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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तेवीसट्ठाणादो मिच्छत्तीसोत्ति बंधगो मिच्छो । णवरि हु अट्ठावीसं पंचिंदियपुण्णगो चेव ॥५६६।। त्रयोविंशतिस्थानात्प्रभृति मिथ्याण्टि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानपथ्यंतं बंधको मिथ्यादृष्टिनवमस्ति खल्वष्टाविंशति पंचेंद्रिय पूर्णकश्चैव ॥ त्रयोविंशतिस्थानमोवल्गोंडु मिथ्यादृष्टिय त्रिशत्प्रकृति स्थानपथ्यंतं मिथ्यादृष्टिजीवं ५ भुजाकारबंधबंधकनवक्कु-मल्लि विशेषमुंटदाउदेदोडे अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं पंचेंद्रिय पर्याप्तकने कटुगुं खलु स्फुटमागि । मिथ्यादृष्टिय भुजाकारंगळु संदृष्टि- |२३१५३९८९ २५९७५०३० २६४४४७०४ २८१२४९९२ २९/४२९१०७२० मत्तं भोगभूमियमिथ्यादृष्टिगे भुजाकारबंधविशेषमुमं सम्यग्दृष्टिगं पेन्दपरु : भोगे सुरट्ठवीसं सम्मो मिच्छो य मिच्छगअपुण्णो । तिरि उगुतीसं तीसं जर उगुतीसं च बंधदि हु॥५६७॥ भोगभूमौ सुराष्टाविंशति सम्यग्दृष्टिम्मिथ्यावृष्टिश्च मिथ्यादृष्टिरपूर्णः तिय्यंगेकान्न त्रिंशतं त्रिंशतं मनुष्यैकान्नत्रिशतं च बध्नाति खलु ॥ भोगभूमियोल पंचेंद्रियपर्याप्त सम्यग्दृष्टियु मिथ्यादृष्टियु सुराष्टाविंशतिस्थानमं कटुवरु । च शब्दविदं भोगभूमिजसम्यग्दृष्टि निर्वृत्यपर्याप्तनु कटुगुं । भोगभूमिनिवृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजोवं तिर्यग्गतियुतनवविंशतिस्थानमुमं त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं मनुष्यगतियुतनविंशति प्रकृति- १५ स्थानमुमं कटुगुं स्फुटमागि। एतान् त्रयोविंशतिकादितः मिथ्यादृष्टि त्रिशत्कान्तं उक्तभुजाकरान्मिथ्यादृष्टिबध्नाति, किन्तु खल तत्राष्टाविंशतिक पर्याप्तपंचेन्द्रिय एव बध्नाति ॥५६६॥ तथा भोगभमेस्तानाह भोगभूमौ पर्याप्तपंचेन्द्रियः सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिश्च चशब्दानिवृत्त्यपर्याप्तसम्यग्दृष्टिश्च सुराष्टाविंशतिकं बध्नाति । निर्वृत्त्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिः खलु तियंग्गतिनवविंशतिकत्रिंशत्के मनुष्यगतिनवविंशतिकं च , २० बध्नाति ॥५६७॥ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तेतीससे लेकर तीस पर्यन्त कहे मुजाकारोंको मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है। किन्तु उनमें से अट्ठाईसको पर्याप्त पंचेन्द्रिय ही बाँधता है ।।५६६।। भोगभूमियोंमें कहते हैं भोगभूमिमें पर्याप्त पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टी अथवा मिथ्यादृष्टि और 'च' शब्दसे ॥ निवृत्यपर्याप्त सम्यग्दृष्टी देवगति सहित अठाईसको ही बाँधता है। और नित्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि तिर्यंचगतिसहित उनतीस या तीसको और मनुष्यगतिसहित उनतीसको बांधता है ।।५६७॥ क-११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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