदयाशंगळु पंच पंचप्रकृतिगळप्पुवु।। णाणा | अंतराय बं| ५ | ५०० ज्ञानावरणांतरायंगळ्गे स । ५ । ५ ५ । ५ गुणस्थानदोळ त्रिसंयोग रचने : |मि सा | मि| बं५। ५ । ५ ५ दे। प्र| अ अ ५ ५ | ५ | ५ | ५ अ | सू । उ क्ष । ० ० |स५। ५ । ५ । ५ ५। ५ ५ ५ | ५ | ५ | ५ | ५। अनंतरं दर्शनावरणोत्तरप्रकृतिगळ्गे त्रिसंयोगभंगंगळं पेळ्वपरु : बिदियावरणे णवबंधगेसु चदु पंच उदय गवसत्ता । छब्बंधगेसु एवं तह चदुबंधे छडंसा य ॥६३१॥ द्वितीयावरणे नवबंधकेषु चतुःपंचोदयनवसत्त्वानि । षड्बंधकेष्वेवं तथा चतुबंधके षडंशाश्च ॥ उवरदबंधे चदुपंच उदय णव छच्च सत्त चदुजुगलं । तदियं गोदं आउं विभज्ज मोहं परं बोच्छं ॥६३२॥ उपरतबंधे चतुःपंचोदय नव षट्सत्त्व चतुर्युगलं। तृतीयं गोत्रमायुविभज्य मोहं बक्ष्यामि ॥ द्वितीयावरणदोळ नवबंधकरोळ चतुःपंचोदयंगळं नवसत्वमुमकुं। षड्बंधकरोळुमंत चतुः पंचोदयंगळु नवसत्वमुमक्कुं। अहंगे चतुबंधकरोळ चतुःपंचोदयंगळु चशब्ददिदं नवांशंगळं wwwx मेऽप्युपशान्तक्षीणकषाययोरुदयसत्त्वे तथा पंच पंच प्रकृतयः स्तः ॥६३०॥ दर्शनावरणे मिथ्यादष्टिसासादनयोर्नबन्धकैयोश्चत्वारि पंच चोदयः। सत्त्वं नव । षड्बन्धकेषु १५ मिश्राद्युभयश्रेण्यपूर्वकरणप्रथमभागांतेष्वप्युदयसत्त्वे एवमेव । चतुबंधके तद्वितीयभागादा उपशमकसूक्ष्म और सत्वरूप हैं । बन्धका अभाव हो जानेपर भी उपशान्तकषाय क्षीणकषायमें पांच-पाँच प्रकृतिका उदय और पांच-पाँचका सत्त्व है ॥६३०॥ __ दर्शनावरणमें मिथ्यादृष्टि और सासादनमें नौका बन्ध होता है किन्तु उदय चार या पांचका है। सत्त्व नौका है । मिश्रसे लेकर दोनों श्रेणिरूप अपूर्वकरणके प्रथम भाग पर्यन्त २० बन्ध छहका है। उदय चार या पाँचका है और सत्त्व नौ है। अपूर्वकरणके दूसरे भागसे लेकर उपशमक सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त और सोलह प्रकृतिका जहाँ भय होता है क्षपक १. उदय सत्वंगळु । ( ताड. पंक्ति ३ ):-णोत्ति चरिमउदया पंचसु हद्दासु दोसु णिहासु । एक्के उदयं पत्ते खीणदुचरिमोत्ति पंचुदया ॥ ( संबंधः कल्प्यतां ) ( ताड. पंक्ति ६ ):-अणुदयतदियं णीचमजोगि दुचरिमम्मि सत्त बोच्छिण्णा । यदनुदयागतवेदनीयक्के द्विचरमदोळ व्युच्छित्तियादुरिंदुदयागतमे सव्व. २५ मक्कु मी प्रकारदिदमुंद पेळवगोत्रक्क योजिसिकोंबुदु ॥ चरमे ( संबंधो न ज्ञायते)। . Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ९७७ षडशंगळुमप्पुवु । उपरतबंधकरोळु चतुःपंचोदयंगळु नवषट्सत्वंगळु चतुश्चतुरुदयसत्वंगळुमप्पुवु । सदृष्टि:- |बं ९ ६ । ४ । ४ । ० । ० ० ई दर्शनावरणत्रिसंयोग उ५ । ४।५ । ४.५ | ४५ | ४५ | ४५ | ४| | स ९ । ९ । ९ । ६ । ९ । ६ ।४। भंगंगळ गुणस्थानदोळ योजिसिद संदृष्टिरचना विशेषमिदु: मि ।सा। मि असं | देश। प्र | अप्र | अ. उ.क्ष.| अनि.उक्ष सू.जाक्ष | उ । क्षी बं।९।९।६।६।६ । ६ । ६ । ६।४।६।४। ४।४ । ४ । ४|० । ०० उ।५ ४/५/४/५ ४५/४/५/४।५४५ ४५।४।५ । ४।५।४।५। ४.५ | ४/५/४।५।४।५।४ स।९।९ | ९ | ९ | ९ | ९ ९ । ९१९ ।९।९।६। ९ । ६ । ९ । ६४ अनंतरं वेदनीयमुमं गोत्रमुमं आयुष्यममं त्रिसंयोगदोळ भंगंगळं विभाजिसि गुणस्थानं. गळोळ योजिसि बळिक्कं मुंदै मोहनीयम पेन्दप दु वेदनीयम पेळ्दपरु : सादासादेक्कदरं बंधुदया होति संभवट्ठाणे । दो सत्ता जोगित्ति य चरिमे उदयागदं सत्तं ॥६३३॥ सातासातैकतरा बंधोदया भवंति संभवस्थाने। सत्वे अयोगिपय्यंतं चरमे उदयागतं सत्त्वं॥ छट्ठोत्ति चारि भंगा दो भंगा होति जाव जोगिजिणे । चउभंगाऽजोगिजिणे ठाणं पडि वेयणीयस्स ॥६३४॥ षष्ठपय्यंतं चतुभंगाः द्वौ भंगो भवंति यावद्योगिजिने । चतुभंगा अयोगिजिने स्थान प्रति वेदनीयस्य । द्वितयं ॥ सांपरायांतं, षोडशक्षपकानिवृत्त्यंतं चोदयस्तथैव, सत्त्वं नव, षोडशक्षपकादुपरि तत्सूक्ष्मसांपरायांतं च उदयस्तथैव सत्त्वं षट् । उपरतबन्धे उदयस्तथैव, सत्त्वं उपशान्ते नव क्षीणद्विचरमांते षट् । चरमे उभयमपि १५ चत्वारि । वेदनीयगोत्रायुस्त्रिसंयोगभंगान् भक्त्वा गुणस्थानेषु संयोज्याग्रे मोहनीयं वक्ष्यामि ॥६३१-६३२॥ अनिवृत्तिकरणके उस भाग पर्यन्त उदय चार या पाँचका है। सत्त्व नौका है। सोलह प्रकृतिके क्षयसे ऊपर सूक्ष्म साम्पराय क्षपक पर्यन्त उदय तो वैसा ही है, सत्त्व छहका है। जिनके दर्शनावरणका बन्ध नहीं है उनके उदय तो चार या पाँचका है। सत्व उपशान्त कषायमें नौ और क्षीणकषायके द्विचरम समय पर्यन्त छहका है । क्षीणकषायके अन्त समयमें २० उदय और सत्व दोनों चार-चारका है। वेदनीय गोत्र और आयुके त्रिसंयोगी भंगोंको विभाग करके गुणस्थानों में उनकी योजना करेंगे। फिर मोहनीयमें कहेंगे ॥६३१-६३२।। |मि. सा.मि. | अ. | दे. प्र. अप्र. अपूर्व. । अनि. । सूक्ष्म. | उ. | क्षी. | | | | | उ. क्ष. | उ. क्ष. उ. क्ष.। । व.| ९ | ९।६।६।६।६।६६४/६५४ ४ | ४ | ४ | ० ० उ. ४५/४५/४५/४५/४/५/४५/४५/४५४५/४५/४५/४५/४।५/४।५।४।५।४ स. ९ | ९| ९| ९| ९ | ९ | ९ | ९| ९ | ९।६।९।६।९।६।४ | Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ܘܕ गो० कर्मकाण्डे सातासातैकतरं सातासातंगळोळ योग्यस्थानकदोळु बंधोदयंगळेकैकंगळप्पुवु । द्विप्रकृतिसत्त्वं सयोगकेवलिपय्र्यंतमप्पुदयोगिकेवलियोळ द्विप्रकृतिसत्वमुदयागतं सत्वमक्कुमंतागुत्तं विरलु षष्ठगुणस्थानपय्र्यंतं चतुब्भंगंगळवु । अप्रमत्तसंयतं मोदल्गोंडु सयोगकेवलिगुणस्थानपय्र्यंतं द्विभंगंगळवु । अयोगकेवलियो चतुब्भंगंगळप्पुवु । वेदनीयस्थानापेक्षयिदं संदृष्टि : --- १५ ९७८ बं उ स्त सा अ सा | अ | सा स २ २ २ स्थानं गळोळक्कु | सा यिल्लि प्रथमचतुभंगंगळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदत्गों डु प्रमत्तसंयतपर्यंतमारुं गुण| अ | मे बोर्ड सातासातबंधं प्रमत्तसंयतपय्यंत सुंद सा अ सा अ | सा २ २ ० ० ०|० सा | अ सा अ २ | २ | सा अ अ ० ० अ सा अ २ २ २ २ | अ । २ दरिदं । अप्रमत्तगुणस्थानं मोदगोंडु सयोगकेवलिजिनरु पय्यंत सातबंधमों वेयपुर्दारदं प्रथम भंगद्वितयमक्कु सा । सा अयोगिजिनरोळ चतुब्भं गंगळ पूर्व ते दोर्ड सातोदयोभयसत्त्वं । १ । सा अ २ २ सातोदय सातसत्त्वं १ | असातोदयोभयसत्त्वं १ । असातोदयासातसत्त्वं १ | मंतु नाल्कु भंगंगळप्पुवु O o * सा | अ * सा । अ । गुणस्थान संदृष्टि : : ० मि | सा | मि अ दे Я अ अ भं । ४ ४ ४ ४ ४ ४ २ २ अ | सू । उ | क्ष स | अ २ । २ २ २ २ ૪ सातासात कतरमेव योग्यस्थाने बन्ध उदयो वा स्यात् । सत्त्वं सयोगांतं द्वे द्वे । अयोगे ते उदयागते, तेन वेदनीयस्य गुणस्थानं प्रति भंगाः षष्ठांतं । सातबन्धोदयोभयसत्त्वं सातबन्धासातोदकोभयसत्त्वं । असातबन्धसातोदयोभयसत्त्वं असातबन्धोदयोभयसत्त्वमिति चत्वारः । उपरि सयोगांतं केवलं सातस्यैव बन्धात् तबन्धतदुदयोभयसत्त्वं तद्बन्धासातोदयो भयसत्त्वमिति द्वो । अयोगे सातोदयोभयसत्त्वं असातोदयोभयसत्त्वं साता और असातामें से एकका ही बन्ध और उदय योग्य स्थानमें होता है किन्तु सत्त्व सयोगी पर्यन्त दोनोंका ही होता है । अयोगीमें जिसका उदय होता है उसीका सत्व होता है । इससे वेदनीयके गुणस्थानों में भंग छठे प्रमत्तपर्यन्त तो साताका बन्ध, साताका उदय, सत्त्व दोनोंका, अथवा साताका बन्ध, असाताका उदय सत्व दोनोंका, अथवा असाताका बन्ध साताका उदय, सत्त्व दोनोंका, अथवा असाताका बन्ध असाताका उदय २० सत्त्व दोनोंका इस प्रकार चार होते हैं। ऊपर सयोगी पर्यन्त केवल साताका ही बन्ध है । इसलिए साताका ही बन्ध, साताका ही उदय और सत्त्व दोनोंका अथवा साताका बन्ध, असाताका उदय, दोनोंका सत्त्व इस तरह दो भंग हैं। अयोगी में बन्धका तो अभाव है । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतरं गोत्र पेपरु : कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णीचुच्चाणेक्कदरं बंधुदया होंति संभवट्ठाणे | दो सत्ता जोगिन्ति य चरिमे उच्चं हवे सत्तं ॥ ६३५ ॥ नीचोच्चयोरेकतरं बंधोदयौ भवतः संभवचस्थाने । द्वे सत्त्वेऽयोगिपर्यंतं चरमे उच्च भवेत्सत्वं ॥ उच्चनीचगोत्रंगळेरडुं बंधसंभविसुव स्थानदोळ उच्चनी चंगळो दो दु बंधोवयंगळप्पु । अयोगिद्विचरमसमयपय्र्यंत मुच्चनो चोभयसस्वमक्कुं । चरमसमयदोळ उच्चैर्गोत्रमोदे सस्वमक्कुं बं | नी | नी उ उ उ | नी | उ उ नी स | २ २ २ बन्ध सा. सा. अ. अ. उ. सा. अ. सा. अ. स. २ २ २ २ उच्चुव्वेन्दितेऊवाउम्मि य णीचमेव सत्तं तु । सेसिगिवियले सयले णीचं च दुगं च सत्तं ॥६३६॥ उच्चोद्वेल्लित तेजोवाय्वोश्च नोचमेव सत्त्वं तु । शेषैकविकले सकले नीचं च द्विकं च १० ब. उ. स. २ २ सत्वं तु ॥ सातोदय सत्त्वमसातोदयसत्त्वमिति चत्वारः ॥६३३ - ६३४ ॥ अथ गोत्रस्याह गोत्रद्वयबन्धसम्भवस्थाने उच्चनीचे कतरमेव बन्धोदयौ स्तः । सत्त्वमयोगिद्विचरमसमय पर्यन्तमुभयं स्यात् । चरमसमये सत्त्वमुच्चमेव ॥ ६३५ ॥ 00 अतः साताका उदय दोनोंका सत्व या असाताका उदय दोनोंका सत्त्व अथवा साताका १५ उदय साताका सत्त्व या असाताका उदय, साताका सत्त्व इस प्रकार चार भंग हैं ।। ६३३-६३४॥ छठे गुणस्थान पर्यन्त भंग ४ सयोगी पर्यन्त भंग २ अयोगीमें भंग ४ सा सा ० सा अ. २ २ नी. नी. उ. नी. उ. उ. २ २ २ उ उ उ उ. नी नी नी 14510 ० नी. उ २ २ आगे गोत्रका कथन करते हैं जहाँ दोनों गोत्रोंके बन्धकी सम्भावना है वहाँ उच्च और नीच में से एकका ही बन्ध और उदय होता है । सत्त्व अयोगी के द्विचरम पर्यन्त दोनोंका है। अन्त समयमें उच्चका ही सत्व है ।। ६३५|| ० उ उ ० ९७९ सा २ ० अ. २ ० सा अ. सा अ. २० Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८० गो० कर्मकाण्डे उच्चग्र्गोत्रमनुल्लनमं माडिद तेजस्कायिक जीवनोळं वायुकायिकजीवनोळं नीचैर्गोत्रमे सत्त्वमक्कुं। तु मत्ते शेपैकेंद्रियविकलेंद्रिय सकलेंद्रियंगळोळ नोचैग्गोत्र सत्त्वमुमुभयसत्त्वमुमक्कुमतदोर्ड: उच्चुव्बेल्लिदतेऊ वाऊ सेसे य वियलसयलेसु । उप्पण्णपढमकाले णीचं एयं हवे सत्तं ॥६३७।। उच्चोल्लिततेजोवायू शेषैकविकलसकलेषत्पन्न प्रथमकाले नीचमेकं भवेत्सत्त्व ॥ उच्चैग्ोत्रमनुद्वेल्लनमं माडिद तेजोवायुकायिक जीवंगळु शेषैकेंद्रियविकलेंद्रिय सकलेंद्रिय जीवंगळोळु जनियिसिद प्रथमकालमंतर्मुहूर्तपय॑तं नोचैर्गोत्रमेकमे सत्वमक्कु-। मल्लिदं मेले उच्चैर्गोत्रमं कट्टिदोडुभयसत्त्वमक्कुम बुदत्थ-। मी भंगंगळ गुणस्थानदो योजिसिदपरु : मिच्छादिगोदभंगा पण चदु तिसु दोण्णि अट्ठठाणेसु । एक्केक्का जोगिजिणे दो भंगा होति णियमेण ॥६३८॥ मिथ्यादृष्टयादिगोत्रभंगाः पंचचतुस्त्रिषु द्वावष्टस्थानेष्वेकैके योगिजिने द्वौ भंगौ भवतो नियमेन ॥ नीचबंधनीचोदयोभयसत्त्व १। नीचबंधोच्चोदयोभयसत्त्व । उच्चबंधोच्चोदयोभयसत्त्व १॥ १५ उच्चबंधनीचोदयोभयसत्त्व १। नीचबंधनीचोदयनीचसत्त्व १-। मितु मिथ्यादृष्टियोळ पंचगोत्र भंगंगळप्पुवु । सासादननोळमी पेळ्द मिथ्यादृष्टिय पंचभंगंगळोळ चरमभंगमं बिटु शेष उच्चोद्वेल्लिततेजोवाय्वोस्तु सत्त्वं नीचमेव स्यात् । तु-पुनः शेषकविकलसकलेन्द्रियेषु सत्त्वं नीचं चोभयं च स्यात् ॥६३६॥ तद्यथा उच्चोद्वेल्लिततेजोवाय्वोस्तदागतशेषकविकलेन्द्रियेषूत्पन्नप्रथमकालान्तमुहूर्ते चैकं नीचमेव सत्त्वं स्यात् । २० उपर्यच्चं बध्नाति तदोभयसत्त्वं स्थादित्यर्थः ॥६३७॥ गोत्रस्य भंगाः गुणस्यानेषु नियमेन मिथ्यादृष्टौ नीचबन्धोदयोभयसत्त्वं । नीचबन्धोच्चोदयोभयसत्त्वं, उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वं, उच्चबन्धनीचोदयोभयसत्वं नीचबन्धोदयसत्वं चेति पंच भवन्ति । सासादने चरमो २५ जिनके उच्चगोत्रकी उद्वेलना हुई है उन तेजकाय, वायुकायमें नीच गोत्रका ही सत्त्व है। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रियके सत्त्व नीचका अथवा दोनोंका है ॥६३६।। उच्चगोत्रकी उद्वेलना करनेवाले तेजकाय, वायुकायमें एक नीच गोत्रका ही सत्त्व है। वे मरकर जहां उत्पन्न होते हैं उन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय तियंचोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम अन्तमुहूर्त में एक नीचका ही सत्व होता है। आगे उच्चको बाँधनेपर दोनोंका सत्त्व होता है ॥६३७॥ नियमसे गुणस्थानों में गोत्रके भंग इस प्रकार हैं मिथ्यादृष्टि में नीचका बन्ध, नीचका उदय, दोनोंका सत्त्व, १ नीचका बन्ध, उच्चका उदय, सत्त्व दोनोंका २, उच्चका बन्ध, उच्चका उदय, सत्त्व दोनोंका ३, उच्चका बन्ध, नीचका उदय, सत्त्व दोनोंका ४, अथवा नीचका ही बन्ध उदय सत्त्व ५, इस तरह पाँच भंग हैं। सासादनमें नीचका बन्ध उदय सत्वरूप अन्तिम भंग नहीं है, क्योंकि सासादन ३० Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतत्त्वप्रदीपिका ९८१ चतुर्भगंगळप्पुर्व ते दोर्ड सासादनं तेजोवायुगळोळ पुटुवुदुमिल्लुच्चैर्गोत्रोद्वेल्लनमुं घटियिसु. दिल्लप्पुरिदं । मिश्रासंयतदेशसंयतरुगळोळ द्विभंगंगळप्पुववाउवे दोडे उच्चबंधोच्चोदयोभयसत्त्व १। उच्चबंधनीचोदयोभयसत्त्व १। यितु द्विभंगंगळक्कुं। प्रमत्तसंयतं मोदल्गोंडु सयोगकेवलि चरमसमयपयंतमें टु गुणस्थानंगळोळ उच्चबंधोच्चोदयोभयसत्त्वं ओदे भंगमक्कुमदेते दोडे सूक्ष्मसांपरायपय्यंतमुच्चबंधोच्चोदयोभयसत्त्वमिल्लं मेले सयोगिपथ्यंतमुच्चोदयोभयसत्त्वमुर्मेदितु ५ अयोगिकेवलिगुणस्थानदोळु उपरतबंधरप्पुरिदं उच्चोदयोभयसत्त्व-१ । उच्चोदयोच्चसत्वमितेरडु भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि :|मि सा | मि | अ दे प्रअ | अ अ सू । उक्षी | स अ | |३४|२|२|२१||१|TR | अनंतरमायुष्यक्के त्रयोदश गाथासूत्रं गळिवं पेळदपरु : सुरणिरया णरतिरियं छम्मासव सिट्ठगे सगीउस्स । णरतिरि । सव्वाउं तिभागसेसम्मि उक्कस्सा ॥६३९॥ सुरनारका नरतिय्यंचौ षण्मासावशिष्टे स्वकायुष्ये। नरतिय्यंचः सर्वायूंषि विभागशेषे उत्कृष्टात्।। नेति चत्वारः तस्य तेजोद्वयेऽनुत्पत्तेरुच्चानुद्वेल्लनात । मिश्रादित्रये उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वं उच्चबन्धनीचोदयोभयसत्त्वं चेति द्वौ द्वौ। प्रमत्तादिसूक्ष्मसाम्परायान्तमुच्चबन्धोदयोभयसत्त्वमित्येकः । उपरि सयोगान्तमच्चो. दयोभयसत्त्वमित्येकः । अयोगिजिने उच्चोदयोभयसत्त्वं उच्चोदयसत्त्वं चेति द्वौ ॥६३८॥ अथायुषस्त्रयोदश- १५ गाथासूत्रैराह मरकर तेजकाय, वायुकायमें उत्पन्न नहीं होता और न वहां उच्चगोत्रकी उद्वेलना ही होती है। अतः चार ही भंग होते हैं। मिश्र आदि तीनमें उच्चका बन्ध, उच्चका उदय, दोनोंका सत्त्व अथवा उच्चका बन्ध, नीचका उदय, दोनोंका सत्त्व ये दो-दो भंग हैं । प्रमत्तसे सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त उच्चका बन्ध, उच्चका उदय, दोनोंका सत्त्व यह एक ही भंग है। ऊपर २० सयोगी पर्यन्त बन्धका अभाव है अतः उच्चका उदय, सत्त्व दोनोंका ऐसा एक ही भंग है। अयोगीमें उच्चका उदय, दोनोंका सत्त्व और उच्चका ही उदय सत्त्व ये दो भंग हैं ॥६३८।। ___ गुणस्थानों में गोत्रकर्म के भंगका यन्त्र | मिथ्यादृष्टि | सासादन मिश्रा. तीन प्रमत्तसे सू. सयो. अयोगी ब. नी. नी.उ उ नी नी. नी./उ उ उ उ उ . | 0 उ. नी. उ. उ नी.नी नी. उ. उ नी. उ_ नी. स./२२ २ २ नी २ २२२ | २। २ । आयुके भंग तेरह गाथाओंसे कहते हैं la | Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे सुररुं नारकरुमुत्कृष्टदिदं स्वभुज्यमानानुष्यं षण्मासावशिमागतं विरल परभवामुांगलं नरतिर्य्यगायुष्यंगळं कट्टुवरु | नररुं तिय्यंचरुं भुज्यमानायुष्यमुत्कृष्टदिदं त्रिभागशेषमागतं विरलु परभवायुष्यंगळ नाल्कुमं कट्टुवरु । सर्व्वायुष्यंग बंधयोग्यं गळवे बुदत्थं । भोगमा देवाउं छम्मासवट्ठगे पद्धति । इगिविगला णरतिरियं तेउदुगा सत्तमा तिरियं ॥ ६४० ॥ भोग भौमा देवायुः षण्मासावशिष्टे प्रबधनंति । एकविकला: नरतिर्य्यक् तेजोद्वितयाः सप्तमास्तिक् ॥ भोगभूमरुत्कृष्टदिदं भुज्यमानायुः षण्मासावशिष्टमादागळु देवायुष्यमनोंदने कट्टुवरु | एकेंद्रियंगळु विकलेंद्रियंगळं नरतिर्य्यगायुष्यमं कट्टुवरु | तेजस्कायिकंगळं वायुकायिकंगळं १० सप्तमपृथ्विजरुं तिर्य्यगायुष्यमने कट्टुवरु ॥ इंतायुबंधप्रकारं पेळल्प द नंतर मुदय सत्वप्रका रंगळं पेळ्दपरु : १५ ९८२ ३० सगसगगदीणमाऊ उदेदि बंधे उदिण्णगेण समं । दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं || ६४१॥ स्वस्वगतीनामायुरुदेति बंधे उदीर्णकेन समं । द्वे सत्वे खल्वबंधे एकमुदयागतं सत्त्वं ॥ नारकतिग्मनुष्य दिविजरुगळ स्वस्वगतिगळायुष्यमे नियर्मादिदमुदधिसुगुं । परभवायुबंधमागुत्तं विरल उदयागतायुष्यसहितमागि आयुद्वितयं सत्त्वमक्कुं । परभवा युब्बंध मिल्ल दिरुत्तिरलु उदयागतमायुष्यमो दे सत्वमक्कु - परभवायुः स्वभुज्यमानायुष्युत्कृष्टेन षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं तैरश्चं च बध्नन्ति तद्धे स्युरित्यर्थः । नरतिर्यंचस्त्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि । भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्टे दैवं एकविकलेन्द्रिया २० नारं तैरश्चं च । तेजोवायवः सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव । ६३९ - ६४० ॥ एवमायुर्बन्धस्य प्रकारमुक्त्वोदय सत्वयोराह - नारकादीनामेकं स्वस्वगत्यायुरेवोदेति सत्त्वं परभवायुर्बन्धे खलूदयागतेन समं द्वे स्तः । अवद्धायुष्ये सत्त्वमेकमुदयागतमेव ॥६४१॥ जिस आयुको वर्तमान में भोगते हैं उस भुज्यमान आयुके उत्कृष्टसे छह मास शेष २५ रहनेपर देव और नारकी परभव सम्बन्धी मनुष्यायु या तियंचायुको बाँधते हैं अर्थात् उस कालमें उस आयुको बाँधने के योग्य होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच भुज्यमान आयुका तीसरा भाग शेष रहनेपर चारों आयुको बाँधते हैं । भोगभूमिया छह मास शेष रहनेपर देवायुको हो बाँधते हैं । एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय मनुष्यायु या तियंचायुको ही बांधते हैं। तेजकायिक वायुकायिक और सातवें नरकके नारकी तिचायुको ही बाँधते हैं ।। ६३९-६४०॥ इस प्रकार आयुबन्धके प्रकारको कहकर उदय और सत्त्वको कहते हैं नारी आदि अपनी-अपनी गति सम्बन्धी ही एक आयुका उदय होता है । सत्त्व परभवकी आयुका बन्ध होनेपर उद्यागत आयुके साथ दोका होता है । एक जो भोग रहे हैं और एक जो बाँधी है । किन्तु जिसने परभवकी आयु नहीं बांधी है उसके एक भुज्यमान आयुका ही सत्त्व होता है || ६४१ || Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका एक्के एक्कं आऊ एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे । अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसेव सब्वत्थ ॥६४२॥ एकस्मिन्नेकमायुरेकभवे बंधमेति योग्यपदे । अष्टवारान्वा तत्रापि त्रिभागावशेष एव सर्वत्र॥ एकस्मिन् एकजीवनोळ एकमायुः ओंदायुष्यं एकभवे ओदु भवदोळु योग्यपदे बंधयोग्य- ५ कालंगळोळ अष्टवारान्वा एंटु वारंगळनुमेणु बंधमेति बंधमनेटदुगुं। तत्रापि आ बंधयोग्यस्थान कंगळेटरोळ सर्वत्र एल्ले डेयोळं त्रिभागशेषे एव त्रिभागशेषमागुत्तं विरले बंधमनेय्दुगुं॥ इगिवारं वज्जित्ता वड्ढी हाणी अवट्ठिदं होदि । ओवट्टणघादो पुण परिणामवसेण जीवाणं ॥६४३॥ एकवारं वर्जयित्वा वृद्धिहान्यवस्थितं भवति । अपवर्तनघातं पुनः परिणामवशेन १० जीवानां ॥ एकवारं वजयित्वा प्रथमापकर्षणायुबंधमं वजिसि शेषापकर्षणंगळोळ वृद्धिहान्यवस्थितं भवति बध्यमानायुष्य वृद्धिहान्यवस्थितमक्कु-। मते दोडे ओवजीवं प्रथमापकर्षणदोळे. सागरोपमायुः स्थितियं कट्टिदातं द्वितीयवारदोळा स्थितियं नोडलधिकम मेणु हीनमं मेणवस्थितमं कटुगुमप्पुरिदमल्लि द्वितीयवारदोळ पूर्वमं नोडलधिकम कट्टिदनादोडा द्वितीयदोळु कट्टिदधिः १५ कस्थितिये प्रधानमक्कुं। पूर्वहीनस्थितियप्रधानमक्कुं। द्वितीयादिस्थितियं नोडलु प्रथमवारं कट्टिद स्थितियधिकमादोडे द्वितीयादिवारंगळ होनस्थितियप्रधानमक्कुम दरियल्पडुगुं। पुनः मत्तमायुम्बंधकनप्प जीवन परिणामव वशदिवं बंधमाद परभवायुष्यक्कपवर्त्तनधातमक्कुमपवर्तनघातमें ते दोर्ड बध्यमानस्यापवर्तनमपवर्तनघातः । उदीयमानस्यापवर्तनं कवलोघातः एंदितु एकजीव एकमेवायुः एकभवे योग्यकालेष्वष्टवारमेव बध्नाति । तत्र सर्वत्रापि त्रिभागशेष एव ॥६४२॥ २० अपकर्षेषु मध्ये प्रथमवारं वजित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धि निरवस्थितिर्वा भवति । यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे बद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं । अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं । पुनः आयुर्बन्धं कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन बध्यमानस्यायुषोऽपवर्तनमपि भवति तदेवापवर्तनधात इत्युच्यते ____एक जीव एक भवमें योग्यकालमें एक ही आयुको बाँधता है। योग्यकालमें भी आठ बार हीब बांधता है। तथा सर्वत्र तीसरा भाग शेष रहनेपर ही बाँधता है। ये त्रिभाग आठ २५ बार होते हैं इसीसे आयुबन्ध भी आठ बार कहा है ॥६४२।। आठ अपकर्षों में प्रथम बारको छोड़कर द्वितीयादि बारमें प्रथम बारमें बाँधी हुई आयुकी स्थितिमें या तो वृद्धि होती है या हानि होती है या अवस्थिति रहती है। यदि वृद्धि होती है तो द्वितीय आदि बार में बांधी गयी अधिक स्थितिकी ही प्रधानता रहती है । यदि हानि होती है तो पहले बांधी हुई अधिक स्थितिकी ही प्रधानता रहती है। पुनः आयुबन्ध ३० करनेवाले जीवोंके परिणामोंके वश अपवर्तन भी होता है। अपवर्तनका अर्थ है घटना। इससे उसे अपवर्तनघात कहते हैं। उदय प्राप्त आयुके अपवर्तनको ही कदलीघात कहते हैं। क-१२४ | Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे पेळपट्टुदरिदं । त्रिभागशेषमागुत्तं विरलायुब्बंधम माळकुम बेकांत मिल्लों दुदु बंधप्रायोग्यमक्कु रिपडुगुं ॥ ९८४ एवमबंधे बंधे उवरदबंधेवि होंति भंगा हु । raateese भवे एक्काउं पडि तये णियमा ! | ६४४ || एवमबंधे बंधे उपरतबंधेपि भवंति भंगाः खलु । एकस्यैकस्मिन्भवे एकायुः प्रति त्रयो नियमात् ॥ यिती प्रकारदिदं आयुब्बंधदोळमबंधदोलमुपरतबंधदोळं स्फुटमागि भंगंगळप्पुवु । एकस्य ओgarh एकस्मिन् भवे ओंदु भवदोळु एकायुः प्रति ओदायुष्य मं कुरुत्तु त्रयो भंगाः नियमात् नियर्मादिदं मूरु भंगंगवु । अंतागुत्तं विरल त्रैराशिकं माडल्पडुगुमर्व तें दोडे नरकदेवगतियों१० दोंदायुष्यक्के अबंध बंध उपरतबंधमेंब मूरुं भंगंगलांगुत्तं विरलेरडायुष्यक्के नितु भंगंगळपुर्व त्रैराशिकदिदं प्र १ । फ ३ । इ २ | बंद लब्धं प्रत्येकमारारु भंगंगळप्पुवु । नरक ६ । सुर ६ । तिग्मनुष्यगतिगोलो दो दायुष्यंगळगे मूरु मूरु भंगंगळागुत्तं विरलु नाल्कु नात्कायुगनितु गंगळपूर्व दितु त्रैराशिकं माडल्पडुत्तिरलु प्र १ । फ ३ । इ४ | बंद लब्ध भंगंगळु तिग्मनुष्यगतिगळ प्रत्येकं पन्नेरडु पन्नरडु भंगंगळप्पु । ति १२ । म १२ । यितु नरकदेव१५ गतिगळोळ बंधयोग्यंगळप्प तिग्मनुष्यायुष्यंगळगं । तिय्यग्मनुष्यगतिगळोळ बंधयोग्यंगळप्प नाकु नाल्कायुष्यंगळगं भंगसंदृष्टि रचने : नरकगति बं | ० ति । उप उन न न स | १ २ २ म उ ० न न | न १ | २ | २ | तिथ्यग्गति दे उ ० | ति | उ |० म उ ति | ति | ति | ति | ति | ति | ति | ति| ति| ति | ति|ति १ | २ | २ | १| २ | २|१ २ | २ | १|२| २ ० | न | उ उदीयमानायुपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिधानात् । त्रिभागशेषे त्रिभागशेषे सत्यायुर्वघ्नात्येकांतो नास्ति तत्र तत्र योग्यतास्तीति ज्ञातव्यं ||६४३ || एवमुक्तरीत्यायुर्बन्धे अबन्धे उपरतबन्धे च स्फुटं एकजीवस्यैकभवे एकायुः प्रति त्रयो भंगा नियमा२० द्भवन्ति ॥ ६४४॥ o तथा प्रत्येक तीसरा भाग शेष रहनेपर आयुका बन्ध करता ही है ऐसा एकान्त नहीं है तीसरा भाग शेष रहनेपर आयुबन्धकी योग्यता होती है। उस कालमें आयु बँधे, न भी बँधे । किन्तु विभाग के सिवाय अन्यत्र आयुबन्ध नहीं होता, यह नियम है || ६४३ || इस तरह पूर्वोक्त रीति के अनुसार एक जीवके एक भत्रमें एक आयुके नियमसे तीन २५ भंग (भेद ) होते हैं—बन्ध, अबन्ध, उपरतबन्ध । वर्तमान में जहाँ परभव सम्बन्धी आगामी आयुका बन्ध होता है और एक मुज्यमान तथा एक बध्यमान इस तरह दो आयु पाई जाती है उसे बन्ध कहते हैं। जो परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध न पहले हुआ और न वर्तमान में हो रहा है वहाँ अबन्ध है । वहाँ एक भुज्यमान आयु ही पायी जाती है । जहाँ परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध पूर्व में हो चुका है, वर्तमान में नहीं हो रहा वहाँ पूर्वबद्ध और 1 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका | देवगति . म। उ मनुष्यगति ० उ०ति | उ०म० दे| उति उ मम ममम मम मममम मदेश दे दे दे। दे। वे | १ | २ | २| १ | २ | २ | १|२|२|१|२२|१| २ | २ | १ | २ | २| एक्काउस्स तिभंगा संभवआऊहि ताडिदे णाणा। जीवे इगि भवभंगा रूऊण गुणूणमसरिच्छे ॥६४५॥ एकायुषस्त्रिभंगाः संभवायुभिस्ताडिते नानाजीवे एक भव भंगा रूपोन गुणोनमसदृशे ॥ ई रचनेयोनोंददायुष्यंगळगे मूरु मूरु भंगंगळप्पुरिदं तत्तद्गतिसंभवायुष्यंगळिदं गुणिसुत्तं विरलु नानाजीवदोळेकभवभंगंगळ संख्येगळप्पुववरोळ सवृशभंगापेक्षयोळ रूपोनगुणकारोन ५ प्रमित भंगंगळप्पुर्व ते दोडे नारकरुगळ्गे ओंदु तिर्यगायुष्यबंधक्के मूर भंगंगळागुत्तं विरला गतियोळु बंधसंभवायुष्यंगळु तिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळे रडेयप्पुरिदमररिदं गुणिसिदो ३ । २। डारु भंगंगळप्पुवु ६। अवरोळपुनरुक्त भंगंगळे नित दोडे आ सर्व गंगळोळु रूपोन गुणोन ६-२। प्रमितंगळग्दप्पुवु । ५। तिर्यग्गतियोल त्रिभंगमं संभवायुष्यंगळु नाकरिवं गुणिसिवोडे ३।४। पन्नेरडु भंगंगळप्पुवु । १२ । मनुष्यगतियोळमते पन्नेरडु भंगंगळप्पुववरोळु १२। रूपोन १० गुणोनंगळादोडे-१२।४ १२ । ४ तिर्यग्गतियोळं मनुष्यगतियोळमसवृशभंगंगळो भत्तु मो भत्तमप्पुवु ।९।९॥ देवगतियोळु त्रिभंगंगळं संभवायुष्यंगाळदं गुणिसिदो ३।२। डारु .० भंगळप्पु ६ ववरोळ रूपोनगुणकार प्रमितंगळ २। कळेदोर्ड पंचभंगंगळप्पुवु । ५ । संदृष्टि : _ 0 ते एकैकायुषस्त्रयस्त्रयो भंगा विवक्षितगतो बध्यमानत्वेन सम्भवदायुःसंख्यया गुण्यन्ते तदा नानाजीवेष्वेकैकभवभंगा भवन्ति । देवनारकगत्योः प्रत्येक षट् । मरतिर्यग्गस्योः प्रत्येकं द्वादश द्वादशामो । असद- १५ शेष्वपुनरुत्तेषु विवक्षितेषु रूपोनेन सम्भवदायुःसंख्यागुणकारेणोना भवन्ति । देवनारकगत्योः प्रत्येक पंच पंच । मुज्यमान दो आयुकी सत्ता है उसे उपरतबन्ध कहते हैं। इस प्रकार एक-एक आयुके तीन भंग होते हैं ॥६४४॥ इन एक-एक आयुके तीन-तीन भंगोंको विवक्षित गतिमें जितनी आगामी आयुका बन्ध सम्भव है उनकी संख्यासे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने नाना जीवोंको अपेक्षा २० एक-एक भव सम्बन्धी भंग होते हैं। सो देव और नरकगतिमें तिर्यच और मनुष्य दो ही आयका बन्ध सम्भव होनेसे दोसे तीन भंगोंको गुणा करनेपर छह-छह भंग होते है । मनुष्य और तियश्चगतिमें चारों आयका बन्ध सम्भव है अतः चारसे तीन भंगोंको गुणा करनेपर बारह-बारह भंग होते हैं। असदृश अर्थात् अपुनरुक्त भंगोंकी विवक्षा होनेपर बध्यमान आयुकी संख्यारूप गुणकारमें एक घटानेपर जो प्रमाण रहे उतना पूर्वोक्त भंगोंमेंसे घटानेपर २५ अपुनरुक्त भंग होते हैं। सो देवगति नरकगतिमें बध्यमान आयु दो गुणकार था उसमें एक Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ गो० कर्मकाण्डे ति दे १२ । ९ | १२ । ९६१५ अनंतर मसदृशभंगसंख्येगळं नरकादिगतिगतिगळोळ पेल्दा भंगंगळं गुणस्थानदोळ योजिसिदपरु : १० ९८६ ना पुन । अपु. ६।५ म पण णव णव पण भंगा आउचउक्केसु होंति मिच्छमि । णिरयाउबंध भंगेणूणा ते चैव विदियगुणे ॥ ६४६ || पंचनव नवपंचभंगा आयुश्चतुर्षु भवंति मिथ्यादृष्टौ । नरकायुब्बंधभंगेनोनास्ते चैव द्वितीय गुणे ॥ नरतिर्यग्गत्योर्नव नव ॥ ६४५ ॥ घटनेपर एक रहा। पूर्वोक्त छह-छह भंगों में से एक-एक घटानेपर पाँच-पांच अपुनरुक्त भंग होते हैं । इसी प्रकार मनुष्यगति और तिर्यञ्जगति में नौ-नौ भंग होते हैं । विशेषार्थ — नरकगति में बन्ध एक मनुष्यायु, सत्ता दो मनुष्यायु नरकायु, अथवा बन्ध एक तियंचायु, उदय एक नरकायु, सत्ता दो नरकायु तिर्यंचायु, इस तरह दो बन्धकी अपेक्षा भंग हैं । इसी प्रकार देवगतिमें नरकायुकी जगह देवायु कहना । अबन्धकी अपेक्षा मनुष्यायु तिचायुका बन्ध न होनेसे दो भंग हैं किन्तु दोनों समान हैं क्योंकि दोनों में बन्धका अभाव, उदय अपनी भुज्यमान आयु, सत्ता एक अपनी मुज्यमान आयु ये दो भंग १५ होते हैं । अतः समान होनेसे दोनोंमें एक लिया । उपरतबन्धकी अपेक्षा पूर्व में मनुष्यायु या तिचायुका बन्ध हुआ । उसकी अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं। दोनोंमें बन्धका अभाव, उदय एक अपनी मुज्यमान आयु, सत्ता एक भंगमें अपनी मुज्यमान आयु और मनुष्यायु, दूसरे भंग में अपनी मुज्यमान आयु और तियंचायु इस प्रकार दो भंग हुए। इस प्रकार देव और नारकियों में पाँच-पांच अपुनरुक्त भंग होते हैं । इसी प्रकार मनुष्यगति और २० तियंचगति में बध्यमान आयुके प्रमाणरूप चार गुणकार हैं । उनमें एक घटानेपर तीन रहे । सो पूर्वोक्त बारह-बारह भंगोंमें तीन-तीन घटानेपर नौ-नौ अपुनरुक्त भंग होते हैं । उनमें आयुबन्धकी अपेक्षा नरक तिथंच मनुष्य देवकी आयुके बन्धरूप चार भंग हैं । उनमें से बन्ध तो क्रमसे नरक तिथंच मनुष्य देव आयुका जानना । उदय तिर्यंचगति में तियंचायुका और मनुष्यगति में मनुष्यायुका जानना । सत्ता एक भुज्यमान आयु और एक बध्यमान २५ आयु इस तरह दो-दोकी जानना। उनमें भी जो आयु मुज्यमान हुई वही बध्यमान हो तो वहाँ एक आयुकी ही सत्ता होती है । ऐसे भंग चार हैं। आयुके अबन्ध में चारों आयुका बन्ध नहीं, इस अपेक्षा चार भंग हुए। परन्तु ये चारों समान हैं; क्योंकि सबों में बन्धका अभाव, उदय तथा सत्ता अपनी मुज्यमान आयु एक । अतः चारों में से एक लिया । उपरत बन्धका अभाव, उदय व सत्ता जैसे बन्धकी अपेक्षा कहे वैसे ही जानना । इस प्रकार ३० चार भंग हैं । इस प्रकार मनुष्य और तियंच में नौ-नौ भंग होते हैं ||६४५॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अपुनरुक्तभंगंगळु नरकादिचतुग्र्गतिगळोळु क्रर्मादिदं पंच नव नव पंच प्रमितंगळप्पुववनितुं मिथ्यादृष्टियोवु । मि ।५।९।९।५ । ई मिथ्यादृष्टिय भंगंगळोळु नरकायुबंधभंगंगळं कळेदोडे आ भंगंगळु सासादननोळप्पुवु । सा ५। ८। ८।५ ॥ सव्वाउबंधभंगेणूणा मिस्सम्मि अयदसुरणिरये । रतिरिये तिरियाऊ तिन्हा उगबंधभंगूणा || ६४७॥ सर्वायुध भंगेनोनाः मिश्र असंयतसुरनारके नरतिरश्चि तिर्य्यगाथुस्त्रितया युब्बंधगोनाः ॥ मिश्रगुणस्थानदो सर्व्वायुब्बंधभंगरहित भंगंगळप्पूवु । मिश्र । ३ । ५ । ५ । ३ ॥ सुरनारकासंयतरोळं नरतिर्य्यगसंयतरोळं क्रर्मादिदं तिर्य्यगायुब्बंधभंगंगळु नरतिग्मतुष्यायुष्यबंधभंगंगळ रहितमाद भंगंगळप्पुवेक 'दोडे 'उवरिमछण्हं च छिदी सासणसम्मे हवे नियमा' १० ये दितु तिर्य्यग्मनुष्यसासादननोळे व्युच्छित्तियादुवप्युदरिदं । मिथ्यादृष्टियोळ नरकायुष्यं निदुदु सासादननोळु सुरनरकगतिजरोलु तिर्घ्यगायुष्यमुं तिर्घ्यरमनुष्यगतिजरुगळपेक्षेयिदं मनुष्यतिगायुष्यंगळं व्युच्छित्तियादुवप्पुदरिदं अबंधायुग्भंगमो दोढुं तिर्य्यगायुरूपरतभंगमों दोढुं मनुष्याति म युब्बंधोपरतभंगंगळे रर्डरडुमंतु नालकुनालकु भंगंगळप्पुवु । ना । सु । असं । ४ । ० । ० ४ । तिय्यंग्मनुष्यासंयतनोळ अबंधायुष्य भंगमों दोढुं नरकायुष्योपरतभंगमों दो दु तिर्य्यगायुष्योपरत - १५ बंगद मनुष्यायुष्योपरतबंधभंगमों दो दु देवायुष्य बंधोपरतभंगंगळे रडेरडुमंताशरु भंगंग ० न ळवु । ० । ६ । ६ । । कूडि असंयतनास्त्रिसंयोग भंगंगळ संदृष्टि :- ४ । ६ । ६ । ४॥ ९८७ ० ते असदृशभंगा गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टौ नरकादिगतिषु क्रमेण पंच नव नव पंच भवन्ति । सासादने ते नरकायुर्बन्ध भंगेनोनाः पंचाष्टाष्टपंच भवन्ति ॥ ६४६॥ मिश्र ते सर्वायुर्वन्त्रभंगे नोनास्त्रयः पंव पंच त्रयो भवन्ति । असंयते सुरनारकयोस्तिर्यगायुर्वन्ध भंगेनोना- २० श्चत्वारश्चत्वारः तयोस्तस्य सासादने छेदात् । नरतिरश्चोस्तु नरकतिर्यग्मनुष्यायुबन्धभंगेनोनाः षट् षट् तयोर्नायुबन्धस्य मिथ्यादृष्टी, नरतिर्यगायुबन्धयोः सासादने च छेदात् ||६४७ ॥ अपुनरुक्त भंग मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें नरक आदि गतियों में क्रमसे पांच नौ-नौ पाँच जानना । दूसरे सासादन गुणस्थान में मनुष्य तिर्यंच में आयुबन्धकी अपेक्षा जो चार भंग कहे थे उनमें से नरकायुक्का बन्धरूप भंग न होनेसे नरकादि गतिमें क्रमसे पाँच आठ- २५ आठ पाँच भंग होते हैं ||६४६ || मिश्र गुणस्थान में जो आयुबन्धकी अपेक्षा भंग कहे गतियों में क्रमसे तीन, पाँच, पाँच, तीन भंग होते हैं । आयुबन्धकी अपेक्षा तियंवायुका बन्धरूप भंग नहीं है तिर्यवायुकी बन्धव्युच्छित्ति सासादन में हो जाती है । तथा मनुष्यगति तियंचगतिमें ३० आयुबन्धकी अपेक्षा नरक तियंच मनुष्यायुके बन्धरूप तीन भंग नहीं हैं । अतः छह-छह थे वे सब घटानेपर नरकादि असंयत में देवगति नरकगति में अतः चार भंग हैं क्योंकि Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण् देसणरे तिरिये तिय दिय भंगा होंति छट्टुसत्तमगे । तियभंगा उवसमगे दो दो खवगेसु एक्केक्को || ६४८ || देशसंयतनरे तिरश्चि त्रयः त्रयो भंगा भवंति षष्ठे सप्तमे । त्रि त्रिभंगा उपशमकेषु द्वौ द्वौ क्षपकेष्वेको भंगः ॥ ९८८ मनुष्यदेशसंयतनोळु अबंधायुब्भंगमों दु देवायुब्बंधोपरतभंगद्वयमुमंतु त्रिभंगंगळवु । म । देश । ० । ० । ३ । । तिय्यंच देशसंयतनोळु अबंधायुब्भंगमोंदु देवायुब्बंधो परतभंगद्वयमुमंतु त्रिभंगंगळवु । ति । देश । ० । ३ । ००। कूडि देशसंयतंगें । दे | ० | ३ | ३|०॥ षष्ठमोळं सप्तमनोळं देवायुरबंध बंधोपरत में ब मूरु नूरुं भंगंगळप्पुवु । प्र । ० । ० । ३ । ० । अ प्र । ० । ० । ३ । ० । उपशमकरोळ प्रत्येकं देवायुरबंधोपरतबंधभेददेरडे रडुं भंगंगळवु । अ । १० अ । सू । उ । ० । ० ।२।० ॥ क्षपकरोळु देवायुरबंधभंग मेकैकमेयक्कुं । क्षप । अ । अ । सू । क्षी । ० । ० । १ । ० । सर्व्वं संदृष्टि : मि । ५ । ९ । ९ । ५ । सा । ५ । ८ । ८ । ५ । मि । ३ । ५ । ५ । ३ । अ । ४ । ६ । ६ । ४ । दे । ० । ३।३।० । प्र०।०३।० । अ । ० ।। ३।० । अ । उ । ० । ० । २१० । क्ष । ० ॥ ० ॥ १ ॥ । अनि उ ।०।०।२।० । क्ष ० । १ । ० । सु । उ । ० । ० । २ । ० ॥ क्ष । ० । ० । १ । ० । उप । ० । ० । २ । ० ॥ क्षी । ० । १५० । १ । ० ॥ सयो । ० । ० । १ । ० ॥ अयो । ० । ० । १ ॥ ० ॥ : अनंतरं मिथ्यादृष्टद्याविगुणस्थानंगळोळु सर्व्वायुब्भंग युतियं पेदपरु : अड छन्वीसं सोलस वीसं छत्तिगतिगं च चदुसु दुगं । असरिस भंगा तत्तो अजोगिअंतेसु एक्केक्को | ६४९।। षड्विंशतिः षोडश विंशतिः षट्त्रिकत्रिकं च चतुर्षु द्विकं । असदृशभंगास्ततोऽयोग्यं २० तेष्वेकैकः ॥ देश संयते तिर्यग्मनुष्ययोरेव देवायुरबन्धबन्धोपरतजन्यभंगास्त्रयस्त्रयः । षष्ठे सप्तमे च त एव त्रयस्त्रयः उपशमकेषु देवायुरवन्धोपरतबन्धो द्वौ द्वो । क्षपकेष्वायुरबन्धभंग एकैकः ॥ ६४८ || अथ गुणस्थानेषु सवय बंन्धभंगयुतिमाह — भंग हैं। क्योंकि नरकायुके बन्धका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें और मनुष्यायु तियंचायुके २५ बन्धका सासादनमें ही व्युच्छेद हो जाता है ||६४७|| देशसंयत में तिर्यंच और मनुष्यों में देवायुके अबन्ध, बन्ध और उपरतबन्धकी अपेक्षा तीन-तीन भंग होते हैं। छठे और सातवें गुणस्थानमें मनुष्यगति में देवायुके ही बन्ध अबन्ध और उपरतबन्धकी अपेक्षा तीन-तीन भंग होते हैं । उपशमश्रेणि में देवायुका बन्ध भी नहीं है । अतः देवायुके अबन्ध और उपरतबन्धकी अपेक्षा दो-दो भंग हैं । क्षपकश्रेणिमें उपरत३० बन्ध भी नहीं है । अत: अबन्धकी अपेक्षा एक-एक ही भंग है || ६४८|| आगे गुणस्थानों में सब आयुबन्धके भंगोंका जोड़ कहते हैं Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९८९ मिथ्यादृष्टिसासावनरुगळोळ क्रर्मादिदमष्टाविंशतियुं षड्वंशतियुमप्वु । मिश्रनोळ षोड्श प्रमितंगळमवु । असंयतनोळु विशति भंगंगळप्पुवु । देशसंयतनोळ षड्भंगंगळवु । प्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळु प्रत्येकं मूरु मूरु भंगंग ळप्पुवु । उपशमकचतुष्टयदो प्रत्येकर्म रर्ड रडु भंगंगळप्पुवु। ई भंगंगळिनितुमसदृशभंगंगळे यवु । मेलेल्र्लर्डयोळ मेकैकभंगमेयक्कुं । संदृष्टिमि २८ । सा २६ । मि १६ । अ २० | दे ६ । प्र ३ । अ ३ । अ २ । १ । अ २।१। सू २ । १ । उ २ । क्षी १ । स १ । अ ॥ १ ॥ अनंतरं वेदनीयगोत्रायुष्कम्मंगळ मिथ्यादृष्टघादिगुणस्थानंगळोळु सव्र्वभंगयुतियं पेदपरु : बादलं पणुवीसं सोलस अधियं सयं च वेयणिये । गोदे आउम्मि हवे मिच्छादिअजोगिणो भंगा ॥ ६५० ॥ द्विचत्वारिंशत्पंचविशतिः षोडशाधिकशतं च वेदनीये । गोत्रे आयुषि भवेत् मिथ्यादृष्टचाद्य- १० योगिनां भंगाः ॥ मिथ्यादृष्टधावियागि अयोगिकेवलि गुणस्थानावसानमाद सर्व्वगुणस्थानंगळोळु वेदनीयत्रिसंयोग भंगंगळ द्विचत्वारिंशत्प्रमितंगळप्पुवु । ४२ । गोत्रदोळ पंचविशतिप्रमितंगळवु । गो २५ । आयुष्यदो षोडशाधिक शतप्रमितंगळप्पुवु । आ । ११६ ॥ अनंतरं पूर्वोक्तवेवनीयगोत्रायुष्यंगळ सामान्यमूल भंगंगळ संख्येयं वेदपरु :वेयणिये अडभंगा गोदे सत्तेव होंति भंगा हु । पण जव जव पण भंगा आउचउक्केसु विसरिच्छा ||६५१ ॥ वेदनीयेऽष्टभंगा गोत्रे समैव भवंति भंगाः खलु । पंच नव नव पंच भंगा: आयुश्चतुर्षु विसदृशाः ॥ ५ मिलित्वा असदृशभंगा मिथ्या दृष्टावष्टाविंशतिः । सासादने षड्विंशतिः, मिश्रे षोडश । असंयते २० विशतिः । देशसंयते षट् । प्रमत्ताप्रमत्तयोस्त्रयस्त्रयः । उपशमकेषु द्वौ द्वौ । क्षपकेष्वेकैकः ॥ ६४९ ।। अथ वेदनोयगोत्रायुषां मिथ्यादृष्ट्या दिसर्वभंगयुतिमाह प्राग्मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगांतेषूक्तास्ते भंगा वेदनीये द्वाचत्वारिंशत् । गोत्रे पंचविंशतिः । आयुषि षोडशाप्रशतं ॥ ६५०॥ अथ पूर्वोक्तानां वेदनीयगोत्रायुःसामान्यमूलभंगानां संख्यां कथयति- १५ २५ मिलकर अपुनरुक्त भंग मिध्यादृष्टि में अठाईस, सासादन में छब्बीस, मिश्र में सोलह, असंयत में बीस, देशसंयत में छह, प्रमत्त और अप्रमत्तमें तीन-तीन, उपशमश्रेणिके गुणस्थानों में दो-दो और क्षपकणिके गुणस्थानों में अयोगी पर्यन्त एक-एक भंग होता है ||६४९ || आगे वेदनीय गोत्र और आयुके मिथ्यादृष्टि आदि सब गुणस्थानोंमें सब भंगोंका जोड़ कहते हैं पूर्व में मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगी पर्यन्त गुणस्थानोंमें जो भंग कहे हैं उनका ३० जोड़ देनेपर वेदतीयके बयालीस, गोत्रके पच्चीस और आयुके एक सौ सोलह भंग होते हैं ||६५०॥ आगे पूर्व में कहे वेदनीय गोत्र आयुके सामान्यसे मूल भंगोंकी संख्या कहते हैं Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९० गो० कमकाण्डे वेदनोपदोळे टुं ८ । गोत्रदोळ ७। आयुष्यदोळु विसदृशभंगंगळ नाल्कु गतिगळायुष्यंगळु नाल्करोळं क्रमदिदं पंच नव नव पंच भंगंगळप्पुवु ॥ अनंतरं मोहनीयत्रिसंयोगभंगंगळं पेळ्दपरु : मोहस्स य बंधोदयसत्तट्ठाणाण सव्वभंगा हु । पत्तेउत्तं व हवे तियसंजोगेवि सव्वत्थ ॥६५२॥ मोहस्य च बंधोदयसत्त्वस्थानानां सर्वभंगाः खलु प्रत्येकोक्तवद्भवेत् त्रिसंयोगेपि सर्वत्र ॥ मोहनीयकर्मक्कयं बंधोदयसत्त्वस्थानंगळ सर्व भंगंगळु त्रिसंयोगदोळं सर्वत्र प्रत्येक बंधोदयसत्त्वस्थानंगळोळु पेन्दंते भंगंगळप्पुवंतागुत्तं विरलु गुणस्थानदोळु बंधोदयसत्त्वस्थान १० संख्ययं पेळ्दपरु : अट्ठसु एक्को बंधो उदया चदुतिदुसु चउसु चत्तारि । तिणि य कमसो सत्तं तिण्णेगदु चउसु पणगतियं ॥६५३॥ अष्टस्वेको बंधः उदयाश्च वारस्त्रयो द्वयोश्चतुषु चत्वारस्त्रयश्च क्रमशः सत्वं त्रीण्येकं द्वेचतुर्यु पंचत्रिकं॥ अणियट्टी बंधतियं पण दुग एक्कारसुहुमउदयंसा । इगि चत्तारि य संते सत्तं तिण्णेव मोहस्स ॥६५४।। अनिवृत्तेब्बंधत्रयं पंच द्विकैकादशसूक्ष्मोदयांशाः । एक चत्वारश्च शांते सत्वं त्रीण्येव मोहस्य ॥ तेषु खलु विसदृशभंगा वेदनीयेऽष्टौ भवन्ति । गोत्रे सप्त, चतुष्कायुस्सु क्रमेण पंच नव नव पंच ॥६५१॥ १० अथ मोहनीयत्रिसंयोगभंगानाह ___ मोहनीयस्य बन्धोदयसत्त्वस्थानसर्वभंगाः खलु त्रिसंयोगेऽपि सर्वत्र प्रत्येकोक्तवद्भवन्ति ॥६५२॥ अथ गुणस्थानेषु स्थानसंख्यामाह उन पूर्वोक्त भंगोंमें अपुनरुक्त मूल भंग वेदनीयमें आठ, गोत्रमें सात, चारों आयुमें क्रमसे पाँच, नौ-नौ पाँच होते हैं ॥६५१।। अब मोहनीयके त्रिसंयोगी भंग कहते हैं मोहनीयके बन्ध-उदय-सत्त्व स्थानोंमें सब भंग जैसे पहले पृथक् बन्ध उदयसत्त्वका कथन करते हुए कहे थे, वैसे ही बन्ध-उदय-सत्त्वके संयोगरूप त्रिसंयोगमें भी होते हैं ॥६५२॥ आगे गुणस्थानोंमें मोहनीयके स्थानोंकी संख्या कहते हैं Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मिथ्यादृष्टियादियागि अपूर्व्वकरणगुणस्थानपय्र्यंत टुं गुणस्थानंग लोळे कैक बंध स्थानमक्कुमुदयस्थानंगळु क्रर्मादिदमा र्यदु गुणस्थानंगळोळ नालकुर्मरडेडेयोल सूरु मूरुं नार्कडेयोळ नाकु नालकुमो देडेयो मूरुमवु । सत्त्वस्थानंगळ क्रमदिदं मूरुमो दुर्मरडुं नाल्कडेयोलम गळवु । अर्दडेयो मूरु सत्त्वस्थानंगळप्पुवु । अनिवृत्तिकरणन बंधोदयसत्त्वंगळु क्रमदिवं पंचकमुं द्विकमेकादश स्थानंगळवु । सूक्ष्मसांपरायनोळुदयसस्वंगळ क्रमविंदमेकस्थानमुं चतुःस्थानंगळुमप्पुवु । उपशांतकषायनोळ सत्त्वस्थानंगळे मूरवु । संदृष्टि : अ | दे | प्र | अ | अ | अ | सू । उ | मि | सा | मि बं | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ ५ O o | ४ | ४ | ४ | ३ |२ उ १० ५ | ५ | ५ | ५ | ३ | ११ | ४ | ३ | ४ | ३ | ३ | ४ स | ३ | १ | २ अनंतरमी गुणस्थानंगळोळ फेद बंधोदय सत्त्वंगळुमवावुर्व दोर्ड पेपर : बावीसं दसयचऊ अडवीसतियं च मिच्छबंधादी । इगिवीसं णवयतियं अट्ठवीसे च विदियगुणे ॥ ६५५॥ द्वाविशतिद्देशादि चत्वारि अष्टाविंशतित्रयं मिथ्यादृष्टिब्बंधावोनि एकविंशतिन्नवक त्रिकमष्टाविशतिरेव द्वितीयगुणे ॥ मिथ्यादृष्टियोळ द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमो वे बंधमवकुं । उदयस्थानंगळु वशादि चतु:स्थानंगळवु । सत्त्वस्थानंगळु मष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळप्पुवु । मि बं २२ । उ१० । ९। ८ । ७ ।। स २८ । २७ । २६ । उ ७ । स २८ ॥ सासादनंगे एकविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमो वैयक्कु ९९१ पहले जो मोहनीयके बन्धस्थान, उदयस्थान, सत्त्वस्थान कहे थे उनमेंसे आदिके आठ गुणस्थानों में बन्धस्थान एक-एक है । उदयस्थान आदिके गुणस्थानों में चार, उससे ऊपर दो में तीन-तीन, चारमें चार-चार एक में तीन होते हैं। सरवस्थान क्रमसे मिध्यादृष्टिमें तीन, सासादन में एक, मिश्रमें दो, ऊपर चार गुणस्थानों में पाँच-पाँच और एकमें तीन होते हैं। अनिवृत्तिकरण में बँध उदय सत्त्वस्थान क्रमसे पाँच दो ग्यारह होते हैं। सूक्ष्म साम्पराय में उदयस्थान एक, सरवस्थान चार हैं। उपशान्त कषाय में सत्वस्थान तीन हैं । बन्ध और उदयस्थान नहीं हैं ||६५३-६५४ || वे स्थान कौन हैं ? यह कहते हैं १५ तत्राद्येष्वष्टसु बन्धस्थानान्येकैकं । उदयस्थानान्याद्ये चत्वारि । द्वयोस्त्रीणि त्रीणि, चतुर्षु चत्वारि चत्वारि । एकस्मिस्त्रीणि भवन्ति । सस्वस्थानानि क्रमेण त्रीण्येकं द्वे चतुर्षु पंच पंच, एकस्मिस्त्रीणि भवन्ति । अनिवृत्तिकरणे बन्धादित्रयस्थानानि पंच द्वे एकादश । सूक्ष्मसाम्पराये उदयस्थानमेकं सत्त्वस्थानानि चत्वारि । उपशान्तकषाये सत्त्वस्थानान्येव त्रीणि ॥ ६५३ - ६५४ ॥ तानि कानीति चेदाह - मिथ्यादृष्टो बन्धस्थानं द्वाविंशतिकं । उदयस्थानानि दशकादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानान्यष्टाविंशति मिथ्यादृष्टि में बन्धस्थान एक बाईसका है। उदयस्थान दस आदि चार हैं। सत्व क - १२५ ५ १० २० २५ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मिश्र गुणस्थानबोळु समदशप्रकृतिबंधस्थानमो देयक्कु । मुदयस्थानं गळुनवादित्रयमकुं । सत्त्वस्थानंगळु मष्टाविंशतियुं चतुव्विशतिस्थानमुमप्पुवु । मिश्र बं । १७ । । ९ । ८ । ७ । स । २८ । २४ । असंयतनोळु पुनरपि सप्तदशप्रकृतिबंधस्थानमो देयक्कु । मुदयस्थानंगळु नवादि १० चतुः स्थानंगळ्कुं । सत्त्वस्थानंगळुमष्ट चतुव्विशतिगळं त्रयोविंशतित्रयमुमक्कुं । असं । बं १७ । उ । ९ । ८ । ७ । ६ । स । २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥ ई सत्त्वस्थानंगळ मुंदे अप्रमत्त ॥ ९९२ गो० कर्मकाण्डे मुदयस्थानं गळु नवावित्रिस्थानंगळप्पुवु । सत्त्वस्थानंगळ अष्टाविंशतिस्थानमो देयककुं । सा । बं २१ । उ ९ । ८ । ७ । स २८ ॥ २० सत्तरसं णवयतियं अडचउवीसं पुणोवि सत्तरसं । णवच अडचउवीस य तिवीसतियमंसयं चउसु ॥ ६५६॥ सप्तदश नव त्रयमष्ट चतुव्विशतिः पुनरपि सप्तदश नव चतुरष्ट चतुव्विशतिश्च त्रयोविंशतित्रयमंशकं चतुर्षु ॥ २५ कादीनि त्रीणि । सासादने बन्धस्थानमेकविंशतिकं । उदयस्थानानि नवकादीनि त्रीणि । सत्त्वस्थानमष्टाविशतिकमेव ||६५५ ॥ मिश्रे बन्धस्थानं सप्तदशकं । उदयस्थानानि नवकादीनि त्रीणि । सत्त्वस्यानान्यष्टचतुरग्रविंशतिके द्वे । असंयते पुनः बन्धस्थानं सप्तदशकं । उदयस्थानानि नवकादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानान्यष्टचतुर्दशविंशति के द्वे, त्रयोविंशतिकादित्रयं च । इमान्येव पंचाप्रमत्तांतं ज्ञेयानि ॥ ६५६॥ देशसंयते बन्धस्थानं त्रयोदशकं । उदयस्थानान्यष्टकादीनि चत्वारि । प्रमत्ताप्रमत्तयोर्बंधस्थानं नवकं । स्थान अठाईस आदि तीन हैं। सासादनमें बन्धस्थान एक इक्कीसका ही है । उदयस्थान नौ आदि तीन हैं । सत्त्वस्थान अठाईसका ही है ||६५५|| मिश्र में बन्धस्थान एक सतरहका ही है । उदयस्थान नौ आदि तीन हैं । सत्त्वस्थान अठाईस और चौबीस दो हैं । असंयतमें बन्धस्थान सतरहका एक ही हैं । उदयस्थान नौ आदि चार हैं । सत्त्वस्थान अठाईस चौबीस दो, और तेईस आदि तीन, इस तरह पाँच हैं। ये ही पाँच सत्त्वस्थान अप्रमत्त पर्यन्त जानना ||६५६ || ३० देशसंयत में बन्धस्थान तेरहका एक ही है । उदयस्थान आठ आदि चार हैं । सत्त्व तेरट्ठचऊ देसे पमदिदरे णव सगादिचत्तारि । तो णवगं छादितियं अडचउरिगिवीसयंच बंधतियं ॥ ६५७ || त्रयोदशाष्टचत्वारि देशसंयते प्रमत्तेतरयोन्नव सप्तादि चत्वारि ततो नवकं षडादित्रिकमष्ट चतुव्विशतिरेकविंशतिश्च बंघत्रिकं ॥ देशसंयतनोळ त्रयोदशबंधस्थानमा वैयक्कु- मुदयस्थानंगळुमष्टादि चतुःस्थानं गळप्पुव । सत्वस्थानंगळ असंयतनोळु पेळद पंचस्थानंगळप्पुवु । दे। बं १३ । ऊ ८ । ७ । ६ । ५॥ स २८ ॥ २४ ॥ २३ ॥ २२ ॥ २१ ॥ प्रमत्ताप्रमत्तसंयतरुगळोळु नव नव प्रकृतिबंधस्थानंगळो दो देयप्पुवु । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उदयस्थानंगळु सप्तादि चतुःस्थानंगळु प्रत्येकमप्पुवु । सत्वस्थानंगळु पूर्वोक्तासंयतन पंच पंच स्थानं गळप्पत् । प्र। बं ९ । उ ७। ६ । ५।४। स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥ अप्र बं ९। उ७। ६।५।४ । सत्व २८ । २४ । २३ । २२ । २१॥ ततः अल्लिदत्त अपूर्वकरणगुणस्थानदोछु नवबंधस्थानमो देयक्कुं । उदयस्थानंगळु षडादित्रितयमक्कुं । सत्वस्थानंगळुमष्ट चतुरेकविंशतिगळक्कुं। अपू बं ९ । उ ६।५।४। सत्व २८ । २४ । २१ ॥क्ष २१॥ पंचादिपंचबंधो णवमगुणे दोण्णि एक्कमुदयो दु। अट्ठचदु रेक्कवीसं तेरादीअट्ठयं सत्तं ॥६५८॥ पंचादि पंचबंधो नवमगुणे द्वे एका उदयस्तु । अष्ट चतुरेकविंशतिस्त्रयोदशादीन्यष्ट सत्वं ॥ नवमगुणस्थानदोळ पंचप्रकृत्यादिपंचबंधस्थानंगळप्पुवु । उदयस्थानंगळु द्विप्रकृतिस्थानमु मेकप्रकृतिस्थानमुमक्कुं। सत्वस्थानंगळुमष्ट चतुरेकविंशतिस्थानंगळप्पु क्षपकश्रेणियोळे १० त्रयोदशाद्यष्टस्थानं गळप्पुवु । अनि । बं । ५। ४। ३। २। १। उ। २। १। सत्व २८ । २४ । २१ ॥क्ष । २१ । १३ । १२ । ११ । ५। ४ । ३ । २।१॥ लोहेक्कुदओ सुहमे अडचउरिगिवीसमेक्कयं सत्तं । अडचउरिगिवीसंसा संते मोहस्स गुणठाणे ॥६५९॥ लोभैकोदयः सूक्ष्मे अष्टचतुरेकविंशतिरेकं सत्वं । अष्टचतुरेकविंशत्यंशाः शांते मोहस्य १५ गुणस्थाने ॥ सूक्ष्मसांपरायनोनु मोहनीयस्य मोहनीयव लोभैकोदयः सूक्ष्मैकलोभोवयमक्कुं । सत्वमष्ठ चतुरेक विंशतिगळ मेकप्रकृतिस्थानमुमक्कुं। सूक्ष्म बं उ१ । सत्व २८ । २४ । २१ । १॥ उपशांते २० उदयस्थानानि सप्तकादीनि चत्वारि । ततोऽपूर्वकरणे बन्धस्थानं नवकं । उदयस्थानानि षट्कादीनि त्रीणि । सस्वस्थानान्यष्टचतुरेकानविंशतिकानि त्रीणि । क्षपकेऽप्येकविंशतिकं ॥६५७॥ नवमगुणे बन्धस्थानानि पंचकादीनि पंच । उदयस्थानानि विककके द्वे । सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकानविशतिकानि । क्षपके त्रयोदशकादीन्यष्टौ । उपरि बन्धो नास्ति ॥६५८॥ सूक्ष्मसाम्पराये उदयस्थानं सूक्ष्मलोमः । सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकानविंशतिकान्येककं च । उपरि स्थान पाँच हैं। प्रमत्त-अप्रमत्तमें बन्धस्थान एक नौका ही है। उदय स्थान सात आदि चार हैं। सत्त्वस्थान पाँच हैं। अपूर्वकरणमें बन्धस्थान एक नौका ही है। उदयस्थान छह आदि २५ तीन हैं। सत्त्वस्थान अठाईस चौबीस इक्कीस तीन है। क्षपकमें भी इक्कीसका ही है ॥६५७॥ । नवम गुणस्थानमें बन्धस्थान पाँच आदि पांच हैं। उदयस्थान दो और एक प्रकृतिरूप दो हैं। सत्वस्थान अठाईस, चौबीस इक्कीस तीन हैं। क्षपणश्रेणिवालेके तेरह आदि आठ सत्त्वस्थान हैं। ऊपर मोहके बन्धका अभाव है ॥६५८॥ सूक्ष्मसाम्परायमें उदयस्थान एक सूक्ष्मलोभ रूप ही है । सत्त्वस्थान अठाईस चौबीस ३० Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९४ गो० कर्मकाण्डे गुणस्थाने उपशांतकषायगुणस्थानदोळ मोहस्य मोहनीयद सत्वस्थानंगळ अष्ट चतुरेकविंशति त्रिस्थानंगळप्पुव । बं । उ० । सत्व । २८ । २४ । २१ ॥ संदृष्टि :-मि बं २२ । उ १० ।९।८। ७ । स २८ । २७ । २६ ॥ उ ७ । स २८ ॥ सासा । बं २१ । उ ९ । ८।७। स २८ ॥ मि बं १७ । उ९।८।७। स २८॥ २४॥ असं बं १७। उ९।८।७।६। स २८ । २४ । २३ । २२ । ५ २१॥ देश बं । १३ । उ ८।७।६।५ । स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ।। प्रबं ९। उ ७॥ ६।५।४ । स २८ । २४ । २३ । २२ । २१॥ अप्र. बं । ९ । उ ७।६।५।४। स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥ अपू बं ९ । उ ६ । ५।४। स २८ । २४ । २१ ॥क्ष २१॥ अनि बं ५।४। ३।२।१। उ २।१। स २८ । २४ । २१॥क्ष २१ । १३ । १२ । ११ । ५। ४।३।२।१॥ सू बं । ० । उ १। सत्व २८ । २४ । २१ । क्ष १। उपशांत बं । ०। उ०। सत्व २८ । २४ । १० २१ ॥क्षोणकषायादिगळोळु मोहबंधोदयसत्वं सर्वथाऽभावमकुं॥ अनंतरं मोहनीयबंधोदयसत्वस्थानंगळगे त्रिसंयोग विशेषमं पेळ्दपरु : बंधपदे उदयंसा उदयट्ठाणेवि बंधसत्तं च । सत्ते बंधुदयपदं इगिअधिकरणे दुगादेज्जं ॥६६०॥ बंधपदे उदयांशाः उदयस्थानेपि बंध सत्वं च । सत्वे बंधोदयपदमेकाधिकरणे द्वयादेयं ॥ बंधस्थानदोळुवयसत्वस्थानंगमुदयस्थानदोलु बंधसत्वस्थानंळं सत्वस्थानदोळु बंधोदयस्थानंगळु इंतु एकाधिकरणमागुत्तं विरलुद्वयादेयमक्कु- | बंध । उद । सत्व । उ। स । बं । स | बं। उ अनंतरं यथोद्देशस्तथा निर्देश एंदितु बंधस्थानदोळु उदयसत्वस्थानंगळं योजिसिदपरु : मोहोदयो नास्ति । उपशान्तकषाये सत्त्वस्थानान्येवाष्टवतुरेकाग्रविशतिकानि । उपरि मोहसत्त्वं नास्ति ॥६५९।। अथ मोहनीयबन्धोदयसत्त्वस्थानानां त्रिसंयोगविशेषमाह ___बन्धस्थाने उदयसत्त्वस्थानद्वयं, उदयस्थाने बन्धसत्त्वस्थानद्वयं, सत्त्वस्थाने बन्धोदयस्थानद्वयमित्येकाधिकरण द्वयमाधेयं भवति ॥६६०॥ २० इक्कीस और क्षपकके एक प्रकृतिरूप एक ही है। ऊपर मोहका उदय नहीं है । उपशान्तकषायमें सत्त्वस्थान ही अठाईस चौबीस इक्कीस तीन जानना। ऊपर मोहका सत्त्व नहीं है ॥६५९|| __ आगे मोहनीयके बन्ध उदय सत्त्वस्थानोंके त्रिसंयोगमें जो विशेष है उसे कहते हैं बन्धस्थानमें उदयस्थान सत्त्वस्थान ये दो, उदयस्थानमें बन्धस्थान सत्त्वस्थान दो और सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान उदयस्थान दो, इस तरह एक अधिकरणमें दो आधेय हैं ॥६६०॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बावीसयादिबंधे सुदयंसा चदुतितिगि चऊ पंच । तिसु इगि छद्दो अट्ठ य एक्कं पंचैव तिट्ठाणे ॥ ६६१ ॥ द्वाविंशत्यादिबंधेषूक्यांशाश्चतुः त्रित्र्येकं चतुःपंच | त्रिष्वेक षट् द्व्यष्टौ च एक पंचैव त्रिस्थाने ॥ द्वाविंशत्यादि प्रकृतिबंधस्थानाधिकरणंगळोळ उदयांशंगळु क्रर्मादिदं चतुस्त्रितयंगळं त्र्येकंगळं त्रिषु मूरेडेयोळु चतुःपंचस्थानं गळं एकषट्स्थानंगळं द्वयष्टस्थानंगळं त्रिस्थानदोलु एकपंचस्थानं गळवु । संदृष्टि : ५३ बं | २२ २१ | १७ उ |४| ३ | सत्व | ३ | १ | ५ | ५ ४ | ४ ९ ४ ५ ५ ४ | ३ २ । १ १ । २ १ । १ । १ ६ | ८ ५।५।५ अनंतरमुदितादेयभूतोदयसत्त्वस्थानंगळं पेदपरु : दसयचऊ पढमतियं णवतियमडवीसयं णवादिचऊ | अडचउतिदुइगिवीसं अडचउ पुव्वंव सत्तं तु ॥ ६६२॥ ९९५ दशकचतुः प्रथमत्रिकं नवत्रयमष्टाविंशतिः नवादिचतुरष्ट चतुस्त्रिद्वयेकविंशतिरष्टादि चत्वारि पूर्ववत्सत्वं तु ॥ द्वाविंशतिबंधकगे दशादिचतुरुदयस्थानंगळु प्रथम त्रयसत्त्वस्थानंगळमप्पुवु । बं २२ । उ १० । ९।८।७ । स ८ । २७ । २६ ॥ एकविंशतिबंधकंगे नवादित्रयोदयस्थानं गळु मष्टाविंशतिसत्त्वस्थानमो देयक्कुं । बं २१ । उ९ । ८ । ७ । स २८ ॥ सप्तदशबंधकंगे नवादिचतुरुदयस्थानंगळु १५ तत्र तावद्बंधस्थानेषु द्वाविंशतिकादिषूदयस स्वस्थानान्यांद्ये चत्वारि त्रीणि, द्वितीये त्रीण्येकं, त्रिषु प्रत्येकं चत्वारि पंच, एकस्मिनेकं षट, अन्यस्मिन् द्वे अष्टौ त्रिष्वेकं पंच ॥६६१ ॥ तानि द्वाविंशतिके उदयस्थानानि दशकादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि त्रीणि । प्रथम बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थान कहते हैं - बाईस आदि बन्धस्थानों में से प्रथम बाईसके स्थान में उदयस्थान आदिके चार सत्त्वस्थान तीन हैं। दूसरे बन्धस्थानमें २० उदयस्थान तीन सत्त्वस्थान एक है । आगे तीन बन्धस्थानों में से प्रत्येकमें उदयस्थान चार सत्त्वस्थान पाँच हैं। आगे एक बन्धस्थानमें उदयस्थान एक सरवस्थान छह हैं । अन्य एक बन्धस्थान में उदयस्थान दो सत्त्वस्थान आठ हैं। तीन बन्धस्थानों में उदयस्थान एक, सत्त्वस्थान पाँच हैं ||६६१|| " बाईसके बन्धस्थान में उदयस्थान दस आदि चार है। सत्त्वस्थान अठाईस आदि २५ तीन हैं । अर्थात् जिस जीवके जिस कालमें बाईसका बन्ध है उसके उदय दसका या नौका, या आठका या सातका होता है । और सत्त्व अठाईसका या सत्ताईसका या छब्बीसका १. पूर्व्वस्मिन्मुक्तादेय - अनंतानुबंधिरहित सहित मिथ्यादृष्टिय उदवकूट ८ शेळगे संख्यासादृश्यक कूटंगळ ४ । पुनरुक्तंगळ सासादनादिगळळं यितुं पुनरुक्तंगळंयोजिसि कोक्कुवुदु ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे मष्टचतुस्त्रिद्वयेकविंशतिसत्त्वस्थानंगळुमप्पूवु । वं १७ । उ९ । ८ । ७ । ६ ॥ सत्त्व २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥ त्रयोदशबंधकंगे अष्टादिचतुरुदयस्थानंगळ पूर्वोक्तसत्त्वस्थान पंचकमुमक्कुं । बं १३ । उ । ८ । ७।६।५ । स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥ १५ ९९६ सगचउ पुब्बं वंसा दुगमडचउरेक्कवीस तेरतियं । दुगमेक्कं च य सत्तं पुव्वं वा अत्थि पणगदुगं ॥ ६६३ ॥ सप्तचत्वारि पूर्ववदंशाः द्विकमष्ट चतुरेकविंशति त्रयोदश त्रयं द्विकमेकं च च सत्त्वं पूव्वंवदस्ति पंचद्विकं ॥ नवबंधकनो सप्तादिचतुरुदयस्थानंगळं पूर्वोक्तसत्त्वस्थानगळे अम्हप्पूवु । बं ९ । उ७ । ६ । ५ । ४ । स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ । पंचबंधकनोळ द्विप्रकृत्युदयस्थानमोदेयवकुं । १. अष्टचतुरेकविंशतित्रयोदशादित्रितयमुं सत्त्वस्थानं गळप्पु | बंध ५ । उ२ । स २८ । २४ । २१ । १३ । १२ । ११ ॥ चतुब्बंधकतोळ, द्विकैकप्रकृत्युवयस्थानंगळं पूर्व्ववत्सत्त्वस्थान गळप्पु ॥ मतं पंचादिद्विस्थानंगळुर्मुटु । बं ४ । उ २ । १ । स २८ । २४ । २१ । १३ । १२ । ११ । ५ । ४ ॥ तिसु एक्क्कं उदओ अडचउरिगिवीससत्तसंजुत्तं । चदुतिदयं तिदयदुगं दो एक्कं मोहणीयस्स ।। ६६४॥ त्रिष्वेकैकदयोष्टचतुरेकविंशतिसत्त्वसंयुक्तं । चतुस्त्रितयं त्रितयद्विकं द्वयेकं मोहनीयस्य ॥ ܒ एकविंशति के उदयस्थानानि नवकादीनि त्रीणि । सत्त्वस्थानमष्टाविंशतिकं । सप्तदशके उदयस्थानानि नवकादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानान्यष्टचतुस्त्रिद्वयेकाग्रविशतिकानि । त्रयोदशके उदयस्थानान्यष्टादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानानि पूर्वोक्तानि पंच ॥ ६६२ ॥ नवके उदयस्थानानि सप्तकादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानानि पूर्वोक्तानि पंच पंच पंचके उदयस्यानं २० द्विकं । सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकाग्रविशतिकानि त्रयोदशकादित्रयं च । चतुष्के उदयस्थानानि द्विकैकके द्वे । सत्त्वस्थानानि पूर्वोक्तानि षट् । पुनः पंचकादिद्वयं च ॥ ६६३ ॥ होता है। इक्कीसके बन्धस्थान में उदयस्थान नौ आदि तीन हैं। सरवस्थान एक अठाईसका है । सतरह के बन्धस्थान में उदयस्थान नौ आदि चार हैं । सत्त्वस्थान अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस पाँच है । तेरह के बन्धस्थानमें उदयस्थान आठ आदि चार हैं । सत्त्व२५ स्थान पूर्वोक्त पाँच है || ६६२|| 1 नौके बन्धस्थानमें उदयस्थान सात आदि चार है । सत्त्वस्थान पूर्वोक्त पाँच हैं पाँच बन्धस्थानमें उदयस्थान दोका है । सत्त्वस्थान उपशमकके अठाईस, चौबीस, इक्कीस तीन और क्षपकके तेरह आदि तीन इस प्रकार छह हैं । चारके बन्धस्थान में उदयस्थान दो और एक प्रकृतिरूप हैं, सत्त्वस्थान पूर्वोक्त छह तथा पाँच आदि दो, इस प्रकार आठ ३० š॥६६३॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९९७ त्रिबंधकनोळं द्विबंधकनोळं एकबंधकनोमित त्रिस्थानकंगळोल प्रत्येकमेकैकप्रकृत्युदयमेयककुं। प्रत्येकं सत्त्वस्थानंगळुमष्टचतुरेकविंशतिस्थानत्रययुतंगळप्प चतुलितयंगळं त्रितयद्विकंगळु द्वयेकसत्त्वस्थानंगळुमप्पुवु । बं ३। उ १ । स २८। २४ । २१ । ४।३॥ द्विबंधकनोळ बं २ । उ १ । स २८ । २४ । २१ । ३।२। एकबंधकनोळ बं १ । उ १। स २८ । २४ । २१२।१।। इंतु मोहनीयद बंधाधिकरणोदयसत्त्वादेयं प्रतिपावितमायतु । ई बंधस्थानाधिकरणदोळु ५ गुणस्थानविवक्षेयिंदमी रचनाविशेषदिवमरियल्पडुगे । बं २२। उ १०।९।८।७। स २८ । २७। २६ ।। बं २१ । उ ९।८।७॥ स २८ ॥ बं १७। उ ९।८।७। स २८ ॥ २४ ॥बं १७ । उ९। ८।७।६। स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥बं १३ । उ ८।७।६।५। स २८ । २४ । २३ । २२॥ २१ ॥बं ९। उ७।६।५।४। स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ ॥बं ९। उ७।६।५। ४। स २८ । २४ । २३ । २२ । २१॥ बं९। उ ६।५।४। स २८॥ २४ ॥ २१॥ बं५ । उ २। १० स २८।२४।२१।१३।१२। ११॥ बंध४।२ १ ॥ स २८।२४। २१ । १३।१२। ११॥ ५ ॥ ४ ॥ बं३ । उ।१। स २८ । २४ । २१ । ४।३॥ बं २। उ १। सत्त्व २८ । २४ । २१ । ३।२॥ बं१। उ१। स २८ । २४ । २१ । २।१। सूबं । ०। उ। सू। लो १ । स २८ । २४ । २१ । १॥ इल्लि बंधकूट २ उदयकूट २ ई बंधोदयफूटंगळोळ २।२ २।२ ४।४।४।४ तत्तद्गुणस्थानवो व्युच्छित्तिगळनरिदु बंधस्थानंगळमनुदयस्थानंगळुमं योजिसिको बुदु ॥ अनंतरमुदयाधिकरणं बंधसत्त्वादेयप्रकारमं पेळ्दपरु : १५ त्रिकद्विकैककेषदयस्थानमेककं सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकाग्रविशतिकानि त्रीण्यपि त्रिके चतुष्कत्रिकामाणि । द्विके त्रिकाद्विकाग्राणि, एकके द्विकैककाराणि । अयं बन्धाधिकरणोदयसत्वाधेयभंगो गुणस्थानविवक्षयापि तत्प्रकृतीनां बन्धोदयव्युच्छित्तिक्षपणोद्वेल्लनाम्पां सत्त्वव्युच्छित्ति च स्मृत्वा वक्तव्यः ॥६६४॥ अथोदयाधिकरणबन्धसत्त्वाधेयभंगमाह २० तीन दो और एक प्रकृतिरूप तीन बन्धस्थानोंमें उदयस्थान एक प्रकृति रूप ही है। सत्त्वस्थान अठाईस, चौबीस, इक्कीस ये तीन तथा तीनके बन्धस्थानमें चारका या तीनका इस तरह पांच हैं। दोके बन्धस्थानमें दोका और तीनका, इस तरह पाँच हैं। एकके बन्धस्थानमें दोका, एकका इस तरह पांच हैं । यहाँ बन्धस्थान अधिकरण हैं और उदय सत्त्व आधेय हैं। उनका कथन गुणस्थान २५ विवक्षाके द्वारा किया है । तथापि उन-उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छिति, उदयव्युच्छित्ति, क्षपण और उद्वेलनाके द्वारा हुई सत्त्वव्युच्छित्तिको स्मृतिमें रखकर उनका कथन करना चाहिए ॥६६४॥ आगे उदयस्थानको अधिकरण और बन्ध तथा सत्त्वको आधेय बनाकर भंगोंका कथन करते हैं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९८ गो० कर्मकाण्डे दसयादिसु बंधंसा इगितियतिय छक्क चारिसत्तं च । पण पण तिय पण दुग पणमिगितिग दुग छच्चऊ णवयं ॥६६५॥ दशादिषु बंधांशाः एक त्रिकत्रिकषट्कचतुः सप्त पंच पंच त्रिक पंच द्विक पंच एक त्रिक द्विक षट चत्वारि नवकं॥ ५ उदयस्थानाधिकरणदोलु वशाधुदयस्थानंगळो आदेयभूतबंधसत्वंगळु एक त्रिक, त्रिषट्कमुं चतुः सप्तक, पंच पंचकंगळं त्रिपंचकंगळु द्विपंचकंगळं एकत्रिकमुं द्विषट्कमु चतुर्नव. बंधसत्त्वस्थानसंख्येगळु क्रमदिवप्पुवु। संदृष्टि : | उ १०।९।८।७।६। ।४ | २|१| बं | १ | ३ | ४ | ५ |३|२|१| २ ४ स | ३ | ६ | ७ | ५ | ५ | ५ | ३ । ६ | ९| अनंतरमादेयभूतबंधसत्त्वसंख्याविषयस्थानंगळं पेळ्दपरु : पढमं पढमतिचउपण सत्तरतिगचदुसु बंधयं कमसो। पढमति छस्सगमडचउतिदुइगि बीसस्सयं दोसु ॥६६६॥ प्रथमं प्रथमत्रिचतुःपंचसप्तदशत्रिक चतुषु बंधकं क्रमशः। प्रथमत्रिषट्सनाष्ट चतुस्त्रिद्वयकविशतिर्द्वयोः॥ प्रथमं द्वाविंशति प्रकृतिबंधस्थानमोदक्कुं। नवादि चतुरुदयस्थानंगळोळ क्रमदिदं बंधस्था. नंगळु प्रथमावि त्रिस्थानंगळं प्रथमादिचतुःस्थानंगळं प्रथमादिपंचस्थानंगळं सप्तदशादित्रिस्थानंग१५ कुमप्पुवु । सत्वस्थानंगळुमल्लि क्रमदिदं प्रयमत्रिस्थानंगळं प्रथमषट्स्थानंगळु प्रथमसप्तस्थानंगळु अष्टचतुस्त्रिद्वयेकविंश त्यंशंगळमेरडेड़योळप्पुवु ॥ __ उदयस्थानेषु दशकादिषु क्रमेण बन्धसत्त्वस्थानानि एकत्रिकं त्रिकषट्कं चतुःसप्तकं पंचपंचकं त्रिपंचकं द्विपंचकं एकत्रिकं द्विषट्कं चतुर्नवकं ॥६६५।। तानि कानोति चेदाह दशकादिषु पंचसु क्रमेण बन्धस्थानानि द्वाविंशतिक, तदादित्रयं तदादिचतुष्कं तदादिपंचक सप्त० दशकादित्रयं च भवन्ति । सत्त्वस्थानान्यष्टाविंशतिकादित्रयं तदादिषट्कं तदादिसप्तकं अष्टचतुस्त्रिद्वयेकानविंश दस आदि नदयस्थानों में क्रमसे बन्धस्थान और सत्त्वस्थान एक तीन, तीन छह, चार सात, पाँच-पाँच, तीन पाँच, दो पाँच, एक तीन, दो छह और चार नौ होते हैं ॥६६५।। वे कौनसे हैं, यह कहते हैं दस आदि पाँच उदय स्थानों में-से पहलेमें बन्धस्थान बाईसका होता है अर्थात् जिस २५ जीवके जिस कालमें दसका उदय होता है उसके उस कालमें बाईसका ही बन्ध है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना। दूसरेमें बन्धस्थान बाईस आदि तीन हैं। तीसरे में बाईस आदि चार हैं। चौथेमें बाईस आदि पाँच हैं। पाँचवेंमें सतरह आदि तीन हैं। सत्त्वस्थान पहले उदयस्थानमें अठाईस आदि तीन हैं। अर्थात् जिस समय दसका उदय है उस समय किसीके अठाईसका, किसीके सत्ताईसका और किसीके छब्बीसका सत्त्व पाया जाता है। ३० दूसरे में अठाईस आदि छहका सत्त्व है। तीसरेमें अठाईस आदि सातका सत्त्व है। चौथे Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तेरदु पुव्वंवंसा णवमडचउरेक्कवीससत्तमदो । पणदुगमडचउरेक्कावीसं तेरसतियं सत्तं ॥६६७॥ त्रयोदशद्वयं पूर्ववदंशाः नवाष्टचतुरेकविंशतिसत्त्वमतः । पंचद्वयमष्टचतुरेकविंशति त्रयोदशत्रिकं सत्त्वं ॥ पंचोदयस्थानदोळु त्रयोदशादि द्विस्थानबंधमुं पूर्वोक्तांशंगळय्दुमप्पुवु । चतुरुदयस्थान- ५ दोळ नवबंधस्थानमो दु अष्टचतुरेकविंशतिसत्वस्थानत्रितयमुमक्कु-। मतः परं द्विप्रकृत्युदयस्थानदोळु पंचादिद्विबंधस्थानंगळुमष्टचतुरेकविंशतिसत्वस्थानंगळु त्रयोदशादित्रिस्थानसत्वंगळप्पुवु ॥ चरिमे चदुतिदुरेक्कं अट्ठ य चदुरेक्कसंजुदं वीसं । एक्कारादी सव्वं कमेण ते मोहणीयस्य ॥६६८॥ चरमे चतुस्त्रिद्वयकमष्टचतुरेकसंयुता विशतिरेकादशादि सव्वं क्रमेण तानि मोहनीयस्य ॥ १० चरमैकोदयस्थानदोळु चतुस्त्रिद्वचेकबंधस्थानचतुष्टयमुमष्टचतुरेकसंयुतविंशतिगळं एकादशादि तन्मोहनीयव सर्वसत्वस्थानंगळुमप्पुवु। संदृष्टि । उ १०। बं २२ । स २८ । २७ । २६ । उ ९ । बं २२ ॥ २१ ॥ १७ ॥१३ । स २८ । २७ । २६ । २४ । २३ । २२ । २१ । उ ८। बं २२ । २१ । १७ । १३ । स २८ । २७ । २६ । २४ । २३ । २२ । २१ । उ ७ । बं २२ । २१ । १७ । १३।९। स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ । उ ६ । बं १७ । १३ ।९। स २८ । २४ । २३ । २२। १५ २१ । उ ५ । बं १३ । ९ । स २८ । २४ । २३ । २२ । २१॥ उ४ । बं ९। स २८ । २४ । २१ । उ२। ५।४। स २८ । २४ । २१ । १३ । १२॥ ११ । उ १। ४।३।२।१। सत्व २८ । २४ । २१ । ११ । ५।४।३।२।१॥ इंतुदयाधिकरणवोळ बंधसत्वादेयप्रकारं निरूपितमादुदु ॥ तिकानि पंच द्वयोभवन्ति ॥६६६॥ पंचके बन्धस्थानानि त्रयोदशकादिद्वयं सत्त्वस्थानानि पूर्वोक्तानि पंच। चतुष्के बन्धस्थानं नवकं, , २० सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकाग्रविशतिकानि । अतः परं द्विकबन्धस्थानांनि पंचकादिद्वयं सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकाग्रविशतिकानि त्रयोदशकादित्रयं च ॥६६७।। एकके बन्धस्थानानि चतुष्कत्रिकद्विकैककानि । सत्त्वस्थानान्यष्टचतुरेकानविंशतिकानि एकादशकादीनि पांचवेंमें अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीसके पाँच-पाँच सत्त्व है ॥६६६।। पाँचके उदयस्थानमें बन्धस्थान तेरह आदि दो हैं। सत्त्वस्थान पूर्वोक्त पाँच हैं। , चारके उदयस्थानमें बन्धस्थान नौका ही है। सत्त्वस्थान अठाईस, चौबीस, इक्कीसके तीन ' हैं। आगे दोके उदयस्थानमें बन्धस्थान पाँच आदि दो हैं । सत्त्वस्थान अठाईस, चौबीस, इक्कीस तथा तेरह आदि तीन, इस प्रकार छह हैं ॥६६७॥ ___अन्तिम एकके उदयस्थानमें बन्धस्थान चार तीन दो एक ये चार हैं। सत्त्वस्थान अठाईस चौबीस इक्कीस और ग्यारह आदि छह इस प्रकार नौ हैं वे सब मोहनीयके जानना ॥६६८॥ १. ( ताड. पंक्ति:-९) एंबय्दु सत्वस्थानंगळु ( इत्यस्य टिप्पणस्य संबंधो न ज्ञायते ) क-१२६ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००० गो० कर्मकाण्डे अनंतरमाधारभूत सत्वस्थानंगळोळादेयभूतबंधोदयस्थानंगळं पेळ्दपर : सत्तपदे बंधुदया दस णव इगिति दुसु अडड तिपण दुसु । अडसगदुगि दुसु बिबिगिगि दुगि तिसु इगिसुण्णमेक्कं च ॥६६९।। सत्वपदे बंधोदयाः दश नवैक त्रिद्वयोष्टाष्टत्रिपंचद्वयोः। अष्टसप्तद्वयेकं द्वयोद्विद्विरेकैकं ५ द्वयेकं त्रिष्वेक शून्यमेकं च ॥ अष्टाविंशतिसत्वस्थानाधारदोळु आदेयबंधोदयस्थानंगळु क्रमदिदं दशनवबंधस्थानंगळु पत्तुं उदयस्थानंगळुमो भत्तुमप्पुवु | स | २८ । एक द्वित्रिद्वयोः सप्तविंशतिसत्वस्थानाधारदोळं बं । १० षड्विंशतिसत्वस्थानाधारदोळं एकैक बंधस्थानंगळं त्रियुदयस्थानंगळुमप्पुवु | स । २७ । २६ |बं । ११ उ । ३ । ३ चतुर्विशतिसत्वस्थानाधारदोळ अष्टाष्ट अष्टबंधस्थानंगळु मष्टोदयस्थानंगळुमप्पुवु | स | २४ | उ १० त्रिपंचद्वयोः त्रयोविंशतिसत्वस्थानाधारदोळं द्वाविंशतिसत्वस्थानाधारदोळं प्रत्येकं त्रिपंचबंधोदय. स्थानंगळप्पुवु। स २३ | स | २२| अष्टसप्तएकविंशति सत्वस्थानाधारवोळु बंधोदयस्थानंगळेटु | ३ |ब । ५ ।उ मेळुमप्पुवु :- स | २१ । द्वेधकं द्वयोः त्रयोदशसत्वस्थानाधारदोळं द्वादश सत्वस्थानाधारदोळं उ | ७ | प्रत्येकं बंधोदयस्थानंगळु मेरडु मोदुमप्पु | स | १३ | स | १२। द्विद्विरेकैकं एकादशसत्वस्थाना बं| २ | बं| २ उ | १ | उ। १ च । तानि मोहनीयस्य सर्वाणि ॥ ६६८ ॥ एवमुदयाधिकरणबन्धसत्त्वाधेयमुक्त्वा सत्तवाधिकरणबन्धोद१५ याधेयमाह सत्त्वस्थानेष्वष्टाविंशतिकादिषु क्रमेण बन्धोदयसत्त्वस्थानानि दशनव। द्वयोरेकत्रीणि, अष्टाष्टी आगे सत्त्वको अधिकरण और बन्ध उदयको आधेय बनाकर कथन करते हैं अठाईस आदि सत्त्वस्थानों में क्रमसे बन्धस्थान और उदयस्थान इस प्रकार हैंपहले सत्त्वस्थानमें दस नौ, आगे दो में एक तीन, एकमें आठ-आठ, दोमें तीन पाँच, एकमें Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १००१ धारदोळं पंचसत्वस्थानाधारदोळं क्रमदिदं बंधोदय स्थानंगळु द्विद्विरेकैकंगळप्पुषु स |११स | ५| बं|२| | १ उ|२|उ|१. द्वयेकं त्रिषु चतुः सत्वस्थानाधारत्रिसत्वस्थानाधार द्विसत्वस्थानाधारंगळोळु बंधस्थानंगळेरडेरजु मुदयस्थानंगळों दोंदप्पुवु स | ४ | स | ३ | स २ | एकशून्यमेकं च एकप्रकृतिसत्वस्थानाधार बं|२| |२| बं २ उ।१।उ |१|उ |१| दोछ बंधस्थानमा शून्यमुं उदयस्थानमो दुमक्कुं । सा सर्व संदृष्टि स |२८|२७|२६|२४| २३ | २२ | २१ | १३ | १२|११| |४|३|२|१ बं । १०।१ । १।८३।३ । ८ । २ । २ | २ | १।२१२|२|११० उ। ९ | ३ | ३।८। ५।५ । ७१। १ २|१|१|१/१/१ ई संख्याविषयबंधोदयस्थानंगळं गाथात्रितविद पेळ्दपरु : सव्वं सयलं पढमं दसतियदुसु सत्तरादियं सव्वं । णवयप्पहुडीसयलं सत्तरति णवादिपण दुपदे ॥६७०॥ सव्वं सकलं प्रथमं दशत्रयं द्वयोः सप्तवशादिसर्व नवकप्रभृतिसव्वं सप्तदशत्रिनवादि पंच द्विपदे ॥ सव्व सकलं अष्टाविंशति सत्त्वस्थानाधिकरणदोळु द्वाविंशत्यादि सर्वबंधस्थानंगळं कशादिसकलोक्यस्थानंगळमप्पुवु। स २८ । बं । २२ । २१ । १७ । १३।९।५।४।३।२।१॥उ १०।९।८।७।६।५।४।२।१॥ प्रथमं वशत्रयं द्वयोः। सप्तविंशति षड्विंशति सत्त्वस्थानाधिकरणद्वयदोळु द्वाविंशतिबंधस्थान, दशावित्रयोदयस्थानंगळमप्पुवु। स २७ । बं २२ । ११०।९।८॥ स २६ । ब २२। उ १०।९।८॥ सप्तदशादि सव्वं नवाविसव्वं चतुविशति- १५ द्वयोस्त्रिपंच अष्टसप्त द्वयोद्वर्येक द्विद्वि एकैकं त्रिषु वयेकं एकशून्यैकं ॥६६९।। तान्यष्टाविंशतिके बन्धस्थानानि द्वाविंशतिकादीनि सर्वाणि, उदयस्थानानि दशकादीनि सकलानि । सप्तविंशतिकषड्विंशतिकयोबंधस्थान द्वाविंशतिक, उदयस्थानानि दशकादित्रयं च । चतुर्विंशतिके बन्धस्थानानि २० आठ सात, दोमें दो एक, एकमें दो-दो, एकमें एक-एक, तीनमें दो एक, एकमें एक या शून्य और एक हैं ॥६६९॥ अठाईसके सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान बाईस आदि सब हैं। अर्थात् जिनके जिस समय अठाईसका सत्व है उस समय उनमें से किसीके बाईसका, किसीके इक्कीसका इस प्रकार सभी स्थानोंका बन्ध पाया जाता है। तथा उदयस्थान दस आदि सब हैं। यहाँ भी Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे सत्त्वस्थानाधिकरणदोळु सप्तदशादिसर्व्वबंधस्थानंगळे टुं नवाद्युदय सव्र्व्वस्थानंगळमप्पुवु । स २४ । बं १७ । १३ । ९ । ५ । ४ । ३ । २ । १ । ३९ । ८ । ७ । ६ । ५ । ४ । २ । १ ॥ सप्तदश त्रिनवादि पंचकं द्विपदे त्रयोविंशतिस स्वस्थानाधिकरणदोळं द्वाविंशतिसत्त्वस्थानाधिकरणवोळं सप्तवशादित्रिबंधस्थानंगळं नवादिपंचोदयस्थानंगळुमप्पुवु । स २३ । बं १७ । १३ ।९ ॥ ३९। ८।७। ६ । ५ । स २२ । बं १७ । १३ । ९ । उ९ । ८ । ७ । ६ ॥५॥ ५. १० १००२ सप्तदशाद्यष्टादयः सव्र्व्वं पंचचतुर्द्वयं द्वयोः ततः । पंचचतुष्कद्वयेकं चतुरेकं चतुस्त्रीण्येकं च ॥ सप्तदशाद्यष्टादयः सर्व्वं एकविंशतिसत्त्वस्थानाधिकरणवोळ सप्तदशादिसर्व्वबंधस्थानंगळमष्टादिसर्वोदय स्थानंगळमप्पुवु । स २१ । बं १७ । १३ । ९ । ५ । ४ । ३ । २ । १ ॥ उ ८७ । ६ । ५ । ४ । २ । १ ॥ पंचचतुर्द्वयं द्वयोः त्रयोदशद्व । दश सत्त्वस्थानाधिकरणंगळे रडरोळं पंचचतुबधस्थानं गळं द्विप्रकृतिस्थानोदयमुमप्पुवु । स १३ । बं५ । ४ । उ २ । स १२ । बं५ । ४ । उ२ ॥ ततः पंचचतुष्कद्वद्येकं बळिक्कमेकादशप्रकृतिसस्वस्थानाधिकरणदोळु पंचचतुःप्रकृतिबंध स्थानद्वयमुं द्वयेक प्रकृत्युदयस्थानद्वयमुमक्कुं । स ११ । बं ५ । ४ । उ२ । १ ॥ चतुरेकं पंचप्रकृतिसत्त्व१५ स्थानाधिकरणदोळ चतुः प्रकृतिबंधस्थानमुं एकप्रकृत्युदयस्थान मुमक्कुं । स ५ । बं४ । उ १ । चतुस्त्रीण्येकं च चतुः प्रकृतिसस्वस्थानाधिकरणवोळ चतुःप्रकृतिबंधस्थानमुं त्रिप्रकृतिबंधस्थानमुमेकप्रकृत्युदयस्थानमुमक्कुं । स ४ । ४ । ३ । उ १ ॥ २० सत्तरसादि अडादी सव्वं पण चारि दोणि दुसु तसो । पंचचउक्कदुगेकं चदुरिगि चदु तिष्णि एकं च ॥ ६७१ ॥ सप्तदशकादीनि सर्वाणि । उदयस्थानानि नवकाद्यष्टकं । त्रयोविंशतिकद्वाविंशतिकयो बंघस्थानानि सप्तदशकादित्रयं, उदयस्थानानि नवकादिपंचकं ॥ ६७० ॥ एकविंशतिके बन्धस्थानानि सप्तदशकादीनि सर्वाणि । उदयोऽष्टकादिः सर्वः । त्रयोदशकद्वादशकयो बंध: पंचकचतुष्के द्वे, उदयो द्विकं । ततः एकादशके बन्धः पंचकचतुष्के द्वे उदयः द्विकैके द्वे । पंचके बन्धश्चतुष्कं उदय एककं । चतुष्के बन्धश्चतुष्कत्रि के द्वे उदय एककं ॥६७१ ॥ अठाईसके सत्त्वमें किसी जीवके दसका, किसीके नौका आदि उदय पाया जाता है । सत्ताईस और छब्बीसके सत्त्वस्थान में बन्धस्थान बाईसका ही है । उदयस्थान दस आदि २५ तीन हैं। चौबीसके सत्वस्थानमें बन्धस्थान सतरह आदि सब हैं। उदयस्थान नौ आदि सब आठ हैं । तेईस और बाईस के सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान सतरह आदि तीन हैं। उदयस्थान नौ आदि पाँच हैं ||६७०॥ ' इक्कीसके सरवस्थान में बन्धस्थान सतरह आदि सब हैं । उदयस्थान आठ आदि सब हैं | तेरह और बारह के सत्त्वस्थान में बन्धस्थान पाँच और चार दो हैं । उदय दोका ही ३० है । ग्यारह के सत्त्वस्थान में बन्ध पाँच और चार दोका है और उदय दो और एकका है । पाँचके सत्वस्थानमें बन्ध चारका और उदय एकका है। चारके सत्वस्थानमें बन्ध चार और तीनका तथा उदय एकका ही है ||६७१ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तत्ती तियदुगमेकं दुप्पयडी एकमेकठाणं च । afrorist चरिमे एकदओ मोहणीयस्स ||६७२ ।। ततस्त्रयद्वयमेकं द्विप्रकृत्येकमेकस्थानं च । एक नभो बंधश्चरमे एकोदयो मोहनीयस्य ॥ ततस्त्रयद्वयमेकं वळिकं त्रिप्रकृतिसत्त्वस्यानाधिकरणदोळ त्रिप्रकृतिबंधस्थानमुं द्विप्रकृतिबंधस्थानमुमक्कुमेक प्रकृत्युदयस्थानमुमक्कुं । स ३ । बं ३ । २ । उ १ ॥ द्विप्रकृत्येकस्थानं च द्विप्रकृतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळु द्विप्रकृतिबंधस्थानमुमेकप्रकृतिबंधस्थानमुमेक प्रकृत्युदयस्थान मुमक्कुं । स २ । बं २ । १ । उ १ ॥ एकं नभोबंधश्चरम एकोदयो मोहनीयस्य मोहनीयद चरमैकप्रकृतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळ एक प्रकृतिबंधस्थानमुं बंध शून्यमुमक्कु । मेकप्रकृत्युदयमवकुं । स १ । बं १ | ० | १ ॥ समुच्चय संदृष्टि : स २८ । बं २२ । २१ । १७ । १३ । ९ । ५ । ४ । ३ । २ । १ ॥ १००३ ५ । ४ । २ । १ ।। स २७ । बं २२ । उ १० । ९ । ८ ।। स २६ । बं २२ । उ १० । ९ । ८ । स २४ । बं १७ । १३ । ९ । ५ । ४ । ३ । २ । १ ॥ उ ९ । ८ । ७ । ६ । ५ । ४ । २ । १ ।। स २३ । बं १७ । १३ । ९ ॥ उ ९ । ८ । ७ । ६ । ५ ।। स २२ । बं १७ । १३ । ९ ॥ उ९ | ८ | ७ | ६ । ५ । सं २१ । बं १७ । १३ । ९ । ५ । ४ । ३ । २ । १ ॥ उ८।७ । ६।५ । ४ । २ । १ ।। स १३ । बं५ । ४ । उ २ ।। स १२ । बं ५ । ४ । उ २ । स ११ । बं ५ । ४ । उ २ । १ ॥ स५ । बंध ४ । उ १ । १५ बं ३ । २ । उ १ । स २ । बं २ । १ । उ १ । स १ । बं १ । स ४ । बृंं ४ ॥ ३ ॥ उ १ । स ३ । ० । उ १ ॥ अनंतरं मोहनीयबंधोदयसत्त्वस्थानत्रिसंयोगदोळ द्विस्थानाधारमेकस्थानादेयमं पेलव प्रकार पेदपरु : उ १० । ९ । ८ । ७ । ६ । १० बंधुये सत्तपदं बंधंसे णेयमुदयठाणं च । उदयं से बंधपदं दुट्ठाणाधारमेक्कमाधेज्जं ॥६७३॥ बंधोदये सवपदं बंधांशे ज्ञेयमुदय आदेयश्च उदयांशे बंधपदं द्विस्थानाघारमेकमाधेयं ॥ ततस्त्रि के बन्धः त्रिकद्विके द्वे उदय एककं द्विके बन्धः द्विकैरुके द्वे उदय एककं मोहनीयस्यैकैके बन्ध एककं शून्यं च उदय एककं ॥ ६७२ ॥ अथ मोहनीयस्य बन्धादित्रये द्वयमाधारमेकं वाधेयं कृत्वाह ५ आगे तीनके सत्त्वस्थानमें बन्ध तीन और दोका और उदय एकका ही है। दोके २५ सत्त्वस्थानमें बन्ध दो और एकका तथा उदय एकका ही है। मोहनीयके एक के सत्त्वस्थानमें बन्ध एकका अथवा शून्य (बन्धका अभाव ) उदयस्थान एकका ही है ||६५२ ॥ आगे मोहनी के बन्धादि तीनमें से दोको आधार और एकको आधेय बनाकर कथन करते हैं २० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००४ गोकर्मकाण्डे बंधोदयस्थानद्वयाधारदोल सत्त्वस्थानादेयमुं बंधसत्त्वस्थानद्वयाधारदोळुदयमादेयमु दयसत्त्वस्थानाधारदोळ बंधस्थानादेयमुमितु द्विस्थानाधारमेकमादेयमुं ज्ञातव्यमक्कुंब उ | बंस | उस | स | उ | बं। अनंतरमी त्रिप्रकारंगळोळ मोदल बंधोदयाधारसत्त्वादेय प्रकारमं गाथाषट्कदिदं पेळ्दपरु : बावीसेण णिरुद्धे दसचउरुदये दसादिठाणतिये । अट्ठावीसतिसत्तं सत्तदये अट्ठवीसेव ॥६७४॥ द्वाविंशत्या निरुद्ध दशचतुरुदये दशादिस्थानत्रितये। अष्टाविंशति त्रिसत्वं सप्तोदयेऽष्ट विशतिरेव ॥ द्वाविंशतिबंदिदोडने निरुद्धनागुत्तिई जीवनोळ उदयिसुत्तिई दशादिचतुरुदयस्थानंगळोळ दशायुदयस्थानत्रयदोळ अष्टाविंशत्यादित्रिस्थानसत्वमक्कुं। आ सप्तप्रकृत्युदयस्थानदोळष्टाविंशतिसप्तसत्वस्थानमोदेयक्कुं। बं २२ । उ १०।९। ८ स २८। २७ । २६ । मत्तं बंध २२ । उ ७। स२८॥ इगिवीसेण णिरुद्धे णवयतिये सत्तमट्ठवीसेव । सत्तरसे णवचदुरे अडचउतिदुगेक्कवीसंसा ॥६७५॥ एकविंशत्या निरुद्ध नवत्रये सत्वमष्टाविंशतिरेव । सप्तदशसु नवचतुर्वष्ट चतुस्त्रिद्वयेक १५ विशतिरंशाः॥ १० बन्धोदये सत्त्वं बन्धसत्त्वे उदय उदयसत्त्वे बन्ध इति त्रिधा द्विस्थानाधारकस्थानाधेयो ज्ञातव्यः॥६७३॥ तत्र प्रथमं प्रकरणं गाथाषट्केनाह द्वाविंशतिकबन्धेन निरुद्ध जीवे सम्भविषु दशकादिचतुरुदयस्थानेषु मध्ये सत्त्वमष्टाविंशतिकादित्रयं । सप्तकेऽष्टाविंशतिकमेव ॥६७४॥ बन्धस्थान और उदयस्थानमें सत्त्वस्थान, बन्धस्थान और सत्त्वस्थानमें उदयस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान इस प्रकार दो स्थानोंको आधार और एक स्थानको आधेय बनाने के तीन प्रकार हैं ॥६७३।। विशेषार्थ-इतनेका बन्ध और उदय जिसके होता है उसके इतनेका सत्त्व पाया जाता है । यहाँ बन्ध उदय आधार और सत्त्व आधेय होता है। जिसके इतनेका बन्ध और २५ इतनेका सत्त्व होता है उसके इतनेका उदय होता है। यहाँ बन्ध सत्त्व आधार और उदय आधेय होता है। जिसके इतनेका उदय और इतनेका सत्त्व होता है उसके इतनेका बन्ध पाया जाता है । यहाँ उदय सत्त्व आधार और बन्ध आधेय होता है। इस तरह तीन प्रकार होते हैं ॥६७३॥ इनमें से प्रथम प्रकारको छह गाथाओंसे कहते हैं बाईसके बन्ध सहित जीवके सम्भव दस आदि चार उदयस्थान हैं। उनमें से दस आदि तीनमें तो सत्त्व अठाईस आदि तीनका है। किन्तु सातके उदयस्थानमें सत्त्व अट्ठाईसका ही है ॥६७४॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १००५ एकविंशति प्रकृतिबंधस्थानदिदं सिक्कुत्तं विई जीवनोळुदयिसुत्तिई नवाघुदयस्थानत्रय. दोळष्टाविंशतिसत्वस्थानमोंदेयकुं। बं २१ । उ ९॥ ८॥७॥ स २८ ॥ सनदश प्रकृतिबंधस्थानवोडनुदयिसुव नवाद्युदय चतुःस्थानंगळोळु अष्टचतुस्त्रिद्वयकविंशति सत्वस्थानंगळप्पुवल्लि : इगिवीसं णहि पढमे चरिमे तिदुवीसयं ण तेरणवे । अडचउ सगचउरुदये सत्तं सत्तरसयं व हवे ॥६७६॥ एकविंशतिन हि प्रथम चरमे त्रिद्विविंशतिनं त्रयोदशनवस्त्रष्ट चतुः सप्तचतुरुदये सत्वं सप्तदशवद्भवेत् ॥ एकविंशतिन हि प्रथम चरमे त्रिवि विशतिर्न सप्तदशप्रकृतिबंधकन प्रथम नवोदयस्थानदोळु एकविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमिल्ला । चरम षट्प्रकृत्युदयस्थानदो त्रिद्वियुतविंशति सत्वस्थानद्वयमिल्ल । बं १७ । उ ८॥७॥स २८॥ २४ । २३ । २२ । २१ । मत्तं बं १७। उ९। १० स २८ । २४ । २३ । २२ । मत्तं बं १७। उ६। स २८ । २४ । २१ ॥ त्रयोदशबंधक नवबंधकर गळष्टाविसप्तादि चतुरुदयस्थानंगळोळु क्रमदिदं सत्वस्थानंगळ सप्तदशबंधकनोळ पेन्दंतेयप्पुवु। बं १३ । उ८। स २८ । २४ । २३ । २२ ॥ मत्तं बं १३ । उ ७।६ स २८ । २४ । २३ । २२। २१ । मत्तं बं १३ । उ ५। स २८ । २४ । २१ । बं ९। उ७। स २८ । २४ । २३।२२। मत्तं बं ९। उ ६।५।स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ । मत्तं बं ९ । उ ४ । स २८ ॥ २४ ॥ २१ ॥ १५ णवरि य अपुन्य गवगे छादितियुदयेवि पत्थि तिदेवीसा । पणबंधे दोउदये अडचउरिगिवीसतेरसादितियं ॥६७७॥ नवीनं च अपूर्वनवके षडाविज्युदयेपि नास्ति त्रिद्विविंशतिः। पंचबंधे द्वयु वयेऽष्टचतुरेक विशतित्रयोदशावित्रिकं ॥ एकविंशतिकबन्धेन निरुद्ध जीवे उदयन्नवकादित्रये सत्त्वमष्टाविंशतिकमेव । सप्तदशकबन्धेनोदयन्नवका- २० दिचतुर्षु सत्त्वमष्टचतुस्त्रिद्वयेकानविंशतिकानि ॥६५॥ किन्तु नवकोदये एकविंशतिकं नहि, षट्कोदये च न त्रयोविंशतिकद्वयं । त्रयोदशकबन्धेऽष्टकादिषु नवकबन्धे सप्तकादिषु च चतुर्वृदयस्थानेषु क्रमेण सत्त्वं सप्तदशबन्धवद्भवति ॥६७६॥ इक्कीसके बन्ध सहित जीव के नौ आदि तीनके उदयमें सत्त्व अठाईसका है। सतरहके बन्ध सहित जीवमें नौ आदि चारके उदयमें सत्त्व अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और २५ इक्कीसका है ॥६७५।। किन्तु नौके उदयमें इक्कीसका सत्त्व नहीं होता । और छह के उदयमें तेईस-बाईसका सत्त्व नहीं होता। तेरहके बन्ध सहित आठ आदि चार उदयस्थानोंमें और नौके बन्ध सहित सात आदि चार उदयस्थानोंमें क्रमसे सत्त्व सतरहके बन्धसहितमें जैसे कहा है वैसे ही जानना ॥६७६।। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००६ गो० कर्मकाण्डे अपूर्वकरण नवबंधकनोळु विशेषमुंटदाउदोडे षडादित्रिस्थाननोवयवोल त्रिवपत्तर विशतिसत्वस्थानद्वयमिल्ल । बं९ । उ ६।५। ४ । स २८ ॥ २४ ॥ २१॥ पंचबंधकन विप्रकृतिस्थानोदयदोळु अष्टचतुरेकविंशतित्रयोदशादि त्रिस्थानसत्वमक्कुं। बं ५ । उ २॥ स २८॥ २४ ॥ २१ । १३ । १२ । ११॥ चदुबंधे दोउदये सत्तं पुव्वंव तेण एक्कुदये । अडचउरेक्कावीसा एयारतिगं च सत्ताणि ॥६७८॥ चतुबंधे द्वच क्ये सत्वं पूर्ववत् तेनेकोवये अष्टचतुरेकविंशत्येकादश त्रयं च सत्वानि ॥ चतुब्बंधकन द्विप्रकृत्युदयस्थानबोलु मुन्नं पंचबंधकनोळु पेळ्द सत्वस्थानंगळेयप्पुवु । बं ४। उ २। स २८ । २४ । २१ । १३ । १२। ११ । तेन सह बा चतुबषस्थानदोडनुदयिसुत्तिर्दृक प्रकृतिस्थानवोळ अष्टचतुरेकविंशति एकादशादित्रिस्थानंगळं सत्वमप्पुवु । बं ४ । उ १। स २८ । १० २४ । २१ । ११ । ५॥४॥ तिदुइगिबंधेक्कुदये चदुतियठाणेण तिदुगठाणेण । दुगिठाणेण य सहिदा अडचउरिगिवीसया सत्ता ॥६७९॥ त्रिद्वेचकबंधैकोवये चतुस्त्रिकस्थानेन त्रिद्विकस्थानेन । द्वय कस्थानेन च सहितान्यष्ट चतुरेकविंशति सत्वानि ॥ त्रिबंधद्विबंधएकबंधयुतरुगळ एकप्रकृत्युदयस्थानंगळोळ क्रमविवं चतुस्त्रिस्थानद्वययुतंगळं त्रिद्विस्थानद्वययुतंगळू द्वघेकस्थानद्वययुतंगळुमप्प अष्टचतुरेकविंशतिसत्त्वस्थानत्रयंगळमप्पुवु । बं | उ स २८1 २४ | २१। ४।३। बं २। उ स २८॥ २४।२१।३। २। बं १ तत्रापूर्वकरणनवकबन्धे षट्कादित्रयोदयेन त्रयोविंशतिकद्वयमस्तीति (-र्य नास्तीति) विशेषः पंचकबन्धस्य द्विकोदये सत्त्वमष्टचतुरेकाप्रविशतिकानि त्रयोदशकादित्रयं च ॥६७७॥ चतुष्कबन्धस्य द्विकोदये सत्त्वं पंचबन्धवद्भवति । चतुष्कबन्धस्यैककोदये त्वष्टचतरेकानविंशतिकान्येकादशकादित्रयं ॥६७८॥ त्रिकद्विकैकबन्धिष्वैककोदये सत्त्वमष्टचतरेकानविंशतिकानि पुनः क्रमेण चतुष्कत्रिकाम्यां त्रिकद्विकाम्यां किन्तु इतना विशेष है कि अपूर्वकरणमें नौके बन्धसहित छह आदि तीन उदयस्थानों-, में तेईस और बाईसका सत्व नहीं है। पांचके बन्धसहित दोके उदयमें सत्त्व अठाईस, २५ चौबीस, इक्कीस तथा तेरह आदि तीनका होता है ।।६७७॥ चारके बन्धके साथ दोके उदयमें सत्त्व पाँचके बन्ध सहितमें जैसा कहा वैसा जानना। चारके बन्धके साथ एकका उदय होते सत्व अठाईस, चौबीस, इक्कीस तथा ग्यारह आदि तीनका जानना ॥६७८॥ तीन, दो, एकके बन्धके साथ एकके उदयमें सत्त्वस्थान अठाईस, चौबीस, इक्कीसका ३० तथा तीनके बन्धसहितमें चार और तीनका, दोके बन्ध सहितमें तीन और दोका, एकके . Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १००७ उ।१। स २८ । २४ । २१।२।१॥ समुच्चय संदृष्टि-बं २२। उ १०। ९।८। स २८ । २७ । २६ । बं २२ । उ ७। स २८। बं २१ । उ ९८।७। स २८ । बं १७ । उ९ । स २८ । २४ । २३ । २२ । बं १७ । उ८।७। स २८ । २४ । २३ । २२। २१ । बं १७। उ६। स २८ । २४ । २१ । बं १३ । उद ८ स २८ । २४ । २३ । २२ । बं १३ । उ ७ । स २८१२४ । २३ । २२। २१ । बं १३ । उ ५ । स २८ । २४ । २१ । बं ९ । उ ७ । स २८ । २४ । २३ । २२ । बं ९। ५ उ६।५ । स २८ । २४ । २३ । २२ । २१ । बं ९ । उ ४ । स २८ । २४ । २१ ॥ अपूर्वकरण बं ९ । उ ६ । ५ । ४ । स २८ । २४ । २१ । बं ५। ४ । उ २। स २८ । २४ । २१ । १३ । १२ । ११ । बं ४। उ१। स २८ । २४ । २१ । ११ । ५ । ४ । बं३। उ १। स २८ । २४ । २१ । ४।३। बं २ । उ१। स २८ । २४ । २१ । ३।२। बंध १। उ १। स २८ । २४ । २१ । २॥१॥ ई रचनाभिप्रायं पेळल्पडुगुमे ते दोडे मोहनीयबंधप्रकृतिगळ सर्वमं षड्विंशतिप्रमितंगळप्पु १० ववरोळु द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं मिथ्यादृष्टि कटुगु। मा मिथ्यादृष्टियुं चतुर्गतिजनक्कुमातंग. पुनरुक्तंगळं मिथ्यात्वकर्मयुतदशादिचतुरुदयस्थानंगळप्पुववुमनंतानुबंधिकषायोदयसहितरहितभेददिने टुमुदयकूटंगळोळ संभविसुगुमल्लि दशाादयत्रिस्थानंगळेकजीवापेयि क्रमदिवमुदायिसुववु । नानाजीवापेक्षयि युगपदुदयिसुवा द्वाविंशतिप्रकृतिबंधमुं दशादित्रिस्थानोवयंगळोळेकतरस्थानोदयमनळ्ळ जीवंगेकजीवापेक्षेयिद अष्टाविंशतित्यादिसत्त्वस्थानत्रयदोळेकतरस्थानं सत्त्वमक्कुं। १५ नानाजीवापेक्षयि त्रिस्थानंगळं युगपत्सत्त्वंगळप्पुवु । मत्तमा द्वाविंशतिप्रकृतिबंधकमिथ्यावृष्टिगे अनंतानुबंधिरहितोदयसप्तप्रकृतिस्थानोदयमक्कुमा जीवनोळु अष्टाविंशतिप्रकृतिसत्त्वस्थानमो. यक्कुमदेते दोडा मिथ्यादृष्टिजीवं परगसंयतादिचतुग्गुणस्थानंगळोळेल्लियानुमिईनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमं मपेळ्द क्रमदिदं विसंयोजिसि किडिसि मिथ्यात्वकर्मोदयदिदं मिथ्यादृष्टियागि द्विकैकाम्यां च युतानि । अत्रायमर्थ: मोहस्य सर्वबन्धप्रकृतिषु चतुर्गतिमिथ्यादृष्टी द्वाविंशतिकबन्धे मिथ्यात्वयुतानन्तानुबन्धियुतवियुताष्टकुटसम्भूताऽपुनरुक्तदशकादिचतुरुदयस्थानेष्वेकजीवापेक्षया क्रमेण नानाजीवापेक्षया युगपत्सम्भवत्सु त्रिष सत्वमेकजीवापेक्षयाष्टाविंशतिकादित्रयं क्रमेण, नानाजीवापेक्षया युगपत् । सप्तोदयस्थाने तु अष्टाविंशतिमेव न सप्तविंशतिकषर्विशतिके । कुतः ? असंयतादिषु चतुर्वेकत्रानन्तानबन्धिनो विसंयोज्य मिथ्यात्वोदयान्मिथ्या बन्धसहितमें दो और एकका इस तरह पांच-पांच सत्त्वस्थान होते हैं। इसका अर्थ इस ॥ प्रकार है मोहनीयकी सर्वबन्ध प्रकृतियों में चारों गतिका मिथ्यादृष्टी जीव बाईसका बन्ध करता है। उसके मिथ्यात्व सहित और अनन्तानुबन्धी सहित तथा रहित आठ कूट कहे थे। उनसे उत्पन्न अपुनरुक्त दस आदि चार उदयस्थानों में एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा युगपत् सम्भव तीनमें तो सत्व एक जीवकी अपेक्षा तो क्रमसे और नाना जीवोंकी अपेक्षा युगपत् अठाईस आदि तीनका होता है। किन्तु सातके उदयस्थानमें अठाईसका ही सत्त्व है, सत्ताईस और छब्बीसका नहीं है। क्योंकि असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एकमें अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्या क-१२७ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T गो० कर्मकाण्डे तत्प्रथमसमयदोळु द्वाविंशतिप्रकृतिबंधकनप्पुरिदमनंतानुबंधियुमनल्लि एकसमयप्रबद्धमं कटुगुमंतु कट्टिद समयप्रबद्धक्कुदोरणेयं माळ्पडमोदचलावळि पयंतमाबाधकालमप्पुदरिनुदयावलियोळिक्कल्बारददु कारणमचलावलिकालपथ्यंतमनंतानुबंधिरहितमिथ्यादृष्टियेंदु पेळल्पट्टना मिथ्यादृष्टिगे वेदककालमं कळिदुपशमकालदोळल्लदे सम्यक्त्वप्रकृतियुमं सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियु५ मनुद्वेल्लनमं माडल्बारदरिवं सप्तविंशति षड्विंशतिस्थानद्वयसत्वं संभविसदप्पुरिदं। एकविंशति प्रकृतिबंध सासादननोळयक्कुमा सासादन- चतुर्गतिजनक्कुमा जीवक्केकजीवापेक्षयि नवाद्य दयत्रिस्थानंगळोळन्यतरस्थानोदयमक्कुं । नानाजीवापेयिद युगपत्रिस्थानोदयमक्कुमा सासादनंगष्टाविंशतिस्थानमो दे सत्त्वमक्कुमे दोडा सासादनं मुन्नं सादिमिथ्यादृष्टियादोडमनादिमिथ्या दृष्टियावोडं करणत्रयपरिणामदिदं दर्शनमोहनीयमनुपशमिसियसंयतादिचतुग्गुणस्थानमं यथा१. योग्यमं पोहि तत्सम्यक्त्वकालदोळ मिथ्यात्वप्रकृतियत्तणिदं गुणसंक्रमविधानदिदं मिश्रसम्यक्त्व. प्रकृतिगळनुपाजिसि तत्सम्यक्त्वकालमावलिषट्कमवशिष्टमादागळा कालप्रथमसमयं मोदल्गोंडु पडावलिचरमसमयपय्यंतमल्लियादोडमनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सासादननक्कुमप्पुरिदं सम्यक्त्व. प्रकृत्युद्वेल्लितसप्तविंशतिसत्त्वमुं मिश्रप्रकृत्युद्वेल्लितषड्विंशतिसत्त्वम् संभविसवु । चतुविशति सत्त्वस्थान, संभविसदेके दोडनंतानुबंधिविसंयोजकरु असंयतादिचतुर्गुणस्थानत्तिगळु नियम१५ दिवं वेदकसम्यग्दृष्टिगळेयप्पुरिदमवरोळत्तलानुं मिथ्यात्वकर्ममुदयिसि मिथ्यादृष्टिगळेयप्परप्पु दृष्टित्वं गतः तत्प्रथमसमये द्वाविंशतिकबन्धे बद्धानन्तानुबन्ध्येकसमयप्रबद्धस्य तदुदीरणाया अचलावलिकालमसम्भवात्तदुदयरहितस्य तस्य सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिवेदककालत्वादुपशमकालाभावात्सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्यनुद्वेल्लनात् । चतुर्गतिसासादनकविंशतिकबन्धे एकजीवापेक्षया क्रमेण नानाजीवापेक्षया युगपदुदयन्नवकादिश्युदयस्थानेषु सत्त्वमष्टाविंशतिकमेव न सप्तविंशतिकषड्विंशतिके । कुतः ? उपशमसम्यक्त्वादेव सासादने गमना२० त्तत्स्थितेश्चैकसमयात्षडावलिपर्यतसमयोत्तरकालविकल्पात्मकत्वात्सम्यक्त्व मिश्रप्रकृत्युद्वेल्लनावसरस्योपशम काल स्यानवतारात् । नापि चतुविशतिकं, अनन्तानुबन्धिविसंयोजकानां नियमेन वेदकसम्यग्दृष्टित्वात्सासादने नागम दृष्टि होकर वहां प्रथम समयमें बाईसका बन्ध किया। उसमें बाँधी गयी अनन्तानुबन्धीके एक समयप्रबद्धकी उदीरणा अचलावली काल पर्यन्त तो सम्भव नहीं है। और अनन्तानु बन्धीके उदयरहित उस जीवके सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयका वेदककाल है, २५ उपशम काल नहीं है। इससे उसके सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना नहीं होती। पूर्व में वेदककाल और उपशमकालका लक्षण कह आये हैं और वेदककाल में इनकी उद्वेलनाका अभाव भी कह आये हैं। चारों गतिके सासादनमें इक्कीसका बन्ध है। उसमें एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे और नाना जीवोंकी अपेक्षा युगपत् नौ आदि तीन उदयस्थान हैं। उनमें अठाईसका ही सत्त्व है, ३० सत्ताईस या छब्बीसका नहीं है क्योंकि उपशम सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर सासादन होता है। उसकी स्थिति एक समयसे लगाकर एक-एक समय बढ़ते हुए छह आवली पर्यन्त होती है। और सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना उपशमकालमें ही होती है वह यहाँ सम्भव नहीं है। तथा यहाँ चौबीसका भी सत्त्व सम्भव नहीं है; क्योंकि अनन्तानुबन्धीका Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १००९ दरिदं सप्तदशप्रकृतिबंधं मिश्रनोळमसंयतनो मक्कुमवर्गळ चतुर्गतिजरप्परल्लि । मिश्रनोळ नवादित्रितयोदयस्थानं गळऽपुनरुक्तंगळेकजीवापेक्षय क्रमविनुदयिसुववु । नानाजीवापेक्षयदं युगपदुदयंगळप्पुवल्लियष्टाविति चतुव्विशतिस्थानद्वयं । नानाजीवापेक्षयदं युगपत्सवंगळुमप्पुवेक जीवापेक्ष यिनन्यतरत्सत्त्वमक्कु । त्रयोविंशतिद्वाविंशतिस्थानद्वयं सत्त्वमिल्लेके दोडे मिश्रप्रकृत्युदयमुलंगे दर्शनमोहनीयक्षपणाप्रारंभ संभविसदरदरदं । मत्तमा सप्तदशप्रकृतिबंधकासंयतनुं चतुर्गतिजनक्कुमातनोळु नवादिचतुरुदयस्थानं गळेकजीवापेक्षयि नन्यतरप्रकृतिस्थान मुदयितुं । नानाजीवापेक्षेयिं चतुरुदयस्थानंगलं युगपदुदयिसुववु । अल्लि सप्तदशस्थानबंधमुं नवप्रकृत्युदयमुळं वेदकसम्यग्दृष्टियक् कुमप्पुरिव मल्लि येकजीवापेक्षयिदमष्टाविंशति चतुव्विंशति त्रयोविंशति द्वाविंशति सत्वस्थानंगळोळन्यतरत्सत्वमक्कुं । नानाजीवापेक्षेय युगपत्सत्वंगळप्पुवल्लि | एकविंशतिस्थानं संभविसदे बुदु सिद्ध मक्कुमेके दोडा सत्वस्थानं क्षायिक सम्यग्दृष्टियोल्लदेल्लियुं घटिघिसदरपुदरिदमोतं वेदकसम्यग्दृष्टियप्रदं दर्शनमोहनीयक्षपणाप्रारंभकत्वं कर्मभूमि मनुष्यासंयतनो संभविसुगुमप्पुर्दा रिदमनंतानुबंधि रहित सत्वस्थानमुं मिथ्यात्व रहित सत्वस्थानमुं मिश्रप्रकृतिरहितसत्वस्थानमुमिल्लि पेळल्पट्टुवु । मत्तमा सप्तदश प्रकृतिबंध का संयत सम्यग्दृष्टिगष्टसप्तोदयस्थानद्वयं सम्यक्त्वत्रययुतजीवसाधारणोदयस्थानं गळप्पुदरिदमेकजीवापेक्षयिदमेकतरस्थानोदयमक्कुं । नानाजीवापेक्षयदं युगपदुयि- १५ १० २० नात् । चतुर्गतिमिश्रसप्तदशकबन्धे एकजीवापेक्षया क्रमेण नानाजीवापेक्षया युगपदुदयन्नवकादित्र्युदयस्थानेषु सत्त्वमष्टाविंशति कचतुविशति के नानाजीवापेक्षया युगपदेकजीवापेक्षया क्रमेण न त्रयोविंशतिकद्वाविंशतिके । कुतः ? मिश्रोदये दर्शनमोहस्य क्षाणाप्रारम्माभावात् । चतुर्गत्य संयम सप्तदशकबन्धे एकजीवापेक्षया क्रमेण नानाजीवापेक्षया युगपदुदयचतुरुदयस्थानेषु नवकोदये सत्वं वेदकसम्यग्दृष्टित्वाद्दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भादनन्तानुबन्धिमिथ्यात्व मिश्रसहित रहितस्थानसम्भवात् । कर्मभूमिमनुष्ये एकजीवापेक्षयाष्टचतुस्त्रिद्वय प्रविशतिकानि क्रमेण नानाजीवापेक्षया युगपत् नैकविंशतिकं क्षायिकसम्यग्दृष्टावेव तत्सत्वात् । अष्टकसप्त कोदये सवं विसंयोजन वेदकसम्यग्दृष्टी के ही होता है, और वेदक सम्यग्दृष्टी सासादन में आता नहीं है । चारों गति सम्बन्धी मिश्रगुणस्थान में सतरहका बन्ध होता है । वहाँ एक जीव की अपेक्षा क्रमसे और नाना जीवकी अपेक्षा युगपत् नौ आदि तीन उदयस्थान हैं। उनमें अठाईस और चौबीसका हो सत्व है तेईस या बाईसका नहीं; क्योंकि मिश्रमोहनीय के उदयमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं होता । २५ चारों गतिके असंयत में सतरहका बन्ध है । वहाँ एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे और नाना जीवों की अपेक्षा युगपत् चार उदयस्थान होते हैं । उनमें से नौके उदय रहते वेदक सम्यग्दृष्टी होता है । अतः दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ होनेसे अनन्तानुबन्धी, मिध्यात्व और मिश्रमोहनीय से सहित तथा रहित सत्त्वस्थान हो सकते हैं । अतः कर्मभूमिया मनुष्य में एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे और नाना जीवोंकी अपेक्षा युगपत् अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईसका सत्त्व सम्भव है । इक्कीसका सत्व क्षायिक सम्यग्दृष्टीके ही होता है अतः वह सम्भव नहीं है । तथा आठ और सातके उदयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें अठाईसका ही ३० Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१० गो० कर्मकाण्डे पुल्लि प्रथमोपशमसम्यादृष्टयपेयिंदमष्टाविंशतिस्थानमोंदे सत्वमकुं। द्वितीयोपशम सम्यग्दष्टयपेक्षेयिंदमष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयं सत्वमकुं। वेदकसम्यग्दृष्टयपेक्षेपिदमष्टाविंशति चतुविशति त्रयोविंशतिद्वाविंशतिस्थानंगळोळेक जीवापेक्षायद मन्यतरत्सत्वमक्कुं। नानाजीवापेक्षे. यिंदं युगपत्सत्वंपळप्पुवु। क्षायिकसम्यग्दृष्टयपेक्षयिदमेकविंशतिस्थानमो दे सत्वमक्कु। मत्तमा सप्तदशस्थानबंधकंगे षट्प्रकृत्युदयस्थानमुदइसिदोडातं क्षायिक सम्यग्दृष्ट्यसंयतनुमुपशमसम्यग्दृष्टय. संयतनक्कुमेके दोडातनुदयकूटदोळ सम्यक्त्वप्रकृतिरहितमागि कषायत्रयमुमेकवेदमुं हास्यरत्यादिद्विकद्वयदोनोंदु द्विकमुमंतु षट्प्रकृतिगळप्पुवापुरिंदमल्लि एकविंशतिस्थानमो दे सत्वं क्षायिकसम्यादृष्टयसंयतनोळक्कु-। मुपशमसम्यग्दृष्टयसंयतनोळु अष्टाविंशति चतुम्विशतिस्थानद्वय सत्वमक्कुं। त्रयोदश प्रकृतिबंधकं देशसंयतनेयक्कुमा देशसंयतनुपशमसम्यग्दृष्टियुं वेदकसम्यग्दृ१० ष्टियुमप्प तिय्यंचनुमुपशमवेदकक्षायिकसम्यग्दृष्टियप्प मनुष्यनुमक्कु मातंगे अष्टप्रकृतिस्थानादि चतुरुवयस्थानंगळप्पुवल्लि-। यष्टप्रकृत्युदयस्थानं वेदकसम्यग्दृष्टितिर्यग्मनुष्यरोळक्कुमल्लि अष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयं तिय्यंचदेशसंयतनोळ सत्वमक्कुमष्टाविंशति चतुविशति त्रयोविंशति द्वाविंशति सत्वस्थानचतुष्टयं मनुष्यवेदकसम्यग्दृष्टि देशसंयतनोळक्कु । सप्त षट्प्रकृत्युदयस्थानद्वयमुपशमवेदकक्षायिकसम्यग्दृष्टिसाधारणोदयस्थानंगळप्पुरिंदमुपशमसम्यग्दृष्टि १५ तिय्यंग्मनुष्यवेशसंयतरोळु अष्टाविंशति चतुग्विशतिस्थानद्वय सत्वमक्कु । तिय्यंचवेदक. सम्यग्दृष्टियोळमा सत्वस्थानद्वयमेयवकु। मनुष्यवेदकसम्यग्दृष्टियोळु अष्टाविंशतिचतुविशतिप्रयोविंशति द्वाविंशतिसत्वस्थानचतुष्टयमक्कुं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि देशसंयतं मनुष्यमेनक्कुमातंगेकविंशतिसत्वस्थानमो देयक्कु। मत्तमा त्रयोदश प्रकृतिबंधक देशसंयतनोळ पंचप्रकृत्युदय प्रथमोपशमसम्यक्त्वेऽष्टाविंशतिक द्वितीयोपशमसम्यक्त्वे तच्चतुर्विशतिकं च, वेदकसम्यक्त्वे तद्वयं च त्रिद्वयन२० विंशतिके एकजीवापेक्षया क्रमेण नानाजीवापेक्षया युगपत, क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकमेव । षट्कोदये सम्यक्त्वप्रकृतिरहितत्वात् क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकं, उपशमसम्यक्त्वेऽष्टाविंशतिक चतुर्विशतिके द्वे । त्रयोदशकबन्धे देशसंयते तिर्यग्मनुष्योपशमवेदकसम्यक्त्वे मनुष्यक्षायिकसम्यक्त्वे चाष्टकोदये सत्त्वं वेदकसम्यक्त्वे तिरश्च्यष्टचतुरनविंशतिके द्वे, मनुष्ये तवयं च त्रिद्वयनविंशतिके च। सप्तकषट्कोदये तिर्यग्मनुष्योपशम सम्यक्त्योपशमसम्यक्त्वेऽष्ट चतुरविंशतिके द्वे । वेदकसम्यक्त्वे तिरश्चि तवयं, मनुष्ये तद्वयं च २५ सत्त्व है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अठाईस या चौबीसका सत्त्व है । और वेदक सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईसका सत्त्व एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे और नाना जीवकी अपेक्षा युगपत् सम्भव है। क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीसका ही सत्त्व है । छहके उदयमें सम्यक्त्व मोहनीयके न होनेसे क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीसका ही सत्त्व है। उपशम सम्यक्त्वमें अठाईसका या चौबीसका सत्त्व है। तेरहके बन्धसहित देशसंयतमें तिथंच या मनुष्यके उपशम या वेदक सम्यक्त्व होता है । क्षायिक सम्यक्त्व मनुष्यके ही होता है। वहाँ आठके उदयमें सत्व वेदक सम्यक्त्वी तिर्यच में तो अठाईस और चौबीसका तथा मनुष्य में अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईसका है। सात अथवा छहके उदयमें तिर्यच और मनुष्यके उपशम सम्यक्त्वमें तो अठाईस, चौबीसका ३० Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १०११ स्थानमुपशमशायिकसम्यग्दृष्टिगळोळे संभविसुगुमल्लियुपशमसम्यग्दृष्टि तिर्यग्मनुष्य देशसंयतरोळष्टाविंशति चतुविशति सस्वस्थानद्वय मा। क्षायिकसम्यग्दृष्टिमनुष्यनोळु एकविंशति सत्वस्थानमक्कु । नवप्रकृतिबंधकरुगळ प्रमताप्रमत्तसंयतरुगळप्पखर्गळोळु सप्तादिचतुरुदयस्थानंगळप्पुववर्गळमुपशमवेदकक्षायिकसम्यग्दृष्टि गळप्परल्लि वेदकसम्यग्दृष्टिगळोळे सप्तप्रकृतिस्थानोदयमक्कुमवरोळ अष्टाविंशति चतुविशति त्रयोविंशति द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानचतुष्टयं सत्वमक्कु मुपशमवेदक क्षायिकसम्यग्दृष्टिसाधारणोदयषट्पंचप्रकृतिस्थानद्वयमप्पुरिदं मुपशमसम्यग्दृष्टिगळोळ मुन्नं त्रयोदशबंध नोळ पेन्दंते अष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयंसत्वमक्कु। वेदकसम्यग्दृष्टिगळोळु अष्टाविंशतिचतुविशति त्रयोविंशति द्वाविंशति सत्वस्थानंगळप्पुवु। क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळोळु एकविंशतिस्यानमो दे सत्वमक्कु। मत्तमा नवबधकचतुःप्रकृत्युदयस्थानमुमुपशम क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्ताप्रमतरुगळोळक्कु मल्लियुपशमसम्यग्दृष्टिगळोछु अष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयमक्कु। क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळोळकविंशतिसत्वस्थानमो देयक्कु। नवबंधकापूर्वकरणनोळु षट्पंचचतुःप्रकृत्युदयस्थानत्रयमक्कु मल्लियुपशमसम्यग्दृष्टियोळु अष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयं सत्वमक्कु । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळेकविंशतिस्थानमो देसत्वमक्कु। पंचचतुःप्रकृतिबंधकननिवृत्तिकरणनेयक्कु मल्लि द्विप्रकृत्युदयस्थानमो दे. त्रिद्वयविंशतिके च, क्षायिकसम्यक्त्वे देशसंयतस्य मनुष्यत्वादेकविंशतिकमेव । तत्पंचकोदये उपशमसम्यग्दृष्टितिर्यग्मनुष्येऽष्टचतुरविशति के द्वे, क्षायिकसम्यग्दष्टिमनुष्ये एकविंशतिकमेव । नवकबन्धे प्रमत्ताप्रमत्ते चतुर्षदयस्थानेषु सप्तकोदये वेदकसम्यक्त्वे सत्त्वमष्टचतुस्त्रिद्वयाविंशतिकानि ! षट्कपंचकोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरनविंशतिके द्वे । वेदकसम्यक्त्वे तद्वयं च त्रिद्वयप्रविशतिके च । क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकमेव । तच्चतुष्कोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्ट चतुरग्रविशतिके द्वे । क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकमेव । नवकबन्धेपूर्वकरणे षट्कपंचकचतुष्कोदये सत्त्वमुपशमसम्यक्त्वेऽष्ट चतुरप्रविशतिके द्वे । क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकमेव । २० तथा वेदक सम्यक्त्वी तिर्यच में भी वे ही दोनों तथा वेदक सम्यक्त्वी मनुष्यमें अठाईस, चौबीस, तेईस, बाईसका सत्व है। क्षायिक सम्यग्दृष्टी मनुष्य ही होता है । उसके इक्कीसका सत्त्व है। पाँचके उदयमें उपशम सम्यग्दृष्टी तियंच और मनुष्यमें अट्ठाईस और चौबीसका सत्त्व है। क्षायिक सम्यग्दृष्टी मनुष्य में इक्कीसका सत्त्व है। नौके बन्धसहित प्रमत्त अप्रमत्त में चार उदयस्थानों में से सातके उदयमें वेदकसम्यक्त्वी ही होता है । अतः अठाईस, चौबीस, ११ तेईस, बाईसके चार सत्त्व हैं। छह और पाँचके उदयमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस और चौबीसका सत्त्व है । वेदक सम्यक्त्वमें अठाईस चौबीस तेईस बाईसका सत्त्व है। क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीसका सत्त्व है। चारके उदय में उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका सत्त्व है। क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीसका ही सत्त्व है। नौके बन्ध सहित अपूर्वकरणमें छह पाँच या चारके उदयमें उपशम सम्यक्त्वमें .. अठाईस चौबीसका सत्त्व है । क्षायिक सम्यक्त्वमें इकईसका सत्त्व है। पाँच, चारका बन्ध और दोके उदय सहित अनिवृत्तिकरणमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका और झायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, तेरह. बारह, ग्यारहका सत्त्व है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१२ गो० कर्मकाण्डे यक्कुमल्लि युपशमसम्यग्दृष्टियोळ अष्टाविंशति चतुध्विंशति सत्वस्थानमक्कु । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळ येकविंशति त्रयोदशद्वादश एकादश प्रकृतिसत्वस्थान चतुष्टयमक्कु। चतुबंधकमेकप्रकृत्यु. दयानिवृत्तिकरणनोळुपशमसम्यग्दृष्टियोळु अष्टाविंशतिचतुविशतिस्थानद्वयसत्वमक्कु । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळेकविंशति एकादश पंच चतुःप्रकृतिसत्वस्थान चतुष्टयमकु। त्रिःप्रकृतिबंधकमेक. प्रकृत्युदयानिवृत्तिकरण नोपशमसम्यग्दृष्टियोळ अष्टाविंशति चतुविशतिसत्वस्थानद्वयमक्कं । शेष एकविंशति चतुस्त्रिप्रकृतिसत्वस्थानत्रितयं क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळक्कुं। द्विप्रकृतिबंधकमेक प्रकृत्युदयानिवृत्तिकरण नोळपशमसम्यग्दृष्टियोळु अष्टाविंशति चतुविशति सत्वस्थानद्वयमक्कुं। शेष एकविंशति त्रिद्विप्रकृतिसत्वस्थानत्रयं क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळक्कुं। एकप्रकृतिबंधमेक प्रकृत्युदयानिवृत्तिकरणनोळुपशमसम्यग्दृष्टियोळष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयमक्कुं । शेष १० एकविंशतिद्वि एकप्रकृतिसत्वस्यान त्रयं क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळक्कुं। यिल्लियुमोदु विशेषमुंटदाउ देंदोडे क्षपकानिवृत्तिकरणनोळ चतुस्त्रिद्वयकप्रकृतिबंधकनोळ क्रमदिदं पंच चतुश्चतुस्त्रित्रिद्विद्वयकसत्वस्थानंगळोळु पूर्वपूर्वप्रकृतिनवकबंधसत्वमुमुच्छिष्टावलिसत्वं विवक्षिसल्प? वे दरियल्पडुगुं॥ अनतरं बंधसत्वस्थानद्वयाधिकरणमुदयस्थानादेयत्रिसंयोगप्रकारं गाथापंचकदिदं १५ पेळळपडुगुं: पंचचतुष्कबन्धद्विकोदयेऽनिवृत्तिकरणे सत्त्वमुपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरविंशतिके द्वे, क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकत्रिद्वये काग्रदशकानि । चतुकबन्धककोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरग्रविशतिके द्वे, क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिककादशकपंचकचतुष्काणि । त्रिकबन्धैककोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरविंशतिके हे क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकचतुष्कत्रिकाणि । द्विकबन्धककोदयानिवृत्तिकरणे उपशमसम्यक्त्वेष्टचतुरविंशतिके द्वे । क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकत्रिकद्विकानि । एकबन्धकोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरग्रविशतिके द्वे क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकद्विकै कानि । अत्र क्षपकानिवृत्तिकरणे चतुस्त्रिद्वयेकबन्धे क्रमेण पंचचतुश्चतुस्वित्रिद्विद्वये कसत्त्वेषु पूर्वपूर्वनवकबन्धोच्छिष्टावलिसत्त्वे विवक्षिते ज्ञातव्ये ॥६७९॥ अथ बन्धसत्त्व द्विस्थानाधारोदयैकस्थान धेयं गाथापंचकेनाह २० चारका बन्ध और एकके उदय सहितमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका और क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, ग्यारह, पाँच, चारका सत्त्व है। तीनका बन्ध एकके उदयसहितमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस चौबीसका और क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, चार, तीनका सत्त्व है। दोका बन्ध एकके उदय सहित अनिवृत्तिकरणमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका और क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, तीन, दोका सत्त्व है । एकका बन्ध एकके उदयसहितमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका, क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, दो, एकका सत्व है। यहाँ क्षपक अनिवृत्तिकरणमें चार, तीन, दो एकके बन्धमें क्रमसे पाँच चार, चार तीन, तीन दो, दो एकका सत्त्व है। उसमें पूर्वपूर्व वेद और कषायके नवकबद्ध समयप्रबद्धके जो उच्छिष्टावली मात्र निषेक रहते हैं उनकी विवक्षा जानना ॥६७९॥ ___ आगे बन्ध-सत्त्वको आधार और उदयको आधेय मानकर पाँच गाथाओंसे कथन करते हैं ३० Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बावीसे अडवीसे दस चउरुदओ अणे ण सगवीसे । छब्बीसे दस यतियं इगिअडवीसे दु णवयतियं ॥ ६८० || द्वाविंशतावष्टा विशतौ दशचतुरुदयोऽनेन सप्तविंशत्यां । षड्वंशत्यां दशत्रिकं एकाष्टाविशत्यां तु नवकत्रयं ॥ १०१३ चतुर्गतिज द्वाविशति प्रकृतिबंधक मिथ्यादृष्टियोष्टाविंशति प्रकृतिसत्वस्थानमव कुमप्पा- ५ डल्लि वशाद्युदयस्थानचतुष्टयमक्कु मेर्क दोर्ड अल्लिये अनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टि संभविसुगुमध्बरिद । मा द्वाविंशतिप्रकृतिबंधदोडने सप्तविंशति षड्वंशति सत्वस्थानंगळोळु दशादि त्रिस्थानंगप्पुवा मिथ्या दृष्टिजीवं सम्यक्त्व प्रकृतियुमं मिश्रप्रकृतियुमनुद्वेल्लनमं क्रमदिदं माडिद संक्लिष्टचतुर्गतिजर्न' दरियल्प डुगुमप्पुदरि नल्लि अनंतानुबंधिरहितोदयचतुःकूटंगळ संभविसर्व बुदथं । एकविंशतिबंधक चतुर्गतिजसासादन नव कुमातनोळ अष्टाविंशतिसत्वस्थानमो देवकुमल्लि मिथ्यात्वप्रकृत्युदय र हितत्वदिदं नवाद्यपुनरुक्तोदय त्रिस्थानंगळवु ॥ सत्तरसे अडचउरिगिवीसे णवयचदुरुदयमिगिवीसे । पढओ एवं तदुवी से णांतिमस्सुदओ ||६८१ ॥ सप्तदशस्वष्टचतुरेकविंशत्यां नवकचतुरुदयः एकविंशत्यां । नो प्रथमोदयः एवं त्रिद्विविंशत्यां नांतिमस्योदयः ॥ सप्तदशप्रकृतिबंधं चतुग्गंतिजनप्प मिश्रनोळमसंयतनोळमक्कुमवर्गलोळु अष्टचतुरेकविशतिसत्त्वस्थानंगळ, संभविसुगुमल्लि अष्टाविंशतिचतुव्विशतिसत्वस्थानंगळ, क्रर्माददमनंतानुबंधिसहित रहित स्थानगळप्पुवा सत्त्वस्थानयुतरोळ मिश्रप्रकृत्युदययुतचतुः कूटंगळोळ पुनरुक्तन द्वाविंशतिबन्धके चतुर्गतिमिध्यादृष्टो अष्टाविंशतिकसत्त्वे उदयस्थानानि दशकादीनि चत्वारि अनन्तानुबन्धिरहितस्याप्यत्र सम्भवात् । द्वाविंशतिकबन्धेन समं सप्तषडधिकविंशकसत्त्वे तु तदादोनि त्रीण्येव सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिकृतोद्वेल्लनत्वेनानन्तानुबन्ध्युदय र हितत्वाभावात् । एकविंशतिबन्धक चतुर्गतिसासादनेऽष्टाविंशतिक सव मिथ्यात्वानुदयान्नवकादीनि त्रीणि ।।६८० ॥ सप्तदशकबन्धे वा चतुर्गतिकेऽष्टचतुरग्रविंशतिकसत्त्वे उदयस्थानान्य पुनरुक्तानि नवकादीनि चत्वारि । १० १५ बाईसके बन्धक चारों गतिके मिध्यादृष्टी जीवके अठाईसके सत्त्वमें उदयस्थान दस आदि चार हैं; क्योंकि यहाँ अनन्तानुबन्धी- रहित उदयस्थान भी सम्भव हैं । बाईसके २५ बन्ध सहित सत्ताईस, छब्बीसका सत्त्व होनेपर दस आदि तीन ही उदयस्थान होते हैं क्योंकि यहाँ सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना युक्त होनेसे अनन्तानुबन्धी रहितपना सम्भव नहीं है । इक्कीसके बन्धसहित चारों गतिके सासादन में अठाईसके सत्त्वमें मिथ्यात्वका उदयज्ञ होनेसे नौ आदि तीन उदयस्थान हैं || ६८० ।। २० सतरह के बन्ध सहित चारों गतिके जीवोंमें अठाईस और चौबीसके सत्त्वमें नौ आदि ३० चार उदयस्थान हैं । किन्तु मिश्र में मिश्रमोहनीय सहित चार कूटोंमें उत्पन्न हुए तीन ही उदयस्थान हैं । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१४ गो० कर्मकाण्डे वादि त्रिस्थानंळप्पुवसंयतनोळ सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतचतःकूटंगळोळपुनरुक्तनवादित्रिस्थानंगळ तत्सम्यक्त्वप्रकृत्युदयरहितोपशमक्षायिकसम्यक्त्वयुतचतर्गतिजासंयतनोळष्टादिचतुःस्थानंगळोळपु - नरुक्त षट्प्रकृत्युदयस्थानमुमंतु नवादिचतुरुदयस्थानंगळु पेळल्पद्रुवु । मत्तमेकविंशतिसत्त्वस्थानयुतसप्तदशबंधकं चतुर्गतिजक्षायिकसम्यग्दृष्टियसंयतनप्पुदरिनातन विवक्षेयिंदं सम्यक्त्वप्रकृ. ५ त्युदयरहितचतुःकूटंगळोळपुनरुक्ताष्टादित्रिस्थानंगळे संभविसुगुमप्पुरिंद मल्लि प्रथमनवोदयस्थानमिल्ले दित पेळल्पटुदु । मत्तमा त्रिद्विविंशतिसत्त्वस्थानद्वयं मनुष्यसप्तदशबंधकासंयतनोळेयक्कुमातनुं वेदकसम्यक्त्वयुतदर्शनमोहक्षपकनेयाकुमप्पुदरिदं सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतनवादित्रिस्थानंगळे संभविसुगुमप्पुरिंदमल्लिचरमषट्प्रकृतिस्थानोदय मिल्ले वितु पेळल्पटुदु ॥ तेरणवे पुबंसे अडादिचउ सगचउण्हमुदयाणं । सत्तरसंव वियारो पणगुवसंतसगेसु दो उदया ॥६८२॥ त्रयोदशनवसु पूर्ववदंशेष्वष्टादि चतुःसप्तचतुर्णामुदयानां । सप्तदशवद्विकारः पंचकोपशांतांशकेषु द्वावुदयौ ॥ त्रयोदशप्रकृतिनवप्रकृतिबंधकरुगळ क्रमदिदंतिय॑ग्मनुष्यदेशसंयतरुगळं प्रमत्ताप्रमत्तोपशमकक्षपकापूर्वकरणरुगळुमप्परवर्गटोळ, पूर्व सप्तदशबंधकनोळ पळद सत्त्वस्थानंगळेयप्पु१५ वल्लि अष्टादिचतुरुदयस्थानंगळं सप्तादिचतुरुदयस्थानंगळं क्रदिदमष्टाविंशति चतुर्विशतिसत्त्वस्थानद्वयंगळनुळ्ळ त्रयोदशबंधकनोळं नवबंधकनोळमप्पुवा अष्टादिचतुरुदयस्थानंगळोळु प्रथमाष्टप्रकृत्युदयस्थानमेकविंशतिसत्त्वस्थानयुतरुगळोळिल्ल, त्रिद्विशतिसत्त्वस्थानयुतरोळ अंतिम मिश्रे मिश्रप्रकृतियुतचतुःकूटजानि त्रीणि । असंयते सम्यक्त्वप्रकृतियुतवियु कूटाष्ट कजानि चत्वारि । सप्तदशकबन्धैकविंशतिकसत्त्वे चतुर्गत्यसंयते क्षायिकसम्यग्दृष्टित्वात्सम्यक्त्वप्रकृतियुतचतुष्कूटाभावान्न प्रथम नवोदयस्थानं तेनाष्टकादोनि त्रीणि । सप्तदशकबन्धत्रिद्वयधिकविंशतिकसत्त्वे दर्शनमोहक्षपकमनुष्यवेदकसम्यग्दृष्ट्यसंयते सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतत्वादन्तिमं षडुदयस्थानं नेति नवकादोनि त्रीणि ॥६८१॥ त्रयोदशकबन्धे तिर्यग्मनुष्यदेशसंतते नवकबन्धे प्रमत्ताप्रमत्तोभयापूर्वकरणे च सप्तदशकबन्धोक्तमेव सत्त्वं, तत्राष्टकादीनि सप्तकादीन्युदयस्थानानि चत्वारि । किन्तु एकविंशतिकसत्त्वे त्रयोदशकबन्धे प्रथमं अष्टोदय असंयतमें सम्यक्त्व प्रकृति सहित और रहित आठ कूटोंसे उत्पन्न हुए चार उदयस्थान है। सतरहके बन्ध सहित इक्कीसके सत्त्वमें चारों गतिके असंयतमें क्षायिक ' होनेके कारण सम्यक्त्व प्रकृति सहित चार कुट न होनेसे पहला नौका उदयस्थान नहीं है. अतः आठ आदि तीन उदयस्थान हैं । सतरहके बन्धसहित तेईस, बाईसके सत्त्वमें दर्शन मोहकी क्षपणासे युक्त मनुष्य वेदक सम्यग्दृष्टी असंयतमें सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसहित कूट होनेसे अन्तिम छहका उदयस्थान नहीं है, अतः नौ आदि तीन ही उदयस्थान हैं ॥६८१॥ तेरहके बन्धसहित तिथंच और मनुष्य देशसंयतमें तथा नौके बन्धक प्रमत्त, अप्रमत्त ३० और दोनों श्रेणीके अपूर्वकरणमें, सतरह के बन्धकमें जो सत्त्व कहा है उस सत्त्वके होनेपर देशसंयतमें आठ आदि चार, और शेषमें सात आदि चार उदयस्थान हैं। किन्तु इक्कीसके सत्त्व सहित तेरहके बन्धकमें तो पहला आठका उदयस्थान नहीं है। और नौके बन्धकमें Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका पंचप्रकृतिस्थानोदय मिल्ल | सप्तादिचतुरुदयस्थानं गळोळ, नवबंधकन एकविंशतिसत्त्वस्थानदोळ, प्रथम सप्त प्रकृतिस्थानोदय मिल्ल | त्रिद्विविंशतिसत्त्वनवबंध कनोळ चरमचतुः प्रकृतिस्थानोदयं संभविसदे बी पल्लटमरियल्पडुगुं । पंचप्रकृतिबंध नुमुपशांतकषाघन सत्त्वस्थानंगळप्प अष्टचतुरेकविशतिसत्त्वस्थानं गळतुळ निवृत्तिकरणनोळ, द्विप्रकृतिस्थानोदयमक्कु । मत्तमा पंचप्रकृतिबंधकनोळं चतुःप्रकृतिबंधकोळ द्विप्रकृत्युदयमक्कुमा बादरनोळ, सत्त्वस्थानसंभवविशेषमं पेदपरु :तेणेवं तेरतिये चदुबंधे पुव्वसत्तगेसु तहा । वसंतसेयारतिये एक्को हवे उदओ || ६८३ || १०१५ तेनैवं त्रयोदशत्रये चतुब्बंधे पूर्वसत्त्वकेषु तथा । तेनोपशांतां शैकादशत्रये एको भवेदुदयः ॥ तेन सह आ पंचप्रकृतिबंधदोडने कूडिदनिवृत्तिक्षपकनोळ, त्रयोदशद्वादशैकादशप्रकृतिस्थानत्रयस वदोळ, एवं इहिर्ग द्विप्रकृत्युदयस्थानमक्कु । चतुब्बंधे पूर्व्वसत्वकेषु तथा मत्तं चतुः- १० प्रकृतिबंधकमष्टाविंशत्यादि एकादशप्रकृतिस्थानावसानमाद पूर्व सत्त्वस्थानंगळमुळ्ळ बादरनोळमंत द्विप्रकृतिस्थानोदयमक्कु । तेनोपशांतांशैकादशत्रये मत्तमा चतुब्बंधयुतोपशांतकषायाष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानसत्त्वमुमेकादशादित्रिस्थानसत्त्वबादरतो, एको भवेदुदयः एकप्रकृत्युदयस्थानमक्कुं ॥ ५ स्थानं न | नवकबन्धे सप्तकोदयस्थानं न । त्रिद्वयधिकविंशतिकसत्त्वे त्रयोदशकबन्धे अन्तिमं पंचकोदयस्थानं न । नवकबन्धे चतुष्कोदयस्थानं न तत्स्वकीयोदयस्थानानां चतुर्णां सप्तदशकबन्धवद्विचार इति प्रतिपादनात् । १५ पंचकबन्धे उपशान्तकषायोक्ताष्टचतुरेका प्रविशतिकसत्वेऽनिवृत्तिकरणे द्विकोदयः । पुनः तत्पंचकबन्धे चतुष्कन्धे च द्विकोदयः स्यात् ॥ ६८२ ॥ तत्पंचकबन्धेन सहितेऽनिवृत्तिक्षपके त्रिद्वयेकाग्रदशकसत्वे तथा चतुष्कबन्धेऽष्टाविंशतिकाद्येकादशकांतपूर्वंसत्त्वेऽप्येवं द्विकोदयः स्यात् । पुनः तच्चतुविधे उपशान्तकषायाष्टाविंशतिकादित्रिसत्वे एकादशकादित्रिसत्वे च वादरे एककोदयः स्यात् ||६८३॥ सातका उदयस्थान नहीं है । तेईस, बाईस के सत्त्व के साथ तेरह के बन्धमें अन्तिम पाँचका उदयस्थान नहीं है तथा नौके बन्ध सहित में चारका उदयस्थान नहीं है; क्योंकि अपने चार उदयस्थानों में सतरह के बन्धकी तरह विचार है ऐसा कहा है अर्थात् सतरह के बन्धमें जैसे क्षायिक और दर्शन मोहके क्षपक वेदक सम्यग्दृष्टीकी अपेक्षा कहा है वैसा ही जानना । पाँच के बन्धक अनिवृत्तिकरण में उपशान्त कषायमें कहे अठाईस चौबीस इक्कीसके सत्व में २५ दोका उदय है । पुनः पाँचके और चारके बन्ध सहित में भी दोका उदय है ||६८२ ॥ वही कहते हैं पांच के बन्धसहित क्षपक अनिवृत्तिकरण में तेरह बारह ग्यारह के सत्त्वमें तथा चारके बन्ध सहित अठाईस आदि तीन और तेरह आदि तीनका सत्व होते हुए भी दोका उदयस्थान होता है । चारके बन्धसहित अनिवृत्तिकरण में उपशान्त कषाय में कहे अठाईस आदि ३० तीन व ग्यारह आदि तीनके सत्त्वमें एकका उदय है || ६८३ || क- १२८ २० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० २० गो० कर्मकाण्डे तिदुइगिबंधे अडचउरिगिवीसे चदुतियेण तिदुगेण । दुगिसत्तेण य सहिदे कमेण एक्को हवे उदओ || ६८४ ।। त्रिद्वये बंधेऽष्टचतुरेकविंशत्यां चतुरस्त्रयेण त्रिद्विकेन द्वयेकसत्त्वेन च सहिते क्रमेणैको भवेदुदयः ॥ उ १० । ९।८। बं २२ । स २८ । उ१०।९। ८।७ ॥ बं २२ । स २७ । २६ । बं २१ । स २८ । उ ९ । ८ । ७ । बं १७ । स २८ । २४ । उ९।८। ७ । ६ । बं १७ ॥ स २१ । उ ८ ॥ ७ ॥ ६ ॥ बं १७ । स २३ । २२ । उ९ । ८ । ७ । बं १३ । स २८ । २४ । उ८ । ७।६। ५ । बं । १३ । स २१ । उ ७ । ६ । ५ । बं १३ । स २३ । २२ । उ ८ । ७ । ६ । बं ९ । स २८ । २४ । उ ७ । ६ । ५ । ४ ॥ बं९ । स २१ । उ ६ । ५ । ४ । बं ९ । स २३ । २२ । उ७।६।५। १५ बं । ५ । ४ । स २८ । २४ । २१ । १३ । १२ । ११ । उ २ । बं ४ । स २८ । २४ । २१ । ११ । ५ । ४ । उ १ । बं ३ । स २८ । २४ । २१ । ४ । ३ । उ १ । बं २ । स २८ । २४ । २१ । ३ । २ । बं १ । स २८ । २४ । २१ । २ । १ । उ १ ॥ १ । अनंतरमुदयसत्त्वाधिकरणबंधादेयत्रिसंयोगप्रकारमं २५ १०१६ त्रिद्वयेकबंधे त्रिबंधकद्विबंधक एकबंधकबाद रनोळष्टचतुरेकविंशत्यां अष्टचतुरेकाधिकविंशतिसत्त्वस्थानत्रयंगळ प्रत्येकमप्युववरोळ, क्रमेण क्रमविंद चतुस्त्रयेण चतुःप्रकृति त्रिः प्रकृतिस्थानदोन त्रिद्विन त्रिप्रकृतिद्विप्रकृतिस्थानद्वयदोडनेयुं द्वयेकसत्वेन च द्विप्रकृत्येक प्रकृतिसत्त्वस्थानद्वयदोडर्न कूडि सत्यंगळप्पुवल्लि त्रिस्थानक दोळं एको भवेदुदयः एकप्रकृत्युदयस्थानमो देयकुं । संदृष्टि : गाथासप्तकदिदं पेदपरु : दसगुदये अडवीसतिसत्ते बावीसबंध णव अड्डे | अडवी बावीस तिचउबंधो सत्तावीसदुगे || ६८५ ॥ वशकोदयेऽष्टाविंशतित्रिसत्त्वे द्वाविंशतिबंधो नवाष्टस्वष्टाविंशतौ द्वाविंशतित्रिचतुब्बंधः सप्तविंशतिद्वये || त्रिकद्विकैकबन्धवादरेषु अष्टचतुरेकानविंशतिकसत्वेषु चतुष्कत्रिकसत्वाभ्यां त्रिकद्विकसत्वाभ्यां द्विकैकसत्वाभ्यां च क्रमेण सहितेष्वेकोदयः स्यात् || ६८४ ॥ अथोदयसत्त्वाधारबन्धाधेयं गाथासप्तके नाह- तीन दो और एकके बन्धक अनिवृत्तिकरण में अठाईस चौबीस इक्कीसके सत्व में व चार और तीन सत्त्व में, तीन और दोके सत्त्वमें तथा दो और एकके सत्त्वमें एक-एकका ही उदय है ||६८४|| आगे उदय और सत्त्वको आधार तथा बन्धको आधेय बनाकर सात गाथाओंसे कथन करते हैं— Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १०१७ दशप्रकृतिस्थानोदयमप्पागल अष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानसत्त्वसंभवमक्कुमल्लि द्वाविंशतिप्रकृतिबंधमक्कुमी मिथ्यादृष्टि सर्वमोहनीयसत्त्वयुतनुं सम्यक्त्वप्रकृतियनुवेल्लनमं माडि किडिसिदातनुं मिश्रप्रकृतियुमनुवेल्लनमं माडि केडिसिदातनुमकुम बुदत्थं । नवाष्टसु नवप्रकृतिस्थानोदयमुमष्टप्रकृतिस्थानोदयमुमुकळरोळ मष्टाविंशतिप्रकृतिसत्त्वस्थानदोळ क्रमदिदं नवप्रकृत्युदययुतमिथ्यादृष्टिसासादमिश्रासंयतनोळ अष्टप्रकृत्युदयमिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतदेशसंयतनोळ द्वाविंशत्यादिबंधस्थानत्रयमं द्वाविंशत्याविचतुबंधस्थानंगळ मप्पुवु । मत्तमा नवाष्टप्रकृत्युदयंगळोळ क्रमदिदं सप्तविंशत्यादिद्विस्थानंगळ सप्तविंशत्यादिद्विस्थानंगळ मप्पुवल्लि द्वाविंशतिस्थानमं द्वाविंशतिस्थानमं बंधमक्कमेके दोडवम्मिथ्यादृष्टिगळे सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्युवेल्लकरप्पुरिंदर्भ दु पेळ्दपरु : बावीसबंधचदुतिदुवीसंसे सत्तरसयददुगर्वधो। अठ्ठदये इगिवीसे सत्तरबंधं विसेसं तु ॥६८६॥ द्वाविंशतिबंध चतुस्त्रिद्विविंशत्यंशे सप्तदशासंयततिकबंधः । अष्टोदये एकविंशत्यां सप्तदशबंधो विशेषस्तु ॥ द्वाविंशतिप्रकृतिबंधमेयक्कुं । मत्तमा नवाष्टोदयंगळोळ प्रत्येकं चतुस्त्रिद्विविंशतित्रिस्थानंगळप्पुवल्लि नवोदयसंबंधि त्रिस्थानसत्वंगळोळ चतुविशतिस्थानं मिश्रनाळ संभविसुगुमसंयत- १५ नोळ चतुविशत्यादित्रिस्थानंगळे संभविसुगुमप्पुरिवं सप्तदशप्रकृतिबंधस्थानमेयक्कु । मष्टप्रकृत्युदयसंबंधि चतुब्बंधस्थानंगळप्पुवल्लियु मिश्रनोळमसंयतनोळ मुं पेन्द प्रकारदिदं देशसंयतनोळ चतुविशत्यादित्रिस्थानंगळ संभविसुगुमप्पुरिदं सप्तदशबंधस्थानमुं त्रयोदशबंधस्थानमु. दशकोदयेऽष्टाविंशतिकादित्रिसत्त्वे द्वाविंशतिकबन्धः। अयं मिथ्यादृष्टिकः सर्वमोहनीयसत्त्वोपरोवोद्वेल्लितसम्यक्त्वप्रकृतिकोऽन्यो वोद्वेल्लितसम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिको ज्ञातव्यः। नवकोदयेऽसंयतान्तेषु अष्टकोदये २० देशसंयतान्तेष चाष्टाविंशतिकसत्त्वे क्रमेण बन्धस्थानानि द्वाविंशतिकादीनि त्रीणि चत्वारि । पुनस्तयोरेव सप्तविंशतिकादिद्वयसत्त्वे तु द्वाविंशतिकबन्धः स्यात् । पुनस्तयोरेवोदययोमिश्रस्य चतुर्विशतिकसत्वे, असंयतस्य तदादित्रयसत्त्वे च सप्तदशकबन्धः, अष्टकोदये तत्त्रयसत्त्वे देशसंयते त्रयोदशकबन्धः, एकविंशतिकसत्त्वे क्षायिकसम्यग्दृष्टय दसके उदयसहित अठाईस आदि तीनके सत्त्वमें बाईसका बन्ध है। यह मिथ्यादृष्टि- २५ के होता है तथा वह सर्वमोहनीयके सत्व सहित, वा सम्यक्त्व मोहनीयकी उद्वेलना सहित अथवा सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना सहित जानना । नौके उदयसहित असंयत पर्यन्त तथा आठके उदय सहित देशसंयत पर्यन्त अठाईसके सत्त्वमें क्रमसे बाईस आदि तीन तथा चार बन्धस्थान होते हैं ॥६८५॥ उन्हीं दोनोंमें सत्ताईस और छब्बीसका सत्त्व होनेपर बाईसका बन्ध है। पुनः ३० उन्हीं नौ और आठके उदय में मिश्रमें चौबीसका सत्त्व रहते और असंयतमें चौबीस आदि तीनका सत्त्व रहते सतरहका बन्ध है। आठके उदयके साथ चौबीस आदि तीनका सत्त्व Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१८ गो० कर्मकाण्डे मप्पुवु। मष्टोदयमुमेकविंशतिसत्वस्थानं क्षायिकसम्यग्दृष्टियसंयतनोळ, संभविसुगुमप्पुरिदं सप्तदशबंधं विशेषदिंदमकुं॥ सत्तदये अडवीसे बंधो बावीसपंचयं तेण । चउवीसतिगे अयदतिबंधो इगिवीसगयददुगबंधो ॥६८७॥ सप्तोदयेऽष्टविंशत्यां बंधो द्वाविंशतिपंचकं तेन। चतुविशतित्रिकेऽसंयतत्रिबंधः एक विशतिके असंयतद्विकबंधः॥ सप्तप्रकृत्युदयमष्टाविंशति प्रकृतिसत्वयुतनोळ द्वाविंशत्यादिपंचस्थानंगळ बंधमप्पुर्व तेदोडा अष्टाविंशतिसत्वस्थानमुं सप्तप्रकृत्युदयस्थानमनंतानुबंधिरहितमिथ्यादृष्टियो भयजुगुप्साद्वयरहितसासादननोळ भयजुगुप्सान्यतरोदययुतमिश्रनोळ वेदकसम्यग्दृष्ट्यसंयतनोळ देशसंयतवेदको. पशमसम्यग्दृष्टिगळोळ वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्ताप्रमतरोळ संभविसुगुमप्पुदरिदं। मतमा सप्तप्रकृत्युदयस्थानमुं चतुविशत्यादित्रिस्थानसत्वयुतरोळ सनदशप्रकृत्यादि त्रिस्थानबंधंगळप्पुर्वतेदोडा सप्तप्रकृत्युदयमुं चतुविशतिसत्वमुं भयजुगुप्साद्वयोदयरहित मिश्रनोळमसंयतनोळ मतं दर्शनमोहनीयक्षपणाप्रारंभकमनुष्यासंयतनोळ त्रयोविंशतिस्थानमुं द्वाविंशतिस्थानमसंयतचतुर्गति जरोळ अनंतानुबंधिसत्वरहितदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तरोळ चतुविशतिस्थानमुं दर्शनमोहक्षपणा १५ प्रारंभकमनुष्य देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळ त्रयोविंशत्यादि द्विस्थानंगळे संभविसुगुमप्पुदरिदं । मत्तमा सप्तप्रकृत्युदयमेकविंशतिसत्वयुतरगळ चतुर्गतिजालंयतक्षायिकसम्यग्दृष्टिगळं मनुष्यसंयते सप्तदशकबन्धः विशेषेण ॥६८६॥ सप्तकोदयेऽष्टाविंशतिकसत्त्वे द्वाविंशतिकादिपंचबन्धः । अनन्तानुबन्धिरहितमिथ्यादृष्टी भयजुगुप्सा. रहितसासादने तदन्यतरयुतमिधे वेदकसम्यग्दृष्ट्यसंयते वेदकोपशमसम्यग्दृष्टि देशसंयते वेदकसम्यग्दृष्टिप्रमत्ता२० प्रमत्तयोश्च तदुदयसत्त्वसद्भावात् । पुनः सप्तकोदये चतुर्वितिकादित्रिसत्त्वे सप्तदशकादिविबन्धः । कुतः ? चतुर्विशतिकसत्त्वभयजुगुप्सोनमिश्रासंयतयोस्त्रिद्वयधिकविंशतिकसत्त्वदर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भकचतुविशतिकसत्त्वाहोते देशसंयतमें तेरहका बन्ध है । इक्कीसके सत्त्वमें क्षायिक सम्यग्दृष्टी असंयतमें सतरहका बन्ध है ॥६८६।। सातके उदय सहित अठाईसके सत्त्वमें बाईस आदि पांच बन्धस्थान हैं; क्योंकि २५ अनन्तानुबन्धी रहित मिथ्यादृष्टिमें, भयजुगुप्सा रहित सासादनमें, भय जुगुप्सामें से एक सहित मिश्रमें, वेदक सम्यग्दृष्टी असंयतमें, वेदक उपशम सम्यदृष्टी देशसंयतमें, वेदक सम्यग्दृष्टी प्रमत्त अप्रमत्तमें सातका उदय और अठाईसका सत्त्व सम्भव है। पुनः सातके उदयसहित चौबीस आदि तीनके सत्त्वमें सतरह आदि तीन बन्धस्थान हैं; क्योंकि चौबीसके सत्त्वसे युक्त भय जुगुप्सा रहित मिश्र और असंयतमें, तेईस चौबीसके सत्त्व युक्त दर्शन३० मोहकी क्षपणाके प्रारम्भमें और चौबीसके सत्त्वयुक्त अनन्तानुबन्धी रहित मनुष्य असंयतादि चार गुणस्थानवर्तियोंमें सातका उदय सम्भव है। सातके उदय और इक्कीसके सत्त्वमें १. मसान्यतरद्वयरहित । - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०१९ क्षायिकसम्यग्दृष्टि देशसंयतनोळ' संभविसुगुमप्पुरिदं सप्तदशप्रकृतिबंधमुं त्रयोदशप्रकृतिबंधमुमप्पुवु ॥ छप्पण उदये उवसंतसे अयदतिगदेसदुगबंधो। तेण तिदोवीसंसे देसदु णवबंधयं होदि ॥६८८॥ षट्पंचोदये उपशांतांशे असंयतत्रय वेशसंयतद्वयबंधस्तेन त्रिद्विविंशत्यंशे देशसंयतद्वयं नव- ५ बंधो भवति ॥ षट्प्रकृत्युदयदोळं पंचप्रकृत्युदयदोळमुपशांतकषायन सत्वस्थानत्रयमक्कु मल्लि क्रमदिदं सप्तदशादित्रिस्थानबंधमुं त्रयोदशादिदेशसंयतनंधाविद्विस्थानंगळं बंधमप्पुर्वते. दोडल्लि षट्प्रकृत्युदयमुमष्टाविंशति चतुविशत्येकविंशतित्रयमसंयतदेशसंयत प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणरोळुपशमक्षायिकसम्यक्त्ववेदकसम्यक्त्वभेददिदं यथासंभवमागियप्पुवापुरिदं सप्तदश १० त्रयोदश नवप्रकृतिबंधस्थानत्रयसंभवं पेळल्पटुदु। पंचप्रकृत्युदयसंबंधियप्पष्टाविंशति चतुविशत्येकविंशतिसत्वस्थानंगळु देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणरुगळोळ पशमक्षायिकसम्यक्त्वभेददिदं त्रयोदशनवप्रकृतिबंधस्थानद्वयं संभविमुगुम बुदत्यं । तेन त्रिद्विविंशत्यंशे मत्तमा षट्पंचप्रकृत्युदयंगळोलु कूडिद त्रिद्विविंशति सत्वस्थानयुतरोळु मदिवं देशसंयतत्रयोदशादि विस्थानबंधमुं नवप्रकृतिबंधमुमक्कुम ते दोडा षट्प्रकृत्युदयमुं त्रयोविंशतिस्थानसत्वमुं दर्शनमोहक्षपकदेशसंयतं १५ सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतंगे मिथ्यात्वमं क्षपिसि त्रयोविंशतिसत्वस्थानयुतंगे त्रयोदशप्रकृतिबंधमक्कुं। मिश्रप्रकृतियं क्षपिसि द्वाविंशतिसत्वस्थानयुतंगेयं त्रयोदशप्रकृतिबंधमेयक्कुं। प्रमत्ताप्रमत्तरुगळुमा प्रकारदिवं वेदकसम्यग्दृष्टिगळु मिथ्यात्वमिश्रप्रकृतिगळं क्रमदिवं क्षपिसि त्रयोविंशति द्वाविंशतिसत्वयुतर्गे नवबंधकसत्वं संभविसुगुं। मतं पंचप्रकृत्युदयमुं त्रयोविंशतिसत्वस्थानk द्वाविंशतिसत्व. स्थानमुं मिथ्यात्वमिश्रप्रकृतिगळं क्षपिसि प्रमत्ताप्रमत्तरगळ्गे सत्वमक्कुमप्पुरिदं नवबंध. २० करप्परु :नन्तानुबन्धिरहितमनुष्यासंयतादिचतुषु च सप्तकोदयसम्भवात् । पुनः सप्तकोदयैकविंशतिकसत्त्वक्षायिकसम्यग्दृष्टी चतुर्गत्यसंयते सप्तदशकबन्धः, मनुष्यदेशसंयते च त्रयोदशकबन्धः ॥६८७॥ षट्कोदयेऽष्ट चतुरेकानविंशतिकसत्त्वे सप्तदशकादित्रिबन्धः । पंचकोदये तत्सत्त्वे प्रयोदशकादिद्विबन्धः । असंयतादिपंचसू षटकोदयस्य उपशमक्षायिकसम्यग्दष्टिदेशसंयतादिचतुर्ष पंचकोदयस्य च सद्भावात । पुनः षट्कोदयवेदकसम्यग्दृष्टी मिथ्यात्वं क्षपित्वा त्रयोविंशतिकसत्त्वे मिश्रं क्षपित्वा द्वाविंशतिकसत्त्वे च देशसंयते २५ क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों गतिके असंयतमें सतरहका बन्ध है। देशसंयत मनुष्यमें तेरहका बन्ध है ॥६८७॥ छह के उदयसहित अठाईस चौबीस इकईसके सत्त्वमें सतरह आदि तीन बन्धस्थान हैं । पाँचके उदय के साथ उक्त तीनोंके सत्त्वमें तेरह आदि दो बन्धस्थान हैं, क्योंकि असंयत आदि पाँच में छहका उदय और उपशम तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टी देशसंयत आदि चारमें ३० पाँचका उदय पाया जाता है। छहके उदयसहित वेदक सम्यग्दृष्टीम मिथ्यात्वको क्षयकर Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२० गो० कर्मकाण्डे चउरुदयुवसंतसे णवबंधो दोण्णि उदयपुव्वंसे । तेरसतियसत्तेवि य पणचउठाणाणि बंधस्स ॥६८९॥ चतुरुदयोपशांतांशे नवबंधो द्वयुदयपूर्वाशे। त्रयोदशत्रयसत्वेऽपि च पंचचतुःस्थानानि बंधस्य ॥ चतुःप्रकृत्युदयमुमुपशांतकषायसत्वस्थानंगळोळु नवप्रकृतिबंधमक्कु ते दोडा चतुःप्रकृत्युदयापूर्वकरणोपशमकक्षपकरुगळगे उपशमश्रेणियोळा त्रिस्थानंगळं क्षपकश्रेणियोळेकविंशति सत्वस्थानं संभविसुगुमल्लि नवबंधकनक्कुम बुदत्यं । द्विप्रकृत्युदयमुमष्टाविंशत्याविषट्स्थानंगळुम. निवृत्तिकरणोपशमकक्षपकगळोळ संभविसुगुमल्लि पंचप्रकृतिबंधस्थानमुं चतुःप्रकृतिबंधस्थान मक्कुमेत दोडे उपशमश्रेणियोल सवेदभागानिवृत्तिकरणरोळु पुंवेदोक्य चरमसमयपथ्यंतं अष्टाविं. १० शति आदि त्रिस्थानंगळ सत्वमुं पंचप्रकृतिबंधमुमक्कुं। पंडस्लीवेदोक्यंगळिंदमुपशमश्रेण्यारूढरुग लोळा त्रिस्थानसत्वमुं चतुब्बंधकत्वमुमक्कुं। क्षपक श्रेणियोल द्विप्रकृत्युदयमुमेकविंशतिसत्वस्थानमं त्रयोदशसत्वस्यानमुं द्वादशसत्वस्थान मुमेकादशसत्वस्थानमुं क्रमदिदमष्टकषाय नपुंसकवेद स्त्रीवेदंगळं क्षपिसि पुंवेदानिवृत्तिकरणनोल सत्वमप्पुवल्लि सर्वत्र पंचबंधकनेयक्कु । मितरवेदोदययुत. त्रयोदशादि विस्थानसत्वयुतरोळु चतुब्बंधमुमक्कुम बुदत्यं । एक्कुदयुवसंतसे बंधो चतुरादिचारि तेणेव । एयारदु चदुबंधो चदुरंसे चदुतियं बंधो ॥६९०॥ एकोवयोपशांताशे बंधश्चतुराविबंधश्चतुर्णा तेनैवेकादशद्वये चतुबंधश्चतुरंशे चतुस्तिकं बंध॥ १५ त्रयोदशकबन्धः । पंचकोदयप्रमत्ताप्रमत्ते च नवकबन्धः स्यात् ॥६८८॥ ___ चतुष्कोदयोभयापूर्वकरणे उपशांतकषायसत्त्वे नवबन्धः। द्विकोदये सवेदानिवृत्तिकरणे तत्सत्त्वे पुंवेदोदयचरमसमयपयंतं पंचकबन्धः । षंढस्त्रीवेदोदयारूढे तु चतुष्कबन्धः । क्षाकेऽष्टकषायषंढस्त्रीपुंक्षपणाभागेष्वेकविंशतिकत्रिद्वयेकाग्रदशकसत्त्वेषु पंचकबन्धः । इतरवेदोदययुतत्रयोदशकादिद्वितत्त्वे तु चतुष्कबन्धः ॥६८९॥ तेईसका सत्व होनेपर, मिश्रमोहनीयको भयकर बाईसका सत्त्व होनेपर देशसंयसमें तेरहका बन्धस्थान है । पाँचके उदय सहित प्रमत्त अप्रमत्तमें नौका बन्ध है ॥६८८॥ २५ चारके उदयसहित दोनों श्रेणिके अपूर्वकरणमें उपशान्त कषायमें पाये जानेवाले अठाईस चौबीस इक्कीसके सत्त्वमें नौका बन्ध है। दोके उदय सहित सवेद अनिवृत्तिकरणमें उक्त तीनका सत्त्व होते पुरुषवेदके उदयके चरम समय पर्यन्त पाँचका बन्ध है। सक और स्त्रीवेदके उदयके साथ श्रेणी चढनेवालेके चारका बन्ध है। क्षपक श्रेणी में आठ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुरुषवेदके क्षपणरूप भागों में इक्कीस तेरह बारह ग्यारह३० का सत्त्व होते पाँवका बन्ध है। अन्यवेदके उदयसहित तेरह बारहका सत्त्व होते चारका बन्ध है ॥६८९॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०२१ एकप्रकृत्युदयमुमुपशांतसत्त्वस्थानत्रययुतानिवृत्तिकरणनोळपशमणियोल चतुःप्रकृतिस्थानादिचतुबंधस्थानंगळप्पुवु । मत्तं तदेकोदययुतनोळ एकादशपंचप्रकृतिसत्त्वस्थानद्वयं संभविसुगुमल्लि चतुःप्रकृतिस्थानबंधमेयकुं। मत्तमेकोदयं चतुःप्रकृतिसत्त्वमुमुळ्ळनिवृत्तिकरणनोळु चतुस्त्रिप्रकृतिस्थानद्वयं बंधमक्कुं। तेण तिये तिबंधो दुगसत्ते दोणि एक्कयं बंधो। एक्कंसे इगिबंधो गयणं वा मोहणीयस्स ॥६९१।। तेन त्रये त्रिद्विबंधः द्विकसत्त्वे द्वयकबंधः। एकांशे एकबंधो गगनंवा मोहनीयस्य ॥ आ येकोदयमंत्रिप्रकृतिसत्त्वममुळ्ळनोळु अनिवृत्तिकरणनोळु त्रिप्रकृतिबंधस्थानम द्विप्रकृति. बन्धस्थानमु मक्कं । द्विप्रकृतिसत्त्वयुतनोळु द्विप्रकृतिबंधमुमेकप्रकृतिबंधमुमक्कुमेकप्रकृत्युदयममेकप्रकृतिसत्त्वमुमुझळनोछ अनिवृत्तिकरणनोळ एकप्रकृतिबंधमु अबंधस्थानमुमक्कुमितु उदयसत्त्वा- १० धारबंधादेयत्रिसंयोगप्रकारं पेळल्पटुदर संदृष्टि । उ १० । स २८ । २७ । २६ । बं २२ । उ ९ । स २८ । बं २२ । २१ । १७ । उ९ । स २७ । २६ । बं २२ । उ ९ । स २४ । २३ । २२ । बं १७ । उ ८.स २८ । २२ । २१॥ १७।१३। उ स २७ । २६ । बं २२। उ ८ स २४ । २३ । २२। बं १७ । उ ७ । स २८ बं २२। २१ । १७ । १३ । ९ । उ७। स २४ । २३ । २२ । बंध १७ । १३ । ९। उ७ । स २१ । बं १७ । १३ । उ६। स २८॥ २४॥ २१ । बं १७ । १३।९। उ स २३ । १५ २२ । बं १३ । ९ । उ ५ । स २८ । २४ । २१॥ बं १३ । ९। उ ५ । स २३ । २२ । बं९ । उ४॥ स २८ । २४ । २१ । बं९। उ २ । स २८ । २४ । २१ । १३ । १२।११। बं ५।४। उ स २८ । २४ । २१ । बंध ४।३।२।१। उ१। स ११ । ५। बं ४। उ१। स ४ ॥बं ४।३। उ १। स३। बं३।२। उ १ स २। २।१। उ स १ १ ॥ एककोदयानिवृत्तिकरणोपशमके उपशांतकषायसत्त्वे चतुष्कादिचतुःस्थानबन्धः । पुनः तदैककोदयका- २० दशकपंचकसत्त्वे चतुष्कबन्धः । पुनः तदैककोदयैकादशकपंचकसत्त्वे चतुष्कबन्धः। पुनरेककोदयचतुष्कसत्त्वे चतुष्कत्रिकबन्धः ॥६९०॥ तदेककोदयानिवृत्तिकरणे त्रिकसत्त्वे त्रिकद्विकबन्धः द्विकसत्त्वे द्विकैककबन्धः । एककोदयसत्त्वैककबन्धः ___ एकके उदयसहित अनिवृत्तिकरण उपशमकमें उपशान्त कषायमें कहे अठाईस चौबीस इक्कीसके सत्त्वमें चार आदि चार बन्धस्थान हैं । एकके उदय सहित ग्यारह और पाँचके २५ सत्त्वमें चारका बन्ध है। एकके उदयसहित चारके सत्त्वमें चार और तीनका बन्ध है ।।६९०॥ एकके उदयसहित अनिवृत्तिकरणमें तीनका सत्त्व रहते तीनका व दोका बन्ध है। एकके उदयसहित दोके सत्त्वमें दोका व एकका बन्ध है । एक ही का उदय और सत्त्व रहते एकव्य ही बन्ध है। अथवा बन्धका अभाव है। इस प्रकार मोहनीयके तीन संयोगी भंग ३० कहे ॥६९१।। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२२ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं नामकर्मस्थानंगळ्गे त्रिसंयोगप्रकारमं पेळ्दपरु : णासस्स य बंधोदयसत्तट्ठाणाण सव्वभंगा हु। पत्तेउत्तं व हवे तियसंजोगेवि सव्वत्थ ॥६९२॥ नाम्नश्च बंधोदयसत्त्वस्थानानां सर्वभंगाः खलु प्रत्येकोक्तवद्भवे त्रिसंयोगेपि सर्वत्र । नामकर्मक्केयुं बंधोदयसत्वस्थानंगळ सर्वभंगंगळं यथास्वरूपंगळु । अq प्रत्येकदोळ पेळल्पटुंते ई पेळल्पडुत्तिद्द त्रिसंयोगवोळं सर्वत्रमक्कुमदु स्फुटमागरियल्पडुगु-। मिल्लि केवलं बंधोदयसत्त्वस्थानंगळे पेळल्पट्टपुवु। भंगंगळु विवक्षिसल्पडवु । मोहनीयदोळ पळदंते त्रिसंयोगदोळु तदंतर्भावमरियल्पडुगुमेंबुदत्यं ॥ अनंतरं बंधोवयसत्वस्थानंगळं मिथ्यादृष्टि आदि चतुर्दशगुणस्थानंगळोळु नानाजीवापेक्षयिदं १० युगपत्संभविसुव स्थानंगळ संख्ये गळं पेळ्वपर : छण्णवच्छत्तियसगइगिदुगतिगदुगतिण्णि अट्ठ चत्तारि । दुगदुगचदुदुगपणचदु चदुरेयचदू पणेयचदू ॥६९३॥ षड्नवत्रिकसनेकतिकत्रिकद्विकम्यष्टचत्वारि। द्विकद्विकचतुर्दिक पंचचतुश्चतुरेकचतुः पंचकचत्वारि॥ एगेगमट्ठ एगेगमट्ठ छेदुमट्ठफेवलिजिणाणं । एगचदुरेगचदुरो दोचदु दोछक्कउँदयंसा ॥६९४॥ एकैकमष्टैकैकमष्टछपस्थ केवलिजिनानामेकचतुरेकचतुर्विचतुद्विषट्कमुदयांशाः॥ गाथाद्वयं ॥ षड्नवषट् मिथ्यादृष्टियोल बंधोदयसत्त्वस्थानंगळ क्रमविदं षट्नवषट् प्रमितंगळप्पुवु । मिथ्या बं३ । उ९। स ६॥ त्रिकसप्तक सासादननोळु बंधोदयसत्वस्थानंगळु त्रिक सप्त एक प्रमितं. २. शन्यं च । मोहनीयस्य त्रिकसंयोग उक्तः ॥६९१॥ अथ नामकर्मस्थानानां घिसंयोगमाह नाम्नः बन्धोदयसत्वानां सर्वभंगा: प्रत्येकोक्तरीत्यवास्मिस्त्रिसंयोगेऽपि सर्वत्र स्युरिति स्फुट ज्ञातव्यं ।।६९२।। बन्धोदयसत्त्वस्थानानि गणस्थानेष क्रमेण मिथ्यादष्टौ षट नव षट । सासादने त्रीणि सप्तक । मिश्रे द्वे त्रीणि द्वे । असंयते त्रीण्यष्टी चत्वारि । देशसंयते द्वे द्वे चत्वारि । प्रमत्ते द्वे पंच चत्वारि । अप्रमत्ते २५ आगे नामकर्मके स्थानोंके त्रिसंयोगी भंग कहते हैं नामकमेके बन्ध उदय सत्त्व स्थानोंके सब भंग जैसे प्रत्येक पृथक्-पृथक् कहे थे वैसे ही त्रिसंयोग भी सर्वत्र जानना ॥६९२॥ नामकमके बन्धस्थान उदयस्थान सत्वस्थान गुणस्थानोंमें क्रमसे मिथ्यादृष्टिमें छह नौ - छह, सासादनमें तीन सात एक, मिश्रमें दो तीन दो, असंयतमें तीन आठ चार, देशसंयतमें ३० १. चदुम. मु.। २. दो छक्क बंध उ. मु.। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०२३ 1 गळप्पुवु । सासा बं ३ । उ ७ । स १ । द्विक त्रिक द्विक । मिश्रनो क्रमविदं द्विक त्रिक द्विप्रमितंगळवु । मिश्र बं २ । उ ३ स २ । असंयतनोल क्रमदिदं व्यष्टचतुः प्रमितंगळवु । असं । बं ३ । उ ८ । स ४ । देशसंयतनो क्रमदिदं द्विकद्विकच तुप्रमितंगळप्पुवु । देश । बं २ । उ २ । स ४ । प्रमत्तसंयतनोळ द्विकपंच चतुःप्रमितंगळवु । प्रम । बं २ । उ ५ । सत्व ४ ॥ अप्रमत्तसंयतनोळु चतुरेक चतुः प्रमितंगळप्पुवु । अप्र । बं ४ । उ १ । स ४ ॥ अपूव्वंकरणनोळु पंचैकचतुःप्रमितंगळवु । अपू । बं ५ | उ १ । स ४ ॥ अनिवृत्तिकरणनोळ एकैकमष्टप्रमितंगळवु । अनिवृत्ति । बं १ । उ १ । स ८ ॥ सूक्ष्मसांपरायनोळ मेकैकाष्टप्रमितंगळ | सूक्ष्म बं १ । उ १ । स ८ ॥ छपस्थरपुपगांतकषाय क्षीणकषायवीतरागरोळ एकचतुरेकचतुःस्थानंगल क्रमदिनधुवु । उपशांत बं । ० । उ १ । स ४ ॥ क्षीणकषायनोळ बंध | ० । १ । स ४ ॥ केवलिजिनरुगोल द्वि चतुद्विषट्कप्रमितोदय सत्वस्थानंगल क्रमदिदमवु । १० सयोगिवं । ० । उ २ । स ४ ॥ अयोगि व्रं । ० । उ२ । स ६ ॥० ॥ णामस्स य बंधोदयसत्ताणि गुणं पडुच्च उत्ताणि । पत्तेयादो सव्वं भणिदव्वं अत्थजुत्तीए ॥ ६९५ ।। नाम्नश्च बंधोदयसत्वानि गुणं प्रतोत्योक्तानि । प्रत्येकात्सव्वं भणितव्यमर्त्ययुक्त्या ॥ नामकर्मक्के प्रत्येकबंधोदयसत्वस्थानंगळु मुम्नं गुणस्थानदोळ पेळल्पट्टु वप्युर्दारवम- १५ वरतणदमर्थं युक्तियदमदल्ल मिल्लि पेळल्पडुगु । मा मिथ्यादृष्ट्यादियागि पेळल्पट्ट षड्नव षडूबंधोदयसत्वस्थानादिगळ संख्याविषयस्थानंगळवावुर्वे बोर्ड पेदपरु : तेवीसदी बंधा इगिवीसादीणि उदयठाणाणि । बाणउदादी सत्तं बंधा पुण अट्ठवीसतियं ॥ ६९६॥ त्रयोविंशत्या विबंधाः एकविंशत्याद्युदयस्थानानि । विंशतित्रिकं ॥ द्वानवत्यादिसत्वं बंधाः पुनरष्टा- २० चत्वार्येकं चत्वारि । अपूर्वकरणे पंचकं चत्वारि । अनिवृत्तिकरणे एकमेक्रमष्टी । सूक्ष्मसां परायेऽप्येकमेकमष्टौ । उपरि बन्धे शून्यं । उदयसत्त्वयोरेव उपशान्तकषाये एकं चत्वारि । क्षीणकषायेऽप्येकं चत्वारि । सयोगे द्वे चत्वारि । अयोगे द्वे षट् ॥ ६९३ ॥ ६९४॥ नाम्नो बन्धोदयसत्त्वस्थानानि गुणस्थानेषूक्तानि तान्येव प्रत्येकतोऽर्थयुक्तया सर्वाण्युच्यते ॥ ६९५॥ दो-दो चार, प्रमत्तमें दो पाँच चार, अप्रमत्तमें चार एक चार, अपूर्वकरणमें पाँच एक चार, अनिवृत्तिकरण में एक-एक आठ, सूक्ष्मसाम्पराय में भी एक-एक आठ हैं। ऊपर बन्धका तो अभाव है केवल उदय और सत्व ही है । सो उपशान्तकषायमें एक चार, क्षीणकषाय में भी एक चार, सयोगी में दो चार और अयोगी में दो छह जानना ॥ ६९३-६९४॥ नामकर्मके बन्ध उदय सत्त्वस्थान गुणस्थानोंमें कहे उन सबको पृथक्-पृथक् अर्थकी युक्तिसे कहते हैं || ६९५ ।। क- १२९ २५ ३० Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ गो० कर्मकाण्डे मिथ्याष्टियोळु पेळ्द षड्बंधस्थानंगळु त्रयोविंशत्यादिगप्पुवु। उदयस्थानंगळु मेकविंशत्यादि नवकंगळप्पुवु । सत्वस्थानषट्क, द्वानवत्यादिगळप्पवु । मिथ्या । बं २३ । २५ । २३ । २८ । २९ । ३० । उद २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३०। ३१ । सत्व ९२। ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । सासादननोळु पेळ्द बंधस्थानत्रयमष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळप्पुवु ॥ इगिवीसादी एक्कत्तीसंता सत्त अट्ठवीमणा । उदया सत्तं णउदी बंधा पुण अट्ठवीसदुगं ॥६९७॥ एकविंशत्याकत्रिशदताः सप्ताष्टाविंशत्यूनाः उदयाः सत्वं नवतिः बंधौ पुनरष्टाविंशति द्वौ ॥ उदयस्थानंगमेकविंशत्याद्यकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानावसानमाद स्थानंगळोलु सप्तविंशत्यष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानद्वयरहित सप्तोदयस्थानंगळप्पुवु । नवति सत्वस्थानमो देयक्कुं। सासा। बं १० २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २९ । ३० । ३१ । स ९० । तु मते मिश्रनोळा द्विबंधस्थानंगळावुवेदोडे अष्टाविंशतिद्वयमक्कुं॥ एगुणतीसंतिदयं उदयं बाणउदिणउदियं सत्तं । अयदे बंधट्ठाणं अट्ठावीसत्तियं होदि ॥६९८।। एकोनत्रिंशत् त्रितयः उदयः द्वानवतिनवतिश्च सत्त्वं । असंयते बंधस्थानमष्टाविंशतित्रिकं १५ भवति ॥ आमिश्रनोळेकोनत्रिंशत् त्रितयमुदयमक्कुं। द्वानवतिनवति स्थानद्वयं सत्वमक्कुं। मिश्र बं। २८ । २९ । उ २९ । ३० । ३१ । सत्व ९२।९०॥ असंयतनोळु पेन्द बंधस्थानंगळुमष्टाविंशतित्रितय मक्कुं॥ मिथ्यादृष्टी बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकादोनि षट् । उदयस्थानान्येकविंशतिकादीनि नव । सत्त्व२० स्थानानि द्वानवतिकदीनि षट् । सासादने बन्धस्थानान्यष्टाविशति कादीनि त्रीणि ॥६९६॥ उदयस्थानान्येकविंशतिकादीनि सप्ताष्टाविंशतिकोनान्येकत्रिशकान्तानि सप्त, सत्त्वस्थानं नवतिक, तु-पुनः मित्रे बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादिद्वयं ॥६९७।। उदयस्थानान्येकोनत्रिंशत्कादीनि त्रीणि सत्त्वस्थाने द्वानवतिकादिद्वयं । असंयते बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि त्रीणि ॥६९८॥ २५ मिथ्यादृष्टिमें बन्धस्थान तेईस आदि छह हैं। उदयस्थान इक्कीस आदि नौ हैं । सत्त्वस्थान बानबे आदि छह हैं । सासादनमें बन्धस्थान अठाईस आदि तीन हैं ॥६९६।। उदयस्थान सत्ताईस अठाईसके बिना इक्कीस आदि इकतीस पर्यन्त होते हैं। सत्त्वस्थान नब्बेका है । मिश्र बन्धस्थान अठाईस आदि दो हैं ॥६९७।। उदयस्थान उनतीस आदि तीन हैं। सत्त्वस्थान बानबे-नब्बे दो हैं। असंयतमें बन्ध३० स्थान अठाईस आदि तीन है ॥६९८।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १०२५ उदया चउवीसूणा इगिवीसप्पहुडि एक्कतीसंता। सत्तं पढमचउक्कं अपुवकरणोत्ति णायव्वं ॥६९९॥ उदयाश्चतुविशत्यूनाः एकविंशतिप्रभृति एकत्रिशवंताः। सत्त्वं प्रथमचतुष्कमपूर्वकरण. पथ्यंतं ज्ञातव्यं ॥ आ असंयतनोळ उदयस्थानंगळु चतुविशतिस्थानं पोरगागि एकविंशतिस्थानप्रभृत्येक- ५ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानांतमादष्टस्थानंगळप्पुवु। एते दोडा चतुविशतिस्थानमेकेंद्रियदोळल्लदेल्लियु संभविसदप्पुरिदमा उदयस्थानं कळेयल्पस॒दे दरियल्पडुगुं। सत्वस्थानंगळु प्रथम चतुःस्थानंगळप्पुवु। मेलयुमपूर्वकरणगुणस्थानपर्यंतमी प्रथमचतुःस्थानंगळे सत्वंगळप्पवें दरियल्पडुगुं। असंयत बं । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ ॥ ९२। ९१ । ९०॥ अडवीसदुगं बंधो देसे पमदे य तीसदुगुमुदओ। पणुवीससत्तवोसप्पहुडो चत्तारि ठाणाणि ॥७००॥ अष्टाविंशतिद्विकं बंधो देशसंयते प्रमत्ते च त्रिशद्विकमुदयः। पंचविशतिः सप्तविंशत्याविचत्वारि स्थानानि ॥ देशसंयतनोळष्टाविंशतिद्विस्थानबंधमक्कुं । त्रिंशत्प्रकृतिस्थानद्विकमुदयमक्कुं। सत्वस्थानंग- १५ ळसंयतनोळ पेळ्द प्रथमचतुःस्थानंगळप्पुवु । देश । बं २८ । २९ । उ ३० । ३१ । स ९३ ॥ ९२ । ९१ । ९० । प्रमत्तसंयतनोळं बंधस्थानंगळु देशसंयतंगे पेन्दते अष्टाविंशत्यादिद्विस्थानंगळं उदयस्थानंगळु पंचविशतियं सप्तविंशत्यादिचतुःस्थानंगळुमप्पुवु। सत्वस्थानंगळसंयतनोलु पेन्द प्रथमचतुःस्थानंगळप्पुवु । प्रमत्त बं २८ । २९ । उ २५ । २७ । २८ । २९ । ३० । सत्व ९३ । ९२। ९१।९०॥ २० उदयस्थानान्येकविंशतिकादीनि चतुर्विशतिकोनान्येकत्रिंशत्कान्तान्यष्टौ तस्यैकेन्द्रियेष्वेवोदयात् । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादीनि चत्वारि । इमान्येवापूर्वकरणांतं ज्ञातव्यानि ॥६९९॥ देशसंयते बन्धस्थानेऽष्टाविंशतिकादिद्वयं च उदयस्थाने त्रिंशत्कादिद्वयं । सत्त्वमसंयतोक्तं । प्रमत्ते बन्धस्थाने देशसंयतोक्त द्वे । उदयस्थानानि पंचविंशतिकं सप्तविंशतिकादीनि चत्वारि च । सत्त्वस्थानान्यसंयतोक्तानि ॥७००॥ २५ उदयस्थान चौबीसके बिना इक्कीससे इकतीस पर्यन्त आठ हैं। चौबीसका उदयस्थान एकेन्द्रियके होता है इससे वह असंयतमें नहीं होता। सत्त्वस्थान तिरानबे आदि चार हैं । ये चार सत्त्वस्थान अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त जानना ।।६९९।। देशसंयतमें बन्धस्थान अठाईस आदि दो हैं । उदयस्थान तीस आदि दो हैं। सत्त्वस्थान असंयतके समान चार हैं। प्रमत्त में बन्धस्थान देशसंयतमें कहे दो हैं। उदयस्थान ३० पच्चीस तथा सत्ताईस आदि चार हैं। सत्त्वस्थान असंयतमें कहे चार हैं ।।७००। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२६ गो० कर्मकाण्डे अपमत्ते य अपुव्वे अडवीसादीण बंधमुदओ दु । तीसमणियट्टिसुहमे जसकित्ती एक्कयं बंधो ॥७०१॥ ___ अप्रमत्ते चापूर्वेऽष्टाविंशत्यादीनां बंधः उदयस्तु । त्रिंशदनिवृत्तिसूक्ष्मयोर्यशस्कोतिरेकको बंधः॥ ५ अप्रमत्तनोळमपूर्वकरणनोळमष्टाविंशत्यादिचतुःस्थानंगळु पंचस्थानंगळ बंधमप्पुवु । तु मत्तमुदयस्थानंगळु प्रत्येकं त्रिंशत् त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमक्कुं। सत्वस्थानंगळ मुंपेळ्द प्रथमचतुःस्थानंगळेयप्पुवु। अप्रमत्त बं २८ । २९ । ३०। ३१ । उ ३० । स ९३ । ९२। ९१। ९०। अपूर्वकरण बं २८ । २९ । ३० । ३१ । १। उ ३० । स ९३। ९२। ९१ । ९०। अनिवृत्ति सूक्ष्मयोः अनिवृत्तिकरणनोळं सूक्ष्मसांपरायनोळं प्रत्येक यशस्कोतिनाममो दे बंधमक्कुं॥ उदओ तीसं सत्तं पढमचउक्कं च सीदिचउसंत्ते । खीणे उदओ तीसं पढमचऊ सीदिचउ सत्तं ॥७०२॥ उदयः त्रिशत्सत्वं प्रथमचतुष्कं चाशीति चत्वारि। उपशांते क्षीणकषाये उदयस्त्रिश. त्प्रथमचतुरशीति चतुःसत्वं ॥ अनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायरुगळोदयस्थानमा दे त्रिशत्प्रकृतिकमक्कुं। सत्त्वस्थानंगळ १५ प्रत्येकं प्रथमचतुष्कमुमशीति चतुष्कमुमकुं । अनिवृत्ति। बं १। उ ३० । स ९३ । ९२। ९१ । ९०। ८०। ७९ ॥ ७८ । ७७ । सूक्ष्मसांपराय बं१। उ ३० । स ९३ । ९२। ९१ । ९०। ८०। ७९ ॥ ७८।७। उपशांतकषायनोळं क्षीणकषायनोळं उदयस्थानं प्रत्येकं त्रिंशत्प्रकृतिकमकुं। सत्वस्थानंगळु यथाक्रमं प्रथमचतुःस्थानंगळुमशीतिचतुःस्थानंगळुमप्पुवु । उपशांतबंध । ०। उ ३० । स ९३ ॥ ९२।९१।९० । क्षीणकषाय बं। ०। उ ३० । स ८०॥ ७९ ॥ ७८ । ७७॥ ~ ~ अप्रमत्तापूर्वकरणयोर्बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि पंच । तु पुनः उदयस्थानं त्रिंशत्कं । सत्त्वमसंयतोक्तं । अनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्पराययोर्बन्धस्थानं यशस्कीतिनाम ॥७०१॥ उदयस्थानं त्रिंशत्कं, सत्त्वस्थानानि प्रत्येकं त्रिनवतिकादीनि चत्वार्थशीतिकादीनि चत्वारीत्यष्टौ । उपशान्तक्षीणकषाययोरुदयस्थानं त्रिंशत्कं सत्त्वस्थानान्युपशान्तकषाये त्रिनवतिकादीनि चत्वारि, क्षीणकषायेऽशोतिकादीनि चत्वारि ॥७०२।। wwwwwwwwwwwww अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें बन्धस्थान अठाईस आदि चार तथा पाँच क्रमसे जानना। उदयस्थान तीसका ही है। सत्त्वस्थान असंयतमें कहे चार जानना। अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें बन्धस्थान एक यशस्कीर्तिरूप ही है ॥७०१॥ उदयस्थान तीसका ही है । सत्त्वस्थान तिरानबे आदि चार और अस्सी आदि चार इस तरह आठ हैं। उपशान्तकषाय और क्षीणकषायमें उदयस्थान तीसका ही है। ३० सत्त्वस्थान उपशान्तकषायमें तिरानबे आदि चार और क्षीणकषायमें अस्सी आदि चार हैं ।।७०२।। १. मु. सत्तं । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका जोगिम्मि अजोगिम्मि य तीसिगितीसं णवठ्ठयं उदओ। सीदादिचऊ छक्कं कमसो सत्तं समुद्दिढें ॥७०३।। योगिन्ययोगिनि च त्रिंशदेकत्रिंशत् नवाष्टकमुक्यः। अशोत्यादि चतुः षट्कं क्रमशः सत्वं समुद्दिष्टं ॥ सयोगकेवलिजिनरोळं अयोगिजिनरोळं क्रमदिनुदयं त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमेकत्रिंशत्प्रकृति- ५ स्थानमुं-- तुदयस्थानद्वयमुमयोगिकेवलियो नवप्रकृतिस्थानमुमंतुदयस्थानद्वय, सत्वस्थानंगळुमशोत्यादिचतुःस्थानंगळु । मशोत्यादि षट्स्थानंगळ मप्पुवु । सयोग बं। । उ ३० । ३१ । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ । अयोगि बं। ० । उ९।८। स ८० ॥ ७९ ॥ ७८ । ७७।१०।९॥ यितु चतुर्दशगुणस्थानंगळोळ नामकर्मबंधोदय सत्वस्थानंगळ त्रिसंयोगप्रकारमं पेळ्दनंतरं १० चतुर्दशजीवसमासंगळोळु अपर्याप्तजीवसमासंगळेळरोळं पर्याप्तजीवसमासंगलोळेळरोळु सूक्ष्मंगकोळं बादरंगळोळं विकलत्रयंगळोळमसंज्ञिगळोळं संशिगलोलं त्रिसंयोगस्थानसंख्यगळं पेळ्दपरु : सयोगायोगयोः क्रमेणोदयस्थाने त्रिंशत्ककत्रिंशत्के द्वे, नवकाष्टके द्वे । सत्त्वस्थानान्यशीतिकादीनि चत्वारि षट् । सयोग बं., उ ३० ३१ । स ८० ७९ ७८ ७७ । अयोगि बं., ३९। ८, स ८० ७९७८ १५ ७७ १०।९॥७०३॥ अथ चतुर्दशजीवसमासेष्वाह सयोगीमें उदयस्थान तीस-इकतीसके दो और अयोगीमें नौ-आठ ये दो हैं। सत्त्वस्थान सयोगीमें अस्सी आदि चार और अयोगीमें अस्सी आदि छह हैं।-सयोगीमें बन्ध उदय ३०, ३१ । सत्त्व ८०, ७२,७८, ७७। अयोगीमें बन्ध शून्य, उदय ९, ८। सत्त्व ८०,७९, ७८, ७७, १०, ९॥७०३॥ __ आगे चौदह जीव समासोंमें कहते हैं २० Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२८ गो० कर्मकाण्ड पण दो पणगं पण चदु पणगं बंधुदयसत्त पणगं च । पण छक्क एणग छच्छक्कपणगगट्ठमेयारं ॥७०४॥ पंच द्वे पंचकं पंचचतुः पंचकं बंधोदय सत्त्व पंचकं च । पंच षट् पंच षट् षट्कपंचकमष्टाकादश ॥ अपर्याप्तकसप्तकदोळु बंधोदयसत्वस्थानंगळु क्रमदिदं पंचक द्वे पंचकंगळप्पुवु । सर्वसूक्ष्मं. गोळु पंचचतुः पंचकंगळप्पुवु। सर्वबादरंग होळु बंधोदयसत्वस्थस्थानंगटु पंचकंगळप्पुवु । विकलत्रयदोळु पंचषट्पंचकंगळं क्रमदोळप्पुबु । असंज्ञिगळोळ षट्पट्पंचकंगळप्पुवु । संज्ञिगळोळ अष्टअष्टएकादशस्थानंगळु क्रमदिदमप्पुवु । ई पेन्द संख्याविषयभूतस्वामिगळं पेदपरु : सत्तेव अपज्जत्ता सामी सुहमो य बादरो चेव । वियलिंदिया य तिविहा होति असण्णी कमा सण्णी ॥७०५।। संदृष्टि :- अप। । सू । बा | वि ३ | असं । संज्ञि बं । ५। ५। ५ । ५ । ६ । ८ | उद । २४ । ५। ६ । ६ । ८ सत्व | ५ | ५ ५। ५ । ५ । ११ ई पेळ्द संख्याविषयभूतस्थानंगळावुर्वेदोडे पेन्दपरु : बंधा तिय पण छण्णव वीसं तीसं अपुण्णगे उदओ। इगिचउवीसं इगिछब्बीसं थावरतसे कमसो ॥७०६।। बंधः त्रिकपंच षण्णवति विशति त्रिंशदपूर्णके उदयः । एकचतुविशतिरेक षड्विंशतिः स्थावरे त्रसे क्रमशः॥ अपर्याप्तसप्तककदोळ त्रयोविंशति पंचविंशति षड्विशति नवविंशतिगळं त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमितु पंचबंधस्थानंगळप्पुवु । २३ ॥ए अ २५ । ए प । बि। ति । च ।प। म । अ प २६ । एप। २० अ । उ २९ । बि । ति । च । पंम । परि । ३० । बि । ति । च । पं। परि । उ॥ एकविंशतियु अपयतित अपर्याप्तसप्तके बन्धोदयसत्त्वस्थानानि पंच द्वे पंच । सर्वसूक्ष्मेषु पंच चत्वारि पंच। सर्वबादरेषु पंच पंच पंच । विकलत्रये पंच षट् पंच । असंजिषु षट् षट् पंच। संज्ञिष्वष्टाष्टकादश ॥ ७०४ ॥ ७०५ ॥ तानि कानीति चेदाह अपर्याप्तसप्तके बन्धस्थानानि त्रिपंचषट्नवाविंशतिकत्रिंशत्कानि पंच। उदयस्थानानि स्थावरलब्ध्य २५ अपर्याप्त सात जीव समासोंमें बन्ध उदय सत्त्वस्थान क्रमसे पाँच, दो, पाँच हैं। सब सूक्ष्मजीवोंमें पाँच, चार, पाँच हैं। सब बादर जीवोंमें पाँच, पाँच, पाँच हैं। विकलत्रयमें पाँच, छह, पांच हैं। असंज्ञीमें छह, छह, पाँच हैं। संज्ञीमें आठ, आठ, ग्यारह हैं ।।७०४-७०५।। वे कौन हैं ? यह कहते हैंअपर्याप्त सात जीवसमासोंमें बन्धस्थान तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस ये Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०२९ चतुविशतियु स्थावरलब्ध्यपर्याप्तंगलोर दयस्थानद्वयमक्कुं। त्रसलब्ध्यपनिंगळाळु एकविंशतियं षड्विंशतियुमुदयस्थानद्वयमक्कुं। स्थावर २१ । ति ॥ विग्रहगति २४ । ए। त्रस २१ । ति म । विग्रहगति । २६ । बि । ति । च । पं । सा । म । सत्वस्थानंगळं । बाणउदी णउदिचऊ सत्तं एमेव वंधयं अंसा । सुहुमिदरे वियलतिये उदया इगिवीसयादिचउपणयं ॥७०७॥ द्वानवतिर्नवति चत्वारि सत्वमेवमेव बंधांशाः। सूक्ष्मेतरस्मिन्विकलत्रये उदयाः एकविंश. त्यादिचतुः पंच ॥ आ लब्ध्यपर्याप्तजीवंगळो तीर्थरहितद्वानवतियं तोहाररहितनवत्यादिसुरद्विकनारक चतुष्कमनुष्यद्विकरहितंगळप्प नाल्कुं सत्वंगळप्पुवु। ९२। ९०। ८८। ८४ । ८२॥ समुच्चय संदृष्टि: लब्ध्य प.|७| बं ५ | उ स५० बंध |२३| २५ । २६ । २९।२० उद |२१| २४ त्रस२१/ २६ /० सत्व ।९२। ९० । ८८ | ८८ ८२| एकमेव इहिंगये सूक्ष्मंगळोळं बादरंगळोळ विकलत्रयदोळं बंधांशंगळप्पुवु । उदयस्थानगळोळ सूक्ष्मंगळोळु एकविंशत्यादिचतुःस्थानंगळप्पुवु । बादरंगळोछु एकविंशत्यादि पंचस्थानंगळप्पुवु । सत्वस्थानंगळु मुपेन्दुवक्कु । इगिछक्कडणववीसं तीसिगितीसं च वियलठाणं वा । बंधतियं सण्णिदरे भेदो बंधदि हु अडवीसं ॥७०८॥ एकषडष्टनवविंशतिस्त्रिंशदेकत्रिंशच्च विकलस्थानवबंधत्रयं संजोतरस्मिन् भेदो बध्नाति खल्वष्टविति ॥ विकलत्रयदोळ बंधांशंगळु सूक्ष्मगळोलु पेन्दुवेयप्पवु । उदयस्थानंगळु पेळल्पडुगुमेकविंशतियुं षड्विंशतियुंमष्टाविंशतियं नवविंशतियु त्रिंशदेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळप्पुवु । पर्याप्तेष्वेकचतुरनविंशतिके द्वे । असलब्ध्यपर्याप्तेष्वेकषडविंशतिके द्वे ॥७०६॥ सत्त्वस्थानानि द्वानवतिकं नवतिकादिचतुष्कं च । एवमेव सूक्ष्मेषु वादरेषु विकलेन्द्रियेषु च बंधांशी स्यातां । उदयस्थानानि सूक्ष्मेष्वेकविंशतिकादीनि चत्वारि बादरेष पंच । सत्त्वं प्रागुक्तमेव ॥७०७॥ विकलत्रये बन्धांशो सुक्ष्मोक्तावेव । उदयस्थानान्येकषडष्टनवदशैकादशाग्रविशतिकानि । असंज्ञिषु पाँच हैं। उदयस्थान स्थावर लब्ध्यपर्याप्तकोंमें इक्कीस-चौबीस दो हैं । त्रस लब्ध्यपर्याप्तकों में इक्कीस-छब्बीस ये दो हैं ॥७०६।। __ सत्त्वस्थान बानबे और नब्बे आदि चार हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म बादर और । विकलेन्द्रियों में बन्धस्थान और सत्त्वस्थान अपर्याप्तवत होते हैं। उदयस्थान सूक्ष्मजीवोंमें इक्कीस आदि चार हैं, बादरों में पाँच हैं सत्त्वस्थान पूर्वोक्त ही हैं ॥७०७।। विकलत्रयमें बन्ध और सत्त्व सूक्ष्मजीवोंके समान जानना । उदयस्थान इक्कीस, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३० गो० कर्मकाण्डे सूक्ष्मंगळगे बं५ । उ ४ । स ५ बादरंगळ्गे बं५ । उ ५ । स ५ विकलत्रयंगळगे बं५। उ६ । स ५ बं २३॥ २५॥ २६ ॥ २९ । ३० | बं२३ । २५ । २६ । २९ । ३० ब २३।२५।२६। २९ । ३०। उ२१ । २४ । २५ । २६ उ २१ । २४ । २५। २६ । २७ उ २१ । २६॥ २८॥२९॥३०॥३१॥ स ९२।१०।८८1८४।८२ | स ९२।९०1८८।८४।८२ स ९२१९०८८।८४।८२। मत्तमसंजियोळं विकलेंबियंगळोळ पेळ्वबंधोदयसत्वस्थानंगळेयप्पुवायोडं भेदमुटदाधुदेंदोडे अष्टाविंशतिं बध्नाति अष्टाविंशतिस्थानमुमं कटुगुं। सण्णिम्मि सव्ववंधो इगिवीसप्पहुडि एक्कतीसंता । चउवीसूणा उदओ दस णवपरिहीणसम्बयं सत्तं ॥७०९॥ ____ संजिनि सर्वबंधः एकविंशतिप्रभृत्येकत्रिंशवंताश्चतुर्विशत्यूना उदयाः दशनवपरिहीन सव्वं सत्वं ॥ संज्ञियोळु सर्वबंधस्थानंगळप्पुवु। उदयस्थानंगळुमेकविंशत्यादि एकत्रिंशत्कपयंतमाद चतुविशतिस्थानं पोरगागि शेषाष्टस्थानंगळप्पुवु । एके दाडा चतुविशतिस्थानमेकेंद्रियसंबंधियप्पुदरिंदमिल्लिगुदययोग्यमल्लप्पुरिदै । सत्वस्थानंगळु वशनवपरिहीनमागि सर्वमुं सत्वमक्कुं। १० संदृष्टि : संज्ञिर्ग बंध८॥ उदय ८। सत्व ११॥ बं । २३ २५ । २ २ ।२९ ३० ३११ उद । २१ । २५ । २६ । २७ २८ २९ । ३० ३१ | * * * | सत्व । ९३ | ९२ | ११ | ९. ८८ | ८४ | ८२ | ८० ७९ | ७८ । ७७ अनंतरं चतुर्दशमार्गणेगळोळु नामकर्मबंधोदय सत्वत्रिसंयोगमं पेळलुपक्रमिसि मोदल गतिमार्गणयोळ बंधोदय सत्वस्थानसंख्येगळं पेळ्वपरु : दोछक्कट्ठचउक्कं णिरयादिसु णामबंधठाणाणि । पण णव एगार पणयं तिपंचबारसचउक्कं च ॥७१०।। द्विषडष्टचतुष्कं नरकाविषु नामबंधस्थानानि । पंचनवैकादश पंचकं त्रिपंचद्वादश चतुष्कं च ॥ बन्धोदयसत्त्वस्थानानि विकलेन्द्रियोक्तानि । किन्तु अष्टाविंशतिकमपि बध्नाति ॥७०८॥ संजिषु बन्षस्थानानि सर्वाणि । उदयस्थानान्येकविंशतिकाधेकत्रिशत्कान्तानि चतुर्विशतिकोनान्यष्टौ । सत्त्वस्थानानि दशनवकपरिहीनसर्वाणि ॥७०९॥ अथ चतुर्दशमार्गणास्वाह २० छब्बीस, अठाईस, उनतीस, इकतीसके पाँच हैं। असंज्ञीमें बन्ध उदय सत्वस्थान विकलत्रयवत् जानना। किन्तु असंज्ञी अठाईसको भी बाँधता है अतः बन्धस्थान छह हैं ॥७०८॥ संज्ञीमें बन्धस्थान सब हैं । उदयस्थान चौबीसके बिना इक्कीससे इकतीस पर्यन्त आठ हैं । सत्त्वस्थान दस और नौ बिना सब हैं ॥७०९।। __ आगे चौदह मार्गणामें कहते हैं . Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्व ५ कर्णाटवृत्ति.जीवतत्त्वप्रदोषिका १०३१ नरकादिगतिगळोळु मदिदं नामबंधस्थानंगळु द्विषडष्टचतुष्कंगळप्पुवु। उदयस्थानंगळ पंचनवैकादशपंचकंगळप्पुवु । सत्वस्थानंगळु त्रिपंचद्वादशचतुष्कंगळप्पुवु यथाक्रमदिदं । संवृष्टि: नरकगति बंध २ उदय ५ सत्व ३ तिर्यग्गति | बंध ६ उदय ९ मनुष्यगति बंध ८ उदय ११ । सत्व १२ देवगति बंध ४ उदय ५ । सत्व ४ इंद्रियमार्गणयोळु पेन्दपरु: एगे वियले सयले पण पण अड पंच छक्केगारपणं । पण तेरं बंधादी सेसादेसेवि इदि णेयं ॥७११॥ एकेंद्रिये विकले सकले पंच पंचाष्टपंचषट्कैकावश पंच । पंच त्रयोदशबंधावयः शेषादेशेऽपि इति ज्ञेयं ॥ एकेद्रियवोळं विकलत्रयदोळं पंचेंद्रियदोळं क्रमविदं बंधस्थानंगळ पंचपंचाष्ट प्रमितंगळप्पुवु। उदयस्थानंगळुमंत पंचषट्कैकादशप्रमितंगळप्पुवु। सत्वस्थानंगळुमंते पंच पंच त्रयोदश स्थानंग- १. ळप्पुवु । शेषादेश उळिव कायादिमागणेगळोळमी प्रकारविंदमे कथनमरियल्पडुगुं । संदृष्टि एकद्रिय बं ५ ।उ५ सत्व ५ विकलेंदिया बं ५ उ६ सत्व ५ पंचेंद्रिय | बं८ उ११ । सत्व १३/ इंतु नरकादिगतिमार्गणेगळोळमेकेंद्रियविकलेंद्रियपंचेंद्रियंगळोळं पेळल्पट्ट बंधोदय सत्वस्थानंगळ संख्यगे विषयस्थानंगळं पेळ्दपरु : नरकादिगतिष क्रमेण नाम्नो बन्धस्थानानि द्वे षडष्टौ चत्वारि । उदयस्थानानि पंचनवैकादशपंच । सत्त्वस्थानानि त्रीणि पंच द्वादश चत्वारि ॥७१०॥ इन्द्रियमार्गणायामाह एकेन्द्रिये विकलत्रये पंचेन्द्रिये च क्रमेण बन्धस्थानानि पंचपंचाष्टौ । उदयस्थानानि पंचषडेकादश । सत्त्वस्थानानि पंच पंच त्रयोदश । एवं शेषकायादिमार्गणास्वपि ज्ञातव्यं ॥७११॥ तानि कानीति चेदाह-- नरक आदि गतियोंमें नामकर्मके बन्धस्थान दो, छह, आठ, चार; उदयस्थान पाँच, नौ, ग्यारह, पांच और सत्त्वस्थान तीन, पाँच, बारह, चार क्रमसे जानना ॥७१०॥ इन्द्रियमार्गणामें कहते हैं _ २० एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियमें क्रमसे बन्धस्थान पाँच, पाँच, आठ हैं। उदय- " स्थान पाँच, छह, ग्यारह हैं। सत्त्वस्थान पांच, पाँच, तेरह हैं। इसी प्रकार शेष कायादि मार्गणाओंमें भी जानना ॥७११।। वे कौन हैं ? यह कहते हैंक-१३० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३२ गो० कर्मकाण्डे णिरयादिणामबंधा उगुतीसं तीसमादिमं छक्कं । सव्वं पणछक्कुत्तरवीसुगतीसं दुगं होदि ॥७१२॥ नरकादिनामबंधाः एकान्नत्रिशस्त्रिशदाद्यतन षट्क। सव्वं पंच षट्कोतरविंशत्येकान्नत्रिंशद्वयं भवति ॥ ५ नरकादिगतिगळोळमेकेद्रियादींद्रियंगळोळं बंधस्थानंगळु पेळल्पडुगुमल्लि नरकगतियोळे. कान्नत्रिशत्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळप्पुवु। तिर्यग्गतियोछु आद्यतनत्रयोविंशत्यादिषट्कं बंधमक्कुं। मनुष्यगतियोळु सठ बंधस्थानंगळु बंधमप्पुवु । देवगतियोळु पंचविंशति षड्विंशत्येकान्नत्रिशस्त्रिशश्च्चतुःस्थानंगळु बंधमप्पुवु॥ उदया इगिपणसगअडणववीसं एक्कवीसपहुडि णवं । चउवीसहीणसव्वं इगिपणसगअट्ठणववीसं ॥७१३॥ उदया एकपंच सप्ताष्ट नवविंशतिरेकविंशतिप्रभृति नव चतुविशति होन सव्वं एक पंच सप्ताष्टनवविंशतिः॥ आ पेळ्द बंधस्थानंगळं कटुव नरकादिगतिजरुगळोजुदयस्थानंगळ पेळल्पडुगुमल्लिनरकगतिजरोळु एक पंच मप्ताष्ट नवोत्तरविंशत्युदयस्थानपंचकमकुं। तिय्यंग्गतियोळु एक१५ विंशतिप्रभृतिनवोदयस्थानंगळप्पवु। मनुष्यगतियोळु चतुविशत्युदयस्थानं पोरगागि सर्वोदय स्थानंगळप्पु । देवगतियोळे कविंशति पंचविंशति सप्तविंशति अष्टाविंशति नविंशति उदयस्थानपंचकमक्कुं: सत्ता बाणउदितियं वाणउदीणउदिअट्ठसीदितियं । बासीदिहीणसव्वं तेणउदिचउक्कयं होदि ॥७१४॥ सत्वानि द्वानवतित्रयं द्वानवतिनवत्यष्टाशीति त्रिकं । द्वयशोतिहीनस त्रिनवतिचतुष्कं भवति ॥ नाम्नो बन्धस्थानानि नरकगतावेकान्नत्रिशत्कत्रिशके द्वे । तिर्यग्गतावाद्यानि अयोविंशतिकादीनि षट् । मनुष्यगतो सर्वाणि । देवगतौ पंचषण्णवाविंशतिकानि त्रिशत्कं च ॥१२॥ उदयस्थानानि नरकगतावेकपंचसप्ताष्टनवाविंशतिकानि पंच । तिर्यग्गतावेकविंशतिकादीनि नव । २५ मनुष्यगती चतुर्विंशतिकं विना सर्वाणि । देवगतावेकपंचसप्ताष्टनवानविंशतिकानि पंच ॥७१३॥ नामकर्मके बन्धस्थान नरकगतिमें उनतीस-तीस ये दो हैं। तियंचगतिमें आदिके तेईस आदि छह हैं । मनुष्यगतिमें सब हैं । देवगतिमें पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस ये चार हैं ॥७१२॥ उदयस्थान नरकगतिमें इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसके पांच हैं । ३० तियंचगतिमें इक्कीस आदि नौ हैं। मनुष्यगतिमें चौबीसके बिना सब हैं। देवगति में इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसके पाँच हैं ॥७३॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाँटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०३३ आ पे बंधोदयस्थानंगठनकळ नारकादिगळगे सत्वस्थानंगळ्पेळल्पडुगु-। मल्लि नरकगतिजरो द्वानवतियुमेकनवति त्रिनवति त्रिस्थानंगळु सत्वमक्कुं। तिर्यग्गतिजरोळु द्वानवति नवत्यष्टाशीत्यादित्रिकमुं सत्वमकुं। मनुष्यगतियो द्वयशीति होनमागि सर्वद्वादशस्थानंगळं सत्वमकुं । देवगतियो त्रिनवत्यादिचतुःस्थानंगळं सत्वमप्पुवु । संदृष्टि : | नरकगति बंध २उ ५ सत्व ३ तिर्यग्गति बंध ६। उद ९/स५ । बंध २९।३०। बं २३।२५।२६।२८।२९।३० उद २।२५।२७।२८/२९ उ२१।२४।५।२६।२७।२८।२९।३०॥३१ सत्त्व ९२१९१४९० सत्त्व ९२।९०1८८1८४१८२। । मनुष्य बं टाउ१शस १२ बं२३।२५। २ २८२९॥३०॥३१ उ २०१२।२५।२६।२७।२८।२९।३०।३१९८ स ९३९२।११।९०.८८1८४१८०७१/७८१७७ | सत्त्व ९३३९२।९११९०८८८८४९८०:७९७८७७।१०।९। | देवग बं४ उ५/सत्त्व ४ बं २५।२६।२९॥३०॥ उ२११२५/२७/२८२९॥ सर३२९२।९१२९० इगिविगलवंधठाणं अडवीमणं तिवीसछक्कं तु । सयलं सयले उदया एगे इगिबोसपंचयं वियले ॥७१५॥ एकविकलं बंधस्थानमष्टाविंशत्यूनं त्रिविशतिषट्कं तु। सकलं सकले उदयाः एकेंद्रिये एकविशति पंचकं विकले ॥ इंद्रियमार्गणेयोळ पेळ्द संख्येय बंधस्थानंगळ पेळल्पडुगुमल्लि एकेंद्रियंगोळं विकलत्रयंगळोळं प्रत्येकमष्टत्रिंशत्यूनत्रयोविंशत्यादि षड्बंधस्थानंगळप्पुवु । सकलेंद्रियदोळ सकलबंधस्थानंग- १० ळप्पुवु । उदयाः आ एकविकल सकलंगळगुदयं पेळल्पडुगुमल्लि एकेंद्रियदोल एकविंशतिपंचकमुदयमक्कुं। विकलेंद्रियसकलेंद्रियंगळगे पेळ्दपरु : mnnainamam सत्त्वस्थानानि नरकगती द्वचेकखाधिकनवतिकानि । तिर्यग्गतौ द्वानवतिकनवतिके द्वे, अष्टाशीतिकादित्रयं च । मनुष्यगती यशोतिकोनसर्वाणि । देवगतौ त्रिनवतिकादिचतुष्कं ॥७१४॥ इन्द्रियमार्गणायां बन्धस्थानान्येकेन्द्रिये विकलत्रये चाष्टाविंशतिकोनत्रयोविंशतिकादीनि षट् । १५ पंचेन्द्रियेषु सर्वाणि । उदयस्थानान्ये केन्द्रिये एकविंशतिकादीनि पंच ॥७१५॥ सत्त्वस्थान नरकगतिमें बानबे, इक्यानबे, नब्बे ये तीन हैं। तियंचगतिमें बानबे, नब्बे और अठासी आदि तीन इस प्रकार पाँच हैं । मनुष्यगतिमें बयासीके बिना सब हैं । देवगतिमें तिरानबे आदि चार हैं ॥७१४॥ इन्द्रिय मार्गणामें बन्धस्थान एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियमें अठाईसके बिना तेईस आदि २० । छह हैं । पंचेन्द्रियमें सब हैं। उदयस्थान एकेन्द्रियमें इक्कीस आदि पाँच हैं ।।७१५।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३४ गो० कर्मकाण्डे इगिछक्कडणववीसं तीसदु चउवीसहीणसव्वुदया। णउदिचऊ वाणउदी एगे वियले य सव्वयं सयले ॥७१६।। एकपडष्टनवविंशतित्रिंशवयं चतुम्विशतिहीन सोक्याः । नवति चत्वारि द्वानवतिरेकेंद्रिये विकले च सव्वं सकलेंद्रिये ॥ विकलेंद्रियवोदयस्थानंगळु एकषडष्टनवविंशति प्रकृतिस्थानंगळं त्रिंशदेकत्रिंशत्कंगळु कूडि षडक्यस्थानंगळप्पुवु । सकलेंद्रियंगळोळ चतुविशतिहीनसोदयस्थानंगळप्पुवु। सत्वस्थानंगळोळकेंद्रियंगळोळं विकलेंद्रियंगळोळं प्रत्येकं द्वानवति नवत्यष्टाशीतिचतुरशीति घशीतिसत्वस्थानंगळप्पुवु । पंचेंद्रियंगळोळु सर्वसत्वस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टि :| एक ब २३।२५।२६२९/३० उ|२ २४/२५/२६/२७) । | विकलें। बं २३२५/२६/२९/३० ।उ रशरक्षा२८।२९/३०॥३१ | सकल | बं ।२३/२५/२६/२८/२९/३०/३१|१|उ/२०/२२५/२६/२७/२८/२९/३०।३१९।८ सत्त्व |९२९०८८| ८२ सत्त्व ।९२/९०1८८/०1८४८२ नसत्त्व |९३१९२९१०९०८८४८२८०८९७८९७७/१०/९ अनंतरं कायमार्गर्णयोळ नामत्रिसंयोगमं पेळ्वप: पुढवीयादीपंचसु तसे कमा बंधउदयसत्ताणि । एयं वा सयलं वा तेउदुगे पत्थि सगवीसं ॥७१७॥ पृथिव्याविपंचसुत्रसे क्रमाबंधोदयसत्वान्येन्द्रियवत् सकलेंद्रियवत्तेजोद्विके नास्ति सप्तविशतिः॥ पृथ्व्यमेजोवायुवनस्पतिगळेब पंचकायिकंगळोळं प्रसकायिकदोळ क्रमात् क्रमविदं बंधोदय. १५ सस्वस्थानंगळेक द्रियदोळ पळदंतयु पंचेंद्रियवोपेन्दतैयुमप्पुवु । तेजोद्विकवोळ सप्तविंशतिप्रकृत्युक्यस्थानमिल्लेके योग सप्तविंशतिस्थानमेकेंद्रियपर्याप्तंगळोडनातपोद्योतंगळोळन्यतरोदय विकलेन्द्रियेषु एकषडष्टनवाविंशतिकादीनि त्रिंशत्कैकत्रिशके च । सकलेन्द्रियेषु चतुर्विशतिकोनसर्वाणि । सत्त्वस्थानान्येकेन्द्रिये विकलत्रये च द्वानवतिकनवतिकाष्टचतुद्वर्यग्राशीतिकानि । पंचेन्द्रियेषु सर्वाणि ॥७१६॥ कायमार्गणायां पृथ्व्याविपंचसु बन्धोदयसत्त्वस्थानान्येकेन्द्रियवत् । त्रसे पंचेन्द्रियवत् । न तेजोद्विके विकलेन्द्रियमें इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस ये छह हैं। पंचेन्द्रियमें चौबीसके बिना सब हैं। सत्त्वस्थान एकेन्द्रिय और विकलत्रयमें बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासी, बयासी हैं। पंचेन्द्रियमें सब हैं ॥७१६।। कायमाणामें पृथ्वी आदि पाँच स्थावरोंमें बन्ध उदय सत्त्वस्थान एकेन्द्रियके समान Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०३५ ५ युतस्थानमप्पुर्दारदमा जोवंगळोळु "तेउतिगूणतिरिच्छेसुज्जोओ बादरेसु पुण्णेसु" एंदितुवयनिषेधमुंटप्पुर्दारदं 'भूपुण्णबादरेताओ' एंदितु आतपनामोदययुतमाद सप्तविंशत्युदयस्थानमुमाजीवंगळोळु संभविसदप्पुवरदं । संदृष्टि :- पृथ्वी बं ५ । उ ५ । स ५ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ ।। स९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ।। अप्कायिक बं ५ । उ ५ । स५ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ ॥ स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । तेजस्कायिक बं५ । उ ४ । स५ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २९ । २६ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ वायुकायिकंगळगे बं५ । उ ४ । सत्त्व ५ । बंध २३ ॥ २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । सत्त्व ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ।। वनस्पतिकाकिंग बं५ । उ ५ । सत्त्व ५ । बं २३ | २५ | २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ ॥ २७ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ त्रसकायिकंगळर्ग बं ८ । उ ११ । स १३ । बं २३ । २५ । १० २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । उ २० । २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९ । ८ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । ८० । ७९ । ७८ । ७७ । १० । ९ ॥ अनंतरं योगमार्गर्णयो नामत्रिसंयोगमं गाथाचतुष्टयदिदं पेवपरु :मणवच बंधुदयंसा सव्वं णववीसतीसइगितीसं । दसणवदुसीदिवज्जिद सव्वं ओरालतम्मिस्से ||७१८॥ मनोवाग्बंधोदयांशाः सव्वं नववंशतित्रिंशदेकत्रशद्दश नव द्वयशोतिर्वाज्जत सर्व्वमौदारिकतन्मिश्रयोः ॥ मनोवाग्योगंगळ बंधोदयसत्त्वस्थानं गळ्पेळल्पडुववल्लि बंघस्थानंगळ प्रत्येकं सर्व्वम्मक्कुमुदयस्थानंगळ नवविंशतित्रिंशदेकत्रिशत्प्रकृतिस्थानत्रितयमक्कुं । सत्त्वस्थानंगळु वशनवद्वयशीतिर्वाज्जतसर्व्वसस्वस्थानंगळप्पुवृ । संदृष्टि - मनोयोगक्र्क नं ८ । उ ३ । स १० । बं २३ । २० २५ | २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । उ२९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ वाग्योगचतुष्टयदोळ । बं ८ । उ ३ । स १० । बं २३ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । उ२९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ सप्तविंशतिकं तस्यैकेन्द्रियपर्याप्त युवा तपोद्योतान्यतरयुतत्वात् तत्रानुदयात् ॥७१७॥ योगमार्गणायां मनोवाक्षु बंघस्थानानि प्रत्येकं सर्वाणि । उदयस्थानानि नवविंशतिकत्रिंशत्कैकत्रिंशत्कानि । सत्त्वस्थानानि दश कनवकद्वयशी तिकोन सर्वाणि ॥७१८ ।। १५ होते हैं। त्रसमें पंचेन्द्रियके समान हैं। किन्तु तेजकाय वायुकायमें सत्ताईसका उदय नहीं है; क्योंकि सत्ताईसका उदयस्थान एकेन्द्रिय पर्याप्तके साथ आतप या उद्योत सहित होता है और वायुकाय तेजकायमें इनका उदय नहीं है ||७१७|| ३० योगमार्गणा में मन वचनयोगमें बन्धस्थान सब है । उदयस्थान उनतीस, तील, इकतीस तीन हैं । सत्त्वस्थान दस, नौ और बयासीके बिना सब हैं ||७१८ || २५ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३६ गो० कर्मकाण्डे औदारिककाययोगदोळं तन्मिश्रमाययोगदोळं त्रिसंयोगमं पेळ्दपरु : सव्वं तिवीसछक्कं पणुवीसादेक्कतीसपेरंतं । चउछक्कससवीसं दुसु सव्वं दसयणवहीणं ॥७१९।। सव्वंत्रयोविंशतिषट्कं पंचविंशतेरेकत्रिंशत्पथ्यंत । चतुष्षट्सप्तविंशतियोस्सव्वं दानव ५ परिहीनं ॥ औदारिककाययोगदोळु सर्वम बंधस्थानंगळप्पुवु। तन्मिश्रकाययोगदोछु त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळप्पुव । उदयस्थानंगळोदारिककाययोगदो पंचविंशतिस्थानंमोदल्गोंडकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानपयंतमाद सप्तस्थानंगळप्पुवु । तन्मिश्रकाययोगदोळु चतुविशतियुं षड्विशतियं सप्तविंशतियु मितु त्रिस्थानंगळुदयमप्पुव । सत्त्वस्थानंगळौदारिककाययोगदोळं तन्मिश्रकाययोगदोळं दशनव१. परिहीनसर्वसत्वस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टि-औदारिककाययोगदोळ बं ८। उ७ । स ११ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १। उ २५ । २६ । २७। २८ । २९ । ३०। ३१ । स ९३ । ९२।९१ । ९०। ८८।८४॥ ८२। ८०। ७९ । ७८ । ७७॥ औदारिकमिश्रकाययोगदोळु बं ६ । उ ३। स ११ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९। ३०। उ २४ । २६ । २७ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८८ । ८४ । ८२॥ ८० । ७९ ॥ ७८ । ७७॥ वेगुव्वे तम्मिस्से बंधंसा सुरगदीव उदयो दु। सगवीसतियं पणजुदवीसं आहारतम्मिस्से ॥७२०॥ वैक्रियिके तन्मिधे बंधांशाः सुरगतिरिवोदयस्तु । सप्तविंशतित्रिकं पंचयुतविंशतिराहारतन्मियोः ॥ __ वैक्रियिककाययोगोळं तन्मिश्रकाययोगदोळं बंधस्थानंगळं सत्त्वस्थानंगळं देवगति२० योळ पेळ्वंयप्पुवु । तु मत्ते उदयस्थानंगळु सप्तविंशतित्रिकमुं पंचविंशतिस्थानमक्कुं। संदृष्टि :वैक्रियिककाययोगदोळु बं ४ । उ ३ । स ४ । बं २५ । २६ । २९ । ३०॥ उ २७ । २८ । २९ । औदारिके बन्धस्थानानि सर्वाणि । तन्मिश्रे त्रयोविंशतिकादीनि षट् । उदयस्थानान्यौदारिके पंच. विंशतिकाद्यकत्रिशकांतानि सप्त । तन्मिश्रे चतुःषट्सप्तापविशतिकानि । सत्त्वस्थानान्यौदारिके तन्मिश्रेच दशकनवकोनसर्वाणि ॥७१९॥ वैक्रियिके तन्मिश्रे च. बन्धस्थानानि सत्त्वस्थानानि च देवगत्युक्तानि । तु-पुनः उदयस्थानानि औदारिकमें बन्धस्थान सब हैं । औदारिक मिश्रमें तेईस आदि छह हैं । उदयस्थान औदारिकमें पच्चीससे इकतीस पर्यन्त सात हैं । औदारिक मिश्रमें चौबीस, छब्बीस, सत्ताईस ये तीन उदयस्थान हैं । सत्वस्थान औदारिक औदारिक मिश्रमें दस और नौके बिना सब हैं ॥७१९।। वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्रमें बन्धस्थान सत्त्वस्थान तो देवगतिकी तरह जानना। २५ - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०३७ स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । वैक्रियिकमिश्रकाययोगदोलु बं ४ । उ १ । स ४ | बं २५ | २६ । २९ । ३० । उ २५ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ आहारक तन्मिश्रयोगंगळोळं काणकाययोगदोळं पेदपरु : वंधतियं अडवीस वेगुव्वं वा तिणउदिवाणउदी । कम्मे वदुगुदओ ओरालियमिस्सयं व बंधंसाः ।। ७२१ ।। त्रयमष्टाविंशतिद्वि वैक्रियिकवत् त्रिनवतिर्द्वानिवतिश्च कार्म्मणे विंशतिद्विउदयः औदारिक मिश्रवबंधांशाः ॥ आहारककाययोगदोळं तन्मिश्रकाययोगदोळं बंधोदय सत्त्वस्थानं गळपेळल्प डुगुमल्लि बंधस्थानं गळु प्रत्येक मष्टाविंशति नवविंशतिद्वयमक्कुं । वैक्रियिककाययोगदोळ पेदते सप्तविंशत्यादित्रिस्थानोदयंगळं मिश्रवोळु पंचविंशतिस्थानमक्कुं । सत्त्वस्थानंगळ प्रत्येकं त्रिनवतियुं द्वानवतियु- १० मप्पुवु । संदृष्टि – आहारककाययोगदोळ बं २ । उ ३ । स २ । बं २८ । २९ । उ २७ । २८ । २९ । स ९३ । ९२ ॥ आहारकमिश्रदोळु बं २ । उ १ । स २ । बं २८ । २९ । उ २५ । स ९३ । ९२ ।। कार्म्मणका योगदो विशतियुमेकविंशतियुमुदयंगळष्णुवु । बंधांशंगळौवारिक मिश्र दोळु पेवर्तयcg | संदृष्टि - कार्मणकाययोगदोळ बं ६ । उ २ । स ११ । बं २३ | २५ | २६ । २८ । २९ । १५ ३० । उ२० । २१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ अनंतरं वेदमागणेयोळं कषायमार्गणेयोळं नामत्रिसंयोगमं पेळपरु : वेदकसाये सव्वं इगिवीसणवं तिणउदि एक्कारं । थी पुरिसे चउवीसं सोदडसदरी ण थी संढे ||७२२।। वेदकष (ययोः सर्व्वमेकविशति नव त्रिनवत्येकादश स्त्रीपुरुष योश्चतुव्विशतिरशीत्पष्टसप्त. तिन्नं स्त्रीषंडयोः ॥ सप्तविंशतिकादित्रिकं पंचविंशतिकं च ॥ ७२० ॥ आहारके तन्मिश्रे च बंधस्थानान्यष्टनवाप्रविशति के द्वे द्वे । उदयस्थानानि वैक्रियिकवत् सप्तविंशतिकादीनि त्रीणि । मिश्र पंचविंशतिकमेव । सत्त्वस्थानान्युभयत्र त्रिद्वयग्रनवतिके द्वे । कार्मणे उदयस्थानानि विशति विशति के द्वे बंबांशी ओदारिकमिश्रोक्तावेव ॥ ७२१ ॥ उदयस्थान सत्ताईस आदि तीन हैं। किन्तु मिश्र में पच्चीसका ही है || ७२०|| आहारक आहारक मिश्रमें बन्धस्थान अठाईस उनतीस के दो-दो हैं । उदयस्थान वैक्रियिकवत् सत्ताईस आदि तीन हैं। आहारक मिश्र में पच्चीसका ही है। सत्त्वस्थान दोनोंतिरानवे - बानबे दो हैं । कार्माणमें उदयस्थान बीस-इक्कीस ये दो हैं । बन्ध और सरव औदारिक मिश्रवत् हैं ॥ ७२१ ॥ ५ २० २५ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३८ गो० कर्मकाण्डे वेबमार्गणेयोळं कषायमागणेयोळं प्रत्येकं सर्वबंधस्थानंगळप्पुषु । एकविंशत्यादिनवो. वयस्थानंगळप्पुवु । त्रिनवत्याकादश सत्त्वस्थानंगळप्पुत् । ___ इल्लि विशेषमुंटवावु दोर्ड स्त्रीवेदवोळं पुरुषवेवदोळं चतुम्विशतिप्रकृतिस्थानमुदयमिल्के केबोडवक्के केंद्रियवोळल्लदुदयमिल्ल । स्त्रीपुरुषवेदोवयं पंचेंद्रियदोळल्लदेल्लियु संभविसवप्पु५ दरिदं स्त्रीवेददोळं पंडवेददोळमशीत्यष्टसप्ततिस्थानद्वयं सत्त्वमिल्लेकेदोग स्त्रीखंडवेवोदयंगलिंदं क्षपकण्यारोहणमिल्लप्पुरिदं। आ तीर्थयुतद्विस्थानसत्वं संभविसवें बुवत्थं । संदृष्टि : पंवेदक्के बं ८। उ ८स ११ । बं २३ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥१॥उ २१ । २५ ॥ २६ ॥ २७॥ २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३॥ ९२।९१।१०।८८1८४८२।८०॥७९ । ७८॥७७ ॥ स्त्रीवेवक्के बं ८। उ स ९ । २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३०।३१।१॥ १० उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८।२९ । ३०।३१॥ स ९३ । ९२। ९१।९०1८८1८४८२। ७९ । ७७॥ षंडवेवक्के बं ८। उ ९ । स ९ । बं २३ । २५ । २६ । २८१२९ । ३०। ३१।१॥ उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३। ९२। ९१ । ९०। ८८1८४ ८२ । ७२ । ७७॥ कषायमागणयोळु कषायचतुष्टयबोळं बं ८। उ९। स ११ । बं २३ । २९ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १॥उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१॥ स १५ ९३॥ ९२ । ९१ । ९०। ८८।८४ । ८२ । ८०।७१।७८ । ७७॥ अनंतरं ज्ञानमार्गयोळु नामनिसंयोगमं सार्द्धगाथात्रयविवं पेळ्वपक्ष: अण्णाणदुगे वंधो आदी छ णउंसयं व उदओ दु । सत्तं दुणउदिछक्कं विभंगबंधा हु कुमर्दिव ॥७२३॥ अज्ञानद्विके बंधः आविषट् नपुंसकवदुक्यस्तु । सत्त्वं तु नवतिषट्कं विभंगबंधाः खलु २० कुमतिवत् ॥ कुमतिकुश्रुतज्ञानंगळोळ त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळ बंधमक्कुं। तु मर्त उवयः उवयं नपंसकवत् नपुंसकवेवदोळु पेळ्व स्थानंगळप्पुवु। सत्वं सत्त्वमुं द्विनवतिषट्कं द्वानवत्यादिषट्क वेदकषायमार्गणयोबंधस्थानानि सर्वाणि । उदयस्थानान्येकविंशतिकादीनि नव । सत्त्वस्थानानि विनवतिकादीन्येकादश । अत्र स्त्रीपुंसोनवचतुर्विशतिकं तस्यैकेन्द्रियेष्वेवोदयात् । स्त्रीषंढयो शोतिकाष्टसप्ततिके । २५ तीर्थसत्त्वस्य पुंवेदोदयेनैव क्षपकश्रेण्यारोहात् ॥७२२॥ ज्ञानमार्गणायां कुमतिकुश्रुतयोबंधस्थानानि त्रयोविंशतिकादीनि षट् । तु-पुनः उदयस्थानानि वेद और कषायमार्गणामें बन्धस्थान सब हैं उदयस्थान इक्कीस आदि नौ हैं। सत्त्वस्थान तिरानबे आदि ग्यारह हैं। इतना विशेष है कि स्त्रीवेद पुरुषवेदमें चौबीसका उदय नहीं है क्योंकि उसका उदय एकेन्द्रियमें ही होता है। तथा स्त्रीवेद नपुंसकवेदमें अस्सी और अठहत्तरका सत्त्व नहीं है। क्योंकि तीर्थकरकी सत्तावाला पुरुषवेदके उदयसे ही अपक श्रेणी चढ़ता है ॥७२२॥ ज्ञान मार्गणामें कुमति कुश्रुत शानमें बन्धस्थान तेईस आदि छह हैं। उदयस्थान Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०३९ मक्कुं। संदृष्टि-कु। कु । बं ६ । उ ९ । स ६ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३०। उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१॥ स ९२ । ९१ । ९०। ८८।८४८२॥ विभंगबंधाः खलु विभंगज्ञानदोळु बंधस्थानंगळु कुमतिवत् कुमतिज्ञानदोळ पेळ्द त्रयोविंशत्यादिषट्कमक्कुं स्फुटमागि ॥ आ विभंगदोळवयसत्त्वंगळ पेळ्दपर। - उदया उणतीसतियं सत्ता णिरयं व मदिसुदोहीए। अडवीसपंचबंधा उदया पुरिसव्व अट्ठेव ॥७२४॥ उवयाः एकान्नत्रिंशस्त्रयः सत्वानि नरकवत् मतिश्रुतावधिष्वष्टाविंशतिपंचबंधाः उदया: पुरुषववष्टव ॥ विभंगज्ञानवोदयस्थानंगळ एकान्नत्रिंशत् त्रिस्थानंगळप्पुवु। सत्वस्थानंगळ नरकगतियोळ पेल्द द्वानवतित्रितयमक्कुं। संवृष्टि । विभंग । बं ६ । उ ३ । स ३ । बं २३ । २५ । २६ । , २८ । २९ । ३० ॥ उ २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९१ । ९० ॥ मतिश्रुतावधिषु मतिश्रुतावधिज्ञानगळोळ अष्टाविंशत्यादि पंचबंधस्थानंगळप्पुवु उदयस्थानंगळ पंवेवदोळपेन्देकविंशत्याद्यष्ट स्थानंगळेयप्पुवु ॥ सत्वस्थानंगळोळ पेळ्दपरु : पढमचऊ सीदिचऊ सत्तं मणपज्जवम्हि बंधंसा । ओहिव्व तीसमुदयं ण हि बंधो केवले जाणे ॥७२५॥ प्रथमचतुरशीति चतुः सत्त्वं मनःपर्यये बंधांशाः। अवधिवत् त्रिशवुदयः नास्ति बंधः केवले ज्ञाने॥ मा मतिश्रुतावधिज्ञानंगळोळ प्रयमत्रिनवत्यावि चतुःस्थानंगळ मशीत्यादिचतुः स्थानंगळुमप्पुष ।। संदृष्टि-म । श्रु । अबं५ । उ ८। स ८ । बं २८ । २९ । ३०। ३१ । १। उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८०। ७९ । ७८ । ७७ ॥ मनःपर्यये मनःपय॑यज्ञानवोळ बंषस्थानंगळ सत्वस्थानंगळ मवधिज्ञानवोळ पेन्दष्टाविंशत्यादिपंचस्थानंगळं त्रिनवत्यादि चतुःस्थानंगळ मशीत्यादि चतुःस्थानंगळ मप्पुवु । त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमोंषंढवन्नव । सत्त्वं द्वानवतिषट्कं । विभंगे बन्धस्थानानि कुमतिवत्खलु ॥७२३॥ उदयस्थानान्येकान्नत्रिंशत्कादीनि त्रीणि । सत्त्वस्थानानि नरकगत्युक्तानि । मतिश्रुतावधिषु बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि पंच । उदयस्थानानि पंवेदवदष्टौ ॥७२४॥ सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादिचतुरुकमशीतिकादिचतुष्कं च । मनःपर्यये बन्धसत्त्वस्थानान्यवधिवत् ।। नपुंसकवेदकी तरह नौ हैं। सत्त्वस्थान बानबे आदि छह हैं । विभंगमें बन्धस्थान कुमतिकी तरह जानना ।।७२३॥ उदयस्थान उनतीस आदि तीन हैं । सत्त्वस्थान नरकगतिवत् हैं। मति-श्रुत-अवधिमें बन्धस्थान अठाईस आदि पाँच हैं। उदयस्थान पुरुषवेदकी तरह आठ हैं ॥७२४॥ सत्त्वस्थान तिरानबे आदि चार और अस्सी आदि चार मिलकर आठ हैं। मन:क-१३१ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४० गो० कर्मकाण्डे देयुदयमक्कुं । संदृष्टि - मन:पर्ययज्ञान बं५ । उ१ । स ८ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ नास्ति बंधः केवलज्ञाने केवलज्ञानदोळ. नामकर्मबंधमिल्लुदय सत्वंगळ' पेळदपरु : उदओ सव्वं चदुपणवीसूणं सीदिछक्कथं सत्तं । सुदमिव सामायियदुगे उदओ पणवीस सत्तवीसचऊ ||७२६ ॥ उदयः सर्व्वश्चतुःपंचविंशत्यूनोऽशीतिषट्कं सत्त्वं । श्रुतमिव सामायिक द्विके उदयाः पंचविशतिः सप्तविंशति चत्वारि ॥ केवलज्ञानदोळुदयस्थानंगळु चतुव्विशति पंचविशति रहितमप्प विशत्यादिसर्व्वमुमक्कुं । सत्त्वस्थानंगळ मशीत्यादिषट्स्थानंगलमप्पुवु । संदृष्टि :- केवलज्ञान बं । ० । उ१० । १० स ६ । बं । ० । उ २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९ । ८ । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ । १० । ९ ॥ श्रतमिव सामाइकद्विके संयममार्गणेयोल त्रिसंयोगपेळल्प डुगुमल्लि सामायिकच्छेदोपस्थापन संयमद्विकदोळु बंधस्थानंगळं, सत्त्वस्थानंगळं श्रुतज्ञानदोळ पेदष्टाविशत्यादिपंचस्थानं गळ, त्रिनवत्यादि चतुःस्थानंगळ, मशीत्यादिचतुः स्थानं गळवु । उदयस्थानंगळ पंचविशतिस्थानमं सप्तविंशत्यादि चतुःस्थानंगळमप्पुवु । संदृष्टि :- सा । छे। बं ५ । उ ५ । स ८ । १५ बं २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । उ २५ | २७ । २८ । २९ । ३० । स ९३ । ९२ । ९९ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ २५ परिहारे वंधतियं अडवीसचऊ य तीसमादिचऊ । सुमे एक्को बंधो मणं व उदयंसठाणाणि ॥७२७|| परिहारे बंधत्रयमष्टाविंशतिचतुष्कं त्रिंशत् आदि चत्वारि । सूक्ष्मे एको बंधः मनःपय२० वदुवयांशस्थानानि ॥ उदयस्थानं त्रिशत्कं । केवलज्ञानं नामबन्धो नास्ति ||७२५ ॥ उदयस्थानानि चतुःपंचाग्रविशतिकोन सर्वाणि । सत्त्वस्थानाम्यशीतिकादीनि षट् । | संयममार्गणायां सामायिकछेदोपस्थापनयोर्बन्ध सत्त्वस्यानानि श्रुतज्ञानवत् । उदयस्थानानि पंचविशतिकं, सप्तविंशति का दिचतुष्कं च ॥७२६॥ पर्ययज्ञानमें बन्धस्थान और सत्त्वस्थान अवधिज्ञानकी तरह हैं । उदयस्थान तीस हीका है । केवलज्ञानमें नामकर्मका बन्ध नहीं है ||७२५|| उदयस्थान चौबीस-पच्चीस के बिना सब हैं । सत्त्वस्थान अस्सी आदि छह हैं । संयममार्गणा में सामायिक छेदोपस्थापना में बन्धस्थान सरवस्थान श्रुतज्ञानकी तरह हैं । उदयस्थान पच्चीसका और सत्ताईसका आदि चार हैं ||७२६ || Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०४१ परिहारविशुद्धिसंयमदोळ बंधादित्रितयं यथाक्रमदिदमष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळे त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं त्रिनवत्यादि चतुःस्थानंगळ मप्पुव । संदृष्टि-परिहारविशुद्धि बं ४ । उ १ । स ४ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ सूक्ष्मे सूक्ष्मसांपरायसंयमदोळ एको बंधः एकप्रकृतिये बंधमक्कु। उदयस्थानमं मनःपय्यंयज्ञानदोळ पेळ्द त्रिंशदुश्यस्थानमं त्रिनवत्यादिचतुःसत्त्वस्थानंगळ मशीत्यादिचतुःस्थानंग सत्त्वमप्पुव । संदृष्टि-सूक्मसांपरायसंयम बं १ । उ १ । स ८ । बं १ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०८० । ७९ । ७८७७॥ जहखादे बंधतियं केवलयं वा तिणउदिचउ अस्थि । देसे अडवीसदुगं तीसदु तेणउदिचारि बंधतियं ।।७२८।। यथाख्याते बंधत्रयं केवलवत् त्रिनवतिचत्वारि संति । देशसंयमेऽष्टाविंशतिद्वयं त्रिशद्वयं त्रिनवतिचत्वारि बंधत्रिकं॥ यथाख्यातसंयमदो बंधोदयसत्त्वंगळ केवलज्ञानदोळ, पेन्दुवेयप्पुवादोडं त्रिनवत्यादिचतुःस्थानंगळ सत्वमप्पुवु । संदृष्टि :-यथाख्यातसंयम बं । उ १० । स १० । बं । उ २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥९॥ ८॥ स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८० । ७९ । ७८ । ७७ । १०।९॥ देशसंयमे देशसंयमदोळ अष्टाविंशतिद्वयमुं त्रिंशद्वितयम विनवतिचतुष्टयमं बंधादित्रितयमक्कु । संदृष्टि-देशसंपत बं २। उ २ । स ४ । वं २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३। १५ ९२ । ९१ । ९०॥ अविरमणे बंधुदया कुमदिं व तिणउदिसत्तयं सत्वं । पुरिमं वा चक्खिदरे अस्थि अचक्खुम्मि चउवीसं ॥७२९॥ अविरमणे बंधोदयाः कुमतिवत् त्रिनवतिसप्तकं सत्त्वं । पुरुषवन्चक्षुरितरयोरस्त्यचक्षुषि चतुविशतिः॥ . २० परिहारविशुद्धौ बन्धादित्रयं क्रमेणाष्टाविंशतिकादिचतुष्कं त्रिशत्कं त्रिनवतिकादिचतुष्क, सूक्ष्मसांपराये बन्ध एककं । उदंयांशी मनःपर्ययवत् ॥७२७॥ यथाख्याते बन्धोदयसत्त्वानि केवलज्ञानवदपि सत्त्वं विनवतिकादिचतुष्कमप्यस्ति । देशसंयते बन्धादित्रयं अष्टाविंशतिकादिद्वयं त्रिशत्कादिद्वयं विनवतिकादिचतुष्कं ॥७१८॥ परिहारविशुद्धिमें बन्ध उदय सत्त्व क्रमसे अठाईस आदि चारका बन्ध, तीसका २५ उदय और तिरानबे आदि चारका सत्व है । सूक्ष्मसाम्परायमें बन्ध एकका है। उदय सत्व मनापर्ययज्ञानकी तरह हैं ।।७२७॥ ____ यथाख्यातमें यद्यपि बन्ध उदय सत्त्व केवलज्ञानकी तरह हैं किन्तु तिरानबे आदि चारका भी सत्त्व है । देशसंयतमें अठाईस आदि दोका बन्ध, तीस आदि दोका उदय और तिरानबे आदि चारका सत्त्व है ॥७२८।। ३० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४२ गो० कर्मकाण्डे असंयमदोळ बंधस्थानंगळमुदयस्थानंगळु कुमतिज्ञानदोळ पेळ्द त्रयोविंशत्यादिषट् स्थानंगळुमेकविंशत्याद्यष्टस्थानंगळ चतुविशतिस्थानमुमुंदु । सत्त्वस्थानंगळु त्रिनवत्यादिस्थानंगळप्पुव । संदृष्टि-असंयमदोळु बं ६। उ ९ । स ७। बं २३ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ ॥ ३० ॥ ३१॥ स ९३ । १२ । ९१ । ९०। ८८। ८४। ८२॥ दर्शनमार्गणयोळ त्रिसंयोगं पेळल्पडुगुमल्लि चक्षुरितरयोः चक्षुदर्शनदोळंमचक्षुर्दर्शनदोळं बंधो. वयसत्त्वंगळु पेळल्पडुगुमल्लि पुवेददोळ पेळ्दत बंधोदयसत्त्वस्थानंगळप्पुवावोडं अचक्षुद्दर्शनबोळु चतुविशतिप्रकृतिस्थानोदय मुमुटु । संदृष्टि :-चक्षुद्देर्शन बं८। उ ८॥ स ११ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ १॥ उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३। ९२।९१।९०। ८८।८४॥ ८२।८०॥७९ । ७८ । ७७॥ अचक्षुदर्शन बं८। उ९। स ११ । ' बं २३ ॥ २५ ॥ २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥१॥उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० ॥ ३१॥ स ९३९२९१ । ९०।८८।८४ । ८२। ८० ॥ ७९ ॥ ७८॥ ७७॥ ओहिदुगे बंधतियं तण्णाणं वा किलिट्ठलेस्सतिये । अविरमणं वा सुहजुगलुदओ पुंवेदयं व हवे ॥७३०॥ अवधिद्विके बंधत्रयस्तदज्ञानवत् क्लिष्टलेश्यात्रिके। अविरमणवत् शुभयुगळोदयः पुंवेद१५ वद्भवेत् ॥ अडवीसचऊबंधा पणछब्बोसं च अत्थि तेउम्मि । पढमचउक्कं सत्तं सुक्के ओहिंव वीसयं चुदओ ॥७३१॥ अष्टाविंशति चतुबंधाः पंच षट्विंशतिश्चास्ति तेजसि। प्रथमचतुष्कं सत्वं शुक्लेऽवधिवदिशतिश्चोदयः॥ २० अवधिद्विके अवधिदर्शनदोळं केवलदर्शनदोळं बंपत्रिकं बंधोक्यसत्त्वंगळ तज्ञानवत् तंतम्म ज्ञानमार्गणेयोल पेळ्दष्टाविंशत्यादि पंचबंधस्थानंगळु अबंधमुं एकविंशतिपंचविंशत्याद्यष्टोदयस्थानंगळं विंशत्येकविंशतिषड्विंशत्यादिवशोदयस्थानंगळं त्रिनवतिचतुष्कमुमशीति चतुष्कमुमतेंटु सत्त्वस्थानंगळ मशीत्यादि षट्स्थानंगळसत्त्वमप्पुवु । संदृष्टि-अवधिवशन बं ५। असंयमे बन्धोदयस्थानानि कुमतिज्ञानवत् । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादीनि सप्त । दर्शनमार्गणायां २५ चक्षुरचक्षुषोबंधोदयसत्त्वानि पुंवेदवदप्यचक्षुर्दर्शने चतुर्विशतिकमप्युदयोऽस्ति ॥७२९॥ अवधिकेवलदर्शनयोबंधोदयसत्त्वानि तज्ज्ञानवत् । लेश्यामार्गणायां कृष्णादित्रये बन्धोदयसत्वस्थानान्य असंयतमें बन्ध और उदयस्थान कुमतिज्ञानकी तरह हैं। सत्त्वस्थान तिरानबे आदि सात हैं । दर्शनमार्गणामें चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शनमें बन्ध उदय सत्त्व पुरुषवेदकी तरह है किन्तु अचक्षुदर्शनमें चौबीसका भी उदयस्थान है ।।७२९।। ३० अवधिदर्शन केवलदर्शनमें बन्ध उदय सत्व अवधिज्ञान और केवलज्ञानकी तरह हैं। लेश्यामार्गणामें कृष्ण आदि तीनमें बन्ध उदय सत्त्व असंयतकी तरह हैं। तेज और पद्म Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०४३ उ ८। स ८ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ ।१॥ उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स९३।१२।९१।९० । ८०।७९ । ७८ । ७७। केवलदर्शन बं। ०। उ १०। स ६ । । । उ २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ ९॥ ८॥ स ८० । ७९ । ७८ ॥ ७७ । १०।९॥ क्लिष्टलेश्यात्रिके कृष्णनीलकपोतलेश्यगळोळसंयमदोळ पेळ्द त्रयोविंशत्यादिषड्बंधस्थानंगळमेकविंशत्यादिनवोदयस्थानंगळ विनवत्यादिसप्तस्थानंगळमप्पुवु। संदृष्टि:-कृ। नी। क । बं ५ ६ । उ ९ । स ७। बं । २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८८॥ ८४ । ८२ ॥ शुभयुगळोदयः पुंवेदवद्भवेत् । तेजोलेश्ययोळं पद्मलेश्ययोळमुदयस्थानंगळु पुंवेददोळ पेन्द एकविंशति पंचविंशत्यादि अष्टोदय. स्थानंगळप्पुवु। बंधसत्त्वस्थानंगळं पेळ्दपरु: अडवोसचऊबंधा यित्यादिबंधस्थानंगळुमष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळ पद्मलेश्ययोळ बंध. मप्पुवु । तेजोलेश्ययोळ पंचविंशतिषड्विंशतियुमंतु षड्बंधस्थानंगळे प्रथमचतुष्कमेयुभयदोळ सत्त्वमकुं। संदृष्टि :-तेजोलेश्य बं६। उ ८ । स ४ । बं २५ । २६ । २८ । २९ । ३०॥ ३१ ॥ उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३०। ३१। स ९३ । ९२।९१ । ९०॥ पद्मलेश्ये बं४। उ स ४ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स १५ ९३१९२।९१। ९० ॥ शुक्ललेश्ययो अवधिज्ञानदोछ पेन्द बंधोवयसत्त्वस्थानंगळप्पुवु । विशतिश्चोदयः विशत्युदयस्थानमुमुंदु । संदृष्टि-शुक्ललेश्य बं ५। उ ९ । स ८ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । १॥ उ २० । २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३। ९२ । ९१ । ९०। ८०। ७९ । ७८ । ७७॥ भव्वे सव्वमभव्वे बंधुदया अविरदिव्य सत्तं तु । उदिचउ हारबंधणदुगहीणं सुदमिदुवसमे बंधो ।।७३२।। भव्ये सर्वमभव्ये बंधोदया अविरतिवत् सत्त्वं त । नवतिचतुराहारबंधनद्विकहीनं श्रुतमिवोपशमे बंधः॥ संयमवत् । तेजःपद्मोदयस्थानानि पुंवेदवत, बन्धस्थानानि पद्मायामष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि । तेजस्यां तानि च पंचविंशतिकषड्विंशतिके च । उभयत्र सत्त्वं प्रथम चतुष्कं स्यात् । शुक्लायां बन्धोदयसत्त्वान्यवधिवदिश- २५ तिकोदयश्च ॥७३०॥७३॥ लेश्यामें उदयस्थान पुरुषवेदके समान हैं। बन्धस्थान पद्मलेश्याम अठाईसका आदि चार हैं। तेजोलेश्यामें बन्धस्थान अठाईस आदि चार तथा पञ्चीस-छब्बीसके इस प्रकार छह हैं। दोनोंमें सत्त्वस्थान प्रथम चार हैं। शुक्ललेश्यामें बन्ध उदय सत्व अवधिज्ञानकी तरह है, किन्तु बीसका भी उदय है ।।७३०-३१॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १५ २० १०४४ ३० भव्य मार्गर्णय सर्व्वबंधस्थानंगळं सर्वोदयस्थानंगलं सर्व्वसस्वस्थानंगळ मप्पुवु । ७ संदृष्टि : - भव्य बं ८ । उ १२ । स १३ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १ । उ २० । २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९ । ८ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । ८० । ७९ । ७८ । ७७ । १० १९ ॥ अभव्यमार्गणेयोळ, बंधोदयस्थानंगळविरतियोळ, पेद त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगल मेकविंशत्यादिनवोदयस्थानंगळ, मप्पुवु । तु मर्त्त सत्त्वं सत्त्वस्थानंगळ, नवत्यादि चतुःस्थानंगवु । बंद आहारद्वययुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधभेदम मिल्लुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमे संभविसुगु में बुदत्थं ॥ संदृष्टि ७ अभव्य बं ६ । उ ९ । स ४ । बं २३ | २५ | २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । १० २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ स ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ श्रुतमिवोपशमे बंधः उपशमसम्यक्त्व दो बंधस्थानंगळु श्रुतज्ञानदोळपेळ्दष्टाविंशत्यादिपंचस्थानं गळप्पुवु ॥ उदयसत्वस्था नंगळं पेळदपरु : गो० कर्मकाण्डे ܒ उदया इगिपणवीसं णववीसतियं च पढमचउसत्तं । उवसम इव बधंसा वेदगसम्मे ण इगिबंधो || ७३३।। उदयाः एकपंचविंशतिर्नवविंशतित्रिकं प्रथमचतुः सत्वमुपशमवबंधांशाः वेदकसम्यक्त्वेकैकबंधः ॥ आ उपशमसम्यक्त्व दोदयस्थानंगळेकविंशतियुं पंचविंशतियुं नववंशतित्रितय मुमक्कुं । सत्वस्थानंगळु त्रिनवत्यादिचतुः स्थानं गळप्पुवु । संदृष्टि-उपशमसम्यक्त्व बं५ । उ ५ । स ४ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । १ ।। उ २१ । २५ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ ॥ ९० ॥ वेदकसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वबोळ उपशमवदुबंधांशाः उपशमसम्यक्त्वदो पेळद अष्टाविंशत्यादि पंचबंधस्थानंगळप्पुवु । अवरोळेक प्रकृतिबंधस्थानमिल्ल | शेषचतुब्बंधस्थानंगळप्पुव । त्रिनपत्यादिचतुः सत्वस्थानंगळप्पुव ॥ उदयस्थानंगळं पेदपरु : 1 भव्यमार्गणायां बन्धोदय सत्त्वस्थानानि सर्वाणि । अभव्यमार्गणायां बन्धोदयस्थानान्यविरत्युक्तानि । तु पुनः सत्वस्थानानि नवतिकादीनि चत्वारि । बन्धे नाहारद्वययुतं त्रिंशत्कमुद्योतयुतमेव स्यादित्यर्थः । २५ सम्यक्त्वमार्गणायां उपशमे बन्धस्थानानि श्रुतज्ञानवत् ॥७३२ ॥ उदयस्थानान्येक पंचाग्रविशतिके द्वे नवविंशतिकादित्रयं च । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादीनि चत्वारि, भव्य मार्गणा में बन्ध उदय सरवस्थान सब ही हैं। अभव्य मार्गणामें बन्ध और उदयस्थान तो असंयतकी तरह हैं सत्त्वस्थान नब्बे आदि चार हैं । बन्धमें आहारकद्विक सहित तीसका बन्ध नहीं है, उद्योत सहित तीसका बन्ध है इतना विशेष है । सम्यक्त्वमार्गणा उपशम सम्यक्त्व में बन्धस्थान श्रुतज्ञानवत् हैं ॥७३२ || उदयस्थान इक्कीस, पच्चीस ये दो और उनतीस आदि तीन हैं । सत्त्वस्थान तिरानबे आदि चार हैं । वेदक सम्यक्त्व में बन्ध और सत्व तो उपशम सम्यक्त्व के समान हैं किन्तु 1 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उदया मदिव्व खयिये बंदी सुदमिवत्थि चरिमदुगं । उदयंसेवीसं च य साणे अडवीसतियबंधो ॥७३४ || उदया: मतिवत् क्षायिके बंधोदयश्रुतमिवास्ति चरमद्वयमुदयांशे विंशतिश्च च सासादनेऽष्टाविंशतित्रितयबंधः ॥ उदयाः आ वेदकसम्यक्त्वदोळुदयस्थानंगळु मतिवत् मतिज्ञानवोलु पेळदेकविंशत्याष्टस्थानं गळवु । संदृष्टि - वेदकसम्यक्त्व बं ४ । उ ८ । स ४ । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । उ २१ ॥ २५ ॥ २६ | २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ क्षायिकसम्यक्त्वदोळ बंघोदयांशंगळु श्रुतमिव श्रुतज्ञानदोळपे तंत अष्टाविंशत्यादि पंचबंधस्थानंगळुमेकविंशत्याद्यष्टोदयस्थानं गळं त्रिनवत्यशीत्याद्यष्टसत्वस्थानंगळमप्पुवल्लि । उदयांशे उदयदोळं सत्वदोळं तंतम्म चरमद्विस्थानं गळर्मुटु । उदयदोळु विंशतिस्थानमुर्मुदु । संदृष्टि - क्षायिकसम्यक्त्व बं ५ । १० उ ११ । स १० । बं २८ । २९ । ३० । ३१ । १ ॥ उ २० । २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९॥८ ॥ स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ । १० । ९ ॥ सासादने सासादनरुचियोळ अष्टाविंशत्यादित्रिस्थान बंध मक्कुं ॥ उदय सत्थंगळं पेदपरु : १०४५ उदया इगिवीसचऊ णववीसतियं च णउदियं सत्तं । मिस्से अडवीसदुगं णववीसतिय च बंधुदया ॥७३५॥ उदयाः एकविंशति चत्वारि नवविंशतित्रिकं च नवतिकं सत्वं । मिश्रेऽष्टाविंशतिद्विकं नवविंशतित्रितयं च बंधोदयाः ॥ उदयाः आ सासादनरुचियोळु वयस्थानं गळु मेकविंशत्यादि चतुःस्थानंगळं नववशत्यादित्रितयमुमंतु सप्तोदयस्थानंगळप्पुवु । सत्वं नवतिकमक्कुं । संदृष्टि१- सासादन बं ३ । उ७ । स १ । २० वेदके बन्धांशावुपशमसम्यक्त्ववदप्येककबन्धो नास्ति ॥ ७३३ ॥ उदयस्थानानि मतिज्ञानवदष्टो । क्षायिके बन्धोदयांशः श्रुतज्ञानमिव पंचाष्टाष्टी । पुनः उदयसत्तवयोः स्वस्वचरमस्थानद्वयं उदये विशेतिकमप्यस्ति । सासादनरुचो बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि त्रीणि ॥७३४ ॥ उदयस्थानान्येकविंशतिकादिचतुष्कं नवविंशतिकादित्रयं च । अत्र साष्टाग्रविशति के तु अनयोरुदय ५ एकका बन्धस्थान नहीं है ||७३३ || उदयस्थान मतिज्ञानकी तरह आठ हैं। क्षायिकमें बन्ध उदय सत्व श्रुतज्ञानकी तरह पाँच, आठ, आठ हैं। इतना विशेष है कि उदय और सत्त्वमें अपने-अपने अन्तके दो स्थान भी होते हैं तथा उदयमें बीसका भी स्थान होता है । सासादन सम्यक्त्वमें बन्धस्थान अठाईस आदि, तीन हैं ||७३४|| उदयस्थान इक्कीस आदि चार और उनतीस आदि तीन हैं। यहाँ सत्ताईस - अठाईस ३० १. दो । १५ २५ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४६ गो० कर्मकाण्डे बं २८ । २९ । ३०। उ। २१ । २४ । २५ । २६ । २९ । ३०। ३१॥ इल्लि सप्तविंशतिस्थानमुमष्टाविंशतिस्थानोदयपथ्यंतं सासादनगुणावस्थानमिल्लप्पुरिदमवक्कसंभवमक्कुं। स ९०॥ मिश्रे मिश्ररुचियोळु बंधस्थानंगळु मुदयस्थानंगळु क्रमविंदमष्टाविंशत्यावि द्विस्थानंगळं नवविंशत्या. दित्रितयमुमक्कुं ॥ सत्वस्थानंगळं पेळ्वपरु : बाणउदिणउदिसत्तं मिच्छे कुमदिव्व होदि बंधतियं । पुरिसं वा सण्णीये इदरे कुमदिव्व गस्थि इगिणउदि ॥७३६।। द्वानवति नवतिसत्त्वं मिथ्यारुचौ कुमतिवद्भवति बंघत्रिकं । पंवेदवत्संजिनीतरस्मिन्कुमतिवन्नास्त्येकनवतिः॥ द्वानवति नवतिसत्वं आ मिश्ररुचियोळु द्वानवतियुं नवतियुं सत्वमक्कुं। संदृष्टि-मिश्ररुचि १० बं२। उ ३ । स २। बं २८ ॥ २९ ॥ उ २९ । ३० । ३१ ॥ स ९२ ॥ १०॥ मिथ्यारुचौ मिथ्या रुचियोळु कुमतिज्ञानदो पेळ्द त्रयोविंशत्यादि षड्बंधस्थानंगळु मेकविंशत्यादि नवोदयस्थानंगळ द्वानवत्यादिषट्सत्वस्थानंगळ मप्पुव । संदृष्टि-मिथ्यारुचि बं६। उ ९। स ६। बं २३ । २५ । २२ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२॥ ९१ । ९० । ८८ ॥ ८४ । ८२॥ पुंवेदवत्संज्ञिनि संजियोळ पुंवेददोळपेळ्व त्रयोविंशत्याद्यष्टबंध. १५ स्थानंगळ मेकविंशत्याद्यष्टोदयस्थानंगळ त्रिनवत्याद्य कादश सत्वस्थानंगळ मप्पुव। संदृष्टि संज्ञि बं ८। उ ८ । स ११ । बं २३ । २५ ॥ २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ ।। १। उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३०॥ ३१ ॥ स ९३ । ९२। ९१ । ९०। ८८। ८४ । ८२। ८०।७९ । ७८ । ७७॥ इतरस्मिन् असंजियोळ कुमतिवन्नास्त्येकनवतिः कुमतिनानदोळ पेन्द त्रयोवि. शत्यादि षड्बंधस्थानंगळ मेकविंशत्यादि नवोदयस्थानंगळ मेकनवतिसत्वस्थानरहित द्वानवत्यादि२० पंचसत्वस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टि : कालगमनपर्यन्तं सासादनत्वासंभवानोक्त। सत्त्वं नवतिकमेव । मिश्ररुची बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादिद्वयं । उदयस्थानानि नवविंशतिकादित्रयं ॥७३५॥ सत्त्वं द्वानवतिकनवतिके द्वे । मिथ्यारुचो बन्धोदयसत्त्वस्थानानि कुमतिवत् । संज्ञिनि पंवेदवत् । असंशिनि कुमतिवत् किन्तु नास्त्येकनवतिकसत्त्वं ॥७३६॥ २५ न कहनेका कारण यह है कि इनके उदयमें आनेके काल तक सासादनपना सम्भव नहीं है। सत्त्व नब्वेका है। मिश्ररुचिमें बन्धस्थान अठाईस आदि दो हैं। उदयस्थान उनतीस आदि तीन हैं ॥७३५॥ सत्त्वस्थान बानबे और नब्बेके दो हैं। मिथ्यारुचिमें बन्ध उदय सत्वस्थान कुमतिज्ञानकी तरह हैं। संज्ञीमार्गणामें बन्ध उदय सत्त्व पुरुषवेदके समान हैं। असंज्ञीमें कुमति३० ज्ञानकी तरह हैं। किन्तु इक्यानबेका सत्त्व नहीं है ।।७३६।। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका असंज्ञि बं ६ । उ ९ । स ५। बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३०। उ २१ । २४ । २५ २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स। ९२। ९०। ८८।८४॥ ८२॥ आहारमार्गयोळ त्रिसंयोगमं पेन्दपरु : आहारे बंधुदया संदं वा णवरि णस्थि इगिवीसं । परिसं वा कम्मंसा इदरे कम्मंव बंधतियं ॥७३७॥ आहारे बंधोदयाः षंडवन्नवीनमस्ति नास्त्येकविंशतिः। पुंवेदवकाशाः इतरस्मिन्कार्मणवद बंधत्रयं ॥ आहारे आहारमार्गणयोळ, बंधस्थानंगळ मुदयस्थानंगळुषंडवेदवोळ पेळ्द त्रयोविंशत्याद्यष्टबधस्थानंगळ मेकविंशतिस्थानरहितमादमष्टोदयस्थानंगळ मप्पुवु । सत्वस्थानंगळ पुवेदवोळ, पेळ्द त्रिनवत्याद्येकादशसत्वस्थानंगळ मप्पुवु । संदृष्टि-आहार बं ८ । उ ८ । स ११ । १० बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । १॥ उ २४ । २५ । २६। २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८८। ८४ । ८२। ८० ॥ ७९ ॥ ७८ । ७७॥ इतरस्मिन् अनाहार. मागणेयोळु कार्मणकाययोगदोळ पेळ्द त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळं विंशत्येकविंशत्युवयस्थान. द्वयमुं त्रिनवत्यायेकादशसत्त्वस्थानंगळु मतं अस्थि णवठ्ठपदुदओ दस णवसत्तं च विज्जदे एत्थ । इदि बंधुदयप्पहुडी सुदणामे सारमादेसे ॥७३८॥ अस्ति नवाष्टपदोदयो दश नवसत्वं च विद्यते अत्र । इति बंधोदयप्रभूतिविश्रुतनाम्नि सारमादेशे॥ अनाहारकत्वमयोगिकेवलियोमुंटप्पुरिदं तदुदयनवाष्टस्थानद्वयमुं दानवसत्त्वस्थानद्वयमुमिल्लियंटु । इंतु बंधोदयसत्त्वत्रिसंयोगं विश्रु तनामकर्मदोळ आदेशे आदेशदोळ मार्गणयोळ २० आहारमार्गणायां बन्धोदयस्थानानि षंढवत् किन्तु एकविंशतिकमुदयस्थानं नास्ति सत्त्वस्थानानि पुंवत्, अनाहारे कार्मणयोगवत् ।।७३७॥ पुनः तत्रानाहारे अयोगिन उदयो नवाष्टके द्वे स्तः । सत्त्वं दशकनवके द्वे विद्यते । एवं बन्धोदयसम्वत्रिसंयोगो विश्रते नामकर्मणि मार्गणायां सार उक्तः ॥७३८॥ चारुसम्यग्दर्शनधरणे कुवलयसंतोषणे च समर्थन माधवचन्द्रेण महावीरेण परमार्थतो विस्तरितः २५ आहार मार्गणामें बन्ध और उदयस्थान नपुंसकवेदके समान हैं किन्तु इक्कीसका उदयस्थान नहीं है। सत्वस्थान पुरुषवेदके समान है। अनाहारमें बन्ध उदय सत्त्व कामोंणकाययोगकी तरह है ।।७३७।। किन्तु अनाहारमें अयोगीके उदय नौ और आठका है तथा सत्त्व दस और नौका है। इस प्रकार प्रसिद्ध नामकर्ममें चौदह मार्गणामें बन्ध उदय सत्त्वका त्रिसंयोग साररूपमें ।। कहा ।।७३८॥ उत्कृष्ट सम्यग्दर्शनको धारण करनेमें और पृथ्वीमण्डलको आनन्द देनेमें समर्थ क-१३२ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४८ गो० कर्मकाण्डे सारमादुदु कथितमादुदु । संदृष्टि :- अनाहार बं ६ । उ ४: स १३ । बं २३ । २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ । ३० । उ २० ॥ २१ ॥ ९॥ ८॥ स ९३ । ९२ । ९१ । ९०1८८। ८४ । ८२ । ८०। ७९ । ७८ । ७७।१०। ९॥ चारुरुदस्सणधरणे कुवलयसंतोसणे समत्थेण ।। माधवचदेण महावीरेणत्थे वित्थरिदो ॥७३९।। चारुसुदर्शनधरणे कुवलयसंतोषणे समर्थेन । माधवचंद्रेण महावीरेणात्न विस्तरितः॥ चारु सम्यग्दर्शनधरणदोळं कुवलयसंतोषणदोळ समर्थनप्प माधवचंद्रदिदं महावीरनिद परमार्थदिदं विस्तरिसल्पद्रुदु। अनंतरं नामस्थानत्रिसंयोगमनेकाधिकरणद्वयाधेयरूपदिदं पेळि मोदलोजु बंधस्थानमना१० धारमं माडि उदयसत्त्वस्थानंगळनाधेयंगळं माडि गाथाद्वर्याद पेपरु : णवपंचोदयसत्ता तेवीसे पण्णवीसछब्बीसे । अठ्ठचदुरट्ठ वीसे णवसत्तुगु तीस तीसम्मि ।।७४०।। नवपंचोदयसत्त्वानि त्रयोविंशतौ पंचविगतौ षट्विंगतौ अध्टचतुरष्टविंशतौ नवसप्तकान्न. त्रिशत्रिंशत्सु ॥ एगेगं इगितीसे एगे एगुदयमट्ठसत्ताणि । उवरदबंधे दस दस उदयंसा होति णियमेण ॥७४१॥ एकैकमेकत्रिंशत्सु एकस्मिन्नेकोदयोऽष्टसत्त्वानि। उपरतबंधे दशदशोदयांशा भवंति नियमेन॥ त्रयोविंशतिपंचविंशति षड्विंशतिस्थानकबंधाधिकरणदोळु प्रत्येकमुदयस्थानंगळु सत्व. स्थानंगळ नवस्थानंगळं पंचस्थानंगळमप्पुवु। अष्टविंशतिबंधस्थानाधिकरणदोळुदयस्थानंगळू २० सत्त्वस्थानंगळुयष्टचतुःस्थानंगळप्पुवु । एकान्नत्रिशत्रिंशद्वधाधिकरणंगळ्गेदोळ प्रत्येकमुदयसत्त्व ।।७३९॥ अथोक्तत्रिसंयोगस्यैकाधिकरणो द्वयाधेयं ब्रवन्स्तावबन्धाधारे उदयसत्त्वाधेयं गाथाद्वयेताह त्रिपंचषडग्रविशतिकेषदयस्थानानि नव । सत्त्वस्थानानि पंच। अष्टाविंशतिके उदयस्थानान्यष्टौ। सत्त्वस्थानानि चत्वारि । एकान्नत्रिशरके त्रिशतके चोदयस्यानानि नव । सत्त्वस्थानानि सप्त । एकदिशत्के २५ माधवचन्द्र और महावीरने परमाथसे विस्तार किया ।।७३९।। विशेषार्थ-माधवचन्द्र तो नेमिनाथ तीर्थकर और महावीर वधमान तीर्थंकरका नाम जानना। तथा माधवचन्द्र नेमिचन्द्राचार्यके शिष्य और सहयोगी थे। पं. टोडरमलजीने महावीरसे वीरनन्दि आचार्यका ग्रहण किया है जो नेमिचन्दजीके गुरुजनोंमें थे। इन दोनोंका पूर्ण सहयोग इस ग्रन्थकी रचनामें था। ऊपर कहे इस त्रिसंयोगमें एकको आधार और दोको आधेय बनाकर कथन करते हुए ३० प्रथम बन्धको आधार और उदय सत्त्वको आधेय करके दो गाथाओंसे कहते हैं--- तेईस, पच्चीस, छब्बीसके बन्धस्थानमें उदयस्थान नौ और सत्त्वस्थान पाँच हैं। अठाईसके बन्धस्थानमें उदयस्थान आठ और सत्त्वस्थान चार हैं। उनतीस और तीसके Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०४९ स्थानंगळ नवसप्तप्रमितंगळप्पुवु । एकत्रिशबंधाधिकरगदोछ एकैकमुदयसत्त्वस्थानंगठप्पुवु । एकप्रकृतिबंधाधिकरणदोळ दयसत्त्वंगळुमेकाष्ट स्थानंगठप्पुवु । उपरतबंधाधिकरणदो दशदशोदयसत्त्वस्थानंगळप्पुवु नियमदिदं । संदृष्टि : | बं | २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० | ३१ । १ ।। उ। ९ । ९ । ९ । ८ । ९ । ९ | १ | १९१० स । ५ । ५ । ५ । ४ । ७ । ७ । १ अनंतरमुक्तोदयसत्त्वसंख्याविषयस्थानंगळ पेळ्दपरु : तियपण छवीसबंधे इगिवीसा देक्कतीस चरिमुदया। बाणउदीणउदिचऊ सत्तं अडवीसगे उदया ।।७४२॥ त्रिपंचषड्विंशतिबंधे एकविंशतिरेकत्रिशच्चरमोदयः। द्वानवतिन्नवतिचतुःसत्त्वं अष्टाविशता उदयाः॥ त्रिपंचषड्विंशतिबंधाधिकरणोळ पेळ्द नवोदयस्थानंगळे कविंशति मोदलागि एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानं चरमोदयस्थानमक्कुं। द्वानवतियु नवत्यादिचतुःस्थानंगळ मधुवु । अष्टाविंशतिबंधाधिकरणदोळुदयंगळ पेळल्पडुगुं : पुव्वंव ण चउवीसं बाणउदिचउक्कसत्तमुगुतीसे । तीसे पुव्वं उदया पढमिल्लं सत्तयं सत्तं ।।७४३॥ पूर्ववन्न चतुविशतिनिवतिचतुष्कसत्त्वमेकान्नत्रिंशत्सु । (त्रिंशत्सु) पूर्ववदुदयाः प्रथमतनसप्तकं सत्त्वं ॥ १५ उदयस्थानमेकं सत्त्वस्थानमेकं । एकके उदयस्थानमेकं सत्त्वस्थानान्यष्टौ । उपरतबन्धे दशदशोदयसत्वस्थानानि नियमेन भवन्ति ॥७४०॥७४१॥ त्रिपंचषडग्रविशतिकबन्धेषूदयस्थानान्येकशितिकादीन्येकविंशकांतानि नव । सत्त्वस्यानं द्वानवतिक नवतिकादिचतुष्कं च ।।७४२॥ बन्धस्थानमें उदयस्थान नौ और सत्त्वस्थान सात हैं । इकतीसके बन्धस्थानमें उदयस्थान एक २० और सत्त्वस्थान एक है। एकके बन्धस्थानमें उदयस्थान एक सत्त्वस्थान आठ हैं। बन्धरहित स्थानमें दस उदयस्थान और दस सत्त्वस्थान नियमसे होते हैं। इसका आशय है कि जिस जीवके जिस कालमें इतनी-इतनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उस काल में उस जीव के किसीके कोई, किसीके कोई, इस तरह नाना जीवोंकी अपेक्षा उक्त उदयस्थान और सत्त्वस्थान पाये जाते हैं ॥७४०-७४१।। वे कौन-से हैं ? यह कहते हैं___ तेईस, पच्चीस, छब्बीसके बन्धस्थानोंमें इक्कीससे इकतीस पर्यन्त नौ उदयस्थान हैं। सत्त्वस्थान बानबे और, नब्बे आदि चार हैं ।।७४२।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५० गो० कर्मकाण्डे आ अष्टविंशतिबंधाधिकरणदोळ पूर्वोक्तकविंशत्यादि नवोदयस्थानंगळोळ चतुविशतिस्थानमं बिछ शेषाष्टस्थानंगळदयमक्कुमल्लि द्वानवतिचतुःसत्त्वस्थानंगळमप्पुव । एकान्नत्रिंशदबंधदोळं त्रिशबंधदोळं पूर्वोक्तकविंशत्यादिनवोदयस्थानंगळं मोवल विनवत्यादिसप्तसत्त्व. स्थानंगळ मप्पुवु । इगितीसे तीसुदओ तेणउदी सत्तयं हवे एगे। तीसुदओ पढमचऊ सीदादिचउक्कमवि सत्तं ॥७४४।। एकत्रिंशत्सु त्रिंशदुदयः त्रिनवतिः सत्त्वं भवेत् एकस्मिन् एकत्रिशदुदयः प्रथमचतुष्कमशीत्यादिचतुष्कमपि सत्त्वं ॥ एकत्रिशबंधस्थानाधिकरणदोळ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयमं त्रिनवतिसत्त्वस्थानमेकमे सत्त्व. १० मक्कुं। एकप्रकृतिबंधाधिकरणदोळ त्रिंशदेकस्थानोदयमुं प्रथमत्रिनवत्यादिचतुःस्थानंगळं अशीत्यादिचतुःस्थानंगळं सत्त्वमक्कुं। उवरदबंधेसुदया चउपणवीसूण सव्वयं होदि । सत्तं पढमचउक्कं सीदादीछक्कमवि होदि ॥७४५॥ ___ उपरतबंधेषूदयाः चतुःपंचविंशत्यून सर्व भवति । सत्त्वं प्रथमचतुष्कमशोत्यादिषट्कमपि १५ भवति ॥ उपरतबंधाधिकरणदोळुदयस्थानंगळ चतुः पंचविंशतिस्थानद्वयरहितभाव दशोदयस्थानंगळं विनवत्यादि चतुःस्थानंगळुमशीत्यादि षट्स्थानंगळु सत्वमप्पुवु। संदृष्टि-बं २३ । उ २१ । २४ । २५ ॥ २६ ॥ २७॥२८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९०। ८८ । ८४ । ८२ । बं २।५। उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २२ । ३० । ३१ । स ९२ । ९०। ८८। ८४ । ८२ । बं २६ । उ २१ । २४ । अष्टाविंशतिके उदयस्थानानि पूर्ववन्नव न चतुविशतिक। सत्त्वस्थानानि द्वानवतिकचतुष्क। एकानत्रिशके त्रिंशत्के चोदयस्थानानि तान्येव नव । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादीनि सप्त ॥७४३॥ एकत्रिशके उदयस्थानं त्रिशत्कं । सत्त्वस्थानं त्रिनवतिकं । एकके उदयस्थानं त्रिंशत्कं । सत्त्वस्थानानि विनवतिकादीनि चत्वार्यशीतिकादीनि चत्वारि च ॥७॥४॥ ७४५ तमाया गाथाया अधोलिखितपाठः अभयचन्द्रनामांकितायां टीकायामधिकः समुपलब्धस्तद्यथा२५ अठाईसके बन्धस्थानमें उदयस्थान पूर्ववत् नौ हैं किन्तु उनमें चौबीसका न होनेसे आठ हैं । सत्त्वस्थान बानबे आदि चार हैं। उनतीस और तीसके बन्धस्थानमें उदयस्थान पूर्ववत् नौ हैं और सत्त्वस्थान तिरानबे आदि सात हैं ॥७४३।। __ इकतीसके बन्धस्थानमें उदयस्थान तीसका है। सत्त्वस्थान तिरानबेका 'है। एकके बन्धस्थानमें उदयस्थान तीसका है। और सत्त्वस्थान तिरानबे आदि चार तथा अस्सी आदि ३० चार इस प्रकार आठ हैं ।।७४४॥ बन्धरहितमें उदयस्थान चौबीस-पच्चीसके बिना सब दस हैं। सत्त्वस्थान तिरानवे आदि चार और अस्सी आदि छह इस तरह दस हैं । अब इनको स्पष्ट करते हैं Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २०५१ २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२॥ बं २८ । उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९१ । ९० । ८८ । बं २९ । उ २१ । २४ । २५।२६। २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८८। ८४ । ८२ । बं ३० । ७ २१।२४१ २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९३ । ९२ । ९१।९०। ८८। ८४ । ८२ । बं१। उ ३० । स ९३ ॥ बं १ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८०। ७९ । ७८ । ७७। बं । । उ २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९ । ८ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८० ७॥ ७८ । ७७। ० १९॥ इल्लि त्रयोविंशति बंधस्थानैधिकरणदोळ एकविंशत्यादिनवोदयस्थानंगळे द्वानवतिनवतिवतुष्टयं सत्त्वस्थानंगळुमाधेयमप्प त्रिसंयोगदोळ बं २३ त्रयोविंशतिस्थानबंधस्वामि ५ गळु मिथ्यादृष्टिगळेयप्परेंते दोडा त्रयोविंशतिबंधस्थानमेद्रियापर्याप्तयुतमप्पुरिदमा प्रकृति. द्वयक्क मिथ्यादृष्टियोळे बंधव्युच्छित्तियप्पुरिदमा त्रयोविंशतिस्थानमं मिथ्यादृष्टिगळे रुटुवुदु १० सिद्धमक्कु । मामिथ्यादृष्टिगळं चतुर्गतिजरुगळरप्परल्लि देवनारकमिथ्यादृष्टिगळु आ त्रयोविंशतिन् स्थानमं कटुवरल्लरवर्गळगे बंधयोग्यस्थानमन्ते ते दो "डुवरिम बारससुरचउसुराउआहारयमबंधा" येदितु नारकरुगळ कटुवरल्लरु । "आइसाणोत्ति सत्तवामछिवी" यदितु भवनत्रितय सौधर्मद्वय संभूतरुगळं कटुवरल्लदु कारणमागि त्रसस्थावरमिथ्यादृष्टिगळु मनुष्यमिथ्यावृष्टिगर्छ पुटुवरा त्रयोविंशति स्थानमंकटुवागळ नानाजीवापेक्षेपिदमा नवोदयस्थानंगळू पंचसत्त्वस्थान. १५ गळं युगपत्संभविसुवयु । एकजीवापेक्षेयिवमेकैकस्थानंगळागि क्रमदिवं संभविसुववल्लि एकविंशति [ उपरतबन्धे चतुर्विशतिकपंचविशतिकोनदशोदयस्थानानि विनवतिकादीनि चत्वार्यशीतिकानि षट् सत्त्वानि । अत्र चाये विसंयोगे बं २३ त्रयोविंशतिक बन्धस्थानमेकेन्द्रियापर्याप्तयुतं । तत्प्रकृतिद्वयं मिथ्यात्वहेतुकबन्धं तेन मिथ्यादृष्टय एव बध्नति तेऽपि न देवनारकाः । 'उवरिमवारससुर व सुराउ आहारयमबंधा, इति नारकाणां, आ ईसाणोत्तिसत्तवामछिदीति भवनत्रयसौधर्मद्वयजानां च निषेधात् । शेषत्रसस्थावरमनुष्या एव वनंतीत्यर्थः । २० त्रयोविंशतिकबन्धकाले नानाजीवापेक्षया तानि नवोदयस्थानानि पंच सत्त्वस्थानानि च युगपत्संभवत्येकजीवा विशेष-कलकत्तासे प्रकाशित संस्करणमें छपा है कि ७४५वीं गाथाकी अभयचन्द्र नामसे लिखित टीकामें आगेका पाठ अधिक पाया जाता है। हमने उस पाठका मिलान कन्नड टीकासे किया तो उससे भी वह मिल गया। अतः उसका अर्थ यहाँ दिया जाता है जो पं. टोडरमलजीकी टीकामें नहीं है । और ब्रेकेट में उस टीकाको भी दिया है- २५ उपरतबन्ध अर्थात् जो नामकर्म के बन्धसे रहित हैं उनमें उदयस्थान चौबीस-पच्चीसके बिना दस हैं। सत्त्वस्थान तिरानबे आदि चार और अस्सी आदि छह हैं। यहां प्रथम त्रिसंयोगमें तेईसका बन्धस्थान एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित है। एकेन्द्रिय और अपर्याप्त प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यात्व हेतुक होनेसे मिथ्यादृष्टि ही उनका बन्ध करते हैं। वे भी देव और नारकी नहीं करते क्योंकि आगममें उनके उनका बन्धका निषेध है। अतः शेष त्रस, ३० Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५२ गो० कर्मकाण्डे स्थानोदयं क्षेत्रविपाकितिर्यग्मनुष्यानुपूर्योदययुतस्थानमप्पुरिदं विग्रहगतियोळल्लदल्लिघुमुदयमिल्ला विग्रहगतियोळ प्रथमसमयदोळु वत्तिसुत्तिर्पनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायकार्यकुपादानकारणभूतनारकतिर्यग्मनुष्यदेवाहारकचरमसमयपर्यायमदु द्रव्याथिकनयदिदमा चरमसमयदोळुटु । पर्यायाथिकनयदिदमनंतरसमयदोळेयनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायोत्पत्तिस्पादिदं क्षयमाद्दु । अदुकारणदिदं कारणक्के प्रध्वंसाभावमुं कार्यक्के प्रागभावमुमोडंबउल्पद्रुदंते पेळल्पटुदु॥ कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमाल्लक्षणात पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥५८-आ. मी. । कार्योत्पत्तिये बुडुपादानकारणक्षयमेयककुं नियमदिदमंतादोडा कारणकाय्यंगळगे पृथग्भाव१० में तेंदोडे लक्षदिंदमकुं। जातिद्रव्यगुणस्थानदिदमेकत्वमुंटागुतं विरलु तौ न भवतः कारणकायंगळे बुदिल्लदु कारणविदं कारणकायंगल्गनपेक्षेये बुद्ध गगनकुसुमोपममक्कुं नारकादिनोकाहारकचरमपर्यायक्षयदोळमनाहारकत्रसस्थावरतिय्यरमनुष्यपायदोळं द्रव्यगुणच्युति पक्षयैककमेव । तत्रकविंशतिकमुदयस्मानं क्षेत्रविपाकितिर्यग्मनुष्यानुभूळयुतत्वात् विग्रहगतावेवोदेति । तत्प्रथम समयवर्त्यनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायकार्यस्योपादानकारणभूतो नारकतिर्यग्मनुष्यदेवाहारकचरमसमय१५ पर्यायो द्रव्याथिकनयेन तच्चरमसमये स्यात् । पर्यायाथिकनयेनानंतरसमये स एवानाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायोत्पत्तिरूपेण क्षीणस्ततः कारणात कारणस्य प्रध्वंसाभाव एवं कार्यस्य प्रागभावः । तथैवोक्तं कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ।।५८॥ या. मी. कार्योत्पत्तिः उपादानकारणक्षय एवं स्यान्नियमेन । तहि तयोः पृथग्भावः कथं स्यात् ? लक्षणात्स्यात् । २० जातिद्रव्यगुणाद्यवस्थानेनैकत्वे कारणकार्ये न स्यातामिति कारणात्तदनपेक्षा गगनकुसुमोपमा स्यात् । नारका स्थावर और मनुष्य ही उनको बाँधते हैं। तेईसके बन्ध कालमें भी नाना जीवोंकी अपेक्षा नौ उदयस्थान और पाँच सत्त्वस्थान सम्भव होते हैं। एक जीवकी अपेक्षा तो एक-एक ही होता है। उनमेंसे इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान क्षेत्रविपाकी तिर्यगानुपूर्वी या मनुष्यानुपूर्वी सहित होनेसे विग्रहगतिमें ही होता है। विग्रहगतिके प्रथम समयवर्ती अनाहारक त्रस २५ स्थावर, तियंच और मनुष्य पर्याय रूप कार्यका उपादानकारणभत नारक. तिथंच. मनुष्य या देव आहारककी चरम समयवर्ती पर्याय है। वह पर्याय द्रव्यार्थिकनयसे उसके चरम समयमें होती है। पर्यायार्थिकनयसे अनन्तर समयमें वही अनाहारक त्रस, स्थावर, तियंच या मनुष्य पर्यायकी उत्पत्ति रूपसे क्षयको प्राप्त हुआ। अतः कारणका प्रध्वंसाभाव ही कार्यको प्रागभाव है। कहा भी है 'उपादानका पूर्व आकाररूपसे क्षय ही कार्यका उत्पाद है अर्थात् मिट्टीको पिण्डपर्याय. का विनाश घटका उत्पाद है, दोनोंका एक ही कारण है। जो घटकी उत्पत्तिका कारण है वही मिट्टीकी पिण्डपर्यायके विनाशका कारण है। फिर भी लक्षणके भेदसे दोनोंमें भेद है। सामान्यरूपसे दोनों भिन्न नहीं हैं। निरपेक्ष माननेपर उनका सत्त्व नहीं हो सकता।' Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका १०५३ यिल्लप्परिदं जीवं ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकनक्कु में बुदर्थमल्लि एकजीव केकसमयदोटेकवृत्तियप्पदरिदमेकसमयत्ति त्रसस्थावरविवक्षिततिग्मनुष्यानाहारकंगा त्रयोविंशतिस्थानबंधनकविंशतिः प्रकृतिस्थानोदयमुमय्, योग्यसत्वस्थानंगळो यथायोग्यमोंदु सत्त्वस्थानमक्कुमंते पेल्पटुढ॥ एकस्यानेकवृत्तिन्न भागा नावादबहूनि वा। भागित्वाद्वास्थ नैकत्वं दोषो वृत्तेरनाहते ॥ आ. मी. ६२ । एकस्यानेकवृत्तिर्न ओंजीवक्कनेकवृत्तियिल्लदेके दो भागाभावात् विभागक्कभावदत्तणिदं बहूनिवा एतलानुमेकानगोदशरीर स्थितानंतानंतजोवंगळु भागित्वात् सुख खानुभवनस्वातंत्र्यलक्षणविभागित्वदत्तणिदमा जीवतमूहक्कमेकत्व मिल्ल वृत्तिगं दोषमनाहतदोव्यक्कुं। सर्वथैकातदोळल्लद अर्हन्मतदोरिल्ले बुदत्थं । इल्लि चोरकने दपं- जीवाकस्तिकायत्वं परमागमप्रसिद्धमप्पदरिदं प्रदेशप्रचयसवावमक्कुमा प्रदेशप्रयसभा बदगिदं । एकजीवनोळं भागित्वमक्कुमा- १० विभागित्वदिदमनेकवृत्तिाद्भावमककुमें दोडतल्तेके दोडे धधिकिाश एकजीवद्रव्यंगळगे अस्तिकायत्वमुंटागुत्तिर्दोडमखंडद्रव्यंगळप्पुरिदं विभागिगळल्ले ते दोडे अणुवत् अणुविर्ग'तु विभागित्वमिल्लते अखंडैकद्रव्यक्क एकवृत्तित्वं सिद्धमक्कुं। अदुकारणभागि अखंडद्रव्यमप्पुदरिददिनोकर्माहारकचरमपर्यायक्षयेऽनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्याय च द्रव्यमणप्रच्युतिर्नेति जीव ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मक इत्यर्थः । तत्र जीव: एकसमये एकवृत्तिः तेनै कसमयतिवसर पावरविवक्षिततिर्यग्मनुष्यानाहारकस्य ।। तत्त्रयोविंशतिकबंधः, एकविंशतिकोदयः, पंचसत्त्वस्थानेषु योग्यैः सत्त्वं च स्यात् तथयोक्तं 'एकस्याचे कवृत्तिन भागाभावाद्बहूनि वा।। भागित्वाद्वास्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनाहते ॥६२॥' एकजीवस्याने कवृत्तिन स्यात् भागाभावात् । वा पुनः एकनिगोदशरीरस्थितानतानन्तजीवानां सुखदुःखानुभवनस्वातंत्र्यलक्षणविभागित्वादेकत्वं न स्यात् तद्वत्तेर्दोषः अनाहते एव सर्वथैकान्तमते एव नाहन्मते । ननु जीवस्यास्तिकायत्वं परमागमप्रसिद्धं तेन प्रदेशप्रचयत्वं स्यात् ततश्चैकस्मिन्नपि भागित्वादने कवत्ति: स्यादिति तन्न धर्माधर्माकाशैकजीवानां तथात्वेऽप्यखंडद्रव्यत्वेनाणवदविभागित्वादेक वृत्तित्वसिद्धेः । न च तत अतः नारक आदि नोकर्म आहारक रूप अन्तिम पर्यायका क्षय होकर अनाहारक त्रसस्थावर रूप तियंचपर्याय या मनुष्यपर्यायके उत्पन्न होनेपर द्रव्यगुणका विनाश नहीं होता। अतः जीव उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है। इससे एक समयवर्ती बसस्थावररूप तियंच या मनष्य अनाहारकके विग्रहगतिमें तेईसका बन्ध, इक्कीसका उदय और पांच सत्त्व- २५ स्थानोंमें यथायोग्य एकका सत्त्व होता है। कहा भी है-एक जीवकी अनेकत्र वृत्ति नहीं होती क्योंकि वह अखण्ड है। यदि एक निगोदशरीर में स्थित अनन्तानन्त जीवोंका सुखदुःखके अनुभवनरूप स्वातन्त्र्य लक्षण विभाग होनेसे एकत्व न माना जाये तो यह दोष सर्वथा एकान्त मतमें ही सम्भव है, जैनमत में नहीं। शंका-जीव अस्तिकाय है यह परमागममें प्रसिद्ध है। अस्तिकाय होनेसे वह बहु- ३० प्रदेशी हुआ। तब एक जीव अपने अनेक प्रदेशोंमें रहनेसे अनेकवृत्ति हुआ ? १. म मुंटादोडम। २० Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५४ गो० कर्मकाण्डे मणुविनंत अविभागियप्प जीवद्रव्यमणुवेदु व्यवहरिसल्पडुगुमल्लदै अणुमात्रमल्ते के बोर्ड स्वोपात्तशरीरप्रमितमुं लोकमात्रमप्पुरिदं पूर्वभवचरमसमयदोळ वत्तिसुत्तिकनिगोदशरीरस्थितानंतानंतजीवंगळ्गे नोकर्माहारं साधारणमादोडं काहारं पृथक-पृथगेयमक्कु मल्लि साधारणैकशरीरदो संस्थितानंतानंतजीवंगळोळ विवक्षितैकजीवक्के स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेयिदं ५ कथंचित्सत्त्वमक्कुमी कथंचिच्छब्दमा विवक्षितजीवक्केये अस्तित्वमुमं तच्छरोरावगाहस्थितशेषा. नंतानंतजीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्यंगळ्गविवक्षितमप्प गौणमुमं पेळ्दुमा स्वद्रव्यादिचतु. ष्टयापेक्षेयिदं कथंचित्सद्रूपमप्प विवक्षितैकजीवमवक्कये मत्तं तत्साधारणकनिगोदशरीरस्थितशेषानंतानंतजीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालवव्यंगळ पररूपादिचतुष्टयापेक्षयिदं कथंचिदसत्वमक्कुमविवक्षितक्के गौणत्वमुंटप्पुरिंदमहंगे पेळल्पटुदु । ___ कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥१४॥ आ. मी. इष्टं विवक्षितमप्प वस्तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेयिवं कथंचित्सत्वमेयकुं। तदेव वस्तु परवव्यादिचतुष्टयापेक्षयिदं कथंचिदसत्वमेयक्कुं। जिनमतदोळे तथा अहंगे उभयं सदसपमुं अवाच्यमुं च शब्ददिदं सववक्तव्यमुमसदवक्तव्यमुं सदसदवक्तव्यमुं वस्तु कथंचिदप्पुदु । नयएवाणुमात्रः स्वोपात्तशरीरप्रमितत्वेऽपि लोकमात्रत्वात् । पूर्वभवचरमसमयवर्तिनामेकनिगोदशरीरस्थानन्तानन्तजीवानां नोकर्माहारस्य साधारण्येऽपि कर्माहारः पृथक् पृथगेव । तेषु जीवेषु विवक्षितैकजीवः स्वद्रव्यादि चतुष्टयापेक्षया कथंचित्सन् । अयं कथंचिच्छब्दो विवक्षितस्यैवास्तित्वं तच्छरीरावगाहस्थशेषानंतानंतजीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालानामविवक्षितानां गौणं कथयति । स एव जीवः पुनस्तच्छेषानंतानंतजीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालानां पररूपादिचतुष्टयापेक्षया कथंचिदसन् अविवक्षितस्य गौणत्वात् । तथा चोक्तं कथं चित्तत् सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥१४॥ इष्टं विवक्षितं वस्तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया सत्तदेव परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया असत्स्यात् । जिनमते समाधान-नहीं, धर्म-अधर्म, आकाश और एक जीवके बहुप्रदेशी होनेपर भी अणुके समान अखण्ड द्रव्य होनेसे विभाग नहीं है अतः वह एकवृत्ति है। किन्तु इससे वह २५ अणुरूप नहीं है यद्यपि वह अपने प्राप्त शरीर प्रमाण है फिर भी लोकमात्र प्रदेशी है। पूर्व भवके चरम समयवर्ती एक निगोद शरीरमें स्थित अनन्त जीवोंका नोकमरूप आहार समान होनेपर भी कर्मरूप आहार भिन्न-भिन्न है। उन जीवोंमेंसे विवक्षित एक जीव स्व-द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा कथंचित् सत् है। यह कथंचित् शब्द विवक्षित जीवका ही अस्तित्व कहता है. और उस शरीरकी अवगाहनामें स्थित शेष अनन्त जीव पुद्गल धर्म, अधर्म, . आकाश, काल जिनकी विवक्षा नहीं है उनको गौणता देता है। वही जीव शेष अनन्त जीव पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, कालकी पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा कथंचित् असत् है। जिसकी विवक्षा नहीं होती वह गौण होता है । कहा भी है इष्ट अर्थात् विवक्षित वस्तु स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा सत् ही है और वही परद्रव्यादि Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका १०५५ विषयमेकांतमादोडल्लिधुं कथंविद । नयविषयमप्पेकांतसुं कथंचिदिल्लदोडदक्कनेकां तत्यागमक्कमकांतत्यागमागुत्तं विरलु तदेकांतमनन्यमेयक्कु । सर्व्वथैकांत मेयक्कु में बुदथं । मदक्का धर्ममल्लदे परिणामांतराभावमक्कुमप्पुर्दारदम वस्तुमक्कुमप्पुर्दारदं ई कथंचिच्छन्दमु स्याच्छब्दार्थप्रतिपादन मक्कुमंते पेळपट्टु | कथंचित्केनचित्कश्चित्कुतश्चित्कस्यचित् क्वचित् । कदाचिच्चेति पर्य्यायाः स्यादथं प्रतिपादकाः ॥ दिती विनितुं शब्दपयंगळ, स्यादत्थं प्रतिपादकंगळे यत्पूर्वेदितु । यितु सदसद्रूपंगळागिपूर्व्वभवचरमसमयदोळ, वत्तिसुत्तिर्द्द त्रसस्थावर संबंधिबद्ध तिर्य्यग् मनुष्या पुष्यरुगप्प साधारणशरीरमों दरोळ, संस्थितानंतानंत साधारणजीवंगळगे मरणमागुत्तं विरलुत्तरभवप्रथमसमयदोळ त्रसस्थावर संबंधितिर्य्यग्मनुष्यायुष्यं तद्गत्यानुपूर्व्ययुतनामकम्मैकविंशतिप्रकृतिस्थानमुदयिसि १० विग्रहगतियोळ, नोकम्र्मानाहारकरागि साधारणत्ववकं समवायत्वक्कं कारणभूत साधारणशरीरनामकर्मोदयमिल्लप्युदरिंदमा विग्रहगतियोळ, साधारणत्वमुं समवायत्वमुं पिंगि पृथक-पृथग्रूपंगलागि कार्म्मणशरीरोदर्यादं कार्म्मणकाययोगदोळकूडि कर्म्माहारिगळप्पनंतानंतजीवंगळ, लब्ध्य एव । तथा सदसत् अवाच्यं चशब्दात्सदवक्तव्यं असदवक्तव्यं सदसदवक्तव्यं च स्यात् । नयविषयैकान्तेऽपि कथंचित् स्यात् । अन्यथा तस्यानेकान्तत्यागे तदेकान्तोऽनन्य एव स्यात् । सर्वथैकान्त एवेत्यर्थः । तस्य १५ तद्धर्माभावे परिणामांतराभावः ततोऽवस्तु स्यात् । तत एवायं कथंचिच्छन्दोऽपि स्याच्छन्दार्थप्रतिपादकः । तथा चोक्तं--- कथंचित्केनचित्किचित्कश्चित्कस्यचित्क्वचित् । कदाचिच्चेति पर्यायाः स्यादथं प्रतिपादकाः ॥ १ ॥ ५ इति सदसद्रूपपूर्व भवचरमसमयवर्तित्र सस्थावर संबंन्धितद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कसाधारणे कशरीरस्थानंतानंत २० जीवाः मरणे उत्तरभवप्रयमसमये सस्थावर संबंधितिर्यग्मनुष्यायुस्तद्गत्यानुपूर्व्ययुतैकविंशतिकोदया विग्रहगतो नोकर्मानाहारका भूत्वा साधारणत्वसमवायत्व कारणसाधारणानामनुदयात्तद्वयं त्यक्त्वा पृथक् पृथग्भूत्वा चतुष्टयकी अपेक्षा असत् है । तथा दोनोंकी क्रमशः विवक्षा में कथंचित् सत् कथंचित् असत् है। दोनोंकी युगपत् विवक्षा में अवक्तव्य है । 'च' शब्द से स्यात् सदवक्तव्य, स्यादसद वक्तव्य और स्यात् सदसद वक्तव्य है। ऐसा कथन नयदृष्टि से है सर्वथा नहीं है । अन्यथा अनेकान्तका २५ त्याग कर देने पर सर्वथा एकान्त आ जायेगा । एकान्तरूप वस्तुको माननेपर उसमें परिणमन न होने से वह अवस्तु हो जायेगी । इसीसे यह कथंचित् शब्द स्यात् शब्द के अर्थका प्रतिपादक है । कहा है- 'कथंचित् केनचित् किंचित्, कश्चित् कस्यचित्, क्वचित्, और कदाचित् ये पर्याय शब्द स्यात् अर्थ के प्रतिपादक हैं ।' इस प्रकार सत्-असत्रूप पूर्वभव के चरमसमयवर्ती त्रस स्थावर सम्बन्धी तिचा ३० या मनुष्यायुका जिनने बन्ध किया है वे साधारण शरीर में स्थित अनन्तानन्त जीव मरनेपर उत्तरभव के प्रथम समय में, जिनके सस्थावर सम्बन्धी तिर्यंचायु या मनुष्यायु और तद्गतिसम्बन्धी आनुपूर्वी से युक्त इक्कीस प्रकृतियोंका उदय होता है, वे विग्रहगतिमें नोकर्म अनाहारक होकर साधारणत्वके साथ समवायत्वके कारण साधारण नामका उदय न होनेसे क- १३३ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५६ ३० गो० कर्मकाण्डे पर्य्याप्तपर्य्यायसहकारिकारणत्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमं कटुवागळा जीवंगळोळ, यथायोग्यपंचसत्वस्थानं गळोळे केक सत्वस्थानयुतरागिष्णुवु । पेळल्पट्टुवु: सामान्यं समवायश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः । -- अंतरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधिः । - ६५ आ. मी. सामान्यमुं समवायमुमो दो दरोळ, समाप्तियप्पुरिदं सामान्यसमवायंगळगनंत रमक्कुमदरिदं साधारणरूपदिदं समवायरूपदिनिर्द्द नाशोत्पादिद्रव्यंगळोळ, को विधि: सामान्यसमवायप्रमाणविषयमा वुदु ? अवरोळोंदु जीवद्रव्यमुं साधारणत्त्रक्कं समवायत्ववकं विषयमत बुदत्थं एक बोडवु विशेषरूपदिदं पृथग्रूपदिनिद्देपुवपुर्दारवं । विधिशब्दमेतु प्रमाणवाचकमक्कुर्म दोडे : सदेक नित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । : सर्व्वथेति प्रति पुष्यंति स्थावितीहते ॥ - स्वयंभू स्तो. १०१ इलो. सवेकनित्यवक्तव्यंगळुमवर विपक्षंगळ असवनेका नित्यावक्तव्यंगळं नयंगळप्पूर्व र्त दोर्ड नयविषयत्वविवं ह ई नयविषयंगळल्लि सर्व्वयेति सर्व्वथा ये वितु प्रदुष्यति दुयंगळवु । स्यादिति स्वार्त्त वितु पुष्यंति सुनयंगळवु ते तब मते जिनागमबोळ । कार्मणशरीरोदयात्तत्काययोगेन जातकर्माद्वारा लब्ध्यपर्याप्तपर्यायसहकारिकारणत्रयोविंशतिक बन्घकाले योग्य१५ पंचस्वस्थानेष्वेकतरसत्वाः स्युः । उच्यते सामान्यं समवायश्वाप्येकैकत्र समाप्तितः । अंतरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधिः ॥६५॥ सामान्यं समवायश्च एकैकस्मिन् समाप्तत्वात्तयोरंतरं स्यात् तेन साधारणरूपेण समवायरूपेण स्थिति - वाशोत्पादिद्रव्येषु सामान्यसमवाय प्रमाणाविषयकः । तयोरेकजीवद्रव्यं साधारणत्वस्य समवायत्वस्य च विषयो २० न स्यादित्यर्थः । कुतः ? तयोविशेषरूपेण पृथगवस्थानात् । विधिशब्दः कथं प्रमाणवाचक इति चेत् । सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यति पुष्यंति स्यादितोहते ||१|| सदेकनित्यवक्तव्याः तद्विपक्षा असदने का नित्यावक्तव्याश्च नयाः स्युः सर्वचेति प्रदुष्यति दुर्णया भवंति । स्यादिति पुष्यंति सुनया भवंति तवागमे । २५ उन दोनोंको त्याग पृथक-पृथक होकर कार्मण शरीरका उदय होनेसे कार्मणकाययोगके द्वारा आहारक होकर लब्ध्यपर्याप्त पर्यायके सहकारि कारण तेईस प्रकृतियोंके बन्धकालमें उसके योग्य पाँच सत्त्वस्थानों में से किसी एककी सत्तावाले होते हैं । कहा भी है सामान्य और समवाय एक-एक व्यक्तिमें ही समाप्त हो जाते हैं । अतः आश्रयके बिना जो द्रव्य नष्ट और उत्पन्न होते हैं उनमें सामान्य और समवाय कैसे रहेंगे । आशय यह है कि एक जीवद्रव्य साधारणत्व और समवायत्वका विषय नहीं हो सकता । क्योंकि दोनों विशेषरूपसे पृथकू रहते हैं । विधि शब्द प्रमाणका वाचक कैसे है ? सत्, एक, नित्य, वक्तव्य और इनके विपक्षरूप असत्, अनेक, अनित्य, अवक्तव्य ये जो नयपक्ष हैं बे सर्वथा रूपमें तो अविदूषित होते हैं अर्थात् दुर्नय होते हैं । और स्यात् पदपूर्वक सुनय होते हैं । स्वयंभू स्तोत्र १०१ श्लोक 1 नयविषयत्वात् । इह नयविषये तेषां सदसदादीनां प्रमाणनय Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ई सदसदादिगळे प्रमाणविषयमुं नयविषयमुमप्यर्व दु पेदपरु : विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानम् । गुणोsपरो मुख्य नियामहेतुन्नयः सदृष्टांतसमर्थनस्ते ॥ - स्वयंभू श्लो. ५२ इलो. 1 विषक्तं युक्तं प्रतिषेधरूपं येन सः युक्तप्रतिषेधरूपः विधिः विधिः स्यात्स एव विधिः प्रमाणविषयत्वात्प्रमाणं भवति । अत्र अनयोव्विधिनिषेधयोमध्ये अन्यतरत्प्रधानं स्यात् । अपरोऽन्यो गुणः गौणः स्यात् । तथापि गुणो मुख्य नियामहेतुः स्यात् मुख्यव्यवस्थाहेतुरित्यर्थः । न निरात्मकः न निःस्वभावः स्यात् । विधिनिषेधयोरन्यतरत्प्रधानं यत्तद्वस्तु नर्याविषयत्वान्नयः स्यात् । सदृष्टांतसमर्थन: प्रमाणविषयो नयविषयो वा दृष्टांते समर्थनं दृष्टांतसमर्थनं तेन सह वर्त्तत इति दृष्टांत समस्त मते एंदितु प्रमाणविषयं नयविषयं मेणु दृष्टांतसमर्त्यनदोडने वत्तिसुगु- । मानयविषयविधिनिषेधंगळगे प्रधानाप्रधानत्वलक्षणमं पेदपरु : १० · विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते । तथारिमित्रानुभयादिशक्तिद्वयावधेः काय्यंकरं हि वस्तु ॥ विषयत्वं व्यनक्ति विधिविषक्तप्रतिषेषरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानम् । गुणो मुख्य नियामहेतुर्नयः सदृष्टान्तसमर्थनस्ते ||१|| स्वयंभू ५२ श्लोक । विषक्तं युक्तं प्रतिषेधरूपं येन स विधिः स्यात् । स एव प्रमाणविषयत्वात्प्रमाणं । अत्रानयोविधिप्रतिषेधयोरन्यतरत्प्रधानं, अपरो गुणः । तथापि गुणो मुख्य नियामहेतुः मुख्यव्यवस्थाहेतुरित्यर्थः । न निरात्मकः न निःस्वभावः स्यात् । विधिप्रतिषेषयोरन्यतरत्प्रधानं यत्तद्वस्तु नयविषयत्वान्नयः स्यात् । सदृष्टान्त समर्थनः प्रमाणविषयो नयविषयो वा दृष्टान्ते समर्थनेन सहितो वर्तते तव मते । तन्नयविषयविधिनिषेधयोः प्रधानाप्रधानत्वलक्षणमा हु: १०५७ - स्वयंभू. स्तो. ५३ इलो. । विवक्षितो मुख्य इतोष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते । तथारिमित्रानुभयादिशक्तिर्द्वयावधेः कार्यकरं हि वस्तु ॥ स्वयंभू ५३ । ५ १९५ सत्-असत् आदि प्रमाण और नयको व्यक्त करते हैं। कहा है-हे भगवन्, आपके मनमें प्रतिषेधसे युक्त विधि प्रमाणका विषय होनेसे प्रमाण है । इन विधि और प्रतिषेधमें- २५ से एक मुख्य और एक गौण है तथापि गौण मुख्यकी व्यवस्थामें हेतु होता है । वह निःस्वभाव नहीं है । विधि और प्रतिषेधमें से जो कोई प्रधान होता है वह नयका विषय होनेसे नय है । तथा वह दृष्टान्तमें समर्थन से सहित होता है । २० विधि और निषेधमें से प्रधान और गौण होते हैं उनका लक्षण कहते हैं जो कथन के लिए इष्ट होता है चाहे वह विधि हो या प्रतिषेध वही मुख्य कहाता है । ३० जिसकी विवक्षा नहीं होती वह विधि और निषेध में से कोई एक गौण होता है। किन्तु वह निरात्मक- निःस्वभाव नहीं होता। इस प्रकार एक ही वस्तु शत्रु मित्र और अनुभय आदि शक्तियों को लिये हुए होती है । वास्तव में विधि-निषेध, सामान्य- विशेष, द्रव्य-पर्याय इस तरह दो-दो सापेक्ष धर्मोका आश्रय लेकर ही वस्तु अर्थक्रियाकारी होती है । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५८ गो० कर्मकाण्डे वक्तमिष्टो विवक्षितः आ विधि निषेधंगळोळु नुडियल्किष्टमप्पुदु विवक्षितमक्कुमदु मुख्य. मेंदु पेळल्पटुदु । अन्यः आ विवक्षितविकतरमप्प विधियुं निषेधमुं मेणु अविवक्षितमप्पुदु गुणः गौणमक्कुं। न निरात्मकः निस्स्वभावमस्तु । जिन ! निन मतदोछ । तथा तथा हि अन्तेयल्ते । अरिमित्रानुभयादिशक्तियनुळ्ळ वस्तु द्वयावधेः सदसदेकानेकनित्यानित्यवक्तव्यावक्तव्यंगळ सोमेयत्तणिदित्तल कार्यकरमक्कु-। मिती प्रमाणनयविषयंगळप्प विग्रहगतिय प्रथमसमयदोळ त्तिसुत्तिप्पं नोकानाहारकानंतानंततिर्यग्मनुष्यजीवसमूहं लब्ध्यपर्याप्तपर्यायक्के सहकारिकारणत्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानस्थितापर्याप्तनामकर्मोपार्जनमोंदु देशकालदोळु तदुदयसंजनित कार्यरूपलब्ध्यपर्याप्तकत्वमोदु देशकालबोळ संभविसुगुम बुदु विरुद्धमल्तें तेंदोडे वस्तुवृत्तियं. तुंटप्पुरिदं पेळल्पटुदु : देशकालविशेषेऽपि स्यावृत्ति[तसिद्धिवत् । समानदेशता न स्यान्मूत्तिः (त-) कारणकार्ययोः॥ -आप्तमो. ६३ श्लो.। देशकालविशेषदोळं कार्यकारणंगळ व्यक्ति कथंचित्समानदेशतेयागदु । एतागद दोडे स्याच्छन्दवृत्तियुतसिद्धि सुसिद्धमेंतक्कुमंत कार्यकारणंगळ व्यक्ति याव प्रकारदिदक्कु मा प्रकार दिवमक्कुम बुदर्थमदु कारणमागि सयोगिकेवलिभट्टारकनोळु इंद्रियविषयसुखकारणसातवेद१५ बंधमुदयात्मकमप्पुरिदकारण काय्यंगळगे समानदेशतेयादुदंतादोडा सयोगभट्टारकनोळु विषय वक्तुमिष्टो विधिनिषेधो वा विवक्षितः स मुख्य इत्युच्यते । अन्यो विधिनिषेधो वा अविवक्षितो गौणः स्यान्न निरात्मको निःस्वभावो जिन! तव मते। तथाहि-अरिमित्रानुभयादिशक्तिविशिष्टं वस्तु सदसदेकानेकनित्यानित्यवतव्यावक्तव्यद्वयस्यावधेः सीमांतोऽर्वाक कार्यकरं स्यात् इत्येतत्प्रमाणनयविषयस्य विग्रहगति प्रथमसमये नोकर्मानाहारकानंतानंततिर्यग्मनुष्यजीवसमूहस्य लब्ध्यपर्याप्तपर्यायसहकारिकारणत्रयोविंशतिक२० स्थानस्थितापर्याप्तनामोपार्जनं तदुदयकार्यलयपर्यातकत्वं चैकदेशकाले न संभवतीति न विरुद्धं तथात्वाद्वस्तुवृत्तः उच्येत देशकालविशेषेऽपि स्यावृत्तियुतसिद्धिवत् । समानदेशता न स्यान्मूर्तकारणकार्ययोः ॥६३॥ देशकाल बिशेषेऽपि कार्यकारणव्यक्तिः कथंचित्समानदेशता न स्यात् । कथं न स्यादिति चेत् स्याच्छब्द२५ वृत्तिर्यतसिद्धिवत्स्यादिति । ततः कारणात्सयोगकेवलिनीन्द्रियविषयसुखकारण सातवेदनीयबन्ध उदयात्मकः स्यादिति कारणकार्ययोः समानदेशता स्यात् । तहि तत्र विषयसुखसंवेदनं स्यादिति न वाच्यं तत्र मोहनीय . अतः विग्रहगतिके प्रथम समयमें नोकर्म अनाहारक अनन्तानन्त तिर्यश्च मनुष्य जीव समूहका लब्ध्यपर्याप्त पर्यायका सहकारिकारण तेईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान में स्थित अपर्याप्त नामकर्मका उपार्जन और उसके उदयका कार्य लब्ध्यपर्याप्तपना एकदेश एक काल में होना ३. विरुद्ध नहीं है। क्योंकि वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है। कहा है-'देशकालका भेद होनेपर भी युतसिद्धवत् वृत्ति होती है । मूर्तिमान अवयव और अवयवी समानदेशमें नहीं रह सकते । अतः सयोगकेवलीमें इन्द्रिय सुखका कारण वेदनीय कर्मका बन्ध उदयात्मक होता है अतः कारण और कार्यका समानदेश हो सकता है। शायद कहा जाये कि तब तो केवलीमें विषयसुखवेदन होना चाहिए। किन्तु ऐसा Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १०५९ सुखसंवेदने यक्कुम देनल्वेडेके दोडा सयोगकेवलिभट्टारकंग मोहनीयकर्मनिरवशेषप्रक्षदिदं स्वात्मोत्थानंतानंताक्षयसुखसंवेदने निरंकुशवृत्तियिदं वत्तिसुत्तं विरलु कवलाहारादिविषयसुखसंवेदने विरोधिसल्पडुगुमें ते दोडे मोहनीयकर्मोदयबलाधानरहितसातवेदोश्ययक्के बहिविषय सन्निधीकरण सामर्थमल्लदे तद्विषयसुखसंवेदनयं पुट्टिसुव सामर्त्य मिल्ल । पेळल्पटुदु: ___ "घादिव वेदणीयं मोहस्स बळेण घाददे जीवमें दितु ॥ अथवा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणंगळ क्षयंबेरे काणल्पसृदिल्ल। क्षोणकषायगुणस्थानचरमसमयदोळे "णाणंतरायदसयं ईसण चतारि चरिमम्मि" एंदितु ज्ञानावरणपंचकांत. रायपंचकंगळु दर्शनावरणचतुष्टयमुं युगपत्प्रणष्टंगळादु वप्पुरिदं जीवस्वभावगुणंगळप्प केवलज्ञानदर्शनोपयोगोपयुक्तसयोगिकेवलिभट्टारकंगक्षयानंतशक्तिसंयुक्तंग क्षयोपशममिकविभावगुणंगळप्प मत्यादिज्ञानोपयोगंगळ संभवमप्पुरिदमुमथवा सातवेदनीयोदयसंजनितेंद्रियविषय- १० कबलाहारादिगळतणिदं विषयसुखसंवेदने केवलज्ञानदिदमो ? मेणिद्रियज्ञानदिदमो ? इंद्रियज्ञानदिदु में दोडे केवलज्ञानोपयोगक्कभावमागि बक्कु ते दोडे "एकस्यानेकवृत्तिन भागाभावात्" कर्मनिरवशेषप्रक्षयात्स्वात्मोत्थानंतानंताक्षयसुखसंवेदनं निरंकुशवृत्त्या वर्तमाने सति कवलाहारादिविषयसुखसंवेदनं विरुध्यते । मोहनीयोदयबलाघानरहितसातवेदोदयस्य बहिविषयसंनिधीकरणसामर्थ्यमेव स्यान्न तद्विषयसुखसंवेदनोत्सादकसामथ्र्य । तथा चोक्तं घादि व वेदणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं । इति अथवा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणानां क्षयः पृथगेव न दृश्यते क्षीणकषायचरमसमये एव णाणांतरायदसयं दंसणवत्तारीति चतुर्दशानां युगपत्प्रणष्टत्वाज्जीवस्वभावगुणकेवलज्ञानदर्शनोपयोगोपयुक्तसयोगस्याक्षयानंतशक्तेः क्षयोपशमिकविभावगुणमत्यादिज्ञानोपयोगानामसंभवात् । अथवा सातवेदनीयोदयसंजनितेन्द्रियविषयकवलाहारादिभ्यो विषयसुखसंवेदनं केवलज्ञानेनेन्द्रियज्ञानेन वा । इन्द्रियज्ञानेन चेत् केवल- २० कहना ठीक नहीं है। क्योंकि केवलीमें मोहनीय कर्मका सम्पूर्ण क्षय हो चुका है। अतः अपनी आत्मासे उत्पन्न अनन्तानन्त अक्षय सुखका संवेदन रहते हुए केवलीमें कवलाहार आदि जन्य विषयसुखका संवेदन सम्भव नहीं है। मोहनीयकी उदयकी सहायतासे रहित सात वेदनीयके उदयमें बाह्य विषयोंको लानेकी सामर्थ्य ही होती है। विषयसुखका संवेदन उत्पन्न करनेकी सामथ्र्य नहीं होती। २५ कहा भी है वेदनीय कर्म मोहका बल पाकर जीवका घात करता है। अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानोंके आवरणोंका क्षय पृथक्-पृथक् नहीं होता। क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ही पाँचों ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दर्शनावरणोंका एक साथ विनाश होता है। अतः जीवके स्वाभाविक गण केवलज्ञान और ३० केवलदर्शनरूप उपयोगसे उपयुक्त तथा अक्षय अनन्तशक्तिसे सम्पन्न सयोगकेवलीके क्षायोपशमिक वैभाविक गुण मति आदि ज्ञानोपयोगका होना असम्भव है। अथवा सातावेदनीयके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियविषय कवलाहार आदि सम्बन्धी विषयसुखका संवेदन केवली केवलज्ञानसे करते हैं या इन्द्रिय ज्ञानसे। यदि इन्द्रिय ज्ञानसे Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे एंदितेककालदोळेकजीवनोळेक वृत्तियल्लदनेकवृत्ति संभविसदरदरदमुं वीतरागभट्टारकं क्षायोपशमिकज्ञानप्रसंगमक्कुं । केवलज्ञानदिदर्म बोर्ड अनंताक्षयसुखतमगे अशुचिवस्तुदर्शनांत राय परिवज्जिताहारप्रवृत्ति गगनकुसुमोपममक्कुमप्पुदरिदं । अंता त्रयोविंशतिबंध मे केंद्रियार्थ्याप्तयुतबंधस्थानमपुर्दारदं तिर्य्यग्गतिज मिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यगतिज मिथ्यादृष्टिगळं बंधस्वामिगळप्परल्लि ५ तिय्यंचरुगळोळे केंद्रियादि सर्व्वतिय्यंच मिथ्यादृष्टिगळं बंधयोग्यस्थानमपुरिदमा त्रयोविंशतिस्थानमं कट्टुवागळ जीवंगळगे बं २३ । ए अ । उद २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ ॥ २९ ॥ ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२॥ आ तिय्यंचसासादनादिगळोळारोळमी त्रयोविशतिबंधस्थानमिल्ल | मनुष्यगतिय मनुष्यरोळ कर्मभूमिजमिथ्यादृष्टिगळे स्वामिगळप्पुर्दारमा स्थानमं 'कट्टुवागळा जीवंगळगे बं २३ । ए अ । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९० । १० ८८ । ८४ ॥ पंचविशति प्रकृतिबंधस्थानमेकेंद्रियपर्य्याप्त युतमं त्रसापर्य्याप्त युत्त बंधस्थानम पुर्दारदमा पंचविंशति प्रकृतिबंधस्वामिगळु तिय्यंचरुं मनुष्यरुं दिविजरुगळुमप्परल्लि तिर्य्यग्गतिजरोलु सर्व्वतिथ्यंचरुगळु मिथ्यादृष्टिगळे कट्टुवरप्पुर्दारवमा जीवंगळु पंचविंशतिस्थानमं कट्टुवागळ १०६० ज्ञानोपयोगस्याभावः प्रसज्यते एकस्थानेकवृत्तेरभावात् । अन्यथा क्षायोपशमिकज्ञानं प्रसज्यते । अथ केवलज्ञानेन तदाऽनंताक्षयसुख तृप्तस्याशुचिवस्तुदर्शनांत रायपरिवजिताहारप्रवृत्तिगगनकुसुमोपमा स्यादिति । तथा तत्त्रयो१५ त्रिशतिकमेकेन्द्रियापर्याप्तयुतमिति तिर्यग्मनुष्यगतो मिध्यादृष्टय एव बध्नंति । तदा तेषामेकेन्द्रियादिसर्व तिरश्चामिति । ] उपरतबन्धे उदयस्थानानि चतुः पंचाग्रविशतिकोनानि दश । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादीनि चत्वार्यशीतिकादीनि षट् च । अत्राद्यत्रिसंयोगे - बं २३ ९ स ५ उ त्रयोविंशतिकमेकेन्द्रियापर्याप्तयुतत्वाद्देवनारकेम्योऽन्ये त्रसस्थावर मनुष्य मिथ्यादृष्टय एवं बहनंति 1 २० तत्रैकेन्द्रियादिसर्वतिरश्चां बं २३ ए अ । उ २१२४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ स ९२ । ९० । ८८ । करते हैं तो केवल ज्ञानोपयोगका अभाव प्राप्त होता है क्योंकि एक जीवके एक समय में अनेक उपयोग नहीं हो सकते । अन्यथा केवलोके क्षायोपशमिक ज्ञानका प्रसंग आता है । यदि केवलज्ञानसे करते हैं तो अक्षय अनन्तसुखसे तृप्त केवलीके अशुचि वस्तुको देखनेरूप अन्तरायके कारण त्यागे हुए आहार में प्रवृत्ति असम्भव हो जायेगी । २५ तथा तियंचगति और मनुष्यगति में एकेन्द्रिय अपर्याप्त से सहित तेईस प्रकृतिक स्थानको मिध्यादृष्टि ही बाँधते हैं । ] प्रथम त्रिसंयोगमें तेईसके बन्धस्थानमें नौ उदयस्थान और पाँच सत्त्वस्थान कहे । सो तेईसका बन्धस्थान एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित होनेसे उसे देवनारकियों को छोड़ त्रस स्थावर और मनुष्य मिध्यादृष्टि ही बाँधते हैं । सो एकेन्द्रिय आदि सब तिर्यंचोंके बन्ध ३० एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित तेईसका होता है वहाँ उदय इक्कीस, चौबीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीसका । सत्त्व बानबे, नब्बे, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठासी, चौरासी, Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०६१ आजीवंगळ्ग बं २५ । ए। प त्र । अ । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२।९० । ८८ ॥ ८४ । ८२॥ तिव्यं चसासादनादिगळी पंचविंशतिस्थानमं कट्टरेके दोईकेंद्रियविकलत्रयापर्याप्तकम्मंगळु मिथ्यादृष्टियोळे बंधमप्पु वप्पुरि, मनुष्यगतियोळु मनुष्यमिथ्या. दृष्टिगळोळे पंचविंशतिस्थानबंधमप्पुदरिंदमा जीवंगळा स्थानमं कटुवागळु बं। २५ । ए।प। त्र अ। उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९०। ८८ । ८४ ॥ मनुष्यसासादनादिगळोळे- ५ ल्लियुं पंचविंशतिस्थानबंधमिल्ल । देवगतियोळ भवनत्रयसौधर्मकल्पद्वयदिविजमिथ्यादृष्टिगळोळे पंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानमेकेंद्रियपर्याप्तयुतमागि बंधं संभविसुगुमप्पुदरिना स्थानमं कटुवागळु दिविजमिथ्याष्टिगळ्गे बं २५ । ए प। उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ स ९२ । ९० । दिविजसासादनादिगळ्गल्लियुं पंचविंशतिस्थानबंधमिल्ल । षड्विंशतिबंधस्थानमेकेंद्रियपर्याप्तोघोतातपोन्यतरयुतबंधस्थानमप्पुरिदं । तिम्यंचलं मनुष्यरुं दिविजरुं बंधस्वामिगळप्परल्लि सव. १० तिय्यंच मिथ्यादृष्टिगळो तेजोवायुसाधारणसूक्ष्मपर्याप्तंगळोदयमिल्लदे बंधमुंटप्पदरिदं सर्व तिथ्यंचमिथ्यादृष्टिगळा स्थानमं कटुवागळु बं २६ । एप। उ । आ । उ. २१ । २४ । २५ । २६ । ८४ । ८२ । मनुष्येषु कर्मभूमिजानामेव बं २३ । ए अ । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२। ९० । ८८४८४ । पंचविंशतिकमेकेन्द्रियपर्याप्तत्रसापर्याप्तयुतत्वात्तिर्यग्मनुष्यदेवमिथ्यादृष्टय एव बध्नति । तत्र सर्वतिरश्वां बं २५ ए प त्रअ उ। २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९०। ८८। १५ ८४ । ८२ । मनुष्यगतो बं २५ ए प । अ । उ २१, २६, २८, २९, ३० । स ९२, ९०, ८८, ८४ । देवेषु भवनत्रयसौधर्मद्वयजानामेवैकेन्द्रियपर्याप्तयुतमेवं बं २५ ए प । उ २१, २५, २७, २८, २९, स ९२, ९० । षड्विंशतिकमेकेन्द्रियपर्याप्तोद्योतातपान्यतरयुतत्वात्तिर्यग्मनुष्यदेवमिथ्यादृष्टय एव बध्नन्ति । तत्रापि तेजोवायुसाधारणसूक्ष्मापर्याप्तेषु तदुदय एव न, बन्धस्तु भवत्येव । तत्तिरश्चां-बं २६ । ए प उ आ । उ २१, २४, बयासीका है। मनुष्योंमें कर्मभूमियोंके ही एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित तेईसका बन्ध होता है २० वहाँ उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासीका है। पञ्चीसका बन्ध एकेन्द्रिय पर्याप्त या त्रस अपर्याप्त सहित होता है। अतः उसका बन्ध तियच मनुष्य देव मिथ्यादृष्टि ही करते हैं। उनमें से सब तियेचोंके एकेन्द्रिय पर्याप्त या त्रस अपर्याप्त सहित पच्चीसका बन्ध होनेपर उदय इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, २५ अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका और सत्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासी, बयासीका है। मनुष्यगतिमें एकेन्द्रिय पर्याप्त या त्रस अपर्याप्त सहित पच्चीसके बन्धमें उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस और सत्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासीका है। देवोंमें भवनत्रिक और सौधर्म युगलके देवोंके ही एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पच्चीसका बन्ध होता है। वहाँ उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका है। ३० __ छब्बीसका बन्ध एकेन्द्रिय पर्याप्त और आतप उद्योतमें-से एक सहित है। अतः उसे तियंच मनुष्य देव मिथ्यादृष्टि ही बाँधते हैं। उनमें भी तेजकाय, वायुकाय साधारण सूक्ष्म अपर्याप्तोंमें उसका उदय नहीं है बन्ध तो होता ही है। तियचोंके एकेन्द्रिय पर्याप्त उद्योत या आतप सहित छब्बीसका बन्ध होनेपर उदय इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६२ गो० कर्मकाण्डे । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ मनुष्य मिध्यादृष्टिगळा षड्विंशतिस्थान कटुवागळु बं २६ । ए प । आउ । उ २१ । २६ । २८ । २२ । ३० । स ९२ ॥ ९० । ८८ । ८४ ॥ दिविज्ञभवनत्रयसौधर्मद्वयमिथ्यादृष्टिगळा स्थानमं कटुवागळ बं २६ ॥ एप । आउ । उ २१ । २५ | २७ । २८ । २९ । अष्टाविंशतिबंधस्थानं नरकदेवगतियुतबंधस्थान५ मप्पुरिदं तिर्य्यग्मनुष्यरुग बंधस्वामिगळप्परल्लि तिग्गतियोळ, शरीर पर्याप्रासंज्ञिपंचेद्रियमिथ्यादृष्टियं संज्ञियं कट्टुवागळ बं २८ । न । वे । उ २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । संज्ञितिय्यंचसासादनंगे बं २८ । दे । उ । ३० । ३१ । स९० ॥ तिय्यंच मिश्र बं २८ । दे । उ ३० । ३१ । स ९२ । ९० ॥ तिभंग असंयतंगं बं २८ । दे । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । देश संयततिष्यंचंगे बं २८ । वे । उ ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ई १० तिर्य्यग्गतियोष्टाविंशतिबंधस्थानं मिथ्यादृष्टियोळ विग्रहगतियोळ शरीरमिश्रकालवोळ बंधमिल्ले के दोर्ड : -- O २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ । स ९२,९०, ८८, ८४, ८२ । तन्मनुष्याणां बं २६ । एप मा उ । उ १५२१, २६, २८, २९, ३० । स ९२, ९०, ८८, ८४ । भवनत्रयसोधर्मद्वयजानां बं २६ । ए प आ उ । उ २१, २५, २७, २८, २९ । स ९२, ९० । अष्टाविंशतिकं नरकदेवगतियुतत्वादसंज्ञि संशितियं कर्मभूमिमनुष्या एव विग्रहगतिशरीर मिश्रकालावतीत्य पर्याप्तशरीरकाले एव बघ्नंति । तत्तिरवां मिध्यादृष्टेः बं २८ न । दे, उ२८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । तत्सासादनस्य बं २८ दे । उ ३० । ३१ । स ९० । मिश्रस्य बं २८ दे । उ ३० । ३१ । स९२ । ९० । असंयतस्य बं २८ दे, उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । २० देशसंयतस्य बं २८ दे, उ ३० । ३१ । स ९२ । ९० । द्वघशीतिकं हि तत्सत्त्वयुततेजोवायुभ्यां पंचेन्द्रियेषूत्पद्य ३० “ओळ वा मिस्से हि सुरगिरयाउहारणिरयदुगं । मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अत्थि ।" अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका और सत्त्व बानवे नब्बे, अट्ठासी, चौरासी, बयासीका होता है | मनुष्यों के उसी प्रकारका बन्ध होनेपर उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस और सत्त्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासीका है । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलके देवोंके वैसा ही बन्ध होनेपर उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, सत्व बानबे, का है। २५ अठाईसका बन्ध नरकगति या देवगति सहित होनेसे असंज्ञी संज्ञी तिर्यंच मनुष्य ही विग्रहगति और शरीर मिश्रकालको बिताकर पर्याप्त शरीरकालमें बाँधते हैं। वहाँ तियंच मिथ्यादृष्टि नरक देवगति सहित अठाईसका बन्ध होनेपर उदय अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका और सत्व बानबे, नब्बे, अट्ठासीका है । सासादनमें देवगति सहित अठाईसका बन्ध होनेपर उदय तीस, इकतीस और सत्त्व नब्बेका होता है। मिश्र में बन्ध होनेपर उदय तीस, इकतीस तथा सत्त्व बानबे, नब्बेका है । असंयत में होनेपर उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका तथा सत्त्व बानबे नब्बेका है । देशसंयत में देवगति सहित १. (ताड पृ. २०६ पं. १) - अष्टाविंशतिबंधदोळ एकविंशतिषड्विंशति उदयमिल्ले बुदु व्यक्तमायतु । (पृ. २०६, पं २ ) - कम्मे ओराळमिस्सं वा यी गाथाभिप्रायमं योजिसिको बुदु ॥ -- (संबंधोऽत्र न ज्ञायते ) Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका १०६३ एंदिता विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रकालदोळमा बंधस्थानं संभविसुवुदल्ते बुदत्थंमल्लि. द्वयशोतिचतुरशीतिसत्त्वस्थानंगळं संभविसर्वत दोर्ड द्वयशीतिसत्त्वस्थानमुळ्ळ तेजोवायुकायिक. जीवंगळा पंचेंद्रियासंज्ञिसंज्ञिमिथ्यादृष्टिगोनु पुटुवरंतु पुट्टिदोडमा विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रयोगकालदोळमा सत्त्वस्थानं कथंचिदुटु कथंचिदिल्लमते दोडे आ विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रकालदोळं तिर्यग्गतियुतमागि त्रयोविंशतिपंचविंशति षड्विंशतिस्थानंगळमं नवविशतित्रिंशत्प्रकृति- ५ स्थानंगळुमं तिर्यग्गतियुतमागि कटुवागळ मनुष्यद्विकं बंधमिल्लप्पुरिदं तत्सत्त्वस्थानं संभविसुगुमा विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रयोगकालदोळं मनुष्यगतिद्वययुतपंचविंशतिस्थानमुमं नवविंशतिस्थानमुमं कटुवागळ तद्वयशीतिसत्त्वस्थानं संभविसदप्पुदरिंद। मतमा अष्टाविंशतिस्थानमं शरीरपाप्तियोळ कटुव पंचेंद्रियासंज्ञिसंज्ञिमिथ्यादृष्टिगळुमेकेंद्रियविकलत्रयभवदोळ नारक चतुष्टयमनुवेल्लनमं माडि बंदी असंज्ञिसंज्ञिपचेंद्रियपर्याप्तरो पुटुवरंतु पुट्टिदोडमा विग्रह- १० गतियोळं शरीरमिश्रयोगकालदोळं नियमदिदमा सत्त्वस्थानं संभविसुगुमे ते दोडा चतुरशीतिसत्त्वस्थानयुतजीवंगळा कालदो मिथ्यादृष्टिगळप्पुदरिंद देवद्विकमुं नारकचतुष्टयमुं बंधमागवप्पुरिंदसो अष्टाविंशतिस्थानबंधकालं शरीरपर्याप्तियुतकालमप्पुदरिंदं नारकचतुष्टयमं कट्टिदोडमा जीवं. गळोळष्टाशीतिसत्त्वस्थानं संभविसुगुं मेणु सुरचतुष्टयमं कट्टिदोडमा जीवंगळोळ अष्टाशोतिप्रकृतिसत्त्वस्थानं संभविसुगुमप्पुरिदमा असंज्ञिसज्ञिपंचेंद्रियमिथ्यादृष्टिगळोळ, द्वानवतिनवत्यष्टाशीति- १५ सत्त्वस्थानत्रयसंभवं पेळल्पद्रुदु। मनुष्यगतियोछ, मिथ्यादृष्टिजीवेगळो अष्टाविंशतिस्थानं तिर्यक्पंचेंद्रियपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळगे पेळ्दंते शरीरपर्याप्तियोळ नरकगतियुतमागियुं देवगतिनानाविग्रहगतिशरीरमिश्रकालयोस्तियंग्गतियुतत्रिपंचषड्नवदशाग्रविशतिकानि बध्नतां संभवति । मनुष्यद्विकयुतपंचनवाविंशतिके बध्नतां न संभवति । चतुरशीतिकं चैक विकलेन्द्रियभवे नारकचतुष्कमुद्वैल्य पंचेन्द्रियपर्याप्तेषूत्यत्त्य तस्मिन्नेव कालद्वये संभवति ततोऽस्मिन्नष्टाविंशतिकबन्धकाले तयोः सत्त्वं नोक्तं । __ मनुष्येषु मिथ्यादृष्टेः बं २८ न दे, उ २८॥ २९॥ ३०। स ९२॥ ९१॥ ९०। ८८ । उद्वेल्लितानुद्वेल्लितमनुष्यद्विकतेजोवायूनां मनुष्यायुरबन्धादत्रानुत्पत्तेर्न द्वयशोतिकसत्त्वं, उद्वेल्लितनारकचतुष्कैकविकलेन्द्रियाणासहित अठाईसका बन्ध होने पर उदय तीस, इकतीस, सत्त्व बानबे, नब्बेका है। बयासीके सत्त्वसहित तेजकाय वातकायसे मरकर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो विग्रहगति और शरीर मिश्रकालमें तिर्यचग्गति सहित तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीसका बन्ध होनेपर बयासीका २५ सत्त्व होता है। मनुष्यद्विक सहित पच्चीस और उनतीसका बन्ध होते बयासीका सत्त्व नहीं होता। चौरासीका सत्त्व एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके भवमें नारक चतुष्ककी उद्वेलना करके पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेपर पूर्वोक्त दोनों कालोंमें होता है। इसलिए अठाईसके बन्ध होनेके काल में बयासी और चौरासीका सत्त्व नहीं कहा। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टिके नरक या देवगति सहित अठाईसके बन्धमें उदय अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बे और अट्ठासीका है। मनुष्य द्विककी उद्वेलना जिनकी हुई है या नहीं हुई है ऐसे र तेजकाय, वायुकायके मनुष्यायुका बन्ध न होनेसे वे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते। इससे बयासीका सत्व नहीं होता। तथा जो नारक चतुष्ककी उद्वेलना सहित एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय क-१३४ २० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६४ गो० कर्मकाण्डे युतमागिय बंधमक्कुमा विग्रहगतियोळ शरीरमिश्रकालदोळं ओराळे वा मिस्से एंदित्यादि सूत्रेष्टदिदं तद्बंध तत्कालबोळ संभविसदप्रदमा मिथ्यादृष्टिमनुष्य संकम्मं भूमिजरे शरीरपर्याप्रियोळकूडितदष्टाविंशतिस्थानमं कट्टुवागळु बं २८ । न । दे । उ २८ । २९ । ३० । स९२ । ९१ । ९० । ८८ । इल्लि तेजस्कायिक वायुकायिकंगळ मनुष्यद्विकमनुवेल्लनमं माडियु माड५ देथुमी मनुष्य मिथ्यादृष्टिगळोळ, पुट्टरें तेंदोडे "मणुवदुगं मणुवाऊ उच्चं णहि तेउवाउम्मि" एंदितु मनुष्यायुब्बंध संभवमिल्लप्पुदरदमा द्वयशीतिसस्वस्थानमं संभविसदु । नारकचतुष्टयमनुद. वेल्लन माडि बंदु एकेंद्रियतिय्यंचरुं विकलत्रयतिध्यंचरुं बंदु पुटुवट्टिदोडमा जीवंगळगमी मनुष्यशरीरमिश्रकालदोळं विग्रहगतियोळमा चतुरशीतिसस्वस्थानं नियर्मादिदं संभविमुगुमेकदोडा जीवंगळगा कालदोळष्टाविंशतिबंधस्थानं नियर्मादिदमिल्ले' ते दोडोराळे वा मिस्से ये दित्यादि १० सूत्राभिप्रायदिदमा कालदोळु तवष्टाविंशतिबंधनिषेधमुंटप्पुर्दारवमी शरीरपर्थ्याप्तियोळष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुवागळुमा चतुरशीतितत्स्वस्थानमुभयप्रकारविंदं संभविसर्व ते दोर्ड शरीरपर्याप्तियोळष्टाविंशतिस्थानमं नारकचतुष्टययुतमागि कट्टुवागळु मष्टाशीतिसत्त्वस्थानमक्कुमथवा देवचतुष्टययुतमागि कट्टुागळ मष्टाशीतिसत्त्वस्थानमे सत्त्वमक्कुम पुर्दारवं एकनव तिसत्त्व स्थानमी मनुष्य मिथ्यादृष्टियोळे तु संभविसुगुमेर्क बोर्ड प्राग्बद्धनरकायुष्यनप्प असंयतसम्यग्दृष्टि१५ द्वितीयादि पृथ्विगळोळ, पुट्टनभिमुखनप्यागळ सम्यक्त्वमं विराधिसि केडिसि मिथ्यादृष्टियागि नरकगतियुताष्टाविशति स्थानमं कट्टुत्तमितंर्ग त्रिंशत्प्रकृत्युदयस्थानमुमेकनवतिसस्वस्थानमुं संभविसुगुमप्पुर्दारदं मनुष्यसासादनंगे बं २८ । वे । उ ३० । स ९० । मनुष्यमिश्रंग बं २८ । वे । उ ३० । स ९२ । ९० ॥ मनुष्यासंयतंर्ग बं २८ । दे । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० ॥ स ९२ ॥ त्रोत्पन्नानां विग्रहगति मिश्रशरीरकालयोरष्टाविंशतिकाबन्धान्न चतुरशीतिकसत्त्वं । शरीरपर्याप्तौ तद्बन्धे तु २० नारकचतुष्केण देवचतुष्केण वाष्टाशीतिकसत्वमेव न तत् एकनवतिकसत्त्वं प्राग्वद्धनरकायुरसंयतस्य द्वितीयतृतीयपृथ्व्युत्पत्यभिमुखस्य मिध्यादृष्टित्वं गत्वा नरकगतियुताष्टाविंशति बन्नतस्त्रिशत्कोदयेन सह संभवति । सासादनस्य बं २८ दे । उ ३० । स ९० । मिश्रस्य बं २८ दे । उ ३० । स ९२ । ९० । असंयतस्य बं २८ दे । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९० । नात्र कनवतिकसत्त्वं प्रारब्धतीर्थबन्धस्यान्यत्र बद्धनरकायुष्का २५ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उनके विग्रह गति और मिश्रशरीर कालमें अठाईसका बन्ध न होने से चौरासीका सत्त्व नहीं होता । शरीर पर्याप्तिकाल में उसका बन्ध होनेपर नारकचतुष्क या देवचतुष्कके साथ अट्ठासीका ही सत्व होता है। पूर्व में जिसने नरकायुका बन्ध किया है ऐसा असंयत सम्यग्दृष्टी जब दूसरी या तीसरी पृथिवीमें जानेके अभिमुख होता है तो मिथ्यादृष्टि होकर नरकगति सहित अठाईसका बन्ध करता है तब तीस के उदय के साथ इक्यानबेका सत्त्व होता है । मनुष्य सासादन के देवगति सहित अठाईसके बन्धमें उदय तीसका और सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें देवगति सहित अठाईसका बन्ध करने पर उदय तीसका तथा सत्व बानबे और नब्बेका है । असंयतमें देवगति सहित अठाईसके बन्धमें उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्व नब्बे, बानबेका है । यहाँ इक्यानबेका सत्व नहीं है; क्योंकि तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ होनेके पश्चात् सम्यक्त्वसे च्युत वही ३० Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०६५ ९०॥ तोययुतैकनवतिसत्त्वस्थानमष्टाविंशतिबंधकनोळ संभविस ते दोडे-सम्यग्दृष्टिगळोळ, तीर्थरहितबंधस्थानं संभविसदेके दोडवग्गेतलानु नरकगतिगमनकालदोळ तीर्थबंधप्रारंभप्राग्वद्धनरकायुष्यनष्प मनुष्यासंयतंगे मिथ्यात्वोदयदिवं मिथ्यादृष्टियादोडे तीर्थबंध माण्बुदल्लवे अन्यत्र सम्यग्दृष्टिगळोळ बंधमिल्लप्पुदिल्ले ते दोर्ड तोत्थं निरंतरबंधकालमुत्कृष्टदिदमंतर्महूर्ताविकाष्टवर्षन्यूनपूर्वकोटिवर्षद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालप्रमितमप्परिवं। अदुकारणमी १ सम्यग्दृष्टियोळष्टाविंशतिबंधकनोळेकनवतिसत्त्वस्थानं संभविसदु। मिथ्यादृष्टियोळ, संभविसुगुमेंबुदत्थं । मनुष्यवेशसंयतते बं २८ । दे। उ ३० । स ९२ १९० ॥ मनुष्यप्रमत्तसंयतंग बं २८ । दे। उ २५ । २७ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९० ॥ अप्रमत्तसंयतंगे बं २८ । दे। उ ३० । स ९२। ९० ॥ अपूर्वकरणंगे बं २८ । । उ ३० । स ९२ । ९० ॥ नवविशतिबंध द्वौद्रियादित्रसपर्याप्तयुततिर्यग्गतियुतमुं मनुष्यगतियुतमुं देवगतितीर्थयुतमुमप्पुरिदमदक्के स्वामिगळु नारकरुं तिघ्यचरं १० मनुष्यरुं विविजरुमप्परल्लि नारकमिथ्यादृष्टिगळ्गे बं २९ । पं । ति । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । स ९२।९१ । ९०॥ इल्लि एकनवतिस्थानं घर्मादित्रयावनिजापर्याप्तरोळे संभव में बरियल्पड्युं। नारकसासावनंगे बंध २९ । पं । ति । म । उ २९ । स ९० ॥ नारकमिश्रंग बं २९ । म । उ २९ । स ९२ । ९० । नारकासंयतंगे बं २९ । म । उदयं घम्म योळु २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । स ९२ । ९० ॥ वंशय मेघय नारकासंयत, बं २९ । उ २९ । सत्त्व ९२ । ९०॥ १५ त्सम्यक्त्वाप्रच्युतिर्नेति तीर्थबन्धस्य नरंतर्यादष्टाविंशतिकाबन्धात । देशसंयतस्य बं २८ दे। उ ३०, स ९२ । ९०, प्रमत्तस्य बं २८ दे। उ २५ । २७ । २८ । ६० । स ९२। ९० । अप्रमत्तस्य बं २८ दे । ३० । स ९२ । १०। अपूर्वकरणस्य बं २८दे । उ ३० । स ९२ । ९०। नवविंशतिक द्वींद्रियादित्रसपर्याप्तेन तिर्यग्गत्या वा देवतीर्थन वायुतत्वाच्चतुर्गतिजा बज्नंति । तत्र नारकमिथ्याशां बं २९ पंति म । उ२१ । २५ । २७ । २८। २९ । स ९२। ९१ । ९०। अकनवतिकं धर्मादित्रयापर्याप्तेष्वत्र संभवति । सासादनस्य बं २९ पं २० तिम । उ २९ । स ९० । मिश्रस्य बं २९ म। उ २९ । स ९२। ९० । असंयतस्य धर्मायां बं २९ म । उ २१ । २५ । २७ । २८। २९। स ९२। ९०। वंशामेघयोः वं २९ म। उ २९ । स ९२ । ९० होता है जिसने पूर्व में नरकायुका बन्ध किया है, और तीर्थकरका बन्ध निरन्तर होता है इससे उसके अठाईसका बन्ध नहीं है। देशसंयतमें उदय तीसका और सत्त्व बानबे नब्बेका है । प्रमत्तमें उदय पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका २५ है। अप्रमत्तमें उदय तीसका सत्त्व बानबे, नब्बेका है। अपर्वकरणमें उदय तीसका सत्र बानबे, नब्बेका है। उनतीसका बन्ध दोइन्द्रिय आदि सपर्याप्त सहित या तिथंचगति सहित या मनुष्यगति सहित या देवगति तीर्थकर सहित होता है। इसे चारों गतिके जीव बांधते हैं। नारक मिथ्यादृष्टिके पंचेन्द्रिय तिथंच या मनुष्यगति सहित उनतीसके बन्धमें उद्य इक्कीस, पञ्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। ३० यहाँ इक्यानबेका सत्त्व धर्मादि तीन नरकोंमें अपर्याप्तकालमें ही होता है। सासादनमें उसी प्रकारसे उनतीसके बन्धमें उदय उनतीसका सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें मनुष्यगति सहित ही उनतीसका बन्ध होता है । वहाँ उदय उनतीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका है। असंयतमें भी मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध होता है । सो धर्मानरकमें उदय इक्कीस, पञ्चीस, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६६ गो० कर्मकाण्डे अंजनादिचतुःपृथ्विगळोळु बं २९ । ति । म। उदय २९ । स ९२ । ९० ॥ तिर्यग्गतिय मिथ्या. दृष्टियोळ बं २९ । बि। ति । च। प। म । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ सत्त्व ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ तिय्यंचसासादनंग बं २९ । प। ति । म । उ । २१ । २४ । २६ । ३० । स ९० । पंचविंशतिसप्तविंशत्यष्टाविंशतिनवविंशतिस्थानोदयंगळोळ सासादन५ गुणमिल्ल। तिय्यंचमिश्रगुणस्थानदोळ नवविंशतिबंधस्थानबंधं संभविसवेक दोडे "उवरिम छण्हं च छिदी सासणसम्मे हवे णियमा" ये दितु मनुष्यगतियुं सासादननोळ घुच्छित्तियादुदप्पुदरिदं । मिश्रंगे परगेपेळ्दष्टाविंशतिदेवगतियुतस्थानमे बंधमक्कुम बुदत्थं । तिय्यंचासंयतवेशसंयत. रुगळोळी तिर्यग्मनुष्यगतियुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानबंधं योग्यमल्लप्पुरिदं संभविसदु । मनुष्यगतियोळ मनुष्यमिथ्यादृष्टिगळ्गे बं २९ । बि । ति । च ।। ति । म । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । यिल्लि तेजोवायुकायिकंगळ पुट्टवप्पुरिवं द्वघशीतिसत्त्वं संभविसदु। बद्धनरकायुष्यमनुष्यायुसंयतं तीर्थबंधमं केवलिद्वयोपांतदोळ प्रारंभिसि नरकगतिगमनाभिमुखनप्पागळु वेदकसम्यक्त्वमं केडिसि मिथ्यादृष्टियागि मनुष्यगतियुतनव( अंजनादिषु बं २९ म । उ २९ । ९२ ) तिर्यग्गतो मिथ्यादृष्टेः बं २९ बि ति च पं ति म । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९०। ८८ । ८४ । ८२ । सासादनस्य बं २९ पंति १५ म। उ २१ । २४ । २६ । ३० । स ९० । नात्र पंचसप्ताष्टनवाग्रविशतिकोदयः मिश्रादित्रये नास्य बन्धः । उपरिम छण्णं च छिदी सासण सम्मे हवे इति नियमात् तिर्यग्मनुष्यगत्योः सासादने छेदात् । देवगत्यष्टाविंशतिकमेव बध्नातीत्यर्थः । मनुष्यगतो मिथ्यादृष्टी बं २९ वि ति च पंति म । उ २१ । २६ । २८।२९ । ३० । स ९२ । ९१ । ९०।८८।८४ । अत्र तेजावायनामनुत्पत्तेन द्वयशोतिकसत्त्वं । प्रारबद्धनरकायुः प्रारब्धतीर्थबंधासंयतस्य नरकगमनाभिमुखमिथ्याष्टित्वे मनुष्यगतियुतं तत्स्यान बनतः, त्रिंशत्कोदयेनैकनवतिकसत्त्वं । २० सत्ताईस, अठाईस, उनतीस और सत्त्व बानबे, नब्बेका है। वंशा मेघामें उदय उनतीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका है । अंजनादिमें उदय उनतीसका सत्त्व बानबे, नब्बेका है। तिर्यंचोंमें मिथ्यादृष्टिमें दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य सहित उनतीसका बन्ध होता है। वहाँ उदय इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तोस, इकतीस का है और सत्त्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासी, २५ बयासीका है । सासादनमें पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्य सहित उनतीसके बन्धमें उदय इक्कीस, चौबीस, छब्बीस, तीसका है सत्त्व नब्बेका है। यहाँ पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका उदय नहीं है। मिश्रादि तीन गुणस्थानों में उनतीसका बन्ध नहीं है क्योंकि तियंचोंमें तिथंचगति और मनुष्यगतिकी बन्ध व्युच्छित्ति सासादनमें ही हो जाती है। वहाँ देवगति सहित अठाईसका ही बन्ध होता है। __ मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टिमें दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच व मनुष्य सहित उनतीसका बन्ध होता है। वहाँ उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है. सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बे, अद्रासी, चौरासीका है। यहाँ तेजकाय, वायुकायकी उत्पत्ति मनुष्योंमें नहीं होती इससे बयासीका सत्त्व नहीं कहा। पूर्व में नरकायुका बन्ध करके तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ करनेवाला असंयत सम्यग्दृष्टी जब नरकमें जानेके अभिमुख . Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५ विशतिस्थानम कटुवागळातंगे त्रिशत्प्रकृतिउदयस्थान मुमेकनवतिसत्त्वस्थानमुं संभविसुगुर्मदरिपडुगुमेर्क दोडे मिथ्यादृष्टिगळु संक्लिष्टरुं विशुद्ध रुं मनुष्यगतियुमं कट्टुवरप्पुर्वारदं, मनुष्यसासादनंगे बंध २२ । पं । ति । म । उ२१ । २६ । ३० । स ९० ॥ मनुष्यमिश्रंगे नवविंशतिबंधस्थानबंधं संभविसदु । मनुष्यासंयतंगें बं २९ । दे । ति । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९३ । ९१ ॥ देशसंयतं बं २९ । दे । ति । उ ३० । स ९३ । ९१ ॥ प्रमत्तसंयतंर्ग बं २९ । दे । ती । उ २५ ॥ २७ ॥ २८ । २९ । ३० । स ९३ । ९१ ॥ अप्रमत्तसंयतंर्ग बं २९ । दे । ती । उ ३० । स ९३ । ९१ | अपूर्व्वकरणं बं २९ । दे। ती । उ ३० । स ९३ । ९१ । देवगतिय दिविज मिथ्यादृष्टिग भवनत्रयं मोदगडु सहस्रारकल्पपय्र्यंतं संज्ञिपंचेंद्रियपर्थ्याप्त तिर्य्यग्गतियुतमागियुं मनुष्यगतियुतमागि नवविशतिस्थान कटुवरवर्ग बं २९ | पं । ति । म । उ२१ ॥ २५ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ । स ९२ । ९० ॥ तत्रत्यसासादनहगळगे चं २९ । प । ति । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । १० २९ ॥ स ९० । तत्रत्यदिविज मिश्रंगे बं २९ । म । उ२९ । स ९२ । ९०० ॥ तत्रत्यदिविजासंयतंर्ग बं २९ । म । उ २१ । २५ | २७ । २८ । २९ ।। भवनत्रयजासंयतंर्ग बं २९ । म । उ२९ । उभयत्र सत्त्वस्थानंगळु ९२ । ९० । आनताद्युपरिमग्रैवेयकावसानमाददिविज मिथ्यादृष्टिगळगे वं २९ । म । सासादने बं२९ पंति म । उ२१ । २६ । ३० । स ९० । मिश्रे नास्य बन्धः । असंयते बं २९दे ती । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९३ । ९१ । देशसंयते बं २९ । दे ती । उ ३० । स ९३ । ९१ । १५ प्रमत्ते बं २९ दे । तो । उ २५ | २७ । २८ । २९ । ३० । स ९३ । ९१ । अप्रमत्तेत बं २९ देती । उ ३० ॥ स ९३ । ९१ । अपूर्वकरणे बं २९ । देती । उ ३० । स ९३ । ९१ । देवगतो भवनत्रयादिसहस्रारान्ते मिथ्यादृष्टौ संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यग्गत्या मनुष्यगत्या वा युतमेव बं २९ पति । म उ २१ । २५ ॥ २७ ॥ २८ । २९ । स ९२ । ९० । सासादने बं २९ । पं । ति । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । स ९० । मिश्रे बं २९ म । उ २९ । स ९२ । ९० । असंयते बं २९ म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । २० २५ मिथ्यादृष्टि होता है तब मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध करता है उसके तीसका उदय और इक्यानबेका सत्त्व होता है । सासादनमें पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्यगति सहित उनतीस के बन्ध में उदय इक्कीस, छब्बीस, तीसका और सत्व नब्बेका होता है । मिश्रमें उनतीसका बन्ध नहीं है । असंयत में देवगति तीर्थसहित उनतीसके बन्धमें उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व तेरानबे, इक्यानबेका होता है । देशसंयतमें देवगति तीर्थसहित उनतीस के बन्धमें उदय तीसका और सत्व तिरानबे, इक्यानबेका है । प्रमत्त में देवगति तीर्थसहित उनतीसके बन्धमें उदय पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीसका, सत्त्वतिरानबे, इक्यानबेका होता है । अप्रमत्तमें देवगति तीर्थसहित उनतीस के बन्ध में उदय तीसका सत्त्व तिरानबे, इक्यानबे का है। अपूर्वकरणमें भी उदय तीसका सत्त्व तिरानबे का है । १०६७ देवगतिमें भवनत्रिकसे सहस्रार पर्यन्त मिध्यादृष्टि में संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति या मनुष्यगति सहित उनतीसके बन्धमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्व बानबे, नब्बेका है । सासादनमें उसी प्रकार के बन्ध में उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्व नब्बेका है। मिश्र में मनुष्यगति सहित उनतीस के ३० Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६८ गो० कर्मकाण्डे उ २१ । २५ ॥ २७ ॥ २८ । २९ ।। सत्वस्थानंगळ ९२ । ९० ।। तत्रत्य सासादनगर्ग बं२९ । भ | उ २१ | २५ | २७ । २८ । २९ । स ९० ।। तत्रत्यमिश्ररुगळगे नं २९ । म । उ २९ । स ९२ । ९० ॥ तत्रत्यासंयतसम्यग्वृष्टिगन्नो बं २९ । म । उ २१ | २५ | २७ | २८ | २९ | स ९२ । ९० ॥ अनुविधानुत्तरत्रयोदशविमानजरुगळगे असंयतसम्यग्दृष्टिगळगे बं २९ । म । उ २१ । २५ ॥ २७ ॥ ५२८ । २९ । स ९२ । ९० । त्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानं त्रसपर्थ्यामोद्योत तिथ्यं गतियुतमं मनुष्यगतितोत्थंयुतमं देवगत्याहारकद्वययुतमप्पुर्वारखं नारकरुं तिय्यंचरुं मनुष्यरुं दिविजरं बंधस्वामिगळप्पर । अल्लि नारकरुगळोळ, रत्नशर्करा वाळकापंकघूमतमोमहातमः प्रभा भूमि संभूतमिथ्यादृष्टिगळगे बं ३० । पं । ति । उ । उ २१ । २५ | २७ । २८ । २९ । स ९२ । ९० ॥ तत्रत्यनार कसासादन रुगळगे बं ३० । पं । ति । उ । उ२९ । स ९० ।। तत्रत्यमिश्रनारकंर्ग तत्त्रिशत्प्रकृतिबंषस्थानं संभविसदातंगे मुंफेव्वनर्वाविंशतिस्थानमे मनुष्यगतियुतमे बंघमक्कं । धर्म्मय नारकासंयतंगें मनुष्यगति तीर्थयुतमागि बंधमप्पागळ बं ३० । म । ती । उ २१ । २५ | २७ | २८ | २९ | स ९१ । वंशेय मेघय १० १५ भवनत्रयासंयते बं २९ म । उ२९ । सत्त्वमुभयत्र । ९२ । ९० । आनताद्युपरिमयैवेयकान्ते मिथ्यादृष्टी बं २९ म । २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । ९२ । ९० । सासादने बं २९ म । उ २१ । २५ २७ । २८ । २९ । मिश्र बं २९ । स ९२ । ९० । असंयते बं २९ । म । उ २१ । २५ । ९० । अनुदिशानुत्तरासंयते बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । सपर्यासोद्योतयुततिर्यग्गतियुक्त मनुष्यगतितीर्थयुत देव गत्याहारकद्वययुतत्वाच्च स ९० । २७ । २८ । २९ । स ९२ । २९ । स ९२ । ९० । त्रिशत्कं तुर्गतिजा बनंति । तत्र सर्वनारकमिध्यादृष्टो बं ३० पंति उ । उ २१ । २५। २७ । २८ । २९ । ९२ । ९० । सासादने । बं ३० पंति । उ२९ । स ९० । मिश्र नास्य बन्धः । धर्मासंयते मनुष्यगतितीर्थयुतं । बं ३० म २० बन्धमें उदय उनतीसका सत्त्व बानवे, नब्बे का होता है। असंयतमें मनुष्यगति सहित उनतीसके बन्धमें भवनत्रिक में उदय उनतीसका ही है शेष में इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। सत्त्व सबमें बानबे और नब्बेका है। आनतादि उपरिम मैवेयक पर्यन्त मनुष्य सहित उनतीसके बन्ध में मिध्यादृष्टिमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस और सत्व बानबे नब्बेका है । सासादनमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, २५ उनतीसका और सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें उदय उनतीसका सत्व बानबे, नब्बेका है । असंयतमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका है । अनुदिश अनुत्तरमें असंयतमें मनुष्यगति सहित उनतीसके बन्धमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्व बानबे, नब्बेका है । तीसका बन्ध त्रसपर्याप्त उद्योत तियंचगति सहित या मनुष्यगति तीर्थसहित या ३० देवगति आहारकद्विक सहित होता है। इसे चारों गतिके जीव बाँधते हैं । उनमें से सब नारक मिध्यादृष्टि और सासादनमें पंचेन्द्रिय तियंच उद्योत सहित तीसका बन्ध होता है । मिध्यादृष्टिमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्व बानबे, नब्बेका है । सासादनमें उदय उनतीसका सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें तीसका बन्ध नहीं है । असंयत में मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसका बन्ध होता है। धर्मामें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०६९ नारका संयतसम्यग्दृष्टिगर्ग बं ३० । म । तो । उ२९ ॥ स ९१ | अंजनादिचतुः पृथ्विगळोळसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गनिबग्गं त्रिशत्प्रकृतिस्थान बंधक्कसंभव मक्कु मुंपेन्द नवविशतिमनुष्यगतियुतस्थानमे बंध मक्कु में बुदत्थं । तिर्य्यग्गतियोळु सर्व्वतिय्यंचरं त्रिगत्प्रकृतिस्थान कटुवागळ मिथ्यादृष्टिगळगे बंध ३० । ति । उ । उ । २१ । २४ | २५ | २६ । २७ । २८ । २९ । ३० ॥ म ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ तत्रत्यसा सावनंगे योग्यमनतिक्रमिसर्व बं ३० । ति । उ । उ २१ । २४। २६। ३०। ३१ । स९० । तिम्यंचमिश्रा संयतवेशसंयत रुगळगे त्रिशत्प्रकृतिस्थानबंध संभविसदु । तिय्यग्गतियुतमवरोळ संभविसतु । मनुष्यगतितोत्थंयुतमुमसंभवमप्युर्वारंवं मुंपेल्वष्टाविंशतिस्थानं देवगतियुतमदं कट्टुवरें बुदत्थं । मनुष्यगतियो मिथ्यादृष्टियोळु बं ३० । बि । ति । च । प । ति । उ । उ. २१ । २६|२८|२९|३०| स९२/९०/८८|८४ || सासादनंर्ग बं ३० । ति उ । उ २१ । २६ । ३० | स९० ॥ मिश्रनोळमसंयतनोळं वेशसंयतनोळं प्रमत्तसंयतनोळं त्रिशत्प्रकृतिस्थानं संभविसदु । १० अप्रमत्तसंयतंगमपूर्व्यकरणं बं ३० । वे आ २ । उ ३० । स ९२ ॥ देवगतियो भवनत्रयं मोवल्गोंड सहस्रार कल्पपर्यंतं मिथ्यादृष्टिगळ, खोत तिथ्यंग्गतियुतमानि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमं कटुवागळा जीवंगळगे बं ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । स ९२ । ९० ।। तत्रत्य सासादन ती । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । स ९१ | वंशा मेघयोः बं ३० । म ती । उ२९ । स ९१ | अंजनादिषु नास्ति । १५ तिर्यग्गतो सर्वमिध्यादृष्टी । बं ३० पंति उ । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । सासादने बं ३० ति उ । उ २१ । २४ । २६ । ३० । ३१ । स ९० । मिश्रादित्रये नास्य बन्धः । मनुष्यगती मिथ्यादृष्टो बं ३० वि तिच पंति । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । सासादने बं ३० वि उ । उ २१ । २६ । ३० । स ९० । मिश्रादिचतुष्के नास्य बन्धः । अप्रमत्तादिद्वये बं ३० । दे आ २ । उ ३० । स ९२ । देवगतौ भवनत्रयादि- २० S अठाईस, उनतीसका सत्त्व इक्यानबे का है। वंशा मेघामें उदय उनतीसका सत्व इक्यानबेका है। अंजना आदि में यह बन्ध नहीं होता । तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टिमें तियंच उद्योत संहित तीसका बन्ध होता है । वहाँ उ इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका है और सत्त्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासी, बयासीका है । सासादनमें पंचेन्द्रिय तियंच उद्योत २५ सहित तीसके बन्ध में उदय इक्कीस, चौबीस, छब्बीस, तीस, इकतीसका और सत्व नब्बेका है। मिश्रादि तीन गुणस्थानोंमें इसका बन्ध नहीं होता । मनुष्यगति में मिध्यादृष्टिमें दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, तिथंच उद्योत सहित तीसके बन्ध में उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासीका होता है। सासादन में तियंच उद्योत सहित तीसके बन्ध में उदय ३० इक्कीस, छब्बीस, तीसका और सत्व नब्बेका है। मिश्रादि चार गुणस्थानों में इसका बन्ध नहीं है । अप्रमत्त अपूर्वकरणमें देवगति आहारकद्विक सहित तीसके बन्धमें उदय तीसका सत्व बाबेका है। देवगति में भवनन्त्रिकसे सहस्रार पर्यन्त तियंच उद्योत सहित तीसके बन्धमें मिथ्या Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे बं ३० । ति । उ २१ । २५ । २९ । स ९० ॥ तत्रत्यमिश्रदिविजरुग त्रिशत्प्रकृतिस्थानबंधं संभविसदु । भवनत्रयासंयत सम्यग्दृष्टिगळोळं त्रिशत्प्रकृतिस्थानबंधं संभविसदु । मुंब नववंशतिस्थानमा मिश्रा संयतरो मनुष्यगतियुतमागि बंधनक्कुं । सौधर्मादिसहस्रा रकल्पपर्यंतमाद कल्पजासंयत रोळ, मनुष्यगतितीर्थंयुतमागि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानबंध मक्कुमल्लि । बं ३० । ५ म । तिउ | २१ | २५ | २७ । २८ । २९ । स ९३ । ९१ ॥ आनताद्युपरिमग्रैवेयकपध्यंतं मिथ्यादृष्टिगळं सासादन मिश्ररुं गतिस्वभावदिदं तिर्य्यग्गत्युद्योतयुतस्थानमं कट्टर पुर्दारदं तत्रत्य तद्दिविजरोळ, तद्बंधस्थानबंधं संभविसदु । तदानतादिसर्व्वार्थसिद्धिपर्यंत मादऽसंयत सम्यग्दृष्टिगळ, मनुष्यगतितीत्थंयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कट्टुवरंतु कटुवागळवळगे बं ३० । म ती । उ २१ | २५ | २७ ॥ २८ । २९ । स ९३ । ९१ ॥ एकत्रिशत्प्रकृतिस्थानं देवगत्याहारद्वयतीत्थंयुत१० बंघस्थानमप्पुरिदं अप्रमत्तापूर्वकरण दिव्यसंयमिगळगे बंधस्थानमप्पुर्दारदमा स्थान कटुवागळवरुगळगे बं ३१ । दे । आ २ । ती १ । उ ३० । स ९३ ॥ एकप्रकृतिबंधस्थानं निर्गतिस्थानमवुमपूर्वकरणंगे बंधमपागळ बं १ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। अनिवृत्तिकरणोपशमपरोळ बं १ । ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। ८० । ७९ । ७८ । ७७ ।। सूक्ष्मपरायंगे बं १ | उ ३० | स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ उपशांतकषायंगे बं ० | उ ३० । १०७० १५ सहस्रारांतेषूद्योत तिर्यग्गतियुतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ बं ३० ति उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९० । सासादने बं ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २९ । स ९० । मिश्र भवनत्रयासंयते च न विशत्कं । कि त ? तन्मनुष्यगतियुतं च नवविंशतिक्रमेव संभवति । सौधर्मादिसहस्रांरांतासंयते मनुष्यगतितीर्थंयुतं । बं ३० मती । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । ९३ । ९१ । आनताद्युपरिमग्रैवेयकांत मिध्यादृष्ट्यादित्रये नास्य बन्धः । आनतादिसर्वार्थसिद्धयंतासंयते तु मनुष्यगतितीर्थयुतं । बं ३० । म । ती । उ २१ । २५ । २०२७ २८ २९ । स ९३ । ९९ । एकत्रिंशत्कं देवगत्याहारद्वय तीर्थ युतत्वादप्रमत्ता पूर्वकरणा एव बध्नंति । बं ३१ । आ २ तो । उ ३० । स९३ । एककबन्धोवि गतिर पूर्वकरणे बं १ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । अनिवृत्तिकरणे बं १ । उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ । सूक्ष्मसत्पराये I दृष्टि में उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका सत्व तिरानबे, इक्यानबेका है । सासादन में उदय इक्कीस, पच्चीस, उनतीस, तीसका और सत्व नब्बेका है । मिश्रमें २५ भवनन्त्रिक में असंयत में तीसका बन्ध नहीं है। मनुष्यगतियुत् उनतीसका ही बन्ध है । सौधर्मसे सहस्रार पर्यन्त असंयत में मनुष्य तीर्थ सहित तीसके बन्धमें उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्त्व तिरानबे, इक्यानबेका है। आनतादि पर ग्रैवेयक पर्यन्त मिध्यादृष्टि आदि तीनमें तीसका बन्ध नहीं है । आनतादि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त असंयत में मनुष्य तीर्थ सहित तीसका बन्ध होता है, वहाँ उदय इक्कीस, ३० पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका और सत्व तिरानबे, इक्यानबे का है । इकतीसा बन्ध देवगति आहारकद्विक तीर्थंकर सहित होता है इससे उसको अप्रमत्त पूर्वकरण ही बाँधते हैं । वहाँ उदय तीसका सत्त्व तिरानबेका है । अपूर्वकरणमें एकके बन्ध में उदय तीस सत्व तिरानबे, बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है । अनिवृत्तिकरणमें एकके बन्धमें उदय तीसका, सत्त्व तिरानबे आदि चार तथा अस्सी आदि चारका है । सूक्ष्म Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०७१ स ९३ । ९२ । ९१ । ९०॥ क्षीणकषायंगे बं०। उ ३० । स ८०। ७९ ७८। ७७ ॥ सयोगकेवलिगे स्वस्थानदोळ बं। । उ ३० । ३१ । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ ॥ ससुद्धातसयोगकेवलिगळ्गे बं । उ २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ८०। ७९ । ७८ ॥ ७७ ॥ अयोगिकेवलिगळगे बं।। उ ३०।३१।९।८। स ८०। ७९ । ७८ । ७७।१०।९॥ रंबिसि ति जगत्रयजनंगळ नेत्रमनदे होन्नु हेमंजिन पुनमिंद्रपनु संजेयके पनपोल्तुरंतवं । भुंजिप मूढरंतिरलि तवगुणदर्शन दक्षनक्षि गळ्गंजनम जनाललितनत्यमेनल्अडरतु कारो॥ इंतु बंधैकाधिकरणवोळ उदयसत्वस्थानंगळ सयोगि सल्पटुवनंतरमुक्यकाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्थानसंख्येगळं पेळ्दपरु: वीसादिसु बंधंसा भदुछणवपणपणं च छस्सत्तं । छण्णव छड दुसु छदस अट्ठदसं छक्कछक्क णमतिदुसु ॥७४६॥ विंशत्याविसु बंधांशाः नभविषनवपंच पंच च षट्सप्त षण्नव षडष्ट द्वयोः षड्वशाष्टवशषट्क षट्कं नभस्त्रिद्वयोः॥ विशत्याधुदयाधिकरणदोळु बंधसत्त्वंगळ मेळळ्पडुगु-। मल्लि विशत्युदयस्थानाधिकरण. १५ वोळ यथाक्रमदिदं बंधस्थानमुं सत्त्वस्थानमुं नभमुं द्वितयमुमकुं। उ २० । । । स २। एकविंशत्युदयस्थानाधिकरणदोळ षड्बंधथानंगळ नवसत्त्वस्थानंगळ मप्पुवु । उ २१। बं ६। स९॥ चविशतिस्थानाधिकरणदोळु पंच पंचबंध सत्त्वस्थानानंगळप्पु । उ २४ । बं ५ । स ५॥ बं१। उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८०। ७९ । ७८ । ७७ । उपशान्तकषाये बं० उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९ । क्षीणकषाये बं • उ ३० । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ । सयोगे स्वस्थाने बं. २० उ ३० । ३१ । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ । समुद्घाते बं.उ २० २१। २६ । २७। २८। २९ । ३०। ३१ । स ८०। ७९ । ७८ । ७७ । अयोगे बं . उ ३० । ३१ । १८। स८०। ७९ । ७८। ७७ । १०।९॥७४५॥ अथ द्वितीयभेदमाह विंशतिकाद्युदयस्थानेषु बग्धसत्त्वस्थानानि क्रमेण विंशतिके नमः द्विकं, एकविंशतिके षण्णव, साम्परायमें एकके बन्धमें उदय तीसका, सत्व तिरानबे आदि चार तथा अस्सी आदि चार- २५ का है। अबन्धमें उपशान्त कषायमें उदय तीसका सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। क्षीणकषायमें उदय तीसका सत्त्व अस्सी आदि चारका है। सयोगीमें स्वस्थान केवलोके उदय तीस, इकतीसका सत्त्व अस्सी आदि चारका है। समुद्घातकेक्ली में उदय बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, इकतीसका और सत्व अस्सी आदि चारका है। अयोगीमें उदय तीस, इकतीस, नौ, आठका है। सत्त्व अस्सी आदि चार तथा दस, नौका ३० है ॥७४५|| आगे उदयको आधार और बन्ध सत्त्वको आधेय करके कथन करते हैं बीस आदि उदयस्थानोंमें बन्धस्थान और सरवस्थान क्रमसे बीसमें शून्य दो, इक्कीसमें छह नौ, चौबीसमें पाँच-पाँच, पच्चीसमें, छह सात, छब्बीसमें छह नौ, सत्ताईस क-१३५ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे पंचविंशत्युवयस्थानाधिकरणदोळ, षट्सप्त बंधसत्वस्थानंगळप्पुषु । उ २५ । बं ६ । स ७ ॥ षड्विंशत्युवयस्थानाधिकरणवोळ, षड्नवबंध सत्त्व स्थानंगळप्पुव उ २६ । बं ६ । स ९ ॥ सप्तविंशत्युवयस्थानाधिकरणवोळ मष्टाविंशत्युवयस्थानाधिकरणवोळं प्रत्येकं बंघसत्वस्थानंगळ षडष्टंगळम उ २७ । बं ६ । स ८ । मत्तं ९ २८ । ६ । स ८ ॥ नवविंशतिस्थानोदयाधिकरणवोळ षड् वश ५ स्थानं गळवु । २९ । ६ । स १० । त्रिंशत्प्रकृत्युदयस्थानाधिकरणदोळष्टवश बंधसत्वबंघसस्त्वस्थानंगळष्णुवु । उ ३० । ८ । स १० ॥ एकत्रिशत्प्रकृतिस्थानोवयाधिकरणवोळ षट्कषट्कबंधसत्वस्थानंगळप्पुवु । उ ३१ । बं ६ | स ६ ॥ नवोदयस्थानाधिकरणवोळमष्टप्रकृत्युदयस्थानाधिकरणदोळं प्रत्येकं नभत्रिबंधसत्वस्थानंगळप्पुवु । उ९ । बं । ० । स ३ ॥ मसं उ ८ । बं । ० । स ३ ॥ सर्व्वसमुच्चय संदृष्टि : १० १०७२ उ | २०|२१|२४|२५|२६|२७|२८|२९|३०|३१|९|८ बं ० |६|५|६|६| ६ | ६ | ६ |८|६|० ० सस्य | २ | ९/५/७/९/८|८|१०|१०| ६ | ३ | ३ विशत्याद्युदयस्थानंगोळु पेळल्पट्ट बंधसत्वस्थानसंख्यविषयभूतस्थानंगळावा उबे दोडे पेपर | वीसुदये बंधो हि उणसीदी सत्तसत्तरी सत्तं । suratसे तेवीसं पहुडी तीसंतया बंधा ॥ ७४७॥ विशत्युदये बंघो न होंकोनाशीति सप्तसप्ततिसत्यमेकविंशत्या त्रयोविंशतिप्रभृतित्रिंशदं१५ तानि बंधाः ॥ विशतिप्रकृतिस्थानोदयवोळुबंधमिल्ल । एकोनाशीतियुं सप्तसप्ततियुं सत्वंगळवु । उ २० । बं । ० । स ७९ । ७७ ॥ एकविंशतिस्थानोदयवोळ त्रयोविंशतिप्रभृति त्रिशदंतमाद बंधस्थानंगळप्पुवु । सत्वस्थानंगळं पेव्वपरु : चतुर्विंशतिके पंच पंच, पंचविशतिके षट् सप्त, षड्विंशतिके षड्नव सप्ताष्टाप्रविशतिकयोः षडष्टी । २० नवविंशतिके षड् दश, त्रिंशत्केऽष्टौ दश । एकत्रिंशत्के षट् षट् नवकाष्टकयोर्नभस्त्रीणि ॥ ७४६ ।। तानि कानीति चेदाह - विशति बन्धो नहि । सत्वं नवसप्ताग्रसप्ततिके द्वं । एकविंशतिके बन्धः त्रयोविंशतिका दोनि त्रिशत्कान्तानि षट् ॥७४७|| अठाईसमें छह आठ, उनतीसमें, छह दस, तीसमें आठ दस, इकतीस में छह-छह, नौ और २५ आठमें शून्य तीन जानना । अर्थात् इतनी इतनी प्रकृतियोंके उदयमें उक्त प्रकारसे नानाजीवों के बन्धस्थान और सत्त्वस्थान होते हैं ||७४६॥ वे कौनसे हैं यह कहते हैं बीस के उदयस्थान में बन्ध नहीं है । सत्व उन्यासी, सतहत्तर दो हैं । इक्कीसके उदय में बन्धस्थान तेईस आदि तीस पर्यन्त छह हैं ||७४७|| Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृति जीवतत्त्वप्रदोपिका सत्तं विणउदिपहुडी सीदंता अट्ठसत्तरी य हवे । चवीसे पढमतियं णववीसं तीसयं बंधो ॥७४८ ॥ सत्वं त्रिनवति प्रभृत्यशोति अंतान्यष्टसप्ततिश्च भवेत् । चतुव्विशत्यां प्रथमत्रयं नर्वावशतित्रिशच्च बंधः ॥ ५ त्रिनवति प्रभृत्यशीत्यंत मावष्टसप्ततियं सत्यमक्कुं । उ २१ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ ॥ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ । ८० । ७९ ।। चतुव्विशत्युदयस्थानवोळ बंधस्थानंगळु प्रथमत्रयमुं नववंशतित्रिंशत् स्थानमुमप्वु ॥ सत्वस्थानंगळं पेदपदः । - बाणउदी उदिचऊ सत्तं पणछस्सगट्ठणवबीस । बंधा आदिमछक्कं पढमिल्लं सत्तयं सत्तं ॥७४९ ॥ १०७३ द्वानवतिर्भवतिचतुःसत्वं पंचषट्सप्ताष्टनवविंशत्यां । बंधः आदिमषट्कं प्रथमतन सप्तकं १० सत्वं ॥ द्वानवतियं नवति चतुःस्थानंगळं सत्वमक्कु । उ २४ । बं २३ | २५ | २६ । २९ । ३९ । सत्व ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ पंचविशतिषड्वशति सप्तविंशति अष्टाविंशतिनवविंशत्युवयस्थानंगळोळ बंघस्थानं गळ त्रयोविंशत्याविषट्स्यानं गळ, प्रत्येकमप्पुवल्लि पंचविंशतिस्थानोदयदोळ, प्रथमतन सप्तस्थानंगळ. सत्वमकुं । उ २५ । मं २३ । २५ | २६ । २८ । २९ । ३० ।। स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । १५ ८४ । ८२ ।। षड्विंशत्या वयस्थानंगळोळ, सत्वंगळ पेव्वपर | ते व सगसदरिजुदा आदिमछस्सीदि अट्ठसदरीहिं । णवसत्तसत्तरीहिं सीदिचउक्केहि सहिदाणि ॥७५०॥ तानि नवसप्तसप्ततियुतानि आदिमषडशीत्यष्टसमत्या । सहितानि ॥ सत्त्वं त्रिनवतिकादीन्यशीतिकान्तान्यष्टसप्ततिकं च स्यात् । चतुर्विंशतिके बन्धः प्रथमत्रयं नवविंशतिकं त्रिशत्कं च ॥७४८ ॥ नवसप्तसप्तत्याशी तिचतुभिः सत्वं द्वानवतिकं नवतिकादिचतुष्कं च । पंचषट्सप्तष्टनवा प्रविशतिकेषु बन्धस्त्रयोविंशतिकादीनि षद्, सत्त्वं पंचविशति के आद्य सप्तकं ।। ७४९ । सत्त्व तिरानबेसे अस्सी पर्यन्त तथा अठहत्तरका होता है। चौबीसके उदय में बन्ध २५ प्रथम तीन, उनतीस, तीस ऐसे पाँच हैं ॥ ७४८।। सत्त्व बानबे और नब्बे आदि चारका है। पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसके उदयमें बन्ध तेईस आदि छहका है। और सत्व पच्चीस में आदिके सातका है ॥ ७४९ ॥ २० Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७४ गो० कर्मकाण्डे षड्विशत्युदयस्थानदोळ, सत्वस्थानंगळ तानि मुन्नं पंचविंशत्युष्यस्थानदोळ पेन्द त्रिनवत्यादिसप्तस्थानंगळ नवसप्तति सप्तसप्ततिस्थानद्वययुतंगळप्पुवु। उ २६ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३०॥ स ९३ । ९२ । ११ । २०। ८८।८४ । ८२ ॥ ७९ । ७७ ॥ सप्तविंशत्युदयस्थानदोळ सत्वस्थानंगळ मा प्रथमतन षट्स्थानंगळ मशोत्यष्टासप्ततिद्वयसहितंगळप्पुवु । उ २७ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० ॥ स ९३ । ९२ । ९१ । ९०1८८1८४।८०। ७८ ॥ अष्टविंशत्युदयस्थानवोळ सत्वस्थानंगळ मा प्रथमतन षट्स्थानंगळे नवसप्तति सप्तसप्ततियुतंगळ मप्पुवु । उ २८ । बं २३ । २५ । २६ ॥ २८ ॥ २९ । ३० । स ९३ । १२ । ९१ । ९० ॥ ८८ । ८४ ॥ ७९ ॥ ७७॥ नवविंशत्युदयस्थानदो प्रथमतन षट्स्थानंगळ मशीत्याविचतुःस्थानंगळे सत्वमक्कु । उ २९ । बं २३ । २५१ २६ । २८ । २९ । ३०॥स ९३ । ९२। ९१।९।८८। १० ८४।८०। ७९ । ७८॥ ७॥ तीसे अट्ठवि बंधो एउणतीसंव होदि सत्तं तु ।। इगितीसे तेवीसप्पहुडी तीसंतयं बंधो ॥७५१॥ त्रिंशत्स्वष्टावपि बंषः एकानशिवद्भवति सत्त्वं तु। एकत्रिंशत्सु योविंशतिप्रभूति त्रिंशदंतो बंधः॥ १५ त्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयघोळ अष्टबंधस्थानंगळप्पुवु। सस्वस्थानंगळेकानविंशत्प्रकृत्युदय___ स्थानदोळु पेळ्द त्रिनवत्यादि षद्स्वानंगळमशोत्याविषतुःस्थानंगळम पुषु । उ ३०१२३ । २५ । २६ ॥ २८॥ २९ ॥ ३०॥ ३१॥ स ९३। ९२।११। ९०।८८।८४।८।७९ । ७८।७७। एकत्रिंशत्प्रकृत्युदयस्थानदोळ बंधंगळुत्रयोविंशतिप्रभृतित्रिंशत्प्रकृत्यंतमात्र षड्बंधस्थानंगळप्पुवु। सत्त्वस्थानंगळं पेळ्वपरु : षड्विंशतिके तानि नवसप्ताग्रसप्ततिकयुतानि । सप्तविंशतिके आधानि षडशीतिकाष्टसप्ततिकयुक्तानि । अष्टाविंशतिके तान्येव षट् नवसप्ताग्रसप्ततिकयुतानि । नवविंशतिके तान्येव षडशीतिकादीनि चत्वारि च ॥७५०॥ त्रिशत्के बन्धस्थानान्यष्टौ। सत्त्वस्थानान्येकाप्नत्रिशलकोदयोक्तानि दश । एकत्रिशके बन्धः त्रयोविशतिकादीनि त्रिशत्कान्तानि षट् ॥७५१॥ छब्बीसके उदयमें सत्त्व आदिके सात और उन्यासी-सतहत्तर ये नौ हैं। सत्ताईसके उदयमें सत्त्व आदिके छह तथा अस्सी, अठहत्तर ये आठका है। अठाईसके उदयमें सत्त्व आदिके छहका तथा उन्यासी सतहत्तर ऐसे आठका है। उनतीसके उदयमें सत्त्व आदिके छह और अस्सी आदि चारका है ॥७५०॥ तीसके उदयमें बन्धस्थान आठ और सत्त्वस्थान उनतीसके उदयमें कहे गये दस हैं। ३० इकतीसके उदयमें बन्ध तेईससे तीस पर्यन्त छह हैं ।।७५१॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सत्तं दुणउदिणउदीतिय सीदडहत्तरी य णवगट्टे । बंधो ण सीदिपडिसु समविसमं सत्तमुद्दिटुं ॥७५२॥ सत्त्वं द्वानवतिनवतित्रयमशीत्यष्टसप्ततिश्च नवाष्टसु बंधो न अशीति प्रभृतिषु समविषमं सत्त्वमुद्दिष्टं ॥ द्वानवतियुं नवतित्रयमुमशीतियुमष्टसप्ततियं सत्त्वमक्कुं। उ ३१ । बं २३ । २५ । २६ । ५ २८ । २९ । ३० ॥ स ९२।९०। ८८ । ८४ । ८० । ७८ ॥ नवप्रकृत्युदयस्थानदोळमष्टप्रकृत्युदयस्थानदोळं बंधस्थानमिल्ल । सत्त्वस्थानंगळ क्रमदिदमशीत्यादिषट्सत्वस्थानंगळोळु समत्रिस्थानं. गळं विषमत्रिस्थानगळं सत्वमक्कुं। उ ९ । बं । स ८० । ७८ ॥ १० ॥ मत्तमुदय ८ । बं । । स ७९ । ७७ ॥९॥ यिल्लि विशतिप्रकृत्युदयस्थानं तीर्थरहितसमुद्घातकेवलियोळमक्कुमल्लि नामकर्मबंधमिल्ल । सत्वस्थानंगळु तीर्थरहितनवसप्ततिस्थानमुं सप्तसप्ततिस्थानमुमप्पुवु । उ २० । १० बं ० । स ७९ । ७७। एकविंशत्युदयस्थानमानुपूव्यरहिततीर्थसहितं प्रतरद्वयलोकपूरणसमुद्घातकेवलियोळं चतुर्गतिजरोळमप्पुतानुपूव्यंयुतोदयस्थानमप्पुरिदं विग्रहगतियोलुदयमक्कुमल्लि समुद्घातकेवलियोळु नामबंधमिल्ल । सत्वं तीर्थयुतंगळप्पशीतियुमष्टसप्ततियुमप्पुवु । उदय २१ । ती। बं । ०। स ८०। ७८॥ नारकरोछु रत्नप्रभादित्रितयदोळु नारकानुपूज्युतकविंशतिस्थानोदयमिथ्या दृष्टियोळ उ २१ । बं २९ । पं । ति । म ३० । ति । उ। स ९२ । ९१ । ९०॥ १५ सत्त्वं द्वानवतिकं नवतिकत्रयमशीतिकमष्टसप्ततिकं च । नवकेऽष्टके च बन्धो नहि सत्त्वं क्रमेणाशीतिकादिषटके समविषमाणि । विशतिकं वितीर्थसमुदवाते तत्र न नाम बन्धः । सत्त्वं नवसप्ताग्रसप्ततिके द्वे । एकविंशतिकं सतीर्थप्रतरद्वयलोकरणे तत्रापि न नाम बन्धः । सत्त्वं दशाष्टाग्रसप्ततिके द्वे, सानुपूव्यं चतुर्गतिविग्रहगती । तत्र नारकेषु धर्मादित्रये मिथ्यादृष्टी उ २१ ब २९ पं, ति, म, ३० ति, उ, स, ९२, ९१, ९० । न सासादनमिश्रयोः । असंयते धर्मायामेव २० wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww सत्त्व बानबे, नब्बे आदि तीन, अस्सी और अठहत्तर इस प्रकार छहका है। नौ और आठके उदय में बन्ध नहीं है । सत्त्व क्रमसे अस्सी आदि छहमें-से समरूप अर्थात् अस्सी और अठहत्तर नौमें और विषमरूप उन्यासी, सतहत्तर आठमें जानने ।।७५२।। आगे इनका विस्तारसे कथन करते हैं बोसका उदय तीर्थंकर रहित सामान्य केवलीके समुद्घातमें होता है वहाँ बन्धका २५ अभाव है। सत्त्व उन्यासी, सतहत्तरका है। इक्कीसका उदय तीर्थकर केवलीके प्रतरके विस्तार संकोचमें तथा लोकपूरणमें होता है। वहाँ भी बन्ध नहीं है। सत्त्व अस्सी और अठहत्तर दो हैं। _ आनुपूर्वी सहित इक्कीसका उदय चारों गतिके विग्रहगति कालमें होता है। उसमें नरकगतिमें धर्मादि तीनमें मिथ्यादृष्टि में इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य ३० सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। सासादन और मिश्रमें इक्कीसका उदय नहीं होता। असंयतमें धर्मामें ही इक्कीसका उदय है । वहाँ बन्ध मनुष्यगति सहित उनतीसका या तीर्थ सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७६ गो० कर्मकाण्ड आ मोदल मूरुं पृथ्विगळ सासादननोळं मिश्रनोळमेकविंशत्युदयमिल्ल। घर्मेय असंयतंगे उ २१ । बं २९ । म ३० । म तो। सत्व ९२ ॥ ९१ । ९० ॥ वंश मेघगळोळसंयतरुगळोळेकविंशतिस्थानोदयं संभविसदु। अंजनादिचतुःपृथ्विगळ मिथ्यादृष्टिगळोळ उ २१ । बं २९ । पं । ति । म ३०। ति । उ । स ९२ । ९०॥ तदंजनादि नाल्कुं पृथ्विगळ सासादनमिश्रासंयतरोळेकविंशत्यु५ दयमिल्ल । तिर्यग्गतिमिथ्यादृष्टिगणे विग्रहगतियोळष्टाविंशतिस्थानं पोरगागि पंचबंधस्थानंगळु मप्पुवु । सत्वस्थानंगळु द्वानवतिनवत्यादिचतुःस्थानंगळप्पुवु। उ २१ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । स ९२ । ९०।८८। ८४ । ८२॥ तिय्यंचसासावननोळु उ २१ । बं २९ । पं । ति । म ३० । ति । उ । स ९०॥ तिय्यंचमिश्रनोळेकविंशत्युदयं संभविसदु । तिय्यंचासंयतनोळ उ २१ । बं २८ । दे। स ९२।९० ॥ तिय्य॑चदेशसंयतनोळेकविंशत्युक्यं संभविसदु। मनुष्यगतिजमिथ्यावृष्टियोळु १० उ २१ । बं २३ । २५ ॥ २६ । २९ । ३०। स ९२।९०।८८ । ८४ ॥ मनुष्यसासादनंगे उ २१ । बं २९ । पंति ।म ३० । ति उ। स ९०। मनुष्यमिधंर्गकविंशत्युवयं संभविसदु। मनुष्यासंयतंगे उ २१ । बं २८ २९ । वे तो। स ९३ । ९२। ९१९० । मनुष्यवेशसंयताविगळोळेल्लियुएकउ २१, बं २९, म ३० ती, स ९२, ९१, ९० । अंजनादो मिथ्यादृष्टौ उ २१ बं २९ पं ति म ३० ति, उ, स, ९२, ९०। न सासादनादौ । १५ तिर्यग्गतो मिथ्यादृष्टो उ २१, बं २३, २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९०, ८८, ८४, ८२ । सासादने उ २१ बं २९, पं, ति म, ३० ति, उ, स ९० । न मिश्रदेशसंयतयोः । असंयते उ २१, बं २८ दे, स ९२, ९०। मनुष्ये मिथ्यादृष्टी उ २१, बं २३, २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९०, ८८, ८४ । सासादने उ २१। बं २९ पं ति म । ३० ति । स ९० । न मिश्रे । असंयते । २१ २८ दे । ती । स ९३, ९२, ९१ ( ९०) २. म देशसंयतादी। इक्यानबे, नब्बेका है। अंजनादिमें मिथ्यादृष्टिमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तियंचसहित या मनुष्यसहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका है । यहाँ सासादन आदिमें इक्कीसका उदय नहीं होता। तिर्यचगतिमें मिथ्यादृष्टि में इक्कीसके उदयमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, २५ तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बे, अदासी, चौरासी. बयासीका है। सासादनमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्यसहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका और सत्त्व नब्बेका है । मिश्र और देशसंयतमें इक्कीसका उदय नहीं है। असंयतमें है वहाँ बन्ध देवसहित अठाईसका और सत्त्व बानबे नब्बेका है। मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टि में इक्कीसके उदयमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, ३० तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है। सासादनमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्यसहित उनतीसका और तिथंच उद्योत सहित तीसका तथा सत्त्व नब्बेका है । मिश्रमें इक्कीसका, उदय नहीं। असंयतमें इक्कीसके उदयमें बन्ध देवसहित अठाईस, या देवतीर्थ सहित उनतीसका, सत्त्व तिरानबे, बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। देशसंयत आदिमें इक्कीसका उदय नहीं है। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १०७७ विंशत्युदयं संभविसदु । देवगतियो भवनत्रयकल्पजस्त्रीयगें मिथ्यादृष्टिगळोळ उ २१ । बं २५ । २६ । २९ ॥ ३० ॥ स ९२ । ९० ॥ तत्रत्यसासादनंगे उ २१ । बं २१ । पं ति । म ३० । ति । उ। स ९०। तत्रत्यमिश्रनोळेकविंशत्युदयं संभविसदु। तद्भवनत्रयदिविजरोळं कल्पजस्त्रीयरोळसंयतरोळेकविंशत्युदयमिल्ल । सौधर्मकल्पद्वयसुररोळु मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २१ । बं २५ । २६ । २९ । ३० । स ९२ । ९० तत्सासादनंगे उ २१ । बं २९ । पं ति । म ३० । ति उ । स ९० । तत्रत्य- ५ मिश्रनोळेकविंशत्युदयं संभविसदु । तत्सौधर्मद्वयाऽसंयतंग उ २१ । बं २९ । म ३०। म तो । स ९३ । ९२।९१ । ९० ॥ सानत्कुमारादिवशकल्पजरोळु मिथ्यादष्टिगळोलु उ २१। बं २९ । पंति । म ३०। ति उ। स ९२।९०॥ तत्रत्यसासादनंग उ २१ । बं २९ । पंति । म ३० । ति उ। स ९० । तत्रत्यमिश्ररोळेकविंशत्युदयं संभविसदु। तत्सानत्कुमारादि दशकल्पजासंयतंगे उ २१ । बं २९ । म ३० । म ती। सत्त्व ९३ । ९२। ९१ । ९०॥ आनताधुपरिमप्रैवेयकावसानमाद १० दिविजरोळु मिथ्यावृष्टिगळ्गे उ २१ । बं २९ । म। स ९२ । ९० ॥ आ सासादनंगे उ २१ । बं २९ । म। स ९० । तत्रत्यमिभंगे तदेकविंशत्युदयं संभविसदु । तदानताद्युपरिमप्रैवेयकावसानमाददिविजासंयतंगे उ २१ । बं २९ । म ३०। म तो। स ९३ । ९२ ।९१ । ९० ॥ अनुदिशानुतरचतुर्दशविमानवासिसम्यग्दृष्टिदिविजरोळ उ २१ । बं २९ । म ३० । म ती । स ९३ । ९२। ९१ । ९० ॥ ___ भवनत्रयकल्पस्त्रीषु मिथ्यादृष्टी उ २१, बं २५, २६ (२८) २९, ३०, स ९२, ९० । सासादने । १५ उ २१ । बं २९ । पं ति म । ३० ति उ। स ९० । न मिश्रासंयतयोः। सौधर्मद्वयमिथ्यादृष्टौ उ २१ । बं २५ । २६ (२८) २९, ३०, स ९२, ९० । सासादने उ २१ बं २९ पं ति म। ३० ति उ । स ९० । न मिश्रे । असंयते उ २१ । बं २९ । म । ३० म ती । स ९३, ९२, ९१,९०। उपरि दशकल्पेषु मिथ्यादृष्टी उ २१ । बं २९ पं ति, म, ३० ति, उ, स ९२, ९० । सासादने उ २१ । बं २९ पं ति म । ३० । ति, उ, स ९० । न मिश्रे । असंयते । उ २१ । बं २९ म। ३० म । ती, स ९३, ९२, ९१, ९० । उपरिमवेय. २० भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियोंके मिथ्यादृष्टि में इक्कीसके उदयमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका है। सासादनमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका और तिथंच उद्योत सहित तीसका तथा सत्त्व नब्बेका है । मिश्र और असंयतमें यहां इक्कीसका उदय नहीं है। सौधर्मयुगलमें मिथ्यादृष्टि में इक्कीसके उदयमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, २५ नब्बेका है । सासादनमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका और सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें इक्कीसका उदय नहीं है। असंयतमें इक्कीसके उदयमें बन्ध मनष्य सहित उनतीसका या मनष्य तीर्थ सहित तीसका तथा सत्त्व तिरानबे, बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। ऊपरके दस स्वर्गों में मिथ्यादृष्टिमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रिय तियच या मनुष्य सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत ३० सहित तीसका और सत्व बानबे, नब्बेका है । सासादनमें इक्कीसके उदयमें बन्ध पंचेन्द्रियतियंच या मनुष्य सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका और सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें इक्कीसका उदय नहीं है। असंयतमें इक्कीसके उदयमें बन्ध मनष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका सत्त्व तिरानबे, बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। ऊपर |वेयक Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७८ गो० कर्मकाण्डे इंतेकविंशत्युदयस्थानाधिकरणदोळु बंधसत्त्वस्थानंगल चतुर्गतिजरोळु योजिसल्पटुवनंतरं चतुविशत्युदयस्थानाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्थानंगल योजिसल्पडगुमे ते दोडे-चतुविशत्युदयस्थानमेकेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तरोनं निर्वृत्यपर्याप्तरोळमल्लदेल्लियमुदयिसुवुदिल्लल्लि लब्ध्यपर्याप्तकेंद्रियजीवंगळोळुमुदयिसुगुमा मिथ्यादृष्टिगोळु उ २४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० ५ स ९२ । ९०। ८८ । ८४ । ८२॥ निवृत्यपर्याप्तकेंद्रियमिथ्यादृष्टिगळोळु उ २४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३०॥ स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ इल्लि तेजोवायकायिकजीवंगळ्ग मनुष्य. गतियुतबंधस्थानभेदंगल वज्जिसल्पडुवुवु। सर्वसूक्ष्मापर्याप्ततेजोवायसाधारणंगळोडनातपोद्योतयुतबंधभेदं त्यजिसल्पडुगुं । यितु चतुविशत्युदयस्थानदोळु बंधसत्त्वंगळु योजिसल्पटुवनंतरं पंचविंशत्युदयस्थानाधि१० करणदोळु बंधसत्त्वस्थानंगळु योजिसल्पडुगुमा पंचविंशति उदयं चतुर्गतिजरोळुदयिसुगुमल्लि नारकमिथ्यादृष्टियोळ निव्वंत्यपर्याप्तकालदोळु उ २५ । बं २९ । पंति । म ३० । ति उ । स ९२ । ९१ । ९० ॥ नारकसासादननोळा पंचविंशतिस्थानोदयं संभविसदेके दोडे "णिरयं सासणसम्मो ण गच्छदि" एंबो नियममुंटप्पुरिदं मिश्रगुणस्थानदोळमा पंचविंशतिस्थानोदयं संभविसदेके दोर्ड कान्तेषु मिथ्यादृष्टी उ २१, बं २९, म, स ९२ ९० । सासादने उ २१ । बं २९ म, स ९०, न मिश्रे । १५ असंयते-उ २१, बं २९ म, ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९० । उपरि चतुर्दश विभागेषु सम्यग्दृष्टौ-उ २१, बं २९, म ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९० । चतुर्विंशतिकमपर्याप्तकेन्द्रियमिथ्यादृष्टावेव तत्र लब्ध्यपर्याप्ते उ २४, बं २३, २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९०, ८८, ८४, ८२ । ,निवृत्त्यपर्याप्ते उ २४, बं २३ २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९०,८८,८४, ८२ । अत्र तेजोवायूनां मनुष्यगतियुतबन्धस्थानभेदाः सर्वसूक्ष्मापर्याप्ततेजोवायुसाधारणः सहातपोद्योतयुतबन्धभेदाश्च त्याज्याः। पंचविशतिकं चतुर्गत्यपर्याप्तेषु पर्याप्तकेन्द्रियेषु च । तत्र नारके मिथ्यादृष्टी-3, २५, बं २९ पं, ति, म, ३० ति, उ, स ९२, ९१, ९० न सासादनेऽत्र मृतस्य नरकेऽनुत्पत्तेः। नापि मिश्रे, अत्रामरणात् । २० पर्यन्त मिथ्यादष्टि में इक्कीसके उदयमें बन्ध मनष्य सहित उनतीसका सत्त्व बानबे, नब्बेका है। सासादनमें इक्कीसके उदयमें बन्ध मनष्य सहित उनतीसका, सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें इक्कीसका उदय नहीं। असंयतमें बन्ध मनष्य सहित उनतीसका या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका और सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। ऊपरके चौदह विमानोंमें सम्यग्दृष्टीमें इक्कीसके उदयमें बन्ध और सत्त्व इसी प्रकार दो और चारका है। __चौबीसका उदय अपर्याप्त एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके ही है। वहाँ लब्ध्यपर्याप्तकमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासी, ३० बयासीका है। निवृत्यपर्याप्त में भी ऐसा ही है। विशेष इतना है कि तेजकाय बातकाय जीवोंके मनुष्यसहित बन्धस्थानोंके भेद और सब सूक्ष्म अपर्याप्त तेजकाय वायुकाय साधारण सहित आतप उद्योत सहित बन्धभेद छोड़ देना । पच्चीसका उदय चारों गतिके जीवोंके अपर्याप्तकालमें और पर्याप्त एकेन्द्रियमें होता है । सो पच्चीसके उदयमें सब नारकी मिथ्यादृष्टियों में बन्ध पंचेन्द्रिय तिथंच या मनुष्य . Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आ मिश्र मिश्रपरिणामदो मरणमिल्लप्पुदरिदमा निर्वृत्यपर्य्याप्तकालोदयस्थानोदयकसंभवभदरिदं नारकासंयतसम्यग्दृष्टिगको घर्मय नारकासंयतंगे उ२५ । बं २९ | म ३० । म । ति । स ९१ । ९२ । ९० । वंशे मेघेगळोळसंयतंगे पंचविंशतिस्थानोदयं संभविसदेके दोडे शरीरपर्याप्तियिदं मेलल्लदे सम्यक्त्वग्रहणमिल्लप्पुवरिंदं । अंजने मोदलाव नाल्कुं पृथ्विगळोळसंयतंगे पंचविंशतिस्थानोदय मुमिल्ल । तिर्य्यग्गतियोळे केंद्रियपटर्थ्यामरोळ परधातोदययुतपंचविंशतिस्थानोदोउ २५ । एप । बं | २३ | २५ | २६ । २९ । ३० । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ मत्तमा तिथ्यंग्गतिजलब्ध्यपर्याप्त निर्व्वत्य पर्याप्तत्र सजीवं गळोळु पंचविंशत्युदय संभविसदे ते दोडंगोपांगसंहननद्वययुतमागि षड्विंशत्युदयं संभविसुगुमल्लदे पंचविंशत्युदयस्थानं संभविसवप्पुदरिदं ॥ मनुष्यगतियोळमाहारकऋद्वियुतप्रमत्तसंयतंग हार कशरोरदोळु संहननरहितांगोपांगयुत निवृत्यपर्य्यामकालदोळा हार कशरीरदोल उ २५ । बं २८ । दे । २९ । देति । स ९३ । ९२ ।। देवगतियो १० भवनत्रयकल्पजस्त्रीयरुगळगे निव्र्व्वत्यपर्य्याप्तकालदोळ उ२५ । नं २५ । २६ । २९ । ३० । सत्व ९२ । ९० ॥ भ सासादनंगे उ २५ । बं २९ । पंति । म ३० । ति उ स ७० ॥ तन्निरुगगे पंचविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । तत्रत्यासंयतंगं तदुवयस्थानं संभविसदे ते दोडा भवनत्रयकल्पजस्त्रीरोळ सम्यग्दृष्टिगपुट्टप्पुवरिंदं । सौधर्मद्रयनित्य पर्याप्तमिथ्यादृष्टिग स९२ । ९० ॥ आसासावनरुगळगे उ २५ । बं । २९ । पंति । म ३० उ २५ । बं २५ । १०७९ २६ । २९ । ३० । ति उ । । ति उ । स । ९० । तत्रत्य असंयते धर्मायां उ २५, बं २९ म, ३० मती, स९२, ९१, ९०, न वंश मेषयोः शरीरपर्याप्त रुपर्येतत्सम्यक्त्वोत्पत्तेः, नांजनादी । एकेन्द्रियेषु परघातयुतं उ २५, एप, बं २३, २५, २६, २९, ३०, स९२, ९०, ८८, ८४, ८२, न त्रसेषु तत्रांगोपांगसंहननयुतषविशतिकोदयसंभवात् प्रमत्तस्याहारकशरीरे संहननोनांगोपांगयुतं उ २५, बं २८ दे, २९ देती । स ९३, ९२ । २० भवनत्रय कल्पजस्त्रीषु मिथ्यादृष्टी उ २५, बं २५, २६, २९, ३०, स९२, ९० । सासादने उ २५, बं १५ सहित उनतीस या तियंच उद्योत सहित तीसका और सत्व बानबे आदि तीनका है । सासादन में नहीं है क्योंकि सासादन में मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होता और मिश्रमें मरण नहीं होता । असंयत में घर्मामें बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका या मनुष्य तीर्थसहित तीसका सत्त्व बानबे आदि तीनका है। वंशा मेघा आदि नरकोंमें अपर्याप्त अवस्थामें असंयत गुण- २५ स्थान नहीं होता क्योंकि शरीर पर्याप्ति होनेपर ही वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। एकेन्द्रियमें परघात सहित पच्चीसका उदय होता है । वहाँ बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्व बानवे, नब्बे, अठासी, चौरासी, बयासीका है। त्रसमें पच्चीसका उदय नहीं है क्योंकि उनमें अंगोपांग सहित छब्बीसका ही उदय होता है । प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मनुष्य के आहारक शरीरमें संहनन और अंगोपांग सहित पच्चीसका उदय होता है । वहाँ बन्ध देवसहित अठाईसका या देव तीर्थसहित उनतीसका और सत्व तिरानबे, बानबेका है । भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियों में मिध्यादृष्टि में पच्चीसके उदयमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्व बानबे, नब्बेका है। सासादनमें पच्चीस के उदय में बन्ध ३० क- १३६ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८० गो० कर्मकाण्डे मिश्ररोळ तत्पंचविंशत्युवयं संभविसदु । तत्साधम्र्म्मद्वया संयतंगे शरीरमिश्रकालवोळ उ २५ । बं । २९ । म ३० । म ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ सानत्कुमारावि वशकल्पजमिध्यादृष्टिगळ् उ २५ । बं । २९ । ति । म । ३० । ति उ । स ९२ । ९० ॥ तद्दिविजसासाबनंगे उ २५ । बं २९ । पंति । म । ३० । ति उ । स ९० । तद्दिविजमिधरोळी पंचविंशत्युवयं संभविसतु । ५ तत्र त्यासंयत सम्यग्दृष्टिर्ग उ २५ । बं २९ । म । ३० । म ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ बानताद्युपरिमप्रैवेयक पथ्यं तमाद मिथ्यादृष्टिगळ उ २५ । बं २९ । म । स ९२ । ९० ।। तत्र भव सासादनंगे उ २५ । बं २९ । म । स ९० ॥ तन्मिश्रनोळु तदुदयस्थानं संभविसदु । तत्सुरा संयतंर्ग शरीरमिश्रकालदोळु उ २५ । बं २९ । म ३० । म ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ अनुविधानुत्तरविमानंगळोळु शरीरमिश्रकालदोळु सम्यग्दृष्टिगळेयप्पुवरवं उ २५ । षं । २९ । म । ३० | म १० ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । यितु पंचविंशत्युदयस्थानदोळ बंघसस्वस्थानंगळे योजिसल्पट् टुवनंतरं ष‌ट्विंशत्यु वयस्थानवो बंघसरवंगळु यो जिस पडुगुमदे ते बोर्ड - षड्वशत्युवयस्थानं तिर्य्यग्गतियोळं मनुष्यगतियोळमुदयितुं । नरकवेवगतिज रोऴुद यिसदेर्क दोर्ड संहनन यु तत्र सलब्ध्य पर्याप्त निव्वं स्यपर्याप्तजीवंगळोळमेर्क ब्रियंगळ शरीरपर्य्याप्तकालदोळात पोद्योतयुतमा गुढयिसुगुमप्पुवरि नल्लि तिग्ग १५ २९ पंति म ३० ति उ स ९० । न मिथे नाप्यसंयते सम्यग्दृष्टेस्तत्रानुत्पत्तेः, सौधर्मद्वये मिथ्यादृष्टी उ २५, बं २५, २६, २९, ३० ति उस ९२, ९० । सासादने उ २५, बं २९ पंति म ३०, ति उ स ९० । न मिश्र, असंयते उ २५, बं २९ म, ३० मती । स९, ३, ९२, ९१, ९० । उपरिमदशकल्पेषु मिथ्यादृष्टौ उ २५, बं २९ पंति म, ३० ति उ । सासादने उ२५, बं२९ पंति म, ३० ति उ स ९० । न मिश्र । असंयते उ २५ । बं २९ म, ३० मती । स९३, ९२, ९१, ९०, उपरिमग्रैवेयकांतेषु मिथ्यादृष्टौ उ २५ बं २९ म २० स९२, ९०, सासादने उ २५, बं २९ म स ९० । न तन्मिश्रे । असंयते उ २५ बं २९ म । ३० मती । स९३, ९२, ९१, ९० । पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तियंच उद्योत सहित तीसका और सत्व नब्बेका है। मिश्र और असंयतमें वहाँ पश्चीसका उदय नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरकर उनमें जन्म नहीं लेता । सौधर्मयुगल में पश्चीसके उदय में मिध्यादृष्टि में बन्ध पचीस, २५ छब्बीस, उनतीस, तीसका सत्व बानबे, नब्बेका है। सासादनमें बन्ध पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका तथा तिर्यंच उद्योत सहित तीसका और सत्त्व नब्बेका है । मिश्रमें नहीं है । असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थसहित तीसका और सत्वतिरानबे आदि चारका है । ऊपरके दस कल्पों में मिध्यादृष्टिमें बन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य सहित उनतीस का० अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सासादन में भी इसी ३० प्रकार है। सत्व नब्बेका है। मिश्रमें नहीं है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या मनष्यतीर्थ सहित तीसका, सत्व तिरानबे आदि चारका है। उपरिम मैवेयक पर्यन्त मिथ्यादृष्टिमें बन्ध मनुष्यगति सहित उनतीसका और सत्व वानबे, नब्बेका है । सासादनमें भी ऐसा ही है। मिश्र में नहीं है । असंयत में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका सत्व तिरानबे आदि चारका है । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०८१ तिय त्रसलब्ध्यपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तरोळमुदयिसुवागळुमिथ्यादृष्टिगळोळु त्रयोदश्यादि षडबंधस्थानंगळोळष्टाविंशतिस्थानं पोरगागि शेषपंचस्थानंगळ्णे बंधसंभवमक्कुमागळु द्वानवतिनवत्यादिचतुःस्थानंगळ सत्वं संभविसुगुं। तियेग्मिथ्या उ २६ । बंध २३ । २५ । २६ । २९ । । ३० । सत्व ९२।९०। ८८। ८४ । ८२ ॥ एकेंद्रिय मिध्यादृष्टिय शरीरपाप्तियोळातपोधोतयुतमुं मेणुच्छ्वासनिश्वासयुतोदयषड्विंशतिस्थानवोळु उ २६ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३०। ५ सत्त्व ९२।९०। ८८।८४ । ८२॥ ई एकेंद्रियंगळ षड्विंशत्युदयस्थानं सासावननोळ संभविसदे. के दोडे तदुदयकालदिदं मुन्न मेतद्गुणस्थान पोपुदप्पुवरिदं । चतुविशतिस्थानोवयवोळे सासावन गुणं संभविसुगु में बुद्ध तात्पर्य ॥ तिय्यंचसासादनसम्यग्दृष्टियोलु षड्विंशतिस्थानोदयवोळ नवविशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानद्वय बंधमुं नवति सत्वस्थानमक्कुं। तिय्यंच सासादन उ २६ । बं २९ । म ति । ३० । ति उ । स ९०॥ ई सासादनंगष्टाविंशतिस्थानबंधमिल्लेके दोडे औदारिकनिर्वृत्य- १० पर्याप्तकालदोळु "मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि" ये वितु तबंधनिषेषमुंटप्पुवरिंदं मिश्रगुणस्थानदो षड्विंशत्युदयस्थानं संभविसदु। असंयतसम्यग्दृष्टितिय॑चरोळ षड्वि. शतिस्थानोदयवोळ अष्टाविंशतिस्थानमो दे बंधमक्कुं । सत्वं द्वानवति नवतिस्थानद्वयमे संभविसुगु। तिर्य. असंय. । उ २६ । बंध। २८ । दे। सत्त्व ९२ १९०॥ देशसंयततिर चरोळ षड्विंशतिस्थानोदयं संभविसदु । मनुष्यगतिजमिथ्यादृष्टियोळ उ २६ । बं २३ । २५ ॥ २६ ॥ २९ । ३० । स १५ ९२ । ९०। ८८॥ ८४ ॥ मनुष्यसासावनंग उ २६ । बं २९ । ति म । ३० ति उ । स ९० । मिश्रंगे षड्विंशतिकं त्रसलब्धिनिर्वृत्त्यपर्याप्ते संहननयुतं । तत्र मिथ्यादृष्टी बन्धस्थानानि प्रयोविंशतिकादोनि त्रिंशत्कांतान्यष्टाविंशतिकं विना पंच। सत्त्वस्थानानि द्वानवतिकं नवतिकादिचतुष्कं च । एकेन्द्रिये मिथ्यादृष्टी शरीरपर्याप्तावातपोद्योतयतमच्छवासनिश्वासयतं च । उ २६. बं २३. २५. २६. २९. ३० । स ९२,९०, ८८. ८४, ८२ । न सासादने तदुदयात्प्रागेव सासादनत्यजनादत्र चतुर्विशतिकमुदेतोत्यर्थः । तिर्यक्सासादने २० बन्धो नवविंशतिकत्रिशत्के । सवं नवति । मिच्छद्गे देवचऊ णेति नाष्टाविंशतिकबंधः । न मिश्रे। असंयते बन्धोऽष्टाविंशतिकं । सत्त्वं दानवतिकनवतिके द्वे । न देशसंयते । मनुष्येषु मिथ्यादृष्टौ उ २६, र्ब २३, २५, छब्बीसका उदय त्रस लब्ध्यपर्याप्तक निर्वृत्यपर्याप्तकके संहनन सहित होता है। वहाँ मिथ्यादृष्टि में बन्धस्थान अठाईसके बिना तेईससे तीस पर्यन्त पाँच हैं। सत्त्वस्थान बानबे और नब्बे आदि चार हैं। एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि में शरीर पर्याप्तिमें आतष या उद्योत २५ उच्छ्वास सहित छब्बीसका उदय है । वहाँ बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका। है और सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासी, बयासीका है। सासादनमें नहीं है क्योंकि छब्बीसका उदय होनेसे पहले ही सासादन छूट जाता है वहाँ चौबीसका उदय होता है। तियंच पंचेन्द्रियके सासादनमें छब्बीसके उदयमें बन्ध उनतीस, तीसका और सत्त्व नब्बेका है । 