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________________ ९६२ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं नामसत्वस्थानंगळ्गे प्रकृतिसंख्योपपत्तियं तोरिदपर :-- सव्वं तित्थाहारुभऊणं सुरणिरयणरदुचारिदुगे। उज्वेन्लिदे हदे चउ तेरेऽजोगिस्स दस णवयं ॥६१०॥ सवं तोहारोभयोनं सुरनारकनरद्विचतुद्धिके । उद्वेल्लिते हते चत्वारि त्रयोदशसु ५ अयोगिनो दशनवकं ॥ सव्वं समस्तनामप्रकृतिस्थान मोवलवक्कुं। मतं क्रमदिवं तीर्त्यहीनमादोडे तो भत्तेरसर स्थानमक्कुं । तीर्थयुतमाहारकहीनमागि तो भत्तोवर स्थानमक्कुं। तोहारोभयहीनमादोरे तो भत्तरस्थानमक्कुं । अल्लि सुरद्विकमनवेल्लनमं माडिवोडे अष्टाशीतिस्थानमक्कुं। अल्लि नारकचतुष्टयमनुल्लमं माडिवोडेण्भत्तनाल्कर स्थानमक्कु । मल्लि मनुष्यतिकमनुढेल्लनमं माडि. दोडण्भत्तेरडर स्थानमक्कु । मतमा त्रिनवतिस्थानदोळ णिरयतिरिक्ख दु विपळ मित्यादि प्रयो. दशप्रकृतिगळु क्षपितंगळागुत्तं विरलशोतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । द्वानवतिस्थानदोळमा त्रयोदशप्रकृतिगढ़ क्षपितंगळागुत्तं विरलेकोनाशीति प्रकृतिसत्वस्थानमक्क। मत्तमेक नवतिस्थानदोळमा त्रयोदशप्रकृतिगळ क्षपितंगळागुत्तं विरलु अष्टसप्ततिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । मत्तं नवतिस्थान बोळमा त्रयोदशप्रकृतिगळ क्षपितंगळागुत्तं विरल सप्तसप्रतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कं । ७७। मत्तम१५ योगिकेवलियोळ क्शनवप्रकृतिसत्वस्थानद्वयमक्कं । अनंतरमयोगिय सत्वस्थानद्वयप्रकृतिगळपेळवपरु: सप्ततिर्दश नव च प्रकृतयः नामकर्मसत्त्वस्थानानि त्रयोदश भवंति ॥६०९॥ तेषामपपत्तिमाह सर्वनामप्रकृतयःप्रथमं तदेव तीर्याहारकद्वयतदुभयः क्रमेणोनितं द्वानवतिकैकनवतिकनवतिकत्वं प्राप्नोति। तन्त्रवतिक पुनः सुरद्विके पुनः नारकचतुष्के पुनः मनुष्यद्विके चोद्वेल्लितेऽष्टाशीतिकचतुरशीतिकद्वयशीतिकत्वं । पुनः तानि विनवतिकादीनि चत्वारि 'णिरयतिरिक्खदूवियलमित्यादित्रयोदशस क्षपितेषु अशीतिकैकानशीतिकाष्टासप्ततिकसप्तसप्ततिकत्वं दशकं, नवकं चायोगकेवलिनि ॥६१०॥ तयोः प्रकृतीराह उनकी उपपत्ति कहते हैं सब नामकर्मकी प्रकृतिरूप प्रथम तिरानबेका स्थान है। सब प्रकृतियोंमें-से तीथंकर घटानेपर बानबेका स्थान होता है। आहारकद्विक घटानेपर. इक्यानबेका स्थान है। तीर्थकर, २५ आहारकद्विक दोनों घटानेपर नब्बेका है। उस नब्बेके स्थानमें देवगति और आनुपूर्वीकी उद्वेलना होनेपर अठासीका स्थान होता है। उसमें से नारक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर चौरासीका स्थान होता है। उसमेंसे मनुष्यद्विककी उद्वेलना होनेपर बयासीका स्थान होता है। पनः तिरानबेमें-से 'णिरयतिरिक्खदावियलं' इत्यादि गाथामें अनिवृत्ति करण गुणस्थानमें भय हुई तेरह प्रकृति घटानेपर अस्सीका स्थान होता है। उन्हें बानबेमें-से घटानेपर ३० उन्यासीका स्थान होता है। इक्यानबेमें-से घटानेपर अठहत्तरका स्थान होता है । नब्बेमें से घटानेपर सतहत्तरका स्थान होता है। अयोग केवलीमें दस और नौका स्थान है। इस प्रकार नामकर्मके सब सत्त्वस्थान है ॥६१०॥ . आगे दस और नौके स्थानकी प्रकृतियां कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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