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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३४५ सायस्थानंगळु असंख्यात लोकमात्रंगळप्पुवु । मेले मेले उत्कृष्टस्थितिपयंत चयाधिकंगळप्पुवु नियदिदं॥ अनंतरमा विशेषप्रमाणंगळं पेळवपरु : अहियागमणणिमित्तं गुणहाणी होदि भागहारो दु। दुगुणं दुगुणं वड्ढी गुणहाणिं पडि कमेण हवे ॥९५०॥ अधिकागमननिमित्तं गुणहानिर्भवेद् भागहारस्तु । द्विगुणं द्विगुणं वृद्धिर्गुणहानि प्रति क्रमेण भवेत् ॥ - तच्चयागमननिमित्तमागि गुणहानिभागहारमक्कुम तप्प गुणहानियें दोडे द्विगुणं द्विगुणितमप्प दोगुणहानि ये बुदर्थमा दोगुणहानियिंदं जघन्यस्थितिबंधनिबंधनाध्यवसाय प्रथमगुणहानि चरमनिषेकम १६ । भागिसुतं विरलु १६ तत्प्रथमगुणहानिसंबंधिचयप्रमाणमक्कु । १। मथवा १० तु शब्ददिदं रूयाधिकगुणहानियिदं प्रथमादिगुणहानिगळ प्रथमनिषेकंगळं भागिसुत्तं विरलु तत्तद्गुणहानिसंबंधिचयंगळप्पुवु। अदु कारणमागि गुणहानि प्रति चयंगळु द्विगुणंगळु क्रमदिदंमक्कुं | ९ | १८ | ३६ | ७२ । १४४ | २८८ | |--|-- --|---- |-- ८ । ८ । ८ ।८ ८ ८ | १ | २ | ४ | ८ १६ । ३२ स्थानान्यसंख्यातलोकमात्राणि तत उपरि उत्कृष्टपर्यंतं चयाधिकानि भवन्ति ॥९४९॥ ___ अधिकः चयः तमानेतुं विवक्षितगुणहानी चरमनिषेके दोगुणहानिः, तुशब्दात् प्रथमनिषेके रूपाधिक- १५ गुणहानिश्च भागहारो भवति । तत एव स गुणहानि प्रति द्विगुणद्विगुणक्रमेण स्यात् । तत्संदष्टिःसंख्यात गुणी है। उत्कृष्ट स्थितिमें-से जघन्यस्थितिको घटाकर उसमें एक मिलानेसे जो प्रमाण हो उतने स्थितिके भेद हैं। इन भेदोंमें-से सबसे जघन्य स्थितिबन्धके कारणभूत अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है। उससे ऊपर उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त नियमसे एकएक चय अधिक हैं। सो जघन्य स्थितिके कारण अध्यवसाय स्थानोंके प्रमाणमें एक चयका २० प्रमाण मिलानेपर जघन्यस्थितिसे एक समय अधिक स्थितिके कारण अध्यवसाय स्थानोंका प्रमाण होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त जानना ॥९४९॥ अधिक रूपको चय कहते हैं। उसे लानेके लिए विवक्षित गुणहानिमें अन्तिम निषेकको दो गुणहानिका भाग दीजिए। और 'तु' शब्दसे प्रथम निषेकको एक अधिक गुणहानिका भाग दीजिए। तब चयका प्रमाण आता है। जैसे अंकसंदृष्टिमें अन्तिम गुणहानिमें अन्तिम २५ निषेकका प्रमाण सोलह है। उसमें दूनी गुणहानिके प्रमाण सोलहका भाग देनेपर एक आता है। अथवा प्रथम निषेकका प्रमाण नौ है । उसको एक अधिक गुणहानि नौका भाग देनेपर भी एक आता है। वही उस गुणहानिमें चयका प्रमाण होता है। उससे प्रत्येक गुणहानिमें दूना-दूना चयका प्रमाण होता है; क्योंकि प्रत्येक गुणहानिमें आदि निषेक और अन्तिम निषेकका प्रमाण दूना-दूना होता है ।।९५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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