'मिच्छदुगे देवचउ ण हि' इस वचनसे यहाँ अठाईसका बन्ध नहीं है। मिश्रमें छब्बीस- ३० का उ उदय नहीं। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका सत्त्व बानबे, नब्बेका है। देशसंयतमें छब्बीसका उदय नहीं । मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है। सासादनमें बन्ध तिर्यच या मनुष्य Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८२ गो० कर्मकाण्डे षड्विंशतिस्थानोदयं संभविसदु । असंयतसम्यग्दृष्टिगे उ २६ । बं २८ । दे २९ । दे । स ९३ । ।९२ । ९१ १९० ॥ देशसंयताविगळोळ षड्विंशत्युदयस्थानं संभविसदु। तीर्थरहितकवाटसमुद्घातकेवलियोळोवारिकमिश्रकाययोगमुंटप्पुरिदमल्लि उ २६ । बं । । स। ७९ । ७७॥ षड्विंशतिस्थानोदयकाधिकरणं पेळल्पटुदु ॥ __ अनंतरं सप्तविंशतिस्थानोदयैकाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्थानंगळ योजिसल्पडुगुमदेत दोर्डसप्तविंशतिस्थानोदयं चतुर्गतिजरोळक्कुमल्लि रत्नप्रभादियाद मूलं पृथ्विगळोळ शरीरपर्याप्तिकालदोळु नारकरोळवयिसुगुमल्लि मिथ्याष्टिगळ्गे उ। २७ । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ । स ९२ । ९० ॥ तीर्थयुतसत्त्वस्थानमिल्लि संभविसदेके दोर्ड शरीरपर्याप्तियिंदं मेले तीर्थ सत्कर्मरुगळप्प मिथ्यादृष्टिगळ्गे सम्यक्त्वमाकुमप्पुरिदं । सासादनंगे सप्तविंशत्युदयं संभविसदु । १० मिभंग संभविसदु । आ असंयतंगे घमें योळ उ २७ । बं २९ । म ३० । म । तीर्थ । १२ । ९१।९०॥ वंशे मेघेगळ तीर्थसत्कम्ममिथ्यादृष्टिगळ्गे शरीरपाप्तिकालदोळ सम्यक्त्वमक्कु मप्पुरिदमा असंयतरुगळ्गे उ २७ । बं । ३० । म । तीर्थ । सत्त्व । ९१ । पंकप्रभादि मूरं पृथ्विगळोळ मिथ्यादृष्टिगळगे उ २७ । बं २९ । ति ।म । ३० । ति उ। स ९२।९० ॥ माघवियोळ, मिच्यादृष्टिगळगे उ २७ । बं। २९ । ति। ३० । ति उ॥ ई पंकप्रभादि नाल्कुं पृथ्विगळ १५ सासादनमिधासंयतरुगळोळ सप्तविंशतिस्थानोवयं संभविसदु । तिर्यग्गतिजरोळ एकेंद्रियंगळगे २६, २९, ३०, स ९२ ९०,८८, ८४ । सासादने उ २६ । बं २९ ति, म, ३०, ति उ| स ९० न मिश्रे । असंयते उ २६, बं २८ दे। २९ दे तो, स ९३, ९२, ९१, ९०, न देशसंयतादौ । वितीर्थकवाटे उ २६, ब., स ७९, ७७। सप्तविंशतिकं चतुर्गतिशरीरपर्याप्त्ये केन्द्रियोच्छ्वासपर्याप्तिकाले । तत्र धर्मादित्रये मिथ्यादृष्टो उ २७, २० ६ २९ ति म, ३० ति उ, स ९२, ९०, तीर्थयुतसत्त्वस्थानमत्र न सम्भवति शरीरपर्याप्तरुपरितत्सत्त्वमिथ्यादृष्टेः सम्यक्त्वोत्पत्तेः । न सासादनमित्रयोः। असंयते धर्मायां-उ २७, बं २९ म, ३० मती, स ९२, ९१ ९० । सहित उनतीसका अथवा तियंच उद्योत सहित तीसका और सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें छब्बीसका उदय नहीं है। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका या देवतीर्थ सहित उनतीस का है सस्व तिरानबे आदि चारका है । देशसंयत आदिमें छब्बीसका उदय नहीं है। तीर्थकर २५ रहित सामान्य केवलीके कपाट समुद्घातमें छब्बीसका उदय होता है। वहाँ बन्ध नहीं है। सत्त्व उन्यासी और सतहत्तरका है। सत्ताईसका उदय चारों गतिमें शरीर पर्याप्तिकालमें और एकेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्ति कालमें होता है । सत्ताईसके उदयमें धर्मा आदि तीन नरकोंमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, ३० नम्बेका है। यहाँ तीर्थकर सहित सत्त्वस्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि शरीर पर्याप्तिके ऊपर तीर्थसत्त्व सहित नारकी मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है। सासादन और मिश्रमें सत्ताईसका उदय नहीं होता। असंयतमें धर्मामें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या तीर्थ मनुष्य सहित तीसका है। सस्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। बंशा मेघामें बन्ध मनुष्य Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उच्छ्वासनिश्वासयुतातपनाम मेणुयोतोदययुत जोवंगळोळे सप्तविंशतिस्थानमुदययिसुगुमल्लि उ २७ । बं २३ ।। २५ । २६ । २९ । ३० ॥ स ९२। ९०। ८८। ८४ ॥ इल्लि द्वचशीति सत्त्वस्थानं संभविसदेके बोडे एकेंद्रियजीवंगळुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तिकालदिदं मुन्नमें शरीरमिश्रकालदोळे संभविसुगु मल्लदीयवसोळु मनुष्यद्विकमुं तेजोवायुकायिकंगळल्लदुळि वेकेंद्रियप्राणिगळ कटुवरप्पुरिदं तत्सत्त्वस्थानं संभविसदप्पुरिदं ।। मनुष्यगतिजरोळ आहारकऋद्धियुतप्रमत्तसंयतरुगळाहारक शरीरपर्याप्तिकालदोळु सप्तविंशतिस्थानोवयमक्कुं । उ २७ । बं २८ । दे । २९ । दे तीत्थं । स ९३ । ९२॥ तीर्थयुतकवाटसमुद्घातकेवलियो उ २७ । बं । ० । स ८० । ७८ ॥ देवगतिजरोळु भवनत्रयकल्पजस्वीयरुगळ्गे शरीरपर्याप्तिकालवो मिथ्या। उ २७ । बं २५ । २६ । २९ । ति म ३० । ति । उ । स ९२। ९०। तत्रत्यसासावनमिश्रासंयतरुगळोळी सप्तविंशतिस्थानोदयमिल्ल । सौधम्मकल्पद्वयजरुगळ्गे १० शरीरपर्याप्तिकालवोळ मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २७ व २५ । २६ । २९ । ति । म । ३० । ति । उ । स ९२।९०। तत्रत्यसासादन मिश्ररुगळ्गे सप्तविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । तत्रत्यासंयतरुगळ्गे शरीरवंशामेघयोः उ २७, बं ३० म ती, स ९१, अंजनादित्रये मिथ्यादृष्टौ उ २७, बं २९ ति म, ३० ति उ, स ९२, ९०, माघव्यां उ २७, ब २९ ति, ३० ति उ, स ९२, ९०, न सासादनादौ । एकेन्द्रियेषूच्छवासनिश्वासयुतातपोद्योतान्यतरयुतं । उ २७, बं. २३, २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९०, ८८, ८४, द्वयशीतिकं तु विकल्प्यं १५ तेजोवायुभ्यः शेषैकेन्द्रियेषूच्छ्वासपर्यासिकाले मनुष्यद्विकस्य बन्धात् । आहारकों उ २७, बं २८ दे, २९ दे तो. स ९३, ९२, सतीर्थकवाटे उ २७, बं, स ८०, ७८, भवनत्रयकल्पजस्त्रीषु मिथ्यादृष्टो उ २७, बं २५, २६, २९ ति,म, ३० ति उ, स ९२, ९०, न सासादनादौ । सौधर्मद्वये मिथ्यादृष्टी त २७ बं २५, २६, २९, ति तीर्थसहित तीसका और सत्त्व इक्यानबेका है। अंजनादि तीनमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तिर्यच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका २० है। माधवीमें बन्ध तिर्यंच सहित उनतीसका या तियंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका है । सासादन आदिमें सत्ताईसका उदय नहीं है। ___एकेन्द्रियों में उच्छवास निःश्वास और आतप उद्योतमें-से एक सहित सत्ताईसका उदय होता है। वहां बन्ध तेईस, पञ्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका है सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है। बयासीका सत्त्व हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता; क्योंकि तेजकाय, २५ वायुकायको छोड़ शेष एकेन्द्रियोंमें उच्छवास पर्याप्तिकालमें मनुष्य द्विकका बन्ध होता है। आहारक शरीरवाले के सत्ताईसका उदय होता है। वहाँ बन्ध देवगतिके साथ अठाईसका या देवतीर्थ सहित उनतीसका है। सत्त्व तिरानबे, बानबेका है। तीर्थकर सहित कपाट समुद्घातमें सत्ताईसका उदय होता है । वहाँ बन्ध नहीं है । सत्त्व अस्सी, अठहत्तरका है। देवगतिमें भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियोंमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस ३० तियंच या मनुष्य सहित उनतीस और तिर्यच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे या नब्बेका है। सासादन आदिमें सत्ताईसका उदय नहीं है। सौधर्म युगलमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध पच्चीस-छब्बीस, मनुष्य या तिथंच सहित उनतीस या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका है। सासादन और मिश्रमें सत्ताईसका उदय नहीं है । असंयतमें बन्ध मनुष्य Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८४ गो० कर्मकाण्डे पर्याप्तिकालदोळ उ २७ । बं २९ । म। ३० । म । तीर्थ । स ९३ । ९२ । ९१।९०॥ सानत्कुमामारादि दशकल्पजरुगळ्गे शरीरपाप्तिकालदोळ मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २७ । बं २९ । ति म । ३० । ति उ। स ९२। ९०॥ तत्रत्यसासादन मिश्ररुगळळोळ सप्तविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । तदसंयतंगे उ । २७ । बं २९ । म । ३० । म । तीर्थ । स ९३ । १२ । ९१ । ९०॥ आनताद्युपरिम1 वेयकावसानमाद दिविजरुगळोळु मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २७ । बं २९ । म। स ९२। ९० । तत्रत्यसासादनमिश्ररुगोळु सप्तविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । तत्रत्यासंयतरुगळ्गे उ २७ । बं २९ । म ३०।म। तीर्थ । स ९३ । ९२।९१ । ९०॥ अनुविशानुत्तरविमानजासंयतरुगळ्गे उ २७ । बं २९ । म । ३० । म तीत्थं । स । ९३ ।। ९२ । ९१ । ९० ॥ यितु सप्तविंशतिस्थानोदयाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्थानंगळ योजिसल्पटुवनंतरं अष्टावि. शतिस्थानोदयकाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्वस्थानंगळ, योजिसल्पडुगु-| मदेते वोडष्टाविंशति. स्थानोदयं चतुर्गतिजरोळक्कुमल्लि घम्म य नारकरोळुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तिकालदो दयिसुगुमल्लि मिथ्यादृष्टियोळ उ २८ । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ। स ९२।९० ॥ यिल्लि तीर्थयुतैकनवतिसत्त्वस्थानं संभविसदेके दोडे युच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तिकालदोळ तीर्थसत्कर्म रुगळगे मिथ्यात्वकर्मोदयाभावदिदं सम्यक्त्वमक्कुमप्पुरिदं मिथ्यादृष्टियोळ तत्सत्त्वस्थानं १५ म, ३० ति उ, स ९२, ९०, न सासादनमित्रयोः, असंयते उ २७, बं २९ ति, ३० म तो, स ९३, ९२, ९१, ९०, उपरि दशकल्पेषु मिथ्यादृष्टी उ२७, बं २९ ति म, ३०ति उ, स ९२, ९०, न सासादनमिश्रयोः, असंयते उ २७, बं २९ म, ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९० । उपरि अवेयकान्तेषु मिथ्यादृष्टो उ २७, बं २९ म, स ९२, ९०, न सासादमिश्रयोः। असंयते । उ २७ बं २९, म ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९० । अनुदिशानुत्तरासंयते उ २७ । बं २९ म, ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९० । अष्टाविंशतिक २० तिर्यग्मनुष्यशरीरपर्याप्तिदेवनारकोच्छ्वासपर्याप्त्योः । तत्र नारके धर्मायां मिथ्यादृष्टौ उ २८। बं २९ ति म, सहित उनतीसका या मनष्य तीर्थयत तीसका है। सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। ऊपर दस कल्पोंमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तिथंच मनुष्य सहित उनतीसका या तियं च उद्योत सहित तीसका है । सत्त्व बानबे-नब्बेका है। सासादन मिश्रमें सत्ताईसका उदय नहीं है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या मनुष्यतीर्थ सहित तीसका सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। २५ ऊपर वेयक पर्यन्त मिथ्यादृष्टि में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका सत्त्व बानबे-नब्बेका है। सासादन मिश्रमें नहीं है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका है। सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। अनुदिश अनुत्तरमें असंयतमें भी इसी प्रकार हैं। अठाईसका उदय तिर्यंच मनुष्य के शरीर पर्याप्ति कालमें और देव नारकियोंके उच्छ्वास पर्याप्तिमें होता है। वहाँ नारकियोंमें धर्मामें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तिथंच या मनुष्य सहित उनतीसका या तिर्यच नद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे-नब्बेका है। यहाँ इक्यानबेका सत्त्व नहीं है, क्योंकि इक्यानबेकी सत्तावाला यदि घर्मामें जाता है तो सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता। ३० Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०८५ संभविवरदं । धर्म्म योळसंयतंगे उ२८ । बं २९ । म । ३० । म तीत्थं । सत्व । ९२ । ९१ । ९० ॥ वंशे मेघेगळ मिथ्यादृष्टियो उ २८ । नं २९ । ति । म । ३० । ति । उ । स ९२ । ९० ।। तत्रत्यसासावन मिश्ररुगोळ, तदष्टाविशतिस्थानोदयं संभविसदु । तत्रत्यासंयतसम्यग्दृष्टिर्ग उ २८ । ३० । म । सीत्थं । स ९१ ॥ ५ अंजनारिष्टे मघविगळोळ, मिध्यावृष्टिग उ२८ । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ । स ९२ । ९१ ।। तत्रत्यसासादन मिश्रासंयतग्र्गीयष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । माघवियो मिध्यावृष्टिर्ग उ २८ । बं २९ । ति । ३० । ति उ । सः ९२ । ९० ॥ तत्रत्यसासादनमिश्रा संयतरगोळी यष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । तिर्य्यग्गतियोळ, मिथ्यादृष्टिर्ग शरीरपर्थ्याप्तियोळ उ २८ । बं । २३ | २५ | २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ ॥ तत्रत्यसासादनमिरगळोळीयष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविसतु । तद्गतिजासंयतंगे उ २८ । बं २८ । दे । स ९२ । १० ९० । तिर्य्यग्वेश संयतंगीयष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविसकु । मनुष्यगतियोळ, शरीरपर्य्याप्तिकाल - बोळ, मिध्यादृष्टि ज २८ | बं २३ | २५ | २६ | २८ । २९ । ३० । स९२ । ९० । ८८ । ८४ ॥ तत्सा सावनमोळ मिश्रनोळमष्टाविंशतिस्थानोवयं संभविसदु । तत्रत्यासंयतंगे उ २८ । बं २८ ॥ वे । २९ । वे तीर्थं । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ मनुष्यदेशसंयतनोळीयष्टाविंशतिस्थानोवयं ३०, ति उ, स९२, ९० । नात्रं कनवतिकसत्त्वं तत्र गंतुस्तत्सत्त्वस्य सम्यक्त्वात्यजनात् । न सासादनमिश्रयोः । १५ असंयते उ २८, बं २९ म, ३० मती । स ९२, ९१, ९० । वंश मेघयोमिथ्यादृष्टी उ २८, बं २९ तिम, ३० वि उ स ९२, ९० । न सासादन मिश्रयोः । असंयते । उ २८, ३० म, ती, स९१ | अंजनादित्रये मिथ्यादृष्टी उ २८, २९, तिम, ३० ति उ स ९२, ९० । न सासादनादी । माघव्यां मिथ्यादृष्टी उ २८, बं २३, २५, २६, २८ति, ३० ति उ स ९२९० । न सासादनादी । तिर्यग्गती मिथ्यादृष्टौ उ २८, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, स९२, ९०, ८८, ८४ । न सासादनमिश्रयोः । असंयते उ २८, बं २८ दे, स ९२, ९० । न देशसंयते । मनुष्यगती मिथ्यादृष्टौ उ २८, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, स९२, २० सासादन. मित्रमें अठाईसका उदय नहीं होता । असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या मनुष्य तीर्थयुत् तीसका है। सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। वंशा मेघा में मिध्यादृष्टी में बन्ध तिथंच मनुष्य सहित उनतीसका या तियंच उद्योत सहित तीसका है । सत्व बाबे नब्बेका है । सासादन मिश्रमें नहीं है। असंयतमें बन्ध मनुष्य तीर्थयुत् तीसका और सत्व इक्यानबे का है। अंजनादि तीन में मिध्यादृष्टि में बन्ध तिथंच मनुष्य सहित उनतीसका या तियं उद्योत सहित तीसका है। सत्व बानबे - नब्बेका है । सासादन आदिमें अठाईसका उदय नहीं है । तियंच में अटाईसके उदय में मिध्यादृष्टिमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, तीस, तीसका है। सत्व बानबे - नब्बे, अठासी, चौरासीका है। सासादन मिश्रमें ऐसा उदय नहीं है । असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका सत्व बानबे - नब्बेका है । देशसंयत में अठाईसका उदय नहीं है । ३० मनुष्यगति मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है । सत्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है । सासादन मिश्र में उदय नहीं है । असंयत में २५ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८६ संभविसदु । प्रमत्तसंयतंगाहारकशरीरोच्छ्वास निश्वासपर्व्याप्तियोळ, उ २८ । बं २८ ॥ दे । २९ । देति । स ९३ । ९२ ॥ दंडसमुद्घात तीर्थरहित केवलिगौदारिककाययोगबोळ उ २८ । बं । ० । स ७९ । ७७ ॥ देवगतिज भवनत्रयकल्पजस्त्रीरुगळ उच्छ्वासनिश्वासपर्व्याप्तिकालबोळ ५ तदुच्छ्वास निश्वासनामकर्म्मयुतमागि मिथ्यादृष्टिगे उ २८ । बं २५ | २६ । २९ । ३० । स ९२ । तत्रत्यसासादन मिश्रा संमत रुगळोळी यष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविसतु । सौधर्म इयदिविजरगळोळ मिथ्य दृष्टिगळगे उ २८ । बं २५ । २६ । २६ । ३० । स९२ १९० ॥ सासादनमिश्र रोळीयष्टाविशतिस्थानोदयं संभविसदु । तत्रत्या संपतंगे उ २८ । बं २९ । म ३० । तीर्थं । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। सानत्कुमाराविदशकल नजरोळ मिथ्यादृष्टिगळगे उ २८ । बं २९ । ति । म । ३० । १० ति । उ । ९२ । ९० । तत्रत्थसासादन मिश्ररुगळोळीयष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविस । तत्रत्यासंयतंगे उ २८ । बं २९ । म ३० | म तीर्थं । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ॥ आनताद्युपरिभग्रैवेयकावसानमाद दिविजरो मिध्यादृष्टिगळ उ२८ । बं २९ । म । स ९२ । ९० । तत्रत्यसासावन मिश्र कोळीष्टाविंशतिस्थानोदयं संभविसतु । तत्रत्यासंयतंगे उ २८ । नं २९ । म ३० । म । ३० गो० कर्मकाण्डे ९०, ८८, ८४ । न सासादनमिश्र योः । असंयते उ २८, बं २८ दे, ३० देसी, स९३, ९२, ९१, ९० | न १५ देशसंयते । आहारकद्धर्युच्छ्वासपर्याप्तो उ २८, बं २८ दे । २९ वे ती । स९३, ९२ । बितीर्थदंडस मुद्धा - तस्यौदारिकयोगे उ २८, बं, स ७९, ७७ । भवनत्रय कल्पजस्त्रीषु मिथ्यादृष्टो उ २८, २५, २६, २९, ३०, बं स ९२, ९० । न सासादनादी । सौधर्मद्वये मिध्यादृष्टो उ २८, बं २५, २६, ३०, ९२, ९० । न सासादनमिश्रयोः । असंयते उ २८, बं २९ म, ३० मती, स९३, ९२, ९१, ९० उपरि दशकल्पेषु मिथ्यादृष्टी उ २८, २९तिम ३० ति उ स ९२, ९० । न सासादन मिश्र योः । असंयते उ २८, बं २९ म, ३० मती, २० स ९३, ९२, ९१, ९० । आनतः परिमप्रेवेयकान्तेषु मिथ्यादृष्टी उ २८, २९ म स ९२, ९० । न बन्ध देवसहित अठाईसका या देवतीर्थ सहित उनतीसका है । सस्व तिरानबे आदि चारका है | देशसंयत में ऐसा उदय नहीं है । आहारकमें उच्छ्वास पर्याप्ति में अठाईसका उदय होता है । वहाँ बन्ध देवसहित अठाईसका या देवतीर्थ सहित उनतीसका है। सत्व तिरानबेबानखेका है । तीर्थंकर रहित दण्ड समुद्घातमें औदारिक योगमें अठाईसका उदय होता है । वहाँ बन्ध नहीं होता । सत्त्व उनासी व सतहत्तरका है । २५ देवगति में भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियोंमें मिध्यादृष्टिमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका, सत्त्व बानबे, नब्बेका है । सासादन आदि में नहीं है । सौधर्म युगलमें मिध्यादृष्टि में बन्ध पच्चीस, छब्बीस, तीसका है। सएव बानबे - नब्बे का है। सासादन मिश्र में अठाईसका उदय नहीं है । असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थसहित तीसका है। सत्त्वतिरानबे आदि चारका है। ऊपर दस कल्पों में मिध्यादृष्टीमें बन्ध तिर्यच मनुष्य सहित उनतीसका या तियंच उद्योत सहित तीसका है। सत्व बानबे - नब्बेका है। सासादन मिश्रमें उदय नहीं । असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या मनुष्य तीथ सहित तीसका है। सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। आनतादि उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त मिथ्यादृष्टीमें बन्ध मनुष्यगति सहित तीसका और सरव बानबे -नम्बेका है । सासादन Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १०८७ तीर्थ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०॥ अनुविशानुत्तरविमानंगळोळऽसंयतरुगळेयप्परल्लि उ२८ । बं २९ । म ३० । म । तीर्थ । स ९३ ॥ ९२। ९१ । ९०॥ यितष्टाविंशतिस्थानोदयाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्थानंगळ योजिसपढ़वनंतरं नवविंशतिस्थानोदयाधिकरणदोळ बंधसत्वस्थानंगळ योजिसल्पडगुमते बोर्ड: नवविंशतिस्थानं चतुग्गंतिजरोळ्दयिसुगुमल्लि घम्म य नारकरोळ मिथ्यादृष्टिगळगे भाषापर्याप्तिकालवोळ दुःस्वरयुतमागि उ २९ । बं २९ । ति म । ३०। ति । उ । स ९२ । ९०। सासाबनंगे उ २९ । बं २९ । ति । म ३० । ति उ । स ९०॥ मिश्रंगे उ २९ । बं २९ । मास ९२ ॥ १०॥ असंयतंगे। उ २९ । बं २९ । म ३० । म ति । सत्व ९२।११।९० ॥ वंशे मेगळ मिथ्यागळ्गे उ २९ । बं २९ । ति । म ३० । ति उ । स ९२ । ९०॥ सासाबनंगे उ २९ । वं २९ । म ति । ३० । ति उ । स ९०॥ मिथंगे उ २९ । बं २९ । म । सत्व ९२ । ९०॥असंय- १० तंगे उ २९ । बं २९। म ३०। म तीथं । स ९२ । ९१ । ९०॥ अंजनारिष्टं मघविगळोळ मिथ्यादृष्टिगळ्ये उ २९ । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ। स ९२ । ९०॥ आसासादनंगे उ २९ । बं २९ । ति । म । ३० । ति । उ । स ९०॥ मिभंगे उ २९ । बं२९ । मास ९२ । ९०॥ बसंयसासादनमिश्रयोः । असंयते 7 २८, बं २९ म, ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९०। अनुदिशानुत्तरासंबते उ २८, बं २९ म, ३० म, ती, स ९३, ९२, ९१,९.। ___ नवविंशतिक नारकेषु भाषापर्याप्तिकाले दुःस्वरयुतं । न धर्मायां मिथ्यादृष्टी २९ । २९ ति म, ३० ति, उ, स ९२, ९० । सासादने उ २९, २९ ति म, ३० ति, उ, स ९०, मित्रे उ २९, म. स ९२, ९० । असंयते उ २९, बं२९ म, ३०मती, स ९२, ९१,९०। वंशामेषयोमिथ्या. दष्टौ उ २९, २९ ति म, ३० ति उ, स ९२ । ९.। सासादने ३२९ । २९ म ति । ३० ति । स ९०। मिश्रेठ २९, बं २९ म, स ९२, ९०। असंयते । उ २९ म। ३० मतो। स ९२, ११, ९०। अंजमादित्रये मिथ्यादृष्टौ उ २९ । बं २९ ति म । ३. ति, उ, स ९२, ९.। सासादने उ २९. मिश्रमें उदय नहीं। असंयतमें बंध मनुष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका है। सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। अनुदिश अनुत्तरमें असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या मनुष्य तीर्थयुत् तीसका है । सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। उनतीसका उदय नारकियोंमें भाषापर्याप्तिकालमें दुःस्वर सहित होता है। धर्मामें २५ मिथ्यादृष्टि में बन्ध तिर्यंच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे-नब्बेका है । सासादनमें बन्ध इसी प्रकार है सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका और सत्त्व बानबे-नम्बेका है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका है। सस्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। वंशा मेघामें मिध्यादृष्टि और सासादनमें बन्ध मनुष्य तियंच सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्व मिथ्यादृष्टिमें बानबे-नब्बेका और सासादनमें नब्बेका है। मिश्रमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका और सत्व बानबे-नब्बेका है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित सनतीसका या मनुष्य तीर्थ सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। अंजनादि तीनमें मिथ्यादृष्टि और सासादनमें बन्ध पूर्ववत् उनतीस और तीसका है। सत्व क-१३७ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८८ गो० कर्मकाण्डे तंगे उ २९ । बं २९ । मास ९२।९० ॥ माघवियोळ मिथ्यादृष्टिगे उ २९ । बं २९ । ति ३० । ति उ । सत्व ९२ । ९० ॥ सासादनंगे उ २९ । बं २९ । ति ३० । ति उ। स ९०॥मिश्रग उ २१ । बं २९ । म । स ९२ । ९० ॥आ असंयतणे उ २९ । बं २९ । म । स ९२ । ९० ॥ तिय्यंग्गतिजरोळ सजीवंगळगे शरीरपर्याप्तियोद्योतयुतमागि उ। २९ । बं २३ । ५ २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । स ९२। ९०। ८८।८४। सासादनमिश्ररुगळोळु नविंशति स्थानोदयं संभविसदु । तिय्यंग्गतिजतत्कालासंयतंग उ २९ । बं २८ । दे। स ९२ : ९०॥ देशसंयसंगे नवविंशतिस्थानावयं संभविसदु। मनुष्यगतिजरोळ मिथ्यादृष्टिजीवंगळुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोळु उच्छ्वासनिश्वासोदययुतमागि उ २९ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९। ३० । स ९२ । ९० ॥ सासादनंगयु मिश्रंगयु नवविंशतिस्थानोवयं संभविसदु । तत्कालासंयतंग उ २९ । १. बं.२८ । दे २९ । देति । स ९३ । ९२। ९१ । ९० ॥ देशसंयतंगी कालबोळो नवविंशत्युदर्य संभविसदु । प्रमत्तसंयतंगाहारकशरीरभाषापर्याप्तियोळ, सुस्वरनामयुतमागि उ २९ । बं २८ ॥ देती ।.स ९३ । ९२ ॥ तीर्थयुतवंडसमुद्घातकेवलिगळ्गे उ २९ । । । स८०। ७८॥ बं २९ तिम। ३० ति उ, स ९० । मिश्रे। उ २९, बं २९ म, स ९२, ९० । असंयते उ २२, २९ म, स ९२९० । माघव्यां मिथ्यादृष्टौ उ २९ । २९ ति। ३० ति उ। स ९२, ९० । १५ सासादने उ २९ । बं२९ ति । ३० ति उ । स ९ । मिश्रे । २९ । बं २९ म । स ९२। ९० । असंयते उ २९ । २९ म। स ९२।९० । तियंत्रसे शरीरपर्याप्तावुद्योतयुतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ उ २९, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, स ९२, ५०, ८८, ८४ । न सासादनमियोः । असंयते उ २९, बं २८ दे, स ९२, ९० । न देशसंयते । मनुष्येषूच्छ्वासपर्याप्तावुच्छवासयुते । तत्र मिथ्यादृष्टी उ २९ ब २३, २५, २६, २८ २९, ३०, स ९२, ९० । न सासदिनमिश्रयोः। असंयते उ २९, बं २८ दे। २९ दे तो। स ९३, ९२, २० ९१, ९० । न दे।संयते । आहारकद्धिभाषापर्याप्तो सुस्वरयुतं । उ २९, बं २८ । दे २९ दे तो । स ९३, ९२ मिथ्यादृष्टिमें बनबे-नब्बेका और सासादनमें नब्बेका है। मिश्रमें असंयतमें बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका सत्त्व बानबोनब्बेका है। माघवीमें मिथ्यादृष्टि और सासादनमें बन्ध तिथंच सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका है और सत्त्व मिथ्यात्वमें बानबे नब्बेका तथा सासादनमें नब्बेका है। मिश्र और असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका २५ और सत्त्व बानबे-नब्बेंका है। त्रस तियंचोंके शरीर पर्याप्तिकालमें उद्योत सहित उनतीसका उदय होता है। वहाँ मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बे अठासी, चौरासीका है। सासादन मिश्रमें उनतीसका उदय नहीं है। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका है। सत्त्व बानबे-नब्बेका है । देशसंयतमें उनतीसका उदय नहीं है। मनुष्यमें उच्छ्वास पर्याप्तिकालमें उच्छ्वास सहित उनतीसका उदय है। वहाँ मिथ्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, नब्बेका है। जादन मिश्रमें उनतीसका उदय नहीं है। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईस या देवतीर्थ सहित उनतीसका है। सत्त्व तिरानबे आदि चारका है । देशसंयतमें उनतीस का उदय नहीं है। ३० Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०८९ तोर्थरहितमूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातकेवलिगळ्गुच्छ्वासनिश्वासनामकर्मोदययुतमागि उ २९ । बं । ० । स ७९ । ७७ ॥ देवगतिजरोळु भवनत्रयदेवदेविकल्पजस्त्रीयरुगळगे भाषापर्याप्तियोळु सुस्वरनामकर्मोदययुतमागि उ २९ । बं २५ । २६ । २९ । ३० । स ९२ । ९० ॥ सासादनंगे उ २९ । बं २९ । ति म । ३० । ति उ । स ९०॥ आ मिश्रंगे उ २९ । बं २९ । म । स ९२ । ९०॥ ५ आ असंयतंगे उ २९ । बं २९ । म। स ९२। ९०॥ सौधर्मद्वयदिविजरोळु मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २९ । बं २९ । ति । म। ३०। ति । उ। स ९२ । ९०॥ आ सासादनंग उ २९ । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ । स ९० । मिश्रंगे । उ २९ । बं २९ ।म । स ९२ । ९० ॥ असंयतंगे उ २९ । बं २९ । म । ३० । म ति । स ९३ । ९२।९१ । ९० ॥ सानत्कुमारादि दशकल्पजरोळु मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २९ । वं २९ । ति। म ३० । ति। उ। ९२ । ९० । आ सासादनरुगळ्गे १० उ २९ । वं २९ । ति । म। ३०। ति उ। स ९० ॥ मिश्ररुनगे उ २९ । बं २९ । मास ९२ । ९०। तद्दशकल्पजासंयतरुगळ्गे उ २९ । बं २९ । म ३०। म ति। स ९३। ९२९१ । ९०॥ आनताद्युपरिमग्रैवेयकावसानमाद दिविजरोळु मिथ्यादृष्टिगळगे उ २९ । बं २९ । म । स ९२ । ९०॥ आ सासादनरुगळ्ग उ २९ । बं २९ । म । स ९० । मिश्ररुगळ्गे उ २९ । बं २९ । सतीर्थदंडसमुदाते । उ २९ । बं । स ८० । ७८ । वितीर्थ केवलिनो मूलशरीरप्रविष्टोच्छ्वासपर्याप्तात्रुच्छ्वास- १५ युतं । उ २९, बं., स ७९, ७७ । भवनत्रयकल्पस्त्रीषु भाषापर्याप्ती सुस्वरयुतं । तत्र मिथ्यादृष्टी उ २९, बं २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९० । सासादने । उ २९ ब २९ ति म । ३० ति, उ, स ९० । मिश्रे उ २९, बं २९ म, स ९२, ९० । असंयते । उ २९ । बं२९ म । स, ९२, ९० । सौधर्मद्वये मिथ्यादृष्टौ उ २९ । बं २९, ति म, ३० ति उ, स ९२, ९०, सासादने उ २९, बं २९ ति म, ३० ति उ, स ९०, मिश्रे २९, बं २९ म, स ९२, ९०, असंयते । उ २९, बं २९ म, ३० म ती, स ९३, ९२, ९१, ९०, उपरिदशकल्पेषु २० मिथ्यादृष्टौ उ २९, बं २९ ति म, ३० ति उ, स ९२, ९०, सासादने उ २९, बं २९ तिम। ३० ति आहार शरीरके भाषा पर्याप्तिकालमें सुस्वर सहित उनतीसका उदय है। बन्ध देवसहित अठाईसका या देवतीर्थ सहित उनतीसका है। सत्त्व तिरानबे-बानबेका है। तीथंकर सहित दण्ड समुद्रातमें उनतीसका उदय है। वहाँ बन्ध नहीं है। सत्त्व अस्सी-अठहत्तरका है। तीर्थरहित केवलीके मूल शरीरमें प्रविष्ट उच्छवास पर्याग्निकालमें उच्छवास सहित उनतीसका उदय है। वहाँ बन्ध नहीं है। सत्त्व उन्यासी-सतहत्तरका है। देवगतिमें भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियों में भाषा पर्याप्तिमें सुस्वर सहित उनतीस का उदय है। वहाँ मिथ्यावृष्टि में बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे नब्बेका है । सासादनमें बन्ध तिथंच मनुष्य सहित उनततीसका या तिर्यंच उद्योत सहित तीसका सत्त्व नब्बेका है । मिश्र में बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका सत्त्व बानबे, नब्बेव: है । असंयतमें भी इसी प्रकार है । सौधर्म युगल में मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तिथंच या मनुष्य सहित उनतीसका ३० या तिथंच उद्योत सहित तीसका है, सत्त्व बानवे, नब्बेका है। सासादनमें बन्ध मिथ्यादृष्टिकी तरह उनतीस-तीसका सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका सत्त्व बानबेनब्बेका है। असंयत में बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या तीर्थ मनुष्य सहित तीसका है । सत्व तिरानबे आदि चारका है। ऊपरके दस कल्पोंमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तियच मनुष्य सहित Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९० गो० कर्मकाण्डे म । स ९२ । ९० ।। असंयतरुगन उ २९ । बं २९ । म । ३० । म ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। अनुविधानुत्तरचतुर्द्दश विमानजरुगळ निबरं सम्यग्दृष्टिगळेयप्पुदर दं तत्रत्यरुगन उ २९ ॥ बं २९ ॥ म ३० । म ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। यितु नववंशतिस्थानोदयाधिकरणवोळु बंघसस्वस्थानंगळ योजिसल्पटुवनंतरं त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयाधिकरणदोळु बंधसत्त्वस्थानंगलं योजिस पडुगुम• ५ वर्त बोर्ड – त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयं तिग्मनुष्यगतिद्वयजरोळेयक्कुं । नरक देवगति जरुगळोळवययोग्यमते तेवोडे संहननोवययुत्तस्थानमप्पुर्दारवमल्लि तिय्यंग्गतिजरोळ च्छ्वास निश्वासपर्य्याप्तियो द्योतयुतमागियुमुद्योतरहित भाषापर्य्याप्तियोळु सुस्वर दुस्वरान्यतरोदययुतमागियुं मेणु त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयमक्कु । मल्लियुद्योतयुतमागि मिथ्यादृष्टियोळ उ ३० । बं २३ । २५ ॥ २६ ॥ २८ । २९ । ३० ।। स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । सासादनंगं मिश्रंगं त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयं संभविसदु ॥ १० असंयतंगे उ ३० । बं २८ दे । स ९२ । ९० ॥ देशसंयतंगे तदुदयं संभविसदु । भाषापर्य्याप्तियो धोतरहितमागि मिथ्यादृष्टियोळु उ ३० । बं २३ । २५ | २६ | २८ | २९ | ३० || स ९२ । ९० । ८८ । ८४ ।। इल्लियष्टाशी तिचतुरशीतिसत्त्वस्थानंगळ विकलत्रयजी बंगळपेक्षयिदं सत्त्वसंभवमरि उ, स ९०, मिश्रे उ २९, बं २९ म, स९२, ९०, असंयते उ२९, बं २९ मती, स९३, ९२, ९१, ९०, उपरिमग्रैवेयकान्तेषु मिथ्यादृष्टो उ२९, बं २९ म स ९२, ९०, सासादने उ२९ बं २९ म, स९० । मिश्र १५ उ२२, बं २९, म स ९२, ९० । असंयते उ२९, बं २९ म, ३० म तो, स ९३, ९२, ९१, ९० । अनुदिशानुत्तरासंयते उ२९, बं २९ म, ३० मती, स ९३,९२,९१९० । त्रिंशत्कं तिर्यग्मनुष्ययोरेव संहननयुतत्वात् । तत्र तिर्यक्षूच्छ्वासपर्याप्ता वुद्योतयुतं । तत्र मिध्यादृष्टौ उ ३०, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, स ९२, ९०, ८८, ८४ । न सासादनमिश्रयोः । असंयते उ ३०, बं २८ दे, स९२, ९० । न देशसंयते । भाषापर्यात उद्योतवियुतसुस्वरदुः स्वरान्यतरयुतं । तत्र मिथ्यादृष्टी उ३०, बं २३, २५, २६, २८, २९ २० उनतीस या तिर्यच उद्योत सहित तीसका सत्व बानबे, नब्बेका है । सासादनमें बन्ध मध्यादृष्टि के समान और सत्व नब्बेका है। मिश्र में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका सत्त्व बानबे, नब्बेका है । असंयत में बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थसहित तीसका सत्त्व तिरानबे आदि चारका है । उपरिम मैवेयक पर्यन्त मिध्यादृष्टि में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका सत्त्व बानबे - नब्बेका है । सासादन में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका सत्त्व नब्बे२५ का है । मिश्र में बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका सत्त्व बानबे - नब्बेका है । असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीस या मनुष्य तीर्थसहित तीसका और सत्व तिरानबे आदि चारका है। अनुदिश अनुत्तर में असंयत में बन्ध मनुष्यसहित उनतीस या मनुष्य तीर्थसहित तीसका है और सत्व तिरानबे आदि चारका है । 1 तीसका उदय तिर्यंच और मनुष्योंके ही है क्योंकि इसमें संहननका भी उदय ३० सम्मिलित है । उनमें भी तियंचों में उच्छ्वास पर्याप्ति में उद्योत सहित तीसका उदय होता है । वहाँ मिध्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है । सासादन मिश्र में यह उदय नहीं है । असंयत में बन्ध देव सहित अठाईसका सत्त्व बानवे, नब्बेका है । देशसंयतमें यह उदय नहीं है । वियं चोंमें भाषा पर्याप्ति उद्योत रहित और सुस्वर - दुःस्वर में से एक सहित भी तीसका उदय होता है । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका १०९१ यल्पडुगुमे ते दोडा विकलत्रय जीवंगळ सुरद्विक, नारकचतुष्टयमुमनुद्वेल्लनमं माडि पुनबंधमं माळ्प योग्यते यिल्लिप्पुरिदं पेळल्पटुदु । "पुण्णिदरं विगिविगळे" एंदितल्लि "सुरणिरयाउअपुण्णे वेगुम्वियछक्कमवि पत्थि" एंवितु तज्जोवंगळोळु तदबंधनिषेधमरियल्पडुगुं। भाषापर्याप्तियुत सासादनतिथ्यचरो उ ३०। बं २९ । ति । म। ३० । ति उ । स ९०॥ मिश्रंगे उ ३० । ब २८ । दे। स ९२ । ९० ॥ असंयतंगे उ ३० । बं २८ । दे। स ९२ । ९० ॥ देशसंयतंग उ ३०। ५ बं २८ । दे । स ९२। ९०॥ मनुष्यगतिजरोळु तीर्थयुतमूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातकेवलियो। ळ च्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोळ च्छ्वासनिश्वासोदययुतमागि उ ३० । बं । । स ८० । ७८ । तोयरहितमूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातकेवलिगे भाषापाप्तियोळ सुस्वरदुस्वरान्यतरोदययुतमागि उ ३० । बं । । स ७९ । ७७ ।। मनुष्यमिथ्यादृष्टिळगे भाषापर्याप्तियोळ सुस्वरदुस्वरान्यतरोवययुतमागि उ ३० । बं २३ । २५॥ २६ ॥ २८॥ २९ ॥ ३०॥ स ९२ । ९१ । ९०॥ इल्लि तीर्थयुत- १० सस्वस्थानं नरकगमनाभिमुखजीवनोळ संभविसुगुमें दरियल्पडगुं। सासादनंगे उ ३० । बं २८ । दे । २९ । तिम । ३० । ति उ । स ९० ॥ मिश्रंगे उ ३० बं २८ । दे । स ९२। ९० ॥ असंयतंग उ ३०, स ९२, ९०,८८,८४ । अत्राष्टाशीतिकचतुरशीतिकसत्वं विकलत्रयापेक्षं। एषामेव सुरद्विकनारकचतुकोद्वेल्लने कृते पुनबंधस्याभावात् । सासादने उ ३०, २९ ति म, ३० ति, उ, स ९० । मिश्रे उ ३०, बं २८३, स ९२, ९०, असंयते उ ३०, बं २८ दे, स ९२, ९० । देशसंयते उ ३०, बं २८ दे, स ९२, ९०। १५ मनुष्येषु सतीर्थमूलशरीरप्रविष्टयोरुच्छ्वासयुतं । उ ३०, बं०, स ८०, ७८ । वितीर्थमूलशरीरप्रविष्टस्य भाषापर्याप्तो सुस्वरदुःस्वरान्यतरयुतं । उ ३०, बं० । स ७९, ७७ । मिथ्यादृष्टी भाषापर्याप्तो सुस्वरदुःस्वरान्यतरयुतं उ ३०, बं २३, २५, २६, २८, २९ (३०) स ९२, ९१, ९० । अत्र सतीर्थसत्त्वं नरकगमनाभिमुखापेक्षं। सासादने उ ३० । बं २९ ति म । ३० दिउ । स ९.। मिश्रे उ ३० । बं २८ दे, वहां मिथ्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है और २० सत्त्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासीका है। यहाँ अठासी-चौरासीका सत्त्व विकलत्रयकी अपेक्षा कहा है। क्योंकि इन्हींके सुरद्विक और नारक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर पुनः बन्धका अभाव है । सासादनमें बन्ध वियंच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा वियंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व नब्बेका है। मिश्र असंयत देशसंयतमें बन्ध देवगति सहित अट्ठाईसका और सत्व बानबे-नब्बेका है। २५ मनुष्योंमें तीर्थंकरके मूल शरीरमें प्रवेश करते हुए उच्छवास सहित तीसका उदय होता है। वहां बन्ध नहीं है । सत्त्व अस्सी, अठहत्तरका है। तीर्थकर रहितके मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेपर भाषा पर्याप्तिमें सुस्वर या दुःस्वर सहित तीसका उदय होता है। वहाँ बन्ध नहीं है। सत्व उन्यासी सतहत्तरका है। सामान्य मनुष्यके भाषा पर्याप्तिमें सुस्वर या दुःस्वर सहित तीसका उदय है। वहाँ बन्ध मिथ्यादृष्टि में तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, ३० उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। यहाँ इक्यानबेका सत्त्व नरक . जानेके अभिमुख तीर्थकरकी सत्तावालेको अपेक्षा कहा है। सासादनमें बन्ध तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका और तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें बन्ध देवसहित अठाईसका और सत्त्व बानबे-नब्बेका है। असंयतसे अपूर्वकरणके छठे Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९२ गो० कर्मकाण्डे ३० | वं २८ । दे ।२९। देति । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। देशसंयतंगे उ ३० । बं २८ । वे । २९ । दे । ती । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। प्रमत्तसंयतर्ग उ ३० । वं २८ । दे | २२ | देती । स ९३ । ९२ । ९१९० ।। अप्रमत्तसंयतंर्ग उ ३० । वं २८ । वे । २९ । दे । ती । ३० दे । आ । ३१ । वे तो । था । स ९३ । ९२ ।२.१ । ९० ।। अपूर्व्वकरणंगुभयश्रेणियोळ षष्ठभागपध्यंतं उ ३० । बं २८ । दे । २९ । ५ दे । ती । ३० दे आ । ३१ । दे आ । ती । स १३ । ९२ । २१ । ९० ।। अपूर्वकरणसप्तम भागवते उ ३० । वं ९१ स ९३ । ९२ । ९९ । ९० ।। अनिवृत्तिकरणंगे उ ३० । वं १ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ ।। सूक्ष्म सांपरायंग उ ३० । वं १ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० । ७९ । ७८ । ७७ || उपशांतकषायंगे उ ३० । वं । ० । स९३ । ९२ । ९१ । ९० ।। क्षीणकषायंगे उ ३० । वं । ० । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ ।। सयोगिकेवलि भट्टारकगे उ ३० । वं ० | स ८० । १० ७२ । ७८ । ७७ ।। अयोगिकेवलि भट्टारकंगे त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदय मिल्ल || fतु त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयाधिकरणदोळ, संधसत्त्वंगळु योजितल्पटुवनंतर मेळ त्रिशत्प्रकृति स्थानोदयाधिकरणदोळ बंधसत्वस्थानंगळे योजिसल्पडुगुर्म ' ते 'दोडे कत्रिशत्प्रकृतिस्थानं तिग्मनुष्यगतिजरोळे उदयिसुगुमल्लि तिर्य्यग्गतिजरोळ, त्रसमिथ्यादृष्टिजीवंगळगे उद्योतयुतमामि भाषापर्याप्तियोळ सुस्वरदुः स्वरान्यतरोदययुतमागि ७ ३१ । बं २३ | २५ | २६ ॥२८॥ २९ । ३० । १५ स ९२ ९०१ ८८| ८४ ॥ सासादनंगे उ ३१ । बं २८ । दे । २९ । ति । म । ३० । ति उ । स९० ॥ स ९२, ९० । असंयते उ ३० बं २८ दे, २९ देती, स९३, ९२, ९१, ९० । देशसंयते उ ३०, बं, २८ दे, २९ देती, स९३, ९२, ९१, ९० । प्रमत्ते उ ३०, बं २८ दे, २९ दे तो स९३, ९२, ९१, ९०, अप्रमत्ते उ ३०, बं २८ दे, २९ देती, ३० दे आ, ३१ दे तो आ स ९३, ९२, ९१, ९०, उभयापूर्वकरणषष्ठभागे उ ३०, बं २८ दे, २९ दे ती, ३० दे आ, ३१ दे ती आ, स ९३, ९२, ९१, ९०, सप्तमभागे उ ३०, बं २०१,९३, ९२, ९१, ९०, अनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्पराययोः उ ३०, बं १, स ९३, ९२, ९१, ९०, ८०, ७९, ७८, ७७, उपशान्तकषायें उ ३०, बं०, स९३, ९२, ९१, ९०, क्षीणकषाये उ ३०, बं०, स ८०, ७९, ७८, ७७, सयोगे उ३०, बं०, ८०, ७९, ७८, ७७, नायोगे । एकत्रिशतकं तिर्यक्त्रसमिध्यादृष्टावृद्योतयुतं । भाषापर्याप्तौ सुस्वरदुःस्वरान्यतरयुतं । उ ३१, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, स९२, ९०, ८८, ८४, सासादने उ ३१, बं २८ दे, २९, ति म, ३० ति उ, २५ भाग तक बन्ध देव सहित अठाईसका या देव तीर्थ सहित उनतीसका है। सत्व तिरानवे आदि चारका है । (अप्रमत्त और अपूर्वकरणके षष्ठ भाग पर्यन्त देव और आहारक सहित तीसका तथा देव आहारक तीर्थ सहित इकतीसका भी बन्ध होता है । ) अपूर्वकरणके सातवें भाग में बन्ध एकका सत्व तिरानवे आदि चारका है । अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय में बन्ध एकका, सत्त्व तिरानवे आदि चारका और अस्सी आदि ३० चारका है । उपशान्त कषायमें बन्ध शून्य, सत्त्व तिरानवे आदि चारका है । क्षीणकषाय और सयोगी में बन्ध नहीं, सत्त्व अस्सी आदि चारका है। अयोगीमें तीसका उदय ही नहीं है । इकतीसका उदय त्रस उद्योत सहित भाषा पर्याप्ति में सुस्वर या दुःस्वर के साथ नियंचोंके होता है, मिध्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्व Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोपतत्वत्रदीपिका १०९३ विपरुणळगे उ ३१ । बं २८ ५। ९२।१७ ॥ असंयतरुगळगे उ ३१ । बं २८ । दे। स ९२ । ९० ॥देशसंयतरुगळगे उ ३१ । वं २८ । दे । स ९२। ९०॥ मनुष्यगतिजरोळ मिथ्यादृष्टियादियागि क्षोणकषायगुणपथ्यंत मल्लियुमेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानोदयं संभविसदु । सयोगिकेवलि भट्टारकनोळ तीर्थयुतमागि भाषापर्याप्तियोळ उ ३१ । बं । ० । स ८० । ७८ ॥ यितेत्रिंशत् प्रकृतिस्थानोदयाधिकरणदोळ बंधसत्त्वस्थानंगळ योजिसल्पद्रुवनंतरं नवो- ५ दयस्थानदोळ बंध संभविसतु । सत्त्वस्थानंगळ योजिसल्पडुगुं मेंते दोडे अयोगिकेवलि भट्टारकनोळ "तदि एक्कं मणुवगदी पंचिदियसुभगतसतिगादेज्जं । जसतित्थं मणुवाऊ उच्चं च अजोगिचरिमम्मि ॥" दिती द्वादशोदय प्रकृतिगळो नामकर्मप्रकृतिगळोळु तीर्थयुतमागि नवप्रकृतिः गळप्पुवल्लि उ९ । बं। ०। स ८०। ७८ । १०॥ तीर्थरहितमागि उ ८ । बं । ० । स ७९ । ७७।९॥ यितुदयस्थानकाधिकरणकोळ बंधसत्त्वस्थानंगळ परमागमाऽविरोदिदं योजिसल्पटुवनंतरं तत्त्वैकस्थानाधिकरणदो बंधोदयस्थानंगळं गाथासप्तकदिदं आचार्यतिदं पेळल्पडुगुमदते दोर्ड - सत्ते बंधुदया चदुसगस गणव चदुसगं च सगणवयं । छण्णव पणणव पणचदु चदुसिगिछपकं णभेक सुण्णेगं ॥७५३॥ सत्वे बंधोदयाश्चतुः सप्त सप्त नव चतुः सप्त च सप्तनवकं । षण्नव पंचनव पंचचत्वारि १५ चतुर्बेकषट्कं नभ एक शून्यैकं ॥ " 0 स ९०, मिश्रे उ ३१, बं २८ दे, स ९२, ९०, असंयते उ २१, बं २८ दे, स ९२, ९०, देशसंयते उ ३१, बं २८ दे, स ९२, ९०, मनुष्येषु न क्षीणकषायांतं । सयोगे सतीर्थ । भाषोपर्याप्तौ उ ३१, बं०, स ८०, ७८ । नवकमयोगिचरमसमय एव । उ ९, बं०, स ८०, ७८,१०, अष्टकमपि तत्रैव तीर्थवियुते उ २८, बं०. स ७९, ७७, ९॥७५२॥ एवमुदयस्थानाधिकरणे बन्धसत्त्वस्थानान्याधेयत्वेनागमाविरोधेन योजयित्वा २० सत्त्वस्थानाधिकरणे बन्धोदयसत्त्वस्थानान्याधेयत्वेन गाथासप्तकेनाह पानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है । सासादनमें बन्ध देवसहित अठाईस, तियंच या मनुष्य सहित उनतीस या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें बन्ध देव सहित अठाईस और सत्व बानबे-नब्बेका है। असंयतमें बन्ध देवगति सहित अठाईसका और सत्त्व बानबे नब्बेका है । देश संयतमें बन्ध देवगति सहित अठाईसका और सत्त्व २५ बानबे नब्बेका है। मनुष्योंमें क्षीणकषाय पर्यन्त इकतीसका उदय नहीं है । तीर्थकरके भाषापर्याप्तिमें उदय है । वहाँ बन्ध नहीं है । सत्त्व अस्सी-अठहत्तरका है। नौका उदय अयोग केवलीके हैं। वहां सत्त्व अस्सी, अठहत्तर, दसका है । आठका उदय भी वहीं सामान्य केवलीके होता है । वहाँ सत्त्व उन्यासी, सतहत्तर, नौका है । दोनोंमें बन्ध नहीं है ।।७५२।। इस प्रकार उदयस्थानरूप आधारमें बन्धस्थान और सत्त्वस्थानको आधेय बनाकर आगमानुसार कथन करके आगे सत्त्वस्थानको आधार और बन्धस्थान उदयस्थानको आधेय बनाकर सात गाथाओंसे कथन करते हैं ३० Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १५ २० २५ गो० कर्मकाण्डे त्रिनवत्यादिसत्वस्थानंगळोळु क्रमविदं बंधस्थानंगळं उवयस्थानंगळं चतुः सप्त सप्त नव चतुःसप्त सप्त नव नव पंच नव पंच चतुः स्थानंगळं नार्कडेयोळेक षड्बंधोवयस्थानंगळं नभ एक शून्यैकवु । संदृष्टि: १०९४ अनंतरमी त्रिनवत्यादिसत्वस्थानंगळोळ पेळपट्ट बंधोदयस्थान संख्याविषयस्थानंगळवाड'दोर्ड क्रर्मादिदं पेळदपरु: व ज्ञेयं ॥ स | ९३/९२/९१/९०|८८|८४|८२|८०|७९/७८/७७/१०/९ बं ४ ७ ४७६ |५|१|१|१|१|१ |० ० उ/७/२/७/९|९|९|४ |६|६ |६ |६ |१ |१ ते उदीये बंधा उगुतीसादिचउक्कमुदओ दु । इगपणछस्सग अ य णववीसं तीसयं णेयं ॥७५४॥ त्रिनवत्यां बंधा : एकान्नत्रिंशदाविचतुष्कमुदयस्तु । एक पंच षट्सप्ताष्ट नवविंशतित्रिंशच्च त्रिनवति सत्वस्यानाधिकरणवोळु नवविंशत्यादि चतुः स्थानंगळु बंधंगळप्पुवु । उदयस्थानंमेक पंच षट्सप्ताष्ट नवविंशतिस्थानंगळं त्रिशत्प्रकृतिस्थानोदय मुमरियल्पडुगुं ॥ संदृष्टि:सत्व ९३ । बं २९ । ३० । ३१ । १ ।। उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० ॥ बाणउदीए बंधा इगितीसूणाणि अट्ठठाणाणि । suratसाद एक्कत्ती ता उदयठाणाणि ।। ७५५ ।। द्वानवत्यां बंधाः एकत्रशद्नानि अष्टस्थानानि । एकविंशत्याद्येकत्रिशत्प्रकृतिस्थानां तान्युदयस्थानानि ॥ त्रिनवतिकादिसत्त्वस्थानेषु बन्धोदयस्थानानि क्रमेण चतुःसप्त सप्तनव चतुःसप्त सप्तनव षण्णव पंचनव पंचचत्वारि चतुर्वेकषट् नभ एकं शून्यैकं ॥ ७५३॥ तानि कानीति चेदाह - त्रिनवतिके बन्धस्थानानि नवविंशतिकादीनि चत्वारि । उदयस्थानान्येकपंचषट्सप्तष्टनवाग्रविशतिकानि त्रिशत्कं च ज्ञेयानि ॥७५४॥ तिरानबे आदि सत्त्वस्थानों में बन्धस्थान और उदयस्थान क्रमसे चार सात, सात नौ, चार सात, सात नौ, छह नौ, पाँच नौ, पाँच चार, एक छह, शून्य एक, शून्य एक होते हैं ।। ७५३ ।। वे कौन हैं ? यह कहते हैं तिरानबेके सत्वस्थानमें बन्धस्थान उनतीस आदि चार हैं और उदयस्थान इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस तीस के हैं ||७५४ || Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०९५ द्वानवतिसत्वस्थानाधिकरणदोळेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानं पोरगागि शेषसप्तस्थानंगळं बंधगळप्पुवु । एकविंशतिस्थानमादियागेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानावसानमाद नवस्थानंगळुदयंगळप्पुवु । संदृष्टिः -सत्व ९२। बं २३ । २५ । २६। २८ । २९ । ३० । १॥ उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१॥ इगिणउदीए बंधा अडवीसं तिदयमेक्कयं चुदओ। तेणउदि वा णउदीबंधा बाणउदीयं व हवे ॥७५६॥ एकनवत्यां बंधा अष्टाविंशति त्रितयमेककं चोदयस्त्रिनवतिवनवतिबंधा द्वानवतिवद् भवेत् ॥ एकनवतिसत्वस्थानाधिकरणदोळष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानंगळमेकप्रकृतियुमितु चतुःस्थानगळु बंधमपुवु । उदयस्थानंगळु त्रिनवतिसत्वस्थानदोळ पेळद समस्थानंगळप्पुवु। संदृष्टि - सत्व ९१ । बं २८ । २९ । ३० । १॥ उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३०॥ नवति सत्वस्थाना- १० धिकरणदोळ बंधस्थानंगळु द्वानवतिसत्वस्थानदो पेळद त्रयोविंशत्यादिसप्तस्थानंगळप्पुषु ॥ उवयस्थानंगळं मुंवण सूत्रवोळु पेळवपरु : चरिमदुवी सुणुदओ तिसु दुसु बंधा छ तुरियहीणं च । वासीदी बंधुदया पुव्वं विगिवीसचत्तारि ॥७५७॥ चरमद्वविंशत्यूनोवयास्त्रिषु द्वयोब्बंधाः षट्तुरीयहीनं च । घशोत्यां बंधोदयाः पूर्वववेक- १५ विशतिवत्वारि॥ नवतिसत्वस्थानदोळुवयस्थानंगळु चरमद्विस्थानोवयमुं विशतिस्थानोदयमुमितु त्रिस्थान रहितमागि सर्वोदयस्थानंगळप्पुवु । संदृष्टिः-स ९० : बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । १ । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ त्रिषु शब्ददिदमष्टाशीति चतुरशीतिसत्वस्थानद्वयवोळमी पेळदुदयस्थानंगळु नवनवंगळेयप्पुवु । वंगस्थानंगळु षट् त्रयोविंशत्यादि २० द्वानवतिके बन्धस्थानान्येकत्रिंशत्क बिना शेषाणि सप्त । उदयस्थानान्येकविंशतिकादीन्यकत्रिशकान्तानि नव ॥७५५॥ एकनवतिके बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि त्रीण्येककं च । उदयस्थानानि त्रिनवतिकोक्तानि सप्त । नवतिके बन्धस्थानानि द्वानवतिकोक्तानि सप्त ।।७५६॥ उदयस्थानानि चरमद्वयेन विंशतिकेन वोनसर्वाणि । त्रिषु शब्देनाष्टाशीतिकचतुरशीतिकथोरप्यमून्येव २५ बानबेके सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान इकतीसके बिना शेष सात हैं । उदयस्थान इक्कीससे इकतीस पर्यन्त नौ हैं ॥७५५।। इक्यानबे के सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान अठाईस आदि तीन और एक ऐसे चार हैं। उदयस्थान तिरानबेकी तरह सात हैं। नौवेंके सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान बानबेकी तरह सात हैं ॥७५६॥ उदयस्थान अन्तके दो और बीसके बिना सब नौ हैं। 'तिसु' अर्थात् अठासी और चौरासीके सत्त्वस्थानमें भी ये ही नौ उदयस्थान हैं। अठासी-चौरासीमें बन्धस्थान तेईस क-१३८ | Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९६ गो० कर्मकाण्डे षट्स्थानंगळं चतुर्थाष्टाविंशतिबंधस्थान रहित शेषपंचबंधस्थानं गळप्पुक्रर्मादिदं । संदृष्टि: - सत्व ८८ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० ।। उ २१ । २४ | २५ | २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ स ८४ । बं २३ | २५ | २६ । २९ । ३० ॥ उ२१ । २४ । २५ | २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ ॥ द्वयशीतिसत्वस्थानाधिकरणदोलु बंधस्थानंगलुमुदयस्थानंगळं क्रमदिदं पूर्ववच्च५ तुरशीति सत्वस्थानदोळु पेळदष्टाविंशत्यून त्रयोविंशत्यादि पंचस्थानं गळु मेकविंशत्यादि चतुरुदयस्थानंगळ मध्वु । सत्व ८२ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ | २६ ॥ सदादिच बंधा जसकित्ती समपदे हवे उदओ । इगिसगणवधियवीसं तीसेक्कं तीसणवगं च ॥ ७५८।। अशीत्यादिचतुर्षु' बंधो यशस्कोतिः समपदे भवेदुदयः । एकसप्तनवाधिकविंशतिस्त्रिश१० देकत्रिंशं नवर्क च ॥ अशोत्यादि चतुःसत्वस्थानं गळोळ क्रमदिंदं बंधं यशस्कीतिनामकम्मं मेकमेयक्कु मा नालकुं स्थानंगळोळु समपदंगळोळे भत्ते पत्ते 'टु गळे बेर डेडेगळोळु दयस्यानं गळु मेकविंशति सप्तविंशतिनवविंशति त्रिदेशिन्नवकमुमक्कुं ॥ वीसं छडणवीसं तीसं छट्ठे च विसमठाणुदया । दसवगे हि बंध कमेण णव अद्वयं उदओ ||७५९ ॥ विशतिः षडष्टनव विंशति त्रिशच्चाष्ट च विषमस्थानोदयाः । दशनवके न हि बंधः क्रमेण नवाष्टकमुदयः ॥ नवसप्तति सप्तसप्तति विषमसत्त्वस्थानद्वयदोळु क्रमविंद मुदयस्थानंगल विंशतियुं षड्विंशतिमष्टाविंशतियुं नर्वावशतियुं त्रिशत्प्रकृतिकमुमष्टप्रकृतिकमुमिनु षट् षट् स्थानोदयंगळप्पुवु । २० संदृष्टि :- सत्त्व ८० । बं १ । उ २१ । २७ । २९ । ३० । ३१ । ९ ॥ स ७९ । बं १ । उ २० । २६ । २८ । २९ । ३० । ८ ।। स ७८ । बं १ । उ २१ । २७ । २९ । ३० । ३१ । ९ । स ७७ ॥ बं १ । नव । बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकादीनि षट् । अष्टाविंशतिकोनानि पंच । द्वयशीतिके बन्धोदयस्थानानि क्रमेण चतुरशीतिकोक्तानि पंच । एकविंशतिकादीनि चत्वारि ॥७५७॥ अशीतिकादिषु चतुर्षु बंधो यशस्कीर्तिः । उदयस्थानानि समपदयोरैकसप्तनवाधिकविंशतिकानि १५ २५ त्रिंशत्कै कत्रिंशत्कनवकानि च ॥७५८ ।। विषमयोविंशतिकषडष्टनव ग्रविशतिकत्रिशत्काष्टकानि षट् । दशकrवकयोर्नाम बन्धः शून्यं, उदयः आदि छह और अठाईस बिना पाँच हैं। बयासीके सत्त्वस्थानमें बन्धस्थान चौरासीकी तरह पांच हैं । उदयस्थान इक्कीस आदि चार हैं ||७५७|| अस्सी आदि चार सत्त्वस्थानों में बन्ध एक यशकीर्तिका होता है । उदयस्थान सम३० गणनारूप अस्सी - अठहत्तर में इक्कीस, सत्ताईस, उनतीस, तीस, इकतीस, नौके हैं ॥७५८।। विषमगणनारूप उनासी - सतहत्तर के सत्त्वस्थान में बीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०९७ उ २० । २६ । २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ८ ॥ दश नव सत्त्वस्थानंगळोळु नामकर्म्मबंधशून्यं । उवयस्थानंगळु नवाष्टकैकस्थानंगळे यप्पुवु । संदृष्टि :- स १० । बं । ० । उ ९ । स ९ । बं । ० । उ ८ ॥ ५ अनंतरमी सत्त्वस्थानाधिकरणदोळ बंधोदयस्थानं गळनुक्तंगळं चतुग्र्गतिजरुगळ गुणस्थानंगको योजिस पडुगु मे दोर्ड त्रिनवतिसत्त्वस्थानं मनुष्यदेवगतिजरोळक्कुमल्लि मनुजरोळ मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्ररोळु संभविसदे ते दोर्ड “तित्थाहारं जुगवं सव्वं तित्थं ण मिच्छ्गादितिये" एंदितु तद्गुणस्थानत्रयवोळु तत्सत्ववक संभवमप्युदरिंवं । मनुष्यासंयतनोळ सत्त्व ९३ । बं २९ । दे। तो । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० ॥ देशसंयतंर्ग सत्व ९३ । बं २९ । दे तो । उ ३० । प्रमत्तसंयतंर्ग सत्त्व ९३ । उ २९ | देती । उ २५ । २७ । २८ । २९ ॥ ३० ॥ अप्रमत्तसंयतंगें सत्त्व ९३ । बं २९ । वे ती । ३१ । दे तो । आ । उ ३० ॥ अपूर्व्वकरणंगे स९३ । बं २९ । देती । ३१ । देती । आ । उ ३० ॥ अनिवृत्तिकरणंगे स ९३ । बं १ । उ ३० ॥ सूक्ष्मसांपरायंगे सत्व ९३ । बं १ । १० उ ३० । उपशांतकषायंगे सत्त्व ९३ । बं । ० । उ ३० ।। क्षीणकषायादिगुणस्थानत्रितयदोळु त्रिनवतिसत्त्वं संभविस । अपूर्व्वकरणादिगलोपशमश्रेण्यपेक्षेयिदं त्रिनवति सत्त्वं संभवर्म दरियत्पडुगुं ॥ देवगतियोऴ सौधर्मादिसर्व्वार्थसिद्धिपर्यंतमाद दिविजासंयत रुगळगे स९३ । बं ३० । म ती । उ २१ | २५ | २७ । २८ । २९ । यी त्रिनव तिसत्त्वस्थानाधिकरणदोलु अष्टाविंशतिबंध क्रमेण नवकमष्टकं । उक्ताधाराधेयं चतुर्गतिगुणस्थानं प्रति योजयति- १५ तत्र त्रिनवतिकं कर्मभूमिपर्याप्त निर्वृत्यपर्यासमनुष्यवैमानिकयोरेव । तत्रापि तित्थाहारेत्यादिना न मिथ्यादृष्ट्यादित्रये । तत्र मनुष्येऽसंयते स ९३, बं २९ देती, उ २१, २६, २८, २९, ३०, देशसंयते स ९३, बं २९, देवी, उ ३०, प्रमत्ते स ९३, बं २९ देती, उ२५, २७, २८, २९, ३०, अप्रमत्ते स ९३, बं २९ देवी, ३१ दे ती आ, उ३०, उपशमकेऽपूर्वकरणे स ९३, बं २९ दे ती, ३१ दे तो आ, उ३०, अनिवृत्तिकरणे स ९३, बं१, उ ३०, सूक्ष्मसाम्पराये स ९३ । बं १ । उ ३० उपशान्तकषाये । स ९३, बं०, उ तीस, आठके उदयस्थान हैं। दस और नौके सत्त्वस्थानमें बन्ध नहीं है । उदय क्रमसे नौ और आठका है । २० आधार-आधेयको चारों गतिके गुणस्थानोंमें लगाते हैं- २५ उक्त सत्त्वस्थानोंमें-से तिरानबेका सत्त्व कर्मभूमिया पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त मनुष्य और वैमानिक देवों में ही पाया जाता है । उनमें भी 'तित्थाहारा' इत्यादि वचनके अनुसार मिध्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में तिरानबेका सत्व नहीं है । असंयत मनुष्यके तिरानवे के सत्व में बन्ध देव तीर्थसहित उनतीसका और उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, टीसका है | देशसंयतमें बन्ध देव तीर्थ सहित उनतीसका, उदय तीसका है। प्रमत्तमें बन्ध देव तीर्थ सहित उनतीसका, उदय पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस तीसका है। अप्रमत्तमें बन्ध देव तीर्थ सहित उनतीसका या आहारक तीर्थ सहित इकतीसका और ३० उदय तीसका है। उपशमक अपूर्वकरण में अप्रमत्तके समान है । अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म साम्पराय में बन्ध एकका, उदय तीसका है। उपशान्त कषायमें बन्ध नहीं, उदय तीसका है। क्षीणकषाय कादिमें तिरानबेका सत्त्व नहीं है । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९८ गो० कर्मकाण्डे स्थानमसंयतादिगळोळे किल्ले दोडे नरकगमनाभिमुखनं बिटु मर्तल्लियुं तीर्थबंधमुपरत मागवप्पु. दरिदमष्टाविंशतिस्थानबंधं संभविसदु । त्रिनवतिसत्त्वंगे विराधनयुमिल्ल। इंतु त्रिनवतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळु बंधोदयस्थानंगळ योजिसल्पटुवनंतरं द्वानवतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळ बंधोदयस्थानंगळु योजिसल्पडुगुमते दोडे :५ द्वानवतिस्थानसत्वं चतुर्गतिजरोळक्कुमल्लि नरकगतियोळ धर्म य मिथ्यादृष्टिगळ्गे सत्त्व ९२ । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ। उ २१ १ २५ । २७ । २८ । २९ । तत्रत्य सासादनंगे द्वानवतिसत्त्वं संभविसदु । मिश्रंगे स ९२। बं २९ । म । उ २९ ॥ असंयतंग स ९२ । बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ ! २९ । वंशादिमघविपय्यंतमाद मिथ्यादृष्टिगळ्गे स ९२। बं २९ । ति । म ३० । ति । उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । तत्रत्यसासादनंगे द्वानवति सत्त्वं संभवि१० सदु ॥ मिश्रंग स ९२ । बं २९ । म । उ २९ ॥ असंयतंग स ९२ । बंध २९ । म । उ । २९ ॥ महातमःप्रभेय मिथ्यादृष्टिगळ्गे सत्त्व ९२ । बं २९ । ति । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ तत्रत्यसासादनंग द्वानवतिसत्त्वं संभविसदु ॥ मिश्रंगे स ९२ । बं २९ । म। उ २९ ॥ असंयतंग स ९२ । बं २९ । म । उ २९ ॥ तिर्यग्गतिजरोळु मिथ्या दृष्टिगळ्गे स ९२ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३०, न क्षीणकषायादो । वैमानिकासंयते स ९३, बं ३० म तो, उ २१, २५, २७, २८, २९, एतेष्वसंयतादिषु १५ कुतोऽष्टाविंशतिकं न बध्नाति । नरकगमनाभिमुखं मुक्त्वा तीथं बघ्नतां विश्रांत्यभावेन तद् द्वानवतिकं चतुर्गीतषु तत्र नरके धर्मायां मिथ्यादृष्टौ स ९२, बं २९ ति म, ३० ति उ, उ २१, २५, २७, २८, २९, न सासादने । मिश्रे स ९२, बं २९ म, उ २९, असंयते स ९२ बं २९, म, ४२१, २५, २७, २८, २९, आमघवीं मिथ्यादृष्टौ स ९२, बं २९ ति म, ३० ति उ । उ २१, २५, २७, २८, २९, न सासादने । मिश्रे स ९२, बं २९ म, उ २९, असंयते स ९२, वं २९ म, २९, माघव्यां मिथ्यादृष्टो । स २० ९२, बं २९, ति उ, उ २१, २५, २७, २८, २९, न सासादने । मिश्रे स ९०, बं २९ म, उ २९, असंयते वैमानिक देवोंमें असंयतमें तिरानबेका सत्त्व होता है। वहां बन्ध मनुष्य तीर्थ सहित तीसका और उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। यहाँ असंयतादिमें अठाईसका बन्ध नहीं होता; क्योंकि नरक जानेके सम्मुख जीवको छोड़कर तीर्थकरकी सत्तावाले अन्य जीव सदा तीर्थकरका बन्ध करते हैं अतः अठाईसका बन्ध नहीं २५ घटित होता। बानबेका सत्त्व चारों गतिमें पाया जाता है। नारकियोंके बानबेके सत्त्वमें धर्मामें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तिथंच या मनष्य सहित उनतीसका अथवा तियंच उद्योत सहित तीसका है । उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। सासादनमें बानबेका सत्व नहीं है । मिश्रमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका और उदय भी उनतीसका है। असंयतमें १. बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। वंशासे मघवी पर्यन्त मिथ्यादृष्टि में धर्माके समान बन्ध उदय है। सासादनमें बानबेका सत्त्व नहीं। मिश्रमें और असंयतमें बन्ध उदय उनतीसका है। माधवीमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तिर्यच सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। उदय धर्माके समान है। सासादनमें नहीं है । मिश्र और असंयतमें बन्ध उदय उनतीसका है। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १०९९ ३० ॥ उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २२ । ३० ॥३१॥ सासादनंग द्वानवति सत्त्वमिल्ल ॥ मिश्रंगे स ९२ । बं २८ । वे उ ३० । ३१ ॥ असंयतंगे स ९२ । बं २८ । दे । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ तिय्यंग्देशसंयतंगे स ९२। बं २८ । दे। उ ३० ॥ ३१॥ मनुष्यगतिजमिथ्यादृष्टिगे स ९२ । बंध २३ । २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३०॥उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३०॥ सासादनंग द्वानवतिसत्वमिल्ल ॥ मिश्रंग स ९२ । बं २८ । दे। उ ३० ॥ मनुष्यासंयतंग स ९२। ५ बं २८ । दे । उ २१ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३०॥ देशसंयतंग स ९२ । बं २८ । दे। उ ३०। प्रमत्तसंयतंगे स ९२ । बं २८ । दे। उ। द २५ ॥ २७॥ २८ ॥ २९ ॥ ३०॥ अप्रमत्तसंयतंगे। स ९२। बं २८॥ दे । ३० । दे। आ । उ । ३० ॥ अपूर्वकरणंगे सत्व ९२ । बं २८ । दे ३० । दे। आ।१। उ ३० ॥ अनिवृत्तिकरणंग स ९२ । बं १। उ३० ॥ सूक्ष्मसापरायंगे सत्व ९२। बं १। उ ३०॥ उपशांतकषायंगे स ९२ । बं । ० । उ ३०॥ क्षीणकषायाविगळोळ वानवतिसत्त्वमिल्ल । देवगतियोळु भवनत्रयमिथ्यादृष्टिगळ्गे सत्व ९२। बं २५ ॥ २६ ॥ २९ ॥ ३०। उ २१ । २९ । २७ । स २९, बं २९ म, उ २९, तिर्यक्षु मिथ्यादृष्टो । स ९२, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, उ २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, न सासादने । मिश्रे स ९२, बं २८३, उ ३०, ३१, असंयते स ९२ । बं २८ दे, उ २१, २६, २८, २९, ३०, ३१, देशसंयते स ९२, बं २८, २, ३ ३०, ३१, मनुष्येषु मिथ्यादृष्टी स ९२, बं २३, २५, २६, २८, २९, ३०, उ २१, २६, २८, २९, ३०, न सासादने। मित्रे स ९२, बं २८ दे, उ ३०, असंयते स ९२, बं २८,दे, उ २१, २६, २८, २९, ३०, देशसंयते । स ९२, बं २८, दे, उ ३०, प्रमत्ते स ९२, बं २८ दे, उ २५, २७, २८, २९ ३०, अप्रमत्ते स ९२, बं २८ , ३० दे आ, उ ३० । अपूर्वकरणे स ९२, बं २८ दे, ३० दे आ, उ ३०, अनिवृत्तिकरणे स ९२, बं १, उ ३०, सूक्ष्मसाम्पराये । स ९२, बं १, २ ३०, उपशान्तकषाये स ९२, बं , उ ३०, न क्षीणकषायादो। तियंचोंमें बानबेके सत्त्वमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, २० उनतीस, तीसका है । उदय इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका है। सासादनमें नहीं है। मिश्रमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय तीस, इकतीसका है। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका है । देशसंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय तीस, इकतीसका है। मनुष्यों में बानबेके सत्त्वमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका तथा उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। सासादनमें बानबेका सत्त्व नहीं होता । मिश्रमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय तीसका है। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। देशसंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय तीसका है। प्रमत्तमें बन्ध देवसहित अठाईसका ३० उदय पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। अप्रमत्त अपूर्वकरणमें बन्ध देवसहित अठाईसका देव आहारक सहित तीसका और उदय तीसका । है । अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्परायमें बन्ध-एकका उदय तीसका है। उपशान्त कषायमें बन्ध नहीं, उदय तीसका है। क्षीणकषायमें बानबेका सत्व नहीं । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०० गो० कर्मकाण्डे २८॥ २९ ॥ तत्रत्यसासादनंग द्वानवतिसत्वमिल्ल । भवनत्रयमिअंगे स ९२। वं २९ । म। उ २९ । भाषा ॥ भवनत्रयासंयतंगे स ९२। बं २९ । म । उ २२ । भाषा ॥ सौधर्मकल्पद्वमिथ्या दृष्टिगळ्गे सत्व ९२। बं २५ । २६ । २९ । ३०। उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ।। तत्रत्यसासादनंग द्वानवतिसत्वं संभविसदु। मिश्रग स ९२। बं २९ । म । उ २९ । भाषा ॥ असंयतंगे स ९२ । बं २२ । म। उ २१ । २५ । २७ । २८ । २२ ॥ सानत्कुमारादिदशकल्पजमिथ्यादृष्टिगळ्गे स १२ । बं २९ । ति । म: ३०। ति उ॥ उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ सासादनंग द्वानवतिसत्वमिल्ल ॥ मिश्रगे स ९२ । बं २९ । म। उ २९ । भाषा ॥ असंयतंगे स ९२। बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ आनताद्युपरिमग्रैवेयकावसानमाददिविज मिथ्यादष्टिगळ्गे स ९२ । बं । २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ सासादनंगे द्वानवतिसत्वं संभविसद् । मिश्रंगे स ९२। ब २९ । म । उद. २९ । भाषा ।। असंयतंगे स ९२ । बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ अनुदिशानुत्तरचतुर्दशविमानजाऽसं तरुगळ्गे स ९२ । बं । २९ । म। उ २१ । २५ । २७ । २८ ॥ २९ ॥ देवगतो भवनत्रये मिथ्यादृष्टो स ९२, बं २५, २६, २९, ३०, उ २१, २५, २५, २८, २९, न सासादने । मिश्रे स ९२, बं २९ म, उ २९ भाषा। असंयते स ९२, बं २९ म, उ २९ भाषा, सौधर्मद्वये मिथ्यादृष्टौ स २९, बं २५, २६, २९, ३०, उ २१, २५, २७, २८, २९, न सासादने । मिथे स ९२, बं १५ २९ म, उ २९ भा, असंयते स ९०, बं २९ म, उ २१, २५, २७, २८, २९, उपरि दशकल्पेषु मिथ्यादृष्टी स ९२, बं २९ ति म, ३० ति उ, उ २१, २५, २७, २८, २९, न सासादने । मिश्रे स ९२, बं २९ म, उ २९ भा, असंयते स ९२, बं २९ म, उ २१, २५, २७, २८, २९ । उपरि अवेयकान्तेषु मिथ्यादृष्टो, स ९२, बं २९ म, उ २१, २५, २७, २८, २९, न सासादने । मिश्रे, स ९२, बं २९ म, उ २९ भा, असंयते स ९२, बं २९ म, उ २१, २२, २७, २८, २९, अनुदिशानुत्तरासंयते, स ९२, बं २२ म, उ २१, २५,२७,२८,२९ । देवोंमें बानबेके सत्त्वमें भवनत्रिक व सौधर्म युगल में मिथ्यादृष्टि में बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका, उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। सासादनमें बानबेको सत्त्व नहीं। मिश्रमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय उनतीसका है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका, उदय भवनत्रिकमें तो उनतीस ही का है। सौधर्मद्विकमें इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। ऊपर दस कल्पोंमें २५ मिथ्यादृष्टि में बन्ध तिथंच या मनुष्य सहित उनतीसका या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है । सासादनमें नहीं। मिश्रमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय उनतीसका है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका, उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। ऊपर अवेयक पर्यन्त मिथ्या दृष्टि में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस३० का है। सोसादनमें नहीं। मिश्रमें बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका उदय उनतीसका है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। अनुदिश अनुत्तरमें असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११०१ fiतु द्वावति सत्यस्थानाधिकरणदोळ, बंधोदयंगळ, योजिसल्पटुव नंतर मेकनवतिसत्वस्थानाधिकरण बंधोदयस्थानंगळ, योजिस पडुगुमर्द ते दोर्ड पेळल्पडुगुं :- एकनवतिस्थानसत्वं नारकरोळु मनुष्यरोळ, दिविजरोळमक्कुं । तिर्य्यग्गतिजरोळिल्लेक बोडे तीर्थंयुतसत्वस्थानमप्पुर्दारदं । “तिरिये ण तित्यसत्त" में दिंतु तिर्य्यग्गतिजरोळ, तत्सत्वं विरुद्धमदरिवं । नारकरोळ, धम्र्मावनिजमिध्यादृष्टिगळगे स ९१ । बं २९ | म | उ २१ | २५ || सप्तविंशत्यादि - स्थानोंदयं संभविसदेर्क दोर्ड शरीरपर्थ्याप्तियिदं मेले तीर्थसत्कर्म्मरप्प मिथ्यादृष्टिगळगे सम्यक्त्व ५ कुमरिदं तदुदयस्थानोदयं संभविसर्व बोदभय सूरि सिद्धांतचक्रवत्ति गळभिप्रायं ॥ आ सासादनमिश्ररुगळोळे कनवतिस्थानसत्त्रं परमागमविरोधमप्युदरिव संभविसदु । धर्मावनिजासंयतं सत्व ९१ | वं ३० | मती । उ २१ | २५ | २७ । २८ । २९ ॥ वंशेमेघगळोळु मिथ्या९१ । २९ । म । उ२१ । २५ ॥ सासादनमिश्ररुगळोळेकनवतिस्थानसत्वं संभवि १० सबु ॥ असंयत रुगर्ग स ९१ । बं ३० । म । ती । उद । २७ । २८ । २९ ।। अंजनाबिनालकुं पृथ्विजरोळेकनवतिस्थानसत्वं संभविसदेर्क दोर्ड तीर्थसत्कर्म्माळगे तत्पृथ्वीचतुष्टयबोत्पत्ति संभविसवप्रदं ॥ मनुष्यगतिजरोळ मिध्यादृष्टिगे स ९१ । बं २८ न । २९ । म । उ३० ॥ मनुजसासादनमिश्ररुगळगेकनवतिसत्वं विरुद्धमप्पुरिदं संभविद् ।। मनुष्यासंयतरुगर्ग । स ९१ । बं २९ ॥ दे ती । उ २१ । २६ । २८ । २९ ॥ ३० ॥ मनुष्यदेश संयतंर्ग स ९१ । बं २९ ॥ दे १५ एकनवतिकं तिरिये ण तित्यसत्तमिति देवनारकमनुष्येष्वेव । तत्र नारकेषु धर्मायां मिथ्यादृष्टौ स ९१, बं २९ म, उ २१, २५, नात्र सप्तविंशतिकाद्युदयः । शरीरपर्याप्तेरुपरि तीर्थसत्त्वमिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टित्वसम्भवात् । न सासादनमिश्रयोः । असंयते । स ९१, बं ३०, मती, उ२१, २५, २७, २८, २९, वंशामेघयोमिथ्यादृष्टौ स ९१, बं २९ म उ २१, २५, न सासादनमिश्रयोः । असंयते स ९१, बं ३०, म ती, उ२७, २८, २९, नांजनादी कुतः ? तीर्थसत्वस्य तत्रानुत्पत्तेः । २० मनुष्येषु मिथ्यादृष्टीस ९१ । २८ न । २९ म । उ ३० । न सासादनमिश्रयोः । असंयते स ९१ । बं २९ देती । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० | देशसंयते । स ९१ । बं २९ | दे । ती । उ ३० । प्रमत्ते इक्यानबेका सत्व ' तिरिये ण तित्थसत्तं' इस वचनके अनुसार तिर्यंचमें नहीं होता नारकी मनुष्य और देवोंमें होता है । नारकियोंमें इक्यानबेके सत्व में घर्मामें मिथ्यादृष्टि में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय इक्कीस, पच्चीसका है। यहाँ सत्ताईस आदिका उदय नहीं है; क्योंकि शरीरपर्याप्ति होनेपर तीर्थंकर की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टी हो जाता है । सासादन मिश्र में इक्यानबेका सत्त्व नहीं है । असंयतमें बन्ध मनुष्य तीर्थ सहित तीसका उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। वंशा मेघा में मिध्यादृष्टि में बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय इक्कीस, पच्चीसका है । सासादन मिश्र में नहीं । असंयत में बन्ध मनुष्य तीथं सहित तीसका उदय सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है 1 अंजनादि में इक्यानबेका सत्त्व नहीं है क्योंकि तीर्थंकरकी सत्तावाला उनमें उत्पन्न नहीं होता । इक्यानबेके सत्त्व में मनुष्यों में मिध्यादृष्टि में बन्ध नरकगति सहित अठाईसका या मनुष्य सहित उनतीसका, उदय तीसका है । सासादन मिश्रमें नहीं है। असंयतमें बन्ध देवतीर्थ सहित उनतीसका उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। देश ३० २५ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०२ गो० कर्मकाण्डे ती । उ ३० ।। प्रमत्तसंयतंगे स ९१ । बं २९ । दे। तो । उ ३० ॥ अप्रमत्तसंयतं स ९१ व २९ । देती । ३० ॥ अपूकरणं स ९१ । २९ । दे तो । १ । उ ३० ॥ अनिवृत्तिकरणं स९१ । बं १ । उ ३० ॥ सूक्ष्मसांपरायंगे स ९१ । बं १ । उ ३० ॥ उपशांतकषायंगे स ९१ । बं । ० । उ ३० ।। देवगतिजमिथ्यादृष्टिसासादनमिश्ररुगळोली एकनवति सत्त्वस्थानं संभविसदु । सौधर्मादि५ सर्वार्थसिद्धिर्पय्यंतमाद देवासंयतरुगळगे स ९१ । बं ३० । म । तो । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ यितेकनवतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळ, बंधोदयस्थानंगल योजिसल्पटुवनंतरं नवतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळु बंधोदयस्थानंगळ पेळल्पडुगुमदे त दोडे : -- नवतिस्थानसत्त्वं चतुर्गतिजरोळं संभवितुमल्लि नरकगतिरोलु घर्मय नारक मिथ्यादृष्टि स ९० । २९ । ति । म । ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ घम् य सासादरगळ स ९० । बं २९ । ति । म । ३० । १० | २९ | भा || घर्मय मिश्ररुगगे स ९० । बं २९ । म । उ२९ ॥ भा ॥ धर्मावनिजा संयतंर्ग स ९० । २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ।। वंशादिमधविपय्यंतमाद नारक मिथ्यादृष्टिगळगे स ९० । बं २९ । ति । म । ३० । ति । उ । २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ।। आ सासादनळगे स ९० । बं २९ । ति । म । ३० । ति । उ । उ२९ । भा || आ मिश्ररुगळगे स ९० । बं २९ । म । उ २९ । भा ॥ तत्रत्यासंयतरुगळगे स ९० । बं २९ । म । उ । २९ । भा ॥ माघ१५ विय मिथ्यादृष्टिगळगे स ९० । २९ । ति ३० । ति । उ । उ २१ । २५ ॥ २७॥ २८॥ २९ ॥ स ९१ । बं २९ | दे । ती । उ ३० । अप्रमत्ते स ९१ । बं २९ । दे । ती । उ ३० । अपूर्वकरणे स ९१ । बं २९ । दे ती । उ ३० । अनिवृत्तिकरणे स ९१ । बं १ । उ ३० । सूक्ष्मसाम्पराये स ९१ । बं १ । उ ३० उपशान्तकषाये स ९१ । बं । उ ३० । देवेषु तु भवनत्रयकल्पस्त्रीवजितेष्वेव । तत्रापि न मिथ्यादृष्ट्यादित्रये । असंयते स ९१ । बं ३० ॥ मती । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । नवतिके धर्मामिथ्यादृष्टी स ९० । २९ । ति म । ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ | सासादने स ९० ॥ बं २९ । ति म । ३० तिउ । उ२९ भा । मिश्रे स ९० । बं २९ । म । उ२९ । भा । असंयते । स ९० । बं २९ म । उ २१ । २५ | २७ । २८ | २९ | वंशादिमघव्यंतमिथ्यादृष्टो स९० । बं २९ ति म । ३० ति । उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । सासादने स ९० । वं २९ । ति म । ३० ति । उ । उ२९ भा । मिश्रे स ९० । बं २९ । म उ २९ । भा । असंयते स ९० । बं २९ । म । उ २९ २५ भा । माघवी मिथ्यादृष्टौ स ९० । बं २९ वि । ३० ति उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । सासादने २० संयतमें बन्ध देवतीर्थ सहित उनतीसका उदय तीसका है। प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण के छठे भाग पर्यन्त इसी प्रकार है। अपूर्वकरणके सातवें भाग, अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म साम्पराय मैं बन्ध एकका उदय तीसका है । उपशान्त कषाय में बन्ध नहीं, उदय तीसका है। देवोंके इक्यानबेका सत्त्व भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियोंको छोड़कर शेष ३० वैमानिक देवोंमें असंयत गुणस्थान में ही होता है । वहाँ बन्ध मनुष्य तीर्थ सहित तीसका उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है । नब्बेके सत्त्वमें मिध्यादृष्टि में सब नारकियोंमें बन्ध तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तियंच उद्योत सहित तीसका है किन्तु माघत्रीमें मनुष्य सहित बन्ध नहीं Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११०३ आ सासादनरुगळ्गे स ९० । बं २९ । ति । ३०। ति उ । उ २९ । भा॥आ मिश्ररुगळगे स ९० । बं २९ । म । उ २९ । भा॥ माघविजासंयतंगे स ९० । ब २९ ।म। उ २९ । भा॥ तिर्यग्गतिजरोळु मिथ्यादृष्टिगळ्गे स ९० । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० ॥ उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८॥ २९ । ३० । ३१ ।। सासादनरुगळ्गे स ९०। बं २८ । दे। २९ । ति । म । ३० । ति । उ । उ २१ । २४ । २६ । ३० । ३१ । तियेग्मिश्ररुगळ्गे स ९०। बं २८ । दे। उ ३०। ३१ । १ तियंगसंयतरुगळ्गे स ९१ । बं २८। वे । उद २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ तिर्यग्वेशसंयतंगे स ९० । बं २८ । वे । उ ३० । ३१ ॥ मनुष्यगतिजमिथ्यादृष्टिगे स ९० । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २६ । २८ । २९ ॥ ३० ॥ आ सासादनरुगळ्गे स ९० । बं २८ । दे २९ । ति । म ३० । ति उ । उ २१ । २६ । ३० ।। मिश्ररुगळगे स ९० । बं २८ । दे। उ ३० ।। मनुष्यासंयतरुगळ्गे स ९०। २८ । दे। उ २१ । २६ ॥ २८॥ २९॥ ३०॥ मनुष्यवेशसंयतरु. १० गळगे स९० । बं २८ । दे। उ ३०॥ प्रमत्तसंयतरुगळगे स ९० । बं २८ । दे। उ ३० । अप्रमत्त. संयतरुगळ्गे स ९०। २८। दे। उ ३०॥ अपूर्वकरणंगे सत्वं ९० । बं २८। ।१ । उ ३०॥ स ९० । बं २९ ति । ३० ति उ । उ २९ भा। मिश्रे स ९० । बं २९ । म । उ २९ भा। असंयते । स ९०। २९ । म । उ २९ । भा। तिर्यग्मिथ्यादृष्टौ स ९० । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । सासादने स ९० ! बं २८ । दे २९ ति म । ३० ति उ । उ २१ । २४ । २६ । ३० । ३१ । मिश्रे स ९०। बं२८ दे । उ ३० । ३१ । बसंयते । स ९०। बं २८ दे। उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । ३१ । देशसंयते स ९०। बं २८। दे। उ ३० । ३१ । मनुष्यमिथ्यादृष्टी स ९० । बं २३ । २५। २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । सासादने स ९० । बं २८ दे। २९ ति । म । ३० ति । उ । २१ । २६ । ३० । मिश्रे स ९० । बं २८ । है। उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। सासादनमें बन्ध मिथ्या- २० दृष्टिकी तरह है उदय उनतीसका है। मिश्रमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका उदय उनतीसका है। असंयतमें बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका है। उदय धर्मामें इक्कीस, पञ्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस का है। शेषमें उनतीसका है। तियंचोंमें नब्बेके सत्त्वमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पञ्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। उदय इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका है। सासादनमें बन्ध देवसहित अठाईस या तियच मनुष्य सहित उनतीस या तियंच उद्योत सहित तीसका है । उदय इक्कीस, चौबीस, छब्बीस, तीस, इकतीसका है। मिश्रमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय तीस, इकतीसका है। असंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका तथा उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका है। देशसंयतमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय तीस, इकतीसका है। मनुष्योंके नब्बेके सत्त्वमें मिध्यादृष्टिमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका, उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। सासादनमें बन्ध देवसहित अठाईसका या तिथंच वा मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है । उदय इक्कीस, छब्बीस, तीसका है। मिश्रमें बन्ध देवसहित अठाईसका उदय क-१३९ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ गो० कर्मकाण्डे अनिवृत्तिकरणंगे स९० । बं १ । उ ३० ॥ सूक्ष्मसांपरायंगे स९० । बं १ । उ ३० ॥ उपशांतकषायेंगे स ९० । बं । ० । उ ३० ॥ देवगतिजरोळ भवनत्रयमिध्यादृष्टिगळगे स ९० । बं २५ ॥ २६ । २९॥ ३० ॥ उ २१ | २५ | २७ । २८ । २९ ।। आ सासावन रुगळगे स ९० । बं २९ । ति । उ । उ २१ । २५ । २९ ।। भवनत्रयमिश्ररुगळ स ९० । बं २९ । म । उ२९ । भा ॥ भवनत्रितया५ संयतगोस ९० । बं २९ । म । उ२९ । भा । सौधर्म्मद्वयमिथ्यादृष्टिगोस ९० । बं २५ ॥ ११०४ २५ २६ । २९ । ३० । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । सौधर्मद्वय सासादनगळ स९० । बं २९ । ति । म । ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २९ । भा । आ मिश्ररुगळगे स ९० । बं २९ । म । उ २९ । भा ॥ सौधर्मद्वयजासंयत रुगळगे स९० । बं २९ | म | उ २१ | २५ | २७ । २८ । २९ ।। सानत्कुमारादिदशकल्पज मिथ्यादृष्टिगळगे स९० । २९ । ति । म ३० । ति । उ । २१ । २५ ॥ २७ ॥ २८ । २९ ।। सासादनरुगळगे स ९० । बं २९ । ति । म ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २९ । भा ॥ आ मिश्र स ९० । बं २९ । म । उ२९ । भा ।। तत्रत्यासंयतरुगळगे स९० । बं २९ । म । उ २१ । २५ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ आनताद्युपरिमप्रैवेयकावसानमाद सुररोळ, मिथ्यादृष्टिगो स ९० । बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ।। आ सासावनरुगळगे स ९० । बं २९ ॥ दे । उ ३० । असंयते स ९० । बं २८ । दे । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । देशसंयते स ९० । बं २८ । १५ दे । उ ३० । प्रमत्ते स ९० । बं २८ । दे । उ ३० । अप्रमत्ते स ९० । बं २८ । दे । उ ३० । अपूर्वकरणे स ९० । बं २८ दे १ । उ ३० । अनिवृत्तिकरणे स ९० । बं १ । उ ३० । सूक्ष्मसाम्पराये स ९० । बं १ । उ ३० । उपशान्तकषाये स ९० । बं० । उ ३० । भवनत्रयमिध्यादृष्टौ स ९० बं २५ | २६ । २९ । ३० । उ २१ । २५ । १२७ । २८ । २९ । सासादने स ९० । बं २९ ति म । ३० ति उ । उ २१ । २५ । २९ । मिश्रे स ९० । बं २९ म । उ२९ भा । असंयते स ९० । बं २९ । म । उ२९ । भा । सौधर्मद्वये मिथ्यादृष्टी २० स ९० । बं २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । सासादने स ९० । बं २९ ति म । ३० ति । उ । उ २१ । २५ । २९ । भा । मिश्रे स ९० । बं २९ । म । उ२९ । भा । असंयते स ९० । बं २९ | म | उ २१ | २५ | २७ । २८ । २९ । उपरि दशकल्पमिथ्यादृष्टौ । स ९० । बं २९ ति म । ३० । ति उ । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । सासादने स ९० । बं २९ । ति म । ३० वि । उ । उ२१ । तीसका है। असंयत में बन्ध देवसहित अठाईसका उदय इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। देशसंयत प्रमत्त अप्रमत्तमें बन्ध देवसहित अठाईसका, अपूर्वकरण में देवसहित अठाईसका वा एकका है। अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय में बन्ध एकका, उपशान्तकषाय में बन्ध नहीं, उदय देशसंयतसे उपशान्त कषाय पर्यन्त तीसका ही है । देवोंके नब्बे के सत्त्वमें मिध्यादृष्टिमें भवनत्रिक और सौधर्म द्विकमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका है । सहस्रार पर्यन्त बन्ध तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका ३० अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है । ऊपर मैवेयक पर्यन्त मनुष्य सहित उनतीसका ही बन्ध है । उदय ऊपर ग्रैवेयक पर्यन्त इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। सासादन में बन्ध सहस्रार पर्यन्त तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। ऊपर प्रैवेयक पर्यन्त मनुष्य सहित तीसका है। उदय ऊपर प्रेवेयक पर्यन्त इक्कीस, पचीस, उनतीसका है। मिश्रमें ऊपर ग्रैवेयक पर्यन्त बन्ध मनुष्य सहित Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११०५ म । उ २१ । २५ । २९ ॥ आ मिश्ररुगन्गे स ९०। बं २९ । म । उ २९ । भा॥ तत्रत्यासंयतरगळ्गे स९० । बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ ॥ अनुविशानुत्तरविमानंगळोळेल सम्यग्दृष्टिगळेयप्परल्लि स ९० । बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७॥ २८ ॥ २९॥ । इंतु नवति सत्वस्थानाधिकरणदोळ बंधोक्यस्थानंगळ योजिसल्पद्रुवनंतरं अष्टाशीतिसत्त्वस्थानाधिकरणदोळ बंधोदयस्थानंगळु पेळल्पडुगुमवें तेबोरे:-अष्टाशीतिसत्वं तिचंगम- ५ नुष्यगतिद्वयदोळे संभविसुगु मितरनरकदेवगतिगळ देवनारकरो संभविसवे के दोडे अष्टाशीतिसत्त्वस्थानमेकेंद्रियविकलत्रयजीवंगळ्गे देवगतिद्वयोवेल्लनस्थानमप्पुरिवं स्वस्थानदोळमुत्पन्न. स्थानदोळं क्वचिदुंटु क्वचिदिल्लप्पुरिदमल्लि तिय्यंग्गतिजरोळ मिच्यादृष्टिगळ्गेस ८८। बं २३ । २५ ॥ २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० ॥ ३१ ॥वा सासादनमिश्रासंयत देशसंयतरोळष्टाशीतिसत्त्वं संभविसवु । मनुष्यगतिजरोल मिथ्यादृष्टिगळ्गे स ८८ । बं २३ । २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ । ३० । उ २१ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३०॥ सासावनादिगळोळी सत्वस्थानं संभविसदु । इल्लि तिर्यक्पंचेंद्रियजीवंगळोळ मनुष्यरोळं शरीरपाप्तिकालदोळष्टाशीति सत्त्वस्थानसंभवमे ते दोडे शरीरपाप्तियोळु नरकगतियुतमागष्टाविंशतिस्थानमुं मिथ्यादृष्टिगळु कट्टिदोडमष्टाशीतिसत्त्वस्थानं संभविसुगुमथवा तिय्यंग्मनुष्यगतियुतमागि कट्टिवोड२५ । २९ । भा। मिश्रे स ९० । बं २९ । म । उ २९ भा। असंयते स ९० । बं २९ । म । उ २१ । २५। ... २७ । २८ । २९। उपरि वेयकान्तमिथ्यादृष्टौ स ९० । बं २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । सासादने स ९० । बं २९ म । उ २१ । २५ । २९ भा। मिश्रे स ९० । बं २९ म । उ २९ । मा। असंयते स ९०। बं २९ म । उ २१ । २५ । २७ । २८ २९ । अनुदिशानुत्तरासंयते स ९०। २९ । म । उ २१ । २५ । २७ । २८ । २९ । अष्टाशीतिकमद्वेल्लितदेवद्विकैकविकलेन्द्रियाणां स्वस्थानोत्पन्नस्थानयोः। तत्र तिर्यग्मिथ्यादष्टो स८८।। बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । २४ २५। २६ । २७ । २८। २९ । ३० । ३१ । न सासादनादौ। मनुष्यमिथ्यादृष्टो स ८८। बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । उ२१ । २६ । २८ । २९ । ३० । न सासादनादौ । इदमष्टाशीतिकं सत्त्वं तु पंचेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यो मिथ्यादृष्टी शरीरपर्याप्तावष्टाविंशतिकं नरकगतियतं तिर्यग्मनुष्यगतियुतं वा बध्नतस्तदरा वा। विकलेन्द्रियो नारकचतुष्कमुद्वैल्य पंचेन्द्रियउनतीसका उदय उनतीसका है । असंयतमें भवनत्रिकमें बन्ध मनुष्यसहित उनतीसका उदय ॥ उनतीसका है। सौधर्मादि अनुत्तर पर्यन्त बन्ध मनुष्य सहित उनतीसका है। उदय इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसका है। अट्ठासीका सत्त्व देवद्विककी उद्वेलना होनेपर एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके होता है। वे मरकर जहाँ उत्पन्न होते हैं वहाँ भी होता है। सो तियंच मनुष्य मिथ्यादृष्टिके अट्ठासीके सत्त्वमें बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। उदय तिर्यंचोंके इक्कीस, चौबीस, पञ्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीसका है । मनुष्योंके इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है। यह अट्ठासीका सत्त्व पंचेन्द्रिय तिथंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टिके शरीर पर्याप्तिकालमें नरकगति सहित अठाईसका या तियंच मनुष्यगति सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका बन्ध करता है तब पाया जाता है। अथवा एकेन्द्रिय विकलत्रय नारक Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गो० कर्मकाण्डे मष्टाशीतिसत्त्वं संभविसुगुमथवा नारकचतुष्टय मुमनुवेल्लनमं माडिद जीवंगळुत्पन्नतिप्यं क्पंचेंद्रियजीवंगळोळं मनुष्यरोळं शरीरपर्याप्तियोळ सुरचतुष्यटमं कट्टिदोडमष्टाशीतिसत्यं संभविस में वरिवुदु ॥ इंतष्टाशीति सत्त्वस्थानाधिकरणवो बंधोदयंगळु पेळपट्टुवनंतरं चतुरशीतिसरवस्थानाधिकरणदोळ बंधोदयंगळ पेळल्पडुगुमदे' ते बोर्ड : चतुरशीतिसत्वस्थानं तिगतियोळं मनुष्यगतियोळं संभविसुवु । नरकगतिदेवगतिजरोळ संभविसदल्लि तिर्य्यग्गतिजरोळे केंद्रिय विकलत्रयजीवंगळे नारकचतुष्टयमनु वेल्लनमं माडपट्ट सत्वस्थानमप्पुरदमवर स्थानदोळमुत्पन्नस्थानवोळं विवक्षिसल्पट्ट मिथ्यादृष्टिगळगे स ८४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ | २५ | २६ | २७ | २८ | २९ । ३० । ३१ ॥ सासादनादिगळोळेल्लियुमी चतुरशीति सत्त्वं संभविसदु । मनुष्यगतिजरोयुत्पन्नस्थानवोल १० मिध्यादृष्टिग स ८४ । बं २३ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २९ ॥ ३० | उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० ।। इल्लि शरीरपर्याप्त्यादिगळोळु तिग्मनुष्यगतियुतस्थानंगलं टुवन्नवरं तत्सत्वस्थानं संभविसु । नरकगतिदेवगतियुतमागि कट्टुवागळ तत्सत्वं पंचेंद्रियतिष्यचरोळं मनुष्यरोचं संभविसदे वरि पडुगुं । सासादनादिगुणस्थानं गळोळेल्लियुमी चतुरशीतिसत्त्वं मनुष्यरोळ संभविसदु ॥ यितु चतुरशीतिसत्त्वस्थानदोलु बंधोदयस्थानंगळु योजिसल्पटुवनंतरं द्वयशोतिसत्व१५ स्थानाधिकरणवोळ बंधोदयंगळु योजिस पडुगुमदे ते वोर्ड — दूधशीतिसत्त्वंस्थानं तिष्यंग्गतियोळे संभविसुगुमे दोडा सस्वस्थानं तेजोवायुकायिकजीवंगळु मनुष्यद्विकमनुदुद्वेल्लनमं माडिवसत्वस्थानमप्पुर्दारमा जोवंगळ विवक्षेयिदं स्वस्थानदोळमुत्पन्नस्थानदोळं तज्जीवंगळ विवक्षय बं मिध्यादृष्टिग स ८२ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २९ । २६ ॥ यिल्लि २५ ११०६ तिर्यमनुष्येषूत्पन्नः शरीरपर्याप्तौ सुरचतुष्कं बध्नाति तदा च सम्भवति । चतुरशीतिक मुद्वेल्लितनारकचतुष्कस्य स्वस्थानोत्पन्नस्थानयोः । तत्र तिर्यग्मिथ्या दृष्टीस ८४ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० । उ २१ । न सासादनादौ । मनुष्यमिध्यादृष्टौ स ८४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० । उ २१ । २६ । २८ । २९ । ३० । न सासादनादी । इदं सत्त्वं शरीरपर्याप्त्यादी तिर्यग्मनुष्यगतिबन्धे स्यान पंचेन्द्रियतिर्यग्मनुष्ययोर्देवनारकगतिबन्धे । द्वयशीतिक मुद्वेल्लित मनुष्य द्विकते जोवाय्वोः स्वस्थानोत्पन्नस्थानयोमिथ्यादृष्टी स ८२ । बं २३ । २५ । चतुष्ककी उद्वेलना कर मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य होकर शरीरपर्याप्तिकाल में देवचतुष्कका बन्ध करता है तब होता है । चौरासीका सत्त्व नरक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके होता है । वे मरकर तिर्यंच या मनुष्य में जहाँ उत्पन्न होते हैं मिध्यादृष्टि ही होते हैं । वहाँ बन्ध और उदय अठासीके सत्त्वमें कहे अनुसार ही जानना । विशेष इतना कि यहाँ अठाईसका बन्ध नहीं है । यह चौरासीका सत्त्व शरीर पर्याप्ति काल आदि में तियंच या मनुष्यगतिका बन्ध होनेपर ही होता है। पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्यके देव या नरकगतिका बन्ध होनेपर ऐसा सत्व नहीं होता । ३० बयासीका सत्व मनुष्यद्विककी उद्वेलना होनेपर तेजकाय, वायुकायके होता है । वे Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११०७ तेजोवायुकायिकंगळ शरीरपर्याप्तियोळ मुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोळमातपोद्योतोदयमिल्लप्पुरिदं पंचविंशतिषड्विंशतिस्थानोदयंगळे पेळल्पटुवें दरियल्पडुगुं । एकेंद्रियाद्यन्यतनतिय्यंचरोत्पत्तितेजोवायुकायिकंगळ्गे संभवमुझळोडमदु विवक्षिसल्पडदे दोडा एकेंद्रियादिजीवंगळ्गे मनुष्यगतियुतस्थानबंधमुंटप्पुरिदमा मनुष्यद्विकक्के सत्वमादुदादोडा द्वयशीतिसत्वस्थानं संभविसदे पोकुमप्पुरिदं ॥ अनंतरमशोतिसत्वस्थानाधिकरणदोळ बंधोदयस्थानंगळु योजिसल्पडुगुमदते दोडेअशीतिसत्वस्थानं मनुष्यगतिजरोळल्लदेल्लियुं संभविसदेके दोडे क्षपकश्रेणियोळु क्षपकरोळं स्नातकरोळं संभविसुव सत्वस्थानमप्पुरिंदमल्लियनिवृत्तिकरणक्षपकनोलु स ८० । बं१। उ ३०॥ सूक्ष्मसांपरायनोळ स ८० । बं १ । उ ३०॥क्षीणकषायनोळ स ८० । बं । उ ३०। स्वस्थान सयोगकेवलियोळु स ८०। बं । । उ ३० ॥ समुद्घातसयोगकेवलियोनु स ८० । बं। । उ १० २१ । २७ । २९ । ३० ॥ ३१ ॥ अयोगिकेवलियोळु स ८० । बं । ०। उ९॥ ___मत्तमा क्षपकश्रेणियोळे अनिवृत्तिकरणदोळु तीर्थसत्वरहितमागि स ७९ । बं १। उ ३०॥ सूक्ष्मसांपरायनोळु स ७९ । बं १। उ ३० ॥क्षीणकषायनोळ स ७९ । बं । ० । उ ३०॥ स्वस्थानसयोगकेवलियो स ७९ । बं । ०। उ ३०॥ समुद्घातकेवलियोळ स ७९ । बं । । उ २० । २६ । २८ । २९ । ३०॥ अयोगिकेवलियोळ स ७९ । बं । ०। उ८॥ मत्तमा क्षपक. १५ श्रेणियोळे तीर्थसत्त्वयुतमागियाहारकद्वयसत्वरहितमागि अनिवृत्तिकरणक्षपकनोळ स ७८ । बं १। उ ३०॥ सूक्ष्मसांपरायनोळ स ७९ । बं १ । उ ३० ॥क्षीणकषायनोळ स ७८ । । । उ ३०॥ स्वस्थानसयोगकेवलियोळ स ७८ । बं । । उ ३१ ॥ समुद्घातकेवलियोळ स ७८ । बं । ०। उ २१ । २७ । २९ ॥ ३० ॥ ३१॥ अयोगिकेवलियोळ स ७९ । बं । ०। उ८॥ मत्तमा २६ । २९ । ३० । उ २१ । २४ । २५ । २६ । अत्र तेजोवाटवोरातपोद्योतानुदयाच्छरीरपर्याप्तो उच्छ्वास- २० पर्याप्तौ च पंचविंशतिकमेव । षविंशतिके न द्वचशीतिकं । मनुष्य द्विकबन्धे तदन्यतिर्यक्षु । अशीतिक क्षपकस्नातकयोरेव । तत्रानिवृत्तिकरणे स ८० । बं १। उ ३०। सूक्ष्मसाम्पराये स ८० । बं १। उ ३० । क्षीणकषाये स ८० । बं । उ ३० । सयोगे स्वस्थाने स ८०। बं । उ ३० । समुद्घाते स८ । बं० । उ २१ । २७ । २९। ३० । ३१ । अयोगे। स८० । बं । उ ९। अतीर्थेऽनिवृत्तिकरणे स ७९ । बं १। उ ३० । सूक्ष्मसापराये स ७९ । बं१। उ ३०। क्षीणकषाये स ७९ बं । उ ३० । सयोगे स्वस्थाने स ७१। बं ० । उ ३० । समुद्घाते स ७९ । बं ० । उ २० । २६ । २८ । २९ । ३० । अयोगे स ७९ । बं । उ ८। आहारसत्त्वरहितेऽनिवृत्तिकरणे स ७८ । बं १ । उ ३० । सूक्ष्मसाम्पराये मरकर तिर्यंच में उत्पन्त होते हैं वहां भी होता है। वहां बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका है । उदय इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीसका है। तेजकाय, वातकायमें आतप उद्योतका उदय न होनेसे शरीर पर्याप्ति और उच्छवास पर्याप्तिमें पच्चीसका ही ३० उदय है छब्बीसका नहीं है। ____ अस्सीका सत्त्व क्षपक श्रेणीवाले अनिवृत्तिकरण आदिमें तथा तीर्थंकर केवलीके होता है । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्परायमें बन्ध एकका है । उससे ऊपर बन्ध नहीं है । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ । २८ । २९ ॥ ३० ॥ अयोगिकेवलियो ५ केवलियोळ तीथंयुतमागि स १० । बं । ० । उ९ ॥ ११०८ गो० कर्मकाण्डे वं । ० । उ ३० ॥ स्वस्थान क्षपकश्रेणियोळे तोर्त्याहारसत्वरहिता निवृत्तिकरणनोळु स ७७ । रायक्षपकोळ, स७७ ॥ बं १ । उ ३० । क्षीणकषायनोळ, स ७७ । सयोगकेवलियो स ७७ । बं । ० । उ ३० ॥ समुद्घात केवलियोळ स ७७ । बं । ० । उ २० । बं । ० । उ ८ ॥ मत्तं चरमसमयायोगितीर्त्य रहितायोगिके वलिजिननो स९ । स ७७ । १० 9 । बं । ० । उ ८ ॥ fig सत्वस्थानैकाधिकरणदोळ बंधोदयस्थानंगळ, योजिस पट्टुवनंतरं बंधोदयस्थानद्वयाधिकरणवोळ, सत्वस्थानं गळनाचाय्यं गाथानवर्कादिदं निरूपिसिदपं : तेवी सबंध इगिवीसणवुदयेसु आदिमचउक्के | बाणउदिणउदि अडचउबासीदी सत्तठाणाणि ॥ ७६०॥ त्रयोविंशतिबंधके एकविंशति नवोदयेष्वादिमचतुष्के । द्वानवतिनवत्यष्टचतुद्वर्घशोति सत्त्वस्थानानि ॥ १ । उ ३० ॥ सूक्ष्मसांप त्रयोविंशतिबंधकनोळे एकविंशत्यादि नवोदयस्थानंगळोळ आदिमस्थानचतुष्टयदोळ द्वानवतिनवत्यष्टाशीतिचतुरशीतिद्वयशीतिसत्त्वस्थानंगळवु । बं २३ । उ २१ । २४। २५ ॥ १५ स ७८ । बं १ | उ ३० । क्षीणकषाये स ७८ । बं ० । उ ३० । सयोगे स्वस्थाने स ७८ । बं ० । उ ३१ । समुद्घाते स ७८ । बं ० । उ २१ । २७ । २९ । ३० । ३१ । अयोगे स ७८ । बं ० । ९ । तीर्थाहारासनिवृत्ति करणे स ७७ । बं १ । उ ३० । सूक्ष्मसाम्पराये स ७७ । वं १ । उ ३० । क्षीणकषाये स७७ । बं ० । उ ३० । सयोगे स्वस्थाने स ७७ 1 बं० । उ३० । समुद्घाते स ७७ । बं ० । उ २० । २६ । २८ । २९ । ३० । अयोगे स ७७ । बं ० । उ ८ । चरमसमये सतीर्थे स १० । बं० । उ ९ । वितीर्थे स २० ९ । बं ० । उ ८ ॥७५९ ॥ ते सत्त्वस्थानाघारे बन्धोदय सत्त्वस्यानान्याधेयत्वेन संयोज्य बन्धोदयद्वयाधारे सत्त्वस्थानान्याधेयतया गाथानवकेनाह उदय क्षीणकषाय पर्यन्त तीसका है । सयोगी में स्वस्थान केवलीके तीसका और समुद्घात केवली के इक्कीस, सत्ताईस, उनतीस, तीस, इकतीसका उदय है । अयोगीके नौका उदय है । उन्यासीका सत्त्व तीर्थंकर रहित है । अठत्तरका सत्त्व तीर्थंकर सहित आहारक २५ रहित है । सतहत्तरका सत्व तीर्थंकर और आहारकद्विक रहित है। इन तीनों में बन्ध उदय क्षपक अनिवृत्तिकरणसे क्षीणकषाय पर्यन्त तो जैसे अस्सीके सत्व में कहे वैसे ही जानने । सयोगी में उन्यासी और सतहत्तर के सत्व में स्वस्थान केवलीके तीसका और समुद्घात केवली बीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीसका उदय है । अठत्तरके सत्व में अस्सीके सत्त्वके समान जानना । अयोगीमें उन्यासी, सतहत्तर के सत्त्वमें आठका उदय है और अठत्तरके सत्त्वमें नौका उदय है । अयोगीके चरम समय में दसका सत्त्व तीर्थरहित है । वहाँ बन्ध नहीं है। उदय क्रमसे नौ और आठका है ॥७५९ ॥ ३० इस प्रकार सत्वस्थानको आधार और बन्ध उदयको आधेय बनाकर व्याख्यान किया। आगे बन्ध उदयको आधार और सत्वको आधेय करके नौ गाथाओंसे कथन करते हैं । यहाँ इतनेके बन्ध और इतनेके उदय में सत्त्व कितनेका पाया जाता है ऐसा कथन है Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका २६ । स ९२ । ९० । ८८४८४८२॥ तेणुवरिमपंचुदये ते चेवंसा विवज्ज बासीदि । एवं पणछव्वीसे अडवीसे एक्कवीसुदये ॥७६१।। तेनोपरिमपञ्चोदये ते चैवांशा विवज्यं यशोतिमेवं पंचषड्विंशत्यामष्टाविंशत्यामेकविशत्युदये ॥ तेन सह आ त्रयोविंशतिस्थानबंधयुतमागियुपरितनसप्तविंशत्यादि पंचस्थानोदयंगळोळु ते चैवांशाः आ पूर्वोक्तद्वानवत्यादि पंचसत्त्वस्थानंगळे यप्पुवावडं द्वधशोतिस्थानं वज्जिसल्पटुवक्कुं । बं २३ । उ २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स ९२।९० । ८८ ॥ ८४ ॥ एवं पंच षड्विंशत्यां इहिंगे पंचविंशति षड्विंशतिस्थानद्वयबंधवोदयसत्वंगळरियल्पडुगुं । बं २५ । २६ ॥ उ २१ । २४। २५ । २६ । स ९२। ९०। ८८। ८४ । ८२॥ उपरितनसप्तविंशत्यादि पंचोदयंगळोळु १० बं २५ । २६ । उ २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । स.९२।१०। ८८ । ८४ ।। अष्टाविंशतिबंधमुमेकविंशत्युक्यमु मुळ्ळरोळु सत्त्वंगळं पेळ्वपरु: बाणउदिणउदिसत्तं एवं पणुवीसयादिपंचुदये । पणसगवीसे णउदी विगुव्वणे अस्थि णाहारे ।।७६२॥ द्वानवतिनवतिसत्त्वमेवं पंचविंशत्यादि पंचोवये पंच सप्तविंशत्यां नवतिविकुवणेऽस्ति १५ नाहारे॥ द्वानवतियुं नवतियुं सत्त्वमक्कुं । बंध २८ । उ २१ । स ९२।९० ॥ इहिंगे पंचविंशत्यादि पंचोदयस्थानंगळोळमक्कुमादोडमल्लि पंचविंशति सप्तविंशतिस्थानोदयद्वयदोलु नवतिसत्त्वस्थानं त्रयोविंशतिकबन्धे एकविंशतिकादिनवोदयेष्वादिमचतुष्के सत्त्वस्थानानि द्वानवतिकनवतिकाष्टचतुर्यग्राशीतिकानि ॥७६०॥ तेन त्रयोविंशतिकबन्धेन सहोपरितनसप्तविंशतिकादिचोदयेषु सत्त्वस्थानानि तान्येव पंच द्वयशीतिकोनानि । पंचषडग्रविंशतिकबंधयोरुदयसत्त्वानि त्रयोविंशतिकबन्धोक्तप्रकारेण ज्ञातव्यानि ॥७६१॥ अष्टाविशतिकबन्धकविंशतिकोदये तु द्वानवतिकनवतिकसत्त्वं स्यात् । एवं पंचविंशतिकादिपंचोदयेष्वपि । किंतु पंचसप्ताग्रविशतिकयोर्नव तेईसके बन्धमें इक्कीस और नौ उदयस्थान होते हैं। उनमेंसे प्रथम चार उदयस्थानोंमें बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासी, बयासीके पाँच सत्वस्थान हैं ॥७६०॥ " २५ ऊपरके सत्ताईस आदि पाँच उदयस्थानोंमें सत्त्वस्थान उक्त पाँचमें-से बयासीके बिना चार होते हैं। पच्चीस, छब्बीसके बन्धमें उदयस्थान और सत्त्वस्थान तेईसकी तरह ही हैं ॥७६१।। आगे अठाईसके बन्ध सहित इक्कीसके उदयमें कहते हैं अठाईसके बन्ध और इक्कीसके उदयमें बानबे और नब्बेका सत्त्व है। इसी प्रकार ३० अाईसके बन्धके साथ पच्चीस आदि पाँचके उदयमें सत्त्व होता है। इतना विशेष है कि Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११० गो० कर्मकाण्डे विक्रयद्धियुतरोळंटु । आहारकद्धियुतरोळिल्ल । बं २८ । उ २६ । २८ । २९ । स ९२ । ९०॥ आहारकद्धियुक्तरोळ बं २८ । उ २५ । २७ । स ९२॥ तेण णभिगितीसुदये बाणउदिचउक्कमेक्कतीसुदये। । पवरि ॥ इगिणउदिपदं णववीसिगिवीसबंधुदये ॥७६३॥ ५ तेन नभ एक त्रिंशदुदये द्वानवतिचतुष्कमेकत्रिशदुदये। नवमस्ति नैक नवतिपदं नवविंशत्येकविंशति बंधोदये ॥ तेन सह आ अष्टाविंशतिस्थानबंधयुतमागि नभोयुतेकयुतत्रिशदुवयंगळोळ क्रमविवं द्वानवतिचतुष्कं सत्वमक्कुमल्लि एकत्रिंशदुदयदोळु शेषमुंटवावुर्वेदोर्ड नैकनवतिपदं एकनवति सत्वस्थानं संभविस। संदृष्टि । बं २८ । उ ३० । स ९२ । ९१ । ९०। ८८ ॥ मत्तं बंध २८ । १० उ ३१ । स ९२ । ९० । ८८ ॥ नवविंशतिबंधमुमेकविंशत्युदयदोळ सत्त्वस्थानंगळं पेळ्वपरु : तेणउदिसत्तसत्तं एवं पणछक्क वीसठाणुदये । चउव्वीसे वाणउदी णउदिचउक्कं च सत्तपदं ॥७६४॥ त्रिनवति सप्तसत्वमेवं पंच षड्विंशति स्थानोदये। चतुविशत्यां द्वानतिर्भवतिचतुष्कं च सत्वपदं॥ नवविंशत्येकविंशति बंधोदयंगळोळ विनवत्यादि सप्तसत्त्वस्यानंगळप्पुयु । बंध २९ । उ २१॥ स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२॥ एवं पंचविंशति षड्विंशतिस्थानोदयंगळोळक्कुं। बं २९ । उ २५ । २६ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८८1८४ । ८२॥ चतुम्विशत्यां चतुविशत्युदयस्थानदोळ द्वानवतियुं नवतिचतुष्कमुं सत्त्वमक्कुं। बं २९ । उ २४ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । ८२॥ २० तिकसत्त्वं सविक्रियदिषु नाहारकद्धिषु ॥७६२॥ तेनाष्टाविंशतिकबन्धनयुतशुन्यकाधिकत्रिशत्कोदये सत्त्वं द्वानवतिकचतुक कित्येकत्रिंशत्कोदये नैकनवतिकं ॥७६३॥ नवविंशतिकबन्धकविंशतिकोदये ___ सत्त्वं विनवति कादीनि सप्त । एवं पंचषडग्रविंशतिकयोरपि । चतुविशतिकोदये दानवतिकं नवतिकादि. चतुष्कं च ॥७६४॥ २५ पच्चीस और सत्ताईसके उदयमें जो नब्बेका सत्त्व है वह वैक्रियिक अपेक्षा है आहारक अपेक्षा नहीं है ।।७६२॥ अठाईसके बन्धके साथ तीस, इकतीसके उदयमें बानबे आदि चारका सत्व है। इतना विशेष है कि इकतीसके उदयमें इक्यानबेका सत्त्व नहीं है ।।७६३।। उनतीसके बन्ध सहित इक्कीसके उदयमें तेरानबे आदि सातका सत्त्व है। इसी ३. प्रकार उनतीसके बन्ध सहित पच्चीस छब्बीसके उदयमें भी सत्त्व है। उनतीसके बन्ध सहित चौबीसके उदय में बानबे और नब्बे आदि चारका सत्त्व है ।।७६४॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका सगवीसचउक्कुदये तेणउदीछक्कमेवमिगितीसे । तिगिणउदी ण हि तीसे इगिपण सगअगुणवयवीसुदये ॥७६५ ॥ सप्तविंशतिचतुष्कोदये त्रिनवतिषट्कमेवमेकत्रंशदुदये । येकनवतिनहि त्रिशबंधे एक पंचसप्ताष्टनवविंशत्युदये ॥ ५ नववंशतिबंधमुं सप्तविंशत्यादिचतुःस्थानोदयंगळोळ, त्रिनवत्यादि षट्स्थानंगळ, सत्त्वमवु । २९ । उ २७ । २८ । २२ । ३० । स९३ । ९२ । ९९ । ९० । ८८ । ८४ ॥ एवमेकत्रिशद इन्कत्रिशत्प्रकृतिस्थानोदयदोळ मक्कुमादोडं त्रिनवत्येकनवतिस्थानंगळ सत्वमिल्ल | बंध २९ । उ ३१ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ ॥ यिन्नु सत्वस्थानंगळं पेदपरु : त्रिशत्प्रकृतिबंध मुमेकविंशतिपंचविशतिसप्तविंशत्यष्टाविंशतिनवविंशत्युदयंगळोळ. ते दिछक्कसत्तं इङ्गिपणवीसेसु अस्थि बासीदि । तेण छचउवीसुदये बाणउदी णउदिचउसत्तं ॥७६६॥ ११११ त्रिनवतिषट्क सत्व मेकपंचविंशत्यामस्ति द्वयशीतिः । तेन षट्चतुव्विशत्युवये द्वानवतिनवतिचतुः सत्वं ॥ त्रिनवत्यादिषट्कं सत्वमक्कुमदरोळेकविंशति पंचविंशत्युदयंगळोळ द्वशीतिसत्वमक्कुमतरोदयंगळोळ, द्वयशीतिसत्वं संभविसदे दरियल्पडुगुं । बं ३० । उ २१ । २५ । २७ ॥ २८ ॥ २९ । स ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८८ । ८४ । ८२ ॥ तेन सह आ त्रिशत्प्रकृतिबंध दोडने चतुव्विशति षड्वंशत्युदयदो द्वानवतियुं नवत्यादिचतुःस्थान सत्यमक्कुं । बंध ३० । उ २४ ॥ २६ ॥ स ९२ ॥ ९०।८८ । ८४ । ८२ ॥ २० नवविंशतिबन्ध सप्तविंशतिकादिचतुर्षुदयेषु सत्वं त्रिनवतिकादिषट्कं । एवमेकत्रिशत्को दयेऽपि किंतु न त्रिनवतिकै नवतिके द्वे ॥७६५ ॥ त्रिशत्कबंध कपंचसप्ताष्टनवाधिकविंशतिको दयेष्वेवमाह - सत्त्वं त्रिनवतिकादिषट्कं । तत्र द्वयशीतिकं त्वेकपंचाधिकविंशतिको दययोरेव नेतरोदयेषु । तेन त्रिशत्कबन्धेन सह चतुः षडग्रविशतिकोदययोः सत्त्वं द्वानवतिकं नवतिकादिचतुष्कं च ॥७६६ ॥ तीस बन्धके साथ इक्कोस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसके उदय में सत्त्व तिरानबे आदि छहका है। इतना विशेष है कि बयासीका सत्व इक्कीस-पच्चीसके उदयमें ही होता है, अन्य उदयों में नहीं होता । अतः तीसके बन्ध सहित चौबीस, छब्बीसके उदयमें बानबे और नब्बे आदि चारका सत्व है ||७६६|| क- १४० १० उनतीसके बन्ध सहित सत्ताईस आदि चारके उदयमें सत्त्व तेरानबे आदि छहका है । इकतीस के उदय में भी इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि यहाँ तिरानबे, इक्यानबेका २५ सत्व नहीं है || ७६५॥ १५ ३० Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११२ गोकर्मकाण्डे एवं खिगितीसे ण हि बासीदी एक्कतीसबंधेण । तीसुदये तेणउदी सत्तपदं एक्कमेव हवे ॥७६७॥ एवं खैयकत्रिशदुदयेन न हि द्वयशीतिः एकत्रिंशद्बधेन । त्रिंशदुदये त्रिनवतिः सत्वपदमेकमेव भवेत् ॥ एवमी प्रकारमे त्रिशबंधमुं त्रिंशदेकत्रिंशवृदयमुमुळ्ळ जोवनोळ, पूर्वोक्तसत्वस्थानंगळेयक्कुमादोर्ड द्वचशीतिसत्वमिल्ल । बं ३० । उ ३० । ३१ ॥ स ९२। ८८ । ८४ ॥ एकत्रिशबंधदोडने त्रिंशदुदयदोळ त्रिनवतिसत्वस्थानमेयक्कुं। बं ३१ । उ ३० । स ९३॥ इगिबंधट्ठाणेण दु तीसट्ठाणोदये णिरुद्धम्मि । पढमचऊसीदिचऊ सत्तट्ठाणाणि णामस्स ॥७६८ ॥ १० एकबंधस्थानेन तु त्रिंशत्स्थानोदये निरुद्धे । प्रथमचतुरशोतिचतुःसत्वस्थानानि नाम्नः॥ एकबंधस्थानदोडने तु मत्तै त्रिंशत्रस्थानोदयमवस्थानमागुतं विरलु नामकर्मद प्रथमचतुःसत्वस्थानंगळमशोत्यादिचतुःसत्वस्थानंगळं सत्वमप्पुवु । बं १। उ ३० । स ९३ । ९२ । ९१ । ९०। ८० । ७९ ॥ ७८ ॥ ७७॥ अनंतरं बंधसत्वस्थानद्वयाधिकरणदोळुदयस्थानंगळं गाथाषटदिदं पेळ्दपरु : तेवीसबंधठाणे दुखणउदडचदुरसीदिसत्तपदे । इगिवीसादीणउदओ बासीदे एक्कवीसचऊ ॥७६९॥ त्रयोविंशतिबंधस्थाने द्विखनवत्यष्टचतुरशोति सत्वपदे । एकविंशत्यादि नवोदयः द्वयशोत्या. मेकविंशतिचत्वारि ॥ त्रिंशत्कबन्धत्रिंशत्कैत्रिंशत्कोदये सत्त्वं प्राग्वन्न हि द्वयशीतिकं । एकत्रिंशत्कबन्धेन समं त्रिंशत्कोदये २० सत्त्वं त्रिनवतिकमेवैकं स्यात् ॥७६७॥ एकबन्धेनावस्थिते तु त्रिंशत्कोदये नाम्नः सत्त्वं प्रथमचतुष्कमशीतिकादिचतुष्कं च ॥७६॥ अथ बन्धसत्त्वस्थानाधारे उदयस्थानान्याधेयत्वेन गाथाषट्केनाह तीसके बन्धके साथ तीस-इकतीसके उदयमें सत्त्व चौबीस आदि की ही तरह है किन्तु बयासीका सत्त्व नहीं है। इकतीसके बन्धके साथ तीसके उदयमें सत्व तिरानबेका ही २५ है ।।७६७॥ एकके बन्धके साथ तीसके उदयमें नामकर्मका सत्त्व तिरानबे आदि चार और अस्सी आदि चारका होता है ॥७६८॥ __ आगे बन्ध सत्वको आधार और उदयस्थानको आधेय बनाकर छह गाथाओंसे कहते हैं Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १११३ त्रयोविंशतिबंधस्थानदोळ द्विनवतियुं खनवतियुं अष्टाशीतियुं चतुरशीतियुं सत्वस्थानंगळागुत्तं विरलेकविंशत्यादि नवोदयस्थानंगळप्पु । बं २३ । स९२ । ९० । ८८ । ८४ । उ २१ । २४ | २५ | २६ | २७ | २८ । २९ । ३० । ३१ ।। मत्तमा त्रयोविंशतिबंधकनोळु द्वयशीतिसत्वस्थानमागुत्तं विरलेकविंशत्यादिचतुरुदयस्थानंगळवु । बं २३ । स ८२ । उ २१ । २४ । २५ | २६ ॥ एवं पछन्वी से अडवीसे बंधगे दुणउदंसे । वीसा दिबुदया चवीसट्ठाणपरिहीणा ||७७० ॥ एवं पंचविंशत्यामष्टाविशत्यां बंधके द्विनवत्यंशे । एकविंशत्या दिनवोदयाश्चतुव्विशति स्थान परिहीनाः ॥ एवं ई प्रकारविंदमे पंचविंशतिषड्विंशतिबंधस्थानद्वयदोळं सत्वोदयस्थानंगळवु । बं २५ ॥ २६ । ९२ । ९० । ८८ । ८४ । उ २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ।। मत्तमा- १० द्विस्थानबंधवोळु द्वयशीतिसत्य मागुतं विरलुदयंगळु मेकविंशत्यादिचतुःस्थानंगळप्पुवु । बं । २५ । २६ । स ८२ । उ २१ | २४ | २५ | २६ ॥ अष्टाविंशतिबंधकनोळ. द्विनवत्थंशबोळु वयस्थानं गळेक विशत्यादि नवोदयस्थानंगळप्पुवादोडमल्लि चतुव्विशत्युदयस्थान परिहीनंगळप्पु बु । बं २८ । स ९२ । उ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ afreउदी तीसं उदओ णउदीए तिरियसण्णिं वा । असीदीए तीस नववीसे बंधगे तिणउदीए || ७७१ ॥ एकनवत्यां त्रिशदयो नवत्यां तिर्य्यवसंज्ञिवत् । अष्टाशीतौ त्रिशद्वयं नवविंशत्यां बंधके त्रिनवत्यां ॥ त्रयोविंशतिबन्धस्थाने द्विखाधिकनवतिकाष्टचतुरधिकाशीतिकसत्त्वे उदयस्थानान्ये कविशतिकादीनि नव । तद्बषद्वय शीतिसत्त्वे एकविंशतिकादीनि चत्वारि ॥७६९ ॥ पंचषडविंशतिकबंषयोरपि सत्त्वोदयस्थानान्येवं त्रयोविंशतिकवद्भवंति । अष्टविंशतिकबन्धे द्विनवतिकसत्त्वे एकविंशतिकादीनि नव चतुर्विंशतिकोनानि ॥ ७७० ॥ तेईसके बन्धस्थानके साथ बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीके सत्वमें इक्कीस आदि नौ उदयस्थान होते हैं । तेईस के बन्धके साथ बयासोके सत्व में इक्कीस आदि चार उदयस्थान हैं ॥७६९॥ १५ २५ पच्चीस-छब्बीस के बन्धके साथ सत्त्वस्थान और उदयस्थान तेईसके समान होते हैं । अठाईसके बन्ध सहित बानबेके सत्व में चौबीसके बिना इक्कीस आदि नौ उदयस्थान होते हैं ||७७०|| २० Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे अष्टाविंशतिबंधमुमेकन व तिसत्वमुळ्ळनोळ, त्रिंशदुदयमक्कुं । बं २८ । सत्व ९१ । उ ३० ॥ मत्तमष्टाविंशतिबंधमुं नवति सत्वमुळ्ळनोळ, तिवसंज्ञियोळ, पेदुदयस्थानंगळवु । बं २८ । सत्व ९० । उ २१ । २६ । २८ । ३० । ३१ ।। मत्तमष्टाविंशतिबंधमुमष्टाशीतिसत्वनोल, त्रिशदेकत्रिशत्रुदयंगळप्पुवु । बं २८ । स ८८ | उ ३० । ३१ ।। नववंशतिबंधकनोळु त्रिनवतिस्थान सत्व५ दोळ उदयस्थानंगळं पेदपरु १० २० २५ १११४ एकविंशत्याद्यष्टोदयं गलप्पुवल्लि चतुव्विशत्युदर हितंगळप्पुवु । बं २९ । स ९३ | उदय २१ ॥ २५ | २६ । २७ । २८ । २२ । ३० ।। मत्तमा नवविंशति बंधमं द्विनवति नवतित्रयमुंसत्वमुळळनोळ एकविंशत्या दिनवोदयस्थानं गळवु । बं २९ । स ९२ । ९० । ८८ । ८४ । उ २१ ॥ २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ॥ मत्तं नववंशतिबंधमुमेकनवति सत्त्वयुतनोळ नरकगतियोळु पेदुदयस्थानंगळं मत्तं षड्विंशत्रिंशदुदयस्थानंगळमधिकंगळवु । बंध २९ । सत्त्व ९१ । १५ उदय २१ । २९ । २७ । २८ । २९ । ३० ।। बासीदे इगिचपणछत्रीसा तीसबंधतिगिणउदे | सुरमिव दुणउदी णउदी चउसुदओ ऊणतीसं वा ॥७७३॥ द्वयशीत्यामेकचतुःपंचषविशतिः त्रिशद्बंधत्र्ये कनवत्यां सुरवत् द्विनवतिनवति चतुर्षुदय एकाशिद्वत् ॥ तद्बन्धैकनवतिकसत्तत्रे उदयस्त्रिशत्कं । तद्बन्धनवतिकसत्त्वे तिर्यक् संयुक्तं षडष्टनवदर्श कादशाधिकविशतिकानि । तद्बन्वाष्टाशीतिकसत्त्वे त्रिशतकं कत्रिशतके द्वे ॥ ७७१ ॥ नवविशतिकबंधे त्रिनवतिकसत्त्वे आहउदयस्थानान्येविंशतिकादीन्यष्टौ चतुर्विंशतिकोनानि । पुनस्तद्बन्धद्विनवतिकनवतिकत्रयसत्त्वे एकविशतिकादीनि नव । पुनः तद्बन्धैकनवतिक उत्त्वे नरकगत्युक्तक पंचसप्ताष्टनवाधिकविंशतिकानि षट्विंशतिकत्रिंशत्काधिकानि ॥ ७७२ ॥ ३० -: afra साओ चवीसूणो दुणउदिणउदितिये | afrataणविगिणउदे णिरयं व छवीस तीसधिया ॥ ७७२ ॥ एकविंशत्याद्यष्टोदयः चतुव्विशत्यूनः द्विनवतिनवतित्रय एकविंशति नव एकनवत्यां नरकवत् षवंशतित्रिंशदधिकाः ॥ अठाईसके बन्धके साथ इक्यानबेके सत्त्व में उदय तीसका होता है । अठाईसके बन्ध साथ नब्बेके सत्त्वमें संज्ञीतियंच में कहे इक्कीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस के उदयस्थान हैं । अठाईसके बन्धके साथ अठासीके सत्त्वमें तीस- इकतीसका उदय है || ७७१ ॥ उनतीसके बन्धके साथ तिरानबेके सत्त्वमें चौबीसको छोड़ इक्कीस आदि आठ उदयस्थान हैं | उनतीसके बन्धके साथ बानबेका तथा नब्बे आदि तीनके सत्त्वमें इक्कीस आदि नौ उदयस्थान हैं। उनतीसके बन्धके साथ इक्यानबेके सत्त्व में नरकगतिमें कहे इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीसके तथा छब्बीस और तीस के उदयस्थान होते हैं ।।७७२ || Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका नवविंशतिबंधमुं द्वयशीतिसत्त्वमुळेळनोळुदयस्थानंगळमेकविंशति चतुविशति पंचविंशतिषड्विंशतिगळु मप्पुवु । बं २९ । स ८२ । उ २१ । २४ । २५ ॥२६॥ त्रिशबंधमुं ध्येकनवतिसत्त्वमुळ्ळरोळदयस्थानंगळु देवगतियोळु पेन्दुवक्कुं । बं ३० । स ९३ ॥ ९१ । उ २१ ॥ २५ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ मत्तं त्रिशबंधमुं द्विनवतिनवति चतुःस्थानसत्वंगळनुरोळदयस्थानंगळु नविंशतिबंधकनोळ पेन्दुवक्कुं। बंध ३० । स ९२ । ९०। ८८ । ८४ । उ २१ । २४ । २५ ॥ २६ । २७ । ५ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१॥ मत्तं त्रिंशबंधकनोल द्वयशोतिसत्त्वस्थानदोळुदयंगळ नवविंशतिबंध. कनोळेततेकविंशत्यादि चतुःस्थानंगळप्पुवु । बं ३० । स ८२ । उ २१ । २४ । २५ ॥ २६ ॥ इगितीसबंधठाणे तेणउदे तीसमेव उदयपदं । इगिबंधतिणउदिचऊ सीदिचउक्केवि तीसुदओ ॥७७४॥ एकत्रिंशदवंधस्थाने त्रिनवत्यां त्रिंशदेवोदयपदं। एकबंधत्रिनवतिचतुरशोति चतुष्केऽपि १० त्रिंशदुदयः॥ एकत्रिंशबंधस्थानदोळ विनवतिसत्वमागुतं विरलु त्रिशदुदयस्थानमो देयककुं । बं ३१ । स ९३ । उ ३० ॥ एकबंधमुं त्रिनवतिचतुष्कम मशीति चतुष्कमुं सत्त्वमुळ्ळवर्गळोळु त्रिंशदुदय. मोदेयककुं। बं १ । सत्व ९३ । ९२ । ९१ । ९० । ८० ॥ ७९ ॥ ७८ । ७७॥ उ ३०॥ नामबंधरहित. रोळ सत्त्वोदयंगळ विवक्षिसल्पडवेक दोडे द्वयाधारकाधेयं विवक्षितमप्पुदरिदं ॥ ____ अनंतर मुदयसत्त्वस्थानद्वयाधिकरणदोळु बंधस्थानंगळं गाथादशकदिदं पेळ्दपरु : तद्बन्धद्वयशीतिकसत्त्वे उदयस्थानान्येकचतुष्पंचषडधिकविंशतिकानि, त्रिंशत्कबंधश्येकनवतिकसत्त्वे देवगत्युक्तानि पंच । तद्बन्धद्विनवतिकनवतिकादिचतुष्कसत्त्वे नवविंशतिकबन्धोक्तानि नव । तद्बषद्वयशीतिकसत्त्वे तु नवविंशतिकबन्धवच्चत्वारि ।।७७३॥ एकत्रिंशत्कबन्धस्थाने त्रिनवतिकसत्त्वे उदयस्थानं त्रिंशत्कं । एकबन्धविनवतिकादिचतष्काशीतिकादि. २० चतुष्कसत्त्वेऽपि तदेव । अग्रे बंधाभावे द्वयाधारकाधेयत्वं न संभवति ।।७७४॥ अथोदयसत्त्वस्थानाधारे बन्ध. स्थानान्याधेयत्वेन गाथादशकेनाह उनतीस के बन्धके साथ बयासीके सत्त्वमें इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीसके उदयस्थान हैं। तीसके बन्धके साथ तिरानबे-इक्यानबेके सत्त्वमें देवगतिमें कहे पाँच उदयस्थान होते हैं। तीसके बन्धके साथ बानबे तथा नब्बे आदि चारके सत्त्वमें उनतीसके बन्धके २५ साथ कहे नौ उदयस्थान होते हैं । तीसका बन्ध और बयासीके सत्त्वमें उनतीसके बन्धके । साथकी तरह चार उदयस्थान होते हैं ॥७७३।। इकतीसके बन्धके साथ तिरानबेके सत्त्वमें तीसका उदयस्थान होता है । एकके बन्धके साथ तिरानबे आदि चारका तथा अस्सी आदि चारका सत्त्व होनेपर उदयस्थान तीसका ही होता है । आगे बन्धका अभाव होनेसे दो आधार एक आधेय सम्भव नहीं है ।।७७४॥ ३० ___ आगे उदय और सत्त्वस्थानको आधार बन्धस्थानको आधेय बनाकर दस गाथाओंसे कहते हैं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११६ गो० कर्मकाण्डे इगिवीसट्ठाणुदये तिगिणउदे णवयवीसदुगबंधो । तेण दुखणउदीसत्ते आदिमछक्कं हवे बंधो ।।७७५॥ एकविंशतिस्थानोदये त्र्येकनवत्यां नवविंशतिद्विकबंधः । तेन द्विखनवतिसत्वे आदिमषट्क भवेद्वधः॥ एकविंशतिस्थानोदयदोळु त्रिनवत्येकनवतिसत्त्वंगळोळु नवविंशतियुं त्रिंशत्प्रकृतिबंधमकुं। उ २१ । स ९३ । ९१ । बं २९ । ३० ।। मत्तमा एकविंशत्युदयदोडने द्विनवति खनवति सत्त्वद्वयमागलादिमषड्बंधस्थानंगळप्पुवु । उ २१ । स ९२।९० । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३०॥ एवमडसीदितिदये ण हि अडवीसं पुणो वि चउवीसे । दुखणउदडसीदितिये सत्ते पुव्वं व बंधपदं ॥७७६।। १० एवमष्टाशीतित्रये नाष्टाविंशतिः पुनरपि चतुन्विशत्यां। द्विखनवत्यष्टाशीतित्रये सत्वे पूर्ववबंधपदं ॥ एवं इंतेकविंशत्युदयदोळष्टाशीतित्रयसत्त्वदोळु अष्टाविंशतिस्थानबंधमिल्ल । उ २१ । स ८८ । ८४ । ८२ ॥ २३ । २५ । २६ । २९ । ३०॥ पुनरपि-चतुन्विशत्युदयदोळ द्वानवति खनवत्यष्टाशीतित्रितयसत्त्वस्थानंगळोळु पूर्वोक्तत्रयोविंशत्यादि पंचस्थानंगळे बंधमप्पुवु । उ २४ । १५ स ९२ । ९०। ८८ । ८४ । ८२ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३०॥ पणवीसे तिगिणउदे एगुणतीसं दुगं दुणउदीए । आदिमछक्कं बंधो गउदिचउक्केवि णडवीसं ॥७७७॥ पंचविंशत्यां ध्येकनवत्यामेकान्नत्रिशद्विकं द्विनवत्यामादिमषट्कं बंधो नवतिचतुष्केऽपि नाष्टाविंशतिः ॥ एकविंशतिकोदये त्र्येकाधिकनवतिकसत्त्वयोर्बन्धस्थानानि नवविंशतिकत्रिंशत्के द्वे । पुनस्तदुदयेन द्विनवतिकनवतिकसत्त्वयोराद्यान्येव षट् ॥७७।। पुनः तदुदयाष्टाशीतिकादित्रयसत्त्वे बन्धस्थानानि तान्येव षट् न ह्यष्टाविंशतिकं । चतुर्विशतिकोदये द्वानवतिकनवतिकाष्टाशीतिकादित्रयसत्त्वे पूर्वोक्तान्येव पंच ॥७७६॥ इक्कीसके उदयसहित तिरानबेके सत्त्वमें उनतीस, तीस दो बन्धस्थान हैं । इक्कीसके २५ उदय सहित बानबे-नब्बेके सत्त्वमें आदिके छह बन्धस्थान हैं ॥७७५।। इक्कीसके उदय सहित अठासी आदि तीनके सत्त्वमें बन्धस्थान अठाईसके बिना आदिके छह में से पाँच हैं। चौबीसके उदय सहित बानबे, नब्बे और अठासी आदि तीनके सत्त्वमें पूर्वोक्त पाँच बन्धस्थान हैं ।।७७६।। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका १११७ पंचविंशतिस्थानोदयदोळु त्रिनवतियुमेकनवतियुं सत्त्वमागुत्तं विरलेकान्नत्रिंशत् त्रिशद्बंधंगळप्पुवु । उ २५ । स ९३ । ९१ । २९ । ३० ॥ मत्तमा पंचविंशत्युवयदोळ द्विनवति सत्वमाणिर बंधस्थानंगळमा विमषट्कमक्कुं । उ२५ । स ९२ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० ॥ ममा पंचविंशत्युदयमुं नवत्यादि चतुःसत्त्वंगळोळ अष्टाविंशतिरहिताद्यषड्बंधस्थानं गळपुषु । उ २५ । स ९० । ८८ । ८४ । ८२ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० ।। षड्विंशत्यां विशतिः ॥ छवीसे तिणिउदे उणतीसं बंध दुगखणउदीए । आदिमari एवं अडसीदितिए ण अडवीसं ॥७७८ || कनवत्यामूनत्रिंशद्बंधः द्विकख नवत्या माद्यषट्कमेवमष्टाशीतित्रये नाष्टा विशत्युदयदो त्रिनवत्येकनवति सस्वंगळोळ नवविंशतिबंधस्थानमो वैयक्कुं ॥ १० उ २६ । स ९३ । ९१ ॥ बं २९ ॥ मत्तमा षड्विंशत्युदयदोळ द्विनवतियुं खनवतियुं सस्वमागलु त्रयोविंशत्यादिपादाविम षड्बंधस्थानंगळवु । उ २६ । स ९२ । ९० । बं २३ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २८ ॥ २९ । ३० ॥ एवं षड्विंशत्युद यवोळष्टाशीतित्रयसत्त्वबोळ अष्टाविंशतिबंधरहित त्रयोविंशत्यावि षट्कमक्कुं । उ २६ । स ८८ । ८४ । ८२ । बं २३ | २५ | २६ । २९ । ३० ।। ७ सगवसे तिगिणउदे नववीस दुबंधयं दुणउदीए | आदिमण उदितिए एवं अडवीसयं णत्थि ||७७९ ॥ सप्तविंशत्यां श्येकनवत्यां नवविंशतिद्विकबंध द्विनवत्यामादिम षट्नवतित्रये एवमष्टाविंशतिर्नास्ति । पंचविंशतिकोदये येकाधिकन वतिकसत्त्वे बम्स्थानान्येकान्नत्रिंशत्क त्रिशतके द्वे । पुनः तदुदये द्विनवतिकसत्त्वे आदिषट्कं । पुनस्तदुदयनवतिकादिचतुःसत्त्वेष्वपि तदेवादिमषट्कमष्टाविंशतिकोनं ॥ ७७७ ॥ विशतिकोदकाधिक नवतिकसत्त्वयो बंघस्थानानि नवविंशतिकं । पुनस्तदुदये द्विनवतिकनवतिकसत्त्वे आद्यानि षट् । पुनस्तदुदयेऽष्टाशीत्यादित्रयसत्त्वे तान्येव षट् नाष्टाविंशतिकं ॥ ७७८ ॥ पच्चीसके उदय सहित तिरानबे और इक्यानबेके सत्व में उनतीस, तीस दो बन्धस्थान हैं । पच्चीसका उदय और बानबेके सत्व में आदिके छह बन्धस्थान हैं । पचीसके उदय सहित नब्बे आदि चारके सत्व में भी अठाईस के बिना आदिके छह बन्धस्थान हैं ॥७७॥ १५ २५ छब्बीसके उदयसहित तिरानबे और इक्यानबेके सत्त्वमें उनतीसका बन्धस्थान है । छब्बीस के उदयसहित बानबे - नब्बेके सत्त्व में आदिके छह बन्धस्थान हैं । छब्बीसके उदय के साथ अठासी आदि तीन के सत्वमें अठाईसके बिना आदिके छह बन्धस्थान हैं ||७७८ || २० Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे वयवळ निवतियुमेकनवतियं सस्वमागल नवविंशतिद्वयं बंधमक्कुं । उब २७ ॥ स ९३ । ९१ । बं २९ । ३० ॥ मत्तमा सप्तविंशत्युदयमुं द्विनवतिथं सस्वमादोडे आटा षड्बंधस्थामंगळ | उ २७ ॥ स ९२ । बं २३ | २५ | २६ । २८ । २९ । ३० ।। मत्तमा सप्तविंशत्युदयमुं नवतित्रयमुं सत्यमागलुमंते बंधंगळु मष्टाविंशतिपोरगागि आद्यषड्बंधस्थानंगळप्पुवु । २७ । ५ स ९० । ८८ । ८४ । बं २३ । २५ | २६ । २९ । ३० ।। १० १५ २० १११८ ३० asara तिणिउदेउतीसद दुजुदणउदि णउदितिये | बंधी सगवीसं वा णउदीए अस्थि 'णडवीसं ॥ ७८० || अष्टाविशत्यां येकनवत्यामेकान्नत्रिंशद्विकं द्विद्युतनवतिनवतित्रये । बंधः सप्तविंशतिवत् नवत्यामस्त्यष्टाविंशतिः ॥ अष्टाविंशतिस्थानोदय दोळ श्येकनवतिसत्त्वमागुत्तं विरलु नवविंशतियुं त्रिंशदबंध मुमक्कुं । उ २८ । स ९३ । ९१ । बं २९ । ३० ।। मत्तमष्टाविंशत्युदयमुं द्वानवतियुं नवत्यादित्रय सवस्थानंगकोळ बंघस्थानंगळ सप्तविंशत्युदयदोळ पेळवंत संभविसुगुमल्लि नवतिस्थानदोळ मष्टा विशतिबंधमुंदु | उ २८ । स९२ । ९० | बं २३ | २५ | २६ । २८ । २९ । ३० || मत्तं उ २८ । स ८८ । ८४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० ॥ अडवी समिती से तीसे ते उदिसत्तगे बंधो । नववी सेक्कत्तीस इगिणउदे अट्टवी सदुगं ॥ ७८१ ॥ अष्टाविंशतिरिव नवविंशत्यां त्रिशदुदये त्रिनवतिसत्वेकबंघो । नवविंशत्येक त्रिंशदेकनवत्यामष्टाविंशतिद्विकं ॥ सप्तविंशतिकोदये त्र्येकाधिकनवतिकसत्त्वे बन्धस्थानानि नवविंशतिकादिद्वयं । पुनस्तदुदये द्विनवतिकसत्त्वे आद्यानि षट् । पुनस्तदुदये नवतिकादित्रिसत्त्वे तान्येव षट् नाष्टाविंशतिकमस्ति ॥ ७७९ ॥ अष्टाविंशतिकोदये येकाधिकनवतिकसत्वे बन्धस्थानानि नवविंशतिकत्रिशतके द्वे । तदुदये द्वानवतिकसत्त्वे नवतिकादित्रिसत्त्वे च सप्तविंशतिकोदयस्येव न नवतिकसत्त्वेऽष्टाविंशतिकबंषोऽस्ति ॥७८० ॥ सत्ताईसके उदयसहित तिरानबे, इक्यानबेके सत्त्वमें उनतीस आदि दो बन्धस्थान हैं । सत्ताईसके उदय सहित बानबेके सत्त्वमें आदिके छह बन्धस्थान हैं । सत्ताईसका उदय नब्बे आदि तीनके सत्व में अठाईसके बिना आदिके छह बन्धस्थानों में से पाँच बन्धस्थान २५ ॥७७९ ॥ अठाईसके उदयसहित तिरानबे, इक्यानबेके सत्वमें उनतीस-तीस दो बन्धस्थान हैं । अठाईसका उदय बानबेके और नब्बे आदि तीनके सत्व में सत्ताईसके उदय सहित में कहे अनुसार ही बन्धस्थान होते हैं । इतना विशेष है कि नब्बेके सत्व में अठाईसका बन्ध नहीं होता ॥ ७८० ॥ १. अडवीसं [ता०] । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका नवविंशत्युदयदोळ अष्टाविंशत्युदयदो पेन्दत सस्वस्थानंगळु बंधस्थानंगळुमप्पुवु । उ २९ । स ९३ । ९१ । बं २९ । ३० ॥ मतं उ २९ । सत्व ९२ । ९० ब २३ । २५ । २६ । २८ । २९ ॥ ३० ॥ मत्तं उ २९ । स ८८ । ८४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३० ॥ त्रिंशत्प्रकृत्युदयदोळ त्रिनवतिसत्वमादोडे नवविंशतियुमेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळु बंधमप्पुवु। उ ३० । स ९३ । बं २९ । ३१ ॥ मत्तं त्रिंशदुदयमुमेकनवतिसत्वमुमुळ्ळ नरकामनाभिमुखनप्प मनुष्यमिथ्यादृष्टि तोत्थं. ५ सत्कर्मंगे अष्टाविंशति नवविंशति बंधंगळप्पुवु । उ ३० । स ९१ । बं २८ । २९ ।। तेण दुणउदे णउदे अडसीदे बंधमादिमं छक्कं । चुलसीदेवि य एवं गवरि ण अडवीसबंधपदं ॥७८२॥ तेन द्विनवत्यां नवत्यामष्टाशीती बंध आद्यषट्कं । चतुरशीतावप्येवं नवमस्ति नाष्टाविंशतिबंधपदं ॥ तेन सह आ त्रिंशत्प्रकृत्युदयदोडने द्विनवतियं नवतियुमष्टाशीतियुं सत्वमागुत्तं विरलु बंधमाद्यषट्स्थानंगळप्पुवु । उ ३० ! स ९२ । ९०। ८८ । बं २३ । २५ । २६ । २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ मतमा त्रिंशदुदय, चतुरशीतिसत्वपददोळमंत षड्बंधस्थानंगळप्पुवु । विशेषमुंटदाउद दोडे अष्टाविंशतिपदं बंधमिल्ल । उ ३० । स ८४ । बं २३ । २५ । २६ । २९ । ३०॥ नविंशतिकोदये व्येकाधिकनवतिकसत्त्वे द्वानवतिकसत्त्वे अष्टचतुरधिकाशीतिकसत्त्वे च बन्धस्थानान्य- १५ ष्टाविंशतिकोदयस्येव ज्ञातव्यानि । त्रिशकोदये त्रिनवतिकसत्त्वे नवविंशतिकैकत्रिशके द्वे । तदुदयकनवति कसत्त्वे नरकगमनाभिमुखतीर्थसत्त्वमनुष्य मिथ्यादृष्टेरष्टनवाविंशतिके द्वे ॥७८१॥ तदुदयेन सह द्विनवतिकनदतिकाष्टःशोतिकसत्त्वे बन्धस्थानान्याद्यषट्कं । पुनस्तदुदये चतुरशीतिकसत्त्वेऽपि तदेव षट्कं । किंतु नाष्टाविंशतिकबन्धस्थानं ॥७८२॥ उनतीसके उदयके साथ तिरानबे-इक्यानबेके सत्त्व में, बानबे-नब्बेके सत्त्वमें और २० अठासी-चौरासीके सत्त्वमें बन्धस्थान अठाईसके उदय सहितमें कहे अनुसार ही होते हैं। तीसके उदयसहित तिरानबेके सत्त्वमें उनतीस-तीस दो बन्धस्थान हैं। तीस के उदयके साथ इक्यानबेके सत्त्वमें नरकगमनके सम्मुख तीर्थकर सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टि मनुष्यके अठाईस, उनतीस दो बन्धस्थान होते हैं ।।७८१॥ तीसके उदयके साथ बानबे-नब्बे, अठासीके सत्त्वमें आदिके छह बन्धस्थान हैं । २५ तीसके उदयके साथ चौरासीके सत्त्वमें भी अठाईसके बन्धस्थानके बिना वे ही छह बन्धस्थान होते हैं ।।७८२॥ क-१४१ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२० गो० कर्मकाण्ड तीसुदयं विगितीसे सजोगवाणउदिणउदितियसत्ते । उवसंतचउक्कुदये सत्ते बंधस्स ण वियारो ॥७८३॥ त्रिंशदुदयवदेकत्रिंशदुवये स्वयोग्यद्वानवतिनवतित्रयसत्त्वे उपशांत चतुष्कोदये सत्त्वे बंधस्य न विचारः॥ ५ त्रिंशत्प्रकृत्युक्यदोलु पेन्दत एकत्रिंशत्प्रकृत्युक्यवोळं सत्वबंधस्थानंगळप्पुवादोड मल्लि स्वयोग्यद्वानवतिनवतित्रयसत्वस्थानंगळोळे बंधस्थानंगळरियल्पडुगुं । उ ३१ । स ९२ । ९०। ८८ । बं २३ । २५ । २६ । २८ । २९ । ३० ॥ मत्तं उ ३१ । स ८४ । बं २३ । २५ । १२६ । २९ । ३०॥ उपशांतकषायाविचतुर्गुणस्थानंगळोळुवयसत्वस्थानंगरियल्पडुगुमा नाल्कु गुणस्थानंगळोळु बंध. स्थानविचारं माडल्पडदेके दोडे नामकर्मबंधरहितरप्पुदरिदं । उपशांतकषायंगे उ ३० । स ९३ । १० ९२ । ९१।९० ॥ बंधशून्यं ॥ क्षोणकषायंगे उ ३० । स ८० । ७९ । ७८ । ७७॥ बंधशून्यं ।। सयोगकेवलियोळु उ द ३० । ३१ । स ८० । ७९ । ७८ । ७७ ।। बंधशून्यं ॥ अयोगिकेवलियोल उ।९।८। स ८० । ७१ । ७८। ७७ । १० । ९ । बंधशून्यं ॥ णामस्स य बंधादिसु दुतिसंजोगा परूविदा एवं । सुदवणवसंतगुणगणसायरचंदेण सम्मदिणा ॥७८४॥ __ नाम्नश्च बंधादिषु द्वित्रिसंयोगाः प्ररूपिता एवं । श्रुतवनवसंतगुणगणसागरचंद्रेण सन्मतिना॥ ___ एकत्रिंशत्कोदये स्वयोग्यद्वानवतिकनवतिकाष्टाशीति कसत्त्वेषु चतुरशीतिकसत्त्वे च बन्धस्थानाति त्रिंशत्कोदयवदाद्यानि षडष्टाविंशतिक बिना पंच । उपशांतकषायादिचतुर्गुणस्थानानामुदयसत्त्वस्थानेषु नामबन्धस्थानविचारो नास्ति तेषु तदभावात् । तथाहि उपशान्तकषाये उ ३० । स ९३ । ९२। ९१ । ९० । बं०। क्षीणकषाये उ ३० । स८०। ७९ ७८ । ७७ । बं.। सयोगे उ ३० । ३१ । स ८०।७९ । ७८ । ७७ । बं । अयोगे उ ९।८। स ८० । ७९ । ७८। ७७।१०।९। बं.॥७८३॥ इकतीसके उदयमें अपने योग्य बानबे, नब्बे, अठासीके सत्त्व में तथा चौरासीके सत्त्वमें बन्धस्थान क्रमसे तीसके उदय सहितमें कहे अनुसार आदिके छह तथा अठाईसके बिना २५ पाँच होते हैं । उपशान्त कषाय आदि चार गुणस्थानोंमें जो उदयस्थान और सत्त्वस्थान हैं उनमें नामकर्मके बन्धस्थानोंका विचार नहीं है; क्योंकि उनमें नामकर्मका बन्ध नहीं है। उपशान्त कषायमें उदय तीसका और सत्त्व तिरानबे आदि चारका है। क्षीणकषायमें उदय तीसका सत्त्व अस्सी आदि चारका है। सयोगीमें उदय तीसका व इकतीसका और सत्त्व अस्सी आदि चारका है। अयोगीमें उदय नौ और आठका तथा सत्त्व अस्सी आदि चारका ३० व दस और नौका है ।।७८३॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरु मंडलाचार्य्यं महावादवादीश्वर रायवादीपितामहसकल विद्वज्जनचक्रवत श्रीमदभयसूरि सिद्धांत चक्रवत्तिचारुचरणारविंदरजो रंजित ललाटपट्ट् श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसार कर्नाट वृत्तिजीवतत्वप्रदोपिकेयोळु कर्मकांड बंधोदय सत्वयुक्तस्थानप्ररूपणमहाधिकारं निरूपितमादुदु ॥ बन्धादिषु द्वित्रिसंयोगाः प्ररूपिताः एव श्रुतवनवसतगुणगणसागर चंद्रेण सन्मतिना ॥ ७८४ ॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्तो जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां कर्मकांडे बन्धोदय सत्त्वस्थानप्ररूपणो नाम पंचमोऽधिकारः ॥५॥ ११२१ इस प्रकार नामकर्म के बन्ध उदय सत्त्वस्थानों में द्विसंयोगी- त्रिसंयोगी भंग जैनागमरूपीवनको विकसित करने में वसन्तऋतुके समान और गुणसमूहरूपी समुद्रके लिए चन्द्रके समान भगवान् महावीरने कहे हैं ||७८४|| इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशवaणके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिकाको अनुसारिणी संस्कृतटोका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाको अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत बन्ध-उदय सरवस्थान प्ररूपणा नामक पाँचवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ ५ १० १५ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० २० आस्रवाधिकारः ॥६॥ अनंतरं प्रत्ययाधिकारं पेळलुपनमिसि तदादियोळु निव्विघ्नविंदं तत्परिसमाप्तिनिमित्तमागि स्वेष्ट गुरुजननमस्कार माडिदवं -- णमिण अभयदि सुदसायरपारगिंदणंदिगुरुं । वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं बोच्छं ॥ ७८५ ॥ नत्वाभयनंदिमुनिं श्रुतसागरपार गेंद्रनंविगुरुं । वरवीरनंविनाथं प्रकृतीनां प्रत्ययं वक्ष्यामि ॥ अभयनंदिमुनीश्वरमं । श्रुतसागरपारगेंद्रनंदिगुरुडमं । वरवीरणंदिनाथनुमं नमस्करिति । प्रकृतिगळ प्रत्ययमं पेदर्प ॥ अनंतरं प्रकृतिगळ मूलोंत्तरप्रत्ययंगळ नामनिर्देशमं माडुत्त लुमवर भेदमुमं पेदपरु मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति । पण बारस पणुवीसं पण्णरसा होंति तन्भेया ||७८६॥ मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगाश्चास्रवा भवंति । पंच द्वादश पंचविंशति पंचदश भवंति तद्भेदाः ॥ मिध्यात्वमुमविरमणमुं कषायमुं योगमुर्म दितु ई नाल्कुं ज्ञानावरणादिप्रकृतिगर्ग मत्रinatya | आवदेन दोर्ड आस्रवत्यागच्छति ज्ञानावरणादिकर्मरूपतां कामणस्कंधा एभि१५ रित्यालवा - एंबी निरुक्तिसिद्धंगळप्प मिथ्यात्वादिजीवपरिणामंगळु ज्ञानावरणादिकम्र्म्मागमकारणं अथ प्रत्ययाधिकारमुपक्रममाणो निर्विधस्तत्परिसमाप्त्यर्थं स्वष्टगुरून्नमस्यति - अभयनन्दिमुनीश्वरं श्रुतसागरपारगेन्द्रनन्दिगुरुं वरवीरनन्दिनाथं च नत्वा प्रकृतीनां प्रत्ययं वक्ष्यामि ||७८५ ॥ मिथ्यात्वमविरमणं कषायो योगश्चेति चत्वारो मूलप्रत्यया आस्रवा भवन्ति, आस्रवन्त्यागच्छन्ति आगे प्रत्ययाधिकारको प्रारम्भ करते हुए उसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए अपने इष्ट गुरुको नमस्कार करते हैं । प्रत्यय अर्थात् कर्मोंके आनेमें कारण आस्रव के अधिकारको प्रारम्भ करते हैं— अभयनन्दि नामक मुनीश्वर, शास्त्ररूप समुद्रके पारगामी इन्द्रनंन्दि गुरु और उत्कृष्ट वीरनन्दि स्वामीको नमस्कार करके कर्मप्रकृतियोंका कारण जो आस्रव है उसको २५ कहूँगा ||७८५ ॥ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग, ये चार मूल प्रत्यय अर्थात् आस्रव हैं। क्योंकि Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११२३ विक्कत्रयंगळे दुं प्रत्ययंगळुर्म दु मन्वर्थंना मंगळप्पुवु । तद्भेदाः अवरभेदंगल यथाक्रमविदं पंच द्वादशपंचविंशतिपंचदश प्रमितंगळप्पुर । संदृष्टि । मि ५ । अ१२ । २५ । यो १५ । कूडि ५७ ॥ अनंतरमी मूलप्रत्ययंगळु नाल्कुमं मिथ्यादृष्टयावि गुणस्थानंगळोळ संभबंगळ पेदपरु : चदुपच्चइगो बंधो पढमेऽणंतरतिगे तिपच्चइगो । मिस्सगबिदियं उवरिमदुगं च देसेक्कसम्म || ७८७॥ चतुः प्रत्ययिको बंधः प्रथमे अनंतर त्रिके त्रिप्रत्ययिकः । मिश्रकद्वितीयमुपरितनद्विकं च देशैकदेशे ॥ प्रथमे मिथ्यादृष्टियोळु चतुः प्रत्ययिकमप्प बंधमक्कुं । चतुः प्रत्ययिक में बुदे ते बोर्ड चत्वारः प्रत्ययाश्चतुःप्रत्ययास्ते संत्यस्मिन्निति ठप्रत्यये चतुःप्रत्ययिकः । मिथ्यात्वाऽविरमण कषायोग ब नाल्कुं प्रत्ययंगळनुळ्ळ बंधमक्कुमे बुदथंमनंतरत्रये सासादनमिश्रा संपतरुगळे व अनंतर गुणस्थानarata त्रिः प्रत्ययिको बंधः मिथ्यात्वभेदरहितमागि अविरमणकषाययोगमें ब त्रिप्रत्ययिक बंधमक्कुं । देशैकदेशे देशसंयतनो देशसंयतंर्ग देशकदेशत्वमे ते बोर्ड वेशेन लेशेन एकमसंयमं विशति परिहरतीति देशैकदेशस्तस्मिन्न वितु ई निरुक्तिसिद्धमप्युदरिंगमा देशसंयतनो त्रिप्रत्ययिक कर्मरूपतां कार्मणस्कन्धा एभिरिति कारणात् । तेषां भेदाः क्रमेण पंच द्वादश पंचविंशतिः पंचदश च भवन्ति । १५ मिलित्वोत्तरप्रत्यया अमी सप्तपंचाशत् ||७८६ ॥ अथ मूलप्रत्ययान् गुणस्थानेष्वाह मूलप्रत्यया गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टो बन्धश्चतुष्प्रत्ययिकः । सासादनादित्रये मिथ्यात्वं विना त्रिप्रत्ययिकः । देशेन लेशेन एकमसंयमं दिशति परिहरतीति देशैकदेशः वेशसंयतः । तत्रापि त्रिप्रत्ययिकः । ते प्रत्यया इनके द्वारा कार्मणस्कन्ध 'आस्रवन्ति' अर्थात् कर्मरूपताको प्राप्त होते हैं । उनके भेद क्रमसे पाँच, बारह, पच्चीस, पन्द्रह होते हैं। सब मिलकर सत्तावन उत्तर प्रत्यय होते हैं || ७८६ ॥ विशेषार्थ - एकान्त, विनय, संशय, विपरीत, अज्ञान ये पाँच मिथ्यात्व हैं। पाँच इन्द्रियों और छठे मनके वशीभूत होना तथा पाँच स्थावर और छठे त्रसकी दया नहीं करना बारह अविरत हैं | अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ ये सोलह कषाय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय इस प्रकार पच्चीस कषाय हैं। सत्य, असत्य, उभय, अनुभय रूप चार मनोयोग, सत्य असत्य, उभय अनुभयरूप चार वचनयोग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, कार्माण ये सात काययोग, इस तरह पन्द्रह योग हैं। ये सब सत्तावन उत्तर प्रत्यय हैं ॥७८६ ॥ २५ २० आगे मूल प्रत्ययको गुणस्थानों में कहते हैं स्थानों में मूलप्रत्यय इस प्रकार हैं - मिथ्यादृष्टिमें बन्धके चारों प्रत्यय हैं । सासा - ३० दन आदि तीन में मिध्यात्व के बिना तीन प्रत्यय हैं। देश अर्थात् लेशरूपसे एक असंयमको जो 'दिशति' अर्थात् त्यागता है उसे 'देशैकदेश' या देशसंयत कहते हैं । उसमें भी बन्धके Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ११२४ गो० कर्मकाण्डे बंधमक्कुमा प्रत्ययंगळवाडर्व दोडे मिश्रकद्वितीयमुपरितनद्विकं च मित्रं विरमणेन मिश्रकं मिश्रकं च । द्वितीयं चाविरमणं तन्मिश्रकद्वितीयं । विरतियोकूडिदविरमणमुं कषायमुं योगमुमितु त्रिप्रत्ययंगळमुळ बंधं देशसंयतनोळक्कुमं बुवत्थं ॥ वरिल्लपचये पुण दु पच्चया जोगपच्चओ तिन्हं । सामण्णपच्चया खलु अट्टण्णं होंति कम्माणं ॥ ७८८ ॥ उपरितनपंचके पुनद्वौ प्रत्ययौ योगप्रत्ययस्त्रयाणां । सामान्यप्रत्ययाः खल्वष्टानां भवंति कर्मणां ॥ देश संयतनदं मेलणवेदुं गुणस्थानंगळोळु कषाययोगगले बी द्विप्रत्ययंगळेयप्पुवु । मेलणुपशांतकषायक्षीणकषायस योगकेवलिगळे ब मूरुं गुणस्थानंगळो योगप्रत्ययमो देवकुमित १० सामान्यचतुष्प्रत्यंगळे टुं कम्मंगळेयप्पुवु स्फुटमागि । संदृष्टि । मि ४ । सा ३ । मि ३ । अ ३ । दे ३ । २ । अ २ । अ २ । अ २ । सू २ । उ १ । क्षी १ । स १ । अ ० ॥ अनंतरं गुणस्थानंगळोऴत्तरप्रत्ययंगळं गायाद्वर्यादिवं पेवपरु :-- पणवण्णा पण्णासा तिदालछादाल सत्ततीसा य । चदुवीसा बावीसा बावीसमपुव्वकरणोति ॥ ७८९॥ १५ पंचपंचाशत् पंचाशत् त्रिचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् समत्रंशत् चतुव्विशतिर्द्वाविंशतिविंशतिर पूर्वकरणपर्यंतं ॥ धूले सोलस पहुडी एगूणं जाव होदि दस ठाणं । सुमादिसु दस णवयं णवयं जोगिम्मि सत्तेव ॥ ७९०॥ स्थूले षोडशप्रभृत्येकानं यावद्भवति दशस्थानं । सूक्ष्मादिषु दशनवकं नवकं योगिनि २० सप्तैव ॥ विरमणेन मिश्रमविरमणं कषायो योगश्चेति ॥ ७८७ || पुनः उपरितनेषु पंचसु द्वौ द्वौ प्रत्ययो तो योगकषायो । उपशान्तकषायादिषु एको योगप्रत्ययः । इत्येवं खलु सामान्यप्रत्यया अष्टकर्मणां भवन्ति ॥ ७८८ ॥ अथोत्तरप्रत्ययान् गुणस्थानेषु गाथाद्वयेनाहु तीनही कारण है । इतना विशेष है कि योग कषायके साथ अविरति विरतिसे मिली २५ हुई है || ७८७|| ऊपरके पाँच गुणस्थानोंमें योग और कषाय दो ही प्रत्यय हैं । उपशान्त कषाय आदि तीन में एक ही प्रत्यय योग है। इस प्रकार गुणस्थानों में आठ कर्मोंके कारण सामान्य प्रत्यय हैं ||७८८|| मि. सा. | मि. अ. | दे. ४ | ३ .३ | ३ | ३ प्र. अ. अ. अ. सू. | उ. । क्षी. २ | २ २ २ २ ।१ । १ आगे उत्तर प्रत्ययको गुणस्थानों में कहते हैं स. अ. १ /० Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ११२५ मिथ्यादृष्टियोळाहारकद्विकं पोरगागि पंचपंचाशदुत्तरप्रत्ययंगळप्पु ५५ ववरोळ सासावनंगे मिथ्यात्वपंचकर्म कळेदु शेषपंचाशदुत्तरप्रत्ययंगळप्पु ५० ववरोळ मिश्रंगौदारिकमिश्रयोगमुमं वैक्रियिकमिश्रयोगमुम कार्मणकाययोगमुमनंतानुबंधिकषायचतुष्टयमुनितु सप्तप्रत्ययंगळं कळेदु शेषत्रिचत्वारिंशदुत्तर प्रत्ययंगळप्पु ४३ ववरोळु असंयतंगे औदारिकमिश्र वैक्रियिकमिश्रकार्मणकाययोगमें बो मूरुं प्रत्ययंगळं कूडुत्तं विरलु षट्चत्वारिंशदुत्तरप्रत्ययंगळप्पुवु । ४६ । अवरोळु ५ देशसंयतंगे औदारिकमिश्र वैक्रियिकमिश्र वैक्रियिककाययोग कार्मणकाययोग सासंयममप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कमितु नवप्रत्ययंगळं 'कळेदु शेषसप्तत्रिंशदुत्तरप्रत्ययंगळप्पुवु। ३७॥ अवरोळु प्रमत्तसंयतंगे शेषासंयमैकादशंगळु प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कमुमनितुं पदिनय्दु प्रत्ययंगळं कळदु शेष द्वाविंशतिप्रत्ययंगळोठाहारकद्वयमं कूडिदोगे चतुविशतिप्रत्ययंगळप्पु २४ ववरोळ अप्रमत्तसंयतंगाहारकद्विकं कडे दु शेषद्वाविंशति उत्तरप्रत्ययंगळप्पुवु २२ । अपूर्वकरणंगम- १० वेयुत्तरप्रत्ययंगळ द्वाविंशतिगळप्पु २२ ववरोळ स्थूलनोळु षण्नोकषायंगळं कळेदु शेष षोडशोत्तरप्रत्ययंगळप्पु १६ ववरोळ नपुंसकवेदमं कळेदोडातंगे पंचदशोत्तरप्रत्ययंगळप्पु १५ ववरोळु स्त्रीवेदमं कळेदोडातंगे चतुर्दशोत्तर प्रत्ययंगळप्पु १४ । ववरोळु पुंवेदमं क दोडातंग त्रयोदशोत्तरप्रत्ययंगळप्पु १३ । ववरोळ क्रोधकषायमं कळ दोडातंगे द्वादशोत्तरप्रत्ययंगळप्पु १२। ववरोळ मानकषायम कळे वोडातंर्गकादशोत्तर प्रत्ययंगळप्पु ११ ववरोळ मायाकषायम कळ दोडातंगे १५ वशोतरप्रत्ययंगळप्पु १० ववरोळ. सूक्ष्मसांपरायंगे बादरलोभमं कळदु सूक्ष्मलोभमं कूडिदोर्ड दशोत्तरप्रत्ययंगळप्पु १०। ववरोळ पशांतकषायंगे सूक्ष्मलोभमं कळ दु नवोत्तरप्रत्ययंगळप्पु ९ । उत्तरप्रत्ययाः गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टावाहारकद्वयं नेति पंचपंचाशत् । सासादने मिथ्यात्वपंचकं नेति पंचाशत । मिश्रे औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रकार्मणयोगानन्तानबन्धिनो नेति त्रिचत्वारिंशत । असंयते मिश्रापनीतयोगत्रयमस्तीति षट्चत्वारिंशत् । देशसंयते तत्त्रयवैक्रियिकयोगत्रसासंयमाप्रत्याख्यानचतुष्कं नेति २० सप्तत्रिंशत् । प्रमत्ते शेषकादशासंयमप्रत्याख्यानचतुष्कं नाहारकद्विकमस्तीति चतुर्विशतिः । अप्रमत्तादिद्वये तद्विक नेति द्वाविंशतिः । स्थूले षण्णोकषाया नेति षोडश । षंढवेदो नेति पंचदश । स्त्रीवेदो नेति चतुर्दश । पुंवेदो नेति त्रयोदश । क्रोधो नेति द्वादश । मानो नेत्येकादश । माया नेति दश । सुक्ष्मसाम्पराये बादरलोभो गुणस्थानोंमें उत्तर प्रत्यय इस प्रकार हैं-मिथ्यादृष्टिमें आहारक, आहारक मिश्र न होनेसे पचपन प्रत्यय हैं। सासादनमें पाँच मिथ्यात्व न होनेसे पचास प्रत्यय हैं। मिश्रमें २५ औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, कार्मण योग, अनन्तानुबन्धी चतुष्क न होनेसे तैतालीस प्रत्यय हैं। मिश्रमें घटाये तीन योगोंको मिलानेसे असंयतमें छियालीस प्रत्यय हैं। देशसंयतमें वे तीनों मिश्रयोग, वैक्रियिककाय योग, त्रसहिंसा रूप अविरति और अप्रत्याख्यान कषाय चार न होनेसे सैतीस प्रत्यय है। प्रमत्तमें शेष ग्यारह अविरति और प्रत्याख्यानावरण चार न होनेसे तथा आहारकद्विकके होनेसे चौबीस प्रत्यय हैं। अप्रमत्त आदि दोमें ३० आहारकद्विक न होनेसे बाईस प्रत्यय हैं । अनिवृत्तिकरणमें छह नोकषाय न होनेसे सोलह, नपुंसक वेद न होनेसे पन्द्रह, स्त्रीवेद न होनेसे चौदह, पुरुषवेद घटनेसे तेरह, संज्वलन क्रोध न रहनेसे बारह, मान न रहनेपर ग्यारह, माया न रहनेपर दस प्रत्यय है । सूक्ष्म साम्पराय Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२६ गो० कर्मकाण्डे ववरोळ क्षीणकषायंगेयुमा नवोत्तरप्रत्ययंगळप्पुबु । सयोगिकेवलि भट्टारकंगे सत्यानुभयमनो. वाग्योगंगळ नाल्कुं औदारिकयोगद्विकमुं कार्मणकाययोगमुमितु सतप्रत्ययंगळे यप्पुषु ।। अयोगिजिनस्वामिगळोळ प्रत्ययं शून्यमक्कुं। संदृष्टि :-मि ५५ । सा ५० । मि ४३ । अ ४६। दे ३७ । प्र २४ । अ २२। अ २२ । अ १६ । १५ । १४ । १३ । १२ । ११ । १० । सू १० । उ ९ । ५ क्षी ९ । स ७ । अ० ॥ इंतु गुणस्थानदोळ पेळल्पट्ट प्रत्ययंगळ्गे प्रत्ययव्युच्छित्ति प्रत्ययानुदयंगळे ब भंगद्वयमुमना प्रत्ययंगळमुमं पेवल्लिगुपयोगिगाथाषटकं केशवणंर्गाळदं पेळल्पडुगुं । पण चदसणणं णवयं पण्णारस दोण सण छक्कं च । एक्केक्कं दस जाव य एक्कं सुण्णं च चारि सग सुण्णं ॥ दोणि य सत्त य चोइसऽणुदएवि येगारवी स तेत्तोसं । पणतीसदु सिगिदाळं सत्तेता? दाळ दुसु पण्णं ॥ | प्रत्यय व्युच्छित्ति मि ५ सा ४ | मि अ९ दे १५ प्र २ | अ अ ६ अ १ प्रत्ययोदय २२ । १६ प्रत्ययानुदय | ३५ ४१ ० ४३ | ४६ १४ । ११ ३७ । २० । उ० ' ४ स ७ अ० ४२ ४३ ४४ | ४५ ५/४६ ४७ ४८ | ४८ | ५० | १७ | न सूक्ष्मलोभोऽस्तीति दश । उपशान्तक्षीणकषाययोः सोऽपि नेति नत्र । सयोगे सत्यानुभयमनोवागौदारिकद्विककार्मणयोगाः सप्त । अयोगे शून्यं ॥७८९॥७९०।। अत्र व्युच्छित्त्यनुदयोपयोगिगाथाषटकं केशववणिभिरुच्यते में बादर लोभ नहीं है, सूक्ष्मलोभ है अतः दस प्रत्यय हैं। उपशान्त कषाय, क्षीणकषायमें सूक्ष्मलोभ न रहनेसे नव प्रत्यय हैं। सयोगीमें सत्य और अनुभय मनोयोग, सत्य और अनुभय वचनयोग औदारिक, औदारिक मिश्र, कार्माण ये सात प्रत्यय हैं। अयोगीमें कोई प्रत्यय नहीं ॥७८९-७९०॥ ___ आगे प्रत्ययोंकी व्युच्छित्ति या अनुदयको बतलानेवाली छह गाथाएँ कर्णाटक वृत्तिके रचयिता केशववर्णीने अपनी टीकामें कही हैं उनका अर्थ इस प्रकार है |मि. सा. मि. अ./दे. | प्र.अ. अ. | सू. । नि. वृ| ति| कार ण | सू. प्रत्यय व्यु. । ५ | ४ | ०९ १५/ २ / ० ६ । १ । १ ।१ । १/१ ।१ ।१ । १ प्रत्ययोदय ५५ | ५०|४३ |४६/३७/२४ /२२ | २२१६ /१५ |१४|१३/१२/११/१०/१० । प्रत्ययानुदय | २ | ७|१४|११/२०|३३ ३५/३५/४१ १४२ ४३/४४/४५/४६/४७/४७ । मिध्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें क्रमसे पांच चार शून्य नव पन्द्रह दो, शून्य छह, २० पश्चात् जहाँ दस आश्रव रहते हैं वहाँ तक एक एक, पुनः एक, शून्य चार सात शून्य, इतने आस्रवोंकी व्युच्छित्ति होती है। उन गुणस्थानों में अनुदय अर्थात् आश्रवोंका अभाव क्रमसे दो, सात, चौदह, ग्यारह, बीस, तैतीस, पैंतीस, पैंतीस, इकतालीस, सैंतालीस, अड़तालीस, अड़तालीस, पचासका होता है । टिप्पणः-पूर्वोक्तपंचादि व्युच्छित्तिप्रत्ययानां रेगानी नाम कथ्यते । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ११२७ इंतु प्रत्ययंगळगे भंगत्रयमरियल्पडुगु । मिल्लि मिथ्यादृष्ट्याविगळोळावुवु व्युच्छित्तिप्रत्ययंगळे बोर्ड गाथाचतुष्टयदिदं पेळल्पडुगुं : मिच्छे पण मिच्छत्तं पढमकसायं तु सासणे मिस्से । सुण्णं अविरदसम्मे बिदियकसायं विगुव्वदुगकम्मं ॥ ओराळमिस्सतसवह णवयं देसम्मि अविरदेक्कारा । तवियकसायं पण्णर पमत्तविरदम्मि हारदुगछेदो। सुण्णं पमादरहिवेऽपुव्वे छण्णोकसाय बोच्छेदो। अणियट्टिम्मि य कमसो एक्केक्क वेदतिय कसायतियं ॥ सुहमे सुहुमो ळोहो सुण्णं उवसंतगेसु खोणेसु । अळियुभयवयणमणचउ जोगिम्मि य सुणह बोच्छामि ॥ सच्चाणुभयं वयणं मणं च ओराळकायजोगं च । ओराळमिस्सकम्म उवयारेणेव सब्भाओं॥ इंतुक्त प्रत्ययंगळ्गे विशेषकथनाधिकारंगलं निर्देशिसिदपः-- अवरादीणं ठाणं ठाणपयारा पयारकूडा य । कूडुच्चारणभंगा पंचविहा होति इगिसमये ॥७९१॥ जघन्यादीनां स्थानं स्थानप्रकाराः प्रकारकूटाश्च । कूटोच्चारणभंगाः पंचविधा भवत्येकस्मिन्समये॥ ते के ?अथ विशेष वक्तुमधिकारानिदिशति mamimmmmmmwww मिथ्यात्वमें पाँच मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है। अर्थात् ये पांच ऊपरके गुणस्थानों-. में नहीं रहते। सासादनमें प्रथम चार कषाय, मिश्रमें शून्य, अविरतमें दूसरी चार कषाय, वैक्रियिकद्विक कार्माण औदारिक मिश्र त्रसहिंसा ये नौ, देशसंयतमें ग्यारह अविरति तीसरी चार कषाय ये पन्द्रह, प्रमत्तविरतमें आहारकद्विक, अप्रमत्तमें शून्य, अपूर्वकरणमें छह नोकषाय, अनिवृत्तिकरणमें क्रमसे एक-एक करके तीन वेद तीन कषाय, सूक्ष्म साम्परायमें सूक्ष्म लोभ, उपशान्त कषायमें शून्य, क्षीणकषायमें असत्य और उभय मनोयोग तथा । २५ वचनयोगकी व्युच्छित्ति होती है । सयोगीमें सत्य अनुभय वचन तथा मन और औदारिक औदारिक मिश्र कार्माण ये सात योग उपचारसे हैं ॥७९०॥ आगे आस्रवोंका विशेष कथन करने के लिए अधिकार कहते हैंक-१४२ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२८ गो० कर्मकाण्डे जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थानंगळमा स्थानप्रकारंगळुमा स्थानगतप्रत्ययसंख्याहेतु कूटप्रकारंगळं कूटोच्चारणविधानमुं भंगंगळुमेंब पंचप्रकारंगळु प्रत्ययंगळगे एककालदोळप्पुवु ॥ अनंतरमा पंचप्रकारंगळं क्रमदिदं मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळु नाथाषट्कंदिदं पेळ्दपरु । दस अहारस दसयं सत्तर व सोलसं च दोण्हपि ।। अय चोदस पणयं सत्ततिये दुतिदुगेगमेगमदो ॥७९२॥ दशाष्टादश दश सप्तदश नव षोडश द्वयोरपि । अष्ट चतुर्दश पंचसप्तत्रये द्वित्रिद्विकमेकमेकमतः ॥ मिथ्यादृष्टयादि गुणस्थानंगलोळ क्रमदिदं जघन्यादि स्थानंगळु दशाष्टादश मिथ्यादृष्टियोळ दशप्रत्ययस्थानं सर्वजघन्यमक्कुं। अकिळदं मेलेकैकप्रत्ययाधिक क्रमदिदं नडदुत्कृष्टमष्टादशप्रत्यय१० स्थानमक्कुं। मिथ्यादृष्टि १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १७ । १८॥ सासादनंगे दश. सप्तदश दश प्रत्ययस्थानं जघन्यक्कुळिदं मेलेकैकप्रत्ययवृद्धिक्रमदिदं नडदुत्कृष्टं सप्तदश प्रत्ययस्थान मक्कुं । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १७॥ मिश्रंग नव षोडश नव प्रत्ययस्थानं जघन्यमकहुँ। मेलेकैकवृद्धिक्रममदिदं नडदुत्कृष्टं षोडशप्रत्ययस्थानमक्कुं। मिश्र ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ ॥ असंयतंगे द्वयोरपि शब्ददिदं नवप्रत्ययस्थानमादि यागि एकैक. १५ वृद्धिक्रमदिदं नडदुत्कृष्टं षोडशप्रत्ययस्थानमक्कुं। असंय ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ ॥ देशसंयतोनोळष्ट चतुर्दश अष्टप्रत्ययादि चतुर्दशप्रत्ययस्थानपय्यंतं सप्तस्थानंगळप्पुवु देशसंय ८।९।१०। ११ । १२ । १३ । १४ ।। प्रमत्तसंयतादिगुणस्थानत्रयदोळु प्रत्येकं पंचसप्त पंच षट् जधन्यमध्यमोत्कृष्ट स्थानानि स्थानप्रकाराः कुटप्रकाराः कुटोच्चारणविधानभंगाश्चेति पंचप्रकाराः प्रत्ययानामेककाले भवन्ति ॥७९॥ तान् प्रकारान् क्रमेण गाथाषट्केनाह एकजीवस्यैकस्मिन् समये सम्भवत्प्रत्ययसमूहः स्थानं । तच्च गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टी जघन्यं दशकं मध्यमं एककाधिकं यावदुत्कृष्टमष्टादशकं । सासादने दशकं जघन्यं तथा मध्यममत्कृष्टं सप्तदशकं । मिश्रे नवक जघन्यं तथा मध्यममत्कृष्टं षोडशकं । तथाऽसंयमेऽपि द्वयोरपीति वचनात् । देशसंयतेऽष्टकं जघन्यं तथा मध्यम एक कालमें प्रत्ययोंके पाँच प्रकार होते हैं-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट स्थान, स्थान प्रकार, कूट प्रकार और कूटोच्चारण विधान ।।७९१।। उन प्रकारोंको क्रमसे छह गाथाओं के द्वारा कहते हैं एक जीवके एक समयमें होनेवाले प्रत्ययोंके समूहको स्थान कहते हैं। उन्हें गुणस्थानोंमें कहते हैं-मिथ्यादृष्टि में जघन्य दसका, और उत्कृष्ट स्थान अठारह का है । दससे एक-एक अधिक उत्कृष्टसे पूर्व सब मध्यमस्थान है। इसका आशय यह है कि मिथ्यादष्टि गुणस्थानमें एक जीवके एक कालमें सत्तावन प्रत्ययोंमें-से जघन्य दस होते हैं। मध्यम ३० ग्यारहसे सतरह तक होते हैं, उत्कृष्ट अठारह होते हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना। सासादनके जघन्य दस, मध्यम एक-एक अधिक उत्कृष्ट सतरह होते हैं। मिश्रमें जघन्य नव, मध्यम एक-एक अधिक उत्कृष्ट सोलह होते हैं। अविरतमें भी मिश्रकी तरह जघन्य नव और उत्कृष्ट सोलह होते हैं। देश संयतमें जघन्य आठ, मध्यम एक एक अधिक, उत्कृष्ट चौदह Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११२९ समप्रत्ययस्थानत्रयमक्कुं प्रमत्त ५।६।७॥ अप्रमत्त ५। ६ । ७ ।। अपूर्वकरणंगे ५।६।७॥ अनिवृत्तिकरणनोळु द्वित्रिद्विप्रत्ययस्थानमुं त्रिप्रत्ययस्थानमुमक्कुं। अनिवृत्ति २।३ ।। सूक्ष्मसाम्परायंग द्विकं द्विप्रत्ययस्थानमक्कुं। सू२॥ उपशान्तकषायंगे एक एकप्रत्ययस्थानमक्कुं। उपशान्तक १॥ क्षीणकषायंगे एक एकप्रत्ययस्थानमक्कुं। क्षी १॥ सयोगकेवलिगळ्गे अत एकमें दितेकप्रत्ययस्थानमक्कुं। स १ ॥ अयोगिकेवलिगळगे प्रत्ययं शून्यमक्कुं। अ० ॥ इंतुं गुण. ५ स्थानदोळु जघन्यादिस्थानंगळु पेळळ्पटुविवक्के स्थानव्यपदेशमतादुर्दे दोडे कस्य जीवस्यैकस्मिन्समये सम्भवप्रत्ययसमूहः स्थानमें दितक्कुमनन्तरं स्थानप्रकारंगळं पेळ्दपरु एक्कं च तिण्णि पंच य हेढुवरीदो दु मज्झिमे छक्कं । मिच्छे ठाणपयारा इगिदुगमिदरेसु तिण्णि देसोत्ति ॥७९३।। एकश्च त्रयः पंच च अधउपरितस्तु मध्यमे षट्कं । मिथ्यादृष्टौ स्थानप्रकारा एकद्विकमितरेषु १० त्रयो देशसंयतपयंतं ॥ मिथ्यादृष्टौ मिथ्यादृष्टियोळ अब उपरितः जघन्यं मोदलागि केळगणिंदमुमुत्कृष्टं मोवलागि मेगणिदमुं स्थानप्रकाराः स्थानभेदंगळु मदिधमेक त्रिपच प्रमितंगळप्पुवु । मध्यमे शेषमध्यमंगळोळेळं षट् षट् स्थानभेदंगळप्पुवु तु मर्त इतरसासादनादि देशसंपतपय॑तमान गुणस्थानंगळोळ स्थानप्रकाररंगळुमध १५ उपरितः जघन्यदत्तणिदमुमुत्कृष्टवत्तणिवमुमेकद्विकंगळु मध्यमवोळ त्रिभेदंगळुमप्पुवु । संदृष्टि ॥ चतुर्दशकं उत्कृष्टं । प्रमत्तादित्रये प्रत्येकं पंचकसप्तकानि । अनिवृत्तिकरणे द्विकत्रिके । सूक्ष्मसाम्पराये द्विकं । उपशान्तकषायादित्रये एककं । अयोगे शून्यं ॥७९२॥ अथ स्थानप्रकारानाह मिथ्यादृष्टेः स्यानेष्वधस्तनानि दशककादशकद्वादशकानि त्रीणि उपरितनान्यष्टादशकसप्तदशकषोडशकानि त्रीणि च क्रमेण एकत्रिपंच भवन्ति । मध्यमानि त्रयोदशकचतुर्दशकपंचदशकानि षड् भवन्ति । सासादनादि- २० देशसंयतांतानां अघस्तनानि प्रथमद्वितीयानि उपरितनानि चरमद्विचरमाणि चैकद्विप्रकाराणि । मध्यमानि __ २५ हैं । प्रमत्त आदि तीनमें-से प्रत्येकमें जघन्य पाँच, मध्यम छह, उत्कृष्ट सात हैं। अनिवृत्तिकरणमें जघन्य दो। मध्यम नहीं है। उत्कृष्ट तीन है। सुक्ष्म साम्परायमें जघन्य आदि भेद बिना दोका एक ही स्थान है। उपशान्त कषाय आदिमें जघन्य आदि भेदके बिना एकका एक ही स्थान है । अयोगीमें शून्य है ।।७९२॥ इन स्थानोंके प्रकार कहते हैं मिध्यादृष्टिमें कई स्थानोंमें-से नीचेके दस, ग्यारह, बारह तीन स्थान, और ऊपरके अठारह, सतरह, सोलह, तीन स्थान, इनमें क्रमसे एक तीन पाँच प्रकार हैं। अर्थात् दस और अठारह के स्थान तो एक-एक प्रकारके ही हैं। ग्यारह और सतरह के स्थान तीन-तीन प्रकारके हैं। बारह और सोलहके स्थान पाँच-पाँच प्रकारके हैं। मध्यके तेरह, चौदह, पन्द्रहके स्थान ३० छह-छह प्रकारके हैं । सासादनसे देशसंयत पर्यन्त नीचेके पहला और दूसरा स्थान तथा ऊपरका अन्तका व अन्तसे नीचेका स्थान एक और दो प्रकार हैं। अर्थात् पहला और Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३० मिया | १० १५ १३ ३ ११ १ | ३ १४ १५ ३ | ३ |२ असं ९ | १० ११ | १२ | १३ १२ | १३ | १४ | १५ ५ ६ ६ / ६ १६ प्रगत ५ ६ ७ अप्रमत्त १ | १ | १ मिश्र १७ --- १ असंयत गो० कर्मकाण्डे | १४ | १५ | १ | २ ३ | ३ | ३ | ३ |२| १ | शेषप्रमत्त संयतादिगळोळेल मेकैकभेदमेयक्कुं ॥ मिश्र | ९ | १ अनंतरं कूटप्रकारंगळं पेव्दपरु : १६ १७ । १८ ५ | ३ | १ | | १० | | २ १६ | देश सं २ १ ११ | ३ १०/११/१२/१३/१४/१५/१६/१७/१८ १| ३ | ५ | ६| ६| ६| ५| ३ | १ | भयदुगरहियं पढमं एक्कदरजुदं दुसहियमिदि तिष्णि । सामण्णा तियकूडा मिच्छा अणहीणतिणि वि य ।।७९४।। भयद्विकरहितं प्रथमं एकतरयुतं द्विसहितमिति श्रोणि । सामान्यानि त्रिकूटानि मिथ्यादृष्टिसंबंधोनि अनंतानुबंधिहीन त्रीण्यपि च ॥ त्रित्रिप्रकाराणि । प्रमत्तादीनां सर्वस्थानान्ये कैकप्रकाराणि ॥ ७९३ ॥ अथ कूटप्रकारानाह अन्तका स्थान तो एक-एक प्रकारका है तथा दूसरा और अन्तके-से लगता निचला स्थान दोदो प्रकारका है । इनके मध्य जितने स्थान हैं वे सब तीन प्रकारके हैं। प्रमत्तादिके सब ही १० स्थान एक प्रकारके हैं ||७९३ || मिथ्यात्व - श्री. स. सासा. १२ | | ५ | ६ | ७ | अपू० | ५ | ६ | ७| अनि |२| ३|| राउ १| क्षी १ | सयो १ | १ | १ |१| | १|१| १ | | १ | १| |१| १ | १ १० | ११ | १२ १ | २ | ३ १३ ३ | ३ सासादन - १०|११|१२|१३|१४|१५ | १६/१७ १| २| ३ | ३ | ३ | ३| २| १‍ ९|१०|११|१२|१३|१४|१५/१६ १ | २| ३ | ३ | ३ | ३| २ | १ ९/१०/११/१२/१३ | १४|१५|१६| _१| २| ३| ३| ३| ३| २| १ देशसंयत - ८| ९|१०|११|१२| १३ | १४ | प्रमत्तादि तीन ५/६/७ | १ |१ |१ १| २| ३ | ३ | ३| २| १ अनिवृ. १ २ | ३ |सूक्ष्म १ | १ १ इन स्थानोंके जानने के लिए कूटोंके प्रकार कहते हैं | १४ | १५ | १६ | ३ |२| १ ८|९ | १०|११|१२|१३|१४ | १ | २ | ३ | ३ | ३ | २ | १ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११३१ ५ भजुगुप्साद्वयरहितं प्रथमकूटमक्कुं । भयजुगुप्सान्यतरयुतं द्वितीयकूटमक्कु । भयजुगुप्साद्वययुतं तृतीय कूटमक्कुमितु सामान्यदिदं मूलकुटंगळु मूरप्पुवु ॥ मिथ्यादृष्टिगनंतानुबंधिसहित कूटंगळ मूरु मनंतानुबंधिरहितकूटंगळ मूरुमंतु षट्कूटंगळप्पुवु । सासादनंग मिध्यात्वपंचक रहित सामान्यत्रिकूटंग अप्पूवु । मिश्रंगे मिथ्यात्वपंचकमुमनंतानुबंधियु मिश्रयोगत्रयमुं रहितमागि सामान्यमूलकूटंगळु मूरप्पुवु । असंयतंगें मिश्रनं त्रिकूटंगळप्पुवादडं मिश्रयोगत्रयमुं संभवितुं । देशसंयतंर्ग पंचमिथ्यात्व मुमनंतानुबंध्य प्रत्याख्यान कषायद्वयमुं त्रसासंयममुं वैक्रियिककाययोगमुं पोरगागि मिश्रयोगत्रयमुं पोरगागिय त्रिकूटंगळप्पुवु । प्रमत्तसंयतंगे संज्वलनचतुष्टय वेदत्रय द्विकद्वय नवयोगंगळोळाहारद्वयमुं कूडि पन्नों दुयोगयुत त्रिकूटंगळवु । अप्रमत्तकंगाहारक द्विकरहित प्रमत्तन त्रिकूटंगळेयप्पुवु । अपूर्वकरणंगमप्रमत्तन त्रिकूटं गलेघप्पुवु । अनिवृत्तिकरणं भागे पर्यंत मक्कु । सूक्ष्मसांपरायंगे सूक्ष्मलोभमुं नवयोगंगळमप्पुवु । उपशांत क्षीणकषायरुगगे नव नव योगंगळेयप्पुव । सयोगकेवलिंग सप्तयोगंगळप्पुवु । अयोगियोळ योगं शून्य मक्कु । संदृष्टि : पंच मिथ्यात्वानि षडिद्रियाण्येकद्वित्रिचतुष्पंच षट् कायवधान् चत्वारि क्रोधादिचतुष्काणि त्रीन्वेदान् हास्ययुग्मारतियुग्मे आहारकद्वयं विना त्रयोदशयोगांश्चोपर्युपरि तिर्यग्रचयित्वा इदं भयजुगुप्सारहितं प्रथमं, तदन्यतरयुतं द्वितीयं तद्वययुतं तृतीयमिति सामान्यमूलकूटानि त्रीणि । अनन्तानुबन्ध्यूनानि च त्रीणि मिलित्वा १५ मिथ्यादृष्टौ षड् भवन्ति । सासादने तानि सामान्यकूटानि पंच मिथ्यात्वोनानि । मिश्र एतानि चतुरनन्तानुबन्धि I कूटोंके आकार रचना करके सबसे नीचे पाँच मिध्यात्व एक-एक करके बराबर स्थापित करो; क्योंकि एक जीवके एक कालमें एक ही मिध्यात्व होता है । उनके ऊपर पाँच इन्द्रिय और एक मन इन छह में से एक जीवके एक कालमें एक ही की प्रवृत्ति होती है सो छह जगह एक-एक लिखो । उनके ऊपर छह कायकी हिंसा में से एक जीव एक समय में एक २० काकी हिंसा करता है या दो-तीन, चार, पाँच, छहकायकी हिंसा करता है सो एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह के अंक क्रमसे बराबर में लिखना । उनके ऊपर सोलह कषायोंमें-से एक जीवके एक काल में अनन्तानुबन्धी आदि चार क्रोधोंका या चार मानोंका या चार मायाका या चार लोभोंका उदय पाया जाता है सो इनको स्थापित करना । अर्थात् चार जगह चारके अंक लिखो । उनके ऊपर तीन वेदों में से एक जीवके एक समय एक वेदका ही २५ उदय होता है सो तीन जगह एक-एक लिखो । उनके ऊपर एक जीवके एक समय में हास्य रति या शोक अरतिका उदय होता है सो दो जगह दोके अंक लिखो । उनके ऊपर पन्द्रह योगों में से आहारकद्विक मिध्यादृष्टिके नहीं होता अतः तेरह योगों में से एक जीवके एक समय में एक ही योग पाया जानेसे तेरह जगह एक-एक का अंक लिखना । इस प्रकार से तीन कूट करो । उनमें से पहला कूट भय जुगुप्सासे रहित है अतः ऊपर बिन्दी लिखो 1 दूसरा कूट भय जुगुप्सा में से एक सहित है इससे ऊपर-ऊपर दो जगह एकका अंक लिखो । तीसरा कूट भय जुगुप्सा दोनोंसे सहित है अतः ऊपर दोका अंक एक जगह लिखो। क्योंकि किसी जीव के किसी कालमें भय जुगुप्सा दोनों नहीं होते, या दोनोंमें कोई एक होता है या दोनों ही होते हैं। यथा ३० Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३२ मिथ्यादृष्टि यो १३ । भजु 101 हा |२| अ २। वे १।१।१० क ४|४|४|४| प्र १२|३|४|५|६ इं १|१|१|१|११| मि १|१|१|१|१| सासादन अनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टिकूट १० १० ० २२ १।१।१ ३।३।३।३ ११२|३|४|५|६ १|१|१|१|१|१ |१|१|१|१ यो. हा. र. २ वे. १३ १ २२१ १।१३१। ० १३ १ २२ १।११ ४४/४५४॥ १२३४१५२६ १|१|१|१|१|१| १।१।१३१।१ गो० कर्मकाण्डे १० १. २२ १११।१ ३।३।३/३ १२/३/४/५१६ १|१|१|१|१|१ १०१।१।१।१ १३ १० ० ० २२ २२ १।१।१ १।१।१ ४१४१४|४ ४०४१४१४ ४१४|४|४ ३।३।३।३ ११२|३|४|५/६ | ११२/३/४/५/६ | ११२/३/४/५/६ ११२|३|४|५/६ १|१|१|१|१|१ | १|१|१|१|१|१ १|१|१|१|१|१ |१|१|१|१|१ ० ० २२ १ १ १३ २ २२ १।१।१ १३ १ २२ ११११११ ४१४१४|४| १।२।३ ४ ५ ६ १|१|१|१|१|१ १|१|१|१|१ १।१।१ ३१३०३/३ ११२|३|४|५|६ १।१।१।१।११ १।१।१।१।१ मिश्र १० १ २२ १ ४ २ ३ १ ४ १ १ मिध्यादृष्टि के अनन्तानुबन्धी सहित तीन कूट ११ १११११११११११११११११११११११११११११११११११११११ ????? ४ १३ २ २२ १|१|१| १० १ २२ २.२ १|१ ४ ४ ६१ १ १ १ १ ४|४|४|४ ११२|३|४|५|६ ६|१|१|१|१|१ १।१।१।१।१ १० २ २२ १११११ ३।३।३।३ ११२|३|४|५१६ १११|१|१|१|१ १।१।११।१ १० २ १।१।१ ३।३/३/३ ३।३।३।३ १२/३/४/५/६ | १२|३|४|५/६ १|१|१|१|१|१ | १|१|१|१|११ O O २२ १।१।१ २ १ क. ४ ४ ४४ ४ ४ षटकाय १ २ ३ ४ ५ ६१ ५ २ ४ ५ ६ इन्द्रिय १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ मि. १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ इस प्रकार तीन कूट किये। ये तीन तो मूल कूट हुए । अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाला मिथ्यादृष्टी हो जाता है तो उसके एक आवली पर्यन्त अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता। इससे तीन कूट अनन्तानुबन्धी रहित करना । उसमें चार जगह चार कषायोंके ५ स्थानपर तीन-तीन लिखना । यह अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनवाला मिध्यादृष्टी पर्याप्त ही २ १ १ ૪ ३ १ १ १ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका असंयत । देशसंयत .१३ २ २।२ २।२ २।२ १।१।१ १११ १११११ १११११ ११११ १११११ ३।३।३।३ । ३।३।३।३ । ३।३।३।३ । २।२।२।२ । २।२।२। २ २ ।२।२।२ श२।३।४।५।६ १।२।३।४।५।६/१०३।४।५।६ श२।३।४।५ | ११२।३।४।५ ।२।३४।५ शशशशशशशशशश१ | २१०१।१।१११ शशशश११ । १शश११।१।११।१।१।१।शश २।