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________________ गो० कर्मकाण्डे पंचेंद्रियंगल संस्थान संहनन भेदयुत षट्त्रिशद्भंगंगलु मंतु सप्तत्रिंशदुभंगंगलप्पुवु २६ मत्तमसंयतंर्ग सप्तविंशतिस्थानदोलु धर्म्मय नारक सोधम्र्मादिकल्पचरगल संबंधि द्विभंगंगलप्पु २७ मत्तम ३७ २ संयतंगे अष्टाविंशति प्रकृत्युवयस्थानदोलु भोगभूमि संज्ञिपंचेंद्रियजीव संबंधि शरीरपर्य्याप्तियोलु धर्म्मय नारक सौधर्मादिकल्प कल्पातीतजरुगल संबंध्यानापान पर्य्याप्तियोलु त्रिभंगंगल २८ ५ मनुष्यरो संस्थान संहननविहायोगति कृत भंगंगलेप्पत्तेरडुं २८ कूडि २८ मत्तमसंयतंर्ग ३ ७२ ७५ ९५८ २० नवविंशतिस्थानवोल भोगभूमिसंज्ञिपंचेंद्रिय मनुष्यरुगलानापानपर्य्याप्तियोलु द्विभंगंगलुं देवनारकरुगळ भाषापर्याप्रियोळु द्विभंगंगळ कर्मभूमिमनुष्य संस्थान संहनन विहायोगतिकृतानापानपर्व्याप्तियो एप्पतेरडु भंगंगळं कूडि एप्पत्तारु भंगंगळवु २९ मत्तमसंयतन त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोल ७६ भोगभूमिसंज्ञिपंचेंद्रियोद्योतयुतानापानपर्य्याप्तियोळों दुं भाषापर्थ्याप्तियुत संज्ञिपंचेंद्रियतिय्यंग्मनुष्य१० रुगळ भरांगळु मेरडु सासिरव मूनूर नाल्कु कूडि रडु सासिरव मूनूरम्बवु ३० मत्तमसंयत२३०५ कत्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ, संज्ञिपंचेंद्रिय तिय्यंचन सासिरव नूरय्वत्तेरडु भंगंगळवु । ३१ ११५२ देशसंयतंगे त्रिशत्प्रकृतिस्थानवोळु संजिपंचेंद्रियतिग्मनुष्यरुगल संस्थान संहननविहायोगतिस्वरकृत निकदेवयोरेकैक इति द्वौ । षडविंशतिकस्य भोगभूमितिरश्चां शुभोदयादेकः । कर्मभूमि संज्ञिनां संस्थान संहननजाः षट्त्रिंशदिति सप्तत्रिंशत् । सप्तविंशतिकस्य धर्माज वैमानिकयो । अष्टाविंशतिकस्य भोगभूमिजधर्माजिवैमा - १५ निकानामुच्छ्वासपर्याप्तौ त्रयः । मनुष्ये संस्थानसंहननविहायोगतिजा द्वासप्ततिरिति पंचसप्ततिः । नवविंशतिकस्य भोगभूमितिर्यग्मनुष्ययोरानापानपर्याप्तौ द्वौ । देवनारकयोर्भाषापर्याप्तौ द्वौ । कर्मभूमिमनुष्यस्यानापानपर्याप्तौ प्राग्वद्वासप्ततिरिति षट्सप्ततिः । त्रिशतकस्य भोगभूमितियंश्वानापानपर्याप्तौ सोद्योत एकः । संज्ञितिर्यग्मनुष्ययोर्भाषापर्याप्तौ चतुरग्रत्रयोविंशतिशती पंचाग्रत्रिशतद्विसहस्री । एकत्रिशतकस्य संज्ञिनो शुभका ही उदय होनेसे एक और कर्मभूमियाँ संज्ञी तियंचके छह संस्थान, छह संहननके बदलने से छत्तीस, इस प्रकार सैंतीस भंग हैं । सत्ताईसके और धर्मानारक वैमानिक देवका एक-एक भंग मिलाकर दो भंग हैं। २५ भोगभूमिया तिर्यंच, धर्मा नारकी, वैमानिक देवोंमें उच्छ्वास पर्याप्ति में एक-एक भंग मिलकर तीन, मनुष्यके छह संस्थान छह संहनन विहायोगति युगलसे बहत्तर, इस प्रकार पचहत्तर भंग हैं। उनतीसके भोगभूमिया तिथंच मनुष्य के प्रशस्तका ही उदय होनेसे एक-एक, उनके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में दो, देव नारकीके भाषापर्याप्ति में एक-एक भंग मिलकर दो, और कर्मभूमिया मनुष्यके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में पूर्वोक्त प्रकारसे बहत्तर इस तरह छिहत्तर भंग हैं। तीसके भोगभूमियाँ तिर्यंच उद्योत सहितके श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में एक संज्ञीतिर्यंच व कर्मभूमिया 'मनुष्य इन दोनोंके मिलाकर तेईस सौ चार इस तरह तेईस सौ पाँच मंग हैं । इकतीसके संज्ञीतियंच के ही ग्यारह सौ बावन भंग हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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