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________________ गो० कर्मकाण्डे इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है । पूर्ववर्ती समय समय प्रति समय प्रबद्ध बाँधे उनमें जिस समयप्रबद्धका एक भी निषेक पूर्व में नहीं गला है उसका प्रथम निषेक इस वर्तमानमें उदय होने योग्य ५१२ है। जिसका एक निषेक पूर्व में गल गया उसका दुसरा निषेक ४८० इस वर्तमान समयमें उदय होने योग्य है। इसी क्रमसे जिस समयप्रबद्धका एक निषेक छोड़कर अवशेष सर्व निषेक पूर्व में गल चुके हों उसका अन्तिम निषेक ९ इस समयमें उदय होने योग्य है। इस प्रकार इन सभी ४८ समयप्रबद्धोंके एक एक निषेक मिलकर इस विवक्षित वर्तमान समयमें उदय आने योग्य सम्पूर्ण एक समय प्रबद्ध मात्र द्रव्य हुआ-यही सत्ताका प्रथम निषेक है । इसका प्रमाण ६३०० है। पुनः स्थितिसत्त्वके दूसरे समयमें उदय आने योग्य द्रव्य प्रथम निषेक घटा हआ समयप्रबद्ध मात्र होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-प्रथममें जिस समयप्रबद्धका प्रथम निषेक गले उसका दूसरा निषेक है । जिसका दूसरा निषेक गले उसका तीसरा निषेक इत्यादि क्रमशः दूसरे समय उदय आने योग्य निषेक होते हैं-ये सभी मिलकर प्रयम निषेक ५१२ कम समयबद्ध मात्र अर्थात् यहाँ ५७८८ होता है । इसी प्रकार स्थितिसत्त्वके तृतीय समयमें उदय आने वाला निषेक ५१२ एवं ४८० कम समयबद्ध मात्र, अर्थात् ५३०८ होता है । अन्ततः अन्त समयमें उदय आने वाला निषेक यहाँ ९ होगा। उपर्युक्त सत्ताके सभी निषेकोंका योग किंचिद् ऊन द्वयर्ध गुणहानि गुणित समय प्रबद्ध मात्र होता है । यही सत्त्व द्रव्य है । यहाँ अंक संदृष्टि अनुसार ६३००+५७८८+ ५३०८+ ...+१+१०+९ का योग ७१३०४ है । गुणहानि आयाम ८ के ड्योढ़े १२ से कुछ कमका गुणा समय प्रबद्ध प्रमाण ६१०० में करने पर भी ७१३०४ आता है । यह विवरण गोम्मटसारमें विशदरूपसे वर्णित है। जिस प्रकार स्थिति सत्त्व रचनामें आय व्ययका विधान है, उसी प्रकार अनुभाग सत्त्व रचनामें भी वर्गणाओंका प्रमाण पूर्वोक्त प्रकार लाना चाहिए और वर्गणाओंमें यथा सम्भव द्रव्य निकालते अथवा मिलाते पूर्वोक्त प्रकार चय घटता क्रमका रहना अथवा न रहना ज्ञात करना चाहिए। उपरोक्त विवरण मुख्यतः पण्डित टोडरमल कृत लब्धिसारको टीकाकी पीठिकासे लिया गया है । स्पष्ट है कि त्रिकोण यन्त्र सम्बन्धी रचना जब अर्थ संदृष्टि मय रूप लेगी तब उपरोक्त विवरणमें बीजगणितका प्रवेश हो जावेगा । और भी गहराई में जाने हेतु आधुनिक रूपमें विकसित मेट्रिक्स यान्त्रिकी, नवीन बीजगणित, स्थलविज्ञान ( Topology ), तथा अन्य विश्लेषक कलनोंका उपयोग करना होगा । कारण यह है कि समयप्रबद्ध में विभिन्न प्रकृतियों मय कर्म परमाणुकी प्रदेश संख्या, उनकी स्थिति तथा अनुभाग अंश न केवल योग कषायादिके अनुसार परिणमित होते है, किन्तु इनकी मन्दता होनेपर विशुद्धिके अनुसार भी परिणमित होने लगते हैं । और ये घटनाएं सूक्ष्म जगत में होने के कारण, साथ ही समूह रूपमें होनेके कारण, सहज होते हुए भी कूटस्थ विश्लेषणका विषय बन जाती हैं । अगले पृष्ठोंमें अर्थ य कुछ प्रकरण प्रस्तुत किये जायेंगे जिनसे उन विधियोंका ज्ञान हो सकेगा जो जैन स्कूलमें कर्म सिद्धान्तके सूक्ष्म विवेचन हेतु उपयोगमें लायीं गयीं । मुख्यतः वे वही हैं जिन्हें पारिभाषिक रूपसे ऊपर वर्णित किया जा चुका है, और अब उन्हें प्रयोग रूपमें गणितीय परिधान में कुछ चुने हुए प्रकरण लेकर स्पष्ट किया जायेगा । गणितीय प्रणालीके इस प्राचीन रूपको आधुनिक सांचेमें ढालनेका प्रयास किया जा रहा है और आने वाली पीढ़ीके शोधार्थीके लिए इस गूढ विषयको और भी अथक एवं अगम्य प्रयासों द्वारा विश्लेषित ने हेतु यह सामग्री एक दिशा दे सकेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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