२ २२ प्रमत्तसंयत । ११ । अप्रमत्तसंयत ९ । ९ । अपूर्वकरण ११ । ११ । २।२ २२ | १२ | २ | २ | २२ । २२ २२२ २ | १।१। १ १।११ | १.१११ । १११११ १।११ | १११११ | १११११ २१।१ । १।१।१ १११११११।११११।२१११।११।११।११।११।१।११११११११११।११ | १।१।११ त्रिमिश्रयोगोनानि । असंयते एतानि सत्रिमिश्रयोगानि । देशसंयते एतानि चतुरप्रत्याख्यानत्रसासंयमवक्रियिककायत्रिमिश्रयोगोनानि । प्रमत्ते एतान्येकादश संयमचतुःप्रत्याख्यानोनं वाहारकद्वययुतानि । अप्रमत्तादिद्वये एतान्याहारकद्वयोनानि । अनिवृत्तिकरणे तत्तद्भागादुपरि तत्तद्वेदकषायहास्यादिषट्कं विना कूटमेकैकमेव भयद्विकाभावात् । सूक्ष्मसाम्पराये तदेव बादरलोभोनं । उपशान्तकषायादिद्वये एतदेव सूक्ष्मलोभोनं । सयोगे होता है इससे तेरहके स्थानपर दस ही योग लिखना। इस तरह मिथ्यादृष्टिमें छह कूट ५ होते हैं । सासादनके तीन कूटोंमें मिथ्यात्वके स्थानपर शून्य लिखो। ___ मिश्रमें अनन्त्रानुबन्धी नहीं है अतः चार-चार कषायोंके स्थानपर तीन-तीन ही लिखो। तथा तीन मिश्रयोग न होनेसे तेरहके स्थानपर दस योग लिखो। ऐसे तीन कूट करो। असंयतमें तीनों मिश्रयोग होते हैं अतः तेरह योग लिखकर तीन कूट करो। देशसंयतमें चार अप्रत्याख्यान काय नहीं है अतः चारके स्थान पर दो-दो कषाय लिखो। तथा त्रसहिंसा १० नहीं है इससे कायबधमें छहका अंक नहीं लिखना। तथा तीन मिश्रयोग और वैक्रियिक योग नहीं होता इससे तेरह के स्थानमें नौ योग लिखना। ऐसे तीन कूट करना। प्रमत्तमें बारह अविरति नहीं हैं अतः इन्द्रिय और कायबधके स्थानमें शून्य लिखना। प्रत्याख्यान कषाय भी नहीं अतः एक ही कषाय लिखना । आहारकद्विकके होनेसे योग ग्यारह लिखना। ऐसे तीन कुट बनाना। अप्रमत्तमें आहारकद्विक नहीं अतः योग नौ ही लिखना। ऐसे तीन कट १५ करना । अपूर्वकरणमें भी ऐसे ही तीन कूट करना।। अनिवृत्तिकरणमें जिस-जिस भागमें वेद, कषाय और हास्यादि छहका अभाव हुआ हो उस-उस भागमें उस-उस जगह शून्य लिखना। और एक-एक ही कूद करना, क्योंकि यहां भय-जुगुप्साका अभाव है। सूक्ष्म साम्परायमें बादर लोभ नहीं है, सूक्ष्म लोभ है। अतः कषायोंके स्थानमें तीन जगह शून्य और एक जगह एकका अंक लिखना। इस तरह एक कूट २० करना । उपशान्त कषाय भीण कषायमें सूक्ष्म लोभ भी नहीं है। अतः कषायोंके स्थानपर Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३४ अनिवृत्तिकरण ९ १।१।१ १।१।१।१ ९ ११ ९ १ गो० कर्मकाण्डे सूक्ष्म ९ बादरसूक्ष्म | उपज्ञांत क्षीण ७ १........ सामगि १|१|१|१|१|१|१|१ | १|१|१|१ | १|१|१ | १|१ | १ सू १/ ० अयोगि ई मिथ्यादृश्यादिगुणस्थानंगळोळ पेलव कूटप्रकारंगळोळु मिथ्यादृष्टियोळनंतानुबंधिरहिता पुनरुक्तमूरुं कूटंगळोल मोदल भयद्विकरहितकूटदो दशैकादशद्वादशत्रयोदश चतुर्द्दशपंचवशस्थानप्रकारंगळारवुवु | अर्थ ते दोर्ड पंचमिध्यात्वंगळोको दु मिथ्यात्वमुमो दिद्रियासंयममो दु पृथ्वी कायिकवधा संयममुमनंतानुबंधिक्रोध मानमायालोभरहित वतुस्त्रयंगळोळोदु कषायत्रयमुं वेद५ त्रयोळो वेदमुं हास्य रतिद्विकद्वयदोळो व द्विकमुमनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टिपर्याप्त कनेयपुर्वरिवं दशपर्य्याप्तयोगंगळोळोंदु योगमुमितु दशप्रत्ययस्थानप्रकारमो देयक्कुं ॥ मत्तमा कूटवोळे ओंदुमिथ्यात्वमो दिद्रियासंयममुं पृथ्व्यष्कायिकद्वयवधासंयममुं कषायचतुस्त्रयंगळोळोंदु त्रयमं वेदत्रयदोळो वेदमुं द्विकद्वयदोळोंदु द्विकमुं दशयोगंगळोळोदु योगमुं इंतेकादा प्रत्ययस्थानप्रकारमोदक्कु । ० १० एतदेवास त्यो मयमनोवचसी विना । अयोगे शून्यं । अत्रानन्तानुबन्ध्यून मिथ्यादृष्टिप्रथमकूटे मिथ्यात्वेऽप्येकं । इन्द्रियेष्वेकं पृथ्वीवधः अनन्तानुबन्धिभावाच्चतुर्षु कषायत्रिकेष्वेकं वेदेष्वेकः । द्विकद्वये एकं पर्याप्तत्वादस्य दशपर्याप्तयोगेष्वेकः मिलित्वा दशकं स्यात् । अत्र पृथ्वीवधमपनीय पृथ्व्यादिचतुष्कवधे निक्षिप्ते एकादशकं । अत्र तमपनीय पृथ्थ्यादित्रयवधे निक्षिप्ते द्वादशकं । अत्र तपनीय पृथ्व्यादिचतुष्कबधे निक्षिप्ते त्रयोदशकं । अत्र तमपनीय पृथ्यादिपंचवधे निक्षिप्ते १५ चतुर्दशकं । अत्र तमपनीय पृथ्व्यादिषट्कवधे निक्षिसे पंचदशकं । एतानि षट् । एवं तद्वितीयकूटे एकादश कादीनि षट् । तृतीयकूटे द्वादशकादीनि षट् । पुनः अनन्तानुबन्धिसहिततत्प्रथमकूटे एकादशकादीनि षट् । द्वितीयकूट द्वादशकादीनि षट् । तृतीयकूटे त्रयोदशकादीनि षट् । एतेषु दशकमष्टादशकं चैकैकं एकादश क सप्तदशकानि त्रीणि त्रीणि । द्वादशकषोडशकानि पंच पंच । त्रयोदशक चतुर्दशक पंचदशकानि षट् षट् मिलित्वा षट्त्रिंशत् तथा सासादनेष्वप्यनयैव दिशा तत्स्थानानि स्थानप्रकाराश्च ज्ञातव्याः । एतत्सवं मनसि घृत्वा २० प्राक्तन सूत्रद्वयमुक्तमाचार्यैः । [ एषु गुणस्थानकूटप्रकारेषु मिथ्यादृष्टशवनंतानुबन्ध्यून त्रिकूटेषु भयद्विकोनकूटे दशके का दशकद्वादशकत्रयोदशक चतुर्दशक पंचदशकस्थानानि भवन्ति । तद्यथा - एकं मिध्यात्वं एक इन्द्रियासंयमः एकः पृथ्वी कायिकबघा संयमः । अनन्तानुबन्ध्यूनकषायचतुस्त्रि के ष्वेकं । त्रिवेदेष्वेकः । हास्यरतिद्विकयोरेकं । अस्य मिथ्यादृष्टेः पर्याप्तत्त्राद्दशपर्याप्तयोगेष्वेकः इति दशकं स्यात् । पुनस्तस्मिन्नेव कूटे एकं मिध्यात्वमेक इन्द्रियासंयमः । २५ पृथ्व्यष्कायिक बघासंयमी । कषायचतुस्त्रयेष्वेकं । त्रिवेदेष्वेकः । द्विद्विकयोरेकं । दशयोगेष्वेक: इत्येकादशकं । पुनस्तत्रैव मिथ्यात्वेष्वेकं इन्द्रियेष्वेकं पृथ्व्यादित्रिवधासंयमाः । कषायचतुस्त्रयेष्वेकं । त्रिवेदेष्वेकः । द्विद्विकसर्वत्र शून्य लिखना । ऐसे एक-एक कूट बनाना । सयोगी में असत्य और उभय मन वचन नहीं हैं । अतः सात योग लिखकर एक ही कूट करना । अयोगी में सर्वत्र शून्य ही है । इन कूटोंमें अनन्तानुबन्धी रहित मिध्यादृष्टीके पहले कूटमें मिध्यात्वों में से एक, ३० इन्द्रियविषयों में से एक, षट्कायकी हिंसा में से एक, अनन्तानुबन्धी बिना क्रोधादि चार कषायके त्रिक में से एक त्रिक, वेदों में से एक, दो युगलों में से एक युगल और पर्याप्त होनेसे दस योगों में से एक योग, ये सब मिलकर दसका आस्रव है । इनमें एकके स्थानपर दो की Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका मत्तमा प्रथमकूटदोळे मिथ्यात्वंगळोठोंदु इंद्रियंगलोलोंदु पृथ्व्यप्नेजस्कायिकजीवत्रयवधासंयमत्रयमुं कषायचतुस्त्रयदोळु ओदुत्रय, वेदत्रयबोळोदु वेदमुं द्विकद्वयदोळोदु द्विक, दशयोगंगळोठोंदु योगमं इंतु द्वादशप्रत्ययस्यानप्रकारमोदकुं। मतमा प्रथमकूटदोळे मिथ्यात्वं. गळोडोमिद्रियंगळोळोदं पृथ्व्याजोवायुकायिकजीववधासंयमचतुष्टयम, चतुःकषायत्रयदोनों त्रयमं वेदत्रयदोठोंद वेदमं द्विकद्वयदोठोंदु द्विकमु दशयोगंगळोलो दुयोगमितु त्रयोदश- ५ प्रत्ययस्थानप्रकारमा देयक्कुं। मत्तमा प्रथमकूटोळे मिथ्यात्वंगळोळोदुमिद्वियंगळोलो, पृथ्व्याप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकजीववधासंयमपंचकम, चतुःकषायत्रयंगळोठोंदु त्रयमु, वेदत्रय. दोळोदु वेदम, द्विकद्वयदोनोंदु द्विकम, दशयोगंगोठोंदु योगमुमितु चतुर्दशप्रत्ययंगळस्थान. प्रकारमों दक्कुं। मत्तमा प्रथमकूटदोळे मिथ्यात्वंगळोळोदु मिथ्यात्वमुमिद्रियंगोलिद्रियासंयममु, पृथ्व्य- १० प्रेजोवायुवनस्पतित्रसजीववधासंयमषटकमु, चतुःकषायत्रयदोलों दुकवायत्रयमु, वेदत्रयंगळोळोंदु वेदमुं, द्विकद्वपदोनोंदु द्विक, दशयोगंगळोठोंदु योगमुर्मितु पंचदशप्रत्ययंगळ स्थानप्रकारमोदक्कुमिते सर्वगुणस्थानकूटंगोळु स्थानप्रकारंगळ साधिसल्पडुवुवदु कारणविदमनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टिय द्वितीयकूटदोळमेकादशादिषोडशावसानमाद षट्स्थानप्रकारंगळप्पुवु । आ तृतीयकूटदोलु द्वादशादिसप्तदशाश्सानमाद षट्स्थानप्रकारंगळप्पुतिनंतानुबंधिरहितमिथ्यादृष्टियोळ- १५ पुनरुक्तकूटत्रयस्थानप्रकार संदृष्टि :-|१०| ११ | १२ | १३ | १४ | १५। इवं कूडिदोडे वश. |११| १२ | १३ | १४ | १५ | १६ |१२|१३|१४|१५१६१७) योरेकं । दशयोगेष्वकः, इति द्वादशकं । पुनः मिथ्यात्वेष्वेकं । इन्द्रियेष्वेकं । पृथ्व्यादिचतुर्वधासंयमाः । चतःकषायत्रयेष्वेक । त्रिवेदेष्वेकः । द्विद्विकयोरेकं । दशयोगेष्वेकः इति त्रयोदशक। पुनः मिथ्यात्वेष्वेक। इन्द्रियेष्वेकं । पृथ्व्यादिपंचबधासंयमाः । चतुःकषायत्रयेष्वेकं । त्रिवेदेष्वेकः। द्विद्विकयोरेकं । दशयोगेष्वेकः । इति चतुर्दशकं । पनः मिथ्यात्वेष्वेक । इन्द्रियेष्वेक। पध्व्यादिषटकायबधासंयमाः। चतःकषायत्रयेष्वेकं इति .. पंचदशकं । एवं द्वितीयकूटे एकादशकादिषोडशकांतानि षट् । तृतीयकूटे द्वादशकादिसप्तदशकांतानि षट् । संदृष्टि: | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ ११ | १२ | १३ | १४ | १५ । १६ १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ हिंसा मिलानेसे ग्यारहका आस्रव होता है। दो के स्थानमें तीन कायकी हिंसा मिलानेसे बारह का आस्रव होता है। तीनके स्थानमें चार कायकी हिंसा मिलानेपर तेरहका आस्रव होता है। चारके स्थानमें पाँच कायकी हिंसा होनेपर चौदहका आस्रव होता है । पाँचके । स्थानमें छह कायकी हिंसा होनेपर पन्द्रहका आस्रव है। इस तरह अनन्तानुबन्धी रहित प्रथम कूट में दस आदि छह स्थान हुए। दूसरे कूट में भय जुगुप्सामें-से एकके मिलानेसे ग्यारह आदि छह स्थान होते हैं। तीसरे कूट में भयजुगुप्सा दोनोंके मिलनेसे बारह आदि क-१४३ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३६ गो० कर्मकाण्डे स्थानप्रकारमोंदु १० एकादशस्थानप्रकारंगळरडु ११ द्वादशस्थानप्रकारंगळु मूरु १२ त्रयोदशस्थानप्रकारंगळु मूरु १३ चतुर्दशस्थानप्रकारंगळु मूरु १४ पंचदशस्थानप्रकारंगळ मूरु १५ षोडशस्थानप्रकारंगळ एरडु १६ सप्तदशस्थानप्रकारंगळु ओंदु १७ यिवेल्लम कूडि पदिने टु स्थानप्रकारंगळप्पुवु । १८ ॥ संदृष्टि : | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ मत्तमिते मिथ्यादृष्टियोळनंतानुबंधि १ २ ३ ३ ३ ३। २।१ । युतापुनरुक्तकूटत्रयदोळु प्रथमभयविरहितकूटदोळेकादशादिषट्स्थानंगळं द्वितीयभयद्विकान्यतर. युतकूटदोळ द्वादशादिषट्स्थानप्रकारंगळप्पुवु । आ भयद्विकयुततृतीयकूटदोळ त्रयोदशादिषट्स्थानप्रकारंगळप्पुवु । संदृष्टि :-११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ २|१३|१४|१५|१६ १७ १३|१४|१५ | १६ | १७/१८ यिती मूरुं कूटंगळ पदिनेटु स्थानप्रकारंगळं माडुत्तं विरलेकादशस्थानप्रकारमो देयक्कु ११ द्वादशस्थानप्रकारंगळेरडु १२ त्रयोदशस्थाप्रकारंगळ मूरु १३ चतुर्दशस्थानप्रकारं. १० गळ मूरु १४ पंचदशस्थानप्रकारंगळ, मूरु १५ षोडशस्थानप्रकारंगळ, मूरु १६ सप्त दशस्थानप्रकारंगळुमेरड १७ अष्टादशस्थानप्रकारमोदु १८ समुच्चय । संदृष्टि : अत्र दशकस्य प्रकार एकः १० एकादशकस्य द्वौ ११ द्वादशकस्य त्रयः १२ त्रयोदशकस्य त्रयः १३ चतुर्दशकस्य त्रयः १४ पंचदशकस्य त्रयः १५ षोडशकस्य द्वौ १६ सप्तदशकस्यैकः १७ मिलित्वाऽष्टादश भवन्ति १८। पुनः मिथ्यादृष्टावनन्तानुबंधियुतत्रिकूटेषु प्रथमे एकादशकादीनि षट् । द्वितीये द्वादशकादीनि षट् । तृतीये त्रयोदश१५ कादीनि षट् । संदृष्टि : | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । १७ | १३ | १४ | १५ । १६ । १७ । १८ । अकादशकस्य प्रकार एकः ११ द्वादशकस्य द्वौ १२ त्रयोदशकस्य त्रयः १३ चतुर्दशकस्य त्रयः १४ छह स्थान होते हैं। अनन्तानुबन्धी सहित तीन कूटोंमें एक अनन्तानुबन्धी कषाय बढ़ जाती है। इससे प्रथम कूट में ग्यारह आदि छह स्थान हैं, दूसरे कूट में बारह आदि छह स्थान हैं। तीसरे कूटमें तेरह आदि छह आस्रव स्थान हैं। इस तरह इन कूटोंमें दस और अठारहका २० आस्रव तो एक-एक ही प्रकार है क्योंकि दसका आस्रव तो अनन्तानुबन्धीरहित प्रथम कूटमें Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ११३७ | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ | १८ २ | ३ ३ ३ ३ २ १ मुन्नं पेळल्पट्ट अनंतानुबंधिरहितकूटत्रयद पदिनेंटु स्थानंगळ मनी पेळ्दनंतानुबंधियुतकूटत्रयद पदिने टुं स्थानप्रकारंगळ मं कूडुत्तं विरलु षट्त्रिंशत्प्रत्ययस्थानप्रकारंगळप्पुववनितक्कं संदृष्टि रचने :- | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ | १८ | ई प्रकारविंद १ ३ ५। ६ ६ ६ ५ २ १ | सासादनप्रथमकूटदोळ दशादिषट्स्थानप्रकारंगळप्पुवु । द्वितीयकूटदोळ एकावशाविषट्स्थानंगळप्पुवु। तृतीयकूटदोछ, द्वादशादिषट्स्थानप्रकारंगळप्पवितष्टदशस्थानप्रकारंगळप्पुवु। ५ १०।११।१२।१३।१४|१५| इवं कूडिदोडे सासादनंगे १०।११।१२।१३।१४ार ५१६/१७॥ १११२|१३|१४|१५/१६ | १|२| ३| ३| ३|३|२|१| |१२|१३|१४|१५|१६/१७ मिश्रन त्रिकूटंगोळ | ९| १० | ११ | १२ | १३ | १४ | कूडि मिअंगे |१०| ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | ९| १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | असंयत सम्यग्दृष्टिग | ९|१०|१२|१२१३|१४| | १| २ | ३ | ३ | ३ | ३ | २ | १ | १०/११/१२/१३/१४/१५ १२१२/१३/१४/१५/१६] पंचदशकस्य त्रयः १५ षोडशकस्य त्रयः १६ सप्तदशकस्य द्वौ १७ अष्टादशकस्यैकः १८ एतेषु प्रागुक्ताष्टादशसु मिलितेषु षट्त्रिंशद्भवन्ति । तत्संदृष्टिः | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ | १८ | एवं सासादनस्य प्रथमकूटे दशकादीनि षट् । द्वितीये एकादशकादीनि षट् । तृतीये द्वादशकादीनि षट् । १० १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ ११ । १२ | १३ | १४ | १५ | १६ १२ । १३ | १४ | १५ | १६ | १७ मिलित्वाष्टादश मिश्रस्य त्रिकूटेषु- ९ । १० । ११ । १२ | १३ | १४ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ । ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ । ही है और अठारहका आस्रव अनन्तानुबन्धीसहित अन्तिम कूटमें ही है। इसी तरह म्यारह Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३८ गो० कर्मकाण्ड कूडि असंयतसम्यग्दृष्टिग संदृष्टि १०/१२।२३।१४१५|१८| देशपयान कुटत्रयदो ११२|३|३|३|३|२|१ 1टा ९।१०।११।१३। कूडि देशसंयतंग |८६०/११/१२/१३१४ प्रमत्त सपतंग मूरु दूगल, ९/१०/११/१२|१३| १।२।३/३/३/२|१| |१०|११११२।१३।१६ प्रथमकूटदोळु पंचप्रत्ययस्थान मो देयककुं। द्वितीयकूटदोळु षन्प्रत्ययस्थान प्रकार मा देधक्कुं । तृतीयकूटदोळ सप्तप्रत्ययस्थानप्रकारमा देवकुं। अवक्के संदृष्टि ५ अप्रमत्तंगमी प्रकारदिदं त्रिक. टंगळोळुमक्कुं ५ अपूर्वकरणंगमिते त्रिकूटंगळोळमक्कुं ५ अनिवृत्तिकरणन सवेदभागयोळु ५ फूटंगल मूररोल त्रिप्रत्ययस्थानप्रकारमा देयक्कुं। अवेद भागय कूट चतुष्टयदोळु द्विप्रत्ययस्थान प्रकारमा देयक्कुं। संदृष्टि ३२ सूक्ष्मसाम्परायंगेककूटदोळु द्विप्रत्ययस्थान प्रकार मोदेयकुं २ मिलित्वा ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | । १ । २ । ३ । ३ । ३ । ३ । २ । १. असंयतस्य | ९ | १० ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । देशसंयतस्य- ८ । ९ ।१०।११ । १२ । १३ । | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ J१० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ प्रमत्तसयतस्य- ८।९।१०।११ | १२ | १३ | १४ | २ | ३ | ३ | ३ | २ | १ प्रथमकूटे पंचकमेकं द्वितीये षट्कं । तृतीये सप्तकमेव स्यात् । संदृष्टिः ५ तथाऽप्रमत्तापूर्वकरणयोरपि ५ और सतरहके आस्रव स्थान तीन-तीन प्रकार हैं। बारह-सोलहके पाँच-पाँच प्रकार हैं। तेरह, चौदह, पन्द्रहके छह-छह प्रकार हैं । १० | ११ | १२|१३|१४|१५/१६ । १७/ १८ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११३९ उपशान्तकषायंगेककूटोळेकयोगप्रत्यय स्थानप्रकार मोदेयककुं यो १ क्षीणकषायंगेकयोग प्रत्ययस्थानप्रकारमा देयक्कुं यो १ सयोगकेवलिभट्टारकंगेकयोगप्रत्ययस्थानमा देयकुं यो १ अयोगि केवलिभट्टारक नो प्रत्ययं शून्यमक्कु । मितिनितुं प्रक्रियेयं मनदोलिरिसि याचानिवं दस अट्ठारसदसयं सत्तरेत्यादियिदं जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थानंगळ एकं च तिणि पंचयेत्याविस्थानप्रारंगळु भयदुगरहियमित्यादिकूटप्राकारंगळं पेळळपटुवादितु ज्ञातव्यमकुं॥ अनंतरं कूटोच्चारण प्रकारमं पेन्दपरु: मिच्छत्ताणण्णदरं एक्केणक्खेण एक्ककायादी। तत्तो कसायवेददुजुगलाणेक्कं च जोगाणं ॥७९५॥ मिथ्यात्वानामन्यतरत् एकेनाक्षेणैककायादयः । ततः कषायवेदद्वियुगलानामेकं च योगानां ॥ मिथ्यात्वपंचकोळन्यतरमुमिद्रियषट्कदोडमेकाकायादिगळुमल्लिदं मेले कषायंगळोठोंदु १० जातियु वेदंगळोळोदु वेवमुं द्वियुगळंगळोळोदुयुगळम चशब्ददिदं संभविसुवेडयोळ भयजुगुप्साद्वयबोळन्यतरमुमो देडेयोळ उभयमुंयोगंगळोळोदु मिदु कूटोच्चारण प्रकारमक्कुमते दोर्ड येकांतमिथ्यादृष्टियोळं स्पर्शनेन्द्रियदोळं पृथ्वीकायदो क्रोत्रियदोळं पंडवेददोळं षंडवेवदोळं बनिवृत्तिकरणस्य सवेदमागे त्रिकूटेषु त्रिकमेकं । अवेदभागे चतुःकूटेषु द्विकमेकं स्यात् ३ । २ सूक्ष्मसाम्पराय स्यैककूटे द्विकमेकं २ उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगेष्वेकै योगप्रत्ययकमेव १ अयोगे प्रत्ययशून्यं इत्येतन्मनसि १५ कृत्वाचार्यो दस अट्रारस दसयं सत्तारेत्यादिना जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थानानि, एकं च तिणि पंचयेत्यादिस्थानप्रकारान् भयदुगरहियमित्यादि कूटप्रकारांश्चोक्तवान् । एवंविधः पाठभेदः, अभयचन्द्रनामांकितायां टीकायां] । ॥७९४॥ अप कूटोच्चारणप्रकारमाह मिथ्यात्वानामन्यतरत षडिद्रियाणामेकेन सहककायादि ततः कषायेष्वेका जातिः । वेदेष्वेकः । युगलद्वये एकं । चशब्दात्सम्भवस्थाने भयजुगुप्सयोरेकं, अन्यत्रोभयं च । योगेष्वेकः । इति कूटोच्चारणप्रकारः । २० तद्यया सासादन आदिमें जो कूट कहे हैं उनमें भी इसी प्रकार विचार कर आस्रवोंके स्थान और उनके प्रकार जानना। ये सब मनमें रखकर आचार्यने पूर्व में दो गाथाओंके द्वारा स्थान तथा स्थानीक प्रकार कहे है॥७९४|| आगे कूटोचारणके प्रकार कहते हैं मिथ्यात्वों में से कोई एक और छह इन्द्रियों में से एकके साथ एक-दो कायादि, उनके पश्चात कषायों में से एक जाति, वेदोंमें से एक तथा दो युगलों में से एक, 'च' शब्दसे सम्भव स्थानमें भय जुगुप्सामें से एक वा दोनों और योगोंमें-से एक। इस तरहसे कूटोंके उच्चारण करनेका विधान है। वही कहते हैं विशेषार्थ-जीवकाण्डके गुणस्थान अधिकारमें विकथा आदिके अक्षसंचार आदि ३० Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ११०० हास्यको सत्यमनोयोगदोलमनंतानुबंरहित मिध्यादृष्टिय प्रथमकूटदोळि हंसपदाकाशमप्प अक्षवनिटुच्चरि सुवुदु । एकांत मिथ्यादृष्टिःस्पर्शनेन्द्रियवशंगतः पृथ्वी कायवधक: त्रिक्रोधी गो० कर्मकाण्डे वेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । मत्तमंते एकांत मिथ्यादृष्टिःस्पर्शनेन्द्रियवशंगतोऽकायवधक: त्रिक्रोधी षंडवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । मत्तमते एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्श५ नेन्द्रियवशंगतः तेजस्कायिकवधक: त्रिक्रोधी षंडवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेन्द्रियवशंगतो वायुकायिकवधकस्त्रिक्रोधी षंढवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्शनेन्द्रियवशंगतो वनस्पतिकायिकवधकस्त्रिक्रोधि षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशगतः त्रसकायिकवधकस्त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । यदितनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टिय प्रथमकूटबोल्यु पृथ्वी कायादित्रस कायिक पय्र्यंतं प्रत्येकं भेदाक्षसंचरणदोळच्चारणषट्कमत्रकुं पृ| अ |ते | वा |व त्र |१|१|१|१|१|१ मत्तमा कूटदोळ मुन्निनंर्त एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशगतः पृथ्व्यप्कायिकवधकः त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् | १ || एकांत मिध्यादृष्टिःस्पर्शनेंद्रियवशं गतः पृथ्वीतेजस्कायिकद्वयवधक: त्रिक्रोधी षंढवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । २ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंन्द्रियवशगतः पृथ्वीवायुकायिकद्वयवधक स्त्रिक्रोधी षंढवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ३ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशशंगतः पृथ्वोवनस्पतिकायिकद्वयवषकः त्रिक्रोषी पंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ४ ॥ एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्शनें ब्रियवशगतः पृथ्वीसकायिक १५ अनन्तानुबन्ध्यूनप्रथमकूटे एकान्तमिथ्यात्वे स्पर्शचेन्द्रियपृथ्वीकाये क्रोषत्रये षंढवेदे हास्यद्विके सत्यमनोयोगे चाक्षे धूते एकान्तमिध्यादृष्टिः सर्शनेन्द्रियवशगतः पृथ्वी कायवषकः त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्य मनोयोगोत्येकः । अत्र पृथ्वीका यवध मुद्धृत्य पंचस्त्र कायादिवधेष्वेकैकस्मिन् मिलितेऽमी प्रत्येकभंगाः षट् । २० पंचदशसु पृथ्व्यादिद्विसंयोगबधेष्वेकैकस्मिन् मिलितेऽमी द्विसंयोगभंगाः पंचदश । विशती पृथ्व्य तेजस्काय त्रयादित्रिसंयोगबधेष्वेकैकस्मिन्मिलितेऽमी त्रिसंयोगभंगा विशतिः । पंचदशसु पृथ्व्यप्तेजोवायुचतुष्कादिचतुः संयोगवधेष्वे द्वारा जैसे प्रमादोंके भंग किये हैं; उसी प्रकार पांच मिध्यात्व आदिके अक्षसंचार आदि द्वारा आस्रव भंग होते हैं । वही कहते हैं अनन्तानुबन्धी रहित प्रथम कूट में एकान्त मिथ्यात्व स्पर्शन इन्द्रिय, पृथ्वीका यकी २५ हिंसा, तीन प्रकारका क्रोध, नपुंसकवेद, हास्यरतिका युगल, सत्य मनोयोग ( असत्यमनोयोग ? ) में अक्ष रखनेपर एकान्त मिध्यादृष्टि, स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत, पृथ्वीकायका हिंसक, तीन प्रकारके क्रोधका धारक, नपुंसकवेदी, हास्यरतियुक्त, सत्यमनोयोगी जीव के आवका एक भंग होता है। इस भंगमें पृथ्वीकायकी हिंसा के स्थान में पाँच जलकाय आदिमें से एक-एक मिलानेपर प्रत्येक भंग छह होते हैं। पृथ्वी, जल या पृथ्वी, अग्नि आदि दो ३० संयोगरूप पन्द्रह भेदोंमें से एक-एकका हिंसक मिलानेपर द्विसंयोगी भंग पन्द्रह होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि या पृथ्वी, जल, पवन आदि तीनके संयोगरूप बीस भेदोंमें से एक-एक हिंसक मिलानेपर त्रिसंयोगी भंग बीस होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु या पृथ्वी, जल, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १९४१ aur: त्रिक्रोधी iढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ५ ॥ एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतोऽजस्कायिकद्वयकवधकः त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवाम् । ६ ।। एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रिय वशं गतोब्वाबुकायिकद्वयवधक त्रिक्रोधी बंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमन योगवान् । ७ ।। एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतोऽन्वनस्पति कायिकद्वयवधक स्त्रिक्रोषी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ८ ॥ एकांत मिध्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतोऽप्यस or frograधक: त्रिक्रोधी षंढवेदीहास्यरतिपुतः सत्यमनोयोगवान् । ९ ॥ एकांत मिध्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतः तेजोवातकायिकद्वयवर्षक स्त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १० ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतस्तेजोवनस्पतिकायिकद्वयवधकस्त्रिक्रोषी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ११ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतस्तेजस्त्र सकायिकgaurस्त्रक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १२ ॥ एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्श- १० नेंद्रियवशंगतो वातवनस्पतिकायिकद्वयवधक स्त्रिक्रोधी षंडवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगधान् । १३ ॥ एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतो वायुत्रसकायिकद्वयवधकस्त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १४ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतो वनस्पति कायिकद्वयवधस्त्रिक्रोषी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १५ ।। ये दितु षड्जीवनिकायद्विसंयोगाक्षसंचारविधानदिदं जीववधा संयमभंगंगलोडनुच्चरण भेदंगळ पदिनध्वष्णुवु ।। यितु षड्जीवनि- १५ कायदोळ द्विसंयोगंगळप्पुवु । अ त वा व त्र कस्मिन्मिलितेऽमी चतुःसंयोगभंगाः पंचदश । षट्सु पंचसंयोग वधेष्वेकै कस्मिन्मिलितेऽमी पंचसंयोगभंगाः षट् । एकस्मिन् षट्संयोगबधे मिलिते षट्संयोगभंग एक:, मिलित्वा त्रिषष्टिः । पुनः तदेकान्त मिथ्यात्वाक्षे द्वितीये विपरीतमिथ्यात्वगतेऽपि त्रिषष्टिः । एवं पंचसु मिथ्यात्वेषु गत्वादावागते स्पर्शनेन्द्रियाक्षः रसनेन्द्रिये गच्छति । अयं च सर्वेन्द्रियेषु गत्वा मिथ्यात्वाक्षयुतः आदावागच्छति २० ५ अग्नि, वनस्पति आदि चार संयोगरूप पन्द्रह - भेदों में से एक-एकका हिंसक मिलानेपर चतु:संयोगी भंग पन्द्रह होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति या पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, त्रस आदि पाँचके संयोगरूप छह भंगों में से एक एकका हिंसक मिलानेपर पंचसंयोगी भंग छह होते हैं। तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, त्रस इन छहों के संयोगरूप एकका हिंसक मिलानेपर छह संयोगी भंग एक होता है । ये सब मिलकर तिरसठ भंग होते हैं। २५ एकान्त मिथ्यात्वरूप अक्षकी तरह दूसरे विपरीत मिध्यात्वरूप अक्ष में भी तिरसठ भंग होते हैं । इस तरह पाँचों मिध्यात्वोंके तीन सौ पन्द्रह भंग होते हैं । इन सबमें स्पर्शन इन्द्र के वशीभूत के स्थान में रसना इन्द्रियके वशीभूत रखनेपर भी उतने ही भंग होते हैं । इस तरह पाँचों इन्द्रियों और छठे मनके अठारह सौ नब्बे भंग होते हैं। इन सबमें तीन ३० प्रकार क्रोध के स्थान में तीन प्रकारके मानको मिलानेपर भी उतने ही भंग होते हैं। इस तरह लोभपर्यन्त चार कषायोंके पचहत्तरसौ साठ भंग होते हैं। इन सबमें नपुंसकवेदके स्थान में Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४२ गोकर्मका ई प्रकारदिवं षड्जीवनिकायबोळु मत्तं त्रिसंयोगवधासंयमदोडने विशति विघोच्चरणंगळु चतुःसंयोगवधासंयमवोडने पंचदशोच्चरण भेदंगळं पंचसंयोगवधाऽसंयमदोडने षड्विधोच्चरणंगळु षट्संयोगवघासंयमवोडनेकविधोच्चरणमुमक्कुं। संदृष्टि-प्र६ । द्वि १५ । त्रि २० । च १५ । ६६।१॥ इंतु त्रिषष्टिप्रमितवधासंयमदोडनुच्चरणंगळं मिथ्यादृष्टिय प्रथमकूट प्रथमांकिताक्ष सप्तकदोल त्रिषष्टिप्रमितंगळप्पुवु । इल्लि मतमो प्रत्येकादिभंगंगळं साधिसुवुपायमो दुटदाउद दोर्ड प्रत्येक द्विसंयोग त्रिसंयोग चतुःसंयोग पंचसंयोग षट्संयोग वधंगळं क्रमदिदं स्थापिसियवर केळगेकद्वित्रिचतुः पंचषट् हारंगळं स्थापिसि ।।५।४।३।२।। यिल्लि यो दरिदं ५ मारं भागिसिदोवु प्रत्येक भंगंगळारप्पुवु। ६। मतमा भाज्यराशियारुमं पंचसयोगमुमं गुणिसि १० हारमनवर केळगिर्दोदुमनेरडुमं गुणिसि भागिसिदोडे लब्धं द्विसंयोग भंगंगळु पदिनय्वप्पुवु ३०४।३१+ मत्तमा मूवत्तमं मुंदण नाल्कुमं गुणिसि केळगणेरडं मूलं हारंगळं गुणिसि २३४५/६ भागिसिबंद लब्धं त्रिसंयोग भंगंगळिप्पत्तप्वु १२०| ३ |२|१| मत्तमा नूरिष्पत्तम मुंदण त्रिसंयोगवियं गुणिसिदोडे मूनूरश्वत्तक्कुमदं केळगण आहे.नाल्कु हारंगळं गुणिसि भागिसिद लब्धं चतुःसंयोगभंगंगळु पविनम्बप्पुषु ३६०।२।१ | मत्तं मूनूरश्वत्तं मुंदण |२४/५/६ १५ द्विसंयोगदिदं गुणिसिदोडेल नरिप्पत्ताकु- म केळगण इप्पत्त नाल्कुमदु हारंगळं गुणिसिदोडे नरिप्पतप्पदरिदं भागिसिद लब्धं पंचसंयोग भंगंगळारप्पुवु २०२। मत्तमा येळ नूरिप्पत्तं मुंब. १२०१६ कवविवं गुणिसिदोर्ड राशि तावन्मात्रमे एरिप्पत्तक्कु-1 मई केळगण नूरिप्पत्तमार हारंगळं गुणिसिदोडवुवुमेळुनरिप्पत्तक्कु मदरिदं भागिसिव लब्धं षट्संयोग भंगमो यक्कू ७२० ७२० तदा क्रोषत्रयाक्षः मानत्रये गच्छति । अयं च प्राम्बच्चरमलोभत्रयपर्यन्तं गत्वा इन्द्रियाक्षमिथ्यात्वाक्षाभ्यां सहादावागच्छति तदा षंढवेदाक्षः स्त्रीवेदे गच्छति । अयं च प्राग्वच्चरमपंवेदपर्यन्तं मत्वा कषायाक्षेन्द्रियाक्षमिथ्यात्वाक्षः सहादाबागच्छति तदा हास्यद्वयाक्षः अरतिद्वये गच्छति । अयं च वेदाक्षकषायाक्षेन्द्रियाक्षमिध्यास्त्रीवेद मिलानेपर भी उतने ही भंग-होते हैं। इस तरह तीनों वेदोंके बाईसहजार छह सौ अस्सी भंग होते हैं। इन सब भेदोंमें हास्यरति युगलके स्थानमें शोकअरति मिलानेपर भी ने ही भंग होते हैं। तब दोनों युगलोंके पैंतालीसहजार तीनसौसाठ भंग होते हैं। इस कूटमें भयजुगुप्सा नहीं है। अतः इन सबमें सत्यमनोयोगके स्थानमें असत्यमनोयोग २५ मिलानेपर भी उतने ही भंग होते हैं। ऐसा करनेसे अन्तिम वैक्रियिकयोगपर्यन्त दस योगों के चारलाख तिरपनहजार छहसौ भंग होते हैं। मिथ्यात्वमें अनन्तानुबन्धीका अनुदय पर्याप्त दशामें ही होता है इससे औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कर्माणयोगका ग्रहण नहीं किया है। अनन्तानुबन्धीरहित मिध्यादृष्टि कूट में इतने भंग होते हैं। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ११४३ मितिदोंदु क्रममरियल्पडुगुं । प्र६ । द्वि १५ । त्रि २० । च १५ । ५ ६ । ष १॥ पितु त्रिषष्टि प्रमितभंगंगळो देकांतमिथ्यात्वस्पर्शनेंद्रियकोधत्रयषंडवेवहास्यद्विकसत्यमनोयोगमेंबिवरोळिउल्पवृक्षमोदक्कप्पुवल्लि प्रयमकांतमिथ्यात्वाशं द्वितीयविपरीतमिथ्यात्वक संचरिसिदोमित त्रिषष्टिप्रमितोच्चरणभेदंगळप्पुर्वितल्ला मिथ्यात्वंगळय्वरोळं संचरिसिदक्षं मोदलिंग बंदागळु स्पर्शनेंद्रियदोलिई द्वितीयाक्षं स्वस्थानद्वितीयरसने द्रियकक्षं संचरिसुगु- मा परस्थानद्वितीयेद्रि. ५ याक्षं तन्नेल्ला प्रिंद्रियंगळोळं संचरिसि तानुं मिथ्यात्वाक्षमुमेरडं मोदलिंग वरलोडं कोधत्रयदोलिई परस्थानतृतीयाक्षं स्वस्थानमानत्रयक संचरिसुगुमनुवं पूर्वोक्तक्रमदि चरमलोभत्रयपथ्यंत संच. रिसि तानुमिद्रियमिथ्यात्वाक्षद्वययुतमागि मोदल्गे वरलोडं षंडवेवदोलिई परस्थानचनुाक्षं स्त्रीवेदक्के संचरिसुगुमदुर्बु पूर्वोक्तक्रमदिदं चरमपुंवेद पय्यंत पोगि तानें क्रोधेंद्रियमिथ्यात्वाक्षत्रययुतमागि मोदल्गे वरलोडं हास्यद्वयदोलिई परस्थानपंचमाक्षमरतिद्वयक्के संचरिसुगुमो रतिद्वय- १० दोलिई परस्थानपंचमाक्षं तानुं वेदक्रोधेंद्रियमिथ्यात्वाक्षचतुष्टययुतमागि मोदल्गे वरलोडनिदु भयद्वयरहितप्रथमकूटमपुरिदं सत्यमनोयोगदोलिई परस्थानषष्टाक्षं स्वस्थानदो तन्न द्वितीयभेदमप्प असत्यमनोयोगक्के संचरिसुगुमी परस्थानषष्टयोगाक्षं पूर्वोक्तकमदिदंतन्न चरमवैक्रियिक काययोग पथ्यंत संचरिसि निदोडागळा केळगणक्षंगळनितु तम्म तम्म चरम दोलिट्टेडागका कूटोच्चरणं परिसमाप्तियक्कु-। मीयों दोंदु परस्थानाक्षं संचरिपागळु पृथ्व्यादिगळ वधासंयम. १५ भेदंगळु त्रिषष्टिप्रमितंगळागुत्तं बर्युवे बिदरियल्पडुगु- मितुळिव मिथ्यादृष्टिय सर्वकूटंगळोळं सासादनादिगुणस्थानंगळ कूटंगळोळं यथासंभवमुच्चरणविधानमिते यक्षसंचारविधानविंदमरियल्पडुगु-। मनंतरं भंगानयनप्रकारमं पेळदपरु : अणरहिदसहिदकडे बावत्त रिसय सयाण तेणउदी। सट्ठी धुवा हु मिच्छे भयदुगसंजोगजा अधुवा ॥७९६॥ अनंतानुबंधितरहित सहितकूटे द्वासप्ततिशतं शतानां त्रिवनतिः। षष्टिध्रुवाः खलु मिथ्या. दृष्टौ भयद्विकसंयोगजा अब्रुवाः ॥ त्वाक्षस्सहादावागच्छति तदा भयद्वयोनकूटत्वात्सत्यमनोयोगाक्षः असत्यमनोयोगे गच्छति । अयं च प्राग्वच्चरमक्रियिकयोगपर्यन्तं गच्छति तदा तदधस्तनाक्षाः सर्वे स्वचरमे स्युरिति तत्कूटोच्चरणं समाप्त । एवं शेषमिथ्यादृष्टिकूटसासादनादिकूटेष्वपि ज्ञातव्यं ॥७९५॥ अथ भंगानयनप्रकारमाह यहाँ अक्षके अपने अन्ततक पहुँचनेपर उस सहित सब पहले अक्ष आदि स्थानमें आ जाते हैं। और उत्तर अक्ष दूसरे स्थानपर आ जाता है। जैसे पांच मिथ्यात्वका अक्ष जब अज्ञान मिथ्यात्वतक पहुँचा तब मिथ्यात्वका अक्ष एकान्त मिथ्यात्वपर आ गया और उत्तर इन्द्रिय अक्ष रसनारूप दसरे स्थानको प्राप्त हआ। ऐसा होते-होते सब अक्ष जब अन्त स्थान को प्राप्त होते हैं तब अक्ष संचार समाप्त होता है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीरहित मिथ्यादृष्टीके प्रथम कूट के उच्चारणका विधान हुआ। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टिके शेष कूट ३० तथा सासादन आदिके कूट के उच्चारणका विधान जानना 1|७९५।। आगे भंगोंका प्रमाण लानेका प्रकार कहते हैंक-१४४ २० Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे अनंतानुबंधिरहित कूटदोळं सहितकूटदोळं यथासंख्यमागि द्वासप्ततिशतमं त्रिनवतिशतयुतषष्टिप्रमितंगलं मिथ्यादृष्टियोळ, ध्रुवभंगंगळिवु गुण्यंगळवु । भयद्विकरहित सहित मेकतरयुतंगळे व चतुःकूटगुणितपृथिव्यादिसंयोगजनित त्रिषष्टिभंगंगळवध्रुव भंगगुणकारंगळप्पुवदे ते दोडे अनंतानुबंधिरहित प्रथमकूटदोळ, मिथ्यात्वपंचकमद्रियषट्कं कषायत्रिचतुष्टयं त्रिवेदद्विकद्वय ५ दशयोग ५ । ६ । ४ । ३ । २ । १० । मियं परस्परं गुणिसिदोडेल सासिरदिन्नूरु भंगंगळवु । ७२०० || अनंतानुबंधिसहितकूटदोळु ५। ६ । ४ । ३ । २ । १३ । यिवं परस्परं गुणिसिदोर्ड ओ भत्तुसासिरद मूनरस्वत्तु भंगंगळवु ९३६० ॥ ई एरडुं राशिगळं कूडिदोर्ड पदिनारुसा सिर देनूरश्वत्तु ध्रुव गुण्यभंगंगळ मिथ्यादृष्टिगगवु १६५६० ॥ इल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगु । मोदु ध्रुवभंगक्कध्रुवभंगंगळु त्रिषष्टिप्रमितंगळागलुमिनितु ध्रुवभंगंगनितध्रुवभंगंगळप्पुर्व दिंतु त्रैराशिक माडि १० प्र १ । फ ६३ | इ १६५६० | बंद लब्धमुमिनितक्कु १६५६० । ६३ ।। मतमोदनंतानुबंधिरहितसहित कूटद्विकक्किनितागुत्तं विरला द्विकचतुष्टयक्के नितु भंगंगळप्पुवे दितिल्लियुमो त्रैराशिकदिदं नाल्कुगुणाकारमक्कु | १६५६० । ६३ | ४ || मिश्रं परस्परं गुणिसिदोडे मिथ्यादृष्टियोळु सव्वं प्रत्ययभंगंगळrg | अवं नात्वत्तों दु लक्षमुमेप्पत्तमूरु सासिरद नूरिप्पत्तप्पु । ४१७३१२० ॥ सासादनं अनंतानुबंधिसहित कूटंगळे यप्पुदरिदं प्रथमकूटवोळ इंद्रियंगळारु । कषायगुणकारंगळु नाल्कु । वेद१५ गळु मूरु । द्विकद्वययोंगंगळ, पतेरडु ६ । ४ । ३ । २ । १२ । इवं परस्परं गुणिसिदोडे सासिरदेळ नूरिप्प टप्पुवु । १७२८॥ मत्तं सासादनंग वैक्रियिक मिश्रकाययोगदोळु षंडनेदमिल्लेर्क दोडे ११४४ मिथ्यादृष्टी ध्रुवभंगा अनन्तानुबन्ध्यूनकूटे सप्तसहस्रद्विशती तद्युतकूटे खलु षष्टयग्रनवसहस्रत्रिशती । कायभंगवजित मिथ्यात्वादिसंख्यांकेषु परस्परं गुणितेषु तत्प्रमाणस्य सम्भवात् । उभये मिलित्वा षष्ट्य प्रपंचशतषोडशसहस्री गुण्यं, एकैकं प्रतिभयद्विकजोभय कूटचतुष्कं कायभंगजत्रिषष्टिश्वस्तोत्यनेन ६३ | ४ | अध्रुवगुण२० कारण गुणितं सर्वप्रत्ययभंगा विशत्यग्रकशत त्रिसप्ततिसहस्रकचत्वारिशल्लक्षाणि भवन्ति ४१७३१२० । सासादने प्रथमकूटे षडिद्रियचतुष्कषायजाति त्रिवेदद्विकद्वादशयोगेषु परस्परं गुणितेष्वष्टाविंशत्यग्र सप्तदशशती, वैक्रियिक मिथ्यात्व आदिकी संख्याको परस्पर में गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है वही भंगोंका प्रमाण है । अतः मिथ्यादृष्टि में अनन्तानुबन्धीरहित कूटोंमें पाँच मिध्यात्व, छह इन्द्रिय, चार कषायत्रिक, तीन वेद, हास्य और शोकका दो युगल, दस योग ५६x४X३X२x१० २५ को परस्पर गुणा करने से बहत्तर सौ होते हैं। अनन्तानुबन्धी सहित कूट में पाँच मिथ्यात्व, छह इन्द्रिय, चार कषाय, तीन वेद, हास्य शोक दो युगल, तेरह योग ५ x ६× ४×३×२×१३ को परस्पर में गुणा करनेसे तिरानबे सौ साठ होते हैं। दोनोंको मिलानेपर सोलह हजार पाँच सौ साठ तो ध्रुव गुण्य हुए। तथा एक भय जुगुप्सा रहित, एक भय सहित, एक सासहित एक भय जुगुप्सा सहित ये चार भंग होते हैं। तथा कार्याहिंसा के तेरसठ भंग ३० होते हैं। ये चार और तेरसठ अध्रुव गुणकार हैं । अतः उक्त ध्रुव गुण्यको चार और तेरसठ से गुणा करनेपर मिध्यादृष्टि में सब प्रत्ययोंके भंग इकतालीस लाख तिहत्तर हजार एक सौ बीस हैं। सासादन में छह इन्द्रिय, चार कषाय, तीन वेद, दो युगल, वैक्रियिक मिश्र बिना बारह Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आ सासादनं नरकं बुगनप्पुरिवं वेदमुं स्त्रीवेदमुं सासादनंगे देवगतियोळु घटिसुगुमप्पुरिंदमा वैक्रियिकमिश्रकाययोगदोळु सासादनंग इं६ । क ४ । वे २। द्वि २। वै यो १। इवं परस्परं गुणिसिदोडे ध्र वभंगंगळुतो भत्तारप्पुवु । ९६॥ उभयमु ध्र वं १८२४ ।। अध्र वगुणकारंगळं चतुग्गुणितत्रिषष्टियक्कु । १८२४ । ६३ । ४ ॥ मिवं परस्परं गुणिसिदोडे सासादनंगे सर्वभंगंगळु नाल्कुलक्षमुमय्वत्तो भत्तुसासिरदरुनूर नाल्वत्तें टप्पुवु । ४५९६४८ ।। मिश्रंग ई ६। क ४ । वे ५ ३। वि २। यो १०॥ यिवं परस्परं गुणिसिदोडे ध्र वभंगगुण्यंगळु सासिरद नानूरनाल्वत्तक्कुं। १४४० अध्र वगुणकारंगळं चतुर्गुणितत्रिषष्टिप्रमितमक्कु १४४० । ६३ । ४ । मिवं परस्परं गुणिसिदो. मिश्रंग सर्वभंगंगळु मूरुलक्षमुमरुवत्तेरडु सासिरवेंटुनूरे भत्तक्कुं। ३६२८८० । ___ असंयतंग इं६ । क ४ । वे ३ । द्वि २ । यो १० । यिवं परस्परं गुणिसिदोडे सासिरदनानूर नाल्वत्तक्कुं १४४० ॥ मत्तमसंयतंगे वैक्रियिकमिश्रकाययोगकार्मणकाययोगद्वयदोळं स्त्रीवेदो- १० वयं घटिसबप्पुरिदं। इं ६ । क ४ । वे २। द्वि २ । यो २। यिवं परस्परं गुणिसिदोडे ध्र व. गुण्यंगळु नूरतो भत्तरप्पुवु। १९२ ॥ मत्तमसंयतंगोवारिकमिश्रकाययोगोळु वेदोदयमो देयप्पुरिवं । ई ६ । क ४। वे १। द्वि २ । यो १। इवं परस्परं गुणिसिदोडे नाल्वत्तेंदु ध्र व. गुण्यंगळप्पुवी मूरं राशिगळं कुडियध्र वंगाळवं गुणिसिवोर्ड १६८० । ६३ । ४ इवं परस्परं गुणिसिदोडे असंयतन सर्वप्रत्ययभंगंगळं नाल्कुलक्षमुमिप्पत्तमूह सासिरदमूनूररुवत्तु भंगंगळप्पुवु। १५ मिश्रे च ६६ । क ४। वे २ षंढोन । द्वि २। यो १ गुणिते षण्णवतिः मिलित्वा चविंशत्यग्राष्टादशशती घुवगुण्यं प्राक्तनाध्रुवगुणकारेण गुणितं सर्वभंगाश्चतुर्लक्षकानषष्टिसहस्रषड्शताष्टचत्वारिंशतो भवन्ति । मिश्रे ई६ । क ४ । वे ३ । द्वि २ । यो १० गुणिते ध्रुवगुण्यं चत्वारिंशदग्रचतुर्दशशती तेनाध्वकारेण गुणितास्त्रिलक्षद्वाषष्टिसहस्राष्टशताशीतयो भवन्ति । असंयते इ६ । क ४। वे ३ । द्वि २ । यो १० गुणिते चत्वारिंशदप्रचतुर्दशशती। क्रियिकमिश्रकार्मणयोः स्त्री नेति ई६ । क ४ । वे २। द्वि २। यो २। गुणिते द्वानवत्य- २० प्रशतं । औदारिकमिश्रे पुमानेवेति ई६ । क ४ । वे १ । द्वि २ । यो १। गुणितेऽष्टचत्वारिंशत् । मिलित्वा ध्रुवगुण्यमशीत्यग्रषोडशशती। अध्रुवगुणकारगुणितः सर्वभंगाश्चतुर्लक्षत्रयोविंशतिसहस्रत्रिशतषष्टयो भवन्ति । योग, इनको परस्परमें गुणा करनेपर सत्तरह सौ अट्ठाईस होते हैं। वैक्रियिक मिश्रमें यहाँ नपुंसक वेद नहीं होता । अतः छह इन्द्रिय, चार कषाय, दो वेद, दो युगल एक योगको परस्परमें गुणा करनेसे छियानबे हुए। दोनों मिलकर अट्ठारह सौ चौबीस ध्रुव गुण्य हुआ । इसको २५ चार और त्रेसठ अध्रुव गुणकारसे गुणा करनेपर सब भंग चार लाख उनसठ हजार छह सौ अड़तालीस होते हैं। मिश्र में छह इन्द्रिय, चार कषाय, तीन वेद, दो यगल, दस योगको परस्पर गुणा करनेसे ध्रव गुण्य चौदह सौ चालीस होता है, इसको अध्रव गुणकार चार और तेरसठसे गुणा करनेपर तीन लाख बासठ हजार आठ सौ अस्सी भंग होते हैं, असंयतमें छह इन्द्रिय, चार कषाय, तीन वेद, दो युगल, पर्याप्त सम्बन्धी दस योगोंको परस्परमें गुणा ३० करनेपर चौदह सौ चालीस हुए । तथा वै क्रियिक मिश्र और कार्माण योगमें यहाँ स्त्रीवेद नहीं होता। अतः छह इन्द्रिय, चार कषाय, दो वेद, दो युगल, दो योगको गुणा करनेफ्र एक सौ बानबे हुए और औदारिक मिश्रमें एक पुरुषवेद ही है। अतः छह इन्द्रिय, चार कषाय, एक वेद, दो युगल, एक योगको गुणा करनेपर अड़तालीस हुए । इन तीनोंको जोड़नेपर ध्रुव गुण्य Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४६ गो० कर्मकाण्डे ४२३३६० ॥ देशसंयतंगे वैक्रियिककाययोगमुमिल्लप्पुरदं ई ६ क ४ । वे ३ । द्वि २ । यो ९ ।। इरू परस्परं गुणिसिदोडे सासिरदिन्नूरतोंभत्तार विल्लि अध्र वगुणकारंगळं. त्रसवधासंयममिल्लप्पुरिदं ५ | ४ | ३ | २।१ । प्रत्येक भंगंगळेदु । द्विसंयोगंगळु पत्तु। त्रिसंयोगंगळं पत्तु । १/२/३ | ४५ चतुःसंयोगंगळ मैदु । पंचसंयोगमो दु। ५।१०।१०। ५। १॥ यितु देशसंयतंगध्रुवगुणका५ रंगळ च:कूटयुणितंगळेकत्रिंशत्प्रमितंगळप्पुवु । १२९६ । ३१ । ४॥ यिवं परस्परं गुणिसिदोडे लक्षमुमरुवत्त सासिरदेळुनूर नाल्कप्युव । १६०७०४ ॥ प्रमत्तसंयतंगे क ४। वे ३ । द्वि २। यो ९। यिवं परस्परं गुणिसिदोडिन्नूरपदिनारप्पुव । २१६ ॥ मत्तमाहारकशरीरदोळु क ४। वे १ । द्वि २। यो २। इवं परस्परं गुणिसिदोडे पदिनारप्पुषु । कूडि ध्रुवंगळु २३२॥ अध्र वं गळु चतुःकूटप्रकार नाल्करिवं गुणिसिदोर्ड २३२ ॥ ४॥ सर्वप्रत्ययभंगंगळु प्रमत्तंगों भैनूरिप्पत्तेंट१० प्पुव । ९२८ ॥ अप्रमत्तंगे क ४ । वे ३ । द्वि २। यो ९। इव परस्परं गुणिसि अध्र वचतुष्कदिवं गुणिसिदोडे २१६ । ४ । एंटुनूरस्वत्तनालकप्पुव । ८६४ ॥ अपूर्वकरणं क ४। वे ३॥ द्वि २ । यो ९। इवं परस्परं गुणिसियध्रुवचतुष्कदिदं गुणिसिदोडे २१६ । ४ ॥ एंटुनूररुवत्तनाल्कु भंगंगळप्पुवु । ८६४ ॥ अनिवृत्तिकरणंगे सवेदभागेयोळ क ४ । वे ३ 1 यो ९॥ इवं परस्परं गुणिसिदोडे नूरयेटु भंगंगळप्पुदु । १०८ ॥ मत्तमा भागयोळु क ४ । वे २। यो ९ । इवं परस्परं गुणिसिदोड पत्तेरडप्पल देशसंयते वै क्रियिकयोगो नेति इं६ । क ४। वे ३ । द्वि २ । यो ९ । गुणिते षण्णवत्यग्रद्वादशशती । अध्रुवगुणकारण त्रसकायबधो नेत्येकत्रिशच्चतुकात्मकेन गणितकलक्षषष्टिसहस्रसप्तशतचत्वारो भवन्ति । प्रमत्ते क ४। वे ३ । द्वि २ । यो ९ । गुणिते षोडशाग्रद्विशतं । आहारकशरीरे क ४ । वे १। द्वि २ । यो २ । गुणिते षोडश, मिलित्वा द्वात्रिंशदप्रतिशती । अधक्कूटचतुष्केण गणिता सर्वभंगा अष्टाविंशत्यग्रनवशती । अप्रमत्ते क ४ । वे ३ । द्वि २ । यो ९ । संगुण्या-वचतुष्केण गुणिते चतुःषष्टयग्राष्टशती। अपूर्वकरणेऽपि तथा २० सोलह सौ अस्सी होता है । इसको अध्रुव गुण्य चार और तेरसठसे गुणा करनेपर सब भंग चार लाख तेईस हजार तीन सौ साठ होते हैं। देशसंयतमें वैक्रियिक योग भी नहीं है। अतः छह इन्द्रिय, चार कषाय, तीन वेद, दो युगल, नो योगको परस्परमें गुणा करनेसे बारह सौ छियानबे हुए। यहाँ त्रसबध नहीं है अतः पाँच स्थावर बधकी अपेक्षा संयोगी भंग इकतीस तथा चार भय जुगुप्सा सम्बन्धी २५ अध्रुव गुणकारोंसे उक्त ध्रव गुण्यको गुणा करनेपर एक लाख साठ हजार सात सौ चार भंग होते हैं। प्रमत्तमें चार कषाय, तीन वेद, दो युगल, नौ योगको परस्परमें गुणा करनेपर दो सौ सोलह हुए । तथा आहारक योगमें चार कषाय, एक पुरुषवेद, दो युगल, दो योगको गुण। करनेपर सोलह मिलकर दो सौ बत्तीस हुए। इनको भय जुगुप्सा सम्बन्धी चार अध्रुव गुणकारोंसे गुणा करनेपर सब भंग नौ सौ अठाईस हुए। __ अप्रमत्तमें चार कषाय, तीन वेद, दो युगल, नौ योगको परस्पर गुणा करनेपर दो सौ सोलह हुए। इसे अध्रुव गुणकार चारमें गुणा करनेपर आठसौ चौसठ भंग हुए। अपूर्वकरणमें भी इसी प्रकार आठसौ चौसठ होते हैं। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७२॥ मत्तमवेदभागेयोळु क ४ । यो ९ । गुणिसिदोर्ड मुवत्ता ३६ । मत्तं क्रोधरहितभायोल क ३ ! यो ९ । गुणिसिदोडे इप्पत्तेळप्पुव २७ । मत्तं मानरहितभागेयोळु क २ । यो ९ ॥ गुणिसिबोर्ड पदिने टप्पूव । १८ । मत्त मायारहित भागेयो क १ । यो ९ । गुणिसिवोडे ओभत्तप्पुवु । ९ ॥ इंत निवृत्तिकरणना राशिगळं कूडिनरपत्तप्पुवु । २७० ॥ सूक्ष्मसांपरायंगे क १ । यो ९ । गुणिसिदोडों भत्ते भंगळ । ९ ॥ उपशांतकषायंगे योगभेदव भत्ते भंगंगळवु । ९ ॥ क्षीणकषायंगं योगभेद दो भत्ते भंगंगळप्पुवु । ९ ॥ सयोगकेवलि भट्टारकंगं योगभेदविदं प्रत्ययभंगंगळेळेय । ७ ॥ अयोगिजिन स्वामियोळु प्रत्ययं शून्यमक्कु ॥ अनंतरमी भंगंगळ तुच्चरिसि तोरिदपरु : चवीसारसयं तालं चोदसय सीदिसोलसयं । छण्णउदी वारस बत्तीसं बिसद सोल बिसदं च ॥ ७९७ ॥ चतुव्विशत्यावशशतं चत्वारिंशच्चतुर्द्दश अशोति षोडश । षण्नवतिद्वादशशतं द्वात्रिंशत् द्विशतं षोडश द्विशतं च ॥ ११४७ तावंत: । अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे ४ । वे ३ । यो ९ । गुणितेऽष्टोत्तरशतं । पुनस्तत्रैव क ४ । वे २ । यो ९ । गुणिते द्वासप्ततिः । अवेदभागे क ४ । यो ९ । गुणिते षटूत्रिंशत् । अक्रोषभागे क ३ । यो ९ । गुण सप्तविंशतिः । अमानभागे क २ । यो ९ । गुणितेऽष्टादश । अमायभागे क १ । यो ९ । गुणिते नव । मिलित्वा सत्यप्रद्विशती । सूक्ष्मसाम्पराये क १ । यो ९ । गुणिते नव । उपशान्तकषाये योगभेदेन नव । क्षीणकषायेऽपि नव । सयोगे सप्त । अयोगे प्रत्ययशून्यं ॥ ७९६ ॥ उक्तभंगानाह ध्रुवगुण्यमपूर्वकरणांत क्रमशो मिथ्यादृष्टौ प्रागुक्तं । सासादने चतुविंशत्यप्राष्टादशशती । मिश्र मिथ्यादृष्टियो पेदु पोदपुरिदं सासादनादिगळोल पेव्वपरु : सासादनंगे ध्रुवगुण्यंगळ चतुव्विशत्युत्तराष्टादश शतमक्कुं । १८२४ ॥ मिश्रनोऴ चत्वारिंशवुत्तरचतुर्द्दशशतमकुं । १४४० ॥ असंयतनोळ अशीत्युत्तर षोडशशतकमवकुं । १६८० ॥ वेश १५ उक्क भंगोंको कहते हैं ध्रुव गुण्य अपूर्वकरण पर्यन्त क्रमसे मिथ्यादृष्टीमें तो पूर्वोक है । सासादनमें अठारह ५ ܀ अनिवृत्तिकरण के सवेद भागमें चार कषाय, तीन वेद, नौ योगों को परस्परमें गुणा करनेपर एक सौ आठ हुए । यहाँसे अध्रुव गुणकार नहीं है । उसी सवेद भागमें चार कषाय, दो वेद, नौ योगोंको गुणा करनेपर बहत्तर भंग होते हैं। अवेद भागमें चार कषाय और नौ योगोंको परस्पर में गुणा करनेपर छत्तीस भंग होते हैं । क्रोधरहित भागमें तीन कषाय और २५ योगोंका गुणा करनेपर सत्ताईस भंग होते हैं। मान रहित भाग में दो कषाय और नौ योगको गुणा करनेपर अठारह होते हैं। माया रहित भागमें एक कषाय और नो योगों को गुणा करनेपर नौ भेद होते हैं। सब मिलकर अंनिवृत्तिकरण में दो सौ सत्तर भंग होते हैं। सूक्ष्म साम्पराय में कषाय एक और नौ योगोंको गुणा करनेपर नौ भंग होते हैं। उपशान्त कषाय में केवल नौ योग ही होनेसे नौ भंग हैं। क्षीणकषायमें भी नौ भंग हैं। सयोगीमें भी १० योगोंसे ही सात भंग होते हैं। अयोगीमें कोई प्रत्यय नहीं होता || ७९६ ॥ २० Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अपूर्ध्वकरणनो ध्रुवगुण्यंगळु षोडशोत्तरद्विशतमक्कुं २१६ ॥ यिती क्रमविवं मिथ्यादृष्टट्यादिया गियपूर्वकरणपय्र्यंतं ध्रुवगुण्यभंगंगळमध्रुव गुणकारंगळे व भेदंगळं टप्पुदरिदं ध्रुवगुणमंगळप्पुविवं तम्म अध्रुवगुणकारं गळिदं गुणिसुत्तं विरलू तंतम्म भंगंगळपुविल्लि ध्रुवभंगानां ई १० पेल्पट्ट ध्रुवभंगंगळ नितु मेकैकंगळपुर्वारदं न भेदात् आध्रुवभंगंगळिगन्ना प्राणासंयमदं द्विसंयोगादि भेदंगळिल्लप्पुदरदं मिथ्यात्वेंद्रियादिगळगे संभविसुव भंगंगळनितु ध्रुवभंगंगळेयपु १५ २० ११४८ गो० कर्मकाण्डे संयतनो षण्नवत्युत्तरद्वादशशतमकुं । १२९६ ॥ प्रमत्तसंयतनोळ द्वात्रिंशदुत्तरद्विशत मक्कुं । २३२ । अप्रमत्तनोल षोडशोत्तर द्विशतमक्कुं । २१६ ॥ अपूर्व्वकरणाविगळोळ पेवपरु :सोलस बिसदं कमसो धुवगुणगारा अपुव्वकरणोत्ति । अधुवगुणिदे भंगा धुवभंगाणं ण भेदादो || ७९८ ।। षोडश द्विशतं क्रमशो ध्रुवगुणकारा अपूर्व्वकरणपध्यंतं । अध्रुवगुणिते भंगा ध्रुवभंगानां न भेदात् ॥ २५ बुदत्थं ॥ अनंतरमा प्राणासंयमगगे प्रत्येकद्वि संयोगादिभेदंगळंटे बिरा भेदंगळं साधिसुवुपायमाउदोर्ड अक्षसंचारं ज्ञातार्थमवल्लविदों दु प्रकारविंदं प्रत्येक द्विसंयोगादिगळं साधिसुवुपायमं पेदपरु : छपंचादेयंतं रूउत्तरभाजिदे कमेण हदे | लद्धं मिच्छचउक्के देसे संजोगगुणगारा || ७९९ ॥ षट्पंचायेकांतं रूपोत्तर भाजिते क्रमेण हते । लब्धं मिथ्यादृष्ट्यादि चतुष्के देशसंयते संयोग गुणकाराः ॥ षट्पंचांकंगळादियागि एकांकावसानमागि स्थापिसिदुवं पूर्वोक्तक्रमविदं एकाहोकोत्तरमागवर केळगे हारंगळं स्थापिसि भागिसुत्तिरलु प्रथमलब्धं प्रत्येकभंगप्रमाणमार । ६ । मत्तं चत्वारिंशदशग्रचतुर्दशशती । असंयतेऽशीत्यग्रषोडशशती । देशसंयते षण्णवत्यग्रद्वादशशती । प्रमत्ते द्वात्रिंशदग्रद्विशती । अप्रमत्ते द्वात्रिंशदग्रद्विशती । अप्रमत्ते षोडशाद्विशती । अपूर्वं करणे षोडशाग्रद्विशती । अमीषु गुण्येषु स्वस्वा गुणकारेण गुणितेषु तत्र भंगाः स्युः । उपरि केवलध्रुवभंगाणामेव भेदान्नाध्रुवगुणकारः द्विसंयोगादिजनितत्वाभावात् । ॥७९७ ।। ७९८ ।। प्रागुक्तप्रत्येकादिभंगसाधनेऽक्षसंचारो जातार्थः इत्युपायान्तरमाहदीपर्यंतानंकान् संस्थाप्य तदवोहारानेकादीनेकोत्तरान् संस्थाप्य - सौ चौबीस, मिश्रमें चौदह सौ चालीस, असंयत में सोलह सौ अस्सी, देशसंयतमें बारह सौ छियानबे, प्रमत्तमें दो सौ बत्तीस, अप्रमत्तमें दो सौ सोलह, अपूर्वकरणमें दो सौ सोलह है । इन ध्रुव गुण्यों को अपने-अपने अध्रुव गुणकारसे गुणा करनेपर अपने-अपने भंग होते हैं । इ० ऊपर के गुणस्थानों में केवल ध्रुव भंग ही हैं; क्योंकि उनमें भय जुगुप्सा और अविरतिका अभाव है अतः अध्रुव गुणकार नहीं होते ।।७६७-७९८।। पूर्वोक्त प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंगों के साधनेमें अक्षसंचार कहा । अब उनके साधनेके लिये अन्य उपाय कहते हैं Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका षट् पंचांकंगळं गुणिसिव भाज्यमनेकद्विकर्म गुणिसिदं कदिदं भागिसुत्तं विरला बंद लब्धं पदिनैदु द्विसंयोगंगळ भंगंगळप्पवितु पूर्वोक्तक नदिदं मुंदे मुंदे भाज्य भागहारांकंगलं गुणिसि गुणिसि भागिसुत्तं विरलु त्रिसंयोग चतुःसंयोग पंचसंयोगषसंयोग भंगंगळ ध्रुवगुणकारंगळप्पुवरिदं मिथ्यादृष्टयादिचतुर्गुणस्थानंगळोळं देशसंयत नोळं गुणिसुतं विरलु सर्व प्रत्ययभंगंगळं तम्मल्लि यप्पुवु । संदृष्टि : ध्रुव १६५६० । अध्रुव ६३ । ४ । भंग ४१७३१२० ॥ सासादनंग ध्रु १८२४ । अध्रुव ६३ । ४॥ भंगंगळु ४५९६४८ ।। मिश्रंगे ध्रुव १४४० । अध्रुव ६३ । ४। भंगंगलु ३६२:८० ॥ असंयतंगे ध्रुव १६८० । अध्र ६३ । ४ । भंगंगळ ४२३३६० ॥ देशसंयतंगे ध्रुव १२९६ । अध्रु ३१ । ४। भंग १६०७०४ ॥ प्रमतसंयतंगे ध्रुव २३२ । अध्र ४ । भंगंगळ ९२८ ॥ अप्रमत्तंगे ध्रुव २१६ । अत्र प्रथमहारेण स्वांशे भक्त लब्धं प्रत्येकभंगाः षट् । पुनः परसराहतषट्पंचांशेऽन्योन्याहतकद्वि हारेण १० भक्ते लब्धं द्विसंयोगभंगाः पंचदश । पुनः परस्पराहततत्त्रिशच्चतुरंशे तथाकृत द्विहारेण भक्ते लब्धं त्रिसंयोगा विंशतिः । पुनः तथाकृतविंशत्यधिकशतत्र्यंशे तथाकृसषट्चतुर्हारेण भक्ते लब्धं चतुःसंयोगाः पंचदश । पुनः यदि प्रत्येक, द्विसंयोगी आदि भेद करने हों तो विवक्षितका जो प्रमाण हो उस प्रमाणसे लगाकर एक-एक घटाते हुए एक अंक तक क्रमसे लिखो। ये भाज्य हुए। इनके नीचे एकसे लेकर एक-एक बढ़ाते हुए उस विवक्षित प्रमाण अंक पर्यन्त क्रमसे लिखो। ये भागहार १५ हुए। भाज्यको अंश और भागहारको हार कहते हैं । भिन्न गणितमें जो विधान है उसके द्वारा क्रमसे पूर्व अंशोंके द्वारा अगले अंशोंको और पूर्व हारके द्वारा अगले हारको गुणा करके जो जो अंशोंका प्रमाण हो उसको हार प्रमाणका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उतने-उतने भंग वहाँ जानना । सो मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें कायबधका प्रमाण छह है। सो छह, पाँच, चार, तीन, दो एक अंश क्रमसे लिखो और उनके नीचे एक, दो, तीन, चार, पाँच, २० छह ये हार लिखो-६५/४|३२|| रा२३/४/५/६] यहाँ प्रथम अंश छहको हार एकका भाग देनेपर छह आये। सो प्रत्येक भंग छह हैं। फिर प्रथम छहसे अगले पाँचको गुणा करनेपर तीस अंश हुए, इसको एकसे अगले दोको गुणा करनेपर दो हारसे भाग दिया पन्द्रह आये। इतने द्विसंयोगी भंग हुए। पुनः तीससे आगेके चारको गुणा करनेपर एक सौ बीस अंश हुए । इनको पूर्व दो से आगे के तीनसे गुणा करनेपर हुए छह हारसे भाग देनेपर बीस आये। इतने त्रिसंयोग भंग हैं। पुनः पूर्व एक सौ २५ बीससे अगले तीनको गुणा करनेपर तीन सौ साठ अंश हुए। उन्हें पूर्व छहसे अगले चारसे गुणा करनेपर हुए हार चौबीसका भाग देनेपर पन्द्रह आये । इतने चतुःसंयोगी भंग हैं । पुनः तीन सौ साठसे आगेके दो को गुणा करनेपर सात सौ बीस अंश हुए। उनको पूर्व चौबीससे आगेके पाँचसे गुणा करनेपर हुए हार एक सौ बीससे भाग देनेपर छह आये। इतने पंचसंयोगी भंग हैं। पुनः सात सौ बीससे आगेके एकको गुणा करनेपर सात सौ बीस अंश हुए। ३० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५० गो० कर्मकाण्डे अध्रु ४ । भंगंगळु ८६४ ॥ अपूर्वकरणंगे ध्र २९६ । अध्र ४ । भंगंगळु ८६४ ॥ अनिवृत्तिकरणंगे १०८ । ७२ । ३६ । २७ । १८।९। कूडि २७० ॥ सूक्ष्मसांपरायंगे भंगंगळु ९॥ उपशान्त कषायगे भंगंगळु ९ । क्षीणकषायंगे भंगंगळु ९ ॥ सयोगिकेवलि भट्टारकंगे भंगंगळ ७ ॥ अयोगिकेवळिस्वामियोळु प्रत्ययं शून्यमक्कु॥ ___ अनंतरमी प्रत्ययोदयकार्य्यभूतजीवपरिणामंगळु ज्ञानावरगादिकम्मंगळगे बंधकारणंगळे दु तत्प्रतिपत्त्यर्थमागि पेळदपरु : तथाकृतषष्टयधिकत्रिशतद्वयंशे तथाकृत चतुर्विशतिपंचहारेण भक्ते लब्धं पंचसंयोगाः षट् । पुनः तथ कृत. विंशत्यधिकसप्तशतकांशे तथाकृतविंशत्यधिकशतषट्वारेण भक्ते लब्धं पटसंयो। एकः, मिलित्वा त्रिषष्टिः । प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयादिचतुष्के संयोगगुणकारा भवन्ति । तथा पंचादीने कपयंगानं कान् संस्थाप तदवोहाराने हा२० दानकात्तरान् संस्थाप्य-५ । ।।२। । प्राग्वद् भक्त्वा लब्धं प्रत्येक भंगाः पंच। | १ | २ | ३ | ४ । ५ । द्विसंयोगा दश । त्रिसंयोगा दश । चतुःसंयोगा: पंच । पंचसंयोग एकः, मिलित्वैकविहे शसंयते संयोगगुणकार: स्यात् ॥७९९।। अथ प्रत्ययोदयकायजीवपरिणामानां ज्ञानावरणादिबंधकारणत्वे प्रतिपत्तिमाह २० उनको पूर्व एक सौ बीससे आगेके छहको गुणा करनेपर हुए हार सात सौ बीसका भाग देनेपर एक आया। छह संयोगी भाग एक हुआ । इस तरह सब मिलकर वेसठ भंग हुए । देशसंयतमें त्रसबध न होनेसे पाँचकी ही हिसा है। जो क्रमसे पाँचसे एक पर्यन्त लिखो । उनके नीचे एकसे पांच पर्यन्त हार लिखो यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकारसे पाँचको एक का ||४|३|| 6 भाग देनेपर पाँच आये। सो इतने प्रत्येक भंग हैं। आगे पाँचसे चारको |१|२|३|४|| | गुणा करनेपर बीस अंश हुए । उसको एकसे गुणित दो हारका भाग देने ' पर दस आये । इतने द्विसंयोगी हुए। पुनः बीससे गुणित तीन अंशको दो से गुणित तीन हारका भाग देनेपर दस आये। इतने त्रिसंयोगी भंग हुए। पुनः साठसे गुणित दो अंशोंको छहसे गुणित चार हारका भाग देनेपर पाँच आये। इतने चतुःसंयोगी हए। पुनः एक सौ बीससे गुणित एक अंशको चौबोससे गुणित पाँच भागहारका भाग एक आया । एक पंचसंयोगी भंग हुआ। ये सब मिलकर देशसंयतमें कायबधके इकतीस भेद होते हैं। ये कायबध सम्बन्धी अध्र व गुणकार हैं सो छह कायकी हिंसामें पृथ्वी अप तेज वायु वनस्पति त्रसमेंसे एक-एक की हिंसा करनेसे प्रत्येक भेद छह हुए। पुनः पृथ्वी अपकी, पृथ्वी तेजकी, पृथ्वी वायुकी, पृथ्वी वनस्पतिकी, पृथ्वी त्रसकी, अप तेजकी, अप वायुकी, अप वनस्पतिकी, अप् त्रसकी, तेज वायुकी, तेज वनस्पतिकी, तेज त्रसकी, वायु वनस्पतिकी, वायु सकी, वनस्पति त्रसकी हिंसाके भेदसे द्विसंयोगी पन्द्रह हुए। इसी प्रकार आगे भी जानना ॥७९९॥ ___ आगे प्रत्ययोंके उदयके कार्य जो जीवके परिणाम हैं उन्हें ज्ञानावरण आदिके बन्धका कारण बतलाते हैं २५ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्णाटवृत्ति वीवतत्वप्रदीपिका पहिणीगमंतराये उवधादे तप्पदोसणिण्हवणे । आवरणदुर्ग भूयो बंधदि अच्चासणाए वि ॥८००॥ प्रत्यनोऽतराये उपघाते तत्प्रदोषे निह्नवे । आवरणद्वयं भूयो बघ्नात्यत्यासावनेऽपि ॥ श्रुतश्रुतघराविष्वविनयवृत्तिः प्रत्यनीकं प्रतिकूलतेत्यर्थः। ज्ञानव्यवच्छेदकरणमंतरायः। प्रशस्तशानदूषणमुपघातः । मनसा दूषणं वा उपघातः। अध्येतृषु क्षुद्रबाधाकरणं वा उपधातः।। तत्त्वज्ञानेषु हर्षाभावः प्रद्वेषः। तस्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यविवनभिष्याहरतोतः पैशुन्यपरिणामः प्रदोषः। कुतश्चित्कारणाज्जानन्नपि नास्ति न वेद्योति व्यपलपनं निह्नवः । अप्रसिद्धगुरुनपलप्य प्रसिद्धगुरुकथनं वा निह्नवः ॥ कायवाग्भ्यामननुमननमासादनं । कायेन वाचा च परप्रकाश्यज्ञानस्य वजनमासादनं । इंतु प्रत्यनीकांतरायोपघात तत्प्रदोषनिह्नवात्यासादनंगळोळ जीवं ज्ञानदर्शनावरणद्वयमं कटुगुं। प्रचुरवृत्तियिंवं स्थित्यनुभागंगळं कटुगुम बुवर्थ । मोप्रत्यनोकांतरायादिगळ ज्ञानदर्शनावरणद्वयककं युगपद्वषकारणंगळप्पुवेक बोडा ज्ञानवर्शनावरणद्वयं युगपबंधंगळप्पुवापुरिवं मथवा विषयमेवादानवभेवः एंदितो प्रत्यनोकादिगळ ज्ञानविषयंगळावोर्ड श्रुततरादिषु-मविनयवृत्तिः प्रत्यनीकं प्रतिकूलतेत्यर्थः । ज्ञानविच्छेदकरणमन्तरायः । मनसा वाचा वा प्रशस्तज्ञानदूषणमध्येतृषु क्षुद्रबाषाकरणं वा उपधातः । तत्प्रदोषः तत्त्वज्ञाने हर्षाभावः । तस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यचिदनभिग्याहारतोंऽतपैशुन्यं वा प्रद्वेषः। कुतश्चित्कारणात् जानन्नपि नास्ति न वेदमीति व्यपलपनमप्रसिद्धगुरुनपलुप्य प्रसिद्धगुरुकथनं वा निलयः । कायबाग्भ्यामननुमननं कायेन वाचा वा परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनं वेत्यासादना । एतेषु षट्सु सत्सु जीवो शानदर्शनावरणद्वयं भूयो बध्नाति-प्रचुरवृत्त्या स्थित्यनुमागी बघ्नातीत्यर्थः । ते च षडपि तवयस्य युगपबंधकारणानि तु तथा बन्धात् । अथवा विषयभेदावासव. २५ शास्त्र और शास्त्रके धारक भादिके विषयमें अविनयरूप प्रवृत्ति करना, उनके प्रत्यनीक अर्थात् प्रतिकूल होना। ज्ञानमें विच्छेद करना अन्तराय है। मनसे अथवा वचनसे प्रशस्त ज्ञानमें दूषण लगाना या पढ़नेवालोंमें छोटी-मोटी बाधा करना उपघात है। तत्त्वज्ञान के प्रति हर्ष प्रकट न करना अथवा मोक्षके साधनभूत तत्त्वज्ञानका उपदेश होनेपर किसीका मुखसे कुछ न कहकर अन्तरंगमें दुष्ट भाव होना प्रदोष है। किसी कारणसे जानते हुए भी मैं नहीं जानता ऐसा कहना अथवा अपने अप्रसिद्ध गुरुका नाम छिपाकर प्रसिद्ध व्यक्तिको अपना गुरु बतलाना निह्नव है । काय और वचनके द्वारा सम्यग्ज्ञानकी अनुमोदना न करना अथवा काय और वचनसे दूसरेके द्वारा प्रकाशित ज्ञानका तिरस्कार करना आसादन है। इन छह कार्योंके करनेपर जीव ज्ञानावरण और दर्शनावरणका बहुत बन्ध करता है अर्थात् उनमें स्थिति और अनुभाग अधिक बाँधता है। इसका आशय यह है कि ज्ञानावरण-दर्शनावरणका बन्ध तो संसारी जीवके सदा होता है। उक्त कार्योंके करनेपर स्थिति अनुभाग विशेष पड़ता है। यही बात आगेके सम्बन्धमें भी जानना। उक्त छहों एक साथ ज्ञानावरण-दर्शनावरण दोनोंके बन्धके कारण हैं। ३० अथवा विषय भेदसे आस्रवमें भेद है । ज्ञानके विषयमें उक्त छह बातें करनेसे ज्ञानावरणका क-१५ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५२ गो कर्मकाण्डे ज्ञानावरणीयबंधकारणंगळप्पुवु । वर्शनविषयंगळादोर्ड वर्शनावरणीयगंधारणंगलापुत् ॥ भूदाणुकंपवदजोगजुज्जिदो खंतिदाणगुरुभत्तो। बंधदि भूयो सादं विवरोयो बंधदे इदरं ॥८०१॥ भूतानुकंपावतयोगयुक्तः क्षांतिदानगुरुभक्तः। बध्नाति भूयः सातं विपरीतो बनातीतरत् ।। तासु तासु गतिषु कर्मोवयवशाद्भवंतीति भूतानि प्राणिन इत्यर्थः तेष्वनुकंपनमनुकंपा भूतानुकंपा । तान्यहिंसावोनि योगः समाधिः सम्यकप्रणिधानमित्यर्थः । भूतानुकंपा च व्रतानि च योगश्च भूतानुकंपावतयोंगास्तैर्युक्तः यदितु भूतानुकंपनव्रतयोगंगळे दिवरोकूडिदनुं क्रोधादिनिवृत्तिलक्षणक्षांतिचतुविधवानमुम बिवनुळ्ळनुं पंचगुरुभक्तिसंपन्ननुमप्प जीवं सातवेदनीयप्रकृतिगे भागमं माळकुं। विपरीतं भूतानुकंपारहितनुं व्रतमिल्लदनुं चित्तसमाधानरहितनुं शांतिदानशून्यनुं १० पंचगुरुभक्तिरहितनुं असातवेदनीयबंधप्रकृतिगे तोवानुभागमं कटुगुं । अरहंतसिद्धचेदियतवसुदगुरुधम्मसंघपडिणीगो। बंधदि दंसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण ॥८०२॥ अर्हत्सिद्धचैत्यतपोगुरुश्रुतधर्मसंघप्रत्यनोकः । बध्नाति दर्शनमोहमनंतसंसारो येन ॥ येन-आउदो'दु दर्शनमोहनीयमिथ्यात्वकर्मोदयकारणविंदमहंसिद्धचैत्यतपोगुरुश्रुतधम्म १५ संघप्रतिकूलनप्प अनंतसंसारिजीवन दर्शनमोहनीयकम्ममं कटुगुं ।। भेद: ज्ञानविषयत्वेन ज्ञानावरणस्य दर्शनविषयत्वेन दर्शनावरणस्येति ॥८००॥ गती गती कर्मोदयवशाद्भवन्तीति भूताः प्राणिनः तेष्वनुकम्पा । व्रतानि हिंसादिविरतिः। योगः -समाधिः सम्यकप्रणिधानमित्यर्थः तैर्युक्तः । क्रोषादिनिवृत्तिलक्षणक्षात्या चतुर्विधदानेन पंचगुरुभक्तया च सम्पन्नः स जीवः सातं तीव्रानुभागं भूयो बध्नाति । तद्विपरीतस्तादृगसातं बध्नाति ॥८०१॥ २. योऽहत्सिद्धचैत्यतपोगरुश्रुतधर्मसंघप्रतिकुलः स तदर्शनमोहनीयं बध्नाति येनोदयागतेन जीवोऽनन्त संसारी स्यात् ।।८०२॥ प्रचुर बन्ध होता है और दर्शनावरणके सम्बन्धमें करनेसे दर्शनावरणका प्रचुर बन्ध होता है ।।८००॥ कर्मोदयवश नाना गतियोंमें जो होते हैं उन्हें भूत या प्राणी कहते हैं। उनमें दयाभाव, २५ हिंसादिके त्यागरूप व्रत तथा योग अर्थात् समाधि सम्यक् एकाग्रता इनसे जो युक्त होता है तथा क्रोधादिकी निवृत्तिरूप क्षमा, चार प्रकारके दान और पंचपरमेष्ठीकी भक्तिसे सम्पन्न होता है वह जीव सातावेदनीयको तीव्र अनुभागके साथ बांधता है । इसके विपरीत आचरण वाला असातावेदनीयको तीव्र अनुभागके साथ बाँधता है ।।८०१।। जो व्यक्ति अरहन्त, सिद्ध, जिन प्रतिमा, तप, निम्रन्थ गुरु, श्रुत, धर्म, संघके प्रतिकूल ३० होता है, उनको झूठा दोष लगाता है वह जीव दर्शन मोहनीयका बन्ध करता है। उसके उदयसे जीवके संसारका अन्त नहीं होता ।।८०२॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तिब्बसायो बहुमोह परिणदो रागदोससंसत्तो । बंधदि चरितमोहं दुविहंपि चरित्तगुणघादी ||८०३ || तीव्रकषायो बहुमोहपरिणतो रागद्वेष संसक्तः । बध्नाति चरित्रमोहं द्विविधमपि चरित्रगुणधाती ॥ कषाय नोकषायंगळ तीव्रोदयमनुं बहुमोहपरिणतनुं रागद्वेषसंसक्तनुं चारित्रगुणमं fasyaशीलमनु जीवं कषायनोकषाय भेददिदं द्विविधमप्प चारित्रमोहनीय कर्ममं कट्टुगुं ॥ मिच्छो हु महारंभो णिस्सीलो तिब्बलोहसंजुत्तो णिरयाउवं णिबद्धइ पावमई रुद्द परिणामो ||८०४ ॥ मिथ्यादृष्टिः खलु महारंभो निःशीलस्तीव्रलोभसंयुक्तः । नरकान्निबध्नाति पापमती रौद्रपरिणामः ॥ बह्वारंभमनुळलनुं निःशोलनुं तीव्रलोभयुक्तनुं मिथ्यादृष्टियप्प जीवं रौद्रपरिणाममनुनुं पापकारण बुद्धिगळनुं स्फुटमागि नरकायुष्यमं कट्टगुं ॥ जीवः ॥ ११५३ उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियय माइल्लो | सठसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधदे जीवो ॥८०५ ॥ उन्मार्गदेशको मार्गनाशको गूढहृदय मायावी । शठशीलश्च सशल्यस्तिय्यं गायुबध्नाति १५ उन्मार्गोपदेशकनुं सन्मार्गनाशकनुं गूढहृदयमायावियं शठशीलनुं सशल्यनुमप्प जीवं तिगायुष्यमं कट्टुगं ॥ यः तीव्र कषायनोकषायोदययुतः बहुमोहपरिणतः रागद्वेषसंसक्तः चारित्रगुणविनाशनशीलः स जीवः कषायनोकषायभेदं द्विविधमपि चारित्रमोहनीयं बध्नाति ॥८०३ ॥ यः खलु मिथ्यादृष्टिः बह्वारम्भः निश्शीलः तीव्रलोभसंयुक्तः रौद्रपरिणामः स जीवो नरकायुबंध्नाति ॥ ८०४ ॥ यः उन्मार्गोपदेशक! सन्मार्गनाशक: गूढहृदयो मायावी शठशीलः सशल्यः स जीवस्तिर्यगायुबध्नाति ॥८०५॥ जो जीव मिथ्यादृष्टी है, बहुत आरम्भवाला है, शील रहित है, तीव्र लोभी है, रौद्र परिणामी है, जिसकी बुद्धि पाप कार्यमें रहती है वह जीव नरकायुको बाँधता है ||८०४ ॥ १० जिसके तीव्र कषाय और नोकषायका उदय है, बहुत मोह युक्त है राग द्वेष से घिरा २५ है, चारित्र गुणको नष्ट करनेका जिसका स्वभाव है वह जीव कषाय नोकषायके भेदसे दो रूप चारित्र मोहका बन्ध करता है || ८०३ ॥ २० जो विपरीत मार्गका उपदेशक है, सन्मागका नाशक है, गूढ़ हृदय है, मायाचारी है, ३० स्वभावसे दुष्ट है, मिथ्यात्व आदि शल्योंसे युक्त है वह तिथंच आयुको बाँधता है ||८०५ || Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५४ गो० कर्मकाण्डे पयडीए तणुकसाओ दाणरदी सीलसंजमविहीणो। मज्झिमगुणेहि जुत्तो मणुवाउं बंधदे जीवो ॥८०६॥ प्रकृत्या तनुकषायो दानरतिः शीलसंयमविहीनः । मध्यमगुणैर्युक्तो मनुष्यायुर्बध्नाति जीवः॥ स्वभावदिदमंदकषायोदयतुं दानदोळु प्रोतिमेनुळ्ळतुं शीलंगळि संयमविंद विहीननु मध्यमगुणंगळिदं कूडिदनुमप्प जोवनुं मनुष्यायुष्यमं कटुगुं। अणुवदमहव्वदेहि य बालतवाकामणिज्जराये य । देवाउवं णिबद्धइ सम्माइट्ठी य जो जीवो ॥८०७॥ अणुव्रतमहावतेश्च बालतपोऽकामनिर्जरया च । देवायुबंध्नाति सम्यग्दृष्टिश्च यो जीवः ॥ यो जीवः सम्यग्दृष्टिम्मियादृष्टिश्च आवनोर्खनुं सम्यग्दृष्टिजीवनू मिथ्यादृष्टिजीवनुं आ जी अणुव्रतंगलिदम महाव्रतंगळिदमुं देवायुष्यमं कटु। मिथ्यावृष्टिगे'तणुव्रतमहावतंगळे दोर्ड द्रव्यदिदमुपचारमणुव्रतमहावतंगळक्कुं। सम्यग्दृष्टिजीवं केवलं सम्यक्त्वदिवमुमनुपचाराणुवतमहावतंगळिंदमुं देवायुष्यमं कटुगुं । द्रव्यभावलि गिमिध्यादृष्टिजीवनज्ञानतपश्चरणविंदमकामनिर्जरेयंदमं देवायुष्यमं कटुगु। मणवयणकायवक्को मायिन्लो गारवेहि पडिबद्धो। असुहं बंधदि णामं तप्पडिवक्खेहि सुहणामं ॥८०८॥ मनोवचनकायवक्रो मायावी गार वैः प्रतिबद्धः । अशुभं बध्नाति नाम तत्प्रतिपक्षः शुभनाम ॥ यः स्वभावेन मन्दकषायोदयः दानप्रीतिः शोलैः संयमेन च विहीनः मध्यमगुणैर्युक्तः स जीवो मनुष्यायुबंध्नाति ॥८०६॥ यः सम्यग्दृष्टिींवः स केवलं सम्यक्त्वेन साक्षादणुव्रतर्महाव्रतैर्वा देवायुर्बध्नाति । यो मिथ्यादृष्टिर्जीवः स उपचाराणुव्रतमहाव्रतैलितपसा अकामनिर्जरया च देवायुर्बध्नाति ॥८०७॥ यः मनोवचनकायर्वनः मायावो गारवत्रयप्रतिबद्धः स जीवो नरकतिर्यग्गत्याद्यशुभं नामकर्म बध्नाति । २५ जो जीव स्वभावसे ही मन्द कषायवाला है, दान देनेका प्रेमी है, शील और संयमसे रहित है, मध्यम गुणोंसे युक्त है वह मनुष्यायुका बन्ध करता है ॥८०६॥ जो जीव सम्यग्दृष्टी है वह केवल सम्यक्त्वसे अथवा अणुव्रत महाव्रतोंके द्वारा देवायुका बन्ध करता है । जो मिथ्यादृष्टी होता है वह उपचार रूप अणुव्रत महाव्रतोंसे तथा बालतप और अकामनिर्जरासे देवायुका बन्ध करता है ।।८०७॥ जिसका मन, वचन, काय, कुटिल है, जो मायाघारी है, तीन प्रकारके गारवसे बँधा Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११५५ मनोवचनकायंगळ वक्रमनुळ्ळनुं माययनुळ्ळनुं गारवत्रयप्रतिबद्धनुमप्प जोवं नरकतिय्यंग्गत्याघशुभनामकम्मंगळं कटुगुं । तत्प्रतिपक्षगळिवं ऋजुमनोवचनकायंगळिंदमुनिआयत्वदिवम गारवत्रयरहितत्वविंदमुशुभनामकर्ममं कटुगुं जीवं। अरहंतादिसु भत्तो सुत्तरुची पढणुमाणगुणपेही । बंधदि उच्चागोदं विवरीयो बंधदे इदरं ॥८०९॥ अर्हदादिषु भक्तः सूत्ररुचिः पाठानुमानगुणप्रेक्षो । बध्नात्युच्चैर्गोत्रं विपरीतो बध्नातीतरत्॥ अहंदादिगळोळ भक्तियनळ्ळनुं गणधरप्रोक्ताद्यागम सूत्रंगळोळ श्रद्धानमुळ्ळD अध्यय. नार्थविचारविनयादिगुणशियुमप्प जीवनुच्चैपर्गोत्रकर्ममं कटुगुं। विपरीतः अहंदादिगळोळु भक्तिरहितमं आगमसूत्रंगळोळ श्रद्धानमिल्लवनु अध्ययनार्थविचारविनयादिगुणविजितनुमप्प जीवं नीचैर्गोत्रमं कटुगुं। पाणवधादीसु रदो जिणपूजामोक्खमग्गविग्घयरो। अज्जेइ अंतरायं ण लहइ जं इच्छियं जेण ॥८१०॥ प्राणवधादिषु रतः जिनपूजामोक्षमार्गविघ्नकरोजयत्यंतरायं न लभते यदीप्सितं येन ॥ येन आउदों दंतरायकम्र्मोदयविदं यदीप्सितात्वं न लभते आउदोंदु तन्नीप्सितार्थम पडेयलरियनंतप्पतरायकर्ममं प्राणवधाविषु रतः द्वित्रिचतुरित्रियाः प्राणाः गुळे जिगुळे मोदलाद १५ वोंद्रियंगळमं पेनु करयुतगुणे मिरुपेयु मोरलाद त्रौंद्रियंगळं नोणं नोंजु मोदलाव चतुरिद्रियजीवंगळमं तां कोलुव कोलेगळो; परक्को लुव कोलेगळोळं प्रोतियनुलनु जिनपूजेगळं मोक्ष. मार्गमप्प रत्नत्रयंगळ प्राप्तिगे तनगं पेरगं विघ्नकारियुमप्प जीवनंतरायकर्ममनुपाज्जिसुगु। तस्प्रतिपक्षपरिणामहि शुभं नामकर्म बध्नाति ।।८०८।। यः अर्हदादिषु भक्तः गणपराधक्तागमेषु श्रद्धाध्ययनार्थविचारविनयादिगणदर्शी स जीवः उच्चोत्र २० बध्नाति । तद्विपरीतो नीचैर्गोत्रं बध्नाति ॥८०९।। यः द्वित्रिचतुरिंद्रियवधेषु स्वपरकृतेषु प्रीतः। जिनपूजायां रत्नत्रयप्राप्तेश्च स्वान्ययोबिनकरः स जीवस्तदन्तरायकर्जियति येनोदयागतेन यदीप्सितं तन्न लभते ।।८१०॥ है वह नरकगति तिर्यंचगति आदि अशुभ नामकर्मको बांधता है। और इनसे विपरीत अर्थात् जो कपट रहित है, गारव रहित है वह शुभ नामकर्मको बाँधता है ।।८०८॥ २५ जो अरहन्त आदिमें भक्ति रखता है, गणधर आदिके द्वारा कहे शास्त्रोंमें श्रद्धावान् है, उनके अध्ययनके लिए विचार विनय आदि गुणोंमें अनुरागी है वह उच्चगोत्रका बन्ध करता है । उससे विपरीत नीच गोत्रका बन्ध करता है ।।८०९॥ ____जो जीव अपने द्वारा अथवा दूसरेके द्वारा किये गये दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, जीवोंकी हिंसासे प्रेम करता है, जिनपूजा रत्नत्रयकी प्राप्तिमें अपने लिए भी दूसरों के लिए ३० भी बाधा डालता है। वह जीव अन्तराय कर्मका बन्ध करता है जिसके उदयसे जीव इच्छित वस्तुको प्राप्त नहीं कर सकता ॥८१०॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० गो० कर्मकाण्डे इंतु भगवदहंत्परमेश्वर चारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्य पंजायमानश्रीमद्रायराजगुरु मंडलाचार्य्यमहावाद वादोश्वररायवादीपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्तिश्रो मद भयसूरिसिद्धांत चक्रवत्तचारुचरणारविंदरजो रंजितललाटपट्टे श्रीमत्केशवण्ण विरचितमप्प गोम्मटसार कर्नाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिर्कयोळ कर्मकांडप्रत्यय महाधिकारं निगदितमादुदु ॥ ११५६ इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्तौ कमकाण्डे प्रत्ययप्ररूपणो नाम षष्ठोऽधिकारः ॥ ६ ॥ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतस्व प्रदीपिकाको अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टोकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत प्रत्ययप्ररूपणा नामक छठा अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥३॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ भावचूलिकाधिकारः ॥७॥ अनंतरं भावचूलिकेयं पेळलुपक्रमिसि तदादियोळु निव्विघ्नपरिसमाप्तियं बयसि तन्निष्टविशिष्टदेवतानमस्कार मं माडिदपं : गोम्मटजिदिचंदं पणमिय गोम्मटपयत्थ संजुत्तं । गोम्मटसंग हविसयं भावगयं चूलियं बोच्छं ||८११ ॥ गोम्मट जिने द्रचंद्र प्रणम्य गोम्मटपदात्थं संयुक्तं । गोम्मटसंग्रहविषय भावगतां चूलिका वक्ष्यामि ॥ गोम्मटजिनेंद्रचंद्रनं नमस्कारमं माडि समीचीनपदार्थं संयुक्तमप्प गोम्मट संग्रहविषयमप्प भावगतचूळिकेयं पेदर्प : जेहि दुलक्खिज्जते उवसमआदीसु जणिदभावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिद्भिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ ८१२ ॥ यैस्तु लक्ष्यंते उपशमाविषु जनित भावैज्जवास्ते गुणसंज्ञा निद्दिष्टाः सव्र्व्ववशिभिः ॥ यैः आवुवु केलवु उपशमादिषु जनितभावैः प्रतिपक्ष कम्र्मोपशमाविगळोळ जनितभावंगळदं जीवाः जीवंगळु लक्ष्यंते लक्षिसल्प डुवुवु, ते आ उपशमाविगळोळ जनितभागंगळ गुणसंज्ञाः गुणंगळे संज्ञेयळवे सम्बंदशभिर्न्नािद्दिष्टाः सर्व्वज्ञरिवं पेळपट्टुवु । अथ भावचूलिकामुपक्रममाणो निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थं स्वष्टविशिष्टदेवतां नमस्यति गोम्मटजिनेन्द्रचन्द्रं नमस्कृत्य समीचीनपदार्थ संयुक्तां गोम्मटसंग्रहविषयां भावगतचूलिकां वक्ष्ये ॥ ८११ ॥ यैः प्रतिपक्ष कर्मोपशमादिषु सत्सु संजनितभावर्जीवाः लक्ष्यन्ते ते भावा: गुणसंज्ञाः सर्वदर्शिभिनिर्दिष्टाः ॥ ८१२ ॥ गोम्मट जिनेन्द्र अर्थात् महावीरस्वामी अथवा नेमिनाथके प्रतिबिम्बरूपी चन्द्रमाको नमस्कार करके समीचीन पद और अर्थसे युक्त अथवा समीचीन पदार्थोंके वर्णनसे युक्त भावचूलिकाको जो गोम्मटसारके अन्तर्गत है, कहूँगा ||८११ ॥ भावचूलिकाको प्रारम्भ करते हुए उसकी निर्विघ्न समाप्तिके लिए अपने इष्ट देवता- २० को नमस्कार करते हैं जिन अपने प्रतिपक्षी कर्मोंके उपशम आदिके होनेपर उत्पन्न हुए भावोंसे जीव पहचाने जाते हैं, उन भावों को सर्वज्ञ देवने गुणनामसे कहा है || ८१२ || 20 १५ २५ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५८ गोकर्मकाण्डे आ मूलभावंगळ नामनिर्देशमं माडिवपरु : उवसमखइयो मिस्सो ओदइयो पारिणामियो भाओ। भेदा दुगु णव तत्तो दुगुणिगिवीसं तियं कमसो ॥८१३।। औपशमिकः क्षायिको मिश्रः औदयिकः पारिणामिको भावो। भेदा द्वयं नव ततो द्विगुण ५ एकविंशतिस्त्रयः क्रमशः॥ औपशमिकमुं क्षायिक, मिश्रमुमोदयिक, पारिणामिकमुमदु भावंगळ पंचप्रकारंगळप्पुविवर भेदंगळु द्वयमुं नवमुं नवद्विगुणमुमेकविंशतियुं त्रयमुमप्पवु । क्रमदिदं औपशमिक २ । क्षायिक ९ । मिश्र १८ । औदयिक २१ । पारिणामिक ३ ॥ __ कम्मुवसमम्मि उवसमभाओ खीणम्मि खयियभावो दु । उदओ जीवस्स गुणो खओवसमिओ हवे भाओ ॥८१४॥ कर्मोपशमे उपशमभावः क्षये क्षायिको भावः तु। उदयो जीवस्य गुणः क्षयोपशमिको भवेदभावः॥ प्रतिपक्षकम्र्मोपशमदिदमौपशमिकभावमकुं । प्रतिपक्षकर्मनिरवशेषक्षयविंदं क्षायिकभावमक्कुं। तु मत्तै प्रतिपक्षकर्मोदयमुं जीवगुणममेर९ मिश्रमागि क्षायोपशमिकभावमक्कु॥ कम्मुदयजकम्मिगुणो ओदइयो तत्थ होदि भावो दु। कारणणिरवेक्खभवो समावियो होदि परिणामो ॥८१५॥ कर्मोदयजनितसंसारिजीवगण औदयिकस्तस्मिन्भवति भावस्तु । कारणनिरपेक्षभवः स्वाभाविको भवति पारिणामिकः॥ कर्मोदयजनितसंसारिजोर्वगणं अल्लि पुट्टिबुदु औदयिकभावमें बुदक्कु । मुपशमक्षयक्षयोप. तत्र मूलभावा औपशमिकः क्षायिकः मिश्रः औदयिकः पारिणामिकश्चेति पंच । ततः पश्चात्तेषां भेदाः क्रमशो द्वौ नवाष्टादशकविंशतिस्त्रयो भवन्ति ॥८१३॥ प्रतिपक्षकर्मोपशमे सत्यौपमिकभावः स्यात् । तन्निरवशेषक्षये क्षायिकभावः स्यात् । तु-पुनः तदुदयो जीवगुणश्चेति द्वयं मिश्रं क्षायोपश:मकभावः स्यात् ।।८१४॥ कर्मोदयजनितसंसारिजीवगुण उदयः, तत्र भव औदयिकभावः स्यात् । उपशमक्षयक्षयोपशमोदयनिर मूलभाव पाँच है-औपशमिक, भायिक, मिश्र, औदयिक, पारिणामिक। उनके भेद २१ क्रमसे दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन हैं ॥८१३॥ प्रतिपक्षी कर्मका उपशम होनेपर औपशमिकभाव होता है। प्रतिपक्षो कर्मका पूर्ण रूपसे क्षय होनेपर क्षायिकभाव होता है। तथा प्रतिपक्षी कर्मका उदय भी रहे और जीवका गुण भी प्रकट रहे इस तरह दोनोंके मिश्र रूप होनेपर झायोपशमिकभाव होता है ।।८१४॥ कर्मके उदयसे उत्पन्न संसारी जीवके गुणको उदय कहते हैं। उससे होनेवाला १. मगणं औद। ३० Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदोपिका शमोदयनिरपेक्षदोळादुदु पारिणामिकभावमें बुदक्कु । उवसमभावो उवसमसम्मं चरणं च तारिसं खयिओ। खायियणाणं दंसण सम्मं चरित्तं च दाणादी ।।८१६॥ उपशमभाव उपशमसम्यक्त्वं चरणं च तादृशं क्षायिकः । क्षायिकज्ञानं दर्शनं सम्यक्त्वं चरित्रं च दानादयः॥ ___ आ पंचभावंगळोळु मोदलुपशमभावमदु उपशमसम्यक्त्वमुमुपशमचारित्रमें वितु द्विविध. मक्कुमते क्षायिकभावमुं क्षायिकज्ञानं क्षायिकदर्शनं क्षायिकसम्यक्त्वं क्षायिकचारित्रं क्षायिकदानादिपंचकमुमितु नवविधमक्कु। खाओवसमियभावो चउणाण तिदसणं तिअण्णाणं। दाणादिपंच वेदग-सरागचारित्त-दसंजमं ॥८१७॥ क्षायोपशमिकभावश्चतुर्ज्ञानत्रिदर्शनव्यज्ञानं । दानाविपंचवेदक सरागचारित्रदेशसंयमं ॥ क्षायोपशमिकभावं मतिश्रुतावधिमनःपर्ययमब चतुर्ज्ञानंगळं चक्षुरचक्षुरवधिगळेत विदर्शनंगळं कुमतिकुश्रुतविभंगर्म ब व्यज्ञानंगळं दानलाभभोगोपभोगवीर्यमेब दानादिपंचकर्म वेदकसम्यक्त्वमं सरागचारित्रमं देशसंयममुदितष्टादशभेवमक्कु। ओदयिया पुण भावा गदिलिंगकसाय तह य मिच्छत्तं । लेस्सासिद्धासंजम अण्णाणं होति इगिवीसं ॥८१८॥ औदयिकाः पुनर्भावाः गतिलिंगकषायास्तया मिथ्यात्वं । लेश्याऽसिद्धासंयमाज्ञानं भवत्येकविशतिः॥ पेक्षायां भवः पारिणामिकभावः स्यात् ॥८१५॥ उक्तोत्तरभेदसंख्याविषयभावान् व्यनक्ति उपशमभावा:-उपशमसम्यक्त्वं उपशमचारित्रं चेति द्वेषा, क्षायिकभावाः क्षायिकं ज्ञानं दर्शनं . सम्यक्त्वं चारित्रं तादृक्दानादयश्चेति नवधा ॥८१६॥ क्षायोपशमिकभावा:-मतिश्रतावधिमनःपर्ययज्ञानानि, चक्षुरचक्षुरवषिदर्शनानि, कुमतिश्रुतविभंगज्ञानानि, दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि, वेदकसम्यक्त्वं, सरागचारित्रं देशसंयमश्चेत्यष्टादशधा ॥८१७॥ २५ औदयिकभाव है। उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदयकी अपेक्षाके अभावमें होनेवाला भाव पारिणामिक है ॥८१५|| आगे उत्तर भेदोंकी संख्याके विषयभूत भावोंको कहते हैं-औप. मिकभाव उपशमसम्यक्त्व और उपशमचारित्रके भेदसे दो प्रकार है। क्षायिकभाव क्षायिकज्ञान दर्शन सम्यक्त्व, चारित्र, दान, लाभ, भोग-उपभोग वीयके भेदसे नौ प्रकार हैं ।।८१६।। क्षायोपशमिकभाव मतिश्रत अवधि मनःपर्यय ये चार ज्ञान, चक्षु अचक्षु अवधि ये तीन दर्शन, कुमति कुश्रुत विभंग ये तीन अज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, वेदक ३० सम्यक्त्व, सरागचारित्र और देशसंयमके भेदसे अठारह प्रकार है॥८१७|| क-१४६ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६० गो० कर्मकाण्डे औदयिकभावंगळ गतिचतुष्कम लिंगत्रितययम कसायचतुष्टयमं तथा मिथ्यात्वमं लेश्याषट्कमुमसिद्धत्वमुमसंयममुमज्ञानमुमें दितेकविंशतिप्रमितंगळप्पुवु ॥ जीवत्तं भव्वत्तमभव्बत्तादी भवंति परिणामा। इदि मूलुत्तरभावा भंगवियप्पे बहुजाणे ।।८१९॥ जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वादयो भवंति परिणामाः। इति मूलोतरभावा भंगविकल्पे बहून् जानीहि ॥ जीवत्वम भव्यत्वमुमभव्यत्वमुमेंबिउ मोदलावउ पारिणामिकंगळप्पवितु मलभावंगळयदक्कमुत्तरभावंगळु त्रिपंचाशत्प्रमितंगळप्पुर्वेदरियल्पडुगु।। मूलभावंगळ्गमुत्तरभावंगळगं संदृष्टि :-औपशमिक २। क्षायिक ९ । क्षायोपमिक १० १८ । औदयिक २१ । पारिणामिक ३। इउ भंगविकल्पदोळु बहुविकल्पंगळप्पुवेंदु नोनरि भव्य । ओघादेसे संभवभावं मूलुसरं ठवेदूण । पत्तेये अविरुद्धे परसगजोगेवि भंगा हु ॥८२०॥ ओघे आदेसे संभवभावं मूलोत्तरं स्थापयित्वा । प्रत्येकेऽविरुद्ध परसुगयोगेपि भंगाः खलु ॥ ओघे गुणस्थानदोळं आदेशे मार्गणास्थानदोळं संभवभावं संभविसुव भावमं मूलोत्तरं १५ मलभावमनुत्तरभावेमं स्थापयित्वा स्थापिसि प्रत्येकेऽविरुद्धे आ स्थापिसिद मूलोत्तरभावदोळ औदयिकभावाः पुनः चतुर्गतिविलिंगचतुःकषायाः, तथा च मिथ्यात्वं षड्लेश्या असिद्धासंयमाज्ञानानि इत्येकविंशतिर्भवन्ति ॥८१८॥ जीवत्वं भव्यत्वं अभव्यत्वादयश्च पारिणामिकभावा भवन्ति । इत्येवं मलभावाः पंच उत्तरभावास्त्रि. पंचाशत् भंगविकल्पा बहव इति जानीहि ॥८१९।। २० गुणस्थाने मार्गणास्थाने च सम्भवतो मूलभावानुत्तरभावांश्च संस्थाप्याक्षसंचारक्रमेण प्रत्येके औदयिकभाव चार गति, तीन वेद, चार कषाय, एक मिथ्यात्व, छह लेश्या, असिद्ध, असंयम, अज्ञानके भेदसे इक्कीस हैं ।।८१८।। विशेषार्थ-सामान्यकमके उदयरूप सिद्ध पदका अभाव असिद्धत्व है। चारित्रमोहके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयसे चारित्रका अभाव असंयम है। ज्ञानावरणके उदयसे जो ज्ञान २५ प्रकट नहीं वह अज्ञान है । मिथ्यादृष्टि छद्मस्थके जितना ज्ञान प्रकट होता है वह क्षयोपशम रूप अज्ञान है जिसे मिथ्याज्ञान कहते हैं। और जितना ज्ञान प्रकट नहीं है सब जीवोंके वह अज्ञान औदयिक है ।।८१८॥ ___ जीवत्व भव्यत्व अभव्यत्व आदि पारिणामिक भाव होते हैं। इस प्रकार मूलभाव पाँच हैं उत्तरभाव तरेपन हैं इनके भंग विकल्प बहुत हैं ।।८१९।। विशेषार्थ-जीवत्व तो द्रव्य स्वभाव है ही। भव्यत्व अभव्यत्व भी किसी कमके निमित्तसे नहीं होते, अनादि हैं । अतः इन्हें पारिणामिक कहा है ॥ १. म परस्वयो । 30 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ११६१ परस्वयोगे परसंयोगदोळं स्वसंयोगदोळं भंगा हु भंगगंळप्पुवु स्फुटमागि । अदेत दोर्ड अन्नवरं गुणस्थानदोळु पेल्पडुगुं । मिथ्यादृष्टियोळु संभविसुव मूलभावंगळु क्षायोपश मिकमुमौदयिमुं पारिणामिकमुबी मूरुं भावंगळु संभविसुगुमेंदु स्थापिसिमि । औ । पा । यितु स्थापिसिंदी मूरु प्रत्येकभंगमूरक्कुं ॥३॥ द्विसंयोगभंगं मिश्रौदयिकमुं | मि औ | पा | मिश्रपारिणामिउ, मि | औ| पा| औदयिकपारिणामिकमं | मि | औ | पा। ५ + +I + + + अविरुद्धपरसंयोगे स्वसंयोगे च भंगा भवन्ति स्फुटं । तत्र गुणस्थानेषु यथा मिथ्यादृष्टयादित्रये मूलभावाः ओघ अर्थात् गुणस्थान और आदेश अर्थात् मार्गणास्थान में होनेवाले मूलभावों और उत्तरभावोंको स्थापित करके जैसे जीवकाण्डके गुणस्थान अधिकारमें प्रमादोंके कथनमें अक्षसंचारका विधान कहा है वैसे ही यहाँ अक्षसंचार विधानके द्वारा भावोंके बदलनेसे प्रत्येक भंग तथा विरोध रहित परसंयोगी स्वसंयोगी भंग होते हैं। जहाँ जुदे-जुदे भाव कहे जाते १० हैं वहाँ प्रत्येक भंग होते हैं। और जहाँ अन्य-अन्य भावके संयोग रूप भंग होते हैं उन्हें परसंयोगी कहते हैं। जैसे जहाँ औदायकके किसी भेदके साथ औपशमिक आदिका कोई भेद पाया जाता है वहाँ परसंयोगी भंग कहाता है । और जहाँ अपने भावके भेदोंका संयोग रूप भंग होता है वहाँ स्वसंयोगी कहा जाता है। आगे गुणस्थानों में कहते हैं मूलभाव मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानोंमें औदायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक १५ तीन होते हैं। असंयत आदि आठमें पाँचों भाव होते हैं। क्षीणकषायमें औपशमिक बिना चार हैं। सयोगी अयोगीमें औदायिक पारिणामिक क्षायिक तीन हैं। सिद्धोंमें झायिक पारिणामिक दो हैं । अब उत्तरभाव कहते हैं मिथ्यादष्टिमें औदयिकके इक्कोस, क्षायोपशमिकके तीन अज्ञान दो दर्शन पांच लब्धि ये दस, और पारिणामिक तीन ये चौंतीस भाव हैं । सासादनमें मिथ्यात्व बिना औदयिकके २० बीस, झायोपशमिकके तीन अज्ञान दो दर्शन पाँच लब्धि ये दस, पारिणामिक जीवत्व भव्यत्व दो ये बत्तीस भाव हैं। मिश्रमें मिथ्यात्व बिना औदयिकके बीस, क्षायोपशमिकके मिश्र रूप तीन ज्ञान, तीन दर्शन, पाँच लब्धि ये ग्यारह, पारिणामिक दो जीवत्व भव्यत्व ये तैंतीस भाव है। असंयतमें मिथ्यात्व बिना औदयिकके बीस, क्षायोपशमिकके तीन ज्ञान तीन दर्शन पाँच लब्धि, सम्यक्त्व ये बारह, औपशमिक सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व, दो २५ पारिणामिक ये छत्तीस भाव हैं। देशसंयतमें औदयिकके मनुष्य तियच दो र्गात चार कषाय तीन लिंग तीन लेश्या असिद्धत्व अज्ञान ये चौदह, झायोपशमिकके तीन ज्ञान तीन दर्शन पाँच लब्धि सम्यक्त्व देशचारित्र ये तेरह, औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, दो पारिणामिक ये इकतीस भाव हैं। इनमें तियचगति और देशाचारित्र घटाकर मनापर्यज्ञान सरागचारित्र मिलानेपर प्रमत्त अप्रमत्तमें इकतीस-इकतीस भाव होते हैं। इनमें पीत पद्म ३० लेश्या, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चारित्र घटाकर औपशमिक चारित्र क्षायिक चारित्र मिलानेपर अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणमें उनतीस-उनतीस भाव हैं। इनमें लोभ बिना तीन कषाय और तीन लिंग घटानेपर सूक्ष्म साम्परायमें तैतीस भाव हैं। इनमें लोभ कषाय क्षायिक १. म यक्कु । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६२ गो० कर्मकाण्ड एंदितु मूरु भंगमक्कुं३ । त्रिसंयोगमोदे भंगमक्कु । १ ॥ मितु परसंयोग भंगमेळेयापुवु ।७॥ स्वसंयोगं मिश्रदळ मिश्र{ औवयिकदोळोदयिकमुं पारिणामिकदोलु पारिणामिकमुमितु स्वसंयोगंगळ मूरप्पुवु ।३॥ इंतु मूलभावंगळवरोळ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ संभविसुव मूलं मूलभावंगळ्गं परसंयोग स्वसंयोगभंगंगळ पत्तप्पुवु । मिथ्या मू भा-३ । भं १० । सासादनंगेयुमितेयप्पवु । सासा । मू भा ३ । भं १० । मिश्रंगयुमितेयक्कं । मिश्र मू भा ३। भं १० । असंयतादिचतुर्गुणस्थानदोळ मूलभादंगळग्दुं संभविसुगं। औप। क्षा। मि । औपा। इल्लि प्रत्येक भंगंगळु अय्दप्पुवु १५ ॥ क्षायोपशमिकोदयिकपारिणामिकास्त्रयस्त्रयः । तत्र परसंयोगे प्रत्येकभंगास्त्रयस्त्रयः । द्विसंयोगास्त्रयः । त्रिसंयोगे एकः । स्वसंयोगे मिश्रे मिश्रः । औदयिके औदयिकः । पारिणामिके पारिणामिकः इति त्रयः मिलित्वा दश । असंगतादिचतुष्के मूलभावा: पंच पंच । तत्र प्रत्येकभंगाः पंच। द्विसंयोगा नवैव प्रौपशमिकक्षायिकयोर १५ १० चारित्र घटानेपर उपशान्त कषायमें इक्कीस भाव हैं। इनमें ओपशमिक सम्यक्त्व चारित्र घटाकर झायिक चारित्र मिलानेपर क्षीण कषायमें बीस भाव हैं। सयोगीमें मनुष्यगति शुक्ललेश्या असिद्धत्व ये तीन औदयिक, झायिक नौ, दो पारिणामिक ये चौदह भाव है। इनमें से शुक्ललेश्या घटानेपर अयोगीमें तेरह भाव हैं। सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन वीर्य ये चार क्षायिक और जीवत्व पारिणामिक ये पाँच भाव सिद्धोंमें हैं। ये नाना जीव और नाना काल अपेक्षा जानना। आगे एक जीवके एक कालमें जितने भाव सम्भव हैं वह कहते हैं मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में मूल भाव तीन होते हैं। परसंयोगमें प्रत्येक भंग तीन औदायिक मिश्र पारिणामिक होते हैं । द्विसंयोगी भंग तीन हैं-औदयिक मिश्र, औदयिक पारिणामिक, मिश्र पारिणामिक । तीनोंका संयोगरूप त्रिसंयोगी भंग एक औदयिक मिश्र २० पारिणामिक । स्वसंयोगी भंग तीन-औदयिकमें औदायिक, मिश्रमें मिश्र, पारिणामिकमें पारिणामिक । इस प्रकार सब दस हुए। विशेषार्थ-प्रत्येक द्विसंयोगी त्रिसंयोगी आदि भंग लानेकी विधि जैसे आस्रवाधिकारमें कहा था वैसे ही जानना । विवक्षित संख्याके प्रमाणरूप अंकसे लगाकर एक-एक हीन संख्या लिखो। वे तो अंश हुए। उनके नीचे एकसे लगाकर एक-एक अधिक अंक लिखो। २५ उन्हें हार जानना। उनमें पहले अंशसे आगेके अंशको और पहले हारसे आगेके हारको गुणा करके अंशके प्रमाणमें हारके प्रमाणसे माग देनेपर क्रमसे प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंगोंका प्रमाण आता है। सो मिथ्यादृष्टि आदि तीनमें मूलभाव तीन हैं। सो तीनसे लेकर एक-एक हीन अंक लिखो-तीन दो एक । उनके नीचे एक दो तीन लिखो। पहले तीनको एकका |२|१| भाग देनेसे तीन आये । सो तीन प्रत्येक भंग हुए । तीनको दोसे गुणा करके उसे एकसे गुणित ३० दोका भाग देने पर तीन आये। तीन द्विसंयोगी भंग जानना। फिर छहको एकसे गुणा करके उसमें दो गुणित तीनका भाग देनेपर एक आया । सो एक त्रिसंयोगी भंग हुआ। इसी प्रकार मूलभावों और उत्तरभावोंमें प्रत्येक द्विसंयोगी त्रिसंयोगी भंगोंकी विधि जानना। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २ + + + कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११६३ द्विसंयोगंगळो भत्तेयप्पुर्व ते दोडे आ नाल्कु गुणस्थानोळु उपशमक्षायिकंगळ द्विसंयोग विरुद्धमप्पुदरि ना भंगकुंदिवोडों भत्ते भंगंगळप्पुवप्पुदरिद, त्रिसंयोगभंगंगळुमंतेयुपशमक्षायिकयुतत्रिसंयोगमं बिटु शेष सप्तभंगमप्पुवु । ७॥ चतुःसंयोगभंगगळेरडेयप्पुर्व ते दोडुपशमयुतमागियो दु | उ | क्षा | मि | औ | पा क्षायिक भावदोडनों दक्कुं।|उ |क्षा | मि | औं |पा | इतरडु ॥ | + + + + पंचसंयोगभंग मोनाल्कुं गणस्थानदोळ संभविसके दोर्ड कारणं द्विसंयोगत्रिसंयोगदोळु पेन्दुदेयक्कुं। ५ ई परसंयोगभंगंगळगे संदृष्टि प्र५ । द्वि ९ । त्रि ७। च २। स्वसंयोगभंगं मिश्रदोळमौदयिकदोळं पारिणामिकोळं मूरे भंगमक्कु-३ । मिता नाल्कुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येक मूलभावंगळग्दुं परस्व. संयोगभंगंगळुमिप्पत्तारप्पुवु । असं मू भा ५ । भं२६ । देशसंयतंग मू।भा ५ । भं २६ । प्रमत्तसं मू । भा५ । भंग २६ । अप्रमत्त मू । भा ५ । भंग २६ । उपशमश्रेणियोळ मूलभावंगळय्दुं संभविसुववल्लि परसंयोग भंगं प्रत्येक संयोगभंगंगळग्दु ५। द्विसंयोगभंगंगळ पत्तं १० । त्रिसंयोगभंगंगळ १०। १० चतुःसंयोगभंगमयदु ५। पंचसंयोगभंगमोंदु १। स्वसंयोगभंगं क्षायिकदोळ, क्षायिकभंगमं बिटु शेष नाल्कु ४ भंगमक्कु । यितु आ नाल्कु गुणस्थानंगळोळ प्रत्येक मूलभावभंगमग्दुं । ५ । परस्वसंयोगभंगंगळ मूवत्तरदप्पुवु ३५ । संदृष्टि-अपूर्व मूभा ५। भंग ३५ । अनिवृत्तिकरणंगे मू संयोगात् । त्रिसंयोगाः सप्त । चतुःसंयोगा औपशमिकक्षायिकाभ्यां द्वौ । पंचसंयोगो नास्ति । स्वसंयोगा मिश्रीदयिकपारिणामिकास्त्रयः । एवं परस्वसंयोगाः षविशतिः । उपशमकचतुष्के मूलभावाः पंच पंच । तत्र १५ परसंयोगे प्रत्येकभंगाः पंच । द्विसंयोगा दश । त्रिसंयोगा दश । चतुःसंयोगाः पंच। पंचसंयोग एकः । असंयतादि चार गुणस्थानोंमें मूलभाव पांच-पाँच होते हैं। पूर्वोक्त विधानसे प्रत्येक भंग तो पाँच ही हुए। द्विसंयोगी दस होते हैं। किन्तु यहाँ औपशमिक क्षायिकका संयोगरूप एक भंग नहीं है । अतः नौ हैं। त्रिसंयोगी भंग दस होते हैं । किन्तु यहाँ औपशमिक क्षायिक और एक औदयिक वा झायोपशमिक वा पारिणामिकमेंसे कोई एक इन तीनके संयोग रूप २० तीन भंग न होनेसे सात ही हैं। चतुःसंयोगी पाँच होते हैं किन्तु उनमेंसे औपशमिक क्षायिक और दो औदयिक क्षायोपशमिक अथवा भायोपशमिक पारिणामिक अथवा औदायिक पारिणामिकमें-से इनके संयोग रूप तीन भंग यहाँ नहीं होते। अतः दो ही हैं। यहाँ उपशम और क्षायिकका मिलन न होनेसे पंचसंयोगी भंग नहीं होता। स्वसंयोगी भंग तीन हैंमिश्रमें मिश्र, औदयिकमें औदयिक, पारिणामिकमें पारिणामिक। यहाँ उपशम सम्यक्त्वमें २५ उपशमचारित्र और क्षायिक सम्यक्त्वमें क्षायिकचारित्र सम्भव न होनेसे औपशमिकमें । औपशमिक और क्षायिकमें क्षायिक ये दो भंग नहीं कहे। सब मिलकर छब्बीस भंग हुए। उपशमश्रेणीके चार गुणस्थानोंमें पाँच-पाँच मूलभाव हैं। उनमें परसंयोगीमें प्रत्येक भंग पाँच, द्विसंयोगी दस, त्रिसंयोगी दस, चतुःसंयोगी पाँच और पंचसंयोगी एक भंग होता है। यहाँ क्षायिक सम्यक्त्वके होते उपशमचारित्र होता है अतः उपशम और क्षायिक- ३० का संयोग जानता। स्वसंयोगीमें क्षायिकमें क्षायिक सम्भव नहीं है, क्योंकि यहाँ क्षायिक सम्यक्त्वके साथ अन्य क्षायिकभाव नहीं होता। अतः चार ही भंग होते हैं। सब पैतीस भंग हुए। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६४ गो० कर्मकाण्डे भा ५ । भंग ३५ । सूक्ष्मसांपरायंगे मू भा ५। भंग ३५ । उपशांतकषायंगे मूभा ५। भंग ३५ ॥ क्षपकश्रेणियोनु नाल्कुं गुणस्थानदोंळु संभविसुव भावंगळु क्षायिक, मिअमुमौदयिक, पारिणामिकमुमितु नाल्कप्पुवु। क्षा। मि। औ । पा । इल्लि परसंयोगभंगंगळु प्रत्येकभंगंगळु नाल्केयप्पुवु । ४ । द्विसंयोगभंगंगळार।६। त्रिसंयोगभंगंगळ नाल्कप्पुवु।४। चतुःसंयोगभंग. ५ मो देयक्कुं। १। स्वसंयोगभंगंगळं नाल्कप्पुवु । ४ । कूडियपूर्वकरणनोळ मूलभा ४ । भंग १९ । अनिवृत्तिकरणनोळु मू भा ४ । भं १९ । सूक्ष्मसांपरायनोळ मूभा ४। भं १९॥ क्षीणकषायनोळु मू भा ४ । भं १९ । सयोगकेवलि भट्टारकनोळमयोगेकेवलिभट्टारकनोळं मूलभावंगळ क्षा। ओ। पा। इल्लि प्रत्येक भंग ३। द्विसंयोगभंग ३। त्रिसंयोगभंग १। स्वसंयोगभंग ३। कूडि सयोगरिगे मूभा ३ । भंग १०॥ अयोगरिगे मूभा ३ । भंग १० । सिद्धपरमेष्टियोळु मूलभावंगळ १० क्षा । पा। इल्लि प्रत्येक भंग २ । द्विसंयोगभंगं स्वसंयोगभंग २ कूडि सिद्धपरमेष्टियोळु मू भा २। भंग ५॥ अनंतरमितु गुणस्थानदोळ मूलभावसंख्येयुमं स्वपरसंयोग भंगसंख्येयुमं पेन्दपरु। मिच्छतिये तिचउक्के दोसु वि सिद्धेवि मूलभावा हु । तिगपणपणगं चउरो तिग दोण्णि य संभवा होति ॥८२१॥ मिथ्यादृष्टित्रये त्रिचतुष्के द्वयोरपि सिद्धेपि मूलभावाः खलु। त्रिकपंचपंचचतुस्त्रिकद्वयं च सभवा भवंति ॥ स्वसंयोगाः क्षायिके क्षायिकं विना चत्वारः । एवं परस्वसंयोगाः पंचत्रिंशत् । क्षपकचतुष्के क्षायिकमित्रोदयिकपारिणामिका मूलभावाश्चत्वारश्चत्वारः । तत्र परसंयोगे प्रत्येकभंगाश्चत्वारः । द्विसंयोगाः षट् । त्रिसंयोगाश्चत्वारः । चतुःसंयोग एकः । स्वसंयोगाश्चत्वारः। मिलित्वैकानविंशतिः। सयोगायोगयोमलभावास्त्रयस्त्रयः। तत्र प्रत्येकभंगास्त्रयः । द्विसंयोगास्त्रयः । विसंयोग एकः । स्वसंयोगास्त्रयः मिलित्वा दश । सिद्धे मूलभावी द्वौ । तत्र प्रत्येकभंगी Sो । द्विसंयोग एकः स्वसंयोगो द्वौ। मिलित्वा पंच ॥८२०॥ उक्तमूलभावसंख्यां स्वपरसंयोगसंख्यां चाह २० क्षपकश्रेणीके चार गुणस्थानों में क्षायिक, मिश्र, औदयिक, पारिणामिक, चार ही भाव होते हैं। परसंयोगमें प्रत्येक भंग चार, द्विसंयोगी छह, त्रिसंयोगी चार, चतु:संयोगी एक २५ भंग है । स्वसंयोगी चार होते हैं। सब मिलकर उन्नीस हुए। ___ सयोगी-अयोगीमें क्षायिक, औदयिक, पारिणामिक ये मूल तीन भाव हैं। उनमें प्रत्येक भंग तीन, द्विसंयोगी तीन और त्रिसंयोगी एक और स्वसंयोगी तीन मिलकर दस भंग होते हैं। सिद्धोंमें मूलभाव दो हैं-क्षायिक, पारिणामिक । इनमें प्रत्येक भंग दो, द्विसंयोगी ३० एक, स्वसंयोगी दो सब पाँच हुए ।।८२०॥ उक्त मूलभावोंकी संख्या और स्वपरसंयोगी भंगोंको संख्या कहते हैं१. म भंगमुं। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११६५ मिथ्यादृष्टित्रये मिथ्यादृष्टिसासावनमिश्ररुगळेब मूरुं गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं मिश्रौदयिकपारिणामिक ब मूरुं भावंगळु संभवंगळु असंयतदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तरुमुपशमकापूर्वानिवृत्ति सूक्ष्मसांपरायोपशांतकषायरुगळ क्षपकापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायक्षीणकषायरुगळुमेंब मूरडेय नाल्करोळं सयोगकेवलिभट्टारकं अयोगकेवलिभट्टारकरुगळे बेरडेडेयोळं सिद्धपरमेष्टियोळं क्रमदिदं मूलसंभवभावंगळु त्रिक, पंच पच चतुःत्रिद्विप्रमितंगळु मुंपेन्दुवेयकुं। मिथ्यादृष्टि- ५ त्रयदोळ मि । और पा । असंयतचतुष्टयदोळ उ । क्षा । मि। औ। पा। उपशमचतुष्कदो उ। क्षा। मि । औ ।पा। क्षपकचतुष्कदोलु क्षा। मि । औ।पा। सयोगायोगरोळु क्षा। औ। पा। सिद्धरोळ क्षा । पा॥ तत्थेव मूलभंगा दस छव्वीसं कमेण पणतीसं । उगवीसं दस पणगं ठाणं पडि उत्तरं बोच्छं ॥८२२॥ तत्रैव मूलभंगा वश षड्विंशति क्रमेण पंचत्रिंशत् । एकानविंशतिः दश पंचकं स्थानं प्रत्युत्तरं वक्ष्यामि ॥ ___ तत्रैव तन्मिभ्यादृष्टित्रितयाविस्थानकंगळोळु मूलभंगा मूलभावंगळ परस्परसंयोगभंगंगळु मुंपेन्दत मिथ्यादृष्टयाविगुणस्थानत्रितयदोळ प्रत्येकं वश पत्तु। असंयतादिगुणस्थानचतुष्टयदोळ प्रत्येकं परस्परसंयोगजनितंगळ षडविंशतिः षड्विंशतिगळप्पुवु । उपशमकचतुष्टयदोळु प्रत्येकं १५ परस्परसंयोगभंगंगळ पंचत्रिंशत् । पंचत्रिंशत्प्रमितंगळप्पुवु । क्षपकचतुष्टयदोळ प्रत्येक एकान्नविंशतिप्रमितंगळप्पुवु । सयोगायोगकेवलिद्वयदोळु प्रत्येकं परस्वसंयोगभंगगळ क्श। दशप्रमितंगळप्पुवु । सिद्धपरमेष्टियोळु परस्वसंयोगभंगंगळु पंच पंचप्रमितंगळप्पुवु ॥ स्थानं प्रतिगुणस्थानमं कुरुत्तु भंगंगळनुत्तरं उत्तरभावंगळोळु पेळदपरं : मिथ्यादृष्टयादित्रये असंयताद्युपशमकापूर्वकरणादित्रिचतुष्केषु सयोगद्वये सिद्धे च क्रमेण मूलसम्भव- २० भावास्त्रयः पंच पंच चत्वारस्त्रय द्वो भवन्ति ॥८२१॥ तथैवोक्तषस्थलेषु क्रमेण मूलभंगाः दश षड्विंशतिः पंचविंशत् एकानविंशतिः दश पंच भवन्ति ॥८२२॥ अथ गुणस्थानं प्रति उत्तरभावान् वक्ष्ये मिथ्यादृष्टि आदि तीनमें, असंयत आदि चारमें, उपशमश्रेणीके चारमें, क्षपकश्रेणीके चारमें, सयोगी आदि दोमें, सिद्धोंमें क्रमसे मूलभाव तीन, पाँच, पाँच, चार, तीन, २५ दो हैं ।।८२१॥ __उक्त छह स्थानोंमें क्रमसे मूल भंग दस, छब्बीस, पैंतीस, उनतीस, दस, पाँच हैं ।।८२२॥ आगे गुणस्थानों में उत्सरभावोंको कहेंगे Maharana १. म गलु पंच। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० ११६६ गो० कर्मकाण्डे उत्तरभंगा दुविहा ठाणगया पदगयाति पढमम्मि | सगजोगेण य भंगाणयणं णत्थित्ति णिद्दिद्धं ॥ ८२३ ॥ उत्तरभंगा द्विविधाः स्थानगताः पवगताः इति प्रथमे स्वकयोगेन च भंगानयनं नास्तीति निद्दिष्टं ॥ उत्तरभंगंगळु द्विविधंगळप्पुर्व ते बोर्ड युगपत्संभवी भावसमूहव दमावुव दुस्थानदोळ स्वसंयोगदिदं भंगानयन मिल्लें व पेळपट्टुवु । ३० स्थानगतंगळे कुं पदगतंगळमें दितल्लि प्रथमवोळ. स्थानांतराभावमप्युवरिखमल्लि र पेवंत १५ मिथ्यादृष्टिसासादनन बी एरडुं गुणस्थानंगळोळं मिश्रा संयतदेशसंयतने 'बी मूरुं गुणस्थानदोळं प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वक रणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसां परायोपज्ञांतकषायक्षीणकषायरें बी येळं गुणस्थानदोळं मिश्रस्थानानि क्षायोपशमिकभावंगळ पदिने टरोळं येकसमयवोळ, युगपत्संभविसुवभावंगळ समूहमं स्थानमें बुबा स्थानं यथाक्रर्मादिदं आ द्वित्रि सप्तगुणस्थानंगळोळ त्रिस्थानंगळ : चतुः स्थानंगळुमप्पुवु । मि ३ । सा ३ । मि २ । अ २ । वे २ । प्र ४ । अ ४ । अ ४ । अ ४ । सू ४ । उ ४ | क्षी ४ ॥ सव्र्व्वत्र मिध्यादृष्टियादियागि अयोगिगुणस्थानपय्र्यंतं पविनाकुं गुणस्थानंगळोळ. प्रत्येकमेकस्थानमौदयिकदोळक्कुं । औदयिक । मि १ । सा १ । मि १ । अ १ । वे १ । प्र १ । अ ११ । १ । सू १ । उ १ । क्षी १ । स १ । अ १ ॥ मिच्छदुगे मिस्सतिये पमत्तसत्ते य मिस्सठाणाणि । तिगदुगचउरो एक्कं ठाणं सव्वत्थ ओदइयं ॥ ८२४॥ मिथ्यादृष्टिद्वये मिश्रत्रये प्रमत्तसप्तके च मिश्रस्थानानि । त्रिक द्विक चत्वारि एकं स्थानं दधिकं ॥ २० उत्तरभंगा द्विविधाः स्थानगताः पदगताश्चेति । तत्र प्रथमे युगपत्सम्भविभावसमूहरूपे स्थाने स्थानान्तरं नेति स्वसंयोगेन भंगानयनं नास्तीति निर्दिष्टं ॥८२३ ॥ क्षायोपशमिकभावस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादिद्वये श्रीणि । मिश्रादित्रये द्वे । प्रमत्तादिसप्तके चत्वारि । अग्रे त्रिषु शून्यं । ) औदयिकभावस्थानं चतुर्दशगुणस्थानेष्वेकमेव ॥ ८२४॥ २५ उत्तरभावोंके भंगके दो प्रकार हैं- स्थानगत और पदगत । एक जीवके एक समय में जितने भाव पाये जाते हैं उनके समूहका नाम स्थान है। उनकी अपेक्षासे हुए भंगोंको स्थानगत कहते हैं । एक जीवके एक कालमें जो भाव पाये जाते हैं उनकी एक जातिका अथवा जुदे-जुदेका नाम पद है । उसकी अपेक्षा किये गये भंग पदगत कहे जाते हैं। एक जीवके एक कालमें एक स्थानमें अन्य कोई स्थान सम्भव न होनेसे स्थानगत भंगों में स्वसंयोगी भंग नहीं होते, ऐसा कहा है ||८२३॥ मिथ्यादृष्टि आदि दोमें, मिश्रादि तीन में, प्रमत्तादि सातमें क्रम से क्षायोपशमिकभाव के स्थान तीन, दो, चार जानने । औदयिकभावका स्थान चौदह गुणस्थानों में एक-एक ही है ||८२४|| Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तत्थावरणजभावा पणछस्सत्तेव दाणपंचैव । अयदचउक्के वेदगसम्मं देसम्म देसजयं ॥ ८२५॥ तत्रावरणजभावाः पंच षट्सप्तैव दानपंचैव । असंयतचतुष्के वेदकसम्यक्त्वं देशसंयते देशसंयमं ॥ मुं पेद क्षायोपशमिक भावंगळ ज्ञा ४ । द ३ । अ ३ । दा ५ वे १ । स रा १ । देश १ | ५ यती पदिने टुं भावंगळो युगपदेक समय संभविगळ । तत्र आ मिथ्यादृष्टिद्वय मिश्रत्रयप्रमत्तसप्तकदोल क्रमदिदं मिथ्यादृष्टिसासादनरुगळोळ, अज्ञानत्रितयमुं चक्षुर्द्दर्शनमचक्षुर्द्दर्शनमेव आवरणभावंगलुपंचप्रमितंगळप्पुवु । मि ५ । सा ५ ॥ मिश्रत्रयदोळ, मतिश्रुतावधित्रयमुं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनत्रय मुतिावरणजभावंगळारवु । मि६ । अ ६ । वे ६ । प्रमत्तसप्तकदोळ मत्यादिचतुर्ज्ञानंगळं दर्शनत्रितयमुमितावरणजभावंगळेळप्पुवु । प्र७ । अ७ । अ ७ ॥ अ ७ । सू ७ । उ ७ । क्षी १० ७ । दानपंचैव इल्लि मिथ्यादृष्ट्यादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपय्र्यंतं दानादिपंचक मुमप्पुवधुदरिदं कूडिकोळुत्तं विरलु मि १० । सा १० । मि ११ । मि १ । अ ११ । दे ११ । प्र १२ । अ १२ । अ १२ । अ १२ । सू १२ । १२ । क्षी १२ । असंयतचतुष्के वेदकसम्यक्त्वं देशसंयते देशसंयम दितु पेळपट्टुपुर्दारिदं वेदकसम्यक्त्वमन संयतादिनालकु गुणस्थानंगळोळ कूडिको बुदु । देशचारित्रमं देशसंयतनोळ, कूडिकों बुदु ॥ मत्तं : १५ रागजमं तु पत्ते इदरे मिच्छादिजेठाणाणि । वेभंगेण विहीणं चक्खुविहीणं च मिच्छदुगे ||८२६ ॥ रागयमस्तु प्रमत्ते इतरस्मिन् मिथ्यादृष्ट्यादिज्येष्ठस्थानानि । विभंगेन विहीनं चक्षुव्विहीनं च मिथ्यादृष्टिद्वये ॥ सरागचारित्रमं प्रमत्तसंयतनोळमप्रमत्तसंयतनोळं कूडिकोळुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टिगुण- २० स्थानंगळोळेल्लं क्षायोपशमिकभावंगळोळोकसमयदोत्र युगपत्संभविसुव ज्येष्ठस्थानर्मल्ला गुणस्थानं ११६७ तत्र स्थानत्रये क्षायोपशमिकेष्वावरणजभावा मिथ्यादृष्ट्यादिद्वये व्यज्ञानाद्यद्विदर्शनानि । मिश्रत्रये आद्यविज्ञानत्रिदर्शनानि । प्रमत्तसप्तके तानि च मनः पर्ययश्च । क्षीणकषायान्तं दानादयः पंच | असंयतादिचतुष्के वेदकसम्यक्त्वं । देशसंयते देशसंयमः ||८२५ ।। तु - पुनः प्रमत्ते अप्रमत्ते च सरागचारित्रं तेन क्षायोपशमिकभावज्येष्ठस्थानानि मिथ्यादृष्टया दिवि - २५ उक्त तीनमें क्षायोपशमिकके ज्ञानावरण-दर्शनावरणके निमित्तसे होनेवाले भाव मिथ्यादृष्टि और सासादनमें तीन अज्ञान दो दर्शन ये पाँच हैं। मिश्रादि तीनमें आदिके तीन ज्ञान तीन दर्शन हैं । प्रमत्तादि सात में मन:पर्यय सहित चार ज्ञान तीन दर्शन हैं 1 दानादि पाँच भाव मिध्यादृष्टिसे क्षीणकषायपर्यन्त हैं । वेदकसम्यक्त्व असंयत आदि चार में देश संयम देशसंयत गुणस्थान में है ||८२५|| ३० सरागचारित्र प्रमत्त- अप्रमत्तमें है । इनको यथासम्भव मिलानेपर मिध्यादृष्टि से क्षीण - १. गुणस्थानमं कुरुत्तु । क - १४७ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६८ गोकर्मकाण्डे गळोळमक्कुं। मि १० । सा.१० । मि ११ । अ १२। दे १३ । प्र १४ । अ १४ । अ १२ । अ १२ । सू १२ । उ १२ । क्षो १२ । ई ज्येष्ठस्थानंगळोळ मियादृष्टिद्वयदोळ विभंगविहीनमागळु नवस्थानमक्कुमल्लि चक्षुर्दर्शनविहीनमागलुमष्ट भावस्थान मुसक्कुं। मतं : अवधिद्गेण विहीणं मिस्सतिये होहि अण्णठाणं तु । मणणाणेणवधिदुगेणुभयेणूणं तदो अण्णे । ८२७॥ अवधिद्वयेन विहीनं मिश्रत्रये भवत्यन्यस्थानं तु । मनःपय॑यज्ञानेनावधिद्वयेनोभयेनोनं ततोऽन्यस्मिन् ॥ मिश्रत्रये मिश्रासंयतदेशसंयतरुगळुत्कृष्टस्थानदोळवधिद्विकं होनमागुत्तं विरलु क्रमदिवं १. मिश्रनोळो भत्तुं। असंयतनोलु पत्तु । देशसंयतनोळ पन्नों दुमप्पुवु। तु मत्ते अन्यस्थानं अन्येषां प्रमत्तादीनां स्थानं प्रमत्तादिगळुत्कृष्टस्थानं मनःपय॑यज्ञानेनोन मनःपर्ययज्ञानदिदमूनमागलु प्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळु पदिमूरु पदिमूरुस्थानंगळप्पुवु। अपूर्वानिवृत्तिसूक्ष्मसांपरायोपशांतकषाय. क्षीणकषायरुगळ ज्येष्ठस्थानदो मनःपय॑यमं कळ दोडे पनोंदु भावस्थानं प्रत्येकमक्कु । मत्तं मनःपर्य्यय सहितमागियवधिद्विकहोनमादोडा प्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळु पन्नेरडरस्थानमुं शेषरुगळोळ १५ दशभावस्थानमक्कुं। मानि-मि १० । सा १० । मि ११ । अ १२ । दे १३ । प्र१४। अ १४ । अ १२ । अ१२ । सू १२ । उ १२ । क्षो १२ । पुनरपि मिथ्यादृष्टिद्वये तज्ज्येष्ठं विभंगेन हीनं तदा नवकं स्यात् । पुनरपि चक्षयनेन हीनं तदाष्टकं स्यात् ॥८२६॥ मिश्रत्रये स्वस्वोत्कृष्ट अवधिद्विकेन विहीनं तदा मिश्रे नवकं । असंयते दशकं । देशसंयते एकादशकं स्यात् । प्रमत्तायुत्कृष्टं मनःपर्ययेनावधिद्विकेन तदुभयेन च पृथग्विहीनं तदा प्रमत्तद्वये त्रयोदशकद्वादशककादशकं, २. कषायपर्यन्त क्रमसे क्षायोपशमिकके उत्कृष्ट स्थान दस, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, चौदह, बारह, बारह, बारह, बारह, बारह रूप जानना। मिथ्यादृष्टी और सासादनमें तीन अज्ञान, दो दर्शन, पाँच दानादि इस प्रकार दसदसका उत्कृष्ट स्थान होता है । मिश्रमें तीन ज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि ऐसे ग्यारहका २५ उत्कृष्ट स्थान है । असंयतमें वेदकसम्यक्त्व सहित बारहका है। देशसंयतमें देशसंयम सहित तेरहका है। प्रमत्त-अप्रमत्तमें देशसंयमके बिना सरागसंयम मनःपर्यय सहित चौदहका है। अपूर्वकरणसे क्षीणकषायपर्यन्त चार ज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि इस तरह बारह-बारहका उत्कृष्ट स्थान है। मिथ्यादृष्टि आदि दोमें एक तो दसका उत्कृष्ट स्थान, एक विभंगरहित नौका स्थान, १० एक चक्षुदर्शन रहित आठका स्थान इस प्रकार तीन-तीन स्थान हैं ।।८२६।। मिश्रादि तीनमें एक अपना-अपना उत्कृष्ट स्थान तथा अवधिज्ञान दर्शन रहित मिश्रमें नौका, असंयतमें दसका, देश संयतमें ग्यारहका, इस तरह दो-दो स्थान हैं । प्रमत्तादि सातमें एक-एक अपना उत्कृष्ट स्थान तथा एक-एक मनःपर्ययरहित, एक-एक अवधिज्ञान दर्शनरहित Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ११६९ मत्तं उभयोनं मनःपर्थ्ययावषिद्वयमुमंतु भावत्रयं होनमागलु प्रमत्ताप्रमत्तरोळ पन्नोंदरस्थानमुं शेषरुगळोळु नवभावस्थान मुमक्कुं । संदृष्टि :- क्षायोपशमिकभावस्थानंगंळु मि १० । ९ । ८ । सा १० । ९ । ८ । मि ११ । ९ । अ १२ । १० । वे १३ । ११ । प्र १४ । १३ । १२ । ११ । अ १४ । १३ । १२ । ११ । अपू १२ । ११ । १० । ९ । अ १२ । ११ । १० । ९ । सू १२ । ११ । १० । ९ । उ १२ । ११ । १० । ९ । क्षी १२ । ११ । १० । ९ । ततोऽन्यस्मिन् इल्लिवं मेलौवयिकभावदो पेपर ५ -: मुं ददयिक भावंगळ ग ४ | लि ३ । क ४ । मि १ । ले ६ | असि १ । असं १ । अज्ञा १ । यती एकविंशतिभावंगळोळु मदु समयदोळु मदु जीवक्के युगपत्संभविसुवौदयिक - भावंगळु मिथ्यादृष्टियोळु गतिचतुष्टयदोळोंदु गतिषु १ वेदत्रयदोळोदु वेदमुं १ कषायचतुष्टयवो दु कषायभुं १ | मिथ्यात्वमुं १ | षडलेश्यंगळोळों दु लेश्येयु १ । असिद्धत्वमुं १ | असंयममुं १ । अज्ञान १ | मितष्टभावंगळ मिथ्यादृष्टिगळप्पुवु । ८ ॥ १० १५ सासादनंगे मिथ्यात्वं पोरगागि सप्तभावस्थानमक्कुं । ७ ॥ मिश्रंगयुमंत सप्तभावस्थानमक्कुं । ७ ।। असंयतंगेयुमंते सप्तभावस्थानमक्कुं । ७ ॥ देशसंयतंगे असंयतमं पोरगागि षड्भावस्थानमक्कुं । ६ । प्रमत्तसंयतनोळमंते षड्भावस्थान मक्कुं । ६ ॥ अप्रमत्तनोळमंते षड्भावस्थानमक्कुं । ६ । अपूवंकरणनोळमंते षड्भावस्थानमक्कुं । ६ । अनिवृत्तिकरणंगे सवेवभागेयोळ. षड्भावस्थानमक्कुं ६ । अवेद भागयोळु लिगरहित पंचभावस्थानमक्कुं । ५ । सूक्ष्मसांपरायनोळ - मंते पंचभावस्थानमक्कुं । ५ ॥ उपशांतकषायंगे कषायरहितमागि चतुर्भावस्थानमक्कुं । ४ ॥ क्षीणकषायंगमंतं चतुर्भावस्थान मक्कुं । ४॥ सयोगकेवलिभट्टारकंगे अज्ञानरहितमागि त्रिभावस्थानमक्कुं । ३ ॥ अयोगिकेवलिभट्टारकंग लेश्यारहितमागि द्विभावस्थानमक्कुं २ । मदुवुं मनुष्यगतिभावसिद्धत्वमुरडे यें बुदत्थं ॥ अपूर्वकरणादिपंचके एकादशकदशक नवकं स्यात् । औदयिकभावेष्वेकविशतो मिध्यादृष्टी एकजीवस्यै सम चतुर्गतित्रिवेदे चतुः कषायषट्लेश्यास्वेकैकः, मिथ्यात्वं असिद्धत्वं असंयमः अज्ञानं चेत्यष्टौ । सासादनादित्रये मिथ्यात्वं विना सप्त । देश संयतः द्यनिवृत्तिकरणसवेदभागे असंयमं विना षट् । अवेदभागे सूक्ष्म साम्पराये च लिंगं विना पंच । उपशान्तक्षीणकषाययोः कषायं विना चत्वारः । सयोगे अज्ञानं बिना त्रयः । अयोगे छेश्यां २५ और एक-एक अवधिज्ञान अवधिदर्शन मनःपर्यय रहित स्थान होनेसे प्रमत्त अप्रमत्तमें तेरह बारह, ग्यारहके अपूर्वकरणादि पाँच में ग्यारह, दस, नौके तीन स्थान और होते हैं, इस तरह चार-चार स्थान होते हैं । २० free इक्कीस भावोंमें एक जीवके एक समय में मिध्यादृष्टि में चार गति, तीन वेद, चार कषाय, छह लेश्याओंमें एक-एक तथा मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व ये आठ भाव होते हैं । सासादन आदि तीनमें मिध्यात्वके बिना सात भाव होते हैं। देशसंयतसे अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग पर्यन्त असंयमको छोड़ छह-छह भाव होते हैं । अवेद भाग और सूक्ष्म साम्पराय में वेद बिना पाँच भाव होते हैं। उपशान्तकषाय क्षीणकषाय में कषाय ३० Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगकषाया लेश्याः संगुणिताः चतुर्गातिष्वविरुद्धा । द्वादशद्वासप्ततिस्तावन्मात्रश्चाष्ट५ चत्वारिंशत् ॥ २० ११७० चतुर्गतिषु नरकादिचतुर्ग्यतिगळोळ अविरुद्धाः अविरुद्धंगळप्प लिंगकषाय लेइये गळ संगुणिताः परस्परं गुणि सल्पट्टुवु । नरकादिगतिगळोल क्रमदिदं द्वादश द्वासप्तति तावन्मात्राष्टाचत्वारिंशत्प्रमितभंगंगळप्पुवु । अवें तें दोर्ड नरकगतियोळविरुद्धमप्प ळिगकषायलेइयेगळु षंडवेदमोदु चतुः कषायंगळ मशुभलेश्यात्रितयंगळ सप्पुवु । लिंग १ । कषाय ४ । ले ३ । यिवं परस्परं १० गुणि सिवोर्ड पर्न र भंगंगळवु । १२ । तिर्य्यग्गतियोळविरुद्धमागि त्रिलिंगंगळं चतुः कषायंग षड्लेश्यगळमध्वुवु । लि ३ । क ४ । ले ६ । इवं परस्परं गुणिसिदोडे द्वासप्ततिभंगंगळवु ७२ । मनुष्यगतियो मिलि ३ । क ४ । ले ६ । यिवं परस्परं गुणिसिदोर्ड द्वासप्रति भंगंगळवु । ७२ । देवगतियो अविरुद्धमागि लि २ | क ४ । ले ६ । यिल्लि भवनत्रयापर्य्याप्तरं कुरुत्त अशुभलेश्यात्रयमरियपडुगुं । इवं परस्परं गुणिसिदोडष्टाचत्वारिंशद् भंगंगळवु । ४८ । यी नाल्कुं गतिगळ १५ भंगंगळ कूडि प्रत्येकं मिथ्यादृष्टियोळ सासादननोळ अप्पुवु । मि २०४ । सा २०४ । यी भंगंगळु vinegar | मिश्रंगमसंयतंगं नरकगतियोळु अविरुद्धमागि नपुंसकवेदमुं चतुः कषायंगळुमशुभलेश्यात्रयमुमवु । लिं १ | क ४ | ले ३ | इवं परस्परं गुणिसिदोडे द्वादशभंगंगळवु । १२ । तिर्य्यग्गतियो योग्यमप्प लि ३ । क ४ । ले ६ । यिवं परस्परं गुणिसिबोडे द्वासप्ततिभंगंगलcg | २५ गो० कर्मकाण्डे अनंतरमी औदयिकभावस्थानवर्क भंगंगळ मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळ, पेव्दपरु :लिंगकसाया लेस्सा संगुणिदा चदुगदीसु अविरुद्धा | बारस बावत्तरियं तत्तियमेत्तं च अडदालं ॥८२८ ॥ ३० विमा द्वो, तो हि मनुष्यगत्य सिद्धत्वे ॥ ८२७॥ अथौदयिकस्थानभंगान् गुणस्थानेष्वाह--- चतुर्गतिष्वविरुद्धाः लिंगकषाय लेश्याः । तत्र नरकगती षंढवेदचतुः कषायत्र्यशुभलेश्याः, तिर्यग्प्रनुष्यगत्योस्त्रिलिंगचतुः कषायवड्लेश्याः, देवगती स्त्रीपुंलिंगचतुष्कषाय त्रिशुभलेश्याः भवनत्रयापर्याप्त शुभलेश्याः अपि सर्वत्र गुणिताः क्रमेण द्वादश द्वासप्ततिः द्वासप्ततिरष्टचत्वारिंशद्भवन्ति । मिलित्वा २०४, मिथ्यादृष्टी बिना चार होते हैं । सयोगी में अज्ञान बिना तीन होते हैं। अयोगी में लेश्या बिना मनुष्यगति और असिद्धत्व ये दो होते हैं ॥ ८२७|| 1 आगे औदयिक स्थानोंके भंगोंको गुणस्थानों में कहते हैं चारों गतियोंमें अविरुद्ध लिंग कषाय लेश्याको परस्पर में गुणा करें । सो नरकगति में तो नपुंसक वेद, चार कषाय, तीन अशुभ लेश्याओंको परस्पर में गुणा करनेसे बारह होते हैं। तिर्यच और मनुष्यगति में तीन वेद, चार कषाष, छह लेश्याओंको परस्पर में गुणा करने से बहत्तर बहत्तर होते हैं । देवगति में स्त्री-पुरुष दो लिंग, चार कषाय, तीन शुभ लेश्याको और भवनत्रिक में अपर्याप्त दशा में तीन अशुभ लेश्या भी होती हैं अतः छह लेश्याको परस्पर में गुणा करनेपर अड़तालीस होते हैं । सब मिलकर दो सौ चार हुए। सो इतना तो मिध्यादृष्टि और सासादनमें गुण्य होता है ||८२८|| विशेषार्थ - जिसको गुणकारसे गुणा करते हैं उसे गुण्य कहते हैं। आगे इन्हें गुण Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११७१ ७२ | मनुष्यगतियोळु लिं ३ | क ४ । ले ६ । इयं परस्परं गुणिसिदोर्ड द्वासप्तति भंगंगळप्पुवु ॥७२॥ देवगतियोळ पेदपरु | : वरि विसेसं जाणे सुरमिस्से अविरदे य सुहलेस्सा | चवीस तत्थ भंगा असहाय परक्कमुद्दिट्ठा ||८२९ ॥ नवीनविशेषं जानीहि सुरमिश्रेऽविरते च शुभलेश्याश्चतुव्विशतिस्तत्र भंगा असहायपराक्रमोद्दिष्टाः ॥ देवगतियोळु मिश्रंगमसंयतंगं नव विशेष मुंटदा उर्व बोर्ड शुभलेश्यात्रयमेयवकुर्म ' ते 'बोर्ड भवनत्रयापर्य्यामकरोळल्लदेल्लियुमशुभलेश्याऽसंभवमप्पुर्वारव अंते पेळपट्टुवु । 'भवणतिया पुण्णगे असुह ' येदि । अदु कारणमागि देवगतिय मिश्रासंयतरोळ चतुर्विंशतिभंगंगळप्पू । लि २ । क ४ । ले ३ । लब्धभंगंगळ, २४ । चतुव्विशतिप्रमितंगळपूर्व तु श्रीवीरवर्द्धमान स्वामिथिवं पेळपट्टुवु । १० अंतु मिश्रंगे गुण्यभंगंगळ तूरें भत्तु १८० । असंयतंग गुण्यभंगंगळ १८० । वेशसंयतंर्ग तिथ्यंग्मनुष्यगतिगोळु प्रत्येक लिं३ । क ४ । ले ३ । इवं गुणिसिवोडे देशसंयतंगे तिथ्यंग्गतियोळु ३६ । मनुष्यगतियोलु ३६ । कूडि भंगंगळ द्वासप्ततिप्रमितंगळवु । ७२ । प्रमत्तसंयतंर्ग मनुष्यगतियोळे लि ३ । क ४ । ले ३ | यिवनडरे गुणिसिदोडे गुण्यरूपभंगंगळु मृवत्ताद । ३६ । अप्रमत्तसंयतन मनुष्यगतियो लि ३ । क ४ । लें ३ । थिवं संगुणं मोडिदोडे मूवत्तारु भंगंगळवु ३६ । अप्पू- १५ करणन मनुष्यगतियोळ लिं ३ | क ४ । ले १ । शु । गुणिसिदोडे पन्नेरडु गुण्यरूपभंगंगळप्पु वु । १२ ॥ अनिवृत्तिकरणन मनुष्यगतियोळ सवेदभागेयोलु लि ३ । क ४ । ले १ । इवं संगुणिसिदोर्ड सासादने च गुण्यं स्थाप्यं ॥ ८२८ ॥ २० मिश्र असंयते च प्राग्वन्नरकगतौ द्वादश । तिर्यग्मनुष्य गत्योर्द्वासप्त विद्वसप्ततिः । देवगतौ शुभलेश्यात्रयमेवेति नवीनं विशेषं जानीहि भवनत्रयापर्यासस्यात्रासम्भवात्तेन भंगा स्त्रीपुंलिंगचतुष्कषायत्रिशुभलेश्याकृताचतुर्विंशतिः श्रीवर्धमानस्वामिना निर्दिष्टाः मिलित्वाशीत्यग्रशतं । देशसंयते लि ३ क ४ ले ३ गुणिते ३६ । मिलित्वा तिर्यग्मनुष्यगत्योद्वसप्ततिः । प्रमत्तादिद्वये मनुष्यगती लि ३ क ४ ले ३. गुणिते षट्त्रिंशत् । अपूर्वकरणे सर्वानिवृतिकरणे च लि ३ क ४ ले १ गुणिते द्वादश । अवेदभागे मनुष्यगतौ चतुष्कषायशुक्ललेश्याकारसे गुणा करेंगे इससे इन्हें गुण्य कहा है । अक्षसंचारके द्वारा भावोंके बदलनेसे जितने भंग होते हैं उतने ही परस्पर में गुणा करनेसे होते हैं। मिश्र और असंयत में पूर्ववत् नरकगति में बारह, तिथंच और मनुष्यगति में बहत्तरबहत्तर भंग होते हैं । किन्तु देवगतिमें यहाँ तीन शुभ लेश्या हैं, भवन त्रिकका अपर्याप्तपना इन गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है अतः स्त्रीवेद पुरुषवेद चार कषाय तीन शुभलेश्याको परस्परमैं गुणा करने से देवगति में चौबीस ही भंग होते हैं। ऐसा वर्धमान स्वामीने कहा । ये सब मिलकर एक सौ अस्सी हुए । देशसंयत में तीन लिंग, चार कषाय, तीन शुभलेश्याको परस्पर गुणा करनेसे तियंच और मनुष्यगति में छत्तीस - छत्तीस होते हैं मिलकर बहत्तर हुए। प्रमत्त अप्रमत्त में मनुष्यगति में तीन लिंग, चार कषाय, तीन शुभलेश्याको गुणा करनेसे छत्तीस हुए। अपूर्वकरण और सवेद ५ २५ ३० Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७२ गो० कर्मकाण्डे गुण्यरूपभंगंगळु पन्नेरडप्पुवु १२। मत्तमा गुणस्थानवोळवेवभागयोळ वेवशून्यं मनुष्यगतियोळ कषायचतुष्टयमक्कुं। शुक्ललेश्ययो देयककुं । म मति १ । क ४ । ले शु १ । लब्धं नाल्केयक्कु ४ । मानकषायभागेयोल मनुष्यगतिकषायत्रय शुक्ललेश्ययोदु १ । मनुगति १। क३। शुले १ । लब्धभंग ३ । मायाभागेयोळ मनुष्यगति १ । क २। शुले १ । गुणिसिदोर्ड लब्धगुण्यभंगं २ । लोभकषायभागेयोळ मनुष्यगति १ । क लो १।शु ले १। गुणिसिवोर्ड भंगं १॥ सूक्ष्मसापरायंगे मनुष्यगति १। क सू लो १। शु ले १। गुणिसिदोडे ळन्यभंग १। उपशांतकषायंगे मनुष्यगतियोंदु १। क शून्यं । शु ले । गुणिसिवोडे लन्ध १ । क्षीणकषायंगे मनुष्यगति १।शु ले १। गुणिसिबोडे लब्धभंग १ । योगकेवळिभट्टारकंगे मनुष्यगति १ । शु ले १ । गुणिसिदोडे लब्धभं १ । अयोगिभट्टारकंगे मनुष्यगति १॥ चक्खूण मिच्छसासणसम्मा तेरिच्छगा हवंति सदा । चारिकसायतिलेस्साणब्भासे तत्थ भंगा हु ॥८३०॥ चक्षुरूनमिथ्यादृष्टिसासानसम्यग्दृष्टितिय्यंचौ भवतः । सदा चतुःकषायत्रिलेश्यानामम्यासे तत्र भंगाः खलु ॥ चक्षुर्दर्शनरहितमिथ्यादृष्टिसासावनसम्यग्दृष्टिगळे बीच सव्वदा तिम्यंचरुगळेय. प्परदु कारणविंदमा जीवंगळोळु पंडवेवमुं चतुष्कषायंगळमशुभलेश्यात्रयंगळ परस्पराभ्यासदिद ... द्वादशभंगंगळे यप्पुवु । १२। संदृष्टि-चक्रहितमिथ्यादृष्टिगें भंगंगळ गुण्यरूपंगळु १२। सासादनंग भंग १२। १५ w कृताश्चत्वारः। मानभागे मनुष्यगतिकषायत्रयैकलेश्याकृतास्त्रयः । मायाभागे मनुष्यगति १ क २ शुभले १ गुणिते द्वौ । लोभभागे मनुष्य १ क १ लो शु ले १ गुणिते एकः । सूक्ष्मसापराये मनुष्यगति १ क-सू, लो १ शु ले ? गुणिते १ उपशान्तकषायादित्रये मनुष्यगतिः १ क शून्यं, शु ले १ गुणिते एकैकः । अयोग मनुष्यगतिरिति १ ॥८२९॥ चक्षुर्दर्शनरहितमिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयः सदा तियंच एव स्युस्तेन तत्र भंगाः षंढवेदचतुःक्षाययशुभलेश्यानां गुणने द्वादश द्वादश खलु ।।८३०॥ २ २५ अनिवृत्तिकरणमें मनुष्यगतिमें तीन लिंग, चार कषाय, एक शुक्ललेश्याके गुणन करनेसे बारह हुए। अवेद अनिवृत्तिकरणमें मनुष्यगतिमें चार कषाय और शुक्ललेश्यासे चार हुए । अनिवृत्तिकरणके मान भागमें मनुष्यगति तीन कषाय शुक्ललेश्याके तीन हुए। मायाभागमें मनुष्यगति दो कषाय शुक्ललेश्याके दो हुए। लोभमागमें मनुष्यगति बादर लोभ शुक्ल लेश्यासे एक हुआ। सूक्ष्म साम्परायमें मनुष्यगति सूक्ष्म लोभ शुक्ललेश्याका एक ही हुआ। उपशान्त कषायादि तीनमें कषाय नहीं है अतः मनुष्यगति शुक्ललेश्याका एक ही हुआ। अयोगीमें मनुष्यगति रूप एक हुआ। इस प्रकार जो ये भंग हुए इन्हें गुण्यरूपमें स्थापित करें ।।८२९॥ चक्षुदर्शन.रहित मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि सदा तियंच ही होते हैं। अतः उनमें तियंचगतिमें ही नपुंसक वेद, चार कषाय, तीन अशुभ लेश्याको परस्परमें गुणा करनेसे बारह-बारह भंग होते हैं ।।८३०।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११७३ खाइय अविरदसम्मे चउ सोल बिहतरी य बारं च । तद्देसो मणुसेव य छत्तीसा तब्भवा भंगा ॥८३१॥ क्षायिकाविरतसम्यग्दृष्टौ चत्वारः षोडश द्वासप्ततिश्च द्वादश च । तद्देशसंयतो मनुष्य एव च षट्त्रिंशत्तद्भवा भंगाः॥ ___क्षायिकसम्यग्दृष्टिनरकगतियसंयतनोळु षंडलिंग, चतुष्कषायंगळं कपोतलेश्ययुमक्कु। ५ लिं १। क ४। ले १। लब्धभंगंगळ नाल्कु ४। तिय्यंग्गतिय क्षायिकासंयतसम्यग्दृष्टिगे पुंवेदलिंगमुं कषायचतुष्टयमुं लेश्याचतुष्टयमुमक्कुमे ते दोडे "भोगा पुण्णगसम्मे काउस्स जहणियं हवे णियमा" यदितु शुभलेश्यात्रय, कपोतलेश्येयुमंतु नाल्कप्पवें बुदत्यं । लिंग १ । क ४ । ले ४। इवं गुणिसुत्त विरलु भंगंगळ, षोडशप्रमितंगळप्पुवु। १६। मनुष्यगतियोळ क्षायिकसम्यग्दृष्टय संयतंगे लिंगत्रितय, चतुःकषायंगळं षड्लेश्यगळुमप्पुवु । लिंग ३ । क ४। १० ले ६ । यिवं गुणं माडिदोडे द्वासप्तति भंगंगळप्पुवु । ७२ ॥ देवगतियोळ क्षायिकासंयत सम्यगदृष्टिगे पुवेदलिंगमुं चतुष्कषायमुं शुभलेश्यात्रयमुमक्कुं। लि १। क ४ । ले ३। इवं गुणिसिदोर्ड लब्धभंगंगळु द्वादशप्रमितंगळप्पुवु । १२॥ यितु चतुर्गतिय क्षायिकसम्यग्दृष्टयसंयतंगे गुण्यरूपभंगंगळ कूडि नूर नाल्कप्पुवु । १०४॥ तद्देशसंयतः क्षायिकसम्यग्दृष्टिदेशसंयतं मनुष्य एवं मनुष्यनेयक्कु । मप्पुरिद लिंग ३। क ४ । लेश्यात्रयमुं शुभंगळेयककुं। लेश्य ३। इवं संगुणं १५ माडुत्तिरलु क्षायिक देशसंयतंग षट्त्रिंशत्तद्भवभंगाः मूवतारप्पुवु । भंगंगळ ३६ ॥ इंतुक्तगुणस्थानंगळोळ भंगसंदृष्टि-मिथ्या २०४ । चक्षुरहितमिथ्यावृष्टियोळ, १२ । सासादनंगे २०४ । चलरहितंर्ग १२ । मिश्रंगे १८० । असंयतंर्ग १८० । क्षायिकसम्यग्दृष्टिगे १०४ । देशसंयतंर्ग ७२। क्षायिकसम्यग्दृष्टिदेशसंयतंर्ग ३६ । प्रमत्तसंयतंगे ३६ । अप्रमत्तसंयतंगे ३६। अपूर्वकरणंगे १२ । अनिवृत्तिकरणंगे १२॥ ४ । ३।२।१।१ । उ १ ।क्षी १ । स १ । अ१॥ अनंतरं पारिणामिकभावस्थानमं पेपर : २. २५ क्षायिकसम्यग्दृष्ट्यसंयते नारके पंढलिंगं कषायचतुष्कं कपोतलेश्यति भंगाश्चत्वारः । तिरश्चि पलिंग कषाय चतुष्कं लेश्याचतुष्कमिति षोडश । मनुष्ये लिंगत्रयं कषायचतुष्कं लेश्याषट्कमिति द्वासप्ततिः । देवे पुलिंगं कषायचतुष्कं शुभलेश्यात्रयमिति द्वादश मिलित्वा चतुरग्रशतं । क्षायिकसम्यग्दृष्टिदेशसंयतः मनुष्य एवेति तत्र लिं ३ क ४ शु ले ३ तद्भवभंगाः षट्त्रिंशत् ॥८३१॥ __ क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंयतमें नारकीके नपंसक वेद चार कषाय कपोत लेश्यासे चार भंग होते हैं । तियंच में पुरुषवेद, चार कषाय, चार लेश्यासे सोलह भंग होते हैं। मनुष्य में तीन वेद, चार कषाय, छह लेश्यामें बहत्तर भंग होते हैं। देवगतिमें पुरुषवेद चार कषाय, तीन शुभलेश्यासे बारह भंग होते हैं। इस प्रकार मिलकर एक सौ चार भंग हुए । तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है वहाँ तीन वेद, चार कषाय, तीन शुभलेश्यासे ३० छत्तीस भंग हुए ॥८३१।। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७४ गो० कर्मकाण्डे परिणामो दुट्ठाणो मिच्छे सेसेसु एक्कठाणो दु । सम्मे अण्णं सम्मं चारित्ते णत्थि चारित्तं ॥८३२॥ परिणामो द्विस्थानो मिथ्यादृष्टौ शेषेष्वेकस्थानं तु । सम्यक्त्वेऽन्यत्सम्यक्त्वं चारित्रे नास्ति चारित्रं॥ पारिणामिकभावं द्विस्थानमनुळ्ळुदप्पुददे ते दोर्ड जीवत्वभव्यत्वमें दुं जीवत्वाभव्यत्वमें दितरडुं स्थानंगळ मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु। शेषगुणस्थानंगळोळ गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्टिगळोळ जीवभव्यत्वमें बुदो दे स्थानमक्कुं। संदृष्टि मि २ । सा १ । मि १ । अ १ । दे १ । प्र १ । अ १ । अ १ । अ१। सू १। उ १ । क्षी १ । स १ । अ १। सि १॥ अनंतरं गुणस्थानंगळोळ संभवभावंगळ प्रत्येकद्विसंयोगादिभंगंगळ साधिसुवल्लि १० सम्यक्त्वमो दुळ्ळ स्थानदोळ सम्यक्यांतरमिल्ल । चारित्रमों दुळ्ळेडयोळ चारित्रांतरमिल्लेबुदनवधरिसुउदु ।।। मतमा भंगंगळंतप्पलि विशेषमं पेन्दपरु : मिच्छदुगयदचउक्के अट्ठाणेण खइयठाणेण । ___ जुदपरजोगजभंगा पुध आणिय मेलिदव्वा हु॥८३३॥ मिथ्यादृष्टिद्वयासंयतचतुष्केऽष्टस्थानेन क्षायिकस्थानेन । युतपरयोगजभंगाः पृथगानीय १५ मेलयितव्याः खलु ॥ मिथ्यादृष्टियोळ सासादननोळचरहिताष्टस्थानदोडने कूडिद परसंयोगजनित भंगंगळ. बेर तंदु बळिक राशियोळ कूडिको बुदु । असंयतादि चतुर्गुणस्थानंगळोळ क्षायिकसम्यक्त्वस्थानदोडने कूडिद परसंयोगजनितभंगंगळ बेर तंदु तंतंम राशिय भंगंगळोळ, कूडिकोळ. ल्पडुवुबु ।। पारिणामिकभावो मिथ्यादृष्टी जीवत्वभव्यत्वं जीवत्वाभव्यत्वमिति द्विस्थानः । शेषगुणस्थानेषु सिद्धे च जीवत्वभव्यत्वमित्येवस्थान एव । अग्रे गुणस्थानेषु प्रत्येकद्विसंयोगादीन् वक्तुमाह-सम्यक्त्वयुतस्थाने सम्यक्त्वांतरं चारित्रयुतस्थाने चारित्रांतरं च नास्ति ॥८३२॥ पुन:___ मिथ्यादृष्ट्यादिद्वये चक्षुरूनाष्टस्थानयुतान् असंयतादिचतुष्के क्षायिकसम्यक्त्वस्थानयुतांश्च परसंयोगज. मिथ्यादृष्टि में पारिणामिक भावके दो स्थान हैं-जीवत्व भव्यत्व और जीवत्व अभव्यत्व । शेष गुणस्थानोंमें और सिद्धों में जीवत्व भव्यत्व रूप एक ही स्थान है। आगे गुणस्थानों में प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भेद कहने के लिए कहते हैं -सम्यक्त्व सहित स्थानमें अन्य सम्यक्त्व नहीं होता। चारित्र सहित स्थानमें अन्य चारित्र नहीं होता । अर्थात् जहाँ उपशम सम्यक्त्व होता है वहाँ वेदक या क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता ।।८३२|| मिथ्यादृष्टि सासादनमें चक्षुदर्शन रहित क्षायोपशमिकके आठके स्थानमें जो औदयिकके भंग कहे हैं उन सहित तथा असंयत आदि चारमें क्षायिक सम्यक्त्वके स्थानमें जो औदयिकके भंग कहे हैं उन सहित परसंयोगी भंगोंको पृथक्-पृथक निकालकर अपनी-अपनी राशिमें मिलावें ॥८३३॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११७५ धनंतरं संतम्म गुणस्थानदोळ संभवभावस्थानंगळोळक्षसंचारदिदं प्रत्येकद्विसंयोगादिभंगंगळ साधिसि तदा भंगंगळ, गुण्यभंगंगळ्गे गुणकारंगळ क्षेपंगळुमप्पुवेंदु पेळ्दपरु : उदयेणक्खे चडिदे गुणगारा एव होति सव्वत्थ । अवसेसमावठाणेणक्खे संचारिदे खेवा ॥८३४॥ उदयेनाक्षे चळिते गुणकारा एव भवंति सर्वत्र । अवशेषभावस्थानेनाऽझे संचारिते क्षेपाः॥ ५ औवयिकभावस्थानदोडनक्षं संचलिसल्पडुत्तिरला भंगंगळनितुं सर्वत्र प्रत्येकद्विसंयोगत्रि. संयोगादिगळनितुं गुणकारभंगंगळप्पुवु। औदयिकस्थानमं बिटु अवशेषभावस्थानंगळोडनक्ष संचारमागुत्तं विरला प्रत्येकद्विसंयोगादि भंगंगळनितु राशिगे क्षेपकंगळप्पुवु । अदेतेंदोडे मिथ्यादृष्टियोळ चतुर्गतिय लिंग कषायलेश्या संजनितगुण्य भावंगळ्गे पूर्वोक्तचतुरुत्तरद्विशतभंगंगळगे २०४ । इवक्के गुणकारंगळ क्षेपंगळ मते दोडे मिथ्यादृष्टिगे मिश्रभावस्थानंगळ पत्तुमो भत्तवु १० मितु द्विस्थानंगळ औवयिकभावदोळष्टस्थानमोंदु पारिणामिकभावस्थानमरडुमप्पुविवं स्थापिसि मि | औया। यिल्लि औदयिकभावस्थानदोलिट्ट प्रत्येकभंगाक्षं गुणकारमक्कुं। शेष अश भंगान् पृथगानीय स्वस्वराशी निक्षिपेत् ॥८३३॥ उक्तगुण्यानां गुणकारक्षेपावुद्भावयति गुणस्थानं प्रति प्रागुक्तमिश्रीदयिकपारिणामिकभावस्थानानि भंगोल्पादनक्रमेण संस्थाप्य तत्र औदयिकभावस्थानेनाक्षे चलिते सर्वत्र ये भंगास्ते गुणकारा एव स्युः । शेषभावस्थानरक्षे संचारिते तु क्षेपाः स्युः । १५ तद्यथा मिथ्यादृष्टो तत्स्थानानीत्थं संस्थाप्य। मि | भोपा | अत्राष्टकस्य प्रत्येकभंगो गुणकारः शेषा उक्त गुण्योंके गुणकार और क्षेप कहते हैं गुणस्थानोंमें पूर्व में कहे मिश्र औदयिक और पारिणामिक भावके स्थानोंको अक्ष संचार विधानके द्वारा भंग उत्पन्न करनेके लिए क्रमसे स्थापित करो। उनमें औदयिकभावके २० स्थान द्वारा अक्षका संचार करके जो भंग होते हैं उन्हें गुणकार जानो। और शेष भावोंके स्थानों में अक्ष संचार द्वारा जो भंग हों उन्हें क्षेपक जानो। विशेषार्थ-भावोंके जो स्थान कहे हैं उनको यथासम्भव जुदा-जुदा कहना प्रत्येक भंग हैं। उनमें औदयिकके स्थान रूप प्रत्येक भंगको तो गुणकार जानना । शेष भावोंके स्थान रूप प्रत्येक भंगोंको क्षेप रूप जानना। जहाँ दो, तीन आदि भाव स्थानोंका संयोग किया २५ जाये वहां दो संयोगी, तीन संयोगी आदि भंग होते हैं। उनमें भी जहाँ औदयिक भाषके संयोग सहित दो संयोगी आदि भंग होते हैं उन्हें गुणकार रूप जानो। और जिनमें औदयिक भावका संयोग न होकर अन्य भावोंके संयोगसे दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें क्षेपक रूप जानो। जिससे गुणा किया जाता है उसे गुणकार कहते हैं और जिनको मिलाया जाता है उन्हें क्षेपक कहते हैं । सो पहले जो गुण्य कहे थे उनको कहते हैं । क-१४८ ३० Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे मिश्रभावस्थानंगळोळे रडुं पारिणामिकभावस्थानंगळोळेरडुमंतु प्रत्येकभंगंगळ नाल्दु क्षेपंगळ. ळप्पुवु । प्र गु १। क्षे ४ । द्विसंयोगभंगंगळुमंते औवयिकभावस्थानदोलिट्टक्षबोडने मिश्रभावस्थानंगळे रडं पारिणामिकभावस्थानंगळेरडुमंतु द्विसंयोग भंगंगळु नाल्कुं गुणकारंगळप्पुवु शेषस्थानंगळ द्विसंयोगभंगंगळु मिश्रभावदशस्थानदोलिट्टक्षदोडने पारिणामिकभावस्थानंगळोळेर९ मत्तं ५ मिश्रभावनवस्थानदोलिट्टक्षं पारिणामिकभावस्थानंगळेरडरोळ रडु मंतु द्विसंयोगक्षेपंगळु नाल्कप्पुवु । द्वि गु ४ । क्षे ४ । त्रिसंयोगदोउमंत मिश्रभावदशस्थानदोळं औदयिकभावाष्टस्थानदोळं पारिणाभिकभाव जीवभव्यत्ववोळमिती मूरडयोलिट्टक्षमोदु भंगमक्कु-। मा जीवभव्यत्वबोळिईक्षं जीवाभव्यत्वक्के संचरिसिदोडल्लियोंदु भंगं द्वितोयमक्कुं। मतं मिश्रभावदशस्यानदोक्षिं नवस्थानक्के संचरिसिदोडदरोडनेयुमौदयिकाष्टस्थानदोळं पारिणामिकजीव भव्यत्वदो त्रिसंयोग१० तृतीयभंगमक्कु मा जीवभव्यत्वदोलिद्दर्श जीवाभव्यत्वक्के संचरिसिबोर्ड त्रिसंयोगचतुत्थंभंगमक्कु मितु त्रिसंयोगगुणकारभंगंगळु नाल्कप्पुवु । त्रिसंयोगक्षेपंगळु संभविसवितु मिथ्यादृष्टियोळ, गुणकारभंगंगळो भत्तु क्षेपंगळे टप्पुवु । गुण्य २०४ । गु ९ । क्षे ८। लब्धभंगंगळ १८४४ । मत्तं चक्षरून मिथ्यादृष्टिगे | मि | औ| पा । इल्लि प्रत्येकभंगक्षेपमों देयककुमे दोडे औवयिक अ२] पारिणामिककंगळ प्रत्येक भंगंगळ पुनवक्तंगळप्पुवु । अदुकारणमागि। मत्तं द्विसंयोगगुणकार १५ श्चत्वारः क्षेपाः । द्विसंयोगेऽष्टकेन दशकनवकयोी भव्यत्वाभव्यत्वयोः च गुणकाराः नवकदशकाम्यां भव्य स्वाभव्यत्वयोद्वी द्वौ क्षेपाः। त्रिसंयोगे दशकेनाष्टकेनाष्टके भव्यत्वाभव्यत्वाम्यां द्वौ नवकेन च द्वौ गुणकाराः । क्षेपो नास्ति मिलित्वा प्रागुक्तचतुरद्विशत्याः गुणकारा नव क्षेपा अष्टौ । चक्षुख्ने तु तत्स्थानानोमानि मिथ्यादृष्टि में मिश्रके दस और नवके दो स्थान, औदायिकका आठका एक स्थान और पारिणामिकके जीवत्व सहित भव्य-अभव्य रूप दो स्थान इस तरह पाँच स्थान हैं। तथा २० प्रत्येक भंग पाँच हैं उनमें से औदयिकका आठ स्थान रूप एक प्रत्येक भंग तो गुणकार है। शेष दो मिश्रके और दो पारिणामिकके ये चार भंग क्षेप रूप हैं। तथा दो संयोगी भंगोंमें औदयिकके आठके स्थान सहित मिश्रके दस और नौके स्थान रूप दो भंग और पारिणामिकके दो भंग ये चार भंग तो गुणकार रूप हैं। मिश्रका दसके स्थान सहित पारिणामिकके भव्य-अभव्य रूप दो स्थानोंके दो भंग तथा मिश्रका नौके स्थान सहित उसी पारिणामिकके २५ दो स्थानोंके संयोग रूप दो भंग ये चार क्षेप रूप हैं। त्रिसंयोगीमें औदयिकका आठका स्थान और मिश्रका दसके स्थान सहित पारिणामिकके दो स्थानोंके दो भंग तथा औदयिकका आठका स्थान और मिश्रका नौका स्थान सहित पारिणामिकके दो स्थानोंके दो भंग, ये चार भंग गुणकार रूप हुए। यहाँ औदयिकके संयोगके बिना त्रिसंयोगी भंग नहीं बनता इससे त्रिसंयोगीमें क्षेप नहीं है। ये सब मिलकर नौ गुणकार और आठ क्षेप हुए। पूर्वमें औदयिक भावोंके भंगोंको लेकर मिथ्यादृष्टि में दो सौ चार गुण्य कहा था। उसको गुणकार नौसे गुणा करनेपर अठारह सौ छत्तीस हुए। उसमें आठ क्षेप मिलानेपर अठारह सौ चौवालीस भंग हुए। चक्षुदर्शन रहित मिथ्यादृष्टिमें मिश्रका आठ रूप स्थान, औदायिकका Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११७७ भंगमा देयककुं । शेषद्विसंयोगगुणकारभंगंगळ पुनरुक्तंगळ । मत्तं द्विसंयोग क्षेपंगळ मिश्रभावाष्टस्थानदोडन पारिणामिकभावस्थानद्वयवोळे रडप्पुवु । द्वि गु १ । क्षे २ । त्रिसंयोगगुणकार भंगमेरडे. यक्कुं । त्रि गु २। कूडि चक्षुरून मिथ्यादृष्टियगुण्य पूर्वोक्तद्वादशभंगगळ्गे गुणकारभंगंगळमूळं क्षेपंगळमूरप्पुवु । गुण्य भंग १२ । गु ३। क्षे ३। लब्धभंगंगळ ३९ । उभयमिथ्यादृष्टिय सर्व भंगंगळ सासिरदेंदु नूरे भत्तमूरप्पुवु । १८८३ ।। सासादनंगे | मि | औ| पा | इल्लि प्र गु १।१ | मि1ो ।पा। अत्र मिश्राष्टस्वेव प्रत्येकभंगो ग्राह्यः। शेषाणां पुनरुतस्वात् । स च क्षेपः। ८ | ८ | भ द्विसंयोगेऽपि तथात्वाद् गुण कारः एकः । मिश्राष्टकस्य भव्यत्वाभव्यत्वाम्यां द्वो क्षेपौ । त्रिसंयोगे गुणकारावेव द्वौ। मिलित्वा प्रागुक्तद्वादशानां गुणकारास्त्रयः । क्षेपास्त्रयः । भंगा एकान्नचत्वारिंशत् । उभये मिलित्वा मिथ्यादृष्टौ सर्वभंगा ज्यशोत्यग्राष्टादशशतानि । आठ रूप स्थान और पारिणामिकके दो स्थान ये चार स्थान हैं। यहाँ प्रत्येक भंग चार हैं। १. उनमें से एक मिश्रका आठ स्थान रूप प्रत्येक भंग ग्रहण करना, क्योंकि अन्य तीन प्रत्येक भंग पुनरुक्त हैं-चक्षुदर्शन सहित मिथ्यादृष्टि में कहे पूर्व भंगोंके समान है। अतः एकका ही ग्रहण किया। सो क्षेप रूप है। दो संयोगीमें मिश्रका आठका स्थान और औदयिकका आठका स्थान इन दोनोंके संयोग रूप एक भंग गुणकार है। यहाँ औदयिकके स्थान और भव्य-अभव्य रूप पारिणामिकके दो स्थानोंके संयोगसे जो दो-दो संयोगी भंग होते हैं वे १५ पुनरुक्त हैं अतः उनका ग्रहण नहीं किया। मिश्रका आठका स्थान और भव्य-अभव्य रूप पारिणामिकके संयोगसे जो दो-दो संयोगी भंग होते हैं वे क्षेपरूप हैं। त्रिसंयोगीमें मिश्रका आठका स्थान, औदायिकका आठका स्थान, और पारिणामिकके भव्य-अभव्यरूप दो स्थानोंके संयोगसे जो दो भंग होते हैं वे गुणकार रूप हैं। इस तरह चक्षु दर्शन रहित मिथ्यादृष्टीके जो पहले बारह गुण्य कहा था उसका तीन गुणकार और तीन क्षेप हुए। २० गुण्यको गुणकारसे गुणा करके क्षेप मिलानेसे उनतालीस भंग हुए । इस प्रकार चक्षु दर्शन सहित और रहित मिथ्यादृष्टिके सब भंग मिलकर अठारह सौ तिरासी होते हैं। विशेषार्थ-प्रत्येक गुणस्थानमें जितने भावोंके स्थान पाये जाते है उतने तो प्रत्येक भंग जानना। औदयिकके स्थान गुणकार जानना। अन्य भावोंके स्थान क्षेपरूप जानना। दो तीन आदि भावोंके संयोगसे होनेवाले भावोंको दो संयोगी त्रिसंयोगी जानना। उनमें भी २५ औदयिक भाव और अन्य किसी भावके संयोगसे जो दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें गुणकार रूप जानना। औदायिक भाव बिना अन्य भावोंके संयोगसे जो दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें भेपरूप जानना । पहले कहे भंगोंके समान जो पीछे भंग हों उन्हें पुनरुक जानकर उनको ग्रहण नहीं करना। ऐसा करनेपर जो गुणकार हों उन्हें जोड़कर पूर्व में कहे गुण्यसे उनका गुणा करके जो प्रमाण हो उसमें क्षेपको मिलाकर जितना प्रमाण हो उतने ३० भंग जानना। | Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७८ गो० कर्मकाण्डे क्षे ३। द्विगु ३ । क्षे २। त्रिगु २॥ अंतु सासादनंगे गुण्यभंगंगळ २०४ । गु ६ ।क्षे ५। लब्ध भंगंगळ, १२२९ । मत्तं चक्षुरूनसासादनंगे | मि | औ । पा | प्रक्षे १ । द्विगु १।क्षे १ त्रि ग १ । ।८। ७ | भ । अंतु गुण्य १२॥ गु२ क्षे२। लब्ध भंगंगळ २६ । उभयसासादन भंगंगळु १२५५। मिश्रगेमि औपा | प्र गु १।क्षे ३ । द्वि गु ३ । क्षे २। त्रि गु २ । अंतु मिश्रंगे पूर्वोक्त गुण्य भंगंगळ १८० । गु ६ । ५ मे ५। लब्ध गंगळ १०८५ । असंयतंगे| उ | मि | औ | पा | प्र गु १। क्ष ४। द्वि गु ४। |१|१२|७ । भ । १० । सासादने- मि । औ । पा । अत्र प्र गु १ क्षे ३, द्वि गु ३ क्षे २, वि गु २, मिलित्वा गुण्यं २०४ । गु ६ क्षे ५ भंगाः १२२९ । पुनश्चतरूने | मि । । ८ । अत्र प्रक्षे १ द्विगु १ क्षे १ त्रिगु । | भ ७ १ मिलित्वा गुण्यं १२ । गु २ क्षे २ भंगा २६ उभये १२५५ । मिश्र- मि । यो । पा | प्रगु १ क्षे ३ । द्विगु ३ क्षे २ । त्रिगु २ मिलित्वा गुण्यं १८० गु ६ । ९ । १० से ५ भंगाः १०८५ । सासादनमें मिश्रके दस और नौके दो स्थान; औदयिकका सातका एक स्थान, पारिणामिकका भव्यरूप एक स्थान, ऐसे चार स्थान हैं। उनमें प्रत्येक भंगोंमें एक गुणकार तीन क्षेप हैं । दो संयोगीमें गुणकार तीन क्षेप दो, तीन संयोगीमें गुणकार दो। सब मिलकर गुणकार छह और क्षेप पाँच हुए। गुण्य दो सौ चारसे गुणा करनेपर बारह सौ उनतीस भंग हुए। चक्षुदर्शन रहित सासादनमें मिश्रका आठका स्थान, औदायिकका सातका स्थान, पारिणामिकका एक भव्यका स्थान ये तीन स्थान हैं। प्रत्येक भंगमें एक क्षेप है । शेष पुनरुक्त हैं। दो संयोगीमें गुणकार एक क्षेप एक, त्रिसंयोगीमें गुणकार एक मिलकर दो गुणकार हुए दो क्षेप हुए । गुण्य पूर्वोक्त बारहमें गुणा करनेसे सब भंग छब्बीस हुए। दोनों मिलानेपर सासादनमें सब भंग बारह सौ पचपन होते हैं। मिश्र गुणस्थानमें मिश्रके ग्यारह और नौके २० दो, औदयिकका सातका एक और पारिणामिकका एक भव्य ऐसे चार स्थान हैं। प्रत्येक भंगमें गुणकार एक, क्षेप तीन, दो संयोगीमें गुणकार तीन क्षेप दो, तीन संयोगीमें दो गुणकार, सब मिलकर छह गुणकार और पाँच क्षेप हुए। पूर्वोक्त गुण्य एक सौ अस्सीको छहसे गुणा करके, पाँच जोड़नेपर सर्व भंग एक हजार पचासी होते हैं। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ११७९ क्षे ५। त्रि ग ५ १२२। च गु २ । अंतु असंयतंगे गुण्य पूर्वोक्तभंग १८० । गु १२॥ क्षे ११ । लब्ध भंग २१७४ । क्षायिक सम्यग्दृष्टिगे |क्षा | मि | औ | पा । इल्लि प्रत्येकगुणकारं पुनरुक्त. १ | १२| ७|भ |१०| | मक्कुं। प्र। १ । द्वि गु १। शेषमंगंगळ पुनरुक्तंगळ । द्वि । क्षे३। त्रि गु३ । क्षे २। गु २ । अंतु क्षायिकासंयतंगे पूर्वोक्तगुण्यंगळ १०४ । गु ६ । क्षे६। लब्धमंगंगळ ६३० । उभयासंयतभंगंगळ २८०१ ॥ इल्लि उपशम सम्यक्त्ववोडनेयं क्षायिकसम्यक्त्वदोडनयु मिश्रभावस्था- ५ ग्दोलिई वेदकसम्यक्त्वं पोरगागि विवक्षितमदु निश्चैसुवुदु ॥ देशसंयतंगे|उ | मि |औ|पा |१|१३|६|भ ।११/ ० इल्लि प्र गु १ । क्षे ४ । द्विगु ४ । क्षे ५। त्रिगु५ । क्षे २। च गु २। कूडि देशसंयतंगे गुण्यभंगंगळु पूर्वोक्तंगळु ७२ । गु १२ । क्षे ११ । लब्धभंगंगळु ८७५ । क्षायिकसम्यग्दृष्टि देशसंयतंगे असंयते- उ । मि । औ । पा | प्र गु १ क्षे ४ । द्विगु ४ क्षे ५ । त्रिगु ५ क्षे २ । च गु १ | १२ | ७ | भ १० । २ मिलित्वा गुण्यं १८० गु १२ क्षे ११ भंगाः २१७१ । क्षायिकसम्यग्दृष्टो-क्षा | मि | औ | पा । अत्र प्रत्येकगुणकारः पुनरुक्तः । प्रक्षे १ । द्विगु । १ । १२ । ७ । भ १ शेषाः पुनरुक्ताः । द्वि क्षे ३ । त्रिगु ३ क्षे २ । चगु २ मिलित्वा गुण्यं १०४ । गु ६ । क्षे ६ भंगाः ६३० । उभये भंगाः २८०१ । अत्रोपशमक्षायिकसम्यक्त्वाभ्यां मिश्रभावस्थानं वेदकं विना विवक्षितं । असंयतमें औपशमिकका उपशम सम्यक्त्व रूप एक, मिश्रके बारह और दस ये दो, औदायिकका सात रूप एक तथा पारिणामिकका भव्यत्वरूप एक ऐसे पांच स्थान हैं। वहाँ १५ प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप चार, दो संयोगीमें गुणकार चार क्षेप पांच, तीन संयोगी में गुणकार पांच क्षेप दो, चार संयोगीमें गुणकार दो। सब मिलकर गुणकार बारह और क्षेप ग्यारह हुए। पूर्वोक्त गुण्य एक सौ अस्सीको बारहसे गुणा करके ग्यारह जोड़नेपर सब भंग इक्कीस सौ इकहत्तर होते हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टीके क्षायिकका क्षायिक सम्यक्त्व रूप एक, मिश्रके बारह और दस ये दो, औदायिकका सात रूप एक, पारिणामिक का भव्यत्व एक इस २० प्रकार पांच स्थान हैं। वहां प्रत्येक भंगमें एक क्षेप, दो संयोगीमें गुणकार एक क्षेप तीन, तीन संयोगीमें गुणकार तीन क्षेप दो, चार संयोगीमें गुणकार दो हैं। शेष गुणकार और क्षेप पुनरुक्त होते हैं। सब मिलकर गणकार छह और क्षेप छह हुए। पूर्वोक्त गण्य एक सौ चारको छहसे गुणा करके छह जोड़नेपर सब भंग छह सौ तीस होते हैं। दोनोंको मिलानेपर असंयतमें सब भंग अठाईस सौ एक होते हैं। यहाँ उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक २५ सम्यक्त्वके साथ मिश्र भाव स्थान वेदक सम्यक्त्वके बिना विवक्षित हैं। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८० गो० कर्मकाण्डे | क्षा | मि | औ | पा | इल्लि प्रत्येकगुणकारं पुनरुक्तमकुं । क्षे १। द्वि गु १। शेषद्विसंयोग| १ | १३| ६ | भ| गुणकारंगळु पुनरुक्तंगळु । द्वि क्षे ३ । त्रि गु ३ । शेषगुणकार भंगंगळु पुनरुक्तंगळ । त्रि क्ष२। च गु २। कूडि क्षायिकदेशसंयतंगे गुण्यंगळु ३६ । गु ६ । क्षे ६ । लब्ध भंगंगळु २२२ । उभयभंगंगळ देशसंयतंगे १०९७। प्रमत्तसंयतंगे | उ | क्षा | मि | औ । पा| यिलिल प्र गु१। | १ | १ | १४ | ६ | भ । ५ क्षे ७ । द्वि गु ७ । क्षे १४ । त्रि गु १४ । क्षे ८। च गु ८। कूडि गुण्यभंगंगळु ३६ । गु ३० । देशसंयते | उ | मि | औ ।पाअत्र प्रगु १ क्ष४। द्विगु ४ क्षे५। त्रिग ५ क्षे२। | १ | १३ | ६ | भ चगु २ मिलित्वा गुण्यं ७२ गु १२ क्षे ११ भंगाः ८७५ । क्षायिकसम्यक्त्वे- क्षा | मि । ओ। । अत्र प्रत्येक गुणेकारः पुनरुक्तः । क्षे १ । द्विगु १ शेषद्विसंयोगगुणकाराः पुनरुक्ताः । द्वि क्षे ३ । त्रिगु ३ शेषगुणकाराः पुनरुक्ताः । त्रि क्षे २। चगु २ मिलित्वा १० गुग्यं ३६ गु ६ क्षे ६ भंगाः २२२ । उभयभंगाः १०९७ । देश संयतमें औपशमिक भावका उपशम सम्यक्त्व रूप एक, मिश्रके तेरह और ग्यारहके दो, औदायिकका छहका एक तथा पारिणामिकका भव्यत्वरूप एक, ऐसे पाँच स्थान हैं । उनमें प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप चार, दो संयोगीमें गुणकार चार, क्षेप पाँच, तीन संयोगीमें गुणकार पाँच क्षेप दो, चार संयोगीमें गुणकार दो। सब मिलकर गुणकार बारह १५ और क्षेप ग्यारह हुए। पूर्वोक्त गुण्य बहत्तरको बारहसे गुणा करके ग्यारह जोड़नेपर सब भंग आठ सौ पचहत्तर होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्वमें उपशमके स्थानमें क्षायिक सम्यक्त्व रूप क्षायिकका स्थान कहना । शेष पूर्ववत् है। वहां प्रत्येक भंगमें क्षेप एक, दो संयोगीमें गुणकार एक क्षेप तीन, तीन संयोगीमें गुणकार तीन क्षेप दो, चार संयोगीमें गुणकार दो। शेष गुणकार और क्षेप पुनरुक्त हैं। सब मिलकर गुणकार छह और क्षेप छह हुए। पूर्वोक्त गुण्य छत्तीससे गुणा करनेपर सब भंग दो सौ बाईस होते हैं। दोनोंको मिलाकर देशसंयतमें सब भंग एकहजार सत्तानबे होते हैं। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १९८१ क्षे २९ । लब्ध भंगंगळ ११०९ । अप्रमत्तसंयतंगेउक्षा| मि |औ|पा | इल्लि प्र गु १। क्षे ७। |११|१४|६भ द्वि गु ७ । क्षे १४। त्रिगु १४ । २ ८। चतु गु ८। कूडि अप्रमतंगे गुण्यभंगमूवतार ३६ । गु ३० । क्षे २९ । लब्धभंगंगळु ११०९ । अपूर्वकरणंगे क्षपकंगे ।क्षा | मि। पा | २ | १२ | भ यिल्लि प्रगु १।२६ । द्विगु ६ । क्षे९। त्रिगु९। क्षे ४ । च गु ४। कूडि क्षपकापूर्व करणंगे गुण्य १२ । गु २० । क्षे १९ । लब्धभंगंगळु २५९ । अनिवृत्तिकरणक्षपकंगे सवेवभागेयोल प्रमत्ते- उ । क्षा | मि | ो । पा | अत्र प्रगु १ क्षे ७ । द्विगु ७ क्षे १४ । त्रिगु १४ क्षे ८। चगु ८ । मिलित्वा गुण्यं ३६ गु ३० क्षे २९ भंगाः ११०९ । अप्रमत्ते- उ |क्षा | मिः | औ ।पा | अत्र प्रग १ क्षे७ । द्विगु ७क्षे १४। त्रिगु १४ । १३ । क्षे ८ । चगु ८ । मिलिस्वा गुण्यं ३६ । गु ३० क्षे २९ भंगाः ११०९ । mmmmmmmmmmmmmmmm प्रमत्तमें औपशमिकका उपशम सम्यक्त्व रूप एक, क्षायिकका क्षायिक सम्यक्त्व रूप १० एक, मिश्रके चौदह, तेरह, बारह, ग्यारहके चार, औदयिकका छह रूप एक, पारिणामिकका भव्यत्व एक, ऐसे आठ स्थान हैं। उनमें प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप सात, दो संयोगीमें गुणाकार सात क्षेप चौदह, तीन संयोगीमें गुणाकार चौदह क्षेप आठ, चार संयोगीमें गुणाकार आठ। सब मिलकर गुणकार तीस और क्षेप उनतीस हुए। पूर्वोक्त गुण्य छत्तीससे गुणा करनेपर सब भंग ग्यारह सौ नौ होते हैं। अप्रमत्तमें प्रमत्तकी तरह स्थान आठ, गुणकार तीस और क्षेप उनतीस होनेसे सब भंग ग्यारह सौ नौ होते हैं। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८२ गो० कर्मकाण्डे गु १२ । गु २० । क्षे १९ । लब्धभंगंगलोळु २५९ । अवेदभागेयोल- । मिओ पा १२५ । भ इल्लि गुण्यं ४ । गु २० । क्षे १९ । लब्धभंगंगळ ९९ । कोषरहितभागेयोळ गुण्य ३। गु २० । क्षे १९ । लब्धभंगंगळु ७९ । मानरहितभागेयोळ गुण्य २। गु २० । क्षे १९ । ळग्धभंगंगलु ५९ । मायारहितभागेयोळ गु१। गु २० । क्षे १९ । लब्धभंगंगळ ३९ । सूक्ष्मसांपरायंगे गुण्यभंग १। गु ५ २०।क्षे १९ । लब्धभंगंगळ ३९ । क्षीणकषायंगे गुण्य ११ ग २०। क्षे १९ । लब्धभंगंगळु ३९ । सयो. गकेवलिभट्टारकंगे माऔ पा| इल्लि प्रग १।क्षे २। द्वि २।२१। त्रिसंग १ । कूडि गुण्य १ । २३ भ क्षपकेष्वपूर्वकरणे-क्षा | मि | ओ | पा | अत्र प्रगु १क्षे ६ । द्विगु ६ क्षे ९ । त्रिगु ९ क्षे । २ । १२ । ६ | भ १० ४ । चगु ४ मिलित्वा गुण्यं १२ । गु २० क्षे १९ लब्धभंगाः २५९। अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे गुण्यं १२ गु २० क्षे १९ भंगाः २५९ । बवेदमागे क्षा | मि । यो । पा | अत्र गुण्यं ४ गु २० क्षे १९ भंगाः ९९ । अक्रोषभावे गुण्यं ३ | २ | १२ | ५ | भ । १० - ~ १० क्षपकश्रेणीमें अपूर्वकरण गुणस्थानमें क्षायिकका सम्यक्त्व चारित्ररूप एक स्थान, मिश्रके बारह, ग्यारह, दस, नौ ये चार स्थान, औदयिकका छहका एक स्थान, और पारिणामिकका भव्यत्वरूप एक स्थान, इस प्रकार सात स्थान हैं। उनमें प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप छह, दो संयोगीमें गुणकार छह क्षेप नौ, तीन संयोगीमें गुणकार नौ क्षेप चार, चार संयोगीमें गुणकार चार। सब मिलकर गुणकार बीस और क्षेप उन्नीस हुए । १५ पूर्वोक्त गुण्य बारहसे गुणा करनेपर सब भंग दो सौ उनसठ होते हैं । अनिवृत्ति करणमें वेद सहित भागमें अपूर्वकरणकी तरह चार भावोंके सात स्थान हैं। तथा गुणकार बीस, क्षेप उन्नीस हैं। पूर्वोक्त गुण्य बारह हैं। अतः दो सौ उनसठ भंग होते हैं । वेद रहित भागमें भी उसी प्रकार चार भावोंके सात स्थान हैं। इतना विशेष है कि यहाँ औदंयिकका पाँचका स्थान होता है। अपूर्वकरणकी तरह ही गुणकार बीस और क्षेप २० उन्स होते हैं। किन्तु गुण्य चार होनेसे भंग निन्यानबे होते हैं। क्रोध रहित भागमें भी Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका गु ४ । क्षे ३ । लब्धभंगंगळ ७ । अयोगिभट्टारकंगेयुमित प्र गु १।२२। द्विगु २। क्षे १। जि गु १ कूडि गुण्य १ । ग ४ । क्षे ३ । लब्धभंगंगळु ७ । सिद्ध परमेष्टिगे |क्षा| पा | इल्लि प्रक्षे २। २ | जी द्विसंयोगक्षे १ । कूडि भंगंगळु ३ । उपशमकापूर्वकरणंगे | उ | था | मि ! औ| पा| इल्लि प्र २ | १ | १२ । ६ | भ| गु २० क्षे १९ भंगाः ७९ । अमानभागे गुण्यं २ गु २० क्षे १९ भंगाः ५९ । अमाय भागे गुण्यं १ गु २० क्षे १९ भंगाः ३९ । सूक्ष्मसाम्पराये गुण्यं १ गु २० क्षे १९ भंगाः ३९ । क्षीणकषाये गुण्यं १ गु २० क्षे १९ भंगाः ३९ । सयोगे|क्षा | औ | पा | । अत्र प्रग १२ । द्विग २ क्षे१। त्रिग १ । मिलित्वा गण्यं १ ग४ क्षे ३ भंगाः । अयोग-क्षा । कोपा अत्र प्रगु १ क्षे २। द्विगु २ क्षे १। त्रिगु १ मिलित्वा गुण्यं १ । १ । २ । म गु ४ क्षे ३ भंगा: ७॥ सिद्धे-- |क्षा पा प्रक्षे २ द्विक्षे १ मिलित्वा भंगा: ३ । | १ | जी वेदरहित भागकी तरह जानना । अतः गुणकार बीस और क्षेप उन्नीस हैं। किन्तु गुण्य तीन होनेसे उन्यासी भंग होते हैं। मानरहित भागमें भी उसी प्रकार गुणकार बीस और क्षेप उन्नीस होते हैं। किन्तु गुण्य दो होनेसे भंग उनसठ होते हैं । मायारहित भागमें भी गुणकार बीस और क्षेप उन्नीस होते हैं। किन्तु गुण्य एक होनेसे भंग उनतालीस होते हैं। १५ सूक्ष्मसाम्परायमें भी उसी प्रकार गुणकार बीस और क्षेप उन्नीस हैं तथा गुण्य एक होनेसे उनतालीस भंग होते हैं। क्षीणकषायमें भी उसी प्रकार गुणकार बीस, क्षेप उन्नीस और गुण्य एक होनेसे मंग उनतालीस होते हैं । सयोगीमें शायिकका एक, औदायिकका तीनरूप एक और पारिणामिक एक, इस प्रकार तीन स्थान हैं। उनमें प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप दो, · दो संयोगीमें २० गुणकार दो क्षेप एक, तीन सयोगीमें गुणकार एक। सब मिलकर गुणकार चार क्षेप तीन और एक गण्य होनेसे सात भंग होते हैं। अयोगीमें मायिकका एक. औदायिकका दो रूप एक तथा पारिणामिक एक, इस प्रकार तीन स्थान हैं। उनमें सयोगीकी तरह गुणकार चार क्षेप तीन और गुण्य एक होनेसे सात भंग होते हैं। सिद्धोंमें क्षायिकका एक, पारिणामिकका जीवत्वरूप एक इस तरह दो स्थान हैं। २५ वहाँ प्रत्येक भंगमें क्षेप दो, दो संयोगीमें क्षेप एक मिलकर तीन भंग होते हैं। ___ क-१४९ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८४ गोकर्मकाण्डे १। क्षे। द्विगु७। १५ । त्रि गु १५ । क्षे १३ । चतु गु १३ । क्षे४। पंच गु ४ । कूलि गुण्य १२ । गु ४० । क्षे ३९ । लब्धभंगंगळु ५१९ ॥ अनिवृत्तिकरणंगे सवेदभागेयोळ गण्य १२। ग ४० । क्षे ३९ । लब्धभंगंगळु ५१९ । अनिवृत्तिय अवेदभागेयोल गुण्यंगळ ४ । गु ४० । क्षे ३९ । लब्धभंगंगळ १९९। क्रोषरहितभागेयोळु गुण्य ३। गु ४० । क्षे ३९ । ५ लब्धभंगंगळ १५९ । मानरहितभागेयोळु गुण्य २। गु ४०। क्षे ३९ । लब्धभंगंगळु ११९ । मायारहितभागेयोळ गुण्य १। गु ४० । क्षे ३९ । लब्धभंगंगळु ७९ । सूक्ष्मसापरायोपशमकंगे गण्य १। गु ४०। क्षे ३९ । लब्धभंगंगळु ७९ । उपशांतकषायंगे गुण्य १। गु ४० । क्षे ३९ । लब्धभगंगळ ७९ ॥ अनंतरमी गुण्याविभंगंगळनुच्चरिसितोरिवपर उपशमकेष्वपूर्वकरणे-| उ । क्षा | मि | औ | पा । अत्र प्रगु १ क्षे ७ द्विगु ७ क्षे १५ । २ । १ | १२ | ६ | भ । १० विगु १५ क्षे १३ । चगु १३ क्षे ४ । पंगु ४ । मिलित्वा गुण्यं १२ गु ४० क्षे ३९ भंगाः ५१९ । ____ अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे गुण्यं १२ गु ४० क्षे ३९ भंगाः ५१९ । अवेदभागे गुण्यं ४ गु ४० क्षे ३९ भंगाः १९९ । अक्रोषभागे गुण्यं ३ गु ४० क्षे ३९ भंगाः १५९ । अमानभागे गुण्यं २ गु ४० क्षे ३९ भंगाः ११९ । अमायभागे गुण्यं १ गु ४० क्षे ३९ भंगाः ७१ । सूक्ष्मसाम्पराये गुण्यं १ गु ४९ क्षे ३९ भंगाः ७९। उपशान्तकषाये गुण्यं १ गु ४० क्षे ३९ भंगाः १५ ७९॥८३४॥ उक्तगुण्यादीनुच्चरति -उपशमश्रेणीमें अपूर्वकरणसे लेकर उपशान्तकषायपर्यन्त उपशमका सम्यक्त्व चारित्र रुपएक स्थान है, मिश्रके बारह, ग्यारह, दस, नौके चार स्थान हैं, औदयिकका अपूर्वकरण और वेदसहित अनिवृत्तिकरणमें छहका तथा ऊपर उपशान्तकषायपर्यन्त पाँचका एक स्थान है, पारिणामिकका भन्यत्वरूप एक स्थान है। ऐसे आठ-आठ स्थान हैं। उनमें प्रत्येक भंगमे २० गुणकार एक, क्षेप सात, दो संयोगीमें गुणकार सात, क्षेप पन्द्रह, तीन संयोगीमें गुणकार पन्द्र क्षेप तेरह, चार संयोगीमें गुणकार तेरह क्षेप चार, पाँच संयोगीमें गुणकार चार । सब मिलकर गुणकार चालीस और क्षेप उनतालीस हुए। तथा अपूर्वकरणमें गुण्य बारह होनेसे भंग पाँच सौ उन्नीस हैं। अनिवृत्तिकरणके सवेद भागमें भी गुण्य बारह होनेसे भंग पाँचसो उन्नीस होते हैं । वेदरहित भागमें गुण्य चार होनेसे भंग एक सौ निन्यानवे होते हैं। २५ क्रोधरहित भागमें गुण्य तीन होनेसे भंग एक सौ उनसठ होते हैं। मानरहित भागमें गुण्य दो होनेसे भंग एक सौ उन्नीस होते हैं। मायारहित भागमें गुण्य एक होनेसे भंग उन्नासी होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें भी उन्नासी होते हैं। उपशान्त कषायमें भी भंग उन्नासी होते हैं ।।८३४॥ आगे उन गुण्य आदिको कहते हैं Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दुसु दुसु देसे दोसु वि चउरुत्तरदुसदमसीदिसहिदसदं । बावत्तरि छत्तीसा बारमपुव्वे गुणिज्जपमा ॥८३५॥ द्वयोद्वंयोर्देशसंयतेद्वयोरपि चतुरुत्तरद्विशतमशीतिसहितशतं । द्वासप्ततिः षट्त्रिंशत् द्वादशापूर्वे गुण्यप्रमा॥ बार चउतिदुगमेस्कं थूले तो इगि हवे अजोगित्ति । पुण बार बार सुण्णं चउसद छत्तीस देसोत्ति ॥८३६॥ द्वादश चतुस्त्रिद्वयेकं स्थूले तत एकं भवेदयोगि पय॑तं । पुनर्वादश द्वादश शून्यं चतुरुत्तरशतं षत्रिंशद्देशसंयतपय्यंत ॥ यो दितौदयिकभावगुणस्थानभंगंगळु द्वयोः मिथ्यादृष्टिसासावनरुगळोळ प्रत्येकं चतुरुतरद्विशतमक्कुं । मत्तं द्वयोः मिश्रासंयतरुगळोळ प्रत्येकमशीतिसहितशतमकुं । देशसंयते १० देशसंयतनोळ द्वासप्ततिगुण्यभंगंगळप्पुवु । द्वयोरपि प्रमताप्रमत्तसंयतरुगळोळु प्रत्येकं गुण्यभंगंगळु पत्रिंशत्प्रमितंगळप्पुवु। अपूर्वे अपूर्वकरणनोळु गुण्यप्रमा गुण्यसंख्य द्वादश पन्नेरडप्पुवु । स्थूले अनिवृत्तिकरणनोळु क्रमदिदं भाग भागेगळोळु द्वादश चतुः त्रि द्वि एकगुण्यभंगगळप्पुवु । ततः मेलयोगिगुणस्थानपर्यंत प्रत्येकमेकगुण्यमेयक्कुं। पुनः मत्ते मिथ्यावृष्टिसासादनमिश्रासंयत देशसंयतपय॑तमिल्लि क्रमदिदं गुण्यभंगंगळ द्वादश द्वादश शून्यं चतुरुत्तरशतं षट्त्रिंश. १५ त्संख्येगळप्पुवु ॥ अनंतरमा गुणस्थानंगळोळु गुणकारक्षेपंगळ कंठोक्तं माडि संख्येयं पेदपरु । वामे दुसु दुसु दुसु तिसु ग्वीणे दोसुवि कमेण गुणगारा। णवछब्बारस तीसं वीसं वीसं चउक्कं च ॥८३७।। वामे द्वयोयोदयोस्त्रिषु क्षीणकषाये द्वयोरपि क्रमेण गुणकाराः। नवषड्द्वादश त्रिशत् विशतिट्विशतिश्चतुष्कं च ॥ औदयिकस्य गुण्यभंगा मिथ्यादृष्टयादिद्वये चतुरमद्विशती। मिश्रादिद्वयेऽशीत्यग्रशतं । देशसंयते द्वासप्ततिः । प्रमत्तादिद्वये षट्त्रिंशत् । अपूर्वकरणे द्वादश । अनिवृत्तिकरणभागभागेषु द्वादश चत्वारः त्रयः द्वी एकः । तत उपर्या अयोगातमेकैकः । पुनरा देशसंयतांतं द्वादश द्वादश शून्यं चतुरग्रशतं षट्त्रिंशत् ॥८३५-८३६॥ औदयिकके गुण्यरूप भंग मिध्यादृष्टि आदि दो गुणस्थानों में से प्रत्येकमें दो सौ चार २५ हैं। मिश्र आदि दोमें-से प्रत्येकमें एक सौ अस्सी हैं। देशसंयतमें बहत्तर हैं । प्रमत्त आदि दोमें छत्तीस हैं। अपूर्वकरणमें बारह हैं। अनिवृत्तिकरणके भागोंमें क्रमसे बारह, चार, तीन, दो, एक है। उससे ऊपर अयोगीपयन्त एक-एक है। पुनः मिथ्यादृष्टिसे देश चक्षुदर्शन रहित और क्षायिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा क्रमसे बारह-बारह, शून्य, एक सौ चार और छत्तीस गुण्यरूप भंग हैं ।।८३५-८३६।। पर्यन्त Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८६ गो० कर्मकाण्डे __ वामे मि। मिथ्यादृष्टियोळ गुणकारा नवगुणकारंगळो भतप्पुवु । द्वयोः सासादन मिश्ररुगळोळ प्रत्येकं गुणकारंगळ. षट् आरप्पुवु । द्वयोः गुणकारा द्वादश असंयतदेशसंयतरुगळोळु द्वादशगुणकारंगळप्पुवु । द्वयोः प्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळ गुणकारभंगंगळ त्रिंशत् प्रत्येक मूवत्तप्पुवु । त्रिषु अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायरुगळो विंशतिः प्रत्येक विशतिगठप्पुवु । क्षोणकषाये क्षीणकषायनोळु गुणकारंगळ विंशतिः विंशतिगळप्पुव । द्वयोरपि सयोगायोगिगुणस्थानंगळोळु गुणकारंगळु प्रत्येकं चतुष्कं च नाल्कप्पषु । पुणरवि देसोत्ति गुणो तिदुणभछच्छक्कयं पुणो खेवा। पुव्वपदेसडपंचयमेगारमुगतीसमुगुवीसं ॥८३८॥ पुनरपि देशसंयतपयंतं गुणास्त्रिद्विनभः षट्पट्ककं पुनः क्षेपाः पूर्वपदेष्वष्ट पंवक एकादर्श१० कान्नत्रिशदेकानविंशतिः॥ पुनरपि मत्तं गुणकारंगळु मिथ्यादृष्टयादि देशसंयतपय्यंतं त्रि द्वि नभः षट्पट्कंगळप्पुवु । पुनः क्षेपाः मत्त क्षेपंगळु पूर्वपदेषु पूर्वोक्तवामे दुसु दुसु इत्यादिस्थानकंगळो क्रमदिद मिध्यादृष्टियोळे टुं सासादनमिश्ररुगळोळेदप्पुवु। असंयतदेशसंयतरुगळोळ प्रत्येकं पन्नों वप्पुवु । प्रमत्ता प्रमत्तरुगळोलु प्रत्येकमेकान्नत्रिंशत्प्रमितंगळप्पुबु । अपूर्वानिवृत्तिसूक्ष्मसापरायरुगळोळ एकान्न१५ विंशतियप्पुवु । क्षीणकषायाविगळोळ क्षेपमं पेळ्दपरु : उगुवीसतियं तत्तो तिदुणभछच्छक्कयं च देसोत्ति । चउसुवसमगेसु गुणा तालं रूऊणया खेवा ॥८३९।। एकान्तविंशतिः त्रयं ततस्त्रिदिनभःषट् षट्कं च । देशसंयतपयंतं चतुषूपशमकेषु गुणाः चत्वारिंशद्रूपोनकाः क्षेपाः॥ तद्गुणकाराः क्रमेण मिथ्यादृष्टी नव सासादनादिद्वये षट् । असंयतादिद्वये द्वादश । प्रमत्तादिद्वये त्रिंशत् । अपूर्वादत्रय क्षीण कषाये च विशतिः । सयोगायोगयोश्चत्वारः।।८३७।। पुनरप्यादेशसंयतांतं क्रमेण त्रयः द्वौ नभः षट् षट् । पुनः क्षेगाः पूर्वोक्तादेषु मिथ्यादृष्टौ । सासादनमिश्रयोः पच । असंयतादिद्वये एकादश । प्रमत्तादिद्वये एकानत्रिंशत् । अपूर्वकरणादित्रये एकानविंशतिः ॥८३८॥ उन गुण्योंके गुणकार क्रमसे मिथ्यादृष्टि में नौ, सासादन आदि दोमें छह, असंयत २५ आदि दोमें बारह, प्रमत्त आदि दोमें तीस, अपूर्वकरण आदि तीनमें तथा क्षीण कषायमें बीस, सयोगी और अयोगीमें चार हैं ।।८३७॥ पुनः चक्षुदर्शन रहित और क्षायिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा देशसंयत पर्यन्त गुणकार क्रमसे तीन, दो, शून्य, छह, छह जानना । पुनः गुण्यको गुणकारसे गुणा करके जो प्रमाण आवे उसमें मिलाये जानेवाले क्षेप पूर्वोक्त स्थानों में-से मिथ्यादृष्टि में आठ, सासादन और ३० मिश्रमें पांच, असंयत आदि दोमें ग्यारह, प्रमत्त आदि दोमें उनतीस और अपूर्वकरण आदि तीनमें उन्नीस हैं ॥८३८।। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ११८७ क्षीणकषायनोळ एकान्नविशतिक्षेपंगळप्पुवु । सयोगायोगिकेवलिगळोळु त्रयः क्षेपंगळ मूरु मूरप्पुवु। ततः मते मिथ्यादृष्टयादिदेशसंयतपय्यंत क्रमदिदं क्षेपंगळु त्रि द्वि नभः षट् षट्कंगळप्पुवु। नाल्कुमुपशमकगुणस्थानंगळोजु गुणकारंगळु प्रत्येकं चत्वारिंशत्प्रमितंगळ एकोनचत्वारिंशत्क्षेपंगळप्पुवु । अनंतरमुक्तगुण्यगुणकारंगळं गुणि सिक्षेपंगळं कूडिकोड मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थानंगळोळ ५ भावस्थानभंगसमुच्चयसंख्ययं पेब्दपरु । मिच्छादिठाणभंगा अट्ठारसया हवंति तेसीदा। बारसया पणुवण्णा सहस्ससहिया हु पणसीदा ॥ ८४०॥ मिथ्यादृष्टयादिस्थानभंगाः अष्टादशशतं च भवंति त्र्यशीतिः। द्वादशशतं पंचपंचाशत् सहस्रसहिताः खलु पंचाशीतिः॥ मिथ्यादृष्टियोल उत्तरस्थानभंगंगळु सासिरदेटु नूरेभत्तमूरप्पुवु । १८८३ । सासादनंगे सासिरदिन्नूरस्वत्तदपुवु । १२५५ । मिश्रंगे सासिरदेण्भत्तदप्पुवु । १०८५ । असंयतादिगळोळु पेन्दपरु : रूवहियडवीससया सगणउदा दससया णवेणहिया । एक्कारसया दोण्हं खवगेसु जहाकम बोच्छं ॥८४१॥ रूपाधिकाष्टाविंशतिशतानि सप्तनवतिर्दशशतं नवभिरधिकमेकादशशतं द्वयोः क्षपकेषु यथाक्रमं वक्ष्यामि ॥ असंयतसम्यग्दृष्टियोळु येरडु सासिरद टुनूरोदु स्थानभंगंगळप्पुवु । २८०१॥ देशसंयतंगे सासिरद तो भत्तेळ स्यानभंगंगळप्पुवु । १०९७ ॥ द्वयोः प्रमत्ताप्रमत्तसंयतरुगळोळ प्रत्येकं सासिरदनूरो भत्तु स्थानभंगंगळप्पुव । प्र ११०९ । अप्र ११०२।। क्षणकषाये एकानविंशतिः । सयोगायोगयोः त्रयः । पुनः आ देशसयतान्तं पुतस्त्रयः द्वौ नभ षट् षट् चतुषूपशामकेषु प्रत्येकं गुणकाराः चत्वारिंशत् । क्षेगा एकोनचत्वारिंशत् ।।८३९॥ प्रागुक्त गुण्यगुणकारान् गुणयित्वा क्षेपेषु निक्षिप्तेषु उत्तरभावस्थानभंगा मिथ्यादृष्टो त्र्यशीत्यग्राष्टादशशतानि । सासादने पंचपंचाशदग्रद्वादशशतानि । मिश्रे पंचाशीत्यग्रदशशतानि ॥८४०।। असंयते एकाग्रष्टाविंशतिशतानि । देशसंयते सप्तनवत्यप्रदशशतानि । प्रमत्तादिद्वये नवाकादशशतानि । २५ क्षीण कषायमें उन्नीस, सयोगी अयोगीमें तीन हैं। पुनः चक्षुदर्शनरहित और क्षायिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा देशसंयत पर्यन्त तीन, दो, शून्य, छह, छह क्षेप हैं । उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानों में-से प्रत्येकमें गुणकार चालीस तथा क्षेप उनतालीस हैं ।।८३९।। पूर्वोक्त गुण्योंको गुणकारोंसे गुणा करके उनमें क्षेप मिलानेपर उत्तर भावोंके स्थानोंके भंग मिथ्यादृष्टीमें अठारह सौ तिरासी, सासादनमें बारह सौ पचपन तथा मिश्रमें एक हजार ३० पच्चासी होते हैं ।।८४०॥ असंयतमें अठाईस सौ एक, देश संयतमें दस सौ सत्तानबे, प्रमत्त आदि दो में ग्यारह Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८८ गो कर्मकाण्डे झपकरोळु यथाक्रमदिदं पेन्दपेमेंदु पेळ्दपरु : पुव्वे पंचणियट्टी सुडुमे खीणे दहाण छब्बीसा । तत्तियमेत्ता दस अड छच्चदुचदु चदु य एगूणं ॥८४२।। पूर्वे पंचानिवृत्तिषु सूक्ष्मे क्षीणकषाये दशानां षड्विंशतिः । तावन्मानं दशाष्टषट्चतुश्चतु५ श्चतुश्चैकोनं ॥ पूर्वे द्वितीयानिवृत्तिकरणापेयिदं पूर्वमप्पपूर्वकरणगुणस्थानदोळु क्षपकापूर्वकारणनोळ दशानां षड्विंशतिः इन्नूररुवत्त एकोनं वो दु गुंदुगुं । २५९ ॥ पंचानिवृत्तिषु अनिवृत्तिकरणगुणस्थानदोळु क्षपकानिवृत्तिकरणपंचभागंगळोळ प्रथमभागानिवृत्तिकरणनोळ तावन्मात्रमेकोनं वशषड्विशतियोळोदुगुंदिदनितयक्कुं । २५९ ॥ द्वितीयभागानिवृत्तिकरणक्षपकनोळ दशवशकोंनं १० दशप्रमितदशंगळोळोदुकुंदुगुं। ९९ ॥ तृतीयभागानिवृत्तिक्षपकनोळु दशाष्टकोन दशप्रमिताष्टक दोनों दुगंदुगुं । ७९ ॥ चतुर्थभागानिवृत्तिकरणक्षपकनोळ वशषडेकोनं दशप्रमितषट्कंगळोळोंदुगुदुग। ५९ ॥ पंचमभागानिवृत्तिकरणक्षपकनोळ दशचतुरेकोनं दशप्रमितचतुष्कदोळो दुगुंदुगुं। ३९ ॥ सूक्ष्मसांपरायक्षपकनोळु दशचतुरेकोनं दशमितचतुष्कमेकोनमक्कुं । ३९ । क्षीणकषायनोळ दशचतुश्चैकोनं दशप्रमितचतुष्कमो दुर्गदुगं । ३९ ॥ उवसामगेसु दुगुणं रूवहियं होदि सत्त जोगिम्मि । सत्तेव अजोगिम्मि य सिद्धे तिण्णेव भंगा हु ॥८४३॥ उपशमकेषु द्विगुणं रूपाधिकं भवति सप्तयोगिनि। सप्तैवायोगिनि च सिद्ध त्रीण्येवं भंगाः खलु ॥ उपामकापूर्वकरणादि नाल्कु गुणस्थानंगळोळ क्षपकापूर्वादिचतुर्गुणस्थानदोळ पेन्द २० भंगंगळं द्विगणिसि लब्धदोळेकरूपं कूडिदोडुपशमकरुगळ नाल्वग्गं स्थानभंगंगळप्पुवु । अल्लि अपूर्वकरणोपशमकंगे अपूर्वकरणक्षपकन भंग २५९ । मिव द्विगुणिसि २५९ । २ लब्धदोळेकरूपं क्षपकेषु यथाक्रमं वक्ष्ये ॥८४१॥ अपूर्वकरणे अनिवृत्तिकरणपंचभागेषु सूक्ष्मसाम्पराये क्षोणकषाये चेत्यष्टसु क्षपकेषु भंगाः क्रमेण दशगुणा षड्विंशतिरेकोना २५९ । पुनश्च तावन्तः २५९ । दशगुणा दशैकोनाः ९९ । दशगुणा अष्टावे कोनाः ७९ । २५ दशगुणा षडेकोनाः ५९ । दशगुणाश्चत्वार एकोनाः । ३९ । दशगुणाश्चत्वार एकोनाः ३९ दशगुणाश्चत्वार एकोनाः ३९ भवन्ति ।।८४२॥ उपशामकेषु चतुषु खलु तदेव क्षपकचतुष्कोक्तं भंगप्रमाणं द्विगुणं रूपाधिकं स्यात् । सयोगे सप्त । सौ नौ होते हैं । क्षपक श्रेणीमें क्रमसे कहते हैं ॥८४१॥ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणके पाँच भाग, सूक्ष्म साम्पराय, और क्षीण कषाय इन आठ ३० क्षपकोंमें भंग क्रमसे दो सौ उनसठ, दो सौ उनसठ, निन्यानबे, उन्यासी, उनसठ, उनतालीस, उनतालीस उनतालीस होते हैं ।।८४२।। उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानों में, क्षपक श्रेणीके चार गुणस्थानोंमें जितने भंग कहे हैं Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटदृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कूडिदोडे ५१९ । इउ अपूर्वकरणोपशमकंग भंगंगळप्पुवु । अहंगे अनिवृत्तिकरणोपशमकंगे ५१९ । १९९ । १५९ ॥ ११९ ॥ ७९ ॥ सूक्ष्मसापरायोपशमकंगे भंगंगळेप्पत्तोंभत्तु ७९ । उपशान्तकषायंगे भंगंगलेप्पत्तांभत्तु ७९ ।। सप्तयोगिनि सयोगकेवलिभट्टारकंगे भंगंगळ ७। सप्तवायोगिनि च अयोगकेबलियोळु स्थानभंग ७ । सिद्धे सिद्धरोळ त्रीण्येव भंगाः खलु मूरे भंगंगळप्पुवु। इंतुक्तगुण्यंगळ्गं गुणकारंगळगं क्षेपंगळ्गं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सर्वगुणस्थानंगळोळु पृथक्पृथग्रूपदिदं ५ समुच्चयं संदृष्टि वृत्तिकारनिं तोरल्पडुगुं : ___ गण्य गुणकारा क्षेप भंग । मि | च. रहि |सासा. च. रहि मिश्र | असं | क्षाइ | देश | क्षाइ २०४। १२ ।२०४ । १२ ।१८० १८० १०४ । ७२ | ३६ | ९| ३ । ६ २ । ६ | १२ | ६ | १२ | ६ २ । ५। ११ । ६ । ११ । ६ । १८ । ८३ । १२ । ५५ १०८५२८० । १ | १० | ९७ प्रम | अप्रम | अपूर्व | उपश | अनिव। क्षपकंगे३६ । ३६ । १२ । १२ । १२ । ४। ३ २ १ ३० । ३० । २० । ४० । २० । २० | २० | २० | २० २९ । २९ । १९ । ३९ । १९ । १९ । १९ । १९ । १९ । ११०९ । ११०९ । २५९ । ५१९ । २५९ । ९९ । ७९ । ५९ । ३९ अनिवृत्तिकरणोपशमकंगे सूक्ष्म | उप. | क्षी |सयो| अयो| सिद्ध १/१/१ । १ । १ । १ । १ । ० ४० । ४० । ४० । ४० |४०/२०/४० । ४० । २० । ४ ४ ० ३९ । ३९ । ३९ । ३९ 1३९१९/३९ । ३९ । १९ । ३ ३ । ३ | ५१९ । १९९ | १५९ । ११९ |७९३९/७९ । ७९ । ३९ । ७। ७।३ यितुत्तरभावस्थानगतभंगंगळं पेळ्दनंतरं पदगतभंगंगळं पेळ्दपरु : दुविहा पुण पदभंगा जादिगपदसव्वपदभवात्ति हवे । जातिपदखयिगमिस्से पिंडेव य होदि सगजोगो ।।८४४।। द्विविधाः पुनः पदभंगा जातिगपदसर्वपदभवा इति भवेत् । जातिपदक्षायिकमिश्रे पिंडे एव च भवति स्वसंयोगः ॥ ~~~~~~..१० अयोगेऽपि सप्त । सिद्धे श्रय एव ॥८४३॥ उनके दूनेसे एक अधिक भंग होते हैं । सयोगीमें सात, अयोगीमें सात और सिद्धोंमें तीन ही भंग होते हैं ॥८४३॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९० गो० कर्मकाणे पुनः मत्ते पदभंगाः पदभंगंगळु द्विविधाः द्विविधंगळक्कुं। एतवोर्ड जातिपवभंगंगळे सव्वंपदभवभंगंगळमें वितल्लि जातिपदंगळप्प क्षायिकभावदोळ मिश्रभावदोळ पिंडपवभावं. गळोळ स्वसंयोगो भवति स्वसंयोगमक्कुं॥ अयदुवसमगचउक्के एक्कं दो उबसमस्स जातिपदो। खइयपदं तत्थेक्कं खवगे जिणसिद्धगेसु दुपणचदू ।।८४५।। असंयतोपशमक चतुष्के एक द्वे उपशमस्य जातिपदानि । क्षायिकपदं तत्रैकं क्षपके जिनसिद्धेषु द्विपंचचत्वारि ॥ ___ असंयतादिचतुष्कदल्लियुमुफामकचतुष्कदोळु मुपशमद जातिपदंगळु क्रमदिदं असंयत चतुष्कदोळपशशमसम्यक्त्वजातिपदमेकमकु-। मुपशमकरोलुपशमसम्यक्त्वमुमुपशमचारित्रमु१. मेंबरडं जातिपदंगळक्कुं। तत्र आ अ संयतादिचतुष्कदोळ मुपसमा चतुष्कदोळं क्षायिक जाति पदमो दे क्षायिकसम्यक्त्वमकुं। क्षपकचतुष्कदोळं सयोगायोगिजिनरोळं सिद्धरोळं यथाक्रमदिवं क्षायिकजातिपदमेरडं अम्, नाल्कुमप्पुवु ॥ पुनः अनन्तरं पदभंगा उच्यन्ते ते च जातिपदभंगाः सर्वपदभंगाश्चेति द्विविधाः। तत्र जातिपदरूपक्षायिकभावमिश्रभावपिंडपदभावेषु स्वसंयोगो भवति ।।८४४॥ - उपशमस्य जातिपदान्यसंयतादिचतुष्के उपशमसम्यक्त्वमित्येकं । उपशम चतुष्के उपशमसम्यक्त्वचारित्रे द्वे । क्षायिकजातिपदानि तदुभयचतुके क्षायिकसम्यक्त्वं । क्षाकचतुष्के द्वे । सयोगायोगयोः पंच। सिद्ध चत्वारि ॥८४५॥ इस प्रकार स्थान भंगको कहकर पदभंग कहते हैं-पद भंगके दो भेद हैं-जातिपद भंग और सर्वपद भंग । जहाँ एक जातिका ग्रहण करके जो भंग किये जाते हैं उन्हें जातिपद भंग कहते हैं । जैसे मिश्र भावमें ज्ञानके चार भेद होते हुए भी एक ज्ञान जातिका ग्रहण करना । और जो जुदे-जुदे सब भावोंको ग्रहण करके भंग किये जायें उन्हें सर्वपद भंग जानना। उनमें जातिपद रूप क्षायिकभाव और मिश्रभावमें पिण्डपद रूप जो भाव हैं उनमें स्वसंयोगी भंग भी होते हैं । जैसे क्षायिक भावमें लब्धिके पाँच भेद हैं अतः लब्धि पिण्डपदरूप है। मिश्रभावमें ज्ञान अज्ञान दर्शन लब्धि पिण्डपदरूप हैं। सो इनमें जहाँ एक भेद होते अन्य भेद भी पाया जाता है जैसे दान होते लाभ पाया जाता है वहाँ स्वसंयोगी भी भंग २५ होते हैं ।।८४४॥ औपशमिक भावका जातिपद असंयत आदि चारमें सम्यक्त्वरूप एक ही है । उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानों में सम्यक्त्व और चारित्र दो जातिपद हैं। क्षायिक भावके जातिपद असंयत आदि चारमें क्षायिक सम्यक्त्व रूप एक है। क्षपक श्रेणीके चार गुणस्थानोंमें सम्यक्त्व और चारित्र दो जातिपद हैं। सयोग और अयोगीमें सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लब्धि ये पाँच हैं । सिद्धोंमें चारित्रके बिना चार हैं ।।८४५।। १५ ३० Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मिच्छतिए मिस्सपदा तिण्णि य अयदम्मि होति चत्तारि । देशतिये पंचपदा ततो खीणोत्ति तिण्णि पदा ॥८४६॥। मिथ्यावृष्टित्रये मिश्रपदानि त्रीणि च असंयते भवंति चत्वारि । देशसंयतत्रये पंचपवानि ततः क्षीणकषायपथ्यंतं त्रीणि पदानि ॥ मिथ्यादृष्टिसासावनमिधाळोळु प्रत्येकं मिश्रपदंगळु मूरुमूरप्पुवु । असंयतसम्यग्दृष्टियोळु ५ . नाल्कु मिश्रपदंगळप्पुवु । देशसंयतादि त्रयोळ पंच पंच मिश्र पदंगळप्पुवु । अल्लिद मेले क्षीणकषायपयंतं प्रत्येक मूलं मूरु मिश्रपदंगळप्पुवु ॥ मिच्छे अठ्ठदयपदा तो तिसु सत्तेव तो सवेदोत्ति । छस्सुहुमोत्ति य पणगं खीणोत्ति जिणेसु चदुतिदुगं ।।८४७॥ मिथ्यादृष्टावष्टोदयपवानि ततस्त्रिषु सप्तैव ततः सवेदपय्यंतं षट् सूक्ष्मसांपरायपथ्यंत १० पंचकं क्षीणकषाय पयंतं जिनयोश्चतुखिवयं ॥ मिथ्यावृष्टियोळीवयिकपवंगळे टप्पुवु । सासादनादित्रयदोळु प्रत्येक सप्तपदंगळप्पुवु । मेले देशसंयतादि सवेदानिवृत्तिपप्यंत प्रत्येकं षट्पदंगळप्पुवु। सूक्ष्मसांपरायपय्यंत पंचपंचपदंगळप्पुवु । क्षीणकषायपय्यंतं सयोगरोळमयोगरोळं क्रमदिवं नाल्कुं मूरुमेरडुमप्पुवु ॥ मिच्छे परिणामपदा दोणि य सेसेसु होदि एक्कं तु । जातिपदं पडि बोच्छ मिच्छादिसु भंगपिंडं तु ॥८४८॥ मिथ्यादृष्टो परिणामपदे द्वे च शेषेषु भवत्येक तु । जातिपदं प्रति वक्ष्यामि मिथ्यादृष्टयाविषु भंगपिडं तु॥ marw मिश्रपदानि मिथ्यादृष्ट्यादिश्ये श्रीणि । असंयते चत्वारि । देशसंयतादित्रये पंच। तत उपरि क्षीणकषायान्तं त्रीणि ॥८४६।। औदयिकपदानि मिथ्थादृष्टावष्टौ । सासादनादित्रये सप्त । उपरि सवेदानिवृत्त्यन्तं षट् । सूक्ष्मसाम्परायान्तं पंच । क्षीणकषायान्तं चत्वारि । सयोगे त्रीणि । अयोगे द्वे ॥८४७॥ २० मिश्रभावके जातिपद मिथ्यादृष्टि और सासादनमें अज्ञान, दर्शन, लब्धि ये तीन हैं। और मिश्र गुणस्थानमें ज्ञान, दर्शन, लब्धि ये तीन हैं। असंयतमें ज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व ये चार हैं। देशसंयत आदि तीनमें ज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व इन चारोंके । साथ देशसंयतमें देशसंयम और प्रमत्त अप्रमत्तमें सरागसंयम होनेसे पाँच हैं। उससे ऊपर क्षीणकषायपर्यन्त ज्ञान, दर्शन, लब्धि तीन जातिपद हैं ।।८४६॥ औदयिकभावके जातिपद मिथ्यादृष्टिमें आठ हैं-गति, कषाय, लिंग, लेश्या, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम और असिद्धत्व । सासादन आदिमें मिथ्यात्वके बिना सात हैं। ऊपर अनिवृत्तिकरणके सवेद भागपर्यन्त असंयमके बिना छह है। उससे ऊपर सूक्ष्मसाम्प-.. रायपर्यन्त वेदके बिना पाँच हैं। उससे ऊपर क्षीणकषायपर्यन्त कषायके बिना चार हैं। सयोगीमें अज्ञानके बिना तीन हैं तथा अयोगीमें लेश्या बिना दो हैं ॥८४७॥ क-१५० Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९२ गोकर्मकाणे मिथ्यादृष्टियोळ परिणामपदंगळे रडप्पुवु । तु मते शेषगुणस्थानदोळ गुणस्थानातीत सिद्धपरमेष्ठिगळोळ मेकपदमेयक्कुं । संदृष्टि :_० मि| सामिधा अदेप्रअप्र.अत्र उक्ष अनिक्षसक्ष|3|क्षोसा असि उप | ०००।१।११।१ । २ ।। २ ||२||२|००।०० क्षाय| ०/० ०|१|११| १ | १ ।२१।२१।०१। २ | ५|५| ४ मिश्र|३|३| ३ | ४/५/५। ५ । ३ ।३। ३।३।३।३३।३। ०/० ० ओद।८|७| ७|७|६ ६। ६ । ६ ।६६।६| ५४| ४ | ३|२ | पारि | २| १ | १ | १|१|१| १ | १ |१| १ ।१ १ ।१।१।१ । १।१।१। तु मत्ते अनंतरं जातिपदं प्रति मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थानंगळोलु भंगपिंडम पेन्दपर्ने दु पेळ्दपन देते दोर्ड| उपशम | क्षाइक भावंगळ । क्षायोपशमिक भावंगळ | सं| चा | सं| चाणा | दं| ल|५|णा४। अ दाल५ वे१चा १| वे १ औदयिक भावंगळ पारिणामिक | ग ४ | क ४ | लि ३ | मि १ | अ १ | अ १ | अ १ | ले ६ । भ१ | अ १ | जी १ इंतु जातिपदंगळु उपशमदोळेरडु २ । क्षायिकजातिपदंगळु ५। क्षायोपशमिक जातिपदंगळ ७। औदायिक जातिपदंगळु ८ । पारिणामिक जातिादंगळु मूल ३ । ई सामान्यपदंगळोळ मिथ्या परिणामपदानि मिथ्यादृष्टो द्वे । तु- पुनः शेषगुणस्थानेषु सिद्धे चैकैकं स्यात् । तु पुनः-अनन्तरं जातिपदं प्रति गुणस्थानेषु भंगपिडं वक्ष्ये तद्यथा जातिपदेषु द्वयुपशमकपंचक्षायिकसप्तक्षायोपशमिकाष्टोदयिकत्रिपारिणामिकेषु मिथ्यादृष्टी पारिणामिकभावके जातिपद मिथ्यादृष्टिमें भव्य-अभव्यरूप दो हैं। शेष गुणस्थानोंमें भव्यरूप एक ही है। सिद्धोंमें जीवत्वरूप एक ही है। आगे जातिपदकी अपेक्षा गुणस्थानोंमें भंगोंका समुदाय कहते हैं-जातिपद दो औपशमिकके, पाँच क्षायिकके, सात क्षायोपशमिकके, आठ औदयिकके और तीन पारिणामिकके हैं। उनमें से औदयिकके जितने जातिपद होते हैं उतने तो गुण्य जानना । १५ उनके गुणकार और क्षेप कहने के लिए प्रत्येक भंगादि करने में मिश्रादिके जितने जातिपद हों नतने भेद ग्रहण करना। किन्तु औदयिकका जातिपदका समूहरूप एक ही भेद ग्रहण करना। ऐसा करके प्रत्येक भंगमें औदयिकका भेद तो गुणकार रूप जानना तथा अन्य भावोंके भेद क्षेपरूप जानना। तथा दो संयोगी आदि भंगोंमें औदयिकका भेद और अन्य भावोंके भेद सहित जो भंग हों उन्हें गुणकार जानना। तथा औदयिक बिना अन्य १. | उपशमभा। क्षायिकभाव सं चा | सं। चा। णा। दं। ल ५ औदयिकभाव ग४। क ४ । लि ३ | मि१ । अ१। क्षायोग्शमिकभाव णा ४ । ३ । द३ । ल ५। वे १ चा १ । दे१ पारिणामिकभाव १ । अ१ले ६।। भ१ । अ१ । जो १ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दृष्टि । मिश्र औ | पारि | यिल्लि बौदयिक भावंगळे टु जातिपदंगळु गुण्यंगळप्पुवु । | अवं| ल|८ । भव । गुण्य ८।३१।क्षे ५ । द्विगु ५ । क्षे ६ । त्रिग ६ । स्वसंयोगक्षेपंगळु ३ । इल्लि स्वसंयोगमें ते. दोर्ड जातिपदत्वविवं अज्ञानदोळं दर्शनवोळं लब्धिगळोळं संभविसुगम वरिउदु कूडि मिथ्यादृष्टिगे गुण्य ८ । ग १२ । क्षे १४ । ई गण्यगणकारंगळं गुणिसि क्षेपंगळं कडिद लब्धभंगंगळु ११० । सासादनंग | नन । आदइ । पारि | इल्लि गुण्यगळु ७॥प्रगु १४॥ ४ । क्षे३ । त्रिसंग ३ । स्व संक्षे ३ कूडि सासादनंगे गण्य ७ । ग ८।क्ष १० । लब्ध भंग ६६ । मिश्रंग |_ मिश्र ो । पारि | औदयिकान्यष्टो गुण्यं ८ । प्रगु १ क्षे ५। द्विगु ५ क्षे ६ । त्रिगु ६। अ। दं । ल।।८भ । म वसंयोगक्षेपाः कुज्ञानान्तरं दर्शने दर्शनान्तरं लब्धौ लब्ब्यन्तरमिति त्रयः ३। मिलित्वा गुण्यं ८ गु १२ क्षे १४ गुण्यगुणकारान् संगुण्य क्षेपेषु निक्षिप्तेषु लब्धभंगाः ११० । सासादने ।_ मित्र औ | पाार | गुण्यं ७ प्रगु १ क्षे ४ । द्विगु ४ क्षे ३ । त्रिगु ३ स्वसंक्षे ३ १० | अ । दं । ल । |७| भ 'मलित्वा गण्यं ७ । गु ८ क्षेप १० भंगाः ६६ । भावोंके संयोगसे जो दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें क्षेपरूप जानना। तथा क्षायिक या मश्रके एक जातिपदके भेद में उसीके अन्य भेद जहाँ सम्भव हों वहां स्वसंयोगी भंग होते है उन्हें क्षेपरूप जानना। इस प्रकार गुण्यको गणकारसे गणा करके क्षेपको जोड़नेपर जतने हों, उतने भंग जानना। ___सो मिथ्यादृष्टिमें मिश्रके अज्ञान, दर्शन, लब्धि ये तीन, औदयिकके आठ और पारिणामिकके भव्य-अभव्यरूप दो जातिपद हैं। उनमें से औदयिकके आठ तो गुण्य जानना। प्रत्येक भंगमें औदयिकका आठका समूहरूप एक तो गुणकार जानना, और तीन मिश्रके, दो पारिणामिकके ये पाँच क्षेप जानना। दो संयोगीमें औदयिकके आठका समूहरूप एकका योग लिये तीन मिश्रके और दो पारिणामिकके ये पाँच तो गुणकार जानना। तथा तीन २० मिश्रके संयोग सहित दो पारिणामिकके भेदरूप छह दोसंयोगी क्षेप जानना। तीन संयोगीमें औदयिकके आठका समूहरूप एक और अभव्य पारिणामिकके इन दोनोंके साथ तीन मिश्रको मिलानेसे हुए छह भंग गुणकाररूप जानना। स्वसंयोगीमें एक अज्ञान होते दूसरा अज्ञान पाया जाता है जैसे कुमति के साथ कुश्रुत आदि होते हैं। इसी तरह एक दान होते अन्य दर्शन पाये जाते हैं। जैसे चक्षुदर्शन होते अन्य दर्शन होते हैं। इसी तरह एक लब्धि २५ होते अन्य लब्धि होती है जैसे दान होते लाभादि होते हैं। ये तीन भंग क्षेप जानना। सब मिलकर गुण्य आठ, गुणकार बारह, क्षेप चौदह होते हैं। गुण्यको गुणकारसे गुणा करके क्षेपको जोडनेपर एक सौ दस भंग होते हैं। इसी प्रकार सासादनमें मिश्रभावके अज्ञान, दर्शन, लब्धि ये तीन, औदयिकके सात, पारिणामिकका भव्यत्वरूप एक जातिपद है। उसमें गुण्य सात हैं। तथा प्रत्येक भंगमें ३० गुणकार एक, क्षेप चार हैं। दो संयोगी भंगमें गुणकार चार क्षेप तीन हैं। तीन संयोगीमें Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे | मिश्र । औदयि | पारिणा | इल्लि गुण्य ७। प्र गु १। क्षे ४। द्वि गु ४। क्षे ३ । णा | व | ल । ७ । भ । त्रि गु३। स्वसं क्षे ३। कूडि गुण्य ७। गु८। क्षे १०। लन्ध भंग ६६ ॥ असंयतंगे | उपश | क्षायि | मिश्र । औ | पारि | इल्लि गुण्य ७। प्र गु १। क्षे ७। द्वि [सं १ | सं १ | ण | व | अ | ल | ७ | भ१। गु ७ । क्षे १२ । त्रि गु १२ । क्षे ६। चतु गु ६ । स्वसंक्षे ३ । कूडि असंयतंगे गुण्य ७। गु २६ । ५ क्षे २८ । लन्यभंगंगळु असंयतंगे २१० ॥ देशसंयतंगे उक्षा | मि | औ पा सं| सं । णा | द । ल । वे | चा| ६ | भ यिल्लिगुण्यंगळ ६ । प्रग १। क्षे ८ । द्विगु ८ । क्षे १५ । त्रि गु १५ । क्षे ८ । च गु ८ । स्वसं मिश्रे । मिश्र ओ | पारि | गुण्यं ७ प्रगु १ क्षे ४ । द्विगु ४ क्षे ३ । त्रिगु ३ स्वसंक्षे ३ णा। दं। ल | ७| भ । मिलित्वा गुण्यं ७ गु८। क्षे १० भंगाः ६६ । असंयते | बं | उप | क्षा| मिश्र । ओ | पा | गुण्यं ७ प्रग १ क्षे ७ । द्विगु ७ क्षे |सं ११ सं शसं १ णा । दं । ल ।। ७ । भ । १० १२ । त्रिगु १२ क्षे ६ चगु ६ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गुण्यं ७ गु २६ क्षे २८ भंगाः २१० । देशसंयतादित्रये प्रत्येकं | उप | क्षा। मिश्र ओ | पा | गुण्यं ६ प्रगु १ क्षे | सं|सं | णा। दं । ल । वे चा। ६ | भ गुणकार तीन है। स्वसंयोगीमें क्षेप तीन हैं। सब मिलकर गुण्य सात, गुणकार आठ और क्षेप दस होनेसे भंग छियासठ हैं। मिश्र गुणस्थानमें मिश्रभावके ज्ञान, दर्शन, लब्धि ये तीन, औदयिकके सात, पारि१५ णामिकके भव्यत्वरूप एक जातिपद है। यहाँ गुण्य सात हैं। प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप चार, दो संयोगी भंगमें गुणकार चार क्षेप तीन, तीन संयोगीमें गुणकार तीन, स्वसंयोगीमें क्षेप तीन । सब मिलकर गुण्य सात, गुणकार आठ, क्षेप दस होनेसे भंग छियासठ होते हैं। असंयतमें औपशमिकका एक सम्यक्त्व, क्षायिकका एक सम्यक्त्व, मिश्रके तीन ज्ञान दर्शन लब्धि, औदयिकके सात, 'पारिणामिकका भव्यत्वरूप एक जातिपद है। वहां गुण्य सात २. हैं। प्रत्येक भंगमें गुणकार एक, क्षेप सात, दो संयोगीमें गुणकार सात क्षेप बारह, तीन संयोगीमें गुणकार बारह, क्षेप छह, चार संयोगीमें गुणकार छह । पाँच संयोगीका अभाव है क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्वका संयोग नहीं होता। स्वसंयोगीमें क्षेप तीन । सब मिलकर गुण्य सात, गुणकार छब्बीस और क्षेप अठाईस होनेसे भंग दो सौ दस होते हैं। २५ देशसंयत आदि तीनमें औपशमिकका एक सम्यक्त्व, क्षायिकका एक सम्यक्त्व, मिश्रके चार-ज्ञान दर्शन लब्धि वेदक चारित्र, औदयिकके छह, पारिणामिक एक भर जातिपद है। यहां गुण्य छह हैं। प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप आठ हैं। दो संयोगोमें Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११९५ क्षे ३ । कूडि देशसंयतंगे गुण्य ६ । गु ३२ । क्षे ३४ । लब्ध भंग २२६ ॥ प्रमत्तसंयतंगेयु मिते गुण्य ६ । गु ३२ । क्षे ३४ । लब्धभंग २२६ ।। अप्रमत्तसंयतंगयुमिते गुण्य ६ । गु ३२ । क्षे ३४ । लब्ध भंग २२६ ॥ अपूर्वकरणोपशमकंगे | उपश । क्षायि । मिश्र औवह । पारि । स चा । सं १ । णा । द ल।।६। । भ१ यिल्लि उफामकापूर्वकरणंगे गुण्य ६ । प्रगु १।७। द्विगु ७ । क्षे १६ । त्रि गु १६ । क्षे १३ । च गु १३ । क्षे ३। पंग ३ । स्व संक्षे ३ । कूडि अपूर्वकरणंगे गुण्य ६ । गु ४० । क्षे ४२ । लब्ध ५ भंग २८२ । सवेदानिवृत्तिकरणोपशमकंगयुमिते गुण्य ६ । गु ४० । क्षी ४२। लब्ध भंग २८२ ॥ अवेवानिवृत्तिकरणोपशमकंगे |उपशक्षायि|मिश्र औव पारि इल्लि अ वेदानिवृत्तिगे | सं|चा सं १णावं ल | ५| भ | गुण्य ५। प्र गु १।२७ । विगु ७ । क्षे २६ । त्रिग १६ । क्षे १३ । च ग १३ । क्षे३। पंगु ३ । स्वसं क्षे३ । डि गुण्य ५ग ४० । क्षे ४२ । लब्धभंग २४२। इल्लि अनिवृत्तिकरणंगे कषाय. ८ द्विगु ८ क्षे १५ । त्रिगु १५ क्षे ८ चगु ८ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गुण्यं ६ गु ३२ क्षे ३४ भंगाः २२६ । १० उपशमकेष्वपूर्वसवेदानिवृत्तिकरणयोः उपश | क्षा | मिथ औशपा। गुण्य ६. ।सं। चा | सं१णा । दं। ल | ६ | म । प्रगु १ ७ द्विगु ७ क्षे १६ त्रिगु १६ क्षे १३ चगु १३ मे ३ पंगु ३ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गुण्यं ६ गु ४० ले ४२ भंगा: २८२ । अवेदभागसूक्ष्मसाम्पराययोः | उपश | क्षा | मिश्र औ| पा | गुण्यं ५ प्रगु १ क्षे सं। चा| सं १ | णा । दं। ल | ५ | भ गुणकार आठ, क्षेप पन्द्रह हैं। तीन संयोगीमें गुणकार पन्द्रह क्षेप आठ हैं। चार संयोगीमें १५ गुणकार आठ हैं। स्वसंयोगीमें क्षेप तीन हैं। सब मिलकर गुण्य छह, गुणकार बत्तीस, क्षेप चौंतीस होनेसे भंग दो सौ छब्बीस हैं। ___ उपशम श्रेणीमें अपूर्वकरण और वेद सहित अनिवृत्तिकरणमें औपशमिकके दोसम्यक्त्व और चारित्र, क्षायिकका एक सम्यक्त्व, मिश्रके तीन ज्ञान दर्शन लब्धि, औदयिकके छह और पारिणामिकका एक भव्यत्व ये जातिपद हैं। यहाँ गुण्य छह हैं। प्रत्येक भंगमें २० गुणकार एक, क्षेप सात हैं। दो संयोगीमें गुणकार सात क्षेप सोलह हैं। तीन संयोगीमें गुणकार सोलह क्षेप तेरह हैं। चार संयोगीमें गुणकार तेरह क्षेप तीन हैं। पाँच औपशमिक संयोगीमें गुणकार तीन हैं। यहाँ क्षायिक सम्यक्त्वके साथ चारित्र होनेसे पाँच संयोगी भी होता है । स्वसंयोगीमें क्षेप तीन हैं। सब मिलकर गुण्य छह, गुणकार चालीस और क्षेप बयालीस होनेसे भंग दो सौ बयासी होते हैं। २५ वेद रहित अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें औपशमिक दो सम्यक्त्व और चारित्र, क्षायिक एक सम्यक्त्व, मिश्र तीन ज्ञान दर्शन लब्धि, औदायिक पाँच, पारिणामिक एक भव्यत्व ये जातिपद हैं। गुण्य पाँच हैं। प्रत्येक भंगमें गुणकार एक क्षेप सात हैं । दो संयोगीमें गुणकार सात क्षेप सोलह हैं । तीन संयोगीमें गुणकार सोलह क्षेप तेरह हैं। चार Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे रहित भागे संभविसदेके दोर्ड कषाय जातिपदं विवक्षिसल्पटुंदप्पुदरिदं सूक्ष्मसांपरायोपशमकंगेयु. मिते गुण्य ५ । गु ४० । क्षे ४२ । लब्धभंग २४२ ॥ उपशांतकषायंगे उपश । क्षायि |मिश्र ओदइ पारि | यिल्लि गुण्य ४ । प्र गु १ ।क्षे ७ । । संचा । स १ | णा | | ल । ४ । भ१ द्वि ग ७ । क्षे १६ । त्रि ग १६ । क्षे १३ । चतु गु १३ । क्षे३। पंगु ३ । स्व संक्षे ३। कूडि ५ उपशांतकषायं गुण्य ४। गु ४०। क्षे ४२ । लब्धभंगंगळु २०२ ॥ क्षपकापूर्वकरणंगे । क्षाइ । मिश्र भाव औद पारि यिल्लि अपूव्वंकरणक्षपकंगे गुण्य ६। प्र गु १ । | संचा। णादल। ६ । ।भ १ क्षे ६ । द्विगु ६ । क्षे ११ । त्रि गु ११ । क्षे ६। च गु ६ । स्व संक्षे ३ । फूडिअपूर्वकरणक्षपकंगे गुण्य ६ । गु २४ । क्षे २६ । लब्धभंगंगळु १७० । क्षपकानिवृत्तिकरणसवेदभागेयोमिते गुष्य ६ । ग २४ । क्षे २६ । लब्ध भंग १७० । वेदरहित भागयोलं क्षायिमिश्र भावंगाऔ| पा गुण्य ५ । संचा। णा | दं ल| ५ |भ १] १० ७ द्विगु ७ क्षे १६ त्रिगु १६ क्षे १३ चगु १३ क्षे ३ प गु ३ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गण्यं ५ गु ४० क्षे ४२ भंगाः २४२ । नात्राकषायभागः कषायजातिपदस्य विवक्षितत्वात् । उपशान्तकषाय- उपश । क्षा। मिश्र और पा | गुण्यं ४। प्रगु १ क्षे ७ |सं । चा| सं १ । णा। दं । ल | ४ | भ १. द्विगु ७ क्ष१६ त्रिगु १६ ते १३ चगु १३ क्षे ३ पंगु ३ स्वसंक्ष ३ मिलित्वा गुण्यं ४ गु ४० क्षे ४२ भंगा: २०२। क्षपकेष्वपूर्वसवेदानिवृत्तिकरणयोः | क्षायि | मिश्रभाव । ओ । पारि | गुण्यं ६ । प्रग १ क्षे सं चा | णा। दं । ल | ६ | भ १ ।। ६ द्विगु ६ क्षे ११ त्रिगु ११ क्षे ६ चगु ६ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गुण्यं ६ गु २४ क्षे २६ लब्धभंगाः १७० । संयोगीमें गुणकार तेरह क्षेप तीन हैं। पाँच संयोगीमें गुणकार तीन हैं । स्वसंयोगीमें क्षेप तीन हैं। सब मिलकर गुण्य पाँच, गुणकार चालीस, क्षेप बयालीस होनेसे भंग दो सौ बयालीस हैं। यहां कषायका जातिपद एक लिया है इससे कषायरहित भागोंके भेद नहीं किये हैं। उपशान्त कषायमें भी सूक्ष्म साम्परायकी तरह जातिपद हैं विशेष इतना है कि औदयिकके जातिपद चार हैं । अतः गुण्य चार होनेसे तथा गुणकार और क्षेप पूर्ववत् होनेसे भंग दो सौ दो होते हैं। क्षपकश्रेणी में अपूर्वकरण और वेद सहित अनिवृत्तिकरणमें क्षायिक दो सम्यक्त्व और चारित्र, मिश्र तीन ज्ञान दर्शन लब्धि, औदायिक छह और पारिणामिक एक भव्यत्व ये २५ जातिपद हैं। यहां गुण्य छह हैं। प्रत्येक भंगमें गुणकार एक, क्षेप छह, दो संयोगीमें गुणकार छह क्षेप ग्यारह हैं। तीन संयोगीमें गुणकार ग्यारह क्षेप छह हैं। चार संयोगीमें गुणकार छह ह । स्वसंयोगीमें क्षेप तीन हैं। सब मिलकर गुण्य छह, गुणकार चौबीस और क्षेप छब्बीस होनेसे भंग एक सौ सत्तर होते हैं। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ११९७ प्रगु १।६। द्विगु ६ । क्षे ११ । त्रि गु ११ । क्षे ६ च गु ६ । स्व संक्षे ३। कूडि गुण्य ५। गु २४ । क्षे २६ । लब्ध भंग १४६ । इल्लियुं क्षपकश्रेणियोल अनिवृत्तिकरणक्षपकंगे कषायरहित भागे संभविसदु एकबोर्ड जातिपदविवक्षेयप्पुरिवं । सूक्ष्मसांपराय क्षपकंगेयुमिते गुण्य ५ । गु २४ । क्षे २६ । लब्ध भंग १४६ । इल्लियु क्षपक श्रेणियोळ अनिवृत्तिकरणक्षपंगे कषायरहित भार्ग संभविसदु । क्षीणकषायंगे कषायपदरहितमप्पुरिदं | क्षायि | मिश्र भाव औदयि। पारि । ५ संचाणादं| ल| ४ |भ१ यिल्लि गण्य ४। गु १। ६। द्वि ग ६ । क्षे ११। त्रिगु ११ । क्षे६। च ग ६ । स्व सं क्षे ३। कूडि गण्य ४ । ग २४ । क्षे २६ । लब्ध भंग १२२ ।। सयोगकेवलिभट्टारकंगे । क्षायिक भावंगळ औद | पारि इल्लि गुण्य ३। प्रगु १। क्षे ६ । णा दं। सं | चा | ल | | भर द्वि गु ६ । क्षे ५। त्रि गु५ । स्वसंयोगक्षेपं लब्धिगळोळोंदु १ कुडि गुण्य ३। गु १२। झ१२ । लब्ध भंग ४८॥ अयोगिकेवलि भट्टारकंगे । क्षायिकभावं - औ | पा| इल्लि गुण्य २। १० णादं| संचा| ल| २ | भ अवेदभागसूक्ष्मसाम्परराययोः । क्षा | मिश्रभाव । औ | पा । गुण्यं ५। प्रगु १ २ ६ । स । चा | णा । दं । ल | ५ | भ १ । द्विगु ६ क्षे ११ त्रिगु ११ क्षे ६ चगु ६ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गुण्ण ५ गु २४ क्षे २६ भंगाः १४६ । नात्राप्यकषायभागः। क्षीणकषाये कषायपदं नेति । क्षायि | मिश्रमाव । औ| पा | गुण्यं ४ । प्रगु १ क्षे ६ द्विगु |स । चा| णा । दं । ल | ४ | भ १ ६ क्षे ११ त्रिगु ११ क्षे ६ चगु ६ स्वसंक्षे ३ मिलित्वा गुण्यं ४ गु २४ क्षे २६ भंगाः १२२ । १५ सयोगे। क्षायिकभाव औ | पा गुण्यं ३ प्रगु १ । क्षे ६ । द्विगु ६ से ५ । त्रिगु ५ । णा । दं । सं । चा । ल | ३ | भ | स्वसंयोगले पो लब्धिष्वेकः मिलित्वा गुण्यं ३ गु १२ क्षे १२ भंगाः ४८ । वेदरहित अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्परायमें भी जातिपद अपूर्वकरणकी तरह है। विशेष इतना है कि औदयिकके पाँच जातिपद होनेसे गुण्य पाँच हैं तथा गुणकार चौबीस और क्षेप छब्बीस हैं । अतः भंग एक सौ छियालीस हैं । क्षीण- २० कषायमें भी जातिपद इसी प्रकार है। किन्तु औदयिकके चार जातिपद होनेसे गण्य चार हैं । गुणकार चौबीस और क्षेप छब्बीस है। अतः भंग एक सौ बाईस हैं। सयोगीमें क्षायिकके पांच ज्ञान दर्शन सम्यकत्व चारित्र लब्धि, औदयिकके तीन और पारिणामिकका एक जातिपद है। यहां गण्य तीन है। प्रत्येक भंगमें गणकार एक क्षेप छह है। दो संयोगीमें गणकार छह क्षेप पांच हैं। तीन संयोगीमें गणकार पाँच हैं। स्वसंयोगीमें किसी एक क्षायिक २५ लब्धिके साथ अन्य क्षायिक लब्धि पायी जानेसे क्षेप एक है। सब मिलकर गुण्य तीन, गणकार बारह और क्षेप बारह होनेसे भंग अड़तालीस हैं। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ११९८ गो० कर्मकाण्डे प्र १ । ६ । द्विगु६ । क्षे ५ । त्रिगु ५ । लब्धभंग ३६ | सिद्धपरमेष्ठि क्षायिक भा संणा | द | ल | जो ९ ॥ यितुक्त गुण्य गुणकारक्षेपमंगमिवर संख्येयं पेव्वपरुः - अष्टौ गुण्यं वामे त्रिषु सप्त षट्चतुर्षु षट्कपंचकं च । स्थूले मूक्ष्मे पंचकं द्वयोश्चत्वारि त्रयं द्वयमतः शून्यं ॥ यितु गुण्यंग मिथ्यादृष्टियोळे 'दुं सासादन मिश्र संयतरुगळोळळु देशसंयत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत क्षपकोपशमका पूर्वक : ० गुण्य गुणका क्षेपग भंग अयोगे अगुणिज्जा वामे तिसु सग छच्चउसु छक्क पणगं च । धूले सुहुमे पणगं दुसु चउ तियदुगुमदो सुण्णं ॥ ८४९ ॥ स्वसंक्ष े १ | कूडि गुण्य २ । गुण १२ । क्षे १२ । इल्लि प्रक्षे ५ । द्विक्ष ४ । कूडि भंगंगळ | मिथ्या| सासा | मिश्र ८ ७ ८ | २६ | ३२ | १२ | ८ । | १४ | १० | १० | २८ | ३४ | ११० | ६६ | ६६ |२१० | २२६ 6) १७० १४६ २४ २६ ४२ २८२ । १४६ २४२ असं | देश | प्रम | अप्रम | अपूक्ष | उपश ७। ६ | ६ | ६ ६ ६ | ३२ ३४ अनि | अनि उ । सू क्ष | सू उ/उप क| क्षीण । सयो | अयो । सिद्ध ६५ ६५ ५ । ५ । ४ २ २४ । ४० । ४० ४० २६ ओ ३२ | २४ ३४ २६ २२६|२२६ | १७० ४२ | ४२ | २४२ | २०२ क्षायिकभाव पा णा । द । स । चा । ल २ भ १ मिलित्वा गुण्यं २ गु १२ क्षे १२ भंगा: ३६ ॥ क्षायिक प्रक्षे ५१ द्वि क्षे ४ । मिलित्वा भंगाः ९ ॥८४८॥ उक्तगुण्यादिसं । णा । दं । ल | जी सिद्धे पा ४० ४२ २८२ ४ २४ १२ २६ | १२ | १२२ ४८ १२ । ० १२ ९ ३६ ९ गुण्यं २ प्रगु १ क्ष ६ द्विगु ६ क्ष ५ त्रिगु ५ स्वसंक्षे संख्या आहे अयोगीमें भी जातिपद सयोगीकी तरह हैं । किन्तु औदयिकके दो ही जातिपद होने से गण्य दो हैं । और गुणकार बारह तथा क्षेप बारह होनेसे भंग छत्तीस हैं। १५ सिद्धों में क्षायिकके चार - सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और तीर्थरूप लब्धि तथा पारिणामिकका एक जीवत्व जातिपद हैं। प्रत्येक भंगमें क्षेप पाँच हैं। दो संयोगीमें क्षेप चार हैं । सब मिलकर नौ भंग होते हैं ||८४८|| आगे गुण्य आदिकी संख्या कहते हैं. - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका रणरुगळोळ. गुण्यंगळारारप्पुवु । अनिवृत्तिकरणक्षपकोपशमकरगळोळ प्रत्येकमारुमग्तुं गुण्यंगळप्पुवु । सूक्ष्मसापरायक्षपकोपशमकरुगोळ प्रत्येकं पंचकं गुण्यमकुं। उपशांतकषायमीणकषायरुगळोळ प्रत्येकं नाल्कु नाल्कु गुण्यंगळप्पुवु । सयोगरोळ, मूरुगुण्यंगळप्पुवु । अयोगिगलोळे रडु गण्यंगळप्पुवु । मेले सिद्धरोळ शून्यमक्कं ॥ बारहट्ट छव्वीसं तिसु तिसु बत्तीसयं च चउवीसं । तो तालं चउवीसं गुणगारा बार बार णभं ॥८५०॥ द्वादशाष्टाष्टषद्विशतयः त्रिषु त्रिषु द्वात्रिंशच्च चतुविशतिः ततश्चत्वारिंशत् चतुविशतिः गुणकाराः द्वादशद्वादशनभः ।। गुणकारंगळु मिथ्यादृष्टियोळ्पन्नेर९ सासादनमिश्ररुगळोळे टुं असंयतनोळिप्पत्ताएं देशसंयतादिगुणस्थानत्रयदोळ, प्रत्येकं मूवत्तेरडुगळं अपूर्वकरणाविक्षपकत्रयदोळ प्रत्येकं १० चतुविशतिगळे अल्लिद मेळे उपशमकचतुष्टयदो प्रत्येक नाल्वत्तुग क्षीणकषायनोळ चतुविशतियुं सयोगरोळ पन्नेरडुमयोगिगळोळ पन्नेरडं सिद्धरोळ शून्यमककुं॥ वामे चउदस दुसु दस अडवीसं तिस हवंति चोत्तीसं। तिस छव्वीस दुदालं खेवा छव्वीस बार बारणवं ॥८५१॥ वामे चतुर्दश द्वयोद्देश अष्टाविंशतिः त्रिषु भवंति चतुस्त्रिशत् । त्रिषु षड्विंशतिद्विचत्वा- १५ रिंशत् क्षेपाः षड्विंशतिक्शि द्वादशनव ।। गुण्यानि मिथ्यादृष्टावष्टौ । सासादनादित्रये सप्त । देशसंयतादित्रये क्षपकोपशमकापूर्वकरणयोश्च षट् । तदनिवृत्तिकरणयोः षटपंच । सूक्ष्मसाम्पराययोः पंच । उपशान्तक्षीणकषाययोश्चत्वारि । सयोगे त्रीणि । अयोगे द्वे । सिद्धे शून्यं ॥८४९।। गणकारा मिथ्यादृष्टो द्वादश । सासादनादिद्वये अष्टावष्टौ । असंयते षड्वंशतिः। देशसंयतादित्रये २० द्वात्रिंशत् । क्षपकापूर्वकरणादित्रये चतुर्विंशतिः । तत उपशमकचतुष्के चत्वारिंशत् । क्षीण कषाये चतुर्विंशतिः । सयोगायोगयोर्वादश । सिद्धे शन्यं ॥८५०॥ मिथ्यादृष्टिमें आठ, सासादन आदि तीनमें सात, देशसंयत आदि तीनमें और क्षपक व उपशमक अपूर्वकरणमें छह, अनिवृत्तिकरणमें छह और पाँच, सूक्ष्मसाम्परायमें पाँच, उपशान्तकषाय और क्षीणकषायमें चार, सयोगीमें तीन और अयोगीमें दो गण्यका प्रमाण २५ है। सिद्धोंमें गुण्य नहीं है ।।८४९॥ मिथ्यादृष्टिमें बारह, सासादन आदि दोमें आठ-आठ, असंयतमें छब्बीस, देशसंयत आदि तीनमें बाईस, क्षपक अपूर्वकरण आदि तीनमें चौबीस, उपशमश्रेणीके चार गुणस्थानोंमें चालीस-चालीस, क्षीणकषायमें चौबीस, सयोगी और अयोगीमें बारह गुणकार हैं। सिद्धोंमें गुणकार नहीं हैं ।।८५०॥ क-१५१ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०० गोकर्मकाणे क्षेपंगळ मिथ्यादृष्टियोळ, पविनाल्कु। सासावनमिधरुगळोळ प्रत्येकं पत्तुं असंयतनो अष्टाविंशति देशसंयतप्रमताप्रमत्तरुगळो प्रत्येक मूवत्तनाल्कु । अपूर्वकरणावि झपकत्रयवोळ प्रत्येकं षड्विंशतियुं उपशमकचतुष्टयदोळ प्रत्येकं नाल्वत्तेरडुग क्षीणकषायनोळ षड्विंशतियु सयोगरोऊ द्वादशमुमयोगिगळोळ द्वादशमुं सिद्धरोळ नबंगळ मप्पुवु ॥ एक्कारं दसगुणियं दुसु छावहि दसाहियं विसयं । तिसु छन्वीसं विसयं वेदुवसामोत्ति दुसयबासीदी ॥८५२॥ एकादशवशगुणिताः द्वयो षट्षष्टिईशाधिकं द्विशतं । त्रिषु षड्विंशतिद्विशतं वेवकोपशमकपथ्यंतं द्विशतपशीतिः॥ मिथ्यादृष्टियोळ नूरपत्तु भंगंगळप्पुवु । सासादननोळं मिश्रनोळं प्रत्येकमरुवत्तारुगळप्पुवु । १. असंयतनोळ दशाधिकद्विशतभंगंगळप्पुवु । देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळ प्रत्येकं इन्नूरिप्पत्तारुगळप्पुवु । उपशमकापूर्वकरण सवेवानिवृत्तिकरणरोळ, प्रत्येकं यिन्नूरेग्भत्तेरडप्पुवु ॥ बादालं विण्णिसया तत्तो सुहुमोत्ति दुसय दोसहियं । उवसंतम्मि य भंगा खवगेसु जहाकम बोच्छं ॥८५३॥ द्विचत्वारिंशद्विशतं ततः सूक्ष्मपथ्यंतं द्विशतं द्विशतसहितं उपशांते च भंगाः क्षपकेषु १५ यथाक्रमं वक्ष्यामि ॥ ___ ततः आ सवेदानिवृत्तियुपशमनिदं मेले अवेदानिवृत्तियुपशमकनोळ सूक्ष्मसांपरायोपशमकनोळ प्रत्येक द्विचत्वारिंशद्विशतभंगंगळप्पुवु । उपशांतकषायनोळ व्यत्तरद्विशत भंगंगळप्पुवु । आपकरोछ यथाक्रमदिदं पेन्दपवेंदु पेळवपं : क्षेपा मिथ्यादृष्टी चतुर्दश । सासादनमिश्रयोदश । असंयतेऽष्टाविंशतिः । देशसंयतादित्रये चतुस्त्रिंशत् । २० क्षपकापूर्वकरणादित्रये पविशतिः उपशमकचतुष्के द्वाचत्वारिंशत । क्षीणकषाये षडविंशतिः। सयोगायोगयोदश । सिद्धे नव भवन्ति ॥८५१॥ भंगा मिथ्यादृष्टी दशाग्नशतं । सासादनमिश्रयोः षट्षष्टिः । असंयते दशाग्रद्विशती। देशसंयतादित्रये षड्विंशत्याद्विशती । उपशमकापूर्वसवेदानिवृत्ति करणयोद्वर्यशीत्याद्विशती ।।८५२॥ तत उपर्युपशमकावेदानिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराययोः द्विचत्वारिंशदाद्विशती। उपशांतकषाये मिथ्यादृष्टिमें चौदह, सासादन और मिश्रमें दस, असंयतमें अट्ठाईस, देशसंयत आदि तीनमें चौंतीस, क्षपकश्रेणीके अपूर्वकरण आदि तीनमें छब्बीस, उपशमश्रेणीके चार गुणस्थानों में बयालीस, क्षीणकषायमें छब्बीस, सयोगी और अयोगीमें बारह तथा सिद्धोंमें नौ क्षेप होते हैं ॥८५१॥ अब भंगोंकी संख्या कहते हैं-मिथ्यादृष्टिमें एक सौ दस, सासादन और मिश्रमें ३० छियासठ, असंयतमें दो सौ दस, देशसंयत आदि तीनमें दो सौ छब्बीस, उपशमक अपूर्वकरण और वेदसहित अनिवृत्तिकरणमें दो सौ बयासी भंग होते हैं ।।८५२॥ उससे ऊपर उपशमक वेदरहित अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें दो सौ २५ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १२०१ सत्तरसं दसगुणिदं वेदित्ति सयाहियं तु छादालं । सुहुमोत्ति खीणमोहे बावीससयं हवे भंगा ॥८५४॥ सप्तदश दशगुणिताः सवेदानिवृत्तिपयंतं शताधिकं तु षट्चत्वारिंशत् सूक्ष्मसापराय. पप्यंत क्षीणमोहे द्वाविंशतिशतं भवेभंगाः॥ ____अपूर्वकरणक्षपकोळ सवेवानिवृत्तिकरणक्षपक नोळ प्रत्येकं नूरप्पत्तु भंगंगळप्पुवु। अवेदानिवृत्तियोळसूक्ष्मसांपरायक्षपकनोळ प्रत्येक नूरनाल्वत्तारु भंगंगळप्पुवु । क्षीणकषायनोळ. नूरिप्पत्तरड़ भंगंगळप्पुवु ॥ अडदालं छत्तीसं जिणेस सिद्धेसु होति णव भंगा। एत्तो सवपदं पडि मिच्छादिसु सुणुह बोच्छामि ॥८५५॥ अष्टचत्वारिंशत् षत्रिंशत् जिनयोः सिद्धेषु भवंति नवभंगाः। इतः सर्वपदं प्रति मिथ्या- १० दृष्टयाविषु शृणुत वक्ष्यामि ॥ सयोगजिनरोळष्टाचत्वारिंशदर्भगंगळप्पुवु । अयोगिजिनरोळ, पशिद् भंगंगळप्पुवु । सिद्धपरमेष्टिगळोळ नवभंगंगळप्पुवु। इल्लिदं मेले सर्वपदंगळ कुरुत्तु मिथ्यावृष्टयादि गुणस्थानंगळोळ पेन्दउँ केळि भव्यरुगळिरा॥ ___अनंतरं सर्वपदंगळं पेन्वल्लि पिंडपदंगळोळेकैकपदंगळेकसमयदोळ संभविसुववेंदु १५ पेन्दपरु : भन्बिदराणण्णदरं गदीण लिंगाण कोहपहुडीणं । इगिसमये लेस्साणं सम्मत्ताणं च णियमेण ॥८५६॥ भव्येतरयोरन्यतरत्पदं गतीनां लिंगानां क्रोधप्रभृतीनां एकसमये लेश्यानां सम्यक्त्वानां च नियमेन ॥ द्वयन द्विशती । क्षपकेषु यथाक्रमं वक्ष्ये ॥८५३॥ __ अपूर्वस्वेदानिवृत्तिकरणयोः सप्तत्यग्रशतं । अवेदानिवृत्तिसूक्ष्मसाम्पराययोः षट्चत्वारिंशदग्रशतं । क्षीणकषाये द्वाविंशत्यग्रशतं ॥८५४॥ ____ सयोगेऽष्टचत्वारिंशत्, अयोगे षट्त्रिंशत्, सिद्धे नव भवति । इतः उपरि सर्वपदान्याश्रित्य मिथ्यादृष्टयादिषु वक्ष्ये शृणुत ॥८५५॥ २५ बयालीस, उपशान्तकषायमें दो सौ दो भंग होते हैं। आगे क्षपकमें क्रमानुसार कहते हैं ।।८५३॥ अपूर्पकरण और सवेद अनिवृत्तिकरणमें एक सौ सत्तर, वेदरहित अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें एक सौ छियालीस, क्षीणकषायमें एक सौ बाईस भंग हैं ॥८५४|| __ सयोगीमें अड़तालीस, अयोगीमें छत्तीस और सिद्धोंमें नौ भंग होते हैं। यहाँसे आगे ३० पदोंका आश्रय लेकर मिथ्यादृष्टी आदिमें भंग कहता हूँ तुम सुनो।।८५५॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०२ गो० कर्मकाण्डे सर्वपदभंगंगरंतप्पल्लि पिंडपदंगळु प्रत्येकपदंगल में वित्तरनप्पुववेकसमयदोलु भव्या भव्यद्विकोळन्यतरत्पदमुमंत गतिगोळोदु लिंगंगळोवो, क्रोधाविकषायंगळोळो दोंदुं लेश्याषट्कदोळोवो, सम्यक्त्वंगळोळोंबों, मिम्यादृष्टयादि चतुर्दशगुणस्थानंगळोळु यथायोग्यंगळागि नियमदिवं युगपत्संभविसुववु ॥ अनंतरं मिध्यादृष्टियोळ प्रत्येकपदंगळं संभवंगळं पेन्दपरु : पत्तेयपदा मिच्छे पण्णरसा पंच चेव उवजोगा। दाणादी ओदयिये चत्तारि य जीवभावो य ॥८५७॥ प्रत्येकपदानि मिथ्यादृष्टौ पंचदश पंच चैवोपयोगाः । वानावयः औवयिके चत्वारि च जीवभावश्च ॥ १० मिथ्यादृष्टियोल पंचदश प्रमितंग प्रत्येकपदंगळप्पुववाउवे बोडे कुमतिकुश्रुतविभंगबत्र्य. ज्ञानंगळं चक्षुरचक्षुद्देर्शनद्वपमुमे दो युपयोगपंचकमु दानलाभभोगोपभोग वोम्यंगळेबो दानादिपंचकमु मिन्यादर्शनमुमज्ञानमुमसंयममुमसिद्धत्वमुमेंबौदयिकभावदोळ नाल्कुं जीवत्वमुमें वितु प्रत्येकपदंगळ पदिनप्दप्पुवु । १५ ॥ विंडपदा पंचेव य भविदरदुगं गदी य लिंगं च । कोहादी लेस्सावि य इदि वीसपदा हु उड्ढेण ॥८५८।। पिंडपदानि पंचैव भव्येतरद्विकं गतिश्च लिगं च । क्रोधादयो लेश्या अपि च इति विंशतिपदानि खलूइँन ॥ तानि तु सर्वपदानि पिंडप्रत्येकभेदाद्विविधानि । तत्र पिंडपदेषु एकसमये भव्याभव्ययोः गतिषु लिगेषु क्रोषादिषु लेश्यासु सम्यक्त्वेषु चैकैकमेव गुणस्थानेषु यथायोग्य नियमेन युगपत् सम्भवति ॥८५६॥ युगपत्संभवानि प्रत्येकपदानि मिथ्यादृष्टी पंचदर्शव । तानि कानि ? यज्ञानाद्य द्विदर्शनान्येवं पंचोपयोगा दानादयः पंच औदयिके मिथ्यात्वाज्ञानासंयमासिद्धत्वानि चत्वारि जीवत्वं चेति ॥८५७॥ वे सर्वपद दो प्रकारके हैं-पिण्डपद और प्रत्येकपद। जिस भाव समूहमें-से एक समयमें एक जीवके एक-एक ही होता है सब नहीं होते उस भाव समूहको पिण्डपद कहते हैं । जैसे चारों गतियोंमें-से एक जीवके एक कालमें एक गति ही होती है, चारों नहीं होती। २५ अतः गति पिण्डपद है। और जो भाव एक जीवके एक कालमें एक साथ भी होते हैं उनको प्रत्येकपद कहते हैं । सो भव्य, अभव्य, गति, लिंग, क्रोधादि चार, लेश्या और सम्यक्त्व ये पिण्डपद हैं। क्योंकि इनमें से एक समयमें एक जीवके गुणस्थानोंमें यथायोग्य एक-एक ही नियमसे युगपद् होता है ।।८५६॥ एक साथ सम्भव प्रत्येकपद मिध्यादृष्टिमें पन्द्रह होते हैं, वे इस प्रकार हैं-तीन ३. अज्ञान, दो दर्शन, ये पाँच उपयोग, दान आदि पाँच लब्धियाँ, औदायिकमें-से मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व ये चार और जीवत्व पारिणामिक ॥८५७॥ २० Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका यिल्लि युगपत्संभविगळं प्रत्येकपदंगळे बुदु सहानवस्थायिगळं पिंडपदंगळे बुदु । अल्लि पूर्वोक्त पंचदश प्रत्येकपदंगलिंदं मेले मेले भव्याभव्यद्विक, गतियुं लिंग, क्रोधादियुं लेश्यगळु में बी विशति पदंगळु मिथ्यादृष्टियोल मेले मेलेयप्पुवु॥ पत्तेयाणं उवरिं भविदरदुगस्स होदि गदिलिंगे । कोहादिलेस्ससम्मत्ताणं रयणा तिरिच्छेण ।।८५९॥ प्रत्येकानामुपरि भव्येतरतिकस्य भवति गतिलिंगक्रोधादिलेश्या सम्यक्त्वानां रचना तिर्यग्रूपेण ॥ प्रत्येकपदंगळु पदिनय्दर मेले तिर्यग्रूपदिदं भव्याभव्यद्वयमकुं। गतिलिंगक्रोधादि कषायलेश्या सम्यक्त्वंगळ्गे रचनेगळु तिर्यग्रूपदिदमेयक्कुं। संदृष्टि मिथ्यादृष्टिगकु | कु | tव | च | अ | दा | ला| भो । उ | वी | मि | अ अ अ | जी | भ | न | स्त्री | क्रो | कृ| | अ | ति| पु | मा |नी म न मायाक | लो। पो तदुपरि पिंडादानि पंचैव । तानि तु भव्येतरद्वयं गतिः लिगं क्रोधादिः लेश्या चेति । इत्येतानि १० विशतिपदानि खल मिथ्यादृष्टादूर्ध्वरूपेण स्थाप्यानि ॥८५८॥ सर्वत्र प्रत्येकपदानामुपरिस्थितानां भव्याभव्ययोः गतीनां लिंगानां क्रोधादिकषायागां लेश्यानां सम्यक्त्वानां च रचना तिर्यग्रूपेण कार्या भवन्ति ॥८५९।। उन पन्द्रह प्रत्येक पदोंके ऊपर मिथ्यादष्टिमें पिण्डपद पाँच ही हैं, भव्य-अभव्य दोनों, गति, लिंग, क्रोधादि और लेश्या। ये बीस पद मिथ्यादृष्टिमें ऊपर-ऊपर स्थापित करो।१८५८॥ १५ ___सर्वत्र प्रत्येक पदोंके ऊपर स्थापित भव्य, अभव्य, गति, लिंग, क्रोधादि कपाय, लेश्य। और सम्यक्त्वकी रचना तियग् रूपसे बराबरमें करना चाहिए ।।८५९।। विशेषार्थ-नीचे तो प्रत्येक पद ऊपर लिखना चाहिए। उनके ऊपर मूल पिण्डपद ऊपर-ऊपर लिखना चाहिए। कु । कु । वि । च । अ । दा । ला । भो । उ । वी। मि । अ । अ । अ। जी। २० भ | न । स्त्री। क्रो। कृ अ | ति | पु.| मानी म । न. | मा.। क दे । ० लो | ते Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०४ गो० कर्मकाण्डे एक्कादी दुगुणकमा एक्केक्कं रुधियूण हेट्ठम्मि । पदसंजोगे भंगा गच्छं पडि होति उवरुवरि ॥८६०॥ एकादयो द्विगुणक्रमादेकैकमवलंब्याऽधः पदसंयोगे भंगाः गच्छं प्रति भवत्युपर्युपरि॥ ___ एकमादियागि द्विगुणद्विगुण क्रमदिदमेकैकपदंगळमवलंबिसियधस्तनपदसंयोगदोळ गच्छं प्रति मेले ५ मेले भंगंगळप्पुवु । अदेंतेंदोडे कुमतिज्ञानमोदु यिल्लि प्रत्येकभंगमों देयकुं १॥ ___ कुश्रुतदोळु प्रत्येकभंगमोढुं १। तदधस्तन कुमतिज्ञानदोडने संयोगमागुत्तं विरलु द्विसंयोगभंग १ कूगि भंगमेरडु २। विभंगज्ञानदोळ प्रत्येक भंगमोदु १। तदधस्तन कुश्रुतादिगळो. डने द्विसंयोगभंगमेरडु।२। त्रिसंयोगभंगमा दु।१। कूडि भंगंगळ नाल्कु ४। चक्षुर्दशंनदोळु प्रत्येकभंगमोंदु।१ । तदधस्तनविभंगज्ञानादिगळोडने द्विसंयोगभंगंगळु मूरु ३। त्रिसंयोगभंगंगळु १. मूरु ३। चतुःसंयोगमोंदु १ कूडि भंगमेंटु ८। अचाईर्शनदोळ प्रत्येकभंगमोदु १ । तदधस्तनचक्षुद्देशनादिगलोडने द्विसंयोगभंगंगळु नाल्कु ४ । त्रिसंयोगभंगंगळार ६ । चतुःसंयोगभंगंगळु नाल्कु । ४। पंचसंयोग भंगमोंदु १ । कूडि भंगंगळ पविनारु १६ । दानलब्धियोळु एकमादि कृत्वा द्विगुणद्विगुणक्रमाः एकैकपदमवलंब्याघस्तनपदसंयोगे गच्छं प्रत्युपर्युपरि भंगा भवन्ति । तद्यथा कुमती प्रत्येकभंग एकः । कुश्रुते प्रत्येकभंग एकः । तदधस्वनेन संयोगे द्विसंयोगेऽप्येक: मिलित्वा द्वो। विभंगे प्रत्येकभंग एकः । तदधस्तनकुथुतादिना द्विसंयोगो द्वौ। त्रिसंयोग एकः, मिलित्वा चत्वारः । चक्षुर्दर्शने प्रत्येकभंग एकः । तदघस्तनविभंगादिना द्विसंयोगास्त्रयः । त्रिसंयोगास्त्रयः । चतुःसंयोग एकः । मिलित्वाष्टो। अचक्षुर्दर्शने प्रत्येकभंग एकः । तदधस्तनचक्षुरादिना द्विसंयोगाश्चत्वारः । त्रिसंयोगाः षट् । चतुःसंयोगाश्चत्वारः. एकसे लगाकर क्रमसे दूने-दूने एक-एक पदका अवलम्ब लेकर नीचे-नीचेके पदोंके २० संयोगसे जितनेवाँ पद हो उसके ऊपर-ऊपर भंग होते हैं । वही कहते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें प्रत्येक पद सबमें नीचे कुमतिज्ञानका स्थापन किया। उसका प्रत्येक भंग एक ही है । उसके ऊपर कुश्रुत स्थापित किया। उसका प्रत्येक भंग एक और उसके नीचे स्थापित कुमतिके संयोगसे दो संयोगी भंग एक । इस प्रकार दो भंग हुए। उसके ऊपर विभंगको स्थापित किया। उसका प्रत्येक भंग एक और उसके नीचे स्थापित कुश्रत और २५ कुमतिके संयोगसे दो संयोगी भंग दो। तथा तीनोंके संयोगसे तीन संयोगी भंग एक । इस प्रकार चार भंग हुए। उसके ऊपर चक्षुदर्शन । उसका प्रत्येक भंग एक और उसके नीचे स्थापित विभंग कुश्रुत कुमति के संयोगसे दो संयोगी भंग तीन । और चक्षु कुमति कुश्रुत अथवा चक्षु कुमति विभंग या चक्षु कुश्रुत विभंगके संयोगसे तीन संयोगी भंग तीन । चारोंके संयोगसे चार संयोगी भंग एक । ऐसे आठ हुए। उसके ऊपर अचक्षुदर्शन । उसमें प्रत्येक ३० भंग एक । उसके नीचे चक्षुदर्शन, विभंग, कुवत, कुमतिका संयोग क्रमसे होनेपर दो संयोगी भंग चार । तथा अचक्षु चक्षु कुमति, या अचक्षु चक्षु कुश्रुत, या अचक्षु चक्षु विभंग या अचक्षु कुमति कुधुत, या अचक्ष कुमति विभंग या अचक्षु कुश्रत विभंगके संयोगसे तीन संयोगी भंग छह । तथा अचक्षु चक्षु कुमति कुश्रुत या अचक्षु चक्षु कुमति विभंग या अचक्षु चक्षु Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२०५ प्रत्येकभंगमों १ | तदवस्तन चक्षुर्द्दर्शनादिगळोडर्न द्विसंयोगभंगंगलम्बु ५ । त्रिसंयोगंगळु पत्तु १० | चतुःसंयोगंगलु पत्तु १० | पंचसंयोगंगळट ५ । षट्संयोगमोंडु १ । कूडि भंगंग ३२ । यितु पदपदं प्रति द्विगुणद्विगुण भंगंगळागुत्तं योगि प्रत्येकपदंगल एदिनैवनय जीवपददोळ, प्रत्येक भंगमों दु १ । पंचदशसंयोग भंगमुमो टु १ । द्विसंयोगंगळ चतुर्द्दश संयोगंळ प्रत्येकं पदिनालकु १४|१४ | त्रिसंयोगभगंगळ, त्रयोदशसंयोगभंगंगळ, प्रत्येकं द्विरूपोनगच्छेय एकबार संकलन१४ लब्ध ९१ । ९१ । चतुसंयोगभंगंगळ द्वादश संयोग मंगंगळ १ प्रत्येकं त्रिदोनगच्छेय द्विकवार संकलन मात्रंगळवु । तच्छेय त्रिवार संकलनमात्रगपु लब्ध ३६४।३६४ | पंचसंयोग भंगंगळं एकादश संयोगभंगंगळु प्रत्येकं चतूरूपोन११/१२/१३/१४ लब्ध १००१ । १००१ । माळवु । ' ४ | ३ |२| १ | षट्संयोगंगल दश- १० | १२|१३ | १४ १२/१४ | | ३ |२| १ १३ २ संयोग एकः । मिलित्वा षोडश ! दानलब्धी प्रत्येकभंग एकः । तदवस्तनाचक्षुरादिना द्विसंयोगाः पंच । त्रिसंयोगा दश । चतुःसंयोगा दश । पंचसंयोगाः पंच । षट्संयोग एक: । मिलित्वा द्वात्रिंशत् । एवं प्रतिपदं द्विगुणा भूत्वा पंचदशे जीवपदे प्रत्येकभंगः पंचदशसंयोगश्चकः । द्विसंयोगाश्चतुर्दशसंयोगाश्च चतुर्दश । त्रिसंयोगाः त्रयोदशसंयोगाश्च द्विरूपोन गच्छस्यैकवार संकलनमात्राः १३ । १४ । लब्धं ९९ । ९१ । चतुस्संयोगा २ १ द्वादशसंयोगाश्च त्रिरूपोनगच्छस्य द्विकवारसंकलनमात्रा: १२ । १३ । १४ । लब्धं ३६४ । ३६४ । १५ ३ 1 २ । १ ५ २० कुश्रुत विभंग, या अचक्षु कुमति कुश्रुत विभंगके संयोगसे चार संयोगी भंग चार । तथा अचक्षु चक्षु विभंग कुश्रुत कुमति इन पाँचोंके संयोगसे पंचसंयोगी भंग एक । ये मिलकर सोलह हुए इसी प्रकार उसके ऊपर दान लब्धि रखो । उसका प्रत्येक भंग एक । और उसके नीचे चक्षुदर्शन आदि हैं । उनके संयोगसे दो संयोगी भंग पाँच । तीन संयोगी दस, चार संयोगी दस, पाँच संयोगी पाँच, छह संयोगी एक मिलकर बत्तीस हुए। इसी प्रकार ऊपरऊपर एक-एक पदको रखकर उनके भंग दूने दूने होते हैं । उनमें प्रत्येक संयोगी भंग तो एक होता है। और दो संयोगी आदि भंग नीचेके भावोंके संयोगके बदलनेसे जितने जितने हों उतने उतने जानना । सो लाभ लब्धि में चौंसठ, भोग लब्धिमें एक सौ अट्ठाईस, उपभोगमें दो सौ छप्पन, वीर्य में पाँच सौ बारह, मिथ्यात्व में एक हजार चौबीस, अज्ञानमें दो हजार अड़तालीस, असंयम में चार हजार छियानवे । असिद्धत्व में इक्यासी सौ बानवे, जीवत्व में सोलह हजार तीन सौ चौरासी भंग होते हैं । पन्द्रहवें जीवपद में इतने भंग कैसे होते हैं यह स्पष्ट करते हैं २५ -- प्रत्येक भंग एक | दो संयोगी और चौदह संयोगी चौदह चौदह । तीन संयोगी और तेरह संयोगी भंग दो हीन गच्छ प्रमाणका एक बार जोड़ मात्र हैं । गच्छका प्रमाण पन्द्रह है। दो कम करनेसे तेरह रहे । एकसे तेरह तकका जोड़ इक्यानबे होता है सो इक्यानबे इक्यानवे भंग हैं। इसी तरह चार संयोगी और बारह संयोगी भंग तीन हीन गच्छका दो बार जोड़-मात्र हैं । सो तीन सौ चौंसठ तीन सौ चौंसठ भंग होते हैं । पाँच संयोगी और ग्यारह संयोगी भंग चार होन गच्छका तीन बार जोड़मात्र होनेसे एक हजार एक, एक ३० Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०६ गो० कर्मकाण्डे संयोग मंगळ पंच रूपोनगच्छेय चतुर्वार संकलन मात्रंगळप्पुवु माग लब्धं २००२ । २००२ । सप्तसंयोग भंगंगळ, नवसंयोग भंगंगळ षडू पोनगच्छेप पंखवार संकलन ९ | १०|११|१२|१३|१४| लब्धं ३००३ ।३००३ । अष्टसंयोग भंगंगळ सप्तरूपोन ६ |५|४ | ३ |२| १ । गच्छेय षड़वार संकलनमा त्रंगळप्पुवु लब्ध ३४३२ । कूडि प्रत्येक |८|९/१०/११/१२/१३/१४ ७|६|५|४ | ३ | २ | १ ५ पदंगळोळ, पविनध्वर्नय जीवभावदोळ, पदिनाद सासिरद मूनूरणभत्तनात्कु भगलप्पुषु १६३८४ । २० १० | ११ | १२ | १३ | १४ ५ | ४ | ३ |२ । १ पंचसंयोगा एकादश संयोगाश्च चतुरूपोनगच्छस्थ त्रिकवारसंकलनमात्राः ११ । १२ । १३ । १४ लब्धं ४ । ३ । २ । १ १००१ । १००१ । षट्संयोगा दशसंयोगाश्व पंचरूपोनगच्छस्य चतुर्वार संकलनमात्रा: १० । ११ । १२ । ५।४।३। १३ । १४ लब्धं २००२ । २००२ । सप्तसंयोगा नवसंयोगादव षड्रूपोनगच्छस्य पंचवारसंकलन मात्रा:२ । १ ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ लब्धं ३००३ | ३००३ | अष्टसंयोगाः सप्तरूपोनगच्छस्य षड्वार संकलन६।५।४।३।२।१ १० मात्राः ८ । ९ । १० | ११ | १२ | १३ | १४ लब्धं ३४३२ । मिलित्वा तत्र षोडशसहस्रत्रिशतचतुरशोति७।६।५।४।३।२ । १ हजार एक हैं। छह संयोगी और दस संयोगी भंग पाँच हीन गच्छका चार बार जोड़मात्र होनेसे दो हजार दो, दो हजार दो हैं। सात संयोगी और नौ संयोगी भंग छह हीन गच्छका पाँच बार जोड़मात्र हैं अतः तीन हजार तीन, तीन हजार तीन हैं। आठ संयोगी भंग सात हीन गच्छका छह बार जोड़मात्र हैं अतः चौंतीस सौ बत्तीस हैं। ये सब मिलकर पन्द्रहवें जीवपदके सोलह हजार तीन सौ चौरासी भंग होते हैं । यह पण्णट्ठीका चौथा भाग है क्योंकि पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीसको पण्णट्ठी कहते हैं । १५ विशेषार्थ - यहाँ जीवपद पन्द्रहवाँ होनेसे गच्छका प्रमाण पन्द्रह है। दो हीन गच्छका एक बार जोड़ करनेके लिए पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार तेरह, चौदहको परस्पर में गुणा करे । फिर दो और एकको परस्पर में गुणा करके उसका भाग देनेपर इक्यानबे होते हैं। तीन हीन गच्छका दो बार जोड़ करनेके लिए बारह, तेरह, चौदहको परस्पर में गुणा करके, फिर तीन, दो, एकको परहारमें गुणा करके उससे भाग देनेपर तीन सौ चौंसठ होते हैं। चार हीन गच्छका तीन बार जोड़ करनेके लिए ग्यारह, बारह, तेरह, चौदहको परस्पर में गुणा करके और उसमें चार, तीन, दो, एकको परस्परमें गुणा करके उससे भाग देनेपर एक हजार एक होते हैं । पाँच बार गच्छका चार बार जोड़नेके लिए दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदहको २५ परस्पर में गुणा करके उसमें पाँच, चार, तीन, दो, एकको परस्पर में गुणा करके उससे भाग देने पर दो हजार दो होते हैं। छह हीन गच्छका पाँच बार जोड़ करनेके लिए नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदहको परस्पर में गुणा करके उसमें छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकको परस्परमें गुणा करके उससे भाग देनेपर तीन हजार तीन होते हैं। सात हीन गच्छका 1 . Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति बीवतत्वादीपिका १२०७ इदु पण्णत्तिय चतुत्याशमकुं ६५ = १ संदृष्टि :|जी १।१४। ९१ । ३६४। १००१२००२३००३।३४३।३००३।२००२।१००१॥३६४/९१४१४ार " दा१।५।१०।१०।५।११३२॥ अ१।४।६।४१।१६। च१।३।३।१।८। वि१।२।१।४। कु१।१२। कु१।१। इल्लि गुपयोगीयप्प संकलनसूत्रमं पेळ्दपर इट्ठपदे रूऊणे दुगसंवग्गम्मि होदि इधणं । असरिच्छाणंतधणं दुगुणेगूणे सगीयसबधणं ॥८६१॥ इष्टपदे रूपोने द्विकसंवर्गे भवतीष्टधनं । असदृशानामंतषनं द्विगुणकोने स्वकीयसवंधनं ॥ ५ इल्लि यिष्टपद विवक्षितपदं जीवभावं पदिनय्दर्नयवादोडा पदसंख्येयोलो दुरूपं कुंविसि १५-१। शेषमं पविनाल्कं १४ । विरलिसि प्रतिरूपं द्विकमनित्त संवर्ग माडल्पडुत्तिरलु बंद लब्धर्मिष्टधनं पदिनारुसासिरद मूनूरेग्भत्तनाल्पप्पुददु । १६३८४ । पण्णट्ठिय चतुत्यशिमक्कु बुवत्यमा असदृशानामतनं ई प्रत्येकपदंगळोळपुट्टिव अवसानधनमना पण्णट्ठिय चतुशमं अंतषणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजियमें दितु द्विगुणिसियों रूपं कळेयुत्तं विरलु स्वकोयेष्टस्थानदोळ १० सर्वधनमक्कुं संदृष्टि १६५ = १ | २। ऋण १ इदनपत्तिसिवोर्ड संदृष्टि |६५ = ऋण ४ा भंगाः १६३८४ । इदं पंण्णटिचतुर्थाशः ६५ % १ ।।८६०।। अथोत्तरत्रयभंगसंकलनसूत्रमाह - इष्टपदं विवक्षितभाव: जीवत्वं तदा पंचदशसु रूपे ऊने १५ । शे १४ मात्रविकसंवर्गे कृते इष्टधनं स्यात् छह बार जोड़ लानेके लिए आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदहको परस्पर में गुणा करके उसमें सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकको परस्परमें गुणा करके उससे भोग देने १५ पर चौंतीस सौ बत्तीस होते हैं ।।८६०॥ आगे भंगोंको मिलानेके लिए सूत्र कहते हैं विवक्षित पदकी संख्या जितनी हो उसमें एक घटानेपर जितना रहे उतने दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर विवक्षितपदके भंगोंके प्रमाणरूप इष्ट धन होता है। जैसे जीवपदकी संख्या पन्द्रह है। उसमें एक घटानेपर चौदह रहे। सो चौदह जगह दोके अंक २० क-१५२ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०८ २० अनंतर मिलिमत्त प्रकारदिदमा प्रत्येकद्विसंयोगत्रिसंयोगादिगळं साधिसुदुपायं तोरल्पडुगुमर्वर्त वोर्ड आ प्रथमकुमतिज्ञानवोळ प्रत्येक भंगमो वैयक्कुं । १. । कुश्रुतभाववोलु कुमविज्ञान: दोळे तंते प्रत्येकभंगमो वैयक्कुं । १ । कुमतिज्ञानप्रत्येक संयोगसंख्येयदु कुश्रुतज्ञानदोऴुद्विसंयोगसंख्येयक्कं १ । अंतु कुश्रुतबोळ भंगंगळेरड्डु २ । विभंगदोळ कुश्रुतवोळे तंर्त प्रत्येक भंगमों बु १ । ५ तबधस्तन कुश्रुतद प्रत्येकभंगंमं द्विसंयोगभंगंमुमं कूडिवोड द्विसंयोगभंगमेरडु २ । अधस्तनद्विसंयोगमोपरितन त्रिसंयोगप्रमाणमक्कुं । १ । कूडि विभंगबोळ भंगंगळ नाल्कु ४ । चक्षुर्दर्शनबोल तदधस्तन प्रत्येक संयोग प्रमाणमे प्रत्येक भंगमों वैयक्कुं । १ । आ विभंगज्ञान प्रत्येक भंग मुमं द्विसंयोगमुमं कूडिवोर्ड द्विसंयोगभंगंगळ मूरु ३ । विभंगद्विसंयोगमुमं त्रिसंयोगमुमं कूडिदोर्ड त्रिसंयोगप्रमाणमक्कु - ३ | मी भंगत्रिसंयोगप्रमाणमे चतुःसंयोगप्रमाणमवकुं १ | कूडि चक्षुर्दर्शनबोल १० भंग टु ८ । अचक्षुर्द्दर्शनदोळु तदधस्तन प्रत्येकभंगमो देयंक्कुं । १ । अहंगे चक्षुर्द्दर्शन प्रत्येक भंगमुमं द्विसंयोगभंगमुमं कूडिदोडे द्विसंयोगभंगंगळु नाल्कप्पवु । ४ । मत्तमा चक्षुर्द्दर्शनद्विसंयोगमं त्रिसंयोगमुमं कूडिदोर्ड त्रिसंयोगभंमंगळारम्वु । ६ । मा त्रिसंयोगमुमं चतुःसंयोगमुमं कूडिवोर्ड चतुःसंयोगभंगंगळु नाल्कप्पवु । ४ ।. आ. चतुःसंयोगप्रमाणमे पंचसंयोगमक्कं । १ ॥ कूडियचक्षु दर्शनवोळ भंगंगळु पविनारु १६ । दानलब्धियोळू अधस्तन प्रत्येकभंग प्रमाणमे प्रत्येकभंगप्रमाण१५ मो देवकुं । १ । आ प्रत्येकभंगमुमं द्विसंयोगभंगमुभ्रं कूडिदो डुपरितनदानलब्धिय द्विसंयोग प्रमाणमक्कं । ५ । चा अधस्तनद्विसंयोगमुमं त्रिसंयोगमुमं कूडिवोर्ड त्रिसंयोगभंगंगळ पत्तप्पुवुः | १० | अघस्तनत्रिसंयोगमुमं चतुःसंयोगमुमं कुडिवोर्ड चतुःसंयोगभंगंगळ पत्तप्पुवु । १० । आा चतुःसंयोगमं पंचसंयोगमं कूडिदोर्ड पंचसंयोगभंगंगळेयप्पुवु । ५। पंचसंयोगप्रमाणमे षट्संयोगमों वेयक्कुं । १ । कूडि दानलब्धियोळ भंगंगळ सुवर्त्त रडवु । ३२ । लाभपवदोळ प्रत्येकभंगमों दु १ । अघस्तन प्रत्येकभंगमं द्विसंयोगभंगमुमं कूडिदोर्ड द्विसंयोगभंगंगलारपुवु ६ । अधस्तन द्विसंयोगमुमं त्रिसंयोगमुमं कूडिजोडुपरितन त्रिसंयोग मक्कुमप्पुवरिदं 'त्रिसंयोगभंगंगळु पविनय् ॥ १५ ॥ अघस्तन त्रिसंयोगमुमं चतुःसंयोगमुमं कूडिवोडुपरितन चतुःसंयोग प्रमाणमप्पुदरिवं चतुःसंयोग१६३८४ । इदमेव प्रत्येकपदानामन्तधनं द्वाभ्यां संगुण्यैकरूपेऽपनीते स्वेष्टस्थाने सर्वधनं स्यात् ६५ = १ । २ । ४ । गो० कर्मकाण्डे ० रखकर परस्पर में गुणा करनेपर सोलह हजार तीन सौ चौरासी होते हैं। इतने ही जीवपदके १५ भंग हैं । उस इष्टधनको दूना करके उसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण रहे उतना प्रथमपदसे लेकरं विवक्षितपदपर्यन्त सब पदके भंगका जोड़रूप सर्वधन होता है । जैसे विवक्षित जीवपद पन्द्रहका इष्टधन पण्णट्ठीका चौथा भाग है । उसको दूना करके उसमें से एक घटानेपर प्रथमपदसे लेकर पन्द्रहवें पदपर्यन्त सब पदोंके भंगोंके जोड़का प्रमाण होता है। तथा जो जीवपद में इष्टधन कहा उसका दूना आधा पण्णट्टी प्रमाण होता है उतने भव्यभावके भंग ३० हैं और उतने ही अभव्यभावके भंग हैं। दोनोंके मिलकर पण्णट्टी प्रमाण भंग होते हैं। उनको दूमा करनेपर एक गतिके भंग होते हैं । सो नरक, तिर्यच, मनुष्य, देवगतिके इतने इतने भंग Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका १२०९ हिप्पत्तु । २० । अधस्तनचतुःसंयोगमुर्म पंचसंयोगमुमं कूडिनोबुपरितन पंचसंयोगमबकुमप्पुरिवं पंचसंयोगंगळु पविनम्वु । १५ । अषस्तनपंचसंयोगषट्संयोगमुमं कूडिदोडुपरितन बट्संयोगंगळाए । ६। अधस्तनषट्संयोगमेयुपरितन सप्तसंयोगप्रमाणमप्पुरियनों देयककुं। १ । ईतु लाभपद्रवोल कडि भंगंगळु चतुःषष्टिप्रमितंगळप्पुवु । ६४ । संदृष्टि : लाभ। १।६। १५ । २० ॥ १५॥ ६।१। कूति ६४। बान । १।५।१०।१०।५।१। कूडि ३२। अच०।१।४।६।४।१। कूडि १६ । चक्षु।१।३।३।१। कूडि८। विभं । १।२।१। कूडि ४। कुश्रु।१।१। कूडि २। कुम । १। कूडि १। __इंतु भोगोपभोगाविगळोळु तंतम्मघस्तन प्रत्येक गमे उपरितन प्रत्येक, अधस्तनप्रत्येकद्विसंयोगंगळुपरितनद्विसंयोग, अधस्तनद्विसंयोगत्रिसंयोगंगळपरितन त्रिसंयोगंगळु अधस्तनत्रिसंयोग चतुःसंयोगंगळुपरितन चतुःसंयोगंगळं अघस्तनचतुःसंयोगंगळु पंचसंयोगंगळ मुपरितन पंचसंयोगंगळु अधस्तनपंचसंयोगंगळ षट्संयोगंगळपरितनषसंयोगंगळ अधस्तनषट्संयोगंगळु १५ सप्तसंयोगंगळुपरितन सप्तसंयोगंगळागुत्तं पोपुर्वन्नेवरं पविनम्वनय जीवपदमककुमन्नेवरमल्लिदंमेले पिउभावंगळोल भंगं पेळल्पडुगुमते दोर्ड अधस्तन प्रत्येकभाव पदंगळोळु द्विगुणसंकलनधनमनिवं ६५=१ बेरोंदेडयळु मुंवे स्थापिसि जीवभावपद सर्वधनमनिवं ६५ = १ द्विगुणिसिदोर्ड उपरितनपिंड भावंगळोळु प्रथमभव्य भावपदबोलु संभविसुव भंगंगळप्पुषु । संदृष्टि ६५ - ११२ अपत्तितमिदु ६५ = १ मत्तमभव्यभाव पवदोलु- २० मनिते भंगंगळप्पुवप्पुरिवं ६५ = १ कूडि द्विगुणितमप्पुवु ६५ = ११२ अपत्तितमिद् ६५= १ इवं द्विगुणिसिदोर्ड गतिप्पुवु चतुष्टयोलोदु नरकगतियोल भंगंगळ । ६५=१२ वो दु गतिगिनितु भंगंगऋण १ अपवर्तिते ६५ = १ ऋणं १ पुनस्तदेवेष्टवनं ६५ = १ द्विगुणितं उपरितनभव्यभावस्य भवति ६५ - १ तथा अभव्यभावस्प ६५ = १ मिलित्वेदं ६५ = १ इदं द्विगुणितमेकगतेर्भवति ६५ - १ । २ पुनचतुर्गुणितं चतुर्गतीनां ६५ = १८ पुनस्तदेकगतिघनं ६५ = } १ । २ द्विगुणितमेकलिंगस्य ६५ = १ । २ । २ २६ जानना। चारों गतिके भंग आठ पण्णट्ठीप्रमाण होते हैं। एक गतिके भंग दो पण्णद्वीप्रमाण हुए। उनसे दूने एक लिंगके भंग होते हैं। उनको नरकगतिमें एक लिंग, तियंचगतिमें तीन लिंग, मनुष्यगतिमें तीन लिंग और देवगतिमें दो लिंग मिलाकर नौसे गुणा करनेपर छत्तीस पण्णट्ठीप्रमाण भंग होते हैं। तथा एक लिंगके भंग पण्णट्ठीसे चौगुने होते हैं। उनको दूना करनेपर एक कषायके भंग होते हैं। उनको नरकगतिमें एक लिंग सहित चार कषाय होनेसे ३० २ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१० गो० कर्मकाण्डे गळ माकु गतिगळ नितप्पुर्व दुमाल्करिदं गुणिसिवोडे लक्ष्यभिवी राशियं ६५ - ११२३४ लब्ध ६५ - ११८ नरकगतियोळ षंडवेवमो दु. १ । 'तिथ्यंगतियोळु लिगत्रयमक्कुं । ३ । मनुष्यगतियोळ लिंगत्रयमक्कुं ३ | देवगतियोळ लिंगद्वयमक्कु २ | मंतु लिंगं नवप्रमितंगळप्पुषु । ९१ अल्लियों वु नरकगतिय भंगंगल निवं ६५ - १ । २ । द्विगुणिसिवोडों व नरकगतिय लिंगवोळिनितु मंगळप्पु । ५ ६५ - १ । २ । २ । ओदु लिगक्किनिनु भंगंगळागुतं विरला नवलिंगंगळोनित भंगंगळप्पुर्वेद क्षोभर्त्तारदं गुणिसिदो डिनितप्पुवु । ६५ = १ । २ । २ । ९ । लब्धं ६५- १ । २६ । मत्तमो व लिंगब भंगंगळनिवं ६५ = १ । २ । २ । द्विगुणिसिवोडों कषाय भंगंगळप्पुत्र ६५ = १।२।२।२॥ चितागुतं विरल नरकगतियोलों बु लिगक नाल्कु कषायंगळ ४ तिथ्यग्गतियमूरु लिगंगळ पक्ष र कषायंगळु १२ । मनुष्यगतिय मूरुं लिंगंगळगे पन्नरडु कषामंगळ १२ । देवगतिय लिंगद्वयक्कष्ट १० कषायंगळ । संदृष्टि न | ति | म | दे कूडि कषायंगळ नवतारप्पुवोदु कषायविक नितु | ४ | १२|१२| ८ भंगंगळागळ । ६५=१।२।२।२ । मूचत्तारककेनितु भंगंगळ पूर्व व मूवत्तारिदं गुणिसुतं विरल ६५ - १ । २ । २ । ३६ । लब्धभंगंगळु ६५ - २८८ ।। मत्तमा अदु कषाय भंगंगळं ६५-१।२।२।२ । द्विगुणिसिवोडोवु लेश्या भंगंगळप्पुवु । ६५ - १।२।२।२।२। अंतागुतं विलु नरकगतिय नाल्कु कषायंगळगे प्रत्येकमशुभलेश्याश्रयमागुतं विरल द्वादशश्ये१५ गळप्पुषु । १२ । तिय्यं गतिय पन्नेरहुं कषायंगळगे प्रत्येकमारारू लेश्येगळागलु द्वासप्रति लेश्येगळप्पुथु ७२ । मनुष्यगतियोळमनिते लेहयेगळप्पूवु ७२ । बेवगतियोर्ल टु कषायंगणे प्रत्येकमारास लेइयेगळागळु नाल्वर्त्त 'टु लेश्येगळप्पू । ४८ । संदृष्टि - नरकगति १ । लिंग १ । कषाय ४ । ले ३ । तिय्यग्गति १ । लिंग ३ । क ४ । ले ६ | मनुष्यगति १ । लिंग ३ | कषाय ४ । ले ६ | देवगति १ । लिंग २ | क ४ । ले ६ । कूडि लेश्य गळु नरकगतियोळ १२ । ति ७२ । म ७२ । २० पुन: नरकादिगतीनामेकत्रित्रिद्विलि गैर्नवभिर्गुणितं लिंगाना ६५ = १ । २ । २ । ९ लब्धं ६५ = १ । ३६ । पुनस्तदेकलिंगधनं ६५ = १ । २ । २ द्विगुणित मे ककषायस्य ६५ = १ । २ । २ । २ । एकैकलिंगस्य - चत्वारश्वत्वारः कषाया इति षट्त्रिंशता गुणितं कषायाणां ६५ = १ । २ । २ । २ । ३६ लब्धं ६५ = १ । २८८ पुनस्तदेककषायधनं ६५ = १ । २ । २ । २ । द्विगुणितमेकलेश्यायाः ६५ = १ । २ । २ । २ । २ । पुन: नरकादिगतिषु लिंगाश्रयत्वाच्चतुर्द्वादशद्वादशाष्टकषायैः सह त्रिषड्लेश्याकृतचतुरग्रद्विशत्या गुणितं लेश्यानां २५ चारसे गुणा करो, तिर्यचगति में तीन लिंग सहित चार कषाय होनेसे बारहसे गुणा करो, मनुष्यगति में भी तीन लिंग सहित चार कषाय होनेसे बारहसे गुणा करो। देवगति में दो लिंग सहित चार कषाय होनेसे आठसे गुणा करो । सो मिलकर छत्तीस हुए। उससे पण्णट्ठीआठ गुणे भंगों को गुणा करनेपर दो सौ अट्ठासी पण्णट्ठीप्रमाण भंग होते हैं । एक कषायके भंग आठ पण्णीप्रमाण होते हैं। उनसे दूने एक लेश्याके भंग होते हैं । ३० उनको नरकगतिमें एक लिंग चार कषाय सहित तीन लेश्या होनेसे बारहसे गुणा करो । तिर्यचमें तीन लिंग चार कषाय सहित छह लेश्या होनेसे बहत्तरसे गुणा करो । मनुष्य में भी तीन लिंग चार कषाय सहित छह लेश्या होनेसे बहत्तरसे गुणा करो। देवगति में दो लिंग Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदोपिका १२११ के. ४८- ३ कूडि २०४० : बोचु श्यगिनितु गंगळागुत्तं विरलु-६५ - १ । २ । २ । २ । २ । इन्नूरताल्कु लेकये मनोनित भंगंगळपूर्व बिन्नूर नाकारदं गुणिसिवोजिनितु भंगंगळषु । ६५ - १।२।२।२।२ । २०४ । लब्ध ३२६४ । यितु पिंड भंगंगळ ६२-२३२६४ ६५-१२८८ |६५=१ ३६ |६५=५८ |६५=१/१ कूडि सर्व्वमुं पिंड मंगळ ६५ = १ । ३५९७ ॥ इवरोळ अवस्तन प्रत्येक भंगंगेल सम्बंधनमनिवं '६१ = १ कूडवागळ, द्विकदिदं समच्छेदमं माडिदोडे संदृष्टि ६५ = ७१९४ इद-रोला एकरूपं कूडि- ५ २ २ दोडे मिथ्यादृष्टिय सर्व्वपद भंगंगलिनितप्पु । संदृष्टि ६५ = ७१९५ इल्लि मिध्यादृष्टिय सम्बंपव २ भंगंगळोळ, पिडभावपढंगळ तात्पर्य्यात्थं पेल्पडुगुज़र्द तें दोर्ड कुमतिभावपदं मोवल्गोंडु जीवभावपदपर्यंतं द्विगुणद्विगुणक्रमदिदं नडेव प्रत्येकपदद्विगुण संकलनधनमिदु ६५ = १ मेले पिंडभाव २ दंगल भव्यभावपददोळ, अधस्तन जीवभावपद भंगंगलं नोडलु द्विगुणमप्पुद र मिनित भंगंगळप्पुषु । ६५ = १/२ अपर्वात्ततमिदु ६५ = १ अभव्यभावदोळमिनिते भंगंगळप्पुव ६५ - ११० २ २ ४ ર बुभयमुं कूडि ६५ = १ । उपरितन नरकगति भाव वोळ, अधस्तनभव्यभावंगळ नोडळ द्विगुणमर्दारद मिति । ६५ = २ अपर्वात्ततमिदु । ६५ = १ | नारकत्वदोळम भव्यत्वमंटपु २ दरदमदक्क मुमनिते । ६५ = १ । बुभयमुं नरकगतिगिनितु भंगंगळप्पुव । ६५ = १ । २ । ओंदु गतिगिनिनु भंगंगळागुत्तं बिरलु नाल्कुं गतिगळगे चतुग्र्गुणितमवु । १५ ६५ = १ । २ । २ । २ । २ । २०४ लब्धं ६५ = ३२६४ । सर्वे पिंडपदभंगा: ६५ = १ | ३२६४ ६५ = १ ६५ = १ ६५ = १ ६५ = १ २८८ ३६ लेश्या कवाय लिंग गति भव्याभव्य ८ १ लेश्या कषाय लिंग गति भव्याभव्य मिलित्वामी ६५ = १ । ३५९७ । अत्राधस्तन प्रत्येकपदसर्वभंगेषु ६५ = १ मिलितेषु मिथ्यादृष्टी २ चार कपाय सहित छह लेश्या होनेसे अड़तालीस से गुणा करो सो सब मिलकर दो सौ चार हुए। दो सौ चारसे सोलह पण्णट्ठीको गुणा करनेपर बत्तीस सौ चौसठ पण्णट्ठीप्रमाण भंग होते हैं । सब मिलकर पिण्ड पदोंके भंग १+८+ ३६ + २८८ - ३२६४ = ३५९७ पैंतीस सौ सत्तानचे पण्णीप्रमाण होते हैं । नीचे के प्रत्येक पदोंके भंग एक कम पण्णट्ठी से आधे कड़े थे । २० Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१२ गो० कर्मकाण्डे ६५ - १।२।४॥ गुणितलब्धमिदु । ६५ = ८। तदुपरितनषंडभावपदोल अधस्तन नरकगति भावपदभंगंगळं नोडलु, द्विगुणमप्पुरिदमिनितु भंगंगळप्पुवु । ६५ = १ ॥२॥ नारकर्षडभावदोळमभव्यत्वमुंटप्पुरिंदमदक्कमिनिते भंगंगळप्पुवु । ६५ = ११२। वुभय, कूडि नारकर्षडभाववोळ भंगंगळिनितप्पुवु । ६५ = १२ । २। इंतागुत्तं विरलु ओंदु षंडभावविकनितागलु नवलिंगंगळ्गेनितु भंगंगळप्पुववेदु नवयुणितमागुतं विरलु लिंगभावपदभंगंगळुमिनितप्पुवु । ६५ = १ । २।२।९। गुणितलब्धमिदु ६५ = ३६। तदुपरितनकोषकषायभावपददोळ तवधस्तन भव्याभव्यनारकषंडलिंगनोडलं द्विगुणमप्पुरिवमिनितु भंगगळप्पुवु । ६५ = २।२।२॥ लब्धभंग ६५ = ८। इंतागुत्तं विरलोदु नारक भव्याभव्यषंडकोषभावदोलिनितु भंगंगळागुत्तं विरलु न ४। ति १२ । म १२। दे ८। कूडि चतुर्गतिय षट्त्रिंशत्कषायंगळ्गेनितु भंगंगळप्पुर्वे तु षट्त्रिंशद्गुणितमागुत्तं विरलिनितु भंगंगळप्पुवु। ६५ = ८॥ ३६ । लब्धकषायसवभंगंगळुमिनितप्पुवु । ६५ - २८८ । तदुपरितन कृष्णलेश्या भावदोळु तदधस्तन भव्याभव्य नारकषंडकोषभावपवभंग संख्ययं नोडलं द्विगुणमप्पुरिदमिनितप्पुवु । ६५ = २ । २। २।२। इंतागुत्तं विरलु ओंदु लेश्य गिनितु भंगंगलागुत्तं विरलु न १२। ति ७२ । म ७२ । दे ४८ । कूडि चतुर्गतिय इन्नूर नाल्कु लेश्यगळ्गे नितु भंगंगळप्पुर्व दिन्नूर नाकरिदं गुणिसिदोडिनितु भंगंगळप्पुवु। ६५ = १६ । २०४॥ लब्धं १५ लेश्याभावभंगंगळु ६५-३२६४ । सर्वसंदृष्टि । ६१ = | ३२६४ । लेश्या, कूडि ६५ % ३५९७ । ६५- | २८८ कषाय ६५ = | २६ | लिंग ६५% ८ गति ६५% | १ भव्याभ इवरोळु प्रत्येकपद भंगंगळनिवं ६५ = १ समच्छेवमं माडि कूडिदोडे मिथ्यादृष्टिय सर्वपद भंगंगळिनितप्पुवु । ६५ = ७१९५ ३'बुदु तात्पर्य्यात्थं । अथवा कुमतिज्ञानभवं मोवल्गोंड पवि नम्, प्रत्येकभावपदंगळुमं मेलण भव्याभव्यादि पंचपिड भावंगळुमनंतु विंशति पदंगळं क्रमदिद द्विगुणद्विगुणद्विगुणमागि स्थापिसि पिंडशेषंगळुमं स्थापिसिवोडे इदु कु १ कु २ । वि ४। च ८ । २. सर्वपदभंगा भवन्ति ६५ =७१९५ । सासादने मिथ्यात्वाभव्यत्वे नेति प्रत्येकपदानि पंचदंश । पिडपदानि चत्वारि, प्राग्वदानीतेषां भंगसंदृष्टिः-कु १ । कु २ । वि ४ । च ८। अ १६ । दा ३२ । ला ६४ । भो उनको मिलानेपर मिथ्यादृष्टिके सब पदभंग पण्णट्ठीको सात हजार एक सौ पंचानबेके आधे से गुणा करके उसमें एक घटानेपर जो प्रमाण रहे उतने जानना। इसकी संदृष्टि नीचे दी — जाती है । पण्णट्ठीका चिह्न ६५= ऐसा जानना। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२९६ अ.१६। वा ३२ । का ६४ । भो १२८ । उ २५६ । वो ५१२ । मि १०२४ । २०४८ । म ४०९६ । ब.८१९२। जी १६३८४।भव्य| ६५-भगति नरक ६५-१लिग पंडा६५-२ कषाय को ६५-रारालेश्या कृष्ण ६५-राशश अभ | ६५- शेषगति | ६५-७ शेषलिग २५-३४/शेष कषाया६५-२८४ शेष लेश्या ६५-३२९६ १२८ 1.3 २५६ । वी ५१२ । ब १०२४ । २०४८ । ब ४०९६1 जी ८१९२ । म १६३८४ । नरक-लिंग १ तियच लिं.३ क | मनुष्य लिंग ३ | देव लिंग २ | भंग क ले .३ । ले.६' क.४, ले..६ । क. ४, ले. ६ ६५-३२६४ मंग ६५ -१६ । भंग ६५=१६ - भंग ६५=१६ | भंग ६५%१६ । नरक लिंग १ | तिर्यच लिं.३ | - मनुष्य लिं.३| देव लिं.२ | भंग क.४ क४ क. ४ भंग ६५%3D८ | भंग ६५=८ । भंग ६५:८ | भंग ६५-२८८ नरक लिंग १ | लियच लिं.३ | मनुष्य लि.३ | देव लिं.२ । भग भंग ६५%४ | भंग ६५=४ । भंग ६५-४ | भंग ६५-४ । नरक गति तियंच | मनुष्य देव भंग ६५-२ भंग ६५=२ । भंग ६५२ । ६५-२ -६५-८ . भन्यत्व भंग अभव्य ६५-भंग ६५ =२ । ६५-२ भंग जीव १६३८४ अ.८१९२ अं.४०९६ अ. २०४८ मि. १०२४ वी. ५१२ भो. १२८ 3 12 दा.३२ कुश्रु. २ १. इतः पुरस्सरं-वद्भगसंकलनमिदं-इष्टे पंचदशे भव्यपदे १५ रूपेणोने १४ शेषमात्रद्विकसंवर्गे पण्णट्ठयाश्चतुर्षांशः ६५ = १ इष्टधनं भवति । इदं प्रत्येकपदात्यधनं ६५ = १ द्विगुणितं रूपोनं ५ ६५ - १।२ । ऋ । १ स्वेष्टषनं स्यात् ६५ = १ ऋ१ एषां राशीनां संदृष्टिः प्रत्येकवनं ६५-१ गतिधनं ६५ =२ लिगवन ६५ श्रीमदभयचन्द्रनामांकितायामयं पाठोऽधिक। कषायधनं ६५-७२ । | लेश्याधनं ६५% ८१६ । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१४ गोकर्मकाण्डे यिल्लिम्पतन्य श्याभावमंत धमिबु ६५ = 0। अंतषणं गुणगुणिय में वितु संकलनमं तं वोडिदु ६५ = १६ । इदरोळु अभव्यादि शेषमंगंगळं कूडियोडिदु ६५ = ७१६३ ॥ई राशियोळ पूर्वानीतसंकलितपनद पदिनारनेरडार समच्छवम माडिवोडिदु ६५ = ३२ इदं कूडिदोर्ड मिथ्यादृष्टिय सर्वपद गंगळ मिनितप्पुवु। ६५ = ७१९५ = । इल्लिदं मेले सासादनंगे सव्वंपवमंगंगळ तरल्पडुगुमदे ते दोर्ड सासादनंगे मिथ्यादृष्टिग पेळदंत मंगंगळप्पवादोडं विशेषमुंटदाउद बोडे सासादनंगे मिथ्यात्वमुमभन्यत्वमुमिल्ल । प्रत्येकभावपदंगळ पदिनैदप्पवु। पिंडभावंगळ पदंगळं नाल्केयप्पुवदेते दोडा प्रत्येकभावंगळं पिंडभावपदंगळगं संदृष्टिरचने तोरल्पडुगमदेते दोडे कु १ । कु २ । वि ४ । च ८ । १६ । दा ३२ । ला ६४ । भो १२८ । उ प २५६ । वी ५१२ । अ १०२४ । अ २०४८ । अ ४०१६ । जी ८१९२ । भ १६३८४ । | नरकगति ६५ = | लिंगनरक १६५ = १ । कला = नरक १ । लिंग क ६५ -२ ! तिर्यग्गति ६५ =| लिंगतियं ३।६५=१ | कषा = तिर्य्य १ । लि ३। क ४।६५ - २ मनुष्यगति ६५ =३ | लिंग मनु ३६५१ | षा = मनु १ । लि ३ । क ४ । ६५ = २ देवगति ६५= | लिंग देवगति २०६५ = १ कषा = देवग १। लि २। क ४।६५ = २ । कूडि ६५= 1 | कूडि ६५ = १२९ । लिंग | कूडि कषाय ६५ = २१३६ लब्ध ६५ = ७२ । नरक लिंग १ कषा ४ लेश्ये ३।६५ = २।२ तिर्यग्ग लिं ३ कषाय ४ लेश्ये ३..६५ = २।२ मनुष्य लिं ३ । कषा ४ । लेश्ये ६ । ६५ = २।२ देवगति लि २ । कषा ४ लेश्य ६ । ६५ = २ । २ कूडि ६५ =२।२। २०४ । लब्ध ६५ = ८१६ ।। 0 नरकगति ६५ = १ लिंगनरक १।६५ = १ कषाय । नरक १ लि १ क ४ । ६५ = २/ तिर्यग्गति ६५ = १ लिंग । तिर्य ३। ६५ = १ कषाय । तिर्य १ लि ३ क ४ । ६५%3D२ मनुष्यगति ५६ = १ । लिंग । मनुष्य ३ । ६५ = १ कषाय । मनुष्य १ लि ३ क ४ । ६५ = २/ rrrrrror देवगति ६५ लिंग । देवगति २।६५ = १ कषाय.। देवाक्ति लिं. २ क.४।६५-२ मिलित्वा ६५ = १४ | मिलित्वा ६५ = १ । ९. लिंग मिलित्वा कषाय ६५-२।३६।लब्ध ६५८७२ २ । जैसे मिथ्यादृष्टिमें भंग और रचनाको विर्धान किया उसी प्रकार सासादन आदिमें मी यथासम्मान नाम सासाममें मिध्यात्व नामक प्रत्येकपद नहीं है। तथा भव्यअभव्य पिण्डपद कहा था। किन्तु सासादनमें अभव्यत्वका अभाव होनेसे भव्यत्वको भी प्रत्येकपदमें ले लेना। इस तरह प्रत्येकपद पन्द्रह और पिण्डपद चार रहे। पूर्वोक्त प्रकार Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १२१५ इल्लि प्रत्येकपदंगळ मंगसंकलनमें तेंदोर्ड इट्टपदे ऊणे इष्टपदं पविनवनय भव्यत्वपर्व १५। रूपोनमावोडे । १४ । दुगसंवग्गम्मि आ रूपोनपदम विरलिसि विकसंवग्गं माडुत्तिरलु पण्णट्टियचतुर्थांशमक्कुं ६५ = १ होइ इट्ठधणं अवल्लिय इष्टषनमक्कुं। असरिच्छाणंतषणं आ असदृश पदंगळ प्रत्येकपदंगळ अवसानधनं ६५ = १ दुगुणेगूणे द्विगुणिसि रूपं कळे बोडिदु ६५ = १ । २। ऋ । सगिट्ठधणं स्वकेष्टधनमक्कुं । ६५ = १ । भ । ई राशिगळणे संकलना ५ निमित्तवागि संदृष्टि | प्रत्येक धन ६५ = ११ कूडि सर्वसु ६५ = १७९९ । ऋ१॥ ४ गतिगळ ६५%२ लिंग धन ६५-९ कषाय धन ६५ -७२ लेश्या धन ६५ = ८१६ | | नरकलिंग १ क ४ । ले ३ । ६५ = २ । २ । तिर्य । लिंग ३ क ४ । ले ६ । ६५=२ । २ मनुष्य । लिंग ३ क ४ । ले ६ । ६५=२ । २ देवगति । लिंग २ क ४ । ले ६ । ६५ % २ । २ मिलित्वा कषाय ६५ - २ । २३ २०४ । लब्ध ६५ - ८१६ कुमति १, कुश्रुत २, विभंग ४, चक्षु ८, अचक्षु १६, दान ३२, लाभ ६४, भोग १२८, उपभोग २५६, वीय ५१२, अज्ञान १०२४, असंयम २०४८, असिद्धत्व ४०९६, जीवत्व ८१९२, भव्यत्व १६३२४ इस प्रकार इनके दूने-दूने भंग होते हैं। इस प्रकार भव्यत्वके भंग पण्णट्ठीके चतुर्थ भाग हुए । उनको दूना करनेपर आधी १० पण्णट्ठी प्रमाण एक गतिके भंग होते हैं। उनको चौगुना करनेपर चारों गतिके भंग दो पण्णट्ठी प्रमाण होते हैं। एक गतिके भंग दूना करनेपर एक पण्णट्ठी प्रमाण भंग एक लिंगके होते हैं। उन्हें नरकगतिमें एकसे, तिथंच तीनसे, मनुष्य में तीनसे और देवगतिमें दो लिंगोंसे गुणा करनेपर सब मिलकर नौ पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं। एक लिंगके भंगसे दूने एक कषायके भंग पण्णट्ठीसे दूने होते हैं। उनको नरकमें एक वेदसहित चार कषायसे, तियंचमें तीन १५ वेदसहित चार कषायसे, मनुष्य में भी तीन वेदसहित चार कषायसे, देवगतिमें दो वेदसहित चार कषायसे गुणा करनेपर सब मिलकर पण्णट्ठीसे दुनेको छत्तीससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने भंग होते हैं। एक कषायके भंगोंसे दूने एक लेश्याके भंग चार पण्णट्ठी प्रमाण होते हैं। उनको नरकगतिमें एक लिंग चार कषाय तीन लेश्यासे, तियंचमें तीन वेद चार कषाय छह लेश्यासे, मनुष्यमें भी तीन वेद चार कषाय छह लेश्यासे और देवमें दो वेद २० क-१५३ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१६ गोकर्मका अनंतरं मिश्रगुणस्थानदोळ सर्वपदभगंगळ तरल्पगुमदेतें बोर्ड मित्रनोळ मतिश्रुता. वधिज्ञानंगळ, मिश्रंगळप्पुवु । चक्षुरचक्षुरवधिमिश्रदर्शनंगळ दानलाभभोगोपभोगवीर्यभावंगळमज्ञानमसंयममसिद्धत्वमुं जीवत्वमुं भव्यत्वमुमें वितु पविना प्रत्येकपदंगळप्पुवु । मेले पिंडपदंगळ. गतिलिंगकषायलेश्योगळ नाल्कु पदंगळप्पुवंतिप्पत्तु पदंगळ द्विगुणभंगक्रमंगळप्पुवु। संदृष्टि ५ मिश्रंग म १।श्रु २ । मिश्रावधि ४ । चक्षु ८। अचक्षु १६ । अव ३२ । दा ६४ । ला १२८ । भो २५६ । उ ५१२ । वी १०२४ । अ २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२। जो १६३८४ । भ६५=१ । नरक गति ६५ % | नरक गति लिंग। श६५ -२ नरक गति लिंग।१।क ४। ६५-२।२। तिर्यग्गति ६५ = तिर्यग्गति लिंग। ३१६५ -२ तिर्यग्गति लिंग । ३ । क ४ । ६५-२।२। मनुष्यगति ६५ = मनुष्यगति लिंग । ३६५ -२ मनुष्यगति लिंग। ३ । क ४ । ६५२।२। देवगति ६५ - देवपति लिंग। २। ६५ =२ देवगति लिंग।२। क ४ । ६५ =२।२। कूडि ६५ = ४ कूडि लिंग । ९ । ६५ - २ | कूडि ६५ = २।२। ३६ । ० मिलित्वा सर्वपदधनं ६५ = १७९९ऋ१ । मिथे मिश्रमतिश्रतावधिज्ञानदर्शनानि दानादयः पंचाज्ञानासंयमासिद्धत्वजीवत्वभव्यत्वानि प्रत्येकपदानि गतिलिंगकषायलेश्याः सिंडपदानि । एषां भंगसंदृष्टिः म १ । श्रु २ । । ४ च ८। अच १६ । १० अ३२। दा ६४ । ला १२८ । भो २५६ । उ ५१२ । बी १०२४ । अ २०४८ । म ४०९६ । अ ८१९२। जी १६३८४ । भ ६५ = १।' २ चार कपाय छह लेश्यासे गुणा करनेपर सब मिलकर ४४२०४= ८१६ आठ सौ सोलह पण्णटठी प्रमाण भंग होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक पद और पिण्डपदों के मिलकर सासादनमें पण्णट्ठीको सत्रहसे निन्यानबेके आधेमें गुणा करके उसमें एक घटानेपर सर्वपद भंग १५ होते हैं। ___मिश्रगुणस्थानमें प्रत्येकपद मिश्ररूप मति १, श्रुत २, अवधि ४, चक्षु ८, अचक्षु १६, अवधिदर्शन ३२, दान ६४, लाभ १२८, मोग २५६, उपभोग ६१२, वीय १०२४, अज्ञान २०४८, असंयम ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, जीवत्व १६३८४ और भव्यत्व ३२७६८ इस प्रकार दूने-दूने भंग होते हैं । पिण्डपद गति, लिंग, कषाय, लेश्या हैं। सो भव्यत्वके भंग पण्णट्ठीसे २० आधे होते हैं। उनको दूना करनेपर एक गतिके भंग होते हैं। अतः नरक तिर्यच मनुष्य १. इतोऽग्रे अत्र प्रत्येकपदसंकलनधनमिदं ६५=१ ऋ १ एषां राशीनां संकलनाथं संदृष्टिः | प्रत्येकधनं ६५ = १ गतिधनं ६५ = ४ लिंगधनं ६५ = १८ कषायधनं ६५ = १४४ | इयान् पाठोऽधिक:। लेश्याधनं ६५ = १४४० Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकगति लिंग । १ । क ४ तिर्य्यग्गति लिंग । ३ । क ४ मनुष्यगति लिंग | ३ | क ४ देवगति लिंग । २ । क ४ | ६५ = ८ । १८० इल्लि प्रत्येकपदसंकलनधनं तरल्पडुगुमर्द तें बोर्ड इट्ठपदे रूऊणे इष्टपदं पदिनारर्नय भव्यत्वमक्कुं १६ । रूपोनमादोडे १५ । दुगसंवग्ग हिआ रूपोनपदमं विरळिसि रूपं प्रति द्विकमनित्तु संवग्गं माडिदोर्ड लब्धं पण्णट्ठियर्द्धमक्कु । ६५ = १ । अदु होदि अंतधणं अंतधनमक्कुं । २ ई राशिग संकलन निमित्तमागि संदृष्टि : -- भंगंगळ ६५ = १६०७ ॥ नरकगति । तिर्यग्गति । मनुष्यगति देवगति 1 मिलित्वा । असरिच्छानंतधणं आ असदृशपदंगळ प्रत्येक पदंगळ अवसानधनमं दुगुणेगुणे द्विगुणिसि एकरूपं कळेयुत्तिरलु सगिट्टघणं स्वकेष्टधनमक्कुं । ६५ - १ । २ ऋ १ । अपर्वात्ततं । ६५ = १ । ऋ १ । २ कूडि मिश्रं सर्व्वपद कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६५१ ६५ = १ ६५ = १ ६५ = १ ६५ =४ ले ३ । ६५ = २ । २।२ ले ६ | ६५ =२ । २।२ ले ६ | ६५ - २ । २ । २ ले ३ । ६५ =२ । २ । २ | मनुष्य लिंग ३ । | देवगलिंग २ । मिलित्वा नरकलिंग १ । ६५ = २ | तिर्य्यलिंग ३ । ६५ - २ प्रत्येक धन ६५ = १ गति धन ६५ = ४ लिंग धन ६५ = १८ कषाय धन ६५ -१४४ लेश्या धन ६५ = १४४० ६५ = २ नरकलिंग १ । क ४ । ले ३ । तिर्यलिंग ३ | क ४ । ले ६ । मनुष्यलिंग ३ । क ४ । ले ६ देवगलिंग २ । क ४ । ले ३ । । मिलित्वा ६५ = २ ६५ = २ ।९ ६५ नरकलिंग १ । क ४ । तिर्य्यलय ३ । क ४ । ६५ = २ । २ । २ ६५ - २ । २ । २ १२१७ ६५ = २ । २ । २ =२ । २ । २ ६५ = ८ । १८० । ६५ = २ । २ मनुष्यलिंग ३ | ४ । ६५ = २ । २ | देवगलिंग २ | क ४ । ६५ = २ । २ मिलित्वा ६५ - २ । २ । ३६ ६५ = २ । २ देवगतिके मिलकर चार पण्णट्ठी भंग होते हैं। एक गतिके भंगसे दूने एक लिंगके भंग होते हैं । उनको नरक में एक, तियंच में तीन, मनुष्य में तीन, देव में दो लिंगों से गुणा करनेपर सब मिलकर अठारह पट्टी प्रमाण भंग होते हैं । एक लिंगके भंगोंसे दूने एक कषायके भंग चार १० पट्टी प्रमाण होते हैं । उनको नरक में एक वेद सहित चार कषायसे, तिर्यचमें तीन वेद सहित चार कषायसे, मनुष्य में तीन वेद सहित चार कषायसे और देवगतिमें दो वेद सहित चार कषायसे गुणा करनेपर सब मिलकर ४X३६ - १४४ एक सौ चौवालीस पण्णट्टी प्रमाण - Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१८ गो० कर्मकाण्डे अनंतरमसंयतंगे सर्वपदभंगंगळ पेळल्पडुगुमदत दोडे असंयतंग प्रत्येकपदंगळु मतिश्रुतावधिचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनदानादिपंचकमज्ञानासंयमासिद्धत्वजीवत्वभव्यत्वमें दिवु पदिनारमसदशपदंगळप्पुवु। गतिलिंगकषायलेश्यासम्यक्त्वमेब पंचपदंगळु सदृशपदंगळप्पुवंतु एकविंशति पदंगळु द्विगुणद्विगुण क्रमंगळप्पुवु । संदृष्टिः-मति १ । २। ४। च ८। अ १६ । अ ३२ । ५ दा ६४ । ला १२८ । भो २५६ । उ ५१२। वो १०२४ । अ २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२ । जी ६५ = १। भ६५ = १॥ | नरकगति ६५= नरक लिंग १। ६५ =२ | नरक लिंग १। क ४ । ६५ = २।२ तिर्यग्गति ६५ - तिर्यलिंग ३।६५ =२ | तिर्य लिंग ३1क ४।६५=१२ | मनुष्यगति ६५ - मनुष्य लिंग ३।६५ =२ ! मनुष्य लिंग ३ क ४। ६५ - २२२ देवगति ६५ = | देव लिंग २। ६५ =२ | देव लिंग । २। क ४ । ६५ = २२ ६५%D४ | कूडि ६५ -२९/ कूडि ६५ =४ । ३६ कूडि नरक लिंग २। क ४ । ले ३ । ६५.८ । सम्यक्त्व उपश% ६५ = १६ । १८० तिरि लिंग ३ क ४ ले ६।६५-८ वेदक ६५ -१६ । १८० मनु लिंग ३। क ४ । ले ६। ६५=८ । क्षायि=नर लि १ क ४। ले। क श६५ - १६ देव लिंग । २। क ४ । ले ३ । ६५ = ८ | तिरि लिं क ४ । ले ४ । ६५ = १६ कूडि ६५-८।१८० मनु लिंग ३। क ४ । ले ६ । ६५-१६ देव लिंग १। क ४ । ले ३।६५=१६ मिलित्वा सर्वधनं ६५ = १६०७। असंयते प्रत्येकपदान्युक्तान्येव षोडश, पिंडपदानि सम्यक्त्वेन समं पंच । संदृष्टिः-म १ । श्रु २ । ४। ८। अ१६ । अ ३२ । दा ६४ । ला १२८। भो २५६ । उ ५१२ । वी १०२४ । अ २०४८ । १० भंग होते हैं। एक कषायके भंगोंसे दूने एक लेश्याके भंग आठ पण्णी प्रमाण होते हैं। उनको नरकमें एक वेद चार कषाय सहित तीन लेश्यासे, तियेचमें तीन वेद चार कषाय सहित छह लेश्यासे, मनुष्यमें भी तीन वेद चार कषाय सहित छह लेश्यासे, देवमें दो वेद चार कषाय सहित छह लेश्यासे गुणा करनेपर सब मिलकर ८४१८० = १४४० चौदह सौ चालीस पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं। इस प्रकार मित्रमें प्रत्येकपद और पिण्डपद मिलकर पण्णट्टीको १५ सोलहसे सातसे गुणा करके उसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण हो उतने सर्वपद भंग होते हैं। ___ असंयतमें प्रत्येक पद सोलह-मति १, श्रुत २, अवधि ४, चक्षु ८, अचक्षु १६, अवधि ३२, दान ६४, लाभ १२८, भोग २५६, उपभोग ५१२, वीय १०२४, अज्ञान २०४८, असंयम ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, जीवत्व १६३८४, भव्यत्व ३२७६८ हैं। उनमें दूने-दूने भंग होते हैं। पिण्डपद चार पूर्वोक्त और एक सम्यक्त्व ये पाँच हैं। भव्यत्वमें आधी पण्णट्ठी २० प्रमाण भंग हुए। उनसे दूने एक पण्णट्ठी प्रमाण एक गतिके भंग होते हैं। प्रत्येक गतिके मिलानेपर चार पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं। एक गतिके भंगोंसे दूने एक लिंगके भंग दो पण्णट्ठी हुए। उन्हें नरकमें एक लिंग, तियंच में तीन लिंग, मनुष्य में तीन लिंग, देवमें दो लिंगसे गुणा करनेपर सब मिलकर अठारह पण्णट्ठी हुए। एक लिंगके भंगोंसे दूने एक कषायके | Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १२१९ कूडि क्षायिक ६५ % १६ ॥ १०४॥ इल्लि असदृशपदसंकलनं पेळल्पडुगुं । इट्टपदे रूऊणे इष्टं विवक्षितं पदं पदिनारनेय भव्यत्वपदमक्कु । १६ । रूपोनमादोडिदु १५। इदं दुव संवग्गम्मि विरलिसि रूपं प्रति द्विकमनितु संवर्गवं माडिद लब्धमदु पण्णट्ठिय अर्द्धपदमक्कुमदु ६५ = १ । होइ इट्ठधणं इष्टधनमक्कुमा असरिच्छाणंतधणं आ असदृशपदंगळ अंतधनमं दुगुणेगूणे द्विगुणिसि रूपोनमं माडियोडे ६५ = १ । ऋ । सगिट्टधणं स्वकेष्टधनमक्कुं । ६५ = १ । ऋ १॥ई राशिगळ्गे संदृष्टि ५ प्रत्येक धन | ६५= १ । कुडि असंयतंगे सर्वपदभंग ६५ = ७३६७ । ऋ१क्षा = |गतिधन ।६५ ४ । लिंगधन ६५- १८ कषाय धन ६५ %3D | १४४ लेश्या धन| ६५%3|१४४० उप-वेद-ध| ६५% |५७६० क्षायि धन | ६५%=|१६६४ अ४०९६ । अ८१९२। जी ६५-१भ६५=१।' नर = गति तिरि = गति मनुष्यगति देवगति मिलित्वा ६५=१ | नर = लिंग ६५ = १ | तिरि = लि ६५ -१ | मनु = लि ६५%D१ | देव = लि ६५-४ | मिलित्वा १।६५ -२ | नर-लिं १। क ४ । ६५ = २ । २ ३। ६५ =२ । तिरि=लि ३ क ४ । ६५ =२।२ ३।६५ -२ | मनु =लि ३। क ४ । ६५ =२ । २ |→ २।६५ = २ | देव = लि २। क ४। ६५-२ । २ ६५। २ । ९ । मिलित्वा ६५%=४ । ३६ । भंग चार पण्णट्ठी प्रमाण होते हैं । उनको नरकमें एक लिंग सहित चार कषायसे, तिर्यंच में तीन लिंग सहित चार कषायसे, मनुष्यमें तीन लिंग सहित चार कषायसे, देवमें दो लिंग सहित चार कषायसे गुणा करनेपर सब मिलकर ४४३६ = १४४ एक सौ चौवालीस पण्णट्ठी १० भंग होते हैं । कषायके भंगसे दूने लेश्याके भंग आठ पण्णट्ठी प्रमाण होते हैं। उनको नरकमें एक लिंग चार कषाय सहित तीन अशुभ लेश्यासे, तिथंच में तीन लिंग चार कषाय सहित छह लेश्यासे, मनुष्य में तीन लिंग चार कषाय सहित छह लेश्यासे, देवमें दो लिंग चार १. संदृष्टेर ग्रे अत्रासदृशपदसंकलनमिदं ६५ -१ ऋ । एषां राशीनां संदृष्टिः प्रत्येकषनं ६५ -१ गतिधनं ६५%४ लिंगधनं ६५% १८ कषायघनं ६५=१४४ लेश्याघनं ६५ =१४४० इयान पाठोऽधिकः। उप = वेदधनं ६५ =५७६ क्षायिकषनं ६५=१६६४ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२० गो० कर्मकाण्डे ६५ = १६६४ । देशसंयतंर्ग सर्वपदभंग तरल्पडुगुमदते दोडे-देशसंयतंगे असदृशपदंगळु मतिश्रुतावधिज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनदानादिपंचकमज्ञानदेशसंयममसिद्धत्वमं जीवत्वभव्यत्वमें दिवु पादिनारु पदंगळप्पुवु। सदृशपदंगळु गतिलिंगकषायलेश्यासम्यक्त्वभेदविंदमय्वप्पुवंतु एकविंशति पदंगळ द्विगुणद्विगुणक्रमदिदं भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि । म १। श्रु २। अ ४ । च ८ । अ १६ । अ ३२ । ५ दा ६४ । लाभ १२८ । भोग २५६ । उप ५१२ । वी १०२४ । अ २०४८ । दे ४०९६ । अ ८१९२ । जी १६३८४ भ ६५ = १॥ नर-लि १ क ४ ले । ३। ६५ =८ । सम्यक्त्व उपश ६५ = १६ । १८० तिर्य = लि ३ क ४। ले ६।६५ =८ । वेदक ६५ = १६ । १८० मनु = लि ३ क ४ । ले ६ । ६५ %८ | क्षानरलिं १ क ४ ले। १ । ६५ = १६ देव = लि २ क ४ । ले ३। ६५-८ | तिरि = लि १क ४ ले ४। ६५ = १६ मिलित्वा ६५%८। १८० | मनु -लिं३ । क४ । ले ६। ६५ -१६ देव = लि १ क ४ । ले ३ । ६५ = १६ | मिलित्वा क्षायिक । ६५=१६। १०४ मिलित्वा सर्वधनं ६५ = ७३६७ ऋ१ । क्षायिक ६५% १६६४ । देशसंयते पदानि तान्येवैकविंशतिः (?) किन्तु असंयमस्थाने देशसंयमः, न देवनरकगती। संदष्टिः-म २ । १४ । च ८ । १६ । अ ३२ । दा ६४ । ला १२८ । भो २५६ । उ ५१२। वो १०२४ । १। १. कषाय सहित तीन शुभलेश्यासे गुणा करनेपर सब मिलकर ८४१८०-चौदह सौ चालीस पण्णट्ठी भंग होते हैं। एक लेश्याके भंगोंसे दूने एक सम्यक्त्वके भंग सोलह पण्णटो होते हैं। उनको नरकमें एक लिंग चार कषाय तीन लेश्यासे, तियेचमें तीन लिंग चार कषाय छह लेश्यासे, मनुष्यमें भी तीन लिंग, चार कषाय छह लेश्यासे और देवमें दो लिंग चार कषाय तीन लेश्यासे गुणा करनेपर सब मिलकर १६४ १८०-२८८० अट्ठाईस सौ अस्सी पण्णट्ठी १५ प्रमाण भंग उपशम सम्यक्त्वके, इतने ही भंग वेदक सम्यक्त्वके होते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व का कथन भिन्न है। सो एक लेश्याके भंगोंसे दूने सोलह पण्णट्ठी प्रमाण भंग क्षायिक सम्यक्त्वके हैं। इनको नरकमें एक लिंग चार कषाय एक लेश्यासे, तिर्यच में एक लिंग चार कषाय चार लेश्यासे, मनुष्य में तीन लिंग चार कषाय छह लेश्यासे, देवमें एक लिंग चार कषाय तीन लेश्यासे गुणा करनेपर सब मिलकर १६४ १०४ = १६६४ सोलह सौ चौंसठ २. पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं। इस प्रकार असंयतमें प्रत्येक पद और पिण्डपदोंके भंगोंको जोड़नेपर पण्णट्ठीको तिहत्तर सौ अड़सठसे गुणा करके उसमें एक घटानेपर सर्वपद भंग होते हैं। देशसंयतमें असंयमके स्थानपर देशसंयम रखना। तथा देवगति और नरकगति नहीं होतीं। सो प्रत्येक पद सोलह-मति १, श्रुत २, अवधि ४, चक्षु ८, अचक्षु १६, अवधि ३२, २५ दान ६४, लाभ १२८, भोग २५६, उपभोग ५१२, वीर्य १०२४, अज्ञान २०४८, देशसंयम ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, जीवत्व १६३८४, भव्यत्व ३२७६८ हैं। भंग दूने-दूने होते हैं। भव्यत्वके भंग आधी पण्णट्ठी प्रमाण हैं। उनसे दूने एक पण्णट्ठी प्रमाण भंग एक गतिके हैं। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरि = गति । ६५= मनुगति ६५= कू तिरि = लिं३ । क ४ । ले ३।६५ = २२२ मनु ल कूडि कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तिरि लिं३ । ६५ = २ | तिरि लिं३ । क ४ । ६५=२ । २ मनु ल ३ | ६५ = २ मनु लिं ३ ६५ =२ । २ ६५ = २ | कूडि ६५ = २ | ६ | कूडि ६५ = ४ । २४ | क ४ । प्रत्येकधन गतिधन लिगधन उपश ३ । क ४ | ले ३६५ = २/२/२ वेदक इंती प्रत्येक गतिलिंगकषायलेश्यासम्यक्त्वभंग राशिगळर्ग संदृष्टि : : कषायधन लेश्याधन सम्यक्त्वधन क्षायि धन ३ ६५ = ८ | ७२ | क्षायि - मनु-लि ३ । क ४ । ले कूडि ६५ = १६।१४४। ६५ = ५७६ |६५ = २३०४ |६५ = ५७६ अ २०४८ । दे ४०९६ । अ ८१९२ । जी १६३८४ । भ ६५ - १ २ तिरगति ६५ = १ मनुगति ६५ = १ मिलित्वा ६५ = २ |६५ = १ | यितु कूडि देशसंयतंगे सर्व्वपदभंगंगळ्, ६५ = २९९१ । ऋ १ । |६५= | २ |६५ = | १२ | ६५ = |९६ ६५ = १६ । ७२ ६५ = १६ । ७२ | ६५-१६।३६ क्षा ६५ = ५७६ |तिरि लि ३६५ = २ | तिलिं ३ क ४ । ६५ = २ । २ मलि ३ । ६५ = २ | मनु लि ३ क ४ । ६५ = २ । २ मिलित्वा ६५ = २६ | मिलित्वा ६५ = २ । २ । २४ १२२१ ५ उनको तिथंच और मनुष्यगति से गुणा करनेपर दो पण्णट्टी भंग हुए। एक गति से दूने एक लिंगके भंग दो पण्णट्टी प्रमाण होते हैं । उनको तिर्यंचगतिमें तीन लिंग और मनुष्यगति में तीन लिंगसे गुणा करने पर बारह पण्णट्ठी भंग होते हैं। एक लिंगके भंगों से दूने एक कषाय भंग चार पण्णट्टी होते हैं । उनको तियंचगतिमें तीन लिंग सहित चार कषाय और मनुष्यगति में तीन लिंग सहित चार कषायसे गुणा करनेपर मिलाकर ४x२४ =९६ छियानबे पट्टी भंग होते हैं। एक कषायके भंगोंसे दूने एक लेश्या के भंग आठ पण्णट्टी होते हैं । उनको तियंच में तीन लिंग चार कषाय तीन लेश्या और मनुष्य तीन लिंग चार कषाय १० में १. संदृष्टेर ग्रे -- प्रत्येक पिढपदभंगराशीनां संदृष्टिः ६५ = १ ६५=२ प्रत्येकधनं गतिधनं लिंगघनं ६५ = १२ कषायघनं ६५ = ९६ लेश्या ६५ = ५७६ सम्य ६५ = २९९१ क्षायि ६५ = ५७६ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२२ गो० कर्मकाण्डे खा ६५५७६ ॥ प्रमत्तसंयतंगे सर्वपदभंगं पेळल्पडुगुं । प्रमतंगे प्रत्येकपदंगळ मतिज्ञानादि मनुष्य गतिपय्यंतं पदिने टुं पदंगळप्पुवु। सदृशपदंगळ लिंगकषायलेश्यासम्यक्त्वभेददिदं नाल्कप्पुवंतु द्वाविंशतिपदंगळ द्विगुणद्विगुणक्रमदिदमप्पुवु । संदृष्टि-म १। श्र २। अ४। म ८। च १६ । अ ३२ । अ६४ । दा. १२८ । ला २५६ । भो ५१२। उ १०२४ । वी २०४८। अ ४०९६ । अ ८१९२ । सकलसंय १६३८४ । जो ६५=१।भ ६५ = म गति ६५ = २ । पिडपर्व : २ तिलि ३ । क ४ । ले ३ । ६५ =२। २ । २।। उ ६५=१६७२ म लि ३ । क ४ । ले ३। ६५ २।२।२ वे ६५-१६७२ मिलित्वा । ६५%८ । ७२ |क्षा मनुलि।क४ाले ३३६५ १६।३६ | मिलित्वा । उ । वे।६५%१६।१४४ | क्षा ३५-५७६ मिलित्वा सर्वपदघनं ६५ =२९९१ ऋ१ । क्षा ६५ =५७६ । प्रमत्ते प्रत्येकपदानि मनुष्यगत्यंतान्यष्टादश सदशपदानि लिंगकषायलेश्यासम्यक्त्वानि संदृष्टि:-म १ श्रु २ । अ४ । म ८ । च १६ । अ ३२ । अ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८। अ ४०९६ । अ ८१९२। सकलसंयम १६३८४ । जी-६५=१ भ ६५=१। म गति २ १० सहित तीन लेश्यासे गुणा करनेपर सब मिलकर ८४७२ =५७६ पाँच सौ छिहत्तर पण्णट्ठी भंग हुए। एक लेश्याके भंगसे दूने एक सम्यक्त्वके भंग सोलह पण्णट्टी होते हैं। उनको तियचमें तीन लिंग चार कषाय छह लेश्या और मनुष्यमें तीन लिंग चार कषाय छह लेश्यासे गुणा करनेपर १६४७२-११५२ ग्यारह सौ बावन पण्णट्ठी भंग होते हैं। इतने भंग उपशम सम्यक्त्वके और इतने ही वेरक सम्यक्त्वके जानना। झायिक सम्यक्त्वमें मनुष्यगतिमें १५ तीन लिंग चार कषाय तीन लेश्यासे सोलह पण्णट्ठीको गुणा करनेपर १६४३६=५७६ पाँच सौ छिहत्तर पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं। इस प्रकार देशसंयतमें सब मिलकर उनतीस सौ इक्यानबे गुणित पण्णट्ठीमें एक कम और क्षायिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा पाँच सौ छिहत्तर पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं। प्रमत्तमें मनःपर्ययज्ञान प्रत्येकपद बढ़ जाता है। तथा देशसंयम की जगह सराग२० संयम हो जाता है । तथा दूसरी गति न होनेसे मनुष्यगति भी प्रत्येकपद हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येकपद अठारह हुए-मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ २५६, भोग ५१२, उपभोग १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, सकलसंयम १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व पण्णट्ठी ६५= मनुष्य गति दो पण्णट्ठी, इस तरह दूने-दूने भंग होते हैं। पिण्डपद चार हैं-लिंग, कषाय, लेश्या, २५ सम्यक्त्व । अन्तिम प्रत्येक पद मनुष्यगतिके भंग दो पण्णट्ठी प्रमाण हैं। उनसे दूने एक लिंग भंग चार पण्णट्ठी हुए। उनको तीन लिंगसे गुणा करनेपर बारह पण्णट्ठी हुए । एक लिंगके भंगोंसे दूने एक कषायके भंग आठ पण्णट्ठी होते हैं। उनको तीन वेद सहित चार कषायसे गुणा करनपर छियानबे पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं । एक कषायके भंगोंसे दूने एक लेश्याके भंग सोलह पण्णठ्ठी होते हैं। उनको तीन लिंग चार कषाय सहित तीन लेश्यासे Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति बीवतत्वप्रदीपिका १२२३ | मनु लिग ३६५ = शमनु लिंग ३ । क ४।६५ = २।२२।। | कडि लब्ध । ६५ = १२ कूडि लब्ध । मनु लिंग ३ । क ४ । ले ३ । ६५ = २।२।२।२ सम्यक्त्व ३ । ले ३६ । ६५ - ३२ लब्ध लेश्या धन ६५ = ५७६ गुणित लब्ध ६५ = ३४५६ ई राशिगळ्गे संदृष्टि : | प्रत्येकधन ६५ = | यितु प्रमत्तसंयतन सर्वपदभंग ६५ - लिंग धन ६५ = १२ कषाय धन लेश्या धन सम्यक्त्वधन ६५ = ३४५६ ४१४४ ! अप्रमत्तंगमिते ६५ = ४१४४ ॥ ६५ =२ ऋ । मलि ३ । ६५ = २।२ | म । लि ३ । क४। ६५ =२।२।२ मिलित्वालब्ध । ६५%-१२ मिलित्वा लब्ध ६५ = ९६ म । लि ३ । क ४.ले ३ । ६५ =२।२।२।२ मिलित्वा लब्धलेश्याधनं ६५-५७६ सम्य ३ ले ३६ । ६५ =३२ गुणितलब्ध ६५-३४५६ मिलित्वा सर्वपदधनं ६५ = ४१४४ ऋ१ । तथा अप्रमत्तेऽपि ६५ = ४१४४ ऋ १ । गुणा करनेपर १६४३६ - ५७६ पाँच सौ छिहत्तर पण्णट्ठी भंग होते हैं। एक लेश्याके भंगोंसे । दुने भंग एक सम्यक्त्व के बत्तीस पण्णट्ठी होते हैं। उनको तीन वेद चार कषाय तीन लेश्या महित तीन सम्यक्त्वसे गुणा करनेपर ३२४ १०८ = ३४५६ चौंतीस सौ छप्पन पण्णट्ठी भंग होते हैं। सब मिलकर प्रमत्तमें एक कम इकतालीस सौ चौवालीस पण्णट्ठी प्रमाण सर्वपद अंग होते हैं। ___ अप्रमत्तमें भी प्रमत्तकी तरह ही एक कम इकतालीस सौ चौवालीस पण्णट्ठी भंग ,, होते हैं। १. इतः परं-एषां राशीनां संदृष्टिः प्रत्यकधनं ६५ =४ लिंगधनं ६५ = १२ कषायधनं ६५ =९६ लेश्याधनं ६५ =५७६ इयान पाठोऽधिकः । । | सम्यक्त्वधनं ६५ = ३४५६ । क-१५४ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२४ गोकर्मकाण्ड अनंतरमुपशमापूर्वकरणंगे पेळल्पडुगु।:- उपशमकापूवंकरणंग असदृशपदंगळ शुक्ल. लेश्यापथ्यंतं एकान्नविंशतिपदंगळप्पुवु। सदृशपदंगळ लिंगकषायसम्यक्त्वभेदिदं पत्रितयमक्कुं मंतु द्वाविंशतिपदंगळुद्विगुणद्विगुणक्रमदिदं नडेववु । संदृष्टि :-म १। श्रु २ । १४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ ४०९६ । ५ अ ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५ - १ । भ६५ = १। म गति ६५ -२ क शुक्ललेश्या ६५-२२। २ मनुष्यगति लिंग ३ । ६५%D0/ मनुष्यगति लिंग ३। क ४/६५ = १६ लब्ध ६५ =२४ | लब्ध ६५ = १९२ | ६५ = १९२ उप-क्षा%२६५=३२१२ लब्ध ६५ =९६८ यिल्ली प्रत्येक संकलन | ६५ = लिंग धन कषाय धन ६५ = । १९२ सम्यक्त्व धन ६५% ७६८ २४ उपशमकेष्वपूर्वकरण असदशपदानि शुक्ललेश्यांतान्येकानविंशतिः। सदशपदानि लिंगकषायसम्यक्त्वानि । संदृष्टिः-म १ । श्रु २ । अ४। म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । ४०९६ । अ ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५=१ भ ६५=१ म गति ६५ =२। शु ले ६५ =२।२। मनुष्यगतिलिंग ३।६५ %D८ | मनुलिंग ३ । क ४।६५%१६ । उपDक्षायिक २-६५ =३२।१२। लब्ध ६५ =२४ लाघ ६५ =१९२ लब्ध ६५ =७६८ अत्र प्रत्येकसंकलनं ६५%८ लिंगधनं ६५ =२४ । कषायघनं ६५%१९२ | सम्यक्त्वधनं ६५ =७६८ १० ___ उपशमश्रेणीमें अपूर्वकरणमें अन्य लेश्या न होनेसे शुक्ल लेश्या भी प्रत्येक पद है। वहाँ मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ २५६, भोग ५१२, उपभोग १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, औपशमिक चारित्र १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व पण्णट्ठी ६५८, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठो, ये प्रत्येक पद हैं उनके दूने-दूने भंग हैं। पिण्डपद लिंग, कषाय, १५ सम्यक्त्व तीन हैं। अन्तिम प्रत्येक पद शुक्ललेश्याके भंग चार पण्णट्ठी प्रमाण होते हैं। उनसे दूने एक लिंगके पद आठ पण्णट्ठी होते हैं । उनको तीन लिंगसे गुणा करनेपर चौबीस पण्णट्ठी भंग होते हैं। एक लिंगके भंगसे दूने एक कषायके भंग सोलह पण्णट्ठी होते हैं। उनको तीन लिंग सहित चार कषायसे गणा करनेपर १६-१२-१९२ एक सौ बानबे पण्णटठी भंग होते हैं। एक कषायके भंगसे दूने एक सम्यक्त्वके भंग बत्तीस पण्णट्ठी होते हैं । उनको तीन लिंग चार कषाय सहित दो सम्यक्त्वसे गुणा करनेपर ३२४२४ =७६८ सात सौ अड़सठ पण्णट्ठी भंग होते हैं । सब मिलकर अपूर्वकरणमें नौ सौ बानबे पण्णट्ठीमें-से एक Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२२५ यितूपशमापूर्वकरणन सर्वपद भंग ६५०९९२॥ऋ । इहिंगे सवेदानिवृत्तिकरणंगं भंगंगळप्पुवु । ६५ =९९२ । ऋ । कषायानिवृत्तिकरणंगे म १। श्रु २। अ४। म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८। म ४०९६ । अ ८१९२ । सं १६३८४ । जो ६५ = १ । भ ६५ = मनु = गति ६५ =२ । शुक्ललेश्या ६५ =२।२।। मनुलिंग ३ क ४।६५ -८ । उपशम ६५ -१६।४ | इल्लि प्रत्येक पद संकलन धन ६५-८ ऋ: कूडि ६५-३२ । क्षायिक ६५ = १६३४ | कषाय धन ६५ = ३२ | यिल्लि प्रत्येक पद धन ६५-१६ लब्ध ६५ % १६।१२८| सम्यक्त्व ६५%D१२८ | सम्यक्त्व धन ६५ = ३२ । यितु कूडिं कषायानिवृत्तिकरणन सर्वपदभंग ६५ = १६८ ॥ सूक्ष्मसापरायोपशमकंगे सवं. ५ पदभंगंगळ पेळल्पङगुमल्लि प्रत्येक पदंगळु इप्पत्तु । सम्यक्त्वमो दे सदृशपवमक्कुमंतु एकविंशति मिलित्वा सर्वपदभंगाः-६५ =९९२ ऋ१। तथा सवेदावृत्तिकरणस्यापि ६५ =९९२ ऋ१। कषायनिवृत्तिकरणस्य म १७२ । अ४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ ४०९६ । अ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५-१। भ६५%१. २ मनुष्यगति ६५ = २ । शुक्ललेश्या ६५ =२ । २ । म-लिंग० । क४। ६५%८. उप-६५-१६ । ४ मिलित्वा लब्ध ६५ =३२ | क्षा ६५-१६ । ४ । अत्र प्रत्येकसंकलनधनं =८। ऋ१॥ कषायधनं ६५-३२ लब्ध ६५% १२८ सम्यक्त्वधनं ६५=१२८ मिलित्वा सर्बपदभंगा: ६५१६८ । सूक्ष्मसाम्परायस्य प्रत्येकपदानि विंशतिः सदृशपदं सम्यक्त्वं । संदृष्टिः-म । । श्रु २। अ ४। म ८। कम भंग प्रत्येकपद और पिण्डपदके होते हैं। वेदसहित अनिवृत्तिकरणमें भी अपूर्वकरणकी तरह एक कम नौ सौ बानबे पण्णट्ठी भंग होते हैं। वेदरहित अनिवृत्तिकरणमें प्रत्येकपद मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, १५ अचक्षु ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ २५६, भोग ५१२, उपभोग १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, औपशमिकचारित्र १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व एक पण्णट्ठी, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी, शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठी हैं इस प्रकार भंग दूने-दूने हैं। पिण्डपदोंमें-से शुक्ललेश्याके चार पण्णट्ठी प्रमाण भंगोंसे दूने एक कषायके भंग आठ पण्णट्ठी हैं। उनको चार कषायसे गुणा करनेपर बत्तीस पण्णट्ठी प्रमाण भंग हुए। एक २० कषायके भंगोंसे दूने सम्यक्त्वके भंग सोलह पण्णट्ठी होते हैं। उनको चार कषाय सहित दो सम्यक्त्वोंसे गुणा करनेपर १६४८= १२८ एक सौ अठाईस पण्णट्ठी प्रमाण भंग होते हैं इस प्रकार प्रत्येकपद और पिण्डपदके भंग एक कम एक सौ अड़सठ पण्णट्ठी में होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें प्रत्येक पद मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२६ गो० कर्मकाण्डे पवंगळु द्विगुणद्विगुणक्रमंगळप्पुवु । संदृष्टिः-म १ । श्रु २ । अ४ । म ८। च १६ । अ ३२ ६४ । वा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५=१ । भ६५=१ । मनु गति ६५ =२ । शुक्ललेश्य ६५ =२।२। सू लो ६५ =२॥२॥२: सम्यक्त्व उपशम = ६५ = १६| कूडि सूक्ष्मसांपरायोपशमकंगे सर्वपदभंगंगळ इनित | क्षायिक ६५ =१६ | पुवु ६१ =४८ । ऋ ॥ उपशांतकषायंगे प्रत्येकपदंगळे कानविंशतिप्रमितंगळप्पुव । सम्यक्त्वपदमों वे पिंडपदमक्कुमंतु विशति पदंगळ द्विगुणद्विगुणक्रमंगळप्यु । अदक्क संदृष्टि :-म १।५ २। अ४। म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४। वो २०४८ । ४०९६ । अ ८१९२। संय १६३८४ । जी ६५=१। भ ६५ =१। म गति ६५ =२ । शुक्ललेश्य ५ १० ६५ - ४ । सम्यक्त्व २। ६५ % ८ । यितुपशांतकषायंगे प्रत्येक पद धन ६५ =८ सम्यक्त्व धन ६५ = १६ कूडि सर्व च१६ । म ३२ । अ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२। उ १०२४ । वी २०४८। अ ४०९६ । म ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५ = १ भ ६५-मनुष्यगति ६५ = २ । शुक्ललेश्या ६५ = २ । २ । सूक्मलोभ ६५ =२।२।२। सम्यक्त्व उपशम ६५-१६ | प्रत्येकषनं ६५-१६ क्षायिक ६५=१६ । सम्यक्त्वधनं ६५%D३२ मिलित्वा सर्वपदधनं ६५ =४८ ऋ१। उपशान्तकषाये प्रत्येकपदान्येकानविंशतिः । सम्यक्त्वमेव पिडपदं । संदृष्टिः-म१। श्रु २ । अ४। म८। च १६ । अ ३२ । अ६४। दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ४०९६ । अ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५%3भ६५-१। म ग ६५%२ शु ले ६५%D४ । सम्यक्त्व २ । ६५८। ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ २९६, भोग ५१२, उपभोग १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान २० ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, औपशमिकचारित्र १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व ६५% पण्णट्ठी, मनुष्य दो पण्णट्ठी, शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठी, सूक्ष्मलोभ आठ पण्णट्ठी हैं, इस तरह भंग दूने-दूने होते हैं । पिण्डपदमें सम्यक्त्वके भंग सूक्ष्मलोभके आठ पण्णट्ठीसे दूने होते हैं। उनको उपशम और झायिक सम्यक्त्वसे गुणा करनेपर बत्तीस पण्णट्ठी प्रमाण भांग हुए। प्रत्येक पद और पिण्डपदके मिलकर अड़तालीस पण्णट्ठी में एक कम सर्वपद भंग होते हैं। २५ उपशान्तकषायमें प्रत्येक पद मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्ष ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाम २५६, भोग ५१२, उपभोग १०२४. वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, औपशमिकचारित्र १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व एक पण्णट्ठी, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी, शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठी होते हैं। इस प्रकार भंग दूने-दूने होते Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२२७ पदभंगमुपशांतकषायंगिनितप्पुवु । ६५ - २४ ॥ क्षपकापूर्वानिवृत्तिगळ्गे प्रत्येकपदंगळ क्षायिकसम्यक्त्वपयंतमिप्पत्तु लिंगकषायंगळ रडु पिडपदंगळप्पुवंतु द्वाविंशतिपदंगळ द्विगुणद्विगुण क्रमंगळप्पुवु । संदृष्टि :-म१श्रु २ । अ ४। म ८।६ १६ । अ ३२। अ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५ - १ । भ ६५ = १ । म गति ६५ = २ । शुक्ललेश्य ६५ - ४ । क्षायिकसम्यक्त्व ६५ - ८। | लिंग ३। ६५ = १६ | लिग ३ । कषाय ४ । ६५ = ३२ | यिल्लि प्रत्येक धन ६५ = १६ । | लब्ध ६५ % ४८ लब्ध ६५ = ३८४ । लिंग धन ६५ =४८ कषाय धन ६५ = ३८४ प्रत्येकपदधनं ६५%D८ । सम्यक्त्वधनं ६५=१६ मिलित्वा सर्वपदधनं ६५ =४८ ऋ१। क्षपवेष्वपूर्वकरणे प्रत्येकपदानि क्षायिकसम्यक्त्वांतानि विशतिः । लिंगकषायो पिंडपदे । संदृष्टिःम १। श्रु २ । १४ । म ८ । च १६ । अ ३२ । अ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । म ४०९६ । अ८१९२ । सं १६३८४ । जी ६५=१भ६५%१। मग २५%3D२। शुक्ल ले ६५-४। क्षा-सभ्य-६५-८। लिग ३ । ६५ %१६ | लिंग ३ कषाय ४। ६५ २३ | प्रत्येकधनं ६५-१६ लब्ध ६५-४८ लब्ध ६५%D३८४ लिंगधनं ६५-४८ कषायधनं ६५ =३८४ मिलित्वा सर्वपदधनं ६५-४४८ । ऋ१ । तथा सवेदानिवृत्तिकरणेऽपि-६५-४४८ । ऋ । हैं। पिण्डपदमें शुक्ललेश्याके चार पण्णट्ठी प्रमाण भंगोंसे दूने एक सम्यक्त्वके भंग हैं इतने ही उपशमसम्यक्त्वके और इतने ही क्षायिकसम्यक्त्वके मिलकर सोलह पण्णट्ठी होते हैं। प्रत्येक पद और पिण्डपद मिलकर चौबीस पण्ण ट्ठी में एक कम सर्वपद भंग होते हैं। क्षपकश्रेणी में अपूर्वकरणमें प्रत्येकपद और उनके भंग मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनः- १५ पर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ २५६, भोग ५१२, उपभोग १०२४, वीय २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, क्षायिकचारित्र १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व एक पण्णट्ठी, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी, शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठी, क्षायिकसम्यक्त्व आठ पण्णट्ठी हैं। क्षायिक सम्यक्त्वके भंग आठ पण्णट्ठीसे दूने एक लिंगके भंग हैं । उनको तीन लिंगोंसे गुणा करनेपर अड़तालीस पण्णट्ठी भंग हुए । एक लिंगके भंगोंसे दूने २० एक कषायके भंग बत्तीस पण्णटठी हैं। उनको तीन वेदसहित चार कषायोंसे गणा करनेपर ३२४१२ = ३८४ तीन सौ चौरासी पण्णट्ठी भंग हुए। सो प्रत्येकपद और पिण्डपदके मिलकर चार सौ अड़तालीस पण्णट्ठी में एक कम सर्वपद भंग होते हैं। इसी प्रकार वेदसहित अनिवृत्तिकरणमें भी चार सौ अड़तालीस पण्णट्ठी में एक कम सर्वपद भंग होते हैं। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२८ गो० कर्मकाण्डे कूडि क्षपकापूवंकरणंगे सर्वपदभंग ६५ = ४४८॥ सवेदानिवृत्तिकरणंगमुमिनिते सर्वपदभंगंगळप्पुवु। ६५ = ४४८॥ कषायानिवृत्तिझपकंगे प्रत्येकपदंगळ झायिकसम्यक्त्वपम्यंत विंशतिपदंगळप्पुवु। कषाय पदमो दे सदृशपदमक्कुमितु एकविंशति पदंगळ द्विगुणद्विगुणक्रमंगळप्पुबु । आ पदंगळ्गे संदृष्टिरचने इदु । म १। श्रु २ । अ ४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । वा १२८ । ५ ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२ । सं १६३८४ । जो ६५ = १ । भ ६५ = १। मनु = गति = ६५ =२। शुक्ललेश्ये ६५ = २।२। क्षायिक सम्य६५ = ८॥ कूडि कषायानिवृत्ति सर्वपवकषाय ४।६५=१६। इल्लि प्रत्येक धन ६५-१६ । ऋ१ लब्ध ६५-६४ । कषाय धन ६५ =६४ भंगंगळिनितप्पुवु । ६५ =८० । ऋi॥ सूक्ष्मसांपरायक्षपकंग सर्वपदभंग तरल्पडुगुमल्लि असदृश पदंगळु सूक्ष्मसांपरायपय्यंत मिप्पत्तोंदु पदंगळप्पुवु । संदृष्टि:-म १। श्रु २। अ ४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ६४ । १० दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वो २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२ । सू सं १६३८४ । कषायानिवृत्तिकरणे प्रत्येकपदानि क्षायिक सम्यक्त्वांतानि विंशतिः । कषायाः सदशपदं संदृष्टिःम१|श्र २ । अ४ । म ८ । च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२ । उ १०२४ । वी २०४८ । अ४०९६ । अ ८१९२ । सं १६३८४ । जो ६५-१भ ६५%१ म-ग ६५%२। शु-ले ६५%। क्षा-स ६५ %3D८ । कषाय ४। ६५%१६ लब्ध ६५ %६४ मिलित्वा सर्वपदधनं ६५%3D८० । ऋ१ । सूक्ष्मसाम्पराये असदृशपदान्येव सूक्ष्मलोभांतान्ये कविशतिः। संदष्टिः म १। श्रु२। अ४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२। उ १०२४ । वो २०४८। अ ४०९६ । वेदरहित अनिवृत्तिकरणमें प्रत्येक पद और उनके भंग इस प्रकार है-मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु ३२, अवधि ६१, दान १२८, लाभ(२५६, भोग ५१२, २० उपभोग १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, क्षायिक संयम १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व एक पण्णट्ठी, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी, शक्ललेश्या चार पण्णट्ठी, झायिकसम्यक्त्व आठ पण्णी । पिण्डपद में क्षायिकसम्यक्त्वके आठ पण्णटठी भंगोंसे दने एक कषायके भंग होते हैं। उनको चार कषायोंसे गुणा करनेपर चौंसठ पण्णट्ठी होते हैं । प्रत्येक पद और पिण्डपदके मिलकर सर्वपद भंग अस्सी पण्णठ्ठीमें एक कम होते हैं । २५ आगे सूक्ष्म साम्पराय आदिमें प्रत्येक पद ही हैं, पिण्डपद नहीं हैं । सूक्ष्म साम्परायमें मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ १. म सूक्ष्मलोभप० । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका जी ६५ = १ । भ६५=१। म गति = ६५ =२। शुक्लले ६५ = ४। क्षा= सम्य ६५ % 01 सूक्ष्मलोभ ६५ = १६ । इट्टपदे रूऊणे इत्याद्यानीतसंकलनधनं सूक्ष्मसांपरायक्षपकन सर्वपद भंगंगळिनितप्पुवु । ६५ = ३२ ऋ१॥क्षीणकषायंगे सर्वपद भंगंगळ पेळल्पडुगुमल्लि प्रत्येकपबंगळ विंशति प्रमितंगळ द्विगुणक्रमदिनप्पुवु । संदृष्टि :-म १।श्रु २ । १४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२। उ १०२४ । वी २०४८ । अ ४०९६ । अ ८१९२। संय १६३८४। जी ६५=१। भ ६५%१म गति ६५%D२। शुक्लले ६५ =२।२। क्षायिक ५ सम्यक्त्व ६५ = ८। अंतषणं गुणगुणियमित्याद्यानीतसंकलनधनमिदु ६५ = १६ । ऋ१॥ सयोगकेवलिभट्टारकंगे असदृशपदंगळे पविनाल्कप्पुवु । संदृष्टि :-केवलज्ञान १ । केवलदर्शन २ । क्षायिकसम्यक्त्व ४। यथाख्यातचारित्र ८।क्षा दान १६ । क्षा लाभ ३२ । क्षा भो ६४ । क्षा उपभोग १२८ । अनंतवीर्य २५६ । असिद्धत्व ५१२। जीवत्व १०२४ । भव्यत्व २०४८। १० मनुष्यगति ४०९६ । शुक्ललेश्ये ८१९२। अंतघणं गुणगुणियं इत्याधानीतलब्धं सयोगकेवलि ब ८१९२ । सू सं १६३८४ । जी ६५=१ भ ६५ = १ म-ग ६५ = २ शु-ले ६५ = ४ । क्षा-सं ६५=८। क्षीणको सू लो ६५%१६ । भंगाः ६५=३२। ऋ१। क्षीणकषाये प्रत्येकपदान्येव विंशतिः। संदष्टिः म १। श्र२। अ४ । म ८। च १६ । अ ३२ । अ६४ । दा १२८ । ला २५६ । भो ५१२। उ १०२४ । वी २०४८। अ ४०९६ । अ ८१९२ । १५ म १६३८४ । जी ६५-१भ ६५-१म-ग ६५%२। शु-ले ६५%D४। क्षा-सं ६५-८। अन्तषणं गुणगुणियमित्याद्यानीवभंगाः ६५ = १६ ऋ १। __ सयोगे असदृशपदान्येव चतुर्दश । संदृष्टिः-के-ज्ञा १ के-द २ । क्षा-स ४ । य-चा ८1क्षा-दा १६ । क्षा-ला ३२ । क्षा भो ६४ । क्षा उ १२८ । अनन्तवी २५६ । असिद्धत्व ५१२ । जी १०२४ । भ २०४८ । २५६, भोग ५१२, उपभोग १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, संयम २० १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व एक पण्णट्ठी, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी, शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठी, क्षायिकसम्यक्त्व आठ पण्णट्ठी, सूक्ष्मलोभ सोलह पण्णट्ठी प्रत्येक पद और भंग हैं। सब भंग बत्तीस पण्णट्ठी में एक कम होते हैं। क्षीणकषायमें बीस प्रत्येक पद और भंग इस प्रकार हैं,-मति १, श्रुत २, अवधि ४, मनःपर्यय ८, चक्षु १६, अचक्षु ३२, अवधि ६४, दान १२८, लाभ २५६, भोग ५१२, उपभोग २५ १०२४, वीर्य २०४८, अज्ञान ४०९६, असिद्धत्व ८१९२, संयम १६३८४, जीवत्व ३२७६८, भव्यत्व एक पण्णट्ठी, मनुष्यगति दो पण्णट्ठी, शुक्ललेश्या चार पण्णट्ठी, क्षायिकसम्यक्त्व आठ पण्णट्ठी। ये सब भंग मिलकर सोलह पण्णट्ठी में एक कम होते हैं। सयोगीमें प्रत्येक पद और उनके भंग इस प्रकार हैं-केवलज्ञान १, केवलदर्शन २, क्षायिकसम्यक्त्व ४, Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३० गो० कर्मकाण्डे भट्टारकंगे सर्वपवभंगमिनितप्पुवु । २५६ । ६४ । ऋ १ गुणितलब्धमिदु १६३८४ । अयोगिके वलि. भट्टारकंगे असदृशपदंगळे पदिमूरप्पुवु। अवक्के संदृष्टि :-केवलज्ञान १ । केवलदर्शन २। क्षायिकसम्यक्त्व ४। यथाख्यातचारित्र ८।क्षा वा १६ । झा ला ३२ । क्षा भो ६४ । क्षा उपभोग १२८ । क्षा वो २५६ । असिद्धत्व २५६।२ । जीवत्व २५६ । २ । २। भव्यत्व २५६ । २।२।२। मनुष्यगति २५६ । १६ । अंतधणं गुणगुणियमित्याद्यातीतसंकलितधन मयोगिभट्टारकंग सर्वपद भंगप्रमाणमिदु २५६ । ३२ । ऋ १॥ सिद्धपरमेष्टिगळग केवलज्ञान १। केवलदर्शन २। क्षायिकसम्यक्त्व नाल्कु ४ । अनंनवीर्य ८ । जीवत्व १६ । अंतुसिद्धपरमेष्टिगळगे असदृश पदंगळदप्पुवु । तत्संकलितधनं मूवत्तोंदु भंगंगळप्पुवु ३१ ॥ इंतुक्त मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोछु पिंडपदंगळु तिर्यग्रूपदिदं रचियिसल्पडुवुवु । अल्लि १० असंयत देशसंयतरुगळ क्षायिकसम्यक्त्वमं बिटु अन्यत्र संभवं कुरुत्तु गुणस्थानंगळोळ क्षायिक सम्यक्त्वक्केयुं मंगंगळु तरल्पडुवुवे'दु पेळ्दपरु । : म-ग ४०९६ । शु-ले ८१९२ । भंगाः २५६ । ६४ । ऋ १ गुणिते १६३८४ । अयोगे असदृशपदान्येव त्रयोदश । संदृष्टिः-के-ज्ञा १ । के-द २ । क्षा-स ४ । य-च! ८। क्षा-दा १६ । क्षा ला ३२ । क्षा भो ६४ । क्षा-उ १२८ । क्षा-वी २५६ । असि २५६ । २ । जी २५६ । २ । २ । १५ भ २५६ । २।२।२ । म-ग २५६ । १६ । भंगाः २५६ । ३२ । ऋ । ४०९६ x २%D८१९२ । सिद्ध के- ज्ञा १। के-दा २। क्षा-स ४ । अ-वी ८। जी १६ । इत्यसदृशपदानि पंच, भंगा एकत्रिंशत् ।।८६१॥ यथाख्यातसंयम ८, झायिकदान १६, लाभ ३२, भोग ६४, उपभोग १२८, वीर्य २५६, असिद्धत्व ५१२, जीवत्व १०२४, भव्यत्व २०४८, मनुष्यगति ४०९६, शुक्ललेश्या ८१९२ । सब मिलकर २५६४६४-दो सौ छप्पनसे चौंसठ मुणेमें एक कम भंग होते हैं। अयोगीमें केवलज्ञान १, केवलदर्शन २, क्षायिकसम्यक्त्व ४, यथाख्यात संयम ८, दान १६, लाभ ३२, भोग ६४, उपभोग १२८, वीय २५६, असिद्धत्व ५१२, जीवत्व १०२४ भव्यत्व २०४८, मनुष्यगति ४०९६, प्रत्येक पद और भंग हैं। सब मिलकर २५६४३२ दो सौ छप्पनसे बत्तीस गुनेमें एक कम भंग होते हैं। सिद्धोंमें केवलज्ञान १, केवलदर्शन २, क्षायिकसम्यक्त्व ४, अनन्तवीर्य ८, जीवत्व २५ १६ प्रत्येक पद है। भंग सब मिलकर इकतीस हैं। प्रत्येक पदको असदश पद भी कहते हैं क्योंकि इनका प्रतिपक्षी नहीं होता। पिण्डपदको सदश पद भी कहते हैं । उनका समान प्रतिपक्षी होता है ॥८६१॥ आगे उक्त कथनको गाथा द्वारा कहते हैं Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रसैपिका लेरिच्छा हु सरिच्छा अविरददेसाण खमियसम्मत्तं । मोत्तूण संभवं पडि खयिगस्स वि आणए मंगे || ८६२ ॥ तिर्यक्खलु सदृशा अविरतदेशव्रतानां क्षायिकसम्यक्त्वं मुक्त्वा संभवं प्रति क्षायिकस्यापि आनयेद्गान् । पिडभावंगळं तिघ्यंनूपदिदं रचियिसुवुदु । अल्लि असंयत देशसंयतरुगळ क्षायिकसम्यक्त्ववर्क बेरे मंगंगळु तरल्पडुबुवप्पुर्वारवमवं बिट्टु संभवगुणस्थानवोळ क्षायिक सम्यक्त्वकं मंगळंतप्पु । उड्ढतिरिच्छपदाणं संव्वसमासेण होदि सव्वधणं । सव्वपदाणं भंगे मिच्छादिगुणेसु नियमेण ।।८६३ ।। ऊर्ध्वतिय्यंपदानां सर्व्वसमासेन भवति सबंधनं । सर्व्वपदानां भंगे मिथ्याविगुणेषु १२३२ नियमेन ॥ सर्व्वपदभंगा नयनविधानदोळु मिथ्यादृष्टयादि गुणस्थानंगळोळ ऊर्ध्वपदंगळ घनमुमं तिर्यक्पदंगळ धनमुमं तं तद्धनंगळ सर्व्वसमासविदं तत्तद्गुणस्थानव सम्बंधन नियमवदक्कु ॥ अनंतरमुक्तगुणस्थानंगळ प्रत्येकपदसंख्येयं पेवपरु : मिच्छादीणं दुति दुसु अपुव्व अणियट्टिखवगसमगेसु । सुहुमुवसमगे संते सेसे पत्तेयपदसंखा ||८६४॥ मिथ्यादृष्ट्यादीनां द्वित्रिद्वयोः अपृर्वानिवृत्तिक्षपकोपशमकेषु । सूक्ष्मोपशमके शांत शेषे प्रत्येकपद संख्या वक्ष्यंते ॥ गुणस्थानोंमें कहे पिण्डपदरूप भावोंको तिर्यक् रूपसे बराबर में रचकर गुणस्थानोंके आश्रयसे यथासम्भव भंग लाना चाहिए | उनमें से असंयत और देशसंयत में क्षायिकसम्यक्त्वका कथन पृथक् होनेसे उसे छोड़ देना चाहिए। तथा क्षायिक सम्यक्त्व में सम्भव गुणस्थानों को लेकर क्षायिक सम्यक्त्व के भी अलगसे भंग लाना चाहिए || ८६२ || सर्वपदोंके भंग लानेके लिए मिध्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें, जिनकी ऊर्ध्व रूप रचना है ऐसे प्रत्येकपदोंका भंगरूप धन तथा जिनकी तिर्यक्रूप रचना है ऐसे पिण्डपदों का भंगरूप धन लाकर उन दोनोंको मिलाकर उस उस गुणस्थान में सर्वपदोंका भंगरूप सर्वधन नियमसे होता है ||८६३॥ १. दव्वस० मु० । · क- १५५ क्षायिक सम्यक्त्वं गुणस्थानोक्तपिंड भावान् खलु तिर्यग्रूपेण रचयित्वा तत्रासंयतदेश संयतयोः पृथक्कथनात्यक्त्वा तत्संभवगुणस्थानान्याश्रित्य क्षायिकसम्यक्त्वस्यापि भंगानानयेत् ॥८६२ ॥ सर्वपदभंगानयने मिथ्यादृष्ट्या दिगुणस्थानेषु ऊर्ध्वपदधनं तिर्यक्पदधनं चानीय तयोः समासेन २० तत्तद्गुणस्थानस्य सबंधनं भवति नियमेन ॥८६३॥ ५ १५ २५ ३० Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे प्रमत्ता मिथ्यादृष्टिसासादनगुणस्थानद्वयवो ं मिक्षासंयतवेश संयत गुणस्थानत्रयवोळं प्रमत्तगुणस्थानद्वयदोळं अपूर्व्वानिवृत्तिक्षपको पामक रुगळोळं सूक्ष्मसां परायोपशमकनोळं उपशांतकषायनोळं शेषसूक्ष्मसांपरायक्षपकक्षीणकषायादिगळोळं प्रत्येकपदंगळ संख्येयं मुंबण सूत्रदिवं पेळ्वपरु : २० १२३२ पण्णर सोलद्वारस वीसुगुवीसं च वीसमुगुवीसं । इगिवीस वीस चोद्दस तेरस पणगं जहाकमसो ||८६५ || पंचदश षोडशाष्टदश विंशत्येकान्नविंशतिश्च विचतिरेकान्नविंशतिश्च । एकविंशतिव्विशतिचतुर्द्दश त्रयोदश पंचकं यथाक्रमशः ॥ मिथ्यादृष्टियोळं सासादननोळं प्रत्येकपदंगळु पविनैतुं पदिनदुमप्पुवु । मिश्रासंयत देश१० संयत रुगळोळु प्रत्येकं पविनाद पविनार प्रत्येक पबंगळप्पुवु । प्रमत्ताप्रमत्तसंयतरोळु प्रत्येकं पविर्न हुँ पदिने हुं प्रत्येकपदंगळप्पुवु । अपूव्र्व्वकरणानिवृत्तिकरण क्षपकोपशमकरुगळोळ विशतिथुमे कान्नविशतियुं प्रत्येकं प्रत्येकपदंगळप्पुवु । सूक्ष्मसांपरायोपशमकनोळु प्रत्येकपदंगळिप्पत्तप्पुवु । उपशांतकषायनोळ एकान्नविंशति प्रत्येकपदंगळपुषु । शेषसूक्ष्म सपरायक्षपकनोळ प्रत्येकपदंगळेकविंशतियुं क्षीणकषायनोळ विशतियं सयोगिकेवलिगळोळ पविनालकुं अयोगिकेवलिगळोळ पविमूरुं १५ सिद्धपरमेष्ठिगळोळ पंचकमुं क्रर्मादिदमितु प्रत्येकपदंगळवु । संदृष्टिः - मि १५ । सा १५ । मि १६ । अ १६ | दे १६ । प्र १८ । अ १८ । अ = क्ष २० । उप १९ । अनि क्ष २० । उप १९ । सू उप २० । क्षप २१ । उपशांत कषाय १९ । क्षी २० । स १४ । अ १३ । सि ५ ॥ अनंतरं पूर्वोक्तमिथ्यादृष्ट्याविगुणस्थानंगळोळ क्षीणकषायपर्यंतभाव पनरडु गुणस्थानंगलोळ सर्व्वपदभंगंगळ गुण्य पण्णट्ठप्रमितमं दु पेवपरु । तानि प्रत्येकपदानि क्रमेण मिथ्यादृष्ट्यादिद्वये प्रत्येकं पंचदश । मिश्रादित्रये षोडश । प्रमत्तादिद्वयेऽष्टादश । उभय श्रेण्यपूर्वकरणादिद्वये विंशतिरेकान्नविंशतिः उपशमक सूक्ष्मसाम्पराये विशतिः । उपशान्तकषाये एकानविंशतिः । क्षपक सूक्ष्मसाम्पराये एकविंशतिः क्षोणकषाये विशतिः । सयोगे चतुर्दश । अयोगे त्रयोदश । सिद्धे पंच ॥८६४-८६५ ॥ २५ वे प्रत्येकपद क्रमसे मिथ्यादृष्टि आदि दो गुणस्थानों में से प्रत्येक में पन्द्रह होते हैं । मिश्र आदि तीनमें सोलह-सोलह, प्रमत्त आदि दोमें अठारह, दोनों श्रेणियोंके अपूर्वकरण आदि दो गुणस्थान में बीस और उन्नीस, उपशम सूक्ष्मसाम्पराय में बीस, उपशान्तकषाय में उन्नीस, क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय में इक्कीस, क्षीणकषायमें बीस, सयोगीमें चौदह, अयोगीमें तेरह और सिद्धों में पाँच होते हैं ||८६४-८६५॥ १. म सूत्रदोलु । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३३ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका मिच्छाइट्ठिप्पहुडिं खीणकसाओत्ति सव्वपदभंगा। पण्णट्ठि च सहस्सा पंचसया होति छत्तीसा ॥८६६॥ मिथ्यादृष्टिप्रभृति झोणकषायपथ्यंत सर्वपदभंगाः। पंचषष्टिसहस्राणि पंचशतानि भवति पत्रिंशत् ।। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपथ्यंत सर्वपवभंगंगळू पंचषष्टि- ५ सहस्रेगळं पंचशतंगळं षट्त्रिंशत्प्रमितं गुण्यराशियक्कुं। ६५५३६ ॥ ___अनंतरमा गुण्यभंगंगळ्गे गणकारभंगंगळं मिथ्यादृष्टियादियागि क्षीणकषायपथ्यंतं क्रमदिदं पेळ्दपरु : तग्गुणगारा कमसो. पणणउदेयत्तरीसयाण दलं । ऊणट्ठारसयाणं दलं तु सत्चहियसोलसयं ।।८६७।। तद्गुणकाराः क्रमशः पंचनवतिरेकसप्ततिशतानां वलं ऊनाष्टादशशतानां दलं तु सप्ताधिकषोडशशतं ॥ मिथ्यादृष्टियोळु गुण्यभूत पण्णट्ठिगे गुणकारंगळु एळ सासिरद नूर तो भत्तय्दु गळद्धंमक्कुं । सासादनंगे गण्यभूत पण्णविगे गुणकारभंगंगळ रूपोनाष्टावशशतंगळ मक्कुं ॥ मिश्रंगे तु मत्ते पण्णट्ठिगे गुणकारंगळ सासिरवरुनूरेळप्पुवु ॥ तेवत्तरं सयाई सत्तावट्ठीय अविरदे सम्मे । सोलस चेव सयाई चउसट्ठी खइयसम्मस्स ॥८६८॥ त्रिसप्ततिशतानि सप्तषष्टिश्चाविरतसम्यग्दृष्टौ षोडश चैव शतानि चतुःषष्टिः क्षायिक. सम्यक्त्वस्य॥ असंयतसम्यग्दृष्टियोळु एळ सासिरद मूनूररुवत्तेळ गुणकारंगळं क्षायिकसम्यक्त्वदोळ २० मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायांतसर्वपदभंगा च्यन्ते । तत्र पंचषष्टिसहस्राणि पंचशतानि षट्त्रिंशच्च गुण्यं भवति ॥८६६॥ तस्य गुण्यस्य गुणकाराः क्रमेण मिथ्यादृष्टी सप्तसहस्र कशतपंचनवत्यर्च, तु-पुनः सासादने रूपोनाष्टादशशताधं । मिश्रे सप्ताग्रषोडशशतानि ।।८६७।। असंयतसम्यग्दृष्टी सप्तषष्टयधिकत्रिशताग्रसप्तसहस्र।। तत्क्षायिकसम्यक्त्वे चतुःषष्टयग्रषोड- २५ मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायपर्यन्त सर्वपदोंके भंग कहते हैं। उनमें पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस गुण्य हैं। इसे ही पण्णट्ठी कहते हैं ।।८६६॥ आगे इस गुण्यके गुणकार कहते हैं उक्त गुण्यके गुणकार क्रमसे मिथ्यादृष्टिमें इकहत्तर सौ पंचानबेका आधा प्रमाण है। सासादनमें एक कम अठारह सौका आधा प्रमाण है । मिश्रमें सोलह सौ सात है ।।८६७॥ ३० असंयतसम्यग्दृष्टीमें तिहत्तर सौ सड़सठ है। क्षायिकसम्यक्त्वमें गुणकार सोलह सौ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३४ गो० कर्मकाण्डे सासिरवरुनूररुदत्तनाल्कु गुणकारंगळु गुण्यभूतपणगिळप्पुवुः । ऊणत्तीससयाई एक्काणउदी य.देसविरदम्मि । छावत्तरि पंचसया खयियणरे पत्थि तिरियम्मि ॥८६९॥ एकोनत्रिशच्छतानि एक नवतिश्च देशविरते। षट्सप्तति पंचशतानि क्षायिकनरे नास्ति ५ तिरश्चि॥ देशसंयतन गुण्यभूतपण्णट्ठिगे गुणकारंगळु बेरडु सासिरवों भैनूर तो भत्तों वप्पुवु । सायिकसम्यग्दृष्टिमनुष्यनोळु आ गुग्धक्के गुणकारंगळेनूरेप्पत्तारप्पुवु। नास्ति तिरश्चि तिय्यंचसायिकसम्यग्दृष्टि देशसंयतरिल्लप्पुरिदमा तिय्यंचरोळु गुण्यगुणकार मिल्ल ॥ इगिदालं च सयाई चउदालं च य पमत्त इदरे य । पुव्वुवसमगे वेदाणियट्टिभागे सहस्समठ्ठणं ॥८७०॥ एकचत्वारिंशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशश्च च प्रमत्ते इतरस्मिश्च अपूर्वोपशमके वेदानिवृत्तिभागे सहस्रमष्टोनं ॥ प्रमत्तसंयतरोळु गुण्यभूतपण्मठिगे गुणकारंगळु नाल्कु सासिरदनूर नाल्वत्त नाल्कप्पुवु । अप्रमत्तसंयतनोळमंत आ गुण्यक्के गुणकारंगळ मनिते यप्पुवु । अपूर्वकरणोपशमकंगे गुण्यभूत१५ पण्णट्ठिगे गुणकारंगळु वो भैनूर तो भत्तेरडप्पुवु । वेदानिवृत्तिभागेयोलपशमकंगे गुण्यभूतपण्णट्ठिगे गुणकारंगळ मो भैनूरतों भर्तरडप्पुवु ॥ अडसट्ठी एक्कसयं कसायमागम्मि सुहुमगे संते । अडदालं चउवीसं खवगेसु जहाकम बोच्छं ॥८७१॥ अष्टषष्टिरेकशतं कषायभागे सूक्ष्मसांपराये उपशांतकषाये अष्टचत्वारिंशत् चतुविशतिः २० क्षपकेषु यथाक्रमं वक्ष्यामि ॥ शशतानि ॥८६८॥ देशसंयते एकनवत्यग्रनवशतद्विसहस्रो। तत्क्षायिकसम्यग्दृष्टिमनुष्ये षट्सप्तत्यग्रपंचशतानि । तिरश्चि क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्देशसंयतो नेति गुण्यगुणकारी न स्तः ।।८६९॥ प्रमत्ते अप्रमत्ते च चतुश्चत्वारिंशदकशतचतुःसहस्री। उपशमकेष्वपूर्वकरणे सवेदानिवृत्तिकरणे च २५ द्वानवत्यग्रनवशती ॥८७०॥ चौंसठ है ।।८६८॥ देश संयतमें गुणकार दो हजार नौ सौ इक्यानबे हैं। यहाँ क्षायिक सम्यग्दृष्टी मनुष्यमें गुणकार पाँच सौ छिहत्तर है। तियंचगतिमें देशसंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टी नहीं होता। इसलिए वहाँ गुण्य-गुणकार दोनों नहीं हैं ।।८६९॥ प्रमत्त और अप्रमत्तमें इकतालीस सौ चौवालीस है। उपशमश्रेणीके अपूर्वकरण और सवेद अनिवृत्तिकरणमें गुणकार आठ कम एक हजार है ।।८७०॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२३५ उपशमकषायानिवृत्तिभागेयोलु गुण्यभूतपण्णट्ठिर्ग गुणकारंगळु नूरस्वत्तेटप्पुव । सूक्ष्मसांपरायोपशमकंगे गुण्यभूतपण्णट्ठिगे गुणकारंगळु नाल्वत्तें टप्पुवु । उपशांतकषायंगे गुण्यभूतपण्णट्ठिगे गुणकारंगळिप्पत्तनाल्कप्पुयु ॥क्षपकमगळोळु यथाक्रमदिदं गण्यगुणकारंगळं पेवें: अडदालं चारिसया अपुव्वअणियट्टिवेदमागे य । सीदी कसायभागे तत्तो बत्तीस सोलं तु ॥८७२॥ अष्टचत्वारिंशच्चतुःशतानि अपूर्वानिवृत्तिभागवेदयोश्च अशीतिः कषायभागे ततो द्वात्रिंशत् षोडश तु॥ अपूर्वकरण क्षपकनोळु गुण्यभूतपण्णट्ठिगे गुणकारंगळ नानूर नाल्व टप्पुवु। क्षपका. निवृत्तिवेदभागेयल्लियुं गुण्यभूतपढिगे गुणकारंगळु नानूर नाल्वत्तें टप्पुवु ! क्षपककषायानिवृत्ति भागेयोळु गुण्यभूतपण्गट्ठिगे गुणकारंगलेभत्तप्पुवु। ततः मेळे सूक्ष्मसापरायक्षपकंगे गुण्यभूत- १० पण्णढिगे गुणकारंगळे भत्तप्वु । ततः मेळे सूक्ष्मसापरायक्षपकंगे गुण्यभूतपण्णट्टिगे गुणकारंगळ द्वात्रिंशत्प्रमितंगळप्पुवु । क्षीणकषायंगे गुण्यभूतपण्णट्ठिगे गुणकारंगळ पदिनारप्पुवु ॥ जोगिम्मि अजोगिम्मि य बेसदछप्पणयाण गुणगारा । चउसठ्ठी बत्तीमा गुणगुणिदेक्कूणया सव्वे ॥८७३॥ योगिन्ययोगिनि च द्विशतषट्पंचाशतां गणकाराः। चतुःषष्टि द्वात्रिंशत् गुणगणिते- १५ कोनाः सर्वे ॥ सयोगकेवलिभट्टारकनोळु गुण्यं बेसदछप्पगनक्कुं। गुणकारंगळरवत्तनाल्कप्पुवु । अयोगिकेवलिभट्टारकनोळु बेसदछप्पण्णगुण्यक गणकारंगळु मूवत्तेरडप्पुवु । यिवेल्लमुं द्विगुणगुणकार २० कपायानिवृत्तिभागेष्वष्टषष्टयग्रशतं । सूक्ष्मसांपरायेऽष्टचत्वारिंशत् । उअशान्तकषाये चतुर्विंशतिः । क्षपकेषु यथाक्रमं वक्ष्यामि ॥८७१॥ अपूर्वक रणेऽनिवृत्तिसवेदभागे चाष्टाचत्वारिंशदनचतुःशती। कषार नागेऽशीतिः । तत उपरि सूक्ष्मसामराये द्वात्रिंशत् । क्षोणकषाये तु पोडश ॥८७२॥ सयोगे वेदछप्पण्णस्स गुणकाराः चतुःषष्टिः । अयोगे द्वात्रिंशत् । तत्तद्गुणकारेण गुण्ये गुणिते वेदरहित किन्तु कपायसहित अनिवृत्तिकरणमें गुणकार एक सौ अड़सठ है। सूक्ष्मसाम्पर यमें अड़तालीस है। उपशान्त कषायमें चौबीस है। अब क्रमसे क्षपकश्रेणीमें २५ कहेंगे ।।८७१।। अपूर्वकरण और वेदसहित अनिवृत्तिकरणमें गुणकार चार सौ अड़तालीस है। अनिवृत्तिकरणके वेदरहित कषायसहित भागमें गुणकार अस्सी है। उससे ऊपर सूक्ष्मसाम्परायमें बत्तीस है । क्षीणकषायमें सोलह है ।।८७२।। सयोगी और अगोगामें दो सौ छप्पन गुण्य हैं और गुणकार सयोगीमें चौंसठ तथा ३० अयोगीमें बत्तीस है। अपने-अपने गुणकारसे गुण्यको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, उसमें Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३६ गोकर्मकाण्डे गुणितंगळागि रूपोनगळंदरियल्पडणू॥ सिद्धेसु सद्धमंगा एक्कतीसा हवंति णियमेण । सव्वपदं पडि भंगा असहायपरक्कमुद्दिट्ठा ।।८७४।। सिद्धेषु शुद्धभंगा एकत्रिंशद्भवति नियमेन । सर्वपदं प्रति भंगाः असहायपराक्रमोद्दिष्टाः । सिद्धपरमेष्ठिगळोळ शुद्धभंगंगळु गुण्यगुणकारभेदमिल्लदे मूवत्तो देयप्पुयु नियमदिदं । यितु (सर्वपदं प्रतिभंगंगळु असहायपराक्रमोद्दिष्टंगळु पेळलाटुवु ॥ यिंतु सर्वपदं प्रति ऊर्ध्वतिय॑क्पद गुण्यगुणकारंगळ्गे गुणस्थानदोळ संदृष्टिः- मिथ्या० ऊर्ध्व १५ । तियं ५ । गुण्य ६५ । गुण ७१९५ । ऋ ॥ सासा । अ १५ । ति ४ । गुण्य ६५ । गुण १७९९ । ऋ । मिश्र ऊ १६ । ति ४ । ति ४ । गुण्य ६५-गुण १६०७ । ऋ ॥ असं० ऊ १६ । ति ५ । गुण्य ६५= १० गुण ७३६७ । ऋ । क्षासं गुण्य ६५ । गुण १६६४ ॥ देश उ १६ । ति ५। गुण्य ६५ = गुण २९९१= ऋ१ क्षा गुण्य ६५ । गुण ५७६ । प्रम ऊ १८ । ति ४ । गुण्य ६५ = गुण ४१४४ । ऋ। अप्र ऊम्पद १८॥ ति पद ४ । गुण्य ६५ । गुण ४१४४ । ऋ । अपूर्व उप । ऊ १९ । ति ३ । गुण्य ६५ । गुण ९९२। ऋ१॥ अनिवृत्तिकरणोपशमक ऊ १९ । ति ३। गु ६५ । गु ९९२। ऋ ॥कषायानिवृत्त्युपशम अ १९ । ति ३। गुण्य ६५ । गु १६५ ॥ सूक्ष्मसांपरायोपशमकंगे १५ समुत्पन्नराशयः सर्वे एकैकोनाः कर्तव्याः ॥८७३॥ ___ सिद्धेषु शुद्धाः गण्यगुणकारभेदरहिता भंगा नियमेनकत्रिंशद्भवन्ति इत्यसहायपराक्रमेण सर्वपदं प्रति भंगा उद्दिष्टाः । [१ एवं सर्वपदं प्रति ऊर्ध्वतिर्यक्पदगुण्यगुणकाराणां गुणस्थाने संदृष्टिः-मिथ्या-ऊर्ध्व १५ । तियं ५ । गुण्य ६५ =। गुण ७१९५ । ऋ । सासा ऊ १५ । ति ४ । गुण्य ६५ =। गु १७९९ । ऋ । मिश्र ऊ २० १६ । ति ४ । गुण्य ६५ =। गुण १६०७ ऋ । असं ऊ १६ । ति ५ । गु ६५ =। गुण ७३६७ । ऋ १ । क्षा-असं-गुण्य ६५ =। गुण १६६४ । ऋ । देश ऊ १६ । ति ५ । गुण्य ६५ = गुण २९९१ । ऋ । क्षा गुण्य ६५ = । गुण ५७६ । ऋ १ । प्रमत्त ऊ १८ । ति ४ गुण्य ६५ = गुण ४१४४ । ऋ । अप्र ऊ-पद १८। ति-पद ४ । गुण्य ६५ =। गुण ४१४४ । ऋ । अपूर्व उप-ऊ १९ । ति ३ । गुण्य ६५ =। गुण ९९२ । ऋ । अनिवृत्तिकरणोपशम ऊ १९ । ति ३ । गुण्य ६५ =। गु ९९२ । ऋ । कषायानिवृत्युपशम २५ से सर्वत्र एक-एक घटा देना । ऐसा करनेसे सर्वपद भंगोंका प्रमाण आता है ।।८७३॥ सिद्धोंमें गुण्य-गुणकार दोनों न होनेसे शुद्ध भंग नियमसे इकतीस होते हैं। इस प्रकार असहाय पराक्रमी भगवान महावीरने सर्वपदोंके भंग कहे हैं ।।८७४॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वादीपिका १२३७ ऊ २० । ति १ । गुण्य ६५ । गुण ४८ । ऋ१॥ उगशा. ऊ १९ । ति १। गुण्य ६५ । गुण २४ । ऋ। अपूक्ष ऊ २० । ति २। गु ६५ । गुण ४४८ ॥ ३१॥ सवेदनिवृत्ति क्षप ऊ२०। ति २ । गुण्य ६५ । गुण ४४८ ॥ कषायानिवृत्ति अउ २० । ति १ । गुण्य ६५ । गुण ८० ऋ१। सूक्ष्मसांपरायक्षपक ऊ २१ । गुण्य ६५ । गुण ३२। १. क्षीण उ २० । गुण्य ६५ । गुण १६ । ऋ१॥ सयोग ऊ १४ । गुण्य २५६ । गुण ६४ । । ऋ १॥ अयोग ऊ १३ । गुण्य २५६ । गु ३२ । ऋ१॥ सिद्धपरमेष्ठि ऊ ५ । शुद्धभंग ३१॥ आदेसेवि य एवं संभवमावेहि ठाणभंगाणि । पदभंगाणि य कमसो अवामोहेण आणेज्जो ॥८७५॥ आदेशेऽपि चैवं संभवभावः स्थानभंगाः । पदभंगाश्च क्रमशोऽव्यामोहेनानेतव्याः॥ मार्गणस्थानदोमिते संभवभावंगळिदं स्थानभंगंगळु पदर्भगंगळं क्रमविंदमव्यामोहविवं १. तरल्पडुवुवु ॥ अनंतरमेकांतमतभेदंगळं पेळदपरु।: असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं च आहु चुलसीदी। सत्तट्ठण्णाणीणं वेणयियाणं तु बत्तीसं ॥८७६॥ अशीतिशतं क्रियाणामक्रियाणां चाहुश्चतुरशोति समष्टिमशानिनां वैनपिकानां तु द्वात्रिंशत् ॥ ऊ १९ । ति २ । गुण्य ६५ =। गुण १६८ । ऋ । सूक्ष्मसाम्परायोपशमकस्य ऊ २० । ति १ । गु ६५ =। गुण ४८ । ऋ । उपशान्त ऊ १९ । ति १ । गुण्य ६५ =। गुण २४ । ऋ । वपूर्व-क्षा ऊ २० । ति २। गु ६५ =। गु ४४८ । ऋ१ । सवेदानिवृत्तिक्षपक ऊ २० । ति २। गुण्य ६५ =| गु ४४८ । ऋ । कषायानिवृत्तिक्षपक ऊ २० । ति १ । गुण्य ६५ = गु ८० । सूक्ष्मसाम्परायक्षप-ऊ २१ । गुण्य ६५= गुण ३२ । ऋ । । क्षीण ऊ २० । गुण्य ६५ । गु १६ । ऋ । सयोग ऊ १४ गुण्य २५६ । गुण ६४ । २० ऋ१ । अयोगि स १३ । गुण्य २५६ गुण ३२ । ऋ१ । सिद्धपरमेष्ठि ऊ ५। शुखभंग ३१ । अधिकः पाठः।] ॥८७४॥ __ मार्गणास्थानेऽप्येवं सम्भवद्भिर्भावरव्यामोहेन स्थानभंगाः पदभंगाश्च क्रमश आनेतव्याः ॥८७५॥ बथकान्तमतभेदानाह जैसे गुणस्थानोंमें कहे ऐसे ही मार्गणास्थानमें भी यथासम्भव होनेवाले भावोंके द्वारा २५ स्थानभंग और पदभंग क्रमसे मोह रहित होकर सावधानतापूर्वक जानना चाहिए ॥८७५।। आगे एकान्त मतोंके भेद कहते हैं Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमावावंगलशीतिबामक्रियावादंगळु चतुस्थीतियुं अज्ञानवादंगळ सप्तषष्टिामितसुं वैनकवादंगळु द्वात्रिंशत्प्रमितंगळप्पुर्व गणधराविदिव्यज्ञानिगळ पळवरल्लि क्रियावादंगळ नरेंभत्तर मूलभंगंगळ पेन्दपर।: अत्थि सदो परदोवि य णिच्चाणिच्चत्तणेण यणवत्था । कालीसरप्पणियदिसहावेहि य तेहि मंगा हु ॥८७७॥ अस्ति स्वतःपरतोपि च नित्यानित्यत्वेन च नवायाः। कालेश्वरात्मनिर्यातस्वभावैस्ते भंगाः खलु ॥ इल्लि अस्तित्वदमेले स्वतःपरतः नित्यत्वेनानित्यत्वेन एंदी नाल्कु तिपूविदं बरेयल्पडुवुवु । अवरमेळे जीवाजीव पुण्यपाप मानवसंवरनिर्जराबंधमोक्षम बी नवपदात्यंगळ तिय्यंगूपविद रचियिसल्पवुवु । अवर मेले काल ईश्वर आत्म नियति स्वभाव, दिवग्, तिर्यग्रूपदिदं रचियिसल्पडुवुवु । इंतु रचिसल्पडुत्तिरलु :- काल । ईश्व । यात्म । निय । स्वभा ५। जी।।।पा।आ। सं। नि।।मो।९। स्वतः। परतः। नित्यत्वेन। अनित्यत्वेन ४। अस्ति १| बळिक्कमक्षसंचारदिवं नूरेभतु भंगंगळुच्चरिसल्पडवववे ते बोर्ड-स्वतः सन् जीवः काले नास्ति क्रियते परतो जीवः काले नास्ति क्रियते । (परतो जीवः काले नास्ति क्रियते । ) नित्यत्वेन जीवः काले नास्ति क्रियते । अनित्यत्वेन जीवः काले नास्ति क्रियते । ( अनित्यत्वेन जीवः काले. १५ क्रियावादानामशीतिशतमाहुः, अक्रियावादानां चतुरशीति, अज्ञानवादानां सप्तषष्टि, वनयिकवादानां तु द्वात्रिंशं ॥८७६॥ तत्र क्रियावादानां मूलभंगानाह प्रथमतः अस्तिपदं लिखेत् । तस्योपरि स्वतः परतः नित्यत्वेन अनित्यत्वेन इति चत्वारि पदानि लिखेत । तेषामुपरि जीवः अजीवः पुण्यं पापं आस्रवः संवरः निर्जरा बंधः इति नव पदानि लिखेत् । तदुपरि काल ईश्वर आत्मा नियतिः स्वभाव इति पंच पदानि लिखेत् । तैः खल्वक्षसंचारक्रमेण भंगा उच्यन्ते तद्यथा स्वतः सन् जीवः कालेनास्ति क्रियते । परतो जीवः कालेनास्ति क्रियते । नित्यत्वेन जीवः कालेनास्ति क्रियावादियोंके एक सौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानवादियोंके सड़सठ और वैनयिकोंके बत्तीस भेद हैं ।।८७६।। क्रियावादियोंके मूलभंग कहते हैं प्रथम तो 'अस्ति' पद लिखो। उसके ऊपर स्वतः, परतः, नित्य रूपसे, अनित्य रूपसे, २५ ये चार पद लिखो। उसके ऊपर जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, क्ष, ये नौ पद लिखो। उनके ऊपर काल, ईश्वर, आत्मा, नियति, स्वभाव ये पाँच पद लिखो। उनको लेकर अक्षसंचार क्रमके द्वारा जैसे जीवकाण्डके गुणस्थान अधिकार में प्रमादों के भंगोंका कथन किया था उसी प्रकार भंग कहते हैं स्वतः होते हुए जीव कालके द्वारा अस्ति किया जाता है। परतः जीव कालके द्वारा ३० अस्ति किया जाता है। नित्य होते हुए जीव कालके द्वारा अस्ति किया जाता है। अनित्य Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णावृत्ति जीवतवप्रदीपिका १२३९ नास्ति क्रियते ) एंबिंतु जीवबोडने नाल्कु भंगंगळप्युवु । बळिक्कं । पढनवको अंतगदो आदिगवे संकमेव विदिक्खो । बोनिवि गंतुणंत आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥ एंवितु अस्तित्वांकमों दं मेलण स्वतादिगळु नाकरवं गुणिसि मत्तमयं पदार्थन वर्कादिदं गुणिसि मत्तमदं कालादिपंचकविवं | १ | ४९ । ५ । लब्धं क्रियावादंगळ नूरेणभत्तु भेदंगळप्पुवु । १८० ॥ इल्लि:अस्थि सदो परदो वि य णिच्चाणिच्चत्तणेण य णवत्था । एसि अत्था सुगमा कालादीणं तु बोच्छामि ॥ ८७८ ॥ अस्ति स्वतः परतोपि च नित्यानित्यत्वेन च नवार्त्याः । एषामर्थाः सुगमाः कालादीनां तु वक्ष्यामि ॥ अस्ति स्वतः परतोपि च नित्यानित्यत्वेन नवार्त्या एवितिवर अत्थंगळ सुगमंगळप्पुवु । तु मर्त्त कालाविगळत्र्त्यमं क्रर्मादिदं पेलवमवरोळ कालवादर्म बुवे ते बोर्ड पेलवपर । :कालो सव्वं जणयदि कालो सव्वं विणस्सदे भूदं । जागति हि सुत्ते वि ण सक्कदे वं चिदुं कालो ॥८७९॥ कालः सव्वं, जनयति कालः सर्व्वं विनाशयति भूतं । जार्गात खलु सुप्तेष्वपि न शक्यते चितुं कालः ॥ कालमे सर्व्वमं पुट्टिसुगुं । कालमे सर्व्वं मं भूतमं किडिसुगुं । निद्वेगेय्वरोळं कालमेवत्तिक्कुं। १५ क्रियते । अनित्यत्वेन जीवः कालेनास्ति क्रियते । तथा अजीवादिपदार्थं प्रति चत्वारश्वत्वारो भूत्वा कालेनैकेन सह षट्त्रिंशत् । एवमीश्वरादिपदैरपि षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशद् भूस्वाऽशीत्यग्रशतं क्रियावादभंगाः स्युः ||८७७ अस्ति स्वतः परतः नित्यत्वेनानित्यत्वेन नव पदार्थाश्चेत्येषां चतुर्दशानामर्थाः सुगमाः । तु-पुनः कालवादादीनामर्थं क्रमेण वक्ष्यामि ॥ ८७८ ॥ काल एव सवं जनयति । काल एव सर्वं विनाशयति । निद्रितेष्वपि काल एव स्फुटं जागति । कालो २० होते हुए जीव कालके द्वारा अस्ति किया जाता है। तथा जीवके स्थानपर अजीब आदि पदार्थों को लेकर प्रत्येकके चार-चार भंग होनेसे कालके साथ छत्तीस भंग होते हैं । इसी प्रकार ईश्वर आदि पदको लेकर भी छत्तीस - छत्तीस भंग होते हैं। ऐसे पाँच पढ़ोंके एक सौ अस्सी भंग क्रियावादके होते हैं ||८७७|| अस्ति, स्वतः, परतः, नित्यरूपसे, अनित्यरूपसे और नौ पदार्थ, इन चौदहका अर्थ सुगम है। आगे काल आदिका अर्थ क्रमसे कहते हैं । २५ तो विशेषार्थ - ' अस्ति' का अर्थ 'है' । क्रियावादी वस्तुको अस्तिरूप से अस्तिरूप मानकर क्रियाका विस्तार करता है । वह वस्तुको स्वरूपसे अस्ति मानता है । पररूपसे भी अस्ति मानता है । नित्य होते हुए अस्ति मानता है । अनित्य अर्थात् क्षणिक मानकर अस्तिरूप मानता है । इस प्रकार जीव आदि नौ पदार्थोंको मानता है और मानकर क्रियावादकी स्थापना करता है कि क्रियासे ही मोक्ष होता है ||८७८ || काल ही सबको उत्पन्न करता है और काल ही सबको नष्ट करता है । प्राणियोंके क- १५६ १० ३० Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ भवति ॥ १० १२४० गो० कर्मकाण्डे स्फुटमाणि ॥ कालमेतुं वंचिसल्पडवं एंदितु नुडिवभिप्रायं कालवावमवकुं ॥ ईश्वरवादसं पेलवपद :अण्णाणी हु अणीसो अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च । सग्गं णिरयं गमणं सव्वं इसरकयं होदि ॥ ८८० ॥ अज्ञानी खलु अनीशः आत्मा तस्य च सुखं च दुखं च । स्वग्गं नरकं गमनं सव्वं ईश्वरकृतं २० आत्मज्ञानियुमनाथनुं स्फुटमागि आ आत्मंर्ग सुखमं दुःखमुं स्वर्गमुं नरकभुं गमनमुमागमनादिगळु सर्व्वमुमीश्वरकृतमक्कु बिदीश्वरवादमें बुदवकुं ॥ आत्मवादमं पेव्दपरु | :एक्को चैव महप्पा पुरिसो देवो य सव्ववावी य । सव्वं गणिगूढोविय सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥ ८८१ ॥ यत्तु यदा येन यथा यस्य च नियमेन भवति तत्तु तदा । तेन तथा तस्य भवेदिति वादो १५ नियतिवादस्तु ।। आदम आगळ' आउदो दरिदमा उदों व प्रकारदिवमावनोव्वंगे नियर्मादिदमक्कुमदुम आगळदरिमा प्रकादिवमातंगक्कुमे दिते बुदु नियतिवादमे बुदवकुं । स्वभाववादमं पेदपरु : ३० एक एव महात्मा पुरुषो देवश्च सर्व्वब्यापी च सर्व्वागनिगूढोपि च सचेतनो निर्गुणः परमः ॥ यितं बभिप्रायमात्मवादमक्कुं । सुगमं ॥ नियतिवादमं पेदपरु । :जत्तु जदा जेण जहा जस्स य नियमेण होदि तत्तु तदा । ते तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु ||८८२ ॥ चितुं न शक्यत एवेति कालवादार्थः ॥ ८७९॥ आत्मा अज्ञानी अनाथश्च स्फुटं । तस्यात्मनः सुखदुःखस्वर्ग नरकगमनागमनादि सर्वमीश्वरकृत मिति ईश्वरवादार्थः ।। ८८० | एक एव महात्मा पुरुषो देवः सर्वव्यापी सर्वांगनिगूढः सचेतनो निर्गुणः परमश्चेत्यात्मवादार्थः ॥ ८८१ ॥ | यत्तु यदा येन यथा यस्य नियमेन भवति तत्तु तदा तेन तथा तस्यैव भवेदिति नियतिवादार्थः ॥१८८२ ॥ सोनेपर भी काल जाग्रत रहता है। कालको कोई नहीं ठग सकता, उसे धोखा देना सम्भव २५ नहीं है । यह कालवादका अर्थ है ||८७९ |৷ आत्मा अज्ञानी है, असमर्थ है - कुछ करनेमें समर्थ नहीं है । उसका सुख, दुःख, स्वर्ग या नरक में जाना सब ईश्वर के अधीन है। ऐसा ईश्वरवादका अर्थ है ||८८०॥ एक ही महान आत्मा है । वही पुरुष है, देव है, सर्वव्यापी है, सर्वांगसे गुप्त है, चेतना सहित है, निर्गुण है, सर्वोत्कृष्ट है ऐसा मानना आत्मवाद है ||८८१|| जो, जब जिस द्वारा जैसे जिसका नियमसे होनेवाला है, वह उसी काल में, उसीके द्वारा, उसी रूपसे नियमसे उसका होता है, ऐसा मानना नियतिवाद है ||८८२ ॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं । विवित्तं तु सहाओ इदि सव्वंपि य सहाओ ति ॥ ८८३ ॥ कः करोति कंटकानां तीक्ष्णत्वं मृगविहंगमादीनां विविधत्वं तु स्वभाव इति सर्व्वमपि च स्वभाव इति ॥ कंटकंगळ्गे तीक्ष्णत्वं मृगविहंगंगळ विविधत्वमुमनावं माकुं । मति दुःस्वभावमे विर्त ५ सर्व्वमुं स्वभावमे दें बुदु स्वभाववादमे वुदक्कुं । इंतु क्रियावादंगळु नूरणभत्तुं पेळल्पदुवंनंतरं चतुरशीतिप्रमित क्रियावादंगळ मूलभंग मं पेदपरु : .१२४१ णत्थि सदो परदोवि य सत्तपयत्था य पुण्ण पाऊणा । कालादियादिभंगा सत्तरि चदुपंति संजादा ||८८४ ॥ नास्ति स्वतः परतोपि च सप्तपदार्थाचा पुण्यपापोनाः । कालादिका अपि भंगाः सप्ततिश्चतुः पंक्तिसंजाताः ॥ नास्तित्वद मेले स्वतः परतः एंदिवं स्थापिसि मेले मते पुण्यपापोनंगळं सप्तपदात्थंगळं स्थापिसि मेले काल ईश्वर आत्म नियति स्वभावपंचकमं स्थापिसि इंतु चतुः पंक्तिगळोळक्षसंचारसंजातभंगंगः ठप्पत्तष्वु । इदक्के संदृष्टि -: का । ई । आ । नि । स्व५ । जो । अ । आ । सं । नि । बं । मो ७ स्वतः परतः २ नास्ति १ स्वतो जीवः काले नास्ति क्रियते इत्यादि १ । २ । ७।५ । लब्धभंगंगळु सप्ततिप्रमितंगळप्पुवु । ॥७०॥ मत्तं : को नाम कंटकादीनां तीक्ष्णत्वं मृगविहंगमादीनां च विविधत्वं करोतीति प्रश्ने स्वभाव एवेति सर्व स्वभाववादार्थः ॥ ८८३ ॥ इति क्रियावादा उताः । अथाक्रियावादानां मूलभंगानाह नास्ति । तस्योपरि स्वतः परतश्च । तदुपरि पुण्यपापोनपदार्थाः सप्त । तदुपरि कालादिकाः पंचेति चतसृषु पंक्तिषु प्राग्वत्सं जाता भंगाः स्वतो जीवः कालेन नास्ति क्रियते इत्यादयः सप्ततिः ॥ ८८४ ॥ काँटे आदिको तीक्ष्ण किसने बनाया ? मृग, पशु-पक्षी नाना प्रकारके किसने बनाये । ऐसा पूछने पर उत्तर देता है - स्वभावसे ही ऐसा है । उसमें अन्य कोई कारण नहीं है, ऐसा मानना स्वभाववाद है ||८८३ || इस प्रकार क्रियावादी मत कहे । अब अक्रियावाद के मूलभंग कहते हैं । पहले नास्ति पद लिखो । उसके ऊपर स्वतः और परतः लिखो । उसके ऊपर पुण्य और पापको छोड़ शेष सात पदार्थ लिखो । उसके ऊपर काल आदि पांच लिखो । इस प्रकार चार पंक्ति करके पूर्ववत् अक्ष संचार द्वारा भंग होते हैं। जैसे जीव स्वतः कालसे नहीं किया जाता । परतः जीव कालसे नहीं किया जाता। इसी प्रकार जीवके स्थान में अजीवादि कहने से चौदह भंग कालसे होते हैं। इसी तरह ईश्वर आदि पाँचोंकी अपेक्षा चौदह भेद होनेसे सत्तर भंग होते हैं ||८८४॥ १० १५ २० २५ ३० Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० १२४२ २५ गो० कर्मकाण्डे णत्थि य सत्त पदत्था नियदीदो कालदो तिपंतिभवा । चोद्दस इदि णत्थित्ते अक्किरियाणं च चुलसीदी ||८८५ || नास्ति च सप्तपदार्थाः नियतितः कालतस्त्रिपंक्तिभवाः । चतुर्द्दश इति नास्तित्वे अक्रियाणां चतुरशीतिः ॥ नास्तित्वमं सप्तपदात्थंगळं नियति । काल २ ॥ जो | अ | आ । बं । नि । बं । मो ७ नास्ति १ को जाणइ णवभावे सत्तमसत्तं दयं अवच्चामिदि । अवयणजुदसत्ततयं इदि भंगा होंति तेसट्ठी ||८८६ ॥ को जानीते नव भावान् सत्वमसत्वं द्वयमवक्तव्यमिति । अवचनयुतसत्वत्रयमिति भंगा भवंति त्रिषष्टिः ॥ जीवाजीवपुण्यपापा व संवर निज्र्ज्जराबंध मोक्षंगळं अस्ति । नास्ति । अस्ति नास्ति । अवक्तव्यं । अस्त्यवक्तव्यं । नास्त्यवक्तव्यं । अस्तिनास्त्यवक्तव्यमे विदनाररिवर 'दु नुडिव वादंगल ९ । ७। लब्ध भंग ६३ अनुवु । जीवोऽस्तीति को जानीते । जीवो नास्तीति को जानीते । जोवोऽस्ति १५ नास्तीति को जानीते । जीवोऽवक्तव्य इति को जानीते । जीवोऽस्त्यवक्तव्य इति को जानीते । नियतिकालंगळं मेलं मेले त्रिपंक्तियं माडि स्थापिसि जीवो नियतितो नास्ति क्रियते इत्याद्यक्ष संचारसंजनिना क्रियावादंगळु पदिनाकुं । ११७ २ । कूडि सर्व्वमुमक्रियावादंगळु चतुरशीति प्रमितंगळप्पुवु । ८४ ॥ अनंतरमज्ञानवाद भेदंगळं पेदपरु : नास्तित्वं सप्तपदार्थान् नियतिकालो चोपर्युपरिपंक्तीः कृत्वा जीवो नियतितो नास्ति क्रियते इत्याद• यश्चतुर्दश स्युः । इत्येवम क्रियावादाश्चतुरशीतिः ॥ ८८५ || अज्ञानवादस्य भेदानाह जीवा दिनवपदार्थेष्वेकैकस्य वस्त्यादिसप्तभंगेष्वेकैकेन जीवोऽस्तीति को जानाति ? जीवो नास्तीति को पहले नास्ति पद लिखो । उसके ऊपर सात पदार्थ लिखो। उसके ऊपर नियति, काल ये दो लिखो । जीव नियतिसे नहीं है, जीव कालसे नहीं है। जीवकी जगह अजीवादि रखने से चौदह भेद होते हैं । इस तरह सब चौरासी भेद होते हैं । २० विशेषार्थ - अक्रियावादियोंमें दो मत जान पड़ते हैं । एक जो काल आदि पाँचों से जीवादको नास्तिरूप कहते हैं । और दूसरे जो केवल काल और नियतिसे नास्तिरूप कहते हैं ।।८८५। अज्ञानवाद के भेद कहते हैं जीव और नौ पदार्थों में से एक-एकके अस्ति आदि सात भंगों में से एक-एकसे जीव है, ऐसा कौन जानता है । अर्थात् जीव है ऐसा कौन जानता है ? जीव नहीं है ऐसा कौन जानता है । जीव है भी और नहीं भी है ऐसा कौन जानता है। जीव अवक्तव्य है ऐसा कौन जानता है ? जीव अस्ति अवक्तव्य है ऐसा कौन जानता है । जीव नास्ति अवक्तव्य है I Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२४३ जीवो नास्त्यवक्तव्य इति को जानीते। जीवो अस्ति नास्ति अवक्तव्य इति को जानीते । एंदिकजीवंगे, भंगमागल नवपदात्थंगळगमरुवतपूरु भंगंगळप्पुवे बुदत्थं । मतं : को जाण सत्तचऊ भावं सुद्धं खु दोणिपंतिभवा । चत्तारि होंति एवं अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी ॥ ८८७॥ ५ को जानीते सत्वचतुर्भावं शुद्धं खलु द्विपंक्तिभवाश्चत्वारो भवत्येवमज्ञानिनां तु सप्तषष्टिः ॥ शुद्धभावमं पदार्थमनों पंक्तियागिरिसि मेले अस्ति । नास्ति । अस्ति नास्ति । अवक्तव्यंगळं तिष्यं प्रपदिदं स्थापिसि अस्थि । नास्थि । अस्थि नास्थि अवक्तव्य । ४ शुद्ध पदार्थ १ --- द्विपंक्ति भवंगळ शुद्धपदार्थोस्तीति को जानीते । पदार्थो नास्तीति को जानीते । पदार्थोस्ति नास्तीति को जानीते । पदार्थोवक्तव्य इति को जानीते एंवितु नाल्कु भंगंगळप्पुवु । उभयमुमदवत्तेळमज्ञानंगळ वादंगळप्पुवु । ६७ ॥ अनंतरं द्वात्रिंशद्वेनयिकवादंगळ मूलभंगंगळ पेदपरु :मणवयण कायदाणगविणवो सुरणिवइणाणिजदिबुड्ढे । बाले मादुपिदुम य कायव्वो चेदि अट्ठचऊ ||८८८॥ मनोवचनकायबानग विनयः सुरनृपतिज्ञानियतिवृद्धेषु । बाले मातरि पितरि च कर्तव्य - त्यष्टचत्वारः ॥ जानाति ? इत्याद्यालापे कृते त्रिषष्टिभवंति ॥१८८६ ॥ पुनः शुद्धपदार्था इति लिखित्वा तदुपरि अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अवक्तव्यः इति चतुष्कं लिखित्वा एतत्पत्तिद्वयसम्भवाः खलु भंगाः शुद्धपदार्थोऽस्तीति को जानीते ? इत्यादयश्चत्वारो भवन्ति । एवं मिलित्वा बज्ञानवादा: सप्तषष्टिः ||८८७|| वैनयिकवादानां मूलभंगानाह— ऐसा कौन जानता है ? जीव अस्ति नास्ति अवक्तव्य है ऐसा कौन जानता है । इसी प्रकार जीवकी जगह अजीवादि रखनेसे तिरसठ भेद होते हैं ||८८६ ॥ पहले शुद्ध पदार्थ लिखो । उसके ऊपर अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति, अवक्तव्य चार लिखो। इन दोनों पंक्तियोंके मेलसे चार भंग होते हैं । यथा शुद्ध पदार्थ है ऐसा कौन जानता है आदि । ये मिलकर अज्ञानवादके सड़सठ भंग होते हैं । विशेषार्थ - अज्ञानवादी अज्ञानको ही पुरस्कृत करते हैं। ज्ञानके विषयभूत नौ पदार्थ हैं और उपायभूत सात तत्व हैं । उनके निषेधरूप तिरसठ भंग होते हैं । तथा ज्ञानका विषय शुद्ध पदार्थ है और मौलिक भंग चार होनेसे उनके निषेधरूप चार भंग होते हैं। शेष तीन भंग अवक्तव्यके साथ आध तीन भंगोंके मेलसे बनते हैं । इसलिए उन्हें छोड़ दिया है। शुद्ध द्रव्यमें उनका उपयोग सम्भव नहीं होता। इस तरह अड़सठ भंग होते हैं ||८८७ || १० १५ २० २५ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४४ गो० कर्मकाण्ड देव नृपति ज्ञानि यतिवृद्ध बाल मातृपितृगळे बो एंटु स्थानदोळ मनोविनय वचनविनय कायविनयदानविनयंगळु कर्तव्यंगळे वितु द्वात्रिंशद्वैनयिकवाद भेदंगळप्पुवु । ३२॥ देवे मनोवचनकायदानविनयः कर्तव्यः एंदितु देवनोळु नाल्कु विनयमागलु देवादिगळेंटरोळं मूवत्तेरडु भंगंगळ प्पुर्वे बुदत्थं ॥ सच्छंददिविहि वियप्पियाणि तेसविजुत्ताणि सयाणि तिण्णि । पासंडिणं वाउलकारणाणि अण्णाणिचित्ताणि हरंति ताणि ॥८८९॥ स्वच्छंददृष्टिविकल्पितानि त्रिषष्टियुक्तानि शतानि त्रीणि । पाषंडिनां व्याकुलकारणानि। अजानि चित्तानि हरति तानि ॥ __ स्वच्छंददृष्टिळिदं विकल्पिसल्पट्ट मूनूररुवत्तमूरुं पाषंडिगळ व्याकुलकारणवचनंगळु १. अज्ञानिगळ चित्तंगळं मिथ्यात्वकम्र्मोददिदं बळमाडुववु ॥ मत्तं : आलस्सड्ढो णिरुत्थाहो फलं किंचिण्ण भुंजदे। थणं खीरादिपाणं वा पउरुसेण विणा " हि ॥८९०॥ आलस्याढयो निरुत्साहः फलं किंचिन्न भुंक्ते। स्तन क्षीरादि पानवत् पौरुषेण विना न हि ॥ एंदितु पौरुषवावमक्कुं। देव-नृपति-ज्ञानि-यति-वृद्ध-बाल-मातृ-पितृष्वष्टसु मनोवचनकायदानविनयाश्चत्वारः कर्तव्याश्चेति द्वात्रिंशद्वैनयिकवादाः स्युः ।।८८८॥ स्वच्छन्ददृष्टिभिर्विकल्पितानि त्रिषष्टियुतत्रिशतानि पाखंडिनां व्याकुलकारणवचनानि तान्यज्ञानिचित्तानि हरंति मिथ्यात्वोदयात् ।।८८९।। पुनः आलस्याढ्यो निरुत्साहः फलं किंचिन्न भुक्ते स्तनक्षीरादिपानवत् पौरुषेण विना न होति पौरुषवादः ॥८९०॥ वैनयिकवादके मूल भंग कहते हैं देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता-पिताकी मन, वचन, काय और दानसम्मानसे विनय करना चाहिए। इस तरह आठ प्रकारके व्यक्तियोंकी चार प्रकारसे विनय करनेसे बत्तीस भेद होते हैं। विशेषार्थ-सब देवों और सब धर्मोको समान मानकर सबकी समान विनय करना १ वैनयिकवाद है। उक्त आठ व्यक्तियों में प्रायः सभी गर्भित हो जाते हैं। विनयवादमें विवेकको स्थान नहीं है ।।८८८॥ इस प्रकार स्वच्छन्द दृष्टिवालोंके द्वारा कल्पित तीन सौ तिरसठ मतोंके वचन जीवोंमें व्याकुलता पैदा करने में कारण हैं। मिथ्यात्वसे ग्रस्त अज्ञानीजन उन वचनोंको सुनकर मुग्ध हो जाते हैं ।।८८९।। अन्य भी एकान्तवादोंको कहते हैं जो आलस्यसे भरपूर है, जिसे कुछ भी करनेका उत्साह नहीं है वह कुछ भी फल भोगनेमें नहीं है। बिना पौरुषके माताके स्तनसे दूध भी नहीं पिया जा सकता है। अतः पौरुषसे ही कार्य सिद्धि होती है। यह पौरुषवाद है ।।८९०॥ २० ३० Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४१ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका दइवमेव परं मण्णे धिप्पउरुसमण्णत्थयं । एसो सालसमुत्तं गो कण्णो हण्णइ संगरे ॥८९१॥ देवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकं । एष सालसमुत्तंगः कर्णो हन्यते संगरे । एंदितु दैववादमकुं। संजोगमेवेत्ति वदंति तण्णा वेक्कचक्केण रहो पयादि । । अंधो य पंगू य वणप्पविट्ठा ते संपजुत्ता णयरं पविट्ठा ॥८९२।। संयोगमेवेति वदंति तज्जा नैत्रैकचक्रेण रथः प्रयाति । अंधश्च पंगुश्च वनं प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥ एंदितु संयोगवाद मक्कुं॥ सइउट्ठिया पसिद्धी दुवारा मेलिदेहि वि सुरेहिं । मज्झिमपंडवखित्ता माला पंचसुवि खित्तेव ।।८९३॥ सकृत्थिता प्रसिद्धिारा मिलितैरपि सुरैः। मध्यमपांडवक्षिप्ता माला पंचस्वपि क्षिप्तेव ॥ ये वितिदुलोकवावमक्कुं। किंबहुना । जावदिया वयणबहा तावदिया चैव होंति पयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ||८९४॥ यावंतो वचनमार्गा स्तावंत एव नयवादाः । यावंतो नयवादास्तावंत एव परसमयाः॥ १५ । देवमेव परं मन्ये धिक् पौरुषमनर्थकं एष सालसमुतुंगः कर्णो हन्यते संगरे इति दैववादः ॥८९१॥ संयोगमेवेति वदंति तज्ज्ञा नैवकचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वनं प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तो नगरं प्रविष्टाविति संयोगवादः ।।८९२॥ सकृदुत्थिता प्रसिद्धिर्दुरा मिलितैरपि सुरैः, मध्यमपांडवक्षिप्ता माला पंचस्वपि क्षिप्तयेति लोकवादः किंबहुना ।।८९३।। २० यावन्तो वचनमार्गास्तावन्तो एव भवन्ति नयवादाः यावन्तो नयवादास्तावन्त एव भवन्ति परसमयाः ॥८९४॥ अथ परसमयिवचनानामसत्यत्वे कारणमाह मैं दैव-भाग्य को सर्वोत्कृष्ट मानता हूँ। पौरुष निरर्थक है उसे धिक्कार हो। देखो, सालवृक्षकी तरह ऊँचा कर्ण महाभारत के युद्ध में मारा गया। यह दैववाद है ॥८९१॥ दैव और पौरुषको जाननेवाले उन दोनोंके संयोगको ही मानते हैं। क्योंकि एक २५ पहियेसे रथ नहीं चलता। उदाहरण है-एक अन्धा और एक लँगड़ा वनमें फंस गये । अचानक दोनोंका वहाँ मिलाप हुआ और अन्धेके ऊपर लँगड़ा पुरुष बैठ गया और इस तरह दोनों नगरमें आ गये। यह संयोगवाद है ।।८९२|| . एक बार जो बात लोकमें फैल जाती है उसे सब देव भी मिलकर मिटा नहीं सकते। जैसे द्रौपदीने अर्जुनके गलेमें वरमाला डाली थी। किन्तु लोकमें प्रसिद्ध हो गया कि पाँचों ३० पाण्डवोंके गले में माला डाली है । अर्थात् लोकवाद भी एक मिथ्यावाद है ।।८९३|| जितने वचनके मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं। और जितने नयवाद हैं उतने पर समय हैं ।।८९४॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाणे अनंतरं परसमयिगळ वचनंगळ बसत्यके कारणमं पेन्दपर : परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा । जहणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचिवयणादो ॥८९५॥ परसमयानां वचनं मिथ्या खलु भवति सर्वथा वचनात् । जेनानां पुनवंचनं सम्यक्खलु ५ कथंचिद्वचनतः॥ परसमयानां वचनं मिथ्या खलु भवति सर्वथा वचनात् । जनानां पुनर्वचनं सम्यक् खलु कथंचिदपनात् ।।८९५॥ पर समय अर्थात् अन्य दर्शनोंका वचन मिथ्या है क्योंकि वे वस्तुको सवथा एकरूप ही मानते हैं। किन्तु जैनोंका वचन सत्य है; क्योंकि वे वस्तुको कथंचित् उस रूप कहते १० हैं ॥८९५॥ विशेषार्थ-जैनमतके अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें परस्परमें विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्म रहते हैं । एक ही वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है । एक भी है अनेक भी है । भावरूप भी है और अभावरूप भी है। स्वरूपसे भावरूप है और पररूपसे अभावरूप है । जैसे घट घटरूपसे सत् है और पटरूपसे असत् है । यदि ऐसा न माना जाये और घटको केवल सत् ही माना जाये तो जैसे घट-घट रूपसे सत् है वैसे ही पटरूपसे भी सत् हो जायेगा, क्योंकि आप उसे सर्वथा सत् मानते हैं। सर्वथाका मतलब है सब रूपसे या सब प्रकारसे। अतः जो वस्तुको सर्वथा सत् कहते हैं उनका कथन मिथ्या है। प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व दो बातोंपर निर्भर है-स्वरूपका ग्रहण और पररूपका त्याग । स्वरूपका प्रहण भावरूप है और पररूपका त्याग अभावरूप है। अतः वस्तु भावाभावात्मक है । इस२० लिए जैनदर्शन वस्तुको कथंचित् सत् और कथंचित् असत् कहता है। कथंचित्का मतलब है किसी अपेक्षासे, सर्वथा नहीं। इसी प्रकार वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है । द्रव्यरूपसे नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है। अतः किसीको सर्वथा नित्य और किसीको सर्वथा अनित्य कहना भी मिथ्या है। वस्तुके इन अनेक धर्मों में से एक धर्मको ग्रहण करनेका नाम नय है । नय सम्यक भी होते हैं और मिथ्या भी। यदि एक धर्मको ग्रहण करके वस्तुको उस २५ एक धर्मरूप ही सर्वथा कहा जाता है तो वह मिथ्या है। और यदि एक दृष्टि से ही उसे उम रूप कहा जाता है तो वह सम्यक् है। इसलिए वस्तुको कथन करनेके जितने मार्ग हैं वे सब नयवाद हैं। और एक-एक नयको ही यथार्थ मानकर उसीका आग्रह करना एकान्तवाद है। प्रत्येक एकान्तवाद परसमय है-मिथ्यामत है। और सब एकान्तोंको सापेक्षरूपसे स्वीकार करना अनेकान्तवाद है। वही जैनमत है। अतः जैनदर्शन समस्त एकान्तवादी दर्शनोंका ३० सापेक्ष समन्वयरूप है ।।८९५।। . Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२४७ इंतु भगवदर्हत्परमेश्वर चारुचरणारविंदद्वंद्व वंदनानंदित पुण्यपुंजायमान श्रीमद्राय राजगुरुमंडलाचाय्र्यमहावादवादीश्वर राय वादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्त श्रीमदभयसूरि चारुचरणारविव रजोरंजितललाटपट्ट् श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसार कर्नाटवृत्तिजीवतत्व प्रदीपिकयो कम्र्मकांडभावचूळि कामहाधिकारं व्याकृतमादुदु ॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां कर्मकांडे भावचूलिका नाम सप्तमोऽधिकारः । इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतस्य प्रदीपिका की भनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटोकाको अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत भावचूलिका नामक सातवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥७॥ ॥ छंद - कन्दपद्य ॥ सेवळ माण्डवे बिसटं बरिवैदु मिद्रियंगळ् नररं ॥ अगतिगे योगवे दुर्व्यसन दिनोंदोंद रिदमसुभृन्निवहम् ॥ १ ॥ बसदागि वसेगे वनकरि बिसिलोळ बंधनदिनिष्पं दुःस्थितियवु । दुर्व्यसन स्पर्शनमोंदरिम सुभृद्गण मैदुविषर्याद बदपुर्व ? ॥२॥ रसनविषयातिलंपट विसारभं बडिशगरण नेत्राश्रुगळ । गणिगोळ तिप्पुदं केळबेसनिग । भक्ष्यदिनुपस्थितं दुःस्थितियम् ॥३॥ पंचेन्द्रिय विषयवासनाएँ मानवको अपनी इच्छानुसार नचाकर दिग्भ्रमित कर देती हैं । संसारके सभी जीवराशि इन पाँचों में से एक-एक इन्द्रियवासना के दुर्व्यसनोंमें फँसकर अनेक भव-भवान्तरों में उत्पन्न होकर दुःख अनुभव करते हैं तो पाँचों इन्द्रिय वासनाओंकी बात ही क्या बतावें ॥१॥ मदोन्मत्त जंगली हाथी धूपमें खड़ा है। चारों ओरसे दावाग्निके स्पर्श से बन्धनमें फँसकर दारुण दुःखका अनुभव करता है। इस प्रकार एक स्पर्शनेन्द्रिय वासना में फँसकर वह इतनी दुःस्थितिको प्राप्त करता है तो पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत होकर ये जीवराशि सुखसे जीवित रह सकता है क्या ? ॥२॥ १० १५ २० मछुवा डोरी की एक ओर सूई और माँस का टुकड़ा बांधकर पानीमें डाल देता है । ३० रसनेन्द्रिय लालसासे आयी हुई मछली उसमें फँसकर आँसू बहाती है । और छटपटाती है । व्यसनि मानव ! देखो, खानेकी अभिलाषासे प्राप्त दुःस्थितिको । तुम्हारी भी यही दुःस्थिति होगी ॥३॥ क- १५७ २५ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४८ गो० कर्मकाण्डे भरदोंद्रिय विषयक्कुर वणिसि निमग्ननागे दोः स्थित्यमवम् । खरकर किरणमे पेगुं तुरक्षशिक्षा क्षमावलंम्बन दक्षा ॥ ४ ॥ ओद्रिद्रियद पोंडप्पि बंदोलवि पाय्व शलभनिवहक्कावा - ॥ बद वौः स्थित्यमदं मंदिर मंदिरद दोपनिवहमे पेळगुम् ||५|| 'सरि ग म प ध नि गळोळ नगसरित्समं परियुतिर्श्ववदिद्रियविम् ॥ शरहतिय दौः स्थित्यमनरण्य पक्कणगणं समंतदे पळ्गुम् ॥६॥ कोले पुसि · कळवु· सतीजननिळोलनतिकांक्षि जिनवचन रुचिरहितम् ॥ तोळवंते जगत्त्रयदोलु तोळल्गुं पंचाक्षनायकं मनमनिशम् ॥७॥ विषयमशेषं विषयगे विषदवं विषममेंदोडिनितरिनेना ॥ विषयमनुरदने जिनवाग्विषयं तानागदंदु विषयि दुरात्मम् ॥८॥ गोम्मटसारद वृत्तियदोम्मेयुमिद्रियचयक्के सुविषयमागलु ॥ धम्मनतींद्रिय - सौख्यव नेम्गेयं बुधर्गे मालपुवोंवचचरिये ? ॥९॥ अब देखो, नासेन्द्रिय ( घ्राणेन्द्रिय ) विषय वासनाके परिणामको- - एक नासेन्द्रियकी विषय वासना की ओर आकृष्ट होकर और उसमें तल्लीन रहकर प्राणी दुःस्थितिको प्राप्त १५ करता है (यहाँ उदाहरण नहीं दिया गया है ) इस दुष्ट इन्द्रिय बासनासे क्षमाशील समर्थ व्यक्ति ही शिक्षा पा सकता है यह बात सूर्य किरणकी तरह स्पष्ट है, सत्य है ॥४॥ अब नेत्रेन्द्रियकी वासना - प्रत्येक मन्दिरोंमें देदीप्यमान दीपमालाएँ जगमगाती हैं । उनपर नेत्रेन्द्रिय चपलतामें फँसे अनेकों शलभों ( कीड़े-मकोड़ों ) के समूह मुग्ध होकर आ गिरते हैं और प्राणार्पणकी दुःस्थितिको प्राप्त कर लेते हैं । नेत्रेन्द्रिय वासनाके परिणामोंको वे २० दीपमालाएँ ही साक्षी दे रही हैं ||५|| 'सरिगमपधनि' नामक सप्त स्वरोंके लयबद्ध वालके अनुसार पर्वतोंसे नीचे कलकल करती नदियाँ बहती हैं। उस नादको अनुकरण करनेवाले व्याधोंके धनुषकी सिंजिनके झंकार से मुग्ध होकर शिकारी जीव उसके बाणाघातसे प्राणार्पणको दुःस्थितिको प्राप्त कर लेते हैं । इन तमाशाओंका वर्णन उन अरण्यवासी शिकारीपुरके व्याधबंधुओंके २५ मुखसे ही सुनें तो ठीक रहेगा ||६|| हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्रीव्यामोह और अत्याशा के वशीभूत मानव श्रीजिनेश्वरके बताये पंचाणुव्रतों पर रुचि रखता नहीं है और जीवनमें अनेकों दुःख भोगता है । इसी प्रकार तीनों लोक में स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रेन्द्रिय वासनामें फँसा यह मानव-मन सदा काल-भवभवान्तरमें दुःखोंका अनुभव करता रहता है ||७|| ३० पंचेन्द्रियोंकी विषयवासनाएँ, इन विषयोंपर असक्त लम्पट व्यक्तिको कालकूट विषसे भी अत्यन्त विषमतर हैं। ऐसा कहनेपर भी जो भगवान् जिनेश्वरके बताये मार्गपर चलनेको उद्युक्त नहीं होता अर्थात् इन विषयवासनाओंको त्यागने को तैयार नहीं होता तो इसके बराबर लम्पट और दुरात्मा और कौन होगा ? ॥८॥ ३५ इस गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) की ( केशवण्णकी रची ) कर्नाटक भाषाकी वृत्तिको जो अपने पाँचों इन्द्रियोंके लिए अत्यन्त श्रेष्ठ वस्तु बना लेता है यानी एक बार मन-वचन-कायसे इसका स्वाध्याय कर लेता है ऐसे विद्वान् भव्योंको अतीन्द्रिय सुख-मुक्ति की प्राप्ति हो, इसमें आश्चर्य क्या है । अर्थात् उन्हें मोक्ष प्राप्ति सुलभ है ||९|| Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ त्रिकरणचूलिकाधिकारः ॥८॥ णमह गुणरयणभूसण सिद्धतामियमहद्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥८९६॥ नमत गुणरत्नभूषण सिद्धांतामृतमहाब्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंद्रं निर्मलगुणमिद्रनंदिगुरुं ॥ सुगम ॥ इगिवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । पढम अधापवत्तं करणं तु करेदि अपमत्तो ॥८९७॥ एकविंशतिमोहक्षपणोपशमननिमित्तानि त्रिकरणानि तत्र । प्रथममधःप्रवृत्तकरणं तु करोत्यप्रमत्तः॥ अनंतानुबंधिरहित द्वादशकषाय नवनोकषायम बेकविंशतिमोहनीयकर्मक्षपणोपशमननिमित्तं- १० गळधःप्रवृत्तापूर्वकरणानिवृत्तिभेददिदं त्रिकरणंगळप्पुववरोळु प्रथममधःप्रवृत्तकरणमनप्रमत्तसंयतं माळकुमातं सातिशयाप्रमत्तन बोनक्कुं। जम्हा उवरिमभावा हेट्ठिमभावेहि सरिसगा होति । तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिद्दिट्ट ।।८९८।। यस्मादुपरिमभावा अधस्तनभावैः सदृशा भवंति । तस्मात्प्रथमं करणमधःप्रवृत्तमिति १५ निद्दिष्टं ॥ नमत गुणरत्नभूषण सिद्धान्तामृतमहाधिभवभावं वरवीरनन्दिचन्द्रं निर्मलगुणमिद्रनन्दिगुरुं ।।८९६॥ अनन्तानुबन्धिभ्योऽन्यकविशतिचारित्रमोहनीयानां क्षपणाया उपशमस्य च कारणानि त्रीण्यष:प्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानि तेषु प्रथममधःप्रवृत्तकरणं तु सातिशयाप्रमत्त एव करोति ॥८९७॥ गुणरूपी रत्नके आभूषणोंसे शोभित हे चामुण्डराय ! सिद्धान्तरूपी अमृतके महासमुद्र- २० से प्रकट होनेवाले आचार्य वीरनन्दिरूपी चन्द्रमाको तथा निर्मल गुणोंसे शोभित आचार्य इन्द्रनन्दि गुरुको नमस्कार करो ॥८९६॥ विशेषार्थ-आचार्य नेमिचन्द्रने चामुण्डरायके लिए गोम्मटसारकी रचना की थी। वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि उनके गुरु थे। इस प्रकरणमें अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोंका कथन है जो जीवकाण्डके प्रारम्भमें आ चुका है। यहाँ आचार्य उनको २५ लेकर एक पृथक् अधिकार द्वारा कथन करते हैं। जो बात यहाँ स्पष्ट न हो उसे जीवकाण्डसे जानना चाहिए ॥८९६|| अनन्तानुबन्धी चारके बिना चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंकी क्षपणा और उपशमनामें कारण तीन प्रकारके परिणाम हैं। उन्हें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण कहते हैं। उनमें से प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती करता है ।।८९७॥ ३० Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५० गो० कर्मकाण्डे __ आउदोंदु कारणदिदमुपरितनसमयभावंगळुमधस्तनभावंगळोडने समानंगळप्पुवद् कारणदिव प्रथमकरणमधःप्रवृत्त वितन्वय॑नाम पेळल्पटुदु । अंतोमुहुत्तमेत्तो तक्कालो होदि तत्थ परिणामा । लोगाणमसंखपमा उवरुवरि सरिसवढिगया ॥८९९।। ५ अंतर्मुहूत्तमात्रस्तत्कालों भवेत्तत्र परिणामाः। लोकानामसंख्यप्रमा उपयुपरि सदृशवृद्धिं गताः ॥ आ अधःप्रवृत्तकरणकालमंतर्मुहूर्तमात्रमक्कुमा कालदोळ संभविसुव विशुद्धिकषाय परिजामंगळुमसंख्यातलोकप्रमितंगळप्पुवल्लि प्रथमसमयानंतर द्वितीयसमयं मोवल्गोंडु मेले मेले सदृशप्रचययुतंगळप्पुवु । अदें तें वोडे आ प्रथमादिसमयंगळो संभविसुव परिणामसंख्यानयन१० विधानमनंकसंदृष्टियिंदं पेन्वपरु : बावत्तरितिसहस्सा सोलसचउचारि एक्कयं चेव । धण अद्धाणविसेसे तियसंखा होइ संखेज्जे ॥९००॥ द्वासप्ततित्रिसहस्राणि षोडश चतुश्चत्वारि एककं चैव । धनमध्वानविशेष त्रिकसंख्या भवति संख्येये ॥ अधःप्रवृत्तकरणसर्वपरिणामंगळ धनमें बुदा धनमंकसंदृष्टियोळु द्वासप्तत्युत्तरत्रिसहस्रं. गळप्पुवु। ३०७२ ॥ अध्वानमें बुदेरडु तेरनक्कुमल्लि अधःप्रवृत्तकरणकालमध्वाध्यानमक्कुमदक्के षोडशांकसंदृष्टियक्कुं । ऊ १६ । अनुकृष्ट यध्वानं तिर्यगध्वानमक्कुमवरल्लि संदृष्टि नाल्कुरूप. यस्मात्कारणादुपरितनसमयभावा अधस्तनसमयभावः सह समाना भवन्ति तस्मात्कारणात्तत्प्रथम अधःप्रवृत्तमिति निर्दिष्टं ॥८९८॥ तस्याषःप्रवृत्तकरणस्य कालोऽतर्मुहूर्तमात्रो भवति । तत्र काले सम्भवन्तो विशुद्धिकषायपरिणामाः तलोकमात्राः सन्ति । ते च तत्प्रथमसमयमादि कृत्वा उपर्यपरि सर्वत्र सदशप्रवयवद्धया वर्धते ॥८९९।। तत्र तावदंकसंदृष्ट्या धनं द्वासप्तत्यपत्रिसहस्री ३०७२। ऊध्विानः षोडशांकः १६ । तियंगध्वानश्च क्योंकि इस अधःप्रवृत्तकरणमें ऊपरके समय सम्बन्धी भाव नीचेके समय सम्बन्धी भावोंके समान होते हैं । अर्थात् जैसे किसी जीवके दूसरे-तीसरे आदि समयोंमें जैसा भाव १. होता है वैसा ही भाव कि ली जीवके पहले समयमें ही होता है। इससे इस पहले करणको अधःप्रवृत्त कहते हैं ।।८९८॥ ___ उस अधःप्रवृत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। उस कालमें होनेवाले विशुद्धतारूप कषायपरिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं। वे परिणाम प्रथम समयसे लगाकर ऊपर-ऊपर सर्वत्र समान चयवृद्धिसे बढ़ते हुए होते हैं। अर्थात् पहले समयके परिणामोंसे दूसरे समयके परिणामोंमें जितनी वृद्धि होती है, दूसरे समयके परिणामोंसे तीसरे समयके परिणामोंमें भी उतनी ही वृद्धि होती है। इस प्रकार अन्तिम समय पर्यन्त वृद्धि होती जाती है ।।८९९॥ __उन्हें प्रथम अंकसंदृष्टि से दर्शाते हैं। सर्वधन तीन हजार बहत्तर है। ऊर्ध्वरूप गच्छका r awaawa Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५१ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गळक्कुं । ४ । विशेष बुदु प्रचधमक्कुमा प्रचयं ऊर्ध्वप्रचयमेदु तिर्यक्प्रचयमेंदु मेरडु भेदमक्कुमल्लि ऊर्ध्वविशेषदोळु संदृष्टि नाल्कु रूपुगप्पुवु । ४ ॥ तिय्यंग्विशेष दोळेकरूपं संदृष्टियक्कं । १। प्रचयम साधिसुवल्लि त्रिसंख्य संख्यातक्के संदृष्टियक्कुं । ३१ ॥ यतागुत्तं विरलु : आदिधणादो सव्वं पचयधणं संखभागपरिमाणं । करणे अधापवत्ते होदि त्ति जिणेहि णिद्दिजें ॥९०१॥ आदिधनात्सवं प्रचयधनं संख्यभागपरिमाणं । करणे अधःप्रवृत्ते भवेदिति जिनैग्निद्दिष्टं ॥ यिल्लियधःप्रवृत्तकरणदोळ आदिधनमें दं प्रचयधनमेंदु धनमित्तेरनक्कुमल्लि आदिधनमं नोडलु सव्वं प्रचयधनं सप्तविंशतिपंचभागमप्पुरिदं संख्यातेकभागप्रमाणमक्कु आदि धन २५९२ २७ एंदितु जिनरिदं पेळल्पद्रुदु। अदेते दोडे इल्लि प्रचय धनमंतप्पल्लि मुन्नं प्रचयप्रमाणमरि यल्पडुगुमप्पुरि पदकदिसंखेण भाजिदे पचयदितिल्लि पदमेंबुदधःप्रवृत्तकरणकालप्रमाणमक्कुम १० दक्के पदिनारेंदु संदृष्टियपुरिदमदर कृतियनिदं १६ । १६ । पूर्वोक्त त्रिकसंख्यासंख्यादिदं तुरंकः ४। ऊवविशेषोऽपि चतुरंकः ४ । तिर्यग्विशेषो रूपं १ । प्रचयसाधनसंख्यातस्येकः ३ ॥९००। __ अधःप्रवृत्तकरणे सर्व प्रचयधनं आदिधनतः संख्यातकभागमात्रं स्यात् २५९२ तद्यया-पद १६ । २७ प्रमाण सोलह । तिर्यगरूप गच्छ चार । ऊर्ध्वरूप विशेष चार। तिर्यगरूप विशेष एक । चयके साधनके लिए संयातका चिह्न तीन है ॥९००। विशेषार्थ-करणके सब समय सम्बन्धी परिणामोंकी संख्या सर्वधन तीन हजार ' बहत्तर है । करणके काल में जितने समय हों, उनकी रचना ऊपर-ऊपर होती है अतः उसके समयोंके प्रमाणको ऊर्ध्व गच्छ कहा है। एक समयवर्ती किसी जीवके कितने परिणाम होते हैं, किसीके कितने होते हैं। इस प्रकार एक समयमें जितने खण्ड हों उनकी रचना बराबरमें करना । अतः उन खण्डोंका जो प्रमाण हो उसे अनुकृष्टिका तिर्यग् गच्छ कहते हैं । प्रति समय २० जितने परिणाम क्रमसे बढ़ते हैं उनको ऊर्ध्वरूप अनुकृष्टिको विशेष या चय कहते हैं। आगे चयका प्रमाण जाननेके लिए संख्यातसे भाग दिया जायेगा इससे अंक संदृष्टि में संख्यातका चिह्न तीनका अंक रखा है । तीनसे संख्यात जानना ॥९००॥ अधःप्रवृत्तकरणमें सर्व चयधन आदिधनके संख्यातवें भाग है। सब समयोंके चयके जोड़का जो प्रमाण होता है उसे चयधन कहते हैं। और जितना-जितना चय बढ़ता है उसको छोड़कर सब समयोंके आदिधनको जोड़नेपर जो प्रमाण हो उसे आदिधन कहते हैं। करण ११ सूत्रके अनुसार पदकी कृति और संख्यातले सर्वधनमें भाग देनेपर ऊर्ध्वचयका प्रमाण होता है। पद अर्थात् सोलहके कृति अर्थात् वर्ग दो सौ छप्पन और संख्यातका चिह्न तीनका भाग सर्वधन तीन हजार बहत्तरमें देनेपर चार पाये । यही ऊर्वचयका प्रमाण जानना। तथा Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५२ गो० कर्मकाण्डे गुणिसि १६ । १६ । ३ । उभयधनम ३०७२ । भागिसुत्तं विरलु ३०७२ बंद लब्धं नाल्क १६.१६३ प्पुवु ४। तदूर्ध्वप्रचयमबुदक्कं । व्येकपब १६ । १। अर्द्ध १५ । घ्नचय १५ । ४ । गुणो गच्छ १५ । ४ । १६ उत्तर धनमेंदिवधःप्रवृत्तकरणदोळुत्तरधनमेंबुदक्कु । ४८० ॥ मी प्रचयपनमं सर्व धनदोलु कळेदोडे शेषमिदादिधनमक्कु २५९२ । मिदर संख्यातेकभागं सर्वप्रचयधनप्रमाण. ५ मक्कुमेंबुदु तात्पर्य्यात्य २५९२ । ५ अपतितमिदु ९६ । ५ । गुणित लब्धमिदु ४८० । अवें ते दोडे २७ प्र ४८० १ क श १। इ २५९२ । लब्धशलाके २७ मत्तं प्रश २७ फ २५९२ । इ १ लब्धधन-९६ । ५। गुणितलब्ध ४८० । ई प्रचयधनमावि धनव संख्यातेकभागमेंदु जिनरिवं पेळल. पटुदु। एके दोडादिधनद सप्तविशतिपंचभागमपुरिदं । उभयधणे सम्मिलिदे पदकदिगुणसंखरूवहदपचयं । सव्वधणं तं तम्हा पदकदिसंखेण माजिदे पचयं ॥९०२॥ उभयधने सम्मिलिते पदकृतिगुणसंख्यरूपहतप्रचयः। सबंधन तत् तस्मात्परकृतिसंख्येन भाजिते प्रचयः स्यात् ॥ कृत्या १६ । १६ । संख्यातेन च ३ सर्वधने ३०७२ । भक्ते ३०७२ ऊर्ध्वप्रचयप्रमाणं स्यात् ।। व्येकपद १६-१। अर्घ १५ हनचय १५ । ४ गुणो गच्छ १५ । ४। १६ उत्तरपनं ४८० । एतस्मिन् २२ सर्वधनादपनीते शेषमादिघनं स्यात् २५९२ । प्र ४८० । फश १ । इ २५९२ । लब्धशलाकाः २७ पुनः प्र श२७ फ २५९२। इ १ लब्ध ४८० । इति प्रचयधनमादिधनस्य संख्यातकभागः इति जिननिर्दिष्टं, मादिषनस्य सप्तविंशतिपंचभागमात्रत्वात् ।।९०१॥ एक कम पदके आधेको चयसे और पदसे गुणा करनेपर चयधन होता है। सो एक कम पद पन्द्रहके आधे साढ़े सातको चयसे गुणा करनेपर तीस हुए। उसे पद सोलहसे गुणा करनेपर चार सौ अस्सी चयधन या उत्तरधनका प्रमाण होता है। इसको तीन हजार बहत्तरमें घटानेपर पचीस सौ बानबे रहे, यही आदिधन है। तथा प्रमाण राशि ४८०, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि पच्चीस सौ बानबे। फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर सत्ताईसका पाँचवाँ भागमात्र शलाका हुई। तथा प्रमाण राशि सत्ताईस शलाकाका पाँचवाँ भाग, फलराशि पच्चीस सौ बानबे, इच्छा एक शलाका । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाण२५ का भाग देनेपर चार सौ अस्सी पाये। ऐसे त्रैराशिक करके सर्वधन तीन हजार बहत्तरको ' सत्ताईसके पांचवें भागसे भाग देनेवर चयधन चार सौ अस्सी होता है। अतः चयधन या उत्तरधन आदिधनके संख्यातवें भाग कहा है ॥९०१।। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२५३ आविधनमनुत्तरधनमुमं कूडुतं विरलदर प्रमाणमेनितक्कुमेंते दोडे पदकृतिगुणित संख्यरूपदिवं १६ । १६ । ३ । हतप्रचयप्रमाणमक्कुम । ४ । २५६ । ३ । दु सर्व्वधनं द्विसप्तत्युत्तरत्रिसहस्रप्रमितमक्कु में बुदर्त्यमवु कारणमागि पदकृति । २५६ | संख्ये न । ३ । भाजिते । ३०७२। २५६ । ३ लब्धं प्रचयप्रमाण मेंदु पेळपट्टुवु । ४ । चयधणहीणं दव्वं पदमजिदे होदि आदिपरिमाणं | आदिम्म चये उड्ढे पडसमयधणं तु भावाणं ॥ ९०३ ॥ चयधनहीनं द्रव्यं पदभाजिते भवत्यादिपरिमाणं । आदौ चये वृद्धे प्रतिसमयधनं तु भावानां ॥ चयधन ४८० | रहित द्रव्य सबंधनं ३०७२ | आदिधनं शेषमदं २५९२ | पदभजिदे अध्वानर्विदं भागिसुत्तिरळु । २५९२ | आदिधनं भवेत् आदि धनगक्कु १६२ । मादौ ई आदिधनद १६ प्रचयः १० मेले मेले प्रतिसमयं चयं पेच्चुंतविरलू तु मत्रो प्रतिसमय धनं स्याद् भावानां एंबितु अधः प्रवृत्त करण प्रथमसमयं मोवल्गोडु चरमसमयपध्यंतमाद विशुद्धपरिणामंगळ प्रतिसमयध नमक्कुं । १६२ । १६६ । १७० | १७४ । १७८ । १८२ । १८६ । १९० | १९४ । १९८ । २०२ । २०६ । २१० । २१४ । २१८ । २२२ । आद्युत्तरघने सम्मिलिते पदकृतिगुणितसंख्यरूप १६ । १६ । ३ । हतप्रचयप्रमाणं ४ । २५६ । ३ । भवति तत्सर्वधनं तस्मात्कारणात् पदकृति २५६ | संख्येन ३ भाजिते ३०७२ प्रचयः स्यादित्युक्तं ॥ ९०२ ॥ १५ २५६।३ तत्सर्वधनं ३०७२ चयवनेन ४८० हीनं कृत्वा २५९२ पदेन भक्तं सत् २५९२ आदेः प्रथमसमयघनस्य १६ परिमाणं स्यात् १६२ । तस्योपर्येकैकस्मिन् चये ४ वृद्धे सति तु पुनः अधःप्रवृत्तकरणस्य विशुद्धपरिणामाना प्रतिसमयधनं समागच्छति । १६२ । १६६ । १७० | १७४ । १७८ । १८२ । १८६ । १९० । १९४ । १९८ । २०२ । २०६ । २१० । २१४ । २१८ । २२२ ।। ९०३ ।। आदिधन और उत्तरधनको मिलानेपर सर्वधन होता है । वह सर्वधन पद या गच्छके २० वर्गको संख्यातसे और चयसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना है । सो गच्छ सोलह के वर्ग दो सौ छप्पनको संख्यात तीन से गुणा करनेपर सात सौ अड़सठ होता है और उसे चारसे गुणा करनेपर तीन हजार बहत्तर होता है। इतना ही आदिघन और उत्तरधनको मिलानेपर होता है | अतः पदके वर्ग और संख्यातका भाग सर्वधन में देनेपर चयका कहा है || ९०२ ॥ सर्वधन तीन हजार बहत्तर में चयधन चार सौ अस्सी घटानेपर पच्चीस सौ बानबे २५ रहते हैं । उसको गच्छ सोलहका भाग देनेपर एक सौ बासठ आते हैं। यही प्रथम समय सम्बन्धी विशुद्ध परिणामोंका प्रमाण है । उसमें एक चय चार मिलानेपर एक सौ छियासठ दूसरे समय सम्बन्धी परिणाम होते हैं । उसमें एक चय मिलानेपर एक सौ सत्तर तीसरे समय सम्बन्धी परिणाम होते हैं। इस प्रकार ऊपर-ऊपर रचना करके एक-एक चय बढ़ातेबढ़ाते अधःप्रवृत्तकरणके परिणामोंका प्रमाण आता है । यथा -- १६२ । १६६ । १७० | १७४ | १७८ । १८२ । १८६ । १९० | १९४ । १९८ । २०२ । २०६ । २१० । २१४ । २१८ । २२२ ॥ ९०३॥ ३० Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५४ गो० कर्मकाण्ड पचयधणस्साणयणे पचयप्पभवं तु पचयमेव हवे । रूऊण पदं तु पदं सव्वत्थ वि होइ णियमेण ॥९०४॥ प्रचयधनस्यानयने प्रवयः प्रभवस्तु प्रचय एव भवेत् । रूपोनपदंतु पदं सर्वत्रापि भवति नियमेन ॥ प्रचयधनमतप्पल्लि घोल्लेडेखोळं प्रचयमुं प्रभवमुं प्रच यमेयककुं। तु मते रूपोनपदमे ४।४।४ ४।४ ४।उ आ पदमकुं नियमदिदं । आ४ । उ ४ । ग १५ । एकैदोडे प्रयमस्य हानिर्वा नास्ति वृद्धिा नास्ति येंदु प्रथमदोळ प्रचमिल्लप्पुरिदं । पदमेगेण विहीणं दुभाजिदं उत्तरेण संगुणिदं। पभवजुदं पदगुणिदं पदगणिदं होइ सव्वत्थ ॥ एंदु । पद १५ मेगेण विहीणं १४ दुभाजिदं १४ । उत्तरेण संगुणिदं १४ । ४ । पभवजुदं २४८ । कूडि ३२ । पदगुणिर्द ३२ । १५ । पदगूणिदं होइ सम्वत्थ १० एंदु लब्धं नानूरे भत्तक्कुं। ४८०॥ अनंतरमनुकृष्टि प्रथमखंडप्रमाणमं पेळ्दपरु : प्रचयधनस्यानयने सर्वत्रापि प्रचयप्रभवो तु प्रचय एव स्यात् । गच्छस्तु प्रथमे प्रयाभावाद्रूपोनतत्पदमेव स्यान्नियमेन । आ४ । उ ४ । ग १५ । पद १५ । मेगणविहीणं १४ दुभाजिदं १४ उत्तरेण संगणिदं १४ । ४ । पभवजुदं ३२ पदगुणिदं ३२ । १५ पदगुणिदं होदि सव्वत्थेति लब्धमशोत्यप्रचतुःशतानि ४८० १५ ॥९०४।। अयानुकृष्टिप्रथमखंडप्रमाणमाह प्रचयधन लानेके लिए विधान कहते हैं-जितनी-जितनी वृद्धि होती है उसे प्रचय कहते हैं। और जो आदिमें होता है उसे प्रभव कहते हैं। ये दोनों यहाँ प्रचयके जोडका जो प्रमाण है उतना जानना । प्रथम स्थानमें तो चयका अभाव है। अतः यहाँ गच्छका प्रमाण विवक्षित गच्छके प्रमाणसे एक कम जानना । यहाँ ऊर्ध्व रचनामें चयका प्रमाण चार २० है । अतः आदि चार और उत्तर चार और गच्छके प्रमाण सोलहमें एक घटानेपर गच्छ पन्द्रह रहा । सो करणसूत्रके अनुसार एक हीन पदको दोसे भाग दो, चयसे गुणा करो, और प्रभव अर्थात् आदिको मिलाकर गच्छसे गुणा करो तो गच्छका जोड़ होता है। यह करणसूत्रका अर्थ है। सो यहाँ गच्छ पन्द्रह में एक घटानेपर चौदह रहे। उसमें दोका भाग देनेपर सात रहे। उसमें चय चारसे गुणा करनेपर अठाईस हुए। उसमें आदि चार मिलानेपर बत्तीस हुए। २५ उसे गच्छ पन्द्रहसे गुणा करनेपर चार सौ अस्सी हुए । यही चयधनका प्रमाण है ।।९०४|| आगे अनुकृष्टि (नीचे और ऊपरके समयोंमें समानता ) के प्रथम खण्डका प्रमाण कहते हैं Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२५५ पडिसमयधणेवि पदं पचयं पभवं च होइ तेरिच्छे । अणुकड्डिपदं सव्वद्धाणस्स य संखभागो दु ॥९०५॥ प्रतिसमयधने पि पदं प्रचयं प्रभवन भति तिरश्चि । अनुकृष्टिपदं सर्वाध्वानस्य च संख्यभागस्तु॥ प्रतिसमयधनदोळं पदमुं प्रचय, प्रभवमुं तिर्यग्रूपदोळा माधुत्तरगच्छेगळक्कुम बुदत्थं । ५ तु मत्ते आ तिर्यगनुकृष्टि गच्छे साध्वानद संख्यातेकभागमक्कु । मदक्के संदृष्टि |१६| नाल्कु रूपु लब्धमक्कुं। ४ ॥ इंतनुकृष्टिपदं ज्ञातमागुत्तं विरलु : अणुकड्डिपदेण हिदे पचये पचयो दु होइ तेरिच्छे । पचयधणूणं दव्वं सगपदभजिदं हवे आदी ॥९०६॥ अनुकृष्टिपदेन हृते प्रचये प्रचयस्तु भवेत्तिरश्चि । प्रचयधनोनं द्रव्यं स्वकपदभक्तं भवेदादिः॥, ऊर्ध्वचयमननुकृष्टिपददिदं भागिसुत्तं विरलु अनुकृष्टिप्रचयमक्कु ४ मी प्रचयमं मुन्निनंते ० व्येकपद ४द्धं ४ घ्नचयमं माडि ३ । १ मत्तरिवं गुणो गच्छ ३।१।४। उत्तरघनमिद ६ । चयधनमक्कुमंतु चयधनमागुत्तं विरलु चयधनहीनं द्रव्यं १६२ । शेषमिदु १५६ । यिदं पदभजिदे १५६ । अपि पुनः अनुकृष्टेः प्रतिसमयधनानयने तद्गच्छचयादयः तिर्यगेव स्युः । तत्र गच्छः सर्वाध्यानस्य संख्यातकभागोंकसंदृष्टया १६ चतुरंकः ४॥९०५॥ अनुकृष्टिपदेनोवंचये भक्ते तत्प्रचयः स्यात् ४ ततः व्यकपदा ४ र्द्ध ४ हनचयः ३ । १ गुणो गच्छ २० अनुकृष्टिका प्रतिसमय धन लाने के लिए अनुकृष्टिका गच्छ आदि सब तिर्यक् रूप ही है। अर्थात् पहले समय सम्बन्धी परिणाम जहाँ लिखे हैं उसीके बराबरमें पहले समयसम्बन्धी अनुकृष्टिके खण्डोंके परिणाम लिखना चाहिए। इसी प्रकार सब समयोंकी तिर्यक् रचना करना चाहिए। उनमें से अनुकृष्टिका गच्छ ऊर्ध्वगच्छके संख्यातवें भाग है। अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा ऊर्ध्व गच्छ सोलह है। उसमें संख्यातके चिह्न चारसे भाग देनेपर अनुकृष्टिका गच्छ चार होता है ।।९०५॥ अनुकृष्टिके गन्छका भाग ऊर्ध्व चयमें देनेपर जो प्रमाण हो उसे अनुकृष्टिका चय जानना। सो अनुकृष्टिके गच्छ चारका भाग ऊर्वचय चारमें देनेपर एक आया। वही अनुकृष्टि का चय है । तथा करणसूत्रके अनुसार एक कम गच्छ तीनका आधा डेढ़को चय । एकसे गुणा करनेपर भी डेढ़ रहा। उसे गच्छसे गुणा करनेपर छह हुए। यह अनुकृष्टिमें चयधन जानना । सो प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम एक सौ बासठ है। यही प्रथम समयसम्बन्धी अनुकृष्टिका सर्वधन है। उसमें चयधन छह घटानेपर एक सौ छप्पन रहे । उसमें क-१५८ r Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५६ गो० कर्मकाण्डे होदि आदि परिमाणा मेंदु लब्धमादि मूवत्तो भत्तवदु । ३९ ॥ इंतनुकृष्टियोळादियरियल्पडत्तिरलु :-- आदिम्मि कमे वड्ढदि अणुकडिस्स य चयं तु तेरिच्छे । इदि उडढतिरियरयणा अधापवत्तम्मि करणम्मि ।।९०७॥ आदौ क्रमेण वर्द्धतेऽनुकृष्टश्च चयस्तु तिरिश्चि । इत्यूवतिर्यग्रचनावाप्रवृत्त करणे ॥ तदनुकृष्टयादियिदं मेले द्वितीयादिखंडंगळोळ प्रमदिदं तिर्यगनुकृष्टिचयं पे गुमितूर्वतिर्यग्नचनाद्वयमधाप्रवृत्तकरणपरिणामदोळक्कु । संदृष्टि :१६२ १६६ १७० १७४ १७८ १८२ १८६ १९० १९४ १९८ २०२ २०६२१० २१४ २१८ २२२ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५५ | ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५ | ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ । ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५ | अंकसंदृष्टि द्रव्य ३०७२ | अत्थ संदृष्टि द्रव्य = परिणामाध्वान १६ । अध्वान २।११। अनुकृष्ट्यध्वान ४ | अनुकृष्टि परिणाम विशेष ४ परिणाम विशेष: । २।११।२।१११।१ - | अनुकृष्टि विशेष १ अनुकृष्टि विशेष । १११११।२१११।२१११। | संख्यात रूप १ । संख्यात ३।१।४ इति चयधनेन ६ द्रव्यं १६२ हीनं कृत्वा १५६ । पदेन भक्ते १५६ तदादि भवति ३९ ॥९०६।। ___ तदादेरुपरि द्वितीयादिखंडेषु क्रमेण तिर्यगनुकृष्टिचयो वर्धत इत्येवमूर्ध्वतिर्यग्रचनाद्वयमधःप्रवृत्तपरिणामे स्यात् । अनुकृष्टि गच्छ चारसे भाग देनेपर उनतालीस आये । यही प्रथम समय सम्बन्धी अनुकृष्टिका प्रथम खण्ड है ।।२०६॥ उस प्रथम खण्डसे दूसरे आदि खण्डोंमें क्रमसे तिर्यक् रूपसे अनुकृष्टिका एक-एक २५ चय बढ़ानेपर उनतालीस, चालीस, इकतालीस, बयालीस प्रमाण होता है । इसी प्रकार दूसरे समयसम्बन्धी अनुकृष्टिके खण्डोंमें चालीस, इकतालीस, बयालीस, तैंतालीस प्रमाण होता है। यहाँ दूसरे समयसम्बन्धी और प्रथम समयसम्बन्धी चालीस, इकतालीस और बयालीसमें समानता हुई। इसी प्रकार तीसरे आदि समयोंमें अनुकृष्टि रचना करके नीचेके समय सम्बन्धी परिणामोंमें समानता जानना चाहिए । इस तरह अधःकरणमें ऊर्ध्वरूप और तिर्यग ३० रूप रचना जानना । जैसा ऊपर संदृष्टि में बताया गया है । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२५७ अर्थसंदृष्टियोळधःप्रवृत्तकरणपरिणाम रचनाविशेषं तोरल्पडुगुमवें तेंदोडे सर्वद्रव्यमिछु । * इदं पदकदिसंखेण भाजिदे पचय दिदु प्रचयमक्कुं aat व्येकप. २१११२११३ दार्द्धघ्नचयगुणोगच्छ उत्तरधनमेंदितिदु चयधनमक्कु। =०२ १११।- १।२१११ मिदनप २१११।२१११।१।२ वत्तिसिदोडे =३ २ १ ११-१ ई उत्तरधनमं चयधणहीणं दव्वं कळेबुळिव शेषमिदु २११२ *२१११११।२ २१११।१।२ इदं पदभजिदे होदि आदि परिमाण में विदु प्रथमसमयादि घनमक्कुं = २१११।१।२ २ १११।१।२१११।२ यिदरोळोदु चयम ३१ नि कूडि१११।२११११ धन ""३ - - ०२११११।२ प्रतिसमय प्रथमघनदोळ २११।०२।२१११ बोडे द्वितीयसमयधनमिनितक्कुं अर्थसंदृष्टी तु सर्वद्रव्यमिदं = ० । पदकदिसंखेण भाजिदे पचयं . ० । १ २१११।२११११ व्येकपदार्धनचयगुणो गच्छ उत्तरधनं =|२१११-१ । २१११ अपवर्तित २११।२१ । ।२ पदभजिदे होदि आदिपरिमाणं २११३-१ अनेन होणं दव्वं- २१११।१२ =३।२ ११।२ २ १ १ १ । ।२ निक्षिप्त द्वितीयसमयधनं = २११।। २ २१११।२१११।१।२ अत्रैकचये = १ २१११।२१११।१ इस प्रकार अंकोंके द्वारा दृष्टान्त रूप कथन किया है। इसी प्रकार अर्थसंदष्टि रूपमें जानना। जो इस प्रकार है-अधःप्रवृत्तकरणके सब परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण है। यह सर्वधन जानना। अधःप्रवृत्तकरणका काल अन्तमुहूते है उसके समयोंका प्रमाण गच्छ जानना। गच्छके वर्गको संख्यातसे गुणा करके उसका भाग सर्वधनमें देनेपर जो प्रमाण आवे उसे ऊर्ध्वचय जानना । एक कम गच्छके आधेको चयसे गुणा करके फिर गच्छसे गुणा करनेपर चयधन आता है। उसको सर्वधनमें घटानेपर जो शेष रहे उसमें गच्छका भाग देनेपर जो प्रमाण आये वह प्रथम समयसम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण है। उसमें एक चब Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५८ गो. कर्मकाण्डे द्विरूपोनगच्छमात्र चयंगळं ___ aa २ १११।२ यिवं द्विदिदं समच्छेदम माडिकूडिदोडी २१११।२१११ विचरमसमयघनमिनितक्कू २१११। १२ ऋ३ यिदरोळोदु चयमं: २११ ।२१११२ a द्विकदिदं समच्छेदम माडि कूडिदोडिदु चरमसमयधनमक्कं२१११२११११ २११११।२ ऋ१ २१११।२१११।१।२ अनंतरमनुकृष्टिरचनाविशेषं तोरल्पडुगुमदे ते दोडे अणुकड्डिपदेण हिदे पचये पचयं तु ५ होदि तेरिच्छे एंदितनुकृष्टिपददिदमूर्ध्वचयमं भागिसुत्तं विरलु आ अनुकृष्टिप्रचयमक्कं यितनुकृष्टिप्रचयं सिद्धमागुत्तं विरलु व्येकपदार्द्धघ्नचयगुणो २१११।२१११।१।२।११ गच्छ उत्तरघनमेंदितनुकृष्टिचयधनम तरुत्तिरलिनितक्कं = ३ २ १११।२१ १ २११०२११११।२१,१२ . aal२१११।३।२ २११।२११२ द्विरूपोनगच्छमात्रचये = २१११-२ २१३२१११।१ निक्षिप्से द्वाभ्यां समच्छेदेन द्वितीयचरमसमयषनं = । २१११।।२। ऋ३ २११ ।२१११।२ १० पुनरेकचये Da|१ वृद्ध चरमसमयषनं स्यात् ०२११ ।२ ऋ१ २११।२११११ २११।२१११२ अनुकृष्टिरचना तु अनुकृष्टिपदेनोव॑चये भक्तेऽनुकृष्टिप्रचयः स्यात् ।। १ २११।२१११।२११ व्येकपदार्धनचयगुणो गच्छ इत्यनकृष्टिचयधनमानीय =|२११-१।२११ २१११।२१११।१।२११२ मिलानेपर दूसरे समयसम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण होता है। इस प्रकार एक-एक चय मिलानेसे दो कम गच्छ प्रमाण चय मिलनेपर द्विचरम समय सम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण १५ होता है। उसमें एक चय मिलानेपर अन्तसमयसम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण होता है। अब अनुकृष्टि रचना कहते हैं जिस समय सम्बन्धी अनुकृष्टि हो, उस समयके परिणामोंका समूह उस अनुकृष्टिका सर्वधन होता है। अधःप्रवृत्तकरणके कालके जितने समय हैं उनमें संख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसे अनुकृष्टिका गच्छ जानो। अनुकृष्टिके गच्छका भाग ऊर्वचय में देनेपर २० अनुकृष्टिके चयका प्रमाण होता है। एक कम अनुकृष्टिके गच्छके आधेको अनुकृष्टिके चयसे Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्वात्ततमिदु अपवर्त्य 2_ O २१११ १२ २१११।२१११।१।२ ०२११ २१११।२१22 । २ ॥२ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका मिदननुकृष्टिय पर्दाददं भागिसुत्तं विरल अनुकृष्टियादि धनमक्कु मिवरोळ रूपोनानुकृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचयंगळं द्विकदिदं समच्छेदमं यिवरोळ गुणकारभूतऋणरूपिने रहुं चयंगळं धनरूपर्दरहुं चयवर्क पवमात्रचयंगळं कूडिदोडिवु प्रथमानुकृष्टि चरमखंडधनमक्कुं 20 ३।२११ कलदोडे शेषमतुक्कु २१११।२१११।१।२ आदिधने । २१११।१।२ २१११।२१११।१।२ ईधन प्रतिसमयदादिधन दोळिदरोल = २११११ । २ २१११।२२११।१।२ =२१शश२ _२११/२२ । ११२ माडि = २१११।२ _२११२शृवृ|२११२ सरिगळेवु शेषानुकृष्टि द्विगुण १२५९ 0 ०२११११।२ 0 अनुकृष्टिपदेन भक्तमनुकृष्ट्यादिधनं स्यात् - = ३।२१११।१।२ छात्र रूपोनानुकृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचये द्वाभ्यां समच्छेदेन २११२१ 22१।२११२ अपनीते शेषं ।२१११ । १ । २ २१११।२१११।१।२११।२ २१११।२१११।२।२ 3 a।२११-१ ।२ २१११।२१११।१।२११।२ ५ गुणा करके गच्छसे गुणा करनेपर अनुकृष्टिके चयधनका प्रमाण होता है । उसको प्रथम समय सम्बन्धी परिणामों में से घटानेपर जो शेष रहे उसमें अनुकृष्टिके गच्छसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो वही प्रथम समय सम्बन्धी अनुकृष्टिके प्रथम खण्डका प्रमाण होता है । उसमें एक चय मिलानेपर दूसरे खण्डका प्रमाण होता है। इस प्रकार एक-एक चय मिलाते हुए एक कम अनुकृष्टिके गच्छ प्रमाण चय मिलानेपर प्रथम अनुकृष्टिके १५ १० Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६० गो० कर्मकाण्डे मत्तमा प्रथमसमयानुकृष्टिप्रथम खंडधनदोळेका नुकृष्टिचयमं द्विकदिदं समच्छेदमं माडिविंद कूडिदोर्ड द्वितीयसमयानुकृष्टि प्रथमखंडघनमक्कु । a? २१११।२१ 2 2 1 2 । २ १ १ २ १५ मिदरोळ रूपोनानुकृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचयंगळं द्विकविष इदरऋणरूपं गुणकारसहित तेगवेरडु २१११।२१2221२१२ ५ पुगळं धनद नाकुं रूपुगळोळगेरडु धनरूपुगळं सरिगळेदु द्विगुणपदमात्रंगळं कूडिबोर्डरडु धन 0 २१ १ १ २ २ १ १ १ । २ १ १ १ १ । २१ १ २ समच्छेदमं माडि → २११ । १ ।२ रूगळु सहितमागिदु तच्चरमानुकृष्टिखंडधनमक्कुं = ०२११३१२ ऋणरूपद्वयं धनरूपद्वयेन समानमिति दत्त्वा वृद्धे प्रथमानुकृष्टिचरमखण्डधर्न स्यात् । Q १० वृद्धे द्वितीयसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डधनं स्यात् ३।२१११।१।२ २१११।२१ 291 21 २१ १ । २ पुनः तत्प्रथमसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डघने एकानुकृष्टिचये द्वाभ्यां समच्छेदेन = २ 0 २१११।२११११।२१ १२ भूत्वा तच्चरमानुकृष्टिखण्डधनं स्यात् २ २१११।१।२ २१११।२१११।१।२११।२ अत्र रूपोनानु कृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचये द्वाभ्यां समच्छेदेन ३।२११२ – १ ।२ २१११।२१११।१।२११।२ ऋणरूपं सगुणाकारं गृहीत्वा घनचतुष्कस्य रूपद्वयं समानमिति दत्वा शेषे द्विगुणपदमात्रे निक्षिप्ते रूपद्रयसहितं २१११।२१११।१ । २११ । २ Q 2 a।२१११।१।२ मत्तमा २१११।२१११।१।२११।२ अन्तिम खण्डका प्रमाण होता है । उस प्रथम समय सम्बन्धी अनुकृष्टि के प्रथम ख डके प्रमाण में अनुकृष्टिका एक चय मिलानेपर दूसरे समय सम्बन्धी अनुकृष्टिके प्रथम खण्डका प्रमाण होता है । इसी प्रकार द्वितीयादि खण्डों में एक-एक चय मिलाते-मिलाते एक कम अनुकृष्टि के गच्छ प्रमाण चय मिलानेपर दूसरे समय सम्बन्धी अनुकृष्टिके अन्तिम Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२६१ प्रथमसमयानुकृष्टि प्रथमखंडधनदोळु द्विरूपोनोर्ध्वपदमात्रानुकृष्टिचयंगळं द्विर्कादिदं समच्छेदमं कूडिदोडधः प्रवृत्तकरणद्विचरमसमयानु माडिदी राशियं = २१११-२१२ २ १ १ १ । २2222 ।२1१ २ कृष्टि प्रथम खंडधनमक्कं । २।२११११।२ २१११।२१११।१।२१ १ ।२ कृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचयंगळं द्विकदिदं समच्छेदमं माडि २१११।२१११।१।२११।२ पुनस्तत्प्रथम समेयानुकृष्टिप्रथमखण्डघने द्विरूपोनोर्ध्वपदमात्रानुकृष्टिचये समच्छेदेन २१११-२२ २१११।२११।२११ । २ वृद्धे द्विचरमसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डघनं स्यात् अत्र रूपोनानुकृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचये समच्छेदेन ०२११ । १ ।२ २१ १ १ १/२ १२ ११२ दो राशियं कूडिदोर्ड तद्विचरमसमयानुकृष्टि चरमखंडधनमवकुं = २१ १ १ १ ॥ २ ऋ ४ २ १ १ २ १ १ २ ११।२ माडि मत्तमा द्विचरमसमयानुकृष्टि प्रथमखंडदोळेकानुकृष्टिचयमं द्विकदिदं समच्छेदमं दो राशियं कूडिदोर्ड चरमसमयानुकृष्टि प्रथम ०१।२ यो राशियोळु रूपोनानु ३।२१११।१।२ वृद्धे द्विचरमसमयानुकृष्टिचरमखण्डधनं स्यात् — पुनस्तद्विचरमसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डे एकानुकृष्टिचये समच्छेदेन क -१ । २ २१११।२१११।२।२११।२ ।२११-१ ।२ २१११।२१११।१।२११।२ . ० ३।२१११ । १ । २ ॠ ४ २१११।२१।१।२११।२ २१११।२12 | २११ २ खण्डका प्रमाण होता है । तथा प्रथम समय सम्बन्धी अनुकृष्टि के प्रथम खण्डके प्रमाण में दो कम ऊर्ध्वगच्छ प्रमाण अनुकृष्टिके चय मिलानेपर द्विचरम समयसम्बन्धी अनुकृष्टिके १५ प्रथम खण्डका प्रमाण होता है। उसके द्वितीयादि खण्डों में एक-एक चय मिलाते हुए एक कम अनुकृष्टि के गच्छ प्रमाण चय मिलानेपर उसके अन्तिम खण्डका प्रमाण होता है । द्विचरम समयसम्बन्धी अनुकृष्टि के प्रथम खण्ड के प्रमाण में एक अनुकृष्टि चय मिलानेपर ५ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६२ गो० कर्मकाण्डे खंडधनमक्कुं। = ० २ ११२१।२ मी धनदो रूपोनानुकृष्टिपदमात्रानु. २११।२१११२११०२ चयंगळं द्विकदिदं समच्छेदमं माडि ०२११-१। २ दो राशियं कूडि २१११।२१११।२१।२ दोडिदु चरमसमयानुकृष्टि चरमखंडधनप्रमाणमक्कं ३ ० २ १११ १।२ २१११।२१११।११२११।२ यित/संदृष्टियोळाद्यंतद्विसमयद्विसमयंगळ ऊर्ध्वतिर्यग्रचना संदृष्टि : ० ० =०२११११२ ऋ २११११।२ | Da२१११ १२ ऋ २ २१११।२२१२ । श२ २ ११३ । २ १११ । २ १॥२ २१११ । २११।५।२१।२ ==२१११ १२ ऋ३ १११ १२ ऋ२ + a २१११ १२ ऋ ४ | २१११।२१११। ।२।। २१११ । २११११ । २ ११२ २१११ । २११११ ।२।१३२ = ३२१११०२ धन ३ २१११२ धन ४ =०२१११ शर धन २ २१११।२१११।१।२ २१११।२१११३ । २ ११२ २ १११ । २ ११११२११२ .० ० D० २ १११ १०२ धन १ 3२ १११ १२ धन २ = ३२१११२२ |२१११।२१११।१२/ २१११२१११२११। २ २१११२१११।२११ । २ wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm~~~~~~~~~~ वृद्धे चरमसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डघनं स्यात् ॐ० २१११।१।२ २१११।२१११।।२१।२ १० अत्र रूपोनानकृष्टिपदमात्रानुकृष्टिचये समच्छेदेन- =२११-१२ २१११।२१११।१।२१।२ वृद्ध चरमसमयानुकृष्टिचरमखण्डधनं स्यात्' aal२१११।१।२ २१११।२११।।२१।२ अन्त समयसम्बन्धी अनुकृष्टि के प्रथम खण्डका प्रमाण होता है। उसके द्वितीयादि खण्डों में एक-एक चय मिलाते-मिलाते एक कम अनुकृष्टि के गच्छ प्रमाण चय मिलानेपर अधःप्रवृत्त करणके अन्त समयसम्बन्धी अनुकृष्टिके अन्तिम खण्डका प्रमाण होता है । १५ १. अत्रोपकारिणी रचना जीवकाण्डे ४९ तमगाथायां दृष्टव्या। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका एक जीव | एक जीव | नाना जीव | नाना जीव ! अनि २१ ए । का नाना ए । का ना का अपू २११ १०८ अघः २१११ १ २१ 22 a अनंतरमधःप्रवृत्तकरणरचनाभिप्रायं पेळल्पडुगुं । अर्द' ते ' दोर्ड अप्रमत्तसंयतनुपम श्रेष्यारोहणनिमित्तमागि मेणु क्षपक श्रेण्यारोहण निमित्त मागियुमधः प्रवृत्तकरणमं माळकुमा करणकालमुं अंतर्मुहूर्तं प्रमाण मक्कुमादोडमनिवृत्तिकरणकालमनिदं । २१ । नोडल पूर्व्वकरणकालमिदु । २११ | संख्यातगुणितमक्कु | मदं नोडलधः प्रवृत्तकरणकालं संख्यातगुणितमक्कु । २१११ । मा कालदोळ संभविसुव संज्वलन देशघातिस्पर्द्धक क्रोधादिकषायविशुद्धिपरिणामस्थानंगळमसंख्यात लोकमात्रंगळप्पुववं संज्वलनक्रोधादिकषायंगळ सर्व्वघातिस्पर्द्ध ककषायसंक्लेशस्थानंगळं नोडलसंख्यातैक भागमात्रंगळवु । आ संज्वलन सर्व्वघाति स्पर्द्धकोदयस्थानंगळगनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधादिकषायंगळोडनल्लदुदय मिल्लप्पुदरिनी यप्रमत्तसंयतनोळुवयमिल्ल । मधःप्रवृत्त करण १२६३ अप्रमत्तसंयतः उपशमश्रेणि क्षपकश्रेणि वारूढमत्रःप्रवृत्तकरणं करोति । तस्य कालोंऽतर्मुहूर्तोऽप्यनिवृत्तिकरणकालात्संख्यातगुणापूर्वकरण कालात्संख्यातगुणः २ १ १ तत्र संज्वलनदेशघातिस्पर्धक विशुद्धिपरिणाम- १० स्थानानि शेषकषायसहचरिततत्सर्वघातिस्पर्धक संषलेशस्थानेभ्यो ऽसंख्यातैकभागमात्राण्यप्यंख्यात लोकमात्राणि । तत्राप्यनुकृष्टिजघन्यखण्डस्य जघन्यविशुद्धिपरिणामस्थानं जिनदृष्टोऽष्टांकः । ततस्तदुत्कृष्टमनंतगुणं । कुतः ? तस्योपर्यंनंतभागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राण्यतीत्य सकृदसंख्यातभागवृद्धिस्थानं । इमान्यपि तथा तावत्यतीत्य पुनरेकवारमावतितस्य चरमेऽसंख्यात भागवृद्धिस्थाने संख्यात भागवृद्धिस्थानं । इमान्यपि तथा सावंत्यतीत्य पुनरेकवारमावर्तितस्य चरमे संख्यात भागवृद्धिस्थाने संख्यातगुणित वृद्धिस्थानं । इमान्यपि तथा १५ तावत्यतीत्य पुनरेकवारमावर्तितस्य चरमे संख्यातगुणवृद्धिस्थाने असंख्यात गुणवृद्धिस्थानं । इमान्यपि तथा तावत्यतीत्य पुनरेकवारमावर्तितस्य चरमेऽसंख्यातगुणवृद्धिस्थानेऽनंत गुणवृद्धिस्थानानि । मिलित्वेमानि रूपाधिकसूच्यंगुला संख्यातस्य घनगुणितवर्गमात्राप्येकं षड्वृद्धिस्यानं एतानि तत्रासंख्यातलोकाः सन्तीति कारणात् । ततस्तद्वितीयखण्डस्य जघन्यविशुद्धिस्थानमनन्तगुणं अष्टांकत्वात् । एवं सर्वखण्डेषु स्वस्त्र जघन्यस्थानात्स्वस्वोत्कृष्टस्थानं ततोऽनंतरखण्डस्य जघन्यस्थानं चानन्तगुणमनन्तगुणं ज्ञातव्यं । तत्प्रथमखण्डस्य प्रथमखण्ड- २० चरमखण्डस्य चरमखण्डं च विनोपरितनखण्डपरिणामाः अघस्तनखण्डपरिणामैः सह यथासम्भवं सदृशा इत्ययं करण ेऽधःप्रवृत्तसंज्ञः स्यात् ॥ [मप्रमत्तसंयतः उपशमश्रेण्या रोहणनिमित्तं वा क्षपकश्रेण्यारोहणनिमित्तमषः प्रवृत्तकरणं करोति । तस्य कालों मुहूर्तोऽप्यनिवृत्तिकरणकालतः २१ संख्यातगुणानुर्वकरणकालात् २१ संख्यातगुणः २११ तत्र सम्भविसंज्वल - देश वाति स्पर्धक क्रोधादिकषाय विशुद्धिपरिणामस्यानान्यसंख्यात लोकमात्राणि । तानि च २५ संज्वलनक्रोधादिकषाय सर्वघातिस्पर्धक कषाय संक्लेशस्थानेभ्योऽसंख्या तक भागमात्राणि । तत्संज्वलनसर्वघाति तथा अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी चढ़नेके लिए भी अधःप्रवृत्तकरण करता है । उसका भी काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । फिर भी अनिवृत्तिकरण के कालसे संख्यातगुणा काल अपूर्वकरणका है और उससे भी संख्यातगुणा काल अधःप्रवृत्तकरण क - १५९ ५ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे ५ प्रथमसमयप्रथमानु कृष्टि खंडजघन्य विशुद्धिपरिणामस्थानं जिनदृष्टमष्टांक मक्कु - 1 मदं नोडल तदुत्कृष्टविशुद्धिस्थानमनंतगुणमक्कु दोडा खंड जघन्याष्टकस्थानदमेर्ल अनंतभागवुद्धिस्थानं गळु सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्रगळु नडेबु ओर्म असंख्यात भागवृद्धिस्थानमक्कुमवर मेले मुन्निनंते अनंतभागव द्विस्थानंगळ सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्रस्थानंगळु नडेदु मत्तोम्यसंख्यात भागवृद्धिस्थानमक्कु । मितनंतभागवृद्धिस्थानंगळ सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्रंगळु नडवो संख्यातैक भाग वृद्धिस्थानंगळागुत्तं विरल मा असंख्यात भागवृद्धिस्थानंगळु सूच्यंगुला संख्यातेक भाग मात्र वृद्धिस्थानंगळप्पुवंतागुतं विरलु मत्तमनंतभागवृद्धिस्थानंगळ सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्रंगळ नडदो संख्यात भाग वृद्धिस्थान मक्कु -1 मदर मेले मुन्निनंर्तयनंत भागवृद्धिस्थानं गळागि योम्मोंम्म यसंख्यात भाग वृद्धिस्थानंगळागुत्तमुमा असंख्यात भागवृद्धिस्थानंगळु सूच्यंगुलासं ख्यातक भागमात्रंगळागि मुंबनंतभागवृद्धिस्थानंगळ सूच्यंगुला संख्या तकभागमात्र गळ नडबु मत्तमो संख्यात भागवृद्धिस्थानमक्कुमी प्रकारविवमो संख्यात भागवृद्धिस्थानंगळं सूचयंगुलासंख्यातैकभागमात्र गळागुतं विरल मुंबे मत्तमनंत भागाविवृद्धिस्थानंगळ सूच्यंगुला संख्यातकभागमात्र गळु नडनडदो संख्यातगुणवृद्धिस्थानमक्कु -1 मिंतु मुन्निनंत अनंगभागवृद्धिस्थानं गळं असंख्यातैकभागवृद्धिस्थानंगळ संख्यातैकभागवृद्धिस्थानंगळ, मासि यावत्तसि योम्मों संख्यात गुणवृद्धिस्थानं गळागुत्तमा संख्यातगुणवृद्धिस्थानंगळ, सूच्यंगुला संख्यातैकभागवृद्धिस्थानंग१५ ठप्पुवु । १० १२६४ स्पर्धको दयस्थानानामनंतानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोषादिकषायैरेवोदयादत्राप्रमत्ते उदयो नास्ति । अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयप्रथमानुकृष्टिखण्डस्य जघन्यविशुद्धिपरिणामस्थानं जिनदृष्टोऽष्टांकः । ततस्तदुत्कृष्टमनन्तगुणं । कुतः ? तस्योपर्यनन्तभागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राण्यतीत्य सकृदसंख्यात भागवृद्धिस्थानं । तस्योपरि पूर्ववदनन्तभागवृद्धिस्थानानि सूच्यगुलासंख्यातैकमागमात्राणि गत्वा पुनरेकवारमसंख्यात भागवृद्धि - २० स्थानं । एवमसंख्यात भागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्राणि स्युस्तदा पुनरनन्तभागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्राणि गत्वैकवारं संख्यात भागवृद्धिस्थानं स्यात् तस्योपरि पूर्ववदनन्तभागवृद्धिसहचरितासंख्यातभागवृद्धिस्यानानि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राणि । तदग्रेऽनन्तभागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्राणि गत्वा पुनरेकवारं संख्यातभागवृद्धिस्थानं । एवं संख्यात भागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राणि नीत्वाग्रे पुनरनन्तभागादिवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राण्यतीत्यैकवारं संख्यात २५ का है । उसमें जो संज्वलन कषायके देशघातिस्पर्धकोंके उदयरूप विशुद्धिपरिणामोंके स्थान ta अन्य प्रत्याख्यानादि कषायोंके साथ उदयमें आनेवाले संज्वलन कषायके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयरूप संक्लेश स्थानोंके असंख्यातवें भाग हैं फिर भी वे असंख्यात लोकप्रमाण हैं। वहाँ भी अनुकृष्टिका जघन्य पहले खण्डका जघन्य विशुद्धिपरिणाम स्थान सर्वज्ञके द्वारा देखे गये अष्टांक प्रमाण अनन्त गुण वृद्धिको लिये हुए है । अर्थात् पूर्वं परिणाम के ३० अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणसे अनन्तगुणे अविभाग प्रतिच्छेदोंका समूहरूप स्थान है । कषायके उदयरूप स्थान असंख्यात हैं । उनमें अविभाग प्रतिच्छेदोंके रूपमें परिणामोंका प्रमाण अनन्त हैं । सो जैसे-जैसे निर्मलता होती है वैसे-वैसे विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेद Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२६५ देयुमंते अनंतभागादिवृद्धिस्थानंगळ सूच्यंगुला संख्यातेकभागमात्र गळ नडदु ओम् असंख्यात गुणवृद्धिस्थानमक्कु मी असंख्यातगुणवृद्धिस्थानंगळ मुन्निनंते अनंतभागवृद्धि असंख्यातभागवृद्धि संख्यात भागवृद्धि संख्यातगुण वृद्धि स्थानंगळ, क्रमदद सूच्यंगुला संख्यातक भागमात्रस्थानं गळावत सियावत्तसियोम्मों असंख्यातगुणवृद्धिस्थानमागुत्तलु मी यसंख्यातगुणवृद्धि - स्थानंगळ सूच्यंगुला संख्यातै क भाग मात्र वृद्धिस्थानं गळागुत्तं विरल मुंदे मत्तमनंतभागादिवृद्धिस्था ५ नंगळ, सूच्यंगुला संख्यातैकभाग मात्र गळ asasg ओम् अनंत गुणवृद्धिस्थानमत्रकु मितों दु वृद्धिस्थानंग रूपाषिक सूच्यंगुला संख्यातैकभागदघनमुं वर्गमुंगुणिसिव नितप्पुवु— १- १- १- १- १ २ २ २ २ २ a a a a a ु २ २ २ a २ a a a दृष्टि : २ a :- ८ १ ७ २ गुणवृद्धिस्थानं । एवं पूर्ववदनन्तभागवृद्धिस्थानानि असंख्यातैकभागवृद्धिस्थानानि संख्यातैकभागवृद्धिस्थानानि चापवर्त्यापवर्त्यैकैकवारं संख्यातगुणवृद्धिस्थानं भूत्वा भूत्वा संख्यातगुणवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातकभाग- १० मात्राणि स्युः । अग्रे तथैवानन्तभागवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राणि गत्वा एकवारमसंख्यातगुणवृद्धिस्थानं स्यात् । एतानि पूर्ववदनन्त भाग वृद्धघसंख्यातभागवृद्धि संख्यात भागवृद्धिसंख्यातगुणवृद्धिस्थानानि क्रमेण सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्राण्यपवर्त्यपि वयैकै कवारमसंख्यातगुणवृद्धिस्थानं इतीमान्यपि सूच्यंगु लासंख्यातकभागमात्राणि नीत्वा अग्रे पुनरनन्तभागादिवृद्धिस्थानानि सूच्यंगुला संख्यातै कभागमात्राणि गत्वा एकवारमनंतगुणवृद्धिस्थानं । एवमेकषड्वृद्धिस्थानानि रूपाषिक सूच्यंगुला संख्यातैकभागस्य घनवगंगुणितमात्राणि भवन्ति । १५ ४ ३ २ १. २ २ २ २ २ बढ़ते हैं। इससे यहाँ अनन्त गुणापन सम्भव होता है । उस पहले खण्डके जघन्यसे उसका उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। क्योंकि उस जघन्यके ऊपर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भागवृद्धिरूप स्थान होनेपर एक बार असंख्यात भागवृद्धि स्थान होता है । इसी प्रकार सूच्यंगुलके असंख्यातर्वे भाग असंख्यात भागवृद्धि स्थान होनेपर पुनः एक बार पूर्ववत् करनेपर अन्तिम असंख्यात भागवृद्धिके स्थानपर संख्यात भागवृद्धि होती है । इसी प्रकार २० सूच्यंगुलके असंख्यातर्वे भाग प्रमाण संख्यात भाग वृद्धि स्थान होनेपर पुनः एक बार पूर्ववत् करनेपर अन्तमें संख्यात भागवृद्धि के स्थानपर संख्यात गुणवृद्धि होती है। इसी प्रकार उतने ही संख्यात गुणवृद्धि स्थान होनेपर पुनः एक बार पूर्ववत् करनेपर अन्त में संख्यात गुणवृद्धि - स्थानपर असंख्यात गुणवृद्धि होती है । इसी प्रकार उतने ही असंख्यात गुणवृद्धि स्थान होनेपर पुनः एक बार पूर्ववत् करनेपर अन्तमें असंख्यात गुणवृद्धिके स्थान पर अनन्त गणवृद्धि २५ होती है । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६६ गो० कर्मकाण्डे सर्वमेलने एवं भवति-१ १ १ १ १ इंतागुत्तं विरलु इंतप्प षट्स्थानंगळा प्रथमसमयप्रथ २ २ २ २ २ मानुकृष्टि खंडदो असंख्यातलोकमात्र गळप्पुवप्पुरिदमनंतगुणित्वं सिद्धमक्कु मदं नोडलु तत्प्रथमसमयद्वितीयानुकृष्टिखंडजघन्यवृद्धिस्थानमष्टांकमप्पुरिंदमनंतगुणमक्कुमेके दोर्ड छट्ठाणाणं आदी अटुंकं होदि चरिममुन्वंकम दितेल्ला प्रथमसमयसमस्तानुकृष्टिखंडंगळजघन्यंगळष्टांकंगळप्पुवु । ५ उत्कृष्टयुवकंगळेयप्पुवितु स्वजघन्यमं नोडलु स्वोत्कृष्ट स्थानंगळुमनंतगुणंगळप्पुवु पूर्व खंडोत्कृष्ट मुमदं नोडलुत्तरखंड जघन्यस्थानमनंतगुणमें ब व्याप्ति एल्लेडेयोळमरियल्पडुगुं। इल्लि प्रयमसमभानुकृष्टि प्रयमखंड सर्वस्थानंगळमसदृशंगळु । द्वितीयसमयप्रथमखंडं मोदलगोंडु द्विचरमखंडपध्यंतमाद सर्वस्यानंगळु प्रथमसमयद्वितीयखंडमोवल्गोंडु चरमखंडपथ्यंतमाद समस्तस्थानंगळोडने समानंगळप्पुवु। इंतु निर्वग्गणकांडकपप्यंतमुपरितनोपरितनखंडविशुद्धिस्थानंगळ २ २ १ ०१ ०१ सर्वसम्मेलने एवं १० इतीदशपदस्थानानि तत्प्रथमसमयानुकृष्टिखण्डे असंख्यातलोकमात्राणि संतीत्यनन्तगणत्वं सिद्धं । ततस्तत्प्रथमसमयद्वितीयानुकृष्टिखण्डजघन्यवृद्धिस्थानं अष्टांकत्वादनन्तगुणं । कुतः ? छट्ठाणाणं आदी अट्टकं होदि चरममन्वंकमिति स्वजघन्यात्स्वोत्कृष्ट स्थानमनन्तगुणं पूर्वखण्डोत्कृष्टादुत्तरखण्डजघन्यस्थानमनन्तगुणमिति ध्याप्तिसद्भावात् । अत्र प्रथमसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डसर्वस्थानानि द्वितीयसमयप्रथममादि कृत्वा द्विचरमखण्डपयंतसर्वस्थानानि प्रथमसमयद्वितीयखण्डमादिं कृत्वा चरमखण्डपयंतसमस्तस्थानः सह समानि एवं निर्वर्गणकाण्डक इस प्रकार एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके घनसे उसीके वर्गको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने प्रमाण वृद्धियोंके होनेपर एक षट्स्थान पतित वृद्धिरूप स्थान होता है। जीवकाण्डके ज्ञानमार्गणाधिकारमें पर्यायसमास श्रुतज्ञानके वर्णनमें षट्स्थान वृद्धिका जैसा कथन किया है वैसा ही यहाँ भी जानना। ये षट्स्थान उन कषाय स्थानोंमें असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं इससे जघन्यसे उत्कृष्टको असंख्यात गुणा कहा है। प्रथम खण्डके उत्कृष्ट से दूसरे खण्डका जघन्य अनन्तगुणा है क्योंकि षट्वृद्धिस्थानमें अनन्तगुण वृद्धि-जिसका चिह्न आठका अंक है, पीछे ही पीछे होती है तब दूसरे खण्डका जघन्य स्थान होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। इस प्रकार सब खण्डोंमें अपने-अपने जघन्यसे अपना-अपना उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। और उस उत्कृष्टसे उससे २० Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२६७ धस्तनाधस्तनखंडस्थानंगळोडने यथासंभवमागि समानंगळवप्पुदरिनितु अधःप्रवृत्तपरिणामस्था. नंगळप्पुदरिंदमी करणकधःप्रवृतकरण ब सरन्वर्थमकुं। इंतु ॥ अंतोमुहुत्त कालं गनियूग अधापवत्तकरणं तं । पडिसमयं सुझंतो अपुव्यकरणं समल्लियइ ॥९०८॥ अंतर्मुहूर्तकालं नोत्वातदधः प्रवृतकरणकालं तं । प्रतिसमयं शुध्यन्नपूर्वकरणं समाश्रयति ॥ ५ तदधः प्रवृत्तकरणकालावतानमागियंतर्मुहूर्तकालमधः प्रवृत्तकरण कालमं प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धिवृद्धियिदं पेच्चुत्तं कळिदु सातिशयाप्रमत्तनपुर्वकरणगुणस्थानमं पोर्तुगु। मा परिणामदोळु धनाध्वानपरिणामविशेषसंख्यातरूपुगळंकसंदृष्टियं पेन्दपरु।: छण्णउदिचउसहस्सा अट्ट य सोलसधणं तदद्धाणं । परिणामविसेसो वि य चउ संखापुत्रकरणम्मि ॥९०९॥ नाल्कु सासिरद तोभत्तारु ४०९६ धनमुं अध्वानम टु ८। परिणामविशेषं पविनारु १६ ।। संख्यातरूपुगळु नाल्कु । ४ । मपूर्वकरणपरिणामदोळप्पुवु ॥ पर्यंतमुपरितनोपरितनखण्डविशद्धिस्थानानि अधस्तनाधस्तनस्थानर्यथासम्भवसमानानीत्यधःप्रवृत्तत्वादस्याधःप्रवृत्तकरणमित्यन्वर्थनाम । पाठोऽयं कथंचिद्विशेषमादधानः अभय चन्द्रीयटोकायां । ] ॥९०७॥ तमधःप्रवृत्तकरणमन्तर्मुहूर्तकालं प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धया वर्धमानः सातिशयाप्रमत्तो नीत्वाऽ- १५ पूर्वकरणं समाश्रयति ॥९०८॥ तत्रापूर्वकरणेऽकसंदृष्टिधनं षण्णवत्यग्रचतुःसहस्रो। अध्वानोऽष्टौ । परिणामविशेषः षोडश । संख्यातरूपाणि चत्वारि ॥९०९॥ अनन्तर स्थानका जघन्य अनन्तगुणा है। यहाँ प्रथम समयके प्रथम खण्ड और अन्तिम समयके अन्तिम खण्डको छोड़ सब ऊपरके खण्ड सम्बन्धी परिणाम और नीचेके खण्ड २० सम्बन्धी परिणाम परस्परमें यथासम्भव समानता रखते हैं। इसीसे इसे अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं ॥९०७॥ प्रति समय अनन्तगुण विशुद्धिसे बढ़ता हुआ सातिशय अप्रमत्त उस अधःप्रवृत्तकरणके अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर अपूर्वकरणको करता है ।।९०८।। उस अपूर्वकरणमें अंक संदृष्टि के रूपमें सर्वधन चार हजार छियानबे है। कालका २५ प्रमाण आठ है । परिणाम विशेष सोलह हैं । और संख्यातका प्रमाण चार है । आशय यह है कि अपूर्वकरणके सब स्थानोंके प्रमाण तो सर्वधन है जो चार हजार छियानबे हैं। अपूर्वकरणके कालके समयोंका प्रमाण आठ है। प्रति समय जितनी वृद्धि हो वह परिणाम विशेष सोलह है। इसीका नाम चय है । चय लाने के लिए संख्यातका प्रमाण चार है ॥९०९।। १. ण संदिट्ठी मु.। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १२६८ गो० कर्मकाण्डे अंतोमुहुत्तमेते पडिसमयमसंख लोग परिणामा | कमउड्ढापुव्वगुणे अणुकड्डी णत्थि नियमेण ॥ ९१० ॥ अंतर्मुहूर्तमात्रे प्रतिसमयमसंख्यलोकपरिणामाः । क्रमवृद्धा अपूर्च्चगुणे अनुकृष्टिर्नास्ति नियमेन ॥ अपूर्खकरण गुणस्थानदोळु अंतर्मुहूर्त कालमक्कु । २१२ । मा कालदो प्रतिसमय मसंख्यातलोकमात्रपरिणामंकळप्पुवादोडं प्रथमसमयं मोदगोंड द्वितीयादिसमयंळोळेल्लं चरमसमयपर्यंतं सदृशचर्यादिदं पेचुंबकीय पूर्वकरणपरिणामंगळोळनुकृष्टि र्यंब भेदमिल्लेके बोडुपरितन परिणामस्थानंगळ मघस्तनसमयपरिणामंगळोडनोरम्नंगळल्ल वर्वारिदं । इल्लि धनमिदु ४०९६ । इदं पदकविसंखेण भाजिदे पचयमेदितु |४०९६ | इदर लब्धं प्रचयं १६ । व्येकपदार्द्धघ्नचय गुणोगच्छ टाटा४ १० उत्तरघनर्म वितु ८ । १६ । ८ लब्धमुत्तरधनमिदु । ४४८ । इनु चयधनहोनं द्रव्थं पद्मभजिते २ भवत्यादिप्रमाणणमेदितु चयधनरहितद्रव्यमिदु ३६४८ । यिदं पर्दाद भागिसिदोडादिप्रमाणमक्कुं | ३६४८ | लब्धमादिधनमिदु । ४५६ ।। आदिम्मि चये उड्ढे पडिसमयघणंतु भावाण में दिदु प्रति ሪ समय धनमक्कुं ५६८ | अर्थसंदृष्टियिदु : |५५२ |५३६ ५२० ५०४ १४८८ ४७२ ४५६ |== २११ १२ ॠ १ २१११।२।२११ ० =२११ १२ २१११।२।२११ तस्या पूर्वकरणस्य कालेंतर्मुहूर्त २ ११ मात्रे प्रतिसमयं परिणामा असंख्यात लोकमात्रा अत्र प्रथम - १५ समयाच्चरमसमयपर्यं तं सदृशचयवृद्धाः सन्ति । तेषु चानुकृष्टिरचना नास्ति । उपरितनपरिणामानामषस्तन परिणामैरसादृश्यात् । उस अपूर्वकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उसमें प्रति समय असंख्यात लोक परिणाम होते हैं। वे प्रथम समय से लेकर अन्त समय पर्यन्त समान चयको लिये हुए बढ़ते जाते हैं । यहाँ अनुकृष्टि रचना नहीं है, क्योंकि ऊपर समयके परिणामोंकी नीचेके समयोंके २० परिणामोंके साथ समानता नहीं पायी जाती है। किसी जीवका प्रथम समय में उत्कृष्ट परिणाम हो और किसीका दूसरे समय में जघन्य परिणाम हो, फिर भी उसके उससे अधिकता ही पायी जाती है । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदकदिसंखेण भाजिदे पचयमे विदु प्रचयमक्कं । गच्छउत्तरधन दिदुत्तरधनमक्कुं ०२११-१ २१।३।२ ५६८ ५५२ ५३६ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ५२० ५०४ ४८८ ४७२ ४५६ eme २११।२११ । १ मक्कुं २११ १२ चरमसमय धनर्मतिक्कुर्म बोडादिधनदो रूपोनगच्छमात्र २११।१२११।२ १२६९ अपर्वात्ततोत्तरषनमिदु २११ - १ । ११ २११।२११ । १ । २ चयघणहोणं दव्यं पदभजिदे होदि आदिपरिमाण में विधु प्रथम समपधन येक पवार्द्धनचयगुणो तद्धनं ४०९६ । पदकदिसंखेण भाजिदे पचयं ४०९६ । लब्धं १६ । व्येकपदार्धनचयगुणो ८ । ८ । ४ 2 गच्छ उत्तरधनं ८ । १६ । ८ लब्धं ४४८ । चयवणहोणं दव्वं पदभजिदे होदि आदि २ चणहोणं दव्वं पदभजिदे होदि आदिपरिमाणं - ०२११ । १ । २ २११ । २१ । १ ।२ परिमाणं ३६४८ । लब्धं ४५६ आदिम्मि चये नड्ढे पडिसमयवणं तु भावाणमिति । ८ अर्थसंदृष्टो घनं पदकदिसंखेण भाजिदे पचयं २११।२११।३ ये पदार्धनचयगुणो गच्छ उत्तरधनं २ १ १ २११ अपवर्तितं = ०२११-१ २११।२११ । १ ।२ २११।१।२ जिन जीवोंको अपूर्वकरण करे पहला समय है उन अनेक जीवोंके परिणाम समान भी होते हैं और असमान भी होते हैं । परन्तु जिनको अपूर्वकरण करे द्वितीयादि समय हुए हैं उनके परिणामों में कभी भी समानता नहीं होती। इसी प्रकार जिनको अपूर्वकरण करे द्वितीयादि समय हुआ है उनके परस्पर में समानता भी होती है और असमानता भी होती है, किन्तु ऊपरके तथा नीचेके समयवालोंके साथ परिणामोंकी असमानता ही होती है । १५ इसीसे इसका नाम अपूर्वकरण है । प्रति समय अपूर्व - अपूर्व - जो पहले नहीं हुए ऐसे परिणाम होते हैं । वहाँ सर्वधन चार हजार छियानबे है । तथा करण सूत्र के अनुसार पद या गच्छ आठका वर्ग चौंसठ तथा संख्यातका चिह्न चारसे सर्वधनमें भाग देनेपर चयका प्रमाण सोलह आता है । और दूसरे सूत्र के अनुसार एक कम गच्छके आधे साढ़े तीनको चय सोलह- २० से गुणा करके गच्छ आठसे गुणा करनेपर चार सौ अड़तालीस होते हैं। यही चयधन है । तथा तीसरे सूत्र के अनुसार चयधन चार सौ अड़तालीसको सर्वधन चार हजार छियानबे मेंसे घटानेपर छत्तीस सौ अड़तालीस रहे । उसमें गच्छ आठसे भाग देनेपर चार सौ छप्पन Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७० गो० कर्मकाण्डे चयंगळं Sasa२११ द्विकदिदं समच्छेदम माडिSaal२१-१२ २११।१२।११ २११२।२११२ चरमसमय धनमिदु adॐ।२१११।२ ऋ ई अपूर्वकरणचनाभिप्रायं पेळल्पडुगुम २१११।२११।२ देत दोर्ड अधःप्रवृत्तकरणपरिणाम धनमं नोडलु=a । अपूर्वकरणपरिणामधनमसंख्यातलोकगुणमक्कु 3333 मी परिणामंगळोळपूर्वकरणप्रथमसमयविशुद्धिपरिणामंगळसंख्यातलोकमात्रंगळप्पुववं नोडल द्वितीयादिसमयविशुद्धिपरिणामंगळु मसंख्यातलोकमानंगळेयप्पुवादोर्ट प्रतिसमयं चयाधिकंगळप्पुवल्लि अपूर्वकरणप्रथमसमयजघन्यविशुद्धिपरिणामस्थानमधःप्रवृत्तकरणचरमसमयचरमानुकृष्टिखंडसर्वोत्कृष्टविशुद्धिपरिणामस्थानमं नोडलनंतगुणविशुद्धिपरिणामस्थान. मक्कुमा जघन्यविशुद्धिस्थानमं नोडलं तत्प्रथमसमयसर्बोत्कृष्टापूर्वकरण विशुद्धिस्थानमनंतगुण मक्कुमेके दोडल्लियसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानंगळप्पुवप्पुरिंदमा प्रथमसमय सर्वोत्कृष्टविशुद्धिपरि१० णामस्थानमं नोडलु द्वितीयसमयापूर्वकरणसर्वजघन्यविशुद्धिस्थानमनंतगुणमक्कु । मा जघन्यमं नोडलु द्वितीयसमयसर्वोत्कृष्टविशुद्धिस्थानमन्तगुणमक्कुमेके दोडा द्वितीयसमयजघन्यस्थान अत्र रूपोनगच्छमात्रचयेषु = aaa२११ २ ११ । १२ ११ द्वाभ्यां समच्छेदेन - a = ०२११-१२ २११ ।।२१।२ वृद्धेषु चरमसमयधनं स्यात् = = ३२१११२ । ऋ १ । अत्रायमर्थः-अपूर्वकरणधनमधःप्रवृत्तकरण २११।१।२११ । २ धनादसंख्यातलोकगुणं तत्र प्रथमसमयपरिणामाः असंख्यातलोकमात्राः । तेभ्यो द्वितीयादिसमयेषु १५ तदालापा अपि प्रतिसमयं चयाधिकाः सन्ति । तत्प्रथमसमयजघन्यविशुद्धिपरिणामोऽधःप्रवृत्त करणचरमखण्डोत्कृष्ट विशुद्धिपरिणामादनंतगुणः । ततस्तदुत्कृष्टोऽनन्तगुगः कुतः ? तत्राप्यसंख्यातलोकमात्रषट्स्यानसम्भवात् । ततो पाये। यही प्रथम समयसम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण है। तथा चतुर्थ सूत्रके अनुसार आदिके प्रमाणमें एक-एक चयका प्रमाण सोलह-सोलह क्रमसे मिलानेपर आगेके समयों में परिणामोंका प्रमाण होता है। जैसे प्रथम समय में चार सौ छप्पन है। उनमें एक चय २० मिलानेपर दूसरे समयमें चार सौ बहत्तर होते हैं। उनमें एक चय मिलानेपर तीसरे समयमें चार अट्ठासी होते हैं । इसी प्रकार अन्त समयपर्यन्त जानना । यह तो दृष्टान्त मात्र है। यथार्थ में अधःप्रवृत्तकरणके परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनको असंख्यात लोकसे गुणा करनेपर अपूर्वकरणका सर्वधन होता है। अपूर्वकरणके कालके समयोंका प्रमाण गच्छ है । गच्छके वर्गको संख्यातसे गुणा करके उसका भाग सर्वधनमें देनेपर चयका प्रमाण २५ होता है । एक कम गच्छके आधेको चयसे गुणा करके फिर गच्छसे गुणा करनेपर चयधनका प्रमाण होता है। चयधनको सर्वधनमें-से घटाकर शेषको गच्छका भाग देनेपर प्रथम समयके Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १२७१ मोवल्गोंडसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानंगळु नडदु पट्टिदप्पुरिद । मितु अधस्तनपूर्वपूर्वसमयोत्कृष्टविशुद्धिस्थानमं नोडलुपरितनोपरितनसमयसर्वजघन्यविशुद्धिस्थानमनंतगुणमक्कुं। स्वजघन्यमं नोडलु स्वोत्कृष्टमनंतगुणमक्कु। मोयपूर्वकरणप्रतिसमयविशुद्धिस्थानंगळोपरितनोपरितनसमयविशुद्धिस्थानंगळधस्तनाधस्तनविशुद्धिपरिणामस्थानंगळोडनों दुं समानमल्ळप्पुरिदमी करणमपूर्वकरणमेब पेसरनु दादुदु । अदुकारणदिदमपूर्वकरणपरिणामंगळ्गनुकृष्टि विशेषमिल्लेदु पेळल्पटुदपूर्वकरणकाल प्रथमसमयं मोदल्गोंडु चरमसमयपयंतमेकजीवापेक्षेयि प्रतिसमयमनंतगुण विशुद्धिस्थानंगळप्पुवु। नानाजीवापेयिदं त्रिकालगोचरंगळप्प विशुद्धिस्थानंगळु सदृशंगळु मेणनंतभागासंख्यातभागसंख्यातभागसंख्यातगुणासंख्यातगुणानंतगुणविशुद्धिस्थानंगलप्पुर्वबुदपूर्वकरणरचनाभिप्रायमक्कु । मनंतरमनिवृत्तिकरणपरिणामस्वरूपम पेळ्दपरु ।: एक्कम्मि कालसमये संठाणादीहि जह णिवट्ठति । ण णिवटुंति तहवि य परिणामेहि मिहो जे हु॥९११॥ एकस्मिन्कालसमये संस्थानादिभिर्व्यथा निवर्तते । न निवर्तते तथैव च परिणामम्मियो ये खलु॥ द्वितीयसमयजघन्यविशुद्धिपरिणामोऽनन्तगुणः । ततस्तदुत्कृष्टोऽनन्तगुणः एवमाचरमसमयं ज्ञातव्यं । यत उपरितनसमयपरिणामा अधस्तनसमयपरिणामः सदृशा न ततोऽयमपूर्वकरण इत्याख्यायते ॥९१०॥ अथानि- १५ वृत्तिकरणस्वरूपमाह २० परिणामोंका प्रमाण होता है। द्वितीयादि समयोंमें परिणामोंका प्रमाण लाने के लिए एक-एक चय मिलाना चाहिए । इस प्रकार एक कम गच्छ प्रमाण चय मिलानेपर अन्त समय सम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण होता है। ऊपर टीकामें जो संदृष्टि दी है उसका अर्थ इस प्रकार है अपूर्वकरणका सर्वधन अधःप्रवृतकरणके सर्वधनसे असंख्यात लोक गुणा है। उसमें प्रथम समयसम्बन्धी परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण है। उससे द्वितीयादि समयों में भी असंख्यात लोक प्रमाण ही परिणाम है। तथापि एक-एक चय बढ़ते-बढ़ते हुए हैं। प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि परिणाम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तसमयके अन्तिम अनुकृष्टि खण्डके विशुद्धि परिणामसे अनन्तगुणे हैं। उससे प्रथम समयसम्बन्धी उत्कृष्ट विशुद्धि २५ परिणाम अनन्तगुणा है । क्योंकि अपूर्वकरणमें भी असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान होते हैं। उससे दूसरे समय सम्बन्धी जघन्य विशुद्धि परिणाम अनन्तगुणा है। इसी प्रकार अन्तिम समय पर्यन्त जानना । यहाँ ऊपरके समयोंमें होनेवाले परिणाम नीचेके समयमें होनेवाले परिणामोंके समान कभी भी नहीं होते इसीसे इसका नाम अपूर्वकरण है ॥९१०॥ आगे अनिवृत्तिकरणका स्वरूप कहते हैं ३० क-१६० Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७२ गो० कर्मकाण्डे ये खलु जीवाः आउनु केलवु जीवंगळ स्फुटमागि विवक्षितकसमयदोळु संस्थानवनवयो. वेषभाषाविर्गाळदमेतु ओरोव्वरोळ विसदृशरप्परते परिणामंगळवं मियः परस्परं विसदृश. रप्परल्तु विशुद्धिपरिणामंगळवं विवक्षितैकसमयबोळषःप्रवृत्तापूर्वकरणंगळोळ विसदृशविशुखि. युक्तरेंतोळरंतयनिवृत्तिकरणरोळिल्ले बुवत्थं । न विद्यते निवृत्तिः परिणामभेदो एषु करणेषु ५ परिणामेषु तेऽनिवृत्तयः। अनिवृत्तयः करणाः परिणामा एषां तेऽनिवृत्तिकरणाः। एंक्तिनिवृत्तिकरणरेब पेसरन्वर्थमक्कुं। ई ययमने स्फुटीकरिसिवपरु : होति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जस्सि एक्कपरिणामा । विमलयरझाणहुदवहसिहाहिणिद्दड्ढ कम्मवणा ॥९१२॥ भवेयुरनिवृत्तयस्ते प्रतिसमयं यस्मिन्नेकपरिणामाः। विमलतरध्यानहुतवहशिखाभिन्निदंग्य१० कम्भवनाः॥ यस्मिन्ननिवृत्तिकरणे प्रतिसमयमेकपरिणामाः। विमलतरध्यानहुतवहशिखाभिन्निग्ध कम्भवनास्तेनिवृत्तयो भवेयुः ॥ सुगमं । अनिवृत्तकरणपरिणामाध्वानक्कंकसंवृष्टि नाल्कु ४ । अर्थसंवृष्टियंतर्मुहूर्त २११ ईयनिवृत्तिकरणरचनाभिप्रायं पेळल्पडुगुम ते दोर्ड:-अपूर्वकरणकालमंतमहत्तम काळदु १५ अनिवृत्तिकरणपरिणाममं पोद्दि तत्कालप्रथमसमय मोवस्गोंड चरमसमयपय्यंत प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धिवृद्धिपरिणामयुतरप्परादोडं विवक्षितसमयदोळे निबरु जोवंगलिहों उमनिबर्ग वर्णादि. ये जीवा अनिवृत्तिकरणकालस्य विवक्षितकसमये संस्थानवर्णवयोवेषभाषादिभिमियो यथा निवर्तन्ते भिद्यन्ते तथा परिणामः खल्वधःप्रवृत्तापूर्वकरणवन्न निवर्तन्ते ॥९११॥ अम्मेवार्थ स्फुटीकरोति यस्मिन्करणे प्रतिसमयमेकैकपरिणामास्ते विमलतरध्यानहतवह्निशिखाभिनिर्दग्धकर्मवना अनिवृत्तयो जो जीव अनिवृत्तिकरण कालके विवक्षित एक समयमें परस्परमें शरीरके आकार, रूप, वय, वेष, भाषा आदिसे भिन्न-भिन्न होते हैं अर्थात् किसी जीवका आकार आदि किसी प्रकारका होता है किसी जीवका किसी प्रकारका होता है, उनमें समानता नहीं होती। उस प्रकार अधःकरण अपूर्वकरणकी तरह उनमें परिणामोंका भेद नहीं होता अर्थात् जिनको अनिवृत्तिकरणमें आये पहला समय है उन सब त्रिकालवर्ती अनन्त जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं, अन्य-अन्य रूप नहीं होते, इसी तरह द्वितीयादि समयवर्ती जीवोंके परिणामोंमें भी समानता पायी जाती है ।।९११॥ इसी अर्थको स्पष्ट करते हैंजिस करणमें प्रतिसमय जीवोंके एक-एक ही परिणाम होता है और वह परिणाम Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२७३ भेदमुळ्ळोडमेकप्रकारविशुद्धिपरिणामयुतरप्परेके दोडनिवृत्तिकरणसमयत्तिगळ्गे परिणामांतरं संभविसदें बुदु तात्पथ्यं ॥ इंतु भगववहत्परमेश्वर चारुचरणारविवद्वंद्ववंदनानंदित पुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुमंडलाचार्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिचारुचरणारविंदरजोरंजितललाटपट्टश्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्नाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिक- ५ योळु कर्मकांड त्रिकरणचूलिकामहाधिकारं व्याख्यातमादुदु ॥ उरियोळ् शैत्यमनुग्रनोविनयमं वुवृत्तनोळसत्यमं दुरहंकारनोळिज्ययं जरठनोब्दक्षत्वमं पंदियो। मधुरधोरत्वमनाहंतागमसुधासंतृप्तनोळ्दोषमं घोरेगट्टोडुपयोगशून्यने वलं पेन्गुं बुधं पेन्गुमे ॥ भवन्ति । तस्याघ्वानोंऽकसंदृष्टया चतुरंकः । अर्थसंदृष्ट्यांतर्मुहूर्तः ॥९१२॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां कर्मकाण्डे त्रिकरणलिकानाम अष्टमोऽधिकारः ॥८॥ अतिशय निर्मल ध्यानरूप आगकी शिखाके द्वारा कमरूपी वनको जला देनेवाले होते हैं उन्हें अनिवृत्ति कहते हैं । उसका काल अंकसंदृष्टिसे चार है और अर्थ रूपसे अन्तर्मुहूर्त है ॥९१२॥ १५ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहको भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें त्रिकरणचूलिका नामक आठवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥८॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० १५ सिद्धे विशुद्धलिये पणट्ठकम्मे विणट्ठसंसारे । पणमिय सिरसा वोच्छं कम्मट्ठदिरयणसम्भावं ॥९१३॥ सिद्धान्शुद्धात्मप्रदेशान् प्रणष्टकर्मणो विनष्टसंसारान् । प्रणम्य शिरसा वक्ष्यामि कर्मस्थितिरचनासद्भावं || प्रणष्टघात्यघातिकरुं विनष्टसंसाररुं शुद्धात्मप्रदेशरुमध्य सिद्धपरमेष्ठिगळां तले एकदिदं नमस्कार माडि कम्र्मस्थितिरचना सद्भावमं पेळवर्म दिताचाय्यंरु प्रतिज्ञेयं माडि पेदरु । कम्म सरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । वेणुदीरणस्स य आबाहा जाव ताव हवे ||९१४॥ कर्म्मस्वरूपेणागतद्रव्यं न चेत्युदयरूपेण । रूपेणोवीरणायाश्चाबाधा यावत्तावद्भवेत् ॥ २५ कर्मस्वरूपवदं परिणमिसिद काम्मंणद्रव्यमुदयरूपदिदमुदीरणारूपविद मुर्मन्नेवरं परिणमनमर्नध्ददर्न वरमदक्का कालमाबाधे ये 'दु पेळल्पदु । इल्लि उदयापेको यिनाबाधेयं पेदपरु :उदयं पडि सत्त आबाहा कोडकोडिउवहीणं । वाससयं तप्पडिभागेण य सेसद्विदीणं च ॥ ९९५ ॥ उदयं प्रति सप्तानामाबाधा कोटोकोट घुदधीनां । वर्षशतं तत्प्रतिभागेन च शेषस्थितोनां च ॥ प्रणष्टवात्यघातिकर्मणः विनष्टसंसारान् शुद्धात्मप्रदेशान् सिद्धपरमेष्ठिनः शिरसा प्रणम्य कर्मस्थितिरचनासद्भावं वक्ष्ये ||९१३॥ कर्मस्वरूपेण परिणतकार्मणद्रव्यं यावदुदयरूपेण उदीरणारूपेण वा नैति न परिणमति तावदाबाधेत्युच्यते ॥ ९९४ ॥ जिनके घाती और अघाती कर्म पूर्ण रूपसे नष्ट हो गये हैं अतएव जिन्होंने संसारको २० विशेषरूपसे नष्ट कर दिया है, तथा विशुद्ध आत्मप्रदेश ही जिनका वासस्थान है उन सिद्ध परमेष्ठीको मस्तक से नमस्कार करके कर्म स्थिति रचनाके सद्भावको कहते हैं । विशेषार्थ - कर्मों की स्थिति में प्रतिसमय निषेकों में कितना - कितना कार्माण द्रव्य पाया जाता है ऐसी रचना अस्तित्वका कथन करते हैं । यह कथन पहले भी जीव काण्डके योगमार्गणाधिकार में तथा कर्मकाण्ड बन्ध उदय सत्त्व अधिकार में कहा है ।।९१३ || कर्मरूपसे परिणमा कार्माण द्रव्य जबतक उदयरूपसे या उदीरणारूपसे परिणमन नहीं करता तबतक उस कालको आबाधाकाल कहते हैं ||९१४ || Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२७५ आयुज्जितसप्तमूल प्रकृतिगळ स्थिति कोटोकोटिसासरोपमंगळगे शतवर्षमावायक्कमंतागुत्तं विरलु तत्प्रतिभागदिदं शेषस्थितिगळ्गेयुमावाधाप्रमाणमरियल्पडुगु-। मदें तवोगेंदु कोटोकोटिसागरोपमस्थितिगे उदयमं कुरुत्ताबाध वर्षशतप्रमितमागुत्तिरलु ज्ञानदर्शनावरणवेवनीयांतरायंगळ मूवत्तुं कोटोकोटिसागरोपमंगळ्गेनिताबाधेयक्कु, दितु राशिकं माडल्पडुत्तिरला कोटोकोटिसागरापमंग प्रतिभागमप्पुवु। भागहारंगळप्पुवे बुदत्यं । प्र= सा को २।फ। आ- ५ वर्ष १०० । इ-सा ३० । को २। लब्धमाबाधे मूर सासिर वर्षगळप्पुवु। ३०००। ई प्रकारदिवं मोहनीयदेप्पत्तु कोटोकोटिसागरोपमंगळाबाधे सप्तसहस्रवर्षगळप्पुवु । व ७००० । नामगोत्र गळिप्प तुकोटोकोटिसागरोपमंगळ्गाबाधे येरडु सासिरवर्षगळप्पुवु। व २००० ॥ मत्तमाबावाविशेषमं पेळवपरु : अंतो कोडाकोडिविदिस्स अंतोमुहुत्तमाबाहा । संखेज्जगुणविहीणं सव्वजहण्णट्ठिदिस्स हवे ॥९१६॥ अंतःकोटीकोटिस्थितेरंतर्मुहूर्त आबाधा । संख्येयगुणविहीना सर्वजघन्यस्थितेर्भवेत् ॥ अंतःकोटीकोटिसागरोपमस्थितिगे आबाधेयंतर्मुहूर्त प्रमितमक्कु-। मंतागुत्तं विरलु सर्वः जघन्यस्थितियु संख्यातगणहोनांतःकोटीकोटिसागरोपमंगळप्पु वदक्काबाधेयं संख्यातगुणहीनां. तम्र्मुहूर्त्तमक्कुमदेत दोडे-ओंदु वर्षक्क दिनंगळ मूनूररुवतु ३६० । ओंदु दिनक्के मूवत्त मुहूर्त. १५ गळु । ३० । नूरु वर्षगळ्गे पत्तलक्षमु मे भत्तुसासिर मुहूत्तंगळप्पुवु । १०८०००० ।। इन्नु त्रैराशिकं आयुषः पृथग्वक्ष्यतीति सप्तमूलप्रकृतीनामुदयं प्रत्याबाधा कोटिकोट्यब्धिस्थितेवर्षशतं स्यात् । शेषस्थितीनामपि तत्प्रतिभागेन ज्ञातव्या । तद्यथा-एककोटोकोट्यब्धीनां वर्षशतमाबाधा तदा द्वयावरणवेदनीयां. तरायाणां त्रिंशत्कोटीकोट्यब्धीनां कियतीति लब्धा त्रिसहस्रवर्षाणि व ३०००। एवं मोहनीयस्य सप्ततिकोटीकोट्यब्धीनां सप्तसहस्रवर्षाणि व ७०००। नामगोत्रयोविंशतिकोटीकोटयब्धीनां द्विसहस्रवर्षाणि व २००० २० ॥९१५।। पुनविशेषमाह सागरोपमानां कोटेरधिकायाः कोटाकोटेहीनायाः स्थितेरंतःकोटाकोटित्वादेककांडकायाम ७४०७४०७ २५ आयुकर्मका कथन अलगसे करेंगे । अतः सात मूलकोंकी आबाधा उदयकी अपेक्षा एक कोडाकोड़ी सागरकी स्थितिमें सौ वर्ष है । शेष स्थितियोंकी भी आबाधा इसी प्रतिभागके अनुसार जानना । जो इस प्रकार है एक कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिकी आबाधा सौ वर्ष है तो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय अन्तरायकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिकी कितनी आबाधा होगी? यहाँ प्रमाणराशि एक कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि सौ वर्ष, इच्छाराशि तीस कोडाकोड़ी सागर । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाण का भाग देनेपर तीन हजार वर्ष की आबाधा होती है। इसी प्रकार मोहनीयकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिकी सात हजार वर्षे आबाधा होती है। ३० नाम और गोत्रकी बीस कोडाकोड़ी सागर स्थितिकी दो हजार वर्ष आबाधा होती है ॥९१५॥ कुछ विशेष कहते हैंएक कोटिसे ऊपर और कोड़ाकोड़ीसे नीचेको अन्तःकोटाकोटी कहते हैं। अन्तःकोटा Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७६ गो० कर्मकाण्डे माडपडुगु । प्रमुं १०८०००० । फ= = स्थि सा को २ । इमु १ । लब्धमेकमुहूर्ताबाधेगे स्थिति एककांडकायामन्यून पत्तु कोटिसागरोपमंगळप्पुवु । सा ९२५९२५९२ । १६ ऊनकांडकायाममिदु । २७ १० ७४०७४०७ भा ११ कूडि पत्तु कोटि सागरोपमर्म बुवत्थं । ई स्थितिगाबाधेयुमुत्कृष्टांतर्मुहूर्त - २७ ५ मक्कु मदु वुमेकसमयो नमुहूर्त मात्रमक्कुमदु कारणमागि एकसमयोनत्वमनवगणिसि संपूर्नैकमुहूर्त्ता बाधे एककांडकायामन्यूनपत्तु कोटिसागरोपमस्थिति येंदु ज्ञातव्यमक्कुमेक दोडा एककांडकायामन्यूनमेकमुहूर्त्ताबाधास्थितिकोटियिद मेले कोटिकोटियिदं केळर्गयप्पुरिदं मंतः कोटिकोटि पेळपडुगु- । मी स्थितिय ९२५९२५९२१६ संख्यातैकभागं ९२५९२५९२ १६ सर्व्वजघन्य - २७ स्थिति यदु पेळल्पट्टुववक्काबाधेयुमुत्कृष्टांत मुहूर्तव संख्यातैकभाग मेंदु पेळपट्टुवु । २७ O मु २७ उत्कृष्टांतः कोटोकोटिगे संदृष्टि : -- ९२५९२५९२ १६ आबाधे मु २१ ॥ जघन्यांतः ૪ २७ O कोटि कोटि ९२५९२५९२ १६ बबाधे मु २१ २१ २७ ४ अनंतरमायुष्यकर्म्मस्थितिगाबाधेयं पेदपर : पुत्राणं कोटितिभागादासंखेपअद्ध ओत्ति हवे | आउस य आचाहा ण ट्ठिदिपडि भागमाउस्स ||९१७॥ पूर्व्वाणां कोंटि त्रिभागावोसंक्षेपाद्वा पय्यंतं भवेदायुषश्चाबाधा न स्थितिप्रतिभाग१५ मायुषः ॥ ना ११ न्यूनदशकोटे: सा ९२५९२५९२ १६ आबाधा उत्कृष्टांतर्मुहूर्तः २ १ ततः संख्यातगुणहीनायाः २७ २७ G सर्वजघन्यस्थितः असंख्यातेन सा ९२५९२५९२ १६ गुणहीना स्यात् २ १ ।। ९१६ ।। आयुष बाह ง २७ ४ ater arrest स्थितिकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है । एक काण्डकका प्रमाण चौहत्तर लाख सात हजार चार सौ सात तथा ग्यारहका सत्ताईसवाँ भाग ७४०७४०७२३ है । इसको २० दस कोड़ाकोड़ी सागरमें से घटानेपर नौ कोटि पच्चीस लाख बानबे हजार पाँच सौ बानबे और सोलइका सत्ताईसवाँ भाग रहा। इतनी स्थितिकी आबाधा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उससे संख्यातगुणी हीन जघन्य स्थितिकी आबाधा उससे संख्यातगुणी होन है अर्थात् उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त के संख्यातवें भाग है ||९१६ || आयुकी आबाधा कहते हैं Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२७७ आयुषश्च आयुष्य कम्यं पूर्व्वकोटिवर्षं त्रिभागं मोदल्गोंड आ संक्षेपार्द्ध पय्यंतं समयोनक्रम विकल्पंगळप्पुवनितु विकल्पाबाधेगळप्पुवु । आयुषः आयुष्यकमक्क स्थितिप्रतिभागमिल्लमनुपातत्र राशिकं माडल्ड दें' बुदाथ में ते बोर्ड पूर्वकोटिवर्षायुष्यवर्क पूर्वकोटिवर्षत्रिभागमुत्कृष्टाबायालु त्रिपल्योपमाद्यायुष्यं गळगे निताबाधयक्कुर्म बुदु मोदलाद प्रतिभागमा पुष्य कर्म्मदोळिल्लें बुवत्थं । असंक्षेपार्द्धर्य बुर्द तें दोर्ड न विद्यते अस्मादन्यः संक्षेपोऽसंक्षेपः । स चासावद्धा चाऽसंक्षेपाद्वा एंदिताव लिय असंख्यातैकभागं सव्यं जघन्याबाधेया युष्कम्मंदोलक्कु मिल्लिदं किरिदि सर्व बु ॥ अनंतरमुदीरणयं कुरुत्तु आबार्धयं पेळदपरु : आवलियं आबाहा उदीरणमासेज्ज सत्तकम्माणं । परभविय आउगस्स य उदीरणा णत्थि नियमेण ॥ ९९८ ॥ आवलिका आबाघोदीरणामाश्रित्य सप्तकर्मणां । परभवायुषश्चोदोरणा नास्ति नियमेन ॥ उदीरणेयं कुरुत्तु आयुर्व्वर्ज्जसप्तक मंगळलमेकावलिमात्र माबाधेयक्कु । परभवायुष्यक्क नियमविवमुवीरणे यिल्लेके दो डुदीरणे युदयप्रकृतिगळगल्ल दिल्लप्पुदरिदमी परभवायुष्यमें बुदु बध्यमानायुष्यमप्पुदरिदं भुज्यमानायुष्यक्कुदीरणेयुं तिय्यंग्मनुष्यायुष्यंगळगल्ल दिल्लल्लियुमौप आयुष्कर्मणः आबाधा पूर्वकोटिवर्षत्रिभागादा असंक्षेपाद्धांताः एकैकसमयोनाः सर्वे विकल्पा भवन्ति, १५ न खलु स्थितिप्रतिभागमाश्रित्यायुषः साध्याः, पूर्वकोटिवर्षस्य तत्त्रिभाग आबाधा तदा त्रिपल्यस्य कियतीत्यादिना तदसिद्धेः । न विद्यतेऽस्मात्पर आयुराबाधायां संक्षेपः असंक्षेपः स चासावद्धा चासंक्षेपाद्वा ॥९९७॥ अथोदीरणां प्रत्याह उदीरणाकी अपेक्षा आयु बिना सात कर्मोंकी आबाधा आवली मात्र है । बँधने के बाद यदि उदीरणा हो तो आवलीकाल बीतनेपर हो जाती है । किन्तु परभवकी बाँधी हुई ५ उदीरणामाश्रित्यायुर्वजितसतकर्मणामाबाधा आवलिमात्री स्यात् । परभवायुषो नियमेनोदीरणा नास्ति कर्म की बाधा एक कोटि पूर्व वर्ष के तीसरे भागसे लगाकर आसंक्षेपाद्धापर्यन्त २० एक-एक समय हीन सब भेद लिये हुए है। आयुकी आबाधा स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार साध्य नहीं है । एक पूर्वकोटि वर्षकी आबाधा उसका त्रिभाग है तो तीन पल्की स्थिती आबाधा कितनी होगी । इस प्रकारसे स्थितिके प्रतिभागसे आयुकी आबाधाका प्रमाण सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जितनी मुज्यमान आयु शेष रहनेपर परभवकी आयु बँधती है उतनी ही उसकी आबाधाका प्रमाण होता है । सो कर्मभूमि में आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर, भोगभूमि - २५ में नौ मास और देव नारकी में छह मास आयु शेष रहनेपर परभवकी आयुके बन्धकी योग्यता होती है । अतः उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटि वर्षका त्रिभाग है । जिससे आयुकी आबाधाका संक्षेप - हीनपना नहीं पाया जाता ऐसे अद्धा अर्थात् कालको 'आसंक्षेपाद्धा' कहते हैं । सो जघन्य आबाधा आसंक्षेपाद्धा प्रमाण होती है । यह उदयकी अपेक्षा आबाधा कही । बँधने के बाद यदि उदय हो तो इतना काल बीतनेपर ही होगा ||९१७॥ आगे उदीरणाकी अपेक्षा कहते हैं १० ३० Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १५ १२७८ गो० कर्मकाण्डे पादिकचरमोत्तम देहा संख्येय वर्षायुषोनपवर्त्यायुषः । देवनारकभुज्यमानायुध्यबोळं तिग्मनुष्यरुळ असंख्यातवर्षायुष्यदोळं संख्यातवर्षायुष्यरत्प कम्र्म्मभूमिय भोगभूमिकालव तिग्मनुष्यरायुष्यंगळोलं चरमोतमदेहरुगळप्प तोत्थंकरुगळु गणधरदेवरुगल भुज्यमानायुष्यवो मुबीर संभविसदु । २० आयुष्कर्मवज्जितंगळप्प ज्ञानावरणादिसमकम्मंगळ तंतम्मुत्कृष्ट स्थितिगलोळगे तंतम्१० त्कृष्टा बाधास्थितियं कळेदु शेष स्थितियनितुं निषेकस्थितियककुं 4 नि ! महंगे जघन्यस्थिति आ यो जघन्याबाधेयं कटु शेषस्थितियनितुं निषेक स्थितियक्कु आबाहूणियकम्मट्ठदी णिसेगो दु सत्तम्माणं । आउस णिसेगो पुण सगट्ठिदी होदि नियमेण ॥ ९१९ ॥ आबाधोनितक स्थितिन्निषेकस्तु सप्तकम्मं गां । आयुषो निषेकः पुनः स्वस्थितिर्भ वेन्नियमेन ॥ 4 नि | आ मायुष्यम् मंदोळं तल्तु मत्तेन्ते बोर्ड आयुष्य कम्मंस्थिति ये नितनितुं निषेकस्थितियक्तुं नियमदिर्दर्क' दोडायुष्यकम्मंदाबाधे भुज्यमानायुष्य स्थितियल्लप्पुर्दारदं । अंतागुत्तं विरल : आवाहं बोलावि य पढमणिसेगम्मि देइ बहुगं तु । ततो विसेसहीणं विदियस्सादिमणि से ओत्ति ॥ ९२० ॥ आबाधामतिक्रम्य च प्रथमनिषेके ददाति बहुकं तु । ततो विशेषहोनं द्वितीयस्याद्यनिषेक पय्यतं ॥ उदयागतस्यैवोपपादिकचरमोत्तम देहा संख्यवर्षायुभ्योऽन्यत्र तत्सम्भवात् ॥ ९९८ ॥ आयुर्वजितसतकर्मणामुत्कृष्टादिस्थिती तत्तदाबाधायामपनीतायां शेषस्थितिनिषेकः स्यात् Aन। || अ आयुः कर्मणो निषेकः पुनः यावती स्त्रक्रीया सर्वस्थितिस्तावानेव स्यान्नियमेन तदाबाधायाः पूर्वभवायुष्ये त्र गतत्वात् ॥९१९॥ आयुकी उदीरणा इस भव में नहीं होती यह नियम है । उदयमें आयी हुई भुज्यमान आयुकी ही उदीरणा होती है वह भी देव, नारकी, चरम शरीरी और असंख्यात वर्षकी आयुवाले २५ मनुष्यों और तियं चोंको छोड़कर ही होती है। क्योंकि ये सब पूरी आयु भोगकर ही मरते हैं । इनकी अकालमृत्यु नहीं होती ||९१८|| आयुको छोड़ शेष सात कर्मोंकी उत्कृष्ट आदि स्थिति में आबाधाकाल घटानेपर जो शेष रहे उस कालके समयोंका जितना प्रमाण हो उतने ही निषेक सात कर्मों के होते हैं । किन्तु आर्मी जितनी स्थिति हो उसके समयोंका जो प्रमाण हो उतना ही निषेकका प्रमाण ३० होता है । क्योंकि आयुकर्म की आबाधा पूर्वभवकी आयुके साथ ही बीत जाती है ||९१९ || Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२७९ ज्ञानावरणादिकम्मंगळ आशधास्थितियनतिक्रमिसि प्रथमगुणहानिप्रयमनिषेकमोळ द्रव्यमं बहुकम कुडुगुमल्लिदं मेले कविशेषहीनदिदं द्रव्यम द्वितीयगुणहानिप्रथम निषेपथ्यंत कुडुगुमी द्रव्यनिक्षेपदोळु द्रव्यहानियं पेळ्दपरु :.. बिदिये बिदियणिसेये हाणी पुब्बिल्लहाणिअद्धं तु । एवं गुणहाणि पडि हाणी अद्ध द्धयं होदि ॥९२१॥ द्वितीयायां द्वितीयनिषेकहानिः पूर्वहान्यद्धं तु। एवं गुणहानि प्रति हानिराद्धं स्यात् ॥ द्वितोपगुणहानिद्वितीयनिषेकदोजु हानिनिताकुमें दो. पूर्वहान्यर्द्धमकुं। यितु गुणहानि गुणहानि प्रति हानिया मक्कु । मनंतरमा द्रव्यनिक्षेपदोळु द्रव्यादिगळ नामनिर्देशमं माडिदपरु : दव्वविदिगुणहाणीणद्धाणं दलसलाणिसेयछिदी । अण्णोण्णगुणसलावि य जाणेज्जो सव्वठिदिरयणे ॥९२२।। द्रव्यस्थितिगुणहान्योरध्वानं दलशलाकानिषेकच्छेदोन्योन्यगुणशलाका अपि च ज्ञातव्याः सर्वस्थितिरचनायां ॥ ___सर्वकम्मंगळ स्थितिरचनेयोचु द्रव्यमं स्थित्यायाममुं गुणहान्यायाममुं दलशलाकेगळे बुवु नानागुणहानिशलाकेगळप्पुवq । निषेकच्छेदमें बुदु दोगुणहानियप्पुददुवं अन्योन्यगुणशलाकेगळे बवु १५ अन्योन्याभ्यस्तराशियक्कुमदुq। यिंतारुं राशिगळ ज्ञातव्यंगळप्पुवु । ज्ञानावरणादिकर्मणामाबाधामतीत्य प्रथम गुणहानिप्रथमनिषेके द्रव्यं बहुकं ददाति तत उपरि द्वितीयगणहानिप्रथमनिषेकपयंतमेकैकचयहीनं ददाति ॥९२०॥ ____ ततो द्वितीयगुणहानिद्वितीयनिषेके हानिः पूर्वहानेरधं स्यात् । एवमुपर्यपि गुणहानि गुणहानि प्रति हानिरर्धाध स्पात् ॥९२१॥ सर्वकर्मस्थितिरचनायां द्रव्यं स्थित्यायामः गुणहान्यायामः दलशलाका:-नानागुणहानिः निषेकच्छेदःदोगणहानिः अन्योन्याभ्यस्तश्चेति षडराशयो ज्ञातव्याः॥९२२॥ ज्ञानावरण आदि कर्मों की स्थितिमेंसे आबाधाकाल बीतनेके बाद प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम निषेकमें बहुत द्रव्य दिया जाता है उससे ऊपर द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेक पर्यन्त एक-एक चय घटता हुआ द्रव्य दिया जाता है ।।९२०॥ २५ दूसरी गुणहानिके दूसरे निषेकमें उसीके पहले निषेकमें जितनी हानि हुई थी उससे आधी हानि होती है। इस तरह पहली गुणहानिमें जो प्रत्येक निषेकमें हानिरूप चयका प्रमाण था उससे दूसरी गुणहानिमें हानिरूप चयका प्रमाण आधा होता है। इसी प्रकार ऊपर भी प्रत्येक गुणहानिमें हानिरूप चयका प्रमाण आधा-आधा होता है ।।९२१॥ सब कर्मोंकी स्थिति रचनामें छह राशि ज्ञातव्य हैं-द्रव्य, स्थिति आयाम, गुणहानि ३० आयाम, दल शलाका अर्थात् नाना गुणहानि, निषेकच्छेद अर्थात् दो गुणहानि और अन्योन्याभ्यस्त राशि। विशेषार्थ-कर्मरूप परिणमे पुद्गल परमाणुओंके प्रमाणको द्रव्यराशि कहते हैं। क-१६१ २० Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८० गो० कर्मकाण्डे अल्लि द्रव्यादिगळ्गंकसंदृष्टियं पेन्दपरु : तेवट्ठि च सयाई अडदाला अट्ठ छक्क सोलसयं । चउसर्डिं च विज़ाणे दव्वादोणं च संदिट्ठी ॥९२३।। त्रिषष्टि च शतानामष्टचत्वारिंशदष्टौ षट्कं षोडशचतुःषष्टि चापि जानीहि द्रव्यादीनां ५ च संदृष्टि। त्रिशतोत्तर षट्सहस्रंगळु नाल्वत्ते टुमेंटुमारं पदिनारुमरुवत्तनाल्कु क्रमदिदं द्रव्यादिगळिगे संदृष्टियप्पुर्वेदु नोनरि शिष्या ? येदिताचार्यानिदं संबोधिसल्पढें। अंकसंदृष्टि द्रव्य ६३०० स्थिति ४८ गुणहा ८ नाना गुणहा ६ | दोगुणहा १६ । गुण=प १ | नाना गुणहा=| दोगुणहा प २२/अर्थसंदृष्टि | द्रव्य स ० स्थिति प१ छ व छे छे व छे । छे व छे अन्योन्याभ्यस्त ६४ अन्योन्याभ्यस्त प अनंतरमर्थसंदृष्टिय द्रव्यादिगळ प्रमाणम पेळ्दपरु : दव्वं समयपबद्धं उत्तपमाणं तु होदि तस्सेव । जीवसहत्थणकालो ठिदि अद्धासंखपन्लमिदा ॥९२४।। द्रव्यं समयप्रबद्धः उक्तप्रमाणस्तु भवेत् तस्यैव जीवसहावस्थानकालस्थित्यद्धा संख्यपल्य. मिता॥ तत्रांकसंदृष्टी द्रव्यं त्रिषष्टिशतानि जानीहि स्थितिमष्टचत्वारिंशतं गुणहानिमष्टौ नानागुणहानि षट् दोगुणहानि षोडश अन्योन्याभ्यस्तं चतुःषष्टि ॥९२३॥ १५ कर्मोंकी स्थितिके समयोंके प्रमाणको स्थिति आयाम कहते हैं । जिसमें दूना-दूना घटता हुआ द्रव्य दिया जाये वह गुणहानि है। उस एक गुणहानिके समयोंका प्रमाण गुणहानि आयाम है। सब स्थितियोंमें जितनी गुणहानियां हों उनका प्रमाण नाना गुणहानि है। गुणहानि आयामके प्रमाणके दूनेको दो गुणहानि कहते हैं। नाना गुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वह अन्योन्याभ्यस्त राशि है ।।९२२।। २० अंकसंदृष्टिके रूपमें द्रव्य तिरसठ सौ, स्थिति अड़तालीस, गुणहानि आयाम आठ, नानागुणहानि छह, दो गुणहानि सोलह और अन्योन्याभ्यस्तराशि चौंसठ जानना ॥९२३॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १२८१ द्रव्यमें वुदु समयबद्धमकुमj द्रव्यविभंजनदोक्तप्रमाणमनुकदमा द्रव्यकके जीव. नोडने सहावस्यानकालं स्थित्यद्धे ये द पेळल्पटुवq संख्यातपल्यमितमक्कुं। मिच्छे वग्गसलायप्पहुडिं पल्लस्स पढममूलोत्ति । वग्गहदी चरिमो त्तच्छिदिसंकलिदं चउत्थो य ॥९२५।। मिथ्यात्वकनंगि वग्गंशलाका प्रभृति पल्यस्य प्रयममूलपयंतां। वर्गहतिश्चरमस्तच्छेदः ५ संकलितं चतुर्थां च ॥ इल्लि द्रास्थितिगुणहानि दोगुणहानि येब नाल्कर संदृष्टिगळ सप्तकम्मंगळगे साधारणमक्कुं । नानागुणहानिशलाकेगळुमन्योन्याभ्यस्तराशियुं साधारणंगळल्तद् कारणमागि तद्विशेषकथनदो मिथ्यात्वकर्मणि एंदितु पेळल्पटुद । मिथ्यात्वकर्मदोछ अन्योन्याभ्यस्तराशियु नानागुणहानिशलाकेगमे नितनितप्पुर्व दोडे चरमराशियप्प अन्योन्याभ्यस्तराशिप्रमाण पेळल्पडुगुमदेते दो:-द्विरूपवर्गधारेयं पल्यपथ्यंत स्थापिसि अवर केळगे तत्तद्राशिगळ अद्धच्छेदंगळं स्थापिसि अवर केळ तत्तद्वर्गशलाकेगळं स्थापिसि संदृष्टि :| २४ १६ २५६६२ = ४२ = १८ = ००० व व व छे छे छे ००० र ३ मू २ मू १५ | | ०२२ ३ | ४ / ५/६/००० व छेछ ००० व ३ व २ व १ व अर्थसंदृष्टी तु द्रव्यं प्रागुक्तप्रमाणः समयप्रबद्धः स्यात् । स्थित्यद्धा संख्यातपल्यानि सा च जीवेन सह समयप्रबद्धस्यावस्थानकाल: ॥९२४॥ द्रव्यस्थितिगुणहानिदोगुणहानिसंदृष्टयः सप्तकर्मणां साधारणाः नानागुणहान्यन्योन्याम्पस्तराशी १५ चासाधारणौ तेन तयोविशेषं वक्तुमिच्छे इत्युक्तवान् । तत्र द्विरूपवर्गधारायाः पल्यवर्गशलाकादिपल्यपयंतराशीन् और अर्थसंदृष्टि अर्थात् यथार्थ कथनके रूपमें द्रव्य तो पूर्वोक्त प्रमाण समयप्रबद्ध है। अर्थात् एक समयमें जितने परमाणु बँधते हैं उनका कथन पहले प्रदेशबन्धाधिकारमें कर आये हैं। उनका प्रमाण द्रव्य है । बँधा हुआ समयप्रबद्ध जितने समय तक जीवके साथ अवस्थित रहता है वह स्थितिआयाम है । सो स्थितिआयाम संख्यातपल्य प्रमाण है। उसके २० समयोंका प्रमाण स्थितिराशि है ॥९२४॥ द्रव्य, स्थिति, गुणहानि आयाम, दो गुणहानि, इनकी संदृष्टि तो सातों कर्मों के समान है। यहाँ यद्यपि द्रव्य और स्थिति हीनाधिक है तथापि सामान्यसे द्रव्य समयप्रबद्ध प्रमाण और स्थिति संख्यात पल्य प्रमाण है। किन्तु नानागुणहानि और अन्योन्याभ्यस्त राशि समान नहीं है । इससे इनके सम्बन्धमें विशेष कथन करना चाहते हैं-प्रथम ही मिध्यात्व २५ नामक कर्मको लेकर कहते हैं जिसकी स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर है। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे बळिषक तां स्थापिसिद मूरुं राशिगळ पंक्तिगळोळु प्रथमद्विरूपवर्गधारेयोल पुट्टिव पत्यवर्गशल काराशि मोदल्गोड पल्यप्रथम मूलपय्र्यंतमिद्देवगंराशिगळ संवर्गदिदं पुट्टिद राशि पल्यमं पल्यवर्गशलाकाराशियिदं भागिसिदनितक्कु प मिदु चरमप्प अन्योन्याभ्यस्त राशिप्रमाणमक्कुमं दु व पेळपट्टुवु । चरमत्त्रमिदवर्क तादुदें दोडेमुं पेव्द निर्देशविधियोल पेद द्रव्यादिगलो षष्ठचरम५ राशियप्रदं । मत्तमा पल्यबर्ग वर्गांशलाकाराशिगर्द्धच्छेदंगळ पत्यवग्गंशालाका र्द्धच्छंदराशिप्रमाणंगळवु । व छे । मेलेद्विगुणद्विगुणक्रमदिदं पोगि प्रथममूलराशिगर्द्धच्छेदंगल पल्यच्छेदार्द्ध प्रमितंगळप्पुवु छे इवर संकलनधनं अंतधणं हे गुणगुणियं हे २ आदिविहोणं छे व छे रूऊणुतरभजिय a २ २ १२८२ १० तदर्धच्छेदान् तद्वर्गशलाकाश्च संस्थाप्य पंक्तित्रयं कृत्वा तत्र वर्गशलाका दिपत्यप्रथम मूलपर्यंत राशीनां संवर्गः पत्य वर्गशलाकाभक्त१ल्यमात्रः चरमः अन्योन्याम्यस्तराशिः स्यात् । तदर्धच्छेदराशीना मंतघणं छे गुणगुणियं छे २ २ द्विरूप वर्गधाराके पल्की वर्गशलाका से लेकर पल्यके प्रथम वर्गमूल पर्यन्त स्थानोंको, उनके अर्द्धच्छेदों को और उनकी ही वर्गशलाकाओं को स्थापन करके तीन पंक्ति करो । प्रथम पंक्ति में तो पल्यकी वर्गशलाका प्रमाण नीचे लिखो । उसके ऊपर उसका वर्ग लिखो । इस प्रकार क्रमसे प्रथम मूलपर्यन्त वर्गस्थान लिखो । दूसरी पंक्ति में पल्की वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे लगाकर दूने दूने पल्यके प्रथम वर्गमूलके अर्द्धच्छेद पर्यन्त लिखो । तीसरी पंक्ति१५ में पल्की वर्गशलाकाकी शलाकासे लगाकर एक-एक बढ़ाते हुए पल्यके प्रथम मूलकी वर्गशलाका पर्यन्त लिखो । प्रथम पंक्तिकी राशिको परस्पर में गुणा करनेपर पल्यकी वर्गशलाकाका भाग पल्य में देने पर जो प्रमाण आवे उतना होता है । वही अन्तिम छठी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण जानना । दूसरी पंक्तिको जोड़नेपर पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदों के प्रमाणको पल्य के अर्द्धच्छेदोंके प्रमाणमें से घटानेपर जो रहे उतना होता है । वह कैसे होता २० है यही कहते हैं I द्विरूप वर्गधारामें अर्द्धच्छेद प्रत्येक स्थानके दूने-दूने कहे थे । उन्हें 'अर्द्धन्तधणं गुणगुण आदि विहीणं रूऊणुत्तरपदभजियं' सूत्र के अनुसार जोड़िए । गुणकार करते हुए अन्तमें जो प्रमाण हो उसको जितनेका गुणकार हो उससे गुणा करें। उसमें से पहले जितना प्रमाण हो उसे घटावें । जो प्रमाण हो उसमें एक हीन गुणकारका भाग दें। ऐसा करनेपर जो प्रमाण २५ हो वही गुणकाररूप सब स्थानोंका जोड़ जानना । सो यहाँ अन्तमें पल्यके अर्द्धच्छेदोंसे आपके प्रथम मूलके अर्द्धच्छेद हैं । उनको यहाँ गुणकार दोसे गुणा करनेपर पल्य के अर्द्धच्छेदों का प्रमाण होता है । उसमें से पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंके प्रमाणको घटानेपर पल्की वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे हीन पल्यको अर्द्ध च्छेद राशिका जो प्रमाण है उतना होता है । गुणकार दोमें से एक घटानेपर एक रहा। उससे भाग देनेपर उतने ही रहे । सो ३० यहाँ चतुर्थ राशि नानागुणहानिका प्रमाण जानना । इस कथनको अंकसंदृष्टिसे स्पष्ट करते हैं। कल्पना करें कि पल्या प्रमाण पण्णट्ठी ६५५३६ है । उसकी वर्गशलाका चार, उसका वर्ग सोलह और उसका वर्ग पण्णीका प्रथम वर्गमूल दो सौ छप्पन, इन तीनोंको प्रथम Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२८३ एंबुतंद संकलित धनमिदु । चतुर्था च चतुर्थमप्प नानागुणहानिशलाकाराशियक्कु । मी राशिगे दलशलाके ये पेसरकुमेके दोडा अन्योन्याभ्यस्तराशिय दळवारंगळपुरिदं नानागुणहानिशलाकगळ्गे दलशलाकेगळे दु पेळल्पटुवु । अदकारणमागि: वग्गसलागेणवहिदपल्लं अण्णोण्णगुणिदरासी हु । णाणागुणहाणिसला वग्गसलच्छेदणूणपल्लछिदी ॥९२६॥ वर्गशलाकयाऽपहृतपल्यमन्योन्याभ्यस्तराशिः खलु नानागुणहानिशलाकावर्गशलाकाच्छेदनोनपल्यच्छेदाः॥ पल्यवर्गशलाकगलिंवं भागिसल्पट्ट पल्यमन्योन्याभ्यस्तराशि स्फुटमागियक्कुमप्पुरिंदमा राशिय दलवारंगळप्पुरिदं नानागुणहानिशलाकगळु पल्यवर्गशलाकाराशिच्छेदनोनपल्यच्छेद प्रमि. तंगळप्पुर्वेदु अन्वयव्यतिरेकमुर्खाददं समथिसल्पद्रुवु ॥ अंनंतरंगुणहान्यायामप्रमाणमं पेळ्दपर:- १० सबसलायाणं जदि फ्यदणिसेये लहेज्ज एक्कस्स | किं होदित्ति णिसेये सलाहिदे होइ गुणहाणी ॥९२७॥ सर्वशलाकानां यदि प्रकृतनिषेकान् लभेत एकस्य किं भवेदिति निषेकान् शलाकाभिर्हते भवेद्गुणहानिः॥ २ आदिविहीणं छे-व-छे इति संकलनं चतुर्थो नानागुणहानिशलाकाराशिः स्यात् ॥९२५॥ पल्यवर्गशलाकाभक्तपल्यमन्योन्याभ्यस्तराशिः स्यात् । नानागुणहानिशलाकाराशिः खलु पल्यवर्गशलाकानामर्धच्छेदैन्यूनपल्यच्छेदमात्रः ॥९२६॥ अथ गुणहान्यायामप्रमाणमाह-- पंक्तिमें लिखो। इन तीनोंके अर्द्धच्छेद-चारके दो, सोलहके चार और दो सौ छप्पनके आठ, इन तीनोंको दूसरी पंक्तिमें लिखो। इन तीनोंकी वर्गशलाका-चारकी एक, सोलहकी दो, दो सौ छप्पनकी तीन, ये तीनों तीसरी पंक्तिमें लिखो। प्रथम पंक्तिके चार, सोलह, दो २० सौ छप्पनको परस्परमें गुणा करनेपर सोलह हजार तीन सौ चौरासी होते हैं। तथा पण्णट्टीमें चारका भाग देनेपर भी इतने ही होते हैं। दूसरी पंक्तिके दो, चार, आठको 'अन्तधणं गुणगुणियं' इत्यादि सूत्रके अनुसार जोड़नेपर अन्तधन आठको गुणकार दोसे गुणा करनेपर सोलह हुए। उसमें आदि दो घटानेपर चौदह रहे। एक हीन गुणकार एकका भाग देनेपर भी चौदह ही रहे । यही तीनोंका जोड़ है। तथा पण्णट्ठीके अर्द्धच्छेद सोलहमें-से पण्णट्ठीकी २५ वर्गशलाका चारके अर्द्धच्छेद दो घटानेपर भी चौदह ही होते हैं। तीसरी पंक्तिका यहाँ प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी स्थितिवाले मिथ्यात्व कर्मकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और नानागुणहानि कही । अन्य कर्मोकी आगे कहेंगे ॥९२५।। इस प्रकार पल्यको वर्गशलाकाका भाग पल्यमें देनेपर जो प्रमाण होता है उतना ३० अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण जानना। तथा पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंको पल्यके अर्द्धच्छेदोंमें घटानेपर जो प्रमाण रहे उतना नानागुणहानिका प्रमाण जानना ॥९२६।। आगे गुणहानि आयामका प्रमाण कहते हैं Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. गो० कर्मकाण्डे सर्व्वमानागुणहानिशलाकेगळगे एतलानुं प्रकृति सर्व्वस्थिति निषेकंगळं पडेगुमप्पोडोडं गुणहानिशलाकेनि निषे कंगळपूर्व दु त्रैराशिक मंमाडि निषेकान् सर्व्वस्थिति निषेकंगळं शलार्क - गळिदं भागिसुतं विरलु प्र । छे व छे । फ । प १ । इ । श १ | लब्धं गुणहान्यायामक्कं । प १ ॥ छे व छे १२८४ द्विगुणहानिप्रमाणं निषेकहारस्तु भवेत्तेन हृते । इष्टान्प्रथम निषेकान्विशेषमागच्छति तत्र ॥ तुम गुणहानियं द्विगुणिसिदोर्ड तत्प्रमाणं निषेकहारमक्कुमा निषेकहारविंद मिष्टगुणहानिप्रथम निषेकमं भागिसिदोडा गुणहानियोळु विशेषप्रमाणमवकुमितु द्रव्यस्थितिगुणहानि नाना१. गुणहानि निषेकहार अन्योन्याभ्यस्त राशिगळे दी षड्राशिवळ प्रमाणं ज्ञापितमागुत्तं विरलु : dia २५ ३० अनंतरं दोगुणहानिप्रमाण तुमनदर प्रयोजनमुमं पेदपरु । : दोगुणहाणिरमाणं णिसेयहारो दु होइ तेण हिदे | इट्ठे पढमणिसेये विसेसमागच्छ तत्थ ||९२८|| तु पुनः द्विगुणितं तद्गुणहानिप्रमाणं निषेकहारः स्यात् । तेन हारेण इष्टगुणहानिप्रथमनिषेके भक्ते १५ तद्गुणहानी विशेषप्रमाणं स्यात् ॥ ९२८ ॥ एवं द्रव्यादीनां प्रमाणं ज्ञापयित्वोत्त रकृत्यमाह - सर्वनानागुहा निशलाकानां यदि प्रकृतसर्वस्थितिनिषेका लभ्यन्ते तदा एकगुणहानिशलाकायाः कि स्यादिति त्रैराशिकेन निषेके नानागुणहानिशलाकाभक्ते प्रछे-व-छे । फ-प १ । इश १ लब्धं गुणहान्यायामः स्यात् प ू ॥९२७॥ अथ दोगुणहानिप्रमाणं तत्प्रयोजनं चाह छे व छे सर्व नानागुणानि शलाकाओंके यदि स्थितिके सब निषेक होते हैं तो एक गुणहानि शलाकाके कितने निषेक होंगे ? ऐसा त्रैराशिक करे । प्रमाण राशि नानागुणहानि शलाकाका प्रमाण है । सो यहाँ पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे हीन पल्य के अर्द्धच्छेद प्रमाण है । तथा फलराशि सब स्थितिके निषेक है । सो यहाँ संख्यात पल्य प्रमाण है । और इच्छाराशि २० एक शलाका है । सो फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर जो प्रमाण हो उतना ही गुणहानि आयामका प्रमाण जानना । जैसे अंकसंदृष्टि में प्रमाण राशि नानागुणहानि छह, फलराशि स्थिति अड़तालीस, इच्छाराशि एक गुणहानि । सो फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर गुणहानि आयामका प्रमाण आठ होता है । एक गुणहानिमें आठ निषेक पाये जाते हैं ॥ ९२७ ॥ आगे गुणहानिका प्रमाण और उसका प्रयोजन कहते हैं गुणहानि आयाम के प्रमाणको दुगुना करनेपर दो गुणहानि होती है । इसीका नाम निषेकार है । इस दो गुणहानि प्रमाण भागहारका भाग विवक्षित गुणहानि के प्रथम निषेक में देनेपर जो प्रमाण आवे वही उस गुणहानिमें विशेषका प्रमाण होता है । इसे ही चय कहते हैं ||९२८ || इस प्रकार द्रव्यादिका प्रमाण बतलाकर आगेका कार्य कहते हैं Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका रूऊणण्णोष्णन्भवहिददव्वं तु चरिमगुणदव्वं । होदि तदो दुगुणकमो आदिमगुणहाणिदव्वोति ॥ ९२९ ॥ रूपोनान्योन्याभ्यस्तापहृतद्रव्यं तु चरमगुणहानिद्रव्यं । भवेत्ततो द्विगुणक्रमः आद्यगुणहानि द्रव्यपध्यं तं ॥ विवक्षितमिथ्यात्व कम समयबद्धद्रव्यमं ६३०० । रूपोनान्योन्याभ्यस्त राशियिदं भागिसुत्तं ५ विरलु ६३०० बंद लब्ध नानागुणहानिगळोळुचरमगुणहा निद्रव्यप्रमाणमक्कु १०० । मल्लिद मितु नानागुण ६३ बलिक्क केळगे केळगे प्रथमगुणहानि पय्र्यंतं द्विगुणद्विगुणक्रममक्कु | १०० १०० १०० ४ १०० ८ १०० १६ |१०० |३२| हानिगळ द्रव्यं ज्ञातमागुतं विरलु । : रूऊणद्धाणद्वेणूणेण णिसेय भागहारेण । हदगुणहाणिविभजि सगसगदव्वे विसेसा हु || ९३०॥ रूपोनाध्वानार्द्धेनोनेन निषेक भागहारेण । हतगुणहानिविभक्ते स्वस्वद्रव्ये विशेषाः खलु ॥ १२८५ विवक्षित मिध्यात्व कम समय प्रबद्धद्रव्यं ६३०० रूपोनान्योन्याभ्यस्त राशिना भक्तं ६३०० नानागुणहानिषु ६३ चरमगुणहानिद्रव्यप्रमाणं स्यात् १०० । ततः पश्चात् अघोषः प्रथमगुणहानिपर्यन्तं द्विगुणक्रमं स्यात् १०० १ १०० २ .१०० ૪ १०० ८ १६ १०० ३२ ܘ9 ॥ ९२९ ॥ एवं नानागुणहानिद्रव्येषु ज्ञातेषु किंकर्तव्यमित्यत आह एक हीन अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग सर्वद्रव्यको देनेपर जो प्रमाण आवे वही १५ अन्तिम गुणहानिका द्रव्य जानना । इससे दूना - दूना द्रव्य प्रथम गुणहानि पर्यन्त होता है । जैसे अंकसंदृष्टिमें मिथ्यात्वका सर्व द्रव्य तिरसठ सौ है । उसको एक हीन अन्योन्याभ्यस्त राशि तिरसठका भाग देनेपर सौ पाये । यह अन्तकी गुणहानिका सर्वद्रव्य जानना । इससे पाँचवीं आदि गुणहानिमें दूना-दूना द्रव्य प्रथम गुणहानि पर्यन्त होता है । यथा - १०० २००|४००/८००।१६०० ३२०० ||९२९ ॥ इस प्रकार नानागुणहानियोंका द्रव्य जाननेपर क्या करना, यह कहते हैं १० २० Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८६ गो. कर्मकाण्डे आ तंतम्म गुणहानिद्रव्यमं रूपोनाध्वानादिदमूननिषेकभागहारदिदं गणिसल्पट्ट गणहानियिदं भागिसुत्तं विरलु तंतम्म गुणहानिद्रव्यदोळु चयद्रव्यं स्फुटमागप्पुददेत दोर्ड प्रथमगुणहानिद्रव्यमिदं। ३२०० । रूपोनाध्वाना॰ननिषेकभागहारगणहानियिवं भागिसुत्तं विरलु ३२०० ८।१६।८ लब्धप्रथमगुणहानिविशेषप्रमाणमिनितकुं । ३२ । द्वितीयगुणहानिद्रव्यमनिदं १६०० मुन्निनंते रूपो. ५ नावानाझैननिषेक भागहारगुणगुणहानियिद भागिसुत्तं विरलु १६०० लब्धं द्वितीयगुण ८।१६ ॥ हानिद्रव्यदो विशेषप्रमाणनितक्कु । १६ । मितु स्वस्वगुणहानिद्रव्यमं रूपोनाध्वाना॰ननिषेकभागहारगुणगुणहानियिदं भागिसुत्तं विरलु स्वस्वगुणहानिद्रव्यदोळु विशेषत्रमाणं बक्कुं। सदृष्टि १ इंतु स्वस्वगणहानिविशेषप्रमाणं ज्ञातव्यमागुत्तं विरलु : तत्तद्गुणहानिद्रव्ये ३२०० । १६०० । ८०० । ४०० । २०० । १०० । रूपोनगणहान्यर्धेनोननिषेक१० भागहारेण गुणितगुणहान्या भक्ते सति तत्तद्गुणहानिचयाः स्युः३२०० १६०० ८।१६-८ ८।१६-८ ८ । १६-८ ४०० ܘܘ ܟ ८।१६-4 ८। १ ३२ । १६ । ८।४ । २ । १ ॥९३०॥ ___एक हीन गुणहानि आयामके प्रमाणके आधेको निषेक भागहाररूप दो गुणहानिमें-से घटानेपर जो शेष रहे उससे गुणहानि आयामको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उसका भाग विवक्षित गुणहानिके द्रव्यमें देनेपर जो आवे वही इस गुणहानिमें विशेष या चयका प्रमाण होता है । जैसे अंकसंदृष्टिमें गुणहानि आयामका प्रमाण आठ है। उसमें एक घटानेपर सात रहे । उसका आधा साढ़े तीनको निषेक भागहार सोलह में घटानेपर साढ़े बारह रहे। उससे गणहानि आयाम आठको गुणा करनेपर सौ हुए। उसका भाग प्रथम गुणहानिके द्रव्य बत्तीस सौमें देनेपर बत्तीस पाये । यही प्रथम गुणहानिमें चयका प्रमाण होता है। दूसरी गुणहानि का द्रव्य सोलह सौ है। उसमें भाग देनेपर सोलह पाये । यही द्वितीय गुणहानिमें चय है । २० । इसी प्रकार तृतीय आदि गुणहानिके द्रव्य आठ सौ, चार सौ, दो सौ, एक सौमें भाग देने सा पर आठ, चार, दो, एक पाये । ये ही उन गुणहानियोंमें चयका प्रमाण है ।।९३०।। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पचयस्स य संकलणं सगसगगुणहाणिदव्वमझम्मि । अवणिय गुणहाणिहिदे आदिपमाणं तु सव्वत्थ ।।९३१॥ प्रचयस्य च संकलितं स्वस्वगुणहानिद्रव्यमध्येऽपनीय गुणहानिहते आविप्रमाणं तु सर्वत्र ॥ चयव संकलित धनमं तंतम्म गणहानियोल तंदु स्वस्वगणहानिद्रव्यदोळ कळेदु शेषषनर्म गुणहानियिदं भागिसुत्तं विरलु ततम्म गुणहानिप्रयमनिषक प्रमाणमधिकसंकलनरूपदिनक्कुमदेते. ५ बोडे प्रथमगुणहानिद्रव्यचयधनमिदु ८३२। ८ लब्धचयघनमिदु । ८९६ । इदं प्रथमगुणहानिद्रव्यदोळु ३२०० । कळेदुळिद शेषमं २३०४ । गुणहानियिंदं भागिसिबोडे अधिकसंकलनकमविदमादिनिषेकप्रमाणमिनितक्कु २८८ । मिदरमेले स्वविशेषंगळ स्पोनगच्छमात्रंगलु पेर्चतं पोगितच्चरमदोल रूपोनगच्छमात्रचयंगळ ३२।४ पेच्चिदुविनिताकु ५१२ । मी प्रथमगुणहानिगे संदृष्टि २८८ । ३२० । ३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ ॥ ४८०। ५१२ ॥ द्वितीयगुणहानिचयधनमितु १० ॥ १६ ८ गुणिसिद लब्धमिवं ४४८ । द्वितीयगुणहानिद्रव्यमिवरोळु १६०० । कळेद शेषमिदं । ११५२ । गुणहानियिद भागिसिदोड ११५२ षिकसंकलनापविदमादिनिषेकप्रमाण १४४ । मिवर तत्तच्चयस्य संकलितधनमानीय स्वस्वगुणहानिद्रव्यमध्येऽपनीय शेषे गुणहान्या भक्ते स्वस्वगुणहानि प्रथमनिषेकप्रमाणमधिकसंकलनरूपेण स्यात् । तत्र प्रथमगुणहानी चयधनमिदं ८ । ३२ । ८ । लब्धं ८९६ । तत्सर्वद्रव्ये ३२०० । अपनीय शेष २३०४ गुणहान्या भक्तमादिनिषेकप्रमाणं स्यात् २८८ बस्योपर्ये केकस्व. १५ विशेषवृद्धी संदृष्टिः-२८८ । ३२० । ३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८॥ ४८०। ५१२ । तथा द्वितीयगुणहानि विवक्षित गुणहानिके सर्वचय धनका प्रमाण निकालकर उसे अपनी-अपनी गुणहानिके सर्वद्रव्यमें-से घटानेपर जो प्रमाण शेष रहे, उसमें गुणहानि आयामका भाग देनेपर अपनी-अपनी गुणहानिके प्रथम निषेकका प्रमाण होता है। उसमें एक-एक चय बढ़ानेपर द्वितीयादि निषेकोंका प्रमाण होता है। जैसे अंकसंदृष्टि रूपसे-प्रथम गुणहानिका चयधन- २० एकहीन गच्छ आठका आधा साढे तीनको चय बत्तीससे गणा करनेपर एक सौ-बारह हए । उन्हें गच्छ आठसे गुणा करनेपर आठ सौ छियानबे हुए। यही चयधन है । इसको सर्वद्रव्य बत्तीस सौमें-से घटानेपर शेष तेईस सौ चार रहे। उसमें गुणहानि आठसे भाग देनेपर दो सौ अट्ठासी पाये । यही आदि निषेकका प्रमाण है। उसमें एक-एक चय बत्तीस-बत्तीस बढ़ानेपर द्वितीयादि निषेकोंका प्रमाण होता है। इसी प्रकार द्वितीयादि गुणहानिमें चयका प्रमाण । आधा-आधा होनेसे चयधन भी आधा-आधा है। इसी तरह उनका सवेद्रव्य भी आधा. आधा है । उसमें घटानेपर जो शेष रहे उसमें गुणहानि आयामसे भाग देनेपर अपना-अपना आदि निषेक आता है। उसमें अपना-अपना एक चय मिलानेपर अन्य निषेक होते हैं । क-१६२ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८८ गो० कर्मकाण्डे मेले चयाधिकादिदं द्वितीयगुणहानिचरमपय्यंत पोकु। संदृष्टि :-१४४ । १६० । १७६ । १९२ । २०८ । २२४ । २४० । २५६ । यितु तृतीयादिगुणहानिगळोळमी क्रनदिदं तरल्पडुत्तिरलु तृतीय. गुणहानियोळ ७२ । ८०। ८८ ॥ ९६ । १०४ । ११२ । १२० । १२८ ॥ चतुर्थ ३६ । ४० । ४४ । ४८ । ५२ । ५६ । ६०। ६४ ॥ पंचम १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २।। ३० । ३२ ॥ षष्ठ ९ । ५ १०।११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६॥ इंतु पेळल्पट्ट स्थिति रचक संदृष्टि !A ९ [यितु १४ । १६० । १७६ । १९२ । २०८ ॥ २२४ । २४० । २५६ । तृतोयगुणहानि ७२ । ८० । ८८ । ९६ । १०४ । ११२ । १२० । १२८। चतुर्थगुणहानि ३६ । ४० । ४४ । ४८ । ५२ । ५६ । ६० । ६४ । पंचगुणहानि १८ । २० । २२ । २४ । २६ । २८ । ३० । ३२ । षष्ठगुणहानि ९ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । उक्तस्थितिरचनाकसंदष्टिः ५१२ अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा निषेकोंका यन्त्र इस प्रकार है प्रथम गु: | द्वितीय गु., तृ. गु. | चतु. गु. २८८ १४४ ___ ७२ ३२० १६० पंचम गु. षष्ठ गु. १८ ८८ ४८ ५२ क १५ ३२ ३८४ १९२ ४१६ २०८ १०४ ४४८ २२४ ११२ २८ ४८० २४० १२० ५१२ २५६ १२८ ६४ जोड़ । ३२०० । १६०० । ८०० ४०० २०० विशेषार्थ-यहाँ दो सौ अट्ठासोको प्रथम निषेक इस दृष्टिसे कहा है कि उसके ऊपर ही चयकी वृद्धि होकर आगेके निषेक बनते हैं। किन्तु यथार्थ में यह अन्तिम निषेक है। प्रथम निषेक पाँच सौ बारह है। इसी प्रकार आगेको गुणहानियों में भी जानना। निषेक रचना पाँच सौ बारहसे प्रारम्भ होकर उत्तरोत्तर एक-एक चय घाट होती जाती है। अतः १५ अन्तिम गुणहानिका अन्तिम निषेक नौ जानना। १०० Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका a पेळपट्ट स्थितिनिषेक रचनाभिप्रायं पेल्पडुगुमर्द ते बोर्ड मिथ्यात्वाविरमणकषाययोगबंधकारणंगळद मिथ्यादृष्टिजीवं विवक्षितैकसमयदोळा युर्व्वज्जितज्ञानावरणादिसप्तविधकर्मरूपसमय प्रबद्धमं सर्व्वात्मप्रवेशं गळदमाहरिसुगुमा समयप्रबद्धोत्कृष्ट द्रव्य मिद । स छे । नपर्वात्तसिदुदनिद । स । नेळु कम्मंगळगे भागिसिदोडो दु मोहनीयकर्म्मद्रव्यमिदं स देशघातिसर्व्वघातिगगनंतदिदं खंडिसिवोडेकभागं सर्व्वधाति संबंधद्रव्यमिदं स ० १ मिथ्यात्व षोडशकषायंगळे व सप्तदशप्रकृति2 | ख गर्ग भागिसिवोडों दु मिथ्यात्वकद्रव्यमिनितक्कु स । । १ मी समयप्रबद्धद्रव्यमदक्का ดู १ । ख । १२ बंध समय दोळे ककषायबंधाध्यवसायस्थानोदयविशेषदिदं स्थितियं सप्तति कोटिकोटिसागरोपममं कट्टुगुमा स्थितिर्ग स्थित्यनुसारदिदं नानागुणहानिशलार्कगळु पल्यवर्गशलाकार्द्धच्छेदराशिरहितपल्यार्द्धच्छेदराशिप्रमितंगळपु छे व छे वी नानागुणहानिशलाकेगळं विरळिसि रूपं प्रति द्विकमनित्तु वग्गितसंवग्गं माडुत्तं विरलु लब्धं पत्यमं पत्यवग्गंशलाकाराशियदं भागिसिदनितक्कु १० दोडे : : व विरळिदरासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि होणरूवाणि । " तेसि अण्णोष्णहदी हारो उप्पण्णरासिस्स ॥ १२८९ अत्रायमर्थः - कश्चिद्विवक्षिते समये मिथ्यात्वाविरमणं कषा प्रयोग रायुविना सप्तकर्मणामुत्कृष्टसमयप्रबर्द्ध सर्वात्मप्रदेश राहरति तदिदं स छे अपवर्त्य सप्तभिर्भक्तं मोहनीयस्य स पुनरनन्तेन भक्तं सर्वघातिनः स ० १ १५ მ १ ख पुनः मिथ्यात्वषोडशकपायैर्भक्तं मिथ्यात्वस्य จุ सa १ पुनः सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमस्वस्थितेः पत्यवर्ग२ ख १२ उक्त कथन तो समझाने के लिए है । अर्थरूपमें कहते हैं यही यथार्थ है - कोई जीव किसी एक विवक्षित समय में मिथ्यात्व अविरति कषाय योगके द्वारा आयुके बिना सात कर्मो के उत्कृष्ट समयप्रबद्धको ग्रहण करता है । वह उत्कृष्ट समयप्रबद्ध जघन्य समयप्रबद्धसे पल्य के अर्द्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग गुणा है । अपवर्तन करनेपर जघन्य समयप्रबद्धसे असंख्यात गुणा है । इस उत्कृष्ट समयप्रबद्ध के परमाणुओंके प्रमाणरूप द्रव्यको सातसे भाग देने पर मोहनीयका द्रव्य आता है । उसमें अनन्तसे भाग देनेपर मोहनीयका सर्वघाती द्रव्य होता है । इसमें एक मिथ्यात्व और सोलह कषाय इन सत्रह से भाग देनेपर मिध्यात्वका द्रव्य होता है । यही सर्वद्रव्यका प्रमाण जानना । इस मिथ्यात्वकी स्थिति सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर के जितने समय हों उतनी स्थिति जानना । पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे होन पल्य के अर्द्धच्छेदों का जितना प्रमाण उतनी नानागुणहानि है । नानागुणहानि प्रमाण दोके २५ १. इल्लि प्रथमये दु बने अंत्यमें बुदु चरम ये दु धने प्रथमे ये बुदु येके दोडे अंतधणं गुणगुणियमेंब गाथाभि प्रायदिदं । ५ २० Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९० गो कर्मकाण्डे एंदितु सिद्धमयकुमप्पुरिदमो पल्यवरगंशलाकाराशिभक्तपल्यमुं मिथ्यात्वकर्मस्थितिनिषेकरचनाविषयदोळन्योन्याभ्यस्तराशियेंदु पेळल्पद्रुवीयन्योन्याम्यस्तराशियोळेकरूपं कुंदिसि मिथ्यात्वकर्मसमयप्रबद्रव्यमं भागिसिदोडे चरमगुणहानि संबंधिद्रव्यमक्कु स ।।१ . * १ख ।११। म द्वितीयादिगळधस्तनाघस्तनगुणहानिगळ द्रव्यंगळु प्रथमगुणहानिद्रव्यपथ्यंतं द्विगुणद्विगुणकमंगळप्पुवु। ५ संदृष्टि :- | स ।।१ . चरम । ई गुणहानि द्रव्यंगळनंतषणं गुणगुणियं आविवि अ ख।११। स ।२ सख । ११ सa । ख।११।२।२। अ स । अ.० ११ ख । ११ । अ।२ प्रथम होणं रूऊणुत्तरभजियमें दितु संकलिसिदोर्ड मूलद्रव्यप्रमाणमेयककुम बुदयमिल्लि प्रथमगुणहानि. शलाकार्धच्छेदोनपल्यार्धच्छेदमात्रनानागणहानिमात्रद्विकसंवर्गोत्पन्नेनान्योन्याभ्यस्तेन पल्यवर्गशलाकाभक्तपल्यमात्रेण रूपोनेन भक्तं चरमगुणहानिः स ... तदघोषः प्रतिगणहानि द्विगुणं द्विगुणं संदृष्टिः१ख ११ ब । चरम स १ ख ११ १ स०२ १ख ११ अ सअ १ख ११।२।२ । अ प्रथम सम अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है। उसका प्रमाण पल्यकी १० वर्गशलाकासे भक्त पल्य है। अन्योन्याभ्यस्त राशिमें-से एक घंटाकर उसका भाग सर्वद्रव्यमें देनेपर जो प्रमाण हो वही अन्तिम गुणहानिका द्रव्य होता है। उससे आदिकी गुणहानि पर्यन्त १. म कममप्पुवु Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यमं स अ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदोपिका १२९१ पूर्वोक्तक्रमदिदं "रूऊणद्वाणद्वेणूणेण णिसेय भागहारेण । हृदगुण ० २ । ख २ । ११२ । अ हाणि विभजि सगसगव्वे विसेसा हु" एंदितु साधिसल्पट्ट सर्व्वगुणहानिगळ विशेषद्रव्यंगळणे हदगुणहाणि गु संदृष्टि तोरपडुगुं । रूऊणद्वाण गु अद्वेण गु ऊणेण णिसेयभागहारेण उण ग् २ O गु ३ भजिवे सगसग दव्वविसेसा हु । २ चरम गुहा | ०१ विशेष | द्विचरमगुणहानि | स ० २ विशेष १। ख । ११ अ ग ० ० १। ख । ११ अ द्वितीय गुणहानि | सa | अ विशेष S प्रथम गुणहानि स अ विशेष : ० १ ख ११ । २२ अ गुगु २ येदि प्रथमगुणानि मोदगोंडु चरमगुणहानिपय्र्यंतमिवु विशेषप्रमाणंगळप्पविवरोळ ५ प्रथमगुणहानि विशेषधनमं पूर्वोक्तक्रर्मादिदं "पचयस्स य संकलणं सगसगगुणहाणिदव्वमज्झमि । अवर्णिय गुणहाणिहिदे आदि पमाणं तु सम्वत्थ" एंवितु प्रथमावि गणहानिप्रचयधनं गळं साधिसिदोर्डिति । संदृष्टि : : |ख|११ अ ।२।गु ग ი - ततः रूऊणद्धाण गु अद्वेण गु ऊणेण णिसेयभागहारेण गु ३ हृदगुणहाणि गु गु ३ विभजिदे २ २ २ सगसगगुणहाणिदव्वे विसेसा हु ततः प्रथमादिगुणहानी नामानीतप्रचयधनानि संदृष्टि: द्रव्यदूना-दूना जानना । 'रूऊणद्वाणद्वेणूणेण' इत्यादि सूत्र के अनुसार एक हीन गुणहानि आयाम प्रमाण गच्छके आघेको दो गुणहानिमें घटानेपर जो प्रमाण रहा उसको गुणहानि आयाम से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उसका भाग विवक्षित गुणहानिके द्रव्य में देनेपर जो १० Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९२ चरम स० १ १ ख ११ अ द्विवरम स२ द्वितीय सब 2 १ ख ९१ अ गु गु ३ २ B गुगु३ २ प्रथम स अ D १ ख १३ । म २।२ । गा कर्मकाण्डे स २ १ ख ११ | अ स २ १ ख १२ भ स । अ (क स अ गुगु ३ २ ヒ ० ( ११ अ २२ गु offer 000 (FE गु (55 65 गु ८५१ २ । ख । ११ अ । २ । ग | سنم كه است १ गु ३ ग 152 10000 २ 1596729 ३२ स१गु गु १ ख ११ अ स २ गु गु D स अगुगु १११ अ गुगु ३ २ C स अगुगु गु । गु ३ २ ० बृख ११ अ २ । २ । गु ३ । २ २ १ ख १२ अ २ गु गु ३ १ ख ११ अ २ । गुगु ३ । २ २ २ प्रमाण आवे उतना उतना अपनी-अपनी गुणहानिमें चयका प्रमाण होता है । Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १२९५ ई चयधनंगळं तंतम्म गुणहानिद्रव्यंगळोल कळेदु शेषमं गुणहानियिदं भागिसुत्तं विरह तंतम्म गुणहानिगळ आविनिषेकमधिकसंकलनक्रमविदमप्पुववर तंतम्म केळगे केलगे द्विधरमादि निषेक मोदल्गोंडु तंतम्म गुणहानि प्रयमनिषेकपथ्यंतं तंतम्म गुणहानि संबंधि येकैक चयविनषिक. मागुत्तं पोपुवल्लि प्रक्रियाविशेषं तोरल्पडुगुमे ते दोडे प्रथमगुणहानिद्रव्यमिदरोळु स अ । १ख १२ चयधनम कळेयत्वेडि स्थापिसिवो स ० अ गु गु चयधनवोलिई भाज्यभागहारंगळं । ।। १५ । औ २ । गु गु लेसागि निरीक्षिसि गुणहानिर्ग गुणहानियनपतिसि कळेदोडिदु स . अग १ख १९ ग३।२ हारभूतरूपाधिकत्रिगुणगुणहानिर्ग हारमागिई द्विकम हारस्य हारो गुणकोंशराशेः पॅक्तिंशराशिगे गुणकारमप्पुरिदमा द्विकमं रूपोनगुणहानिर्ग हारमागिई द्विकदोडनपत्तिसिवोडितिक्कू : मो चयधनदगुणहानिय मेलण ऋणरूपं ऋणस्य ऋणं राशेद्ध'नं भवति स। अग १ ख ११२ । ग३ एंविता ऋणरूपंराशिगै धनमक्कुमदु बेर तेगेदिरिसिबोडिदु स म १ . शेषचय- १० १ख ११ अ २ ग ३ प्रथमगुणहानिद्रव्यदोळु कळे यल्वेडि समच्छेवमं १ ख ११ अ २ गु३ एतानि स्वस्वगुणहानिद्रव्येभ्यो गृहीत्वा शेषेषु गुण हान्या भक्तेषु स्वस्वगुणहानीनामादिनिषेका अधिकसंकलनक्रमेण स्युः । ते चाघोषः स्वस्वप्रथमनिषेकपर्यतं स्वस्वैकैकचयाधिकाः स्युः । तद्यथा चनमनिदं स अ गु प्रथमगुणहानिद्रव्यं स । उपर्यधो रूपाधिकत्रिगुणहान्या संगुण्य स । गु ३ १ख ११ अ २ १ख ११ अ २ गु३ तथा 'व्येकपदार्द्ध' इत्यादि सूत्रके अनुसार एक हीन गुणहानि आयाम प्रमाण गच्छके १५ आधेको अपने-अपने चयसे गुणा करके फिर गच्छसे गुणा करनेपर जो-जो प्रमाण हो उतनाउतना अपनी-अपनी गुणहानिमें चयधन होता है। चयधनको अपनी-अपनी गुणहानिके द्रव्य Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९४ गो० कर्मकाण्डे रूपाधिक त्रिगुणहानि यैवं केळर्गयुं मेर्गयुं गुणिसि माडिदी प्रथमगुणाद्रिव्यद भाज्यराशीभूतत्रिगुणहानियोळिधिकरूपं तेगेदु पृठवं स्थापिसिद ऋण स ० अ गु ३ १ । ख ११ अ २ गु ३ 0 ऋणमप्पेकरूपवोल समच्छेदमुंटप्पुद १ ख ११ अ २ गु३रिदं धन धनयोरैक्यमें दु कूडि स्थापियिल्लिय गुणकारभूतद्विकमं हारभूतरूपाधिकत्रिगुणगुणहानिगे सोडिवु अ २ ५ हारमं माडि स्थापिसिरिसि हाद्रिव्यदो १। ख ११ अ २ गु ३ अपवर्त्य १० सा स ० अ गु ३ १ ख ११ अ कळदोर्ड शेषप्रथमगुण हानिद्रव्यमिदु अंश स्थिताधिकरूपं पृथक्कृत्य स अ १ गु १ ख १३ निक्षिप्य 20 स अगु ० स स अ १ १ ख ११ अ २ गु ३ २ १ ख १५ अ २ अ २. गु ३२ अ २ n २ गु ३ स १ ख ११ अ २ गु ३ अ १ ख । १३ गु ३ । २ २ चयधनमनिर्द बळिक्का समच्छेदमं माडिद प्रथम गु २ अ २ गु ३ 2 चयधन स अ ग ग 62. १ ख ११ अ २ गुगु ३ । २ २ स अ गु १ १ ख ११ अ २ गु ३ द्रव्य गुणहानि हाररूपाधिकत्रिगुणगुणहाने हरद्विकं गुणहारद्विकेनापवर्त्य शहारगुहानी गुग्रहान्युपरिस्थितं ऋणरूपं ऋणस्य ऋणं राशेर्धनमिति पृथग्धृतरूपे गुणकारद्विकं हाररूपाधिकत्रिगुणहानेरं कृत्वा पृथग्धृत्वा बृख ११ अ २ गु ३ में से घटानेपर जो शेष रहे उसमें गुणहानि आयामका भाग देनेपर जो-जो प्रमाण हो वहवह अपनी-अपनी गुणहानिके अन्तिम निषेकका द्रव्य होत उसमें अपना-अपना एक-एक चय मिलानेपर अन्य निषेकोंका प्रमाण होता है । अन्तिम निषेकमें एक हीन गुणहानि 1 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदोपिका गुणकारमागिद्दं द्विकमं केळगे हारमा गिद्द रूपाधिकत्रिगुणगुणहानिगे हारमं माडिरिसिदोडितिक्कु मी धनराशियोळु मुन्नं बेरे स्थापिसिरिसिद धमरूपनिवं समग १ ख ११ । अ २ स अ १ ख ११ । अ २ ग ३ दोडिति । सन १ १ ख ११ अ O स अगु १ ख ११ । अ २ गु ३ आदिपमाणं तु सव्वत्थ एंदितु गुणहानियिदं भागिसुत्तं विरलु लब्बराशिधिक द्विकसंकलनक्रमविर्द प्रथमगुणहानि प्रथम स्थिति २८८ निषेकद्रव्यमक्कु २ गू ३ २ ऊनयित्वा स अ गु २ स अ गु १ ख ११ अ २ गु ३ २ गु३ गु केळगे केळगे चयाधिकक्रमविंद पोगि प्रथमगुणहानिचर ५१२ मस्थितिनिषेकदो रूपोन P १ ख १३ अ २ गु ३ २ स 8 अ गु ख ११ 0 अंशराशिगे गुणकारभूतगुणहानियोळ समच्छेदमुंटपुर्दारदं कूडि चयनरहितप्रथमगुणहानिद्रव्यमं गुणहाणिहिदे तच्चयधनशेषेण गुणागुणकारद्विकं स अ गु १ ख ११ अ । २ पुरतं धनं स अ १ स अ गु १ १ ख ११ अ २ गु ३ हाररूपाधिकत्रिगुणगुणहानेहर 62 १ ख ११ अ २ गु ३ २ १२९५ u भक्तं अधिक संकलक्रमेण प्रथम २८८ निषेकः मिदर स अ गु कृत्वा निक्षिप्य गुणहान्या --- प्रमाण चय मिलानेपर आदि निषेकका प्रमाण दो गुणहानिसे चयको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना है । इस प्रकार अन्तिम निषेकको आदिमें स्थापित करके क्रमसे चय बढ़ाता क- १६३ १ ख १३ अ २ गु ३ गु २ ५ १० Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९६ हानमात्र प्रथमगुणानिसंबंधि चयंगळनिनितं at गुणहानिमात्रचयंगळप्पुवु गो० कर्मकाण्डै ५ स अ तं रूऊण अद्धाण गु अद्वेण अ २ । गु हान्यर्द्धददं होनमप्पदोगुणहानियिदं भागिसुतं विरल प्रचयमक्कु - स अ गु २ नृ । ख ११ । अ २ ग ३ गु २ १० धिको भूत्वा दोगुणहानिमात्र चयो भवति दोमित होनसंकलितकर्मादिदं पेळल्पदुदर्द तें दोडे अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे मज्झिमधग भागच्छदि एंदित प्रथमगुणहानि सर्व्वधनमं गुणहानियिदं खंडिसिदोर्ड मध्यमधनमक्कु । मा मध्यमधनमं ऊणेण णिसेयभागहारेण । ई रूपोन गुण e ग ३ स । अ दोहादिस्थितिनिषेकं होनसंकलनकर्मादिदमकुं O अ २ । गुगु ३ अधः चयाधिकक्रमेण चरमो ५१२ रूपोनगुणहानिमात्रचया समग स अ गु २ उ १ ख १२ P स अ । गु २ अ । २ । गुगु १ ख १३ अ २ गु ३ गु अ २ गु मुन्नं त्रिकोणरचना धनसंकलित मज्झिमधण सवहिरिदे पचयं मध्यमधनमं मी प्रयमं दोगुणहानियिदं गुणिसि कुटिदोर्ड सa अगु १ ख ११ अ 2. मेले द्वितीय २०३७ २ गु ३ गु २ होनक्रमेण तु त्रिकोणरचनावज्ज्ञातव्यं । CO ू तद्यथा - प्रथमगणहानिषने गुणहान्या भक्ते मध्यषनं स अ अ तच्च रूपोनांध्वाना गु छैन गु निषेक २ „ი २ गु हुआ कथन किया है । किन्तु प्रथम निषेकसे अन्तिम निषेक पर्यन्त क्रम से घटता-घटता त्रिकोण रचनाकी तरह जानना । वही कहते हैं Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्त्वप्रदीपिका १२९७ निषेकं मोल्गोडु तत्प्रथमगुणहानिचरम स्थितिनिषेकपय्यंत मेकैक चय ही नक्रमविदं नडदु चरम - निषेकप्रमाणमेनितक्कुर्मदोडे प्रथमगुणहानि प्रथम निषेकवोल रूपोनगुणहानिमात्रविशेषंगळ निवं कदोर्ड प्रथमगुणहानिचरम स्थितिनिषेकद्रव्यं रूपाधिक गुण हानिमात्र स अ गु अ २ । गुगु३ गु। गु३ चयंगळप्पुवु अ २ । ॥ ग | गु ई प्रथमगुणहा निस्थितिनिषेकरचना विशेष में तु पेळपट्टुदंत शेषगुणहानिगळोळं स्थितिरचनाक्रममक्कुमल्लि विशेषमुंटदाउदे दोडे तंतम्म गुणहानिद्रव्यमुं तत्तत्प्रचयमुमरिल्पडुवुवु । शेष विधानमेक प्रकार मेयष कुमंतागुत्तं विरलु अघस्तनाधस्तनगुणहानिप्रथम निषेगळं नोडलुपरितनोपरितनगुणहानिप्रथमनिषेकंगळ चयहीन संकलन क्रमविंदमर्द्धार्द्धक्रमदिनिवु । तत्तद्गुणहानिचयंगळ मर्द्धार्द्धक्रमदिनिष्पुंवु । अवक्कंक संदृष्टि हारेण गु ३ अपहृतं प्रचयः स अ स च दोगुणहान्या गुणित आदिनिषेकः स अ गु २ उपर्येकैकचयहीनो अ २ गुगु ३ २ - O अ २ गु गु ३ २ २ भूत्वा चरमो रूपाधिकगुणहानिमात्रच्यो भवति स । अगु एवं शैषगुणहानिष्वपि कृते तदकार्थसंदृष्टी -- १० अ २ गुगु ३ २ प्रथम गुणहानिके द्रव्यको गुणहानि आयामसे भाग देनेपर मध्यमधन होता है । जैसे प्रथम गुणहानिके द्रव्य बत्तीस सौको गुणहानि आयाम आठका भाग देनेपर मध्यधन चार होता है। चौथा और पाँचवाँ निषेकके प्रमाणको जोड़कर आधा करनेपर भी मध्यधन होता है । एक हीन गुणहानि आयामके आधेसे हीन निषेक भागहारसे मध्यधनमें भाग देनेपर चयका प्रमाण होता है । जैसे एक हीन गुणहानि सातका आधा साढ़े तीनको निषेक १५ भागहार सोलह में घटानेपर साढ़े बारह रहे । उसका भाग मध्यधन चार सौमें देनेपर चयका प्रमाण बत्तीस आता है । इस चयको दो गुणहानिसे गुणा करनेपर प्रथम निषेक होता है । जैसे चय प्रमाण बत्तीसको दो गुणहानि सोलह से गुणा करनेपर पाँच सौ बारह प्रथम निषेकका प्रमाण होता है । इसमें एक-एक चय घटानेपर अन्तिम निषेक एक अधिक गुणहानि प्रमाण चयरूप होता है । जैसे गुणहानि आठमें एक अधिक करनेपर नौ हुए। नौसे चयके २० Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९८ अंब सं. ० १६ २८८ ५१२ ९ O ० १६ २८८ ५१२ गो० कर्मकाण्डे -- अर्थ सं. स अ अ al स । अ अ २ स। अ २ ग गु ००० गु २ 5900 ( 5 °F) गु अ ग २ गुगु३ २ गु ३ २ अ गु ३ २ स a गु O अ "13 गु ३ स a अ अ Ller fler गुगु ३ स अगु गुगु ३ २ स अ गु २ २ गुगु ३ ० प्रमाण बत्तीसको गुणा करनेपर दो सौ अट्ठासी अन्तिम निषेकका प्रमाण है ऐसे ही अन्य गुणहानियों में भी जानना । संदृष्टि २ गु गु ३ २ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२९९ यितायुर्व्वजित सप्तकम् मंगळगमिर्त स्थितिनिषेकरचनाविरचनं प्रतिसमयमुमप्पुर्व वरियल्पडुगुमिल्लि मूलप्रकृतिगळ्गमुत्तरप्रकृतिगळगं स्थितिनिषेकरचनाकरणवो एक गुणहान्यायामादि सामग्रीविशेषमं पेळदपरु । : सव्वासि पयडीणं णिसेयहारो य एयगुणहाणी । सरिसा हवंति णाणागुणहाणिसलाओ वोच्छामि ॥ ९३२ ॥ सर्व्वासां प्रकृतीनां निषेकहारश्चेकगुणहानिः । सदृशाः स्युर्नानागुणहानिशलाका वक्ष्यामि ॥ एवमायुविना सप्तकर्मणां स्थितिनिषेकरचना प्रतिसमयं स्यात् । किन्तु — १६ O ०००० 2 २८८ ० ० O ० ५१२ उक्त संदृष्टि में प्रथम गुणहानिका आदि निषेक पाँच सौ बारह । मध्य निषेकोंके ग्रहण के लिए बिन्दी लिखीं । अन्तिम निषेक दो सौ अट्ठासी । मध्यकी गुणहानियोंवे निषेकोंको ग्रहण करनेके लिए बीच में बिन्दी लिखी हैं । अन्तिम गुणहानिका प्रथमं निषेक सोलह । १० बीके निषेकोंके लिए बिन्दी है । अन्तिम निषेक नौ। यह केवल अंकसंदृष्टि है । इस प्रकार मिथ्यात्वका कथन उत्कृष्ट स्थिति व उत्कृष्ट समयप्रबद्धकी अपेक्षा जानना । अन्यत्र जैसी जहाँ स्थिति और समयप्रबद्ध हो वैसा स्थिति और द्रव्यका प्रमाण जानना । दो गुणहानि और गुणहानि आयामका प्रमाण सर्वत्र समान है । नानागुणहानि अन्योन्याभ्यस्त राशि स्थिति के अनुसार जानना ||९३१॥ वही कहते हैं १५ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०० गो० कर्मकाण्डे सर्वमूलप्रकृतिगळ्गमुत्तरप्रकृतिगळगं निषेकहारमुमेकगुणहान्यायाममुं समानंगळवु । नानागुणहानिशलाकेगळ्गे स्थित्यनुसारमुंटप्पुरिदं विसदृशंगळप्पुवदु कारणमागिया नानागुणहानिशलार्कगळं पेळदपेमेंदु मुंदण सूत्रंगळोळ पेन्दपरु।: मिच्छस्सत्त य उत्ता उवरीदो तिण्णि तिण्णि सम्मिलिदा । अद्वगुणेणूणकमा सत्तसु रयिदा तिरिच्छेण ॥९३३॥ मिथ्यात्वकर्मणश्चोक्ता उपरितस्त्रयस्त्रयः सम्मिलिताष्टगुणेनोनक्रमाः सप्तसु रचितास्तिरश्चा॥ __मिथ्यात्वकर्मदुत्कृष्टस्थितिगे मुंपेळल्पट्ट नानागणहानिशलाकंगळु एतादुव दोडे द्विरूपवर्गधारयोळु पल्यवर्गशलाकाराशियादियागि पल्यप्रथममूलपयंतमाद राशिगळर्द्धच्छेदंगळु तत्पल्य१० वर्गशलाका व छे ईच्छेदराशियादियागि पल्यालुच्छेदराश्यर्द्धपय्यंतं द्विगुणद्विगुणक्रमदिदमिई तदर्द्धच्छेदराशिगळं स्थापिसल्पडुत्तिरलुभयराशिगळं कर्मादमितिप्पुवु : loo - | |९५२५६ ६५ = [४२ = १८ = | १२।४ ८१६ ३२ ६४ व वव१ । वर| व३ । व४ । व५ । व६ । ७ व८ । -वछे वछे२ वछे४ वछे ८ वछे१६ वछे३२ | वछे६४ वछे१२८ वछे२५६ - वछे ७ वछे८।७। वछे८।८।७ छत ०००००० | मूल९ मूल८ मूल मूल६ मूल५ मूल४ मूल३ मूल२ मूल१/प ०००२०० द छेद छेद छेद छेद छेद छेद छेद | २८ । २७/ २६ २५ | २४ | २३ । २२ २ ०००००० छ ७ छे ७ 1८1८1१ ८।८।१ ८।१। सर्वमूलोत्तरप्रकृतीनां निषेकहारः एकगुणहान्यायामश्च द्वो सदृशो। नानागुणहानिशलाकाः स्थित्यनुसारित्वाद्विसदृशाः स्युः । ता वक्ष्यामि ॥९३२।। मिथ्यात्वस्य ये पल्यवर्गशलाकादितत्प्रथममूलांतानां द्विगुणद्विगुणार्धच्छेदा उक्तास्ते संस्थाप्य उपरि १५ सब मूल प्रकृतियोंका निषेकहार अर्थात् दो गुणहानि और एक गुणहानि आयाम ये दोनों समान हैं। किन्तु नानागुणहानि शलाका स्थिति के अनुसार होनेसे समान नहीं हैं। अतः उनको कहते हैं ॥९३२॥ मिथ्यात्व प्रकृतिका पल्यकी वर्गशलाकासे लेकर पल्यके प्रथममूलपर्यन्त अर्द्धच्छेद दूने-दूने कहे थे। उन्हें स्थापन करके ऊपरसे अर्थात् पल्यके प्रथममूलसे लगाकर तीन-तीन २० वर्गस्थानोंकी अद्धच्छेद राशिको मिलानेपर वे क्रमसे आठ-आठ गुना घाट होते हैं । वही कहते हैं Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३०१ उपरितस्त्रयस्त्रय संमिलिताः मेलण मेलण पल्यप्रथममूलार्द्धच्छेदंगठप्प पल्याद्धच्छेदराश्यद्धमादियागि मूरु मूरु राशिगळु कूडल्पडुतिरळु अष्टगुणोनक्रमदिदमिवदेंतें दोडे पल्यप्रथममूलच्छेदंगळुमवर केळगण द्वितीयमूलच्छेदंगळु मवर केळगण तृतीयमूलच्छेदंगळुमद्धिक्रमदिनिर्पवल्लि छे अंतधणं छे गुणगुणियं छे २ आदि छे विहीणं छे १ रूऊणुत्तर भजिय २२२ छ : एंदिदुपरितन त्रिराशिगळ युतियक्कुं। तदघस्तनपल्यचतुर्थमूलार्द्धच्छेदंगळु मवर केळगण ५ पंचममूलाद्धच्छेदंगळुमवर केळगण षष्ठमूलार्द्धच्छेदंगळुमछुद्ध'क्रमदिनिप्वल्लि छे ... ८।२ ८१ ८।२।२ ८।२।२।२ तस्त्रयस्त्रयो राशयो मिलिता अष्टाष्टगुणोनहीनक्रमाः स्युः। तद्यथा-पल्यस्य प्रथम द्वितीयतृतीयमूलाधंच्छेदाः छ अन्तधणं छे गणगणियं छे २ आदि छे विहीणं छे ७ रूऊत्तरभजियमिति मिलिताः छ ७ तया ८।१ २।२ २।२।२ पल्यके प्रथम वर्गमूलके अर्द्धच्छेद पल्यके अर्द्धच्छेदोंसे आधे होते हैं। उनसे आधे पल्य के दूसरे वर्गमूलके अर्द्धच्छेद होते हैं। उनसे आधे पल्यके तीसरे वर्गमूलके अर्द्धच्छेद १० होते हैं। इन तीनोंको करणसूत्रके अनुसार जोड़ें। अन्तिम धन पल्यके अर्द्धच्छेदोंसे आधे पल्यके प्रथममूलके अर्द्धच्छेद हैं। उनको दोसे गुणा करनेपर पल्यके अर्द्धच्छेद प्रमाण होते हैं। इनमें आदिको घटाइए। आदि है-पल्यके तीसरे मलके अर्द्धच्छेद जो पल्यके अर्द्धच्छेदोंके आठवें भाग हैं। घटानेपर सातगुणा पल्यके अर्द्धच्छेदोंका आठवाँ भाग आया। उसमें 1. 12112121212121 । 0 022 2028 2020 छेद २१ | छेद २।२ छेद २ । ३ छेद २।४ छेद २ । ५ | छेद २ । ६ छेद २।७ छेद २।८ ood व छ २५६ व छ १२८ वछे ६४ व छे ३२ । | व छे १६ वछे ८ व छे ४ Twiver 1OM 100000000001 w im to ar ००० "mar or ७ ॥ = 328 ६५ = 36 व व ATI Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०२ अंतधणं छे ८।२ विहोणं छे । ७ रूऊणुत्तरभजियं छे । ७ ८1८ ८1८ ८ . ८ । १ एंदिदु द्विवरमत्रिराशियुतियक्कुं । तदधस्तनपत्य सप्तमूलार्द्धच्छेदंगळ मष्टमूला र्द्धच्छेदंगळं नवम. मूलाद्धच्छेदंगळुर्द्धाद्ध क्रम दिनिवल्लि छे अंतधणं छे गुणगुणिय छे २ ८।८।२ ८।८।२ ८।८।२ आदि छे गुणगुणियं छे । २ आदि छे ८।२ एंदिदु त्रिचरमराशि ८।८।८ ८।८।८।१ ५ त्रितययुतियक्कुमी क्रर्मादिदमिलिदिळिवु मूरु महराशिगळं कूडुतं पोगि पल्वग्गंशलाकाराशियष्टमवर्गद्ध च्छेदंगळं सप्तमवग्र्गाद्ध च्छेदंगळं षष्ठवर्गाद्धं च्छेदंगळ मर्द्धाद्ध क्रम दिवमिवल्लि गुणगुणियं व छे ८।८।२।२ । २ आदि |८|| ४ | अंतधणं व छे ८।८१४ वछे ८ | ८|२ व छे ८।८।१ १० मिलिता छे । ७ गो० कर्मकाण्डे विहीणं छे । १ चतुर्थ पंचमषष्ठमूलाधं च्छेदाः छे ८।२ छे ८।८।८ ८८१८ व छे ८१८ विहोणं व छे ८।८।७ रूऊणुत्तर भजियं व छे ८1८1७ एंविदु तृतीय १ ८।८।४ छे ८।८।८ ऊत्तर भजियं छे । १ ८।२।२ छे ८।२।२।२ मिलिताः सप्तमाष्टमनव मूलार्षच्छेदा छे एवमवतीर्यवतीर्य पल्यवर्गशलाकानामष्टमसप्तमषष्ठ वर्गार्धच्छेदाः ८।८।२ છે ८।८।४ छे ८।८।८ एक हीन गुणकार एकका भाग देनेपर उतना ही रहा। वहीं उन तीनों राशिका जोड़ होता है । इसी प्रकार पल्यके चौथे, पाँचवें, छठे वर्गमूलके अर्द्धच्छेद पल्य के अर्द्धच्छेदोंसे सोलहवें, बत्तीसवें और चौंसठवें भाग हैं। उन तीनों राशियोंको पूर्ववत् जोड़नेपर सातगुणा पल्यके अर्द्धच्छेदका चौंसठवाँ भाग हुआ। यह पहलेकी तीन राशियोंके जोड़से आठ गुना घटता १५ हुआ है। इसी प्रकार पहले-पहलेसे आधे-आधे सातवाँ, आठवाँ, नवाँ वर्गमूलके अर्द्धच्छेदों, को जोड़ने पर सातगुणा पल्य के अर्द्धच्छेदोंका पाँच सौ बारहवाँ भाग हुआ। यह भी पहले के जोड़से आठ गुना घाट है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर तीन-तीन वर्गस्थानोंके अर्द्धच्छेदों को जोड़नेर आठ-आठ गुना घाट होता है । उतरते-उतरते पल्यको वर्गशलाकाके आठवें, सातवें, छठे वर्गके अर्धच्छेद पल्की वर्गशलाका के अर्धच्छेदोंसे दो सौ छप्पन गुने, एक सौ अठाईस गुने और चौसठ गुने होते हैं। तीनोंका जोड़ पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंसे चार सौ अड़तालीस गुना हुआ । तथा २० व छे ८ | ८ | ४ व छे ८ | ८ |२ व छे ८ १ ८ । १ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३०३ राशित्रितययुतियक्कुं। तदधस्तनपल्यवर्गशलाकापंचमवर्गराश्यद्धच्छेदंगळं चतुर्थवर्गराश्यद्धच्छेदंगळं तृतीयवर्गराश्यद्धच्छेदंगम क्रमदिनियुंवल्लि व छ । ८।४। अंतघणं व छ । ८ । ४। गुणगुणियं व छे ८ । ४ । २। आदि। व छे ८।१। विहीणं। व छ । ८ ! ७। रूऊणुत्तर भजियं । व छ। ८७ एंदिदु द्वितीयराशित्रितययुतियक्कुं। तदधस्तन १ द्वितीयवर्गराश्यर्द्धच्छेदंगळं तदधस्तनप्रथमवरगंराश्यद्धच्छेदंगळ तदधस्तनवर्गशलाकाद्धच्छेदं- ५ गळुमार्द्धक दि। न छे ८ । २। निप्पुवल्लि। व छे ४। अंतधणं। व छे ४ । गुणगुणियं । व छे ४ । २। आदि। व छ । १। विहोणं। व छ । ७। रूऊगुत्तरभजियं व छ। १। एंदिदु प्रथमराशित्रययुतिय। मिती राशियुतिग ठुमण्ट गुणोन क्रमंग ठप्पुवी राशिगेलु तिर्यग्रूपदिदमेळेडेयोल रचिायसल्पडुवुवु । एकेंदोर्ड पत्तु कोटोकोटिसागरोपममिप्पत्तुकोटोकोटिसागरोपम। व छे ८।१। मूव। व छे २ । तु कोटोकोटिसागरोपम । नाल्वत्तु कोटोकोटि- १० सागरोपममय्वेत्तुकोटीकोटिसागरोपम। मप्पत्तु कोटोकोटिसागरोपमस्थितिगळ संबंधिगळप्प मिलिताः व छे ८ । ८ । ७ पंचम चतुर्थतृतीयवर्गार्धच्छेदाः व छे ८ । ४ मिलिताः व छे ८ । ७ व छ ८ । २ व छ ८।१ द्वितीयप्रथमवर्गयोर्वर्गशलाकानां चार्धछेदाः व छे ४ मिलिताः व छे ७ अमी मिलितराशयः सर्वे सप्तसु व छे २ व छ १ पल्यकी वर्गशलाकाके पाँचवें, चौथे, तीसरे वर्गके अर्धच्छेद पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंसे बत्तीस, सोलह और आठ गुने होते हैं। उन तीनोंका जोड़ पल्यकी वर्गशलाकाके १५ अर्धच्छेदोंसे छप्पन गुणा होता है। वे पूर्व राशिसे आठ गुणे कम हुए । तथा पल्यकी वर्गशलाकाके दूसरे वर्ग, पहले वर्ग और वर्गशलाका, इन तीनोंके अर्धच्छेद पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंसे चौगुने, दुगुने और एक गुने हैं। इन तीनोंका जोड़ पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंसे सात गुणा होता है। यह भी पूर्वराशिसे आठ गुणा घाट हुआ इस तरह आठआठ गुना घाट होता है। पल्यका वर्गमूल प्रथम वर्गमूल जानना । प्रथम वर्गमूलका वर्गमूल दूसरा जानना। दूसरे मूलका वर्गमूल तीसरा जानना। इसी प्रकार चौथा आदि जानना। तथा पल्यकी वर्गशलाकाका वर्ग प्रथम वर्ग जानना। प्रथम वर्गका वर्ग दूसरा वर्ग जानना। उसका वर्ग तीसरा वर्ग जानना। ऐसे ही चौथा आदि वर्ग जानना। सो पल्यके पहले, दूसरे, तीसरे मूलके अर्धच्छेद जोड़नेपर जो राशि हो उससे लगाकर तीन-तीन स्थानोंके अर्धच्छेदोंको जोड़नेपर २५ १. म क्रमदि निप्पुवल्लि व छ । ४ अंत व छे । २ व छ। १ २. म मय्वत्त कोटिकोटिसागरोपममरुवत्त कोटिकोटिसागरोपमेप्पत्त । क-१६४ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे नानागुणहानिशलाकेगळं साधिसल्वेडिं यितेळेडेयोळु तिष्यं पविवस्थापि । व छे १ । सल्प asy दम संदृष्टिरचने दु । १० १३०४ छ ।७ ८ छ ।७ ८।८ छे ७ ጠረ ० छे । ७ ८ छे ७ ८१८ छे ।७ ረረረ छे ।७ ८ छे ७ ८1८ छे॥७ ረረረ ० छ ।७ ८ छे ७ टाट छो७ टाटाट ० ० छे । ७ टाट छे॥७ ८८ छे७ टाटाट ० ० छ ।७ ८८ छे । ७ व छे ७८ व छे । ७ व छ।७ व छे । ७८८ व छ।७/८1८ वा छो७/८८ व छोटा व छे । ७१८ व छे ।७।८ व छे ७७ व छो७ वछे ॥७ इंतु स्थापिस पट्ट सप्तपंक्तिगळोळ प्रथमपंक्तिगतराशिगळनष्टगुणोनक्रमदि निर्दुवं प्रत्येकं फलराशिगलं माडि मोहनीयोत्कृष्टसप्ततिकोटीकोटिसागरोपम स्थितियं प्रमाणराशियं माडि पत्तु । ५ मिप्पत्तु । वत्तु । नात्वत्तु- । मय्वत्तु । मरुवत्त । मेध्यत्तु । कोटीकोटिसागरोपमंगळमेकैकपंक्तिगमिच्छाराशिगळं माडि त्रैराशिकंगळं माळ पुढें बुदं सूचिसि तल्लब्धराशियं प्रथम पंक्तियो पत्तु कोटिकोटिसागरोपमप्रतिबद्धदोळाचंत राशिगळं पेदपरु : छे ॥७ ८१८ छे ॥७ ८1८ छे । ७ ८८८ ० ० ८८ छे । ७ टाढाट ० ० ० व छे७८८ | व छे । ७१८१८ व छे ।७८८ व छे । ७८ व छे ।७१८ 19 व छे । ७१८ व छे ।७ व छे । ७ व छ । ७ तत्थंतिमं छिदिस् य अडमभागो सलायछिदा हु । आदिमराशिपमाणं दसकोडाको डिपडिबद्धे ।। ९३४ ॥ तत्र चरमछेवराशेरष्टमभागः शलाकाच्छेदाः खल्वाद्यराशिप्रमाणं दशकोटिकोटिप्रतिबद्धे ॥ स्थानेष्वग्रेऽग्रे रचयितव्याः ।। ९३३ ।। तासु सप्तपंक्तिषु मध्ये प्रथम पंक्तिगतराशीन् प्रत्येकं फलं कृत्वा दशकोटी कोटिसागरोपमाणीच्छां कृत्वा जो-जो राशि पल्यको वर्गशलाकाका दूसरा, पहला वर्ग और पल्यकी वर्गशलाका इन तीनोंके अर्धच्छेदों को जोड़ने पर जो-जो राशि हो वहाँ तक सब जोड़ी हुई असंख्यात राशि जुदे-जुदे १५ सात स्थानों में आगे-आगे रचनारूप करना चाहिए ॥९३३॥ उक्त सात पंक्तियोंमें-से पहली पंक्ति में जो-जो तीन-तीनका जोड़ देनेपर राशि हुईं उन सबको जुदा-जुदा फल राशि करो। और सबमें दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इच्छाराशि करो तथा सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण राशि करो। इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिको इच्छा राशिसे गुणा करके उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर जो-जो प्रमाण हो उन सबको २० जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतनी दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिकी नाना गुणहानि १. म स्थापिस पडुगु मेंबुदर्थमवक्के । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३०५ मुन्नं तिर्य्यग्रूपदद मेलुं स्थानदोळु स्थापिसल्पट्ट पंक्तिंगलोळु प्रथमपंक्तियं वशकोटीको टिसागरोपमप्रतिबद्धमं माडि तत्प्रथम पंक्तिगतराशिगळं फलराशिगळं माडि प्रतिराशियं पत्तु कोटीकोटिसागरोपमनिच्छाराशियं माडि गुणिसि सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमप्रमाण राशिथिवं भागसि बंद लब्धरा शिगळोळु चरमराशिप्रमाणं पल्यच्छेदाष्टमभागमक्कुमाद्यराशिप्रमाणं पत्यवर्गशलाकाद्ध' च्छेदंगळप्पुवल्लि अंतधणं छे । १ गुणगुणियं छे । ८ आदि । व छे । विहीषणं । ५ ८ ८ छे ८ व छे । रूऊणुत्तरभजिय छे व छे म दिंतिदु पत्तु कोटीकोटिसागरोपमस्थितिप्रतिबद्धनाना ७ गुणहानिशलाकेगळवु । ई नानागुणहानिशलार्क गळान्योन्याम्पस्तरा शिप्रमाणर्म नितक्कु वोर्ड दर्प दो छे व छे ई नानागुणहानिशलाके गळोळिद्दं ऋणमं तेगवु बेरं स्थापिसल्प डुवुवु ७ व छे शेष राशिप्रमाणमनिदं छे संदृष्टि: : ७ ७ प्र = सा = ७० को २ फ = छे ७ ८ प्र = सा = ७० । को २ फ = छे प्र = सा = ७०१ को २ फ = ८१८ • छो७ टाटाट ० ० ० ० ० प्र = सा = ७०: को २ फ = व छं १८८७ प्र = सा = ७० को २ फ = व छे १८७ प्र = सा = ७० । को २ फ - व छे ॥७ इ = सा = १० को २ लब्ध छे । १ ८ इ = सा = १०=को २ लब्ध छे । १ ८।८ इ - सा = १० को २ लब्ध छे । १ टाटाट ० O इ - सा = १० इ - सा = १० इ = सा = १० १ संगुण्य सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमप्रपाणेन भक्ते लब्धं चरिमं छे १ गुणिगुणियं छे ८ आदि व छे विहोणं १० ८ ८ ० को २ लब्ध व छे । ८८ को २ लब्ध व छे । ८११ को २ लब्ध व छे । १ छे-व-छे एऊणुत्तरभजियं छे-व-छे इति दशकोटीकोटिसागरोपमस्थितिप्रतिबद्ध नानागुणहा निशलाका भवन्ति । ७ शलाका जानना । उनके जोड़नेका विधान कहते हैं 'अंतधणं गुणगुणियं' इत्यादि सूत्र के अनुसार पल्यके पहले, दूसरे, तीसरे वर्गमूलके अर्द्धच्छेद मिलकर सात गुणा पल्यके अर्द्धच्छेदोंके आठवें भाग होते हैं । उनको दस कोड़ाकोड़ी सागरसे गुणा करके सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरका भाग देनेपर १५ पल्य के अर्द्धच्छेदोंका आठवाँ भाग हुआ । उसे यहाँ अन्तधन जानना । चूँकि प्रत्येक जोड़ में गुणकार आठ है इससे इसे आठसे गुणा करनेपर पल्यके अर्द्धच्छेद प्रमाण होता है। उसमेंसे आदि घटाना चाहिए । सो पल्यकी वर्गशलाकाका दूसरा और पहला वर्ग तथा पल्यकी वर्गशलाका इन तीनोंके अर्द्धच्छेद मिलकर सात गुने पल्यकी Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ ७.८ गो० कर्मकाण्डे निमित्तमागि केळगेयु मेगेयुमेंटरिदं गुणिसि छ । ८ इदरोळेकरूपं तेगदु धेरै स्था ७.८ पिसि छे १ शेषम छ । ७ पत्तितमिदु छे इदक्के : भज्जमिद दुगगुण्णठिदरासि मूलाणि हारछिदिपमिदं । गंतूण चरिममूलं लद्धमिव दुगाहदी जणिदं ॥ एंदिती सूत्रेष्टदिदं हारमागिई अष्टरूपुगळद्धच्छेदंगळ मूरप्पुवु। तावन्मात्र मा पल्यच्छेदंगळ्गे द्विक संवर्गदिदं पुट्टिद राशि पल्यमदर प्रथमादिमूलंगळनिळिदु पुट्टिद राशि पल्यतृतीयमूलमन्योन्याभ्यस्तराशिप्रमाणमक्कु- मू३। मो राशिगे मुन्नं तेगदिरिसिद धनरूपमिदरोळ छ। १ मोदलु तेगेदिरिसिव वर्गशलाकाद्धच्छेदसप्तमभागमनिदं व छे किंचिन्यूनम माडि छे- तन्मात्रद्विकसंवर्गमं माडुत्तं विरलु लब्धराशियुं हारालुच्छेवमात्रमूलंगळं केळगिळिदु १० पुटुगुमप्पुरिद -१ मसंख्यातगुणपल्यपंचममूलप्रमितमक्कु-मू ५। ३ मिदु गुणकारमक्कुमेक बोडे : विरळिदरासोदो पुण जेत्तिय मेत्ताणि अहियरूवाणि। तेसि अण्णोण्णहदी गुणगारो लद्धरासिस्स ॥ एंदितु लब्धराशिगे गुणकारमक्कुमप्पुरि पत्तुकोटीकोटिसागरोपम स्थितिप्रतिबद्ध नाना१५ गुणहानिशलाकेगळिवक्के छ व छे अन्योन्याभ्यस्तराशियिदमू ३ मू ५ । ।। ई गुणकारभूता ७.८ ७८ तथा तन्नानागुणहानिस्थमृणं पृथग्धृत्य ब छे शेषं छे संदृष्टयर्थमुपधोऽष्टभिहत्त्वा छे ८ एकरूपं पृथग्धृत्य छ १ ७।८ शेष छ ७ अपवत्यं छे तन्मात्रद्विकसंवर्गे हाराधच्छेदमात्रवर्गस्थानान्यधोऽवतीर्योत्पन्नराशित्वात्पल्यतृतीयमूलं ७८ मू ३ इदं पृथग्धृतवर्गशलाकार्धच्छेदसप्तमभागमात्रऋणन्यूनापनीत करूप छे १-मात्रद्विकसंवर्गेणासंख्यातपल्य ७.८ वगेशलाकाके अर्द्धच्छेद हुए । उनको दस कोडाकोड़ी सागरसे गुणा करके सत्तर कोड़ाकोड़ी २. सागरसे भाग देनेपर पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेद प्रमाण होता है वही आदिधन जानना। इसके घटानेपर जो अवशेष रहा उसको गुणकार आठमें एक घटानेपर सात रहे उसका भाग दो, तब पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे हीन पल्यके अर्द्धच्छेदोंका सातवाँ भाग प्रमाण हुआ। यही दस कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति सम्बन्धी नाना' गुणहानि शलाकाका प्रमाण जानना। इतने प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त२५ राशि होती है । उसका प्रमाण लानेके लिए उस नानागुणहानिमें ऋणरूप पल्यकी वर्गशलाका के अर्द्धच्छेदोंका सातवाँ भाग कहा था उसे जुदा रखनेपर शेष पल्यके अर्द्धच्छेदोंका सातवां भाग रहा । उसकी सहनानी (चिह) के लिए आठका गुणा करो और आठ ही से भाग दो। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३०७ संख्यात पंचमूलंगळं गुणकारमनसंख्यातर्म व पल्यतृतीयमूलक्के गुणकारमनाचाय्यं माडि रचनेयोबरदं । मू ३० । ई प्रकारविंदं शेषषट् पंक्तिगळ्गेयु मरियल्पडुगुमल्लि द्वितीयपंक्तिपनिप्पत्तु कोटी कोटिसागरोपम स्थितिप्रतिबद्धमं माडि तृतीयपंक्तिर्यत्रिशत्कोटी कोटिसागरोपमस्थितिप्रतिबद्धमं माडि चतुर्थपंक्तियं चत्वारित्सागरोपम कोटोकोटिस्थिति प्रतिबद्धमं माडि पंचमपंक्तियं पंचाशत्सागरोपम कोटोकोटिस्थितिप्रतिबद्धमं माडि षष्ठपंक्तियं षष्ठिसागरोपमकोटोकोटि ५ स्थितिप्रतिबद्धमं माडि सप्तमपंक्तियं सप्ततिसागरोपमकोटी कोटिस्थितिप्रतिबद्धमं माडि त्रैराशिकसिद्धलब्धैकैक पंक्तिगळं तत्तस्थितिनानागुणहानिशलाकापंक्ति गळु मन्योन्याभ्यस्तरा शिगळप्प तत्तन्मूलं गळमवेदु मुंबण सूत्रगळिदं व्याप्तिरूपबिंबं पेव्वपरु : इगिति गदं ध ध अप्पिट्ठेण य हदे हवे णियमा । अपस य पंति णाणागुणहाणिपडिबद्धा ||९३५|| एक पंक्तिगतं पृथक्पृथगात्मेष्टेन च हते भवेन्नियमात् । आत्मेष्टस्य च पंक्तिर्नानागुणहानि प्रतिबद्धा ॥ आ सप्तपंक्तिगळोळेक पंक्तिगत प्रथमपंक्तिगतराशिगळ दशकोटीकोटिसागरोपमस्थितिविरलितराश्यधिकरूपोत्पन्नत्वाद् गुणितं तदन्योन्याभ्यस्तराशिः पंचमूलमात्रेण मू ५ a असंख्यातीकृतेन स्यात् भू ३ ० ॥९३४॥ अथ विशतिकोटीकोटिसागरोपमादिस्थितिकानां नानागुणहा निशलाकान्योन्याभ्यस्त १५ राशी माह ܐ तासु शेषषट् पंक्ति के पंक्तिगतं सर्वं पृथक् फराशि कृत्वा तत्र प्रथमपंक्तिगतं आत्मेष्टेन विंशतिसो गुणकार में से एक घटाकर उसे जुदा रखो शेष सातका गुणाकार रहा और पहले सातका भागद्दार था । सो दोनोंको समान जानकर अपवर्तन करनेपर दोनों ही नहीं रहे। ऐसा करनेपर पल्यके अर्द्ध च्छेदों का आठवाँ भाग हुआ । इतने दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा २० करनेपर पल्यका तीसरा वर्गमूल हुआ। क्योंकि भागहारके जितने अर्द्धच्छेद होते हैं उतने वर्गस्थान भाज्यराशिसे नीचे जानेपर उत्पन्न राशिका प्रमाण होता है । सो यहां भागहार आठ है. उसके अर्द्ध च्छेद तीन हुए । सो पल्यसे नीचे तीसरा वर्गस्थान पल्यका तीसरा वर्गमूल है। तथा जो गुणकार में से एक जुदा रखा था वह पल्यका छप्पनवाँ भाग गुणकार था इससे पत्यका छप्पनवाँ भाग प्रमाण रहा। उसमें ऋणरूप पल्यको वर्गशलाकाके अर्द्ध च्छेदोंका २५ सातवां भाग घटानेपर जो शेष रहे उतने दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करने पर असंख्यात गुणा पल्यका पाँचवाँ वर्गमूलमात्र असंख्यातका प्रमाण हुआ । 'विरलिदासीदो पुण' इत्यादि सूत्र के अनुसार अधिक राशिको परस्पर में गुणा करने से राशि होती है वह गुणकार रूप होती है। अतः उस असंख्यात से पल्य के तीसरे वर्गभूलको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना दस कोड़ाकोड़ीकी अन्योन्याभ्यस्त राशि जानना ||९३४ | | ३० आगे बीस कोड़ाकोड़ी आदि स्थितिकी नानागुणहानि और अन्योन्याभ्यस्त राशि कहते हैं जैसे दस कोड़ाकोड़ी सागरकी प्रथम पंक्ति में सब तीन-तीन स्थानोंकी जोड़रूप राशि Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०८ गो० कर्मकाण्डे यितु गुणिसिदंते शेष षट्पंक्तिगळ राशिगळं धेरै बेर तन्निष्टविंद विशतिसागरोपमकोटोकोट्यादिस्थितिविकल्पंगळवं गुणिसि सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमस्थितिइंदं भागिसुत्तं विरलु बंद लब्धगळ विशतिकोटीकोटिसागरोपमादिस्थितिप्रतिबद्धनानागुणहानिशलाकापंक्तिगळप्पुषु । बा राशिपंक्तिगळ्यासंदृष्टिरचने इदु : प्र-सा-७० को २ फल छे ७ सा%२० को २ लब्ध छ। २ प्र-सा-७० को २ फल छ। ७ _ ८.८ सा-२० को २ लब्ध छ । २ ८८ प्र-सा=90 को २ फल छ। ७ ८1८।८ सा = २० को २ लब्ध छ । २ ८1८1८ प्र-सा-७० को २ फल व छे ७1८1८ सा%२० को २ लब्ध व छ । ८८२ प्र-सा-७० को २ फल व छे ७।८ सा=२० को २ लब्ध व छ । ८.२ प्र-सा-५० को २ फल व छ। ७ सा-२० को २ लब्ध व छ।२। कोटीकोटिसागरोपमः, द्वितीयपंक्तिगतं त्रिंशत्कोटोकोटिसागरोपमैः तृतीयपंक्तिगतं चत्वारिंशत्कोटीकोटिसागरोपमैः चतुर्थपंक्तिगतं पंचाशत्कोटीकोटिसागरोपमैः, पंचमपंक्तिगतं षष्टिकोटाकोटिसागरोपमैः, षष्टपंक्तिगतं सप्ततिकोटाकोटिसागरोपमंश्वेच्छाराशीनां गुणयित्वा सर्वत्र सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमैः प्रमाणराशिमा भक्त्वा लब्धानि पात्मेष्टस्य विशतिकोटोकोटिसागरोपमादेः प्रतिबद्धा नानागुणहानिशलाकापंक्तयो भवन्ति ।।९३५॥ को जुदा-जुदा फलराशि किया था वैसे ही शेष छह पंक्तियों में फलराशि करो। प्रथम पंक्तिमें इच्छाराशि दस कोड़ाकोड़ी सागर कहा था और उस इच्छाराशिसे फलराशिको गुणा किया था। यहाँ छह पंक्तियों में-से अपने-अपने इष्टरूप प्रथम पंक्तिमें बीस कोडाकोड़ी सागर, दूसरी पंक्तिमें तीस कोडाकोड़ी सागर, तीसरी पंक्तिमें चालीस कोडाकोड़ी सागर, चौथी पंक्तिमें पचास कोडाकोड़ी सागर, पाँचवीं पंक्तिमें साठ कोडाकोड़ी सागर, छठी पंक्तिमें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इच्छाराशि रखकर गुणा करो। तथा जैसे प्रथम पंक्तिमें प्रमाण १५ राशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरका भाग दिया था वैसे ही यहाँ भी सर्वत्र प्रमाण राशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरका भाग दो। ऐसा करनेसे जो-जो प्रमाण आवे वह-वह अपनी इष्ट पीस फोड़ाकोड़ी सागर आदि स्थिति सम्बन्धी नानागुणहानि शलाका होती है ।R३५|| | Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र-सा=७० को २ फल छे । ७ ८ प्र-सा-७० को २ फल छे । ७ ८ ।८ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका प्र-सा-७० को २ फल छे । ७ ८ । ८ ।८ प्र । सा ७० । को २ प्र । सा ७० । को २ प्र । सा ७० । को २ प्र । सा ७० । को २ प्र=सा =७० को २ फल व छे । ७८।८ इ सा = ३० को २ प्र । सा ७० । को २ प्र-सा-७० को २ फल व छे । ७।८ह सा= ३० को २ छब्ध व छे । ८।३ प्र-सा-७० को २ फल व छे । ७ । इसा ३० को २ लब्ध व छे । ३ प्र । सा ७० । को २ | इसा = ३० को २ लब्ध छे । ३ ८ फ । छे ७ ८ फ । छे ७ ८ ।८ फ । छे ७ ረረረ इसा ३० को २ लब्ध छे । ३ = ८ ।८ फ व छे ७ ८1८ फ व छे ७१८ फ व छे ७ इसा- ३० को २ लब्ध छे । ३ टाटाट इ। सा २० को २ इसा २० को २ इस० को २ लछे २ ८८ ल । छे २ टाटाट इ । सा २० को २ इ। सा २० को २ लब्ध व छे। टाटाइ इ । सा २० को २ ल | छे २ ८ ल | व छे ८।८।२ ल | व छे ८।२ ल | व छे २ १३०९ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१० प्र सा- ७० को २ फल। छे । ७ इ सा = ४० को २ लब्ध छे । ४ ८ ८ प्रसा ७० को २ फल । छे । ७ इ सा-४० को २ लब्ध छे । ४ ८1८ ८ १८ गो० कर्मकाण्डे प्र = सा = ७० को २ फल । छे । ७ इ सा = ४० को २ लब्ध छे । ४ ८ ।८ टाटाट प्र = सा = ७० को २ फल व छे । इसा = ४० को २ लब्ध व छे । ७८८ । ८८४ प्र=सा = ७० को २ फल व छे । इसा- ४० को २ लब्ध व छे । ७।८ ८ ।४ प्र = सा = ७० को २ फल व छे । ७ ३ सा = ४० को २ लब्ध व छे । ४ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ फ । छे ७ ८ फ । छे ७ ८।७ फ । छे ७ ८।८।८ फ । व छे ७ ८ । ८ फ व छे 19 ।८ फव छ ७ इ । सा ३० को २ इ। सा ३० को २ इ । सा ३० को २ इसा ३० को २ इसा ३० को २ इ। सा ३० को २ ल | छे ३ ८ ल | छे ३ ८ । ८ छछे ३ टाटाट ल | व छे ८८३ ल | व छे ८३ ल | व छे ३ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका प्र=सा = ७० को २ फल छ । ७ |इ सा = ५० को २. लब्ध छ । ५ प्रसा =७० को २ फल छ । ७ इसा =५० को २ । ८। ८ लब्ध छ । ५ प्रसा -७० को २ फल छ । ७ इ सा%५० को २ | लब्ध छे । ५ ८1८1८ ८८८ प्र=सा -७० को २ फल व छ। इ सा=५० को २ लब्ध व छ। ७८८। ८८५ प्र=सा = ७० को २ फल व छ। इ सा = ५० को २ लब्ध व छ । ७।८। ८.५ प्र= सा=७० को २ फल व छ । ७इ सा = ५० को २ लब्ध व छ । ५ प्र। सा ७० को २ फ। छे ७ । सा४० को २ ल1 छे ४ प्र । स ७० को २ । सा ४० को २ | फ। छे ७ ८८ फ। छे ७ ८1८1८ प्र । सा ७० क | | सा ४० को २ ८८ ल । छे ४ ८1८1८ प्र 1 सा ७० को २ नासा ७० को र कायद। सा ४० को २ लावा प्र। सा ७० को २ | इ । सा ४० को २ ७1८1८८ | फ।व इ। सा ४० को २ ७१८ | फ।व छे ७ |इ। सा४० को ल ।व छे ८८४ ल। छे ८४ | ल । व छे ४ प्र। सा ७० को २ को २ | काय सा० को २ लाव क-१६५ | Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१२ प्र = सा = ७० को २ | प्र=सा = ७० को २ प्रसा= ७० को २ प्र = सा = ७० को २ फल छे । ७ | सा = ६० को २ | लब्ध छे । ६ ८|८ | ८ ।८ प्र = सा = ७० को २ गो० कर्मकाण्डे प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ फल छे । ७ ८ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ फल छे । ७ प्र = सा = ७० को २ फल व छे । ረረረ फल व छे । इसा = ६० को २ । लब्ध व छे । टाटा६ ७८८ । ६ सा = ६० को २ । लब्ध व छे । ७ १८ । ८।६ 1 फ छे ७ ८ फ । छे ७ 1 1 फल व छे । ७ | इ सा = ६० को २ | लब्ध व छे ।६ ८।८ इसा- ६० को २ । लब्ध छे । ६ ८ फ । छे ७ टाटाट | इ सा = ६० को २ | लब्ध छे । ६ टाटाट फ । व छे ७टाट फ । व छे ७१८ फ 1 व छे ७ इ । सा ५० को २ इसा ५० को २ इसा ५० को २ इ। सा ५० को २ इसा ५० को २ इसा ५० को २ कोर छ । ५ ረ छ । छे ५ መሪ छ । ५ टाटाट ल । व छे टाटाप ल । व छे टाप ल | व छे ५ ↑ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र = सा = ७० को २ फल छे ७ ८ प्र = सा = ७० को २ | फल छे ७ ८1८ प्र=सा = ७० को २ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका | = सा = ७० को २ प्र= सा= ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र = सा = ७० को २ फल व छे ७ । ६ सा = ७० को २ । लब्ध व छे ८ । ८।८ ८।७ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ फल छे । ७ इ सा = ७० को २ टाटाट फ । छे ७ ८ फ । छे ७ ८ ।८ फ । छे ७ टाटाट इसा = ७० को २ | लब्ध छे । ७ ८ फ । व छे इसा = ७० को २ | लब्ध छे । ७ ८1८ फल व छे । इसा = ७० को २ लब्ध व छे । ८।७ ७।८ फल व छे ७ इ सा = ७० को २ । लब्ध व छे ७ ७१८४८ फ व छ ७ १८ फ व छे ७ इ । सा ६० को २ इ । सा ६० को २ इ। सा ६० को २ इसा ६० को २ इसा ६० को २ लब्ध छे । ७ टाटाट इ। सा ६० को २ ल | छे ६ ८ छ । ६ टाट ल | छे ६ ८। ८।८ ल | व छे ८। ८ । ६ ल | व छे ८ ।६ लव छे ६ १३१३ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १३१४ १० गो० कर्मकाण्डे अपिट्ठपंतिचरमो जेत्तियमेत्ताणि वग्गमूलाणं । छेदणिव होति णिहाणिय सेसं च य मेलिदे इट्ठा ॥९३६॥ आत्मेष्टपंक्तिचरमो यावन्मात्राणां वर्गमूलानां । छेदनिवहः इति निर्द्धाध्यं शेषांश्च मिलिते इष्टाः स्युः ॥ ई पंक्तिगळोळिष्टपंक्तियचरमलब्धमेनितनय मूलंगळ छेवनिवहम दु निर्द्धारिसि संकलितं विरलु इष्ट नानागुणहानियक्कुमेर्त दोडी रचनयोप्पित्तु कोटोकोटिसागरोपम प्रतिबद्धपंक्तियो अंतधणं छे २ गुणगुणियं छे । २।८ आदि । व छे । २ । विहोणं छे २ । रूऊणुत्तर भजियं ८ ረ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ प्र । सा ७० को २ फ । छे ७ ८ फ । छे ७ ८1८ फ । छे ७ टाटाट फ व छे ७८८ फ व छे ७१८ फ । व छे ७ इ। सा ७० को २ इ । सा ७० को २ इ । सा ७० को २ इ। सा ७० को २ इ। सा ७० को २ ६। सा ७० को २ ल । छे ७ ल । छे ७ ८८ ल । छे ७ መሰረ निजेष्टपंक्तेश्च रमलब्धं यावत् वर्गमूलानां छेदनिवह इति निधार्यं संकलिते इष्टस्य नानागुणहानिः स्यात् । तद्यथाविशतिकोटी कोटिसागरोपमाणां लब्धपंक्ती अन्तघणं छे २ गुणगुणियं छे २ । ८ आदि व छे ८ ८ अपनी-अपनी इष्ट पंक्ति में अन्तिम स्थानपर्यन्त जितने स्थान हो उतने वर्गमूलोंके अर्द्धच्छेदोंके समूहको निर्धारित करके सबके मिलानेपर अपने-अपने विवक्षित इष्टकी नानागुणहानि होती है । मिलानेका विधान दस कोड़ाकोड़ी सागर सम्बन्धी पंक्ति में जैसा कहा वैसा ही जानना । इतना विशेष है कि दस कोड़ाकोड़ी सागर सम्बन्धी पंक्ति में जो अन्तधन और आदिका प्रमाण कहा है यहाँ इन छहों पंक्तियोंमें क्रमसे दूना, तिगुना, चौगुना, पाँच१५ गुना, छह गुना और सातगुना जानना । क्योंकि इच्छाराशिके दुगुना, तिगुना आदि होनेपर सब ही दुगुने, तिगुने आदि होते हैं । सो बीस कोड़ाकोड़ी सागर सम्बन्धी पंक्ति में अन्तधन पल्यके अर्द्धच्छेदोंके चतुर्थ भाग है । उसको गुणकार आठसे गुणा करनेपर पल्य के अर्द्धच्छेदोंसे दूना हुआ । उसमें आदिका प्रमाण - पल्की वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे चौदह गुणा घटाओ। यह प्रमाण किंचित् कम २० करना । फिर उसे एक हीन गुणकार सातका भाग दो। ऐसा करनेपर किंचित् कम दूना ल | व छे ८८७ ल | व छे ८७ ल | व छे ७ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १३१५ छे २ इदं संवृष्टिनिमित्त केळगेयु मेगेयुमेंटरिदं गुणिसि छे २८ एकरूपं तेगदु धेरै स्थापिसि छे २ । १। शेषमपत्तितमिदु । छे। ई राशि नानागुणहानिशलाकेगळप्पुरि विरलिसि द्विक ७। ८ मनित्तु वग्गितसंवग्गं माडुत्तिरलु पल्यद्वितीयमूलमक्कु । मू २। मिदक्के बेरे स्थापिसिदेकरूपमिदं छे । २।१ विरलिसि द्विकमनित्तु वगितसंवर्ग माडिदोडे लब्धं तद्योग्यासंख्यातमक्कु ३ मा ७।८ पूर्वोक्तपल्यद्वितीयमूलक्के गुणकारमक्कु । म २ । । मिदु विंशति कोटोकोटिसागरोपमस्थितिप्रतिबद्धान्योन्याभ्यस्तराशिप्रमाणमक्कुं। त्रिशत्कोटीकोटिसागरोपमस्थितिनानागुणहानिशलाकापंक्तियोळु अंतधणं छे ३ गुणगुणियं छे । ३ । ८ आदि ।' व छे ३ । विहीणं । छ ३ । रूऊणुत्तर भजियं छे ३ ये वितिद् नानागुगहानिशलाकेगळप्पुवु । इदं मुन्निनंते संदृष्टिनिमित्तम दरिदं मेलेयु ७. ८ केळगेयुं गुणिसि छ ३ । ८ एकरूपं तंगदु बेरे स्थापिसि छे ३-१ शेषननिदं छे ३८ अपत्ति ७। ८ ७ ।८ २ विहीणं छे-२ रूउणुत्तरभजियमिति संकलितायां नानागुणहानिराशिः स्यात् छे-२ तं च संदृष्टयर्थमुपर्यधोऽ- १० ष्टभिः संगुण्य छ-२ । ८ एकरूपं पृथग्धृत्या छे-२।१ पवर्त्य छ-तन्मात्रद्विकसंवर्गोत्पन्नपल्यद्वितीयमूलं मू-२ ७८ ७८ पृथग्धृतकरूप छ-२ । १ मात्रद्वि कसंवर्गोत्सन्नतद्योग्यासंख्मातेन गुणितं मू-२ । । तदन्योन्याम्वस्तराशिः स्यात् । ७८ त्रिंशत्कोटीकोटिसागरोपमाणां लब्धपंक्ती प्राग्वत्संकलितायां छ । ३ नानागुणहानिराशिः स्यात् । तं च संदृष्टयर्थमुपर्यषोऽष्टभिः संगुण्य छ- । ३ । ८ एकरूपं पृथग्धृत्य छ- । ३ । १ शेष छ- । ३ । ८ मपवर्त्य ७ ।८ पल्य के अर्द्धच्छेदोंका सातवाँ भाग प्रमाण जोड़ हुआ। इतनी नानागुणहानि जानना। इस १५ प्रमाणको पूर्वोक्त प्रकार आठसे गुणा करके आठका ही भाग दो। सो गुणकारमें एक जुदा रखकर शेष सात गणकार रहा। पहले सातका भागहार था। दोनोंके समान होने सातका अपवर्तन करो। शेष किंचित् कम पल्यके अर्द्धच्छेदोंका चतुर्थ भाग रहा। इतने दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर किंचित् कम पल्यका दूसरा मूल हुआ। तथा जो एक गुणकार जुदा रखा था वह किंचित् कम दूना पल्यके अर्द्धच्छेदोंके छप्पनवाँ भागका गुणकार २० था। अतः उतने प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर यथायोग्य असंख्यात हुआ। उससे गुणा करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण असंख्यात गुणित किंचित् कम पल्यका दूसरा वर्गमूल हुआ। तीस कोडाकोड़ी सागर सम्बन्धी पंक्तिमें पूर्वोक्त प्रकारसे जोड़ देनेपर कुछ कम तिगुने पल्यके अर्द्धच्छेदोंका सातवाँ भाग होता है। इतनी नानागुणहानि राशि है । उसको आठसे २१ गुणा करके आठसे भाग दो । गुणकारमें से एक जुदा रख शेष सातका गुणकार रहा। पहले तसे Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१६ गो० कर्मकाण्ड सिदोडिदु छ ३ घिदं विरलिसि द्विकमनिलु गित्तसंवग्गं माडिदोडे लब्धमन्योन्याभ्यस्तराशिपल्यतृतीयमूलमात्रद्वितीयमूलंगळप्पु । मू २ । मू ३। तदोडे गुणकारभूतत्रिरूपदोलो दुरूपिंगे तृतीयमूलमकुं। शेषद्विरूपंगळिगे द्वितीयभूलमक्खुमप्पुरिद बेरे तेगेदेकरूपंधनमप्पुरि छे ३ । १ तावन्मात्रद्विकसंवर्ग माडिदोडे लब्धराशियुं यथायोग्यमसंख्यातमक्कुमदुवं तृतीयमूलक्के गुणकार५ मक्कु । मू २। मू ३ । मिदु त्रिंशत्कोटीकाटिसागरोपमस्थितिगे अन्योन्याभ्यस्तराशियर्छ। चत्वारिंशत्कोटीकोटिसागरोपमस्थितिनानागुणहानिपंक्तियोळु अंतधणं छे ४ गुणगुणियं छे ४ । ८ अपत्तितमिदु । छे ४ । आदि। व छे ४ । विहीणं । छे ४ । रूऊणुत्तरभजिय छे ४ में दिदु चत्वारिंशत्कोटोकोटिसागरोपमस्थितिनानागुणहानिशलाकेगळप्पुवु । यिदं मुन्निनेते संदृष्टिनिमित्तं केळगेयु मेगेयुमेटरिदं गुणिसि छे ४ । ८ गुणकारदोळेकरूपं तंगदु बेरिरिसि छ ४ । १ शेषबहु ७८ ७. ८ १० छे-३ अत्रत्यगुणकारस्यैकरूपमात्रद्विकाहत्युत्पन्नपल्यतृतीयमूलहतद्विरूपमात्र द्वकाहत्युत्पन्न द्वितीयमूलं मू । २ मू । ३ । पृथग्कृतकरूप छे- । ३ । १ मात्रद्विकाहत्युत्पन्नन्द्योग्यासंख्यातेन गुणितं मू । २ । मू । ३। ० तदन्यो ७ ।८ न्याभ्यस्तराशिः स्यात् । चत्वारिंशत्कोटाकोटिसागरोपमाणां लब्धपंक्तो प्राग्वत्संकलितायां छे-४ नानागुणहानिराशिः स्यात् । सातका भागहार था। दोनोंका अपवर्तन करनेपर किंचित् कम तिगुना पल्यके अर्द्धच्छेदोंका आठवाँ भाग हुआ । तिगुणामें-से एक गुणा प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर पल्यका तीसरा मूल हुआ। और शेष दो गुणा प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर पल्यका दूसरा मूल हुआ। इन दोनोंका परस्परमें गुणा करनेपर पल्यके तीसरे वर्गमूलसे गुणित पल्यका दूसरा वर्गमूल प्रमाण हुआ। उसमें किंचित् कम करना। एक गुणकार जुदा रखा था वह किंचित् कम तिगणा पल्यके अर्द्धच्छेदोंका छप्पनवाँ भागका गुणकार था। अतः १. उतने दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर यथायोग्य असंख्यात हुआ। उससे गुणा करनेपर असंख्यात गुणित किंचित् कम पल्यके तीसरे मूलसे गुणित पल्यके दूसरे वर्गमूल प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है। चालीस कोड़ाकोड़ी सागर सम्बन्धी पंक्तिमें पूर्वोक्त प्रकार जोड़ देनेपर किंचित् कम चौगुना पल्यके अद्धच्छेदोंका सातवाँ भाग होता है। इतनी नानागुणहानि राशि जानना । २५ इसको आठसे गुणा करके आठसे भाग दं । गुणकारमें-से एक जुदा रखनेपर सातका गुणकार १. चत्वारिंशत्कोटीकोटिसागरोपमाणामपि तत्पंक्तो अन्तधणं गुणगणियं छे ४ । ८ अपवर्त्य छे ४ आदि व छे ४ विहीणं छे-४ रूऊणुतरभजियमिति छ–४ नानागुणहानिप्रमाणं स्यात् । इयानधिकः पाठः । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ८ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३९७ भागमनिदं छे ४ । ७ अपत्तिसिदोडिदु छ एतावन्मात्रद्विकंगळं वग्गितसंवर्ग मारिबोर्ड कन्धराशिपल्यप्रथममूलमक्कु । मू १ । मिदक्के मुन्नं तेगेदिरिसिद धनरूपमिदक्क छे ४१ द्विकसंवर्गम माडि लब्धराशियुं तद्योग्यासंख्यातमक्कुमदुगुणकारमक्कु । मू १ । । मिदु चत्वारिंशत्कोटी. कोटिसागरोपमस्थितिगन्योन्याभ्यस्तराशियकुं। मत्तं पंचाशत्कोटीकोटिसागरोपमस्थितिनानागुणहानिपंक्तियोळु अंतधणं छे ५ गुणगुणियं छे ५। ८ आदि। व छे ५ । विहीणं । छे ५- रूऊणुत्तरभजियं छे ५. यिल्लियुं संदृष्टिनिमित्तं कळगेयुं मेगेयुमेटार गुणिसि छे ५। ८ गुणकारदोलो दुरूपं तंगदु बेरिरिसि छे ५ । १ शेषमनिदं छे ५ । ७ अपत्तिसिदुदं छे ५ विरलिसि द्विकमनित्त वगितसंवर्ग माडिदोडे लब्धराशिप्रमाणं पल्यतृतीयमूलमात्रपल्यप्रयममूलंगळप्पु. ५ ७. ८ ७ ।८ ८ तं च संदृष्टयर्थमुपर्यधोऽष्टभिः संगुण्य छ-४। ८ एकरूपं पृथग्धृत्वा छे- । ४।१ शेष छे-४ । ७ मपवर्त्य ७। ८ ७८ छे-तन्मात्रविकसंवर्गोत्पन्नपल्यप्रथममूलं मू-१ पृथग्धृतकरूपमात्रद्विकसंववर्गोत्पन्न तद्योग्यासंख्यातेन गुणितं १० ७।८ मू-१।। तदन्योन्याभ्यस्तराशिः स्यात् । पंचाशत्कोटीकोटिसागरोपमाणां लब्धपंक्ती प्राग्वत्संकलितायां छ-५ नानागुणहानिराशिः स्यात् । तं च संदृष्टयर्थमुपर्यघोऽष्टभिः संगुण्य छे-५ । ८ एकरूपं पृयग्धृत्वा छे-५ । शेष छे-५ ७ मपवर्त्य छे-५ ८८ ७।८ ७८ ८ रहा। और पहले सातका भागहार था। दोनोंका अपवर्तन करनेपर किंचित् कम पल्यके अर्द्धच्छेदोंसे आधे रहे। इतने दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर कुछ कम पल्यका १५ प्रथम वर्गमूल हुआ। जो एक जुदा गुणकार रखा था सो वह किंचित् कम चौगुणा पल्यके अद्ध च्छेदोंका छप्पनवाँ भागका गणकार था। अतः उतने दोके अंक रखकर परस्परमें गणा करनेपर यथायोग्य असंख्यात हुआ। उससे गुणा करनेपर असंख्यात गुना किंचित् कम पल्यके प्रथम मूल प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है। पचास कोडाकोड़ी सागर सम्बन्धी पंक्तिमें पूर्वोक्त प्रकारसे जोड़नेपर किंचित् कम २० पाँच गुणा पल्यके अर्द्धच्छेदोंका सातवाँ भाग होता है। इतनी नाना गुणहानि राशि जानना। उसे आठसे गुणा करके आठसे भाग दे । गुणकारमें से एक जुदा रखकर शेष सातका गुणकार रहा और पहले सातका भागहार था। सो दोनोंका अपवर्तन करनेपर किंचित् कम पाँच गुणा पल्यके अद्धच्छेदोंका आठवाँ भाग प्रमाण हुआ। यहाँ पाँच गुणा कहा है उसमें से एक १. पंचाशत्कोटीकोटिसागरोपमाणां तत्पंक्ती अन्तधणं छे ५ गुणगुणियं छे । ५। ८ आदि व छे ५ विहीणं २५ छे-५ रूऊणुत्तरभजियमिति छे-५ । पाठोऽधिकः । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१० गो० कर्मकाण्डे बैते बोडे गुणकारभूतपंचरूपंगळोळेकरूपं तेगवदक्क द्विकमनित्तु संवर्ग माडिदोर्ड पल्यतृतीयमूलं गुणकारमक्कुं। शेषमं नाल्कुरूपुगळनेटरोडनपत्तिसिोडे पल्यच्छेदालुमक्कुमदक्के द्विकसंवर्ग माडिवोडे लब्धराशिपल्पप्रथममूलं गुण्यमककुमें बुदत्थं । मुनं तेगेदिरिसिदेकरूपिंगे छे ५१ द्विक. संवर्गमं माडुत्तं विरलु यथायोग्यासंख्यातं तृतीयमूलक्के गुणकारमक्कु । मू १ । मू ३ ३ । मिदु ५ पंचाशत्कोटोकोटिसागरोपमस्थितिगे अन्योन्याभ्यस्तराशिषकुं। मत्तं षष्ठिसागरोपमकोटोकोटि स्थितिनानागुणहानिपंक्तियोळु अंतधर्ण छे ६ गुणगुणियं छे ६ आदि। व छ। ६ । विहोणं । ।छे ६ रूऊणुत्तरभजियं छे ६ एंदिदु षष्टिसागरोपमकोटीकोटिस्थितिनानागुणहानिराशि प्रमाणमक्कु । मिदं मुन्निनंते संदृष्टिनिमित्तमागि केळगेयु मेगेयुमेंटरिदं गुणिसि छे ६ । ८ गुणकारदोळेकरूपं तेग बेरिरिसि छे ६ । १ शेषबहुभागमनपत्तिसिदोडिदु छे ३ एतावन्मात्रद्विक ७।८ ७। ८ १. अत्रत्यगुणकारस्यैकरूपमावद्विकाहत्युत्पन्नपल्यतृतीयमूलहतशेषरूपमात्रद्विकाहत्युत्पन्नप्रथममूलं पृथकंकृतरूपो छ । ५।१ त्पन्नासंख्यातेन गुणितं मू १। मू ३।० तदन्योन्याभ्यस्त राशिः स्यात् । ७।