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________________ ८५६ गो० कर्मकाण्डे नाकुं गतिर्गाळवं बंद पुटुव निव्र्व्वत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टितिय्यंचरुगळु पेळल्पदृरु- 1 मवगळल्लरुमष्टाविंशतिस्थानं पोरगागि शेषत्रयोविंशत्यादि पंचस्थानंगलं कट्टुवरु | २३ | ए अ । २५ । एप । बिति च प म । अ प २६ । एप । आ उ । २९ । बि ति च प म । अप । ३० । बिति चप । प उ ॥ सासादनरुगळावाव गतिर्गाळद बंदी कम्मं भूमिय एकान्नविंशतिविधनिर्वृत्यपर्य्याप्त रोळेल्लेल्लि पुटुव दोडे तिय्यंग्गतियोळ, संज्ञिपर्य्याप्तगब्भंजकम्मं भूमितिय्यंग्मिथ्या दृष्टियुं मनुष्यपर्याप्तकर्मभूमि मिथ्यादृष्टियं तिष्यंयायुष्यंगळ कट्टि मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसियनंतानुबंधिकषायोदयविद सम्यक्त्वमं केडिसि मृतरागि बंदी पृथ्व्यब्बादर प्रत्येक वनस्प तिविकलत्रयासंज्ञिसंज्ञिनिर्वृत्यपर्य्याप्त जीवंगळोळ, सासादनरागि पुटुवरु । मत्तमा तिर्य्यग्मनुष्य१० प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळम्बद्धायुष्यरुगळाद पक्षदोळ मरणकालदोळनंतानुबंधिकषायोवर्याददं सम्यक्त्वमं के डिसि सासादनरागि तिर्य्यगायुष्यंगळ कट्टि मृतरागि बंदी निव्वृ त्य पर्याप्त तिर्य्यग्जीबंगलोळ. मुंपेदे टुं स्थानंगळोळ निवृत्यपर्य्याप्त सासादनरप्पर । मत्तमीशानकल्पावसानमाद देवळ. मिथ्यात्वपरिणामददं तिर्य्यगायुष्य मुमुनुपाज्जिसि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि अनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वमं केडिसि सासादनरागि मृतरागि बंदी पृथ्व्यध्वा दर प्रत्येक१५ वनस्पतिगळोळु निर्वृत्य पर्थ्याप्तसासादनरप्पक । बद्धायुष्यरल्लद पक्षवोळवर्गळं सासादनरागि तिगायुष्यमं कट्टि मृतरागि बंदु मुंपेदेकेंद्रियंगळोळु किरिदुपातु निर्वृत्यपर्याप्त सासादन. पe । मत्तमा भवनत्रयादि सहस्रार कल्पावसानमाद सुररुं प्रथमनरकमादियागि षष्ठनरकपय्र्यंतनारकरुगळु मिथ्यात्व परिणामंगळदं तिर्य्यगायुष्यमनुपाज्जिसि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वोरिसि अनंतानुबंधिकषायोदर्याददं सम्यक्त्वमं केडिसि स्वस्वलेश्येगळिदं मृतरागि बंदु यो कम्मभूमि २० कर्मभूमिगर्भसंज्ञितिर्यक्षत्पद्यते । ते च एकान्नविंशतिधाचतुर्गत्यागत निर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टयः सर्वाण्यष्टाविंशतिकोनत्रयोविंशतिकादीनि पंच बघ्नंति । अनंतानुबंध्यन्यतमोदयेन प्रथमोपशमसम्यक्त्वं विराध्य सासादना भूत्वा प्राग्बद्ध तिर्यगायुष्का मृत्वा अबद्धायुष्काः केचित्तदैव तिर्यगायुर्बध्वा मृत्वा च कर्मभूमितिर्यग्मनुष्यास्तदा बादरपृथ्व्य प्रत्येक विकलत्रयसंश्यसंज्ञिषु देवास्तदा स्वस्वलेश्याभिरीशानांता बादरपृथ्व्यप्प्रत्येकेषु भवनत्रयादिसहस्रारांता षष्ठनरकांतनारकाश्च कर्मभूमिगभंजसंज्ञितिर्यक्षु च सासादना भूत्वा तिर्यग्मनुष्यगतिपर्याप्तनवविंश तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं । वे चारों गतिसे आकर उत्पन्न हुए उन्नीस प्रकारके तिर्यंच निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि सब अठाईसके बिना तेईस आदि पाँचका बन्ध करते हैं । अनन्तानुबन्ध में से किसी एक कषायके उदयसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी विराधना करके सासादन होकर जिन्होंने पूर्व में तिर्यंचायुका बन्ध किया है वे जीव मरकर, और जिनके पूर्व में आयुबन्ध नहीं हुआ वे अन्त समय में तियंचायुको बाँध मरकर तिर्यंच में उत्पन्न ३० होते हैं । कर्मभूमिया तियंच मनुष्य तो बादर, पृथ्वी, अप्, प्रत्येक वनस्पति, विकलत्रय, और संज्ञी असंज्ञीमें उत्पन्न होते हैं । ईशान पर्यन्त देव अपनी-अपनी लेश्याके साथ मरकर बादर, पृथ्वी, अपू, प्रत्येक वनस्पतिमें उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिकसे लेकर सहस्रार पर्यन्त देव तथा छठे नरक तक नारकी कर्मभूमिया गर्भज संज्ञी तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं । वे सासादन २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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