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________________ ११७४ गो० कर्मकाण्डे परिणामो दुट्ठाणो मिच्छे सेसेसु एक्कठाणो दु । सम्मे अण्णं सम्मं चारित्ते णत्थि चारित्तं ॥८३२॥ परिणामो द्विस्थानो मिथ्यादृष्टौ शेषेष्वेकस्थानं तु । सम्यक्त्वेऽन्यत्सम्यक्त्वं चारित्रे नास्ति चारित्रं॥ पारिणामिकभावं द्विस्थानमनुळ्ळुदप्पुददे ते दोर्ड जीवत्वभव्यत्वमें दुं जीवत्वाभव्यत्वमें दितरडुं स्थानंगळ मिथ्यादृष्टियोळप्पुवु। शेषगुणस्थानंगळोळ गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्टिगळोळ जीवभव्यत्वमें बुदो दे स्थानमक्कुं। संदृष्टि मि २ । सा १ । मि १ । अ १ । दे १ । प्र १ । अ १ । अ १ । अ१। सू १। उ १ । क्षी १ । स १ । अ १। सि १॥ अनंतरं गुणस्थानंगळोळ संभवभावंगळ प्रत्येकद्विसंयोगादिभंगंगळ साधिसुवल्लि १० सम्यक्त्वमो दुळ्ळ स्थानदोळ सम्यक्यांतरमिल्ल । चारित्रमों दुळ्ळेडयोळ चारित्रांतरमिल्लेबुदनवधरिसुउदु ।।। मतमा भंगंगळंतप्पलि विशेषमं पेन्दपरु : मिच्छदुगयदचउक्के अट्ठाणेण खइयठाणेण । ___ जुदपरजोगजभंगा पुध आणिय मेलिदव्वा हु॥८३३॥ मिथ्यादृष्टिद्वयासंयतचतुष्केऽष्टस्थानेन क्षायिकस्थानेन । युतपरयोगजभंगाः पृथगानीय १५ मेलयितव्याः खलु ॥ मिथ्यादृष्टियोळ सासादननोळचरहिताष्टस्थानदोडने कूडिद परसंयोगजनित भंगंगळ. बेर तंदु बळिक राशियोळ कूडिको बुदु । असंयतादि चतुर्गुणस्थानंगळोळ क्षायिकसम्यक्त्वस्थानदोडने कूडिद परसंयोगजनितभंगंगळ बेर तंदु तंतंम राशिय भंगंगळोळ, कूडिकोळ. ल्पडुवुबु ।। पारिणामिकभावो मिथ्यादृष्टी जीवत्वभव्यत्वं जीवत्वाभव्यत्वमिति द्विस्थानः । शेषगुणस्थानेषु सिद्धे च जीवत्वभव्यत्वमित्येवस्थान एव । अग्रे गुणस्थानेषु प्रत्येकद्विसंयोगादीन् वक्तुमाह-सम्यक्त्वयुतस्थाने सम्यक्त्वांतरं चारित्रयुतस्थाने चारित्रांतरं च नास्ति ॥८३२॥ पुन:___ मिथ्यादृष्ट्यादिद्वये चक्षुरूनाष्टस्थानयुतान् असंयतादिचतुष्के क्षायिकसम्यक्त्वस्थानयुतांश्च परसंयोगज. मिथ्यादृष्टि में पारिणामिक भावके दो स्थान हैं-जीवत्व भव्यत्व और जीवत्व अभव्यत्व । शेष गुणस्थानोंमें और सिद्धों में जीवत्व भव्यत्व रूप एक ही स्थान है। आगे गुणस्थानों में प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भेद कहने के लिए कहते हैं -सम्यक्त्व सहित स्थानमें अन्य सम्यक्त्व नहीं होता। चारित्र सहित स्थानमें अन्य चारित्र नहीं होता । अर्थात् जहाँ उपशम सम्यक्त्व होता है वहाँ वेदक या क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता ।।८३२|| मिथ्यादृष्टि सासादनमें चक्षुदर्शन रहित क्षायोपशमिकके आठके स्थानमें जो औदयिकके भंग कहे हैं उन सहित तथा असंयत आदि चारमें क्षायिक सम्यक्त्वके स्थानमें जो औदयिकके भंग कहे हैं उन सहित परसंयोगी भंगोंको पृथक्-पृथक निकालकर अपनी-अपनी राशिमें मिलावें ॥८३३॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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