८ ष्टिकोटाकोटीसागरोपमलब्धपंक्तो प्राग्वत्संकलितायां छे-६ नानागुणहानिराशिः स्यात् तं च संदृष्टयर्थमुपर्यघोऽष्टभिः संगुण्य छे-६ । ८ एकरूपं पृथग्धृत्य छे-६ । १ शेषमपवर्त्य छे-३ तन्मात्रद्विकाहल्यु७८ ७८ गुणा पल्यके अर्द्धच्छेदोंके आठवें भाग प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर १५ पल्यका तीसरा मूल होता है। शेष रहा चार गुणा। उतने प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गणा करनेपरं पल्यका प्रथम मल होता है। दोनोंको परस्परमें गणा करनेपर जो राशि हो उसको-जो एक गुणकार जुदा रखा था वह किंचित् कम पाँच गुणे पल्यके अर्द्धच्छेदोंके छप्पनवाँ भागका गुणकार था। उतने दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर असंख्यात होता है-उससे गुणा करें। तब असंख्यात गुणित किंचित् कम पल्यके तीसरे वर्गमूलसे २० गुणित पल्यके प्रथम मल प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है। साठ कोड़ाकोड़ी स्थिति सम्बन्धी पंक्तिमें पूर्वोक्त प्रकारसे जोड़नेपर किंचित् कम छह गुणा पल्यके अर्द्धच्छेदोंका सातवाँ भाग होता है। सो इतनी नाना गुणहानि जानना। उसे आठसे गुणा करके आठसे भाग दें । गुणकारमें से एक जुदा रख शेष सातका गुणकार रहा। पहले सातका भागहार था। दोनोंका अपवर्तन करनेपर किंचित् कम तिगुणा पल्यके २५ १. पुनः सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमाणां तत्पंक्तो छे ७ गुणगुणियं छे ७ । ८ अपवर्त्य छे ७ आदि व छे ७ विहीणं छे ७- । व छ ७ रूऊणुत्तरभजियं छे ७-4 छे ७ अपवयं छे-च-छ । अधिकः पाठः । | Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३१९ संवर्ग माडिदोर्ड लब्धराशि पल्यद्वितीयमूलमात्रप्रथम मूलंगळप्पुवु । भू १ । मू २ । बेरे तेगेदिरिसिद धनरूपं विरळिति छे ६ । १ द्विकमनित्तु वग्गित संवग्गं माडिदोर्ड लब्धराशि यथायोग्यासंख्यातमक्कु मदु द्वितीयमूलक्के गुणकारमक्कु । मू१ । मू२ । । मिदु षष्टिसागरोपमकोटी कोटिस्थितिगन्योन्याभ्यस्तराशिप्रमाणमक्कुं । मत्तं सप्ततिकोटीको टि सागरोपमस्थितिनानागुणहानि पंक्तियोळ अंत छे ७ गुणगुणियं छे ७ । ८ अपवतित ७।८ ८ ८ मिदु । छे७ । आदि । व छे । ७ । विहोण में दिवसंख्यातगुणहीनरा शिवप्पुवरदं गुणकारकके गुणकारमेळुरूपं तोरि किचिन्न्यूनमं माडिदोडिदु । छे ७ । रूऊणुत्तरभजियं छे ७ अपततमिदु । ७ छे। इदर्क द्विकसंवर्गमं माडुत्तं विरलु लब्धं पल्यमक्कु । मा विरलनराशिय रुणं पल्यवर्गशलाकार्द्धच्छे दंगळिनित पुर्दारदं व छे ७ अपर्वात्ततमिववके । व छे । द्विकसंवग्गं माजिद लब्धराशि ७ पल्यवर्गशलाकामात्रमक्कुमद पर्क स्वप्नपत्य द्वितीय मूलमात्र प्रथममूलं मू १भू २ पृथग्वृर्तकरूपमात्र छे–६ । १ द्विकाहत्युत्पन्नासंख्यातेन 3 | गुणितं मू १। मू २ । तदन्योन्याभ्यस्त राशिः स्यात् । ७।८ सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमलब्धपंक्तौ प्राग्वत्संकलितायां छे-व-छे नानागुणहानिशलाकाराशिः स्यात् । अत्रत्यछेदमात्र द्वि कसंवर्गोत्पन्नपत्यं तदृणमात्रद्वि कसंवर्गोत्पन्नतद्वर्गे शलाकाराशिना होनरूपजत्वाद्भक्तं प व हारमक्कु प मिप्पत्तु कोटीको टिसागरोपमस्थितिगन्यो- १० व अर्द्धच्छेदों का चौथा भाग हुआ। इतने दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर किंचित् १५ कम पल्के द्वितीय मूलसे गुणित पल्य के प्रथम मूल प्रमाण होता है। जो एक गुणकार जुदा रखा था वह किंचित् कम छह गुणा पल्यके अर्द्ध च्छेदोंके छप्पनवाँ भागका गुणकार था । अतः उतने दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेपर असंख्यात हुआ । उससे गुणा करनेपर असंख्यातगुणा किंचित् न्यून पल्यके द्वितीय मलसे गुणित प्रथममूल प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है । सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति सम्बन्धी पंक्ति में पूर्ववत् जोड़नेपर पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे हीन पल्यके अर्द्ध च्छेद प्रमाण नाना गुणहानि जानना । पल्य के अर्द्धच्छेद प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर पल्य होता है । 'विरलिद रासीदो पुण' इत्यादि सूत्र के अनुसार जितने हीनरूप थे उन प्रमाण परस्पर में गुणा करनेसे जो राशि होती है वह उत्पन्न राशिका भागहार होती है । अतः पल्यकी वर्गेशलाकाके अर्द्धच्छेद प्रमाण २५ १. पुन: षष्टिकोटाकोटिसागरोपमाणां तत्पंक्ती अन्तणं छे-६ गुणगुणियं छे - ६ । ८ आदि व छे - ६ विहीणं ८ ८ छे-६ रूऊणुत्तरभजियमिति छे-६ नानागुणहानिप्रमाणं । इत्यधिकः पाठः । ७ क--१६६ ५ २० Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२० गो० कर्मकाण्डे न्याभ्यस्तराशि प्रमाणमक्कुं। समुच्चयसंदृष्टि : नाना = छेवछे । अन्योन्या मू३३ नाना= छ । २ अन्योन्या मू२० नाना = छ । ३ अन्योन्या मू २० छ। ४ अन्योन्या मू १० सा १० को २ सा २० को २ सा ३० को २ सा ४० को २ नाना = नाना = छ। ५ अन्योन्या मू१।३० सा ५० को २ नाना = छ । ६ नाना = छ । ७ अन्योन्या म १।२० सा ६० को २ अन्योन्या म्।प सा ७० को २ अनंतरमी नानागुणहानिशलाकेगळ्गे द्विकमनित्तु वगितसंवर्ग माडिदोडे तंतम्म स्थितिगळन्योन्याभ्यस्तराशिगळप्पु दु पेळ्दपरु । : इसलायपमाणे दुगसंवग्गे कदे दु इट्ठस्स । पयडिस्स य अण्णोण्णब्भत्थपमाणं हवे णियमा ।।९३७।। इष्टशलाकाप्रमाणानि द्विकसंवर्ग कृते तु इष्टायाः प्रकृतेरन्योन्याम्यस्तप्रमाणं भवेन्नियमात् ॥ ई नानागुणहानिशलाकेगळोल तन्निष्टमप्प शलाकेगळ प्रमाणंगळं द्विकंगळं संवग्गं माडुत्तं विरलु लब्धराशि तन्निष्टप्रकृतिगळन्योन्याभ्यस्तराशिप्रमाणं नियमविंदमक्कु। मंतु द्विकसंवर्ग माडि लब्धराशिगळोळिंतप्प राशियितप्प प्रकृतिगळ्गन्योन्याभ्यस्तराशियक्कुमदु पेळ्वपर।: १। तदन्योन्याम्यस्तराशिः स्यात् ॥९३६॥ उक्तान्योन्याम्यस्तराशीनाह स्वेष्टशलाकाप्रमाणद्विकसंवर्गे कृते स्वेष्टप्रकृतेरन्योन्याभ्यस्तराशिप्रमाणं नियमात्स्यात् ॥९३७॥ तत्कि कस्य कर्मणः स्यादिति प्रश्ने माह दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेसे पल्यकी वर्गशलाका होती है, उसे घटाओ। इस प्रकार पल्यकी वर्गशलाकासे हीन पल्य प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है। इस तरह १५ स्थितिकी अपेक्षा नानागुणहानि और अन्योन्याभ्यस्त राशि कही। सो जिस कर्मप्रकृतिकी जितनी स्थिति हो उसकी उस स्थिति सम्बन्धी जानना ।।९३६॥ ऊपर कही अन्योन्याभ्यस्त राशिको गाथा द्वारा कहते हैं -अपनी-अपनी इष्टशलाकानाना गुणहानि शलाका प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर अपनी इष्ट प्रकृतिकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण नियमसे होता है ।।९३७॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आवरणवेदणीये विग्धे पल्लस्स विदियतदियपदं । णामागोदे बिदियं संखांतीदं हवंति त्ति ॥ ९३८ ॥ आवरणवेदनीये विघ्ने पल्यस्य द्वितीयतृतीयपदं । नामगोत्रयोद्वितीयं संख्यातीतं भवेयुरिति ॥ ज्ञानावरणीयदोळं दर्शनावरणीयदोळं वेदनीयदोळमंत रायदोळमिती मूलप्रकृतिगळनात्कक्कं मूवत्तु कोटोकोटिसागरोपमस्थितियुत्कृष्टमप्युरिनवक्र्क अन्योन्याभ्यस्तराशि प्रत्येकं पत्यद्वितीयमूल मुम संख्याततृतीय मूलमप्पुवु । नामगोत्रंगळ प्रत्येक मिप्पत्सु कोटीकोटिसागरोपमस्थितियप्पुदरिदमन्योन्याभ्यस्त राशि प्रत्येकमसंख्यातपल्य द्वितीय मूलंगळवु ॥ अनंतर मायुः कर्म के विलक्षण स्थिति भेदमप्युदरदमदक्के प्रतिभागविदं नानागुणहानिशलाकेगळं पेल्दपरु | - १३२१ आउस्सय संखेज्जा तप्पडिभागा हवंति नियमेण । इद अत्थपदं जाणिय इट्ठठिदिस्साणए मदिमं ॥ ९३९ ॥ आयुषश्च संख्येयास्तत्प्रतिभागा भवंति नियमेन । इत्यत्थंपदं ज्ञात्वा इष्टस्थितेरानयेन्मतिमान् ॥ आयुष्य के तत्प्रतिभागंगळ संख्येयभागंगळवु नियमदिदमित अभीष्टस्थानमनरिदु इष्टस्थितिगे नानागुणहानिगळुमं मतिवंतं तंदु को बुदु । अदेत 'दोर्ड एप्पत्तकोटीकोटिसागरोपम- १५ स्थितिर्ग नानागुणहानिशलाकेंगळुमिनितागलु मूवत्तमूरु सागरोपमस्थितिर्गनितु नानागुणहानिशलाकेगळपूर्व' त्रैराशिकमं माडि प्र सा ७० । को २ । फ छे व छे । इसा ३३ | बंद लब्धम आयुष्य के नानागुणहानिशलाकेगळ प्रमाणं संख्यातेकभागंगळवु । आयुः नाना । ५ ज्ञानदर्शनावरणयोर्वेदनीयेंऽतराये चोत्कृष्टेन त्रिशस्कोटीकोटिसागरोपम स्थितित्वादन्योन्याभ्यस्त राशिः प्रत्येकं पत्यद्वितीयमूलसंख्यात तृतीयमूलगुणं स्यात् । नामगोत्रयोविंशतिकोटी कोटिसागरोपमस्थितित्वादसंख्यातानि २० पत्यद्वितीयमूलानि भवन्ति ।। ९३८ || आयुषो विलक्षणः स्थितिभेदोऽस्तीति तन्नानागुणहा निशलाकास्तु प्रतिभागाः संख्येयाः स्युरिति नियमात् सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमाणामेतावत्यः छे-व-छे तदा त्रयस्त्रशत्सागरोपमाणां कतीति लब्धाः ܘܐ वह किस कर्म का होता है ? ऐसा पूछनेपर कहते हैं - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर है। अतः इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि २५ पल्के द्वितीय मूलको असंख्यात तीसरे मूलोंसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतनी है । नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । अतः इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणा पल्यका द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है || ९३८ || आयुकर्मका स्थितिभेद सबसे विलक्षण है । अतः उसकी नाना गुणहानिशलाका स्थितिके प्रतिभाग के अनुसार नियमसे होती हैं। सो सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिकी नाना ३० गुणानि शलाका पल्य की वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे हीन पल्यके अर्द्धच्छेद प्रमाण होती हैं तो तैंतीस सागर स्थितिकी कितनी नाना गुणहानि शलाका होंगी ? ऐसा त्रैराशिक करनेपर Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२२ गो० कर्मकाण्डे छे व छे ३३। ई प्रकारविंद मतिवंतं तनिष्टस्थितिगे नानागुणहानिशलाकेगळं तंदु को बुदु ।। ७० को २ यितु गुणहान्यध्वानमुं नानागुणहानिशलाके गर्छ निषेकभागहार मुमन्योन्याभ्यस्तराशियु मरियल्पडुत्तिरलु । गु ८ । नाना ६ । दो गुण १६ । अन्योन्याभ्यस्त ६४ ॥ उक्कस्सहिदिबंधे सयलाबाहा हु सव्वठिदिरयणा । तक्काले दीसदि तो दो दो बंधहिदीणं च ॥९४०॥ उत्कृष्ट स्थितिबंधे सकलाबाधा खलु सर्वास्थितिरचना। तत्काले दृश्यते ततो दो दो बंधस्थितीनां च ॥ उत्कृष्टस्थिति विवक्षितप्रकृतिर्ग बंधमागुत्तं विरला स्थितिगे उत्कृष्टाबाधेयक्कुं स्फुटमागि १० सर्वस्थितिरचनेयुमक्कुमा कालदोळे बंधमाद समयदोळे उत्कृष्टस्थित्युत्कृष्ट वरमनिषेकस्थितियत्तणि केळगे केळगे समयोत्तरहीनतयु काणल्पड़गुं: स्थितिसा ३० को २ ५१२ आबा ३००० संख्यातकभागः छे-व-छे ३३ इत्थमेवेष्टस्थानं ज्ञात्वा मतिमान स्वेष्टस्थिते नागुणहानिशलाका आनयेत् । एवं ७० को २ गुणहान्यध्वाननानागुणहानिशलाकानिषेकभागहारान्योन्याभ्यस्त राशिषु ज्ञातेषु गु ८ । नाना ६ । दोगु १६ । अन्योन्या ६४ ॥९३९॥ विवक्षितप्रकृतेरुत्कृष्टस्थितिबन्धे ज्ञाते तद्वंघसमये एव उत्कृष्टाबाधा सर्वस्थितिरचना च दृश्यते । तस्थितिचरमनिषेकादधोऽधः स्थितिबन्धस्थितीनां समयोत्तरहीनता दृष्टव्या जो लब्धराशि आवे उतनी नाना गुणहानि शलाका जानना। इस प्रकार विवक्षित स्थानको जानकर बुद्धिमान् जीव विवक्षित स्थितिकी नाना गुणहानि शलाकाका प्रमाण लाता है। इस तरह गणहानि आयाम, नाना गुणहानि शलाका, निषेक भागहार और अन्योन्याभ्यस्त २० राशि जान लेनेपर क्या होता है सो कहते हैं ।।९३९।। विवक्षित प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होते ही उसके बन्धके समयमें ही उत्कृष्ट आबाधा और सर्वस्थितिकी रचना देखी जाती है। उस स्थितिके अन्तिम निषेकसे नीचेनीचे प्रथम निषेक पर्यन्त स्थितिबन्धरूप स्थिति एक-एक समय हीन होती है। अर्थात् अन्तिम निषेककी स्थिति तो विवक्षित समयप्रबद्धकी स्थिति प्रमाण ही होती है। उसके नीचे २५ १. धो धो मु.। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरमधिकरूपवदमे तु काणल्पडुगुर्म दोर्ड पेदपरु । :आधा बिदियो तदियो कमसो हि चरिमसमयो दु । पढमो विदियो तदियो कमसो चरिमो णिसेओ दु ॥ ९४९ ॥ आबाधानां द्वितीयस्तृतीयः क्रमशो हि चरमसमयस्तु प्रथमो द्वितीयस्तृतीयः क्रमशश्चरमो निषेकस्तु ॥ सर्व्वप्रकृतिगळ बंधमाद समयदोळे सर्व्वाबाधेयुं सवंस्थितिनिषेक रचने युमा गिद्दं स्थितिय अनंतरसमयंगळोळा बाधासनमंगळ द्वितीयसमयमुं तृतीयसमयमुमिंतु क्रम दिंदे चरमसमयमक्कुं । तुमते तदनंतर निषेकप्रयमसमयमुं द्वितीयनिषेक द्वितीयसमयमुं तृतीयनिषेक स्थिति तृतीयस मय मुं क्रर्मादिदमितु नडदु चरम निषेकस्थिति चरम निषेकमक्कु । मिदेने बुदाथर्म ' दोडे कम्मंप्रकृतिबंध समयदोळे आबाघातनिषेक स्थितिरचनेयक्कुं । द्वितीयादिसमयं मोदगोंड आबाधाचरमसमयपप्यतं १० तत्कालबंधमाद समयप्रबद्धद्रव्य के समयाधिका बाधाकालविदं होनस्थितियुतपरमाणुगळु कम्मंप्रकृतिगळगलं बुदमाबाधाकालं पोगुत्तिरलु अनंतरसमयदोळुदयप्रकृतिगळ प्रथम निषेक मुदयिसि ५१२ आवा हा ३००० १३२३ स्थिति सा ३० को २ ॥ ९४० ॥ आधिक्यं च कथं दृश्यते इत आह सर्वप्रकृतीनां बन्धसमये सर्वाबाधासर्वस्थितिनिषेकरचनारूपस्थितायाः स्थितेरनंतरसमयेषु आबाधासमयानां द्वितीयः तृतीयः एवं गत्वा चरमः समयः स्यात् । तु-पुनः तदग्रे प्रथमः द्वितीयः तृतीयः एवं गत्वा १५ द्विचरम निषेककी उससे एक समय हीन स्थिति है। इसी प्रकार प्रथम निषेक पर्यन्त एकएक समय हीन स्थिति जानना ||९४०|| इस प्रकार स्थितिकी अधिकता कैसे है ? यह कहते हैं सब प्रकृतियोंके बन्धसमय में सर्व आबाधा और सब स्थितिकी निषेकरूप रचना होनेके अनन्तर समयों में आबाधा कालका दूसरा समय, तीसरा समय इस प्रकार एक-एक समय २० बढ़ते-बढ़ते आबाधा कालके अन्त में अन्तिम समय होता है । उसके आगे प्रथम निषेक, दूसरा निषेक, तीसरा निषेक इस प्रकार जाकर स्थिति के अन्तिम समय में अन्तिम निषेक होता है । सो आबाधाकाल बीतनेपर जिस-जिस समय में जितने परमाणुओंका समूहरूप निषेक होता है उस उस समय में उतने परमाणु उदयरूप होते हैं । उस उदयरूप समयके Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२४ गो० कर्मकाण्डे अनंतरसमय बोळु कर्मप्रकृतिस्वरूपमं पत्तविडुगुमितु द्वितीयादिसमयंगळोळु द्वितीयादिनिषकंगळु क्रमदिदं प्रकृतिस्वरूपमं पत्तविडुत्तं पोगि चरमनिषेकमुत्कृष्टस्थितिचरमसमयदोळ कर्मप्रकृतिस्वरूपमं पत्तविटु पोकुदबुदत्यं ॥ अनन्तरसमयप्रबद्धप्रमाणमुमं वर्तमानसमयदोळु ओंदु समयप्रबद्धं बंधमक्कु । मोंदु समयप्रबद्धमुदयमक्कुम बुदुमं पेळ्बपरु।: समयपबद्धपमाणं होदि तिरिच्छेण वट्टमाणम्मि। पडिसमयं बंधुदओ एक्को समयप्पबद्धो दु ॥९४२।। समयप्रबद्धप्रमाणं भवेत्तियंग्गू पेण वर्तमाने । प्रतिसमयं बंधोदयमेकसमयप्रबद्धस्तु ॥ प्रागुक्तसमयप्रबद्धप्रमाणं द्रव्यं त्रिकोणरचनयोळु विवक्षितवर्तमानसमयदोळ मोहनीयकर्म प्रकृत्याबाधारहितोत्कृष्टस्थितिमात्रगळितावशेषसमयप्रबद्धंगळोळु प्रथमसमयप्रबद्धचरमनिषेकं मोदल्गोंडु चरमसमयप्रबद्धप्रथमनिषेकपर्यंतं तिर्यगू पदिदमेकै कनिषेकंगळ संपूणकसमयप्रबद्धद्रव्यप्रमाणमक्कुमितु प्रतिसमयमेकसमयप्रबद्धमुक्यमुं बंधमुमक्कु । संदृष्टि :४१६१४४८१४८० ४४८१४८०।५१२/ ४८०१५१२॥ ९/०1०1010101 ५१२॥ ० ९।१०1०101010100 ९।१०।११।०101010101 ९।१०।११।१२।०1०1010101 ३५२३८४ ९।१०।११।१२।१३।०101010101 ३८४॥४१६ ९।१०।१।१२।१३।१४।०101010101२४०१२५६।२८८/३२०३५२।३८४१४१६१४४८ ९।१०११।१२।१३।१४।१५10101010100२५६।२८८।३२०१३५२३८४१४१६६४४८१४८० ।९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६०10101010॥२८८/३२०१३५२।३८४|४१६१४४८१४८०१५१२ । ० ० ० चरमो निषेकः स्यात् । तत्समये उदेत्यनन्तरसमये कर्मस्वभावं त्यजेदित्यर्थः ॥९४१।। अथ समयप्रबद्धप्रमाणद्रव्यं वर्तमानसमये बध्नात्युदेति चेत्याह त्रिकोणरचनायां विवक्षितवर्तमानसमये विवक्षितमोहनीयकर्मणः आबाधारहितोत्कृष्टस्थितिमात्रगलिता१५ वशेषसमयप्रबद्धेषु प्रथमसमयप्रबद्धचरमनिषकमादि कृत्वा चरमसमयप्रबद्धप्रथमनिषेकपर्यंतं तिर्यगेकै कनिषेको अनन्तर वे परमाणु कर्म स्वभावको छोड़ देते हैं। इस प्रकार प्रथम निषेकसे दूसरे निषेककी और दूसरेसे तीसरे निषेककी स्थिति एक-एक समय अधिक होते-होते अन्तिम निषेककी पूरी स्थिति होती है ।।९४१।। ___ आगे कहते हैं कि समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्य वर्तमान एक समयमें बँधता है और उदय२० रूप होता है त्रिकोण रचनामें विवक्षित किसी एक वर्तमान समयमें विवक्षित मोहनीय कर्मकी आबाधा रहित उत्कृष्ट स्थिति मात्र कालमें समय-समयमें बँधनेवाले समयप्रबद्धोंमें-से जिन निषेकोंकी निर्जरा हो गयी उनकी तो निजरा हो गयी, शेष रहे निषेकों में से प्रथम समय प्रबद्धका अन्तिम निषेकसे लगाकर अन्तिम समयप्रबद्धके प्रथम निषेक पर्यन्त तिर्यग रचना Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३२५ अनंतरं प्रतिसमयमुदयमुं बंधमुमेकसमयप्रबद्धमप्पुरि वर्तमानसमयदोळु बंधोदयात्मकमेकसमयप्रबद्धसे सत्वमक्कुम ब शंकेयं परिहरिसि सत्वं प्रतिसमयं किंचिदूनद्वचर्द्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धमेंदु तत्प्रमाणक्कुपपत्तियं तोरिदपरु ।: सत्तं समयपबद्धं दिवड्ढगुणहाणि ताडियं ऊणं । तियकोणसरूवट्ठिददव्ये मिलिदे हवे णियमा ।।९४३॥ सत्वं समयप्रबद्धो द्वयर्द्धगुणहानिताडित ऊनः। त्रिकोणस्वरूपस्थितद्रव्ये मिलिते भवेन्नियमात् ॥ भत्वा सम्पूर्ण कसमयप्रबद्धद्रव्यं स्यात इति प्रतिसमयमेकैकसमयप्रबद्ध उदेति । एकैश्व बध्नाति । संदष्टिः ९ 1010101 ९।१०।०10100 ९ ।१०।११।०10101 ३५२ । ३८४ ९ ।१०।११।१२।०1०101 ३८४ । ४१६ । ९।१०।११।१२।१३1010101 ९।१०।११।१२।१३।१४।०101010101२४०।२५६।२८८ । ३२० । ३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ । ९ १० ११।१२।१३।१४।१५1०1०1०1०1०।२५६।२८८१३२० । ३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ । ४८० । ९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६:०१० ०1०1०।२८८।३२०।३५२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ । ४८० । ५१२ । ३८४ । ४१६ । ४४८ ४१६ । ४४८ । ४८० ४४८।४८०। ५१२ ४८० । ५१२। ० ५१२। ० । ० ४८० ५१२ ५१२ ०००० ००००० ॥२४२।। अथ बन्योदययोः प्रतिसमयमेकैकः समय प्रबद्धोऽस्तीति तदुभयात्मकं सत्त्वमपि च वर्तमानसमये तापदेव भविष्यतीति गं परिहतुं सोपपत्ति तत्प्रमाणमाह रूप एक-एक निषेक मिलकर सम्पूर्ण एक समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्य होता है। उसका वर्तमान समय में उदय होता है । इस प्रकार प्रति समय एक-एक समयप्रबद्धका उदय होता है और प्रति समय एक-एक समयप्रबद्धका ही बन्ध होता है ।।९४२।। यतः प्रतिसमय एक-एक समयप्रबद्धका बन्ध और उदय होता है इससे उन दोनोंका समुदायम्प सत्त्व भी उतना ही होगा, ऐसा सन्देह दूर करनेके लिए कहते हैं १५ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे प्रति समर्याकंचिवून द्वयर्द्धगुणहानिगुणितसमयप्रबद्धं नियर्मादिदं सस्वमक्कु । मदुवुं त्रिकोणस्वरूपदिनि द्रव्यमं कूडुतं विरलु तावन्मात्रसमय प्रबद्ध मध्युवप्पुदरिदं । स ० १२ ॥ १३२६ संस्वद्रव्यं तु प्रतिसमयं त्रिकोणस्वरूपस्थितद्रव्ये मिलिते किचिदून द्वयर्धगुणहा निगुणित समयप्रवमात्रं नियमात् स्यात् स ० १२ - ॥ ९४३ ॥ तद्यथा- ५ सत्तारूप परमाणुओंका समूहरूप सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । यह नियम है || ९४३ ॥ विशेषार्थ - त्रिकोण रचनाके सर्वं द्रव्यका जोड़ इतना ही होता है। पहले जीवकाण्डयोगाधिकार और कर्मकाण्डके बन्ध-उदय-सत्स्वाधिकार में त्रिकोण यन्त्र लिखा है । वहाँ कैसे प्रतिसमय समयबद्ध प्रमाण द्रव्यका उदय होता है और कैसे किंचित् न्यून डेढ़ गुण१० हानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व रहता है यह कहा है । यहाँ अंकसंदृष्टिको स्पष्ट करते हैं ३५ जिस समय प्रबद्ध के सर्वनिषेक सत्ता में है उसके अड़तालीस निषेक नीचे-नीचे लिखे | उसके ऊपर जिस समयप्रबद्धका प्रथम निषेक गल गया उसके सैंतालीस निषेक लिखे । उसके ऊपर जिसका पहला और दूसरा निषेक गल गया उसके छियालीस _निषेक लिखे | १५ इस प्रकार एक-एक निषेक हीन लिखते-लिखते अन्तमें जिस समयप्रबद्धके सैंतालीस निषेक गल गये उसका एक अन्तिम निषेक लिखा । यह सत्ताकी अपेक्षा रचना जाननी । तथा वर्तमान विवक्षित समयसे आगे जैसे एक समयप्रबद्धका बन्ध होता है, वैसे ही एक समय २५ बद्धकी निर्जरा होती है । अत: जैसे सत्ताकी रचना कही वैसे ही जानना । इस त्रिकोणयन्त्रकी रचनाका जोड़ किंचित् न्यून डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । यही २० सत्त्व द्रव्यका प्रमाण है । विवक्षित वर्तमान समय में जिस समय प्रबद्धके सैंतालीस निषेक पहले गल गये उसका एक अन्तिम निषेक उदयरूप होता है। जिसके छियालीस निषेक गल गये उसका द्विचरम निषेक उदयरूप है । अन्तका निषेक आगामी समय में उदय में आयेगा । इसी क्रम जिसका एक भी निषेक नहीं गला उसका प्रथम निषेक उदयरूप है, अन्य निषेक आगामी समयों में क्रम से उदयमें आवेंगे। इस प्रकार अन्तके निषेकसे लगाकर प्रथम निषेक पर्यन्त सब निषेकों को जोड़ देनेपर एक समय प्रबद्धका उदय होता है। उसके ऊपर उस विवक्षित समय के अनन्तर जो वर्तमान समय होता है उसमें जिस समयप्रबद्धका पहले अन्त निषेक उदयमें आया था उसके तो सर्व निषेक गल चुके । किन्तु जिसका द्विचरम निषेक उदयमें आया था उसका यहाँ अन्तका निषेक उदयरूप होता है। इस तरह पूर्वोक्त प्रकार से एक-एक निषेकका उदय होते जिसके प्रथम निषेकका उदय पहले हुआ था उसका यहाँ दूसरे निषेकका उदय होता है और उस समयप्रबद्ध के पीछे जो समयप्रबद्ध बँधा था उसका प्रथम निषेक उदयरूप होता है । इस प्रकार से इस दूसरे विवक्षित समय में भी समयबद्धका ही उदय होता है । इस प्रकार प्रतिसमय एक समयप्रबद्धका उदय होता है । इसीसे त्रिकोणरचना दो रूपमें की हैं। उनमें कुछ आदि निषेक और कुछ अन्त निषेक लिखे हैं और बीच में बिन्दी लिखी हैं । सो उसका अभिप्राय है कि उनके स्थान में मध्यके निषेक जान लेना ||९४३ ॥ ३० Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति बीवतत्वप्रदीपिका १३२७ अनंतरं त्रिकोणरचनयोलिई नानागुणहानिगतद्रव्यंगळिनितप्पुववं कूडिदोर्ड किंचिन्न्यूनद्वघद्धं गुणहानिमात्रसमयप्रबद्ध गळप्पुर्व दु पेळदपरु : उवरिमगुणहाणीणं धणमंतिमहीणपढमदलमत्तं । पढमे समयपबद्धं ऊणकमेण ट्ठिया 'तिरिये ॥९४४॥ उपरितनगुणहानीनां धनमत्यहोनप्रथमवलमात्रं। प्रथमसमयप्रबद्धः ऊनक्रमेण स्थिता- ५ स्तिर्यग्रूपेण ॥ त्रिकोणरचनयोल विवक्षितवर्तमानसमयदोळ प्रथमगुणहानिप्रथम निषेकदोल तिर्यग्रुप. दिदं संपूर्णसमयप्रबद्धद्रव्यमिक्कुं। शेषद्वितीयनिषेकं मोदल्गोंडूर्ध्वरूपदि चरमगुणहानि चरमनिषेकपयंतं विशेषहीनक्रमदिदं पोगि मतमंते तिर्यग्रूपदिनिई द्वितीयादिगुणहानिगळ धनं अंत्यगुणहानिद्रव्यहीन स्वकीय स्वकीय प्रथमगुणहानिद्रव्याद्धमात्रमक्कुं। प्रथमगुणहानिधनमुं गुणहा- १० निमात्रसमयप्रबद्धमक्कुमदे ते दोडे त्रिकोणरचनेयोळनादिबंधनबद्धगळितावशेषसमयप्रबद्धंगळ विवक्षितमोहनीयमूलप्रकृतिगाबाधारहितोत्कृष्टस्थितिसमयमात्रंगळु तत्प्रथमसमयप्रबद्धचरमनिषेक मोवल्गोंडु चरमसमयप्रबद्धप्रयमनिषेपथ्यंतं तिर्यग्रूपदि विशेषाधिकक्रमविनिर्दुवनेकै क. निषेकंगळं कूडिदोई विवक्षितवर्तमानसमयदोनोंदु समयप्रबद्ध मुदयमाकुमा समयोलोंदु त्रिकोणरचनायां विवक्षितवर्तमानसमये प्रथमगुणहानिप्रथमनिषेके तिर्यक्सम्पूर्ण समयप्रबद्धद्रव्यं स्यात् । १५ द्वितीयनिषेकमादिं कृत्वा चरमगुणहानिचरमनिषेपयंतं चयहीनक्रमेण गत्वा तिर्यस्थितद्वितीयादिगुणहानिधनं अन्त्यगुणहानिद्रव्यहोनस्वस्वप्रथमगुणहानिद्रव्याघमात्रं स्यात् प्रथमगुणहानिधनं तु गुणहानिमात्रसमयप्रबद्धप्रमितं । तद्यथा त्रिकोणरचनायामनादिबन्धनबद्धगलितावशेष समयप्रबद्धाः विवक्षितमोहनीयमूलप्रकृतेराबाधारहितोत्कृष्टस्थितिमात्राः स्युः । तत्प्रथमसमयप्रबद्धचरमनिषेकमादि कृत्वा चरमसमयप्रबद्धप्रथमनिषेपर्यन्तं तिर्यग्विशेषा- २० आगे इस सत्तारूप त्रिकोण यन्त्रके जोड़ देनेका विधान कहते हैं त्रिकोण रचनामें विवक्षित वर्तमान समयमें प्रथम गणहानिके प्रथम निषेकमें तो तिर्यकपसे लिखे निषेकोंका समुदायरूप सम्पूर्ण समयप्रबद्ध प्रमाण होता है। उसके ऊपर दूसरे निषेकसे लगाकर अन्तकी गुणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त एक-एक चयहीनके क्रमसे जाकर तिर्यकरूपसे स्थित द्वितीय आदि गुणहानिका धन अन्तकी गणहानिके जोड़को अपनी- २५ अपनी पहली गणहानिके जोड़में-से घटानेपर जो-जो प्रमाण हो उसका आधा-आधा होता है। किन्तु प्रथम गुणहानिका धन ( जोड़) तो गुणहानिके प्रमाणसे समयप्रबद्धको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना है। विशेषार्थ-उक्त कथनका भाव यह है कि त्रिकोण रचनामें जो नीचे-नीचे प्रथम पंक्तिमें तिर्यकरूपसे लिखा उसको प्रथम गुणहानिका प्रथम निषेक कहते हैं। उसके ऊपरकी ३० पंक्तिमें जो लिखे उनको प्रथम गुणहानिका द्वितीयादि निषेक कहते हैं। गुणहानि आयाम प्रमाण पंक्ति पूर्ण होनेपर उसके ऊपर जो पंक्ति है उसको द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक १. तिरिया मु.। क-१६७ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२८ गो० कर्मकाण्डे समयप्रबद्धं बंघमक्कु । म़ा समयबोळ सत्वद्रव्यमुं किचिन्नद्वय गुणहामिमात्रसमय प्रबद्ध मक्कु- । मल्कि प्रथमगुणहानिप्रथमनिषेकदोळु नानासमयप्रबद्धसंबध्येकैकनिषेकंगळं कूडिवोर्ड संपूर्णसमयबद्ध मक्कुं । आ प्रथमगुणहानि द्वितीयादितियग्निषेकंगळु समय प्रबद्धप्रथम निषेकाद्येकैकधिक्क्रमेग स्थितेरेकैकनिषेका मिलिस्वा विवक्षितवर्तमानसमये एकः समयप्रबद्ध उदेति । तस्मिन्नेव समये एक: ५ समयप्रबद्धो बध्नाति । सस्वद्रव्यं किचदून्द्व गुण हानिमात्र समयप्रबद्धं तिष्ठति । तत्र प्रथमगुणहानिप्रथम निषे के कहते हैं । उसके ऊपरकी पंक्तिको दूसरा निषेक कहते हैं। इस तरह से गुणहानि प्रमाण पंक्ति पूर्ण होनेपर उसके ऊपरकी पंक्तिको तीसरी गुणहानिका प्रथम निषेक कहते हैं। इसी प्रकार अन्तकी गुणहानि पर्यन्त जानना । इसे अंकसंदृष्टिरूप त्रिकोणयन्त्र में दिखाते हैं-नीचे ही नीचे बराबर पंक्ति रूपमें नौका निषेकसे लेकर पाँच सौ बारह पर्यन्त सब निषेक लिखे हैं । १० उनको प्रथम गुणहानिका प्रथम निषेक कहते हैं । इसका जोड़ सम्पूर्ण समयप्रबुद्ध प्रमाण तिरसठ सौ होता है। उससे ऊपर दूसरी पंक्ति में नौके निषेकसे लगाकर चार सौ अस्सीके निषेक पर्यन्त निषेक लिखे हैं । उसको प्रथम गुणहानिका दूसरा निषेक कहते हैं। इसका जोड़ पाँच सौ बारह चय हीन समयप्रबद्ध प्रमाण होता है। उससे ऊपर तीसरी पंक्ति में नौके निषेकसे लगाकर चार सौ अड़तालीस के निषेक पर्यन्त लिखे हैं । उसको प्रथम गुणहानिका १९ तीसरा निषेक कहते हैं । इसका जोड़ इससे पूर्व की पंक्तिके जोड़में से चार सौ अस्सी घटाने पर जो शेष रहे उतना है । इस प्रकार अन्तको गुणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त जोड़ एकएक निषेकरूप चय हीन होता जाता है । इस प्रकार अड़तालीस पंक्तियाँ होती हैं । उनमें नीचे से लगाकर आठ पंक्ति पर्यन्त प्रथम गुणहानिका प्रथमादि निषेक कहते हैं। उसके ऊपर ata पंक्ति लगाकर सोलहवीं पंक्ति पर्यन्त द्वितीय गुणहानिका प्रथमादि निषेक कहते हैं । २० इस प्रकार आठ-आठ पंक्तियोंकी एक गुणहानि जानना । उनमें जो चय घटाये थे उनको मिलानेपर प्रथम गुणहानिके तिरसठ सौको आठ गुणहानिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना है । उसमें से अन्तकी गुणहानिके जोड़ आठ गुणा सौ है, उसे घटानेपर आठ गुणा बासठ सौ होता है । उसका आधा आठ गुणा इकतीस सौ होता है । यही दूसरी गुणहानिका जोड़ है । उसमें अन्तकी गुणहानिका जोड़ आठ गुणा सौ घटानेपर आठ गुणा तीस सौ होता २५ है । उसका आधा आठ गुणा पन्द्रह सौ होता है । यही तीसरी गुणहानिका जोड़ है । इसी प्रकार अन्तकी गुणहानि पर्यन्त जानना । इन सबको जोड़ने की विधि - प्रथम गुणहानिमें जो चय घटे थे उनको जोड़नेपर प्रथम गुणहानिमें ऋण होता है । उसका आधा दूसरी गणहानि ऋण होता है । इसी प्रकार अन्तकी गणहानि पर्यन्त आधा-आधा होता है । इन सबको जोड़कर पूर्व प्रमाण में से घटानेपर जो शेष रहे वही त्रिकोणयन्त्रका जोड़ होता है। वही ३० दिखाते हैं त्रिकोण रचना में अनादि कालसे बँधे और उनमें से निर्जरारूप होकर गल जानेसे शेष रहे, विवक्षित मोहनीय मूलप्रकृति के समयप्रबद्ध आबाधा रहित उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होते हैं । उनमें से प्रथम समयप्रबद्ध के अन्तिम निषेकमे लगाकर अन्तिम समयबद्धके प्रथम निषेक पर्यन्त तिर्यक् रूपसे स्थित तथा एक-एक चय अधिक एक-एक निषेक मिलकर एक ३५ समयप्रबद्ध विवक्षित वर्तमान समयमें उदयमें आता है । उसी समय में एक समयप्रबद्ध बँधता भी है। तथा सत्तारूप द्रव्य किंचित न्यून डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयबद्ध प्रमाण Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३२९ निषेकाधिककदिदं होनंगळप्पुवंतागुत्तं । ५१२ | ७ | विरला होननिषेकंगळं ऋणमनिक्किदोर्ड २ owww.ocm प्रथमगुणहानिधनं ऋणसहितमा ५१२ गि गुणहानिमात्रसमयप्रबद्धंगळप्पुवु । ६३००। ८ । इल्लि ३२।१६ प्रथमनिषेकदोळ ऋणमिल्लप्पुरिदं द्वितीयादिनिषेकंगळोळे कायेकोत्तरमागि समयप्रबद्धप्रथमनिषेकंगळिक्कल्पटुविवं संकलिसिदोर्ड रूपोनगच्छेय एकवारसंकलनमात्रंगळप्पु ५१२ विल्लि प्रयमनिषेक, दोगुणहानिमात्रवयंगळप्पुरिदं भेविसि स्थापिसिदोडे ऋणमिनितक्कुं। ५ ३२।८।२।८।८ अदेतेदोडिल्लियं तृतीयादिनिषेकंगळोळ संकलनात्थं द्विकवारसंकलनक्रम नानासमयप्रबद्धसम्बन्ध्येकैको निषेको मिलित्वा सम्पूर्णसमयप्रबद्धः स्यात् । द्वितीयादिनिषेषु प्रथमादिनिषेकः क्रमेणकैकाधिकरूनोऽस्तीति तावति ऋणे निक्षिप्ते प्रथमगुणहानिधनं ऋणसहितगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धं भवति । ६३०० । ८ तदणं त्वेकोत्तररूपोनगुहानिगच्छक्रमेण प्रथमनिषेकान ५१२ । ७ ५१२।६ ५१२ । ५ ५१२।४ ५१२।३ ५१२।२ ५१२।१ संकलय्य ५१२८। ८ अवस्थप्रथमनिषेकं दोगुणहान्या संभेद्य ३२। ८।२।८।८। उपर्यधस्त्रिभिः १० २ १ रहता है। उसमें प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकमें अनेक समयप्रबद्धोंका एक एक निषेक मिलकर सम्पूर्ण समयप्रबद्धका प्रमाण होता है। तथा द्वितीयादि निषेकोंमें प्रथमादि निषेकोंसे क्रमसे एक-एक अधिक चय घटता होता है । इस घटते हुए प्रमाणको ज्योंका त्यों मिलानेपर प्रथम गुणहानिका जोड़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । यहाँ अंकसंदृष्टिके द्वारा कथन दिखानेपर आठ गुणा तिरसठ सौ होता है। इसमें से जितना घटाना है उसे १५ ऋण कहते हैं । उसका प्रमाण कहते हैं ____एक हीन गुणहानिके प्रमाण रूप गच्छ में क्रमसे एकको आदि देकर एक-एक अधिकसे गुणित प्रथम निषेकका जोड़ दो। सो पाँच सौ बारहको क्रमसे एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सातसे गुणा करके जोड़ दो। तब पाँच सौ बारहको एक हीन आठ और आठसे गुणा Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३० गो० कर्मकाण्डे दिदं प्रथमगुणहानिचयंगळिक्कल्पद्रुवप्पुरिदमा ऋणव ऋणमुमिनितप्पुवु ३२ । २१ ३२ इवं संकलिसिदोडे ऋणार्ण द्विरूपोनगच्छेय द्विकवारसंकलनमात्रचयंगळप्पुवु ३२।०८ २२. ई ऋणमना ऋणवोळु शोधिसुवागळु मूरिदं समच्छेवमं माडिदोडे षड्गुणहानियक्कुमल्लि एकरूपं कळेवु ऋण ऋणं धनमें दु द्विरुपमं पंचगुणहानिगळ्गे धनमागिरिसिबोडे शुद्धऋमितटक्कू ५ ३२।२।५।४।८। ई प्रथमगुणहानिधनमं नोडलु द्वितीयादिगुणहानिधनंगळु घरमगुणहानि संगुण्य ३२ । ८।६।८। ८ षड्गुणहानितः एकरूपं पृथग्धृत्वा ३२ । ८ । १ । ८ । ८ तत्र तृतीयादिनिषेकेषु द्विकवारसंकलनक्रमेणाधिकपतितप्रथमगुणहानिचयान् ३२ । २१ संकलय्य द्विरूपोनगच्छस्य ३२ । १५ ३२।१० ३२। ६ ३२। ३ ३२। १ २- . द्विकवारसंकलनमात्रान् ३२ । ८। ८। ८ ऋणस्य ऋणं राशेधनमिति संशोध्य शेषे ३२ । २।८।८ ३ २ १ २ १ २४१ करो और दोको एकसे गुणा करके उसका भाग दो । तब इतना हुआ-५१२४८ । ८ । यहाँ १० प्रथम निषेकका दो गुणहानिसे भेदन करनेपर पाँच सौ बारह के स्थानमें बत्तीस गुणित आठ, गुणित दो हुए । यथा-३२ । ८।२।८।८। यहाँ गुणकार और भागहारको तीनसे गुणा २।१ करनेपर गुणकार और भागहारमें दोके स्थानपर छह हुआ-३२।८।६। ८।८। छहमें ६ १ एकको जुदा रखा। तब उसका जोड़ ३२ ॥ ८॥ १।८। ८ तेईस सौ नवासी और दोका छठा Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३३१ पयंतं "अंतिमहोणपठमवळमेत्तं पढमे समयपबढ़" एंविंतु पेळल्पटुतु । तन्निमित्तमा चरमगुणहानि ऋणसहितमप्प धनमिनितपकु-। १००। ८ मिदं प्रथमगुणहानि ऋणसहितधनबोल कळेनुवनिदं ६२००। ८ । बळि यिसिदोडिदु । ३१००। ८। द्वितीयगुणहानिषनमकुमी क्रमविदं परमगुणहानिधनरहितार्खिक्रमदिदं चरमगुणहानिपथ्यंत सर्वगुणहानि धनंगळितिप्पुषु । १०० २०० ७०० १५०० ३१०० ६३०० [६३००/ यिल्लि संकलननिमित्तमागि सर्वत्र चरमगुणहानिधामात्र १००।८। ऋणमनिक्किद्विविदं ५ भेविसि स्थापिसिदोडितिप्पूवु। । १०० ।टा। यिवं संकलिसिवोर्ड अंतषणं । ३२०० ।८।२। ८.२ २०० ४०० । ८०० 1८।२ १६०० |८।२ ३२००।८।२ रूपढ़ये पुनः प्राक्तनपंचगुणहानीनामुपरि दत्ते एतावत् ३२ । ८।५ ८ ८ प्रथमगुणहानिऋणसहितधनं च परमगुणहानिऋणसहितधनेन १००। ८ । ऊनयित्वा । ६२००। ८ अधितं ३१००। ८ द्वितीयगुणहानिधनं स्यात् । एवमुपर्यपि सर्वगुणहानिधनानि साध्यानि । संदृष्टिः १०० । ८ । अत्र सर्वत्र चरमगुणहानिमात्रं १००। ३०० ।८। ७०० ।८। १५००।८। ३१००।८। ६३००।८। भाग हुआ। तथा तीसरे आदि निषेकोंमें पहले कहे संकलन विधानसे दो बार संकलनके क्रम- १० से प्रथम गुणहानिके चयको जोड़ दीजिए। इस तरह दो हीन गच्छका दो बार संकलनमात्र प्रथम गुणहानिके चयको जोडिए । तब चय बत्तीसको एक, तीन, छह, दस, पन्द्रह, इक्कीससे क्रमसे गुणा करके जोड़नेपर बत्तीसको दो हीन आठसे और एक हीन आठसे तथा आठसे गुणा करके छहका भाग दीजिए ३२ ।।८।१। ऐसा करनेपर सत्रह सौ बानबे हुए। एक जुदा रखे गुणकारके प्रमाणमें-से इनको घटानेपर पाँच सौं सत्तानबे और दोका छठा भाग १५ रहा। शेष जो पाँच गुणकार रहे थे उनका प्रमाण ग्यारह हजार नौ सौ छियालीस और चारका छठा भाग हुआ। उनमें मिलानेपर बारह हजार पाँच सौ चौवालीस हुआ। इतना प्रथम गुणहानिमें ऋण जानना। जो राशि घटाने योग्य होती है उसे ऋण कहते हैं। और जो विवक्षितका प्रमाण होता है उसे धन कहते हैं। सो प्रथम गुणहानिके ऋण सहित धनमें ३ २ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३२ गो० कर्मकाण्डे गुणगुणियं । ६४००। ८।२। आदि । १००। ८।२। विहोणं । ६३००। ८।२। ऊणुत्तर भजियमें दु तावन्मात्रमेयककुं। प्रथमगुणहानिनिक्षिप्त शुद्धऋणमं नोडल द्वितीयावि गणहानिगळोळु ऋणमर्धा क्रममप्पुवु । संदृष्टि : २ . १८५८८ २८।१८।८ 21५८ ८ ८ ऋणं निक्षिप्य द्वाभ्यां भित्त्वा- १००।८।२ २००।८।२ ४००।८।२ ८००।८।२ १६००।८।२ ३२००।८।२ अन्तधणं ३२००।८।२। गुणगुणियं ६४००।८।२। आदि १००।८।२ विहीणं ६३०० । अन्तकी गुणहानिके ऋण सहित धनको घटाकर उसका आधा द्वितीय गुणहानिका धन होता है। इसी प्रकार आगे भी सब गुणहानियोंका धन जानना। सो प्रथम आदि गुणहानियोंका धन तिरसठ सौ गुणित आठ, इकतीस सौ गुणित आठ, पन्द्रह सौ गुणित आठ, सात सौ गुणित आठ, तीन सौ गुणित आठ और सौ गुणित आठ हुआ। इन सबमें अन्तकी गुणहानि१० का प्रमाण मिलानेपर और दोसे भेदन करनेपर क्रमसे प्रथमादि गुणहानियों में बत्तीस सौ, सोलह सौ, आठ सौ, चार सौ, दो सौ और सौका आठ गुणा तथा दो गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना प्रमाण हुआ। ३२००४८x२।१६००४८x२८००४८x२।४००४८४२।२००४८४२११००४८४२। इन सबको 'अन्तधणं गुणगुणियं' इत्यादि सूत्रसे जोड़ो। सो अन्तका धन प्रथम गुण१५ हानिका प्रमाण है । उसको गुणकार दोसे गुणा करो। उसमें आदि जो अन्तकी गुणहानिका __ धन है उसे घटाइए । तब तिरसठ सौको आठ से गुणा करके दोसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका २. fat संकलिसिबोर्ड प्रथमरणमिनितक्कुं । अंतघणं ३२ । ८ । ५ । ८ । ८ गुणगुणियं । ६४ ६ २ २ २ 32141251263 ८५८१८ आदि ११८५१८१८ विहीण ६३ । ८।५।८१८ रुऊणुत्तरभजियर्म बु ६ ८ । २ रूऊणुत्तरभजियमिति तावदेव स्यात् । द्वितीयादिगुणहानिधनादर्षार्थं संदृष्टिः २ 62 १। ८। ५ । ८८ ६ २ .. २ । ८। ५ । ८ । ८ ६ २४।८।५।८।८ ६ २८।८।५।८।८ ६ २ १६ । ८ । ५ । ८ । ८ ६ २ | ३२ । ८।५।८।८ ६ 2 १३३३ २ २ २ तदप्यंतघणं ३२ । ८ । ५ । ८ । ८ गुणगुणियं ६४ । ८ । ५ । ८ । ८ आदि १।८।५ । टाट नियं ६४ पार्टीट ६ ६ ६ उतना हुआ ६३०० × ८x२ । यहाँ तिरसठ सौ तो समयप्रबद्धका प्रमाण है । आठ गुणहानिका प्रमाण है । और दोका गुणा दो गुणहानिका प्रमाण है। इस प्रकार दो तथा आठ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण जोड़ हुआ। अब इसमें से जो ऋण घटाना है उसे लाते हैं प्रथम गुणहानिमें ऋण इस प्रकार है - बत्तीसको आठ, पाँच, एक हीन आठ तथा आठ गुणा करो । उनमें से एक गुणकार जुदा रखा था तथा उसमें दो बार संकलनमात्र १० चय घटानेपर जो प्रमाण हुआ था उसको मिलाने और छहका भाग देनेपर बारह हजार पाँच सौ चौवालीस हुआ। क्योंकि पाँच सौ बारहका निषेक सात पंक्तियों में घटा । चार सो अस्सी छह पंक्तियों में घटा । चार सौ अड़तालीस पाँच में घटा । चार सौ सोलह चार में घटा । तीन सौ चौरासी तीनमें घटा । तीन सौ बावन दोमें घटा । तीन सौ बीस एकमें बन्छ । दो सौ अट्ठासीका निषेक आठों ही पंक्तियों में है अतः घटा नहीं। इन सबको १५ ५ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३४ गोकर्मकाणे तावन्मात्रमेयक्कु । सर्वत्र गुणहानिधनपंक्तियोळिक्किद द्वितीयऋणंगळुमिनि तप्पुवु १००८ १०. १००1८ १००८ १००१८ २००८ इवं संकलिसिदोडे नानागुणहानिगुणितगुणहानिमात्रसमयप्रबद्ध परमगुणहानिद्रव्यमक्कं १०० । ८।६। मो धनराशियुमं प्रथमऋणमुमं द्वितीयऋणमुमं क्रमविस्थापिसि । ६३ । । ०। ८।२। ऋ६३।४।५।८।८ द्वितीयऋण । १००।८।६ ई मूरु राशिगळं समयप्रबद्धशलाकेगळं ५ माडिदोर्ड मूल राष्ट्रिगतिपुंजु ६६००१८॥२३॥०.५८४६०८॥६ई मूरु राशिगळनपतिसि स्थापिसिबोडितिप्पु-। स ।।८।२। ऋस ।८५।८। स a । ८॥६ १००।६ विहीण-६३ । ८ । ५।८।८ रूऊणुत्तरभजियमिति तावदेव स्यात् । द्वितीयऋणानि १००। ८ संकलितानि १००।८ १००।८ १००।८ १००।८ १.०।८ नानागुणहानिगुणितगुणहानिमात्रचरमगुणहानिधनमात्राणि स्युः १००। ८।६। एवमुक्तधनप्रथमर्ण २- .. द्वितीयऋणानि च क्रमेण संस्थाप्य समयप्रबद्धशलाकाः कृत्वा ६३००। ८ । २ ६३ ।।५।८।८ ६३०० २- - ।८।२ ऋ स३1८।५।८।८ १० १००। ८। ६ अपवयैवं स्युः स । ६३०० स०।८।६ तत्र ३५८४ + २८८०+२२४०+ १६६४+११५२ + ७०४ + ३२०+२८८ जोड़नेपर बारह हजार पाँच सौ चौवालीस होते हैं। तथा प्रथम गुणहानिके ऋणसे द्वितीय आदि गुणहानियोंमें आधा-आधा ऋण होता है। सब गुणहानियोंका जोड़ 'अन्तधणं' के अनुसार अन्तधन प्रथम गुणहानिका ऋण | उसे दोसे गणा करो। तथा उसमें आदि जो अन्तिम गुणहानिका २० ऋण घटाओ। सो अन्तधन बारह हजार पाँच सौ चौवालीसको दोसे गणा करनेपर पचीस हजार अढासी हुए। उसमें आदि तीन सौ बानबे घटानेपर चौबीस हजार छह सौ छियानबे हुए । यही सब गुणहानियोंका ऋण है । तथा अन्तकी गुणहानिके धन प्रमाण सब गुणहानियोंमें वाण मिलाया था। उसको जोड़ देनेपर नानागुणहानिसे गुणित अन्तकी गुणहानिके धन Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३३५ वो मूरु राशिगळोळ मध्यमप्रथमऋणराशियं शतषट्कहारंगळं रूपाधिकत्रिगुणहानियं माडि चतुष्कर्म द्विदिवं गुणिसिगुणहानियनुत्पादिसियपत्तिसिदोडितिक्कु स ० ८।५।८ मी राशि ८।३। ३ योलिई ऋणरूपधनमदु तेगेदु पाश्र्वदोळ स्थापिसिदोडिदु स०।८।५।८। स ।। ४।५।१ - - ८।३।३ ८.३।३ ई एरडु राशिगळ मेलिई द्विरूपं तंतम्म केळगे स्थापिसि : | सामा५।८।स।।५।१। ८।३।३।८।३।३ स ।२।८।स ।२।१ १३।३।८।३।३ प्रथमद्विकर्म कळगेयु मेगेयु त्रिगुणिसि स ३।६। ८ अल्लि पंचरूपुगळं तेगेदु मेलण ऋणदोलिक्कि ५ ८।३।३।३ स।।८।३।५। ८ अपत्तिसिबोडिनितक्कु स ।८।५ शेयकऋणरूपं स ।।८।१ उपरि ८३।३।३ ८।३।३।३ प्रथमर्णस्य हारं शतषट्करूपाधिकत्रिगुणगुणहानि कृत्वा चतुष्कं द्वाभ्यां संगुण्य गुणहानिमुत्पाद्यापवर्त्य स । ।।८।५।८। अवस्थमृणरूपं धनमित्यपनीय पार्वे संस्थाप्य स ।८।५। ८ स । ।८।५ ८।३।३ ८।३।३ ८।३।३ उभयत्र स्थितरूपद्वयं स्वस्वाधः संस्थाप्य स ।८।५।८ स।।८।५ प्रथमद्विकमपर्यधस्त्रिभिः ८।३।३ सव।२ ८।३।३ स।व।२ ८।३।३ ८।३।३ पंचरूपाण्यपनीयउपरितनर्णमध्ये निक्षिप्य स। ।८।३।५।८ १० संगुण्य स । ।६।८ ८।३।३ । ३ ८।३।३।३ प्रमाण दूसरा ऋण हआ। सो अन्तका धन आठ गणा सौ है उसे नानागणहानि छहसे गणा करनेपर अड़तालीस सौ हुए। इन दोनों ऋणोंको जोड़नेपर कुछ अधिक आधी गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण हुआ। सो उनतीस हजार चार सौ छियानबे हुआ। क्योंकि Jain Education Internatioक-१६८ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३६ गो० कर्मकाण्डे तनपाइधनबोळ समच्छेदमं माडि कळेदोडिदु स ० । ८।११-१ द्वितीयधनद्विकमं केळगेयुं ८।३।३।३ मेमो भत्र गुणिसि स १८ यिल्लिप दिनात्कु रूपुगळं तेगेदुको डु पृथ्बंधनदोळ मूरिदं ८।३।३।९ समच्छेदमं माडि कूडिवोडुभयधनमिदु । । ८ । ३ । १४ । इवर भागहारदोळेकरूपहीनत्व ८ ।३।३ । ३ । ३ मनवगणिसि अपर्वात्तसिदोडे समयप्रबद्धार्द्धमक्कु स ५ स । ३।४ १४ निदं समयप्रबद्धा संख्यातैक भागमं स ० ८।३।३।९ द्वितीयऋणदोळ कळेदु अपर्वात्तसिदोर्ड किचिदून संख्यातवग्र्गशलाका मात्रमक्कं । स ० । व १ । स ।। ८ । १५-१ .2 अपवर्तितमेतावत्स्यात् स । । ८ । ५ शेषं कर्णरूपं स । । ८ । १ उपरितनपार्श्वघने समच्छेदेनापनीय ९ । १ मिल्लि शेषधनरूपचतुष्कम | २ १ साधिकं माडिदु स । १ ईधनमं a २ अस्मिन्नुपर्य स्त्रिभिर्गुणिते ८।३।३।३ स । ३ । ८ । ३। ८।३।३।३ नवभिर्गुणितात् स । । १८ चतुर्दशरूपाणि गृहीत्वा प्रक्षिप्तेष्वेवं ८।३।३।३।३- स । २ । ८ । ३ । १४ अस्य भागहारे ८ । ३ । ३ । ९ ८।३।३।३।३ १० एकरूपहीनत्वमवगणय्यावर्तने समयप्रबद्वाधं स्यात् स । ३१ अत्र तच्छेषधनरूपचतुष्कं स ४ २ १४ द्वितीयधनद्विकादुपर्यषो गुणहानि आठके आधे चारसे समयप्रबद्धको गुणा करनेपर पच्चीस हजार दो सौ हुए । शेष चार हजार दो सौ छियानबे अधिकका प्रमाण जानना । इस प्रकार इन दोनों ऋणों को पर जो प्रमाण हुआ उसको पूर्वोक्त दो गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध में से घटानेपर किंचित् न्यून डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण हुआ । सो दो गुणहानि गुणित १५ १.०८ । ६ यो द्वितीयऋणमर्थसंदृष्टियोलितिक्कु स प १ यिदे तक्कु में —दोडे नानागुण - ६३ प Oo ८ । ३ । ३ । ९ व हानियि गुणहानियं गुणिसि विवक्षितस्थितियप्पुदरिनिल्लि विवक्षित सा ७० को २ । स्थितिर्गसंख्य तपमक्कुं । रूपहीनत्वमनवगणिसियन्योन्याभ्यस्त राशिहारमागि यितिक्कु प ॥ व Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।२ २ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३३७ मत्तमा प्रथमऋणमं स ।।८।५ । विदं संदृष्टिनिमित्त केळगेयुं मेगेयु द्विगुणिसि स ०८।१० अल्लि एकरूपं तेगेदु बेरिरिसि स ।।८।१ शेषमनिद स ०। ८१९ नपत्तिसिदोडे गणहान्यर्द्धमात्रसमयप्रबद्धंगळप्पु। स ० ८.१ ववं प्रथमधनराशियोल बोगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धदोळु कळंदोर्ड द्वयर्द्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धंगळप्पु । स ०।८।३। वल्लि मुन्नं तंगेदु बेरिरिसिब गुणहान्यष्टादशभागऋणदोळु । स ।। ८।१। द्वितीयऋणमं किंचिदून संख्यातवग्गेशलाकामात्र.. समयप्रबद्धंगळं साधिक माडि । स ० । ८॥ द्वयर्द्धगुणहानियोल किंचिदूनं माडिदोर्ड त्रिकोणरचना संकलितसवंधनं समयं प्रति किंचिदूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धं सत्वमक्कुद पेळल्पट्टागमार्थ सुघटितमादुद ॥ १८ समयप्रबद्धासंख्यातकभागमात्रं स । १ साधिकं कृत्वा स ।।१ इदं धनं द्वितीयर्णमध्येऽपनीयापवर्त्य किचिदूनसंख्यातवर्गशलाकामात्र स्यात् । स ० । व १-पुनस्तत्प्रथमर्ण स । ८ । ५ संदृष्टिनिमित्तमुपर्यधो १० द्वाभ्यां संगुण्य- स । ३।८।१० तत्रैकरूपं पृथग्धत्वा स ।।८।१ शेषं स । । । ८।९ अपवर्तितं ९। २ १८ गुणहान्यर्धमात्रसमयप्रबद्ध भवति स ० ८ १ तस्मिश्च प्रथमधनराशी दोगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धेऽपनीते द्वयर्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धा भवन्ति स । । । ८ । ३ तत्र प्राक्पृथग्धृतगुणहान्यष्टादशभागणे स ।।। ८ । १ १८ द्वितीयणं किंचिदूनसंख्यातवर्गशलाकामात्रसमयप्रबद्धं साधिकं कृत्वा स । । । ८।१ द्वयर्धगुणहानी किंचिदनितं त्रिकोणरचनासंकलितसर्वधनमुक्तप्रमाणं स्यात् । स । । । १२- ॥ ९४४ ॥ १५ समयप्रबद्धका प्रमाण एक लाख आठ सौ है। उसमें से दोनों ऋणोंका प्रमाण उनतीस हजार चार सौ छियानवे घटानेपर इकहत्तर हजार तीन सौ चार रहे। इतनी ही त्रिकोणरचनाका जोड़ है । यह तो अंक संदृष्टि से हुआ। - यथार्थमें तो दो गुणहानिमें-से आधा गणहानि और एक गणहानिका अठारहवाँ भाग तथा संख्यात वर्गशलाका घटानेपर जो किंचित् न्यून डेढ़ गुणहानिमात्र प्रमाण रहा, उससे २० समयप्रबद्धको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना सर्व त्रिकोणरचनाका जोड़ होता है । सो किंचित् न्यून डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व द्रव्य होता है। यहाँ जोड़नेमें गुणकार दो गुणहानिमें-से आधा गुणहानि और एक गुणहानिका अठारहवाँ भाग तथा संख्यात वर्गशलाका कैसे घटे इसका विधान जीवतत्त्वप्रदीपिका टीकासे जानना चाहिए। कठिन होनेसे यहाँ नहीं लिखा है। केवल सारमात्र लिखा है ।।९४४|| २५ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३८ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं ज्ञानावरणादिकम्मप्रकृतिस्थितिविकल्पंगळनुपपत्तिपूर्वकं पेळ्दपरु।: अंतो कोडाकोडिट्ठिदित्ति सव्वे णिरंतरढाणा । उक्कस्सट्ठाणादो सण्णिस्स य होति णियमेण ।।९४५॥ अंतः कोटीकोटिस्थितिपय्यंत सर्वाणि निरंतरस्थानानि। उत्कृष्टस्थानात्संज्ञिनो . ५ भवेयुनियमेन ॥ ज्ञानावरणादिसप्तप्रकृतिगळ उत्कृष्टस्थितिमोवळ्गोंडु अंतःकोटोकोटिस्थितिपय॑तं समयोन. क्रमदिनिई सर्वस्थितिविकल्पंगळुवानतोळवनितुं नियमदिदं संशिजीदंगळप्पुवु अq संख्यातपल्यमात्रंगळ्प्पुवु । संदृष्टि : उप ११ ज।प१ ००प००० अथ सोपपत्तिस्थितिविकल्पानाह१० सप्तकर्मणामत्कृष्टस्थितेरा अन्तःकोटाकोटिसमयोनक्रमेण सर्वे निरन्तरस्थितिविकल्पाः संख्यातपल्यमात्रा नियमेन संज्ञिजीवानां भवन्ति । संदृष्टिः उप११ जप आगे स्थितिके भेद कहते हैं आयुके बिना सात कोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति पर्यन्त क्रमसे एक-एक समय हीन सब निरन्तर स्थितिके भेद संख्यात पल्य १५ मात्र हैं। वे नियमसे संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवके होते हैं। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका १३३९ इल्लि अंतःकोटीकोटिगळु प्रतिभागदिदं ज्ञानावरणादिगळगे साथिस पडुवुवल्लि त्रैराशिक - मिटु । प्रसा २० । को २ । फ अंतः को २ । सा इसा ३० । को २ ॥ लब्धज्ञानावरणाविगळंतः कोटी कोटिप्रमाणमिनितक्कुं । सा अंतः को २ । ३ । इंतु प्रतिभागदवमंतः कोटीको टिगळ साधिसिकोळल्पडुवुवु ॥ अनंतरं श्रेण्यारूढनोळ सांतरस्थिति विकल्पंगळप्पुवेंदु पेदपरु । :संखेज्जसहस्सा णिवि सेढीरूढम्हि सांतरा होंति । सगसग अवरोति हवे उक्कस्सादो दु सेसाणं ॥ ९४६ ॥ संख्यातसहस्राण्यपि श्रेण्यारूढे सांतराणि भवंति । स्वस्वजघन्य पय्र्यंतं भवेदुत्कृष्टात्त शेषाणां ॥ सम्यक्त्वाभिमुखनप्प मिध्यादृष्टियं संयमासंयम संयमाभिमुखनप्पऽसंयतनं संयमाभिमुख - १० नप्प देशसंयतनुं श्रेण्याभिमुखनप्प अप्रमत्तनुम पूर्वकरणनुमनिवृत्तिकरणनुं सूक्ष्मसांपरायतुमें बिवर्गळु श्रेण्यारूढरें पेळपट्टखगंळोळ संभविसुव सांतरस्थितिविकल्पस्थानंगळ संख्यातसहस्रं - गळपुवु । १००० । येर्त बोडधः प्रवृत्तकरणपरिणामबोळु तत्प्रथमसमयं मोवगोंड अत्र प्र-सा २० को २ फसा अन्तः को २ । इ-सा ३० को २ लब्धमन्तः को २ । ३ । इति २ ज्ञानावरणादीनामन्तःकोटीकोटिं साधयेत् ॥ ९४५ ॥ अथ सान्तरस्थितिविकल्पानाह सम्यक्त्व देश सकलसंयमश्रेण्यभिमुखाः क्रमशो मिध्यादृष्टयसंयत देशसंयताप्रमत्ताः, अपूर्वकरणादित्रयश्च श्रेण्यारूढाः तेषु सान्तरस्थितिविकल्पस्थानानि संख्यातसहस्राणि स्युः १००० तद्यथा ५ जिन कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर है उनकी भी जघन्य स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागर है और जिन कमकी स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर है उनकी भी स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । किन्तु दोनोंमें अन्तर है और उसे त्रैराशिक द्वारा जानना २० चाहिए। यदि बीस कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मोंकी जघन्य स्थिति अन्त:कोटाकोटी सागर है तो तीस कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मोंकी जघन्य स्थिति कितनी होगी। ऐसा करनेपर ड्योढ़ी अन्तःकोटाकोटी सागर स्थिति होती है ||९४५|| आगे सान्तर स्थिति के भेद कहते हैं— १५ सम्यक्त्व, देशसंयम, सकलसंयम, उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणीके अभिमुख हुए २५ क्रमसे मिध्यादृष्टि, असंयत, देशसंयत, अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानवर्ती जीव तथा उपशम अथवा क्षपकश्रेणीपर चढे जीवोंके सान्तर स्थितिके भेद संख्यात हजार हैं। वही कहते हैं १. अधःप्रवृत्तकरणपरिणामे तत्प्रथमसमयाच्चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धि सातादिप्रशस्तप्रकृतीनां प्रतिसमय मनन्तगुणवृद्धया चतुःस्थानानुभागबन्धं असाताद्यमशस्त प्रकृतीनां प्रतिसमयमनन्त- ३० गुणहान्या द्विस्थानानुभागबन्धं बन्धापसरणं च करोति । किंनाम बन्धापसरणं ? ज्ञानावरणादीनां स्वयोग्यान्तःकोटीकोटिस्थिति तद्योग्यान्तर्मुहूर्तपर्यतं बध्नन् ततस्तदनन्तरसमये पल्यसंख्या तैकभागोनामन्तर्मुहूर्त - पर्यंत बनातीति । अभी स्थितिविकल्पा अघः प्रवृत्तकरणकाले संख्याताः त्रैराशिकेनानेन - Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४० गो० कर्मकाण्डे तत्कालचरमसमयपयंतं नाल्कावश्यकंगलप्पुववाउवें दो प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धि वृद्धि सातादि. प्रशस्तप्रकृतिगल्गे प्रतिसमयमनंतगुणवृद्धया चतुःस्थानानुभागबंध असाताद्यप्रशस्तप्रकृतिगळगे प्रतिसमयमनंतगुणहान्यादिस्थानानुभागबंध बंधापसरणमुमेंब नाल्कावश्यकंगळोळ बंधापसरणा वश्यकदोलु बंधापसरणमें बुदेंते दोडे ज्ञानावरणादिप्रकृतिगमग स्वयोग्यस्थितियंतः कोटीकोटि५ प्रमितमक्कुमा स्थितियुं प्रथमसमयं मोदल्गोंदु तद्योग्यांतम्मुहूतकालपय॑तं समस्थितिबंधमं माडि तदनंतरसमयदोळु पल्यसंख्यातेकभागमात्रस्थितियं कुंदिसि कट्टि तावन्मात्रसमस्थितिबंधमनंतम्र्मुहूर्त्तकालपर्यतं मान्कु । मितु बंधापसरण कालांतर्मुहूर्त्तक्कोशेदु स्थितिविकळपमागलध:प्रवृत्तकरणकालमंतर्मुहूर्तमादोडमदं नोडलु संख्यातगुणमक्कुमदक्केनितु स्थितिबंधविकल्पंगळप्पु. वेंदु त्रैराशिकम माडि प्र।२।। इ। का। २।१११ बंधापसरण फ। शला।१ अधःप्र= काल १० बंद लब्धं संख्यातस्थितिबंधविकल्पंगळप्पु ॥१॥ इंतपूर्वकरणनोळमो नाल्कावश्यकंगळुसहितमागि मत्तं स्थितिकांडकघात, मनुभागकांउकघातगुणश्रेणि, गुणसंक्रममेंब नाल्कावश्यकंगळु सहितमागि अष्टावश्यकंगळप्पुवदु कारणदिदमित. निवृत्तिकरणनोळ सूक्ष्मसांपरायनोलं बंधापसरणंगलिदं संभविसुव सांतरस्थितिविकल्पस्थानंगल उत्कृष्टदिदमंतःकोटोकोटि । अंतःकोटि =२ ५। जघन्यादिद "भपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । १५ नामगोत्रयोर टी। शेषाणामंतम्मुहूर्तः" यदितुत्कृष्टं मोदळ्गोंडु स्वस्वजघन्यपर्यत स्थितिविकल्प __ अधःप्रवृत्त करणे प्रयमसमयादन्तर्मुहूर्त ज्ञानावरणादीनां स्वयोग्यांतःकोटाकोटिस्थिति बध्नाति । तद ग्रंतमहतं पल्यासंख्याताभागांनां पुनस्तदऽतर्महर्त तावतोनामिति संख्यातसहस्रवारं नीत्वा तं करणं ममाप्यापूर्वानिवृत्तिकरणम्-मसाम्परायेऽप्या स्व-स्वाधं तदालापबारमासृत्य वेदनीयस्य द्वादशमुहूति नामगोत्रयोगटान्त महूति शेषाणामन्तहूतिं च बध्नातीति तानि तावन्त्युक्तानि । शेपद्वादशजीवसमासानां एयं अधःप्रवृत्तकरणमें पहले समयसे अन्तमुहूर्त पर्यन्त ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी अपने योग्य अन्तःकोटी-कोटि सागर प्रमाण स्थिति बाँधता है। उसके पश्चात् अन्तमुहूर्त पर्यन्त पल्यके असंख्यातवें भाग हीन स्थितिको बाँधता है। उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उससे भी उतनी ही हीन स्थितिको बाँधता है। इस प्रकार संख्यात हजार बार करके उस करणको पूरा करता है। उसके पश्चात् अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्परायमें भी २५ अपने-अपने स्थितिबन्धको उतनी-उतनी ही बार घटाकर वेदनीयकी बारह मुहूर्तपयन्त, नाम २० प्र २१ फ श १ इ का २१११ बन्धापसरण अधःप्र काल भवन्ति ११। अपूर्व करणे तानि आवश्यकानि च स्थिति काण्डकघातानुभागकाण्डकघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमणानि चेत्यष्टो रांतीति कारणात् । अनिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसाम्परायेऽप्यन्तःकोटाकोटितः वेदनीयस्य द्वादशमहर्तवर्यतं नामगोत्रयोरटान्तमहत्तंपर्यंत शेपाणामन्तमहर्तपर्यतं च बन्धापसरणानि स्थरिति संख्यातसहस्राणीत्युक्त। पाठोऽयं श्रीमदभयचन्द्रनामांकितायां टीकायां । Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३४१ स्थानंगळु तद्योंग्य संख्यातसहस्रंगळप्पुर्वेदु पेळल्पटुदु । तु मत्ते शेषद्वादशजीवसमासंगळ्गे “एयप्पण कादि पण्णं - बासूपबासू अवरद्विदीओ" ये दोत्यादि स्थितिगळ्गे निरंतरस्थितिस्थानविकल्पंगळे. यप्पुवु ॥ अनंतरमी स्थितिविकल्पबंधकारणंगळु कषायाध्यवसायंगळेदवं मूलप्रकृतिगळ्गे पेळ्वपरु आउट्ठिदिबंधज्झवसाणठाणा असंखलोगमिदा । णामागोदे सरिसं आवरणदु तदियविग्घे य ॥९४७॥ आयुस्थितिबंधाध्यवसायस्थानान्यसंख्यलोकमितानि । नामगोत्रयोः सदृशमावरणद्वयतृतीयविघ्ने च ॥ आयुस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळ सर्वतस्तोकंगळप्पुवंतागुत्तलं तद्योग्यासंख्यातलोकमात्रं गळप्पुवु। नामगोत्रंगळ्गे तम्मोळु पल्यासंख्यातेकभागत्वविदं समानंगळप्पुवु।ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयांतरायंगळ्गेयं तम्मोळु पल्यासंख्यातकभागमात्रत्वदिदं समानंगळप्पुवु । सव्वुवरि मोहणीये असंखगुणिदक्कमा हु गुणगारो। पल्लासंखेज्जदिमो पयडिसमाहारमासेज्ज ॥९४८॥ सर्वोपरि मोहनीये असंख्यातगुणितकमाणि खलु गुणकारः। पल्यासंख्यातेकभागः प्रकृतिसमाहारमाश्रित्य ॥ पणकदीत्यादि वासूपेत्यादिसूत्रोक्तानि तु तानि निरन्तराणि ॥९४६॥ अथ स्थितिविकल्पकारणकषायाध्यवसाया- १५ न्मूलप्रकृतीनाह आयुःस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वतः स्तोकान्यपि तद्योग्यासंख्यातलोकमात्राणि । नामगोत्रयोस्ततः पल्यासंख्यातकभागगुणत्वेन समानानि । ततः ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणामपि तथा समानानि ॥९४७॥ आयुगमा और गोत्रकर्मकी आठ मुहूर्तपर्यन्त, शेष कर्मों की एक मुहूर्तपर्यन्त स्थितिको बाँधता है। इस २० प्रकार सान्तर स्थितिके भेद संख्यात हजार होते हैं। संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्तके बिना शेष बारह जीव समासोंमें 'एयं पणकदि पण्णं' तथा 'वासूप' आदि गाथाओंके द्वारा पहले स्थितिबन्धके कथनमें जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति कही है। सो उत्कृष्ट स्थितिसे जघन्य स्थिति पर्यन्त क्रमसे एक-एक समय घाट निरन्तर स्थितिके भेद जानना ॥९४६॥ आगे स्थितिके भेदोंमें कारणभूत कषायाध्यवसायस्थान कहते हैं-उन्हें स्थिति १ बन्धाध्यवसायस्थान भी कहते हैं __ आयु कर्मके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान यद्यपि सबसे थोड़े हैं। फिर भी यथायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनसे नाम और गोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । इस तरह परस्पर में दोनोंके समान हैं। उनसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तरायके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान हैं। चारोंके परस्परमें समान हैं ।।९४७।। सबसे ऊपर मोहनीयमें स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान उनसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । यहाँ प्रसंगवश सिद्धान्तके वचन कहते हैं Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ २० १३४२ २५ गो० कर्मकाण्डे एल्लवरिदं मोहनीयदोळ प्रकृतिसमाहारमनाश्रयिसि प्रकृतिस्थितीनां विकल्पाः प्रकृतिसमाहारस्तमाश्रित्य प्रकृतिविकल्पंगळनाश्रयिसि कषायाध्यवसायस्थानंगळितु नरेडेयोळमसंख्यातगुणितमंगळवा गुणकारप्रमाणमुं पल्यांसंख्यातैकभागमक्कुं । संदृष्टि मोहनीय णा. दं. वे. अं. नाम गोत्र पपप आयुष्य इि प्रस्तुतमप्प सिद्धांतवाक्यंगळ :-ण च सव्वमूळपडणं समाणाणां कसायोदयद्वाणाणमेत्थ गहणं । कसायोदयट्ठाणेण विणा मूळपयडिबंघाभावेण ५ सव्वपयडिट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं समाणत्तप्पसंगादो । तम्हा सम्ब मूळपयडीणं सगसगसगउदयो समुष्वण्णप्पपरिणामाणं सगसगट्ठिदिबंधकारणं तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस ण्णिदाणमुत्तरपच्चयाणमेत्य गहणं । पर्याडिसमाहारमासेज्ज णाणावरणादीणं पयडीणं सगसगठिदिबंधकारणज्झवसाणट्ठाणाणि सव्वाणि ? एगतं काऊण पमाणं परुविदं ण ट्रिट्ठद पडि एसा परूवणा होदि । उवरिमसुतेहि ठिदिं पडि अज्झव साणपमाणस्स परूविज्जमाणत्तादो । हेट्ठिमेहितो उवरिमाणि १० किमट्ठमसंखेज्जगुणाणि साहावियादो । मिच्छत्तासंजमकसायपच्चयेहि सव्वाणि कम्माणि सरिसाणि । तेण एदेसि कम्माणमज्झवसापाट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणित्ति ण घडवे । हेट्ठिमाण ठिबंधट्ठाहतो उवरिमाणं कम्माणं ठिदिबंधट्ठाणाणि अहियाणित्ति असंखेज्जगुणतं न aaa पप aa =ag a ३।१ -- सर्वोपरि मोहनीये प्रकृतीनां स्थितिविकल्पसमूहमाश्रित्य कषायाध्यवसायस्थानानि त्रिषु स्थानेष्वसंख्यातगुणित भागः अत्र प्रस्तुत सिद्धान्तवाक्यानि – णय सव्वमूलपयडीणं समाणाणं कसायोदयद्वाणाणमैत्थ गहणं । कसायोदयट्ठाणेण विना मूलपयडबन्धाभावेण सव्वपयडिट्टिदिबन्धज्मवसाणट्टाणाणं समाणप्पसंगदो । तह्मा सम्बमूलपयडीणं सगसगउदयादो समुपण्णपरिणामाणं सगसगट्ठिदिबन्धकारणत्तेण ठिदिबन्धज्झवसाणट्टाणसष्णिदाणमुत्तरपच्चयाणमेत्थ गहणं । पयडिसमाहारमासेज्ज णाणावरणादीनं पयडीणं सगसग ठिदिबन्धकारणज्झवसाणद्वाणाणि सव्वाणि एगत्तकाऊण पमाणं परूविदं । ण हिदि पडि एसा परूवणा होदि । उबरिमसुत्तेहि द्विदि पडि अज्झवसाणपमाणस यहाँ सब मूलप्रकृतियोंके समान कषायोदय स्थानोंका ग्रहण नहीं; क्योंकि कषायके उदयस्थानोंके बिना मूलप्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंकी समानताका प्रसंग आता है । अर्थात् यदि सब मूलप्रकृतियोंके कषायोदय स्थान समान होंगे तो सबके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान भी समान होंगे क्योंकि कषायके उदय स्थानोंके बिना मूलप्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । अतः सब मूलप्रकृतियोंके अपने-अपने उदयसे उत्पन्न हुए परिणाम अपने-अपने स्थितिबन्धके कारण होते हैं। इससे उन्हें स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं, उनका यहाँ ग्रहण है । प्रकृतियोंके स्थिति भेदरूप समुदायको लेकर ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके अपने-अपने स्थितिबन्धके कारणभूत जो अध्यवसाय स्थान हैं उन सबको एकत्र करके प्रमाण कहा है। यह कथन स्थितिकी अपेक्षा नहीं है । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३४३ वे । हैट्ठिमट्टिमकम्माणं ठिदिबंधद्वाणा पाओगकसायेहिंतो उवरिमउवरिमाणं कम्माणमहियद्विदिबंध द्वाणपाओगगकसाय उदयद्वाणाणं असमाणाणमणुवलंभेण असंखेज्जगुणत्ताणुववत्तीदो । एस दोसो हेट्टिमाणं उदयद्वार्णोहितों उवरिमाणं कम्माणं उदयद्वाणबहुतेण असंखेज्जगुणत्ताविरोहादा । न च सर्व्वमूलप्रकृतीनां समानानां कषायोवयस्थानानामत्र ग्रहणं । कषायोदयस्थानेन विना मूलप्रकृतिबंधाभावेन सर्व्वप्रकृतिस्थितिबंधाव्यवसायस्थानानां समानत्वप्रसंगात् । तस्मात्सर्व्वमूलप्रकृतीनां स्वस्वोदयतः समुत्पन्नपरिणामानां स्वस्व स्थितिबंधकारणत्वेन स्थितिबंधाध्यवसायस्थानसंज्ञितानामुत्तरप्रत्ययानामत्र ग्रहणं । प्रकृतिसमाहारमाश्रित्य ज्ञानावरणादीनां प्रकृतीनां स्वस्वस्थितिबंधकारणाध्यवसायस्थानानि सर्व्वाण्येकीकृत्य प्रमाणं प्ररूपितं । न स्थितिं प्रत्येषा प्ररूपणा भवेत् । उपरितनसूत्रः स्थिति प्रत्यध्यवसायप्रमाणस्य प्ररूप्यमाणत्वात् । अघस्तनेभ्य उपरिमाणि १० किमर्थम संख्येयगुणानि स्वाभाव्यात् । मिथ्यात्वा संयमकषायप्रत्ययैः सर्व्वाणि कर्माणि सदृशानि । तेनैतेषां कर्म्मणामध्यवसायस्थानानि असंख्येयगुणहीनानीति न घटते । अधस्तनानां स्थितिबंध ५ १५ परुविज्जमाणत्तादो हेट्टिमेहितो उवरिमाणि किमट्टमसंखेज्जगुणाणि । साहावियादो मिच्छत्तासंजम कसायपच्चयेहि सम्माणि कम्पाणि सरिसाणि तेण एदेसि कम्माणमज्झवसाणट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणित्ति ण घडदे हे माणं ठिदिबन्धद्वाणेहितो उवरिमाणं कम्माणं ठिदिबन्धद्वाणाणि अहियाणित्ति असंखेज्जगुणत्तं ण जुज्जदे । मिमिकम्माणं ठिदिबन्धट्टणिपा उग्ग कसाये हितो उवरिमउवरिमाणं कम्माणयहियद्विदिबन्धद्वाणं पाओग्गकसाय उदयट्टाणाणं असमाणाणमणुवलंभेण असंखेज्जगुणत्ताणुववत्तीदो। ण एस दोसो । हेट्टिमाणं उदयद्वाहितो उवरिमाणं उदयट्टा बहुत्तेण असंखेज्जगुणताविरोहादो । न च सर्वमूलप्रकृतीनां समानां कषायोदयस्यानानामत्र ग्रहणं कषायोदयस्थानेन विना मूलप्रकृतिबन्धाभावेन सर्वप्रकृतिस्थितिबन्ध ाध्यवसायस्थानानां समानत्वप्रसंगात् । तस्मात् सर्वमूलप्रकृतीनां स्वस्वोदयतः २० समुत्पन्नात्मपरिणामानां स्वस्वस्थितिथन्धकारणत्वेन स्थितिबन्धाव्यवसायस्थान संज्ञितानामुत्तरप्रत्ययानामत्र ग्रहणं प्रकृतिसमाहारमाश्रित्य ज्ञानावरणादीनां प्रकृतीनां स्वस्वस्थितिबन्धकारणाध्यवसायस्थानानि सर्वाण्ये - कीकृत्य प्रमाणं प्ररूपितं । न स्थिति प्रत्येषा प्ररूपणा भवेत् । उपरितनसूत्रः स्थिति प्रत्यध्यवसाय प्रमाणस्य प्ररूप्यमाणत्वादधस्तनेभ्य उपरिमाणि किमर्थम संख्येयगुगानि स्वाभाव्यात् । मिथ्यात्वसंयमकषायप्रत्ययैः सर्वाणि कर्माणि सदृशानि तेनैतेषां कर्मणामध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि इति न घटते । अधस्तनानां २५ क्योंकि आगे के सूत्रोंके द्वारा स्थितिकी अपेक्षा अध्यवसायोंके प्रमाणका कथन किया है । शंका- पहले कहे आयु आदि कर्मोंके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंसे पीछे कहे कर्मों के स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणे कैसे हैं ? क्योंकि स्वभावसे ही मिथ्यात्व, असंयम, कषायरूप प्रत्ययोंके द्वारा सब कर्म समान हैं । इनसे हीन जो कर्म हैं उनके अध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणे कैसे हो सकते हैं ? पहले कहे आयु आदि कर्मोंके स्थितिबन्धके ३० स्थानोंसे पीछे कहे कर्मोंके स्थितिबन्ध के स्थान अधिक हो सकते हैं किन्तु असंख्यात गुणे नहीं हो सकते ? पहले-पहले कहे कर्मों के स्थितिबन्ध स्थानके योग्य कषायोंसे पीछे-पीछे कहे कर्मोंकी अधिक स्थितिबन्धके स्थानोंके योग्य कषायके उदयस्थान असमान नहीं पाये जाते अतः असंख्यात गुणापना नहीं बनता । क - १६९ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे स्थानेभ्य उपरितनानां कर्मणां स्थितिबंधस्थानान्यधिकानीति असंख्येयगुणत्वं न युज्यते । अधस्तनाघस्तनकर्मणां स्थितिबंधस्थानप्रायोग्यकषायेभ्य उपरितनोपरितनानां कर्मणामधिकस्थितिबंधस्थानप्रायोग्यकषायोदयस्थानानामसमानानामनुपलभेनासंख्येयगुणत्वानुपपत्तितः। नैष दोषः। अधस्तनानामुदयस्थानेभ्य उपरितनानां कर्मणामुदयस्थानबहुत्वेनासंख्येयगुणत्वा५ विरोधात् ॥ अनंतरं जघन्यादिस्थितिविकल्पं प्रति कषायाध्यवसायंगळं पेळ्वपरु : अवरट्ठिदिबंधझवसाणट्ठाणा असंखलोगमिदा । अहियकमा उक्कस्सद्विदिपरिणामोत्ति णियमण ॥९४९।। जघन्यस्थितिबंधाध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकमितानि । अधिककमाण्युत्कृष्टस्थिति. १० परिणामपध्यंत नियमेन ॥ जघन्यस्थितियंतःकोटोकोटिसागरोपममदक्क संख्यातपल्यंगळप्पुवु। ५१। तदुत्कृष्टस्थिति मोहनीयक्के सप्ततिकोटोकोटिसागरोपममदक्के जघन्यस्थितियं नोडलु संख्यातगुणितपल्यंगळप्पुवु। ५११ । मध्यमस्थितिविकल्पंगळु एकैकसमयाधिकक्रमंगळप्पुवु। ई स्थितिविकल्पंगनितक्कु दोडे आदी । प १। अंते प ११ । सुद्धे । प। वढिहिदे । ५ । रूवसंजुवे १५ ठाणा।प१। एंदितु सवस्थिति निरंतरविकल्पंगलिनितप्पुवल्लि सर्वजघन्यस्थितिबंधाध्यव स्थितिबन्धस्थानेभ्य उपरितनानां कर्मणां स्थितिबन्धस्थानान्यधिकानि इत्यसंख्येयगुणत्वेन युज्यते अधस्तनाधस्तनकर्मणां स्थितिबन्धस्थानप्रायोग्यकषायेभ्यः, उपरितनोपरितनानां कर्मणामधिकस्थितिबन्धस्थानप्रायोग्यकषायोदयस्थानानामसमानानामनुपलंभेनासंख्येयगुणत्वानुपपत्तितः। नैष दोषः अधस्तनानामुदयस्थानेभ्य उपरितनानां कर्मणां उदयस्थानबहुत्वेनासंख्येयगुणत्वाविरोधात् ।।९४८॥ अथ जघन्यादिस्थितिविकल्पं प्रत्याह मोहनीयस्य स्थितिः जघन्यांतःकोटीकोटिसागरोपमासंख्यातपल्यमात्री ११ उत्कृष्श सप्ततिकोटाकोटि Arran सागरोपमा । ततः संख्यातगुणा प११ तद्वि कल्पा एतावंतः प ११ एतेषु सर्वजघन्यस्य स्थितिबन्धाध्यवसाय समाधान-यह दोष ठीक नहीं है। क्योंकि नीचेके उदयस्थानोंसे ऊपरके कर्मोके उदयस्थान बहुत होनेसे असंख्यात गुणे होने में कोई विरोध नहीं है। उक्त कथनका सारांश यह है कि अपने-अपने उदयसे होनेवाले आत्माके परिणामोंका नाम स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान है। २५ सो आयु आदि कर्मों के उदयस्थानोंसे नाम अादि कर्मोंके उदयस्थान बहुत हैं इससे असं. ख्यात गुणे कहे हैं ।।९४८॥ __ आगे जघन्य आदि स्थितिकी अपेक्षा स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंका प्रमाण कहते हैं ___ मोहनीय कर्मकी जघन्यस्थिति तो अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण है सो संख्यात पल्य ३० प्रमाण है । और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। यह जघन्य स्थितिसे Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३४५ सायस्थानंगळु असंख्यात लोकमात्रंगळप्पुवु । मेले मेले उत्कृष्टस्थितिपयंत चयाधिकंगळप्पुवु नियदिदं॥ अनंतरमा विशेषप्रमाणंगळं पेळवपरु : अहियागमणणिमित्तं गुणहाणी होदि भागहारो दु। दुगुणं दुगुणं वड्ढी गुणहाणिं पडि कमेण हवे ॥९५०॥ अधिकागमननिमित्तं गुणहानिर्भवेद् भागहारस्तु । द्विगुणं द्विगुणं वृद्धिर्गुणहानि प्रति क्रमेण भवेत् ॥ - तच्चयागमननिमित्तमागि गुणहानिभागहारमक्कुम तप्प गुणहानियें दोडे द्विगुणं द्विगुणितमप्प दोगुणहानि ये बुदर्थमा दोगुणहानियिंदं जघन्यस्थितिबंधनिबंधनाध्यवसाय प्रथमगुणहानि चरमनिषेकम १६ । भागिसुतं विरलु १६ तत्प्रथमगुणहानिसंबंधिचयप्रमाणमक्कु । १। मथवा १० तु शब्ददिदं रूयाधिकगुणहानियिदं प्रथमादिगुणहानिगळ प्रथमनिषेकंगळं भागिसुत्तं विरलु तत्तद्गुणहानिसंबंधिचयंगळप्पुवु। अदु कारणमागि गुणहानि प्रति चयंगळु द्विगुणंगळु क्रमदिदंमक्कुं | ९ | १८ | ३६ | ७२ । १४४ | २८८ | |--|-- --|---- |-- ८ । ८ । ८ ।८ ८ ८ | १ | २ | ४ | ८ १६ । ३२ स्थानान्यसंख्यातलोकमात्राणि तत उपरि उत्कृष्टपर्यंतं चयाधिकानि भवन्ति ॥९४९॥ ___ अधिकः चयः तमानेतुं विवक्षितगुणहानी चरमनिषेके दोगुणहानिः, तुशब्दात् प्रथमनिषेके रूपाधिक- १५ गुणहानिश्च भागहारो भवति । तत एव स गुणहानि प्रति द्विगुणद्विगुणक्रमेण स्यात् । तत्संदष्टिःसंख्यात गुणी है। उत्कृष्ट स्थितिमें-से जघन्यस्थितिको घटाकर उसमें एक मिलानेसे जो प्रमाण हो उतने स्थितिके भेद हैं। इन भेदोंमें-से सबसे जघन्य स्थितिबन्धके कारणभूत अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है। उससे ऊपर उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त नियमसे एकएक चय अधिक हैं। सो जघन्य स्थितिके कारण अध्यवसाय स्थानोंके प्रमाणमें एक चयका २० प्रमाण मिलानेपर जघन्यस्थितिसे एक समय अधिक स्थितिके कारण अध्यवसाय स्थानोंका प्रमाण होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त जानना ॥९४९॥ अधिक रूपको चय कहते हैं। उसे लानेके लिए विवक्षित गुणहानिमें अन्तिम निषेकको दो गुणहानिका भाग दीजिए। और 'तु' शब्दसे प्रथम निषेकको एक अधिक गुणहानिका भाग दीजिए। तब चयका प्रमाण आता है। जैसे अंकसंदृष्टिमें अन्तिम गुणहानिमें अन्तिम २५ निषेकका प्रमाण सोलह है। उसमें दूनी गुणहानिके प्रमाण सोलहका भाग देनेपर एक आता है। अथवा प्रथम निषेकका प्रमाण नौ है । उसको एक अधिक गुणहानि नौका भाग देनेपर भी एक आता है। वही उस गुणहानिमें चयका प्रमाण होता है। उससे प्रत्येक गुणहानिमें दूना-दूना चयका प्रमाण होता है; क्योंकि प्रत्येक गुणहानिमें आदि निषेक और अन्तिम निषेकका प्रमाण दूना-दूना होता है ।।९५०॥ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४६ गो० कर्मकाण्डे अनंतरमा भागहारभूतगुणहानिप्रमाणमं पेळदपरु : ठिदिगुणहाणिपमाणं अज्झवसाणम्मि होदि गुणहाणी । ाणागुणहाणिसला असंखभागो ठिदिस्स हवे ||९५१ ॥ स्थितिगुणहानिप्रमाणं अध्यवसाये भवेद्गुणहानिः । नानागुणहानिशलाका असंख्य भागः ५ स्थितेर्भवेत् ॥ ई कषायबंधाध्यवसायदो गुणहानिप्रमाणमं निते दोर्ड आलापापेक्षेपिदं स्थितिरचनेयोल पेळपट्ट दशकोटी कोट्यादिस्थितिग पेद प्रमाणमे स्थितिबंधाध्यवसाय गुणहानिप्रमाणमक्कुं । १५ ० परमार्त्यदिदमिनितक्कु पु११ मिदं द्विगुणिसिदोडे दोगुणहानियक्कुं - १११।२ नानागुण छे व छे छे व । छे a a la हा निशलाकाप्रमाणमंत स्थितिर्ग पेद नानागुणहा निशलाकाऽसंख्यातैकभागमक्कु । नाना | छे व छे १० मी नानागुणहानिशलाकेगळिदं स्थितियं भागिसिदोर्ड गुणहान्यायाममक्कुमप्पुदरिदमध्यवसायविजयदो गुणहानिप्रमाणं सामान्यालापापेक्षयिदं स्थितिगुणहानिप्रमागमे दु पेल्पटुर्द दवधारिसल्पडुगुमेकं दोडे नानागुणहानिशलाकेगल स्थितिय नानागुणहानिशलाकेगळं नोडलुम संख्यात १६ ८।२ ९ ረ १ ३२ ८।२ १८ ८ २ ६४ ८ ।८ ३६ प ८ ४ १२ १२८ ८।२ ७२ छे-व-छे a ८ ८ गुणहानिप्रमाणं तु प्रबन्धावसरे कर्मस्थित्युक्त गुणहानिप्रमाणवदत्र कपायध्यवसायेऽपि भवति - तदेव द्विगुणं दोगुणहानिः नानागुणहानिशलाकाप्रमाणं स्थितिनानागुणहानि प 2 ว छे-त्र-छे २५६ ५१२ ८।२ ८।२ १४४ २८८ ८ १६ पूर्व में बन्धके कथन में कर्मस्थितिकी रचनायें जैसे गुणहानिका प्रमाण कहा है वैसे ही यहाँ कषायाध्यवसायस्थानके कथनमें भी गुणहानिका प्रमाण जानना । अर्थात् पूर्व में कहा था कि स्थिति प्रमाण में नानागुणहानि शलाकाके प्रमाणका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वही गुणहानिका प्रमाण है वैसे ही यहाँ जानना । सो यहाँ जघन्यस्थितिसे उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त जितने स्थितिके भेदोंका प्रमाण है वही स्थितिका प्रमाण है । उसमें नानागुणहानि • शलाका के प्रमाणका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वही एक गुणहानि आयामका प्रमाण जानना । उससे दूना दो गुणहानिका प्रमाण जानना । तथा नानागुणहानिका प्रमाण, स्थिति रचना में जो नानागुणहानिका प्रमाण कहा था उसके असंख्यातर्वे भाग जानना । सो विव ८ ३२ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १३४७ गुणहीनंगळे दु पेळल्पटुवापुरिदमा नानागुणहानिळिंदं स्थितियं भागिसिवोर्ड गुणहान्यायाममप्पुरिदं ॥ अनंतरमा स्थितिबंधाध्यवसायविषयप्रचयमु महाराशियक्कुमेक दोडा प्रथमगणहानिसंबंधिजघन्यचयस्थानंगळोळसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानवारंगळप्पुवेदु पेळ्वपरु : लोगाणमसंखपमा जहण्णउड्ढिम्मि तम्हि छट्ठाणा । ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं होंति सत्तण्डं ॥९५२॥ लोकानामसंख्पप्रमाणं जघन्यवृद्धौ तस्यां षट्स्थानानि । स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानां भवेयुः सप्तानां ॥ आयुज्जितज्ञानावरणादिसप्त मूल प्रकृतिगळस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळ प्रथमाविगणहानिगळ प्रचयंगळो प्रयमगुणहानिजघन्यवृद्धिप्रमाणं पेळल्पटुदवरोळु असंख्यातलोकमात्रषट्- १० स्थानवारंगळप्पुवु॥ अनंतरमायुष्यस्थितिबंधाध्यवसायंगळोळ विशेषमं पेब्दपरु : आउस्स जहण्णहिदिबंधणजोग्गा असंखलोगमिदा । आवलियसंखभागेणुवरुवरि होति गुणिदकमा ॥९५३॥ आयुषो जघन्यस्थितिबंधनयोग्या असंख्यातलोकमिताः। आवल्यसंख्यभागेनोपर्योपरि १५ भवेयुग्गुणितक्रमाः॥ शलाकानामसंख्यातकभागः नाना छे-व-छे ॥९५१॥ तज्जघन्यचयस्य महत्त्वं दर्शयति - a विनायुः सप्तमूलप्रकृतीनां स्थितिबन्धाध्यवनायस्थानानां सर्वगुणहानिप्रचयेषु प्रथमो जघन्यवृद्धिः तत्रासंख्यातलोकमात्रषट्स्थानवारा भवन्ति ॥९५२॥ आयुःस्थितिबन्धाध्यवसायेषु विशेषमाहक्षित मोहनीयकी स्थिति रचनामें नानागुणहानि शलाकाका प्रमाण पल्यके अर्द्धच्छेदोंमें-से २० पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेद घटानेपर जो प्रमाण हो उतना कहा था। उसमें असंख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाण रहे वही यहाँ कषायाध्यवसायकी रचनामें नानागुणहानिका प्रमाण जानना। विशेषार्थ-स्थितिरचनामें जैसे अंकसंदृष्टि के द्वारा कथन किया था वैसे ही यहाँ भी जानना । यहाँ जो स्थितिके भेदोंका प्रमाण है वही स्थितिका प्रमाण जानना। जितना गुण- २५ हानि आयामका प्रमाण है उतने जघन्यसे लेकर जो स्थितिके भेद हैं उनमें प्रथम गुणहानि जानना। तथा जघन्यस्थितिका कारण जो अध्यवसायोंका प्रमाण है वही प्रथम निषेकका प्रमाण जानना। उसमें एक चय मिलानेपर एक समय अधिक जघन्यस्थितिके कारण अध्यवसायोंके प्रमाणरूप दूसरा निषेक होता है। प्रथम निषेकमें एक अधिक गुणहानि आयामका भाग देनेपर जो प्रमाण हो वही चयका प्रमाण है। इस प्रकार एक-एक चय ३० अधिक प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेक पर्यन्त जानना। उसके ऊपर उतने ही स्थितिके भेदोंकी दूसरी गुणहानि होती है। उसमें भी निषेक चय आदिका प्रमाण प्रथम गुणहानिसे दूना जानना। इसी प्रकार अन्तकी गुणहानि पर्यन्त जानना ॥९५१।। आगे जघन्य चयका महत्त्व दिखाते हैं Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे आयुः कर्मक्के सजघन्यस्थितिबंध योग्यंगळप्प अध्यवसायस्थानंगळ असंख्यात लोकमितंगarya | द्वितीयादिस्थितिविकल्पंगळोळु मेले मेले आवल्यसंख्यातैकभागदिदं गुणितक्र मंगळप्पुवल्लि स्थितिगे षोडशक संदृष्टि । असंख्यात लोकक्के अंकसंदृष्टि द्वाविंशति । २२ । आवल्यसंख्यातगुणकारक्के नाल्कु रूपुगळु संदृष्टि : -- २२|४|१ | २२|४/२ २२४१३ ६ १३४८ जं | २२ अनु ४ अनु ५ अनु ६ अनु ७ ५ ६ ७ २२।४४७ ७ २२।४:४-१ ४ २२४-१ २२/४१५-१ ५ ६ ७ | २२।४।२-१ | २२|४|३|१ | २२|४|४-१ २२।४।६-१ २२४१८ ४ २२|४|१ ५ 6 २२|४|४ ४ ७ २२४-१ ४ ५ ६ २२/४१-१ | २२|४१२ = १ २२२४१३-१ २२|४|४|१ ४ ५ ७ ६ ४ २२४२-१ २२|४|१ २२/४/२/१ | २२|४|३|१ २२|४|४|१ २२|४|१ २२/४१६-१ २२|४|५|१ ५ २४१ ६ २२४२११२२४१३ । १ ७ ૪ ५ ७ ६ ४ २२|४|१ | २२।४।२।१ २२|४|३|१ २२|४|४|१ | २२|४|१ २२।४।५-१ ६ ७ ४ २२|४|३१ | २२|४|४|१ | २२|४-१ २२।४१७-१ २२१४१५१-१ | ४ | ५ २२।४।२।१ २२/४/६ ६ २२|४|३|१ २२१४१९ |२२|४| १० | २२|४|११| २२|४|१२| २२|४|१३ २२।४।१४ | २२|४|१५ 60 आयुः कर्मणः सर्वजघन्यस्थितिबन्धयोग्याध्यवसायस्थानान्यसंख्यातलोका भवन्ति । द्वितीय दिस्थितिविकल्पेष्वावल्यसंख्यातैकभागेन गुणितक्रमाणि भवन्ति । तत्रांकसंदृष्ट्या स्थिति: षोडश १६ । असंख्यात लोको द्वाविंशतिः २२ । अ वल्यसंख्यातश्चतुष्कं ४ । अनुकृष्टिपदमपि चतुष्कं । ४ । संदृष्टिः आयुके बिना सात मूलप्रकृतियोंके जो स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हैं उनके सर्व गुणहानि सम्बन्धी प्रचयोंमें जो प्रथम जघन्य वृद्धि होती है उसमें असंख्यात लोकप्रमाण १० पट् स्थानपतित वृद्धियाँ होती हैं ||९५२|| आयुकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसायों में विशेषता बतलाते हैं आयुकर्म की सबसे जघन्य स्थितिबन्धके योग्य अध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । उसको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जघन्यसे एक समय अधिक दूसरी स्थिति के योग्य अध्यवसाय स्थान होते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त क्रमसे Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३४९ इल्लि आयुस्थितिबंधाध्यसायंगळोळु जघन्यस्थितिबंधयोग्यासंख्यातलोकमात्राध्यवसायस्थानं मोदल्गोंडावल्यसंख्यातगुणितक्रमदोत्कृष्टस्थितिबंधाध्यवसायंगळ संबंधि अनुकृष्टिखंड. गळोळु सर्वजघन्यस्थितिबंधप्रायोग्यासंख्यातलोकमात्राध्यवसायंगळगंकसंदृष्टि द्वाविंशतियप्पुरिंदमनुकृष्टिपदक्कंकसंदृष्टि नाल्कुरूपुगळप्पुवल्लि चयधन । ६ । होनं द्रव्यं । २२ । ६। पदभजिदे होदि आदिपरिमाणं १६ लब्धं नाल्कु रूपुगळप्पुवा नाल्कुं रूपुगळु आविप्रमोणमक्कुं। तत्तो । | Vज । २२ २२ । ४ । १ २२ । ४ । २ । २२ । ४ । ३२२ । ४ । ४ २२ । ४ । ५ २२ । ४ । ६ _ २२।४-१ २२।४।२-१ २२।४।३- अन ४ २२।४-१ | २२॥४॥२-१ अनु ५ ६ २२।४-१ २२।४।२-१ २२१४।३-१ २२।४।४-१ - ५ अन ६ | २२ । ४-१ २२।४।२-१ २२।४।३-१ २२।४।४-१ २२४-१ २२।४।५-१ अनु ७ २२ । ४-१ २२।४।२-१ ४-१/२२।४।५-१२२।४।६-१ । २२।४।१-१० २२।४।२-१।२०१४॥३-१ २२ २२ । ४ । ७ २२ । ४।८।२२।४।९।२२।४। १० २२ । ४ । ११ २२ । ४। १२ २२।४। १३ २२।४।४-१ २२।४।१४ २२ । ४।१५उ २२।४-१ २२।४।५-१ २२।४।२-१ २२।४।६-१ २२।४।३-१ | २२१४७-१ तत्र चय ६ हीनद्रव्यं २२-६ । पदभक्त १६ जघन्यस्थिति जघन्यानुकृष्टिखण्डं स्यात् । ४ तत आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित अध्यवसाय स्थान होते हैं। इस कथनको अंकसंदृष्टिसे दिखाते हैं आयुकर्मको स्थितिके भेद संख्यात पल्यप्रमाण हैं। उनकी कल्पित संख्या सोलह १६ मान लीजिए। जघन्यस्थितिके योग्य अध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकप्रमाणकी संख्या , १० वाईम मान लीजिए। द्वितीय आदि स्थितिमें गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ܘܕ १३५० गो० कर्मकाण्डे विसेस अहियकमम वितु जघन्यस्थितिजघन्यानुकृष्टिखंडं मोदल्गोंडु उत्कृष्टखंड पय्यंत मेकैकचवा. धिककर्मादिदं स्थापित्तं विरला द्वाविंशति रूपुगळं संपूर्णंगळवु । ४ । ५ । ६ । ७ ॥ मतं द्वितीय स्थिति विकल्पबंध प्रायोग्यंगळि | २२ । ४ । विल्लिएकरूपं तेगेवु बेरे स्थापिसि । २२ । १ । अवशिष्टमिदु । २२ । ४-१ मत्तमा उद्धृतरूपं । २२|१| मुनिनंर्त विभागिसि मोबल्गोंड स्थापिसिदोडितिवु । ५|६|७ | अवशिष्टचतुष्टयमनिवर । २२ । ४ । – १ । मेलिरिसि कर्डयोळु स्थापिसिदोत्कृष्ठतं डर्मितिक्कु २२/४ २२ । ४-१ मत्तं तृतीयस्थितिविकल्पबंधप्रायोग्यंगळिवरोळु । २२ । ४ । ४ । मुनिनंर्तकरूपतेर्गदु बेरिरिसि । २२ । ४ । १ । अवशिष्टमनिदं । २२ । ४ । ४ - १ | कर्डयोळु बरेदु मत्तमा तेर्गेदिरिसिद रूप । २२।४।१। मिदरोळ एकरूपतेगेदु बेरिरिसि । २२ । १ । अवशिष्टमनिदं । २२ । ४ । १ । उपो लिरिसिडुगुं । मत्तमा बेरिरिसिदुदनिदं । २२ । १ पूर्ववद् विभागिसि । ४ । ५ । ६ । ७ । उत्कृष्टखण्डपर्यंतमेकैकचयाधिकक्रमेण दत्ते ५ । ६ । ७ । द्वाविंशतिरूपाणि परिसमाप्नुवन्ति । द्वितीयविकल्पे तत्प्रायोग्याणीमानि २२ । ४ । अत्रैकभागं गृहीत्वा २२ । १ । विभज्य पंचादितो दत्वा ५ । ६ । ७ । अवशिष्टे चतुष्कं बहुभागस्य २२ । ४-१ । उपरि दत्ते उत्कृष्टखण्डं स्यात् । ૪ २२ । ४-१ तृतीयविकल्पे २२ । ४ । ४ । एकभागं गृहीत्वा २२ । ४ । १ । शेषं २२ । ४ । ४-१ | अन्ते दत्त्वापनीत१५ भागे २२ । ४ । १ मध्येकभागमुद्धृत्य २२ । १ । शेष २२ । ४-१ | मुपान्ते दत्त्वोद्धृतैकभागं २२ । १ । उसका प्रमाण चार मान लीजिए । नीचेकी स्थितिके बन्धके कारण अध्यवसाय स्थानों में और ऊपर की स्थिति के बन्धके कारण अध्यवसाय स्थानोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा समानता भी पायी जानेसे यहाँ अनुकृष्टिका विधान भी सम्भव है । क्योंकि ऊपर और नीचेमें समानताका नाम ही अनुकृष्टि है । सो अंकसंदृष्टि में अनुकृष्टिके गच्छका प्रमाण चार जानना । २० स्थितिकी रचना तो ऊपर-ऊपर होती है और एक-एक स्थितिरचनाके बराबर में अनुकृष्टि रचना होती है । जघन्यस्थितिकी अनुकृष्टिमें चयका प्रमाण एक है । चयधन छह है। प्रथम स्थितिके द्रव्य बाईस में छह घटानेपर सोलह रहे । उसमें अनुकृष्टि गच्छ चारका भाग देने पर चार पाये । यही जघन्यस्थिति में अनुक्रुष्टिका जवन्य खण्ड है । इससे उत्कृष्ट खण्डपर्यन्त एक-एक चय अधिक होता है । सो दूसरे, तीसरे, चौथे खण्डका प्रमाण पाँच, छह, सात २५ क्रमसे जानना । चारों खण्डोंका जोड़ बाईस होता है । स्थिति के दूसरे भेदका भी द्रव्य बाईस और चौगुने अध्यवसाय होनेसे अट्ठासी हुए। उनमें से एक भाग बाईसको लेकर पहले आदि अनुकृष्टि खण्डों में क्रमसे पाँच, छह, सात दो । शेष रहे चार तथा तीन बाईस = ६६ | उनको अन्तिम चतुर्थ उत्कृष्ट खण्डमें देनेसे सत्तर हुए। सब मिलकर अट्ठासी हुए । तीसरे स्थिति भेदमें अध्यवसाय बाईसका दो बार चौगुना है । अतः तीन सौ बावन हुए। उसमें से ३० एक भाग चौगुना बाईसको जुदा रखकर शेष चौगुना बाईसका तिगुना अर्थात् दो सौ चौंसठ अन्तके खण्ड में दो । और जुदे रखे चौगुना बाईस में से एक भाग बाईसको जुदा रखकर शेष तीन गुणा बाईस अर्थात् छियासठ तीसरे खण्डमें दो । जुदे रखे बाईस में से पहले और दूसरे Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदोपिका १३५१ इवरोळ तिथ्यं चनानिमित्तभागि षट्सप्तकंगळं । ६ । ७ । मोदल्गों डु बरेदु अवशिष्ट चतुःपंच कंगळं ४ ५ ४ । ५ । क्रमविंदमुपांत्यांतंगळ मेले बरेदोडिति । २२ ।४–१ । २२ । ४ । ४ । १ । मत्तं चतुत्थं स्थिति विकल्पबंधप्रायोग्यंगळिवरोळ | २२|४|४|४ | येकरूपं तेर्गदोडिनु । २२ । ४ । ४-१ । अवशिष्टमनिद । २२ । ४ । ४ । ४ । १ । नंदोळु बर्रदु मर्त्त तेगेदेकरूपिनोळिवरोल । २२ । ४ । ४ । १ एकरूपं तेगेदु बेरिरिसि । २२ । ४ । १ । शेषमनिद । २२ । ४ । ४ । १ । नुपत्यदो ५ बर्रदु मत्तं बेरिरिति देकरूपिनोदि । २२ । ४ । १ । मत्तमेकरूपं तेगेदु बेरिरिसि । २२ । १ । शेषमनिदं द्वितीयखंडदोळ बरेदु एकरूपनिदं मुन्निनंर्त विभागिति । ४ । ५ । ६ । ७ । सप्तकम | ७। नादियोबरेदु शेषचतुःपंचषट्कंगचं द्वितीयतृतीयचरमखंडंगळ मेलिरिसिदोडितिप्पुंवु । ४ ६ ૨૪. २२ । ४ – १ । २२ । ४ । ४–१ । २२ । ४ । ४ । ४ - १ । पंचमस्थितिविकल्पबंधप्रायोग्यंगळिप्राग्वद्वभज्य ४ । ५ । ६ । ७ । षट्सप्तांको क्रमेणादितो दत्वा चतुष्पं वाकौ ४ । ५ । उपान्यान्त्ययोरुपरि १० दद्यात् । ४ २२ । ४-१ चतुर्थविकल्पे २२ । ४ । ४ । ४ । एकभागमुद्धृत्य २२ । ४ । ४ । १ । शेष २२ । ४ । ४ । ४–१ । ५ मन्ते दत्वोद्धृतैकभागे २२ । ४ । ४ । १ ऽप्येकभागमुद्धृत्य २२ । ४ । १ शेषं २२ । ४ । ४-१ । उपान्ते २२ । ४ । ४–१ दत्त्वोद्धृतैकभागे २२ । ४ । १ ऽप्येकभागं गृहीत्वा २२ । १ शेषं २२ । ४-१ द्वितीयखण्डे दत्त्वकभागं पूर्ववद्विभज्य ४ । ५ । ६ । ७ सप्तांक ७ मादौ दत्वा चतुष्पंचषडंकान् द्वितीयतृतीयचरमाणमुपरि दद्यात् । ५ ६ ४ ७ २२ । ४-१ । २२ । ४ । ४-१ । २२ । ४ । ४ । ४-१ एवं १५ खण्ड में क्रमसे छह और सात दो । तथा तीसरे और चौथे खण्डमें जो पूर्व में दिया था उसमें चार और पाँच मिलाओ । ऐसा करनेसे प्रथम खण्ड में छह, दूसरे में सात, तीसरे में सत्तर और चौथे खण्ड में दो सौ उनहत्तर हुए। सबको जोड़नेपर ६+७+७०+२६९ = ३५२ तीन सौ बान हुए। चौथे स्थिति भेदमें बाईसको तीन बार चौगुना करनेपर चौदह सौ आठ अध्यवसाय हैं । उनमें से एक भाग बाईसका दो बार चौगुनाको जुदा रखकर शेष बाईसके २० दो बार चौगुनाको तिगुना करनेपर एक हजार छप्पन हुए। इसे अन्तके चतुर्थ खण्ड में दो । बाईका दो बार चौगुना जुदा रखा था उसमें से एक भाग बाईसका चौगुना रखकर शेष चौगुना बाईसका तिगुना दो सौ चौंसठ हुआ। । उसे तीसरे खण्ड में दो । जो बाईससे चौगुना जुदा रखा था उसमें से एक भाग बाईसको जुदा रखकर शेष तिगुना बाईस अर्थात छियासठ दूसरे खण्ड में देना । जो बाईस जुदा रखा था उसमें से सात प्रथम खण्ड में और २५ चार, पाँच, छह दूसरे, तीसरे, चौथे खण्ड में मिलाना। ऐसा करनेपर प्रथम खण्ड में सात, दूसरे में सत्तर तीसरे में दो सौ उनहत्तर और चौथे में एक हजार बासठ हुए। सबको जोड़नेपर ७+७०+२६९+१०६२ = चौदह सौ आठ हुए । क- १७० Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५२ मो० कर्मकाण्डे बरोळ । २२।४।४1४1४। एकरूपं तोदोडिदु । २२।४।४।४।१। अवशिष्टमनिवं । २२ । ४ । ४ । ४ । ४-१। चरमखंडवोळु बरंतु एकरूपमनिव । २२।४।४।४।१ | रोल मत्तमेकरूपं तेगे बेरिरिसि । २२ । ४ । ४ । १। शेषमनिद । २२ । ४।४।४।-१। नुपात्यंत. वोळु बरेदु एकभागमनिद । २२। ४ । ४।१। रोळेकरूपं तेगेदु बेरिरिसि। २२।४।१। ५ शेषमनिदं । २२ । ४ । ४-१। द्वितीयखंडदोळ बरेदु एकभागमिदरोळ । २२ । ४।१। एकरूपं तेगेडु बेरिरिसि । २२ । १। बहुभागमनिदं। २२ । ४ । १। प्रथमखंडबोळ बरेनु एकभागमनिदं । २२ । १। मुन्निनंते भागिसि।४।५।६।७। इदं प्रथमखंडं मोवल्गोंदु परमखंडपर्यंत मेले इरिसुत्तं विरलु क्रमदिनितिप्पु वु। २२ । ४-१। २२।४।४-१। २२ । । ४।४-१। २२।४।४।४।४-१। षष्ठस्थितिविकल्पबंधनिबंधनप्रायोग्याव्यवसायंगळिव. १० रोळ । २२। ४ । ४ । ४।४। ४ एकरूपं तेगेदु बहुभागमनिदं । २२ । ४।४।४।४।४।-१। चरमखंडदोळ बरेदु एकभागमिदरोळ । २२ । ४।४। ४।४।१। एकरूपं तेगेदु बहुभागमनि २२ । ४।४।४।४।-१। उपांत्यदोळ बरेदु शेषैकभागमिदरोळ । २२ । ४ । ४।४।१। द्वितीयखंडदोळ बरेदु एकरूपिनोळिदरोळ । २२ । ४।४।१। एकरूपं तेगबु शेषमनि प्रथमखंडदोळ बरेदु एकभागमिदरोळ । २२ । ४।१। एकरूपं तेगेदु शेषमनिदं । २२ । ४।१। १५ चरमखंडद मेलिरिसि एकभागमनिवं । २२ । १। पूर्वोक्तप्रकारविदं विरलिसि । ४ । ५।६।७। पंचक षट्कसप्तकंगळ क्रमर्दिवं प्रथमाविद्विचरमपथ्यं तं मेलिरिसि शेषचतुष्कर्म चरमखंडव मेलिरि. सुवुदंतिरिसुत्तं विरलु प्रथमादिखंडंगळितिप्पु । २२।४।४-१।२२।४।४।४-१२२।४।४।४।४-१ २२ ४-१ | २२ । ४।४।४।४।४-१ । सप्तमस्थितिपिकल्पबंधकारणंगळप्प कषायपरिणामंगळिवरोळु । २२ । ४।४।४।४।४।४। एकरूपं तेगेदु शेषमनिवं । २२।४।४।४।४।४।४।-१ पंचमविकल्पे २२ । ४-१। २२।४।४-१।२२। ४।४।४-१। २२ । ४।४।४।४-१ षष्टविकल्पे २२।४।४-१ २२ । ४।४।४-१ २२४।४।४।४-१ २२१४-१ २२ । ४।४।४।४।४-१ २० इसी प्रकार क्रमसे पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें इत्यादि अन्तके स्थिति भेदमें अनुकृष्टि रचना जाननी। सर्वत्र जो नीचेके स्थिति भेदके दूसरे, तीसरे, चौथे अनुकृष्टि खण्डमें हो वही ऊपरके स्थितिभेदके पहले, दूसरे, तीसरे अनुकृष्टि खण्डमें लिखना। ऊपरके स्थिति . Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३५३ चरमदोळु बरेदु एकरूपिनोळिदरोळ । २२। ४।४।४।४।४।-१। एकरूपं तेगदु शेषमनिद । २२ । ४।४।४।४। ४-१। नुपांतदोळ बरेदु एकरूपमिदरोळ । २२ । ४।४। ४।४।१। एकरूपं तेगद शेषमनिदं । २२ । ४।४। ४ । ४-१। द्वितीयखंडदोळ बरेदु एकरूपमिदरोळ, २२ । ४।४। ४ । १ एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । ४।४-१ । प्रथमखंडदोब्बरेद एकरूपमिवरोळ । २२ । ४ । ४ । १ । एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । ४---१। चरमखंडद मेलिरिसि एकरूपमिदरोळ । २२ । ४ । १ । एकरूपं तेगदु शेषमनिद । २२ । ४।-१। नुपांतदोळ मेल्लिरिसि एकभागमनिदं । २२ । १ । विरलिसि । ४।५।६।७। षट्कसप्तकंगळं । ६।७। क्रमविवं प्रथमद्वितीयखंउंगळ मेलिरिसि चतुष्कपंचकंगळ । ४। ५। क्रमदिदमुपांतांत. ५ खंडंगळ मेलिरिसिदोडे यथाक्रमदिदमितिप्पुव। २२ । ४। ४।४।-१ ५ २२।४।४ | २२ । ४।- १ २२। ४ । ४-१ २२।४।४।४।४-१ | २२।४।४।४।४।४-१२२। ४।४।४।४।४।४-१ अष्टमस्थितिविकल्पबंधयोग्याध्यवसायिगंलिवरोळ । २२ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ ।। ४ । ४। एक. १० रूपं तेग शेषमनिदं चरमखंडदोळ बरेदु। २२ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४-१। एकरूपमिवरोळ । २२ । ४ । ४ । ४।४।४ । ४-१ । एकरूपं तंगद शेषमनिदं । २२।४।४।४।४।४।४-१। उपांतदोळ बरेदु एकरूपमिदरोळ । २२ । ४ । ४ । ४ । ४।४।१। एकरूपं तेगद् शेषमनिदं द्वितीयखंडदोळ बरेदु । २२ । ४ । ४ । ४ । ४-१ । एकरूपमिदरोळ । २२ । ४ । ४ । ४।४।१। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । ४ । ४।४-१। प्रथमखंडदोळ बरेदु एकरूपमिदरोळ । १५ २२ । ४ । ४ । ४ । १। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । ४ । ४ । १। चरमखंडद मेलिरि. सुवुदु । एकरूपमिदरोळ् । २२। ४ । ४ । १। एकरूपं तेंगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । ४-१ । विचरमखंडद मेलिरिसि एकरूपमिदरोछ । २२ । ४ । १ । एकरूपं तंगदु शेषमनिदं । २२।४-१ । सप्तमविकल्पे २२ । ४।४। ४-१ २२। ४ । ४ । ४ । ४-१ । २२। ४-१ २२ । ४।४।४।४।४-१ २२-४ । ४-१ २२ । ४।४।४।४।४।४-१ २२ । ४-१ अष्टमविकल्पे २२।४।४।४।४-१ । २२। ४ । ४.। ४ । ४ । ४-१ भेदके सर्वद्रव्यमें-से तीनों खण्डोंका प्रमाण घटानेपर जो अवशेष रहे उसे चौथे खण्डमें लिखना। इस प्रकार नीचेकी स्थितिके और ऊपरकी स्थिति के अध्यवसायोंमें समानता पायी २० जाती है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी जीवके जिन अध्यवसायोंसे नीचेकी स्थिति बंधती है उन ही अध्यवसायोंसे किसी जीवके ऊपरकी स्थिति बँधती है। इस समानताके Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५४ गो० कर्मकाण्डे द्वितीयखंडद मेलिरिसि एकरूपमनिदं । २२। १। विरलिसि । ४।५।६।७। चतुष्कपंचक षट्कंगळ। ४।५।६। क्रमदिदं द्वितीयाविखंडगळ मेलिरिसि सप्तकम । ७। प्रथमांडव + २२।४।४-१ ..... २२।४।४।४।४।४। २२।४।-१ मेलिरिसिदोर्ड क्रमदिनिप्पु | २२।४।४।४।४-१।। २२ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४।-१। ६ । २२। ४।४। ४-१ | २२।४।४।४।४।४ । ४।-१ । २२ । ४।४। ४।४।४।४।४-१ ई प्रकारविदंनडेदु चरमोत्कृष्टस्थितिविकल्पस्थितिबंधाध्यवमायस्थानविकल्पंगविरोळ । २२। ४ । १५ । एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । १५-१ चरमानुकृष्टिखंडदोछु बरे एकरूपमिदरोळ् । २२ । ४।१४।-१। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२।४ । १४-१। उपांतखंडोल बरेद एकरूपमिदरोळु । २२। ४ । १३।१। एकरूपं तंगद शेषमनिदं । २२।४।१३-१। द्वितीय खंडदोळु बरेदु एकरूपमिदरोळु । २२। ४ । १२।१। एकरूपं तेगद बेरिरिसि शेषमनिदं । २२ । ४।१२-१। प्रथमखंडवोळ्बरे एकरूपमिदरोळ । २२ । ४ । ११।१। एकरूपं तंगद बेरिरिसि शेषमनिदं । २२।४।११-१। चरमडखंद मेलिरिसि एकरूपमिदरोळु । २२। ४।१०।१। एक. रूपं तेगबु बेरिरिसि शेषमनिदं । २२ । ४।१०-१। उपांतव मेलिरिसि एकरूपमिदरोळु । २२ । ४।९।१। एकरूपं तेग बेरिरिसि शेषमनिदं । २२ । ४ । १ द्वितीयखंडव मेलिरिसि एकरूपमिदरोळु । २२ । ४ । ८।१। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२।४।८-१। प्रथमखंड मेलिरिसि एकरूपमिदरोळु । २२। ४।७।१। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४।७-१। चरमखंडदो मेलिरिसि एकरूपमिदरोळु । २२ । ४।६।१। एकरूपं तेगद शेषमनिवं । २२।४।६-१। १५ उपांतद मेलिरिसि एकरूपमिदरोछ । २२॥ ४ । ५ । १। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४। ५।-१। द्वितीयखंडव मेलिरिसि एकरूपमिदरोछ । २२ । ४।४ । १ । एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२।४।४-१। प्रथमखंडव मेलिरिसि एकरूपमिदरोछ । २२ । ४ । ३ । १। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२।४।३।-१। चरमखंडद मेलिरिसि एकरूपमिदरोछु । २२। ४।२।१। एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२ । ४ । २-१ । उपांतदोलिरिसि एकरूपमिदरोछु । २२ । ४।१। २० एकरूपं तेगदु शेषमनिदं । २२।४-१। द्वितीयखं व मेलिरिसि एकरूपमनिदं । २२ । १ । २२ । ४।४-१ २२ । ४ । ४ । ४४ । ४।४-१। एवं गत्वा द्विचरमचरमविकल्पयोः २२।४।४।४-१ २२ । ४।४।४।४।४।४ । ४-१ । होनेसे ही अनुकृष्टि रचना कही है। किन्तु नीचेको स्थितिका जघन्य खण्ड ऊपरकी स्थितिके खण्डोंसे समान नहीं है। इसी प्रकार ऊपरकी स्थितिका सर्वोत्कृष्ट खण्ड नीचेकी स्थितिके खण्डोंसे मेल नहीं खाता। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका विरलिसि । ४ । ५ । ६ । ७ । ६तुष्कपंचकषट्कंगळं । ४ । ५ । ६ । क्रर्मादिदं द्वितीयादिखंडंगळोकिरिति शेषसप्तकमं । ७ । प्रथमखंडव मेलिरिसि उत्कृष्टायुः स्थितिबंधप्रायोग्य कषाय परिणामस्थानंगळ अनुकृष्टि प्रथमादिखं डंगळ परिणाम पुंजंगळ क्रमविनितिवु : : ૪ कृष्टि १६ स्थितिय कोष्ठगळ उपांतानुत्कृष्ट १५ ने स्थितिय कोष्ठ ७ ५ २२४१४-१ २२०४१ -१२२१४१४ -१ २२४१८-१ २२ ४/५ -१ २२ ४१६ -१ २२१४११२-१२२१४९ -१ २२|४|१०-१ २२।४।१३-१ | २२|४११४-१ ४ ७ ६ २२४१३ -१ २२२४१४ – १ २२।४।७ -१ २२।४८ -१ २२।४।११-१२२।४।१२ -१ ७ अन्तानुकृष्टिः - २२१४४ - १ २२।४८-१ २२।४।१२ - १ ६ उपान्तानुकृष्टिः - २२४४१३ - १ २२४१७-१ २२|४|११ - १ रचनेयं ताक स्थितिबंधाध्यवसायंगळु पेळल्पट्टुवनंतरं ज्ञानावरणादिसप्तप्रकृतिगोळ स्थितिबंधाध्यवसायंगळ पेल्पडुगुमर्द ते' दोर्ड मोहनीय कम्मं जघन्यस्थितियंतःकोटी कोटिसागरोपम ५ प्रमितमक्कु । सा अंतः को २ । अदु सागरोपमक्के पत्तु कोटीकोटियद्वारपल्यगला गुत्तं विरलु मोहनीयजघन्य स्थितियंतःकोटी कोटिसाग रोपमंगळगे नितद्वारवत्यं गळप्पूर्वदु त्रैराशिक मं माडिदोस १ । फ । १० । को २ । इ । सा । अंतः को २ । लब्धमोहनीयजघन्यस्थितिगिनितद्धारपत्यंगळवु । प १० । सा १ । को २ । सा अंतः को २ । इदनपर्वात्तसिदोर्ड सागरोपमक्के सागरोपम पोगि शेष पल्यंगळिनितवु । प १० । को २ । अंतः को २ । यिदं संख्यातपत्यर्म दु १० स्थापितल्पगु । प१ । मत्तमेकसागरोपमक्के पत्तु कोटोकोटियद्धारपल्यंगळागुतं विरल मोहनो ४ २२।४-१ २२४१५-१ २२४१९-१ २२.४।१३-१ २२|४| -१ २२ ४१५ -१ २२ ४१९ -१ २२|४|१३-१ ७ २२।४४-१ २२।४१८ - १ २२।४-१२-१ ६ २२।४।४।४-१ २२।४१७ -१ २२।४१११-१ २२/४११५-१ ५ २२४१४ -१ २२ ४१६ -१ २२|४|१०-१ २२|४|१४-१ ५ २२.४४-१ २२१४,६-१ ५ २२।४।४-१ २२।४।६-१ २२|४|१०-१ २२।४।१४-१ अायुषः स्थितिबन्धाध्यवसाया उक्ताः शेषकर्मणामुच्यन्ते तत्र मोहनीयस्य निरन्तर स्थितिविकल २२|४|१०-१ २२।४।१४-१ १३५५ इस प्रकार आयुके बन्धके अध्यवसाय कहे । शेष कर्मों के कहते हैं— 1 ४ २२।४-१ २२।४५-१ २२०४१९-१ २२।४।१३-१ ६ २२।४।४।४-१ २२।४।७-१ २२।४।११-१ २२।४।१५-१ उनमें से मोहनीयकी जघन्य स्थिति संख्यात पल्य प्रमाणसे लगाकर एक-एक समय १५ बढ़ते हुए उस जघन्य स्थिति से संख्यात गुणी उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त जो स्थितिके भेद होते हैं उनकी स्थिति रचना में ऐसा 4 आकार जानना । इसमें जो नीचेकी सीधी लकीर है उसे Î Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५६ गो० कर्मकाण्डे योत्कृष्टस्थिति सप्ततिकोटाकोटिसागरोपमंगळगे येनितद्धारपल्यंगळप्पुवेंदु त्रैराशिकम माडिदोडे । । सा। फा५ १० । को २ । इ। सा ७० को २। बंद लब्धं मोहनीयोत्कृष्टस्थितिगिनितद्धारपल्यंगळप्पुवु । प १० । को २ । ७० को २। यिनितुं पल्यंगळं जघन्यस्थितियं नोडलु संख्यात गुणितपल्यंगळेदु स्थापिसापटुदु । ५११। जघन्यस्थितियमेले समयोत्तरक्रमविंदमुत्कृष्टस्थिति. ५ पय्यंत निरंतरस्थितिविकल्पंगळितिप्पुवु : पश्पपपपपपप१०००० ० ΛΙΛΙΛΛ ΛΙΛΙΛΙΛ. ११ प१११११ प११ प११ १११ पश्प ११ इल्लि आदिप १ ते ५१।१। सुद्धे ५१।। वढिहिदे ५१।। स्वसंजुदे . ठाणा प॥ एदिनितुं मोहनीयस्थितिस्थानविकल्पंगळप्पुवु । स्थितिविकल्पंगळ नानागुण हानिकलार्क गलिई भागिसुत्तं विरलु गुणहान्याममक्कु पु.१० मिदं द्विगुणिसिदोडे दोगुणहानि व छ . ७ ६ ५ ४ ३ २ १ पश् ११११ प प ५१५१५१००००० ११३००० १११ १११११११११११११११११११ AAAAAAAA A MAA AAAA अस्यां नानागुणहानिशलाकाभिर्भक्तायां गुणहान्यायामः १ ११ अयं च द्विगुणितो दोगुणहानिः छ व छे १. आबाधाकालके समय जानना। उसके ऊपर प्रथम समयसे लगाकर अन्तिम समय पर्यन्त निषेक घटते जाते हैं। इसीसे नीचेसे चौड़ा और ऊपरसे सकरा आकार बनाया है। यहाँ जितने स्थिति के भेद होते हैं उन्हें मोहनीयकी स्थितिबन्धाध्यवसाय रचना स्थितिका प्रमाण जानना । उसको नानागुणहानि शलाकासे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसे गुणहानि १. अत्र आदी ५ १ अन्ते १११ सुद्धे ५११ वड्डिहिदे-५। १ रूवसंजुदे ठाणा 4212 अधिकोऽयं पाठः। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका ५३५७ यक्कुं ५११ नानागुणहानिशलाकेगळ्गे द्विकसंवर्गमं माडिदोडन्योन्याभ्यतराशियक्कुं प मोह छे व छे aaa नीयविवर्तयिदं कर्मस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळ द्रव्यम बुदक्कुं 32 पपप स्थितिविकल्पं. गळ स्थितियक्कुं। यिवर समुच्चयसंदृष्टि :| द्रव्य । स्थिति । गुणदो गुण । अको प व छे छे प११।२ पपपप aaa छेव छ ६३०० ४८ | गृ८ ।१६ । ६ । ६४ । इंतागुतं विरलु रूपोनान्योन्याम्यस्तराशियिदं द्रव्यम भागिसिदोडधिकसंकलनविवयिदं प्रथमगुणहानिद्रव्यमक्कुं = पपप द्वितीयादिगुणहानिद्रव्यंगळु द्विगुणद्विगुणक्रमदिदं पोगि ५ aaa चरमगणहानिद्रव्यमिनितक्कुं = ३ प प प अ ई सर्वगुणहानिद्रव्यंगळोल प्रथमगुणहानि १०. o aaaग २ १ प ११ । २। नानागुणहानिशलाकामात्रद्विकसंवर्गेऽन्योन्याभ्यस्तः ५ स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि द्रव्यं छे-व-छे पपप रूपोनान्योन्याभ्यस्तेन द्रव्ये भक्तेऽधिकसंकलनविवक्षया प्रथमगुणहानिद्रव्यं 3 पप aaa अ aaa द्वितीयादिगुणहानिषु द्विगुणद्विगुणं भूत्वा चरमायामेतावत् =३ प प प अ तत्र प्रथमगुणहानिद्रव्ये = a पपप अaaai अaaa आयाम जानना। यहाँ पल्यकी वगशलाकाके अर्द्धच्छेदोंसे हीन पल्यके अर्द्धच्छेदोंके प्रमाणका १० असंख्यातवाँ भाग गुणहानि शलाकाका प्रमाण जानना । गुणहानि आयामका दूना दो गुण हानिका प्रमाण होता है। तथा नानागुणहानि शलाका प्रमाण दोके अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण हो वही अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण है। सो पल्यके असंख्यातवाँ भाग प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि है। असंख्यात लोकको तीन बार पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हैं। वही यहाँ द्रव्यका १५ प्रमाण जानना। इस द्रव्यमें एक हीन अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९८ गो० कर्मकाण्डे द्रव्यमनिदं = पपप अखाणेण ग सम्वधणे खंडिवे मजिसमषणमागच्छवि = a पपप अ . अ aaa --0 तं रूऊण अद्धाण अद्धण ग ऊणेण णिसेयहारेण गु३ मज्झिमघणमवहरिदे पचयं २ तस्मिन् प्रचये अधिकसंकलनविवक्षया रूपाधिकगुणहान्या गुणिते प्रथम Daपपप ग ग ३ ... 37 a a a निषेको भवेत् = ० प प प ग एंवितिदु प्रथमनिषेकमक्कुं । द्वितीयादिनिषेकंगळेकैकचयाधि ००० गु गु ३ ५ कंगळागुतं पोगि प्रथमगणहानिचरमनिषेकं रूपोनगुणहानिमात्रचयंगळि नधिकमक्कुं पपप गु२ ई प्रकारविदं गुणहानि प्रति द्रव्यमं चयमुं द्विगुणद्विगुणंगळ रचनाविशेष गळागत्तं पोगि चरमगुणहानिद्रव्यमिदु = १५ प अ इदं अद्धाणेण सव्वधणे खंडिवे मज्झिम अ ०२ आदाणेण खडिदे मज्झिमघणमागच्छदि Da प प प तं रूऊणद्धाण ८ अद्धेण ८ ऊणेण णमेयभागहारेण अ daaगु ग ३ अवहरिदे पचयो : पप,- अयमधिक 2 पप संकलनविवक्षया रूपाधिकगणहान्या गु गु ३ व aaa २ अ.aa १० गणितः प्रथमनिषकः = पपप गु द्वितीयादिषेका एकैकचयाधिका भूत्वा चरमनिषको रूपोनगुणहानि अ aadगु गु ३ वही प्रथम गणहानिका प्रमाण है । इस प्रथम गणहानिसे द्वितीयादि गुणहानियोंमें अन्तकी गणहानि पर्यन्त दूना-दूना द्रव्य जानना। ___प्रथम गुणहानिके द्रव्यमें गुणहानि आयामका प्रमाणरूप गच्छका भाग देनेपर मध्यम धनका प्रमाण आता है। गच्छके बीचके निषेकोंके प्रमाणको मध्यमधन कहते हैं। मध्यम१५ धनको-एक हीन गुणहानि प्रमाणका आधाको निषेक भागहार जो दो गुणहानि है उसमें घटाकर जो शेष रहे उससे भाग देनेपर चयका प्रमाण होता है। यहाँ निषेकोंका प्रमाण Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका धणमागच्छवि = ० प प प अ तं रूऊणद्वाणद्वेण ऊणेण णिसेयहारेण मज्झिमधगमवहरिदे अ aaa ३ पचयं = प प प अ ई प्रचयमधिक संकलनविवक्षेयिदं रूपाधिकगुणंगळप्पुवु । गुणहानियिदं O . अ a.aa ३ गु २२ गुणिसिदोर्ड चरम गुणहानिप्रथम निषेकमक्कुं । o अ गु ३ कचयाधिकंगळा गुत्तं पोगि चरमगुणहानिचर मनिषेकदो रूपोनगुण हानिमात्र चयंगळु - o पप प अ ग ॰ ॰ ० २ गुळगु ं य गु ३ अ तं रूऊणद्वाणद्वेण ऊणेण णिसेयहारेणवहरिदे पचयो = पप प अ गु द्वितीयादिनिषेकंगळ एकै . अ अधिकंगळवु । कूडिदोडेधिक चरमनिषेकं दोगुणहानि मात्रचयंग मात्रचयाधिको भवति - पपपगु २ एवं गुणहानि गुणहानि प्रति द्विगुणद्विगुणचयाभ्यां रचनां कृत्वा naaa अ गु गु गु ३ २ चरमगुणहानी द्रव्ये प प प अ अद्धाणेण खण्डिदे मज्झिमधणम गच्छादि [aaa२ प्रथमनिषेकः पपप अगु aaa२ अ aaa गुगु ३ २ अ प प प अ aaa १३५९ 21 गुगु ३२ २ प प प अ aaa२ गु अ अयं रूपाधिकगुणान्या गुणित: द्वितीयादिनिषेका एकैकचयाधिका भूत्वा चरमनिषेको गुणा अधिक अधिक है अतः उस चयके प्रमाणको एक अधिक गुणहानि आयाम के प्रमाणसे करनेपर जो प्रमाण हो वही प्रथम निषेकका प्रमाण जानना । उसमें क्रम से एक-एक चय मिलानेपर द्वितीयादि निषेकोंका प्रमाण होता है । एक हीनं गुणहानि प्रमाण चय मिलनेपर अन्तिम निषेक होता हैं । प्रत्येक गुणहानिमें चयका प्रमाण दूना-दूना होता जाता है । इस प्रकार रचना करें। प्रथम गुणहानिके द्रव्यको अन्योन्याभ्यस्त राशि के आधे प्रमाणसे गुणा १. म ंडे डरै' | Jain Education Intern क- १७१ ५ ३० १५ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो. कर्मकाण्डे अंकसंदृष्टियु तोरल्पडुगुमन्नेवरमत्थसंदृष्टिय समुच्चय ळप्पुवु। ३० प प प अ गु२ रचयितु : - जप उप ११ प्रथम|| निषेक चरम । निषेक प्रथम | निषेक चरम || निषेक पपप गप्रथमगण पपप२ =पपपअ गुचर-मग पपपअगु २ aaa२ Baaaग गु३/ ०००००] अवगु गु ३ aaaa२गु गु ३००००० ग ग३ रूपोनगुणहानिमात्रचया पप अगु धिको भवति .aaa - अ ... गु गु ३२ पपप अगु २ a a a O गु गु ३२ समुच्चयरचना। जप उप ११ प्रथम निषेक चरम निषेक प्रथम निषेक चरम निषेक aप प प गु प्रथम गुण 2 प प प गु २ = a पपप अगु२ a प प प अ । गचरमग 3.0 अ aaa गु गु३॥ अ aaa २ गु गु ३ २००० अ aaa२ गु अ aaa गु गु ३| . ५ करनेपर अन्तिम गुणहानिमें द्रव्यका प्रमाण होता है। उसमें गुणहानि आयामरूप गच्छका भाग देनेपर मध्यमधन होता है। उस मध्यमधनमें एक हीन गच्छके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देनेपर चयका प्रमाण होता है। उसको एक अधिक गुणहानि आयामसे गुणा Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका संदृष्टियोल "रूऊणण्णोष्णन्भत्यवहिददव्वं तु चरिमगुणदव्वं" एंदु चरमगुणहानिद्रव्यमधिकसंकलन विवक्षे थिंदं प्रथमगुणहानिद्रव्यमिनितक्कुं । संदृष्टि ६३०० मेले चरमगुणहानिपतं ६३ द्विगुण लागि पोगि चरमगुणहानिद्रव्यमन्योन्याभ्यर तार्द्ध गुणितमक्कुं १०० । १ १०० । २ द्विगुणं द्विगुणं भूत्वा चरमगुणहानावन्योन्याभ्यस्तार्धगुणितं स्यात् १०० । १ १०० । २ १०० । ४ १०० १८ १०० । १६ १.० । ३२ १०० १४ १०० । ८ १०० | १६ १०० । ३२ प्रथमगुणहानिद्रव्यमं १०० अद्धाणेण खंडिदे मज्झिम धणमागच्छदि १०० तं रूऊण अद्धाण अद्वेण ऊणे णिसेयहारेण मज्झिमघणमवहरिदे पचयं १०० तं रूव हियगुणहाणिणा गुणिदे आदिणिसेयं ८ टाट १३६१ १००८ दिनपर्वात सिदोर्ड रूपाधिकगुणहानिमात्र चयंगळवु । द्वितीयादिनिषेकं एकैक ८। ८३ २ इल्लि अंक संदृष्टी ऊष्णोषण भत्थवहिददव्वं अधिक संकलन विवक्षया प्रथमगुणहानिद्रव्यं ६३०० उपरि ६३ अत्र प्रथमगुणहानिद्रव्यं १०० अद्धा खण्डि मज्झिमघणमागच्छदि १०० तं रूऊणद्वाणद्वेण ऊणेण णिसेयहारेण अवहरिदे पचयं १०० ८ तं वाहिय गुणहाणिणा गुणिदे आदिणिसेयो १०० । ८ अपवर्तितो रूपाधिकगुणहानिमात्रचयः स्यात् ८ ८ । ८ । ३ २ ८ । ८।३ २ ५ करनेपर प्रथम निषेक होता है । द्वितीयादि निषेकोंमें क्रमसे एक-एक चय अधिक होता है । एक होत गुणहानि प्रमाण चय मिलनेपर अन्तिम निषेक होता है । इस प्रकार स्थिति के भेदारी स्थितिन्धाध्यवसाय स्थानका बँटवारा कहा। अब इसी कथनको अंक संदृष्टि द्वारा दिखाते हैं सब स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान तिरसठ सौ हैं। उसमें एक हीन अन्योन्याभ्यस्त १५ राशि तिरसठसे भाग देनेपर सौ पाये । सौ प्रथम गुणहानिका द्रव्य जानना । सौमें गच्छ १० Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे ८ चयाधिकंगळागुत्तं पोगि प्रथमगुणहानिचरमनिषेकदोळु बोगुणहानिमात्र चयंगळप्पुवु । ८ । २॥ चरमगुणहानि द्रव्यमुमनिदं । ३२०० | गुणहानियिदं भागिसिदोडे मध्यमधनमक्कु ३२०० मा मध्यमधनमं रूपोनगुणहान्यर्द्धरहित दोगुणहा 'नियिदं भागिसिदोडे चरम गुणहानिसंबंधि प्रचयमक्कु ३२०० मिवं रूपोनगुणहानिर्थिवं गुणिसिबोर्ड चरम गुणहानिप्रथम निषेकमक्कुं ३२०० ॥८ १३६२ ८ ८३ २ ५ अपर्वात्ततमिदु ३२ || मेले द्वितीयादि निषेकंगळोळु एकै कचयाधिकमागुत्तं पोगि चरमगुणहानि चरम निषेकडो दोगुणहानिमात्रचयंगळवु । ३२ । ८ । २ । मितिनितकुं । संदृष्टि : ---- उ प ११ ज प १ AA ९।१०।११।१२।१३।१४।१५।१६।०००००।२८८ | ३२०। ३५२ । ३८४ । ४१६।४४८|४८०।५१२ द्वितीयादिनिषेकः एकैकचयाधिको भूत्वा चरमो दोगुणहानिमात्र चयो भवति ८ । २ चरमगुणहानी द्रव्यं ३२०० गुणान्या भक्तं मध्यमवनं ३२०० तदेव रूपोनगुणहान्यर्षोन दोगुणहान्या भक्तं प्रचयः ३२०० स एव रूपाधिक ८ गुणहानिना गुणितः प्रथमनिषेक: ३२०० । ८ टाटा३ २ -- ८ । ८ । ३ २ ८ । ८ । ३ २ १० एकैकचयाधिको भूत्वा चरमो दोगुणहानिमात्रच्यो भवति ३२ । ८ । २ संदृष्टिः अतः ३२ ।। ततो द्वितीयादिनिषेकः गुणहानि आठसे भाग देनेपर साढ़े बारह मध्यधन जानना । एक हीन गच्छ सातका आधा साढ़े को दो गुणहान सोलह में से घटानेपर साढ़े बारह रहे । मध्यधन में साढ़े बारहका भाग देने पर एक पाया सो चयका प्रमाण जानना । उसको एक अधिक गुणहानि के प्रमाण नौसे गुणा करनेपर न पाया । यही प्रथम निषेक जानना । द्वितीयादि निषेकोंमें एक-एक १५ चय अधिक होता है। एक हीन गुणहानिका प्रमाण सात है । सात चय मिलनेवर सोलह हुए । यही अन्तिम निषेक जानना । द्वितीयादि गुणहानियोंमें द्रव्य निषेक चय सब दूना-दूना होते हैं । अन्तिम गुणहानिमें प्रथम गुणहानिके द्रव्य सौको अन्योन्याभ्यस्त राशि के आधे बत्तीस से गुणा करनेपर बत्तीस सौ तो द्रव्य जानना । उसमें गच्छ आठसे भाग देनेपर मध्य धन चार सौ हुआ । उसमें एक हीन गुणहानिके आधेसे हीन दो गुणहानि के प्रमाण साढ़े २० बारहका भाग देनेपर बत्तीस पाया । वही चय जानना । द्वितीयादि निषेकों में एक-एक Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३६३ इंतु स्थितिविकल्पंगळुमवर स्थितिबंधाध्यवसायंगळं स्थापिसल्पटुवल्लि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळगे अनुकृष्टिविधानमुंदु पेळ्दपरु : पल्लासंखेज्जदिमा अणुकड्डी तत्तियाणि खंडाणि । अधियकमाणि तिरिच्छे चरिमं खंडं च अहियं तु ॥९५४॥ पल्यासंख्यातेकभागोनुकृष्टिस्तावन्मात्राणि खंडान्यधिकक्रमाणि तिर्यक्चरमखंडं ५ चाधिकं तु॥ जघन्यस्थिति मोदल्गोंडु तदुत्कृष्टस्थितिपयंतमिई स्थितिविकल्पंगळ स्थितिबंधाध्यवसायंगळगे प्रत्येकमनुकृष्टि विधानमुंटा अनुकृष्टि पदप्रमाणमेनित कुमें दोडे स्थितिबंधाध्यवसाय इदनपत्ति गुणहान्यायाममिदं प११ नोडलु संख्यातेकभागमक्कुमप्पुरिदं प ११ छे व छ छ व छे a a जप उप११ ९।१०।११।१२।१३ । १४ ।१५।१६।००००।२८८।३२०१३५२।३८४।४१६।४४८।४८०१५१२। १० तेषामनुकृष्टिविधानमाह अनुकृष्टिपदं पल्यासंख्यातकभागः प स्थितिबन्धाध्यवसायगुणहान्यायास्य छे-व-छे चय मिलाते हुए एक हीन गुणहानि प्रमाण सात चय मिलानेपर पाँच सौ बारह अन्तिम निषेक जानना । यह कथन अंक संदृष्टि से जानना । यहाँ भी प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकरूप अध्यवसाय स्थान जघन्य स्थितिके १५ कारण जानना। द्वितीय निषेक प्रमाण अध्यवसाय स्थान एफसमय अधिक स्थिति के कारण जानना। इसी प्रकार अन्तिम गणहानिके अन्तिम निषेक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान उत्कृष्ट स्थितिके कारण जानना ॥९५३।। ___ यहाँ एक स्थिति भेद सम्बन्धी अध्यवसायोंमें नाना जीवोंको अपेक्षा खण्ड पाये जाते हैं । अथवा किसी जीवके जिन अध्यवसायोंसे नीचे की स्थिति बँधती है किसी अन्यके २० उन्हींसे ऊारकी स्थिति बँधती है। इस प्रकार ऊपर-नीचेमें समानता होनेसे अनुकृष्टि विधान कहते हैं स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानों में जो गुणहानि आयामका प्रमाण कहा है उसमें संख्यातका भाग देनेपर पल्यका असंख्यातवाँ भाग होता है। उतना ही अनुकृष्टि रचनामें गच्छका प्रमाण जानना। उतने ही अनुकृष्टिके खण्ड होते हैं। विवक्षित भेदरचनामें उन खण्डोंकी २५ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १३६४ गो० कर्मकाण्डे सिदोर्ड पल्या संख्यातैकभागमक्कुमेंदु पेळल्पदुदु प अनुकृष्टिखंडंगळं तावन्मात्रंगळे यप्पुवंतागुत्तळं a तिर्व्यक्कागिचयाधिकक्र मंगळ पुर्वन्नेवरं चरममन्नेवरं अंतुचयाधिकक्र मंगळादोडं स्वस्वजघन्यानुकृष्टिखंडमं नोडलुं स्वस्वोत्कृष्टानुकृष्टिखंडं विशेषाधिकमेयक्कुं । द्विगुणत्रिगुण मागदे बुदस्थं ॥ आविशेषप्रमाण विज्ञापनात्थं मुंदणगाथासूत्रमं पेदपरु । : २० लोगाणमसंखमिदा अहियषमाणा हवंति पत्तेय । समुदायेणवि तच्चिय ण हि अणुकेड्ढिम्म गुणहाणि ॥ ९५५ ॥ लोकानाममसंख्य मितान्यधिकप्रमाणानिभवंति प्रत्येकं । समुदायेनापि तावन्मात्रं न ह्यनु त्कृष्टौ गुणहानिः ॥ अनुकृष्टि तिर्थ्यक् प्रचयप्रमाणंगळं गुणहानिं प्रत्येकमसंख्यातलोकप्रमाणंगळप्पुवु । १० सामान्यदिदं ० प प प 4 62 अ ० ० ० गु गु ३ प्रति द्विगुणद्विगुणंगळादोडमाळापएतदोडे प्रथमगुणहानिप्रचयमनिदं अणुपदे हिदे पचये पचयंतु होदि तेरिच्छे एंदित नुकृष्टिपर्दादद मूर्ध्वप्रचपमं भागिसिदोडेतिर्य्यगनुकृष्टि प्रचयप्रमाणमक्कु पपप O अ aaa ग ग ३ प २ दोडसंख्यात लोकमात्र मक्कुमप्युर्दारदमधिक प्रमाण संख्यात लोकमात्रमे दितु पेल्पटु । ईयसंख्यात a १५ तज्जघन्यात्तदुत्कृष्टविशेषाधिकमेव न द्विगुणादि ॥ ९५४ ॥ तद्विशेषप्रमाणं ज्ञापयति- .0 a संख्यातैकभागे प । १ । १ अपवर्तिते तत्सिद्धे । अनुकृष्टिखंडानि तावन्ति तिर्यक् स्याधिकक्रमाणि । तथापि छे-व-छे मिदनपर्वात्तसि अनुकृष्टिप्रचयस्य गुणहानि गुणहानि प्रति द्विगुणत्वेऽपि तत्प्रमाणान्याला पनामान्येन प्रत्येकमसंख्यात लोका रचना तिर्यकरूपसे बराबर में होती है। तथा प्रथम खण्ड से लेकर क्रमसे उनमें एक-एक चय अधिक होता है, फिर भी जधन्य प्रथम खण्डसे उत्कृष्ट अन्तिम खण्ड कुछ अधिक प्रमाणवाला है, दुगुना-तिगुना नहीं है ||९५४ || उस विशेष प्रमाणको कहते हैं अनुकृष्टिका चय प्रत्येक गुणहानिमें दूना-दूना होता है फिर भी सामान्यसे असंख्यात लोकमात्र है; क्योंकि विवक्षित गुणहानिकी ऊर्ध्वरचना में जो चयका प्रमाण है उसमें अनुकृष्टि गच्छका भाग देनेपर अनुकृष्टि के चयका प्रमाण आता है, सो स्थूलरूप से असंख्यात लोकप्रमाण ही है । उसमें प्रथम खण्डसे एक-एक चय अधिक द्वितीयादि खण्ड होते हैं । २५ १. मु. अणुकिट्टिम्मि । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिका १३६५ लोकमात्रप्रचर्यादिदं खंडंगळ प्रत्येकमधिकंगलादोडमा चयसहितमागियुं तावन्मात्रमेयक्कुम संख्यातलोकमात्रमेव मनंतमा गर्दे बुदत्थं । मेर्क दोडसंख्यात लोकं गळ संख्यात लोकमात्र विकल्पंगळपुदरिंद| म कारणदिदं तिर्य्यगनुष्टिपददोळ गुणहानि में बुदिल्ले दु पेळपट्टुडु । सर्व्वखंडंगळु उत्कृष्टंगळ रूपोनपदमात्रचयाधिकंगळप्पुदरिंदं । यितनुकृष्टिपदमुमनुकृद्विचयमुमरियल्पडुत्तं विरल इन्ननु कृष्टिखंडंगलो स्थितिबंधाध्यवसायंगल पेल्पडुगु | मदे' ते 'दोडे मोहनीय सर्व्वस्थितिविकल्पंगळोळ प्रत्येक मूद्ध्वं रूपदिनि स्थितिबंधाध्य व सायंगळनुत्कृष्टिरचने बरेदु बळिक्कं पेळल्पडुगुं । <= Δ =D उत्कृष्ट स्थितिगुणहानि चरम १६ गुणहानि द्विचरम १५ O ० हानि द्वितीयस्थिति १० गुणहानि प्रथमजघन्यस्थिति क ९ o अ पप प ग २ = ०पपपगु २ o अaaaगु गु ० aaa पप प गु अaaaगु गु ३ २ ० ००० पपप गु अ aaa गु गु ३ २ = पपपगु २ प o १-३।२ raaa गुगु३प २ ० = पपप गुर प 이 अ aa a ० २ पपप ग अ aaa ग ام = पपप गु ० अ गु गु ३ २ O alR प २ प a एव भवन्ति । तत्तद्गुणहान्यूर्ध्व प्रचये तदालापेऽनुकुष्टिपदेन भक्ते तत्तत्प्रमाणत्वप्रसिद्धः । तेन तेनाधिकखंडान्यपि तदालापानि । असंख्यात लोकानामसंख्यात कवित्वात् । न चानुकृष्टदे गुणातिरस्ति सर्वेषामुत्कृष्टखंडानां रूपोनपदमात्रचयैरेवाधिक्यात् । एवमनुकृष्टेः पदत्रयी ज्ञापयित्वा तत्खंडेषु स्थितिबन्धाध्यवसाया उच्यन्ते । तद्रचितसंदृष्टिरियं १० तथापि उन सबका प्रमाण असंख्यात लोक ही कहा जाता है; क्योंकि असंख्यात लोकके भेद भी असंख्यात लोक ही होते हैं। तथा अनुकृष्टि के गच्छ में गुणद्दानि रचना नहीं है; क्योंकि सर्वोत्कृष्ट खण्डों में जघन्य खण्डसे एक हीन गुणहानिके गच्छ प्रमाण चयोंकी अधिकता पायो जाती है। इस प्रकार अनुकृष्टि के गच्छ और चयका प्रमाणबतलाकर उस अनुकृष्टिके खण्डों में स्थितिबन्धाध्यवसायोंका प्रमाण कहते हैं ५ १५ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे ३ = पपप ग २- प पपप ग प = पपप ग २ -०२. ० ० वा२० -- aaaa ग ग ३ अaca ग ग३ प प अ अ aa ० ग ग ३ २ ।। प २०००००० प '२ । प पा ग २ प - aa ग ग३ प २ पप ग २ प = पपप ग २, --- २.० - yaaa गु गु गु३ प अ da a गु गु ३ २ २ ०००००० प ७०० 100. ००००००→ +--- २ ० . al२ ० ३- - - Daपपपग पपपप गपपपप -- al२| अ aaa ग ग३ प अaaa ग ग३ प अ daa ग ग ३ २० २- - Eaप प प ग प पपपना प = प प प गु - २.० - - २ अ aaग ग३ अBaaगग३ प अ aaaग २ | २ व प २० a उ गुणहानिचम्म १६ =पपप गु२ अ गु गु ३ = - अ २ प प प ग २-१ - व गु गु ३ प २ गुणहानिद्विचम्म १५ Barपप = २ अ daa गु गु ३ प प प गु २- प -- aa । गु गु ३ प २ । अ गुणहानिद्वितीय स्थिति १० पप १. अ aaaगु गु ३ २ गुणहानि प्रथम जपन्जस्थिति ९ । = पपप - a aaaगु गु ३ प २ १प प प ग १- २ गु गु ३ प २० | 4 Raaaग गु ३ ! अ मलघनं Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३६७ पदहतमुखमादिधनं व्येकपदाद्ध चयगुणोगच्छ उत्तरधनं १प ग२ प पपप ग २- प प| प प प प प प २१० १ ०१२ प अBaa गु ग३ अaaat Saप.प पचय -- अ aaa ग ग ३ =aप प प प प ग२ १ - १प = प प प ग २- प प = २ १० १- २९ १० १२ । प अ aaa गु गु३ प अaaa ग गु३ २a अa गु३ 1000 २a २ - --- - -- - १० २१० २-१० = पपपचय प ग प | = aपपप गु प प पपप १- २ १० १- २a १० १२a अ apar । अaaa ग गु३ aa गु गु३ प २० २a १० १-१- प प प य प ग प = पपप ग- प प प प प .2 २१० --- al२al १० १ - २a अ00 गु ग ३ । अ00 गु गु ३ प । अaaa गु गु३ प २ उभयधनयुतिनिषेकप्रमाणमक्कु । १- 0 २- 0 ३- १ Ea प प प ग २-प = प प प गु २-प : a प प प ग २- प . O १- २ .० २१० अ aaa गु गु ३ प | अ aaa गुग ३ प अ aaaगु गु३ २० १-.0 २= प प प ग २-१ प प प २-4 पपप गु २- प १-०२ - ० १-०२ १० १- ०२ अ aaa ग ग ३प | अ daa गुग ३५ अ aaa गु गु३ प २a २a --- - - - ४- - aaप प प ग प = प प प गु प = प प प गुO १-०२ | १- १-०२ । ११अ daa गु गु ३ प | अ aaa गु ग ३ प Saaa गु गु ३ प । २a २- ० ३--0 ४- Ea प प प गु प प प प ग प = aप पप ग- प १- २ ० १ -०२ १० १- २ अ aaa गु ग ३ प | अ aaa गु गु ३ प अ aaa गु गु३ प २ २० क-१७२ 0 २a २a २ a __२a Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो. कर्मकाण्डे जघन्यस्थितिबंधप्रायोग्यकषायपरिणामस्थानविकल्पंगळि Eaप पप ग अ aa aग ग३ प्रथमगुणहानिचयमनिदं Da पपप अनुकृष्टिपददिदं भागिसिदोडे तिर्यगनुकृष्टिचयमा । अ a a a ग १०- १० = प प प गु २- प चय प प प प गु २- १-- १- २ ० १० १- अ aaa गु गु३ प अ aaa गु गु३ प प २०१ १०. प प प प १ - २ अ aaa गु गु३ प २a प . । =a प प प गु २- प चय प १०- १-०२ अ daaगु गु३प २३ १०- १.० = पपप ग २- प प १०. १-०२ अ गु गु३ प । २० प प प प प १०१-०२ a १ अ ००० गु गु३ प २ -- । . २ ---- २-१०१० २- १ पपप गुप चय प = पपप ग- प प = प प प प प १-०२ व १- २ १ - १- ० २ अ0 गु गु३ प अ dad गु गु३ प अ aad गु गु३ प २ . २ १-१०- १० १ asa पपप गु पचय प र प प प ग- प प प प प गु प प ११- १-० २ ०१-- १- २०१ १ -०२ अaaa गु गु३ प अ गु गु३ प अaaa गु गु३ प २ २० चरमखंडानि आदिधनानि उत्तरधनानि व २a जघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्यकषायपरिणामाः 2aपपप ग द्रव्यं प्रथमगणहानिन अ aad गु गु३ जघन्य स्थितिबन्धके योग्य कषाय परिणाम तो द्रव्य है। प्रथम गुणहानिमें जो चय. ५ का प्रमाण है उसको अनुकृष्टि गच्छ-पल्यके असंख्यात भागसे भाग देनेपर अनुकृष्टि चयका प्रमाण होता है। तथा 'व्येक पदार्धन' इत्यादि सूत्रके अनुसार एक हीन अनुकृष्टि Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३६९ Ea पपप मिदर चयधनमनितक्कुमें दोर्ड व्येकपद प अर्द्ध प घनचय aa अ aaa गु गु ३ प २a पपप गुणो गच्छ Da पपप प उत्तरधनमें दितु तंदचयधनमनिदं "चय०० ०२ अ aaai aa ग ग३ प २a गुग३५ २a घणहोणंदव्वं पदभजिवे होवि आदिपरिमाणं" येदिताचयधनद अनुकृष्टिपद पल्यासंख्यातेकभागमं भाज्यभागहारभूतंगळनपतिसि कळेदु शेषधनमनि =a पपपप प्रथमगुणहानिजघन्यस्थितिप्रतिबद्धस्थितिबंधाध्यवसायंगळिवरोळ । ५ अ ० ० ० ३२ गु गुरु Saप पप अनुकृष्टिचयः अवगु गु ३ .0 .0 Baप पप व्येकपदा पर्द्धप २ अada गु गु ३५ . २a गुणो गच्छ उत्तरधनं - प प प ५ प २ १- २a अ aaa गुगु ३ प २० नवयः कप पप - १- अ aaa गुगु ३ प २a पल्यासंख्यातभाज्यभागहारापतिते एवम् 3प प प प अ aaa गु गु ३ २ गच्छके आधेको अनुकृष्टि चयसे गुणा करके अनुकृष्टि चयसे गुणा करनेपर चयधनका प्रमाण होता है। ___ प्रथम गुणहानिमें जघन्य स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसायोंका जो प्रमाण है उसमें प्रथम धनका प्रमाण घटानेपर जो शेष रहे उसको अनुकृष्टि गच्छका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसे प्रथम गुणहानिमें जघन्य स्थितिसम्बन्धी अनुकृष्टिका प्रथम खण्ड १० जानना। द्वितीयादि खण्डमें एक-एक अनुकृष्टि सम्बन्धी चय अधिक होता है। जघन्य १. म चयद । Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १३७० गो० कर्मकाण्डे गु रूपोतानुकृष्टि पदार्द्धप्रमितविशेषगळं कळेदु = पपप गु अ aaa गुगु३ गु 2 २ अ aaa गु अनुकृष्टपददिदं भागिसिदोर्ड प्रथमपवहानिजघन्यस्थितिप्रतिबद्धस्थितिबंधाध्यवसायजघन्यानुकृष्टिप्रथमखंडप्रमाणमक्कुं = पपपप द्वितीयादिखंडंगळोळे कै कचयाधिक (ग) ळागुत्तं २ अगु प a चय प पोगि चरमखंडदो रूपोनानु कृष्टिपदमात्रचयंगळधिकंगळप्पुवु पपप गुप ई प्रथम २ अगुगु३प प्रथम गुणहानिजघन्य स्थितिप्रतिबद्ध स्थितिबन्धाध्यवसायेषु रूपोनानु कृष्टिपदार्धगुणितानुकृष्टिपदप्रमित विशेषानुद्धृत्य शेषे o -} O अ नुष्टिपदेन भक्ते प्रथमगुणहानिजघन्यस्थितिप्रतिबद्धानुकृष्टिप्रथमखण्डं स्यात् । १पपप गु = प प प गुO २० १aaa गुगु ३ २ अ aaaगु गु ३ २ अ १ छ Q प a २ १-० पप प गुप १-०२ अगुगु३ प २० द्वितीयादिखण्डमेकैकचयाधिकं भूत्वा चरमं रूपोनानुकृष्टिपदमात्रचयाधिकं भवति पपप चय प १-० CO a a a गु— प १-०२ गुगु३ प २ a खण्ड में एक हीन अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण चय अधिक होनेपर अन्तका उत्कृष्ट खण्ड होता १० है । 'पदहतमुखमादिधनं' के अनुसार पद जो अनुकृष्टिका गच्छ है उससे मुख जो प्रथम खण्ड है उसे गुणा करनेपर आदिधन होता है । 'व्येकपदार्धन' इत्यादि सूत्र के अनुसार Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३७१ निषेकानुकृष्टिखंडंगळसंकलिसुत्तं विरलु लब्धं पूर्वोक्तमोहतीयकर्मजघन्यस्थितिप्रतिबद्धस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळ प्रमाणमेयक्कुमदे ते दोर्ड पदहतमुखमाविधनं एंदितनुकृष्टिपददिदं प्रथमजघन्यानुकृष्टियं गुणिसिदोडावि घनमिनितक्कुं ३० पपप गुपप व्यकपदार्द्धघ्नचय अगुगु ३ प गुणोगच्छ एंदित्तुत्तर धनमंतंदोडे इनितक्कु । = ० प प प प प मो उत्तरधनमुमनाविधनमुमं कूडिदोर्ड मूलधनमपतितमिनितक्कुं- ५. 3 aa a a a . - all a 000 = ० ५५ प गु ई प्रकारदिदं द्वितीयादिनिषेकंगनुकृष्टिखंडगळं मुन्न रचनेयोलु बरदत अ daa गु गु३ रचियिमुत्तं पोगि प्रथमगुणहानिचरमनिषेकमिदरोळ = ० प प प गु २ पूवोक्तक्रमदिद एतेषु पुनः संकलितेषु पूर्वोक्तमेव जघन्यस्थितिबन्धाध्यवसायप्रमाणमायाति । तद्यथा पदहतमुखमादिधनं पपप व्येकपदार्घनचयगुणो गच्छ tapa ३५ अ aaa गुगु २० उत्तरधनं = aपपप तयोर्योगो मूलधनमपतितमेतावत : प प प गु १ - २ । अadaगु गु ३५ अaaa गु गु ३ २a एवं द्वितीयादिनिषेकाणामध्यनकृष्टिखण्डानि रचयित्वा प्रथमगुणहानिचरमनिषके : प प प ग २ अaaa गु गु ३ एक हीन गच्छके आधेको चयसे तथा गच्छसे गुणा करनेपर चयधन होता है। आदिधन और चयधनको मिलानेपर जघन्य स्थितिसम्बन्धी अध्यवसायोंके प्रमाणरूप सर्वधन होता है। इसी प्रकार द्वितीयादि निषेकोंमें अनुकृष्टिरचना क्रमसे करके प्रथम गुणहानिके अन्तके निषेक Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १३७२ तंदपर्वात्ततचयधनमनिदं पपपप कळेदु अनुक्रुष्टिपर्वादिबं भागिसुतमिरलु तदनुकृष्टि a a a ai CO २ 62 प्रथमखंडप्रमाणमक्कुं पपपगु २ प द्वितीयाविखंडंगळोळ रचनेयोल बरेदंतेकै कचया aaa alR अ aaa गु गु ३ २ धिकंगळागुत्तं पोगि चरमखंडदोळु रूपोनानुकृष्टि पवमात्रचयंगळषिकंगळवु - प प प य प गु २ प गर गु = पपपगु २ -- प to a गु ३ प २ a मुखमादि धनमें दिदादिधनमक्कुं । aaa गुगु३ २ = पपप Q अ aaaगु गु 2 ' अ १-०२ Q प अ प्राग्वदानी तापवर्तित चयधनमिदं = पपप O a गो० कर्मकाण्डे अ 0.0 Ea ३ प २ a ई प्रथमगुणहानि चरमनिषेकानुकृष्टिखंडंगळ संकलितं पवहत 2 अ प a aaa गु २ प प alR गु गु३ प a O प १२ गुगु ३ २ द्वितीयादिखण्डमेककै क्याधिकं भूत्वा चरमं रूपोनानुकृष्टिपदमात्रचयाधिकं भवति चयनमुं उद्धृत्यानुकृष्टिपदेन भक्ते प्रथमखण्डं स्यात् प १-प पुनरिदं संकलितं पदहतमुखमादिधनं = पपप गु २ – प १- गु २ Q १-३२a मुख अ aaa गु गु ३ २ प में जो द्रव्य है उसमें पूर्वोक्त चयधन घटाकर शेषको अनुकृष्टि गच्छका भाग देनेपर प्रथम १० खण्ड होता है । द्वितीयादि खण्ड एक-एक अनुकृष्टि चय अधिक होते हैं । तथा अन्तिम खण्ड में एह हीन अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण चय अधिक होते हैं । तथा गच्छसे प्रथम खण्डको प a Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका १३७३ = १५५१ भूमि = पपपप जोग अपपपप aaa al aaaa अ padगुगु ३ प २ ग गृ३ प गु अ ० ० ० गु गु ३५ दळे = ० प प प प प अ गु गु ३ प अ गुगु३.५ पदगुणिदे पक्षणं होदि एंदिदु चयधनमवकुं ग्र३ प २० २ aa a all a = a प प प प प aa a apa इल्लियुभयधनंगळ भाज्य भागहार भूतानुकृष्टिपदपल्यासंख्यातंगळ २a अ गु गु३। प नपत्तिसि रूपोनानुकृष्टिपदार्द्धमाविधनदोळ प्रक्षेपिसुत्तं विरलु मूलधनमिनितक्कुं= a प प प गु २ अंकसंदृष्टियो प्रथमगुणहानिद्रव्यंगळिवु १६ अनुकृष्टयायाम ४ विशेष गु .WWKS ~ रूपोनपदमात्रचयो भूमिः Daपपप मख पचयः = पपप 0१अ aad गु गु ३ प २ अ aaa गु गु ३ गोगः = प प प दलं = पप पदगुणितं चयधनं Faप पप daa गु गु ३ पप अ aaa गुग ३ प प अaaa गु गु ३ प पa २० २०२० २०२० तयोराछुत्तरधनयोः भाज्यभागहारो पल्यासंख्यातावपवर्त्य रूपोनानुकृष्टिपदार्धे आदिधने प्रक्षिप्ते मूलधनं स्यात् = पपप गु २ - -- अ daa गु गु ३ २ गुणा करनेपर आदिधन होता है। चयधनका प्रमाण लानेके लिए 'मुहभूमि' इत्यादि सूत्रके अनुसार मुख हुआ एक चय और भूमि हुई एक हीन अनुकृष्टिका गच्छ प्रमाण चय । इनको Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७४ १ चयधनमिवु १ । ३ । ४ अपर्वात्ततमिदं ३ द्रव्यबोळु कळेदोडिनितक्कु- ८३ मिदं पर्दादिदं ४ ४ । २ २ २ गो० कर्मकाण्डे भागसिदोडादि धनमक्कु ८-३ द्वितीयादिखंडंगळेकैकचयाधिकंगळवु । द्वितीयनिषेकद्रव्यमि ४।२ २ ८–३ द्वितीयादि ४ । २ खंडगळे केकचयाधिकंग कंप्पुवु । प्रथमगुणहानिचरम निषेकद्रव्यमिदु । ८ । २ । २ चयधनमनिदं ३ कळेदु पर्दाददं भागिसि वोडादिखंडप्रमाण मिनितक्कु ८ २ ५ कळेदु पर्दाददं भागिसिदोडादिखंडप्रमाणमिनितक्कुं ८।२।३ द्वितीयादिखंडंगळ मेकैकचया घि ४ |२ कंगळागुत्तं पोगि चरमखंडबोळे रूपोनगच्छमात्र चयंगळ धिकंगळप्पुवु । समुच्चय संदृष्टि : · चयधनमनिदं । ३ २ १ १ अंकसंदृष्टी प्रथमगुणहानी प्रथमनिषेके ८ चयधनेना १ । ३ । ४ पतितेनो ३ ने ८-३ पदेन ४ ४।२ २ २ -¿ भक्ते प्रथमखण्डं भवेत् ८ ३ द्वितीयादिखण्डमेकैकचयाधिकं भवति । समुच्चय संदृष्टि:४।२ जोड़कर आधा करो। फिर एक होन अनुकृष्टिके गच्छ प्रमाण गच्छसे गुणा करो तब चय१० धनका प्रमाण होता है। सो आदिधन और चयधनको मिलानेपर प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकका प्रमाण होता है । इस प्रकार प्रथम गुणहानिमें अनुकृष्टि रचना कही । अब इस कथनको अंकसंदृष्टिके द्वारा दिखाते हैं प्रथम गुणहानिमें प्रथम निषेकका प्रमाण नौ है । यही द्रव्य है । ऊर्ध्व चय एक है उसमें अनुकृष्टि गच्छ चारका भाग देनेसे अनुकृष्टि चय एकका चतुर्थांश हुआ । 'व्येकपदार्धन' १५ इत्यादि सूत्र के अनुसार चयधन डेढ़ हुआ । उसे सर्वधन नौमें से घटानेपर साढ़े सात रहे । उसमें अनुकृष्टि गच्छ चारसे भाग देनेपर प्रथम खण्डका प्रमाण एक अष्टमांशसे होन दो हुआ । उसमें चतुर्थांश प्रमाण अनुकृष्टिका एक-एक चय मिलानेपर द्वितीयादि खण्ड होते हैं। चारों खण्डों को जोड़ने पर नौ होता है। इसी प्रकार अन्तिम निषेकका द्रव्य सोलह है । उसमें चयधन डेढ़ घटाने पर साढ़े चौदह शेष रहे । उसमें अनुकूष्टि गच्छ चारका भाग देनेपर एक२० अष्टमांश अधिक साढ़े तीन पाये । यही प्रथम खण्डका प्रमाण है । उसमें चतुर्थांश मात्र एकएक चय बढ़ानेपर द्वितीयादि खण्ड होते हैं। चारों खण्डोंका जोड़ सोलह होता है । यहाँ जो आधा या चौथाई कहा है सो अर्थसंदृष्टि द्वारा समझने के लिए कहा है । अर्थसंदृष्टि तो महापरिमाणरूप है अतः उसमें आधा चौथाई - जैसा कुछ नहीं है । Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ६ । २ له له ___ + ७+ ७+ ७+ २ | ९ ३९०३ ९०३ २ ४२ ४०२ ४० ५० ०३ ९+३ | ९३ ९ +३ २ ४ । २। ४। २। 9." iram + २२ २५ २१८५३ २१४५२! २१०। ५१५२ २०६५०५ ५२५३ lo roolaro ३ m++ سه لم | ००० الله ३ + ९+३ , ९ +३९ +२४ २४ 9rrom 100000095130 000. Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७६ गो० कर्मकाण्डे मप्पुरिदं । यितु स्थितिबंधाध्यवसायंगळ प्रथम गुणहानियोळस्थं संवृष्टियुमंक संवृष्टियुमनुक ष्टिविधानदोळु तोरल्पविते द्वितीयाविगुणहानिगळोळं विचारं माडल्पडवुदो दु विशेष मुंटबावुर्दे बोर्ड गुणहानि प्रति द्रव्यमुं चयमुं द्विगुणद्विगुणक्रमंगळप्पुवु ॥ एक सौ बासठ । प्रत्येक निषेकमें चयका प्रमाण चार । प्रथम निषेकके द्रव्य एक सौ बासठ में ५ चयन छह घटानेपर एक सौ छप्पन रहे । उसमें अनुकृष्टि गच्छ चारका भाग देनेपर उनतालीस पाये । यही प्रथम खण्ड हुआ । द्वितीयादि खण्डों में एक-एक चय अधिक जानना । चारों खण्डका जोड़ एक सौ बासठ होता है । इसी प्रकार द्वितीयादि निषेकोंकी रचना करना । अन्तिम निषेकका द्रव्य दो सौ बाईस । उसमें चयधन छह घटानेपर दो सौ सोलह रहे। उसमें अनुकृष्टिगच्छ चारका भाग देनेपर चौवन पाये। यही प्रथम खण्ड है । द्वितीयादि १० खण्डोंमें एक-एक चय अधिक जानना । चारों खण्डों का जोड़ दो सौ बाईस हुआ । इसी प्रकार द्वितीयादि गुणहानियों में भी अनुकृष्टिका विधान कर लेना । प्रथम गुणहानिके अनुकृष्टि चय, द्रव्य आदिसे द्वितीयादि गुणहानियोंमें अनुकृष्टि चय आदिका प्रमाण दूना- दूना होता है । अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा स्थितिबन्धाध्यवसाय रचना जघन्यादि स्थितिबन्धकी ऊर्ध्व रचना प्रथम खण्ड द्वितीय तृतीय २२२ ५४ २१८ ५३ २१४ ५२ २१० ५१ २०६ ५० २०२ ४९ १९८ 8 १९४ ४७ १९० ४६ १८६ ४५ १८२ ४४ १७८ ४३ १७४ ४२ १७० ४१ १६६ ४० १६२ ३९ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४९ ૪૮ ४७ ४६ ४५ ४४ ४३ ४२ ४१ ४० ५६ ५५ ५४ ५३ ५२ 982033 20 ४९ ४८ ४७ ४६ ४५ ४४ ४३ ४२ ४१ चतुर्थ ५७ ५६ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४९ ४८ ४७ ४६ ४५ ४४ ४३ ४२ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अनंतरमुक्त प्रथमगुणहानियोळनुकृष्टि खंडंगळोळल्पबहुत्वमं सूचिसिवपं पढमं पढमं खंड अण्णोष्णं पेक्खिऊण विसरिच्छं । -- हेट्ठिल्लुक्कस्सा दोणंतगुणादुवरिमजहणं ॥ ९५६ ॥ । प्रथमं प्रथमं खंडं अन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशं । अधस्तनोत्कृष्टावनंत गुणस्तूप रितनजघन्यं ॥ १३७७ अंतु रचिसिलपट्ट प्रथमादिगुणहानिगळोळनुकृष्टि प्रथमं प्रथमं खंडं स्वोत्कृष्टपथ्यतं ५ गुणहा निचरम निषेकप्रथमानुकृष्टिखंडपय्र्यंतं निरंतर विशेषाधिकंगळपुर्वारव संख्येदं परस्परं विसदृशंगळप्पुवु । शक्तिविशेषवदमुं परस्परं विसदृशंगळेयप्पुवु । शक्तिविशेषदिने तु विसदृशंगळे - दोर्ड स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टस्थानमं नोडलुपरितनजघन्यस्थानमनंतगुणमप्पुर्वारदं ॥ विदियं विदियं खंड अण्णोण्णं पेक्खिऊण विसरिच्छं । हेट्ठिलुक्कस्सादोणंतगुणादुवरिमजहण्णं ।। ९५७ ।। द्वितीयं द्वितीयं खंडमन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशमधस्तनोत्कृष्ट वनंत गुणस्तूप रितनजघन्यं ॥ गुणहानिप्रथमादि निषेकंगळ द्वितीयं द्वितीयं खंडं गुणहानिचरम निषेकद्वितीय खंड पय्यं तं परस्परं निरंतरं चयाधिकं गळप्पुर्दारदं विसदृशंगळवु । स्थानविकल्पंग ळिदमुं शक्तिविशेषविंदमुमेकें दोडे स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टमं नोडलुपरितनजघन्यस्थानमनंतगुणमप्पुरिदं ॥ ईप्रकारर्दिदं रूपोनानुत्कृष्टि पदप्रमितंगळ नडेदुः — चरिमं चरिमं खंड अण्णोण्णं पेक्खिऊण विसरिच्छं । हेट्ठिलुक्कस्सादोणंतगुणादुवरिमजइण्णं ॥ ९५८|| चरमं चरमं खंडमन्योन्यमवेक्ष्य विसदृशं अधस्तनोंत्कृष्टादनंत गुणस्तुपरितनजघन्यं ॥ १० एवं रचित प्रथमादिगुणहानिष्वनुकृष्टेः प्रथमं प्रथमं खण्डमन्योन्यमपेक्ष्य संख्यया विसदृशं भवति । तिर्यगुपरि च तत्तच्चरमखण्डपर्यंतं तेषामेकैकचयाधिक्यात् । तथा शक्त्याऽपि स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टस्थानादुपरि २० तनजघन्यस्थानस्याप्यनन्तगुणत्वात् ॥ ९५६ ॥ गुणहानिप्रथमादिनिषेकाणां द्वितीयं द्वितीयं खण्डं गुणहानिचरम निषेक द्वितीयखण्डपर्यंतं परस्परं निरन्तरं चयाधिकमिति विसदृशं स्थानविकल्पैः शक्तिविशेषैश्चासदृशं स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टादुपरितनजघन्यस्थानस्याप्यनन्तगुणत्वात् ॥९५७॥ एवं रूपोनानुकृष्टिपदमात्राणि नीत्वा -- १५ इस प्रकार रचित प्रथमादि गुणहानियों में अनुकृष्टिका पहला पहला खण्ड परस्परकी २५ अपेक्षा करनेपर विसदृश है - संख्यारूपसे समान नहीं हैं; क्योंकि तिर्यकरूप रचना में ऊपरऊपर रचनारूप जो पहला पहला खण्ड है वह अपने-अपने अन्तिम खण्ड पर्यन्त एक-एक चय अधिक है । तथा शक्तिकी अपेक्षा भी अपने-अपने नीचेके उत्कृष्ट स्थानसे ऊपरका जघन्य स्थान भी अनन्त गुणा है । अतः पहला खण्ड समान नहीं है ॥ ९५६ ॥ गुणानि प्रथमादि निषेकका दूसरा दूसरा खण्ड गुणहानिके अन्तिम निषेक के दूसरे ३० खण्ड पर्यन्त निरन्तर एक-एक चय अधिक है अतः स्थानभेद और शक्तिभेदसे समान नहीं है । अर्थात् नीचेके दूसरे खण्ड के उत्कृष्टसे ऊपर का दूसरे खण्डका जघन्य भी अनन्त गुणा है । इसी प्रकार तीसरे आदि खण्डोंकी भी असमानता जानना ॥९५७॥ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७८ गो० कर्मका गुणहानिप्रथमाविनिषेकानुकृष्टि परमं परमं खंडंगळ गुणहानिचरमनिषेकानुकृष्टि चरमखंडपथ्यंतं निरंतरं विशेषाधिकक्रमंगळप्पुरिवं स्थानविकल्प संख्यायदंविसदृशमक्कुं। शक्त्यपेक्षेयिदं स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टस्थानशक्तियं नोडलु स्वस्वोपरितनजघन्यस्थानमनंतगुणितमक्कु-। मितनंतगुणत्वक्के कारणमेने दो पेन्दपर : हेट्ठिमखंडुक्कस्सं उव्वंकं होदि उवरिमजहण्णं । अट्ठक होदि तदोणंतगुणं उवरिमजहणं ॥९५९॥ अधस्तनखंडोत्कृष्टमुर्वको भवेदुपरितनजघन्यमष्टांको भवेत्ततोऽनंतगुणमुपरितनजघन्यं ॥ स्वस्वजघन्यानुकृष्टिखंडंमोदल्गोंडु स्वस्वोत्कृष्टखंडपय्यंतमेकैकतिर्यग्विशेषदिवमधिक - क्रमंगळप्पुवा विशेषप्रमाणमिदु १५५१ ई चयदोळमसंख्यातलोकमात्र १० षट्स्थानंगळप्पुर्व ते दोडिल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुम ते दोर्ड : एक्कं खलु अट्ठकं सत्तंकं कंडयं तदोहेट्ठा । रूवहिय कंडयेण य गुणियकमा जाव उठवंक । में दितोंदु षट्स्थानदोठोंदष्टांकमक्क । १ । सप्तांकंगळ कांडक प्रमितंगळप्पुवु २ षडंक पंचांकचतुरंकमुक्कगळु क्रमदिवं रूपाधिककांडकदिवं गुणितक्रमंगळप्पुवु २ । २ । २।२।२ ० ० ० ० ० २।२।२।२।२।२।२।२।२ अष्टांकसहितमागनितुमं कूडिदोडोंदु षट्१५ स्थानदोलिनितु स्थानंगळप्पुवु २।२।२।२।२ यिन्नु त्रैराशिकमं माडल्पडुगु aaaa aaaaa aaaa a चरमं चरम खण्डं गणहानिचरमनिषेकस्य चरमखण्डपर्यन्तं निरन्तरं विशेषाधिकत्वात संख्यया विसदृशं । शक्त्याप्यघस्तनोत्कृष्टस्थानादुपरितनजघन्यस्थानमप्यनन्तगुणं ॥९५८॥ तत्र किं कारणमिति चेदाह यतः कारणात्तिर्यगपरि चाधस्तनाघस्तनखण्डोत्कृष्टाध्यवसायस्थानमः अनन्तभागवृद्ध्यात्मकं भवति । गुणहानिके प्रथमादि निषेकोंका अन्तिम-अन्तिम खण्ड अन्तिम निषेकके अन्तिम २० खण्ड पर्यन्त निरन्तर एक-एक चय अधिक होनेसे संख्यासे समान नहीं है। शक्तिकी अपेक्षा भी नीचेके अन्तिम खण्डके उत्कृष्ट स्थानसे ऊपरके अन्तिम खण्डका जघन्य स्थान भी अनन्त गुणा है ॥९५८॥ इसका कारण क्या है ? यह कहते हैं क्योंकि तिर्यकरूप रचनामें ऊपर-ऊपर लिखे खण्डोंके अपने-अपने नीचे लिखे खण्डों२५ का उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थान ऊर्वक अर्थात् अनन्तभागवृद्धिको लिये हुए है और ऊपर Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र २२२२ ० a a a a a अ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदोपिका २ फ१ इ० पपप १९ भ aaa ५ ४ चयदोळु नर्डद षट्स्थानवारंगळ संख्येयक्कुं २ । ६२ । २ । २ । २ । २ । २।२। 131 81 818 a a a a a a a a a १ ० पपप गुगु३ प २ २ २ २ २ १ गु गु ३ a a २ a a a a लोकमक्कुमेर्क दोर्ड लोकक्के गुणकारभूतासंख्यातं भाज्यं अदु भागहारभूत रूपाधिकसुच्यं गुलासंख्यातंगळ वर्गमात्रघनराशियं सरिगळेदु मत्तमसंख्यातगुणकारमिव कु । मिदने तरियलक्कुर्मदोर्ड १३७९ ई शिर्कादिदं बंद लब्धं यवनपर्वात्तसिदो ड्युम संख्यात -- लो गाणमसंखपमाजहण उड्ढिम्मि तम्मि छट्ठाणा । ठिविबंधज्झवसाणट्ठाणाणं होंति सतह ॥ में दिती सूत्रप्रमार्णादिदमरियल्पडुगुं । जघन्यानुत्कृष्टिखंडदोळेनितु षट्स्थानंगळप्पुववर मेले प्रतिखंड मिनितिनितु षट्स्थानवारंगळधिकंगळागुत्तमुत्कृष्टखंडपय्र्यंतं पोपुवदु कारणमागि स्वस्वजघन्यानुकृष्टिमोदरगोंड स्वस्वोत्कृष्टखंड पय्यंतं स्वस्वखंडजघन्यमष्टांक मक्कु मुत्कृष्टस्थानविकल्पमुवक मक्कु मधस्तनखं डोत्कृष्ट मुर्खकमं नोडलुपरितनखंडजघन्यमष्टांकमप्युदरिदं प्रथमं १० प्रथमं खंडमन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशं स्यात् । अघस्तनोत्कृष्ट वुपरितनजघन्यमनंतगुणमेदितु पेळपट्टु । महंगे द्वितीयं द्वितीयखंडमन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशं स्यादधस्तनोत्कृष्टादुपरितनजघन्यमनंतगुणमेदितु नडेवु चरमं चरमंखंडमन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशं स्यादधस्तनोत्कृष्टादुपरितनजघन्यमनंतगुणमें दितु पेळल्पट्टुवु । ३९ अनंतरं जघन्यस्थितिप्रतिबद्ध जघन्यखंडमुत्कृष्ट स्थितिप्रतिबद्धमुत्कृष्टखडमुं शेष सर्व्वं खंडंगळूर्ध्व रूपददं सदृशंगळप्पुवेंदु मंदणसूत्रदिवं पेचदपरु :अवरुक्क सठिदीणं जहण्णमुक्कस्सयं च णिव्वग्गं । सेसा सव्वे खंडा सरिसा खलु होंति उडूढेण ।। ९६० । जघन्योत्कृष्ट स्थित्योर्ज्जघन्यमुत्कृष्टकं च निव्वं । शेषाणि सर्व्वाणि खंडाणि सदृशानि खलु भवेयुरूद्धर्तेन ॥ ५७ उपरितनोपरितन खण्डजघन्याध्यवसायस्थानमष्टांकः अनन्तगुणवृद्ध्यात्मकं भवति ततः कारणात्तदधस्तनोत्कृष्टात्तदुपरितनजघन्यमनन्तगुणं ।। ९५९ ।। ५ पोरगागि १५ ऊपरके खण्डका जघन्य अध्यवसाय स्थान अष्टांक अर्थात् अनन्त गुणवृद्धिको लिये हुए है । इस कारण से नीचेके खण्ड के उत्कृष्टसे ऊपर के खण्डका जघन्य अनन्त गुणा कहा है ||९५९ || १. वर्गः समयसादृश्यं ततो निःक्रांतं निर्व्व । २५ २० Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५ २० गो० कर्मकाण्डे जघन्योत्कृष्ट स्थिति क्रर्मादिदं जघन्यखंडमुमुत्कृष्टखंड मुमेरडुं सर्व्वथा निर्गमककु मेल्लियुं विसदृशंगळे यवु । शेष सर्व्वखं डंगळसदृशंगळप्पुवृध्वंरूपदिदं ॥ अहं पिय एवं आउजइण्णट्ठिदिस्स वरखंड | जावयताव य खंडा अणुक ढिपदे विसेसहिया ।। ९६१ || १३८० समानमक्कुमेनेवरमायुज्जघन्य अष्टानामप्येवमायुज्जघन्यस्थितेवंरखंडं । यावत्तावत् खंडानि अनुकृष्टिपदे विशेषाधिकानि ॥ ज्ञानावरणाद्यष्टविधक मंगळगेल्लमतुक्तरचनाविशेषं स्थितिवरखंडमन्नेव रमनुकृष्टिपददोलु विशेषाधिकंगळे यप्पुडु । अनंतरमनुकृष्टिपददोळायुष्यकम्र्मक्के विशेषमं पेव्दपरु :-- तत्तो उवरिमखंडा सगसग उक्कस्सगोत्ति सेसाणं । सव्वे ठिदोण खंडाऽसंखेज्जगुणक्कमा तिरिये ॥ ९६२॥ तत उपरितनखंडानि स्वस्वोत्कृष्टपर्यंतं विशेषाणां सर्व्वाणि स्थितीनां खंडन असंख्यगुणक्रमाणि ति ॥ ततः आयुष्यकम् जघन्यस्थिति संबंधि वरखंडमाउदो दु अदरमेलिई स्थितिखंडंगळ तंतम्म उत्कृष्टखंडपर्यंतं तिर्य्यंगसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु । आ जघन्यादिस्थितिखंडंगळगे संदृष्टिरचने : ४ २२ । ४ ७ ० ० १ ५ २२ । ४ । ४ १ ४ २२ । ४ । ७ ० ० ६ २२ । ४ । ४ । ४ । १२२ । ४ । ४ । ४ । ४ १ ||||||||| १ २२ । ४ । ४ । ४ ५ १२२ । ४ । ४ ५ १ २२ । ४ । ४ ४ २२ । ४ ७ ० ४ २२ । ४ । ७ जघन्य स्थितेर्जघन्यखण्डमुत्कृष्टस्थितेरुत्कृष्टखण्डं च निर्वगं सर्वथा असदृशं । शेष सर्वखण्डानि सलूर्ध्वरूपण सदृशानि भवन्ति ॥ ९६० ॥ १ अष्टानामपि कर्मणामेवमुक्तरचनाविशेषः सर्वोऽपि समानः । किन्त्वायुषोऽनुकृष्टिपदे खण्डानि यावज्जधन्यस्थितिच रमखण्डं तावदेव विशेषाधिकानि । ततस्तद्वरखण्डादुपरितनस्थितिखण्डानि स्वस्वोत्कृष्टखण्डपर्यंत नि जघन्य स्थितिका कारण प्रथम निषेकका जघन्य- प्रथम खण्ड और उत्कृष्ट स्थितिका कारण अन्तिम निषेकका अन्तिम उत्कृष्ट खण्ड, ये दोनों तो निर्वर्ग हैं अर्थात् किसी भी खण्ड के समान नहीं हैं, सर्वथा असमान हैं। शेष सब खण्ड ऊर्ध्वरचना रूपसे अन्य खण्डोंके समान हैं ||९६०|| आठों ही कर्मोंकी उक्त रचना विशेष सब समान हैं । अर्थात् जैसे मोहनीयका कहा वैसा ही ज्ञानावरणादिका भी जानना । किन्तु आयुकर्मके अनुकृष्टिगच्छ में जो खण्ड हैं वे Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका मेले शेषस्थितिगळ खंडंगळु स्वस्वजघन्यखंडमोदल्गोंड स्वस्वोत्कृष्टखंडपर्यंतमनुकृष्टिखंडगरिळयंगूपदिदमसंख्यातगुणितक्रमंगळायुष्यकर्मवोळप्पुवु। संदृष्टि : २२॥४-१ १ २२।४।४।४।४।४ २२॥४॥४-१ २२।४।४।४।-१ १ २२।४।४।४।४।४।४ १२२।४।४।४।४।४।४।४१ २२।४।४।४।४ २२।४।४।४ १२२।४।४।४।४ २०६१ २२।४।४-१ १२२॥४॥४॥४॥४४ १२२।४।४।४।४।४।४ १] २२।४।-१ २२।४।४। १ २२।४।४।४ १२२।४।४।४।४। १।२२।४।४।४।४।४ श यितायुष्योत्कृष्टस्थिति अनुकृष्टिखंडंगळ्पय्यंतं स्वस्वजघन्यखंडम मोदल्गोंडु स्वस्वोत्कृष्टखंडपय्यंतं तिर्यग्रूपदिवमसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुर्व दरियल्पडुवुवु । अनंतरमनुभागबंधाध्यवसायंगळं जघन्यस्थितिप्रतिबद्धस्थितिबंधाध्यवसायंगळोलु सर्व- ५ जघन्यस्थितिपरिणामस्थानक्के पेळ्दपरु : रसबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखलोगमेत्ताणि । अवरट्ठिदिस्स अवरट्ठिदिपरिणामम्मि थोवाणि ।।९६३।। रसबंधाध्यवसायस्थानानि असंख्यलोकमात्राणि । अवरस्थितेरवरस्थितिपरिणामे स्तोकानि ॥ रसबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळुमसंख्यातलोकमात्रंगळाळापसामान्यदिदप्पुवु । Eat al. जघन्यस्थितिबंधप्रायोग्यकषायपरिणामंगळमसंख्यातलोकमानंगळपूर्वोक्तंगळिनितप्पु । ९। विवरोळु तथा शेषस्थितीनां स्वस्व जघन्यखण्डात् स्वस्वोत्कृष्टखण्डपर्यंतानि च सर्वाणि तिर्यगसंख्यातगुणितक्रमाणि भवन्ति ॥९६१-९.२॥ अथानुभागबन्धाध्यवसायान् जघन्यस्थितिप्रतिबद्धाध्यवसायेषु सर्वजघन्यस्याह रसबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातलोकमात्राणि = aaa तत्र जघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्यपरिणामेषु १५ जघन्य स्थितिके अन्तिम खण्ड पर्यन्त तो चय अधिक हैं। उससे आगे उत्कृष्ट खण्डसे ऊपरकी स्थितिके खण्ड अपने-अपने उत्कृष्ट खण्ड पर्यन्त तथा शेष स्थितियोंके अपने-अपने जघन्य खण्डसे अपने-अपने उत्कृष्ट खण्ड पर्यन्त सब तिर्यक् रचनारूप असंख्यात गुणेअसंख्यात गुणे हैं ॥९६१-९६२।। आगे अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानोंका कथन करते हुए जघन्य स्थितिसम्बन्धी २० अध्यवसायोंमें सबसे जघन्य सम्बन्धी अनुभागाध्यवसाय स्थानोंको कहते हैं--- ____ अनुभागाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं। अर्थात् असंख्यात लोकसे गणित असंख्यात लोकमात्र हैं। उनमें जघन्य स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानमें जघन्य स्थितिबन्धयोग्य अध्यवसायोंके प्रमाणसे असंख्यातलोक गणे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान हैं फिर भी वे अन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय सम्बन्धी अनुभागाध्यवसायोंसे थोड़े हैं। वही २५ कहते हैं Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८२ गोकर्मकाण्डे जघन्यस्थितिबंधप्रायोग्यजघन्यपरिणामप्रतिबद्धंगळनुबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळवं नोडलसंख्यातलोकगुणितंगळप्पु । ९ । - । विवु स्तोकंगळप्पुर्व ते दोड मेले मेले जघन्य स्थितिबंधप्रायो। ग्योत्कृष्टकषायपरिणामपप्यंतमनुभागाध्यवसायंगळु निरंतरं विशेषाधिकंगळप्पुरिद- मदेंते दोडे द्रव्यं स्थितिगुणहानि दोगुणहानि नानागुणहानि अन्योन्याभ्यस्तम बिवाहं राशिगळ प्रमाण५ मरियल्पडुवुवल्लि विवक्षितमोहनीयजघन्यस्थितिबंधकारणाध्यवसःयस्थानंगलिवर ज ००००० उ जघन्यपरिणाममोदल्गोंडुत्कृष्टपरिणामपातमिई सर्वस्थितिबंधपरिणामप्रतिबद्धसर्वानुभागबंधाध्यवसायंगळ समुच्चयमसंख्यातलोकमात्रंगळप्पुवु । द्रव्यमें बुदक्कुं। जघन्यस्थितिबंधप्रायोग्यकषायपरिणामंगळु । ९ । स्थिति में वुदक्कु-। मुपदेशगम्यमाप नानागुणहानिशलाके गळावल्यसंख्यातकभागमञ्जमदं नोडलन्योन्याभ्यस्तमसंख्यातगुणमक्कुमादोडमावल्यसंख्यातेक भागमात्रमेयककुं । स्थितियं नानागुणहानिशलाके गलिंदं भागिसिदोडे गुणहान्यायामक्कु-। मदं द्विगुणिसिदोडे निषेकहारप्रमाण मक्कुमिवक्के संदृष्टि :| Ea / स्थिति ९ | गु२ दो।९।२। नाना । २ | अन्योन्य २ द्रव्य । यिन्नु रूपोनान्योन्याभ्यस्तदिदं द्रव्यमं भागिसिदोडेक भागं प्रथमगुणहानिद्रव्यमक्कुं। द्वितीयादि. गणहानि द्रवगंगळ चरमगुणहानिपथ्यंतं द्विगुणक्रमंगळप्पुबु । = = अ यिल्लि a ala alal Easal१ ० जपन्यपरिणामे तेभ्योऽसंख्यातलोगणा ९Da न्यपि स्तोकानि । तद्यथा द्र=asa स्थि ९। १५ ग ९ दो ९ । २ । नाना २ अन्यो २ द्रव्यं जघन्यस्थितिसम्बन्ध्यनुभागबन्धाध्यवसायमात्रेऽ-योन्याभ्यस्तेनावल्य. २ २aaa a aala संख्येयभागेन रूपोनेन भक्ते प्रथमग महानिद्रव्यं द्वितीपादिगुणहानीनां द्विगुणं भवति Baza तत्र अ . २ जधन्य स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंकी रचना दिखाते हैं। जघन्य स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंके प्रमाणसे असंख्यातलोक गुणा अनुभागबन्धा Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अवाणेण | गु | सम्बधणे खंडिवे मजिसमषणमागच्छवि। |==an | तरुणखाण ई अणेण णिसेपहारेण गुरू मजिममधणमवहरिदे पवयं । =०= तस्वहिय 2 गुगु३ गुणहाणिणा गुणिवे आविणिसेय zaza T में बिदु जघन्यस्थितिबंधकारणकषाय अ गु ग३ परिणामंगळोळ जघन्यपरिणामस्थितिप्रतिबद्धानुभागबंधाध्यवसायंगळप्पुविर्वमनदोलिरिसि अवरिद्विदिपरिणामम्मि थोवाणि एंविदाचार्यानि पेळल्पदुदेके दोर्ड मेले स्वस्थानचदिदं विशेषाधि- ५ कंगळागुत्तं परस्थानचदिदं संख्यातासंख्यातगुणंगळागुत्तं पोपुवप्पुरवं। प्रथमगुणहानिद्रव्ये गणहान्यायामेनावल्यसंख्येयभागभक्तधन्यस्थितिकारणकषायाध्यवसायसंख्येन भक्ते मध्यमधनं = a = १ इदं रूपोनगुणहान्यायामार्थेन गु निषेकहारेण गु ३ भक्तं प्रचयः अ। गु = a aa अयं रूपाधिकगुणहान्या गुणित आदिनिषेक: स्यात् = a = a गु इति ॥९६३।। ०१ २ ध्यवसाय स्थानोंका प्रमाण है। वही यहाँ द्रव्य है । तथा जघन्य स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धा- १० ध्यवसाय स्थानोंका प्रमाण यहाँ स्थितिका प्रमाण है। आवलीमें दो बार असंख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वह नानागणहानि शलाकाका प्रमाण जानना। स्थितिके प्रमाणमें नानागणहानिका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वही गणहानि आयामका प्रमाण जानना। उसका दूना दो गुणहानिका प्रमाण है । आवलीके असंख्यातवें भाग अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण है। उक्त द्रव्यमें एक हीन अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे वही १५ प्रथम गुणहानिके द्रव्यका प्रमाण है। उससे दूना-दूना द्वितीयादि गुणहानियोंका द्रव्य होता है । प्रथम गुणहानिके द्रव्यमें गुणहानि आयामका भाग देनेपर मध्यम धनका प्रमाण होता है। उसमें एक हीन गुणहानि आयामके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देनेपर चय आता है । इस चयको एक अधिक गुणहानि आयामसे गुणा करनेपर प्रथम निषेक होता है ।।९६३।। १. म णामप्रति । JainEducation Internation-१७४ २० Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८४ गोकर्मकाण्डे अनंतरमोयनुभागबंधाध्यवसायप्रथमगुणहानिप्रथमनिषेकद मेले असंख्यातलोकमात्रचदिदं तद्गुणहानिचरमनिषेकपय्यंतमेकादृशमप्प चयदिदं पेच्र्युववेदु पेळ्दपरु : तत्तो कमेण वड्ढदि पडिभागेण य असंखलोगेण । अवरद्विदिस्स जेद्वद्विदिपरिणामो त्ति णियमेण ॥९६४॥ ततः क्रमेण वर्द्धन्ते प्रतिभागेन चासंख्यलोकेनावरस्थितेज्येष्ठस्थितिपरिणामपयंत नियमेन ॥ ततः आ जघन्यस्थितिजघन्यपरिणामप्रतिबद्धानुभागबंधाध्यवसायंगळतणिदं जघन्यस्थिति. द्वितीयादिपरिणामप्रतिबंधाघ्यवसायंगळुमसंख्यातलोकमात्रप्रतिभादिदं पुट्टिद विशेषदि निरंतरं पेच्चुत्तं पोपुर्वन्नेवरं जघन्यस्थितिप्रतिबद्धकषायपरिणामंगळोळ प्रथमगुणहानिचरमपरिणाममन्न__वरं अल्लिदं मेले गुणहानि गुणहानि प्रतियादियं नोडलादिद्विगुणमक्कुं। विशेषमं नोडलु विशेष, १० द्विगुणमक्कु-। मितु द्वितीयस्थितिमोदल्गोंडुत्कृष्टस्थितिपय्यंतमिई स्थितिबंधकारणजघन्योत्कृष्ट ११ १० = =ज 101 उ अनुज ०ज -०।०।०॥ ०1०1०1०।ज जज० ० ० 14००० 4.०० 55 ० ०० 155००० ०००44 .. ० " परिणामप्रतिबद्धानुभागबंधाध्यवसायंगळ रचनाविशेषमरियल्पडुगु-। मनुभागबंधाध्यवसायंगळगे नानागुणहानिशलाकेगळु उंदु इल्ल येदितुपदेशद्वयमुटु । अदं सर्वज्ञररिवरु । ततो जघन्यस्थितिजघन्यपरिणामप्रतिबद्धानुभागबन्धाध्यवसायेभ्यस्तद्वितीयादिपरिणामप्रतिबद्धानुभागबन्धाध्यवसायाः प्रथमगुणहानिचरमपरिणामपर्यता असंख्यातलोकमात्रप्रतिभागोत्पन्नविशेषेण निरन्तरं वर्द्धमाना १५ गच्छन्ति । ततोऽग्रे गुणहानि गुणहानि प्रति आदित आदिविशेषतो विशेषश्च द्विगुणो द्विगुणः । एवं द्वितीयादिस्थितावत्कृष्टस्थितिपयंतायामपि ज्ञातव्य । अनुभागबन्धाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाकाः तत्पश्चात् जघन्य स्थितिके जघन्य परिणाम सम्बन्धी प्रथम निषेकरूप अनुभागाध्यवसायस्थानोंसे उस जघन्य स्थितिके द्वितीयादि परिणामसम्बन्धी द्वितीयादि निषेकरूप अनुभागाध्यवसाय स्थान प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकरूप अन्तिम परिणाम पर्यन्त एक२० एक चय प्रमाण निरन्तर वृद्धिको लिये होते हैं। यहाँ असंख्यात लोक मात्र प्रमाण प्रतिभाग सर्वद्रव्यमें देनेसे चयका प्रमाण होता है। उससे आगे प्रत्येक गुणहानिमें प्रथम निषेकसे प्रथम निषेक तथा चयसे चयका प्रमाण दूना-दूना होता है। इसी प्रकार द्वितीयादि स्थिति योग्य द्वितीयादि निषेकोंमें भी उत्कृष्ट स्थिति रूप अन्तिम निषेक पर्यन्त रचना जानना । यहाँ जघन्य स्थितिसम्बन्धी जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानों में प्रथम निषेक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय २५ स्थान होते हैं । उसीके दूसरे स्थानमें द्वितीय निषेक प्रमाण होते हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायों Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८५ कर्णाटवृति जीवतत्वप्रदीपिका उक्तार्थसंदृष्टिरचयितु।: ०००००००। कज Zama ग २।२ 15000०००००" IR. चरमस्थिति तु. ग. प्रथम निषेक =*a गु २२ गुग ग३ ००००००००० | aaaa गुरा२ द्विगुरूचरम. निषेक ००० द्वितीयस्थिति अग गु३ 6. ज=a2 ०००००००० 001 Basaग२अ चरमगुण, चरम निषेक =asa T अ अंग गु३ प्रथम निषेक Ea a 3T T च. गु. द्वितीय निषेक zaza गु २ अगु गु३ aasa ग २ प्रथम गुणहानि चरम निषेक | अग गु३ प्र चरमगुणहानि प्रथमनिषेक looo Sasa I Bazaगु२।२।२ तु.गुण. चरम निषेक Aप१० ० अग्र ग३ सन्तीत्युपदेशद्वयमस्ति ।। संदृष्टि:में नानागुणहानिशलाका हैं और नहीं भी हैं ऐसे दो उपदेश विभिन्न आचार्योंके हैं ।।९६४।। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० १३८६ च ॥ गो० कर्मकाण्डे गोम्मटसंग सुत्तं गोम्मटदेवेण गोम्मटं रइयं । कम्माण णिज्जरट्ठ तच्चट्ठवधारणट्ठ च ॥ ९६५ ॥ गोम्मट संग्रहसूत्रं गोम्मटदेवेन गोम्मटं रचितं । कर्मणां निर्ज्जरात्थं तत्त्वार्थावधारणात्थं ई गुम्मटसारसंग्रहसूत्रं गुम्मटदेवनिदं श्रीवीरवर्द्धमानदेवनिदं गुम्मटनयप्रमाणविषधर्म - दंते रचितं रचिसल्पटुदेकें दोडे ज्ञानावरणादिकम्मंगळ निर्जरा निमित्तमागियुं तस्वात्थंगळ निश्चयनिमित्तमागियुं । जहि गुणा विस्संता गणहरदेवा दिइढिपत्ताणं । सो अजियसेणणाहो जस्स गुरू जयउ सो राओ || ९६६ ॥ यस्मिन्गुणा विश्रांता गणधर देवादिऋद्धिप्राप्तानां । सोऽजितसेननाथो यस्य गुरुर्जयतु स राजा ॥ गणधर देवादिऋद्धिप्राप्त रुगळ गुणंगळावनोव्वंनोळ विश्रमिसल्पटुवं तप्पजित सेननाथ नावनोवं व्रतगुरुवा राजं सर्वोत्कर्षादिदं वत्तिसुत्तिर्क । इदं गोम्मटसारसंग्रहसूत्रं गोम्मटदेवेन श्रीवर्धमानदेवेन गोम्मटं नयप्रमाणविषयं रचितं । किमर्थ ? १५ ज्ञानावरणादिकर्मनिर्जरार्थ च ।। ९६५ ।। गणधर देवादीनां ऋद्धिप्राप्तानां गुणा यस्मिन् विश्रान्ताः सोऽनित सेननाथो यस्य गुरुः स राजा सर्वोत्कर्षेण वर्ततम् ॥ ९६६॥ प्रन्थकार प्रशस्ति आगे प्रन्थकार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ग्रन्थ समाप्ति के सम्बन्ध मे २० कहते हैं यह गोम्मटसार नामक संग्रह गाथा गोम्मटदेव श्रीवर्धमानदेवने कर्मोंकी निर्जराके लिए और तत्त्वार्थके अवधारणा के लिए रचा है। नय और प्रमाणके विषयको लेकर रचा है ||९६५ ॥ विशेषार्थ - टीकाकारने गाथामें आये गोम्मटदेवका अर्थ वर्धमान स्वामी किया है । २५ वह हमें ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि ग्रन्थ रचनाका एक उद्देश्य कर्मोंकी निर्जरा भी है। भगवान् महावीर कर्मों की निर्जराके लिए प्रन्थ क्यों रचेंगे ? इसी प्रकार दूसरे गोम्मटका अर्थ 'नय प्रमाण विषय' किया है। किन्तु इस ग्रन्थ में नय-प्रमाणकी चर्चा तो नहीं है । स्थान और मार्गणाओंकी चर्चा है । या कर्म सिद्धान्तकी चर्चा है । इसीसे पं. टोडरमलजी साहबने इसके भावार्थ में कहा है कि यह ग्रन्थ वर्धमान ३० स्वामीकी वाणीके अनुसार बना है । ऋद्धिको प्राप्त गणधरदेव आदिके गुण जिसमें पाये जाते हैं ऐसे अजितसेनाचार्य जिसके गुरु हैं वह राजा गोम्मट - चामुण्डराय जयवन्त होओ ॥ ९६६ ॥ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ____ १३८७ सिद्धंतुदयतडुग्गयणिम्मलवरणेमिचंदकरकलिया। गुणरयणभूसणंबुहिमइवेला भरउ भुवणयलं ॥९६७।। सिद्धांतोदयतटोद्गतनिर्मळवरनेमिचंद्रकरकलिता। गुणरत्नभूषणांबुषिमतिवेला पूरयतु भुवनतलं॥ अथवा भुवनयलं भुवने अलमतिशयेन । सिद्धांतमें बुदयाद्रियोळदयिसल्पट्ट निर्मलवर- ५ नेमिचंद्रकिरणंगळिवं पेच्चिद गणरत्नभूषणांबुधिय चामुंडरायने बंबुनिधिय मतियब वेले भवनतलमं तीवुर्ग । अथवा भुवनदोळ तिशयदिव पसरिसुगे। गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य । गोम्मटरायविणिम्मिय दक्षिणकुक्कुडजिणो जयउ ।।९६८।। गुम्मटसंग्रहसूत्रमं चामुंडरायन देहारदोळेकहस्तमितेंद्रनीलरत्ननेमोश्वरन प्रतिर्मयुं गम्मट- १० राय चामुंडरायं विनिम्मिसिव दक्षिणकुक्कुटजिननें। सर्वोत्कृष्टदिवं वत्तिसुर्ग ॥ सिद्धान्तोदयाचले उदितनिर्मलबरनेमिचन्द्रकिरणर्वपिता गुणरत्नभूषणाम्बुधेश्चामुण्डरायसमुद्रस्य मतिवेलाभुवनतलं पूरयतु, अथवा भुवनेऽतिशयेन प्रसरतु ॥९६७॥ गोम्मटसंग्रहसूत्रं च चामुण्डरायविनिर्मितप्रासादस्थितैकहस्तप्रमेन्द्रनीलमयनेमीश्वरप्रतिबिम्बं च चामुण्डरायविनिर्मितदक्षिणकुक्कुटजिनश्च सर्वोत्कर्षेण दर्तेताम् ॥९६८॥ सिद्धान्तरूपी उदयाचलपर उदयको प्राप्त निर्मल और उत्कृष्ट आचार्य नेमिचन्द्ररूपी चन्द्रमाके वचनरूपी किरगोंसे वृद्धिको प्राप्त 'गुणारत्नभूषण' अर्थात् चामुण्डरायरूपी समुद्रकी मतिरूपी वेला भुवनतलको पूरित करे। विशेषार्थ-जैसे उदयाचलपर उदित चन्द्रमाकी किरणोंके सम्पर्कसे समुद्रमें लहरें उठकर समुद्र के तटको लांघ जाती हैं और सर्वत्र फैल जाती हैं वैसे ही आचार्य नेमिचन्द्रका २० उदय षद्खण्डागम सिद्धान्तरूपी उदयाचलसे हुआ और ज्ञानरूपी किरणोंसे राजा चामुण्डरायरूपी समुद्र आप्लावित होकर सर्वत्र फैले ऐसा ग्रन्थकारका आशीर्वाद है। उन्होंने चामुण्डरायके लिए ही यह ग्रन्थ रचा था। उसीके नामपर ग्रन्थका नाम गोम्मटसार रखा गया है ॥९६७॥ गोम्मटसाररूपी संग्रह प्रन्थ जयवन्त हो। गोम्मट शिखरके ऊपर गोम्मटजिन २५ जयवन्त हो। अर्थात चन्द्रगिरि पर्वतपर चामुण्डरायके द्वारा बनवाये गये जिनालयमें विराजमान एक हाथ प्रमाण इन्द्रनीलमणि निर्मित नेमिनाथ भगवानका प्रतिबिम्ब जयवन्त हो। तथा गोम्मटराजा चामुण्डरायके द्वारा निर्मापित दक्षिण कुक्कुट जिन अर्थात् बाहुबलिका प्रतिबिम्ब जयवन्त हो।९६८॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८८ गो० कर्मकाण्डे जेण विणिम्मिय पडिमावणं सव्वट्ठसिद्धिदेवेहिं । सव्वपरमोहिजोगिहि दिळं सो गोम्मटो जयऊ ॥९६९॥ आवनोनि निम्मिसलुपट्ट प्रतिमावदनं सर्वात्य सिद्धिदेवरुळिवमुं सर्वपरमावधियोगिगलिंदमुं काणल्पदृवंताप गोम्मट सर्वोत्कृष्टदिवं वत्तिसुत्तिक्कै ॥ वज्जयलं जिणभवणं ईसिपमारं सुवण्णकलसं तु । तिहुवणपडिमाणेक्कं जेण कयं जयउ सो राओ ।।९७०॥ वज्रावनितलं भूमितलमोषत्प्राग्भारं सुवर्णकलशमितु। त्रिभुवनप्रतिमानमद्वितीयं जिनभवनमानि कृतमाराजं विराजिसुत्तिकें । जेणुभियथंभुवरिमजक्खतिरीटग्गकिरणजलधोया। सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ ॥९७१।। आवनोव्वं नेत्तिव स्तंभव मेलण यक्षमकुटापकिरण जलदिदं प्रक्षालिसल्पटुवु । सिद्धपरमेठिगळ शुद्धपादंगळा राज चामुंडरायं गेलुत्तिकें ॥ येन विनिर्मितप्रतिमावदनं सर्वार्थसिद्धिदेवैः सर्वपरमावधियोगिभिः दष्टं स गोम्मटः सर्वोत्कर्षण वर्तताम् ॥९६९॥ वज्रावनितलं ईषत्प्राग्भारं सुवर्णकलशमिति त्रिभुवनप्रतिमाने अद्वितीयं जिनभवनं येन कृतं स राजा विराजताम् ॥९७०॥ येनोद्भोकृतस्तम्भस्योपरि स्थितयक्षमुकुटाग्रकिरणजालेन धोतो सिद्धपरमेष्ठिनां शुद्धपादौ स राजा चामुण्डरायो जयतु ॥९७१॥ जिसके द्वारा निर्मापित उत्तुंग बाहुबलिकी प्रतिमाका मुख सर्वार्थसिद्धि के देवोंके द्वारा २७ अथवा सर्वावधि परमावधि ज्ञानी योगियोंके द्वारा देखा गया, वह राजा चामुण्डराय सर्वोत्कर्थ रूपसे प्रवर्तमान रहें ॥९६९॥ जिस राजाने ऐसा जिनभवन बनवाया जिसका भूमितल वज्रके समान सुदृढ़ है, सुवर्णके कलशसे शोभित है और तीनों लोकोंमें जिसकी कोई उपमा नहीं है वह राजा जयवन्त हो ॥९७०॥ २५ जिसके द्वारा ( गोम्मटेशकी मूर्तिके द्वारके सामने ) स्थापित उत्तुंग स्तम्भके ऊपर स्थित यक्षके मुकुटके अग्रभागसे निकलनेवाली किरणरूपी जलसे सिद्धपरमेष्ठियोंके शुद्ध चरण युगल धोये गये हैं वह राजा चामुण्डराय जयवन्त हो ॥९७१॥ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८९ १३८९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गोम्मटसुत्तं लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । सो राओ चिरकालं णामेण य वीरमत्तंडी ॥९७२॥ ई गोम्मटसारसूत्रलेखनदोळ गोम्मटरानिदमाउवोंदु देशीभाष माडल्पटुदा रायं नामदिदं वीरमातडं चिरकालं जयसुत्तिक्कें । [मत्तेभ विक्रीडित.वृत्त :] सुगम वालियनोवदिक्कलिपुटुं मेवप्रभागक्कयुं । नेगेदुल्लंघिपुदुं करं सुगममा लोकांतदाकाशमम् ॥ सुगम पोगि बेरल्गळि मिडिददं नोपदमावंददि । सुगमं तानिनितल्तु गोम्मटमहाशास्त्राब्धिपारंगमं ॥१॥ [कंद पद्य:] मण्णं पिडिदोडे कैयाळु मण्णुं पोन्नप्पुर्वन्न जेनतनक्क । बण्णहरियण्णनोदिन डोणेय घायक्के बेदरवण्णगळोळरे ॥२॥ १५ २० गोम्मटसूत्रलेखने गोम्मटराजेन या देशी भाषा कृता स राजा नाम्ना वीरमार्तण्डश्चिरकालं जयतु ॥९७२॥ संस्कृतटीकाकारप्रशस्ति श्रीवृषभोऽजितो भक्त्या शंभवोऽभिनन्दनः । सुमतिः पद्मभासः श्रीसुपार्श्वश्चन्द्रभः स्तुतः ॥१॥ सुविधिः शीतलः श्रेयान् सुपूज्यो विमलेश्वरः । अनन्तो धर्मनाथो नः शान्तिः कुन्थुररप्रभुः ॥२॥ गोम्मटसार ग्रन्थके लिखे जानेपर गोम्मटराज चामुण्डरायने जो देशी भाषामें टीका रची, जिसका नाम चामुण्डरायकी उपाधिपर वीरमार्तण्डी था, वह राजा चिरकाल तक जीवित रहे ।।९७२॥ सागरको बिना किसी कष्ट के पार करना, मेरु पर्वतके शिखरपर चढ़कर उसको पार करना, लोकान्त तक फैले हुए विशाल आकाशके अन्ततक पहुँचकर अपनी अंगुलियोंसे छूकर उसका अनुभव करना, ये सब काम सुलभ साध्य हैं । परन्तु गोम्मटसारके शास्त्र समुद्रको पार करना सुलभ नहीं ॥१॥ विशेषार्थ-प्रपंचमें जो दुःसाध्य कार्य हैं उन्हें चाहे हम कर सकेंगे, लेकिन २५ गोम्मटसारके सिद्धान्त सागरको पार करना असाध्य काम है। इन बातोंसे स्पष्ट है कि गोम्मटसारके अर्थ लगाने में, विवरण देने में पढ़नेवालेको जो पाण्डित्य और संस्कार चाहिए उसका दिग्दर्शन केशवण्णा दे रहा है। साथ ही वैसे संस्कारको मैंने प्राप्त किया है, ऐसे आत्मविश्वासकी ध्वनि भी यहाँ प्रतिध्वनित होती है ॥