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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११७५ धनंतरं संतम्म गुणस्थानदोळ संभवभावस्थानंगळोळक्षसंचारदिदं प्रत्येकद्विसंयोगादिभंगंगळ साधिसि तदा भंगंगळ, गुण्यभंगंगळ्गे गुणकारंगळ क्षेपंगळुमप्पुवेंदु पेळ्दपरु : उदयेणक्खे चडिदे गुणगारा एव होति सव्वत्थ । अवसेसमावठाणेणक्खे संचारिदे खेवा ॥८३४॥ उदयेनाक्षे चळिते गुणकारा एव भवंति सर्वत्र । अवशेषभावस्थानेनाऽझे संचारिते क्षेपाः॥ ५ औवयिकभावस्थानदोडनक्षं संचलिसल्पडुत्तिरला भंगंगळनितुं सर्वत्र प्रत्येकद्विसंयोगत्रि. संयोगादिगळनितुं गुणकारभंगंगळप्पुवु। औदयिकस्थानमं बिटु अवशेषभावस्थानंगळोडनक्ष संचारमागुत्तं विरला प्रत्येकद्विसंयोगादि भंगंगळनितु राशिगे क्षेपकंगळप्पुवु । अदेतेंदोडे मिथ्यादृष्टियोळ चतुर्गतिय लिंग कषायलेश्या संजनितगुण्य भावंगळ्गे पूर्वोक्तचतुरुत्तरद्विशतभंगंगळगे २०४ । इवक्के गुणकारंगळ क्षेपंगळ मते दोडे मिथ्यादृष्टिगे मिश्रभावस्थानंगळ पत्तुमो भत्तवु १० मितु द्विस्थानंगळ औवयिकभावदोळष्टस्थानमोंदु पारिणामिकभावस्थानमरडुमप्पुविवं स्थापिसि मि | औया। यिल्लि औदयिकभावस्थानदोलिट्ट प्रत्येकभंगाक्षं गुणकारमक्कुं। शेष अश भंगान् पृथगानीय स्वस्वराशी निक्षिपेत् ॥८३३॥ उक्तगुण्यानां गुणकारक्षेपावुद्भावयति गुणस्थानं प्रति प्रागुक्तमिश्रीदयिकपारिणामिकभावस्थानानि भंगोल्पादनक्रमेण संस्थाप्य तत्र औदयिकभावस्थानेनाक्षे चलिते सर्वत्र ये भंगास्ते गुणकारा एव स्युः । शेषभावस्थानरक्षे संचारिते तु क्षेपाः स्युः । १५ तद्यथा मिथ्यादृष्टो तत्स्थानानीत्थं संस्थाप्य। मि | भोपा | अत्राष्टकस्य प्रत्येकभंगो गुणकारः शेषा उक्त गुण्योंके गुणकार और क्षेप कहते हैं गुणस्थानोंमें पूर्व में कहे मिश्र औदयिक और पारिणामिक भावके स्थानोंको अक्ष संचार विधानके द्वारा भंग उत्पन्न करनेके लिए क्रमसे स्थापित करो। उनमें औदयिकभावके २० स्थान द्वारा अक्षका संचार करके जो भंग होते हैं उन्हें गुणकार जानो। और शेष भावोंके स्थानों में अक्ष संचार द्वारा जो भंग हों उन्हें क्षेपक जानो। विशेषार्थ-भावोंके जो स्थान कहे हैं उनको यथासम्भव जुदा-जुदा कहना प्रत्येक भंग हैं। उनमें औदयिकके स्थान रूप प्रत्येक भंगको तो गुणकार जानना । शेष भावोंके स्थान रूप प्रत्येक भंगोंको क्षेप रूप जानना। जहाँ दो, तीन आदि भाव स्थानोंका संयोग किया २५ जाये वहां दो संयोगी, तीन संयोगी आदि भंग होते हैं। उनमें भी जहाँ औदयिक भाषके संयोग सहित दो संयोगी आदि भंग होते हैं उन्हें गुणकार रूप जानो। और जिनमें औदयिक भावका संयोग न होकर अन्य भावोंके संयोगसे दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें क्षेपक रूप जानो। जिससे गुणा किया जाता है उसे गुणकार कहते हैं और जिनको मिलाया जाता है उन्हें क्षेपक कहते हैं । सो पहले जो गुण्य कहे थे उनको कहते हैं । क-१४८ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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