११॥ जैनागमकी प्रतिभाके कारण अगर मैं अपने हाथमें मिट्टी भी ले लूँ वह सोना बन .. जायेगी। विद्वान् केशवण्णकी विद्वत्ताको देखकर कौन ऐसा है जो डर न जाय ॥२॥ १. नाभेयमजितं देवं शम्भवं भवतारकम् । घातिकर्मप्रणाशाय प्रणमाम्यहमादरात् ॥१॥ अभिनन्दनमानन्दरूपं सुमतिमच्युतम् । पद्मप्रभ प्रभुं वन्दे रत्नत्रयविशुद्धये ॥२॥ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९० गोकर्मका मानेन्न मतिय पणिगेर्नु किरिदिल्लदरिद जैनागममं । शानं मत्यनुसारं ज्ञानिगळेनगेवळिवरें बंगंगं ॥३॥ अरिवनगादोर्ड तिण्णं बरिबिट्टियोळेके धनमनीवननुति । प्परिविन कणि बोडपं गुरुवरे किरिकिरिदनरिव केशणंगळु ॥४॥ सेसेगोळल्वेळवं कोललोसुगलेन्मं दुरात्मनो केशण्णं ।। दोसियनुतिंतु तोरवं पेसि जिनागममनरिवनं गोपण्णं ॥५॥ श्रीमल्लिः सुव्रतः स्वामी नमिर्नेमिः श्रीपावकः । वीरस्त्रिकालजोऽप्यन् सिद्धः साधुः शिवं क्रियात् ॥३॥ यत्र रत्नस्त्रिभिल वाहन्त्यं पूज्यं नरामरैः । निर्वान्ति मूलसंघोऽयं नन्द्यादाचन्द्रतारकम् ॥४॥ तत्र श्रीशारदागच्छे बलात्कारमणोऽन्वयः । कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्याम्नायोऽपि नन्दतु ॥५॥ विशेषार्थ-केशववर्णीके समकालीन पण्डितवर्ग एवं विद्वानोंके लिए यह सवाल है और चुनौती है। इससे उसके आत्मविश्वासका अंश प्रकट होता है और वह कहता है कि मेरा पाण्डित्य प्रश्नातीत है ॥२॥ वह कहता है कि मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार अगाध जैनागमका अध्ययन किया है। ज्ञान तो हमेशा सतताध्ययनसे और संस्कारसे प्राप्त होता है। क्या बिना संस्कारके लोग १५ मेरी बराबरी कर सकते हैं ? ॥३॥ विशेषार्थ-केशववर्णी अपनी अध्ययनप्रवृत्ति और संस्कार विशेष पर अभिमानसे कहता है कि मेरी विद्वत्ता किसीसे कम नहीं है ॥३॥ ज्ञान तो सदा मुफ़्त में नहीं मिलता। मेरी निश्चित धारणा है कि मैंने धन देकर ही ज्ञान प्राप्त किया है। ऐसोंका ज्ञान पाण्डित्य पूर्ण है ॥४॥ २० विशेषार्थ-ऊपरकी पंक्तियोंसे यह स्पष्ट विदित होता है कि केशववर्णीके समकालीन कोई विद्वान उसकी विद्वत्ताको वक्रदृष्टि से देखनेवाला था। वह व्यक्ति आगेके पद्य (नं. ५) में सूचित गोपण्ण ही शायद हो। लेकिन अपनी गोम्मटसारको टीकाके अन्तिम भागमें इस अंशका उल्लेख करनेका औचित्य क्या था यह एक कुतूहलको बात मनमें रह जाती है । शायद उसका आशय यह रहा होगा कि वह अपने प्रतिस्पर्धियोंकी सत्त्वपरीक्षामें खरा २५ उतरा है और अगाध पाण्डित्यवाला है ॥४॥ ___ दुरात्मा गोपगने मुझे मारनेके लिये मन्त्रात स्वीकारने के लिये कहा । आखिर वही दोषी ठहराया जाकर जिनागमको त्यागकर केशवण्णको (मुझे) छोड़कर चला गया। उसकी हार हुई ॥५॥ विशेषार्थ-ऊपरके पद्यसे यह वार्ता स्पष्ट हो जाती है कि गोपण्ण नामका समकालीन व्यक्ति था जिसका सम्बन्ध केशवण्गके साथ मधुर नहीं था। साथ ही जैनागमके ज्ञाता गोपण्ण जैसे व्यक्तिने अपने ऊपर जो झूठा अपवाद लगाया है उसकी चोटका दुःख भी केशवण्णको था। लेकिन स्पष्ट था कि वह अपवाद बेबुनियाद था ।।५।। ३० सुपार्श्वमनघं चन्द्रप्रभ त्रिभुवनाधिपम् । पुष्पदन्तं जगत्सारं वन्दे तद्गुणसिद्धये ॥३॥ शीतलं सुखसाद्भूतं पुण्यमूर्ति नमाम्यहम् । श्रेयान्सं वासुपूज्यं च केवलज्ञानसिद्धये ॥४॥ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति वीवतत्त्वप्रदीपिका [ मत्तेभविक्रीडित वृत्त:] पोगो धूर्तजनोपसर्गमनिशं बबत्ते बेबोळवानोणः गोम्मटसार वृत्तियनिदं कर्नाटवाक्यंगळि । प्रणुतझैधनरुं बहुश्रुतरिदं तिद्दिबुधर्द्धर्मभूषणभट्टारकदेवराज्ञेयनिदं संपूर्णमं माडिदें ॥६॥ नेरेदु शकादमिदुवसुनेत्रशशिप्रमितं(१२८१)गळागि सं.। विरुतिरयु विकारिवरवत्सरचैत्रविशुद्ध पक्ष भा. सुरतरपंचमीदिवसदंदिदु गोम्मटसारवृत्ति भास्करनोगे दं विनेयजनहृत्सरसिजमतुकळलच्चुतं ॥७॥ यो गणगणभद्गीतो भट्रार कशिरोमणिः। भक्त्या नमामि तं भूयो गुरुं श्रीज्ञानभूषणम् ॥६॥ कर्णाटप्रायदेशेशपल्लिभूपालभक्तितः । सिद्धान्तः पाठितो येन मुनि वन्द्रं नमामि तम् ॥७॥ __ यद्यपि धूत जनोंने सदा उपद्रव मचाया फिर भी बिना डरे मैंने उसका सामना किया और धर्मभूषण भट्टारक देवकी आज्ञा पाकर गोम्मटसारकी कन्नड भाषामें टोका रची। इसमें यदि कोई त्रुटि रह जाय तो श्रुतपारंगत विद्वान् पण्डितगण उसको ठीक बनानेका अनुग्रह कर ॥६॥ विशेषार्थ-कृति निर्माण कालमें केशवण्णने स्वयं जिन समस्याओंका सामना किया था, यहाँ उसका उल्लेख किया है। वह कहता है कि मैंने अपवादोंको जीत लिया और इस कृति रचनामें मुझे मेरे गुरु धर्मभूषण भट्टारककी कृपाका अनुग्रह प्राप्त हुआ है। इन सब बातोंसे सष्ट है कि केशवण्णको कृतिरचनामें अनेकों कष्ट सहने पड़े, फिर भी गुरुके अनुग्रहसे उनने ग्रन्थको सम्पूर्ण किया । यहाँ केशवणकी बातोंमें विनयपूर्ण आत्मविश्वास- २० की झलक दीख पड़ती है ॥६॥ यह पद्यकृति रचनाकारकी न होकर प्रतिलिपिकारकी जान पड़ती है। प्रसिद्ध शालिवाहन शक वर्ष इन्दु-वसु-नेत्र-शशि ( १८२१ उलटा करें तो १२८१ में ) के विकारि संवत्तरके चैत्र शुदी पंचमीके शुभ दिनमें इस गोम्मटसारकी कर्नाटक वृत्तिको शिष्यों के हृदयको प्रफुल्लित क नेवाले श्रीभास्करने सम्पूर्ण किया ॥७॥ २५ विशेषार्थ-इस गोम्मटसार वृत्तिकी प्रतिलिपि शालिवाहन शक संवत् १२८१ के विकारि संवत्सरके चैत्र शुक्ल पंचमीके पवित्र दिन भास्करने लिखकर पूर्ण किया ॥७॥ विमल निजितानङ्गं प्राप्तानन्तचतुष्टयम् । अनन्तं धर्मनाथं च वन्दे स्वात्मोपलब्धये ॥५॥ शान्तिनाथं व कुन्थु च अरं वेशान्नमाम्यहम् । पथारूवातगुणोपेतान् यथारूपातप्रसिद्धये ॥६॥ मिनाथं च पर्व च वर्धमानं जिनेश्वरम् । त्रिकालमभिवन्देऽहं नवक्षायिकलब्धये ॥७॥ विशालगोचगः मर्वेजन्ताह सद्धसाघवः । निःश्रेयसपदं दाः शरण तममङ्गलम् ॥८॥ य माध्यैव भगोकाः प्राप्ताः केल्यसम्पदः । शाश्वतं पदरापुस्तं मू संघम गश्रये । ९॥ तत्र श्रीशारदागच्छे बलात्कारगणोऽन्वयः । कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्द्यादाचक्रतारकम् ॥१०॥ क-१७५ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ܕ १५ २० २५ ३० १३९२ गो० कर्मकाण्डे नाभेयमजितं देवं शंभवं भवतारकं । घातिकर्म्मप्रणाशाय प्रणमाम्यहमादरात् ॥ अभिनंदनमानंदरूपं सुमतिमच्युतं । पद्मप्रभं प्रभुं वंदे रत्नत्रय विशुद्धये ॥ सुपामनघं चंद्रप्रभं त्रिभुवनाधिपम् । पुष्पदन्तं जगत्सारं वंदे तद्गुणसिद्धय ॥ शीतलं सुखसाद्भूत पुण्यमूत्ति नमाम्यहम् । श्रेयांसं वासुपूज्यं च केवलज्ञानसिद्धये ॥ विमलं निज्जितानंगं प्राप्तानंतचतुष्टयम् । अनंतं धर्मनाथं च वंदे स्वात्मोपलब्धये ॥ शांतिनाथं च कुंथुं च अरं चेशान्नमाम्यहम् । षट्खंडवसुषाच कधचक्र प्रणायकान् ॥ मल्ल सुव्रततीर्थेशं नम भक्त्या नमाम्यहम् । यथाख्यातगुणोपेतान्यथाख्यातप्रसिद्धये ॥ नेमिनाथं च पाश्वं च वर्द्धमानं जिनेश्वरम् । त्रिकालमभिवंवेऽहं नवक्षायिकलब्धये ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः | श्रीमल्लिनाथाय नमः ॥ * ॥ * ॥ * ॥ श्रीमच्चौंडर सुपाध्याय सुपुत्र समंतभद्रदेवानां ग्रंथः परिसमाप्तोऽयं ॥ ज्ञाता घरघ्नागतवर्ष युक्ता पापोनितास्याच्छक काल संख्या । चालुक्ययुक्ता मुनिचित्समेता श्रीवर्द्धमानस्य समा भवेयुः ॥ श्रीमदृवंशसमुद्भवाः प्रविलसद्वृत्तोज्ज्वला निम्मंलाः प्रचित्कांतिभरास्सदाप्तरुचयो भव्याः सुसेव्याः सतां । ये ते लोक शिरोमणित्वमधिकं संप्राप्य मुक्तोपमा (मुक्ता इवाss ) भांतु स्वात्यमलामृतोदय भवैर्भास्वद्गुणैर्भूषिताः ॥ योऽस्य धर्मवृद्धयर्थं मह्यं सूरिपदं ददौ । भट्टारकशिरोरत्नं प्रभेन्दुः स नमस्यते ॥८॥ त्रिविद्यविद्याविख्यात विशालकीर्तिसूरिणा । सहायोऽस्यां कृतो चक्रेऽधीता च प्रथमं मुदा ॥ ९ ॥ सूरेः श्रीधर्मचन्द्रस्याभय चन्द्रगणेशिनः । वणिलालादिभव्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥१०॥ रचिता चित्रकूटे श्री पार्श्वनाथालयेऽमुना । साघसांगासहेसाभ्यां प्रार्थितेन मुमुक्षुणा ॥११॥ तत्र श्रीमज्जिनधर्माम्बुधिवर्धनपूर्णचन्द्रायमानश्रीज्ञानभूषणभट्टारक शिष्येण सौगतसांख्य कणादभिक्ष्विक्षुपादप्रभाकरादिपरवादिगज गंडमेड प्रभाचन्द्रभट्टारकदत्ताचार्यपदेन श्रविद्यविद्या परमेश्वर मुनि चन्द्रा वार्यमुखात् कर्णाटदेशाधिनाथप्राज्य साम्राज्यलक्ष्मीनिवास जैनोत्तम मल्लिभूपालयत्नादधीतसिद्धान्तेन वर्णिला - लाविहिताग्रहाद् गौर्जर देशा च्चित्रकूट जिनदास साह निर्मापितपार्श्वप्रभुप्रासादाधिष्ठितेनामुना नेमिचन्द्रेणाल्पमेधसाऽपि भव्यपुण्डरीकोपकृतीहानुरोधेन सकलज्ञातिशेखराय माणखंडेलवाल कुलतिलक - साधुवंशावतंसजिनधर्मोद्धरणधुरीण साहसांग साहसहसाविहितप्रार्थनाधीनेन विशदत्रैविद्यविद्यास्पदविशालकीर्ति सहाया दियं यथाकर्णाटवृत्ति व्यरचि । यावच्छ्रीजिनधर्मश्चन्द्रादित्यो चविष्टपं सिद्धाः । तावन्नन्दतु भव्यैः प्रपाठ्यमाना स्वियं वृत्तिः ॥ निग्रन्थाचार्यवर्येण विद्यचक्रवर्तिना । संशोध्याभयचन्द्रेणा लेखि प्रथमपुस्तकः ॥ ॥ इत्यभयनन्दिनामाङ्कितायाम् ॥ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका श्रीसर्व्वज्ञसुबोधवज्रतलभाक् स्यात्कार तीरोदुरो गंभीरो वरनेमिचंद्र विसरद्वावचंद्रिकार्वाद्धितः । विस्तीर्णो गुणरत्नभूषणभरस्तारार्थपूर्णो महान्नित्यं गोम्मटसारसंज्ञितसुघां भोधिश्शिवायास्तु वः ॥ श्रीमद्धर्मसुधा समुद्र विजयोल्लासस्तमस्तोमभित् भास्वद्भव्य चकोरसम्मदकरः प्रध्वस्ततापोत्करः । प्रांचपंचसु संग्रह स्त्रिभुवनोद्योती सदानंदनो जीयाद्भासुरबोधमाधवबलश्री नेमिचंद्रोदयः ॥ गोम्मटसारवृत्तिर्हि नन्द्यान्द्रव्यैः प्रवर्तिता । शोषयन्त्वागमात् किञ्चित् विरुद्धं चेद् बहुश्रुताः ॥ १२ ॥ निर्ग्रन्थाचार्यवर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना । संशोध्याभयचन्द्रेणा लेखि प्रथम पुस्तकः ||१३|| इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रकृतायां गोम्मटसारापरनाम पञ्चसंग्रहवृत्ती कर्मरचना स्वभावो नाम नवमोऽध्यायः समाप्तः । १३९३ ५ संस्कृत टीकाकारकी प्रशस्तिका आशय चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करनेके पश्चात् टीकाकार कहते हैं- जिसमें रत्नत्रय के द्वारा पूज्य अर्हन्तपदको प्राप्त करके मोक्ष जाते हैं वह मूल संघ जयवन्त हो । उसके सरस्वती - १५ गच्छ में बलात्कारगण है । उसमें कुन्दकुन्द मुनीन्द्रका नन्दिसंघ है वह भी जयवन्त होओ। मैं अपने गुरु भट्टारक शिरोमणि ज्ञानभूषणको भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । कर्णाट देश के मल्ल राजाकी भक्तिसे जिसने मुझे जिनागम पढ़ाया है उन मुनिचन्द्रको नमस्कार करता हूँ । जिनने धर्मवृद्धिके लिए मुझे सूरिपद दिया उन प्रभाचन्द्र भट्टारकको नमस्कार करता हूँ । विद्य विशालकीर्ति सूरिने इस टीकाके रचनेमें सहायता की और बड़े हर्षसे २० प्रथम उसे पढ़ा। यह टीका चित्रकूट में श्री पार्श्वनाथ जिनालय में धर्मचन्द्र सूरि अभयचन्द्र भट्टारक वर्णीलाला आदि भव्य जीवोंके लिए साधुसांग और सहेसकी प्रार्थनापर कर्णाटवृत्तिसे रची। १० Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टः Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार ग्रन्थकी गणितात्मक प्रणाली षट्खण्डागम ग्रन्थ सम्भवतः ईसाकी दूसरी सदीमें आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलिकी अद्भुत कृति है । इसमें से प्रथम पाँच खण्डोंपर नवीं सदीमें आचार्य वीरसेन द्वारा विशाल धवला नामक टीका रची गयी। छठा खण्ड महाधवलके नामसे भी विख्यात है और महाबन्ध कहलाता है । ग्यारहवीं सदीमें नेमिचन्द्राचार्यने इन ग्रन्थोंके गणितीय सार रूप गोम्मटसार जीवकाण्ड तथा कर्मकाण्ड रूपमें रचना की । इन्हीं ग्रन्थोंकी केशववर्णी कृत कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका विलक्षण प्रतीकोंसे भरी हुई है और गणितज्ञोंके लिए अभूतपूर्व सामग्री प्रदान करती है । इस टीकाके अतिरिक्त एक अपूर्ण टीका मन्दप्रबोधिका है और पण्डित टोडरमल कृत सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका है । पण्डित टोडरमलने अन्तःप्रज्ञासे अनेक प्रतीकोंके अर्थ समझनेका प्रयास किया, तथा अर्थ दृष्टि अधिकार उक्त टीकाके अतिरिक्त निर्मित किया, जिसमें उन्होंने प्रायः प्रत्येक कठिन प्रतीकबद्ध पदको सरल वाक्यों या शब्दों द्वारा समझाया है । यह कार्य अठारहवीं सदीमें सम्पूर्ण किया गया । प्रस्तुत निबन्धमें पण्डित टोडरमलके अभिप्रायकी सिद्धिके लिए उन्हींकी रचनाके आधारपर लोकोत्तर प्रमाणकी गणितात्मक प्रणालीको सरलतापूर्वक समझाया गया है । आशा है कि इसके द्वारा न केवल शोधार्थी अपितु जिज्ञासु मुमुक्षु भी लाभान्वित हो सकेंगे । इसके साथ ही विभिन्न पारिभाषिक शब्दोंके लक्षणके पठन-पाठन हेतु यहाँ प्रायः सभी गणितीय परिभाषाएँ दे दी गयी हैं । संदृष्टियोंके प्रयोग भी निर्दिष्ट कर दिये गये हैं । इस प्रकार प्रारम्भिक रूप से लेकर आवश्यक गणितीय सामग्रीको समझाते हुए, शोधार्थी अथवा मुमुक्षुको लब्धिसारकी बड़ी टीकामें गति हेतु तैयारी कराने का भी अवसर प्राप्त हो सकेगा । ६१. भूमिका किसी भी गणितीय प्रणालीमें अध्ययनके पूर्व उसमें प्रविष्ट प्रतीकोंकी जानकारी आवश्यक है । गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी टीकाओंमें इस प्रणालीके सार संक्षेपरूप अध्ययन हेतु, साथ ही उन्हें स्मरण रखने हेतु प्रतीकमय सामग्री निर्मित की गयी, जो पूर्ववर्ती ग्रन्थोंमें उपलब्ध नहीं है । तिलोयपण्णत्ती जैसे ग्रन्थोंमें कुछ प्रतीकबद्ध सामग्री है और कुछ धवला टीका ग्रन्थोंमें भी उपलब्ध होती है । किन्तु विशाल पैमाने पर यह सामग्री अंक संदृष्टि, अर्थ संदृष्टि तथा रेखा संदृष्टि रूपमें केशववर्णीकी कर्णाटकीटीकामें दृष्टिगत होती है । इसी प्रकार लब्धिसार क्षपणासारकी टीकामें सम्भवतः माधवचन्द्र त्रैविद्य तथा ज्ञानभूषणके शिष्य नेमिचन्द्र ( १६ वीं सदी ) द्वारा जो संदृष्टि प्रयोग हुआ वह भी विलक्षण है और विशेषकर धर्मके मर्मको कर्मके गणित द्वारा प्रकट करता प्रतीत होता है । Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९८ गोकर्मकाणे सर्व प्रथम ऐसे समस्त प्रतीकोंका स्वरूप दिखाना आवश्यक होनेसे उन्हें मूल रूपमें प्रस्तुत करना लाभप्रद होगा। साथ ही ऐसे प्रतीक उनके स्थानमें लेना आवश्यक होगा जो उनके स्थानमें अगले गहरे अध्ययनमें उपयोगी हों। ऐसे नवीन कार्यकारी प्रतीकोंको आधुनिक गणित के तारतम्यमें रखना भी अनिवार्य है, क्योंकि प्राचीन सामग्रीका प्रायोगिक रूप इसी आधारपर निखर सकेगा। इसके पूर्व जो महत्त्वपूर्ण आधार है वह वैकल्पिक ( Abstract ) इकाइयोंको लेकर बनता है। प्रारम्भ परमाणुसे करते हैं जो अविभागी पुद्गल है और जो विश्राम अवस्थामें जितनी जगह घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । प्रदेशोंके आधारपर, उनकी सूचि, प्रतर अथवा घनमें समाये नये क्षेत्रमान स्थापित करता है जो उपमा मानके लिए आधारभूत हैं । इस प्रकार अंगुल, जगश्रेणीके उक्त तीनों रूप किसी भी राशि की गणात्मक संख्याका प्रतिनिधित्व अथवा निर्वाचन करते हैं। निश्चयकालकी पर्यायको समय कहते हैं, जो व्यवहारकालकी सर्वाल्पतम इकाई है । इसे दूसरी तरह भी परिभाषित करते हैं। जितने कालमें कोई परमाणु दूसरे संलग्न परमाणु-प्रदेशका मन्दतम गतिसे अतिक्रमण करता है, उसे एक समय कहते हैं । इसी एक समयमें तीव्रतम गतिसे चलायमान परमाणु चौदह राजु गत प्रदेशोंका अतिक्रमण कर सकता है। इस प्रकार समय राशियोंसे पल्य तथा सागरके कालमान स्थापित करते हैं और उनका उपयोग अन्य अज्ञात राशियोंकी गणात्मक संख्याका निरूपण या प्रतिनिधित्व करने में होता है । यह कालमान भी उपमामान कहलाता है। दूसरा मान संख्यामान है जिसमें गणना द्वारा संख्येय, असंख्येय तथा अनन्तकी अनेक प्रकारकी क्रमात्मक राशियाँ उत्पन्न कर उनके द्वारा अनेक अज्ञात राशियोंके द्रव्य प्रमाणको स्थापित करते हैं। इस प्रकार किसी भी अध्ययन योग्य राशिको द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण और काल प्रमाणसे तौलते हैं तथा भाव प्रमाणमें स्थापित करते हैं। भावका तात्पर्य ज्ञानके उतने अविभाग-प्रतिच्छेद-राशिसे है जो केवल ज्ञान अविभागी प्रतिच्छेद राशिकी एक उपराशि ही होती है। सभी राशियाँ केवलज्ञानकी अविभागी प्रतिच्छेद राशिमें समायी हुई होती है और उससे छोटी ही होती हैं। __ यहाँ अविभागी प्रतिच्छेद का अर्थ समझ लेना आवश्यक है। गुणोंमें गुणांशका विकल्प अविभागी प्रतिच्छेदको जन्म देता है । वैसे भी पुद्गल पदार्थको छेदते हुए अविभागी प्रतिच्छेदकी कल्पना वीरसेनाचार्यने धवल ग्रन्थ (पु. ४ ) में की है, जहाँ लोककेआयतनका सन्दा है। कर्म सिद्धान्तके अध्ययनमें भी एक और विकल्प है जो परमाणुओंके स्निग्ध-रुक्ष स्पर्शके अविभागी प्रतिच्छेदोंसे परे है। वह है अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदकी कल्पना जिसका सम्बन्ध स्निग्ध-रुक्ष स्पर्शके अविभागी प्रतिच्छेदोंसे जोड़ा जा सकता है, पर स्पष्ट है कि दोनों तादात्म्य सम्बन्ध नहीं रखते होंगे । यदि हो तो उसे सिद्ध किया जाये। इस प्रकार विभिन्न प्रमाणोंका वर्णन सिद्धान्त ग्रन्योंमें है और उन्हें संदृष्टियों द्वारा दर्शाया गया है । उन्हें ठीक रूपमें समझने हेतु पण्डित टोडरमलने अलगसे अर्थ संदृष्टियोंपर दो अधिकार लिखे थे। एक गोम्मटसार जीवकाण्ड कर्मकाण्ड प्रकरणपर है तथा दूसरा लब्धिसार क्षपणासार प्रकरणपर है। इन्हीं अधिकारोंके आधार पर संदृष्टियोंका स्पष्टीकरण करेंगे ताकि विभिन्न कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी गणितीय प्रणालीका रूप समझा जा सके । संदृष्टि कभी-कभी एक ही होते हए भी भिन्न-भिन्न प्रकरणोंमें भिन्न-भिन्न अर्थ प्ररूपित करती है। अतएव अंक, अर्थ एवं आकाररूप संदृष्टियोंको बड़ी सावधानीसे समझ लेनेपर कर्म सिद्धान्त का अधिकांश भाग स्मृतिमें रखना सरल हो जाता है। साथ ही अनेक प्रकरणोंका आधुनिक गणितसे तुलनात्मक अध्ययन भी सम्भव हो जाता है। यह भी प्रकट हो जाता है कि इन संदृष्टियोंमें क्या सुधार किया जाये ताकि आधुनिक ढंगसे गणित पढ़नेवाले कर्म सिद्धान्तकी गणितीय प्रणालीको भलीभाँति समझकर उसके प्रायोगिक रूप पर अनुसन्धान भी कर सकें। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९९ गणितात्मक प्रणाली ६२. संदृष्टियों का स्पष्टीकरण _ विवक्षित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंके जो प्रमाण आदि हैं उसे अर्थ कहते हैं। अर्थकी संदृष्टि अथवा सहनानीको अर्थ संदृष्टि कहते हैं । शब्दोंके द्वारा अंकोंका बोध भी कराया जाता है। यथा : विधु = १, निधि - ९, अन्तरिक्ष =०, इन्द्रिय =५, करणीय-५, कर्मन् = ८, कषाय = ४, गति =४, जिन = २४, तत्त्व =७, दिक् = ८, द्रव्य -६, नय=२, पदार्थ =९, रत्न =३, ( रत्न%९ भी), रस= ६, लब्धि - ९, वर्ण =५, व्यसन = ७, व्रत-५, इत्यादि । विशेष वर्णनके किए महावीराचार्य कृत गणितसार संग्रह ( शोलापुर, 1963) देखा जा सकता है । अक्षरोंके द्वारा भी कहीं-कहीं अंकोंका निरूपण किया जाता है। इनमें एक पद्धति कटपयादि हैं । कटपयपुरस्थवर्णनवनव पंचाष्टकल्पितः क्रमशः । स्वर अन शुन्यं संख्यामात्रीपरिमाक्षरं त्याज्यं ॥। अर्थात्, निम्नरूपमें क आदि अक्षरों द्वारा संख्याओंका निरूपण होता हैक ख ग घ ङ प फ ब भ य र ल व श भ.45459 •AG4.३ . novat. अ आ इ ई ऊ ऋ ऋ ल ल व.. ओ औ अः अक्षरकी मात्रा ऊपर कोई अक्षर होनेका भी कोई प्रयोजनीय अर्थ नहीं होता है । प्रभृति अथवा इत्यादिको निदर्शित करनेके लिए = चिह्नका उपयोग हुआ है। उदाहरणार्थ ६५ = का अर्थ पणट्टी अथवा ६५५३६ अथवा (२) है ! यह २१६ का मान है। इसी प्रकार वादालको ४२ = द्वारा प्ररूपित किया जाता है जिसका मान ( २ ) अथवा ( २ )३२ है । इसी प्रकार एकट्ठी अथवा १८ = का मान ( २) अथवा (२)६४ है । जघन्यको भी ज= लिखा जाता है। कर्मस्थिति रचनामें बीचकी संख्याओंको दर्शानेके लिए बिन्दुओं अथवा शून्योंका प्रयोग किया जाता है। यदि आदि निषेककी संख्या ५१२ हो और अन्तनिषेकको ९ द्वारा प्ररूपित किया गया हो तो बीचके निषेकोंका इसी प्रकार निदर्शन हैक-१७६ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०० गोकर्मकाण्डे कहीं नामका आदि बक्षर ही संदृष्टि बन जाता है। यथा लक्षके ल, कोटिके लिए को, जघन्यके लिए ज, इत्यादि । लक्ष कोटिको ल को, जान्य ज्ञानको ज जा द्वारा निरूपित करते हैं। इसी प्रकार कोटाकोटिके लिए को २ ( अर्थात् कोटिवर्ग) द्वितीय मूलके लिए मू २ ( अर्थात् किसी राशिके वर्गमूलका ममूल ) प्रयुक्त है। अंतःकोटाकोटिको ५१२ अंकोर द्वारा निरूपित करते हैं जिसका अर्थ १ और (१०) के बीच स्थित कोई भी प्राकृत संख्या होता है । ६५००० को लिखने हेतु ६५० का उपयोग किया गया . यह बिन्दु बढ़ानेको प्रक्रियाके लिए नवीन संकेतनाका उपयोग है । इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती ( ९, १२४-२४ ) में ९० । ९६ । ५००। ८ । ८ । ८ । ८ । ८ । ८ । ८ । ८ । का अर्थ (१०००) (९६) (५००) (८) है । अब संख्यामान संबंधी प्राचीन संकेतोंका उल्लेख करेंगे-संख्यातको १ द्वारा, असंख्यातको द्वारा, और अनन्तको ख द्वारा प्ररूपित किया जाता रहा है। इसी प्रकार जघन्य संख्यातके लिए २, उत्कृष्ट संख्यातके लिए १५, जघन्य परीत असंख्यातके लिए १६ सहनानी रूप है। आवलीकी सहनानी भी २ है। उत्कृष्ट परीत असंख्यातके लिए २ अथवा आवली ऋण एक संकेत है। जघन्य युक्त असंख्यात भी आवलीके समान २ संकेत द्वारा निरूपित होता है। वह उत्कृष्ट परीत असंख्यातसे एक अधिक है। उत्कृष्ट युक्ता संख्यातकी सहनानी ४ है, अर्थात् प्रतरावलो ऋण एक। यह जघन्य असंख्यात असंख्यातसे एक कम है, क्योंकि यह प्रतरावली मात्र अथवा ४ है जो आवलीका वर्ग है । घनावलीका संकेत ८ है। यह आवली समय राशिका घन करनेपर प्राप्त होती है। उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात की सहनानी २५६ है । यह जघन्य परीतानन्तसे एक कम है । जघन्य परीतानन्तका संकेत २५६ है । उत्कृष्ट परीतानन्तको सहनानी ज जु अ है । जघन्य युक्तानन्तका संकेत ज जु अ है । वर्ग का संकेत व है। इस प्रकार उत्कृष्ट युक्तानन्तका संकेत ज जु अव है। यह जघन्य अनन्तानन्तसे एक कम है क्योंकि जघन्य अनन्तानन्तका संकेत ज जु अव है। जघन्य अनन्तानन्त वास्तवमें जघन्ययुक्त अनन्तका वर्ग होता है। अब निम्नलिखित सहनानियाँ प्रकृत रूपमें सरलतासे समझी जा सकती हैंसम्पूर्ण जीव राशि : स्पष्ट है कि संसारी जीवराशि और सिद्ध जीव संसारी जीव राशि मिलकर सम्पूर्ण जीवराशि बनती है। सिद्ध जीव राशि पुद्गल परमाणु राशि १६ ख : स्पष्ट है कि यह राशि सम्पूर्ण जीव राशिसे अनन्त गुणी है। काल समय राशि १६ ख ख : यहाँ काल समय राशि पुद्गल परमाणु राशिसे अनन्त गुणी निर्शित है। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४०१ आकाश प्रदेश राशि केवलज्ञान अथवा उत्कृष्ट अनन्तानंत १६ ख ख ख : स्पष्ट है कि आकाश प्रदेश राशि वस्तुतः काल समय राशिसे अनन्तगुणी है। : केवलज्ञानकी अविभागी प्रतिच्छेद राशिको उत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्यामानवाली माना गया है। इससे बड़ी कोई राशि नहीं है। के मू १ : इसे (के) द्वारा निरूपित कर सकते हैं . २ : इसे (के) द्वारा निरूपित कर सकते हैं। केवलज्ञानका प्रथम मूल केवलज्ञानका द्वितीय मूल पल्य के सागर सूच्यंगुल २ : यह पंकेत आवलीका भी है । यह अंगुलमें समाविष्ट प्रदेश राशि है। प्रतरांगुल ४ : अंगुल प्रदेश राशिका वर्ग । घनांगुल ६ : अंगुल प्रदेश राशिका घन । नोट : यदि अंगुल के लिए अं और आवलिके लिए आ संकेत लिये जायें तो विशेष सुविधा हो सकेगी। इसी प्रकार जगश्रेणी के लिए भी श्रे का संकेत सरल पाया जायेगा। हम इन तीन संदृष्टियोंका उपयोग आगे करेंगे। जगश्रेणी : इस क्षतिज रेखा द्वारा जगश्रेणीमें स्थित प्रदेश राशि प्ररूपित की जाती है। : इन दो रेखाओं द्वारा श्रेणीके वर्ग में स्थित प्रदेश राशि निरूपित की जाती है। जगप्रतर घनलोक : इन तीन क्षतिज रेखाओं द्वारा जगणीसे बने घनमें स्थित प्रदेश राशि प्ररूपित होती है। :क्षतिज रेखा के नीचे लिखे ७ का भाग जगश्रेणी राशिमें देने पर रज्जु अथवा रज्जुमें स्थित प्रदेश राशिका निरूपण होता है। रज्जु प्रतर : उपर्युक्त रज्जु राशिका वर्ग रज्जु प्रतर राशि होता है। यहाँ अंश तथा हर, दोनों ही वर्गित किये गये है। रज्जु घन : यहाँ रज्जु राशिका घन निरूपित है। अंश और हर जो रज्जुको निरूपित करते हैं, उनके घन करनेपर रज्जुधन स्थित प्रदेश राशि संख्या उत्पन्न होती है। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०२ गो० कर्मकाण्डे पल्य राशिकी अर्द्धच्छेद राशि पल्यकी वर्गशलाका राशि सागरकी अर्द्धच्छेद राशि छे सागरको वर्गशलाका राशि सूच्यंगुलकी अर्द्धच्छेद राशि : पल्य राशिको तबतक अद्धित किया जाता है जब तक १ प्राप्त न हो। जितने बार इस विधिमें अद्धित किया गया वही संख्या अर्द्धच्छेद है। यथा-१६ या २४ के अर्द्धच्छेद ४ होते हैं। इसका संकेत log, प सरल है। : पल्यकी अर्द्धच्छेद राशिकी भी अर्द्धच्छेद राशिको वर्गशलाका राशि कहते हैं । इसे log log२ प द्वारा भी निरूपित किया जा सकता है । : यहाँ सागरकी अर्द्धच्छेद राशि पल्यकी अर्द्धच्छेद राशिसे संख्यात अधिक है। अस्तु इसे सरल रूपमें logs +1 भी लिखा जा सकता है। : इसे log log३ सा लिखा जा सकता है। पण्डित टोडरमलने लिखा है कि सागरकी वर्गशलाका राशि नहीं होती है। : इसे log२ log२ प भी लिखा जा सकता है क्योंकि पल्यको अर्द्धच्छेद राशिका वर्ग ही सूच्यंगुलकी अर्द्धच्छेद राशि है । पुनः इसे log२ अं भी लिखा जा सकता है। इस प्रकार अंगुल स्थित प्रदेश राशिका सम्बन्ध पल्य गत समय राशिसे स्थापित किया गया है। : इसे loglog३ अं लिखा जा सकता है। वस्तुतः पल्यकी अर्द्धच्छेद राशि log२ प के वर्ग log२ 4 log२ प के अर्द्धच्छेद पुनः करनेपर २ log३ log२ प प्राप्त होता है जो पल्यकी वर्ग शलाका राशिका द्विगुणित है । : इसे log, (अं) लिखा जा सकता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि यह अंगुलकी अद्धच्छेद राशिका द्विगणित है। logarithm के नियमोंसे समझ लेना चाहिए। (धवला पु०४ में शलाका गणन ( लघुरिक्थ ) के नियम डा. ए. एन. सिंहके प्रस्तावना रूप लेखमें देखिए ) : इसे log२ log२ (अं) भी लिखा जा सकता है । स्पष्ट है कि इसका मान १ + log. log२ (अं) अथवा १+ व २ है। इसे १+२ log, log: प भी लिख सकते हैं। सूच्यंगुलकी वर्गशलाका राशि व२ प्रतरांगुलकी अर्द्धच्छेदराशि प्रतरांगुलकी वर्गशलाका राशि १-व २ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनांगुलकी अद्धच्छेद राशि घनांगुलकी वर्गशलाका राशि अथवा श्र ' log२ श्र जगश्रेणीकी वर्गशलाका राशि (नोट : यहाँ पण्डित टोडरमलने लिखा है कि द्विरूप वर्गधारामें जितने स्थान जानेपर सूच्यंगुल प्राप्त होता है, उतने ही स्थान जानेपर द्विरूप घनधारामें घनां गुल होता । स्पष्ट है कि यहाँ अनुमानसे १ को विलुप्त कर दिया गया है जो निकटतः 108२ ३ का मान हो सकता है ।) छे छे छे ३ जगश्र णीकी अर्धच्छेद राशि a क जगप्रतरकी अर्द्धच्छेद राशि = loga loga २ ( जघन्य परीतासंख्यात ) गणितात्मक प्रणाली छे छे ३ व २ माना गया है । [ नोट : हम इसे log श्र भी लिख सकते हैं । वस्तुतः इसका मान तिलोयपण्णत्ति में से इस आधारपर किया गया है कि राशितः ( 1082 पल्य / असंख्यात ) जगश्रेणी [ घनांगुल ] : इसे loga (अं) भी (अं) है अर्थात् ३ log छेछे हैं। : इसे loga loga (अं) लिख सकते हैं । यह log२ (३ log२ ] (अं) ) है अथवा log ३ + log2 log2 अं है जिसे निकटतः १+२ log log2 प अथवा १ + २ व रूपमें लिखना सही है ! व १६।२ व २ : इसे वि छे छे ३ भी लिखा जाता है जहाँ वि का अर्थ विरलन राशि है। इसका मान log2 प loga (अं) 3 a [ नोट : पण्डित टोडरमलने इसे इस रूपमें [ loga / ] ] १४०३ कहते हैं । यह ३ loga loga प अथवा ३ [ अ log2 पlog२ ( अं ) 3 log2_प · ( ३ ) ( log2 अं ) a a log २ प ( ३ ) ( log२ प ) ( log, प ) 1 : इसे log loga श्र भी लिख सकते हैं । इसे loga log पlog ( अ ) 3 ] भी लिख सकते हैं । a अर्थात् यह loga loga प - loga a + loga loga अं है । 3 + loga loga मं छे छे छे ६ = लिखा है कि १६ जघन्यपरीत असंख्यात लेकर रूपमें बतलाया है । ] : इसे log२ २ लिखते हैं। स्पष्ट है कि यह २ loga श्र होता है अर्थात् जगश्रेणीकी अद्धच्छेद राशिसे द्विगुणित होता है । Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो. कर्मकाण्ड जगप्रतरको : इसे logrilog२ ( श्रे)२ लिख सकते हैं। अस्तु वर्गशलाका राशि यह + log२ log२ प १६२ २( जघन्य परीतासंख्यात व २ + log log२ (अ) लिखा जा सकता है ।) घनलोककी : इसे log, (श्रे)3 लिख सकते हैं। स्पष्ट है कि यह अद्धच्छेद राशि ३ log, श्रे होनेसे जगश्रेणोकी अर्द्धच्छेद राशिसे त्रिगुणित होता है। घनलोककी : इसे log. log२ (श्रे) लिख सकते हैं। इस वर्गशलाका राशि १६२ प्रकार इसका मान log२ ३ + व २ + logz loga २ (जघन्यपरीत असंख्यात) + logs log: (अ) है। स्पष्ट है कि प्राचीन प्रतीकों में कुछ त्रुटि रह गयी है। [नोट : पण्डित टोडरमलने log२ ३ की उपेक्षा की है, वह इस आधारसे कि अनुमानतः असंख्यातकी तुलनामें १ उपेक्षित हो सकता है। कारण यह भी है कि द्विरूप धनधारामें जितने स्थान जानेपर जगश्रेणी प्राप्त होती है, उतने-उतने ही स्थान द्विरूपधनधारामें होनेपर घनलोक होता है।] संख्यात : कहीं-कहीं संख्यातके लिए ४ अथवा ५ सहनानी अथवा रूप लिये गये हैं। असंख्यात : इसी प्रकार ९ के सम्बन्धमें भी है। आवली असंख्यात संकलन :क्षतिज रेखाका प्रयोग धनके लिए अथवा योगके लिए हुआ है। एक अधिक लक्ष ल अथवाल दो अधिक लोक २ घनलोक अधिक अनन्त : यह स्पष्ट है, क्योंकि = घनलोककी संदृष्टि है। : वास्तव में यहाँ ख के ऊपर एक उदग्र लकीर भी आव श्यक थी। इसे थेख भी लिखा जा सकता है। : यहाँ १६ ख पुद्गल द्रव्य है, काल द्रव्यका परि माण है, शेष धर्म, अधर्म एवं आकाश हेतु ३ का उपयोग किया गया प्रतीत होता है। अजीव द्रव्य परिमाण १६ख किंचित् अधिक अनन्त : यहाँ ख के ऊपर उदग्र लकीर अनन्तके कुछ कम राशि बतलानेके लिए है। . Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिसात्मक प्रणाली दो राशि अधिक संख्यात दो राशियां संख्यातमें संयुक्त करने हेतु यहाँ दो उदय लकीरें संख्यातकी संदृष्टिके ऊपर रखी गयी है। घटाना या व्यवकलन क्रियाकी संदृष्टियां अलग-अलग इन चारों सहनानियों द्वारा घटानेकी गणितीय प्रक्रिया दर्शायो जाती है। उदाहरण मागे दिये गये। एक कम कोटि को . अथवा 1 o el to c .:.* . ... : यहाँ कोटि ऋण एकको उदाहरण -रूपमें निरूपित किया गया है। १ के ऊपर ० का चिह्न बतलाता है कि १ को कोटि को में-से घटाया जाना है। इसी प्रकार नीचे भी। : यहाँ अनन्त ऋण एकका निदर्शन है। एक कम अनन्त on दो कम घनलोक : स्पष्ट है कि घनलोक = है तथा इस प्रदेश राशिमेंसे २ घटाया जाना है, अस्तु उसके ऊपर शून्य संकेत बनाया है। स्थानमान पद्धतिके विकासका इस उदाहरणसे पता चलता है। एक कम लक्ष : यहाँ १ की स्थिति बदल दी गयी है। ... दो कम लक्ष : यहाँ ऋण चिह्नने आधुनिक रूप लिया है। हालांकि यह प्राचीन है। दो कम कोटि को ww२ अथवा को. : यहाँ ऋणके लिए लहरिया लकीरको क्षतिज रूपमें लिया है। साथ ही ० की स्थिति बदल दी गयी है। ये सब क्रमिक विकासके चिह्न हैं, अथवा स्थानान्तर विकासक्रममें हैं। : किंचित् ऊनके लिए यह चिह्न वैज्ञानिक है, क्योंकि वह जिसे घटाया जाना है, लेखीमें नगण्य है, ख की किंचित् ऊन अनन्त तुलनामें। एकेन्द्री जीवराशि :यहाँ संसारी जीवराशि १३ में से विकलेन्द्री और सकलेन्द्री जीवराशियाँ घटायी गयी हैं। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोकर्मकाणे पांच कम लक्ष ल -५ अथवाल :यहां सीधी लकीरके स्थानमें चन्द्रकलाका संकेत दिया है। पल्यकी वर्गशलाकाकी ) अर्द्धच्छेद राशिसे हीन पल्यकी अर्द्धच्छेदराशि) : इसे Log२ प- Log२ Loga Log२ प लिख .. सकते हैं। पाँच गुणा लाख ल ५ असंख्यातगुणा घनलोक व : यहां ५ का गुणा इकाई की ओरसे किया गया है । : इसे श्रे ३ व भी लिख सकते हैं । पल्यका संख्यातवा भाग : विभाजनकी यह संदृष्टि बहषा उपयोगमें लायी जाती रही है। इसे प रूपमें भी लिखा जा सकता है। जगश्रेणीका संख्यातवा भाग : इसे श्रे भी लिखा जा सकता है। केवलज्ञानका अनन्तर्वा भाग के : इसे के रूपमें लिख सकते हैं। बादाल वर्ग ४२ = ४२ - : स्पष्ट है कि यहाँ बादालको वगित किया गया है। यह [ २३२ ]२, राशि है। धनांगुलके संख्यातवें भागके धनको संदृष्टि : इसे अं3 अं3 अं3 रूपमें भी लिखा जा सकता है । इस प्रकार घनके लिए उसी राशिको तीन बार उक्त रूपमें लिखा जाता है। अब कुछ उदाहरण देते हुए उपर्युक्त संदृष्टिके प्रयोग दिखाते हैं - ल ३ ल १००० इसे ल ( ३ ) ल ( १००० + १ ) (१०) (१००-१) १०ल १०० - रूपमें समझेंगे । अं3 आ3(a+१) ६।८।व व. अथवा - रूपमें होगा। व व (-) . Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली अथवा 02 - (F). रूपमें होगा। रूपमें होगा। अथवा - आ. रूपमें होगा। अथवा रा -0 अथवा ल [(५) (४) (३)-१] ल ५।४।३। अथवा ल (५) (४) [ (३) - १] अन्तर्महुर्त या २१ अथवा संख्यात यावली अथवा बावली + १ समयसे लेकर मुहर्त -१ समय या भिन्न मुहर्त तक षस्थानपतित हानिवृद्धि अनन्तभाग उर्वक हानि असंख्यात भाग वृद्धि हानि : हा मंख्यात भाग गंख्यात गुण वृद्धि हानि असंख्यात गुण वृ. हानि हा. अनन्त गुण हानि हा ख क-१७७ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०८ मोर पुदगल परिवर्तन संष्टि गृहीत एक भगृहीत बिन्दु मिश्र हंसपद सूच्यंगुलके मसंख्यातवें भाग बार अनन्त उउ भाग वृद्धि अनिवृतिकरणकाल : संख्यात आवली अथवा अपूर्वकरणकाल : ११ अधःकरण काल २१११ : आ ." कर्म सम्बन्धी संदृष्टि समय प्रबद्ध उत्कृष्ट समय प्रबद्ध स अथवा स ३२ स०१२ सत्व : किंचिदूनद्वयर्ध गुणहानि गुणित समय प्रबद्ध स्पष्ट है कि ८ संदृष्टि गुणहानिका प्रतीक है। कर्म स्थिति रचना सम्बन्धी संवृष्टि ( विशेष परिभाषाएं बादमें दी गयी हैं। ) आबाघा काल : यह एक उदग्र रेखा है। इसे टाइम लेग भी कह सकते हैं। अचलावली : यही चिह्न है। आवली गत निषेक यहाँ अचल होते हैं। . Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४०९ निषेक हानि : बाधारसे ऊपरकी ओर निषेक कम होते जाते हैं। उदयावली : संकेत वही है। यहाँ ऐसी आवली गत निषेकोंका संकेत है जो उदयमें आनेवाले होते हैं। उच्छिष्टावली इसका भी वही संकेत है। यह ऐसी आवली गत निषेकोंका संकेत है जो उच्छिष्ट होते हैं। उपरितन स्थिति : ऊपरकी स्थितिवाले निषेकोका संकेत इसके द्वारा मिलता है। आबाधाके ऊपर निषेक रचना संयुक्त रचना वर्गणा अनुभाग संयुक्त => वर्ग संयुक्त रचना +अतिस्थापनावली → उपरितन स्थिति + उदयावली - अचलावली Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१० परिणाम सम्बन्धी श्रेणियोंमें प्रयुक्त सूत्र गणितसार संग्रह ( महावीराचार्य) में कुछ विधियाँ समीकरण हल करनेकी दी गयी हैं जिनसे कूटस्थिति या अनुमानसे अज्ञात राशिका मान निकाला जाता है। इनका उपयोग करण आदिसे सम्बन्धि गणितमें होता है सर्वधन या श्रेणियोग चय = चय = श्रेणियोग (गच्छ चयधन = सर्वधन - ( गच्छ) (आदि) चयधन 1 [ २ (आदि) + (गच्छ-१) चय -] श्रेणियोग- ( गच्छ) (आदि) आदिधन (गच्छ गच्छ २ आदि = सर्वधनचयधन गच्छ आदिधन सर्वधन - चयधन आदि x गच्छ २ यथा अधःप्रवृत्तकरण में सर्वधन गच्छ गच्छ प्रथम समय सम्बन्धी परिणामपुंज अंत समय सम्बन्धी परिणाम पुंज १ x संख्यात Za 58 २१११ २१११।२३१३१ MO २१११ २३३३।३।२ 11-12 गो० कर्मकाण्डे २999111२ २११३३२ १ Q २१११ । १२ २१३१२१३३२ .१ = | २११३ | शर २३३३३३३३२ अथवा श्रे3 a अथवा आ १११ अथवा अपवा अथवा अथवा अथवा अंग्रेजी में सर्वधन = sum गच्छ = number ofterms आदि = first term चय = common differance श्रे a (IT 999) (MT999) (9) 3a (MT 999-?). (आ १११) १ (२) [व] [१ + आ १११ (२१-१)] (आ १११) (१) (२) [१ + आ १११ (२१- १)] (UT 999) (HT 999) (9) (R) 3 a [आ १११ (२१ + १ ) - १] (at 999) (at 999)(2) (3) Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली अनुकृष्टि अर्थ संदृष्टि गच्छ २११ अथवा आ ११ ऊर्ध्वचय Sa २११०२१२२॥ १ अनुकृष्टिचय अनुकृष्टिचय 2a २११०२१११२११ वा अथवा (आ १११) (आ १११) (२) अथवा अथवा (आ १११) (आ १११) (१) (आ ११) श्रे' (आ११-१) जा ( आ १११) (आ १११) (१) (२) अथवा श्रे [२x आ११(१ (२१-१)-१)] (आ १११) (आ १११) (२) (२) चय धन =a | २११०२११ २११०२११२२१०२ २-. .. आदिधन = । २१११ १२ । २१११२११०१२ प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड २- - 0 . 0 =01२११।१।१२ २१११। २१११।१।२१।२ प्रथम समय सम्बन्धी अन्तका खण्ड श्रे[ ४ + आ ११ {१(२१-१) - १}] (आ १११) (आ १११) (१) (आ ११) (२) अथवा श्रे' [ आ ११ { * (२१-१) + १}] " (आ १११)(आ १११) (१) (आ११) (२) =a | २१११।१।२ २१११ । २१११।। २११ । २ अन्त समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड श्रे [आ ११११(२१+१)-१३] अथवा " (आ १११)(आ १११) (१) (२) (आ ११) aa|२१११।।२ २१११। २१११।। २१॥ २ समय सम्बन्धी अन्त खण्ड । = ।२१ २१११ । २११२। ।२ २। २११ अथवा श्रे3 [आ ११६१(२१+१+१-२] (आ १११)(आ १११) (१)(२)(आ ११) उपर्युक्त परिणामोंमें षट्स्थान राशि श्रे अं+१ ४१ २ २ २ २ २ | अं Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१२ सूक्ष्म साम्पराय विवरण में जघन्य वर्गणा एक गुणहानिमें स्पर्धक प्रमाण नाना गुणहानि अनन्त अपकर्षण भागहार असंख्यात गुणा अपकर्षण भागहार एक स्पर्धक में वर्गणाओं का प्रमाण उत्कृष्ट पूर्व स्पर्धक के वर्गकी संदृष्टि जघन्य पूर्व स्पर्धकके वर्गकी संदृष्टि उत्कृष्ट अपूर्व स्पर्धक के वर्गकी संदृष्टि व ९ ना ख उ उ ।a ४ व ९ ना व व ख गो० कर्मकाण्डे जघन्य अपूर्व स्पर्धक के वर्गकी संदृष्टि उत्कृष्ट बादर कृष्टिके वर्गकी संदृष्टि जघन्य बादर कृष्टिके वर्गको संदृष्टि उत्कृष्ट सूक्ष्म कृष्टि के वर्गकी संदृष्टि जघन्य सूक्ष्मकृष्टि वर्गकी संदृष्टि व ख ९ उa व ख ९ ख उa व ख ९ ख ४ उ ख व ख ९ ख ४ ख उa ख व ख ९ ख ४ ख ४ उa ख ख गुणश्रेणी निर्जरामे संदृष्टियाँ इसी प्रकार सरल हैं । ये अर्थ संदृष्टि अधिकारमें प्राप्य हैं । १ ३. अर्थ एवं संज्ञाका स्पष्टीकरण गोम्मटसारके दूसरे भाग कर्मकाण्ड में जैनकर्मसिद्धान्तका वर्णन है । उसके प्रारम्भमें कहा है कि शरोर सहित जीव प्रति समय सर्वांगसे कर्म और नोकर्मको ग्रहण करता है, जैसे आगसे तपा हुआ लोहपिण्ड जलको ग्रहण करता है । सभी शरीरोंकी उत्पत्तिके कारण कार्मणशरीरको कर्म या द्रव्यकर्म कहते हैं और शेष चार शरीरोंको नोकर्म कहते हैं । यहाँ 'नो' शब्दका प्रयोग ईषत् अथवा स्तोकके अर्थमें है । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और तैजसनाम कर्मके उदयसे चार शरीर होते हैं । ये आत्मगुणोंके घातक नहीं होते । इसलिए इन्हें नोकर्मशरीर कहते हैं । ये कर्मशरीर के सहायक होते हैं ( गो. जी. २४४ ) । कर्म शब्द के अनेक अर्थ हैं । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणके क्षयोपशमकी अपेक्षासे आत्माके द्वारा निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मपरिणाम और पुद्गलके द्वारा पुद्गल परिणाम तथा व्यवहारनयसे आत्माके द्वारा पुद्गल परिणाम और पुद्गलके द्वारा आत्मपरिणाम जो किये जाते हैं वह यहाँ कर्म विवक्षित है। त्रे जीवको परतन्त्र करते हैं अथवा उनके द्वारा जीव परतन्त्र किया जाता है अतः उन्हें कर्म कहते हैं । अथवा मिथ्यादर्शन अविरति कषाय और योगरूप परिणामोंके द्वारा जीवके द्वारा किये जाते हैं अतः वे कर्म कहे जाते हैं । Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४१३ कर्मके मुख्य भेद दो है-द्रव्यकर्म और भावकर्म । ज्ञानावरण आदि पुदगल द्रव्यका पिण्ड द्रव्यकर्म है। और उसमें जो शक्ति है वह भावकर्म है, अथवा कार्यमें कारणका उपचार करके उस शक्तिके निमित्तसे आत्मामें उत्पन्न मिथ्यात्व राग, द्वेष आदि भाष भावकर्म हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्ममें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे द्रव्यकमसे भावकर्म और भावकर्ममे द्रव्यकर्मकी परम्परा अनादि है। शुभ और अशुभ कर्मोके आनेके द्वार रूप आस्रव हैं। आत्मा और कर्म प्रदेशोंका परस्परमें एक क्षेत्रवगाह बन्ध है। आस्रवका रोकना संवर है। कर्मोंका एक देश पृथक् होना निर्जरा है। सर्व कर्मोका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष है। संज्ञाके अनुसार गुण रहित वस्तु में व्यवहार हेतु स्वेच्छा की गयी संज्ञाको नाम कहते हैं । काष्ठ कर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और अक्ष विक्षेप आदिमें "यह वह है", इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते हैं । जो गुणोंके द्वारा प्राप्त हुआ था, या गुणोंको प्राप्त हुआ था अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणोंको प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं। वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको माव कहते हैं। प्रमाण और नयोंसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। किसी वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश है। स्वामित्वका अर्थ आधिपत्य है । जिस निमित्तसे वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है। आधारको अधिकरण कहते हैं। जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है। विधानका अर्थ प्रकार या भेद है। इनसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। सत् अस्तित्वका सूचक है। संख्यासे भेदोंकी गणना होती है। वर्तमान काल विषयक निवासको क्षेत्र कहते हैं। त्रिकाल विषयक निवासको स्पर्शन कहते हैं। मख्य और व्यावहारिक प्रकारसे दो काल होते हैं। विरह कालको अन्तर कहते हैं। मावसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक एवं पारिणामिक भावोंका भी अर्थ ग्रहण होता है। एक दूसरेकी अपेक्षा न्यनाधिकका ज्ञान अल्पबहुरव कहलाता है । इनके द्वारा भी पदार्थोंका ज्ञान होता है।। इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मनन मात्र मति-ज्ञान है । श्रत ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुननामात्र श्रुत ज्ञान है। अधिकतर नीचेके विषयको जाननेवाला होनेसे या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि ज्ञान नाम सार्थक है। दूसरेके मनोगत अर्थमें परिगमन करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय है। अर्थी जन जिस असहाय ज्ञानके लिए बाद्य एवं आभ्यन्तर तप द्वारा मार्गका केवल या सेवन करते हैं वह केवलज्ञान है। विषय और विषयीके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रहमति कहते हैं। अवग्रह द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें उसके विशेषके जाननेकी इच्छा ईहामति है। विशेषके निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है वह अवाय मति है। जानी हुई वस्तुका जिस कारण कालान्तरमें विस्मरण नहीं होता वह धारणा मति है। चक्षु आदि इन्द्रियोंके विषयको अर्थ कहते हैं । ये चारों मति ज्ञान अर्थके होते हैं । अव्यक्त शब्द-समूह व्यंजन है, जो केवल अवग्रहमति रूप है। चक्षु और मनसे व्यंजन अवग्रह नहीं होता है । केवलज्ञानकी प्रवृत्ति सब द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायोंमें होती है। आत्मामें कर्मकी निज शक्तिका कारणवशसे प्रकट न होना उपशम है। कर्मों का आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय है । उभय भाव रूप मिश्र है। द्रव्यादि निमित्त के वशसे कर्मोका फल प्राप्त होना उदय है। जिसके होनेमें द्रव्यका स्वरूपलाभमात्र कारण है वह परिणाम है। ये भाव जीवके हैं, जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके निमित्तोंसे होता है। और चैतन्यका अन्वयी परिणाम उपयोग कहलाता Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो. कर्मकाण्डे है। उपयोग ज्ञान और दर्शन रूप है । गुण अन्वयी होते हैं, पर्याय व्यतिरेकी होती है। अथवा द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण और द्रव्यके विकार को पर्याय कहते हैं। द्रव्य इन दोनोंसे संयुक्त, अयुत सिद्ध और नित्य होता है। काय, वचन और मनकी क्रिया योग है जिससे आस्रव होता है जिसकी विशेषता तीव, मन्द, ज्ञात, अज्ञात भावों, अधिकरण और वीर्यसे होती है। जो आत्माका घात करती है, वह कषाय है। चारित्रमोहके भेदरूप कषायवेदनीयके उदयसे आत्मामें जो कलुषता क्रोधादिरूप होती है उसे आत्मविघातक होनेसे कषाय कहते हैं। हास्यादि कषायवत् न होनेसे नोकषाय कहलाती हैं। क्रोधादिकी तीव्रताको लेश्या द्वारा निर्दिष्ट करते हैं, और आसक्तिकी तीव्रता मन्दताको अनन्तानुबन्धी आदि द्वारा निर्दिष्ट करते हैं। जो क्रोधादिक जीवके सुख-दुख रूप अनेक प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूप खेतको कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिए संसारकी चारों गतियाँ मर्यादा-मेंढ रूप हैं, इसलिये उन्हें कषाय कहते हैं। वे कर्मों के श्लेषका कारण हैं-निक्षेपादिकी अपेक्षा योग और कषायके अनेक भेद हैं। कर्मोंके संयोगके कारणभूत जीवके प्रदेशोके परिस्पन्दको भी योग कहते हैं, अथवा मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके प्रति जोवका उपयोग या प्रयत्न विशेष योग है। योग, समाधि, ध्यान, सम्यक् प्रणिधान एकार्थवाची है। क्रियाकी उत्पत्तिमें जो जीवका उपयोग है वही योग है । ( विशेष विवरणकं लिए जैन सि. कोष देखें)। कषायसे अनरंजित जीवकी योगकी प्रवृत्तिको मावलेश्या कहते हैं। शरीरके रंगको द्रव्य लेश्या कहते हैं । जो कर्मोंसे आत्माको लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये बन्धके हेतु हैं। कषाय सहित होनेपर जीव कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है, वह बन्ध है । अथवा कर्म प्रदेशोंका आत्मप्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है। वाचक शब्दोंकी अपेक्षा बन्ध संख्यात, अध्यवसाय स्थानोंकी अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्मप्रदेशोंकी अथवा कर्मोंके अनुभाग अविभागी प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकार है। ज्ञानावरणादिक कर्मबन्ध है और औदारिकादि नोकर्मबन्ध है। क्रोधादि परिणाम भावबन्ध है। ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मोके उस कर्मक योग्य ऐसा जो पुद्गल द्रव्यका स्व-आकार (?) वह प्रकृति बन्ध है। योगके वशसे कर्म स्वरूपसे परिणत पदगल स्कन्धोंका कषायके वशसे जीवमें एक स्वरूपसे रहनेके कालको स्थितिबन्ध कहते हैं । शुभाशुभ कर्मकी निर्जराके समय सुखदुःख रूप फल देनेकी शक्तिवाला अनुभाग बन्ध है । कर्मरूपसे परिणत पुदगल स्कन्धोंका परिमाणओंकी जानकारी करके निश्चय करना प्रदेश बन्ध है। अधःप्रवृत्तकरण वह है जिसमें से ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम नीचेके समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके सदश-अर्थात् संख्या और विशुद्धिकी अपेक्षा समान होते हैं। अपूर्वकरणमें भिन्न समयवर्ती जीवोंमें विशुद्ध परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता, किन्तु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों पाये जाते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वह है जिसके कालके प्रत्येक समयमें एक ही परिणाम होता है। कृष्टिका अर्थ कर्म अनुभागको कृश करना होता है। प्रतिसमय बँधनेवाले कर्म या नोकर्मके समस्त परमाणुओंके समूहको समयप्रबद्ध कहते हैं। विवक्षित समयप्रबद्धमें समान अनभाग शक्तिके अंश-अविभाग प्रतिच्छेद जिस परमाणमें पाये जायें उसे वर्ग कहते हैं। जिन परमाणुओं में समान संख्यावाले अविभाग प्रतिच्छेद पाये जाय उन सब वर्गों के समूहको वर्गणा कहते हैं। जिनमें अविभाग प्रतिच्छेदोकी समान वृद्धि पायी जाये उन वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४१५ कहते हैं। गुणाकार रूपसे हीन-हीन द्रव्य जिसमें पाया जाये उसको गुणहानि कहते हैं । गुणहानिके समयसमूहको गुणहानि आयाम कहते हैं । गुणहानियोंके समूहको नानागुणहानि कहते हैं। दो गणहानि आयामके प्रमाणको निषेकहार कहते हैं। नानागुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि पन्न हो उसे अन्योन्याभ्यस्त राशि कहते हैं। समान वृद्धि या हानिके प्रमाणको.चय कहते हैं । 'निषेचनं निषेकः' इस निरुक्तिके अनुसार कर्म परमाणओंके स्कन्धोंके निक्षेपण करने का नाम निषेक है। आयवजित सात कर्मोकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें-से उन-उनका आबाधाकाल घटाकर जो शेष रहता है, उतने कालके जितने समय होते हैं उतने ही उस-उस कर्मके निषेक जानना चाहिए। आयुकर्मकी स्थिति प्रमाण कालके समयों जितने उसके निषेक हैं, क्योंकि आयुकी आबाधा पूर्वभवकी आयुमें व्यतीत हो चुकती है। प्रथम निषेक अवस्थित हानिसे जितनी दूर जाकर आधा होता है उस अध्वान ( अन्तराल या काल) को 'गुणहानि' कहते हैं। जहाँ अपनी-अपनी द्वितीयादि वर्गणाके वर्गोमें अपनी-अपनी प्रथम वर्गणाके वर्गोंसे एक-एक अविभागी प्रतिच्छेद बढ़ता अनुक्रमसे है, ऐसे स्पर्धकोंका समूह प्रथम गुणहानि कहलाता है। इस प्रथम गुणहानिके प्रथम वर्गमें जितने परमाणु पाये जायें, उनमें एक-एक चय प्रमाण घटते द्वितीयादि वर्गणाओंमें वर्ग जानना चाहिए । इस क्रमसे जहाँ प्रथमगुणहानिकी प्रथम वर्गणाके वर्गोसे आधा जिस वर्गणामें वर्ग हों वहाँसे दूसरी गुणहानिका प्रारम्भ होता है । वहाँ द्रव्य चय आदिका प्रमाण भी आधा-आधा होता है। एक जीवके एक कालमें जितनी प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जावे उनके समूहका नाम स्थान है। उस स्थानकी एक-सी समान संख्या रूप प्रकृतियोंमें जो संख्या समान ही रहे परन्तु प्रकृतियाँ बदल जायें तो उसे भंग कहते हैं। जिस कर्मके बन्धका अभाव होकर फिर वही कर्म बंधे उसे सादिबन्ध कहते हैं। जिसके बन्धका अभाव नहीं हुआ वह अनादिबन्ध है। जिस बन्धका आदि तथा अन्त न हो वह ध्रुवबन्ध है और अन्त आ जाये वह अध्रुव बन्ध है। जिन कर्म प्रकृतियोंमें कोई प्रकृति विरोधी नहीं होती है उन्हें अप्रतिपक्षी कहते हैं । जिन प्रकृतियोंमें आपसमें विरोधीपना है वे सप्रतिपक्षी कहलाती हैं । जीवोंकी उत्कृष्ट आबाधासे भाजित जो अपने-अपने कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति है उसके प्रमाणको आवाधा काण्डक कहते हैं। पर्याय धारण करनेके पहले समयमें तिष्ठते हए जीवके उपपाद योगस्थान होते हैं । शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके समयसे लेकर आयु के अन्त तक परिणाम योगस्थान कहलाते है। एकान्तानुवृद्धि योगस्थान पर्याय धारण करनेके दूसरे समयसे लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्तिके अन्तर्मुहर्तके अन्त समय तक होते हैं, जिनमें नियमकर समय-समयप्रति असंख्यातगुणी अविभाग प्रतिच्छेदोंको वृद्धि होती है । बँधे हुए कर्मकी दश अवस्थाएँ अथवा दश करण होते हैं । कर्मोंका आत्मासे सम्बन्ध होना बन्ध है । जो कर्मोकी स्थिति तथा अनुभागका बढ़ना है वह उस्कर्षण है। जो बन्ध रूप प्रकृतिका दूसरी प्रकृतिरूप परिणम जाना है वह संक्रमण है। जो स्थिति तथा अनुभागका कम हो जाना वह अपकषण है। उदयकालके बाहर स्थित, अर्थात जिसके उदयका अभी समय नहीं आया है ऐसा जो कर्म द्रव्य उसको अपकर्षणके बलसे उदयावली कालमें प्राप्त करना उदोरणा है। जो पुद्गलका कर्मरूप रहना वह सत्व है। जो कर्मका अपनी स्थितिको प्राप्त होना अर्थात् फल देनेका समय प्राप्त हो जाना वह उदय है। जो कर्म उदयावलीमें प्राप्त न किया जाये अर्थात् उदीरणा अवस्थाको प्राप्त न हो सके वह उपशान्तकरण है। जो कर्म उदयावलिमें भी प्राप्त न हो सके और संक्रमण अवस्थाको भी प्राप्त न हो सके उसे निधत्तिकरण कहते हैं। जिस कर्मकी उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थाएँ न हो सकें उसे निकाचितकरण कहते हैं। जो प्रकृतियां अपने ही रूप उदय फल देकर नष्ट हो जायें वे स्वमुखोदयी है, उनका काल एक समय अधिक आवलि प्रमाण है, वही क्षयदेश है। जो प्रकृतियाँ अन्य प्रकृतिरूप उदयफल देकर विनष्ट हो जाती क-१७८ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोकर्मकाण्डे हैं, वे परमुखोदयी हैं, उनके अन्तकाण्डककी अन्त फालि क्षयदेश है । एक समय मात्रमें संक्रमण होनेको फालि कहते हैं । समय समूहमें संक्रमण होना काण्डक है । अधःप्रवृत्त आदि तीन करण रूप परिणामोंके बिना ही कर्म प्रकृतियोंके परमाणुओंका अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना वह उद्वेकन संक्रमण है । मन्द विशुद्धतावाले जीवकी, स्थिति अनुभागके घटानेरूप, भूतकालीन स्थितिकाण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामोंमें प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है । बन्धरूप हुई प्रकृतियोंका अपने बन्धमें सम्भवती प्रकृतियोंमें परमाणुओंका जो प्रदेश संक्रम होना वह अधःप्रवृत्त संक्रमण है । जहाँपर प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणीके क्रमसे परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमें सो गुण संक्रमण है । जो अन्तके काण्डककी अन्तको फालिके सर्व प्रदेशोंमें से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उन परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप होना वह सर्व संक्रमण है। उत्तर प्रकृतियोंमें हो संक्रमण होता है, किन्तु दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका तथा चारों आयुओंका परस्परमें संक्रमण नहीं होता। संसारी जीवोंके अपने जिन परिणामोंके निमित्तसे शुभकर्म और अशुभ कर्म संक्रमण करें, अर्थात् अन्य प्रकृति रूप परिणमें उसको मागहार कहते हैं। त्रिकोण रचनामें समयप्रबद्धका प्रमाण विवक्षित वर्तमान समयमें तिर्यक् रूप हर एक समयमें एक समयप्रबद्ध बँधता है और एक समयप्रबद्ध ही उदय रूप होता है । सश्व द्रव्य कुछ कम डेढ़ गुणहानि कर गुणा हुआ समयप्रबद्ध प्रमाण है जो त्रिकोण रचनाके सब द्रव्यको जोड़ देनेसे नियमसे इतना ही होता है । उपयंक्त परिभाषाएँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, जैन लक्षणावली, राजेन्द्र अभिधान कोश, षट्खण्डागम, धवल, गोम्मटसार, जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका आदि ग्रन्थोंसे ली गयी हैं। इतनी जानकारीके पश्चात् लब्धिसार एवं क्षपणासारकी पूर्व पीठिका बाँधने हेतु अगला अधिकार दिया जा रहा है जो मख्यतः पण्डित टोडरमलका प्रयास है। उसे याद करनेके पश्चात् ही गणितीय प्रणालीमें प्रवेश करना लाभप्रद होगा। उपर्युक्त लक्षण केवल संकेत मात्र हैं जिनके आलम्बनसे कर्म सिद्धान्तका अनुभव वृद्धिंगत हो सके । 58. अर्थके प्रयोजन पं. टोडरमलने निम्न पद्यमें अर्थसार निर्दिष्ट कर दिया है "नेमिचन्द आह्लादकर माधवचन्द प्रधान । नमों जास उज्जास तें जाने निज गुण थान । लब्धिसार कौं पायक करिकै क्षपणासार । हो है प्रवचनसार सो समयसार अविकार ॥" सम्यक्दर्शनका सहकारी सम्यक्ज्ञान है। मोक्षमार्ग सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्ज्ञानका संयुक्त रूप, आत्मस्वरूप है । सम्यक्दर्शन तीन प्रकार-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक प्रकारका है। सम्यकचारित्र दो प्रकार-देशचारित्र और सकलचारित्र प्रकारका है। देशचारित्र क्षायोपशमिक ही है और सकलचारित्र तीन प्रकार है-क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । इस प्रकार सम्यकदर्शन सम्यक्चारित्रकी लब्धि होनेपर केवलज्ञान पाकर सयोगी, अयोगी जिन और सिद्धपद प्राप्त होता है। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४१७ जीवोंके परिणमनके साथ-साथ कोंके बन्ध, सत्त्व उदय अवस्था किस प्रकार परिणमन करती है, विशेष रूपसे ज्ञात करना युक्त है। इसी प्रकार चौदह गुणस्थानोंका स्वरूप भी विशेष जानने योग्य है। दशकरणोंका भी विशेष प्रयोजन होता है इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है नवीन पुद्गलोंका कर्म रूप आत्माके साथ सम्बन्ध होना बन्ध है। यह चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । कर्मरूप होने योग्य जो कार्मण वर्गणा रूप पुद्गलका ज्ञानावरणादि मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप परिणमना सो प्रकृतिबन्ध है। जितनी प्रकृतियोंका जहाँ बन्ध सम्भव हो वहाँ उतनी प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए। उन प्रकृतिरूप जितने पुद्गल परमाणु परिणमें उनका प्रमाण रूप प्रदेशबन्ध है, क्योंकि प्रदेश नाम पुद्गल परमाणुका है। वह अभव्य राशिसे अनन्तगुणा तथा सिद्धराशिके अनन्तवाँ भागमात्र प्रमाण होता है । इनको मिलकर एक कार्माण वर्गणा होती है । उतनी ही वर्गणाएँ मिलकर एक समयप्रबद्ध होता है। इतने परमाणु प्रति समय कर्मरूप होकर एक जीवके बँधते हैं इसलिए इसे समयप्रबद्ध कहते हैं। यह सामान्य प्रमाण है। विशेष योगोंकी अधिक और हीनताके अनुसार समयप्रबद्धमें परमाणुओंकी अधिक और हीनताका अनुपात जानना चाहिए । ___ एक समयमें ग्रहण किया हुआ जो समयप्रबद्ध है वह यथासम्भव मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति रूप परिणमता है। इन प्रकृतियोंके परमाणुओंके विभागका विधान, बन्ध सत्त्व तथा उदय द्वारा प्रदेशबन्ध रूपमें होता है। जिस प्रकृतिके जितने परमाणु बँटनमें आते हैं उस प्रकृतिका उतने परमाणुओंका समूह मात्र समयप्रबद्ध जानना चाहिए। जो परमाणु प्रकृतिरूप बंधे, वे परमाणु उस रूप जितने कालके लिए बँधते हैं उस स्थिति प्रमाणके लिए स्थिति बन्ध होता है । वहाँ एक समयमें जो स्थिति बन्ध होता है उसमें बन्ध समयसे लगाकर आबाधाकाल तक वहाँ बँधी हुई परमाणुओंके उदय आनेकी योग्यताका अभाव है, इसलिए वहाँ निषेक रचना नहीं है । उसके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर बंधी हुई स्थितिके अन्तिम समय तक प्रत्येक समयमें एक-एक निषेक उदय आने योग्य हो जाता है । इसलिए प्रथम निषेककी स्थिति एक समय अधिक आबाधाकाल मात्र होती है। द्वितीय निषेककी स्थिति दो समय अधिक आबाधाकाल मात्र होती है। इस क्रमसे द्विचरम निषेककी स्थिति एक समय कम स्थिति बन्ध प्रमाण होती है । अन्तिम निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबन्धकी समय राशि प्रमाण होती है। उदाहरण : मोहकी सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी स्थिति बंधी हो तो आबाधाकाल सात हजार वर्षका होगा। प्रथमनिषेककी स्थिति एक समय अधिक सात हजार वर्ष होगी। द्वितीयादि निषेकोंकी क्रमसे एक-एक समय अधिक होगी और अन्तिम निषेककी सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति होगी। इस प्रकार आयु कर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोके लिए यह विधान है। आयुकी स्थितिबन्धमें आबाधाकाल नहीं गिनते हैं क्योंकि उसका आबाधाकाल पूर्व पर्यायमें ही व्यतीत हो चका होता है । वहाँ उस कालके उदय होनेकी योग्यता नहीं होती इसलिए आयुके प्रथम निषेककी स्थिति एक समय, द्वितीय निषेककी दो समय आदि होती है। इस क्रमसे अन्तिम निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबन्ध मात्र स्थिति होती है। निषेक रचनाका वर्णन गोम्मटसार कर्मकाण्डमें उपलब्ध है। त्रिकोणयन्त्र रचनाका विवरण द्रष्टव्य है। बन्ध होनेपर शक्ति ऐसी होती है जो उदयकालमें होनाधिक विशेष लिये जीवके ज्ञान आच्छादित करती है, इत्यादि । इस प्रकार बन्ध होते हुए शक्तिके होनेका नाम अनुभाग बन्ध है। वहाँ एक प्रकृतिके एक समयमें जो परमाणु बंधते हैं उनमें नाना प्रकारकी शक्ति होती है। शक्तिके अविभागी अंशका नाम Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१८ गो० कर्मकाण्डे अविभागी प्रतिच्छेद है । उनके समूह द्वारा युक्त जो एक परमाणु होता है उसे वर्ग कहते हैं । समान अविभाग प्रतिच्छेदों युक्त जो वर्ग हैं उनके समूहका नाम दर्गगा है। यहां स्तोक अनुभाग युक्त परमाणुका नाम जघन्य वर्ग है | उनके समूहका नाम जघन्य वर्गणा है । जघन्य वर्गसे एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद युक्त जो वर्ग उनके समूहका नाम द्वितीय वर्गणा है । इस क्रमसे एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक वर्गों की समूह रूप वर्गणा जहाँ तक होती है वहाँ तक उन वर्गणाओंके समूहका नाम जघन्य स्पर्धक होता है । जघन्य वर्ग द्विगुणित अविभागी प्रतिच्छेद युक्त वर्गोंके समूहरूप द्वितीय स्पर्धक को प्रथम वर्गणा होती है । उसके ऊपर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक क्रम लिये जो वर्ग हैं उनके समूह रूप वर्गणा जहाँ तक होती हैं वहाँ तक उन वर्गणाओं का समूह रूप द्वितीय स्पर्धक होता है । इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ आदि स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके वर्ग में जघन्य स्पर्धकसे तिगुणे, चौगुणे आदि अत्रिभागी प्रतिच्छेद होते हैं । यहाँ सर्व परमाणुओं का प्रमाण उपरिलिखित एक-एक अधिक क्रममें होता है । ऐसा विधान जब तक सम्पूर्ण परमाणु पूर्ण न हो जायें तबतक चलता है। इस क्रमसे गुणहानिशलाकाएँ, स्पर्धकशलाकाएँ, वर्गणा शलाकाएँ तथा वर्गों की शलाकाओं की संख्या प्राप्त की जा सकती है । faraण में स्पर्धकोंकी रचना इस प्रकार होती है कि प्रथमादि स्पर्धक पहलेवाले, निचले स्पर्धक कहलाते हैं । पिछले स्पर्धकों को ऊपरले स्पर्धक कहते हैं । प्रथमादि स्पर्धकोंमें क्रमसे परमाणुओंका प्रमाण घटता-घटता है अनुभाग बढ़ता बढ़ता है । वहाँ प्रथमादि सर्वस्पर्धकोंके चार विभाग करते हैं । घातियोंके चार भाग लता, दारु, अस्थि और शैलके समान शक्ति रखते हैं । अप्रशस्त अघातियोंके निंब, कांजीर, विष, हलाहल शक्तिवाले होते हैं । प्रशस्त अघातियोंके गुड़, खंड, शर्करा और अमृत समान शक्तिवाले होते हैं । घातियोंमें लता भाग और कुछ दारु भागके स्पर्धक देशघाती हैं । अवशेष सर्वघाती हैं । स्थिति के पहले निषेक पहले उदय आते हैं, पिछले बादमें उदयमें आते हैं । उसी प्रकार अनुभाग के पहले स्पर्धक पहले उदय आनेका, या पिछले स्पर्धक पीछे उदय आनेका नियम नहीं है । अनेक समयोंमें बँधे हुए कर्मोका विवक्षित कालादिमें जीवमें अस्तित्व होना सच्व है । यह चार प्रकारका है : प्रकृतिसत्त्व, प्रदेशसत्त्व, स्थितिसत्त्व और अनुभागसत्त्व । यहाँ अनेक समयों में बँधी ज्ञानावरणादिक मूल प्रकृति वा उनकी उत्तर प्रकृतियों का जो अस्तित्व उसे प्रकृतिसश्व कहते हैं । उन प्रकृति रूप परिणमें तथा अनेक समयोंमें बँधे, ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणुओंका अस्तित्व प्रदेशसव कहलाता है । प्रत्येक समयमें एक-एक समयप्रबद्ध ग्रहण किये गये परमाणुओंके एक-एक निषेक क्रमसे निर्जरित होते हैं । यदि समयप्रबद्ध के सर्व निषेक गल जायें तो उनका अस्तित्व समाप्त हो जाये । यहाँ त्रिकोण यन्त्र रचना में किसी समयप्रबद्ध के अन्य निषेक गलनेपर एक निषेक अवशेष रहता है, किसी अन्यके अन्य निषेक गलनेपर दो निषेक अवशेष रहते हैं । इस क्रमसे जिस समयप्रबद्धका एक निषेक गला हो तो उसके बिना सर्व निषेक अवशेष रहते हैं । जिसका कोई भी निषेक नहीं गला हो उसके सर्व ही निषेक अवशेष रहते हैं । ऐसे सभी अवशेष रहे निषेकोंका कुछ प्रमाण सत्त्व है जिसका प्रमाण किंचित् ऊन ड्योढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सिद्ध होता है । (देखिए, गोम्मटसार जौवकाण्ड) | यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उपर्युक्त विवक्षा एक प्रकृति सम्बन्धी है । ऐसे ही सर्व प्रकृतियों सम्बन्धी समयप्रबद्धों का वर्णन होगा । पुनः उन अनेक समयोंमें बंधी प्रकृतियोंकी स्थितिका नाम स्थिति सच्च । उन प्रकृतियोंका जिस समयबद्धका एक निषेकं अवशेष रहा उसकी एक समयकी स्थिति है। जिसका दो निषेक अवशेष रहा उसके प्रथम निषेककी एक समय और द्वितीय निषेककी दो समय स्थिति है । इस क्रमसे जिसका एक भी निषेक नहीं गला है उसकी प्रथमादि निषेकोंकी एक, दो आदि समयोंसे अधिक आबाधाकाल मात्र स्थितिके क्रमसे Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली अन्तिम निषेककी सम्पूर्ण स्थितिबन्ध मात्र स्थिति होती है। यहाँ सत्त्वमें अनेक समयप्रबद्धोंके एक समयमें उदय आने योग्य अनेक निषेक मिलकर जितना हो उसे एक निषेक जानना चाहिए (पं. टोडरमलके अनुसार )। इनमें परमाणुओंका प्रमाण निकाला जा सकता है। सामान्यतः यदि एक प्रकृतिकी विवक्षा हो तो उसके पहले बँधे तथा बादमें बँधे समयप्रबद्धोंमें जिसके बहुत निषेक सत्तामें पाये जायें उस समयप्रबद्धके अन्तिम निषेककी जो स्थिति हो उस प्रमाण स्थितिमत्व होता है। यदि सर्व प्रकृतियोंकी विवक्षा हो तो जिस प्रकृतिके समयप्रबद्धके अन्तिम निषेककी बहत स्थिति हो, उसके अन्तिम निषेककी स्थिति प्रमाण स्थिति सत्त्व कहना चाहिए। उन अनेक समयोंमें बँधी जो प्रकृतियाँ हैं उनका जो अनुभाग अस्तित्व रूप है उसका नाम अनुभाग सत्व है । वहाँ एक समयमें उदय आने योग्य अनेक समयप्रबद्धोंके निषेक मिलकर सत्ता सम्बन्धी एक निषेकके परमाणुओंमें; अथवा अनेक समयप्रबधोंमें बंधे समयप्रबद्घोंके गलनेके पश्चात् अवशेष रहे उन सभी परमाणुओंमें पूर्वोक्त प्रकार अविभाग प्रतिच्छेद वर्ग वर्गणा, स्पर्धक रूप अनुभागका विशेष गणित ज्ञातव्य है । वहाँ परमाणुओंका प्रमाण भी पूर्वोक्त प्रकार लाना चाहिए । इसी प्रकार कर्मोंका अपने काल आये फल देने रूप खिरनेको सम्मुख होना उदय है, जो चार प्रकार है-प्रकृति उदय, प्रदेश उदय, स्थिति उदय तथा अनुभाग उदय । जिस समयप्रबद्धका एक भी निषेक नहीं गला हो उसका प्रथम निषेक उदयमें आता है। जिसका प्रथम निषेक पहले गला हो उसका द्वितीय निषेक वहाँ उदय होता है। इस क्रमसे जिसके दो निषेक अवशेष रहे उसका वहाँ उपान्त निषेक उदय होता है। जिसका एक निषेक अवशेष रहा हो उसका वही अन्तिम निषेक वहाँ उदयमें आता है। इस प्रकार सभी निषेक मिलकर एक समयप्रबद्ध मात्र परमाणुओंका उदय होता है। ___ अब विशेषता लिये हा विवरण उदीरणा आदिका निम्न रूपमें प्रस्तुत है-ऊपरके नीचेके अन्य समयोंमें उदय आने योग्य निषेकों के परमाणु, उस विवक्षित समयमें उदय आने योग्य निषेकोंमें मिलाया गया हो तो वे परमाणु भी उन्हींके साथ उसी समयमें उदयमें आते हैं। इसी प्रकार घटानेकी प्रक्रिया है। इसी प्रकार अनुभाग उदयका मिश्रप्रभाव सम्भद होता है । अपक्व पाचन, उदय कालको प्राप्त न हआ जो कर्म है उसका पाचन उदय कालमें प्राप्त करना उदीरणा है। वहां वर्तमान समयसे लगाकर आवली मात्र कालमें उदय आने योग्य जो निषेक हैं उनका नाम उदबावगे है। उसके ऊपरवर्ती निषेकोंको उदयावली बार कहते हैं। उदयावली बाह्यमें जो तिष्ठे हुए निषेक है उनके परमाणुओंको उदयावलीके निषेकोंमें मिलाते हैं। इस प्रकार बहुत कालमें उदय आनेवाले अपक्व निषेकोंको उदयावलीके निषेकोंके साथ ही उदय आने योग्य करना, वही पाचन जैसा कार्य जिस समय हो उसी समयमें उदीरणा कहलाती है। उसी समयमें वही द्रव्य सत्तारूप वा उदयरूप है। स्थिति, अनुभागका बढ़ना उत्कर्षण है । वहाँ स्तोककालमें उदय आने योग्य जो नीचेके निषेक, उनके परमाणु, बहुत कालमें उदय आने योग्य जो ऊपरके निषेकोंमें मिलें, तो इस प्रकार स्तोक स्थितिका बहुत स्थिति होनेका नाम स्थिति उस्कर्षण है । पुनः स्तोक अनुभाग युक्त जो नीचे के स्पर्धक, उनके परमाणु जब बहुत अनुभागवाले ऊपरके स्पर्धकोंमें मिलते है; तब स्तोक अनुभागका बहुत अनुभाग होनेका नाम अनुभाग उकर्षण होता है। इसी प्रकार अपकर्षणका विवरण है। गणितीय प्रक्रिया इस प्रकार है-यहाँ विवक्षित सर्व परमाणुओंके समूहको उत्कर्षण और अपकर्षण भागहार द्वारा विभाजित करनेपर, एक भाग मात्र परमाणुओंका ग्रहण कर उन्हें यथायोग्य नीचे अथवा ऊपर मिलाया जाता है। ये भागहार गुणसंक्रम भागहारसे असंख्यात गुणा और अधःप्रवृत्त संक्रम भागहारके असंख्यातवें भाग रूप पल्यके अर्वच्छेदोंके. असंख्यातवें भागमात्र जानना चाहिए। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२० गो० कर्मकाण्डे अन्य प्रकृतिका परमाणु अन्य प्रकृति रूप होनेकी प्रक्रिया संक्रमण कहलाती है। जैसे संक्लेशपनेसे पूर्वमें असाता वेदनीय बँधी थी, बादमें विशुद्धताके बलसे उसके परमाणु साता वेदनीय रूप होकर परिणमन करते हैं। इसी प्रकार यथायोग्य अन्य प्रकृतियोंका संक्रमण भी ज्ञातव्य है। उद्वेलन प्रकृतिके जो परमाणु उन्हें उद्वेलन भागहारका भाग देनेपर, एक भाग मात्र परमाणु जहाँ अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करते हों वहाँ उद्वेलन संक्रमण होता है। जहाँ मन्द विशुद्धता युक्त जीवके जिसका बन्ध न पाया जाये ऐसी जो विवक्षित प्रकृति हो, उसके परमाणुओंमें विध्यात भागहारका भाग देनेसे प्राप्त एक भागमात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करनेको विध्यात संक्रमण कहते हैं। जहाँ जिसका बन्ध सम्भव हो ऐसी जो विवक्षित प्रकृति, उसके परमाणुओंमें अधःप्रवृत्त भागहार द्वारा भाग देनेसे प्राप्त एक भागमात्र परमाणुओंका अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करना अधःप्रवृत्त संक्रमण कहलाता है। जहाँ विवक्षित अशुभ प्रकृतिके परमाणुओंको गुणसंक्रमण भागहार द्वारा विभाजित करनेसे प्राप्त एक भाग मात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करें; कि प्रथम समय जितने परमाणु परिणमें, उसके दूसरे समय असंख्यात गणे परिणमें, इत्यादि, वहाँ गुणसंक्रमण है। जहाँ विवक्षित प्रकृतिके परमाणु अन्य प्रकृति रूप समय-समय परिणमते हुए अन्त समयमें अन्तिम फालिरूप ही अवशेष परमाणु जो हों वे सभी अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमें, तो वहाँ सर्वसंक्रमण कहलाता है । भागहारोंका प्रमाण गोम्मटसारादि ग्रन्थोंसे ज्ञातव्य है । इसी प्रकार उपशान्तकरण, नित्तिकरण और निकाचितकरणका विवरण है। बन्ध सत्वको हानि होनेपर सवर-निर्जरा होती है। ये दर्शनचारित्र लब्धिपर आधारित है। दर्शनचारित्र लब्धिके निमित्तसे प्रथम ही मिथ्यात्व, नारक गति आदि अति अप्रशस्त प्रकृतियोंका और बादमें ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियों वा प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धका अभाव हो जाता है। वहाँ प्रकृति बन्धका क्रमसे घटनेका नाम प्रतिबन्धापसरण है। प्रदेशबन्ध योगोंके अनुसार है इसलिए योगोंकी चंचलता हीन होनेपर प्रदेशबन्ध हीन हो जाता है। सर्वथा योग नाश होनेपर प्रदेशबन्धका भी सर्वथा अभाव हो जाता है । स्थितिबन्ध कषायोंके अनुसार होता है इसलिए मिथ्यात्वादि कषायोंके कम होनेपर स्थितिबन्ध क्रमसे हीन हो जाता है जिसे स्थितिबन्धापसरण कहते हैं। पूर्व में जितना स्थितिबन्ध होता था उससे विवक्षित कालमें जितना स्थितिबन्ध घटा उसी प्रमाण लिये स्थितिबन्ध अपसरण है। स्थितिबन्धापसरण होनेपर जितने कालमें समान स्थितिबन्ध सम्भव हो वह स्थितिबन्धापसरण काल है। उदाहरण : पूर्वमें १ लाख वर्ष मात्र स्थितिबन्ध सम्भव था। उसके एक हजार वर्ष प्रमाण मान लो स्थितिबन्धापसरण हुआ। तब अवशेष ९९००० वर्ष मात्र स्थितिबन्ध रहा । स्थितिबन्धापसरणके कालके पहले समयमें इतना स्थितिबन्ध होता है। इतना ही दूसरे समय, इत्यादि समान स्थितिबन्ध होता रहता है। बादमें मान लो ८०० वर्ष मात्र अन्य स्थितिबन्धापसरण हुआ, तब ९८२०० वर्ष मात्र शेष स्थितिबन्ध रहा । उस स्थितिबन्धापसरण कालके प्रथमादि समयोंमें उतना समान स्थितिबन्ध होता रहेगा। इस प्रकार स्थितिबन्ध घटते अपनी व्युच्छित्ति होनेके समयमें जघन्य स्थितिबन्ध होता है। बादमें स्थितिबन्धका नाश होता है। यह आयु बिना सर्व प्रकृतियोंका उपरोक्त क्रममें होता है। आयुका स्थितिबन्धापसरण सम्भव नहीं होता है क्योंकि नरक बिना तीन आयुका स्थितिबन्ध विशुद्धिसे अधिक होता है । पुनः अन्य सर्व शुभाशुभ प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध संक्लेशतासे बहुत होता है और विशुद्धतासे स्तोक होता है । अनुभाग बन्ध पापप्रकृतियोंका संक्लेशसे बहुत होता है और विशुद्धतासे स्तोक होता है । पुण्य प्रकृतियोंका संक्लेशतासे स्तोक होता है विशुद्धिसे अधिक होता है। इस प्रकार अनन्तगुणा वा यथासम्भव घटता वा बढ़ता अप्रशस्त वा प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध अधिक हीन क्रमसे जैसे जहाँ सम्भव होता है वहाँ वैसे जानना चाहिए । पुनः प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध अधिक होनेसे आत्माका कथंचित् बुरा Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४२१ नहीं होता इसलिए संसारमें रहना तो स्थिति बन्धके अनुसार है । घातियोंके द्वारा आत्मगुणोंका घात होनेसे घातिया अप्रशस्त ही है इसलिए दर्शन चारित्रको लब्धिसे प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग की अधिकता, अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागकी होनता होती है। इस प्रकार कषायोंका अभाव होनेपर अनुभाग वन्धका अमाव होता है । सत्त्व नाका क्रम इस प्रकार है- दर्शनचारित्र लब्धिके निमित्तसे सर्वप्रथम मिथ्यात्वादि अति अप्रशस्त प्रकृतियोंका, तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका और फिर प्रशस्त प्रकृतियोंका सत्व नाश होता है। सरव नाश स्वमुख उदय द्वारा तथा परमुख उदय द्वारा दोनों प्रकार होता है। वहाँ जो प्रकृति अपने ही रूप रहकर अपनी स्थिति सत्त्वके अन्त निषेकका उदय होनेपर अभावको प्राप्त होती है उसका स्वमुख उदय द्वारा सत्त्व नाश होता है । जैसे संज्वलन लोभ प्रकृति, क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें अपने ही रूप उदय होकर नाशको प्राप्त होती है। जो प्रकृति संक्रमणके वशसे अन्य प्रकृति रूप परिणमन कर अपने अभावको प्राप्त होती है उसका परमुख उदय द्वारा सत्त्व नाशको प्राप्त होता है। एक-एक सत्ताके निषेकोंके परमाणु एक-एक समय में उदय रूप होकर निर्जरित होते हैं । दर्शनचारित्र लब्धिके निमित्तसे ऊपर के निषेकोंके परमाणु निचले निषेक रूप होकर परिणमते हैं। यहाँ एक-एक समयमें साधिक समयप्रबद्धकी वा अनेक समय प्रबद्धोंकी निर्जरा होती है। इस प्रकार निर्जरा अधिक किन्तु बन्ध थोड़ा होता है। यहाँ तक कि किसी कालमें किसी प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है, केवल निर्जरा ही होती है। इस प्रकार सर्व कर्म परमाणुओंका नाश होनेपर सर्वधा प्रदेश सत्व नाश होता है । अब स्थिति सस्य नाश क्रमका वर्णन है। एक-एक समय व्यतीत होते स्थिति सत्त्व एक-एक समय घटता है। दर्शनचारित्र लब्धिके निमित्तसे स्थिति काण्डक विधानसे और अपकृष्टि विधानसे स्थिति सत्यका घटना होता है । काण्डक विधान : बहुत प्रमाण लिये स्थिति सत्त्व था, उसके समय-समय प्रति उदय आने योग्य बहुत हो निषेक थे, उनमें कितने एक ऊपरके निषेकोंका नाश कर स्थिति सत्त्व घटाया जाता है । वहाँ उन नाश करने योग्य निषेकोंके जो सर्व परमाणु हैं उनका नाश करनेके पश्चात् जो स्थिति रहेगी उसके आवली मात्र ऊपरके निषेक छोड़कर सर्व निषेकोंमें मिलते हैं। वहाँ उन सर्व परमाणुओंमें कितने एक परमाणु पहले समय में मिलते हैं, कितने एक दूसरे समयमें मिलते हैं, इस प्रकार यथासम्भव अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त परमाणुओंको निचले निषेकमें प्राप्त करते हैं। वहां अन्त समयमें अवशेष रहे सर्व परमाणुओंको निवले निषेक में प्राप्त होते रहते उन नाश करने योग्य निषेकोंका नाश हुआ, तब जितने निवेकोंका नाश हुआ उतने समय प्रमाण स्थिति सत्य वहां घट जाता है। उदाहरण मान लो स्थिति सत्व ४८ समय मात्र था। उसके ४८ ही निषेक थे। उन सर्व निषेककि मान को २५००० परमाणु थे। उनमें ८ निषेकों का नाश करनेपर वहाँ उन निषेकोंके १००० परमाणु है। अवशेष ४० निषेकोंमें ऊपरके दो निषेक छोड़कर नीचे २८ निषेकोंमें वे १००० परमाणु मिलते हैं। वहाँ उन निषेकोंमें कई परमाणु पहले समय में, कई दूसरे समयमें इस प्रकार चार समय पर्यन्त मिलते हैं। वहाँ चौथे समय अवशेष सर्व परमाणुओंको उन ३८ निवेकोंमें मिलनेपर उन ८ निषेकोंका अभाव हो जाता है । उनका अभाव होनेपर ४८ समयका स्थिति सत्त्व था वह अब ४० समयका शेष रहा । इस प्रकार निषेकोंको क्रमसे निचले निषेक रूप परिणमाकर स्थितिका घटाना स्थिति काण्डक है। इस एक काण्ड में निषेकोंका नाश कर जितनी स्थिति घटायी गयी उसके प्रमाणका नाम स्थिति काण्डक आयाम है। उपरोक्त उदाहरण में आठ समय यह आयाम है। उसके नाश करने योग्य निषेकोंका जो सर्व द्रव्य है उसका नाम काण्डक द्रव्य है, यहाँ उदाहरणमें १००० है । इस द्रव्यको अवशेष स्थितिके निषेकों में Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२२ गो० कर्मकाण्डे मिलाते हैं। वहाँ आवली मात्र निषेकोंमें नहीं मिलाया जाता है, इस आवलीको अतिस्थापनावकी कहते हैं। यहाँ उदाहरणमें यह दो निषेक है । पुनः इसके बिना अवशेष स्थितिके ३८ निषेकोंमें उस काण्डक द्रव्यको मिलाना काण्डकोस्करण अथवा काण्डकघात संक्रिया (?) कहलाती है। एक काण्डकका उत्कर्षण अन्तर्महर्त काल द्वारा पूर्ण होता है । जिसका नाम काण्डकोस्करण काल है, यहाँ उदाहरणमें यह चार समय है। पुनः इस कालके प्रथम समयमें उस काण्डक द्रव्यका ग्रहण कर जितने परमाणु अवशेष निषकोंमें मिलाये गये उसका नाम प्रथम फालि है । द्वितीय समयमें मिलाये गये परमाणु, द्वितीय फालि कहलाते हैं। इसी प्रकार क्रमशः अन्तिम समयमें मिलाये गये का नाम चरम फालि है। इस तरह एक काण्डक समाप्त होनेपर द्वितीय काण्डक प्रारम्भ होता है । ऐसे ही अनेक काण्डकं होनेपर, स्तोक स्थिति सत्त्व अवशेष रहनेपर काण्डक क्रिया नहीं होती है। इस अवशेष स्थितिका नाश एक-एक समय व्यतीत होते कम (?) होता है। अपकृष्टि विधान-विवक्षित कर्म प्रकृतिके सर्व निषेक सम्बन्धी सभी परमाणु राशिमें अपकर्षण भामहारका भाग देनेपर एक भाग मात्र परमाणु ग्रहण करनेपर अपकृष्ट द्रव्यका प्रमाण होता है। उस भपकृष्ट द्रव्यमें कितने एक परमाणु उदयावलीमें मिलते हैं, कितने एक प्रमाण गुणश्रेणी आयाममें मिलते हैं, अवशेष परमाणु उपरितन स्थिति में मिलाते हैं। वहाँ वर्तमान समयसे लगाकर आवलीमात्र समय सम्बन्धी जो निषेक है उनका नाम उदयावलो हैं। उन निषेकोंमें उदयावलीमें देने योग्य जो द्रव्य है, उसको निषेक निषेक प्रति एक-एक चय घटता क्रम-क्रमसे मिलाते हैं। पुनः उन आवली मात्र निषेकोंके उपरिवत सम्भव अन्तर्मुहूर्तके समय सम्बन्धी जो निषेक हैं उनका नाम गुणश्रेणी आयाम है । गुणश्रेणी आयाम निषेकोंमें देने योग्य जो द्रव्य है उसे निषेक-निषेक प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये मिलाते हैं। उनके उपरिवर्ती अवशेष सर्व स्थति सम्बन्धी निषेकोंका नाम उपरितत स्थिति है। उनमें अन्तके आवली मात्र निषेकोंमें तो द्रव्य नहीं मिलाते हैं, इस आवलीका नाम प्रतिस्थापनावली है। उसके बिना अन्य निषेकोंमें उपरितन स्थितिमें देने योग्य जो द्रव्य है उसे नानागुणहानि रचना द्वारा निषेक प्रतिचय घटते क्रमसे मिलाते हैं । उदाहरण-मान लो विवक्षित कर्म प्रकृतिकी स्थिति ४८ समय है। उसके ४८ निषेक हैं तथा परमाणु २५००० हैं । इसमें अपकर्षण भागहार प्रमाण ( मान लो ) पाँचका भाग देनेपर ५००० हुए । सर्व परमाणुओंमेंसे इतने ५००० परमाणु ग्रहण कर उनमेंसे २५० परमाणु उदयावलीमें देते हैं। इस प्रकार ४८ निषेकोंमेंसे प्रथमादि चार निषेक उदयावलीके हैं, उनमें चय घटते क्रमसे मिलाते हैं। पुनः १००० परमाणु गुणश्रेणि आयाममें देते हैं । इसलिए पाँचवाँ आदि बारहवें पर्यन्त जो ८ निषेक गुणधेणी आयामके हैं उनमें असंख्यात गुणाक्रम लिये मिलाते है । ३७५० परमाणु उपरितन स्थितिमें देते हैं, वहाँ ३६ निषेक अवशेष रहनेवालोंमें अन्तके ४ निषेक छोड़ देते हैं क्योंकि वे अतिस्थापनावलीके है। अवशेष तेरहवाँसे लेकर चवालीस पर्यन्त ३२ निषेकोंमें नानागुणहानिकी रचना लिये चय घटते क्रममें मिलाते हैं। मिलानेका विधान बागे वर्णित है। कहीं सदयादिक गुणश्रेणि मायाम होता है । अपकृष्ट द्रव्यमें कितने एक द्रव्यको तो गुणश्रेणी आयाम प्रमाण जो वर्तमान समय सम्बन्धी निषेकसे. लगाकर निषेकोंमें असंख्यात गुणाक्रमसे मिलाते हैं। अवशेषको उपरितन स्थितिमें मिलाते हैं । इस प्रकार यहाँ गणश्रेणि आयाममें उदयावली भित होती है। गुणश्रेणि आयाममें कहीं गलितावशेष और कहीं अवस्थित होता है । गलितावशेष गुणश्रेणिका प्रारम्भ करनेके लिए प्रथम समयमें जो गुणश्रेणि आयामका प्रमाण था, उसमेंसे एक-एक समय व्यतीत होते उसके द्वितीयादि समयोंमें गुणश्रेणि आयाम क्रमसे एक एक निषेक घटता हुआ अवशेष रहेका नाम गलितावशेष है। अवस्थित गुमश्रेणि आयामके प्रारम्भ करनेके प्रथम-द्वितीयादि समयोंमें गुणश्रेणि आयाम जितनाका तितना Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४२३ बना रहता है । ज्यों-ज्यों एक-एक समय व्यतीत होता जाता है, त्यों-त्यों गुणश्रेणि आयामके अनन्तरवर्ती ऐसे उपरितन स्थितिके एक-एक निषेक गुणश्रेणि आयाममें मिलते जाते हैं आयाम है। इसी गुणश्रेणि आयामके अन्तके बहुतने नियेकोंका नाम कहीं कहीं-कहीं अन्तके एक निषेकका ही नाम गुणश्रेणी शीर्ष है क्योंकि शीर्ष इस प्रकार यथासम्भव गुणश्रेणी निर्जराका विवान जानना चाहिए । यहाँ उदयावली में दिये गये द्रव्यका नाम उदीरणा जानना चाहिए जहाँ स्तोक स्थिति तत्व अवशेष रहे वहां गुणथेणीका भी अभाव होता है। अपकृष्ट द्रव्यमें कितना एक द्रव्यको उदयावली में देकर अवशेषको उपरितन स्थिति में देते हैं । एक समय अधिक आवली मात्र स्थिति शेष रहे, आवली के उपरिवर्ती जो एक निषेक उसके द्रव्यका अपकर्षण कर उदपावली के निषेकोंमें एक समय कम आवलीका उपरिवर्ती जो एक निषेक - उसके द्रव्यका अपकर्षण कर उदयावलीके निषेकोंमें एक समय रूप कम आवली के दो त्रिभाग मात्र नियेकोंको अतिस्थापना रूप छोड़कर समय अधिक आवलीको त्रिभागमात्र निषेकोंमें मिलाते हैं। वहाँ जघन्य उदीरणा नाम पाते हैं । ऐसा अपकृष्टि विधान है । इसीका नाम अवस्थित गुणहानि गुणश्रेणि शीर्ष कहा गया है। नाम उपरितन अंगका ही है। काण्डक विधान में स्थिति सत्त्वका घटना मूलसे होता है क्योंकि ऊपरके अनेक निषेकोंका नाश कर स्थिति सवका घटना मूलते है। पुनः अनुष्टिविधान में ऊपरके नियेकोंके अनेक परमाणुओं हों की स्थिति घटाना होती है । मूलसे निषेक नाश नहीं होता, इसलिए मूलसे स्थिति सत्त्वका घटाना नहीं होता है । स्थिति सत्त्वमें आवली मात्र अवशेष रहनेका नाम उच्छिष्टावली है । उसमें उदीरणा आदि कार्य नहीं होते हैं । पूर्वमें ये कार्य हुए थे जिनके द्वारा एक-एक समयमें उदय आने योग्य ऐसे अनेक समवेप्रबद्ध मात्र परमाणुओंके समूह रूप निषेक हुए, उन्हींके द्वारा एक समय में गलते और निर्जरित होते हैं। इसका नाम अधोगम है। इस प्रकार उच्छिष्टावली व्यतीत होनेपर सर्वथा स्थिति सस्व नाश होता है। सत्ता रूप विवक्षित कर्म प्रकृतिके परमाणुओंमें अनुभागकी अधिकता हीनता लिये स्पर्धक रचना होती है । वहाँ नीचेके स्पर्धक स्तोक अनुभागयुक्त होते हैं। ऊपर के स्पर्धक बहुत अनुभाग युक्त होते हैं । वहाँ जी निषेक उदयमें आते हैं उनके अनुभागका भी उदय पूर्वोक्त प्रकार होता है। अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग घटाना सम्भव होता है। वहाँ जिस प्रकार स्थिति कहा गया है वैसे यहाँ भी विधान जानना चाहिए। वह निम्न प्रकार है दर्शन चारित्र लब्धिके द्वारा पेटाने हेतु काण्डक विधान बहुत अनुभागयुक्त ऊपर के बहुत स्पर्धकोंका अभाव कर उनके परमाणुओंको स्तोक अनुभाग युक्त नीचे स्पर्धकोंमें क्रमसे मिलाकर अनुभाग के घटानेका नाम अनुभाग काण्डक है अथवा अनुभाग खण्डन है । अनुभागको लांछित करना अथवा खण्डित करना अनुभाग काण्डकोस्करण अथवा अनुभाग काण्डक घात कहते हैं। एक अनुभाग काण्डकका पात अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्पूर्ण होता है। इस कालका नाम अनुभाग । काण्डकोस्करण काल है। इस काल अन्तरालमें नाश करने योग्य स्पर्धकोंके परमाणुओंको ग्रहण कर नापा करनेके पश्चात् जो अवशेष स्पर्धक रहें उनमें कितने एक उपरके स्पर्धक अतिस्थापना रूप छोड़कर अन्य सर्व निषेकोंमें मिलाते हैं । उदाहरण मान लो विवक्षित प्रकृतिके पाँच सौ स्पर्धक थे। उनमें अनन्तके प्रमाण प्रतीक ५ का भाग देनेसे प्राप्त बहुभाग प्रमाण ४०० स्पर्धकों का नाश करते हैं। वहाँ उनके परमाणुओंको अवशेष १०० स्पर्धकों में इस प्रकार मिलाते हैं कि १० स्पर्धक अतिस्थापना रूप छोड़कर ९० स्पर्धकों में उक्त निक्षिप्त हो जायें । क- १७९ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे यहाँ एक अनुभाग काण्डक द्वारा जितना अनुभाग घटाया गया उसका नाम अनुभाग कांडक आयाम है । पुनः नाश करने योग्य स्पर्धकोंके सर्व परमाणुओंको ग्रहण कर अनुभाग काण्डकके प्रथम समय में जितनी परमाण राशि अवशेष स्पर्धकों में मिलायी उसका नाम प्रथम फालि है । द्वितीय समय जो मिलायी गयी उसका नाम द्वितीय फालि है । इत्यादि क्रम है। इस प्रकार एक काण्डककी समाप्ति कर अन्य काण्डका प्रारम्भ होता है। इस तरह अनेक अनुभाग काण्डकों द्वारा अनुभाग घटाते हैं। जहाँ विशुद्धता बहुत होती है यहाँ अन्तर्मुहूर्त में होता था जो काण्डकघात उसके अनुभाग का समापवर्तन होता है वहीं समय-समय प्रति अनन्त गुणे क्रमसे अनुभाग घटाते हैं। पूर्व समय में जो अनुभाग था, उसमें अनन्तका भाग देनेसे प्राप्त बहभागका नाश कर एक भाग मात्र अनुभाग अवशेष रखते हैं। इस प्रकार समय-समय प्रति अनुभागका घटाना होनेसे इसका नाम अनुसयापवर्तन है [ काण्डक पोरको कहते हैं। कुछ अनुभाग के हिस्से करके, एक-एक हिस्सेका फालिक्रमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्टक घात है। प्रतिसमय अनन्त बहुभाग अनुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तन है । ] १४२४ संज्वलन कषाय में अनुभाग घटनेके क्रमसे अपूर्व स्पर्धक रचना और बादर कृष्टि रचना होती है । संज्वलन लोभमें सूक्ष्म कृष्टि रचना होती है। सर्वत्र स्तोक अनुभाग युक्तकी रचना नीचे होती है और बढ़ती अनुभाग रचना ऊपर होती है। उसकी अपेक्षा स्पर्धकोंकी कृष्टियोंको नीचे ऊपर कहते हैं। इस क्रमसे अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग सरबका नाश होता है। प्रकृति सरवका नाश होनेपर सर्वथा उनके अनुभाग सत्त्वका नाश होता है । प्रशस्त प्रकृतियोंका काण्डकादि विधानसे अनुभाग सत्त्वका नाश करते हैं । प्रकृति सत्त्वके साथ उनके अनुभाग सत्त्वका नाश जानना चाहिए। इस क्रमसे निर्जराका विधान है । प्रयोजित संज्ञाएँ कर्म प्रकृतियोंके कथनमें उनके परमाणुओंका नाम इव्य है । बन्धरूप परमाणुओंका नाम बम्ध द्रव्य है। सत्त्व रूप परमाणुओंका नाम सत्व द्रव्य है। स्थिति काण्डकके नियेकोंके परमाणुओंका नाम काण्डक द्रव्य है । यहाँ प्रथमादि फालियोंके परमाणुओंका नाम प्रथमादि फाकि द्रश्य है। ऊपरके वा नीचेके निषेक छोड़कर बीच कितने एक निषेकोंका अभाव करनेरूप अन्तरकरण होता है। वहीं अभाव करने रूप निषेकोंके परमाणुओंका नाम अन्तरकरण दृश्य है। उदय आने के अयोग्य किये परमाणुओंका नाम उपशम द्रव्य है। विवक्षित सत्ता रूप निषेक थे, उनमें नवीन मिलाये गये परमाणुओं को दीवमान दृष्य कहते हैं सत्तारूप थीं, उनमें नवीन परमाणुओंके मिलने पर जो सर्वपरमाणुओं का समूह बना उसे दृश्यमान हुन्य कहते हैं (?) । काण्डका नाम पर्व ( पोरा ) भी है । जिस प्रकार गन्नेको पेरा जाता है उसी प्रकार मर्यादारूप स्थानका नाम पर्व है । जिस प्रकार स्थिति में घटनेका मर्यादारूप स्थान होता है, उसका नाम स्थिति काण्डक है । अनुभाग में भी घटनेका मर्यादा रूप स्थान होता है, उसका नाम अनुभाग काण्डक है। अनन्तानुबन्धीकी स्थितिमें चार स्थान ही चार पर्व कहे जाते हैं। पुनः अपकृष्ट द्रव्यके मिलाने के जहाँ तीन स्थान है वहाँ तीन पर्व कहे जाते हैं । आयाम का दूसरा नाम लम्बाई है जो युगपत्से भिन्न कालके प्रमाणकी संज्ञा रूप है । कहीं ऊपरऊपर रचना होती है वहाँ उनके प्रमाण में भी आयाम संज्ञा होती है । जैसे, स्थितिके प्रमाणका नाम स्थिि आयाम है। स्थिति काण्डकके निषेकोंके प्रमाणका नाम स्थिति काण्डक आयाम है। अन्तरकरणमें जितने निषेकका अभाव किया गया हो उसका नाम अन्तरायाम है । गुणश्रेणिके निषेकोंके प्रमाणका नाम गुणश्रेणि आयाम है | Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४२५ गुण नाम गुणकार का है। गुणकारकी पंक्ति लिए जहाँ निषकोंमें द्रव्य देते हैं उसका नाम गुणश्रेणी है । समय-समय गुणकार लिये विवक्षित प्रकृतिके परमाणु अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेका नाम गुणसंक्रम है । गुणकार लिये हानि अथवा हीनता या घटवारी जहाँ होती है उसका नाम गुणहानि है । विवक्षित कर्मस्थितिमें निषेकोंके उपरिवर्ती निषकोंका नाम उपरितन स्थिति है गणश्रेणीके कथनमें गुणश्रेणी आयामसे उपरिवर्ती निषेकोंका नाम उपरितनस्थिति है। केवल उदीरणाके कथनमें उदयावलीसे उपरिवर्ती निषेकोंका नाम उपरितन स्थिति है। विवक्षित प्रमाण लिये निचले निषेकोंका नाम प्रथम स्थिति है । पुनः उपरिवर्ती सर्वस्थितियों के निषकोंका नाम द्वितीय स्थिति है। उदाहरणार्थ, अन्तरायामसे निचले निषेकोंका नाम प्रथम स्थिति है। उपरले निषेकोंका नाम द्वितीय स्थिति है । अथवा संज्वलन क्रोधका जितना प्रमाण लिये प्रथमस्थिति स्थापित की गयी हो उसके निषेकोंका नाम प्रथम स्थिति है। अवशेष सर्व स्थितियोंके निषेकोंका नाम द्वितीय स्थिति है। समुदाय रूप एक क्रियामें अलग-अलग खण्ड कर विशेष करनेका नाम फालि है। उदाहरणार्थ, काण्डक द्रव्यको काण्डकोत्करण कालमें अन्यत्र प्राप्त करना। वहाँ प्रथम समय जो प्राप्त किया वह काण्डककी प्रथम फालि है। द्वितीय समयमें जो प्राप्त किया वह हिताय फालि, इत्यादि । इसी प्रकार उपशमन काल में प्रथम समय जितना द्रव्य उपशमाया, वह उपशमको प्रथम फालि है; द्वितीय समय जो उपशमाया, वह द्वितीय फालि है, इत्यादि । अन्य निषेकोंके परमाणुओंको अन्य निषेकोंमें मिलानेको अथवा देनेको निक्षेपण कहते हैं । दिये हुए निषेकोंको निक्षेपण रूप जानना चाहिए। द्वितीय स्थितिवाले निषेकोंके द्रव्यको प्रथम स्थितिवाले निषेकोंमें मिलानेको भागाल संज्ञा है। प्रथम स्थितिवाले निषेकोंके द्रव्यको द्वितीय स्थितिके निषेकोंमें मिलानेकी प्रत्यागाल संज्ञा है । विवक्षितके कालका जो प्रमाण हो वही उसका काल है। उदाहरणार्थ, एक काण्डक के घात करनेका जो काल है उसका नाम काण्डकोत्करण काल है। वहाँ प्रथम समयमें प्रथम फालिका पतन जो निचले निषेकोंमें प्राप्त होना सो होता है। इसलिए प्रथम समयको प्रथम फालिका पतन काल कहते हैं । द्वितीय समयको द्वितीय फालिका पतनकाल कहते हैं। इसी प्रकार अन्त समयको चरमफालि का पतनकाल कहते हैं । उसके पूर्व समयको द्विचरमफालि पतन काल कहते हैं । जिस कालमें अन्तरकरण करते हैं उसका नाम अन्तरकरण काल है। जिस कालमें क्रोधको वेदता है, उसके उदयको भोगता है, उसका नाम क्रोध वेदन काल है। आवली मात्र कालका अथवा उतने काल सम्बन्धी निषेकोंका नाम आवली है। वहाँ वर्तमान समयसे लेकर आवली मात्र कालको आवकी कहते हैं। आवलीके निषेकोंको भी आवली या उदयावली कहते हैं। उसके उपरिवर्ती जो आवली है उसे द्वितीयावली कहते अथवा प्रत्यावला कहते हैं। बन्ध समयसे लगाकर आवली पर्यन्त उदीरणादि क्रिया जहाँ न हो सके उसका नाम बन्धावकी या अचलावली अथवा आबावावली है । द्रव्य निक्षेपण करते समय जिन आवली मात्र निषेकोंमें निक्षेपण नहीं करते हैं उसका नाम अतिस्थापनावली है । स्थिति सत्त्व घटते हुए जो आवलिमात्र स्थिति अवशेष रह जाये उसका नाम उच्छिष्टावली है । जिस आवलीमें संक्रमण पाया जाये उसे संक्रममावली और जहाँ उपशमन करना पाया जाये उसे उपशमावली कहते हैं। अन्तः नाम माहीका (?) है । उक्त प्रमाणसे कुछ कम होना-इसे अन्त: संज्ञा दी जातीहै । जैसे कोडाकोडीके नीचे और कोडीके ऊपर प्रमाणको अन्त:कोटाकोटी कहते हैं । मुहूर्तसे कम और आवलीसे Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२६ गो. कर्मकाण्डे अधिकको अन्त मुहूर्त कहते हैं । दिवससे कुछ कमादिको अन्तदिवस कहते हैं। तीनके ऊपर और नौके नीचे प्रमाणका नाम पृथक्त्व है । दृष्टान्त अपेक्षा भी संज्ञाएँ होती हैं- जहाँ एक-एक चय घटते क्रममें निषेक पाये जाय वहाँ गोपुच्छ संज्ञा है। द्रव्य देने जहाँ ऊँटको पीठिवत् हीनाधिकपना हो वहाँ उष्ट्रकूट संज्ञा है । जहाँ समान पट्टिकाके आकारवत सर्वस्थानमें समान रचना हो वहाँ समपट्टिका संज्ञा है । ___ कर्म स्थिति वा अनुभाग रचनाओंमें एक-से करणसूत्रोंका उपयोग होता है । आय और व्यय द्रव्योंके सम्बन्धमे भी संक्रिया (?) जानने योग्य है । करण सूत्रोको संप्रयुक्ति नाना गुणहानिके सम्बन्धमें चय घटते हुए क्रमरूप द्रव्य के विभागका विधान है। सर्वप्रथम द्रव्य, स्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, दो गुणहानि और अन्योन्याभ्यस्त राशियोंका स्वरूप और प्रमाण जानना चाहिए। स्थिति रचनाके सम्बन्धमें यह उल्लेख है। विवक्षित समयमें ग्रहण किये समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणु राशिका द्रव्य कहते हैं । उसकी आबाधा रहित स्थिति बन्धके समय राशिका प्रमाण है वह स्थिति है। वहाँ एक गणहानिमें निषेकोंकी राशि प्रमाणको गुणहानि आयाम कहते है। स्थितिमें गुणहानियोंके प्रमाणको नानागुणहानि कहते हैं। गुणहानि आयामसे दुगना प्रमाण दो गुणहानि कहलाता है। नाना गुणहानि मात्र दूवा ( २ के अंक ) विरलित कर, परस्पर गुणित करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे अन्योन्याभ्यस्त राशि कहते हैं । उदाहरणार्थ-मिथ्यात्वका द्रव्य अपने समय प्रबद्ध मात्र है। स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । स्थितिमें नानागुणहानिका भाग देनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो वह गुणहानि आयाम है। पल्यके अर्द्धच्छेदोमें-से पल्यकी वर्गशलाकाके अर्द्धच्छेद घटानेपर जो प्रमाण प्राप्त हो वह नानागुणहानि है। गुणहानि आयामसे दूना निषेकहार है। पल्यमें पल्यकी वर्गशलाकाओंका भाग देनेपर जो प्राप्त हो वह अन्योन्याभ्यस्त राशि (?) है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंका विवरण है। ____ अनुभाग रचनाके सम्बन्धमें विवक्षित कर्म प्रकृतिके परमाणुओंका प्रमाण द्रव्य है। सर्व वर्गणाओंका जो प्रमाण है वह स्थिति है। एक गुणहानिमें वर्गणाओंके प्रमाणको गुणहानि आयाम कहते हैं। स्थितिमें गुणहानियोंके प्रमाणको नानागुणहानि कहते हैं। दूना गुणहानि मात्र निषेकहार है । नाना गुणहानि मात्र वोंको विरलित कर परस्पर गुणित करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि प्राप्त होती हैं। इन छहोंका प्रमाण हीनाधिकपन लिये अनन्त प्रमाण है। काण्डकादि द्रव्य ग्रहण कर यथायोग्य निषेकोंमें निक्षेपण करने सम्बन्धी निम्नप्रकार है। जितना द्रव्य ग्रहण किया हो वह प्रमाण मात्र द्रव्य है। जितने निषेकोंमें देना हो उनका प्रमाण मात्र स्थिति है। गणहानिका प्रमाण बन्धकी स्थिति रचनामें जितना कहा उतना है। इसका भाग यहाँ सम्भव स्थितिमें देनेपर नानाणहानिका प्रमाण प्राप्त होता है। दूना गुणहानि मात्र निषेकहार है। नानागुणहानि मात्र दूवों (२ के अंकों) को विरलित कर परस्पर गुणित करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि है। उदाहरण : अंकसंदृष्टि अनुसार मान लो द्रव्य ६३००, स्थिति ४८, गुणहानि ८, नानागुणहानि ६, दो गुणहानि १६, अन्योन्याभ्यस्त राशि २ अथवा ६४ है । निषेकोंमें द्रव्यका प्रमाण लाने के लिए सूत्र, "दिवढगुणहानिभाजिदे पढमा" है। अर्थात सर्व द्रव्यमें साधिक डेढ गुणहानिका भाग देनेपर प्रथम निषेकका द्रव्य होता है । जैसे ६३०० में साधिक १२ का भाग देनेपर ५१२ होता है । पुनः, “तं दो गुणहाणिणा Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४२७ भजिये पचर्य" सूत्रसे प्रथम निषेकमें दो गुणहानिका भाग देनेपर चयका प्रमाण आता है। जैसे ५१२ में १६ का भाग देनेपर ३२ होता है । यह द्वितीयादि निषेकोंमें एक-एक चय घटता प्रमाण प्राप्त कराता है । यथा, ४८० आदि । इस क्रममें जिस निषेकमें प्रथम निषेकसे आधा प्रमाण द्रव्य हो वहांसे दूसरी गुणहानि प्रारम्भ हो जाती है। जैसे यहाँ दूसरी गुणहानिका प्रथम निषेक ५१२२ २५६ होगा। यहां चयका प्रमाण भी प्रथम गुणहानिके चयसे आधा होगा, अर्थात् १६ होगा । इत्यादि । अन्तिम गुणहानिका अन्तिम निषेक नाम ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ एक वर्गम अविभाग प्रतिच्छेद १८ २० २२ sa २४ २६ २८ ३० ३२ ሪ ३६ ४० ૪૪ ४८ ५२ ५६ ६० ६४ = a इसी प्रकार अनुभाग रचना होती है । जैसे यहाँ द्रव्यादिका प्रमाण जानते हैं, उसी प्रकार अनुभाग रचनामें भी जानते हैं । जैसे यहाँ निषेकोंमें परमाणु संख्याका प्रमाण निकालते हैं, वैसे ही अनुभाग रचनामें वर्गणाओंमें परमाणु संख्याका प्रमाण प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार देने योग्य द्रव्यमें भी । २५६ ७२ ८० ८८ ९६ उदाहरण: एक योग्य स्थान में नानागुणहानि दो बार असंख्यात द्वारा भाजित पल्य मात्र एक गुणहानिमें स्पर्धकोंका प्रमाण दो बार असंख्यात द्वारा भाजित श्रेणिमात्र एक स्पर्धक वर्गणाओंका प्रमाण असंख्यत द्वारा भाजित श्रेणिमात्र एक वर्गणा में वर्गोंका प्रमाण असंख्यात जगत्प्रतर मात्र तथा एक वर्ग में अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात लोकमात्र हैं। इनकी अर्थ संदृष्टि और अंक संदृष्टि निम्नप्रकार है अर्थ संदृष्टि अंक संदृष्टि | एक स्थान में स्पर्धकों और वर्गणाओंके प्रमाण निकालने सम्बन्धी राशिक १०४ ११२ १२० १२८ ' = एक वर्गणा में एक स्पर्धक में एक गुणहानिमें वर्ग वर्गणा स्पर्धक ४ * १६० १७६ १९२ a २०८ २२४ २४० २५६ a a २८८ ३२० ३५२ ૨૮૪ ९ ४१६ ४४८ ४८० ५१२ प्रथम गुणहानिका प्रथम निषेक एक स्थानमें गुणहानि ( नाना गुणहानि ) प a a ५ स्थान १ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२८ गो० कर्मकाण्डे प्रमाण । फल | इच्छा ! लब्ध गुणहानि । स्पर्धक | गुणहानि । एक स्थान स्पर्धक aai aa aa aa वर्गणा | स्पर्द्धक । एक स्थान वर्गणा स्पद्धक a aa aa aa aa a यहाँ एक स्थानमें वर्गोंका प्रमाण जीव प्रदेश मात्र है। अविभागी प्रतिच्छेदोंका प्रमाण असंख्यात लोकमात्र = a हैं । यहाँ द्रव्यादिका प्रमाण निम्न प्रकार है नाम | गुणहानि | नाना गुणहानि | दो गुणहानि | अन्योन्याभ्यस्त अंक संदृष्टि ३१०० ४० ८ । ५ अर्थ संदृष्टि aa उपरोक्त प्रकार सूत्रोंसे यह सिद्ध होता है । विशेष विवरणके लिए गो. सा. अर्थसंदृष्टि, पृ. २३२ आदि देखिये। यदि द्रव्य स्तोक हो और उसे निषेकोंमें निक्षेपित करना हो वहाँ गुणहानिकी रचना सम्भव नहीं है । वहाँ निम्नविधि अपनाते हैं जिस प्रकार एक गुणहानिके निषेकोंमें द्रव्यके प्रमाण लानेका विधान है, उसी प्रकार, "अद्धाणेण सब्वधणे खंडिदे मज्झिमधणमागच्छदि" इत्यादि विधानसे वहाँ प्रथमादि निषेकोंका प्रमाण प्राप्त करना चाहिए । विशेष इतना है कि यहाँ जितने निषेकोंमें द्रव्य देना हो उतने ही प्रमाण गच्छ स्थापित करना चाहिए। और जितना द्रव्य वहाँ देने योग्य हो उस प्रमाण द्रव्यको स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार करनेपर जो प्रथमादि निषेकोंका प्रमाण आवे उतने द्रव्यको विवक्षितके पूर्व वाले सत्तारूपी जो प्रथमादि निषेक पाये जायें उनमें मिला देना चाहिए । उदयावलीमें द्रव्य देना हो वहाँ, अथवा स्तोक स्थिति शेष रहने पर उपरितन स्थितिमें द्रव्य देना हो वहाँ; अथवा अन्यत्रके लिए ऐसा विधान जानना चाहिए । पनः गणश्रेणि आयाम आदिमें द्रव्य निक्षेपित करनेका निम्न विधान है-"प्रक्षेपयोगोद्धतमिश्रपिण्ड प्रक्षेपाकाणां गुणको भवेदिति ।" जैसे सीरके द्रव्यका नाम मिश्र पिण्ड है। सीरीनिके विसवाओंका नाम प्रक्षेप है। सो प्रक्षेपको जोड़कर उसका भाग मिश्रपिण्डको देते हैं । जो एक भाग प्रमाण आता है वह प्रक्षेपक अपने-अपने विसवेका गुणकार होता है। इनको परस्पर गुणित करने पर जो जो प्रमाण आवे वही वही अपने अपने विसवाके स्वामी जो सीरी है उनका द्रव्य जानना चाहिए । यहाँ सीरका द्रव्य मिश्रपिण्ड १७०० है, सीरीनिके विसवेका एकका १, दूसरेके ४, तीसरेके १६, चौथंक ६४, ये प्रक्षेप हैं। इनका योग ८५ है। ८५ का भाग मिश्रपिण्डको देनेपर २० प्राप्त हुआ। इसके द्वारा अपने अपने प्रक्षेप विसवोंको गुणित करनेपर पहलेका २०, दूसरेका ८०, तीसरेका ३२०, चौथेका १२८० द्रव्य प्राप्त होता है। इसी प्रकार गुणश्रेणी आयाममें जितना द्रव्य देना हो उसे मिश्रपिण्ड जानना चाहिए । पुनः गुणश्रेणी आयामके प्रथम समयकी एक शलाका, द्वितीय समयकी उससे असंख्यात गुणी शलाकाएं, तृतीय समयकी उससे भी असंख्यात गुणी Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४२९ शलाकाएं-ऐसे ही असंख्यात गुणा क्रम लिये उसके अन्तिम समय पयंतकी शलाकाएं जानना चाहिए। इसका नाम प्रक्षेपक है । इनको जोड़नेपर जो प्रमाण आवे उसका भाग उस सर्वद्रव्यको देनेपर जो प्रमाण हो उसके द्वारा अपनी अपनी शलाकाओंके प्रमाणको गुणित करनेपर गुणश्रेणी आयामके प्रथमादि समय सम्बन्धी निषेकोंमें द्रव्य देनेका प्रमाण आता है । इतना-इतना द्रव्य गणश्रेणी अायामके प्रथमादि निषेकोंमें मिलाना चाहिए। यह विधान गुणसंक्रममें भी जानना चाहिए। वहाँ जो गुणसंक्रमण कालके प्रथमादि समय सम्बन्धी एक आदि क्रमसे असंख्यातगुणी शलाकाएँ प्रक्षेपक हैं। जो गुणसंक्रमण द्वारा अन्य प्रकृति रूप परिणमावने योग्य सर्वद्रव्य मिश्रपिण्ड है । प्रक्षेपकोंके जोड़का भाग मिश्रपिण्डमें देकर लब्ध द्वारा अपनी अपनी शलाकाओंको गणित करने पर संक्रमणकालके प्रथमादि समयोंमें अन्य प्रकृतिरूप परिणमावने योग्य द्रव्यका प्रमाण आता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी यथासम्भव मिश्रपिण्ड और प्रक्षेपकोंका प्रमाण जानकर जैसा जहाँ सम्भव हो वहाँ वैसा जानना चाहिए। सत्तामें प्राप्त निषेकोंके द्रव्यको ज्ञात करनेका विधान निम्न प्रकार है विवक्षित कोई समयमें जो सत्ता रूप कर्मपरमाणुओंका द्रव्य हो वहाँ स्थिति सत्त्वका प्रथम समय वर्तमान है । उसी में उदय आने योग्य जो द्रव्य है वही प्रथम निषेकका द्रव्य है। उसका प्रमाण सम्पूर्ण समय प्रबद्ध मात्र साधारणतः है । [अंक संदष्टि द्वारा सरवका निरूपण-यहाँ केवल एक समय प्रबद्ध आस्रवको लेकर सबसे सरल रचना की गयी है। वास्तवमें योग कषाय एवं परिणाम गत फल दुर्गम है । ] वर्तमानसे सम्पूर्णस्थिति पर्यन्त रचना -८४७४६४५४४४३४२ ४१ ० ० ० ५ ४ अन्तिम गुणहानि । आस्रव . २२४ ३५२ 3/ x २०८ २५६ २८८ २८८ ३२० ९ १० ११० ० ०२४० ३२०३५२ ९ १० ११ १२००० २५६ ९ १० ११ १२ १३ ० ० ०२८८ ३२० ९ १० ११ १२ १३ १४ ०००३२० ३५२ | ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ ०० ०३५२ (३८४ । ९१०११/१२/१३ १४ १५ १६ ० ० ०३८४ ४१६ - ९१९३०४२/५५/६९/८४ १०० ४४४४४८६०५३०८५७८८ ६३०० प्रथम गुणहानि ४१६ विभिन्न समयोंमें शेष परमाणुओंका योग उदय Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है । पूर्ववर्ती समय समय प्रति समय प्रबद्ध बाँधे उनमें जिस समयप्रबद्धका एक भी निषेक पूर्व में नहीं गला है उसका प्रथम निषेक इस वर्तमानमें उदय होने योग्य ५१२ है। जिसका एक निषेक पूर्व में गल गया उसका दुसरा निषेक ४८० इस वर्तमान समयमें उदय होने योग्य है। इसी क्रमसे जिस समयप्रबद्धका एक निषेक छोड़कर अवशेष सर्व निषेक पूर्व में गल चुके हों उसका अन्तिम निषेक ९ इस समयमें उदय होने योग्य है। इस प्रकार इन सभी ४८ समयप्रबद्धोंके एक एक निषेक मिलकर इस विवक्षित वर्तमान समयमें उदय आने योग्य सम्पूर्ण एक समय प्रबद्ध मात्र द्रव्य हुआ-यही सत्ताका प्रथम निषेक है । इसका प्रमाण ६३०० है। पुनः स्थितिसत्त्वके दूसरे समयमें उदय आने योग्य द्रव्य प्रथम निषेक घटा हआ समयप्रबद्ध मात्र होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-प्रथममें जिस समयप्रबद्धका प्रथम निषेक गले उसका दूसरा निषेक है । जिसका दूसरा निषेक गले उसका तीसरा निषेक इत्यादि क्रमशः दूसरे समय उदय आने योग्य निषेक होते हैं-ये सभी मिलकर प्रयम निषेक ५१२ कम समयबद्ध मात्र अर्थात् यहाँ ५७८८ होता है । इसी प्रकार स्थितिसत्त्वके तृतीय समयमें उदय आने वाला निषेक ५१२ एवं ४८० कम समयबद्ध मात्र, अर्थात् ५३०८ होता है । अन्ततः अन्त समयमें उदय आने वाला निषेक यहाँ ९ होगा। उपर्युक्त सत्ताके सभी निषेकोंका योग किंचिद् ऊन द्वयर्ध गुणहानि गुणित समय प्रबद्ध मात्र होता है । यही सत्त्व द्रव्य है । यहाँ अंक संदृष्टि अनुसार ६३००+५७८८+ ५३०८+ ...+१+१०+९ का योग ७१३०४ है । गुणहानि आयाम ८ के ड्योढ़े १२ से कुछ कमका गुणा समय प्रबद्ध प्रमाण ६१०० में करने पर भी ७१३०४ आता है । यह विवरण गोम्मटसारमें विशदरूपसे वर्णित है। जिस प्रकार स्थिति सत्त्व रचनामें आय व्ययका विधान है, उसी प्रकार अनुभाग सत्त्व रचनामें भी वर्गणाओंका प्रमाण पूर्वोक्त प्रकार लाना चाहिए और वर्गणाओंमें यथा सम्भव द्रव्य निकालते अथवा मिलाते पूर्वोक्त प्रकार चय घटता क्रमका रहना अथवा न रहना ज्ञात करना चाहिए। उपरोक्त विवरण मुख्यतः पण्डित टोडरमल कृत लब्धिसारको टीकाकी पीठिकासे लिया गया है । स्पष्ट है कि त्रिकोण यन्त्र सम्बन्धी रचना जब अर्थ संदृष्टि मय रूप लेगी तब उपरोक्त विवरणमें बीजगणितका प्रवेश हो जावेगा । और भी गहराई में जाने हेतु आधुनिक रूपमें विकसित मेट्रिक्स यान्त्रिकी, नवीन बीजगणित, स्थलविज्ञान ( Topology ), तथा अन्य विश्लेषक कलनोंका उपयोग करना होगा । कारण यह है कि समयप्रबद्ध में विभिन्न प्रकृतियों मय कर्म परमाणुकी प्रदेश संख्या, उनकी स्थिति तथा अनुभाग अंश न केवल योग कषायादिके अनुसार परिणमित होते है, किन्तु इनकी मन्दता होनेपर विशुद्धिके अनुसार भी परिणमित होने लगते हैं । और ये घटनाएं सूक्ष्म जगत में होने के कारण, साथ ही समूह रूपमें होनेके कारण, सहज होते हुए भी कूटस्थ विश्लेषणका विषय बन जाती हैं । अगले पृष्ठोंमें अर्थ य कुछ प्रकरण प्रस्तुत किये जायेंगे जिनसे उन विधियोंका ज्ञान हो सकेगा जो जैन स्कूलमें कर्म सिद्धान्तके सूक्ष्म विवेचन हेतु उपयोगमें लायीं गयीं । मुख्यतः वे वही हैं जिन्हें पारिभाषिक रूपसे ऊपर वर्णित किया जा चुका है, और अब उन्हें प्रयोग रूपमें गणितीय परिधान में कुछ चुने हुए प्रकरण लेकर स्पष्ट किया जायेगा । गणितीय प्रणालीके इस प्राचीन रूपको आधुनिक सांचेमें ढालनेका प्रयास किया जा रहा है और आने वाली पीढ़ीके शोधार्थीके लिए इस गूढ विषयको और भी अथक एवं अगम्य प्रयासों द्वारा विश्लेषित ने हेतु यह सामग्री एक दिशा दे सकेगी। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४३१ विगत पृष्ठों में अघः प्रवृत्तकरण सम्बन्धी संदृष्टि बतलायी गयी है । यहाँ अपूर्वकरणके सम्बन्धमें गणितीय प्रक्रिया बतलायेंगे । अर्थ संदृष्टि द्वारा अपूर्वकरण में समस्त परिणामधन 3 a गुणित आबली प्रमाण, अपूर्वकरणका कालमात्र आ ११ होता है । जगश्रेणी और a असंख्यात है । १ इस प्रकार चय इसी प्रकार, चयघन = = = = श्रे3 गच्छ २ = ११ श्रे = (" "2 — ') ) (*~* • *3 a (22) (आ ११) २ (आ आगे, सर्वधन - चयधन _ a 3 a (आ नृ) (आ 22 ) (2) (२) aa सर्व द्रव्य (गच्छ ) र ( संख्यात) (आ 22 ) (आ ११) (2) (चय ) ( गच्छ ) 3 a 3 a (आ ११ – १) (आ ११) (२) (२) a श्रे a (आ 22 – १) (आ ११) = 3 a 3 a (आ ११ – १) (आ 22 ) (2) (२) 3 a 3 a [ आ ११ { (१) (२) (आ 22 ) (१) (२) अब प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम संख्या 3 a 3 a (आ ११) (2) (२) श्रे ३ a 3 a (आ ११ – १) (आ १२) (2) (२) सर्वधन - चयधन गच्छ 3 a होता है । गच्छ दो बार संख्यात यहाँ १ संख्यात है । आ आवलि, श्रे aa [आ] 22 { (१) (२) १ } + 3 a 3 a (आ 2) (2) (२) १ } + १] (2) ) (आ - -) (आ 22) _ 3 a 3 a [आ १३{ (१) (२) - १३ + १] (आ ११) (आ 22 ) (2) (२) १. यहाँ चय निकालनेमें सूत्रमें जो संख्यातका उपयोग हुआ है, वह महत्त्वपूर्ण है । कुट्टीकार विधिसे इसका ठीक मान निकालना महावीराचार्यने गणितसार संग्रहमें बतलाया है, क्योंकि यह एक अज्ञात राशि है । क - १८० Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३२ - गो. कर्मकाण्डे द्वितीय समय सम्बन्धी परिणाम संख्या -प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम संख्या + चय - श्रे' श्रे' a [आ ११ {(१)(२)- १} + १] ___ (आ १३) (आ ११) (१) (२) । श्रे ) 3a * (आ११) (आ ११) (१) _ श्रे' श्रे' [आ ११६(१) (२)-} + ३] (आ ११) (आ ११) (२) (२) इस प्रकार एक-एक चय मिलाते एक कम गच्छ मात्र चय प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम संख्या में मिलानेपर अन्त समय सम्बन्धी परिणाम संख्या होती है। अन्त समय सम्बन्धी परिणाम संख्या =प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम संख्या + (गच्छ-१) (चय) __ श्रे' a श्रे' a [आ ११ {(१) (२)-१} + १] - (आ ११) (आ ११) (१) (२) श्रे श्रेsa + (आ ११-१) आ ११) (आ ११) (१) _श्रे' , ' [आ११६(१) (२) + १}-1] (आ ११) (आ ११) (२) उपर्युक्तमें से दो द्वारा समच्छेद किया हुआ एक चय घटानेपर उपान्त समय सम्बन्धी परिणाम पुंज प्राप्त होता है। उपान्त समय सम्बन्धी परिणामपुंज - (अन्त समय सम्बन्धी परिणाम संख्या) - (चय) _श्रे' श्रे3 . [आ ११६(१) (२) + १}-१] श्रे. श्रे . (आ ११) (आ ११) (२) (२) (आ ११) (आ ११) (२) _ श्रे' a श्रे' [आ ११(१) (२) + १}- ३] (आ ११) (आ ११) (२) (२) इस प्रकार अपूर्वकरणमें संदृष्टि कही गयी है। इसमें अनुकृष्टि रचना नहीं होती है। अषःप्रवृत्तकरणमें विशेष विशुद्धता किये हुए परिणामोंके होनेपर भी गुणश्रेणी निर्जरा, गुण संक्रमण, स्थितिकाण्डोत्करण, अनुभागकाण्डोत्करण-ये चार आवश्यक नहीं होते हैं, परन्तु अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा ये होते है। कारण कि त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी अपूर्वकरण रूप विशुद्ध परिणाम सर्व भी अधःप्रवृत्त परिणामोंसे असंख्यात लोक गुणित होकर इस योग्यताको प्राप्त होते हैं । अपूर्वकरणके कालमें प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त परिणाम स्थान असंख्यात लोक बार षट्स्थान पतित वृद्धिको लिये हुए जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेदसे युक्त होते हैं। उनके प्रतिसमय और प्रत्येक परिणामस्थानके प्रति विशुद्धिके अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण अवधारण हेतु अल्पबहुत्व निम्न प्रकार है Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितात्मक प्रणाली १४३३ प्रथम समयवर्ती सबसे जघन्य परिणामकी विशुद्धि अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी अन्तिम खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे यद्यपि अनन्तगुणे अविभाग प्रतिच्छेदोंको लिये हुए है, तथापि अपूर्वकरणके अन्य परिणामों की विशुद्धि से स्तोक 1 उससे प्रथम समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि अनन्तगुणी है । उससे द्वितीय समयवर्ती जघन्य परिणाम विशुद्धि अनन्त गुणी है । कारण यह है कि प्रथम समय सम्बन्धी उत्कृष्ट विशुद्धिसे असंख्यात लोकमात्र षट्स्थानोंका अन्तराल 3 a 3 a आ + १ ५ a देकर वह द्वितीय समवर्ती जघन्य विशुद्धि उत्पन्न होती है। उससे उसी द्वितीय समयको उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि अनन्त गुणी है । इस तरह उत्कृष्टसे जघन्य और जघन्यसे उत्कृष्ट विशुद्धि स्थान अनन्त गुणे हैं । इस प्रकार सर्प गतिकी भाँति अपूर्वकरणके चरम समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि पर्यन्त जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिका अल्पबहुत्व है । अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम भागमें निद्रा और प्रचलाके बन्धकी व्युच्छित्ति मनुष्य आयुके विद्यमान होते होती है । उपशम श्रेणिपर आरोहण करनेवाले अपूर्वकरणवाले जीवका प्रथम भागमें मरण नहीं होता है । यदि ऐसे मनुष्य उपशम श्रेणीपर आरोहण करते हैं तब वे नियमसे चारित्र मोहनीयका उपशम करते हैं। यदि क्षपक श्रेणिपर आरोहण करते हैं तो वे नियमसे चारित्रमोहनीयका क्षपण करते हैं । क्षपक श्रेणिमें सर्वत्र नियमसे मरण नहीं है । अनिवृत्तिकरण में परिणाम विशेषके अभावसे विशेष संदृष्टि नहीं है । इसका काल आ १ है । इसके कालके एक समय में वर्तमान त्रिकालवर्ती नाना जीव जैसे शरीरका आकार वर्ण, वय, अवगाहना, ज्ञानोपयोग आदिसे परस्परमें भेदको प्राप्त होते हैं, उस प्रकार विशुद्ध परिणामोंके द्वारा भेदको प्राप्त नहीं होते हैं । अनिवृत्तिकालके प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय वर्तमान सर्व जीव होन अधिक परिणामसे रहित समान विशुद्ध परिणामवाले होते हैं । वहाँ जो प्रति समय अनन्तगुणी अनन्तगुणी विशुद्धि लिये परिणाम होते हैं उनसे दूसरे समयमें होनेवाले परिणामोंकी विशुद्धि अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा अनन्तगुणी है । अनिवृत्तिकरण परिणामवाले जीव विमलतर ध्यानरूपी अग्निकी ज्वालासे कर्मरूपी वनको जलाकर चारित्र मोहका उपशम अथवा क्षपण करते हैं । उपर्युक्त तीन करोंके निमित्तसे होनेवाले सत्त्वादि द्रव्य प्रदेश, प्रकृति, अनुभाग एवं स्थितिमें परिवर्तन की गणितीय प्रणालीके लिए यहाँसे लब्धिसारका अध्ययन प्रारम्भ करना चाहिए । सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके विवरणमें हम नवीन प्रतीक निम्न प्रकार लेकर निरूपण कर सकते हैं । जघन्य वर्गणा एक गुणहानिमें स्पर्द्धक नानागुणहानि अनन्त अपकर्षण भागहार एक स्पर्धक वर्गणाएँ 'ज गुस्प ना ख उ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे स्पर्धक शलाकाओं में असंख्यात अवकर्षण भागहारका भाग देने पर गुहु + का उa प्रमाण प्राप्त होता है। अविभागी प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा नाना गुणहानि और स्पर्धक शलाका गुणि जघन्य वर्गमात्र उत्कृष्ट पूर्व स्पर्धक वर्गीकी संदृष्टि व ज. गुस्पना होती है । जघन्य वर्गमात्र जघन्य पूर्व स्पर्धक वर्गकी संदृष्टि व है। इसमें अनन्तका भाग देनेपर उत्कृष्ट अपूर्व स्पर्धकका प्रमाण व ÷ख प्राप्त होता है । इसे असं ज ज १४३४ यात गुणित अनकर्षण भागहार द्वारा भाजित स्पर्धक शलाकाका भाग देनेपर जवन्य अपूर्व स्पर्धकका प्रमाण + (खगुप उa) प्राप्त होता है। उपर्युक्तमें अनन्तका भाग देनेपर उत्कृष्ट बादर दृष्टि वर्गीका प्रमाण व ज (खगु + उ ० ) प्राप्त होता है। इसमें वर्गणाशलाका के अनन्तयें भागका भाग देनेपर जघन्य बादर कृष्टिके वर्गोंका प्रमाण वज + = (ख गु... ख स्प g) (ख) ] प्राप्त होता है। इसमें अनन्तका वर्गीका प्रमाण व + [ (ल गुरूप स स्प ूख) + (उल) ] प्राप्त होता भाग देनेपर उत्कृष्ट सूक्ष्म कुष्टिके ज है। इसमें वर्गणा शलाकाके अनन्तवें भागका भाग देनेवर जघन्य सूक्ष्म कृष्टिके वर्गीका प्रमाण - ( उ० ख ख ) ] प्राप्त होता है। सत्तामें सूक्ष्म कृष्टि, जब उदयरूप होती है तब सूक्ष्म साम्पराय व ज बज[ई गुप स्प स्प a a अनिवृत्तिकरणमें की गयो होता है । यहाँ से गुणश्रेणि निर्जरा प्रारम्भ होती हैं जो उत्तरोतर असंख्यात गुणी बढ़ती जाती है। इसका प्रमाण इस प्रकार प्राप्त करते हैं अनादि संसारका कारण जो बन्ध, उसको परम्परामें बंधा जगत्श्रेणीके घन प्रमाण थे, एक जीवके प्रदेशोंम स्थित; ज्ञानावरणादि मूल और उत्तर प्रकृतियोंक सत्ता रूप द्रव्य त्रिकोण रचनाके अभिप्रायसे कुछ कम डेढ़ गुणहानि आधाम से समयप्रबद्धको गुणित करनेपर स३ गु-है, जहाँ स जघन्य समयप्रवद्ध है, स उत्कृष्ट समयप्रवद्ध है, ३ डेढ़ है तथा गु— कुछ कम गुणहानि आयाम है। इतने द्रव्यमे आयुकर्मके द्रव्यको घटा दिया गया है । इसलिए यह ज्ञानावरणादि सात कर्मोंका द्रव्य है । इसमें ७ का भाग देनेपर 3 स ज्ञानावरण कर्म द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता हैं । इसमें अनन्तका भाग देनेपर एक भागका स ० ३ गु७ ख प्रमाण होता है जिसे सर्वपाती केवल ज्ञानावरणका द्रव्य कहते हैं अवशेष स ३ गु७ ख ( ख - १ बहुभाग प्रमाण ७ ख ( स ३ गु-) मतिज्ञानावरण आदि देशघाति प्रकृतियोंका द्रव्य होता है । इस देशघाति द्रव्यको मति, श्रुत, अवधि और मन:स ० ३ गु पर्यय ज्ञानावरण रूप बारसे भाजित करनेपर एक भाग मतिज्ञानावरणके द्रव्यका प्रमाण अनुमानतः हुआ। कारण यह है कि (ख१) और (ख) का अनुपात १ लिया जा सकता है। इस मतिस ३गु – (उ–१' ज्ञानावरण द्रव्यमें अपकर्षण भागहार उ का भाग देनेसे प्राप्त बहुभागका प्रमाण ७४४ ७४४ उ ७ स ० ३ गु गु— = Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है जो जैसेका तैसा तिष्ठता है । अवशेष एक भाग रूप में परिणमाते हैं । इसमें पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण गणितात्मक प्रणाली a प्राप्त होता है जिसे उपरितन स्थितिमें देते हैं । पुनः अवशेष एक भाग प्रमाण (5) (2) (2) (0) स (७) (४) (उ) का भाग देनेपर बहुभाग प्राप्त होता है जिसे गुण श्रेणि आयाममें देते हैं । अवशेष एक भाग भाग दो गुणहानिमें से घटानेपर २ गु - ( स है जिसे असंख्यात लोकप्रमाण 3 a द्वारा भाजित करनेपर बहुभाग ( ७ ) ( ४ ) ( उ ) (a ) ( आ ) आ - १ २ चयका प्रमाण आता है-चय = [ मध्यधन ] : [ निषेकहार (स० ३ गु-) (प होता है जिसे निम्नलिखित ( स ३ गु-) (७) (४) (उ) (प) (श्र े३) प्रमाण होता है जिसे उदयावली के निषेकोंमें देते हैं । द्रव्यको निक्षेपित करनेके सूत्रादि पूर्वमें ही बतला चुके हैं । पुनः जो यह उदयावलीमें द्रव्य दिया है उसे यहाँ आवली आ द्वारा भाजित करनेपर मध्यधनका प्रमाण ( स ३ गु-) - (७) (४) (3) (7) ( स ३ गु-) (७) (४) (3) (7) गु-) ( १ १४३५ होता है । पुनः एक कम आवलीके अर्द्धभागका होता है । इसे दो गुणहानि २ गु द्वारा गुणित करनेपर प्रथम निषेकका प्रमाण ( स ० गु – ) ( २ गु ) प्राप्त होता है जिसके द्वारा मध्यघनको भाजित करनेपर आवली २ - १ (5 a 1/32 5 — ) सa ३ २ ( ७ ) ( ४ ) ( उ ) (प) (त्रं '०) (आ) [ २ गु 1 > a - १ ) (श्रं 8) (७) ( ४ ) ( उ ) (5) (२०) (आ) [२ गु – (आ - १ ) ] प्राप्त होता है। इसमें से एक, एक चय घटानेपर क्रमशः द्वितीयादि निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है । (ब-१] Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे इस प्रकार एक-एक चय घटाते हुए एक कम आवली प्रमाण चय प्रथमनिषेकमें से घटानेपर अन्तिम = प्रथम निषेक - चंय ( आवली - १ ) निषेक १४३६ ( स ० ३– ) ( २ गु) (७) (४) ( उ ) (50 121-1) स a __ ( स ३ गु - ) [ २ गु - ( म - - १ ) ] (७) (४) (3) (2) (@' ) (आ) (२ गु - — प (7) ( श्रं' 9 ) ( आ ) [ २ गु— ( ७ ) । ४ ) ( उ ) (7) (:अॅ ० ) ( आ ) [ २ गु – ( आ - १ ) ] — - होता है । ( स ३ गुः - ) ( a- १ ) अब गुणश्रेणि बायाम अन्तर्मुहूर्त मात्र जिसमें दिया गया द्रव्य (७) (४) (उ) (4) ( 8 ) = ( स ० गु - ) ( श्रे ३ - १ ) ( (१) ) (७) (४) (3) (4) ((८५)) इसी प्रकार अन्तिम निषेक है। इसको समय प्रतिसमय असंख्यात से गुणित करनेपर निषेक रचना निम्न प्रकार होती है। यहाँ असंख्याततीसरे समय (१६), अन्त समय ( ६४ ) बँटनेपर निषेकोंका प्रमाण निम्न रूपमें ), की संदृष्टि (४) करने पर प्रथम समय शलाका (१), दूसरे समय ( ४ होती है, जिन सभीका योग (८५) होता है। इस प्रकार समानुपात में होता है प्रथम निषेक श्र. ( स ३गु - ) ( a- १) ( ( ६४ ) ) = (0) (x) (3) (—) (+3 3) ( (<4) ) - आ (-1) २ 3 आ - १ २ होता है । यहाँ अन्तर्मुहूर्त के भेदोंमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त आ १ है जिससे संख्यात गुणा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त आ ११ होता है । इसके ऊपर एक समय और जोड़नेपर समस्त १ ) + १ होता है। आ होता है। दोनोंका अन्तर आ १३ अन्तर्मुहूतोंके भेदोंका प्रमाण आ १ (१ इस प्रकार गणितके रूपको भलीभाँति समझकर लब्धिसार ग्रन्थ में प्रवेश करना लाभप्रद होगा । उपरोक्त सामग्री गोम्मटसारादि ग्रन्थोंमें गति देने में समर्थ होगी । प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन प्राचार्य, शासकीय महाविद्यालय, सिहोरा (जबलपुर ) Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकोद्धृत पद्यानुक्रमणी अंतषणं गुणगुणियं ८७५ ११२७ उत्तर सेढिबद्धा [ त्रि. सा. ४७६ गा.] १३१८ महपूजासु जिणाणं [ त्रि. सा. ५५४ गा.] मिच्छे पण मिच्छत्तं ८७२ भज्जमिव दुग ११२७ भूतार्थे रज्जुवत्स्वरं [ अन. प. १३१.१] ओरालमिस्स तसवह १३०६ ८१४ कथञ्चित्केनचित् कश्चित् १०५५ रसाद रक्तं ततो मांसं ३१ कथञ्चित्ते सदेवेष्टं [बा. मी. १४ श्लो. ] १०५४ रूऊणण्णोण्णब्भत्थ २२८ कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना [ अन. ध. १११०२] ८१२ कार्योत्पादाक्षयो हेतो [ आ. मी. ५८ श्लो. ] १०५२. वातः वित्तं ततो श्लेष्मा विरलिदरासीदो पुण [ त्रि. सा. १०१ गा.] १३०६ पदुगदिमिच्छो सण्णी [ लब्धि. २ गा.] ८७७ विविहवररयणभूसा [ त्रि. सा. ५५५ गा.] ८७५ परया य परिव्वाजा [त्रि.सा. ५४७ गा.] ८४३,८७४ व्येकपदं चयगुणितं । परतिरियगदीहितो [ त्रि. सा. ५४९ गा.] ८७४ णरतिरियदेस अयदा [त्रि.सा. ५४५ गा.]८४३,८७३ गिट्टवग्गो तट्ठाणे [ ल. सा. १११ गा.] ८४ सणमोहक्खवणा [ ल. सा. ११० गा.] दोण्णि य सत्त य देशो मदीय [ अन. घ. १।१७७ ] ८८४ ११२६ सच्चाणुभयं वयणं ११२७ सदेकनित्यवक्तव्या [ स्व. स्तो. १०१ श्लो. ] १०५६ सकारे वा निराकारे सामान्यं समवायश्च [आ. मी. ६५ श्लो.] १०५६ सुखवोहिया वि मिच्छा [त्रि. सा. ५५२ गा.] ८७५ सुण्णं, पमादरहिदे सुहसयणग्गे देवा [त्रि. सा. ५५० गा.] ८७४ सुहमे सुहुमो लोहो ११२७ सोहम्मो वरदेवी [ त्रि. सा. ५४८ गा.] ८७४ मत्यादिविभावगुणा [ अन. घ. १११०६] ८१३ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष अन्द-सूची अविभाग प्रतिच्छेद २६६, ३११ अशुभ नाम असात वेदनीय अस्थिर नाम असंप्राप्तसृपाटिका संहनन नाम [आ] आगम द्रव्य कर्म आगम भाव कर्म आत्मवाद १२४० आदिधन १२५१ आदेय नाम आनुपूर्वी नाम २१, ३० आबाधा १८२, १२७४ आयुकर्म आयुकर्म ( भेद ) १६, २६ आसादन आहारक शरीर नाम : * : [ ] अकाम निर्जरा ११५४ अक्रियावाद १२४१ अगुरुलघु नाम अङ्गोपांग नाम अघातिकर्म अचलावली १८६ अज्ञानवाद १२४२ अधःप्रवृत्तकरण १२४९ अधःप्रवृत्तसंक्रमण अध्रुवबन्ध १२३ अनन्तानुबन्धी अनादिबन्ध ६४, १२३ अनादेय नाम अनिवृत्तिकरण १२७२ अनेक क्षेत्र २०९ अन्तराय ११५१ अन्तरायकर्म ६,९,१० अन्तरायकर्म ( भेद ) २२, ३३ अन्तःकोटाकोटि १२७५ अन्योन्याम्यस्तराशि ३७३, १२८० अपकर्षणकरण अपर्याप्सनाम ३२ अप्रत्याख्यानावरण अयश-कीर्तिनाम अरति अर्धनाराचसंहनननाम २९ अल्पतर बन्ध ६८६, ७०० अवक्तव्य बन्ध ६८६,७०० अवधिज्ञानावरण २३ अवस्थित बन्ध ६८६, ७०० । 11 उपघात नाम उपपाद योगस्थान २६२ उपसमकरण ६७४ ऊर्ध्वगच्छ १२५१ ऊर्ध्वचय १२५१ [ए] एकक्षेत्र २०९ एकान्तानुवृद्धियोगस्थान २६६ एकेन्द्रिय जाति नाम २७ [औ] औदारिक शरीर नाम २८ औदयिक भाव ११५८ औपशमिक भाव ११५८ [क] कदलीघात कर्मतव्यतिरिक्त कषायवेदनीय १६, २५ कार्मणशरीरनाम कालवाद १२३९ कीलितसंहनननाम क्रियावादी १२३८ क्षयदेश ६७८ क्षायिक भाव ११५८ क्षायोपशमिक भाव ११५८ क्षेत्र विपाकी २८ १२४० ६७४ م س इंगिनीमरण ईश्वरवाद [3] उच्चगोत्र उच्छ्वास नाम उत्कषर्णकरण उत्तरधन उदयकरण उदीरणाकरण उद्योतनाम उद्वेलन उद्वेलन संक्रमण م ६७४ १२५२ ६७४ ६७४ १७, २७ २१, ३० ५७९ गतिनाम गन्ध नाम गुण संक्रमण गुणहानि ४, २२३, १२८० Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष शब्द-सूची ११६६ गुणहानि आयाम गोत्र कर्म गोत्रकर्म ( भेद ) १२८० ७, ९, १० २२ ३० देवायु देशवात्ति देववाद दो गुणहानि द्रव्यकर्म द्रराशि द्वीन्द्रिय जातिनाम ३३ १२४५ १२८. पदगतभंग परघातनाम परमुखोदयी परिणाम योगस्थान पर्याप्तिनाम पारिणामिक भाव पिण्डपद ६७८ २६४ घातिकर्म १२७९ ११५८ १२०२ [ ] वेद धर्मकथा ध्रुवबन्धी चतुरिन्द्रिय जाति नाम २७ चय १२५१ चयघन १२५१ चारित्र मोहनीय १६, २५ चूलिका ६४७ च्यावित शरीर च्युत शरीर ४७ ध्रुवोदयी ६५२ ४८ पुद्गलविपाकी प्रकृति प्रचला प्रचलाप्रचला प्रत्यनीक प्रत्याख्यानावरण प्रत्येकपद प्रत्येकशरीरनाम प्रदोष प्रायोपगमन १३, २४ १३, २४ ११५१ २६ १२०२ २२, ६७४ बन्ध बन्धननाम २८ बालतप [न] नपुंसकवेद २६ नयवाद १२४५ नरकगतिनाम २७ नानागुणहानि १२८० नामकर्म ६,७, ९, १०, १६ नाममल नारकायु नाराच संहनन नाम निकाचितकरण निद्रा १३, २४ निद्रानिद्रा १२, २४ निधत्तिकरण निह्नव ११५१ निरन्तरबन्धी ६५२ निर्माणनाम __ ३२ निषेक १८७ नीचगोत्र ३३ नोआगम द्रव्यकर्म ४६, ५० नोआगम भावकर्म ५१ नोकर्म तद्व्यतिरिक्त ५० नोकपाय वेदनीय (स्वरूप) २५ (भेद) १६,२६ [भ] भक्त प्रतिज्ञा २७ ६७२ जाति नाम १७, २७ जातिपद भंग जात्यन्तर सर्वघाती ३६ जीवविपाकी जुगुप्सा [त] तद्व्यतिरिक्त नोआगमकर्म ५० तिर्यग्गच्छ १२५१ तिर्यग्गति नाम तिर्यश्चायु तीर्थकरत्व नाम तैजस शरीर नाम त्यक्त शरीर त्रस नाम श्रीन्द्रिय जाति नाम [व] दर्शन मोहनीय १३, २४ दर्शनावरण दुर्भगनाम दुःस्वर नाम देवगति नाम भय ३२ ४८ भवविपाकी भावकर्म भुजकार बन्ध ६८६, ७०० [म] मतिज्ञानावरण २३ मध्यमधन १२९७ मनःपर्ययज्ञानावरण मनुष्यगतिनाम मनुष्यायु मिथ्यात्व प्रकृति मोहनीय (भेद) जी [१] पञ्चेन्द्रिय जातिनाम Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४०. रति रसनाम लोकवाद वर्ग वर्गणा वर्णनाम [<] [व] ] वज्रनाराचसंहनननाम वर्षभराचसंहनननाम [ल ] वासनाकाल विध्यात संक्रमण शरीरनाम शुभनाम विहायोगतिनाम वेदनीयकर्म वैक्रियिक शरीरनाम वैनयिकवाद . २६ २१, ३० [श ] १२४५ २९ २९ २६६, ३१२ २६६, ३१२ २१, ३० * ६६० २१, ३१ ६, ८, १० २८ १२४४ १७, २८ ३२ ↓ ~ गो० कर्मकाण्डे शोक • श्रुतज्ञानावरण संक्रमण संघातनाम संज्वलन संयोगवाद संस्थाननाम संहनननाम सत्वकरण [स] सुभगनाम सुस्वरनाम २६ २३ ६५७, ६७४ २८ २६ समय प्रबद्ध सम्यक्त्व प्रकृति सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति सर्वधन सर्व संक्रमण सातावेदनीय सादिबन्ध साधारण शरीरनाम सान्तरबन्धी १२४५ २८ २९ ६७४ ३, ४ २५ २५ १२५३ ६६० १३, २४ ६४, १२३ ३२ ६५२ ३२ ३२ सूक्ष्मनाम स्तव स्तुति स्त्रीवेद स्त्यानगृद्धि स्थापनाकर्म स्थावरनाम स्थानगतभंग स्पर्धक स्पर्शनाम स्वभाववाद स्वमुखोदयी स्थिति आयाम स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान स्थिरनाम हास्य [ह] [ ज्ञ ] ३२ ६२ ६२ २६ १२, २३ ४५ ३१ ज्ञानावरण ज्ञायक शरीर ज्ञायक शरीरभावि ११६६ २६६ १३४२, १३४४ ३१ २१, ३० १२४१ ६७८ १२८० २६ w us on ६ ४६ ४९ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खाणं अणुभवणं अजहण द्विदिबंधो अगुणिज्जा वा अहिं सहिया अत्तीस सहस्सा अट्ठ देखिय जादि अट्टम सत्तय छक्कय अहि सत्त छन् अट्ठसमयस्स थोवा असुक्को बंध अट्टहंपि य एवं अट्ठारह च अट्ठ दओ मोतिय अब सहसाहि अडचउरेक्कावी सं अड छन्वीसं सोलस अदाल छत्तीसं अडदालं चारिसया अडवण्णा सत्तसया अडवीसतिय दुसाणे अडवी समिती अवीसे तिगि अवसदुगं बंध • अडवीस चऊ बंधा अडवीस दुहारदुगे अट्टी एक्कस अणणोकम्मं मिच्छ अथीतियं मच्छं अरहिद सहिदकूडे अणसंजोजिदमिच्छे गाथासूत्रों की अकारादिक्रम सूची [ar] ५. ८ १८ ११९८ ७५७ ७५४ ८ ७६२ ९७४ ३५५ ९९० १३८० ६४३ ६८६ ७५८ ७६४ ९८८ १२०१ १२३५ ९६१ ८९२ १११८ १११८ १०२५ १०४२ ८२० १२३४ ५६ १९५ ११४३ ९०४ गा. १४ १५२ ८९ ५०६ ५०५ १५ ५०८ ६२८ २४३ ६५३ ९६१ ३९३ ४५४ ५०७ ५११ ६४९ ८५५ ८७२ ६०८ ५५१ ७८१ ७८० ४०० ७३१ ५४६ ८७१ ७५ १७१ ९७६ ५६१ अणसं जोजिदसम्मे अण्णत्थठियस्सुदये अण्णदर आउसहिया अण्णाणदुगे बंधो अण्णाणि ह अणीसो अण्णोष्णगुणिदरासी अणोत्थं पुण अणियट्टिकरणपढमा अणिय ट्टिगुणट्ठाणे अणिय ट्टिचरमठाणा अणियट्टि बंधतियं अणुकट्टिपदेण हदे अणुदयतदियं णीचम अणुवदमहत्व देहि अणुभयवचि वियलजुदा अणुभागाणं बंध अस्थि व यदुदओ अस्थि सदो परदोवि य अत्थि सदो परदोवि य अपमत्ते य अवे अपमत्ते सम्मत्तं अप्पदरा पुण तीसं अप्पपरोभयठाणे अप्पिट्टपति चरमो अप्पोaurrari अप्पं बंधतो बहु अब्भीरिहिदादु पुवं अभवसिद्धे णत्थि हु अयदापुण्णे ण हि थी अयदे विदियकसाया अयदे विदियकसाया पृ. ७२० ६७४ ६२३ १०३८ १२४० ३७२ ६७१ ७३७ ६४३ ६३९ ९९० १२५५ ५५९ ११५४ ४८८ ४०६ १०४७ १२३८ १२३९ १०२६ ४३५ ७१० ९०२ १३१४ ४९ ७०० ८ ५९१ ४४९ ४३५ ७० गा. ४७८ ४३९ ३७८ ७२३ ८८० २४९ ४३३ ४८३ ३९२ ३८९ ६५४ ९०६ ३४१ ८०७ ३११ २६० ७३८ ८७७ ८७८ ७०१ २६८ ४७३ ५५५ ९३६ ६१ ५६९ १६ ३५५ २८७ २६६ ९७ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० कर्मकाण्डे १३४१ ९४७ ६०२ ११९० १२७ ११५२ ११५५ ३६७ १८ ९५३ ९३९ ४८ १६५ ९०१ १३४७ १३२१ ४१ १९२ १२५१ ६२५ ६७५ १२५६ ६२५ ११२७ १३७९ ३५१ ३७९ ८२७ १९६८ १२५ २०७ ४४२ ९०७ ३८१ २६६ ८९९ ४७५ ५५३ आदस विप एक १२३७ अयदुवसमगच उक्के अरदोसोगे संढे अरहंतसिद्धचेदिय अरहंतादिसु भत्ती अवरद्विदिबंधज्झव अवरादीणं ठाणं अवरुक्कस्सठिदोणं अवरुक्कस्सेण हवे अवणिदतिप्पयडीणं अवधिदुगेणविहीणं अवरो भिण्ण महत्तो अवसेसा पयडीओ अविभागपडिच्छेदो अविरदभंगे मिस्सय अविरदठाणं एक्क अविरदसम्मो देसो अविरमणे बंधुदया अत्थि णवट्टयदुदओ असिदिसदं किरियाणं अहियागमणणिमित्तं अंगुल असंखभागं अंगुल असंखभागं अंतरगा तदसंखे अंतरमुवरीवि पुणो अंतिमठाणं सुहुमे अंतिमतियसंहडणस्सु अंतोकोडाकोडी अंतोकोडाकोडी अंतोकोडाकोडी अंतोमुहुत्तमत्ते अंतोमुहुत्तकालं अंतोमुहुत्तमेत्तो अंतोमुहृत्तपक्खं १२४४ २५४ ८७५ ७४ ८९० १८२ ८४५ आउट्ठिदि बंधज्झव १३० आउदुगहारतित्थं ८०२ आउवलेण अकट्ठिदि ८०९ आउस्स जहण्णटिदि ९४९ आउस्स य संखेज्जा आऊणि भवविवाई आदाओ उज्जोओ २४२ आदिघणादो सव्वं २८० आदिमपंचट्ठाणे आदिमसत्तेव तदो १२६ आदिम्मि कमे वड्ढदि १८३ आदिल्लदससु सरिसा २२३ आदी अंते सुद्धे आदेसे विय एवं ३०५ आयदणाणायदणं ५५८ आलसड्ढो णिरुच्छाओ ७२९ आवरण देसघादं ७३८ आवरणमोहविग्छ ८७६ आवरणवेदणीए ९५० आवलियं आबाहा ४३४ आवलियं आबाहा २३० आबाधाणं विदिभो २५५ आबाहूणीय कम्म २३९ आवाहूणियकम्म ५४८ आवाहं बोलाविय आवाहं बोलाविय १५७ आहारदुगं सम्म आहारगा दु देवे ९१६ आहारमप्पमते ९१० आहारे बंधुदया ९०८ आहारं तु पमत्ते ८९९ ९०३ १०४१ १०४७ १२३७ १३४५ ६७१ २०५ १३२१ ९१८ ९४१ ३९२ ३४० १२७७ १३२३ १२७८ १८७ १२७८ १८८ १६० ९२० ८३५ २१ ३२ ८०३ ५४२ १७२ १३३८ १२७५ १२६८ १२६७ १२५० ४० १०४७ ४२७ २६१ ५७७ [आ] आउक्कस्स पदेसं आउगभागो थोवो आउग बंधाबंधण २५२ २१७ इगि अड अदिगि अद्विगि इगिछक्कणणववीसं २११ इगि छक्कणणववीसं १९२ इगिठाणफड्ढयाओ ३५९ इगिठाणफड्ढयाओ ९२१ १०३४ १०२९ २६८ ३८८ ७०८ २२७ २५० ५९७ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूत्रोंकी अकारादिक्रम-सूची १४४३ १०९५ ७७४ उदयदा ૪૮ર २७८ ७३३ ७३५ १०३९ १११५ १०५० १२३४ १२७ १३०७ १११२ ९८३ ४५० १०३३ ९२३ १०१६ १२४९ ७३४ इगिणवदीए बंधा इगिणउदीए तीसं इगितीसबंधठाणे इगितीसे तीसुदओ इगिदालं च सयाई इगिपंचेंदियथावर इगिपंतिगदं पुध पुध इगिबंधट्ठाणेण दु इगिवारं वज्जित्ता इगिविगलथावरचऊ इगिविगलबन्धठाणं इगिविहिगिगिखगतीसे इगिवीसट्ठाणुदये इगिवीसमोहखवणुग इगिवीसादठ्ठदयो इगिवीसादी एक्कं इगिवीसेण णिरुद्ध इगिवीसं णहि पढमे इट्ठपदे रूऊणे इट्ठसलायपमाणे इट्ठाणिविजोगं इत्थीदेवि तहा इदि चदुबंधक्खवगे ८३४ ४४० ४५० १०४० १२७४ १०२४ १००४ १००५ १२०७ १३२० ९१५ १५६ ९०२ ८०५ ७५६ उदओ तीसं सत्तं १०२६ ७७१ उदयइगिपणसग अड १०३२ उदयट्ठाणं पडि ७३३ ७४४ उदयट्ठाणं दोण्हं ७२६ ८७० उदयस्सुदीरणस्स य ४४३ १३१ उदया इगिपणवीस १०४४ उदया इगियवीसचऊ १०४५ ७६८ उदया उणतीस तियं ६४३ उदया चउवीसूणा १०२५ २८८ उदया मदि व खइए १०४५ ७१५ उदयेणक्खे चडिदे ११७५ ५७८ उदय संकममुदये ६७४ ७७५ उदये संकममुदये ६८० ८९७ उदयो व्वं चउपण ७७२ उदयं पडि सत्तण्हं उदयं पडि सत्तण्हं १८२ ६७५ उभयधणे संमिलिदे १२५२ ६७६ उम्मग्ग देसगो म ११५३ उवधादमसग्गमणं ९३७ उवधादहीणतीसे १९३ उवरदबंधे चदुयं ३२१ उवरिमगुणहाणीणं १३२७ उवरदबंधेसुदया १०५० उवरिल्ल पंचमे पुण ११२४ उववाद जोगठाणा २६२ २१. उब्वेलण पयडीणं ६५९ ५४० उज्वेलणविज्झादो ६५७ ४१८ उज्वेल्लिद देवदुगे उवसमखइओ मिस्सो ११५८ उवसमभावो उवसम ११५९ उवसामगा दु सेटिं उवसामगेसु दुगुणं ११८८ ६३७ उवसंत खीणमोहे १६९ उवसंतोत्ति सुराऊ ६७९ ८६३ उसहाइजिणवरिंदे १९६ [3] ८२३ ऊणत्तीस सयाई १२३४ ६१५ ऊणत्तीस सयाहिय १६७ ९७६ ६३२ ७७० [उ] ९४४ ७४५ ७८८ २१९ ४१३ ४०९ ३६८ ८१३ २५२ १३२२ १९८६ ६९४ उक्कडजोगो सण्णी उक्कस्सट्ठिदिबंधे उगुदालतोससत्त य उगुवीसतियं तत्तो उगुवीसं अट्ठारस उच्चस्सुच्चं देहं उच्चुव्वेल्लिद तेऊ उच्चुवेल्लिद तेऊ उज्जोवो तमतमगे उड्ढतिरिच्छपदाणं उत्तरपयडीसु पुणो उत्तरभंगा दुविहा उदधिपुधत्तं तु तसे ५६९ ८४३ १०२ ७३ ९८० १९४ १२३१ ३९८ २२२ १११६ ८६९ ६०५ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४४ एदियमादी कहि कालसम एक्कादी दुगुणकमा एक्क्के पुण वग्गे एक्क य छक्केयारं एक्क य छक्केयारं एक्काउस्स तिभंगा एक्कारं दसगुणियं एक्कावण्णसहस्स एक्युवसंतसे एक्के एक्कं आऊ एक्को चैव महप्पा एक्कं व दो व तिष्णि य एक्कं च तिष्णि पंच य एगुण ती संत्तिदयं एगे इगिवोसपणं एगेगम एगे एगेगं इगिती से एगे वियले सयले देण कारण दु एदे सत्तट्ठाणा एदेसि ठाणाओ एसि ठाणा एयक्ख अपज्जत्तं एयवखेत्तगाढं एयसरी रोगाहिय एयायक्खेत्त एयं पकदिपणं एयं वा पकाये एयंत वड्ढिाणा एवं खिगितसे हि एवं तिसु उवसमगे एवं पणछत्री से एवं पंचतिरिक्खे एवमडसीदितिदए एवमबंधे बंधे एवं माणादितिये [ ए ] ५७ १२७१ १२०४ २६८ ७३१ ७२४ ९८५ १२०० ७३९ १०२० ९८३ १२४० ९२८ ११२९ १०२४ ९३९ १०२२ १०४८ १०३१ ४४० ६३७ ३५० ३४२ ७८४ २०९ २०९. २१० १३८ ४८१ २६६ १११२ ६३६ १११३ ५६९ १११६ ९८४ ५१३ गो० कर्मकाण्ड ८० ९११ ८६० २२६ ४८८ ४८१ ६४५ ८५२ ४९३ ६९० ६४२ ८८१ ५८४ ७९३ ६९८ ५९५ ६९४ ७४१ ७११ २७५ ३८६ २४१ २३२ ५३० १८५ १८६ १८७ १४४ ३०९ २२२ ७६७ ३८५ ७७० ३४७ ७७६ ६४५ ३२३ एवं सत्ताणं ओट्ट करणं पुण ओघासे संभव ओघे वा आदेसे ओघं कम्मे सरगदि ओघं तसे ण थावर ओघं देवेण हि निर ओघं पंचक्खत से ओधं वा णेरइये ओदइया पुण भावा ओरालदुगं वज्जे ओरालमिस्साजोगे ओरालिय वेगुन्जिय ओराले वा मिस्से ओरालं दण्डदुगे ओहिदुगे बंधतियं ओहम पज्जया ओही केवलदंसण कदलीघादसमेदं कपित्थी ण तित्थं कम्मकय मोहवढिय कम्मत एक्कं कम्मद्दव्वादण्णं कम्म सरूवेणागय कम्मसरूवेणागय कम्मागमपरिजाणग कम्माणं संबंधो कम्मुदयजकम्मिगुणो कम्मुवसमम्मि उवसम कम्मेव अणाहारे कम्मे वाणाहारे कम्मे उरालमिस्सं कम्मोरालिय मिस्सं कम्मं वा किण्हतिये [ ओ ] ६४५ [ क ] ६७७ ११६० ७८ ५०० ४८९ ५७५ ५७७ ५६६ ११५९ ६६६ ५८३ ५८ १०२ ९२९ १०४२ ५४ ५४ ४७ ९२ ७ ४ ५० १८२ १२७४ ५० ६७४ ११५८ ११५८ ५५० ५९३ १०६ ९२९ ८५० ३९५ ४४५ ८२० १०५ ३१८ ३१० ३४८ ३४९ ३४६ ८१८ ४२५ ३५३. ८१ ११६ ५८७ ७३० ७१ ७३ ५८ ११२ ११ ६ ૬૪ १५५ ९१४ ६५ ४३८ ८१३ ८१४ ३३२ ३५६ ११९ ५८६ ५४९१ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूत्रोंकी अकारादिक्रम-सूची १२३९ ६४७ ८७९ घादी णीचमसादं ३९९ घादीवि अघादि वा १० घोडणजोगोऽसण्णी २५६ कालो सव्वं जणयदि किं बंधो उदयादो केवलणाणं सण केवलणाणावरणं को करइ कंटयाणं को जाणइ सत्तचऊ जो जाणइ णवभावे कोहस्त य माणस्स य ३६२ १२४१ १२४३ १२४२ ७२९ ६८९ ७९७. ३२५ ८३० २४६ ५५४ [च] ८८३ चउ छक्कदि चउ अट्रं ५९९ ८८६ चउरुदयुवसंतंसे १०२० चउवीसट्ठा रसयं ११४७ चक्खुम्मि ण साहारण ५२२ चक्खूण मिच्छसासण ११७२ ३४३ चत्तारि तिणि कमसो चत्तारि तिण्णि तियचउ ६८३ चत्तारि वारमुवसम ८१७ चत्तारिवि खेत्ताई ३०८ च दुगदिया एइंदी चदुगदिमिच्छे चउरो चदु पच्चइगो बंधो ११२३ चदुबंधे दोउदये १००६ चदुरेक्कदुपण पंच य ९०२ चयधणहीणं दव्वं १२५३ चरिम अपुण्णभवत्थो २५७ चरिमदुवीसूणुदओ १०९५ चरिमं चरिमं खंडं १३७७ चरिमे चदुतिदुगेक्कं ५९८ चारुसुदंसणधरणे १०४८ ६१९ ३३४ ५९३ ३५१ ७८७ ४४८ ९०३ २१७ ४२ ७५७ ९५७ खवणं वा उवसमणे खाइय अविरदसम्मे खाइयसम्मो देसो ५४२ खाओवसमियभावो ११५९ खिवतसदुग्गदि दुस्सर ४७६ खीणकसायदुचरिमे ४३६ खीणोत्ति चारि उदया [ग] गदि आणु आउ उदओ गदिआदिजीवभेदं गदिआदिसु जोग्गाणं ४४८ गदि जादी उस्सासं गयजोगस्स दु तेरे गयजोगस्स य बारे ९४२ गुडखंडसक्करामिय २०७ गुणसंजादप्पडि गुणहाणिअगंतगुणं ६७२ गोम्मटजिणिदचंदं ११५७ गोम्मटसुत्तलिहणे १३८९ गोम्मटसंगहसुत्तं १३८६ गोम्मटसंगहमुत्तं १३८७ [घ] घादितिमिच्छकसाया घादितियाणं सगसग पादिव वेषणीयं घादीणं अजष्णो घादीणं छदुमट्ठा ६६८ ७३९ [छ] ९७७ ६१२ छट्टोत्ति चारिभंगा ८११ छट्टे अथिरं असुहं ९७२ छण्ण उदि च उसहस्सा ९६५ छण्णवछत्तियसग इगि ९६८ छण्णोकसाय णिद्दा छण्हं पि अणुक्कस्सो १२४ छप्पण उदये उवसं २०१ छपंचादेयंत १९ छन्वावीसे चदुइगि १७८ छब्बीसे तिगिणउदे ४५५ छसु सविहमट्ठविह १२६७ १०२२ २५३ २५० ६९३ २१३ २०७ ६८८ ७९९ १२३ ११४८ ४६७ १११७ ६८३ ७७८ ४५२ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ गो० कर्मकाण्डे ४७२ ३४२ ५६१ ११२२ १२४० ८८२ ७८५ ६८२ १२४९ १३८६ ३५८ ६७३ १०४१ १२४९ ७८१ १३१ ८९६ ५२५ १३७ २८ १२४५ ८९४ ४५९ जत्थ वरणेमिचंदो जत्तु जदा जेण जहा जदि सत्तरिस्स एत्तिय जम्हा उवरिमभावा जम्हि गुणा विस्संता जस्स य पायपसाए जहखादे बंधतियं जह चक्केण य चक्की जाणुगसरीरभवियं जावदिया वयणवहा जीरदि समयपबद्ध जीवत्तं भव्वत्तम जुगवं संजोगित्ता जे? समयपबद्ध जेट्टावाहोवट्टिय जेण विणम्मियपडिमा जेणुब्वियथं वरिम जेहिंदु लक्खिज्जते जोगा पयडिपदेसा जोगिम्मि अजोगिम्मिय जोगिम्मि अजोगिम्मिय जोगट्ठाणा तिविहा जंतेण कोहवं वा ८१९ ४९२ ११६० ५५५ २१२ ६८९ ७३८ १०४८ १००५ ११४ ७४० ६७७ १२० ९६९ १३८८ १३८८ ११५७ ११७१ ८२९ ४८९ णभ चउवीसं वारस ४०८ णभ तिगि णभ इगि दोद्दो णमिऊण अभयदि णमिऊण णेमिणाहं ८९८ णमिऊण गेमिचंदं णमिऊण वड्ढमाणं णमह गुणरयणभूषण ७२८ णरगइणामरगइणा णरतिरिया सेसाउं णलया वाहू य तहा णवगेवेज्जाणुद्दिस णव छक्क चदुक्कं चय णव णउदिसगसयाहिय णवपंचोदयसत्ता १८८ णवरि य अपुव्वणवगे णवरि य सव्वुवसम्मे णवरि विसेसं जाणे ९७१ णवरि विसेसं जाणे ८१२ णवसयसत्तत्तरिहिं णवसासणोत्ति बंधो ८७३ णहि सासणो अपुण्णे णाणस्स देसणस्स य णांणस्स दसणस्स य णाणावरणचउक्कं णाणागुणहाणिसला णाणंतरायदसयं ५२२ णामस्स णवधुवाणि य णामधुवोदयवारस णामस्स बंधठाणा णामस्स य बन्धादिसु णामस्स य बन्धोदय णामस्स य बन्धोदय ६२१ णामं ठवणा दवियं २७३ णारकछक्कुब्वेल्ले ३९१ णारय सण्णिमण्णुस्ससु ४९७ णिरयगदि आउणीचं ८८५ णिरय तिरिक्खदुवियलं ८८४ णिरिय तिरिक्खसुराउग १०० ११५ १२३५ १०२७ २६१ ७०३ २१८ [8] ३७२ २५१ ७८२ २४८ २०९ ७७९ ५८८ ठाणमपुण्णेण जुदं ठिदि अणुभागाणं पुण ठिदि अणुभागपदेसा ठिदिगुणहाणिपमाणं ६३ ८०५ १३४६ ७८४ ११२० १०२३ १०२२ ६९५ ६९२ ४३८ ३७० ६४२ णउदी चदुग्गदम्मि य ट्ठा य रायदोसा णत्यि अणं उवसमगे पत्थि णउसयवेओ पत्थि य सत्थपदत्था णत्थि सदो परदोविय ६०७ ९५४ ४९७ ५५८ ५५४ १२४२ १२४१ ३१६ ३३८ ३३५ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिय तिरियाउ दोणिवि रियाद जुट्ठाणे णिरयादिणामबन्धा णिरयादिसु पय डिट्टिदि रियादीण गदीणं रियाणा रिया अट्ठा णिरयेण विणा तिन्हं रिये वा इगिउदी णिरयेव होदि देवे णिरयं सासणसम्मो व्विति सुम च रयियाणं गमणं मागमभावो पुण आगमभावो पुण तग्गुणगारा कमसो एक्का तणोकसायभागो तत्तो उवरिमखंडा तत्तो कमेण वढदि तत्तोतियदुगक्कं तत्तो पल्लसलाय तस्थतण विरदसम्मो तत्थाव रणजभावा तत्थासत्य एदि हु तत्थासत्था णारय तस्थासत्थो णारय तत्थेव मूलभंगा तत्थंतिमच्छिदिस्स य तदियेकवज्जणि मिणं तदियेकं मणुवगदी तदियो सणामसिद्धो तम्मिस्से पुण्णजुदा तव्वरितं दुविहं तसबंधेण हि संहृदि क- १८२ [ त ] गाथासूत्रों की अकारादिक्रम सूची ६३५ ८९९ १०३२ ५६५ ५७ ७७५ ५७ ७७९ ९७० ९० ४२८ ३४४ ९७९ ७९७ ५१ ६० १२३३ ७६७ २४१ १३८० १३८४ १००३ ६७० ७९९ ११६७ ७९२ ९४३ ७९१ ११६५ १३०४ ४३७ ४३७ ९०६ ४९३ ५० ७८२ ३८४ ५५२ ७१२ ३४४ ७९ ५१९ ७८ ५२३ ६२३ १११ २६२ २३४ ६३५ ५३८ ६६ ८६ ८६७ ५१४ २०४ ९६२ ९६४ ६७२ ४३२ ५३९ ८२५ ५३४ ६०० ५३३ ८२२ ९३४ २७१ २७२ ५६४ ३१२ ६३ ५२७ तसमिस्से ताणि पुणो तह य असण्णी सण्णी तह सुमसुमजे तिण्णि दस अट्ठठाणा तिण्णेगे एगेगं तिष्णेव दूवावीसे तित्थण्णदराउ दुर्गं तित्थयरमाणमाया तित्थयरसत्तणारय तित्थयरं उस्सासं तित्थाहारच उक्कं तित्थाहारा जुगवं तित्थाहाराणंतो तित्थाहारे सहियं तित्थेणाहारदुगं तिदु इगि बंधे अडच तिदु इगिणउदी णउदी तदु इगि बंधेद तिय उणवीसं छत्तिय तियपण छवीसबंधे तिरिय अपुण्णं वेगे तिरियदु जाइच उक्कं तिरियाउग देवाउग तिरिये ओधे सुरणिर तिरिये ओघो तित्था तिरिए ण तित्थसत्तं तिरियेयारुव्वेलण तिरियेयारं तीसे तिरियेव परे णवरि हु तिव्वकसाओ बहु. तिविहो दु ठाणबंधो तीस हम गुक्कस्सो तिसु एक्केक्कं उदओ तिसु तेरं दस मिस्से तीसुदयं बिगिती से ती अवि बंघो तीसं वारस उदयु तीसं कोडाकोडी ९३२ ३४५ ३४६ ६८८ ७६३ ७७२ ६१७ ५१० ९१९ ४२ ६१७ ५५३ १३७ ६२२ ७८४ १०१६ ९६१ १००६ ७६ १०४९ ४७६ ६६० ६०२ ४५५ ८३ ५६५ ६६२ ६६४ ८६ ११५३ ९०५ २५१ ९९६ ७३९ ११२० १००४ ४४३ १२६ १४४७ ५९० २३६ २३८ ४५८ ५०९ ५१६ ३७४ ३२२ ५७४ ५० ३७३ ३३३ १४१ ३७७ ५२९ ६८४ ६०९ ६७९ १०४ ७४२ ३०६ ४१४ ३६६ २९४ १०८ ३४५ ४१७ ४२१ ११० ८०३ ५६३ २०८ ६६४ ४९४ ७८३ ७५१ २७९ १२७ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोकर्मकाण्डे १९८ २९० २८९ थिरसहजससाददुर्ग ५४० थीणतिथीपुरसूणा थीणुदयेणुढविदे ६१६ थी पुरिसोदयचडिदे ७६६ थीसंढमरीरं ७.४ थूले सोलस पहुदो १२ ६३९ ३८८ ७६ ११२४ ७९० ११११ १०९४ १११० १०२१ १११९ १११० २०७३ ११०९ १०१५ १२४५ ५४ १२७९ ९२२ २४५ ९२४ ६४० १२८० ११२८ ७९२ ६५० ७१ उ तिगूणतिरिक्खे उद्गं तेरिच्छे उतिगे सगुणोघं उदुगे मणुवदुर्ग तेणउदि छक्कसत्तं णउदीए बंधा तेण णभिगितीसुदए तेण तिये तिदुबंधो तेण दुण उदे णउदे णवदिसत्तसत्तं ते णव सगसदरिजुदा तेणुवरिमपंचुदये तेणेवं तेरतिये ते चोइसपरिहीणा तेजदुगं वण्णचऊ तेजदुहारदुसमचऊ तेजाकम्मेहितिये तेरटुचऊदेसे तेरणवे पुव्वंसे तेरदु पुव्वं वंसा तेरसवारेयारं तेरससयाणि सत्तर तेरिच्छा हु सरिच्छा तेवढेि च सयाई तेवण्णणवसयाहिय तेवण्णतिसदसहियं तेवत्तरि सयाई तेवीसट्टाणादो तेवीसवंधगे इगि तेवीसबन्धठाणे तेबीसादीबन्धा तेवीसं पणुवीस तेहिं असंखेज्जगुणा तं पुण अट्ठविहं वा ४२९ ९९५ ७७४ ६८५ २६३ ६६२ ५१८ ४८० ९९२ १०१४ ९९९ ७२३ ४७५ ७६५ ७१५ ९९८ ६९९ १२६ ७८२ दइवमेव परं मण्णे ७६४ दवे कम्मं दुविहं ७५० दव्वं ठिदि गुणहाणी ७६१ दवतियं हेळुवरिम ६८३ दव्वं समयपबद्धं ३९० दम अट्टारस दसयं ४०३ दगगदये अडव सदि दस चउरिगि सत्तरसं २७ दसय चऊ पढमतियं दस णव पण्णरसाई ६८२ दस णव णवादि च उतिय ६६७ दस णब अट्ट य सत्त य ५१२ दसयादिसु बंधंसा ५०१ दसवीसं एक्कारस ८६२ दुक्ख तिघादीणोघं ९२३ दुग छक्क तिण्णिवग्गे दुग छक्क सत्त अटुं ५०२ दुग्गमणादावदुर्ग ८६८ दुग्गदि दुस्सर संहदि ५६६ दुति छस्मत्तट्टणवे दुविहा पुण पदभंगा ७६९ दुस दुमु देसे दोसुवि ६९६ देवचउक्काहारदु देवच उक्कं वज्ज २५९ देवजुदेक्कट्ठाणे देवटवीसणरदे देव? वोस बन्धे देवाउगं पमतो २९५ देवा पुण एइंदिय ८३ देवाहारेसत्थं ७५१ १२३१ १२८० ७४९ ७५२ १२३३ ४६८ १२८ ३८३ ४९८ ३७६ ६३४ ६२१ ६५२ ४९९ ४०५ ३१७ ३६५ ९११ ७६० दविज्ञा ८४४ ८३५ ११०८ १११२ १०२३ ७७७ ११८५ १९८५ ६४८ २५३ ९२० ५२१ २१४ ५७६ ५७२ ९१८ [य] ९१८ १३१ १३१ ९४५ ५७३ १३६ १३८ ६०२ यावरदुगसाहारण थिरजुम्मस्स पिराथिर Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवे वा वेगवे देवोघं वेगवे देसणरे तिरये तिय सतियेसु वि एवं देसावरणष्णोष्ण देसे तदियकसाया देसे तदियकसाया देसोत्ति हवे सम्म देहादी फरसंता देहादी फासंता देहे अविणाभावी होयेण सहिओ दो गुणहाणिपमा दो छक्कउचक्कं धम्मेतित्थं बंधदि धुववड्डी वढन्तो पचयधणस्साणपणे पचयस्स य संकलणं पज्जत्तगवितिचप पडिणीगमन्तराये पडपडिहारसि मज्जा पपडिहार समज्जा पडिय मरिएक्कमेक्कू विसयहुदि दव्वं पडिसमय धणे वि पदं पढमकसायाणं च वि पढमचऊ सीदिचऊ पढमतियं च य पढमं पढमादिया कसाया पढमुवसमये सम्मे पढमं पढमं खण्डं पढमं पढमतिचउपण पण णव इगि सत्तरसं [ ष ] [ प ] गाथासूत्रों की अकारादिक्रम सूची १०४ ९०५ ४९६ ९८८ ६३१ २३२ ४३५ ४६२ २०३ ५५९ ४० ३३ ३ १२८४ १०३० ७९ ३९० १२५४ १२८७ ७८४ ११५१ ११ ५२ ९२६ ५३ १२५५ ६७९ १०३९ ७६४ ३९ ६५ १३७७ ९९८ ४३३ ११८ ५६२ ३१४ ६४८ ३८२ १० २६७ ३०० १८१ ३४० ४७ ३४ ३ ९२८ ७१० ९०४ ९३१ ५३१ पण णव इगि सत्तरसं पण णव णव पणभंगा पणदालछस्सयाहिय पण दो पणगं पणचउ पण बंधगम्मि वारस पण मिय सिरसा मि ४५ ९३ पणवण्णा पण्णासा पण विग्धे विवरीयं पणवीसे तिगिण उदे पण्ण रकसायभयदुग ९५६ ६६६ २६४ पारस पण्णास वार छक्कदि पण्णरसोलद्वारस १०६ पयडीए तणुकसाओ २५३ पडी सीलसहावो पकारं छक्कदि पत्तेयपदा मिच्छे पत्तेयाणं उवरि डिट्ठिदिअणुभाग ८०० २१ ६९ ५८२ ७० ९०५ पाणवधादीसु रदो ४४८ पिंडपदा पंचेत य ७२५ पुढवी आऊ तेऊ ५१० पुढवीयादि पंच पलापयदयेण य पलुदयेण य जीवो परघाददुगं तेजदु परघादमंग पुणे परसमयाणं वयणं परिणामजोगठाणा परिणामो दुट्टाणो परिहारे बंधतियं पल्ला संखेज्जदिमा पल्लासं खेज्जदिमं पुणरवि देसोत्ति गुणो पुण्णतस जोगठाणं पुष्णिदरं विगिविगले पुणेकारसजोगे पुण्णेण समं सब्बे ४४४ ९८६ ७५० १०२८ ७२८ १ ११२४ २४६ १११६ ६४८ १०३ ६०० १२३२ ६४४ १२०२ १२०३ ६२ ११५४ २ १३ १३ १९७ ९३२ १२४६ २६४ ११७४ १०४० २६७ ९६५ ११५५ १२०२ ७९३ १०३४ ११८६ ३७० ९७ ५८१ ७८२ १४४९ २८१ ६४६ ५०० ७०४ ४८५ १ ७८९ २०६ ७७७ ४०१ ११७ ३६४ ८३६ ३९४ ८५७ ८५९ ८९ ८०६ २ २४ २५ १७५ ५९१ ८९५ २२० ८३२ ७२७ २२४ ६१७ ८१० ८५८ ५३५ ७१७ ८३८ २४७ ११३ ३५२ ५२८ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५० पुरिसोदयेण चडिदे पुरिसोदयेण चि पुरिसं चदुसंज्जलणं पुव्वाणं कोडितिभा पुव्वाणं कोडितिभा पुव्विल्लेसुवि मिलिदे वे पंचणिट्टी पुव्वं वण चउवीसं बंधद्धा अंतो पुंसंदू णित्थि जुदा पंचक्खतसे सव्वं पंच णव दोणि अट्ठा पंच णव दोण्णि छन्वी पंच णव दोण्णि० पंच णव दोण्णि अट्ठा पंचहं णिद्दाणं पंचविध विधेय पंचसहस्सा बेस पंचादिपंचबंधो कारसवावी पंचेक्कारसवावी पंचेंदियेसु ओघं डुगे एक के फड्ढयसंखाहि गुणं समय बंधतियं अडवीस दु बंधपदे उदयंसा बंधा तिय पण छण्ण • बंधुक्कट्टणकरणं बंधुक कर बंधु दं बंधे अधापवत्तो बंधोदय मंसा बंधे संकामिज्जदि [ फ] [ ब ] ७२८ ७६६ ७२ १८४ १२७६ ७२२ ११८८ १०४९ २४३ ४५९ ८०७ १२ ३४ ३६ ३५ ५४ ७७२ ७५३ ९९३ ४४२ ૪૪૭ ९८ २६७ २७४ ५८ १०३७ ९९४ १०२८ ६७३ ६७७ १००३ ६६१ ९७५ ६५७ गो० कर्मकाण्डे ४८४ ५१३ १०१ १५८ ९१७ ४७९ ८४२ ७४३ २०५ २९६ २८३ ११४ २२५ २२९ ५४५ २२ ३५ ३८ ३६ ७२ ५१७ भूदाणुकंपवदजो भूवादरतेवीसं ५०४ ६५८ भूवादरपज्जत्ते २७७ ८२ ७२१ ६६० भत्तपयण्णाइविही भत्तपइण्णा इंगिणि भयदुगरहियं पढमं भयसहियं च जुगुच्छा भवणतियाणं एवं भवयंति भवियकाले ७०६ ४३७ ૪૪૪ ६७३ ४१६ ६३० ४१० भव्विदराणपणदरं भव्विदरुवसमवेदग भव्वै सव्वमभव्वे भव्वे सव्यमभव्वे भिण्णत्तो णरतिरि भुजगारपदराणं भुजगारा अप्पदरा भुजगारा अप्पदरा भुजगारे अप्पदरे भूदं तु चुदं चइदं भेदे छादालसयं भेदेण अवत्तव्वा भोगमा देवाउं भोगे सुरवी भोगं व सुरे णरचउ भंगा एक्क्का पुण मज्झे जीवा बहुगा मज्झे थोवसलागा मणवयणकायदाणग मणु ओरालदु वज्जं anarratrarat मणिचिबंधुदयं सा ओघ थावर सिणि एत्थीसहिदा माणुसो वा भोगे मरणम्हि णिट्टी [भ] [म] ४८ ४८ ११३० ७१६ ८०४ ४९ १२०१ ५३६ ८७६ १०४३ १३७ ९१७ ९०१ ९२५ ९२६ ११५२ ९०६ ७८० ४७ ३५ ७१४ ९८२ ९११ ४७३ ६३८ ३६१ १७० १२४३ १९२ ११५४ १०३५ ४६१ ४६७ ४७० ७१ ६० ५९ ७९४ ४७७ ५४३ ६२ ८५६ ३२८ ५५० ७३२ १४२ ५७१ ५५४ ५८० ५८१ ८०१ ५६५ ५२४ ५६ ३७ ४७४ ६४० ५६७ ३०४ ३८७ २४४ १४९ ८८८ १६६ ८०८ ७१८ २९७ ३०१ ३०२ ९९ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिच्छ चउक्के छक्कं मिच्छतिये तिचउक्के मिच्छतिये मिस्सप मिच्छत्तस्स य उत्ता मिच्छत्ताणण्णदरं मिच्छतं अविरमणं मिच्छत्त हुंडा मिच्छतियसोलसाणं मिच्छदुगयदचक्के मिच्छदुगे मिस्स तिये मिच्छदुगे मिस्सतिये मिच्छमणतं मिस्सं मिच्छमपुण्णं छेदो मिच्छस्स ठाणभंगा मिच्छस्सं तिमणवयं मिच्छस्स य मिच्छोत्ति य मिच्छा इट्ठिप्प हुदि मिच्छादिठाणभंगा मिच्छादिगोदभंगा मिच्छादीणं दुतिदुसु मिच्छादुवसंतोत्त मिच्छूणि गिवीस सयं मिच्छे अट्ठदयपदा मिच्छे परिणामपदा मिच्छे मिच्छादावं मिच्छे वग्गसलाय मिच्छे सम्मिस्साणं मिच्छे सासणअयदे मिच्छो हु महारंभी मिच्छं मिस्सं सगुणे मूलण्हपहा अग्गी मूलुत्तरपयडीणं मुलुत्तर पडणं मूलुत्तरपयडीणं मूलोषं पुंवेदे मिस्सम्मितिअंगाणं मिस्सा आहारस्स य मिस्सा वरदम स ७५३ ११६४ ११९१ गाथासूत्रों की अकारादिक्रम सूची मिस्साविरदे उच्च मिस्सूण पमत्तंते मिस्से अपुव्वजुगले १३००. ११३९ ११२२ ६९ ६७९ ११७४ ११६६ ७३४ ४५२ ४६२ ९१२ १९३ ६८० १२३३ ११८७ ९८० १२३१ ६९२ ६६७ ११९१ ११९१ ४३४ १२८१ ६५८ ७४० ११५३ ७१५ २२ ९७३ ५२ ५१ ५०३ ९३१ ९०४ ७९५ ५०३ ८२१ ८४६ ९३३ ७९५ ७८६ ९५ ४४७ ८३३ ८२४ ४९१ २९२ २९९ ५६८ १६८ ३३ ६२७ ६८ ६७ मोहस् य बंधोदय मोहे मिच्छत्तादी ३२० ५८९ ५६० ५३७ रसबंधज्झवसाण राजमं तु मत्ते रिणमंगोवंगतसं रूऊणण्णोष्णन्भ रूऊणद्वाणदे रूहियडवीससया ४४९ ८६६ ૮૪૦ ६३८ ८६४ ४६२ ४२७ ८४७ ८४८ २६५ ९२५ ४१२ ४९५ ८०४ बरइंदणंदिगुरुणो ४७६ लघुकरणं इच्छंतो लद्धीणिव्वत्तीणं लिंगकसाया लेस्सा लोगाणमसंखपमा लोगागमसंखमिदा लोहस्स सुहुमसत्त ओ वग्गसलायेणवहिद वज्जयलं जिणभवणं वज्जं पुंसंजणति वण्ण चउक्कमसत्थं बहुभागे समभागो बहुगे समभागो वादरणिव्वत्तिवरं वादलं पणुवी सं वादालं तु पसत्था वादा वेण्णिसया वाणउदी णउदि चऊ वाणउदी णउदि चऊ बाउदी दिसतं [3] [] [व] ८१ ६८७ ९७४ ९९० २३६ १३८१ ११६७ ४७६ १२८५ १२८५ ११८७ ९१५ ३४८ ११७० १३४७ १३६४ १३६ ९९३ १२८३ १३८८ ६६७ १९४ ६४५ २१९ २३० ३४४ ९८९ १९१ १२०० १०७३ १०२९ ११०९ १४५१ १०७ ४५६ ६२८ ६५२ २०२ ९६३ ८२६ ३०७ ९२९ ९३० ८४१ ५७० २४० ८२८ ९५२ ९५५ १४० ६५९ ९२६ ९७० ४२८ १७० ३९६ १९५ २०० २३५ ६५० १६४ ८५३ ७४९ ७०७ ७६२ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५२ गो० कर्मकाण्डे १०४६ ९७२ १०९४ ७४६ १९८५ ११८५ १९९९ ७४७ ५९२ ३६९ ७३० १२५० १०१७ २९१ ७२० ३१५ ७२२ ६९३ ४९ ३५४ ९९५ १०१३ १००४ ९९० ९७१ [स] वाणउदिणउदिसत्तं वाणउदिणउदिसत्तं वाणउदीए बंधा वामे चउदस दुसु दस वामे दुसु दुसु दुसु तिसु वारचउतिदुगमेक्कं वारट्ठ छवीसं वारसयवेयणीए वारससयतेसीदी वावत्तरि अप्पदरा वावत्तरिति सहस्सा वावीस बंध चदु तिदु बावीसमेक्कवीसं वासीसमेक्कवीसं वावीसयादिबंधे बावीसे अडवीसे बावीसेण णिरुद्ध वावीसं दसयचऊ वासीदि वज्जित्ता वासीदे इगिचउपण वासूप वासूप वरटिदीओ विम्गहकम्मसरीरे विगुण णव चारि अटुं विदियगुणे अणथीणति विदियस्सवि पण ठाणे विदियादिसु छसु विदियावरणे णव विदिये तुरिये पणमे विदिये विगिपणगयदे विदिये विदियणिसेगे विदिये विदियणिसेगे विदियं विदियं खंड विरियस्स य णोकम्म विवरीयेणप्पदरा विसवेयणरत्तक्खय वीइंदियपज्जतज वीसं छडणव वीस वीसण्हं विझादं ७३६ वीस द चउवीस चऊ ६२६ वीसादिस बंधंसा १०७१ ७५५ वीसादीणं भंगा ८५१ वीसुतरछच्चसया ८३७ वीसदये बंधोण हि १०७२ ८३६ वीसं इगि चउवीस ९३३ ८५० वेगुव्व अट्टरहिदे १३९ वेगुव्वछ पण संहदि ५४७ ४८७ वेगुब्व तेजथिर सुह ४५२ ५७५ वैगुब्वे तम्मिस्से वेगुव्वं वा मिस्से ४९७ ६८६ वेदकसाये सव्वं १०३७ ४६३ वेदगजोग्गे काले ९६४ ४६४ वेदणियगोदघादी ४२ वेदतियकोहमाणं ६८० वेदादाहारोति य ५८५ ६७४ वेयणिये. अडभंगा ९८९ ६५५ ६२४ ७७३ सइ उठ्ठिया पसिद्धी १२४५ सच्छंददिट्ठोंहि वियप्पयाणि १२४४ ५८३ सगसगखेत्तगयस्स य २१२ सगसगगदीणमाउं ९८२ सगचउपुव्वं वंसा ९९६ सगपज्जत्ती पुणे २६५ २९३ सगवीस चउक्कुदये ११११ सगवीसे तिगिण उदे १११७ ३७१ सगसंभव धुवबंधे ६९५ ४९९ सगसगसादिविहीणे २१५ ९२१ सत्त तगं आसाणे ६१६ १६२ सत्तपदे बंधुदया ९५७ सत्तरसपंचतित्था १७९ सत्तण्हं गुणसंकम ६६४ ५६९ सत्तं तिण उदिपहुदी १०७३ ५७ सत्तं दुणउदि ण उदी १०७५ २५१ सत्तं समयपबद्धं १३२५ ७५९ सत्तरसादि अडादी १००२ ४२३ सतरसुहुमसरागे २५३ ८९३ १४८ ८८९ ९२७ १८९ ५९९ ६६३ ६२५ ३८० २२१ ४५३ ९७६ ७७९ ७५० १२७९ १८८ १३७७ ३७२ ६६९ १५१ ४२२ ७४८ ५९ ७५२ ३८९ ९४३ २१२ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूत्रोंकी अकारादिक्रम-सूचो ४४२ ४४७ १९१ १०१३ ८५४ ५७९ १३४ ९२७ ४३० ६४७ ४७१ २१७ ९२५ १३. १२८३ ६६८ ९८७ १८१ ९२९ २२२ २२९ १२९९ १२.१ १०३२ ७०५ २०२ १०१८ १०२८ ६५२ १०९३ १५४ ५८५ ९३ १३५ १४८ १३४१ २७१ २०१ २२८ १४३ ९६२ १०३० सत्तरसेकग्गसयं सत्तरसेक्कारखचदु सत्तरसेक्कारखचदु सत्तरसे अडचउरिगिवीसे सत्तरसं णवयतियं सत्त रसं दसगुणिदं सत्ता वाणउदितियं सत्तावीसहियसयं सत्ती य लदादारू सत्तुदये अडवीसे सत्तेव अपज्जत्ता सत्तेताल धुवा वि य सत्ते बंधुदयाचदु सत्थगदी तस दसयं सत्थत्तादाहार सत्थाणं धुवियाणम सण्णिअसण्णिचउक्के सण्णि म्मि मणुस्सम्मि य सण्णिम्मि सन्वबंधो सण्णिस्स हु हेठ्ठादो सण्णिस्स मणुस्सस्स य सण्णिस्सुववादवरं सण्णाणपंचयादी सण्णाणे चरिमपणं सण्णी छस्संहडणो सण्णीवि तहासेसे समचउरवज्जरिसहं समयपबद्धपमाणं समयट्टिदिगो बंधो समविसमट्टाणाणि य सम्मत्तूणुब्वेल्लण सम्मत्तं देसजमं सम्मविहीणुव्वेल्ले सम्मेव तित्थबंधो सम्मो वा मिच्छो वा सम्म मिच्छ मिस्सं सरगदिदु जसादेज्ज सरिसायामेणुवरि १०३ सरिसासरिसे दब्वे २७६ सयलंगेक्कंगेक्क २८२ सयलरसरूवगंधे ६८१ सवपरदाणेण य सव्वट्ठिदीणमुक्क सव्वसलायाणं जदि ७१४ सधस्सेक्कं एवं सव्वाउबंधभंगे १८० सव्वाओ दुठिदीओ सव्वापज्जत्ताणं सव्वावरणं दध्वं ४०४ सव्वावरणं दवं ७५३ सव्वासि पयडीणं ४२० सन्वुक्कस्सठिदीणं ६१३ सम्वुवरि मोहणीये १७९ सव्वे जीवपदेसे १४६ सव्वं तिगेगसब्वं ६०१ सव्वं तित्थाहारु ७०९ सव्वं तिवीसछक्कं १५० सव्वं सयलं पढमं ५३६ साणे तेसि छेदो २३७ साणे थीवेदछिदी ३२४ साणे पण इगिभंगा ५४७ साणे सुराउ सुरगदि ३१ सादासादेक्कदरं ५४१ सादि अणादी धुव म. ४२ सादि अणादी धुव अ० ९४२ सादी अबंधबंधे २७४ सादं तिण्णेवाऊ ६२५ सासणमिस्से देसे ४२६ सामण्ण अवत्तब्वो ६१८ सामण्णकेवलिस्स ४२४ सामण्णतित्थकेवलि ९२ सामण्णतिरियपंचि १७६ सामण्ण सयलवियलवि ४११ सासण अयदपमत्ते २९७ सासण पमत्तवज्जं २३१ सिद्धाणंतिमभागं ३६० ६१४ ७१९ ६७० ३१३ ३१९ १७५ ७९४ ३४६ ३७५ ८३१ २० ८०२ ६१८ ५२२ ९७७ ३२६ ६३३ ६२ १२१ १२२ १२३ १३२४ ४३९ ९७१ ४१ ५९८ ७०० ९५३ ७७५ ४७० ९६७ ५२० १०५ ५९४ ४९६ १९७ ९३३ ७४२ ६५८ ९०३ ३३४ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५४ सिद्धे विसुद्धलिये सिद्धे सुद्धभंगा सिद्धंतुदय डुग्ग सीदादि चउट्ठाणा सीदादि चउसु बंधा सुक्के सहरचक्कं सुरणरतिरियोरालि य सुरणरसम्म पढमो सुरणिरया णरतिरियं सुरणिरयविसेसण रे सुरणारयाऊणोषं सुरणिरयाऊ तिथं सुरणिरये उज्जोवो सुहदुक्खनिमित्तादो सुहपयडीण विसोही सुमगल द्विजहणे सुमणि गोदअपज्ज० मणिगोदअपज्ज • सुहमस्स बंधधादी सेढिअसंखेज्जदिमा सेढियसंखेज्जदिमा सेवट्टेण य गम्मइ सेसाणं पज्जत्तो साणं पयडी सेसाणं सगुणो सेसे तित्याहार १२७४ १२३६ १३८७ ९७० १०९६ ११४ ६५३ ९६८ ९८१ ९३९ १२७ ६५० १९६ २१८ १९१ ३४२ २५६ ३९३ ६६३ ३९४ ३८९ १९ १३७ २१९ ५४५ १२४ गो० कर्मकाण्डे ९१३ ८७४ ९६७ ६२२ ७५८ १२१ ४०६ ६२० ६३९ ५९६ १३३ ४०२ १७३ १९३ १६३ २३३ २१५ २५६ ४१९ २५८ २५२ २९ १४३ १९४ ३३० १२५ सोलट्टे विक छिक्क सो विमहिओ सोलस पणवीस णभं सोलसविसदं कमसो सोहम्मोतियताव संकमणा करणूणा संखाउन र तिरिए संखेज्ज-सहस्सा संठाण संहृदीणं ठाणे संह ठाणे संहडणे संढित्थि छक्कसाया संताणकमेणागय संतोत्ति भट्टसत्ता संजलणभागबहुभाग संजलण हुम चोट्स संजोगमेवेति वदति तण्णा हस्स रदिपुरि सगोददु हस्स र दिउच्चपुरिसे हारदु सम्मं मिस्स हारदुहीणा एवं हारं अघापवतं हेट्टिमखंडुक्कस्सं होंति अणियट्टिण ते इति कर्मकांडीय गाथासूची । [ह] ५५७ ५९४ ६६ ११४८ १९६ ६७५ ४४९ १३३९ १२७ ७८९ ९४३ ५५८ ७ ६८८ २३६ १८० १२४५ ६५३ १२७. ५७९ ४७० ६६९ १३७८ १२७२ ३३७ ३५७ ९४ ७९८ १७४ ४४१ २८३ ९४६ १२९ ५३२ ५९९ ३३९ १३ ४५७ २०३ १५३ ८९२ ४०७ १३२ ३५० ३०३ ४३१ ९५९ ९१२ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैनधर्म-दर्शन, सिद्धान्त एवं आचारपरक ग्रन्थ गोम्मटसार, जीवकाण्ड (दो भाग) (कर्णाटिकी वृत्ति, संस्कृत टका एवं हिन्दी अनुवाद) गोम्मटसार, कर्मकाण्ड (दो भाग) (कर्णाटिकी वृत्ति, संस्कृत टीका एवं हिन्दी अनुवाद) सर्वार्थसिद्धि (संस्कृत, हिन्दी) : आचार्य पूज्यपाद सम्पादन-अनु. : सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री तत्त्वार्थराजवार्तिक (दो भाग) मूल : भट्ट कलंक सम्पादन-अनु. : डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य सत्यशासनपरीक्षा (संस्कृत), मूल : आचार्य विद्यानन्द सम्पादन-अनु : डॉ. गोकुलचन्द्र जैन प्रमाणप्रमेयकलिका (संस्कत). मल : नरेन्द्रसेन षड्दर्शनसमुच्चय सम्पादन-अनु. डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य षट्खण्डागम-परिशीलन : पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपण्णत्ति) सम्पादन-अनु. : पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री मूलाचार (प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी) दो भाग सम्पा.-अनु. : आर्यिकारत्न ज्ञानमती धर्मामृत (अनगार, सागार) ज्ञानदीपिका पंजिका एवं हिन्दी अनुवाद सहित । सम्पादन-अनु. : सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री आराधना-समुच्चयो योगसारसंग्रहश्य (संस्कृत) मूल : रविचन्द्र; गुरुदास ध्यानस्तव (संस्कृत, अंग्रेज़ी), मूल : भास्करनन्दी गीतवीतराग (संस्कृत), मूल : पण्डिताचार्य सम्पादन : डॉ. आ.ने. उपाध्ये ज्ञानपीठ पूजांजलि (जैन पूजा, व्रत, स्तोत्रपाठ आदि । संगह) SAMAYASAR (समयसार) Edited by A. Chakravarti Structure and Functions of Soul in Jainism-Dr. S.C. Jain Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ स्थापना : सन् 1944 उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण संस्थापक स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन स्व. श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्रीमती इन्दु जैन कार्यालय : 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003 Education International